चंद्रगुप्त (नाटक): जयशंकर प्रसाद

Chandragupta (Play) : Jaishankar Prasad

पात्र-परिचय

पुरुष-पात्र

चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य साम्राज्य का निर्माता

चन्द्रगुप्त : मौर्य सम्राट्‌

नन्द : मगध-सम्राट्‌

राक्षस : मगध का अमात्य

वररुचि (कात्यायन) : मगध का मन्त्री

आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार

सिंहरण : मालव गण-मुख्य का कुमार

पर्वतेश्वर : पंजाब का राजा (पोरस)

सिकन्दर : ग्रीक-विजेता

फिलिप्स : सिकन्दर का क्षत्रप

मौर्य-सेनापति : चन्द्रगुप्त का पिता

एनीजाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर

देवबल, नागदप, गण-मुख्य : मालव-गणतन्त्र के पदाधिकारी

साइबर्टियस, मेगास्थनीज : यवन-दूत

गान्धार-नरेश : आम्भीक का पिता

सिल्यूकस : सिकन्दर का सेनापति

दाण्ड्यायन : एक तपस्वी

स्त्री-पात्र

अलका : तक्षशिला की राजकुमारी

सुवासिनी : शकटार की कन्या

कल्याणी : मगध-राजकुमारी

नीला, लीला : कल्याणी की सहेलियाँ

मालविला : सिन्धु-देश की कुमारी

कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या

मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता

एलिस : कार्नेलिया की सहेली

प्रथम अंक : चंद्रगुप्त

(स्थानः तक्षशिला के गुरुकुल का मठ)

(चाणक्य और सिंहरण)

चाणक्यः सौम्य, कुलपति ने मुझे गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करनेकी आज्ञा दे दी। केवल तुम्हीं लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ठहराथा; क्योंकि इस वर्ष के भावी स्नातकों को अर्थशास्त्र का पाठ पढ़ाकरमुझ अकिञ्चन को गुरु-दक्षिणा चुका देनी थी।

सिंहरणः आर्य, मालवों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं,जितनी अस्त्रशास्त्र की। इसलिए मैं पाठ में पिछड़ा रहा, क्षमाप्रार्थी हूँ।चाणक्यः अच्छा, अब तुम मालव जाकर क्या करोगे?

सिंहरणः अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तक्षशिला कीराजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।

चाणक्यः मुझे प्रसन्नता होती है कि तुम्हारा अर्थशास्त्र पढ़नासफल होगा। क्या तुम जानते हो कि यवनों के दूत यहाँ क्यों आये हैं?

सिंहरणः मैं उसे जानने की चेष्टा कर रहा हूँ। आर्यावर्त्त काभविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुतहो रही है। उपरापथ के खण्ड राज-द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानकविस्फोट होगा।

(सहसा आम्भीक और अलका का प्रवेश)

आम्भीकः कैसा विस्फोट? युवक, तुम कौन हो?

सिंहरणः एक मालव।

आम्भीकः नहीं, विशेष परिचय की आवश्यकता है।

सिंहरणः तक्षिला गुरुकुल का एक छात्र।

आम्भीकः देखता हूँ कि तुम दुर्विनीत भी हो।

सिंहरणः कदापि नहीं राजकुमार! विनम्रता के साथ निर्भीक होनामालवों का वंशानुगत चरित्र है, और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भीगर्व है।

आम्भीकः परन्तु तुम किसी विस्फोट की बातें अभी कर रहे थे।और चाणक्य, क्या तुम्हारा भी इसमें कुछ हाथ है?

(चाणक्य चुप रहता है)

आम्भीकः (क्रोध से) बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में ह कर, मेरेअन्न से पल कर, मेरे ही विरुद्ध कुचक्रों का सृजन!

चाणक्यः राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है औरन किसी के अन्न से पलता है; स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखनेपर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याणके लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

आम्भीकः वह काल्पनिक महत्व माया-जाल है; तुम्हारे प्रत्यक्षनीच कर्म उस पर पर्दा नहीं डाल सकते।

चाणक्यः सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! इसी ने दस्यु औरम्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ीएक धक्के की राह देख रही है।

आम्भीकः और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखारहे हो!

सिंहरणः विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव। यह तो वे ही करसकते हैं, जिनके हाथ में अधिकार हो - जिनता स्वार्थ समुद्र से भीविशाल और सुमेरु से भी कठो हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयंवाल्हीक तक...

आम्भीकः बस-बस दुर्धर्ष युवक! बता, तेरा अभिप्राय क्या है?

सिंहरणः कुछ नहीं।

आम्भीकः नहीं, बताना होगा। मेरी आज्ञा है।

सिंहरणः गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है;अन्य आज्ञाएँ, अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार!

अलकाः भाई! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छंदहृदय में कितना बलवान वेग है! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।

आम्भीकः चुप रहो अलका, यह ऐसी बात नहीं है, जो यों हीउड़ा दी जाय। इसमें कुछ रहस्य है।

(चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है)

सिंहरणः हाँ-हाँ, रहस्य है! यमन-आक्रमणकारियों के पुष्कलस्वर्ण से पुलकित होकर, आर्यावर्त्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा मेंउपरापथ की अगला धीरे से खोल देने का रहस्य है। क्यों राजकुमार!

सम्भवतः तक्षशिलाधीश वाल्हीक तक इसी रहस्य का उद्‌घाटन करने गयेथे?

आम्भीकः (पैर पटक कर) ओह, असह्य! युवक तुम बन्दी हो।

सिंहरणः कदापि नहीं; मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता।

(आम्भीक तलवार खींचता है।)

चंद्रगुप्तः (सहसा प्रवेश करके) ठीक है, प्रत्येर निरपराध आर्यस्वतंत्र है, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकता है। यह क्या राजकुमार! खड्‌गको कोश में स्थान नहीं है क्या?

सिंहरणः (व्यंग्य से) वह तो स्वर्ण से भर गया है!

आम्भीकः तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालवको तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल-मृत्यु-दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा।

चंद्रगुप्तः क्यों, वह क्या एक निस्सहाय छात्र तुम्हारे राज्य में शिक्षापाता है और तुम एक राजकुमार हो - बस इसीलिए?

(आम्भीक तलवार चलाता है। चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसेरोकता है; आम्भीक की तलवार छूट जाती है। वह निस्सहाय होकरचंद्रगुप्त के आक्रमण की प्रतीक्षा करता है। बीच में अलका आजातीहै।)

सिंहरणः वीर चन्द्रगुप्त, बस। जाओ राजकुमार, यहाँ कोई कुचक्रनहीं है, अपने कुचक्रों से अपनी रक्षा स्वयं करो।

चाणक्यः राजकुमारी, मैं गुरुकुल का अधिकारी हूँ। मैं आज्ञा देताहूँ कि तुम क्रोधाभिभूत कुमार को लिवा जाओ। गुरुकुल में शस्त्रों काप्रयोग शिक्षा के लिए होता है, द्वंद्व-युद्ध के लिए नहीं। विश्वास रखना,इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज के कानों तक न पहुँचेगा।

अलकाः ऐसा ही हो। चलो भाई!

(क्षुब्ध आम्भीक उसके साथ जाता है।)

चाणक्यः (चन्द्रगुप्त से) तुम्हारा पाठ समाप्त हो चुका है औरआज का यह काण्ड असाधारण है। मेरी सम्मति है कि तुम शीघ्र तक्षशिलाका परित्याग कर दो। और सिंहरण, तुम भी।

चन्द्रगुप्तः आर्य, हम मागध हैं और यह मालव। अच्छा होता कियहीं गुरुकुल में हम लोग शस्त्र की परीक्षा भी देते।

चाणक्यः क्या यही मेरी शिक्षा है? बालकों की-सी चपलतादिखलाने का यह स्थल नहीं। तुम लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोगकरना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीति-विरुद्ध है।

चन्द्रगुप्तः आर्य! संसार-भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंनेयही समझा है कि आत्म-सम्मान के लिए मर-मिटना ही दिव्य जीवन है।सिंहरण मेरा आत्मीय है, मित्र है, उसका मान मेरा ही मान है।

चाणक्यः देखूँगा कि इस आत्म-सम्मान की भविष्य-परीक्षा में तुमकहाँ तक उपीर्ण होते हो!

सिंहरणः आपके आशीर्वाद से हम लोग अवश्य सफल होंगे।

चाणक्यः तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान काअवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतन ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालवऔर मागध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वहमिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में, आर्यावर्त के सबस्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे? आजजिस व्यंग्य को लेकर इतनी घटना हो गयी है, वह बात भावी गांधारनरेशआम्भीक के हृदय में, शल्य के समान चुभ गयी है। पञ्चनन्द-नरेशपर्वतेश्वर के विरोध के कारण यह क्षुद्र-हृदय आम्भीक यवनों का स्वागतकरेगा और आर्यावर्त का सर्वनाश होगा।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, विश्वास रखिए; यह सब कुछ नहीं होनेपावेगा। यह चंद्रगुप्त आपके चरणों की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है, कियवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।

चाणक्यः तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुममगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। यहाँ समय बिताने का प्रयोज नहीं। मैंभी पञ्चनन्द-नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा। और सिंहरण, तुम भीसावधान!

सिंहरणः आर्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है।

(चंद्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान)

सिंहरणः एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्यावर्त के लौह अस्त्रागार में घुसकर विस्फोट करेगा। चञ्चला रण-लक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सीविजयमाला हाथ में लिये उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरणकरेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे। तब आओ देवि! स्वागत!!

अलकाः मालव-वीर, अभी तुमने तक्षशिला का परित्याग नहींकिया?

सिंहरणः क्यों देवि? क्या मैं यहाँ रहने के उपयुक्त नहीं हूँ?

अलकाः नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ! भाईने तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था; जिसका जो मार्गहै उस पर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की था! देखती हूँ प्रायःमनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, औरअपना चलना बन्द कर देता है।

सिंहरणः परन्तु भद्रे, जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षाकरते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुँचाताहै। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं।

अलकाः किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यानरखान चाहिए।

सिंहरणः मानव कब दानव से भी दुर्दान्त, पशु से भी बर्बर औरपत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकाश हृदयवाला हो जाएगा, नहींजाना जा सकता। अतीत सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य केलिए भय क्यों और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा; फिरचिन्ता किस बात की?

अलकाः मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है,और वही यहाँ आपपि में है।

सिंहरणः राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तुमेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है। यही क्या, समग्र आर्यावर्त है,इसलिए मैं...

अलकाः (आश्चर्य से) क्या कहते हो?

सिंहरणः गांधार आर्यावर्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उसके पतनको मैं अपना अपमान समझता हूँ।

अलकाः (निःश्वास लेकर) इसका मैं अनुभव कर रही हूँ। परन्तुजिस देश में ऐसे वीर युवक हों, उसका पतन असम्भव है। मालववीर,तुम्हारे मनोबल में स्वतंत्रता है और तुम्हारी दृढ़ भुजाओं में आर्यावर्त केरक्षण की शक्ति है; तुम्हें सुरक्षित रहना ही चाहिए। मैं भी आर्यावर्त कीबालिका हूँ - तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम शीघ्र गांधार छोड़ दो।

मैं आम्भीक को शक्ति भर, पतन से रोकूँगी; परन्तु उसके न मानने परतुम्हारी आवश्यकता होगी। जाओ वीर!

सिंहरणः अच्छा राजकुमारी, तुम्हारे स्नेहानुरोध से मैं जाने के लिएबाध्य हो रहा हूँ। शीघ्र ही चला जाऊँगा देवि! किन्तु यदि किसी प्रकारसिन्धु की प्रखर धारा को यवन सेना न पार कर सकती...।

अलकाः मैं चेष्टा करूँगी वीर, तुम्हारा नाम?

सिंहरणः मालवगण के राष्ट्रपति का पुत्र सिंहरण।

अलकाः अच्छा, फिर कभी।

(दोनों एक-दूसरे को देखते हुए प्रस्थान करते हैं।)

(मगध-सम्राट्‌ का विलास-कानन)

(विलासी युवक और युवतियों का विहार)

नन्दः (प्रवेश करके) आज वसन्त उत्सव है क्या?

एक युवकः जय हो देव! आपकी आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिकोंने आयोजन किया है।

नन्दः परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज में अभाव है, फिर

आमोद कैसा? (एक युवती से) देखो-देखो! तुम सुन्दरी हो; परन्तु तुम्हारेयौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकड़ा हुआ है! तुम्हारीआँखों में काम का सुकुमार संकेत नहीं, अनुराग की लाली नहीं! फिरकैसा प्रमोद!

एक युवतीः हम लोक तो निमंत्रित नागरिक हैं देव! इसकादायित्व तो निमंत्रण देने वाले पर है।

नन्दः वाह, अच्छा उलाहना रहा! (अनुचर से) मूर्ख! अभी औरकुछ सुनावेगा? तून नहीं जानता कि मैं ब्रह्मास्त्र से अधिक इन सुन्दरियोंके कुटिल कटाक्षों से डरता हूँ! ले आ - शीघ्र ले जा - नागरिकों परतो मैं राज्य करता हूँ; परन्तु मेरी मगध की नागरिकाओं का शासन मेरेऊपर है। श्रीमती, सबसे कह हो - नागरिक नन्द, कुसुमपुर के कमनीयकुसुमों से अपराध के लिए क्षमा माँगता है और आज के दिन वह तुमलोगों का कृतज्ञ सहचर-मात्र है।

(अनुचर लोग प्रत्येक कुञ्ज मं मदिरा-कलश और चषक पहुँचाते हैं। राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश, पीछे-पीछे कुछ नागरिक।)

राक्षसः सुवासिनी! एक पात्र और; चलो इस कुञ्ज में।

सुवासिनीः नहीं, अब मैं न सँभव सकूँगी।

राक्षसः फिर इन लोगों से कैसे पीछा छूटेगा?

सुवासिनीः मेरी एक इच्छा है।

एक नागरिकः क्या इच्छा है सुवासिनी, हम लोग अनुचर हैं।केवल एक सुन्दर अलाप की, एक कोमल मूर्च्छना की लालसा है।

सुवासिनीः अच्छा तो अभिनय के साथ।

सबः (उल्लास से) सुन्दरियों की रानी सुवासिनी की जय!

सुवासिनीः परन्तु राकषस को कच का अभिनय करना पड़ेगा।

एक नागरिकः और तुम देवयानी, क्यों? यही न? राक्षस सचमुचराक्षस होगा, यदि इसमें आनाकानी करे तो... चलो राक्षस!

दूसराः नहीं मूर्ख! आर्य राक्षस कह, इतने बड़े कला-कुशलविद्वान को किस प्रकार सम्बोधित करना चाहिए, तू इतना भी नहीं जानता।आर्य राक्षस! इन नागरिको की प्रार्थना से इस कष्ट को स्वीकार कीजिए।

(राक्षस उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। कुछ मूक अभिनय, फिरउसके बाद सुवासिनी का भाव-सहित गान)

तुम कनक किरण के अन्तराल में

लुक-छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गर्व वहन करते

यौवन के धन, रस-कन ढरते।

हे लाज भरे सौन्दर्य!

बता दो मौन बने रहते हो क्यों?

अधरों के मधुर कगारों में

कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!

मधुसरिता-सी यह हँसी तरल

अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली

रजनीगंधा की कली खिली-

अब सान्ध्य मलय-आकुलित

दुकूल कलित हो, यों छिपते हो क्यों?

(‘साधु-साधु’ की ध्वनि)

नन्दः उस अभिनेत्री को यहाँ बुलाओ।

(सुवासिनी नन्द के समीप आकर प्रणत होती है।)

नन्दः तुम्हारा अभिनय तो अभिनय नहीं हुआ!

नागरिकः अपितु वास्तविक घटना, जैसी देखने में आवे, वैसी ही।

नन्दः तुम बड़े कुशल हो। ठीक कहा।

सुवासिनीः तो मुझे दण्ड मिले। आज्ञा कीजिए देव!

नन्दः मेरे साथ एक पात्र।

सुवासिनीः परन्तु देव, एक बड़ी भूल होगी।

नन्दः वह क्या?

सुवासिनीः आर्य राक्षस का अभिनयपूर्ण गान नहीं हुआ।

नन्दः राक्षस!

नागरिकः यही है, देव!

(राक्षस आकर प्रणाम करता है।)

नन्दः वसन्तोत्सव की रानी की आज्ञा से तुम्हें गाना होगा।

राक्षसः उसका मूल्य होगा एक पात्र कादम्ब।

(सुवासिनी पात्र भर कर देती है।)

(सुवासिनी मान का मूक अभिनय करती है, राक्षस सुवासिनी केसम्मुख अभिनय सहित गाता है -)

निकल मत बाहर दुर्बल आह।

लगेगा तुझे हँसी का शीत

शरद नीरद माला के बीच

तड़प ले चपला-सी भयभीत

पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार

जलन कुछ-कुछ हैं मीठी पर

सम्हाले चल कितनी है दूर

प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर

अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ

भरे तारे न ढुलकते आह!

न उफना दे आँसू हैं भरे

इन्हीं आँखों में उनकी चाह

काकली-सी बनने की तुम्हें

लगन लग जाय न हे भगवान्‌

पपीहा का पी सुनता कभी!

अरे कोकिल की देख दशा न;

हृदय है पास, साँस की राह

चले आना-जाना चुपचाप

अरे छाया बन, छू मत उसे

भरा है तुझमें भीषण ताप

हिला कर धड़कन से अविनीत

जगा मत, सोया है सुकुमार

देखता है स्मृतियों का स्वप्न,

हृदय पर मत कर अत्याचार।

कई नागरिकः स्वर्गीय अमात्‌ वक्रनास के कुल की जय!

नन्दः क्या कहा, वक्रनास का कुल?

नागरिकः हाँ देव, आर्य राक्षस उन्हीं के भ्रातुष्पुत्र हैं।

नन्दः राक्षस! आज से तुम मेरे अमात्यवर्ग मं नियुक्त हुए। तुमतो कुसुमपुर के एक रत्न हो!

(उसे माला पहनाता है और शस्त्र देता है।)

सबः सम्राट की जय हो! अमात्य राक्षस की जय हो!

नन्दः और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनयशाला की रानी!

(सब हर्ष प्रकट करते हुए जाते हैं।)

(पाटलिपुत्र मं एक भग्नकुटीर)

चाणक्यः (प्रवेश करके) झोंपड़ी ही तो थी, पिताजी यहीं मुझे

गोद में बिठाकर राज-मन्दिर का सुख अनुभव करते थे। ब्राह्मण थे, ऋतऔर अमृत जीविका से सन्तुष्ट थे, पर वे भी न रहे! कहाँ गये? कोईनहीं जानता। मुझे भी कोई नहीं पहचानता। यही तो मगध का राष्ट्र है।प्रजा की खोज है किसे? वृद्ध दरिद्र ब्राह्मण कहीं ठोकरें खाता होगा याकहीं मर गया होगा!

(एक प्रतिनिधि का प्रवेश)

प्रतिवेशीः (देखकर) कौन हो जी तुम? इधर के घरों को बड़ीदेर से क्या घूर रहे हो?

चाणक्यः ये घर हैं, जिन्हें पशु की खोह कहने में भी संकोचहोता है? यहाँ कोई स्वर्ण-रत्नों का ढ़ेर नहीं, जो लूटने का भय हो।

प्रतिवेशीः युवक, क्या तुम किसी को खोज रहे हो?

चाणक्यः हाँ, खोज रहा हूँ, यहीं झोंपड़ी में रहने वाले वृद्धब्राह्मण चणक को। आजकल वे कहाँ हैं, बता सकते हो?

प्रतिवेशीः (सोचकर) ओहो, कई बरस हुए, वह तो राजा की आज्ञासे निर्वासित कर दिया गया है। (हँसकर) वह ब्राह्मण भी बड़ा हठी था। उसनेराजा नन्द के विरुद्ध प्रचार करना आरम्भ किया था। सो भी क्यों, एक मन्त्रीशकटार के लिए। उसने सुना कि राजा ने शकटार को बन्दीगृह में बंध करवाड़ाला। ब्राह्मण ने नगर में इस अन्याय के विरुद्ध आतंक फैलाया। सबसे कहनेलगा कि - “यह महापद्म का जारज पुत्र नन्द महापद्म का हत्याकारी नन्द -मगध में राक्षसी राज्य कर रहा है। नागरिकों, सावधान!”

चाणक्यः अच्छा तब क्या हुआ!

प्रतिवेशीः वह पकड़ा गया। सो भी कब, जब एक दिन अहेर कीयात्रा करते हुए नन्द के लिए राजपथ में मुक्तकंठ से नागरिकों ने अनादरके वाक्य कहे। नन्द ने ब्राह्मण को समझाया। यह भी कहा कि तेरा मित्रशकटार बन्दी है, मारा नहीं गया। पर वह बड़ा हठी था; उसने न माना,न ही माना। नन्द ने भी चिढ़कर उसक ब्राह्मस्व बौद्ध-विहार में दे दिया औरउसे मगध से निर्वासित कर दिया। यही तो उसकी झोंपड़ी है।

(जाता है।)

चाणक्यः (उसे बुलाकर) अच्छा एक बात और बताओ।

प्रतिवेशीः क्या पूछते हो जी, तुम इतना जान लो कि नन्द कोब्राह्मणों से घोर शत्रुता है और वह बौद्ध धर्मानुयायी हो गया है।

चाणक्यः होने दो; परन्तु यह तो बताओ - शकटार का कुटुम्बकहाँ है?

प्रतिवेशीः कैसे मनुष्य हो? अरे राज-कोपानल में वे सब जलमरे इतनी-सी बात के लिए मुझे लौटाया था छि।

(जाना चाहता है।)

चाणक्यः हे भगवान्‌! एक बात दया करके और बता दो -शकटार की कन्या सुवासिनी कहाँ है?

प्रतिवेशीः (जोर से हँसता है।) युवक! वह बौद्ध-विहार में चलीगयी थी, परन्तु वहाँ भी न रह सकी। पहले तो अभिनय करती फिरतीथी, आजकल कहाँ है, नहीं जानता।

(जाता है।)

चाणक्यः पिता का पता नहीं, झोंपड़ी भी न रह गयी। सुवासिनीअभिनेत्री हो गयी - सम्भवतः पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बोंका सर्वनाश और कुसुमपुर फूलों की सेज से ऊँघ रहा है! क्या इसीलिए राष्ट्रकी शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध! मगध! सावधान! इतनाअत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाशही करूँगा! (ठहरकर) एक बार चलूँ, नन्द से कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि,मेरी वृपि, वही मिल जाय; मैं शास्त्र-व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझएराष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या तो चलूँ। (देखकर) यह एक लकड़ी का स्तम्भअभी उसी झोंपड़ी का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्यकाल की सहस्रों भाँवरियाँलिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण चढ़ा रहता था!

शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन हो जा!

(खम्भा खींच कर गिराता हुआ चला जाता है।)

(कुसुमपुर के सरस्वती मन्दिर के उपवन का पथ)

राक्षसः सुवासिनी! हठ न करो।

सुवासिनीः नहीं, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जीनहीं सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्ध-स्तूप की पूजा करकेआ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था, राक्षस! उसनेकहा - “वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थी, चलो अच्छाही हुआ। ऐसे धर्म के अनुगत पतितों की भी कमी नहीं।”

राक्षसः यह उसका अन्याय था।

सुवासिनीः परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नहीं तो मैं समझूँगीकि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो।

राक्षसः मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तुसुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्धमत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिकसीमा तक - इतना ही कि संसार दुःखमय है।

सुवासिनीः इसके बाद?

राक्षसः मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियों को सुखी बनाने कापक्षपाती हूँ। और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नहीं किया, परन्तु भिक्षुभी न बन सका।

सुवासिनीः तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र मं बौद्धमतका समर्थन करना होगा।

राक्षसः मैं प्रस्तुत हूँ।

सुवासिनीः फिर लो, मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारीसदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्धमत इसका समर्थन करताहै, सबको शरण देता है। हम दोनों उपासक होकर सुखी बनेंगे।

राक्षसः इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल आँखों में न फैलाओ।

सुवासिनीः नहीं प्रिय! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की

विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नहीं रहना चाहती।

(जाती है।)

राक्षसः एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नहींआता - (आँख मींचकर) - सुवासिनी! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम मैंहस्तगत कर लूँ? नहीं, राजकोप होगा! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या,मेरा परिष्कृत विचार सब व्यर्थ है। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यासहै। वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूँगा।

(नेपथ्य से - हटो, माग छोड़ दो।)

राक्षसः कोई राजकुल की सवारी है? तो चलूँ।

(जाता है।)

(रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश)

कल्याणीः (शिविका से उतरती हुई लीला से) शिविका उद्यान केबाहर ले जाने के लिए कहौ और रक्षी लोग भी वहीं ठहरें।

(शिविका ले कर रक्षक जाते हैं।)

कल्याणीः (देखकर) आज सरस्वती-मन्दिर में कोई समाज हैक्या? जा तो नीला, देख आ।

(नीला जाती है।)

लीलाः राजकुमारी, चलिए इस श्वेत शिला पर बैठिए। यहाँअशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होनेपर भी स्पृहणीय नहीं।

कल्याणीः चल।

(दोनों जाकर बैठती हैं, नीला आती है।)

नीलाः राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोगसरस्वती-दर्शन के लिए आये हैं।

कल्याणीः क्या सब लौट आये हैं?

नीलाः यह तो न जान सकी।

कल्याणीः अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लताफैल रही है। महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसेराज - आतंक से वे भी डरी हुई हों। सच नीला, मैं देखती हूँ किमहाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरता भले ही हो।

नीलाः सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह है, परन्तु मुझेडर लगता है।

कल्याणीः मुझे इसका बड़ा दुःख है। देखती हूँ कि समस्त प्रजाउनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनकाबड़ा दुर्नान है।

नीलाः परन्तु इसका उपाय क्या है? देख लीला, वे दो कौन इधरआ रहे हैं। चल, हम लोग छिप जायँ।

(सब कुंज में चली जाती हैं, दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश)

एक ब्रह्मचारीः धर्मपालित, मगध को उन्माद हो गया है। वहजनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता कास्वप्न देख रहा है। तुम तो गये नहीं, मैं अभी उपरापथ से आ रहा हूँ।गणतन्त्रों में सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही है।इधर उन्मप मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है।

दूसराः स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज -पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारों के शिर परताण्डव नृत्य कर रहा है। वह सिद्धान्त विहीन, नृशंस, कभी बौद्धों कापक्षपाती, कभी वैदिकों का अनुायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-संचय करता रहता है। मुझे जनता धर्म की ओट में नचायी जा रही है।

परन्तु तुम देश-विदेश देखकर आये हो, आज मेरे घर पर तुम्हारा निमन्त्रणहै, वहाँ सब को तुम्हारी यात्रा का विवरम सुनने का अवसर मिलेगा।

पहिलाः चलो। (दोनों जाते हैं, कल्याणी बाहर आती है।)

कल्याणीः सुन कर हृदय गी गति रुकने लगती है। इतना कदर्थितराजपद! जिसे साधारण नागरिक भी घृणा की दृष्टि से देखता है - कितनेमूल्य का है लीला?

नेपथ्य सेः भागो - भागो! यह राजा का अहेरी चीता पिंजरेसे निकल भागा है, भागो, भागो!

(तीनों डरती हुई कुंज में छिपने लगती हैं। चीता आता है। दूरसे तीर आकर उसका शिर भेद कर निकल जाता है। धनुष लिये हुएचन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः कौन यहाँ है? किधर से स्त्रियों का क्रन्दन सुनाई पड़ाथा! - (देखकर) - अरे, यहाँ तो तीन कुसुमारियाँ हैं! भद्रे, पशु ने कुछचोट तो नहीं पहुँचायी?

लीलाः साधु! वीर! राजकुमारी की प्राण-रक्षा के लिए तुम्हेंअवश्य पुरस्कार मिलेगा !

चन्द्रगुप्तः कौन राजकुमारी, कल्याणी देवी?

लीलाः हाँ, यही न है? भय से मुख विवर्ण हो गया है।

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, मौर्य सेनापति का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रणामकरता है।

कल्याणीः (स्वस्थ होकर, सलज्ज) नमस्कार, चन्द्रगुप्त, मैं कृतज्ञहुई। तुम भी स्नातक होकर लौटे हो?

चन्द्रगुप्तः हां देवि, तक्षशिला में पाँच वर्ष रहने के कारण यहाँके लोगों को पहचानने में विलम्ब होता है। जिन्हें किशोर छोड़कर गयाथा, अब वे तरुण दिखाई पड़ते हैं। मैं अपने कई बाल-सहचरों को भीपहचान न सका।

कल्याणीः परन्तु मुझे आशा थी कि तुम मुझे न भूल जाओगे।

चन्द्रगुप्तः देवि, यह अनुचर सेवा के उपयुक्त अवसर पर हीपहुँचा। चलिए, शिविका तक पहुँचा दूँ। (सब जाते हैं।)

(मगध में नन्द की राजसभा)

(राक्षस और सभासदों के साथ नन्द)

नन्दः तब?

राक्षसः दूत लौट आये और उन्होंने कहा कि पंचनंद-नरेश कोयह सम्बन्ध स्वीकार नहीं।

नन्दः क्यों?

राक्षसः प्राच्य - देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वेपरिणय नहीं कर सकते।

नन्दः इतना गर्व!

राक्षसः यह उसका गर्व नहीं, यह धर्म का दम्भ है, व्यंग है।मैं इसका फल दूँगा। मगध जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोईयों ही नहीं बच जायेगा। ब्राह्मणों का यह...

(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारीः जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिये गये हुए तक्षशिलाके स्नातक आये हैं।

नन्दः लिवा लाओ।

(दौवारिक का प्रस्थान; चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश)

स्नातकः राजाधिराज की जय हो!

नन्दः स्वागत। अमात्य वररुचि अभी नहीं आये, देखो तो?

(प्रतिहारी का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश)

वररुचिः जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था।

नन्दः तक्षशिला से लौटे हुए स्नातकों की परीक्षा लीजिए।

वररुचिः राजाधिराज, जिस गुरुकुल में मैं स्वयं परीक्षा देकरस्नातक हुआ हू, उसके प्रमाण की भी पुनः परीक्षा, अपने गुरुजनों के प्रतिअपमान करना है।

नन्दः किन्तु राजकोश का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को भेजने मेंलगता है या इसका सदुपयोग होता है, इसका निर्णय कैसे हो?

राक्षसः केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए पर्याप्त है!और वह तो मगध में ही मिल सकती है।

(चाणक्य का सहसा प्रवेश; त्रस्त दौवारिक पीछे-पीछे आता है।)

चाणक्यः परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार के लिए पूर्णनहीं हो सकती, भले ही संघ-विहार में रहनेवालों के लिए उपयुक्त हो।

नन्दः तुम अनधिकार चर्चा करनेवाले कौन हो जी?

चाणक्यः तक्षशिला से लौटा हुआ एक स्नातक ब्राह्मण!

नन्दः ब्राह्मण! ब्राह्मण!! जिधर देखो कृत्या के समान इनकी

शक्ति-ज्वाला धधक रही है।

चाणक्यः नहीं महाराज! ज्वाला कहाँ? भस्मावगुण्ठित अंगारे रहगये हैं!

राक्षसः तब भी इतना ताप!

चाणक्यः वह तो रहेगा ही! जिस दिन उसका अन्त होगा, उसीदिन आर्यावर्त का ध्वंस होगा। यदि अमात्य ने ब्राह्मण-नाश करने काविचार किया हो तो जन्मभूमि की भलाई के लिए उसका त्याग कर दें;क्योंकि राष्ट्र का शुभ-चिन्तन केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। एक जीवकी हत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मँडराने वाली विपपियों से,रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणिहोंगे।

नन्दः ब्राह्मण! तुम बोलना नहीं जानते हो तो चुप रहना सीखो।

चाणक्यः महाराज, उसे सीखने के लिए मैं तक्षशिला गया था औरमगध का सिर ऊँचा करके उसी गुरुकुल में मैंने अध्यापन का कार्य भीकिया है। इसलिए मेरा हृदय यह नहीं मान सकता कि मैं मूर्ख हूँ।

नन्दः तुम चूप रहो!

चाणक्यः एक बात कहकर महाराज!

राक्षसः क्या?

चाणक्यः यवनों की विकट वाहिनी निषध-पर्वतमाला तक पहुँचगयी है। तक्षशिलाधीश की भी उसमें अभिसंधि है। सम्भवतः समस्तआर्यावर्त पादाक्रान्त होगा। उपरापथ में बहुत-से छोटे-छोटे गणतंत्र हैं, वेउस सम्मिलित पारसीक यवन-बल को रोकने में असमर्थ होंगे। अकेलेपर्वतेश्वर न साहस किया है, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायताकरनी चाहिए।

कल्याणीः (प्रवेश करके) पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व कीपरीक्षा लूँगी। मैं वृषल-कन्या हूँ। उस क्षत्रिय को यह सिखा दूँगी किराजकन्या कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नहीं। सेनापति को आज्ञा दीजिएकि आसन्न गांधार-युद्ध में मगध की एक सेना अवश्य जाय और मैं स्वयंउसका संचालन करूँगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचादिखाऊँगी।

(नन्द हँसता है।)

राक्षसः राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगोंके लिए छोड़ देना चाहिए। उद्धत पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे,और ब्राह्मण चाणक्य! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने काअधिकारी नहीं हो जाता।

चाणक्यः सच है बौद्ध अमात्य, परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्धऔर ब्राह्मण का भेद न रक्खेंगे।

नन्दः वाचाल ब्राह्मण! तुम अभी चले जाओष नहीं तो प्रतिहारीतुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे।

चाणक्यः राजाधिराज! मैं जानता हूँ कि प्रमाद में मनुष्य कठोरसत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नहीं की - अपनेअपहृत ब्राह्मणस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं माँगी? क्यों? जानता था किवह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी! परन्तु जब राष्ट्र के लिए...

राक्षसः चुप रहो। तुम चणक के पुत्र हो न, तुम्हारे पिता भीऐसे ही हठी थे!

नन्दः क्या उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान? निकालो इसे अभीयहाँ से!

(प्रतिहारी आगे बढ़ता है, चन्द्रगुप्त सामने आकर रोकता है।)

चन्द्रगुप्तः सम्राट्‌, मैं प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान नकिया जाय। मैं भी उपरापथ से आ रहा हूँ। आर्य चाणक्य ने जो कुछकहा है, वह साम्राज्य के हित की बात है। उस पर विचार किया जाय।

नन्दः कौन? सेनापति मौर्य का कुमार चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः हाँ देव, मैं युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिलाभेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेवके मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपपि पंचनंद-प्रदेश तक हीन रह जायगी।

नन्दः अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भीमैं पर्वतेश्वर की सहायता करूँ? असम्भव है। तुम राजाज्ञाओं में बाधा नदेकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को! यह बड़ा हीकुचक्री मालूम पड़ता है!

चन्द्रगुप्तः राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेंगेऔर मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनाएँगे।

राजकुमारीः पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिए। एक बातउसकी भी मान लीजिए।

नन्दः चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नहीं क्षमा करता; औरसुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकतेहो, अब कभी; मगध में मुँह न दिखाना ।

(प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है, चाणक्य रुक कर कहताहै।)

चाणक्यः सावधान नन्द! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीतिआँधी की तरह चलेगी, उसमें नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरीके भावों में बल पड़ने लगा है। समय आ गया है कि शूद्र राजसिंहासनके हटाये जायँ और सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हों।

नन्दः यह समझकर कि ब्राह्मण अवध्य है, तूम मुझे भय दिखलाताहै! प्रतिहारी, इसकी शिखा पकड़ कर इसे बाहर करो।

(प्रतिहारी उसकी शिखा पकड़कर घसीटता है, वह निश्शंक औरदृढ़ता से कहता है।)

चाणक्यः खींच ले ब्राह्मण की शिखा! शूद्र के अन्न से पले हुएकुपे! खींच ले! परन्तु यह शिखा नन्दकुल की काल-सर्पिणी है, वह तबतक न बन्धन में होगी, जब तक नन्द-कुल निःशेष न होगा।

नन्दः इसे बन्दी करो।

(चाणक्य बन्दी किया जाता है।)

(सिन्धु-तटः अलका और मालविका)

मालविकाः राजकुमारी! मैं देख आयी, उद्‌भांड में सिन्धु पर सेतुबन रहा है। युवराज स्वयं उसका निरीक्षण करते हैं और मैंने उक्त सेतुका एक मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। यह कुछ अधूरा-सा रह गया है;पर इसके देखने से कुछ आभास मिल जायगा।

अलकाः सखी! बड़ा दुःख होता है, जब मैं यह स्मरण करतीहूँ कि स्वयं महाराज का इसमें हाथ है। देखूँ तेरा मानचित्र!

(मालविका मानचित्र देती है, अलका उसे देखती है; एक यवन-सैनिक का प्रवेश - वह मानचित्र अलका से लेना चाहता है।अलकाः दूर हो दुर्विनीत दस्यु! (मानचित्र अपने कंचुक में छिपालेती है।)

यवनः यह गुप्तचर है, मैं इसे पहचानता हूँ। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो; जो इसकी सहायता कर रही हो, अच्छा हो कि मुझे मानचित्रमिल जाय, और मैं इसे सप्रमाण बन्दी बनाकर महाराज के सामने लेजाऊँ।

अलकाः यह असम्भव है। पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम यहाँकिस अधिकार से यह अत्याचार किया चाहते हो?

यवनः मैं? मैं देवपुत्र विजेता अलक्षेन्द्र का नियुक्त अनुचर हूँऔर तक्षशिला की मित्रता का साक्षी हूँ। यह अधिकार मुझे गांधार-नरेशने दिया है।

अलकाः ओह! यवन, गांधार-नरेश ने तुम्हें यह अधिकार कभीनदीं दिया होगा कि तुम आर्य-ललनाओं के साथ धृष्टता का व्यवहार करो।

यवनः करना ही पड़ेगा, मुझे मानचित्र लेना ही होगा।

अलकाः कदापि नहीं।

यवनः क्या यह वही मानचित्र नहीं है, जिसे इस स्त्री ने उद्‌भांडमें बनाना चाहा था।

अलकाः परन्तु यह तुम्हें नहीं मिल सकता। यदि तुम सीधे यहाँसे न टलोगे तो शांति-रक्षकों को बुलाऊँगी।

यवनः तब तो मेरा उपकार होगा, क्योंकि इस अँगूठी को देखकरवे मेरी ही सहायता करेंगे - (अँगूठी दिखाता है।)

अलकाः (देखकर सिर पकड़ लेती है।) ओह!

यवनः (हँसता हुआ) अब ठीक पथ पर आ गयी होगी बुद्धि।लाओ, मानचित्र मुझे दे दो।

(अलका निस्सहाय इधर-उधर देखती है; सिंहरण का प्रवेश)

सिंहरणः (चौंककर) हैं...कौन... राजकुमारी! और यह यवन!

अलकाः महावीर! स्त्री की मर्यादा को न समझने वोल इस यवनको तुम समझा दो कि यह चला जाय।

सिंहरणः यवन, क्या तुम्हारे देश की सभ्यता तुम्हें स्त्रियों कासम्मान करना नहीं सिखाती? क्या सचमुच तुम बर्बर हो?

यवनः मेरी उस सभ्यता ही ने मुझे रोक लिया है, नहीं तो मेरायह कर्तव्य था कि मैं उस मानचित्र को किसी भी पुरुष के हाथ में होनेसे उसे जैसे बनता, ले ही लेता।

सिंहरणः तुम बड़े प्रगल्भ हो यवन! क्या तुम्हें भय नहीं कि तुमएक दूसरे राज्य में ऐसा आचरण करके अपनी मृत्यु बुला रहे हो?

यवनः उसे आमन्त्रण देने के लिए ही उतनी दूर से आया हूँ।

सिंहरणः राजकुमारी! यह मानचित्र मुझे देकर आप निरापद होजायँ, फिर मैं देख लूँगा।

अलकाः (मानचित्र देती हुई) तुम्हारे ही लिए तो यह मँगाया गयाथा।

सिंहरणः (उसे रखते हुए) ठीक है, मं रुका भी इसीलिए था।(यवन से) हाँ जी, कहो अब तुम्हारी क्या इच्छा है?

यवनः (खड्‌ग निकालकर) मानचित्र मुझे दे दो या प्राण देनाहोगा।

सिंहरणः उसके अधिकारी का निर्वाचन खड्‌ग करेगा। तो फिरसावधान हो जाओ। (तलवार खींचता है।)

(यवन के साथ युद्ध - सिंहरण घायल होता है; परन्तु यवन कोउसक भीषण प्रत्याक्रमण से भय होता है, वह भाग निकलता है।)

अलकाः वीर! यद्यपि तुम्हें विशअराम की आवश्यकता है; परन्तुअवस्था बड़ी भयानक है। वह जाकर कुछ उत्पात मचावेगा। पिताजीपूर्णरूप से यवनों के हाथ में आत्म-समर्पण कर चुके हैं।

सिंहरणः (हँसता और रक्त पोंछता हुआ) मेरा काम हो गयाराजकुमारी! मेरी नौका प्रस्तुत है, मैं जाता हूँ। परन्तु बड़ा अनर्थ हुआचाहता है। क्या गांधार-नरेश किसी तरह न मानेंगे?

अलकाः कदापि नहीं। पर्वतेश्वर से उनका बद्धमूल बैर है।

सिंहरणः अच्छा देखा जायगा, जो कुछ होगा। देखिए, मेरी नौकाआ रही है, अब विदा माँगता हूँ।

(सिन्धु में नौका आती है, घायल सिंहरण उस पर बैठता है,सिंहरण और अलका दोनों एक-दूसरे को देखते हैं।)

अलकाः मालविका भी तुम्हारे साथ जायगी - तुम जाने योग्यइस समय नहीं हो।

सिंहरणः जैसी आज्ञा। बहुत शीघ्र फिर दर्शन करूँगा। जन्मभूमिके लिए ही यह जीवन है, फिर अब आप-सी सुकुमारियाँ इसकी सेवामें कटिबद्ध हैं, तब मैं पीछे कब रहूँगा। अच्छा, नमस्कार!

(मालविका नाव में बैठती है। अलका सतृष्ण नयनों से देखती हुईनमस्कार करती है। नाव चली जाती है।)

(चार सैनिकों के साथ यवन का प्रवेश)

यवनः निकल गया - मेरा अहेर! यह सब प्रपंच इसी रमणीका है। इसको बन्दी बनाओ।

(सैनिक अलका को देखकर सिर झुकाते है।)

यवनः बन्दी करो सैनिक।

सैनिकः मैं नहीं कर सकता।

यवनः क्यों, गांधार-नरेश ने तुम्हें क्या आज्ञा दी है?

सैनिकः यही कि आप जिसे कहें, उसे हम लोग बन्दी करकेमहाराज के पास ले चलें।

यवनः फिर विलम्ब क्यों?

(अलका संकेत से वर्जित करती है।)

सैनिकः हम लोगों की इच्छा।

यवनः तुम राजविद्रोही हो?

सैनिकः कदापि नहीं, पर यह काम हम लोगों से न हो सकेगा।

यवनः सावधान! तुमको इस आज्ञा-भंग का फल भोगना पड़ेगा।मैं स्वयं बन्दी बनाता हूँ।

(अलका की ओर बढ़ता है, सैनिक तलवार खींच लेते हैं।)

यवनः (ठहरकर) यह क्या?

सैनिकः डरते हो क्या? कायर! स्त्रियों पर वीरता दिखाने में बड़ेप्रबल हो और एक युवक के सामने से भाग निकले!

यवनः तो क्या, तुम राजकीय आज्ञा का स्वयं न पालन करोगेऔर न करने दोगे!

सैनिकः यदि साहस को महने का तो आगे बढ़ो।

अलकाः (सैनिकों से) ठहरो; विवाद करने का समय नहीं है।(यवन से) कहो, तुम्हारा अभिप्राय क्या है?

यवनः मैं तुम्हें बन्दी बनाना चाहता हूँ।

अलकाः कहाँ ले चलोगे?

यवनः गांधार-नरेश के पास।

अलकाः मैं चलती हूँ, चलो।

(आगे अलका, पीछे यवन और सैनिक जाते हैं।)

(मगध का बन्दीगृह)

चाणक्यः समीर की गति भी अवरुद्ध है, शरीर का फिर क्याकहना! परन्तु मन में इतने संकल्प और विकल्प? एक बार निकलने पातातो दिखा देता कि इन दुर्बल हाथों में साम्राज्य उलटने की शक्ति है औरब्राह्मण के कोमल हृदय में कर्तव्य के लिए प्रलय की आँधी चला देनेकी भी कठोरता है। जकड़ी हुई लौह-श्रंखले! एक बार तू फूलों की मालाबन जा और मैं मदोन्मप विलासी के समान तेरी सुन्दरता को भंग करदूँ! क्या रोने लगूँ? इश निष्ठुर यंत्रणा की कठोरता से बिलबिलाकर दयाकी भिक्षा माँगूँ! माँगूँ कि मुझे भोजन के लिए एक मु ी चने देते हो,न दो, एक बार स्वतंत्र कर दो। नहीं, चाणक्य! ऐसा न करना। नहीं तोतू भी साधारण-सी ठोकर खाकर चूर-चूर हो जाने वाली एक बामी होजायगा। तब मैं आज से प्रण करता हूँ कि दया किसी से न माँगूँगा औरअधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर न करूँगा। (ऊपर देख कर)क्या कभी नहीं? हाँ, हाँ, कभी किसी पर नहीं। मैं प्रलय के समानअबाधगति और कर्तव्य में इन्द्र के वज्र के समान भयानक बनूँगा।

(किवाड़ खुलता है, वररुचि और राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः स्नातक! अच्छे तो हो?

चाणक्यः बुरे कब थे बौद्ध अमात्य!

राक्षसः आज हम लोग एक काम से आये हैं। आशा है कि तुमअपनी हठवादिता से मेरा और अपना दोनों का अपकार न करोगे।

वररुचिः हाँ चाणक्य! अमात्य का कहना मान लो।

चाणक्यः भिक्षोपजीवी ब्राह्मण! क्या बौद्धों का संग करते-करतेतुम्हें अपनी गरिमा का सम्पूर्ण विस्मरण हो गया? चाटुकारों के सामने हाँमें हाँ मिलाकर, जीवन की कठिनाइयों से बचकर, मुझे भी कुपे का पाठपढ़ाना चाहते हो! भूलो मत, यदि राक्षस देवता हो जा तो उसका विरोधकरने के लिए मुझे ब्राह्मण से दैत्य बनना पड़ेगा।

वररुचिः ब्राह्मण हो भाई! त्याग और क्षमा के प्रमाण - तपोनिधिब्राह्मण हो। इतना -

चाणक्यः त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान केलिए है - लोहे औ सोने के सामने सिर झुकाने के लिए हम लोग ब्राह्मणनहीं बने हैं। हमारी दी हुई विभूति से हमीं को अपमानित किया जाय,ऐसा नहीं हो सकता। कात्यायन! अब केवल पामिनि से काम न चलेगा।अर्थशास्त्र और दण्ड-नीति की आवश्यकता है।

वररुचिः मैं वार्तिक लिख रहा हूँ चाणक्य! उसी के लिए तुम्हेंसहकारी बनाना चाहता हूँ। तुम इस बन्दीगृह से निकलो।

चाणक्यः मैं लेखक नहीं हूँ कात्यायन! शास्त्र-प्रणेता हूँ,व्यवस्थापक हूँ।

राक्षकः अच्छा मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम विवाद न बढ़ाकर स्पष्टउपर दो। तुम तक्षशिला में मगध के गुप्त प्रणिधि बनकर जाना चाहतेहो या मृत्यु चाहते हो? तुम्हीं पर विश्वास करके क्यों भेजना चाहता हूँ,यह तुम्हारी स्वीकृति मिलने पर बताऊँगा।

चाणक्यः जाना तो चाहता हूँ तक्षशिला, पर तुम्हारी सेवा के लिएनहीं। और सुनो, पर्वतेश्वर का नाश करने के लिए तो कदापि नहीं।

राक्षसः यथेष्ठ है, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं।

वररुचिः विष्णुगुप्त! मेरा वार्तिक अधूरा रह जायगा। मान जाओ।तुमको पाणिनि के कुछ प्रयोगों का पता भी लगाना होगा जो उसशालातुरीय वैयाकरण ने लिखे हैं! फिर से एक बार तक्षशिला जाने परही उनका -

चाणक्यः मेरे पास पाणिनि में सिर खपाने का समय नहीं। भाषाठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ, समझे!

वररुचिः जिसने ‘श्वयुवमघोनामतद्धते’ सूत्र लिखा है, वह केवलवैयाकरण ही नहीं, दार्शनिक भी था। उसकी अवहेलना!

चाणक्यः यह मेरी समझ में नहीं आता, मैं कुपा; साधारण युवकऔर इन्द्र को कभी एक सूत्र में नहीं बाँध सकता। कुपा, कुपा ही रहेगा;इन्द्र, इन्द्र! सुनो वररुचि! मैं कुपे को कुपा ही बनाना चाहता हूँ। नीचोंके हाथ में इन्द्र का अधिकार चले जाने से जो सुख होता है, उसे मैंभोग रहा हूँ। तुम जाओ।

वररुचिः क्या मुक्ति भी नहीं चाहते?

चाणक्यः तुम लोगों के हाथ से वह भी नहीं।

राक्षसः अच्छा तो फिर तुम्हें अन्धकूप में जाना होगा।

(चन्द्रगुप्त का रक्तपूर्ण खड्‌ग लिये सहसा प्रवेश - चाणक्य का

बन्धन काटता है, राक्षस प्रहरियों को बुलाना चाहता है।)

चन्द्रगुप्तः चुप रहो! अमात्य! शवों में बोलने की शक्ति नहीं,तुम्हारे प्रहरी जीवित नहीं रहे।

चाणक्यः मेरे शिष्य! वत्स चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः चलिए गुरुदेव! (खड्‌ग उठाकर राक्षस से) यदि तुमनेकुछ भी कोलाहल किया तो... (राक्षस बैठ जाता है; वररुचि गिर पड़ताहै। चन्द्रगुप्त चाणक्य को लिये निकलता हुआ किवाड़ बन्द कर देता है।)

(गांधार-नरेश का प्रकोष्ठ)

(चिन्तायुक्त प्रवेश करते हुए राजा)

राजाः बूढ़ा हो चला, परन्तु मन बूढ़ा न हुआ। बहुत दिनों तकतृष्णा को तृप्त करता रहा, पर तृप्त नहीं होती। आम्भीक तो अभी युवकहै, उसके मन में महप्वाकांक्षा का होना अनिवार्य है। उसका पथ कुटिलहै, गंधर्व-नगर की-सी सफलता उसे अफने पीछे दौड़ा रही है। (विचारकर) हाँ, ठीक तो नहीं है; पर उन्नति के शिखर पर नाक के सीधे चढानेमें बड़ी कठिनता है। (ठहरकर) रोक दूँ। अब से भी अच्छा है, जबवे घुस आवेंगे तब तो गांधार को भी वही कष्ट भोगना पड़ेगा, जो हमदूसरों को देना चाहते हैं।

(अलका के साथ यवन और रक्षकों का प्रवेश)

राजाः बेटी! अलका!

अलकाः हाँ महाराज, अलका।

राजाः नहीं, कहो - हाँ पिताजी। अलका, कब तक तुम्हें सिखातारहूँ।

अलकाः नहीं महाराज!

राजाः फिर महाराज! पागल लड़की। कह, पिताजी!

अलकाः वह कैसे महाराज! न्यायाधिकरण पिता - सम्बोधन सेपक्षपाती हो जायगा।

राजाः यह क्या?

यवनः महाराज! मुझे नहीं मालूम कि ये राजकुमारी है। अन्यथा,मैं इन्हें बन्दी न बनाता।

राजाः सिल्यूकस! तुम्हारा मुख कंधे पर से बोल रहा है। यवन!यह मेरी राजकुमारी अलका है। आ बेटी - (उसकी ओर हाथ बढ़ाताहै, वह अलग हट जाती है।)

अलकाः नहीं महाराज! पहले न्याय कीजिए।

यवनः उद्‌भाण्ड पर बँधनेवाले पुल का मानचित्र इन्होंने एक स्त्रीसे बनवाया है, और जब मैं उसे माँगने लगा, तो एक युवक को देकरइन्होंने उसे हटा दिया। मैंने यह समाचार आप तक निवेदन किया औरआज्ञा मिली कि वे लोग बन्दी किये जायँ; परन्तु वह युवक निकल गया।

राजाः क्यों बेटी! मानचित्र देखने की इच्छा हुई थी? (सिल्यूकससे) तो क्या चिन्ता है, जाने दो। मानचित्र तुम्हारा पुल बँधना रोक नहींसकता।

अलकाः नहीं महाराज! मानचित्र एक विशेष कार्य से बनवायागया है - वह गांधार की लगी हुई कालिख छुड़ाने के लिए...।

राजाः सो तो मैं जानता हूँ बेटी! तुम क्या कोई नासमझ हो!

(वेग से आम्भीक का प्रवेश)

आम्भीकः नहीं पिताजी, आपके राज्य में एक भयानक षड्‌यन्त्रचल रहा है और तक्षशिला का गुरुकुल उसका केन्द्र है। अलका उशरहस्यपूर्ण कुचक्र की कुंजी है।

राजाः क्यों अलका! यह बात सही है?

अलकाः सत्य है, महाराज! जिस उन्नति की आशा में आम्भीकने यह नीच कर्म किया है, उसका पहला फल यह है कि आज मैं बन्दिनीहूं, सम्भव है कल आप होंगे। और परसों गांधार की जनता बेगार करेगी।उनका मुखिया होगा आपका वंश - उज्जवलकारी आम्भीक!

यवनः सन्धि के अनुसार देवपुत्र का साम्राज्य और गांधार मित्र-राज्य हैं, व्यर्थ की बात है।

आम्भीकः सिल्यूकस! तुम विश्राम करो। हम इसको समझ करतुमसे मिलते हैं।

(यवन का प्रस्थान, रक्षकों का दूसरी ओर जाना)

राजाः परन्तु आम्भीक! राजकुमारी बन्दिनी बनायी जाय, वह भीमेरे ही सामने! उसके लिए एक यवन दण्ड की व्यवस्था करे, यही तोतुम्हारे उद्योगों का फल है।

अलकाः महाराज! मुझे दण्ड दीजिए, कारागार में भेजिए, नहींतो मैं मुक्त होने पर भी यही करूँगी। कुलपुत्रों के रक्त से आर्यावर्त कीभूमि सिंचेगी! दानवी बनकर जननी जन्म-भूमि अपनी सन्तान को खायगी।महाराज! आर्यावर्त के सब बच्चे आम्भीक जैसे नहीं होंगे। वे इसकी मानप्रतिष्ठा और रक्षा के लिए तिल-तिल कट जायँगे। स्मरण रहे, यवनों कीविजयवाहिनी के आक्रमण को प्रत्यावर्तन बनाने वाले यही भारत-सन्तानहोंगे। तब बचे हुए क्षतांग वीर, गांधार को - भारत के द्वाररक्षक को -विश्वासघाती के नाम से पुकारेंगे और उसमें नाम लिया जायगा मेरा पिताका! उसे सुनने के लिए मुझे जीवित न छोड़िए दण्ड दीजिए - मृत्युदण्ड!

आम्भीकः इसे उन सबों ने खूब बकराया है। राजनीति के खेलयह क्या जाने? पिताजी, पर्वतेश्वर-उद्दंड पर्वतेश्वर ने जो मेरा अपमानकिया है, उसका प्रतिशोध!

राजाः हाँ बेटी! उसने स्पष्ट कह दिया है कि, कायर आम्भीकसे अपने लोक-विश्रुत कुल की कुमारी का ब्याह न करूँगा। और भी,उसने वितस्ता के इस पार अपनी एक चौकी बना दी है, जो प्राचीनसन्धियों के विरुद्ध है।

अलकाः तब महाराज! उस प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जो लड़कर मर नहीं गया वह कायर नहीं तो और क्या है?

आम्भीकः चुप रहो अलका!

राजाः तुम दोनों ही ठीक बातें कर रहे हो, फिर मैं क्या करूँ?

अलकाः तो महाराज! मुझे दण्ड दिजीए, क्योंकि राज्य का

उपराधिकारी आम्भीक ही उसके शुभाशुभ की कसौटी है; मैं भ्रम में हूँ।

राजाः मैं यह कैसे कहूँ?

अलकाः तब मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजमन्दिर छोड़ कर चलीजाऊँ।

राजाः कहाँ जाओगी और क्या करोगी अलका?

अलकाः गांधार में विद्रोह मचाऊँगी।

राजाः नहीं अलका, तुम ऐसा नहीं करोगी।

अलकाः करूँगी महाराज, अवश्य करूँगी।

राजाः फिर मैं पागल हो जाऊँगा! मुझे तो विश्वास नहीं होता।

आम्भीकः और तब अलका, मैं अपने हाथों से तुम्हारी हत्याकरूँगा।

राजाः नहीं आम्भीक! तुम चुप रहो। सावधान! अलका के शरीरपर जो हाथ उठाना चाहता है, उसे मैं द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता हूँ।

(आम्भीक सिर नीचा कर लेता है।)

अलकाः तो मैं जाती हूँ पिता जी!

राजाः (अन्यमनस्क भाव से सोचता हुआ) जाओ!

राजाः आम्भीक!

आम्भीकः पिता जी!

राजाः लौट आओ।

आम्भीकः इस अवस्था में तो लौट आता; परन्तु वे यवन-सैनिकछाती पर खड़े हैं। पुल बँध चुका है। नहीं तो पहले गांधार का ही नाशहोगा।

राजाः तब? (निःश्वास लेकर) जो होना हो सो हो। पर एकबात आम्भीक! आ से मुझसे कुछ न कहना। जो उचित समझो करो। मैंअलका को खोजने जाता हूँ। गांधार जाने और तुम जानो।

(वेग से प्रस्थान)

(पर्वतेश्वर की राजसभा)

पर्वतेश्वरः आर्य चाणक्य! आपकी बातें ठीक-ठीक नहीं समझमें आतीं।

चाणक्यः कैसे आवेंगी, मेरे पास केवल बात ही है न, अभी कुछकर दिखाने में असमर्थ हूँ।

पर्वतेश्वरः परनतु इस समय मुझे यवनों से युद्ध करना है, मैंअपना एक भी सैनिक मगध नहीं भेज सकता।

चाणक्यः निरुपाय हूँ। लौट जाऊँगा। नहीं तो मगध की लक्षाधिकसेना आगामी यवन-युद्ध में पौरव पर्वतेश्वर की पताका के नीचे युद्ध करती।वही मगध, जिसने सहायता माँगने पर पञ्चनन्द का तिरस्कार किया था।

पर्वतेश्वरः हाँ, तो इस मगध-विद्रोह का केन्द्र कौन होगा? नन्दके विरुद्ध कौन खड़ा होता है?

चाणक्यः मौर्य-सेनानी का पुत्र चन्द्रगुप्त - जो मेरे साथ यहाँआया है।

पर्वतेश्वरः पिप्पली-कानन के मौर्य भी तो वैसे ही वृषल है;उसको राज्य सिंहासन दीजियेगा?

चाणक्यः आर्य-क्रियाओं का लोप हो जाने से इन लोगों कोवृषलत्व मिला; वस्तुतः ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनकेश्रौत-संस्कार छूट गये हैं अवश्य, परन्तु इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देहनहीं। और, महाराज! धर्म के नियाम ब्राह्मण हैं, मुझे पात्र देखकर; उसकासंस्कार करने का अधिकार है। ब्राह्मणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभवहै। वह अपनी रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए और सेवा के लिए इतरवर्णों का संघटन कर लेगा। राजन्य-संस्कृति से पूर्ण मनुष्य को मूर्धाभिषिक्तबनाने में दोष ही क्या है!

पर्वतेश्वरः (हँसकर) यह आपका सुविचार नहीं है ब्रह्मन्‌!

चाणक्यः वसिष्ठ का ब्राह्मणत्व जब पीड़ित हुआ था, तब पल्लव,दरद, काम्बोज आदि क्षत्रिय बने थे। राजन्‌, यह कोई नयी बात नहीं है।

पर्वतेश्वरः वह समर्थ ऋषियों की बात है।

चाणक्यः भविष्य इसका विचार करता है कि ऋषि किन्हें कहतेहैं। क्षत्रियाभिमानी पौरव! तुम इसके निर्णायक नहीं हो सकते।

पर्वतेश्वरः शूद्र-शासित राष्ट्र में रहने वाले ब्राह्मण के मुख से यहबात शोभा नहीं देती।

चाणक्यः तभी तो ब्राह्मण मगध को क्षत्रिय-शासन में ले आनाचाहता है। पौरव! जिसके लिए कहा गया है, कि क्षत्रिय के शस्त्र धारणकरने पर आर्तवाणी नहीं सुनाई पड़नी चाहिए, मौर्य चन्द्रगुप्त वैसा हीक्षत्रिय प्रमाणित होगा।

पर्वतेश्वरः कल्पना है।

चाणक्यः प्रत्यक्ष होगा। और स्मरण रखना, आसन्न यवन-युद्ध मैं,शौर्य-गर्व से तुम पराभूत होगे। यवनों के द्वारा समग्र आर्यावर्त पादाक्रान्तहोगा। उस समय तुम मुझे स्मरण करोगे।

पर्वतेश्वरः केवल अभिशाप-अस्त्र लेकर ही तो ब्राह्मण लड़ते हैं।मैं इससे नहीं डरता। परन्तु डरनेवाले ब्राह्मण! तुम मेरी सीमा के बाहरहो जाओ!

चाणक्यः (ऊपर देखकर) रे पददलित ब्राह्मणत्व! देख, शूद्र नेनिगड़-बद्ध किया, क्षत्रिय निर्वासित करता है, तब जल - एक बार अपनीज्वाला से जल! उसकी चिनगारी स ेतेरे पोषक वैश्य, सेवक शूद्र औररक्षक क्षत्रिय उत्पन्न हों। जाता हूँ पौरव!

(प्रस्थान)

(कानन-पथ में अलका)

अलकाः चली जा रही हूँ। अनन्त पथ है, कहीं पान्थशाला नहींऔर न तो पहुँचने का निर्दिष्ठ स्थान है। शैल पर से गिरा दी गयीस्रोतस्विनी के सदृश अविराम भ्रमण, ठोकरें और तिरस्कार! कानन में कहाँचली जा रही हूँ? - (सामने देखकर) - अरे! यवन!!

(शिकारी के वेश में सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकसः तुम कहाँ सुन्दरी राजकुमारी!

अलकाः मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ हैं और मेरेजंगल हैं। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं के बने हैं! फिर मैं और कहाँ जाऊँगीयवन?

सिल्यूकसः यहाँ तो तुम अकेली हो सुन्दरी

अलकाः सो तो ठीक है। (दूसरी ओर देखकर सहसा) परन्तुदेखो वह सिंह आ रहा है!

(सिल्यूकस उधर देखता है, अलका दूसरी ओर निकल जाती है।)

सिल्यूकसः निकल गयी! (दूसरी ओर जाता है।)

(चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चाणक्यः वत्स, तुम बहु थक गये होगे।

चन्द्रगुप्तः आर्य! नसों ने अपने बंधन ढीले कर दिये हैं, शरीर

अवसन्न हो रहा है, प्यास भी लगी है।

चाणक्यः और कुछ दूर न चल सकोगे?

चन्द्रगुप्तः जैसी आज्ञा हो।

चाणक्यः पास ही सिन्धु लहराता होगा, उसके तट पर ही विश्रामकरना ठीक होगा।

(चन्द्रगुप्त चलने के लिए पैर बढ़ाता है फिर बैठ जाता है।)

चाणक्यः (उसे पकड़ कर) सावधान, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः आर्य! प्यास से कंठ सूख रहा है, चक्कर आ रहाहै!

चाणक्यः तुम विश्राम करो, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।

(प्रस्थान)

(चन्द्रगुप्त पसीने से तर लेट जाता है। एक व्याघ्र समीप आतादिखाई पड़ता है। सिल्यूकस प्रवेश करके धनुष सँभालकर तीर चलाता है।व्याघ्र मरता है। सिल्यूकस की चन्द्रगुप्त को चैतन्य करने की चेष्टा।चाणक्य का जल लिये आना।)

सिल्यूकसः थोड़ा जल, इस सप्वपूर्ण पथिक की रक्षा करने केलिए थोड़ा चल चालिए।

चाणक्यः (जल के छींटे दे कर) आप कौन हैं?

(चन्द्रगुप्त स्वस्थ होता है।)

सिल्यूकसः यवन सेनापति! तुम कौन हो?

चाणक्यः एक ब्राह्मण।

सिल्यूकसः यह तो कोई बड़ा श्रीमान्‌ पुरुष है। ब्राह्मण! तुमइसके साथी हो?

चाणक्यः हाँ, मैं इस राजकुमरा का गुरू हूँ, शिक्षक हूँ।

सिल्यूकसः कहाँ निवास है?

चाणक्यः यह चन्द्रगुप्त मगध का निर्वासित राजकुमार है।

सिल्यूकसः (कुछ विचारता है।) अच्छा, अभी तो मेरे शिविर मंचलो, विश्राम करके फिर कहीं जाना।

चन्द्रगुप्तः यह सिंह कैसे मरा? ओह, प्यास से मैं हतचेत हो गयाथा - आपने मेरे प्राणों की रक्षा की, मैं कृतज्ञ हूँ। आज्ञा दीजिए, हमलोग फिर उपस्थित होंगे, निश्चय जानिए।

सिल्यूकसः जब तुम अचेत पड़े थे तब यह तुम्हारे पास बैठाथा। मैंने विपद समझ कर इसे मार डाला। मैं यवन सेनापति हूँ।

चन्द्रगुप्तः धन्यवाद! भारतीय कृतघ्न नहीं होते। सेनापति! मैंआपका अनुगृहीत हूँ, अवशअय आपके पास आऊँगा।

(तीनों जाते हैं, अलका का प्रवेश)

अलकाः आर्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त - ये भी यवनों के साथी!जब आँधी और करका-वृष्टि, अवर्षण और दावाग्नि का प्रकोप हो, तबदेश की हरी-भरी खेती का रक्षक कौन है? शून्य व्योम प्रश्न को बिनाउपर दिये लौटा देता है। ऐसे लोग भी आक्रमणकारियों के चंगुल में फँसरहे हों, तब रक्षा की क्या आशा। झेलम के पार सेना उतरना चाहती है।

उन्मप पर्वतेश्वर अपने विचारों में मग्न है। गांधार छोड़ कर चलूँ, नहीं,एक बार महात्मा दाण्ड्यायन को नमस्कार कर लूँ, उस शान्ति-संदेश सेकुछ प्रसाद लेकर तब अन्यत्र जाऊँगी।

(जाती है।)

(सिन्धु-तट पर दाण्ड्यायन का आश्रम)

दाण्ड्यायनः पवन एक क्षण विश्राम नहीं लेता, सिन्धु की जलधाराबही जा रही है, बादलों के नीचे पक्षियों का झुण्ड उड़ा जा रहा है, प्रत्येकपरमाणु न जाने किसी आकर्षण में खिंचे चले जा हे हैं। जैसे काल अनेकरूप में चल रहा है - यही तो...

(एनिसाक्रीटीज का प्रवेश)

एनिसाक्रीटीजः महात्मन्‌!

दाण्ड्यायनः चुप रहो, सब चले जा रहे हैं, तुम भी चले जाओ।अवकाश नहीं, अवसर नहीं।

एनिसाक्रीटीजः आप से कुछ...

दाण्ड्यायनः मुझसे कुछ मत कहो। कहो तो अपने-आप ही कहो,जिसे आवश्यकता होगी सुन लेगा। देखते हो, कोई किसी की सुनता है?

मैं कहता हूँ सिन्धु के एक बिन्द! धारा में न बहकर मेरी एक बात सुननेके लिए ठहर जा। वह सुनता है? कदापि नहीं।

एनिसाक्रीटीजः परन्तु देवपुत्र ने...

दाण्ड्यायनः देवपुत्र?

एनिसाक्रीटीजः देवपुत्र जगद्विजेता सिकन्दर ने आपका स्मरण

किया है। आपका यश सुनकर आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने की उनकीबलवती इच्छा है।

दाण्ड्यायनः (हँसकर) भूमा का सुख और उसकी महपा काजिसका आभासमात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन नहींअभिभूत कर सकते, दूत! वह किसी बलवान की इच्छा का क्रीड़ा-कन्दुकनहीं बन सकता। तुम्हारा राजा अभी झेलम भी नहीं पार कर सका, फिरभी जगद्विजेता की उपाधि लेकर जगत्‌ को वञ्चित करता है। मैं लोभ से,सम्मान से या भय से किसी के पास नहीं जा सकता।

एनिसाक्रीटीजः महात्मन्‌! क्यों? यदि न जाने पर देवपुत्र दण्डदें?

दाण्ड्यायनः मेरी आवश्यकताएँ परमात्मा की विभूति प्रकृति पूरीकरती है। उसके रहते दूसरों का शासन कैसा? समस्त आलोक, चैतन्यऔर प्राणशक्ति, प्रभु की दी हुई है। मृत्यु के द्वारा वही इसको लौटा लेताहै। जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले ेलने की स्पर्धा से बढ़करदूसरा दम्भ नहीं। मैं फल-मूल खाकर अंजलि से जलपान कर, तृण-शय्यपर आँख बन्द किये सो रहता हूँ। न मुझसे किसी को डर है और नमुझको डरने का कारण है। तुम ही यदि हठात्‌ मुझे ले जाना चाहो तोकेवल मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मेरी स्वतंत्र आत्मा पर तुम्हारेदेवपुत्र का भी अधिकार नहीं हो सकता।

अनिसाक्रीडीजः बड़े निर्भीत को ब्राह्मण! जाता हूँ, यही कहदूँगा। (प्रस्थान)

(एक ओर से अलका, दूसरी ओर से चाणक्य और चन्द्रगुप्त काप्रवेश। सब वन्दना करके सविनय बैठते हैं।)

अलकाः देव! मैं गांधार छोड़ कर जाती हूँ।

दाण्ड्यायनः क्यों अलके, तुम गाँधार की लक्ष्मी हो, ऐसा क्यों?

अलकाः ऋषे! यवनों के हाथ स्वाधीनता बेचकर उनके दान सेजीने की शक्ति मुझमें नहीं।

दाण्ड्यायनः तुम उपरापथ की लक्ष्मी हो, तुम अपना प्राण बचाकरकहाँ जाओगी? (कुछ विचार कर) अच्छा जाओ देवी! तुम्हारी आवश्यकताहै। मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन कल्याण छिपाये रहताहै, हम सब उसे नहीं समझ सकते। परन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो,निस्संकोच चली आना।

अलकाः देव, हृदय में सन्देह है।

दाण्ड्यायनः क्या अलका?

अलकाः ये दोनों महाशय, जो आपके सम्मुख बैठे हैं - जिनपर पहले मेरा पूर्ण विश्वास था; वे ही अब यवनों के अनुगत क्यों होनाचाहते हैं।

(दाण्ड्यायन चाणक्य की ओर देखता है और चाणक्य कुछविचारने लगता है।)

चन्द्रगुप्तः देवि! कृतज्ञता का बन्धन अमोघ है।

चाणक्यः राजकुमारी! उस परिस्थिति पर आपने विचार नहीं

किया है, आपकी शंका निर्मूल है।

दाण्ड्यायनः सन्देह न करो अलका! कल्याणकृत को पूर्ण विश्वासीहोना पड़ेगा। विश्वास सुफल देगा, दुर्गति नहीं।

(यवन सैनिक का प्रवेश)

यवनः देवपुत्र आपकी सेवा में आना चाहते हैं, क्या आज्ञा है?

दाण्ड्यायनः मैं क्या आज्ञा दूँ सैनिक! मेरा कोई रहस्य नहीं,निभृत मन्दिर नहीं, यहाँ पर सबका प्रत्येक क्षण स्वागत है।

(सैनिक जाता है।)

अलकाः तो मैं जाती हूँ, आज्ञा हो।

दाण्ड्यायनः कोई आतंक नहीं है, अलका! ठहरो तो।

चाणक्यः महात्मन्‌, हम लोगों को आज्ञा है? किसी दूसरे समयउपस्थित हों?

दाण्ड्यायनः चाणक्य! तुमको तो कुछ दिनों तक इस स्थान पररहना होगा, क्योंकि सब विद्या के आचार्य होने पर भी तुम्हें उसका फलनहीं मिला - उद्वेग नहीं मिटा। अभी तक तुम्हारे ृदय में हलचल मचीहै, यह अवस्था सन्तोषजनक नहीं।

(सिकन्दर का सिल्यूकस, कार्नेलिया, एनिसाक्रीटीज इद्यादि सहचरोंके साथ प्रवेश, सिकन्दर नमस्कार करता है, सब बैठते हैं।)

दाण्ड्यायनः स्वागत अलक्षेन्द्र! तुम्हें सद्बुद्धि मिले।

सिकन्दरः महात्मन्‌! अनुगृहीत हुआ, परन्तु मुझे कुछ औरआशीर्वाद चाहिए।

दाण्ड्यायनः मैं और आशीर्वाद देने में असमर्थ हूँ। क्योंकि इसकेअतिरिक्त जितने आशीर्वाद होंगे, वे अमंगलजनक होंगे।

सिकन्दरः मैं आपके मुख से जय सुनने का अभिलाषी हूँ।

दाण्ड्यायनः जयघोष तुम्हारे चारण करेंगे, हत्या, रक्तपात औरअग्निकांड के लिए उपकरण जुटाने में मुझे आनन्द नहीं। विजय-तृष्णा काअन्त पराभव में होता है, अलक्षेन्द्र! राजसपा सुव्यवस्था से बढ़े तो बढ़सकती है, केवल विजयों से नहीं। इसलिए अपनी प्रजा के कल्याण मेंलगो।

सिकन्दरः अच्छा (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) यह तेजस्वी युवक कौनहै?

सिल्यूकसः यह मगध का एक निर्वासित राजकुमार है।

सिकन्दरः मैं आपका स्वागत करने के लिए अपने शिविर मंनिमन्त्रित करता हूँ।

चन्द्रगुप्तः अनुगृहीत हुआ। आर्य लोग किसी निमन्त्रण कोअस्वीकार नहीं करते।

सिकन्दरः (सिल्यूकस से) तुमसे इनसे कब परिचय हुआ?

सिल्यूकसः इनसे तो मैं पहले ही मिल चुका हूँ।

चन्द्रगुप्तः आपका उपकार मैं भूला नहीं हूँ। आपने व्याघ्र से मेरीरक्षा की थी, जब मैं अचेत पड़ा था।

सिकन्दरः अच्छा तो आप लोग पूर्व-परिचित भी हैं। तब तोसेनापति, इनके आतिथ्य का भार आप ही पर रहा।

सिल्यूकसः जैसी आज्ञा।

सिकन्दरः (महात्मा से) महात्मन्‌! लौटती बार आपका फिर दर्शनकरूँगा, जब भारत-विजय कर लूँगा।

दाण्ड्यानः अलक्षेन्द्र, सावधान! (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) देखो,यह भारत का भावी सम्राट्‌ तुम्हारे सामने बैठा है।

(सब स्तब्ध होकर चन्द्रगुप्त को देखते हैं और चन्द्रगुप्त आश्चर्यसे कार्नेलिया को देखने लगता है। एक दिव्य आलोक)

(पटाक्षेप)



  • द्वितीय अंक : चंद्रगुप्त
  • भूमिका : चंद्रगुप्त
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