अन्धी सुरंग (डोगरी उपन्यास) भाग-दो-1 : वेद राही
Andhi Surang (Dogri Novel in Hindi) Part-Two-1 : Ved Rahi
दो
मुँह पर कील - मुँहासे निकल आयें तो आदमी कितना कुरूप हो जाता है - चरण सोच रहा था, और पॉण्ड्स की चिकनी क्रीम मुँहासों पर मलता जा रहा था। पता नहीं इतने कील एकदम ही कैसे निकलने शुरू हो गये हैं । एक दाग अभी मिटता नहीं कि दो और निकल आते हैं । कोई-कोई कील तो इतना सख्त है कि हर वक्त एक सुई चुभती रहती है।
कुछ ऐसी ही चुभन उसे अपने मन में भी महसूस होती रही है, जब न चाहते हुए भी उसने तीन महीने पहले हालात से समझौता करके नौकरी कर ली थी। लोगों की दलीलों का जवाब उसके पास नहीं था । दमघोंटू वातावरण में से निकलने के लिए आवश्यक था अपने पैरों पर खड़ा होना । आत्मनिर्भर बने बगैर वे काम नहीं हो सकते थे जो वह करना चाहता था । विद्रोह करने के लिए भी तो आवश्यक था जीते रहना और जीवित रहने के लिए रोटी का जुगाड़ आवश्यक था।
आश्चर्य की बात थी कि वह घर जो उसके लिए जहर बन गया था, जिससे दूर भागने के लिए उसने नौकरी की थी, वही घर नौकरी लगते ही उसका अपना हो गया था। अब बाऊजी घुड़कियाँ नहीं देते थे, माँ मन-ही-मन सुगलती नहीं थी । तोशी बात-बात पर और कई बार बिना किसी बात के ही हँस देती थी। बर्तन माँजनेवाली बेबू और दूध देने के लिए आनेवाला देसू भी अब उसे 'चरण जी' कहकर बुलाते थे ।
कीलों पर चिकनी क्रीम मलकर उसने बाल सँवारे। फिर नेकटाई की गाँठ ठीक की और स्वेटर की सिलवटें सीधी कीं । यह स्वेटर उसे तोशी ने नौकरी लगने के बाद एक हफ्ते के अन्दर-ही-अन्दर बुन दिया था। चंचल ने भी उसके लिए एक स्वेटर बुनना शुरू किया हुआ है ।
“चरण पुत्तरा, तुम्हारी रोटी डाल दी है," माँ की पुकार थी ।
“आया माँ!” उसने घड़ी देखी। साढ़े नौ बज चुके थे। वह जल्दी-जल्दी जुराबें पहनने लगा। ये जुराबें उसे माँ ने दी थीं। माँ के लिए बाऊ जी लाये थे दो-तीन महीने पहले, यह सोचकर कि भरे जाड़े में जुराबों का एक जोड़ा होना तो जरूरी है । लेकिन माँ ने सँभालकर रख दीं। पहले दिन जब वह नौकरी पर जा रहा था, माँ ने अन्दर से निकालकर उसे दे दीं।
बूट पहनने के बाद वह एकदम फिट बना बाहर निकला। बाऊजी चौके में बिन्ने पर बैठे रोटी खा रहे थे। उसके लिए दहलीज के पास एक कुरसी और एक स्टूल पड़ा था। वह कुरसी पर बैठ गया। सावित्री ने थाली पकड़ा दी। यह थाली बाऊजी की थाली के बराबर ही थी । रोटी खाते-खाते लाला हरदयाल ने कहा, “तुम्हारे दफ्तर में जो हेडक्लर्क की पोस्ट खाली हुई थी, उसका क्या बना ?”
“अभी किसी की सिफारिश नहीं लड़ी, इसलिए खाली है,” चरण वे जवाब दिया और रोटी खाने लगा ।
“तुम क्यों नहीं कोशिश कर देखते ?”
“मैं जो यहाँ टिका रहूँ तो भी बड़ी बात है, मेरे आने से वैसे ही सब आग-बबूला हुए हैं। बाऊजी, आपको पता नहीं, इस दफ्तर में कुत्ता कुत्ते का बैरी है । ”
“सभी दफ्तरों में यही पिट्ट स्यापा है ।”
“ पहले भी यही सब कुछ होता था ? "
“होता था, पर इतना नहीं । लोकराज में कुछ ज्यादा ही आपाधापी है।”
बाप-बेटे को ऐसे बातें करते देखकर सावित्री के कलेजे में ठण्डक पड़ रही थी । चरण की नौकरी क्या लगी, वह अपने सारे दुःख-दर्द भूल गयी। अब उसे किसी बात का गिला नहीं था ।
तोशी रोटी खाने बैठी तो चरण उठ खड़ा हुआ। उसे पता था, तोशी दो मिनट भी नहीं लगाती रोटी खाने में। वह तोशी से पहले बाहर निकलना चाहता था । जल्दी-जल्दी हाथ धोकर बाहर आया । चंचल अपनी खिड़की में खड़ी जैसे उसी की प्रतीक्षा कर रही थी। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुसकराने लगे। चंचल के हाथ में वह स्वेटर था, जो वह चरण के लिए बुन रही थी । मुसकराते हुए वह उसे स्वेटर बुनकर दिखाने लगी । फिर स्वेटर को थोड़ा ऊपर उठाकर देखने लगी, मानो दिखा रही हो - देखो इतना बन गया है। चरण ने देखा कल से आठ अँगुली ज्यादा था । इतनी देर में ही तोशी भी आ पहुँची। बोली, “भापे, तुम्हारी कविता पूरी हुई कि नहीं ?”
"होनेवाली है, पूरी करके सुनाऊँगा।”
चंचल बाहर आ गयी। दोनों जाने लगीं तो तोशी ने मुड़कर कहा, “भापा, कल नयी पिक्चर लगी है। मुझे और चंचल को जरूर देखनी है।” चरण हँसा, जिसका मतलब था - जरूर देखो, मैं तुम्हें पैसे दूँगा ।
गली का मोड़ मुड़ते समय चंचल ने जिन गहरी नजरों से चरण को देखा, उन्हीं में डूबता -उतराता वहाँ वह कितनी ही देर खड़ा रहा ।
रास्ते में उसने ‘भल्ले की दुकान' से पान खाया और सिगरेट की डिब्बी लेकर जेब में डाली। चबूतरे के रास्ते जब वह मण्डी में अपने दफ्तर पहुँचा तो दस बजकर दस मिनट हो चुके थे। दफ्तर के बाहर बड़ी भीड़ थी । सारे शहर के जमादार इकट्ठा होकर हड़ताल की धमकी दे रहे थे। बड़े दिनों से यह शोर-शराबा हो रहा था। चरण जैसे-तैसे उनके बीच में से गुजर गया। जिस कमरे में वह बैठता था, वह बिलकुल पीछे था। अँधेरा भी था उसमें और लाइट जलाकर रखनी पड़ती थी । हेड क्लर्क को नमस्ते करके वह कमरे में घुसा। जण्डेआल आकर बैठे हुए थे और वजीर बेलीराम अभी आनेवाले थे। “नमस्ते जण्डेआल साब,” चरण ने अपनी कुरसी पर बैठते हुए कहा ।
“नमस्ते म्हाराज ! क्या हाल हैं?"
“आज फिर भंगियों ने शोर-शराबा कर रखा है?” कहते हुए चरण ने सिगरेट की डिब्बी निकाली ।
“यह मुनसपल्टी का दफ्तर है जी, इसके सामने कोई-न-कोई 'ऐजीटेशन' होती ही रहती है । "
चरण ने एक सिगरेट जण्डेआल को पेश किया और खुद एक सुलगाया। रोज दफ्तर आकर वह सबसे पहले सिगरेट ही पीता है, मानो, अपने-आपको काम करने के लिए तैयार करता है। लेकिन इन दफ्तरों में काम ही नहीं होता, और सब कुछ होता है। सामने पड़ी हुई फाइलें अभी और कई दिन ऐसे ही पड़ी रह सकती हैं । शुरू-शुरू में उसने कोशिश की थी बाकायदा काम करने की, तो जण्डेआल ने उसके पास आकर कहा था, “भई चरण साब, आपने क्या समझा है, यह कोई फौजी दफ्तर है? म्हाराज, आपकी यह पहली मलाजमत है। आपको समझाना हमारा फर्ज है। इस तरह काम करके क्यों अपने-आपको हलकान करते हो । नये-नये आये हो, देखो- सुनो, यहाँ की रीत रस्म जानो - समझो। अपने नाजुक हाथों-पैरों को इतना कष्ट न दो ।"
चरण समझ गया, यहाँ काम कोई नहीं करता, सब अपने कन्धे पर से कौए उड़ाते हैं। यहाँ काम करने का मतलब है सबको अपना दुश्मन बना लेना । थोड़े दिन वह उन्हें देखता रहा और फिर आप भी उन जैसा हो गया ।
“जै देआ म्हाराज,” वजीर बेलीराम आ पहुँचे । कुरसी पर बैठते ही उन्होंने जेब से बीड़ी निकालकर सुलगायी । “कैसा रौला - रप्पा पड़ा है बाहर, अन्दर आना भी मुश्किल हो गया है।”
जितनी देर बाहर शोर मचता रहा, तीनों गप्पबाजी करते रहे और सिगरेट-बीड़ियाँ फूँक रहे । बारह बजे के करीब यह टण्टा समाप्त हुआ तो चरण ने सामने पड़ी हुई फाइल उठायीं। उसने कल भी इसे उठाया था, लेकिन किया कुछ नहीं था। फाइल के अन्दर लगी हुई पहली ही दरख्वास्त में किसी ने लिखा था कि 'खटीकों के तालाब' पर जगह-जगह कूड़े के ढेर लगे हुए हैं, उनको हटवाने का कुछ प्रबन्ध किया जाए । नीचे बहुत से मोहल्लेवालों के हस्ताक्षर थे । 'खड़ीकों दे तलाड' का नाम पढ़कर चरण की आँखों के सामने रानी का चेहरा आ गया । हस्पताल में रानी ने पूछा था, 'कभी आओगे?' 'हाँ,' उसने जवाब दिया था। लेकिन वह फिर कभी नहीं गया। एक बार वह उसे ‘सराजें दी ढक्की' में नजर आयी थी। रानी ने दूर से ही उसे देख लिया था । वह खड़ी हो गयी थी, उसका इन्तजार करने लगी थी, लेकिन चरण फौरन दूसरी गली में मुड़ गया था । हस्पताल आयी हुई वह कितनी अच्छी लग रही थी । उसके गालों के गड्ढे याद आ गये। हाथ में फाइल पकड़े हुए वह बहुत देर तक रानी की यादों में डूबा रहा।
“कौन-सी सोचों में पड़े हो चरण साब?” सामने परवेज खड़ा था । होठ हँसते हुए, चेहरा खिला हुआ, आँखों में चमक। साफ नजर आ रहा था, मुहिम जीत आया है ।
“कब आये?” चरण ने पूछा ।
“अभी!”
"बैठ जाओ!”
“नहीं, तुम आओ थोड़ी देर के लिए बाहर !”
चरण उठ खड़ा हुआ। दोनों मण्डी की ड्यौढ़ी में एक तरफ खड़े हो गये। “तुम्हें तो देखते ही पता चल गया कि तुमने किला जीत लिया है, ” चरण बोला ।"
परवेज ने उसके गले में बाँह डालते हुए कहा, “किला तो जीता, लेकिन यह पूछो कि कैसे जीता। इधर आओ!” फिर वह उसे और आगे एक कोने में ले गया और बोला, “मैडम जितने नखरे करती थी, उनकी हकदार थी । यार जिसके पास जैसा माल होगा, उस पर वैसा ही गुमान भी करेगा । मैं बता नहीं सकता कि उसके पास क्या है ! भरा-पूरा खजाना मिला है मुझे। जिन्दगी में पहली बार किसी झूले में इतना ऊँचा उठा कि सारा आसमान मेरी बाँहों में आ गया।” परवेज की बातें सुनते हुए चरण टुकुर-टुकुर उसे देखता जा रहा था।
परवेज की बातें सुनकर चरण को महसूस हुआ कि उसकी नाड़ियों में खून रफ्तार तेज हो गयी है । आँखें लाल सुर्ख हो गयीं । परवेज आखिर यह कहकर चला गया, “तुम्हें सुनाये बगैर मुझसे दफ्तर में बैठा नहीं जाएगा, अब शाम को मिलेंगे।” चरण मन के अन्दर एक जलन सी महसूस करता करता अपने दफ्तर में आकर बैठ गया। लेकिन बहुत देर तक मन ही नहीं हुआ कि फाइल उठाकर देखे। जब फाइल उठायी तो फिर से 'खटीकों का तालाब' वाली दरख्वास्त सामने आ गयी। उसे रानी का चेहरा प्रत्यक्ष नजर आने लगा। उसकी आँखें बन्द होने लगीं। होश तब आया जब जण्डेआल की आवाज कानों में पड़ी, “भई चरण साब, क्या बात है, आज चाय- शाय नहीं पीनी है क्या? ढाई बज रहे हैं । देना एक सिगरेट इधर भी । सूटा तो लगाएँ ।”
गोपाल को उम्मीद नहीं थी कि शकुन्तला सचमुच उसके घर आ जाएगी । आखिरी क्लास पढ़ाकर जब वह बाहर निकला था तो शकुन्तला झट ही उसके आगे आ खड़ी हुई थी, “सर, मैंने रात रेडियो पर आपका नाटक सुना था, बड़ा अच्छा था ।”
“थैंक्यू ! ” गोपाल बोला ।
“सर, मैंने भी एक नाटक लिखा है । "
"अच्छा?" वह खुश हुआ।
“हाँ सर, मैं वह नाटक आपको दिखाना चाहती हूँ । ”
"कल ले आना ।”
“नहीं सर, मैं आपके घर आऊँगी।”
गोपाल बड़े गौर से उसकी तरफ देखने लगा ।
“ आप घर कितने बजे मिलेंगे सर?"
“मेरा घर तुम्हें मालूम है ?"
“हाँ सर, मैं कई बार उधर से गुजरती हूँ । आपको हमेशा कुछ-न-कुछ लिखते देखा है ।"
“जब मरजी हो आ जाना, मैं तो घर पर ही होता हूँ,” कहकर वह आगे बढ़ गया, लेकिन बहुत देर तक उसी के बारे में सोचता रहा। उसे पता था कि शकुन्तला फिरंगीमल की लड़की है और ठेकेदार फिरंगीमल शहर के जाने-माने लोगों में से एक हैं। मदन ने बताया था कि आजकल उनके मिनिस्टर बनने के भी चान्स हैं। भले ही शकुन्तला के आने की आशा नहीं थी, लेकिन फिर भी दो दिन तक वह उसकी प्रतीक्षा करता रहा था। आज तीसरे दिन उसने एक नया नाटक लिखना शुरू किया था और वह यह भूल भी चुका था कि शकुन्तला ने आने के लिए कहा था। दरवाजा खुला तो बिना उधर देखे ही उसे लगा कि दरवाजे में कोई खड़ा है । आँखें उठायीं तो शुकन्तला को देखकर हैरान रह गया। उससे नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया गया । वह मन्द मन्द मुसकरा रही थी। कॉलेज में पढ़नेवाली शकुन्तला से वह कुछ अलग-अलग नजर आ रही थी । उसके हाथ में एक बड़ी-सी कॉपी थी ।
“आ जाओ,” गोपाल के मुँह से बड़ी मुश्किल से निकला। वह पास आकर खड़ी हुई तो उसने उससे दूसरी कुरसी पर बैठने के लिए कहा ।
“सर, मैंने आपके लिखे सारे नाटक रेडियो पर सुने हैं। आपके नाटक सुन-सुनकर मुझे भी लिखने की प्रेरणा मिली तो मैंने यह नाटक लिखा है । "
गोपाल ने हाथ बढ़ाया। शकुन्तला ने कॉपी दी । वह पन्ने उलटने लगा ।
“सर, मुझे आपसे एक बात पूछनी थी ?"
“क्या?” पृष्ठ उलटना बन्द करके गोपाल उसकी ओर देखने लगा ।
“सर, आप इतने अच्छे नाटक कैसे लिख लेते हैं?” शकुन्तला का मासूम सवाल सुनकर गोपाल हँस दिया।
“मैं इतने अच्छे नाटक तो नहीं लिखता जितने तुम कह रही हो !”
“नहीं सर, आप बड़े अच्छे नाटक लिखते हैं। मैं जब भी आपका कोई नाटक सुनती हूँ तो कितनी - कितनी देर तक उसके बारे में सोचती रहती हूँ । आपकी सोच, आपकी कल्पना बड़ी अनोखी है । "
अपने नाटकों की इतनी प्रशंसा सुनकर गोपाल को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या कहे। शकुन्तला का बात करने का ढंग कुछ ऐसा था कि शब्द शब्द भोलापन और सच्चाई में डूबा लग रहा था । उसकी ओर देखते-देखते वह सोचने लगा, कितनी अच्छी है यह ।
गोपाल की सोचों से अनजान शकुन्तला बोली, “सर, मेरा नाटक जरूर पढ़िएगा । अगर ढंग का न हो तो हँसिएगा नहीं, फाड़कर फेंक दीजिएगा।” कहकर वह चली गयी और गोपाल बहुत देर तक उसका नाटक हाथों में पकड़े उसी तरह खामोश बुत बना वहीं बैठा रहा। हवा का एक झोंका उसके कमरे में से होकर गुजर गया था जैसा पहले कभी नहीं आया था। चरण की आवाज सुनकर वह जैसे अपने-आप में लौटा।
“किसके ध्यान में बैठे हो प्रोफेसर साब?” कहते हुए चरण अन्दर आया और उसी कुरसी पर बैठ गया, जहाँ थोड़ी देर पहले शकुन्तला बैठी थी ।
“कुछ नहीं, ऐसे ही, आज एक नया नाटक लिखना शुरू किया था, उसके एक सीन में फँसकर रह गया,” गोपाल ने बात बनाते हुए हाथ में पकड़े नाटक को मेज के सबसे नीचेवाले दराज में रख दिया।
“कुछ सुना?" चरण ने पूछा ।
“क्या?”
“परवेज ने मुहिम सर कर ली।”
"अच्छा!”
“हाँ, मुझे वह खुद सारी कहानी सुनाकर गया है और सुनाकर मेरे मन में बड़ी हलचल पैदा कर गया है।” फिर चरण ने गोपाल को वह सारी बात सुनायी, जो परवेज उसे सुना गया था।
गोपाल बोला, “परवेज है बड़ा खुशकिस्मत !”
“अब हम क्या करें ?”
“क्यों, क्या हुआ तुम्हें ?...मैं बताऊँ क्या करो ?”
"क्या?"
“रेडियो स्टेशन चलते हैं। परसों बेगम अख्तर की म्युजिकल कान्फ्रेन्स हो रही है। उसके पास लाने जरूरी हैं ।”
“चलो, यह ठीक है । मुझे भी कुछ पास चाहिए। साथ ही मैं सोचता हूँ, खजूरिया को एक बार होटल में बुलाकर क्यों न खुश कर दें । सुना है वह ड्रामा- प्रोड्यूसर बननेवाले हैं।"
(अधूरी रचना)