चंद्रगुप्त (नाटक): जयशंकर प्रसाद
Chandragupta (Play) : Jaishankar Prasad
द्वितीय अंक : चंद्रगुप्त
(उद्भांड में सिन्धु के किनारे ग्रीक-शिविर में पास वृक्ष केनीचे कार्नेलिया बैठी हुई।)
कार्नेलियाः सिन्धु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखों के सामनेएक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण से धीरे-धीरे उठतीहुई प्रशान्त स्निग्धता जैसे हृदय में घूस रही है। लम्बी यात्रा करके, जैसेमैं वही पहुँच गयी हूँ, जहाँ के लिए चली थी। यह कितना निसर्ग सुन्दरहै, कितना रमणीय है। हाँ, आज वह भारतीय संगीत का पाठ देखूँ, भूलतो नहीं गयी?
(गाती है।)
अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर - नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर - मंगल कंकुम सारा!
लघु सुर धनु से पंख पसारे - शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किये - समग्र नीड़ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल - बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की - पाकर जहाँ किनारा।
हेम-कुम्भ ले उषा सवेरे - भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब - जग कर रजनी भर तारा।
फिलिप्सः (प्रवेश करके) कैसा मधुर गीत है कार्नेलिया, तुमने तोभारतीय संगीत पर पूरा अधिकार कर लिया है, चाहे हम लोगं को भारतपर अधिकार करने में अभी विलम्ब हो!
कार्नेलियाः फिलिप्स! यह तुम हो! आज दारा की कन्या वाल्हीकजायगी?
फिलिप्सः दारा की कन्या! नहीं कुमारी, साम्राज्ञी कहो।
कार्नेलियाः असम्भव है फिलिप्स! ग्रीक लोग केवल देशों कोविजय करके समझ लेते हैं कि लोगों के हृदयों पर भी अधिकार करलिया। वह देवकुमारी-सी सुन्दर बालिका सम्राज्ञी कहने पर तिलमिला जातीहै। उसे यह विश्वास है कि एक महान साम्राज्य की लूट में मिली हुईदासी है, प्रणय-परिणीता पत्नी नहीं।
फिलिप्सः कुमारी! प्रणय के सम्मुख क्या साम्राज्य तुच्छ है?
कार्नलियाः यदि प्रणय हो।
फिलिप्सः प्रणय तो मेरा हृदय पहचानता है।
कार्नेलियाः (हँसकर) ओहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है!
फिलिप्सः कुमारी, क्या तुम मेरे प्रेम की हँसी उड़ाती हो?
कार्नेलियाः नहीं सेनापति! तुम्हारा उत्कृष्ट प्रेम बड़ा भयानक होगा,उससे तो डरना चाहिए।
फिलिप्सः (गम्भीर होकर) मैं पूछने आया हूँ कि आगामी युद्धोंसे दूर रहने के लिए शिविर की सब स्त्रियाँ स्कन्धावार में सम्राज्ञी केसाथ जा रही हैं, क्या तुम भी चलोगी?
कार्नेलियाः नहीं, सम्भवतः पिताजी को यही रहना होगा, इसलिएमेरे जाने की आवश्यकता नहीं।
फिलिप्सः (कुछ सोचकर) कुमारी! न जाने फिर कब दर्शन होंइसलिए एक बार इन कोमल करों को चूमने की आज्ञा दो।
कार्नेलियाः तुम मेरा अपमान करने का साहस न करो फिलिप्स!
फिलिप्सः प्राण देकर भी नहीं कुमारी! परन्तु प्रेम अन्धा है।
कार्नेलियाः तुम अपने अन्धेपन से दूसरे को ठुकराने का लाभ नहींउठा सकते फिलिप्स!
फिलिप्सः (इधर-उधर देखकर) यह नहीं हो सकता -
(कार्लिया का हाथ पकड़ना चाहता है, वह चिल्लाती है - रक्षा
करो! रक्षा करो! - चन्द्रगुप्त प्रवेश करके फिलिप्स की गर्दन पकड़ करदबाता है, वह गिरकर क्षमा माँगता है, चन्द्रगुप्त छोड़ देता है)
कार्नेलियाः धन्यवाद आर्यवीर!
फिलिप्सः (लज्जित होकर) कुमारी, प्रार्थना करता हूँ कि इसघटना को भूल जाओ, क्षमा करो।
कार्नेलियाः क्षमा तो कर दूँगी, परन्तु भूल नहीं सकती फिलिप्स!तुम अभी चले जाओ।
(फिलिप्स नतमस्तक जाता है।)
चन्द्रगुप्तः चलिये, आपको शिविर के भीतर पहुँचा दूँ।
कार्नेलियाः पिताजी कहाँ हैं? उनसे यह बात कह देनी होगी, यहघटना... नहीं, तुम्हीं कह देना।
चन्द्रगुप्तः ओह! वे मुझे बुला गये हैं, मैं जाता हूँ, उनसे कहदूँगा।
कार्नेलियाः आप चलिए, मैं आती हूँ।
(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)
कार्नेलियाः एक घटना हो गयी, फिलिप्स ने विनती की उसे भूलजाने की, किन्तु उस घटना से और भी किसी का सम्बन्ध है, उसे कैसेभूल जाऊँ। उन दोनों में श्रृंगार और रौद्र का संगम है। वह भी आह,कितना आकर्षक है! कितना तरंगसंकुल है। इसी चन्द्रगुप्त के लिए न उससाधु ने भविष्यवाणी की है - भारत-सम्राट् होने की! उसमें कितनीविनयशील वीरता है
(प्रस्थान)
(कुछ सैनिकों के साथ सिकन्दर का प्रवेश)
सिकन्दरः विजय करने की इच्छा क्लान्ति से मिलती जा रही है।हम लोग इतने बड़े आक्रमण से समारम्भ में लगे हैं और यह देश जैसेसोया हुआ है, लड़ना जैसे इनके जीवन का उद्वेगजनक अंश नहीं। अफनेध्यान में दार्शनिक के सदृश निमग्न है। सुनते हैं, पौरव ने केवल झेलमके पास कुछ सेना प्रतिरोध करने के लिए या केवल देखे के लिए रखछोड़ी है। हम लोग जब पहुँच जायेंगे, तब वे लड़ लेंगे।
एनिसाक्रीटीजः मुझे तो ये लोग आलसी मालूम पड़ते हैं।
सिकन्दरः नहीं-नहीं, यहाँ के दार्शनिक की परीक्षा तो तुम करचुके - दाण्ड्यायन को देखा न! थोड़ा ठहरो, यहाँ के वीरों का भी परिचयमिल जायगा। यह अद्भुत देश है।
एनिसाक्रीटीजः परन्तु आम्भीक तो अपनी प्रतिज्ञा का सच्चा
निकला - प्रबन्ध तो उसने अच्छा कर रखा है।
सिकन्दरः लोभी है! सुना है कि उसकी एक बहन चिढ़ करसंन्यासिनी हो गयी है।
एनिसाक्रीटीजः मुझे विश्वास नहीं होता, इसमें कोई रहस्य होगा।पर एक बात कहूँगा, ऐसे पथ में साम्राज्य की समस्या हल करना कहाँतक ठीक है? क्यों न शिविर में ही चला जाय?
सिकन्दरः एनिसाक्रीटीज, फिर तो पलसिपोलिन का राजमहलछोड़ने की आवश्यकता न थी, यहाँ एकान्त में मुझे कुछ ऐसी बातों परविचार करना है, जिन पर भारत-अभियान का भविष्य निर्भर है। मुझे उसनंगे ब्राह्मण की बातों से बड़ी आशँका हो रही है, भविष्यवाणियाँ प्रायःसत्य होती हैं।
(एक ओर से फिलिप्स, आम्भीक, दूसरी ओर से सिल्यूकस औरचन्द्रगुप्त का प्रवेश)
सिकन्दरः कहो फिलिप्स! तुम्हें क्या कहना है?
फिलिप्सः आम्भीक से पूछ लिया जाय
आम्भीकः यहाँ एक षड्यन्त्र चल रहा है।
फिलिप्सः और उसके सहायक हैं सिल्यूकस।
सिल्यूकसः (क्रोध और आश्चर्य से) इतनी नीचता! अभी उसलज्जाजनक अपराध का प्रकट करान बाकी ही रहा - उलटा अभियोग!प्रमाणित करना होगा फिलिप्स! नहीं तो खड्ग इसका न्याय करेगा।
सिकन्दरः उपेजित न हो सिल्यूकस!
फिलिप्सः तलवार तो कभी का न्याय कर देती, परन्तु देवपुत्र काभी जान लेना आवश्यक था। नहीं तो निर्लज्ज विद्रोही की हत्या करनापाप नहीं, पुण्य है।
(सिल्यूकस तलवार खींचता है।)
सिकन्दरः तलवार खींचने से अच्छा होता कि तुम अभियोग कोनिर्मूल प्रमाणित करने की चेष्टा करते! बतलाओ, तुमने चन्द्रगुप्त के लिएअब क्या सोचा?
सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त ने अभी-अभी कार्नेलिया को इस नीचफिलिप्स के हाथ से अपमानित होने से बचाया है और मैं स्वयं यहअभियोग आपके सामने उपस्थित करनेवाला था।
सिकन्दरः परन्तु साहस नहीं हुआ, क्यों सिल्यूकस!
फिलिप्सः क्यों साहस होता - इनकी कन्या दाण्ड्यायन के आश्रमपर भारतीय दर्शन पढ़ने जाती है, भारतीय संगीत सीखती है, वहीं परविद्रोहकारिणी अलका भी आती है। और चन्द्रगुप्त के लिए यह जनरवफैलाया गया है कि यही भारत का भावी सम्राट् होगा।
सिल्यूकसः रोक, अपनी अबाधगति से चलने वाली जीभ रोक!
सिकन्दरः ठहरो सिल्यूकस! तुम अपने को विचाराधीन समझो।हाँ, तो चन्द्रगुप्त! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।
चन्द्रगुप्तः क्या है?
सिकन्दरः सुना है कि मगध का वर्तमान शासक एक नीच-जन्माजारज सन्तान है। उसकी प्रजा असन्तुष्ट है और तुम उस राज्य को हस्तगतकरने का प्रयत्न कर रहे हो?
चन्द्रगुप्तः हस्तगत नहीं, उसका शासन बड़ा क्रूर हो गया है, मगधका उद्धार करना चाहता हूँ।
सिकन्दरः और उस ब्राह्मण के कहने पर अपने सम्राट् होने कातुम्हें विश्वास हो गया होगा, जो परिस्थिति को देखते हुए असम्भव नहींजान पड़ता।
चन्द्रगुप्तः असम्भव क्यों नहीं?
सिकन्दरः हमारी सेना इनमें सहायता करेगी, फिर भी असम्भवहै?
चन्द्रगुप्तः मुझे आप से सहायता नहीं लेनी है।
सिकन्दरः (क्रोध से) फिर इतने दिनों तक ग्रीक-शिविर में रहनेका तुम्हारा उद्देश्य?
चन्द्रगुप्तः एक सादर निमन्त्रण और सिल्यूकस से उपकृत होने केकारण उनके अनुरोध की रक्षा। परन्तु मैं यवनों को अपना शासक बननेको आमन्त्रित करने नहीं आया हूँ।
सिकन्दरः परन्तु इन्हीं यवनों के द्वारा भारत जो आज तक कभीभी आक्रान्त नहीं हुआ है, विजित किया जायगा।
चन्द्रगुप्तः एक भविष्य के गर्भ में है, उसके लिए अभी से इतनीउछल-कूद मचाने की आवश्यकता नहीं।
सिकन्दरः अबोध युवक, तू गुप्तचर है!
चन्द्रगुप्तः नहीं, कदापि नहीं। अवश्य ही यहाँ रहकर यवन रण-नीति से मैं कुछ परिचित हो गया हूँ। मुझे लोभ से पराभूत गान्धारराजआम्भीक समझने की भूल न होनी चाहिए, मैं मगध का उद्धार करनाचाहता हूँ। परन्तु यवन लुटेरों की सहायता से नहीं।
सिकन्दर - तुमको अपनी विपपियों से डर नहीं - ग्रीक लुटेरेहैं?
चन्द्रगुप्तः क्या यह झूठ है? लूट के लोभ से हत्या-व्यवसायियोंको एकत्र करके उन्हें वीर-सेना कहना, रण-कला का उपहास करा है।
सिकन्दरः (आश्चर्य और क्रोध से) सिल्यूकस!
चन्द्रगुप्तः सिल्यूकस नहीं, चन्द्रगुप्त से कहने की बात चन्द्रगुप्तसे कहनी चाहिए।
आम्भीकः शिष्टता से बातें करो।
चन्द्रगुप्तः स्वच्छ हृदय भीरु कायरों की-सी वंचक शिष्टता नहींजानता। अनार्य! देशद्रोही! आम्भीक! चन्द्रगुप्त रोटियों के लालच याघृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया है।
सिकन्दरः बन्दी कर लो इसे।
(आम्भीक, फिलिप्स, एनिसाक्रीटीज टूट पड़ते हैं, चन्द्रगुप्तअसाधारण वीरता से तीनों को घायल करता हुआ निकल जाता है।)
सिकन्दरः सिल्यूकस!
सिल्यूकसः सम्राट्!
सिकन्दरः यह क्या?
सिल्यूकसः आपका अविवेक। चन्द्रगुप्त एक वीर युवक है, यहआचरण उसकी भावी श्री और पूर्ण मनुष्यता का द्योतक है सम्राट्! हमलोग जिस काम से आये हैं, उसे करना चाहिए। फिलिप्स को अन्तःपुरकी महिलाओं के साथ वाल्हीक जाने दीजिए।
सिकन्दरः (सोचकर) अच्छा जाओ!
(झेलम-तट का वन-पथ)
(चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका का प्रवेश)
अलकाः आर्य! अब हम लोगों का क्या कर्तव्य है?
चाणक्यः पलायन।
चन्द्रगुप्तः व्यंग न कीजिए गुरुदेव!
चाणक्यः दूसरा उपाय क्या है?
अलकाः है क्यों नहीं?
चाणक्यः हो सकता है - (दूसरी ओर देखने लगता है।)
चन्द्रगुप्तः गुरुदेव!
चाणक्यः परिव्राजक होने की इच्छा है क्या? यही एक सरलउपाय है।
चन्द्रगुप्तः नहीं, कदापि नहीं! यवनों को प्रति पद में बाधा देनामेरा कर्तव्य है और शक्ति-भर प्रयत्न करूँगा।
चाणक्यः यह तो अच्छी बात है। परन्तु सिंहरण अभी नहीं आया।
चन्द्रगुप्तः उसे समाचार मिलना चाहिए।
चाणक्यः अवश्य मिला होगा।
अलकाः यदि न आ सके?
चाणक्यः अब काली घटाओं से आकाश घिरा हो, रह-रहकरबिजली चमक जाती हो, पवन स्तब्ध हो, उमस बढ़ रही हो, और आषाढ़के आरम्भिक दिन हों, तब किस बात की सम्भावना करनी चाहिए?
अलकाः जल बरसने की।
चाणक्यः ठीक उसी प्रकार जब देश में युद्ध हो, सिंहरण मालवको समाचार मिला हो, तब उसके आने की भी निश्चित आशा है।
चन्द्रगुप्तः उधर देखिए - वे दो व्यक्ति कौन आ रहे हैं।
(सिंहरण का सहारा लिये वृद्ध गांधार-राज का प्रवेश)
चाणक्यः राजन्!
गांधार-राजः विभव की छलनाओं से वंचित एक वृद्ध! जिसकेपुत्र ने विश्वासघात किया हो और कन्या ने साथ छोड़ दिया हो - मैंवही, एक अभागा मनुष्य हूँ!
अलकाः पिताजी! (गले से लिपट जाती है।)
गांधार-राजः बेटी अलका, अरे तू कहाँ भटक रही है?
अलकाः कहीं नहीं पिताजी! आपके लिए छोटी-सी झोंपड़ी बनारक्खी है, चलिए विश्राम कीजिए।गांधार-राजः नहीं, तू मुझे अबकी झोंपड़ी में बिठाकर चलीजायगी। जो महलों को छोड़ चुकी है, उसका झोंपड़ियों के लिए क्याविश्वास!
अलकाः नहीं पिताजी, विश्वास कीजिए। (सिंहरण से) मालव!मैं कृतज्ञ हुई।
(सिंहरण सस्मित नमस्कार करता है। पिता के साथ अलका काप्रस्थान)
चाणक्यः सिंहरण! तुम आ गये, परन्तु...।
सिंहरणः किन्तु-परन्तु नहीं आर्य! आप आज्ञा दीजिए, हम लोगकर्तव्य में लग जायँ। विपपियों के बादल मँडरा रहे हैं।
चाणक्यः उसकी चिंता नहीं। पौधे अंधकार में बढ़ते हैं, और मेरीनीति-लता भी उसी भाँति विपपि तम में लहलही होगी। हाँ, केवल शौर्यसे काम नहीं चलेगा। एक बात समझ लो, चाणक्य सिद्धि देखता है, साधनचाहे कैसे ही हों। बोलो - तुम लोग प्रस्तुत हो?
सिंहरणः हम लोग प्रस्तुत हैं।
चाणक्यः तो युद्ध नहीं करना होगा।
चन्द्रगुप्तः फिर क्या?
चाणक्यः सिंहरण और अलका को नट और नटी बनना होगा,चन्द्रगुप्त बनेगा सँपेरा और मैं ब्रह्मचारी। देख रहे हो चन्द्रगुप्त, पर्वतेश्वरकी सेना में जो एक गुल्म अपनी छावनी अलग डाले हैं, वे सैनिक कहाँके हैं?
चन्द्रगुप्तः नहीं जानता।
चाणक्यः अभी जानने की आवश्यकता भी नहीं। हम लोग उसीसेना के साथ अपने स्वाँग रखेंगे। वहीं हमारे खेल होंगे। चलो हम लोगचलें, देखो - वह नवीन गुल्म का युवक - सेनापति जा रहा है।
(सबका प्रस्थान)
(पुरूष-वेष में कल्याणी और सैनिक का प्रवेश)
कल्याणीः सेनापति! मैंने दुस्साहस करके पिताजी को चिढ़ा तोदिया, पर अब कोई मार्ग बताओ, जिससे मैं सफलता प्राप्त कर सकूँ।पर्वतेश्वर को नीचा दिखलाना ही मेरा प्रधान उद्देश्य है।
सेनापतिः राजकुमारी!
कल्याणः सावधान सेनापति!
सेनापतिः क्षमा हो, अब ऐसी भूल न होगी। हाँ, तो केवल एकमार्ग है।
कल्याणीः वह क्या?
सेनापतिः घायलों की शुश्रूषा का भार ले लेना है।
कल्याणीः मगध-सेनापति! तुम कायर हो।
सेनापतिः तब जैसी आज्ञा हो। (स्वगत) स्त्री की अधीनता वैसेही बुरी होती है, तिस पर युद्धक्षेत्र में! भगवान ही बचावें।
कल्याणीः मेरी इच्छा है कि जब पर्वतेश्वर यवन-सेना द्वारा चारोंओर से घिर जाय, उस समय उसका उद्धार करके अपना मनोरथ पूर्णकरूँ।
सेनापतिः बात तो अच्छी है।
कल्याणीः और तब तक हम लोगों की रक्षित सेना - (रुककरदेखते हुए) - यह लो पर्वतेश्वर इधर ही आ रहा है।
(पर्वतेश्वर का युद्ध-वेश में प्रवेश)
पर्वतेश्वरः (दूर दिखलाकर) वह किस गुल्म का शिविर हैयुवक?
कल्याणीः मगध-गुल्म का महाराज!
पर्वतेश्वरः मगध की सेना, असम्भव! उसने तो रण-निमन्त्रण हीअस्वीकृत किया था।
कल्याणीः परन्तु मगध की बड़ी सेना में एक छोटा-सा वीरयुवकों का दल इस युद्ध के लिए परम उत्साहित था। स्वेच्छा से उसनेइस युद्ध में योग दिया है।
पर्वतेश्वरः प्राच्य मनुष्यों में भी इतना उत्साह!
(हँसता है।)
कल्याणीः महाराज, उत्साह का निवास किसी विशेष दिशा में नहींहै।
पर्वतेश्वरः (हँसकर) प्रगल्भ हो युवक, परन्तु रण जब नाचनेलगता है, तब भी यदि तुम्हारा उत्साह बना रहे तो मानूँगा। हाँ! तुम बड़ेसुन्दर सुकुमार युवक हो, इसलिए साहस न कर बैठना। तुम मेरी रक्षितसेना के साथ रहो तो अच्छा! समझा न!
कल्याणीः जैसी आज्ञा।
(चन्द्रगुप्त, सिंहरण और अलका का वेश बदले हुए प्रवेश)
सिंहरणः खेल देख लो, खेल! ऐसा खेल - जो कभी न देखाहो न सुना!
पर्वतेश्वरः नट! इस समय खेल देखने का अवकाश नहीं।
अलकाः क्या युद्ध के पहले ही घबरा गये, सेनापति! वह भीतो वीरों का खेल ही है।
पर्वतेश्वरः बड़ी ठीठ है!
चन्द्रगुप्तः न हो तो नागों का ही दर्शन कर लो!
कल्याणीः बड़ा कौतुक है महाराज, इन नागों को ये लोग किसप्रकार वश कर लेते हैं?
चन्द्रगुप्तः (सम्भ्रम से) महाराज हैं! तब तो अवश्य पुरस्कारमिलेगा।
(सँपेरों की-सी चेष्टा करता है। पिटारी खोलकर साँप निकालताहै।)
कल्याणीः आश्चर्य है, मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वशकर सकता है, परन्तु मनुष्य को नहीं!
पर्वतेश्वरः नट, नागों पर तुम लोगों का अधिकार कैसे हो जाताहै?
चन्द्रगुप्तः मंत्र-महौषधि के भाले से बड़े-बड़े मप नाग वशीभूतहोते हैं।
पर्वतेश्वरः भाले से?
सिंहरणः हाँ महाराज! वैसे ही जैसे भालों से मदमप मातंग!
पर्वतेश्वरः तुम लोग कहाँ से आ रहे हो?
सिंहरणः ग्रीकों के शिविर से।
चन्द्रगुप्तः उनके भाले भारतीय हाथियों के लिए व्रज ही हैं।
पर्वतेश्वरः तुम लोग आम्भीक के चर तो नहीं हो?
सिंहरणः रातों रात यवन-सेना वितस्ता के पार हो गयी है -
समीप है, महाराज! सचेत हो जाइए!
पर्वतेश्वरः मगधनायक! इन लोगों को बन्दी करो।
(चन्द्रगुप्त कल्याणी को ध्यान से देखता है।)
अलकाः उपकार का भी यह फल!
चन्द्रगुप्तः हम लोग बन्दी ही हैं। परन्तु रण-व्यूह से सावधानहोकर सैन्य-परिचालन कीजिए। जाइए महाराज! यवन - रणनीति भिन्नहै।
(पर्वतेश्वर उद्विग्न भाव से जाता है।)
कल्याणीः (सिंहरण से) चलो हमारे शिविर में ठहरो। फिर बतायाजायगा।
चन्द्रगुप्तः मुझे कुछ कहना है।
कल्याणीः अच्छा, तुम लोग आगे चलो।
(सिंहरण इत्यादि आगे बढ़ते हैं।)
चन्द्रगुप्तः इस युद्ध में पर्वतेश्वर की पराजय निश्चित है।
कल्याणीः परन्तु तुम लोक कौन हो - (ध्यान से देखती हुई)- मैं तुमको पहचान...
चन्द्रगुप्तः मगध का एक सँपेरा!
कल्याणीः हूँ! और भविष्यवक्ता भी!
चन्द्रगुप्तः मुझे मगध के पताका के सम्मान की...
कल्याणीः कौन? चन्द्रगुप्त तो नहीं?
चन्द्रगुप्तः अभी तो एक सँपेरा हूँ राजकुमारी कल्याणी!
कल्याणीः (एक क्षण चुप रहकर) हम दोनों को चुप रहना
चाहिए। चलो!
(दोनों का प्रस्थान)
(युद्धक्षेत्र - सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर)
पर्वतेश्वरः सेनापति, भूल हुई।
सेनापतिः हाथियों ने ही ऊधम मचा रक्खा है और रथी सेनाभी व्यर्थ-सी हो रही है।
पर्वतेश्वरः सेनापति, युद्ध मं जय या मृत्यु - दो में से एक होनीचाहिए।
सेनापतिः महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरहविदित हो गया है कि हमारे खड्गों में कितनी धार है। स्वयं सिकन्दरका अश्व मारा गया और राजकुमार के भीण भाले की चोट सिकन्दर नसँभाल सका।
पर्वतेश्वरः प्रशंसा का समय नहीं है। शीघ्रता करो। मेरा रणगजप्रस्तुत हो, मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूँगा। चलो!
(सब जाते हैं।)
(कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
कल्याणीः चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दीबनावे?
चन्द्रगुप्तः बन्दी सारा देश है राजकुमारी, दारुण द्वेष से सबजकड़े हैं। मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं। परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्रमें आना अनोखी बात है।
कल्याणीः केवल तुम्हें देखने के लिए! मैं जानती थी की तुमयुद्ध में अवश्य सम्मिलित होगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारेनिर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ।
चन्द्रगुप्तः परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुलहै। इस ज्वाला में स्मृतिलता मुरझा गयी है।
कल्याणीः चन्द्रगुप्त!
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! समय नहीं! देखो - वह भारतीयों केप्रतिकूल दैव ने मेघमाला का सृजन किया है। रथ बेकार होंगे और हाथियोंका प्रत्यावर्तन और भी भयानक हो रहा है।
कल्याणीः तब! मगध-सेना तुम्हारे अधीन है, जैसा चाहो करो।
चन्द्रगुप्तः पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिए। शीघ्रआवश्यकता होगी। पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखूँ।
कल्याणीः चलो!
(मेघों की गड़गड़ाहट - दोनों जाते हैं।)
(एक ओर से सेल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्यप्रवेश, युद्ध)
सिल्यूकसः पर्वतेश्वर! अस्त्र रख दो।
पर्वतेश्वरः यवन! सावधान! बचाओ अपने को!
(तुमुल युद्ध, घायल होकर सिल्यूकस का हटना)
पर्वतेश्वरः सेनापति! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दोकि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजयकी चिन्ता नहीं। इन्हें बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं।बादलों से पानी बरसने की जगह वज्र बरसें, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्नहो जाय, रथी विरथ हों, रक्त के नाले धमनियों से बहें, परन्तु एक पगभी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असम्भव है। धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षामांगनेवाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी केस्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो! को कि मरने काक्षण एक ही है। जाओ।
(सेनापति का प्रस्थान। सिंहरण और अलका का प्रवेश)
सिंहरणः महाराज! यह स्थान सुरक्षित नहीं। उस पहाड़ी परचलिए।
पर्वतेश्वरः तुम कौन हो युवक!
सिंहरणः एक मालव।
पर्वतेश्वरः मालव के मुख से ऐसा कभी नहीं सुना गया। मालव!खड्ग-क्रीड़ देखनी हो तो खड़े रहो। डर लगता है तो पहाड़ी पर जाओ।
सिंहरणः महाराज, यवनों का एक दल वह आ रहा है।
पर्वतेश्वरः आने दो। तुम हट जाओ।
(सिल्यूकस और फिलिप्स का प्रवेश - सिंहरण और पर्वतेश्वरका युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेषअटा। चन्द्रगुप्त और कल्याणीका सैनिक के साथ पहुँचना, दूसरी ओर से सिकन्दर का आान। युद्ध बन्दकरने के लिए सिकन्दर की आज्ञा।)
चन्द्रगुप्तः युद्ध होगा!
सिकन्दरः कौन, चन्द्रगुप्त!
चन्द्रगुप्तः हाँ देवपुत्र!
सिकन्दरः किससे युद्ध! मुमूर्ष घायल पर्वतेश्वर - वीर पर्वतेश्वरसे! कदापि नहीं। आज मुझे जय-पराजय का विचार नहीं है। मैंने एकअलौकिक वीरता का स्वर्गीय दृश्य देखा है। होमर की कविता में पढ़ीहुई जिस कल्पना से मेरा हृदय भरा है, उसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा! भारतीयवीर पर्वतेश्वर! अब मैं तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूँ!
पर्वतेश्वरः (रक्त पोंछते हुए) जैसा एक नरपति अन्य नरपति केसाथ करता है, सिकन्दर!
सिकन्दरः मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय विमुग्ध होकरतुम्हारी सराहना किये बिना मैं नहीं रह सकता - धन्य! आर्य वीर!
पर्वतेश्वरः मैं तुमसे युद्ध न करके मैत्री भी कर सकता हूँ।
चन्द्रगुप्त - पंचनंद-नरेश! आप क्या कर रहे हैं! समस्त मागसेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिए।
कल्याणीः इन थोड़े-से अर्धजीव यवनों को विचलित करने केलिए पर्याप्त मागध सेना है। महाराज! आज्ञा दीजिए।
सिकन्दरः कदापि नहीं।
कल्याणीः (शिरस्त्राण फेंककर) जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर। तुम्हारेपतन में रक्षा न कर सकी, बड़ी निराशा हुई।
पर्वतेश्वरः तुम कौन हो?
चन्द्रगुप्तः मागध राजकुमारी कल्याणी देवी।
पर्वतेश्वरः ओह पराजय! निकृष्ट पराजय!
(चन्द्रगुप्त औ कल्याणी का प्रस्थान। सिकन्दर आश्चर्य से देखताहै। अलका घायल सिंहरण को उठाना चाहती है कि आम्भीक आकर दोनोंको बन्दी करता है।)
पर्वतेश्वरः यह क्या?
आम्भीकः इनको अभी बन्दी बना रखना आवश्यक है।
पर्वतेश्वरः तो ये लोग मेरे यहाँ रहेंगे।
सिकन्दरः पंचनंद-नरेश की जैसी इच्छा हो।
(मासल में सिंहरण के उद्वान का एक अंश)
मालविकाः (प्रवेश करके) फूल हँसते हुए आते हैं, फिर मकरंदगिराकर मुरझा जाते हैं, आँसू से धरणी को भिगोकर चले जाते हैं! एकस्निग्ध समीर का झोंका आता है, निश्वास फेंककर चला जाता है। क्यापृथ्वीतल रोने ही के लिए है? नहीं, सब के लिए एक ही नियम तो नहीं।कोई रोने के लिए है तो कोई हँसने के लिए - (विचारती हुई) आजकलतो छुट्टी-सी है, परन्तु एक विचित्र विदेशियों का दल यहाँ ठहरा है, उनमेंसे एक को तो देखते ही डर लगता है। लो देखो - वह युवक आ गया!
(सिर झुका कर फूल सँवारने लगती है - ऐन्द्रजालिक के वेशमें चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
चन्द्रगुप्तः मालविका!
मालविकाः क्या आज्ञा है?
चन्द्रगुप्तः तुम्हारे नागकेसर की क्यारी कैसी है?
मालविकाः हरी-भरी!
चन्द्रगुप्तः आज कुछ खेल भी होगा, देखोगी?
मालविकाः खेल तो नित्य ही देखती हूँ। न जाने कहाँ से लोगआते हैं, और कुछ-न-कुछ अभिनय करते हुए चले जाते हैं। इसी उद्यानके कोने से बैठी हुई सब देखा करती हूँ।
चन्द्रगुप्तः मालविका, तुमको कुछ गाना आता है।
मालविकाः आता तो है, परन्तु...
चन्द्रगुप्तः परन्तु क्या?
मालविकाः युद्धकाल है। देश में रण-चर्चा छिड़ी है। आजकलमालव-स्थान में कोई गाता-बजाता नहीं।
चन्द्रगुप्तः रण-भेरी के पहले यदि मधुर मुरली की एक तान सुनलूँ, तो कोई हानि न होगी। मालविका! न जाने क्यों आज ऐसी कामनाजाग पड़ी है।
मालविकाः अच्छा सुनिए -
(अचानक चाणक्य का प्रवेश)
चाणक्यः छोकरियों से बातें करने का समय नहीं है मौर्य!
चन्द्रगुप्तः नहीं गुरुदेव! मैं आज ही विपाशा के तट से आयाहूँ, यवन-शिविर भी घूम कर देख आया हूँ।
चाणक्यः क्या देखा?
चन्द्रगुप्तः समस्त यवन-सेना शिथिल हो गयी है। मगध काइन्द्रजाली जानकर मुझसे यवन-सैनिकों ने वहाँ की सेना का हाल पूछा।मैंने कहा - पंचनंद के सैनिकों से भी दुर्धर्ष कई रण-कुशल योद्धा शतद्रु-तट पर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सुनकर कि नन्द के पासकई लाख सेना है, उन लोगों में आतंक छा गया और एक प्रकार काविद्रोह फैल गया।
चाणक्यः हाँ! तब क्या हुआ? केलिस्थनीज के अनुयायियों नेक्या किया?
चन्द्रगुप्तः उनकी उपेजना से सैनिकों ने विपाशा को पार करनाअस्वीकार कर दिया और यवन, देश लौट चलने के लिए आग्रह करनेलगे। सिकन्दर के बहुत अनुरोध करने पर भी वे युद्ध के लिए सहमतनहीं हुए। इसलिए रावी के जलमार्ग से लौटने का निश्चय हुआ है। अबउनकी इच्छा युद्ध की नहीं है।
चाणक्यः और क्षद्रुकों का क्या समाचार है?
चन्द्रगुप्तः वे भी प्रस्तुत है। मेरी इच्छा है कि इस जगद्विजेताका ढोंग करने वाले को एक पाठ पराजय का भी पढ़ा दिया जाय। परन्तुइस समय यहाँ सिंहरण का होना अत्यन्त आवश्यक है।
चाणक्यः अच्छा देखा जायगा। सम्भवतः स्कन्धावार में मालवोंकी युद्ध-परिषद होगी। अत्यन्त सावधानी से काम करना होगा। मालवोंको मिलाने का पूरा प्रयत्न तो हमने कर लिया है।
चन्द्रगुप्तः चलिए, मैं अभी आया!
(चाणक्य का प्रस्थान)
मालविकाः यह खेल तो बड़ा भयानक होगा मागध!
चन्द्रगुप्तः कुछ चिन्ता नहीं। अभी कल्याणी नहीं आयी।
(एक सैनिक का प्रवेश)
चन्द्रगुप्तः क्या है?
सैनिकः सेनापति! मगध-सेना के लिए क्या आज्ञा है?
चन्द्रगुप्तः विपाशा और शतद्रु के बीच जहाँ अत्यन्त संकीर्ण भू-भाग है, वहीं अपनी सेना रखो। स्मरण रखना कि विपाशा पार करने परमगध का साम्राज्य ध्वंस करना यवनों के लिए बड़ा साधारण काम होजायगा। सिकन्दर की सेना सामने इतना विराट पदर्शन होना चाहिए किवह भयभीत हो।
सैनिकः अच्छा, राजकुमारी ने पूछा है कि आप कब तक
आवेंगे? उनकी इच्छा मालव मं ठहरने की नहीं है।
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी से मेरा प्रणाम कहना और कह देना किमैं सेनापति का पुत्र हूँ, युद्ध ही मेरी आजीविका है। क्षुद्रकों की सेना कामैं सेनापति होने के लिए आमंत्रित किया गया हूँ। इसलिए मैं यहाँ रहकरभी मगध की अच्छी सेवा कर सकूँगा।
सैनिकः जैसी आज्ञा है - (जाता है)
चन्द्रगुप्तः (कुछ सोचकर) सैनिक!
(फिर लौट आता है।)
सैनिकः क्या आज्ञा है?
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी से कह देना कि मगध जाने की उत्कटइच्छा होने पर भी वे सेना साथ न ले जायँ।
सैनिकः इसका उपर भी लेकर आना होगा?
चन्द्रगुप्तः नहीं।
(सैनिक का प्रस्थान)
मालविकाः मालव में बहुत-सी बातें मेरे देश से विपरीत हैं।इनकी युद्ध-पिपासा बलवती है। फिर युद्ध!
चन्द्रगुप्तः तो क्या तुम इस देश की नहीं हो?
मालविकाः नहीं, मैं सिन्ध की रहने वाली हूँ, आर्य! वहाँ युद्धविग्रह नहीं, न्यायालयों की आवश्यकता नहीं। प्रचुर स्वर्ण के रहते भी कोईउसका उपयोग नहीं। इसलिए अर्थमूलक विवाद कभी उठते ही नहीं। मनुष्यके प्राकृतिक जीवन का सुन्दर पालना मेरा सिन्धुदेश है।
चन्द्रगुप्तः तो यहाँ कैसे चली आयी हो?
मालविकाः मेरी इच्छा हुई कि और देशों को भी देखूँ। तक्षशिलामें राजकुमारी अलका से कुछ ऐसा स्नेह हुआ कि वहीं रहने लगी। उन्होंनेमुझे घायल सिंहरण के साथ यहाँ भेज दिया। कुमार सिंहरण बड़े सहृदय हैंपरन्तु मागध, तुमको देखकर तो मैं चकित हो जाती हूँ। कभी इन्द्रजाली, कभीकुछ! भुला इतना सुन्दर रूप तुम्हें विकृत करने की क्या आवश्यकता है?
चन्द्रगुप्तः शुभे, मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। तुम इन बातोंको पूछकर क्या करोगी! (प्रस्थान)
मालविकाः स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। परन्तु बिछलने काभय भी होता है। - अद्भुत युवक है। देखूँ कुमार सिंहरण कब आते हैं।
(पट-परिवर्तन)
(स्थल - बंदीगृह, घायल सिंहरण और अलका)
अलकाः अब तो चल फिर सकोगे?
सिंहरणः हाँ अलका, परन्तु बन्दीगृह में चलना-फिरना व्यर्थ है।
अलकाः नहीं मालव, बहुत शीघ्र स्वस्थ होने की चेष्टा करो।
तुम्हारी आवश्यकता है।
सिंहरणः क्या?
अलकाः सिकन्दर की सेना रावी पार हो रही है। पंचनंद से संधिहो गयी, अब यवन लोग निश्चित होकर आगे बढ़ना चाहते हैं। आर्यचाणक्य का एक चर यह संदेश सुना गया है।
सिंहरणः कैसे?
अलकाः क्षपणक-वेश में गीत गाता हुआ भीख माँगता आता था,उसने संकेत से अपना तात्पर्य कह सुनाया।
सिंहरणः तो क्या आर्य चाणक्य जानते हैं कि मैं यहाँ बन्दी हूँ?
अलकाः हाँ, आर्य चाणक्य इधर की सब घटनाओं को जानते हैं।
सिंहरणः तब तो मालव पर शीघ्र ही आक्रमण होगा।
अलकाः कोई डरने की बात नहीं, क्योंकि चन्द्रगुप्त को साथलेकर आर्य ने वहाँ पर एक बड़ा भारी कार्य किया है। क्षुद्रकों और मालवोंमें संधि हो गयी है। चन्द्रगुप्त को उनकी सम्मिलित सेना का सेनापतिबनाने का उद्योग हो रहा है।
सिंहरणः (उठकर) तब तो अलका, मुझे शीघ्र पहुँचना चाहिए।
अलकाः परन्तु तुम बन्दी हो।
सिंहरणः जिस तरह हो सके अलका, मुझे पहुँचाओ।
अलकाः (कुछ सोचने लगती है) तुम जानते हो कि मैं क्योंबन्दिनी हूँ?
सिंहरणः क्यों?
अलकाः आम्भीक से पर्वतेश्वर सी संधि हो गयी है और स्वयंसिकन्दर ने विरोध मिटाने के लिए पर्वतेश्वर की भगिनी से आम्भीक काब्याह कर दिया है, परन्तु आमभीक ने यह जानकर भी कि मैं यहाँ बन्दिनीहूँ, मुझे छुड़ाने का प्रयत्न नहीं किया। उसकी भीतरी इच्छा थी, किपर्वतेश्वर की कई रानियों में से एक मैं भी हो जाऊँ, परन्तु मैंने अस्वीकारकर दिया।
सिंहरणः अलका, तब क्या करना होगा?
अलकाः यदि मैं पर्वतेश्वर से ब्याह करना स्वीकार करूँ, तोसंभव है तुमको छुड़ा दूँ।
सिंहरणः मैं... अलका। मुझसे पूछती हो।
अलकाः दूसरा उपाय क्या है?
सिंहरणः मेरा सिर घूम रहा है, अलका। तुम पर्वतेश्वर कीप्रणयिनी बनोगी! अच्छा होता कि इसके पहले ही मैं न रह जाता।
अलकाः क्यों मालव, इसमें तुम्हारी कुछ हानि है?
सिंहरणः कठिन परीक्षा न लो अलका! मैं बड़ा दुर्बल हूँ। मैंनेजीवन और मरण में तुम्हारा संग न छोड़ने का प्रण किया है।
अलकाः मालव, देश की स्वतंत्रता तुम्हारी आशा में है।
सिंहरणः और तुम पंचनंद की अधीश्वरी बनने की आशा में...तब मुझे रणभूमि में प्राण देने की आज्ञा दो।
अलकाः (हँसती हुई) चिढ़ गये। आर्य चाणक्य की आज्ञा है किथोड़ी देर पंचनंद का सूत्र-संचालन करने के लिए मैं यहाँ की रानी बनजाऊँ।
सिंहरणः यह भी कोई हँसी है!
अलकाः बन्दी! जाओ सो रहो, मैं आज्ञा देती हूँ।
(सिंहरण का प्रस्थान)
अलकाः सुन्दर निश्छल हृदय, तुमसे हँसी करना भी अन्याय है।परन्तु व्यथा को दबाना पड़ेगा। सिंहरण को मालव भेजने के िए प्रणयके साथ अत्याचार करना होगा।
(गाती है)
प्रथम यौवन - मदिरा से मप, प्रेम करने की थी परवाह
और किसको देना है हृदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह।
बेंच डाला था हृदय अमोल, आज वह माँग रहा था दाम,
वेदना मिली तुला पर तोल, उसे लोभी ने ली बेकाम।
उड़ रही है हृत्पथ में धूल, आ रहे हो तुम बे-परवाह,
करूँ क्या दृग-जल से छिड़काव, बनाऊँ मैं यह बिछलन राह।
सँभलते धीरे-धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे विलम्ब,
सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब
विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह,
और दुर्लभ होगी पहचान, रूप-रत्नाकर भरा अथाह।
(पर्वतेश्वर का प्रवेश)
पर्वतेश्वरः सुन्दरी अलका, तुम कब तक यहाँ रहोगी?
अलकाः यह बन्दी बनाने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है।
पर्वतेश्वर - तुम्हें कौन बन्दी कहता है? यह तुम्हारा अन्याय है,अलका! चलो सुसज्जित राजभवन तुम्हारी प्रत्याशा में है।
अलकाः नहीं पौरव, मं राजभवनों से डरती हूँ, क्योंकि उनकेलोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है।
पर्वतेश्वरः अशका तात्पर्य?
अलकाः कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतंत्रता काभी विसर्जन करना पड़ता है, यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है।
पर्वतेश्वरः व्यंग न करो अलका। पर्वतेश्वर ने जो कुछ किया है,वह भारत का एक-एक बच्चा जानता है। परन्तु दैव प्रतिकूल हो, तबक्या किया जाय?
अलकाः मैं मानती हूँ, परन्तु आपकी आत्मा इसे मानने के लिएप्रस्तुत न होगी। हम लोग जो आपके लिए, देश के लिए, प्राण देने कोप्रस्तुत थे, केवल यवनों को प्रसन्न करने के लिए बन्दी किये गये!
पर्वतेश्वरः बन्दी कैसे?
अलकाः बन्दी नहीं तो और क्या? सिंहरण, जो आपके साथ युद्धकरते घायल हुआ है, आज तक वह क्यों रोका गया? पंचनंद-नरेश,आपका न्याय अत्यन्त सुन्दर है न!
पर्वतेश्वरः कौन कहता है सिंहरण बन्दी है? उस वीर की मैंप्रतिष्ठा करता हूँ अलका, परन्तु उससे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।
अलकाः क्यों?
पर्वतेश्वरः क्योंकि अलका के दो प्रेमी नहीं हो सकते।
अलकाः महाराज, यदि भूपालों का-सा व्यवहार न माँगकर आपसिकन्दर से द्वंद्व-युद्ध माँगते, तो अलका को विचार करने का अवसरमिलता।
पर्वतेश्वरः यदि मैं सिकन्दर का विपक्षी बन जाऊँ तो तुम मुझेप्यार करोगी अलका? सच कहो।
अलकाः तब विचार करूँगी, पर वैसी संभावना नहीं।
पर्वतेश्वरः क्या प्रमाण चाहती हो अलका?
अलकाः सिंहरण के देश पर यवनों का आक्रमण होने वाला है,वहाँ तुम्हारी सेना यवनों की सहायक न बने, और सिंहरण अपनी, मालवकी रक्षा के लिए मुक्त किया जाय।
पर्वतेश्वरः मुझे स्वीकार है।
अलकाः तो मैं भी राजभवन में चलने के लिए प्रस्तुत हूँ, परन्तुएक नियम पर!
पर्वतेश्वरः वह क्या?
अलकाः यही कि सिकन्दर के भारत में रहने तक मैं स्वतंत्ररहूँगी। पंचनंदनरेश, यह दस्यु-दल बरसाती बाढ़ के समान निकल जायगा,विश्वास रखिए।
पर्वतेश्वरः सच कहती हो अलका! अच्छा, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ,तुम जैसा कहोगी, वही होगा! सिंहरण के लिए रथ आवेगा और तुम्हारेलिए शिविका। देखो भूलना मत।
(चिंतित भाव से प्रस्थान)
(मालवों के स्कन्धावार में युद्ध - परिषद्)
देवबलः परिषद् के सम्मुख मैं यह विज्ञप्ति उपस्थित करता हूँकि यवन-युद्ध के लिए जो सन्धि मालव-क्षुद्रकों से हुई है, उसे सफलबनाने के लिए आवश्यक है कि दोनों गणों की एक सम्मिलित सेना बनायीजाय और उसके सेनापति क्षुद्रकों के मनोनीत सेनापति मागध चन्द्रगुप्त हीहों। उन्हीं की आज्ञा से सैन्य संचालन हो।
(सिंहरण का प्रवेश - परिषद् में हर्ष)
सबः कुमार सिंहरण की जय!
नागदपः मगध एक साम्राज्य है। लिच्छिवि और वृजि गणतंत्र कोकुचलने वाले मगध का निवासी हमारी सेना का संचालन करे, यह अन्यायहै। मैं इसका विरोध करता हूँ।
सिंहरणः मैं मालव-सेना का बलाधिकृत हूँ। मुझे सेना काअधिकार परिषद् ने प्रदान किया है और साथ ही मैं सन्धि-विग्रहिक काकार्य भी करता हूँ। पंचनंद की परस्थिति मैं स्वयं देख आया हूँ औरमागध चन्द्रगुप्त को भी भलीभाँति जानता हूँ। मैं चन्द्रगुप्त के आदेशानुसारयुद्ध चलाने के लिए सहमत हूँ। और भी मेरी एक प्रार्थना है - उपरापथके विशिष्ट राजनीतिज्ञ आर्य चाणक्य के गम्भीर राजनैतिक विचार सुनने परआप लोग अपना कर्तव्य निश्चित करें।
गणमुख्यः आर्य चाणक्य व्यासपीठ पर आवें।
चाणक्यः (व्यासपीठ से) उपरापथ के प्रमुख गणतंत्र मालव राष्ट्रकी परिषद् का मैं अनुगृहीत हूँ कि ऐसे गम्भीर अवसर पर मुझे कुछकहने के लिए उसने आमंत्रित किया। गणतंत्र और एकराज्य का प्रश्न् यहाँनहीं, क्योंकि लिच्छिवि और वृजियों का अपकार करने वाला मगध काराज्य, शीघ्र ही गणतंत्र में परिवर्तित होने वाला है। युद्ध-काल में एकनायक की आज्ञा माननी पड़ती है। वहाँ शलाका ग्रहण करके शस्त्र प्रहारकरना असम्भव है। अतएव सेना का एक नायक तो होना ही चाहिए। औरयहाँ की परिस्थिति में चन्द्रगुप्त से बढ़कर इस कार्य के लिए दूसरा व्यक्तिन होगा। वितस्ता-प्रदेश के अधीश्वर पर्वतेश्वर के यवनों से सन्धि करनेपर भी चन्द्रगुप्त ही के उद्योग का यह फल है कि पर्वतेश्वर की सेनायवन-सहायता को न आवेगी। उसी के प्रयत्न से यवन-सेना में विद्रोह भीहो गया है, जिससे उनका आगे बढ़ना असम्भव हो गया है। परन्तु सिकन्दरकी कूटनीति प्रत्यावर्तन में भी विजय चाहती है। वह अपनी विद्रोही सेनाको स्थल-मार्ग से लौटने की आज्ञा देकर नौबल के द्वारा स्वयं सिन्ध-संगम तक के प्रदेश विजय करना चाहता है। उसमें मालवों का नाशनिश्चित है। अतएव, सेनापतित्व के लिए आप लोग चन्द्रगुप्त को वरणकरें तो, क्षुद्रकों का सहयोग भी आप लोगों को मिलेगा। चन्द्रगुप्त कोही उन लोगों ने भी सेनापति बनाया है।
नागदपः ऐसा नहीं हो सकता!
चाणक्यः प्रबल प्रतिरोध करने के लिए दोनों सैन्यों में एकाधिपत्यहोना आवश्यक है। साथ ही क्षुद्रकों की सन्धि की मर्यादा भी रखनीचाहिए। प्रश्न शासन का नहीं, युद्ध का है। युद्ध में सम्मिलित होने वालेवीरों को एकनिष्ठ होना ही लाभदायक है। फिर तो मालव और क्षुद्रक दोनोंही स्वतंत्र संघ हैं और रहेंगे। सम्भवतः इसमें प्राच्यों का एक गणराष्ट्रआगामी दिनों में और भी आ मिलेगा।
नागदपः समझ गया, चन्द्रगुप्त को ही सम्मिलित सेना का सेनापतिबनाना श्रेयस्कर होगा।
सिंहरणः अन्न, पान और भैषज्य सेवा करने वाली स्त्रियों नेमालविका को अपना प्रधान बनाने की प्रार्थना की है।
गणमुख्यः यह उन लोगों की इच्छा पर है। अस्तु, महाबलाधिकृतपद के लिए चन्द्रगुप्त को वरण करने की आज्ञा परिषद् देती है।
(समवेत जयघोष)
(पर्वतेश्वर का प्रासाद)
अलकाः सिंहरण मेरी आशा देख रहा होगा और मैं यहां पड़ीहूँ। आज इसका कुछ निबटारा करना होगा। अब अधिक नहीं - (आकासकी ओर देखकर) - तारों से भरी हुई काली रजनी का नीला आकाश- जैसे कोई विराट् गणितज्ञ निभृत में रेखा-गणित की समस्या सिद्ध करनेके लिए बिन्दु दे रहा है।
(पर्वतेश्वर का प्रवेश)
पर्वतेश्वरः अलका, बड़ी द्विधा है।
अलकाः क्यों पौरव?
पर्वतेश्वरः मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालव-युद्ध में मैंभाग न लूँगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोहीलेकर रावी तट पर मिलो। साथ ही पता चला है कि कुछ यवन-सेनाअपने देश को लौट रही है।
अलकाः (अन्यमनस्क होकर) हाँ कहते चलो।
पर्वतेश्वरः तुम क्या कहती हो अलका?
अलकाः मैं सुनना चाहती हूँ।
पर्वतेश्वरः बतलाओ, मैं क्या करूँ?
अलकाः जो अच्छा समझो! मुझे देखने दो ऐसी सुन्दर वेणीफूलों से गूँथी हुई श्यामा रजनी की सुन्दर वेणी-अहा!
पर्वतेश्वरः क्या कह रही हो?
अलकाः गाने की इच्छा होती है, सुनोगे?
(गाती है)
बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिन्ता लेख,
छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।
प्रियतम के आगमन-पंथ में उड़ न रही है कोमल धूल,
कादम्बिनी उठी यह ढँकने वाली दूर जलधि के कूल।
समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन-
तुम हो सुन्दरि तरल तारिके! बोलो कुछ, बैठो मत मौन!
मन्दाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आँखें क्यों नादान।
रूप-निशा की ऊषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान!
पर्वतेश्वरः अलका! मैं पागल होता जा रहा हूँ। यह तुमने क्याकर दिया है!
अलकाः मैं तो गा रही हूँ।
पर्वतेश्वरः परिहास न करो। बताओ, मैं क्या करूँ?
अलकाः यदि सिकन्दर के रण-निमन्त्रण में तुम न जाओगे तोतुम्हारा राज्य चला जायगा।
पर्वतेश्वरः बड़ी विडम्बना है।
अलकाः पराधीनता से बढ़ कर विडम्बना और क्या है? अबसमझ गये होगे कि वह सन्धि नहीं, पराधीनता की स्वीकृति थी।
पर्वतेश्वरः मैं समझाता हूँ कि एक हजार अश्वारोहियों को साथलेकर वहाँ पहुँच जाऊँ, फिर कोई बहाना ढूँढ़ निकालूँगा।
अलकाः (मन में) मैं चलूँ, निकल भागने का ऐसा अवसर दूसरान मिलेगा! (प्रकट) अच्छी बात है, परन्तु मैं भी साथ चलूँगी! मैं यहाँअकेले क्या करूँगी?
(पर्वतेश्वर का प्रस्थान)
(रावी के तट पर सैनिकों के साथ मालविका और चन्द्रगुप्त,नदी मं दूर पर कुछ नावें)
मालविकाः मुझे शीघ्र उपर दीजिए।
चन्द्रगुप्तः जैसा उचित समझो, तुम्हारी आवश्यक सामग्री तुम्हारेअधीन रहेगी। सिंहरण को कहाँ छोड़ा?
मालविकाः आते ही होंगे।
चन्द्रगुप्तः (सैनिकों से) तुम लोग कितनी दूर तक गये थे?
सैनिकः अभी चार योजन तक यवनों का पता नहीं। परन्तु कुछभारतीय सैनिक रावी के उस पार दिखाई दिये। मालव की पचासोंहिस्रिकाएँ वहाँ निरीक्षण कर रही हैं। उन पर धनुर्धर हैं।
सिंहरणः (प्रवेश करके) वह पर्वतेश्वर की सेना होगी। किन्तु
मागध! आश्चर्य है।
चन्द्रगुप्तः आश्चर्य कुछ नहीं।
सिंहरणः क्षुद्रकों के केवल कुछ ही गुल्म आये हैं, और तो...
चन्द्रगुप्तः चिंता नहीं। कल्याणी के मागध सैनिक और क्षुद्रकअपनी घात में हैं। यवनों को इधर आ जाने दो। सिंहरण, थोड़ी-सीहिंस्रिकाओं पर मुझे साहसी वीर चाहिए।
सिंहरणः प्रस्तुत है। आज्ञा दीजिए।
चन्द्रगुप्तः यवनों की जलसेना पर आक्रमण करना होगा। विजयके विचार से नहीं, केवल उलझाने के लिए और उनकी सामग्री नष्ट करनेके लिए।
(सिंहरण संकेत करता है, नावें जाती हैं)
मालविकाः तो मैं स्कन्धावार के पृष्ठ भाग में अपने साधन रखतीहूँ। एक क्षुद्र भाण्डार मेरे उपवन में भी रहेगा।
चन्द्रगुप्तः (विचार करके) अच्छी बात है।
(एक नाव तेजी से आती है, उस पर से अलका उतर पड़ती है)
सिंहरणः (आश्चर्य से) तुम कैसे अलका?
अलकाः पर्वतेश्वर ने प्रतिज्ञा भंग की है, वह सैनिकों के साथसिकन्दर की सहायता क ेलिए आया है। मालवों की नावें घूम रही थीं।मैं जान-बूझकर पर्वतेश्वर को छोड़ कर वहीं पहुँच गयी (हँसकर) परन्तुमैं बन्दी होकर आयी हूँ!
चन्द्रगुप्तः देवि! युद्धकाल है, नियमों को तो देखना ही पड़ेगा।मालविका! ले जा इन्हें उपवन में।
(मालविका और अलका का प्रस्थान)
(मालव रक्षकों के साथ एक यवन का प्रवेश)
यवनः मालव का सन्धि-विग्रहिक अमात्य से मिलना चाहता हूँ।सिंहरणः तुम दूत हो?
यवनः हाँ।
सिंहरणः कहो, मैं यहीं हूँ।
यवनः देवपुत्र ने आज्ञा दी है कि मालव-नेता मुझसे आकर भेंटकरें और मेरी जल-यात्रा की सुविधा का प्रबन्ध करें।
सिंहरणः सिकन्दर से मावों की ऐसी कोई सन्धि नहीं हुई, जिससेवे इस कार्य के लिए बाध्य हों। हाँ, भेंट करने के लिए मालव सदैवप्रस्तुत हैं - चाहे सन्धि-परिषद् में या रणभूमि में!
यवनः तो यही जाकर कह दूँ?
सिंहरणः हाँ, जाओ - (रक्षकों से) - इन्हें सीमा तक पहुँचा दो।(यवन का रक्षकों के साथ प्रस्थान)
चन्द्रगुप्तः मालव, हम लोगों ने भयानक दायित्व उठाया है, इसकानिर्वाह करना होगा।
सिंहरणः जीवन-मरण से खेलते हुए करेंगे, वीरवर!
चन्द्रगुप्तः परन्तु सुनो तो, यवन लोग आर्यों की रण-नीति से नहींलड़ते। वे हमीं लोगों के युद्ध हैं, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषकस्वच्छन्दता से हल चलाता है। यवन आतंक फैलाना जानते हैं और उसेअपनी रण-नीति का प्रधान अंग मानते हैं। निरीह साधारण प्रजा कोलूटना, गाँवों को जलाना, उनके भीषण परन्तु साधारण कार्य हैं।
सिंहरणः युद्ध-सीमा के पार के लोगों को भिन्न दुर्गों में एकत्रहोने की आज्ञा प्रचारित हो गयी है। जो होगा, देखा जायगा।
चन्द्रगुप्तः पर एक बात सदैव ध्यान में रखनी होगी।सिंहरणः क्या?
चन्द्रगुप्तः यही, कि हमें आक्रमणकारी यवनों को यहाँ से हटानाहै, और उन्हें जिस प्रकार हो, भारतीय सीमा के बाहर करना है। इसलिएशत्रु की ही नीति से युद्ध करना होगा।
सिंहरणः सेनापति की सब आज्ञाएँ मानी जायँगी, चलिए।
(सबका प्रस्थान)
(शिविर के समीप कल्याणी और चाणक्य)
कल्याणीः आर्य, अब मुझे लौटने की आज्ञा दीजिए, क्योंकिसिकन्दर ने विपाशा के अपने आक्रमण की सीमा बना ली है। अग्रसरहोने की सम्भावना नहीं, और अमात्य राक्षस भी आ गये हैं, उनके साथमेरा जाना ही उचित है।
चाणक्यः और चन्द्रगुप्त से क्या कह दिया जाय?
कल्याणीः मैं नहीं जानती।
चाणक्यः परन्तु राजकुमारी, उसका असीम प्रेमपूर्ण हृदय भग्न होजायगा। वह बिना पतवार की नौका के सदृश इधर-उधर बहेगा।
कल्याणीः आर्य, मैं इन बातों को नहीं सुनना चाहती, क्योंकिसमय ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है।
(अमात्य राक्षस का प्रवेश)
राक्षसः कौन? चाणक्य?
चाणक्यः हाँ अमात्य! राजकुमारी मगध लौटना चाहती है।
राक्षसः तो उन्हें कौन रोक सकता है?
चाणक्यः क्यों? तुम रोकोगे।
राक्षसः क्या तुमने सब को मूर्ख समझ लिया है?
चाणक्यः जो होंगे वे अवश्य समझे जायँगे। अमात्य! मगध कीरक्षा अभीष्ट नहीं है क्या?
राक्षसः मगध विपन्न कहाँ है?
चाणक्यः तो मैं क्षुद्रकों से कह दूँ कि तुम लोग बाधा न दो,और यवनों से भी यह कह दिया जाय कि वास्तव में यह स्कन्धावार प्राच्यदेश के सम्राट् का नहीं है, जिससे भयभीत होकर तुम विपाशा पार नहींहोना चाहते, यह तो क्षुद्रकों की क्षुद्र सेना है, जो तुम्हारे लिए मगध तकपहुँचने का सरल पथ छोड़ देने को प्रस्तुत है... क्यों?
राक्षसः (विचार कर) आह ब्राह्मण, मैं स्वयं रहूँगा, यह तो मानलेने योग्य सम्मति है। परन्तु...
चाणक्यः फिर परन्तु लगाया। तुम स्वयं रहो और राजकुमारी भीरहे और तुम्हारे साथ जो नवीन गुल्म आये हैं, उन्हें भी रखना पड़ेगा।जब सिकन्दर रावी के अन्तिम छोर पर पहुँचेगा, तब तुम्हारी सेना काकाम पड़ेगा। राक्षस! फिर भी मगध पर मेरा स्नेह है। मैं उसे उजड़नेऔर हत्याओं से बचाना चाहता हूँ।
(प्रस्थान)
कल्याणीः क्या इच्छा है अमात्य?
राक्षसः मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहता। पर इसकी बातेंमानने के लिए विवश हो रहा हूँ। राजकुमारी! यह मगध का विद्रोही अबतक बन्दी कर लिया जाता, यदि इसकी स्वतंत्रता की आवश्यकता न होती।
कल्याणीः जैसी सम्मति हो।
(चाणक्या का पुनः प्रवेश)
चाणक्यः अमात्य! सिंह पिंजड़े में बन्द हो गया।
राक्षसः कैसे?
चाणक्यः जल-यात्रा में इतना विघ्न उपस्थित हुआ कि सिकन्दरको स्थल-मार्ग से मालवों पर आक्रमण करना पड़ा। अपनी विजयों परफूल कर उसने ऐसा किया, परन्तु जा फँसा उनके चंगुल में। अब इधरक्षुद्रकों और मागधों की नवीन सेनाओं से उसको बाधा पहुँचानी होगी।
राक्षसः तब तुम क्या कहते हो? क्या चाहते हो?
चाणक्यः यही कि तुम अपनी सम्पूर्ण सेना ले कर विपाशा केतट की रक्षा करो, और क्षुद्रकों को ले कर मैं पीछे से आक्रमण करनेजाता हूँ। इसमें तो डरने की कोई बात नहीं?
राक्षसः मैं स्वीकार करता हूँ।
चाणक्यः यदि न करोगे तो अपना अनिष्ट करोगे।
(प्रस्थान)
कल्याणीः विचित्र ब्राह्मण है अमात्य! मुझे तो इसको देखकर डरलगता है।
राक्षसः विकट है! राजकुमारी, एक बार उससे मेरा द्वंद्व होनाअनिवार्य है, परन्तु अभी मैं उसे बचाना चाहता हूँ।
कल्याणीः चलिए।
(कल्याणी का प्रस्थान)
चाणक्यः (पुनः प्रवेश करके) राक्षस, एक बात तुम्हारे कल्याणकी है, सुनोगे? मैं कहना भूल गया था।
राक्षसः क्या?
चाणक्यः नन्द को अपनी प्रेमिका सुवासिनी से तुम्हारे अनुचितसम्बन्ध का विश्वास हो गया है। अभी तुम्हारा मगध लौटना ठीक न होगा।समझे!
(चाणक्य का सवेग प्रस्थान, राक्षस सिर पकड़ कर बैठ जाता है।)
(मालव दुर्ग का भीतरी भाग, एक शून्य परकोटा)
मालविकाः अलका, इधर तो कोई भी सैनिक नहीं हैं। यदि शत्रुइधर से आवे तब?
अलकाः दुर्ग ध्वंस करने के लिए यंत्र लगाये जा चुके हैं, परन्तुमालव-सेना अभी सुख की नींद सो रही है। सिंहरण को दुर्ग की भीतरीरक्षा का भार दे कर चन्द्रगुप्त नदी-तट से यवन-सेना के पृष्ठ भाग परआक्रमण करेंगे। आज ही युद्ध का अन्तिम निर्णय है। जिस स्थान परयवन-सेना को ले आना अभीष्ट था, वहाँ तक पहुँच गयी है।
मालविकाः अच्छा, चलो, कुछ नवीन आहत आ गये हैं, उनकीसेवा का प्रबन्ध करना है।
अलकाः (देखकर) मालविका! मेरे पास धनुष है और कटार है।इस आपपि-काल में एक आयुध अपने पास रखना चाहिए। तू कटारअपने पास रख ले।
मालविकाः मैं डरती हूँ, घृणा करती हूँ। रक्त की प्यासी छुरी
अलग करो, अलका, मैंने सेवा का व्रत लिया है।
अलकाः प्राणों के भय से घृणा करती हो क्या?
मालविकाः प्राण तो धरोहर है, जिसका होगा वही लेगा, मुझेभयों से इसकी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं। मैं जाती हूँ।
अलकाः अच्छी बात है, जा। परन्तु सिंहरण को शीघ्र ही भेजदे। यहाँ जब तक कोई न आ जाय, मैं नहीं हट सकती।
(मालविका का प्रस्थान)
अलकाः सन्ध्या का नीरव निर्जन प्रदेश है। बैठूँ। (अकस्मात्बाहर से हल्का होता है, युद्ध-शब्द) क्या चन्द्रगुप्त ने आक्रमण कर दिया?परन्तु यह स्थान... बड़ा ही अरक्षित है। (उठती है) अरे! वह कौन है?कोई यवन-सैनिक है क्या? तो सावधान हो जाऊँ?
(धनुष चढ़ाकर तीर मारती है। यवन-सैनिक का पतन। दूसराफिर ऊपर आता है, उसे भी मारती है, तीसरी बार स्वयं सिकन्दर ऊपरआता है। तीर का वार बचाकर दुर्ग में कूदता है और अलका को पकड़नाचाहता है। सहसा सिंहरण का प्रवेश, युद्ध)
सिंहरणः (तलवार चलाते हुए) तुमको स्वयं इतना साहस नहींकरना चाहिए सिकन्दर! तुम्हारा प्राण बहुमूल्य है।
सिकन्दरः केवल सेनाओं को आज्ञा देना नहीं जानता। बचा अपनेको! (भाले का वार)
(सिंहरण इस फुरती से बरछे को ढाल पर लेता है वह सिकन्दरके हाथ से छूट जाता है। यवनराज विवश होकर तलवार चलाता है, किन्तुसिंहरण के भयानक प्रत्याघात से घायल होकर गिरता है। तीन यवन-सैनिककूदकर आते हैं, इधर से मालव-सैनिक पहुँचते हैं।)
सिंहरणः यवन! दुस्साहस न करो। तुम्हारे सम्राट् की अवस्थाशोचनीय है ले जाओ, इनकी शुश्रूषा करो।
यवनः दुर्ग-द्वार टूटता है और अभी हमारे वीर सैनिक इस दुर्गको मटियामेट करते हैं।
सिंहरणः पीछे चन्द्रगुप्त की सेना है मूर्ख! इस दुर्ग में आकरतुम सब बन्दी होगे। ले जाओ, सिकन्दर को उठा ले जाओ, जब तकऔर मालवों को यह न विदित हो जाय कि यही वह सिकन्दर है।
मालव-सैनिकः सेनापति, रक्त का बदला! इस नृशंस ने निरीहजनता का अकारण वध किया है। प्रतिशोध?
सिंहरणः ठहरो, मालव वीरों! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है।यह भारत के ऊपर एक ऋण था। पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने कायह प्रत्युपर है। यवन! जाओ, शीघ्र जाओ!
(तीनों यवन सिकन्दर को लेकर जाते हैं, घबराया हुआ एकसैनिक आता है।)
सिंहरणः क्या है?
सैनिकः दुर्ग-द्वार टूट गया, यवन-सेना भीतर आ रही है।
सिंहरणः कुछ चिन्ता नहीं। दृढ़ रहो। समस्त मालव-सेना से कहदो कि सिंहरण तुम्हारे साथ मरेगा। (अलका से) तुम मालविका को साथलेकर अन्तःपुर की स्त्रियों को भूगर्भ-द्वार से रक्षित स्थान पर ले जाओ।अलका! मालव के ध्वंस पर ही आर्यों का यशो-मन्दिर ऊँचा खड़ा होसकेगा। जाओ।
(अलका का प्रस्थान। यवन-सैनिकों का प्रवेश, दूसरी ओर सेचन्द्रगुप्त का प्रवेश और युद्ध। एक यवन-सैनिक दौड़ता हुआ आता है।)
यवनः सेनापति सिल्यूकस। क्षुद्रकों की सेना भी पीछे आ गयीहै। बाहर की सेना को उन लोगों ने उलझा रक्खा है।
चन्द्रगुप्तः यवन सेनापति, मार्ग चाहते हो या युद्ध? मुझ परकृतज्ञता का बोझ है। तुम्हारा जीवन!
सिल्यूकसः (कुछ सोचने लगा) हम दोनों के लिए प्रस्तुत हैं।किन्तु...
चन्द्रगुप्तः शान्ति! मार्ग दो! जाओ सेनापति! सिकन्दर का जीवन बच जाय तो फिर आक्रमण करना।
(यवन-सेना का प्रस्थान। चन्द्रगुप्त का जय-घोष)