प्लेग (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू; अनवादक : शिवदान सिंह चौहान, विजय चौहान

The Plague (French Novel in Hindi) : Albert Camus

दूसरा भाग : 5

दूसरे लोग भी, मिसाल के लिए रेम्बर्त, इस बढ़ती हुई परेशानी के वातावरण से मुक्ति पाने की कोशिशें कर रहे थे, लेकिन ज्यादा चतुराई और धैर्य के साथ। हालाँकि उन्हें भी अपनी कोशिशों में ज्यादा कामयाबी नहीं मिली थी। कुछ दिन तक रेम्बर्त लगातार अफ़सरों से संघर्ष करता रहा। हमेशा से उसका ख़याल था कि धैर्य और सहनशीलता से ही कामयाबी हासिल हो सकती है और एक माने में संकट के मौके पर रसूख और पहुँच ही काम आती है। इसलिए वह लगातार सभी तरह के अफ़सरों और ऐसे लोगों से मिलता रहा जिनके रसूख से साधारण परिस्थितियों में बहुत से काम हो सकते थे। लेकिन संकट के इन दिनों में ऐसे रसूख का कोई फायदा नहीं था। अफ़सरों में से अधिकांश लोग ऐसे थे जिनके विचार सिर्फ निर्यात, बैंकिंग, फलों और शराब के व्यापार के बारे में बुदधिमत्तापूर्ण और सुनिश्चित थे। जहाँ तक बीमों, गलत ढंग से लिखे गए समझौतों की व्याख्या और ऐसे कई मामलों का सवाल था उनकी योग्यता साबित हो चुकी थी; उनके पास ऊँची योग्यताएँ थीं और उनके इरादे भी नेक मालूम होते थे। दरअसल उनकी यही चीज़ मिलने वालों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करती थी-उनकी नेकनीयती। लेकिन जहाँ तक प्लेग का सम्बन्ध था, उनकी योग्यता और कार्य-कुशलता न होने के बराबर थी।

खैर, रेम्बर्त को जब भी मौक़ा मिला वह इन सब लोगों से मिला और अपना मामला पेश किया। उसकी दलीलों का एक ही सारांश था; वह हमारे शहर में परदेसी था इसलिए उसकी प्रार्थना पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए था। आमतौर पर सब लोग फ़ौरन उसकी इस दलील का समर्थन करते थे, लेकिन वे साथ ही यह भी कहते थे कि रेम्बर्त-जैसे कई और लोग भी शहर में मौजूद हैं इसलिए उसकी स्थिति में कोई ऐसी विशेषता नहीं है जैसा कि वह सोचता है। इसके जवाब में रेम्बर्त कह सकता था कि इससे उसकी दलील पर कोई असर नहीं पड़ता। इस पर रेम्बर्त को बताया जाता था कि इस बात का असर ज़रूर पड़ता है क्योंकि अधिकारियों की परिस्थिति पहले से ही कठिन है, और वे किसी के प्रति पक्षपात नहीं करना चाहते, वरना उन्हें डर है कि एक 'मिसाल' कायम हो जाएगी इस शब्द को वे बड़ी नफ़रत से इस्तेमाल करते थे।

डॉक्टर रियो से बातचीत के दौरान रेम्बर्त ने बताया कि वह किन-किन लोगों से मिल चुका है। रेम्बर्त ने उन्हें कई श्रेणियों में बाँटा था। जो लोग ऊपर लिखी हुई दलीलें देते थे उन्हें वह ज़िद्दी कहता था। इस श्रेणी के अलावा तसल्ली देने वालों की श्रेणी थी जो उसे यक़ीन दिलाते थे कि मौजूदा स्थिति ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती। जब रेम्बर्त ने उनसे ठोस सुझाव देने के लिए कहा तो उन्होंने यह कहकर उसे टरका दिया कि वह क्षणिक असुविधा के कारण व्यर्थ ही इतनी हाय-तौबा मचा रहा है। कुछ बहुत बड़े लोग थे जिन्होंने रेम्बर्त से कहा कि वह संक्षेप में अपना मसला लिखकर छोड़ जाए, उचित समय पर उसकी अरजी पर फैसला किया जाएगा। कुछ अफ़सर उसके साथ खिलवाड़ करते थे और असली सवाल का जवाब देने के बजाय उसे ख़ाली मकानों का पता बताते थे और कहते थे कि वे पुलिस की मदद से उसके लिए रहने की जगह दिला सकते हैं। कुछ अफ़सर तो जैसे लाल फीते के व्यापारी थे, जिन्होंने रेम्बर्त से फ़ॉर्म भरवाकर उसे फ़ौरन फ़ाइल में रख दिया; काम के बोझ से पीड़ित अफ़सर भी थे जो बार-बार आसमान की तरफ़ बाँहें उठाते थे, और जनता से दुखी अफ़सर थे जो बात सुनकर दूसरी तरफ़ मुँह फेर लेते थे। सबसे ज़्यादा तादाद परम्परावादियों की थी, जिन्होंने रेम्बर्त की अरजी किसी दूसरे दफ्तर में भेज दी थी या उसे काम निकलवाने का नया ढंग बताया था।

इन बेमानी मुलाक़ातों ने पत्रकार को थका दिया था। इन मुलाक़ातों का इतना फ़ायदा ज़रूर हुआ था कि उसे म्यूनिसिपल कमेटी के दफ्तर और प्रीफ़ेक्ट के हेडक्वार्टर के काम-काज के अन्दरूनी तरीकों का पता चल गया था, क्योंकि उसे घंटों तक नकली चमड़े के सोफ़ों पर बैठे रहना पड़ा था, सामने दीवारों पर लगे पोस्टर उसे इनकम टैक्स से मुक्त सेविंग बॉण्ड खरीदने की अपील करते थे या फ्रांस की औपनिवेशिक फ़ौज में भरती होने की ताकीद करते थे। उसे दफ्तरों का खासा अनुभव हो गया था जहाँ इनसानों के चेहरे भी फ़ाइल रखने की अलमारियों और उनके पीछे रखे धूल-भरे रिकॉर्डों की तरह भाव-शून्य थे। इतनी ताक़त ख़र्च करने के बाद रेम्बर्त को सिर्फ एक ही फ़ायदा हुआ, जैसा कि उसने रियो को कटुता-भरे स्वर में बताया कि इससे उसका मन अपनी दुर्दशा से हटकर और बातों में उलझ गया था। दरअसल प्लेग के तेज़ विकास की तरफ़ उसका ध्यान ही नहीं गया था। उसके दिन जल्दी से गुज़रने लगे और जिन परिस्थितियों से शहर गुज़र रहा था उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता था कि उन लोगों के लिए जो ज़िन्दा बच जाते थे। हर रोज़ कठिन परीक्षा में से चौबीस घंटे कम हो जाते थे, रियो इस दलील की सचाई को क़बूल तो करता था लेकिन उसके ख़याल में यह सचाई ज़रूरत से कुछ ज़्यादा व्यापक थी।

एक बार रेम्बर्त को क्षण-भर के लिए आशा की किरण दिखाई दी थी। प्रीफ़ेक्ट के दफ़्तर से उसे एक फ़ॉर्म भेजा गया था जिसमें उसे हिदायत की गई थी कि वह सावधानी से सारे ख़ाली ख़ानों की पूर्ति करे। फ़ॉर्म में उसके हलिये, परिवार, मौजूदा और भूतपूर्व आमदनी के ज़रियों के बारे में पूछताछ की गई थी। दरअसल उससे ज़िन्दगी के तथ्यों की पूरी सूची मांगी गई थी। उसे लगा कि यह पूछताछ उन लोगों की सूची बनाने के लिए की जा रही है जिन्हें शहर छोड़कर अपने घरों में लौटने का आदेश दिया जाएगा। एक दफ़्तर के कर्मचारी से कुछ अस्पष्ट-सी जानकारी मिली जिससे रेम्बर्त के विचार की पुष्टि हो गई। लेकिन जब उसने और गहरी छानबीन की तो उसे उस दफ्तर से जहाँ से फ़ॉर्म आया था, पता चला कि यह जानकारी विशेष प्रयोजन से इकट्ठी की जा रही है।

“कौन-सा प्रयोजन?" उसने पूछा।

बाद में उसे पता चला कि हो सकता है वह बीमार होकर मर जाए। इस जानकारी से अधिकारियों को उसके परिवार के सदस्यों को सूचित करने में और यह फैसला करने में मदद मिलेगी कि अस्पताल का ख़र्च म्यूनिसिपल कमेटी को उठाना चाहिए या उसके रिश्तेदारों से वसूल हो सकता है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता था कि रेम्बर्त का सम्पर्क उस औरत से पूरी तरह नहीं टूटा था जो उसके लौटने का इन्तज़ार कर रही थी, क्योंकि अधिकारी-वर्ग स्पष्ट रूप से उन दोनों की ओर ध्यान दे रहा था। लेकिन इस बात से उसे कोई तसल्ली नहीं मिल सकी। सबसे बड़ी बात, जिससे रेम्बर्त अत्यन्त प्रभावित हुआ था, यह थी कि किस तरह मुसीबत के बीच भी दफ्तरों का काम-काज बिना किसी बाधा के चल रहा था और वे ऐसे क़दम उठा रहे थे जिनका न बड़े-से-बड़े अधिकारियों को पता था, न ही उन क़दमों का कोई तात्कालिक महत्त्व था। ये क़दम सिर्फ इसलिए उठाए गए थे, क्योंकि उन दफ्तरों को इसी मकसद के लिए खोला गया था।

अगला दौर रेम्बर्त के लिए सबसे ज़्यादा आसान होते हुए भी सबसे अधिक कठिन था। यह अतीव आलस्य का दौर था। रेम्बत दफ़्तरों के चक्कर काट चुका था और भरसक सारे क़दम उठा चुका था। अब उसे एहसास हुआ था कि इस क़िस्म के सारे रास्ते उसके लिए बन्द हो गए थे। इसलिए अब वह निरुदेश्य एक रेस्तराँ से दूसरे रेस्तराँ में भटकता रहता था। सुबह का वक़्त वह रेस्तराँ की बालकनी में गुज़ारता और इस उम्मीद से अख़बार पढ़ता था कि शायद महामारी के प्रकोप के कुछ कम होने की ख़बर मिले। वह सड़क पर चलने वालों के चेहरों की तरफ़ देखता रहता और अक्सर उन चेहरों के नीरस अवसाद को देखकर वह ग्लानि से मुँह फेर लेता था। फिर सड़क के सामने लगे दुकानों के बोर्डों को, लोकप्रिय शराबों के इश्तहारों को जो, अब अप्राप्य थीं, पढ़ने के बाद वह उठकर किसी कॉफ़ीहाउस या रेस्तराँ की तरफ़ चल देता था। इन इश्तहारों को वह असंख्य बार पहले पढ़ चुका था। एक दिन शाम को रियो ने उसे एक कॉफ़ी-हाउस के दरवाज़े के पास मँडराते देखा। वह भीतर जाए या न जाए, इसका निश्चय नहीं कर पा रहा था। आख़िरकार उसने भीतर जाने का फैसला किया और कमरे के पीछे वाली एक मेज़ के पास बैठ गया। इस दौर में कॉफ़ी-हाउसों के मालिकों को सरकारी हक्म था कि वे ज़्यादा-से-ज्यादा देर बाद रात को बत्ती जलाया करें। मटमैली साँझ कमरे में फैल रही थी। सूर्यास्त की गुलाबी आभा से दीवारों पर लगे शीशे आलोकित हो उठे थे। साँझ के झुटपुटे में सफ़ेद संगमरमर की टॉप वाली मेजें चमक रही थीं। ख़ाली कॉफ़ी-हाउस में बैठा रेम्बर्त अँधेरे की परछाइयों में एक 'खोयी हुई' परछाईं की तरह नज़र आ रहा था जिसे देखकर मन में करुणा उपजती थी। रियो ने अनुमान लगा लिया कि रेम्बर्त इसी वक़्त अपने को अकेला और परित्यक्त महसूस करता है। इसी वक़्त शहर में कैद सब लोगों को अपने एकाकीपन का एहसास होता था और हर आदमी यही सोचता था कि चाहे कोई भी तरीक़ा अपनाना पड़े, इस कैद से छूटने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। रियो जल्द ही वहाँ से चला गया।

रेम्बर्त कुछ वक़्त रेलवे स्टेशन पर भी गुज़ारता था। किसी को प्लेटफार्म पर जाने की इजाज़त नहीं थी। लेकिन वेटिंग रूम खुले थे और बाहर से उनमें लोग दाख़िल हो सकते थे। जब बहुत गरमी पड़ती थी तो भिखारी इन ठंडे और अँधेरे कमरों में आ जाते थे। रेम्बर्त टाइम-टेबल, थूकने पर लगाई पाबन्दियों और यात्रियों के लिए छपे सरकारी नियमों को बहुत देर तक पढ़ता रहता था, फिर एक कोने में बैठ जाता था। कमरे के बीचोबीच एक पुरानी लोहे की अँगीठी, जो कई महीनों से ठंडी पड़ी थी, विशिष्ट चिह्न बनकर खड़ी थी। फ़र्श पर आठ की संख्या के आकार के बेलबूटे बने थे जो बहुत वर्ष पहले बनाए गए थे। दीवारों पर लगे पोस्टर सैलानियों को केन्ज़ या बन्दोल में निश्चिन्त छुट्टी मनाने का उल्लासपूर्ण निमंत्रण दे रहे थे। इस कोने में बैठकर रेम्बर्त को आज़ादी का कड़वा स्वाद मिलता था जो पूर्ण वंचना से आता है। उसने रियो को बताया कि उसके मन में उस वक़्त जो विचार उठते थे उनमें पेरिस के विचार प्रमुख थे। उसकी आँखों के आगे, बिना बुलाए ही पेरिस की तस्वीर उभरने लगती थी, पत्थरों की बनी प्राचीन सड़कें, नदी के तट, पेले-रॉयल के कबूतर, गेरे दूनोर्द, पेन्थियोन के आसपास की प्राचीन ख़ामोश गलियाँ, और शहर के अनेक और ऐसे दृश्य। वह पेरिस को इतना ज़्यादा चाहता है, यह उसे पहले मालूम नहीं था। मन में उभरने वाली इन तस्वीरों ने कुछ करने की तमाम इच्छाओं को ख़त्म कर दिया। रियो को यक़ीन था कि वह इन दृश्यों दवारा अपने प्यार की स्मृतियों को ताज़ा कर रहा है। एक दिन जब रेम्बर्त ने रियो को बताया कि उसे सुबह चार बजे उठकर अपने प्रिय पेरिस को याद करना बहुत अच्छा लगता है, तो डॉक्टर आसानी से समझ गया कि रेम्बर्त अपने अनुभव के आधार पर ऐसा कर रहा है, क्योंकि इसी वक़्त उसे मन में बिछुड़ी प्रेयसी की तस्वीरें बनाना अच्छा लगता है। दरअसल सारे दिन में सिर्फ यही ऐसा वक़्त था जब वह सोच सकता था कि उसकी प्रेयसी पूरी तरह से उसकी है। तड़के चार बजे इनसान कोई काम नहीं करता, चाहे रात बेवफ़ाई में भी गुज़री हो तब भी सुबह आदमी नींद में बेख़बर रहता है। हाँ, दुनिया के सभी लोग इस वक़्त सोए रहते हैं। इस विचार से बड़ी सांत्वना मिलती है, क्योंकि बेचैन दिल की सबसे बड़ी ख़्वाहिश यह होती है कि वह लगातार सचेत रूप से अपने प्रियजन को पाता रहे। अगर यह सम्भव न हो सके तो अपने प्रियतम या प्रेयसी को जुदाई के क्षणों में एक ऐसी गहरी नींद में सुला दे, जिसमें न सपने आएँ और जो तब तक न टूटे, जब तक फिर से उनका मिलन नहीं हो जाए।

दूसरा भाग : 6

गरमी फ़ादर पैनेलो के प्रवचन के बाद से ही बेहद बढ़ गई थी। जिस इतवार को बेमौसमी बारिश हुई थी, उससे अगले दिन घरों के ऊपर झुलसती हुई गरमी छा गई। पहले तो दिन-भर तेज़, तपती हुई लू चली जिससे घरों की दीवारें सूख गईं। इसके बाद सूरज ने आसमान पर क़ब्ज़ा जमा लिया और दिन-भर गरमी और तेज़ रोशनी शहर पर छाई रही। सिर्फ मेहराबदार गलियाँ और घरों के कमरे ही इस गरमी से बचे थे, बाक़ी सारी जगहों पर तेज़ चौंधिया देने वाली रोशनी पड़ रही थी। सूरज हमारे शहर के लोगों का हर गली, हर कोने में पीछा कर रहा था और जब वे क्षण-भर के लिए धूप में रुकते थे तो उन्हें सरसाम हो जाता था।

चूँकि गरमी के हमले के साथ-ही-साथ प्लेग के मरीज़ों की तादाद भी बढ़ गई थी। अब हफ़्ते में क़रीब सात सौ मौतें होने लगी थीं। शहर में गहरी निराशा छा गई। शहर की बाहरी बस्तियों की लम्बी, सपाट सड़कों और घरों के छज्जों पर हमेशा रहने वाली रौनक़ गायब हो गई। आमतौर पर इलाक़ों में रहने वाले लोग दिन का काफ़ी समय अपने दरवाज़ों की सीढ़ियों पर बैठकर गुज़ारते थे, लेकिन अब हर दरवाज़ा बन्द था, कोई आदमी दिखाई नहीं देता था, यहाँ तक कि खिड़कियाँ और परदे भी बन्द रहते थे। यह जानना मुश्किल था कि लोगों ने प्लेग के डर से खिड़कियाँ बन्द की थीं या गरमी की वजह से। कुछ घरों से कराहने की आवाजें आ रही थीं। शुरू में तो लोग जिज्ञासा या करुणा से प्रेरित होकर बाहर जमा हो जाते थे, लेकिन अब लगातार तनाव छाए रहने के कारण ऐसा लगता था कि लोगों के दिल भी सख्त हो गए थे; लोग कराहटों के आसपास इस तरह रहते थे और उनके नज़दीक से इस तरह गुज़र जाते थे जैसे आहे और कराहटें ही लोगों की साधारण और स्वाभाविक भाषा हों।

फाटकों पर हुई मारपीट के फलस्वरूप, जिसमें पुलिस को रिवॉल्वर इस्तेमाल करने पड़े थे, अराजकता की भावना चारों ओर फैल गई थी। पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में कुछ लोग ज़ख्मी भी हो गए थे लेकिन शहर में गरमी और आतंक के सम्मिलित प्रभाव के कारण हर बात बढ़ा-चढ़ाकर कही जाने लगी थी और लोगों का कहना था कि मुठभेड़ में कुछ लोग मर भी गए हैं। लेकिन जो भी हो, एक बात निश्चित थी कि असन्तोष सचमुच बढ़ रहा था और इस डर से कि कहीं स्थिति बिगड़ न जाए, स्थानीय अफ़सर बहुत दिन तक बहस करते रहे कि अगर महामारी से तंग आकर लोग पागलपन पर उतारू हो गए और स्थिति काबू से बाहर हो गई तो कौन-से क़दम उठाने उचित होंगे। अख़बार में नए सरकारी नियम प्रकाशित हुए जिनमें फिर कहा गया था कि कोई आदमी शहर छोड़ने की कोशिश न करे। नियम का उल्लंघन करने वालों को चेतावनी दी गई कि उन्हें लम्बी कैद की सज़ा मिलेगी।

शहर में पुलिस गश्त लगाने लगी और अक्सर खाली, पसीजी हुई गलियों के पत्थरों पर घोड़ों की टाप सुनाई देती और घुड़सवार पुलिस का एक दल सड़क के दोनों ओर कसकर बन्द की हुई खिड़कियों की कतारों के बीच से गुज़र जाता। कभी-कभी बन्दूक की आवाज़ भी सुनाई देती थी। हाल ही में चूहों और कुत्तों को ख़त्म करने के लिए एक स्पेशल ब्रिगेड बनाई गई थी ताकि वे छूत न फैला सकें। ख़ामोशी को चौंका देने वाली इन कोड़ों-जैसी आवाज़ों ने शहर के स्नायविक तनाव को और भी बढ़ा दिया था।

गरमी, ख़ामोशी और परेशानी ने हमारे शहर के लोगों को इतना संवेदनशील बना दिया था कि ज़रा-सी आवाज़ भी उन्हें बहुत महत्त्वपूर्ण मालूम होती थी। लोगों ने पहली बार आसमान के बदलते हुए रंगों और धरती से उठती हुई गन्धों पर, जो हर बार मौसम बदलने पर उठती हैं, ध्यान दिया। लोगों को यह क्षोभपूर्ण एहसास हुआ कि गरमी से महामारी और भी फैल जाएगी, और साफ़ ज़ाहिर था कि गरमी का मौसम शुरू हो गया था। शाम के वक़्त घरों के ऊपर चहकने वाले पक्षियों की आवाजें पहले से तेज़ होती जा रही थीं। आसमान का वह विस्तार अब नहीं रहा था जैसा कि जून की शामों में होता है जब तारे टिमटिमाते हैं ऐसे में हमारे क्षितिज अनन्त दूर तक फैले नज़र आते हैं। बाज़ारों में अब कलियों के बजाय खिले हुए फूल बिकने आते थे और सुबह की खरीदारी के बाद, धूल से सने फुटपाथ पैरों तले रौंदी हुई पंखुड़ियों से भर जाते थे। साफ़ ज़ाहिर था कि बहार ख़त्म हो चुकी थी, उसने असंख्य फूलों पर अपना उत्साह लुटा दिया था, हर जगह वे खिले दिखाई देते थे और जो अब गरमी और प्लेग के दोहरे हमले से मुरझा रहे थे। हमारे शहर के लोगों के लिए वह गरमी का आकाश, धूल से सनी सड़कें, जो लोगों की मौजूदा ज़िन्दगी की तरह धूसरित और नीरस थीं, इन दिनों हर रोज़ होने वाली सौ मौतों की तरह अमंगलपूर्ण थीं। अब वे दिन बीत चुके थे जब धूप लोगों को दोपहर के सोने और छुट्टी मनाने के लिए आमंत्रित करती थी और लोग समुद्र-तट पर जाकर विनोद और प्रेम-क्रीड़ाएँ करते थे। अब बन्द शहर में धूप बेमानी और खोखली हो गई थी। उसमें गरमी के सुखद मौसम का सुनहरा जादू नहीं रहा था। प्लेग ने सब रंगों को तबाह कर दिया था, और अपने विशेषाधिकार से खुशी पर पाबन्दी लगा दी थी।

महामारी से यही सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ था। इससे पहले हम ख़ुशी-खुशी गरमी के मौसम का इन्तज़ार करते थे। शहर समुद्र-तट पर बसा था और नौजवान लोग समुद्र-तट पर आज़ादी से घूमते थे। लेकिन इस बार गरमी में नज़दीक होते हुए भी समुद्र तक पहुँचना मुश्किल था। नौजवानों को समुद्र की खुशियाँ नसीब नहीं थीं। ऐसी परिस्थितियों में हम क्या कर सकते थे? इन दिनों की ज़िन्दगी की सच्ची तस्वीर फिर तारो ने ही बयान की है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उसने प्लेग की बढ़ती का खाका खींचा है, तारो ने यह भी नोट किया है कि जब से रेडियो ने मौतों के हफ़्तावार आँकड़े बताने के बजाय यह बताना शुरू किया कि हर रोज़ बानबे, एक सौ सात या एक सौ तीस मौतें होने लगी हैं तब से महामारी के इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ है। अख़बार और सरकारी अफ़सर प्लेग के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उनका ख़याल है कि वे प्लेग पर जीत पा रहे हैं, क्योंकि नौ सौ दस के मुक़ाबले एक सौ तीस छोटी संख्या है। उसने उन करुण और आश्चर्यजनक घटनाओं का भी बयान किया है जो उसके देखने में आई थीं। मिसाल के लिए जब वह एक सुनसान गली से गुज़र रहा था तो एक औरत तिमंज़िले के सोने के कमरे की खिड़की खोलकर दो बार ज़ोर से चिल्लाई और उसने फिर खिड़की बन्द कर ली। तारो ने यह भी नोट किया है कि दवाई की दुकानों में पिपरमेंट की गोलियाँ ख़त्म हो गई थीं, क्योंकि लोगों का ख़याल था कि जब तक ये गोलियाँ मुँह में रहती हैं तब तक प्लेग की छूत नहीं लग सकती।

वह लगातार सामने की बालकनी पर अपने प्रिय अजूबे को देखा करता था। मालूम होता था कि बूढ़े शिकारी पर भी मुसीबत आ गई थी। एक दिन सुबह सड़क पर बन्दूक की आवाज़ सुनाई दी थी, या तारो के शब्दों में, "सीसे की थूक ने अधिकांश बिल्लियों को मार डाला था और बाक़ियों को डराकर भगा दिया था।” खैर, जो भी हो अब बिल्लियाँ आसपास कहीं नज़र आती नहीं थीं, उस दिन नाटा बूढ़ा हमेशा की तरह निश्चित समय पर बालकनी पर आया, और उसने हैरानी ज़ाहिर की। फिर रेलिंग पर झुककर वह गौर से सड़क के कोनों को देखने लगा और बैठकर दाएँ हाथ से बालकनी की सलाखों पर कुढ़ता हुआ उँगलियों से तबला बजाने लगा। कुछ देर रुकने के बाद उसने कुछ कागज़ फाड़े और अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद वह फिर लौट आया। बहुत देर तक बालकनी पर इन्तज़ार करने के बाद वह फिर कमरे में चला गया और उसने ज़ोर से खिड़कियाँ बन्द कर लीं। एक हफ्ते तक वह लगातार यही हरकतें करता रहा। उसके बूढ़े चेहरे पर दिन-ब-दिन उदासी और हैरत बढ़ती जाती थी। आठवें दिन तारो बूढ़े का इन्तज़ार करता रहा, लेकिन बूढ़ा नहीं आया; खिड़कियाँ मज़बूती से बन्द रहीं। उनके भीतर एक गहरा अवसाद बन्द था जिसे तारो आसानी से समझ सकता था। यहाँ अन्त में तारो ने लिखा है, "प्लेग के दिनों में बिल्लियों पर थूकना मना है।"

एक और प्रसंग में तारो ने नोट किया है कि शाम को जब वह लौटता तो रात की ड्यूटी का चौकीदार सन्तरियों की तरह चहलकदमी करता नज़र आता था। वह सब लोगों से यही कहता था कि उसने इन घटनाओं की कल्पना बहुत पहले से कर ली थी। तारो ने कहा कि उस आदमी ने किसी मुसीबत की भविष्यवाणी तो ज़रूर की थी, लेकिन उसका ख़याल था कि भूचाल आएगा। इस पर बूढ़े ने जवाब दिया, “काश भूचाल ही आता। एक ज़ोर का धक्का लगता और क़िस्सा ख़त्म हो जाता। लाशों और ज़िन्दा लोगों की गिनती की जाती, बस! लेकिन यह कमबख्त बीमारी-जिन्हें इसकी छूत नहीं लगी वे भी हर वक़्त इसके सिवा और कोई बात नहीं सोचते।

होटल का मैनेजर भी हताश था। शुरू के दिनों में बाहर से आए मुसाफ़िर अपने कमरों में टिके रहे थे, क्योंकि वे शहर छोड़कर नहीं जा सकते थे। लेकिन जब उन्हें महामारी के घटने के कोई लक्षण न दिखाई दिए तो वे एकएक करके अपने दोस्तों के घरों में चले गए। जिस कारण से कमरों में लोग टिके हुए थे उसी कारण से अब कमरे ख़ाली हो गए थे, क्योंकि अब शहर में और नए मुसाफ़िर नहीं आ रहे थे। तारो उन बहुत कम लोगों में से था जो होटल में अभी भी टिके हुए थे। हर मौके पर मैनेजर उन्हें यह बताए बगैर नहीं रहता था कि वह अपने मेहमानों को तकलीफ़ नहीं देना चाहता, वरना वह कभी का होटल बन्द कर देता। वह अक्सर तारो से पूछता था कि उसकी राय में महामारी अभी और कितने दिन तक चलेगी। तारो ने उसे बताया, "सूना है कि सर्दी के आते ही इस किस्म की बीमारियाँ ख़त्म हो जाती हैं।" मैनेजर हक्का-बक्का रह गया और बोला, “लेकिन जनाब इस इलाके में तो सचमुच की सर्दी कभी नहीं पड़ती। खैर जो भी हो, इसका मतलब है कि अभी यह बीमारी कुछ और महीनों तक चलेगी।" इसके अलावा मैनेजर को यक़ीन था कि भविष्य में भी बहुत दिन तक सैलानी इस शहर से दूर-दूर रहेंगे, और पर्यटन कारोबार तबाह हो जाएगा।

कुछ दिन तक गायब रहने के बाद मोशिए ओथों, उल्लू की शक्ल वाला गृहपति फिर डाइनिंग रूम में दिखाई दिया, लेकिन इस बार उसके साथ सिर्फ सरकस के 'झबरे कुत्ते' यानी उसके बच्चे थे। पूछताछ से पता चला कि मदाम ओथों को छूत वाले वार्ड में क्वारंटाइन कर दिया गया था। वह अपनी माँ की देखभाल करती रही थी, जिसकी प्लेग में मौत हो गई थी।

"मुझे यह बात क़तई पसन्द नहीं है," मैनेजर ने तारो से कहा।

"मदाम ओथों छूत के वार्ड में क्वारंटाइन है या नहीं, लेकिन डॉक्टरों को छूत का शक ज़रूर है। इसका मतलब है कि उसके सारे परिवार को छूत हो सकती है।"

तारो ने समझाया कि अगर इस दृष्टि से सोचा जाए तो सभी लोगों को छूत हो सकती है। लेकिन मैनेजर की अपनी राय थी जिसे छोड़ने के लिए वह राज़ी नहीं था।

“नहीं जनाब, आप और हम पर छूत का शक नहीं हो सकता, लेकिन इन लोगों पर ज़रूर है।"

खैर, मोशिए ओथों पर इन बातों का बिलकुल असर नहीं हुआ और न ही प्लेग की वजह से उसकी आदतों में रत्ती-भर फ़र्क आया था। वह हमेशा की तरह शालीनता से डाइनिंग रूम में आता, अपने बच्चों के सामने बैठकर बीच-बीच में शिष्ट, किन्तु अप्रिय टिप्पणियाँ करता। सिर्फ छोटा लड़का कुछ बदल गया था; वह भी अपनी बहन की तरह काले रंग की पोशाक पहनता था, लेकिन वह पहले से दुबला हो गया था और हबह अपने बाप की संक्षिप्त अनुकृति मालूम होता था। रात के चौकीदार ने, जो मोशिए ओथों को नापसन्द करता था, तारो से कहा, “देख लेना, यह छैला इसी तरह कपड़े पहने-पहने मर जाएगा। लगता है, इसने परलोक जाने की पूरी तैयारी कर ली है, इसलिए इसे दफ़नाने में ज्यादा खर्च नहीं आएगा।"

तारो ने फ़ादर पैनेलो के प्रवचन पर भी कुछ टिप्पणियाँ की हैं। “मैं इस तरह के धार्मिक उत्साह को अच्छी तरह समझता हूँ और मुझे यह बुरा नहीं लगता। किसी भी महामारी के शुरू और अन्त में धुआँधार व्याख्यानों की काफ़ी गुंजाइश रहती है। शुरू में इसलिए क्योंकि लोगों की आदतें पूरी तरह से मिटती नहीं, और अन्त में इसलिए क्योंकि पुरानी आदतें फिर से लौटने लगती हैं। जब इनसान किसी मुसीबत में गले तक डूब जाता है तो उसका दिल सचाई के प्रति कठोर हो जाता है, यानी वह ख़ामोश हो जाता है। अच्छा, देखें क्या होता है!”

उसने यह भी नोट किया है कि डॉक्टर रियो से उसकी लम्बी बातचीत हुई। उसे सिर्फ इतना ही याद है कि उस बातचीत का अच्छा असर' पड़ा था, इस सिलसिले में उसने मदाम रियो के रंग, डॉक्टर की माँ की आँखों के पारदर्शी भूरे रंग पर भी गौर किया है। और एक विलक्षण टिप्पणी दी है कि ऐसी निगाहें, जिनमें हृदय की इतनी पवित्रता झलकती है, हमेशा प्लेग पर विजय पाती रहेंगी।

उसने रियो के दमे के मरीज़ के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है। बातचीत के फ़ौरन बाद वह डॉक्टर के साथ उस मरीज़ को देखने के लिए गया था। बूढ़े ने विनोदपूर्ण हँसी से और खुशी से हथेलियाँ रगड़कर तारो का स्वागत किया। वह हमेशा की तरह बिस्तर पर बैठा था और उसके आगे सूखे मटर से भरे दो पतीले रखे थे। तारो को देखते ही उसने कहा, “आह! एक और आ गया! यह उलटी दुनिया है जिसमें मरीजों के बजाय डॉक्टर ज़्यादा हैं, क्योंकि दुनिया उन्हें दिन-ब-दिन घास की तरह काटे जा रही है। क्यों, ठीक है न? उस पादरी की बात सही है। हम लोगों ने खुद ही यह मुसीबत बुलाई है।" अगले दिन तारो बिना ख़बर किए उसे देखने चला आया।

तारो की टिप्पणियों से पता चलता है कि उस बूढ़े ने, जो पेशे से बजाज था, पचास बरस की उम्र में तय किया कि वह जितनी मेहनत कर चुका है, वह ज़िन्दगी-भर के लिए काफ़ी है। वह बीमार पड़ गया और फिर बिस्तर से कभी नहीं उठा। इसका कारण दमा नहीं था, क्योंकि दमे की वजह से उसे चलने-फिरने में कोई दिक़्क़त नहीं हो सकती थी। उसकी थोड़ी-सी बँधी हुई आमदनी थी जिससे वह पचहत्तर बरस की उम्र तक गुज़ारा करता आया था। बुढ़ापे का उसकी खुशमिज़ाजी पर कोई असर नहीं हुआ था। वह घड़ी देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता था और उसके घर में एक भी घड़ी नहीं थी। वह कहता था, “घड़ी बहुत बेहूदा चीज़ है और फिर क़ीमती भी है।" वह वक़्त यानी खाने के वक़्त का पता अपने दो पतीलों से लगा लेता था। जब वह सुबह सोकर उठता था तो एक पतीला सूखे मटरों से भरा रहता था। वह बड़ी सावधानी से लगातार नियमित ढंग से दूसरे पतीले में एक-एक मटर का दाना डालता जाता था। इस तरह वह इन पतीलों की मदद से वक़्त का अन्दाज़ लगाया करता था और दिन में किसी वक़्त भी बता सकता था कि कितने बजे हैं। वह कहता था, “जब पन्द्रह बार पतीला भर जाता है तो खाने का वक़्त आ जाता है। वक़्त जानने का इससे आसान तरीक़ा और क्या हो सकता है?"

उसकी पत्नी का कहना था कि इस सनक के लक्षण उसमें बहुत पहले से दिखाई देने लगे थे। दरअसल उसे किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं थी। वह काम-काज, दोस्तों, कॉफ़ी-हाउसों, औरतों, पिकनिकों के प्रति हमेशा से उदासीन था। वह ज़िन्दगी में सिर्फ एक बार अपने शहर से बाहर गया था। जब उसे अपने किसी घरेलू काम से एल्जीयर्ज़ जाना पड़ा था, उस वक़्त भी वह ओरान के बाद वाले स्टेशन से लौट आया था, क्योंकि उसके लिए इस दुःसाहसपूर्ण काम को जारी रखना असम्भव था।

तारो ने बूढ़े की इस एकान्तपूर्ण ज़िन्दगी पर हैरत जताई थी। उसके जवाब में बूढ़े ने जो कहा था उसका सारांश इस प्रकार है इनसान की शुरू की आधी ज़िन्दगी पहाड़ की चढ़ाई की तरह होती है और दूसरा आधा हिस्सा ढलान की तरह होता है। इस काल में उसका ज़िन्दगी के ऊपर कोई दावा नहीं होता, उसके हक़ किसी भी वक़्त उससे छीने जा सकते हैं। वह उनका कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता और सबसे अच्छी बात यही है कि वह उनसे छेड़ छाड़ न करे। साफ़ ज़ाहिर था कि बूढ़े को अपनी बात काटने में कोई संकोच नहीं होता था, क्योंकि कुछ ही मिनट के बाद उसने तारो से कहा कि वह ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता, अगर ईश्वर होता तो दुनिया में पादरियों की कोई ज़रूरत न रह जाती। इसके बाद की घटनाओं पर गौर करने के बाद तारो को एहसास हुआ कि उस इलाके में लगातार दीन-दुखियों की सहायता के लिए घर-घर घूमकर चन्दा इकट्ठा किया जा रहा था। बूढ़े को उससे सख़्त चिढ़ होती थी। उसकी फ़िलॉसफी का इस चिढ़ से गहरा सम्बन्ध था। बूढ़े ने कई बार यह दिली ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि वह बहुत लम्बी उम्र भोगकर मरना चाहता है। बूढ़े के चरित्र की तस्वीर इस बात से पूरी हो जाती है।

'क्या वह सन्त है?' तारो ने अपने-आप से यह सवाल पूछा और जवाब दिया, “हाँ, अगर आदतें इकट्ठा करना ही सन्तों का गुण है तो सचमुच बूढ़ा एक सन्त था।"

उधर तारो प्लेग-पीड़ित शहर की एक दिन की ज़िन्दगी का एक लम्बासा विवरण तैयार कर रहा था, ताकि उस साल के गरमी के मौसम में हमारे नागरिकों की ज़िन्दगी की सही तस्वीर पेश की जा सके। तारो ने लिखा है, “शहर में शराबियों के सिवा कोई नहीं हँसता और शराबी ज़रूरत से ज़्यादा हँसते हैं।" इसके बाद वह प्लेग का वर्णन शुरू करता है।

“पौ फटने पर हवा के हल्के झोंके ख़ाली सड़कों पर पंखा झलते हैं-रात की मौतों और आने वाले दिन की मृत्यु की यंत्रणा में तड़पने वालों के बीच के वक़्त में ऐसा लगता है जैसे कुछ देर के लिए प्लेग ने अपना हाथ रोक लिया हो और वह साँस लेने के लिए रुक गई हो। सारी दुकानें बन्द रहती हैं, लेकिन कुछ दुकानों पर लगे नोटिसों-'दुकान प्लेग के कारण बन्द है' से ज़ाहिर होता है कि जब और दुकानें खुलेंगी तब भी ये दुकानें बन्द रहेंगी। अख़बार बेचने वाले लड़के अभी नहीं चिल्ला रहे क्योंकि उनकी आँखें अभी अधमँदी हैं, लेकिन वे नींद में चलने वाले लोगों की तरह सड़क के कोनों पर बने बिजली के खम्भों की तरफ़ अपने अख़बार बढ़ा रहे थे। जल्द ही तड़के चलने वाली ट्रामों के शोर से ये लड़के जाग जाएँगे और शहर भर में फैल जाएँगे। इनके बढ़े हुए हाथों में अख़बार होंगे जिन पर बड़े अक्षरों में 'प्लेग' लिखा होगा। क्या पतझड़ के मौसम में भी प्लेग जारी रहेगी? प्रोफ़ेसर बी की राय है 'नहीं'। प्लेग के 14वें दिन हुई मौतों की संख्या एक सौ चौबीस।

“कागज़ की दिनों-दिन बढ़ती कमी से मजबूर होकर कुछ दैनिक अख़बारों ने अपने पृष्ठ कम कर दिए हैं। एक नया अख़बार शुरू हुआ है, 'प्लेग समाचार'। इसका उददेश्य है 'सचाई और ईमानदारी से शहर के लोगों को बीमारी के घटने या बढ़ने की सूचना देना; प्लेग के भविष्य के बारे में विशेषज्ञों की राय को छापना; हर किसी को, चाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र से सम्बद्ध हो, और जो इस महामारी का मुकाबला करना चाहे, लिखने के लिए खुला निमंत्रण देना; जनता के साहस और विश्वास को बनाए रखना; अधिकारियों के नवीनतम आदेशों को प्रकाशित करना और उन तमाम शक्तियों को इकट्ठा करना जो इस मुसीबत में लोगों की सक्रिय सहायता करना चाहती हैं।' दरअसल कुछ दिन बाद ही इस अख़बार के कॉलमों में प्लेग से बचने के नए और अचूक' तरीकों के विज्ञापन छपने लगे।

“तड़के छह बजे ये अख़बार दुकानों के खुलने के एक घंटा पहले से खड़े लोगों की कतारों को बेचे जाते हैं; फिर बाहर की बस्तियों से आने वाली ट्रामों से उतरने वाले लोगों में ये अख़बार बेचे जाते हैं। ट्रामें खचाखच भरी रहती हैं। आजकल ट्रामें आने-जाने का एकमात्र साधन हैं। लोग फुटबोर्डों पर खड़े रहते हैं और इंडों को पकड़कर लटके रहते हैं, इसलिए ट्रामों की चाल भी धीमी हो गई है। एक और अजब बात देखने में आई है कि मुसाफ़िर अपने साथियों की तरफ़ पीठ करके खड़े होते हैं और अपने शरीर को हास्यास्पद रूप से टेढ़ामेढ़ा करते हैं। इन सब बातों के पीछे एक ही मतलब है छूत से बचना। हर स्टॉप पर जलप्रपात की तरह नर-नारियों की एक भारी भीड़ ट्राम से निकलती है। हर व्यक्ति अपने को दूसरे के स्पर्श से बचाने की कोशिश करता है।

"जब तड़के की ट्रामें गुज़र जाती हैं तो धीरे-धीरे शहर जागता है। कुछ कॉफ़ी-हाउस सुबह जल्दी ही अपने दरवाज़े खोल देते हैं। काउंटर पर ऐसे वाक्यों की भरमार रहती है, कॉफ़ी नहीं है, अपने साथ चीनी लाइए इत्यादि। इसके बाद दुकानें खुलती हैं और सड़कें सजीव हो उठती हैं। इस बीच धूप तेज़ हो जाती है और सुबह के वक़्त भी आसमान गरमी से तपते हुए शीशे-जैसा हो जाता है। यही वह वक़्त है जब निकम्मे लोग बुलेवारों में टहलने निकलते हैं। उनमें से अधिकांश तो जैसे विलासिता के प्रदर्शन से ही प्लेग का सामना करने पर तुले नज़र आते हैं। रोज़ ग्यारह बजे के क़रीब नौजवान लड़के और लड़कियों की ड्रेस-परेड-सी नज़र आती है, जिसे देखकर एहसास होता है कि हर तरह की मुसीबत के बीच इनसान के दिल में ज़िन्दगी की कितनी ज़बरदस्त ख़्वाहिश पलती रहती है। अगर महामारी और ज़्यादा फैल गई तो लोगों के चरित्र भी काबू से बाहर हो जाएँगे और हमें मिलान के सैटरनेलिया1-जैसे दृश्य फिर दिखाई देंगे और मर्द और औरतें क़ब्रों के गिर्द मस्ती में नाचेंगे।

"दोपहर को देखते-ही-देखते सारे रेस्तराँ भर जाते हैं। दरवाज़ों के बाहर फ़ौरन ऐसे लोगों के छोटे-छोटे समूह इकट्ठा हो जाते हैं जिन्हें बैठने के लिए जगह नहीं मिलती। तेज़ तपिश की वजह से आसमान की चमक कम हो जाती है। खाना खाने के लिए आए लोग बड़े-बड़े शामियानों के नीचे इन्तज़ार करते हैं। दोपहर की गरमी से झुलसती हुई सड़कों के किनारे लोगों की कतारें लगी रहती हैं। रेस्तराँ में इतनी भीड़ इसलिए रहती है क्योंकि वे बहुत से लोगों की खाने की समस्या को हल कर देते हैं। लेकिन छूत का डर कम करने के लिए वे भी कोई क़दम नहीं उठाते। बहुत से खाने वाले कई मिनट तक कायदे से अपनी प्लेटें साफ़ करते हैं। कुछ दिन पहले रेस्तराँ ने यह नोटिस लगाया था 'ग्राहकों को आश्वासन दिया जाता है कि हमारी प्लेटें, छुरियाँ और काँटे कीटाणुरहित हैं।' लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इस क़िस्म का प्रचार बन्द कर दिया, क्योंकि ग्राहक हर सूरत में वहाँ आते थे। इसके अलावा आजकल लोग दिल खोलकर ख़र्च करते हैं। बढ़िया शराबों या उन शराबों पर, जिन्हें रेस्तराँ वाले बढ़िया बताते हैं, तथा क़ीमती फुटकर चीज़ों पर पैसा खूब उड़ाते हैं। लोग बिना सोचे-समझे फ़िजूलखर्ची करने के मूड में हैं। मालूम होता है कि एक रेस्तराँ में घबराहट का वातावरण छाया था, क्योंकि एक ग्राहक अचानक बीमार पड़ गया, उसका चेहरा सफ़ेद हो गया और वह फ़ौरन लड़खड़ाते हुए क़दमों से दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ा।

“दो बजे के क़रीब धीरे-धीरे शहर ख़ाली होने लगता है। इस वक़्त सड़कों पर ख़ामोशी, धूप, मिट्टी और प्लेग को मनमानी छुट रहती है। ऊँचे भूरे रंग के मकानों के सामने वाले हिस्सों से इन लम्बी, क्लान्त घड़ियों में लगातार गरमी की तरंगें उठती रहती हैं। इस तरह से दोपहर थकी-माँदी चाल से धीरे-धीरे शाम में मिल जाती थी और शाम शहर के भीड़युक्त कोलाहल पर कफ़न की लाल चादर बनकर लिपट जाती थी। जब तेज़ गरमी शुरू हुई तो किसी अज्ञात कारण से सड़कें वीरान रहने लगीं। लेकिन अब ठंडी हवा का ज़रा-सा झोंका आते ही यदि लोगों के दिलों में उम्मीद के पंख नहीं फड़फड़ाते तो कम-से-कम उनके दिल का बोझ तो ज़रूर हल्का हो जाता है। जन-समुद्र घरों से बाहर निकल आता है, बातों के नशे में अपने को बेसुध कर लेता है, बहसें और प्रेम-लीलाएँ शुरू हो जाती हैं, और सूर्यास्त की अन्तिम लालिमा, जो प्रेमियों के जोड़ों से बोझिल हो जाती है और लोगों की आवाज़ों से मुखरित हो उठती हैं, बिना पतवार के जहाज़ की तरह, धड़कते हुए अँधेरे में भटकने लगती है। सिर पर फेल्ट हैट लगाए और फहराती हुई टाई बाँधे एक धर्मप्रचारक व्यर्थ में ही लगातार यह चिल्लाता हुआ बढ़ता है, ‘परमेश्वर नेक और महान है। उसी की शरण में आओ!' बल्कि सब लोग फ़ौरन ऐसे क्षुद्र उद्देश्यों की तरफ़ बढ़ते हैं जिनका तात्कालिक महत्त्व उनकी दृष्टि में परमेश्वर से कहीं ज्यादा है।

“शुरू के दिनों में जब लोगों का ख़याल था कि यह महामारी भी दूसरी महामारियों की तरह है, धर्म का काफ़ी ज़ोर रहा, लेकिन ज्योंही लोगों को तत्काल ख़तरा नज़र आया तो वे ऐयाशी की तरफ़ ध्यान देने लगे। दिन के वक़्त लोगों के चेहरों पर जिन घृणित आशंकाओं की मोहर लगी रहती है वे डर, धूल-भरी प्रचंड रातों में एक विक्षिप्त हर्षोन्माद में बदल जाते हैं और उनके खून में एक रूखी स्वच्छन्दता दौड़ते लगती है।

"और मैं भी दूसरे लोगों से अलग नहीं हैं। लेकिन उससे क्या फ़र्क पड़ता है? मुझ-जैसे लोगों को मौत की परवाह नहीं। घटनाएँ और नतीजे ही उन्हें सही साबित करते हैं।"

(1. आनन्दोत्सव।)

दूसरा भाग : 7

तारो ने अपनी डायरी में जिस मुलाक़ात का जिक्र किया है, रियो से यह मुलाक़ात तारो के आग्रह पर ही हुई थी। उस रोज़ शाम को ऐसा संयोग हुआ कि तारो के आने से पहले डॉक्टर कुछ क्षण तक अपनी माँ को देखता रहा था जो बीमार थी और निहायत ख़ामोशी से डाइनिंग रूम के एक कोने में बैठी थी। घर के काम-काज से फुरसत पाकर वह अपना अधिकांश समय उसी कुर्सी में बिताती थी। गोद में हाथ रखकर वह इन्तज़ार में बैठा करती थी। रियो को ठीक से मालूम नहीं था कि उसकी माँ उसी का इन्तज़ार करती है, लेकिन जब रियो घर में दाखिल होता था तो उसकी माँ के चेहरे का भाव हमेशा बदल जाता था। मेहनत की ज़िन्दगी की वजह से उसके चेहरे पर जो मूक असहायता का भाव आ गया था, फ़ौरन खुशी की दमक में बदल जाता था। इसके बाद उसके व्यक्तित्व में पहले की-सी शान्ति आ जाती थी। उस रोज़ शाम को वह खिड़की से बाहर सुनसान सड़क की तरफ़ देख रही थी। सड़कों पर अब सिर्फ दो-तिहाई रोशनी रह गई थी और शहर के गहन अँधेरे में बहुत देर बाद लैम्प की टिमटिमाती रोशनी दीखती थी।

"जब तक प्लेग रहेगी, क्या बत्तियों का भी यही हाल रहेगा?" मदाम रियो ने पूछा।

"हाँ, मेरे ख़याल से।"

"उम्मीद करनी चाहिए कि जाड़ों तक प्लेग ख़त्म हो जाए, वरना बड़ी उदासी फैल जाएगी।"

“हाँ,” रियो ने कहा।

रियो ने देखा कि उसकी माँ की नज़रें रियो के माथे पर लगी थीं। वह जानता था कि पिछले कुछ दिन की सख़्त मेहनत और परेशानी उसके माथे पर अपनी निशानी छोड़ गई है।

"आज क्या काम-काज ठीक से नहीं हुआ?" रियो की माँ ने पूछा।

"ओह, वैसा ही जैसा हमेशा चलता है।"

हमेशा जैसा! इसका मतलब था कि पेरिस से प्लेग की जो सीरम भेजी गई थी वह पहले वाली सीरम से कम कारगर थी। इसका मतलब था कि मरने वालों की तादाद बढ़ रही थी। अभी तक सिवाय उन परिवारों के, जहाँ प्लेग फैल चुकी थी, प्लेग से बचाव के लिए लोगों को टीका लगाना नामुमकिन था। इस आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने के लिए यह ज़रूरी था कि बहुत बड़ी तादाद में टीके मँगवाए जाएँ। अधिकांश मरीज़ों की गिल्टियाँ फटने में ही नहीं आती थीं। लगता था कि वे भी मौसम के साथ सख़्त हो गई थीं। -प्लेग के मरीजों को बहुत तकलीफ़ सहनी पड़ती थी। पिछले चौबीस घंटों में महामारी की एक नई किस्म के दो मामले आए थे। प्लेग न्यूमोनिक हो गई थी। उसी दिन एक मीटिंग में डॉक्टरों ने, जो बेहद थके और परेशान थे, प्रीफ़ेक्ट को नए हक्म जारी करने के लिए मजबूर किया। बेचारे प्रीफ़ेक्ट के होश-हवास गायब थे। साँस के ज़रिये छूत को रोकने के हक्म जारी किए गए, क्योंकि न्यूमोनिक प्लेग की छूत साँस के ज़रिये ही फैलती है। प्रीफ़ेक्ट ने वैसा ही किया जैसा कि डॉक्टर चाहते थे, लेकिन वे लोग हमेशा की तरह कमोबेश अज्ञान के अँधेरे में भटक रहे थे।

माँ को देखते ही रियो के मन में बचपन की अधबिसरी भावुकता जाग उठी। माँ की कोमल भूरी आँखें बेटे पर गड़ी थीं।

“माँ, तुम्हें कभी डर नहीं लगता?"

“ओह इस उम्र में डरने के लिए बहुत कम बातें रह जाती हैं।"

“आजकल दिन बहुत लम्बे हो गए हैं और अब मैं बहुत कम घर पर रहता हूँ।"

“अगर मुझे मालूम हो कि तुम घर लौटकर आओगे तो मुझे इन्तज़ार करना बुरा नहीं लगता, और जब तुम घर पर नहीं रहते तो मैं सोचती रहती हूँ कि तुम क्या कर रहे होगे। कोई नई खबर है?"

"हाँ, अगर पिछले तार पर विश्वास किया जाए तो उससे यही ज़ाहिर होता है कि उसकी तबीयत बिलकुल ठीक है। लेकिन मैं जानता हूँ उसने मेरी परेशानी कम करने के लिए यह बात लिखी है।"

दरवाज़े की घंटी बजी, डॉक्टर माँ की ओर देखकर मुस्कराया और दरवाज़ा खोलने गया। जीने की मदधम रोशनी में तारो एक बड़े सफ़ेद भालूजैसा दिखाई दे रहा था। रियो ने आगन्तुक को अपनी डेस्क के सामने की कुर्सी पर बिठाया और खुद अपनी कुर्सी के पीछे खड़ा रहा। दोनों के बीच डेस्क का लैम्प था। सारे कमरे में सिर्फ यही एक रोशनी थी। तारो ने फ़ौरन काम की बात शुरू की-“मैं जानता हूँ कि तुमसे मैं बिना किसी संकोच के बातें कर सकता हूँ।"

रियो ने सिर हिलाकर हामी भरी।

“पन्द्रह दिन में या ज़्यादा-से-ज़्यादा एक महीने बाद यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं रहेगा। स्थिति काबू से बाहर हो जाएगी।"

"मान लिया!"

“सफ़ाई का महकमा ठीक से काम नहीं कर रहा-वहाँ बहुत कम कर्मचारी हैं इसके अलावा आपने बहुत मेहनत की है।"

रियो ने इस बात को क़बूल किया।

तारो ने कहा, “खैर मैंने सुना है कि अधिकारी ज़बरन भरती की बात सोच रहे हैं। तमाम स्वस्थ लोगों को प्लेग से लड़ने के लिए भरती किया जाएगा।"

“तुम्हारी ख़बर तो सही है लेकिन अधिकारी वैसे ही बदनाम हैं और प्रीफ़ेक्ट अभी कोई फैसला नहीं कर पा रहा।"

“अगर वह लोगों को मजबूर करने का जोख़िम नहीं उठाना चाहता तो लोगों से यह क्यों नहीं कहा जाता कि वे स्वेच्छा से इस काम में मदद करें?"

"उन्हें कहा जा चुका है। लेकिन बहुत कम लोगों ने सहयोग दिया था।"

"यह काम सरकारी अफ़सरों की मार्फत हुआ था और आधे मन से किया गया था। अफ़सरों में कल्पना और दूरदर्शिता की कमी है। वे कभी किसी असल मुसीबत का मुकाबला नहीं कर सकते और वे जो तरीके सोचते हैं, उनसे मामूली जुकाम को भी नहीं रोका जा सकता। अगर हमने अफ़सरों को इसी तरह काम करने दिया तो जल्द ही वे भी मर जाएँगे और हम भी मौत का शिकार हो जाएँगे।"

“इसकी आशंका बहुत ज़्यादा है, लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि वे जेल के कैदियों को इस 'भारी काम' में लगाने की बात सोच रहे हैं।" रियो ने कहा।

“मैं चाहूँगा कि इस काम में आज़ाद आदमी लगाए जाएँ।"

“चाहूँगा तो मैं भी यही... लेकिन क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हारे मन में यह बात क्यों उठी?"

"मैं नहीं चाहता कि किसी भी आदमी को मौत के मुंह में धकेला जाए। मुझे इससे सख़्त नफ़रत है।"

रियो ने तारो की आँखों में आँखें डालकर देखा।

“तो... क्या?" उसने पूछा।

“मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैंने स्वयंसेवकों के समूह बनाने की एक योजना तैयार की है। आप मुझे अफ़सरों के अधिकार दिलवाएँ ताकि इस योजना को चलाया जा सके, इससे हम अफ़सरशाही से छुट्टी पा लेंगे। वैसे भी अफ़सर आजकल बेहद व्यस्त हैं। हर पेशे में मेरे दोस्त हैं, वे इकट्ठा होकर इस आन्दोलन को शुरू करेंगे। मैं खुद भी इसमें हिस्सा लूँगा।” तारो ने कहा।

रियो ने जवाब दिया, “यह बताने की ज़रूरत नहीं कि मैं तुम्हारे सुझाव को ख़ुशी से क़बूल करता हूँ। विशेषकर इन परिस्थितियों में और मेरे काम में तो जितने मदद करने वाले हों उतना ही अच्छा है। मैं अधिकारियों से तुम्हारी योजना पास कराने का जिम्मा लेता हैं। लेकिन...” रियो गहरे सोच में डूब गया, "लेकिन मेरे ख़याल में तुम जानते ही हो कि इस किस्म के काम से जान का ख़तरा है। मेरा फ़र्ज़ है कि मैं तुमसे एक सवाल पूछं। क्या तुमने सब खतरों पर गौर किया है?"

तारो की भूरी आँखें शान्त भाव से डॉक्टर पर टिक गईं।

“फ़ादर पैनेलो के प्रवचन के बारे में तुम्हारी क्या राय थी, डॉक्टर?"

सवाल बड़े मामूली ढंग से पूछा गया था। रियो ने भी इसी ढंग से जवाब दिया, “मैंने ज़िन्दगी में इतने ज़्यादा अस्पताल देखे हैं कि मुझे सामूहिक सज़ा का विचार पसन्द नहीं आ सकता। लेकिन जैसा कि तुम जानते हो, कई बार ईसाई लोग बिना सोचे ही ऐसी बातें कह जाते हैं। वे जैसे नज़र आते हैं, वे उससे कहीं बेहतर हैं।"

“खैर, तुम भी फ़ादर पैनेलो की तरह सोचते हो कि प्लेग का एक अच्छा पहलू भी है। इसने लोगों की आँखें खोल दी हैं और उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया है।"

डॉक्टर ने बेचैनी से सिर हिलाया।

“यह काम तो हर बीमारी करती है। जो बात दुनिया की और बुराइयों पर लागू होती है, वह प्लेग पर भी लागू होती है। इससे इनसान को अपने से ऊपर उठने में मदद मिलती है। इसके बावजूद जब आप इन मुसीबतों को देखते हैं, जो प्लेग से पैदा होती हैं, तो कोई पागल, डरपोक या बिलकुल अन्धा आदमी ही प्लेग के आगे घुटने टेकने की सलाह देगा।"

रियो ने बिना अपनी आवाज़ ऊँची किए यह बात कही थी, लेकिन तारो ने शायद रियो को शान्त करने के लिए हाथ से इशारा किया। वह मुस्करा रहा था।

रियो ने अपने कन्धे सिकोड़कर कहा, "हाँ, लेकिन तुमने अभी तक मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। क्या तुमने इसके नतीजों पर विचार किया है?"

तारो ने अपने कन्धों को कुर्सी की पीठ से सटाकर अपना सिर रोशनी में आगे बढ़ाया।

"तुम परमेश्वर में यक़ीन करते हो, डॉक्टर?" फिर यह सवाल मामूली लहजे में पूछा गया था, लेकिन इस बार रियो को जवाब सोचने में ज़्यादा देर लगी।

"नहीं लेकिन दरअसल इसका मतलब क्या है? मैं अँधेरे में कुछ पाने की कोशिश में भटक रहा हूँ, लेकिन मुद्दत से मुझे इसमें कोई मौलिकता नहीं दिखाई देती...”

"क्या यह क्या तुम्हारे और फ़ादर पैनेलो के बीच की खाई यही नहीं है?"

“मुझे इसमें शक है। पैनेलो पढ़ा-लिखा विदवान आदमी है। वह कभी मौत के सम्पर्क में नहीं आया। इसीलिए वह सचाई के ऐसे विश्वास से सचाई के 'स' पर जोर देकर यह बात कह सकता है। लेकिन हर देहाती पादरी, जो अपने इलाके में आता-जाता है और जिसने किसी इनसान को मृत्यु-शैया पर छटपटाते हुए देखा है, मेरी ही तरह सोचता है। वह इनसान के दुख-दर्द की अच्छाई बताने के बजाय दुख को दूर करने की कोशिश करेगा।" रियो उठ खड़ा हुआ। अब उसका चेहरा अँधेरे में था। उसने कहा, “तुम मेरे सवाल का जवाब नहीं दोगे, इसलिए इस विषय पर हम और अधिक बात नहीं करेंगे।"

तारो अपनी कुर्सी पर बैठा रहा। वह फिर मुस्करा रहा था।

“मान लो मैं भी जवाब में तुमसे एक सवाल पूछूँ?"

(अधूरी रचना)

प्लेग (उपन्यास) दूसरा भाग : अध्याय 1-4 : अल्बैर कामू