चंद्रगुप्त (नाटक): जयशंकर प्रसाद

Chandragupta (Play) : Jaishankar Prasad

तृतीय अंक : चंद्रगुप्त

(विपाशा-तट का शिविर... राक्षस टहलता हुआ)

राक्षसः एक दिन चाणक्य ने कहा था कि आक्रमणकारी यवन,ब्राह्मण और बौद्धों का भेद न मानेंगे। वही बात ठीक उतरी। यदि मालवऔर क्षुद्रक परास्त हो जाते और यवन-सेना शतद्रु पार कर जाती, तो मगधका नाश निश्चित था। मूर्ख मगध-नरेश ने संदेह किया है और बार-बारमेरे लौट आने की आज्ञाएँ आने लगी हैं! परन्तु...

(एक चर प्रवेश करके प्रणाम करता है।)

राक्षसः क्या समाचार है?

चरः बड़ा ह आतंकजनक है अमात्य!

राक्षसः कुछ कहो भी।

चरः सुवासिनी पर आपसे मिल कर कुचक्र रचने का अभियोगहै, वह कारागार में है।

राक्षसः (क्रोध से) और भी कुछ?

चरः हाँ अमात्य, प्रान्त - दुर्ग पर अधिकार करके विद्रोह करनेके अपराध मं आपको बन्दी बना कर ले आने वाले के लिए पुरस्कारकी घोषणा की गयी है।

राक्षसः यहाँ तक! तुम सत्य कहते हो?

चरः मैं तो यहाँ तक कहने के लिए प्रस्तुत हूँ कि अपने बचनेका शीघ्र उपाय कीजिए।

राक्षसः भूल थी! मेरी भूल थी! मूर्ख राक्षस! मगध की रक्‌करने चला था। जाता मगध, कटती प्रजा, लुटते नगर! नन्द! क्रूरता औरमूर्खता की प्रतिमूर्ति नन्द। एक पशु। उसके लिए क्या चिन्ता थी!सुवासिनी! मैं सुवासिनी के लिए मगध को बचाना चाहता था। कुटिलविश्वासघातिनी राज-सेवा! तुझे धिक्कार है!

(एक नायक का सैनिकों के साथ प्रवेश)

नायकः अमात्य राक्षस, मगध-सम्राट्‌ की आज्ञा से शस्त्र त्यागकीजिए, आप बन्दी हैं।

राक्षसः (खड्‌ग खींचकर) कौन है तू मूर्ख? इतना साहस!

नायकः यह तो बन्दीगृह बतावेगा। बल-प्रयोग करने के लिए मैंबाध्य हूँ। (सैनिकों से) अच्छा। बाँध लो।

(दूसरी ओर से आठ सैनिक आकर उन पहले के सैनिकों कोबन्दी बनाते हैं। राक्षस आश्चर्यचकित होकर देखता है।)

नायकः तुम सब कौन हो?

नवागत-सैनिकः राक्षस के शरीर-रक्षक!

राक्षसः मेरे!

नवागतः हाँ अमात्य! आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी है कि जब तकयवनों का उपद्रव है, तब तक सब की रक्षा होनी चाहिए, भले ही वहराक्षस क्यों न हो।

राक्षसः इसके लिए मैं चाणक्य का कृतज्ञ हूँ।

नवागतः परन्तु अमात्य! कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आपकोउनके समीप तक चलना होगा।

(सैनिकों को संकेत करता है, बन्दियों को लेकर चले जाते हैं।)

राक्षसः मुझे कहाँ चलना होगा? राजकुमारी से शिविर में भेंटकर लूँ।

नवागतः वहीं सबसे भेंट होगी। यह पत्र है।

(राक्षस पत्र लेकर पढ़ता है।)

राक्षसः अलका का सिंहरण से ब्याह होने वाला है, उसमें मैं भीनिमंत्रित किया गया हूँ! चाणक्य विलक्षण बुद्धि का ब्राह्मण है, उसकी प्रखरप्रतिभा कूट राजनीति के साथ रात-दिन जैसे खिलवाड़ किया करती है।

नवागतः हाँ, आपने और भी कुछ सुना है?

राक्षसः क्या?

नवागतः यवनों ने मालवों से सन्धि करने का संदेश भेजा है।सिकन्दर ने उस वीर रमणी अलका को देखने की बड़ी इच्छा प्रकट कीहै, जिसने दुर्ग में सिकन्दर का प्रतिरोध किया था।

राक्षसः आश्चर्य!

चरः हाँ अमात्य! यह तो मैं कहने ही नहीं पाया था। रावी-तट पर एक विस्तृत शिविरों की रंगभूमि बनी है, जिसमें अलका का ब्याहहोगा। जब से सिकन्दर को यह विदित हुआ है कि अलका तक्षशिला-नरेश आम्भीक की बहन है, तब से उसे एक अच्छा अवसर मिल गयाहै। उसने उक्त शुभ अवसर पर मालवों और यवनों के एक सम्मिलतउत्सव के करने की घोषणा कर दी है। आम्भीक के पक्ष से स्वयं निमंत्रितहोकर, परिणय-संपादन कराने दल-बल के साथ सिकन्दर भी आवेगा।

राक्षसः चाणक्य! तू धन्य है! मुझे ईर्ष्या होती है! चलो।

(सब जाते हैं)

(रावी-तट के उत्सव-शिविर का एक पथ। पर्वतेश्वर अकेलेटहलते हुए।)

पर्वतेश्वरः आह! कैसा अपमान! जिस पर्वतेश्वर ने उपरापथ मेंअनेक प्रबल शत्रुओं के रहते भी विरोधों को कुचल कर गर्व से सिरऊँचा कर रक्खा था, जिसने दुर्दान्त सिकन्दर के सामने मरण को तुच्छसमझते हुए, वक्ष ऊँचा करके भाग्य से हँसी-ठठ्ठा किया था, उसी का यहतिरस्का - सो भी एक स्त्री के द्वारा! और सिकन्दर के संकेत से!प्रतिशोध! रक्त-पिशाची प्रतिहिंसा अपने दाँतों से नसों को नोच रही है!मरूँ या मार डालूँ! मारना तो असम्भव है। सिंहरण और अलका, वर-वधू वेश में हैं, मालवों के चुने हुए वीरों से वे घिरे हैं। सिकन्दर उनकीप्रशंसा और आदर में लगा है। इस समय सिंहरण पर हाथ उठानाअसफलता के पैरों तले गिरना है। तो फिर जी कर क्या करूँ?

(छुरा निकाल कर आत्महत्या करना चाहता है, चाणक्य आकरहाथ पकड़ लेता है।)

पर्वतेश्वरः कौन?

चाणक्यः ब्राह्मण चाणक्य।

पर्वतेश्वरः इस मेरे अन्तिम समय में भी क्या कुछ दान चाहते हो?

चाणक्यः हाँ!

पर्वतेश्वरः मैंने अपना राज्य दिया, अब हटो।

चाणक्यः यह तो तुमने दे दिया, परन्तु इसे मैंने तुमसे माँगा नथा, पौरव!

पर्वतेश्वरः फिर क्या चाहते हो?

चाणक्यः एक प्रश्न का उपर।

पर्वतेश्वरः तुम अपनी बात मुझे स्मरण दिलाने आये हो? तो ठीकहै! ब्राह्मण! तुम्हारी बात सच हुई। यवनों ने आर्यावर्त को पददलित करलिया। मैं गर्व में भूला था, तुम्हारी बात न मानी। अब उसी का प्रायश्चिपकरने जाता हूँ। छोड़ दो।

चाणक्यः पौरव! शान्त हो। मैं एक दूसरी बात पूछता हूँ। वृषलचन्द्रगुप्त क्षत्रिय है कि नहीं, अथवा उसे मुर्धाभिषिक्त करने में ब्राह्मण सेभूल हुई!

पर्वतेश्वरः आह, ब्राह्मण! व्यंग न करो। चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होनेका प्रमाण यही विराट आयोजन है। आर्य चाणक्य! मैं क्षमता रखते हुएजिस काम को न कर सका, वह कार्य निस्सहाय चन्द्रगुप्त ने किया।आर्यावर्त से यवनों को निकल जाने का संकेत उसके प्रचुर बल का द्योतकहै। मैं विश्वस्त हृदय से कहता हूँ कि चन्द्रगुप्त आर्यावर्त का एक एकच्छत्रसम्राट होने के उपयुक्त है। अब मुझे छोड़ दो।

चाणक्यः पौरव! ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहींचाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है, राजा बनाना जानताहै। इसलिए तुम्हें अभी राज्य करना होगा, और करना होगा वह कार्य -जिसमें भारतीयों का गौरव और तुम्हारे क्षात्र धर्म का पानल हो।

पर्वतेश्वरः (छुरा फेंककर) वह क्या काम है?

चाणक्यः जिन यवनों ने तुमको लांछित और अपमानित किया है,उनसे प्रतिशोध!

पर्वतेश्वरः असम्भव है।

चाणक्यः (हँसकर) मनुष्य अपनी दुर्बलता से भलीभाँति परिचितरहता है। परन्तु उसे अपने बल से भी अवगत होना चाहिए। असम्भवकहकर किसी काम को करने के पहले कर्मक्षेत्र में काँपकर लड़खड़ाओमत पौरव! तुम क्या हो - विचार कर देखो तो! सिकन्दर ने जो क्षत्रपनियुक्त किया है, जिन सन्धियों को वह प्रगतिशील रखना चाहता है, वेसब क्या है? अपनी लूट-पाट को वह साम्राज्य के रूप में देखना चाहताहै! चाणक्य जीते-जी यह नहीं होने देगा! तुम राज्य करो!

पर्वतेश्वरः परन्तु आर्य, मैंने राज्य दान कर दिया है।

चाणक्यः पौरव! तामस त्याग से साप्विक ग्रहण उपम है। वहदान न था, उसमें कई सत्य नहीं। तुम उसे ग्रहण करो।

पर्वतेश्वरः तो क्या आज्ञा है?

चाणक्यः पीछे बतलाऊँगा। इस समय मुझे केवल यही कहना हैकि सिंहरण को अपना भाई समजो और अलका को बहन।

(वृद्ध गांधार-राज का सहसा प्रवेश)

वृद्धः अलका कहाँ है, अलका?

पर्वतेश्वरः कौन हो तुम वृद्ध?

चाणक्यः मैं इन्हें जानता हूँ - वृद्ध गांधार-नरेश!

पर्वतेश्वरः आर्य, मैं पर्वतेश्वर प्रणाम करता हूँ।

वृद्धः मैं प्रणाम करने योग्य नहीं, पौरव! मेरी सन्तान से देशका बड़ा अनिष्ट हुआ है। आम्भीक ने लज्जा की यवनिका में मुझे छिपादिया है। इस देशद्रोही के प्राण केवल अलका को देखने के लिए बचेहैं, उसी से कुछ आशा थी। जिसको मोल लेने में लोभ असमर्थ था, उसीअलका को देखना चाहता हूँ और प्राण दे देना चाहता हूँ। (हाँफता है।)चाणक्यः क्षत्रिय! तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों जीवित हैं।

स्वस्तिमती अलका आज सौभाग्यवती होने जा रही है, चलो कन्या-संप्रदानकरके प्रसन्न हो जाओ।

(चाणक्य वृद्ध गांधार-नरेश को लिवा जाता है।)

पर्वतेश्वरः जाऊँ? किधर जाऊँ? चाणक्य के पीछे? (जाता है।)

(कार्नेलिया और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः कुमारी, आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

कार्नेलियाः किस बात की?

चन्द्रगुप्तः कि मैं विस्मृत नहीं हुआ।

कार्नेलियाः स्मृति कोई अच्छी वस्तु है क्या?

चन्द्रगुप्तः स्मृति जीवन का पुरस्कार है, सुन्दरी।

कार्नलियाः परन्तु मैं कितने दूर देश की हूँ। स्मृतियाँ ऐसे अवसरपर उद्दण्ड हो जाती है। अतीत के कारागृह में बन्दिनी स्मृतियाँ अपनेकरुण निश्वास की श्रृंखलाओं को झनझनाकर सूचीभेद्य अन्धकार में सोजाती है।

चन्द्रगुप्तः ऐसा हो तो भूल जाओ शुभे! इस केन्द्रच्युत जलते हुएउल्कपिंड की कोई कक्षा नहीं। निर्वासित, अपमानित प्राणों की चिन्ताक्या?

कार्नेलियाः नहीं चन्द्रगुप्त, मुझे इस देश से जन्मभूमि के समानस्नेह होता जा रहा है। यहाँ के श्यामल-कुंज, घने जंगल, सरिताओं कीमाला हने हुए शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीत-कालकी धूप और भोले कृषक तथा सरला कृषक-बालिकाएँ, बाल्यकाल कीसुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ हैं। यह स्वप्नों का देश, यह त्यागऔर ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि - भारतभूमि क्या भुलायी जासकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यों की जन्म-भूमि है, यह भारतमानवता की जन्मभूमि है।

चन्द्रगुप्तः शुभे, यह सुनकर चकित हो गया हूँ।

कार्नेलियाः और मैं मर्माहत हो गयी हूँ चन्द्रगुप्त, मुझे पूर्णविश्वास था कि यहाँ के क्षत्रप पिताजी नियुक्त होंगे और मैं अलेग्जेंद्रियामें समीप ही रह कर भारत को देख सकूँगी। परन्तु वैसा न हुआ, सम्राट्‌ने फिलिप्स को यहाँ का शासक नियुक्त कर दिया है।

(अकस्मात्‌ फिलिप्स का प्रवेश)

फिलिप्सः तो बुरा क्या है कुमारी? सिल्यूकस के क्षत्रप न होनेपर भी कार्नेलिया यहाँ की शासक हो सकती है। फिलिप्स अनुचर होगा- (देखकर) - फिर वही भारतीय युवक!

चन्द्रगुप्तः सावधान, यवन! हम लोग एक बार एक-दूसरे कीपरीक्षा ले चुके हैं।

फिलिप्सः ऊँह! तुमसे मेरा सम्बन्ध ही क्या है, परन्तु...

कार्नेलियाः और मुझसे भी नहीं, फिलिप्स! मैं चाहती हूँ कि तुममुझसे न बोलो।

फिलिप्सः अच्छी बात है। किन्तु मैं चन्द्रगुप्त को भी तुमसे बातेंकरते हुए नहीं देख सकता। तुम्हारे प्रेम का...

कार्नेलियाः चुप रहो, मैं करती हूँ, चुप रहो।

फिलिप्सः (चन्द्रगुप्त) मैं तुमसे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।

चन्द्रगुप्तः जब इच्छा हो, मैं प्रस्तुत हूँ। और संधिभंग करने केलिए तुम्हीं अग्रसर होंगे, यह अच्छी बात होगी।

फिलिप्सः संधि राष्ट्र की है। यह मेरी व्यक्तिगत बात है। अच्छा,फिर कभी मैं तुम्हें आह्‌वान करूँगा।

चन्द्रगुप्तः आधी रात, पिछले पहर, जब तुम्हारी इच्छा हो।

(फिलिप्स का प्रस्थान)

कार्नेलियाः सिकन्दर ने भारत से युद्ध किया है और मैंने भारतका अध्ययन किया है। मैं देखती हूँ कि यह युद्ध ग्रीक और भारतीयोंके अस्त्र का ही नहीं, इसमें दो बुद्धियाँ भी लड़ रही है। यह अरस्तूऔर चाणक्य की चोट है, सिकन्दर और चन्द्रगुप्त उनके अस्त्र हैं।

चन्द्रगुप्तः मैं क्या कहूँ, मैं एक निर्वासित -

कार्नेलियाः लोग चाहे जो कहें, मैं भलीभाँति जानती हूँ कि अभीतक चाणक्य की विजय है। पिताजी से और मुझसे इस विषय पर अच्छाविवाद होता है। वे अरस्तू के शिष्यों में हैं।

चन्द्रगुप्तः भविष्य के गर्भ में अभी बहुत-से रहस्य छिपे हैं।

कार्नेलियाः अच्छा, तो मैं जाती हूं और एक बार अपनी कृतज्ञताप्रकट करती हूँ। किन्तु मुझे विश्वास है कि मैं पुनः लौट कर आऊँगी।

चन्द्रगुप्तः उस समय भी मुझे भूलने की चेष्टा करोगी?

कार्नेलियाः नहीं। चन्द्रगुप्त! विदा, - यवन-बेड़ा आज हीजायगा।

(दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए जाते हैं - राक्षस औरकल्याणी का प्रवेश)

कल्याणीः ऐसा विराट्‌ दृशअय तो मैंने नहीं देखा था अमात्य!मगध को किस बात का गर्व है?

राक्षसः गर्व है राजकुमारी! और उसका गर्व सत्य है। चाणक्य औरचन्द्रगुप्त मगध की ही प्रजा हैं, जिन्होंने इतना बड़ा उलट-फेर किया है।

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः तो तुम इसे स्वीकार करते हो अमात्य राक्षस?

राक्षसः शत्रु की उचित प्रशंसा करना मनुष्य का धर्म है। तुमनेअद्‌भुत कार्य किये, इसमें भी कोई सन्देह है?

चाणक्यः अस्तु, अब तुम जा सकते हो। मगध तुम्हारा स्वागतकरेगा।

राक्षसः राजकुमारी तो कल चली जायँगी। पर, मैंने अभी तकनिश्चय नहीं किया है।

चाणक्यः मेरा कार्य हो गया, राजकुमारी जा सकती है। परन्तुएक बात कहूँ?

राक्षसः क्या?

चाणक्यः यहाँ की कोई बात नन्द से न कहने की प्रतिज्ञा करनीहोगी।

कल्याणीः मैं प्रतिशुर्त होती हूँ।

चाणक्यः राक्षस, मैं सुवासिनी से तुम्हारी भेंट भी करा देता, परन्तुवह मुझ पर विश्वास नहीं करती।

राक्षसः क्या वह भी यहीं है?

चाणक्यः कहीं होगी, तुम्हारा प्रत्यय देखकर वह आ सकती है।

राक्षसः यह लो मेरी अंगुलिय मुद्रा। चाणक्य! सुवासिनी कोकारागार से मुक्त करा कर मुझसे भेंट करा दो।

चाणक्यः (मुद्रा लेकर) मैं चेष्टा करूँगा।

(प्रस्थान)

राक्षसः तो राजकुमारी, प्रणाम!

कल्याणीः तुमने अपना कर्तव्य भली-भाँति सोच लिया होगा। मैं

जाती हूँ, और विश्वास दिलाती हूँ कि मुझसे तुम्हारा अनिष्ट न होगा।

(दोनों का प्रस्थान)

(रावी का तट - सिकन्दर का बेड़ा प्रस्तुत है, चाणक्य औरपर्वतेश्वर)

चाणक्यः पौरव, देखो वह नृशंसता की बाढ़ आज उतर जायगी।चाणक्य ने जो किया, वह भला था या बुरा, अब समझ में आवेगा।

पर्वतेश्वरः मैं मानता हूँ, यह आपक ही का स्तुत्य कार्य है।

चाणक्यः और चन्द्रगुप्त के बाहु-बल का, पौरव! आज फिर मैंउसी बात को दुहराना चाहता हूँ। अत्याचारी नन्द के हाथों में मगध काउद्धार करने के लिए चाणक्य ने तुम्हीं से पहले सहायता माँगी थी औरअब तुम्हीं से लेगा भी, अब तो तुम्हें विश्वास होगा?

पर्वतेश्वरः मैं प्रस्तुत हूँ, आर्य!

चाणक्यः मैं विश्वस्त हुआ। अच्छा, यवनों को आज विदा करनाहै।

(एक ओर से सिकन्दर, सिल्यूसक, कार्नेलिया, फिलिप्स इत्यादिऔर दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त, सिंहरण, अलका, मालविका और आम्भीकइत्यादि का यवन और भारतीय रणवाद्यों के साथ प्रवेश)

सिकन्दरः सेनापति चन्द्रगुप्त! बधाई है!

चन्द्रगुप्तः किस बात की राजन्‌?

सिकन्दरः जिस समय तुम भारत के सम्राट्‌ होगे, उस समय मैंउपस्थित न रह सकूँगा, उसके लिए पहले बधाई है। मुझे उस नग्न ब्राह्मणदाण्ड्यायन की बातों का पूर्ण विश्वास हो गया।

चन्द्रगुप्तः आप वीर हैं।

सिकन्दरः आर्य वीर! मैंने भारत में हरक्यूलिस, एचिलिस कीआत्माओं को भी देखा और देखा डिमास्थनीज को। संभवतः प्लेटो औरअरस्तू भी होंगे। मैं भारत का अभिनन्दन करता हूँ।

सिल्यूकसः सम्राट! यही आर्य चाणक्य हैं।

सिकन्दरः धन्य हैं आप, मैं तलवार खींचे हुए भारत में आया,हृदय देकर जाता हूँ। विस्मय-विमुग्ध हूँ। जिनसे खड्‌ग-परीक्षा हुई थी,युद्ध में जिनसे तलवारे मिली थीं, उनसे हाथ मिलाकर - मैत्री के हाथमिलाकर जाना चाहता हूँ।

चाणक्यः हम लोग प्रस्तुत हैं सिकन्दर! तुम वीर हो, भारतीयसदैव उपम गुणों की पूजा करते हैं। तुम्हारी जल-यात्रा मंगलमय हो। हमलोग युद्ध करना जानते हैं, द्वेष नहीं।

(सिकन्दर हँसता हुआ अनुचरों के साथ नौका पर आरोहण करताहै, नाव चलती है।)

(पथ में चर और राक्षस)

चरः छल! प्रवञ्चना! विश्वासघात!

राक्षसः क्या है, कुछ सुनूँ भी!

चरः मगध से आज मेरा सखा कुरंग आया है, उससे यह मालूमहुआ है कि महाराज नन्द का कुछ भी क्रोध आपके ऊपर नहीं, वह आपके शीघ्र मगध लौटने के लिए उत्सुक हैं।

राक्षसः और सुवासिनी?

चरः सुवासिनी सुखी और स्वतंत्र है। मुझे चाणक्य के चर सेवह धोखा हुआ था, जब मैंने आपसे वहाँ का समाचार कहा था।

राक्षसः तब क्या मैं कुचक्र में डाला गया हूँ? (विचार कर)चाणक्य की चाल है। ओह, मैं समझ गया। मुझे निकल भागना चाहिए।सुवासिनी पर भी कोई अत्याचार मेरी मुद्रा दिखाकर न किया जा सके,इसके लिए मुझे शीघ्र मगध पहुँचना चाहिए।

चरः क्या आपने मुद्रा भी दे दी है?

राक्षसः मेरी मूर्खता। चाणक्य, मगध में विद्रोह कराना चाहता है।

चरः अभी हम लोगों को मगध-मुल्म मार्ग में मिल जायगा,चाणक्य से बचने के लिए उसका आश्रय अच्छा होगा। दो तीव्रगामी अश्व

मेरे अधिकार में हैं, शीघ्रता कीजिए।

राक्षसः तो चलो! चाणक्य के हाथों की कठपुतली बनकर मगधका नाश नहीं करा सकता।

(दोनों का प्रस्थान - अलका और सिंहरण का प्रवेश)

सिंहरणः देवी! पर इसका उपाय क्या है?

अलकाः उपाय जो कुछ हो, मित्र के कार्य में तुमको सहायताकरनी ही चाहिए। चन्द्रगुप्त आज कह रहे थए कि मैं मगध जाऊँगा।देखूँ पर्वतेश्वर क्या करते हैं।

सिंहरणः चन्द्रगुप्त के लिए यह प्राण अर्पित है अलके, मालव

कृतघ्न नहीं होते। देखो, चन्द्रगुप्त और चाणक्य आ रहे हैं।

अलकाः और उधर से पर्वतेश्वर भी।

(चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वतेश्वर का प्रवेश)

सिंहरणः मित्र! अभी कुछ दिन और ठहर जाते तो अच्छा था,अथवा जैसी गुरुदेव की आज्ञा!

चाणक्यः पर्वतेश्वर, तुमने मुझसे प्रतिज्ञा की है।

पर्वतेश्वरः मैं प्स्तुत हूँ, आर्य।

चाणक्यः अच्छा तो तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। सिंहरण मालवगणराष्ट्र का एख व्यक्ति है, वह अपनी शक्ति भर प्रयत्न कर सकता है,किन्तु सहायता बिना परिषद्‌ की अनुमति लिये असम्भव है। मैं परिषद्‌के सामने अपना भेद खोलना नहीं चाहता। इसलिए पौरव, सहायता केवलतुम्हें करनी होगी। मालव अपने शरीर और खड्‌ग का स्वामी है, वह मेरेलिए प्रस्तुत है। मगध का अधिकार प्राप्त होने पर जैसा तुम कहोगे...

पर्वतेश्वरः मैं कह चुका हूँ आर्य चाणक्य! इस शरीर में या धनमें, विभव में या अधिकार, मेरी स्पृहा नहीं रह गयी। मेरी सेना केमहाबलाधिृत सिंहरण और मेरा कोष आपका है।

चन्द्रगुप्तः मैं आप लोगों का कृतज्ञ होकर मित्रता को लघु नहींबनाना चाहता। चन्द्रगुप्त सदैव आप लोगों का वही सहचर है।

चाणक्यः परन्तु तुम्हें मगध नहीं जाना होगा। अभी जो मगध सेसंदेश मिले हैं, वे बड़े भयानक हैं। सेनापति तुम्हारे पिता कारागार में हैं।और भी...

चन्द्रगुप्तः इतने पर भी आपक मुझे मगध जाने से रोक रहे हैं?

चाणक्यः यह प्रश्न अभी मत करो।

(चन्द्रगुप्त सिर झुका लेता है, एक पत्र लिए मालविका का प्रवेश)

मालविकाः यह सेनापति के नाम पत्र है।

चाणक्यः क्यों?

चन्द्रगुप्तः युद्ध का आह्‌वान है। द्वन्द्व के लिए फिलिप्स कानिमंत्रण है।

चाणक्यः तुम डरते तो नहीं?

चन्द्रगुप्तः आर्य! आप मेरा उपहास कर रहे हैं।

चाणक्यः (हँसकर) तब ठीक है पौरव! तुम्हारा यहाँ रहनाहानिकारक होगा। उपरापथ की दासता के अवशिष्ट चिह्न फिलिप्स का नाशनिश्चित है। चन्द्रगुप्त उसके लिए उपयुक्त है। परन्तु यवनों से तुम्हारा फिरसंघर्ष मुझे ईप्सित नहीं है। यहाँ रहने से तुम्हीं पर सन्देह होगा, इसलिएतुम मगध चलो। और सिंहरण! तुम सन्नद्ध रहना, यवन-विद्रोह तुम्हीं कोशान्त करना होगा।

(सब का प्रस्थान)

(मगध में नन्द की रंगशाला)

(नन्द का प्रवेश)

नन्दः सुवासिनी!

सुवासिनीः देव!

नन्दः कहीं दो घडी चैन से बैठने की छुट्टी भी नहीं, तुम्हारीछाया में विश्राम करने आया हूँ।

सुवासिनीः प्रभु, क्या आज्ञा है? अभिनय देखने की इच्छा है?

नन्दः नहीं सुवासिनी, अभिनय तो नित्य देख रहा हूँ। छल, प्रतारणा,विद्रोह के अभिनय देखते-देखते आँखें जल रही है। सेनापति मौर्य-जिसकेबल पर मैं भूला था, जिसके विश्वासन पर मैं निश्चिन्त सोता था, विद्रोही- पुत्र चन्द्रगुप्त को सहायता पहुँचाता है। उसी का न्याय करना था -आजीवन अन्धपूप का दण्ड देकर आ रहा हूँ। मन काँप रहा है - न्यायहुआ कि अन्याय! हृदय संदिग्ध है। सुवासिनी, किस पर विश्वास करूँ?

सुवासिनीः अपने परिजनों पर देव!

नन्दः अमात्य राक्षस भी नहीं, मैं तो घबरा गया हूँ।

सुवासिनीः द्राक्षासव ले आऊँ?

नन्दः ले आओ (सुवासिनी जाती है।) सुवासिनी कितनी सरल है!प्रेम और यौवन के शीतल मेघ इस लहलही लता पर मँडरा रहे हैं। परन्तु...

(सुवासिनी का पान-पात्र लिये प्रवेश, पात्र भर कर देती है।)

नन्दः सुवासिनी! कुछ गाओ - वही उन्मादक गान!

(सुवासिनी गाती है।)

आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा।

मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप,

शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप!

लाज के बन्धन खोल रहा।

बिछल रही है चाँदनी, छवि-मतवाली रात,

कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात।

कौन मधु-मदिरा घोल रहा?

नन्दः सुवासिनी! जगत्‌ में और भी कुछ है - ऐसा मुझे नहींप्रतीत होता! क्या उस कोकिल की पुकार केवल तुम्हीं सुनती हो? ओह!मैं इस स्वर्ग से कितनी दूर था! सुवासिनी!

(कामुक की-सी चेष्टा करता है।)

सुवासिनीः भ्रम है महाराज! एक वेतन पानेवाली का यह अभिनय है।

नन्दः कभी नहीं, यह भ्रम है तो समस्त संसार मिथ्या है। तुमसच कहती हो, निर्बोध नन्द ने कभी वह पुकार नहीं सुनी। सुन्दरी! तुममेरी प्राणेश्वरी हो।

सुवासिनीः (सहसा चकित होकर) मैं दासी हूँ महाराज!

नन्दः यह प्रलोभन देकर ऐसी छलना! नन्द नहीं भूल सकतासुवासिनी! आओ - (हाथ पकड़ता है।)

सुवासिनीः (भयभीत होकर) महाराज! मैं अमात्य राक्षस कीधरोहर हूँ, सम्राट्‌ की भोग्या नहीं बन सकती।

नन्दः अमात्य राक्षस इस पृथ्वी पर तुम्हारा प्रणी होकर नहीं जीसकता।

सुवासिनीः तो उसे खोजने के लिए स्वर्ग में जाऊँगी।

(नन्द उसे बलपूर्वक पकड़ लेता है। ठीक उसी समय अमात्य काप्रवेश)

नन्दः (उसे देखते ही छेड़ता हुआ) तुम! अमात्य, राक्षस!

राक्षसः हाँ सम्राट्‌! एक अबला पर अत्याचार न होने देने के लिएठीक समय पर पहुँचा।

नन्दः यह तुम्हारी अनुरक्ता है राक्षस! मैं लज्जित हूँ।

राक्षसः मैं प्रस्नन हुआ कि सम्राट्‌ अपने को परखने की चेष्टाकरते हैं अच्छा, तो इस समय जाता हूँ। चलो सुवासिनी।

(दोनों जाते हैं।)

(कुसुमपुर का प्रांत भाग - चाणक्य, मालविका और अलका)

मालविकाः सुवासिनी और राक्षस स्वतंत्र हैं। उनका परिणय शीघ्रही होगा। इधर मौर्य कारागार में, वररुचि अपदस्थ, नागरिक लोग नन्दकी उच्छृंखलताओं से असन्तुष्ट हैं।

चाणक्यः ठीक है, समय हो चला है। मालविका, तुम नर्तकी बनसकती हो।

मालविकाः हाँ, मैं नृत्य-कला जानती हूँ।

चाणक्यः तो नन्द की रंगशाला में जाओ और लो यह मुद्रा तथापत्र, राक्षस का विवाह होने के पहले - ठीक एक घड़ी पहले - नन्दके हाथ में देना। और पूछने पर बता देना कि अमात्य राक्षस ने सुवासिनीको देने के लिए कहा था। परन्तु मुझसे भेंट न हो सकी, इसलिए यहउन्हें लौटा देने को लायी हूँ।

मालविकाः (स्वगत) क्या असत्य बोलना होगा! चन्द्रगुप्त के लिएसब कुछ करूँगी। (प्रकट) अच्छा।

चाणक्यः मैंने सिंहरण को लिख दिया था कि चन्द्रगुप्त को शीघ्रयहाँ भेजो। तुम यवनों के सिर उठाने पर उन्हें शान्त करके आना, तबतक अलका मेरी रक्षा कर लेगी। मैं चाहता हूँ कि सब सेना वणिकों केरूप में धीरे-धीरे कुसुमपुर में इकट्ठी हो जाय। उसी दिन राक्षस का ब्याहहोगा, उसी दिन विद्रोह होगा और उसी दिन चन्द्रगुप्त राजा होगा!

अलकाः परन्तु फिलिप्स से द्वंद्व-युद्ध से चन्द्रगुप्त को लौट तोआने दीजिए, क्या जाने क्या हो!

चाणक्यः क्या हो! वही होकर रहेगा जिसे चाणक्य ने विचारकरके ठीक कर लिया है। किन्तु... अवसर पर एक क्षण का विलम्बअसफलता का प्रवर्तक हो जाता है।

(मालविका जाती है।)

अलकाः गुरुदेव, महानगरी कुसुमपुर का ध्वंस और नन्द-पराजयइस प्रकार संभव है?

चाणक्यः अलके! चाणक्य अपना कार्य, अपनी बुद्धि से साधनकरेगा। तुम देखती भर रहो और मैं जो बताऊँ करती चलो। मालविकाअभी बालिका है, उसकी रक्षा आवश्यक है। उसे देखो तो।

(अलका जाती है।)

चाणक्यः वह सामने कुसुमपुर है, जहाँ मेरे जीवन का प्रभात हुआथा। मेरे उस सरल हृदय में उत्कट इच्छा थी कि कोई भी सुन्दर मनमेरा साथी हो। प्रत्येक नवीन परिचय में उत्सुकता थी और उसके लिएमन में सर्वस्व लुटा देने की सन्नद्धता थी। परन्तु संसार-कठोर ससार नेसिखा दिया है कि तुम्हें परखना होगा। समझदारी आने पर यौवन चलाजाता है - जब तक माला गूँथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जातेहैं। जिससे मिलने के सम्भार की इतनी धूम-धाम, सजावट, बनावट होतीहै, उसके आने तक मनुष्य-हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाये रहसकता। मनुष्य की चञ्चल स्थिति कब तक उस श्यामल कोमल हृदय कोमरूभूमि बना देती है। यही तो विषमता है। मैं अविश्वास, कूट-चक्र औरछलनाओं का कंकाल, कठोरता का केन्द्र। ओह! तो इस विश्व में मेराकोई सुहृद नहीं है? मेरा संकल्प, अब मेरा आत्माभिधान ही मेरा मित्रहै। और थी एक क्षीण रेखा, वह जीवन-पट से धुल चली है। धुल जानेदूँ? सुवासिनी न न न, वह कोई नहीं। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर आसक्तहूँ। भयानक रमणीयता है। आज उस प्रतिज्ञा में जन्मभूमि के प्रति कर्तव्यका भी यौवन चमक रहा है। तृण-शय्या पर आधे पेट खाकर सो रहनेवाले के सिर पर दिव्य यश का स्वर्ण-मुकुट! और सामने सफलता कास्मृति-सौंध (आकाश की ओर देखकर) वह, इन लाल बादलों में दिग्दाहका धूम मिल रहा है। भीषण रव से सब जैसे चाणक्य का नाम चिल्लारहे हैं। (देखकर) है! यह कौन भूमि - सन्धि तोड़कर सर्प के समाननिकल रहा है! छिप कर देखूँ - (छिप जाता है। एक ढूह की मिट्टीगिरती है, उसमें से शकटार वनमानुष के समान निकलता है।)

शकटारः (चारों ओर देखकर आँख बन्द कर लेता है, फिरखोलता हुआ) आँखें नहीं सह सकती, इन्हीं प्रकाश किरणों के लिए तड़परही थीं! ओह, तीखी हैं! तो क्या मैं जीवित हूँ? कितने दिन हुए, कितनेमहीने, कितने वर्ष? नहीं स्मरण है। अन्धकूप की प्रधानता सर्वोपरि थी।सात लड़के भूख से तड़प कर मरे। कृतज्ञ हूँ उस अन्धकार का, जिसनेउन विवर्ण मुखों को न देखने दिया। केवल उनके दम तोड़ने का क्षीणशब्द सुन सका। फिर भी जीवित रहा - सपू और नमक पानी सेमिलाकर, अपनी नसों से रक्त पीकर जीवित रहा! प्रतिहिंसा के लिए!पर अब शेष है, दम घुट रहा है। ओह!

(गिर पड़ता है।)

(चाणक्य पास आकर कपड़ा निचोड़ कर मुँह में डल जाल सचेतकरता है।)

चाणक्यः आह! तम कोई दुखी मनुष्य हो! घबराओ मत, मैंतुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ।

शकटारः (ऊपर देखकर) तुम सहायता करोगे? आश्चर्य! मनुष्यमनुष्य की सहायता करेगा, वह उसे हिंस्र पशु के समान नोंच न ड़ालेगा!हाँ, यह दूसरी बात है कि वह जोंक की तरह बिना कष्ट दिये रक्त चूसे।जिसमें कोई स्वार्थ न हो, ऐसी सहायता! तुम भूखे भेड़िये!

चाणक्यः अभागे मनुष्य! सब से चौंक कर अलग न उछल!अविश्वास की चिनगारी पैरों के नीचे से हटा। तुझ जैसे दुखी बहुत पड़ेहैं। यदि सहायता नहीं तो परस्पर का स्वार्थ ही सही।

शकटारः दुःख! दुःख का नाम सुना होगा, या कल्पित आशंकासे तुम उसका नाम लेकर चिल्ला उठते होगे। देखा है कभी सात-सातगोद के लालों को भूख से तड़प कर मरते? अन्धकार की घनी चादरमें बरसों भूगर्भ की जीवित समाधि में एक-दूसरे को, अपना आहार देकरस्वेच्छा से मरते देखा है - प्रतिहिंसा की स्मृति को ठोकर मार-मार करजगाते, और प्राण विसर्जन करते? देखा है कभी यह कष्ट - उन सबोंने अपना आहार मुझे दिया और पिता होकर भी मैं पत्थर-सा जीवितरहा! उनका आहार खा डाला - उन्हें मरने दिया! जानते हो क्यों? वेसुकुमार थे, वे सुख की गोद में पले थे, वे नहीं सहन कर सकते थे,अतः सब मर जाते। मैं बच रहा प्रतिशोध के लिए! दानवी प्रतिहिंसा केलिए! ओह! उस अत्याचारी नर-राक्षस की अँतड़ियों में से खींचकर एकबार रक्त का फुहारा छोड़ता? इस पृथ्वी को उसी से रँगा देखता!

चाणक्यः सावधान! (शकटार को उठाता है।)

शकटारः सावधान हों वे, जो दुर्बलों पर अत्याचार करते हैं!पीड़ित पददलित, सब तर लुटा हुआ! जिसने पुत्रों की हड्डियों के सुरंगखोदा है, नखों से मिट्टी हटाती है, उसके लिए सावधान रहने कीआवश्यकता नहीं। मेरी वेदना अपने अन्तिम अस्त्रों से सुसज्जित है।

चाणक्यः तो भी तुमको प्रतिशोध लेना है। हम लोग एक ही पथके पथिक हैं। घबराओ मत। क्या तुम्हारा कोई भी इस संसार में जीवितनहीं!

शकटारः बची थी, पर न जाने कहाँ है। एक बालिका - अपनीमाता की स्मृति-सुवासिनी। पर अब कहाँ है, कौन जाने।

चाणक्यः क्या कहा? सुवासिनी?

शकटारः हाँ सुवासिनी।

चाणक्यः और तुम शकटार हो?

शकटारः (चाणक्य का गला पकड़ कर) घोंट दूँगा गला - यदिफिर यह नाम तुमने लिया। मुझे नन्द से प्रतिशोध ले लेने दो, फिर चाहेडौंडी पीटना।

चाणक्यः (उसका हाथ हटाते हुए) वह सुवासिनी नन्द कीरंगशाला में है। मुझे पहचानते हो?

शकटारः नहीं तो। (देखता है।)

चाणक्यः तुम्हारे प्रतिवेशी, सखा ब्राह्मण चणक का पुत्र विष्णुगुप्त।तुम्हारी दिलायी हुई जिसकी ब्राह्मणवृपि छीन ली गयी, जो तुम्हारा सहकारीजानकार निर्वासित कर दिया गया, मैं उसी चणक का पुत्र चाणक्य हूँ,जिसकी शिखा पकड़ कर राजसभा में खींची गयी, जो बन्दीगृह में मृत्युकी प्रतीक्षा कर रहा था! मुझ पर विश्वास करोगे?

शकटारः (विचारता हुआ खड़ा हो जाता है।) करूँगा, जो तुमकहोगे वही करूँगा। किसी तरह प्रतिशोध चाहिए।

चाणक्यः तो चलो मेरी झोंपड़ी में, इस सुरंग को घास-फूल सेढँक दो।

(दोनों ढँक कर जाते हैं।)

(नन्द के राज-मन्दिर का एक प्रकोष्ठ)

नन्दः आज क्यों मेरा मन अनायास ही शंकित हो रहा है। कुछनहीं... होगा कुछ।

(सेनापति मौर्य की स्त्री को साथ लिए हुए वररुचि का प्रवेश)

वररुचिः जय हो देव, यह सेनापति मौर्य की स्त्री है।

नन्दः क्या कहना चाहती है?

स्त्रीः राजा प्रजा का पिता है। वही उसके अपराधओं को क्षमाकरके सुधार सकता है। चन्द्रगुप्त बालक है, सम्राट्‌! उशके अपराध मगधसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तब भी वह निर्वासित है। परन्तु सेनापति परक्या अभियोग है? मैं असहाय मगध की प्रजा श्री-चरणों में निवेदन करतीहूँ - मेरा पति छोड़ दिया जाय। पति और पुत्र दोनों से न वञ्चित कीजाऊँ।

नन्दः रमणी! राजदण्ड पति और पुत्र के मोहजाल से सर्वथास्वतंत्र है। षड्‌यन्त्रकारियों के लिए बहुत निष्ठुर है, निर्मम है! कठोर है!तुम लोग आग की ज्वाला से खेलने का फल भोगो। नन्द इन आँसू-भरी आँखों तथा अञ्चल पसार कर भिक्षा के अभिनय में नहीं भूलवायाजा सकता।

स्त्रीः ठीक है महाराज! मैं ही भ्रम में थी। सेनापति मौर्य काही तो यह अपराध है। जब कुसुमपुर की समस्त प्रजा विरुद्ध थी, जबजारज-पुत्र के रक्त-रँगे हाथों से सम्राट्‌ महापद्म की लीला शेष हुई थी,तभी सेनापति को चेतना चाहिए था। कृतघ्न के साथ उपकार किया है,यह उसे नहीं मालूम था।

नन्दः चुप दुष्ट। (उसका केश पकड़ कर खींचना चाहता है,वररुचि बीच में आकर रोकता है।)

वररुचिः महाराज, सावधान! यह अबला है, स्त्री है।

नन्दः यह मैं जानता हूँ कात्यायन! हटो।

वररुचिः आप जानते हैं, पर इस समय आपको विस्मृत हो गयाहै।

नन्दः तो क्या मैं तुम्हें भी इसी कुचक्र में लिप्त समझूँ?

वररुचिः यह महाराज की इच्छा पर निर्भर है, और किसी कादास न रहना मेरी इच्छा पर, मैं शस्त्र समर्पण करता हूँ।

नन्दः (वररुचि का छुरा उठाकर) विद्रोह! ब्राह्मण हो न तुम, मैंनेअपने को स्वयं धोखा दिया। जाओ। परन्तु ठहरो। प्रतिहार!

(प्रतिहार सामने आता है।)

नन्दः इसे बन्दी करो। और इस स्त्री के साथ मौर्य के समीपपहुँचा दो।

(प्रहरी दोनों को बन्दी करते हैं।)

वररुचिः नन्द! तुमहारे पाप का घड़ा फूटना ही चाहता है।अत्याचार की चिनगारी साम्राज्य का हरा-भरा कानन दग्ध कर देगी। न्यायका गला घोंट कर तुम उस भीषण पुकार को नहीं दबा सकोगे जो तुमतक पहुँचती है अवश्य, किनतु चाटुकारों द्वारा और ही ढंग से।

नन्दः बस ले जाओ। (सब का प्रस्थान)(एक प्रतिहार का प्रवेश) क्या है?

प्रतिहारः जय हो देव! एक संदिग्ध स्त्री राज-मन्दिर में घूमतीहुई पकड़ी गयी है। उसके पास अमात्य राक्षस की मुद्रा और एक पत्रमिला है।

नन्दः अभी ले आओ।

(प्रतिहार जाकर मालविका को साथ लाता है।)

नन्दः तुम कौन हो?

मालविकाः मैं एक स्त्री हूँ, महाराज।

नन्दः पर तुम यहां किसके पास आयी हो?

मालविकाः मैं... मैं, मुझे किसी ने शतुद्र-तट से भेजा है। मैंपथ में बीमार हो गयी थी, विलम्ब हुआ?

नन्दः कैसा विलम्ब?

मालिवकाः इस पत्र को सुवासिनी नाम की स्त्री के पास पहुँचाने में।

नन्दः तो किसने तुमको भेजा है?

मालविकाः मैं नाम तो नहीं जानती।

नन्दः हूँ! (प्रतिहार से) पत्र कहाँ है?

(प्रतिहार पत्र और मुद्रा देता है। नन्द उसे पढ़ता है।)

नन्दः तुमको बतलाना पड़ेगा, किसने तुमको यह पत्र दिया है।बोलो, शीघ्र बोलो, राक्षस ने भेजा है?

मालविकाः राक्षस नहीं, वह मनुष्य था।

नन्दः दुष्टे, शीघ्र बता। वह राक्षस ही रहा होगा।

मालविकाः जैसा आप समझ लें।

नन्दः (क्रोध से) प्रतिहार! इसे भी ले जाओ उन विद्रोहियों कीमाँद में! ठहरो, पहले जाकर शीघ्र सुवासिनी और राक्षस को, चाहे जिसअवस्था में हों, ले आओ!

(नन्द चिन्तित भाव से दूसर ओर टहलता है, मालविका बन्दीहोती है।)

नन्दः आज सबको एक साथ ही सूली पर चढ़ा दूँगा। नहीं...(पैर पटक कर)... हाथियों के पैरों के तले कुचलवाऊँगा। यह कथासमाप्त होनी चाहिए। नन्द नीच-जन्मा है न! यह विद्रोह उसी के लिएकिया जा रहा है, तो फिर उसे भी दिखा देना है कि मैं क्या हूँ, यहनाम सुनकर लोग काँप उठें। प्रेम न सही, भय का की सम्मान हो।

(पट-परिवर्तन)

(कुसुमपुर के प्रान्त में - पथ। चाणक्य और पर्वतेश्वर)

चाणक्यः चन्द्रगुप्त कहाँ है?

पर्वतेश्वरः सार्थवाह के रूप में युद्ध-व्यवसायिों के साथ आ रहेहैं। शीघ्र ही पहुँच जाने की सम्भावना है।

चाणक्यः और द्वन्द्व में क्या हुआ?

पर्वतेश्वरः चन्द्रगुप्त ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। समस्तउपरापथ में फिलिप्स के मारे जाने पर नया उत्साह फैल गया है। आर्य,बहुत-से प्रमुख यवन और आर्यगण की उपस्थिति में वह युद्ध हुआ। वहखड्‌ग-परीक्षा देखने योग्य थी! वह वीर-दृश्य अभिनन्दनीय था।

चाणक्यः यवन लोगों के क्या भाव थे?

पर्वतेश्वरः सिंहरण अपनी सेना के साथ रंगशाला की रक्षा कर रहाथा, कुछ हलचल तो हुई, पर वह पराजय का क्षोभ था। यूडेमिस, जो उसकासहकारी था, अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। किसी प्रकार वह ठंडा पड़ा। यूडेमिससिकन्दर की आज्ञा की प्रतीक्षा में रुका था। अकस्मात्‌ सिकन्दर के मरने कासमाचार मिला। यवन लोग अब अपनी ही सोच रहे हैं, चन्द्रगुप्त सिंहरणको वहीं छोड़कर यहाँ चला आया, क्योंकि आपका आदेश था।

(अलका का प्रवेश)

अलकाः गुरुदेव, यज्ञ का प्रारम्भ है।

चाणक्यः मालविका कहाँ है?

अलकाः वह बन्दी की गयी और राक्षस इत्यादि भी बन्दी होनेही वाले हैं। वह भी ठीक ऐसे अवसर पर जब उनका परिणय हो रहाहै। क्योंकि आज ही...

चाणक्यः तब तुम जाओ, अलके! उस उत्सव से तुम्हें अलग नरहना चाहिए। उनके पकड़े जाने के अवसर पर ही नगर में उपेजना फैलसकती है। जाओ शीघ्र।

(अलका का प्रस्थान)

पर्वतेश्वरः मुझे क्या आज्ञा है?

चाणक्यः कुछ चुने हुए अश्वारोहियों को साथ लेकर प्रस्तुतरहना। चन्द्रगुप्त जब भीतर से युद्ध प्रारम्भ करे, उस समय तुमको नगरद्वार पर आक्रमण करना होगा।

(गुफा का द्वार खुलना। मौर्य, मालविका, शकटार, वररुचि, पीछेपीछेचन्द्रगुप्त की जननी का प्रवेश)

चाणक्यः आओ मौर्य!

मौर्यः हम लोगों के उद्धारकर्ता, आप ही महात्मा चाणक्य हैं?

मालविकाः हाँ, यही हैं।

मौर्यः प्रणाम।

चाणक्यः शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए जियो सेनापति! नन्दके पापों की पूर्णता ने तुम्हारा उद्धार किया है। अब तुम्हारा अवसर है।

मौर्यः इन दुर्बल हड्डियों को अन्धकूप की भयानकता खटखटा रहीहै।

शकटारः और रक्तम गम्भीर बीभत्स दृश्य, हत्या का निष्ठुरआह्‌वान कर रहा है।

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश, माता-पिता के चरण छूता है।)

चन्द्रगुप्तः पिता! तुम्हारी यह दशा!! एक-एक पीड़ा की, प्रत्येकनिष्ठुरता की गिनती होगी। मेरी माँ! उन सब का प्रतिकार होगा, प्रतिशोधलिया जायगा! ओ, मेरा जीवन व्यर्थ है! नन्द!

चाणक्यः चन्द्रगुप्त, सफलता का एक ही क्षण होता है। आवेशसे और कर्तव्य से बहुत अन्तर है।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव आज्ञा दीजिए।

चाणक्यः देखो, उधर, नागरिक लोग आ रहे हैं। सम्भवतः यहीअवसर है। तुम लोगों के भीतर जाने का और विद्रोह फैलाने का।

(नागरिकों का प्रवेश)

प. नागरिकः वेण और कंस का शासन क्या दूसरे प्रकार का रहाहोगा?

दू. नागरिकः ब्याह की वेदी से वर-वधू को घसीट ले जाना,इतने बड़े नागरिक का यह अपमान! अन्याय है।

ती. नागरिकः सो भी अमात्य राक्षस और सुवासिनी को।कुसुमपुर के दो सुन्दर फूल!

चौ. नागरिकः और सेनापति, मंत्री, सबों को अन्धकूप में ड़ालदेना।

मौर्यः मंत्री, सेनापति और अमात्यों को बन्दी बना कर जो राज्यकरता है, वह कैसा अच्छा राजा है नागरिक! उसकी कैसी अद्‌भुत योग्यताहै! मगध को गर्व होना चाहिए।

प. नागरिकः गर्व नहीं वृद्ध! लज्जा होनी चाहिए। ऐसा जघन्यअत्याचार!

वररुचिः यह तो मगध का पुराना इतिहास है। जरासंघ का यहअखाड़ा है। यहाँ एकाधिपत्य की कटुता सदैव से अभ्यस्त है।

दू. नागरिकः अभ्यस्त होने पर भी अब असह्य है।

शकटारः आज आप लोगों को बड़ी वेदना है, एक उत्सव काभंग होना अपनी आँखों से देखा है, नहीं तो जिस दिन शकटार को दण्डमिला था, एक अभिजात नागरिक की सकुटुम्ब हत्या हुई थी, उस दिनजनता कहाँ सो रही थी।

ती. नागरिकः सच तो, पिता के समान हम लोगों की रक्षा करनेवाला मंत्री शकटार - हे भगवान!

शकटारः मैं ही हूँ। कंकाल-सा जीवित समाधि से उठ खड़ा हुआहूँ। मनुष्य मनुष्य को इस तरह कुचल कर स्थिर न कर सकेगा। मैं पिशाचबनकर लौट आया हूँ - अपने निरपराध सातों पुत्रों की निष्ठुर हत्या काप्रतिशोध लेने के लिए। चलोगे साथ?

चौ. नागरिकः मंत्री शकटार! आप जीवित हैं?

शकटारः हाँ, महापद्म के जारज पुत्र नन्द की - बधिक हिंस्रपशु नन्द की - प्रतिहिंसा का लक्ष्य शकटार मैं ही हूँ!

सब नागरिकः हो चुका न्यायाधिकरण का ढोंग! जनता की शुभकामना करने की प्रतिज्ञा नष्ट हो गयी। अब नहीं, आज न्यायाधिकरण मेंपूछना होगा!

मौर्यः और मेरे लिए भी कुछ...

नागरिकः तुम...?

मौर्यः सेनापति मौर्य - जिसका तुम लोगों को पता ही न था।

नागरिकः आश्चर्य! हम लोग आज क्या स्वप्न देख रहे हैं? अभीलौटना चाहिए। चलिए आप लोग भी।

शकटारः परन्तु मेरी रक्षा का भार कौन लेता है?

(सब इधर-उधर देखने लगते हैं, चन्द्रगुप्त तन कर खड़ा हो जाताहै।)

चन्द्रगुप्तः मैं लेता हूँ। मैं उन सब पीड़ित, आघात-जर्जर, पददलित लोगों का संरक्षक हूँ, जो मगध की प्रजा हैं।

चाणक्यः साधु! चन्द्रगुप्त!

(सहसा सब उत्साहित हो जाते हैं, पर्वतेश्वर और चाणक्य तथावररुचि को छोड़ कर सब जाते हैं।)

वररुचिः चाणक्य! यह क्या दावाग्नि फैला दी तुमने?

चाणक्यः उत्पीड़न की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अञ्चलमें छिपाये रहता है। कात्यायन! तुमने अन्धकूप का सुख क्यों लिया? कोईअपराध तुमने किया था?

वररुचिः नन्द की भूल थी। उसे अब भी सुधारा जा सकता है।

ब्राह्मण! क्षमानिधि! भूल जाओ!

चाणक्यः प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर हम-तुम साथ ही वैखानस होंगे,कात्यायन! शक्ति हो जाने दो, फिर क्षमा का विचार करना। चलोपर्वतेश्वर! सावधान!!

(सब का प्रस्थान)

(नन्द की रंगशाला - सुवासिनी और राक्षस बन्दी-वेश मं)

नन्दः अमात्य राक्षस, यह कौन-सी मंत्रणा थी? यह पत्र तुम्हींनेलिखा है?

राक्षसः (पत्र लेकर पढ़ता हुआ) “सुवासिनी, उस कारागार सेशीघ्र निकल भागो, इस स्त्री के साथ मुझसे आकर मिलो। मैं उपरापथमें नवीन राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। नन्द से फिर समझ लियाजायगा” इत्यादि। (नन्द की ओर देखकर) आश्चर्य, मैंने तो यह नहींलिखा! यह कैसा प्रपंच है, - और किसी का नहीं, उसी ब्राह्मण चाणक्यका महाराज, सतर्क रहिए, अपने अनुकूल परिजनों पर भी अविश्वास नकीजिए। कोई भयानक घटना होने वाली है, यह उसी का सूत्रपात है।

नन्दः इस तरह से मैं प्रतारित नहीं किया जा सकता, देखो यहतुम्हारी मुद्रा है। (मुद्रा देता है)

(राक्षस देखकर सिर नीचा कर लेता है।)

नन्दः कृतघ्न! बोल, उपर दे।

राक्षसः मैं कहूँ भी, तो आप मानने ही क्यों लगे!

नन्दः तो आज तुम लोगों को भी उसी अन्धकूप में जाना होगा,प्रतिहार!

(राक्षस बन्दी किया जाता है। नागरिकों का प्रवेश।)

(राक्षस को श्रृंखला में जकड़ा हुआ देखकर उन सबों में उपेजना)

नागरिकः सम्राट्‌! आपसे मगध की प्रजा प्रार्थना करती है किराक्षस और अन्य लोगों पर भी राजदण्ड द्वारा किये गये जो अत्याचारहै, उनका फिर से निराकरण होना चाहिए।

नन्दः क्या! तुम लोगों को मेरे न्याय में अविश्वास है?

नागरिकः इसके प्रमाण हैं - शकटार, वररुचि और मौर्य!

नन्दः (उन लोगों को देखकर) शकटार! तू अभी जीवित है?

शकटारः जीवित हूँ नन्द। नियति सम्राटों से भी प्रबल है।

नन्दः यह मैं क्या देखता हूँ! प्रतिहार! पहले इन विद्रोहियों कोबन्दी करो। क्या तुम लोगों ने इन्हें छुड़ाया है?

नागरिकः उनका न्याय हम लोगों के सामने किया जाय, जिससेहम लोगों को राज-नियमों में विश्वास हो सम्राट्‌! न्याय को गौरव देनेके लिए इनके अपराध सुनने की इच्छा आपकी प्रजा रखती है।

नन्दः प्रजा की इच्छा से राजा को चलना होगा?

नागरिकः हाँ, महाराज।

नन्दः क्या तुम सब-के-सब विद्रोही हो?

नागरिकः यह सम्राट्‌ अपने हृदय से पूछ देखें?

शकटारः मेरे सात निरपराध पुत्रों का रक्त!

नागरिकः न्यायाधिकरण की आड़ में इतनी बड़ी नृशंसता!

नन्दः प्रतिहार! इन सबको बन्दी बनाओ!

(राज-प्रहरियों का सबको बाँधने का उद्योग, दूसरी ओर सेसैनिकों के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः ठहरो! (सब स्तब्ध रह जाते हैं) महाराज नन्द! हमब आपकी प्रजा हैं, मनुष्य हैं, हमें पशु बनने का अवसर न दीजिए।

वररुचिः विचार की तो बात है, यदी सुव्यवस्था से काम चलजाय, तो उपद्रव क्यों हो?

नन्दः (स्वगत) विभीषिका! विपपि! सब अपराधी और विद्रोहीएकत्र हुए हैं (कुछ सोचकर) अच्छा मौर्य! तुम हमारे सेनापति हो औरतुम वररुचि! हमने तुम लोगों को क्षणा कर दिया!

शकटारः और हम लोगों से पूछो! पूछो नन्द। अपनी नृशंसताओंसे पूछो। क्षमा? कौन करेगा। तुम? कदापि नहीं। तुम्हारे घृणित अपराधोंका न्याय होगा।

नन्दः (तनकर) तब रे मूर्खों! नन्द की निष्ठुरता! प्रतिहार!राजसिंहासन संकट में है! आओ, आज हमें प्रजा से लड़ना है!

(प्रतिहार प्रहरियों के साथ आगे बढ़ता है - कुछ युद्ध होने केसाथ ही राजपक्ष के कुछ लोग मारे जाते हैं, और एक सैनिक आकरनगर के ऊपर आक्रमण होने की सूचना देता है। युद्ध करते-करते चन्द्रगुप्तनन्द को बन्दी बनाता है।)

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः नन्द! शिखा खुली है। फिर खिंचवाने की इच्छा हुईहै, इसीलिए आया हूँ। राजपद के अपवाद नन्द! आज तुम्हारा विचारहोगा!

नन्दः तुम ब्राह्मण। मेरे टुकड़ों से पले हुए। दरिद्र! तुम मगधके सम्राट्‌ का विचार करोगे! तुम सब लुटेरे हो, डाकू हो! विप्लवी हो- आर्य हो।

चाणक्यः (राजसिंहासन के पास जाकर) नन्द! तुम्हारे ऊपर इतनेअभियोग है - महापद्म की हत्या, शकटार को बन्दी करना, उसके सातपुत्रों को भूख से तड़पा कर मारना! सेनापति मौर्य की हत्या का उद्योग,उसकी स्त्री को और वररुचि को बन्दी बनाना, कितनी ही कुलीन कुमारियोंका सतीत्व नाश, नगरभर में व्यभिचार का स्रोत बहाना, ब्राह्मस्व औरअनाथों की वृपियों का अपहरण! अन्त में सुवासिनी पर अत्याचार,शकटार की एकमात्र बची हुई सन्तान, सुवासिनी, जिसे तुम अपनी घृणितपाशव-वृपि का...!

नागरिकः (बीच में रोक कर हल्ला मचाते हुए) पर्याप्त है। यहपिशाचलीला और सुनने की आवश्यकता नहीं, सब प्रमाण वहीं उपस्थित हैं।

चन्द्रगुप्तः ठहरिए! (नन्द से) कुछ उपर देना चाहते हैं?

नन्दः कुछ नहीं।

(‘वध करो!’ ‘हत्या करो!’ का आतंक फैलता है।)

चाणक्यः तब बी कुछ समझ लेना चाहिए नन्द! हम ब्राह्मण हैं,तुम्हारे लिए, भिक्षा माँग कर तुम्हें जीवन-दान दे सकते हैं। लोगे!

(‘नहीं मिलेगी, नहीं मिलेगी’ की उपेजना)

(कल्याणी को बन्दिनी बनाये पर्वतेश्वर का प्रवेश)

नन्दः आ बेटी, असह्य! मुझे क्षमा करो! चाणक्य, मैं कल्याणीके संग जंगल में जाकर तपस्या करना चाहता हूँ।

चाणक्यः नागरिक वृन्द! आप लोग आज्ञा दें - नन्द को जानेकी आज्ञा!

शकटारः (छुरा निकलकर नन्द की छाती में घुसेड़ देता है) सातहत्याएँ हैं! यदि नन्द सात जन्मों में मेरे ही द्वारा मारा जय तो मैं उसेक्षमा कर सकता हूँ। मगध नन्द के बिन भी जी सकता है।

वररुचिः अनर्थ!

(सब स्तब्ध रह जाते हैं।)

राक्षसः चाणक्य, मुजे भी कुछ बोलने का अधिकार है?

चाणक्यः अमात्य राक्षस का बंधन खोल दो! आज मगध के सबनागरिक स्वतंत्र हैं।

(राक्षस, सुवासिनी, कल्याणी का बंधन खुलता है।)

राक्षसः राष्ट्र इस तरह नहीं चल सकता।

चाणक्यः तब?

राक्षसः परिषद्‌ की आयोजना होनी चाहिए।

नागरिक वृन्दः राक्षस, वररुचि, शकटार, चन्द्रगुप्त और चाणक्यकी सम्मिलित परिषद्‌ की हम घोषणा करते हैं।

चाणक्यः परन्तु उपरापथ के समान गणतंत्र की योग्यता मगध मेंनहीं, और मगध पर विपपि की भी संभावना है। प्राचीनकाल से मगधसाम्राज्य रहा है, इसीलिए यहाँ एक सबल और सुनियंत्रित शासक कीआवश्यकता है। आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि यवन अभीहमारी छाती पर हैं।

नागरिकः तो कौन उसके उपयुक्त है?

चाणक्यः आप ही लोग इसे विचारिए।

शकटारः हम लोगों का उद्धारकर्ता। उपरापथ के अनेक समरों काविजेता - वीर चन्द्रगुप्त!

नागरिकः चन्द्रगुप्त की जय!

चाणक्यः अस्तु, बढ़ो चन्द्रगुप्त! सिंहासन शून्य नहीं रह सकता।अमात्य राक्षस! सम्राट का अभिषेक कीजिए।

(मृतक हटाते जाते हैं, कल्याणी दूसरी ओर जाती है, राक्षसचन्द्रगुप्त का हाथ पकड़कर सिंहासन पर बैठाता है।)

सब नागरिकः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय! मगध की जय!

चाणक्यः मगध के स्वतंत्र नागरिकों को बधाई है! आज आपलोगों के राष्ट्र का जन्म-दिवस है। स्मरण रखना होगा कि ईश्वर ने सबमनुष्यों को स्वतंत्र उत्पन्न किया है, परन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहीं तक दीजा सकती है, जहाँ दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े। यही राष्ट्रीयनियमों का मूल है। वत्स चन्द्रगुप्त! स्वेच्छाचारी शासन का परिणाम तुमनेस्वयं देख लिया है, अब मंत्रि-परिषद्‌ की सम्मति से मगध और आर्यावर्तके कल्याण में लगो।

(‘सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय’ का घोष)

(पटाक्षेप)



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