अन्धी सुरंग (डोगरी उपन्यास) भाग-एक-2 : वेद राही
Andhi Surang (Dogri Novel in Hindi) Part-One-2 : Ved Rahi
गोपाल सोच में पड़ा था कि चरण को जगाये या नहीं । बारह बज गये थे और उसे उठकर दरवाजा अन्दर से बन्द करना था। आखिर उसने रजाई के ऊपर से उसे झकझोरा। बड़ी गहरी नींद में सोया चरण बड़ी मुश्किल से उठा । नींद से बोझिल उसकी सुर्ख आँखें देखकर गोपाल पछताने लगा कि उसने उसे क्यों जगाया।
“यार मैं जा रहा हूँ, तुम दरवाजा बन्द कर लो।”
"कहाँ जा रहे हो?”
“पहले रोटी खाऊँगा, फिर रेडियो स्टेशन जाऊँगा।”
“अगर तुम्हें जल्दी न हो तो मैं भी हाथ-मुँह धोकर तुम्हारे साथ ही निकल पड़ता हूँ ।”
“चलो, लेकिन अगर तुम सोना चाहते हो तो बेशक सोओ !”
“नहीं, नहीं, मुझे और नहीं सोना,” कहते हुए चरण उठ खड़ा हुआ ।
“ठीक है, तुम आराम से नहा लो ।”
चरण पन्द्रह-बीस मिनट में तैयार हो गया। गुसलखाने से तौलिया लपेटे हुए निकला तो कहने लगा, “गोपाल, मुझे एक शर्ट और पैण्ट दे दो। इस वक्त मैं घर नहीं जा सकूँगा।”
चरण की हर बात आज अजीब थी, समझ से परे थी। गोपाल कुछ पूछना चाहता था, लेकिन उसने कुछ पूछा नहीं। उसने अपनी पैण्ट-शर्ट निकालकर उसे दे दी । फिर दोनों परवेज के बारे में बातें करते हुए बाहर निकल आये ।
चरण बोला, “परवेज आज चला गया होगा मैडम के साथ ।”
“हाँ,” गोपाल कहने लगा, “साले की सारी इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी।” फिर गोपाल को जैसे कुछ याद आया, “यार चरण, तुमने कुछ बताया नहीं कि तुम्हारी रात कैसे गुजरी ?”
“मैंने भी मन की सारी इच्छाएँ पूरी कर लीं” चरण ने जवाब दिया, लेकिन अन्दर से कलेजे में पीड़ा-सी होने लगी ।
“बहुत सुन्दर है वह ?” गोपाल ने पूछा ।
“पूछो नहीं, आँखों से बातें करती है । गालों में गढ़े पड़ते हैं तो..."
“बस करो यार,” गोपाल ने टोका, "हमारा ईमान तो कायम रहने दो। यह बताओ कि वह लड़की है या "
“ है तो औरत ही, लेकिन उम्र सत्ताईस - अट्ठाईस से ऊपर नहीं हो सकती।”
“किसी दिन हमें भी ले चलना ।”
“खराब बातों में न पड़ो। हमारी तरह ठोकर खा जाओगे। यह तो सोचो, दुनिया में कितने लोग हैं जिन्होंने तुम्हारी तरह अपने आपको सँभालकर रखा है।”
“हमें इतना बदनाम तो न करो यार” गोपाल ने हँसकर कहा ।
“मैं तुम्हारे साथ मजाक नहीं कर रहा,” चरण गम्भीर होकर बोला, “मैं सच ही वहाँ जाकर पछता रहा हूँ । मुझ पर तो उसने कोई जादू -मन्तर ही कर दिया है। हर वक्त उसी की सोच, हर समय उसी का ख्याल । मैं तो पूरी तरह पगला गया हूँ । देखा जाए तो इस वक्त मुझे ऐसे स्वादों में नहीं पड़ना चाहिए था। बेकारी ने वैसे ही तोड़-तोड़ डाला है। मुझे काम की जरूरत है। मैं खूब खूब मेहनत करना चाहता हूँ ताकि मेरा कोई कैरियर बन सके।”
गोपाल को फिर से महसूस हुआ कि चरण आज बड़ी अजीब बातें कर रहा है, जब वो डोगरा वैश्नो होटल पहुँचे और चरण ने कहा, “आज मैं भी यहाँ रोटी खा लेता हूँ,” तो गोपाल को और भी विश्वास हो गया कि चरण के साथ जरूर कुछ अनहोनी बीती है। फिर भी उसने सीधे-सीधे पूछना ठीक नहीं समझा।
अड्डे पर बस लगी हुई थी । सुजानूँ ने टिकट ली और बस में घुसकर देखा, पीछे एक डबल सीट खाली है। वहाँ बैठ गया । गठरी पैरों में रखी और पैर ऊपर मोड़ लिये ।
अड्डे तक आने में ही उसे साँस चढ़ गया था । दमे के रोग ने उसे इतना तोड़ दिया था कि अब उसे पता नहीं चलता कि वह जी रहा है या मर-खप चुका है। साँ लेते हुए लगता है कि दम निकल रहा है। ज्यादा गरमी या ज्यादा ठण्ड में जब शरीर के एक-एक अंग में दर्द जागता है तो उसके आँसू भी निकल आते हैं ।
खिड़की में से ठण्डी हवा का झोंका आया तो उसने शीशा चढ़ा दिया और कोट की जेब से एक मुड़ा- तुड़ा सिगरेट निकालकर सुलगाने लगा। पहला कश लेते ही खाँसी का सिलसिला शुरू हो गया और खाँसते-खाँसते जैसे अंतड़ियाँ बाहर निकलने लगीं।
तब ही बस चल दी।
वह कई बार सोचता है, शायद पिछले जन्म में उसने बड़े भारी पाप किये थे, जिनका फल वह इस जन्म में भोग रहा है। कभी-कभी वह उन पापों को जानने का यत्न करता है, देखना चाहता है कि वे किस तरह के पाप थे। सारी - सारी रात आँखें खोलकर वह अँधेरे में कुछ तलाशता रहता है, लेकिन हाथ कुछ नहीं आता ।
पन्द्रह साल पहले जब वह चालीस बरस का था, वह पन्द्रह साल की रानी को ब्याह कर लाया था। यह दूसरा ब्याह था उसका। पहली घरवाली बे-औलाद ही मर गयी थी, और सुजानूँ की देह इतनी स्वस्थ और नीरोग थी कि पन्द्रह बरस की रानी के साथ उसे देखकर किसी ने नाक नहीं चढ़ाया था। रानी को भी उसने कभी महसूस नहीं होने दिया था कि वह उससे पच्चीस साल बड़ा है। रानी तो बल्कि उसका बड़ा एहसान मानती थी कि उसने एक गरीब, बिन-माँ की लड़की को सहारा दिया ।
उन दिनों सुजानूँ म्युनिसिपल कमेटी जम्मू के दफ्तर में अर्दली था । तनख्वाह के अलावा दो-तीन रुपये रोज वह ऊपर से बना लेता था । अच्छी निभ रही थी । इसीलिए जब रामू पैदा हुआ तो उसकी पहली 'लोहड़ी' पर उसने जी भरकर शराब पी, 'छज्जे' नचाये और रानी ने झोलियाँ भर-भरकर बताशे बाँटे थे ।
कोई सात साल पहले अचानक ही सुजानूँ को महसूस हुआ कि वह दुर्बल होता जा रहा है। रामू को खेलाते हुए उसकी बाँहें थकने लगीं । चलते-चलते पैर थकने लगे । किसी बात का मजा ही नहीं रहा तो रानी ने कहा, 'डॉक्टर को दिखाओ ।' अस्पताल जाकर पूरे टेस्ट कराये तो पता चला कि पेशाब में शक्कर आ रही है और रोग काफी बढ़ चुका है। दवाइयाँ दी गयीं, इंजेक्शन लगाये गये। कुछ फर्क पड़ा, लेकिन कुछ महीने बाद फिर वही हाल । देख-भाल भी पूरी की, लेकिन तकलीफ बढ़ती ही गयी। जो 'कुछ जमापूँजी थी, सब समाप्त हो गयी । कमजोरी इतनी बढ़ी कि दफ्तर तक जाना मुश्किल हो गया। साल बाद नौकरी भी छूट गयी। पिछले सात वर्षों में लगता है उसकी उमर सत्तर साल की हो गयी है, और रानी वहीं की वहीं । वह भी क्या करती ? बच्चे को भी कब तक भूखे-प्यासे रोते देख सकती थी । उसने खुद ही तो रानी से कहा था, 'जो होता है सो कर!'
बस तवी के पुल पर रुक गयी है। उस पार से आनेवाली बसें और दूसरी गाड़ियाँ जब गुजर जाएँगी तब इधर की गाड़ियाँ चलेंगी। सुजानूँ ने खिड़की के शीशे में से झाँककर देखा, तवी का पानी घट गया है। दूर उस पार से बाहवे का किला नजर आया तो उसके मुँह से लम्बी साँस निकली। कभी हर साल वह वहाँ मेले में जाता था। अब तो वह कभी भी इतनी चढ़ाई नहीं चढ़ सकेगा। हर बात कितनी कठिन हो गयी है ।
कोई बस में चढ़ा और ठीक उसके पास आकर बैठ गया ।
"चाचा तुम?”
सुजानूँ ने मुँह घुमाकर देखा, मंगतराम था ।
“हाँ, मैं शहर गया था ।”
“कल चुनाव था, तुम आये ही नहीं ?” मंगतराम ने पूछा ।
“पुत्तरा, मुझे क्या लेना है इन चुनावों से, मुझे तो अब मौत का इन्तजार है।”
" तुम्हारे नहीं आने के कारण मैं हार गया,” मंगतराम ने मुसकराते हुए कहा ।
“क्या मतलब?"
“सिर्फ एक ही वोट कम मिला, अगर तुम आ जाते तो मैं जीत जाता ।”
सुनकर सुजानूँ को अफसोस हुआ। बेचारा मंगतराम ! लेकिन वह भी क्या करता ! उसका शहर जाना भी जरूरी था। घर में खाने को कुछ नहीं था और रानी ने दो महीने से एक पैसा नहीं भेजा था ।
ट्रैफिक खुल गया। पार आकर बस सतवारी की ओर दौड़ने लगी । सुजानूँ ने एक और सिगरेट सुलगाया और मंगतराम से कहने लगा, 'पुत्तरा, तुम बेकार सरकार से उलझ रहे हो; भला सरकार ने भी किसी से हार मानी है? अगर तुम बक्शी साहब के खिलाफ नहीं होते तो आज तक मिनिस्टर बन गये होते ।”
मंगतराम ने जवाब दिया, “चाचा, मिनिस्टर बनकर मैं तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर सकता। अगर आज मिनिस्टर के सामने खड़ा होकर कुछ बोलूँगा तो शायद तुम्हें कुछ मिल ही जाए।”
“अरे छोड़ो, हमें क्या मिलना है ! सब कुछ तो बदमाश लीडर ही हड़प लेते हैं।”
फिर दोनों चुप हो गये । बस सतवारी से आगे मीरों साहब की दिशा में दौड़ रही थी ।
अचानक ही मंगतराम पूछ बैठे, “चाचा, तुम शहर क्यों गये थे?”
“नौकरी के जमाने का कुछ पैसा जमा किया हुआ है बैंक में । वक्त-बेवक्त निकलवाना पड़ता है।”
सबको यही कहता है सुजानूँ, मंगतराम से शायद पहली बार यह बात हो रही है ।
"चाचा, तुम्हारी घरवाली को गुजरे हुए तो काफी समय हो गया न ?”
सुजानूँ काँप उठा। धीरे से बोला, “हाँ, सात साल हो गये बेचारी । "
गोपाल की पैण्ट चरण को जरा ढीली है, इसलिए बार-बार ऊँची करनी पड़ रही है। कमीज थोड़ी बड़ी है, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा । कुनकुनी धूप में वह गली - बाजारों से गुजरता जब लखदाता बाजार पहुँचा तो अचानक ही उसे याद आया कि रानी का घर वहाँ पास ही है । उसकी चाल धीमी पड़ गयी । धूप की गरमाहट में उसे रानी की तपिश महसूस होने लगी, लेकिन 'नहीं-नहीं' कहकर उसका मन न जाने क्यों चीखना चाहता है। उसने फिर जल्दी-जल्दी चलना शुरू कर दिया, लेकिन पैर उसका साथ नहीं दे रहे थे ।
नेशनल कान्फ्रेन्स के दफ्तर के बाहर लोगों की भीड़ थी। शोर ऐसा था जैसे सब्जी मण्डी हो । चरण कुछ लोगों को जानता है । ज्यादा को नहीं। आगे होकर उसने किसी से पूछा, “सेक्रेटरी साहब आ गये हैं?"
“अभी आनेवाले हैं।”
वह एक तरफ खड़ा हो गया। अचानक ही किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा । मुड़कर देखा तो मदन था । चरण हँसकर बोला, “इसका मतलब है, मिनिस्टर साहब यहाँ आनेवाले हैं।”
मदन ने बिलकुल उसी तरह, जैसे वह मिनिस्टर का सेक्रेटरी हो, घड़ी देखते हुए कहा, “हो सकता है वह आ जाएँ। कोई पक्का प्रोग्राम नहीं। दस मिनट उनका इन्तजार किया जा सकता है । "
“यह बताओ - सेक्रेटरी साहब आ रहे हैं या नहीं?”
“ जरूर, वह जरूर आ रहे हैं। उनके बगैर यह मीटिंग हो ही नहीं सकती।” फिर मदन को जैसे कुछ याद आया, “भई चरण, तुम कल शाम टी-स्टाल से एकदम कहाँ चले गये थे? हमें सुराग भी नहीं लगने दिया !”
“वहाँ ही परसोंवाली जगह।”
“परवेज तो वहीं बैठा हुआ था ।”
"मैं अकेले जाना चाहता था।"
"प्रोग्राम जमा ?”
“बढ़िया ! बस पूछो नहीं,” कहते हुए चरण को अपने मन पर बोझ सा महसूस हुआ। मुसकराते हुए भी उसकी आँखों में पीड़ा की छाया थी। थोड़ा रुककर फिर बोला, “लेकिन यार, मैं अब वहाँ फिर कभी नहीं जाऊँगा।”
“क्यों ?”
“बेकार की बातें हैं। मैं चाहता हूँ जल्दी मेरी कहीं नौकरी लग जाए और मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँ ! मेरा अब अपने घर में जी नहीं लगता। अगर यह नौकरी मिल जाए, जिसके लिए कोशिश कर रहा हूँ, तो हो सकता है, घर से अलग हो जाऊँ !”
मदन को महसूस हुआ कि चरण के साथ कुछ हुआ - बीता है। “बाऊजी के साथ फिर कुछ कहा-सुनी हुई है ?"
“नहीं!”
“तुम समझते हो कि यह नौकरी तुम्हें कल-परसों ही मिल जाएगी ?”
“सेक्रेटरी साहब ने तो आज ही मिलने को कहा है।”.
मदन हँस दिया, “बरखुरदार, बड़े भोले हो तुम! नौकरी के लिए तुम्हारा सफर तो अभी शुरू हुआ है। तुम नहीं जानते रास्ता कितना लम्बा है - मुश्किल है। यह तो तुम्हें अभी पता लग जाएगा कि तुम्हारे सामने क्या- क्या आनेवाला है, तुम्हें कितने सबर - सन्तोष के घूँट पीने पड़ते हैं ।”
उसी वक्त सामने से मिसेज राजदेव आती दिखाई दीं। चरण ने आगे बढ़कर उन्हें नमस्ते की ।
मिसेज राजदेव ने पूछा, “अभी सेक्रेटरी साहब आये हैं या नहीं ? "
“ आनेवाले हैं,” चरण ने बताया ।
मिसेज राजदेव ने भीड़ की तरफ देखते हुए कहा, “इस वक्त सेक्रेटरी साहब से आपकी बात होना मुश्किल ही होगा ।"
“मुझे भी ऐसा ही लगता है,” नाउम्मीदी से चरण ने कहा, “चलो फिर कभी सही।"
“मुझे परसों मिलना है, मैं कल बात कर रखूँगी,” कहकर मिसेज राजदेव भी भीड़ में घुस गयीं ।
चरण फिर मदन के पास आ खड़ा हुआ। मदन ने दूर से आती कार की तरफ इशारा करते हुए कहा, “ वह आ रहे हैं सेक्रेटरी साहब ।”
चरण झट आगे हुआ। कार के वहाँ पहुँचते ही भीड़ उमड़ पड़ी, और लोगों ने कार के चारों तरफ घेरा डाल दिया। चरण ने भी भीड़ में घुसने के लिए जोर लगाया। सेक्रेटरी साहब बाहर आकर सबके सलाम का जवाब देने लगे। भीड़ में अपने-आपको किसी तरह खड़ा रखने का यत्न करते हुए चरण को भी अपने सलाम का जवाब मिला, लेकिन उस मुसकान में पहचान की छाया भी नहीं थी। जब सब लोग उनके पीछे-पीछे नेशनल कान्फ्रेन्स के दफ्तर में घुस गये तो चरण कुछ उखड़ा उखड़ा-सा मदन के पास पहुँचा।
“चलें ?” मदन ने पूछा ।
"चलो । मिनिस्टर साहब नहीं आ रहे ?"
“नहीं, अब नहीं आएँगे। सेक्रेटेरियट में कैबिनेट मीटिंग चल रही है । वहाँ से उठकर आना पहले ही डाउटफुल था ।”
बातें करते-करते दोनों फुटपाथ पर चलने लगे । “शायद मुझे सिरीनगर जाना पड़े, ” मदन ने कहा !
"क्यों ?”
“मिनिस्टर साहब अगले हफ्ते वहाँ जा रहे हैं।"
“खाली सलाम करने के लिए वहाँ जाओगे ?”
“ जहन्नुम में भी जाना पड़ा तो भी जाऊँगा।"
" तुम्हारे जिगर की दाद देनी पड़ती है।”
" अच्छी नौकरी के लिए कुछ भी करना पड़ेगा । मेरा भी क्या नुकसान है ! घरवालों से पैसे मिल जाते हैं। भले ही आज वे मेरा मजाक उड़ाते हैं, उन्हें तब पता चलेगा जब सचमुच मेरी नौकरी का ऑर्डर निकलेगा।” फिर जैसे उसने चरण को दिलासा देते हुआ कहा, “तुम्हें भी जल्दी नौकरी मिल जाएगी ।”
"वह कैसे ?”
“तुम्हारा केस मिसेज राजदेव के पास है। मेरे ख्याल में मिसेज राजदेव जल्दी ही कौन्सिल ही मेम्बर नामजद हो रही हैं। मेरे कानों में मिनिस्टर की कोठी में भनक पड़ी थी। एक जगह यह भी खुसर-पुसर हो रही थी कि मिसेज राजदेव रोज रात को सेक्रेटरी साहब के साथ किसी अनजानी जगह गयी होती हैं। बात सच्ची न भी हो लेकिन कुछ-न-कुछ तत्त्व इसमें जरूर है। तुम्हारा क्या ख्याल है ?”
" बात सच्ची भी हो सकती है,” चरण बोला, “मुझे तो लगता है, इस युग में कुछ भी हो सकता है। यार, आजादी मिलने से पहले भी इसी तरह सब-कुछ होता था?”
“क्या पता ।” मदन बेफिक्री के साथ कहने लगा, “मेरे - तुम्हारे जैसे लोगों को एक ही बात का पता होना चाहिए कि जैसे सिर पर पड़े वैसी ही नबेड़ लो ।”
“यह तुम इसलिए कह रहे हो क्योंकि तुम्हें घर से सारा खर्च मिल जाता है, " चरण बोला। लेकिन उसके कहने के अन्दाज में कोई कड़वाहट या व्यंग्य नहीं था । मदन ने भी उसका समर्थन किया, “तुम ठीक कह रहे हो !”
भारत टी-स्टाल पर दोनों चाय पीने बैठ गये ।
मदन को गये देर हो गयी है । चरण वहीं बैठा चाय का पाँचवाँ कप पी रहा है। उसे महसूस हो रहा है जैसे उसे घर से निकले कई महीने हो गये हैं; और अब उसका घर जाना जरूरी है। माँ घबरा गयी होगी । सुबह की रोटी अभी तक पड़ी होगी । धीरे-धीरे उसकी समझ में आ रहा है कि न तो इतनी जल्दी नौकरी का जुगाड़ सकता है, न ही इतनी जल्दी रिश्ता - नाता तोड़कर वह जा सकता है। पढ़ाई पूरी न करने का भी उसे अफसोस होने लगा। दो साल और पढ़ लेता तो बी. ए. की डिग्री मिल जाती - लेकिन डिग्री लेकर भी क्या मिल जाना था ! उसे ख्याल आया, मदन ने एम.ए. किया हुआ है और छह महीने से मिनिस्टर के दरवाजे पर कुत्ते की तरह दुम हिला रहा है। अभी तक उसका कुछ नहीं बना। क्या पता कुछ बनेगा भी या नहीं ।
जब पढ़ाई छोड़ी थी तब वह सोचता था कि वह इतना बढ़िया आर्टिस्ट है, इतनी अच्छी ऐक्टिंग कर लेता है, उसे अपने भविष्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । कुछ नहीं होगा तो बम्बई जाकर ऐक्टर बन जाएगा। एक रोज वह बम्बई जाने के लिए घर से निकल भी गया था, लेकिन दस दिन बाद दिल्ली से ही लौट आया, पाँच दिनों की भूख साथ लिये । इस तरह उसका हर सपना, हर संकल्प बारी-बारी टूटता रहा है । जिस आर्ट के नाम पर उसने पढ़ाई छोड़ी थी, उसके कारण साल में एक बार रंगमंच पर, तो दो-तीन महीनों बाद रेडियो स्टेशन पर उसे नाटक में ऐक्टिंग करने का काम मिलता था।
उसे याद आया कि अगले हफ्ते उसे एक रेडियो नाटक में काम करना है । वहाँ काम करनेवाले सारे चेहरे उसकी आँखों के सामने आ जाते हैं। कभी-कभी कमला भी नाटकों में हिस्सा लेती है। हो सकता है, उस रोज वह भी हो। कमला का स्मरण करते ही पता नहीं क्यों रानी की सूरत आँखों के सामने आ गयी। वह एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ ।
चाय के पैसे देकर वह बाहर निकल आया । अनायास उसे ख्याल आया कि वह क्यों नहीं फिर से नेशनल कान्फ्रेन्स के दफ्तर का चक्कर लगा आये। हो सकता है मीटिंग खत्म हो गयी हो और कोई बात बन ही जाए। यह सोचकर वह फिर उधर चल दिया ।
चरण को गये अभी दस मिनट ही हुए होंगे कि गोपाल वहाँ पहुँचा। टी-हाउस के मालिक आनन्द ने बताया कि चरण अभी गया है। गोपाल अभी ऊहापोह में ही था कि वहाँ बैठे या नहीं कि उसी वक्त कन्धे पर थैला लटकाये और अपने रूखे-सूखे बालों पर हाथ फेरते कॉमरेड अर्जुन वहाँ आ पहुँचा। गोपाल ने सोचा, चलो अब बैठ ही लिया जाए। दोनों ने एक-एक कप चाय का ऑर्डर दिया और अन्दर जाकर बैठ गये ।
“सुना है आजकल नेशनल कान्फ्रेन्स के चुनाव हो रहे हैं?” गोपाल ने पूछा ।
“सब ढोंग - ढकोसला है ।"
"क्या मतलब?"
" नेशनल कान्फ्रेन्सवाले सब ढोंगी हैं। ”
" और डेमोक्रेटिक नेशनल कान्फ्रेन्सवाले?”
“डेमोक्रेटिक नेशनल कान्फ्रेन्सवाले- हम सब लोग असली जनतन्त्र और लोकशाही के हिमायती हैं, और नेशनल कान्फ्रेन्सवाले सत्ताशाही के भक्त ।”
“लेकिन यार”, गोपाल ने शरारत करते हुए कहा, “अभी कुछ रोज पहले तो तुम लोग इकट्ठे थे?”
“बुराई का पता जब भी लगे, उससे उसी वक्त दामन छुड़ा लेना चाहिए।” फिर दोनों चाय पीने लगे।
गोपाल बोला, “तुम लोगों ने अपनी अलग पार्टी बनाकर अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मारी है ।”
"वह कैसे ?” अर्जुन ने पूछा।
“सरकारी मामलों में अब तुम्हारा कोई असर रसूख नहीं रहा। अब तुम लोगों का कोई काम नहीं करवा सकते और इस तरह लोग भी तुम्हारी परवाह नहीं करेंगे, वे तुम्हारे हाथों से निकल जाएँगे।”
“यह गलत बात है । हमारे लीडर अब चाहे मिनिस्टर नहीं रहे लेकिन जो सरकारी अफसर हैं, उनकी हमदर्दियाँ तो हमारे साथ ही हैं। उन्हें यह पता है कि एक रोज हमारे लीडरों को फिर से मिनिस्टर बनकर आना है और उन्हें खुश रखने की कोशिश वे आज भी करते हैं ।”
“ इसका मतलब है, मेरा काम बन सकता है ।"
"कौन-सा काम ?”
“उस रोज हमने जो नाटक खेला था तुमने देखा था?"
“हाँ, अच्छा नाटक था । "
“मैं चाहता हूँ, उसकी किताब छप जाए ।"
“अच्छा आइडिया है,” अर्जुन ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा । “उसमें समाज सुधार पर बड़ा जोर दिया गया है। मेरा ख्याल है पंचायतों के लिए कम-से-कम एक हजार कॉपियाँ लग सकती हैं।"
“छपवा लूँ ?”
"जरूर !”
दोनों ने हाथ मिलाया। हाथ मिलाकर हाथ पीछे खींचने से पहले ही गोपाल ने अपने मन में हिसाब लगा लिया कि पुस्तक के पृष्ठ सौ से कम ही होंगे और पूरा खर्चा चार सौ से कुछ ज्यादा नहीं होगा, और अगर एक रुपया भी मूल्य रखा गया तो भी छह सौ का लाभ होगा।
"यह तो मामूली काम है,” अर्जुन कहने लगा, “मैंने तो कई बार सोचा है कि किताबें छापनी चाहिए, लेकिन हम कामगार लोग हैं, हमारे पास इतना पैसा नहीं होता।”
गोपाल सुर में सुर मिलाते हुए बोला, “अगर तुम मेरी दो किताबों की हजार-हजार कॉपियाँ लगवा दो तो मैं तुम्हारी कविताएँ अपने खर्चे पर छाप दूँगा।”
“जिन्दाबाद,” अर्जुन उछल पड़ा, “यह हुई न बात। तुम जितनी जल्दी हो सकता है अपनी किताबें छपवाओ, ताकि मेरी कविताओं की बारी भी जल्दी आये। हर वक्त थैले में पड़ी कविताएँ अब बासी होने लगी हैं।” उसने थैले में हाथ डाला और फटे हुए तथा मैले - गन्दे हो गये कागजों का एक पुलिन्दा निकालकर गोपाल को दिखाते हुए बोला, “ये सब मेरी क्रान्तिकारी कविताएँ हैं । इन कविताओं से सारे जमाने में आग लग सकती है, क्योंकि इनमें मेरे दिल की आग है । जब ये किताबी रूप में छपेंगी तो तुम देखना सारे देश में कैसे बगावत फैलती है ।"
“तुम्हें अपनी कविताएँ रेडियो पर भी पढ़नी चाहिए,” गोपाल ने जान-बूझकर शह देते हुए कहा ।
“अगर मैं इन कविताओं को रेडियो पर पढ़ दूँगा तो घर-घर बज रहे रेडियो इनकी आग में जलने लगेंगे।” उसने कागजों का पुलिन्दा फिर से थैले में डाल लिया । गोपाल मुसकराने लगा। उसे मुसकराते देख अर्जुन और भी जोश में आ गया, “रेडियोवाले मुझे बुलाते तो हैं, लेकिन मेरी कविताएँ देखकर डर जाते हैं। उन्हें लिजलिजी और बुझी बुझी कविताएँ चाहिए। रोमाण्टिक, मिस्टिक, लाइफलेस ।”
गोपाल ने मुसकराना बन्द कर दिया और अर्जुन के नथुने धीरे-धीरे फड़कते रहे।
उसी वक्त चरण और दुष्यन्त दोनों एक साथ अन्दर आये। “क्या बात है भई, बड़े गम्भीर बने बैठे हो ?” दुष्यन्त ने अर्जुन के सामने बैठते हुए कहा । चरण गोपाल के साथवाली कुरसी पर बैठ गया ।
गोपाल दुष्यन्त की बात का जवाब देते हुए बोला, “अर्जुन को रेडियोवालों से शिकायत है कि वहाँ इनकी कविताओं को कोई नहीं समझता।”
“शुक्र है जो इसे सिर्फ रेडियोवालों से शिकायत है,” दुष्यन्त बोला, “एक हम हैं जिन्हें हर चीज, हर बात से शिकायत है । ”
“मुझे तो अपने-आप से भी शिकायत है, ” चरण भी चुप नहीं रह सका, "मैं सोचता हूँ कि हम दुनिया में आये ही क्यों ? क्या हक था हमें पैदा होने का ?”
“तुम तो इस तरह कह रहे हो जैसे कोई अपनी मरजी से इस दुनिया मैं पैदा होता है,” गोपाल बोला, “ मूर्ख, हम तो अपने माँ-बाप की गलती का फल भोग रहे हैं। किसी के चाहने पर हम इस दुनिया में थोड़े ही आये हैं!”
“मेरे साथ यह बात नहीं,” दुष्यन्त ने कहा, “मेरी तीन बड़ी बहिनें हैं, और मेरे माँ-बाप ने कई मन्नतें कीं तो मैं पैदा हुआ। मेरे पैदा होने की खुशी में उन्होंने लोगों को भी शामिल किया और घर पर बताशे बाँटे; लेकिन आज किसी को इस बात की परवाह नहीं कि जिसके जन्म लेने पर इनती खुशियाँ मनायी गयी थीं, आज उस पर क्या बीत रही है, उसे क्या चाहिए? दोस्तो ! दुनिया अन्धी हो चुकी है और अन्याय इतना बढ़ चुका है कि अगर हमने अब भी उसका विरोध नहीं किया तो हमारा नामोनिशान मिट जाएगा।”
"हमने से क्या मतलब है तुम्हारा?” चरण ने पूछा ।
“हमने से मतलब है, हम लोग नयी पीढ़ी के लोग, जिन्हें कल को दुनिया का सारा बोझ अपने कन्धों पर उठाना है।”
“इसके लिए तुम अकेले कुछ नहीं कर सकते, तुम्हें एक बड़े संगठन में शामिल होना पड़ेगा,” अर्जुन ने कहा ।
“ये सब चोरों के संगठन है,” दुष्यन्त ने उसी जोश में जवाब दिया, “नौजवानों का एक अपना संगठन होना चाहिए।”
“यह बात कभी नहीं हो सकती, हम बड़े संगठन में शामिल होकर ही काम कर सकते हैं।"
चरण बड़े ध्यान से सब-कुछ सुन रहा था, और गोपाल दिल ही दिल में इस गरमागरम बहस का मजा ले रहा था ।
शोर-शराबा बढ़ गया तो चरण और गोपाल उठकर बाहर निकल आये । गोपाल ऐसी बहस - बहसी में भले ही बोलता जरूर है, लेकिन अपना दिमाग कभी खर्च नहीं करता । उसके लिए ये सब बेकार की बातें हैं। बातें करने-बनाने के बदले मनुष्य को काम करना चाहिए। जिन्दगी में आगे बढ़ना चाहिए - यह गोपाल का उसूल है। इसीलिए इन बहसों में वह अगर कभी हिस्सा लेता भी है तो ज्यादा चोटें और व्यंग्य ही करता है । लेकिन चरण अभी तक दुष्यन्त की बातों में ही डूबा हुआ था। उसके कानों में अभी तक दुष्यन्त की बातें गूँज रही थीं। गोपाल के साथ-साथ चलता हुआ भी जैसे वह उसके साथ नहीं चल रहा था ।
बाजार पार करके जब वे गली में घुसे तभी खम्भे का लैम्प जल उठा, चरण को एहसास हुआ कि रात हो गयी है ।
गोपाल ने पूछा, “मीटिंग समाप्त होने के बाद भी तुम सेक्रेटरी से नहीं मिल सके?"
“ सलाम तो किया था और जवाब भी मिला था, लेकिन बात करने का मौका नहीं मिला ।”
“मेरी समझ में एक बात नहीं आयी कि इतनी जल्दी कैसे पड़ गयी तुम्हें नौकरी की ?"
“कोई-न-कोई काम तो करना ही है। बिना काम किये घर में रोटी खाते भी शर्म आने लगी है ।"
“जब तक तुम्हें नौकरी नहीं मिलती, एक काम कर सकते हो तुम?"
“क्या?”
“रेडियो स्टेशन के ज्यादा चक्कर लगाने शुरू कर दो। पहले से ज्यादा नाटकों में काम मिलेगा; कुछ और काम भी मिल सकते हैं !”
“ और कौन से काम हैं?"
“बड़े काम हैं । तुम कविता लिख सकते हो ?”
" मैंने तो कभी नहीं लिखी कविता !”
“जैसे-तैसे लिख दो। कुछ मैं ठीक कर दूँगा, कुछ रेडियोवाले खुद ठीक कर लेंगे।”
“वे ठीक करने की तकलीफ क्यों उठाएँगे?”
“सब कुछ हो जाता है। तुम्हें सिर्फ इतना करना पड़ेगा कि कभी-कभी लोगों को किसी होटल में बुलाना पड़ेगा।”
“काम बन जाएगा?” चरण ने हैरान होते हुए पूछा ।
“क्यों नहीं,” गोपाल ने विश्वास के साथ कहा, “मैंने भी तो पहले ऐसे ही किया था। मुझे पूरी उम्मीद है कि तुम थोड़ी-सी कोशिश करके अच्छा लिख लोगे ।”
गोपाल के कमरे में पहुँचकर चरण ने गोपाल के कपड़े उतारे और अपने पहन लिये। “मैं जा रहा हूँ, माँ फिक्र कर रही होगी,” यह कहकर वह बाहर निकल गया ।
दरवाजे पर खटखटाहट की आवाज कानों में पड़ते ही रानी की आँख खुल गयी । अँधेरा ही अँधेरा था । उठने लगी । फिर रुक गयी। कहीं मेरे ही कान तो नहीं बजे? लेकिन किसी ने दरवाजा खटखटाया तो है, तब ही तो आँख खुल गयी है; लेकिन नहीं, वह दरवाजा नहीं खोलेगी - कभी नहीं खोलेगी।"
सुबह से ही दरवाजा बन्द है । सुजानूँ के जाने के बाद उसने यह सोचकर दरवाजा बन्द किया था कि अब वह किसी को अन्दर नहीं घुसने देगी। घाव अभी हरे हैं । दो-तीन दिन लगेंगे भरने में ।
तभी फिर खटका सुनाई दिया।
सच ही कोई आया है— उसने सोचा- जाकर कह देती हूँ, तबीयत ठीक नहीं, देह टूट रही है। लेकिन उन मरों को किसी की जान से क्या ? उन्हें तो गोश्त के टुकड़े चाहिए, जिन्दा या मुरदा कैसे भी । कोई शराब पीकर आया होगा तो जबरदस्ती आ घुसेगा। हो सकता है - उसे ख्याल आया हो सकता है चरण ही हो !
चरण की याद आते ही उसका मन हुआ कि झटपट उठकर चिटकनी खोल दे । फिर सोचा, जान-बूझकर अपनी मिट्टी खराब करने से क्या लाभ ! सारा शरीर एक फोड़े की तरह दुख रहा है। अपने-आप से ही बू आ रही है। बाहर से कोई आएगा तो उबककर ही जाएगा।
आज सारा दिन उसे रामू, राजी या फिर चरण की ही याद आती रही है । गाँव तो वह कभी जा ही नहीं सकती और इस छत का साया भी वह रामू और राजी पर डालना नहीं चाहती। रो-रोकर आँसू सूख गये हैं। बच्चों की ओर से ध्यान हटाने के लिए उसने चरण को याद किया है। आज घड़ी-घड़ी उसने अपने अन्दर उन पलों क्षणों को जीता महसूस किया है, जिन्हें चरण जाते हुए यहाँ ही छोड़ गया था ।
दरवाजा फिर किसी ने खटखटाया। नहीं, वह नहीं जाएगी। वह नहीं जा सकती । चरण हो तो भी नहीं । साँस रोककर वह जड़ हो गयी है । इस वक्त यह जान पाना कठिन था कि वह अँधेरे में डूबी हुई है या अँधेरा उसमें डूबा हुआ है। पता नहीं समय जल्दी बीत रहा था या धीरे-धीरे । दरवाजे पर फिर खटका नहीं हुई । बहुत देर के बाद जब उसने उठने की तैयारी की तो ऐसा महसूस हुआ कि युगों के बाद वह उठी है।
लालटेन जलाकर देखा सुबह के जूठे भाँड़े वैसे - के-वैसे पड़े हैं। झाडू भी नहीं दिया गया। सुबह से खाया भी नहीं । इस वक्त कुछ खाने का मन भी नहीं हो रहा । हर रोज इस वक्त वह सज-सँवर कर बैठती है, लेकिन आज उसे अपने अन्दर-बाहर गन्दगी-ही-गन्दगी एहसास हो रही थी । हौले-हौले वह अन्दरवाली कोठरी में घुसी और पिछली दीवार में बने छोटे से दरवाजे को खोलकर बाहर खुली जगह आ खड़ी हुई । सामने ही तवी जानेवाली ढक्की है।
हवा का झोंका आया तो वह काँप उठी, लेकिन महसूस हुआ कि कुछ राहत मिली है। अपने में से ही जो बास आ रही थी, वह जैसे उड़ गयी। धीरे-धीरे उसे हवा में धुली ब्रैकड़ की खुशबू आने लगी । यह खुशबू वह न जाने कब से एकदम भूल ही गयी थी। उसने आँखें मींच लीं। ब्रैहंकड़ की वह खुशबू उसे दूर - बहुत दूर पीछे उसके गाँव में ले गयी, जहाँ वह हर वक्त इसी खुशबू में डूबी रहती थी ।
ठण्डी हवा के झोंके ने फिर उसे कँपकँपा दिया। आँखें खोलकर वह अँधेरे में तवी की दिशा में देखने लगी। दोनों हाथ उसने अपने कन्धों पर रख लिये । उसे महसूस हुआ कि अगर वह कुछ देर और वहाँ खड़ी रही तो हाथ-पैर अकड़ जाएँगे। वह मुड़ी और उसी छोटे दरवाजे से अन्दर आ गयी। उसने लालटेन बुझा दी और फिर से रजाई में घुस गयी ।
इतने बड़े संसार में - संसार के बेहिसाब लोगों में कौन जानता है कि कहीं कोई ऐसा भी कोना है जहाँ रानी इस समय अकेली, एकदम अकेली बेहोश-सी पड़ी है, और यह कि वह है भी या नहीं ।
चरण खुश था, पैसा कमाने का कोई रास्ता तो मिला। रँडियो स्टेशन से, जैसे गोपाल ने बताया, काम मिल सकता है। अगर वह माँ की हथेली पर पचास रुपये भी हर महीने टिका देगा तो माँ तो खुश होगी ही, वह बाऊजी की नजरों में भी नाकारा नहीं रह जाएगा।
बाऊजी का ख्याल आते ही उसका मन फिर किसी बोझ के नीचे दब गया। जो बात भूलने के लिए वह सारा दिन मारा-मारा फिरता रहा, वह फिर से उसे नश्तर - सी आ लगी। मन-ही-मन वह तड़प उठा ।
उसे दुष्यन्त की बातें याद आने लगीं, 'किसी को इस बात की परवाह नहीं कि जिसके पैदा होने पर इतनी खुशियाँ मनायी गयी थीं, आज उस पर क्या बीत रही है, उसे क्या चाहिए - दोस्तो, दुनिया अन्धी हो गयी है और बेइन्साफी इतनी बढ़ चुकी है कि अगर अब भी हमने उसका विरोध नहीं किया तो हमारा नामोनिशान मिट जाएगा' – इन शब्दों में छिपी सच्चाई और सच्चाई की कड़वाहट उसे छीलने लगी । घर की ओर जाते पैर रुकने लगे। उसे एहसास होने लगा कि वह तब ही विरोध की शुरूआत कर सकेगा, जब वह अपना घर छोड़ देगा ।
उसका मन हुआ कि वह लौट जाए। लेकिन कहाँ? कौन-सी जगह है जहाँ जाकर वह रह सकता है? कहीं रह भी लेगा तो खाएगा क्या? रेडियो स्टेशन पर तो अभी उसे कोशिश करनी है। कुछ भी पक्का नहीं। नौकरी मिलने का तो कोई भरोसा ही नहीं। पता नहीं कितनी देर धूल फाँकनी है, ख्वार होना है और बेइज्जती सहनी है । लेकिन उसकी कितनी भी धूल निकले, उसे वह नौकरी हासिल करनी ही होगी। बस एक बार यह नौकरी लग जाए, फिर सारे टण्टे चुक जाएँगे। अगर कहीं नौकरी जम्मू से बाहर लगी तो और भी अच्छा होगा। वह स्वतन्त्र हो जाएगा, हर बात में स्वतन्त्र हो जाएगा।
वह घर के दरवाजे के पास पहुँच गया। अपने स्वतन्त्र होने की सोच ने उसे बल दिया। उसने दरवाजा खटखटाया। सामने माँ खड़ी थी, जैसे उसी का इन्तजार कर रही हो ।
“कहाँ था सारा दिन ?”
“यहाँ ही !”
" दोपहर को रोटी खाने भी नहीं आया ?”
“बड़ा जरूरी काम था माँ । नौकरी के लिए कोशिश कर रहा था ।”
“सवेरे पाँच बजे जाना और रात दस बजे आना, यह कौन-सी नौकरी की कोशिश है?" सावित्री की आवाज भर्रा भी गयी थी। चरण चुप हो रहा ।
"चल, आ पहले रोटी खा ले ।”
वह रोटी खाने बैठ गया ।
" न जाने क्या हो रहा है इस घर में, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा।”
चरण ने देखा, माँ आँसू पोंछ रही थी। उसका मन भी भारी हो गया । दम घुटने लगा। मुँह में पड़ा ग्रास निगलना कठिन हो गया । वह पछताने लगा कि सारा दिन घर से बाहर रहा। वह रुआसाँ -सा हुआ जल्दी-जल्दी दो रोटियाँ खाकर उठ खड़ा हुआ, और हाथ धोकर अपनी खाट पर जा लेटा ।
चौधरी फिरंगीमल शराब के छोटे-छोटे घूँट भरता कह रहा था, “बड़ी बला की चीज है, हाथ लगाते ही वह कलेजा निकाल कर ले जाती है।"
“इसीलिए तो मिनिस्टर साहब ने आज फिर उसे बुला भेजा है, ” हरदयाल बोला ।
फिरंगीमल ने कुछ समझने की कोशिश करते और अटकल लगाते हुए कहा, “मुझे पूरा यकीन है कि अपने घर में वह अकेले नहीं। उन्होंने सेक्रेटरी नेशनल कान्फ्रेन्स को जरूर बुलाया हुआ है । जिस तरह हमारे वास्ते मिनिस्टर साहब को खुश करना जरूरी है, उसी तरह मिनिस्टर साहब के लिए जरूरी है सेक्रेटरी साहब को खुश करना । और खुश करने के लिए इससे अच्छा और कौन-सा ढंग है। मैंने आज दोनों को इकट्ठे बैठे बातें करते देखा था और उसके बाद ही मिनिस्टर साहब ने मुझे बुलाकर कहा था कि रानी को आज उनके घर जरूर भेज दिया जाए ।"
“ऐश करते हैं,” पण्डित रामसरूप धुत्त हुआ बोला, “राजा लोगों का धर्म ही ऐश करना है।”
“ओ पण्डित रामसरूप,” फिरंगीमल तैश में आकर बोले, “तुम इन लोगों को राजा-राजा मत कहा करो। ये साले भंगी हैं, भंगी !”
“वो तो हैं ही।” पण्डित रामसरूप झट सचेत हो गये, कहीं फिरंगीमल नाराज न हो जाएँ। बात पलटते उन्हें मिनट नहीं लगा, “यह तो किस्मत का खेल है, हम पर राज कर रहे हैं। अगर हमारे महाराजा साहब बहादुर की हुकूमत होती तो देखते कि कैसे ये खुल खेलते ।”
तब ही बाहर से कार की घर्र-घर्र सुनाई दी। चौधरी फिरंगीमल जल्दी-जल्दी उठे । पिछले कमरे में पहुँचे तो चोर दरवाजे से ड्राइवर अन्दर आता नजर आया।
" आयी ?”
“नहीं जी, वह नहीं आयी ।”
“क्यों?”
“बहुत खटखटाया, किसी ने दरवाजा ही नहीं खोला।”
“ तुम्हें और खटखटाना चाहिए था ।”
" जी, मैंने तो बहुत खटखटाया।”
लाला हरदयाल और रामसरूप भी वहाँ आ पहुँचे ।
“सुना तुमने ?” फिरंगीमल ने माथे पर हाथ मारते हुए कहा, “किसी ने दरवाजा ही नहीं खोला। इस हरामजादे से इतना भी नहीं हुआ कि कुछ देर और इन्तजार कर लेता । अन्दर कोई और घुसा होगा ।"
ड्राइवर सहम गया था।
“अब क्या किया जाए ?” हरदयाल बोले ।
“ टेलीफोन कर देता हूँ, और क्या हो सकता है । "
पण्डित रामसरूप पलक झपकते ही टेलीफोन वहाँ ले आये । फिरंगीमल ने नम्बर घुमाया।“हलो हलो - मैं फिरंगीमल..."
“अरे फिरंगीमल जी,” मिनिस्टर साहब ऊँचे सुर में बोले, “रईसे-आजम फिरंगीमल जी, यहाँ आपका इन्तजार हो रहा है, आप कहाँ हैं?”
“जी बात यह हुई कि " फिरंगीमल डर रहा था ।
“क्या हुआ महाराज ?”
"जी, बात यह है कि वह बीमार हो गयी .."
"कैसी बात कर रहे हो फिरंगीमाल जी, मिनिस्टर साहब एकदम तैश में आ गये, "यह भी कोई बात है? आप जानते नहीं, सेक्रेटरी साहब यहाँ ही मेरे पास बैठे हैं। मैंने इनसे उस चीज की इतनी तारीफ की कि जमीन-आसमान के कलाबे मिला दिये । यह सिर्फ उसी का इन्तजार कर रहे हैं और पैग पर पैग चढ़ाते जा रहे हैं। चाहे कुछ भी हो, उसे साथ ले आओ,” कहकर उन्होंने फोन गुस्से से पटककर बन्द कर दिया । फिरंगीमल को महसूस हुआ, जैसे उन्होंने कहा हो, “अगर आप रानी को नहीं लाये तो जितने ठेके आपको दिये गये हैं, सब रद्द कर दिये जाएँगे ।” उनका रंग सफेद हो गया था। मोहलत बहुत थोड़ी थी । फिरंगीमल बोले, “चलो, हम सब ही चलते हैं। यह टण्टा खत्म करना ही पड़ेगा, नहीं तो अपनी मिट्टी खराब हो जाएगी ।"
सब बाहर निकले, कार में बैठे और कार चल दी। फिरंगीमल सोच रहे थे, जानबूझकर जान फन्दे में फँसा ली। ऐसे याराने भी क्या पालने ! मामूली बात के लिए भारी नुकसान हो सकता है। कार दौड़ रही थी । पण्डित रामसरूप ने नशे के झूले में झूलते हुए आँखें बन्द कर लीं। लाला हरदयाल को यह सब बड़ा बेकार लग रहा था । डर भी था कि कहीं किसी ने उन्हें वहाँ देख लिया तो क्या होगा ? रोज मुफ्त की पीने के अपने चस्के पर वह उस वक्त लानत भेज रहे थे । अनायास ही चरण का ध्यान आया और वह पसीना-पसीना हो गये ।
गली के सिरे पर कार आ रुकी। ड्राइवर फिरंगीमल की ओर देखने लगा कि अब क्या हुक्म है। फिरंगीमल की जैसे सोच ही गुम हो गयी थी । अँधेरे में वे एक-दूसरे को कम-कम ही नजर आ रहे थे, जैसे भूतों की परछाइयाँ हों । दूर से आ रही खम्भे की रोशनी का एक टुकड़ा फिरंगीमल को अपने कोट पर पड़ा नजर आ रहा था। उनका मन हुआ कि हाथ मारकर उसे झटक डालें । “शाम,” उन्होंने ड्राइवर को कहा, “जा फिर दरवाजा खटखटा कर देख ।”
शाम बाहर निकला और अँधेरे की गली पार करके रानी के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। उसने धीरे से दरवाजा खटखटाया। थोड़ी देर इन्तजार करता रहा, लेकिन कोई नहीं आया। फिर खटखटाया - फिर खटखटाया, लेकिन कोई नहीं आया । वह लौट आया। कार के अन्दर मुँह डालकर धीरे से बोला, “साहब, किसी ने दरवाजा नहीं खोला ।”
“अजीब बात है, ” फिरंगीमल बड़बड़ाये, “हरदयाल, जरा तुम जाकर देखो।”
लाला हरदयाल के होश उड़ गये। जैसे कोई उनका गला घोंट रहा हो। लेकिन उन्हें मालूम था कि गला घोंटनेवाला उन पर बहुत भारी है, वह कितना भी छटपटाये, वह उसके पंजे में से नहीं निकल सकता ।
अँधेरे में शाम के पीछे-पीछे चलते हरदयाल को ऐसा लग रहा था, जैसे वह सेंध लगानेवालों की टोली में शामिल है और आज सेंध लगाने की बारी उसकी है। शाम दरवाजे के आगे जा खड़ा हुआ और उसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता दरवाजा खटखटाने लगा। “जरा जोर से खटखटा,” हरदयाल ने कहा। शाम ने जोर से हाथ मारा ।
रानी जाग उठी थी । उसने सोचा, जो भी कोई है, एक-दो बार खटखटाकर चला जाएगा। अब दस मिनट बाद फिर से दस्तक हुई तो वह खाट पर से उठी । मन में उथल-पुथल थी कि आखिर कौन ऐसा ढीठ है।
टटोलते हुए उसने डिब्बी तलाशी और लालटेन जलायी। हरदयाल ने दरवाजे की दराजों में से रोशनी होती देखी तो मन की धुकधुकी बढ़ गयी । वह घबरा गया, जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो । अब पीछे लौटना मुश्किल था । दरवाजा खुला तो रानी उसके सामने खड़ी थी, वह फटी-फटी आँखों से उसे देखता रहा । वह एक तरफ हट गयी। हरदयाल समझ नहीं सका कि यह उसके लिए अन्दर जाने का इशारा है। शाम बोला, “अन्दर जाओ, मैं यहाँ खड़ा हूँ।”
हरदयाल अन्दर घुसा तो रानी ने दरवाजा बन्द कर दिया । वह काँपती आवाज में बोला, “बाहर चौधरी फिरंगीमल कार में बैठे हैं, इसी वक्त कहीं जाना है । ”
रानी ने घूरकर उसकी तरफ देखते हुए कहा, “मैं बीमार पड़ी हूँ, आज नहीं जा सकती।”
" एक जगह जरूर जाना है।"
“नहीं जा सकूँगी।”
“जल्दी छोड़ जाएँगे ।”
“ कहा न, मैं नहीं जा सकती।”
हरदयाल ने हल्की-हल्की रोशनी में उसे घूरा, उसे महसूस हुआ कि वह सच कह रही है। लेकिन उसे लेकर जाना तो जरूरी था, बोले, “जितने पैसे माँगोगी, मिल जाएँगे।”
रानी लाचार हुई बोली, “मैं आप से माफी माँगती हूँ। मेरा अंग-अंग टूट रहा है, मैं नहीं जा सकती।” वह कहना चाहती थी, 'आप लोगों ने कल जो घाव दिये हैं, अभी वो नहीं भरे तो फिर आज कैसे जाऊँ" लेकिन कह नहीं सकी ।
कुछ और कहना व्यर्थ था। हरदयाल बाहर आ गया और रानी ने दरवाजा बन्द कर लिया ।
सारी बात सुनकर फिरंगीमल का खून उबलने लगा। बोले, “मैं उस हरामजादी को झोंटे से पकड़कर लाता हूँ,” और यह कहकर वह कार में से बाहर निकलने लगे । हरदयाल ने कहा, “मेरी मानो तो आप नहीं जाओ। कोई फायदा नहीं । आप ऊँचा बोलोगे तो पास-पड़ोस जग जाएगा। बेइज्जती होगी।”
" अरे हरदयाल, तुम बेइज्जती को रो रहे हो, मेरी जान सूली पर टँगी हुई है। मैं बरबाद हो जाऊँगा। मेरी जड़ें उखड़ जाएँगी अगर मैं उसे वहाँ लेकर नहीं गया । "
“एक बात हो सकती है,” पण्डित रामसरूप बोले। अभी तक तो वह सिर्फ तमाशबीन ही बना हुआ था। फिरंगीमल को इतना गरम हुआ देखकर उसे अपना - आप सँभालना जरूरी लगा ।
“क्या हो सकता है?” फिरंगीमल ने रामसरूप की ओर रुख किया।
“सेक्रेटरी साहब ने तो इस हूर- परी को देखा नहीं है। उनके सामने कोई और औरत पेश की जा सकती है।”
"लेकिन मिनिस्टर साहब भी तो वहीं हैं ।”
“इस वक्त तो उनके गले में भी फाँसी पड़ी हुई है । वह भी किसी तरह उसमें से निकलना चाहते होंगे। चुपचाप किसी और को ले चलो। मिनिस्टर साहब को बाद में सब कुछ समझा देंगे। वह भी शुक्र करेंगे कि बला टली । और अगर आप खाली हाथ वहाँ चले गये तो कयामत आ जाएगी ।"
फिरंगीमल को बात समझ में आ गयी । बोले, “लेकिन इस वक्त और कौन-सी मिलेगी ?”
“ नहर पर चलते हैं। लीलो डूमनी को कहते हैं, जरा बन-ठन कर चले ।” पण्डित रामसरूप ने जुगत भिड़ायी। कार नहर की दिशा में चल दी।
“इस हरामजादी को अगर मैंने अन्दर नहीं कराया तो मेरा नाम फिरंगीमल नहीं।”
“इन नीच-कमीनों से क्या मुँह लगाना जी,” रामसरूप ने सीख दी ।
“इन्हें पता लगना चाहिए कि इनकी जरूरत पड़ गयी है, बस फिर देखो इनका नखरा - मिजाज । कोई पूछे, तुझे क्या सुरखाब के पर लग गये हैं!”
“इन नीचों का एक ही इलाज है,” हरदयाल बोले, “तुम नहीं और सही, और नहीं और सही । "
कार जैसे-जैसे शहर से बाहर निकल रही थी, हवा और भी ठण्डी होती जा रही थी ।
रानी आप भी अपने हठ पर हैरान हो रही थी। उन लोगों ने इतना कहा, इतनी मिन्नतें कीं, लेकिन वह नहीं ही गयी । यह ठीक है कि वह बीमार पड़ी है, टाँगें- बाँहें टूट हैं, लेकिन इस तरह हठ करके बैठ जाने में भी कौन-सी अच्छाई है ! इतने शाहदिल ग्राहक हैं भी कितने! आगे से आयें ही नहीं तो ? पहले भी तो कितनी बार उसने बुखार से तपती अपनी देह बेरहम हाथों में दी है। आज तो चौधरी फिरंगीमल खुद आये थे । अच्छी-खासी रकम देते। वह चली जाती, थोड़ी ज्यादा परेशानी होती, दो दिन और पड़ी रहती, फिर दोबारा ठीक हो जाती । पल-भर को उसे महसूस हुआ कि उससे भूल हो गयी है। अगर कल सौ रुपये मिले थे तो आज कुछ ज्यादा ही मिलते। इस वक्त पैसों की जरूरत है। कलवाले सौ रुपये सुजानूँ लेकर चलता बना। उससे पहले मुश्किल से मरते - जीते तीन महीनों में इतनी ही कमाई हुई थी कि पेट की आग बुझती। बच्चों के लिए भी पैसे नहीं भेज सकी थी। तब ही तो सुजानूँ को यहाँ आने का बहाना मिला। इस वक्त उसके पास कुछ भी नहीं । ऐसे आड़े वक्त में उसने ग्रहक लौटाकर अच्छा नहीं किया।
रानी को महसूस हुआ कि उसकी भूख जाग उठी है। लेकिन इस वक्त वह चूल्हा नहीं जला सकती। घर में पकाने के लिए कुछ है भी नहीं । अब सुबह ही देखा जाएगा - उसने सोचा । मन के किसी कोने में उसे इस बात का सन्तोष भी था कि आज उसने इतने बड़े लोगों को न कर दी, उनकी मिन्नत समाजत को ठोकर मार दी। आखिर उसकी भी अपनी कुछ कीमत है - ये लोग उसे क्या समझते हैं। वह कोई डंगर - जानवर है जिसे लोग जैसे चाहें आगे लगा लें। फिर अचानक ही उसे ख्याल आया कि अगर उन लोगों की जगह चरण उसके पास आता तो क्या वह उसे भी इसी तरह न कर देती ? शायद नहीं कर सकती थी । वह उसे बता देती कि उसके साथ क्या बीती है; एक जानवर ने कैसे उसकी हड्डियाँ तोड़ डाली हैं। लेकिन यह सब कुछ जानकर भी अगर वह जिद पकड़ लेता तो ? - वह खीझ उठी कि वह चरण के बारे में क्यों इतना सोचती है? क्यों उसने उसका नाम पूछा? क्या फायदा हुआ? ऐसे सारे लोग उसके पास एक ही भूख लेकर आते हैं। किसी को उससे कैसे हमदर्दी हो सकती है ? जरूरत भी क्या है हमदर्दी की? चरण ने भी उसे उसका मोल दिया है, और वही सब कुछ ले गया है जो दूसरे सब लोग लेकर जाते हैं।
वह कौन-सी चीज है जिसे इतने लोग उससे लेकर जाते हैं ? - वह सोचने लगी; वह तो कुछ भी देने का यत्न नहीं करती, फिर वे क्या ले जाते हैं? कैसे ले जाते हैं? अगर वे सचमुच कुछ ले जाते हैं तो वह चीज कभी समाप्त तो नहीं हो जाएगी ? समाप्त हो जाएगी तो वह क्या करेगी? इन सोचों ने उसके दिल में बेचैनी भर दी ।
बहुत देर बाद उसे नींद आती महसूस हुई । वह कोई सपना देखना चाहती थी। लेकिन उसे महसूस हो रहा था कि उसके पैर धीरे-धीरे किसी कीचड़ भरे पोखर में धँसते जा रहे थे। फिर पूरी जाँघें उसमें धँस गयीं, और फिर वह आप भी पूरी की पूरी उस दलदल में धँस गयी ।
आँख खुली तो खिड़की की झिर्रियों में से प्रकाश की डोरियाँ खिंची तनी हुई उसकी रजाई पर गिर रही थीं। कानों में बाल्टियों के खनकने की आवाजें पड़ीं। नल से आते पानी की शूकें भी सुनाई दीं । एकदम रजाई झटककर वह जल्दी से उठी । नल बन्द हो गया तो सारा दिन पीने को भी पानी नहीं मिलेगा। बाल्टी उठाकर वह बाहर आयी तो देखा, सलीमा पानी भर रही थी। आज उसे देखकर रानी मुसकरायी । सलीमा ने उसे देखकर सिर झुका लिया। उसी वक्त रज्जो की कड़कदार आवाज आयी । दोनों ने गरदन घुमाकर देखा । अपनी खिड़की का एक पट खोलकर वह सलीमा को कह रही थी; “जल्दी कर, वहाँ ज्यादा देर खड़े होने की जरूरत नहीं ।" बाल्टी भरते ही सलीमा ने उसे उठाया और चल दी । रज्जो खिड़की में खड़ी कहती जा रही थी, “कितनी बार कहा कि मैं खुद भर लाऊँगी, तू फिर चल दी । तुझे तो अब बाँधकर रखना पड़ेगा। ऐसा खराब पड़ोस भी किसी का न हो। न जाने कहाँ-कहाँ के साँड -मुसटण्डे अँधेरे में रास्ता टटोलते आते हैं। ”
सलीमा अन्दर पहुँची तो रज्जो ने खटाक से दरवाजा बन्द कर लिया ।
रानी ने बाल्टी नल के नीचे लगायी। फिर झुकाकर उसने दुपट्टे से सिर ढँक लिया। मन कर रहा था कि बाल्टी भर जाए तो वह अपनी गुफा में जा घुसे। रज्जो के शब्द गरम सलाइयों की तरह उसके कलेजे को छेद रहे थे, “कैसा कंजरखाना डाला हुआ है, शर्म - हया तो कुछ रही ही नहीं । मेरा बस चले तो इस कलमुँही का झोंटा फूँक दूँ।”
“तुम्हें तो ऐसे ही दूसरों के ऐब नजर आते हैं,” यह रमजान की आवाज थी, “अम्मा, तुम रात में सोती हो या दूसरों के घरों की आवाजों पर कान लगाये रहती हो ?” फिर रज्जो की आवाज नहीं सुनाई दी ।
बाल्टी भरी तो रानी जल्दी से उठाकर अन्दर ले आयी। उसका मन और पानी लाने को नहीं कर रहा था, लेकिन अभी घर की सब साफ-सफाई बाकी थी, नहाना था, रोटी पकानी थी। उसे फिर जाना ही पड़ा । शुक्र किया रज्जो के बोल सुनाई नहीं दे रहे थे। उसके घर का दरवाजा खुलने का खटका हुआ। उसने घबराकर उधर देखा ।
रमजान घर से बाहर निकल रहा था। वह रानी की तरफ देखकर मुसकराया। रानी मुँह फेर लिया लेकिन मुँह फेरते - फेरते भी उसने रमजान को आँख मारते देख लिया । वह खाँसता-खँखारता चला गया। अपने आप में सिमटी रानी वहाँ खड़ी रही । बाल्टी उठाकर अन्दर गयी तो गुस्से से उसका मुँह लाल हो गया था। इस वक्त अगर रमजान उसके सामने होता तो जूतियाँ मार-मारकर उसकी हड्डियाँ - पसलियाँ तोड़ देती । माँ के खसम की ऐसी-तैसी कर देती ।
पहले भी ये बातें होती रहती हैं, लेकिन आज कुछ ज्यादा ही चुभन हुई है। होठ दाँतों से काटते हुए उसने आँसू रोकने का यत्न किया, लेकिन फिर भी आँखें भीग गयीं। वह खाट पर बैठ गयी। मन फूट-फूटकर रोने को हो रहा था । खाली पेट में एक गोला-सा उठता महसूस हुआ। दोनों हाथों से पेट को दबा लिया। दर्द से कलेजा फटकर बाहर आने लगा । मुँह से एक चीख निकली और वह सुबक- सुबककर रोने लगी ।
चरण रात देर तक जागता रहा । सोचा सुबह मुँह - अँधेरे ही वह दुष्यन्त से मिलने जाएगा, लेकिन जब उसकी नींद खुली तब उसका उठने को मन नहीं हुआ। सिर भारी और अंग-अंग थका हुआ था । उठकर दातुन करना भी व्यर्थ जान पड़ रहा था । सिरहाने को छाती से दबाये रजाई में ऐसे पड़ा था जैसे अब कभी उठना ही न हो ।
बाहर से आती आवाजों और आहटों से वह अनुमान लगा रहा था कि तोशी कॉलेज जाने के लिए तैयार हो रही है, बाऊजी नहा रहे हैं; माँ मन्दिर से वापस आ गयी हैं; बाऊजी सन्ध्या कर चुके हैं। तोशी घर से निकल गयी है; माँ रोटी बना रही हैं। चरण को लग रहा था कि यह सब कुछ वह सपने में देख रहा है । किरची-किरची हुए सपने। कभी कोई आवाज आ रही थी, कभी कोई ।
“चरण बचुआ, तुम्हें कब तक सोये रहना है?” सावित्री ने चरण की रजाई हिलाते हुए कहा। चरण का मन हुआ कि कोई जवाब न दे और चुपचाप लेटा रहे । फिर उसे ख्याल आया कि बाऊजी और तोशी जा चुके हैं। उसने रजाई उठाकर मुँह बाहर निकाला और माँ की ओर देखने लगा। सावित्री बोली, “ दस बजनेवाले हैं । उठ रोटी भी बन गयी ।”
चरण उठा। सावित्री रसोई में चली गयी । चरण नहाया। नहाकर कुछ होश आया। रोटी खाने बैठा तो सावित्री बोली, “पुत्तरा, एक काम करना पड़ेगा तुझे !”
“क्या माँ?”
“ राशन लाना है। रात के लिए घर में मुट्ठी भर आटा भी नहीं । "
रोटी खाकर उसने दो थैले उठाये और राशन की दुकान पर पहुँचा। वहाँ इतनी भीड़ और इतना शोर था, जैसे शहद की मक्खियों का छत्ता किसी ने छेड़ दिया हो । ऐसी मारा-मारी पड़ी हुई थी जैसे - दंगा छिड़ा हुआ हो, भूखे लोगों के लिए पकी- पकायी रोटियाँ बँट रही हों, और लोग खाने से ज्यादा छीना-झपटी में लगे हों ।
चरण को समझ नहीं आया कि वह इस लड़ाई के मैदान में कैसे घुसे। दुकानदार प्रकाश उसे अच्छी तरह जानता था। स्कूल में उसका सहपाठी था लेकिन चरण उस तक पहुँचे तब न। उसे शंका हुई कि प्रकाश इतनी भीड़ में कहीं है भी या नहीं। कहीं दब-कुचल न गया हो। एक आदमी को उसने राशन लेकर भीड़ में से निकलते देखा । ऐसा लगा जैसे वह भूचाल के मलबे के नीचे से जान बचाकर निकला हो ।
चरण बड़ी देर एक तरफ खड़ा होकर तमाशा देखता रहा । फिर अचानक ही भीड़ ठण्डी पड़ गयी । वह आगे बढ़ा, तब कोई एक आदमी दुकानवाले को गाली दे रहा था, “इनको फाँसी दे देनी चाहिए । अन्दर-ही-अन्दर अनाज दबा लेते हैं और फिर आप ही ब्लैक करते हैं।”
“क्या हुआ ? चरण ने पूछा ।
“सुबह से खड़े रखा। अब कहते हैं राशन खत्म हो गया है। साले ब्लैकिए !”
एक और आदमी कह रहा था, “रोज ही कसरत हो जाती है, मिलता कुछ नहीं।”
भीड़ ऐसे छँट गयी जैसे हॉकी का मैच खत्म होते ही मैदान खाली हो जाता है । चरण दुकान के अन्दर घुस गया। अकेला एक आदमी पीपे में आटा डलवा रहा था । प्रकाश ने आटा डाला, तराजू एक तरफ फेंकी और फिर खाली बोरी झाड़ते हुए चरण की ओर देखकर उसने आँख मारी, जैसे कह रहा हो, “थोड़ी देर रुक जा, तुझे तो राशन मिलेगा ही, इस लीचड़ को यहाँ से जाने दे।” चरण दुकान के चबूतरे पर बैठ गया और जेब में से एक सिगरेट निकालकर सुलगाने लगा। उसी वक्त उसने मदन को सामने से गुजरते हुए देखा ।
“कहाँ से आ रहे हो?"
“मक्का से हज्ज करके आया हूँ !”
“दीदार हुए या नहीं ?”
“दीदार किये बगैर हज्ज कैसे पूरा हो सकता है।”
दुकानदार प्रकाश चरण के पास आया और धीरे से बोला, “चरण, यार तुम थैला यहाँ छोड़ जाओ और आधे घण्टे बाद आकर ले जाना ।”
एक थैले में राशन कार्ड डालकर चरण ने दोनों थैले दुकान के अन्दर रख दिये और फिर वह और मदन दोनों जने 'भल्ले दी हट्टी' जाकर बैठ गये ।
" तुम्हें कब जाना है सिरीनगर ?”
“एक-दो दिन तक, लेकिन मेरा अन्दाजा है कि मिनिस्टर साहब जल्दी नहीं जा सकते।”
“क्यों?”
“ आज कॉलेज के स्टूडेण्ट्स ने हड़ताल कर दी है, सुना है कि काफी हंगामा होगा आज । मामला जल्दी खत्म होनेवाला नहीं। हो सकता है मिनिस्टर दो-चार दिन बाद जाएँ।”
“ये सारी खबरें तुम्हें कैसे मिल जाती हैं ?”
“सी.एम. की कोठी से । अकेला मैं ही तो हर रोज सलाम करने नहीं जाता, बहुतेरे लोग होते हैं। हर तरफ की खबर सबसे पहले वहीं पहुँचती है। "
" अचानक ही चरण को दुष्यन्त की याद आ गयी । दुष्यन्त भी आज 'स्टूडेण्ट्स स्ट्राइक' में शामिल है?"
“वही तो लीडर है,” मदन ने जवाब दिया, “वह तो हमेशा सबसे आगे रहता है। लेकिन तुम उसके बारे में क्यों पूछ रहे हो?”
चरण थोड़ी देर के लिए चुप हो रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि मदन की बात का क्या जवाब दे । फिर भी धीरे-धीरे ऐसे बोला, जैसे वह अपने-आपको भी अपने सामने खोल रहा हो, “यार मदन, पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मैं इस तरह नौकरी हासिल नहीं कर सकूँगा । यह मेरे स्वभाव में ही नहीं है कि मैं हर समय किसी के पीछे-पीछे फिरता रहूँ, लेकिन मुझे कुछ-न-कुछ तो करना ही है। कल टी स्टाल में बैठे हुए दुष्यन्त ने बातों-बातों में मुझे झकझोर कर रख दिया। उसके ख्यालात में बड़ा जोर है, बगावत है, जोश है, जज्बा है। मुझे लगता है - ऐसे लगता है कि आज हर आदमी को बागी बन जाना चाहिए।"
मदन हैरानगी से चरण के मुँह की ओर देखने लगा । फिर वह थोड़ा-सा मुसकराया और बोला, “ इसका मतलब है तुम भी बगावत करना चाहते हो !”
चरण ने जवाब दिया, “हर तरफ अन्धेरगर्दी मची हुई है। बेईमानी लोगों का धर्म बन गयी है। लीडरों और उनके चेले-चाँटों ने लूट-खसोट मचा रखी है । तुम ही बताओ, क्या ऐसे माहौल में बगावत नहीं करनी चाहिए ? "
मदन ने हँसते हुए कहा, “बगावत करना इतना आसान काम नहीं, जितना तुम समझते हो। दुष्यन्त को तो और कोई काम नहीं । पैसेवालों का लड़का है, रोटी कमाने की कोई चिन्ता नहीं। इसीलिए सिरफिरों का नेता बना हुआ है। अगर तुम भी उसके साथ मिल गये तो तुम्हारी मिट्टी खराब हो जाएगी । न इधर के रहोगे, न उधर के । मेरी मानो तो इन चक्करों में मत पड़ो। थोड़ा सबर करो। नौकरी तो मिल ही जाएगी तुम्हें, क्योंकि मिसेज राजदेव तुम्हारे साथ हैं।”
चरण बहस में नहीं पड़ना चाहता था, थोड़ी देर चुप रहा, लेकिन फिर रहा नहीं गया। बोला, “तुम मुझे सबर करने के लिए कह रहे हो क्योंकि तुम्हें भी रोटी की कोई 'प्रॉब्लम' नहीं। मेरी जगह तुम होते तो पता चलता । मेरा अब अपने घर में रहना पल-पल कठिन होता जा रहा है। बाऊजी समझते हैं, मैं लटरमस्त आवारा हो चुका हूँ और जानबूझकर कोई काम नहीं करना चाहता । माँ नहीं होती तो शायद मुझे घर से निकाल देते ।”
भल्ला भाप छोड़ती चाय के दो कप मेज पर रख गया। मदन चाय के दो घूँट भरते हुए कहने लगा, “अगर तुम्हें काम करना ही है तो नेशनल कान्फ्रेन्स में रहकर करो, जिससे तुम्हें कुछ फायदा भी पहुँचे ।”
चरण फिर चुप नहीं रह सका, “सारी फायदे की ही राजनीति है। देशभक्ति के नाम पर लोग अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। पर मैंने इन कामों की बात नहीं की थी। मुझे तो यार रोटी कमाने के लिए कोई काम चाहिए। कोई सा भी काम । " चाय पीकर उसने सिगरेट सुलगा लिया।
मदन भी सिगरेट पीने लगा। उसे चरण की बातों में सच्चाई महसूस हुई । धुएँ के छल्ले बना-बनाकर वह मुँह से निकालने लगा । कोई छल्ला जल्दी ही टूट जाता, कोई उड़ता - उड़ता काफी ऊपर चला जाता । रेडियो पर फिल्मी गाने लगे हुए थे। बहुत देर तक दोनों कुछ नहीं बोले । आखिरी कश लागकर चरण ने सिगरेट नीचे फेंक दिया। और फिर उसे पैरों के नीचे मसलकर उठा, “मैं अब चलता हूँ। राशन की दुकान बन्द हो जाएगी।”
मदन भी उठा और दोनों बाहर आ गये ।
अपने-अपने क्लास रूमों से निकलकर स्टूडेण्ट्स प्रिन्सिपल के ऑफिस के बाहर जमा होने लगे। प्रिन्सिपल ने स्टाफ के सब छोटे-बड़े मेम्बरों को अपने ऑफिस के अन्दर बुलाकर एक किलेबन्दी-सी कर ली। दुष्यन्त ने जब देखा कि सारे स्टूडेण्ट्स जमा हो गये हैं तो वह एक कुरसी पर चढ़कर तकरीर करने लगा ।
“दोस्तो ! हमारे साथ बेइन्साफी की गयी है और हम इस बेइन्साफी को कभी बरदाश्त नहीं कर सकते। हम सिद्धान्तों की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम यह लड़ाई तब तक लड़ते रहेंगे जब तक हमारे साथ इन्साफ नहीं किया जाता और हमारी माँगों को स्वीकार नहीं किया जाता। हमारी तीन माँगें हैं,” यह कहते हुए दुष्यन्त ने जेब से कागज निकालकर पढ़ना शुरू किया, “माँग नम्बर एक कॉलेज के अन्दर किसी पॉलिटिकल लीडर को भाषण देने की इजाजत न दी जाए, भले ही वह सरकारी पार्टी का जनरल सेक्रेटरी ही क्यों न हो। माँग नम्बर दो मैट्रिक की परीक्षा में थोड़े नम्बर लेकर पास होनेवाले जिन लड़कों को कायदे की खिलाफवर्जी करते हुए सिफारिशों के बल पर कॉलेज में दाखिला दिया गया है, या तो उनका दाखिला कैन्सिल कर दिया जाए या उतने ही नम्बर लेनेवाले दूसरे स्टूडेण्ट्स को भी दाखिल कर लिया जाए। माँग नम्बर तीन : कल जिन दो स्टूडेण्ट्स को नारे लगाने के जुर्म में कॉलेज से निकाल दिया गया है, उन्हें वापस लिया जाए।”
चारों ओर तालियों की आवाज गूँज उठी । दुष्यन्त ने कागज से नजरें हटायीं और फिर से कहना शुरू किया, “दोस्तो, ये तीन माँगें लेकर मैं आप सबकी तरफ से प्रिन्सिपल साहब के पास जा रहा हूँ। क्या आप में से किसी को इस पर कोई एतराज है ?” सब लड़कों ने शोर मचा दिया, “नहीं, नहीं!” दुष्यन्त ने फिर से कहना शुरू किया, “दोस्तो, मैं ये तीन माँगें प्रिन्सिपल साहब के आगे आप सबकी ओर से यह जानते भी रखने जा रहा हूँ कि वह पहले ही इन माँगों को नामंजूर कर चुके हैं। उनका कहना है कि स्टूडेण्ट्स को हड़ताल करने का कोई हक नहीं । उनके कहने के अनुसार हमें इतना भी अधिकार नहीं कि हम इकट्ठे होकर अपनी कोई डिमाण्ड उनके सामने रख सकें। लेकिन इस पर भी हम अपनी ये माँगें उनके सामने जरूर रखेंगे। अगर वह हमारी माँगें नहीं मानेंगे तो हम जुलूस बनाकर सेक्रेटेरियट तक जाएँगे और मिनिस्टर साहब के सामने अपनी माँगें रखेंगे। हमारी यह लड़ाई अपने अधिकारों के लिए न्याय की माँग है। हमें किसी से डरना नहीं है। हमें आगे बढ़ना है-आगे बढ़ना है।”
नारे लगने लगे, “स्टूडेण्ट्स यूनियन - जिन्दाबाद ।”
दुष्यन्त कुरसी से उतरकर प्रिन्सिपल के कमरे की ओर चल दिया। किसी ने नारा लगाया, “दुष्यन्त कुमार!” सभी चिल्ला उठे, “जिन्दाबाद!” दुष्यन्त ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और अन्दर घुस गया।
दुष्यन्त कुमार को अपने कमरे में दाखिल होते देखकर प्रिन्सिपल साहब आग-बबूला हो गये । गुस्से से उनकी आँखें सुर्ख हो गयीं और मुट्ठियाँ भिंचने लगीं। उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने-आपको काबू में रखा। आस-पास खड़े प्रोफेसर आँखें फाड़कर उस रोमांचकारी तमाशे का इन्तजार करने लगे, जो पल-क्षण में वहाँ सामने होनेवाला था ।
दुष्यन्त बड़े आत्मविश्वास के साथ प्रिन्सिपल साहब के सामने जा खड़ा हुआ । साथ में पकड़ा कागज सामने मेज पर रखते हुए कहा, “मैं सारे स्टूडेण्ट्स की तरफ से ये माँगें आपके सामने पेश करता हूँ । ”
प्रिन्सिपल साहब ने तमतमाते हुए झपट्टा मारा और दुष्यन्त के हाथ से कागज लेकर उसके पुरजे-रजे कर दिये। फिर चिल्लाकर कहने लगे, “निकल जाओ इस कमरे से। तुम्हारी माँगों की ऐसी-तैसी। मैं तुम्हारी कोई बात नहीं सुनना चाहता। तुम क्या समझते हो, मैं तुम्हारी एजीटेशन से डर जाऊँगा?”
दुष्यन्त ने अपने मुँह से थूक के छींटे पोंछे जो प्रिन्सिपल साहब के मुँह से निकला था। धीरे-धीरे वह मुड़ा और बाहर निकल आया ।
थोड़ी देर के बाद ही तैश में आये लड़कों का जुलूस किसी साँप की तरह फुफकारता -सिसकारता और नारे लगाता सेक्रेटेरियट की दिशा में बढ़ना शुरू हो गया ।
महिला कॉलेज के दरवाजे बन्द कर दिये गये थे। सारी लड़कियाँ क्लास रूमों से निकलकर बड़े दालान में जमा हो गयीं । प्रिन्सिपल साहिबा सारी प्रोफेसरों को आदेश दे रही थीं, “अगर कोई लड़की फाटक खोलने का यत्न करे या दूसरी लड़कियों को बहकाये - भड़काये तो उसे तुरन्त मेरे नोटिस में लाइए।”
महिला कॉलेज के बाहर पहुँचकर जुलूस रुक गया। लड़के सोच रहे थे कि लड़कियाँ भी उनके साथ शामिल हो जाएँगी। लेकिन फाटक, खिड़कियाँ, दरवाजे सब बन्द देखकर वे भड़क उठे । वे और भी चिल्ला-चिल्लाकर नारे लगाने लगे। लेकिन महिला कॉलेज की ऊँची दीवारें फलाँगना उनके लिए असम्भव था ।
सामने से पुलिस के दस्ते आते देखकर दुष्यन्त और कुछ दूसरे लड़कों ने मौका सँभालने की कोशिश करनी शुरू कर दी । लड़कों को यह बात अच्छी तरह समझा दी और उन्हें इस बात के लिए उन्होंने मना लिया कि लड़कियाँ साथ आयें या नहीं, हमारा सेक्रेटेरियट पहुँचना जरूरी है । बात समझ में आ गयी। जुलूस आगे चल दिया ।
प्रिन्सिपल साहिबा खुश हुईं। पुलिस को उन्होंने ही टेलीफोन किया था। जुलूस की आवाजें जैसे-जैसे दूर होती जा रही थीं, उनके मुँह पर रौनक आती जा रही थी । लड़कियों ने भी राहत की साँस ली। चंचल ने तोशी से पूछा, “तुम्हारा भापा तो जुलूस में नहीं होगा न ?”
"उन्हें क्यों होना है? वह कॉलेज में थोड़े ही पढ़ते हैं!” वे दोनों अपनी क्लॉस में जाकर बैठ गयीं। वहाँ इतना शोर मचा हुआ था कि किसी को किसी की बात सुनाई नहीं दे रही थी ।
“ तुमने अपने भापे को मेरी कविता दिखायी ?” चंचल ने पूछा ।
तोशी बोली, “वह मिले ही नहीं । कल सुबह वह तुम्हारे आने से पहले ही चले गये थे। रात मैं सो गयी तब आये। आज सुबह मैं उनके पास गयी तो रजाई में मुँह ढँके सो रहे थे ।”
"अच्छा!” चंचल ने यह सोचकर अपने मन को तसल्ली दी कि आर्टिस्ट लोग इसी तरह के होते हैं । कई फिल्मी एक्टरों के बारे में पढ़ा था कि वे दोपहर बारह बजे सोकर उठते हैं । उसी वक्त प्रोफेसर शकुन जल्दी-जल्दी क्लॉस रूम में आयीं और पलभर में ही सारी क्लॉस चुप हो गयी। प्रोफेसर ने हाथ में पकड़े हुए एक कागज को दिखाते हुए कड़कदार आवाज में पूछा, “कॉलेज में यह परचा कौन लाया है?”
सब लड़कियाँ एक-दूसरी की ओर देखने लगीं। उनकी समझ में यह भी नहीं आया कि उस परचे में क्या लिखा हुआ है । वे आपस में ही भुनभुन करने लगीं । प्रोफेसर शकुन ने ऐनक को थोड़ा नाक के ऊपर करते हुए फिर से जोरदार आवाज में कहा, “यह स्ट्राइक करनेवाले लड़कों की ओर से इस कॉलेज की लड़कियों के नाम लिखा गया पर्चा है । प्रिन्सिपल साहिबा को पता लग चुका है कि यह किस लड़की की करतूत है । अगर वह लड़की इसी क्लॉस में है तो चुपचाप आगे आ जाए। अपना नाम बता दे। मैं अपनी ओर से उसे बचाने की कोशिश करूँगी।”
कुछ देर तक क्लॉस में चुप्पी छायी रही । फिर अचानक ही रोने की एक धीमी-सी आवाज सुनाई दी। सभी लड़कियाँ आश्चर्य से एक-दूसरे की ओर देखने लगीं। धीरे-धीरे वह आवाज ऊँची होती गयी, और लड़कियों को पता चला कि आशा रो रही थी । सहमी हुई नजरों से सब उसे देखने लगीं।
प्रोफेसर उसके पास आयीं, “ये परचे तुम लायी हो?” आशा ने सुबकते - सुबकते सिर हिलाकर हाँ की । “दुष्यन्त तुम्हारा भाई है?” उसने फिर सिर हिलाया । “उसके कहने पर ही तुमने यह मुसीबत मोल ली है। चलो मेरे साथ, तुम्हें प्रिन्सिपल के सामने जाना होगा।”
आशा रोती- रोती बेंचों के बीच में से निकलती प्रोफेसर के पीछे-पीछे चल दी। सारी लड़कियाँ साँस रोके उसे देख रही थीं । उनके जाने के बाद भी बहुत देर तक कोई बोली नहीं । फिर थोड़ी देर बाद तोशी ने आहिस्ता से चंचल के कान में कहा, बाहर से कितनी भोली लगती है !”
“हाँ,” चंचल बोली, “अब इसका बचना मुश्किल है । प्रिन्सिपल इसे जरूर कॉलेज से निकला देंगी।”
जुलूस जब कच्ची छौनी पहुँचा तब चरण उधर से ही गुजर रहा था। आगे होकर उसने अपने जान-पहचानवाले लड़कों को इस तरह उछलते-दमकते देखा तो उसके मन में भी जोश भर आया। नारे सुन-सुनकर उसका खून भी खौलने लगा। 'सड़े-गले निजाम को - एक धक्का और दो ।' 'सीनाजोरी- नहीं चलेगी।' 'हम क्या चाहते हैं ? - इन्साफ ।' इन नारों से चारों दिशाएँ गूँज रही थीं। कभी-कभी दुष्यन्त कुमार - जिन्दाबाद' का नारा भी लग रहा था। जोश में चरण का जी चाहा कि वह भी आगे बढ़कर जुलूस में शामिल हो जाए, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका। उसे याद आया कि वह अब कॉलेज में नहीं पढ़ता। उसने तो सेकेण्ड ईयर में ही पढ़ाई छोड़ दी थी। आज उसे पढ़ाई छोड़ देने का अफसोस हुआ ।
जब जुलूस उसके सामने से गुजरकर आगे बढ़ गया, तो उसका मन चाहा वह फिर से जुलूस को देखे । उसे मालूम था कि जुलूस 'राजे दी मण्डी' जा रहा है। गलियों में, दौड़ता - भागता वह 'धौंथली' के रास्ते जब 'राजे दी मण्डी' पहुँचा तो उसका दम फूल चुका था । नाड़ियाँ फड़क रही महसूस हो रही थीं और आँखों से आग निकलती जान पड़ रही थीं।
मण्डी में पुलिस ही पुलिस नजर आ रही थी। पुलिस के कई दस्ते लम्बी-लम्बी लाठियाँ लिये खड़े थे । दफ्तर- दफ्तर खबर फैल चुकी थी, और टाँग पर टाँग रखकर बैठनेवाले लोग तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आये थे और धूप सेंकते - सेंकते मूँगफली और रेवड़ियाँ खा रहे थे ।
धीरे-धीरे जुलूस का शोर सुनाई देने लगा। चरण के दिल की धकधक बढ़ गयी । उसने देखा कि वहाँ खड़े दूसरे लोग भी अधीर होते जा रहे थे । वे अब जल्दी-जल्दी मूँगफली और रेवड़ियाँ खाते इधर-उधर होने लगे। पुलिस के सिपाही भी सावधान होते नजर आ रहे थे। मिनिस्टर के दफ्तर से पुलिस का कोई बड़ा अफसर भागता-दौड़ता आ रहा था। सिपाहियों के पास पहुँचकर उसने कोई आदेश दिया और सब तरफ हलचल मच गयी ।
अब जुलूस का शोर बिलकुल करीब आ पहुँचा था । पुलिस के सिपाहियों ने दो पंक्तियों में खड़े होकर जुलूस का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर ली । लाठियोंवाले सिपाही दो टुकड़ियों में बँटकर दायें-बायें खड़े हो गये थे। जुलूस मण्डी में दाखिल तो ऐसा लगा जैसे आसमान फटने लगा और धरती डोलने लगी है। पुराने महलों की खस्ताहाल दीवारें काँप उठीं और उनके अन्दर बैठे लोकतन्त्र के प्रतिनिधि मुट्ठियाँ तानकर खड़े हो गये ।
जोश में उफनता मचलता जुलूस सिपाहियों की पंक्तियों के आगे ऐसे रुक गया जैसे बहते दरिया के आगे किसी चट्टान के गिर जाने से दरिया के बहाव में रोक लग जाती है। आगे रास्ता न मिलने के कारण पानी की तरह ही जुलूस भी चारों ओर फैलने लगा। नारे इतने ऊँचे और जल्दी-जल्दी लग रहे थे कि कोई भी नारा साफ तौर पर सुनाई नहीं दे रहा था । लड़के अखाड़े में उतरे पहलवानों की तरह बिजलियाँ बनकर कड़कड़ा रहे थे।
सिपाहियों की अगली पंक्ति ने पूरा जोर लगा रखा था कि लड़के आगे न बढ़ सकें। पीछे खड़े अफसर उचक-उचककर और हाथों में पकड़े डण्डे घुमा घुमाकर न जाने क्या बोल-बोलकर आगेवालों का हौंसला बढ़ा रहे थे। चारों ओर महलों में बने दफ्तरों की खिड़कियाँ - झरोखे तमाशबीनों से भरे हुए थे ।
जुलूस का फैलाव बढ़ता जा रहा था। बढ़ते-बढ़ते उसका एक सिरा वहाँ तक पहुँच गया, जहाँ चरण सीढ़ियों पर खड़ा था। अब सारे नारे उसकी समझ में भी आ रहे थे ‘हम क्या चाहते हैं? – इन्साफ ।' 'हमारी माँगें - पूरी करो ।' 'गले सड़े निजाम को - एक धक्का और दो ।' चरण का खून फिर से खौलने लगा । मन हुआ कि वह भी गला फाड़-फाड़कर चीखे । अचानक उसकी नजर दुष्यन्त पर पड़ी जो सबसे आगे था और अगली पंक्ति के सिपाहियों से लड़ रहा था। वह सिपाहियों का घेरा तोड़ने की कोशिश कर रहा था। उसके साथ और भी लड़के थे । सब ही आगे बढ़ने के लिए जोर लगा रहे थे। ऐसा लगता था जैसे अनगिनत साँड़ एक-दूसरे को रगेदने के लिए गुत्थमगुत्था हो रहे हैं । चरण की नाड़ियाँ फड़क रही थीं। मन उछल-उछलकर बाहर आने को हुमक रहा था। हाथ-पैर उसके काबू में नहीं रहे । अनयास पैर सीढ़ियाँ उतरने लगे। नारा लग रहा था, 'हम क्या चाहते हैं?' उसी वक्त चरण ने एक सिपाही की ऊपर उठी लाठी को बिजली की तरह दुष्यन्त के सिर पर गिरते देखा और वह चीख उठा, “इन्साफ,” और दूसरे क्षण वह भीड़ की लहरों में तैर रहा था। गला फाड़-फाड़कर नारों का जवाब देते हुए वह भीड़ को चीरता सबसे आगे पहुँचने की कोशिश कर रहा था । जहाँ पुलिस का घेरा टूट चुका था और लाठियों की बारिश हो रही थी। कुछ लड़कों ने पीछे मुड़कर दौड़ना शुरू कर दिया, लेकिन चरण पागलों की तरह अन्धाधुन्ध आगे बढ़ता जा रहा था। एक लड़के का फटा हुआ सिर और लहूलुहान मुँह देखा तो उसे और भी जुनून चढ़ गया । वह और भी तैश में आकर आगे बढ़ा। वह जोर-जोर से चिल्ला रहा था, “पीछे नहीं हटो, भागो नहीं, आगे बढ़ो।” और चिल्लाते-चिल्लाते वह वहाँ पहुँच गया जहाँ लाठी चार्ज हो रहा था । लाठियों की बारिश में उसने एक सिपाही को जोर से धक्का दिया और उसी वक्त एक लाठी उसके सिर पर पड़ी, उसके मुँह से चीख निकली और वह नीचे गिर गया।
सावित्री ने चूल्हे में से जलती - जलती लकड़ी निकाली और उस पर पानी के छींटे मारे । ‘शाँ शूँ” की आवाज निकली और लकड़ी बुझ गयी । तवे पर आखिरी रोटी पक रही थी । आधा घण्टा पहले ही चरण रोटी खाकर गया था और अब तक सावित्री सिर्फ चरण के बारे में ही सोच रही थी। आज उसे चरण की बातें कुछ बदली बदली-सी लगी थीं। बाजार से आटा लाकर वह उसके पास बैठ गया था बातें करने के लिए । हाथ में बुझी हुई लकड़ी पकड़े सावित्री को चरण की बात याद आयी, 'माँ, तुम्हें रात रोते देखकर मैं सारी रात नहीं सो सका।' उसने बड़े गौर से चरण की ओर देखा था । पहले चरण ने कभी ऐसी बात नहीं की थी ।
सावित्री इन सोचों के उलझे धागों को सुलझा रही थी कि उसी वक्त पड़ोसियों का लड़का सोहनूँ दौड़ता आया, “चाची-चाची, चरण भापे का सिर फट गया।”
बुझी हुई लकड़ी उसके काँपते हाथों से छूट गिरी। चीख मारती वह उठी, “हाय माँ!” छाती पर हाथ रखे आगे बढ़ी, “कैसे फट गया? कहाँ है वह ?”
“पुलिस की लाठी पड़ी, लोग उसे हस्तपाल ले गये हैं ।”
“राम-राम ! राम-राम !” कहती सावित्री रोने लगी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे! सोहनूँ से काँपती आवाज में कहने लगी, “बचुआ, तुम इनके दफ्तर जाकर इन्हें बुला लाओ। मैं हस्पताल जाती हूँ।” सोहनूँ उन्हीं पैरों दौड़ा। सावित्री ने काँपते हाथों से बड़ा पसार बन्द किया और बाहर को दौड़ी। उनके मुँह से 'राम-राम' निकल रहा था। गली के मोड़ पर खरैती की बेबे मिली तो फूट-फूटकर चीखीं, “मार डाला, मार डाला, मेरे बच्चे को कसाइयों ने। खरैती की बेबे, अनर्थ हो गया।” बेबे ने उसे सीने से लगाकर सहारा दिया। दूसरी औरतें भी घरों से बाहर निकल आयीं । “मुझे मेरे चरण के पास ले चलो,” सावित्री ने रोते-रोते दुहाई दी । खरैती की बेबे उसे सहारा देकर हस्पताल की ओर ले चली ।
हरदयाल जब हस्पताल पहुँचा तो चरण होश में आ चुका था । सिर पर चारों ओर पट्टियाँ बँधी हुई थीं, और सिरहाने बैठी हुई सावित्री ने रो-रोकर आँखें सुजा ली थीं । जख्मी हुए दूसरे लड़कों को भी इसी वार्ड में रखा गया था। बहुत भीड़ थी वहाँ । उन लोगों का आना-जाना ज्यादा था जिन्हें कुछ लेना-देना नहीं था। लेकिन पब्लिक का मामला था। लोकराजी सरकार ने लोगों पर हाथ उठाया था तो लोग चुप करके कैसे बैठे रहते। इसीलिए हस्पतालवालों ने भी किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं लगायी थी । मेले जैसी गहमा-गहमी थी । जख्मी लड़कों में कुछ ऐसे भी थे जिनकी अभी शिनाख्त नहीं हुई थी। शायद अभी उनके घरवालों को पता नहीं था । एक लड़के के बारे में डॉक्टर घबराये हुए थे। उसके बचने की उम्मीद कम थी ।
हरदयाल को देखकर सावित्री ने आँसू पोंछे और मुँह में पल्लू हँस लिया कि कहीं चीख ही न निकल जाए। हरदयाल बेड के पास आ खड़ा हुआ और बड़े गौर से चरण की ओर देखने लगा ।
चरण की आँख खुली तो कुछ देर के लिए उसकी समझ में ही नहीं आया कि वह कहाँ है । फिर धीरे-धीरे उसे सिर में दर्द की लहरें उठती महसूस हुई। इस दर्द ने उसे एहसास कराया कि वह अभी जिन्दा है। धीरे-धीरे उसे याद आने लगा कि सिपाही जब लाठीचार्ज करने लगे थे तो वह भीड़ को चीरता आगे बढ़ गया था । उसे दुष्यन्त के सिर पर चोट करने को कौंधती लाठी याद आयी । प्यास से उसका मुँह सूख रहा था । होठों पर जीभ फेरते हुए उसने माँ की तरफ देखा । सावित्री ने झट उसके मुँह में पानी डाला। पानी पीकर उसने नजर और ऊपर उठायी तो बाऊजी नजर आये। क्षण-भर के लिए उसे महसूस हुआ, उसने कोई अपराध किया है। लेकिन ऐसा कौन-सा अपराध मैंने किया है, वह सोचने लगा। मैंने बाऊजी को तो कुछ नहीं कहा; जुलूस में शामिल होना मेरा अपना मामला है, मैं ही भुगत लूँगा । उसने आँखें बन्द कर लीं। वह बाऊजी के सम्बन्ध में कुछ सोचना नहीं चाहता था । इस वक्त उसे उनका अपने सिरहाने खड़ा होना अखरने लगा। सिर के घावों में दर्द की लहरें उठने लगीं, उसने आँखें बन्द कर लीं। देर बाद उसने जब आँखें उठाकर देखा तो तोशी और चंचल सामने खड़ी थीं। एक डॉक्टर लाला हरदयाल से कह रहा था, “आप घबराइए नहीं, आपके लड़के को ज्यादा नहीं लगी। दो-तीन दिन में ठीक हो जाएगा।” सावित्री ने चरण का एक हाथ अपने हाथों में लेकर अपनी गोद में रखा हुआ था । चरण को अपने हाथ से पता चला कि सावित्री के हाथ काँप रहे हैं।
शाम हो गयी। वार्ड में लोगों की भीड़ और बढ़ गयी । चरण का एक हाथ अभी भी सावित्री की गोद में था। सावित्री ने अपने हाथों से उसका हाथ दबाया, फिर स्नेह से मला और उठ खड़ी हुई, “तोशी, तुम भाई के पास बैठो, मैं रोटी बनाकर ले आती हूँ।”
“नहीं माँ, अब तुम्हारे आने की जरूरत नहीं, सुबह तक मैं खुद ही घर आ जाऊँगा।”
सावित्री ने चरण की बात का उत्तर नहीं दिया। तोशी उनकी जगह बैठ गयी। चंचल भी पास आ खड़ी हुई । तब ही हरदयाल डॉक्टर के साथ पूरी बातचीत करके वहाँ आया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे। कई महीनों से उसने चरण को गौर से नहीं देखा था । चरण की नाक का काला तिल भी उसे भूल गया था। कुछ देर के लिए वह चरण के मुँह की ओर अपलक देखता रहा । चरण से उसका इस तरह देखना सहन नहीं हुआ। उसने आँखें बन्द कर लीं। उसे पता नहीं चला कि माँ को लेकर बाऊजी कब वहाँ से चले गये ।
तोशी और चंचल को अब कहीं जाकर मौका मिला मन की गुबार निकालने का। दोनों बहुत उदास थीं तोशी तो कई बार रोयी भी थी। दोनों ने कभी इस तरह किसी को पट्टियाँ बाँधे हुए नहीं देखा था ।
“भापा!” तोशी की आवाज सुनकर चरण ने आँखें खोलीं। दोनों को इस तरह उदास देखकर उसे उन पर तरस आ गया। उसने मुसकराने की कोशिश की, लेकिन मुसकरा नहीं सका । तोशी उसका हाथ अपने हाथों में लेकर मलने लगी। चंचल का मन हुआ कि वह भी ऐसे ही करे, वह और करीब हो गयी । तोशी ने पूछा, “भापा, तुम भी जुलूस में थे?”
“हाँ!”
“ जुलूस में तो सिर्फ कॉलेज के लड़के थे,” चंचल बोली ।
“मुझे उनके साथ हमदर्दी थी, इसलिए मैं उनके साथ था,” कहते हुए चरण की आवाज में थोड़ा जोर आ गया। लेकिन तोशी और चंचल की समझ में इस बात का आना मुश्किल था कि उसको उनके साथ हमदर्दी क्यों थी । तोशी दुखी होकर बोली, “किसी से ऐसी भी क्या हमदर्दी हुई कि अपना सिर ही फड़वा लिया। मुझे पूछो तो भापा, सारा कसूर इन लड़कों का ही है ।”
"वह कैसे ?”
“कितनी देर तो हमारे कॉलेज के बाहर शोर मचाते रहे। अगर हमने खिड़कियाँ - दरवाजे बन्द न कर लिये होते तो पता नहीं क्या अनर्थ होना था, कहकर तोशी 'चुप हुई तो चंचल बोली, “एक लड़की ने तो कॉलेज के अन्दर परचे भी बाँटे ।”
"कौन थी वह लड़की ?"
“कोई दुष्यन्त है । उसकी बहन। हमारी क्लॉस में पढ़ती है । "
“क्या हुआ उसका ?”
“प्रिन्सिपल ने दो हफ्तों के लिए उसे कॉलेज से निकाल दिया है। ”
सुनकर चरण को धक्का लगा। सामने से गुजर रहे एक कॉलेज स्टूडेण्ट को बुलाकर उसने पूछा, “दुष्यन्त कहाँ है?"
“उसे पुलिस पकड़कर ले गयी है?” उस लड़के ने उत्तर दिया ।
तोशी और चंचल के जाने के बाद भी कितनी देर तक चरण का खून उबलता रहा। कभी हाथ-पैर पटकता, कभी दाँत पीसता । दुष्यन्त हवालात में है । यह सुनकर उसे गुस्सा आ गया था। छत से लटकते अडोल पंखे की ओर देखते हुए वह देर तक दुष्यन्त, पुलिस, जुलूस, माँ, बाऊजी, तोशी और चंचल के बारे में सोचता रहा। अचानक ही आवाज आयी - 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले ।' उसने देखा, मदन और गोपाल दोनों खड़े हैं, और मदन कह रहा था - 'वतन पर मरने वालों का यही नामो-निशाँ होगा' चरण भी मुसकराने लगा ।
गोपाल बोला, “तुम्हारे लक्षण पहले ही बता रहे थे कि तुम जरूर कोई कबुद्ध करोगे ।”
मदन ने बेड पर ही बैठते हुए कहा, “मैंने भलाई का रास्ता भी बताया था कि अगर सियासत में हिस्सा लेना ही है तो नेशनल कान्फ्रेन्स का काम करो, कुछ लाभ भी हो, नौकरी मिले, लेकिन भडुए ने अपनी ही की और अब इसका नतीजा भी भुगतेगा ।”
“भुगत लूँगा, ” चरण खीझकर बोला, “मैं कुछ सोच-समझकर आगे नहीं बढ़ा था। मैंने देखा कि पुलिस के सिपाही अन्धाधुन्ध लाठी चार्ज कर रहे हैं तो मुझसे रहा नहीं गया और मैं आगे बढ़ गया ।”
“लेकिन उस वक्त तुमने यह क्यों नहीं सोचा कि तुम्हारे आगे बढ़ने से कुछ नहीं होना है?” गोपाल ने पूछा ।
“जोश में होश कहाँ ?” मदन ने जैसे चरण की वकालत करनी शुरू की, “और साथ ही गोपाल, सारे लोग अपने दिमाग से उस तरह काम नहीं ले सकते जैसे तुम लेते हो ।”
“इसीलिए तो पीछे पछताना पड़ता है,” गोपाल बोला ।
“नहीं, मैं पछता नहीं रहा, ” चरण ने झट जवाब दिया, “मैंने जो किया, ठीक किया है। मैं तो कब से सोच रहा था, मुझे कुछ करने का मौका मिले। अभी तो शुरूआत हुई है। मैं तो किसी पार्टी में शामिल होकर कुछ करने की सोच रहा हूँ।”
“ओहो तो बड़ा लम्बा प्रोग्राम है साहब का,” गोपाल ने चुटकी ली, “लेकिन इस वक्त हम बहस नहीं करना चाहते। वैसे भी साहब के सिर के घाव अभी ताजे हैं और टाँके नये । जनाब ज्यादा जोश दिखाएँगे तो टाँके खुल भी सकते हैं ।”
“मैं तो कहता हूँ कि इनके कुछ टाँके खुल ही जाएँ तो अच्छा है”, मदन बोला, “इन्हें थोड़ा खून में लथपथ नजर आना चाहिए। क्योंकि अभी थोड़ी देर में मिनिस्टर साहब यहाँ आनेवाले हैं, इस वक्त तुम उनकी जितनी हमदर्दी जीत सकते हो, जीत लो।”
“मुझे उनकी हमदर्दी की जरूरत नहीं, मैं वार करनेवालों को अपने घाव दिखाकर कोई लाभ नहीं उठाना चाहता। मुझे किसी नौकरी - वौकरी की जरूरत नहीं । ”
“मदन, तुम ठीक कह रहे थे,” गोपाल जोश से बोला, “वह देखो मिनिस्टर साहब आ गये।”
सारा वार्ड ऐसे चुप हो गया जैसे क्लासरूम में किसी दबंग मास्टर के आते सन्नाटा छा जाता है। मिनिस्टर साहब ने बारी-बारी हर एक बेड के पास जाना शुरू किया। उनके साथ सेक्रेटरी नेशनल कान्फ्रेन्स भी थे। पीछे-पीछे मिसेज राजदेव और दूसरे कई नेता लोग दुमछल्लों की तरह चलते आ रहे थे। मिनिस्टर साहब के आगे-आगे हस्पताल के बड़े डॉक्टर फोतेदार साहब थे। चरण ने धीरे से मदन के कान में फुसफुसाकर कहा, “यार, तुम यह मौका भी हाथ से जाने नहीं देना । हमारे खून से अपना भविष्य सँवारने का मौका।” मदन हँस दिया, “आज तुम भी अपनी आँखों देख लो कि मैं कहाँ तक पहुँचा हूँ।”
मिनिस्टर साहब एक-एक बेड के आगे से ऐसे गुजर रहे थे जैसे हर रोज वह अपने मेज पर रखे गये पेपरों पर साइन करते हैं, और साइन करने के बाद उनका मैटर भूल जाते हैं। चरण के पास पहुँचते देर नहीं लगी। मदन ने झट सलाम दागी। मिनिस्टर उसे वहाँ देखकर हैरान रह गये, फिर शीघ्र मुसकरा दिये। उन्होंने मदन के आगे हाथ बढ़ाया। सब लोग उन दोनों का 'हैण्डशेक' देखकर हैरान रह गये ।
मिसेज राजदेव ने चरण को देखा तो घबरा गयीं। कुछ क्षणों के लिए उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे वह कोई जुर्म करते हुए पकड़ी गयी हों। अगर सेक्रेटरी साहब ने चरण को पहचान लिया तो वह पूछेंगे, 'इसी की सिफारिश आपने की थी ? यह तो बागी है।' उन्हें पता था कि चीफ मिनिस्टर साहब और सेक्रेटरी साहब दोनों इन लड़कों से बहुत नाराज हैं। सिर्फ लोगों की हमदर्दी जीतने के लिए यहाँ आ गये हैं ।
“तुम कौन-सी क्लास में पढ़ते हो ?” मिनिस्टर साहब ने पूछा ।
मदन को बात करने का मौका मिल गया, “जी यह कॉलेज में नहीं पढ़ता।”
“नहीं पढ़ता?” चीफ मिनिस्टर साहब हैरान हुए, “फिर यह जुलूस में कैसे शामिल हुए।"
“ जुलूस देखने गये थे, फँस गये,” मदन ने मौका सँभालने की कोशिश की । “ज्यादा लगी है?"
डॉक्टर साहब ने आगे आकर बताया, “बहुत ज्यादा नहीं लगी, एक-दो दिन में ठीक हो जाएँगे।”
“बड़े अच्छे स्टेज आर्टिस्ट हैं,” सेक्रेटरी साहब ने बताया । मिनिस्टर साहब ने सिर हिलाया और अगले बेड की तरफ चल दिये।
चरण के आसपास से लोग हटने लगे तो सेक्रेटरी साहब ने मिसेज राजदेव से कहा, “इन्हें नौकरी जरूर मिलनी चाहिए। बेकार रहकर इनके जैसे काबिल लड़के गलत रास्ते पर पड़ जाते हैं। कल सुबह मुझे याद दिलाना, मैं ऑर्डर निकलवा दूंगा।”
जब सब लोग वहाँ से चले गये तो गोपाल ने मदन की पीठ पर थपकी देते हुए कहा, “ मान गये उस्ताद ! मिनिस्टर साहब ने तुम्हारे साथ ऐसे हाथ मिलाया जैसे तुम्हारे लँगोटिये यार हों ।”
मदन ने खुशी से झूमते हुए जवाब दिया, “यह हमारी सालों की कमाई है । लेकिन चरण ने एक ही हाथ मारकर काम निकाल लिया ।”
चरण का मूड इन दोनों आम जैसा नहीं था। वह तो चाहता था कि मिनिस्टर के सामने जोर से कोई नारा लगाता, जिसका मौका हाथों से निकल गया । मदन की यह बात भी उसे चुभ गयी थी कि 'यह जुलूस में फँस गये थे।' उसने सारे किये - कराये पर पानी फेर दिया। वह मदन को गाली देना चाहता था, जिसका कोई फायदा नहीं था। जब मदन और गोपाल दोनों वहाँ से चले गये तो वह बहुत देर तक मन-ही-मन कुढ़ता रहा ।
सामान घर पर रखकर, परवेज 'भारत टी स्टाल' में जब पहुँचा, तब उसकी आँखें बुझी हुई थीं और मुँह का रंग उड़ा हुआ था। बालों पर और कोट के कॉलर पर धूल - ही धूल जमी हुई थी। गोपाल ने उसे देखते ही कहा, “यह क्या हुआ तुम्हें ?”
“कुछ भी नहीं,” परवेज ने बैठते हुए कहा, “बड़ी थकावट हो गयी है, साला बड़ा जानलेवा सफर था ।”
“सफर नहीं, जानलेवा तो वह चीज थी, जो तुम्हें अपने साथ ले गयी थी।”
“ मारो गोली उसे,” परवेज जिच्च हुआ बोला ।
“हुआ क्या?" गोपाल उसके और करीब होकर बैठ गया, “कोई गड़बड़ हो गयी।”
“नहीं, गड़बड़ क्या होनी थी,” उसे बचकर कहाँ जाना था, हमने भी पूरी ठान रखी थी, पूरी करके छोड़ी। ”
गोपाल को यकीन तो नहीं आया, लेकिन उसी वक्त उसे अपनी बात याद आ गयी, “मैडम के साथ नाटक के बारे में बात हुई या नहीं ? "
“नहीं, मौका नहीं मिला।" परवेज की बात सुनकर गोपाल चुप हो गया। परवेज ने पूछा, “कल यहाँ बड़ा हंगामा हुआ ?”
मदन पास आते हुए बोले, “लो, तुम्हें तो यह भी पता नहीं होगा कि अपना यार चरण भी पुलिस की लाठी खाकर शहीदों में नाम लिखा बैठा है!”
“क्या?” परवेज मुँह खोलकर देखने लगा। सारी बात सुनकर वह उठा, “मैं अभी चरण को देखकर आता हूँ।” यह कहकर वह बाहर निकल आया। थोड़ी दूर जाकर वह खड़ा हो गया। उसे ख्याल आया कि इस वक्त उसे कोई हस्पताल के अन्दर नहीं घुसने देगा। वैसे भी उसका मन इतना टूटा हुआ था कि इस वक्त वह वहाँ जाना ही नहीं चाहता था। वह गोपाल और मदन से अपना पल्ला छुड़ाने के लिए वहाँ से उठा था । मैडम के बारे में भी उसने झूठ बोला था। मैडम के साथ, जैसा वह सोचकर गया था, वैसा कुछ नहीं हुआ था। बल्कि एक शर्मिन्दगी और कड़वाहट लेकर वहाँ से लौटा है। मैडम ने उसे जो निराशा दी है, उसके मन को काटती- छीलती जा रही है ।
कल शाम जब डाक-बँगले के लान में वह मैडम के साथ चाय पीने के लिए बैठा तो बार-बार उसकी नजरें मैडम की नजरों से ऐसे छू रही थीं जैसे फुलझड़ी से फुलझड़ी जलती है । मैडम बातें कर रही थीं, लेकिन वह सुन नहीं रहा था । बस 'जी', ‘हाँ जी’, ‘यू आर राइट' ही कहता जा रहा था । वह भूल गया था कि मैडम उसकी बॉस हैं। नजरों-ही-नजरों में वह मैडम के अन्दर- दूर अन्दर कुछ टटोल रहा था। रात खाना खाते हुए भी उसका वही हाल था । उसे विश्वास हो गया था कि मैडम उसका मतलब समझ गयी हैं। इसीलिए उसे हैरानी भी हो रही थी कि मैडम अपनी हर बात इतने सहज भाव से कैसे कर रही हैं । 'बड़ी चतुर चालाक हैं ।' उसने कोई सौ बार अपने मन में कहा होगा। खाना खाने के बाद मैडम जब 'गुड नाइट' कहकर अपने कमरे की ओर जाने लगीं, तब दालान में उस वक्त कोई नहीं था । बाहर घुप्प अँधेरी रात थी और ठण्डी हवा तह - दर तह बर्फ की तरह जमी हुई थी। एक क्षण में ही उसने पक्के तौर पर तय कर लिया और हल्के-हल्के कदमों से मैडम के पीछे चल दिया । मैडम का कमरा थोड़ी ही दूर था। अन्दर घुसने से पहले उन्होंने पीछे मुड़कर उसे देखा और धीमे से मुसकरायीं, जैसे उसे यकीन था कि वह उनके पीछे जरूर आएगा। 'गुड नाइट' कहकर वह दरवाजा बन्द करने लगीं । परवेज ने अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करके धीमे से कहा, “कुछ देर बैठकर बातें करें ?”
“नहीं, बातें सुबह करेंगे मिस्टर परवेज, अब मैं सोना चाहती हूँ।” कहते-कहते उन्होंने दरवाजे का एक पट बन्द कर दिया। दूसरे पट पर परवेज ने अपना हाथ रख दिया, और बोला, “मुझे आप से एक जरूरी बात करनी है । "
“इस वक्त नहीं, सवेरे !”
" सुनिए तो सही, मैं.”
“मिस्टर परवेज, प्लीज अपने आप में रहो।" और दरवाजे का दूसरा पट भी बन्द हो गया ।
बाजार में खड़े-खड़े परवेज को लगा कि इस वक्त भी उसे दरवाजा बन्द होने की आवाज आयी है। भीड़ भरे बाजार में इस तरह अकेले खड़े होना भी उसे अजीब लगा। अपनी सुध-बुध खोया सा वह एक तरफ को चल दिया और बेलगाम सोचें फिर से उसके मन को मथने लगीं।
दो मिनट बाद मैडम के कमरे की बत्ती ऑफ हो गयी थी। वह मूर्खों की तरह देर तक वहाँ खड़ा रहा। उसने कभी सोचा नहीं था कि उसे इतना बड़ा धक्का सहना पड़ेगा। अच्छा होता, अगर वह जबर्दस्ती कमरे में घुस जाता। फिर जो होता सो होता । अब भी सुबह क्या होगा, उसे पता नहीं था। लेकिन सुबह कुछ नहीं हुआ। डाइनिंग रूप में मैडम नाश्ता करने आयीं तो उसने काँपती आवाज में 'गुडमार्निंग' कहा। मैडम ने ऐसे मुसकराकर जवाब दिया, जैसे रात कोई बात ही न हुई हो, और अगर हुई भी थी तो वह इतनी अहम नहीं थी कि उसे याद रखा जाए। वह बिलकुल नॉर्मल ढंग से बातचीत करती जा रही थीं, लेकिन परवेज अब उस तरह आँखें नहीं मिला पा रहा था और न ही बात-बात पर 'हाँ,' 'हाँ जी,' 'यू आर राइट' कह रहा था । उसके बाद दोनों स्कूलों की इन्स्पेक्शन करने निकल गये ।
इन्हीं सोचों में पड़ा परवेज 'पुरानी मण्डी' पहुँच गया। दूर से उसे वह गली नजर आयी जहाँ आशालता का घर है । कल रात उसे वहाँ खाना खाना था । बेचारी इन्तजार करती रही होगी। बेहतर होता, अगर वह मैडम के साथ नहीं जाता। एक भरम तो बना रहता। आशालता के घर खाना खाने के बाद जरूर डुबकी लग जाती । उसने कितनी मुश्किल से उसका तबादला उसके गाँव करवाया है। बातों ही बातों में उसने इशारा भी किया था बदले में कुछ देने का ।
मैडमवाली कहानी भुलाने के लिए वह आशालता के घर के सामने आ पहुँचा, यह सोचकर कि शायद वह गाँव न गयी हो। लेकिन बाहर ताला देखकर उसे निराशा हुई। अँधेरे में वह छोटा-सा मकान उसे एक बड़ी काली चट्टान-सा नजर आने लगा जो उसकी नामुरादी का अन्दाजा नहीं लगा सकता था ।
वह वापस जाने लगा लेकिन उसे महसूस हुआ, उसके मन में जिद की एक चट्टान उभरी हुई है कि अगर आज वह किसी के पास होकर नहीं आया तो उसके अन्दर की ऐंठन उसका दम घोट देगी। उस वक्त उसे रानी का ख्याल आया, जैसे अँधेरे में माचिस जलती है। वह जल्दी-जल्दी आगे बढ़ गया।
दरवाजा खुला देखकर उसे हैरानी हुई। मद्धिम - मद्धिम प्रकाश में उसने इधर-उधर देखा। रानी खाट पर पड़ी नजर आयी । माथे पर दुपट्टा बँधा हुआ था। पास पहुँचने पर जो बास आयी, उससे वह समझ गया, वह बीमार है ।
उसे देखते ही रानी फुसफुसायी, “मैं बीमार पड़ी हूँ।”
परवेज की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे, बैठ जाए, खड़ा रहे या लौट जाए? बोले भी तो क्या? वह एक पल को रुक गया, जैसे पैर जम गये हों ।
“पानी पिला दो मुझे,” रानी बोली ।
मोरी के पास पड़ी बाल्टी में से गिलास भरकर वह ले आया और रानी के पास बैठ गया। रानी ने मुँह खोला । परवेज ने उसके सूखे होठों में गिलास का किनारा लगाया। रानी ने चार-पाँच घूँट पानी पीकर मुँह बन्द कर लिया। उसके मुँह से जैसी बास आयी, उससे परवेज को उबकायी- सी हुई । उठते हुए बोला, “मैं चलता हूँ।”
“एक बात सुनो!”
परवेज रुक गया और बड़े गौर से उसे देखने लगा । रानी धीरे से बोली, “तुम्हारा दोस्त कहाँ है?"
“कौन ?”
"चरण!”
“वह तो हस्पताल में पड़ा है।”
“क्या?” रानी उठकर बैठ गयी। परवेज ने जो सुना था उसे बता दिया । सुनकर रानी कुछ बोली नहीं । परवेज चुपके से उठा और बाहर निकल आया। उसके अन्दर जिद की जो चट्टान उभरी थी, अब उसका नामोनिशान नहीं था। अब वह घर जाकर सो जाना चाहता था । चरण के बारे में रानी ने जैसे पूछा था, उससे उसे हैरानगी हो रही थी। रानी का उत्साह एकतरफा था या चरण भी उसकी समझ में कुछ नहीं आया ।
छत से लटके पंखे को चरण टकटकी लगाकर देख रहा था। वह पहली बार एक पूरा दिन घर से बाहर रहा था और उसे महसूस हो रहा था कि उसके अन्दर तनाव कम हो गया है। घण्टा-भर पहले बाऊजी उसके लिए रोटी ले आये थे । मुद्दत के बाद उसने बाऊजी को अपनी बदली हुई सहज नजर से देखा था । उसकी समझ में आया कि माँ की तरह बाऊजी को भी उसके जख्मी हो जाने से दुःख पहुँचा है। लेकिन वह उनसे कोई बात नहीं कर सका। उन्होंने भी केवल इतना ही कहा, “डॉक्टर कल तक तुझे घर भेज देंगे।”
घर जानेवाली बात सुनकर उसे खुशी नहीं हुई ।
सारा दिन लोगों का आना-जाना लगा रहता है। लोग इस तरह हुमहुमाकर आ रहे हैं, जैसे कोई नयी मण्डी खुली हो । हर व्यक्ति हर घायल लड़के के पास जाकर सहानुभूति प्रकट करता है और सरकार को दो-चार गालियाँ देकर आगे बढ़ जाता है । इससे पहले चरण को अपना आप इतना महत्त्वपूर्ण कभी नहीं लगा था। स्टेज पर नाटक खेलते हुए सबकी नजरें अपनी ओर देखकर भी कभी उसे ऐसा महसूस नहीं हुआ था। अपने-आप में भरा-पूरा होने की एक अनजानी भावना ने उसे पहली बार स्पर्श किया था ।
छत पर से नजर हटाकर अचानक ही उसने सामने देखा तो वहाँ रानी खड़ी थी। उसे विश्वास नहीं हुआ। वह आश्चर्यचकित - सा देखता रहा, रानी मुसकरायी गालों में वैसे ही गढ़े पड़े थे। तंग पायचों की सफेद शलवार, कींगरीवाली नीली कमीज और सफेद कींगरेदार दुपट्टा लिये थी । वह बड़ी ही सुन्दर लग रही थी । लेकिन कुछ कमजोर-सी भी थी। मुसकराकर वह आगे आयी । “बैठ जाओ,” चरण ने कहा । रानी स्टूल पर बैठ गयी।
“यह क्या हुआ ?” रानी ने पूछा ।
चरण क्या बताता। उसने रानी से पूछा, “तुम्हें कैसे पता चला ?”
“ तुम्हारे दोस्त ने बताया ।”
"कौन ?”
“ नाम नहीं मालूम - वही जिसके साथ तुम आये थे।”
"ओह परवेज, कब आया वह ?"
“ कल रात ! मुझे बुखार था। जब वह आया, मैं बेहोश - सी पड़ी थी। इसलिए वह जल्दी ही लौट गया।”
“क्या हुआ तुम्हें?"
“बुखार था ।”
" कब से?"
“कल से !”
“परसों तो नहीं था,” चरण के मुँह से निकला और साथ ही उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे परसों से आज तक कई युग बीत गये हैं । उसे याद आया जब उसने रानी से उसका नाम पूछा था फिर उसे ठेकेदार की कार में बैठते देखा - वह सारी रात सो नहीं सका था - दुष्यन्त ने कहा था 'बगावत - बगावत' और फिर सिर पर पड़ती लाठी । ”
" तुम भी लीडर हो क्या ?” रानी ने पूछा। चरण हँस दिया। कुछ कह नहीं सका । “बड़ा शौक था सिर फड़वाने का। क्या जरूरत थी जुलूस में आगे-आगे होने की ?” चरण के होठों से मुसकान गायब हो गयी। वह गौर से रानी को देखने लगा और अनुमान लगाने लगा कि रानी किस अधिकार से यह तानों भरी सीखमति दे रही है । दोनों एक-दूसरे की आँखों में आँखें डालकर देखते रहे ।
“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी तो यहाँ क्यों आयी ?” चरण ने पूछा ।
“तुम्हें देखने के लिए,” कहकर रानी ने नजरें नीची कर लीं ।
“तुम्हें तो अब भी बुखार लगता है,” चरण ने उसका हाथ छूते हुए कहा । रानी ने हाथ खींच लिया। उसे इस तरह झिझकते देखकर चरण मुसकराने लगा । इस समय वह रानी का एक नया ही रूप देख रहा था । अनायास ही उसका जी चाहा कि रानी की नाक में पड़ी झिलमिलाती तीली हाथ बढ़ाकर निकाल ले। रानी की ओर देखते हुए वह उसकी उमर का अन्दाजा लगाने लगा। फिर सोचने लगा, ऐसे रूप-सौन्दर्य की कोई आयु नहीं होती।
“मैं चलती हूँ।” रानी उठ खड़ी हुई । “चार बजनेवाले हैं । तुम्हारे घरवाले आते होंगे।”
“तुम चार बजे से पहले अन्दर कैसे आयीं ?”
“एक नर्स मेरी सहेली है, उसके साथ।” फिर रानी एक कदम बढ़ाकर उसके और भी पास खड़ी हुई और बोली, “और कितने दिन यहाँ रहना पड़ेगा ? ”
"कल तक !”
"कभी आओगे ?”
चरण उसकी आँखों में देखता रहा, फिर फुसफुसाया, “हाँ!”
“जरूर आना !” कहकर रानी दरवाजे की ओर चल दी। चरण उसे देखता रहा जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी। वह सोचने लगा, उसने कोई सपना तो नहीं देखा, भला रानी उसे देखने - मिलने क्यों आएगी।
उसी वक्त कानों में आवाज पड़ी, “जवाब नहीं मेरे यार का मान गये उस्ताद, मान गये।” चरण ने देखा परवेज सामने खड़ा था। स्टूल पर बैठते हुए बोला, “दो दिनों में ही कैसा चक्कर चला दिया तुमने?"
“तुम ही उसे बता आये कि मैं हस्पताल में हूँ । ”
“हाँ, मैंने ही बताया था। रात मैं उसके घर गया तो उसे बुखार चढ़ा था। बड़ी बुरी हालत थी बेचारी की । कोई पानी पिलानेवाला भी नहीं था। जब उसने तुम्हारे बारे में पूछा तो मेरी समझ में नहीं आया कि क्यों पूछ रही है।”
“मैं हैरान हूँ कि वह यहाँ तक कैसे पहुँच गयी। मैं तो कोई मालदार आसामी भी नहीं हूँ।”
“यही तो खतरे की निशानी है । "
“ खतरा क्या होना है, लेकिन यार बड़ी खूबसूरत लग रही थी । "
“ खूबसूरत तो है ही। अभी हस्पताल के फाटक पर उसे देखकर पहचानना मुकिल था । एकदम किसी अच्छे घर की शरीफ औरत लग रही थी । "
परवेज की बात सुनकर चरण बोला, “यार, ऐसी औरतें क्या सचमुच ही शरीफ नहीं हो सकतीं ?”
" तुम शराफत के चक्कर में मत पड़ो। तुम पर मेहरबान तो हो ही गयी है । ऐश करो, मजे उड़ाओ ।"
“नहीं परवेज, अब मैं उसके पास कभी नहीं जाऊँगा।”
"क्यों?”
"मैंने अपनी जिन्दगी का रास्ता बदल लिया है। यह लाठी जो मेरे सिर पर पड़ी है, इसने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैंने सुना है कि दुष्यन्त हवालात से निकलकर एक नयी समाजवादी पार्टी बना रहा है। मैं उसमें शामिल होकर काम करूँगा।”
“पर उल्लू की दुम ! समाजवाद तुम्हें किसी औरत के पास जाने से तो नहीं रोकता !”
चरण चुप हो गया। वह बात को बढ़ाना नहीं चाहता था । तब ही मदन अन्दर आया, और आते ही शोर मचाने लगा, “काँग्रेचुलेशन, काँग्रेचुलेशन !” चरण और परवेज दोनों उसकी तरफ देखने लगे। मदन चरण की खाट पर बैठकर बोला, “अभी-अभी सेक्रेटेरियट में मिसेज राजदेव ने मुझे बताया है कि तुम्हारी नौकरी का ऑर्डर हो गया है। आज ही कैबिनेट की मीटिंग हुई, जिसमें स्टूडेण्ट्स आन्दोलन को बिलकुल खतम कर देने के उपाय सोचे गये हैं । सबसे पहला कदम यह उठाया जाएगा कि जितने स्टूडेण्ट्स जख्मी हुए हैं, उन्हें किसी-न-किसी तरह सरकारी पार्टी में शामिल किया जाएगा, या फिर उन्हें नौकरी दे दी जाएगी।"
चरण ने अपना सिरहाना जरा ऊपर करते हुए कहा, “इसका मतलब है, वे लोग हमें खरीदना चाहते हैं ।” मदन और परवेज दोनों हैरान होकर उसकी ओर देखने लगे । चरण फिर बोला, “मुझे अब नौकरी की जरूरत नहीं। मुझे अब समाजवादी पार्टी में काम करना है । "
“देखो चरण,” मदन कहने लगा, “मैंने तुम्हें पहले भी कहा है, यह तुम्हारा रास्ता नहीं। एक तरफ तो तुम घर से तंग आये हुए हो, दूसरी तरफ तुम आदर्शवादी संघर्ष और भूख-नंग का रास्ता अपनाना चाहते हो। मुझे तो लगता है तुम्हारे दिमाग के कुछ पेंच ढीले हो गये हैं। जरा सोचो, हस्पताल में अगर तुम्हें घर से रोटी न पहुँचती तो तुम क्या खाते? गरीब आदमी कभी लीडरी नहीं कर सकता, याद रखना।” चरण मदन की ओर देखता रह गया। क्या जवाब देता !
मदन ने फिर से बोलना शुरू किया, “तुम अपने भाग्य को सराहो कि तुम्हारे सिर पर एक ऐसी लाठी पड़ी जिसने तुम्हार भविष्य के बन्द दरवाजे खोल दिये। मैं ऐसी चार लाठियाँ खाने को तैयार हूँ । तुमने तो मिनिस्टर की कोठी का गेट भी नहीं देखा और नौकरी का ऑर्डर पास हो गया। मेरे पाँच बूट घिस चुके हैं, वहाँ के चक्कर लगाते। यह छठा बूट है । और थोड़े दिनों के बाद जब मैं श्रीनगर जाऊँगा, सातवाँ भी खरीदना पड़ेगा ।”
सुनकर परवेज ने ठहाका लगाया। चरण नहीं हँस सका । मदन की बातों ने उसे एकदम अन्दर तक झकझोर दिया था।
परवेज ने कहा, “मैं तो अब तुम दोनों की बातों से समझ सका हूँ कि असली मामला क्या है। चरण, तुम अपनी अक्ल कहीं गिरवी रख आये हो। तुम्हारी नौकरी के वास्ते दरख्वास्त टाइप कर-करके मेरी उँगलियाँ थक गयीं, और अब जब नौकरी मिलने की कोई तरकीब बनी तो तुम्हारे ऊपर लीडर बनने का भूत सवार हो गया । बेवकूफ ! अगर तुमने यह चान्स खो दिया तो सारी उमर धूल फाँकते रहोगे।”
" तुम लोग तो मेरे पीछे ही पड़ गये । ”
“पीछे नहीं पड़ेंगे भला !” मदन बोला, “अगर तुम्हें जूते मार-मारकर सीधा करना पड़ा तो वह भी करेंगे।”
परवेज हँसकर कहने लगा, “आज तुम्हारी खुशकिस्मती का दिन है । छोकरी भी, नौकरी भी । ” मदन मुँह खोलकर परवेज की ओर देखने लगा । परवेज ने उसे आँख मारकर रानी की बात सुनानी शुरू की। लेकिन चरण छत से लटके अडोल पंखे की ओर देखते-देखते अपनी सोचों में पड़ गया था। नौकरी करने, नहीं करने की ऊहापोह में उसका दिल घबराने लगा था। हस्पताल में अपना होना उसे बेअर्थ महसूस हो लगा। उसे लगा कि वह एक जंगल में गुम हो गया है, जिसमें से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं । मदन और परवेज कब चले गये; तोशी, चंचल और माँ कब आयीं, कब गयीं, उसे कोई पता नहीं। रात भी देर तक उसकी आँख नहीं लगी। नौकरी मिलेगी या नहीं। अगर मिलेगी तो वह करेगा या नहीं करेगा तो क्यों ? नहीं करेगा तो क्यों नहीं । इन्हीं दलीलों में पड़े उसे कुछ सूझ नहीं रहा था ।