प्लेग (फ्रेंच उपन्यास) : अल्बैर कामू; अनवादक : शिवदान सिंह चौहान, विजय चौहान

The Plague (French Novel in Hindi) : Albert Camus

पाँचवां भाग : 1

हालांकि अचानक प्लेग का इस तरह पीछे हटना अप्रत्याशित होने के साथ ही साथ सुखद भी था, लोगों ने इसका स्वागत किया था, लेकिन हमारे शहर के लोग खुशी मनाने की जल्दी में नहीं थे । उन लम्बे महीनों ने उसके मन में प्लेग से मुक्ति पाने की प्रबल आकांक्षा तो जगा दी थी लेकिन उन्हें बुद्धिमत्ता भी सिखा दी थी। अब उन्हें प्लेग की तत्काल समाप्ति पर बहुत कम भरोसा रह गया था। लेकिन फिर भी सारे शहर में बीमारी के इस नये मोड़ की चर्चा थी, और इसे न स्वीकार करने के बावजूद लोगों के दिलों में आशाएँ पनपने लगी थीं। बाकी सब बातों को मन से खदेड़कर दूर हटा दिया गया; इस लड़खड़ा देने वाले तथ्य के आगे लोग यह भी भूल गए कि कई लोग हर रोज़ प्लेग के शिकार होते थे । वह तथ्य यह था कि साप्ताहिक आँकड़ों के अनुसार मौतों की संख्या में कमी हो गई थी। सेहत के भूतपूर्व सुनहरी जमाने के लौटने की लोग मन-ही-मन उम्मीद कर रहे थे, उसकी एक निशानी यह भी थी कि हमारे शहरी हालांकि अपनी इस उम्मीद को व्यक्त नहीं करते थे लेकिन यह सच है कि वे बड़े सतर्क और अनासक्त भाव से उस नयी जिन्दगी के बारे में बातें करते थे जो प्लेग के खत्म होने के बाद शुरू होने वाली थी ।

सब इस बात से सहमत थे कि पहले जमाने की सब सुविधाएँ उन्हें फौरन नहीं मिल सकतीं । दोबारा निर्माण करने की बजाय तबाही ज्यादा आसानी और जल्दी से की जा सकती है। लेकिन लोगों का खयाल था कि खाने-पीने की चीजों की सप्लाई की हालत में तो जरूर सुधार होगा और कम-से-कम वह चिन्ता तो हट जाएगी जो हर परिवार के लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी । लेकिन दरअसल इन मामूली और कोमल आकांक्षाओं के पीछे उन्मुक्त और उन्मत्त आशाएँ छिपी थीं और अक्सर जब हममें से किसी को इस बात का एहसास होता था तो वह फौरन यह टिप्पणी जोड़ देता था कि अधिक से अधिक आशावादी दृष्टिकोण से भी हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि प्लेग एक ही दिन में कम हो जाएगी।

दरअसल प्लेग एक ही दिन में तो नहीं थमी, लेकिन हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा जल्दी उसका प्रकोप कम हो गया । जनवरी के पहले हफ्ते में बेहद सरदी का दौर शुरू हुआ और सरदी जैसे बिल्लौर की परत बनकर शहर पर छा गई, लेकिन इससे पहले आसमान कभी इतना नीला नहीं दिखाई दिया था । दिन-ब-दिन उसकी बरफ़ानी दीप्ति तेज़ रोशनी के साथ मिलकर शहर में फैलती रही और पाले से साफ़ की हुई हवा में जैसे बीमारी ने अपनी प्रचण्डता खो दी और बाद के तीन हफ्तों में हर हफ्ते मौत के आँकड़ों में भारी कमी का ऐलान किया गया। इस तरह अपेक्षाकृत बहुत कम समय में बीमारी अपनी उन तमाम जीतों को हार बैठी, जो उसने पिछले कई महीनों में इकट्ठी की थीं। ग्रान्द और रियो के अस्पताल में भरती होने वाली लड़की पर भी जिसकी क़िस्मत में शायद मौत लिखी थी, जब प्लेग ने कोई असर न किया, जब कुछ इलाकों में दो-तीन दिन तक प्लेग का प्रकोप बढ़ने लगा और दूसरे इलाकों में प्लेग एकदम खत्म हो गई, जब प्लेग ने एक नया तरीका अपनाया-सोमवार के दिन ज़्यादा लोग बीमार होने लगे और बुधवार को क़रीब क़रीब सब रोग से छुटकारा पाने लगे-- संक्षेप में कुछ दिन की प्रचण्डता के बाद जब प्लेग का उत्साह एकदम ठंडा पड़ने लगा तो लोग समझने लगे कि प्लेग की ताक़त कम हो रही है और थकान और कोफ़्त से मजबूर होकर प्लेग अपना आत्म-संयम, और गर्वित- सरीखी कार्य कुशलता भी खो रही है, जो अभी तक उसकी ताक़त का सबसे बड़ा राज था । अचानक कास्तेल के प्लेग-निरोधक इन्जेक्शनों को अक्सर ऐसी क़ामयाबी मिलने लगी जो अभी तक नहीं मिली थी। दरअसल डॉक्टरों के सारे अस्थायी इलाज जिनके अभी तक कोई नतीजे नहीं निकले थे, सब रोगियों पर असर करने लगे। ऐसा लगता था जैसे प्लेग का पीछा करके उसे घेर लिया गया हो और प्लेग की आकस्मिक कमज़ोरी से उसके खिलाफ इस्तेमाल होने वाले कुंद हथियार तेज हो गए। सिर्फ दुर्लभ क्षणों में बीमारी अपने को समेटकर तीन या चार ऐसे मरीज़ों पर अंधी होकर झपट्टा मारती थी, जिनके बारे में उम्मीद की जाती थी कि वे बच जाएँगे, मौत के पंजे में उनके प्राण निकल जाते थे । सचमुच कुछ ऐसे बदकिस्मत लोग थे, जब उनके बचने की उम्मीद सबसे ज्यादा थी, तभी वे मारे गए थे — मजिस्ट्रेट मोसिये ओथों के साथ भी यही हुआ था, जिन्हें क्वारंटीन कैम्प से छुट्टी मिली थी । तारो ने उनके बारे में कहा था कि, 'उनकी क़िस्मत ने उनका कोई साथ नहीं दिया ।' लेकिन यह कहना मुश्किल था कि तारो ने यह बात मोसिये ओथों की जिन्दगी को दृष्टि में रखकर कही थी या मौत को ।

लेकिन आम तौर पर यह कहा जा सकता है कि महामारी हर दिशा में पीछे हट रही थी। सरकारी विज्ञप्तियों में भी जो शुरू में सिर्फ़ धुंधली, उत्साहहीन आशाओं को ही प्रोत्साहन देती थीं, अब लोगों के इस विचार का समर्थन रहता था कि लड़ाई जीत ली गई है और दुश्मन मोर्चे से पीछे हट रहा है । लेकिन इसे जीत कहा जा सकता था, इसमें शक था। सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता था कि बीमारी जिस रहस्यमय ढंग से आयी थी उसी ढंग से जा रही थी । हमारी नीति नहीं बदली थी, लेकिन कल तक वह स्पष्ट रूप से असफल रही थी आज उसकी जीत हो रही थी। सबसे बड़ी बात यह नज़र आती थी कि महामारी अपने सारे उद्देश्य पूरे करने के बाद ही पीछे हटी थी— दूसरे शब्दों में अगर कहा जाए तो महामारी ने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया था ।

फिर भी ऐसा मालूम होता था कि शहर में कुछ नहीं बदला था । दिन-भर सड़कों पर खामोशी छाई रहती थी । अँधेरा होने पर हमेशा की तरह भीड़ें जमा हो जाती थीं, अब लोग ओवरकोट और स्कॉर्फ पहनते थे । कॉफी हाउसों और सिनेमाघरों की आमदनी पहले जैसी ही थी। लेकिन नज़दीक से देखने पर लोग पहले से कम परेशान नज़र आते थे और वे कभी-कभी मुस्कराते भी थे। इससे यह बात साबित होती थी कि प्लेग फूटने के बाद से आज तक कोई आदमी सबके सामने मुस्कराता हुआ दिखाई नहीं दिया था। दरअसल कई महीनों से शहर बिना हवा के कफ़न में लिपटा था और उसका दम घुट रहा था, अब उस चादर में एक छेद हो गया था । हर सोमवार को जब हम रेडियो सुनते थे तो हमें मालूम हो जाता था कि यह छेद और भी बढ़ रहा है। जल्द ही हम आजादी की हवा में साँस ले सकेंगे । लेकिन यह सान्त्वना नकारात्मक थी। लोगों की ज़िन्दगियों पर इसका फ़ौरन कोई असर नहीं पड़ा था। फिर भी अगर एक महीना पहले अगर किसी को कहा जाता कि कभी कोई ट्रेन छूटी है, या समुद्र में किश्ती छोड़ी गई है या कारों को फिर सड़कों पर आने की इजाजत मिल गई है, तो वह इस खबर को अविश्वास पूर्वक सुनता। लेकिन जनवरी के मध्य में इस तरह की घोषणा से किसी को कोई हैरानी नहीं हुई होगी। लेकिन इस दशा में बहुत मामूली परिवर्तन हुआ था, फिर भी यह हमारे नगरवासियों की उम्मीद को बढ़ाने में बहुत अधिक सहायक साबित हुआ था और सचमुच यह कहा जा सकता था कि एक बार अगर आशा की मद्धम-सी किरण भी फूट सकती तो प्लेग के साम्राज्य का अन्त हो जाता ।

लेकिन यह मानना ही पड़ेगा कि हमारे नागरिकों की प्रतिक्रियाएँ इतनी भिन्न थीं कि वे असंगत मालूम होती थीं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे अतिशय आशावादिता और तीव्र निराशा के बीच झूल रहे थे । इसीलिए यह विलक्षण परिस्थिति पैदा हुई कि उस वक्त जब मौत के अँकड़े सबसे अधिक आशाजनक थे, कई लोगों ने शहर के फाटकों से बाहर भागने की कोशिश की। अधिकारियों को इसकी बिलकुल उम्मीद नहीं थी. और साफ़ जाहिर था कि संतरी भी इसके लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि बहुत- से 'भगोड़े' भागने में सफल हो गए थे। लेकिन इस मामले की गहराई में देखने से पता चलता है कि इस बार भागने वाले लोग तर्कसंगत कारणों से प्रेरित हुए थे। उनमें से कुछ में प्लेग ने इतनी अनास्था पैदा कर दी थी कि वह एक प्रकार से उनकी प्रकृति ही बन गई थी। वे किसी भी प्रकार की आशा के प्रति बहुत संवेदनशील थे । जब प्लेग का दौर खत्म हो गया तब भी वे प्लेग के जमाने के नियमों पर ही चलते रहे। उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे जमाने से पिछड़ गए थे । बाकी लोग खास तौर पर वे जो अभी तक मजबूरी से अपने प्रियजनों से अलग रह रहे थे--निराशा और कैद के इन महीनों के बाद आशा के झोंके ने उनकी बेसब्री की, चिनगारियों को भड़काकर शोलों में बदल दिया और उसी आँधी में उनका आत्मसंयम भी बह गया । यह सोचकर उनमें घबराहट हो गई थी कि कहीं ऐसा न हो कि अपनी मंजिल के नजदीक पहुँचकर ही उनकी मौत हो जाए और वे कभी अपने प्रियजनों को न देख पाएँ और इतने लम्बे अरसे तक वंचित रहने के बावजूद उन्हें कोई लाभ न हो। इसलिए लगातार कई महीनों तक वे इस लम्बी यन्त्रणा में दृढ़ता और सहनशक्ति का परिचय देते आए थे, लेकिन आशा की पहली थिरकन ने ही उस चीज़ को तोड़ दिया था, जिसे भय और निराशा भी क्षीण नहीं कर सके थे। जल्दबाज़ी के पागलपन में उन्होंने प्लेग को पछाड़ने की कोशिश की, वे अन्त तक प्लेग की रफ़्तार का साथ न दे सके ।

उधर बढ़ती हुई आशावादिता के अनेक लक्षण दिखाई दे रहे थे । मिसाल के लिए क़ीमतों में अचानक भारी कमी हो गई थी। सिर्फ़ आर्थिक दृष्टिकोण से इस कमी को समझना मुश्किल था । हमारी मुश्किलें पहले की ही तरह मौजूद थीं, फाटकों को सख्ती से बन्द रखा जाता था और खाद्य-स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था । इसलिए कीमतों में कमी पूरी तरह से एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया थी । लगता था कि प्लेग की क्षीणता का असर सभी क्षेत्रों पर पड़ना अनिवार्य था । आशावादिता की इस बढ़ती हुई लहर से उन लोगों को भी फ़ायदा हुआ था, जो प्लेग से पहले दलों में रहते थे और अब जिन्हें अकेले रहने के लिए मजबूर होना पड़ा था। दोनों ईसाई-मठ फिर खुल गए और उनकी साधारण जिन्दगी फिर शुरू हो गई, कार्य-क्रम भी होने लगे। फ़ौजियों को भी उन बारकों में जमा कर दिया गया, जो जब्त नहीं की गई थीं, वे पहले दिनों की तरह फिर गैरिसन की जिन्दगी बसर करने लगे । ये मामूली बातें थीं, लेकिन बहुत ज्यादा अर्थपूर्ण थीं ।

दबी हुई, लेकिन सक्रिय उत्तेजना की यह हालत २५ जनवरी तक बनी रही, जब मौत के साप्ताहिक आँकड़ों में इतनी भारी कमी हो गई कि मैडिकल बोर्ड से मशवरा करने के बाद अधिकारियों ने यह घोषणा की कि अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महामारी थम गई है । विज्ञप्ति में यह भी कहा गया था कि अक्लमन्दी से काम लेते हुए प्रीफ़ेक्ट ने यह भी तय किया है कि शहर के फाटक पन्द्रह दिन और बन्द रखे जाएँ, और एक महीने तक प्लेग-निरोधक तरीके इस्तेमाल में लाये जाएँ, यह आशा प्रकट की गई थी कि लोग निश्चय ही इस क़दम की सराहना करेंगे। इस काल में अगर जरा-सा भी खतरा दिखाई दिया तो 'स्थाई आदेशों का कठोरता से पालन किया जाएगा और जरूरत पड़ने पर अगर अधिकारी गण उचित समझेंगे तो इस अवधि को अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया जाएगा।' लेकिन सब लोग सहमत थे कि ये वाक्य सिर्फ़ सरकारी शब्दाडम्बर हैं । २५ तारीख की रात को खूब जशन मनाये गए। लोगों की खुशी से अपना सम्बन्ध जतलाने के लिए प्रीफ़ेक्ट ने आदेश दिया कि सड़कों पर पहले दिनों की तरह ही रोशनी की जाए। रोशनी से जगमगाती सड़कों पर प्रसन्न नगरवासियों के दल हँसते और गाते हुए परेड करने लगे ।

यह सच है कि कुछ मकानों की खिड़कियों की सिटखनियाँ बन्द रहीं और भीतर से लोग खामोशी से बाहर गूंजने वाली खुशी की आवाज़ों को सुनने लगे । लेकिन इन घरों में भी जहाँ मातम छाया था, गहरी निश्चिन्तता की भावना छा गई थी; शायद इसलिए कि अब उन्हें यह डर नहीं रहा था कि उनके परिवार के और लोग उनसे अलग कर दिये जाएँगे या इसलिए कि उनके दिलों से व्यक्तिगत परेशानी की परछाई दूर हो गई थी । जिन परिवारों का कोई सदस्य अभी भी अस्पताल में, क्वारंटीन कैम्प में या घर में बीमार पड़ा था, वे लोगों की इस खुशी से अलग रहते थे और मजबूरी के एकान्त में इन्तज़ार करते थे कि प्लेग और लोगों की तरह उनका पिंड भी छोड़ दे। इसमें शक नहीं कि इन परिवारों के दिल में भी उम्मीदें थीं, लेकिन वे उन्हें बचाकर रखे हुए थे और उन्होंने अपने पर यह संयम कर लिया था कि जब तक उन्हें पूरी तरह यकीन नहीं हो जाएगा कि वे उम्मीदें सच्ची हैं, वे उन पर भरोसा नहीं करेंगे । वे निर्वासित लोग खामोशी से सुख और दुख की सीमा में अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे । उनके चारों तरफ खुशी का वातावरण छाया था, जिसे देखते हुए उनकी यह प्रतीक्षा और भी अधिक दुखदायी मालूम होती थी ।

लेकिन इन अपवादों से अधिकांश लोगों के संतोष में कमी नहीं आयी । इसमें शक नहीं कि प्लेग अभी खत्म नहीं हुई थी-लोगों को इसका स्मरण करवाना होगा, लेकिन कल्पना में वे कई हफ्ते पहले से ही ट्रेनों की सीटियों की आवाजें सुन रहे थे, ये ट्रेनें बाहर की दुनिया में जा रही थीं, जिसका कोई ओर-छोर नहीं था --- चमकते हुए समुद्रों में बन्दरगाह से रवाना होते स्टीमर सीटी बजा रहे थे; अगले दिन ये दिवास्वप्न खत्म हो जाते और संदेह की व्यथा लौट आती, लेकिन उस क्षण तो शहर के सारे लोग अँधेरे शोकपूर्ण क़ैदखानों से निकलकर जहाँ उनकी जड़ें पत्थरों की तरह जम गई थीं-बाहर आये और किसी जहाज दुर्घटना के बचे यात्रियों की भीड़ की तरह आशा के देश में जा रहे थे ।

उस रात को कुछ देर के लिए तारो, रियो, रेम्बर्त और उनके साथी मार्च करती हुई भीड़ में शामिल हो गए और उन्हें भी ऐसा महसूस हुआ जैसे वे हवा पर चल रहे थे। मुख्य सड़कों से गुज़रने के बाद जब वे खाली गलियों में पहुँचे जहाँ घरों की खिड़कियाँ बन्द थीं, वहाँ भी लोगों के हर्ष पूर्ण कोलाहल ने उनका पीछा किया। थकान की वजह से न जाने क्यों बड़ी सड़कों पर फैले हर्ष के कोलाहल और बन्द खिड़कियों के पीछे छाये शोक के फर्क का एहसास उन्हें न हो सका। इस तरह भावी मुक्ति के दो पहलू थे, एक खुशी का और दूसरा आँसुओं से भरा ।

एक ऐसे क्षण में जब दूर खुशी का कोलाहल बढ़कर गर्जन का रूप धारण कर रहा था, अचानक तारो चलते-चलते रुक गया । सड़क पर कोई छोटी-सी चिकनी चीज भागी जा रही थी; वह एक बिल्ली थी, जबसे बहार का मौसम शुरू हुआ था उन्हें पहली बार बिल्ली दिखाई दी थी। बिल्ली सड़क के बीचोंबीच रुक गई, हिचकिचाई, उसने अपना पंजा चाटा और उसे अपने दाएँ कान के पीछे फेरा; फिर वह आगे बढ़कर अंधेरे में गायब हो गई। तारो मन-ही-मन मुस्कराने लगा; उसने सोचा कि बालकनी वाला बूढ़ा भी खुश होगा ।

पाँचवां भाग : 2

लेकिन उन दिनों में, जब मालूम होता था कि प्लेग पीछे हट रही थी और शरमिन्दा होकर उस अज्ञान माँद में घुस रही थी जहाँ से वह छिपकर आयी थी, कम-से-कम शहर में एक आदमी ऐसा था, जो प्लेग के पीछे हटने से क्षुब्ध था । और अगर तारो के नोट्स पर विश्वास किया जा सकता है तो यह आदमी कोतार्द था ।

अगर सच पूछा जाए तो उस तारीख से जबसे मौत के आंकड़ों में भारी कमी हुई थी, इस डायरी के नोट्स में एक अजब परिवर्तन हुआ था । तारो की लिखाई पढ़ना मुश्किल हो गया है— हो सकता है इसका कारण थकान हो-डायरी लेखक एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग पर बिना किसी तारतम्य के पहुँच जाता है । इससे भी बड़ी बात यह है कि बाद के इन नोट्स में पहले की तरह की वस्तुपरक दृष्टि नहीं है, व्यक्तिगत विचार आ गए हैं। कोतार्द के केस के बारे में लिखे दो लम्बे पैराग्राफ़ों के बीच हम बूढ़े और बिल्लियों का संक्षिप्त विवरण पाते हैं । तारो हमें बताता है कि प्लेग ने बूढ़े के प्रति उसकी प्रशंसा को बिलकुल कम नहीं किया है, प्लेग खत्म होने के बाद भी बूढ़े में उसकी दिलचस्पी क़ायम थी । बदकिस्मती से यह दिलचस्पी तारो की नेकनीयती के बावजूद जारी न रह सकी। उसने कोशिश की थी कि किसी तरह बूढ़ा उसे नजर आ जाए। पच्चीस जनवरी के स्मरणीय दिन के बाद कितने ही दिनों तक वह तंग सड़क के एक कोने पर खड़ा रहा बिल्लियाँ अपनी जगहों पर वापस आ गई थीं और धूप सेंक रही थीं । लेकिन जब वह वक्त आया, जब बूढ़ा बालकनी पर नियमपूर्वक आया करता था, दरवाजे बन्द रहे। इसके बाद कई दिन तक तारो ने दरवाजों को एक बार भी खुलते नहीं देखा । वह इस विलक्षण नतीजे पर पहुँचा कि बूढ़ा या तो मर गया है या चिढ़ा हुआ है। उसकी चिढ़ की वजह शायद यही होगी कि उसने सोचा था कि उसके विचार सही हैं जबकि प्लेग ने यह साबित कर दिया था कि वह गलती पर है। अगर वह मर गया है तो सवाल उठता है ( दया के बूढ़े मरीज़ की तरह) क्या वह भी संत था ? तारो ऐसा नहीं सोचता था, लेकिन बूढ़े में उसे एक 'संकेत' दिखाई दिया था, उसने लिखा है, "शायद हम संतपद के क़रीब ही पहुँच सकते हैं ।" इस हालत में हमें शान्त और धार्मिक पैशाचिकता से कुछ समय के लिए काम लेना चाहिए ।

कोतार्द का निरीक्षण करके लिखी गई टिप्पणियों के साथ-ही-साथ इधर-उधर हमें ग्रान्द के बारे में बिखरी हुई टिप्पणियाँ मिलती हैं- वह धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहा था और पूर्ववत काम पर जाता था जैसे उसे कुछ हुआ ही न हो । रियो की माँ के बारे में कुछ बातें लिखी हैं । कभी-कभी तारो की बुढ़िया से बातचीत होती थी, जब बह रियो के घर में रहता था । प्लेग के बारे में बुढ़िया के दृष्टिकोण और विचार सभी चीजें ब्यौरेवार डायरी में दर्ज की गई हैं। तारो सबसे ज्यादा मदाम रियो के अहंकार-दमन और अत्यधिक सरल शब्दों में हर बात के बयान करने के ढंग पर ज़ोर देता है । मदाम रियो हमेशा एक खास खिड़की के आगे बैठती थीं, तनकर । बिना हाथ हिलाए उनकी नजरें नीचे खामोश सड़क पर लगी रहती थीं वे तब तक कमरे में बैठी रहती थीं जब तक शाम कमरे में नहीं आ जाती थी और मदाम रियो एक निश्चल परछाईं बनकर दूसरी परछाईयों के साथ धीरे-धीरे अँधेरे में नहीं खो जाती थीं। तारो ने उनकी 'फुरती' के बारे में भी लिखा है । मदाम रियो बड़ी फुरती से एक कमरे से दूसरे कमरे में आती-जाती थीं। उनकी दयालुता का भी तारो ने ज़िक्र किया है। हालाँकि वृद्धा की दयालुता की कोई खास मिसालें उसे दिखाई नहीं दी थीं, लेकिन उनके हर काम और हर शब्द में दयालुता की कोमल आभा थी । लगता था कि वे बिना सोचे-विचारे ( बाहर से तो ऐसा ही दिखाई देता था ) ही सब बातें बूझ लेती थीं । खामोशी और धुंधलेपन के बावजूद भी किसी रोशनी के सामने हतोत्साह नहीं होती थीं यहाँ तक कि प्लेग की चटकीली रोशनी के आगे भी नहीं । यहीं आकर तारो की लिखावट में एक विचित्र अस्पष्टता आ गई थी। इसके बाद की पंक्तियाँ तो पढ़ी ही नहीं जा सकती थीं और जैसे अपने आत्म-संयम खो देने का पक्का सबूत देने के लिए उसने डायरी की आखिरी पंक्तियों में पहली बार अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी के बारे में लिखा । उसे देखकर मुझे अपनी माँ की याद आती है । मुझे माँ में सबसे ज्यादा यह बात पसंद थी कि उसने अपने आपको मिटा दिया था, जिसे 'धुंधला पड़ जाना' कहते हैं । मैं हमेशा माँ के पास जाना चाहता हूँ । यह बात आठ बरस पहले हुई थी, लेकिन मैं यह नहीं कह सकता कि वह मर गई। माँ ने अपने को पहले से भी ज्यादा मिटा दिया और जब मैंने मुड़कर देखा तो वह वहाँ नहीं थी ।'

लेकिन हम कोतार्द की बात कर रहे थे। जब मौत के साप्ताहिक आँकड़ों में कमी होने लगी तो कोतार्द कई बार अनेक बहानों से रियो को मिलने गया । लेकिन साफ़ जाहिर था कि वह दरअसल रियो से यह मालूम करना चाहता था कि उसकी राय में महामारी अभी और कितनी लम्बी चलेगी । "क्या सचमुच तुम्हारा ख्याल है कि बीमारी अचानक ख़त्म हो जाएगी ? " कोतार्द को इसमें शक था, कम-के-कम वह जाहिर तो ऐसा ही कर रहा था । लेकिन चूंकि वह बार-बार यह सवाल पूछ रहा था, जिससे साबित होता था कि वह जितने विश्वास का दिखावा कर रहा था, उसे उससे कहीं कम विश्वास था । जनवरी के मध्य से रियो ने उसे आशाजनक उत्तर देने शुरू कर दिए, लेकिन वे उत्तर कोतार्द को सख्त नापसन्द थे । इसलिए हर बार उसकी प्रतिक्रिया अलग होती थी, कभी वह गुस्ताखी दिखाता था और कभी निराशा । एक दिन डॉक्टर ने द्रवित होकर उसे बताया कि आँकड़ों के आशाजनक होने के बावजूद अभी यह नहीं कहा जा सकता कि हम मुसीबत से बाहर निकल आये हैं ।

कोतार्द ने फ़ौरन कहा, "इसका मतलब है कि ठीक से कोई नहीं जानता कि क्या होगा । बीमारी किसी भी वक्त फिर फूट सकती है।"

"बिलकुल ! यह भी मुमकिन है कि हालत में तेज़ी से सुधार हो ।"

अनिश्चितता की यह हालत सब लोगों के लिए शोकपूर्ण होते हुए भी कोतार्द के लिए सुखद थी । तारो ने कोतार्द को अपने इलाके के दुकानदारों से बातें करते हुए देखा था । वह रियो की राय का प्रचार करने की इच्छा से ऐसा कर रहा था । सचमुच उसे ऐसा करने में कोई दिक्कत नहीं हुई । प्लेग की हार की खबरों से पैदा हुआ जोश जब कम हो गया तो बहुत से लोगों के मन में फिर से शक पैदा हो गए। उनकी परेशानी को देखकर कोतार्द को सान्त्वना मिली । कई बार वह निराश हो जाता था । उसने -तारो से कहा, "हाँ, जल्द ही एक दिन फाटक खुल जाएँगे और फिर देखना वे मुझे जलते हुए कोयले की तरह निकाल फेंकेंगे ।"

जनवरी के पहले तीन हफ्तों में कोतार्द का मूड अचानक इतना ज्यादा बदल जाता था कि सबको बड़ा ताज्जुब हुआ । आम तौर पर वह अपने पड़ोसियों और परिचितों में लोकप्रिय बनने के लिए कोई कोशिश नहीं छोड़ता था, लेकिन अब लगातार कई दिन तक वह जान-बूझकर उनसे मिलने से कतराने लगा । तारो को मालूम हुआ कि ऐसे मौकों पर कोतार्द अचानक बाहर की दुनिया से अपने सारे सम्पर्क तोड़ देता था और वह कुण्ठित भाव से अपने मन के घोंघे में घुस जाता था । वह रेस्तराँयों में, थियेटरों में या अपने प्रिय कॉफ़ी हाउसों में भी दिखाई नहीं देता था । लेकिन मालूम होता था कि अब वह महामारी के पहले जैसी अन्धकारमय और साधारण जिन्दगी फिर से बसर करने में असमर्थ था । वह अपने कमरे में ही बैठा रहता था और नज़दीक के एक रेस्तरों से खाना ऊपर ही मँगवा लेता था। सिर्फ़ रात होने पर वह छोटी-मोटी चीजें खरीदने के लिए बाहर निकलता था, और दुकान से निकलकर अँधेरी सुनसान सड़कों पर छिप- छिपकर घूमा करता था। ऐसे मौकों पर एक या दो बार तारो से उसकी मुलाक़ात हो गई, लेकिन कोतार्द ने सिर्फ़ रूखा एकाक्षर उत्तर दिया । फिर वह अचानक एक ही दिन में मिलनसार हो गया, प्लेग के बारे में लम्बी-चौड़ी बातें करने लगा, हर आदमी से पूछता कि प्लेग के बारे में उसकी क्या राय है । और बड़ी खुशी से भीड़ में मिलता-जुलता था ।

२५ जनवरी को जब सरकारी घोषणा की गई तो कोतार्द फिर छिप गया। दो दिन बाद तारो ने उसे एक दूर की सड़क पर चहलकदमी करते देखा । जब कोतार्द ने तारो से कहा कि वह उसके साथ घर चले तो तारो हिचकिचाया, उस दिन वह काम करते-करते थक गया था। लेकिन कोतार्द इन्कार सुनने के लिए राजी न हुआ। वह बहुत उत्तेजित दिखाई दे रहा था, जोर से हाथ हिला रहा था और बहुत तेजी से और ऊँची आवाज़ में बोल रहा था । उसने सबसे पहले तारो से पूछा कि उसके खयाल में क्या सचमुच सरकारी विज्ञप्ति का यह अर्थ था कि प्लेग खत्म हो गई थी ? तारो ने कहा कि यह साफ़ जाहिर है कि सिर्फ़ सरकारी घोषणा से महामारी को खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन निश्चित रूप से ऐसा मालूम होता है कि अगर कोई ऐसी-वैसी दुर्घटना न हुई तो कुछ ही दिनों में प्लेग खत्म हो जाएगी ।

कोतार्द ने कहा, "हाँ, अगर दुर्घटनाएँ न हुईं, और दुर्घटनाएँ तो होंगी ही, क्यों ?"

तारो ने बताया कि सरकार ने इस सम्भावना को नज़र में न रखते हुए ही और पन्द्रह दिनों तक फाटक खोलने से इन्कार कर दिया है ।

"और वे कितने अक्लमन्द थे ! " कोतार्द ने उसी तरह उत्तेजित स्वर में कहा । " हालत को देखते हुए तो मैं कहूँगा कि अधिकारियों को अपने शब्द वापिस लेने पड़ेंगे ।"

तारो ने कहा, हो सकता है ऐसा हो; लेकिन उसके खयाल में ज्यादा अक्लमन्दी इस बात में होगी कि फाटकों के खुलने पर और निकट भविष्य में साधारण जिन्दगी के फिर से चालू होने पर भरोसा किया जा सके ।

"मान लिया लेकिन साधारण जिन्दगी के फिर से चालू होने का क्या मतलब है ? " कोतार्द ने पूछा ।

तारो मुस्करा दिया, "सिनेमाघरों में नयी फ़िल्में दिखाई जाएँगी।"

लेकिन कोतार्द नहीं मुस्कराया। उसने पूछा क्या लोग यह सोचते हैं कि प्लेग ने ज़िन्दगी को बिलकुल नहीं बदला और क्या शहर की ज़िन्दगी पूर्ववत जारी रहेगी जैसे कुछ भी न हुआ हो ? तारो का खयाल था कि प्लेग ने जिन्दगी को बदला है और एक माने में नहीं भी बदला । यह स्वाभाविक ही था कि हमारे साथी नागरिकों की सबसे बड़ी ख्वाहिश यही थी और रहेगी कि वे इस तरह आचरण कर सकें जैसे कुछ हुआ ही न हो, इसी वजह से एक माने में कोई चीज़ नहीं बदलेगी । लेकिन इस बात को अगर दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो हम पाएंगे कि इन्सान सब कुछ नहीं भूल सकता, चाहे उसके मन में भूलने की कितनी ही ज्यादा ख्वाहिश क्यों न हो । प्लेग लोगों के दिलों में निशान जरूर छोड़ जाएगी ।

इस पर कोतार्द ने साफ़ और रूखे ढंग से कह दिया कि उसे लोगों के दिलों में दिलचस्पी नहीं है; दरअसल सबसे कम परवाह उसे दिलों की है । वह तो यह जानने में दिलचस्पी रखता है कि सारे प्रशासन को नये सिरे से बदला जाएगा या नहीं, मिसाल के लिए क्या सार्वजनिक सेवा-कार्यों में आमूल परिवर्तन होगा या नहीं ? तारो को क़बूल करना पड़ा कि उसे इस मामले का अन्दरूनी तौर पर कुछ पता नहीं है; लेकिन व्यक्तिगत रूप से उसका खयाल है कि महामारी की उथल-पुथल के बाद इन सेवाओं को फिर से चालू करने में कुछ देर जरूर लग जाएगी। यह भी सम्भव मालूम होता है कि हर क़िस्म की नयी समस्याएँ पैदा होंगी, जिनसे प्रशासन-व्यवस्था का कुछ सीमा तक पुनर्संगठन करना पड़ेगा ।

कोतार्द ने सर हिलाकर समर्थन किया, “हाँ यह तो नामुमकिन नहीं है; दरअसल सबको नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू करनी पड़ेगी ।"

वे कोतार्द के घर के नज़दीक पहुँच रहे थे । अब वह पहले से अधिक खुश दीख रहा था। उसने तय कर लिया था कि वह भविष्य को आशावादिता के दृष्टिकोण से देखेगा। साफ़ जाहिर था कि वह यह कल्पना कर रहा था कि शहर को फिर से नयी बेदाग़ जिन्दगी मिलेगी, अतीत मिट जाएगा और फिर नये सिरे से सब कुछ शुरू होगा ।

तारो मुस्कराया, "तो यह बात है ! हो सकता है तुम्हारे लिए भी अच्छी परिस्थितियाँ पैदा हो जाएँ — कौन कह सकता है ? हम सबको एक माने में नयी जिन्दगी मिलेगी ।"

वे कोतार्द के दरवाज़े के आगे हाथ मिला रहे थे ।

"बिलकुल ठीक ! नये सिरे से बेदाग़ जिन्दगी शुरू करना कितनी बड़ी बात होगी !" कोतार्द की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी ।

अचानक अँधेरे हॉल से दो आदमी निकले । तारो ने मुश्किल से कोतार्द को यह बड़बड़ाते हुए सुना ही था, "ये लोग आखिर क्या चाहते हैं ? कि वे दोनों आदमी जो मामूली ओहदे के सरकारी कर्मचारी मालूम होते थे, और जिन्होंने अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहन रखी थी, पूछा कि क्या उसका नाम कोतार्द है ? कोतार्द ने दबी जबान में कुछ कहा और पीछे की तरफ घूमकर अँधेरे में गायब हो गया। कुछ क्षणों तक तारो और दोनों सरकारी आदमी शून्य दृष्टि से एक-दूसरे को देखते रहे। फिर तारो ने उनसे पूछा कि वे क्या चाहते हैं ? निश्चित सूचना दिये बग़ैर उन लोगों ने बताया कि वे 'कुछ मालूम करने' आये थे और वे धीरे-धीरे उसी तरफ़ चले गए जिधर कोतार्द गया था ।

घर लौटकर तारो ने इस विचित्र घटना का ब्यौरा लिखा और उसके बाद लिखा, "आज रात मुझे बेहद थकान महसूस हो रही है ।" उसकी लिखावट इस बात की पुष्टि कर रही थी। उसने यह भी लिखा कि अभी उसे बहुत सा काम करना है, लेकिन यह कोई ऐसा कारण नहीं है जिसकी वजह से इन्सान 'अपने को तैयारी की हालत' में न रखे। उसने अपने आप से सवाल पूछा कि वह तैयारी की हालत में है या नहीं। और फिर जैसे अतिरिक्त अंश के तौर पर यहाँ आकर डायरी समाप्त हो जाती है-- उसने लिखा कि दिन और रात के समय जरूर एक ऐसा क्षण होता है जब आदमी का साहस मन्द पड़ जाता है । वह इसी क्षण से डरता था ।

पाँचवां भाग : 3

अगले दिन, फाटक खुलने की निश्चित तारीख से कुछ दिन पहले, रियो जब दोपहर को घर आया तो वह सोच रहा था कि वह जिस तार का इन्तज़ार कर रहा था वह घर पहुँचा होगा या नहीं। हालाँकि आजकल भी दिन भर उसे उतनी ही मेहनत करनी पड़ती थी, जितनी कि उन दिनों में जब प्लेग अपने शिखर पर थी, लेकिन निकट भविष्य में मुक्ति की सम्भावना ने उसकी थकान को मिटा दिया था । उसकी आशा लौट आई थी और उसके साथ ही जिन्दगी के प्रति एक नया उत्साह भी मन में पैदा हुया था । कोई इन्सान लगातार तनाव की स्थिति में नहीं रह सकता जबकि उसकी समस्त शक्ति और इच्छा-शक्ति चर्म-बिन्दु पर पहुँच चुकी हो- जब वह तनाव हट जाए और उन स्नायुओं और पुट्ठों को आराम मिले जो संघर्ष के लिए तने हुए हों, तो इन्सान को बेहद खुशी होती है । रियो जिस तार के इन्तज़ार में था अगर वह तार भी आ गया हो तो रियो नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर सकेगा । सचमुच उसे ऐसा महसूस होता था कि उन दिनों हर आदमी नये सिरे से जिन्दगी शुरू कर रहा था।

वह हॉल में पोर्टर के कमरे के नजदीक से गुज़रा। नया पोर्टर, जो बूढ़े माईकेल की जगह पर नियुक्त हुआ था, हॉल के सामने की खिड़की से चेहरा सटाकर खड़ा था। रियो को देखकर वह मुस्कराया। सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त रियो की आँखों के आगे पोर्टर का मुस्कराता हुआ चेहरा घूम गया, जो थकान और प्रभाव से पीला पड़ गया था ।

हाँ, वह नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू करेगा, अगर एक बार 'बिछोह' का दौर खत्म हो गया और अगर वह खुशकिस्मत रहा तो ... इन विचारों के साथ वह दरवाज़ा खोल रहा था, जब उसने देखा कि उसकी माँ उससे मिलने के लिए नीचे हॉल की तरफ़ जा रही थी। माँ ने उसे बताया कि तारो की तबीअत अच्छी नहीं है । वे रोज की तरह ठीक वक्त पर उठे थे, लेकिन उसकी बाहर जाने की इच्छा नहीं हुई इसलिए वह फिर बिस्तर में लेट गया था । मदाम रियो बहुत परेशान थीं ।

" हो सकता है, यह कोई संजीदा बात हो ।” रियो ने कहा ।

तारो पीठ के बल बिस्तर पर लेटा था, उसका भरकम सर तकिये में गहरा धँसा था और उसकी विशाल छाती पर चादर आगे की तरफ़ निकली हुई थी। उसके सर में दर्द था और टेम्प्रेचर बढ़ गया था । उसने रियो को बताया कि लक्षणों से तो कोई निश्चित बात नहीं कही जा सकती, लेकिन हो सकता है वे प्लेग के ही लक्षण हों ।

उसकी जाँच करने के बाद रियो ने कहा, "नहीं, अभी तक तो कोई निश्चित लक्षण नहीं दीख रहा।"

लेकिन तारो को बेहद प्यास लग रही थी । बरामदे में आकर डॉक्टर ने अपनी माँ से कहा कि हो सकता है तारो को प्लेग हो।" ओहो !" माँ बोली, "यह कैसे मुमकिन हो सकता है ? और अब ?" क्षण-भर के बाद उसने कहा, "बर्नार्द, हम उसे यहीं रखेंगे ।"

रियो सोच में पड़ गया । उसने संदिग्ध स्वर में कहा, "सच पूछो तो मुझे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं। फिर भी शहर के फाटक जल्द ही खुलेंगे। अगर तुम यहाँ न होतीं तो मेरा खयाल है कि मैं इसकी जिम्मेदारी खुद ले लेता...."

"बर्नार्द, उसे यहीं रहने दो और मुझे भी यहीं रहने दो। तुम जानते ही हो कि मैंने हाल ही में प्लेग से बचने का एक और टीका लगवाया है ।" डॉक्टर ने कहा कि टीके तो तारो ने भी लगवाए थे, हो सकता है कि थकान की वजह ने उसने अखिरी टीका न लगवाया हो या जरूरी सावधानियाँ न वरती हों ।

रियो सर्जरी में चला गया और जब वह लौटा तो तारो ने उसके हाथ में एक सन्दूक देखा, जिसमें प्लेग के सीरम की बड़ी शीशियाँ थीं ।

तारो ने कहा, "आह, तो 'यही' मामला है ।"

"कोई जरूरी नहीं । लेकिन हमें कोई जोखिम नहीं उठानी चाहिए ।" बिना कुछ कहे तारो ने अपनी बाँह आगे बढ़ा दी और देर तक इन्जेक्शन लगवाता रहा । ये वही इन्जेक्शन थे, जो उसने खुद बहुत बार दूसरे लोगों को लगाए थे।

"शाम तक हमें हालत का ज्यादा अच्छी तरह पता चल जायेगा।" रियो ने तारो से नज़रें मिलाते हुए कहा ।

"लेकिन, मुझे अस्पताल भेजने के बारे में क्या हुआ ?"

"यह अभी तय नहीं हुआ कि तुम्हें प्लेग है।" तारो कोशिश करके मुस्कराया ।

"खैर, मैंने पहली बार तुम्हें मरीज़ को छूत के वॉर्ड में भेजने का हुक्म दिये बगैर ही इन्जेक्शन लगाते देखा है ।"

रियो ने मुँह दूसरी तरफ़ फेर लिया ।

"यहाँ तुम अच्छी तरह से रहोगे । मेरी माँ और मैं तुम्हारी देखभाल करेंगे ।"

तारो ने कुछ न कहा । डॉक्टर बक्स में शीशियाँ रख रहा था। वापस मुड़कर देखने से पहले वह इन्तज़ार करता रहा कि शायद तारो कुछ कहे, लेकिन तारो खामोश रहा। रियो उसके बिस्तर के पास आया। मरीज़ टकटकी लगाकर उसकी तरफ़ देख रहा था, हालाँकि उसके चेहरे पर तनाव था, लेकिन उसकी भूरी आँखें शान्त थीं । रियो उसके ऊपर झुककर मुस्कराया।

"अब सोने की कोशिश करो। मैं अभी थोड़ी देर में लौट आऊँगा ।"

जब वह बाहर निकला तो पीछे से तारो ने उसे आवाज़ दी। वह फिर कमरे में लौट आया । तारो अजब ढंग से पेश आ रहा था। लगता था वह किसी बात पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसे कहने के लिए मजबूर भी था । उसने आखिर कह ही दिया, "रियो, मुझे सच सच बता देना, मुझे इसी पर भरोसा है ।"

"मैं वादा करता हूँ ।"

तारो के भारी चेहरे से जैसे कोई बोझ उतर गया, वह मुस्करा दिया, “धन्यवाद ! मैं मरना नहीं चाहता और मैं जिन्दा रहने के लिए लड़ूंगा । लेकिन अगर मैं मुक़ाबले में हार गया तो मैं चाहता हूँ कि उसका अन्त अच्छी तरह हो ।"

आगे झुककर रियो ने उसका कन्धा दबाया, "नहीं, संत बनने के लिए तुम्हें जिन्दा रहना चाहिए। इसलिए लड़ाई करो ।"

उस दिन मौसम बहुत सरदी के बाद कुछ गरम हो गया, जोरदार आँधिओं के साथ ओले पड़े और बारिश आयी। सूर्यास्त के वक्त आसमान कुछ साफ़ हो गया और फिर तेज सरदी हो गई । रियो शाम को घर लौटा । ओवरकोट उतारे बगैर ही वह अपने दोस्त के कमरे में आया । तारो जैसे निश्चल लेटा था, लेकिन उसके भिंचे हुए होंठों से जो बुखार से, सफ़ेद पड़ गए थे, मालूम होता था कि उसने लड़ाई जारी रखी थी ।

"कहो, कैसे हो ?” रियो ने पूछा ।

तारो ने चादर में से अपने चौड़े कन्धों को ज़रा-सा उठाया और कहा,

"मैं मुक़ाबले में हार रहा हूँ ।"

डॉक्टर उसके ऊपर झुका । तारो की जलती हुई त्वचा के नीचे गिल्टियाँ निकल आई थीं और उसके सीने में ऐसी आवाज़ आ रही थी जैसे वहाँ भट्टी छिपी हो । अजब बात तो यह थी कि तारो में एक साथ दोनों क़िस्म की प्लेगों के लक्षण दिखाई दे रहे थे ।

रियो सीधा खड़ा हो गया और उसने कहा कि अभी तक सीरम को असर करने का पूरा वक्त नहीं मिला । तारो ने कुछ कहना चाहा, लेकिन बुखार की तेजी ने उसके गले के शब्दों को दबा दिया ।

खाने के बाद रियो और उसकी माँ मरीज़ के सिरहाने ड्यूटी देने बैठ गए। रात संघर्ष से शुरू हुई और रियो जानता था कि तड़के तक प्लेग की छूत के साथ यह भयानक कुश्ती जारी रहेगी। इस लड़ाई में तारो के हृष्ट-पुष्ट कन्धे और सीना ही उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति नहीं थे, बल्कि वह खून जो रियो की सुई के नीचे से टपका था । इस खून में कोई चीज़ थी, जो इन्सान की आत्मा से भी अधिक शक्तिशाली थी, इन्सान का कोई कौशल जिसके रहस्य का उद्घाटन नहीं कर सकता था। डॉक्टर का काम सिर्फ़ अपने दोस्त की लड़ाई का दर्शक बनना था। उसे अब क्या करना चाहिए, गिल्टियों को उत्तेजित करने के लिए कौनसे टीके देने चाहिएँ, लगातार कई महीनों की असफलताओं से रियो को इन साधनों की असलियत मालूम हो गई थी। दरअसल वह एक ही तरीके से मदद कर सकता था, भाग्य के अनुग्रह को अवसर देना - अगर भाग्य को उत्तेजित न किया जाए तो वह भी सोया रहता है । भाग्य ऐसा साथी था जिसे अलग नहीं किया जा सकता था । रियो प्लेग का ऐसा पहलू देख रहा था जिसने उसे स्तब्ध कर दिया था। वह फिर उन तमाम चालों को हराने की भरसक कोशिश कर रही थी, जो उसके खिलाफ़ बरती गई थीं, वह अप्रत्याशित स्थानों पर हमला कर रही थी और उन स्थानों से निकल रही थी, जो उसके रहने के निश्चित स्थान समझे जाते थे । एक बार फिर प्लेग तमाम योजनाओं को विफल करने पर तुली थी ।

तारो बिना हिले-डुले संघर्ष करता रहा। रात में एक बार भी उसने बेचैनी से दुश्मन के हमलों का मुक़ाबला नहीं किया। सिर्फ अपने समस्त अचेत भरकम विस्तार से और खामोशी से उसने अपनी लड़ाई को जारी रखा, यहाँ तक कि उसने बोलने की कोशिश भी नहीं की। उसने अपने तरीके से यह सूचित किया था कि वह अब अपना ध्यान संघर्ष के अतिरिक्त कहीं और लगाने की स्थिति में नहीं है । रियो संघर्ष के उलट-फेरों को अपने दोस्त की आँखों में देख सकता था, जो कभी बन्द हो जाती थीं और कभी खुल जाती थीं; उन पलकों में देख सकता था, जो कभी कसकर पुतली के साथ जुड़ जाते थे और कभी फैल जाते थे । उसकी नज़रों में जो कभी कमरे की किसी चीज़ पर या डॉक्टर और उसकी माँ पर टिक जाती थीं । हर बार जब उसकी नज़रें डॉक्टर की नज़रों से टकराती थीं, तो बड़ी कोशिश करके तारो मुस्कराता था ।

बीच में एक बार सड़क पर तेज़ कदमों की आहट सुनाई दी । दूर किसी कम्पन के डर से वे भाग रहे थे। धीरे-धीरे वह आवाज नजदीक आती गई और जोर से बारिश शुरू हो गई। शहर में फिर ज़ोर की बारिश और तूफ़ान आया था, फ़ौरन फुटपाथ पर तड़ातड़ ओले गिरने की आवाज़ आने लगी । खिड़कियों के आगे लगी तिरपालें हवा में जोर से फरफराने लगीं । रियो का ध्यान कुछ क्षणों के लिए ओलों की आवाज़ों की तरफ चला गया था। उसने फिर तारो के चेहरे पर छाई परछाइयों को देखा । तारो के चेहरे पर पलंग के पास रखे एक लैम्प की रोशनी पड़ रही थी। उसकी माँ सलाइयों से ऊन की कोई चीज़ बुन रही थी और बीच-बीच में आँखें उठाकर मरीज़ की तरफ़ देख लेती थी। डॉक्टर ने अपना फ़र्ज भरसक निभा दिया था । तूफ़ान गुज़र जाने के बाद कमरे की खामोशी ज्यादा गहरी हो गई । अब वहाँ सिर्फ़ उस अदृश्य युद्ध का उपद्रव छाया था । अनिद्रा से डॉक्टर के स्नायुओं में उत्तेजना पैदा हो गई थी। उसे लगा कि खामोशी की तीक्ष्णता में उसे वह मद्धम पैशाचिक 'सी-सी' की आवाज सुनाई दे रही है, जो महामारी के आरम्भ से ही उसके कानों में गूंजती आ रही थी । उसने अपनी माँ को इशारे से कहा कि वह सोने के लिए चली जाए। माँ ने सिर हिलाकर इन्कार कर दिया और उसकी आँखों में चमक आ गई। फिर उसने सलाइयों की नोकों पर चढ़े एक फन्दे को ग़ौर से देखा । उसका खयाल था कि वह फन्दा शायद ग़लत हो गया था। रियो ने उठकर मरीज़ को पानी दिया और फिर बैठ गया ।

फुटपाथ पर फिर क़दमों की आवाज गूंज उठी। यह आवाज नज़दीक आती गई, फिर दूर चली गई। लोग तूफ़ान के थमने से फ़ायदा उठाकर जल्दी-जल्दी घर जा रहे थे। पहली बार डॉक्टर को एहसास हुआ कि एम्बुलेंसों की खड़खड़ाहट के बग़ैर यह रात, जिसमें देर से भी लोग आ जा रहे थे, अतीत की रातों - जैसी थी; यह प्लेग से मुक्त रात थी। ऐसा मालूम होता था जैसे सरदी, सड़कों की रोशनी और लोगों की भीड़ ने मिलकर महामारी को खदेड़ दिया हो, और महामारी ने शहर की गहराइयों को छोड़कर इस गरम कमरे में शरण ले ली थी और वह तारो के निश्चल शरीर पर अपना आखिरी हमला कर रही थी। अब वह पहले की तरह घरों के ऊपर हवा में अपना मूसल नहीं घुमा रही थी, लेकिन वह मरीज के कमरे की गंदी हवा में धीरे से सीटी बजा रही थी। जब से लम्बी जगार शुरू हुई थी, तभी से वह इस आवाज को सुनता आ रहा था। वह इन्तज़ार कर रहा था कि यहाँ भी वह विचित्र आवाज बन्द हो जाए और वह अपनी हार क़बूल कर ले ।

प्रभात से कुछ पहले रियो अपनी माँ की तरफ़ देखकर फुसफुसाया, "अच्छा हो अगर तुम अब थोड़ा-सा आराम कर लो, क्योंकि रात को तुम्हें मेरी जगह यहाँ बैठना पड़ेगा । और देखो, सोने से पहले गोलियाँ जरूर खा लेना ।"

मदाम रियो ने उठकर अपनी बुनाई तहा दी और वे मरीज़ के सिरहाने चली गईं। कुछ देर से तारो की आँखें बन्द थीं । उसके कड़े माथे पर पसीने से बाल चिपक गए थे । मदाम रियो ने एक ठंडी साँस ली और तारो ने आँखें खोलीं। उसने वृद्धा का दयालु चेहरा अपने ऊपर झुका देखा । बुखार के ज़ोर से तपे चेहरे के एक छोर से दूसरे छोर तक वही निश्चल मुस्कान फिर पैदा हो गई । लेकिन फ़ौरन उसकी आँखें बन्द हो गई। रियो कमरे में अकेला रह गया। वह जाकर उस कुरसी पर बैठ गया जहाँ से उठकर उसकी माँ अभी गयी थी। सड़क पर खामोशी छाई थी और सोये शहर में से कोई आवाज नहीं आ रही थी। प्रभात की ठंडक का स्पर्श महसूस हो रहा था ।

डॉक्टर की आँख लगी ही थी कि सड़क पर एक छकड़े के पहियों की आवाज से वह जाग उठा । उसे कुछ कँपकँपी महसूस हुई। उसने तारो की तरफ देखा, तूफ़ान कुछ थम गया था। वह भी सो रहा था । लोहे के पहियों की आवाज दूर जाकर गायब हो गई । खिड़की के शीशों पर अभी भी अँधेरा छाया था । जब डॉक्टर तारो के नजदीक आया। तो तारो ने भावशून्य दृष्टि से उसकी तरफ़ देखा । वह उस आदमी की तरह था, जिसने नींद की सीमा को पार न किया हो ।

"तुम्हें नींद आयी थी न ?” रियो ने पूछा ।

"हाँ ।"

"साँस लेने में कुछ आसानी हो रही है ?

"थोड़ी-थोड़ी । क्यों, क्या यह किसी बात की निशानी है ?"

रियो कुछ क्षणों के लिए खामोश रहा, फिर उसने कहा, "नहीं तारो ! यह किसी बात की निशानी नहीं है । मेरी तरह तुम भी जानते हो कि अक्सर सुबह के वक्त आदमी की तबीयत अच्छी हो जाती है ।"

"थैंक्स," तारो ने सर हिलाकर समर्थन किया, "हमेशा मुझे सही-सही बात बता दिया करो ।"

रियो पलंग के एक ओर बैठा था । वह अपने नजदीक बीमार की टाँगों का स्पर्श महसूस कर रहा था, जो किसी समाधि पर बनी मूर्ति की टाँगों की तरह सख्त और कड़ी हुई थीं। तारो को साँस लेने में दिक्कत हो रही थी ।

"बुखार फिर लौट आएगा न, रियो ?" उसने हाँफते हुए पूछा ।

"हाँ, लेकिन दोपहर के वक्त हमें असली स्थिति मालूम हो जाएगी।" तारो ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। मालूम होता था कि वह अपनी सारी ताक़त को इकट्ठा कर रहा था। उसके चेहरे पर बेहद थकान नज़र आ रही थी। वह बुखार बढ़ने का इन्तजार कर रहा था और बुखार ने अभी से उसके भीतर कहीं उभरना शुरू कर दिया था । जब उसने आँखें खोलीं तो उसकी नज़र धुंधली सी दिखाई दी। जब उसने रियो को अपने ऊपर झुके देखा तो उसकी आँखों में चमक आ गई। रियो के हाथ में एक गिलास था ।

"पियो ।"

तारो ने पानी पीकर धीरे-धीरे तकिये पर अपना सर झुका दिया ।

"यह लम्बा मामला है ।" वह अस्फुट स्वर में बोला ।

रियो ने कसकर उसकी बाँह पकड़ ली, लेकिन तारो पर, जिसका सर दूसरी तरफ़ हटा हुआ था, कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। फिर अचानक जैसे भीतर का कोई बाँध बिना सूचना दिये टूट गया, बुखार की तूफ़ानी लहर फिर लौट आई और तारो के गाल और माथा रक्तिम हो उठे । तारो की आँखें जब खुलीं तो उसने डॉक्टर को देखा, जो फिर झुककर उसे स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन की दृष्टि से देख रहा था। तारो ने मुस्कराने की कोशिश की, लेकिन सूखे थूक ने उसके जबड़ों और होंठों को भींचकर बन्द कर दिया था, इसमें से मुस्कराहट अपना रास्ता न बना सकी । तने हुए चेहरे पर सिर्फ़ सजीव आँखें ही साहस से चमक रही थीं। सात बजे मदाम रियो फिर मरीज़ के शयनकक्ष में लौट आईं डॉक्टर अस्पताल में फ़ोन करने के लिए और अपनी जगह तारो की देखभाल के लिए किसी आदमी का प्रबंध करने के लिए सर्जरी में गया। उसने तय किया कि वह मरीजों को नहीं देखेगा । वह कुछ क्षण तक सर्जरी के कौच पर लेट गया । पाँच मिनट बाद वह मरीज़ के कमरे में गया । तारो का चेहरा मदाम रियो की तरफ मुड़ा था, जो पलंग के नजदीक अपने हाथ गोद में रखे बैठी थीं। कमरे की मद्धम रोशनी में वृद्धा सिर्फ़ एक अँधेरी परछाई की तरह दीख रही थीं। तारो इतने गौर से उनकी तरफ़ देख रहा था कि मदाम रियो ने अपने होंठों पर उँगली रखी और उठकर सिरहाने रखा लैम्प बुझा दिया । परदों के पीछे दिन की रोशनी बढ़ रही थी और जब मरीज़ का चेहरा रोशनी में नज़र आने लगा, तो मदाम रियो ने देखा कि अभी भी तारो की नज़रें उसी पर गड़ी हैं। पलंग पर झुककर वृद्धा ने चादर की सिलवटें ठीक कीं और जब वह सीधी खड़ी हुई तो उन्होंने क्षण-भर के लिए तारो के गीले, उलझे बालों पर अपना हाथ रखा। फिर उसे जैसे कहीं दूर से दबी हुई एक आवाज़ सुनाई दी, 'थैंक यू' और किसी ने कहा कि अब सब खैरियत है । जब वृद्धा अपनी कुरसी पर वापस आकर बैठीं तो तारो ने अपनी आँखें बन्द कर ली थीं और भिंचे हुए मुँह के बावजूद उसके क्षीण चेहरे पर एक मंद मुस्कान मँडरा रही थी ।

दोपहर के वक्त बुखार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया । बलग़म-मिली खाँसी ने मरीज़ के शरीर को झकझोर दिया और अब वह खून थूक रहा था । गिल्टियों की सूजन ख़त्म हो गई थी, लेकिन वे अभी भी मौजूद थीं, जोड़ों में गड़े लोहे के टुकड़ों की तरह । रियो ने फ़ैसला किया कि गिल्टियों में नश्तर लगाना असम्भव होगा । रह-रहकर बुखार और खांसी के दौरों के बीच तारो अभी भी अपने दोस्तों की तरफ़ देख रहा था । लेकिन जल्द ही उसकी आँखों का खुलना बहुत कम हो गया और पहचान के संक्षिप्त क्षणों में उसके बिगड़े चेहरे पर जो चमक आ जाती थी वह भी लगातार मद्धम होती गई। तूफ़ान के कोड़ों से उसका शरीर ऐंठ गया था और प्रकाश का कौंधना बहुत कम हो गया था । तूफ़ान के बीच वह धीरे- धीरे परित्यक्त भाव से बह रहा था। रियो के सामने अब एक नक़ाब की तरह चेतना शून्य चेहरा पड़ा था, जिसमें से मुस्कराहट हमेशा के लिए चली गई थी । वह इन्सान का शरीर, उसके दोस्त का शरीर प्लेग की बरछियों से छिदकर, झुलसा देने वाली दैवी आगों में जल रहा था। वे तमाम हवाएँ इस आग को और भी भड़का रही थीं। रियो की आँखों के सामने उसका दोस्त महामारी की अंधकारमय बाढ़ में तड़प रहा था। रियो उसे तबाही से बचाने में असमर्थ था। वह सिर्फ़ निष्फल रूप से किनारे पर खाली हाथ, दुखित हृदय, निहत्था और असहाय खड़ा होकर मुसीबत के इस हमले का दृष्टि-मात्र रह सकता था और जब अन्त आया तो रियो की आँखें आँसूओं से भर गईं वे असहायता के आँसू थे। उसने तारो को लुढ़ककर, दीवार की तरफ़ मुँह किये खोखली कराहट के साथ मरते नहीं देखा, लगता था जैसे उसके भीतर कोई जरूरी तार टूट गया था...

अगली रात संघर्ष की नहीं, बल्कि खामोशी की थी। खामोश, मौत के कमरे में रियो लाश के सिरहाने बैठा था । लाश अब रोज़मर्रा के कपड़ों में थी । यहाँ भी रियो को उस तात्विक शान्ति का अनुभव हुआ, जो उसने कुछ रातें पहले प्लेग से दूर ऊँची छत पर बैठकर शहर के फाटकों पर हुए क्षणिक उपद्रव के बाद अनुभव की थी। साथ ही उसे उस खामोशी का ख्याल आ रहा था जो अस्पताल में मरने वालों के बिस्तरों पर छाई रहती थी । वहाँ और यहाँ एक ही जैसा गम्भीर विराम था, एक ऐसी खामोशी थी जो युद्ध के बाद छा जाती है; हार की खामोशी । लेकिन अब उसके मृत दोस्त को खामोशी अपने में लपेट रही थी, इस घनी खामोशी में और सड़कों और शहर में छाई खामोशी में - जो कि अब आखिरकार मुक्ति की साँस ले रहा था । इतनी सौम्यता थी कि रियो को यह निर्मम एहसास हुआ कि यह आखिरी हार थी; यह वह आखिरी विनाशकारी मुठभेड़ थी, जिसके वाद युद्ध खत्म हो जाता है और जो स्वयं शान्ति को भी एक असाध्य बीमारी बना देता है । तारो ने शान्ति को प्राप्त कर लिया था या नहीं यह डॉक्टर नहीं बता सकता था, क्योंकि अब सब कुछ समाप्त हो गया था। लेकिन डॉक्टर ने यह महसूस किया कि इसके बाद से उसके लिए शान्ति पाना असम्भव हो गया है, ठीक उसी तरह जैसे एक माँ के लिए, जिसने युद्ध में अपना बेटा खो दिया हो या एक ऐसे आदमी के लिए, जिसने अपने दोस्त को दफ़नाया हो, युद्ध-विराम नहीं होता ।

रात फिर सर्द हो गई थी और जाड़े के साफ़ आसमान में पाले से धुंधले तारे चमक रहे थे । धुंधली रोशनी वाले कमरे में उन्हें महसूस हुआ कि जैसे जाड़ा आकर खिड़कियों के शीशों से टकरा रहा हो। उन्हें ध्रुवदेशी रात का लम्बा रुपहला दीर्घोच्छ्वास सुनाई दे रहा था । मदाम रियो हमेशा की मुद्रा में पलंग के नजदीक बैठी थीं। पलंग के सिरहाने रखे लैम्प की रोशनी से उनके शरीर का दायाँ हिस्सा चमक रहा था। कमरे के बीचों-बीच रोशनी के छोटे वृत्त से बाहर रियो बैठा इन्तज़ार कर रहा था । रह-रहकर बीवी की याद उसके मन को घेर रही थी, लेकिन हर बार वह उसे मन के एक कोने में धकेल देता था ।

जब रात शुरू हुई तो पाले की ठंडी हवा में सड़क पर से गुजरने वाले लोगों के क़दमों की आहट गूंजने लगी ।

"तुमने सारे इन्तजाम कर लिए हैं न ?" मदाम रियो ने पूछा ।

"हाँ, मैंने टेलीफ़ोन कर दिया है।"

बाहर सड़क पर सड़कों पर फिर दोनों ने फिर अपना खामोश जागरण शुरू कर दिया। बीच-बीच में जब भी मदाम रियो कनखियों से अपने बेटे को देख लेती थीं और जब भी रियो उन्हें ऐसा करते हुए देखता था तो वह मुस्करा देता था लम्बी खामोशियों को रात की आवाजें ढक रही थीं। बहुत सी कारें चलने लगी थीं, हालाँकि सरकारी तौर पर अभी इसकी इजाजत नहीं मिली थी । टायरों की फूत्कार करती हुई कारें तेज़ रफ्तार से आगे बढ़ जाती थीं, रुककर फिर लौट आती थीं । आवाजें, दूर से सुनाई देने वाली पुकारें सुनाई दीं, फिर खामोशी छा गई । घोड़ों के सुमों की आवाजें, मोड़ पर मुड़ती हुई ट्रामों की चीखें, अस्पष्ट बुदबुदाहटें सुनाई दीं और एक बार फिर रात खामोशी से साँस लेने लगी ।

"बर्नार्द ! "

"हाँ।"

" बहुत ज्यादा तो नहीं थक गए ?"

"नहीं।"

इसी क्षण रियो ने जान लिया कि उसकी माँ क्या सोच रही है । वह यह भी जानता था कि वह उसे प्यार करती है । लेकिन उसे यह भी मालूम था कि किसी से प्यार करने का अपेक्षाकृत कम महत्त्व है, या यह कहना बेहतर होगा कि प्यार में कभी इतनी ताक़त नहीं होती कि वह अपने को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द तलाश कर सके । इसलिए वह और उसकी माँ एक-दूसरे को हमेशा खामोशी से प्यार करते रहेंगे और एक दिन वह या उसकी माँ में से कोई मर जाएगा और वे जिन्दगी में अपने स्नेह को इससे ज्यादा अभिव्यक्ति दिये बगैर ही मर जाएँगे । इस तरह वह भी तारो के पास रहा था और आज शाम को तारो मर गया था और उनकी दोस्ती को पूरी तरह से एक-दूसरे की जिन्दगी में दाखिल होने का मौका तक नहीं मिला था । तारो 'मुक़ाबले' में हार गया था, जैसा कि उसने खुद कहा था । लेकिन रियो ने क्या जीता था ? सिर्फ़ प्लेग के परिचय और तारो की दोस्ती की याद का उसे अनुभव हुआ था । उसने स्नेह को पाया था और एक दिन वह भी एक स्मृति बनकर रह जाएगा। इसलिए प्लेग और ज़िन्दगी के संघर्ष में आदमी सिर्फ़ ज्ञान और स्मृतियाँ ही जीत सकता था। लेकिन शायद तारो इसे प्रतियोगिता जीतना कहता ।

एक और कार सड़क पर गुजरी और मदाम रियो कुछ चौंक उठी । रियो उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया। माँ ने उसे यकीन दिलाया कि वह थकी नहीं है और उसने फ़ौरन यह भी कहा, “तुम्हें सामने पहाड़ों पर जाकर लम्बा आराम करना चाहिए ।"

"करूँगा, माँ !"

ज़रूर वह सामने पहाड़ों में जाकर आराम करेगा, यह भी स्मृति के लिए एक बहाना बन जाएगा। अगर प्रतियोगिता में जीतने का यही मतलब है तो सिर्फ़ अपने ज्ञान और स्मृतियों के बल पर अपनी आशाओं से अलग रहकर, जीना कितना मुश्किल होगा ! शायद तारो इसी तरह जिन्दा रहा था, और उसे मरीचिकाओं से रहित जिन्दगी की नीरस निरर्थकता का पूरा एहसास हो गया था। बिना आशा के कोई शान्ति नहीं हो सकती और तारो किसी को भी कसूरवार ठहराने के अधिकार से वंचित रहा था— हालाँकि वह अच्छी तरह जानता था कि कोई इन्सान इस अधिकार के बगैर नहीं रह सकता और कई वार अभिशप्त को भी जल्लाद बनना पड़ता है । तारो ने विरोधाभासों से पेचीदा जिन्दगी बसर की थी, और उसे कभी आशा की सान्त्वना का अनुभव नहीं हुआ था। क्या उसकी संत बनने की आकांक्षा का, दूसरों की सेवा करके शान्ति खोजने का यही कारण था ? दरअसल रियो को इस सवाल का जबाव बिलकुल मालूम नहीं था, और उसे इसकी ज्यादा परवाह भी नहीं थी । हमेशा उसके मन में तारो की तस्वीर एक ऐसे आदमी की तस्वीर के रूप में जिन्दा रहेगी, जो उसकी कार चलाते वक्त स्टीयरिंग ह्वील को कसके पकड़ता था, या उस हृष्ट-पुष्ट शरीर की तस्वीर जो अब निश्चल पड़ा था, उसके मन में ताज़ा रहेगी । जानने का यही अर्थ है : एक सजीव उष्णता और मौत की एक तस्वीर । निश्चय ही अगले दिन अपनी पत्नी की मृत्यु की खबर पाकर डॉक्टर रियो ने जिस संयम और धैर्य का परिचय दिया उसका भी यही कारण था। वह उस वक्त सर्जरी में था । उसकी माँ भागी हुई आयी और उसने बेटे के हाथ में एक टेलीग्राम पकड़ा दिया और फिर तारघर के लड़के को बख्शीश देने के लिए हॉल में वापस चली गई। जब वह लौटी तो उसके बेटे के हाथ में टेलीग्राम खुला रखा था । उसने बेटे की तरफ़ देखा, लेकिन बेटे की नज़रें खिड़की पर टिकी हुई थीं; बन्दरगाह से निकलते हुए सुबह के सूरज की दीप्ति ने खिड़की को आलोकित कर दिया था ।

"बर्नार्द !" माँ ने कोमल स्वर में कहा। डॉक्टर ने मुड़कर माँ को इस तरह देखा जैसे वह किसी अजनबी को देख रहा हो ।

"टेलीग्राम में कोई ऐसी-वैसी खबर थी ?"

"हाँ ...यही ख़बर थी ...एक हफ्ता पहले।"

मदाम रियो ने खिड़की की तरफ़ मुँह फेर लिया। रियो कुछ देर तक खामोश रहा । फिर उसने अपनी माँ को रोने से मना कर दिया । वह मन ही मन इस ख़बर का इन्तज़ार कर रहा था, फिर भी उसके लिए बरदाश्त करना बहुत मुश्किल था । यह कहते वक्त वह जानता था कि यह आघात उसके लिए नया नहीं है । पिछले कई महीनों से पिछले दो दिनों से वह इसी तरह के शोक को लगातार झेलता आ रहा था।

पाँचवां भाग : 4

आखिरकार फ़रवरी की एक सुहानी सुबह में, तड़के ही धूम-धाम से शहर के फाटकों को खोला गया । नगरवासियों ने अखबारों ने, रेडियो ने और सरकारी विज्ञप्तियों ने इस घटना का स्वागत किया । अब कथाकार सिर्फ़ उन समारोहों को ही बयान कर सकता है, जो फाटकों के खुलने के बाद आयोजित किये गए, हालांकि वह खुद हार्दिक भाव से इन समारोहों में हिस्सा नहीं ले सका था ।

बड़ी मेहनत से दिन और रात के उत्सवों का आयोजन किया गया । इसी वक्त स्टेशन पर खड़े इंजनों में से धुआं निकलने लगा, जहाज हमारे बन्दरगाह के नज़दीक पहुँच रहे थे। अलग-अलग तरीकों से वे सब याद दिला रहे थे कि पुनर्मिलन का चिर-प्रतीक्षित दिन आ पहुँचा था और तमाम बिछुड़े हुए लोगों के आँसू बन्द हो गए थे ।

हम यहाँ आकर आसानी से बिछोह की भावना के परिणामों की कल्पना कर सकते हैं, जिन्होंने हमारे बहुत से शहरियों के दिलों में बहुत दिन से कड़वाहट पैदा कर दी थी । दिन-भर बाहर से आने वाली गाड़ियों में भी उतनी ही भीड़ रही जितनी कि शहर से जाने वाली गाड़ियों में थी । हर मुसाफ़िर ने बहुत पहले से ही अपनी सीट रिजर्व करवा ली थी, और पिछले पंद्रह दिनों से इस डर से उनकी जान सूली पर टंगी हुई थी कि कहीं ऐन वक्त पर अधिकारी अपने फ़ैसले से मुकर न जाएं। शहर में आने वाले कुछ मुसाफिर अभी भी घबराए से थे । उन्हें अपने-अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के दुर्भाग्य का तो पता था, लेकिन बाक़ी लोगों और शहर की हालत का उन्हें कुछ पता न था । कल्पना में वे उसकी भयंकर और नीरस तस्वीर देखते थे। लेकिन यह बात सिर्फ उन लोगों पर लागू होती थी, जो लम्बे निर्वासन के दौरान शोक से सूख नहीं गए थे। बिछुड़े प्रेमियों पर यह बात लागू नहीं होती थी ।

और सचमुच प्रेमी अपने निश्चित विचार में पूरी तरह से तल्लीन थे, उनके लिए सिर्फ़ एक ही चीज़ बदली थी । विरह के उन महीनों में वक्त उतनी तेज़ी से नहीं गुज़रा था जैसा कि वे चाहते थे । वे हमेशा वक्त की रफ़्तार को तेज करना चाहते थे । अब, जब उन्हें शहर नज़र आ रहा था और ट्रेन स्टेशन में दाखिल हो रही थी, इंजन की ब्रेकें लग रही थीं। अगर उनका बस चलता तो वे वक्त की रफ़्तार को धीमा कर देते और उत्सुकता के क्षणों को लम्बा कर देते; क्योंकि उन दिनों हफ्तों और महीनों की अनुभूति ने, जिससे उनका प्यार वंचित रह गया था और जो धुँधली होते हुए भी तीखी थी, उनके मन में यह स्पष्ट भावना जगा दी थी कि वे क्षतिपूर्ति के हक़दार हैं। हर्ष के इन क्षणों की रफ़्तार प्रतीक्षा के लम्बे घण्टों से आधी होनी चाहिए। प्लेटफ़ॉर्म या घर पर उनकी प्रतीक्षा करने वाले लोग भी अधीरता से क्षुब्ध हो रहे थे और उत्सुकता से काँप रहे थे । प्लेटफ़ॉर्म पर इन्तज़ार करने वालों में रेम्बर्त भी था, जिसकी बीवी को पहले से ही फाटक खुलने की ख़बर भेज दी गई थी। उसने फ़ौरन तैयारियाँ शुरू कर दी थीं और वह पहली ट्रेन से आ रही थी । यहाँ तक कि रेम्बर्त भी यह सोचकर घबरा रहा था कि उसे एक ऐसे प्यार और निष्ठा का सामना करना पड़ेगा, जिसे प्लेग के लम्बे महीनों ने धीरे-धीरे परिष्कृत करके एकदम फीका कर दिया था; उसे हाड़-मांस की उस नारी का सामना करना था, जिसने इन भावनाओं को जागृत किया था ।

काश ! वह वक्त की रफ़्तार को रोक सकता और एक बार फिर वही आदमी बन जाता, महामारी के फूटने पर जिसके मन में सिर्फ़ एक ही विचार और आकांक्षा थी; किसी तरह वह शहर से भागकर उस औरत के पास पहुँच सकता, जिसे वह प्यार करता था। लेकिन वह जानता था कि अब इस बात का कोई सवाल नहीं उठता; वह बहुत ज्यादा बदल चुका था । प्लेग ने उसमें जबरदस्ती एक ऐसी अनासक्ति और उदासीनता भर दी थी जिसे वह अपनी पूरी कोशिश करके भी दिल से नहीं निकाल सकता था, और जो एक निराकार भय की तरह उसके मन में छायी हुई थी । उसे लगा जैसे प्लेग बहुत जल्दी अचानक ही ख़त्म हो गई थी और उसे अपने को सँभालने का वक्त ही नहीं मिला था । खुशी पूरी रफ़्तार से उसके ऊपर पटकी जा रही थी, उसकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा तेजी से । रेम्बर्त समझ गया कि प्रकाश के कौंधने की तरह उसकी छिनी हुई सब चीजें उसे वापस मिल जाएँगी और खुशी एक ऐसी लपट की तरह उस पर टूट पड़ेगी, जिसके साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया जा सकेगा ।

सचमुच सब लोग कुछ हद तक चेतन रूप से रेम्बर्त की तरह ही सोच रहे थे । प्लेटफॉर्म पर खड़े उन सब लोगों के बारे में ही हम कुछ कहना चाहते हैं। हर आदमी अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी में वापस लौट रहा था, फिर भी मित्रता की भावना अभी जिन्दा थी और वे आपस में एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्करा रहे थे। लेकिन ज्योंही उन्होंने नज़दीक आते हुए इंजन का धुआँ देखा तो तीव्र हर्षोन्माद के ज्वार के सामने निर्वासन की भावना ग़ायब हो गई और जब ट्रेन खड़ी हो गई तो एक मादक क्षण में ही जब अपनत्व और अधिकार जताने की भूखी बाँहों ने उन शरीरों को आलिंगनबद्ध कर लिया जिनकी आकृतियाँ वे भूल गए थे, तो वे लम्बे बिछोह ख़त्म हो गए जिनके बारे में लोगों का खयाल था कि वे कभी खत्म नहीं होंगे । रेम्बर्त को इतना वक्त ही नहीं मिला कि वह अपनी बीवी को देख सके जो उसकी तरफ दौड़ती आ रही थी । वह आकर सीधी उसके सीने से लिपट गई थी । रेम्बर्त ने उसे अपनी बाँहों में ले लिया था और उसके सर को अपने कन्धों पर दबा रहा था । उसे सिर्फ़ अपनी प्रेयसी के परिचित केश ही दिखाई दे रहे थे, उसने अपने आँसुओं को मुक्त भाव से बहने दिया । वह नहीं जानता था कि ये खुशी के आँसू थे या बहुत दिनों के दबे हुए दुख के आँसू । उसे सिर्फ़ यही एहसास था कि आंसुओं की वजह से वह अपने को यह तसल्ली नहीं दे सकेगा कि उसके कन्धे से चिपका चेहरा सचमुच वही चेहरा था जिसके बारे में उसने बहुत बार तमन्ना की थी या वह किसी अजनबी का चेहरा था । उस क्षण तो वह अपने आस- पास के लोगों की तरह ही व्यवहार करना चाहता था जिनका खयाल था कि प्लेग इन्सानों के दिलों के भीतर कोई चीज़ बदले बग़ैर भी आकर चली जा सकती है—अगर वे ऐसा नहीं सोचते थे तो इसका अभिनय जरूर कर रहे थे ।

एक-दूसरे से सटे हुए वे अपने घरों में गये, बाहर की दुनिया से आँखें मूंदकर । और ऐसा लगता था कि वे महसूस कर रहे थे कि उन्होंने प्लेग को हरा दिया है । वे हर उदासी को भूल गए थे और उन लोगों की दुर्दशा को भी भूल गए थे, जो उसी ट्रेन से आये थे, लेकिन प्लेटफॉर्म पर उनकी प्रतीक्षा करने वाला कोई नहीं था । वे घर जाकर उस भय की पुष्टि के लिए अपने को तैयार कर रहे थे जो लम्बी खामोशी ने पहले से ही उनके दिलों में पैदा कर दिया था। इन लोगों के लिए, जिनका साथी केवल सद्यजात शोक था, जो इस क्षण अपने को किसी प्रियजन की मृत्यु के शोक की आजीवन स्मृति के लिए समर्पित कर रहे थे — इन दुखी लोगों की दशा बिलकुल अलग थी। इनके विरह की कसक अपनी चरम सीमा तक जा पहुँची थी । उन माताओं, पतियों और पत्नियों के लिए, जो अपनी सारी खुशी खो बैठे थे, प्लेग अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी; क्योंकि उनके प्रियजन किसी गड्ढे में चूने की तह के नीचे दबे थे या राख के एक टीले में उनकी मुट्ठी-भर राख अवशेष रूप में जमा थी, जहाँ वह पहचानी नहीं जा सकती थी ।

लेकिन मातम करने वाले इन एकाकी लोगों पर कौन ध्यान दे रहा था ! तड़के से ही सर्द तीखी हवा के झोंकों को परास्त करके सूरज शहर पर शान्त, स्थिर प्रकाश की सतत धारा बरसा रहा था । क़िलों में, पहाड़ियों पर, निश्चल पवित्र नीले आसमान तले लगातार तोपें गरज रही थीं। हर आदमी घर से बाहर निकलकर भीड़-भाड़ के उन क्षणों को मनाने के लिए आया था जब कठिन यंत्रणा का दौर खत्म हो चुका था और विस्मृति का जमाना अभी शुरू नहीं हुआ था ।

सड़कों और चौराहों पर लोग डान्स कर रहे थे । चौबीस घंटों में ही मोटरगाड़ियों का ट्रैफ़िक दुगुना हो गया और हर मोड़ पर खुशी मनाती हुई भीड़ें मोटरों को रोक लेती थीं। हर गिरजे की घंटी दोपहर-भर जोर से बजती रही। नीला और सुनहरी आसमान घंटियों की आवाज से गुंजित हो उठा। हर गिरजे में खुदा का शुक्रिया अदा करने के लिए प्रार्थनाएं हो रही थीं। लेकिन साथ ही मनोरंजन के स्थानों में भी ठसाठस भीड़ें थीं । कॉफ़ी हाउस कल की परवाह न करके शराब की आखिरी बोतलें ग्राहकों को पेश कर रहे थे। हर शराब घर के आसपास शोर मचाती हुई भीड़ें इकट्ठी थीं, जिनमें प्रेमियों के जोड़े भी थे, जो इस बात की परवाह किये बग़ैर कि लोग क्या कहेंगे, एक-दूसरे से लाड़ कर रहे थे । सब लोग हँस रहे थे या खुशी से चिल्ला रहे थे। बहुत महीनों से उनकी जिन्दगी की लौ धीमी जल रही थी, इसलिए दबी हुई संचित भावनाएं आज उनके जिन्दा रहने के सुनहरी पर्व पर मुक्त हृदय से लुटाई जा रही थीं। कल फिर असली जिन्दगी अपनी पाबन्दियों के साथ शुरू होने वाली थी, लेकिन इस क्षण अलग-अलग वर्गों के लोग भ्रातृ-भाव से एक-दूसरे के सम्पर्क में आ रहे थे । मौत का सामीप्य जिस ऊँच-नीच के भेद को मिटाने में असफल रहा था, वह भेद आनन्द के कुछ घंटों में मुक्ति के उल्लास में मिट गया था। लेकिन उस दिन का एक पहलू था । सूर्यास्त के समय काफ़ी लोग, जिनमें रेम्बर्त और उसकी बीवी भी शामिल थे, मूक संतोष और खुशी के अत्यधिक सूक्ष्म रूप में छिपे थे। बहुत से जोड़ों और परिवारों को देखकर लगता था कि वे ऐसे ही टहलने निकले हैं। उससे ज्यादा उनके बाहर निकलने का कोई प्रयोजन नहीं दीखता था, जबकि असल में वे भावुकता के कारण उन स्थानों की तीर्थ यात्रा कर रहे थे जहाँ उन्हें दुख झेलने की शिक्षा मिली थी । वे शहर में आने वाले नये लोगों को प्लेग के आश्चर्यजनक या कम विख्यात स्मारक चिह्नों और निशानियों को दिखा रहे थे। कई बार तो प्लेग में जिन्दा रहने वाला आदमी सिर्फ़ गाइड का रोल ही अदा करता था और 'आंखों देखे गवाह' का काम करता था, जो 'सारी घटना में से गुजर चुका था' और अपने डर का जिक्र किये बग़ैर खुलकर खतरे का बयान करता था । ये खुशी हासिल करने के मामूली तरीके थे, जो मनोरंजन से कुछ ही अधिक महत्त्वपूर्ण थे । कुछ और लोग शहर में टहलते हुए भावुकता का अधिक प्रदर्शन कर रहे थे। मिसाल के लिए जब कोई आदमी किसी ऐसे स्थान की ओर इशारा करता था, जिसके लिए उसके मन में उदास, लेकिन कोमल स्मृतियाँ थीं, तो वह अपने साथ की लड़की या औरत से कहता, "इस जगह एक ऐसी ही शाम को मैं तुम्हारे लिए बेहद तड़प रहा था, लेकिन तुम वहाँ नहीं थी ।" इन भावुक तीर्थ यात्रियों को आसानी से पहचाना जा सकता था; वे भीड़ के उपद्रव में, आत्म केन्द्रित, सबसे तटस्थ फुसफुसाहट के नखलिस्तान-जैसे नज़र आते थे । चौराहों पर बजते हुए बैण्डों से भी ज्यादा वे मुक्ति के अपार हर्ष का विश्वास दिला रहे थे । ये हर्षोन्मत्त जोड़े एक-दूसरे से लिपटे थे । वे बहुत कम बोल रहे थे । खुशियों के कोलाहल के बीच सुखी लोगों की अहंकारपूर्ण अहम्मन्यता और बेइन्साफी से घोषित कर रहे थे कि प्लेग ख़त्म हो गई है और जुल्म का दौर बीत गया है। सब प्रमाणों के ऐन सामने भी वे साफ़-साफ़ इन्कार कर रहे थे कि हमने कभी ऐसी पागल दुनिया देखी थी, जिसमें लोग मक्खियों की तरह मारे गए थे या प्लेग ने कभी विधिवत् ऐसी कठोर पैशाचिकता दिखाई थी और जान-बूझकर ऐसा उन्मत्त रोष व्यक्त किया था और उन तमाम चीज़ों के प्रति, जो 'यहाँ और अब' मौजूद नहीं थीं, एक घृणित उछृंखलता पैदा कर दी थी। वे इन्कार कर रहे थे कि कभी यहाँ श्मशान घर की बदबू भी फैली थी, जिससे जिन्दा लोग भी अवसन्न और विमूढ़ हो गए थे । संक्षेप में वे लोग इस बात से इन्कार करते थे कि कभी हम लोग पिशाच-ग्रसित शहरी थे, जनसंख्या का एक हिस्सा रोज एक भट्ठी में जलाया जाता था और चिपचिपी बदबू बनकर फैल जाता था और बाकी लोग बंधन में जकड़ी हुई बेबसी से अपनी बारी आने की इन्तज़ार करते थे ।

कम-से-कम रियो को तो ऐसा ही मालूम हुआ जब वह दोपहर के बाद शहर के बाहरी हिस्से में जा रहा था। वह घंटियों, तोपों, बैण्डों और कान फाड़ देने वाली चिल्लाहटों के बीच अकेला पैदल चल रहा था। उसके लिए एक दिन की भी छुट्टी लेने का कोई सवाल नहीं उठता था। बीमारों को कोई छुट्टियाँ नहीं होतीं। ठंडी साफ़ रोशनी में नहाये हुए शहर में से भुनते हुए गोश्त और सौंफ की सुवासित शराब की परिचित सुगंधें उठ रही थीं। उसके आसपास खुश चेहरे चमकते हुए आसमान की तरफ़ उठे थे । मर्द और औरतें, जिनके चेहरे लाल हो गए थे, लालसा की मद्धिम और खिंची हुई आवाजों के साथ एक-दूसरे को आलिंगन में बाँध रहे थे। हाँ, प्लेग और उसका आतंक खत्म हो गया था और भावावेग से तनी वे बाँहें बता रही थीं कि उन्हें उस जमाने में क्या-क्या सहना पड़ा था । निर्वासन और प्रभाव का जो भी गंभीरतम अर्थ हो सकता है, उसका उन्हें अनुभव हो चुका था ।

पहली बार रियो को मालूम हुआ कि वह उस पारिवारिक साम्य को एक नाम दे सकता था, जिसकी झलक उसने पिछले कई महीनों से सड़क पर नज़र आने वाले चेहरों में पाई थी । उसे बस अपने गिर्द देखने-भर की जरूरत थी । प्लेग के खत्म होने पर इन मर्दों और औरतों के चेहरों पर उस पार्ट की झलक आ गई थी, जो वे बहुत दिनों से खेलते आए थे; वे स्वदेश त्यागे हुए लोगों का पार्ट अदा करते आए थे। पहले उनके चेहरे और अब उनकी पोशाकें उनके सुदूर स्वदेश से निर्वासन की कहानी कह रही थीं। जब प्लेग ने शहर के दरवाजे बन्द कर दिए थे, तो वे बिछोह की जिन्दगी बसर करने लगे थे और जिन्दगी की उस गर्मी से वंचित हो गए थे, जो हर चीज़ को भूलने की ताक़त देती है । विभिन्न मात्राओं में, शहर के हर हिस्से में मर्द और औरतें फिर से मिलने के लिए तड़पते रहे थे, हरेक की तमन्ना एक जैसी नहीं थी, न ही हो सकती थी । अधिकांश लोग किसी अनुपस्थित प्रियजन के लिए, किसी शरीर की गरमी के लिए, प्यार के लिए या सिर्फ़ ऐसी ज़िन्दगी के लिए तड़प रहे थे जिसे आदत ने प्यारा बना दिया था । कुछ लोग दोस्तों की संगति से वंचित हो जाने की वजह से तड़प रहे थे, हालांकि वे इस बात को नहीं जानते थे । वे इसलिए भी परेशान थे, क्योंकि वे दोस्तों से सम्पर्क स्थापित करने के साधारण साधनों खत, ट्रेनों और बोटों का इस्तेमाल करने में भी असमर्थ थे । कुछ और लोग, जिनकी संख्या अपेक्षाकृत कम थी - हो सकता है तारो भी इसी श्रेणी में हो । एक ऐसी चीज़ से पुनर्मिलन चाहते थे जिसकी व्याख्या करने में वे असमर्थ थे, लेकिन उनकी दृष्टि में धरती पर वही एकमात्र चाहने के क़ाबिल चीज थी। कई बार वे इस चीज को शान्ति कहते थे, क्योंकि इससे बेहतर नाम उन्हें नहीं सूझता था ।

रियो चलता गया, आगे जाकर भीड़ें और भी बढ़ गईं, शोरशराबा कई गुना तेज हो गया और उसे ऐसा लगा कि बढ़ने के साथ-साथ उसकी मंजिल पीछे हटती जा रही है। धीरे-धीरे उसने अपने को एक उत्तेजित, कोलाहल-भरी भीड़ की तरफ आकर्षित होते हुए पाया। उसमें से उठती हुई खुशी की चीखों का अर्थ उसकी समझ में आ रहा था। कुछ हद तक यह उसकी अपनी थी । हाँ, उन्होंने एक साथ आत्मा और शरीर के दुख झेले थे । उन्हें निर्दयी अवकाश ने ऐसे निर्वासन ने जिसकी क्षतिपूर्ति भी नहीं थी और ऐसी प्यास ने सताया था जो कभी नहीं बुझ पाई थी । लाशों के ढेरों में, एम्बुलेन्सों की टनटनाती घण्टियों में, उन चेतावनियों में जिन्हें भाग्य का नाम दिया जाता है, भय और यन्त्रणापूर्ण विद्रोह की निरन्तर लहरों में, इन तमाम चीज़ों के आतंक में, हमेशा इन असहाय आतंकित लोगों के कानों में एक महान् आवाज गूंजती रहती थी, जो उन्हें अपने आकांक्षाओं के देश, अपनी मातृभूमि में वापस बुला रही थी । यह भूमि दम और गला घोटे हुए शहर की दीवारों से बाहर, पहाड़ियों की सुवासित झाड़ियों में, समुद्र की लहरों में, आज़ाद आसमानों तले और प्यार की संरक्षा में थी । वे यहीं अपनी खोई मातृभूमि में, सुख में लौटना चाहते थे और बाक़ी की सभी चीजों के प्रति ग्लानि-भरी उपेक्षा दिखाते थे ।

उस निर्वासन और पुनर्मिलन की आकांक्षा का क्या अर्थ था, यह रियो नहीं जानता था । लेकिन जब वह आगे बढ़ रहा था और उसके चारों तरफ़ धक्का-मुक्की हो रही थी, बीच-बीच में लोग उसका रास्ता रोक लेते थे, और वह धीरे-धीरे कम भीड़ वाली सड़कों पर आ रहा था, तो उसके मन में खयाल उठा कि इन चीज़ों का कोई अर्थ हो या न हो इसका कोई महत्त्व नहीं । इन्सानों की उम्मीद का जवाब मिलता है, हमें तो उसी के बारे में सोचना चाहिए ।

अब वह जान गया था कि वह जवाब क्या है। शहर के बाहरी हिस्से में, जहाँ सड़कें क़रीब क़रीब खाली थीं, उसे यह बात ज्यादा अच्छी तरह समझ में आ गई । वे, जिनका दिल अपने छोटे घरबार से चिपका था, सिर्फ़ यही चाहते थे कि वे अपने प्रियजनों के पास लौट जाएँ। कई बार उन्हें सफलता मिल जाती थी। हालांकि उनमें से कुछ अभी भी अकेले ही सड़कों पर चल रहे थे—उन प्रियजनों के बगैर, जिनकी उन्होंने इन्तज़ार की थी । वे लोग भी खुश थे जिन्हें दोहरा बिछोह नहीं सहना पड़ा था, हममें से कुछ लोगों की तरह जो महामारी से पहले के जमाने में शुरू से ही अपने प्यार को पक्की नीवें पर खड़ा करने में असफल रहे थे और कई सालों तक अन्धों की तरह उस समझौते को टटोलते रहे थे, जिसे पाना बहुत मुश्किल है और जिसमें बहुत देर लगती है, जो अन्ततः बेमेल प्रेमियों को सामंजस्य के सूत्र में बाँधता है। ऐसे लोगों ने समय पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने का उतावलापन दिखाया था; और अब वे हमेशा के लिए जुदा हो गए थे । लेकिन रेम्बर्त की किस्म के लोगों ने, जिसे डॉक्टर ने उस रोज सुबह कहा था, , “हिम्मत से काम लो ! अब यह साबित करना तुम्हीं पर निर्भर करता है कि तुम सही रास्ते पर हो।" बिना ठोकर खाए अपने प्रियजनों का स्वागत किया था, जिनके बारे में उनका ख़्याल था कि वे हमेशा के लिए खो गए हैं। जो भी हो, कुछ समय के लिए तो वे खुश रहेंगे। वे अब जानते हैं कि जिन्दगी में सिर्फ एक ही ऐसी चीज़ है जिसे पाने की तमन्ना इन्सान हमेशा कर सकता है और कभी-कभी उसे पा भी सकता है - वह चीज़ है इन्सान का प्यार ।

लेकिन उन लोगों को जो इन्सान और व्यक्ति से ऊँची किसी ऐसी चीज़ की आकांक्षा करते थे, जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे, कोई जवाब न मिला। ऐसा आभास हो सकता है कि तारो ने उस दुर्लभ शान्ति को प्राप्त कर लिया था जिसकी वह चर्चा किया करता था। लेकिन यह शान्ति उसे सिर्फ़ मौत में मिली थी, और इतनी देर से मिली थी कि उससे कोई फायदा नहीं उठाया जा सकता था । रियो घरों के दरवाजों में प्रेमियों के जोड़ों को डूबते सूरज की मन्द रोशनी में एक-दूसरे को आकांक्षा भरी नज़रों से देखते और आलिंगनबद्ध होते देख रहा था - अगर उन्हें मनचाही चीज़ मिल गई थी तो उसका कारण यह था कि उन्होंने वही चीज़ माँगी थी, जो उनके अपने बस में थी । और जब वह उस सड़क के मोड़ पर मुड़ा, जहाँ ग्रान्द और कोतार्द रहते थे, तो वह सोच रहा था कि अगर उन लोगों को, जिनकी आकांक्षाएँ इन्सान और उसके साधारण, किन्तु दुर्लभ प्यार तक ही सीमित रहती हैं, कभी-कभी उनका पुरस्कार मिल जाता है तो यह मुनासिब ही है ।

पाँचवां भाग : 5

यह वृत्तान्त खत्म होने वाला है और डॉक्टर बर्नार्द रियो के लिए यह क़बूल करने का उपयुक्त क्षण है कि वही कथाकार है । लेकिन अन्तिम दृश्यों को बयान करने से पहले जो काम उसने उठाया था, उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए और दावे से यह कहने के लिए कि उसने यह तय कर लिया था कि वह एक निष्पक्ष द्रष्टा का लहजा अपनाने की पूरी कोशिश करेगा । उसका पेशा ऐसा था कि वह प्लेग के जमाने में हमारे शहरियों की बहुत बड़ी संख्या के सम्पर्क में आया था और उसे लोगों की अलग-अलग रायों को सुनने का मौक़ा मिलता था । इसलिए उसने जो भी देखा या सुना वह उसे सही बयान करने की अनुकूल स्थिति में था । लेकिन ऐसा करने में उसने वांछनीय सीमाओं में रहने की पूरी कोशिश की है। मिसाल के लिए आम तौर पर उसने अपने को उन्हीं बातों तक सीमित रखा है जिन्हें वह खुद देख सका था । उसने अपने सह-पीड़ितों पर वे विचार नहीं आरोपित किये, जो तमाम बातों के बावजूद अनिवार्यतः उनके नहीं हो सकते थे । जहाँ तक दस्तावेजों का सम्बन्ध है, उसने सिर्फ उन्हीं दस्तावेजों का इस्तेमाल किया है जो भाग्य या दुर्भाग्य से उसके हाथ लग गए थे ।

उसे एक किस्म के जुर्म में गवाही देने के लिए बुलाया गया था । उसने इतने संयम से काम लिया जो अपनी अन्तरात्मा के मुताबिक आचरण करने वाले गवाह को शोभा देता है। फिर भी अपने दिल की आवाज़ का कहना मानकर उसने जान-बूझकर मुजरिमों का पक्ष लिया है और अपने साथी नागरिकों के साथ उन आश्वासनों में हिस्सा बटाने की कोशिश की है, जो सबकी एकमात्र सभी चीजें थीं-प्यार, निर्वासन और दुख । इस तरह वह सचमुच कह सकता है कि लोगों की कोई ऐसी परेशानी नहीं थी, जो उसने महसूस नहीं की थी; कोई ऐसी दुर्दशा नहीं थी, जिसमें उसे भी मुसीबत न झेलनी पड़ी हो ।

ईमानदार गवाह होने के लिए यह उसका फ़र्ज़ था कि वह अपने को मुख्य रूप से उन बातों तक सीमित रखता जो लोगों ने की या कहीं, या जो दस्तावेजों से बटोरी जा सकती थीं । जहाँ तक उसकी व्यक्तिगत मुसीबतों और लम्बी अनिश्चितता का सम्बन्ध था, उसका फ़र्ज़ था कि वह खामोश रहता । कभी-कभी जब वह इन बातों की ओर इशारा करता है तो सिर्फ़ इसलिए ताकि इन बातों से उसे अपने साथी नागरिकों की जिन्दगी पर प्रकाश डालने में मदद मिले और वह यथासम्भव इस बात की सही तस्वीर पेश कर सके कि अधिकांश समय शहर के लोग घबराए ढंग से क्या सोचते थे । दरअसल अपने पर जान-बूझकर खामोशी की यह पाबन्दी लगाने में उसे ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती थी। जब भी उसके मन में प्रलोभन उठता था कि वह प्लेग पीड़ितों की असंख्य आवाजों में अपना व्यक्तिगत स्वर भी जोड़ दे, तो वह यह सोचकर रुक जाता था कि उसका एक दुख भी ऐसा नहीं जो सब लोगों का दुःख न हो और ऐसी दुनिया में, जहाँ अक्सर आदमी अकेला ही दुख झेलता है, यह एक सुविधाजनक बात थी ।

लेकिन हमारे शहर के लोगों में कम-से-कम एक आदमी ऐसा था, जिसके पक्ष में डॉक्टर रियो कुछ नहीं कह सकता था । वह वही आदमी था, जिसके बारे में एक दिन तारो ने रियो से कहा था, "उसका एकमात्र क़सूर यही है कि उसने अपने दिल में एक ऐसी चीज़ का समर्थन किया, जिसने मरदों, औरतों और बच्चों के प्राण लिये थे । मैं बाक़ी बातों को तो समझ सकता हूँ, और सिवा 'उस' बात के मैं उसे माफ़ कर सकता हूँ ।" यह सर्वथा उचित ही है कि यह वृत्तान्त उस आदमी के जिक्र से खत्म हो, जिसके दिल में अज्ञान अर्थात् एकाकीपन था। मुख्य सड़कों से निकलकर, जहाँ खुशियाँ जोर-शोर से जारी थीं, जब डॉक्टर रियो उस सड़क पर दाखिल हुआ जहाँ ग्रान्द और कोतार्द रहते थे, तो पुलिस के सिपाहियों की एक क़तार ने उसे रोक लिया। डॉक्टर के लिए इससे ज्यादा हैरानी की बात कोई नहीं हो सकती थी। शहर का यह खामोश हिस्सा दूर से आती हुई रंगरेलियों की वजह से और भी खामोश मालूम हो रहा था। डॉक्टर को वहाँ शान्ति के साथ-साथ सुनसान भी नज़र आया ।

एक पुलिसमैन ने कहा, "मुझे अफ़सोस है डॉक्टर ! लेकिन मैं आपको आगे नहीं जाने दे सकता । एक पागल आदमी बंदूक लेकर सब पर गोली चला रहा है। लेकिन बेहतर होगा कि आप यहीं रुक जाएँ। हो सकता है हमें आपकी ज़रूरत पड़ जाए ।"

इसी वक्त रियो ने ग्रान्द को अपनी तरफ़ आते देखा । ग्रान्द को भी नहीं पता था कि क्या हो रहा है। पुलिस ने उसे भी रोक दिया । उसे बताया गया कि बन्दूक की आवाजें उसी घर से आ रही थीं जहाँ वह रहता था । वे सड़क पर कुछ दूर घर का अगला हिस्सा देख सकते थे, जो शाम की ठंडी रोशनी में नहाया हुआ था । सड़क पर आगे चलकर पुलिस के सिपाहियों की एक और क़तार थी-ठीक वैसी ही क़तार जिसने रियो और ग्रान्द को आगे बढ़ने से रोका था, और क़तार के पीछे मुहल्ले के कुछ लोग तेजी से सड़क को बार-बार एक छोर से दूसरे छोर तक पार करते हुए दिखाई दे रहे थे । घर के ऐन सामने सड़क खाली पड़ी थी और सुनसान चौराहे के बीचों-बीच एक हैट और गन्दे कपड़े का एक टुकड़ा पड़ा था। ग़ौर से देखने पर उन्हें और पुलिस के सिपाही नज़र आए जो हाथ में पिस्तौलें लिये घर के सामने के दरवाजों की हिफ़ाज़त कर रहे थे । ग्रान्द के घर की सारी खिड़कियाँ बन्द थीं, सिर्फ़ दूसरी मंजिल की एक खिड़की खुली थी, जो एक ही क़ब्ज़े पर लटकी मालूम होती थी । सड़क पर एक भी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी- सिर्फ़ बीच में शहर के केन्द्र से आते हुए संगीत के स्वर कानों में पड़ते थे ।

अचानक रिवॉल्वर की दो गोलियाँ छूटीं; गोलियाँ सामने वाली इमारतों में से किसी एक इमारत से आई थीं और ढीली खिड़की की कुछ खपच्चियाँ उड़ा ले गईं। फिर खामोशी लौट आई । दूर से देखने पर दिन के कोलाहल के बाद यह सारा मामला रियो को सपने की किसी घटना की तरह अवास्तविक मालूम हो रहा था ।

ग्रान्द ने अचानक कहा, "अरे, वह तो कोतार्द की खिड़की है ! कुछ समझ में नहीं आता । मेरा ख्याल था कि वह कहीं गायब हो गया है ।"

"वे लोग गोली क्यों चला रहे हैं ? " रियो ने पुलिसमैन से पूछा ।

"ओह, सिर्फ़ उसे उलझाए रखने के लिए। हम गाड़ी का इन्तज़ार कर रहे हैं, जिसमें ज़रूरी सामान होगा। अगर कोई सामने के दरवाजे से भीतर जाने की कोशिश करता है तो वह आदमी गोली छोड़ देता है । अभी उसने हमारे एक आदमी पर गोली चलाई है ।"

"लेकिन उसने गोली क्यों चलाई ?"

"यह भी कोई पूछने की बात है ? कुछ लोग सड़क पर रंगरेलियाँ मना रहे थे, उसने उन पर गोली चलाई। पहले तो उन्हें पता न चला कि गोली कहाँ से आ रही है। जब उसने फिर फायर किया तो उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया। एक आदमी जख्मी हो गया और बाक़ी वहाँ से भाग गए । मेरा ख्याल है कि कोई पागल हो गया है ।"

दोबारा छाई खामोशी के क्षण अनन्त मालूम हो रहे थे । फिर उन्हें सड़क के पार एक कुत्ता दिखाई दिया। कई महीनों के बाद पहली बार रियो ने कुत्ता देखा था । वह कीचड़ में लथपथ स्पेनियल जाति का कुत्ता था । शायद उसके मालिकों ने उसे कहीं छिपा रखा था । वह मज़े में दीवार के साथ-साथ चलने लगा। फिर दरवाज़े पर रुककर अपने पिस्सू निकालने लगा । कुछ पुलिस वालों ने सीटी बजाकर उसे वहाँ से हटाना चाहा । कुत्ते ने अपना सर उठाया और सड़क पर आकर हैट को सूंघने लगा । इसी वक्त दूसरी मंजिल की खिड़की से किसी ने रिवॉल्वर चलाया । कुत्ते ने उछाली हुई पैनकेक की तरह एक कलाबाजी खाई, हवा में टाँगें मारने लगा और फिर बगल के बल गिरकर तड़पने लगा । उसका शरीर दर्द से ऐंठ रहा था । फिर जैसे बदला लेने के लिए सामने के घर से पाँच या छ: गोलियों ने खिड़की की और खपच्चियाँ उड़ा दीं। इसके बाद फिर खामोशी लौट आई। सूरज कुछ आगे बढ़ा था और छाँह की लकीर कोतार्द की खिड़की के क़रीब पहुँच गई थी। डॉक्टर के पीछे सड़क पर किसी गाड़ी की ब्रेकें लगाने की मद्धिम आवाज आई ।

"लो वे आ गए।" पुलिसमैन ने कहा ।

वैन में से बहुत से पुलिस के अफ़सर कूदकर बाहर निकले और उन्होंने गाड़ी में से लिपटे हुए रस्से, एक सीढ़ी और मोमजामे में लिपटे दो बड़े विषम भुजाओं वाले चौकोर पुलिन्दे निकाले । फिर वे ग्रान्द के मकान के सामने वाले मकानों की क़तार की पिछली सड़क पर मुड़ गए । क़रीब एक मिनट बाद हलचल सी होती मालूम हुई, हालांकि घरों के दरवाजों में साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था। फिर इन्तज़ार का संक्षिप्त दौर आया । कुत्ते ने हिलना-डुलना बन्द कर दिया था; अब वह एक छोटी गहरे रंग की चमकदार तलैया में पड़ा था ।

अचानक उस मकान से, जहाँ पुलिस के अफ़सर पिछले रास्ते से दाखिल हुए थे, मशीनगन की गोलियाँ दनादन चलने लगीं। उनका निशाना अभी भी खिड़की पर था, खिड़की का पुरजा-पुरजा उड़ गया था और अँधेरी खाली जगह नज़र आ रही थी, जिसे ग्रान्द और रियो अपनी जगह से नहीं देख सकते थे । जब पहली मशीनगन ने फ़ायर करना बन्द किया तो दूसरी मशीनगन ने सड़क के कुछ दूर एक मकान से फ़ायरिंग शुरू कर दी। मालूम होता था वे खिड़की पर ही निशाना लगा रहे थे । कुछ ईंटों और चूने का ढेर गिरकर फुटपाथ पर जमा हो गया । इसी वक्त तीन पुलिस अफ़सर सड़क पार करके दरवाजे में गायब हो गए। मशीनगन ने फ़ायर करना बन्द कर दिया। इसके बाद फिर इन्तज़ार का एक दौर शुरू हुआ। घर के भीतर से दो दबे हुए विस्फोट सुनाई दिए, एक अस्पष्ट कोलाहल सुनाई दिया, जो धीरे-धीरे तेज़ होता गया। फिर उन्हें एक नाटा आदमी दिखाई दिया, जिसने कमीज-पतलून पहन रखी थी और जो अपनी पूरी ताक़त से चिल्ला रहा था । उसे दरवाजे के बाहर घसीटा नहीं जा रहा था, बल्कि उठाकर लाया जा रहा था ।

फिर जैसे किसी प्रतीक्षित इशारे से सड़क की सारी खिड़कियाँ खुल गई और खिड़कियों में उत्तेजित चेहरों की क़तारें नजर आने लगीं। घरों से लोगों की भीड़ सोते के पानी की तरह फूटकर बाहर आ गई और पुलिस की क़तारों को धक्के देने लगी । रियो को उस नाटे आदमी की थोड़ी-सी झलक दिखाई दी। वह सड़क के बीचों-बीच खड़ा था, दो पुलिस अफ़सरों ने उसकी बाँहें पीछे की तरफ़ बाँध दी थीं। वह अभी भी चिल्ला रहा था । एक पुलिसमैन ने आगे आकर शान्त-भाव से और अपने फ़र्ज़ के एहसास से जमकर उस आदमी को दो मुक्के जमाये ।

"यह तो कोतार्द है ! पागल हो गया है !" ग्रान्द की आवाज़ उत्तेजना से बुलन्द हो गई थी ।

कोतार्द पीछे की तरफ़ गिर गया था । जमीन पर गिरे अस्त-व्यस्त ढेर को पुलिसमैन ने जोर से ठोकर मारी। लोगों की एक छोटी-सी भीड़ डॉक्टर और उसके बूढ़े दोस्त की तरफ़ बढ़ने लगी ।

"दूर खड़े रहो ! " पुलिसमैन ज़ोर से चिल्लाया ।

जब कोतार्द और उसे क़ैद करने वालों का झुंड रियो के नज़दीक से गुज़रा तो रियो ने दूसरी तरफ़ मुँह फेर लिया । जब ग्रान्द और डॉक्टर वहाँ से चले और साँझ का अँधेरा गहरा होकर रात बन गया, तब कहीं ग्रान्द और डॉक्टर वहाँ से चले । कोतार्द कांड ने अड़ोस-पड़ोस का आलस दूर कर दिया था और शहर की इन दूरदराज सड़कों पर भी शोर और रंगरलियाँ मनाने वालों की भीड़ें जमा हो गईं । अपने दरवाजे के आगे पहुँचकर ग्रान्द ने डॉक्टर को गुडनाइट कहा । उसने कहा कि वह शाम-भर काम करेगा। सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त उसने कहा कि उसने जीन को खत लिखा था और वह पहले की अपेक्षा अब ज्यादा खुशी महसूस कर रहा था। साथ में उसने अपने वाक्य को भी नये ढंग से लिखना शुरू कर दिया था, "मैंने सब विशेषणों को काट दिया है ।"

उसकी आँखों में चमक आ गई, उसने अपना हैट दरबारी अंदाज से उतारकर हाथों में ले लिया। लेकिन रियो कोतार्द के बारे में सोच रहा था। जब वह अपने दमे के पुराने मरीज़ को देखने जा रहा था तो उस अभागे आदमी के चेहरे पर पड़ने वाली मुक्कों की मार की मन्द भरकम आवाज़ अभी भी उसके मन में गूंज रही थी । शायद किसी मरे हुए आदमी की बजाय कसूरवार आदमी के बारे में सोचना ज्यादा तकलीफ़देह होता है ।

जब वह मरीज के घर पहुँचा तो काफी अँधेरा हो चुका था । सोने के कमरे में दूर से नयी आज़ादी की खुशियाँ मनाने की आवाजें सुनाई दे रही थीं और बूढ़ा हमेशा की तरह एक पतीले से दूसरे पतीले में मटर डाल रहा था।

उसने कहा, "ये लोग मौज मनाकर अच्छा ही कर रहे हैं । कहते हैं कि हर क़िस्म के लोगों से ही दुनिया बनती है और डॉक्टर, तुम्हारे साथी का क्या हाल है ?"

"वह मर गया है ।" डॉक्टर अपने मरीज की छाती की घरघराहट को सुन रहा था ।

"आह— सच ?" बूढ़ा जैसे सकपका गया ।

"उसे प्लेग हुई थी ।" डॉक्टर ने बताया, "हाँ," बूढ़े ने एक मिनट की खामोशी के बाद कहा, "हमेशा सबसे अच्छे आदमी ही इस दुनिया से चले जाते हैं । जिन्दगी ऐसी ही है। लेकिन वह ऐसा आदमी था जिसे मालूम था कि वह क्या चाहता है ।"

"तुम ऐसा क्यों कह रहे हो ?" डॉक्टर अपना स्टेथोस्कोप वापस अपनी जगह पर रख रहा था।

"ओह, इसकी कोई ख़ास वजह नहीं। सिर्फ - खैर वह बातें करने की खातिर ही बातें नहीं करता था। मुझे उससे लगाव सा हो गया था । लेकिन यही तो बात है ! ये सब लोग कह रहे हैं कि यह प्लेग थी । यहाँ प्लेग आ चुकी है ।" सुनकर आदमी सोचता है कि शायद उन लोगों को उम्मीद है कि इस बात के लिए उन्हें तमगे दिये जाएँगे। लेकिन इसका क्या मतलब है ? " प्लेग ?" सिर्फ ज़िन्दगी, उससे ज्यादा कुछ नहीं ।

" खयाल रखना, नियमित रूप से भाप लेना ! "

"मेरी चिन्ता न करो डॉक्टर ! बूढ़े कुत्ते में अभी बहुत सी जिन्दगी बाकी है और मैं सब लोगों को कब्र में पहुँचाकर जाऊँगा ।" वह दबी हुई हँसी हँसा । " इसी जगह तो मैं उन्हें मात देता हूँ । मैं जानता हूँ कि जिन्दा किस तरह रहा जाता है ।"

दूर से आती हुई खुशी की चिल्लाहटें भी जैसे डींग का समर्थन कर रही थीं। कमरे का आधा रास्ता पार करके डॉक्टर रुक गया ।

"अगर मैं ऊपर छत पर जाऊं तो तुम्हें एतराज तो नहीं होगा ?"

"बिलकुल नहीं । तुम लोगों को देखना चाहते हो – क्यों ? लेकिन वे सचमुच हमेशा की तरह ही हैं ।" जब रियो कमरे से जा रहा था तो बूढ़े के दिमाग़ में एक नया विचार आया, "मैं कहता हूँ डॉक्टर, क्या यह सच है कि उन लोगों का एक स्मारक बनाया जाएगा जो प्लेग से मरे थे ?"

"अखबार तो यही कहते हैं । स्मारक बनेगा या सिर्फ़ यादगार का पत्थर ।"

"वह तो मैं पहले से ही जानता था । और भाषण भी दिये जाएँगे ।" बुढ़ा फिर पूरे गले से हँसा, "मैं अभी से बता सकता हूँ कि वे भाषणों में क्या कहेंगे, 'हमारे प्यारे मृतक...' फिर वे जाकर शानदार दावत खाएँगे ।"

रियो इस वक्त तक आधा जीना पार कर चुका था। ऊपर सर्द, अथाह आसमान की गहराइयाँ जगमगा रही थीं और पहाड़ियों की चोटियों के पास तारे चकमक पत्थर की तरह चमक रहे थे। यह बहुत कुछ वैसी ही रात थी, जब वह और तारो प्लेग के भूलने के लिए छत पर आये थे । फर्क इतना था कि आज समुद्र की लहरें ज्यादा जोर से चट्टानों से टकरा रही थीं, हवा शान्त और पारदर्शी थी । उसमें नमक की वह गंध नहीं थी, जो पतझड़ की हवा अपने साथ लाई थी। शहर का कोलाहल अभी भी लहरों की तरह छतों की लम्बी कतारों से टकरा रहा था, लेकिन आज वह विद्रोह की नहीं, मुक्ति की सूचना दे रहा था । दूर केन्द्रीय सड़कों और चौराहों पर एक लाल रोशनी फैली थी। नयी आज़ादी की इस रात में आकांक्षाओं का कोई अन्त नहीं था और रियो को उन्हीं आकांक्षाओं का कोलाहल सुनाई दे रहा था ।

अँधेरे बन्दरगाह में से म्युनिसिपैलिटी द्वारा आयोजित आतिशबाजी का पहला रॉकेट छूटा। शहर ने खुशी की एक लम्बी आह के साथ उसका स्वागत किया । कोतार्द, तारो और वह औरत, जिसे रियो ने प्यार करके खो दिया था, मृतक, कसूरवार सब एक साथ भुला दिये गए थे। हाँ, बूढ़े ने ठीक कहा था, "लोग हमेशा एक जैसे रहते हैं ।" लेकिन यही उनकी ताकत और मासूमियत है। इसी स्तर पर, जो सब दुखों से ऊपर था, रियो अपने को उन्हीं में से समझता था । लहरों की तरह छत की दीवार से टकराती हुई हर्ष - ध्वनियों में, जो प्रतिक्षण लम्बी और तेज होती जा रही थीं और अँधेरे में गिरते रंगीन आग के घने प्रपातों को देखकर डॉक्टर रियो ने इस वृत्तान्त को तैयार करने का फ़ैसला किया, ताकि वह खामोश लोगों में शामिल न होकर प्लेग पीड़ित लोगों के पक्ष में गवाही दे सके, ताकि उनके साथ हुई ज्यादती और बेइन्साफ़ी का एक स्थायी स्मारक बन सके । हम महामारी के जमाने में जो सबक सीखते हैं, उन्हें वह सरल भाषा में बयान करना चाहता था और बताना चाहता था कि इन्सानों में घृणा करने योग्य बातों की अपेक्षा प्रशंसनीय गुण अधिक मात्रा में हैं ।

फिर भी उसे मालूम था कि वह जो कहानी बयान करने जा रहा है वह अन्तिम गीत की कहानी नहीं हो सकती। वह सिर्फ यादगार के लिए एक प्रमाण होगा कि अगर फिर इन्सान को आतंक और उसके निष्ठुर हमलों के खिलाफ़ निरन्तर संघर्ष करना पड़े तो क्या कुछ करना पड़ेगा और अतीत में क्या कुछ किया गया है। किस तरह अपनी व्यक्तिगत मुसीबतों के बावजूद वे सब लोग, जो संत बनने में असमर्थ हैं, लेकिन महामारियों के सामने सर झुकाना मंजूर नहीं करते, लोगों को रोग से मुक्ति दिलाने की भरसक कोशिशें करते हैं ।

और सचमुच जब रियो ने शहर से उठती हुई खुशी की आवाजों को सुना तो उसे याद आया कि ऐसी खुशी हमेशा ख़तरे का कारण होती है । उसे वह बात मालूम थी जिसे खुशियाँ मनाने वाले नहीं जानते थे, लेकिन किताबें पढ़कर जान सकते थे। वह बात यह थी कि प्लेग का कीटाणु न मरता है, न हमेशा के लिए लुप्त होता है। वह सालों तक फ़रनीचर और कपड़े की अलमारियों में छिपकर सोया रह सकता है; वह शयनगृहों, तहखानों, सन्दूकों और किताबों की अलमारियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की ताक में रहता है; और शायद फिर वह दिन आयेगा जब इन्सानों का नाश करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए वह फिर चूहों को उत्तेजित करके किसी सुखी शहर में मरने के लिए भेजेगा ।

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  • प्लेग (उपन्यास) तीसरा-चौथा भाग : अल्बैर कामू
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