आपका बंटी (उपन्यास) : मन्नू भंडारी

Aapka Bunty (Hindi Novel) : Mannu Bhandari

आपका बंटी (उपन्यास) : ग्यारह

कोठी इस तरह चमचमा रही है जैसे कल ही बनी हो।

बंटी के मन में हलकी-सी तसवीर है इस कोठी की, जब उसने पहली बार इसे देखा था-धूल-भरी, मटमैली-सी। अब तो जैसे यह पहचानने में भी नहीं आती। कैसे बदल जाती हैं चीजें इस तरह ?

एकाएक ही आँखों के सामने अभी-अभी छोड़ा हुआ अपना घर घूम गया। जो कार चलने के साथ-साथ उसके साथ-साथ दौड़ पड़ा था....पर जैसे यहाँ तक दौड़ नहीं सका। घर, बगीचा, हाथ जोड़े हुए हीरालाल और माली...हाँफते-काँपते सब बीच में ही छूट गए।

वह ममी के साथ अकेला ही आया है इस घर में...पहली बार। ममी ने कई बार कहा था-कहा ही नहीं, आग्रह किया था कि चल बेटा, तुझे जोत ने बुलाया है या कि डॉक्टर साहब ने ख़ासकर तुझे आने के लिए कहा है। पर वह कभी नहीं आया। कभी-कभी ज़िद ही करने लगतीं तो फूफी आ जाती बचाव के लिए, “अरे आप काहे ज़ोर-ज़बरदस्ती करती हैं, बच्चे का मन नहीं है तो कइसे जाएगा ?"

आज उसे किसी ने नहीं बुलाया है शायद...ममी ने भी आग्रह नहीं किया फिर भी वह आया है। जब तक उसका अपना घर था, फूफी और सामान के साथ तब तक वह विरोध कर सकता था। पर उन खाली दीवारों के बीच...इस बार तो उसे आना ही था।

पोर्टिको में ही सब लोग खड़े हैं...डॉक्टर साहब, जोत और अमि। नए-नए कपड़ों में लिपटे, हँसते-खिलखिलाते चेहरे लिए।

"हल्लोऽऽ...बंटी !" एकदम उमगकर डॉक्टर साहब ने बंटी को गोद में उठा लिया और दोनों गालों पर किस्सू दिए। बंटी ने विरोध नहीं किया और फिर धीरे से नीचे उतर गया।

“तुम लेने नहीं आए, खाली गाड़ी भेज दी ?" ममी ने कुछ इस ढंग से कहा जैसे वह कभी-कभी ममी से कहता था और ममी कहती थीं-क्या ठुनकता रहता है सारे दिन ? इत्ती बड़ी होकर भी ममी ठुनकती हैं !

"मैं आ जाता तो फिर यहाँ स्वागत कौन करता तुम्हारा ?" और डॉक्टर साहब ने ममी को बाँह में भरकर भीतर ठेलते हुए कहा, “आज तुम पूरे दस दिन बाद आई हो इस घर में और इन दस दिनों में मैंने चेहरा बदल दिया है इस घर का।"

डॉक्टर साहब का ममी के कंधे पर हाथ रखना या ममी को बाँह में समेट लेना कई बार देख चुका है बंटी, फिर भी जाने क्या है कि जब भी देखता है, नए सिरे से एक क्षण को मन में कुछ हो जाता है। वह ममी पर से नज़र हटा लेना चाहता है और बाँहों में सिमटी ममी को लगातार देखते रहना भी चाहता है।

ममी इस तरह चल रही हैं इस घर में, जैसे यहाँ सबकुछ बहुत जाना-चीन्हा हो। उसे तो यहाँ का कुछ भी नहीं मालूम। जिधर जोत ले जाएगी उधर ही जाता है, उसके साथ-साथ-बल्कि उसके पीछे-पीछे।

यह तो कॉलेज का घर था बेटा, वहाँ अपना घर होगा, अपने लोग होंगे, और अपने लोगों के बीच भी सहमी-सहमी और अपरिचित-सी नज़रों से देख रहा है बंटी अपने घर को, उससे परिचित होने के लिए, उसे अपना बनाने के लिए !

रंग-रोगन की गंध घर के इस छोर से उस छोर तक फैली हुई है। साथ ही एक और भी गंध है जिसे वह केवल सूंघ रहा है, पर समझ नहीं पा रहा है।

बड़ा-सा बेडरूम ! हलकी नीली दीवारों पर गहरे नीले परदे और सलेटी रंग का कार्पेट। खूब गुदगुदा-सा। दो नई-नई चमकती हुई अलमारियाँ। बंटी ने एक बार आँख खोलकर उन पर हाथ फेरा-एकदम चिकनी ! उँगली रखते ही जैसे फिसल गई और एक हलका-सा निशान बन गया। बंटी ने देखा, कोई देख तो नहीं रहा। कमरे के बीच में दीवार के सहारे दो पलंग। दोनों के सहारे, पलंग के साथ ही लैंप लगा हुआ। बंटी का मन हुआ, जलाकर देखे रोशनी कहाँ आकर गिरती है। उसने मन ही मन सोचा, वह इधर की तरफ सोएगा और ममी उधर। जब तक नींद न आ जाए पढ़ते रहे और फिर लेटे-लेटे ही खट से बत्ती बुझाओ और सो जाओ।

दूसरी ओर ड्रेसिंग-टेबुल रखी थी और ममी की ड्रेसिंग-टेबुल से चौगुनी शीशियाँ। यह सब किसने जमाया होगा ? एकाएक बंटी की नज़र ममी की उसी जादुई शीशी को ढूँढ़ने लगी। नहीं, वह वहाँ नहीं थी। उसे जैसे हलकी-सी राहत मिली।

कमरे के एक सिरे पर आकर बंटी ने एक साथ पूरा कमरा देखा तो आँखों के सामने रंगीन तसवीरवाली उन मोटी-मोटी किताबोंवाला कमरा उभर आया।

डॉक्टर साहब ने सचमुच उनके लिए बिलकुल वैसा ही कमरा बनवा दिया। एक क्षण को जैसे अपना घर छोड़ने का अवसाद धुंधला हो गया।

कभी अपने दोस्तों को लाकर दिखलाएगा। टीटू की अम्मा आकर देखें ! कैसे हँसती थीं-अब हँसें आकर। कभी देखा भी नहीं होगा ऐसा कमरा।

"बंटी, तुम्हें कैसा लगा कमरा बताओ तो ? पसंद आया ?" डॉक्टर साहब ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा तो बंटी जैसे पुलककर मुसकरा दिया, “अच्छा लगा।" बंटी को डॉक्टर साहब भी अच्छे लगे।

जोत और अमि दौड़े-दौड़े आए, “पापा चलिए, नाश्ता तैयार है।"

बड़ी-सी मेज़ पर ढेर सारी खाने की चीजें फैली पड़ी हैं। बंटी को शादीवाले दिन शादी जैसा कुछ नहीं लगा था, पर आज जरूर शादी जैसा लग रहा है। एकाएक जोत और अमि के नए-नए कपड़ों के मुकाबले में उसे अपनी हलकी-सी मैली हो आई स्कूल की यूनीफ़ार्म बड़ी फीकी-फीकी और बेतुकी-सी लगी। लगा जैसे वह इन सबके बीच का नहीं, इन सबसे अलग है।

फूफी तो स्कूल से आते ही सबसे पहले कपड़े बदलवाया करती थी। ममी को खयाल भी आया कि यहाँ आने से पहले कम से कम उसके कपड़े तो बदलवा दें!

"नहीं...नहीं शकुन ! उस कुर्सी पर नहीं, वह अमि की कुर्सी है। इन दोनों की अपनी-अपनी कुर्सियाँ तय हैं। कोई और बैठ जाए तो तूफ़ान मच जाता है।"

“अच्छा ! तो लो, हम अपनी कुर्सी तय कर लेते हैं।" और हँसते हुए ममी ने डॉक्टर साहब के सामनेवाली कुर्सी खींच ली। बंटी अभी भी खड़ा है।

"तुम भी अपनी कुर्सी तय कर लो बेटे ! बोलो, इधर बैठोगे या उधर ?" सभी की अपनी जगह तय है, अपनी कुर्सियाँ तय हैं, बस उसी का कुछ तय नहीं है, जो बचा है, उसमें से ही उसे कुछ चुन लेना है। वह चुपचाप जोत के पासवाली कुर्सी पर बैठ गया। मन को कहीं एक अनमना-सा भाव छूकर निकल गया।

अमि और जोत की 'यह लाओ, वह लाओ...ऐ बंसीलाल, इसमें हरी मिर्च क्यों डाली...आज अंगूर क्यों नहीं है...मेरे नमकीन बिस्कुट...' के बीच बंटी अपनी नज़रों में जैसे कहीं से बड़ा बेचारा हो आया। बेचारा और उपेक्षित।

डॉक्टर साहब बाहरवालों की तरह उसकी मनुहार कर रहे हैं, “यह लो बंटी बेटे...वह लो, तुम्हें अच्छा लगेगा।" वह बाहर का ही तो है।

“शरमा नहीं बंटी, तुझे जो पसंद है ले ले। अपने घर में शरमाते नहीं।" ममी ऐसे बोल रही हैं, जैसे ख़द भी डॉक्टर साहब के ही घर की हों। अब हैं भी शायद। शादी के बाद हो जाते हैं। पर वह कैसे, उसने थोड़े ही शादी की है ?

और आँखों के सामने फिर अपने घर की तसवीर उभर आई। मेज़ पर कभी अकेला और कभी ममी के साथ बैठा हुआ बंटी और डाँट-डाँटकर खिलानेवाली फूफी-“एल्लो, हो गया तुम्हारा खाना ? और यह कौन खाएगा ?...तुम कइसे नहीं खाओगे बंटी भय्या, हम बाँस लेकर दूंसेंगे तुम्हारे गले में, समझे। ममी के आगे दिखाया करो ये नखरे, बहुत सिर पर चढ़ा रखा है तुम्हें !" और ममी मुसकराती रहतीं।

एकाएक ही नज़र ममी की ओर उठ गई। इस समय भी तो ममी मुसकरा रही हैं, एक ही आदमी इतनी अलग-अलग तरह से भी मुसकरा सकता है ?

"हल्लोऽऽ डॉक्टर...गृहप्रवेश की दावत हो रही है ?"

बंटी एकाएक जैसे चौंक गया। सारे घर को गुंजाता हुआ एक लंबा-सा आदमी घुसा। एक अकेला आदमी भी इतना शोर मचा सकता है ? लंबा कितना है ! गरदन पूरी तरह ऊँची करके देखने पर ही चेहरा दिखाई दे।

“आओ...आओ वर्मा ! बड़े अच्छे समय आए।"

“नमस्कार वर्मा साहब !”

“नमस्ते अंकल !"

सब लोग तो जानते हैं इस लंबे आदमी को, बस वही नहीं जानता।

“आज यह खाने की मेज़ सचमुच खाने की मेज़ लग रही है।" लंबा आदमी ममी को कैसे घूर-घूरकर देख रहा है।

डॉक्टर साहब खी-खी करके हँस पड़े और ममी गद्गद होकर एकदम सुर्ख हो गईं।

आजकल ममी के गाल बात-बात पर ऐसे सुर्ख हो जाते हैं मानो गुलाब जूड़े में न लगाकर गालों पर लगा लिए हों।

ममी ने एक प्लेट लगाकर सामने की तो फिर दहाड़ा“नो-नो, आइ एम फुल मिसेज़ जोशी !' मिसेज़ जोशी ! एकाएक बंटी की नज़र ममी की ओर उठ गई। ममी ने कुछ भी नहीं कहा। अभी तक ममी को सब मिसेज़ बत्रा कहते थे और अब...

“ऐ बंटी, अब तू जोशी हो गया यार ! बंटी जोशी, नहीं अरूप जोशी।"

“धत्, मैं क्यों हो गया जोशी ? मैं अरूप बत्रा हूँ, बंटी बत्रा !"

"चल-चल ! डॉक्टर जोशी तेरे पापा नहीं हो गए अब ?"

"बिलकुल नहीं, एकदम नहीं, मेरे पापा अजय बत्रा हैं। कलकत्ते में रहते हैं।"

“अब नहीं रहे वो पापा मिस्टर !"

“मार दूंगा, ज़्यादा बकवास की तो !” मन हो रहा था धज्जियाँ बिखेर दे, इस कैलाश के बच्चे की।

फिर सारे दिन वह काग़ज़ पर अरूप बत्रा...अरूप बत्रा, बंटी बत्रा लिखता रहा था। लंच टाइम में मैदान में बैठा तो उँगली से जमीन पर लिखता रहा बत्रा...बत्रा..

“अंकल, आप टामी को नहीं लाए ?"

"हम घर से नहीं आए बेटे, सीधे ऑफ़िस से चले आ रहे हैं। सोचा, ज़रा तुम लोगों के घर की रौनक देख लें। क्यों मिसेज़ जोशी, बेडरूम पसंद आ गया ? आपने अप्रूव किया या नहीं ?"

ममी के गाल फिर सुर्ख हो गए। क्या हो जाता है ममी को बार-बार ! ऐसा तो पहले कभी नहीं होता था।

“वाह, मिसेज़ वर्मा ने सब अरेंज किया और मुझे पसंद न आए ? हम तो सोच रहे थे धन्यवाद देने रात में ख़ुद ही उधर आएँगे।"

"ओह, नो-नो-यह सब तकल्लुफबाज़ी छोड़िए। आज की रात नहीं।" फिर एकाएक उनकी नज़र बंटी पर जम गई।

"यह बच्चा...ओह, अच्छा...अच्छा, क्या नाम है बेटे तम्हारा ?"

प्यार से बोला तब भी लगता है जैसे डाँट रहा हो। इसके बच्चों को डर नहीं लगता होगा इससे ?

बंटी ने सीधी नज़रों से उसे देखा और बिना झिझक के जवाब दिया, “अरूप बत्रा !" बत्रा पर इतना ज़ोर डाला कि उसके सामने अरूप तो जैसे दब ही गया।

“वाह, बड़ा अच्छा नाम है यह तो ! अरूप और अमित, जोड़ी भी खूब रहेगी।' फिर ममी की ओर देखकर बोला, “सीम्स टु बी ए बोल्ड चैप।"

ममी कैसे घूर-घूरकर देख रही हैं, देखें, वह क्या डरता है ? बत्रा है तो बत्रा ही रहेगा और बत्रा ही कहेगा। ममी की तरह नहीं कि झट से जोशी बन गए।

खाना-पीना ख़त्म हुआ तो डॉक्टर साहब ने कहा, “जोत, बंटी बेटे को घुमाकर सब दिखाओ तो। अपनी किताबें, अपने खिलौने...पीछे का सी-सॉ और स्लिप, घुमाओ ज़रा।"

ममी मज़े से बैठी हैं। उन्हें अभी भी ख़याल नहीं आ रहा है कि बंटी के कपड़े बदलवाने हैं। यहाँ कौन फूफी है जो बदलवा देगी कपड़े या उसे मालूम है कि कपड़े कहाँ रखे हैं जो अपने-आप ही जाकर बदल लेगा ! बस, अपने ही गाल लाल करके मुसकरा रही हैं जब से।

जाने क्या है कि डॉक्टर साहब से या किसी भी अनजान आदमी से कहने में जितना संकोच होता है, ममी से कहते हुए भी इस समय उतना ही संकोच हो रहा है। वही कहे कपड़े की बात, ममी को अपने-आप नहीं सूझती ? ये दोनों नए-नए कपड़े पहने बैठे हैं, फिर भी ममी को ख़याल नहीं आ रहा ? उस लंबे आदमी ने क्या सोचा होगा कि ऐसे गंदे कपड़े पहनकर ही रहता है यह बच्चा !

“जाओ बेटे, जोत बुला रही है।"

“मुझे कपड़े दो, कपड़े नहीं बदलूँगा मैं ?" भरसक रोकने पर भी बंटी का स्वर जैसे भरी ही गया।

“अरे, चल-चल, मैं तो भूल ही गई।" फिर डॉक्टर की ओर देखकर पूछा, “आज जो कपड़ों के बक्से आए वे कहाँ रखे हैं ?"

एक कमरे में सारा सामान अस्त-व्यस्त ढंग से पड़ा है-बंटी के घर का सामान ! बक्से-बिस्तरे, गठरी में बँधी हुई किताबें...टोकरी में भरे हुए बंटी के खिलौने...बंटी की पेंटिंग्स...और भी जाने क्या-क्या ! लगा जैसे उसका सारा घर गठरियों, टोकरियों में बाँधकर यहाँ ठूस दिया गया है।

ममी एक बक्से में से कपड़े निकाल रही हैं और बंटी उस सामान को देख रहा है। सामान का भी चेहरा होता है क्या ? सारा सामान कैसा उदास-उदास लग रहा है।

बंटी का सिपाही टोकरी के किनारे सिर के बल ठुसा हुआ है। बंटी जल्दी से गया और उसे निकालकर उसने सीधा कर दिया। पर भीतर तो सभी कुछ उलट-पुलट है। एक बार मन हुआ, अपने सारे खिलौने निकालकर...

“ले कपड़े बदल ले और बच्चों के साथ खेल। जोत है, अमि है, पीछे भी बड़ा-सा मैदान है। खूब खेलो-कूदो, दौड़ो-भागो !"

पर बंटी है कि अपनी टोकरी में ही लगा हुआ है। जैसे उसने ममी की बात सुनी ही नहीं।

"कल सब ठीक कर दूँगी बेटे, अभी ऐसे ही रहने दे !" बंटी ने पलटकर ममी की ओर देखा। लगा जैसे पूछ रहा हो-क्या सब ठीक कर दोगी ?

और उस कमरे से निकला तो एक बार फिर लगा जैसे अपने घर से निकल रहा हो।

जोत सब बता रही है, “यह जो नीम का पेड़ है न बंटी, यह जिस दिन पापा पैदा हुए थे उस दिल लगवाया था बाबा ने। पापा के जन्मदिन पर इसकी पूजा करती थीं चाची अम्मा।"

और एकाएक ही बंटी की आँखों के सामने आम का वह छोटा-सा पौधा घूम गया।

"चाची अम्मा कौन ?" यह नाम तो बंटी ने कभी नहीं सुना।

"चाची अम्मा कौन, हमारी चाची अम्मा !” अमि ने कहा तो जोत हँसने लगी।

“पापा की चाचीजी ! अभी तक वह ही तो रहती थीं हमारे पास...थोडे दिन पहले ही तो गई हैं !"

“और वह जो बड़ा-सा जाली का पिंजरा देख रहा है, उसमें खरगोश पाले थे बंसीलाल ने। पर एक बार जाने कैसे बिल्ली घुस गई और सब सफाचट..."

"बिल्ली नहीं बंटी भैया, बिलाव ! ये मोटी झबरी पूँछ ! देख लो तो डर लग जाए। सारे खरगोश चट कर गया।"

फिर बंसीलाल का घर, इमली का पेड़, जहाँ दोनों बीन-बीनकर कच्ची इमली खाते हैं। बड़ी स्वाद हैं इस पेड़ की इमलियाँ....

जोत और अमि बताए चले जा रहे हैं और बंटी केवल सुन रहा है। सुनने के सिवा वह कर ही क्या सकता है, बताने के लिए है ही क्या उसके पास ?

बंटी अपने घर में घूम रहा है। पर अपने घर जैसा कुछ भी तो नहीं लग रहा उसे। सर्दी के दिनों में साँझ से ही तो चारों ओर अँधेरा घुसने लगता है। और जैसे-जैसे अँधेरा घुलता जा रहा है, सबकुछ और ज्यादा-ज्यादा अपरिचित होता जा रहा है। यहाँ तो आसमान भी पहचाना हुआ नहीं लगता, हवा भी पहचानी हुई नहीं लगती। अपने घर का आसमान और अपने घर की हवा कहीं ऐसी होती है ?

ममी डॉक्टर साहब के साथ बाहर गईं हैं और वह कमरे में अकेला बैठा है। चारों ओर बत्तियाँ जगमगा रही हैं, फिर भी बंटी के मन में न जाने कैसा डर समा रहा है। रात में वह कभी घर से बाहर नहीं सोया, अब कैसे सोएगा यहाँ ? और आँखों के सामने वही नीले परदेवाला कमरा घूम गया। फिर भी डर है कि बढ़ता ही जा रहा है। अपने घर से आया है। तब से अब तक यही लग रहा था, वह केवल यहाँ आया है। तभी शायद उस समय उसे उतनी घबराहट नहीं हो रही थी। पर अब जैसे-जैसे रात बीतती जा रही है, यह एहसास कि वह केवल आया ही नहीं है, उसे यहाँ रहना भी है, केवल आज ही नहीं, हर दिन, हर रात। और इस बात के साथ ही मन है कि जैसे डूबता चला जा रहा है।

कैसे रहेगा वह इस घर में ? यह उसका घर बिलकुल नहीं है। यह डॉक्टर साहब का घर है, जोत और अमि का घर है। वह किसी के घर में नहीं रहेगा, अपने घर जाएगा, अपने ही घर में सोएगा।

अपने घर में उसे कभी डर नहीं लगता था। ममी बाहर चली जाती थीं तब भी नहीं। एकदम अँधेरा हो तब भी नहीं। न हो ममी, न हो रोशनी, पर घर तो उसका अपना था, फूफी तो उसकी अपनी थी। अँधेरे में ही वह अकेला सारे घर का चक्कर लगाकर आ सकता था।

यहाँ तो न घर उसका है, न घरवाले उसके हैं। ममी के कहने से क्या होता है, क्या वह जानता नहीं ? और जब कुछ भी उसका नहीं है तो डरेगा नहीं वह ? लाख रोकने पर भी आँखें हैं कि छल-छल हो रही हैं।

“अरे बंटी, तू यहाँ बैठा है ? कपड़े नहीं बदले ? ममी तेरे कपड़े पलंग पर रख गई हैं।" जोत पहले तो ममी को आंटी जी कहती थी, अब ममी क्यों कहने लगी?

"हूहू-हूहू-सर्दी रेऽऽ”–दोनों बाँहों को कसकर छाती से चिपकाए अमि पंजों के बल उछलता हुआ आया और बिस्तर में दुबककर रजाई ओढ़ ली।

बंटी ने बाथरूम में जाकर मुँह धो लिया। पता नहीं क्या है, वह कहीं भी जाए उसका अपना घर साथ-साथ चलता है। बाथरूम, बाल्टी, नल...आँख मींचकर भी अपने घर में जिस तरह चल सकता था, यहाँ आँख खोलकर भी उस तरह नहीं चल पा रहा है।

“चल अब अपनी-अपनी रजाइयों में घुसकर कहानी कहेंगे। ममी बता रही थीं तुझे खूब-खूब कहानियाँ आती हैं।"

“मैं भी कहानी सुनूँगा बंटी भैया ! राजा-रानीवाली, परियोंवाली।"

पर बंटी न बिस्तर में लेटा, न रजाई ओढ़ी और न ही उसने कहानी सुनाई। बस, कंबल लपेटकर बैठे-बैठे ममी की राह देखता रहा। अमि तो लेटते ही सो गया। जोत उससे स्कूल की बातें पूछती रही, चुटकुले सुनाती रही।

स्कूल की बातों पर वह चुप रहा और चुटकलों पर वह रोता रहा। थोड़ी देर में जोत भी लुढ़क गई।

बंटी है कि न उससे सोते बन रहा है, न जागते। बस, रह-रहकर आँखें छलछला आती हैं। ममी के आते ही वह छिटककर पलंग के नीचे उतर आया।

“अरे, तू सोया नहीं बंटी बेटा ? और यह क्या, कुछ भी गरम नहीं पहन रखा और बिस्तर में से निकल आया। सर्दी नहीं लग जाएगी ?"

बंटी दौड़कर ममी के पैरों से लिपट गया। मैं अकेला कैसे सोता, मुझे डर नहीं लगता ?"

उँगली में गाड़ी की चाबी नचाते हुए डॉक्टर साहब आए, “अरे, तुम सोए नहीं बंटी बेटे ?"

“तुम चलो।" और ममी उसे अपने से चिपकाए-चिपकाए ही कमरे में ले आईं।

"डर क्यों लगता है ? जोत और अमि नहीं सो रहे यहाँ ? देख अमि तो तुझसे भी छोटा है, उसे डर नहीं लगता और तुझे डर लगता है ?"

ममी ने पूरे जूड़े में माला लपेट रखी है और सुगंध है कि केवल माला में से ही नहीं, जैसे परे शरीर से फूटी पड़ रही है। ममी गई थीं तो दूसरी तरह की थीं और अब लौटी हैं तो एकदम ही दूसरी तरह की हो गईं।

“तू तो बहुत पगला है बेटे, सबके बीच में भी डरता है ?"
 
“पर उस कमरे में तो कोई नहीं था। मैं कैसे सोता ? अकेले मुझे डर नहीं लगता वहाँ ?"

“ओह !" ममी एक क्षण रुकी, फिर उसकी पीठ सहलाती हुई बोली, "नहीं बेटा, बच्चे लोगों का तो यही कमरा है। बच्चे लोग सब एक साथ सोएँगे। देखो, ये लोग भी तो सो रहे हैं यहाँ ! चल, मैं तुझे सुलाती हूँ।" और ममी ने बहुत प्यार से पकड़कर उसे पलंग पर लिटा दिया, रजाई ओढ़ाई और उसके सिरहाने बैठकर उसका सिर सहलाने लगीं।

बंटी की आँखों में इतनी देर से तैयार हुआ वह नीले परदोंवाला कमरा, जिसमें बंटी ने मन ही मन अपना पलंग भी तय कर लिया था, जैसे ढहकर गिर पड़ा।

'बंटी बेटा, पसंद आया तुम्हें यह कमरा'-झूठ...झूठ-मन में जैसे एक ज्वार उठ रहा है दुख का, गुस्से का। मन हो रहा है जाए उस कमरे में और एक-एक चीज़ उठाकर फेंक दे-परदे फाड़ डाले, देखें कोई क्या कर लेता है उसका ?

ममी ने झुककर उसके गाल को चूमा तो उसने ममी का चेहरा झटक दिया।

“क्यों पागलपन कर रहा है बेटे ? देख, ये दोनों भी तो हैं ? मुझे तंग करने में, सबके बीच शर्मिंदा करने में तुझे ख़ास ही सुख मिलने लगा है आजकल।"

हाँ, मिलता है सुख...ज़रूर करूँगा शर्मिंदा। तुम नहीं कर रही हो मुझे शर्मिंदा ? यहाँ दूसरों के घर लाकर पटक दिया। 'अपना घर होगा', कोई नहीं है अपना घर ? मैं नहीं रहता किसी के घर...पहले तो कमरा पसंद करो और फिर ...कितनी बातें हैं, जो फूटी पड़ रही हैं। बंटी चाहता भी है कि सब कह दे। कितने दिन तो हो गए उसने कुछ कहा ही नहीं। आजकल तो वह सिर्फ़ सुनता है और मान लेता है, पर आज नहीं।

लेकिन गला है कि बुरी तरह भिंचा हुआ है। लगता है, बोलना चाहेगा तो बस केवल हिचकी फूटकर रह जाएगी।

"नींद नहीं आ रही बंटी को ? क्या बात है बेटे ?" डॉक्टर साहब तौलिया लटकाए दरवाजे पर खड़े पूछ रहे हैं।

“अभी सो जाएगा। नई जगह है न, शायद इसलिए।" ममी शायद उसके जागते रहने की सफ़ाई दे रही हैं।

"तुम जाओ, मैं सो जाऊँगा।” सँधे हुए गले से बंटी ने किसी तरह से शब्द ठेल दिए।

"ऐसे मत कर बेटे, ऐसा नहीं करते न ! चल सो, मैं बैठी हूँ तेरे पास।"

ममी बैठी-बैठी उसका सिर सहलाती रहीं। धीरे-धीरे उसके गाल थपथपाती रहीं। बंटी आँखें मूंदे पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद धीरे से ममी उठीं। एक बार चारों ओर से उसे अच्छी तरह ढका। खट ! बत्ती बंद हुई तो बंद आँखों में फैला अँधेरा खूब गाढ़ा हो गया। बंटी ने आँखें खोल दीं। सारी की सारी ममी अँधेरे में डूब गई थीं, बस धीरे-धीरे दूर होता उनका जूड़े का गज़रा चमक रहा था।

दरवाज़े पर पहुँचकर ममी ने धीरे-से आवाज़ दी, "बंटी !"

बंटी चुप।

“सो गया ?" डॉक्टर साहब रात के कपड़े पहन आए थे।

"हूँ।" ममी ने धीरे-से कहा।

फिर दोनों उसी कमरे में चले गए और एक हलकी-सी आवाज़ हुई। शायद दरवाज़ा बंद होने की।

बंटी को लगा घर से चला था तो बीच रास्ते में आकर उसका अपना घर और बगीचा छूट गया था। यहाँ आकर ममी छूट गईं।

इतनी देर से दबा हुआ एक आवेग था जो दरवाज़े के बंद होते ही फूट पड़ा। थोड़ी देर बाद ही अचानक उस कमरे का दरवाज़ा खुला और डॉक्टर साहब ने निकलकर बाहर के बरामदे की बत्ती बंद कर दी।

सारा घर अँधेरे में डूब गया। बंटी के मन का दुख और गुस्सा धीरे-धीरे डर में बदलने लगा। केवल डर ही नहीं, एक आतंक, कैसी-कैसी शक्लें उभरने लगीं उस अँधेरे में। उसने कसकर आँखें मींच लीं। पर अजीब बात है, बंद आँखों के सामने शक्लें और भी साफ़ हो गईं-लपलपाती जीभ के राक्षस...उलटे पंजे और सींगोंवाला सफ़ेद भूत, तीन आँखोंवाली चुडैल, जादुई नगरी के नाचते हुए हड्डियों के ढाँचे, सब उसके चारों ओर नाच रहे हैं। धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहे हैं।

उसकी साँस जहाँ की तहाँ रुक गई।

“ममी, दरवाजा खोलो...दरवाजा खोलो ममी।" सारी ताकत से बंटी चीख रहा है और दोनों हाथों से दरवाज़ा भड़भड़ा रहा है।

"दरवाज़ा खोलो, ममी।" आधी रात के सन्नाटे में बंटी की भिंची हुई-सी आवाज़ भी सारे घर में गूंज उठी।

खटाक से दरवाज़ा खुला, “कौन, बंटी ? क्या हुआ बेटे, क्या हुआ ?"

सर्दी में अकड़ा हुआ बंटी थर-थर काँप रहा है। ममी ने जल्दी से उसे गोद में उठाकर छाती से चिपका लिया।

बंटी का सारा मुँह आँसू, लार और नाक से सन गया। हिचकियों के मारे साँस नहीं ली जा रही है। ममी ने उसके चारों ओर कसकर शॉल लपेट दिया।

"मैं हूँ बेटे-ममी-क्या हो गया ? मैं तेरे पास हूँ।"

"क्या बात हो गई ?'' गले तक रजाई ओढ़े-ओढ़े ही डॉक्टर साहब ने पूछा।

"डर गया है शायद।" ममी ने कहा, पर उनकी आवाज़ ऐसी सहमी हुई थी जैसे वे खुद डर गई हों।

ममी उसे वैसे ही छाती से चिपकाए-चिपकाए पलंग पर बैठ गईं। उसकी पीठ सहलाती रहीं। “मैं तेरे पास हूँ बेटे-ममी तेरे पास है।"

धीरे-धीरे बंटी अपने में लौटने लगा। ममी की आवाज ने, ममी की बाँहों ने उन सबको भगा दिया, जिनके बीच बंटी की साँसें रुकी हुई थीं।

और जब बंटी की हिचकियाँ थम गईं-उसके शरीर में फिर गरमाई आ गई तो ममी ने बंटी को धीरे से पलंग पर सुलाया।

“क्या हुआ बेटे, डर गया था ?" तो पहली बार बंटी ने आँखें खोलीं। उसकी ममी उस पर झुकी हुई पूछ रही थीं-उसकी अपनी ममी।

एक बार मन हुआ ममी के गले में बाँहें डालकर लिपट जाए-पर हाथ जहाँ के तहाँ जमे हुए हैं। हाथ ही नहीं, जैसे सारा शरीर जहाँ का तहाँ जम गया। केवल आँखें खुली हैं और वह टुकुर-टुकुर देख रहा है, ममी को...कमरे को...आसपास की चीज़ों को।

हलकी नीली रोशनी में डूबा हुआ कमरा, कमरे की हर चीज़...

“पहले भी कभी इस तरह डर जाया करता था ?" पता नहीं कहाँ से आ रही है डॉक्टर साहब की आवाज़।

"नहीं, कभी नहीं डरा। शायद नई जगह थी, शायद कोई सपना देख रहा हो। उलटी-सीधी कहानियाँ जो पढ़ता है दुनिया भर की।" ममी की आवाज़ में परेशानी थी, दुख था।

पहले जब बंटी दूसरी दुनिया में था तो ममी का चेहरा, ममी की आवाज़ बहुत अपनी-अपनी लग रही थी, अब वह पूरी तरह अपनी दुनिया में लौट आया तो नीली रोशनी में नहाई ममी, कमरा, कमरे की हर चीज़ जैसे दूसरी दुनिया के लगने लगे। दोपहरवाला कमरा जैसे कहीं से बिलकुल ही बदल गया है। सबकुछ फिर बड़ा जादुई-जादुई लगने लगा। फिर मन में डर समाने लगा, अजीब तरह का डर। बंटी ने आँखें मूंद लीं। पर दो-चार मिनट के लिए देखा हुआ वह नीला रंग आँखों में ही आकर चिपक गया है। नीलम देश क्या ऐसा ही होता है ?

थोड़ी देर ममी की थपकियाँ और फिर जैसे कहीं दूर से आती हुई आवाज़ !

“पर तुम जब समझते हो कहते हो तो मन ज़रूर थोड़ा हलका हो जाता है। पर मैं जानती हूँ कि यह..."

"कुछ नहीं, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।" डॉक्टर साहब की नींद में डूबी हुई आवाज़...

“सो गया ?"

“हाँ, लगता तो है, सो गया।" फिर चुप ! बंटी का मन हो रहा है आँखें खोल दे। एक बार फिर ममी का चेहरा देखकर आश्वस्त हो ले। पर नहीं, नीली रोशनी में डूबी हुई...

“सुनो, तुम उठकर कपड़े पहन लो। पता नहीं, यह सवेरे जल्दी उठ जाए तो बड़ी अजीब स्थिति हो जाएगी।"

अचानक आँखों के सामने कुछ काला-काला तैर गया। ममी ने बत्ती बंद की है शायद। बंटी ने धीरे-से आँखें खोलकर देखा। नीली रोशनी गायब हो गई थी। खिड़की से छनकर आती हुई बहुत ही फीकी-फीकी रोशनी में फिर सबकुछ पहचाना-पहचाना लगने लगा-खासकर ममी का चेहरा। कहीं ममी उसे जागता हुआ न देख लें।

पलंग के एक सिरे से डॉक्टर साहब रजाई उतारकर उठे तो बंटी धम् ! छी-छी-यह क्या ? इतना बड़ा आदमी एकदम नंग-धडंग। बंटी की आँखें फटी पड़ रही हैं।

और ममी भी देख रही हैं। शरम नहीं आ रही है इन लोगों को ? उसे जैसे मितली-सी आने लगी...पर आँखें हैं कि फिर भी बंद नहीं हो रहीं।

डॉक्टर साहब ने कपड़े पहन लिए, फिर भी जैसे दिमाग में वही सब घूम रहा है।

फिर ममी धीरे-से उतरी और उसी रैक की ओर गईं। उन्होंने भी अपना हाउस-कोट उतारा तो...

बंटी भीतर ही भीतर भय से थर-थर काँपने लगा। ये उसी की ममी हैं ? उसने आज तक कभी अपनी ममी को ऐसा नहीं देखा। उसकी ममी ऐसी हो ही नहीं सकतीं। यह क्या हो रहा है ?

छी-छी-बेशरम-बेशरम-उसका मन हआ रजाई उतार फेंके और जोर से चीखे। पर वह चीख नहीं रहा...

मन जाने कैसा कैसा हो रहा है उसका। थ्रिल भी है उसके मन में-जुगुप्सा भी-ममी के इस व्यवहार की शरम भी, गुस्सा भी और जाने क्या-क्या !

सारे गुस्से, नाराज़गी और दुख के बावजूद अभी तक ममी उसकी ममी थीं, अब जाने क्या हो गईं ? पता नहीं, उसे कुछ भी नाम देना नहीं आ रहा है। बस, इतना लग रहा है कि अभी तक की ममी एकाएक ही जैसे कहीं से टूट-फूट गईं...चकनाचूर हो गईं।

आपका बंटी (उपन्यास) : बारह

सवेरे देर तक की गहरी नींद भी बंटी के मन से ममी और डॉक्टर साहब का नंगापन न उतार सकी। आँख खुली तो ममी और डॉक्टर साहब जा चुके थे, पर नीम-अँधेरे में लिपटे हुए उनके नंगे शरीर जैसे वहीं लटके हुए थे।

जो कुछ उसने रात में देखा वह सच था ? ऐसा हो सकता है ? एकाएक उसकी नज़र ड्रेसिंग-टेबुल पर गई। वह शीशी...जादुई शीशी...और खट से ये शरीर उस शीशी से जाकर जुड़ गए। उसे अच्छी तरह याद है, कल तो यह शीशी यहाँ नहीं थी। फिर कैसे आ गई...कब आ गई और...

‘और बंटी भय्या, उसने जो जादू की शीशी सुंघाई तो बस राजकुमार का तो मगज ही फिर गया। वह अपने बाप को नहीं पहचाने...माँ को नहीं पहचाने...और तो और वह अपने को ही नहीं पहचाने...'

बंटी उछलकर भागा।

बरामदा पार कर रहा था तो खाने के कमरे से ममी की आवाज़ आई, “उठ गया बंटी ? जल्दी कर बेटे, स्कूल को देर हो जाएगी।"

बंटी का मन हुआ दो मिनट के लिए ममी के पास चला जाए, पर नहीं, ममी उसे पहचानेंगी ? कहीं चाँटा ही मार दें तो ? रात में ममी अपने को नहीं भूल गई थीं?

अमि और जोत तैयार हो रहे थे। उन्हें देखकर ही जाने कैसी तसल्ली मिली। उसने जोत का हाथ पकड़ लिया। वह उससे बोलकर, उसे छूकर अपने मन का डर भगाना चाह रहा था। कभी अकेले में डर लगे तो ज़ोर-ज़ोर से बोलकर ही कैसी राहत मिलती है। अपनी आवाज़ ही कैसा सहारा देती है।

“तू इतनी देर से उठता है बंटी ! देर नहीं हो जाएगी ? जा बाथरूम में गरम पानी रखा है। जल्दी से हाथ-मुँह धोकर तैयार हो जा।"

जोत की बात, जोत की आवाज़, जोत का चेहरा, सबसे उसे बड़ी तसल्ली मिल रही है। कल से ही उसे ऐसा लग रहा है। जब-जब उसने जोत को देखा, जोत उसे हमेशा अच्छी लगी। जोत की तरफ़ देखते रहना भी उसे अच्छा लगता है।

वह जल्दी से बाथरूम में घुस गया। पर जैसे ही दरवाज़ा बंद किया, एक अजीब-सा डर मन में समाने लगा। उसने खाली सू-सू की। छिछू दबा गया और जल्दी से दरवाज़ा खोल दिया। कम से कम बाहरवालों के चेहरे दिखते रहें। चेहरों का भी कैसा आश्वासन होता है !

नाश्ते की मेज़ पर सब बैठे हैं। ममी टोस्ट में मक्खन लगाकर दे रही हैं। डॉक्टर साहब सफ़ेद बुर्राक कपड़ों में ऐसे लग रहे हैं जैसे अभी-अभी लांड्री में से निकलकर आए हों। वे खाते भी जाते हैं और बार-बार नेपकिन से हाथ और होंठ भी पोंछते जाते हैं। पर बंटी है कि ध्यान न खाने-पीने की चीज़ों पर है, न जोत और अमि की बातों पर। सामने बैठे टोस्ट कुतरते हुए डॉक्टर साहब एक क्षण को उसे कपड़ों में दिखाई देते हैं तो एक क्षण नंगे, एकदम नंग-धडंग।

मक्खन लगाते-लगाते चाय के घूट लेती ममी के भी मिनट-मिनट में कपड़े उतर जाते हैं। एक बड़ा भारी-सा रहस्य था जो उसे एकाएक ही पता लग गया है जैसे ! पहले बड़ा डर लगा था फिर अजीब-सी घिन छूटी और अब गुस्से और घिन के साथ-साथ इच्छा हो रही है कि बार-बार उसी दृश्य को देखे।

और फिर तो जैसे अजीब स्थिति हो गई उसकी। नहाने लगा तो अपने अंग को लेकर भी वैसी थ्रिल महसूस होने लगी। मन ही मन डॉक्टर साहब के साथ अपनी तुलना शुरू हो गई। बड़ा होकर वह भी ऐसा ही हो जाएगा। वह सोच रहा है, हाथ में लेकर देख रहा है और भीतर ही भीतर एक अजीब-सी सिहरन हो रही है। पहली बार उसे लग रहा है, जैसे वह है, उसके भी कुछ है।

क्लास में टेबुल के सामने खड़े होकर सर पढ़ा रहे हैं और एकाएक बंटी के सामने सर के कपड़े उतर जाते हैं। एक अनंत सिलसिला...जोत कभी अपने रूप में और कभी ममी के रूप में सामने आती है। वह उसके फ्रॉक में से झाँकने की कोशिश करता है। ममी जैसा तो कहीं कुछ नहीं है, शायद बड़े होकर सबकुछ वैसा ही हो जाएगा !

और फिर सब जगह वही...वही...।

पर साँझ घिरने के साथ-साथ और सारी भावनाएँ तो गायब हो गईं, रह गई सिर्फ एक अपराध-भावना। कुछ बहुत ही गंदा काम करने की अपराध-भावना। क्यों आईं ममी यहाँ, क्यों लाईं उसे ? आज एक मिनट भी पढ़ने में मन लगा है उसका स्कूल में ? अब किस तरह पढ़ेगा वह ? उसने कसकर उँगलियों का क्रॉस बनाया...नहीं-नहीं, वह अब कभी नहीं सोचेगा इन बातों को ! कितना पाप चढ़ा होगा आज उस पर ! क्या करे वह ? जैसे अजीब-सी असहायता घिर आई उसके चारों ओर ! और रात आते ही यह अपराध-भावना भय में बदलने लगी है। पता नहीं किसका भय, कैसा भय ? पर कुछ है जो उसे दबोचे जा रहा है। खाने की  मेज़ पर...'बंटी, यह पुलाव लो बेटे-सलाद नहीं खाते, अरे यह तो बहुत फ़ायदा करता है...तुम्हें क्या दें अमि...बंसीलाल, आलू की सब्जी...' ये सारे वाक्य, बरतनों की खड़-खड़, चम्मच-प्लेटों की टकराहट, आसपास बैठे लोग सब गड्डमड्ड होकर जैसे एक अँधेरे में डूबते जा रहे हैं, और अँधेरा है कि बढ़ता ही जा रहा है।

ममी बगल में बैठी बंटी का सिर सहला रही हैं, "सो जा बेटे, मैं तेरे पास हूँ। आज बंसीलाल से कह दिया है, वह दरवाजे के पास बरामदे में ही सो जाएगा, बरामदे की बत्ती भी जली रहेगी। फिर अमि है, जोत है...राजा बेटा मेरा !"

बड़ी देर तक सिर सहलाने के बाद ममी गई हैं। बत्ती बंद करते ही कमरे का सारा अँधेरा बंटी के मन में भर गया, भर ही नहीं गया, जैसे जम गया है। मन में आकर अँधेरा जम जाए तो कैसा लगता है, कोई जान सकता है ?

खट, ममी के कमरे का दरवाजा बंद हआ और बंटी की आँख के सामने चारों ओर नीली रोशनी फैल गई और फिर वही...फिर उसकी उँगलियाँ कसकर एक-दूसरे से लिपट गई...नहीं...नहीं।

रात-भर बंटी किन-किन लोगों के बीच भटकता रहा है...सब अनजाने-अपरिचित चेहरे...अनदेखी जगह ! वह कैसे आ गया यहाँ पर ? ढेर सारे नंगे लोग...बिलकुल नंग-धडंग। आ रहे हैं, जा रहे हैं...कहीं भी खड़े होकर सू-सू कर रहे हैं। वह भी नंगा होकर घूम रहा है। सू-सू आई तो वहीं खड़ा-खड़ा करने लगा। सू-सू है कि खत्म ही नहीं हो रही है, कितनी ढेर सारी सू-सू की है उसने।

यह क्या ? सू-सू से सारा बिस्तर भीगा हुआ है। एक क्षण तो जैसे समझ में ही नहीं आया कि क्या हो गया ! और जब समझ में आया तो एक दूसरी तरह के भय ने जैसे जकड़ लिया। भय नहीं, शरम...सबके बीच नंगे हो जाने जैसी शरम।

खिड़की के पार, सवेरा होने के पहलेवाली फीकी-फीकी रोशनी फैल रही है। अब वह क्या करे ? हाथ फेरकर देखा, सारा बिस्तर गीला है, सारे कपड़े गीले हैं। उठकर कहाँ जाए, कैसे कपड़े बदले ! और बिस्तर ? सवेरा होते ही सबको मालूम हो जाएगा। जोत, अमि, डॉक्टर साहब, बंसीलाल-क्या कहेंगे सब लोग ? क्या सोचेंगे ! शरम, दुख, गुस्सा और फिर आँसू-ढेर-ढेर आँसू !

अमि और जोत उठे हैं। जोत ने उसे आवाज़ भी दी, पर वह है कि साँस तक रोके पड़ा है। वे दोनों तो चले गए, पर वह कैसे उठे ?

"बंटी, उठ बेटा, स्कूल नहीं जाना ?" पर बंटी ज्यों का त्यों पड़ा है। वह नहीं उठेगा। आज भी नहीं, कल भी नहीं...सारी ज़िंदगी नहीं उठेगा। जैसे वह सो नहीं रहा है, बस बिस्तर में जम गया है।

ममी ने पास आकर रजाई उठाई तो उसने और कसकर आँखें मूंद लीं। कोई ऐसा जादू नहीं हो सकता कि बिस्तर सहित गायब हो जाए ?

“अरे यह क्या, ओह !”

“गुड मार्निंग किड्स !" दरवाजे पर डॉक्टर साहब की आवाज़ सारे कमरे में फैल गई। अमि-जोत तो चले भी गए, उसे देखने के लिए ही तो आए हैं।

ममी ने जल्दी से उस पर फिर रजाई डाल दी।

“तुम ज़रा उधर चलो।" और फिर उसे गीले कपड़ों के साथ ही ऊपर से नीचे तक अपने शॉल में लपेट दिया और उसके गीले बिस्तर पर रजाई ढक दी। बंटी को कँपकँपी छूट रही है, पता नहीं सर्दी से या डर से। ममी बचाएँगी, पर आख़िर कितनी देर तक।

अपने कमरे में लाकर ममी जल्दी-जल्दी उसके कपड़े बदलवा रही हैं। चेहरे पर ढेर-ढेर परेशानी है।

"सू-सू करके नहीं सोया था बेटा ? रात में आया था तो बंसीलाल को क्यों नहीं जगा लिया ?"

पर बंटी से कुछ नहीं बोला जा रहा है। मन का सारा भय और आवेश केवल हिचकियों में फूटा पड़ रहा है।

“अब रो मत ! रोता हआ देखेंगे तो क्या कहेंगे सब लोग ? मैं किसी को पता भी नहीं लगने दूँगी। चुप हो जा एकदम।"

और ड्रेसिंग-टेबुल के सामने लाकर उसके बाल बनाने लगी तो फिर वही शीशी...वह भीतर तक काँप गया।

नाश्ते की मेज़ पर बैठा तो उसकी नज़र नहीं उठ रही है। सब जल्दी-जल्दी नाश्ता कर रहे हैं। सब कुछ न कुछ बोल भी रहे हैं, पर बंटी को लग रहा है कि जैसे सब चुप हैं और कुछ नहीं कर रहे हैं, केवल उसी की ओर देख रहे हैं। जैसे सबको मालूम हो गया है कि उसने बिस्तर में सू-सू कर दिया है। बिना देखे ही वह देख रहा है, ममी के चेहरे पर परेशानी है, डॉक्टर साहब के चेहरे पर उपेक्षा है, जोत के चेहरे पर दया और अमि के चेहरे पर शैतानी...चिढ़ानेवाला भाव। टोस्ट सेंक-सेंककर देता हुआ बंसीलाल मुसकरा रहा है कि देखो, इतना बड़ा बच्चा और...

बस, बंटी ही है कि बेहद-बेहद शर्मिंदा, अपनी ही नज़रों में गिरा, सबसे तुच्छ बना, जैसे-तैसे दूध के घूट निगल रहा है। दूध से ज़्यादा आँसू के छूट निगल रहा है।

ममी परेशान हो-होकर पूछ रही हैं और हाथ में वही जादुई शीशी, जो बिलकुल खाली है।

"तुमने शीशी खोली थी जोत ?"
"नहीं ममी, मैं तो आपके कमरे में गई ही नहीं।"
“अमि, तुमने तो नहीं गिराया बच्चे ?"
"नहीं," बिना ममी की ओर देखे, बड़ी लापरवाही से उसने जवाब दिया।
"गिराया हो तो बता दो बेटे, गिराया नहीं हो, मान लो गलती से गिर गया हो तो बता दो। मैं कुछ नहीं कहँगी।"

“नहीं, हमने खोली ही नहीं शीशी...हम क्या सेंट लगाते हैं ?"

"बंटी, तुमसे गिरा बेटे ?''

"नहीं," पर बंटी को ख़ुद लगा जैसे अमि की तरह दबंग ढंग से वह 'नहीं' नहीं कर सका। और ये ममी हैं कि उसे ही घूरे जा रही हैं ! जोत और अमि को क्यों नहीं घूरती ऐसे ? एक मैं ही तो हूँ फालतू !

पर गुस्सा है कि टिक नहीं पा रहा है। एक डर है...कहीं यह शीशी ही नहीं बोलने लगे-मैं बताती हूँ असली चोर !

कल जब पीछे के मैदान में उँडेलकर ढेर सारी मिट्टी ऊपर से डालकर हाँफता-हाँफता वह आया था तो ठीक सिनेमा में देखे कार्टून-फ़िल्म की तरह उस शीशी के हाथ-पैर, आँख-नाक निकल आए थे और वह बड़ी देर तक उसके आगे-पीछे नाचती रही थी।

"कमाल है ! सारी की सारी शीशी उलट गई और कमरे में कहीं खुशबू का नाम तक नहीं। तुम लोगों ने नहीं गिराई, बंसीलाल ने सफ़ाई करते समय नहीं गिराई। गिरती तो सारा कमरा गमक जाता। कहाँ गया सारा सेंट ? यह तो जैसे कोई जादू हो गया।"

'जादू' शब्द से ही जैसे एक बार ऊपर से नीचे तक फिर से एक सुरसुरी-सी दौड़ गई। बंटी ने दोनों हाथों से कसकर कुर्सी पकड़ ली।

शेव करने के बाद तौलिए से मुँह को खूब ज़ोर-ज़ोर से रगड़ते हुए डॉक्टर साहब बोले, “अरे छोड़ो अब ! इतवार के दिन क्यों सवेरे-सवेरे यह पचड़ा लेकर बैठ गईं। जो हुआ सो हुआ और मँगवा लेंगे।"

"मँगवाने की बात नहीं है, पर आख़िर जा कहाँ सकती है ?" ममी जैसे अपने से ही बोल रही हैं। स्वर में खीज और परेशानी है और चेहरे पर जैसे कोई गहरी चिंता उभर आई है।

"...कहा न, फारगेट अबाउट इट !" डॉक्टर साहब ने ममी का कंधा थपथपा दिया। “एक सेंट की शीशी ही तो उलट गई है न, कोई दुनिया-जहान तो नहीं उलट गया।"

"तुम्हारी दी हुई चीज़ थी-बुरा नहीं लगेगा ? सवेरे-सवेरे मूड खराब हो गया।"

हुँह ! तो इसलिए परेशान हो रही थीं ममी ! और इसके साथ ही भय की जगह एक संतोष जागा और एकाएक नज़र ममी की जगमगाती हुई अँगूठी पर चली गई-यह भी डॉक्टर साहब ने ही पहनाई थी।

शादी का सारा का सारा दृश्य फिर आँखों के सामने घूम गया। मन में फिर कहीं कुछ कुलबुलाने लगा।

कोठी के दरवाजे में घुसते ही बाईं ओर को दो कमरे और एक बरामदा है। सवेरे आठ बजे से साढ़े बारह बजे तक डॉक्टर साहब यहीं रोगियों को देखते हैं। बरामदे के खम्भे पर परिवार नियोजन का एक बड़ा-सा बोर्ड लगा है। डॉक्टर की सलाह मानिए-दो या तीन बच्चे बस-

बंटी बरामदे के एक कोने में बस्ते के ऊपर बैठा हुआ बस की राह देख रहा है। बरामदे की बेंचें रोगियों से भरी हैं, दो-एक ज़मीन पर भी बैठे हैं। बंटी बड़े कौतूहल से उन्हें देख रहा है। कमरे में डॉक्टर साहब बैठे हैं। यहाँ से बंटी को वे भी दिखाई दे रहे हैं। शायद रोगी बारी-बारी से अंदर जाते हैं। कैसे देखा जाता है रोगियों को ? कैसे पता चल जाता है कि किसको क्या बीमारी है ?

“नहीं है हालत तो बच्चे मत पैदा करो भाई ! इस देश के लोगों को तो तीन भी नहीं, कुल दो बच्चे पैदा करने चाहिए। खाने की कमी-कपड़े की कमी-जगह की कमी-नौकरियों की कमी..."

पों...पों...बंटी बस्ता लेकर भागा।

"क्यों रे बंटी, तू गाड़ी में क्यों नहीं आता यार ?"

"क्यों आऊँगा गाड़ी में ? घर से निकलो और सीधे स्कूल पहुँच जाओ। न किसी से बोल सको न कुछ। बस में कितना मज़ा रहता है। गाड़ी में तो मैं शाम को घूमता हूँ।"

पर भीतर से कोई बोल रहा है। झूठ-झूठ ! 'नहीं बेटे, बच्चे लोग यहाँ सोएँगे।' एक कमरा उभरता है और ढह जाता है। फिर एक कमरे में जैसे-तैसे ठूसा हुआ सामान-अपने घर का सामान-उदास-उदास-सा-और उतना ही उदास-सा बंटी उसे उस सामान के बीच खड़ा दिखाई देता है..

कहीं कोई और कुछ न पूछे इसलिए बंटी बाहर सड़क की ओर देखने लगता है। अचानक फूफी की याद आ गई...झूठ बोलने से भगवान के घर बड़ी कड़ी सज़ा मिलती है, बंटी भय्या-चोरी करने से पाप लगता है।

वह कितना झूठ बोलने लगा है आजकल ! सब गंदे-गंदे काम करता है, गंदी-गंदी बातें सोचता है। क्या होगा अब उसका ?

ड्राइंग की क्लास हो रही है। सर ने बोर्ड पर एक बोतल और एक प्लेट-प्याला खींच दिया-बनाओ अपनी-अपनी कापियों में।

क्लास में शोर होने लगा। कोई किसी से रबड़ माँग रहा है, तो कोई किसी से शार्पनर। कुछ लड़कों के बीच क्रास-ज़ीरोवाला खेल शुरू हो गया। 'चुप-चुप करो !' थोड़ी-थोड़ी देर बाद सर सारे पीरियड तक इसी तरह चिल्लाएँगे।

"बताओ तुमने खोली शीशी-तुमने खोली शीशी-तुमने खोली..."

बोर्ड पर प्लेट-प्याले की जगह ममी का चेहरा घूमने लगता है। वह क्या समझता नहीं, ममी उसी पर शक कर रही हैं, करें, उसका क्या जाता है ? उससे कहकर देखें !

फिर बोर्ड पर बनी बोतल एकाएक, डॉक्टर साहब की टाँगों के बीच में आकर उलटी लटक गई। छी-छी, फिर वही सब बातें। उसने मन ही मन प्रॉमिस किया था कि वह अब कभी ऐसी गंदी बात नहीं सोचेगा, पर बात है कि फिर भी मन में आ ही जाती है।

उसने उँगलियों का क्रॉस बनाया-अब कभी नहीं, अब कभी नहीं।

भूगोल की क्लास चल रही है। गंगा की यात्रा-'गंगा हिंदुओं की पवित्र और हिंदुस्तान की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण नदी है। यह हिमालय पर्वत के गंगोत्री नामक ग्लेशियर से निकलती है...'

सर स्केल से बोर्ड पर लटके मैप में गंगोत्री दिखा रहे हैं- “पहाड़ी मार्ग में ही इसमें अलकनंदा और मंदाकिनी नामक नदियाँ आकर मिलती हैं, तो इसकी धारा मोटी और गति तेज़ हो जाती है। हरिद्वार पर आकर इसका मैदानी मार्ग शुरू हो जाता है। हरिद्वार हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थान है...''

और सर ने स्केल से नक्शे में हरिद्वार दिखा दिया। पर नक्शे के हरिद्वार से बंटी के मन में हरिद्वार की कोई तसवीर नहीं उभरती है।

गंगा तो आगे चली जाती है, पर बंटी के मन में हरिद्वार ही अटककर रह जाता है। नदी के किनारे कोई जगह है, पता नहीं कौन-सी। पर वहीं फूफी आँखें मूंदे माला फेर रही है। बंटी झपटकर माला छीन लेता है। फूफी चिल्ला रही है-अरे बंटी भय्या, पाप लगेगा। पूजा में विघन डालते हो, कइसे पापी हो !

और बंटी आँखें मूंदकर माला फेरने लगता है। जोर-जोर से बोलकर 'धरमी करे धरम, फल पापी के होय।' फूफी उसके पीछे दौड़ती है। वह माला पानी में फेंकने लगता है कि अचानक माला शीशी में बदल जाती है। वह खड़ा-खड़ा शीशी में से पानी में कुछ उलट रहा है...बताओ, तुमने खोली शीशी, तुमने खोली...

"लोगों का ऐसा विश्वास है कि संगम में नहाकर सारे पाप धुल जाते हैं।" संगम कैसे जाया जाता होगा ? वह भी एक बार ज़रूर जाएगा-बंटी का पाप भी ज़रूर धुल जाएगा।

"बंगाल में आकर इसका नाम हुगली हो जाता है। कलकत्ता इसके किनारे एक बहुत बड़ा बंदरगाह है।"

कलकत्ता...और ढेर सारे बंदरों के बीच उसे पापा का चेहरा दिखाई देने लगता है। पापा के तरह-तरह के चेहरे।

कितनी बार उसने सोचा, पर पापा को चिट्ठी नहीं लिखी। अच्छा, पापा ही लिख देते। उन्हें क्या मालूम नहीं कि ममी उसे लेकर दूसरे घर में आ गई हैं ! वकील चाचा भी कितने दिनों से नहीं आए ?

“अच्छा अरूप, बताओ गंगा कहाँ से निकली है ?"

बंटी खड़ा हो गया। गंगा, नक्शा, हरिद्वार, फूफी, बंदर, पापा, संगम-जाने कितने नाम हैं, जाने कितने चेहरे हैं कि भीड़-सी लग जाती है और सब गड्डमड्ड हो जाते हैं, एक के ऊपर एक, और पता नहीं लगता कि गंगा कहाँ से निकली ?

बंटी स्कूल से लौटा तो ममी घर में ही मिलीं। अमि-जोत नहीं लौटे थे और ममी अकेले ही थीं। बंटी को अच्छा लगा। अकेली ममी हों तो घर भी अपना लगने लगता है।

"तुम आज कॉलेज नहीं गईं ममी ?"

“नहीं बेटे ! सब सामान ज़माना था इसलिए दो दिन की छुट्टी ले ली।" ममी ने बंटी के हाथ से बस्ता ले लिया। कमरे में आया तो देखा जोत की और अमि की अलमारी के बगल में एक और लंबी-सी अलमारी खड़ी है।

“देख बंटी, तेरे लिए यह अलमारी लगवा दी है। दो खानों में तेरे कपड़े हैं और दो में तेरे खिलौने। अब ठीक से रखना अपनी अलमारी को।"

ममी इस समय कैसी लग रही हैं ! टीटू की अम्मा काम करते हुए जैसी लगती थीं, वैसी ही।

बंटी ने अलमारी खोली। दवाइयों की बदबू का एक भभका-सा उड़कर आया।

“यह क्या, इनमें से कैसी दवाई-दवाई की-सी बदबू आ रही है ?" बंटी छिटककर पीछे हट गया।

"कुछ नहीं बेटा, डॉक्टर साहब की दवाइयों की अलमारी मैंने तेरे लिए खाली करवा ली। दो-चार दिन में यह महक उड़ जाएगी।"

"नहीं चाहिए हमें ऐसी अलमारी ! घर का सारा आलतू-फालतू सामान मेरे लिए ! अपने लिए कैसा बढ़िया कमरा, कैसी बढ़िया अलमारी..."

ममी एकदम पलटकर खड़ी हो गईं, एक क्षण बंटी का चेहरा देखती रहीं फिर पास आकर दोनों हाथ पकड़े और खींचकर पलंग पर बैठ गईं-“क्या कह रहा है, यह आलतू-फालतू सामान है ? पता है डॉक्टर साहब के कितने काम की थी यह अलमारी-मैंने ख़ासतौर से तेरे लिए खाली करवाई और तू है कि..."

“तो क्यों खाली करवाई ? दे दो डॉक्टर साहब की अलमारी उन्हें..."

"बंटी !" और ममी एकटक उसका चेहरा देख रही हैं। क्या है उसके चेहरे पर जो ऐसे देख रही हैं।

“एक बात कहूँ बेटे, मानेगा ?"

अब बंटी की आँखें ममी के चेहरे पर टिक गईं।

"तू डॉक्टर साहब को पापा क्यों नहीं कहता ?"

बंटी चुप। आँखों के आगे कहीं अपने पापा की तसवीर तैर गई।

"बोल, कहेगा न अब से ?"

"नहीं !"

"क्यों ?"

"मेरे पापा तो कलकत्ते में हैं।"

ममी एक क्षण चुप। चेहरा कहीं हलके से सख्त हो आया।

"ठीक है, हैं। पर जोत और अमि भी तो मुझे ममी कहते हैं।"

"उनकी ममी मर गई हैं इसलिए कहते हैं, मैं क्यों कहूँ ?"

ममी उसे देखती रहीं और वह भी ममी को देखता रहा। एकटक, बिना नज़र हटाए, बिना झिझके।

इतने में पोर्टिको में कार के रुकने की आवाज़ आई तो ममी बंटी के हाथ छोड़कर उठ पड़ीं- "ठीक है बंटी, जो तेरी समझ में आए कर !" स्वर में सख्ती नहीं थी, गुस्सा भी नहीं था। शायद दुख था।

जोत और अमि अपना-अपना बस्ता उठाए गाड़ी से उतरे।

'बंटी, तू गाड़ी में क्यों नहीं आता यार ?' यह वाक्य कहीं से मन में कौंधा और डूब गया।

“आ गए तुम लोग ? चलो, जल्दी से हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलो। मैं नाश्ता लगवाती हूँ। देखो, बंटी को भी रोक रखा था अभी तक !"

हाँ, बंटी तो है ही फालतू। अभी ये लोग घंटा-भर और नहीं आते तो तुम और रोके रखतीं बंटी को-बंटी को भूख थोड़े ही लगती है।

'अरे बंटी भैया, तुम पहले कुछ खा लो, सवेरे के गए हो, तुम्हें भूख नहीं लगती ? हमारा तो यहाँ जी कलपता रहता है तुम्हारे मारे...' उसे फूफी याद आ जाती है।

ममी मेज़ लगाती हुई कैसी लग रही हैं ? वहाँ तो बस, एकदप प्रिंसिपल बनी रहती थीं।

“यह लंबूतरी अलमारी बंटी भैया की है ?” वही हनुमानवाले लाल कपड़े पहन आया है अमि। लंबूतरी-कबूतरी-बंदर कहीं का ! ऐसी फालतू-सी चीज़ उसे दे दी है तो मज़ाक नहीं उड़ाएँगे सब लोग !

खाने की मेज़ पर बैठे कि कॉलेज का माली आ गया और ज़मीन तक झुककर सलाम किया।

“नमस्ते बंटी भैया, कैसे हो ?" हाथ जोड़े-जोड़े ही उसने पूछा तो बंटी उछलकर माली के पास आ खड़ा हुआ।

“माली दादा, कैसा है मेरा बगीचा ? तुम ठीक से पानी तो देते हो न ? उस पीले गुलाब की कलियाँ खिल गईं', कितनी बातें उसे पूछनी हैं। माली क्या आया जैसे उसके साथ बंटी का घर चला आया, बंटी का बगीचा चला आया।

एक के बाद एक फूलों के नाम लिए जा रहा था बंटी और उत्साह है कि जैसे मन में समा नहीं रहा है।

“माली, अब उससे भी अच्छा बगीचा यहाँ लगाओ बंटी के लिए। पहले यहाँ की सफ़ाई करके खाद-वाद डाल दो। फिर जो गमले और पौधे ज्यों के त्यों आ सकें उन्हें वैसे ही ले आना, बाकी..."

“एकदम नहीं आएँगे पौधे। मेरे बगीचे को हाथ नहीं लगाएगा कोई। मैं अभी से कह देता हूँ। माली दादा, तुम बिलकुल नहीं छूना।" स्वर में आवेश भी है, और आदेश भी। यह उसके अधिकार की सीमा है। तुमने कमरा नहीं दिया, लंबूतरी अलमारी लगा दी, बहुत चाहने पर भी वह जैसे कुछ बोल ही नहीं सका। पर उसका बगीचा...

माली की गिजगिजी आँखों में जैसे कुछ तैरने लगा।

“इसे बनाए न तू अपना बगीचा !" ममी ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर जैसे मनुहार की।

"नहीं, बिलकुल नहीं है यह मेरा बगीचा ! बीज और कलम लगा-लगाकर बनाओ, अपना बगीचा तो पता लगेगा कैसे बनता है बगीचा !"

“ऐसा ही होता है बहूजी, ऐसा ही होता है। अपने बोए-सींचे पौधों से ऐसा ही मोह होता है, बिलकुल संतान-जैसा। जहाँ एक बार लगाओ वहाँ से उखाड़ा नहीं जाता।" और फिर थरथराते गले से बोला, “तुम एक बार आकर देख जाना बटी भैया ! तुम्हारे बगीचे को तो मैं जान से भी ज़्यादा रखता हूँ।"

बंटी माली के हाथ से झूम गया। माली के हाथ को छूकर लग रहा है, जैसे वह अपना बगीचा छू रहा है...उस पर हाथ फेर रहा है। कल-परसों वह किसी दिन ज़रूर जाएगा।

ममी जब तक बताती रहीं कि यहाँ क्या-क्या करना होगा, बंटी वैसे ही उसके हाथ पर झूलता रहा। जब माली जाने लगा तो उसे गेट तक छोड़ने गया।

“कल फिर आना माली दादा...रोज़ आया करना !" और जब तक माली दिखता रहा, बंटी उधर ही देखता रहा।

बच्चे पढ़ाई करने बैठे तो एक महाभारत छिड़ गया। अमि अपनी मेज़ पर से बंटी की किताबें उठा-उठाकर फेंक रहा है और चिल्ला रहा है, “किसने हटाई मेरी किताबें यहाँ से ? यह मेरी मेज़ है, किसी को नहीं दूंगा मैं अपनी मेज़।"

“ऐ अमि, क्या पागलपन कर रहा है ? ममी ने तेरी किताबें मेरी मेज़ पर रख दी हैं, यहाँ बैठकर पढ़ ले।" पर जोत अमि को रोकती-रोकती इतने में बंटी घुसा और “ले...ले और फेंक मेरी किताबें, और फेंक..." और अमि की किताबें हवा में कलाबाज़ी खाती हुई ज़मीन पर लोट गईं, और फिर दोनों गुंथ गए... घूसे-मुक्के। बंटी ने खींचकर-खींचकर दो थप्पड़ जड़े तो अमि ज़ोर से चीखा और बंटी की बाँह पर दाँत भरकर काट लिया।

“मार डाला रेऽ...”

ममी दौड़ी हुई आईं... “यह क्या हो रहा है ?" उन्होंने झपटकर दोनों को अलग किया। बिना कुछ किए ही जोत एक ओर को अपराधी-सी खड़ी हो गई।

“मैं मारूँगा इसको...मारूँगा, देखो क्या किया है इसने !" और गुस्से से काँपते हुए बंटी ने अपनी बाँह आगे कर दी। दो दाँत माँस के भीतर तक गड़ गए थे और खून छलक आया था।

“अमि, यह क्या किया है तूने ? इस तरह काटते हैं बड़े भैया को ?" ममी ने बहुत सख्त आवाज़ में कहा।

अमि रोता जा रहा है और घर-घूरकर बंटी को देखता जा रहा है।

बस, हो गया डाँटना ? लगाती न थप्पड़ ! अभी वह ऐसे काट लेता तो ? बंसीलाल अमि को बाहर ले गया तो ममी ने बहुत प्यार से बंटी को बाँह में भर लिया, "चल टिंचर लगा देती हैं।"

"नहीं लगाना मुझे टिंचर, मुझे कुछ नहीं करवाना।” पता नहीं उसकी आवाज़ में गुस्सा था या दुख कि ममी की आँखें छलछला आईं... “चल बेटे, शाम को डॉक्टर साहब से डाँट पड़वाऊँगी अमि को।"

हाँ, डॉक्टर साहब से डाँट पड़वाएँगी ! जैसे ख़ुद नहीं डाँट सकती थीं न ? और बंटी हाथ छुड़ाकर भाग गया। उसने टिंचर भी नहीं लगवाया। उस रात बंटी ने खाना भी नहीं खाया। डॉक्टर साहब ने अमि को डाँटा, कान खींचा। बंटी को प्यार किया, समझाया कि दो दिन बाद ही तुम्हारी मेज़ बनकर आ जाएगी-एकदम नई और इन सबसे बढ़िया। पर बंटी अपने पलंग पर से हिला तक नहीं।

“तुम तो बहुत जिद्दी हो यार !'' डॉक्टर साहब लौट गए। और जाने कैसे पापा आकर बैठ गए-तुम हमारे साथ कलकत्ते चलोगे बंटी-खूब घुमाएँगे-फिराएँगे।

वह कल ही पापा को चिट्ठी लिखेगा।

बंटी बस के लिए खड़ा है। रोज़ की तरह डॉक्टर साहब रोगियों को देख रहे हैं, पर वह किसी की भी तरफ़ नहीं देख रहा। रात वाला गुस्सा अभी भी भरा है मन में। सवेरे उसने किसी से बात नहीं की, अब वह किसी से नहीं बोलेगा, कभी नहीं बोलेगा। सामने लगे लाल तिकोन को घूर-घूरकर देख रहा है बंटी। डॉक्टर साहब के शब्द तैर जाते हैं इस देश में तो तीन भी नहीं, दो, बस दो बच्चे पैदा करने चाहिए।

तीसरा बच्चा फालतू बच्चा-तीसरा बंटी, फालतू बंटी...

'अब तू कार में क्यों नहीं आता यार ?'

अमि और जोत की अलमारियाँ- 'यह लंबूतरी अलमारी बंटी भैया की है ?' अमि और जोत की मेज़-'किसी को नहीं दूंगा मैं अपनी मेज़-यह मेरी है-।'

अपना-अपना बस्ता लिए, कार में बैठे हुए अमि और जोत सर्र से निकल जाते हैं, सर से घुस जाते हैं।

ड्राइवर, जाओ, डॉक्टर साहब को ले आओ।

ड्राइवर, जाओ, कॉलेज से मेम साहब को ले आओ।

बस, फालतू बंटी बस के लिए खड़ा है।

आपका बंटी (उपन्यास) : तेरह

अपने घर से उखड़कर बंटी जैसे सभी जगह से उखड़ गया, क्लास में बैठा रहता है तो मन में घर तैरता रहता है...ममी, अमि, ममी का कमरा, कमरे का जादू...

और भी जाने क्या-क्या। सबके बीच होकर भी जैसे वह सबसे कटा-छंटा, अलग-थलग सबको देखता रहता है। और जब घर में होता है तो आँखों के आगे कभी स्कूल तैरता रहता है तो कभी अपना पुराना घर, अपना बगीचा, बगीचे का एक-एक पौधा और पौधे की एक-एक पत्ती, फूफी, माली दादा, ममी-वहाँवाली ममी।

रात में कहानी पढ़ता है और बड़ी मुश्किल से पाई हुई राजकुमार की जादू की दूरबीन उसकी आँखों पर लग जाती है। लो, नीली रोशनी में नहाया हुआ ममी का कमरा आँखों के सामने झिलमिलाने लगता है...कमरा, कमरे की हर चीज़ और वह सबकुछ जो उसने वहाँ देखा था। बस, जहाँ वह होता है वहीं नहीं रहता, और सब जगह रहता है, सबकुछ देखता रहता है।

एक रेल एक सौ पच्चीस यात्रियों को लेकर जा रही है। एक स्टेशन पर उसमें से अड़तालीस यात्री उतर जाते हैं और छप्पन यात्री चढ़ जाते हैं तो बताओ..."

पापा रेल में बैठकर कब आएँगे ? आज पापा को वह ज़रूर-ज़रूर चिट्ठी लिखेगा...सारी बात लिखेगा।

“पहले कुल यात्रियों में से उतरनेवाले यात्रियों को घटाओ, फिर बचे हुए यात्रियों में चढनेवाले यात्रियों को..."

फूफी को ठेलकर चपरासी ने चढ़ा दिया। पता नहीं और कितने यात्री चढ़े। बस, भीड़ ही भीड़ तो थी...ढेर-ढेर आदमी। कोई गिन सकता था। वह सारा शोर आसपास भनभनाने लगा। नहीं, शायद सब लड़के बातें करने लगे।

कुछ पता ही नहीं किसको घटा दिया, किसको जोड़ दिया। अच्छा हुआ सर ने एक बार भी उससे सवाल नहीं पूछा, नहीं तो क्या बताता वह ? अब ममी से समझेगा। मन तो करता है, कुछ नहीं समझे। सब गलत करके ले जाए। फ़ेल हो जाए। फिर ममी पूछे तो उससे कि क्यों हुआ फेल ?

सचमुच फेल हो गया तो अमि और जोत क्या सोचेंगे...फेलू, फेलू। अमि सामने से दौड़ गया। डॉक्टर साहब क्या सोचेंगे ? पर इस बार वह ज़रूर फेल हो जाएगा। उसके दिमाग में कुछ भी तो नहीं घुसता। पढ़ने में उसका बिलकुल-बिलकुल मन नहीं लगता। पापा को मालूम पड़ेगा तो ?

बंटी स्कूल से लौटा तो घर में घुसते ही नज़र फिर उसी 'लाल तिकोन' पर गई। तीसरा बच्चा...

इस समय घर में कोई नहीं है। यह कोई नई बात नहीं है। उस घर में भी तो स्कूल से आकर वह अकेला ही रहता था, ममी तो उसके बाद आती थीं, पर इस घर में आकर पुरानी बात भी नई लगती है। नई और अजीब ! यहाँ अकेले होकर वह कितना ज़्यादा अकेला हो जाता है। सब के आने तक बस गुमसुम बैठा रहता है।

भारी-भरकम बस्ता कमरे के एक कोने में रखा और फिर लाल हो आई अपनी उँगलियों को सहलाने लगा। तभी नज़र दीवार के सहारे रखी नई मेज़ पर गई। पुलककर वह मेज़ के पास आया। एकदम नई और चिकनी। हाथ फेरकर देखा तो अच्छा लगा। फिर पता नहीं क्या हुआ कि लौट आया। गड़े हुए दाँतों का दर्द जैसे फिर से कहीं उभर आया। नहीं, वह कोई मेज़-वेज़ नहीं लेगा। यहाँ का कुछ भी नहीं लेगा।

अमि और जोत अपनी-अपनी मेज़ पर बैठकर काम करेंगे। उसने तो एक कोने में जमीन पर ही अपना सबकुछ जमा लिया है। इन दोनों के साथ जब वह रोज-रोज जमीन पर बैठकर पढ़ा करेगा तो ममी कितनी दुखी होंगी, कितना परेशान होंगी। अच्छा है, वह चाहता है कि ममी परेशान हों, दुखी हों।

यहाँ आकर जाने कैसे ममी की परेशानी और दुख के साथ उसका संतोष और सुख जुड़ गया है। एक बदला...

बदला ! और एकाएक ख़याल आया, वह इस समय पापा को चिट्ठी क्यों नहीं लिख लेता। अगर आज पूरी नहीं हुई तो फिर कल इसी समय लिखेगा। दो-तीन दिन में तो पूरी हो ही जाएगी। किसी के सामने तो लिख भी नहीं सकता। प्राइवेटवाली जो है। अधूरी चिट्ठी अपने कपड़ों के नीचे छिपाकर रख देगा, बस। इस बार अगर पापा ने चलने को कहा तो वह चला जाएगा। ममी खूब रोएँगी...रोती रहें।

किसी काम से बंसीलाल उधर आया... “आ गए बंटी भैया ?" और चला गया। खाने-नाश्ते की कोई बात नहीं हुई। उसे कौन भूख लगी है !

ममी के कमरे का दरवाज़ा उढ़का हुआ है बस। एक बार भीतर जाने की इच्छा हो आई। बंटी ने धीरे से दरवाजा खोला, कमरा साफ़ और जमा हुआ। वह भीतर घुसा तो मन में एक अजीब-सा भय समा गया। जैसे कोई चोरी कर रहा हो। और क्षण-भर को इच्छा कौंधी-कोई चीज़ यहाँ से उठाकर ले जाए और अपनी अलमारी में छिपा दे-लंबूतरी-

पलंग को देखते ही फिर गंदी-गंदी बातें दिमाग में आने लगीं। उँगलियों का क्रॉस कितना बेकार हो जाता है ऐसे मौकों पर।

फिर एक डर और डर से भी ज्यादा कौतूहल। उसने धीरे से टेबुल की दराज़ खोली-पता नहीं क्या निकल आए। पर ज़्यादा उलटने-पलटने की हिम्मत नहीं हुई सो वापस बंद कर दी। रोज़ थोड़ा-थोड़ा करके देखेगा तो एक दिन ज़रूर पता लगेगा। पर क्या ? उसे ख़ुद नहीं मालूम कि किस बात का पता लगाना है। वह तो इतना जानता है कि इस कमरे में बहुत-सी बातें हैं बड़ी अजीब-अजीब ! रात में होनेवाली, छिपकर होनेवाली ! उस दिन रात में डरकर जब आ गया था तो क्या मालूम था कि यहाँ क्या पता लग जाएगा। ऐसी और भी बहुत-सी बातें होंगी इस कमरे में और फिर कुछ वैसा ही देख-जान लेने को मन अकुलाने लगा।

अचानक बाहर कोई खटका हुआ तो बंटी भागकर अपने कमरे में आ गया। दरवाज़ा बंद करना भी भूल गया। अब तो ज़रूर पता लग जाएगा।

पापा की चिट्ठी कल शुरू करेगा। आज सोच ले कि क्या-क्या लिखना है। बंटी पोर्टिको की सीढ़ियों पर आ खड़ा हुआ। सामने के ऊबड़-खाबड़ मैदान के बीच ही कहीं अपना बगीचा लहलहा आया-गुलाब, डेलिया, मोर-पंखी की मीनारें-हवा में थिरकती हुई घास की फुनगियाँ-घास के बीच बल खाता पाइप।

आज भी माली दादा आएगा। उसकी पानी देने की छोटी-सी झारी, छोटी-सी कुदाली-फावड़ा सब लेकर। ये सब वहीं छूट गए थे।

गाड़ी फाटक में घुसी तो लगा जैसे वह इतनी देर तक अमि और जोत की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी भीतर आई तो देखा ममी भी इन्हीं लोगों के साथ आ गई हैं।

खट-खट फाटक खुले। आगे-आगे बस्ता लिए अमि और जोत, पीछे पर्स लिए ममी...लाल तिकोन...

“तू यहाँ खड़ा-खड़ा हमारी राह देख रहा था ?" जोत ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया।

“अपनी मेज़ देखी बेटे ? पसंद आई ? यह क्या, जमाई नहीं किताबें ? हर काम मैं ही करूँगी तेरा ?"

आठ बजे डॉक्टर साहब लौटे और साढ़े आठ पर सब लोग खाने की मेज़ पर आ गए।

“पापा, बंटी भैया की मेज़ आ गई, फिर भी इन्होंने अपनी किताबें उस पर नहीं रखीं। ममी ने खूब समझाया पर..."

“आपको चावल दूँ या चपाती ?"

पर डॉक्टर साहब ने इस बात का जवाब नहीं दिया। उनकी नज़रें बंटी के चेहरे पर जम गईं। नज़रें मिलते ही बंटी ने आँखें नीची कर लीं। अब कनखियों से ममी को देख रहा है। उनका परोसता हाथ जैसे रुक गया है।

"क्यों बंटी, मेज पसंद नहीं आई बेटे ? हमने तो सबसे अच्छीवाली मेज पसंद की थी तुम्हारे लिए।"

बंटी चुप। ममी भी चुप !

“बंटी भैया कहता है, वह ज़मीन पर ही पढ़ेगा, मेज़ पर कभी पढ़ेगा ही नहीं।"

'चुगलखोर, सुअर कहीं का।'

ममी बिना किसी से कुछ पूछे सबकी प्लेटों में कुछ-कुछ डालने लगी हैं।

“तुम इतनी ज़िद क्यों करते हो बेटे ? कोई अच्छी बात है इस तरह ज़िद करना ? अभी खाना खाकर अपनी किताबें मेज़ पर जमाओगे। हम देखने आएँगे, समझे ?'

डॉक्टर साहब ने जैसे अंतिम फैसला दे दिया और खाना खाने लगे। बंटी ने भी फैसला सुन लिया और खाना खाने लगा। चुप और नज़रें नीची।

अमि लगातार बोले जा रहा है बेवकूफ़ की तरह। ममी माँगने पर सबको कुछ न कुछ दे देती हैं, अपनी ओर से भी पूछ लेती हैं। पर बंटी जानता है कि ममी भी उसकी तरह बिलकुल चुप हैं।

पर वे परोस कैसे रही हैं ? उनकी आँखें तो बंटी की प्लेट में चिपकी हुई हैं। बंटी को देखे जा रही हैं...एकटक, घर-घूरकर। और एकटक देखने से ही जैसे आँखों में तराइयाँ आ गई हैं। गीली-गीली आँखें।

खाने के बाद ममी ने जल्दी-जल्दी किताबें मेज़ पर जमा दीं।

"जमा ले बंटी, पापा गुस्सा होंगे।" जोत समझा रही है। ममी भी होंठों ही होंठों में कुछ न कुछ बोले जा रही हैं। बस, बंटी चुपचाप खड़ा है। न बोल रहा है, न विरोध कर रहा है।

जब सबकुछ जम गया तो ममी गुस्से से बोली, "बेकार की बातों पर जिद मत किया कर, समझा। सारे समय कुछ न कुछ उलटा-सीधा करते रहना।"

और ममी जब अपने कमरे में घुस गईं तो बंटी ने चुपचाप सारा सामान ज़मीन पर उतार दिया।

“पापा-ममी, बंटी भैया ने..." अमि दौड़ गया।

डॉक्टर साहब खड़े हैं शायद गुस्से में। पीछे-पीछे ममी खड़ी हैं। शायद डरी हुईं। और बंटी खड़ा है जैसे पत्थर।

“बंटी, तुमने फिर वही किया ? ठीक है, तुम्हारी मेज़ हम कल ही वापस भिजवा देंगे। तुम ज़मीन पर ही काम करोगे, समझे ! और आगे से इस तरह की ज़िद करोगे बेटे, तो हम बिलकुल बर्दाश्त करने नहीं जा रहे हैं, समझे ! ऐसे कैसे चलेगा।"

बंटी की आँखें एकदम ज़मीन में गड़ी हुई हैं। और वहाँ पहले से ही ममी की दो आँखें चिपकी हुई हैं। प्लेटवाली गीली आँखों के कोनों में गोल-गोल बूंदें उभर आईं।

टप-टप उसकी अपनी आँखों के आँसू ममी की आँखों में टपकने लगे और दोनों के आँसू मिल गए।

धूप ढल गई थी, पर उसकी गरमी और चौंधा अभी भी बाकी है। बंटी और जोत छत पर खड़े-खड़े मूंगफली खा रहे हैं। जोत बोले जा रही है, पता नहीं क्या-क्या।

बंटी चुप। यहाँ छत पर खड़े होने से शहर दिखाई देता है...घुचमुच बने हुए घर...गलियाँ...आते-जाते लोग...ताँगे...पहाड़ियों की सरहदों से घिरे मैदान देखे कितने दिन हो गए। बहुत दिनों से तो उन मैदानों की सैर भी नहीं की, पहाड़ की तलहटियों में झाँका भी नहीं। कोई धूनी रमाए साधु, कोढ़िन बनी राजकुमारी, पंख बाँटनेवाली नील परी...'

"तू बोलता क्यों नहीं बंटी ? अभी भी गुस्सा है ?"

“अरे ! इतना गुस्सा करते रहोगे न बंटी तो तुम्हारा ही खून जलेगा, हाँऽ ! बाप का गुस्सा ले आए हो !"

लाल-लाल आँखें करते हुए पापा-'यू शट अप...'

"तुझे अपनी ममी की याद नहीं आती जोत ? कैसी थीं तेरी ममी ?" अचानक बंटी पूछता है।

“ऐऽ ! आती है थोड़ी-थोड़ी। नहीं, अब नहीं आती, चाची अम्मा की आती है कभी-कभी। छुट्टियों में हम इलाहाबाद जाएँगे उनके पास, तू भी चलना।"

"मेरी ममी तुझे अच्छी लगती हैं ?"

"हूँ ! लगती हैं।"

“मेरे पापा को देखेगी न तो वे भी खूब अच्छे लगेंगे। खूब अच्छे हैं मेरे पापा। मैं उन्हें लिख रहा..." खट से जीभ काट ली। धत्तेरे की ! वह कभी कुछ कर ही नहीं सकता। जो इतनी-सी बात भी छिपाकर नहीं रख सकता वह क्या करेगा ?

"इस बार जब पापा आएँगे तो मैं तुझे भी अपने साथ ले चलूँगा। खूब घुमाते हैं मुझे, फिर जो कहो सो ही दिलवाते हैं। तू चलेगी तो तुझे भी दिलवाएँगे।"

"तू मेरे पापा को पापा क्यों नहीं कहता ? मेरे पापा भी तो बहुत अच्छे हैं।" बंटी चुप।

"बंटी बेटा" और दो बाँहें लिपट आईं।

आज रात में जब सब सो जाएँगे तो वह चुपचाप उठकर पापा को चिट्ठी लिखेगा।

आगे से इस तरह की ज़िद करोगे तो हम बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेंगे, समझे ! -वह पापा के साथ चला जाएगा।

ममी-डॉक्टर साहब खाने की मेज़ पर बैठे हैं। बंटी पहँचा तो ममी उसे देखते ही बोलती-बोलती बीच में ही रुक गईं। ज़रूर उसी के बारे में बात कर रहे होंगे। शिकायत और क्या ?

खाना शुरू हुआ तो रोज़ की तरह हर कोई कुछ न कुछ बोल रहा है, चुप है तो केवल बंटी। बंटी ने अब बोलना ही बंद कर दिया है। खाने के समय खा लेता है, सोने के समय सो लेता है, बाकी समय पढ़ता रहता है। कहानियाँ, हज़ार-हज़ार बार पढ़ी हुई कहानियाँ। या फिर ड्राइंग बनाता है।

डॉक्टर साहब लगातार उसकी तरफ़ क्यों देखे जा रहे हैं ? क्या देख रहे हैं, उसके चेहरे पर कुछ लिखा हुआ है ? कहीं पता तो नहीं लग गया कि वह छिपकर उनके कमरे में जाता है, चीजें उलट-पलटकर देखता है या कि वह पापा को चिट्ठी लिखने की बात सोच रहा है।

अजीब-सी बेचैनी होने लगी बंटी को। डॉक्टर साहब देख रहे हैं तो जैसे सभी उसकी ओर देख रहे हैं। मानो वह कोई तमाशा हो। उसने ममी की ओर देखा। ममी उसकी नहीं रह गई हैं, यह जानते हुए भी ऐसे मौक़ों पर नज़र ममी की ओर ही उठती है। पर ममी डॉक्टर साहब की ओर देख रही हैं। डॉक्टर साहब जब बंटी को देखते हैं तो पता नहीं क्यों ममी हमेशा डॉक्टर साहब की ओर ही देखती रहती हैं।

त्रिकोण में तीन भुजाएँ होती हैं, जैसे अ ब स एक त्रिकोण है...

"बंटी, कल घूमने चलोगे हमारे साथ ?''

क्लास में पढ़ाते हुए सर खट से डॉक्टर साहब में बदल गए। बंटी समझने की कोशिश कर रहा है। अ ब स-घूमना-आजकल कुछ भी तो समझ में नहीं आता।

"चलो, कल तुम्हें घुमाकर लाएँ। खूब दूर...लंबी ड्राइव पर।" “हम भी चलेंगे पापा, लंबी ड्राइव पर। खूब मज़ा आएगा, अहा जी !” अमि अपनी कुर्सी पर ही फुदकने लगा।

“नो-नो, कल कोई नहीं जाएगा। तुम तो बिलकुल नहीं। तुमने मेज़ को लेकर बंटी भैया को नाराज़ कर दिया न, अब हम ले जाकर ख़ुश करेंगे।"

ये सब डॉक्टर साहब कह रहे हैं ? उसने एक बार हिम्मत करके नज़र उठाई और डॉक्टर साहब को देखा। वे उसी की ओर देखकर मुसकरा रहे थे। बंटी को उनका मुसकराता हुआ चेहरा अच्छा लगा, बहुत अच्छा। फिर उस चेहरे में से जाने कैसे पापा का चेहरा उभर आया। जैसे चश्मा बदलकर पापा बैठे-बैठे मुसकरा रहे हैं। और फिर उस चेहरे की मुसकान उसके अपने चेहरे पर चिपक गई। केवल चेहरे पर ही नहीं, जैसे हाथ-पैरों में भी चिपक गई, मन में भी चिपक गई।

"चलूँगा।" उसने धीरे से कहा।

“कैसे जाएगा बंटी अकेला, मैं भी जाऊँगा। मैं ज़रूर जाऊँगा। बंटी भैया कोई लाट साहब है जो अकेला जाएगा !" और अमि ने गुस्से में आकर कुर्सी पर एक लात जमा दी।

_ “अमिऽ !' डॉक्टर साहब गुस्से में दहाड़े तो बंटी का मुसकराता मन भी जैसे एक क्षण को सहम गया। कैसा डाँटते हैं...सब आदमी लोग शायद...

अमि की तों पेंऽ बोल गई। रोता-भन्नाता भीतर चला गया। अब बोलो न कि हमारी गाड़ी है, हमारी मेज़ है, बंटी भैया को घर भेज दो...

ममी अमि को गोद में उठा लाईं, “चलो, तुम लोगों को मैं घुमाने ले जाऊँगी। खूब सारी चीजें दिलवाऊँगी..."

ले जाओ। गाड़ी तो हमारे पास रहेगी। पैदल-पैदल घुमा लाना। बहुत हुआ ताँगा कर लेना-खटर-खटर करता रहेगा।

रात में सोया तो ख़याल आया, आज पापा को चिट्ठी लिखनी थी। अब आज नहीं, कल लिख देगा या फिर कभी।

आँखें बंद करते ही कमरा सड़क पर निकल आया। लंबी-सीधी सड़क...उन्हीं मैदानों की ओर जाती हुई और उसकी मोटर दौड़ रही है। किसी तरह विभू और कैलाश देख लें। एक बार टीटू के यहाँ झाँकता चले।

अमि तुम नहीं, जोत तुम भी नहीं, शकुन तुम भी नहीं...केवल बंटी। बंटी नाराज़ है, बंटी को खुश करना है।

एकाएक लाल तिकोन पर जैसे किसी ने ढेर सारी स्याही पोत दी।

डॉक्टर साहब ने छः बजे आने को कहा था। वैसे तो वह आठ बजे आते हैं। पर आज उसके लिए अपने मरीज़ भी छोड़कर आएँगे। बंटी साढ़े पाँच बजे से ही तैयार है। कितने दिनों से उसने कोई चीज़ ही नहीं खरीदी। आज ख़रीदेगा। जोत के लिए भी ख़रीदेगा और चलो, अमि के लिए भी खरीद देगा। वह तो है ही पाजी।

मन में सबकुछ लुटा देनेवाली उदारता समा रही है। थोड़ी-थोड़ी देर में जाकर घड़ी देख रहा है। पापा आते हैं तब भी वह इसी तरह पगलाया-पगलाया फिरता है। आज पापा और डॉक्टर साहब के चेहरे भी तो घुल-मिल जा रहे हैं। पापा की बात सोचो तो डॉक्टर साहब का चेहरा आ जाता है और डॉक्टर साहब की बात सोचो तो पापा का चेहरा। जैसे दोनों चेहरे एक ही हो गए, अलग-अलग रहे ही नहीं।

जादू से चेहरा बदल सकता है तो दो चेहरे एक जैसे नहीं हो सकते ? ज़रूर हो सकते हैं, हो ही गए हैं। आज कहीं बात करते-करते वह डॉक्टर साहब को पापा ही न कहने लग जाए !

जोत और अमि को ममी ने पढ़ने बिठा दिया है। ज़रूर कुछ लालच दिया होगा। हो सकता है, ममी कल दोनों को घुमाने ले जाएँ। डॉक्टर साहब की डाँट के सामने अमिराम तो ठंडे !

छ: बज गए। अब तो आते ही होंगे। बीमारों की भीड़ में आना भी तो आसान नहीं है। सवेरे तो वह खुद अपनी आँखों से देखता है। सारी बेंचें और कुर्सियाँ तो भर जाती हैं, ज़मीन पर भी जैसे जगह नहीं रहती।

सबसे बड़े डॉक्टर हैं शहर के। पहली बार बंटी के मन में डॉक्टर साहब को लेकर गर्व जागा। जैसा ममी को लेकर अकसर जागा करता था। डॉक्टर साहब को लेकर भी वह गर्व कर सकता है। डॉक्टर साहब उसके भी कुछ...

कहीं हलके से पापा की तसवीर तैर गई। साढ़े छः ! अब बंटी को बेचैनी होने लगी। ममी तो ऐसे आराम से बैठी हैं जैसे उन्हें मालूम ही नहीं कि आज छः बजे जाने का कोई प्रोग्राम भी है। और फिर समय के साथ-साथ बंटी की बेचैनी दुख और फिर गुस्से में बदलने लगी। सात बजे के करीब कंपाउंडर ने आकर बताया-डॉक्टर साहब उठने ही वाले थे कि तभी वर्मा साहब के हार्ट-अटैक की ख़बर आ गई। मुझे यहाँ ख़बर करने को कहकर वे वहाँ चले गए। रोगियों के मारे मैं भी जल्दी नहीं आ सका।

बंटी ने खींच-खींचकर जूते-मोज़े उतार फेंके...झूठ...सब झूठ ! खाली-खाली उसे बहकाने के लिए कह दिया। नहीं ले जाना था तो क्यों कहा था...

अमि अँगूठा छिपाकर टिलिलिलि करता हुआ निकल गया, तो मन हुआ गला पकड़कर दबा दे उसका ! किसने कहा था कि उसे ले जाओ ड्राइव पर...वह क्या जानता नहीं कि यह घर उसका नहीं है, यहाँ की कोई चीज़ उसकी नहीं है, यहाँ का कोई आदमी उसका नहीं है।

वहाँ तो अपना घर होगा-अपने लोग होंगे बेटे-सब झूठ ! यहाँ तो ममी भी उसकी नहीं रह गईं। मन हो रहा है, ममी के कमरे की एक-एक चीज़ उठाकर फेंक दे। घर की सारी चीजें चकनाचूर कर दे। गुस्से से भन्नाते हुए उसने अलमारी खोली। बस इसी पर तो उसका अधिकार है। एक-एक खिलौना निकालकर फेंक दिया, एक-एक कपड़ा कमरे में छितरा दिया।

“बंटी !" झपटकर ममी ने बाँह पकड़ ली, “यह क्या पागलपन मचा रखा है?"

बंटी ने पूरी ताकत लगाकर अपने को छुड़ा लिया और कपड़ों को पैरों तले रौंदने लगा-लो-लो और लो।

“कभी अक्ल भी आएगी तुझे या नहीं। जब देखो घर में किसी न किसी बात पर तूफ़ान मचाए रखता है। मैं जितना चुप रहती हूँ, उतना ही शेर हुआ जा रहा है।" ममी ने उसे पलंग पर पटककर दोनों हाथों से दबोच दिया।

“कोई बात नहीं समझेगा। मौका-बेमौका कुछ नहीं देखेगा-बस !"

“चुप करो,” बंटी पूरी ताकत से चीख़ा और फिर बेहद थका, पिटा-सा फूट-फूटकर रो पड़ा। आँसू हैं कि उफनते चले आ रहे हैं। ज़रा ममी की पकड़ ढीली हुई कि छिटककर उठा और रंगों की शीशियोंवाला डिब्बा उठाकर दे मारा खड़खड़ झन्नऽऽ...कुछ शीशियाँ साबुत लुढ़क गईं, कुछ चकनाचूर हो गईं।

तड़ाक ! और शीशियों से बिखरे ढेर सारे लाल-पीले रंग एक-दूसरे में मिलकर तेजी से घूमे और जहाँ के तहाँ स्थिर हो गए।

“मारो, और मारो !'' बंटी ख़ुद ही पलंग में औंधा धंस गया।

अमि, जोत, बंसीलाल, ममी सब आगे-पीछे घूम रहे हैं, सबकी आवाजें भी... फैले हुए रंग दलिए में बदल जाते हैं, 'मत चढ़ाओ बहूजी इतना माथे, देखना एक दिन आप ही...'

बंटी, इस तरह करते हैं बेटे ?" एक प्यार-भरा, थरथराता हाथ। 'तड़ाक' एक थप्पड...ढेर सारी शीशियाँ टूट जाती हैं। ढेर सारे रंग बिखर जाते हैं।

आवाजें कहीं बहुत दूर से आ रही हैं। पता नहीं कहाँ से ?

"क्या कर दिया आज तुमने ? इसने तो रो-रोकर प्राण दे दिए।"

“क्या ? ओह ! कैसी बात करती हो तुम ? इतना सीवियर हार्ट-अटैक था, मुझे शायद रात में भी वहीं रहना पड़े। वर्मा तो बिलकुल...''

“बंसीलाल ! गरम पानी रखो नहाने का। तब तक तुम एक प्याला चाय दो ज़रा..."

बस ? और कुछ नहीं। बंटी के लिए एक शब्द भी नहीं, जैसे वह कहीं है ही नहीं?

"एक कार एक घंटे में चालीस किलोमीटर चलती है तो बताओ 360 किलोमीटर चलने में..."

कार एकदम चलते-चलते रुक जाती है। हार्ट-अटैक। अटैक यानी हमला। वर्मा साहब का लंबा-चौड़ा शरीर लेटा है और ढेर सारे सिपाही बंदूक ताने उन पर अटैक कर रहे हैं, ठाँय-ठाँय...

बहुत दिनों से उसने बंदूक नहीं चलाई, आज वह ज़रूर चलाएगा। वह भी अटैक करेगा-ठाँय-ठाँय...

वर्मा साहब की छाती पर घाव ही घाव हो गए हैं। कभी उसके हार्ट पर अटैक हो जाए तो उसके भी उतने ही घाव हो जाएँगे ?

टन्...टन्...टन् घंटी बजती ही जा रही है। दूसरे सर आ गए। क्लास में बहुत शोर हो रहा है। सर ने स्केल को मेज़ पर पीटते हुए कहा, “चुप करो बच्चो, चुप !"

वह अब हमेशा चुप रहा करेगा। कभी किसी से नहीं बोलेगा, जोत से भी नहीं। ममी से तो बिलकुल नहीं।

जैसे-जैसे घर पास आ रहा है मन ही मन में जैसे एक अजीब-सी दहशत समा रही है। सवेरे तो किसी ने कुछ नहीं कहा, पर अब ? घर के दरवाज़े पर उतरता है तो जैसे पैर आगे नहीं बढ़ रहे।

लाल तिकोन ! वह खड़ा-खड़ा उसे ही घूरता रहता है। उसमें बना हुआ लड़का टिलिलिलि करता हुआ चारों ओर घूमने लगता है। माँ दोनों बच्चों को दोनों हाथों से पकड़कर चल पड़ती है-'चलो, मैं तुम्हें घुमा लाती हूँ।'

इस देश में तो दो बच्चे, बस कुल दो बच्चे। इस देश में ही नहीं इस घर में भी दो बच्चे, बस कुल दो बच्चे।

'वहाँ तो बच्चे भी होंगे भैनजी, चलो अच्छा हुआ ! यहाँ अकेला-अकेला कैसा डाँव-डाँव डोले था...'

'नहीं, बस कुल दो बच्चे।

बंटी ने बस्ता वहीं टिका दिया और खड़ा-खड़ा सड़क देखता रहा। भीतर जाने की इच्छा नहीं हो रही। भीतर वह जाएगा भी नहीं। बस सड़क पर ही दौड़ता चला जाएगा-दौड़ता चला जाएगा। पर कहाँ ? लेकिन इस बार यह 'कहाँ' भी उसे रोक नहीं सका और वह सचमुच दौड़ पड़ा। दौड़ते-दौड़ते जब वह अपने घर के फाटक पर पहुंचा तो उसकी साँस फूली हुई थी, पता नहीं दौड़ने से, पता नहीं डर से।

अपना घर, अपना बगीचा ! पर फिर भी जैसे कुछ भी अपना नहीं लग रहा। घर की सारी खिड़कियाँ बंद हैं और दरवाजे पर ताला लटक रहा है। वह भीतर जा ही नहीं सकता। अपने घर में कभी ऐसा हो सकता है कि चाहो तो भी अंदर नहीं जा सकते।

'वहाँ अपना घर होगा बेटा...'

हुँह ! वहाँ भी नहीं जा सकता, जाएगा भी नहीं।

तभी सड़क पर से दो आदमी बातें करते हुए निकल गए। बंटी मेंहदी की आड़ में हो गया। कोई देख न ले उसे।

फिर अपने बगीचे का चक्कर लगाया। क्यारियाँ नम थीं सर्दियों में। माली दादा दोपहर में ही पानी दे देता है। वह एक-एक पौधा देखने लगा-एक-एक पत्ती छू-छूकर। सिरे पर आम का पौधा। कितनी नई पत्तियाँ आ गई हैं !

सारा बगीचा घूमकर देख लिया-अब ? ममी, अमि और जोत लौट आए होंगे। उसे न देखकर ममी बंसीलाल से पूछ रही होंगी। पता नहीं बरामदे में रखा बस्ता देखा भी होगा या नहीं !

परेशान ममी, इधर-उधर देखती हुईं ममी, आवाज़ देती हुईं ममी...अच्छा किया, यहाँ चला आया, अब वह यहाँ से जाएगा ही नहीं, कब्भी-कभी नहीं।

'पापा, बंटी भैया घर में है ही नहीं, पता नहीं कहाँ चला गया...'

डॉक्टर साहब के माथे पर बल...ममी की गीली आँखें, पीला हो आया चेहरा। ममी प्रिंसिपल होकर भी डॉक्टर साहब से डरती हैं। यहाँ थीं तो बोलती ऐसे थीं, जैसे सबको डाँट रही हों, खाली उसे प्यार करती थीं। वहाँ उसे डाँटती हैं और सबको...अच्छा है, आज पता लगेगा। मन ही मन में एक संतोष है, कुछ ऐसा कर डालने का जो नहीं करना चाहिए...ममी को परेशान करने का।

कोई सड़क से गुज़रता तो बंटी छिप जाता। कहीं हीरालाल या माली दादा ही इधर से आ जाएँ और उसे देख लें तो ? बस, सारा खेल खत्म।

पर यह तो सोचा ही नहीं था कि यहाँ आकर शाम का अँधेरा भी बढ़ेगा और धीरे-धीरे बढ़ता ही जाएगा। भूख भी लगेगी। सर्दी भी लगेगी।

अब ? टीटू के घर की बत्तियाँ जल गईं। एक क्षण को उस रोशनी से जैसे राहत मिली। वहाँ चला जाए ?

'अरे, हमने तो सोचा था बड़े ठाठ होंगे तुम्हारे वहाँ, यों डोले-डोले फिर रहे हो'-धत् वहाँ नहीं जाएगा ?

बाहर का अँधेरा अब मन में उतरने लगा। डर, एक अजीब-सा डर। ममी उसे देखने आईं क्यों नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें ख़याल ही नहीं आया हो कि बंटी घर में है ही नहीं।

या कि डॉक्टर साहब ने कह दिया हो कि यह सब यहाँ नहीं चलेगा और चलती-चलती ममी रुक गई हों।

अब ? यदि ममी रात तक नहीं आईं तो ? वह फाटक पर खड़ा होकर सड़क की ओर देखने लगा। अब तो इधर से कोई आ भी नहीं रहा। यह सड़क तो वैसे ही बहुत सुनसान हो जाती है। कोई आए और उसे देख ले या वही किसी को आते-जाते देखता रहे। पर कोई नहीं। बंटी पेड़ पर चढ़ गया-यहाँ से तो दूर तक दिखाई देता है। कोई मोटर, कोई पैदल, कोई...

पर कोई नहीं। गालों पर से आँसू बहने लगे। उपेक्षा...अपमान...मन हुआ ऊपर से कूद पड़े। खूब घाव हो जाएँ, हार्ट-अटैक...उसके आँसू ममी के गालों से बहने लगे, 'बंटी-बंटी !'

नीचे उतरा तो एक गुस्सा, दहशत। अपने को ही मारे, हाथ-पैर तोड़ डाले। पेड़ की एक सूखी टहनी उठाई और शटाक-शटाक मेंहदी को सूड़ना शुरू किया।

अभी भी कोई नहीं आया ?

फूल-पत्ते नोचने शुरू किए। कोई काला पाप-वाप नहीं लगता। तोड़-तोड़कर ढेर लगा दिया। अपने ही बोए फूल-पत्तों को तोड़कर, रौंदकर जैसे एक संतोष मिल रहा है।

अभी भी कोई नहीं आया ?

और फिर ख़ुद ढेर होकर घास पर लोट गया। भूखा, ठिठुरता हुआ, रोता हुआ।

एकाएक लगा जैसे घर का दरवाज़ा खुला और फटी-फटी आवाज़ में गाती हुई फूफी आ रही है-मेरे तो गिरधर गोपाल...साँस जहाँ की तहाँ रुक गई। आँखें मिच गईं, पर फूफी है कि बढ़ती चली आ रही है। फूफी का भूत, फूफी मर गई ?

और रानी मर गई। पर उसके प्राण तो अपनी बेटी में अटके रह गए। सो वह चिड़िया बनकर उसी के कमरे में...

फूफी के प्राण भी इसी कमरे में अटके रह गए ?

मुँदी आँखों से ही दिखाई दे रहा है, एक सफ़ेद आकृति हवा में लटकी हुई कसरत कर रही है-वन, टू, थ्री, फोर-

बंटी साँस रोके कहीं डूबता चला जा रहा है। गहरे, खूब गहरे में...छुनछुन...यह सोनल रानी की पायल है। अब तक राजा के सारे बच्चे तो ख़त्म हो गए होंगे। वह भूखी तो मरेगी नहीं...आवाज़ पास आती जा रही है और बंटी और गहरे में डूबता जा रहा है।

घर-घर्र सोनल रानी की साँस ऐसी ही होती होगी। खट ! अजीब-अजीब आवाजें आ रही हैं। और फिर एक हाथ छाती पर...अटैक।

'मुझे मत मारो' एक घुटी हुई चीख, पता नहीं निकली भी या नहीं। पर हाथ जैसे छाती में घुस ही गया।

बंटी-बंटी...किसी ने बाँहों से पकड़कर बिठा दिया। वह फटी-फटी-सी आँखों से देख रहा है-कौन है सामने-

"तू यहाँ...यहाँ पड़ा है तु जब से ?" कोई उसके कंधे बुरी तरह झकझोर रहा है। धीरे-धीरे अँधेरे में एक चेहरा साफ़ होकर उभरता है। बदहवास-सा चेहरा, लाल आँखोंवाला चेहरा !

“बोल, बोल, तू क्यों यह सब करने पर तुला हुआ है ? क्यों अपनी और मेरी जिंदगी में जहर घोलने पर तुला हुआ है ? कौन-सा कष्ट है तुझे वहाँ पर ? क्या तकलीफ़ है ?" ओह ! पर ममी को देखकर कोई तसल्ली नहीं हो रही। कोई डर भी नहीं लग रहा, कुछ भी तो नहीं लग रहा।

“रोज़ एक हंगामा खड़ा कर देता है। रोज़ एक तमाशा। कोई कब तक सहेगा और आखिर क्यों सहेगा ?" बाएँ गाल पर तड़-तड़ की आवाज़ हुई। ममी ने शायद मारा है।

“ठीक है, तेरे पापा तुझे अपने पास बुलाना चाहते हैं, मैं भेज दूंगी। वहीं रहो-" ममी उसे घसीटती हुई ले गईं और एक तरफ़ से उठाकर गाड़ी में पटक दिया।

वह न चला, न गाड़ी में चढ़ा। ममी अभी भी कुछ न कुछ बोले जा रही हैं-पता नहीं क्या-क्या। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा। उसे कुछ लग भी नहीं रहा। ममी को शायद पता ही नहीं कि सोनल रानी तो उसे...

ढर्रऽऽऽ...अब तो ममी की बात सुनाई भी नहीं दे रही।


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