प्लेग (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू; अनवादक : शिवदान सिंह चौहान, विजय चौहान

The Plague (French Novel in Hindi) : Albert Camus

दूसरा भाग : 1

इसके बाद से, कहा जा सकता है कि प्लेग हम सबकी चिन्ता का विषय बन गई थी। अब तक अपने आसपास होने वाली विचित्र घटनाओं से कोई कितना भी हैरान क्यों न रहा हो, लेकिन हर व्यक्ति जहाँ तक सम्भव था, बदस्तूर अपने काम-धन्धे में लगा हुआ था। और इसमें भी शक नहीं कि वह इसी तरह करता चलता। लेकिन एक बार जब शहर के फाटक बन्द कर दिए गए, तो कथाकार-समेत हममें से हर व्यक्ति ने महसूस किया कि अब हम सब एक ही नाव पर सवार हैं और हममें से हरेक को जीवन की नई परिस्थितियों के मुताबिक़ अपने को ढालना पड़ेगा। इस तरह, मिसाल के लिए अपने प्रियजनों से बिछुड़ने की पीड़ा-जैसी एकदम निजी अनुभूति एकाएक एक ऐसी सार्वजनिक अनुभूति बन गई थी, जिसमें सभी सहभागी थे और भय के साथ-साथ यह निर्वासन के आने वाले लम्बे दौर-सी सबसे गहरी यंत्रणा देने वाली अनुभूति बन गई थी।

फाटकों के बन्द होने का सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ कि लोग अचानक एक-दूसरे से बिछुड़ गए। वे इस आकस्मिक घटना के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। माताएँ और बच्चे, प्रेमी, पति और पत्नियाँ, जिन्हें कुछ दिन पहले पक्का यही लगता था कि वे कुछ ही दिनों के लिए एक-दूसरे से बिछुड़ रहे हैं, जिन्होंने प्लेटफार्म पर एक-दूसरे को चूमकर विदाई ली थी और इधर-उधर की मामूली बातें की थीं, उन्हें यक़ीन था कि कुछ दिनों या ज़्यादा-से-ज़्यादा कुछ हफ़्तों बाद वे फिर मिलेंगे, निकट भविष्य में मानव की अन्धी आस्था ने उन्हें ठग लिया था। विदाई के बाद भी उनकी जीवनचर्या में कोई खास फ़र्क नहीं आया था, लेकिन बिना किसी चेतावनी के अब वे अपने को असहाय रूप से एक-दूसरे से दूर पा रहे थे। वे न एक-दूसरे से मिल सकते थे, यहाँ तक कि एक-दूसरे से पत्र-व्यवहार भी नहीं कर सकते थे। दरअसल जनता को सरकारी हुक्म की ख़बर होने से कुछ घंटे पहले ही फाटक बन्द हो चुके थे। ज़ाहिर था कि किसी भी व्यक्ति की तकलीफ़ पर कोई ध्यान नहीं दिया जा सकता था। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस भयानक महामारी का सबसे पहला असर यह हुआ कि हमारे शहर के लोग इस तरह से आचरण करने को मजबूर हो गए जैसे उनमें व्यक्तिगत भावनाएँ हों ही नहीं। उस दिन जब हक्म जारी हुआ कि कोई भी शहरी शहर से बाहर न जाए, दोपहर से पहले ही प्रीफ़ेक्ट के दफ्तर में प्रार्थियों की भीड़ लग गई। सबके पास शहर छोड़ने के अकाट्य तर्क मौजूद थे, लेकिन किसी की भी अरजी पर गौर नहीं किया जा सकता था। हमें इस बात का पूरा एहसास कुछ दिनों के बाद हुआ कि हम एकदम संकट में घिर गए थे और 'विशेष इन्तज़ाम', 'मेहरबानी' और 'तरजीह' जैसे शब्द बिलकुल बेमानी हो गए थे।

यहाँ तक कि हमें पत्र लिखने के सन्तोष से भी वंचित कर दिया गया था। यानी, अब हालत यह हो गई थी। न सिर्फ हमारे शहर का बाहर की दुनिया से सम्बन्ध टूट गया था, बल्कि एक नए हुक्म के मुताबिक़ सारा पत्र-व्यवहार बन्द कर दिया गया था ताकि पत्रों के जरिये प्लेग की छूत शहर से बाहर न चली जाए। शुरू के दिनों में कुछ लोगों ने, जिनकी पहुँच थी, सन्तरियों को राज़ी कर लिया था कि वे फाटक के बाहर की दुनिया को सन्देश भेज सकें। लेकिन यह तो महामारी के शुरू के दिनों की बात है जब सन्तरी अपनी मानवीय भावनाओं के अनुसार चलना स्वाभाविक समझते थे। बाद में जब इन्हीं सन्तरियों को स्थिति की भयंकरता से अवगत कराया गया तो उन्होंने किसी भी ऐसे काम की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया जिसका कोई भी भयंकर नतीजा निकल सकता था। शुरू में तो दूसरे शहरों में टेलीफ़ोन करने की इजाज़त थी, लेकिन सरकारी टेलीफ़ोन बूथों पर लोगों की इतनी भीड़ जमा होने लगी और लाइन मिलने में इतनी देरी होने लगी कि बाद में अधिकारियों ने इस पर भी रोक लगा दी और इसके बाद मृत्यू, शादी या बच्चा पैदा होने की सूचना देने तक ही, जिन्हें वे 'अर्जेन्ट केस' कहते थे, टेलीफ़ोन का उपयोग सीमित कर दिया गया। तब हम लोगों को टेलीग्राम का आश्रय लेना पड़ा। गहरी मित्रता, स्नेह या शारीरिक प्रेम से जो लोग जुड़े हुए थे, उन्हें तार के दस शब्दों की सीमा में ही अपने पुराने सम्बन्धों की निशानी खोजनी पड़ती थी। और चूंकि, व्यवहारतः, टेलीग्राम में कुछ इने-गिने शब्द ही भेजे जा सकते हैं, इसलिए दीर्घ-कालीन जीवन सम्बन्ध या आवेगपूर्ण आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कुछ हल्के और टकसाली शब्दों तक ही सिमटकर रह गई, जैसे “स्वस्थ हूँ। हमेशा तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूँ। प्यार।"

फिर भी हममें से कुछ लोग पत्र लिखने में लगे रहे और बाहर की दुनिया से सम्पर्क स्थापित करने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाने में काफ़ी वक़्त गुज़ारने लगे। लेकिन ये तरकीबें कभी कामयाब न हो पातीं, अगर किसी खास मौके पर वे कामयाब हो जाती होंगी, तो भी हमें इसका पता नहीं चलता था, क्योंकि बाहर से कोई जवाब नहीं आता था। नौबत यहाँ तक पहुँची कि हम लोग हफ़्तों तक अपने लिखे एक ही पत्र को बार-बार टकटकी बाँधकर देखने लगे, एक-सी ही ख़बरों या निजी आग्रहों को बार-बार नक़ल करके लिखने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि जिन सजीव शब्दों में हमने अपने हृदय का सारा रक्त उँडेल दिया था, वे एकदम निरर्थक हो गए। इसके बाद हम यंत्रवत उनको बार-बार नक़ल करके उन बेजान शब्दों के जरिये अपनी मुसीबतों का हाल बयान करने की कोशिश करते रहे। आख़िरकार, इन बेमानी, बार-बार दुहराये गए एकालापों, कोरी दीवार से बातें करने की बेकार कोशिशों से तो टेलीग्राम के नपे-तुले क्षुद्र फार्मूले ही ज़्यादा अच्छे लगने लगे।

इसके अलावा कुछ दिनों बाद जब यह साफ़ ज़ाहिर हो गया कि कोई भी हमारे शहर से बाहर निकलकर जाने की उम्मीद नहीं कर सकता लोगों ने यह पूछताछ शुरू कर दी कि जो लोग महामारी फैलने से पहले बाहर चले गए थे, क्या उन्हें फिर वापस आने की इजाज़त दी जा सकेगी?

कुछ दिनों तक विचार करने के बाद अधिकारियों ने 'हाँ' में उत्तर दिया। लेकिन उन्होंने बताया कि लौटकर आने वाले लोगों को फिर किसी भी अवस्था में दोबारा शहर छोड़कर बाहर जाने की इजाजत नहीं दी जाएगी; उन्हें हर हालत में फिर यहीं रहना पड़ेगा। कुछ परिवारों ने, जिनकी संख्या कम थी, इस बात को महत्त्व नहीं दिया और अपने परिवार के गैरहाजिर सदस्यों से मिलने की जल्दी में, विवेक को ताक पर रखकर, तार भेज दिए कि वे वापस लौटने के इस मौके से फ़ौरन फ़ायदा उठाएँ। लेकिन जल्द ही प्लेग के इन कैदियों ने महसूस किया कि ऐसा करने से उनके रिश्तेदारों की जान भी कितने ख़तरे में पड़ जाएगी और उन्होंने दुखी मन से उनकी गैरमौजूदगी को झेलना क़बूल कर लिया। जिन दिनों प्लेग अपने पूरे ज़ोर पर थी, उन दिनों हमने सिर्फ एक ही ऐसा मामला देखा जिसमें प्राकृतिक भावनाओं ने मौत के डर से एक दुखदायी रूप में काबू पाने की कोशिश की थी। जैसी आशा की जा सकती है, यह दो नौजवान प्रेमियों का मामला नहीं था, जिनके भावुक और जोशीले प्रेम ने हर तरह की पीड़ा की कीमत चुकाकर भी एक-दूसरे की निकटता पाने की आकांक्षा को दुर्दमनीय बना दिया हो। ये दोनों डॉक्टर कास्तेल और उसकी पत्नी थे और उनकी शादी को बहुत साल हो चुके थे। प्लेग फैलने से कुछ ही दिन पहले मदाम कास्तेल नज़दीक के एक शहर में किसी से मिलने के लिए गई थीं। उनका दार्बी और जोन-जैसा आदर्श विवाहित जोड़ा भी नहीं था बल्कि, कथाकार के पास यह कहने का आधार है कि सम्भवत: डॉक्टर कास्तेल और उसकी पत्नी, इन दोनों को यह विश्वास नहीं था कि अपनी शादी से उन्हें वह सब प्राप्त हुआ है जिसकी कामना की जा सकती है। लेकिन इस निरंकुश, लम्बी जुदाई ने उन्हें यह महसूस करने का मौक़ा दिया कि वे एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते, और इस चेतना की आकस्मिक दीप्ति में उन्हें प्लेग का ख़तरा नगण्य दिखाई दिया।

यह एक अपवाद था। अधिकांश लोगों के आगे यह साफ़ था कि महामारी के ख़त्म होने तक उनकी जुदाई ज़रूरी है। और हममें से हरेक को लगा कि उसके जीवन की सबसे बड़ी भावना ने जिसके बारे में उसका ख़याल था कि वह उसे बखूबी जानता है (हम पहले ही कह चुके हैं कि ओरान के लोगों की भावनाएँ बड़ी सरल हैं)-एक नया ही रूप धारण कर लिया। ऐसे पति, जिनको अपनी पत्नियों पर पूरा विश्वास था, यह देखकर हैरान रह गए कि वे खुद भी उतने ही वफ़ादार बन गए थे और प्रेमियों को भी ऐसा ही अनुभव हुआ। जो पुरुष डॉन जुआन बनने की कल्पना किया करते थे, वफ़ादारी की मिसाल बन गए थे। साथ रहते हुए जिन बेटों ने कभी अपनी माताओं के चेहरों की ओर आँख उठाकर देखना भी पसन्द नहीं किया था, अब स्मृतिपटल पर उनके अनुपस्थित चेहरों की हर झरों को हार्दिक वेदना से याद करते थे। इस कठोर और बेरहम जुदाई ने भविष्य में हमारे लिए और क्या लिखा है, इसकी अज्ञानता ने हमें अचानक ही हक्का-बक्का कर दिया था और हम उन लोगों की ख़ामोश आरजू-मिन्नतों के प्रति, जो अभी तक इतने नज़दीक थे, लेकिन भौतिक रूप से इतने दूर थे और जिनकी याद हमें दिन-रात सताया करती थी, किस तरह व्यवहार करें, यह नहीं समझ पा रहे थे। दरअसल, हमारी यंत्रणा दोहरी थी; एक तो अपनी और दूसरी उन गैर-मौजूद बेटों, माताओं, पत्नियों या प्रेमिकाओं की कल्पित यंत्रणा।

और किन्हीं परिस्थितियों में हमारे नगरवासी शायद अपनी क्रियाशीलता बढ़ाकर, सामाजिक जीवन में अधिक सक्रिय भाग लेकर अपनी घुटन दूर कर लेते। लेकिन प्लेग ने उनको निष्क्रिय बनने के लिए मजबूर कर दिया था, उनका घूमना-फिरना सिर्फ उस शहर की सीमा के भीतर ही बाँध दिया और इस तरह उन्हें अपनी स्मृतियों के सहारे सन्तोष और राहत पाने के लिए विवश कर दिया। निरुददेश्य सैर करते हुए वे बारबार उन्हीं सड़कों पर पहुँच जाते थे जहाँ से कुछ देर पहले गुज़रे थे, और चूंकि शहर छोटा है, इसलिए ये अक्सर वे ही सड़कें होती थीं, जिन पर खुशी के दिनों में वे उनके साथ घूमे थे जिनसे आजकल जुदा हो गए थे।

इस तरह प्लेग ने पहले हमें निर्वासन का दंड दिया। कथाकार को विश्वास है कि वह यह दावा कर सकता है कि सब लोगों को ऐसा ही एहसास हुआ था। खुद उसने तो यह महसूस किया ही था, उसके सारे दोस्तों ने भी यह बात क़बूल की थी। इसमें शक नहीं कि यह निर्वासन की अनुभूति थी-अपने दिलों में खालीपन का वह एहसास जिसने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा, गुज़रे ज़माने की याद करके उसमें खो जाने या फिर वक़्त की रफ़्तार को तेज़ कर देने की वह तर्कशून्य आकांक्षा और स्मृति के वे झोंके जो चिनगारियों की तरह बदन में चुभते थे। हम लोग कभी-कभी अपनी कल्पना से खिलवाड़ भी करते रहते थे, इन्तज़ार में बैठ जाते थे कि शायद किसी के लौटकर आने की सूचना देने के लिए घंटी अब बजने ही वाली है, या किसी की परिचित पगध्वनि जीने पर बस सुनाई देने वाली है; लेकिन चाहे हम जान-बूझकर उस समय घर पर ही रह जाते हों, जिस वक़्त शाम की गाड़ी से लौटने वाले यात्री आमतौर पर पहुँचते थे और चाहे हम एक क्षण के लिए यह भुला देते हों कि ट्रेनें अब चलती ही नहीं, फिर भी, ज़ाहिर है कि झूठ-मूठ विश्वास करने का यह खेल अधिक दिन तक नहीं चल सकता था। हमेशा कोई-न-कोई ऐसा मौक़ा आ जाता जब हमें इस तथ्य का सामना करना पड़ जाता था कि आजकल सभी ट्रेनों का आना-जाना बन्द है। और फिर हमें एहसास हुआ कि यह जुदाई अभी और जारी रहेगी, इसलिए भविष्य के साथ समझौता करने के अलावा हमारे पास कोई चारा न रहा। अर्थात हम फिर अपने कैदखाने में लौट आए और अतीत के सिवा हमारे पास कुछ न रहा। अगर कुछ लोगों को भविष्य में रहने का लोभ होता भी था तो जैसे ही-जितनी जल्दी एक बार वे यह महसूस कर लेते थे कि जो अपने को कल्पना के हवाले कर देते हैं, वे ज़ख़्मी हो जाते हैं उन्हें फ़ौरन यह ख़याल छोड़ देना पड़ता था।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमारे शहर के लोग जल्द ही एक बात को भूल गए। उन्होंने सार्वजनिक रूप से भी इसे व्यक्त नहीं किया। उनसे उम्मीद की जा सकती थी कि शायद वे अपने निर्वासन-काल का अनुमान लगाने की कोशिश करेंगे और इस आदत को जारी रखेंगे। उसकी वजह यह थी। जब घोर निराशावादियों ने कहा कि प्लेग छह महीने तक रहेगी, जब उन्होंने शोकपूर्ण छह महीने की कटुता का स्वाद पहले से ही कल्पना में चख लिया और बड़े कष्ट से अपने साहस को बर्दाश्त की सीमा तक पहुँचा दिया, आने वाले हफ़्तों और दिनों की लम्बी यातना में रहने के लिए अपनी बचीखुची शक्तियों को भी एकत्रित कर लिया, जब ऐसा करने के बाद किसी दोस्त की बातचीत से या किसी अख़बार के लेख को पढ़कर उनके मन में एक अस्पष्ट आशंका या दूरदर्शिता कौंध जाती थी और कल मिलाकर उन्हें लगता था कि कोई कारण नहीं है कि महामारी छह महीने से ज़्यादा नहीं चलेगी; एक साल या उससे भी ज़्यादा अरसे तक क्यों नहीं चल सकती?

ऐसे क्षणों में उनका साहस, सहन-शक्ति और इच्छा-शक्ति इतनी जल्दी शिथिल पड़ जाती थी कि उन्हें लगता था कि वे ज़िन्दगी में कभी अपने को निराशा और अवसाद की दलदल से नहीं निकाल पाएँगे जिसमें वे गिर गए थे। इसलिए वे कभी अपने को मुक्ति के दिन की कल्पना के लिए मजबूर नहीं करते थे जिसके रास्ते में बहुत-सी कठिनाइयाँ थीं। उन्होंने भविष्य में देखना भी छोड़ दिया था और अब हमेशा उनकी नज़रें अपने पैरों के नीचे की धरती पर रहती थीं। लेकिन इस बुद्धिमत्ता और अपनी दुर्दशा के साथ इस झूठे खेल की आदत से भी कोई नतीजा न निकला जैसा कि स्वाभाविक ही था। क्योंकि स्मृतियों के खिंचाव से, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सकते थे, उन्होंने बचने की कोशिश की, इसलिए वे उन सुखद क्षणों की कल्पना से भी वंचित रह गए जिनके दवारा वे मन-ही-मन भावी मिलन की तस्वीरें बनाकर प्लेग के विचारों से मुक्ति पा सकते थे। इस तरह इन ऊँची और नीची सतहों में वे ज़िन्दगी की धारा में बहते रहे। इसे जीना नहीं कहा जा सकता था। वे निरुद्देश्य दिनों और ऊसर स्मृतियों के शिकार हो गए थे। वे उन भटकती छायाओं की तरह थे जो सिर्फ अपने अवसाद की ठोस धरती पर जड़ पकड़कर ही मूर्त रूप धारण कर सकती थीं।

इसी तरह उन्हें सभी कैदियों और निर्वासितों के असाध्य शोक का भी एहसास हुआ जिन्हें सदा ऐसी स्मृतियों के साथ रहना पड़ता है जो बेमानी होती हैं। यहाँ तक कि अतीत में भी जिनके बारे में वे लगातार सोचते रहते थे, सिर्फ़ पश्चात्ताप की अनुभूति थी। उनके अतीत में जो भी अपूर्णता रह गई थी वे कल्पना में उसकी कमी को उन मर्दो या औरतों के साथ मिलकर पूरा कर देना चाहते थे जिनके लौटने की राह वे देख रहे थे। अपने सभी कामों में, यहाँ तक कि अपेक्षाकृत सुखद कामों में भी, वे कैदियों की-सी ज़िन्दगी बसर करते हुए अपने अनुपस्थित साथियों को शामिल करने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे। इस तरह उनकी ज़िन्दगी में हमेशा किसी-न-किसी बात की कमी रहती थी। अतीत के प्रति मन में वैर था, वर्तमान के प्रति अधीरता थी और लगता था जैसे किसी ने धोखे से हमारा भविष्य छीन लिया है। हमारी हालत उन कैदियों-जैसी थी जिन्हें इनसान का इंसाफ़ या नफ़रत जेलों के सीखचों में रहने के लिए मजबूर करती है। ऐसी स्थिति में उस असहनीय अवकाश से मुक्ति पाने का सिर्फ एक ही रास्ता था। वह यह कि कल्पना में ट्रेनों को फिर से दौड़ाया जाए और ख़ामोशी की रिक्तता को भरने के लिए दरवाज़े की घंटी के बजने की कल्पना की जाए जो आजकल हठपूर्वक ख़ामोश रहती थी।

फिर भी अगर यह निर्वासन था, तो हम अधिकांश लोग अपने घर के भीतर ही निर्वासित थे। हालाँकि कथाकार को भी सबकी तरह निर्वासन झेलना पड़ रहा था, फिर भी उसे पत्रकार रेम्बर्त और उसके-जैसे अन्य लोगों की दुर्दशा नहीं भूली थी जिन्हें जीवन की सुख-सुविधाओं से और भी अधिक वंचित रहना पड़ गया था। वे मुसाफ़िर थे और प्लेग की वजह से वे जहाँ थे उन्हें वहीं रुकने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वे अपने घरों और प्रियतमाओं से दूर थे। निर्वासितों में भी वे सबसे अधिक निर्वासित थे। सब लोगों की तरह वे भी समय के चक्र से त्रस्त थे, उनके लिए जगह का मसला भी था; वे प्रतिक्षण इस विशाल और विदेशी कैदखाने की दीवारों पर अपना सिर पटकते थे जिसने कोढ़ियों की बस्ती की तरह उन्हें उनके खोये हुए घरों से अलग कर दिया था। निस्सन्देह, यही वे लोग थे जिन्हें हम अक्सर सारा वक़्त धूल-भरे शहर में अकेले भटकते देखते थे। वे ख़ामोशी से अपने सुखी देश की उन शामों और प्रभातों की कामना किया करते थे जिनका सौन्दर्य केवल वे ही जानते थे। वे अपनी निराशा को क्षणिक सूचनाओं और सन्देशों पर पालते थे जो चिड़ियों की उड़ान की तरह, सूर्यास्त की ओस की तरह या सूरज की उन किरणों की तरह, जो कभी-कभी ख़ाली सड़कों को चितकबरा बनाती हैं, निरर्थक और विच्छिन्न थे। उन्होंने बाहर की दुनिया से आँखें मूंद ली थीं, जबकि यह दुनिया हमेशा हर तरह के विचारों से मुक्ति दिला सकती है। वे तो अपनी कल्पना के सच्चे प्रेतों को पालने पर तुले हुए थे और अपनी समस्त शक्ति लगाकर एक ऐसे देश की तस्वीरों की कल्पना में डूबे थे जिसमें प्रकाश की किरणें एक ख़ास ढंग से छिटकी थीं, दो या तीन पहाड़ियाँ थीं, उनकी पसन्द का एक वृक्ष था, एक स्त्री की मुस्कान थी, इस दुनिया की कमी को कोई दुनिया पूरा नहीं कर सकती थी।

आख़िर में हम उन विरही प्रेमियों का खासतौर पर जिक्र करेंगे जिनकी कहानी बेहद दिलचस्प है और जिनके बारे में कहने का शायद कथाकार को अधिकार भी है। उनके मन में तरह-तरह की भावनाएँ उठ रही थीं, जिनमें पश्चात्ताप की भावना अधिक थी। उनकी मौजूदा स्थिति ऐसी थी कि वे पूरे जोश से अपनी भावनाओं का यथार्थ विवेचन कर सकते थे। ऐसी हालत में उनके लिए अपनी खामियों को न देख सकना असम्भव था। सबसे पहले ये भावनाएँ उनके मन में तब उठीं जब उन्हें इस बात का सही अनुमान लगाने में कठिनाई हुई कि उनका दूसरा साथी क्या कर रहा है? अब उन्हें अपने इस अज्ञान पर अफ़सोस होने लगा कि वे यह भी भूल गए हैं कि उनका प्रेमी या प्रेमिका किस तरह अपना वक़्त गुज़ारते थे। उन्हें यह सोचकर आत्मग्लानि हुई कि उन्होंने अतीत में इस बात की तरफ़ ध्यान क्यों नहीं दिया। वे क्यों सोचते रहे कि एक प्रेमी के लिए जब वह अपनी प्रेयसी के साथ नहीं रहता तो प्रेयसी के कार्यकलाप के प्रति उसके मन में हर्ष के बजाय उदासीनता क्यों पैदा होती है। इस बात का एहसास होते ही वे अपने प्रेम के इतिहास को नए सिरे से देख सकते थे और जान सकते थे कि किस जगह उनके प्रेम में कसर रह गई थी। साधारण परिस्थितियों में हम सब चेतन या अचेतन रूप से जानते हैं कि कोई प्रेम ऐसा नहीं जिसमें बेहतरी की गुंजाइश न हो। फिर भी हम कुछ हद तक इस सत्य से समझौता कर लेते हैं कि हमारा प्रेम कभी औसत स्तर से ऊपर नहीं उठ सका। लेकिन हमारी स्मृति समझौते के लिए तैयार नहीं होती। निश्चित रूप से इस मुसीबत ने जो बाहर से आकर सारे शहर पर छा गई थी, जिसकी वजह से हमें बहुत-सी तकलीफें सहनी पड़ी थीं जो इतनी नाजायज़ थीं कि उन पर क्षुब्ध होना स्वाभाविक ही था। इसने हमें स्वयं अपने लिए यंत्रणा उत्पन्न करने को प्रेरित किया जिससे हम कंठा को ही स्वाभाविक स्थिति समझने लगे। यह भी महामारी की एक चाल थी, जो उसने हमारा ध्यान असली समस्याओं से हटाने और हमारे दिमाग में उलझन पैदा करने के लिए चली थी।

इस तरह से हम सबको विशाल आकाश की उदासीनता तले एकान्त में दिन गुज़ारने के लिए मजबूर होना पड़ा था। भलाए जाने की यह अनुभूति जो शायद उचित मौके पर लोगों के चरित्र में परिष्कृति पैदा कर सकती थी, उनका जीवन-रस सोखकर उन्हें निकम्मा बनाने लगी। मिसाल के लिए हमारे कुछ साथी नागरिक एक विचित्र किस्म की गुलामी के शिकार हो गए, जिसने उन्हें सूरज और बारिश के रहम पर छोड़ दिया था। उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे ज़िन्दगी में पहली बार उन्हें मौसम की अच्छाई-बुराई का एहसास हो रहा हो। सूरज की कुछ किरणों का फूटना ही उनके मन में संसार के लिए उल्लास भर देने के लिए काफ़ी था, जबकि बारिश के दिनों में उनके चेहरों और मूड पर भी एक काली छाया आ जाती थी। कुछ हफ़्ते पहले वे मौसम की इस हास्यास्पद गुलामी से आज़ाद थे, क्योंकि उन्हें ज़िन्दगी से अकेले नहीं जूझना पड़ता था। वे जिस व्यक्ति के साथ रहते थे वह कुछ सीमा तक उनके छोटे-से संसार की तस्वीर के अगले हिस्से में छाया रहता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई थी। उन्हें लगता था कि वे आकाश की मर्जी के रहम पर हैं। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि उनकी पीड़ा और आशाएँ तर्कहीन थीं।

इसके अलावा एकान्त की इस पराकाष्ठा में कोई भी अपने पड़ोसी से कोई मदद पाने की आशा पर निर्भर नहीं कर सकता था। सभी को अपनी मुसीबतों का बोझ खुद उठाना पड़ रहा था। अगर, संयोगवश, हममें से कोई दूसरों के सामने अपनी भावनाओं की बात करता या मन का बोझ हल्का करने की कोशिश करता तो उसे हमेशा ऐसा जवाब मिलता था जिसे सुनकर आमतौर पर उसे सदमा पहुँचता था चाहे वह जवाब कैसा भी हो। फिर उसे अचानक एहसास होता था कि वह जिस आदमी से बात कर रहा है उसके मन में कोई और ही बात है। अपने व्यक्तिगत अवसाद पर लगातार कई दिन तक सोचने-विचारने के बाद अगर कोई अपने मन की उस तस्वीर को, जिसे उसने पश्चात्ताप और तीव्र भावना की आग में डालकर आकार प्रदान किया था, किसी दूसरे को दिखाना चाहता था तो दूसरा आदमी उसकी बिलकुल कद्र नहीं करता था, बल्कि उसको इस तस्वीर में रूढ़िगत और साधारण भावना दिखाई देती थी-ऐसा दुख जिसे बड़े पैमाने पर तैयार करके हाट-बाज़ार में बेचा जा रहा हो। जवाब चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, उसमें गरमाई नहीं होती थी, और अपने दिल की बात बताने की कोशिश छोड़ देनी पड़ती थी। यह बात कम-से-कम उन पर तो लागू होती ही थी जो ख़ामोश रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। और बाक़ी लोग चूँकि उपयुक्त, भावव्यंजक शब्द तलाश ही नहीं कर सकते थे, इसलिए वे आम टकसाली भाषा का इस्तेमाल करके ही सन्तुष्ट हो गए–वर्णन और चुटकुलों की उस सीधीसादी चलताऊ भाषा का या अपने दैनिक अखबार की भाषा का। इसलिए ये लोग भी अपने सच्चे और गहरे दुख को मामूली बोलचाल की भाषा के जरिये ही व्यक्त करते थे। इन नपे-तुले शब्दों का इस्तेमाल करके ही प्लेग के ये सब कैदी अपने चौकीदारों या सुनने वालों की हमदर्दी पाने की उम्मीद कर सकते थे।

फिर भी-और यह बात महत्त्वपूर्ण है कि उनकी यंत्रणा चाहे जितनी कटु और उनके हृदय चाहे जितने भारी रहे हों, अपने हृदय की रिक्तता के बावजूद प्लेग के आरम्भिक दिनों में तो कम-से-कम ये निर्वासित नागरिक एक तरह से अपने को खुशक़िस्मत समझ सकते थे। ऐसे क्षणों में जब शहर के लोगों में घबराहट फैली थी, इन लोगों के विचार पूरी तरह से उस व्यक्ति पर केन्द्रित थे जिससे मिलने के लिए वे बेचैन थे। प्यार के अहंकार के कारण जनसाधारण के दुख-दर्द ने उन पर कुछ असर नहीं किया था, प्लेग के बारे में वे सिर्फ यही सोचते थे कि कहीं उसकी वजह से उनकी जुदाई अनन्त न हो जाए। महामारी के ऐन बीचोबीच भी उन्होंने एक उदासीनता अख्तियार कर ली थी जिसे देखकर आत्मविश्वास होने का भ्रम होता था। उनके अवसाद ने उन्हें घबराहट से बचा लिया था। इस तरह उनकी मुसीबत का भी एक अच्छा पहलू था। मिसाल के लिए अगर उनमें से कोई महामारी का शिकार हो जाता तो उसे इस दुर्भाग्य का एहसास तक न होता। किसी स्मृति के प्रेत के साथ लम्बे और मौन सम्पर्क के बाद अचानक वह सबक गहनतम मौन में विसर्जित हो गया। उसके पास किसी बात के लिए वक़्त नहीं रहा था।

दूसरा भाग : 2

जब हमारे शहर के लोग संसार से अपने इस अप्रत्याशित अलगाव से समझौता करने की कोशिश कर रहे थे प्लेग की वजह से शहर के फाटकों पर सन्तरी बिठा दिये गए थे और ओरान आने वाले जहाज़ों को वापस भेजा जा रहा था। जब से फाटक बन्द हुए थे, बाहर की कोई गाड़ी शहर में दाख़िल नहीं हुई थी। उस दिन के बाद से ऐसा लगता था जैसे सब कारें गोल दायरे में चक्कर काट रही हों। बलेवारों के ऊपरी हिस्से से देखने पर बन्दरगाह का दृश्य भी विलक्षण मालूम होता था। तमाम व्यापारिक हलचलें, जिनकी वजह से ओरान समुद्र-तट का प्रमुख बन्दरगाह बन गया था, अचानक रुक गई थीं। सिर्फ कुछ जहाज़, जिनके यात्रियों पर यात्रा का प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, लंगर डाले खाड़ी में खड़े थे। लेकिन घाटों पर खड़ी क्षीणकाय निकम्मी क्रेनें, माल ढोने के उलटे हुए वैगन, बोरों और पीपों के लापरवाही से बिखरे हुए ढेर-सब इस बात की गवाही दे रहे थे कि व्यापार भी प्लेग से मर चुका है।

ऐसे असाधारण दृश्यों के बावजूद ऊपरी तौर पर देखने से लगता था कि हमारे शहर के लोगों को अपनी असली स्थिति का एहसास होने में दिक़्क़त हो रही थी। भय और जुदाई तो ऐसी भावनाएँ थीं, जिनमें सब लोग साझीदार हो सकते थे, लेकिन उनके विचारों में अभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ ही प्रमुख थे। इस बीमारी का सचमुच क्या मतलब है, इस बात को कोई अपने-आपसे क़बूल नहीं करना चाहता था। अधिकतर लोग सिर्फ उन्हीं बातों के बारे में सचेत थे, जिन्होंने उनके जीवन के साधारण कार्यक्रम को भंग कर दिया था या जो उनके स्वार्थों को आघात पहुँचा रही थीं। वे या तो परेशान होते थे या नाराज़-लेकिन इन भावनाओं से प्लेग का मुकाबला तो नहीं किया जा सकता था। मिसाल के लिए, उनकी पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि उन्होंने अधिकारियों को गालियाँ बकना शुरू कर दी। अख़बार हर रोज़ प्रीफ़ेक्ट की नुक्ताचीनी करते हुए पूछते थे क्या नियमों में संशोधन करके उनकी सख्ती कम नहीं की जा सकती? लेकिन यह प्रश्न अप्रत्याशित था। अभी तक न तो अख़बारों को न रेंसदाक सूचना ब्यूरो को सरकार की तरफ़ से महामारी के आँकड़े बताए गए थे। अब प्रीफ़ेक्ट हर रोज ब्यूरो को आँकड़े देकर प्रार्थना करता था कि उन्हें हफ़्ते में एक बार ज़रूर प्रसारित किया जाए।

इस मामले पर भी, आशा के विपरीत जनता की प्रतिक्रिया बहुत देर हुई। इस बयान से कि प्लेग के तीसरे हफ्ते में तीन सौ दो मौतें हो चुकी हैं, लोगों की कल्पना को कोई आघात नहीं पहुँचा। एक कारण तो यह था कि हो सकता था ये सारी मौतें प्लेग की वजह से न हुई हों। इसके अलावा शहर में किसी को यह अन्दाज़ नहीं था कि साधारण परिस्थितियों में औसतन एक हफ़्ते में कितनी मौतें होती हैं। शहर की आबादी दो लाख थी। मौत के ये आँकड़े क्या सचमुच इतने ज़्यादा थे यह कोई नहीं जानता था। दरअसल इस तरह के आँकड़ों की कभी भी ज़्यादा परवाह नहीं की जाती, हालाँकि इनका महत्त्व स्पष्ट है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जनता के पास तुलना करने के मानकों की कमी थी। वक़्त के साथ-साथ जब मरने वालों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उनको नज़रअन्दाज़ करना असम्भव हो गया, तब जाकर कहीं जनता को इस सचाई का सही एहसास हुआ। पाँचवें हफ़्ते में तीन सौ इक्कीस मौतें हुईं और छठे हफ़्ते में यह संख्या तीन सौ पैंतालीस तक पहुँच गई। जो भी हो, इन आँकड़ों से स्थिति साफ़ ज़ाहिर होती थी। फिर भी ये आँकड़े इतने सनसनीखेज़ नहीं थे कि हमारे शहर के लोगों का यह भ्रम टूट जाता कि शहर में जो कुछ भी हो रहा है वह एक संयोग है, जो अप्रिय होते हुए भी स्थायी नहीं है, हालाँकि लोग काफ़ी परेशान थे।

सो लोग हमेशा की तरह शहर की सड़कों पर चहलकदमी करते थे और रेस्तराओं की छतों पर बैठते थे। आमतौर पर बुज़दिल नहीं थे, वे बातचीत में रोने-धोने के बजाय मज़ाक़ ज़्यादा करते थे और उनके व्यवहार से ऐसा लगता था कि उन्होंने खुशी-खुशी उस अप्रिय स्थिति को क़बूल कर लिया है जिसे वे अस्थायी समझते थे, अर्थात वे ऊपर से तो निश्चिन्त होने का ही अभिनय करते थे। लेकिन महीने के अन्त में जब प्रार्थना-सप्ताह करीब आया, जिसकी चर्चा हम बाद में करेंगे, तो कई गम्भीर घटनाएँ हो गईं जिनसे शहर की पूरी सूरत बदल गई। सबसे पहले तो प्रीफ़ेक्ट ने ट्रैफिक और खाने-पीने की चीज़ों पर कन्ट्रोल लगा दिया। पेट्रोल राशन पर मिलने लगा और खाने की चीज़ों की बिक्री पर पाबन्दियाँ लगा दी गईं। बिजली का ख़र्च कम करने का हक्म जारी किया गया। सिर्फ़ ज़रूरत की चीजें ही लारियों या हवाई जहाज़ों के जरिये ओरान लाई जाती थीं। इस तरह ट्रैफिक लगातार कम होता गया।

और नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि सड़कों पर प्राइवेट कारें बहुत कम दिखाई देने लगीं। विलासिता की वस्तुओं की दुकानें रातों-रात बन्द हो गईं, और दूसरी दुकानों ने 'सारा माल बिक चुका है' के नोटिस लगा दिए जबकि खरीदारों की भीड़ दुकानों के दरवाज़ों के आगे खड़ी रहकर इन्तज़ार करने लगी।

ओरान की सूरत एकदम बदल गई। सड़कों पर पैदल चलने वाले लोग ज़्यादा नज़र आते थे। फुरसत के वक़्त सड़कों और रेस्तराओं में बहुत से लोग जमा हो जाते थे। इन दिनों वे निकम्मे हो गए थे, क्योंकि बहुत-सी दुकानें और दफ़्तर बन्द हो चुके थे। फ़िलहाल ये लोग बेकार नहीं थे, सिर्फ छुट्टी पर थे। जब मौसम अच्छा रहता था तो दोपहर को तीन बजे के करीब ओरान को देखने से ऐसा लगता था जैसे शहर में सब लोग जश्न मना रहे हों, और जश्न मनाने वालों के लिए सड़कें ख़ाली करने के लिए दुकानें बन्द कर दी गई हों और ट्रैफिक रोक दिया गया हो।

यह स्वाभाविक ही था कि इस स्थिति से सिनेमाघरों को बहुत फ़ायदा पहुँचा और उन्होंने खूब पैसे कमाए। लेकिन उनके सामने एक दिक़्क़त थीनई फ़िल्में कैसे दिखाई जाएँ, क्योंकि शहर में नई फिल्मों का आना बन्द था। पन्द्रह दिन बाद सिनेमाघरों ने आपस में ही फ़िल्मों का तबादला कर लिया और कुछ दिन के बाद वे एक ही फ़िल्म दिखाने लगे। इसके बावजूद उनकी आमदनी में कोई फ़र्क नहीं आया।

रेस्तराँ भी अपने ग्राहकों की माँग पूरी करने में समर्थ थे। दरअसल ओरान शराब-व्यापार का मुख्य केन्द्र था, इसलिए वहाँ शराब का बहुत-सा स्टॉक जमा था। सच पूछिए तो लोग बहुत ज़्यादा शराब पीने लगे थे। एक रेस्तराँ वाले के दिमाग में एक शानदार विचार आया और उसने रेस्तराँ के बाहर एक नारा लिखकर टाँग दिया : “बढ़िया शराब की बोतल प्लेग की छूत से बचने का सबसे अच्छा तरीक़ा है।" लोगों की यह धारणा और भी पुष्ट हो गई कि शराब छूत की बीमारी से आदमी को बचा सकती है। हर रात तड़के दो बजे के क़रीब बहुत से लोग नशे की हालत में लड़खड़ाते हुए क़दमों से रेस्तराओं से उम्मीदें बघारते हुए निकलते।

लेकिन एक माने में ये सारी तब्दीलियाँ इतनी विलक्षण थीं और इतनी जल्दी में हुई थीं कि किसी को यक़ीन ही नहीं हो सकता था कि यह स्थिति कुछ दिनों से ज़्यादा चलेगी। इसके परिणामस्वरूप हम पहले की तरह अपना सारा ध्यान अपनी व्यक्तिगत भावनाओं पर ही केन्द्रित करने लगे।

शहर के फाटकों के बन्द होने के दो दिन बाद जब डॉक्टर रियो अस्पताल से निकला तो सड़क पर उसकी मुलाक़ात कोतार्द से हुई। कोतार्द का चेहरा खुशी और सन्तोष से चमक रहा था। रियो ने कोतार्द को उसके खुश नज़र आने पर बधाई दी।

कोतार्द ने कहा, "हाँ, मैं बिलकुल स्वस्थ हैं। मैंने अपने को कभी इतना स्वस्थ नहीं महसूस किया जितना कि अब करता हूँ। लेकिन डॉक्टर, एक बात बताओ, इस कमबख्त प्लेग के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है? मामला कुछ गम्भीर होता जा रहा है न! जब डॉक्टर ने सिर हिलाकर हामी भरी तो कोतार्द ने प्रफुल्लित स्वर में कहा, “अब इसके थमने की कोई वजह नहीं दिखती। लगता है कि शहर में कोई भयंकर गड़बड़ होने वाली है।"

दोनों जने कुछ दूर तक साथ-साथ गए। कोतार्द ने अपनी गली के एक परचूनिए का क़िस्सा बताया जिसने बाद में बड़ा मुनाफ़ा कमाने के लिए खादय-सामग्री के बन्द डिब्बे जमा रख छोड़े थे। जब एम्बुलेंस गाड़ी वाले उसे उठाने आए तो उसके पलंग के नीचे गोश्त के दर्जनों डिब्बे पाए गए। वह अस्पताल जाकर मर गया। प्लेग में किसी को मुनाफ़ा नहीं हो सकता यह पक्की बात है। कोतार्द को महामारी के बारे में सैकड़ों ऐसे सच्चे और झूठे क़िस्से मालूम थे। उसने एक ऐसे आदमी का क़िस्सा बताया जिसे तेज़ बुख़ार था और प्लेग के सारे लक्षण दिखाई दे रहे थे। वह भागता हुआ सड़क पर आया और उसे जो पहली औरत दिखाई दी, उसे बाँहों में भरकर वह ज़ोर से चिल्लाया कि उसे छूत लग गई है।

“उसके लिए अच्छा ही हुआ!" कोतार्द ने टिप्पणी की, लेकिन उसकी अगली टिप्पणी ने पहले के उल्लासपूर्ण वाक्य को झुठला दिया, “खैर जो भी हो, अगर मैं सोचने में ग़लती नहीं कर रहा तो जल्द ही हम सब पागल हो जाएँगे!"

उसी दिन शाम को ग्रान्द ने आख़िरकार रियो के सामने अपने दिल का बोझ हल्का कर दिया। डेस्क पर रखी श्रीमती रियो की फोटो देखकर उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से डॉक्टर की तरफ़ देखा। रियो ने बताया कि उसकी पत्नी शहर से कुछ दूर एक सेनेटोरियम में इलाज़ के लिए गई है। ग्रान्द ने कहा, “एक माने में यह खुशक़िस्मती है।" डॉक्टर ने भी कहा कि एक माने में यह खुशकिस्मती की बात है, लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसकी पत्नी को स्वस्थ हो जाना चाहिए।

“हाँ, मैं समझ गया।" ग्रान्द ने कहा।

और फिर पहली बार, जब से रियो का ग्रान्द से परिचय हुआ था, ग्रान्द ने दिल खोलकर बातें कीं। उसे अपने भाव व्यक्त करने के लिए उचित शब्द तलाश करने में दिक़्क़त हो रही थी, लेकिन हर बार उसे कोई-न-कोई शब्द मिल ही जाता था। ऐसा लगता था जैसे वह बरसों से इन बातों पर गौर करता रहा हो।

किशोरावस्था में ही उसने एक गरीब पड़ोसी परिवार की लड़की से शादी कर ली थी जो उम्र में बहुत छोटी थी। दरअसल शादी करने की ख़ातिर ही उसने पढ़ाई छोड़कर मौजूदा नौकरी शुरू कर दी थी। न जीन और न वह कभी शहर के उस हिस्से से बाहर निकले थे जहाँ वे रहते थे। कोर्टशिप के दिनों में जब वह जीन से मिलने जाया करता था तो जीन के परिवार के लोग जीन के इस शरमीले और ख़ामोश प्रशंसक का मज़ाक़ उड़ाया करते थे। जीन का पिता रेलवे कर्मचारी था। इयूटी से छुट्टी पाकर अधिकांश वक़्त खिड़की के पास कोने में बैठकर सड़क पर आते-जाते लोगों को देखने में गुज़ारता था। उसके बड़े-बड़े हाथ उसकी जाँघों पर फैले रहते थे। उसकी पत्नी सारा वक़्त घर के कामों में व्यस्त रहती थी जिनमें जीन भी हाथ बँटाती थी। जीन इतनी छोटी थी कि उसे चौराहा पार करते देखकर ग्रान्द का मन घबरा उठता था। उसके सामने से आती हुई गाड़ियाँ भीमकाय दिखाई देती थीं। फिर क्रिसमस से पहले एक दिन वे एक साथ थोड़ी दूर तक सैर करने गए थे और किसी दुकान की सजी हुई खिड़की की तारीफ़ करने के लिए खड़े हो गए थे। कुछ क्षणों तक खिड़की की तरफ़ मुग्धभाव से देखने के बाद जीन ने उसकी तरफ़ मुड़कर कहा था, “ओह! यह कितनी खूबसूरत है!" ग्रान्द ने उसकी कलाई दबाई थी। इस तरह दोनों की शादी हुई थी।

ग्रान्द के विचार में बाक़ी कहानी बहुत सीधी-सादी थी, सब विवाहित जोड़ों की तरह। आपकी शादी होती है। आप कुछ ज़्यादा दिन तक मुहब्बत करते हैं, काम करते हैं। आप इतना ज़्यादा काम करते हैं कि आप मुहब्बत को भूल जाते हैं। चूँकि ग्रान्द के दफ्तर के बड़े अफ़सर ने अपना वादा पूरा नहीं किया था इसलिए जीन को भी बाहर काम करना पड़ता था। इस बात पर आकर, ग्रान्द के मनोभावों को समझने के लिए कल्पना की ज़रूरत थी। थकान की वजह से धीरे-धीरे वह अपने पर से काबू खो बैठा, उसके पास कहने के लिए बहुत कम बातें बचीं। वह अपनी पत्नी में यह भावना जीवित रखने में असमर्थ हो गया कि वह उससे मुहब्बत करता है। काम से थका हुआ पति, गरीबी, बेहतर भविष्य की आशा का लोप हो जाना, घर में बिताई गई ख़ामोश शामें ऐसी परिस्थितियों में भला प्रेम का उन्माद कैसे ज़िन्दा रह सकता था? शायद जीन ने दुख झेले थे। फिर भी वह ग्रान्द के साथ रह रही थी। निश्चय ही इनसान बहुत दिन तक बिना दुख के एहसास के, दुख झेल सकता है। इसी तरह कई साल गुज़र गए। फिर एक दिन जीन उसे छोड़कर चली गई। यह स्वाभाविक ही है कि वह अकेली नहीं गई थी। 'मैं तुम्हें बहुत चाहती थी। लेकिन अब मैं बहुत ज़्यादा थक गई हूँ। मैं खुशी-खुशी नहीं जा रही, लेकिन नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करने के लिए खुशी की ज़रूरत नहीं है।' जीन के पत्र का यही भावार्थ था।

ग्रान्द ने भी दु:ख झेला था। शायद वह भी नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर सकता था जैसा कि रियो ने कहा। लेकिन नहीं वह अपनी आस्था गँवा बैठा था...वह जीन की याद को नहीं भुला पाया था। वह चाहता था कि वह जीन को पत्र लिखकर अपनी सफ़ाई दे।

उसने रियो को बताया, "लेकिन यह आसान नहीं है। मैं बरसों तक इस बारे में सोचता रहा हूँ। जब हम एक-दूसरे को चाहते थे तो हमें एक-दूसरे के मन की बात समझने के लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन कोई भी हमेशा के लिए प्यार नहीं करता। एक ऐसा वक़्त आया जब मुझे जीन को अपने साथ रखने के लिए कुछ शब्द कहने चाहिए थे लेकिन मैं उन शब्दों को ढूँढ़ नहीं सका।" ग्रान्द ने अपनी जेब से एक कपड़ा निकाला, जो देखने में चारखाना झाड़न मालूम होता था, और ज़ोर से अपनी नाक साफ़ की। फिर उसने अपनी मूंछे पोंछीं। रियो ख़ामोशी से उसकी तरफ़ देखता रहा। ग्रान्द ने फ़ौरन कहा, "माफ़ करना डॉक्टर, लेकिन, मैं किन शब्दों में बताऊँ कि मैं क्या कहना चाहता हूँ?–मुझे लगता है कि तुम पर भरोसा किया जा सकता है, इसीलिए मैं ऐसे मामलों के बारे में भी तुमसे बात कर सकता हूँ। और फिर आप देख रहे हैं कि मैं भावुकता में बह जाता हूँ।"

साफ़ ज़ाहिर था कि इस वक्त ग्रान्द के विचार प्लेग से कोसों दूर थे।

उसी शाम को रियो ने अपनी पत्नी को तार दिया जिसमें लिखा था कि शहर के फाटक बन्द हो चुके हैं, वह हर वक़्त उसको याद करता है, उसे अपनी सेहत की देखभाल जारी रखनी चाहिए।

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एक रोज़ शाम को जब रियो अस्पताल से निकला तो उसने देखा कि सड़क पर एक नौजवान उसके इन्तज़ार में खड़ा है। यह फाटक बन्द होने के तीन हफ्ते बाद की घटना है।

"आपको याद है, मैं कौन हूँ?"

रियो का ख़याल था कि वह नौजवान को जानता है लेकिन वह ठीक से उसे पहचान' न सका।

"इस मुसीबत के शुरू होने से पहले मैं आपके पास आया था, अरबों की बस्ती में रहन-सहन की परिस्थितियों के बारे में पूछताछ करने। मेरा नाम रेमन्द रेम्बर्त है।"

“अरे हाँ, मुझे अच्छी तरह याद है। अब तो तुम्हें अपने अख़बार के लिए बहुत शानदार कहानी मिल सकती है।" रेम्बर्त में पहली मुलाक़ात की अपेक्षा इस बार कम आत्मविश्वास दिखाई दे रहा था। उसने कहा कि वह अख़बार के काम से नहीं आया, वह डॉक्टर से सहायता की प्रार्थना करने आया था।

उसने कहा, “मैं इस तकलीफ़ के लिए माफ़ी चाहता है, लेकिन सचमुच मैं यहाँ किसी को नहीं जानता और मेरे अख़बार का स्थानीय प्रतिनिधि तो एकदम बुद्धू है।"

रियो ने कहा कि वह शहर के केन्द्र में, एक डिस्पेंसरी की तरफ़ जा रहा है। उसने रेम्बर्त से कहा कि दोनों एक साथ पैदल चलें। उन्हें नीग्रो बस्ती की तंग गलियों से गुज़रना था। शाम हो गई थी, लेकिन शहर में जहाँ कभी इस वक़्त कोलाहल रहता था, अजब ख़ामोशी छाई थी। हवा में, जो सन्ध्या की किरणों से सुनहरी हो गई थी सिर्फ कुछ बिगुलों के स्वर गूंज रहे थे। फ़ौज यह दिखाने की कोशिश कर रही थी कि उनके सब काम पूर्ववत जारी हैं। जब दोनों जने नीली, जामनी और केसरिया रंग की दीवारों से घिरी तंग गली में से गुज़र रहे थे तो रेम्बर्त लगातार बोलता जा रहा था। मालूम होता था कि उसके स्नायु काबू से बाहर हो गए हैं।

उसने कहा कि वह अपनी पत्नी को पेरिस में छोड़ आया था। वह दरअसल उसकी पत्नी नहीं थी, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब शहर के फाटक बन्द हो गए तो उसने अपनी पत्नी को एक तार भेजा था। उसका ख़याल था कि यह स्थिति सिर्फ कुछ दिनों तक ही चलेगी, इसलिए उसने अपनी पत्नी को एक पत्र भेजने की कोशिश की थी, लेकिन पोस्ट ऑफ़िस के अफ़सरों ने पत्र भेजने की इजाज़त नहीं दी थी, उसके साथियों ने कहा कि वे उसकी कोई सहायता नहीं कर सकते। प्रीफ़ेक्ट के दफ्तर के एक क्लर्क ने उसके मुंह पर उसकी हँसी उड़ाई थी। दो घंटे तक एक क़तार में खड़े रहने के बाद वह एक तार मंजूर करवा सका, 'मैं खैरियत से हूँ। जल्द ही तुमसे मिलूँगा।'

लेकिन अगले दिन सुबह जब वह सोकर उठा तो उसे एहसास हुआ कि यह स्थिति कितने दिन तक चलेगी, यह कोई नहीं कह सकता। इसलिए उसने फ़ौरन शहर छोड़ने का फैसला किया। अपने पेशेवर पत्रकार होने की हैसियत से उसने प्रीफ़ेक्ट के दफ़्तर के एक बड़े अफ़सर से मिलने की तिकड़म तो भिड़ा ली। उसने बताया कि वह संयोगवश ओरान आया था। उसका ओरान से कोई ताल्लुक नहीं और उसका यहाँ रुकने का भी कोई कारण नहीं था, इसलिए निश्चय ही उसे शहर छोड़ने का अधिकार मिलना चाहिए, भले ही उसे शहर से निकालकर कुछ दिन के लिए क्वारंटाइन में रखा जाए। अफ़सर ने कहा कि उसे रेम्बर्त से पूरी हमदर्दी है, लेकिन वह इस मामले में किसी का भी लिहाज नहीं कर सकता, क्योंकि कायदे सब लोगों पर बराबर लागू होते हैं। लेकिन वह इस बात का ख़याल रखेगा, हालांकि फ़ौरन किसी फैसले की बहुत कम उम्मीद है क्योंकि अधिकारियों की नज़र में स्थिति बहुत गम्भीर हो गई है।

"भाड़ में जाएँ कायदे-कानून! मैं इस शहर का रहने वाला तो नहीं हूँ!"

“यह तो सही है। लेकिन हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि महामारी जल्द ही ख़त्म हो जाएगी।" अन्त में उसने यह कहकर रेम्बर्त को तसल्ली देने की कोशिश की कि पत्रकार होने के नाते रेम्बर्त को ओरान की स्थिति पर लिखने के लिए बहुत अच्छी सामग्री मिल सकती है। अगर आदमी ध्यान से सोचे तो हर घटना का, चाहे वह कितनी ही अप्रिय क्यों न हो, आशापूर्ण पहलू भी होता है। यह सुनकर रेम्बर्त ने गुस्ताखी से अपने कन्धे सिकोड़े और बाहर निकल आया।

दोनों शहर के केन्द्र में पहुँच गए थे।

“यह निहायत अहमकाना बात है न डॉक्टर! दरअसल मैंने अख़बारों के लिए लेख लिखने के लिए दुनिया में जन्म नहीं लिया था। मेरा ख़याल है कि मैं किसी औरत के साथ ज़िन्दगी बसर करने के लिए पैदा हुआ हूँ। यह तर्कसंगत बात है न?" रियो ने सतर्कता से उत्तर दिया कि सम्भव है रेम्बर्त की बात में सचाई हो।

केन्द्र के बुलेवारों पर पहले-जैसी रौनक़ और भीड़ नहीं थी। थोड़े-से लोग थे जो दूर कहीं अपने मकानों की तरफ़ तेज़ क़दमों से बढ़ से रहे थे। किसी के चेहरे पर मुस्कराहट नहीं दिखाई दे रही थी। रियो ने अनुमान लगाया कि शायद हाल ही की रेसदाक ब्यूरो की घोषणा के परिणामस्वरूप सड़कें सूनी हो गई हों। चौबीस घंटों के बाद शहर के लोग फिर आशावादी हो बन जाएँगे। लेकिन जिन दिनों आँकड़ों की घोषणा होती थी, उन दिनों आँकड़े सबकी स्मृति में ताज़ा रहते थे।

अचानक रेम्बर्त ने कहा, “सच बात यह है कि वह औरत और मैं बहुत थोड़े दिनों तक साथ रहे हैं और एक-दूसरे के बिलकुल माफ़िक हैं।" जब रियो ने कोई जवाब न दिया तो रेम्बर्त ने कहा, “देखता हूँ कि आप मेरी बातों से बोर हो रहे हैं। माफ़ कीजिए, मैं सिर्फ यह जानने के लिए आया था कि क्या आप मुझे यह सर्टिफिकेट दे सकेंगे कि मुझे यह मनहूस बीमारी नहीं है। मेरा ख़याल है कि इससे मामला आसान हो जाएगा।"

रियो ने सिर हिलाया। एक छोटा-सा लड़का उसकी टाँगों से टकराकर सड़क पर गिर पड़ा था। रियो ने लड़के को उठाकर खड़ा कर दिया। चलतेचलते वे प्लेस द आर्मे के नज़दीक पहुँचे। रिपब्लिक की एक मूर्ति के आसपास धूल से सफेद हो चुके पॉम और अंजीर के पेड़ निराश भाव से झुके थे। मूर्ति पर भी धूल और मैल की परतें जमी थीं। दोनों जने मूर्ति के पास जाकर रुक गए। रियो ने सफ़ेद धूल की परतों को हटाने के लिए पत्थर के चबूतरे पर पैर पटका। पत्रकार का हैट पीछे की तरफ़ सरका हुआ था, टाई की ढीली गाँठ के नीचे से अस्त-व्यस्त कॉलर दीख रहा था। उसने ठीक से शेव भी नहीं की थी। उसके चिड़चिड़े, जिददी चेहरे से लगता था कि वह एक ऐसा नौजवान है जिसे किसी ने गहरी चोट पहुँचाई है।

“मेहरबानी करके यह न सोचना कि मैं तुम्हारी बात समझता नहीं," रियो ने कहा, “लेकिन तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम्हारी दलील एकदम गलत है। मैं तुम्हें सर्टिफिकेट नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे यह नहीं मालूम कि तुम्हारे अन्दर इस बीमारी के कीटाणु नहीं हैं। और अगर मुझे मालूम होता तो भी मैं इस बात की गारंटी कैसे दे सकता हूँ कि मेरे यहाँ से निकलकर प्रीफ़ेक्ट के दफ़्तर तक पहुँचने के बीच तुम्हें इस बीमारी की छूत नहीं लग जाएगी। और अगर मैं ऐसा कर भी सकता..."

“अगर आप ऐसा कर सकते...?"

“अगर मैं तुम्हें सर्टिफिकेट दे दूँ, तो भी उससे तुम्हें कोई मदद नहीं मिलेगी।"

“आख़िर क्यों?"

"क्योंकि इस शहर में हज़ारों लोग तुम्हारी-जैसी स्थिति में पड़े हुए हैं, और उन्हें शहर छोड़कर जाने की इजाज़त देने का सवाल ही नहीं उठ सकता।"

“मान लीजिए अगर उनको प्लेग न हो, क्या तब भी?"

“यह वजह काफ़ी नहीं है। ओह, मैं जानता हूँ कि यह एक बेहूदा हालत है, लेकिन हम सब इसके जाल में फंस रहे हैं और हमें चाहिए कि इस हालत को, जैसी भी है, मंजूर कर लें।"

“लेकिन मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ।"

"बदकिस्मती से अब तुम यहीं के होकर रहोगे, बाक़ी सब लोगों की तरह।"

रेम्बर्त ने आवाज़ ऊँची करके कहा :

“डैम इट, लेकिन डॉक्टर क्या आप इतना भी नहीं देखते कि यह सवाल मानवीय भावनाओं का है? या आप यह महसूस ही नहीं करते कि उन लोगों के लिए जुदाई का क्या मतलब होता है जो...एक-दूसरे से प्यार करते हैं?"

रियो ने कुछ देर ख़ामोश रहकर उत्तर दिया कि वह इस बात को पूरी तरह समझता है। वह भी चाहता है कि रेम्बर्त को अपनी पत्नी के पास लौटने की इजाज़त दी जाए और वे सब लोग भी फिर आपस में मिलें जो एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। लेकिन क़ानून तो क़ानून है। प्लेग फैल गई है और वह सिर्फ वही कर सकता है जो किया जाना चाहिए।

“नहीं," रेम्बर्त ने कटु स्वर में कहा, “आप नहीं समझ सकते। आप तर्क की भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं, दिल की नहीं; आप सिदधान्तों की अमूर्त दुनिया में रहते हैं।"

डॉक्टर ने रिपब्लिक की मूर्ति की तरफ़ नज़रें उठाई और कहा कि वह तर्क की भाषा इस्तेमाल कर रहा है या नहीं, यह तो वह नहीं जानता, लेकिन वह यह जानता है कि वह तथ्यों की भाषा बोल रहा है, जिनसे सब लोग परिचित हैं, ज़रूरी नहीं कि दोनों बातें एक हों।

पत्रकार ने टाई सीधी करते हुए कहा, "तो इसका मतलब यह है कि मैं आपसे किसी क़िस्म की सहायता की आशा नहीं कर सकता। अच्छी बात है, लेकिन...” उसके लहजे में चुनौती का भाव था, "हर हालत में मैं शहर छोड़ दूँगा।"

डॉक्टर ने फिर कहा कि वह नौजवान के दिल की बात अच्छी तरह समझता है लेकिन इससे उसे सरोकार नहीं।

"माफ़ कीजिए, इससे आपको सरोकार है।" रेम्बर्त फिर ऊँची आवाज़ में बोला, “मैं आपके पास इसलिए आया था क्योंकि मुझे पता चला है कि नए कायदों के बनाने में आपका बहुत भारी हाथ है। इसलिए मैंने सोचा कि शायद एक मामले में तो आप अपने फैसले को रद्द कर सकते हैं। लेकिन आप इस मामले में एकदम उदासीन हैं, आपको किसी के दु:ख की परवाह नहीं, क़ानून बनाते वक़्त आपने उन लोगों का बिलकुल ख़याल नहीं रखा जो एक-दूसरे को चाहते हैं और जिन्हें बिछुड़ना पड़ा है।"

रियो ने क़बूल किया कि कुछ हद तक यह बात ठीक है। उसने ऐसे मामलों के बारे में नहीं सोचना ही बेहतर समझा था।

"ओह! अब समझा! आप अभी साधारण जनता की भलाई की बात करेंगे। लेकिन हममें से हरेक व्यक्ति की भलाई में ही जनता की भलाई है।"

अचानक डॉक्टर जैसे सपने से जाग पड़ा।

उसने कहा, “जाने भी दो, तुम्हारी बात सही है, लेकिन इसके कई और पहलू भी हैं। एकदम नतीजा निकालने से कोई फायदा नहीं। तुम जानते हो।... लेकिन मुझे तुम्हारी नाराज़गी की कोई वजह समझ में नहीं आती। अगर तुम अपनी मुसीबत से निकलने का कोई रास्ता निकाल सको तो यकीनन मुझे बहुत ख़ुशी होगी। लेकिन कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें मैं अपनी सरकारी पोजीशन की वजह से नहीं कर सकता।"

रेम्बर्त ने गुस्ताखी से सिर झटकते हुए कहा, “हाँ, मुझे अपनी खीज ज़ाहिर नहीं करनी चाहिए थी। मैं आपका बहुत-सा वक्त बरबाद कर चुका हूँ।"

रियो ने उससे कहा कि वह आकर रियो को सूचित करे कि उसे अपनी स्कीम में कितनी सफलता मिली है, और वह रियो से नाराज़ न हो कि वह इससे ज़्यादा दोस्ती का सलूक नहीं कर सका। उसने विश्वास जताया कि भविष्य में वे ज़रूर किसी-न-किसी बात पर सहमत होंगे। रेम्बर्त घबराया-सा नज़र आया।

फिर उसने थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद कहा, "हाँ, अपने स्वभाव और आपने अभी जो बातें कही हैं उनके बावजूद भी मेरा ख़याल है कि हम ज़रूर मिलेंगे।" फिर कुछ रुककर उसने कहा, "फिर भी मैं आपकी राय से सहमत नहीं हूँ।"

हैट आँखों तक सरकाकर वह तेज़ी से चला गया। रियो ने उसे उस होटल में घुसते देखा जहाँ तारो रहता था।

अगले ही क्षण डॉक्टर ने धीरे से सिर हिलाया जैसे वह उस विचार का समर्थन कर रहा हो जो उसके दिमाग में आया था। हाँ, पत्रकार ने ठीक ही किया था, वह अपनी खुशी को बचाना चाहता था। लेकिन क्या उसने रियो पर यह इल्ज़ाम लगाकर कि रियो सिद्धान्तों की दुनिया में रहता है, ठीक किया था? क्या उन दिनों अमूर्त' शब्द लागू हो सकता है जब प्लेग शहर पर पलकर मोटी हो रही हो और मरने वालों के साप्ताहिक आँकड़े पाँच सौ तक जा पहुँचे हों, जबकि रियो सारा वक़्त अस्पताल में रहता है? हाँ, ऐसी मुसीबतों में अमूर्त सैद्धान्तिकता का कुछ अंश ज़रूर आ जाता है जिसका यथार्थ से सम्बन्ध टूट जाता है। लेकिन जब ऐसी 'अमूर्तता' इनसान की तबाही करने लगती है तब उसकी तरफ़ ध्यान देना ही पड़ता है। और रियो यह जानता था कि यह सबसे ज़्यादा आसान रास्ता नहीं था; मिसाल के लिए इस सहायक अस्पताल को चलाना जिसका रियो इंचार्ज था। अब ऐसे तीन अस्पताल बन गए थे और यह आसान काम नहीं था।

रियो के ऑपरेशन-रूम की बग़ल में डॉक्टरी सामान से लैस एक कमरा था, जहाँ मरीज़ को सबसे पहले लाया जाता था। इसके फ़र्श को खोदकर एक उथली-सी पानी और क्रेसीलिक एसिड की झील बना दी गई थी, जिसके बीच में ईंटों का एक छोटा द्वीप-जैसा बनाया गया था। मरीज़ को इस द्वीप पर ले जाया जाता था, तेज़ी से उसके कपड़े उतारकर कीटाणुनाशक पानी में डाल दिए जाते थे। नहलाने, सुखाने और अस्पताल की मोटी-खुरदरी नाइट-शर्ट पहनाने के बाद उसको जाँच के लिए रियो के पास लाया जाता था; फिर उसके बाद किसी वार्ड में। इस अस्पताल में, जो स्कूल की इमारत को क़ब्जे में लेकर खोला गया था, पाँच सौ बेड थे। लगभग सभी बेड भरे हुए थे। मरीज़ों को रियो स्वयं अपनी देखरेख में दाखिल करने के बाद उन्हें टीके लगाता था, गिल्टियों में नश्तर लगाता था और आँकड़ों की दोबारा जाँच करने के बाद फिर दोपहर के वक्त अपने मरीजों को देखने के लिए लौट आता था। अँधेरा होने पर वह मरीज़ों का हालचाल पूछने के लिए निकलता था और रात को बहुत देर से लौटता था। कल रात उसकी माँ ने उसे उसकी पत्नी का तार देते वक़्त कहा था कि उसके हाथ काँप रहे हैं।

“हाँ," रियो ने जवाब दिया, “लेकिन अब सवाल सिर्फ़ डटे रहने का है। देख लेना मेरे स्नायु अपने-आप शान्त हो जाएँगे।"

डॉक्टर हट्टे-कट्टे बदन का आदमी था और अभी तक वह थकान से चूर नहीं हुआ था। फिर भी बार-बार मरीजों को देखने जाने की वजह से उसकी सहन-शक्ति पर बोझ पड़ने लगा था। एक बार यह पता चलने पर कि किसी को प्लेग हो गई है, उसे फ़ौरन ही घर से हटाकर अस्पताल पहुंचा दिया जाता था। उसके बाद 'सैदधान्तिकता' और परिवार के साथ संघर्ष शुरू होता था, जिन्हें अच्छी तरह मालूम था कि अब वे मरीज़ को उसके मरने या स्वस्थ होने से पहले नहीं देख सकेंगे। "डॉक्टर, रहम करो!” तारो के होटल की नौकरानी माँ मदाम लोरेतव ने डॉक्टर से प्रार्थना की थी। इस प्रार्थना का कोई फ़ायदा नहीं हुआ था। निस्सन्देह डॉक्टर रहमदिल था। लेकिन इन हालात में रहम का क्या फ़ायदा हो सकता था! डॉक्टर को टेलीफ़ोन करना ही पड़ा और जल्द ही सड़क पर एम्बुलेंस की आवाज़ सुनाई दी थी। (शुरू में तो पड़ोसी खिड़कियाँ खोलकर सारा दृश्य देखते थे, बाद में वे फ़ौरन खिड़कियाँ बन्द कर देते थे।) फिर संघर्ष का दूसरा दौर शुरू हुआ, आँसू और मिन्नतें, जिसे संक्षेप में अव्यावहारिकता' कहा जा सकता है। मरीज़ों के कमरों में,जहाँ बुख़ार की गरमी और स्नायविक विक्षिप्ति छाई थी, पागलपन के दृश्य होते थे। हर बार एक ही मामले पर संघर्ष होता था। मरीज़ को हटा लिया जाता था, इसके बाद रियो भी वहाँ से चला आता था।

शुरू के दिनों में तो रियो सिर्फ़ अस्पताल में फ़ोन कर देता था और एम्बुलेंस के आने का इन्तज़ार किए बगैर दूसरे मरीज़ों को देखने चला जाता था। लेकिन उसके जाते ही परिवार के लोग घर में ताला लगा देते थे। वे मरीज़ से बिछुड़ने के बजाय प्लेग की छूत के सम्पर्क में आना ज़्यादा पसन्द करते थे, क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि बिछुड़ने का नतीजा क्या होगा। इसके बाद गाली-गलौज, चीख़ों, दरवाज़े तोड़ने और पुलिस और फ़ौज की कार्यवाही का सिलसिला शुरू होता था। मरीज़ पर धावा बोल दिया जाता था। शुरू के कुछ हफ़्तों में रियो को एम्बुलेंस के आने से पहले मरीज़ के पास रुकने के लिए मजबूर होना पड़ता था। बाद में जब हर डॉक्टर के साथ एक वॉलेंटियर पुलिस-अफ़सर जाने लगा तो रियो निश्चिन्त होकर जल्दी से दूसरे मरीजों को देखने के लिए जाने लगा।

लेकिन महामारी के प्रारम्भिक दिनों में हर शाम यही क़िस्सा होता था जो उस दिन हुआ था जब रियो मदाम लोरेन की बेटी को देखने गया था। उसे एक छोटे-से फ़्लैट में ले जाया गया था जिसमें पंखे और कागज़ के फूल सजे हुए थे। मदाम लोरेन ने काँपती हुई मुस्कराहट से रियो का स्वागत किया था।

"ओह, मेरा ख़याल है यह उस किस्म का बुख़ार नहीं है जिसकी आजकल लोगों में चर्चा है!"

रज़ाई और कमीज़ उठाकर डॉक्टर ने ख़ामोशी से लड़की की जाँघों और पेट पर पड़े लाल दागों और सूजी हुई गिल्टियों को देखा। उन पर नज़र डालते ही माँ शोक से फूट-फूटकर रोने लगी। हर शाम को माताएँ इसी तरह विलाप करती थीं, अपने बच्चों के पेट और जिस्म पर घातक चिह्न देखते ही वे घबराहट और अव्यावहारिकता का प्रदर्शन करने लगती थीं, हर शाम को अनेक हाथ रियो की बाँहों को जकड़ लेते थे, निरर्थक शब्दों, वादों और आँसुओं की झड़ी लग जाती थी। हर शाम को एम्बुलेंस की घंटी सुनकर ऐसे दृश्य होते थे जो हर प्रकार के शोक की तरह निरर्थक थे। रियो जानता था कि भविष्य में उसे लगातार ऐसे अनगिनत दृश्यों का सामना करना पड़ेगा। हाँ, अमूर्तन की तरह प्लेग नीरस थी। शायद सिर्फ एक ही चीज़ में परिवर्तन आया था। वह रियो खुद था। उस रोज़ शाम को रिपब्लिक की मूर्ति के पास खड़े होकर रियो को अपने इस परिवर्तन का एहसास हुआ था। वह होटल के दरवाज़े की तरफ़ टकटकी लगाकर देखता रहा जहाँ रेम्बर्त अभी दाखिल हुआ था। उसे लगा एक ठंडी उदासीनता धीरे-धीरे उसके मन में व्याप रही है।

इन थका देने वाले हफ़्तों के बाद और उन तमाम शामों से गुज़रने के बाद जब लोग निरुददेश्य घूमने के लिए सड़कों पर जमा होते थे, रियो ने सीखा था कि अब उसे अपना दिल सख़्त करने की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। जब करुणा निरर्थक होती है तो इनसान का दिल खुद-ब-खुद करुणा से ऊपर उठ जाता है। और इसी चेतना में, जो डॉक्टर के मन में धीरे-धीरे व्याप रही थी, उसे अपने असह्य बोझ को हल्का करने का एकमात्र साधन और सांत्वना दिखाई दी। वह जानता था कि यही चेतना उसके काम को आसान बना देगी, इसीलिए वह खुश था। जब रियो तड़के दो बजे लौटकर घर आया, तो उसकी माँ बेहद घबरा उठी। रियो ने भावशून्य दृष्टि से माँ की ओर देखा। माँ रियो के इस एकमात्र मुक्ति-मार्ग की भर्त्सना कर रही थी। अमूर्त सैद्धान्तिकता से लड़ने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति के चरित्र में भी इस गुण का समावेश हो। लेकिन भला रेम्बर्त से इस बात को समझने की उम्मीद कैसे की जा सकती थी! उसे तो लगता था कि उसकी खुशी के रास्ते में यही ख़ामख़याली एकमात्र रुकावट है। सचमुच रियो को महसूस हुआ कि एक माने में पत्रकार की बात सही थी। लेकिन वह यह भी जानता था कि कभी-कभी ख़ामख़याली अपने को इनसान की ख़ुशी से ज़्यादा बड़ा साबित करती है, और तभी उसकी सत्ता को स्वीकार करना पड़ता है। रेम्बर्त का भी यही हाल होना था जैसा कि डॉक्टर को बाद में जाकर पता चला जब रेम्बर्त ने अपने बारे में और ज़्यादा बातें बताईं। इस तरह से एक अलग स्तर पर रियो को हर व्यक्ति की खुशी और प्लेग की अमूर्तताओं के बीच चलने वाले नीरस संघर्ष का पता चला जो बहुत लम्बे अरसे तक हमारे शहर की समूची ज़िन्दगी बन गया था।

दूसरा भाग : 3

लेकिन जहाँ कुछ लोगों को ख़ामख़याली नज़र आती थी, वहाँ दूसरे लोग सचाई देखते थे। प्लेग के पहले महीने का अन्त निराशापूर्ण हुआ। महामारी खूब ज़ोर से फैली, और जेसुइट पादरी फ़ादर पैनेलो ने एक नाटकीय प्रवचन दिया। जब बूढ़े माइकेल में प्लेग के लक्षण दिखाई दिए थे और वह लड़खड़ाता हुआ घर लौट रहा था तब फ़ादर पैनेलो ने उसे अपनी बाँह का सहारा दिया था। फ़ादर पैनेलो ओरान जियोग्राफ़िकल सोसायटी को लगातार योगदान देकर पहले ही अपनी पहचान बना चुका था, जो मुख्य रूप से प्राचीन शिलालेखों से सम्बन्धित थे। वह इस विषय का विद्वान माना जाता था। लेकिन उसने वर्तमान व्यक्तिवाद पर बहुत से भाषण दिये थे, जिससे साधारण जनता तक भी उसकी पहुँच हो गई थी, जिसकी संख्या बहुत ज्यादा थी। इन भाषणों में फ़ादर ने अपने को ईसाई सिद्धान्तों के शुद्ध और सही स्वरूप का साहसी समर्थक साबित किया था। उसके विचारों में न आधुनिकता की उच्छंखलता थी, न अतीत का पुरोहितवाद था। ऐसे मौक़ों पर वह तीखे अकाट्य सत्यों से अपने श्रोताओं को परास्त करने से कभी बाज़ नहीं आया था। इसीलिए शहर में उसकी इतनी शोहरत थी।

महीने के अन्तिम दिनों में हमारे शहर के पादरी-वर्ग ने अपने विशिष्ट हथियारों से प्लेग का मुकाबला करने का फैसला करके एक प्रार्थना-सप्ताह' मनाने का आयोजन किया। सार्वजनिक धर्म-भीरुता के इन प्रदर्शनों का समापन रविवार के दिन प्लेग से पीड़ित होकर शहीद होने वाले सन्त रॉच के तत्त्वावधान में होने वाली विराट् प्रार्थना-सभा से होने वाला था, और फ़ादर पैनेलो से उस सभा में प्रवचन देने के लिए कहा गया था। एक पखवारे तक उसने सन्त ऑगस्ताइन और अफ्रीकी चर्च के बारे में अपना अनुसन्धान कार्य स्थगित रखा, जिसके कारण उसे अपने पादरी-वर्ग में ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ था। जोशीले और उग्र स्वभाव का व्यक्ति होने के कारण, वह पूरे दिल से इस काम की तैयारी में जुट गया। काफ़ी पहले से ही उसके प्रवचन की चर्चा होने लगी थी और एक तरह से इस काल के इतिहास में इस प्रवचन की तारीख़ काफ़ी महत्त्व रखती है।

'प्रार्थना-सप्ताह' की सभाओं में प्रतिदिन खासी भीड़ जमा हो जाती थी। फिर भी, हमें यह मानना पड़ेगा कि अच्छे दिनों में भी ओरान के निवासियों की धर्म-निष्ठा में कमी नहीं होती थी। मिसाल के लिए रविवार के दिन समुद्र-स्नान को गिरजाघर की हाज़िरी से गम्भीर प्रतियोगिता करनी पड़ती है। न ही यह समझना चाहिए कि उन्हें एक दिव्य रोशनी दिखाई दे गई थी, जिसने एकाएक उनका हृदय-परिवर्तन कर दिया था। लेकिन एक तो शहर को बन्द कर दिया गया था और बन्दरगाह में दाखिल होने की मनाही थी, और दूसरे, चूँकि वे एक विशिष्ट मन:स्थिति में थे और हालाँकि अपने दिलों की गहराई में वे अब भी अपने ऊपर आई मुसीबत की भयंकरता को स्वीकार करने में असमर्थ थे, वे यह अनुभव किए बिना न रह सके थे कि कोई चीज़ निश्चित रूप से बदल गई है। फिर भी, अधिकांश लोग अब भी यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि यह महामारी जल्द ही गुज़र जाएगी और वे और उनके परिवार सुरक्षित बच जाएँगे। इसलिए वे अभी तक अपनी आदतों में कोई परिवर्तन करने की ज़रूरत महसूस नहीं करते थे। उनके लिए प्लेग एक अयाचित आगन्तुक की तरह थी जो उसी तरह अचानक चली जाएगी जिस तरह आई थी। वे घबराए तो थे, लेकिन अभी तक इतने हताश नहीं हुए थे कि प्लेग उन्हें अपने अस्तित्व के दुर्निवार तन्तु के रूप में दिखाई देती और अब तक उन्होंने जिस ज़िन्दगी का उपयोग किया था, उसको ही भूल जाते। संक्षेप में, वे परिस्थिति में परिवर्तन होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। रही धर्म की बात तो और बातों की तरह उसके बारे में भी प्लेग ने उनकी मन:स्थिति कुछ ऐसी विचित्र बना दी थी, जो उदासीनता से उतनी ही दूर थी जितनी उत्साह से, जिसे 'वस्तुनिष्ठता' कहकर पुकारना ही शायद सबसे ठीक है। प्रार्थनासप्ताह में भाग लेने वालों में से अधिकांश लोग उस उक्ति को दुहराते जो डॉक्टर रियो ने चर्च जाने वाले किसी व्यक्ति के मुख से सुनी थी। “जो भी हो, इससे कोई नुकसान नहीं हो सकता।” यहाँ तक कि तारो ने भी अपनी नोटबुक में यह दर्ज करने के बाद कि ऐसे मौक़ों पर चीन के लोग प्लेग के देवता के आगे डफली बजाने लगते हैं, यह राय जाहिर की यह बताना मुमकिन नहीं है कि क्या सचमुच व्यावहारिक रूप से, छूत रोकने की एहतियाती कार्यवाहियों के मुकाबले डफली ज़्यादा कारगर साबित होती थी? इसके आगे उसने यह विचार दर्ज किया कि इसका फ़ैसला करने के पहले हमें यह निश्चय करना पड़ेगा कि प्लेग का देवता वास्तव में होता भी है या नहीं और इस बारे में अज्ञान हमारी उन सब धारणाओं को व्यर्थ सिद्ध कर देता है, जो हम बना लेते हैं।

खैर, जो भी हो, प्रार्थना-सप्ताह के दिनों में गिरजा हर समय उपासकों से खचाखच भरा रहता था। शुरू के दो-तीन दिन तक बहुत से लोग पोर्च के सामने के बाग में पाम और अनार के वृक्षों के नीचे खड़े होकर दूर से ही प्रार्थनाओं और आह्वानों के चढ़ते हुए ज्वार को सुनते रहे, जिनकी प्रतिध्वनियों से आस-पड़ोस की सड़कें तक गूंज उठती थीं। लेकिन एक मिसाल कायम होते ही वे लोग गिरजे में घुसने लगे और हिचकिचाते हुए उन प्रतिक्रियाओं में भाग लेने लगे जो प्रार्थियों के हाव-भावों से प्रकट हो रही थीं। और रविवार के दिन उपासकों की एक विशाल भीड़ ने गिरजे के मध्य भाग में तिल रखने की जगह न छोड़ी, यहाँ तक कि सीढ़ियों और अहाते में भी लोग भरे हुए थे। एक दिन पहले से आसमान में बादल छा गए थे और आज ज़ोर की बारिश हो रही थी। जो लोग खुले में खड़े थे उन्होंने अपनी छतरियाँ तान लीं। फ़ादर पैनेलो ने अपने प्रवचन के लिए जिस समय मंच पर क़दम रखा, उस समय गिरजे के भीतर की हवा गीले कपड़ों की गन्ध और अगरबत्तियों के धुएँ से बोझिल हो रही थी।

वह औसत क़द और चौड़ी काठी का आदमी था। जब वह मंच के किनारे लकड़ी की कारीगरी वाले जंगले को अपने चौड़े हाथों से पकड़कर चढ़ने के लिए झुका तो लोगों को सिर्फ उसकी विशाल, काली धड़ और उसके ऊपर दो गुलाबी गाल ही दिखाई दिए जिन पर लोहे के फ्रेम में जड़ा चश्मा टँगा था। उसकी भाषण-शैली शक्तिशाली, बल्कि भावनात्मक होती थी जो श्रोता को दूर तक बहा ले जाती थी, और जब उसने स्पष्ट और ज़ोरदार स्वर में उपासकों की भीड़ पर पहले ही वाक्य में प्रहार किया कि “तुम पर एक संकट आया है, मेरे भाइयो! और, मेरे भाइयो, तुम इसी के काबिल थे" तो लोग हैरानी से हक्के-बक्के रह गए और यह हैरानी बाहर बारिश में खड़े लोगों तक फैल गई।

इसके बाद उसने जो कुछ कहा उसका तर्क की दृष्टि से इस नाटकीय आरम्भ से कोई सम्बन्ध नहीं था। प्रवचन जब आगे बढ़ने लगा तो उपस्थित श्रोताओं के आगे स्पष्ट होता गया कि भाषण-कला की एक चाल से फ़ादर पैनेलो ने जैसे एक घूसे की तरह अपने पूरे प्रवचन का सार उनके मुंह पर दे मारा था। यह प्रहार करने के बाद उसने फ़ौरन मिस्र की प्लेग के बारे में एक्ज़ोडस की किताब से उद्धरण देते हुए कहा, "इतिहास में यह कहर जब पहली बार आया, तब इसका इस्तेमाल परमेश्वर के दुश्मनों को बरबाद करने के लिए किया गया था। फराओ ने परमेश्वर की मंशा के ख़िलाफ़ लड़ने की कोशिश की, लेकिन प्लेग ने उसको घुटनों के बल झुकने पर मजबूर कर दिया। इस तरह इतिहास के शुरू से ही परमेश्वर का यह कहर अहंकारियों के गर्व को चूर करता आया है और उन्हें धूल में मिलाता आया है जिन्होंने उसके ख़िलाफ़ अपने दिलों को सख़्त कर लिया है। इस बात पर अच्छी तरह गौर करो, मेरे दोस्तो! और अपने घुटने टेककर बैठ जाओ।"

बारिश की तेज़ी बढ़ गई थी और गिरजे के पूर्वी भाग की खिड़कियों से टकराती हुई बारिश की बूंदों से वातावरण की ख़ामोशी और भी बढ़ गई थी। इस निस्तब्धता में गूंजते हुए फ़ादर के स्वरों में इतनी आस्था थी कि क्षणिक झिझक के बाद कुछ लोग अपनी सीटों से सरककर घुटनों के बल बैठ गए, दूसरों ने भी उनका अनुकरण करना उचित समझा। धीरे-धीरे उनकी देखादेखी गिरजे के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक सब लोग घुटनों के बल बैठे नज़र आने लगे। कुर्सियों की चूँ-चूँ के सिवा और कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। फिर फ़ादर पैनेलो तनकर खड़ा हो गया और एक गहरी साँस लेकर उसने अपना प्रवचन जारी रखा जो अब पहले से अधिक शक्तिशाली हो गया था।

"आज आपके बीच प्लेग इसलिए आई है, क्योंकि आपके सोचने की घड़ी आ पहुँची है। नेक लोगों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं लेकिन गुनहगार काँपेंगे। क्योंकि प्लेग परमेश्वर का मूसल है और दुनिया फ़र्श है। परमेश्वर बेरहमी से अनाज को तब तक कूटेगा जब तक दाने छिलकों से अलग नहीं हो जाते। छिलकों की तादाद ज़्यादा होगी। बेशुमार लोग बुलाए जाएँगे लेकिन चन्द लोग ही चुने जाएँगे। परमेश्वर ने यह आफ़त नहीं बुलाई। बहुत दिन से हमारी दुनिया बुराई का साथ देती रही है और परमेश्वर के रहम और माफ़ी पर भरोसा करती रही है। इनसानों ने सोचा कि गुनाहों पर अफ़सोस ज़ाहिर करना ही काफ़ी है। गुनाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। सब इत्मीनान से गुनाह करते थे और उनका ख़याल था कि जब क़यामत का दिन आएगा तो वे गुनाह छोड़कर माफ़ी माँग लेंगे। उन्होंने सोचा जब तक वह दिन नहीं आता तब तक सबसे आसान रास्ता यह है कि गुनाह के आगे हथियार डाल दो, बाक़ी काम परमेश्वर के रहम से हो जाएगा। बहुत दिन तक परमेश्वर रहम की निगाहों से इस शहर को देखता रहा, लेकिन इन्तज़ार करते-करते वह थक गया। हम उसकी शाश्वत उम्मीद को बहुत देर तक टालते रहे और अब उसने हमसे मुँह मोड़ लिया है। और इसलिए, परमेश्वर की रोशनी हमसे छिन गई है, हम अँधेरे में चल रहे हैं, इस प्लेग के घने अँधेरे में!"

श्रोताओं में से किसी ने अड़ियल घोड़े की तरह नाक से आवाज़ की। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद पादरी ने तनिक धीमे स्वर में कहा :

"हम गोल्डन लीजेंड में पढ़ते हैं कि बादशाह अम्बर्तो के ज़माने में प्लेग ने इटली को तहस-नहस कर दिया था और सबसे ज़्यादा तबाही रोम और पाविया में हुई थी। प्लेग इतनी भयंकर थी कि लाशों को दफनाने के लिए ज़िन्दा लोगों की तादाद कम पड़ गई थी। उस वक़्त लोगों को एक नेक फरिश्ता दिखाई दिया था जो शैतान के दूत को, जिसके हाथ में शिकार करने का नेज़ा था, मकानों पर प्रहार करने का हुक्म दे रहा था। जिस घर पर नेज़े के जितने ही प्रहार होते थे, उतनी ही लाशें वहाँ से निकलती थीं।"

अब फ़ादर पैनेलो ने अपनी दोनों छोटी बाँहें खुले पोर्च की तरफ़ फैलाईं, मानो वह बारिश के हिलते हुए परदे के पीछे किसी चीज़ की ओर इशारा कर रहा हो।

“मेरे भाइयो!" पैनेलो ने ऊँचे स्वर में कहा, "वे दूत फिर शिकार पर निकले हैं और आज हमारी सड़कों पर तबाही मचा रहे हैं। वह देखो, महामारी के दूत को जो लूसिफ़र की तरह खूबसूरत है, जो शैतान की तरह चमक रहा है, वह तुम्हारे मकानों की छतों पर मँडरा रहा है। उसके दाएँ हाथ में नेज़ा है जो प्रहार करने के लिए ऊपर उठा हुआ है। उसका बायाँ हाथ आपके मकानों में से कुछ मकानों की ओर बढ़ा हुआ है। मुमकिन है, इसी क्षण उसकी उँगली आपके दरवाज़े की ओर इशारा कर रही हो, लाल नेज़ा आपकी चौखटों को खटखटा रहा हो। और क्या पता प्लेग आपके घर में दाखिल होकर आपके सोने के कमरे में जाकर बैठ गई हो और आपके लौटने का इन्तज़ार कर रही हो। धैर्य और सतर्कता से वह उचित अवसर की ताक में बैठी है, उससे बचना असम्भव है; जैसे विधि के विधान से कोई नहीं बच सकता। दुनिया की कोई ताक़त, यहाँ तक कि गौर से मेरी बात सुनें-साइंस की ताक़त भी, जिसकी इतनी शेखी बघारी जाती है, इस प्रहार से आपको नहीं बचा सकती; अगर एक बार वह हाथ आपकी तरफ़ बढ़ गया। खून से भरे शोक के फ़र्श पर अनाज की तरह तुम लोगों को फटकारा जाएगा और तुम चोकर के साथ दूर फेंक दिए जाओगे।"

फ़ादर ने फिर मूसल के प्रतीक पर प्रभावशाली और ओजस्वी भाषण दिया। उसने श्रोताओं से कहा कि वे कल्पना करें कि “उनके शहर के ऊपर लकड़ी की एक सलाख घूम रही है और अन्धाधुन्ध मकानों से टकरा रही है, और जब वह ऊपर उठती है तो खून की बूंदें बरसती हैं, धरती पर शोक और रक्तपात होता है, बीज बोने के लिए, जिससे सचाई की फ़सल तैयार होगी।"

इस लम्बे वाक्य के बाद फ़ादर पैनेलो ख़ामोश हो गया। उसके लम्बे बालों की लटें माथे पर छा गई थीं। वह ज़ोर से मुक्का मारकर जब अपना आवेश ज़ाहिर कर रहा था तो उस आघात से उसका सारा शरीर काँप उठता था। जब वह दोबारा बोला तो उसका स्वर धीमा था, लेकिन उसमें अभियोग की थर्राहट थी। “हाँ, अब गम्भीरता से सोचने का समय आ गया है। आप मजे में सोचते थे कि सिर्फ इतवार के दिन परमेश्वर से मिलना काफ़ी है और हफ़्ते के बाक़ी दिनों में आप मनमानी कर सकेंगे। आपका ख़याल था कि कुछ छोटी-मोटी औपचारिकताओं से, और कुछ बार घुटने झुकाकर आप परमेश्वर को खुश कर लेंगे और अपनी लापरवाही की कसर पूरी कर लेंगे, जो कि बहुत बड़ा जुर्म है। लेकिन आप परमेश्वर से ऐसा मज़ाक़ नहीं कर सकते। ये संक्षिप्त मुलाक़ातें परमेश्वर की मुहब्बत की तेज़ भूख को शान्त न कर सकीं। वह आपको अक्सर और ज़्यादा देर तक देखना चाहता था। उसकी मुहब्बत का यही तरीक़ा है। इसीलिए जब परमेश्वर आपका इन्तज़ार करते-करते थक गया तो वह खुद-ब-खुद आपसे मिलने चला आया; इतिहास के शुरू से ही परमेश्वर उन तमाम शहरों में जाता रहा है जिन्होंने उसके ख़िलाफ़ गुनाह किए हैं। अब आप भी वही सबक सीख रहे हैं जो केन' और उसकी औलाद ने, सोडोम और गोमोरा' के बाशिन्दों ने, जोब' और फ़राओ ने और उन तमाम लोगों ने सीखा था जिन्होंने परमेश्वर के लिए अपने दिल के दरवाजे बन्द कर लिए थे। उनकी तरह आप लोग भी, जब से शहर के फाटक बन्द हो गए हैं और आप महामारी के साथ रह गए हैं, इनसानों और सारी सृष्टि को नई नज़र से देख रहे हैं। आख़िरकार अब आपको एहसास हुआ है कि आप उन बुनियादी बातों पर संजीदगी से सोचें जो ज़िन्दगी की सबसे पहली और आख़िरी चीजें हैं।"

सीली हवा का एक झोंका गिरजे के बीच के हिस्से में, मोमबत्तियों की रोशनी को झुकाकर मद्धम कर रहा था। जलते हुए मोम, लोगों की खाँसी और किसी की दबी हुई छींक का तीखापन फ़ादर पैनेलो तक पहुँचा जो बड़ी बारीकी से अपने व्याख्यान के आरम्भिक भाग को दोहरा रहा था। यह बारीक़ी सबको बहुत पसन्द आई। फ़ादर ने शान्त, सीधे-सादे स्वर में कहा, "मैं जानता हूँ कि आप सब सोच रहे हैं कि आख़िर मैं इन बातों से क्या नतीजा निकालना चाहता हूँ! मैं आपको सचाई की तरफ़ ले जाना चाहता हूँ और आपको खुशी सिखाना चाहता हूँ-हाँ, खुशी। मैंने अभी आपको जो बातें बताई हैं उनके बावजूद मैं चाहता हूँ कि आप ख़ुशी मनाएँ, क्योंकि वह वक़्त बीत चुका है जब किसी की मदद या नेक सलाह के कुछ शब्द आपको सही रास्ते पर ला सकते थे। आज सचाई एक हक्म बनकर आई है। वह खून से सने लाल नेज़े की शक्ल में आई है जो मुक्ति के सँकरे रास्ते की तरफ़ कठोरतापूर्वक इशारा कर रहा है, मुक्ति का यही एक रास्ता है। इस तरह मेरे भाइयो, परमेश्वर की मेहरबानी आपके सामने आई है, जिसने हर चीज़ में अच्छाई और बुराई, गुस्सा और रहम, प्लेग और आपकी मुक्ति पैदा की है। यही महामारी आपको तबाह करने के साथ-साथ, आपकी भलाई भी कर रही है और आपको सही रास्ता दिखा रही है।

“कई शताब्दियों पहले अबीसीनिया के ईसाइयों ने प्लेग में अमरत्व पाने का परमेश्वर का दिखाया हुआ, निश्चित तरीक़ा देखा था। जिन्हें प्लेग की छूत नहीं लगी थी, उन्होंने प्लेग से मरे लोगों की चदरें ओढ़कर मौत को दावत दी थी। मैं कहता हूँ मुक्ति पाने का यह तरीक़ा निरा पागलपन था, जिसकी तारीफ़ हम नहीं कर सकते। इस तरीके में एक जल्दबाज़ी और गुस्ताख़ी नज़र आती है जिसकी हमें निन्दा करनी पड़ेगी। किसी इनसान को ज़बरदस्ती परमेश्वर का हाथ उठवाने की या मौत की घड़ी को निश्चित समय से पहले बुलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसका मतलब हुआ विधि के बनाए क्रम में दखल देकर जल्दी काम करवाना। परमेश्वर ने हमेशा के लिए पक्के क़ानून बना दिए हैं जो बदले नहीं जा सकते। इससे अगला क़दम नास्तिकता है। फिर भी हम उन अबीसीनियन ईसाइयों के जोश से सबक सीख सकते हैं जो सबक हमारे लिए फायदेमन्द साबित होगा। इसका अधिकांश भाग हमारे धर्म के उपदेशों और बुद्धिमत्ता के ख़िलाफ़ है, फिर भी इसमें उस ज्वलन्त शाश्वत प्रकाश की झलक मिल सकती है, जिसकी शान्त दीपशिखा इनसान के दु:ख के अँधेरे में जलती है। यही प्रकाश उन अँधेरे रास्तों को भी आलोकित करता है जो हमें मुक्ति की ओर ले जाते हैं। इससे हमें परमेश्वर की मरज़ी की अमली शक्ल पता चलती है, जो निश्चित रूप से बुराई को नेकी में बदलती रहती है। आज फिर यह रोशनी हमें डर और सिसकियों की अँधेरी घाटी में से पवित्र ख़ामोशी की तरफ़ ले जा रही है जो सारी ज़िन्दगी का स्रोत है। मेरे दोस्तो, यही है वह सबसे बड़ी तसल्ली जो मैं आप लोगों को देना चाहता हूँ ताकि जब आप परमेश्वर के इस घर से बाहर निकलें तो अपने दिलों में सिर्फ नाराज़गी के लफ़्ज़ नहीं बल्कि राहत का एक पैगाम भी लेकर जाएँ।"

सबने मान लिया कि इन शब्दों के साथ ही प्रवचन ख़त्म हो गया है। बाहर बारिश बन्द हो गई थी और गिरजे का आँगन सीली धूप से पीला हो गया था।

सड़कों से ट्रैफ़िक की धीमी भनभनाहट और अस्पष्ट कोलाहल सुनाई दे रहा था; यह जागते हुए शहर की भाषा थी। बड़ी सावधानी और दबी हुई सरसराहट से गिरजाघर के श्रोताओं ने अपनी चीजें समेटनी शुरू कर दी। लेकिन फ़ादर को अभी कुछ और कहना था। उसने कहा कि यह स्पष्ट कर देने के बाद कि यह प्लेग उनके गुनाहों की सज़ा देने के लिए परमेश्वर की तरफ़ से भेजी गई है, अन्त में कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ऐसे शोकपूर्ण मौके पर और कुछ कहना शोभा नहीं देगा। फ़ादर ने यह यक़ीन और उम्मीद ज़ाहिर की कि सब श्रोता अब अपनी असली हैसियत समझ गए होंगे। लेकिन मंच छोड़ने से पहले वह एक किस्सा बताना चाहेगा जो उसने मार्साई के प्राचीन इतिहास में प्लेग के बारे में पढ़ा था, जिसमें इतिहासकार मैथ्यू मैरे ने अपनी दुर्दशा का रोना रोया है। वह कहता है कि उसे नर्क में तड़प-तड़पकर मरने के लिए फेंक दिया है जहाँ न कोई मदद करने वाला है न कोई उम्मीद है। खैर! मैथ्यू मैरे अन्धा था! सबके लिए परमेश्वर की मदद और ईसाइयों-जैसी धार्मिक आशा की इतनी तीव्र आवश्यकता फ़ादर पैनेलो को कभी महसूस नहीं हुई थी जितनी कि आज हुई थी। उन्हें आशा थी, हालाँकि यह दुराशा-मात्र थी कि इन दुर्दिनों की विभीषिका के बावजूद, पीड़ित नर-नारियों के चीत्कार के बावजूद ओरान के नागरिक सच्चे ईसाइयों की तरह परमेश्वर से दुआ करेंगे-मुहब्बत की दुआ। बाक़ी काम परमेश्वर खुद सँभाल लेगा।

(1. केन : केन ने अपने भाई की हत्या करके दुनिया में सबसे पहला गुनाह किया था।
2. सोडोम और गोमोरा : बाइबिल में वर्णित प्राचीन शहर जो दुराचार की पराकाष्ठा के कारण तबाह हो गए थे।
3. जोब : परमेश्वर ने मुसीबतें भेजकर जोब की परीक्षा ली थी।
4.फ़राओ : मिस्र का निरंकुश बादशाह।)

दूसरा भाग : 4

इस प्रवचन का हमारे शहर के लोगों पर कुछ असर हुआ या नहीं यह कहना कठिन है। मजिस्ट्रेट मोशिए ओथों ने डॉक्टर रियो को यक़ीन दिलाया कि उसे पादरी की दलीलें ‘एकदम अकाट्य' मालूम हुई थीं। लेकिन सब लोग ऐसी अगाध श्रद्धा से प्रवचन के बारे में नहीं सोचते थे। कुछ की समझ में सिर्फ यही बात आई कि उन्हें किसी अनजाने गुनाह के लिए अनिश्चित काल की सज़ा मिली है। बहुत से लोगों ने अपने को इस कैद के अनुसार ढाल लिया और उनकी अति साधारण ज़िन्दगी का सिलसिला पहले की तरह जारी रहा। कुछ ऐसे भी थे जिनका मन विद्रोह कर उठा था और जिनके मन में इस वक़्त सिर्फ एक ही विचार उठ रहा था इस कैद से कैसे छुटकारा पाएँ!

शुरू में तो बाहर की दुनिया से सम्पर्क टूट जाने की हक़ीक़त को लोगों ने बिना शिकायत के मंजूर कर लिया, जैसे लोग किसी अस्थायी असुविधा को बर्दाश्त कर लेते हैं जो उनकी कुछ आदतों में ही दखल देती है। लेकिन अब अचानक उन्हें यह एहसास हुआ कि वे आसमान के नीले गुम्बद तले, गरमी की लपटों में झुलसते हुए, कैद काट रहे हैं। उनके मन में एक अज्ञात भाव उठा कि मौजूदा घटनाओं से उनकी सारी ज़िदगी ख़तरे में पड़ गई है और शाम को जब ठंडी हवा के झोंकों से उन्हें कुछ होश आता था, तो कैदियों की तरह बन्द रहने की यह अनुभूति कभी-कभी उन्हें बड़ी मूर्खतापूर्ण हरकतें करने के लिए मजबूर करती थी।

यह गौर करने की बात है हो सकता है यह निरा संयोग न हो, कि इस इतवार को प्रवचन के बाद शहर में बड़े पैमाने पर घबराहट फैल गई और लोगों के दिलों में इस तरह छा गई कि देखने वाले को शक हो सकता था कि हमारे शहर के लोगों को अब जाकर कहीं अपनी स्थिति का सही एहसास हुआ है। इस दृष्टि से देखने पर शहर का वातावरण कुछ बदला हुआ नज़र आता था। दरअसल प्रश्न यह था कि वातावरण बदल गया था या उनके दिल बदल गए थे!

प्रवचन के कुछ दिनों बाद जब रियो शहर के बाहर की एक बस्ती में जाते हुए ग्रान्द से इस तब्दीली पर बहस कर रहा था तो अँधेरे में उसकी टक्कर एक आदमी से हो गई जो फुटपाथ के बीचोबीच खड़ा बिना आगे चले कमर हिला रहा था। इसी वक़्त अचानक सड़क की बत्तियाँ जल उठीं। इन दिनों सड़क की बत्तियाँ काफ़ी देर से जलाई जाती थीं। रियो और उसके साथी के पीछे वाले लैम्प की रोशनी उस आदमी के चेहरे पर पड़ी। उसकी आँखें बन्द थीं और वह बिना आवाज़ के ही हँसे जा रहा था। उसके चेहरे पर पसीने की बड़ी-बड़ी बूंदें टपक रही थीं। एक मौन आनन्द से उसका चेहरा ऐंठ गया था।

“कोई पागल है," ग्रान्द ने राय दी।

रियो उसकी बाँह थामकर, उसे आगे ले जाने लगा तो उसने देखा कि ग्रान्द बुरी तरह से काँप रहा है।

"अगर हालात ऐसे ही रहे तो सारा शहर पागलखाना बन जाएगा,” रियो ने कहा। वह थक गया था, उसका गला सूख गया था। उसने कहा, “चलो चलकर शराब पिएँ!"

दोनों एक छोटे-से रेस्तराँ में पहुँचे। सिर्फ शराब के काउंटर के ऊपर के लैम्प से रोशनी आ रही थी। भारी हवा में एक अजीब-सी लाली थी, और न जाने क्यों सब लोग दबी आवाज़ में बातें कर रहे थे।

ग्रान्द ने जब बिना सोडे की शराब का एक छोटा गिलास माँगा और उसे एक ही छूट में पी गया तो डॉक्टर को बड़ा ताज्जुब हुआ। ग्रान्द ने कहा, “खूब तेज़ चीज़ है!" फिर उसने आगे चलने का सुझाव दिया।

बाहर सड़क पर आकर रियो को लगा जैसे रात फुसफुसाहटों से भरी है। सड़क के लैम्पों के ऊपर अँधेरी गहराइयों में हल्की सनसनाहट सुनकर रियो को उस अदृश्य मूसल का ध्यान आया जिसका ज़िक्र फ़ादर पैनेलो ने किया था, जो लगातार क्लान्त हवा में अनाज को कूट रहा था।

"खुशी की, खुशी की..." ग्रान्द बुदबुदाया और फिर ख़ामोश हो गया।

रियो ने उससे पूछा कि वह क्या कहना चाहता था?

"खुशी की बात है कि मेरे पास अपना काम है।"

“हाँ, कम-से-कम इस बात की तसल्ली तो है ही।" फिर जैसे हवा में बजने वाली पैशाचिक सीटी की आवाज़ से बचने के लिए उसने ग्रान्द से पूछा, क्या उसके काम का कोई नतीजा निकला है?

“हाँ, मेरा ख़याल है कि मैं आगे बढ़ रहा हूँ।"

"क्या बहुत ज़्यादा काम बाक़ी है?"

ग्रान्द ने अपने स्वभाव के विपरीत अत्यधिक उत्तेजना दिखाई। शराब पीने की वजह से उसके स्वर में गरमी आ गई थी।

“मैं नहीं जानता। लेकिन असली सवाल यह नहीं है डॉक्टर! मैं तुम्हें यकीन दिलाता है कि यह असली सवाल नहीं है।"

अँधेरे की वजह से साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था, लेकिन रियो को लगा कि ग्रान्द अपनी बाँहें हिला रहा था। वह कुछ कहने के लिए अपने को तैयार कर रहा था, और जब वह बोला तो शब्द एक साथ उसके मुँह से फूट पड़े।

"डॉक्टर, दरअसल मैं ये बातें चाहता है। जिस दिन मेरी रचना की पांडुलिपि प्रकाशक के पास पहुंचे तो वह उठकर खड़ा हो जाए यानी पांडुलिपि पढ़ने के बाद खड़ा हो और अपने दफ़्तर के कर्मचारियों से कहे, "हैट्स ऑफ़! जेन्टलमैन!"1

रियो स्तब्ध रह गया और उसकी हैरत और भी बढ़ गई जब उसने देखा, या उसे भ्रम हुआ कि ग्रान्द झटके से अपना हैट उतारकर आगे की तरफ़ बाँह बढ़ा रहा है। ऊपर हवा में सीटी की विलक्षण आवाज़ और भी तेज़ हो गई।

ग्रान्द ने कहा, "देखा! मैं चाहता हूँ कि मेरे काम में एक भी नुक्स न रहे।"

रियो साहित्य की दुनिया के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था, लेकिन उसे शक हुआ कि इतने शानदार और नाटकीय ढंग से घटनाएँ कभी नहीं होती, जैसा कि ग्रान्द बयान कर रहा था। मिसाल के लिए प्रकाशक दफ्तरों में हैट पहनकर नहीं बैठते। लेकिन क्या पता ऐसा होता भी हो, इसलिए रियो ने ख़ामोश रहना ही बेहतर समझा। अभी भी ऊपर हवा में गूंजती हुई प्लेग की पैशाचिक फुसफुसाहट उसके कानों में पड़ रही थी, हालाँकि वह उसे न सुनने की पूरी कोशिश कर रहा था। वे शहर के उस हिस्से में पहुँचे जहाँ ग्रान्द रहता था। कुछ ऊँची सतह पर होने के कारण, रात की ठंडी हवा के झोंके दोनों के गालों का स्पर्श कर रहे थे और शहर के कोलाहल को उनसे दूर ले जा रहे थे।

ग्रान्द बोलता जा रहा था, लेकिन रियो को उस शरीफ़ आदमी की सारी बातें समझ में नहीं आ रही थीं। वह इतना ही जान सका कि ग्रान्द आजकल जिस रचना को पूरा करने में लगा है, उसमें बहुत से पृष्ठ होंगे आर वह अपनी रचना को मुकम्मल रूप देने के लिए अनेक मानसिक यंत्रणाएँ झेल रहा है। "ज़रा सोचो तो सही, एक शब्द को सही करने में कई बार पूरे हफ़्ते गुज़र जाते हैं। कई बार तो वाक्यों को जोड़ने वाले एक शब्द पर इतना वक़्त लग जाता है।"

अचानक ग्रान्द रुक गया और उसने डॉक्टर के कोट का एक बटन पकड़ लिया। उसके दन्तविहीन पोपले मुँह में से शब्द लुढ़क रहे थे।

“मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ डॉक्टर! मैं मानता हूँ कि 'लेकिन' और 'तथा' में से चुनाव करना आसान है। 'तथा' और 'तब' में कौन-सा सही रहेगा इसका चुनाव ज़्यादा मुश्किल है। लेकिन सबसे मुश्किल चीज़ है यह जानना कि 'तथा' को वाक्य में लगाया जाए या काट दिया जाए।

“हाँ, मैं तुम्हारी बात समझ गया।" रियो ने कहा। रियो ने फिर आगे चलना शुरू कर दिया। ग्रान्द सकपका गया, फिर आगे बढ़कर रियो के साथ आ गया।

"माफ़ करना, न जाने आज शाम से मुझे क्या हो गया है!" ग्रान्द ने शर्मिन्दा आवाज़ में कहा।

रियो ने ग्रान्द का उत्साह बढ़ाने के लिए उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि उसे ग्रान्द की बातें बेहद दिलचस्प मालूम हुई हैं और वह ग्रान्द की मदद करना चाहता है। इससे ग्रान्द को कुछ तसल्ली हुई और जब वे ग्रान्द के घर पहुँचे तो ग्रान्द ने कुछ हिचकिचाहट के बाद डॉक्टर से कहा कि वह कुछ देर के लिए भीतर चले। रियो राज़ी हो गया।

वे डाइनिंग रूम में दाखिल हुए और ग्रान्द ने मेज़ के नज़दीक एक कुर्सी पर रियो को बिठाया। मेज़ पर काग़ज़ों का ढेर लगा था, जिन पर बहुत ही महीन अक्षर लिखे हुए थे और जगह-जगह पर अशुद्धियाँ ठीक की गई थीं।

डॉक्टर की सवालिया निगाह के जवाब में ग्रान्द ने कहा, "हाँ, यही मेरी पांडुलिपि है। लेकिन क्या तुम कुछ पिओगे नहीं? मेरे पास थोड़ी-सी शराब रखी है।"

रियो ने इनकार कर दिया। वह झुककर पांडुलिपि को देख रहा था।

“नहीं, इसे मत देखो। यहीं से मेरा वाक्य शुरू होता है जो मुझे बेहद परेशान कर रहा है।"

वह भी मेज़ पर रखे कागज़ों को देख रहा था और उसका हाथ किसी प्रबल आकर्षण से प्रेरित होकर एक कागज़ की तरफ़ बढ़ा। फिर वह कागज़ को उठाकर बिना शेड के बल्ब के पास ले गया। रोशनी में काग़ज़ का आरपार दीख रहा था। उसके हाथों में कागज़ काँप रहा था। रियो ने देखा कि ग्रान्द का माथा पसीने से गीला था।

“बैठ जाओ और यह कागज़ पढ़कर सुनाओ।" रियो ने कहा।

“हाँ, मैं भी चाहता हूँ कि तुम्हें पढ़कर सुनाऊँ।” ग्रान्द की आँखों में एक संकोचपूर्ण कृतज्ञता थी।

वह कुछ देर खड़ा रहकर कागज़ की तरफ़ देखता रहा, फिर बैठ गया। उधर रियो सड़कों से उठती हुई भिनभिनाहट को सुन रहा था जो प्लेग की सिसकियों का जवाब मालूम होती थी। उसी क्षण रियो की आँखों के सामने नीचे फैले शहर की साफ़ तस्वीर उभर आई, जो बाक़ी दुनिया से अलग और कटा हुआ था, जिसके अँधेरे में पीड़ा की दबी सिसकियाँ फैली थीं। फिर ग्रान्द का अत्यन्त धीमा लेकिन साफ़ स्वर उसके कानों में पड़ा।

'मई की एक सुहानी सुबह में एक शानदार घुड़सवार लड़की बोये द बोलोन के फूलों से ढकी सड़कों पर देखी जा सकती थी। वह एक खूबसूरत भूरे रंग की घोड़ी पर सवार थी।'

फिर ख़ामोशी छा गई, जिसमें पराजित शहर की अस्पष्ट शिकायत-भरी ध्वनि थी। ग्रान्द ने काग़ज़ मेज़ पर रख दिया था और उसकी तरफ़ ताके जा रहा था। कुछ देर बाद उसने आँखें ऊपर उठाई।

“इस बारे में तुम्हारी क्या राय है?" रियो ने कहा कि शुरू के वाक्य को सुनकर उसकी जिज्ञासा बढ़ गई है और वह इसके बाद की कहानी भी सुनना चाहता है। इस पर ग्रान्द ने कहा कि रियो ने गलत हिस्सा सुना है। ग्रान्द उत्तेजित दीख रहा था। उसने ज़ोर से अपनी हथेली मेज़ पर रखे कागज़ों पर दे मारी।

“यह तो अभी कच्चा मसौदा है। जब मैं मन की तस्वीर को बिलकुल सही ढंग से बयान कर सकूँगा, जब उस घुड़सवार की चाल की सही 'लय' को शब्दों में व्यक्त कर लूँगा–घोड़ा सरपट चाल से भाग रहा है, एक-दो-तीन, एक-दो-तीन–समझ गए मैं क्या कहना चाहता हूँ! बाक़ी की कहानी लिखने में ज़्यादा आसानी हो जाएगी और उससे भी बड़ी एक चीज़ मुमकिन हो जाएगी। कला का भ्रम इतना मकम्मल हो जाएगा कि पहले शब्दों को पढ़कर ही आदमी कह उठेगा, हैट्स ऑफ़!"

लेकिन उसने क़बूल किया कि इस सम्पूर्णता तक पहुँचने के लिए बड़ी सख्त मेहनत करनी पड़ेगी। इस वाक्य को वह इस रूप में हरगिज़ छपने के लिए नहीं दे सकता। कभी-कभी उसे इस वाक्य से सन्तोष भी हो जाता हैलेकिन उसे पूरा एहसास है कि यह वाक्य कला की दृष्टि से अभी दोषरहित नहीं है और कुछ हद तक शायद इसकी लय अति साधारण मालूम होती है। अति साधारणता से चाहे यह सम्बन्ध कितने ही दूर का हो, फिर भी दिखाई ज़रूर देता है। ग्रान्द ऐसी ही कोई बात कह रहा था जब उन्हें खिड़की से नीचे सड़क पर लोगों के भागने की आवाजें सुनाई दीं। रियो खड़ा हो गया।

“कुछ दिन बाद देखना मैं इसे कितनी शानदार चीज़ बनाऊँगा!" ग्रान्द ने कहा।

फिर उसने खिड़की की तरफ़ देखा, “जब यह सारा हंगामा खत्म हो जाएगा।"

लेकिन इसी वक़्त भागते हुए लोगों के क़दमों की आवाज़ फिर सुनाई दी। रियो आधा जीना पार कर चुका था और जब वह बाहर सड़क पर पहुँचा तो दो आदमी उसे छूते हुए पीछे निकल गए। मालूम होता था कि वे शहर के फाटकों में से एक फाटक की तरफ जा रहे थे। दरअसल प्लेग और गरमी से हमारे शहर के कुछ लोग अपना मानसिक सन्तुलन खो रहे थे। मारपीट की बहुत-सी घटनाएं हो चुकी थीं और हर रात सन्तरियों को चकमा देकर बाहर की दुनिया में भागने की कोशिशें की जाती थीं।

(1. यूरोप में आदर प्रदर्शित करने के लिए सिर से हैट या टोपी उतार ली जाती है।)

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