अन्धी सुरंग (डोगरी उपन्यास) : वेद राही

Andhi Surang (Dogri Novel in Hindi) : Ved Rahi

एक

नाटक का दूसरा अंक समाप्त होते ही चरण मंच से उतरकर उस खाली कोने में जा खड़ा हुआ जहाँ से अपना मेकअप ठीक करती कमला साफ नजर आ रही थी।

उसने जेब से एक मुड़ा-तुड़ा सिगरेट निकालकर सुलगाया, लम्बा कश लेने से खाँसी आने लगी, लेकिन कोशिश करके उसने खाँसी की आवाज को दूर नहीं जाने दिया। कहीं कमला यह न समझ ले कि मैं जान-बूझकर उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए इशारा कर रहा हूँ-यह सोचकर उसने खाँस तो रोक ली, लेकिन धाँस लगने से आँखों में पानी भर आया।

मंच पर परदे के आगे चार-पाँच कुर्सियाँ रख दी गयीं, वहाँ अब भाषण शुरू होंगे। चरण का ध्यान भाषणों की ओर नहीं था। इस समय वह कमला को देखते हुए उसी के बारे में सोच रहा था, अभी-अभी नाटक के जिस अंक पर परदा पड़ा था, उसमें डायलाग बोलते-बोलते कमला ने अचानक ही उसका बाजू पकड़ लिया था। आश्चर्यचकित हुआ वह अपना डायलाग भूल गया, जैसे क्षणों के लिए सोचने की शक्ति ही लुप्त हो गयी हो, यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि कमला ने रिहर्सल करते हुए उसे कभी हाथ नहीं लगाया था।

परदे के आगे रखी कुर्सियों पर वे सभी लोग आ बैठे, जो इस नाटक के असली सूत्रधार थे। नेशनल कॉन्फ्रेन्स के जनरल सेक्रेटरी, चीफ मिनिस्टर साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी, नारी कल्याण केन्द्र की श्रीमती राजदेव (कमला की माँ), कल्चरल अकादेमी के प्रधान और आर्ट्स कॉलेज के प्रिंसिपल।

चरण का ध्यान उस ओर बिलकुल नहीं था। वह कमला की ओर देखते हुए ऐसे लम्बे-लम्बे कश ले रहा था, जैसे कमला को ही पी रहा हो। मेकअप रूम से निकल कर कमला भाषण सुनने के लिए चरण के सामने विंग के पास आ खड़ी हुई। चरण की ओर देखकर वह थोड़ा मुसकरायी। उस मुसकान में कुछ नहीं था, न कोई इशारा न संकेत; लेकिन अपनत्व की गरमी थी उसमें। वह भी मुसकराया और भाषण सुनने का उपक्रम करता हुआ धीरे-धीरे कमला के पीछे जा खड़ा हुआ।

मिसेज राजदेव अपनी कड़कदार आवाज में कह रही थीं, ‘‘हमारी संस्कृति, हमारा कल्चर बड़ा समृद्ध है, और हमें इसे और भी समृद्ध बनाना है। इस काम का बोझ हमारे जिन नौजवानों ने उठा रखा है, उनका यह नाटक देखकर हम उन पर गर्व कर सकते हैं। देश का भविष्य उन पर निर्भर है। उनका उत्साह बढ़ाने की आवश्यकता है। खुशी की बात है कि हमारी लोक-सरकार ने अपना ध्यान इस ओर दिया है और....’’

कमला के जूड़े में उड़से हुए फूलों की सुगन्ध चरण की नाक तक पहुँची तो उसे ख्याल आया कि यह खुशबू मंच पर अभिनव करते हुए क्यों नहीं आयी ? वह थोड़ा और समीप जा खड़ा हुआ। अब उसके और कमला के बीच ही दूरी थी कि अगर वह चाहता तो उसके जूड़े में उड़से हुए फूलों को नाक से छूकर सूँघ लेता। अचानक उसे ख्याल आया कि कमला की सगाई हो चुकी है। एक रोज रिहर्सल करते हुए दूसरी लड़कियों ने बातों-बातों में यह बात खोली थी, और कमला शरमा गयी थी। सबने उसका मजाक उड़ाया था। चरण को इतने दिनों के बाद अचानक ही आज उस बात की याद आयी थी। सिगरेट का लम्बा और आखिरी कश लेकर उसने उसे पैर के नीचे मसल डाला। सामने देखा तो अब जनरल सेक्रेटरी साहब की तकरी हो रही थी। तिरछी टोपी पहने और अच्छी सुन्दर नक्काशीवाली कश्मीरी छड़ी पकड़े हुए वह कह रहे थे, ‘‘मेरे अजीज दोस्तो ! हमारी रियासत में पहली जमात से लेकर एम.ए. तक पढ़ाई मु्फ्त हो गयी है और नौजवानों को नये-नये रोजगार मुहैया किये जा रहे हैं। उनके सामने तरक्की के रास्ते खोल दिये गये हैं। ये सब लोक-राज की बरकतें हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए। लेकिन कोई भी लोक-राज तब तक सही मायने में कामयाब नहीं हो सकता, जब तक उसे आम लोगों का सहयोग नहीं मिलता। खास तौर पर नौजवानों को इसके बारे में अपनी जिम्मेदारियों का एहसास जरूर होना चाहिए। मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि आज के इस ड्रामे में इन नौजवानों ने समाज-सुधार का पहलू पेश करके अपना फर्ज पूरा किया है। मैं इन्हें मुबारकबाद देता हूँ। मैं मिसेज रामदेव को भी मुबारकबाद देता हूँ जिनकी कोशिशों से यह ड्रामा खेला गया है।’’

शोर-शराबे और तालियों की कान फाड़नेवाली गूँज के बीच भाषण समाप्त हुए। कमला को तालयाँ बजाते देख चरण भी जोर-शोर से तालियाँ बजाने लगा। असली सूत्रधार मंच से नीचे उतर गये। वहाँ से कुर्सियाँ भी उठा ली गयीं। तीसरा और अन्तिम अंक आरम्भ हुआ। डायरेक्टर का इशारा होते ही चरण मंच पर चढ़ गया। वहाँ जाकर उसे ख्याल आया कि उसने शीशे मे अपना मेकअप तो देखा ही नहीं ! फिर भी घबराया नहीं। बालों पर हाथ-वाथ फेरकर उसने अपनी तसल्ली कर ली।

नाटक के अन्त में नायक जहर खा लेता है, लेकिन डॉक्टर की दवा और नायिका की दुआ के कारण वह बच जाता है। आँखें खोलकर वह सबसे पहले अपनी पत्नी-नायिका को देखता है। नायिका उसके ऊपर झुकती है और वह उससे माफी माँहता है; वचन देता है कि आगे से वह कभी शराब नहीं पियेगा और जुआ नहीं खेलेगा। वह अपने बच्चे की कसम खाकर कहता है कि अब वह भलामानस बनने की कोशिश करेगा। उस समय कमला उसकी ओर ऐसे देख रही थी, जैसे कह रही हो, मुझे तो डायरेक्टर ने यहाँ कुछ करने के लिए बताया ही नहीं।

चरण जिस वक्त माफी माँग रहा था, उस वक्त उसका मन हुआ कि वह कमला का हाथ पकड़ ले, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। उसके हाथ काँप कर रह गये। उसे लगा कि वह डागलाग भूल जाएगा, लेकिन किसी प्रकार उसने मौका सँभाल लिया। उसके आखिरी शब्दों पर लोगों के मुँह से ‘वाह ! वाह !’ निकल गया और जोर-शोर से तालियों की आवाज गूँज उठी। परदा गिरते ही नाटक के लेखक और डायरेक्टर प्रोफ्रेसर गोपाल धवन ने मंच पर आकर चरण और कमला की पीठ पर हाथ रखकर उन्हें शाबासी दी। उसी समय मिसेज राजदेव भी वहाँ पहुँच गयीं। उन्होंने भी दोनों की बड़ी तारीफ की और कहा, ‘‘सेक्रेटरी साहब बहुत खुश हैं। उन्होंने वादा किया है कि वह जल्दी ही इस नाटक को दूसरे स्थानों पर खेलाने का प्रबन्ध करेंगे।’’ फिर मिसेज राजदेव कमला को लेकर जाने लगीं तो मुड़कर उन्हें चरण को कहा, ‘‘मैंने सेक्रेटरी साहब से बात कर ली है, एक-दो बार फिर से उन्हें याद दिलाना होगा, आप किसी भी समय घर आ जाना, मै आपका काम जरूर करा दूँगी।’’ कमला भी साथ जा रही थी, उसने कमला उसकी की ओर देखा, लेकिन कमला ओर नहीं देख रही थी।

सबसे पीछे पण्डाल से निकलनेवाले चार लोग थे-प्रोफ्रेसर गोपाल, चरण, मदन और परवेज। बाहर निकलते ही चारों ने मुसकराकर एक दूसरे की ओर देखा। सबने एक-दूसरे का मतलब समझ लिया, और पन्द्रह मिनट बाद चारों लोग कॉस्मो होटल के एक केबिन में बैठे हुए थे।

चरण बड़े मूड में बोला, ‘‘दोस्तो, मैंने नाटक के अन्त में शराब पीने की कसम उठायी है और इसी कारण मुझे बड़ी बेचैनी महसूस हो रही है। मुझ पर रहम करो, जल्दी करो, व्हिक्की का ऑर्डर दो और मेरा कलेजा ठण्डा करो। मुझे रोकना नहीं, मैं पहले ही बता दूँ कि मुझे आज ज्यादा पानी है।’’

प्रोफ्रेसर गोपाल बोला, ‘‘तुमने जो कसम उठायी, वह बिलकुल झूठी थी। इस बात का मुझसे बड़ा गवाह और कोई नहीं, क्योंकि यह नाटक मेरा लिखा हुआ है। मैं तुम्हारी कसम खाकर कहता हूँ कि नाटक मैंने इसलिए नहीं लिखा था कि लोग शराब पीना छोड़ दें। मेरा मतलब तो यह था कि मैं कुछ बड़े लोगों की नजर में आ जाऊँ और इस साल मैं डबल इन्क्रीमेण्ट ले सकूँ, मेरा ख्याल है कि मैं अपने मकसद मैं कामयाब रहा हूँ, क्योंकि मेरे प्रिंसिपल साहब काफी खुश होकर गये हैं। अब वह भी नेशनल कॉन्फ्रेन्स के सेक्रेटरी साहब को कह सकते हैं कि उनकी नौकरी एक साल के लिए और बढ़ा दी जाए।’’

‘‘सबको अपना-अपना उल्लू सीधा करना है,’’ मदन, जिसने नाटक में बैकग्राउण्ड म्यूजिक दिया था, बोला, ‘‘यारो, यह तो एक सोशल प्ले था, मैं तो रामलीला में भी सिर्फ इसलिए गाता हूँ ताकि पीने के लिए पैसे हाथ में आ जाएँ। मैं हैरान हूँ कि बैरा सामने बोलत रख गया है और तुम खाली बातें ही कर रहे हो।’’

परवेज ने कहा, ‘‘मैंने पहले ही अकाउण्टेण्ट से तुम सबके पैसे रखा लिये, नहीं तो शो के बाद इस महफिल का जमना मुश्किल था।’’

चारों के गिलास एक-दूसरे से टकराये तो चरण बोला, ‘‘कमला के नाम।’’ सब आँखें फाड़े उसकी ओर देखने लगे। चरण मुसकराया तो सब हँस पड़े, और पहला-पहला घूँट पीने लगे।

परवेज ने दस-दस के सोलह नोट मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘यह हम चारों की कमाई है।’’ फिर उसने चार नोट उठाकर अपने कोट की बाहरवाली जेब में ठूँसे, ‘‘इनसे आज का होटल का बिल दिया जाएगा।’’ फिर सबने तीन-तीन नोट उठाकर अपनी-अपनी जेब में डाल लिये।

चरण ने अपना गिलास ‘बाटम-अप’ करते हुए कहा, ‘‘मुझे तो आज अपने काम का मुआवजा उस वक्त ही मिल गया था, जब अचानक ही कमला ने मेरी बाँह पकड़ ली थी।’’

‘‘मैंने ही कमला को कहा था,’’ गोपाल बोला, ‘‘उस जगह बाँह पकड़ना बड़ा जरूरी था। एक रोज जब रिहर्सल करते हुए मैंने उसे बाँह पकड़ने के लिए कहा था तो उसने मेरा कहना नहीं माना था। दूसरी बार मैंने फिर उसे कभी नहीं कहा। लेकिन आज दूसरा अंक शुरू होने से पहले सोचा कि क्यों नहीं उसे इस मौके पर एक बार फिर से कह देखूँ, क्या पता मान ही जाए। मेरा टोटका काम कर गया। पहले अंक की कामयाबी के कारण वह मूड में थी। मौज में आकर उसने तेरी बाँह पकड़ ही ली।’’

‘‘तुम उसे नहीं कहते तो अच्छा था,’’ अच्छा बोला।

‘‘क्यों ?’’ गोपाल ने पूछा।

‘‘मेरी बाँह ही सुन्न हो गयी है, नस-नाड़ियों में लहू जम गया है।’’

‘‘यार, तुम यह किन चक्करों में फँस गये,’’ मदन ने मजाक करते हुए कहा, ‘‘मेरे ख्याल में तुम कमला को नहीं जानते।’’

‘‘मैं आज तक किसी औरत को नहीं जान सका,’’ चरण ने नशे से बोझिल आँखों से सबकी ओर देखते हुए कहा, ‘‘और मैं जानना चाहता हूँ कि यह औरत चीज क्या है ? कुछ अता-पता तो लगे कि कमला के हाथ लगने से मेरी बाँह क्यों सुन्न हो गयी है, खून क्यों जम गया है।’’

‘‘तेरी मूख बहुत बढ़ गयी है,’’ गोपाल ने कहा, ‘‘परवेज, इसे किसी ठिकाने का पता बताओ, इसकी आग तब ही ठण्डी होगी।’’ ‘‘हाँ परवेज, आज मैं तेरे साथ जरूर चलूँगा, तेरा खर्चा भी आज मेरे जिम्मे,’’ चरण बोला।

‘‘तो फिर जल्दी गिलास खाली करो, नहीं तो देर हो जाएगी,’’ परवेज ने अपना गिलास उठाते हुए कहा।

चरण ने एक ही घूँट में सारी गटक ली।

गली में घुसते ही दोनों घुप्प अँधेरे में गुम हो गये। नशे के सरूर में लहराते चरण ने परवेज का हाथ पकड़ लिया, और बोला, ‘‘यहाँ तो कुछ दिखाई ही नहीं देता।’’

परवेज बुदबुदाया, ‘‘अगर इस गली में अँधेरा नहीं होगा तो यहाँ घुसेगा कौन ?’’

दोनों के पैर ईंटों-पत्थरों को टटोलते आगे बढ़ रहे थे। नालियों का भी ध्यान रखना पड़ रहा था। नशे में झूमता-सिमटता चरण अपने दिमाग को झकझोरने का यत्न कर रहा था। आज तो अन्तिम छोर तक भी जाने को तैयार था। बहुत समय से जिस कीचड़ में लथपथ सुलबुल कर रहा था, वह आज उसकी तह तक पहुँचना चाहता था।

‘‘ठहर जा,’’ परवेज धीमे स्वर में बोला।

चरण ने आँखों पर जोर डालकर देखा, एक दरवाजा-जैसा था सामने। अँधेरे में भी उसे कम ऊँची, कच्ची दीवार नजर आ रही थी। इस कोठे के आगे शायद गली बन्द थी। परवेज ने आहिस्ता से दरवाजे पर इस तरह हाथ से दो बार खटखटाहट की जैसे हवा ने दरवाजे को छू लिया हो। अन्दर से कोई आवाज नहीं आयी। खामोशी इतनी गहरी थी कि दोनों को बस एक-दूसरे की साँसों की आवाज ही सुनाई दे रही थी। कुछ क्षणों के लिए चरण को ऐसा लगा कि थोड़ी देर और अगर उसे खामोश सूनी गली में इसी प्रकार खड़े रहना पड़ा तो उसकी साँसें रुक जाएँगी। उसने परवेज को फिर से जरा जोर से दरवाजा खटखटाने के लिए कहना चाहा, लेकिन उससे कुछ बोला ही नहीं गया। परवेज की खामोशी से लगता था कि वह उस अँधेरे से भली-भाँति परिचित है।

चरण की खुमारी पल-पल घटती जा रही है। एक पौआ साथ ले आते तो अच्छा था-उसने सोचा।

कुछ देर के बाद परवेज ने फिर से उसी प्रकार दरवाजे को धीरे से थपथपाया अन्दर एक आहट हुई। खाट की चूलों ने चीं-चीं किया, जैसे कोई लेटा हुआ उठा हो। फिर दरवाजे की ओर आनेवाले पैरों की आवाज, और फिर दरवाजे के पास आकर कोई खड़ा हो गया।

चरण को ऐसा लगा जैसे वह किसी रहस्यपूर्ण कथा का पात्र बन गया है। उसकी नजरें दरवाजे के साथ चिपक गयी थीं। अभी दरवाजा खुलेगा-अभी दरवाजा खुलेगा-उसका रोयाँ-रोयाँ बोल रहा था।

चिटखनी खुलने की आहट हुई, और फिर धीरे से किसी ने दरवाजा खोल दिया।

परवेज फौरन अन्दर दाखिल हो गया। पीछे-पीछे चरण भी।

घरवाली ने दरवाजा फिर बन्द कर दिया; और चिटखनी भी चढ़ा दी। अन्दर बहुत धीमी रोशनी थी। लालटेन की उस रोशनी में उसका चेहरा-मोहरा भी ठीक तरह से दिखाई नहीं दे रहा था। फिर भी इतना तो दिखाई दे ही रहा था कि वह कोई लड़की नहीं, औरत है। लम्बी कमीज और सुत्थन पहनी हुई थी उसने। दुपट्टा नहीं लिया हुआ था। माथे पर लाल बिन्दी थी। आँखें नींद से बोझिल थीं।

‘‘बैठ जाइए,’’ उसने चरण को खाट के समीप पड़ी एक टूटी-फूटी-सी कुरसी पर बैठने का इशारा किया। चरण बैठ गया। फिर उसने परवेज को ‘चलो’ कहा और भीतरी कोठरी का दरवाजा खोलने लगी। उस कोठरी में एकदम अँधेरा था। परवेज ने सिर हिलाकर चरण को इशारा किया कि पहले वह अन्दर चला जाए। लेकिन चरण ने वैसे ही सिर हिलाकर न कर दी। परवेज अन्दर चला गया, थोड़ी देर बाद दरवाजा बन्द हो गया।

बाहर बैठा चरण अन्दर अँधेरे में हो रहे कारोबार के सम्बन्ध में अटकल लगाने लगा। वहाँ पड़ी हर चीज उसे हिलती, चलती, घेरे डालती महसूस होने लगी। साँस तेज हो गयी और सारी देह में सुइयाँ-सी चुभने लगीं।

उसने कुरसी पर से उठने की कोशिश की, लेकिन उठ नहीं सका। उसे लगा कि अगर वह उठेगा तो फिर से गिर जाएगा। उसकी आँखों के सामने कई सूरतें, जीती-जागती आ खड़ी हुईं। कमला की सूरत नजर आयी तो उसे लगा-उसे देखकर वह हँस रही है। उसकी मुसकान बड़ी निर्मल और स्वच्छ थी। फिर कमला के चेहरे के नीचे से चंचल का चेहरा उभर आया। चंचल, उसकी छोटी बहन तोशी की सहेली है। चंचल ने कई बार अकेले में चरण का हाथ पकड़ा है। एक बार सीढ़ियों में अकेले देखकर उसने चंचल को कसकर अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था, लेकिन डरकर जल्दी ही छोड़ दिया। अपनी नशे से बोझिल आँखों से उसे चंचल की सूरत डूबी-डूबी-सी लगी। फिर चंचल की जगह आँखों के सामने उसकी बहन सन्तोष आ खड़ी हुई। उसे जोर से शॉक लगा। उसने झटके से उठने की कोशिश की, लेकिन उठा नहीं गया। वह पसीना-पसीना हो गया था। जेब में से रूमाल निकालकर वह मुँह पोंछने लगा।

अब उसकी आँखों के सामने एक ही चेहरा था, उस औरत का, जो अभी-अभी परवेज के साथ अँधेरी भीतरी कोठरी में चली गयी है। और अपने टूटते-बिखरते वजूद को इस समय सँभालना-सहेजना चरण के लिए कठिन था।

परवेज बाहर निकला।

‘‘जा, चला जा अन्दर,’’ उसने चरण से कहा।

चरण घूरकर परवेज की ओर देखता हुआ उठा। परवेज उसे लुढ़के खाली बर्तन की तरह, अपने से भी ज्यादा किरची-किरची हुआ, टूटा हुआ, बिखरा हुआ प्रतीत हो रहा था, जैसे अन्दर से और भी पी आया हो। उसके बाल बिखरे हुए थे, कोट की एक बाँह पहनी हुई थी, एक निकली हुई थी।...

‘‘जा भई,’’ परवेज ने जिप चढ़ाते हुए उसे दोबारा कहा।

चरण ने भीतरी कोठरी के दरवाजे की ओर देखा; दरवाजा आधा खुला हुआ था। वह आगे बढ़ा। दरवाजे के समीप पहुँचकर सहम गया। परवेज ने फिर से पीछे से आवाज दी, ‘‘देख क्या रहे हो, जाओ अन्दर !’’

अन्दर पाँव रखते ही उस औरत की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘दरवाजा बन्द कर दो।’’

दरवाजा बन्द करके वह मुड़ा तो घुप्प अँधेरे में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया।

समझ में नहीं आया कि वह किस तरफ से आगे बढ़े, और वह कोठरी किस दिशा में आगे बढ़ती है। जिस ओर उसका मुँह था, वह उसी ओर आगे जाने लगा। दो कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि घुटनों से कुछ लगा। उसे अपना कोट भी खिंचता महसूस हुआ। साथ ही आवाज आयी, ‘‘यहाँ बैठ जाओ !’’

कोट उतारकर उसने एक ओर रखा; फिर वह खाट पर बैठकर बूट खोलने लगा। बूट खोलकर वह सीधा होने ही लगा था कि लेटी हुई उस औरत ने उसे खींच लिया। उसे कुछ सोचने का अवसर नहीं दिया। और फिर धीरे-धीरे वह किसी गहरी अँधेरी गुफा में उतरता चला गया।

नींद खुल गयी थी और रजाई में दुबके चरण का मन सिगरेट पीने को कर रहा था। रात सोने से पहले ही सिगरेट की डिब्बी खाली करके उसने फेंक दी थी। अब अमल चढ़ रहा था, लेकिन ओढ़ी रजाई की गरमी और टूटी खुमारी का एहसास उसे उठने नहीं दे रहा था। आखिर तलब इतनी बढ़ी कि उससे रहा नहीं गया। एक झटके से उसने रजाई सिर के नीचे से निकाली और पैर मारकर उसे खाट पर पैरों की ओर उछाल दिया। ठण्ड की एक लहर सरसरा गयी। जम्हाई लेते-लेते रुक गया। तुरत स्वेटर पहनकर खाट से नीचे उतरा और चप्पलें पहनने लगा। उसी समय ‘राम-राम सिया राम’ जपती माँ मन्दिर से लौटी। उसके एक हाथ में छोटी-सी टोकरी थी, जिसमें कुछ फूल थे, प्रसाद था और धूपदानी थी। धूप सुलग रहा था। माँ को देखते ही चरण को अन्दाजा हो गया कि साढ़े आठ बजे गये हैं। माँ रसोई के करीब पहुँची तो चरण बाहर निकलने लगा। माँ ने आवाज दी,’’ प्रसाद तो लेता जा।’’

वह रुक गया। कुल्ला करने के लिए गुसलखाने में दाखिल हुआ तो देखा तोशी पहले ही वहाँ बैठी ब्रुश कर रही थी। जिस तरह वह ब्रुश कर रही थी, चरण समझ गया कि आज वह देर से उठी है, और कॉलेज लेट पहुँचने का डर है उसे। उसके हाथ मशीन की तरह चल रहे थे।

‘‘ड्रामा खत्म होने के बाद तुम कहाँ चले गये थे, भैया ?’’ तोशी ने पूछा।

‘‘काम था, सारा हिसाब-किताब करना बाकी था।’’ कहकर उसने कुल्ला किया और मुँह पर छींटें मारने लगा।

‘‘अच्छा नाटक था, सब तारीफ कर रहे थे। चंचल को तो बहुत पसन्द आया, खास तौर पर तुम्हारी ऐक्टिंग !’’ फिर तोशी को ख्याल आया कि वह लेट हो चुकी है, वह फिर से जल्दी-जल्दी ब्रुश करने लगी।

गुसलखाने से निकलकर चरण तौलिये से हाथ पोंछने के लिए जब पसार के दरवाजे के पास पहुँचा, बाऊजी बाहर आये हुए थे। चरण को देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया। चरण को मालूम है कि वह जब भी किसी ड्रामे में पार्ट करके आता है, बाऊजी उससे दो-तीन दिन बात नहीं करते। सारी बुराइयों की जड़ वह ड्रामे को मानते हैं। वह सोचते हैं कि अगर इन कामों में नहीं पड़ता तो उसने पढ़ाई पूरी कर ली होती। कॉलेज के पहले वर्ष में ही पढ़ाई छोड़ देना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? लेकिन यह सारा झगड़ा अब पुराना हो चुका है। अब वह चाहते हैं कि चरण किसी काम पर लग जाए। लेकिन उन्हें पता है कि काम पर लगना इतना आसान नहीं। उन्होंने स्वयं भी काफी जोड़-तोड़ किये हैं लेकिन कुछ नहीं बना। चरण भी कोशिश कर रहा है-वह जानते हैं, फिर भी चरण के नाटकों से उन्हें बड़ी चिढ़ है।

चरण दूसरी बार बाऊजी की ओर नहीं देख सका। जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह पोंछकर वह प्रसाद लेने के लिए माँ के पास जा खड़ा हुआ।

‘‘रात तुमने रोटी भी नहीं खायी ?’’ माँ ने किशमिश के कुछ दाने उसकी हथेली पर रखते हुए कहा।

‘‘मैं कहीं खाकर आया था,’’ चरण ने उत्तर दिया और किशमिश मुँह में डाल बाहर निकल गया। ‘भल्ले दी हट्टी’ (भल्ला की दुकान) पहुँचते ही उसने सिगरेट की डिब्बी, एक कप चाय और दो उबले हुए अण्डों का ऑर्डर दिया। रात रोटी न खाने के कारण इस वक्त भूख लग रही थी। उसके ऑर्डर देने के ढंग से ही भल्ला समझ गया, आज माल मिल सकता है। सिगरेट की डिब्बी देते हुए धीरे से अर्ज गुजारी, ‘‘चरण जी, आज कुछ उम्मीद है ?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ कहकर चरण ने सिगरेट सुलगाया और जेब से पाँच का एक नोट निकालकर भल्ला के आगे ऐसे बढ़ाया जैसे उसके लिए यह नोट किसी गिनती में नहीं। चारमीनार के कश-अजीब ही नशा है इन तीनों चीजों के ‘कम्बीनेशन’ में। उसके होठ भी साथ-साथ गाने लगे। पैरों ने ताल देनी शुरू कर दी। रात की यादें धीरे-धीरे उभरने लगीं। उसे महसूस हुआ कि रात उसने कोई सपना देखा था। ‘‘कैसी अजीब बात है,’’ वह सोचने लगा, ‘‘हो चुकी, बीत चुकी भी कैसे अनुभव से न गुजरी हुई लगती है।’’ अँधेरे का साक्षी कोई नहीं था, उसकी अपनी आँखों ने भी तो कुछ नहीं देखा था।

उसने जेब में हाथ डालकर देखा। अभी इतने पैसे थे कि वह आज फिर उस अँधेरी गली में जा सकता।

‘‘सुना भई चरण,’’ मदन के आते ही पूछा, ‘‘रात तेरा काम सिरे चढ़ा कि नहीं ?’’ फिर वहाँ जा रहा हूँ।’’

‘‘वाह, जवाब नहीं तेरा, जिन्दगी की पहली सुहागरात तुमने मना ली। चल, इसी खुशी में आ चाय पिला।’’

चरण ने आवाज देकर भल्ला को चाय का ऑर्डर दिया और उससे पूछा, ‘‘तुम इस वक्त कहाँ से आज रहे हो ? आज बड़े सजे-सँवरे हो !’’

‘‘मैं अपने मक्का शरीफ गया हुआ था, हज्ज करके आया हूँ।’’

‘‘खुदा-ए-वक्त के दीदार हुए ?’’

‘‘दीदार किये बगैर मैं वापस कैसे आ सकता था। आज तो कमाल ही हो गया।’’

‘‘क्या हुआ ?’’

‘‘मिनिस्टर की कोठी पर आज ज्यादा लोग नहीं थे। मैं भी लेट हो गया था। इधर मैं पहुँचा, उधर मिनिस्टर साहब अन्दर से बाहर निकले। मैंने सलाम गुजारी। मुझे देखते ही उन्होंने अपने पास आने का इशारा किया। मैं झट आगे हुआ, मुझे कन्धे से पकड़कर उन्होंने जोर से मेरी पीठ पर घूँसा मारा।’’

‘‘घूँसा मारा ? बख्शी साहब ने ?’’ चरण हैरान हुआ।

‘‘हाँ यार, इतने जोर से मारा कि वहाँ जितने लोग खड़े थे, सारे मेरी खुशकिस्मती पर अश-अश कर उठे। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी पीठ में कीला गड़ गया है, लेकिन मैंने अपना दर्द किसी पर प्रकट नहीं होने दिया। सबकी आँखों में यही इच्छा थी कि ऐसा ही एक घूँसा उनकी पीठ पर भी पड़े। घूँसा मारकर मिनिस्टर साहब ने मुझे थपकी दी, आज मैं बड़ा खुश हूँ।’’

इतनी देर में ही चाय आ गयी। मदन ने चाय का घूँट भरा और फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘इसलिए खुश हूँ कि मिनिस्टर साहब ने आखिर मुझे पहचानना शुरू कर दिया है। मेरी तपस्या सफल होने लगी है। नौकरी मिली कि मिली समझो।’’

‘‘वहाँ और भी तो उम्मीदवार होते होंगे ?’’

‘‘बहुतेरे, लेकिन मेरा ढंग सबसे अलग है। दूसरे लोग तो यह सोचकर जाते हैं कि उन्हें अभी नौकरी मिल जाएगी। बख्शी साहब के आगे बढ़-बढ़कर अपनी योग्यता बताते हैं। बख्शी साहब उन्हें टालने-बहलाने के लिए जो बहाने बनाते हैं, उन्हें ही जमा करके एक दिलचस्प किताब लिखी जा सकती है। मेरे बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं। हाँ, इतना तो वह जरूर जान ही गये होंगे कि मैं भी कोई मकसद लेकर रोज सुबह-सवेरे उनके आस्ताने पर सजदा करने जाता हूँ। वह देख रहे हैं कि मैं कब तक अपना मकसद उन्हें नहीं बताता, और मैं इन्तजार में हूँ कि वह कब तक नहीं पूछते।’’

चरण को मालुम है कि मदन को नौकरी हासिल करने का यह ढंग एस.पी. खजूरिया ने बताया हुआ है, जिसने खुद भी इसी तरह हाजिरी भर-भरकर और सलाम कर-करके नौकरी लपकी थी। आज यह बात प्रकट हो गयी है कि उसने घूँसे भी खाये होंगे तभी तो वह बात-बात पर गरीब-कमजोरों पर हाथ उठा लेता है। पहले मदन ने चरण को भी साथ लपेटना चाहा था, लेकिन चरण को यह तरीका कुछ जँचा नहीं। वह तो बस सरकारी दफ्तरों में चक्कर लगा आता है, पूछ लेता है कि कोई जगह खाली है या नहीं। मन में वह जानता है कि सिर्फ पूछने से खाली जगह की सूचना नहीं मिल सकती। इसी कारण दूसरों के मुँह से यह सुनकर कि ‘कोई जगह खाली नहीं’ उसे कभी अफसोस नहीं हुआ। बल्कि अपनी बात सच्ची साबित होने पर उसे तसल्ली होती है।

मदन ने चाय का आखिरी घूँट भरा और बोला, ‘‘मैं आज एक कदम और आगे बढ़ा रहा हूँ, मुझे पता चला है कि मिनिस्टर साहब आज आर.एस. पुरा जा रहे हैं। यहाँ से एक ही घण्टे का रास्ता है। अगर मैं उनसे पहले वहाँ पहुँच जाऊँ और उनके पहुँचते ही सलाम ठोक दूँ तो वह मेरी मुस्तैदी और वकादारी पर और भी खुश हो जाएँगे। मैं उनकी नजरों में और भी चढ़ जाऊँगा। तेरा क्या ख्याल है, मैं जाऊँ कि नहीं जाऊँ ?’’

‘‘मुझे तो यह सब खेल-तमाशा लगता है,’’ चरण बोला।

‘‘मुझे इसमें एडवेंचर फील होता है।’’

‘‘तो जा फिर !’’

‘‘अभी टाइम है।’’

फिर वे दोनों फिल्मी गानों का प्रोग्राम सुनते रहे। कुछ देर बाद वे वहाँ से निकले तो मदन ने पूछा, ‘‘तेरा क्या प्रोग्राम है ?’’

‘‘परवेज के पास जाना है दोपहर को, हो सकता है कि उसका चाचा गुलाम मुहम्मद कोई टिप्पस भिड़ाकर कहीं अड़ा ही दे। नहीं तो लारे तो दे ही रहा है।’’

गली के मोड़ पर पहुँचकर चरण घर की ओर चल दिया, और मदन घड़ी देखते हुए सोचने लगा कि अब उसे आर.एस. पुरा की बस पकड़ लेनी चाहिए।

तोशी ने चोटी करके आखिरी बार फिर शीशे में देखा, 'सब कुछ ठीक है, सोचकर उसने किताबें उठायीं। उसी वक्त रसोई में से माँ की पुकार सुनाई दी, “तोशी, रोटी डाल दी।”

उसने किताबें फिर से मेज पर रख दीं। सामने घड़ी की ओर देखा, दस बजने में पन्द्रह मिनट बाकी थे । तेज कदमों से चौके में पहुँची । लाला हरदयाल रोटी खाने थे और चरण के बारे में बात कर रहे थे, “लड़के के तौर-तरीके ठीक नहीं।”

सावित्री रोटी पर घी लगाते हुए बोली, “आपने क्यों नहीं उसके लिए नौकरी का कोई सिलसिला बनाया?”

“भली लोक, मेरे हाथ में कुछ होता तो क्या मैं करता नहीं? एक-दो जगह पता चला तो क्या मैंने उसे भेजा नहीं? लटरमस्त ने अगर कुछ ध्यान दिया होता तब न । चारों पहर ड्रामे की ही पड़ी रहती है । "

"रोज शाम को आपका भी तो सारा समय ठेकेदार के साथ उसकी बैठक में ही बरबाद होता है। चाहो तो उस समय चरण के लिए यहाँ वहाँ दौड़-धूप नहीं कर सकते? लेकिन आपको भी ऐसी लत लगी हुई है कि "" सावित्री से आगे कुछ कहा नहीं गया। तोशी की थाली में सब्जी डालते हुए उसने तोशी की ओर देखा तो उसे तोशी के कानों के पास कुछ बाल कटे हुए दिखाई दिये। उधर ही एकटक देखते हुए वह बात करते-करते चुप हो गयी ।

तोशी ने जान लिया कि माँ क्या देख रही हैं। मुँह फेरकर वह और भी जल्दी-जल्दी रोटी खाने लगी। ठेकेदार की बात आने पर लाला हरदयाल ने घबराकर लड़की की ओर देखा और उसे सिर झुकाये बैठा देखकर कुछ संयत हुए कि लड़की का ध्यान माँ की बात की ओर नहीं था ।

किसी तरह दो रोटी खाकर तोशी जल्दी से उठी और बाहर निकल गयी। लाला हरदयाल नाराज होते हुए बोले, “जवान-जहान लड़की के सामने तो कुछ सोच-समझकर बोला कर ।”

“मैंने क्या कहा?” सावित्री ने झट से जवाब दिया, “अगर आपको बेटी के सामने ठेकेदार का नाम लेना भी पसन्द नहीं तो रोज वहाँ डेरा क्यों लगाते हो?”

“लोगों ने खामखाह बातें बना ली हैं,” हरदयाल और भी खीझ भरे स्वर में बोले ।

तोशी गली में पहुँची। चंचल खिड़की में खड़ी उसी का इन्तजार कर रही थी । देखते ही बाहर आ गयी ।

" आज फिर तूने देर कर दी ?”

"क्या करूँ?”

" न जाने क्या करत रहती है । ”

“रात नाटक देखकर आयी तो मुझे नींद ही नहीं आयी । और जब नींद आने लगी तो चरण भापे (भैया) ने दरवाजा खटका दिया ।”

“इतनी देर कहाँ रहा वह ?”

“मुझे क्या पता ! उस वक्त दो तो बजे ही होंगे !”

"अच्छा! हम तो ग्यारह बजे ही पहुँच गये थे। लेकिन ड्रामा बड़ा अच्छा था । चरण भापे ने तो कमाल ही कर दिया । "

“मैंने तो भापे को कह दिया है कि चंचल को तेरा पार्ट बड़ा अच्छा लगा, बड़ी तारीफ कर रही थी।"

“क्या जरूरत थी कहने की ?" यह बात कहते हुए चंचल मुसकरा दी, और साथ ही तोशी भी । चंचल को अच्छा लगता है जब तोशी कोई भी बात करती है, जिसमें उसके और चरण के अनजाने और अनाम सम्बन्ध का संकेत हो । यह बात तोशी को मालूम है, और इसी कारण वह मौका देखकर ऐसी बात जरूर करती है।

दोनों गली में से निकलकर सड़क पर पहुँचीं। कॉलेज दूर था। चंचल बोली, “तुम हर वक्त अपने भाई से मेरी ही बातें क्यों करती हो?"

“इसलिए कि वह हमेशा मेरे साथ तुम्हारी ही बातें करता है।” कहकर तोशी ने चंचल की ओर घूरकर देखा ।

“झूठी कहीं की,” चंचल हँस दी ।

तोशी को अचानक ही कुछ याद आ गया, “अरे तुमने देखा, नाटक के दूसरे अंक में कमला ने कैसे भापे की बाँह पकड़ ली थी?”

“हाँ री, ” चंचल को भी याद आया, “मुझे तो बड़ी ही शर्म आयी । कैसी बेहया निकली। तुमने देखा नहीं, चरण भापे भी कैसे शरमा गये थे !”

"वह तो है ही ऐसे घर की," तोशी को सच ही बहुत गुस्सा आया था, “उसकी माँ को नहीं देखा, नेशनल कॉन्फ्रेन्स के सेक्रेटरी से लगी बैठी कैसे चपड़-चपड़ कर रही थी। उन्हें खुश करने के लिए ही तो उसने यह ड्रामा करवाया है; ताकि मेम्बर असेम्बली बन सकें। शर्म भी नहीं आती अपनी बेटी को स्टेज पर नचाते ।"

“तुझे ये सारी बातें कैसे मालूम हैं ?”

“कल शाम जब मैं ड्रामा देखने जाने के लिए तैयार हो रही थी, उस वक्त बाऊजी का पारा बहुत गरम हो रहा था। पता नहीं किस-किस का नाम लेकर गाली निकाल रहे थे। जब उन्होंने मिसेज विमला राजदेव का नाम लिया तो मैं समझ गयी कि यह सब कुछ किसके बारे में है।” पल-भर चुप रहकर तोशी फिर बोली, “अरी, आज माँ फिर ठेकेदार की बात करते-करते रुक गयीं, क्योंकि मैं सामने थी । बाऊजी को बहुत गुस्सा आया । माँ को बाऊजी का हर रोज ठेकेदार की बैठक में जाना पसन्द नहीं, और बाऊजी वहाँ जाए बगैर रह नहीं सकते। दफ्तर से घर आकर चाय पीते हैं, बस और फिर सीधे ठेकेदार की बैठक में । रात कहीं दस - ग्यारह बजे लौटते हैं। पता नहीं वहाँ क्या करते रहते हैं । ताश-वाश खेलते होंगे !”

“मेरी बेजी किसी से बात कर रही थीं कि वहाँ सब लोग शराब पीते हैं ।”

“मेरे बाऊजी तो नहीं पीते !”

उसी वक्त कॉलेज का फाटक आ गया ।

“उधर देख,” तोशी ने कोहनी मारते हुए दूर खड़े लड़के की ओर इशारा किया, “आज फिर खड़ा है । "

चंचल बोली, “रोज तेरा इन्तजार करता है, कुछ सोच उसके बारे में !”

" सोचती है मेरी जूती ! चेहरा तो देख, बन्दर कहीं का।”

चंचल हँस दी । फिर दोनों फाटक के अन्दर दाखिल हो गयीं ।

मदन से अलग होकर चरण जब घर के पास पहुँचा तो गली के दूसरे सिरे पर उसे तोशी और चंचल कॉलेज जाती दिखाई दीं। उसे अफसोस हुआ कि दो मिनट पहले क्यों नहीं यहाँ पहुँचा, चंचल के साथ मुलाकात हो जाती; वह जरूर रातवाले नाटक के बारे में बात करती । अचानक ही उसे ख्याल आया कि जब मंच पर कमला ने उसकी बाँह पकड़ी थी, तब चंचल ने भी देखा होगा - क्या सोचा होगा उसने? इन्हीं सोचों में घिरे घर में घुसा तो सावित्री की आवाज सुनाई दी, “बेटे, जल्दी से नहा ले, फिर पानी नहीं रहेगा।”

“नहा लेता हूँ,” कहकर वह गुसलखाने में चला गया। नहाने का मन हो ही रहा था। कपड़े उतारकर अभी वह बैठा ही था कि अनचाहे ही उसे रात का अनदेखा दृश्य स्मरण हो आया। हाथ में लोटा पकड़ा-का- पकड़ा रह गया और वह एक तनाव में जकड़ गया। जैसे दौरा पड़ने से हाथ-पैर जकड़ गये हों । उसे लगा जैसे वह फिर उसी गहरी गुफा में डूबता जा रहा है। घबराकर उसने सिर पर लोटे से ठण्डा पानी डालना शुरू कर दिया ।

नहाकर बाहर निकला तो वह फूल जैसा हल्का महसूस कर रहा था । ठण्डे पानी ने जैसे उसके भीतर ठण्डक भर दी थी। चौके में बिन्ने पर पालथी मारकर बैठा तो सावित्री ने उसके आगे थाली सरका दी ।

“तेरे बाऊजी का स्वभाव बहुत ही कड़वा हो गया है। कितनी बार कहा कि तुझ पर इतना गुस्सा न किया करें, लेकिन..."

“ असल में वह मुझे काम न करते देखकर खीझ उठते हैं,” चरण बोला, “वह समझते हैं कि मैं ड्रामे के चक्कर में नौकरी नहीं करता ।”

“मुझसे भी यही कह रहे थे ।”

“नहीं माँ, नौकरी मिलती कहाँ है! ड्रामे तो मैं इसलिए करता हूँ ताकि मन लगा रहे, नौकरी लेने के लिए तो बहुत बड़ी सिफारिश चाहिए ।"

“कौन करेगा तेरी सिफारिश ?”

" हैं एक मिसेज राजदेव, जिनकी लड़की ने कल मेरे साथ ड्रामे में हीरोइन का पार्ट किया था। उन्होंने कल कहा था, ऊपर तक उनकी पहुँच है, मेरा ख्याल है कि वह मुझे जल्दी ही नौकरी दिला देंगी।”

“पुत्तरा, मैंने तो सुना है कि वह बड़ी टेढ़ी और बदनाम औरत हैं!”

“तुम्हें किसने बताया ?”

“ तुम्हारे बाऊजी ही बता रहे थे !”

“बाऊजी को दूसरे की बदनामी जल्दी नजर आ जाती है,” ग्रास मुँह में डालते हुए चरण वास्तव में खीझ उठा, “वह बदनाम हैं भी तो हमें क्या ? मुझे तो नौकरी चाहिए, जो बगैर घूस दिये या फिर बिना बड़ी सिफ़ारिश के नहीं मिलती।”

“तुमने ठीक कहा, तुम्हारे बाऊजी को वैसे भी ऐसी औरतों के बारे में जानकारी जल्दी ही मिल जाती है । "

माँ की भोली-सी बात सुनकर चरण का हँसने को मन हुआ, लेकिन उसने हँसी को अन्दर ही रोक लिया।

फाइलों के ढेर के नीचे दबे परवेज को साँस लेने की फुर्सत नहीं थी । जब भी उसे अपनी कुछ खास फाइलें ऊपर से पास करानी होतीं, उसे कई तरह की बेकार फाइलें भी हैण्डल करनी पड़ती थीं। अगर वह फाइलों का ढेर मैडम के सामने नहीं रखेगा तो खास तौर से आगे की गयी फाइलें साफ तौर पर नजर आ जाएँगी।

चपरासी ने आकर कहा, “ मैडम आपको बुला रही हैं ।”

वह उठा, उसी वक्त दरवाजे में से गोपाल आता दिखाई दिया।

“आओ प्रोफेसर साहब, मैं आपका ही इन्तजार कर रहा था। आप बैठिए, मैं दो मिनट में अन्दर से होकर आता हूँ,” कहकर वह मैडम के कमरे की ओर चल दिया।

गोपाल कुरसी पर बैठ गया ।

पता नहीं कैसे अन्दर घुसते ही परवेज ने महसूस कर लिया कि इस वक्त मैडम ने उसे किसी खास बात के लिए बुलाया है।

“बैठ जाओ,” मैडम बोलीं ।

वह बैठ गया। मैडम वही फाइलें देखने में व्यस्त थीं, जो आधा घण्टा पहले उसने अन्दर भेजी थीं। वह जानता था, इन फाइलों में उनके अगले दौरे की तफसील थी । उसके दिल की धड़कन तेज हो गयी; हो सकता है उसे भी दौरे पर साथ जाने के लिए कहा जाए। वह बड़े गौर से मैडम के चेहरे की ओर देखने लगा। दूध-सा सफेद रंग, लाल गाल । सिर्फ दो छोटी-सी झुर्रियाँ हैं, जो असली उमर का खाता बता रही थीं। लेकिन छोटी-सी तोते की चोंच जैसी नाक और बड़ी-बड़ी आँखों ने बुढ़ापे को न मानने की सौगन्ध खा रखी है। ऐसे लगता है जैसे सारे नैन-नक्श आपस में सुर मिलाकर बातचीत कर रहे हैं। कोई उमर छुपा रहा है, कोई जवानी प्रकट कर रहा है । कानों के बड़े-बड़े झुमके हैं। साड़ी का पल्लू ढलका हुआ है । और ब्लाउज का गला उघाड़े हुए बहुत कुछ है और ढाँपे हुए कम ।

अचानक मैडम ने फाइल बन्द करके सिर ऊपर उठाया और परवेज से कहने लगीं, “कल सुबह मैं नौशहरा के दौरे पर जा रही हूँ, तुम्हें साथ चलना होगा ताकि कुछ केसों का फैसला मौके पर ही हो जाए। परसों रात से पहले ही आ जाएँगे।”

“ओ. के., मैं कल दफ्तर आता हुआ अपना सामान भी साथ लेता आऊँगा।” कहकर परवेज अपने कमरे में आया तो देखा - गोपाल के साथ चरण भी बैठा हुआ है।

“क्या बात है, अपने आप ही मुसकराये जा रहे हो?” गोपाल ने परवेज से पूछा । “कुछ नहीं,” कहकर परवेज बैठ गया । गोपाल और चरण दोनों परवेज के 'कुछ नहीं' कहने पर राजी नहीं हुए। उन्हें परवेज की मुसकान स्पष्ट नजर आ रही थी, और मुसकान में अनबूझी बात का संकेत था । दायें-बायें देखते हुए परवेज उन दोनों के करीब सरक आया, फिर झुका । गोपाल और चरणं भी एक-दूसरे से सटकर और करीब सिमट आये। परवेज ने सरगोशी के लहजे में कहा, “मैंने तुमसे कहा था न, कि एक रोज मैडम मुझे जरूर अपने साथ दौरे पर ले जाएँगी। कल वह नौशहरा जा रही हैं, मुझे साथ लेकर। एक रात वहाँ रहने का प्रोग्राम है।”

चरण और गोपाल भी मुसकराने लगे। उनके मन की उठा-पटक समाप्त हो गयी, लेकिन दोनों भीतर-ही-भीतर डूबने-उतराने लगे। भले ही वे परवेज से मैडम के बारे में बहुत-कुछ सुनते रहते थे और चटखारे लेते रहते थे, लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक रोज उसके मन की मुराद सच ही पूरी हो जाएगी। फिर भी बाहर से 'जी, ओ जी' कहकर गोपाल ने परवेज की पीठ पर थपकी दी और चरण ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर दबाया, जैसे मुबारक दे रहा हो ।

“एक नुकसान भी हो गया,” परवेज बोला ।

“क्या?” गोपाल ने पूछा ।

“कल शाम उसके साथ अपना टाइम फिक्स हो गया था । "

" किसके साथ?” चरण ने पूछा ।

परवेज ने फिर से आवाज धीमी कर ली, “आशालता के साथ, उसकी ट्रान्सफर का ऑर्डर मैंने निकलवा दिया है। अब वह अपने गाँव के एक स्कूल में ही पढ़ाया करेगी। आज सुबह ही उसका सन्देश आया था कि वह कल यहाँ पहुँच रही है और परसों अपने गाँव चली जाएगी। कल रात का मेरा खाना उसके घर था। लेकिन कल रात को हम नौशहरा होंगे। मतलब यह कि अब हम कभी भी उस गंगा में गोता नहीं लगा सकेंगे।”

“गंगा नहीं तो क्या हुआ भई दरिया- ए- जेहलम में डुबकी लगाओ, मौज करो, आनन्द लूटो, खुश रहो,” कहकर गोपाल हँस दिया। चरण भी हँसा लेकिन उसकी हँसी कुछ बुझी बुझी-सी थी । परवेज ने उसकी तरफ देखा । उसे महसूस हुआ कि उसने चरण को अभी पहली बार देखा है । उसका हाथ पकड़कर बोला, “हलो माई डियर चरण, हाऊ आर यू? रात का नशा अभी बाकी है या नहीं ? "

“ऐसा नशा चढ़ा हुआ है कि कुछ पूछो नहीं,” गोपाल ने जवाब दिया, “हजरत कह रहे हैं कि आज फिर उसी कूचे की खाक छाननी है । ”

परवेज ने प्रशंसा-भरी नजरों से चरण को देखते हुए पूछा, “क्यों चरण साब, आज हमें साथ ले जाने का इरादा है या नहीं?"

“बिलकुल नहीं, आज माबदौलत अकेले ही वह दरिया पार करेंगे।”

तीनों हँस दिये। हँसी रुकी तो गोपाल ने खुसर-पुसर करते हुए कहा, “परेवज, तुम दौरे पर जा रहे हो, वहाँ मैडम के साथ नाटक के बारे में बात करने का अच्छा मौका मिलेगा। सोशल प्ले है, लड़कियों के लिए भी अच्छी 'ऐजूकेशनल वैल्यूज' हैं उसमें। अगर मैडम चार-पाँच शो का प्रबन्ध कर दें तो मजा ही आ जाए। सबके वारे-न्यारे हो जाएँगे।”

“ बात करूँगा,” परवेज ने कहा ।

“मैं चलता हूँ,” गोपाल उठ खड़ा हुआ । “ शाम को टी स्टाल में मिलेंगे। क्यों चरण साब, आपके दर्शन होंगे या नहीं?"

“कोशिश करूँगा।” चरण ने वैसे ही ऐक्टिंग करते हुए जवाब दिया ।

गोपाल चला गया । परवेज ने पूछा, “तुम सचमुच आज भी जा रहे हो?"

“हाँ,” चरण ने गम्भीर होते हुए कहा, “यार, अजीब हालत हो गयी है । उसका ख्याल दिमाग से निकलता ही नहीं। लगता है, मैं अभी तक वहाँ ही, उसी कोठरी में । मेरा दिमाग सुन्न हो गया है। आँखों को कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा ।”

“ तुम्हारा तो इलाज होना चाहिए। "

“बस इसीलिए तो आज फिर वहाँ जा रहा हूँ । जहर का इलाज जहर ही है।”

“यह इलाज भी तब होता है जब जेब में पैसे हों !”

“आज तो हैं न ! कल देखा जाएगा।” अचानक ही चरण को कुछ याद आ गया, “यार, वह मेरी अप्लीकेशन का क्या हुआ ?"

“मैं खुद ऊपर पहुँचा आया हूँ। दो-चार दिन और लगेंगे पता लगने में। मुझे कुछ इतनी उम्मीद नहीं ।"

"क्यों?"

"कोई सिफारिश भी तो चाहिए।"

“मैंने मिसेज राजदेव से बात की थी।”

"अगर वह नेशनल कान्फ्रेन्स के सेक्रेटरी से कह दें और सेक्रेटरी साहब अफसर को इशारा कर दें तो झटपट काम बन सकता है।”

“कोशिश तो कर रहा हूँ,” चरण नाउम्मीदी के मूड में बोला, “नेशनल कान्फ्रेन्स का सेक्रेटरी उस अफसर को कहेगा तो अफसर नौकरी देगा, यार यह गवर्नमेण्ट चल कैसे रही है ?"

“ऐसी बातें सोचोगे तो दिमाग खराब हो जाएगा।”

उसी समय चपरासी ने परवेज को आकर कहा, “ मैडम बुला रही हैं । "

“अच्छा, मैं चलता हूँ," चरण उठा ।

मदन सोच रहा था, वह ऐसे ही नया सूट पहनकर आर. एस. पुरा चला आया । उसे क्या पता था कि यहाँ इतनी धूल उड़ती है । उसने तो आज पहली बार इस कस्बे को देखा था, बेशक जम्मू से कोई बीस मील ही दूर था ।

रूमाल से कोट के कालर और कन्धे झाड़ता वह लारियों के अड्डे से निकलकर सीधी सड़क पर हो लिया । इक्का-दुक्का झण्डियाँ लगी हुई थीं। कहीं-कहीं दरवाजे भी बने हुए थे। वह समझ गया कि मिनिस्टर साहब के स्वागत की तैयारियाँ हैं ।

थोड़ी दूर आगे दुकानें शुरू हो गयीं। यह पूछने के लिए कि जलसा किस जगह होना है, वह चाय के एक ढाबे में घुस गया । दाखिल होते ही महसूस हुआ जैसे वह किसी डिब्बे में बन्द हो गया हो। एक कोने में तीन देहाती आदमी पहले ही बैठे हुए थे। ऐसा लगता था जैसे वे चाय पीने नहीं, लोगों से डरकर वहाँ छिपे बैठे हैं। मदन को उनके सामने ही एक तरफ बैठना पड़ा। एक लड़के ने आकर पूछा, “क्या लाऊँ?”

"चाय का एक कप ले आओ!”

“साथ में कुछ ?”

“कुछ नहीं !”

लड़का चला गया। यह देखकर कि सामने बैठे लोग जलसे के बारे में बात कर रहे हैं, वह कान लगाकर उनकी बातें सुनने लगा ।

उनमें से सबसे बड़ी उमर का लगनेवाला देहाती कह रहा था, मिनिस्टर साहब की हाँ में हाँ मिलाकर ही हम अपना काम निकाल सकते हैं, मंगतराम तो नाहक जोश में आकर उनसे उलझ रहे हैं। भला सरकार से टक्कर लेकर भी कोई कुछ कर सकता है?"

“मैं भी तो यही कह रहा हूँ,” दूसरा बोला। उसने अपनी मुट्ठी में एक तरफ सिगरेट दबा रखा था। बात कहकर दूसरी तरफ मुँह करके कश लगाने लगा, जैसे चिलम पी रहा हो। तीसरा आदमी जो अभी जवान था और मदन के निकट बैठा हुआ था, बोला, “मुझे तुम्हारी बातों में कोई तुक नजर नहीं आती, हमें ही तो अपने हक के लिए लड़ना है। मिनिस्टर साहब के कहने पर अगर हमने रामसरन को अपना लीडर चुन लिया तो हो गया काम। वह तो अव्वल दर्जे का खुशामदी टट्टू है । उसे सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना आता है। मंगतराम भी तो आखिर हैं नेशनल कान्फ्रेन्सी ही, मिनिस्टर साहब उससे डरते हैं। उन्हें यह पता है कि अगर मंगतराम मिनिस्टर बन गया तो बेधड़क होकर लोगों की भलाई के लिए लड़ेगा, मौका पड़ेगा तो उन्हें खरी-खरी सुनाएगा । हम मूर्ख लोग हैं। अपने खैरख्वाह को नहीं पहचानते, और जो पिछलग्गू और चापलूस हैं, उन्हें ही आगे बढ़ाते हैं। तुम चाहे कुछ भी कहो, मैं तो मंगतराम को ही वोट डालूँगा।”

मदन समझ गया, ये तीनों लोग तहसील नेशनल कान्फ्रेन्स के हो रहे वार्षिक अधिवेशन के डेलीगेट हैं और अपने चुने जानेवाले प्रधान के बारे में सलाह कर रहे हैं। उसे याद आया कि उसके साथ रणवीर हाई स्कूल में इसी तहसील का मंगतरात पढ़ता था। कहीं ये उसी मंगतराम की बात तो नहीं कर रहे। वही लीडर बन गया होगा। इन लोगों में कितने लोग पढ़ाई-लिखाई करते हैं, जो पढ़-लिख गया, वही लीडर ।

चाय पीने के बाद वह उठ खड़ा हुआ। साथ बैठे लोग भी उठ गये। उनमें से एक बोला, “अड्डे पहुँचना चाहिए, बख्शी साहब के आने का टैम हो गया है।”

चायवाले को चाय के पैसे देकर वह बाहर निकला। सड़क पर पहले से ज्यादा गहमा-गहमी थी। बहुत से लोग अड्डे की ओर जा रहे थे। मदन भी उधर चल दिया, उसके आने का मकसद ही यह था कि वह सबसे आगे रहे और बख्शी साहब की नजर सबसे पहले उस पर ही पड़े। इस समय उसे उड़ती धूल का भी ख्याल नहीं था ।

सड़क के दोनों तरफ स्कूली लड़के खड़े होने लगे थे। उनके एक-एक हाथ में तिरंगी और एक-एक हाथ में हल वाली लाल झण्डी थी । अड्डे के आस-पास काफी रौनक थी। एक-दो नौजवान कारकुन भीड़ को शान्त रखने की कोशिश कर रहे थे ।

“बख्शी साहब आ गये,” किसी ने आवाज दी ।

हर तरफ शोर मच गया। किसी ने गला फाड़कर नारा लगाया - 'खालिदे कश्मीर,' तो बाकी लोगों ने 'जिन्दाबाद' कहकर जवाब दिया। फिर नारे पर नारे लगने लगे :

“ नेशनल कान्फ्रेन्स - जिन्दाबाद !”

" पण्डित नेहरू - जिन्दाबाद !”

“खालिदे कश्मीर - जिन्दाबाद !”

मदन से रहा नहीं गया। भीड़ को चीरकर वह उन कारकुनों में शामिल हो गया, जो भीड़ को काबू में रखने की कोशिश कर रहे थे और गला फाड़-फाड़कर नारे लगा रहे थे। मिनिस्टर साहब की बड़ी, लम्बी और खुली कार भीड़ के बीच आ खड़ी हुई । उनके साथ नेशनल कान्फ्रेन्स के जनरल सेक्रेटरी भी थे। तहसील नेशनल कान्फ्रेन्स के पदाधिकारी आगे बढ़ - बढ़कर दोनों को फूलों के हार पहनाने लगे ।

मदन ने पूरा जोर लगाकर तान लगायी, “खालिदे ऽऽऽऽऽ कश्मीर !” और लोगों ने उसी जोश के साथ जवाब दिया, 'जिन्दाबाद !'

फूलों के हारों में से बख्शी साहब की नजर मदन पर पड़ी। पलभर के लिए तो वह दंग रह गये। उसी वक्त मदन ने भी देखा, नजर मिलते ही वह बेतहाशा चिल्लाया, “खालिदे कश्मीर !”

“जिन्दाबाद !”

बख्शी साहब के होठों पर मुसकान आ गयी। जुलूस चल दिया। हर तरफ नारे लग रहे थे। सड़क के दोनों ओर खड़े स्कूली लड़के झण्डियाँ लहरा - लहराकर कोई स्वागती गीत गा रहे थे। उनके पीछे खड़े बेहिसाब लोग बेहिसाब सलामें मार रहे थे और बख्शी साहब हाथ उठा-उठाकर सलाम का जवाब देते जा रहे थे । मदन जल्दी-जल्दी कार के चारों ओर दौड़-दौड़कर चक्कर लगा रहा था और गला फाड़-फाड़कर नारे लगा रहा था। साथ ही बार-बार देखता जा रहा था कि बख्शी साहब उसका नोटिस ले रहे हैं या नहीं !

जुलूस जब उस पण्डाल के निकट पहुँचा, जहाँ कान्फ्रेन्स का आयोजन था, तो मिनिस्टर साहब कार से नीचे उतर आये । मदन भागकर आगे हुआ और भीड़ में उनके लिए रास्ता बनाने लगा। फिर आप भी उनके पीछे-पीछे अन्दर दाखिल हो गया । आखिर जब बन्द कमरे में वर्किंग कमेटी की मीटिंग होने लगी, जिसमें ओहदेदारों का चुनाव होना था, तो वह बाजार में आकर फिर से चाय के ढाबे में बैठ गया । दो-तीन घण्टे बाद फिर पण्डाल में आ गया। पहली खबर यही मिली कि मंगतराम चुनाव हार गया है।

थोड़ी देर के बाद मंगतराम बन्द कमरे में से बाहर निकला। साथ ही उनके दो-चार तरफदार भी थे। मदन ने पहचान लिया कि यही मंगतराम उसका सहपाठी था। उसे हैरानी हुई कि मंगतराम इतना बड़ा लीडर बन चुका है और वह स्वयं अभी नौकरी का जुगाड़ करने का सिलसिला बनाने में लगा है। मदन को मंगतराम के हारने का अफसोस हुआ। मन हुआ कि आगे बढ़कर उससे मिले, लेकिन उसने स्वयं को रोक लिया। वह एक आनवाला आदमी है, मदन सोचने लगा, क्या सोचेगा जब उसे पता लगेगा कि मैं किसलिए और कैसे-कैसे मिनिस्टरों के पीछे दुम हिलाता फिर रहा हूँ।

साँझ घिरने से पहले, जब बख्सी साहब अपना दौरा सफल करके लौटने लगे तो मदन दौड़कर उनकी कार के दो गज आगे आ खड़ा हुआ। आगे से गुजरते हुए बख्शी साहब ने जब उसकी सलाम का दो बार खास उसी के लिए हाथ उठाकर जवाब दिया तो वह खुलकर मुसकरा दिया।

कार धूल उड़ाती नजरों से ओझल हो गयी और मदन भी अपनी सफलता पर सन्तोष महसूस करता अड्डे की ओर चल दिया ।

रात नाटक के दूसरे अंक में उसने चरण की बाँह पकड़ ली थी- इस बात पर कमला को अभी तक हैरानी हो रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसमें इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी थी ! उसे कई बार यह सोच आयी कि शायद माँ इस बारे में उससे पूछेंगी, लेकिन माँ को अपनी राजनीति से फुर्सत नहीं थी । ड्रामे की सफलता के कारण सेक्रेटरी साहब और दूसरे सरकारी पदाधिकारियों पर इतना शानदार प्रभाव पड़ा था कि उसकी खुशी और जोश में उन्हें कुछ और सोचने की आवश्यकता नहीं थी ।

सुबह उठते ही कमला को जब रात की बात याद आयी तो वह मुसकराने लगी । उसके डैडी खास तौर से उसके पास आये और पूछने लगे, “रात शो कैसा रहा?”

“वण्डरफुल,” कमला ने कहा। फिर वह नाराज होते हुए बोली, “डैडी, मैं अब आपसे नहीं बोलूँगी, आप क्यों नहीं आये वहाँ ?”

“बेटी, तुम्हें तो मालूम है कि मुझे तुम्हारी माँ के किसी काम में कोई दिलचस्पी नहीं है। हाँ, तुम अगर चाहो तो मुझे अभी यहाँ ऐक्टिंग करके दिखा सकती हो।”

“उँह,” कमला ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए मुँह फेर लिया और कर्नल साहब हँसते हुए वहाँ से चले गये। बाहर बगीचे में आकर वह बागबानी के कामों में व्यस्त हो गये ।

कर्नल साहब फौजी पेन्शनर हैं। पीछा भरा-भराया और ऊँचे नामवाला है । स्वभाव - हठ के पक्के, धीरज और आनवाले हैं। बीवी का चपड़-चपड़ बोलना और यहाँ-वहाँ घूमना उन्हें जरा भी नहीं सुहाता । घर-गृहस्थी को पीछे डाल समाज-सेवा के नाम पर बेकार चालू किस्म के लोगों में शामिल होना, उनकी नजरों में कोरा दिखावा है । इसीलिए उन्होंने पत्नी के कामों से कोई वास्ता नहीं रखा था। पहले-पहल समझौते का यत्न किया था, लेकिन कोई असर नहीं हुआ, तो खामोश हो रहे । अब चुप रहने में ही खैर समझ ली है। राजपूत सभा का थोड़ा-बहुत काम करते हैं। अधिक समय वह बगीचे में फूलों-पौधों को ही देते हैं। घर में जितनी साग-सब्जी की जरूरत होती है, वह खुद ही उगा लेते हैं। फूल खिलते हैं तो उनका चेहरा खिल उठता है । उनके पास गुलाब की कुछ ऐसी किस्में हैं जो तलाशने पर भी कहीं और नहीं मिलेंगी।

कमला खिड़की में खड़ी होकर कर्नल साहब को गुलाब के फूलों पर हाथ फेरते हुए देखने लगी। ऐसे मौकों पर उसे अपने डैडी पर प्यार आ जाता है। उनके मन का दुःख वह जानती है। मम्मी के साथ उनकी न कभी बनी, न बनेगी। जब भी कभी मन उदास होता है, अपने उगाये फूलों पर हाथ फेरने लगते हैं। अभी वह कमला के साथ बात करके गये हैं। हो सकता है, उन्हें कमला का ड्रामे में काम करना नापसन्द हो । यह भी हो सकता है कि कमला के पार्ट करने पर एतराज न हो और सोच रहे हों कि मम्मी ने उन्हें खास तौर पर ड्रामा देखने के लिए क्यों नहीं बुलाया। ऐसी कोई बात जरूर है।

इसी ऊहापोह में फँसी कमला ने बगीचे के उस पार कोठी का फाटक खुलते और चरण को अन्दर आते देखा । वह हैरान हुई । उसे पता था कि चरण को आना है, लेकिन आज ही? उसने यह नहीं सोचा था । वह खिड़की से पीछे हट गयी ।

चरण ने अन्दर आकर फाटक बन्द कर दिया। फूलों के बीच-बीच घास पर आने-जाने से बने रास्ते पर चलता हुआ वह कर्नन साहब के पास पहुँचा और पूछने लगा, “मिसेज राजदेव घर में हैं?"

कर्नल साहब ने कोठी की ओर इशारा किया, “हाँ, अन्दर चले जाओ!” यह कहकर वह फिर अपना काम करने लगे ।

चरण बरामदे में पहुँचा तो उसी समय कमला ने ड्राइंगरूप का दरवाजा खोला। दोनों ने एक-दूसरे को नमस्ते की । वह अन्दर दाखिल हुआ तो कमला बोली, “बैठ जाइए, मम्मी तैयार हो रही हैं ।”

चरण ने बैठते हुए पूछा, “कहीं जा रही हैं?”

“हाँ,” कमला बोली, “किसी मीटिंग में जा रही हैं।”

चरण सोफे पर बैठ गया। उसके होठों पर हँसी की बारीक-सी रेखा थी । वह सोच रही थी, चरण भी रात को बाँह पकड़नेवाली बात को याद कर रहा होगा। लेकिन चरण को इस वक्त वह बात याद नहीं थी। इस वक्त कमला की ओर देखते हुए उसे रानी की याद आ रही थी। रात का अनुभव एक अनहोनी लग रहा था । वह देख रहा था कि सामने बैठी हुई कमला और रातवाली रानी का आपस में कोई ताल-मेल ही नहीं है । कल तक उसकी नजरों में कमला ही कमला थी, लेकिन आज - वह कमला की आवाज सुनकर चौंका।

“रात मैं बहुत डर गयी थी । "

“क्यों ?” चरण ने पूछा ।

“मैंने पहली बार नाटक में काम किया था न, इसलिए ।”

“ बड़ा अच्छा हो गया । सब बड़े खुश थे। किसी को यह लगा ही नहीं कि यह आपकी पहली परफारमेन्स थी। आपने तो ऐसा काम किया कि आगे भी आपको अभिनय करते रहना चाहिए।"

“कहाँ चान्स मिलना है, अब तो मैं दिल्ली जा रही हूँ ।”

चरण उसकी बात सुनकर हैरान हुआ। कमला ने उसकी हैरानी दूर करते हुए बताया, “मुझे वहाँ मेडिकल में दाखिला मिल गया है। अगर आप कभी दिल्ली आयें तो मुझे जरूर मिलिएगा।”

तभी मिसेज राजदेव अन्दर आ पहुँचीं । गाढ़ा मेकअप किये हुए बड़ी फ्रेश लग रही थीं। हाथ में पर्स पकड़ने के ढंग से नजर आ रहा था कि वह बाहर निकल रही हैं। चरण ने खड़े होकर नमस्ते की ।

" अच्छा हुआ जो आप आ गये। इस वक्त मैं नारी कल्याण केन्द्र की मीटिंग में जा रही हूँ। वहाँ सेक्रेटरी साहब भी आनेवाले हैं। आप मेरे साथ चलिए। हो सकता है वहाँ ही बात करने का मौका मिल जाए।”

"चलिए,” चरण भी बाहर निकलने लगा । कमला की ओर देखा, दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकराये, जैसे कह रहे हों, “फिर मिलेंगे।”

बाहर कर्नल साहब कुदाल से एक नयी क्यारी बना रहे थे। उनसे कोई बात किये बिना मिसेज राजदेव उनके आगे से निकल गयीं। कर्नल साहब ने सिर उठाकर उनकी ओर देखने की जरूरत नहीं समझी। चरण को अजीब बात लगी ।

फाटक से बाहर निकलने से पहले चरण ने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा । कमला खिड़की में खड़ी उनकी ओर देख रही थी। कमला ने हाथ उठाकर 'विश' किया । चरण ने भी हाथ हिलाया, और फिर फाटक बन्द करके मिसेज राजदेव के पीछे चल दिया ।

सेक्रेटेरियेट पहुँचकर मिसेज राजदेव ने कहा, “आप यहाँ बाहर इन्तजार करिए, मैं अन्दर जाकर देखती हूँ।”

“ठीक है,” चरण बोला। अभी मिसेज राजदेव मुड़ने ही लगी थीं कि सामने से सेक्रेटरी साहब की कार आती दिखाई दी । “ वह तो अब आ रहे हैं,” उनके मुँह से निकला और होठों पर हँसी बिखर गयी। वह कार की तरफ आगे हुईं। चरण को महसूस हुआ कि एक क्षण में ही मिसेज राजदेव की पर्सनैलिटी बदल गयी है । अभी-अभी जो मिसेज राजदेव अपने घर से आयी थीं, वह कोई और थीं और यह कोई और हैं।

सेक्रेटरी साहब कार से बाहर निकले। मिसेज राजदेव ने करीब सरककर, हाथ जोड़कर नमस्ते की और सेक्रेटरी साहब ने दायें हाथ को थोड़ा ऊपर करके 'आदाब' के अन्दाज में नमस्ते का जवाब दिया। फिर वे दोनों बातें करते-करते सीढ़ियों की ओर बढ़े। चरण के कानों में सेक्रेटरी साहब की बस इतनी सी बात पड़ी, “बख्शी साहब भी मीटिंग में आ रहे हैं।”

जब वे दोनों चरण के पास पहुँचे तब मिसेज राजदेव ने चरण की ओर इशारा किया, “यह मिस्टर चरण हैं । इन्होंने रात नाटक में हीरो का पार्ट किया था।” सेक्रेटरी साहब ने एक क्षण के लिए उसकी ओर देखा और जैसे पहचान लिया। बोले, “शराबी की ऐक्टिंग आपने कमाल की की थी।”

चरण मुसकराकर बोला, “ जनाब सिर्फ ऐक्टिंग ही थी, वैसे मैं शराब नहीं पीता।”

उसकी बात सुनकर सेक्रेटरी साहब ने कहकहा लगाया और उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसे शाबासी दी। मिसेज राजदेव ने इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया, झट से बोलीं, “इनके लिए ही मैंने आपको कहा था। एफ. ए. पास हैं। म्युनिसिपल कमेटी के दफ्तर में एक क्लर्क की पोस्ट के लिए दरख्वास्त दे रखी है ।"

“ आप कल दो बजे मुझे नेशनल कान्फ्रेन्स के दफ्तर में मिलिए,” सेक्रेटरी साहब ने चरण से कहा और आगे बढ़ गये। मिसेज राजदेव भी साथ-साथ चल पड़ीं। उन्हें मुड़कर चरण की ओर देखने का मौका नहीं मिला।

चरण बहुत खुश था । चबूतरे के करीब पहुँचकर उसे सामने से मदन आता दिखाई दिया।

“क्या हुआ आर.एस.पुरा में ? "

“कमाल हो गया,” मदन खुशी के नशे में था, “मिनिस्टर साहब अब मुझे कभी नहीं भूल सकते। मेरे जैसा हठी और हिम्मतवाला भी उन्हें कोई नहीं मिल सकता । मेरा ख्याल है, अब मुझे कम-से-कम गजेटेड पोस्ट जरूर मिलेगी। तुम कहाँ से आ रहे हो ?”

चरण ने जवाब दिया, “मुझे गजेटेड पोस्ट नहीं, कोई छोटी-मोटी नौकरी चाहिए । मिसेज राजदेव ने अभी सेक्रेटरी साहब से मिलाया है।”

“क्या कहा उन्होंने ?”

“कल दो बजे नेशनल कान्फ्रेन्स के दफ्तर में बुलाया है,” फिर चरण ने पूछा, " तुम कहाँ जा रहे हो ?”

“मुझे अभी पता चला है कि नारी कल्याण केन्द्र की मीटिंग में बख्शी साहब आ रहे हैं, सोचा, आज तीसरी बार भी सलाम कर आता हूँ। जितनी सलामें उतनी बड़ी नौकरी, चलो तुम भी।”

“नहीं, मैं भल्ले दी हट्टी में बैठकर चाय पीता हूँ, तुम ड्यूटी देकर आओ, ” चरण ने कहा ।

भारत टी-स्टाल के पिछले कोने में बड़ी गरमागरम महफिल जमी हुई थी । हर कोई दूसरे की कम सुन रहा था और अपनी ज्यादा सुनाने की कोशिश कर रहा था । आस-पास बैठे लोगों को सिर्फ शोर-शराबा ही सुनाई दे रहा था, बात कोई नहीं ।

कई लोग 'सवेरा' वीकली के एडीटर उजागर, जो चाय का दसवाँ प्याला पीने में लगा था, के पीछे पड़े हुए थे । गोपाल ने व्यंग्य करते हुए कहा, “उजागर साब, आजकल जिस तरह आप सरकारी अफसरों के परखचे उड़ा रहे हैं, उसे देखकर दाद देनी पड़ती है । "

“यह हमारे अखबार का बुनियादी कैरेक्टर है,” उजागर ने जवाब दिया, “रिश्वतखोर, नालायक और बेईमान अफसरों के खिलाफ जो हम नहीं लिखेंगे तो और कौन लिखेगा?"

मदन ने पूछा, “कई बार आप पहले किसी के खिलाफ लिखकर फिर दूसरे अंक में उसके हक में लिख देते हैं, वह क्यों ?”

" सच्चाई का जब पता चलता है तो मैं छिपाकर नहीं रखता।”

“आप सच्चे गाँधीवादी हैं,” गोपाल ने चुटकी ली।

“नहीं, मैं गाँधीवादी नहीं, सचाई का तरफदार हूँ।”

“लेकिन उजागर साब, सचाई की इतनी तरफदारी करके आपको मिलता क्या है?" अब परवेज भी चुप नहीं रह सका, “आपके अखबार की चार कॉपियाँ भी शहर में नहीं बिकतीं। लोग पढ़ते तो दिल्ली की अखबारें हैं।”

“यही तो गड़बड़ है । तभी तो हमें कई चालें खेलनी पड़ती हैं ।”

"यह तो आपका ही जिगरा है, उजागर साब ! अखबार बिकता नहीं, लेकिन आप उसे बराबर निकालते जा रहे हैं। कोई वसीला तो होगा ही?"

“वसीले के बिना कोई बात बनती है भला !” उजागर ने कोट के कन्धे झाड़ते हुए कहा, “इसे आप हमारे कारोबारी भेद कह सकते हैं।”

मदन ने शरारत की, “अखबार 'हिम्मत' का सम्पादक रूप कुमार तो अपना कोई भी भेद छिपाकर नहीं रखता। वह तो साफ कहता है कि वह लोगों को डरा-धमकाकर उनसे पैसे ऐंठता है । "

“इन्हीं लोगों ने तो पत्रकारिता का नाम खराब किया है,” उजागर तैश में आकर बोला, “रूप कुमार जैसे सम्पादक तो गली-मोहल्ले की लड़कियों की सच्ची-झूठी प्रेम-कहानियाँ छाप देने की धमकी देकर उनके गरीब माँ-बाप से भी पैसे उमेठ लेते हैं। पता नहीं सरकार ऐसे लोगों को कुछ कहती क्यों नहीं?"

“यह लोकराज है भाई, ” कोई पीछे से बोला ।

“इस लोकराज की ऐसी-तैसी, ” छात्र नेता अर्जुन सिंह ने अपने बड़े-बड़े और उलझे बालों को माथे पर से हटाते हुए कहा, “यह लोकराज नहीं, भोग- राज है । भूखे- नंगे मौकापरस्त लोग बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर जा विराजे हैं, और वे सुख-सुविधाएँ, जो उन्होंने कभी सपने में भी नहीं देखी थीं, आज सचमुच भोग रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के लोगों की हालत तो और भी बदतर है। भारत सरकार इस बात का शोर मचाती है कि उसके कारण यहाँ लोकराज कायम है। रियासती सरकार इस बात का लाभ उठाती है, और मनमानियाँ करती है। उसे कोई पूछने - रोकनेवाला नहीं। आप देखते नहीं, हमारे मिनिस्टर के पास इतने अधिकार हैं।”

“जयकारा पहाड़ोंवाली का - बोल साँचे दरबार की जय,” मदन ने पंचम सुर में जयकारा बोला तो सब चुप हो गये। रोज जब बहसो - बहसी का पारा ज्यादा ऊपर चढ़ जाता है तब मदन जयकारा बोलकर सबको चुप कराता है। अर्जुन सिंह को यह जयकारा जहर - सा लगा। उसने आँखें तरेरकर मदन की तरफ देखा ।

परवेज ने बात को पंचम सुर से मद्धम सुर पर लाने के लिए बोलना शुरू किया, “दोस्तो, अर्जुन सिंह का यह कहना बिलकुल ठीक है कि यह लोकराज नहीं, भोगराज है । इसलिए मेरा ख्याल है कि हम सबको अपनी-अपनी जगह जो मिलता है, जैसे मिलता है, उसे ज्यादा से ज्यादा भोगने की कोशिश करनी चाहिए। जैसे मैं करता हूँ । मैं तो हमेशा अपनी कहानियों में यही सब कुछ बताने की कोशिश करता हूँ । ”

अर्जुन से रहा नहीं गया। न चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया, “इसीलिए तुम्हारी कहानियों में वह सस्तापन है, जो तुम्हारे विचारों में है।”

“ और तुम्हारी शायरी में वही खुश्की और गन्दगी है, जो तुम्हारे सिर के बालों में है,” परवेज भी मुँह में आयी बात नहीं रोक सका ।

चरण धीरे से उठा और दुकान से बाहर निकल आया। आज उसका मन इन खाली खोखली बातों में बिलकुल नहीं था। वैसे वह रोज इस तरह से भाषण खुद भी देता था। सात बज गये थे । वह फुटपाथ पर खड़ा हो गया। रघुनाथ बाजार की रौनक, चारों ओर की गहमागहमी, लोगों की भीड़, स्कूटरों, कारों, टाँगों की रेल-पेल-वहाँ खड़ा होकर वह आखिरी बार सोचना चाहता था कि वह उस अँधेरी गली में जाए कि नहीं । कुछ क्षणों के लिए उसे महसूस हुआ कि उसकी इच्छा कमजोर हो गयी है । वह उस कमजोरी को दूर करना चाहता था । जेब से एक सिगरेट निकालकर सुलगाया और फिर धीरे-धीरे रेजीडेन्सी रोड की ओर चल दिया। जब वह जिला नेशनल कान्फ्रेन्स के दफ्तर के सामने पहुँचा तो उसे याद आया कि कल चार बजे उसे यहाँ ही सेक्रेटरी साहब से मिलने के लिए आना है। हो सकता है, नौकरी का सिलसिला बन ही जाए - इस सोच ने उसके मन में एक उत्साह भर दिया । उसे मालूम है कि अगर उसकी नौकरी लग गयी तो वह कितनी मुश्किलों से बाहर निकल आएगा। उस पर बाऊजी का जो खौफ लद गया है, उससे जान छूटेगी; माँ की हथेली पर तनख्वाह के रुपये रखकर उसे दुनिया जहान की खुशियाँ दे देगा। फिर उसके अपने खर्चे - चाय-सिगरेट का उधार, गोपाल, परवेज जैसे उसके यार - बेली जो कई बार उसकी चाय, बीयर, व्हिस्की का खर्चा सहारते हैं - नौकरी मिलने के बाद वह उनके हिसाब भी चुका देगा ।

इन सोचों में पड़ा जब वह तालाब खटीकाँ पार करके उस अँधेरी गली के सामने पहुँचा तो अचानक ही रुक गया। वह गली एक अँधेरी गुफा की तरह दिखाई दे रही थी जिसका दूसरा सिरा न जाने कहीं है भी या नहीं। एक बार जी चाहा लौट जाए । उस घुप्प अँधेरे को देखते हुए उसे वह चेहरा नजर आया- थोड़ी-थोड़ी रोशनी में कम-कम नजर आती सूरत, और फिर उसके पैर अनायास आगे बढ़ गये।

अटकल लगाता और हाथों-पैरों और नजरों से अँधेरे में टटोलता आखिर वह उस दरवाजे के पास आ खड़ा हुआ। मन की उथल-पुथल उसे साँस नहीं लेने दे रही थी। उसने दरवाजे को दो बार वैसे ही खटखटाया, जैसे कल परवेज ने खटखटाया था। कल की तरह आज भी काफी देर तक कोई आहट नहीं सुनाई दी। उसने फिर दो बार इसी तरह खटखट की। उसके बाद फिर वही खामोशी ।

अन्दर किसी ने धीमे से चिटकनी खोली। फिर दरवाजा खुला, लेकिन सामने कोई नहीं था । वह आहिस्ता-आहिस्ता अन्दर दाखिल हो गया । वह दरवाजे के पीछे था। उसने दरवाजा बन्द करके फिर चिटकनी चढ़ा दी ।

दोनों ने उस मद्धम-मद्धम रोशनी में एक-दूसरे की ओर देखा। आज वह बड़ी बनी-ठनी हुई थी। बाल सँवारे हुए थे, माथे पर बिन्दी लगी हुई थी। आँखों में काजल, होठों पर गहरी लाल लिपस्टिक । लम्बी जहर मोहरे रंग की कमीज के नीचे लाल सुत्थन-चरण देखता ही रह गया । वह थोड़ा-सा मुसकरायी । मुसकराते हुए उसके गालों में दो गढ़े पड़ते दिखाई दिये ।

वह बोली, “मैं कहीं जा रही हूँ, कल आइए न !”

“कल का क्या भरोसा?” चरण ने जवाब दिया ।

वह हँस दी । गालों के गढ़े भी हँसे । चरण को लगा, ऐसे हँसते होठ वह पहली बार देख रहा है । हँसी की ऐसी खनक भी उसने पहले कभी नहीं सुनी थी ।

“इतनी नाउम्मीदी अच्छी नहीं होती,” वह बोली, और बोलते-बोलते उसके समीप आ गयी, “मुझे आठ बजे किसी को लेने जाना है, आते ही होंगे।”

“अभी आठ नहीं बजे हैं।”

“चलो- अगर आप कहते हैं तो " कहते हुए वह भीतरी कोठरी का दरवाजा खोलने लगी । चरण उसके पीछे-पीछे अन्दर घुसा ।

चरण को लगा कि वह एक पागल भालू की तरह एक ऊँचे टीले पर दौड़ता जा रहा है, बड़ी-बड़ी चट्टानें उसके पैरों के नीचे लुढ़कती जा रही हैं और उसकी चीखों से आसमान फट रहा है। उसे महसूस हो रहा था कि वह एक समुन्दर को बिना थके मथता जा रहा है, लहरों के दायरे बन रहे हैं, चक्कियाँ चल रही हैं। एक नाव भँवर में फँस गयी और चक्कर खाने लगी है।

“जनौर”, उसने सिसकारा। अब उसकी आँखें भी मुँद गयी थीं, और बदन किसी ढलान पर लुढ़क रहा था ।

चरण की नाव भँवर में फँसी पल-पल नीचे - और नीचे - और नीचे डूबती जा रही थी। पाताल के अनजान किनारों, अनजान चट्टानों से वह टकरायी और टुकड़े-टुकड़े हो गयी ।

“धाड़”, कहते हुए रानी ने चरण को दबा लिया । दम फूल गया था और पसीना-पसीना हुआ चरण डूबने लगा था। उसके नंगे बदन पर दो हाथ फिसल रहे थे, जैसे आग बुझा रहे हों ।

“क्या नाम है तुम्हारा?” रानी ने पूछा ।

“चरण,” वह बोला। रानी उठकर बैठ गयी, “मुझे तो जाना है । "

कपड़े पहनकर दोनों बाहर निकल आये । चरण ने दस का नोट उसके हाथ में पकड़ाया । एक कोने में रखी पिटारी में नोट रखकर वह अपनी लिपस्टिक ठीक करने लगी ।

चरण को बाहर निकल जाना चाहिए था, लेकिन उसके कदम ही नहीं उठ रहे थे ।

बालों में क्लिप उड़सकर उसने चरण को वहाँ ही खड़े देखा तो बोली, “अभी भूख नहीं मिटी ?"

“नहीं,” चरण के मुँह से अनायास ही निकल गया । वह हँस दी, बोली, “मुझे जाना है, वो आ रहे होंगे।”

“एक बात पूछूं?”

“क्या?" वह बड़े गौर से चरण की ओर देखने लगी ।

“मैं कभी सारी रात यहाँ रह सकता हूँ?"

“हाँ!”

चरण बाहर निकलने लगा, लेकिन फिर रुक गया। उसे फिर रुकते देखकर वह इस तरह उसकी तरफ देखने लगी, जैसे कह रही हो, “तुम जाते क्यों नहीं ?”

“एक और बात पूछनी है ।”

"क्या?"

“तुम्हारा नाम क्या है?"

“क्या करोगे जानकर ?”

“तुमने भी तो पूछा है मेरा नाम ?”

उसे याद आया कि सच ही उसने उसका नाम पूछा था। आज तक उसने कभी किसी का नाम नहीं पूछा था। फिर इसका नाम पूछने की मूर्खता कैसे की ? उसे चुप देखकर चरण ने फिर पूछा, “ नहीं बताना चाहती ?”

“पहले यह बताओ कि मेरा नाम जानकर क्या करोगे?”

“याद करूँगा।"

वह टुकुर-टुकुर उसकी आँखों में देखने लगी। फिर मुसकारायी और धीरे से बोली, “रानी है मेरा नाम,” क्षण-भर चुप रहकर वह फिर बोली, “इसमें याद रखने जैसा कुछ भी नहीं !”

चरण एकटक उसे देख रहा था। बड़ी ही अच्छी लग रही थी । उसे अपनी ओर नजर गड़ाये देख रानी फिर मुसकराने लगी, और चरण उसके गालों के गढ़ों से अपने-आपको खींचता - घसीटता दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया ।

गली के अँधेरे में आकर उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अभी-अभी जो अनुभव लेकर वह जा रहा है, वह सच ही उसमें से गुजरा है। कैसी लहर थी वह जो उसे उस टापू पर ले गयी, जहाँ उसे अपना एक और ही रूप देखने को मिला, और जहाँ से लौटने पर अपना आप कुछ और ही जान पड़ रहा है। उसके पास से कुछ टूटकर अलग जा पड़ा है और कुछ नया अन्दर से उगकर बाहर आ गया है।

गली के बाहर चरण अभी निकला ही था कि सामने सड़क पर एक कार आती नजर आयी। कार ठीक उसी गली के सिरे पर आकर खड़ी हो गयी। एक आदमी उसमें से बाहर निकला और गली के अँधेरे में लुप्त हो गया ।

मन में हलचल हुई और चरण कार के पास आकर खड़ा हो गया। उसने देखा कि उस कार में और कोई नहीं था । न जाने उसे क्या ख्याल आया, वह बायीं ओर, दो-चार गज की दूरी पर एक बन्द दुकान के चबूतरे पर बैठ गया । दूर से आती खम्भे की रोशनी वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते इतनी महीन हो गयी थी कि उसे रोशनी की परछाईं भी नहीं कहा जा सकता था । वहाँ बैठा वह किसी को नजर नहीं आ सकता था । और अगर नजर आ भी जाता तो किसी को क्या कर लेना था !”

ज्यादा देर इन्तजार नहीं करना पड़ा उसे। जल्दी ही रानी उसी आदमी के पीछे-पीछे चलती गली के बाहर आयी और कार में बैठ गयी, ड्राइवर के साथवाली सीट पर । पल-भर में कार वहाँ से चल दी ।

चरण भी चबूतरे पर से उठा और रघुनाथ बाजार की ओर चल दिया । उसे महसूस हो रहा था, जैसे अभी भी रानी उसकी नंगी पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछ रही हो, 'तुम्हारा नाम क्या है?' फिर उसके गालों के गढ़े याद आये, मानो रानी कह रही हो, 'रानी है मेरा नाम, इसमें याद रखने लायक कुछ भी नहीं !'

ठेकेदार चौधरी फिरंगीमल ने नौकर को व्हिस्की की दूसरी बोतल लाने के लिए कहा । फिर उसने घड़ी की ओर देखा-सवा नौ बजे थे। उसने हिसाब लगाया कि रानी दस मिनट में यहाँ पहुँच जाएगी, तब तक मिनिस्टर साहब को बातों में उलझाये रखना जरूरी है। धुत तो वह हो ही चुके हैं, और रेडियो पर बज रहे फिल्मी गाने के साथ-साथ अपने घड़े जैसे फूले पेट पर हाथ मार-मार ताल दे रहे हैं। टोपी उतारकर उन्होंने एक तरफ रखी हुई है, और सिर पर जहाँ बरगद के पत्ते जैसा गंज पड़ा है, वहाँ कभी-कभी खुला भी लेते हैं।

नयी बोतल आयी तो फिरंगीमल ने चारों गिलासों में एक-एक और पैग डाला । पहला गिलास सोडा डालकर मिनिस्टर साहब के हाथ में पकड़ाया। कबाब और टिक्कों की प्लेटें भी आगे सरकायीं । फिर लाला हरदयाल और पण्डित रामसरूप के गिलास उनके आगे सरकाये ।

मिनिस्टर साहब ने आधा गिलास गटककर कबाब की प्लेट में हाथ डाला और दो बड़े लम्बे कबाब अपने राक्षसी मुँह में हँसे । कबाब अभी पूरी तरह चबाये भी नहीं गये थे कि व्हिस्की का गिलास मुँह से लगा लिया। व्हिस्की और कबाब एक साथ ही गले से नीचे उतरे तो नशे की मस्ती की लहर में लहराते हुए उन्होंने जोर से एक बड़क मारी। सरूर की लम्बी-लम्बी हिलोरें लेते हुए बोले, “चौधरी जी, जम्मू में आप जैसा एक भी दिल- गुर्देवाला आदमी नहीं। मैं तो कहता हूँ कि आप डिप्टी मिनिस्टर बन जाओ, बोलो है मरजी ?”

फिरंगीमल भी कुछ कम सरूर में नहीं थे, घूँट भरकर गिलास मेज पर रखा और डकार मारते हुए बोले, “जनाब, हम तो आपके खादिम है। ठेकेदारी पर रहने दोगे तो ठेकेदारी करेंगे, और कुछ और करने के लिए कहोगे तो भी हुक्मअदूली नहीं कर सकते । वैसे मिनिस्टरी तो साहब को ही शोभा देती है।”

“हम तो कश्मीर के नुमाइन्दे हैं। कैबनेट में जम्मू की तरजमानी भी अच्छे ढंग से होनी चाहिए। मेरी दिली ख्वाहिश है कि आप मिनिस्टर बनें। वैसे भी आप मिनिस्टर से कम कहाँ हैं! हम तो वैसे भी आपकी सोहबत के तलबगार रहते हैं ।”

“यह क्या कह रहे हैं, जनाब ? हम तो आपके ताबेदार हैं,” फिरंगीमल खुशी से बिछ गया, “अगर आप चीफ मिनिस्टर साहब से नहीं कहते तो मुझे भी जंगलात का यह ठेका नहीं मिल सकता था। आपकी खिदमत करना तो हमारा फर्ज बनता है। यह तो वैसे भी हमारे लिए फन की बात है कि आप कभी-कभी हमारे गरीबखाने में तशरीफ ले आते हैं!”

लाला हरदयाल भी नशे की झोंक खाते हुए बोले, “जनाब, आपके आने से हमारी शान बढ़ जाती है।”

पण्डित रामसरूप भी शुरू से ही इस महफिल के खास नगीने हैं । यहाँ एक खास जगह है उनकी। अपनी यह जगह बनाये रखने के लिए वह कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। दरबारदारी की बातों में माहिर हैं। हरदयाल बोले तो वह कैसे चुप रह सकते हैं। उन्होंने तो राजों का दरबार भी देख रखा है। कुरसी पर से उठकर वह वैसे ही झुके जैसे राजदरबार में लोग झुकते थे और मिनिस्टर साहब को फर्शी सलाम करके ऊँची आवाज में बोले, “हजुऽऽऽ र पुरनूऽऽऽर पहले महाराज बहादुर राज करते थे, अब आप राज करते हैं । हमारे लिए आप ही राजा हैं। हम आपकी प्रजा हैं। आपकी खिदमतगुजारी हमारा फर्जे - अव्वलीन है।”

मिनिस्टर साहब खुशी के झोंके में गिरते-गिरते खड़े हो गये। पहले उन्होंने पण्डित रामसरूप से हाथ मिलाया और फिर उन्हें अपने गले से लगा लिया। पण्डित रामसरूप धन्य-धन्य हो गये ।

जब वे गले मिले हुए थे तब फिरंगीमल ने हरदयाल की ओर देखकर आँख मारी । उसी वक्त कार रुकने की आवाज आयी । फिरंगीमल जल्दी-जल्दी उठकर ड्राइंगरूम के पीछे खास तौर पर बनवाये गये छोटे-से कमरे में चला गया और पीछे खाई में खुलनेवाले छोटे-से चोर दरवाजे को खोलने लगा। रानी कार में से निकलकर झट से अन्दर आ गयी। फिरंगीमल ने दरवाजा फिर से बन्द कर दिया ।

" बैठ जाओ,” फिरंगीमल ने रानी से कहा ।

रानी सोफे पर बैठ गयी। फिरंगीमल भी उसके पास आ बैठा । नशे से बोझिल आँखों से उसे देखते हुए बोला, “बड़ी सुन्दर लग रही हो?” रानी मुसकरायी तो फिरंगीमल ने उसे बाँहों में जकड़कर उसके गालों को दाँतों से काटना शुरू कर दिया ।

रानी ने उसे परे धकेलते हुए कहा, “मुझे भी कबाब - टिक्का समझ लिया है क्या ?"

फिरंगीमल दाँत निपोरने लगे, “तुम कबाब - टिक्कों से ज्यादा स्वादिष्ट हो । तुम्हें जो भी एक बार चख लेता है, फिर और स्वादों में नहीं पड़ता । आज बड़ा भारी काम तुम्हारे सुपुर्द कर रहा हूँ । पैसे जितने कहोगी, दूँगा ।”

“कौन-सा मेहमान है ?” रानी ने पूछा ।

“नया ही है। सारी रियासत के मिनिस्टर हैं, तुम उन्हें खुश कर दो, मैं तुम्हें खुश कर दूँगा मेरी भरगाली।” कहते हुए फिरंगीमल ने उठते-उठते रानी के दायें गाल पर जोर से चुटकी भरी। रानी ने हाथ मारकर उसका हाथ परे कर दिया ।

मिनिस्टर साहब की आँखें एकदम ही चढ़ी हुई थीं। उनका कोटा पूरा हो गया था और झूमझूमकर फिल्मी गाने के साथ-साथ अपनी तोंद पर ताल देते जा रहे थे ।

फिरंगीमल ने आकर कहा, “जनाब, आप से कोई मिलने आया है।”

“मुझसे ?” मिनिस्टर साहब चौंके; क्या पता बड़े साहब ने ही बुला भेजा हो, लेकिन फिरंगीमल के मुँह पर भेद-भरी हँसी देखकर वह फौरन ही समझ गये और झट से उठने का यत्न करने लगे, लेकिन कुछ तोंद के कारण और कुछ नशे के बोझ से आगे पड़ी मेज का ध्यान नहीं रहा । खड़े होते हुए घुटने मेज से लगे और बोतल समेत गिरने लगे ।

“कोई बात नहीं, कोई बात नहीं,” कहते हुए फिरंगीमल ने उन्हें सहारा दिया । उनके कहने का ढंग ऐसा था, जैसे कह रहे हों, “जनाब यह तो व्हिस्की के चार गिलास ही लुढ़के हैं, हम तो आप पर से हजारों बोतलें कुर्बान कर सकते हैं।” फिरंगीमल की नजर लाला हरदयाल और रामसरूप पर नहीं पड़ी, जिन्हें गिलास लुढ़कने का बड़ा अफसोस था । वे जानते थे कि मिनिस्टर साहब के जाने के बाद ह्विस्की का दौर समाप्त हुआ समझो।

मिनिस्टर साहब और फिरंगीमल अन्दर दाखिल हुए। रानी सोफे पर बैठी रही । फिरंगीमल ने कहा, “जनाब, आप जब तक चाहें इनसे बातचीत करें।”

मिनिस्टर साहब रानी को घूरते हुए मन-ही-मन मचल रहे थे, बोले, “सुबह आठ बजे मुझे दौरे पर जाना है, ज्यादा देर नहीं बैठ सकूँगा।”

“जैसी आपकी मरजी,” फिरंगीमल बोला, “आप बैठिए, मैं थोड़ी देर के बाद हाजिर होता हूँ।” बाहर निकलकर उन्होंने दरवाजा बन्द कर दिया ।

लाला हरदयाल ने कहा, “काफी खुश हो गया लगता है । "

“ तभी तो मुझे मिनिस्टर बना रहा था।” फिरंगीमल भी बैठ गया, “लेकिन मैं तो कहता हूँ कि एक सिनेमा का लाइसेन्स दे दे तो समझो किला फतह कर लिया ।”

“मेरे ख्याल में,” पण्डित रामसरूप बोला, “अगर रानी ने उन्हें खुश कर दिया तो एक क्या दो लाइसेन्स भी मिल जाएँगे, मुझे हाकिम लोगों के रंग-ढंग मालूम हैं ।”

उसी वक्त अन्दर के कमरे से कुछ गिरने - लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। तीनों ने एक-दूसरे की ओर देखा तो सबके होठों पर हँसी बिखर गयी ।

चरण का मन हो रहा था कि वह होटल में जाकर व्हिस्की के दो पैग पिये और फिर घर जाए, लेकिन उसकी जेब में सिर्फ दस का नोट ही था । उस नोट को कल के लिए बचा ले तो वह सोचने लगा- कल फिर । यह क्या हो रहा है उसे? उसकी समझ में नहीं आया। मन किसी ठाँव नहीं था ।

अभी दस नहीं बजे थे। रघुनाथ बाजार पहुँचकर उसने भारत टी-स्टाल के अन्दर झाँककर देखा, कोई बैठा हुआ नहीं था । वह बाहर - बाहर से पिछली सड़क के रास्ते अपने घर की ओर चल दिया । रेहाड़ी का पुल पार करके उसने ठेकेदार चौधरी फिरंगीमल के मकान के पीछे खड्ड के पास उसी कार को खड़े देखा तो हैरान रह गया। पैर जैसे सड़क से चिपककर रह गये । नाड़ियों में खून जमने लगा । कितनी देर वह उसी तरह वहाँ खड़ा रहा, फिर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता कार के करीब आ गया । यकीनन वही कार थी। झाँककर देखा तो अन्दर सोया हुआ ड्राइवर भी वही था । सामने दीवार में वह चोर दरवाजा था, जिसके बारे में सारे मोहल्ले में दबी दबी चर्चा होती रहती थी। हैरान-परेशान हुआ वह वहाँ से चला तो उसे महसूस हुआ जैसे अन्दर-ही-अन्दर मन को किसी ने छुरी से गोद डाला है।

घर का बन्द दरवाजा उसने खटखटाया। दरवाजा खुला, सामने माँ खड़ी थीं ।

“कहाँ था इतनी देर ?”

“दोस्तों में बैठा हुआ था ।”

आँगन में पहुँचकर वह खड़ा हो गया, “बाऊजी आ गये माँ ?”

“नहीं तो,” सावित्री ने जवाब दिया, “कह गये थे आज देर हो जाएगी।”

“कहाँ गये हैं?”

“होंगे ठेकेदार की बैठक में, मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक।”

चरण को महसूस हुआ कि वहाँ खड़े-खड़े उसे किसी ने खूँटे सा गाड़ दिया है। वहाँ से हिलना कठिन हो गया। माँ को देखा, उसके मुँह पर भोलापन था - केवल भोलापन । कितनी अनजान थी वह।

“तू हाथ धोकर आ, मैं तेरे लिए खाना डालती हूँ।”

“नहीं माँ,” चरण ने कहा, “मुझे खाना नहीं खाना ।”

"क्यों?”

“भूख नहीं।”

"कहीं खाकर आया है क्या?”

“नहीं, वैसे ही भूख नहीं।” कहकर चरण कमरे में आ गया। बूट खोलने लगा तो करीब ही रखी बाऊजी की चप्पलों पर नजर पड़ी, ठोकर मारकर उसने उन्हें दूर फेंक दिया। गाली देने को मन हुआ, लेकिन केवल बुड़बुड़ा कर रह गया ।

कार में बैठते हुए रानी की चीख निकलने लगी, लेकिन दुपट्टे के छोर को मुँह में हँसकर उसने उसे दबा लिया। बैठ तो गयी लेकिन दर्द से आँखें छलक गयीं। ऐसी चमक पड़ी थी जैसे कमर में कील गड़ा हो ।

कार गली के बाहर पहुँची तो दो बज चुके थे। ड्राइवर ने बाहर निकलकर दरवाजा खोला। मुँह में पल्लू दबाये, पीठ में गड़े दर्द के खूँटे को खींचती रानी बाहर निकली तो आँखों के आगे अँधेरा छा गया। गिरते-गिरते उसने ड्राइवर के कन्धे पर हाथ रख दिया। ड्राइवर ने समझा पीकर आयी है। सहारा देकर बोला, “छोड़ आऊँ?”

“नहीं, तुम जाओ।” कहकर वह धीरे-धीरे अँधेरे में दाखिल हो गयी । अपने-आपको घसीटती दरवाजे के करीब पहुँची । ताला खोलकर अन्दर आयी, चिटकनी चढ़ायी, लालटेन जलायी फिर कमीज के अन्दर हाथ डाला तो मुँह से आह निकली, 'कुत्ता, सूअर,' गाली निकालते हुए अँगिया में से मुड़ा तुड़ा सौ का नोट निकालकर खोलने लगी तो देखा खून के छोटे-छोटे छींटे नोट पर लगे हुए हैं।

उसी वक्त दरवाजे पर आहट हुई। उसने जल्दी-जल्दी नोट पिटारी में डाला और दरवाजे की दिशा में देखने लगी। इस वक्त कौन आया है? वह दरवाजा खोलना नहीं चाहती थी, लेकिन फिर से खड़खड़ हुई तो खोलना ही पड़ा। दर्द की लहरों को बड़े यत्न से सहन करती वह आगे बढ़ी। दरवाजा खोला, सामने सुजानूँ खड़ा था। कमर कूबड़ के कारण झुकी हुई, सफेद मूँछें, सफेद पगड़ी, और आँखें जैसे दीये में तेल तो खत्म हो गया हो लेकिन अभी भी जल रहा हो ।

रानी कुछ बोली नहीं तो सुजानूँ खुद ही 'एक तरफ हो' कहकर अन्दर घुस आया । रानी ने फिर दरवाजा बन्द करके चिटकनी चढ़ा दी।

सुजानूँ खाट पर बैठते हुए बोला, “बस रास्ते में खराब हो गयी, इसीलिए देर हो गयी। तीन घण्टे से बाहर बैठा तेरे आने का इन्तजार कर रहा था । कुछ खाने के लिए है तो ले आ ।”

“मैंने तो कुछ नहीं बनाया आज ।”

“चल जाने दे। दिन निकलने में भी अब ज्यादा देर नहीं,” कहकर सुजानूँ खाट पर लेट गया ।

रानी सोच रही थी, अकेले बैठकर रोने को भी कोई जगह नहीं। इस वक्त तो वह खुद खाट पर लेटकर अपने पैदा करनेवालों को कोसना चाहती थी। अंग-अंग में हो रही दर्द-तकलीफ से बातें करना चाहती थी । मनमरजी से कुढ़ना चाहती थी और उसे पुकारना चाहती थी जो न जाने कहीं है भी या नहीं, जिसे लोग परमेश्वर कहते हैं।

होंठ चबाते हुए उसने बत्ती बुझा दी और आँसू बहाती वह अन्दर की कोठरी में जाकर खाट पर लेटने लगी । चमक से कमर में जो कीला गड़ा हुआ था, लेटते हुए उसने उसे सूली पर टाँग दिया। मुँह से जोरदार चीख निकली तो वह खाट पर इस तरह गिरी जैसे अन्दर-बाहर से किसी ने उसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो ।

“क्या बात है?” उसकी चीख सुनकर सुजानूँ अँधेरे में रास्ता टटोलता वहाँ आ पहुँचा ।

“कुछ नहीं, तुम क्यों आये यहाँ ?”

सुजानूँ ने उसका हाथ पकड़ा, लेकिन उसने हाथ खींच लिया ।

“मुझे नहीं लेटने देगी साथ? मैं तेरा घरवाला हूँ।”

रानी एकदम चमक उठी, “घरवाले हो तो मेरे सिर में यह राख क्यों डाली तुमने ? मुझे जलील करके रख दिया, मिट्टी में मिला दिया मुझे । कहाँ के घरवाले को तुम? किसके घरवाले हो तुम बेशर्म! लानत है तुम्हारी औकात पर! मुझे कुत्तों के आगे कर आप खुद एक तरफ जा खड़े हुए। मेरी बोटी-बोटी नोच खायी है उन्होंने । हड्डी हड्डी तोड़ डाली है। प्राण निकाल लिये हैं!” कहते-कहते वह फूट-फूटकर रोने लगी । सुजानूँ चुपचाप बाहर चला गया। दोनों के बीच अँधेरे की जो दीवार थी, वह ढह नहीं सकती थी ।

नींद न आने के कारण चरण की आँखें जल रही थीं। करवटें बदलते-बदलते उसकी पसलियाँ भी टूट गयीं । तंग आकर वह उठ बैठा। लेकिन इस वक्त वह करे भी तो क्या। अभी दो भी नहीं बजे थे।

बार-बार उसे बाऊजी का ख्याल आ रहा था, अगर ठेकेदार की बैठक में इतने सारे लोगों ने मिलकर रानी को कभी वह शर्मिन्दगी के सागर में डूब जाता, कभी गुस्से से उफनता हाथ-पैर पटकने लगता । रात नहीं होती, दिन होता तो पता नहीं वह क्या कर बैठता । उसे कुछ सूझ नहीं रहा था ।

दरवाजा खटकने की आवाज आयी। वह समझ गया कि बाऊजी आये हैं। माँ उठेंगी - यह सोचकर लेटा रहा। लेकिन माँ शायद गहरी नींद सोयी हुई थीं, खटखटाहट होती रही। आखिर उसे ही उठना पड़ा। पहले तो सोचा - तोशी को उठाकर कहे कि दरवाजा खोल आये। लेकिन इस बात का क्या जवाब देगा कि 'तुम खुद क्यों नहीं जाते ?'

उसने जाकर कुण्डी खोली । अन्दर घुसते ही हरदयाल खाने को दौड़े, “घण्टा हो गया है दरवाजा खटखटाते। मुहल्लेवाले जाग गये, लेकिन तुम्हारी नींद नहीं खुली। कानों में रुई डाल रखी है क्या?"

चरण कुछ बोला नहीं। माँ को आते देखकर वह अपने कमरे में चला गया।

सावित्री ने पूछा, “खाना लगाऊँ?”

“यह रोटी खाने का वक्त है?” हरदयाल अपना गुस्सा अब पत्नी पर निकालने लगे, “वक्त-बेवक्त तो देखा करो। अक्ल को ताला लगाकर रखा है क्या तुमने ? जाओ, सोओ जाकर ।”

चरण फिर अपनी खाट पर आकर बैठ गया । माँ को रोज इसी तरह सुननी पड़ती है । वह सोचने लगा, उन्होंने कभी आगे से जवाब नहीं दिया। माँ को मालूम है कि पीकर आये हैं। वह कुछ बोलेंगी तो बात बढ़ जाएगी। मोहल्लेवाले जाग जाएँगे ।

वह फिर उठ खड़ा हुआ । सिगरेट की तलब बढ़ रही थी । डिब्बी खत्म हुए देर हो गयी थी। वह कमरे में इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाने लगा। पेट को भूख की एक तेज छुरी ने काटना शुरू कर दिया। छाती के बोझ के कारण साँ लेना मुश्किल हो रहा था ।

बाहर झाँककर देखा, रात वैसी की वैसी गहरी काली थी । डिब्बी की तीली जलाकर घड़ी के पास जाकर देखा - चार बज रहे थे। थोड़ी राहत मिली। एक घण्टा और गुजर जाए तो वह यहाँ से बाहर निकल सकता है । भल्ले की दुकान पाँच बजे खुल जाती 'जाती है, उसने सोचा। उसकी दुकान में जाकर चाय पी जा सकती है। लेकिन यह एक घण्टा ?

उसी वक्त घड़ी का अलार्म बजने की आवाज कानों में पड़ी। तोशी ने ही अलार्म लगाया होगा। उसने खिड़की के करीब पहुँचकर देखा, तोशी के कमरे की लाइट जल रही थी । रोशनी देखकर घबराहट कुछ कम होने पर वह तोशी के पास आ खड़ा हुआ। तोशी उसे देखकर हैरान हुई ।

“तुम रोज इस वक्त उठती हो?” चरण ने पूछा।

“हाँ, इम्तहान जो सिर पर आ गये हैं ।”

चरण कुरसी पर बैठ गया । अकेले बैठने से यहाँ तोशी के पास बैठना उसे अच्छा लगा। उस दमघोटू अँधेरे से तो जान छूटी। वह बड़े ध्यान से तोशी की ओर देखने लगा । तोशी बालों को रिबन से बाँध रही थी। फिर वह अलमारी में से किताबें निकालकर अपने बिस्तरे पर फेंकने लगी । “क्या बात है भापे, तुम सोये नहीं?” किताबों को समेट हुए उसने पूछा ।

“मुझे अभी पाँच बजे कहीं जाना है। इसी चिन्ता में नींद नहीं आयी कि कहीं सोता ही न रह जाऊँ ।”

“अभी भी थोड़ी देर सो लो। मैं तुम्हें जगा दूँगी।”

उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह तोशी को देखता रहा और सोचने लगा, जिस दुनिया में मैं हूँ, वह कितनी खराब, कितनी उलझी हुई और कितनी गुनाहगार है, और जिस दुनिया में तोशी है वह कितनी भोली, निश्चिन्त और कितनी निष्पाप है !

“चंचल पूछ रही थी तेरा भापा कविता लिखता है? मैंने कह दिया- हाँ, लिखते हैं ।"

“मैंने तो कभी नहीं लिखी कविता ।”

“नहीं लिखी तो क्या हुआ ! एक लिख दो बेचारी को । उसे बड़ा शौक है कविता पढ़ने का !”

न जाने क्यों इस वक्त चरण को चंचल की चर्चा पसन्द नहीं आयी। वह उठ खड़ा हुआ। “मैं जा रहा हूँ, तुम दरवाजा बन्द कर लो।”

कोट पहनकर वह बाहर निकल आया । ठण्ड बहुत थी। उसने कोट के कालर कानों तक ऊपर कर लिये । खुली हवा का झोंका लगा तो महसूस हुआ - वह एक तकलीफदेह कैद से बाहर निकल आया है।

उजाला होते ही चंचल अपनी किताबें उठाकर तोशी के पास आ पहुँची तो उसे अपनी नयी कविता सुनाने की उतावली थी जिसे उसने रात दो बजे तक जागकर लिखा था । चंचल ने कविता सुनायी तो तोशी बोली, “इसे मेरे पास रहने दो। भापे को सुनाऊँगी।”

यही तो चाहती थी चंचल । चरण की कल्पना करके उसने कविता लिखी थी ।

“तुमने अपने भापे से पूछा था कविता के बारे में?”

“वह नहीं लिखते कविता । आज अभी कोई घण्टा पहले ही तो वह मेरे पास आकर बैठे थे । कह रहे थे, वह सारी रात नहीं सोये ।”

चंचल हैरान हुई, “ सारी रात नहीं सोये ?” फिर उसे अपना जागना याद आया ।

“पता नहीं क्या बात थी,” तोशी बोली, “मैंने पूछा तो बोले, कहीं जल्दी जाना था, इसी चिन्ता में नहीं सोये । आजकल वैसे भी भापा कुछ सोचों में पड़े रहते हैं।”

"कौन-सी सोचों में पड़े रहते हैं ?”

"नौकरी नहीं मिल रही, नहीं तो और क्या बात हो सकती है ।”

सुनकर चंचल को निराशा हुई। पहले उसे लगा जैसे चरण उसकी सोचों में पड़ा रहता है। वैसे नौकरी न मिलने की बात सुनकर उसे भी दुःख ही हुआ । बोली, “कितने बड़े कलाकार हैं, लेकिन उन्हें भी नौकरी नहीं मिलती।”

"कोशिश कर रहे हैं। शायद इसी कारण आज जल्दी घर से निकल गये हैं ।”

“जब वह आयें, उन्हें मेरी कविता जरूर देना पढ़ने को । ”

उसी वक्त सावित्री की आवाज सुनाई दी, “चरण कहाँ है ?”

वहीं से तोशी ने जवाब दिया, “माँ, भापे को कहीं जाना था, सवेरे पाँच बजे ही चले गये हैं ।” सावित्री को आश्चर्य हुआ, चरण सवेरे पाँच बजे चला गया। उसे रात को चरण के ऊपर बाऊजी का झुंझलाना -चिल्लाना याद आया। कहीं इसी पर तो नाराज होकर नहीं चला गया ? सोचकर सावित्री घबरा गयी । साढ़े नौ बजे जब लाला हरदयाल सन्ध्या पाठ करके चौके में रोटी खाने बैठे तो सावित्री नाराजगी से बोली, “एक तो रात को इतनी देर से आना, और फिर दूसरों को गालियाँ निकालना ?”

“ गालियाँ ? किसने निकालीं गालियाँ ?”

“आपने और किसने?” सावित्री ने फुलका सेंकना छोड़ दिया। “रात में बहुत थक गयी थी। सिरदर्द भी हो रहा था, आँख लग गयी होगी। दरवाजा खटखटाने से भी नींद नहीं खुली, बेचारे चरण को ही उठना पड़ा और आप उसके पीछे ही पड़ गये । जवान बेटा है, क्या सोचता होगा कि बाप शराब पीकर गालियाँ निकाल रहा है।”

“ शराब ? किसने पी शराब ?” हरदयाल ने घबराकर पीछे देखा कि कहीं तोशी तो यह बात नहीं सुन रही ।

“अपनी पीठ पीछे की मैल किसे नजर आती है ! तुम क्या समझते हो, चरण अभी छोटा है? उसे चढ़ते - डूबते का अता-पता नहीं है। आपको पता है कि आज वह सुबह पाँच बजे ही घर से निकल गया है बिना कुछ कहे-सुने ।”

“सैर-सपाटे के चस्के में पड़ा हुआ है। उसे किसी की क्या परवाह है ! "

“और निकालो उसे गालियाँ !”

“तुम पगला गयी हो !”

“पागल नहीं हुई तो जल्दी ही पागल हो जाऊँगी।”

फिर तोशी को आते देखकर दोनों चुप हो गये । तोशी आज फिर लेट हो गयी थी ।

साढ़े चार बजे जब चरण घर से बाहर निकला तो अनमना और निढाल हुआ वह बड़ी सड़क पर आ गया । सब ओर अँधेरा था। उसकी आँखों में उस वक्त भी नींद नहीं थीं। सिर्फ बोझ था नींद का । डंगे के पास पहुँचकर वह क्षणभर के लिए खड़ा हुआ और फिर बेदिली से रामनगर की ओर चल दिया। इतनी ठण्ड में भी उसे ठण्ड नहीं लग रही थी ।

आगे जाकर एक आदमी उसे पूरी बाँहों का स्वेटर, निक्कर, लम्बी जुराबें और फ्लीट बूट पहने दौड़ता नजर आया। उसे अजीब सा लगा। शरीर को नीरोग रखने के लिए इतनी जान मारना उस समय उसे सारहीन, बेतुकी और मजाक-भरी बात लगी । सारी रात उसने जो तकलीफ भोगी थी और जिस भीतरी पीड़ा ने सारी रात उसकी नाड़ियों का खून पिया था, उसके आगे शरीर को स्वस्थ रखने का यह यत्न व्यर्थ है । इस समय तो वह सिर्फ उस पीड़ा से मुक्ति चाहता था । वह चल रहा था, लेकिन न उसके आगे कोई रास्ता था, न पीछे ।

पहले संगलोंवाले पुल के पास पहुँचकर वह लौट आया। अभी अँधेरा ही था, जब वह चाय की उम्मीद में भल्ले की दुकान पर पहुँच गया । भल्ले ने अभी दुकान खोली ही थी और अँगीठी में कोयले डालने शुरू किये थे । चरण को देखकर वह ऐनक के बड़े-बड़े शीशों में से झाँकता हुआ बोला, “बादशाहो, आज क्या बाता है! खैर तो है ?"

“यार भल्ले, जल्दी कर, चाय दे एक कप,” कहकर चरण दुकान के अन्दर घुस गया। वह एकान्त उस वक्त सौं सुखों की तपिश लिये जैसे उसी की प्रतीक्षा कर रहा था । कुरसी पर बैठकर उसने सामने पड़ी मेज पर अपने दोनों पैर रख दिये ।

कोई दस-पन्द्रह मिनट बाद जब भल्ला चाय का कप लेकर आया, तो देखा चरण सोया हुआ था। उसने उसका कन्धा झकझोरकर जगाने की कोशिश की लेकिन फिर भी चरण की नींद नहीं खुली। वह चाय का कप वापस ले गया और खुद पीने बैठ गया।

सात बजे तो रेडियो के शोर ने चरण को जागने पर मजबूर कर दिया। अपने पैर मेज पर रखे हुए देखकर वह झट सीधा होकर बैठ गया ।

चाय पीकर वह दुकान से बाहर निकला। अपने घर वाली गली के सिरे पर पहुँचते ही उसके पैर रुक गये, मानो आगे बढ़ने से इनकार कर दिये हों । वह अँधेरा, वह घुटन - घबराहट याद हो आयी । मन उचट गया। फिर याद आया कि आज प्रो. गोपाल की छुट्टी होती है, वह घर पर ही होगा ।

वह गोपाल के घर पहुँचा। गोपाल कम्बल लपेटे बैठा कुछ लिख रहा था । चरण को देखकर वह पहले तो हैरान हुआ फिर जैसे कुछ याद आया, हँसते हुए बोला, “ऐसा लगता है कि सारी रात तुम सोये नहीं। सीधे वहीं से तो नहीं आ रहे ?”

“हाँ,” चरण बिना सोचे-समझे ही मान गया, और साथ ही आगे भी बात बनाने-जमाने लगा, “पता ही नहीं लगा कि रात कैसे गुजर गयी। इस हालत में घर जाना ठीक नहीं समझा। सोचा तुम्हारे पास थोड़ी देर सो लूँ, फिर नहा-धोकर घर जाऊँगा।”

गोपाल ने अपने बिस्तर पर सो जाने के लिए कहा। चरण को रजाई में घुसकर बड़ा अच्छा लगा । गोपाल बोला, “बड़े खुशकिस्मत हो यार तुम । दुनिया जहान की अय्याशी तुम्हारे नाम लिखी हुई है । ”

“अपनी-अपनी किस्मत है।” चरण की आँखें बन्द होने लगीं । “यह क्या लिख रहे हो तुम?” उसने गोपाल ने पूछा ।

“रेडियो के लिए एक 'टॉक' है।"

चरण हमेशा से ही गोपाल से ईर्ष्या करता आया है, उसके काम करने की शक्ति को देखकर। वह कलाकार भी है, कहानियाँ, कविताएँ, नाटक सभी कुछ लिख लेता है, साथ ही दुनियादारी में भी वह कुशल है, खूब चाक-चौकस । जहाँ देखो वहाँ पहुँचा होता है। अखबारों पत्रिकाओं में छपता है, रेडियो पर बोलता है, कॉलेज में पढ़ता है और अभी से तरक्की के रास्ते तलाश रहा है।

इस वक्त चरण को गोपाल के बारे में सोचना अच्छा लगा।

यह समझकर कि चरण सोने लगा है, गोपाल फिर से लिखने में लग गया । लेकिन चरण को नींद नहीं आयी । रजाई में से मुँह निकालकर बोला, “यार, तुम इतना काम कैसे कर लेते हो?"

“कहाँ इतना काम कर लेता हूँ?” कहकर गोपाल ने फिर लिखना छोड़ दिया । कुछ पल बाद चरण की ओर मुँह करके कहने लगा, “इसमें शक नहीं कि मुझे कुछ ज्यादा ही काम करना पड़ता है। तुम्हें तो मालूम ही है कि मेरा इस दुनिया में कोई नहीं। सभी घरवाले कबायली हमले में मारे गये थे। गैरों की देख-रेख में बड़ा हुआ, दूसरों की मेहरबानियों से पढ़ा-लिखा । तुम्हारी तरह मेरा कोई घर नहीं, जहाँ हर तरह का सुख मिल सके। मुझे अपना एक घर बनाना है और इसीलिए मुझे हर समय मेहनत करनी पड़ती है।”

“मुझे भी अब तुम्हारी तरह बहुत काम करना है।”

“क्यों ?”

“मैं भी अपना एक घर बनाना चाहता हूँ।”

“क्या मतलब?"

“मैं अपने घरवालों के साथ अब कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। मैं अपना, बस अपना घर बनाना चाहता हूँ ।"

गोपाल ने कुछ समझा, कुछ नहीं । हँसकर कहने लगा, “मैं इसलिए घर बनाना चाहता हूँ ताकि मेरे साथ मेरा कोई अपना हो और तुम इसलिए बनाना चाहते हो ताकि तुम्हारे साथ कोई अपना न हो ।”

चरण को गोपाल की कविता जैसी बात अच्छी लगी। मुसकराकर पूछने लगा, “ तुम्हारे ख्याल में दोनों में काबिले-रहम कौन है?”

गोपाल बड़े गौर से चरण के मुँह की ओर देखने लगा, फिर धीमे लहजे में बोला, “यह तुम आज कैसी बातें कर रहे हो?”

कोई जवाब देने के बजाय चरण ने फिर से मुँह रजाई में अन्दर कर लिया और अन्दर से ही कहने लगा, “तुम अपना काम करो यार, मैं ख़्वाहमख्वाह तुम्हें डिस्टर्ब कर रहा हूँ।”

रानी की आँख तो खुली, लेकिन उठने की इच्छा नहीं हुई । सामने दीवार में बने एक छोटे से रोशनदान में धूप झाँक रही थी । उसने जान लिया कि दिन निकल आया है। उसे महसूस हो रहा था - वह एक लम्बा, मुश्किल सफर तय करके आयी है और सारा शरीर थक-टूट गया है। रोयाँ रोयाँ टीस रहा है । कहाँ से शुरू किया था सफर और कहाँ आ पहुँची है- उसे होश नहीं था ।

अचानक उसे याद आया कि रात सुजानूँ आया था । मन सन्त्रस्त हो उठा। धीरे से करवट बदली। शुक्र है कि सुजानूँ उसके साथ नहीं लेटा था। फिर उसे याद आया कि उसने सुजानूँ को गालियाँ देते हुए इस कोठरी में से निकाल दिया था। लेकिन उसका क्या भरोसा ! कई बार वह सोयी हुई के पास ही आकर सो जाता था चमगादड़ की तरह ।

आखिर उसे उठना ही पड़ा पानी भरने के लिए। आठ बजे के बाद नल में पानी नहीं रहता । उठते ही बदन में दर्द की चिनगारियाँ -सी उठीं। उसके मुँह से गालियाँ निकलने लगीं ।

सामने ही चाटी पर सफेद कागज पड़ा नजर आया। हाथ बढ़ाकर उसे उठा लिया। चरण के कोट में से गिरा कागज था । अँग्रेजी में कुछ लिखा हुआ था। रानी । ने कागज को उलट-पलटकर देखा और फिर वहीं रख दिया। चरण का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ गया, और वह कहीं और ही जा पहुँची जैसे गहरे दरिया में डूबते आदमी को कोई लहर उठाकर ऊपर ले आये। जब चरण का शरीर फड़फड़ाकर बेहोश - जैसा पड़ा था, तो पता नहीं क्यों वह उसकी पीठ पर हौले-हौले हाथ फेरने लगी थी, मानो कोई बहुत पुराना पहचानवाला हो । तब ही तो उसने उसका नाम पूछ लिया था । 'चरण', रानी के मुँह से निकला ।

वह खाट पर से उठी। अंग-अंग में दर्द की लहरें उठीं, लेकिन चमक ठीक हो गयी थी। बाहर कमरे में आकर देखा, खाट पर लेटा सुजानूँ सिगरेट पी रहा था । उसे घृणा से उबकाई - सी आयी और उसने मुँह फेर लिया। फिर बाल्टी उठायी और पानी भरने के लिए गली में आ गयी ।

नल पर पड़ोसियों की नयी बहू सलीमा ने घड़ा लगा रखा था। रानी उसके पास जाकर खड़ी हो गयी। उसे मालूम है कि सलीमा को उसकी बड़बोली सास रज्जो ने उसके साथ बोलने से मना कर रखा है। बेचारी को सास की गालियाँ सुननी पड़ेंगी, यह सोचकर रानी ज्यादातर उसके साथ बात नहीं करती। उसने सलीमा की ओर देखा । गुलाबी साटिन की शलवार-कमीज, सिर पर किनारीवाला लाल दुपट्टा, कानों में झुमके, पैरों में पाजेबें, मोटी-मोटी आँखें लाल होठ सलीमा के रूप सौन्दर्य पर रानी रीझ गयी । उसका मन हुआ कि वह उससे कुछ बात करे ।

" रमजान चला गया काम पर?” रानी ने पूछा ।

“नहीं,” क्षण-भर रानी की ओर देखकर सलीमा ने फिर से आँखें झुका लीं, “अभी तक सोया हुआ है।” उसके होठों पर हँसी की एक रेखा उभर आयी थी ।

“ रात देर से सोया होगा- तुम्हें भी जगाये रखता होगा।” रानी ने बड़ी ही धीमी आवाज में कहा और कहते ही धीरे से हँस दी। सलीमा शर्म से सिमट गयी। उसी वक्त उसका घड़ा भर गया और पानी ऊपर से बहने लगा। मानो उसे भाग निकलने का बहाना मिल गया हो। झुककर उसने घड़े के गले में हाथ डाला और घड़ा गेंद की तरह उछलकर उसके कूल्हे पर जा टिका । पैर घर के अन्दर दौड़े और पाजेबों की छनक पीछे रह गयी ।

रानी ने मुसकराकर अपनी बाल्टी नल के नीचे रखी और मन-ही-मन रमजान के भाग्य को सराहने लगी ।

पहले रमजान भी कभी-कभी उसकी कोठरी में डुबकी लगा लेता था । उन दिनों वह नयी-नयी इस गली में आयी थी और रमजान की अभी शादी नहीं हुई थी । रमजान की माँ रज्जो भी उन दिनों दोपहर में रानी के पास आ बैठती थी और सारी दुनिया के किस्से बखानती रहती थी। उसे शक था कि रानी का चाल-चलन खराब है। वह भेद-सुराग लेती रहती थी। जब उसे पता चला कि रमजान भी उसके साथ मुँह काला करता है तो उसने उसके साथ बोलना बन्द कर दिया और रमजान के वास्ते सलीमा - जैसी हूर की परी ब्याह कर ले आयी ।

बाल्टी भर गयी तो रानी हाथ बढ़ाकर उसे उठाने लगी, लेकिन उठाते ही देह दर्द की लहरों से काँप उठी। बड़ी मुश्किल से बाल्टी उठाकर, सिसकारियाँ भरती घर में घुसी। सुजानूँ वैसे ही खाट पर लेटा हुआ सिगरेट फूँक रहा था। दूसरी बाल्टी लेकर वह फिर से बाहर निकली तो देखा, अब सलीमा नहीं रज्जो खड़ी थी नल के नीचे बाल्टी लगाये ।

वह ठिठक आयी । सोचा- कहीं सलीमा ने तो जाकर नहीं बता दिया कि रानी उससे बात कर रही थी। बता भी दिया होगा तो मेरी जूती से - क्या कर लेगी मेरा, सोचकर वह नल के पास आ खड़ी हुई । रज्जो ने उसे देखकर मुँह फेर लिया- और पानी अभी घड़े के गले तक भी नहीं पहुँचा था कि उठाकर ले गयी। रानी ने भी उसे अनदेखा करके बाल्टी नल के नीचे लगा दी ।

चारों बाल्टियाँ भर गयीं तो सुजानूँ को उसने नहाने के लिए कहा। सुजानूँ उठकर बैठ गया और बोला, “ पहले तू क्यों नहीं नहा लेती ?”

“नहीं, पहले तुम नहा लो और फिर बाजार से हो आओ।”

“क्यों?”

रानी ने कहा, “रामू और राजी के लिए कुछ चीजें ले आओ।”

“तुम खुद जाकर ले आना।”

“मेरा बदन टूट रहा है, मैं नहीं जा सकूँगी।”

सुजानूँ को उसकी बात माननी पड़ी, भले ही मन मार कर ही । ठण्ड से ठिठुरता वह कपड़े उतारने लगा। तब रानी ने पूछा, “रामू को मेरी याद कभी आती है ?”

"कभी-कभी ।”

“क्या हाल है उसका ?”

" अच्छा ही है !”

" और राजी?”

“वह भी ठीक है। पढ़ती है, खेलती है । ”

“उन्हें साथ क्यों नहीं ले आये?”

“देख रानी, मैं अब पूरी तरह टूट चुका हूँ। अकेले सफर करना मुश्किल है, भला बच्चों को लेकर कैसे आ सकता हूँ!”

कपड़े उतारकर उसने एक तरफ रखे और सिर्फ लँगोट पहने मोरी के पास बैठ गया। नहाने के पहले ही कँपकँपी छिड़ गयी। लोटे से पानी उँड़ेला तो दाँत बजने के कारण 'राम-राम, सिरी राम' के बोल भी मुँह में ही दबकर रह गये ।

रानी को वह हड्डियों का कंकाल मात्र ही रह गया नजर आ रहा था। उसकी तरफ से नजरें हटाकर वह चूल्हे में आग जलाने बैठ गयी। जब सुजानूँ नहाकर आया तब तक रानी ने उसके लिए चाय बना डाली थी । वहे चाय पीने बैठा तो रानी 'पिटारी में से नोट' निकालने लगी। दस का नोट हाथ में पकड़ते ही उसे चरण का स्मरण हो आया उसने पूछा था कि 'तुम नाम क्यों पूछना चाहते हो?' चरण बोला था, 'याद रखने के लिए।' चरण की आवाज उसके कानों में गूंजने लगी, 'याद करूँगा, याद करूँगा।' उसे लगा जैसे वह पगला गयी है । वह जल्दी से उठी और सुजानूँ को दस का नोट देकर बोली, “दो रुपये के बताशे, दो की किशमिश, एक रुपये की खताइयाँ, पाँच रुपये के खिलौने ले आओ।”

सुजानूँ अभी तक काँप रहा था । चाय का आखिरी घूँट पीते हुए उसने नोट ले लिया। पूछने की जरूरत नहीं थी कि ये चीजें किसके लिए लानी हैं। उसे मालूम था कि रामू और राजी इन सब चीजों की आस में गाँव में बैठे हुए हैं ।

जिस वक्त सुजानूँ ये सारी चीजें लेकर आया, रानी नहाकर रोटी भी बना चुकी थी। सुजानूँ रोटी खाकर सिगरेट पीने बैठा ही था कि रानी ने उसे सौ का नोट देते हुए कहा, “यह दो महीने का खर्चा है, दो महीने बाद मनीऑर्डर भेज दूँगी । तुम्हें अब यहाँ आने की जरूरत नहीं।”

“ अगर मैं आज का दिन यहाँ रह लेता तो."

“नहीं, अब तू चला जा !”

नोट पर खून के धब्बे देखकर सुजानूँ की समझ में कुछ नहीं आया। एक-दो बार धब्बों को देखकर और उन पर अँगुलियाँ फेरकर उसने नोट अन्दर की जेब में सँभालकर रख लिया और आखिरी बार रानी को देखकर बाहर निकल गया ।

दरवाजा बन्द करके और चिटकनी चढ़ाकर रानी को ऐसा महसूस हुआ जैसे बड़ा भारी बोझ उसकी छाती पर से उतर गया है। अब उसे भूल का भी ध्यान आया । वह रोटी खाने बैठ गयी। पहला ग्रास मुँह में डालते ही आँखों में आँसू आ गये । उसे रामू और राजी की याद आ गयी। कई महीने हो गये थे उन्हें देखे हुए।

  • अन्धी सुरंग (भाग-एक-2) : वेद राही
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