प्लेग (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू; अनवादक : शिवदान सिंह चौहान, विजय चौहान
The Plague (French Novel in Hindi) : Albert Camus
तीसरा भाग : 1
इस तरह हर हफ्ते प्लेग के क़ैदी भरसक संघर्ष करते रहे। कुछ तो रेम्बर्त की तरह यह कल्पना भी करने लगे कि वे अभी तक आजाद हैं और वे मन-पसन्द बातें कर सकते हैं। लेकिन दरअसल यह कहना ज्यादा सही होता कि इस वक्त तक जब अगस्त का आधा महीना गुजर चुका था, प्लेग ने हर चीज़ और हर आदमी को निगल लिया था । अब किसी व्यक्ति की अलग क़िस्मत नहीं थी— सबकी एक ही क़िस्मत थी, जो प्लेग से और सबकी सांझी भावनाओं से बनी थी। सबसे शक्तिशाली भावना निर्वासन और वंचना की थी जिससे विद्रोह और भय की तरंगें भी पैदा हो गई थीं। इसी लिए कथाकार के विचार में यह क्षण, जिसमें गरमी और बीमारी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी थी, जिन्दा लोगों की ज्यादतियों, लाशों के दफ़न और विरही प्रेमियों का चित्रण करने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है ।
कई दिन तक प्लेग से पीड़ित शहर में लू चलती रही । ओरान के लोग खास तौर पर हवा से डरते हैं, क्योंकि जिस पठार पर शहर बना है उसमें आंधी और लू को रोकने का कोई कुदरती तरीका नहीं है, हवा बिना किसी रोक-टोक के प्रचण्ड रूप से सड़कों पर आफत मचा सकती है । उन महीनों में जब बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी थी, जिससे शहर में ताजगी आ सकती, हर चीज पर धूल की परत चढ़ गई थी, जो हवा के जोर से उड़कर धूल के बादलों में बदल गई। धूल और हवा में उड़ते हुए काग़ज़ के टुकड़े लोगों की टाँगों से टकराने लगे, सड़कें पहले से भी ज्यादा वीरान नज़र आने लगीं। सिर्फ़ थोड़े-से लोग तेज़ क़दमों से कमर झुका-कर, रूमालों से मुँह ढककर चलते नज़र आते थे। रात पड़ने पर भी पहली जैसी भीड़ों की जगह जब हर आदमी यह सोचकर दिन को लम्बा करने की कोशिश करता था कि शायद यह उसकी जिन्दगी का आखिरी दिन हो, अब लोगों को छोटे-छोटे झुण्ड तेजी से अपने घरों या मनपसन्द कॉफ़ी हाउसों की तरफ़ बढ़ते हुए नज़र आते थे । इसके परिणामस्वरूप अँधेरा होते ही सड़कें खामोश और खाली हो जाती थीं, सिर्फ़ लू की कर्कश साँय-साँय सुनाई देती थी । अदृश्य तूफ़ानी समुद्र से नमक और समुद्री पौधों की गन्ध आ रही थी । सूने शहर के बढ़ते हुए अँधेरे में शहर पर धूल की चादर बिछ जाती थी, समुद्र का कड़वा भाग आकर शहर को धो जाता था, हवा का कर्कश स्वर सुनाई देता था। ऐसे में हमारा शहर एक अभिशप्त द्वीप की तरह दिखाई देता था ।
अभी तक शहर के केन्द्रीय भाग की अपेक्षा उन इलाक़ों में ही प्लेग से ज्यादा मौतें हुईं थीं जहाँ आबादी ज्यादा थी या जहाँ मकान ठीक तरतीब से नहीं बने थे । लेकिन अचानक ही प्लेग ने नया हमला किया और शहर के व्यावसायिक केन्द्र पर कब्जा कर लिया। लोगों ने हवा पर छूत फैलाने का इल्जाम लगाया । होटल मैनेजर के शब्दों में, हवा ने प्लेग के कीटाणुओं का 'प्रसार' किया था । चाहे कोई भी कारण रहा हो शहर के केन्द्रीय इलाक़ों में रहने वाले लोग जब हर रात एम्बुलेन्स गाड़ियों की आवाज़ सुनते थे, जो उनकी खिड़कियों के नीचे प्लेग की शोकपूर्ण भावना- शून्य घंटियां बजाकर उन्हें जगाती थीं, तो उन्हें एहसास होता था कि अब उनकी बारी भी आ गई है ।
अधिकारियों का इरादा था कि जहाँ प्लेग का प्रकोप अधिक है उन इलाकों को बाक़ी शहर से अलग कर दिया जाए और उन्हीं लोगों को उस इलाके में जाने दिया जाए जिनका वहाँ जाना बहुत ही ज़रूरी हो । इन इलाक़ों के लोग समझने लगे कि ये पाबंदियाँ खास तौर पर उन्हीं के लिए लागू की गई हैं, इसलिए वे दूसरे इलाक़ों में रहने वाले लोगों से ईर्ष्या करने लगे, क्योंकि उन्हें अपेक्षाकृत अधिक आज़ादी थी। दूसरे इलाक़ों के लोग निराशा के क्षणों में अपना दिल खुश करने के लिए उन लोगों की दुर्दशा की कल्पना करने लगे जिन्हें उनसे कम आज़ादी थी। उन दिनों लोगों के पास सान्त्वना का एक ही साधन था, "जो भी हो, कइयों की हालत तो मुझसे भी गई- गुजरी है ।"
उसी वक्त शहर में आग लगने की घटनाएँ शुरू हो गईं, विशेषकर पश्चिमी फाटक के नजदीक के मुहल्लों में । जाँच के बाद पता चला कि जो लोग छूत की बारकों में रहकर लौटे थे वे ही आग की इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार थे । बेचैनी और रिश्तेदारों की मौत से वे अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठे थे और वे इस विचित्र भ्रम में आकर मकानों को आग लगा रहे थे कि प्रचण्ड अग्नि में प्लेग का नाश हो जाएगा। इस किस्म की आग को बुझाना बड़ा कठिन हो गया था, जिसकी संख्या इतनी ज्यादा थी और जो इतनी बार लगती थी कि कई इलाक़ों को खतरा पैदा हा गया था, क्योंकि इन दिनों बड़ी तेज़ हवाएँ चल रही थीं। अधिकारियों ने नेक इरादों से आग लगाने वालों को बहुत समझाने की कोशिश की कि उनके घरों में सरकार की तरफ़ से जिन कीटाणुनाशक दवाइयों का धुआँ दिया गया है उसके बाद उन्हें छूत लगने का कोई डर नहीं, लेकिन जब ये कोशिशें बेकार गईं तो इस तरह की आग लगाने वालों के लिए लम्बी सजाएँ घोषित की गईं। शायद सिर्फ़ क़ैद के डर से इन दुःखी लोगों ने अपनी हरकतें नहीं बंद कीं, बल्कि उन दिनों यह आम खयाल था कि जेल की सजा मौत की सजा के बराबर है, क्योंकि शहर की जेल में बड़ी तादाद में मौतें होती थीं। यह मानना पड़ेगा कि लोगों के इस खयाल में कुछ-न-कुछ सचाई ज़रूर थी । ऐसा मालूम होता था कि प्लेग प्रत्यक्ष कारणों से सबसे अधिक प्रचंड आक्रमण उन लोगों पर करती थी जो मजबूरी से या अपनी मरजी से दूसरों के साथ रहते थे; मिसाल के लिए सिपाही, कैदी, पादरी और पादरिने । हालाँकि कुछ क़ैदियों को औरों से अलग रखा जाता है फिर भी जेल एक किस्म की बिरादरी होती है । इस बात का सबूत यह है कि हमारे शहर की जेल में प्लेग से जितनी मौतें कैदियों की होती थीं उसी के अनुपात में वॉर्डरों की भी मौतें होती थीं। प्लेग किसी का लिहाज या इज्ज़त नहीं करती थी और उसके निरंकुश शासन में गवर्नर से लेकर मामूली अपराधी भी एक-सी सजा भुगत रहा था और जेल के इतिहास में शायद पहली बार निष्पक्ष रूप से इन्साफ हो रहा था ।
प्लेग भेद-भावों को समतल कर रही थी, इसे दूर करने के लिए अधिकारियों ने छोटे-बड़े का वर्गीकरण किया। वे चाहते थे कि जो वॉर्डर अपना कर्तव्य पालन करते हुए मौत का शिकार हुए थे उन्हें तमगे दिये जाएँ, लेकिन ये कोशिशें बेकार साबित हुई। चूंकि मार्शल लॉ घोषित हो चुका था इसलिए एक लिहाज से वॉर्डरों को भी ड्यूटी पर समझा जा सकता था । उन्हें मृत्यु के बाद फ़ौजी मैडल दिये गए। कैदियों ने इसके खिलाफ कुछ नहीं कहा लेकिन फ़ौजी क्षेत्रों में इस बात पर सख्त एतराज़ उठाया गया। यह कहा गया, और यह तर्कसंगत भी था कि इसके परिणामस्वरूप जनता के मन में एक अत्यन्त खेदजनक ग़लतफ़हमी और घबराहट फैल जाएगी । नागरिक अधिकारी इस दलील के आगे झुक गए और उन्होंने तय किया कि जो वॉर्डर अपना काम करते हुए मौत के शिकार हुए थे उन्हें 'प्लेग मैडल' दिये जाएँ । चूँकि पहले जिन लोगों को फ़ौजी तमगे मिले थे उसका बुरा असर पड़ चुका था । उन तमग़ों को अब वापस लेने का सवाल नहीं उठता था, इसलिए फ़ौजी क्षेत्रों में अभी भी असन्तोष छाया हुया था । इसके अलावा प्लेग के तमगे में एक और भी कमी थी, क्योंकि उसका नैतिक असर फ़ौजी पुरस्कार से कहीं कम था क्योंकि महामारी के ज़माने में लोगों को ऐसे तमगे तो आसानी से ही मिल जाते हैं, इसलिए कोई भी सन्तुष्ट नहीं था ।
एक और दिक्कत यह थी कि जेल के अधिकारी धार्मिक और कुछ हद तक फौजी अधिकारियों द्वारा अपनाये हुए तरीकों का अनुसरण नहीं कर सकते थे। शहर के दोनों मठों के संन्यासियों को मठों से निकालकर फ़िलहाल कुछ धार्मिक विचारों वाले परिवारों के साथ रख दिया गया था । इसी तरह जब भी सम्भव हो सका छोटे-छोटे दलों में लोगों को बारकों से निकालकर स्कूलों या अन्य सार्वजनिक संस्थानों में टिका दिया गया था । इस तरह बीमारी ने, जिसने प्रकट रूप से हमारे घिरे हुए शहर में मजबूरन एकता पैदा की थी, सदियों से बसी हुई बिरादरियों को विच्छिन्न कर दिया और उन्हें अलग बाहर रहने के लिए खदेड़ दिया। इस बात से भी सबकी बेचैनी बढ़ गई थी ।
इस बात की कल्पना की जा सकती है कि इन परिवर्तनों और तेज हवा ने मिलकर कुछ लोगों के मन पर कैसा विस्फोटक प्रभाव डाला होगा। शहर के फाटकों पर अक्सर हमले होते थे और अब हमला करने वाले हथियार- बंद होकर आते थे। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलती थीं, कुछ लोग जख्मी भी होते थे और थोड़े-से लोग भागने में कामयाब हो गए थे। इसके बाद संतरियों की चौकियों पर सिपाहियों की संख्या बढ़ा दी गई और भागने की कोशिशें भी फौरन कम हो गईं। फिर भी इन घटनाओं से हिंसा की एक क्रान्तिकारी लहर पैदा हुई चाहे वह छोटे पैमाने पर ही थी । जिन मकानों को सफ़ाई के महकमे के अधिकारियों ने जला दिया था या बंद करवा दिया था, उन्हें लूट लिया गया। लेकिन ये घटनाएँ सोच-समझकर पहले से ही तैयारी करके हुई थीं यह नहीं कहा जा सकता था। आम तौर पर क्षणिक प्रलोभन के कारण शिष्ट व्यक्ति भी ऐसी हरकतें कर बैठते थे जिनकी दूसरे लोग फ़ौरन नकल करते थे। कभी-कभी क्षणिक उन्माद में आकर कोई आदमी मकान मालिक की नज़रों के सामने ही किसी जलते हुए मकान में घुस जाता था और मकान मालिक शोक से विमूढ़ खड़ा आग की लपटों को देखता रहता था । उसकी उदासीनता देखकर बहुत से तमाशबीन पहले आदमी का अनुकरण करते थे और देखते-ही-देखते अंधेरी सड़क पर दौड़ने वालों की भीड़ लग जाती थी । बुझती हुई लपटों की मद्धिम लाली में जब वे घर से सजावट का सामान या फ़रनीचर अपने कंधों पर लादकर बाहर निकलते थे तो वे कुबड़े और कुरूप बौने से दिखाई देते थे । इस तरह की वारदातों से मजबूर होकर ही अधिकारियों ने मार्शल लॉ की घोषणा की थी और फ़ौजी क़ायदे लागू किये थे । मकान लूटने वाले दो आदमियों को गोली मार दी गई थी। लेकिन हमें शक है कि इससे लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा था । हर रोज़ इतनी मौतें होती थीं कि इन दो सजाओं की किसी को परवाह ही नहीं थी, ये समुद्र में बूंद के समान थीं। दरअसल इस तरह की वारदातें अक्सर होती रहीं और अधिकारियों ने उनमें दखल देने की कोई कोशिश नहीं की, दिखावे के लिए भी नहीं। सिर्फ़ एक नियम का ही नागरिकों पर कुछ असर हुआ, वह था कर्फ्यू ऑडर । ग्यारह बजे के बाद शहर में एकदम अँधेरा छा जाता था । ऐसे में ओरान एक विशाल कब्रिस्तान की तरह दिखाई देता था ।
चाँदनी रातों में सीधी-लंबी सड़कें और मैली-सफ़ेद दीवारें, जिन पर कहीं किसी वृक्ष की भी परछाईं नहीं थी और जिनकी निस्तब्धता में किसी के क़दमों या कुत्ते के भूँकने की आवाज भी नहीं आती थी, पीली मद्धिम रोशनी में चमकती रहती थीं। खामोश शहर अब सिर्फ विशाल, मुर्दा, घनाकार आकृतियों का संग्रह-मात्र रह गया था जिसमें महान् व्यक्तियों के काँसे के खोल चढ़े बुत खड़े थे । उनके पत्थर या धातु के बने भावहीन चेहरों और उनकी असली शक्ल में एक शोकपूर्ण साम्य था । सूने चौकों और एवेन्यु में ये दिखावटी बुत झुकते आसमान तले अपनी हुकूमत जमाए थे; हो सकता था ये जड़ राक्षस जड़ता के उस शासन के प्रतीक हों जो ज़बरदस्ती हमारे ऊपर लादा गया था, या उस शासन के अंतिम पहलू हों- एक ऐसे निष्प्राण शहर के प्रतीक जिसमें प्लेग, पत्थरों और अँधेरे ने मिलकर हर आवाज़ को बंद कर दिया था ।
लेकिन अंधेरा लोगों के दिलों में भी था। मुर्दों को दफन करने के बारे में जिस तरह की बे- सिर-पैर की अफ़वाहें हमारे शहर में फैली हुई थीं, उसी तरह उन्हें आश्वस्त करने वाले तथ्यों की तरफ़ उतना ही कम ध्यान दिया जाता था । कथाकार इन मुर्दों के दफन किए जाने की चर्चा किये बगैर नहीं रह सकता, इसलिए माफी का एक शब्द यहाँ उचित ही होगा, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि लोग इस मामले में उसकी भर्त्सना करेंगे । कथाकार यह सफ़ाई देता है कि इस काल में लगातार लोग दफ़नाए जाते रहे और दफ़नाने का ढंग ही कुछ ऐसा था कि एक माने में न सिर्फ़ कथाकार ही बल्कि सब लोग उनकी तरफ ध्यान देने के लिए मजबूर हो गए थे। खैर, जो भी हो, यह नहीं समझ लेना चाहिए कि कथाकार को ऐसी रस्मों के प्रति अस्वस्थ मोह है, बल्कि इससे विपरीत उसे ज़िन्दा लोगों की सोहबत ज्यादा पसन्द है— इसकी जीती-जागती मिसाल समुद्र-स्नान है । लेकिन नहाने के घाट पहुंच से बाहर थे और जिन्दा लोगों की सोहबत दिन-ब-दिन खतरनाक होती जा रही थी और मुर्दों की सोहबत में बदलती जा रही थी । यह तो जाहिर ही था । इसमें शक नहीं कि अगर कोई चाहता तो हमेशा इस अप्रिय सचाई का सामना करने से इन्कार कर सकता था, उस तरफ़ से अपनी आँखें मूंद सकता था या उसे अपने दिल से निकाल सकता था । लेकिन इस प्रत्यक्ष सचाई में एक भयंकर और अकाट्य तर्क है । अन्त में यह तर्क तमाम बचाव के सभी साधनों को छिन्न-भिन्न कर देता है। मिसाल के लिए जिस दिन आपके किसी प्रियजन को दफ़नाने की ज़रूरत हो तो आप भला मुर्दों के दफन के प्रति कैसे लापरवाही दिखा सकते हैं !
दरअसल जिस रफ़्तार से मुर्दे दफ़नाए जाते थे उसे देखकर हैरानी होती थी । सारी औपचारिकताएँ धीरे-धीरे खत्म हो गई थीं और साधारण तौर पर यह कहा जा सकता है कि ऐसी तमाम रस्मों पर, जो जटिल और विस्तृत थीं, पाबन्दी लगा दी गई थी। प्लेग का मरीज अपने परिवार के लोगों से दूर ही मर जाता था और रस्म के मुताबिक लाश की निगरानी करने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप अगर कोई आदमी शाम के वक्त मरता था तो उसकी लाश रात भर अकेली ही रहती थी, जो दिन के वक्त मरते थे उन्हें फ़ौरन दफना दिया जाता था । परिवार के लोगों को खबर तो दी ही जाती थी, लेकिन अधिकांश केसों में चूंकि मृतक मरीज मरने से पहले परिवार में रह चुका होता था इसलिए परिवार के सभी लोग छूत के वार्ड में होते थे और उनकी सारी हलचलें खत्म हो जाती थीं । लेकिन अगर मृतक परिवार में नहीं रहा होता था तो परिवार के लोगों को सूचित किया जाता था कि वे निश्चित समय पर जनाज़े का साथ दें-- अर्थात् जब लाश को नहलाकर ताबूत में डाल दिया जाता था और जनाज़े को क़ब्रिस्तान ले जाने का वक्त आता था, तब कहीं परिवार के लोग वहाँ पहुँचते थे ।
मिसाल के लिए हम कल्पना कर सकते हैं कि यह सारी कार्यवाही उस सहायक हस्पताल में हो रही थी, जिसके इन्चार्ज डॉक्टर रियो थे । यह स्कूल की इमारत थी जिसे अस्पताल में बदल दिया गया था । मुख्य इमारत के पिछवाड़े बाहर निकलने का एक दरवाजा था । बरामदे के एक स्टोर में ताबूत जमा किये गए थे। जब मृतक के परिवार के लोग वहाँ पहुँचे तो उन्होंने बरामदे में एक ताबूत देखा जिसे पहले से ही कीलों से बन्द कर दिया गया था। इसके बाद सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यवाही शुरू हुई। परिवार के मुखिया को सरकारी काग़ज़ों पर दस्तखत करने थे । इसके बाद ताबूत को एक मोटरगाड़ी में रख दिया गया । यह मुर्दागाड़ी थी, या एक बड़ी एम्बुलेन्स को मुर्दागाड़ी में तब्दील कर दिया गया था । मातम करने वाले एक टैक्सी में बैठ गए, कुछ टैक्सियाँ अभी भी अधिकारियों की इजाजत से चलती थीं। दोनों गाड़ियाँ तेज़ रफ़्तार से शहर के केन्द्र से बचते हुए एक दूसरे रास्ते से क़ब्रिस्तान की तरफ़ चल पड़ीं। फाटक पर एक चौकी के सामने सब गाड़ियां रुकती थीं जहाँ पुलिस के अफ़सर बाहर निकलने के सरकारी परमिट पर मोहर लगाते थे । इस मोहर के बगैर हमारे नागरिकों को क़ब्रिस्तान में, जिसे अन्तिम विश्राम स्थल कहते हैं, जगह नहीं मिल सकती थी । पुलिसमैन एक तरफ़ हट गया और कारें ज़मीन के एक टुकड़े के पास आकर रुकीं जहाँ बहुत सी क़ब्रें खुदी थीं और मेहमानों का इन्तज़ार कर रही थीं । एक पादरी शोक करने वालों से मिलने आया, क्योंकि अब मुर्दों को दफ़नाने के वक्त धार्मिक रस्मों पर पाबंदी लगा दी गई थी । प्रार्थनाओं के साथ ताबूत को मुर्दागाड़ी से घसीटकर उतारा गया और रस्सियों से बाँधकर क़ब्र के नजदीक लाया गया, रस्से खींच लिये गए और ताबूत अपना बोझ लिये क़ब्र के तले में विश्राम के लिए पहुँच गया। पादरी ने पवित्र जल छिड़कना शुरू किया ही था कि ताबूत के ढक्कन पर जोर से मिट्टी गिरने की आवाज आई। एम्बुलेन्स पहले से ही जा चुकी थी और उसे कीटाणुनाशक दवाई छिड़ककर साफ़ किया जा रहा था। इधर क़ब्र पर मिट्टी का ढेर बढ़ता जाता था और कुदालों से मिट्टी डालने की विषादपूर्ण आवाज आ रही थी, उधर परिवार के लोग टैक्सी में पुलिन्दों की तरह भरे जा रहे थे । पन्द्रह मिनट बाद वे घर वापस पहुँच गए।
इस सारी कार्यवाही को कम-से-कम जोखिम और ज्यादा-से-ज्यादा तेज़ रफ़्तार से पूरा किया गया। इसमें शक नहीं कि प्लेग के शुरू के दिनों में मृतकों के सम्बन्धियों की सहज भावनाओं को इस तेज रफ़्तार की कार्यवाही से चोट पहुँची थी। लेकिन यह जाहिर था कि प्लेग के जमाने में ऐसी भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जा सकता, इसलिए कार्यकुशलता पर सब-कुछ न्योछावर कर दिया गया, हालाँकि दफ़नाने के इस संक्षिप्त तरीके से शुरू में लोगों का मनोबल डावांडोल हो गया था। आम तौर पर लोगों को यह नहीं मालूम होता कि सम्बन्धियों को अच्छी तरह दफ़नाने की भावना कितनी प्रबल होती है । लेकिन ज्यों-ज्यों वक्त गुज़रता गया हमारे शहर के लोगों का ध्यान अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं पर केन्द्रित होने लगा । खाद्य समस्या गम्भीर हो गई। सरकारी काग़ज़ों की खानापूरी, खाने की चीजों को तलाश करने और दुकानों-दफ्तरों के आगे क़तारों में खड़े होने में ही लोगों का सारा वक्त कट जाता था। उन्हें यह सोचने की फ़ुरसत नहीं थी कि उनके आसपास लोग किस तरह मर रहे हैं और किसी दिन वे खुद भी इसी तरह मर जाएंगे। इस तरह हमारे दैनिक जीवन की बढ़ती हुई पेचीदगियों से जो मुसीबतें थीं एक माने में हमारे लिए वरदान साबित हुईं । दरअसल अगर प्लेग इतनी तबाही न मचाती तो जो होता भलाई के लिए होता ।
उस वक्त ताबूतों की, मुर्दों को लपेटने के कफ़नों की और कब्रिस्तान में जगह की कमी हो गई । इस सिलसिले में फ़ौरन कोई कदम उठाना ज़रूरी था और व्यावहारिक सुविधा के लिहाज से यह जरूरी हो गया कि बहुत से लोगों को एक ही कब्र में दफना दिया जाए और जरूरत पड़ने पर हस्पताल और कब्रिस्तान के बीच मुर्दागाड़ी के चक्कर बढ़ा दिए जाएँ। एक बार तो रियो के हस्पताल में सिर्फ़ पाँच ही ताबूत रह गए। जब पाँचों सन्दूक लाशों से भर गए तो उन्हें एक-साथ एम्बुलेन्स में लाद दिया गया । क़ब्रिस्तान पहुंचकर सन्दूकों को खाली कर दिया गया और लोहे जैसे भूरे रंग की लाशों को स्ट्रेचरों पर रखकर एक छप्पर में पहुँचा दिया गया जो खास तौर से इसी लिए बनाया गया था । वहाँ लाशें अपने दफन होने का इन्तज़ार करने लगीं। इस बीच खाली ताबूतों में कीटाणुनाशक दवा छिड़की गई और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। जब भी जरूरत पड़ती, लाशें दफनाने का यह तरीका अख्तियार किया जाता । यह तरीका कामयाब रहा और प्रीफ़ेक्ट ने इसका समर्थन किया। यहाँ तक कि उसने रियो से यह भी कहा कि किताबों में प्लेग के वर्णनों में लिखा है कि हब्शी लोग लाशों से भरे छकड़े खींचा करते थे । उससे तो मौजूदा तरीका कहीं बेहतर है।
"हाँ," रियो ने कहा । " इस बार भी प्लेग में उतने ही लोग मरते और दफ़नाए जाते हैं जितने कि पुराने जमाने की प्लेग में दफनाए जाते थे, लेकिन अब हम मौत के आँकड़े रखते हैं । आपको मानना पड़ेगा कि इसी का नाम प्रगति है ।"
हालांकि व्यावहारिक रूप में यह पद्धति सफल रही, लेकिन जिस तरीके से मृतकों को दफनाया जाता था, उसकी वजह से प्रीफेक्ट को भी मजबूर होकर पाबंदी लगानी पड़ी कि लाश को कब्र में दफनाते वक्त मृतक का कोई रिश्तेदार वहाँ मौजूद न रहे । यह हुक्म जारी करने में उसे काफी तकलीफ थी। रिश्तेदारों को सिर्फ क़ब्रिस्तान के फाटकों तक आने की इजाजत थी, वह भी सरकारी तौर पर नहीं । जहाँ तक दफ़नाने की आखिरी रस्म का सवाल था, स्थिति बहुत कुछ बदल चुकी थी । कब्रिस्तान के एक सुदूर कोने में जमीन के एक खुले टुकड़े में, जहाँ कहीं-कहीं मस्तगी के पेड़ लगे थे, दो बड़े गड्ढे खोदे गए थे। एक मर्दों के लिए सुरक्षित था और दूसरा औरतों के लिए। इस लिहाज से अधिकारी अभी तक औचित्य को महत्त्व देते थे । बाद में जाकर परिस्थितियों की मजबूरी से शालीनता के इस बचे-खुचे अंश को भी तिलांजलि दे दी गई और अंधाधुन्ध मर्दों और औरतों की लाशों को गड्ढों में फेंका गया । तसल्ली सिर्फ इसी बात की है कि यह अपमानजनक कार्यवाही प्लेग की तबाही के आखिरी दौर में हुई ।
जिस दौर की हम अब चर्चा कर रहे हैं, उसमें अभी तक मर्द और औरतों की लाशों को अलग-अलग रखा जाता था और अधिकारी इस बात पर जोर देते थे। हर गड्ढे के नीचे बिना बुझाये हुए चूने की एक गहरी परत बिछा दी गई थी, जो जोर से खौलता था और जिसमें से भाप उठती थी। गड्ढे के ओंठों के पास चूने की एक मेड़ में से बुलबुले उठ रहे थे जो ऊपर आकर हवा में फूट जाते थे । जब एम्बुलेन्स अपना काम खत्म कर चुकती थी तो स्ट्रेचरों को सीधी क़तार में गड्ढों के पास लाया जाता था । नंगी लाशें, जो ऐंठकर बदसूरत हो जाती थीं, एकसाथ गड्ढे में धकेल दी जाती थीं और उन पर चूने की परत बिछाकर मिट्टी डाल दी जाती थी । मिट्टी की परत सिर्फ़ कुछ इंच गहरी होती थी, ताकि बाद में आने वाले लाशों के ढेर के लिए जगह की गुंजाइश रखी जा सके। अगले दिन मृतकों के रिश्तेदारों से मुर्दों के रजिस्टर में दस्तखत करने के लिए कहा जाता था, जिससे जाहिर होता है कि इन्सान और दूसरे जीवों की मौत में, मिसाल के लिए कुत्तों की मौत में, फ़र्क किया जा सकता है । इन्सानों की मौतें बाक़ायदा रजिस्टर में दर्ज की जाती हैं और आँकड़ों का सावधानी से हिसाब रखा जाता है ।
जाहिर है कि इन तमाम कामों के लिए बहुत से स्टाफ़ की जरूरत थी और अक्सर रियो के पास काम करने वालों की कमी रहती थी। बहुत से कब्र खोदने वाले, स्ट्रेचर उठाने वाले और इसी तरह के लोग, जो सरकारी नौकर थे और बाद में कई लोग अपनी मरज़ी से भी यह काम करने लगे थे, प्लेग से मर चुके थे । चाहे कितनी ही सावधानियाँ बरती गईं, लेकिन आखिरकार छूत ने अपना असर किया ही । लेकिन तमाम बातों के बावजूद सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि जब तक महामारी चलती रही, इन कामों के लिए लोगों की कोई कमी नहीं महसूस हुई। नाजुक वक्त तब आया जब महामारी अपने शिखर पर थी। डॉक्टर की परेशानी स्वाभाविक ही थी। उस वक्त ऊंचे ओहदों और सख्त कामों, दोनों के लिए कर्मचारियों की कमी हो गई । रियो दफ़नाने वालों के काम को सख्त काम कहता था । लेकिन जरा यह विरोधाभास देखिए कि जब सारा शहर बीमारी की पकड़ में आ गया तो प्लेग ने ही परिस्थितियों को आसान बना दिया, क्योंकि शहर की आर्थिक ज़िन्दगी के विच्छिन्न हो जाने से बहुत से लोग बेकार हो गए थे। इनमें से बहुत कम प्रशासनिक ओहदों के क़ाबिल थे, लेकिन मोटे-मोटे काम के लिए लोगों को भरती करना बहुत आसान हो गया । इसके बाद से डर की बजाय ग़रीबी ज्यादा बड़ी प्रेरक शक्ति बन गई, क्योंकि जोखिम की वजह से ऐसे काम करने वालों को ज्यादा तनख्वाह मिलती थी । सफ़ाई करने वालों के पास काम चाहने वालों की अर्ज़ियों की एक सूची थी। जब भी कोई जगह खाली होती तो उन लोगों को खबर दे दी जाती जिनका नाम सूची में सबसे ऊपर होता था । अगर ये लोग ज़िन्दा रहते थे तो बुलाए जाने पर ज़रूर हाजिर होते थे । प्रीफेक्ट, जो हमेशा से जेल के कैदियों को काम पर लगाने से हिचकिचाता था, इस अप्रिय क़दम को उठाने की मजबूरी से बच गया। उसने कहा कि जब तक बेकार लोग मौजूद हैं हम इन्तज़ार कर सकते हैं, कैदियों से काम लेने की कोई जरूरत नहीं ।
इस तरह अगस्त के अंत तक हमारे शहरियों की लाशों को उनके अंतिम विश्राम स्थल तक पहुँचाया जाता रहा, शालीन ढंग से नहीं तो कम- से-कम इतने व्यवस्थित ढंग से कि अधिकारी महसूस करते थे कि वे मृतकों और उनके रिश्तेदारों के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। खैर हम यहाँ आने वाली घटनाओं का थोड़ा अंदाज़ लगा सकते हैं और उन परिस्थितियों को बयान कर सकते हैं जिनमें से हमें प्लेग के आखिरी दौर में गुज़रना पड़ा । अगस्त के बाद से इतनी मौतें होने लगीं कि हमारे शहर के छोटे-से कब्रिस्तान में और लाशों को दफ़नाने की गुंजाइश ही नहीं रही। दीवारों को गिराकर पड़ोसियों की जमीन में भी दखल देने के सुविधाजनक तरीके अपनाये गए, लेकिन वे पर्याप्त नहीं थे । फ़ौरन ही किसी नये तरीके के अपनाने की जरूरत थी। पहला कदम यह उठाया गया कि लाशों को रात के वक्त दफ़नाया जाने लगा। जाहिर है कि रात को दफ़नाने की कार्यवाही अधिक संक्षिप्त की जा सकती थी । एम्बुलेन्सों में ज्यादा तादाद में लाशों के ढेर लगाए जाने लगे । कर्फ्यू के बाद जो लोग शहर के बाहर की बस्तियों में घूमते थे या जो अपनी ड्यूटी की वजह से बाहर निकलते थे, उन्हें अक्सर लंबी सफ़ेद एम्बुलेन्स गाड़ियाँ तेज रफ्तार से गुज़रती हुई दिखाई देती थीं । गाड़ियों की घंटियों की नीरस खनखनाहट से आसपास की सारी सड़कें गूंज उठती थीं । लाशों को अंधाधुंध गड्ढों में गिरा दिया जाता था, और गड्ढे में पहुँचते ही कुदालें भर-भरकर बिना बुझा चूना उनके ऊपर डाला जाता था, जिससे उनके चेहरे जल जाते थे। सबके ऊपर एक साथ मिट्टी डाल दी जाती थी वक्त के साथ-साथ गड्ढों को और भी ज्यादा गहरा खोदा जाने लगा ।
कुछ दिनों बाद ही नयी जगह तलाश करने के लिए नये क़दम उठाने की जरूरत पड़ गई । संकटकालीन तरीके के तौर पर नागरिकों की लाशों के अवशेषों को कब्रों से निकालकर जलाने के लिए भेजा गया और इसके बाद लाशों को जलाया जाने लगा। इसके फलस्वरूप शहर के पूर्व में, फाटकों से बाहर बना श्मशान काम में लाया जाने लगा । पूर्वी फाटक के संतरियों की चौकी को अपनी जगह से हटाकर और आगे भेज दिया गया । फिर म्युनिसिपैलिटी के एक कर्मचारी को एक ऐसी तरकीब सूझी जिससे मुसीबतजदा अधिकारियों को काफ़ी मदद मिली। उसने सलाह दी कि समुद्र तट की सड़क पर जो ट्रामें जाती थीं और जो अब खाली थीं, उन्हें इस प्रयोजन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। अब तो ट्रामों और छकड़ों को इस नये काम के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा और श्मशान तक पहुँचने के लिए ट्राम की छोटी पटरियाँ बिछा दी गईं। इस तरह श्मशान ट्रामों का टर्मिनस स्टेशन बन गया ।
गरमी के आखिरी महीनों में और पतझड़ के सारे मौसम में हर रोज़ समुद्र तट की चट्टानों के गिर्द बनी सड़क पर आसमान की पृष्ठभूमि में झूलकर चलती हुई ट्रामों का एक विलक्षण जलूस दिखाई देता था । इन ट्रामों में एक भी मुसाफ़िर नहीं रहता था । इस इलाके में रहने वाले लोगों को जल्द ही सारी स्थिति का ज्ञान हो गया। हालांकि चट्टानों पर दिन-रात पहरा रहता था, फिर भी लोगों के छोटे-छोटे झुंड पुलिस की नजरें बचाकर चट्टानों के बीच जाकर खुले छकड़ों और ट्रामों पर फूल फेंकते थे । गरमी की रातों के गरम अँधेरे में फूलों और लाशों से भरी गाड़ियों के पहियों का कर्कश स्वर सुनाई देता था ।
शुरू के कुछ दिनों में शहर की पूर्वी बस्तियों पर एक चिपचिपा, बदबूदार धुएँ का बादल छाया रहा । सब डॉक्टरों की राय थी कि यह बदबू अप्रिय होते हुए भी नुकसान नहीं पहुँचा सकती । लेकिन इस इलाके के लोगों ने धमकी दी कि वे एक साथ यह इलाका छोड़कर कहीं और चले जाएँगे। उन्हें यकीन हो गया था कि आसमान से उन पर कीटाणु बरस रहे हैं-- इसके परिणामस्वरूप उन्हें खुश करने के लिए अधिकारियों को वहाँ से धुआँ हटाने के लिए लम्बा-चौड़ा इन्तज़ाम करना पड़ा और मशीनें लगानी पड़ीं। इसके बाद जब कभी तेज हवा चलती तभी पूर्व से आती हुई बदबू उन्हें इस बात की याद दिलाती कि वे एक व्यवस्था में रह रहे हैं और हर रोज़ रात को प्लेग की लपटें अपनी वसूली करती हैं।
प्लेग जब अपने शिखर पर थी तो उसके ये नतीजे निकले थे । खुशकिस्मती से हालत इससे ज्यादा नहीं बिगड़ी वरना यह आसानी से यक़ीन किया जा सकता है कि हमारे अधिकारियों की साधन-सम्पन्नता, अफ़सरों की कार्य कुशलता और श्मशान की मुर्दे जलाने की क्षमता भी स्थिति का सामना न कर पाती । रियो जानता था कि अधिकारी हताश होकर और भी भयंकर क़दम उठाने पर बहसें कर रहे हैं; मिसाल के लिए लाशों को समुद्र में फेंकना । रियो की आँखों के सामने एक तस्वीर आई । उसे लगा जैसे चट्टानों के नीचे उथले पानी में कोई बदसूरत चीज़ हिल-डुल रही है। वह यह भी जानता था कि अगर प्लेग की मौतों की संख्या बढ़ गई तो कोई संस्था, चाहे वह कितनी ही कार्य-कुशल हो, स्थिति का मुकाबला नहीं कर सकेगी। ढेरों लोग एक साथ मरेंगे और सड़कों पर लाशें सड़ा करेंगी । अधिकारी चाहे जो करें चौराहों में मरते हुए लोग किसी बोध्य घृणा या विक्षिप्त आशा से पागल होकर ज़िन्दा लोगों का आलिंगन करते हुए नज़र आएँगे ।
इन्हीं दृश्यों और डरों ने हमारे नगरवासियों में इस भावना को ज़िन्दा रखा था कि वे निर्वासित हैं और बाक़ी दुनिया से अलग हो गए हैं। इस सिलसिले में कथाकार को यह पूरा एहसास है कि वह किसी दर्शनीय या चमत्कारपूर्ण बात को, किसी साहसी कारनामे को या किसी स्मरणीय काम को दर्ज नहीं कर सकता। जब हम पुराने ऐतिहासिक विवरणों को पढ़ते हैं तो ऐसी बातों से हमारा दिल थिरक उठता है । हक़ीक़त यह है कि महामारी से कम सनसनीखेज़ और नीरस घटना कोई नहीं हो सकती । बड़ी मुसीबतें अगर ज्यादा देर तक रहती हैं तो वे नीरस बन जाती हैं । जो लोग इस दौर में से गुज़रे थे, उनकी स्मृतियों में प्लेग के ये अवसादपूर्ण दिन जस्त के रंग की आकाश तक फैली प्रचण्ड, देदीप्यमान लपटों की तरह सुरक्षित नहीं हैं, बल्कि एक ऐसे दानव की पूर्व निश्चित, धीमी प्रगति के रूप में सुरक्षित हैं जो अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को नष्ट कर देता है ।
नहीं, प्लेग के शुरू के दौर में रियो के मन में महामारी के विषय में जो शानदार आडम्बरपूर्ण कल्पनाएं पैदा हुई थीं, वे सचमुच की प्लेग से बिलकुल मेल नहीं खाती थीं। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि प्लेग एक चालाक और कभी न झुकने वाला दुश्मन था । वह एक कुशल संगठन - कर्ता थी जो अपना काम मुस्तैदी से और पूरी तरह निभा रही थी । बातों-ही- बातों में हम यह भी कह दें कि कथाकार ने इसलिए निष्पक्ष और वस्तु-परक दृष्टि अपनाई है ताकि वह न सचाई के प्रति, न अपने प्रति बेइन्साफ़ी कर सके । उसने कलात्मक प्रभाव पैदा करने के लिए अपने ब्यौरे में कहीं कोई रद्दोबदल नहीं की। सिर्फ़ जहाँ घटनाओं को तर्क संगत ढंग से बयान करने की जरूरत पड़ी वहाँ उसने साधारण संशोधन किये हैं । इस कठिनाई को सामने रखते हुए कथाकार को बड़े अफ़सोस से यह क़बूल करना पड़ता है कि लोगों के दुख का सबसे बड़ा, सबसे गहरा और विस्तृत कारण प्रियजनों से बिछुड़ना था - कथनाकार का कर्तव्य है कि प्लेग के अन्तिम दौर में यह भावना जिस रूप में आयी वह उसे बयान करे, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस दुख की तीव्रता भी कुछ-कुछ कम हो चली थी ।
क्या इसका कारण यह था कि हमारे नगरवासी, यहाँ तक कि वे लोग भी जिन्हें अपने प्रियजनों से बिछुड़कर तीव्र वेदना हुई थी, प्रियजनों के बगैर रहने के आदी हो गए थे। एकदम ऐसा मान लेना सचाई के खिलाफ़ होगा। यह कहना ज्यादा सही होगा कि उनकी भावनाएँ और शरीर दिना-दिन शोक में घुलते जा रहे थे । प्लेग के शुरू में उनके मन में बिछुड़े प्रिय-जनों की स्मृति बिलकुल साफ़ थी और उनकी अनुपस्थिति को महसूस करके उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती थी । लेकिन उन्हें अपने प्रियतमों या प्रियतमाओं के चेहरे, मुस्कराहटें और कुछ ऐसे क्षण याद थे जब कि वे बेहद सुखी थे (वे अपने अतीत का सिंहावलोकन कर रहे थे ) । लेकिन उन क्षणों में, जब वे अतीत की स्मृतियों को ताजा कर रहे थे, उनके प्रियतम या प्रियतमाएँ क्या कर रही होंगी, यह कल्पना करने में उन्हें बड़ी दिक्कत पेश आती थी, खास तौर पर जब उन्हें एक सुदूर पृष्ठभूमि की कल्पना करनी पड़ती थी जहाँ तक पहुँचने की वे उम्मीद भी नहीं कर सकते थे । कहने का अर्थ यह है कि ऐसे क्षणों में स्मृति तो अपना काम करती थी लेकिन कल्पना असफल हो जाती थी । प्लेग के दूसरे दौर में उनकी स्मृति भी असमर्थ हो गई। उन्हें प्रिय व्यक्ति का चेहरा भूल गया हो यह बात नहीं थी, लेकिन वे चेहरे को उसके सजीव मांसल रूप में नहीं देख पाते थे और अब उसे स्मृति के आईने में देखने में असमर्थ थे, जो कि चेहरे को भूलने के बराबर ही था ।
इस तरह पहले कुछ हफ्तों में तो उनकी शिकायत थी कि उनका प्यार जैसा था और उनके लिए प्यार का जो अर्थ था अब उसकी छाया मात्र बाकी रह गई है । अब उन्हें यह बोध हुआ कि परछाइयाँ भी क्षीण हो सकती हैं और ज़िन्दगी के वे मद्धिम रंग, जो स्मृतियों से पैदा होते हैं, खत्म हो जाते हैं । इतने लंबे विछोह के बाद वे उस आत्मीयता और निकटता की कल्पना करने में भी असमर्थ हो गए थे, यहाँ तक कि वे यह भी नहीं समझ पाते थे कि किसी ऐसे व्यक्ति के साथ रहने में, जिसकी ज़िन्दगी उनकी ज़िन्दगी में लिपटी हुई है, कैसी अनुभूति होती है ।
इस दृष्टि से उन्होंने अपने को प्लेग की दशा के अनुसार ढाल लिया था । यह दशा साधारण होने की वजह से और भी ज्यादा शक्तिशाली हो गई थी। इन लोगों में से किसी में उदात्त भावना की अनुभूति की शक्ति नहीं रह गई थी। सबके दिलों में क्षुद्र और नीरस भावनाएँ थीं । "अब तो इस मुसीबत को खत्म होना चाहिए ।" लोग अक्सर कहते थे, क्योंकि मुसीबत के वक्त सब यही चाहते हैं कि वह जल्द खत्म हो जाए और दर- असल सब यही चाहते थे। लेकिन इस तरह की बातें करते वक्त हमारे दिल में वह तीव्र आकुलता या प्रचण्ड क्षोभ नहीं उठता था जो प्लेग के पहले दौर में उठा करता था । हमारे दिमाग़ों की धुंधली रोशनी में अब भी कुछ स्पष्ट विचार बच रहे थे, हम दरअसल उन्हीं में से एक विचार को व्यक्त किया किरते थे। पहले हफ्तों के क्षोभपूर्ण विद्रोह का स्थान एक विशाल निराशा ने ले लिया था, पाठक इसे असहायपन न समझें हालांकि इसमें एक निष्क्रियता और सामयिक समर्पण था ।
हमारे नागरिक साथियों ने हार मान ली थी और जैसा कहा जाता है, हमने परिस्थितियों के मुताबिक अपने को ढाल लिया था, क्योंकि इसके सिवा हमारे आगे कोई चारा नहीं था । उनके मन की उदासी और दुख अभी भी क़ायम थे, लेकिन अब उन्हें उनकी कसक नहीं महसूस होती थी । कुछ लोगों के लिए, जिनमें डॉक्टर रियो भी थे, यही चीज सबसे अधिक निराशाजनक मालूम होती थी; उदासी की आदत उदासी से कहीं बदतर है । अभी तक जो लोग अपने प्रियजनों से बिछुड़े थे वे पूरी तरह से दुखी नहीं हुए थे । उनके दुःख की रात्रि में हमेशा आशा की एक किरण झलकती रहती थी, लेकिन अब वह किरण भी बुझ गई थी। आप उन्हें सड़क के कोनों में, कॉफ़ी - हाउसों में, या दोस्तों के मकानों में देख सकते थे । वे बेचैन, उदासीन और इतने ऊबे हुए नज़र आते थे कि उनकी वजह से सारा शहर रेलवे वेटिंग रूम की तरह दिखाई देता था। जिनके पास नौकरियाँ थीं, वे बिलकुल प्लेग की रफ़्तार से और एक मंद धैर्य से काम करते थे । हर आदमी में विनयशीलता आ गई थी। पहली बार लोग बिना किसी हिचकिचाहट के दिल खोलकर अपने प्रियजनों के बारे में बातें करने लगे। सब लोग एक ही तरह के शब्द इस्तेमाल करते थे और अपनी वंचना को एक ही दृष्टिकोण से देखते थे, जिससे वे महामारी के ताज़े आँकड़ों को देखते थे । यह परिवर्तन आश्चर्यजनक था, क्योंकि अब तक वे बड़े जतन से अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को जनसाधारण की पीड़ा से अलग सँजोकर रखे हुए थे । अब उन्होंने उसे सर्वसाधारण की पीड़ा में शामिल करना स्वीकार कर लिया था । स्मृतियों और उम्मीदों के बग़ैर वे सिर्फ़ क्षण के लिए जीने लगे । 'यहीं' और 'अब' उनके लिए सब कुछ बन गए थे। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्लेग ने धीरे-धीरे हम सबमें न सिर्फ़ प्यार की बल्कि दोस्ती की क्षमता भी खत्म कर दी थी। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि प्यार भविष्य की माँग करता है और हमारे पास वर्तमान के क्षणों की पंक्ति के सिवा कुछ नहीं बच रहा था ।
खैर, हमारी दुर्दशा के इस बयान की सिर्फ़ मोटी रूपरेखा दी गई है। यह सच है कि सब बिछुड़े हुए लोगों की आखिर में यही हालत हुई थी, लेकिन साथ में हमें यह भी कहना चाहिए कि सब लोगों की एक साथ यह हालत नहीं हुई; इसके अलावा इस पूर्ण जड़ता में जकड़े जाने पर भी उनमें मेधा-शक्ति की चिनगारियाँ और स्मृति की टूटी-फूटी किरणें थीं जिन्होंने निर्वासितों में पहले से अधिक तारुण्य भरी और तेज़ चेतना जगा दी थी । यह तब होता था जब मिसाल के लिए वे यह सोचकर कि प्लेग खत्म हो गई है, भविष्य की योजनाएँ बनाते थे या अनायास ही, संयोगवश उनके मन में ईर्ष्या की टीस उठती थी ईर्ष्या का कोई पात्र नहीं था, फिर भी उनकी ईर्ष्या में तीव्रता थी । कुछ और लोगों में अचानक ताकत की बाढ़ आ जाती थी और हफ्ते में कुछ दिन उनकी क्लान्ति दूर हो जाती थी । इतवार को और शनिवार की दोपहर को ऐसा होता था । इसके कारण साफ़ थे, क्योंकि उस जमाने में जब प्रेमी-प्रेमिकाएँ एक साथ थे तो ये दिन आनन्द मनाने के लिए नियत थे। कई बार अँधेरा छाने के साथ ही उनके मन पर अवसाद छा जाता था, जो एक प्रकार की चेतावनी थी कि बीते दिनों की स्मृतियां फिर सतह पर तैर रही हैं लेकिन यह चेतावनी हमेशा सही नहीं साबित होती थी । संध्या का समय, जो धार्मिक वृत्ति के लोगों के लिए अन्तरात्मा में झांकने का समय होता है, एक क़ैदी और निर्वासित के लिए, जिसके पास मन केन्द्रित करने के लिए शून्य के सिवा कुछ नहीं है, सबसे ज्यादा कठिन समय होता है । क्षण-भर के लिए उनका मन डावांडोल हो जाता था, फिर वे अपनी जड़ता में डूब जाते थे; जेल का दरवाज़ा फिर बन्द हो जाता था ।
जाहिर है कि इन परिस्थितियों में उन्हें अपनी ज़िन्दगी की सबसे अधिक व्यक्तिगत बातों को छोड़ना पड़ा था। जबकि प्लेग के प्रारम्भिक दिनों में उन्हें वे छोटी-छोटी बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण मालूम हुई थीं जो औरों के लिए अर्थहीन थीं, इन बातों का उनके लिए विशेष महत्त्व था । इस तरह शायद ज़िन्दगी में उन्हें पहली बार एहसास हुआ था कि हर व्यक्ति अपने में अपूर्व है । इसके विपरीत अब उन्हें सिर्फ़ उन्हीं बातों में दिलचस्पी थी जिनमें सब लोगों को दिलचस्पी थी। उनके विचार साधारण थे और उनकी कोमलतम अनुभूतियाँ अब अमूर्त मालूम होती थीं- साधारण श्रेणी की बातें । प्लेग उन पर इस तरह छा गई थी कि कई बार तो उनके मन में एक ही आकांक्षा उठती थी कि वे प्लेग की लायी हुई नींद में हमेशा के लिए सो जाएँ । “बड़ा अच्छा हो अगर मुझे भी प्लेग की छूत लग जाए सारा किस्सा खत्म हो जाए !" लेकिन दरअसल वे पहले से ही सोए हुए थे; यह सारा दौर उनके लिए लम्बी रात की गहरी नींद के सिवा और कुछ नहीं था। शहर में नींद में चलने वाले लोग रहते थे, जिनकी नींद बहुत कम मौकों पर टूटती थी। जब रात को उनके दिल के जख्म, जो देखने में बिलकुल बन्द मालूम होते थे, अचानक फट जाते थे, वे चौंककर जग जाते थे और खोए-खोए मन की जिज्ञासा से अपने जख्मों को सहलाने लगते थे, और विद्युत्गति से उनका शोक फिर भड़क उठता था और उनकी आँखों के आगे उनके प्यार का शोकपूर्ण स्वरूप अनायास ही आ जाता था। सुबह वे फिर साधारण परिस्थितियों में अर्थात् प्लेग के वातावरण में लौट जाते थे ।
यह सवाल पूछा जा सकता है कि देखने वालों पर प्लेग के इन निर्वासितों ने क्या प्रभाव डाला था ? जवाब बड़ा सीधा-सादा है; इन लोगों ने कोई भी असर नहीं डाला या अगर इसे दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये लोग बाकी लोगों की तरह ही दिखाई देते थे, अविशिष्ट । वे शहर की गति शून्यता और निरर्थक बचकाने आंदोलन में हिस्सा लेते थे; उनकी विवेचन-शक्ति का नामोनिशान न रहा, बल्कि उनमें एक सर्द उदासीनता पैदा हो गई थी । मिसाल के लिए सबसे ज्यादा मेधावी लोग भी बाकियों की तरह इस उम्मीद में कि उन्हें प्लेग के जल्द खत्म होने का यक़ीन हो जाए, अखबार पढ़ने और रेडियो सुनने का दिखावा करते हुए देखे जा सकते थे । अखबार पढ़कर या तो उनके मन में विलक्षण आशाएँ जागृत होती थीं या अतिरंजित भय पैदा होते थे, जबकि उन पंक्तियों को किसी पत्रकार ने ऊब से उबासी लेते हुए बिना समझे-बूझे अन्धाधुन्ध ही लिखा होता था। इस बीच लोग बीयर पीते थे, अपने बीमार रिश्तेदारों की देख- भाल करते थे, आलस में वक्त गँवाते थे या काम करके अपने को भुलावे में रखते थे, दफ्तर की फ़ायलों में कागजात रखते थे, या घर बैठकर ग्रामोफ़ोन बजाते थे । वे अपनी किसी गति-विधि से यह जाहिर नहीं होने देते थे कि वे बाकी लोगों से अलग हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उन्होंने अपने मन के मुताबिक अपनी ज़िन्दगी को निर्धारित करना छोड़ दिया था । प्लेग ने सबकी विवेक शक्ति खत्म कर दी थी। यह इस बात से जाहिर होता था कि लोगों को इस बात की बिलकुल परवाह नहीं रही थी कि वे किस किस्म के कपड़े पहनते हैं या कैसा खाना खाते हैं । ज़िन्दगी में जो भी दिक्कतें आती थीं, वे उनका सामना करने के लिए तैयार रहते थे ।
और अन्त में अपने प्रियजनों से बिछुड़े लोगों के पास वह विचित्र अधिकार भी न रहा, जो प्लेग के शुरू में उन्हें प्राप्त था । वे प्यार के अहंवाद और उससे पैदा होने वाले फ़ायदे को खो बैठे थे । अब कम-से-कम उनके सामने स्थिति साफ़ हो गई थी; इस मुसीबत से लड़ना सबकी ज़िम्मेदारी बन गई थी। शहर के फाटकों से सुनाई देने वाली बन्दूकों की आवाजें, ज़िन्दगी और मौत की लय पर निशान लगाने वाली रबर की मोहरों की नपी-तुली आवाजें, फ़ाइलें, आगें, घबराहट और औपचारिकताएँ, सब एक बदसूरत, लेकिन रजिस्टर में दर्ज मौत के निमित्त काम कर रही थीं। जहरीले धुओं, एम्बुलेंसों की खामोश खनखनाहटों में हम सब एक समान निर्वासन के दुख उठा रहे थे और अचेतन रूप से अपने प्रियजनों से मिलने, फिर से पाई शान्ति के चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे थे । इसमें शक नहीं कि हमारा प्यार अभी भी ज़िन्दा था, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उसका कोई फायदा नहीं था । वह हमारे दिलों के भीतर एक निश्चल पदार्थ की तरह बन्द था और किसी अपराध या उम्र कैद की तरह ऊसर था । एक ऐसे सब्र को पाकर, जिसका कोई फ़ायदा नहीं था, हम सिर्फ उम्मीद करने की जिद पर अड़े हुए थे । इस दृष्टि से देखने पर हमारे कुछ शहरियों का दृष्टिकोण खाने के सामान की दुकानों के बाहर लगी लम्बी क़तारों से मिलता-जुलता था जो आजकल देखने में आती थीं। वही मजबूरी, लम्बी, कभी न खत्म होने वाली सहनशीलता, जिसमें किसी क़िस्म के भ्रम की गुंजाइश नहीं थी । फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि खाना तलाश करने वालों की मानसिक स्थिति की तीव्रता अगर बहुत बढ़ जाए तब कहीं जाकर वह विरह की कचोटने वाली व्यथा का मुक़ाबला कर सकती थी । विरह की व्यथा एक ऐसी भयंकर भूख से पैदा हुई थी जो कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकती थी ।
खैर, अगर पाठक इन निर्वासितों की मनःस्थिति का सही अनुमान लगा लें तो हमें एक बार फिर उन नीरस शामों की कल्पना करनी पड़ेगी, जो धूल की परत और सुनहरे आलोक में से छनकर उन वृक्षहीन सड़कों पर छा रही थीं, जहाँ औरतों और मर्दों की भारी भीड़ें थीं, क्योंकि दिन के अन्तिम प्रकाश में नहाये हुए छज्जों की तरफ़ अब एक ही क़िस्म की आवाज उठती थी- धीमी आवाजों, पदचापों और असंख्य जूतों के तलों की एक सम्मिलित ऊँची आवाज़ जो गरम लू में प्लेग की पैशाचिक सांय-सांय से ताल मिला रही थी । अब मोटरों और गाड़ियों का शोर बन्द हो गया था, जो साधारण परिस्थितियों में शहरों की एकमात्र आवाज़ होती है । नई आवाज़ एक ऐसे विशाल जनसमूह की आवाज़ थी जो किसी तरह अपने दुर्भाग्य के दिन काट रहा था और अच्छे दिनों के आने का इन्तज़ार कर रहा था । यह कभी न खत्म होने वाली, दम घोटने वाली भिनभिनाहट थी, जो धीरे-धीरे शहर के एक कोने से दूसरे कोने में छा जाती थी और हर शाम को उस अन्धी सहनशीलता को पूरी सचाई और शोकाकुलता से व्यक्त करती थी जिसने हमारे दिलों में से प्यार को खदेड़ दिया था ।
चौथा भाग : 1
सारे सितम्बर और अक्तूबर में शहर प्लेग की दया पर निर्भर रहा । किसी तरह 'काम चलाने' के सिवा और कोई चारा नहीं था । लाखों मर्द और औरतें हफ्तों तक यही करते रहे। लगता था ये हफ़्ते कभी ख़त्म नहीं होंगे। हमारी सड़कों पर बारी-बारी से कुहरे, गरमी और बारिश का बोलबाला रहा। दक्षिण से मैना और चिड़ियों के खामोश झुंड आये, जो बहुत ऊँचाई पर उड़ रहे थे। लेकिन वे शहर से दूर-दूर रहते थे मानो उस दैत्याकार मूसल ने, जो घरों के ऊपर आवाज करता हुआ चक्कर काट रहा था और जिसका फ़ादर पैनेलो ने जिक्र किया था, पक्षियों को चेतावनी देकर हम लोगों से दूर कर दिया था । अक्तूबर के शुरू में बारिश की बौछारों ने आकर सड़कों धो डाला । इस बीच सिवा 'काम चलाने' के बृहद् प्रयास के हमारी ज़िन्दगी में और कोई भी महत्त्वपूर्ण घटना नहीं हुई ।
अब आकर रियो और उसके दोस्तों को एहसास हुआ कि वे कितने थक गए थे। सचमुच सफाई की टुकड़ियों में काम करने वालों के लिए अब अपनी थकान को सँभालना बस से बाहर हो गया । रियो ने अपने और अपने साथियों में आई इस तब्दीली को देखा, जिसने हर चीज़ के प्रति एक विचित्र उदासीनता का रूप धारण कर लिया था। मिसाल के लिए जो लोग अभी तक प्लेग से सम्बन्धित हर खबर में गहरी दिलचस्पी दिखाते आए थे बिलकुल उदासीन हो गए। रेम्बर्त, जिसे अस्थायी तौर पर छूत के निरोधक एक वॉर्ड की निगरानी के लिए नियुक्त किया गया था, जिसके होटल को इसी मकसद के लिए कब्जे में ले लिया गया था, किसी भी वक्त उन लोगों की संख्या बता सकता था जो उसके सुपुर्द किये गए थे। जिन लोगों में अचानक प्लेग के लक्षण नजर आने लगते थे उन्हें फ़ौरन अस्पताल पहुँचाने के लिए उसने जो तरीका निकाला था उसका पूरा ब्यौरा उसके मन में पक्की तरह से बैठ गया था और वह मुँह जबानी सब कुछ बता सकता था । उसी तरह उसकी देखरेख में प्लेग की छूत से बचाने के लिए जिन्हें टीके लगाए जाते थे, उनका क्या असर होता था, इसके आँकड़े भी उसे मुंह-जबानी याद थे। फिर भी हफ्ते में प्लेग से कितनी मौतें हुईं, यह वह नहीं बता सकता था, यहाँ तक कि वह यह भी नहीं बता सकता था कि मौतों की संख्या बढ़ रही है या कम हो रही है, और इस बीच परिस्थितियों के बावजूद भी उसने 'भाग निकलने' की उम्मीद नहीं छोड़ी थी ।
जहाँ तक दूसरे लोगों का सम्बन्ध था वे दिन-भर और रात को देर तक लगातार काम करते रहते थे, उन्होंने कभी अखबार पढ़ने या रेडियो सुनने की परवाह नहीं की थी। जब उन्हें किसी ऐसे प्लेग के मरीज़ के स्वस्थ होने की खबर बताई जाती थी, जिसके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, तो वे दिखावटी तौर पर दिलचस्पी तो लेते थे लेकिन दरअसल उनकी भावना- शून्य उदासीनता की तुलना किसी महायुद्ध के सैनिक से की जा सकती थी जो लगातार लड़ने के बोझ से चूर-चूर हो चुका है, जो सिर्फ़ अपनी दैनिक ड्यूटी के बारे में ही सोचता है, यहाँ तक कि जिसने यह उम्मीद करना भी छोड़ दिया है कि कभी आखिरी मुठभेड़ होगी या सुलह का बिगुल सुनाई देगा।
ग्रान्द अभी भी कायदे से प्लेग के आँकड़े तैयार करता था, लेकिन वे आँकड़े किस दिशा की ओर संकेत करते थे, यह बताना उसके लिए असम्भव था । रियो, रेम्बर्त और तारो की तरह, जिन्होंने प्रबल सहन-शक्ति का परिचय दिया था, उसकी सेहत भी अच्छी नहीं थी । और अब म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर में ड्यूटी देने के अतिरिक्त उसे रात को रियो के क्लर्क का काम भी करना पड़ता था । इस थकान का असर उसकी सेहत पर साफ़ दीख रहा था, और वह सिर्फ़ दो या तीन विचारों की मदद से ज़िन्दा रह रहा था जो उसके दिमाग में पक्की तरह बैठ गए थे। उनमें से एक विचार तो यह था कि प्लेग के खत्म होते ही वह एक हफ्ते की छुट्टी लेकर अपनी किताब पूरी कर डालेगा । वह बहुत ज्यादा भावुक हो गया था और भावुकता के क्षणों में रियो से अपने दिल की बातें किया करता था और जीन की चर्चा करता था । वह अब कहाँ होगी ? वह सोचता था, अखबारों को पढ़कर क्या कभी उसे ग्रान्द का ख्याल आता होगा ? एक दिन रियो को यह देखकर अपने पर ताज्जुब हुआ कि वह ग्रान्द से अपनी बीवी के बारे में बड़े साधारण ढंग से बातें कर रहा था । आज तक उसने किसी से ऐसी बातें नहीं की थीं ।
अपनी बीवी के भेजे हुए तार किसी हद तक विश्वसनीय थे, इस बात में उसे शक था। तारों में वह हमेशा यकीन दिलाती थी कि उसकी सेहत ठीक है । रियो ने सेनेटोरियम के डॉक्टर को तार देने का फ़ैसला किया। डॉक्टर ने जवाब दिया कि रियो की बीवी की हालत पहले से बिगड़ गई है, लेकिन पूरी कोशिश की जा रही है कि बीमारी आगे न बढ़े। रियो ने यह खबर किसी को नहीं बताई थी । उसका ख्याल था कि स्नायविक थकान की वजह से ही वह ग्रान्द को यह बात बता बैठा है। जीन के बारे में डॉक्टर से बातें करने के बाद ग्रान्द ने मदाम रियो के बारे में कुछ सवाल पूछे और रियो का जवाब सुनकर कहा, "जानते हो आजकल के डॉक्टर बीमारी को जिस तरह दूर कर देते हैं वह निरा चमत्कार है ।" रियो ने इस बात का समर्थन किया और सिर्फ इतना कहा कि बहुत लंबे अरसे से अपनी बीवी से अलग रहने की वजह से उसकी सेहत पर असर पड़ा है। हो सकता है अगर वह अपनी बीवी के साथ रहता तो बीवी की हालत सुधर जाती । मौजूदा परिस्थितियों में बेचारी अपने को बहुत ज्यादा अकेली महसूस करती होगी। इसके बाद रियो खामोश हो गया और ग्रान्द के अगले सवालों को उसने गोलमोल जवाब देकर टाल दिया ।
बाकी लोगों की भी यही हालत थी । तारो अपने को औरों से ज्यादा संभाले हुए था, लेकिन उसकी डायरी से जाहिर होता था कि उसकी जिज्ञासा की गहराई अभी तक क़ायम थी और उसका वैविध्य समाप्त हो चुका था। इस दौर में उसे सिर्फ़ एक ही आदमी में दिलचस्पी थी, वह कोतार्द था । शाम के वक्त वह रियो के फ़्लैट में लौटता था। जब से होटल को अधिकारियों ने क्वारेन्टीन केन्द्र बना दिया था तब से तारो रियो के यहाँ आकर रहने लगा था । जब ग्रान्द और रियो प्लेग के दैनिक आंकड़ों को पढ़ते थे तो वह रत्ती भर दिलचस्पी नहीं दिखाता था। उसे ज्योंही मौका मिलता वह बातचीत का रुख अपने प्रिय विषय, ओरान के दैनिक जीवन के छोटे-छोटे पहलुओं की तरफ़ मोड़ देता । डॉक्टर कास्तेल सबसे ज्यादा थका-माँदा दिखाई देता था। जिस दिन उसने आकर रियो को बताया कि प्लेग की सीरम तैयार हो गई है और जब उसने पहली बार सीरम को मोसिये ओथों के नन्हे बेटे पर आजमाने का फ़ैसला किया था, जिसके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी तो अचानक रियो ने ताज़े आँकड़े पढ़कर सुनाते हुए देखा कि डॉक्टर कास्तेल अपनी कुरसी में पड़ा गहरी नींद सो रहा था। अपने पुराने दोस्त का बदला हुआ चेहरा देखकर रियो को बड़ा सदमा पहुँचा । कास्तेल के चेहरे पर हर वक्त एक सहृदय और व्यंग्य-भरी मुस्कान छाई रहती थी जिससे उसके चेहरे पर अक्षय यौवन की कान्ति रहती थी । लेकिन अब अचानक संयम से बाहर होने पर, जबकि उसके खुले हुए होंठों में से लार बह रही थी, वही चेहरा अपनी असली उम्र और जिंदगी के निष्फल बरसों की सूचना दे रहा था । इस दृश्य को देखकर रियो को लगा जैसे उसके गले में कोई चीज अटक गई है ।
इन्हीं बातों से रियो अपनी थकान का अनुमान लगा सका । उसकी विवेक शक्ति काबू से बाहर हो रही थी । दबी रहने के कारण वह सख्त हो गई थी और आसानी से अक्सर एकदम चटख जाती थी और रियो भावनाओं के तूफ़ान में अपने को सर्वथा असहाय पाता था । अपनी भावनाओं पर काबू रखने और अपने हृदय की रक्षा करने के लिए उसे सख्त बनाने के सिवा रियो के पास और कोई चारा न रहा। वह जानता था कि दिन काटने का यही एकमात्र तरीका है। हर सूरत में अब उसके दिमाग़ में बहुत कम भ्रम बच रहे थे और थकान इन बचे-खुचे भ्रमों को भी खत्म कर रही थी । वह जानता था कि एक अनिश्चित काल के लिए जिसके ओर-छोर की झलक भी उसे नहीं मिल सकती, उसका काम मरीजों को स्वस्थ करना नहीं बल्कि प्लेग के लक्षण बताना और जाँच करना, देखना, बताना, दर्ज करना और फिर मौत के हवाले कर देना, यही उसका मौजूदा काम था । कभी-कभी कोई औरत उसकी आस्तीन पकड़कर हृदय विदारक स्वर में रो पड़ती, "डॉक्टर, तुम इसे बचा लोगे न !" लेकिन रियो अब ज़िन्दगी बचाने के लिए नहीं बल्कि बीमार को अस्पताल में पहुँचाने के लिए, वहाँ मौजूद रहता था। लोगों के चेहरों पर उसे जो नफरत दिखाई देती थी वह कितनी निष्फल थी ! एक बार एक औरत ने उससे कहा, "क्या तुम्हारे सीने में दिल नहीं है ?" वह ग़लती पर थी। रियो के पास दिल था। उसी की ताक़त से तो वह दिन में बीस घंटे काम करता था, और हर घंटे मरते हुए लोगों को देखता था जिन्हें ज़िन्दा रहना चाहिए था । इसी की वजह से तो वह हर रोज सुबह नये सिरे से काम करता था । जिस तरह की परिस्थितियाँ अब थीं, उनका सामना करने भर के लिए ही तो उसके दिल में ताक़त थी । भला वह दिल किसी ज़िन्दगी को कैसे बचा सकता था !
नहीं, उन व्यस्त दिनों में वह लोगों को डॉक्टरी मदद नहीं पहुँचाता था; लोगों को सिर्फ़ सूचनाएं देता था । स्पष्ट है कि यह ऐसा काम नहीं था, जो किसी इन्सान को शोभा देता, लेकिन उस सारी परिस्थिति में भला उस आतंकग्रस्त जनसंख्या में से, जिसका दशांश कम हो गया था, किस व्यक्ति के पास पौरुषपूर्ण काम करने का क्षेत्र रह गया था ! एक माने में रियो की यह थकान उसके लिए वरदान साबित हुई। अगर उसकी थकान जरा भी कम होती और उसकी विचार-शक्ति अधिक सचेत होती, तो मौत की सर्वव्यापी बदबू उसे अधिक भावुक बना देती । लेकिन जब किसी आदमी को नींद के लिए सिर्फ़ चार घंटे मिलते हों तो वह भावुक नहीं हो सकता । उसे सब चीजें अपनी असली शक्ल में दिखाई देती हैं अर्थात् वह उन्हें इन्साफ़ की विकराल, जड़ इन्साफ़ की चमकीली रोशनी में देखता है। दूसरे लोग, वे मर्द और औरतें जिन्हें मौत की सजा मिली थी इस नीरस बोध के साझीदार थे। प्लेग से पहले उसे पैगम्बर समझा जाता था । वह दो गोलियों या एक इन्जेक्शन से ही लोगों को ठीक कर देता था, और जब वह किसी मरीज़ के कमरे में जाता था तो लोग रास्ते में ही उसे बाँह से पकड़ लेते थे । यह सुखद लेकिन खतरनाक अनुभूति थी। इसके विपरीत अब वह सिपाहियों को साथ लेकर आता था और वे राइफलों के कुंदों से दरवाजे पीटते थे, तब कहीं जाकर परिवार के लोग दरवाजों को खोलते थे । उनका बस चलता तो वे रियो को और समस्त मानव जाति को अपने साथ कब्र में घसीटकर ले जाते । हाँ, यह बात बिलकुल सच साबित हो गई थी कि इन्सान इन्सानों के बग़ैर ज़िन्दा नहीं रह सकता । यह भी सच था कि रियो भी इन दुखी लोगों की तरह असहाय था और वह भी दया की उस हल्की सिहरन का पात्र था जो उसके मन में उन लोगों से मिलने के बाद उठती थी ।
जो भी हो, उन लम्बे हफ्तों में जो लगता था कभी खत्म नहीं होंगे, डॉक्टर के दिल में विरह के साथ-ही-साथ ये विचार भी उठते थे और उसके दोस्तों के मन में भी ऐसे ही विचार उठते थे, कम-से-कम उनके चेहरों को देखकर तो रियो को ऐसा ही लगता था। लेकिन प्लेग से लड़ने वाले लोगों की थकान का सबसे खतरनाक प्रभाव इस बात में नहीं था कि वे बाहर की घटनाओं और दूसरे लोगों की भावनाओं के प्रति अपेक्षाकृत उदासीन थे; बल्कि इस बात में कि उन्होंने अपने जीवन के व्यक्तिगत पहलुओं पर सुस्ती और निष्क्रियता को छाने दिया था। उनमें एक नयी प्रवृत्ति पैदा हो गई थी। वे हर ऐसे काम से बचते थे जो उन्हें तात्कालिक दृष्टि से आवश्यक नहीं मालूम होता था, या जिसके करने में उन्हें बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी जो उनकी दृष्टि में व्यर्थ थी । इस तरह ये लोग दिन-ब-दिन और भी ज्यादा स्वच्छता के नियमों का उल्लंघन करने लगे । और कीटाणुओं के नाश के लिए उन्हें जो क़दम उठाने चाहिए थे, उनमें भी कमी करने लगे । कई बार तो वे प्लेग से अपना बचाव करने के प्रबन्ध किये बगैर ही न्यूमोनिक प्लेग के मरीज़ों को देखने चले जाते थे। उनका कहना था कि उन्हें बहुत देर से खबर मिलती थी इसलिए उन्हें किसी सफ़ाई के केन्द्र में जाकर अपने कपड़ों पर कीटाणुनाशक दवाई डलवाने की फुरसत नहीं थी । इसी में ज्यादा ख़तरा था; क्योंकि बीमारी से लड़ने में वे जो ताक़त लगाते थे उसके कारण उन्हें छूत लगने की सम्भावना बढ़ गई थी । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वे अपनी क़िस्मत से जुआ खेल रहे थे और कोई भी किस्मत पर दबाव डालकर अपनी बात नहीं मनवा सकता ।
लेकिन शहर में सिर्फ़ एक आदमी ऐसा था जो न हताश दीखता था, न ही थका हुआ, जो सन्तोष का जीता-जागता स्वरूप था । वह आदमी कोतार्द था । रियो और रेम्बर्त से सम्पर्क रखते हुए भी वह उनसे दूर-दूर रहता था, लेकिन इन दिनों उसने जान-बूझकर तारो से मेल-जोल बढ़ा लिया था। तारो को बहुत कम फुरसत मिलती थी, लेकिन जब भी तारो को फ़ुरसत मिलती थी, कोतार्द उसे जरूर मिलता था। एक तो इसलिए कि तारो को उसके सारे केस का पता था, दूसरे यह कि तारो हमेशा एक दोस्त की तरह उससे मिलता था और उसकी खातिरदारी करता था । तारो में यह बहुत बड़ी विशेषता थी; चाहे उसे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े वह हमेशा गौर से दूसरों की बातें सुनता था और उसका साथ पाकर लोगों को सुख मिलता था । यहाँ तक कि कई बार शाम को जब वह थकान से चूर दिखाई देता था, अगले दिन उसमें अचानक नयी ताक़त आ जाती थी । "तारो ऐसा आदमी है जिससे बातें की जा सकती हैं," एक बार कोतार्द ने रेम्बर्त से कहा था, "क्योंकि उसमें सचमुच इन्सान के गुण हैं । अगर तुम मेरा आशय समझ सको तो मैं यही कहूँगा कि वह दूसरों के दिल की बात समझता है ।"
इस दौर में तारो की डायरी कोतार्द के व्यक्तित्व पर केन्द्रित थी, शायद इसका यही कारण था । स्पष्ट था कि तारो कोतार्द के व्यक्तित्व की पूरी तस्वीर खींचने की कोशिश कर रहा था। कोतार्द की बातों के आधार पर या अपनी व्याख्या के अनुसार वह कोतार्द की हर प्रतिक्रिया और विचार को नोट करता था । 'कोतार्द और प्लेग से उसके सम्बन्ध' शीर्षक से हम उसकी डायरी में कई पृष्ठों के बहुत से नोट्स पाते हैं । कथाकार का ख्याल है कि उन नोट्स का सारांश यहाँ जरूर देना चाहिए।
डायरी में सबसे पहले तारो ने कोतार्द के तत्कालीन व्यक्तित्व के बारे में साधारण वक्तव्य दिया है। "उसका व्यक्तित्व खिल रहा है। उसकी सहृदयता और खुशमिजाजी का विस्तार हो रहा है ।" प्लेग जो शक्ल अख्तियार कर रही थी उससे कोतार्द बिलकुल परेशान नहीं हुआ था। कभी-कभी तारो के सामने वह अपनी असली भावनाओं को भी व्यक्त कर बैठता था, "हालत बिगड़ रही है न ? खैर, अब सब एक ही नाव पर सवार हैं ।"
तारो ने टिप्पणी लिखी है, "इसमें शक नहीं कि और लोगों की तरह उसकी जान भी खतरे में है, लेकिन यही असली बात है; वह 'दूसरों के साथ' खतरे में है । और मुझे पूरा यकीन है कि वह गम्भीरता से कभी नहीं सोचता कि उसकी जान को ज्यादा खतरा है । लगता है कि उसके दिमाग में यह बात बैठ गई है और यह बात उतनी अस्वाभाविक नहीं है जितनी कि यह मालूम होती है कि अगर किसी आदमी को कोई खतरनाक बीमारी या गम्भीर चिन्ता हो तो उसे दूसरी बीमारियाँ और चिन्ताएँ नहीं लग सकतीं ।" उसने मुझसे पूछा, "क्या कभी तुमने इस बात पर गौर किया है कि कभी किसी आदमी को दो बीमारियाँ एक साथ नहीं होतीं ? मान लो कि तुम्हें कैंसर या बढ़ते हुए तपेदिक जैसी कोई असाध्य बीमारी है, ऐसी हालत में तुम्हें कभी प्लेग या दाईफ़स की छूत नहीं लग सकती, यह एकदम नामुमकिन है। इससे दूर भी हम जा सकते हैं; क्या तुमने कभी सुना है कि कोई ऐसा आदमी, जिसे कैन्सर हो, मोटर दुर्घटना में मरा हो ?" यही सिद्धान्त, चाहे इसमें कितनी भी हक़ीक़त हो, कोतार्द की खुशमिजाजी क़ायम रखता है । अगर उसे सब लोगों से अलग रहना पड़े तो उसे बहुत बुरा लगेगा । एकान्त में क़ैद काटने की बजाय वह प्लेग मुक्त लोगों की भीड़ में रहना ज्यादा पसंद करेगा। प्लेग ने आकर पुलिस की जांचों, जासूसी, गिफ्तारी के वारंटों को खत्म कर दिया है, और अगर वैसे देखा जाए तो इन दिनों हमारे पास कोई पुलिस नहीं है, अतीत या वर्तमान के कोई अपराध या अपराधी नहीं हैं— सिर्फ़ मौत की सजा पाए लोग हैं जो माफ़ी की उम्मीद लगाए बैठे हैं । यह माफ़ी देने वाले की सनक पर निर्भर करता है और ऐसे लोगों में पुलिस के सिपाही भी शामिल हैं ।
इस तरह कोतार्द के पास ( अगर हम तारो के विश्लेषण पर यकीन कर सकें ) अपने आस-पास के लोगों की मानसिक अशान्ति और दुख को खुशी और रस ले लेकर संतोष प्रकट करने के पर्याप्त कारण थे । उसकी यह प्रवृत्ति इस टिप्पणी द्वारा स्पष्ट हो सकती थी, "बके जाओ मेरे दोस्तो ! लेकिन मैं पहले ही यह सब भुगत चुका हूँ ।'
तारो ने लिखा है, "जब मैंने उसे सुझाव दिया कि दूसरों से सम्पर्क न तोड़ने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आदमी की अंतरात्मा साफ़ हो ।" तो वह चिढ़कर बोला, "अगर ऐसी बात है तो सब लोग हमेशा एक-दूसरे से अलग रहते हैं ।" और एक क्षण बाद उसने कहा, "तारो, तुम जो चाहे कहो लेकिन मैं तुम्हें यह बता दूँ, लोगों को एक साथ लाने का एकमात्र तरीका यह है कि उन पर प्लेग का अभिशाप छोड़ दिया जाए। तुम अपने आस-पास की परिस्थितियों पर नज़र डालो तो तुम्हें इस बात की सचाई का पता चल जाएगा ।” मैं उसके दृष्टिकोण को अच्छी तरह से समझता हूँ और यह भी समझता हूँ कि हमारी मौजूदा ज़िन्दगी का ढर्रा कोतार्द के लिए कितना सुखद है। हर कदम पर वह अपने मन में उठने वाली प्रतिक्रियाओं को भला कैसे न पहचानता ? हर आदमी दूसरों की नज़रों में अच्छा बना रहने की कोशिश करता है, कई बार लोग रास्ता भटकने वाले पर मेहरबानी करके उसकी मदद करते हैं और कई बार चिड़चिड़ेपन का प्रदर्शन करते हैं; जिस ढंग से लोग बढ़िया रेस्तरांओं में जमा होते हैं, वहाँ रहने में उन्हें सुख मिलता है और वे वहां से बाहर नहीं निकलना चाहते; सिनेमाघरों के सामने रोज लोगों की कतारें रहती हैं । थियेटरों, संगीत- गृहों और यहाँ तक कि डांस के हॉलों में भी भीड़ रहती है। सारे चौक और एवेन्यू लोगों से भर जाते हैं। लोग हर किस्म के सम्पर्क से बचना चाहते हैं, फिर भी सबके मन में इन्सानों के सामीप्य की आकांक्षा है जिससे प्रेरित होकर इन्सान इन्सानों के प्रति, शरीर शरीरों के प्रति आकर्षित होते हैं और मर्द और औरत में आकर्षण पैदा होता है। जरूर कोतार्द इन सारे अनुभवों में से गुज़रा होगा - सिवाय एक अनुभव के; जहाँ तक उसका सवाल है, औरतों का मामला निकाल देना चाहिए । भला उसके जैसी थूथनी से । मैं कह सकता हूँ कि जब उसे किसी चकले में जाने की ख्वाहिश होती है तो वह अपने मन पर काबू पा लेता है; इसमें बदनामी की आशंका है और हो सकता है कभी यह बात उसके खिलाफ चली जाए ।
संक्षेप में इस महामारी ने उसे अहंकारी बना दिया है। अकेली ज़िन्दगी बसर करने वाले इस आदमी को जिसे एकाकीपन से नफ़रत थी, महामारी ने अपनी साजिश में उसे साथी बना लिया है। हाँ 'साथी', उसके लिए यही शब्द उपयुक्त है, और उसे इस साजिश में शामिल होने में कितना मजा आता है ! वह अपने इर्द-गिर्द के सभी लोगों, उनके अन्ध- विश्वासों, बेबुनियाद घबराहटों से सामंजस्य स्थापित किये हुए है । इन लोगों के स्नायु हर वक्त तने रहते हैं, उनके दिमाग में एक ही विचार छाया है कि वे प्लेग के बारे में कम-से-कम बात करेंगे। फिर भी वे सारा वक्त इसी के बारे में बातें करते रहते हैं; जरा-सा सर दर्द होने पर वे आतंकित हो उठते हैं वे जान गए हैं कि सर-दर्द प्लेग का प्रारम्भिक लक्षण है; और उनका थकान से चूर चिड़चिड़ा मिजाज जिसकी वजह से वे छोटी-छोटी भूलों पर भी बुरा मनाते हैं और अगर उनकी पतलून का एक भी बटन गुम जाता है तो उनकी आँखों में आंसू आ जाते हैं ।
तारो अक्सर कोतार्द के साथ शाम को टहलने निकलता था । उसने बताया है किस तरह वे दोनों अंधेरा होने पर सड़कों पर खड़ी भीड़ में घुस, किस तरह सड़क के लैम्पों की चंचल रोशनी में हिलते हुए सफ़ेद और काले जनसमूह में कंधों से कंधे जोड़कर शामिल हो जाते थे और इन्सानों के रेवड़ के साथ-साथ मनोरंजन के स्थानों में अपने को बहने देते थे, जहाँ लोगों के सामीप्य की गरमी प्लेग की सर्द साँस से बचने का साधन मालूम होती थी। कुछ महीने पहले सार्वजनिक स्थानों पर कोतार्द जिस विलासिता, प्रचुरता और उन्मादपूर्ण रात्रि उत्सवों की कल्पना किया करता था- जो उसकी सामर्थ्य से बाहर थीं, अब शहर के सारे लोग उन्हीं की तलाश में थे। क़ीमतों के दिन-ब-दिन बढ़ने के बावजूद लोगों ने इतनी फ़ज़ूलखर्ची कभी नहीं की थी। लोगों की न्यूनतम जरूरतें अक्सर पूरी नहीं होती थीं, लेकिन अनावश्यक चीजों पर इससे पहले कभी इतना पैसा नहीं लुटाया गया था। फुरसत के सारे मनोरंजन सौ गुना बढ़ गए, हालांकि अब बेकारी की वजह से लोग मनोरंजन की तलाश में रहते थे। कई बार तारो और कोतार्द कुछ मिनट तक प्रेमी जोड़ों में से किसी जोड़े का पीछा करते; साधारण परिस्थितियों में ये युगल प्रेमी अपने प्रेमाकर्षण को दुनिया की नज़रों से छिपाने की कोशिश करते, लेकिन अब वे एक-दूसरे से सटकर सड़कों पर भीड़ में चलते थे । उनमें महान् प्रेमियों की आत्म- तन्मयता और सम्मोहन पैदा हो गया था । उन्हें अपने आसपास के लोगों की उपस्थिति का कोई एहसास न था । कोतार्द उन्हें वासना भरी नज़रों से घूरता और कहता, 'शाबाश प्यारो ! तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो ! इसे जारी रखो ! " यहाँ तक कि उसकी आवाज़ भी बदल गई थी और पहले से ऊँची हो गई थी। जब तारो ये पंक्तियाँ लिख रहा था तो कोतार्द का व्यक्तित्व सर्वसाधारण की उत्तेजना के अनुकूल वातावरण में 'खिल' रहा था। कॉफ़ी- हाउसों की मेजों पर लोग अपने मौजीपन में बहुत ज्यादा बख्शीश छोड़ जाते थे, कोतार्द की आँखों के सामने ही अनेक प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो रहे थे ।
लेकिन तारो को कोतार्द के दृष्टिकोण में ईर्ष्या और बदले की भावना कहीं नहीं दिखाई दी, “मैं इन सब अनुभवों में से गुजर चुका हूँ ।" कोतार्द के इस कथन में विजय की भावना की अपेक्षा दया की मात्रा ही अधिक थी । तारो ने लिखा, "कोतार्द इन लोगों को बहुत पसन्द करने लगा है जो शहर की दीवारों के भीतर आसमान के छोटे से टुकड़े तले क़ैद हैं। मिसाल के लिए अगर उसे मौक़ा मिलता तो वह ज़रूर इन लोगों को समझाता कि आखिर स्थिति इतनी बुरी नहीं है। उसने मुझे कहा था, "तुम इन लोगों को यह कहता हुआ सुनते हो। प्लेग के बाद मैं यह करूंगा और वह करूँगा... वे लोग जहाँ हैं वहीं रहने की बजाय चिन्ता में घुले जा रहे हैं और उन्हें अपनी सुख-सुविधाओं का एहसास तक नहीं होता। मेरी ही मिसाल लो ! क्या मैं कह सकता हूँ, 'गिरफ्तार होने के बाद मैं यह करूंगा और वह करूँगा ?' गिरफ्तारी अन्त नहीं बल्कि शुरुआत है। जबकि प्लेग... जानते हो मैं क्या सोचता हूँ ? ये लोग इसलिए क्षुब्ध हैं क्योंकि ये मुक्त हृदय से आनन्द नहीं मनाते । और में होश- हवास में बातें कर रहा हूँ ...।"
तारो लिखता है, "हाँ, कोतार्द होश- हवास में बातें कर रहा है, उसे यहाँ के लोगों की ज़िन्दगियों की असंगति का अच्छी तरह पता था जिनके मन में इन्सानों के सम्पर्क की तीव्र आकांक्षा थी लेकिन वे इस इच्छा के आगे झुक नहीं सकते थे, क्योंकि उनके मन का अविश्वास ही उन्हें दूसरों से अलग किये हुए था, क्योंकि इस बात को सब जानते हैं कि पड़ोसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता; वह आपको बीमारी की छूत दे देगा और आपको पता ही नहीं चलेगा, आपकी क्षणिक भूल का फायदा उठाकर वह आपको छूत देने से नहीं चूकेगा । अगर किसी ने कोतार्द की तरह ज़िन्दगी गुजारी है तो उसे हर आदमी जासूस दिखाई देता है - वे लोग भी जिनके प्रति वह आकर्षित होता है— उसकी यह प्रतिक्रिया आसानी से समझी जा सकती है । वे लोग जिन्हें हर वक्त डर बना रहता है कि कहीं असम्भावित रूप में ही प्लेग अपना सर्द हाथ उनके कन्धों पर न रख दे और जब वे अपने को मुबारकबाद देते हैं कि वे सही-सलामत हैं तो उसी वक्त प्लेग शायद उन पर धावा बोल देती है, ऐसे लोगों के प्रति मन में भाईचारे की भावना होना सम्भव है । जहाँ तक यह सम्भव है, कोतार्द आतंक के इस साम्राज्य में भी निश्चिन्त है । लेकिन मुझे शक है क्योंकि वह लोगों से पहले आतंक में से गुज़र चुका है, वह इस अनिश्चितता में हिस्सा नहीं बटा सकता, जो हर वक्त लोगों के मन पर छाई रहती है । सारी परिस्थितियां है । हम सब लोगों की तरह, जो अभी प्लेग से नहीं मरे, उसे पूरा एहसास है कि किसी भी क्षण उसकी आज़ादी और उसकी ज़िन्दगी उससे छिन सकती है । लेकिन चूँकि उसने लगातार भय में रहना सीख लिया है इसलिए वह इस बात को स्वाभाविक ही समझता है कि दूसरे लोगों की भी यही मनःस्थिति हो । या शायद इसे यों व्यक्त करना चाहिए; कोतार्द को जब अकेले ही डर का बोझ बरदाश्त करना पड़ता था उसकी अपेक्षा अब इन परिस्थितियों में वह डर को ज्यादा आसानी से बरदाश्त कर सकता है। इस दृष्टि से वह गलती 'पर है इसलिए और लोगों की बजाय उसे समझना अधिक कठिन है । जो भी हो, इसी वजह से उसे जरूर समझना चाहिए ।
नोट्स के अंत में तारो ने प्लेग पीड़ित शहर के लोगों की, जिनमें कोतार्द भी शामिल था, विचित्र मानसिक स्थिति का चित्र खींचने के लिए एक कहानी दी है । इस कहानी में इस काल का सारा विक्षिप्त वातावरण फिर से सजीव हो उठता है । इसीलिए कथाकार ने इसे इतना महत्त्व दिया है ।
एक शाम को कोतार्द और तारो म्युनिसिपल थियेटर और ऑपेरा- हाउस में गये जहाँ ग्लक का ऑपेरा 'ऑर्फ़ियस' दिखाया जा रहा था । बहार के मौसम में एक टूरिंग ऑपेरा कम्पनी इस ऑपेरा को कुछ दिनों के लिए पेश करने के लिए ओरान आयी थी। इसी बीच प्लेग फैल गई और कम्पनी को वहीं रुकना पड़ा - उन्हें बहुत सी दिक्कतें पेश आईं, इसलिए उन्होंने ऑपेरा हाउस के प्रबन्धकों के साथ एक समझौता कर लिया जिसके मुताबिक उन्हें अगली सूचना मिलने तक हफ्ते में एक दिन ऑपेरा खेलने के लिए कहा गया । इसलिए पिछले कई महीनों से हर शुक्रवार की शाम को हमारा ऑपेरा हाउस ऑर्फ़ियस1 और युरिडिस1 की प्रार्थनाओं के संगीतमय क्रन्दन से गूंजता आ रहा था। फिर भी ऑपेरा की लोकप्रियता कायम रही और हर शुक्रवार को सारा हॉल भर जाता था । सबसे ऊँचे दामों की सीटों पर बैठकर कोतार्द और तारो नीचे स्टालों की तरफ देख सकते थे जो ओरान की सोसाइटी के प्रमुख लोगों से ठसाठस भरे थे। अपनी सीटों पर जाते वक्त वे जिस शालीनता से चल रहे थे, उसे देखकर कोतार्द और तारो को बड़ा मजा आया। जब ऑर्केस्ट्रा के वादक सावधानी से आकर अपनी जगहों पर बैठ रहे थे, तो ईवनिंग ड्रेस पहने लोग एक कतार से दूसरी कतार में बड़ी अदा से अपने दोस्तों का अभिवादन करते हुए नजर आते थे । स्टेज का अगला हिस्सा रोशनी में नहा उठता था । शिष्ट बातचीत की कोमल भिनभिनाहट में उनका आत्म-विश्वास लौट आता था जा उन्हें शहर की अँधेरी सड़कों पर चलते वक्त नहीं मिलता था। प्लेग से बचने के लिए ईवनिंग ड्रेस एक तावीज़ का काम दे रही थी ।
1. यूनानी पौराणिक गाथाओं के पात्र ।
ऑपेरा के पहले अंक में सारा वक्त ऑर्फ़ियस अपनी खोई यूरिडिस के लिए मधुर स्वर में विलाप करता रहा और यूनानी पोशाकें पहने कुछ स्त्रियाँ ऑर्फ़ियस की दुर्दशा पर सुरीले गीत गाकर टिप्पणियाँ करती रहीं । संगीत की हर तीसरी पंक्ति में प्रेम की उपासना की गई थी । श्रोताओं ने संयत भाव से तालियाँ बजाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। सिर्फ थोड़े-से लोगों ने गौर किया कि दूसरे अंक के गीत में ऑर्फ़ियस ने गले में थर्राहट पैदा की थी जो शुरू के संगीत में नहीं थी और दूसरे अंक में पाताल के स्वामी1 को अपने सूत्रों की शक्ति से प्रभावित करते वक्त ऑर्फ़ियस ने अतिरंजित भावुकता व्यक्त की थी । उसने अपनी आवाज को कई बार झटके दिये थे जिससे हमारे नाट्यकला के पारंगत लोगों ने सोचा कि ऑर्फ़ियस अपने शब्दों के भावों को प्रकट करने में चतुराई से कोशिश कर रहा है हालांकि उसकी अदायगी अतिरंजित थी ।
1. प्लूटो - ऑर्फ़ियस की पत्नी युरिडिस को प्लूटो ने क़ैद कर लिया था ।
तीसरे अंक में जाकर जब ऑर्फ़ियस और यूरिडिस का लंबा दोगाना शुरू हुआ, ऐन उस मौके पर जब युरिडिस को जबरदस्ती उसके प्रेमी से अलग किया जा रहा था तो श्रोताओं में आश्चर्य से खलबली मच गई। लगता था कि गायक ऑर्केस्ट्रा के संकेत के इन्तज़ार में था, या स्टॉलो ने उसकी भावनाओं का समर्थन किया था। अचानक उसी क्षण ऑर्फ़ियस लड़खड़ाते कदमों से असंगत और हास्यास्पद भाव से स्टेज की अगली रोशनियों की तरफ बढ़ा । पुराने ढंग के चोग़े में से निकलकर उसकी बाँहें और टाँगें फैली हुई थीं। वह स्टेज के बीचों-बीच बने बाड़े में गिर पड़ा जहाँ नाटक का सामान वगैरह रखा जाता था। ऑर्फ़ियस का इस तरह गिरना हमेशा दकियानूसी मालूम होता था, लेकिन इस बार दर्शकों की नज़रों में यह बात और भी भयंकर और अर्थपूर्ण हो गई थी, क्योंकि इसी वक्त ऑर्केस्ट्रा खामोश हो गया, दर्शक उठ खड़े हुए और हॉल से बाहर जाने लगे। शुरू में तो वे किसी प्रार्थनागृह या किसी मृतक के कमरे में से निकलने वाले जन-समूह की तरह खामोश थे । औरतों ने अपनी स्कर्ट ऊपर उठा ली थीं और वे सिर झुकाकर चल रही थीं । मर्द औरतों की कोहनियों को थामकर चल रहे थे ताकि वे ऊपर उठी हुई सीटों से न टकरा जाएँ। लेकिन धीरे-धीरे उनकी गति तेज होती गई, फुसफुसाहट शोर में बदल गई और अंत में भीड़ भगदड़ मचाती हुई दरवाजों से बाहर निकलने लगी । सब एक-दूसरे को धक्का देकर बाहर निकलने की कोशिश करने लगे रास्ता तंग हो गया। और लोग बेतरतीब शक्ल में निराशापूर्ण कोलाहल मचाते हुए सड़क पर आ गए।
कोतार्द और तारो, जो अभी अपनी सीटों से उठकर खड़े ही हुए थे, सामने अपने जमाने की ज़िन्दगी की एक नाटकीय तस्वीर देख रहे थे । स्टेज पर प्लेग ने एक अभिनेता को मूक बनाकर पछाड़ दिया था और स्टॉलों में विलासिता के खिलौने, लाल मखमल की सीटों पर पड़े पंखे और लेस के शॉल, जिन्हें लोग वहीं छोड़ गए थे, बिलकुल निष्प्रयोजन मालूम हो रहे थे ।
चौथा भाग : 2
सितम्बर के शुरू में रेम्बर्त बड़ी मेहनत और ईमानदारी से रियो के साथ काम करता रहा । जिस दिन उसे लड़कों के स्कूल के बाहर गोन्जेल्ज़ और दोनों छोकरों से मिलना था, उस दिन उसने सिर्फ़ दो घंटे की छुट्टी माँगी । गोन्ज़ेल्ज़ ठीक वक्त पर निश्चित स्थान पर पहुँच गया था। जब वह रेम्बर्त से बातें कर रहा था तो उन्होंने देखा दोनों लड़के हँसते हुए उनकी तरफ आ रहे थे । उन्होंने कहा कि पिछले हफ्ते उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली थी, लेकिन कामयाबी की कोई उम्मीद भी नहीं थी । खैर, इस हफ़्ते सन्तरी - चौकी पर उनकी ड्यूटी नहीं है । रेम्बर्त को अगले हफ्ते तक सब्र करना चाहिए। वे फिर एक बार कोशिश करेंगे । रेम्बर्त ने कहा कि निश्चय ही ऐसे कामों में सब्र की जरूरत होती ही है । गोन्ज़ेल्ज़ ने सुझाव दिया कि वे सब अगले सोमवार को इसी वक्त फिर मिलें, और इस बार बेहतर होगा अगर रेम्बर्त मार्सेल और लुई के साथ रहे। "हम दोनों मुलाक़ात के लिए वक्त तय करेंगे। अगर मैं न आ सका तो तुम सीधे उनके घर चले जाना । मैं तुम्हें इनका पता दे दूँगा ।" लेकिन मार्सेल या लुई ने कहा कि सबसे अच्छी बात होगी कि वह अपने 'दोस्त' को सीधा वहीं ले चलें, फिर उसे ढूंढ़ने में कोई दिक्कत नहीं होगी। अगर उसे एतराज न हो तो वह वहीं खाना भी खा सकता है। चारों जनों के लिए वहाँ काफ़ी खाना मिल जाएगा। इस तरह से उसे 'सब बातों का अन्दाज भी लग जाएगा।' गोन्ज़ेल्ज़ ने भी कहा कि यह सुझाव बहुत अच्छा है । चारों जने बन्दरगाह की तरफ रवाना हुए ।
मार्सेल और लुई घाटों से दूर चट्टानों के सामने वाले फाटक के पास रहते थे । उनका छोटा-सा मकान स्पेनिश शैली का था । सिटनियों पर शोख रंग किया गया था और कमरे खाली और अंधेरे थे। लड़कों की माँ ने, जो स्पेनिश बुढ़िया थी और जिसके झुर्रियों वाले चेहरे पर मुस्कराहट थी, खाने की एक चीज़ परोसी, जिसमें चावलों का इस्तेमाल किया गया था । गोन्ज़ेल्ज ने आश्चर्य प्रकट किया, क्योंकि कुछ दिनों से शहर में चावल नहीं मिल रहा था । मार्सेल ने बताया, "हम फाटक पर यह सौदा तय कर लेते हैं ।" रेम्बर्त ने पेट भरकर खाना खाया और शराब पी। गोन्ज़ेल्ज़ ने उससे कहा कि वह बड़ा ही शानदार आदमी है । दरअसल पत्रकार अगले हफ़्ते के बारे में सोच रहा था ।
पता चला कि अब उसे पंद्रह दिन रुकना पड़ेगा क्योंकि संतरियों की ड्यूटी एक हफ्ते की बजाय दो हफ्ते कर दी गई है ताकि बार-बार ड्यूटियाँ बदलनी न पड़ें। उस पखवाड़े में रेम्बर्त ने अथक परिश्रम किया और सुबह से लेकर रात तक जैसे आँख मूंदकर अपनी शक्ति की हर बूंद खर्च कर रहा था। वह रात को बहुत देर से सोता था और उसे गहरी नींद आती थी । आलस की ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद फ़ौरन उसे लगातार काम करना पड़ रहा था जिससे उसका मन करीब-करीब विचार-शून्य हो गया था और शरीर अशक्त हो गया था । वह अपनी भागने की योजना के बारे में बहुत कम बात करता था । यहाँ पर सिर्फ़ एक घटना नोट करने योग्य है । जब उसने डॉक्टर के सामने कुबूल किया था कि पहली बार उसे सचमुच शराब का नशा चढ़ा था -- यह एक दिन पहले शाम की बात है—-शराबखाने से बाहर निकलकर उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसके पेट के निचले भाग में सूजन है और बाँहें हिलाने पर उसकी बगलों में दर्द हो रहा है। उसने सोचा, अब मेरी शामत आ गई है। उसके मन में जो पहली प्रतिक्रिया हुई वह बड़ी असंगत और हास्यास्पद थी - जैसा कि उसने रियो के सामने -साफ़-साफ़ कबूल किया था उसके मन में विचार उठा कि वह भागता हुआ अपर टाउन में जाए और उस छोटे चौक पर पहुँचकर, जहाँ से अगर समुद्र नहीं तो खुले आकाश का काफ़ी बड़ा टुकड़ा नजर आता था, शहर की दीवारों के पार ज़ोर से चिल्लाकर अपनी बीवी को पुकारे । घर लौट- कर जब उसने देखा कि उसके शरीर पर प्लेग का कोई भी लक्षण नहीं है तो उसे अपनी प्रतिक्रिया पर बहुत शरम आई। लेकिन रियो ने कहा कि वह जानता है कि कभी-कभी आदमी के मन में इस तरह की ख्वाहिश उठ सकती है। "ऐसी बात मन में उठना बहुत आसान है ।"
जब रेम्बर्त रियो को गुड नाइट कहकर चलने लगा तो रियो ने अचानक कहा, "आज सुबह मोसिये ओथों तुम्हारे बारे में बातें कर रहे थे । उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं तुम्हें जानता हूँ ? मैंने कहा 'हाँ'।" उन्होंने कहा, "अगर वह आपका दोस्त है तो उससे कहिए कि स्मग्लर्ज़ के साथ न मिला- जुला करे । ऐसी बात फ़ौरन नज़र में आ जाती है ।"
"इसका क्या मतलब है ?"
"इसका मतलब यह है कि तुमने जो करना है जल्दी कर डालो ।”
"शुक्रिया, " कहकर रेम्बर्त ने डॉक्टर से हाथ मिलाया ।
दरवाजे पर पहुँचकर रेम्बर्त ने सहसा पीछे मुड़कर देखा । जब से प्लेग शुरू हुई थी, रियो ने पहली बार रेम्बर्त को मुस्कराते हुए देखा था ।
"लेकिन तुम मेरा जाना रोक क्यों नहीं देते ? तुम आसानी से यह "कर सकते हो ।"
रियो ने अपनी आदत के मुताबिक सावधानी से रेम्बर्त से हाथ मिलाया और कहा कि वह किसी के मामले में दखल नहीं देना चाहता । रेम्बर्त ने खुशी का रास्ता चुना है, इसलिए उसे रोकने के लिए रियो के पास कोई दलील नहीं है । व्यक्तिगत रूप से वह यह फ़ैसला करने में असमर्थ है कि रेम्बर्त ने जो रास्ता चुना है वह सही है या गलत है ।
"तो फिर तुम मुझसे जल्दी करने के लिए क्यों कह रह हो ?" अब रियो की मुस्कराने की बारी थी ।
"इसीलिए क्योंकि मैं भी तुम्हारी खुशी में अपना फर्ज अदा करना चाहता हूँ ।"
अगले दिन दोनों अधिकांश वक्त एक साथ काम करते रहे, लेकिन दोनों में से किसी ने भी इस विषय पर बात न की । इतवार को रेम्बर्त छोटे स्पेनिश मकान में रहने के लिए चला गया । उसे बैठक में सोने के लिए चारपाई दी गई। दोनों भाई खाना खाने के लिए घर नहीं आते थे और उसे कहा गया था कि वह घर से बहुत कम बाहर निकले । वह सारा वक्त अकेला रहता था । कभी-कभी उन लड़कों की माँ से मुलाक़ात हो जाती थी । बुढ़िया का सूखा शरीर गठरी की तरह दिखाई देता था । वह हमेशा काले रंग की पोशाक पहनती थी और हर वक्त काम में व्यस्त रहती थी। उसके बादामी चेहरे पर झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ थीं और बाल एकदम सफ़ेद थे । वह ज्यादा बातें नहीं करती थी, लेकिन रेम्बर्त को देखकर वह स्नेह से मुस्करा देती थी ।
एक बार उसने रेम्बर्त से पूछा, "क्या उसे यह डर नहीं कि कहीं उसकी बीवी को भी प्लेग की छूत लग सकती है ?" रेम्बर्त ने जवाब दिया कि छूत लगने का खतरा तो ज़रूर है लेकिन बहुत कम । अगर वह ओरान में ही रहा, तो हो सकता है कि वे दोनों ज़िन्दगी में कभी एक-दूसरे से न मिल सकें ।
बुढ़िया मुस्कराई। उसने पूछा, "क्या वह अच्छी है ?"
"बहुत अच्छी ।"
"खूबसूरत है ?"
"मेरे खयाल में तो खूबसूरत है ।"
"आह ! तभी तुम इतने परेशान हो,” बुढ़िया ने सर हिलाकर कहा । वह हर रोज सुबह प्रार्थना के लिए चर्च जाती थी। एक बार सुबह प्रार्थना से लौटकर उसने रेम्बर्त से पूछा, "तुम खुदा में यकीन नहीं करते ?"
जब रेम्बर्त ने कबूल किया कि वह ईश्वर को नहीं मानता तो उसने फिर कहा, "तभी तुम इतने परेशान हो ।"
इसके बाद बुढ़िया ने कहा, "तुम ठीक सोचते हो। तुम्हें अपनी बीवी के पास लौट जाना चाहिए वरना तुम्हारे पास क्या बच रहेगा ?"
रेम्बर्त अपना अधिकांश समय कमरे में चक्कर काटने में, रोगन की हुई दीवारों को शून्य दृष्टि से देखने में और पंखों को छूने में लगाता था जो उस घर की एकमात्र सजावट थे या फिर मेजपोश के किनारों पर लगे ऊन के गेंदनुमा फुंदनों को गिनता रहता था। शाम के वक्त लड़के घर लौटते थे । वे इतना ही कहते थे कि अभी उचित अवसर नहीं आया । खाने के बाद मार्सेल गिटार बजाता था और सब जने सौंफ़ की खुशबू वाली शराब पीते थे । रेम्बर्त गहरे सोच में डूबा रहता था ।
बुधवार को मार्सेल ने कहा, “कल रात के लिए मामला तय हुआ है, आधी रात को देखना, वक्त पर तैयार रहना ।" उसने बताया कि उसके साथ जिन दो संतरियों की ड्यूटी थी उनमें से एक को प्लेग हो गई है और दूसरे आदमी पर जो उसी कमरे में सोता था, निगरानी रखी जा रही है। इसीलिए दो या तीन दिन तक मार्सेल और लुई चौकी पर अकेले ही रहेंगे। रात को वे तैयारियों को अन्तिम रूप दे चुके हैं, रेम्बर्त उन पर पूरा भरोसा कर सकता है । रेम्बर्त ने उन्हें धन्यवाद दिया ।
"अब तो खुश हो ?" बुढ़िया ने पूछा ।
रेम्बर्त ने कहा, "हाँ" । लेकिन वह किसी दूसरे सोच में पड़ा था ।
अगले दिन बड़ी गरमी थी, धूल छाई हुई थी और गरमी की धुंध से सूरज भी ढक गया था । प्लेग से मरने वालों की संख्या बढ़ गई थी। लेकिन स्पेनिश बुढ़िया पहले की तरह शान्त रही। उसने कहा, "दुनिया में इतना ज्यादा पाप है, अगर लोग मरेंगे नहीं तो और क्या होगा ?"
मार्सेल और लुई की तरह रेम्बर्त भी कमर तक नंगा था। फिर भी उसके कंधों और सीने पर से पसीना बह रहा था । बन्द कमरे की मद्धिम रोशनी में उनके धड़ पॉलिश की हुई महोगनी लकड़ी की तरह चमक रहे थे । रेम्बर्त पिंजरे में बन्द जानवर की तरह खामोशी से कमरे में चक्कर काट रहा था । अचानक शाम के चार बजे उसने कहा कि वह बाहर जा रहा है ।
"भूलना मत। ठीक आधी रात वहाँ पहुँच जाना। सारे इन्तजाम कर लिये गए हैं।" मार्सेल ने कहा ।
रेम्बर्त डॉक्टर के फ्लैट पर गया । रियो की मां ने उसे बताया कि डॉक्टर अपर टाउन के अस्पताल में मिल सकता है । पहले की तरह आज भी फाटकों के इर्द-गिर्द लोगों की भीड़ जमा थी । रह-रहकर एक पुलिस सार्जेण्ट, जिसकी आँखें बाहर की तरफ निकली हुई थीं, चिल्ला उठता था, "आगे चलो ! " भीड़ आगे बढ़ती थी लेकिन हमेशा एक दायरे में । “यहाँ भटकने का कोई फ़ायदा नहीं । तुम लोग घर क्यों नहीं जाते ?" सार्जेण्ट का कोट पसीने से तर हो गया था। लोग जानते थे कि वहाँ रहने से 'कोई फ़ायदा नहीं ।' लेकिन झुलसा देने वाली गरमी के बावजूद वे वहीं खड़े रहे । रेम्बर्त ने सार्जेण्ट को अपना 'पास' दिखाया । सार्जेण्ट ने कहा कि वह तारो के दफ्तर में चला जाए। उसके दफ्तर का दरवाजा सहन में खुलता था। वह फ़ादर पैनेलो के नजदीक से गुज़रा जो दफ्तर से बाहर निकल रहे थे ।
तारो काले रंग की लकड़ी के डेस्क के आगे बैठा था । उसने कमीज़ की आस्तीनें ऊपर चढ़ा रखी थीं और वह रूमाल से कोहनी के मोड़ का पसीना पोंछ रहा था । दफ्तर के छोटे कमरे में से, जिसमें सफ़ेद रोगन किया गया था, दवाइयों और सीले कपड़ों की बू आ रही थी ।
"तुम अभी तक यहीं हो ?" तारो ने आश्चर्य प्रकट किया ।
"हाँ, मैं रियो से एक बात करना चाहता हूँ ।"
"वह वार्ड में है, देखो। क्या तुम उससे मिले बग़ैर अपना काम नहीं कर सकते ?"
"क्यों ?"
"डॉक्टर जरूरत से ज्यादा मेहनत कर रहा है । मैं भरसक उसे मिलने वालों से बचाता हूँ ।"
रेम्बर्त ने गौर से तारो की तरफ़ देखा । वह पहले से दुबला हो गया था और थकान से उसकी आँखें और चेहरा निस्तेज हो गए थे । उसके चौड़े कन्धे नीचे ढुलक गए थे । दरवाजे पर एक दस्तक सुनाई दी और एक सहायक चेहरे पर सफ़ेद नक़ाब लगाए भीतर आया। उसने तारो के डेस्क पर कार्डों की एक छोटी-सी ढेरी रख दी । नक़ाब में से उसकी आवाज़ मोटी होकर सुनाई दे रही थी । उसने कहा, "छः " और वह बाहर चला गया। तारो ने पत्रकार की तरफ़ देखा और कार्डों को पंखे की तरह फैलाकर उसे दिखाया ।
" साफ़-सुथरे हैं न ? ये मौतें हैं, कल रात के शिकार।" फिर माथे पर त्यौरियाँ डालकर उसने कार्डों को सरकाकर आपस में मिला दिया । "हमारे लिए एक ही काम बचा है-मुनीमगीरी ! "
मेज़ का सहारा लेकर तारो धीरे-धीरे खड़ा हो गया ।
"तो क्या तुम जल्द ही जा रहे हो ?"
"आज आधी रात को ।"
तारो ने कहा कि उसे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई है। उसने रेम्बर्त को सलाह दी कि वह अपनी देखभाल करे ।
"क्या तुमने यह बात सच्चे दिल से कही है ?"
तारो ने अपने कन्धे सिकोड़ लिए ।
"मेरी उम्र में आकर इन्सान को सच्चा होना ही पड़ता है। झूठ बोलने में बहुत मेहनत पड़ती है ।"
"माफ़ करना तारो, लेकिन मेरे मन में डॉक्टर से मिलने की बहुत ख्वाहिश है ।" पत्रकार ने कहा ।
"मैं जानता हूँ। मुझसे भी ज्यादा उसमें इन्सान का दिल है। अच्छी बात है, आओ ।"
" दरअसल इसलिए नहीं..." रेम्बर्त ने शब्दों के अभाव में, वाक्य को अधूरा छोड़ दिया ।
तारो ने उसकी तरफ़ देखा और अप्रत्याशित रूप से उसके चेहरे पर मुस्कराहट फूट पड़ी।
वे एक तंग बरामदे में से गुज़रे । दीवारों पर हल्के हरे रंग की सफ़ेदी की गई थी और मछलियों के हौज की तरह वहाँ की रोशनी नीले रंग की थी । बरामदे के आखिर के कमरे में जाने से पहले, जहाँ दो पल्ले वाले शीशों के दरवाजे में से हिलती-डुलती छायाकृतियाँ दिखाई दे रही थीं, तारो रेम्बर्त को एक छोटे से कमरे में ले गया, जिसकी सारी दीवारें अलमारियों से ढकी थीं। एक अलमारी खोलकर उसने कीटाणुनाशक मशीन से, मलमल में लिपटे दो रुई के नकाब निकाले, और उनमें से एक रेम्बर्त को दिया और कहा कि वह उसे मुँह पर बाँध ले ।
पत्रकार ने पूछा- क्या सचमुच नक़ाब बाँधने से कोई फायदा होगा ? तारो ने कहा, "नहीं," लेकिन इससे दूसरों में विश्वास पैदा होता है ।
शीशे का दरवाजा खोलकर वे एक बड़े-से कमरे में दाखिल हुए, जिसकी सारी खिड़कियाँ गरमी के बावजूद भी बन्द थीं। छत पर पंखे चल रहे थे और वे मटमैले बिस्तरों की दो लम्बी कतारों पर गरम और बासी हवा को बिलो रहे थे। हर तरफ़ से लोग दबी जवान में या चीखकर कराह रहे थे । इन आवाज़ों ने मिलकर एक नीरस मर्सिये-जैसे स्थायी स्वर पैदा कर दिए थे । सलाखों वाली ऊँची खिड़कियों में से तेज रोशनी कमरे में आ रही थी, जिसमें सफ़ेद पोशाक वाले कुछ आदमी धीरे-धीरे हर पलंग के पास जा रहे थे। वार्ड की भयंकर गरमी से रेम्बर्त का जी घबरा गया और वह बड़ी मुश्किल से रियो को पहचान सका । रियो एक कराहती हुई आकृति के ऊपर झुका था और मरीज़ के पेट में नश्तर लगा रहा था। दो नर्सों ने मरीज़ की टाँगों को पकड़कर अलग कर दिया था। फौरन रियो सीधा खड़ा हो गया । उसने अपने मौज़ार एक ट्रे में डाल दिए जिसे एक सहायक उठाये हुए था और वह कुछ क्षण तक बिना हिले-डुले मरीज की तरफ़ देखता रहा, जिसके जख्मों पर अब पट्टी बाँधी जा रही थी ।
"कोई ख़बर है ?" उसने तारो से पूछा जो आकर उसके पास खड़ा हो गया था ।
"क्वारंटीन केन्द्र में फ़ादर पैनेलो रेम्बर्त की जगह पर आने के लिए राजी हो गए हैं । वे पहले भी बहुत मुफ़ीद काम कर चुके हैं। रेम्बर्त जा रहा है, इसलिए हमें तीसरे नम्बर के ग्रुप को नये सिरे से संगठित करना होगा ।"
रियो ने सर हिलाया ।
"कास्तेल ने प्लेग के टीकों की पहली शीशियां तैयार कर ली हैं । वह इन्हें फ़ौरन आजमाए जाने के पक्ष में है ।"
"गुड । यह तो अच्छी खबर है ।" रियो ने कहा ।
"और रेम्बर्त यहाँ आया है ।"
रियो ने अपने आसपास देखा । जब उसकी दृष्टि पत्रकार पर पड़ी तो नकाब के ऊपर उसकी आँखें सिकुड़ गईं।
"तुम यहाँ किसलिए आये हो ? तुम्हें तो कहीं और होना चाहिए था ?" रियो ने कहा । तारो ने बताया कि 'वह मामला' आधी रात के लिए तय हुआ है । इसके साथ ही रेम्बर्त ने अपनी बात जोड़ी "फिलहाल यही स्कीम है ।"
जब भी इन लोगों में से कोई नकाब में से बात करता था तो मलमल फूलकर होठों के ऊपर गीली हो जाती थी । इस बात से बातचीत में एक प्रकार की कृत्रिमता आ गई थी, लगता था जैसे तीन बुत आपस में बातें कर रहे हों।
"मैं तुमसे एक बात करना चाहूँगा," रेम्बर्त ने कहा ।
"अच्छी बात है । मैं अभी घर जा रहा हूँ । तारो के दफ्तर में मेरा इन्तज़ार करो ।"
करीब एक मिनट बाद रेम्बर्त और रियो कार की पिछली सीट पर बैठे हुए थे ।
तारो ड्राइव कर रहा था, गीयर लगाते वक्त उसने आसपास देखा । "पेट्रोल खत्म हो रहा है। कल हमें फ़ौजियों की तरह कतार बाँधकर चलना पड़ेगा ।" तारो ने कहा ।
रेम्बर्त बोला, "डॉक्टर, मैं शहर छोड़कर नहीं जा रहा। मैं तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ ।"
तारो बिना हिले-डुले कार चलाता रहा। लगता था कि रियो अपनी थकान से छुटकारा पाने में असमर्थ था ।
"और 'उसका' क्या होगा ?" रियो की आवाज बड़ी मुश्किल से सुनाई दे रही थी ।
रेम्बर्त ने जवाब दिया कि उसने सारे मामले पर बड़ी गम्भीरता से सोच-विचार किया है । उसके विचार तो नहीं बदले लेकिन अगर वह चला गया तो उसे अपने पर शरम आएगी, जिसकी वजह से अपनी प्रियतमा के साथ उसका सम्बन्ध और भी पेचीदा हो जाएगा ।
इस बार और अधिक उत्साह दिखाते हुए रियो ने कहा कि यह निरी बकवास है । अगर कोई अपने सुख को ज्यादा पसन्द करता है तो इसमें उसे शरम नहीं महसूस करनी चाहिए ।
"यह तो सही है," रेम्बर्त ने जवाब दिया, "लेकिन जब सब दुखी हों तो सिर्फ़ अपना सुख हासिल करने में शरम महसूस हो सकती है ।"
तारो ने, जो अभी तक खामोश रहा था, पीछे मुड़कर देखे बगैर कहा कि अगर रेम्बर्त दूसरे लोगों के दुःख में हिस्सा बटाने की इच्छा रखता है तो उसके पास फिर अपने सुख के लिए कोई समय नहीं बचेगा । इसलिए दोनों रास्तों में से उसे एक रास्ता चुनना ही पड़ेगा ।
" बात यह नहीं है, " रेम्बर्त ने फिर कहा । "अब तक मैं हमेशा अपने को इस शहर में एक अजनबी सा महसूस करता था और मुझे ऐसा लगता था कि आप लोगों से मेरा कोई रिश्ता नहीं है । लेकिन अब मैंने अपनी आँखों से जो कुछ देखा है, इसके बाद मैं जान गया हूँ कि मैं चाहूँ या न चाहूँ मैं यहीं का हूँ । प्लेग से लड़ना सबका फ़र्ज़ है ।" जब दोनों जने खामोश रहे तो रेम्बर्त चिढ़-सा गया । "लेकिन मेरी तरह आप लोग भी इस बात को जानते हैं । डैम इट ! उस अस्पताल में आखिर आप लोग क्या कर रहे हैं ? क्या आप लोगों ने पूरी तरह से अपना रास्ता चुन लिया है और खुशी को ठुकरा दिया है ?"
रियो और तारो ने अब भी कुछ न कहा । डॉक्टर के घर के नज़दीक पहुँचने तक खामोशी छाई रही। रेम्बर्त ने फिर अपना सवाल जोरदार आवाज़ में दुहराया। रियो ने बड़ी मुश्किल से अपने शरीर को गद्दी पर से उठाया और रेम्बर्त की तरफ मुड़कर कहा ।
"माफ़ करना रेम्बर्त - सचमुच मैं नहीं जानता क्यों लेकिन अगर तुम हम लोगों के पास रुकना चाहते हो तो जरूर रुको।" कार के मुड़ने की वजह से क्षण-भर के लिए डॉक्टर की बात टूट गई, फिर सीधा अपने सामने देखते हुए रियो बोला, "क्योंकि आदमी जिस चीज़ से प्यार करता है उससे कभी पीठ नहीं मोड़नी चाहिए, किसी कीमत पर भी नहीं। लेकिन मैं भी तो यही कर रहा हूँ क्यों कर रहा हूँ, यह नहीं जानता ।" वह फिर गद्दी में धँस गया । उसने क्लान्त स्वर में कहा, "ऐसी ही परिस्थिति है । और कोई चारा नहीं । इसलिए इस हकीकत को सामने रखकर हमें नतीजे निकालने चाहिएँ ।”
"कौनसे नतीजे ?"
रियो ने कहा, "आह ! आदमी इलाज करने के साथ-साथ 'जान' नहीं सकता। इसलिए हमें जल्द-से-जल्द इलाज करना चाहिए। यह ज्यादा ज़रूरी बात है।"
आधी रात के वक्त तारो और रियो रेम्बर्त को एक इलाके का नक्शा दे रहे थे जिस पर रेम्बर्त को निगरानी रखने का काम सौंपा गया था ।
तारो ने अपनी घड़ी की तरफ़ देखा । फिर रेम्बर्त की नज़रों से उसकी नज़रें टकराईं ।
"क्या तुमने उन लोगों को खबर कर दी है ?" तारो ने पूछा ।
रेम्बर्त ने मुँह दूसरी तरफ फेर लिया, और बड़ी कठिनाई से उसके मुँह से ये शब्द निकले, "आप लोगों के पास आने से पहले मैंने उन्हें एक पुर्जा लिखकर भिजवा दिया था ।"
चौथा भाग : 3
अक्तूबर के अंत में प्लेग से लड़ने के लिए कास्तेल की सीरम पहली बार आजमाई गई। एक माने में यह रियो का आखिरी दाँव था । अगर इसमें असफलता मिलती तो डॉक्टर को यकीन था कि सारा शहर महामारी की दया पर निर्भर करेगा । या तो अनिश्चित काल के लिए प्लेग अपनी तबाही जारी रखेगी या अचानक अपने आप ही खत्म हो जाएगी ।
जिस दिन कास्तेल रियो से मिलने आया था उससे एक दिन पहले मोसिये ओथों का बेटा बीमार पड़ गया था और परिवार के सब लोगों को क्वारंटीन में नजरबन्द कर दिया गया था । इस तरह बच्चे की माँ ने, जो अभी क्वारंटीन वार्ड से छूटकर आयी थी, अपने-आपको फिर परिवार से अलग पाया। सरकारी कायदों की पाबन्दी करते हुए मजिस्ट्रेट ने ज्योंही बच्चे में प्लेग के लक्षण देखे त्यों ही उसने डॉक्टर रियो को बुलवा भेजा । जब रियो कमरे में दाखिल हुआ तो बच्चे के माँ-बाप मरीज के सिरहाने खड़े थे । बच्चा सख्त कमजोरी की हालत में था और बिना रोए-धोए उसने डॉक्टर को अपनी जाँच करने दी। जब रियो ने आँखें ऊपर उठाईं तो उसने देखा मजिस्ट्रेट की नज़रें उसी पर गड़ी थीं। उसके पीछे बच्चे की माँ का पीला चेहरा नज़र आया । वह मुंह पर एक रूमाल लगाए खड़ी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, जो आशंका से और भी फैल गई थीं, डॉक्टर की हर गति- विधि का पीछा कर रही थीं ।
"इसे छूत 'लग' गई है न ?” मजिस्ट्रेट ने बेसुरी आवाज़ में पूछा ।
"हाँ" कहकर रियो फिर बच्चे की तरफ़ देखने लगा ।
माँ की आँखें और भी ज्यादा फैल गईं, लेकिन उसने अब भी कुछ न कहा । मोसिये ओथों भी कुछ देर तक खामोश रहे, फिर उन्होंने पहले से भी धीमी आवाज़ में कहा, "अच्छा डॉक्टर, हमें जो कहा जाएगा हम वही करेंगे ।"
रियो मदाम ओथों की तरफ़ नहीं देखना चाहता था जो अभी भी मुँह पर रूमाल लगाए खड़ी थीं ।
रियो ने सकपकाकर संकोच से कहा, "अगर आप मुझे अपना फ़ोन इस्तेमाल करने दें तो ज्यादा देर नहीं लगेगी ।"
मजिस्ट्रेट ने कहा कि वह डॉक्टर को टेलीफोन के पास ले चलेगा । लेकिन जाने से पहले डॉक्टर ने मदाम ओथों की तरफ मुड़कर देखा ।
"मुझे सख्त अफ़सोस है, लेकिन आपको अपना सामान तैयार करना पड़ेगा । आप जानती ही हैं कि कैसी परिस्थिति है । "
मदाम ओथों घबरायी हुई दिखाई दे रही थीं । वे फ़र्श की तरफ़ ताक रही थीं।
धीरे से अपना सर हिलाकर वे बड़बड़ाई, "मैं समझ गई । फ़ौरन तैयारी शुरू करती हूँ ।"
जाने से पहले रियो ने किसी आकस्मिक आवेग से प्रेरित होकर ओथों- दम्पति से पूछा कि क्या वह उनके लिए कुछ कर सकता है ? बच्चे की माँ खामोशी से उसकी तरफ़ देखती रही और अब मजिस्ट्रेट ने रियो की नज़रों से अपनी नज़रें हटा लीं ।
"नहीं" कहकर मजिस्ट्रेट ने बड़ी मुश्किल से अपना थूक निगलकर कहा, "लेकिन... मेरे बेटे को बचा लो ।"
प्लेग के शुरू के दिनों में सिर्फ औपचारिकता के लिए लोगों को क्वारंटीन में रखा जाता था, लेकिन रियो और रेम्बर्त ने इसका पुनर्संगठन किया था और वे इस मामले में बड़ी सख्ती से पेश आ रहे थे । वे मरीज़ के परिवार के लोगों को एक-दूसरे से अलग रखने का खास तौर से ख्याल कर रहे थे, ताकि परिवार के एक आदमी को अगर छूत लग भी जाए तो छूत को और आगे न फैलने दिया जाए। रियो ने यह बात मजिस्ट्रेट को समझाई, जिसने इस कार्यवाही का समर्थन किया । लेकिन पति-पत्नी ने एक- दूसरे की तरफ़ ऐसी निगाहों से देखा जिससे रियो के सामने यह स्पष्ट हो गया कि वे दोनों इस तरह जबरदस्ती अलग कर दिए जाने को कितना महसूस करते हैं । मदाम ओथों और उनकी नन्हीं बच्ची को क्वारंटीन अस्पताल में रेम्बर्त की देखभाल में कमरे दिये जा सकते थे। लेकिन मजिस्ट्रेट के लिए प्लेग के नजरबन्दों के कैम्प के सिवा और कहीं जगह नहीं मिल सकती थी । अधिकारी आजकल सड़क - विभाग द्वारा सप्लाई किये गए तम्बुओं से म्युनिसिपैलिटी के खेल के मैदान में यह कैंप बना रहे थे। जब रियो ने मजिस्ट्रेट से क्षमा माँगी कि वह उसे इससे अच्छी जगह नहीं दिला सकता तो मोसिये ओथों ने जवाब दिया कि सब लोगों के लिए एक ही नियम लागू होता है, इसलिए उसका पालन करना ही उचित है ।
लड़के का सहायक अस्पताल के एक छोटे कमरे में रखा गया जो प्लेग से पहले छोटे बच्चों की पढ़ाई का कमरा था । बीस घंटे बाद रियो को विश्वास हो गया कि लड़के के बचने की कोई उम्मीद नहीं । छूत लगातार बढ़ रही थी और लड़के का शरीर बीमारी से लड़ने की कोई कोशिश नहीं कर रहा था। बच्चे की छोटी-छोटी बाँहों और टाँगों के जोड़ों में छोटी- छोटी गिल्टियाँ, जो अभी पूरी तरह से नहीं उभरी थीं, चिपकी हुई थीं । साफ़ जाहिर था कि इस लड़ाई में प्लेग की जीत होने वाली थी। इन परिस्थितियों में लड़के पर कास्तेल की सीरम आजमाने के विचार से रियो की अन्तरात्मा को बिलकुल नहीं धिक्कारा। उसी रात खाने के बाद बच्चे को टीका लगाया गया, इसमें काफ़ी देर लगी, लेकिन उसका रत्ती भर फ़ायदा न हुआ | अगले दिन तड़के ही वे इस टीके का असर देखने के लिए बच्चे के पलंग के गिर्द जमा हुए- इसी नतीजे पर सब कुछ निर्भर करता था ।
बच्चे का शैथिल्य कुछ कम हो गया था और वह बिस्तर पर छटपटाता हुआ करवटें बदल रहा था। तड़के चार बजे से डॉक्टर, कास्तेल और तारो बच्चे के सिरहाने बैठे बीमारी के बढ़ने और घटने की हर अवस्था को नोट कर रहे थे । तारो का भरकम शरीर पलंग के सिरहाने झुका हुआ था, और पायताने के पास एक कुरसी पर बैठा कास्तेल पुराने चमड़े की जिल्द में बंधी एक किताब पढ़ रहा था । रियो उसके पास खड़ा था। जब क्लास रूम में रोशनी बढ़ गई तो एक-एक करके अस्पताल के और लोग भी जमा होने लगे । सबसे पहले फ़ादर पैनेलो आये थे और पलंग के सामने की दीवार का सहारा लेकर खड़े थे । उनका चेहरा शोक से खिंचा हुआ था, और कई दिनों की थकान जमा हो जाने से उनके विशाल माथे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। इस बीच उन्होंने क्षण-भर के लिए भी अपने को आराम नहीं करने दिया था । इसके बाद ग्रान्द आया । सात बजे थे और ग्रान्द की साँस फूल रही थी। इसके लिए उसने माफी मांगी। वह सिर्फ़ कुछ क्षणों के लिए वहाँ रुक सकता था । उसने पूछा -- टीके का कोई फ़ायदा नज़र आया या नहीं ? बिना कुछ कहे रियो ने बच्चे की तरफ इशारा किया। बच्चे की आँखें बन्द थीं, दाँत भिचे हुए थे, तकलीफ से उसका चेहरा ऐंठ गया था और वह तकिये पर बार-बार सर घुमा रहा था। जब कमरे में कुछ ज्यादा रोशनी हो गई और दूर कोने में टंगे ब्लैकबोर्ड पर चॉक से अभी तक लिखा समीकरण का सवाल दिखाई देने लगा, तो उसी वक्त रेम्बर्त कमरे में दाखिल हुआ । साथ वाले पलंग के पायताने के पास खड़े होकर उसने जेब से सिगरेटों का पैकेट निकाला, लेकिन बच्चे की तरफ नज़र जाते ही उसने पैकेट फिर जेब में रख लिया ।
अपनी कुरसी पर बैठे-बैठे कास्तेल ने चश्मे में से रियो को देखा । "बच्चे के बाप की कोई ख़बर है ? "
"नहीं, वह नजरबन्द कैम्प में है । "
डॉक्टर के हाथ पलंग के डंडे को कसकर पकड़े हुए थे और उसकी नज़रें नन्हे, तड़पते हुए शरीर पर लगी थीं । अचानक बच्चे का शरीर अकड़ गया और कमर कुछ ढीली पड़ गई, धीरे-धीरे बाँहें और टाँगे अंग्रेजी के एक्स अक्षर की तरह फैल गईं । फौजी कंबल से ढके शरीर से सीली ऊन और बासे पसीने की बू आई । लड़के ने फिर दाँत भींच लिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसका शरीर ढीला पड़ने लगा, उसकी बाँहें और टांगें फिर पलंग के बीचों-बीच आ गईं। वह खामोश और निश्चल था, उसकी आँखें अभी भी बन्द थीं और साँस जैसे तेज़ हो गई थीं । रियो ने तारो की तरफ देखा, तारो ने फौरन अपनी नजरें नीची कर लीं । वे पहले भी बच्चों को मरता हुआ देख चुके थे--- कई महीनों से मौत बिना किसी पक्षपात के निर्ममता दिखाती आई थी, लेकिन उन लोगों ने कभी किसी बच्चे की यंत्रणा को इस तरह हर मिनट बाद नहीं देखा था जिस तरह वे आज तड़के से देखते आ रहे थे। यह कहने की जरूरत नहीं कि प्लेग के इन मासूम शिकारों की पीड़ा उन्हें हमेशा अपने सही रूप में ही दिखाई देती थी। यह बड़ी भयंकर और घिनौनी चीज थी। लेकिन अभी तक वे उसके घिनौनेपन को अमूर्त रूप में देखते आए थे। उन्होंने कभी इतनी देर तक किसी मासूम बच्चे को मौत की यंत्रणा में छटपटाते हुए नहीं देखा था ।
और उसी वक्त बच्चे का शरीर अचानक ऐंठ गया, लगता था जैसे उसके पेट में किसी ने काट खाया हो। उसके मुँह से एक लम्बी चीख निकली। कुछ क्षण तक, जो अनन्त मालूम होते थे, उसकी वह अजब ऐंठन छाई रही, बार-बार उसका शरीर कांपकर ऐंठ उठता था । लगता था जैसे उसका नाजुक शरीर प्लेग की भयंकर फूत्कार के आगे झुक रहा था और हवा के बार-बार आने वाले झोंकों में टूट रहा था। फिर तूफानी हवाएँ गुज़र गईं, शान्ति छा गई और बच्चा कुछ आराम करने लगा। उसका बुखार भी कम मालूम होता था और वह महामारी के गीले किनारे पर हाँफ रहा था । उस पर मौत - जैसा शैथिल्य छाया था। जब तीसरी बार विनाश की आग्नेय लहर ने उस पर धावा बोला और उसे थोड़ा-सा ऊपर उठा लिया तो बच्चा सिकुड़कर बिस्तर के कोने में चला गया । लगता था आगे बढ़ती हुई लपटों के डर से, जो उसके अंगों को चाट रही थीं, वह सहम गया । क्षण-भर बाद जोर से अपना सर इधर-उधर पटकने के बाद उसने अपना कंबल उतारकर फेंक दिया। सूजी हुई पलकों से बड़े-बड़े आँसू जमा होकर धंसे हुए, शीशे- जैसे रंग के गालों पर लुढ़क पड़े । जब ऐंठन का दौरा गुजर गया तो बच्चा जिसकी दुबली बाँहें और टाँगें तन गई थीं, अड़तालीस घण्टों के भीतर ही जिनका सारा गोश्त सूख गया था और सिर्फ हड्डियाँ नज़र आ रही थीं, पीठ के बल अस्त-व्यस्त बिस्तर में छटपटाकर लेट गया, जैसे उसे शिकंजे में यंत्रणा दी गई हो। वह सलीब पर जड़े हुए ईसा का विद्रूप बना लेटा था ।
नीचे झुककर तारो ने अपने भरकम हाथ से आंसुओं और पसीने से तर उस नन्हे चेहरे को सहलाया । कास्तेल ने कुछ क्षण पहले अपनी किताब बन्द कर दी थी और अब उसकी नज़रें बच्चे पर गड़ी थीं । उसने बोलना शुरू किया, लेकिन बोलने से पहले उसे खाँसना पड़ा। उसकी आवाज़ में एक कर्कश गूंज थी ।
"आज सुबह तो हालत में कुछ सुधार नहीं हुआ था, रियो ?"
रियो ने सर हिलाया, लेकिन यह कहा कि बच्चा उम्मीद से ज्यादा बीमारी से लड़ रहा है । फादर पैनेलो ने, जो दीवार के साथ लगकर खड़े थे, धीमे स्वर में कहा, "अगर यह मर गया तो इसने औरों से ज्यादा दुःख झेला होगा ।"
वॉर्ड में रोशनी बढ़ रही थी, दूसरे विस्तरों पर लेटे नौ मरीज करवटें बदल रहे थे और कराह रहे थे, लेकिन दबी आवाजों से। उन्होंने जान-बूझ- कर अपनी आवाजें धीमी कर ली थीं। दूर, वॉर्ड के आखिर में एक मरीज़ चिल्ला रहा था और रह-रहकर कुछ कह रहा था, जिससे दर्द की बजाय आश्चर्य का आभास मिलता था । सचमुच ऐसा लगता था कि मरीजों के लिए भी पहले दौर का विक्षिप्त आतंक गुज़र चुका था और उन्होंने अब बीमारी के प्रति शोकपूर्ण आत्मसमर्पण का दृष्टिकोण अपना लिया था । सिर्फ़ बच्चा अपनी पूरी नन्ही ताकत से लड़ रहा था। बीच-बीच में रियो उसकी नाड़ी देखता था इसलिए नहीं कि इसमें कोई फ़ायदा था बल्कि इसलिए कि वह अपने इस सम्पूर्ण असहायपन से बचना चाहता था और जब वह अपनी आँखें बन्द करता था तो उसे लगता था कि बच्चे की नाड़ी की हलचल उसके अपने खून की उत्तेजना में मिल गई थी । और फिर यंत्रणा सहते हुए बच्चे के साथ एक होकर उसने अपने शरीर की बची-खुची ताकत से बच्चे को बचाने के लिए संघर्ष किया । लेकिन कुछ क्षण तक जुड़े रहने के बाद जल्द ही उनके दिलों की धड़कनों की लय अलग-अलग हो गई, बच्चा उसके हाथों से निकल गया और एक बार फिर रियो को अपनी अशक्तता का एहसास हुआ । उसने बच्चे की नन्ही, पतली कलाई छोड़ दी और वापस अपनी जगह पर आ बैठा ।
सफ़ेदी की हुई दीवारों पर रोशनी का रंग गुलाबी से पीले में बदल रहा था । नये गरमी से तपे हुए दिन की पहली तरंगें खिड़कियों से टकराने लगीं । ग्रान्द यह कहकर कि वह फिर लौटेगा, उठ खड़ा हुआ, किसी ने उसकी आवाज न सुनी। सब इन्तजार कर रहे थे। बच्चे की आँखें अभी भी बन्द थीं। वह पहले से अधिक शान्त दिखाई देने लगा । पक्षी के नाखूनों की तरह उसकी नन्ही उँगलियाँ बिस्तर के दोनों छोरों को नोच रही थीं । फिर उसकी उँगलियाँ उठीं, उसने घुटनों पर पड़ा कंबल नोचा और अचानक उसका शरीर दोहरा हो गया । वह अपनी जाँघें पेट पर ले आया और बिना हिले-डुले पड़ा रहा। पहली बार उसने आँखें खोलीं और रियो की तरफ़ देखा जो उसके ऐन सामने खड़ा था। उसका नन्हा चेहरा भूरे रंग की मिट्टी के नक़ाब की तरह सख्त हो गया था । धीरे-धीरे उसके होंठ खुले और उनमें से एक लम्बी अविराम चीख निकली, जो साँस लेने के बावजूद ज्यों-की-त्यों बनी रही । इस चीख ने वॉर्ड को एक भयंकर क्षोभ- पूर्ण प्रोटेस्ट से भर दिया, शैशव का यह नन्हा क्रंदन वॉर्ड के सब संतप्त लोगों की वेदना की सामूहिक अभिव्यक्ति बन गया । रियो ने अपने होंठ भींच लिए, तारो दूसरी तरफ़ देखने लगा, रेम्बर्त जाकर कास्तेल के पास खड़ा हो गया, जिसके घुटनों पर बन्द किताब पड़ी थी। फ़ादर पैनेलो ने बच्चे के नन्हे मुँह की तरफ़ देखा जिसे प्लेग की मलिनता ने विषाक्त कर दिया और जिसमें से मौत की क्रुद्ध चीत्कार निकल रही थी जो आदिकाल से मानवता सुनती आई है। फ़ादर पैनेलो घुटनों के बल बैठ गए और सबने उस अनाम, अनन्त क्रन्दन में उनके भर्राए गले की आवाज सुनी ।
"मेरे खुदा, इस बच्चे को ज़िन्दा रहने दो..."
लेकिन बच्चे की चीत्कार जारी रही और दूसरे मरीज़ भी बेचैन हो उठे । वार्ड के छोर वाला मरीज, जो लगातार चीख रहा था, अब और जोर से चीखने लगा था। उसकी चीखें एक अखण्ड चीख में बदल गईं। दूसरे मरीजों की कराहटें भी तेज हो गईं । सिसकियों का एक झोंका तेजी से आया, जिसमें फ़ादर पैनेलो की प्रार्थना की आवाज भी डूब गई । रियो ने, जो अभी तक पलंग के डंडे को कसकर पकड़े हुए था, अपनी आँखें मूंद लीं जो थकान और ग्लानि से चौंधिया गई थीं ।
जब उसने आँखें खोलीं तो तारो उसके पास खड़ा था ।
"मैं जा रहा हूँ । मुझसे ये आवाजें बरदाश्त नहीं होतीं ।" रियो ने कहा ।
लेकिन उसी वक्त अचानक सारे मरीज़ खामोश हो गए । अब डॉक्टर को एहसास हुआ कि बच्चे का क्रन्दन धीरे-धीरे क्षीण होकर फड़फड़ाता हुआ खामोशी में बदल गया है। मरीजों ने फिर कराहना शुरू किया, लेकिन इस बार मध्यम आवाज में यह सुदूर प्रतिध्वनि उस लड़ाई की थी जो अब खत्म हो चुकी थी, क्योंकि अब वह सचमुच खत्म हो चुकी थी । कास्तेल पलंग की दूसरी तरफ़ चला गया था, उसने कहा कि अन्त नज़दीक आ गया है। बच्चे का मुँह अब भी खुला हुआ था, लेकिन वह खामोश था और उसका नन्हा सिकुड़ा शरीर अस्त-व्यस्त कंबलों के बीच पड़ा था । उसके गाल अब भी आंसुओं से गीले थे ।
फ़ादर पैनेलो बच्चे के पलंग के पास गये और उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया । फिर अपना चोगा समेटकर वे पलंगों की कतार में से निकलकर बाहर चले गए।
"क्या आपको नये सिरे से काम शुरू करना पड़ेगा ?" तारो ने कास्तेल से पूछा ।
बूढ़े डॉक्टर ने धीरे से सिर हिलाया । उसके चेहरे पर एक ऐंठी हुई मुस्कान थी।
"शायद ! जो भी हो बच्चे ने बहुत देर तक बीमारी से लड़ाई की थी जिसे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ है ।"
रियो उठकर बाहर जा रहा था, उसकी चाल इतनी तेज थी और चेहरे पर ऐसा विचित्र भाव छा गया था कि जब यह दरवाज़े में से फ़ादर पैनेलो के नजदीक से गुज़रने लगा तो फ़ादर पैनेलो ने उसे रोकने के लिए बाँह बढ़ाई |
"सुनो भी तो, डॉक्टर" उसने कहना शुरू किया ।
रियो क्रुद्ध भाव से उसकी तरफ मुड़ा और कहा, "आह ! वह बच्चा तो बिलकुल मासूम था । मेरी तरह आप भी इस बात को जानते हैं ।"
और रियो फ़ादर पैनेलो से रगड़ खाता हुआ स्कूल के खेलने के मैदान के पार चला गया और धुंधले, छोटे पेड़ों तले एक लकड़ी के बेंच पर बैठ- कर अपना पसीना पोंछने लगा जो बहकर उसकी आँखों में जाने लगा था । उसके दिल को जैसे कोई शिकंजे में जकड़कर दबा रहा था । उसके मन में आया कि इस जकड़ से बचने के लिए जोर-जोर से शाप दे। अंजीरों के पेड़ों की टहनियों में से गरमी छनकर आ रही थी । एक सफेद धुंध तेज़ी से सुबह के नीले आकाश में फैल रही थी जिससे हवा में और भी ज्यादा दम घुटने लगा था। रियो थककर बेंच पर लेट गया। जब उसने खुरदरी टहनियों और चमकते हुए आसमान की तरफ़ देखा तो उसका साँस फूलना बन्द हो गया और उसने अपनी थकान से लड़ने की कोशिश की । उसे अपने पीछे एक आवाज़ सुनाई दी ।
"अभी तुम्हारी आवाज में क्रोध क्यों था ? जो दृश्य हम लोग देखते आ रहे थे वह मेरे लिए भी उतना ही असह्य था जितना तुम्हारे लिए था ।"
रियो ने मुड़कर पैनेलो की तरफ़ देखा ।
"मैं जानता हूँ । मुझे अफ़सोस है, लेकिन थकान एक किस्म का पागलपन होती है । और कई बार तो मेरे मन में सिर्फ अंधे विद्रोह की भावना ही उठती है।"
पैनेलो ने धीमी आवाज में कहा, "मैं सब समझता हूँ । इस तरह की बात विद्रोह इसलिए पैदा करती है, क्योंकि वह इन्सान की समझ के बाहर की चीज़ है । लेकिन शायद हमें उन चीजों से भी प्यार करना चाहिए जिन्हें हम समझ नहीं सकते ।"
रियो धीरे-धीरे उठकर बैठ गया । उसने पैनेलो की तरफ़ थकान के खिलाफ अपनी सारी ताकत और उत्साह को बटोरकर देखा, फिर उसने अपना सिर हिलाकर कहा, "नहीं फ़ादर ! प्यार के बारे में मेरे मन में दूसरी ही किस्म के विचार हैं । और अपनी जिन्दगी के आखिरी दिन तक मैं ऐसे विधान से हरगिज़ प्यार नहीं कर सकूंगा जिसमें बच्चों को इतनी यंत्रणा दी जाती है ।"
पादरी के चेहरे पर चिन्ता की एक परछाईं नज़र आई। वह क्षण-भर के लिए खामोश रहा । फिर उसने उदास स्वर में कहा, “आह डॉक्टर ! अभी मुझे एहसास हुआ है कि 'रहमत' का क्या मतलब है ?
रियो फिर बेंच में धँस गया था । उसकी थकान फिर लौट आई थी, जिसकी गहराइयों में से वह बोल रहा था । उसके स्वर में कोमलता आ गई थी ।
"यह एक ऐसी चीज है जो मेरे पास नहीं है । मैं यह जानता हूँ लेकिन इस बारे में मैं आपसे बहस न करूं तो अच्छा होगा । हम मिलकर एक ऐसी चीज़ के लिए काम कर रहे हैं जिसने हमें एकता के सूत्र में बाँध दिया है जो कुफ़्र और प्रार्थनाओं से परे की चीज़ है । और यही असली चीज़ है ।" फादर पैनेलो रियो के पास बैठ गए। जाहिर था कि उनके दिल पर गहरा असर पड़ा था ।
"हाँ-हाँ, तुम भी इन्सान की मुक्ति के लिए काम कर रहे हो ।" पैनेलो ने कहा ।
रियो ने मुस्कराने की कोशिश की ।
"मुक्ति मेरे लिए बहुत बड़ा शब्द है । मैं इतनी बड़ी महत्त्वाकांक्षा नहीं रखता । मेरा सम्बन्ध इन्सान की सेहत से है; मेरे लिए पहली चीज उसकी सेहत है । "
पैनेलो को कुछ हिचकिचाहट सी महसूस हुई। उन्होंने अपनी बात शुरू की, "डॉक्टर..." लेकिन फिर खामोश हो गए। उनके चेहरे से भी पसीना टपक रहा था । "अच्छा फिलहाल के लिए अलविदा,” कहकर फादर उठ खड़े हुए। उनकी आँखें भीग गई थीं । जब ये जाने लगे तो रियो, जो किसी सोच में डूबा हुआ नजर आ रहा था, अचानक खड़ा हो गया और पैनेलो की तरफ एक कदम आगे बढ़ा।
"मैं फिर माफी चाहता हूँ और वादा करता हूँ कि इस तरह का प्रलाप मैं आगे से नहीं करूँगा ।"
पैनेलो ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और अफसोस जाहिर करते हुए कहा, "और अभी भी मैं तुम्हें यकीन नहीं करवा सका ।"
"इससे क्या फर्क पड़ता है ! आप जानते ही हैं कि मुझे मौत और बीमारी से नफरत है । आप चाहें या न चाहें, हम लोग साथी हैं और इन दुश्मनों से एक साथ लड़ रहे हैं। रियो अभी भी पैनेलो का हाथ थामे हुए था । "तो आपने देखा - अब खुदा भी हमें अलग नहीं कर सकता ।" रियो ने कहा, लेकिन उसने कोशिश की कि उसकी नजरें पादरी की नजरों से न मिलें ।
चौथा भाग : 4
रियो के स्वयंसेवकों के दल में शामिल होने के बाद से फादर पैनेलो अपना सारा वक्त अस्पतालों में और ऐसी जगहों में काटते थे जहाँ प्लेग से उनका सीधा सम्पर्क होता था । उन्होंने जान-बूझकर अपने लिए ऐसी जगह चुनी थी जो उनकी दृष्टि में उन्हीं पर आश्रित थी - लड़ाई में सबसे अगली जगह । और तब से लगातार वे मौत से अपने कन्धे रगड़ रहे थे। हालांकि सैद्धान्तिक रूप से समझा जा सकता था कि बीच-बीच में टीके लगवाने के कारण उन पर छूत असर नहीं कर सकती थी, लेकिन वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी भी क्षण मौत उन पर भी कब्ज़ा कर सकती है और उन्होंने इस बारे में सोच-विचार भी किया था। बाहर से मालूम होता था कि उनकी शान्ति में कोई फ़र्क नहीं आया, लेकिन जिस दिन से उन्होंने एक बच्चे की मौत देखी थी, उसी दिन से उनके दिल में कोई चीज़ बदल गई थी । उनके दिल का बढ़ता हुआ तनाव उनके चेहरे से जाहिर होता था । जब एक दिन पैनेलो ने रियो को मुस्कराकर बताया था कि वे एक छोटा-सा निबन्ध लिख रहे हैं, जिसका शीर्षक है 'क्या किसी पादरी को डॉक्टर से मशवरा करना चाहिए ?" तो रियो को पादरी की बात के अन्दाज़ से ऐसा लगा कि उसके पीछे कोई-न-कोई गम्भीर बात ज़रूर है । जब डॉक्टर ने कहा कि वह भी निबन्ध को पढ़ना चाहेगा तो पैनेलो ने उसे बताया कि जल्द ही वे पुरुषों की एक प्रार्थना में प्रवचन देंगे और उसी में इस विषय पर उनके अधिकांश विचार भी प्रकट हो जाएँगे ।
"उम्मीद है तुम भी आओगे डॉक्टर ! तुम्हें यह विषय दिलचस्प मालूम होगा ।"
जिस दिन फ़ादर पैनेलो ने अपना दूसरा प्रवचन दिया, उस दिन बहुत तेज हवा चल रही थी । यह मानना पड़ेगा कि श्रोताओं की संख्या पहली बार से कम थी; इसका एक कारण यह भी था कि हमारे शहरियों के लिए इस तरह के प्रवचनों की नवीनता खत्म हो गई थी। दरअसल उन्हें जिन असाधारण परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा था उनमें 'नवीनता' शब्द का कोई अर्थ नहीं रहा था। इसके अलावा अधिकांश लोगों ने यह मानकर कि उन्होंने धार्मिक रस्मों को एकदम तिलांजलि नहीं दी थी या उन्होंने सीधेपन में आकर अपनी अनैतिक और भ्रष्ट जिन्दगियों के साथ नहीं मिला दिया था, अब साधारण धार्मिक कृत्यों की जगह स्वेच्छाचारी अन्ध-विश्वासों को अपना लिया था । इस तरह वे प्रार्थना में शामिल होने की बजाय सन्त रोश के पदक पहनना अधिक पसन्द करते थे, जो उनके ख्याल में उन्हें बीमारी से बचा सकते थे ।
मिसाल के तौर पर उन दिनों हर किस्म की भविष्यवाणियों में लोगों की दिलचस्पी बहुत बढ़ गई थी। उम्मीद की जाती थी कि बहार के मौसम में महामारी अपने आप अचानक किसी भी क्षण खत्म हो जाएगी; इसलिए कोई भी, प्लेग कितने दिन चलेगी, इस बारे में किसी को अनुमान लगाते हुए नहीं सुनना चाहता था, क्योंकि हर आदमी ने अपने को यकीन दिला दिया था कि प्लेग ज्यादा दिन नहीं चलेगी । लेकिन दिनों के गुज़रने के साथ ही लोगों के दिलों में यह डर बढ़ने लगा कि हो सकता है यह मुसीबत अनिश्चित काल तक चलती रहे। इसके बाद सब लोगों की उम्मीदें प्लेग की समाप्ति पर ही केन्द्रित हो गईं, जिसके परिणामस्वरूप भविष्यवाणियों की कॉपियाँ—जो कहा जाता था कि ज्योतिषियों या केथोलिक चर्च के संतों ने की हैं -- हाथों-हाथ पढ़ी जाने लगीं। स्थानीय छापेखानों को फ़ौरन खयाल आया कि लोगों के इस नये शौक को पूरा करके काफ़ी मुनाफ़ा पैदा किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने उन भविष्यवाणियों को छाप दिया । यह देखकर कि इस तरह के साहित्य के लिए जनता की भूख अभी तक शान्त नहीं हुई, उन्होंने म्युनिसिपल पुस्तकालयों में प्राचीन वृत्तान्तों, संस्मरणों इत्यादि में से मस्तिष्क के इस चारे के लिए रिसर्च कराई । और जब यह सोता भी सूख गया तो उन्होंने पत्रकारों को भविष्यवाणियाँ लिखने के लिए नियुक्त किया और कम-से-कम इस दृष्टि से तो पत्रकारों ने अपने को प्राचीन काल के भविष्यवक्ताओं के बराबर ही साबित कर दिया । इस तरह की भविष्यवाणियाँ सचमुच हमारे अखबारों में धारावाहिक रूप से छपी थीं और उन्हें उतनी ही दिलचस्पी और शौक से पढ़ा जाने लगा जिस तरह स्वस्थ सरगरम ज़माने में इन कॉलमों में छपने वाली इश्क- मुहब्त की कहानियाँ पढ़ी जाती थीं । कुछ भविष्यवाणियां तो गणित की विलक्षण गणनाओं पर आधारित थीं जिनमें साल की कुल मौतों और प्लेग के महीनों का सम्बन्ध जोड़ा गया था । कुछ लोगों ने पिछले जमाने की महामारियों के साथ प्लेग का मुकाबला किया था और उनकी समानताएँ साबित की थीं ( भविष्यवक्ता इन्हें 'अचल तत्त्व' कहते थे ) और उनका दावा था कि वे उनसे ऐसे नतीजे निकाल सकते हैं जो वर्तमान मुसीबत पर भी लागू होंगे। लेकिन सबसे लोकप्रिय भविष्यवक्ता वे थे जो रहस्यमयी अनर्गल भाषा में घटनाओं के अनुक्रम की घोषणा करते थे जिनमें से किसी को भी व्याख्या करके वर्तमान परिस्थितियों पर लागू किया जा सकता था और वे इतनी गूढ़ थीं कि उनकी मनचाही व्याख्या की जा सकती थी । इस तरह रोज़ नोस्त्रादेमस और संत ओदिलिया से मशवरा किया जाता था जिससे हमेशा सुखद परिणाम निकलता था। लेकिन एक बात सारी भविष्य वाणियों में समानरूप से पाई जाती थी वे लोगों को आशा दिलाती थीं जबकि बदकिस्मती से प्लेग कोई आशा नहीं दिलाती थी ।
इस तरह हमारे शहर में अंधविश्वास ने जबरदस्ती धर्म की जगह ले ली । इसीलिए जिस गिरजे में फादर पैनेलो प्रवचन दे रहे थे वह सिर्फ तीन- चौथाई भरा था । उस रोज शाम को जब रियो वहाँ आया तो झूलने वाले दरवाजों में से हवा के तेज झोंके भीतर जा रहे थे और गिरजे के आस-पास के रास्तों में भी अचानक हवा भर गई थी। सर्द और खामोश गिरजे में रियो ने पुरुष श्रोताओं से घिरे फादर को मंच पर चढ़ते देखा । वह पहली बार की अपेक्षा अधिक कोमल और गम्भीर लहजे में बोल रहे थे और कई बार तो उपयुक्त शब्दों के अभाव में उनकी ज़बान लड़खड़ा जाती थी। सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया था कि वे 'तुम' की बजाय 'हम' शब्द का इस्तेमाल कर रहे थे ।
लेकिन धीरे-धीरे उनके स्वर में दृढ़ता आती गई। उन्होंने श्रोताओं को यह याद दिलाया कि कई महीनों से प्लेग हमारे बीच रह रही है और प्लेग को अक्सर अपनी मेजों और अपने प्रियजनों के पलंगों पर हमने कई बार नज़दीक से देखा है, इसलिए अब हम इसे ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं । हमने प्लेग को अपनी बगल में चलते देखा था और जहाँ हम काम करते थे वहाँ प्लेग हमारी इन्तज़ार में रहती थी । इस तरह अब शायद हम इस स्थिति में हैं कि प्लेग हमें लगातार जो सन्देश देती आ रही है हम उसका अर्थ समझें। हो सकता है कि जब प्लेग पहली बार यहाँ आयी थी तो हमें इतना धक्का पहुँचा था कि हमने इस संदेश को ध्यानपूर्वक सुना ही नहीं था। फादर ने पहले प्रवचन में जो बातें कही थीं, वे अभी भी लागू होती हैं कम-से-कम उनका तो यही विश्वास था और शायद हममें से किसी का ख्याल हो (फादर ने अपने सीने पर जोर से मुक्का मारा) कि उनके शब्दों में उदारता नहीं थी । चाहे कुछ हो, एक बात का खंडन नहीं हो सकता- और हर परिस्थिति में इस सचाई को हमें याद रखना चाहिए। एक ईसाई की दृष्टि में हर चीज़, हर घटना उसकी भलाई के लिए है, चाहे ऊपर से देखने में वह कितनी ही हृदयहीन क्यों न मालूम हो, चाहे उसे कितनी तक- लीफ़ें झेलनी पड़ें, और परीक्षा की इस कठिन घड़ी में हर ईसाई को चाहिए कि वह उस भलाई को पहचाने, और समझे कि वह भलाई किन चीज़ों में है और किस तरह वह उन्हें अपने अनुकूल बना सकता है।
इस पर रियो के नज़दीक बैठे लोग अपने बैठने की जगहों पर बनी हाथ टिकाने की हत्थियों का सहारा लेकर आराम से बैठ गए। एक बड़ा गद्दीदार दरवाजा हवा में धीमी आवाज़ कर रहा था, कोई आदमी उसे बन्द करने के लिए उठा, जिसके परिणामस्वरूप रियो का ध्यान प्रवचन से हटकर दूसरी तरफ चला गया और उसने पैनेलो की अगली बातें नहीं सुनीं। लेकिन उनका सारांश यह मालूम होता था; हम प्लेग के कारण खोजने की चाहे जितनी कोशिशें करें लेकिन हमें यह भी जानना चाहिए कि प्लेग हमें क्या सबक सिखाना चाहती है। रियो ने अनुमान लगाया कि फादर के ख्याल में प्लेग का कोई कारण नहीं बताया जा सकता ।
रियो की दिलचस्पी बढ़ गई जब फ़ादर ने जोरदार लहजे में कहा कि कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिन्हें हम उसी तरह छू सकते हैं जिस तरह ईश्वर को छू सकते हैं और कुछ चीजों को बिलकुल नहीं छू सकते। इसमें किसीको शक नहीं हो सकता कि दुनिया में अच्छाई और बुराई दोनों चीजें मौजूद हैं और उनमें फर्क समझना जरूरी है। दिक्कत तब शुरू होती है जब हम बुराई की तह में जाते हैं । इन्सान के दुःख को भी फादर ने बुरी चीज़ों में शामिल किया । इस तरह हमारी ज़िन्दगी में ऐसा दर्द भी है जो हमें जरूरी मालूम होता है और ऐसा भी है जो हमें निरर्थक मालूम होता है ।
डॉन जुआन के दोजख में जाने की और एक बच्चे की मिसाल लीजिए | दुराचारी आदमी पर ईश्वर की कोपदृष्टि पड़े और वह मर जाए यह बात तो हमें सही मालूम होती है, लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता कि एक मासूम बच्चा किसलिए तकलीफ़ उठाता है। और सच यह है कि बच्चे की व्यथा से अधिक बड़ी और महत्त्वपूर्ण कोई चीज नहीं; उसे देखते ही हमारे मन में दहशत छा जाती है और हमें उसके औचित्य के लिए कारण तलाश करने पड़ते हैं । जिन्दगी के दूसरे क्षेत्रों में ईश्वर ने हमारा काम आसान कर दिया है इसलिए उस हद तक हमारे धर्म में कोई गुण नहीं है । लेकिन इस बात में ईश्वर ने हमें परास्त कर दिया है। सचमुच हम उस ईश्वर से टकरा रहे हैं जिसे प्लेग ने हमारे गिर्द खड़ा कर दिया है और उस दीवार की प्राणघातक छाँह में ही हमें अपनी मुक्ति का कोई तरीका निकालना है । फादर पैनेलो दीवार को लाँघने के आसान तरीकों को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि इस तरह वे आसानी से श्रोताओं को विश्वास दिला सकते थे कि बच्चे की पीड़ा के एवज में उन्हें अनन्त काल तक सुख मिलेगा । लेकिन वे यह विश्वास कैसे दे सकते थे जब उसे इस बारे में कुछ भी मालूम नहीं था । दावे से यह कहने का साहस किसमें है कि अनन्त सुख इन्सान की पीड़ा के लिए एक क्षण का बदला चुका सकता है ? जो इस तरह का दावा करे वह कभी सच्चा ईसाई नहीं हो सकता और उस महान् शिक्षक का शिष्य नहीं हो सकता जिसने अपने शरीर और आत्मा में पीड़ा की यंत्रणा का अनुभव किया था । न ही फादर पैनेलो पीड़ा के उस प्रतीक, सलीब पर चढ़े ईसा के संतप्त शरीर में आस्था रखेंगे। वे अपनी जगह पर डटे रहकर ईमानदारी से बच्चे की पीड़ा की भयंकर समस्या का सामना करेंगे, और उन लोगों से, जो आज उनके शब्द सुन रहे हैं, कहेंगे, “मेरे भाइयो, हम लोगों की परीक्षा का वक्त आ पहुँचा है। या तो हमें हर चीज में आस्था रखनी होगी या हर चीज़ में अविश्वास करना होगा । और मैं पूछता हूँ आप लोगों में से किसमें इतना साहस है कि वह हर चीज़ में अविश्वास करे ? "
रियो को लगा कि इन बातों के जरिये फ़ादर पैनेलो कुफ्र के विचार से खिलवाड़ कर रहा है, लेकिन अन्त तक इस विचार का पीछा करने के लिए उसके पास वक्त नहीं है। फ़ादर जोरदार शब्दों में कह रहा था कि "ईसाइयों को जो यह कठिन कर्तव्य सौंपा गया है, यही उसका सबसे बड़ा गुण और विशेषाधिकार है।" वह अच्छी तरह जानता है कि कुछ लोग जिनकी शिक्षा पुरानी नैतिकता और ढिलाई के साथ हुई है, इस बात से क्षुब्ध होंगे, और उस ईसाई- गुण की चर्चा से क्रुद्ध भी होंगे जो देखने में बहुत कठोर मालूम होता है और जिसके बारे में वह श्रोताओं से बात करने जा रहा है । लेकिन प्लेग के जमाने का धर्म हर रोज़ का धर्म नहीं हो सकता । सुख के दिनों में इन्सान की आत्मा बिना कष्ट के रहे और आनन्द मनाए, इस बात को ख़ुदा मंजूर कर सकता है और इसकी ख्वाहिश भी करता है, लेकिन कठिन मुसीबत के दिनों के लिए खुदा ने इन्सान की आत्मा पर कठिन कर्तव्य भी लगा दिए हैं। इसलिए आज खुदा ने अपने जीवों की परीक्षा के लिए उन्हें यंत्रणा भेजी है ताकि वे सबसे बड़े गुण को सीखें और उस पर अमल करें पूरी तरह या बिलकुल नहीं ।
कई शताब्दी पहले धर्म-विरोधी और कलुषित विचारों वाले एक लेखक ने पादरियों के एक राज़ को खोलने का दावा किया था । उसने घोषणा की थी कि 'पर्गेटरी'1 का अस्तित्व ही नहीं है । वह यह बताना चाहता था कि खुदा बीच का कदम नहीं उठाता । इन्सान को स्वर्ग और नर्क में से एक को चुनना पड़ता है। या आत्मा को सुख मिलता है या नर्क में भेज दिया जाता है । पैनेलो का कहना था कि यह एक धर्म-विरोधी विचार है जो सिर्फ़ अंधी, अशान्त आत्मा से ही पैदा हो सकता है । लेकिन सम्भव है कि इतिहास में ऐसे दौर भी आये हों जब 'पर्गेटरी' की उम्मीद न रही हो, जब क्षम्य पापों की चर्चा करना भी सम्भव न रहा हो, जब हर पाप मारक रहा हो, और हर उपेक्षा अपराध रही हो । बीच का कोई रास्ता न रहा हो ।
1. ईसाई मत के अनुसार पापमोचन का स्थान ।
यहाँ आकर पादरी रुक गया और रियो को बाहर सनसनाती हुई हवा की आवाज साफ सुनाई देने लगी। बंद दरवाजों के नीचे से आने वाली आवाज़ों से लगता था कि हवा ने बढ़कर तूफान की शक्ल ले ली थी । उसे फिर फादर पैनेलो की आवाज सुनाई दी। वह कह रहा था जिस सम्पूर्ण समर्पण और स्वीकृति की वह बात कर रहा था उसका सीमित शाब्दिक अर्थ नहीं समझना चाहिए जैसा कि आमतौर पर सभी शब्दों का समझा जाता है; वह केवल समर्पण या उससे भी कठिन गुण विनयशीलता की बात नहीं कर रहा; वह उस अपमान और अहंकार-दमन की बात कर रहा है जिसमें अपमानित व्यक्ति की भी स्वीकृति रहती है। यह सच है कि किसी बच्चे की यंत्रणा को देखकर दिल और दिमाग में अपमान की भावना जागृत होती है, लेकिन इसीलिए तो इससे समझौता करना जरूरी है, फ़ादर पैनेलो ने श्रोताओं को विश्वास दिलाया कि वह जो बात कहने जा रहा है वह कहना आसान नहीं; क्योंकि यही खुदा की मरजी है, इसलिए हमारी भी उसमें रजामन्दी है । इसी तरह और सिर्फ इसी तरह ही एक सच्चा ईसाई इस समस्या का ईमानदारी से सामना कर सकता है और वह छल- कपट को त्यागकर सबसे बड़े सवाल की तह में पहुंचने की कोशिश करेगा और वह सवाल है सही रास्ता चुनना । वह हर चीज में आस्था रखेगा ताकि उसे अनास्था के लिए मजबूर न होना पड़े । उन नेक औरतों की तरह, जो यह सुनकर कि गिल्टियों के रास्ते से ही कुदरत प्लेग की छूत को शरीर से बाहर निकालती है, गिरजाघर में जाकर प्रार्थना करने लगीं, "या खुदा उसके शरीर में गिल्टियाँ पैदा कर दे ! " इसी तरह हर ईसाई को पूरी तरह खुदा की मरज़ी के आगे समर्पण कर देना चाहिए चाहे वह उसकी विवेक शक्ति की सीमा से बाहर की चीज ही क्यों न हो। यह कहना गलत है, "मैं 'यह' समझता हूँ लेकिन 'वह' मुझे मंजूर नहीं है ।" हमें सीधे उन बातों की तह में पहुँचना चाहिए जो हमें मंजूर नहीं हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि इसी तरह हमें अपना रास्ता चुनने पर विवश होना पड़ता है। बच्चों की यंत्रणाएं हमारी मुसीबतों का खाद्य हैं; लेकिन इस खाद्य के बग़ैर हमारी आत्माएँ आध्यात्मिक भूख से मर जाएँगी ।
जब पादरी थोड़ी देर के लिए रुकता था तो बाहर से आने वाली आवाजें सुनाई देने लगती थीं। अचानक पादरी ने अपनी आवाज ऊँची कर ली और जैसे अपने को श्रोताओं की जगह रखकर वह पूछ रहा था कि ऐसी परिस्थितियों में क्या करना उचित होगा । वह जानता था कि वह जो बात कहने जा रहा है लोग उसके लिए 'भाग्यवाद' का शब्द इस्तेमाल करेंगे । खैर वह इस शब्द से डरेगा नहीं, बशर्ते इसे उस शब्द के आगे 'सक्रिय' शब्द जोड़ने की इजाजत मिल जाए। यह कहने की जरूरत नहीं कि अबीसीनिया के उन ईसाइयों की नकल नहीं की जा सकती थी जिनकी चर्चा वह पहले प्रवचन में कर चुका था । न ही हमें उन ईरानियों का अनुकरण करना चाहिए जिन्होंने प्लेग के जमाने में अपने छूत - लगे कपड़े सफाई का काम करने वाले ईसाइयों पर फेंक दिए थे और ऊंची आवाज़ में खुदा से मिन्नत की थी कि वह इन काफ़िरों को भी प्लेग की छूत दे दे जो खुदा की भेजी हुई महामारी को रोकने की कोशिशें कर रहे थे । लेकिन काहिरा के उन पादरियों का अनुकरण करना भी गलत होगा, जिन्होंने, जब शहर में प्लेग का प्रकोप था तो प्रार्थना में प्रसाद बांटने के लिए चिमटियों का इस्तेमाल किया था, ताकि वे लोगों के गीले गरम मुँहों के स्पर्श से बच सकें, हो सकता था वहाँ छूत छिपी हो । प्लेग-ग्रस्त ईरानवासी और पादरी दोनों ही गलती पर थे। ईरानियों को किसी बच्चे की यन्त्रणा की परवाह नहीं थी; इसके विपरीत पादरियों के व्यवहार यंत्रणिका में स्वाभाविक आतंक अत्यधिक रूप में झलकता था । दोनों ने असली समस्या से बचने की कोशिश की थी; उन्होंने खुदा की आवाज सुनने से इन्कार कर दिया था।
लेकिन पैनेलो ने कहा कि कई और भी मिसालें हैं जिनकी याद वह श्रोताओं को कराएगा | अगर मार्साई की प्लेग के ऐतिहासिक विवरण विश्वसनीय हैं तो उनमें लिखा है कि मर्सी मठ के इक्यासी पादरियों में से सिर्फ चार ही प्लेग में जिन्दा बच गए थे, इनमें से चार भाग गए। इतिहासकार ने सिर्फ़ तथ्य ही दिये थे, उसका इतना ही फर्ज़ था। लेकिन इस विवरण को पढ़ते वक्त फ़ादर पैनेलो का ध्यान उस पादरी पर लगातार केन्द्रित रहा जो अपने सत्तर साथियों की मौत के बावजूद, और अपने उन तीन भाइयों की मिसाल के बावजूद, जो मठ छोड़कर भाग गए थे, अकेला रह गया था। मंच के कोने पर ज़ोर से मुक्का मारकर फ़ादर पैनेलो गरज उठा, "मेरे भाइयो, हममें से हरेक को उसी पादरी की तरह डटे रहना चाहिए ।"
प्लेग से बचने के लिए सावधानी न बरतने का या जनता की भलाई के लिए जारी किये गए हुक्मों को न मानने का सवाल ही नहीं उठता । न ही हमें उन नैतिकतावादियों की सलाह माननी चाहिए जो कहते हैं कि हम प्लेग के आगे घुटने टेक दें और अपना संघर्ष बन्द कर दें । नहीं, हमें आगे बढ़ना चाहिए अँधेरे में रास्ता टटोलते हुए। हो सकता है बीच-बीच में हमें ठोकरें भी खानी पड़ें। हमें भरसक भलाई करनी चाहिए। इसके अलावा मुझे यही कहना है कि हमें खुदा के रहम पर भरोसा करके डटे रहना चाहिए, नन्हे बच्चों की मौत देखकर भी हमारी आस्था अडिग रहनी चाहिए और हमें आराम की ख्वाहिश छोड़ देनी चाहिए।
यहाँ फ़ादर पैनेलो ने श्रोताओं को मार्साई की प्लेग के जमाने के बिशप बेल्जून्स के महान् व्यक्तित्व की याद दिलाई- किस तरह महामारी के अंतिम दौर में बिशप ने अपना कर्तव्य निभाने के बाद, जैसा कि उसे शोभा देता था, अपने को अपने महल में बंद कर लिया, जिसके इर्द-गिर्द ऊंची दीवारें थीं, और अपने साथ उसने खाने-पाने का काफ़ी सामान रख लिया । अचानक बिशप के प्रति जनता की भावना बदल गई, जैसा कि घोर मुसीबत के जमाने में अक्सर होता है । मार्साई के लोग, जो बिशप की पूजा करते थे, अब उसके खिलाफ़ हो गए। उन्होंने बिशप के महल में छूत भेजने के लिए उसके महल के आस-पास लाशों का ढेर लगा दिया और यहाँ तक कि दीवारों के ऊपर से भी लाशें फेंक दीं ताकि बिशप की मौत अवश्य हो जाए। इस तरह क्षणिक कमज़ोरी में बहकर बिशप ने अपने को बाहर की सारी दुनिया से अलग कर लिया । और देखिए, उसके सर पर लाशें बरसने लगीं। इससे हम सबको सबक सीखना चाहिए। हमें अपने को पूरी तरह से यकीन दिलाना चाहिए कि प्लेग के समय में बचाव का कोई द्वीप नहीं है। न ही बीच का कोई रास्ता । हमें यह संकट स्वीकार करना ही पड़ेगा। हमें या तो खुदा से मुहब्बत करनी पड़ेगी या नफ़रत करनी पड़ेगी । और खुदा से नफ़रत करने की जुर्रत किसमें है ?
"मेरे भाइयो,” पादरी की आवाज़ से ऐसा लगता था कि प्रवचन ख़त्म होने वाला है, "खुदा से प्यार करना बड़ा मुश्किल है। यह प्यार सम्पूर्ण आत्म-समर्पण की माँग करता है, इसमें अपने मानवीय व्यक्तित्व को तुच्छ समझना पड़ता है । फिर भी इस प्यार के कारण हम बच्चों की यन्त्रणाओं और मौतों से समझोता कर लेते हैं, सिर्फ़ इसी प्यार के कारण हम उन्हें उचित ठहरा सकते हैं, चूंकि हम इन बातों को समझने में असमर्थ हैं और खुदा की मरजी को ही अपनी मरजी बना सकते हैं। इसी को आस्था कहते हैं, जो इन्सानों की नजरों में जुल्म है और खुदा की नजरों में बड़ी नाजुक चीज़ है । हमें हमेशा इसी आस्था को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए । हमें अपनी सीमाओं से आगे उस ऊँचे और आतंकपूर्ण दृश्य तक उठने की आकांक्षा रखनी चाहिए। उस ऊँचे समतल मैदान में हर चीज अपनी जगह पर चली जाएगी, सारे असमंजस्य दूर हो जाएँगे और दिखावटी इन्साफ़ के काले बादलों में से सचाई फूट पड़ेगी । दक्षिणी फ्रांस के कुछ गिरजों के पूर्वी भागों के चबूतरों के नीचे सदियों से प्लेग से मरे लोगों को दफनाया जाता रहा है, और पादरी उनकी समाधियों के ऊपर खड़े होकर प्रवचन देते हैं । उनके मुँह से निकला हुआ खुदाई पैग़ाम उस चबूतरे से निकलता है जिसमें बच्चों ने भी योग दिया है ।
जब रियो उठकर जाने की तैयारी कर रहा था तो अधखुले दरवाजों में से हवा के एक तेज झोंके ने आकर गिरजे के बीच के हिस्से को आन्दोलित कर दिया और बाहर निकलते हुए श्रोताओं के चेहरों पर जोर से प्रहार किया। हवा अपने साथ वर्षा की गन्ध, भीगे फुटपाथों का तेज स्वाद लाई थी और उन्हें बाहर के मौसम के बारे में चेतावनी दे रही थी । रियो के आगे ही एक बूढ़ा पादरी और एक नौजवान पादरी जा रहे थे, हवा में उनकी टोपियाँ उड़ी जा रही थीं और टोपियों को सर पर रखे रहने में उन्हें बड़ी दिक्कत हो रही थी। लेकिन इसकी वजह से बड़े पादरी को पैनेलो के प्रवचन के बारे में बहस करने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी । वह फ़ादर की भाषणशैली की तारीफ कर रहा था, लेकिन पैनेलो के दुस्साहस पूर्ण विचारों से वह दुविधा में पड़ गया था। उसकी राय में पैनेलो के प्रवचन में सच्ची शक्ति के बजाय घबराहट ज्यादा थी, और इस उम्र में तो पादरी को बिलकुल नहीं घबराना चाहिए। नौजवान पादरी ने, जिसने हवा से बचने के लिए चेहरा नीचे की तरफ झुकाया हुआ था, जवाब दिया कि वह फादर को बहुत अरसे से देखता आ रहा है। उसने फादर के विचारों का विकास भी देखा है और उसका ख्याल है कि आगामी पैम्फलेट में उसके फादर के विचार और भी ज्यादा दुस्साहसपूर्ण हो जाएँगे। हो सकता है कि उसे प्रेस वाले छापने से इन्कार कर दें ।
"क्या तुम्हारा ऐसा ख्याल है ? पैम्फलेट का मुख्य विचार क्या है ?"
अब वे कैथीड्रल स्क्वेयर में पहुँच गए थे और कुछ क्षण तक हवा के गर्जन के कारण नौजवान के लिए बोलना असम्भव हो गया । जब हवा कुछ थमी तो उसने संक्षेप में अपने साथी को बताया, "किसी पादरी के लिए डॉक्टर को बुलाना असंगतिपूर्ण है ।"
जब रियो ने तारो को पैनेलो के प्रवचन के बारे में बताया तो तारो ने कहा कि वह एक ऐसे पादरी को जानता है जो युद्ध के दौरान अपनी आस्था खो बैठा था, क्योंकि उसने एक ऐसे नौजवान को देखा था जिसकी दोनों आँखें नष्ट हो गई थीं ।
तारो ने कहा, “पैनेलो ठीक कहता है। अगर एक मासूम नौजवान की आँखें तबाह हो सकती हैं तो एक ईसाई के सामने दो ही रास्ते हैं या तो वह अपनी आस्था गँवा दे या अपनी आँखों को नष्ट करने की स्वीकृति दे दे । पैनेलो को अपनी आस्था खोना मंजूर नहीं है, इसलिए वह अन्त तक इस विभीषिका का साथ देगा - उसके कहने का यही मतलब था ।"
हो सकता है तारो की यह टिप्पणी बाद में होने वाली अफसोसनाक घटनाओं पर रोशनी डाले, जिनके दौरान पादरी के व्यवहार को उसके दोस्त भी नहीं समझ पाए थे। पाठक इसका निर्णय खुद करें ।
प्रवचन के कुछ दिन बाद पैनेलो को अपने कमरे छोड़ने पड़े । यह वह दौर था जब बहुत से लोगों को प्लेग की नयी परिस्थितियों से मज़बूर होकर अपने मकान बदलने पड़े थे । जब होटल को जब्त कर लिया गया तो तारो रियो के घर जाकर रहने लगा था । अब फादर को भी वे कमरे खाली करने पड़े जो चर्च के अधिकारियों ने एक धार्मिक वृत्ति की वृद्ध महिला के घर में दिलवाए थे | यह महिला अभी तक महामारी से बची रही थी । घर बदलने में पैनेलो को बहुत ज्यादा शारीरिक और मानसिक थकान हुई थी, जिसका उसकी मेजबान पर बुरा असर पड़ा था। एक रोज शाम को जब वृद्धा बड़े उत्साह से सन्त ओदिलिया की भविष्यवाणियों की तारीफों के पुल बाँध रही थी तो पादरी शायद थकान की वजह से थोड़ी अधीरता का प्रदर्शन कर बैठा । इसके बाद से वृद्धा को प्रसन्न करने की और उसका क्रोध शान्त करने की सारी कोशिश बेकार साबित हुई । बुढ़िया के मन पर पादरी के बारे में बुरा ख्याल पैदा हो गया था जिसकी कड़वाहट बनी रही। हर रात अपने सोने के कमरे में जाने से पहले, जहाँ सारा फरनीचर क्रोशिये के बनाए कपड़ों से ढका था, पादरी ड्राइंग रूम में से गुज़रता था जहाँ उसकी मेजबान बैठी रहती थी। बिना गरदन घुमाए वह 'गुडनाइट फादर' कहती थी । पादरी को इस कड़बी 'गुडनाइट' की स्मृति लेकर सोने के लिए जाना पड़ता था और इस सारी घटना की कल्पना से ही उसे घबराहट होने लगती थी । एक ऐसी ही शाम को पादरी ने महसूस किया कि जिस तरह बाँध का पानी बाँधों को तोड़ देता है, उसी तरह उसकी कलाइयों और कनपटियों में बुखार जोर मार रहा था जो पिछले कई दिनों से उसके खून में छिपा था ।
बाद की घटनाओं का ब्यौरा सिर्फ़ वृद्धा की जबान से पता चला । अगले रोज़ सुबह वह अपनी आदत के मुताबिक जल्दी उठी । करीब एक घंटे तक इन्तज़ार करने के बाद भी जब पैनेलो कमरे से बाहर न निकला तो वृद्धा ने हिचकिचाते हुए कमरे का दरवाजा खटखटाया। पादरी अभी तक बिस्तर में लेटा था, रात भर उसे नींद नहीं आई थी। उसे साँस लेने में दिक्कत हो रही थी और चेहरा भी पहले से ज्यादा लाल था । वृद्धा ने विनीत स्वर में ( यह वृद्धा का कहना है) कहा कि फ़ौरन किसी डॉक्टर को बुला लेना चाहिए, लेकिन पादरी ने उसके सुझाव को बड़ी 'बदतमीज़ी' से ठुकरा दिया । वृद्धा कमरे से चली आई, इसके सिवा वह और कर भी क्या सकती थी ! बाद में फ़ादर ने घंटी बजाकर नौकरानी को बुलाया और वृद्धा से मिलने की इच्छा प्रकट की । उसने अपनी अशिष्टता के लिए माफ़ी माँगी और वृद्धा को आश्वासन दिया कि उसे प्लेग नहीं हो सकती; क्योंकि प्लेग का कोई भी लक्षण दिखाई नहीं दिया था; मामूली तबीयत खराब हो गई थी । वृद्धा ने शालीनतापूर्वक जवाब दिया कि उसने किसी आशंका के कारण डॉक्टर को बुलाने का सुझाव नहीं दिया था उसे अपनी सुरक्षा की तनिक भी चिन्ता नहीं थी क्योंकि वह खुदा के हाथों में थी; लेकिन चूँकि फ़ादर उसके मेहमान हैं, इसलिए वह फ़ादर की भलाई के लिए कुछ हद तक अपने को जिम्मेवार समझती है । जब पादरी ने कुछ न कहा ता वृद्धा ने पादरी के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के लिए ( उसका यही कहना है ) फिर अपने डॉक्टर को बुलाने का सुझाव दिया। फ़ादर पैनेलो ने कहा कि तकलीफ़ उठाने की कोई ज़रूरत नहीं । उसने कुछ दलीलें भी दी थीं, जो वृद्धा को बेहूदी और असंगत मालूम हुई थीं । वृद्धा के पल्ले सिर्फ़ यही दलील पड़ी थी, जिसे वह सबसे ज्यादा असंगत समझती थी कि फ़ादर ने इसीलिए डॉक्टर को बुलाने के खिलाफ़ सैद्धान्तिक एतराज़ उठाया था । वृद्धा को ऐसा लगा कि शायद बुखार की वजह से उसके मेहमान का दिमाग गड़बड़ हो गया है, इसलिए उसने चाय का एक प्याला लाने के सिवा और कुछ न किया ।
अपना कर्तव्य निभाने के दृढ़ निश्चय से प्रेरित होकर वह हर दो घंटे बाद बीमार के पास जाती रही । पादरी की बेचैनी जो दिन-भर जारी रही थी, उसे देखकर बुढ़िया को हैरत हुई थी । वह कंबल उतारकर फेंक देता था, फिर उसे ओढ़ लेता था। वह लगातार अपने पसीने से तर माथे पर हाथ फेरता जा रहा था । बीच-बीच में वह उठकर बिस्तर पर बैठ जाता था और भर्राए गले से खाँसकर अपना गला साफ करता था । लगता था कि उसे उल्टी आ रही है, और कोई आधी ठोस-सी चीज़ उसके फेफड़ों में फँसकर उसका दम घोंट रही है जिसे वह निकाल देना चाहता है । हर बार उसकी कोशिश व्यर्थ जाती थी। फिर थकान से चूर होकर वह तकिये पर सर रखकर लेट जाता था। फिर जरा-सा उठकर वह आंखें फाड़- फाड़कर सामने की तरफ देखने लगता था । यह बात बीमारी के दौरों से भी ज्यादा घबराने वाली थी। अभी भी वृद्धा डॉक्टर को बुलाकर अपने मेहमान को नाराज़ नहीं करना चाहती थी। हो सकता है वह सिर्फ़ बुखार हो - लक्षणों की प्रचण्डता से तो ऐसा ही जाहिर होता था ।
दोपहर को उसने एक बार फिर पादरी से बात करने की कोशिश की, लेकिन पादरी के मुँह से सिर्फ़ चन्द अनर्गल वाक्य ही निकले । वृद्धा ने फिर डॉक्टर को बुलाने का सुझाव दिया। इस पर पादरी उठकर बैठ गया और उसने दृढ़, लेकिन घुटी हुई आवाज में इन्कार कर दिया। इन परिस्थितियों में वृद्धा ने अगले दिन सुबह तक इन्तजार करना उचित समझा; अगर फादर की हालत में सुधार न हुआ तो वह उस नम्बर पर टेलीफ़ोन कर देगी जो हर रोज दस वार रेंस्डाक सूचना विभाग द्वारा प्रसारित किया जाता था । उसे अभी भी अपने कर्तव्य का एहसास था, उसने सोचा कि वह रात को भी मरीज को देखने जाएगी और अगर उसे किसी देखभाल की जरूरत पड़ी तो उसे पूरा करेगी। लेकिन ग्यारह बजे के करीब पादरी को जड़ी-बूटियों का काढ़ा पिलाने के बाद उसने आध घंटे तक आराम करने का फ़ैसला किया जब उसकी नींद खुली तो दिन निकल आया था । सबसे पहले वह पादरी के कमरे में गयी ।
पैनेलो बिना हिले-डुले लेटा था; चेहरे की लाली गायब हो गई थी, अब उस पर मौत - जैसा पीलापन छाया था, गाल भीतर नहीं धंसे थे इसलिए यह पीलापन और भी ज्यादा जाहिर हो रहा था । पादरी बिस्तर के ऊपर लटकते हुए लैंप के आसपास बनी मोतियों की झालर की तरफ़ देख रहा था। जब वृद्धा कमरे में दाखिल हुई तो पादरी ने अपना चेहरा घुमाया । वृद्धा ने पादरी के चेहरे को बड़े अजब ढंग से बयान किया था । ऐसा लगता था जैसे रात भर पादरी की सख्त पिटाई होती रही थी। वह एक जिन्दा आदमी की बजाय मुर्दा मालूम हो रहा था। जब वृद्धा ने पूछा कि उसकी तबीयत कैसी है, तो उसने उदासीन स्वर में जवाब दिया कि उसकी हालत खराब है । उसके स्वर की उदासीनता से वृद्धा को हैरत हुई । पादरी ने कहा कि उसे डॉक्टर की जरूरत नहीं, वह सिर्फ यही चाहता है कि सरकारी नियमों के अनुसार उसे अस्पताल में पहुँचा दिया जाए। वृद्धा घबरायी हुई टेलीफ़ोन की तरफ भागी ।
रियो दोपहर को पहुँचा । वृद्धा की सारी बातें सुनने के बाद उसने उत्तर दिया कि पैनेलो ठीक है, लेकिन शायद अब उसे बचाया नहीं जा सकता। फ़ादर ने बिलकुल उदासीन भाव से रियो का स्वागत किया था। रियो ने उसकी जांच की और उसे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि सिवा फेफड़ों की रुकावट के न्यूमोनिक या ब्यूबोनिक प्लेग के कोई लक्षण नहीं थे, जो अक्सर नज़र आते हैं। लेकिन नब्ज़ इतनी धीरे चल रही थी और पादरी की हालत इतनी चिन्ताजनक थी कि अब उसके बचने की बहुत कम उम्मीद थी ।
रियो ने पादरी को बताया, "आपके शरीर में प्लेग का कोई भी विशिष्ट लक्षण नहीं, लेकिन मैं ठीक से नहीं कह सकता इसलिए आपको अलग वार्ड में रखना होगा ।"
पैनेलो जैसे शिष्टतावश, बड़े विचित्र ढंग से मुस्कराया। रियो टेलीफ़ोन करने के लिए बाहर गया और लौटकर उसने पादरी की तरफ़ देखा ।
"मैं आपके पास ही ठहरूँगा," रियो ने मृदु स्वर में कहा ।
पैनेलो ने अधिक सजीवता दिखाई और डॉक्टर को देखकर उसकी आँखों में एक प्रकार का उत्साह आ गया। फिर वह बड़ी कठिनाई से बोला । यह कहना भी असम्भव था कि उसकी आवाज में उदासी थी या नहीं । उसने कहा, “धन्यवाद ! लेकिन पादरियों के दुनिया में कोई दोस्त नहीं होते । वे अपना सर्वस्व ईश्वर को सौंप देते हैं ।"
पादरी ने कहा कि उसे सलीब दे दिया जाए, जो पलंग के ऊपर टंगा था । वह मुंह फेरकर सलीब की तरफ़ देखने लगा ।
अस्पताल पहुँचकर पैनेलो ने मुँह से एक शब्द भी नहीं निकाला । उसने बिना किसी विरोध के अपना इलाज होने दिया, लेकिन क्षण-भर के लिए भी सलीब को अपने से अलग न होने दिया । पादरी को संदिग्ध हालत में देखकर रियो यह फैसला न कर सका कि उसे आखिर क्या बीमारी है । पिछले कुछ हफ्तों से प्लेग ने जैसे पकड़ में न आने का हठ कर रखा था । पनेलो की अनिश्चित हालत का कोई परिणाम न निकला ।
उसका बुखार बढ़ गया, दिन-भर खाँसी जोर पकड़ती गई, जिसने उसकी क्षीण देह को झकझोर दिया। रात को जाकर पैनेलो के फेफड़ों से वह चीज़ निकली जो उसका दम घोट रही थी। यह लाल रंग की थी । तेज़ बुखार में भी पैनेलो की आँखों की शान्ति कायम रही। अगले दिन सुबह जब वह मरा हुआ पाया गया, उसका शरीर बिस्तर पर झुका हुआ था । तब भी उसकी आँखों से कुछ जाहिर न हुआ । पादरी के नाम के कार्ड पर लिख दिया गया 'संदिग्ध केस' ।
चौथा भाग : 5
उस साल 'ऑल सोल्ज डे' का वातावरण पहले सालों की अपेक्षा भिन्न था। इसमें शक नहीं कि मौसम अच्छा हो गया था । अचानक उसमें तब्दीली आई थी और तेज़ गरमी की जगह पतझड़ की हलकी हवा ने ले ली थी ।पहले बरसों की तरह दिन-भर ठंडी हवा चलती थी और बड़े-बड़े बादल क्षितिज के एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ लगाते थे और मकानों पर अपनी परछाइयाँ फेंकते जाते थे। उनके जाते ही नवम्बर के आसमान की पीली सुनहरी रोशनी मकानों पर छा जाती थी ।
इस मौसम में पहली बार बरसातियआं नज़र आईं -चमकदार रबड़ चढ़ी हुई बरसातियआं पहनने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि देखकर ताज्जुब होता था । इसका कारण यह था कि हमारे अखबारों में यह खबर छपी थी कि दो सौ साल पहले दक्षिणी फ़्राँस में फैलने वाली भयंकर महामारियों में डॉक्टर छूत से बचने के लिए मोमजामे के कपड़े पहना करते थे । दुकानों ने इस मौक़े से फ़ायदा उठाकर उन तमाम बरसातियों के स्टॉक को, जिनका अब फ़ैशन नहीं रहा था, बेच लिया । खरीदने वालों का खयाल था कि ये बरसातियाँ उन्हें 'कीटाणुओं' से बचाने की गारंटी हैं ।
लेकिन 'ऑॉल सोल्ज डे' के इन परिचित दृश्यों में हम यह नहीं भूल सके कि लोग कब्रिस्तानों में नहीं गये थे। पहले सालों में ट्रामो में गुलदाऊदी के फूलों की मन्द सुगन्ध छाई रहती थी और कब्रिस्तानों के आगे हाथों में फूल लिये औरतों की लम्बी कतारें दिखाई दिया करती थीं, जो अपने परिवार के मृतकों की क़ब्रों पर फूल चढ़ाकर श्रद्धांजलि अर्पण करना चाहती थीं। यह वह दिन था जब कई महीनों की विस्मृति और लापरवाही की कसर चुकाई जाती थी। लेकिन जिस साल प्लेग आयी, लोग अपने मृतक रिश्तेदारों का स्मरण नहीं करना चाहते थे । क्योंकि वे पहले से ही ज़रूरत से ज्यादा मृतकों के बारे में सोच रहे थे, इसलिए अफ़सोस और उदासी के साथ फिर कब्रिस्तान में जाने का सवाल ही नहीं उठता था । मृतक अब वे परित्यक्त नहीं रहे थे, जिनके पास साल में एक बार आकर उनके रिश्तेदार अपनी निर्दोषिता साबित करते थे । अब वे अनधिकार चेष्टा से जिन्दा लोगों में आने वाले मेहमान थे, जिन्हें भूल जाने की ख्वाहिश होती है । इसीलिए इस साल मृतकों के दिन को जान-बूझकर लेकिन चुप-चाप भुला दिया गया। जैसी कि कोतार्द ने रूखे ढंग से टिप्पणी की थी, आजकल हमारे लिए हर दिन मृतकों का दिन है । तारो ने देखा कि दिन-ब-दिन कोतार्द की मज़ाक करने की आदत बढ़ती जा रही है ।
और सचमुच श्मशान में प्लेग से मरे लोगों की चिताओं की प्रचंडता पूर्ववत् कायम थी । इसमें शक नहीं कि मौत के आंकड़ों में कोई वृद्धि नहीं हुई थी, लेकिन ऐसा लगता था कि प्लेग हमेशा के लिए अपने प्रचंड रूप में हमारे बीच बस गई थी और एक कार्य-कुशल सरकारी अफ़सर की तरह हर रोज़ नियम और उत्साहपूर्वक मौतों की वसूली कर लेती थी । सैद्धान्तिक और सरकारी दृष्टिकोण से यह आशाजनक प्रसार था । बहुत लम्बी उठने के बाद मौत के ग्राफ़ की रेखा सीधी हो गई थी, इससे बहुत से लोग मिसाल के लिए डॉक्टर रिचर्ड आश्वस्त हो गए थे। डॉक्टर खुशी से अपने हाथ रगड़कर कहता था, "आज तो ग्राफ़ बहुत अच्छा है ।" उसके विचार में बीमारी सबसे ऊँचे निशान पर पहुंच चुकी थी, इसलिए सिवा कम होने के अब उसके पास कोई रास्ता नहीं था । उसने इसका श्रेय डॉक्टर कास्तेल की नयी सीरम को दिया, जिसकी वजह से सचमुच कई ऐसे लोग बच गए थे, जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी । इस बात से इन्कार न करते हुए भी वृद्ध डॉक्टर ने उसे याद दिलाया कि भविष्य अनिश्चित है; इतिहास यह साबित करता है कि महामारियाँ अनायास ही फिर जोर पकड़ लेती हैं जब कि उनके जोर पकड़ने की कोई उम्मीद नहीं होती। अधिकारियों ने, जो बहुत दिनों से नगरवासियों के नैतिक साहस को बढ़ावा देना चाहते थे, लेकिन प्लेग की प्रचंडता के कारण ऐसा न कर सके थे, डॉक्टरों की एक मीटिंग बुलाकर उनसे इस विषय पर ऐलान जारी करवाने का फैसला किया । बदकिस्मती से, मीटिंग होने से पहले डॉक्टर रिचर्ड भी प्लेग के शिकार हो गए, जबकि प्लेग ठीक 'पानी चढ़ने के निशान' तक पहुँची थी ।
यह खेदजनक घटना, जो सनसनीखेज थी, दरअसल कोई बात साबित न कर सकी। हमारे अधिकारी उतने ही अस्वाभाविक ढंग से फिर निराशावादी बन गए, जिस तरह वे आशावादी बने थे । रही डॉक्टर कास्तेल की बात, वे सीरम बनाने में ज्यादा-से-ज्यादा सावधानी बरतने लगे। इस वक्त तक कोई सार्वजनिक स्थान या इमारत ऐसी नहीं थी जो अस्पताल या क्वारंटीन कैम्प में न बदल दी गई हो। सिर्फ़ प्रीफ़ेक्ट के दफ्तर बच गए थे, जिनकी शासन प्रबन्ध और कमेटी की मीटिंगों के लिए जरूरत थी। वैसे महामारी में अपेक्षाकृत स्थिरता आ गई थी, इसलिए रियो को संस्था अभी भी स्थिति का सामना करने में समर्थ थी। हालांकि उन पर लगातार काम का बोझ पड़ रहा था, लेकिन डॉक्टर और उनके सहायकों को इससे ज्यादा कोशिशें करने की जरूरत नहीं दिखाई दे रही थी। उन्हें तो मशीन की तरह अपना काम करना था, जो इन्सान की ताकत से कहीं बड़ा था । न्यूमोनिक प्लेग की छूत, जिसके कुछ केस पाए जा चुके थे, अब सारे शहर में फैल रही थी । ऐसा लगता था कि हवाएँ छत की आाग को भड़का रही थीं और लोगों के सीनों में सुलगा रही थीं। न्यूमेटिक प्लेग के मरीज खून-मिला थूक फेंककर जल्द ही खत्म हो जाते थे। महामारी की यह नयी शक्ल ज्यादा फैलने वाली और सांघातिक थी। लेकिन विशेषज्ञों की राय में हमेशा से मतभेद रहा था । अधिक सुरक्षा के लिए सफ़ाई विभाग के सभी कर्मचारी तीन बार तह की हुई मलमल के नक़ाब पहनते थे, जिन्हें उबालकर कीटाणुरहित कर लिया गया था । लेकिन ब्यूबोनिक प्लेग के केस कम हो जाने के बावजूद मरने वालों की संख्या पहले जैसी ही बनी रही ।
इस बीच खाद्य - सप्लाई में दिक्कत होने के कारण अधिकारी चिन्तित हो उठे थे । मुनाफ़ाखोर खाने-पीने की चीजों को, जो दुकानों में नहीं मिलती थीं, बहुत महँगे दामों पर बेच रहे थे । इसके परिणामस्वरूप गरीब परिवारों की बड़ी दुर्दशा हुई और अमीरों को किसी चीज़ की भी कमी महसूस नहीं हो रही थी । प्लेग को अपने निष्पक्ष शासन से नगरवासियों में समानता पैदा करनी चाहिए थी, लेकिन अब उसका उल्टा ही असर हुआ और अभ्यस्त लालसाओं के संघर्ष के कारण लोगों के दिलों में अन्याय की कटु भावना और भी तीव्र हो उठी । मौत की अचूक समानता का रास्ता अब भी उनके लिए खुला था— लेकिन इस तरह की समानता की किसी को ख्वाहिश नहीं थी । गरीब लोग, जो इस मुसीबत के शिकार थे, आसपास के गाँवों के बारे में आकांक्षा भरे सपने देखने लगे, जहाँ अब भी रोटी सस्ती थी और ज़िन्दगी पर कोई पाबन्दी नहीं थी । उनके मन में यह स्वाभाविक किन्तु असंगतिपूर्ण इच्छा जाग्रत हुई कि उन्हें भी इन सुखी गाँवों में जाने की इजाजत मिलनी चाहिए। यह भावना एक नारे में प्रकट हुई, जिसे लोग सड़कों पर लिखते थे और जो दीवारों पर चॉक से लिखा गया था, "रोटी दो या ताजी हवा दो !" यह अर्द्ध-व्यंग्यपूर्ण युद्ध का नारा उन प्रदर्शनों का सूचक था, जिन्हें आसानी से दबा लिया गया था, लेकिन जिनसे सब सचेत हो गए थे कि नगरवासियों में आक्रोश की अप्रीतिकर भावना बढ़ती जा रही है ।
यह कहना न होगा कि अखबार अधिकारियों द्वारा दी गई हिदायत का पालन कर रहे थे, कि हर सूरत में लोगों की आशावादिता कायम रखी जाए । अखबारों के मुताबिक हमारे नगरवासी 'साहस और दृढ़ता की मिसाल थे', लेकिन ऐसे शहर में, जिसे अपने ही साधनों पर निर्भर रहना था, जहाँ कोई चीज गुप्त नहीं रह सकती थी, किसी को जनता की इस मिसाल के बारे में भ्रम नहीं था । लोगों के साहस और दृढ़ता का अन्दाज़ा, जिसकी हमारे पत्रकार चर्चा करते थे, आप किसी क्वारंटीन डिपो में या नजरबन्दों के कैम्पों में जाकर लगा सकते थे । संयोगवश, अन्यत्र व्यस्त रहने के कारण कथाकार को इन कैम्पों में ज्यादा जाने का मौका नहीं मिला, इसलिए वह इन स्थानों की दशा के ब्योरे के लिए तारो की डायरी पर भरोसा करने के लिए मजबूर है ।
तारो एक बार रेम्बर्त के साथ म्युनिसिपैलिटी के खेल के मैदान में बने कैम्प में गया था, जिसका विवरण उसने अपनी डायरी में दिया है। यह मैदान शहर की सीमा पर बना है, उसकी एक तरफ ट्राम की लाइन है और दूसरी तरफ ऊसर भूमि है, जो उस पठार के सुदूर कोने तक चली गई है जिस पर ओरान बसा है । मैदान के आसपास कंक्रीट की ऊँची दीवारें बनी थीं और चारों फाटकों पर सन्तरी तैनात कर दिये गए थे, जिसकी वजह से बाहर निकलकर भागना असम्भव हो गया था। दीवार एक और काम भी करती थी- सड़क पर से गुज़रने वाले लोग क्वारंटीन में रहने वाले अभागों को नहीं देख सकते थे, लेकिन इसका एक फायदा यह था कि भीतर के लोग सारा दिन ट्रामों की आवाज सुनते थे, हालाँकि उन्हें दिखाई कुछ नहीं देता था । जब सड़क पर ट्रैफिक का शोर बढ़ जाता था, तो वे अन्दाज लगा लेते थे कि लोग काम पर जा रहे हैं या काम से लौट रहे हैं। उन्हें यह एहसास होता था कि वे जिस जिन्दगी से वंचित कर दिये गए हैं वह जिंदगी उनसे कुछ गज की दूरी पर ही पूर्ववत् चल रही है और इन ऊंची दीवारों ने दो संसारों को अलग कर दिया है, जो दो ग्रहों की तरह एक-दूसरे से अपरिचित हैं ।
तारो और रेम्बर्त ने खेल के मैदान में जाने के लिए एक इतवार की शाम चुनी । उनके साथ फुटबॉल का खिलाड़ी गोन्जेल्ज़ भी था, जिसके साथ रेम्बर्त ने सम्पर्क पैदा किया था और जो औरों के साथ बारी-बारी से कैम्प की निगरानी के लिए राजी हो गया था। इस बार रेम्बर्त गोन्जेल्ज़ को कैम्प के कमांडेन्ट से परिचय करवाने लाया था। उस रोज दोपहर को जब उनकी मुलाक़ात हुई तो गोन्ज़ेल्ज़ ने फौरन कहा कि प्लेग से पहले इस वक्त वह फुटबॉल की वर्दी पहनना शुरू करता था। अब तो खेल के मैदान भी जब्त हो गए हैं सब बातें अतीत की कहानी बनकर रह गई हैं । गोन्ज़ेल्ज़ अपने को बेकार महसूस कर रहा था और उसके व्यवहार से यह बात जाहिर भी हो रही थी । इसीलिए उसने रेम्बर्त के सुझाव पर यह काम स्वीकार कर लिया था, लेकिन उसने एक शर्त रखी थी कि वह सिर्फ़ हफ्ते के अन्त में ही ड्यूटी दिया करेगा । आसमान में बादल छाए थे, और उनकी तरफ़ देखकर गोन्ज़ेल्ज़ ने अफ़सोस भरे स्वर में कहा कि ऐसा दिन जब न ज्यादा गरमी है, न पानी बरस रहा है, मैच खेलने के लिए सबसे अच्छा रहता । फिर उसने अतीत की बातों को भरसक कोशिशों से याद करना शुरू किया ड्रेसिंग रूम्ज़ से आती हुई मालिश की गंध, भीड़ से ठसाठस भरे स्टैण्ड, खिलाड़ियों की रंगीन कमीजें, जो ब्राउन धरती की पृष्ठभूमि में खूब चमकती थीं। हॉफ़ टाइम के वक्त वे लोग नींबू का शरबत या लेमनेड पिया करते थे, जो उनके सूखे गलों को गुदगुदाकर फिर से ताजा कर देता था । तारो ने यह भी दर्ज किया है कि किस तरह जब वे गन्दी सड़कों पर से गुज़रे तो फुटबॉल के खिलाड़ी ने रास्ते में पड़े सब पत्थरों को ठोकर लगाई थी । उसका मक़सद परनाले के छेदों में पत्थरों को डालना था। जब भी कोई पत्थर छेद में पहुँच जाता था, तो गोन्ज़ेल्ज़ चिल्ला उठता था, "शाबाश! गोल हो गया ! " अपना सिगरेट खत्म करके उसने अधजले टुकड़े को मुँह से निकालकर फेंक दिया और उसके जमीन पर गिरने से पहले ही उसे पैरों के अँगूठे पर पकड़ने की कोशिश की । खेल के मैदान के पास कुछ बच्चे खेल रहे थे । जब उनमें से एक ने उनकी तरफ़ गेंद फेंकी तो गोन्जेल्ज़ ने विशेष रूप से भागकर गेंद को सफ़ाई से 'लौटा' दिया ।
जब वे मैदान में दाखिल हुए तो स्टैण्डों पर लोगों की खचाखच भीड़ थी। खेल के मैदान में तम्बू गड़े थे, जिनके भीतर से बिस्तर, कम्बल और कपड़ों की गठरियाँ दिखाई देती थीं । गरमी और बारिश में नज़रबंदों के लिए स्टैण्डों को रखा गया था। लेकिन यह कैम्प का नियम था कि सूरज डूबने के बाद हर आदमी अपने तम्बू में पहुँच जाए । स्टैण्डों के नीचे नहाने के फव्वारे वाले नल लगा दिये गए थे और जो कमरे कभी खिलाड़ियों के ड्रेसिंग रूम हुआ करते थे उन्हें दफ्तरों और बीमारों के कमरों में बदल दिया गया था। कैम्प के अधिकांश लोग स्टैण्डों पर इधर-उधर बैठे थे । कुछ 'टच लाइन'1 पर चहलकदमी कर रहे थे और कुछ लोग अपने तम्बुओं के सामने बैठकर निर्लिप्त भाव से आसपास का दृश्य देख रहे थे । कुछ लोगों के पैर एक-दूसरे पर रखे लकड़ी के तख्तों पर फिसल रहे थे, उनके चेहरों पर एक अज्ञात आशा की झलक थी ।
1. सीमा की लाइन, जिसके बाहर खिलाड़ी नहीं जा सकते ।
"ये लोग दिन-भर क्या करते हैं ?" तारो ने रेम्बर्त से पूछा ।
"कुछ भी नहीं ।"
करीब-करीब सभी लोग खाली हाथ थे और बाँहें लटकाए चल रहे थे । इन मुसीबतजदा लोगों की भीड़ में एक और विशेष बात नजर आई थी - सब के सब खामोश थे ।
रेम्बर्त ने कहा, "जब शुरू में ये लोग यहाँ आये थे तो इतना शोर मचता था कि कोई बात सुनाई ही नहीं देती थी। लेकिन धीरे-धीरे वे खामोश हो गए।"
अपने नोट्स में तारो ने कुछ बातें लिखी हैं, जो उसकी दृष्टि में इस परिवर्तन को अच्छी तरह समझा सकती हैं। उसने कल्पना की है कि शुरू के दिनों में वे लोग किस तरह एक साथ सटकर तम्बुओं में रहते होंगे, मक्खियों की भिनभिनाहट सुनते होंगे, अपने जिस्म खुजलाते होंगे और जब कभी उन्हें कोई कृपालु श्रोता मिलता होगा तो वे अपने क्षोभ और आशंकाओं को कर्कश स्वर में व्यक्त करते होंगे। लेकिन जब कैम्प में जरूरत से ज्यादा भीड़ हो गई तो सहानुभूति से किसी की बात सुनने वाले श्रोताओं की भी कमी हो गई । इसलिए खामोश रहने और हर चीज़ और हर आदमी के खिलाफ़ मन में संदेह पालने के सिवा उनके पास कोई चारा न रहा। सचमुच दर्शक को ऐसा लगता था जैसे लाल ईंटों के कैम्प पर भूरे रंग के चमकदार आसमान से ओस की तरह संदेह की भावना बरस रही थी ।
हाँ, सबकी आँखों में संदेह था । वे यह तो सोच ही रहे थे कि उन्हें नजरबन्द कर दिए जाने का कोई न कोई उचित कारण तो होगा ही वे उन भयाक्रान्त लोगों की तरह थे जो अपनी समस्या में उलझे हुए थे । तारो को सबकी आँखों में वही शून्यता नज़र आई। उन्हें उन तमाम चीज़ों से अलग कर दिया गया था, जो उनकी जिन्दगी थीं, इसलिए उन्हें बेहद मानसिक पीड़ा हो रही थी। चूंकि वे सारा वक्त मौत के बारे में ही नहीं सोच सकते थे, इसलिए वे कुछ भी नहीं सोचते थे । वे एक माने में छुट्टी पर थे । तारो ने लिखा है, "लेकिन सबसे ज्यादा बुरी बात तो यह है कि लोग उन्हें भूल गए हैं और उन्हें इस बात का पूरा एहसास है। उनके दोस्त उन्हें भूल गए हैं; क्योंकि उनके पास सोचने के लिए और बहुत सी बातें हैं। यह स्वाभाविक ही है । वे जिन्हें प्यार करते हैं वे भी उन्हें भूल गए हैं, क्योंकि उनकी सारी शक्तियाँ उन्हें कैम्प से निकालने के लिए योजनाएँ बनाने और व्यावहारिक क़दम उठाने में ही लग गई हैं । हमेशा इन योजनाओं और क़दमों में उलझे रहने के कारण उन्होंने उन लोगों के बारे में सोचना ही बन्द कर दिया है, जिनकी रिहाई के लिए वे कोशिशें कर रहे हैं और यह भी स्वाभाविक ही है। दरअसल स्थिति यूँ है— कोई भी असली माने में किसी दूसरे के बारे में सोचने की क्षमता नहीं रखता, चाहे कितनी ही बड़ी मुसीबत क्यों न आ जाए; क्योंकि सचमुच किसी के बारे में सोचने का अर्थ है कि दिन में सारा वक्त उसी के बारे में सोचा जाए, विचार-धारा में तनिक भी व्याघात न पड़े। खाना खाते वक्त अगर गाल पर मक्खी आकर बैठ जाए, घर का काम-काज करना पड़े या अचानक कहीं खुजली हो जाए, तब भी मन की एकाग्रता न टूटे। लेकिन मक्खियाँ और खुजलाहटें तो बनी ही रहती हैं । इसीलिए जिन्दगी बसर करना कठिन काम है-और ये लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं ।"
कैम्प का प्रेजीडेंट आया। उसने कहा कि ओथों नामक एक सज्जन उनसे मिलना चाहते हैं । गोन्जेल्ज़ को दफ़्तर में छोड़कर वह दूसरे लोगों को स्टैंड के एक कोने में ले गया जहाँ ओथों अकेला बैठा था । उन्हें आते देखकर मजिस्ट्रेट खड़ा हो गया, उसने वही पोशाक पहन रखी थी, जो वह पहले पहना करता था और उसका कॉलर अभी भी अकड़ा हुआ था । तारो को सिर्फ़ एक ही परिवर्तन नजर आया। मजिस्ट्रेट ने कनपटी के पास बालों की एक लट को कंघी से पीछे नहीं किया था और एक बूट के तस्मे खुले हुए थे। वह बहुत थका मालूम होता था, उसने एक बार भी आगंतुकों के चेहरे की तरफ़ नहीं देखा । ओथों ने कहा कि उसे सब लोगों से मिलकर बड़ी खुशी हुई है और वे जाकर डॉक्टर रियो को उसकी तरफ से धन्यवाद दे दें ।
कुछ क्षणों की खामोशी के बाद मजिस्ट्रेट ने बोलने की कोशिश की, "उम्मीद है कि यक़ को ज्यादा तक़लीफ़ नहीं हुई।"
तारो ने पहली बार मजिस्ट्रेट के मुंह से उसके बेटे का नाम सुना और उसे एहसास हुआ कि कोई चीज़ बदल गई है। सूरज डूब रहा था और बादलों के एक छेद में से सूरज की समतल किरणें स्टैण्डों को कुरेद रही थीं और उन लोगों के चेहरों पर एक पीली आभा डाल रही थीं ।
"नहीं," तारो ने कहा, "नहीं, बच्चे को सचमुच तक़लीफ़ नहीं हुई।" जब वे वहाँ से जा रहे थे, तो मजिस्ट्रेट अभी भी प्रकाश की तरफ टकटकी लगाकर देख रहा था ।
वे गोन्ज़ेल्ज़ से विदा लेने के लिए दफ्तर में पहुँचे, तो गोन्ज़ेल्ज़ ड्यूटियों की फ़हरिस्त पढ़ रहा था । उन लोगों से हाथ मिलाते वक्त फुटबॉल का खिलाड़ी खूब हँसा !
"खैर, मैं फिर अपने पुराने ड्रेसिंग रूम में पहुँच गया । चलो, कुछ काम तो मिल ही गया ।"
इसके फ़ौरन बाद ही जब कैम्प का प्रेजीडेण्ट तारो और रेम्बर्त को छोड़ने के लिए बाहर आया तो उन्हें स्टैण्डों से घर्र-घर्र की आवाज आई । क्षण-भर बाद ही लाउडस्पीकरों ने, जो सुखी ज़माने में मैचों के नतीजे की 'घोषणा करते थे या टीमों का परिचय कराते थे, कैम्पवासियों को सूचित किया कि वे रात के खाने के लिए अपने-अपने तम्बुओं में चले जाएँ। धीरे- धीरे सब लोग कतारें बाँधकर स्टैण्डों से चले आए और पैर घसीटते हुए तम्बुओं की तरफ चल पड़े। जब सब तम्बुओं में पहुँच गए, तो दो बिजली से चलने वाली ट्रॉलियाँ, जो रेलवे प्लेटफ़ॉर्मों पर सामान पहुँचाया करती थीं, तम्बुओं की कतार के बीच चलने लगीं। तम्बुओं में से लोगों ने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए, हर ट्राली पर रखी दो देगों में से दो करछुलों ने खाने की चीजें निकालकर सफ़ाई से लोगों के हाथों में पकड़े बरतनों में डाल दीं, फिर ट्राली अगले तम्बू के आगे जाकर रुक गई।
"कितने सलीके और फ़ुरती से यहाँ काम होता है," तारो ने कहा ।
उन लोगों से हाथ मिलाते वक्त कैम्प के प्रेजीडेण्ट का चेहरा खुशी से खिल उठा। उसने कहा, " है न ? इस कैम्प में हम सलीके और फुरती पर बहुत ज़ोर देते हैं ।"
अँधेरा फैल रहा था । आसमान के बादल साफ़ हो गए थे और कैम्प एक ठंडी नरम रोशनी में नहा उठा था । शाम की निस्तब्धता में प्लेटों और चम्मचों की मद्धिम खनखनाहट सुनाई दे रही थी । तम्बुओं के ऊपर चिमगादड़ मँडरा रहे थे और अचानक अँधेरे में गायब हो जाते थे । दीवारों के बाहर पटरियों पर एक ट्राम-कार की कर्कश चीत्कार सुनाई दे रही थी ।
"बेचारे मोसिये ओथों ! " जब कैम्प का फाटक बन्द हो गया तो तारो अस्फुट स्वर में बुदबुदाया । "उनकी मदद करने को जी चाहता है । लेकिन एक जज की मदद कैसे की जा सकती है ?”
चौथा भाग : 6
शहर में इसी क़िस्म के और भी कई कैम्प थे, लेकिन चूंकि कथाकार को उनके बारे में व्यक्तिगत अनुभव नहीं है और वह सचाई के खिलाफ़ कोई बात नहीं लिखना चाहता, इसलिए उसने दूसरे कैम्पों के बारे में कुछ नहीं लिखा । इन कैम्पों के अस्तित्व मात्र से, उनमें बन्द जनसमूहों में से आने वाली गन्ध से, संध्या के झुटपुटे में सुनाई देने वाली लाउडस्पीकरों की आवाज़ों से, और कैम्प के इर्द-गिर्द बने रहस्यमय वातावरण से इन वर्जित स्थानों से पैदा हुए डर से हमारे नगरवासियों के नैतिक साहस में गम्भीर गिरावट आ गई थी, सबके मन घबराहट और आशंका से भर उठे थे । अक्सर शहर की शान्ति भंग होती थी और छोटे-मोटे दंगे हो जाते थे ।
ज्यों-ज्यों नवम्बर नजदीक आ रहा था, सुबह के वक्त सरदी बढ़ती जाती थी। बारिश की तेज बौछारों ने सड़कों को धो दिया था और आसमान के बादल भी साफ़ हो गए थे। सुबह के वक्त शहर क्षीण, चमकदार धूप में नहा उठता था । लेकिन रात होने के साथ-साथ हवा गरम हो जाती थी । ऐसी ही एक रात को तारो ने रियो को अपनी जिन्दगी की कहानी सुनाई ।
एक दिन जब उन्हें बहुत ज्यादा काम करना पड़ा था, तारो ने सुझाव दिया कि वे दोनों एक साथ रियो के पुराने मरीज़ को देखने चलेंगे, जो दमे से पीड़ित था। शहर के पुराने हिस्से के मकानों के शिखरों पर अभी भी धूप की हल्की आभा थी, चौराहों पर हवा के मंद झोंके उनके चेहरों का स्पर्श कर रहे थे । खामोश सड़कों से गुजरने के बाद शुरू में तो उन्हें बूढ़े के बातूनीपन से चिढ़ हुई ।
वह अलंकृत शैली में भाषण दे रहा था कि कुछ लोग तो हालत से तंग आ गए हैं और बार-बार चन्द मुट्ठी भर लोग ही खाने की सारी बढ़िया चीजें हड़प जाते हैं । यह बात हमेशा नहीं चलेगी, एक दिन -यह कहकर बूढ़े अपने हाथ मले, "एक दिन तो सारे कूड़े-कचरे का सफाया हो जाएगा ।" जब तक डॉक्टर बूढ़े की जाँच करता रहा, बूढ़ा इसी विषय पर बोलता रहा ।
इसी वक्त ऊपर किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी । तारो की नजरें छत की तरफ लगी देखकर बुढ़िया ने बताया कि पड़ोसियों की लड़कियाँ छत पर टहल रही हैं। उसने यह भी बताया कि ऊपर से बहुत अच्छा दृश्य दिखाई देता है, शहर के इस हिस्से में अक्सर घरों की छतें एक तरफ़ मिली रहती हैं, इसलिए औरतों को अपनी पड़ोसिनों से मिलने के लिए सड़क पर से होकर नहीं जाना पड़ता ।
"क्यों न ऊपर हो आइए ? आपको ताजी हवा मिल जाएगी ।"
छत पर कोई नहीं था । सिर्फ तीन कुरसियाँ पड़ी थीं। एक तरफ़, जहाँ तक नज़र जाती थी, छतों की क़तार थी। सबसे दूर की छत एक काली खुरदरी चीज़ की तरफ़ झुकी हुई थी। तारो और रियो ने पहचाना, वह शहर के सबसे नज़दीक की पहाड़ी थी। दूसरी तरफ़ कुछ सड़कों और अदृश्य बन्दरगाह को मापती हुई उनकी नज़रें क्षितिज पर जा टिकीं जहाँ समुद्र और आसमान एक मद्धम, थर्राती हुई भूरी रेखा में मिल रहे थे । काले टुकड़े के पार जहाँ चट्टानें थीं, अचानक रह-रहकर एक रोशनी उठती थी, वह रोशनी किधर से आ रही थी, यह वे न जान सके । जहाजों के प्रवेश मार्ग पर अभी भी बत्ती जल रही थी ताकि ओरान के सूने बन्दरगाह पर से गुजरकर समुद्रतटवर्ती दूसरे बन्दरगाहों पर जाने वाले जहाजों को सुविधा हो। रात की हवा ने आसमान को बुहारकर स्फटिक की तरह चमकदार बना दिया था। तारे चाँदी के टुकड़ों की तरह मालूम हो रहे थे, घूमती हुई बत्ती की पीली चमक में रह-रहकर उनकी आभा मन्द पड़ जाती थी । हवा के झोंकों में मसालों और गरम पत्थरों की सुगन्ध थी । हर चीज़ खामोश थी ।
एक कुरसी पर बैठते हुए रियो ने कहा, "बड़ी अच्छी जगह है। लगता है जैसे प्लेग यहाँ तक नहीं पहुँची ।"
तारो डॉक्टर की तरफ़ पीठ किए समुद्र को देख रहा था ।
“हाँ, यहाँ आकर बड़ा अच्छा लगता है," उसने क्षण-भर की खामोशी के बाद कहा ।
फिर रियो की बग़ल वाली कुरसी पर बैठकर उसने रियो के चेहरे पर अपनी नज़रें गड़ा दीं । तीन बार आसमान में रोशनी फैली और फिर लुप्त हो गई। नीचे एक कमरे से, जो सड़क की तरफ़ खुलता था, चीनी के बरतनों की धीमी खनखनाहट सुनाई दी। घर में ज़ोर से कोई दरवाजा बन्द हुआ ।
तारो ने साधारण स्वर में कहा, "रियो, क्या तुम्हें इस बात का एहसास है कि तुमने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मैं कैसा आदमी हूँ ? क्या मैं तुम्हें अपना दोस्त समझ सकता हूँ ?"
"हाँ, हम दोस्त तो हैं ही, लेकिन हमें दोस्ती का प्रदर्शन करने के लिए वक्त नहीं मिला ।”
"गुड । इससे मुझमें कुछ विश्वास पैदा हुआ है । मान लो अगर हम अब एक घण्टा दोस्ती के लिए निकाल लें । "
रियो जवाब में मुस्कराया ।
"तो लो..।"
कुछ सड़कें छोड़कर गीली सड़क पर तेजी से चलती कार की मद्धम, लेकिन लम्बी फूत्कार सुनाई दी - फिर यह फूत्कार बन्द हो गई। दूर कहीं अस्पष्ट चिल्लाहटों ने वातावरण की नीरवता को भंग किया। उसके बाद तारों भरे आसमान से जैसे किसी मोटे आवरण ने इन दोनों जनों को लपेट लिया और खामोशी छा गई। तारो उठकर मुंडेर पर जा बैठा था, उसका मुंह रियो की तरफ़ था जो अपनी कुरसी में धँसा बैठा था । टिमटिमाते आसमान की पृष्ठभूमि में रियो के भरकम शरीर की काली रेखाकृति दीख रही थी । तारो को बहुत कुछ कहना था, उसके अपने शब्दों में ही हम सारी बातें बताएँगे | ।
"मैं चाहता हूँ तुम्हें मेरी बात समझने में आसानी हो, रियो ! इसलिए सबसे पहले मैं यही कहूँगा कि मुझे पहले प्लेग हो चुकी है—इस शहर में आकर प्लेग का सामना करने से बहुत पहले । दूसरे शब्दों में इसका यह अर्थ हुआ कि मैं भी और लोगों की तरह ही हूँ कुछ लोग ऐसे हैं, जो इस बात को नहीं जानते या इस हालत में बेचैनी महसूस करते हैं । कुछ लोग जानते हैं और इस हालत में से निकलना चाहते हैं । जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है, मैं हमेशा इस हालत में से निकलना चाहता था ।
"जवानी में मैं अपनी मासूमियत के खयाल पर जिन्दा था, जिसका मतलब है कि मेरे मन में कोई खयाल ही नहीं था । मैं उन लोगों में से नहीं, जो अपने को यंत्रणा देते हैं । मैंने उचित ढंग से अपनी जिन्दगी शुरू की थी । मैंने जिस काम में हाथ डाला उसीमें मुझे सफलता मिली । बुद्धिजीवियों के क्षेत्र में, बेतकल्लुफ़ी से विचरण करता था, औरतों के साथ मेरी खूब पटती थी और अगर कभी-कभी मेरे मन में पश्चात्ताप की कसक उठती थी तो वह जितनी आसानी से पैदा होती थी उतनी आसानी से खत्म भी हो जाती थी। फिर एक दिन मैंने सोचना शुरू किया और अब...
"मैं तुम्हें यह बता दूं कि तुम्हारी तरह जवानी में मैं ग़रीब नहीं था । मेरे पिता ऊँचे ओहदे पर थे — वे पब्लिक प्रोसीक्यूशनों के डायरेक्टर थे । लेकिन उनकी तरफ़ देखकर कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था । देखने में वे बड़े खुशमिजाज और दयालु मालूम होते थे, और वे सचमुच ऐसे ही थे । मेरी माँ बड़ी सादी और शरमीली औरत थी और मैं हमेशा उन्हें बहुत चाहता था, लेकिन मैं माँ के बारे में बात नही करूं तो अच्छा है । मेरे पिता मुझ पर हमेशा मेहरबान थे, और मेरा खयाल है कि वे मुझे समझने की कोशिश भी करते थे । वे एक आदर्श पति नहीं थे- इस बात को मैं अब जान गया हूँ, लेकिन इस बात से मेरे मन पर कोई विशेष आघात नहीं पहुँचा । अपनी बेवफ़ाइयों में भी वे बड़ी शालीनता से व्यवहार करते थे जैसी कि उनसे उम्मीद की जा सकती थी । आज तक उनकी बदनामी नहीं हुई। कहने का मतलब यह कि उनमें मौलिकता बिलकुल नहीं थी और अब उनके मरने के बाद मुझे एहसास हुआ है कि वे पलस्तर के बने संत तो नहीं थे, लेकिन एक आदमी की हैसियत से वे बड़े नेक और शालीन थे । बस, वे बीच के रास्ते पर चलते थे । वे उस किस्म के लोगों में से थे, जिनके लिए मन में हल्की, लेकिन स्थिर भावना उमड़ती है - यही भावना सबसे अधिक टिकाऊ होती है ।
"मेरे पिता में एक विशेष बात थी हमेशा वे रात को सोने से पहले रेलवे का बड़ा टाइमटेबल पढ़ते थे । इसलिए नहीं कि उन्हें अक्सर ट्रेन में सफ़र करना पड़ता था । ज्यादा-से-ज्यादा वे ब्रिटेनी तक जाते थे जहाँ देहात में उनका छोटा-सा मकान था । हम लोग हर साल गरमियों में वहाँ जाया करते थे । लेकिन वे चलते-फिरते टाइमटेबल थे । वे आपको पेरिस-बर्लिन एक्सप्रेसों के आने और जाने का सही टाइम बता सकते थे; ल्यों से वार्सा कैसे पहुँचा जा सकता है, किस वक्त कौनसी ट्रेनें पकड़नी चाहिएँ, इसका उन्हें पूरा पता रहता था। तुम अगर उनसे किन्हीं दो राजधानियों के बीच का फासला पूछते तो वे तुम्हें सही-सही बता सकते थे। भला तुम बता सकते हो कि ब्रियान्को से केमोनी कैसे पहुँचा जा सकता है ? मेरे ख़याल में तो अगर किसी स्टेशन मास्टर से यह सवाल किया जाए तो वह भी अपना सिर खुजलाने लगेगा। लेकिन मेरे पिता के पास इस सवाल का जबाब तुरन्त तैयार मिलता था। करीब-करीब हर शाम वे इस विषय में अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे और उन्हें इस बात पर बड़ा गर्व था । उनके इस शौक से मेरा बहुत मनोरंजन होता था । मैं यात्रा सम्बन्धी बड़े पेचीदा सवाल उनसे पूछा करता था और उनके जवाबों को रेलवे टाइमटेबल से मिलाकर देखा करता था। उनके जवाब हमेशा बिलकुल सही निकलते थे। शाम को मैं और मेरे पिता रेलवे के ये खेल खेला करते थे, जिसकी वजह से हम दोनों की खूब पटती थी। उन्हें मेरे जैसे श्रोता की ही ज़रूरत थी जो ध्यान से उनकी बातें सुने और पसन्द करे । मेरी दृष्टि में उनकी यह प्रवीणता अधिकांश गुणों की तरह प्रशंसनीय थी ।
"लेकिन मैं बहक रहा हूँ और अपने आदरणीय पिता को बहुत अधिक महत्त्व दे रहा हूँ । दरअसल उन्होंने मेरे हृदय परिवर्तन की महान् घटना में केवल अप्रत्यक्ष योग दिया था, मैं उस घटना के बारे में तुम्हें बताना चाहता हूँ। सबसे बड़ा काम उन्होंने सिर्फ़ यही किया कि मेरे विचार जागृत किये । जब मैं सत्रह बरस का था तो मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं कचहरी में आकर उन्हें बोलता हुआ सुनूँ । कचहरी में एक बड़ा केस चल रहा था और शायद उनका खयाल था कि मैं उन्हें उनके सर्वोत्तम रूप में देखूंगा । मुझे यह भी शक हुआ कि उनका खयाल था कि मैं क़ानून की शान-शौकत और औपचारिक दिखावे से प्रभावित हो जाऊँगा और मुझे यही पेशा अपनाने की प्रेरणा मिलेगी । मैं जानता था कि वे मेरे वहाँ जाने के लिए बड़े उत्सुक थे । और हम घर में अपने पिता का जो व्यक्तित्व देखते थे उससे अलग किस्म का व्यक्तित्व देखने को मिलेगा, यह कल्पना मुझे अत्यन्त सुखद मालूम हुई । मेरे वहाँ जाने के सिर्फ़ यही दो कारण थे । अदालत की कार्य- वाही मुझे हमेशा सहज और कायदे के मुताबिक मालूम होती थी, जैसी भाषण दिवस की कार्यवाही । जैसी कि चौदह जुलाई की परेड या स्कूल के सम्बन्ध में मेरे विचार अमूर्त थे और मैंने इस बारे में कभी गम्भीरता से नहीं सोचा था ।
उस दिन की कार्यवाही के बाद मेरे मन में सिर्फ एक ही तस्वीर उभरी थी, वह तस्वीर मुजरिम की थी। मुझे इस बात में शक नहीं कि वह अपराधी था उसने क्या अपराध किया था, यह ज्यादा महत्त्व की बात नहीं । तीस बरस का वह नाटा आदमी, जिसके बाल विरले और भुरभुरे थे, सब- कुछ क़बूल करने के लिए इतना उत्सुक दिखाई दे रहा था । अपने अपराध पर उसे सच्ची ग्लानि हो रही थी और उसके साथ जो होने वाला था उसके प्रति वह आशंकित था । कुछ मिनट बाद मैंने सिवा अपराधी के चेहरे के, हर तरफ देखना बंद कर दिया। वह पीले रंग का उल्लू मालूम होता था, बहुत ज्यादा रोशनी से जिसकी आँखें अन्धी हो रही हों। उसकी टाई कुछ अस्त-व्यस्त थी। वह लगातार दाँतों से अपने नाखून काट रहा था, सिर्फ़ दाएँ हाथ के...क्या इससे भी आगे कुछ कहने की मुझे जरूरत है ? क्यों ? तुम तो समझ ही गए होगे वह एक जिन्दा इन्सान था ।
"जहाँ तक मेरा सम्बन्ध था - अचानक बिजली की तरह मेरे मन में यह एहसास कौंध गया। अभी तक तो मैं उस आदमी को उसकी उपाधि 'प्रतिवादी' के साधारण रूप में देखता रहा था। मैं ठीक से नहीं कह सकता कि मैं अपने पिता को भूल गया, लेकिन उसी क्षण जैसे किसी चीज़ ने मेरे मर्मस्थल को जकड़ लिया और कटघरे में खड़े उस आदमी पर मेरे सारे ध्यान को केन्द्रित कर दिया। मुकदमे की कार्यवाही मुझे बिलकुल सुनाई नहीं दी, मैं सिर्फ इतना जानता था कि वे लोग उस ज़िन्दा आदमी को मारने पर तुले हुए थे और किसी सहज प्राकृतिक भावना की लहर ने बहाकर मुझे उस आदमी के पक्ष में खड़ा कर दिया था । मुझे उस वक्त होश आया जब मेरे पिता अदालत के सामने बोलने के लिए खड़े हुए।
"लाल गाउन में उनका व्यक्तित्व एकदम बदल गया था। वे दयालु या खुशमिजाज नहीं मालूम होते थे । उनके मुँह से लम्बे दिखावटी वाक्य सांपों की अन्तहीन पाँत की तरह निकल रहे थे। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पिता क़ैदी की मौत की पुकार कर रहे थे, वे जूरी से कह रहे थे कि वे क़ैदी को दोषी सिद्ध करके समाज के प्रति अपने दायित्व को पूरा करें । यहाँ तक कि वे यह भी कह रहे थे कि उस आदमी का सर काट देना चाहिए। मैं मानता हूँ कि उन्होंने ऐन यही शब्द इस्तेमाल नहीं किये थे । उनका फॉरमूला था, "इसे सबसे बड़ी सजा मिलना चाहिए" लेकिन इन दोनों बातों में बहुत कम फ़र्क था और मतलब एक ही था। मेरे पिता ने जिस सर की माँग की थी वह सर उन्हें मिल गया। लेकिन सर उतारने का काम मेरे पिता ने नहीं किया । मैं अन्त तक मुकदमे को सुनता रहा था, मेरे मन में उस अभागे आदमी के प्रति एक ऐसी भयंकर और नज़दीकी आत्मीयता जागृत हुई, जो मेरे पिता ने कभी महसूस नहीं की होगी । फिर भी सरकारी वकील होने के नाते उन्हें उस मौके पर मौजूद रहना पड़ा जिसे शिष्ट भाषा में 'कैदी के अंतिम क्षण' कहा जाता है; लेकिन जिसे दरअसल हत्या कहना चाहिए - हत्या का सबसे घृणित रूप ।
"उस दिन के बाद से मैं जब भी रेलवे टाइमटेबल देखता तो मेरा मन ग्लानि से काँप उठता । मैं मुक़दमों की कार्यवाही में, मौत की सजाओं में और फाँसियों में एक हैरत भरी दिलचस्पी लेने लगा । मुझे यह क्षोभपूर्ण एहसास हुआ कि मेरे पिता ने अक्सर ये पाशविक हत्याएँ देखी होंगी जब वे सुबह बहुत जल्दी उठा करते थे, और तब मैं उनके जल्दी उठने के कारण का अनुमान नहीं लगा पाता था । मुझे याद है कि ऐसे मौकों पर ग़लती से बचने के लिए वे अपनी घड़ी में अलार्म लगा देते थे । माँ के सामने इस प्रसंग को खोलने का मुझमें साहस नहीं था । लेकिन अब मैं अपनी माँ को ज्यादा गौर से देखने लगा और मैंने देखा कि उनका दाम्पत्य-जीवन अब निरर्थक था और माँ ने उसके सुधार की उम्मीद भी छोड़ दी थी । इससे मुझे माँ को माफ़ करने में मदद मिली। उस वक्त मैं यही सोचता था । बाद में मुझे मालूम हुआ कि माफ़ी की कोई बात ही नहीं थी; शादी से पहले वह बड़ी गरीब थीं और गरीबी ने उन्हें परिस्थितियों के आगे झुकना सिखाया था ।
"शायद तुम मुझसे यह सुनने की उम्मीद रखते हो कि मैंने फौरन घर छोड़ दिया । नहीं, मैंने बहुत महीने, दरअसल पूरा एक साल वहाँ गुजारा । फिर एक दिन शाम को मेरे पिता ने अलार्म वाली घड़ी मांगी, क्योंकि उन्हें अगले दिन जल्दी उठना था। उस रात मुझे नींद नहीं आयी । अगले दिन पिताजी के घर लौटने से पहले ही मैं जा चुका था ।
"संक्षेप में यह हुआ कि मेरे पिता ने मुझे ख़त लिखा, वे मुझे तलाश करने के लिए तहकीकात करवा रहे थे। मैं उनसे मिलने गया और अपने कारण बताये बगैर मैंने उन्हें शान्त भाव से समझा दिया कि अगर उन्होंने मुझे घर लौटने के लिए मजबूर किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा । उन्होंने मुझे आजादी देकर सारा झगड़ा खत्म कर दिया क्योंकि वे दयालु हृदय आदमी थे-- जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ। उन्होंने मुझे अपने ढंग से ज़िन्दगी बसर करने की बेवकूफ़ी पर लेक्चर दिया, ( उनकी दृष्टि में मेरे उस व्यवहार का यही कारण था और मैंने उन्हें धोखा न दिया हो ऐसा नहीं कह सकता) और मुझे बहुत सी नेक सलाहें भी दीं। मैं देख रहा था कि इस बात ने उनके दिल पर गहरा असर डाला था और वे बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रहे थे। बाद में बहुत अरसे के बाद मैं बीच-बीच में अपनी माँ से मिलने के लिए जाने लगा, ऐसे मौकों पर मैं अपने पिता से भी ज़रूर मिलता था। मेरा खयाल है कि कभी- कभी की इन मुलाकातों से मेरे पिता सन्तुष्ट थे । व्यक्तिगत तौर पर मेरे मन में उनके प्रति जरा भी दुश्मनी नहीं थी, बल्कि दिल में कुछ उदासी-सी छा गई थी । पिता की मौत के बाद मैंने माँ को अपने पास बुला लिया और अगर वे जिन्दा रहतीं तो अभी भी मेरे पास ही रहतीं ।
"मुझे अपनी शुरू की ज़िंदगी के बारे में ज्यादा इसलिए बताना पड़ा, क्योंकि मेरे लिए यह शुरुआत थी ...हर चीज़ की । अठारह बरस की उम्र में ही मुझे गरीबी का सामना करना पड़ा उससे पहले मैं आराम की ज़िन्दगी बसर करता आया था। मैंने बहुत से काम किये और किसी काम में मुझे असफलता नहीं मिली । लेकिन मेरी असली दिलचस्पी मौत की सजा में थी । मैं कटघरे में खड़े उस बेचारे अन्धे 'उल्लू' के साथ हिसाब चुकता करना चाहता था इसलिए मैं लोगों के शब्दों में एक आन्दोलनकारी बन गया, बस मैं विनाश नहीं करना चाहता था। मेरे विचार में मेरे इर्द-गिर्द की सामाजिक व्यवस्था मौत की सजा पर आधारित थी और स्थापित सत्ता के खिलाफ़ लड़कर मैं हत्या के खिलाफ लडूंगा । यह मेरा विचार था, और लोगों ने भी मुझे यही कहा था और मेरा अभी तक यह विश्वास है कि मेरा वह विचार ठोस रूप से सही था । मैं उन लोगों के एक दल में मिल गया जिन्हें मैं उस समय पसन्द करता था और दरअसल जिन्हें मैं अभी भी पसन्द करता हूँ । यूरोप का कोई ऐसा देश नहीं जिसके आन्दोलनों में मैंने हिस्सा न लिया हो। लेकिन वह दूसरी ही कहानी है । यह कहने की ज़रूरत नहीं कि मौक़ा पड़ने पर हम भी मौत की सजाएँ देते थे । लेकिन मुझे बताया गया था कि एक नये संसार के निर्माण के लिए- जिसमें हत्याएँ बन्द हो जाएँगी-ये मौतें ज़रूरी हैं । यह भी कुछ हद तक सच था और हो सकता है। जहाँ सचाई की व्यवस्था का सवाल है मुझमें डटे रहने की क्षमता नहीं । इसका कारण चाहे कुछ भी हो, मेरे मन में हिचकिचाहट पैदा हुई। लेकिन फिर मुझे कटघरे में खड़े उस अभागे 'उल्लू' का खयाल आया और उससे मुझे अपना काम जारी रखने का साहस मिला । यह साहस उस दिन तक बना रहा जब मैं एक फाँसी के वक्त मौजूद था-हंगरी में1 और मुझे वैसा ही विक्षिप्त आतंक महसूस हुआ जैसा बचपन में हुआ था मेरी आँखों के आगे सब चीजें चकराने लगीं ।
1. उपन्यास सन् १९४७ में छपा था ।
"क्या तुमने कभी किसी फायरिंग स्क्वैड द्वारा किसी आदमी को गोली से उड़ाया जाता देखा है ? नहीं, तुमने नहीं देखा होगा। चुने हुए लोगों को ही यह दृश्य देखने को मिलता है। एक प्राइवेट दावत की तरह इसमें शामिल होने के लिए निमन्त्रण की जरूरत होती है। किताबों और तस्वीरों से आम तौर पर फायरिंग स्क्वैड के बारे में विचार बटोरे जाते हैं । कल्पना की जाती है कि एक खम्भे के साथ एक आदमी बँधा है, जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी है और कुछ दूर पर सिपाही खड़े हैं । लेकिन दरअसल नज़ारा बिलकुल और ही तरह का होता है । तुम्हें मालूम है कि फायरिंग स्क्वैड मौत की सजा पाए आदमी से सिर्फ डेढ़ गज दूर खड़ा होता है ? क्या तुम्हें मालूम है कि अगर उनका शिकार दो क़दम भी आगे बढ़ जाए तो उसके सीने पर राइफ़लों का स्पर्श होगा ? क्या तुम जानते हो कि इतने कम फ़ासले पर खड़े होकर सिपाही उस आदमी के दिल पर निशाना लगाते हैं और उनकी बड़ी गोलियाँ इतना बड़ा छेद कर देती हैं जिसमें पूरा हाथ जा सकता है ? नहीं, तुम्हें यह नहीं मालूम ! ये ऐसी बातें हैं जिनका जिक्र नहीं किया जाता। प्लेग पीड़ित लोग किसी इन्सान की जिन्दगी के मुक़ाबले अपनी मानसिक शान्ति को अधिक तरजीह देते हैं । शालीन लोगों की नींद में खलल नहीं पड़ना चाहिए न ! क्यों ? सचमुच यह सब जानते हैं कि ऐसे ब्यौरों पर अधिक समय खर्च करना भयंकर कुरुचि का परिचय देना है । लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है इस घटना के बाद से मुझे कभी ठीक तरह नींद नहीं आई । उसका कड़वा स्वाद मेरे मुँह में बना रहा और मेरा मन उसके ब्यौरे में उलझा रहा और चिन्तामग्न रहा ।
"और इस तरह मुझे एहसास हुआ बहुत सालों से मैं प्लेग से पीड़ित हूँ और यह एक विरोधाभास भी था, चूंकि मेरा पक्का विश्वास था कि मैं अपनी समस्त शक्ति से इससे जूझ रहा था । मुझे एहसास हुआ कि हज़ारों लोगों की मौतों में अप्रत्यक्ष रूप से मेरा हाथ रहा है। मैंने उन कामों और सिद्धान्तों का समर्थन किया है, जिनसे वे मौतें हुई हैं और मौतों के सिवा उनका कोई और नतीजा नहीं निकल सकता था । और लोगों को इन विचारों से जरा भी परेशानी नहीं हुई थी, कम-से-कम वे स्वयं इसे व्यक्त नहीं करते थे। लेकिन मैं उनसे अलग था, मुझे जो एहसास हुआ था वह मेरे गले में अटक गया था। मैं उन लोगों के साथ होते हुए भी अकेला था । जब मैं इन बातों की चर्चा छेड़ता तो वे कहते कि मुझे इतना अधिक शंकालु नहीं होना चाहिए; मुझे याद रखना चाहिए कि कितने बड़े सवाल इसके साथ जुड़े हुए हैं ! और उन्होंने कई दलीलें दीं जो अक्सर बहुत जोरदार थीं ताकि मैं उस चीज़ को निगल सकूँ जो उनकी दलीलों के बावजूद मेरे मन में ग्लानि पैदा करती थी। मैंने जवाब में कहा कि प्लेग से अभिशप्त लोगों में, विशिष्ट व्यक्तियों के पास भी जो लाल चोगे पहनते हैं अपने कामों को सही ठहराने की दलीलें हैं और अगर एक बार मैंने अनिवार्यता और बहुमत की शक्ति की दलील मान ली, जो कि अक्सर कम विशिष्ट लोगों द्वारा पेश की जाती हैं, तो मैं विशिष्ट लोगों की दलीलों को कभी अस्वीकार नहीं कर सकता । इसके जवाब में उन लोगों ने यह कहा कि अगर मौत की सजा पूरी तरह से लाल चोगे वालों के हाथ में छोड़ दी जाए तो हम पूरी तरह से उनके हाथों में खेलने लगेंगे । इसका जवाब मैंने दिया कि अगर हम एक बार झुक जाते हैं तो फिर हर बार हमें झुकते जाना पड़ेगा। मुझे लगता है कि इतिहास ने मेरी बात को सच साबित किया है । आज इस बात की होड़ लगी हुई है कि कौन सबसे ज्यादा हत्याएँ करता है । सब पागल होकर हत्या करने में लगे हैं और चाहने पर भी वे इसे बन्द नहीं कर सकेंगे ।
"जो भी हो, दलीलों से मुझे ज्यादा सरोकार नहीं था । मुझे तो उस बेचारे 'उल्लू' में दिलचस्पी थी, जबकि एक धोखाधड़ी की कार्यवाही में प्लेग की बदबू से सड़े मुँहों ने एक हथकड़ी लगे आदमी को बताया था कि उसकी मौत नजदीक आ रही है। उन्होंने इस तरह के वैज्ञानिक प्रबन्ध किये कि कई दिन और रातों तक मानसिक पीड़ा झेलने के बाद उसे बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाए। मुझे इन्सान के सीने में बने मुट्ठी-जितने बड़े छेद से सरोकार था और मैंने मन-ही-मन तय कर लिया कि जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, दुनिया की कोई चीज मुझसे कोई ऐसी दलील को स्वीकार नहीं करवा सकती, जो इन क़त्लों को सही ठहराए । हाँ, मैंने जान-बूझकर अन्धे हठ का रास्ता चुना, उस दिन तक के लिए जब मुझे अपना रास्ता ज्यादा साफ़ दिखाई देगा ।
"अभी भी मेरे विचार वही हैं। कई साल तक मुझे इस बात पर शर्मिन्दगी रही, सख्त शर्मिन्दगी रही कि मैं अपने नेक इरादों के साथ, कई स्तर पीछे हटकर भी हत्यारा बना था । वक्त के साथ-साथ मैं सिर्फ़ इतना ही सीख सका कि वे लोग भी, जो दूसरों से बेहतर हैं, आजकल अपने को और दूसरों को हत्या करने से नहीं रोक सकते, क्योंकि वे इसी तर्क के सहारे जिन्दा रहते हैं, और हम इस दुनिया में किसी की जान को जोखिम में डाले बगैर कोई छोटे-से-छोटा काम नहीं कर सकते । हाँ, तब से मुझे अपने पर शर्म आती रही है; मुझे एहसास हो गया है कि हम सब प्लेग से पीड़ित हैं, मेरे मन की शान्ति नष्ट हो गई है । और आज भी मैं उसे पाने की कोशिश कर रहा हूँ; अभी भी सभी दूसरे लोगों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि मैं किसी का जानी दुश्मन न बनूं। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि इन्सान को प्लेग के अभिशाप से मुक्त होने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए और सिर्फ़ इसी तरीके से हम कुछ शान्ति की उम्मीद कर सकते हैं । और अगर शान्ति नहीं तो शालीन मौत तो नसीब हो सकती है । इसीसे और सिर्फ़ इसीसे इन्सान की मुसीबतें कम हो सकती हैं, अगर वे मरने से नहीं बच सकते तो उन्हें कम-से-कम नुकसान पहुँचे और हो सकता है थोड़ा फायदा भी पहुँचे । इसीलिए मैंने तय किया है कि मैं ऐसी किसी चीज से सम्बन्ध नहीं रखूंगा जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष- रूप से अच्छे या बुरे कारणों से किसी इन्सान को मौत के मुंह में धकेलती है या ऐसा करने वालों को सही ठहराती है ।
"इसीलिए महामारी मुझे इसके सिवा कोई नया सबक नहीं सिखा पाई कि मुझे तुम्हारे साथ मिलकर उससे लड़ना चाहिए। मैं पूरी तरह से जानता हूँ-हाँ रियो, मैं कह सकता हूँ कि मैं इस दुनिया की नस नस पहचानता हूं-हममें से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है । और मैं यह भी जानता हूँ कि हमें अपने ऊपर लगातार निगरानी रखनी पड़ेगी ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी के चेहरे पर अपनी सांस डालकर उसे छूत न दे बैठें। दरअसल कुदरती चीज़ तो रोग का कीटाणु है । बाकी सब चीजें ईमानदारी, पवित्रता, ( अगर तुम इसे भी जोड़ना चाहो ) इन्सान की इच्छा-शक्ति का फल हैं- ऐसी निगरानी का फल हैं जिसमें कभी ढील नहीं होनी चाहिए । नेक आदमी, जो किसी को छूत नहीं देता, वह है जो सबसे कम लापरवाही दिखाता है— लापरवाही से बचने के लिए बहुत बड़ी इच्छा-शक्ति की और कभी न खत्म होने वाले मानसिक तनाव की जरूरत है। हाँ रियो, प्लेग का शिकार होना बड़ी थकान पैदा करता है । लेकिन प्लेग का शिकार न होना और भी ज्यादा थकान पैदा करता है । इसीलिए दुनिया में आज हर आदमी थका हुआ नजर आता है; हर आदमी एक माने में प्लेग से तंग आ गया है । इसीलिए हममें से कुछ लोग, जो अपने शरीरों में से प्लेग को बाहर निकालना चाहते हैं, इतनी हताशापूर्ण थकान महसूस करते हैं—ऐसी थकान जिससे मौत के सिवा और कोई चीज़ हमें मुक्ति नहीं दिला सकती ।
"जब तक मुझे वह मुक्ति नहीं मिलती, मैं जानता हूँ कि आज की दुनिया में मेरी कोई जगह नहीं है । जब मैंने हत्या करने से इन्कार किया था तभी से मैंने अपने को निर्वासित कर लिया था, यह निर्वासन कभी खत्म नहीं होगा । 'इतिहास का निर्माण' करने का काम मैं दूसरों पर छोड़ता हूँ । मैं यह भी जानता हूँ कि मुझमें इतनी योग्यता नहीं कि मैं उन लोगों के कामों के औचित्य पर अपना निर्णय दे सकूँ । मेरे मन की बनावट में कोई कमी है जिसकी वजह से मैं समझदार हत्यारा नहीं बन सकता। इसलिए यह विशिष्टता नहीं, बल्कि कमजोरी है। लेकिन इन परिस्थितियों में मैं जैसा हूँ वैसा ही रहने के लिए तैयार हूँ । मैंने विनयशीलता सीख ली है । मैं सिर्फ़ यह कहता हूँ कि इस धरती पर महामारियाँ हैं और उनसे पीड़ित लोग हैं और यह हम पर निर्भर करता है कि जहाँ तक सम्भव हो सके हम इन महामारियों का साथ न दें। हो सकता है इस बात में बचकानी सरलता हो; यह सरल है या नहीं इसका निर्णय तो मैं नहीं कर सकता, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि यह बात सच्ची है । तुमने देख ही लिया है कि मैंने इतनी ज्यादा दलीलें सुनी थीं जिन्होंने क़रीब क़रीब मेरी मति भ्रष्ट कर दी थी, और दूसरे लोगों की मति भी इतनी अधिक भ्रष्ट कर दी थी कि वे हत्या के समर्थक बन गए थे। मुझे यह एहसास हुआ कि हम स्पष्ट नपी-तुली भाषा का प्रयोग नहीं करते- यही हमारी सारी मुसीबतों की जड़ है । इसलिए मैंने तय किया कि मैं हमेशा अपनी बातचीत और व्यवहार में स्पष्टता बरतूंगा । अपने को सही रास्ते पर लाने का मेरे पास सिर्फ़ यही तरीका था । इसीलिए मैं सिर्फ यही कहता हूँ कि दुनिया में महामारियाँ हैं और उनका शिकार होने वाले लोग हैं- अगर इतना कहने मात्र से ही मैं प्लेग की छूत को फैलाने का साधन बनता हूं तो कम-से-कम मैं जान- बूझकर ऐसा नहीं करता । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मैं मासूम हत्यारा बनने की कोशिश करता हूँ । तुमने देख ही लिया होगा कि मैं महत्त्वाकांक्षी आदमी नहीं हूँ ।
"मैं मानता हूँ कि इन दो श्रेणियों में हमें तीसरी श्रेणी भी जोड़ लेनी चाहिए-सच्चे चिकित्सकों की श्रेणी, लेकिन यह एक मानी हुई बात है कि ऐसे लोग बहुत विरले होते हैं और निश्चय ही उनका काम बहुत कठिन होगा । इसीलिए मैंने हर मुसीबत में, मुसीबतज़दा लोगों की तरफ़ होने का फ़ैसला किया ताकि मैं नुक़सान को कम कर सकूँ । कम-से-कम उन लोगों में मैं यह तलाश कर सकता हूँ कि तीसरी श्रेणी तक कैसे अर्थात् शान्ति तक कैसे पहुँचा जा सकता है।"
तारो ने जब यह बात खत्म की तो वह टाँग हिलाता हुआ मुंडेर पर जूते की एड़ी से आवाज कर रहा था। थोड़ी देर की खामोशी के बाद डॉक्टर ने अपनी कुरसी में ज़रा ऊपर उठकर पूछा कि क्या तारो को शान्ति पाने का रास्ता मालूम है ?
"हाँ," तारो ने जवाब दिया । "वह हमदर्दी का रास्ता है ।"
दूर दो एम्बुलेन्सों की खनखनाहट सुनाई दे रही थी। अभी तक वे जिन छितराती हुई आवाज़ों को सुनते आ रहे थे वे एक साथ शहर के बाहरी हिस्से में, पथरीली पहाड़ियों के पास जमा हो गई थीं, इसके बाद गोली चलने की सी आवाज़ सुनाई दी और फिर खामोशी छा गई । रियो ने गिना दो बार घूमने वाली बत्ती चमकी थी। हवा के झोंके में ताजगी आ गई और समुद्र से आने वाले झोंके में क्षण-भर के लिए नमकीन गंध छा गई। उसी वक्त उन्हें चट्टानों के नीचे टकराती हुई लहरों का मन्द स्वर साफ़ सुनाई दिया ।
तारो ने अकस्मात लापरवाही से कहा, "मुझे इस बात में दिलचस्पी है कि आदमी संत कैसे बन सकता है ।"
"लेकिन तुम तो खुदा में यक़ीन नहीं करते।"
"बिलकुल सही है ! क्या बिना ख़ुदा के इन्सान संत बन सकता है ? यही तो समस्या है, एकमात्र समस्या है, जिसका आज मैं सामना कर रहा हूँ ।"
अचानक जहाँ से आवाजें आई थीं, वहाँ आग की लपट दिखाई दी और हवा की धार को काटती हुई बहुत सी आवाजों की फुसफुसाहट उन्हें सुनाई दी । लपटें फ़ौरन ठंडी हो गईं और लाल रंग की मद्धिम लालिमा पीछे रह गई, फिर एक झोंके के साथ उन्हें लोगों की चिल्लाहट और बंदूक चलने की आवाज़ सुनाई दी इसके बाद लोगों की क्षुब्ध भीड़ का गर्जन सुनाई दिया । तारो उठ खड़ा हुआा और कान लगाकर सुनने लगा -- लेकिन अब कोई और आवाज सुनाई नहीं दे रही थी ।
"लगता है फाटकों पर फिर कोई मुठभेड़ हुई है ।"
"खैर अब तो झगड़ा ख़त्म हो गया है ।"
तारो ने धीमी आवाज़ में कहा कि खत्म तो हो गया है और अनेक लोग इसके शिकार हुए होंगे, क्योंकि ऐसा ही होता है ।
"शायद ! " डॉक्टर ने जवाब दिया । "लेकिन जानते हो, मुझे संतों की बजाय पराजित लोगों से ज्यादा हमदर्दी होती है। मुझे लगता है कि बहादुरी और धार्मिकता इतना प्रभावित नहीं करतीं -- मुझे इन्सान की इन्सानियत में ज्यादा दिलचस्पी है ।"
"हाँ, हम दोनों एक ही चीज़ की तलाश में हैं, लेकिन मैं कम महत्त्वाकांक्षी हूँ ।"
रियो ने यह सोचकर कि तारो मज़ाक कर रहा है, मुस्कराकर उसकी तरफ़ देखा । लेकिन आसमान की मंद आभा में तारो का चेहरा उदास और गम्भीर दिखाई दे रहा था। हवा का एक और झोंका आया, रियो ने अपनी त्वचा पर गरमी का स्पर्श महसूस किया । तारो ने अपने को तनिक-सा झटका दिया ।
उसने कहा, “जानते हो अब हमें दोस्ती की खातिर क्या करना चाहिए ?"
"तुम जो भी चाहो, तारो !"
"हमें तैरने के लिए जाना चाहिए। यह उन मासूम खुशियों में से है, जिनमें एक संत भी हिस्सा ले सकता है । क्यों तुम्हारा क्या खयाल है ? रियो फिर मुस्कराया और तारो ने कहा, "सचमुच यह बड़ी बेहूदी बात है कि हम सिर्फ प्लेग के वातावरण में और प्लेग की खातिर ही जिन्दा रहें । इन्सान को मुसीबतजदा लोगों की तरफ़ से ज़रूर लड़ना चाहिए, लेकिन अगर वह लड़ाई के सिवा हर चीज में दिलचस्पी लेना बन्द कर दे तो लड़ाई का क्या फ़ायदा है ?"
"ठीक है, आयो चलें ।" रियो ने कहा ।
कुछ मिनटों बाद कार बन्दरगाह के फाटक के सामने खड़ी हो गई । चाँद निकल आया था और परछाइयों के साथ मिली दूधिया चितकबरी चाँदनी उनके आसपास फैली थी । उनके पीछे शहर था, एक परत या दूसरी परत चढ़ी थी, जिससे बदबूदार हवा आ रही थी, जिससे बचने के लिए वे समुद्र की तरफ़ गये । उन्होंने एक संतरी को अपने 'पास' दिखाए । संतरी ने बड़ी बारीकी से उनका मुआइना किया और वे एक मैदान पार करके, जिसमें कनस्तरों का ढेर लगा था, जेटी की तरफ़ बढ़े । यहाँ की हवा में बासी शराब और मछली की सड़ांध फैली थी। जेटी तक पहुँचने से पहले ही उन्हें आयोडीन और समुद्री पौधों की गंध आई, जो समुद्र के नजदीक होने की सूचना दे रही थी । उन्हें विशाल शिलाओं से टकराती हुई लहरों का स्वर भी क़रीब क़रीब सुनाई दे रहा था । जेटी पर पहुँचकर उन्होंने अपने सामने फैला हुआ समुद्र देखा, कोमल स्पंदित रोंएदार मखमल, जो किसी जंगली जीव की तरह चमकीली थी । वे समुद्र के सामने एक पत्थर पर बैठ गए। धीरे-धीरे लहरें उठने-गिरने लगीं । शान्ति से साँस लेने वाली लहरों के ऊपर अचानक एक स्निग्ध रोशनी आ गई और टिमटिमाती बत्तियों की धुंध में समुद्र की सतह पर झिलमिलाने लगी । उनके सामने असीम अँधेरा फैला था। रियो को अपने हाथ के नीचे जलवायु से घिसी और ऐंठी हुई चट्टानें नजर आ रही थीं उसके मन पर एक अजब खुशी छा गई । उसने देखा कि तारो के चेहरे पर भी वही खुशी थी ऐसी खुशी जो कुछ नहीं भूलती, यहाँ तक कि हत्या को भी नहीं ।
दोनों ने कपड़े उतार दिए और रियो ने पहले पानी में डुबकी लगाई। सरदी की पहली कँपकँपी दूर होने पर जब वह ऊपर आया तो उसे पानी गुनगुना मालूम हुआ। कुछ डुबकियों के बाद उसने महसूस किया कि पानी में पतझड़ की गरमी है जो समुद्रों को गरमी के लम्बे दिनों से तपे किनारों से मिलती है जिनमें गरमी जमा हो जाती है। रियो लगातार तैर रहा था और उसके पैर बुलबुले छोड़ते जाते थे, पानी उसकी बाँहों से फिसलकर टाँगों के पास जमा हो रहा था। तभी जोर से एक छपाका सुनाई दिया, जिससे पता चला कि तारो ने भी डुबकी लगाई थी । रियो पीठ के बल बिना हिले-डुले पानी में लेट गया और चाँद-सितारों से जगमगाते आसमान के गुम्बद को देखने लगा । उसने एक गहरी साँस ली। उसके बाद उसे पानी में छपछप की आवाज़ सुनाई दी जो प्रतिक्षण तेज होती गई। रात के खोखले अँधेर में वह आवाज आश्चर्यजनक रूप से स्पष्ट थी । तारो तैरकर उसके पास आ रहा था, अब वह तारो की साँसों की आवाज़ सुन सकता था ।
रियो मुड़कर अपने दोस्त के बराबर तैरने लगा और तारो की बाँहों की लय पर बाँहें चलाने लगा, लेकिन तारो ज्यादा तेज़ तैराक़ था और उसके साथ मिलने के लिए रियो को अपनी रफ्तार तेज करनी पड़ी। कुछ मिनट तक वे साथ-साथ तैरते रहे-एक ही उत्साह, एक ही लय में । सारी दुनिया से अलग वे शहर के वातावरण और प्लेग से मुक्ति पा गए थे। फिर रियो रुक गया और वे धीरे-धीरे तैरते हुए वापस आये सिर्फ़ एक जगह पर उन्होंने अप्रत्याशित रूप से अपने को बरफ जैसी ठंडी धारा में जकड़ा हुआ पाया । समुद्र के बिछाए इस फन्दे से उनकी ताक़त को जैसे किसी ने कोड़ा मारकर सचेत कर दिया था । दोनों पहले से ज्यादा जोर से बाँहें चलाने लगे ।
कपड़े पहनकर वे वापस शहर की तरफ चल पड़े। दोनों में से किसी ने एक भी शब्द न कहा, लेकिन दोनों को ऐक्य का एहसास हो रहा था और वे जानते थे कि इस रात की स्मृति हमेशा उनके मन में ताज़ी रहेगी । जब उन्हें प्लेग का संतरी दिखाई दिया तो रियो भांप गया कि तारो भी उसी की तरह यह सोच रहा है कि बीमारी ने उन्हें क्षण-भर विश्राम करने की इजाजत दे दी है, जो बहुत अच्छी बात है और अब उन्हें फिर दिल लगाकर काम करना चाहिए ।
चौथा भाग : 7
हाँ, प्लेग ने उन्हें थोड़ा-सा आराम का वक्त दिया था और उन्हें फिर दिल लगाकर काम करना चाहिए। दिसम्बर के पूरे महीने में प्लेग हमारे शहरियों के सीने के भीतर-ही-भीतर सुलगती रही, श्मशान की चिताओं को तेज करती रही और कैम्पों में इन्साननुमा इन्सानों को असबाब की तरह भरती रही । कहने का मतलब यह है कि प्लेग लगातार अपनी आदत के मुताबिक झटके देती हुई, लेकिन बिना रुके, लगातार आगे बढ़ती रही। अधिकारियों को उम्मीद थी कि जाड़ा आकर प्लेग की भीषणता को कम कर देगा, लेकिन शुरू में जब सरदी का जोर हुआ तो प्लेग ज्यों-की-त्यों बनी रही । इसलिए हम लोगों के सामने सिर्फ़ एक ही रास्ता था कि हम इन्तज़ार करते रहें । चूंकि बहुत लम्बे इन्तज़ार के बाद इन्सान इन्तजार करना खत्म कर देता है, इसलिए लोग इस तरह दिन काट रहे थे जैसे उनका कोई भविष्य न हो ।
जहाँ तक डॉक्टर रियो का सवाल था, शान्ति श्रौर दोस्ती का वह संक्षिप्त घण्टा उसकी जिन्दगी में दोबारा न आ सका। एक और अस्पताल खुल गया था और बातचीत करने के लिए सिर्फ़ मरीज़ ही उसके साथी थे । लेकिन उसने देखा कि महामारी में कुछ परिवर्तन आ गया है; क्योंकि दिन- ब-दिन न्यूमोनिक प्लेग के केस बढ़ते जा रहे थे; अपने ढंग से मरीज भी जैसे डॉक्टर का समर्थन कर रहे थे । प्लेग के शुरू के दौर की तरह वे हताश या विक्षिप्त नहीं हुए थे, बल्कि अब उन्हें अच्छी तरह मालूम हो गया था कि उनकी भलाई किस बात में है और वे खुद-ब-खुद अधिकारियों से ऐसी कार्यवाही करने की माँग करते थे जिसमें उनकी भलाई थी। वे हर वक्त पीने के लिए कोई-न-कोई चीज़ माँगते थे और चाहते थे कि उन्हें भरसक गरम रखा जाए । रियो का काम पहले की तरह ही थका देने वाला था, लेकिन अब उसे यह नहीं लगता था कि वह अकेला ही प्लेग से लड़ रहा है; मरीज उसकी मदद करते थे ।
दिसम्बर के अंत में रियो को मोसिये ओथों का एक खत मिला, जो अभी तक क्वारंटीन में थे । उसने लिखा था कि उसकी क्वारंटीन में रहने की मियाद पूरी हो गई है, लेकिन बदकिस्मती से वह जिस तारीख को कैम्प में दाखिल हुआ था वह कागज़ दफ्तर में कहीं खो गया है। इसलिए उनकी नज़रबंदी के लिए दफ्तर वाले जिम्मेदार हैं जिन्होंने गलती की है। उसकी पत्नी हाल ही में रिहा होकर प्रीफेक्ट के दफ्तर में प्रोटेस्ट करने गई थी लेकिन वहाँ उसके साथ बदतमीजी का सलूक किया गया था; उन लोगों ने मदाम ओथों से कहा कि दफ्तर कभी ऐसी गलती नहीं करता । रियो ने रेम्बर्त से इस मामले की खोजबीन करने को कहा और कुछ दिनों बाद मोसिये ओथों रियो से मिलने आये । सचमुच दफ्तर वालों ने गलती की थी। रियो ने इस पर क्षोभ भी प्रकट किया था। लेकिन ओथों ने, जो इस बीच दुबला हो गया था, तिरस्कारपूर्वक अपना शिथिल हाथ उठाया और अपने शब्दों को तौलते हुए कहा कि गलती हर आदमी से हो सकती है। डॉक्टर ने मन-ही- मन सोचा कि निश्चय ही कोई परिवर्तन हुआ है ।
रियो ने पूछा, "अब आप क्या करेंगे मोसिये ओथों ? मेरा खयाल है कि आपका बहुत सा काम जमा हो गया होगा ?"
"मैं तो छुट्टी की दरख्वास्त दे रहा हूँ ।"
"मैं समझ गया । आपको आराम की ज़रूरत है ।"
"यह बात नहीं । मैं वापस कैम्प जाना चाहता हूँ ।"
रियो को अपने कानों पर विश्वास न हुआ ।
"लेकिन आप अभी तो कैम्प से छुटकर आये हैं ?"
"शायद में अपनी बात स्पष्ट नहीं कर सका । मैंने सुना है कि सरकारी दफ्तरों के कुछ कर्मचारी उस कैम्प में स्वयंसेवकों की हैसियत से काम कर रहे हैं ।" मजिस्ट्रेट ने अपनी आँखों को गोल घुमाया और बालों की एक लट सहलाते हुए कहा, "इससे मेरा मन काम में उलझा रहेगा और मैं जानता हूँ कि आपको यह बात हास्यास्पद मालूम होगी— लेकिन मैं अपने नन्हे बेटे से कम अलगाव महसूस करूँगा ।"
रियो ने मोसिये ओथों की तरफ देखा ; क्या उन कठोर भाव-शून्य आँखों में अचानक कोई कोमलता आ गई थी ? हाँ, मजिस्ट्रेट की आँखें घुंधली हो गई थीं और उनकी फौलादी चमक गायब हो गई थी।
रियो ने कहा, "जरूर ! चूंकि यह आपकी ख्वाहिश है, मैं आपको कैम्प में भिजवा दूंगा ।"
डॉक्टर ने अपना वादा पूरा किया; और प्लेग पीड़ित शहर की हालत क्रिसमस तक वैसी ही बनी रही। तारो हर समस्या में अपनी खामोश कार्य-कुशलता का परिचय देता था । रेम्बर्त ने डॉक्टर को अपना एक राज बताया, वह दो नौजवान संतरियों की मदद से अपनी बीवी को खत भेजता है और कभी-कभी बीवी का जवाब भी आ जाता है। उसने रियो को सुझाव दिया कि वह भी इस गुप्त ज़रिये का फ़ायदा उठाए । रियो राजी हो गया । कई महीनों बाद पहली बार वह खत लिखने बैठा । उसे यह बड़ा कष्ट-साध्य मालूम हुआ, उसे लगा जैसे वह भूल गया है कि खत में कैसी भाषा लिखनी चाहिए । खत भेज दिया गया। जवाब आने में बहुत देर लगी । जहाँ तक कोतार्द का सम्बन्ध था वह दिन-ब-दिन सम्पन्न होता जा रहा था और छिप छिपकर गैर-कानूनी सौदों में खूब पैसे बना रहा था । लेकिन ग्रान्द की हालत इससे विपरीत थी; क्रिसमस का मौसम उसे माफ़िक नहीं आया था ।
सचमुच उस साल क्रिसमस में पुराने वक्त की कोई याद नहीं रही थी । स्वर्ग के बजाय वह नर्क का सूचक बन गया था। दुकानें खाली और अँधेरी थीं । मिठाई की दुकानों की खिड़कियों में खाली डिब्बे थे या बनावटी मिठाइयाँ थीं, ट्रामों में उदासीन और निर्लिप्त लोगों की भीड़ें थीं-यह सब पहले वक्त में क्रिसमस की रौनक़ से बिलकुल विपरीत था । तब शहर के अमीर-गरीब सभी लोग त्यौहार मनाते थे; अब सिर्फ थोड़े-से खुश- क़िस्मत लोग, जिनके पास सभी सुख-सुविधाएँ थीं और जो पैसा फूंक सकते थे, त्यौहार मना रहे थे । वे भी पिछवाड़े की किसी दुकान या घर के कमरे के एकान्त में शराब पी रहे थे, लेकिन उन्हें अपने व्यवहार पर शर्म महसूस हो रही थी । गिरजाघरों में गीतों के बजाय प्रार्थनाएँ अधिक गाई जा रही थीं । कुछ बच्चे । जो इतने छोटे थे कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि वे किस खतरे के मुँह में हैं, पाले से सर्द सड़कों पर खेल रहे थे। लेकिन किसी में इतना साहस नहीं था कि बीते दिनों की तरह खुदा के नाम पर उनका स्वागत करता, जो अपने साथ तोहफ़े लाता है, जो इन्सान के दुख-जितना पुराना और नौजवानों की उम्मीदों जैसा नया है । किसी के दिल में एक पुरानी धुंधली उम्मीद के सिवा और किसी भावना के लिए स्थान नहीं था-- ऐसी उम्मीद जिसके बल पर इन्सान अपने को मौत की तरफ़ नहीं बहने देता, यह उम्मीद सिर्फ़ ज़िन्दा रहने की हठधर्मी थी ।
पिछली शाम को ग्रान्द को हमेशा की तरह दफ्तर में न देखकर रियो परेशान हो उठा था और वह तड़के ही ग्रान्द के घर पहुँचा, लेकिन ग्रान्द घर पर नहीं था । ग्रान्द के दोस्तों से कहा गया कि वे उसकी खोज करें। क़रीब ग्यारह बजे रेम्बर्त ने अस्पताल में आकर खबर दी कि उसे दूर से ग्रान्द की एक झलक मिली थी, वह निरुद्देश्य 'बड़े विचित्र ढंग से' घूम रहा था । बदकिस्मती से वह फ़ौरन उसकी नज़रों से गायब हो गया था। तारो और डॉक्टर कार में बैठकर ग्रान्द को तलाश करने लगे ।
दोपहर के वक्त रियो कार से निकलकर सर्द हवा में आया; कुछ दूर उसे अभी ग्रान्द की एक झलक दिखाई दी थी । ग्रान्द एक दुकान की खिड़की के शीशे से चेहरा सटाकर खड़ा था । खिड़की के भीतर फूहड़ ढंग से तराशे हुए लकड़ी के खिलौने रखे थे । बूढ़े के गालों पर लगातार आँसू बह रहे थे, जिनसे डॉक्टर का दिल कचोट उठा; क्योंकि वह उन आंसुओं का कारण अच्छी तरह जानता था-समवेदना में उसके अपने आंसू भी उमड़ आए। उसकी आँखों के आगे बहुत दिन पहले के उस दृश्य की तस्वीर आई एक दूसरी दुकान की खिड़की के सामने छोटा लड़का खड़ा था, इसी लड़के की तरह क्रिसमस के लिए बढ़िया पोशक पहने । और अचानक जीन भावावेश में आकर उसकी तरफ मुड़ी थी और उसने कहा था कि वह बड़ी खुश है। रियो जान गया था कि ग्रान्द के मन में उन धुंधले बरसों की स्मृतियाँ उमड़ रही हैं, विषाद के क्षणों में ग्रान्द के कानों में जीन की तरुण आवाज गूंज रही है और वह यह भी जानता था कि आँसू बहाता हुआ बूढ़ा क्या सोच रहा था। रियो ने भी सोचा कि प्यार के बग़ैर दुनिया मौत की तरह सूनी है और हमेशा इन्सान की जिन्दगी में ऐसा वक्त आता है जब वह क़ैद से, अपने काम से, कर्तव्य परायणता से ऊब जाता है और सिर्फ एक ही चीज़ की तमन्ना करने लगता है— किसी प्रिय चेहरे की, प्यार भरे किसी दिल की गरमी और जादू पाने की ।
ग्रान्द ने खिड़की के शीशे में डॉक्टर की परछाई देखी । वह अभी भी रो रहा था । उसने अपनी गरदन घुमाई और दुकान के सामने के हिस्से का सहारा लेकर खड़ा हो गया, उसने रियो को अपनी तरफ आते देखा ।
"ओह, डॉक्टर, डॉक्टर....! " इससे ज्यादा वह कुछ न कह सका ।
रियो भी बोल न सका, उसने एक अस्पष्ट इशारे से अपनी हमदरदी ज़ाहिर की । वह भी ग्रान्द के शोक में इस क्षण साझीदार था। उसके हृदय में भी वही तीव्र क्षोभ था, जो सारी मानवता की साँझी पीड़ा देखकर हमारे मन में जागृत होता है ।
"हाँ ग्रान्द, " वह बड़बड़ाया ।
"काश, मैं उसे खत लिखने के लिए समय निकाल सकता ! उसे खबर देता ...उसे बिना पश्चात्ताप के सुखी होने देता !
रियो ने एक झटके से ग्रान्द की बाँह पकड़ी और उसे आगे खींच ले गया । ग्रान्द ने इसका विरोध नहीं किया और वह टूटे-फूटे वाक्य बड़बड़ाता रहा ।
"बहुत दिन हो गए हैं ! इसे बरदाश्त करते-करते बहुत दिन हो गए हैं ! हर वक्त आदमी अपने मन का बोझ हल्का करना चाहता है और एक दिन मजबूर होना ही पड़ता है ...ओह, डॉक्टर, मुझे मालूम है कि मैं देखने में खामोश क़िस्म का आदमी मालूम होता हूँ, बाक़ी सब लोगों की ही तरह । लेकिन मुझे बड़ी भयंकर कोशिश करनी पड़ी है ...सिर्फ़ ...सिर्फ़ नॉर्मल दिखाई देने के लिए और अब यह भी मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया है ।"
यह कहकर वह एकदम खामोश हो गया । वह जोर से काँप रहा था, उसकी आँखों में बुखार जैसी चमक थी । रियो ने उसका हाथ छूकर देखा, हाथ बुखार से जल रहा था ।
"तुम्हें घर जाना चाहिए ।"
लेकिन ग्रान्द ने अपना हाथ छुड़ा लिया और तेज़ी से भागने लगा । कुछ दूर जाकर वह रुक गया, उसने अपनी बाँहें आगे फैलाकर घुमानी शुरू कर दीं। फिर वह एड़ी के बल लट्टू की तरह घूमने लगा और धम्म से फुटपाथ पर गिर पड़ा। कुछ लोग, जो नज़दीक आ रहे थे, हठात् रुक गए और दूर से ही इस दृश्य को देखने लगे उन्हें नज़दीक आने की हिम्मत नहीं हो रही थी । रियो को बूढ़े को उठाकर कार में पहुँचाना पड़ा ।
ग्रान्द बिस्तर में लेटा था, उसे साँस लेने में दिक्कत हो रही थी, उसके फेफड़ों में सूजन आ गई थी। रियो गहरे सोच में पड़ गया । बूढ़े के परिवार में कोई नहीं था । उसे अस्पताल ले जाने से क्या फ़ायदा था ? उसने सोचा कि वह और रियो मिलकर उसकी देखभाल कर लेंगे ।
ग्रान्द का सर तकिये में धँसा था । उसके गालों पर एक हरा-सा भूरापन आ गया था, उसकी आंखें भावशून्य और अपारदर्शी हो गई थीं । लगता था कि वह नजरें गड़ाकर उस आग की तरफ़ देख रहा था, जिसे तारो एक पुरानी लकड़ी की पेटी के बचे-खुचे हिस्सों को फूंककर जला रहा था । "मेरी हालत बुरी है," वह बुदबुदाया। वह जब बोलने की कोशिश करता था तो उसके बुखार से झुलसे हुए फेफड़ों से एक अजब क़िस्म की कड़कती हुई आवाज सुनाई देती थी । रियो ने उसे बोलने के लिए मना किया और कहा कि वह फिर उसे देखने आयेगा । मरीज के होंठ एक विचित्र मुस्कान से खुल गए और उसके दुबले चेहरे पर सहयोग का हास्यपूर्ण भाव आ गया, "अगर मैं बच सका, डॉक्टर -हैट्स ऑफ !" क्षण-भर बाद वह कमजोरी से निढाल हो गया ।
कुछ घंटे बाद देखा गया कि ग्रान्द बिस्तर में आधा उठकर बैठ गया है । उसके चेहरे पर अचानक जो परिवर्तन आया था, उसे देखकर रियो भयभीत हो उठा। बीमारी की ज्वालाओं से उसका चेहरा झुलस गया था । लेकिन उसकी बेचैनी कम हो गई थी, वह होश-हवास में था । उसने फ़ौरन मेज़ की दराज से अपनी पाण्डुलिपि मँगवाई, जो हमेशा दराज में रखी रहती थी। जब तारो ने पन्ने उसके हाथ में पकड़ाए तो उसने उसकी तरफ़ देखे बगैर ही उन्हें सीने से लगा लिया और फिर डॉक्टर के हाथ में पकड़ा दिया, वह इशारे से डॉक्टर को समझा रहा था कि वह उन पन्नों को पढ़े । पाण्डुलिपि में करीब पचास पन्ने थे । रियो ने एक नज़र डालकर देखा कि अधिकांश पत्रों में बार-बार एक ही वाक्य लिखा था, कहीं-कहीं थोड़ा परिवर्तन किया गया था, सरलीकरण किया गया था या उसे अधिक विस्तृत रूप दिया गया था। बार-बार मई के महीने का, घुड़सवार महिला का और बोये के एवेन्युओं का अलग-अलग ढंग से जिक्र किया गया था। स्पष्टीकरण के लिए लिखे नोट्स के अलावा शब्दों के चुनाव के लिए कुछ लम्बी सूचियाँ भी दी गई थीं। लेकिन आखिरी पन्ने के नीचे बड़े सुन्दर और साफ़ अक्षरों में लिखा हुआ था, "मेरी प्रियतमा जीन, आज क्रिसमस है और..." सिर्फ़ आठ शब्द । उसके ऊपर बहुत ही सुन्दर अक्षरों में प्रसिद्ध वाक्य का सबसे नया रूप था । ग्रान्द फुसफुसाया, "इसे पढ़ो।" रिया ने पढ़ना शुरू किया-
"मई के महीने की एक सुहानी सुबह, एक छरहरे बदन की घुड़सवार महिला बोये के एवेन्युओं में जहाँ चमकदार फूल उगे थे, एक चमकदार ब्राउन रंग की चितकबरी घोड़ी पर सवार देखी जा सकती थी..."
"क्या यह सही है ?" उस बूढ़ी आवाज़ में बुखार की कंपकंपी थी । रियो ने जान-बूझकर उसकी तरफ़ से नज़रें हटा लीं और ग्रान्द बिस्तर पर करवटें लेने लगा । "मैं जानता हूँ, तुम क्या सोच रहे हो । यहाँ पर 'सुहाना' शब्द नहीं जँचता । यह...."
रियो ने चादर के नीचे से उसका हाथ पकड़ लिया ।
"नहीं डॉक्टर ! अब कुछ नहीं हो सकता "अब कोई वक्त नहीं है..." उसके सीने में बड़ी तकलीफ़ हो रही थी, फिर उसने ऊँची, चीखती आवाज में कहा, "इसे जला डालो !"
डॉक्टर हिचकिचाया, लेकिन ग्रान्द के आदेश का लहजा इतना भीषण था और उसकी आवाज़ में इतनी पीड़ा थी कि रियो उठकर अँगीठी तक गया और उसने बुझती हुई आग में वे कागज़ डाल दिए। आग भड़क उठी और अचानक कमरे में रोशनी और गरमी फैल गई। जब डॉक्टर बिस्तर के नजदीक आया तो ग्रान्द ने अपनी पीठ मोड़ ली थी और उसका चेहरा दीवार को छू रहा था। सीरम का टीका लगाने के बाद रियो ने फुसफुसाकर तारो से कहा था कि ग्रांन्द रात भी नहीं काट सकेगा । तारो ने मरीज़ के पास रहने की इच्छा प्रकट की। डॉक्टर राज़ी हो गया ।
रात भर रियो को ग्रान्द की मौत का खयाल सताता रहा। लेकिन अगले दिन सुबह उसने देखा कि ग्रान्द बिस्तर में बैठकर तारो से बातें कर रहा था । उसका बुखार उतरकर नॉर्मल हो गया था और साधारण कमजोरी के सिवा उसके शरीर में बीमारी का कोई चिह्न नहीं दिखाई देता था ।
ग्रान्द ने कहा, "हाँ डॉक्टर ! मैंने व्यर्थ में ही जल्दबाजी की। लेकिन मैं फिर नये सिरे से कोशिश करूंगा। तुम देखना, मुझे एक-एक शब्द याद है ।"
रियो ने संदिग्ध नज़रों से तारो की ओर देखा और कहा, "हमें इन्तज़ार करना चाहिए।"
लेकिन दोपहर तक भी उसकी हालत वैसी ही रही । अँधेरा होने तक खतरा टल गया था । ग्रान्द के इस 'पुनर्जन्म' का रहस्य समझना रियो की बुद्धि से परे की चीज थी ।
रियो को कई और बातों से भी बहुत आश्चर्य हुआ । उसी वक्त एक लड़की हस्पताल में लायी गई, जिसे देखकर रियो ने कह दिया कि वह नहीं बचेगी, इसलिए फ़ौरन उसे छूत के वॉर्ड में भेज दिया गया। वह तेज बुखार में प्रलाप कर रही थी और उसमें न्यूमोनिक प्लेग के सारे लक्षण मौजूद थे । लेकिन अगले दिन सुबह उसका टेम्प्रेचर कम हो गया, ग्रान्द के केस की तरह डॉक्टर ने सोचा कि सुबह तो अक्सर ही बुखार कम हो जाता है । वह अपने अनुभव से जानता था कि यह बुरा लक्षण है। लेकिन दोपहर के वक्त भी लड़की का टेम्प्रेचर न बढ़ा और रात को सिर्फ़ कुछ डिग्री ही बढ़ा । बेहद थकान के बावजूद उसे साँस लेने में कोई तकलीफ़ नहीं हो रही थी। रिया ने तारो से कहा कि लड़की की हालत में सुधार होना 'सब डॉक्टरी असूलों के खिलाफ़' है, लेकिन अगले हफ्ते में चार और ऐसे केस रियो ने देखे ।
हफ्ते के आखिर में जब रियो और तारो दमा के बूढ़े मरीज से मिलने के लिए गये तो उसके उत्साह का कोई ठिकाना न था ।
"क्या आप यकीन करेंगे, वे फिर बाहर निकल रहे हैं ! "
"कौन ?"
"अरे वाह ! चूहे और कौन ! "
अप्रैल के बाद से शहर में एक भी जिन्दा या मरा हुआ चूहा नहीं दिखाई दिया था । तारो ने परेशान होकर रियो की तरफ़ देखा ।
"तो क्या प्लेग फिर नये सिरे से शुरू हो रही है ?"
बूढ़ा अपनी हथेलियाँ रगड़ रहा था ।
"डॉक्टर, तुम देखना वे किस तरह भागते हैं ! बस मज़ा आ जाएगा ! " उसने खुद दो चूहों को सड़क के दरवाजे के रास्ते घर में घुसते देखा था और कुछ पड़ोसियों ने भी उसे बताया था कि उन्हें तहखानों में चूहे दिखाई दिए थे । कुछ घरों में लोगों ने लकड़ी के काम के पीछे खुरचने की चुरमुराहट की परिचित आवाजें सुनी थीं। रियो बेचैनी से मौत के आंकड़ों का इन्तज़ार करने लगा, जो हर सोमवार को घोषित किये जाते थे । उनमें कमी हो गई थी ।