प्लेग (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू; अनवादक : शिवदान सिंह चौहान, विजय चौहान

The Plague (French Novel in Hindi) : Albert Camus

दूसरा भाग : 1

इसके बाद से, कहा जा सकता है कि प्लेग हम सबकी चिन्ता का विषय बन गई थी। अब तक अपने आसपास होने वाली विचित्र घटनाओं से कोई कितना भी हैरान क्यों न रहा हो, लेकिन हर व्यक्ति जहाँ तक सम्भव था, बदस्तूर अपने काम-धन्धे में लगा हुआ था। और इसमें भी शक नहीं कि वह इसी तरह करता चलता। लेकिन एक बार जब शहर के फाटक बन्द कर दिए गए, तो कथाकार-समेत हममें से हर व्यक्ति ने महसूस किया कि अब हम सब एक ही नाव पर सवार हैं और हममें से हरेक को जीवन की नई परिस्थितियों के मुताबिक़ अपने को ढालना पड़ेगा। इस तरह, मिसाल के लिए अपने प्रियजनों से बिछुड़ने की पीड़ा-जैसी एकदम निजी अनुभूति एकाएक एक ऐसी सार्वजनिक अनुभूति बन गई थी, जिसमें सभी सहभागी थे और भय के साथ-साथ यह निर्वासन के आने वाले लम्बे दौर-सी सबसे गहरी यंत्रणा देने वाली अनुभूति बन गई थी।

फाटकों के बन्द होने का सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ कि लोग अचानक एक-दूसरे से बिछुड़ गए। वे इस आकस्मिक घटना के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। माताएँ और बच्चे, प्रेमी, पति और पत्नियाँ, जिन्हें कुछ दिन पहले पक्का यही लगता था कि वे कुछ ही दिनों के लिए एक-दूसरे से बिछुड़ रहे हैं, जिन्होंने प्लेटफार्म पर एक-दूसरे को चूमकर विदाई ली थी और इधर-उधर की मामूली बातें की थीं, उन्हें यक़ीन था कि कुछ दिनों या ज़्यादा-से-ज़्यादा कुछ हफ़्तों बाद वे फिर मिलेंगे, निकट भविष्य में मानव की अन्धी आस्था ने उन्हें ठग लिया था। विदाई के बाद भी उनकी जीवनचर्या में कोई खास फ़र्क नहीं आया था, लेकिन बिना किसी चेतावनी के अब वे अपने को असहाय रूप से एक-दूसरे से दूर पा रहे थे। वे न एक-दूसरे से मिल सकते थे, यहाँ तक कि एक-दूसरे से पत्र-व्यवहार भी नहीं कर सकते थे। दरअसल जनता को सरकारी हुक्म की ख़बर होने से कुछ घंटे पहले ही फाटक बन्द हो चुके थे। ज़ाहिर था कि किसी भी व्यक्ति की तकलीफ़ पर कोई ध्यान नहीं दिया जा सकता था। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस भयानक महामारी का सबसे पहला असर यह हुआ कि हमारे शहर के लोग इस तरह से आचरण करने को मजबूर हो गए जैसे उनमें व्यक्तिगत भावनाएँ हों ही नहीं। उस दिन जब हक्म जारी हुआ कि कोई भी शहरी शहर से बाहर न जाए, दोपहर से पहले ही प्रीफ़ेक्ट के दफ्तर में प्रार्थियों की भीड़ लग गई। सबके पास शहर छोड़ने के अकाट्य तर्क मौजूद थे, लेकिन किसी की भी अरजी पर गौर नहीं किया जा सकता था। हमें इस बात का पूरा एहसास कुछ दिनों के बाद हुआ कि हम एकदम संकट में घिर गए थे और 'विशेष इन्तज़ाम', 'मेहरबानी' और 'तरजीह' जैसे शब्द बिलकुल बेमानी हो गए थे।

यहाँ तक कि हमें पत्र लिखने के सन्तोष से भी वंचित कर दिया गया था। यानी, अब हालत यह हो गई थी। न सिर्फ हमारे शहर का बाहर की दुनिया से सम्बन्ध टूट गया था, बल्कि एक नए हुक्म के मुताबिक़ सारा पत्र-व्यवहार बन्द कर दिया गया था ताकि पत्रों के जरिये प्लेग की छूत शहर से बाहर न चली जाए। शुरू के दिनों में कुछ लोगों ने, जिनकी पहुँच थी, सन्तरियों को राज़ी कर लिया था कि वे फाटक के बाहर की दुनिया को सन्देश भेज सकें। लेकिन यह तो महामारी के शुरू के दिनों की बात है जब सन्तरी अपनी मानवीय भावनाओं के अनुसार चलना स्वाभाविक समझते थे। बाद में जब इन्हीं सन्तरियों को स्थिति की भयंकरता से अवगत कराया गया तो उन्होंने किसी भी ऐसे काम की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया जिसका कोई भी भयंकर नतीजा निकल सकता था। शुरू में तो दूसरे शहरों में टेलीफ़ोन करने की इजाज़त थी, लेकिन सरकारी टेलीफ़ोन बूथों पर लोगों की इतनी भीड़ जमा होने लगी और लाइन मिलने में इतनी देरी होने लगी कि बाद में अधिकारियों ने इस पर भी रोक लगा दी और इसके बाद मृत्यू, शादी या बच्चा पैदा होने की सूचना देने तक ही, जिन्हें वे 'अर्जेन्ट केस' कहते थे, टेलीफ़ोन का उपयोग सीमित कर दिया गया। तब हम लोगों को टेलीग्राम का आश्रय लेना पड़ा। गहरी मित्रता, स्नेह या शारीरिक प्रेम से जो लोग जुड़े हुए थे, उन्हें तार के दस शब्दों की सीमा में ही अपने पुराने सम्बन्धों की निशानी खोजनी पड़ती थी। और चूंकि, व्यवहारतः, टेलीग्राम में कुछ इने-गिने शब्द ही भेजे जा सकते हैं, इसलिए दीर्घ-कालीन जीवन सम्बन्ध या आवेगपूर्ण आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कुछ हल्के और टकसाली शब्दों तक ही सिमटकर रह गई, जैसे “स्वस्थ हूँ। हमेशा तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूँ। प्यार।"

फिर भी हममें से कुछ लोग पत्र लिखने में लगे रहे और बाहर की दुनिया से सम्पर्क स्थापित करने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाने में काफ़ी वक़्त गुज़ारने लगे। लेकिन ये तरकीबें कभी कामयाब न हो पातीं, अगर किसी खास मौके पर वे कामयाब हो जाती होंगी, तो भी हमें इसका पता नहीं चलता था, क्योंकि बाहर से कोई जवाब नहीं आता था। नौबत यहाँ तक पहुँची कि हम लोग हफ़्तों तक अपने लिखे एक ही पत्र को बार-बार टकटकी बाँधकर देखने लगे, एक-सी ही ख़बरों या निजी आग्रहों को बार-बार नक़ल करके लिखने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि जिन सजीव शब्दों में हमने अपने हृदय का सारा रक्त उँडेल दिया था, वे एकदम निरर्थक हो गए। इसके बाद हम यंत्रवत उनको बार-बार नक़ल करके उन बेजान शब्दों के जरिये अपनी मुसीबतों का हाल बयान करने की कोशिश करते रहे। आख़िरकार, इन बेमानी, बार-बार दुहराये गए एकालापों, कोरी दीवार से बातें करने की बेकार कोशिशों से तो टेलीग्राम के नपे-तुले क्षुद्र फार्मूले ही ज़्यादा अच्छे लगने लगे।

इसके अलावा कुछ दिनों बाद जब यह साफ़ ज़ाहिर हो गया कि कोई भी हमारे शहर से बाहर निकलकर जाने की उम्मीद नहीं कर सकता लोगों ने यह पूछताछ शुरू कर दी कि जो लोग महामारी फैलने से पहले बाहर चले गए थे, क्या उन्हें फिर वापस आने की इजाज़त दी जा सकेगी?

कुछ दिनों तक विचार करने के बाद अधिकारियों ने 'हाँ' में उत्तर दिया। लेकिन उन्होंने बताया कि लौटकर आने वाले लोगों को फिर किसी भी अवस्था में दोबारा शहर छोड़कर बाहर जाने की इजाजत नहीं दी जाएगी; उन्हें हर हालत में फिर यहीं रहना पड़ेगा। कुछ परिवारों ने, जिनकी संख्या कम थी, इस बात को महत्त्व नहीं दिया और अपने परिवार के गैरहाजिर सदस्यों से मिलने की जल्दी में, विवेक को ताक पर रखकर, तार भेज दिए कि वे वापस लौटने के इस मौके से फ़ौरन फ़ायदा उठाएँ। लेकिन जल्द ही प्लेग के इन कैदियों ने महसूस किया कि ऐसा करने से उनके रिश्तेदारों की जान भी कितने ख़तरे में पड़ जाएगी और उन्होंने दुखी मन से उनकी गैरमौजूदगी को झेलना क़बूल कर लिया। जिन दिनों प्लेग अपने पूरे ज़ोर पर थी, उन दिनों हमने सिर्फ एक ही ऐसा मामला देखा जिसमें प्राकृतिक भावनाओं ने मौत के डर से एक दुखदायी रूप में काबू पाने की कोशिश की थी। जैसी आशा की जा सकती है, यह दो नौजवान प्रेमियों का मामला नहीं था, जिनके भावुक और जोशीले प्रेम ने हर तरह की पीड़ा की कीमत चुकाकर भी एक-दूसरे की निकटता पाने की आकांक्षा को दुर्दमनीय बना दिया हो। ये दोनों डॉक्टर कास्तेल और उसकी पत्नी थे और उनकी शादी को बहुत साल हो चुके थे। प्लेग फैलने से कुछ ही दिन पहले मदाम कास्तेल नज़दीक के एक शहर में किसी से मिलने के लिए गई थीं। उनका दार्बी और जोन-जैसा आदर्श विवाहित जोड़ा भी नहीं था बल्कि, कथाकार के पास यह कहने का आधार है कि सम्भवत: डॉक्टर कास्तेल और उसकी पत्नी, इन दोनों को यह विश्वास नहीं था कि अपनी शादी से उन्हें वह सब प्राप्त हुआ है जिसकी कामना की जा सकती है। लेकिन इस निरंकुश, लम्बी जुदाई ने उन्हें यह महसूस करने का मौक़ा दिया कि वे एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते, और इस चेतना की आकस्मिक दीप्ति में उन्हें प्लेग का ख़तरा नगण्य दिखाई दिया।

यह एक अपवाद था। अधिकांश लोगों के आगे यह साफ़ था कि महामारी के ख़त्म होने तक उनकी जुदाई ज़रूरी है। और हममें से हरेक को लगा कि उसके जीवन की सबसे बड़ी भावना ने जिसके बारे में उसका ख़याल था कि वह उसे बखूबी जानता है (हम पहले ही कह चुके हैं कि ओरान के लोगों की भावनाएँ बड़ी सरल हैं)-एक नया ही रूप धारण कर लिया। ऐसे पति, जिनको अपनी पत्नियों पर पूरा विश्वास था, यह देखकर हैरान रह गए कि वे खुद भी उतने ही वफ़ादार बन गए थे और प्रेमियों को भी ऐसा ही अनुभव हुआ। जो पुरुष डॉन जुआन बनने की कल्पना किया करते थे, वफ़ादारी की मिसाल बन गए थे। साथ रहते हुए जिन बेटों ने कभी अपनी माताओं के चेहरों की ओर आँख उठाकर देखना भी पसन्द नहीं किया था, अब स्मृतिपटल पर उनके अनुपस्थित चेहरों की हर झरों को हार्दिक वेदना से याद करते थे। इस कठोर और बेरहम जुदाई ने भविष्य में हमारे लिए और क्या लिखा है, इसकी अज्ञानता ने हमें अचानक ही हक्का-बक्का कर दिया था और हम उन लोगों की ख़ामोश आरजू-मिन्नतों के प्रति, जो अभी तक इतने नज़दीक थे, लेकिन भौतिक रूप से इतने दूर थे और जिनकी याद हमें दिन-रात सताया करती थी, किस तरह व्यवहार करें, यह नहीं समझ पा रहे थे। दरअसल, हमारी यंत्रणा दोहरी थी; एक तो अपनी और दूसरी उन गैर-मौजूद बेटों, माताओं, पत्नियों या प्रेमिकाओं की कल्पित यंत्रणा।

और किन्हीं परिस्थितियों में हमारे नगरवासी शायद अपनी क्रियाशीलता बढ़ाकर, सामाजिक जीवन में अधिक सक्रिय भाग लेकर अपनी घुटन दूर कर लेते। लेकिन प्लेग ने उनको निष्क्रिय बनने के लिए मजबूर कर दिया था, उनका घूमना-फिरना सिर्फ उस शहर की सीमा के भीतर ही बाँध दिया और इस तरह उन्हें अपनी स्मृतियों के सहारे सन्तोष और राहत पाने के लिए विवश कर दिया। निरुददेश्य सैर करते हुए वे बारबार उन्हीं सड़कों पर पहुँच जाते थे जहाँ से कुछ देर पहले गुज़रे थे, और चूंकि शहर छोटा है, इसलिए ये अक्सर वे ही सड़कें होती थीं, जिन पर खुशी के दिनों में वे उनके साथ घूमे थे जिनसे आजकल जुदा हो गए थे।

इस तरह प्लेग ने पहले हमें निर्वासन का दंड दिया। कथाकार को विश्वास है कि वह यह दावा कर सकता है कि सब लोगों को ऐसा ही एहसास हुआ था। खुद उसने तो यह महसूस किया ही था, उसके सारे दोस्तों ने भी यह बात क़बूल की थी। इसमें शक नहीं कि यह निर्वासन की अनुभूति थी-अपने दिलों में खालीपन का वह एहसास जिसने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा, गुज़रे ज़माने की याद करके उसमें खो जाने या फिर वक़्त की रफ़्तार को तेज़ कर देने की वह तर्कशून्य आकांक्षा और स्मृति के वे झोंके जो चिनगारियों की तरह बदन में चुभते थे। हम लोग कभी-कभी अपनी कल्पना से खिलवाड़ भी करते रहते थे, इन्तज़ार में बैठ जाते थे कि शायद किसी के लौटकर आने की सूचना देने के लिए घंटी अब बजने ही वाली है, या किसी की परिचित पगध्वनि जीने पर बस सुनाई देने वाली है; लेकिन चाहे हम जान-बूझकर उस समय घर पर ही रह जाते हों, जिस वक़्त शाम की गाड़ी से लौटने वाले यात्री आमतौर पर पहुँचते थे और चाहे हम एक क्षण के लिए यह भुला देते हों कि ट्रेनें अब चलती ही नहीं, फिर भी, ज़ाहिर है कि झूठ-मूठ विश्वास करने का यह खेल अधिक दिन तक नहीं चल सकता था। हमेशा कोई-न-कोई ऐसा मौक़ा आ जाता जब हमें इस तथ्य का सामना करना पड़ जाता था कि आजकल सभी ट्रेनों का आना-जाना बन्द है। और फिर हमें एहसास हुआ कि यह जुदाई अभी और जारी रहेगी, इसलिए भविष्य के साथ समझौता करने के अलावा हमारे पास कोई चारा न रहा। अर्थात हम फिर अपने कैदखाने में लौट आए और अतीत के सिवा हमारे पास कुछ न रहा। अगर कुछ लोगों को भविष्य में रहने का लोभ होता भी था तो जैसे ही-जितनी जल्दी एक बार वे यह महसूस कर लेते थे कि जो अपने को कल्पना के हवाले कर देते हैं, वे ज़ख़्मी हो जाते हैं उन्हें फ़ौरन यह ख़याल छोड़ देना पड़ता था।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमारे शहर के लोग जल्द ही एक बात को भूल गए। उन्होंने सार्वजनिक रूप से भी इसे व्यक्त नहीं किया। उनसे उम्मीद की जा सकती थी कि शायद वे अपने निर्वासन-काल का अनुमान लगाने की कोशिश करेंगे और इस आदत को जारी रखेंगे। उसकी वजह यह थी। जब घोर निराशावादियों ने कहा कि प्लेग छह महीने तक रहेगी, जब उन्होंने शोकपूर्ण छह महीने की कटुता का स्वाद पहले से ही कल्पना में चख लिया और बड़े कष्ट से अपने साहस को बर्दाश्त की सीमा तक पहुँचा दिया, आने वाले हफ़्तों और दिनों की लम्बी यातना में रहने के लिए अपनी बचीखुची शक्तियों को भी एकत्रित कर लिया, जब ऐसा करने के बाद किसी दोस्त की बातचीत से या किसी अख़बार के लेख को पढ़कर उनके मन में एक अस्पष्ट आशंका या दूरदर्शिता कौंध जाती थी और कल मिलाकर उन्हें लगता था कि कोई कारण नहीं है कि महामारी छह महीने से ज़्यादा नहीं चलेगी; एक साल या उससे भी ज़्यादा अरसे तक क्यों नहीं चल सकती?

ऐसे क्षणों में उनका साहस, सहन-शक्ति और इच्छा-शक्ति इतनी जल्दी शिथिल पड़ जाती थी कि उन्हें लगता था कि वे ज़िन्दगी में कभी अपने को निराशा और अवसाद की दलदल से नहीं निकाल पाएँगे जिसमें वे गिर गए थे। इसलिए वे कभी अपने को मुक्ति के दिन की कल्पना के लिए मजबूर नहीं करते थे जिसके रास्ते में बहुत-सी कठिनाइयाँ थीं। उन्होंने भविष्य में देखना भी छोड़ दिया था और अब हमेशा उनकी नज़रें अपने पैरों के नीचे की धरती पर रहती थीं। लेकिन इस बुद्धिमत्ता और अपनी दुर्दशा के साथ इस झूठे खेल की आदत से भी कोई नतीजा न निकला जैसा कि स्वाभाविक ही था। क्योंकि स्मृतियों के खिंचाव से, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सकते थे, उन्होंने बचने की कोशिश की, इसलिए वे उन सुखद क्षणों की कल्पना से भी वंचित रह गए जिनके दवारा वे मन-ही-मन भावी मिलन की तस्वीरें बनाकर प्लेग के विचारों से मुक्ति पा सकते थे। इस तरह इन ऊँची और नीची सतहों में वे ज़िन्दगी की धारा में बहते रहे। इसे जीना नहीं कहा जा सकता था। वे निरुद्देश्य दिनों और ऊसर स्मृतियों के शिकार हो गए थे। वे उन भटकती छायाओं की तरह थे जो सिर्फ अपने अवसाद की ठोस धरती पर जड़ पकड़कर ही मूर्त रूप धारण कर सकती थीं।

इसी तरह उन्हें सभी कैदियों और निर्वासितों के असाध्य शोक का भी एहसास हुआ जिन्हें सदा ऐसी स्मृतियों के साथ रहना पड़ता है जो बेमानी होती हैं। यहाँ तक कि अतीत में भी जिनके बारे में वे लगातार सोचते रहते थे, सिर्फ़ पश्चात्ताप की अनुभूति थी। उनके अतीत में जो भी अपूर्णता रह गई थी वे कल्पना में उसकी कमी को उन मर्दो या औरतों के साथ मिलकर पूरा कर देना चाहते थे जिनके लौटने की राह वे देख रहे थे। अपने सभी कामों में, यहाँ तक कि अपेक्षाकृत सुखद कामों में भी, वे कैदियों की-सी ज़िन्दगी बसर करते हुए अपने अनुपस्थित साथियों को शामिल करने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे। इस तरह उनकी ज़िन्दगी में हमेशा किसी-न-किसी बात की कमी रहती थी। अतीत के प्रति मन में वैर था, वर्तमान के प्रति अधीरता थी और लगता था जैसे किसी ने धोखे से हमारा भविष्य छीन लिया है। हमारी हालत उन कैदियों-जैसी थी जिन्हें इनसान का इंसाफ़ या नफ़रत जेलों के सीखचों में रहने के लिए मजबूर करती है। ऐसी स्थिति में उस असहनीय अवकाश से मुक्ति पाने का सिर्फ एक ही रास्ता था। वह यह कि कल्पना में ट्रेनों को फिर से दौड़ाया जाए और ख़ामोशी की रिक्तता को भरने के लिए दरवाज़े की घंटी के बजने की कल्पना की जाए जो आजकल हठपूर्वक ख़ामोश रहती थी।

फिर भी अगर यह निर्वासन था, तो हम अधिकांश लोग अपने घर के भीतर ही निर्वासित थे। हालाँकि कथाकार को भी सबकी तरह निर्वासन झेलना पड़ रहा था, फिर भी उसे पत्रकार रेम्बर्त और उसके-जैसे अन्य लोगों की दुर्दशा नहीं भूली थी जिन्हें जीवन की सुख-सुविधाओं से और भी अधिक वंचित रहना पड़ गया था। वे मुसाफ़िर थे और प्लेग की वजह से वे जहाँ थे उन्हें वहीं रुकने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वे अपने घरों और प्रियतमाओं से दूर थे। निर्वासितों में भी वे सबसे अधिक निर्वासित थे। सब लोगों की तरह वे भी समय के चक्र से त्रस्त थे, उनके लिए जगह का मसला भी था; वे प्रतिक्षण इस विशाल और विदेशी कैदखाने की दीवारों पर अपना सिर पटकते थे जिसने कोढ़ियों की बस्ती की तरह उन्हें उनके खोये हुए घरों से अलग कर दिया था। निस्सन्देह, यही वे लोग थे जिन्हें हम अक्सर सारा वक़्त धूल-भरे शहर में अकेले भटकते देखते थे। वे ख़ामोशी से अपने सुखी देश की उन शामों और प्रभातों की कामना किया करते थे जिनका सौन्दर्य केवल वे ही जानते थे। वे अपनी निराशा को क्षणिक सूचनाओं और सन्देशों पर पालते थे जो चिड़ियों की उड़ान की तरह, सूर्यास्त की ओस की तरह या सूरज की उन किरणों की तरह, जो कभी-कभी ख़ाली सड़कों को चितकबरा बनाती हैं, निरर्थक और विच्छिन्न थे। उन्होंने बाहर की दुनिया से आँखें मूंद ली थीं, जबकि यह दुनिया हमेशा हर तरह के विचारों से मुक्ति दिला सकती है। वे तो अपनी कल्पना के सच्चे प्रेतों को पालने पर तुले हुए थे और अपनी समस्त शक्ति लगाकर एक ऐसे देश की तस्वीरों की कल्पना में डूबे थे जिसमें प्रकाश की किरणें एक ख़ास ढंग से छिटकी थीं, दो या तीन पहाड़ियाँ थीं, उनकी पसन्द का एक वृक्ष था, एक स्त्री की मुस्कान थी, इस दुनिया की कमी को कोई दुनिया पूरा नहीं कर सकती थी।

आख़िर में हम उन विरही प्रेमियों का खासतौर पर जिक्र करेंगे जिनकी कहानी बेहद दिलचस्प है और जिनके बारे में कहने का शायद कथाकार को अधिकार भी है। उनके मन में तरह-तरह की भावनाएँ उठ रही थीं, जिनमें पश्चात्ताप की भावना अधिक थी। उनकी मौजूदा स्थिति ऐसी थी कि वे पूरे जोश से अपनी भावनाओं का यथार्थ विवेचन कर सकते थे। ऐसी हालत में उनके लिए अपनी खामियों को न देख सकना असम्भव था। सबसे पहले ये भावनाएँ उनके मन में तब उठीं जब उन्हें इस बात का सही अनुमान लगाने में कठिनाई हुई कि उनका दूसरा साथी क्या कर रहा है? अब उन्हें अपने इस अज्ञान पर अफ़सोस होने लगा कि वे यह भी भूल गए हैं कि उनका प्रेमी या प्रेमिका किस तरह अपना वक़्त गुज़ारते थे। उन्हें यह सोचकर आत्मग्लानि हुई कि उन्होंने अतीत में इस बात की तरफ़ ध्यान क्यों नहीं दिया। वे क्यों सोचते रहे कि एक प्रेमी के लिए जब वह अपनी प्रेयसी के साथ नहीं रहता तो प्रेयसी के कार्यकलाप के प्रति उसके मन में हर्ष के बजाय उदासीनता क्यों पैदा होती है। इस बात का एहसास होते ही वे अपने प्रेम के इतिहास को नए सिरे से देख सकते थे और जान सकते थे कि किस जगह उनके प्रेम में कसर रह गई थी। साधारण परिस्थितियों में हम सब चेतन या अचेतन रूप से जानते हैं कि कोई प्रेम ऐसा नहीं जिसमें बेहतरी की गुंजाइश न हो। फिर भी हम कुछ हद तक इस सत्य से समझौता कर लेते हैं कि हमारा प्रेम कभी औसत स्तर से ऊपर नहीं उठ सका। लेकिन हमारी स्मृति समझौते के लिए तैयार नहीं होती। निश्चित रूप से इस मुसीबत ने जो बाहर से आकर सारे शहर पर छा गई थी, जिसकी वजह से हमें बहुत-सी तकलीफें सहनी पड़ी थीं जो इतनी नाजायज़ थीं कि उन पर क्षुब्ध होना स्वाभाविक ही था। इसने हमें स्वयं अपने लिए यंत्रणा उत्पन्न करने को प्रेरित किया जिससे हम कंठा को ही स्वाभाविक स्थिति समझने लगे। यह भी महामारी की एक चाल थी, जो उसने हमारा ध्यान असली समस्याओं से हटाने और हमारे दिमाग में उलझन पैदा करने के लिए चली थी।

इस तरह से हम सबको विशाल आकाश की उदासीनता तले एकान्त में दिन गुज़ारने के लिए मजबूर होना पड़ा था। भलाए जाने की यह अनुभूति जो शायद उचित मौके पर लोगों के चरित्र में परिष्कृति पैदा कर सकती थी, उनका जीवन-रस सोखकर उन्हें निकम्मा बनाने लगी। मिसाल के लिए हमारे कुछ साथी नागरिक एक विचित्र किस्म की गुलामी के शिकार हो गए, जिसने उन्हें सूरज और बारिश के रहम पर छोड़ दिया था। उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे ज़िन्दगी में पहली बार उन्हें मौसम की अच्छाई-बुराई का एहसास हो रहा हो। सूरज की कुछ किरणों का फूटना ही उनके मन में संसार के लिए उल्लास भर देने के लिए काफ़ी था, जबकि बारिश के दिनों में उनके चेहरों और मूड पर भी एक काली छाया आ जाती थी। कुछ हफ़्ते पहले वे मौसम की इस हास्यास्पद गुलामी से आज़ाद थे, क्योंकि उन्हें ज़िन्दगी से अकेले नहीं जूझना पड़ता था। वे जिस व्यक्ति के साथ रहते थे वह कुछ सीमा तक उनके छोटे-से संसार की तस्वीर के अगले हिस्से में छाया रहता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई थी। उन्हें लगता था कि वे आकाश की मर्जी के रहम पर हैं। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि उनकी पीड़ा और आशाएँ तर्कहीन थीं।

इसके अलावा एकान्त की इस पराकाष्ठा में कोई भी अपने पड़ोसी से कोई मदद पाने की आशा पर निर्भर नहीं कर सकता था। सभी को अपनी मुसीबतों का बोझ खुद उठाना पड़ रहा था। अगर, संयोगवश, हममें से कोई दूसरों के सामने अपनी भावनाओं की बात करता या मन का बोझ हल्का करने की कोशिश करता तो उसे हमेशा ऐसा जवाब मिलता था जिसे सुनकर आमतौर पर उसे सदमा पहुँचता था चाहे वह जवाब कैसा भी हो। फिर उसे अचानक एहसास होता था कि वह जिस आदमी से बात कर रहा है उसके मन में कोई और ही बात है। अपने व्यक्तिगत अवसाद पर लगातार कई दिन तक सोचने-विचारने के बाद अगर कोई अपने मन की उस तस्वीर को, जिसे उसने पश्चात्ताप और तीव्र भावना की आग में डालकर आकार प्रदान किया था, किसी दूसरे को दिखाना चाहता था तो दूसरा आदमी उसकी बिलकुल कद्र नहीं करता था, बल्कि उसको इस तस्वीर में रूढ़िगत और साधारण भावना दिखाई देती थी-ऐसा दुख जिसे बड़े पैमाने पर तैयार करके हाट-बाज़ार में बेचा जा रहा हो। जवाब चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, उसमें गरमाई नहीं होती थी, और अपने दिल की बात बताने की कोशिश छोड़ देनी पड़ती थी। यह बात कम-से-कम उन पर तो लागू होती ही थी जो ख़ामोश रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। और बाक़ी लोग चूँकि उपयुक्त, भावव्यंजक शब्द तलाश ही नहीं कर सकते थे, इसलिए वे आम टकसाली भाषा का इस्तेमाल करके ही सन्तुष्ट हो गए–वर्णन और चुटकुलों की उस सीधीसादी चलताऊ भाषा का या अपने दैनिक अखबार की भाषा का। इसलिए ये लोग भी अपने सच्चे और गहरे दुख को मामूली बोलचाल की भाषा के जरिये ही व्यक्त करते थे। इन नपे-तुले शब्दों का इस्तेमाल करके ही प्लेग के ये सब कैदी अपने चौकीदारों या सुनने वालों की हमदर्दी पाने की उम्मीद कर सकते थे।

फिर भी-और यह बात महत्त्वपूर्ण है कि उनकी यंत्रणा चाहे जितनी कटु और उनके हृदय चाहे जितने भारी रहे हों, अपने हृदय की रिक्तता के बावजूद प्लेग के आरम्भिक दिनों में तो कम-से-कम ये निर्वासित नागरिक एक तरह से अपने को खुशक़िस्मत समझ सकते थे। ऐसे क्षणों में जब शहर के लोगों में घबराहट फैली थी, इन लोगों के विचार पूरी तरह से उस व्यक्ति पर केन्द्रित थे जिससे मिलने के लिए वे बेचैन थे। प्यार के अहंकार के कारण जनसाधारण के दुख-दर्द ने उन पर कुछ असर नहीं किया था, प्लेग के बारे में वे सिर्फ यही सोचते थे कि कहीं उसकी वजह से उनकी जुदाई अनन्त न हो जाए। महामारी के ऐन बीचोबीच भी उन्होंने एक उदासीनता अख्तियार कर ली थी जिसे देखकर आत्मविश्वास होने का भ्रम होता था। उनके अवसाद ने उन्हें घबराहट से बचा लिया था। इस तरह उनकी मुसीबत का भी एक अच्छा पहलू था। मिसाल के लिए अगर उनमें से कोई महामारी का शिकार हो जाता तो उसे इस दुर्भाग्य का एहसास तक न होता। किसी स्मृति के प्रेत के साथ लम्बे और मौन सम्पर्क के बाद अचानक वह सबक गहनतम मौन में विसर्जित हो गया। उसके पास किसी बात के लिए वक़्त नहीं रहा था।

दूसरा भाग : 2

जब हमारे शहर के लोग संसार से अपने इस अप्रत्याशित अलगाव से समझौता करने की कोशिश कर रहे थे प्लेग की वजह से शहर के फाटकों पर सन्तरी बिठा दिये गए थे और ओरान आने वाले जहाज़ों को वापस भेजा जा रहा था। जब से फाटक बन्द हुए थे, बाहर की कोई गाड़ी शहर में दाख़िल नहीं हुई थी। उस दिन के बाद से ऐसा लगता था जैसे सब कारें गोल दायरे में चक्कर काट रही हों। बलेवारों के ऊपरी हिस्से से देखने पर बन्दरगाह का दृश्य भी विलक्षण मालूम होता था। तमाम व्यापारिक हलचलें, जिनकी वजह से ओरान समुद्र-तट का प्रमुख बन्दरगाह बन गया था, अचानक रुक गई थीं। सिर्फ कुछ जहाज़, जिनके यात्रियों पर यात्रा का प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, लंगर डाले खाड़ी में खड़े थे। लेकिन घाटों पर खड़ी क्षीणकाय निकम्मी क्रेनें, माल ढोने के उलटे हुए वैगन, बोरों और पीपों के लापरवाही से बिखरे हुए ढेर-सब इस बात की गवाही दे रहे थे कि व्यापार भी प्लेग से मर चुका है।

ऐसे असाधारण दृश्यों के बावजूद ऊपरी तौर पर देखने से लगता था कि हमारे शहर के लोगों को अपनी असली स्थिति का एहसास होने में दिक़्क़त हो रही थी। भय और जुदाई तो ऐसी भावनाएँ थीं, जिनमें सब लोग साझीदार हो सकते थे, लेकिन उनके विचारों में अभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ ही प्रमुख थे। इस बीमारी का सचमुच क्या मतलब है, इस बात को कोई अपने-आपसे क़बूल नहीं करना चाहता था। अधिकतर लोग सिर्फ उन्हीं बातों के बारे में सचेत थे, जिन्होंने उनके जीवन के साधारण कार्यक्रम को भंग कर दिया था या जो उनके स्वार्थों को आघात पहुँचा रही थीं। वे या तो परेशान होते थे या नाराज़-लेकिन इन भावनाओं से प्लेग का मुकाबला तो नहीं किया जा सकता था। मिसाल के लिए, उनकी पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि उन्होंने अधिकारियों को गालियाँ बकना शुरू कर दी। अख़बार हर रोज़ प्रीफ़ेक्ट की नुक्ताचीनी करते हुए पूछते थे क्या नियमों में संशोधन करके उनकी सख्ती कम नहीं की जा सकती? लेकिन यह प्रश्न अप्रत्याशित था। अभी तक न तो अख़बारों को न रेंसदाक सूचना ब्यूरो को सरकार की तरफ़ से महामारी के आँकड़े बताए गए थे। अब प्रीफ़ेक्ट हर रोज ब्यूरो को आँकड़े देकर प्रार्थना करता था कि उन्हें हफ़्ते में एक बार ज़रूर प्रसारित किया जाए।

इस मामले पर भी, आशा के विपरीत जनता की प्रतिक्रिया बहुत देर हुई। इस बयान से कि प्लेग के तीसरे हफ्ते में तीन सौ दो मौतें हो चुकी हैं, लोगों की कल्पना को कोई आघात नहीं पहुँचा। एक कारण तो यह था कि हो सकता था ये सारी मौतें प्लेग की वजह से न हुई हों। इसके अलावा शहर में किसी को यह अन्दाज़ नहीं था कि साधारण परिस्थितियों में औसतन एक हफ़्ते में कितनी मौतें होती हैं। शहर की आबादी दो लाख थी। मौत के ये आँकड़े क्या सचमुच इतने ज़्यादा थे यह कोई नहीं जानता था। दरअसल इस तरह के आँकड़ों की कभी भी ज़्यादा परवाह नहीं की जाती, हालाँकि इनका महत्त्व स्पष्ट है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जनता के पास तुलना करने के मानकों की कमी थी। वक़्त के साथ-साथ जब मरने वालों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उनको नज़रअन्दाज़ करना असम्भव हो गया, तब जाकर कहीं जनता को इस सचाई का सही एहसास हुआ। पाँचवें हफ़्ते में तीन सौ इक्कीस मौतें हुईं और छठे हफ़्ते में यह संख्या तीन सौ पैंतालीस तक पहुँच गई। जो भी हो, इन आँकड़ों से स्थिति साफ़ ज़ाहिर होती थी। फिर भी ये आँकड़े इतने सनसनीखेज़ नहीं थे कि हमारे शहर के लोगों का यह भ्रम टूट जाता कि शहर में जो कुछ भी हो रहा है वह एक संयोग है, जो अप्रिय होते हुए भी स्थायी नहीं है, हालाँकि लोग काफ़ी परेशान थे।

सो लोग हमेशा की तरह शहर की सड़कों पर चहलकदमी करते थे और रेस्तराओं की छतों पर बैठते थे। आमतौर पर बुज़दिल नहीं थे, वे बातचीत में रोने-धोने के बजाय मज़ाक़ ज़्यादा करते थे और उनके व्यवहार से ऐसा लगता था कि उन्होंने खुशी-खुशी उस अप्रिय स्थिति को क़बूल कर लिया है जिसे वे अस्थायी समझते थे, अर्थात वे ऊपर से तो निश्चिन्त होने का ही अभिनय करते थे। लेकिन महीने के अन्त में जब प्रार्थना-सप्ताह करीब आया, जिसकी चर्चा हम बाद में करेंगे, तो कई गम्भीर घटनाएँ हो गईं जिनसे शहर की पूरी सूरत बदल गई। सबसे पहले तो प्रीफ़ेक्ट ने ट्रैफिक और खाने-पीने की चीज़ों पर कन्ट्रोल लगा दिया। पेट्रोल राशन पर मिलने लगा और खाने की चीज़ों की बिक्री पर पाबन्दियाँ लगा दी गईं। बिजली का ख़र्च कम करने का हक्म जारी किया गया। सिर्फ़ ज़रूरत की चीजें ही लारियों या हवाई जहाज़ों के जरिये ओरान लाई जाती थीं। इस तरह ट्रैफिक लगातार कम होता गया।

और नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि सड़कों पर प्राइवेट कारें बहुत कम दिखाई देने लगीं। विलासिता की वस्तुओं की दुकानें रातों-रात बन्द हो गईं, और दूसरी दुकानों ने 'सारा माल बिक चुका है' के नोटिस लगा दिए जबकि खरीदारों की भीड़ दुकानों के दरवाज़ों के आगे खड़ी रहकर इन्तज़ार करने लगी।

ओरान की सूरत एकदम बदल गई। सड़कों पर पैदल चलने वाले लोग ज़्यादा नज़र आते थे। फुरसत के वक़्त सड़कों और रेस्तराओं में बहुत से लोग जमा हो जाते थे। इन दिनों वे निकम्मे हो गए थे, क्योंकि बहुत-सी दुकानें और दफ़्तर बन्द हो चुके थे। फ़िलहाल ये लोग बेकार नहीं थे, सिर्फ छुट्टी पर थे। जब मौसम अच्छा रहता था तो दोपहर को तीन बजे के करीब ओरान को देखने से ऐसा लगता था जैसे शहर में सब लोग जश्न मना रहे हों, और जश्न मनाने वालों के लिए सड़कें ख़ाली करने के लिए दुकानें बन्द कर दी गई हों और ट्रैफिक रोक दिया गया हो।

यह स्वाभाविक ही था कि इस स्थिति से सिनेमाघरों को बहुत फ़ायदा पहुँचा और उन्होंने खूब पैसे कमाए। लेकिन उनके सामने एक दिक़्क़त थीनई फ़िल्में कैसे दिखाई जाएँ, क्योंकि शहर में नई फिल्मों का आना बन्द था। पन्द्रह दिन बाद सिनेमाघरों ने आपस में ही फ़िल्मों का तबादला कर लिया और कुछ दिन के बाद वे एक ही फ़िल्म दिखाने लगे। इसके बावजूद उनकी आमदनी में कोई फ़र्क नहीं आया।

रेस्तराँ भी अपने ग्राहकों की माँग पूरी करने में समर्थ थे। दरअसल ओरान शराब-व्यापार का मुख्य केन्द्र था, इसलिए वहाँ शराब का बहुत-सा स्टॉक जमा था। सच पूछिए तो लोग बहुत ज़्यादा शराब पीने लगे थे। एक रेस्तराँ वाले के दिमाग में एक शानदार विचार आया और उसने रेस्तराँ के बाहर एक नारा लिखकर टाँग दिया : “बढ़िया शराब की बोतल प्लेग की छूत से बचने का सबसे अच्छा तरीक़ा है।" लोगों की यह धारणा और भी पुष्ट हो गई कि शराब छूत की बीमारी से आदमी को बचा सकती है। हर रात तड़के दो बजे के क़रीब बहुत से लोग नशे की हालत में लड़खड़ाते हुए क़दमों से रेस्तराओं से उम्मीदें बघारते हुए निकलते।

लेकिन एक माने में ये सारी तब्दीलियाँ इतनी विलक्षण थीं और इतनी जल्दी में हुई थीं कि किसी को यक़ीन ही नहीं हो सकता था कि यह स्थिति कुछ दिनों से ज़्यादा चलेगी। इसके परिणामस्वरूप हम पहले की तरह अपना सारा ध्यान अपनी व्यक्तिगत भावनाओं पर ही केन्द्रित करने लगे।

शहर के फाटकों के बन्द होने के दो दिन बाद जब डॉक्टर रियो अस्पताल से निकला तो सड़क पर उसकी मुलाक़ात कोतार्द से हुई। कोतार्द का चेहरा खुशी और सन्तोष से चमक रहा था। रियो ने कोतार्द को उसके खुश नज़र आने पर बधाई दी।

कोतार्द ने कहा, "हाँ, मैं बिलकुल स्वस्थ हैं। मैंने अपने को कभी इतना स्वस्थ नहीं महसूस किया जितना कि अब करता हूँ। लेकिन डॉक्टर, एक बात बताओ, इस कमबख्त प्लेग के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है? मामला कुछ गम्भीर होता जा रहा है न! जब डॉक्टर ने सिर हिलाकर हामी भरी तो कोतार्द ने प्रफुल्लित स्वर में कहा, “अब इसके थमने की कोई वजह नहीं दिखती। लगता है कि शहर में कोई भयंकर गड़बड़ होने वाली है।"

दोनों जने कुछ दूर तक साथ-साथ गए। कोतार्द ने अपनी गली के एक परचूनिए का क़िस्सा बताया जिसने बाद में बड़ा मुनाफ़ा कमाने के लिए खादय-सामग्री के बन्द डिब्बे जमा रख छोड़े थे। जब एम्बुलेंस गाड़ी वाले उसे उठाने आए तो उसके पलंग के नीचे गोश्त के दर्जनों डिब्बे पाए गए। वह अस्पताल जाकर मर गया। प्लेग में किसी को मुनाफ़ा नहीं हो सकता यह पक्की बात है। कोतार्द को महामारी के बारे में सैकड़ों ऐसे सच्चे और झूठे क़िस्से मालूम थे। उसने एक ऐसे आदमी का क़िस्सा बताया जिसे तेज़ बुख़ार था और प्लेग के सारे लक्षण दिखाई दे रहे थे। वह भागता हुआ सड़क पर आया और उसे जो पहली औरत दिखाई दी, उसे बाँहों में भरकर वह ज़ोर से चिल्लाया कि उसे छूत लग गई है।

“उसके लिए अच्छा ही हुआ!" कोतार्द ने टिप्पणी की, लेकिन उसकी अगली टिप्पणी ने पहले के उल्लासपूर्ण वाक्य को झुठला दिया, “खैर जो भी हो, अगर मैं सोचने में ग़लती नहीं कर रहा तो जल्द ही हम सब पागल हो जाएँगे!"

उसी दिन शाम को ग्रान्द ने आख़िरकार रियो के सामने अपने दिल का बोझ हल्का कर दिया। डेस्क पर रखी श्रीमती रियो की फोटो देखकर उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से डॉक्टर की तरफ़ देखा। रियो ने बताया कि उसकी पत्नी शहर से कुछ दूर एक सेनेटोरियम में इलाज़ के लिए गई है। ग्रान्द ने कहा, “एक माने में यह खुशक़िस्मती है।" डॉक्टर ने भी कहा कि एक माने में यह खुशकिस्मती की बात है, लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसकी पत्नी को स्वस्थ हो जाना चाहिए।

“हाँ, मैं समझ गया।" ग्रान्द ने कहा।

और फिर पहली बार, जब से रियो का ग्रान्द से परिचय हुआ था, ग्रान्द ने दिल खोलकर बातें कीं। उसे अपने भाव व्यक्त करने के लिए उचित शब्द तलाश करने में दिक़्क़त हो रही थी, लेकिन हर बार उसे कोई-न-कोई शब्द मिल ही जाता था। ऐसा लगता था जैसे वह बरसों से इन बातों पर गौर करता रहा हो।

किशोरावस्था में ही उसने एक गरीब पड़ोसी परिवार की लड़की से शादी कर ली थी जो उम्र में बहुत छोटी थी। दरअसल शादी करने की ख़ातिर ही उसने पढ़ाई छोड़कर मौजूदा नौकरी शुरू कर दी थी। न जीन और न वह कभी शहर के उस हिस्से से बाहर निकले थे जहाँ वे रहते थे। कोर्टशिप के दिनों में जब वह जीन से मिलने जाया करता था तो जीन के परिवार के लोग जीन के इस शरमीले और ख़ामोश प्रशंसक का मज़ाक़ उड़ाया करते थे। जीन का पिता रेलवे कर्मचारी था। इयूटी से छुट्टी पाकर अधिकांश वक़्त खिड़की के पास कोने में बैठकर सड़क पर आते-जाते लोगों को देखने में गुज़ारता था। उसके बड़े-बड़े हाथ उसकी जाँघों पर फैले रहते थे। उसकी पत्नी सारा वक़्त घर के कामों में व्यस्त रहती थी जिनमें जीन भी हाथ बँटाती थी। जीन इतनी छोटी थी कि उसे चौराहा पार करते देखकर ग्रान्द का मन घबरा उठता था। उसके सामने से आती हुई गाड़ियाँ भीमकाय दिखाई देती थीं। फिर क्रिसमस से पहले एक दिन वे एक साथ थोड़ी दूर तक सैर करने गए थे और किसी दुकान की सजी हुई खिड़की की तारीफ़ करने के लिए खड़े हो गए थे। कुछ क्षणों तक खिड़की की तरफ़ मुग्धभाव से देखने के बाद जीन ने उसकी तरफ़ मुड़कर कहा था, “ओह! यह कितनी खूबसूरत है!" ग्रान्द ने उसकी कलाई दबाई थी। इस तरह दोनों की शादी हुई थी।

ग्रान्द के विचार में बाक़ी कहानी बहुत सीधी-सादी थी, सब विवाहित जोड़ों की तरह। आपकी शादी होती है। आप कुछ ज़्यादा दिन तक मुहब्बत करते हैं, काम करते हैं। आप इतना ज़्यादा काम करते हैं कि आप मुहब्बत को भूल जाते हैं। चूँकि ग्रान्द के दफ्तर के बड़े अफ़सर ने अपना वादा पूरा नहीं किया था इसलिए जीन को भी बाहर काम करना पड़ता था। इस बात पर आकर, ग्रान्द के मनोभावों को समझने के लिए कल्पना की ज़रूरत थी। थकान की वजह से धीरे-धीरे वह अपने पर से काबू खो बैठा, उसके पास कहने के लिए बहुत कम बातें बचीं। वह अपनी पत्नी में यह भावना जीवित रखने में असमर्थ हो गया कि वह उससे मुहब्बत करता है। काम से थका हुआ पति, गरीबी, बेहतर भविष्य की आशा का लोप हो जाना, घर में बिताई गई ख़ामोश शामें ऐसी परिस्थितियों में भला प्रेम का उन्माद कैसे ज़िन्दा रह सकता था? शायद जीन ने दुख झेले थे। फिर भी वह ग्रान्द के साथ रह रही थी। निश्चय ही इनसान बहुत दिन तक बिना दुख के एहसास के, दुख झेल सकता है। इसी तरह कई साल गुज़र गए। फिर एक दिन जीन उसे छोड़कर चली गई। यह स्वाभाविक ही है कि वह अकेली नहीं गई थी। 'मैं तुम्हें बहुत चाहती थी। लेकिन अब मैं बहुत ज़्यादा थक गई हूँ। मैं खुशी-खुशी नहीं जा रही, लेकिन नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करने के लिए खुशी की ज़रूरत नहीं है।' जीन के पत्र का यही भावार्थ था।

ग्रान्द ने भी दु:ख झेला था। शायद वह भी नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर सकता था जैसा कि रियो ने कहा। लेकिन नहीं वह अपनी आस्था गँवा बैठा था...वह जीन की याद को नहीं भुला पाया था। वह चाहता था कि वह जीन को पत्र लिखकर अपनी सफ़ाई दे।

उसने रियो को बताया, "लेकिन यह आसान नहीं है। मैं बरसों तक इस बारे में सोचता रहा हूँ। जब हम एक-दूसरे को चाहते थे तो हमें एक-दूसरे के मन की बात समझने के लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन कोई भी हमेशा के लिए प्यार नहीं करता। एक ऐसा वक़्त आया जब मुझे जीन को अपने साथ रखने के लिए कुछ शब्द कहने चाहिए थे लेकिन मैं उन शब्दों को ढूँढ़ नहीं सका।" ग्रान्द ने अपनी जेब से एक कपड़ा निकाला, जो देखने में चारखाना झाड़न मालूम होता था, और ज़ोर से अपनी नाक साफ़ की। फिर उसने अपनी मूंछे पोंछीं। रियो ख़ामोशी से उसकी तरफ़ देखता रहा। ग्रान्द ने फ़ौरन कहा, "माफ़ करना डॉक्टर, लेकिन, मैं किन शब्दों में बताऊँ कि मैं क्या कहना चाहता हूँ?–मुझे लगता है कि तुम पर भरोसा किया जा सकता है, इसीलिए मैं ऐसे मामलों के बारे में भी तुमसे बात कर सकता हूँ। और फिर आप देख रहे हैं कि मैं भावुकता में बह जाता हूँ।"

साफ़ ज़ाहिर था कि इस वक्त ग्रान्द के विचार प्लेग से कोसों दूर थे।

उसी शाम को रियो ने अपनी पत्नी को तार दिया जिसमें लिखा था कि शहर के फाटक बन्द हो चुके हैं, वह हर वक़्त उसको याद करता है, उसे अपनी सेहत की देखभाल जारी रखनी चाहिए।

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एक रोज़ शाम को जब रियो अस्पताल से निकला तो उसने देखा कि सड़क पर एक नौजवान उसके इन्तज़ार में खड़ा है। यह फाटक बन्द होने के तीन हफ्ते बाद की घटना है।

"आपको याद है, मैं कौन हूँ?"

रियो का ख़याल था कि वह नौजवान को जानता है लेकिन वह ठीक से उसे पहचान' न सका।

"इस मुसीबत के शुरू होने से पहले मैं आपके पास आया था, अरबों की बस्ती में रहन-सहन की परिस्थितियों के बारे में पूछताछ करने। मेरा नाम रेमन्द रेम्बर्त है।"

“अरे हाँ, मुझे अच्छी तरह याद है। अब तो तुम्हें अपने अख़बार के लिए बहुत शानदार कहानी मिल सकती है।" रेम्बर्त में पहली मुलाक़ात की अपेक्षा इस बार कम आत्मविश्वास दिखाई दे रहा था। उसने कहा कि वह अख़बार के काम से नहीं आया, वह डॉक्टर से सहायता की प्रार्थना करने आया था।

उसने कहा, “मैं इस तकलीफ़ के लिए माफ़ी चाहता है, लेकिन सचमुच मैं यहाँ किसी को नहीं जानता और मेरे अख़बार का स्थानीय प्रतिनिधि तो एकदम बुद्धू है।"

रियो ने कहा कि वह शहर के केन्द्र में, एक डिस्पेंसरी की तरफ़ जा रहा है। उसने रेम्बर्त से कहा कि दोनों एक साथ पैदल चलें। उन्हें नीग्रो बस्ती की तंग गलियों से गुज़रना था। शाम हो गई थी, लेकिन शहर में जहाँ कभी इस वक़्त कोलाहल रहता था, अजब ख़ामोशी छाई थी। हवा में, जो सन्ध्या की किरणों से सुनहरी हो गई थी सिर्फ कुछ बिगुलों के स्वर गूंज रहे थे। फ़ौज यह दिखाने की कोशिश कर रही थी कि उनके सब काम पूर्ववत जारी हैं। जब दोनों जने नीली, जामनी और केसरिया रंग की दीवारों से घिरी तंग गली में से गुज़र रहे थे तो रेम्बर्त लगातार बोलता जा रहा था। मालूम होता था कि उसके स्नायु काबू से बाहर हो गए हैं।

उसने कहा कि वह अपनी पत्नी को पेरिस में छोड़ आया था। वह दरअसल उसकी पत्नी नहीं थी, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब शहर के फाटक बन्द हो गए तो उसने अपनी पत्नी को एक तार भेजा था। उसका ख़याल था कि यह स्थिति सिर्फ कुछ दिनों तक ही चलेगी, इसलिए उसने अपनी पत्नी को एक पत्र भेजने की कोशिश की थी, लेकिन पोस्ट ऑफ़िस के अफ़सरों ने पत्र भेजने की इजाज़त नहीं दी थी, उसके साथियों ने कहा कि वे उसकी कोई सहायता नहीं कर सकते। प्रीफ़ेक्ट के दफ्तर के एक क्लर्क ने उसके मुंह पर उसकी हँसी उड़ाई थी। दो घंटे तक एक क़तार में खड़े रहने के बाद वह एक तार मंजूर करवा सका, 'मैं खैरियत से हूँ। जल्द ही तुमसे मिलूँगा।'

लेकिन अगले दिन सुबह जब वह सोकर उठा तो उसे एहसास हुआ कि यह स्थिति कितने दिन तक चलेगी, यह कोई नहीं कह सकता। इसलिए उसने फ़ौरन शहर छोड़ने का फैसला किया। अपने पेशेवर पत्रकार होने की हैसियत से उसने प्रीफ़ेक्ट के दफ़्तर के एक बड़े अफ़सर से मिलने की तिकड़म तो भिड़ा ली। उसने बताया कि वह संयोगवश ओरान आया था। उसका ओरान से कोई ताल्लुक नहीं और उसका यहाँ रुकने का भी कोई कारण नहीं था, इसलिए निश्चय ही उसे शहर छोड़ने का अधिकार मिलना चाहिए, भले ही उसे शहर से निकालकर कुछ दिन के लिए क्वारंटाइन में रखा जाए। अफ़सर ने कहा कि उसे रेम्बर्त से पूरी हमदर्दी है, लेकिन वह इस मामले में किसी का भी लिहाज नहीं कर सकता, क्योंकि कायदे सब लोगों पर बराबर लागू होते हैं। लेकिन वह इस बात का ख़याल रखेगा, हालांकि फ़ौरन किसी फैसले की बहुत कम उम्मीद है क्योंकि अधिकारियों की नज़र में स्थिति बहुत गम्भीर हो गई है।

"भाड़ में जाएँ कायदे-कानून! मैं इस शहर का रहने वाला तो नहीं हूँ!"

“यह तो सही है। लेकिन हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि महामारी जल्द ही ख़त्म हो जाएगी।" अन्त में उसने यह कहकर रेम्बर्त को तसल्ली देने की कोशिश की कि पत्रकार होने के नाते रेम्बर्त को ओरान की स्थिति पर लिखने के लिए बहुत अच्छी सामग्री मिल सकती है। अगर आदमी ध्यान से सोचे तो हर घटना का, चाहे वह कितनी ही अप्रिय क्यों न हो, आशापूर्ण पहलू भी होता है। यह सुनकर रेम्बर्त ने गुस्ताखी से अपने कन्धे सिकोड़े और बाहर निकल आया।

दोनों शहर के केन्द्र में पहुँच गए थे।

“यह निहायत अहमकाना बात है न डॉक्टर! दरअसल मैंने अख़बारों के लिए लेख लिखने के लिए दुनिया में जन्म नहीं लिया था। मेरा ख़याल है कि मैं किसी औरत के साथ ज़िन्दगी बसर करने के लिए पैदा हुआ हूँ। यह तर्कसंगत बात है न?" रियो ने सतर्कता से उत्तर दिया कि सम्भव है रेम्बर्त की बात में सचाई हो।

केन्द्र के बुलेवारों पर पहले-जैसी रौनक़ और भीड़ नहीं थी। थोड़े-से लोग थे जो दूर कहीं अपने मकानों की तरफ़ तेज़ क़दमों से बढ़ से रहे थे। किसी के चेहरे पर मुस्कराहट नहीं दिखाई दे रही थी। रियो ने अनुमान लगाया कि शायद हाल ही की रेसदाक ब्यूरो की घोषणा के परिणामस्वरूप सड़कें सूनी हो गई हों। चौबीस घंटों के बाद शहर के लोग फिर आशावादी हो बन जाएँगे। लेकिन जिन दिनों आँकड़ों की घोषणा होती थी, उन दिनों आँकड़े सबकी स्मृति में ताज़ा रहते थे।

अचानक रेम्बर्त ने कहा, “सच बात यह है कि वह औरत और मैं बहुत थोड़े दिनों तक साथ रहे हैं और एक-दूसरे के बिलकुल माफ़िक हैं।" जब रियो ने कोई जवाब न दिया तो रेम्बर्त ने कहा, “देखता हूँ कि आप मेरी बातों से बोर हो रहे हैं। माफ़ कीजिए, मैं सिर्फ यह जानने के लिए आया था कि क्या आप मुझे यह सर्टिफिकेट दे सकेंगे कि मुझे यह मनहूस बीमारी नहीं है। मेरा ख़याल है कि इससे मामला आसान हो जाएगा।"

रियो ने सिर हिलाया। एक छोटा-सा लड़का उसकी टाँगों से टकराकर सड़क पर गिर पड़ा था। रियो ने लड़के को उठाकर खड़ा कर दिया। चलतेचलते वे प्लेस द आर्मे के नज़दीक पहुँचे। रिपब्लिक की एक मूर्ति के आसपास धूल से सफेद हो चुके पॉम और अंजीर के पेड़ निराश भाव से झुके थे। मूर्ति पर भी धूल और मैल की परतें जमी थीं। दोनों जने मूर्ति के पास जाकर रुक गए। रियो ने सफ़ेद धूल की परतों को हटाने के लिए पत्थर के चबूतरे पर पैर पटका। पत्रकार का हैट पीछे की तरफ़ सरका हुआ था, टाई की ढीली गाँठ के नीचे से अस्त-व्यस्त कॉलर दीख रहा था। उसने ठीक से शेव भी नहीं की थी। उसके चिड़चिड़े, जिददी चेहरे से लगता था कि वह एक ऐसा नौजवान है जिसे किसी ने गहरी चोट पहुँचाई है।

“मेहरबानी करके यह न सोचना कि मैं तुम्हारी बात समझता नहीं," रियो ने कहा, “लेकिन तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम्हारी दलील एकदम गलत है। मैं तुम्हें सर्टिफिकेट नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे यह नहीं मालूम कि तुम्हारे अन्दर इस बीमारी के कीटाणु नहीं हैं। और अगर मुझे मालूम होता तो भी मैं इस बात की गारंटी कैसे दे सकता हूँ कि मेरे यहाँ से निकलकर प्रीफ़ेक्ट के दफ़्तर तक पहुँचने के बीच तुम्हें इस बीमारी की छूत नहीं लग जाएगी। और अगर मैं ऐसा कर भी सकता..."

“अगर आप ऐसा कर सकते...?"

“अगर मैं तुम्हें सर्टिफिकेट दे दूँ, तो भी उससे तुम्हें कोई मदद नहीं मिलेगी।"

“आख़िर क्यों?"

"क्योंकि इस शहर में हज़ारों लोग तुम्हारी-जैसी स्थिति में पड़े हुए हैं, और उन्हें शहर छोड़कर जाने की इजाज़त देने का सवाल ही नहीं उठ सकता।"

“मान लीजिए अगर उनको प्लेग न हो, क्या तब भी?"

“यह वजह काफ़ी नहीं है। ओह, मैं जानता हूँ कि यह एक बेहूदा हालत है, लेकिन हम सब इसके जाल में फंस रहे हैं और हमें चाहिए कि इस हालत को, जैसी भी है, मंजूर कर लें।"

“लेकिन मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ।"

"बदकिस्मती से अब तुम यहीं के होकर रहोगे, बाक़ी सब लोगों की तरह।"

रेम्बर्त ने आवाज़ ऊँची करके कहा :

“डैम इट, लेकिन डॉक्टर क्या आप इतना भी नहीं देखते कि यह सवाल मानवीय भावनाओं का है? या आप यह महसूस ही नहीं करते कि उन लोगों के लिए जुदाई का क्या मतलब होता है जो...एक-दूसरे से प्यार करते हैं?"

रियो ने कुछ देर ख़ामोश रहकर उत्तर दिया कि वह इस बात को पूरी तरह समझता है। वह भी चाहता है कि रेम्बर्त को अपनी पत्नी के पास लौटने की इजाज़त दी जाए और वे सब लोग भी फिर आपस में मिलें जो एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। लेकिन क़ानून तो क़ानून है। प्लेग फैल गई है और वह सिर्फ वही कर सकता है जो किया जाना चाहिए।

“नहीं," रेम्बर्त ने कटु स्वर में कहा, “आप नहीं समझ सकते। आप तर्क की भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं, दिल की नहीं; आप सिदधान्तों की अमूर्त दुनिया में रहते हैं।"

डॉक्टर ने रिपब्लिक की मूर्ति की तरफ़ नज़रें उठाई और कहा कि वह तर्क की भाषा इस्तेमाल कर रहा है या नहीं, यह तो वह नहीं जानता, लेकिन वह यह जानता है कि वह तथ्यों की भाषा बोल रहा है, जिनसे सब लोग परिचित हैं, ज़रूरी नहीं कि दोनों बातें एक हों।

पत्रकार ने टाई सीधी करते हुए कहा, "तो इसका मतलब यह है कि मैं आपसे किसी क़िस्म की सहायता की आशा नहीं कर सकता। अच्छी बात है, लेकिन...” उसके लहजे में चुनौती का भाव था, "हर हालत में मैं शहर छोड़ दूँगा।"

डॉक्टर ने फिर कहा कि वह नौजवान के दिल की बात अच्छी तरह समझता है लेकिन इससे उसे सरोकार नहीं।

"माफ़ कीजिए, इससे आपको सरोकार है।" रेम्बर्त फिर ऊँची आवाज़ में बोला, “मैं आपके पास इसलिए आया था क्योंकि मुझे पता चला है कि नए कायदों के बनाने में आपका बहुत भारी हाथ है। इसलिए मैंने सोचा कि शायद एक मामले में तो आप अपने फैसले को रद्द कर सकते हैं। लेकिन आप इस मामले में एकदम उदासीन हैं, आपको किसी के दु:ख की परवाह नहीं, क़ानून बनाते वक़्त आपने उन लोगों का बिलकुल ख़याल नहीं रखा जो एक-दूसरे को चाहते हैं और जिन्हें बिछुड़ना पड़ा है।"

रियो ने क़बूल किया कि कुछ हद तक यह बात ठीक है। उसने ऐसे मामलों के बारे में नहीं सोचना ही बेहतर समझा था।

"ओह! अब समझा! आप अभी साधारण जनता की भलाई की बात करेंगे। लेकिन हममें से हरेक व्यक्ति की भलाई में ही जनता की भलाई है।"

अचानक डॉक्टर जैसे सपने से जाग पड़ा।

उसने कहा, “जाने भी दो, तुम्हारी बात सही है, लेकिन इसके कई और पहलू भी हैं। एकदम नतीजा निकालने से कोई फायदा नहीं। तुम जानते हो।... लेकिन मुझे तुम्हारी नाराज़गी की कोई वजह समझ में नहीं आती। अगर तुम अपनी मुसीबत से निकलने का कोई रास्ता निकाल सको तो यकीनन मुझे बहुत ख़ुशी होगी। लेकिन कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें मैं अपनी सरकारी पोजीशन की वजह से नहीं कर सकता।"

रेम्बर्त ने गुस्ताखी से सिर झटकते हुए कहा, “हाँ, मुझे अपनी खीज ज़ाहिर नहीं करनी चाहिए थी। मैं आपका बहुत-सा वक्त बरबाद कर चुका हूँ।"

रियो ने उससे कहा कि वह आकर रियो को सूचित करे कि उसे अपनी स्कीम में कितनी सफलता मिली है, और वह रियो से नाराज़ न हो कि वह इससे ज़्यादा दोस्ती का सलूक नहीं कर सका। उसने विश्वास जताया कि भविष्य में वे ज़रूर किसी-न-किसी बात पर सहमत होंगे। रेम्बर्त घबराया-सा नज़र आया।

फिर उसने थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद कहा, "हाँ, अपने स्वभाव और आपने अभी जो बातें कही हैं उनके बावजूद भी मेरा ख़याल है कि हम ज़रूर मिलेंगे।" फिर कुछ रुककर उसने कहा, "फिर भी मैं आपकी राय से सहमत नहीं हूँ।"

हैट आँखों तक सरकाकर वह तेज़ी से चला गया। रियो ने उसे उस होटल में घुसते देखा जहाँ तारो रहता था।

अगले ही क्षण डॉक्टर ने धीरे से सिर हिलाया जैसे वह उस विचार का समर्थन कर रहा हो जो उसके दिमाग में आया था। हाँ, पत्रकार ने ठीक ही किया था, वह अपनी खुशी को बचाना चाहता था। लेकिन क्या उसने रियो पर यह इल्ज़ाम लगाकर कि रियो सिद्धान्तों की दुनिया में रहता है, ठीक किया था? क्या उन दिनों अमूर्त' शब्द लागू हो सकता है जब प्लेग शहर पर पलकर मोटी हो रही हो और मरने वालों के साप्ताहिक आँकड़े पाँच सौ तक जा पहुँचे हों, जबकि रियो सारा वक़्त अस्पताल में रहता है? हाँ, ऐसी मुसीबतों में अमूर्त सैद्धान्तिकता का कुछ अंश ज़रूर आ जाता है जिसका यथार्थ से सम्बन्ध टूट जाता है। लेकिन जब ऐसी 'अमूर्तता' इनसान की तबाही करने लगती है तब उसकी तरफ़ ध्यान देना ही पड़ता है। और रियो यह जानता था कि यह सबसे ज़्यादा आसान रास्ता नहीं था; मिसाल के लिए इस सहायक अस्पताल को चलाना जिसका रियो इंचार्ज था। अब ऐसे तीन अस्पताल बन गए थे और यह आसान काम नहीं था।

रियो के ऑपरेशन-रूम की बग़ल में डॉक्टरी सामान से लैस एक कमरा था, जहाँ मरीज़ को सबसे पहले लाया जाता था। इसके फ़र्श को खोदकर एक उथली-सी पानी और क्रेसीलिक एसिड की झील बना दी गई थी, जिसके बीच में ईंटों का एक छोटा द्वीप-जैसा बनाया गया था। मरीज़ को इस द्वीप पर ले जाया जाता था, तेज़ी से उसके कपड़े उतारकर कीटाणुनाशक पानी में डाल दिए जाते थे। नहलाने, सुखाने और अस्पताल की मोटी-खुरदरी नाइट-शर्ट पहनाने के बाद उसको जाँच के लिए रियो के पास लाया जाता था; फिर उसके बाद किसी वार्ड में। इस अस्पताल में, जो स्कूल की इमारत को क़ब्जे में लेकर खोला गया था, पाँच सौ बेड थे। लगभग सभी बेड भरे हुए थे। मरीज़ों को रियो स्वयं अपनी देखरेख में दाखिल करने के बाद उन्हें टीके लगाता था, गिल्टियों में नश्तर लगाता था और आँकड़ों की दोबारा जाँच करने के बाद फिर दोपहर के वक्त अपने मरीजों को देखने के लिए लौट आता था। अँधेरा होने पर वह मरीज़ों का हालचाल पूछने के लिए निकलता था और रात को बहुत देर से लौटता था। कल रात उसकी माँ ने उसे उसकी पत्नी का तार देते वक़्त कहा था कि उसके हाथ काँप रहे हैं।

“हाँ," रियो ने जवाब दिया, “लेकिन अब सवाल सिर्फ़ डटे रहने का है। देख लेना मेरे स्नायु अपने-आप शान्त हो जाएँगे।"

डॉक्टर हट्टे-कट्टे बदन का आदमी था और अभी तक वह थकान से चूर नहीं हुआ था। फिर भी बार-बार मरीजों को देखने जाने की वजह से उसकी सहन-शक्ति पर बोझ पड़ने लगा था। एक बार यह पता चलने पर कि किसी को प्लेग हो गई है, उसे फ़ौरन ही घर से हटाकर अस्पताल पहुंचा दिया जाता था। उसके बाद 'सैदधान्तिकता' और परिवार के साथ संघर्ष शुरू होता था, जिन्हें अच्छी तरह मालूम था कि अब वे मरीज़ को उसके मरने या स्वस्थ होने से पहले नहीं देख सकेंगे। "डॉक्टर, रहम करो!” तारो के होटल की नौकरानी माँ मदाम लोरेतव ने डॉक्टर से प्रार्थना की थी। इस प्रार्थना का कोई फ़ायदा नहीं हुआ था। निस्सन्देह डॉक्टर रहमदिल था। लेकिन इन हालात में रहम का क्या फ़ायदा हो सकता था! डॉक्टर को टेलीफ़ोन करना ही पड़ा और जल्द ही सड़क पर एम्बुलेंस की आवाज़ सुनाई दी थी। (शुरू में तो पड़ोसी खिड़कियाँ खोलकर सारा दृश्य देखते थे, बाद में वे फ़ौरन खिड़कियाँ बन्द कर देते थे।) फिर संघर्ष का दूसरा दौर शुरू हुआ, आँसू और मिन्नतें, जिसे संक्षेप में अव्यावहारिकता' कहा जा सकता है। मरीज़ों के कमरों में,जहाँ बुख़ार की गरमी और स्नायविक विक्षिप्ति छाई थी, पागलपन के दृश्य होते थे। हर बार एक ही मामले पर संघर्ष होता था। मरीज़ को हटा लिया जाता था, इसके बाद रियो भी वहाँ से चला आता था।

शुरू के दिनों में तो रियो सिर्फ़ अस्पताल में फ़ोन कर देता था और एम्बुलेंस के आने का इन्तज़ार किए बगैर दूसरे मरीज़ों को देखने चला जाता था। लेकिन उसके जाते ही परिवार के लोग घर में ताला लगा देते थे। वे मरीज़ से बिछुड़ने के बजाय प्लेग की छूत के सम्पर्क में आना ज़्यादा पसन्द करते थे, क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि बिछुड़ने का नतीजा क्या होगा। इसके बाद गाली-गलौज, चीख़ों, दरवाज़े तोड़ने और पुलिस और फ़ौज की कार्यवाही का सिलसिला शुरू होता था। मरीज़ पर धावा बोल दिया जाता था। शुरू के कुछ हफ़्तों में रियो को एम्बुलेंस के आने से पहले मरीज़ के पास रुकने के लिए मजबूर होना पड़ता था। बाद में जब हर डॉक्टर के साथ एक वॉलेंटियर पुलिस-अफ़सर जाने लगा तो रियो निश्चिन्त होकर जल्दी से दूसरे मरीजों को देखने के लिए जाने लगा।

लेकिन महामारी के प्रारम्भिक दिनों में हर शाम यही क़िस्सा होता था जो उस दिन हुआ था जब रियो मदाम लोरेन की बेटी को देखने गया था। उसे एक छोटे-से फ़्लैट में ले जाया गया था जिसमें पंखे और कागज़ के फूल सजे हुए थे। मदाम लोरेन ने काँपती हुई मुस्कराहट से रियो का स्वागत किया था।

"ओह, मेरा ख़याल है यह उस किस्म का बुख़ार नहीं है जिसकी आजकल लोगों में चर्चा है!"

रज़ाई और कमीज़ उठाकर डॉक्टर ने ख़ामोशी से लड़की की जाँघों और पेट पर पड़े लाल दागों और सूजी हुई गिल्टियों को देखा। उन पर नज़र डालते ही माँ शोक से फूट-फूटकर रोने लगी। हर शाम को माताएँ इसी तरह विलाप करती थीं, अपने बच्चों के पेट और जिस्म पर घातक चिह्न देखते ही वे घबराहट और अव्यावहारिकता का प्रदर्शन करने लगती थीं, हर शाम को अनेक हाथ रियो की बाँहों को जकड़ लेते थे, निरर्थक शब्दों, वादों और आँसुओं की झड़ी लग जाती थी। हर शाम को एम्बुलेंस की घंटी सुनकर ऐसे दृश्य होते थे जो हर प्रकार के शोक की तरह निरर्थक थे। रियो जानता था कि भविष्य में उसे लगातार ऐसे अनगिनत दृश्यों का सामना करना पड़ेगा। हाँ, अमूर्तन की तरह प्लेग नीरस थी। शायद सिर्फ एक ही चीज़ में परिवर्तन आया था। वह रियो खुद था। उस रोज़ शाम को रिपब्लिक की मूर्ति के पास खड़े होकर रियो को अपने इस परिवर्तन का एहसास हुआ था। वह होटल के दरवाज़े की तरफ़ टकटकी लगाकर देखता रहा जहाँ रेम्बर्त अभी दाखिल हुआ था। उसे लगा एक ठंडी उदासीनता धीरे-धीरे उसके मन में व्याप रही है।

इन थका देने वाले हफ़्तों के बाद और उन तमाम शामों से गुज़रने के बाद जब लोग निरुददेश्य घूमने के लिए सड़कों पर जमा होते थे, रियो ने सीखा था कि अब उसे अपना दिल सख़्त करने की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। जब करुणा निरर्थक होती है तो इनसान का दिल खुद-ब-खुद करुणा से ऊपर उठ जाता है। और इसी चेतना में, जो डॉक्टर के मन में धीरे-धीरे व्याप रही थी, उसे अपने असह्य बोझ को हल्का करने का एकमात्र साधन और सांत्वना दिखाई दी। वह जानता था कि यही चेतना उसके काम को आसान बना देगी, इसीलिए वह खुश था। जब रियो तड़के दो बजे लौटकर घर आया, तो उसकी माँ बेहद घबरा उठी। रियो ने भावशून्य दृष्टि से माँ की ओर देखा। माँ रियो के इस एकमात्र मुक्ति-मार्ग की भर्त्सना कर रही थी। अमूर्त सैद्धान्तिकता से लड़ने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति के चरित्र में भी इस गुण का समावेश हो। लेकिन भला रेम्बर्त से इस बात को समझने की उम्मीद कैसे की जा सकती थी! उसे तो लगता था कि उसकी खुशी के रास्ते में यही ख़ामख़याली एकमात्र रुकावट है। सचमुच रियो को महसूस हुआ कि एक माने में पत्रकार की बात सही थी। लेकिन वह यह भी जानता था कि कभी-कभी ख़ामख़याली अपने को इनसान की ख़ुशी से ज़्यादा बड़ा साबित करती है, और तभी उसकी सत्ता को स्वीकार करना पड़ता है। रेम्बर्त का भी यही हाल होना था जैसा कि डॉक्टर को बाद में जाकर पता चला जब रेम्बर्त ने अपने बारे में और ज़्यादा बातें बताईं। इस तरह से एक अलग स्तर पर रियो को हर व्यक्ति की खुशी और प्लेग की अमूर्तताओं के बीच चलने वाले नीरस संघर्ष का पता चला जो बहुत लम्बे अरसे तक हमारे शहर की समूची ज़िन्दगी बन गया था।

दूसरा भाग : 3

लेकिन जहाँ कुछ लोगों को ख़ामख़याली नज़र आती थी, वहाँ दूसरे लोग सचाई देखते थे। प्लेग के पहले महीने का अन्त निराशापूर्ण हुआ। महामारी खूब ज़ोर से फैली, और जेसुइट पादरी फ़ादर पैनेलो ने एक नाटकीय प्रवचन दिया। जब बूढ़े माइकेल में प्लेग के लक्षण दिखाई दिए थे और वह लड़खड़ाता हुआ घर लौट रहा था तब फ़ादर पैनेलो ने उसे अपनी बाँह का सहारा दिया था। फ़ादर पैनेलो ओरान जियोग्राफ़िकल सोसायटी को लगातार योगदान देकर पहले ही अपनी पहचान बना चुका था, जो मुख्य रूप से प्राचीन शिलालेखों से सम्बन्धित थे। वह इस विषय का विद्वान माना जाता था। लेकिन उसने वर्तमान व्यक्तिवाद पर बहुत से भाषण दिये थे, जिससे साधारण जनता तक भी उसकी पहुँच हो गई थी, जिसकी संख्या बहुत ज्यादा थी। इन भाषणों में फ़ादर ने अपने को ईसाई सिद्धान्तों के शुद्ध और सही स्वरूप का साहसी समर्थक साबित किया था। उसके विचारों में न आधुनिकता की उच्छंखलता थी, न अतीत का पुरोहितवाद था। ऐसे मौक़ों पर वह तीखे अकाट्य सत्यों से अपने श्रोताओं को परास्त करने से कभी बाज़ नहीं आया था। इसीलिए शहर में उसकी इतनी शोहरत थी।

महीने के अन्तिम दिनों में हमारे शहर के पादरी-वर्ग ने अपने विशिष्ट हथियारों से प्लेग का मुकाबला करने का फैसला करके एक प्रार्थना-सप्ताह' मनाने का आयोजन किया। सार्वजनिक धर्म-भीरुता के इन प्रदर्शनों का समापन रविवार के दिन प्लेग से पीड़ित होकर शहीद होने वाले सन्त रॉच के तत्त्वावधान में होने वाली विराट् प्रार्थना-सभा से होने वाला था, और फ़ादर पैनेलो से उस सभा में प्रवचन देने के लिए कहा गया था। एक पखवारे तक उसने सन्त ऑगस्ताइन और अफ्रीकी चर्च के बारे में अपना अनुसन्धान कार्य स्थगित रखा, जिसके कारण उसे अपने पादरी-वर्ग में ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ था। जोशीले और उग्र स्वभाव का व्यक्ति होने के कारण, वह पूरे दिल से इस काम की तैयारी में जुट गया। काफ़ी पहले से ही उसके प्रवचन की चर्चा होने लगी थी और एक तरह से इस काल के इतिहास में इस प्रवचन की तारीख़ काफ़ी महत्त्व रखती है।

'प्रार्थना-सप्ताह' की सभाओं में प्रतिदिन खासी भीड़ जमा हो जाती थी। फिर भी, हमें यह मानना पड़ेगा कि अच्छे दिनों में भी ओरान के निवासियों की धर्म-निष्ठा में कमी नहीं होती थी। मिसाल के लिए रविवार के दिन समुद्र-स्नान को गिरजाघर की हाज़िरी से गम्भीर प्रतियोगिता करनी पड़ती है। न ही यह समझना चाहिए कि उन्हें एक दिव्य रोशनी दिखाई दे गई थी, जिसने एकाएक उनका हृदय-परिवर्तन कर दिया था। लेकिन एक तो शहर को बन्द कर दिया गया था और बन्दरगाह में दाखिल होने की मनाही थी, और दूसरे, चूँकि वे एक विशिष्ट मन:स्थिति में थे और हालाँकि अपने दिलों की गहराई में वे अब भी अपने ऊपर आई मुसीबत की भयंकरता को स्वीकार करने में असमर्थ थे, वे यह अनुभव किए बिना न रह सके थे कि कोई चीज़ निश्चित रूप से बदल गई है। फिर भी, अधिकांश लोग अब भी यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि यह महामारी जल्द ही गुज़र जाएगी और वे और उनके परिवार सुरक्षित बच जाएँगे। इसलिए वे अभी तक अपनी आदतों में कोई परिवर्तन करने की ज़रूरत महसूस नहीं करते थे। उनके लिए प्लेग एक अयाचित आगन्तुक की तरह थी जो उसी तरह अचानक चली जाएगी जिस तरह आई थी। वे घबराए तो थे, लेकिन अभी तक इतने हताश नहीं हुए थे कि प्लेग उन्हें अपने अस्तित्व के दुर्निवार तन्तु के रूप में दिखाई देती और अब तक उन्होंने जिस ज़िन्दगी का उपयोग किया था, उसको ही भूल जाते। संक्षेप में, वे परिस्थिति में परिवर्तन होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। रही धर्म की बात तो और बातों की तरह उसके बारे में भी प्लेग ने उनकी मन:स्थिति कुछ ऐसी विचित्र बना दी थी, जो उदासीनता से उतनी ही दूर थी जितनी उत्साह से, जिसे 'वस्तुनिष्ठता' कहकर पुकारना ही शायद सबसे ठीक है। प्रार्थनासप्ताह में भाग लेने वालों में से अधिकांश लोग उस उक्ति को दुहराते जो डॉक्टर रियो ने चर्च जाने वाले किसी व्यक्ति के मुख से सुनी थी। “जो भी हो, इससे कोई नुकसान नहीं हो सकता।” यहाँ तक कि तारो ने भी अपनी नोटबुक में यह दर्ज करने के बाद कि ऐसे मौक़ों पर चीन के लोग प्लेग के देवता के आगे डफली बजाने लगते हैं, यह राय जाहिर की यह बताना मुमकिन नहीं है कि क्या सचमुच व्यावहारिक रूप से, छूत रोकने की एहतियाती कार्यवाहियों के मुकाबले डफली ज़्यादा कारगर साबित होती थी? इसके आगे उसने यह विचार दर्ज किया कि इसका फ़ैसला करने के पहले हमें यह निश्चय करना पड़ेगा कि प्लेग का देवता वास्तव में होता भी है या नहीं और इस बारे में अज्ञान हमारी उन सब धारणाओं को व्यर्थ सिद्ध कर देता है, जो हम बना लेते हैं।

खैर, जो भी हो, प्रार्थना-सप्ताह के दिनों में गिरजा हर समय उपासकों से खचाखच भरा रहता था। शुरू के दो-तीन दिन तक बहुत से लोग पोर्च के सामने के बाग में पाम और अनार के वृक्षों के नीचे खड़े होकर दूर से ही प्रार्थनाओं और आह्वानों के चढ़ते हुए ज्वार को सुनते रहे, जिनकी प्रतिध्वनियों से आस-पड़ोस की सड़कें तक गूंज उठती थीं। लेकिन एक मिसाल कायम होते ही वे लोग गिरजे में घुसने लगे और हिचकिचाते हुए उन प्रतिक्रियाओं में भाग लेने लगे जो प्रार्थियों के हाव-भावों से प्रकट हो रही थीं। और रविवार के दिन उपासकों की एक विशाल भीड़ ने गिरजे के मध्य भाग में तिल रखने की जगह न छोड़ी, यहाँ तक कि सीढ़ियों और अहाते में भी लोग भरे हुए थे। एक दिन पहले से आसमान में बादल छा गए थे और आज ज़ोर की बारिश हो रही थी। जो लोग खुले में खड़े थे उन्होंने अपनी छतरियाँ तान लीं। फ़ादर पैनेलो ने अपने प्रवचन के लिए जिस समय मंच पर क़दम रखा, उस समय गिरजे के भीतर की हवा गीले कपड़ों की गन्ध और अगरबत्तियों के धुएँ से बोझिल हो रही थी।

वह औसत क़द और चौड़ी काठी का आदमी था। जब वह मंच के किनारे लकड़ी की कारीगरी वाले जंगले को अपने चौड़े हाथों से पकड़कर चढ़ने के लिए झुका तो लोगों को सिर्फ उसकी विशाल, काली धड़ और उसके ऊपर दो गुलाबी गाल ही दिखाई दिए जिन पर लोहे के फ्रेम में जड़ा चश्मा टँगा था। उसकी भाषण-शैली शक्तिशाली, बल्कि भावनात्मक होती थी जो श्रोता को दूर तक बहा ले जाती थी, और जब उसने स्पष्ट और ज़ोरदार स्वर में उपासकों की भीड़ पर पहले ही वाक्य में प्रहार किया कि “तुम पर एक संकट आया है, मेरे भाइयो! और, मेरे भाइयो, तुम इसी के काबिल थे" तो लोग हैरानी से हक्के-बक्के रह गए और यह हैरानी बाहर बारिश में खड़े लोगों तक फैल गई।

इसके बाद उसने जो कुछ कहा उसका तर्क की दृष्टि से इस नाटकीय आरम्भ से कोई सम्बन्ध नहीं था। प्रवचन जब आगे बढ़ने लगा तो उपस्थित श्रोताओं के आगे स्पष्ट होता गया कि भाषण-कला की एक चाल से फ़ादर पैनेलो ने जैसे एक घूसे की तरह अपने पूरे प्रवचन का सार उनके मुंह पर दे मारा था। यह प्रहार करने के बाद उसने फ़ौरन मिस्र की प्लेग के बारे में एक्ज़ोडस की किताब से उद्धरण देते हुए कहा, "इतिहास में यह कहर जब पहली बार आया, तब इसका इस्तेमाल परमेश्वर के दुश्मनों को बरबाद करने के लिए किया गया था। फराओ ने परमेश्वर की मंशा के ख़िलाफ़ लड़ने की कोशिश की, लेकिन प्लेग ने उसको घुटनों के बल झुकने पर मजबूर कर दिया। इस तरह इतिहास के शुरू से ही परमेश्वर का यह कहर अहंकारियों के गर्व को चूर करता आया है और उन्हें धूल में मिलाता आया है जिन्होंने उसके ख़िलाफ़ अपने दिलों को सख़्त कर लिया है। इस बात पर अच्छी तरह गौर करो, मेरे दोस्तो! और अपने घुटने टेककर बैठ जाओ।"

बारिश की तेज़ी बढ़ गई थी और गिरजे के पूर्वी भाग की खिड़कियों से टकराती हुई बारिश की बूंदों से वातावरण की ख़ामोशी और भी बढ़ गई थी। इस निस्तब्धता में गूंजते हुए फ़ादर के स्वरों में इतनी आस्था थी कि क्षणिक झिझक के बाद कुछ लोग अपनी सीटों से सरककर घुटनों के बल बैठ गए, दूसरों ने भी उनका अनुकरण करना उचित समझा। धीरे-धीरे उनकी देखादेखी गिरजे के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक सब लोग घुटनों के बल बैठे नज़र आने लगे। कुर्सियों की चूँ-चूँ के सिवा और कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। फिर फ़ादर पैनेलो तनकर खड़ा हो गया और एक गहरी साँस लेकर उसने अपना प्रवचन जारी रखा जो अब पहले से अधिक शक्तिशाली हो गया था।

"आज आपके बीच प्लेग इसलिए आई है, क्योंकि आपके सोचने की घड़ी आ पहुँची है। नेक लोगों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं लेकिन गुनहगार काँपेंगे। क्योंकि प्लेग परमेश्वर का मूसल है और दुनिया फ़र्श है। परमेश्वर बेरहमी से अनाज को तब तक कूटेगा जब तक दाने छिलकों से अलग नहीं हो जाते। छिलकों की तादाद ज़्यादा होगी। बेशुमार लोग बुलाए जाएँगे लेकिन चन्द लोग ही चुने जाएँगे। परमेश्वर ने यह आफ़त नहीं बुलाई। बहुत दिन से हमारी दुनिया बुराई का साथ देती रही है और परमेश्वर के रहम और माफ़ी पर भरोसा करती रही है। इनसानों ने सोचा कि गुनाहों पर अफ़सोस ज़ाहिर करना ही काफ़ी है। गुनाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। सब इत्मीनान से गुनाह करते थे और उनका ख़याल था कि जब क़यामत का दिन आएगा तो वे गुनाह छोड़कर माफ़ी माँग लेंगे। उन्होंने सोचा जब तक वह दिन नहीं आता तब तक सबसे आसान रास्ता यह है कि गुनाह के आगे हथियार डाल दो, बाक़ी काम परमेश्वर के रहम से हो जाएगा। बहुत दिन तक परमेश्वर रहम की निगाहों से इस शहर को देखता रहा, लेकिन इन्तज़ार करते-करते वह थक गया। हम उसकी शाश्वत उम्मीद को बहुत देर तक टालते रहे और अब उसने हमसे मुँह मोड़ लिया है। और इसलिए, परमेश्वर की रोशनी हमसे छिन गई है, हम अँधेरे में चल रहे हैं, इस प्लेग के घने अँधेरे में!"

श्रोताओं में से किसी ने अड़ियल घोड़े की तरह नाक से आवाज़ की। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद पादरी ने तनिक धीमे स्वर में कहा :

"हम गोल्डन लीजेंड में पढ़ते हैं कि बादशाह अम्बर्तो के ज़माने में प्लेग ने इटली को तहस-नहस कर दिया था और सबसे ज़्यादा तबाही रोम और पाविया में हुई थी। प्लेग इतनी भयंकर थी कि लाशों को दफनाने के लिए ज़िन्दा लोगों की तादाद कम पड़ गई थी। उस वक़्त लोगों को एक नेक फरिश्ता दिखाई दिया था जो शैतान के दूत को, जिसके हाथ में शिकार करने का नेज़ा था, मकानों पर प्रहार करने का हुक्म दे रहा था। जिस घर पर नेज़े के जितने ही प्रहार होते थे, उतनी ही लाशें वहाँ से निकलती थीं।"

अब फ़ादर पैनेलो ने अपनी दोनों छोटी बाँहें खुले पोर्च की तरफ़ फैलाईं, मानो वह बारिश के हिलते हुए परदे के पीछे किसी चीज़ की ओर इशारा कर रहा हो।

“मेरे भाइयो!" पैनेलो ने ऊँचे स्वर में कहा, "वे दूत फिर शिकार पर निकले हैं और आज हमारी सड़कों पर तबाही मचा रहे हैं। वह देखो, महामारी के दूत को जो लूसिफ़र की तरह खूबसूरत है, जो शैतान की तरह चमक रहा है, वह तुम्हारे मकानों की छतों पर मँडरा रहा है। उसके दाएँ हाथ में नेज़ा है जो प्रहार करने के लिए ऊपर उठा हुआ है। उसका बायाँ हाथ आपके मकानों में से कुछ मकानों की ओर बढ़ा हुआ है। मुमकिन है, इसी क्षण उसकी उँगली आपके दरवाज़े की ओर इशारा कर रही हो, लाल नेज़ा आपकी चौखटों को खटखटा रहा हो। और क्या पता प्लेग आपके घर में दाखिल होकर आपके सोने के कमरे में जाकर बैठ गई हो और आपके लौटने का इन्तज़ार कर रही हो। धैर्य और सतर्कता से वह उचित अवसर की ताक में बैठी है, उससे बचना असम्भव है; जैसे विधि के विधान से कोई नहीं बच सकता। दुनिया की कोई ताक़त, यहाँ तक कि गौर से मेरी बात सुनें-साइंस की ताक़त भी, जिसकी इतनी शेखी बघारी जाती है, इस प्रहार से आपको नहीं बचा सकती; अगर एक बार वह हाथ आपकी तरफ़ बढ़ गया। खून से भरे शोक के फ़र्श पर अनाज की तरह तुम लोगों को फटकारा जाएगा और तुम चोकर के साथ दूर फेंक दिए जाओगे।"

फ़ादर ने फिर मूसल के प्रतीक पर प्रभावशाली और ओजस्वी भाषण दिया। उसने श्रोताओं से कहा कि वे कल्पना करें कि “उनके शहर के ऊपर लकड़ी की एक सलाख घूम रही है और अन्धाधुन्ध मकानों से टकरा रही है, और जब वह ऊपर उठती है तो खून की बूंदें बरसती हैं, धरती पर शोक और रक्तपात होता है, बीज बोने के लिए, जिससे सचाई की फ़सल तैयार होगी।"

इस लम्बे वाक्य के बाद फ़ादर पैनेलो ख़ामोश हो गया। उसके लम्बे बालों की लटें माथे पर छा गई थीं। वह ज़ोर से मुक्का मारकर जब अपना आवेश ज़ाहिर कर रहा था तो उस आघात से उसका सारा शरीर काँप उठता था। जब वह दोबारा बोला तो उसका स्वर धीमा था, लेकिन उसमें अभियोग की थर्राहट थी। “हाँ, अब गम्भीरता से सोचने का समय आ गया है। आप मजे में सोचते थे कि सिर्फ इतवार के दिन परमेश्वर से मिलना काफ़ी है और हफ़्ते के बाक़ी दिनों में आप मनमानी कर सकेंगे। आपका ख़याल था कि कुछ छोटी-मोटी औपचारिकताओं से, और कुछ बार घुटने झुकाकर आप परमेश्वर को खुश कर लेंगे और अपनी लापरवाही की कसर पूरी कर लेंगे, जो कि बहुत बड़ा जुर्म है। लेकिन आप परमेश्वर से ऐसा मज़ाक़ नहीं कर सकते। ये संक्षिप्त मुलाक़ातें परमेश्वर की मुहब्बत की तेज़ भूख को शान्त न कर सकीं। वह आपको अक्सर और ज़्यादा देर तक देखना चाहता था। उसकी मुहब्बत का यही तरीक़ा है। इसीलिए जब परमेश्वर आपका इन्तज़ार करते-करते थक गया तो वह खुद-ब-खुद आपसे मिलने चला आया; इतिहास के शुरू से ही परमेश्वर उन तमाम शहरों में जाता रहा है जिन्होंने उसके ख़िलाफ़ गुनाह किए हैं। अब आप भी वही सबक सीख रहे हैं जो केन' और उसकी औलाद ने, सोडोम और गोमोरा' के बाशिन्दों ने, जोब' और फ़राओ ने और उन तमाम लोगों ने सीखा था जिन्होंने परमेश्वर के लिए अपने दिल के दरवाजे बन्द कर लिए थे। उनकी तरह आप लोग भी, जब से शहर के फाटक बन्द हो गए हैं और आप महामारी के साथ रह गए हैं, इनसानों और सारी सृष्टि को नई नज़र से देख रहे हैं। आख़िरकार अब आपको एहसास हुआ है कि आप उन बुनियादी बातों पर संजीदगी से सोचें जो ज़िन्दगी की सबसे पहली और आख़िरी चीजें हैं।"

सीली हवा का एक झोंका गिरजे के बीच के हिस्से में, मोमबत्तियों की रोशनी को झुकाकर मद्धम कर रहा था। जलते हुए मोम, लोगों की खाँसी और किसी की दबी हुई छींक का तीखापन फ़ादर पैनेलो तक पहुँचा जो बड़ी बारीकी से अपने व्याख्यान के आरम्भिक भाग को दोहरा रहा था। यह बारीक़ी सबको बहुत पसन्द आई। फ़ादर ने शान्त, सीधे-सादे स्वर में कहा, "मैं जानता हूँ कि आप सब सोच रहे हैं कि आख़िर मैं इन बातों से क्या नतीजा निकालना चाहता हूँ! मैं आपको सचाई की तरफ़ ले जाना चाहता हूँ और आपको खुशी सिखाना चाहता हूँ-हाँ, खुशी। मैंने अभी आपको जो बातें बताई हैं उनके बावजूद मैं चाहता हूँ कि आप ख़ुशी मनाएँ, क्योंकि वह वक़्त बीत चुका है जब किसी की मदद या नेक सलाह के कुछ शब्द आपको सही रास्ते पर ला सकते थे। आज सचाई एक हक्म बनकर आई है। वह खून से सने लाल नेज़े की शक्ल में आई है जो मुक्ति के सँकरे रास्ते की तरफ़ कठोरतापूर्वक इशारा कर रहा है, मुक्ति का यही एक रास्ता है। इस तरह मेरे भाइयो, परमेश्वर की मेहरबानी आपके सामने आई है, जिसने हर चीज़ में अच्छाई और बुराई, गुस्सा और रहम, प्लेग और आपकी मुक्ति पैदा की है। यही महामारी आपको तबाह करने के साथ-साथ, आपकी भलाई भी कर रही है और आपको सही रास्ता दिखा रही है।

“कई शताब्दियों पहले अबीसीनिया के ईसाइयों ने प्लेग में अमरत्व पाने का परमेश्वर का दिखाया हुआ, निश्चित तरीक़ा देखा था। जिन्हें प्लेग की छूत नहीं लगी थी, उन्होंने प्लेग से मरे लोगों की चदरें ओढ़कर मौत को दावत दी थी। मैं कहता हूँ मुक्ति पाने का यह तरीक़ा निरा पागलपन था, जिसकी तारीफ़ हम नहीं कर सकते। इस तरीके में एक जल्दबाज़ी और गुस्ताख़ी नज़र आती है जिसकी हमें निन्दा करनी पड़ेगी। किसी इनसान को ज़बरदस्ती परमेश्वर का हाथ उठवाने की या मौत की घड़ी को निश्चित समय से पहले बुलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसका मतलब हुआ विधि के बनाए क्रम में दखल देकर जल्दी काम करवाना। परमेश्वर ने हमेशा के लिए पक्के क़ानून बना दिए हैं जो बदले नहीं जा सकते। इससे अगला क़दम नास्तिकता है। फिर भी हम उन अबीसीनियन ईसाइयों के जोश से सबक सीख सकते हैं जो सबक हमारे लिए फायदेमन्द साबित होगा। इसका अधिकांश भाग हमारे धर्म के उपदेशों और बुद्धिमत्ता के ख़िलाफ़ है, फिर भी इसमें उस ज्वलन्त शाश्वत प्रकाश की झलक मिल सकती है, जिसकी शान्त दीपशिखा इनसान के दु:ख के अँधेरे में जलती है। यही प्रकाश उन अँधेरे रास्तों को भी आलोकित करता है जो हमें मुक्ति की ओर ले जाते हैं। इससे हमें परमेश्वर की मरज़ी की अमली शक्ल पता चलती है, जो निश्चित रूप से बुराई को नेकी में बदलती रहती है। आज फिर यह रोशनी हमें डर और सिसकियों की अँधेरी घाटी में से पवित्र ख़ामोशी की तरफ़ ले जा रही है जो सारी ज़िन्दगी का स्रोत है। मेरे दोस्तो, यही है वह सबसे बड़ी तसल्ली जो मैं आप लोगों को देना चाहता हूँ ताकि जब आप परमेश्वर के इस घर से बाहर निकलें तो अपने दिलों में सिर्फ नाराज़गी के लफ़्ज़ नहीं बल्कि राहत का एक पैगाम भी लेकर जाएँ।"

सबने मान लिया कि इन शब्दों के साथ ही प्रवचन ख़त्म हो गया है। बाहर बारिश बन्द हो गई थी और गिरजे का आँगन सीली धूप से पीला हो गया था।

सड़कों से ट्रैफ़िक की धीमी भनभनाहट और अस्पष्ट कोलाहल सुनाई दे रहा था; यह जागते हुए शहर की भाषा थी। बड़ी सावधानी और दबी हुई सरसराहट से गिरजाघर के श्रोताओं ने अपनी चीजें समेटनी शुरू कर दी। लेकिन फ़ादर को अभी कुछ और कहना था। उसने कहा कि यह स्पष्ट कर देने के बाद कि यह प्लेग उनके गुनाहों की सज़ा देने के लिए परमेश्वर की तरफ़ से भेजी गई है, अन्त में कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ऐसे शोकपूर्ण मौके पर और कुछ कहना शोभा नहीं देगा। फ़ादर ने यह यक़ीन और उम्मीद ज़ाहिर की कि सब श्रोता अब अपनी असली हैसियत समझ गए होंगे। लेकिन मंच छोड़ने से पहले वह एक किस्सा बताना चाहेगा जो उसने मार्साई के प्राचीन इतिहास में प्लेग के बारे में पढ़ा था, जिसमें इतिहासकार मैथ्यू मैरे ने अपनी दुर्दशा का रोना रोया है। वह कहता है कि उसे नर्क में तड़प-तड़पकर मरने के लिए फेंक दिया है जहाँ न कोई मदद करने वाला है न कोई उम्मीद है। खैर! मैथ्यू मैरे अन्धा था! सबके लिए परमेश्वर की मदद और ईसाइयों-जैसी धार्मिक आशा की इतनी तीव्र आवश्यकता फ़ादर पैनेलो को कभी महसूस नहीं हुई थी जितनी कि आज हुई थी। उन्हें आशा थी, हालाँकि यह दुराशा-मात्र थी कि इन दुर्दिनों की विभीषिका के बावजूद, पीड़ित नर-नारियों के चीत्कार के बावजूद ओरान के नागरिक सच्चे ईसाइयों की तरह परमेश्वर से दुआ करेंगे-मुहब्बत की दुआ। बाक़ी काम परमेश्वर खुद सँभाल लेगा।

(1. केन : केन ने अपने भाई की हत्या करके दुनिया में सबसे पहला गुनाह किया था।
2. सोडोम और गोमोरा : बाइबिल में वर्णित प्राचीन शहर जो दुराचार की पराकाष्ठा के कारण तबाह हो गए थे।
3. जोब : परमेश्वर ने मुसीबतें भेजकर जोब की परीक्षा ली थी।
4.फ़राओ : मिस्र का निरंकुश बादशाह।)

दूसरा भाग : 4

इस प्रवचन का हमारे शहर के लोगों पर कुछ असर हुआ या नहीं यह कहना कठिन है। मजिस्ट्रेट मोशिए ओथों ने डॉक्टर रियो को यक़ीन दिलाया कि उसे पादरी की दलीलें ‘एकदम अकाट्य' मालूम हुई थीं। लेकिन सब लोग ऐसी अगाध श्रद्धा से प्रवचन के बारे में नहीं सोचते थे। कुछ की समझ में सिर्फ यही बात आई कि उन्हें किसी अनजाने गुनाह के लिए अनिश्चित काल की सज़ा मिली है। बहुत से लोगों ने अपने को इस कैद के अनुसार ढाल लिया और उनकी अति साधारण ज़िन्दगी का सिलसिला पहले की तरह जारी रहा। कुछ ऐसे भी थे जिनका मन विद्रोह कर उठा था और जिनके मन में इस वक़्त सिर्फ एक ही विचार उठ रहा था इस कैद से कैसे छुटकारा पाएँ!

शुरू में तो बाहर की दुनिया से सम्पर्क टूट जाने की हक़ीक़त को लोगों ने बिना शिकायत के मंजूर कर लिया, जैसे लोग किसी अस्थायी असुविधा को बर्दाश्त कर लेते हैं जो उनकी कुछ आदतों में ही दखल देती है। लेकिन अब अचानक उन्हें यह एहसास हुआ कि वे आसमान के नीले गुम्बद तले, गरमी की लपटों में झुलसते हुए, कैद काट रहे हैं। उनके मन में एक अज्ञात भाव उठा कि मौजूदा घटनाओं से उनकी सारी ज़िदगी ख़तरे में पड़ गई है और शाम को जब ठंडी हवा के झोंकों से उन्हें कुछ होश आता था, तो कैदियों की तरह बन्द रहने की यह अनुभूति कभी-कभी उन्हें बड़ी मूर्खतापूर्ण हरकतें करने के लिए मजबूर करती थी।

यह गौर करने की बात है हो सकता है यह निरा संयोग न हो, कि इस इतवार को प्रवचन के बाद शहर में बड़े पैमाने पर घबराहट फैल गई और लोगों के दिलों में इस तरह छा गई कि देखने वाले को शक हो सकता था कि हमारे शहर के लोगों को अब जाकर कहीं अपनी स्थिति का सही एहसास हुआ है। इस दृष्टि से देखने पर शहर का वातावरण कुछ बदला हुआ नज़र आता था। दरअसल प्रश्न यह था कि वातावरण बदल गया था या उनके दिल बदल गए थे!

प्रवचन के कुछ दिनों बाद जब रियो शहर के बाहर की एक बस्ती में जाते हुए ग्रान्द से इस तब्दीली पर बहस कर रहा था तो अँधेरे में उसकी टक्कर एक आदमी से हो गई जो फुटपाथ के बीचोबीच खड़ा बिना आगे चले कमर हिला रहा था। इसी वक़्त अचानक सड़क की बत्तियाँ जल उठीं। इन दिनों सड़क की बत्तियाँ काफ़ी देर से जलाई जाती थीं। रियो और उसके साथी के पीछे वाले लैम्प की रोशनी उस आदमी के चेहरे पर पड़ी। उसकी आँखें बन्द थीं और वह बिना आवाज़ के ही हँसे जा रहा था। उसके चेहरे पर पसीने की बड़ी-बड़ी बूंदें टपक रही थीं। एक मौन आनन्द से उसका चेहरा ऐंठ गया था।

“कोई पागल है," ग्रान्द ने राय दी।

रियो उसकी बाँह थामकर, उसे आगे ले जाने लगा तो उसने देखा कि ग्रान्द बुरी तरह से काँप रहा है।

"अगर हालात ऐसे ही रहे तो सारा शहर पागलखाना बन जाएगा,” रियो ने कहा। वह थक गया था, उसका गला सूख गया था। उसने कहा, “चलो चलकर शराब पिएँ!"

दोनों एक छोटे-से रेस्तराँ में पहुँचे। सिर्फ शराब के काउंटर के ऊपर के लैम्प से रोशनी आ रही थी। भारी हवा में एक अजीब-सी लाली थी, और न जाने क्यों सब लोग दबी आवाज़ में बातें कर रहे थे।

ग्रान्द ने जब बिना सोडे की शराब का एक छोटा गिलास माँगा और उसे एक ही छूट में पी गया तो डॉक्टर को बड़ा ताज्जुब हुआ। ग्रान्द ने कहा, “खूब तेज़ चीज़ है!" फिर उसने आगे चलने का सुझाव दिया।

बाहर सड़क पर आकर रियो को लगा जैसे रात फुसफुसाहटों से भरी है। सड़क के लैम्पों के ऊपर अँधेरी गहराइयों में हल्की सनसनाहट सुनकर रियो को उस अदृश्य मूसल का ध्यान आया जिसका ज़िक्र फ़ादर पैनेलो ने किया था, जो लगातार क्लान्त हवा में अनाज को कूट रहा था।

"खुशी की, खुशी की..." ग्रान्द बुदबुदाया और फिर ख़ामोश हो गया।

रियो ने उससे पूछा कि वह क्या कहना चाहता था?

"खुशी की बात है कि मेरे पास अपना काम है।"

“हाँ, कम-से-कम इस बात की तसल्ली तो है ही।" फिर जैसे हवा में बजने वाली पैशाचिक सीटी की आवाज़ से बचने के लिए उसने ग्रान्द से पूछा, क्या उसके काम का कोई नतीजा निकला है?

“हाँ, मेरा ख़याल है कि मैं आगे बढ़ रहा हूँ।"

"क्या बहुत ज़्यादा काम बाक़ी है?"

ग्रान्द ने अपने स्वभाव के विपरीत अत्यधिक उत्तेजना दिखाई। शराब पीने की वजह से उसके स्वर में गरमी आ गई थी।

“मैं नहीं जानता। लेकिन असली सवाल यह नहीं है डॉक्टर! मैं तुम्हें यकीन दिलाता है कि यह असली सवाल नहीं है।"

अँधेरे की वजह से साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था, लेकिन रियो को लगा कि ग्रान्द अपनी बाँहें हिला रहा था। वह कुछ कहने के लिए अपने को तैयार कर रहा था, और जब वह बोला तो शब्द एक साथ उसके मुँह से फूट पड़े।

"डॉक्टर, दरअसल मैं ये बातें चाहता है। जिस दिन मेरी रचना की पांडुलिपि प्रकाशक के पास पहुंचे तो वह उठकर खड़ा हो जाए यानी पांडुलिपि पढ़ने के बाद खड़ा हो और अपने दफ़्तर के कर्मचारियों से कहे, "हैट्स ऑफ़! जेन्टलमैन!"1

रियो स्तब्ध रह गया और उसकी हैरत और भी बढ़ गई जब उसने देखा, या उसे भ्रम हुआ कि ग्रान्द झटके से अपना हैट उतारकर आगे की तरफ़ बाँह बढ़ा रहा है। ऊपर हवा में सीटी की विलक्षण आवाज़ और भी तेज़ हो गई।

ग्रान्द ने कहा, "देखा! मैं चाहता हूँ कि मेरे काम में एक भी नुक्स न रहे।"

रियो साहित्य की दुनिया के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था, लेकिन उसे शक हुआ कि इतने शानदार और नाटकीय ढंग से घटनाएँ कभी नहीं होती, जैसा कि ग्रान्द बयान कर रहा था। मिसाल के लिए प्रकाशक दफ्तरों में हैट पहनकर नहीं बैठते। लेकिन क्या पता ऐसा होता भी हो, इसलिए रियो ने ख़ामोश रहना ही बेहतर समझा। अभी भी ऊपर हवा में गूंजती हुई प्लेग की पैशाचिक फुसफुसाहट उसके कानों में पड़ रही थी, हालाँकि वह उसे न सुनने की पूरी कोशिश कर रहा था। वे शहर के उस हिस्से में पहुँचे जहाँ ग्रान्द रहता था। कुछ ऊँची सतह पर होने के कारण, रात की ठंडी हवा के झोंके दोनों के गालों का स्पर्श कर रहे थे और शहर के कोलाहल को उनसे दूर ले जा रहे थे।

ग्रान्द बोलता जा रहा था, लेकिन रियो को उस शरीफ़ आदमी की सारी बातें समझ में नहीं आ रही थीं। वह इतना ही जान सका कि ग्रान्द आजकल जिस रचना को पूरा करने में लगा है, उसमें बहुत से पृष्ठ होंगे आर वह अपनी रचना को मुकम्मल रूप देने के लिए अनेक मानसिक यंत्रणाएँ झेल रहा है। "ज़रा सोचो तो सही, एक शब्द को सही करने में कई बार पूरे हफ़्ते गुज़र जाते हैं। कई बार तो वाक्यों को जोड़ने वाले एक शब्द पर इतना वक़्त लग जाता है।"

अचानक ग्रान्द रुक गया और उसने डॉक्टर के कोट का एक बटन पकड़ लिया। उसके दन्तविहीन पोपले मुँह में से शब्द लुढ़क रहे थे।

“मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ डॉक्टर! मैं मानता हूँ कि 'लेकिन' और 'तथा' में से चुनाव करना आसान है। 'तथा' और 'तब' में कौन-सा सही रहेगा इसका चुनाव ज़्यादा मुश्किल है। लेकिन सबसे मुश्किल चीज़ है यह जानना कि 'तथा' को वाक्य में लगाया जाए या काट दिया जाए।

“हाँ, मैं तुम्हारी बात समझ गया।" रियो ने कहा। रियो ने फिर आगे चलना शुरू कर दिया। ग्रान्द सकपका गया, फिर आगे बढ़कर रियो के साथ आ गया।

"माफ़ करना, न जाने आज शाम से मुझे क्या हो गया है!" ग्रान्द ने शर्मिन्दा आवाज़ में कहा।

रियो ने ग्रान्द का उत्साह बढ़ाने के लिए उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि उसे ग्रान्द की बातें बेहद दिलचस्प मालूम हुई हैं और वह ग्रान्द की मदद करना चाहता है। इससे ग्रान्द को कुछ तसल्ली हुई और जब वे ग्रान्द के घर पहुँचे तो ग्रान्द ने कुछ हिचकिचाहट के बाद डॉक्टर से कहा कि वह कुछ देर के लिए भीतर चले। रियो राज़ी हो गया।

वे डाइनिंग रूम में दाखिल हुए और ग्रान्द ने मेज़ के नज़दीक एक कुर्सी पर रियो को बिठाया। मेज़ पर काग़ज़ों का ढेर लगा था, जिन पर बहुत ही महीन अक्षर लिखे हुए थे और जगह-जगह पर अशुद्धियाँ ठीक की गई थीं।

डॉक्टर की सवालिया निगाह के जवाब में ग्रान्द ने कहा, "हाँ, यही मेरी पांडुलिपि है। लेकिन क्या तुम कुछ पिओगे नहीं? मेरे पास थोड़ी-सी शराब रखी है।"

रियो ने इनकार कर दिया। वह झुककर पांडुलिपि को देख रहा था।

“नहीं, इसे मत देखो। यहीं से मेरा वाक्य शुरू होता है जो मुझे बेहद परेशान कर रहा है।"

वह भी मेज़ पर रखे कागज़ों को देख रहा था और उसका हाथ किसी प्रबल आकर्षण से प्रेरित होकर एक कागज़ की तरफ़ बढ़ा। फिर वह कागज़ को उठाकर बिना शेड के बल्ब के पास ले गया। रोशनी में काग़ज़ का आरपार दीख रहा था। उसके हाथों में कागज़ काँप रहा था। रियो ने देखा कि ग्रान्द का माथा पसीने से गीला था।

“बैठ जाओ और यह कागज़ पढ़कर सुनाओ।" रियो ने कहा।

“हाँ, मैं भी चाहता हूँ कि तुम्हें पढ़कर सुनाऊँ।” ग्रान्द की आँखों में एक संकोचपूर्ण कृतज्ञता थी।

वह कुछ देर खड़ा रहकर कागज़ की तरफ़ देखता रहा, फिर बैठ गया। उधर रियो सड़कों से उठती हुई भिनभिनाहट को सुन रहा था जो प्लेग की सिसकियों का जवाब मालूम होती थी। उसी क्षण रियो की आँखों के सामने नीचे फैले शहर की साफ़ तस्वीर उभर आई, जो बाक़ी दुनिया से अलग और कटा हुआ था, जिसके अँधेरे में पीड़ा की दबी सिसकियाँ फैली थीं। फिर ग्रान्द का अत्यन्त धीमा लेकिन साफ़ स्वर उसके कानों में पड़ा।

'मई की एक सुहानी सुबह में एक शानदार घुड़सवार लड़की बोये द बोलोन के फूलों से ढकी सड़कों पर देखी जा सकती थी। वह एक खूबसूरत भूरे रंग की घोड़ी पर सवार थी।'

फिर ख़ामोशी छा गई, जिसमें पराजित शहर की अस्पष्ट शिकायत-भरी ध्वनि थी। ग्रान्द ने काग़ज़ मेज़ पर रख दिया था और उसकी तरफ़ ताके जा रहा था। कुछ देर बाद उसने आँखें ऊपर उठाई।

“इस बारे में तुम्हारी क्या राय है?" रियो ने कहा कि शुरू के वाक्य को सुनकर उसकी जिज्ञासा बढ़ गई है और वह इसके बाद की कहानी भी सुनना चाहता है। इस पर ग्रान्द ने कहा कि रियो ने गलत हिस्सा सुना है। ग्रान्द उत्तेजित दीख रहा था। उसने ज़ोर से अपनी हथेली मेज़ पर रखे कागज़ों पर दे मारी।

“यह तो अभी कच्चा मसौदा है। जब मैं मन की तस्वीर को बिलकुल सही ढंग से बयान कर सकूँगा, जब उस घुड़सवार की चाल की सही 'लय' को शब्दों में व्यक्त कर लूँगा–घोड़ा सरपट चाल से भाग रहा है, एक-दो-तीन, एक-दो-तीन–समझ गए मैं क्या कहना चाहता हूँ! बाक़ी की कहानी लिखने में ज़्यादा आसानी हो जाएगी और उससे भी बड़ी एक चीज़ मुमकिन हो जाएगी। कला का भ्रम इतना मकम्मल हो जाएगा कि पहले शब्दों को पढ़कर ही आदमी कह उठेगा, हैट्स ऑफ़!"

लेकिन उसने क़बूल किया कि इस सम्पूर्णता तक पहुँचने के लिए बड़ी सख्त मेहनत करनी पड़ेगी। इस वाक्य को वह इस रूप में हरगिज़ छपने के लिए नहीं दे सकता। कभी-कभी उसे इस वाक्य से सन्तोष भी हो जाता हैलेकिन उसे पूरा एहसास है कि यह वाक्य कला की दृष्टि से अभी दोषरहित नहीं है और कुछ हद तक शायद इसकी लय अति साधारण मालूम होती है। अति साधारणता से चाहे यह सम्बन्ध कितने ही दूर का हो, फिर भी दिखाई ज़रूर देता है। ग्रान्द ऐसी ही कोई बात कह रहा था जब उन्हें खिड़की से नीचे सड़क पर लोगों के भागने की आवाजें सुनाई दीं। रियो खड़ा हो गया।

“कुछ दिन बाद देखना मैं इसे कितनी शानदार चीज़ बनाऊँगा!" ग्रान्द ने कहा।

फिर उसने खिड़की की तरफ़ देखा, “जब यह सारा हंगामा खत्म हो जाएगा।"

लेकिन इसी वक़्त भागते हुए लोगों के क़दमों की आवाज़ फिर सुनाई दी। रियो आधा जीना पार कर चुका था और जब वह बाहर सड़क पर पहुँचा तो दो आदमी उसे छूते हुए पीछे निकल गए। मालूम होता था कि वे शहर के फाटकों में से एक फाटक की तरफ जा रहे थे। दरअसल प्लेग और गरमी से हमारे शहर के कुछ लोग अपना मानसिक सन्तुलन खो रहे थे। मारपीट की बहुत-सी घटनाएं हो चुकी थीं और हर रात सन्तरियों को चकमा देकर बाहर की दुनिया में भागने की कोशिशें की जाती थीं।

(1. यूरोप में आदर प्रदर्शित करने के लिए सिर से हैट या टोपी उतार ली जाती है।)

दूसरा भाग : 5

दूसरे लोग भी, मिसाल के लिए रेम्बर्त, इस बढ़ती हुई परेशानी के वातावरण से मुक्ति पाने की कोशिशें कर रहे थे, लेकिन ज्यादा चतुराई और धैर्य के साथ। हालाँकि उन्हें भी अपनी कोशिशों में ज्यादा कामयाबी नहीं मिली थी। कुछ दिन तक रेम्बर्त लगातार अफ़सरों से संघर्ष करता रहा। हमेशा से उसका ख़याल था कि धैर्य और सहनशीलता से ही कामयाबी हासिल हो सकती है और एक माने में संकट के मौके पर रसूख और पहुँच ही काम आती है। इसलिए वह लगातार सभी तरह के अफ़सरों और ऐसे लोगों से मिलता रहा जिनके रसूख से साधारण परिस्थितियों में बहुत से काम हो सकते थे। लेकिन संकट के इन दिनों में ऐसे रसूख का कोई फायदा नहीं था। अफ़सरों में से अधिकांश लोग ऐसे थे जिनके विचार सिर्फ निर्यात, बैंकिंग, फलों और शराब के व्यापार के बारे में बुदधिमत्तापूर्ण और सुनिश्चित थे। जहाँ तक बीमों, गलत ढंग से लिखे गए समझौतों की व्याख्या और ऐसे कई मामलों का सवाल था उनकी योग्यता साबित हो चुकी थी; उनके पास ऊँची योग्यताएँ थीं और उनके इरादे भी नेक मालूम होते थे। दरअसल उनकी यही चीज़ मिलने वालों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करती थी-उनकी नेकनीयती। लेकिन जहाँ तक प्लेग का सम्बन्ध था, उनकी योग्यता और कार्य-कुशलता न होने के बराबर थी।

खैर, रेम्बर्त को जब भी मौक़ा मिला वह इन सब लोगों से मिला और अपना मामला पेश किया। उसकी दलीलों का एक ही सारांश था; वह हमारे शहर में परदेसी था इसलिए उसकी प्रार्थना पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए था। आमतौर पर सब लोग फ़ौरन उसकी इस दलील का समर्थन करते थे, लेकिन वे साथ ही यह भी कहते थे कि रेम्बर्त-जैसे कई और लोग भी शहर में मौजूद हैं इसलिए उसकी स्थिति में कोई ऐसी विशेषता नहीं है जैसा कि वह सोचता है। इसके जवाब में रेम्बर्त कह सकता था कि इससे उसकी दलील पर कोई असर नहीं पड़ता। इस पर रेम्बर्त को बताया जाता था कि इस बात का असर ज़रूर पड़ता है क्योंकि अधिकारियों की परिस्थिति पहले से ही कठिन है, और वे किसी के प्रति पक्षपात नहीं करना चाहते, वरना उन्हें डर है कि एक 'मिसाल' कायम हो जाएगी इस शब्द को वे बड़ी नफ़रत से इस्तेमाल करते थे।

डॉक्टर रियो से बातचीत के दौरान रेम्बर्त ने बताया कि वह किन-किन लोगों से मिल चुका है। रेम्बर्त ने उन्हें कई श्रेणियों में बाँटा था। जो लोग ऊपर लिखी हुई दलीलें देते थे उन्हें वह ज़िद्दी कहता था। इस श्रेणी के अलावा तसल्ली देने वालों की श्रेणी थी जो उसे यक़ीन दिलाते थे कि मौजूदा स्थिति ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती। जब रेम्बर्त ने उनसे ठोस सुझाव देने के लिए कहा तो उन्होंने यह कहकर उसे टरका दिया कि वह क्षणिक असुविधा के कारण व्यर्थ ही इतनी हाय-तौबा मचा रहा है। कुछ बहुत बड़े लोग थे जिन्होंने रेम्बर्त से कहा कि वह संक्षेप में अपना मसला लिखकर छोड़ जाए, उचित समय पर उसकी अरजी पर फैसला किया जाएगा। कुछ अफ़सर उसके साथ खिलवाड़ करते थे और असली सवाल का जवाब देने के बजाय उसे ख़ाली मकानों का पता बताते थे और कहते थे कि वे पुलिस की मदद से उसके लिए रहने की जगह दिला सकते हैं। कुछ अफ़सर तो जैसे लाल फीते के व्यापारी थे, जिन्होंने रेम्बर्त से फ़ॉर्म भरवाकर उसे फ़ौरन फ़ाइल में रख दिया; काम के बोझ से पीड़ित अफ़सर भी थे जो बार-बार आसमान की तरफ़ बाँहें उठाते थे, और जनता से दुखी अफ़सर थे जो बात सुनकर दूसरी तरफ़ मुँह फेर लेते थे। सबसे ज़्यादा तादाद परम्परावादियों की थी, जिन्होंने रेम्बर्त की अरजी किसी दूसरे दफ्तर में भेज दी थी या उसे काम निकलवाने का नया ढंग बताया था।

इन बेमानी मुलाक़ातों ने पत्रकार को थका दिया था। इन मुलाक़ातों का इतना फ़ायदा ज़रूर हुआ था कि उसे म्यूनिसिपल कमेटी के दफ्तर और प्रीफ़ेक्ट के हेडक्वार्टर के काम-काज के अन्दरूनी तरीकों का पता चल गया था, क्योंकि उसे घंटों तक नकली चमड़े के सोफ़ों पर बैठे रहना पड़ा था, सामने दीवारों पर लगे पोस्टर उसे इनकम टैक्स से मुक्त सेविंग बॉण्ड खरीदने की अपील करते थे या फ्रांस की औपनिवेशिक फ़ौज में भरती होने की ताकीद करते थे। उसे दफ्तरों का खासा अनुभव हो गया था जहाँ इनसानों के चेहरे भी फ़ाइल रखने की अलमारियों और उनके पीछे रखे धूल-भरे रिकॉर्डों की तरह भाव-शून्य थे। इतनी ताक़त ख़र्च करने के बाद रेम्बर्त को सिर्फ एक ही फ़ायदा हुआ, जैसा कि उसने रियो को कटुता-भरे स्वर में बताया कि इससे उसका मन अपनी दुर्दशा से हटकर और बातों में उलझ गया था। दरअसल प्लेग के तेज़ विकास की तरफ़ उसका ध्यान ही नहीं गया था। उसके दिन जल्दी से गुज़रने लगे और जिन परिस्थितियों से शहर गुज़र रहा था उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता था कि उन लोगों के लिए जो ज़िन्दा बच जाते थे। हर रोज़ कठिन परीक्षा में से चौबीस घंटे कम हो जाते थे, रियो इस दलील की सचाई को क़बूल तो करता था लेकिन उसके ख़याल में यह सचाई ज़रूरत से कुछ ज़्यादा व्यापक थी।

एक बार रेम्बर्त को क्षण-भर के लिए आशा की किरण दिखाई दी थी। प्रीफ़ेक्ट के दफ़्तर से उसे एक फ़ॉर्म भेजा गया था जिसमें उसे हिदायत की गई थी कि वह सावधानी से सारे ख़ाली ख़ानों की पूर्ति करे। फ़ॉर्म में उसके हलिये, परिवार, मौजूदा और भूतपूर्व आमदनी के ज़रियों के बारे में पूछताछ की गई थी। दरअसल उससे ज़िन्दगी के तथ्यों की पूरी सूची मांगी गई थी। उसे लगा कि यह पूछताछ उन लोगों की सूची बनाने के लिए की जा रही है जिन्हें शहर छोड़कर अपने घरों में लौटने का आदेश दिया जाएगा। एक दफ़्तर के कर्मचारी से कुछ अस्पष्ट-सी जानकारी मिली जिससे रेम्बर्त के विचार की पुष्टि हो गई। लेकिन जब उसने और गहरी छानबीन की तो उसे उस दफ्तर से जहाँ से फ़ॉर्म आया था, पता चला कि यह जानकारी विशेष प्रयोजन से इकट्ठी की जा रही है।

“कौन-सा प्रयोजन?" उसने पूछा।

बाद में उसे पता चला कि हो सकता है वह बीमार होकर मर जाए। इस जानकारी से अधिकारियों को उसके परिवार के सदस्यों को सूचित करने में और यह फैसला करने में मदद मिलेगी कि अस्पताल का ख़र्च म्यूनिसिपल कमेटी को उठाना चाहिए या उसके रिश्तेदारों से वसूल हो सकता है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता था कि रेम्बर्त का सम्पर्क उस औरत से पूरी तरह नहीं टूटा था जो उसके लौटने का इन्तज़ार कर रही थी, क्योंकि अधिकारी-वर्ग स्पष्ट रूप से उन दोनों की ओर ध्यान दे रहा था। लेकिन इस बात से उसे कोई तसल्ली नहीं मिल सकी। सबसे बड़ी बात, जिससे रेम्बर्त अत्यन्त प्रभावित हुआ था, यह थी कि किस तरह मुसीबत के बीच भी दफ्तरों का काम-काज बिना किसी बाधा के चल रहा था और वे ऐसे क़दम उठा रहे थे जिनका न बड़े-से-बड़े अधिकारियों को पता था, न ही उन क़दमों का कोई तात्कालिक महत्त्व था। ये क़दम सिर्फ इसलिए उठाए गए थे, क्योंकि उन दफ्तरों को इसी मकसद के लिए खोला गया था।

अगला दौर रेम्बर्त के लिए सबसे ज़्यादा आसान होते हुए भी सबसे अधिक कठिन था। यह अतीव आलस्य का दौर था। रेम्बत दफ़्तरों के चक्कर काट चुका था और भरसक सारे क़दम उठा चुका था। अब उसे एहसास हुआ था कि इस क़िस्म के सारे रास्ते उसके लिए बन्द हो गए थे। इसलिए अब वह निरुदेश्य एक रेस्तराँ से दूसरे रेस्तराँ में भटकता रहता था। सुबह का वक़्त वह रेस्तराँ की बालकनी में गुज़ारता और इस उम्मीद से अख़बार पढ़ता था कि शायद महामारी के प्रकोप के कुछ कम होने की ख़बर मिले। वह सड़क पर चलने वालों के चेहरों की तरफ़ देखता रहता और अक्सर उन चेहरों के नीरस अवसाद को देखकर वह ग्लानि से मुँह फेर लेता था। फिर सड़क के सामने लगे दुकानों के बोर्डों को, लोकप्रिय शराबों के इश्तहारों को जो, अब अप्राप्य थीं, पढ़ने के बाद वह उठकर किसी कॉफ़ीहाउस या रेस्तराँ की तरफ़ चल देता था। इन इश्तहारों को वह असंख्य बार पहले पढ़ चुका था। एक दिन शाम को रियो ने उसे एक कॉफ़ी-हाउस के दरवाज़े के पास मँडराते देखा। वह भीतर जाए या न जाए, इसका निश्चय नहीं कर पा रहा था। आख़िरकार उसने भीतर जाने का फैसला किया और कमरे के पीछे वाली एक मेज़ के पास बैठ गया। इस दौर में कॉफ़ी-हाउसों के मालिकों को सरकारी हक्म था कि वे ज़्यादा-से-ज्यादा देर बाद रात को बत्ती जलाया करें। मटमैली साँझ कमरे में फैल रही थी। सूर्यास्त की गुलाबी आभा से दीवारों पर लगे शीशे आलोकित हो उठे थे। साँझ के झुटपुटे में सफ़ेद संगमरमर की टॉप वाली मेजें चमक रही थीं। ख़ाली कॉफ़ी-हाउस में बैठा रेम्बर्त अँधेरे की परछाइयों में एक 'खोयी हुई' परछाईं की तरह नज़र आ रहा था जिसे देखकर मन में करुणा उपजती थी। रियो ने अनुमान लगा लिया कि रेम्बर्त इसी वक़्त अपने को अकेला और परित्यक्त महसूस करता है। इसी वक़्त शहर में कैद सब लोगों को अपने एकाकीपन का एहसास होता था और हर आदमी यही सोचता था कि चाहे कोई भी तरीक़ा अपनाना पड़े, इस कैद से छूटने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। रियो जल्द ही वहाँ से चला गया।

रेम्बर्त कुछ वक़्त रेलवे स्टेशन पर भी गुज़ारता था। किसी को प्लेटफार्म पर जाने की इजाज़त नहीं थी। लेकिन वेटिंग रूम खुले थे और बाहर से उनमें लोग दाख़िल हो सकते थे। जब बहुत गरमी पड़ती थी तो भिखारी इन ठंडे और अँधेरे कमरों में आ जाते थे। रेम्बर्त टाइम-टेबल, थूकने पर लगाई पाबन्दियों और यात्रियों के लिए छपे सरकारी नियमों को बहुत देर तक पढ़ता रहता था, फिर एक कोने में बैठ जाता था। कमरे के बीचोबीच एक पुरानी लोहे की अँगीठी, जो कई महीनों से ठंडी पड़ी थी, विशिष्ट चिह्न बनकर खड़ी थी। फ़र्श पर आठ की संख्या के आकार के बेलबूटे बने थे जो बहुत वर्ष पहले बनाए गए थे। दीवारों पर लगे पोस्टर सैलानियों को केन्ज़ या बन्दोल में निश्चिन्त छुट्टी मनाने का उल्लासपूर्ण निमंत्रण दे रहे थे। इस कोने में बैठकर रेम्बर्त को आज़ादी का कड़वा स्वाद मिलता था जो पूर्ण वंचना से आता है। उसने रियो को बताया कि उसके मन में उस वक़्त जो विचार उठते थे उनमें पेरिस के विचार प्रमुख थे। उसकी आँखों के आगे, बिना बुलाए ही पेरिस की तस्वीर उभरने लगती थी, पत्थरों की बनी प्राचीन सड़कें, नदी के तट, पेले-रॉयल के कबूतर, गेरे दूनोर्द, पेन्थियोन के आसपास की प्राचीन ख़ामोश गलियाँ, और शहर के अनेक और ऐसे दृश्य। वह पेरिस को इतना ज़्यादा चाहता है, यह उसे पहले मालूम नहीं था। मन में उभरने वाली इन तस्वीरों ने कुछ करने की तमाम इच्छाओं को ख़त्म कर दिया। रियो को यक़ीन था कि वह इन दृश्यों दवारा अपने प्यार की स्मृतियों को ताज़ा कर रहा है। एक दिन जब रेम्बर्त ने रियो को बताया कि उसे सुबह चार बजे उठकर अपने प्रिय पेरिस को याद करना बहुत अच्छा लगता है, तो डॉक्टर आसानी से समझ गया कि रेम्बर्त अपने अनुभव के आधार पर ऐसा कर रहा है, क्योंकि इसी वक़्त उसे मन में बिछुड़ी प्रेयसी की तस्वीरें बनाना अच्छा लगता है। दरअसल सारे दिन में सिर्फ यही ऐसा वक़्त था जब वह सोच सकता था कि उसकी प्रेयसी पूरी तरह से उसकी है। तड़के चार बजे इनसान कोई काम नहीं करता, चाहे रात बेवफ़ाई में भी गुज़री हो तब भी सुबह आदमी नींद में बेख़बर रहता है। हाँ, दुनिया के सभी लोग इस वक़्त सोए रहते हैं। इस विचार से बड़ी सांत्वना मिलती है, क्योंकि बेचैन दिल की सबसे बड़ी ख़्वाहिश यह होती है कि वह लगातार सचेत रूप से अपने प्रियजन को पाता रहे। अगर यह सम्भव न हो सके तो अपने प्रियतम या प्रेयसी को जुदाई के क्षणों में एक ऐसी गहरी नींद में सुला दे, जिसमें न सपने आएँ और जो तब तक न टूटे, जब तक फिर से उनका मिलन नहीं हो जाए।

दूसरा भाग : 6

गरमी फ़ादर पैनेलो के प्रवचन के बाद से ही बेहद बढ़ गई थी। जिस इतवार को बेमौसमी बारिश हुई थी, उससे अगले दिन घरों के ऊपर झुलसती हुई गरमी छा गई। पहले तो दिन-भर तेज़, तपती हुई लू चली जिससे घरों की दीवारें सूख गईं। इसके बाद सूरज ने आसमान पर क़ब्ज़ा जमा लिया और दिन-भर गरमी और तेज़ रोशनी शहर पर छाई रही। सिर्फ मेहराबदार गलियाँ और घरों के कमरे ही इस गरमी से बचे थे, बाक़ी सारी जगहों पर तेज़ चौंधिया देने वाली रोशनी पड़ रही थी। सूरज हमारे शहर के लोगों का हर गली, हर कोने में पीछा कर रहा था और जब वे क्षण-भर के लिए धूप में रुकते थे तो उन्हें सरसाम हो जाता था।

चूँकि गरमी के हमले के साथ-ही-साथ प्लेग के मरीज़ों की तादाद भी बढ़ गई थी। अब हफ़्ते में क़रीब सात सौ मौतें होने लगी थीं। शहर में गहरी निराशा छा गई। शहर की बाहरी बस्तियों की लम्बी, सपाट सड़कों और घरों के छज्जों पर हमेशा रहने वाली रौनक़ गायब हो गई। आमतौर पर इलाक़ों में रहने वाले लोग दिन का काफ़ी समय अपने दरवाज़ों की सीढ़ियों पर बैठकर गुज़ारते थे, लेकिन अब हर दरवाज़ा बन्द था, कोई आदमी दिखाई नहीं देता था, यहाँ तक कि खिड़कियाँ और परदे भी बन्द रहते थे। यह जानना मुश्किल था कि लोगों ने प्लेग के डर से खिड़कियाँ बन्द की थीं या गरमी की वजह से। कुछ घरों से कराहने की आवाजें आ रही थीं। शुरू में तो लोग जिज्ञासा या करुणा से प्रेरित होकर बाहर जमा हो जाते थे, लेकिन अब लगातार तनाव छाए रहने के कारण ऐसा लगता था कि लोगों के दिल भी सख्त हो गए थे; लोग कराहटों के आसपास इस तरह रहते थे और उनके नज़दीक से इस तरह गुज़र जाते थे जैसे आहे और कराहटें ही लोगों की साधारण और स्वाभाविक भाषा हों।

फाटकों पर हुई मारपीट के फलस्वरूप, जिसमें पुलिस को रिवॉल्वर इस्तेमाल करने पड़े थे, अराजकता की भावना चारों ओर फैल गई थी। पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में कुछ लोग ज़ख्मी भी हो गए थे लेकिन शहर में गरमी और आतंक के सम्मिलित प्रभाव के कारण हर बात बढ़ा-चढ़ाकर कही जाने लगी थी और लोगों का कहना था कि मुठभेड़ में कुछ लोग मर भी गए हैं। लेकिन जो भी हो, एक बात निश्चित थी कि असन्तोष सचमुच बढ़ रहा था और इस डर से कि कहीं स्थिति बिगड़ न जाए, स्थानीय अफ़सर बहुत दिन तक बहस करते रहे कि अगर महामारी से तंग आकर लोग पागलपन पर उतारू हो गए और स्थिति काबू से बाहर हो गई तो कौन-से क़दम उठाने उचित होंगे। अख़बार में नए सरकारी नियम प्रकाशित हुए जिनमें फिर कहा गया था कि कोई आदमी शहर छोड़ने की कोशिश न करे। नियम का उल्लंघन करने वालों को चेतावनी दी गई कि उन्हें लम्बी कैद की सज़ा मिलेगी।

शहर में पुलिस गश्त लगाने लगी और अक्सर खाली, पसीजी हुई गलियों के पत्थरों पर घोड़ों की टाप सुनाई देती और घुड़सवार पुलिस का एक दल सड़क के दोनों ओर कसकर बन्द की हुई खिड़कियों की कतारों के बीच से गुज़र जाता। कभी-कभी बन्दूक की आवाज़ भी सुनाई देती थी। हाल ही में चूहों और कुत्तों को ख़त्म करने के लिए एक स्पेशल ब्रिगेड बनाई गई थी ताकि वे छूत न फैला सकें। ख़ामोशी को चौंका देने वाली इन कोड़ों-जैसी आवाज़ों ने शहर के स्नायविक तनाव को और भी बढ़ा दिया था।

गरमी, ख़ामोशी और परेशानी ने हमारे शहर के लोगों को इतना संवेदनशील बना दिया था कि ज़रा-सी आवाज़ भी उन्हें बहुत महत्त्वपूर्ण मालूम होती थी। लोगों ने पहली बार आसमान के बदलते हुए रंगों और धरती से उठती हुई गन्धों पर, जो हर बार मौसम बदलने पर उठती हैं, ध्यान दिया। लोगों को यह क्षोभपूर्ण एहसास हुआ कि गरमी से महामारी और भी फैल जाएगी, और साफ़ ज़ाहिर था कि गरमी का मौसम शुरू हो गया था। शाम के वक़्त घरों के ऊपर चहकने वाले पक्षियों की आवाजें पहले से तेज़ होती जा रही थीं। आसमान का वह विस्तार अब नहीं रहा था जैसा कि जून की शामों में होता है जब तारे टिमटिमाते हैं ऐसे में हमारे क्षितिज अनन्त दूर तक फैले नज़र आते हैं। बाज़ारों में अब कलियों के बजाय खिले हुए फूल बिकने आते थे और सुबह की खरीदारी के बाद, धूल से सने फुटपाथ पैरों तले रौंदी हुई पंखुड़ियों से भर जाते थे। साफ़ ज़ाहिर था कि बहार ख़त्म हो चुकी थी, उसने असंख्य फूलों पर अपना उत्साह लुटा दिया था, हर जगह वे खिले दिखाई देते थे और जो अब गरमी और प्लेग के दोहरे हमले से मुरझा रहे थे। हमारे शहर के लोगों के लिए वह गरमी का आकाश, धूल से सनी सड़कें, जो लोगों की मौजूदा ज़िन्दगी की तरह धूसरित और नीरस थीं, इन दिनों हर रोज़ होने वाली सौ मौतों की तरह अमंगलपूर्ण थीं। अब वे दिन बीत चुके थे जब धूप लोगों को दोपहर के सोने और छुट्टी मनाने के लिए आमंत्रित करती थी और लोग समुद्र-तट पर जाकर विनोद और प्रेम-क्रीड़ाएँ करते थे। अब बन्द शहर में धूप बेमानी और खोखली हो गई थी। उसमें गरमी के सुखद मौसम का सुनहरा जादू नहीं रहा था। प्लेग ने सब रंगों को तबाह कर दिया था, और अपने विशेषाधिकार से खुशी पर पाबन्दी लगा दी थी।

महामारी से यही सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ था। इससे पहले हम ख़ुशी-खुशी गरमी के मौसम का इन्तज़ार करते थे। शहर समुद्र-तट पर बसा था और नौजवान लोग समुद्र-तट पर आज़ादी से घूमते थे। लेकिन इस बार गरमी में नज़दीक होते हुए भी समुद्र तक पहुँचना मुश्किल था। नौजवानों को समुद्र की खुशियाँ नसीब नहीं थीं। ऐसी परिस्थितियों में हम क्या कर सकते थे? इन दिनों की ज़िन्दगी की सच्ची तस्वीर फिर तारो ने ही बयान की है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उसने प्लेग की बढ़ती का खाका खींचा है, तारो ने यह भी नोट किया है कि जब से रेडियो ने मौतों के हफ़्तावार आँकड़े बताने के बजाय यह बताना शुरू किया कि हर रोज़ बानबे, एक सौ सात या एक सौ तीस मौतें होने लगी हैं तब से महामारी के इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ है। अख़बार और सरकारी अफ़सर प्लेग के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उनका ख़याल है कि वे प्लेग पर जीत पा रहे हैं, क्योंकि नौ सौ दस के मुक़ाबले एक सौ तीस छोटी संख्या है। उसने उन करुण और आश्चर्यजनक घटनाओं का भी बयान किया है जो उसके देखने में आई थीं। मिसाल के लिए जब वह एक सुनसान गली से गुज़र रहा था तो एक औरत तिमंज़िले के सोने के कमरे की खिड़की खोलकर दो बार ज़ोर से चिल्लाई और उसने फिर खिड़की बन्द कर ली। तारो ने यह भी नोट किया है कि दवाई की दुकानों में पिपरमेंट की गोलियाँ ख़त्म हो गई थीं, क्योंकि लोगों का ख़याल था कि जब तक ये गोलियाँ मुँह में रहती हैं तब तक प्लेग की छूत नहीं लग सकती।

वह लगातार सामने की बालकनी पर अपने प्रिय अजूबे को देखा करता था। मालूम होता था कि बूढ़े शिकारी पर भी मुसीबत आ गई थी। एक दिन सुबह सड़क पर बन्दूक की आवाज़ सुनाई दी थी, या तारो के शब्दों में, "सीसे की थूक ने अधिकांश बिल्लियों को मार डाला था और बाक़ियों को डराकर भगा दिया था।” खैर, जो भी हो अब बिल्लियाँ आसपास कहीं नज़र आती नहीं थीं, उस दिन नाटा बूढ़ा हमेशा की तरह निश्चित समय पर बालकनी पर आया, और उसने हैरानी ज़ाहिर की। फिर रेलिंग पर झुककर वह गौर से सड़क के कोनों को देखने लगा और बैठकर दाएँ हाथ से बालकनी की सलाखों पर कुढ़ता हुआ उँगलियों से तबला बजाने लगा। कुछ देर रुकने के बाद उसने कुछ कागज़ फाड़े और अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद वह फिर लौट आया। बहुत देर तक बालकनी पर इन्तज़ार करने के बाद वह फिर कमरे में चला गया और उसने ज़ोर से खिड़कियाँ बन्द कर लीं। एक हफ्ते तक वह लगातार यही हरकतें करता रहा। उसके बूढ़े चेहरे पर दिन-ब-दिन उदासी और हैरत बढ़ती जाती थी। आठवें दिन तारो बूढ़े का इन्तज़ार करता रहा, लेकिन बूढ़ा नहीं आया; खिड़कियाँ मज़बूती से बन्द रहीं। उनके भीतर एक गहरा अवसाद बन्द था जिसे तारो आसानी से समझ सकता था। यहाँ अन्त में तारो ने लिखा है, "प्लेग के दिनों में बिल्लियों पर थूकना मना है।"

एक और प्रसंग में तारो ने नोट किया है कि शाम को जब वह लौटता तो रात की ड्यूटी का चौकीदार सन्तरियों की तरह चहलकदमी करता नज़र आता था। वह सब लोगों से यही कहता था कि उसने इन घटनाओं की कल्पना बहुत पहले से कर ली थी। तारो ने कहा कि उस आदमी ने किसी मुसीबत की भविष्यवाणी तो ज़रूर की थी, लेकिन उसका ख़याल था कि भूचाल आएगा। इस पर बूढ़े ने जवाब दिया, “काश भूचाल ही आता। एक ज़ोर का धक्का लगता और क़िस्सा ख़त्म हो जाता। लाशों और ज़िन्दा लोगों की गिनती की जाती, बस! लेकिन यह कमबख्त बीमारी-जिन्हें इसकी छूत नहीं लगी वे भी हर वक़्त इसके सिवा और कोई बात नहीं सोचते।

होटल का मैनेजर भी हताश था। शुरू के दिनों में बाहर से आए मुसाफ़िर अपने कमरों में टिके रहे थे, क्योंकि वे शहर छोड़कर नहीं जा सकते थे। लेकिन जब उन्हें महामारी के घटने के कोई लक्षण न दिखाई दिए तो वे एकएक करके अपने दोस्तों के घरों में चले गए। जिस कारण से कमरों में लोग टिके हुए थे उसी कारण से अब कमरे ख़ाली हो गए थे, क्योंकि अब शहर में और नए मुसाफ़िर नहीं आ रहे थे। तारो उन बहुत कम लोगों में से था जो होटल में अभी भी टिके हुए थे। हर मौके पर मैनेजर उन्हें यह बताए बगैर नहीं रहता था कि वह अपने मेहमानों को तकलीफ़ नहीं देना चाहता, वरना वह कभी का होटल बन्द कर देता। वह अक्सर तारो से पूछता था कि उसकी राय में महामारी अभी और कितने दिन तक चलेगी। तारो ने उसे बताया, "सूना है कि सर्दी के आते ही इस किस्म की बीमारियाँ ख़त्म हो जाती हैं।" मैनेजर हक्का-बक्का रह गया और बोला, “लेकिन जनाब इस इलाके में तो सचमुच की सर्दी कभी नहीं पड़ती। खैर जो भी हो, इसका मतलब है कि अभी यह बीमारी कुछ और महीनों तक चलेगी।" इसके अलावा मैनेजर को यक़ीन था कि भविष्य में भी बहुत दिन तक सैलानी इस शहर से दूर-दूर रहेंगे, और पर्यटन कारोबार तबाह हो जाएगा।

कुछ दिन तक गायब रहने के बाद मोशिए ओथों, उल्लू की शक्ल वाला गृहपति फिर डाइनिंग रूम में दिखाई दिया, लेकिन इस बार उसके साथ सिर्फ सरकस के 'झबरे कुत्ते' यानी उसके बच्चे थे। पूछताछ से पता चला कि मदाम ओथों को छूत वाले वार्ड में क्वारंटाइन कर दिया गया था। वह अपनी माँ की देखभाल करती रही थी, जिसकी प्लेग में मौत हो गई थी।

"मुझे यह बात क़तई पसन्द नहीं है," मैनेजर ने तारो से कहा।

"मदाम ओथों छूत के वार्ड में क्वारंटाइन है या नहीं, लेकिन डॉक्टरों को छूत का शक ज़रूर है। इसका मतलब है कि उसके सारे परिवार को छूत हो सकती है।"

तारो ने समझाया कि अगर इस दृष्टि से सोचा जाए तो सभी लोगों को छूत हो सकती है। लेकिन मैनेजर की अपनी राय थी जिसे छोड़ने के लिए वह राज़ी नहीं था।

“नहीं जनाब, आप और हम पर छूत का शक नहीं हो सकता, लेकिन इन लोगों पर ज़रूर है।"

खैर, मोशिए ओथों पर इन बातों का बिलकुल असर नहीं हुआ और न ही प्लेग की वजह से उसकी आदतों में रत्ती-भर फ़र्क आया था। वह हमेशा की तरह शालीनता से डाइनिंग रूम में आता, अपने बच्चों के सामने बैठकर बीच-बीच में शिष्ट, किन्तु अप्रिय टिप्पणियाँ करता। सिर्फ छोटा लड़का कुछ बदल गया था; वह भी अपनी बहन की तरह काले रंग की पोशाक पहनता था, लेकिन वह पहले से दुबला हो गया था और हबह अपने बाप की संक्षिप्त अनुकृति मालूम होता था। रात के चौकीदार ने, जो मोशिए ओथों को नापसन्द करता था, तारो से कहा, “देख लेना, यह छैला इसी तरह कपड़े पहने-पहने मर जाएगा। लगता है, इसने परलोक जाने की पूरी तैयारी कर ली है, इसलिए इसे दफ़नाने में ज्यादा खर्च नहीं आएगा।"

तारो ने फ़ादर पैनेलो के प्रवचन पर भी कुछ टिप्पणियाँ की हैं। “मैं इस तरह के धार्मिक उत्साह को अच्छी तरह समझता हूँ और मुझे यह बुरा नहीं लगता। किसी भी महामारी के शुरू और अन्त में धुआँधार व्याख्यानों की काफ़ी गुंजाइश रहती है। शुरू में इसलिए क्योंकि लोगों की आदतें पूरी तरह से मिटती नहीं, और अन्त में इसलिए क्योंकि पुरानी आदतें फिर से लौटने लगती हैं। जब इनसान किसी मुसीबत में गले तक डूब जाता है तो उसका दिल सचाई के प्रति कठोर हो जाता है, यानी वह ख़ामोश हो जाता है। अच्छा, देखें क्या होता है!”

उसने यह भी नोट किया है कि डॉक्टर रियो से उसकी लम्बी बातचीत हुई। उसे सिर्फ इतना ही याद है कि उस बातचीत का अच्छा असर' पड़ा था, इस सिलसिले में उसने मदाम रियो के रंग, डॉक्टर की माँ की आँखों के पारदर्शी भूरे रंग पर भी गौर किया है। और एक विलक्षण टिप्पणी दी है कि ऐसी निगाहें, जिनमें हृदय की इतनी पवित्रता झलकती है, हमेशा प्लेग पर विजय पाती रहेंगी।

उसने रियो के दमे के मरीज़ के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है। बातचीत के फ़ौरन बाद वह डॉक्टर के साथ उस मरीज़ को देखने के लिए गया था। बूढ़े ने विनोदपूर्ण हँसी से और खुशी से हथेलियाँ रगड़कर तारो का स्वागत किया। वह हमेशा की तरह बिस्तर पर बैठा था और उसके आगे सूखे मटर से भरे दो पतीले रखे थे। तारो को देखते ही उसने कहा, “आह! एक और आ गया! यह उलटी दुनिया है जिसमें मरीजों के बजाय डॉक्टर ज़्यादा हैं, क्योंकि दुनिया उन्हें दिन-ब-दिन घास की तरह काटे जा रही है। क्यों, ठीक है न? उस पादरी की बात सही है। हम लोगों ने खुद ही यह मुसीबत बुलाई है।" अगले दिन तारो बिना ख़बर किए उसे देखने चला आया।

तारो की टिप्पणियों से पता चलता है कि उस बूढ़े ने, जो पेशे से बजाज था, पचास बरस की उम्र में तय किया कि वह जितनी मेहनत कर चुका है, वह ज़िन्दगी-भर के लिए काफ़ी है। वह बीमार पड़ गया और फिर बिस्तर से कभी नहीं उठा। इसका कारण दमा नहीं था, क्योंकि दमे की वजह से उसे चलने-फिरने में कोई दिक़्क़त नहीं हो सकती थी। उसकी थोड़ी-सी बँधी हुई आमदनी थी जिससे वह पचहत्तर बरस की उम्र तक गुज़ारा करता आया था। बुढ़ापे का उसकी खुशमिज़ाजी पर कोई असर नहीं हुआ था। वह घड़ी देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता था और उसके घर में एक भी घड़ी नहीं थी। वह कहता था, “घड़ी बहुत बेहूदा चीज़ है और फिर क़ीमती भी है।" वह वक़्त यानी खाने के वक़्त का पता अपने दो पतीलों से लगा लेता था। जब वह सुबह सोकर उठता था तो एक पतीला सूखे मटरों से भरा रहता था। वह बड़ी सावधानी से लगातार नियमित ढंग से दूसरे पतीले में एक-एक मटर का दाना डालता जाता था। इस तरह वह इन पतीलों की मदद से वक़्त का अन्दाज़ लगाया करता था और दिन में किसी वक़्त भी बता सकता था कि कितने बजे हैं। वह कहता था, “जब पन्द्रह बार पतीला भर जाता है तो खाने का वक़्त आ जाता है। वक़्त जानने का इससे आसान तरीक़ा और क्या हो सकता है?"

उसकी पत्नी का कहना था कि इस सनक के लक्षण उसमें बहुत पहले से दिखाई देने लगे थे। दरअसल उसे किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं थी। वह काम-काज, दोस्तों, कॉफ़ी-हाउसों, औरतों, पिकनिकों के प्रति हमेशा से उदासीन था। वह ज़िन्दगी में सिर्फ एक बार अपने शहर से बाहर गया था। जब उसे अपने किसी घरेलू काम से एल्जीयर्ज़ जाना पड़ा था, उस वक़्त भी वह ओरान के बाद वाले स्टेशन से लौट आया था, क्योंकि उसके लिए इस दुःसाहसपूर्ण काम को जारी रखना असम्भव था।

तारो ने बूढ़े की इस एकान्तपूर्ण ज़िन्दगी पर हैरत जताई थी। उसके जवाब में बूढ़े ने जो कहा था उसका सारांश इस प्रकार है इनसान की शुरू की आधी ज़िन्दगी पहाड़ की चढ़ाई की तरह होती है और दूसरा आधा हिस्सा ढलान की तरह होता है। इस काल में उसका ज़िन्दगी के ऊपर कोई दावा नहीं होता, उसके हक़ किसी भी वक़्त उससे छीने जा सकते हैं। वह उनका कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता और सबसे अच्छी बात यही है कि वह उनसे छेड़ छाड़ न करे। साफ़ ज़ाहिर था कि बूढ़े को अपनी बात काटने में कोई संकोच नहीं होता था, क्योंकि कुछ ही मिनट के बाद उसने तारो से कहा कि वह ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता, अगर ईश्वर होता तो दुनिया में पादरियों की कोई ज़रूरत न रह जाती। इसके बाद की घटनाओं पर गौर करने के बाद तारो को एहसास हुआ कि उस इलाके में लगातार दीन-दुखियों की सहायता के लिए घर-घर घूमकर चन्दा इकट्ठा किया जा रहा था। बूढ़े को उससे सख़्त चिढ़ होती थी। उसकी फ़िलॉसफी का इस चिढ़ से गहरा सम्बन्ध था। बूढ़े ने कई बार यह दिली ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि वह बहुत लम्बी उम्र भोगकर मरना चाहता है। बूढ़े के चरित्र की तस्वीर इस बात से पूरी हो जाती है।

'क्या वह सन्त है?' तारो ने अपने-आप से यह सवाल पूछा और जवाब दिया, “हाँ, अगर आदतें इकट्ठा करना ही सन्तों का गुण है तो सचमुच बूढ़ा एक सन्त था।"

उधर तारो प्लेग-पीड़ित शहर की एक दिन की ज़िन्दगी का एक लम्बासा विवरण तैयार कर रहा था, ताकि उस साल के गरमी के मौसम में हमारे नागरिकों की ज़िन्दगी की सही तस्वीर पेश की जा सके। तारो ने लिखा है, “शहर में शराबियों के सिवा कोई नहीं हँसता और शराबी ज़रूरत से ज़्यादा हँसते हैं।" इसके बाद वह प्लेग का वर्णन शुरू करता है।

“पौ फटने पर हवा के हल्के झोंके ख़ाली सड़कों पर पंखा झलते हैं-रात की मौतों और आने वाले दिन की मृत्यु की यंत्रणा में तड़पने वालों के बीच के वक़्त में ऐसा लगता है जैसे कुछ देर के लिए प्लेग ने अपना हाथ रोक लिया हो और वह साँस लेने के लिए रुक गई हो। सारी दुकानें बन्द रहती हैं, लेकिन कुछ दुकानों पर लगे नोटिसों-'दुकान प्लेग के कारण बन्द है' से ज़ाहिर होता है कि जब और दुकानें खुलेंगी तब भी ये दुकानें बन्द रहेंगी। अख़बार बेचने वाले लड़के अभी नहीं चिल्ला रहे क्योंकि उनकी आँखें अभी अधमँदी हैं, लेकिन वे नींद में चलने वाले लोगों की तरह सड़क के कोनों पर बने बिजली के खम्भों की तरफ़ अपने अख़बार बढ़ा रहे थे। जल्द ही तड़के चलने वाली ट्रामों के शोर से ये लड़के जाग जाएँगे और शहर भर में फैल जाएँगे। इनके बढ़े हुए हाथों में अख़बार होंगे जिन पर बड़े अक्षरों में 'प्लेग' लिखा होगा। क्या पतझड़ के मौसम में भी प्लेग जारी रहेगी? प्रोफ़ेसर बी की राय है 'नहीं'। प्लेग के 14वें दिन हुई मौतों की संख्या एक सौ चौबीस।

“कागज़ की दिनों-दिन बढ़ती कमी से मजबूर होकर कुछ दैनिक अख़बारों ने अपने पृष्ठ कम कर दिए हैं। एक नया अख़बार शुरू हुआ है, 'प्लेग समाचार'। इसका उददेश्य है 'सचाई और ईमानदारी से शहर के लोगों को बीमारी के घटने या बढ़ने की सूचना देना; प्लेग के भविष्य के बारे में विशेषज्ञों की राय को छापना; हर किसी को, चाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र से सम्बद्ध हो, और जो इस महामारी का मुकाबला करना चाहे, लिखने के लिए खुला निमंत्रण देना; जनता के साहस और विश्वास को बनाए रखना; अधिकारियों के नवीनतम आदेशों को प्रकाशित करना और उन तमाम शक्तियों को इकट्ठा करना जो इस मुसीबत में लोगों की सक्रिय सहायता करना चाहती हैं।' दरअसल कुछ दिन बाद ही इस अख़बार के कॉलमों में प्लेग से बचने के नए और अचूक' तरीकों के विज्ञापन छपने लगे।

“तड़के छह बजे ये अख़बार दुकानों के खुलने के एक घंटा पहले से खड़े लोगों की कतारों को बेचे जाते हैं; फिर बाहर की बस्तियों से आने वाली ट्रामों से उतरने वाले लोगों में ये अख़बार बेचे जाते हैं। ट्रामें खचाखच भरी रहती हैं। आजकल ट्रामें आने-जाने का एकमात्र साधन हैं। लोग फुटबोर्डों पर खड़े रहते हैं और इंडों को पकड़कर लटके रहते हैं, इसलिए ट्रामों की चाल भी धीमी हो गई है। एक और अजब बात देखने में आई है कि मुसाफ़िर अपने साथियों की तरफ़ पीठ करके खड़े होते हैं और अपने शरीर को हास्यास्पद रूप से टेढ़ामेढ़ा करते हैं। इन सब बातों के पीछे एक ही मतलब है छूत से बचना। हर स्टॉप पर जलप्रपात की तरह नर-नारियों की एक भारी भीड़ ट्राम से निकलती है। हर व्यक्ति अपने को दूसरे के स्पर्श से बचाने की कोशिश करता है।

"जब तड़के की ट्रामें गुज़र जाती हैं तो धीरे-धीरे शहर जागता है। कुछ कॉफ़ी-हाउस सुबह जल्दी ही अपने दरवाज़े खोल देते हैं। काउंटर पर ऐसे वाक्यों की भरमार रहती है, कॉफ़ी नहीं है, अपने साथ चीनी लाइए इत्यादि। इसके बाद दुकानें खुलती हैं और सड़कें सजीव हो उठती हैं। इस बीच धूप तेज़ हो जाती है और सुबह के वक़्त भी आसमान गरमी से तपते हुए शीशे-जैसा हो जाता है। यही वह वक़्त है जब निकम्मे लोग बुलेवारों में टहलने निकलते हैं। उनमें से अधिकांश तो जैसे विलासिता के प्रदर्शन से ही प्लेग का सामना करने पर तुले नज़र आते हैं। रोज़ ग्यारह बजे के क़रीब नौजवान लड़के और लड़कियों की ड्रेस-परेड-सी नज़र आती है, जिसे देखकर एहसास होता है कि हर तरह की मुसीबत के बीच इनसान के दिल में ज़िन्दगी की कितनी ज़बरदस्त ख़्वाहिश पलती रहती है। अगर महामारी और ज़्यादा फैल गई तो लोगों के चरित्र भी काबू से बाहर हो जाएँगे और हमें मिलान के सैटरनेलिया1-जैसे दृश्य फिर दिखाई देंगे और मर्द और औरतें क़ब्रों के गिर्द मस्ती में नाचेंगे।

"दोपहर को देखते-ही-देखते सारे रेस्तराँ भर जाते हैं। दरवाज़ों के बाहर फ़ौरन ऐसे लोगों के छोटे-छोटे समूह इकट्ठा हो जाते हैं जिन्हें बैठने के लिए जगह नहीं मिलती। तेज़ तपिश की वजह से आसमान की चमक कम हो जाती है। खाना खाने के लिए आए लोग बड़े-बड़े शामियानों के नीचे इन्तज़ार करते हैं। दोपहर की गरमी से झुलसती हुई सड़कों के किनारे लोगों की कतारें लगी रहती हैं। रेस्तराँ में इतनी भीड़ इसलिए रहती है क्योंकि वे बहुत से लोगों की खाने की समस्या को हल कर देते हैं। लेकिन छूत का डर कम करने के लिए वे भी कोई क़दम नहीं उठाते। बहुत से खाने वाले कई मिनट तक कायदे से अपनी प्लेटें साफ़ करते हैं। कुछ दिन पहले रेस्तराँ ने यह नोटिस लगाया था 'ग्राहकों को आश्वासन दिया जाता है कि हमारी प्लेटें, छुरियाँ और काँटे कीटाणुरहित हैं।' लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इस क़िस्म का प्रचार बन्द कर दिया, क्योंकि ग्राहक हर सूरत में वहाँ आते थे। इसके अलावा आजकल लोग दिल खोलकर ख़र्च करते हैं। बढ़िया शराबों या उन शराबों पर, जिन्हें रेस्तराँ वाले बढ़िया बताते हैं, तथा क़ीमती फुटकर चीज़ों पर पैसा खूब उड़ाते हैं। लोग बिना सोचे-समझे फ़िजूलखर्ची करने के मूड में हैं। मालूम होता है कि एक रेस्तराँ में घबराहट का वातावरण छाया था, क्योंकि एक ग्राहक अचानक बीमार पड़ गया, उसका चेहरा सफ़ेद हो गया और वह फ़ौरन लड़खड़ाते हुए क़दमों से दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ा।

“दो बजे के क़रीब धीरे-धीरे शहर ख़ाली होने लगता है। इस वक़्त सड़कों पर ख़ामोशी, धूप, मिट्टी और प्लेग को मनमानी छुट रहती है। ऊँचे भूरे रंग के मकानों के सामने वाले हिस्सों से इन लम्बी, क्लान्त घड़ियों में लगातार गरमी की तरंगें उठती रहती हैं। इस तरह से दोपहर थकी-माँदी चाल से धीरे-धीरे शाम में मिल जाती थी और शाम शहर के भीड़युक्त कोलाहल पर कफ़न की लाल चादर बनकर लिपट जाती थी। जब तेज़ गरमी शुरू हुई तो किसी अज्ञात कारण से सड़कें वीरान रहने लगीं। लेकिन अब ठंडी हवा का ज़रा-सा झोंका आते ही यदि लोगों के दिलों में उम्मीद के पंख नहीं फड़फड़ाते तो कम-से-कम उनके दिल का बोझ तो ज़रूर हल्का हो जाता है। जन-समुद्र घरों से बाहर निकल आता है, बातों के नशे में अपने को बेसुध कर लेता है, बहसें और प्रेम-लीलाएँ शुरू हो जाती हैं, और सूर्यास्त की अन्तिम लालिमा, जो प्रेमियों के जोड़ों से बोझिल हो जाती है और लोगों की आवाज़ों से मुखरित हो उठती हैं, बिना पतवार के जहाज़ की तरह, धड़कते हुए अँधेरे में भटकने लगती है। सिर पर फेल्ट हैट लगाए और फहराती हुई टाई बाँधे एक धर्मप्रचारक व्यर्थ में ही लगातार यह चिल्लाता हुआ बढ़ता है, ‘परमेश्वर नेक और महान है। उसी की शरण में आओ!' बल्कि सब लोग फ़ौरन ऐसे क्षुद्र उद्देश्यों की तरफ़ बढ़ते हैं जिनका तात्कालिक महत्त्व उनकी दृष्टि में परमेश्वर से कहीं ज्यादा है।

“शुरू के दिनों में जब लोगों का ख़याल था कि यह महामारी भी दूसरी महामारियों की तरह है, धर्म का काफ़ी ज़ोर रहा, लेकिन ज्योंही लोगों को तत्काल ख़तरा नज़र आया तो वे ऐयाशी की तरफ़ ध्यान देने लगे। दिन के वक़्त लोगों के चेहरों पर जिन घृणित आशंकाओं की मोहर लगी रहती है वे डर, धूल-भरी प्रचंड रातों में एक विक्षिप्त हर्षोन्माद में बदल जाते हैं और उनके खून में एक रूखी स्वच्छन्दता दौड़ते लगती है।

"और मैं भी दूसरे लोगों से अलग नहीं हैं। लेकिन उससे क्या फ़र्क पड़ता है? मुझ-जैसे लोगों को मौत की परवाह नहीं। घटनाएँ और नतीजे ही उन्हें सही साबित करते हैं।"

(1. आनन्दोत्सव।)

दूसरा भाग : 7

तारो ने अपनी डायरी में जिस मुलाक़ात का जिक्र किया है, रियो से यह मुलाक़ात तारो के आग्रह पर ही हुई थी। उस रोज़ शाम को ऐसा संयोग हुआ कि तारो के आने से पहले डॉक्टर कुछ क्षण तक अपनी माँ को देखता रहा था जो बीमार थी और निहायत ख़ामोशी से डाइनिंग रूम के एक कोने में बैठी थी। घर के काम-काज से फुरसत पाकर वह अपना अधिकांश समय उसी कुर्सी में बिताती थी। गोद में हाथ रखकर वह इन्तज़ार में बैठा करती थी। रियो को ठीक से मालूम नहीं था कि उसकी माँ उसी का इन्तज़ार करती है, लेकिन जब रियो घर में दाखिल होता था तो उसकी माँ के चेहरे का भाव हमेशा बदल जाता था। मेहनत की ज़िन्दगी की वजह से उसके चेहरे पर जो मूक असहायता का भाव आ गया था, फ़ौरन खुशी की दमक में बदल जाता था। इसके बाद उसके व्यक्तित्व में पहले की-सी शान्ति आ जाती थी। उस रोज़ शाम को वह खिड़की से बाहर सुनसान सड़क की तरफ़ देख रही थी। सड़कों पर अब सिर्फ दो-तिहाई रोशनी रह गई थी और शहर के गहन अँधेरे में बहुत देर बाद लैम्प की टिमटिमाती रोशनी दीखती थी।

"जब तक प्लेग रहेगी, क्या बत्तियों का भी यही हाल रहेगा?" मदाम रियो ने पूछा।

"हाँ, मेरे ख़याल से।"

"उम्मीद करनी चाहिए कि जाड़ों तक प्लेग ख़त्म हो जाए, वरना बड़ी उदासी फैल जाएगी।"

“हाँ,” रियो ने कहा।

रियो ने देखा कि उसकी माँ की नज़रें रियो के माथे पर लगी थीं। वह जानता था कि पिछले कुछ दिन की सख़्त मेहनत और परेशानी उसके माथे पर अपनी निशानी छोड़ गई है।

"आज क्या काम-काज ठीक से नहीं हुआ?" रियो की माँ ने पूछा।

"ओह, वैसा ही जैसा हमेशा चलता है।"

हमेशा जैसा! इसका मतलब था कि पेरिस से प्लेग की जो सीरम भेजी गई थी वह पहले वाली सीरम से कम कारगर थी। इसका मतलब था कि मरने वालों की तादाद बढ़ रही थी। अभी तक सिवाय उन परिवारों के, जहाँ प्लेग फैल चुकी थी, प्लेग से बचाव के लिए लोगों को टीका लगाना नामुमकिन था। इस आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने के लिए यह ज़रूरी था कि बहुत बड़ी तादाद में टीके मँगवाए जाएँ। अधिकांश मरीज़ों की गिल्टियाँ फटने में ही नहीं आती थीं। लगता था कि वे भी मौसम के साथ सख़्त हो गई थीं। -प्लेग के मरीजों को बहुत तकलीफ़ सहनी पड़ती थी। पिछले चौबीस घंटों में महामारी की एक नई किस्म के दो मामले आए थे। प्लेग न्यूमोनिक हो गई थी। उसी दिन एक मीटिंग में डॉक्टरों ने, जो बेहद थके और परेशान थे, प्रीफ़ेक्ट को नए हक्म जारी करने के लिए मजबूर किया। बेचारे प्रीफ़ेक्ट के होश-हवास गायब थे। साँस के ज़रिये छूत को रोकने के हक्म जारी किए गए, क्योंकि न्यूमोनिक प्लेग की छूत साँस के ज़रिये ही फैलती है। प्रीफ़ेक्ट ने वैसा ही किया जैसा कि डॉक्टर चाहते थे, लेकिन वे लोग हमेशा की तरह कमोबेश अज्ञान के अँधेरे में भटक रहे थे।

माँ को देखते ही रियो के मन में बचपन की अधबिसरी भावुकता जाग उठी। माँ की कोमल भूरी आँखें बेटे पर गड़ी थीं।

“माँ, तुम्हें कभी डर नहीं लगता?"

“ओह इस उम्र में डरने के लिए बहुत कम बातें रह जाती हैं।"

“आजकल दिन बहुत लम्बे हो गए हैं और अब मैं बहुत कम घर पर रहता हूँ।"

“अगर मुझे मालूम हो कि तुम घर लौटकर आओगे तो मुझे इन्तज़ार करना बुरा नहीं लगता, और जब तुम घर पर नहीं रहते तो मैं सोचती रहती हूँ कि तुम क्या कर रहे होगे। कोई नई खबर है?"

"हाँ, अगर पिछले तार पर विश्वास किया जाए तो उससे यही ज़ाहिर होता है कि उसकी तबीयत बिलकुल ठीक है। लेकिन मैं जानता हूँ उसने मेरी परेशानी कम करने के लिए यह बात लिखी है।"

दरवाज़े की घंटी बजी, डॉक्टर माँ की ओर देखकर मुस्कराया और दरवाज़ा खोलने गया। जीने की मदधम रोशनी में तारो एक बड़े सफ़ेद भालूजैसा दिखाई दे रहा था। रियो ने आगन्तुक को अपनी डेस्क के सामने की कुर्सी पर बिठाया और खुद अपनी कुर्सी के पीछे खड़ा रहा। दोनों के बीच डेस्क का लैम्प था। सारे कमरे में सिर्फ यही एक रोशनी थी। तारो ने फ़ौरन काम की बात शुरू की-“मैं जानता हूँ कि तुमसे मैं बिना किसी संकोच के बातें कर सकता हूँ।"

रियो ने सिर हिलाकर हामी भरी।

“पन्द्रह दिन में या ज़्यादा-से-ज़्यादा एक महीने बाद यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं रहेगा। स्थिति काबू से बाहर हो जाएगी।"

"मान लिया!"

“सफ़ाई का महकमा ठीक से काम नहीं कर रहा-वहाँ बहुत कम कर्मचारी हैं इसके अलावा आपने बहुत मेहनत की है।"

रियो ने इस बात को क़बूल किया।

तारो ने कहा, “खैर मैंने सुना है कि अधिकारी ज़बरन भरती की बात सोच रहे हैं। तमाम स्वस्थ लोगों को प्लेग से लड़ने के लिए भरती किया जाएगा।"

“तुम्हारी ख़बर तो सही है लेकिन अधिकारी वैसे ही बदनाम हैं और प्रीफ़ेक्ट अभी कोई फैसला नहीं कर पा रहा।"

“अगर वह लोगों को मजबूर करने का जोख़िम नहीं उठाना चाहता तो लोगों से यह क्यों नहीं कहा जाता कि वे स्वेच्छा से इस काम में मदद करें?"

"उन्हें कहा जा चुका है। लेकिन बहुत कम लोगों ने सहयोग दिया था।"

"यह काम सरकारी अफ़सरों की मार्फत हुआ था और आधे मन से किया गया था। अफ़सरों में कल्पना और दूरदर्शिता की कमी है। वे कभी किसी असल मुसीबत का मुकाबला नहीं कर सकते और वे जो तरीके सोचते हैं, उनसे मामूली जुकाम को भी नहीं रोका जा सकता। अगर हमने अफ़सरों को इसी तरह काम करने दिया तो जल्द ही वे भी मर जाएँगे और हम भी मौत का शिकार हो जाएँगे।"

“इसकी आशंका बहुत ज़्यादा है, लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि वे जेल के कैदियों को इस 'भारी काम' में लगाने की बात सोच रहे हैं।" रियो ने कहा।

“मैं चाहूँगा कि इस काम में आज़ाद आदमी लगाए जाएँ।"

“चाहूँगा तो मैं भी यही... लेकिन क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हारे मन में यह बात क्यों उठी?"

"मैं नहीं चाहता कि किसी भी आदमी को मौत के मुंह में धकेला जाए। मुझे इससे सख़्त नफ़रत है।"

रियो ने तारो की आँखों में आँखें डालकर देखा।

“तो... क्या?" उसने पूछा।

“मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैंने स्वयंसेवकों के समूह बनाने की एक योजना तैयार की है। आप मुझे अफ़सरों के अधिकार दिलवाएँ ताकि इस योजना को चलाया जा सके, इससे हम अफ़सरशाही से छुट्टी पा लेंगे। वैसे भी अफ़सर आजकल बेहद व्यस्त हैं। हर पेशे में मेरे दोस्त हैं, वे इकट्ठा होकर इस आन्दोलन को शुरू करेंगे। मैं खुद भी इसमें हिस्सा लूँगा।” तारो ने कहा।

रियो ने जवाब दिया, “यह बताने की ज़रूरत नहीं कि मैं तुम्हारे सुझाव को ख़ुशी से क़बूल करता हूँ। विशेषकर इन परिस्थितियों में और मेरे काम में तो जितने मदद करने वाले हों उतना ही अच्छा है। मैं अधिकारियों से तुम्हारी योजना पास कराने का जिम्मा लेता हैं। लेकिन...” रियो गहरे सोच में डूब गया, "लेकिन मेरे ख़याल में तुम जानते ही हो कि इस किस्म के काम से जान का ख़तरा है। मेरा फ़र्ज़ है कि मैं तुमसे एक सवाल पूछं। क्या तुमने सब खतरों पर गौर किया है?"

तारो की भूरी आँखें शान्त भाव से डॉक्टर पर टिक गईं।

“फ़ादर पैनेलो के प्रवचन के बारे में तुम्हारी क्या राय थी, डॉक्टर?"

सवाल बड़े मामूली ढंग से पूछा गया था। रियो ने भी इसी ढंग से जवाब दिया, “मैंने ज़िन्दगी में इतने ज़्यादा अस्पताल देखे हैं कि मुझे सामूहिक सज़ा का विचार पसन्द नहीं आ सकता। लेकिन जैसा कि तुम जानते हो, कई बार ईसाई लोग बिना सोचे ही ऐसी बातें कह जाते हैं। वे जैसे नज़र आते हैं, वे उससे कहीं बेहतर हैं।"

“खैर, तुम भी फ़ादर पैनेलो की तरह सोचते हो कि प्लेग का एक अच्छा पहलू भी है। इसने लोगों की आँखें खोल दी हैं और उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया है।"

डॉक्टर ने बेचैनी से सिर हिलाया।

“यह काम तो हर बीमारी करती है। जो बात दुनिया की और बुराइयों पर लागू होती है, वह प्लेग पर भी लागू होती है। इससे इनसान को अपने से ऊपर उठने में मदद मिलती है। इसके बावजूद जब आप इन मुसीबतों को देखते हैं, जो प्लेग से पैदा होती हैं, तो कोई पागल, डरपोक या बिलकुल अन्धा आदमी ही प्लेग के आगे घुटने टेकने की सलाह देगा।"

रियो ने बिना अपनी आवाज़ ऊँची किए यह बात कही थी, लेकिन तारो ने शायद रियो को शान्त करने के लिए हाथ से इशारा किया। वह मुस्करा रहा था।

रियो ने अपने कन्धे सिकोड़कर कहा, "हाँ, लेकिन तुमने अभी तक मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। क्या तुमने इसके नतीजों पर विचार किया है?"

तारो ने अपने कन्धों को कुर्सी की पीठ से सटाकर अपना सिर रोशनी में आगे बढ़ाया।

"तुम परमेश्वर में यक़ीन करते हो, डॉक्टर?" फिर यह सवाल मामूली लहजे में पूछा गया था, लेकिन इस बार रियो को जवाब सोचने में ज़्यादा देर लगी।

"नहीं लेकिन दरअसल इसका मतलब क्या है? मैं अँधेरे में कुछ पाने की कोशिश में भटक रहा हूँ, लेकिन मुद्दत से मुझे इसमें कोई मौलिकता नहीं दिखाई देती...”

"क्या यह क्या तुम्हारे और फ़ादर पैनेलो के बीच की खाई यही नहीं है?"

“मुझे इसमें शक है। पैनेलो पढ़ा-लिखा विदवान आदमी है। वह कभी मौत के सम्पर्क में नहीं आया। इसीलिए वह सचाई के ऐसे विश्वास से सचाई के 'स' पर जोर देकर यह बात कह सकता है। लेकिन हर देहाती पादरी, जो अपने इलाके में आता-जाता है और जिसने किसी इनसान को मृत्यु-शैया पर छटपटाते हुए देखा है, मेरी ही तरह सोचता है। वह इनसान के दुख-दर्द की अच्छाई बताने के बजाय दुख को दूर करने की कोशिश करेगा।" रियो उठ खड़ा हुआ। अब उसका चेहरा अँधेरे में था। उसने कहा, “तुम मेरे सवाल का जवाब नहीं दोगे, इसलिए इस विषय पर हम और अधिक बात नहीं करेंगे।"

तारो अपनी कुर्सी पर बैठा रहा। वह फिर मुस्करा रहा था।

“मान लो मैं भी जवाब में तुमसे एक सवाल पूछूँ?"

अब डॉक्टर भी मुस्कुराया ।

"तुम्हें रहस्यमय होना अच्छा लगता है। क्यों, ठीक है न?... अच्छा, फ़ौरन पूछो क्या पूछना चाहते हो?”

“मेरा सवाल यह है कि तुम अपने कर्तव्य के प्रति इतनी निष्ठा क्यों दिखाते हो जबकि तुम परमेश्वर में यक़ीन नहीं करते? मेरा ख़याल है तुम्हारे मुझे अपना जवाब देने में मदद मिलेगी । " तारो ने कहा ।

रियो का चेहरा अभी भी अँधेरे में था, उसने कहा कि वह इस सवाल का जवाब पहले ही दे चुका है। अगर उसका किसी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में होता तो वह बीमारों का इलाज करना छोड़ देता और उन्हें उसके रहम पर छोड़ देता। लेकिन दुनिया में कोई भी आदमी इस क़िस्म के परमेश्वर पर की नहीं करता; यहाँ तक कि पैनेलो भी नहीं जिसका ख़याल है कि वह ऐसे परमेश्वर में यकीन रखता है। इसका सबूत यह है कि कभी किसी आदमी ने पूरी तरह अपने को भाग्य पर नहीं छोड़ा। ख़ैर, जो भी हो, इस मामले में रियो समझता था कि वह सही रास्ते पर है- सृष्टि को जिस हालत देखता है उससे संघर्ष करता है।

तारो ने कहा, “आह! तो अपने पेशे के बारे में तुम्हारे ऐसे विचार हैं।”

“कमोबेश !” डॉक्टर रोशनी में वापस आ गया।

तारो ने होंठों से मद्धम आवाज़ में सीटी बजाई और डॉक्टर उसकी तरफ़ आँखें फाड़कर देखने लगा ।

“हाँ, तुम्हारा ख़याल है कि मैं अहंकार की वजह से ऐसा सोचता हूँ । लेकिन मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि मुझमें अहंकार की सिर्फ़ उतनी ही मात्रा है जो ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी है। मेरे भविष्य में क्या है और इस हालत के ख़त्म होने पर क्या होगा इसका अनुमान मैं नहीं लगा सकता। फ़िलहाल तो मैं बस इतना ही जानता हूँ कि मेरे सामने बीमार लोग हैं, जिनका इलाज होना चाहिए। बाद में शायद वे सारी बातों पर गौर करेंगे और मैं करूँगा, लेकिन अभी ज़रूरत है उन्हें ठीक करने की । मैं उन्हें बचाने की भरसक कोशिश करता हूँ, बस !”

" किससे बचाने की?"

रियो खिड़की की तरफ़ मुड़ा । क्षितिज पर एक छाया - रेखा समुद्र के वहाँ होने की सूचना दे रही थी । उसे सिर्फ़ अपनी थकान का एहसास हो रहा था । साथ ही उसके मन में अपने साथी के सामने अपना दिल खोलकर रखने की अचानक एक बेतुकी, तीव्र इच्छा उठ रही थी, जिसे दबाने की वह कोशिश कर रहा था। उसका साथी शायद एक विलक्षण व्यक्ति था, लेकिन डॉक्टर का ख़याल था कि वह उसके ही वर्ग का था।

“मैं बिलकुल नहीं जानता, तारो! यक़ीन करो, मैं बिलकुल नहीं जानता । मैं इस पेशे में बिना किसी विशेष प्रयोजन के ऐसे ही दाख़िल हुआ था, क्योंकि मेरी नज़रों में यह एक कामयाब पेशा था जिसकी आकांक्षा अक्सर बहुत से नौजवान करते हैं। शायद इसलिए भी क्योंकि मुझ जैसे जैसे मज़दूर के बेटे के लिए इतनी तरक़्क़ी करना भी बहुत बड़ी बात थी... फिर मैंने लोगों को मरते हुए देखा। क्या तुम्हें मालूम है कि कुछ लोग आख़िरी दम तक मरने से इनकार करते हैं? क्या तुमने किसी औरत को आख़िरी साँस में 'हरगिज़ नहीं मरूंगी' कहते सुना है? मैंने सुना है । और मैंने देखा कि इन दृश्यों के प्रति मेरा दिल कभी कठोर नहीं हो सकता। उस वक़्त मैं नौजवान था और संसार के विधान को देखकर मेरी अन्तरात्मा को चोट लगती थी। बाद में मैं अधिक विनम्र हो गया। बस मैं लोगों को मरते हुए देखने का आदी नहीं हो सका। मैं सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ। फिर भी चाहे जो हो..."

रियो ख़ामोश होकर बैठ गया । उसका मुँह सूख रहा था।

" फिर भी... क्या?” तारो ने कोमल स्वर में पूछा ।

“फिर भी,” डॉक्टर ने अपनी बात दुहराई और फिर उसे हिचकिचाहट महसूस हुई। उसने तारो पर नज़रें गड़ाकर कहा, “यह एक ऐसी बात है जिसे तुम्हारी क़िस्म का आदमी ज़रूर समझ सकता है, लेकिन संसार का विधान निश्चित होता है, इसलिए क्या यह परमेश्वर के हक में बेहतर नहीं होगा अगर हम उसमें यकीन करना छोड़ दें और अपनी पूरी ताक़त से मौत के ख़िलाफ़ लड़ें, आसमान की तरफ़ नज़रें उठाए बग़ैर जहाँ वह ख़ामोश बैठा है?”

तारो ने सिर हिलाया ।

“हाँ, लेकिन इस हालत में तुम्हारी जीत बहुत दिन तक नहीं टिक पाएगी; बस, मुझे इतना ही कहना है । "

रियो के चेहरे पर विषाद छा गया।

“हाँ, मुझे यह मालूम है। लेकिन इसी वजह से तो हम संघर्ष करना नहीं छोड़ सकते।"

“वजह तो नहीं हो सकती, यह मैं मानता हूँ... मैं सिर्फ़ अब यह कल्पना कर सकता हूँ कि इस प्लेग का तुम्हारे लिए क्या अर्थ है।"

“हाँ, कभी न ख़त्म होने वाली हार ।”

तारो ने पल भर के लिए डॉक्टर की तरफ़ देखा और फिर भारी क़दमों से दरवाज़े की ओर चल पड़ा। रियो उसके पीछे-पीछे आया और उसकी बग़ल में पहुँचा ही था कि तारो ने, जो फ़र्श की तरफ़ देख रहा था, अचानक पूछा:

"तुम्हें ये बातें किसने सिखाईं, डॉक्टर ?”

तुरन्त जवाब आया:

"पीड़ा ने । "

रियो ने ऑपरेशन रूम का दरवाज़ा खोला और तारो से कहा कि वह भी बाहर जा रहा है। उसे शहर से बाहर एक बस्ती में किसी मरीज़ को देखने जाना है। तारो ने सुझाव दिया कि दोनों एक साथ चलें। डॉक्टर राज़ी हो गया। हॉल में उन्हें मदाम रियो मिली। रियो ने माँ से तारो का परिचय करवाया।

"यह मेरा दोस्त है", उसने कहा ।

“सचमुच मुझे तुमसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई।" मदाम रियो ने कहा ।

जब मदाम रियो चली गई तो तारो मुड़कर उनकी तरफ़ देखता रहा ।

ज़ीने पर पहुँचकर डॉक्टर ने बत्ती जलाने के लिए स्विच दबाया, लेकिन ज़ीने में अँधेरा छाया रहा। शायद बिजली की बचत करने के लिए कोई नया ऑर्डर पास किया गया था। लेकिन निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था। पिछले कुछ दिनों से सड़कों और घरों में भी गड़बड़ हो रही थी। हो सकता है शहर के क़रीब क़रीब सभी लोगों की तरह इस इमारत का पोर्टर भी अपने फ़र्ज़ को पूरा नहीं कर रहा हो। इससे आगे सोचने का डॉक्टर को वक़्त ही नहीं मिला। पीछे से तारो की आवाज़ सुनाई दी।

“एक बात और है डॉक्टर, चाहे यह तुम्हें बेवकूफ़ी ही मालूम हो। तुम पूरी तरह ठीक सोचते हो ।”

डॉक्टर ने अपने कन्धे सिकोड़ लिए। अँधेरे में उसकी यह मुद्रा तारो नहीं देख सका।

"सच पूछो तो, यह मेरे दायरे से बाहर की चीज़ है। लेकिन तुम... तुम इस बारे में क्या जानते हो?"

“आह!” तारो ने शान्त स्वर में उत्तर दिया, “मेरे पास सीखने को बहुत कम बचा है। "

रियो रुक गया और उसके पीछे ही एक सीढ़ी पर तारो का पैर फिसल गया। तारो ने डॉक्टर के कन्धे का सहारा लेकर अपना सन्तुलन ठीक किया।

“क्या तुम सचमुच सोचते हो कि तुम्हें जीवन के बारे में सारा ज्ञान प्राप्त हो गया है?"

अँधेरे में उसी शान्त, विश्वासपूर्ण स्वर में जवाब सुनाई दिया।

“हाँ।”

बाहर सड़क पर पहुँचकर उन्हें एहसास हुआ' कि बहुत देर हो गई है। शायद ग्यारह का वक़्त हो गया था। शहर में सिवाय अज्ञात सरसराहटों की आवाज़ के, पूरी ख़ामोशी छाई थी। दूर एम्बुलेंस की मद्धम घंटी सुनाई दी। दोनों जने कार में बैठ गए और रियो ने कार स्टार्ट की ।

तुम कल अस्पताल में इंजेक्शन लेने ज़रूर आना,” रियो ने कहा, “लेकिन इस तरह का...दुस्साहसपूर्ण काम शुरू करने से पहले तुम्हें यह ज़रूर मालूम होना चाहिए कि तुम्हारे ज़िन्दा रहने की कितनी सम्भावना है। हर तीन में से सिर्फ़ एक के बचने की उम्मीद है। "

“इस तरह के हिसाब से कोई फ़ायदा नहीं; तुम इस बात को मेरी तरह समझते हो डॉक्टर! सौ बरस पहले प्लेग ने ईरान के एक शहर की पूरी आबादी का सफाया कर दिया था, सिर्फ़ एक आदमी बच गया था। वह आदमी लाशें ढोने का काम करता था और जब तक प्लेग फैली रही, उसने यह काम जारी रखा।"

"उसे तीन में से एक वाला मौक़ा मिल गया था, बस यही समझो,” रियो ने अपनी आवाज़ धीमी कर ली थी। “लेकिन तुम ठीक कहते हो। इस बारे में हमारा ज्ञान नगण्य ही है।"

वे बस्ती में दाख़िल हो रहे थे। कार के सामने की बत्तियों से ख़ाली सड़कें आलोकित हो रही थीं। कार खड़ी हो गई। रियो ने कार के सामने खड़े होकर तारो से पूछा कि क्या वह अन्दर चलना चाहेगा। तारो ने कहा, “हाँ।”

आसमान की झिलमिलाती हुई रोशनी उनके चेहरों पर पड़ी। अचानक रियो हँस पड़ा। इस संक्षिप्त हँसी में बहुत मैत्री भाव था ।

“साफ़-साफ़ बताओ तारो! आख़िर तुम्हें इस काम में हिस्सा लेने के लिए किसने प्रेरणा दी?"

"मैं नहीं जानता । शायद मेरे... नैतिक सिद्धान्तों ने ।”

“नैतिक सिद्धान्तों ने? क्या मैं पूछ सकता हूँ कि वे सिद्धान्त क्या हैं?"

"बोध!"

तारो मरीज़ के घर की तरफ मुड़ गया। इसके बाद रियो ने उसका चेहरा तब देखा जब वे दमे के बूढ़े मरीज़ के कमरे में पहुँचे।

दूसरा भाग : 8

अगले दिन तारो ने अपना काम शुरू कर दिया और काम करने वालों की पहली टुकड़ी के नाम लिखे। इसके बाद और बहुत से लोगों ने अपने नाम लिखाए ।

ख़ैर, यहाँ कथाकार का मकसद सफ़ाई करने वाली इन टुकड़ियों को ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्व देना नहीं है। इसमें शक नहीं कि आजकल हमारे अधिकांश नागरिक इस टुकड़ी की सेवाओं की अतिरंजित प्रशंसा करने के मोह को नहीं छोड़ सकते। लेकिन कथाकार का ख़याल है कि प्रशंसनीय कामों को ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्व देने का अर्थ है इनसान की प्रकृति के सबसे बुरे पहलू को प्रच्छन्न, लेकिन सशक्त रूप से श्रद्धांजलि अर्पित करना। इस दृष्टिकोण को अपनाने का अर्थ है कि ऐसे काम अनुपम और दुर्लभ हैं जबकि क्रूरता और उदासीनता अधिक सहज और स्वाभाविक हैं। कथाकार इस दृष्टिकोण को नहीं मानता। दुनिया में जो बुराई है वह हमेशा अज्ञान से पैदा होती है। और अगर नेकनीयती में विवेक नहीं है तो वह भी उतना ही नुकसान पहुँचा सकती है जितना कि मानव-द्रोह और दुर्भावना। अगर सम्पूर्णता में देखा जाए तो इनसानों में बुराई के बजाय अच्छाई ज़्यादा होती है, लेकिन असली बात यह नहीं है। इनसान कमोबेश अज्ञान के शिकार हैं, इसी को हम अच्छाई या बुराई कहते हैं। सबसे बड़ा पाप, जिसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, ऐसे क़िस्म का अज्ञान है जो सोचता है कि वह सब कुछ जानता है इसलिए उसे हत्या का अधिकार है। हत्यारे की आत्मा अन्धी होती है; सच्ची नेकी या सच्चा प्यार परम स्पष्टदर्शिता के बग़ैर सम्भव नहीं है।

इसलिए सफ़ाई करने वाली इन टुकड़ियों को, जिन्हें बनाने का समूचा श्रेय तारो को था, समर्थन प्राप्त होना चाहिए और इन्हें वस्तुपरक दृष्टि से देखना चाहिए । इसीलिए कथाकार लच्छेदार भाषा में उनके साहस और सेवा-भाव को बयान नहीं करता, बल्कि अपेक्षाकृत उतना ही महत्त्व देता है जितना कि मिलना चाहिए। लेकिन वह प्लेग से पीड़ित हमारे नगरवासियों के विद्रोही और आहत दिलों का इतिहासकार बना रहेगा ।

जिन लोगों ने 'सैनेटरी स्क्वैड' में नाम लिखाया था, वे किसी उदात्त आदर्श से प्रेरित नहीं हुए थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनके सामने सिर्फ़ यही रास्ता है, इसके विपरीत जाने की वे कल्पना तक नहीं कर सकते थे। इन टुकड़ियों ने हमारे नगरवासियों को महामारी से लड़ने में मदद की और उन्हें यकीन दिला दिया कि जब प्लेग उनके सिर पर आ ही पड़ी है तो उससे लड़ने की जिम्मेवारी भी उन्हीं के ऊपर है। जब से प्लेग से लड़ना कुछ लोगों का फ़र्ज़ बन गया, तब से वह अपने असली रूप में प्रकट हुई अर्थात वह हम सब लोगों का सरोकार बन गई।

ख़ैर, जो हुआ अच्छा हुआ ! लेकिन हम किसी स्कूल टीचर को इस बधाई नहीं देते कि वह बच्चों को 'दो और दो चार होते हैं' सिखाता है, हालाँकि हम शायद उसे इस बात की बधाई दे सकते हैं कि उसने एक प्रशंसनीय पेशा चुना है। तो फिर आइए हम कहें कि तारो और अनेक दूसरे लोगों ने 'दो और दो चार होते हैं' सिद्ध करने का जिम्मा लिया था इसलिए वे बधाई के पात्र हैं। उन्होंने इससे उलटी बात सिद्ध करने की कोशिश नहीं की। लेकिन हम यह भी कहेंगे कि उनकी यह सद्भावना स्कूल मास्टरों में और स्कूल- मास्टरों की तरह सोचने वाले अनेक लोगों में पाई जाती है। मानव जाति के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों की संख्या हमारी उम्मीद से कहीं ज़्यादा है। कम-से-कम कथाकार का तो यही विश्वास है। कहना न होगा कि उसके ख़िलाफ़ जो इल्ज़ाम लगाया जा सकता है वह कथाकार को मालूम है, वह यह है कि तारो और उसके साथी अपनी जान को जोख़िम में डाल रहे थे। लेकिन इतिहास में ऐसा मौक़ा बार-बार आता है जब 'दो और दो चार होते हैं' कहने का साहस करने वाले आदमी को मौत की सज़ा दी जाती है। स्कूल- टीचर इस बात को अच्छी तरह जानता है। सवाल यह नहीं है कि इस गिनती के फलस्वरूप क्या इनाम या सज़ा मिलती है। सवाल यह है कि 'दो और दो चार होते हैं' यह बात किसी को मालूम है या नहीं। हमारे जो नगरवासी इस मुसीबत में अपनी जान जोख़िम में डाल रहे थे, उनके सामने सवाल यह था कि प्लेग उनके बीच मौजूद थी या नहीं, और उससे लड़ना उन लोगों का फ़र्ज़ था या नहीं।

उन दिनों बहुत से नए नैतिकतावादी पैदा हुए थे जो हमारे शहर में इस बात का प्रचार करते घूमते थे कि प्लेग पर कोई बस नहीं चल सकता और हमें विधाता की मरज़ी के आगे सिर झुका देना चाहिए। तारो, रियो और उनके दोस्त चाहे जैसे जवाब देते, लेकिन वे सब एक ही नतीजे पर पहुँचे थे, उन्हें यकीन था कि किसी-न-किसी तरीके से प्लेग के ख़िलाफ़ संघर्ष ज़रूर करना चाहिए और हरगिज़ झुकना नहीं चाहिए। सबसे ज़रूरी बात यह थी कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को मरने और अन्तहीन बिछोह से बचाया जाए। इसे करने का सिर्फ़ एक ही साधन था - प्लेग से जूझना । इस दृष्टिकोण में प्रशंसा की कोई विशेष बात नहीं थी, यह तर्कसंगत ही था ।

इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि बूढा डॉक्टर कॉस्तेल अटल विश्वास से, लगातार मेहनत करके थोड़े सामान और वक़्त में ही प्लेग की सीरम तैयार कर रहा था। रियो को भी यक़ीन था कि प्लेग के ताज़ा कीटाणुओं से तत्काल बनी सीरम बाहर से मँगाई जाने वाली सीरम से ज़्यादा जल्दी असर करेगी, क्योंकि ट्रॉपिकल रोगों की पाठ्य पुस्तकों में प्लेग के जिन जीवाणुओं का ज़िक्र पाया जाता है वे हमारी प्लेग के जीवाणुओं से कुछ अलग क़िस्म के थे, कॉस्तेल को उम्मीद थी कि वह बहुत कम वक्त में सीरम की शुरू की सप्लाई तैयार कर लेगा ।

इसलिए यह भी स्वाभाविक था कि ग्रान्द, जिसे किसी माने में 'हीरो' नहीं कहा जा सकता था, इस वक़्त सैनेटरी स्क्वैडों का जनरल सेक्रेटरी था। तारो द्वारा संगठित की गई टुकड़ियों के कुछ हिस्से शहर के अधिक आबादी वाले इलाक़ों में काम कर रहे थे ताकि वहाँ सफ़ाई की हालत सुधारी जा सके। उनका काम घरों की सफ़ाई देखना और उन तहख़ानों और बरसातियों की सूची बनाना था जिनकी सफ़ाई सरकार के सफ़ाई विभाग ने अभी तक नहीं की थी। स्वयंसेवकों के जत्थे डॉक्टरों के साथ एक-एक घर में जाकर प्लेग की छूत वाले लोगों को घरों से निकालकर अस्पताल पहुँचाते थे। चूँकि ड्राइवरों की कमी थी इसलिए वे मरीज़ों और मुर्दों की गाड़ियों को भी चलाते थे। इन सारे कामों में बाकायदा आँकड़े और रजिस्टर रखने पड़ते थे। यह काम ग्रान्द ने सँभाला।

इस लिहाज़ से कथाकार का ख़याल है कि रियो और तारो से भी ज्यादा ग्रान्द सफ़ाई की टुकड़ियों के साहस का सच्चा प्रतीक था। उसने अपने स्वभाव के अनुसार बिना किसी हिचकिचाहट के सहृदयतापूर्वक फ़ौरन अपनी स्वीकृति दे दी थी। उसने सिर्फ़ यह माँग की थी कि उसे हल्का काम सौंपा जाए, क्योंकि बुढ़ापे में वह इससे ज्यादा भारी काम नहीं कर सकता था। हर रोज़ शाम को वह छह से लेकर आठ बजे तक का वक़्त देने के लिए राज़ी हो गया। जब रियो ने उत्साहपूर्वक उसे धन्यवाद दिया तो ग्रान्द ने आश्चर्य प्रकट किया “क्यों, यह भी कोई मुश्किल काम है? प्लेग हमारे बीच में मौजूद है और यह साफ़ है कि हमें कोई क़दम उठाना ही पड़ेगा। काश! हर चीज़ सीधी और आसान होती!” और उसने फिर अपना प्रिय मुहावरा इस्तेमाल किया। कई बार शाम को अपनी रिपोर्ट लिखने और आँकड़े तैयार करने के बाद ग्रान्द और रियो गपशप किया करते थे। कुछ दिन में तारो भी उनकी बातचीत में शामिल होने लगा। अपने दोनों साथियों के सामने अपने दिल का बोझ हल्का करने में ग्रान्द को बेहद ख़ुशी होती । उसके साथी उसके कठिन साहित्यिक प्रयास में सच्ची दिलचस्पी लेने लगे, जिसमें वह प्लेग के बावजूद जुटा था। इस चर्चा से उनकी मानसिक थकान भी कम हो जाती थी।

"तुम्हारी घुड़सवार महिला का क़िस्सा कैसा चल रहा है?" तारो पूछता और ग्रान्द हमेशा तिरछी मुस्कान के साथ कहता, “दुलकी चाल से चल रही है चल रही है !" एक दिन शाम को ग्रान्द ने एलान किया कि वह घुड़सवार महिला के लिए 'शानदार' शब्द इस्तेमाल नहीं करेगा, बल्कि उसे 'इकहरे बदन वाली' कहेगा। "यह शब्द अधिक ठोस और वास्तविक है।" उसने समझाया। इसके बाद उसने दोनों दोस्तों को वाक्य का नया रूप सुनाया ।

"मई के महीने की एक सुहानी सुबह एक इकहरे बदन वाली घुड़सवार तरुणी बोये द बोलोन के फूलों से सुसज्जित रास्तों में ललछौंहे भूरे रंग की एक ख़ूबसूरत घोड़ी पर देखी जा सकती थी ।

"इस तरह से बेहतर तस्वीर बनती है न! और मैंने मई के महीने की जगह 'मई के महीने की एक सुहानी सुबह' लिखा है, क्योंकि पहले वाक्य से घोड़ी की चाल वाला अंश कुछ लम्बा हो जाता था, आप मेरा मतलब समझ गए हैं न?"

इसके बाद ग्रान्द ने 'ख़ूबसूरत' विशेषण पर कुछ परेशानी ज़ाहिर की । उसकी राय में यह विशेषण उसकी भावनाओं को पूरी तरह व्यक्त करने में असमर्थ था, इसलिए वह किसी ऐसे विशेषण की तलाश में था जो फ़ौरन और साफ़ ढंग से उस शानदार जानवर की तस्वीर खींच सके, जिसकी तस्वीर उसके मन में थी। 'गदराया हुआ' शब्द ठोस होते हुए भी ठीक नहीं था, बल्कि इसमें हिकारत और बेहूदगी की मात्रा थी। कुछ क्षण के लिए उसे 'खरहरा किया' शब्द मोहक लगा था, लेकिन यह भारी और फूहड़ था, जिससे लय में शिथिलता आ गई थी। फिर एक दिन उसने विजेता भाव से घोषित किया कि उसे सही शब्द मिल गया, 'काली, ललछौंही भूरी घोड़ी।' उसने कहा कि 'काली' से ऐश्वर्य और सुन्दरता का आभास मिलता है।

"इससे काम नहीं चलेगा?"

"क्यों नहीं?"

"क्योंकि 'ललछौंही भूरी' घोड़े की नस्ल नहीं बल्कि एक रंग है।"

"कौन-सा रंग?"

"ख़ैर... जो भी हो, यह काला रंग नहीं है। "

ग्रान्द बेहद परेशान दीख रहा था।

“धन्यवाद,” उसने उत्साह से कहा, “कितनी ख़ुशकिस्मती की बात है कि आप मेरी मदद कर रहे हैं! लेकिन आप लोगों ने देखा यह कितना मुश्किल काम है!"

"चमकदार' कैसा रहेगा?” तारो ने सुझाव दिया।

ग्रान्द ने सोच में डूबी नज़रों से उसकी तरफ़ देखा और कहा, “हाँ, यह अच्छा शब्द है।” और धीरे-धीरे उसके होंठों पर एक मुस्कान खिल उठी ।

कुछ दिन बाद उसने बताया कि 'फूलों से सुसज्जित' शब्द उसे काफ़ी परेशान कर रहा है। वह सिर्फ़ दो शहरों, ओरान और मोतेलीमार से परिचित है। कई बार वह अपने दोस्तों से कहता कि वे उसे बोये द बोलोन की वृक्षों से ढकी सड़कों के बारे में बताएँ-वहाँ फल किस क़िस्म के होते हैं और किस तरतीब में लगाए जाते हैं? दरअसल रियो और तारो में से किसी को कभी यह अन्दाज़ नहीं था कि वे सड़कें 'फूलों से सुसज्जित' थीं। लेकिन ग्रान्द की अटल आस्था ने उन्हें अपनी स्मृतियों पर अविश्वास करने के लिए मजबूर कर दिया। ग्रान्द को उन लोगों के अविश्वास पर ताज्जुब हुआ। वह इस नतीजे पर पहुँचा कि सिर्फ़ कलाकार ही अपनी आँखों का इस्तेमाल करना जानते हैं। लेकिन एक दिन शाम को रियो ने उसे उत्तेजित हालत में पाया, क्योंकि 'फूलों से सुसज्जित' के बजाय उसने 'बिखरे हुए फूल' लिख दिया था। वह बार-बार अपनी हथेलियाँ रगड़ रहा था। “अब मैं उन फूलों को देख सकता हूँ, सूँघ सकता हूँ । हैट्स ऑफ, जेंटलमैन!" फिर उसने विजेता भाव से वाक्य पढ़कर सुनाया ।

"मई के महीने की एक सुहानी सुबह एक छरहरे बदन की नौजवान घुड़सवार लड़की बोये द बोलोन के वृक्षों से ढके मार्ग पर एक चमकदार ललछौंही भूरी घोड़ी पर सवार देखी जा सकती थी। रास्ते में फूल बिखरे हुए थे।"

लेकिन जब यह वाक्य ऊँचे स्वर में पढ़ा गया तो बहुवचन के 'ओं' अप्रिय मालूम हुए। ग्रान्द की आवाज़ बीच-बीच में अटक गई और मन्द हो गई। ग्रान्द हताश भाव से बैठ गया और उसने डॉक्टर से जाने की इजाज़त माँगी। उसे अब कठिन चिन्तन करना था।

बाद में पता चला कि इन्हीं दिनों दफ्तर में काम करते हुए ग्रान्द में लापरवाही और भुलक्कड़पन के लक्षण दिखाई देने लगे थे। अधिकारियों ने इस मामले को गम्भीर समझा था। म्यूनिसिपल के पास बहुत कम स्टाफ़ रह गया था और उन पर काम का बोझ बढ़ गया था। इसके अलावा लगातार उन्हें नई ज़िम्मेदारियाँ सँभालनी पड़ रही थीं। ग्रान्द की लापरवाही का असर उसके विभाग की कार्यकुशलता पर पड़ा। उसके अफ़सर ने उसकी ख़ूब ख़बर ली और कहा कि उसे काम करने के लिए तनख़्वाह मिलती है और वह अपने काम को ठीक से नहीं कर रहा । "मुझे पता चला है कि तुमने सफ़ाई करने वाले स्वयंसेवकों की टुकड़ी में भी अपना नाम लिखाया है। खैर, तुम दफ़्तर की ड्यूटी के बाद के समय में यह काम करते हो, इसलिए मुझे इससे कोई सरोकार नहीं। लेकिन ऐसे मुसीबत के वक़्त समाज-सेवा का एक ही तरीक़ा है। वह यह कि सब लोग अपना काम ठीक से करें। बाक़ी सब बातें बेकार हैं।”

"वह ठीक कहता है," ग्रान्द ने रियो से कहा ।

“हाँ, वह ठीक कहता है।" डॉक्टर ने सहमति जताई।

"लेकिन मैं अपने विचारों को सन्तुलित नहीं कर पाता। वाक्य का अन्तिम हिस्सा मुझे परेशान किए रहता है। मैं ठीक शब्दों का चुनाव नहीं कर पा रहा । "

बार-बार बहुवचन के 'ओं' की ध्वनि ग्रान्द को अब भी कर्णकटु मालूम होती थी, लेकिन उन्हें सुधारने के लिए उसके सामने सिवा घटिया पर्यायवाची शब्दों का इस्तेमाल करने के और कोई चारा नहीं था । 'बिखरे हुए फूल' का प्रयोग जब पहली बार उसके दिमाग़ में आया था तो उसे बेहद ख़ुशी हुई थी, लेकिन अब इससे उसे सन्तोष नहीं हो रहा था। यह कैसे कहा जा सकता था कि फूल बिखरे हुए हैं जबकि वे रास्ते के दोनों ओर लगाए गए होंगे या अपने आप ही उग आए होंगे। किसी-किसी शाम को तो वह रियो से भी ज़्यादा थका हुआ दिखाई देता था।

सचमुच लगातार इस व्यर्थ खोज ने उसके मन को थका दिया था, फिर भी वह रजिस्टर में पूर्ववत आँकड़े जमा करता और लिखता था, जिनकी ज़रूरत सफ़ाई की टुकड़ियों को थी। धैर्यपूर्वक हर शाम वह आँकड़ों का नए सिरे से योग करता था और उसे स्पष्ट करने के लिए ग्राफ़ भी तैयार करता था। वह अपने ‘तथ्यों' को बिलकुल साफ़ और सही रूप में पेश करने की कोशिश में अपने दिमाग़ को झकझोर डालता था। अक्सर वह किसी अस्पताल में रियो से मिलने जाता था कि किसी दफ़्तर या डिस्पेंसरी में उसके लिए मेज़-कुर्सी का प्रबन्ध कर दिया जाए। फिर वह एकाग्रतापूर्वक काम करने बैठ जाता था, ठीक उसी तरह जैसे वह म्यूनिसिपल कमेटी में अपनी मेज़ के आगे बैठकर काम करता था। हर बार काग़ज़ लिखकर वह स्याही सुखाने के लिए गरम हवा में हिलाता था जिसमें कीटाणुनाशक दवाइयों और बीमारी की गन्ध बसी थी। ऐसे मौकों पर ईमानदारी से कोशिश करता था कि वह 'घुड़सवार महिला' के बारे में न सोचे और अपना ध्यान काम पर केन्द्रित करे।

हाँ, अगर यह सच है कि लोग चाहते हैं कि उनके सामने उन लोगों की मिसालें रखी जाएँ जिन्हें वे 'बहादुर' कहते हैं और अगर यह नितान्त आवश्यक है कि इस कहानी में 'हीरो' हो, तो कथाकार अपने पाठकों से उस अज्ञात और मामूली 'हीरो' का परिचय कराता है जिसके पास सिर्फ़ एक नेक दिल और एक ऐसा आदर्श है जो देखने में हास्यास्पद मालूम होता है। कथाकार का विचार है कि वह पाठकों के साथ पूरा इंसाफ़ कर रहा है। इससे सचाई के प्रति भी उसका फ़र्ज़ पूरा हो जाएगा। दो और दो मिलकर चार हो जाएँगे और बहादुरी को ख़ुशी के मुक़ाबले दूसरे नम्बर की जगह मिलेगी जो कि हमेशा मिलनी चाहिए, क्योंकि पहली जगह पाने का हक़ ख़ुशी को है। इससे इस इतिहास में भी व्यक्तित्व पैदा हो जाएगा, जिसका उद्देश्य कहानी में अच्छी भावनाओं का अर्थात उन भावनाओं का समावेश करना है जो न तो बुराई का प्रदर्शन करती हैं, न ही जिनमें स्टेज के नाटक की तरह सस्ती और कुरूप भावुकता है।

कम-से-कम डॉक्टर रियो की तो यही राय थी जब उसने अख़बारों में वे सन्देश और प्रोत्साहन के शब्द पढ़े और रेडियो पर सुने जो बाहर की दुनिया के लोगों ने प्लेग-ग्रस्त नगरवासियों को भेजे थे। हवाई जहाज़ या सड़कों के रास्ते उन्होंने सामान तो भेजा ही था, इसके अलावा दुनिया से कटे हुए उस शहर से अख़बारों के लेखों और रेडियो वार्ताओं में भी स्नेह और प्रशंसा व्यक्त की जाती थी। हर बार उन लेखों और वार्ताओं की लच्छेदार भाषा सुनकर, जैसी कि इनाम पाने के लिए दिये गए भाषणों में लिखी जाती है, डॉक्टर को बहुत बुरा लगता था। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि डॉक्टर को यह अच्छी तरह मालूम था कि यह हमदर्दी सच्ची है। लेकिन इसे सिर्फ़ परम्परागत भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता था, जिसमें लोग उस भावना को व्यक्त करने की कोशिश करते हैं जो उन्हें मानव मात्र से जोड़ती है; मिसाल के लिए यह शब्दावली ग्रान्द की रोज़मर्रा की छोटी-छोटी कोशिशों को व्यक्त करने में तो नाकाम थी ही, प्लेग की परिस्थितियों में भी ग्रान्द के क्या आदर्श थे, यह बयान करने में भी वह असमर्थ थी ।

कई बार आधी रात को नींद में सोए शहर के विशाल मौन में, सोने से पहले डॉक्टर रेडियो सुनता था। इन दिनों वह अपने को बहुत कम सोने था। धरती के सुदूर छोरों से, ज़मीन और समुद्र के हज़ारों मील पार सहृदय और दयावान वक्ता सहानुभूति की अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की कोशिशें कर रहे थे, लेकिन उन्होंने यह भी साबित कर दिया कि कोई भी व्यक्ति ऐसी किसी अदृश्य पीड़ा का साझीदार नहीं बन सकता। 'ओरान! ओरान!' व्यर्थ में ही यह आवाज़ समुद्र पार से गूँज रही थी और व्यर्थ में ही रियो दिल में उम्मीद लेकर रेडियो सुनता था। हर बार सुवचनों का ज्वार उठता था जिससे वक्ता और ग्रान्द के बीच कभी न पटने वाली खाई का एहसास और बढ़ जाता था। वे लोग भावुक स्वर में आवाज़ देते थे, “ओरानवासियो, हम तुम्हारे साथ हैं!” लेकिन, डॉक्टर ने मन-ही-मन कहा, लेकिन प्यार और मौत में वे हमारे साथी नहीं और साथ देने का यही एक तरीका है। वे लोग हमसे बहुत दूर हैं।

दूसरा भाग : 9

और, उस ज़माने में जब प्लेग अपनी तमाम ताक़तें इकट्ठी करके शहर पर धावा बोल रही थी और उसे बरबाद कर रही थी, उसका ज़िक्र करने से पहले प्रसंगवश हमें रेम्बर्त जैसे हठीले लोगों के लम्बे और हृदय विदारक, नीरस संघर्ष का ज़िक्र करना होगा। वे अपनी खोई ख़ुशी के लिए लड़ रहे थे और प्लेग को अपने व्यक्तित्व के उस हिस्से से वंचित रखना चाहते थे जिसे बचाने के लिए वे अन्तिम क्षण तक जूझने को तैयार थे। गुलामी की जंज़ीरों से लड़ने का उन्होंने यही तरीक़ा सोचा था। हालाँकि उनका संघर्ष सक्रिय नहीं था, फिर भी ( कथाकार की दृष्टि में) उसमें अपनी एक महानता थी। इसके अलावा अपनी निरर्थकता और असंगतियों में भी यह संघर्ष एक कल्याणकारी अहंकार का साक्षी था।

रेम्बर्त प्लेग से इसलिए लड़ रहा था ताकि प्लेग उस पर काबू न पा सके। जब उसे यकीन हो गया कि वह किसी जायज़ तरीके से शहर से बाहर नहीं निकल सकता तो उसने तय किया, जैसा कि उसने रियो को बताया कि वह दूसरे तरीके अपनाएगा। सबसे पहले उसने कॉफ़ी हाउसों के वेटरों से साँठ-गाँठ की। आमतौर पर वेटरों को अन्दरूनी बातों का पता रहता है। लेकिन पहले जिस वेटर से उसने बात की उससे तो यही पता चला कि शहर से भागने की कोशिश करने वालों को सख़्त जुर्माने होते हैं और सजाएँ दी जाती हैं। एक कॉफ़ी हाउस में तो सचमुच उसे भेदिया समझकर खदेड़ दिया गया । जब रियो के यहाँ उसकी मुलाक़ात कोतार्द से हुई तब जाकर मामला कुछ आगे बढ़ा। उस रोज़ उसमें और रियो में फिर बातचीत हो रही थी कि किस तरह अफ़सरों ने उसकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया। कोतार्द ने उनकी बातचीत का आख़िरी हिस्सा सुना ।

कुछ दिन बाद रेम्बर्त की कोतार्द से सड़क पर मुलाक़ात हो गई। इन दिनों कोतार्द सबसे तपाक से मिलता था।

उसने पूछा, "हेलो रेम्बर्त! अभी तक कामयाबी नहीं मिली?"

“बिलकुल नहीं।”

"इन लाल फीते के व्यापारियों पर भरोसा करने से कोई फ़ायदा नहीं । चाहकर भी वे तुम्हारी बात नहीं समझ सकते । "

“मैं जानता हूँ और अब मैं कोई दूसरा तरीक़ा तलाश कर रहा हूँ। यह टेढ़ा मामला है।"

“हाँ, टेढ़ा तो है ही, लेकिन..." कोतार्द ने कहा ।

उसे एक तरकीब मालूम थी और उसने वह तरकीब रेम्बर्त को समझाई। रेम्बर्त को बहुत ताज्जुब हुआ । पिछले कुछ दिन से वह कॉफ़ी - हाउसों के चक्कर काटता रहा था, उसका कई नए लोगों से परिचय हुआ था और उसे पता चला था कि ऐसे मामलों के लिए एक 'संस्था' थी। दरअसल कोतार्द, जो इन दिनों अपनी हैसियत से कहीं ज़्यादा ख़र्च करने लगा था, चोरी से राशन की चीज़ों को बाहर से मँगवाता था। वह ऊँचे दामों पर चोरी से मँगवाए सिगरेट और घटिया शराबें बेचता था, जिससे उसने अच्छी-खासी रकम जमा कर ली थी।

“क्या तुम विश्वासपूर्वक कह सकते हो कि यह सम्भव है?" रेम्बर्त ने पूछा।

“बिलकुल । अभी कुछ दिन पहले किसी ने मुझसे यह प्रस्ताव किया था।”

“लेकिन तुमने इसे स्वीकार नहीं किया । "

"छोड़ो भी, इसमें शक की कोई बात नहीं । ” कोतार्द के लहजे में मैत्री - भाव था। "मैंने इसलिए स्वीकार नहीं किया, क्योंकि मुझे यहाँ से जाने की कोई इच्छा नहीं। इसके कई कारण हैं।” थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद उसने कहा, “देखता हूँ कि तुम्हें इन कारणों में कोई दिलचस्पी नहीं है । ”

"मैं समझता हूँ कि उन कारणों से मुझे कोई सरोकार नहीं ।" रेम्बर्त ने जवाब दिया।

“एक माने में यह सही है, लेकिन दूसरे लिहाज से स्थिति यूँ है कि जब से शहर में प्लेग फैली है, मैं ज़्यादा आराम से रहने लगा हूँ।”

रेम्बर्त ने कोई टिप्पणी नहीं की, फिर उसने पूछा, “अच्छा इस तथाकथित 'संस्था' से कैसे सम्पर्क किया जा सकता है?"

“आह! यह आसान बात नहीं है।... मेरे साथ आओ,” कोतार्द ने कहा ।

शाम के चार बजे थे। जलते हुए आसमान तले शहर जैसे उबल रहा था। आसपास कोई नज़र नहीं आता था। सब दुकानों के दरवाज़े बन्द थे। कोतार्द और रेम्बर्त मेहराबों के नीचे से कुछ दूर तक चुपचाप चलते गए। इस वक़्त प्लेग का प्रकोप कुछ कम रहता था। महामारी की तरह तेज़ रोशनी की वजह से भी सारे रंग मुरझा जाते थे और लोगों का आना-जाना बन्द हो जाता था । यह कहना मुश्किल था कि हवा में ख़तरे का भारीपन था या सिर्फ़ धूल और गरमी का ध्यान से देख और सोचकर ही किसी को वहाँ प्लेग की मौजूदगी का एहसास हो सकता था। सिर्फ़ नकारात्मक इशारों से ही प्लेग अपनी मौजूदगी का पता देती थी । कोतार्द ने, जिसकी आजकल प्लेग से दोस्ती थी, रेम्बर्त का ध्यान कुत्तों की अनुपस्थिति की तरफ दिलाया जो आमतौर पर यहाँ दरवाज़ों की छाँह में लेटकर हाँफते हुए, ठंडी ज़मीन के टुकड़े को तलाश करने का निरर्थक प्रयास करते हुए देखे जा सकते थे।

वे बुलेवार द पामीयर्ज़ से होते हुए प्लेस द आर्मे से गुज़रे और फिर बन्दरगाह की ओर मुड़े। बाईं तरफ़ एक कॉफ़ी-हाउस था जिस पर हरे रंग की सफ़ेदी की गई थी और पीले रंग की खुरदरी कैनवस की कनात फुटपाथ तक फैली हुई थी। कॉफी-हाउस में घुसते वक़्त कोतार्द और रेम्बर्त ने अपना- अपना माथा पोंछा । भीतर लोहे की छोटी-छोटी मेजें थीं, जिन पर हरे रंग का रोगन किया गया था। बन्द होने वाली कुर्सियाँ भी थीं। कमरा खाली था, हवा में मक्खियों की भिनभिनाहट सुनाई दे रही थी। शराब के काउंटर पर पीले रंग के पिंजड़े में एक तोता अपने अड्डे पर बैठा था। उसके सारे पंख ढलके हुए थे। दीवारों पर कुछ सैनिक दृश्यों की तस्वीरें थीं जो मिट्टी और मकड़ी के जालों से ढकी हुई थीं। मेज़ों पर पक्षियों की बीटें सूख रही थीं- उस मेज़ पर भी, जिसके आगे रेम्बर्त बैठा था। उसे ताज्जुब हुआ कि ये बीटें कहाँ से आईं। इतने में किसी के पंख फड़फड़ाने की आवाज़ आई और एक खूबसूरत मुर्गा अँधेरे कोने से निकलकर फुदकता हुआ आया, जहाँ वह छिपा बैठा था।

इसी वक़्त गरमी कई दरजे ज़्यादा बढ़ गई। कोतार्द ने अपना कोट उतार दिया और मेज़ पर ज़ोर से मुट्ठी मारकर आवाज़ की। एक बेहद नाटा आदमी नीले रंग का लम्बा एप्रन पहनकर, जो उसकी गरदन तक उठा हुआ था, पीछे के दरवाज़े से आया। उसने कोतार्द को अभिवादन किया और ज़ोर से मुर्गे को अपने रास्ते से हटाता हुआ मेज़ के पास पहुँचा। मुर्गे की गुस्से-भरी कें-कें को डुबोने के लिए उसने ऊँची आवाज़ में दोनों जनों से पूछा कि वे क्या पसन्द करेंगे? कोतार्द ने सफ़ेद शराब का ऑर्डर दिया और पूछा, "गार्सिया कहाँ है?" बौने ने जवाब दिया कि गार्सिया बहुत दिन से कॉफ़ी - हाउस में दिखाई नहीं दिया।

"क्या ख़याल है, वह आज शाम को आएगा ?”

"खैर, वह मुझे अपने राज़ तो नहीं बताता। लेकिन आप तो जानते ही हैं कि अक्सर वह किस वक़्त यहाँ आता है।”

“हाँ, कोई खास ज़रूरी बात नहीं है। लेकिन मैं उसे अपने इस दोस्त से मिलवाना चाहता हूँ।”

शराब वाले ने अपने गीले हाथ एप्रन के सामने के हिस्से से पोंछते हुए पूछा, "आह! तो ये सज्जन भी बिजनेस में शामिल हैं?"

"हाँ," कोतार्द ने कहा । ठिगने आदमी ने नकियाते हुए कहा, "अच्छी बात शाम को आइएगा। मैं लड़के को भेजकर उसे ख़बर करा दूँगा।”

जब वे बाहर आए तो रेम्बर्त ने पूछा कि किस बिजनेस का ज़िक्र हो रहा था।

"अरे वाह, स्मगलिंग! ये लोग फाटकों से सन्तरियों के देखते-देखते माल भीतर ले आते हैं। इस बिजनेस में बहुत आमदनी है। "

"समझ गया । " रेम्बर्त एक क्षण की ख़ामोशी के बाद बोला, “मेरा ख़याल है कि कचहरी में भी उनके दोस्त होंगे। "

"तुमने सही बात भाँप ली है।"

शाम के वक़्त कनात को लपेट दिया गया। तोता अपने पिंजरे में टैं-टॅ करने लगा। छोटी मेज़ों के इर्द-गिर्द लोग जमा हो गए। उन्होंने सिर्फ़ कमीजें और पतलूनें पहन रखी थीं। जब कोतार्द दाख़िल हुआ तो एक आदमी, जिसकी सफ़ेद कमीज़ में से ईंट जैसे लाल रंग का सीना चमक रहा था और जिसने स्ट्रॉ हैट पहन रखा था, उठकर खड़ा हो गया। उसका चेहरा धूप में तपा हुआ था, नाक-नक्श चौकस थे, काले रंग की छोटी-छोटी आँखें थीं, दाँत बहुत सफ़ेद थे, उँगलियों में दो या तीन अँगूठियाँ थीं, उसकी उम्र तीस के करीब मालूम होती थी।

"खुश रहो प्यारे !" उसने रेम्बर्त की तरफ़ ध्यान न देकर कोतार्द से कहा, "आओ बार में चलकर एक-एक पिएँ ।”

उन्होंने ख़ामोशी से शराब के तीन दौर चलाए ।

"चलो ज़रा टहलें," गार्सिया ने सुझाव दिया।

वे बन्दरगाह की तरफ़ चल पड़े। गार्सिया ने पूछा कि वह उनकी क्या खिदमत कर सकता है। कोतार्द ने बताया कि वह अपने दोस्त मोशिए रेम्बर्त का बिज़नेस के लिए नहीं, बल्कि 'भागने के लिए' परिचय कराना चाहता है। सिगरेट का कश खींचते हुए गार्सिया आगे बढ़ता गया। उसने कुछ सवाल पूछे जिनमें वह 'यह आदमी' कहकर रेम्बर्त की उपस्थिति की तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर रेम्बर्त के बारे में बात करने लगा।

"यह यहाँ से क्यों जाना चाहता है?"

"इसकी पत्नी फ्रांस में है। "

"आह ! " फिर थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद गार्सिया ने पूछा “यह क्या काम करता है?"

"यह पत्रकार है।"

“क्या अभी भी ? पत्रकारों की जीभ बहुत लम्बी होती है।"

“मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि यह मेरा दोस्त है," कोतार्द ने जवाब दिया ।

वे घाटों तक ख़ामोशी से चलते रहे। अब घाटों के गिर्द तारों की बाड़ लगा दी गई थी। वे एक छोटे-से रेस्तरों की तरफ़ मुड़े जिसके अन्दर से तली हुई मछली की सुगन्ध आ रही थी ।

गार्सिया ने निश्चयपूर्वक कहा, “जो भी हो, यह मेरे बस की बात नहीं, सिर्फ़ राओल ही ऐसा आदमी है जो यह काम कर सकता है। मुझे उससे सम्पर्क करना पड़ेगा। यह आसान काम नहीं है । "

"सचमुच? वह दुबका बैठा है, क्यों?" कोतार्द ने दिलचस्पी ज़ाहिर की।

गार्सिया ने कोई जवाब न दिया। शराबखाने के दरवाज़े के पास जाकर वह रुक गया और पहली बार उसने रेम्बर्त से सीधे बात की।

"परसों ग्यारह बजे, अपर टाउन में कस्टम की बैरकों के पास मिलना।” फिर वह भीतर जाने लगा। अचानक तभी मानो उसे कुछ ख़याल आया। उसने लापरवाही से कहा, “इस काम में कुछ ख़र्च करना पड़ेगा । "

रेम्बर्त ने सिर हिलाकर सम्मति प्रकट की, “सो तो होगा ही।”

लौटते वक्त रास्ते में पत्रकार ने कोतार्द को धन्यवाद दिया ।

“इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं मेरे दोस्त! तुम्हारी मदद करके मुझे ख़ुशी ही होगी। और फिर तुम पत्रकार हो । कभी-न-कभी तुम मेरे बारे में भी एकाध शब्द लिख दोगे।”

दो दिन बाद रेम्बर्त और कोतार्द शहर के ऊपरी हिस्से को जाने वाली चौड़ी छायाहीन सड़क को पार कर रहे थे। कस्टम अफ़सरों की बैरकों के एक हिस्से को अस्पताल में बदल दिया गया था और मुख्य फाटक के सामने बहुत से लोग खड़े थे। कुछ किसी मरीज़ से मिलने की आशा लेकर आए थे- यह आशा निरर्थक थी, क्योंकि मरीज़ों से मुलाक़ात करने की सख़्त मनाही थी। कुछ लोग किसी बीमार की ख़बर पाने की उम्मीद से आए थे, हालाँकि घंटे भर में इस ख़बर का महत्त्व ख़त्म हो जाता था। इन कारणों से हमेशा अस्पताल के बाहर भीड़ जमा रहती थी और आवाजाही नज़र आती थी; इसीलिए शायद गार्सिया ने रेम्बर्त से मिलने के लिए यह जगह चुनी थी ।

कोतार्द ने कहा, “मेरी समझ में नहीं आता कि तुम यहाँ से जाने के लिए क्यों इतने उतावले हो रहे हो? शहर में जो घटनाएँ हो रही हैं मुझे तो वे सचमुच दिलचस्प मालूम होती हैं।”

“मुझे नहीं,” रेम्बर्त ने जवाब दिया।

“हाँ, यह मैं मानता हूँ कि लोगों को बहुत जोख़िम उठानी पड़ रही है, भी अगर तुम ग़ौर से सोचो तो इस नतीजे पर पहुँचोगे कि प्लेग से पहले किसी काफी अधिक ट्रैफिक वाली सड़क को पार करने में भी इतनी ही जोख़िम रहती थी ।"

इसी वक़्त रियो की कार आकर उनके बराबर खड़ी हो गई। तारो ड्राइव कर रहा था और रियो की आँखें नींद से मुँदी जा रही थीं। रियो ने जगकर दोनों का अभिवादन किया।

तारो ने कहा, "हम एक-दूसरे को जानते हैं। हम एक ही होटल में हैं। " फिर उसने रेम्बर्त से कहा कि वह उसे कार में बिठाकर शहर के केन्द्र तक ले जा सकता है।

"नहीं, धन्यवाद! हमने यहाँ किसी को मिलने के लिए वक़्त दिया है। "

रियो ने कठोर दृष्टि से रेम्बर्त की तरफ़ देखा।

"हाँ," रेम्बर्त ने कहा ।

कोतार्द को ताज्जुब हुआ, “क्या माज़रा है? क्या डॉक्टर को यह बात मालूम है?"

"वह रहा मजिस्ट्रेट," तारो ने आँख के इशारे से कोतार्द को चेतावनी दी।

कोतार्द के चेहरे का भाव बदल गया। मजिस्ट्रेट ओथों सड़क पर उनकी तरफ़ बढ़ा आ रहा था। उसकी चाल में तेजी के साथ-साथ शालीनता भी थी। उन लोगों के पास पहुँचकर उसने अपना हैट उतार लिया।

"गुड मॉर्निंग, मौशिए आर्थो,” तारो ने कहा।

मजिस्ट्रेट ने कार में बैठे लोगों के अभिवादन का जवाब दिया और फिर रेम्बर्त और कोतार्द की तरफ़ देखकर ख़ामोशी से सिर हिलाया जो पीछे की तरफ़ खड़े थे। तारो ने कोतार्द और पत्रकार का परिचय कराया। मजिस्ट्रेट कुछ देर तक आँखें फाड़-फाड़कर आसमान की ओर देखता रहा, फिर उसने ठंडी साँस लेकर कहा कि सचमुच बड़ी मुसीबत का वक़्त आ गया है।

"मैंने सुना है, मोशिए तारो, कि आप लोगों को प्लेग से बचने के तरीके सिखा रहे हैं। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि आप सचमुच कितना प्रशंसनीय काम कर रहे हैं, कितनी शानदार मिसाल कायम कर रहे हैं... डॉक्टर रियो, क्या ख़याल है, क्या महामारी और ज़्यादा बढ़ेगी?"

रियो ने जवाब दिया कि आदमी सिर्फ़ उम्मीद ही कर सकता है कि हालत बिगड़ेगी नहीं। मजिस्ट्रेट ने कहा कि इनसान को कभी उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए, क़िस्मत के खेल निराले हैं।

तारो ने पूछा, “क्या मौजूदा परिस्थितियों के फलस्वरूप मजिस्ट्रेट महोदय का काम बढ़ गया है?"

"ठीक इससे उलटी बात हुई है। जिन मामलों को हम पहली बार फ़ौजदारी मामले कहते हैं वे दिन-ब-दिन दुर्लभ होते जा रहे हैं। दरअसल अब मेरा काम सिर्फ़ नई धाराओं के गम्भीर उल्लंघन की जाँच करना रह गया है। हमारे साधारण कानूनों की कभी इतनी इज़्ज़त नहीं की गई जितनी कि लोग आजकल कर रहे हैं। "

"क्योंकि आज के मुक़ाबले पहले के क़ानून बहुत अच्छे मालूम होते हैं, " तारो ने कहा ।

मजिस्ट्रेट ने, जो आसमान से नज़रें हटाने में असमर्थ दिखाई देता था, अचानक अपनी कोमल चिन्तनशीलता छोड़कर तारो की तरफ़ घूरकर देखा।

"इससे क्या फ़र्क पड़ता है? असली चीज़ क़ानून नहीं, बल्कि सज़ा है... और यह एक ऐसी चीज़ है जिसे हम सबको क़बूल करना चाहिए।"

जब मजिस्ट्रेट कुछ दूर चला गया तो कोतार्द ने कहा, “यह आदमी पहले नम्बर का दुश्मन है। "

तारो ने स्टार्टर दबाया।

कुछ देर बाद रेम्बर्त और कोतार्द ने गार्सिया को आते देखा। यह दिखाए बग़ैर कि वह उन्हें जानता है, वह सीधा उनके पास आया और दुआ सलाम करने के बजाय बोला, “तुम्हें कुछ इन्तज़ार करना पड़ेगा।”

उनके आसपास भीड़ में बिलकुल ख़ामोशी छाई थी। भीड़ में अधिकतर औरतें ही थीं। सबके हाथों में पुलिन्दे थे। वे इस निरर्थक उम्मीद से वहाँ आई थीं कि किसी-न-किसी तरह वे यह सामान अपने बीमार रिश्तेदारों तक पहुँचा सकेंगी। सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमी उन्हें इस बात की थी कि शायद उनके रिश्तेदार उनकी भेजी हुई चीजें खाएँगे। फाटक पर हथियारबन्द सन्तरियों का पहरा था और रह-रहकर फाटक और बैरकों के बीच के सहन पैशाचिक चीख़ों की आवाजें सुनाई देती थीं, जिन्हें सुनकर परेशान आँखें बीमारों के वार्डों की तरफ़ उठ जाती थीं।

तीनों जने खड़े इस दृश्य को देख रहे थे, कि पीछे से किसी ने तपाक से 'गुड मॉर्निंग' कहा। तीनों ने पीछे मुड़कर देखा । गरमी के बावजूद राओल गहरे रंग का सूट पहने था, जिसकी काट बहुत शानदार थी। उसके सिर पर फेल्ट हैट था, जिसका सिरा ऊपर की ओर मुड़ा था। वह लम्बा-तड़ंगा आदमी था। उसके चेहरे पर कुछ पीलापन था । अपने होंठ हिलाए बग़ैर : उसने साफ़ आवाज़ में फ़ौरन कहा,

“चलो, केन्द्र की तरफ़ पैदल चलें... और गार्सिया, तुम्हारे आने की कोई ज़रूरत नहीं। "

गार्सिया ने एक सिगरेट सुलगाया और वह वहीं रह गया । बाक़ी के लोग आगे चले गए। रेम्बर्त और कोतार्द के बीचोबीच राओल बहुत तेज़ चाल से चलने के लिए सबको प्रेरित कर रहा था।

"गार्सिया ने मुझे सारा मामला समझा दिया है। हम इसे तय कर सकते हैं। लेकिन मैं तुम्हें आगाह कर देना चाहता हूँ कि इसमें तुम्हारे पूरे दस हज़ार लग जाएँगे।”

रेम्बर्त ने कहा कि उसे ये शर्तें मंजूर हैं।

“कल घाटों के पास स्पेनिश रेस्तराँ में मेरे साथ लंच लेना । "

रेम्बर्त ने कहा, “ठीक है।” राओल ने उससे हाथ मिलाया। वह पहली बार मुस्करा रहा था। जब वह चला गया तो कोतार्द ने कहा कि वह कल लंच के वक़्त नहीं आ सकेगा, क्योंकि उसे किसी से मिलना है। ख़ैर, रेम्बर्त को अब उसकी मदद की ज़रूरत भी नहीं है।

अगले दिन जब रेम्बर्त स्पेनिश रेस्तराँ में दाख़िल हुआ तो सब लोग गरदन घुमाकर उसकी तरफ़ देखने लगे। ऐसा मालूम होता था कि उस अँधेरे तहखाने - जैसे कमरे में जो छोटी पीली सड़क से भी नीचा था, सिर्फ़ मर्द ही आते थे जिनमें अधिकांश स्पेनिश थे। उनकी शक्लों से तो यही ज़ाहिर होता था। राओल कमरे के पीछे दीवार के पास की मेज़ के आगे बैठा था। जब राओल ने पत्रकार को इशारे से बुलाया और रेम्बर्त उसकी तरफ़ जाने लगा तो सब लोगों के चेहरों पर से उत्सुकता गायब हो गई और वे फिर अपनी तश्तरियों पर सिर झुकाकर खाना खाने लगे। राओल की बग़ल में एक लम्बा, दुबला आदमी बैठा था जिसने हजामत ठीक से नहीं बनवाई थी। उसके कन्धे बेहद चौड़े थे, चेहरा घोड़े जैसा था और सिर के बाल झड़ने लगे थे। उसने कमीज़ की आस्तीनें ऊपर चढ़ा रखी थीं और उसकी लम्बी, काले बालों से भरी दुबली बाँहें नज़र आ रही थीं। जब रेम्बर्त का उससे परिचय कराया गया तो उसने तीन बार धीरे से सिर हिलाया । राओल ने उसका नाम नहीं बताया। वह हमारा दोस्त' कहकर उसके बारे में बात कर रहा था।

“हमारे दोस्त का ख़याल है कि वह तुम्हारी मदद कर सकता है । वह..” ओल ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया क्योंकि इसी वक़्त वेट्रेस राओल का ऑर्डर लेने आई थी। “वह तुम्हें हमारे दो दोस्तों से मिलाएगा, जो कुछ सन्तरियों से तुम्हारा परिचय कराएँगे, जिन्हें हम लोगों ने राज़ी कर लिया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम फ़ौरन जा सकोगे। इसका फ़ैसला सन्तरियों पर छोड़ना पड़ेगा। वे ही तय करेंगे कि कौन-सा वक़्त सबसे अच्छा रहेगा। सबसे आसान बात यह होगी कि तुम कुछ रातें उनमें से एक के घर बिताओ। उसका घर फाटक के बहुत नज़दीक है। सबसे पहले हमारा यह दोस्त तुम्हारा कुछ लोगों से परिचय कराएगा जिनकी हमें ज़रूरत है। फिर जब सब ठीक हो जाएगा तो खर्च की बात तय कर लेना ।

फिर 'दोस्त' ने, जो लगातार टमाटर और मसालेदार सलाद मुँह में डालता जा रहा था, धीरे से अपना घोड़े जैसा मुँह ऊपर-नीचे हिलाया, उसके बाद उसने स्पेनिश लहजे में बोलना शुरू किया। उसने रेम्बर्त से कहा कि वह एक दिन छोड़कर अगले दिन गिरजे के पोर्च में आठ बजे उसे मिले।

"दो दिन और इन्तज़ार करना पड़ेगा।" रेम्बर्त ने कहा ।

"देखो, यह इतना आसान मामला नहीं है। वे छोकरे कुछ तहकीकात करेंगे।" राओल ने कहा ।

घोड़े जैसे चेहरे वाले आदमी ने एक बार फिर समर्थन में सिर हिलाया । बातचीत के लिए कोई विषय तलाश करने में कुछ देर लगी। यह समस्या बड़ी आसानी से हल हो गई, जब रेम्बर्त ने मालूम कर लिया कि घोड़े जैसे मुँह वाला वह शख़्स फुटबॉल का जोशीला खिलाड़ी है। उसे भी फुटबाल एसोसिएशन में बड़ी दिलचस्पी थी। दोनों फ्रेंच चैम्पियनशिप, पेशेवर अंग्रेज़ खिलाड़ियों की टीमों के गुणों और बॉल फेंकने के तरीकों पर बातचीत करते रहे।

खाना ख़त्म होते-होते घोड़ा मुँह ख़ूब ख़ुश नज़र आने लगा और उसने रेम्बर्त को 'अमाँ यार' कहना शुरू कर दिया। उसने रेम्बर्त को यह यकीन दिलाने की कोशिश की कि फुटबॉल के मैदान में खिलाड़ी के लिए सबसे अच्छी जगह सेंटर हॉफ़ की है। “अमाँ यार, देखो सेंटर हॉफ़ वाला ही दूसरे लोगों को दौड़ाता है। इस खेल का सारा आर्ट इसी में है, क्यों?" रेम्बर्त को यह बात माननी ही पड़ी हालाँकि वह खुद खेल में हमेशा सेंटर फॉरवर्ड ही रहा था। बातचीत शान्तिपूर्वक चलती रही। फिर किसी ने रेडियो चला दिया। कुछ देर तक भावुक क़िस्म के गीत बजते रहे, फिर यह ख़बर सुनाई गई कि प्लेग से एक सौ सैंतीस मौतें हुई थीं। किसी के चेहरे पर कोई भी भाव प्रकट नहीं हुआ। घोड़ा-मुँह ने सिर्फ़ अपने कन्धे सिकोड़े और उठ खड़ा हुआ । ओल और रेम्बर्त भी उसकी देखा-देखी उठ खड़े हुए।

जब वे रेस्तराँ से बाहर निकल रहे थे तो सेंटर हॉफ़ ने ज़ोर से रेम्बर्त से हाथ मिलाकर कहा, "मेरा नाम गोन्ज़ेल्ज़ है।" रेम्बर्त को आगामी दो दिन अनन्तकाल के समान मालूम हुए। वह रियो से मिलने गया और उसने सभी ताज़ा ख़बरें उसे बताईं। वह डॉक्टर के साथ एक मरीज़ को भी देखने गया । उसने एक घर की दहलीज़ से ही डॉक्टर से विदा ली जहाँ एक मरीज़, जिसके बारे में शक था कि उसे प्लेग हो गई है, खड़ा डॉक्टर का इन्तज़ार कर रहा था। हॉल में लोगों की आवाज़ें और कदमों की आहटें सुनाई दे रही थीं, परिवार के लोगों को डॉक्टर के आने की चेतावनी दी जा रही थी ।

"मेरा ख़याल है तारो वक़्त पर आएगा,” रियो बुदबुदाया। वह थका-माँदा नज़र आ रहा था।

“क्या महामारी काबू से बाहर होती जा रही है?" रेम्बर्त ने पूछा ।

रियो ने कहा कि ऐसी स्थिति नहीं है, बल्कि मौतों के ग्राफ की उठान पहले से कम गहरी होती जा रही है। सिर्फ़ उनके पास बीमारी से लड़ने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं।

हमारे पास सामान की कमी है। दुनिया की सारी फ़ौजों में आमतौर पर सामान की कमी काम करने वालों की संख्या से पूरी हो जाती है, लेकिन हमारे पास लोगों की भी कमी है।

"क्या दूसरे शहरों से डॉक्टर और ट्रेंड असिस्टेंट नहीं भेजे गए ?"

"हाँ, दस डॉक्टर और सौ के क़रीब मददगार भेजे गए हैं। सुनने में यह संख्या बहुत बड़ी मालूम होती है, लेकिन मौजूदा हालत में मुश्किल से इन लोगों से काम चल रहा है और अगर हालत बिगड़ गई तो इतनी संख्या पर्याप्त नहीं होगी ।" रियो ने कहा ।

रेम्बर्त ने, जो घर के भीतर से आने वाली आवाजें सुन रहा था, एक दोस्ती-भरी मुस्कराहट के साथ डॉक्टर की तरफ़ देखा ।

"हाँ, तुम जल्द ही अपनी लड़ाई जीतने की कोशिश करो,” फिर उसके चेहरे पर एक परछाईं आकर चली गई। उसने धीमे स्वर में कहा, "मैं यह बात इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि मैं यहाँ से जा रहा हूँ।”

रियो ने जवाब दिया कि उसे यह अच्छी तरह मालूम है। लेकिन रेम्बर्त ने कहा, “मैं डरपोक हूँ, मैं ऐसा नहीं सोचता । कम-से-कम साधारण तौर पर तो डरपोक नहीं हूँ-मुझे इस बात को कसौटी पर कसने के कई मौके मिल चुके हैं। सिर्फ़ कुछ विचार ऐसे हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।

डॉक्टर ने उसकी आँखों में झाँककर कहा, “तुम उस लड़की से फिर मिलोगे?"

"हो सकता है, लेकिन मैं यह सोचना बर्दाश्त नहीं कर सकता कि यह स्थिति हमेशा इसी तरह जारी रहेगी और मेरी महबूबा की उम्र दिन-ब-दिन बढ़ती जाएगी। तीस बरस की उम्र में इनसान का बुढ़ापा शुरू हो जाता है और उसे ज़िन्दगी में से भरसक ख़ुशी पाने की कोशिश करनी पड़ती है....लेकिन मुझे यह शक है कि तुम्हारी समझ में शायद यह बात नहीं आएगी । "

रियो जवाब में कह रहा था कि उसकी समझ में सब कुछ आ रहा है। इतने में तारो वहाँ आ गया। वह बहुत उत्तेजित दिखाई दे रहा था।

"मैंने अभी पैनेलो को यहाँ आने के लिए कहा है।"

"अच्छा?”

"उसने थोड़ी देर सोचने के बाद 'हाँ' कर दी। "

"यह अच्छी बात है। मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि वह अपने प्रवच बेहतर आदमी है। "

अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं। सिर्फ़ उन्हें मौक़ा देने का सवाल है।” तारो ने मुस्कराकर कहा और फिर रियो की तरफ़ देखकर आँख मारी, “यही तो ज़िन्दगी में मेरा काम है लोगों को मौक़ा देना।"

"माफ़ कीजिए, मुझे जाना है, " रेम्बर्त ने कहा ।

गुरुवार को जब मुलाकात होनी तय हुई थी, आठ बजने से पाँच मिनट पहले रेम्बर्त गिरजे के पोर्च में दाख़िल हुआ। हवा अभी तक अपेक्षाकृत ठंडी थी। छोटे-छोटे रोएँदार बादल आसमान में इकट्ठा हो रहे थे, जिन्हें फ़ौरन ही सूरज एक ही बार में निगलने वाला था। हरी घास की लॉनों से सीलन की हल्की गन्ध उठ रही थी, हालाँकि वे धूप से सूख गई थीं। सूरज अभी पूर्व में बने मकानों से ढका हुआ था। इसलिए वह सिर्फ़ जोन ऑफ़ आर्क के कवच को ही गरम कर रहा था। केथीड्रल स्क्वेयर में धूप का एक ही टुकड़ा नज़र आ रहा था। जब घड़ी ने आठ बजाए तो रेम्बर्त ख़ाली पोर्च में 'कुछ क़दम आगे बढ़ा। भीतर से गाने की मद्धम आवाज़ें, सीली हवा और अगरबत्तियों की बासी गन्ध आ रही थी । फिर आवाज़ें रुक गईं। काले रंग की दस आकृतियाँ इमारत से बाहर निकलीं और तेज़ी से शहर के केन्द्र की तरफ़ बढ़ गईं। रेम्बर्त बेचैन हो उठा। कुछ और काली आकृतियाँ सीढ़ियों पर चढ़कर पोर्च में दाख़िल हुईं। रेम्बर्त एक सिगरेट सुलगाने ही वाला था कि सहसा उसके मन में यह ख़याल उठा कि शायद इस जगह सिगरेट पीना बुरा समझा जाता हो ।

सवा आठ बजे गिरजे का ऑर्गन बहुत धीमी आवाज़ में बजने लगा । पहले तो मद्धम रोशनी में उसे कुछ दिखाई न दिया, लेकिन अगले ही क्षण उसे उन लोगों की छोटी-छोटी काली आकृतियाँ नज़र आने लगीं जो उसके आगे-आगे गिरजे के बीच वाले हिस्से में जमा थे। वे सब अस्थायी रूप से निर्मित चबूतरे के एक कोने में एक साथ बैठे थे। चबूतरे पर सन्त रोश की एक मूर्ति थी जिसे जल्दी में हमारे शहर के एक मूर्तिकार ने तैयार किया था। घुटनों के बल बैठे हुए वे लोग पहले से भी ज़्यादा छोटे नज़र आ रहे थे। वे जमे हुए अँधेरे के टुकड़े मालूम होते थे। लगता था कि वे भूरे धुएँ-भरे कुहासे में तैर रहे थे; उनकी आकृतियाँ भी उस कुहासे की तरह धुँधली थीं। उनके ऊपर ऑर्गन की अन्तहीन धुन सुनाई दे रही थी।

जब रेम्बर्त गिरजे से बाहर निकला तो उसने गोन्ज़ेल्ज़ को सीढ़ियों से उतरकर शहर की तरफ़ जाते देखा ।

गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा, “मेरा ख़याल था दोस्त कि तुम यहाँ से चले गए हो, क्योंकि बहुत देर हो गई है।"

उसने बताया कि वह तय स्थान पर अपने दोस्तों से मिलने गया था। वह स्थान बिलकुल पास ही था। आठ बजकर दस मिनट पर वह वहाँ पहुँ और बीस मिनट तक इन्तज़ार करने के बाद भी उसे कोई नहीं मिला।

“ज़रूर किसी वजह से वे रुक गए होंगे। हमारे बिज़नेस में बहुत क़िस्म अड़चनें आती हैं, यह तो तुम जानते ही हो ।”

गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा कि वह अगले दिन युद्ध-स्मारक के पास रेम्बर्त से मिलेगा। रेम्बर्त ने एक ठंडी साँस लेकर सिर पर फिर से अपना हैट सरका लिया।

"अपने दिल को इतनी तकलीफ़ मत दो,” गोन्ज़ेल्ज़ ने हँसकर कहा, “ज़रा सोचो कि फुटबॉल में एक गोल बनाने के लिए कितना दौड़ना पड़ता है और कितनी बार बॉल अपने साथियों की तरफ़ फेंकनी पड़ती है ! "

"यह तो ठीक है, लेकिन फुटबॉल का खेल तो डेढ़ ही घंटे में ख़त्म हो जाता है।"

ओरान में युद्ध-स्मारक ऐसी जगह बना है जहाँ से समुद्र दिखाई देता है। बन्दरगाह के सामने बनी चट्टानों तक सैर करने की एक सड़क बनी है। अगले दिन रेम्बर्त फिर वक़्त से पहले ही निश्चित स्थान पर पहुँच गया और वक़्त काटने के लिए उन लोगों के नामों की सूची पढ़ने लगा जिन्होंने देश की ख़ातिर अपने प्राणों का बलिदान दिया था। कुछ मिनट बाद दो आदमी वहाँ आए और रेम्बर्त पर सरसरी नज़र डालकर सैरगाह की मुंडेर पर कुहनियाँ टिकाकर सूने निर्जीव बन्दरगाह की तरफ़ गौर से देखने लगे। दोनों ने नीले रंग की पतलूनों के ऊपर छोटी आस्तीनों वाले स्वेटर पहन रखे थे। दोनों का क़द भी करीब-करीब एक जैसा था। पत्रकार कुछ दूर हटकर पत्थर की एक बेंच पर बैठ गया और आराम से उन लोगों के हुलिये का निरीक्षण करने लगा। वे दोनों छोकरे थे, बीस बरस से ज्यादा उनकी उम्र नहीं थी । उसी वक़्त गोन्ज़ेल्ज़ उधर आता दिखाई दिया।

उसने देरी से आने के लिए माफ़ी माँगी और कहा, "यह हमारे दोस्त हैं।" फिर वह रेम्बर्त को दोनों छोकरों के पास ले गया और उसने बताया कि उनमें एक का नाम मार्सल और दूसरे का लुई है। उनकी शक्लें आपस में इतनी मिलती थीं कि रेम्बर्त को यक़ीन हो गया कि वे दोनों सगे भाई हैं।

"ठीक है, अब आप लोगों का परिचय हो गया है, आप काम-काज की बातें शुरू कर सकते हैं। " गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा ।

मार्सेल या लुई, दोनों में से किसी एक ने कहा कि दो दिन बाद पहरे पर उनकी एक हफ़्ते की ड्यूटी लगने वाली है। वे पहले यह देखेंगे कि कौन-सी रात इस काम के लिए सबसे ज़्यादा अच्छी रहेगी। मुसीबत यह थी कि पश्चिमी फाटक पर उन दोनों के अलावा दो सन्तरी और भी थे जो बाकायदा फ़ौज के सिपाही थे । उन दोनों को इस मामले से दूर ही रखना पड़ेगा, उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसके अलावा बेकार में ही ख़र्च बढ़ जाएगा। लेकिन कई बार ये सन्तरी नज़दीक के एक शराबख़ाने के पिछले कमरे में कई घंटे गुज़ारते हैं। मार्सेल या लुई ने कहा कि रेम्बर्त के लिए सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि वह उन लोगों के घर रहे जो कि फाटक से कुछ ही मिनट की दूरी पर है। जब रास्ता साफ़ होगा तो उनमें से एक जाकर उसे ख़बर कर देगा। इस स्थिति में रेम्बर्त के लिए 'भागना' काफ़ी आसान हो जाएगा। लेकिन वक़्त बहुत कम है। सुना है कि फाटकों के बाहर दूर तक एक और सन्तरी चौकी बनने वाली है।

रेम्बर्त राज़ी हो गया और उसने अपनी बची हुई सिगरेटों में से 'कुछ सिगरेटें उन्हें पेश कीं। दोनों में से जो अभी तक ख़ामोश रहा था, उसने गोन्ज़ेल्ज़ से पूछा कि इस काम के लिए रकम तय हो चुकी है या नहीं, कुछ पेशगी भी मिलेगी या नहीं?

"नहीं,” गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा, “तुम्हें इस बात की चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं। यह मेरा दोस्त है, जाने के वक़्त रकम अदा कर देगा।”

तय हुआ कि वे लोग फिर मिलेंगे। गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा कि वे लोग परसों रात स्पेनिश रेस्तराँ में उसके साथ खाना खाएँ । वह जगह उन नौजवानों के घर के बहुत क़रीब थी जहाँ से वे पैदल भी वहाँ पहुँच सकते थे। गोन्ज़ेल्ज़ कहा, "दोस्त, पहली रात मैं तुम्हारा साथ दूँगा ।"

अगले दिन जब रेम्बर्त अपने सोने के कमरे में जा रहा था तो होटल की सीढ़ियों पर उसकी मुलाक़ात तारो से हुई जो नीचे आ रहा था।

"मेरे साथ आना चाहेगे? मैं रियो से मिलने जा रहा हूँ।” तारो ने कहा ।

रेम्बर्त ने हिचकिचाहट ज़ाहिर की और कहा, “मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि मैं उसके काम में दखल दे रहा हूँ।"

"मेरे विचार से तुम्हें इसकी चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। वह तुम्हारे बारे में बहुत सी बातें करता है।"

पत्रकार ने कुछ देर तक सोचने के बाद कहा, “देखो, अगर डिनर के बाद तुम्हारे पास कुछ वक़्त ख़ाली हो तो क्यों न तुम और रियो आकर मेरे साथ शराब पियो? अगर देर भी हो जाए तो भी कोई परवाह नहीं ।"

"यह तो रियो पर निर्भर करेगा और प्लेग पर भी ।" तारो के स्वर में संशय था।

ख़ैर, रात के ग्यारह बजे रियो और तारो होटल के छोटे और तंग शराबख़ाने में दाख़िल हुए। वहाँ क़रीब तीस लोग जमा थे और सब-के-सब ऊँची आवाज़ में पूरी ताक़त से बोल रहे थे। प्लेग से घिरे हुए शहर की ख़ामोशी से रेस्तराँ में आने वाले ग्राहक अचानक इतना शोर सुनकर चौंक उठे और दहलीज़ पर ही रुक गए। जब उन्होंने देखा कि अभी भी होटल में शराब मिलती है तो वे फ़ौरन इस शोर का कारण समझ गए। रेम्बर्त ने, जो रेम्बर्त ने, जो एक कोने में रखे स्टूल पर बैठा था, उन्हें इशारे से बुलाया । बिना उत्तेजना दिखाए उसने एक शोर मचाने वाले को अपनी कोहनी से धकेलकर अपने दोस्तों के लिए जगह खाली की । "आप लोगों को एतराज़ तो नहीं होगा अगर शराब तेज़ हो ?"

"नहीं, बल्कि हमें खुशी होगी," तारो ने कहा ।

जब रेम्बर्त ने रियो के हाथ में शराब का पेग दिया तो रियो ने शराब में मिली कड़वी चीज़ों को सूंघा । उस शोर-शराबे में अपनी आवाज दूसरों तक पहुँचाना बहुत मुश्किल था, लेकिन रेम्बर्त शराब में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहा था। डॉक्टर यह तय नहीं कर पा रहा था कि उस पर शराब का नशा चढ़ा है या नहीं। शराब के काउण्टर के आसपास की अर्द्धचन्द्र के आकार की सारी जगह घिरी हुई थी। बीच की जगह एक नौसेना के अफ़सर ने घेर ली थी, जिसके आसपास दो लड़कियाँ बैठी थीं । अफ़सर एक मोटे लाल चेहरे वाले आदमी को काहिरा की टाईफ़स महामारी के बारे में बता रहा था, "वहाँ मिस्री लोगों के लिए कैम्प बने हुए थे। बीमारों को तम्बुओं में रखा जाता था। उनके चारों तरफ़ संतरियों का पहरा रहता था। अगर मरीज़ के परिवार का कोई आदमी चोरी से अहमक़ाना देसी दवाई भीतर भेजने की कोशिश करता था तो उसे देखते ही सन्तरी गोली चला देते। सख्ती तो थी लेकिन उन परिस्थितियों में सिर्फ यही किया जा सकता था। दूसरी मेज़ पर, जिसके गिर्द जिन्दादिल नौजवान लोग जमा थे, उनकी बातें सुनाई नहीं दे रही थीं, क्योंकि ऐन उनके सर के ऊपर एक लाउड स्पीकर कर्कश स्वर में 'सेंट जेम्ज़ अस्पताल' रिकार्ड सुना रहा था ।

"कहो कुछ कामयाबी मिली ?"

रियो को अपनी आवाज ऊँची करनी पड़ी।

"कोशिश जारी है ।" रेम्बर्त ने जवाब दिया, "शायद एक हफ्ते में कुछ बात बने । "

" कितने अफ़सोस की बात है !" तारो जोर से बोला ।

"क्यों ?"

रियो ने बताया, "ओह ! तारो ने यह बात इसलिए कही है क्योंकि उसका खयाल है कि यहाँ रहकर तुम हमारे लिए मददगार साबित हो सकते हो। लेकिन मैं तुम्हारी यहाँ से जाने की भावना को अच्छी तरह समझ सकता हूं ।"

तारो ने शराब के अगले दौर के दाम चुकाए ।

रेम्बर्त अपने स्टूल से उठकर खड़ा हो गया और उसने पहली बार तारो से नजरें मिलाकर पूछा, “भला मैं यहाँ रहकर आप लोगों की क्या मदद कर सकता हूँ ?"

"वाह, यह भी कहने की बात है ? तुम हमारी सफ़ाई की टुकड़ियों में से किसी एक टुकड़ी में काम कर सकते हो ।"

रेम्बर्त के चेहरे पर फिर चिन्तां और जिद्दीपन का भाव आ गया जो अक्सर दिखाई देता था । वह फिर अपने स्टूल पर चढ़कर बैठ गया ।

"तुम्हारा क्या ख़याल है ? क्या ये टुकड़ियाँ अच्छा काम नहीं कर रहीं ?" तारो ने पूछा । उसने अपने गिलास में से अभी शराब का एक घूँट पिया था और वह रेम्बर्त की तरफ घूर रहा था ।

"मुझे यक़ीन है कि वे अच्छा काम कर रही हैं ।" रेम्बर्त ने जवाब दिया और वह अपने ग्लास की पूरी शराब पी गया ।

रियो ने देखा कि रेम्बर्त का हाथ काँप रहा है। उसे यकीन हो गया कि रेम्बर्त की शराबखोरी बहुत बढ़ चुकी है ।

अगले दिन जब रेम्बर्त दूसरी बार स्पेनिश रेस्तरां में दाखिल हुआ तो उसे लोगों की भीड़ में से गुज़रना पड़ा। लोग अपनी कुरसियाँ उठाकर बाहर सड़क के किनारे आ गए थे और शाम की हरी सुनहरी रोशनी में ठंडी हवा के पहले झोंकों का मजा ले रहे थे । उनके तम्बाकू में से कड़वी गंध आ रही थी। रेस्तराँ करीब-करीब खाली था । रेम्बर्त पीछे वाले हिस्से की मेज़ पर चला गया जहाँ उनकी पहली मुलाकात के रोज गोन्जेल्ज़ बैठा था । उसने वेट्रेस से कहा कि वह कुछ देर इन्तज़ार करने के बाद ऑर्डर देगा । साढ़े सात बजे थे ।

दो-दो, तीन-तीन करके लोग भीतर आने लगे और मेजों के इर्द-गिर्द बैठ गए । वेट्रेसों ने खाने-पीने की चीजें परोसनी शुरू कीं और तहखाने जैसे कमरे में छुरी-काँटों की आवाजें और बातचीत की भनभनाहट गूंज उठीं । आठ बज गए । रेम्बर्त अभी तक इन्तज़ार कर रहा था । रेस्तराँ की बत्तियाँ जला दी गईं। उसकी मेज के पास आकर नये लोग बैठ गए । उसने खाने का ऑर्डर दिया । साढ़े आठ बजे उसने खाना खत्म किया। अभी तक गोन्जेल्ज़ और दोनों नौजवानों में से कोई भी दिखाई नहीं दिया था । धीरे-धीरे रेस्तराँ खाली हो रहा था और बाहर तेजी से रात का अँधेरा फैल रहा था । दरवाज़े पर टंगे परदे समुद्र से आने वाली गरम हवा से हिल रहे थे। नौ बजे रेम्बर्त को एहसास हुआ कि रेस्तरां बिलकुल खाली हो गया था और वेट्रेस जिज्ञासा की दृष्टि से उसे देख रही थी । उसने बिल चुकाया और बाहर चला आया । सड़क के सामने का कॉफ़ी हाउस खुला देखकर वह भीतर चला गया और ऐसी जगह पर बैठ गया जहाँ से वह रेस्तरां के दरवाजे पर नज़र रख सकता था। साढ़े नौ बजे वह धीमे कदमों से अपने होटल में लौट आया। वह इस परेशानी में था कि गोन्ज़ेल्ज़ को तलाश करने का कोई तरीका खोजना चाहिए। उसे गोन्जेल्ज़ का पता भी मालूम नहीं था । उसने सोचा, हो सकता है कि फिर नये सिरे से यह सर-दर्द वाला मामला शुरू करना पड़े। इस आशंका से ही वह निरुत्साह हो गया ।

इसी क्षण जब वह अँधेरी सड़कों में चल रहा था, जहाँ तेजी से एम्बुलेन्स गाड़ियाँ गुज़र रही थीं, अचानक उसे लगा कि इस बीच वह उस औरत को भूल ही गया था जिसे वह प्यार करता था । उसने बाद में डॉक्टर रियो को भी यह बात बताई । वह उन दीवारों में से निकलने की कोई दरार तलाश करने में इतना तल्लीन हो गया था - जिन्होंने उसे अपनी प्रियतमा से जुदा कर दिया था। लेकिन इसी वक्त जब मुक्ति के सारे रास्ते बन्द हो गए थे, अपनी प्रियतमा को पाने की कामना उसके मन में अचानक इतनी तीव्र और प्रचण्ड हो उठी कि उसने इस दाहक यंत्रणा से बचने के लिए, जो दावानल की तरह उसके खून में फैल रही थी, होटल की तरफ़ भागना शुरू कर दिया ।

अगले दिन तड़के ही वह रियो के यहाँ गया और उससे कोतार्द का पता पूछा ।

"मैं अब सिर्फ़ यही कर सकता हूँ कि इस मामले को फिर नये सिलसिले से शुरू करूं।"

" कल रात यहाँ आना । तारो ने मुझसे कोतार्द को भी यहाँ निमंत्रित करने के लिए कहा था- न जाने क्यों । वह दस बजे यहाँ आयेगा । तुम साढ़े दस बजे पहुँच जाना ।" रियो ने कहा ।

जब कोतार्द अगले दिन डॉक्टर के यहाँ पहुँचा तो तारो और रियो एक मरीज़ के बारे में बहस कर रहे थे, जिसके स्वस्थ होने की कोई उम्मीद नहीं थी, इसके बावजूद वह अच्छा हो गया था ।

"दस में से सिर्फ एक चान्स उसके बचने का था । वह बड़ा खुशकिस्मत निकला ।" तारो ने कहा ।

"छोड़ो भी ! हो सकता है उसे प्लेग न हुई हो ।" कोतार्द ने कहा ।

दोनों जनों ने उसे यकीन दिलाया कि उस मरीज़ को प्लेग ही थी ।

"यह नामुमकिन है क्योंकि मरीज अच्छा हो गया है। सभी जानते हैं कि जब किसी को प्लेग हो जाती है तो जीने का चान्स ख़त्म हो जाता है ।"

"आम तौर पर तो यह ठीक है, लेकिन अगर तुम हार मानने के लिए तैयार नहीं तो तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ खुशखबरियाँ हैं ।"

कोतार्द हँसने लगा ।

" खैर बहुत कम होंगी । आज शाम तुमने मौतों के आँकड़े देखे ?"

तारो ने, जो कोतार्द की तरफ दोस्ती-भरी निगाहों से देख रहा था, कहा कि उसे ये नवीनतम आंकड़े मालूम हैं और वह यह भी जानता है कि स्थिति बहुत गम्भीर है । लेकिन इससे क्या साबित होता है ? सिर्फ यही कि अधिकारियों को इससे भी ज़्यादा सख्त क़दम उठाने चाहिएं।

"कैसे ? जितनी सख्ती आजकल है उससे ज्यादा सख्त कदम और नहीं उठाए जा सकते ।"

"नहीं। लेकिन शहर के हर आदमी को अपने पर सख्ती करनी चाहिए ।"

कोतार्द परेशानी से उसकी तरफ देखने लगा । तारो कहता गया कि शहर में आलसी और निकम्मे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है। प्लेग से सबका सरोकार है और हर आदमी को अपना फर्ज पूरा करना चाहिए । मिसाल के लिए हर तन्दुरुस्त आदमी सफाई की टुकड़ियों में आने के लिए आमंत्रित है ।

"विचार तो बहुत अच्छा है ।" कोतार्द मुस्कराया, "लेकिन इससे कोई फ़ायदा नहीं निकलेगा प्लेग ने तुम लोगों पर काबू पा लिया है और तुम कुछ भी नहीं कर सकते ।"

"हम देखेंगे यह बात सही है, यह नहीं," तारो ने अपनी आवाज को कोशिश करके संयत बनाया, "जब हम सभी तरीके अपना चुकेंगे तब नतीजा पता चलेगा ।"

इस बीच रियो अपने डेस्क के आगे बैठकर रिपोर्टों की नकल कर रहा था । तारो अभी भी नाटे व्यापारी की तरफ देख रहा था जो बेचैनी से अपनी कुरसी में हिल-डुल रहा था ।

"सुनिए मोशिये कोतार्द, आप हम लोगों का साथ क्यों नहीं देते ?"

अपना गोल ऊनी हैट उठाकर कोतार्द कुरसी से खड़ा हो गया । उसके चेहरे से लगता था कि उसकी भावनाओं को ठेस पहुँची है ।

उसने कहा, "यह मेरा काम नहीं है।" फिर उसने रोब से कहा, "सबसे बड़ी बात यह है कि प्लेग से मुझे फ़ायदा ही फायदा है, इसलिए मुझे कोई वजह नज़र नहीं आती जिसके लिए मैं प्लेग को खत्म करने की कोशिश करूँ ।"

तारो ने अपने माथे पर मुक्का मारा। लगता था जैसे उसे कोई नयी बात अचानक सूझी थी ।

"अरे हाँ मैं भूल ही गया था । अगर तुम्हारी दोस्त प्लेग तुम्हारी मदद न करती तो तुम कभी के गिरफ़्तार हो जाते ।"

कोतार्द चौंक पड़ा और उसने कसकर कुरसी की पीठ को पकड़ लिया । मालूम होता था कि वह नीचे गिरने वाला था। रियो ने लिखना बंद कर दिया और संजीदगी से कोतार्द को देखने लगा ।

"तुम्हें यह किसने बताया ?" कोतार्द चीख उठा ।

"वाह ! तुम्हीं ने तो बताया था ।" तारो के चेहरे पर हैरानी का भाव था । " कम-से-कम तुम्हारी बातों से तो मैंने और डॉक्टर ने यही नतीजा निकाला है ।"

अपना सारा संयम खोकर कोतार्द क़समें खाने लगा ।

" तैश में मत आओ, " तारो ने नरमी से कहा, "न डॉक्टर और न मैं पुलिस को तुम्हारी खबर पहुँचाने की बात सोच सकते हैं । तुमने कुछ भी किया हो उससे हमें कोई सरोकार नहीं। खैर, जो भी हो, हमें पुलिस से कभी कोई काम नहीं पड़ा । छोड़ो भी, बैठ जाओ ! "

कोतार्द ने कुरसी की तरफ़ देखा और फिर हिचकिचाता हुआ कुरसी पर बैठ गया । उसने एक गहरी साँस ली।

"यह मुद्दत पहले की बात है," उसने कहना शुरू किया, "न जाने कैसे उन लोगों ने गड़े मुर्दे उखाड़े हैं । मेरा ख्याल था कि लोग यह बात भूल गए हैं। लेकिन किसी ने बकवास शुरू कर दी ।

उस आदमी को उड़ा देना चाहिए। पुलिस ने मुझे बुलवाया और कहा कि जब तक मामले की जांच पूरी न हो मैं कहीं न जाऊं। मुझे यकीन हो गया है कि अन्त में वे मुझे जरूर गिरफ्तार कर लेंगे ।

"क्या कोई गम्भीर मामला था ?" तारो ने पूछा ।

"यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आप 'गम्भीर' शब्द का क्या अर्थ समझते हैं । जो भी हो, मैंने किसी का क़त्ल नहीं किया था । "

"क़ैद हो सकती है या आजीवन कारावास ? "

कोतार्द की बुरी हालत हो रही थी । "अगर मेरी क़िस्मत होगी तो सिर्फ़ क़ैद मिलेगी ।" लेकिन क्षण-भर के बाद वह फिर उत्तेजित हो उठा । "मुझसे गलती हो गई थी। सब लोग ग़लतियाँ करते हैं। यह सच है या नहीं ? सिर्फ़ इसी वजह से मुझे सजा दी जाए, अपने घर, परिचितों, रिश्तेदारों से अलहदा कर दिया जाए, मुझे अपने रहन-सहन की आदतों को छोड़ना पड़े, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता ।"

तारो ने पूछा, "तो क्या इसीलिए तुम्हारे दिमाग़ में अपने को फाँसी देने का शानदार ख्याल पैदा हुआ था ?"

“हाँ, मैं मानता हूँ, यह एक अहमक़ाना ख्याल था ।"

पहली बार रियो बोला । उसने कोतार्द से कहा कि वह उसकी परेशानी को अच्छी तरह समझता है, लेकिन हो सकता है आखिर में सारा मामला सुलझ जाए ।

"ओह, फ़िलहाल तो मुझे कोई डर नहीं है ।"

तारो ने कहा, "देखता हूँ कि तुम हमारी कोशिशों में शामिल नहीं होओगे ।"

बेचैनी से अपने हैट को मरोड़ते हुए कोतार्द चालाक नज़रों से तारो की तरफ़ देखने लगा ।

"मुझे उम्मीद है कि आप मेरे खिलाफ़ मन में कोई शिकवा नहीं रखेंगे मोसियो तारो..."

"हरगिज़ नहीं ! " तारो मुस्कराया, "कम-से-कम जान-बूझकर तो प्लेग के कीटाणुओं की तादाद बढ़ाने की कोशिश मत करो ।”

कोतार्द ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि वह कभी नहीं चाहता था कि प्लेग फैले । प्लेग का फैलना एक संयोग है और अगर प्लेग की वजह से इन दिनों उसे सुविधा हो गई है तो इसमें उसका कोई क़सूर नहीं है। इसके बाद उसमें फिर साहस पैदा हो गया और जब रेम्बर्त कमरे में दाखिल हुआ तो कोतार्द धमकी भरे स्वर में चिल्ला रहा था ।

"इसके अलावा मुझे पक्का यक़ीन है कि तुम्हारी कोशिशों से कोई फ़ायदा नहीं निकलेगा ।"

जब रेम्बर्त को यह पता चला कि कोतार्द को गोन्ज़ेल्ज़ के घर का पता नहीं मालूम था तो उसे बहुत निराशा हुई। उसने सुझाव दिया कि वे एक बार फिर छोटे कॉफी हाउस में जाएं। उन्होंने फ़ैसला किया कि वे कल फिर मिलेंगे। जब रियो ने रेम्बर्त से कहा कि वह रियो को बराबर यह सूचित करता रहे कि उसे अपनी योजना में सफलता मिली है या नहीं, तो रेम्बर्त ने कहा कि रियो और तारो हफ्ते के आखिर में फिर किसी रात उससे मिलने आएँ —— चाहे कितनी देर हो जाए, वह अपने कमरे में ही मौजूद रहेगा ।

अगले दिन सुबह कोतार्द और रेम्बर्त कॉफ़ी हाउस में गये और गार्सिया के लिए सन्देश छोड़ आए कि वह अगर हो सके तो उसी शाम को वरना अगले दिन उनसे आकर मिले। वे सारी शाम गार्सिया का इन्तज़ार करते रहे । अगले दिन गार्सिया आया । उसने खामोशी से रेम्बर्त की सारी बातें सुनीं, फिर उसे बताया कि उसे कुछ मालूम नहीं कि इस बीच क्या हुआ है । लेकिन वह जानता है कि इस बीच शहर के कई हिस्सों का चौबीस घण्टों तक आपस में सम्पर्क टूट गया था, क्योंकि हर घर का मुआइना हो रहा था। हो सकता है गोन्जेल्ज़ और दोनों छोकरे पुलिस के घेरे को तोड़कर न निकल सके हों। वह सिर्फ इतना ही कर सकता है कि एक बार फिर राओल से उसका सम्पर्क करा दे। साफ जाहिर है कि यह परसों तक ही हो सकेगा ।

"मैं समझ गया- मुझे नये सिरे से सारा मामला शुरू करना पड़ेगा ।" रेम्बर्त ने कहा ।

एक दिन बाद रेम्बर्त राओल से सड़क के कोने पर मिला और उसने गार्सिया के अनुमान का समर्थन किया । सचमुच शहर की निचली बस्तियों का शहर से सम्पर्क टूट गया था और उनके गिर्द घेरा डाल दिया गया था । अब समस्या थी कि गोन्ज़ेल्ज़ के साथ कैसे मिला जाए। दो दिन बाद रेम्बर्त और फुटबॉल के खिलाड़ी ने एक साथ दोपहर का खाना खाया ।

गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा, "यह बड़ी अहमक़ाना बात है । तुम दोनों को आपस में मिलने का कोई तरीका जरूर निकालना चाहिए था ।"

रेम्बर्त ने पूरे दिल से इस बात का समर्थन किया ।

गोन्ज़ेल्ज़ ने कहा, "कल सुबह हम फिर उन छोकरों से मिलेंगे और मामले को आगे चलाने की कोशिश करेंगे ।"

लेकिन जब वे अगले दिन वहाँ गये तो छोकरे घर पर नहीं थे । वे एक पुर्जा छोड़ गए थे जिस पर लिखा था कि वे दोपहर को हाई स्कूल के बाहर मिलेंगे। जब रेम्बर्त अपने होटल में लौटा तो तारो उसके चेहरे का भाव देखकर चौंक उठा ।

"तुम्हारी तबीयत खराब है ?"

"नये सिरे से मुझे काम शुरू करना पड़ेगा, इसलिए मेरा मूड खराब हो गया है ।" फिर उसने कहा, "तुम रात को आ रहे हो न ?"

जब दोनों दोस्त रात को रेम्बर्त के कमरे में दाखिल हुए तो उन्होंने रेम्बर्त को बिस्तर पर लेटा हुआ पाया। वह फौरन उठ खड़ा हुआ और उसने गिलासों में शराब डाली । गिलास पहले से ही तैयार रखे थे । गिलास होंठों से लगाने से पहले रियो ने उससे पूछा कि उसे अपने काम में कामयाबी मिल रही है या नहीं । पत्रकार ने जवाब दिया कि उसे फिर उसी दौर में से गुजरना पड़ रहा है और मामला वहीं है जहाँ पहले था । एक या दो रोज़ में वह उन लोगों से आखिरी बार मिलेगा। फिर उसने शराब का एक घूंट पीकर निराश स्वर में कहा, "कहने की जरूरत नहीं, वे लोग इस बार भी नियत स्थान पर नहीं पहुँचेंगे ।"

"छोड़ो भी ! उन्होंने पिछली बार तुमसे धोखा किया था, इसका यह मतलब नहीं कि वे इस बार भी ऐसा ही करेंगे ।"

"अच्छा तो तुम अभी तक नहीं समझ सके," रेम्बर्त ने हिकारत के साथ अपने कंधे सिकोड़कर कहा ।

"किस बात को नहीं समझ सके ?"

"प्लेग को ।"

"आह ! " रियो बोला ।

"नहीं तुम नहीं समझ सके इसका मतलब साफ है - बार-बार वही बात होती रहेगी ।"

वह कमरे के कोने में गया और उसने एक छोटा-सा ग्रामोफ़ोन चला दिया ।

"यह कौनसा रिकॉर्ड है ? मैंने इसे पहले भी सुना है ।" "यह 'संत जेम्ज़ का हस्पताल' है ।"

इसी वक्त दूर कहीं दो गोलियाँ सुनाई दीं ।

"कोई कुत्ता या भगोड़ा होगा ।" तारो ने कहा ।

कुछ क्षणों के बाद जब रिकॉर्ड खत्म हो गया तो खिड़की के पास से किसी एम्बुलेन्स की घंटी सुनाई दी जो रात की खामोशी में खो गई ।

"बड़ा बोर करने वाला रिकॉर्ड है ।" रेम्बर्त ने टिप्पणी की, "आज शायद दसवीं बार मैंने इसे बजाया है ।"

"क्या सचमुच तुम्हें यह रिकॉर्ड इतना अच्छा लगता है ?"

"नहीं । मेरे पास सिर्फ़ यही एक रिकॉर्ड है ।" एक क्षण बाद उसने कहा, "मैंने यही कहा था- बार-बार एक ही चीज़ करनी पड़ती है ।"

उसने रियो से पूछा कि सफाई की टुकड़ियों का काम कैसा चल रहा है ? इस वक्त पाँच टुकड़ियाँ काम कर रही थीं और उम्मीद थी कि कुछ नयी टुकड़ियाँ भी बनाई जाएँगी। लगता था कि पत्रकार बिस्तर पर बैठकर अपने हाथों के नाखूनों को गौर से देख रहा था । रियो उसकी बलिष्ठ, झुकी हुई पालथी मारकर बैठी आकृति की तरफ़ देखने लगा। सहसा उसे एहसास हुआ कि रेम्बर्त भी उसकी तरफ़ देख रहा है ।

"जानते हो डॉक्टर, मैंने तुम्हारे इस आन्दोलन पर काफी सोच-विचार किया है । अगर मैं तुम्हारा साथ नहीं दे रहा तो उसके कई कारण हैं ।... नहीं, यह बात नहीं कि मैं अपनी जान जोखिम में डालने में डरता हूं । मैंने स्पेन के गृह-युद्ध में हिस्सा लिया था ।"

"तुम किस पक्ष के साथ थे ?"

" हारने वालों के साथ । लेकिन उसके बाद से मैंने बहुत कुछ सोचा है।"

"किस बारे में ? "

"साहस के बारे में । मैं जानता हूँ कि इन्सान अनेक महान् काम कर सकता है, लेकिन अगर वह महान् भावनाओं को महसूस करने में असमर्थ है तो उसे देखकर मैं सर्द हो जाता हूँ ।"

"हमारा तो खयाल था कि इन्सान सब-कुछ कर सकता है ।" तारो ने कहा ।

"मैं इस बात से सहमत नहीं हो सकता । न इन्सान में बहुत ज्यादा देर तक दुख सहने की सामर्थ्य है, न सुख सहने की । इसका मतलब है कि उसमें असली चीजों की सामर्थ्य नहीं । उसने बारी-बारी से दोनों जनों को देखा और पूछा, "बताओ तारो, क्या तुम किसी की मुहब्बत में अपनी जान दे सकते हो ?"

"कह नहीं सकता, लेकिन मेरा खयाल है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता- इस हालत में तो बिलकुल नहीं कर सकता ।"

"देखा ! लेकिन तुम किसी विचार के लिए अपनी जान देने की सामर्थ्य रखते हो । यह बात फौरन नज़र आ जाती है। खैर, जहाँ तक मेरा ताल्लुक है मैंने बहुत से लोगों को देखा है जो किसी विचार के लिए अपनी जान देते हैं । मैं हीरो बनने में विश्वास नहीं करता । मैं जानता हूँ कि यह आसान है और मैंने सीख लिया है कि यह हत्याकारक बन सकता है। मुझे इस बात में दिलचस्पी है कि आदमी जिस चीज़ से प्यार करे उसी के लिए जिए और मर जाए ।"

रियो बड़े गौर से पत्रकार को देख रहा था । उसकी नजरें अभी भी रेम्बर्त पर थीं। उसने धीमे स्वर में कहा, "रेम्बर्त, इन्सान एक विचार नहीं है ।"

रेम्बर्त उछलकर बिस्तर से खड़ा हो गया । उसका चेहरा भावावेश से तमतमा उठा ।

"इन्सान एक विचार है और वह बहुत क्षुद्र विचार बन जाता है जबकि वह प्यार से पीठ मोड़ लेता है । और यही मेरे कहने का असली मतलब है, हम इन्सान प्यार करने की सामर्थ्य खो बैठे हैं। हमें इस हकीकत का सामना करना चाहिए, डॉक्टर ! आइए हम वह सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करें और अगर हम उस सामर्थ्य को प्राप्त नहीं कर सकते तो हम उस मुक्ति की प्रतीक्षा कर सकते हैं जो हममें से हरेक को प्राप्त होगी। उसे हीरो बनने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । जहाँ तक मेरा ताल्लुक है मैं इससे अधिक कामना नहीं करता ।"

रियो उठ खड़ा हुआ । अचानक वह बेहद थका हुआ दिखाई देने लगा ।

"तुम ठीक कहते हो रेम्बर्त, बिलकुल ठीक कहते हो। तुम जो भी करने जा रहे हो, मैं हरगिज़ तुम्हें उससे विमुख करने की काशिश नहीं करूंगा । मुझे यह बात बिलकुल सही और उचित मालूम होती है। लेकिन मैं तुम्हें एक बात जरूर बताना चाहूँगा । इन सब बातों में बहादुरी का कोई सवाल नहीं । यह साधारण सौजन्य का सवाल है । यह एक ऐसा विचार है जिसे सोचकर शायद कुछ लोग मुस्करा उठें, लेकिन प्लेग से लड़ने का एकमात्र तरीका है - साधारण सौजन्य ।"

"साधारण सौजन्य से तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? ” रेम्बर्त ने संजीदा ढंग से पूछा ।

" और लोग इसका क्या मतलब समझते हैं यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन जहाँ तक मेरा ताल्लुक है, मैं जानता हूँ कि सज्जनता का अर्थ है कि मैं अपना फर्ज अदा करूं ।"

"तुम्हारा फर्ज़ ! काश मैं भी निश्चय कर पाता कि मेरा फर्ज़ क्या है ।" रेम्बर्त की आवाज में काटने वाला तीखापन था, "हो सकता है कि मैं ग़लती से प्यार को प्रधानता दे रहा होऊँ ।"

रियो ने उससे नज़रें मिलाकर जोरदार ढंग से कहा, "नहीं, तुम ग़लती पर नहीं हो ।"

रेम्बर्त ने ध्यान से कुछ सोचते हुए दोनों की तरफ़ देखा और कहा, " मेरा खयाल है कि इस सारी स्थिति में तुम्हें किसी चीज के खोने का डर नहीं है । इस तरह फ़रिश्तों की तरफ़दारी करना जरा आसान रहता है ।"

रियो ने अपना गिलास खाली कर दिया और तारो से कहा, "चलो चलें ! हमें काम करना है ।" वह बाहर चला गया ।

तारो भी उसके पीछे-पीछे गया, लेकिन दरवाजे के नजदीक पहुँचकर उसने अपना निश्चय बदल दिया । वह रुककर पत्रकार को देखने लगा ।

"शायद तुम्हें नहीं मालूम कि रियो की बीवी यहाँ से क़रीब सौ मील दूर एक सेनेटोरियम में है ।" उसने रेम्बर्त से कहा ।

रेम्बर्त ने आश्चर्य प्रकट किया और उसके कुछ कहने से पहले ही तारो कमरे से बाहर जा चुका था ।

अगले दिन तड़के ही रेम्बर्त ने डॉक्टर को फ़ोन किया, "जब तक मैं शहर से निकलने का कोई तरीका नहीं निकाल सकता, क्या तब तक तुम मुझे अपने साथ काम करने दोगे ?"

कुछ देर की खामोशी के बाद जवाब सुनाई दिया, "ज़रूर, रेम्बर्त ! धन्यवाद !"

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