आपका बंटी (उपन्यास) : मन्नू भंडारी

Aapka Bunty (Hindi Novel) : Mannu Bhandari

आपका बंटी (उपन्यास) : छः

ममी का रोना बंटी को एकाएक बड़ा बना गया। बड़ा और समझदार। ममी की पापा से लड़ाई हो गई है, पक्कीवाली ! दोस्ती तो अब हो ही नहीं सकती। ममी ने खुद उसे बताया। बिलकुल ऐसे, जैसे बड़ों को बताया जाता है। साथ ही यह भी कि अब ममी के लिए जो भी है, बंटी ही है।

और ममी के एकमात्र सहारे बंटी के ऊपर जैसे हज़ार-हज़ार ज़िम्मेदारियाँ आ गई हैं ममी को प्रसन्न रखने की। हर काम में ममी की मदद करने की। कोई भी ऐसा काम न करने की, जिससे ममी दुखी और परेशान हों। वह सब करेगा, करता भी है। पर बस, न चाहते हुए भी पापा की याद उसे आ जाती है। लेकिन नहीं, अब वह उनके दिए हुए खिलौनों से नहीं खेलता। कभी उनकी बात भी नहीं करता। ममी को शायद अच्छा न लगे। रैक पर रखी हुई पापा की एकमात्र तसवीर को भी उसने एक दिन चुपचाप उठाकर खिलौनों की अलमारी में बंद कर दिया-ममी से लड़ाई कर ली तो अब बैठो यहाँ, और क्या ? सारे दिन ममी को उदास रखनेवाले, रुलानेवाले पापा की यही सज़ा है, बस ! और उसे लगा जैसे ममी की ओर से उसने पापा के ख़िलाफ़ एक बहुत बड़ा क़दम उठाया है।

ममी ने खाली रैक देखा और बंटी को देखने लगीं। एकटक। वह नीचे नज़रें झुकाए खड़ा रहा। पता नहीं कहीं नाराज़ ही न हो जाएँ। पर ममी ने उसे पकड़कर अपने पास खींच लिया। फिर प्यार किया। बहुत हलके मुसकराईं भी, शायद उसकी समझदारी पर। पर न जाने क्यों उनकी आँखें नहीं मुसकरा पाईं, बल्कि उदास हो गईं। बिना आँसू के भी जैसे रोई-रोई हो जाया करती हैं, वैसी ही। तब वह एक क्षण को समझ ही नहीं पाया कि उसने ठीक किया है या गलत। तसवीर हटने से ममी खुश हैं या उदास। क्योंकि ममी के होंठ तो मुसकराए पर आँखें उदास हो गईं।

कोई बात नहीं, धीरे-धीरे वह इन बातों को भी समझ लेगा। जितनी समझ आ गई है, वही क्या कम है ?

बाहर निकलकर आम के पौधों को देखता-बस कुल दो नई पत्तियाँ, कुल चार पत्तियाँ, और लगता, वह तो उसके मुकाबले में बहुत-बहुत बड़ा हो गया है।

माली दादा कहते थे तुम्हारे साथ-साथ बड़ा होगा। कैसे होगा मेरे साथ-साथ बड़ा ? कोई आसान है इतनी जल्दी-जल्दी बड़ा होना, कोई हो सकता है ?

पापा ने इस बार उसे चिट्ठी लिखने को कहा था। पर उसने नहीं लिखी। लिखना तो खूब अच्छी तरह जानता है, लिख भी सकता है। पापा से कहा भी था कि अब वह ज़रूर बराबर चिट्ठियाँ लिखा करेगा। पर तब वह सारी बात समझता कहाँ था ? तब तो उसे यह भी नहीं मालूम था कि ममी-पापा की पक्कीवाली कुट्टी हो गई है। पर अब कैसे लिख सकता है भला ! वह पूरी तरह ममी की तरफ़ है और ममी से उनकी कुट्टी है तो फिर बंटी से भी है। ऐसा ही तो होता है।

फिर भी जब ममी इधर-उधर होती हैं तो वह चुपचाप अलमारी खोलकर उस किताब को निकालकर देखता है, जिसके पीछे के कवर पर पापा अपना पता लिख गए थे। अब तो उसे मुँहज़बानी याद भी हो गया है-8ए, एलगिन रोड। पता पढ़ने के साथ ही उसके मन में पापा के घर के नक़्शे उभरने लगते हैं, खूब-खूब ऊँचा मकान। एलगिन रोड के नक़्शे उभरते हैं, कलकत्ते के नक्शे उभरते हैं-हावड़ा ब्रिज, जू, लेक्स, बोटेनिकल गार्डेस, बिना तने का खूब बड़ा-सा बड़ का पेड़। पी.सी. सरकार का जादू-और फिर इन सबको दबोचती हुई, कुचलती हुई समझदारी उभरती है कि नहीं, उसे इन सबके बारे में सोचना भी नहीं है। पर इन सबको कुचलने के साथ उसके भीतर जाने क्या कुछ कुचलता रहता है। तब वह अपने-आपसे प्रॉमिस करता कि कभी भी पापा की बात नहीं सोचेगा। मन ही मन किए हुए प्रॉमिस पर जब पूरी तरह भरोसा नहीं हो पाता तब ज़ोर-ज़ोर से बोलकर प्रॉमिस करता है। अपनी ही आवाज़ सुनकर उसके भीतर एक नया आत्मविश्वास जागता।

ममी आजकल पहले की तरह सारे दिन उदास नहीं रहतीं। वह बहुत अच्छा बन गया है शायद इसीलिए। वह बड़ा होकर और भी अच्छा बन जाएगा तो फिर बहुत खुश रहने लगेंगी। आजकल शाम को कभी-कभी बाहर भी जाती हैं। वह कभी मना नहीं करता। पूरी तरह आश्वस्त कर देता है, “ममी जाओ, मैं पीछे पढूंगा। फूफी से खाना लेकर खा लूँगा। बिलकुल भी तंग नहीं करूँगा।" फिर ममी उससे पूछतीं, “अच्छा बता तो बंटी, कौन-सी साड़ी पहनूँ ?" तब बिलकुल बड़ों की तरह वह सलाह देता। बिना सोचे-समझे नहीं, सारी साड़ियाँ देखकर, खूब सोच-समझकर।

और ममी जब वही साड़ी पहन लेतीं तो फिर अपनी ही नज़रों में वह बहुत महत्त्वपूर्ण हो उठता। मन में कहीं ममी की मदद करने का संतोष भर जाता।

फिर जब ममी उसकी ओर देखती हैं तो उनकी आँखों से कैसा प्यार झरता रहता है।

वह ममी को जाने के लिए कह तो देता है पर ममी जब चली जाती हैं तो घर जैसे और भी ज्यादा खाली-खाली हो जाता है। सारे दिन बोर होते बंटी की बोरियत और ज़्यादा बढ़ जाती है। स्कूल खुला होता तो समझदार बनकर रहना कितना सरल हो जाता। आधा दिन स्कूल में कट जाता, आधा दिन समझदार होकर रह लिए। अब छुट्टियों में सारे दिन क्या करे वह ? आखिर पढे भी कब तक ? कभी फूफी से बतियाता रहता, कभी टीटू के घर चला जाता। या फिर घर के लोहे के फाटक पर झूलता या खड़ा-खड़ा सड़क ही देखता रहता। पर सड़क भी तो ऐसी है कि बहुत कम लोग इधर आते-जाते हैं। शहर से कटी-छंटी, बिलकुल एक तरफ़ को है वह जगह। थोड़ी दूर और आगे तो बस्ती बिलकुल ही ख़त्म हो जाती है। बस, सड़क बनी हुई है और दोनों ओर के दूर-दूर तक फैले ऊबड़-खाबड़ मैदान। और फिर उन मैदानों की सरहदें बनाती हुई पहाड़ियाँ। खड़ा वह फाटक पर रहता है पर मन उसका दूर-दूर दौड़ता रहता है। इन पहाड़ियों के पार क्या होगा, फिर उसके आगे क्या होगा, फिर उसके भी आगे ? मन में तरह-तरह के चित्र उभरते हैं, डरावने भी और रंगीन भी। राक्षसों की डरावनी गुफाएँ, परियों के सोने-चाँदी के महल।

और फिर इन सबके बीच में से उभर आता है-कलकत्ता किस तरफ़ होगा ? कितनी दूर होगा यहाँ से ?

तब खट से उँगलियों का क्रास बन जाता। प्रॉमिस टूटने का पाप न लगे!

ममी की बगल में लेटा बंटी आसमान देख रहा है। झिलमिल-झिलमिल करते तारे छिटके हैं आसमान में। सप्तऋषि मंडल है, वह आकाश-गंगा है, वह तेज़-तेज़ चमकनेवाला ध्रुवतारा है। इस तारे को दिखा-दिखाकर ही तो ममी ने उसे बालक ध्रुव की कहानी सुनाई थी।

पाँच साल के बच्चे ने तपस्या की थी। इतनी सारी तपस्या कि भगवान भी खुश हो गए।

कैसे करते होंगे तपस्या ? उसने ममी के पास सरककर पूछा, “ममी, तपस्या कैसे करते हैं ?"

“तपस्या ? क्यों ?"

"बताओ न ममी, मैं जो पूछ रहा हूँ।"

"अपने मन को मार लो, बस यही सबसे बड़ी तपस्या है।" ममी ने जैसे टालने के लिए कह दिया।

"बालक ध्रुव ने तो जंगल में जाकर तपस्या की थी, न ?”

“की होगी रे !" और ममी ने तकिए में इस तरह मुँह गड़ा लिया जैसे वे अब और बात नहीं करना चाहती हों।

मन को मारना भी तपस्या करना हो सकता है क्या ? मन तो आजकल वह भी कितना मारता है अपना, तो क्या वह भी तपस्या कर रहा है ? एक अजीब-सी पुलक उसके मन में जागी। एक अजीब-सा आत्मविश्वास। कौन ख़ुश होगा उसकी तपस्या से ? भगवान...पापा...

खट से उँगलियों का क्रास बन गया। पर नहीं, वह पापा को याद थोड़े ही कर रहा है। वह तो केवल सोच रहा है कि ख़ुश होकर पापा फिर से उनके साथ रहने लग जाएँ तो ? यह तो ममी की बात हुई, ममी की ख़ुशी की। इससे प्रॉमिस थोड़े ही टूटेगा। मन को तसल्ली हुई।

ममी से पूछे ? पर नहीं, ऐसी बात भी ममी से नहीं पूछनी चाहिए।

हूँऽ। न हों पापा खुश। वह ममी को ही ख़ुश करेगा। खुश नहीं, सुखी करेगा। उसके सिवाए ममी का है ही कौन ? उसने ममी की ओर देखा। ममी ने तकिए में मुँह गड़ा रखा है। सचमुच उसकी ममी दुखी हैं।

जब भी वह ममी को लेकर आगे की बात सोचता, उसे हमेशा लगता जैसे ममी पर दुख ही दुख टूटे पड़ रहे हैं और वह अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उन्हें दूर किए जा रहा है। कैसे दुख हैं सो नहीं जानता। उन्हें कैसे दूर कर रहा है यह भी नहीं जानता। बस, ममी दुखी हैं वह ममी का अकेला बेटा उन्हें दूर कर रहा है।

कई बार मन होता ममी को यह बात बताए। पर कैसे ? अच्छा, क्या तपस्या से पक्की कुट्टी को ख़त्म नहीं किया जा सकता ?

“ममी ?” उसने धीरे से पूछा।

"ममी, तपस्या करके ममी-पापा की कुट्टी नहीं ख़त्म की जा सकती ?"

ममी ने सिर उठाया और एक क्षण उसका चेहरा देखती रहीं। फिर बाँह में भरकर उसे अपने में भींच लिया।

पापा की बात करके गलती तो नहीं कर दी उसने ?

"तू पापा के साथ रहना चाहता है ?"

"नहीं ममी, मैं पापा के साथ नहीं रहना चाहता। मैं तो.."

बंटी ने इस तरह कहा जैसे ममी कहीं उसे ग़लत न समझ लें।

"क्यों बेटा, तुझे पापा चाहिए ? मन करता है कि पापा हों।"

बंटी एक क्षण असमंजस में रहा। हाँ कहने से कहीं ममी नाराज़ न हो जाएँ।

पर झूठ बोलने से तपस्या जो बिगड़ जाएगी। उसने धीरे से 'हाँ' कह दिया।

ममी उसके बाल सहलाती रहीं। पता नहीं उसमें ‘पापा मिल जाएँगे' का आश्वासन था या 'पापा तो नहीं मिल सकते' की मजबूरी।

आज ममी का कॉलेज खुल गया। ममी ख़ुश-खुश कॉलेज चली गईं। उनकी तो बोरियत जैसे ख़त्म हुई। गरमी की छुट्टियों के ये लंबे-लंबे दिन दोनों ने एक-दूसरे को सहारा दे-देकर ही काटे हैं। सारे दिन ममी के साथ ही रहता था।

हाँ, कभी-कभी जब शाम को ममी बाहर जाती तो वह ज़रूर थोड़ी देर अकेला हो जाया करता था। पर आज तो जैसे दिन भी उसे अकेले ही काटना है। उसका स्कूल खुलने में तो अभी चार दिन बाकी हैं।

चलने से पहले ममी ने फूफी को समझाया, “चार बजे के करीब सब लोग चाय पीने यहीं आएंगी। दही-पकौड़ी और आलू की टिकिया तुम घर में बना लेना। चिवड़ा और मिठाई मैं चपरासी के हाथ भिजवा दूंगी। मदद की ज़रूरत हो तो उसे रोक भी लेना। चार बजे तक सब कुछ तैयार रहे हॉऽ!"

"मैं सब देख लूँगा ममी, तुम जाओ। चपरासी क्या करेगा, मैं मदद करवा दूँगा फूफी की।"

“मेरा राजा बेटा !" ममी ने प्यार से गाल थपथपाया और चली गईं।

"बताओ फूफी, क्या करना है ?"

“एल्ले, अभी से क्या करना है ? कुछ नहीं, जाओ खेलो ! घर तो साफ़ कर लूँ पहले।"

ममी की टीचर्स की पार्टी है। 'आज तो उसे बहुत काम करना है' के भाव से बंटी सफ़ाई में जुट गया। कपड़ा लेकर टेबुल-कुर्सी पोंछ डाली। अपनी बुद्धि के हिसाब से जितनी साज-सज्जा कर सकता था, वह भी कर दी।

"अरे, तुम इतने समझदार कइसे हो गए, बंटी भय्या ! आजकल न जिद करते, न झगड़ा करते, न रोते। कहाँ से आ गई इतनी अक्किल तुम में ?"

“आएगी क्यों नहीं ? अब क्या मैं बच्चा हूँ ?" अपनी समझदारी का ठप्पा पड़ते देख बंटी कहीं भीतर ही भीतर पुलकित हो आया। मन हुआ फूफी को तपस्यावाली बात भी बता दे। यों भी फूफी उसके अकेलेपन की साथी है। वह उससे लड़ता भी है, उसे तंग भी करता है, उस पर रौब भी जमाता है। ज़मीन में चॉक या कोयले से शतरंज बनाकर चंगा-अंटा-पौ भी खेलता है। तो कभी उसकी गोद में सिर रखकर कहानियाँ सुनता है। फिर एक कहानी के साथ हज़ार प्रश्न।

तब फूफी बिगड़ पड़ती, “तुम इतनी बहस काहे करते हो ? कहानी है सो है। बिना बोले सुनोगे तो सुनाएँगे, हाँऽ ! खाली हुँकारा दो, बस !"

"अच्छा फूफी, बालक ध्रुव ने जो तपस्या की थी..."

"ल्लो, फिर तुम्हारा कहानी-किस्सा शुरू हुआ। हम एक बात भी नहीं करेंगे इस बखत।"

फूफी चली गई। बुद्ध कहीं की। सोच रही है, मैं ध्रुव की कहानी सुनूँगा, जैसे मुझे आती ही नहीं है।

बंटी अपनी छोटी-छोटी हथेलियों में उबले हुए आलू की गोल-गोल टिकिया बनाता जा रहा है। जैसी फूफी ने बताई ठीक वैसी ही। और कहानी चल रही है। वही सोनल रानी वाली।

रानी हँसे तो फूल झरे और रोए तो मोती झरे। राजा रानी के पीछे प्राण दे। रानी अपने हाथ से सोने के बरक में लपेटकर राजा को छप्पन मसालोंवाला, सुगंध से भरपूर पान खिलाती और मंद-मंद मुसकाती। मुसकान ऐसी कि राजा पागल। राजा के बीस रानियाँ और थीं। बीस रानियों के सौ बच्चे। सोनल बच्चों के पीछे प्राण देती। बच्चे खाएँ तो रानी खाए। बच्चे सोएँ तो रानी सोए। बच्चों का सिर दुखे तो रानी पीर से छटपटाए। बच्चों के चोट लगे तो रानी के फूल जैसे शरीर से खून झरे। कोई नहीं पतियाये तो आकर देख ले। माएँ लोगों ने बहुत देखीं पर ऐसी माँ तो देखी न सुनी। अपने और सौतेले बच्चों में कोई भेद ही नहीं। देखते-सुनते भी कैसे ? कोई सचमुच की औरत तो थी नहीं। डायन थी, सारे जादू बस में कर रखे थे। जैसा चाहती वैसा स्वाँग धर लेती।

“और जब अमावस्या के दिन रात अँधेरी घुप्प हो जाती तो वह अपने असली रूप में आती। काली भूत। अँधेरे में ऐसी घुल-मिल जाती कि पता ही नहीं लगता। फिर सबको जादू के बस में किया और एक बच्चा हड़प।"

बंटी की साँस जहाँ की तहाँ रुक जाती।

सवेरे मरे बच्चे की हड्डियों से चिपट-चिपटकर ऐसा रोती, ऐसा रोती कि चेत ही नहीं रहता। नौकर-चाकर दौड़ पड़ते। कोई गुलाब-जल छिड़कता, कोई केवड़ाजल। राजा खुद फूलों के पंखे से हौले-हौले बयार करते, बेटे का गम भूल, रानी की चिंता में परेशान हो जाते। रानी होश में आती तो चीखती, ‘मेरे बच्चे को लाओ...नहीं मैं प्राण दे दूंगी।' इतना बड़ा राज्य, इतना बड़ा राजा फिर भी कोई पता ही नहीं...

“वह अपने बच्चों को भी खा जाती थी फूफी ?” उस डायन के आतंक से पूरी तरह आतंकित बंटी बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछता।

"और क्या ! डायन बनने के बाद क्या उसे होश रहता कि किसका बच्चा है ? बस भूख लगी, खाओ !"

"भूख लगे तो बच्चे को ही खा जाओ !"...उस मरे बच्चे के प्रति मन कैसा भीग-भीग आता बंटी का।

"भूख में आदमी तक को होश नहीं रहता-बस खाने को चाहिए, जो भी हो, जैसे भी हो, फिर वह तो डायन थी ! अपनी भूख की चिंता करती या बच्चों की ?"

"तो वह और किसी को खा लेती, नौकर-चाकरों या जानवरों को खा लेती।"

“काहे खा लेती ? बच्चों के कोमल मांस जैसा और कहाँ मिलता !"

"तो कभी दूसरे बच्चों को क्यों नहीं खाती, केवल राजकुमारों को ही क्यों खाती ?"

“खाएगी क्यों नहीं ? छप्पन भोग खाए राजकुमारों की देही में जैसा मांस, वैसा और कहाँ मिलता!”

"तो धीरे-धीरे राजा के सब बच्चे खा गई ?'

“और क्या, खा गई। सुंदर कोमल बच्चे हड्डी की ठठरियाँ बन गए। बस उन ठठरियों को देख-देखकर रोने का नाटक करती रहती..."

घिन और डर के मिले-जुले भाव से बंटी की आँखों में आँसू आ जाते। फूफी ने देखा तो प्यार से झिड़कते हुए बोली, “ऐल्लो, तुम आँसू टपकाने लगे। अरे ये तो क़िस्सा-कहानी है। कहीं सच में ऐसा थोड़े ही होता है। सब झूठ, मनगढंत ! इन बातों से कहीं रोया जाता है, सुनो और भूल जाओ। नहीं हम आगे से कभी नहीं सुनाएँगे। हाँ।"

और उसने झट दूसरी कहानी शुरू कर दी-चार मों की। तो थोड़ी देर में ही बंटी खिलखिलाने लगा।

दौड़-दौड़कर बंटी ने मेज़ लगा दी और खड़ा होकर ममी की राह देखने लगा। अपनी सारी टीचर्स को लिए ममी आ रही हैं, हँसती हुईं, बतियाती हुईं। दीपा आंटी तो सबके बीच जैसे छिप ही गईं।

"कहो बंटी, कैसे हो?"

"हैलो बंटी, कैसे हो ?' कइयों ने एक साथ पूछा।

“पहले से लंबा हो गया।" तो बंटी ने जैसे मन ही मन उसे सुधारा, "लंबा नहीं, बड़ा हो गया हूँ।"

"थोड़े मोटे भी होओ, वरना सींकिया पहलवान लगोगे।"

"बंटी ने मौका ताका और दीपा आंटी की बाँह से झूल गया। ममी की सारी टीचर्स में एक यही तो पसंद है, बाकी तो सब बेकार।

आप छुट्टियों में एक बार भी घर क्यों नहीं आईं आंटी ?

"छुट्टियों में हम यहाँ थे ही नहीं, बताओ कैसे आते ? हर साल बंटी बाहर जाता था, इस बार हम बाहर चले गए।"

घसीटता हुआ वह दीपा आंटी को लॉन की तरफ़ ले गया अपने पौधे दिखाने के लिए।

“कहाँ गई थीं आप ?"

"कलकत्ता।"

कलकत्ता ? बंटी जैसे एक क्षण को पुलक आया। एक उड़ती-सी नज़र ममी की ओर डाली। वे सबको लिए बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़ रही थीं।

“आपने क्या-क्या देखा वहाँ ? कैसा है कलकत्ता, आंटी ?"

"बहुत बड़ा और बहुत गंदा।"

"एलगिन रोड देखी आपने ?"

"नहीं तो !"

“लीजिए, एलगिन रोड भी नहीं देखी ?"

"मैं क्या वहाँ सड़कें देखने गई थी ? क्या है एलगिन रोड में ?"

“कुछ नहीं, वैसे ही पूछ लिया था।" बंटी पापा की बात नहीं बताएगा। किसी को बताना भी नहीं चाहिए उसे। अब तो वह सब समझता है।

दीपा आंटी अंदर जाने लगी तो उसने जल्दी-से मोगरे के दो-तीन फूल तोड़े और बोला, "नीचे झकिए, मैं आपके जूड़े में लगाऊँगा।"

हँसती हुई दीपा आंटी झुक गईं, “लगाना आता भी है ?"

“और नहीं तो क्या, ममी के बालों में रोज़ मैं ही तो फूल लगाता हूँ। यह सब पौधे भी तो मैंने ही लगाए हैं।" अपने पौधों की बात करते समय बंटी के मन में उत्साह और गर्व जैसे छलका पड़ता है।

बंटी ला-लाकर सबको खिला रहा है। मना करने पर मनुहार भी करता है... “एक तो लीजिए...ज़रा-सी और...यह गरमवाली टिकिया..." सब लोग खाने और बतियाने में समान रूप से जुटी हुई हैं।

कितना बोलती हैं ये सब लोग ? जब से आई हैं लगातार चकर-चकर किए जा रही हैं। लड़कियों को कैसे चुप रखती होंगी ? अच्छा, उनके स्कूल के सर लोग भी जब आपस में मिलकर बैठते होंगे तो इस तरह बातें करते होंगे ? बच्चों को तो सब लोग कैसा डाँटते हैं-चुप रहो-शोर मत करो। क्या क्लास को भाजी-मार्केट बना रखा है ?

उसने कभी भाजी-मार्केट देखा नहीं...शायद बहत शोर की जगह होती होगी ! जितना शोर यहाँ हो रहा है, उससे भी ज़्यादा ?

“भई बंटी तो बहुत समझदार हो गया है।"

"एकदम राजा बेटा की तरह काम कर रहा है।"

"हमारी पिंकी तो लड़की है। पर एक भी काम तो करवा लो ज़रा। एक बात कहो कि दस जवाब हाज़िर हैं।"

“अरे मिसेज़ बत्रा का बेटा है आख़िर। होशियार नहीं होगा।" मोटी मिसेज़ सक्सेना बोलीं।

हूँ, मक्खनबाज़ कहीं की। वह जानता है, कोई उसकी तारीफ़ नहीं कर रहीं, सब ममी को मक्खन लगा रही हैं। एक बार कॉलेज गया था तो यही मोटी बड़े गाल सहला-सहलाकर कहती रहीं-“हाऊ स्वीट, जानती हो कितना इंटेलिजेंट है यह ?” और जैसे ही वह पीछे मुड़ा धीरे से बोलीं-अरे मिसेज़ बत्रा ने बिगाड़कर धूल कर रखा है, इतना जिददी और सिर-चढ़ा लड़का है कि बस। प्रिंसिपल का लड़का है सो कोई कुछ कहता नहीं-मोटी चापलूस कहीं की। माथे पर बिंदी इतनी बड़ी लगाएँगी जैसे पैसा ही चिपका लिया हो। बस, एक दीपा आंटी अच्छी हैं, जो न कभी इस तरह की तारीफ़ करती हैं न बुराई। मौक़ा मिले तो उसके साथ खेलती भी हैं।

चाय समाप्त हुई तो सब लोग बाहर के कमरे में आ गईं। वह दीपा आंटी की कुर्सी पर ही बैठ गया। उनसे सटकर, एक तरह से उन पर लदकर। ममी ने पास के रैक पर से फ़ाइल उठाई, बीच की मेज़ अपनी तरफ खींची और ढेर सारे काग़ज़ फैला लिए।

“दीपा आंटी, आप गाना नहीं सुनाएँगी ?"

"देखो बच्चा, ममी अब मीटिंग कर रही हैं, समझे ?" लाड़ में वे उसे हमेशा बच्चा ही कहती हैं।

'ममी, हम दीपा आंटी का गाना सुनेंगे, आंटी को गाना सुनाना ही होगा।" और वह पूरी तरह दीपा आंटी की गोद में ही लद गया, कुछ इस विश्वास के साथ कि ममी उसकी बात टाल ही नहीं सकती हैं। इतना काम उसने आज किया है, अब तो वैसे भी उसका अधिकार हो गया है।

"बंटी बेटा, अब हम लोग ज़रा काम की बात करेंगे, कॉलेज की; तुम बाहर जाकर खेलो तो !"

ममी की बात बंटी को जैसे कहीं से चीर गई। एक क्षण वह ममी को इस तरह देखता रहा जैसे विश्वास नहीं कर पा रहा हो कि ममी ने उसे ही बाहर जाने को कहा है।

फिर धीरे से उठा और बाहर आ गया, अपमानित-सा, आहत-सा। तो उसकी इच्छा से भी ज़्यादा ज़रूरी काम ममी के पास है। कॉलेज की बात कॉलेज में कर लेती, घर में तो कम से कम उसकी बात ही माननी चाहिए। वह तो कब से सोच रहा था कि शाम को दीपा आंटी का गाना सुनेगा फिर अपनी कविताएँ सुनाएगा, चुटकले सुनाएगा, पहेली पूछेगा। ऐसी-ऐसी पहेलियाँ उसे आती हैं कि कोई बता ही नहीं सकता। लड़कियों को पढ़ाना आसान है, पहेली क्या हर कोई बता सकता है ? पर अब कुछ नहीं...ममी को ऐसे तो नहीं करना चाहिए था न ? और न चाहते हुए भी ममी को लेकर जाने कितना-कितना गुस्सा मन में उफनने लगा।

पर तभी सारे गुस्से और दुख को ठेलती हई समझदारी आई-ममी प्रिंसिपल हैं, कितने ज़रूरी-ज़रूरी काम उनको रहते हैं, उसे इस तरह गुस्सा नहीं होना चाहिए। कुछ नहीं, दो महीने से ममी सारे दिन घर जो रहती थीं, सो वह कॉलेज की, कॉलेज के काम की बात भूल ही गया था इसीलिए तो गुस्सा भी आ गया वरना तो इसमें गुस्से की कोई बात ही नहीं है। कॉलेज खुल गया है तो कॉलेज का काम भी होगा ही। टीटू के पापा नहीं ऑफ़िस की फ़ाइलें लेकर घर में बैठे रहते हैं। फिर उस कमरे में कोई घुस तो जाएँ देखें ? ऐसा फटकारते हैं कि बस ! ममी ने तो कितने प्यार से कहा। उसके पापा भी फ़ाइलें लेकर आते होंगे ?

खट् से उँगलियों का क्रास बन गया। फिर भी कहीं एक धुंधली-सी तसवीर उभर ही आई...फ़ाइलों में डूबे हुए पापा।

“नहीं-नहीं...” उसने अपने मन को समझाया।

सब लोगों को विदा करके ममी जल्दी से तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गईं।

अब वह ममी के साथ खेलेगा। फिर रात में कहानी सुनेगा, खुब लंबीवाली। आज कितना काम किया है उसने। ममी जब कॉलेज का काम करने लगीं तो बाहर भी आ गया। अब न कॉलेज है न कॉलेज का काम। अब ममी फिर उसकी हो गई हैं, बिलकुल उसकी। पता नहीं क्यों ममी और उसके बीच में कोई भी आता है तो उसे अच्छा नहीं लगता।

कॉलेज के दिनों में तो वैसे भी शाम को ही ममी उसकी हुआ करती हैं। बालों की ढीली-ढीली चोटी और मुलायमवाला चेहरा।

ममी मँह पोछती हई कमरे में आईं।

“लो, बातों ही बातों में टाइम का कुछ अंदाज़ ही नहीं रहा। सात बजे पहुँचना था और पौने सात तो यहीं बज गए।"

"तुम कहीं जा रही हो ममी ?” अपने को रोकते-रोकते भी बंटी रुआँसा हो आया।

“बेटे, एक बहुत ज़रूरी काम से जाना है, बहुत ही ज़रूरी।" ममी के सधे हुए हाथ खटाखट जूड़े में पिनें खोंसते जा रहे हैं।

“वाह ! मैं अभी भी अकेला रहूँ। आज तो सारे दिन बिलकुल अकेला रहा हूँ ममी।" गुस्से में भरा बंटी का स्वर भर्रा गया।

एक क्षण को ममी का हाथ जहाँ का तहाँ रुक गया। बंटी की ओर देखा, बहुत प्यार से। फिर अपने पास खींचकर दुलारती हुई बोलीं, 'मेरा राजा बेटा, अकेला क्यों रहेगा ? टीटू को बुला लेना या उसके यहाँ चले जाना। बस थोड़ी देर में तो आ ही जाऊँगी।"

“टीटू बुलाने से भी आता है इस समय कभी ? इस समय वहाँ जाओ तो उसकी अम्मा..."

“न हो तो साथ ले जाओ न बहूजी।" दरवाजे पर बैठी सुपारी काटती हुई फूफी ने कहा। "सवेरे से तो अकेला डाँव-डाँव डोल रहा है। आपके साथ थोड़ा टहल आएगा तो मन बहल जाएगा बच्चे का।"

बंटी ने बड़ी आशा-भरी नज़र से देखा। शायद फूफी की सिफारिश ही काम आ जाए।

“कहा न, मैं काम से जा रही हूँ फूफी। वहाँ कहाँ ले जाऊँगी ?' जल्दी-जल्दी साड़ी पहनते हुए ममी ने कहा।

“काम से जा रही हो तो क्या हुआ ? बच्चा होगा तो क्या फेंक जाएँगे ? दो मिनट में तैयार किए देती हूँ।"

"नहीं, बंटी मेरा खूब समझदार है। मेरे काम के बीच में वह क्यों जाएगा ? एक साल से तो कभी कॉलेज भी नहीं जाता। वह क्या समझता नहीं कि बड़ों के बीच में नहीं जाना चाहिए।"

फिर गाल पर एक ज़ोर का किस्सू देकर पूछा, “है न बेटा समझदार !" ममी चली गईं। लोहे के फाटक पर खड़ा-खड़ा बंटी जाती हुई ममी को देखता रहा, आँखों में भर आए आँसुओं को भीतर ही भीतर पीता रहा।

और तब पहली बार बंटी ने महसूस किया कि समझदार बनना कितना मुश्किल है। ममी की नज़रों में समझदार होकर रहने का मतलब है, कुछ भी मत कहो, कुछ भी मत करो। दूध उसे पसंद नहीं, फिर भी बिना किए पी लेता है। जो खाने को दो, खा लेता है। जो कुछ करने को कहा जाता है, कर लेता है।

पर ममी भी तो बड़ी हैं, समझदार हैं। उन्हें भी तो वही सब करना चाहिए तो बंटी चाहता है। नहीं क्या ?

अनमना-सा बंटी भीतर आया। बरामदे में ही फूफी ज़मीन पर पसरी पड़ी है।

"ऐसे क्यों लेटी हो फूफी, क्या हो गया।"

“अरे, हम थक गए भय्या, ज़रा कमर सीधी कर लें तो बरतन धोकर चौका साफ़ करें।"

बंटी को लगा जैसे ममी फूफी को थकाकर ख़ुद चली गईं। फूफी, फूफी की थकान उसे कहीं अपने बहुत करीब लगी।

“मैं पैर से कमर दबा दूँ ? अभी ठीक हो जाएगी।"

फूफी उठकर बैठ गई। एकदम बंटी को देखते हुए बोली, “अरे, तुम्हें हो क्या गया है बंटी भय्या ? और सुनो, तुम चले काहे नहीं गए ममी के साथ ? पहले तो कभी अइसे छोड़कर जाने की बात करतीं तो जाने देते तुम ? सारे आँगन में लोट-लोटकर अपना और ममी का जी हलकान कर देते। यह उमिर से पहले बूढ़ा होना हमें अच्छा नहीं लगता तुम्हारा, समझे ? जाओ, खेलो-कूदो। सेवा-चाकरी करने को तुम्हीं रह गए हो हमारी ?"

तो एकाएक बड़ी ज़ोर से मन हआ बंटी का कि सारे आँगन में लोट-लोटकर रोए-खूब रोए बिलकुल पहले की तरह और जब तक ममी न आ जाएँ रोता ही रहे। ममी चुप करा-कराकर थक जाएँ, तब भी चुप न हो।

रात में जब ममी डॉक्टर जोशी की कार से उतरी तो बंटी लोहे के फाटक पर खड़ा मन ही मन कहीं रो ही रहा था।

"कैसे हो बंटी ?" कार में बैठे-बैठे ही डॉक्टर साहब ने पूछा।

"मैं बिलकुल ठीक हूँ। मुझे तो कुछ भी नहीं हुआ।" उसने कुछ इस भाव से कहा मानो पूछ रहा हो, “आप यहाँ क्यों आए ?" डॉक्टर साहब की लगाई हुई सुइयों का दर्द और डर मन में फिर ताज़ा होकर उभर आया।

अँधेरे में ही ममी को देखा। वे भी बिलकुल ठीक लगीं। तब ? और रात में जब वह ममी की बगल में लेटा तो बराबर प्रतीक्षा करता रहा कि ममी कुछ कहेंगी। उसने आज जितना काम किया उसके बारे में ही। पर ममी तो इतनी चुप हैं मानो उन्हें पता ही न हो कि बंटी भी उनके पास लेटा है।

ममी उसके पास लेटी बाल सहला रही हैं। पर उसे लग रहा है कि ममी उसके बाल नहीं सहला रहीं। ममी उसे देख रही हैं, पर नहीं, ममी उसे देख भी नहीं रहीं।

"ममी !"

"हूँ!"

"तुम तो बहुत ही जरूरी काम से गई थीं, फिर..."

"था रे, एक काम।"

ममी तो शायद उससे बोल भी नहीं रहीं। और तब बंटी का मन हुआ कि फूट-फूटकर रो पड़े।

आपका बंटी (उपन्यास) : सात

बंटी का स्कूल क्या खुला, उसका बचपन लौट आया।

लंबी छुट्टियों के बाद पहले दिन स्कूल जाना कभी अच्छा नहीं लगता। पर आज लग रहा है। अच्छा ही नहीं, खूब अच्छा लग रहा है। सवेरे उठा तो केवल हवा में ही ताज़गी नहीं थी, उसका अपना मन जाने कैसी ताज़गी से भरा-भरा थिरक रहा था।

'ममी, मेरे मोजे कहाँ हैं...लो दूध लाकर रख दिया। पहले कपड़े तो पहन लूँ, देर नहीं हो जाएगी...बैग तो ले जाना ही है, किताबें जो मिलेंगी' के शोर से तीनों कमरे गूंज रहे हैं।

बहुत दिनों से जो बच्चा घर से गायब था जैसे आज अचानक लौट आया हो।

जल्दी-जल्दी तैयार होकर उसने बस्ता उठाया। बस्ता भी क्या, एक कापी-पेंसिल डाल ली। कौन आज पढ़ाई होनी है ! बस के लिए सड़क पार करके वह कॉलेज के फाटक पर खड़ा हो गया। ममी उसे घर के फाटक तक छोड़कर वापस लौट रही हैं। बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर ममी अंदर गुम हो गईं तो सामने केवल घर रह गया। छोटा-सा बँगलानुमा घर जो उसका अपना घर है, जो उसे बहुत अच्छा लगता है।

और एकाएक ही खयाल आया, इसी घर में पता नहीं क्या कुछ घट गया है इन छुट्टियों में। उसने जल्दी से नज़रें हटा लीं। तभी दूर से धूल उड़ाती हुई बस आती दिखाई दी। बंटी ने खट से बस्ता उठाया और बस के रुकते ही लपककर उसमें चढ़ गया। दौड़ता हुआ टीटू चला आ रहा है, लेट-लतीफ।

'बंटी, इधर आ जा, यहाँ जगह है।" जगह बहुत सारी थी, पर कैलाश ने एक ओर सरककर उसके लिए खास जगह बनाई।

'बंटी यार, इधर ! इधर आकर बैठ।" विभू उसे अपनी ओर खींच रहा है। बंटी अपने को बड़ा महत्त्वपूर्ण महसूस करने लगा। और बैठते ही उसका अपना चेहरा बच्चों के परिचित, उत्फुल्ल चेहरों के बीच मिल गया।

बस चली तो सबके बीच हँसते-बतियाते उसे ऐसा लगा जैसे सारे दिन खूब सारी पढ़ाई करके घर की ओर लौट रहा है। तभी ख़याल आया-धत्, वह तो स्कूल जा रहा है।

बस, जैसे भाजी-मार्केट। बातें...बातें। कौन कहाँ-कहाँ गया ? किसने क्या-क्या देखा ? छुट्टियों में कैसे-कैसे मौज उड़ाई। अनंत विषय थे और सबके पास कहने के लिए कुछ न कुछ था।

बंटी क्या कहे ? वह खिड़की से बाहर देखने लगा। शायद कोई उससे भी पूछ रहा है। हुँह ! कुछ नहीं कहना उसे।

“मेरे मामा आए थे एक साइकिल दिला गए दो पहिएवाली !"

“हम तो दिल्ली में कुतुबमीनार देखकर आए..."

तब न चाहते हुए भी मन में कहीं पापा, पापा का मैकेनो, कलकत्ता, कलकत्ते का काल्पनिक चित्र उभर ही आए।

"क्यों रे बंटी, तू कहीं नहीं गया इस बार ? पिछली बार तो मसूरी घूमकर आया था।"

“नहीं।" बंटी ने धीरे-से कहा।

“सारी छुट्टियाँ यहीं रहा ?"

"हाँ। ममी ने खस के पर्दे लगा-लगाकर सारा घर खूब ठंडा कर दिया था। मसूरी से भी ज़्यादा। बस फिर क्या था।"

और खस के उन पर्दो की ठंडक, जिसने शरीर से ज्यादा मन को ठंडा कर रखा था, फिर मन में उतर आई।

बंटी फिर बाहर देखने लगा। पर बाहर सड़कें, सड़कों पर चलते हुए लोगों के बीच कभी वकील चाचा दिखाई देते तो कभी ममी का उदास चेहरा। कभी पापा दिखाई देते तो कभी भन्नाती हुई फूफी।

कितनी बातें हैं उसके पास भी कहने के लिए, पर क्या वह सब कही जा सकती हैं ? मान लो वह किसी को बता भी दे तो कोई समझ सकता है ? एकदम बड़ी बातें। यह तो वह है जो एकाएक समझदार बन गया। ये विभू, कैलाश, दीपक, टामी...कोई समझ तो ले देखें।

पर अपनी इस समझदारी पर उसका अपना ही मन जाने कैसा भारी-भारी हो रहा है।

बस जब स्कूल के फाटक पर आकर रुकी तो एक-दूसरे को ठेलते-ढकेलते बच्चे नीचे उतरने लगे। नीचे खड़े सर बोले-“धीरे बच्चो, धीरे ! तुम तो बिलकुल पिंजरे में से छूटे जानवरों की तरह..."

तो बंटी को लगा जैसे वह सचमुच ही किसी पिंजरे में से निकलकर आया है। बहुत दिनों बाद ! सामने स्कूल का लंबा-चौड़ा मैदान दिखाई दिया तो हिरन की तरह चौकड़ी भरता हुआ दौड़ गया। गरमियों का सूखा-रेतीला मैदान इस समय हरी-हरी घास के कारण बड़ा नरम और मुलायम हो रहा है, जैसे एकदम नया हो गया हो।

नई क्लास, नई किताबें, नई कापियाँ, नए-नए सर...इतने सारे नयों के बीच बंटी जैसे कहीं से नया हो आया। नया और प्रसन्न। हर किसी के पास दोस्तों को दिखाने के लिए नई-नई चीजें हैं। जैसे ही घंटा बजता और नए सर आते, उसके बीच में खटाखट चीजें निकल आतीं। प्लास्टिक के पजल्स, तसवीरोंवाली डायरी, तीन रंगों की डाट-पेंसिल...और 'ज़रा दिखा तो यार' – 'बस, एक मिनट के लिए' का शोर यहाँ से वहाँ तक तैर जाता।

“मेरे पास बहुत बड़ावाला मैकेनो है। इतना बड़ा कि स्कूल तो आ ही नहीं सकता। कलकत्ते से आया है। कोई भी घर आए तो वह दिखा सकता है।"

एक क्षण को उँगलियाँ एक-दूसरी पर चढ़ीं और फिर झट से हट भी गईं। हुँह, कुछ नहीं होता। कोई पाप-वाप नहीं लगता। कोई उसके घर आएगा तो वह ज़रूर बताएगा मैकेनो। सब लोग अपनी चीज़ों को दिखा-दिखाकर कैसा इतरा रहे हैं, शान लगा रहे हैं और वह बात भी नहीं करे।

"विभू, तू शाम को आ जा अपने भैया के साथ। बहुत चीजें बनती हैं उसकी-पुल, सिगनल, पनचक्की, क्रेन..."

ख़याल आया, उसने भी तो अभी तक सब कुछ बनाकर नहीं देखा। विभू आ जाए तो फिर दोनों मिलकर बनाएँगे। और विभू नहीं भी आया तो वह खुद बनाएगा। यह भी कोई बात हुई भला !

स्कूल की बातों से भरा-भरा बंटी घर लौटा। खाली बस्ता भी नई-नई किताबों से भर गया था।

ममी अभी कॉलेज में हैं। उसके आने के एक घंटे बाद घर आती हैं। बंटी दौड़कर फूफी को ही पकड़ लाया।

“अच्छा, एक बार इस बस्ते को तो उठाकर देखो।"

“क्या है बस्ते में ?"

“उठाकर तो देखो।'' एकदम ललकारते हुए बंटी ने कहा।

फूफी ने बस्ता उठाया, “एल्लो, इतना भारी बस्ता ! ये अब तुम इत्ता बोझा ढो-ढोकर ले जाया करोगे ? तुमसे ज्यादा वज़न तो तुम्हारे बस्ते में ही है।"

बंटी के चेहरे पर संतोष और गर्व-भरी मुसकान फैल गई। “चलो हटो।" और फिर खट से बस्ता उठाकर, सैनिक की मुद्रा में चार-छह कदम चला और फिर बोला, “रोज़ ले जाना पड़ेगा। अभी तो ये बाहर और पड़ी हैं। चौथी क्लास की पढ़ाई क्या यों ही हो जाती है ? बहुत किताब पढ़नी पड़ती हैं।" फिर एक-एक किताब निकालकर दिखाने लगा।

“यह हिस्ट्री की है। कब कौन-सा राजा हआ, किसने कितनी लडाइयाँ लड़ीं, सब पढ़ना पड़ेगा। समझी ! और हिस्ट्री के राजा कहानियों के राजा नहीं होते हैं, झूठ-मूठवाले। एकदम सच्ची-मुच्ची के, राजा भी सच, लड़ाइयाँ भी सच...और यह ज्योग्रफ़ी है...यह जनरल साइंस...यह एटलस है। हिंदुस्तान का नक्शा पहचान सकती हो ? लो, अपने देश को भी नहीं पहचानती ! देखो, यह सारी दुनिया का नशा है...इसमें जो यह ज़रा-सा दिख रहा है न, यही हिंदुस्तान है। इसी हिंदुस्तान में अपना शहर है और फिर उस शहर में अपना घर है और फिर उस घर में अपनी रसोई है और फिर उस रसोई में एक फूफी है...हा-हा...” बंटी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।

बंटी को यों हँसते देख, फूफी एकटक उसका चेहरा देखने लगी, कुछ इस भाव से जैसे बहत दिनों बाद बंटी को देख रही हो। फिर गद्गद स्वर में बोली, “हाँ भय्या, मेरी तो रसोई ही मेरा देश है। और देश-दूष मैं नहीं जानती। हुए होंगे राजा-महाराजा, मेरा तो बंटी भय्या ही राजा है।"

"बुद्ध कहीं की ! देख, यह डिक्शनरी है। शब्द-अर्थ समझती है ? किसी शब्द का अर्थ नहीं आए तो इसमें देख लो। चौथी क्लास में एटलस और डिक्शनरी भी रखनी पड़ती है।"

“अब इस बूढ़े तोते के दिमाग में कुछ नहीं घुसता भय्या, तुम काहे मगज़ मार रहे हो। चलो हाथ-मुँह धोकर कुछ खा-पी लो। मुँह तो देखो, भूख और गरमी के मारे चिड़िया जैसा निकल आया है।"

बंटी खाता जा रहा है और उसका उपदेश चालू है। “तुम कहती थीं न फूफी कि रात-दिन भगवान करते हैं। पानी भगवान बरसाता है। सब झूठ। जनरल साइंस की किताब में सारी सही बात लिखी हुई है। अभी पढ़ी नहीं है। जब पढ़ लूँगा तो सब तुम्हें बताऊँगा।"

“तो हम कौन इसकूल में पढ़े बंटी भय्या ! बस, अब तुमसे पढ़ेंगे। इंगरेज़ी भी पढ़ाओगे हमें..."

बंटी फिर खीं...खीं...करके हँस पड़ा। फूफी और अंग्रेजी। और फिर फफी जितना भी बातें करती रही, बंटी हँसता रहा...खिल-खिलाकर। फूफी उसे देखती रही गद्गद होकर।

जब ममी आईं तो बंटी ने वे ही सारी बातें दोहराईं। उतने ही उत्साह और जोश के साथ। स्कूल में क्या-क्या हुआ ? नए सर कैसे-कैसे हैं ? “जो सर क्लास टीचर बने हैं न ममी, उनकी मूंछे ऐसी अकड़कर खड़ी रहती हैं जैसे उनमें कलफ लगा दिया हो। मैंने उनकी शक्ल बनाई और लंच में दिखाई तो सब खूब हँसे, बड़ा मज़ा आया। तुम्हें बताऊँ ममी ?"

विभू ने दिल्ली में जाकर क्या-क्या देखा ? ममी उसे कब ले जाकर दिखाएगी और फिर उसी झोंक में कह गया, “मैंने सबको अपने मैकेनो के बारे में बता दिया। यदि शाम को विभू आया तो उसे दिखाऊँगा भी..." फिर एक क्षण को ममी की ओर देखा, ममी वैसे ही मंद-मंद मुसकरा रही हैं। कुछ भी नहीं, वह बेकार डरता रहा इतने दिनों। खेलने से क्या होता है भला !

“ममी, अब अपना काम सुन लो।" आवाज़ में आदेश भरा हुआ है। “आज ही सारी किताबों और कापियों पर कवर चढ़ जाना चाहिए, ब्राउनवाला। नहीं तो कल सज़ा मिलेगी, हाँ। तुम सब काम छोड़कर पहले मेरे कवर चढ़ा देना। फिर सफ़ेद लेवल काटकर चिपकाने होंगे। उन पर नाम और क्लास लिखना होगा। खूब सुंदरवाली राइटिंग में जमा-जमाकर लिखना, समझीं।"

और फिर उसी उत्साह और जोश में भरा-भरा वह टीटू के यहाँ दौड़ गया। आज जाने कितनी बातें हैं उसके पास करने के लिए। टीटू को कौन-कौन से सर पढ़ाएँगे...उसे कौन-कौन-सी किताबें मिली हैं।

बंटी टीटू के यहाँ से लौटा तो अँधेरा हो चुका था। हाथ में पेड़ की एक टूटी हुई टहनी है, जिससे वह हवा में तलवार चला रहा है। फूफी आँगन में लेटी-लेटी पंखा झल रही है, “यह बरसात की गरमी तो मार के रख देती है आदमी को। हवा का नाम नहीं है कहीं-एक बार ज़ोर से बरसे तो..."

"बरसो राम धड़ाके से, फूफी मर गई फाके से..."

"हाँ, अब तुम हमें मारोगे ही तो।"

“ममी !" बिना कुछ भी सुने-बोले बंटी अपनी ही धुन में भीतर आया तो देखा मेज़ पर सारी किताबें-कापियाँ ज्यों की त्यों पड़ी हैं, बिना कवर के। खाली बस्ता मेज़ के नीचे पड़ा है।

“ममी !'' बंटी लॉन की ओर दौड़ पड़ा। लॉन में ममी डॉक्टर साहब के साथ बैठी हैं। बीच की मेज़ पर चाय के खाली बरतन रखे हैं। दनदनाता हुआ बंटी आया। "मेरे कवर नहीं चढ़ाए ममी ?"

"बंटी, नमस्ते करो डॉक्टर साहब को।" ममी ने उसकी बात का जवाब न देकर अपनी बात कही तो बंटी भन्ना गया। दोनों हाथ कुछ इस तरह जोड़े मानो कह रहा हो-जान बख्शो।

“तुमने मेरे कवर क्यों नहीं चढ़ाए, कल सज़ा नहीं मिलेगी मुझे ?"

“अरे बंटी, बड़े नाराज़ हो रहे हो बेटे ! क्या बात है ?"

'हाँ. हो रहे हैं नाराज, आपका क्या जाता है ? जब देखो तब आकर बैठ जाएँगे या ममी को ले जाएँगे। बड़ी अपनी मोटर की शान लगाते हैं। अब आकर बैठ गए तो ममी कवर नहीं चढ़ा सकीं न ? और ममी कह नहीं सकती थीं कि उन्हें बंटी का काम करना है। अब उन दोनों का क्या जाएगा, सज़ा तो उसे मिलेगी' वह मन ही मन भनभनाने लगा।

बिना एक शब्द भी बोले बंटी ने हाथ पकड़कर ममी को खींचा, “तुम चलकर पहले कवर चढ़ाओ। एकदम उठो।" डॉक्टर साहब की तरफ उसने देखा भी नहीं।

"बंटी, क्या कर रहे हो बेटा ? इतने बड़े होकर इस तरह करते हैं ! तू तो बहुत समझदार है..."

पर बंटी हाथ खींचता ही रहा। कोई समझदार-वमझदार नहीं है। पहले तो कोई उसका काम मत करो और फिर कह दो समझदार हैं...

"चलो न ! इतनी देर तो हो गई। फिर कब चढ़ाओगी ?" बंटी रोने-रोने को हो आया।

“मैंने कहा न मैं चढ़ा दूंगी।" ममी जैसे झुंझला आई थीं। उन्होंने अपना हाथ खींच लिया।

एकाएक डॉक्टर साहब उठ खड़े हुए, “चलो, तुम बंटी का काम करो। मैं तो वैसे भी चलने ही वाला था। साढ़े आठ बजे, एक जगह पहुँचना भी है।"

सब लोग ममी को आप-आप कहकर बोलते हैं और ये कैसे तुम कह रहे हैं। इतना भी नहीं मालूम कि ममी प्रिंसिपल हैं। प्रिंसिपल को आप कहा जाता है कि नहीं।

ममी ने एक-दो बार ठहरने का आग्रह किया। पर वे चल पड़े। ममी उन्हें छोड़ने के लिए मोटर तक गईं।

बंटी जानता है कि ममी आते ही उसे डाँटेंगी-ऐसे बोलते हो, ऐसे करते हो...तमीज़ कब आएगी-वह आजकल कुछ कहता नहीं तो ममी ने उसकी बात सुनना ही छोड़ दिया। न कभी साथ लेकर जाती हैं, न कहानी सुनाती हैं-पहले की तरह उसके साथ खेलती भी नहीं। पर ये सारे के सारे तर्क मिलकर भी, उसके अपने ही मन में अभी की हुई बदतमीज़ी को कम नहीं कर पा रहे थे।

जैसे ही ममी लौटकर आई, बंटी ने रोना शुरू कर दिया। ज़ोर-ज़ोर से"इतनी देर तो हो गई, अब कब चढ़ेंगे कवर ?” दोषी ममी को ही बनाकर रखना है।

"चल, कवर चढ़ाती हूँ।" इसके अलावा ममी ने एक शब्द भी नहीं कहा तो बंटी को ख़ुद एक अजीब तरह की बेचैनी होने लगी। डाँट खानेवाले काम पर भी ममी का यों चुप रह जाना उसे डाँट से भी ज़्यादा कष्ट देने लगा। डाँट देतीं तो उनकी डाँट से उसकी सारी बदतमीज़ी कट जाती, हिसाब बराबर पर अब तो सारा दोष जैसे उसी के सिर।

कुछ गलत कर डालने के बोझ से दबा-दबा, सहमा-सा वह भीतर आया। ममी ने सारी कापियाँ-किताबें नीचे उतारी और बोलीं, “ला ब्राउन पेपर कहाँ है ?"

"मेरे पास कहाँ है ब्राउन पेपर ?"

“तब कैसे चढ़ाऊँगी कवर ?” और ममी हाथ पर हाथ धरकर बैठ गईं।

"मैं क्या जानूँ ? तुम्हें मँगवाकर नहीं रखना चाहिए था, मैंने तो आते ही कह दिया था बस !"

बंटी को जैसे अपने व्यवहार के लिए फिर एक सहारा मिल गया और मन में फिर ढेर-ढेर सारा गुस्सा उफनने लगा।

ममी चुप।

“तुम्हें मेरी बिलकुल परवाह नहीं रह गई है। मत करो मेरा कोई भी काम। बस, डॉक्टर साहब के पास बैठकर चाय पियो। तुम्हारा क्या है, सज़ा तो मुझे मिलेगी। मैं अब स्कूल ही नहीं जाऊँगा, कभी नहीं जाऊँगा, कभी भी..." और बंटी फूट-फूटकर रोने लगा।

ममी ने पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा, “पागल हो गया है। एक दिन कवर नहीं चढ़ेंगे तो क्या हो गया ? कोई सज़ा नहीं मिलेगी, मैं चिट्ठी लिख दूँगी सर के नाम, चुप हो जा..."

“नहीं, मैं कोई चिट्ठी-विट्ठी नहीं ले जाऊँगा। मैं स्कूल भी नहीं जाऊँगा...गंदी कहीं की...” और कहने के साथ ही बंटी ने ममी की ओर देखा-लो, अब डाँटो, मुद्रा में।

पर फिर भी ममी ने नहीं डाँटा। बस, ममी समझाती रहीं और बंटी उफन-उफनकर रोता रहा। उसे ख़ुद लग रहा है कि यह रोना केवल कवर न चढ़ने का रोना नहीं है। पता नहीं क्या है कि उसे फूट-फूटकर रोना आ रहा है। बहुत दिनों से जैसे मन में कुछ जमा हुआ था, जो एक हलके से झटके से बह आया।

बेबस और अपराधी-सी ममी हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं और ज़मीन में पसरकर, पैर फैला-फैलाकर बंटी रो रहा है-मत करो मेरा काम...घूमने जाओ...बातें करो...मैं भी सारे दिन टीटू के यहाँ रहूँगा...पेड़ पर चढूँगा..बिलकुल नहीं पढूंगा... "

आँसुओं से सारा चेहरा भीग गया था पर वेग था कि थामे नहीं थम रहा था।

फूफी आई और हाथ पकड़कर उठाने लगी तो बंटी ने हाथ झटक दिया, “मत उठाओ मुझे, रोने दो बस..."

“कइसा ख़ुश-खुश आया था बच्चा स्कूल से। बहुत दिनों बाद तो चेहरे पर ऐसी हँसी देखी थी...आने के बाद दस बार तो कहा था कि कागद चढ़ा देना, पर आपको तो आजकल..." ममी की तरफ़ नज़र पड़ते ही फूफी का उलाहना अधूरा रह गया और बात जहाँ की तहाँ टूट गई।

बंटी रोता रहा, फूफी समझाती रही, और ममी चुप-चुप बैठी दोनों को देखती रहीं। ममी समझा भी सकती थीं, पर समझाया नहीं। डाँट भी सकती थीं, पर डाँटा भी नहीं। और ममी का यों चुप-चुप बैठना ही बंटी को और रुला रहा था।

एकाएक जैसे कुछ ख़याल आया हो। ममी उठीं। दराज़ में से चाबियों का गुच्छा निकाला और फूफी को देते हुए बोली, “फूफी, कॉलेज के चपरासी से कहना, स्टील की अलमारी में कुछ भूरे कागज़ होंगे, निकालकर दे दे।"

और जब काग़ज़ आ गए और ममी उसी तरह चुपचाप चढ़ाने लगी तो ममी का सारा दोष जैसे बंटी के अपने सिर पर आ चढ़ा। कम से कम बंटी को ऐसा महसूस हुआ। ममी से नज़रें बचाए-बचाए वह खुद भी चढ़ाने में मदद करने लगा। बीच-बीच में छिपकर ममी की ओर देख भी लेता। ममी नाराज हैं ? पर कुछ भी तो पता नहीं लगता। आजकल ममी की कोई भी बात तो समझ में नहीं आती। पहले ममी का चेहरा, ममी की आँखें देखकर ही ममी के मन की बात जान लेता था, ममी की ख़ुशी, ममी की उदासी, ममी की नाराज़गी सब उसे पता था। पर अब ?

"तू जाकर खाना खा ले और सो जा। फिर सवेरे उठा नहीं जाएगा।"

"तुम भी तो चलकर खाना खाओ।" स्वर में कहीं क्षमा माँगने का-सा भाव उभर आया।

ममी ने एक क्षण को उसकी ओर देखा, फिर धीरे-से बोली, “नहीं, मैं बाद में खा लूँगी।"

एक क्षण को बंटी दुविधा में रहा, उठे या नहीं। फिर धीरे-से उठ गया। कम से कम इस समय वह ममी की किसी भी बात का विरोध नहीं करेगा।

जाते-जाते बोला, “सफ़ेद लेबिल चिपकाकर नाम भी लिखने हैं।"

"हाँ-हाँ, मैं सब कर दूँगी। तू जाकर सो जा।"

खाना खाकर बंटी बाहर आया तो लगा जैसे भीतर बैठा था तो एक बोझ-सा उस पर लदा था। पता नहीं वह बोझ कवर न चढ़ने का था कि ममी के नाराज़ होने का था या कि अपने ही व्यवहार का था। जो भी हो, बाहर आते ही वह बहुत हलका हो आया और बिस्तर पर लेटते ही सो गया।

सवेरे उठकर बंटी भीतर आया तो देखा सारी किताबें-कापियाँ जमी हुई रखी हैं। कवर चढ़ी हुईं, लेबिल लगी हुईं। सब पर सुंदर अक्षरों में उसका नाम और क्लास लिखा हुआ है...उसने सबको छूकर देखा, हाथ फेरकर। और मन पुलक आया। पर साथ ही एक क्षण को मन में कल का सब कुछ तैर गया। जैसे भी होगा ममी को खुश करेगा। वह दौड़कर आँगन में आया। ममी बैठी अखबार पढ़ रही हैं। गले में हाथ डालकर वह झूल गया। ममी मेरी...उसकी समझ में नहीं आ रहा था कैसे अपनी ख़ुशी जाहिर करे, कैसे ममी का गुस्सा दूर करे। और जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो ममी के गाल पर एक किस्सू दे दिया।

ममी ने खींचकर उसे अपने सामने किया। उसके दोनों कंधों पर हाथ रखे उसे देखती रहीं। बस, देखती रहीं। न कुछ कहा, न प्यार दिया। क्या था उन नज़रों में ? गुस्सा, फटकार, प्यार, ख़ुशी-बंटी कुछ भी तो नहीं समझ पाया।

"जा, जल्दी से जाकर तैयार हो जा। देर नहीं हो जाएगी स्कूल में ?" ममी ने बिना एक बार भी प्यार किए उसे भगा दिया।

तैयार होते-होते बंटी के दिमाग में यही एक बात घूमती रही। ममी ने उसे एक बार भी प्यार नहीं किया। पहले कभी वह ममी के गाल पर किस्सू देता तो फिर ममी बदले में ढेर सारे किस्सू देतीं...बाँहों में भरकर खूब-खूब प्यार करतीं। ममी क्या उससे नाराज़ हैं ?

नहीं, नाराज़ भी तो नहीं लगतीं। पता नहीं ममी बदल ही गई हैं। पहले की तरह तो बिलकुल ही नहीं रहीं।

और थोड़ी देर पहले की अपराध भावना और पश्चाताप फिर गुस्से में घुलने लगा। पर इस बार का गुस्सा ममी की जगह डॉक्टर जोशी के लिए था। क्यों आते हैं यहाँ इतना ?

बंटी बडी ख़शी-खुशी तैयार हो रहा है। आज कितने दिनों बाद ममी ने उसे बाहर ले जाने के लिए कहा है। कॉलेज से आते ही बोली, "बंटी, तैयार हो जाना, आज घूमने चलेंगे।" तो एक क्षण को तो वह ममी को ऐसे देखता रहा, मानो विश्वास ही नहीं हो रहा हो। इधर तो ममी ने एक तरह से उसे घुमाना ही छोड़ दिया। कभी-कभी जाती हैं तो अकेले। उससे पूछती तक नहीं। बस कह देती हैं, मैं जा रही हूँ। ऐसा करना चाहिए ममी को ? उसका क्या है, मत पूछो ! वह भी टीटू के यहाँ खेलने चला जाता है, फूफी को लेकर कुन्नी के यहाँ चला जाता है। अपने खिलौने निकाल लेता है, पापावाले।

“ऐसे क्या देख रहा है ? बता तो कहाँ चलेगा आज ?"

“कंपनी बाग ?"

“क्या पहनेगा ? अच्छे-से कपड़े निकाल ले।" ममी बहुत खुश लग रही हैं आज। आजकल पहले की तरह उदास तो नहीं ही रहतीं।

वह ख़ुद तैयार हो गया, अब ममी का तैयार होना देख रहा है। एक-एक शीशी खुलती है और चेहरे पर चढ़ती हर परत के साथ ममी का चेहरा जैसे नया होता जा रहा है। पाउडर की सफ़ेदी और होंठों की लाली के बीच में ठुड्डी का तिल कैसा चमक रहा है। एकाएक मन हो आया, ममी का तिल छू ले। कितने दिनों से उसने ममी का तिल ही नहीं छुआ। सजती हुई ममी उसे सुंदर लग रही हैं, पर हिम्मत नहीं हो रही कि पास जाए, पता नहीं, आजकल उसके और ममी के बीच कुछ हो गया है।
   
आज वह ममी के साथ खूब घूमेगा, खूब खेलेगा। ममी को खूब हँसाएगा भी। फिर रात में बिना कहे ही ममी के पलंग में घुस जाएगा और उनके तिल पर हाथ फेरकर कहानी सुनेगा। बस, एक भी बहाना नहीं सुनेगा।

ममी ने अलमारी खोलकर एक डिब्बा निकाला और उसमें से बैंगनी रंग की साड़ी निकालकर पहनने लगीं। सुंदर और एकदम नई।

"यह कौन-सी साड़ी है ममी ?” ममी की एक-एक चीज़ से वह बहुत परिचित है।

“है एक, नई है।"

"कब लाईं, मुझे नहीं बताई ?” शिकायत के स्वर में बंटी ने कहा।

ममी का साडी बाँधता हाथ रुक गया। कुछ क्षण को उनकी नजरें बंटी के चेहरे पर टिक गईं। ममी कभी-कभी उसकी तरफ़ इस तरह देखती हैं कि लगता है मानो उसको नहीं देख रहीं, उसके चेहरे में कुछ और देख रही हों। फिर हँसकर बोलीं, “मैं जो कुछ करूँ, तुझे बताना ज़रूरी है ? तू तो अभी से अपने..." और वे फिर साड़ी बाँधने लगीं।

मत बताओ, मेरा क्या है ? मैं भी कोई चीज़ लाऊँगा तो नहीं बताऊँगा-कुछ भी करूँगा तो नहीं बताऊँगा। नहीं बताना कोई अच्छी बात है ?

तभी बाहर गाड़ी का हार्न भी सुनाई दिया। लो, ये डॉक्टर साहब आ गए तो अब ममी जाएँगी भी नहीं। मना तो करें अब, वह भी...

"चल, तू जाकर बैठ, मैं अभी आई।"

"हम क्या डॉक्टर साहब के साथ जाएँगे ?' बंटी का सारा उत्साह ही जैसे मर गया।

“और क्या, उनकी गाड़ी में ही तो चलना है।" ममी ने जल्दी-जल्दी दराजें और अलमारी बंद कीं। एक क्षण को बंटी का मन हुआ कि मना कर दे। पर गाड़ी में घूमने का लालच भी कम नहीं था।

डॉक्टर साहब ने अपनी बगलवाली सीट का फाटक खोला तो ममी ने भीतर बैठते हुए कहा, “तू पीछे बैठ जा।"

“इसे भी आगे ही ले लो। दोनों बैठ सकोगे।"

पर ममी ने पीछे का फाटक खोलकर कहा, "नहीं, यह पीछे बैठ जाएगा आराम से, आगे मेरी साड़ी मुड़ जाएगी।"

बिना एक भी शब्द बोले अपमानित-सा बंटी चुपचाप पीछे बैठ गया। उसका क्या है, आगे बिठाओ, पीछे बिठाओ या घर ही छोड़ जाओ। नई साड़ी पहनकर कैसा इतरा रही हैं ममी। अब तो दोनों बैठ गए, ये डॉक्टर साहब गाड़ी क्यों नहीं स्टार्ट कर रहे हैं ? एकटक ममी को ही देख रहे हैं, जैसे कभी देखा ही न हो।

"चलिए न !” बंटी से और ज़्यादा देर तक चुप नहीं रहा गया।

“अच्छा बंटी बेटे, आज का प्रोग्राम सिर्फ तुम्हारे लिए है। बोलो तो कहाँ चलना पसंद करोगे ?''

डॉक्टर साहब का यों पूछना बंटी को अच्छा लगा।

"कंपनी बाग की फरमाइश की है बंटी ने। पहले बच्चों को ले लीजिए, फिर वहीं चलते हैं।" ममी के कहते ही डॉक्टर साहब ने 'ओ. के.' कहा और कार चला दी।

बंटी मन ही मन जैसे भुन गया। धत्तेरे की। यह भी कोई घूमना हुआ। ममी खुद तो अकेले-अकेले घूमती हैं डॉक्टर साहब के साथ, पर आज उसे घुमाने की बात कही तो सबको बटोर लो। फिर क्यों झूठ-मूठ कहती हैं कि चल तुझे घुमा लाते हैं। यों कहो न सबको घुमाना है। कौन-से बच्चे हैं ?

और मन में पापा के साथ घूमनेवाला दिन तैर गया। बिलकुल अकेले। “बंटी बेटा, आज तुम्हें अपने बच्चों से मिलाएँगे। हमारे यहाँ एक दीदी है, जोत दीदी-एक छोटा भय्या है अमि। दीदी बहुत सीधी और समझदार हैं और अमित बहुत शैतान। एकदम पाजी ! शैतानी करे तो तुम कान खींच देना उसके..."

ममी हँस क्यों रही हैं ? यह भी कोई हँसने की बात है। कोई चुटकुला सुनाया है डॉक्टर साहब ने ?

गाड़ी जब कोठी के सामने रुकी तो बंटी ने उड़ती-सी नज़र डाली। खूब बड़ी है कोठी, पर बगीचा नदारद। बस सामने अहाता-सा है। न घास, न पौधे।

डॉक्टर साहब उतरकर भीतर चले गए तो ममी ने बताया, “यही है डॉक्टर साहब की कोठी।" और फिर उसका चेहरा देखने लगीं।

दरवाज़े में घुसते ही बाईं ओर एक छोटा-सा मकान जैसा बना है, जिस पर बड़ा-सा बोर्ड लगा है, हर जगह दिखाई देनेवाला बोर्ड, 'लाल तिकोन। दो या तीन बच्चे बस।

"यह क्या है ममी ?"

"डॉक्टर साहब की डिस्पेंसरी। सवेरे डॉक्टर साहब यहाँ बीमारों को देखते हैं।"

"आंटी," हलका नीला फ्रॉक पहने एक लड़की दौड़ती चली आ रही है और पीछे-पीछे एक लड़का। दोनों के चेहरों पर खुशी जैसे छलकी पड़ रही है।

तो ममी इन बच्चों को भी जानती हैं, बस वही नहीं जानता।

“देखो जोत, यह है बंटी ! आज तुम लोगों की दोस्ती करवा देते हैं। फिर कभी तुम इसके पास आ जाना, कभी यह तुम्हारे पास आ जाएगा।"

जोत उसे देख रही है, पर वह जैसे अपने में ही सिमटता जा रहा है। “मैं खिड़की के पास बैलूंगा।" अमि ने आते ही घोषणा कर दी और पीछे का फाटक खोलकर वह बड़े अधिकार भाव से भीतर बैठ गया। बंटी को लगा अपनी चीज़ होने पर ही ऐसा अधिकार भाव आ सकता है। वह चुपचाप एक ओर को सरक गया। दूसरे फाटक से जोत घुसी तो वह बीच में सरक गया।

बीच में बैठना भी कोई बैठना होता है ? अब कुछ देख सकता है वह ? दूसरों की गाड़ी में वह कहे भी क्या ? पर ममी तो कह सकती थीं कि दोनों में से कोई एक बीच में बैठ जाए और बंटी को खिड़की पर बैठने दे। वे तो बंटी को घुमाने लाई थीं। झूठ ! उसे नहीं करनी दोस्ती किसी से। आगे से वह कभी आएगा भी नहीं इनके साथ। डॉक्टर साहब, ममी आगे की खिड़कियों पर बैठे हैं और जोत और अमित पीछे की खिड़कियों पर। बस वही फालतू-सा बीच में बैठा है।

घास पर ममी और डॉक्टर साहब अपने-अपने रूमाल बिछाकर बैठ गए, “जाओ, खेलो अब तुम लोग। रेस लगाओ या कुछ और।" अमि तो बिना किसी की राह देखे ही दौड़ भी गया। जोत इधर-उधर देख रही है। वह नहीं खेलेगा। बस यहीं बैठा रहेगा। ये ममी इतना सटकर क्यों बैठी हैं डॉक्टर साहब से। ऐसे तो कभी ममी किसी के साथ नहीं बैठतीं। बंटी को बहुत अजीब लग रहा है। अजीब और बहुत खराब भी। वह दोनों के बीच घुसता हुआ बोला, "मैं नहीं खेलूँगा ममी, मन नहीं हो रहा है।"

"ले, यहाँ खेलने आया है कि बैठने। पागल कहीं का, चल दौड़ लगा। जोत, इसे ले जाओ तो अपने साथ।" ममी ने एक तरह से उसे ठेल दिया। जोत उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी तो मजबूरन उसे उठना पड़ा।

पर बंटी न खेला, न दौड़ा। बस ममी के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटता रहा।

ज़रा-सी दूर जाता भी तो मुड़-मुड़कर ममी की ओर देखता रहता। ममी को इस तरह देखकर अजीब-सी बेचैनी हो रही थी उसे। थोड़ी देर में वह फिर ममी के पास आकर ही बैठ गया।

“इट सीम्स, ही हसबैंड्स यू टू मच !'' डॉक्टर ने कहा तो ममी हँसने लगीं।

हाँ, हसबैंड की बात कर रहे हैं और ममी हँस रही हैं। पहले पापा की बात करने से कैसी उदास हो जाया करती थीं। और ऐसे सबसे करनी चाहिए पापा की बात ? ऐसे हँसना चाहिए ? वह तो अपने दोस्तों के सामने भी कभी नहीं करता। जाने क्यों बंटी का मन गुस्से में सुलगने लगा।

उसके बाद आइसक्रीम खाई, चाट खाई। ममी और डॉक्टर साहब हँस-हँसकर बातें करते रहे। अमि शोर मचाता रहा, अधिकारपूर्ण स्वर में फरमाइशें करता रहा-पापा ये लेंगे, वो लेंगे ? जोत कभी ममी से बात करती, कभी डॉक्टर साहब से। बस केवल बंटी था जो चुप था, सबसे अलग और सबसे अकेला। एक ममी ही तो उसकी थीं, पर वे भी उन्हीं लोगों में जाकर मिल गईं।

आपका बंटी (उपन्यास) : आठ

आज रविवार का दिन है।

गीले बालों को कुर्सी की पीठ पर फैलाए ममी स्वेटर बुन रही हैं। बंटी ढेर सारे रंग और ब्रश लेकर एक चित्र बना रहा है। सवेरे के समय अब धूप में बैठना अच्छा लगने लगा है। फूफी ने सारे आँगन में चटाइयाँ डालकर दालें और गेहूँ फैला रखे हैं। फूफी को इसका ही बड़ा शौक़ है। जब देखो कोई न कोई चीज़ धूप में फैलाए रखेगी। कभी गेहूँ-दालें तो कभी गद्दे-रजाइयाँ। फूफी का बस चले तो बंटी को भी ले जाकर खड़ा कर दे... “अरे जरा घंटे-भर धूप में उलट-पलट दें, नहीं तो फफूंद आ जाएगी।"

दो-चार ब्रश मारकर बंटी एक बार ज़रूर ममी को देख लेता है। यों उसकी तरफ ममी की पीठ है, पर जब वह देखता है तो उसके सामने ममी का चेहरा ही उभरता है। मानो चेहरा पीठ पर उठ आया हो। एकदम बदला हुआ चेहरा। वह क्या जानता नहीं कि ममी कितनी बदल गई हैं इन दिनों। पर अच्छी हो गई हैं या बुरी, यह तय नहीं कर पाया। कभी-कभी देखता है तो अच्छी लगती हैं, पर फिर जाने क्या हो जाता है कि एकदम बुरी लगने लगती हैं। बुरी तो आजकल हो ही गई हैं ममी। उसे तो बहुत पहले से मालूम था कि ममी के पास अपने को बदलने का जादू है। पर कैसा है और कहाँ है, यह आज तक नहीं जान पाया। ममी के पीछे इधर-उधर काफ़ी ताक-झाँक और छान-बीन भी की। पर कुछ पता नहीं लगा। पहलेवाली ममी होती तो सीधे ममी से ही पूछ लेता, पर अब ? इनवाली ममी से कुछ पूछा जा सकता है भला ? अभी भी ममी सवेरे सामने बैठकर दूध पिलाती हैं, शाम को पढ़ाती हैं, बातें करती हैं, पर क्या वह जानता नहीं कि ममी न उसे दूध पिलाती हैं, न पढ़ाती हैं, न उससे बातें करती हैं।

वह जो स्वेटर बुन रही हैं वह भी उसके लिए नहीं बुन रहीं। डॉक्टर जोशी के लिए बुन रही हैं। जब तक डॉक्टर जोशी इस घर में नहीं आए थे ममी का हर काम, इस घर का हर काम बंटी के लिए ही होता था। अब सब कुछ डॉक्टर जोशी के लिए होने लगा है। वह सब समझता है। हो, उसका क्या जाता है।

वह तो आज अपनी ड्राइंग पूरी करेगा, खूब अच्छी बनाएगा। जब पूरी हो जाएगी तो पापा को भेजेगा। पापा को चिट्ठी भी लिखेगा। लिखेगा कि गत्ता चिपकाकर या शीशे में मढ़वाकर अपने कमरे में लगा लीजिए।

“फूफी, अब तुम बंटी को नहला दो और फिर खाना शुरू करो। बारह बजे तक खाना बन जाना चाहिए।"

फूफी कुछ जवाब ही नहीं देती। फूफी भी आजकल नाराज़ हैं ममी से। इसीलिए उसे और ज्यादा अच्छी लगने लगी है फूफी। अच्छा है, धीरे-धीरे सब नाराज़ हो जाएँगे। पर ममी को आजकल परवाह भी रह गई है किसी की। किसी दिन डॉक्टर जोशी भी नाराज़ हो जाएँगे न, तब पता लगेगा।

"बंटी, जाओ बेटे, फूफी से नहा लो !''

"नहीं, मैं अपने-आप नहाऊँगा।" कागज़ पर रबड़ घिसते हुए बंटी ने कहा।

"बेटा, इतवार के दिन फूफी से नहा लो। अपने-आप ठीक से साफ़ नहीं हुआ जाता तुमसे।"

"क्यों नहीं हुआ जाता ? खुब हुआ जाता है। मैं अपने-आप ही नहाऊँगा," ममी चाहती हैं कि बंटी नहा-धोकर तैयार हो जाए अभी से। आज डॉक्टर साहब जो आनेवाले हैं बच्चों को लेकर। वह नहीं जाता वहाँ तो ममी ने उन लोगों को यहाँ बुला लिया। बुलाएँ उसका क्या जाता है ? जोत से वह बात कर लेगा। जोत उसे अच्छी लगती है, पर वह बंदर कैसी शान लगाता है-मेरे खिलौने हैं, मेरी गाड़ी है।

"बंटी," ममी की आवाज़ की सख्ती से बंटी को भीतर ही भीतर जैसे संतोष हुआ। उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस, चुपचाप रबड़ घिसता रहा।

"बंटी, मैं बुला रही हूँ न बेटे !"

“क्या है ? मैं ड्राइंग जो बना रहा हूँ।" बंटी टस से मस नहीं हुआ। होगा भी नहीं ! अब ममी गुस्सा होंगी। वह चाहता है कि ममी गुस्सा हों, खूब गुस्सा हों।

पर उसके बाद ममी कुछ नहीं बोलीं। मजे से बैठी बुन रही हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। जैसे बंटी बिना कुछ कहे नहाने चला गया हो। गुस्सा होनेवाले कामों पर भी ममी जब गुस्सा नहीं होतीं तो फिर बंटी को गुस्सा आने लगता है। मन होता है कुछ करे। ममी को झकझोर कर रख दे।

"ड्राइंग पीछे कर लेना, पहले नहा लो। नौ बज रहे हैं।" उसे पता ही नहीं चला और ममी बगल में आकर खड़ी हो गईं। अब ज़रूर हाथ पकड़कर उठाएँगी।

इतने में बाहर के दरवाजे पर खटखट हुई तो ममी बाहर चली गईं। छुट्टी हुई।

बाहर कौन आया है ? ममी की बात करने की आवाज़ आ रही है। बंटी भी कागज़-पेंसिल छोड़कर बाहर आ गया।

पता नहीं कौन है ? वह नहीं जानता। पर इस घर में कोई भी आए, कुछ भी हो, बंटी की जानने की इच्छा ज़रूर रहती है। बंटी वापस लौटा नहीं, वहीं अपनी मेज़ पर जाकर कुछ उलट-पुलट करने लगा।

बीच की मेज़ पर दो-तीन मोटी-मोटी किताबें रखी हैं और एक किताब ममी पलट रही हैं। दूर से ही बंटी को रंग-बिरंगी तसवीरें दिखाई दी तो वह भी चुपचाप ममी के पीछे जा खड़ा हुआ। सुंदर-सुंदर घर, घर नहीं कमरे। पलंग, सोफ़ा-सेट, ड्रेसिंग-टेबुल...रंग-बिरंगे पर्दे, कुशंस...टेबुल-लैंप...

ऐसा कमरा हो तो ?

"इस तरह की चीजें आप बना भी सकेंगे ?"

“देखिए, आज तक तो किसी को शिकायत नहीं हुई। मैं खुद क्या...काम देखकर आप ही कुछ कहिएगा..."

तो ममी ऐसी चीजें बनवा रही हैं। एक क्षण को बंटी का मन पुलक उठा। पीछे से ममी की कुर्सी के हत्थे पर आ बैठा।

“बोल तुझे कैसा सोफ़ा पसंद है, कैसे पलंग पसंद हैं ?” ममी ने मुसकराते हुए उससे पूछा तो बंटी जैसे उत्साह से भर उठा।

"ठहरो ममी, मैं सब देखकर बताता हूँ।" और वह पन्ने पलट-पलटकर हर चीज को बड़े ध्यान से देखने लगा।

“ऐसी सब चीजें हों तो घर अच्छा लगेगा न ?” ममी की इस बात से एक उल्लास-भरी मुसकान उसके चेहरे पर फैल गई। आजकल ममी ख़ुद भी तो अच्छे-अच्छे कपड़े पहनती हैं, अब घर के लिए भी अच्छा-अच्छा सामान बनवाएँगी।

कौन-सी चीज़ पसंद करे ? जो पन्ना पलटता है वही बड़ा सुंदर लगने लगता है।

"डॉक्टर साहब ने भी कुछ पसंद किया है ?"

"जी नहीं, कहा है आप ही पसंद करेंगी।"

और बंटी का सारा उत्साह जैसे ठंडा पड़ गया। यहाँ भी डॉक्टर साहब ! नहीं करता वह पसंद। डॉक्टर साहब के लिए वह कुछ भी नहीं करेगा। अब ममी ही बैठकर करें। वरना सारी किताबों में से सबसे अच्छा छाँटता।

ममी दूसरी किताब देख रही हैं। बंटी ने गुस्से में आकर किताब बंद कर दी और भीतर आ गया। मन में कहीं उम्मीद है कि आवाज़ देकर ममी बुलाएँगी, फिर से पसंद करने को कहेंगी या कि जो पसंद किया है, उसके बारे में राय लेंगी। आज तक बिना उसकी राय के कोई चीज़ ख़रीदी भी है ममी ने। पर ममी ने नहीं बुलाया तो बंटी जैसे भीतर ही भीतर सुलगने लगा। बुलातीं भी तो वह कौन जाता। वह कौन नौकर है, डॉक्टर साहब का, जो उनके घर के लिए सामान पसंद करेगा। करें ममी अपने-आप बैठकर।

बंटी ने तौलिया उठाया और नहाने घुस गया। आकर देखेंगी कि बंटी तो नहा भी लिया। अपने-आप, बिना फूफी की मदद के।

डॉक्टर साहब की गाड़ी फाटक पर आई तो ममी तेज़-तेज़ चलकर फाटक पर पहुँच गईं। वह नहीं जाएगा। ममी ने आज खुद रसोई में काम किया, पर वह एक बार भी नहीं गया। वरना वह क्या मदद नहीं करवा सकता ? फूफी की मदद तो कई बार की है।

सारा काम करने के बाद ममी ने मुँह धोया और फिर गुलाबी रंग की साड़ी पहनी। ड्रेसिंग-टेबुल के सामने बड़ी देर तक बैठकर जूड़ा बनाती रहीं। डॉक्टर साहब आते हैं तो ममी खूब सज-धजकर रहती हैं। पर ममी को पता ही नहीं कि ममी ढीली-ढीली चोटी में ही बहुत सुंदर लगती हैं। जूड़े में तो एकदम अच्छी नहीं लगतीं। बिलकुल प्रिंसिपलवाला चेहरा हो जाता है। पर वह क्यों बताए ? जूड़े में अगर बंटी गुलाब का फूल लगा दे तो फिर भी अच्छी लगने लगें। गुलाबी साड़ी के साथ गहरे रंगवाला गुलाब का फूल तो बहुत ही सुंदर लगेगा। पर वह नहीं लगाएगा। ममी अपने-आप लगाना चाहेंगी तो तोड़ने भी नहीं देगा। बगीचा उसका है। सारे पौधे, सारे फूल उसके हैं।

"हल्लो बंटी ! देखो तुम हमारे यहाँ नहीं आते तो हम सब यहाँ आ गए।" बंटी ने मशीनग्त् हाथ जोड़ दिए। पर चेहरे पर कोई भाव ही नहीं, न खुशी का न दुख का। जोत की तरफ़ देखा तो वह उसी की ओर देखकर मुसकरा रही थी। हलका नीला फ्रॉक और नीले रिबन का बड़ा-सा फूल। जोत उसे हमेशा ही अच्छी लगती है। अनायास ही उसके चेहरे पर मुसकराहट आ गई।

“जोत, बाहर जो बगीचा देखा न, वह सब बंटी का लगाया हुआ है। बड़ा होशियार है बंटी। तुम लोगों ने तो अपने घर के लॉन का बिलकुल कबाड़ा कर रखा है।"

बंटी ने एक बार उड़ती-सी नज़रों से डॉक्टर साहब की ओर देखा। क्या सचमुच ही वह उसकी तारीफ़ कर रहे हैं ? मन में कहीं हलकी-सी खुशी भी जागी पर ममी को देखो, ऐसे खुश हो रही हैं, जैसे उन्हीं की तारीफ़ हुई हो।

"मैंने गिलास में ब्लाटिंग पेपर डालकर गेहूँ बोए थे।" सबके बीच बंटी को इतना महत्त्वपूर्ण होते देख जैसे अमि यह कहने को विवश हो गया।

सब हँस पड़े। ममी ने खींचकर अमि को अपने पास ले लिया। बहुत प्यार से बोली, “मैं सिखाऊँगी तुझे फूल बोना। सीखेगा ?"

हुँह ! बड़ा सिखाएँगी। ख़ुद को भी आता है। जैसे हर कोई कर सकता है न यह काम। यह अमि कैसे लाल कपड़े पहनकर आ गया है-हनुमान कहीं का।''

और बंटी की आँखों में अमि की एक दुम और तैर गई तो उसे मन ही मन हँसी आने लगी।

ममी अमि और डॉक्टर साहब को लिए-लिए ही भीतर चली गईं। जोत बंटी के पास आ गई और उसका हाथ पकड़कर बोली, “चलो बंटी, हमको अपना बगीचा दिखाओ।"

“तुम्हें सब फूलों के नाम आते हैं ?"

“और नहीं तो क्या ?''

“सिर्फ नाम ही नहीं, सब कुछ जानना पड़ता है। बहुत सारी बातें।" बंटी के स्वर में बड़प्पन जैसे छलका पड़ रहा है।

"क्यों बंटी, तितलियाँ आती हैं इस बगीचे में ?"

“आती हैं, पर पकड़ना मत। बहुत बड़ा पाप लगता है, कालावाला।"

जमीन पर बैठकर पेंजी की क्यारी की ओर इशारा करके जोत ने पूछा, “इस फूल का क्या नाम है बंटी ?"

“हें-हें-पौधों को उँगली नहीं दिखाते कभी। उँगली दिखाने से मर जाते हैं।" फिर उसने उँगली मोड़कर पौधों की ओर इशारा करने का ढंग बताया। भीतर ही भीतर संतोष-भरा एक गर्व जागा- "बगीचे की कितनी तो बातें होती हैं, हर कोई जान सकता है भला !"

फिर आम का पौधा बताया। अलग-अलग फूलों के नाम बताए। पर जोत जैसे बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं ले रही। समझ जो नहीं रही होगी।

“चल अब भीतर चलते हैं। धूप तेज़ नहीं लग रही है ?" जोत उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी।

बंटी को अपने बगीचे में धूप कभी तेज़ नहीं लगती। गरमी के दिनों में भी नहीं लगती। सर्दी के दिनों में शाम को सर्दी नहीं लगती। ममी चिल्लाती रहती हैं और वह शाम को पानी देता रहता है। पर जोत की बात टालने की उसकी इच्छा नहीं हुई।

भीतर चलने लगे तो बंटी ने एक सफ़ेद गुलाब तोड़कर कहा, “ला, तेरे बालों में लगा दूँ।" जोत पुलक आई। उसे नीचे बिठाकर बंटी बड़े यत्न से फूल लगाने लगा।

"तू लगा सकेगा ? नहीं तो आंटी जी से लगवा लूँगी।" "ममी के भी तो मैं ही लगाया करता हूँ।" और कहने के साथ ही ख़याल आया, बहुत दिनों से उसने ममी के सिर में फूल नहीं लगाया। पर वह क्या करे ? ममी को आजकल...और एक अनमना-सा भाव उसे छूकर निकल गया।

दोनों भीतर पहुँचे। डॉक्टर साहब सोफे पर ममी की बगल में बैठे हैं एकदम सट कर। उनका एक हाथ ममी की पीठ पर से होता हुआ ममी के कंधे पर रखा है। दूसरे हाथ में वे ममी को एक सुंदर-सी शीशी सुंघा रहे हैं।

बंटी एक क्षण जहाँ का तहाँ खड़ा देखता रहा। क्या कर रहे हैं डॉक्टर साहब उसकी ममी के साथ ? उसे अजीब-सी बेचैनी होने लगी। वह एकदम ममी के पास चला गया। पर दोनों को जैसे कुछ पता नहीं।

“आह, बहुत अच्छी ख़ुशबू है।" ममी का चेहरा साड़ी के रंग जैसा ही हो गया है।

"इम्पोर्टेड है। खास तुम्हारे लिए मँगवाया है।" और डॉक्टर साहब ने शीशी अपनी उँगलियों पर उलटी और ममी की साड़ी के पल्ले पर मलने लगे।

बंटी का मन हुआ खींचकर डॉक्टर साहब को अलग कर दे। उसके भीतर कुछ खौलने लगा। तभी उसकी नज़र अमि पर पड़ी। बड़े मज़े से उसके सारे खिलौने लेकर बैठा खेल रहा है। वह दौड़कर झपटा। "किसने दिए मेरे खिलौने ?" और दोनों हाथों से ताबड़तोड़ अपने खिलौने समेटने लगा। अमि ने भी जो हाथ लगा, समेटकर अपनी गोद में दुबका लिया।

“दे मेरे खिलौने।" बंटी छीनने लगा।

ममी झपटकर आईं, “क्या कर रहा है बंटी ? खेलने दे न ! तेरा छोटा भाई ही तो है।"

“नहीं, मैं नहीं खेलने देता। कोई नहीं है मेरा छोटा-वोटा भाई।" अमि से जूझते-जूझते ही उसने जवाब दिया।

ममी ने दोनों हाथों से पकड़कर बंटी को अलग किया, “बंटी, फिर वही गंदी बात ! तेरे हैं तो क्या हुआ ? थोड़ी देर में खेलकर दे देगा।"

बंटी पूरी ताकत लगाकर अपने को ममी के हाथ से मुक्त करने की कोशिश कर रहा है। बँधे हाथ-पैरों की ताकत जैसे जीभ में आ गई। “मेरे खिलौने हैं। पापा ने मेरे लिए भेजे हैं, मैं किसी को नहीं दूंगा।" और एक झटके में ममी के हाथ से छूटकर बंटी अमि पर पिल पड़ा। पता नहीं बंटी ने मारा या केवल अपने बचाव के लिए अमि पहले चीखा और फिर रो पड़ा।

"तडाक।" बंटी के गाल पर एक चाँटा पड़ा तो सारा कमरा जैसे घूम गया। बंटी ऊपर से नीचे तक काँप गया। चोट ज़्यादा नहीं थी, पर ममी के हाथ का चाँटा और वह भी सबके बीच में...जोत और अमि के सामने ! वह रोया नहीं, पर उसकी आँखों से जैसे चिनगारियाँ निकलने लगीं।

“शकुन !” डॉक्टर साहब की सख्त-सी आवाज़ सारे कमरे में फैल गई। "तुमने बंटी को मारा क्यों ? बच्चों की लड़ाई में मारने की क्या बात हो गई ?" और डॉक्टर साहब पास आकर बंटी को गोद में उठाने लगे। पर बंटी छिटककर दूर जा खड़ा हुआ।

एक क्षण को सारे कमरे में सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था वह जैसे वहीं जम गया। और फिर बंटी ने उठाकर खिलौने फेंकने शुरू किए...धड़ाधड़ एक-एक खिलौना कमरे में छितरा गया। किसी ने उसे रोका नहीं, किसी ने उसे कुछ कहा नहीं।

फिर उसने अपनी बंदूक उठाई और उसी गुस्से में दौड़ता हुआ बाहर आ गया। कुछ नहीं, पेड़ पर खूब-खूब ऊँचे चढ़कर बंदूक चलाएगा। आकर मना तो करें ममी। मारनेवाली ममी की बात सुनेगा अब वह ? कभी नहीं सुनेगा। ठाँय-ठाँय बंदूक की आवाज़ गूंजती रही, गूंजती रही। पर भीतर से कोई नहीं आया।

और जब भीतर से कोई नहीं आया तो बंटी को रोना आ गया। मन हुआ पेड़ पर से कूद पड़े। अपने हाथ-पाँव तोड़ ले। तब ममी को पता लगेगा कि बंटी को चाँटा मारने का क्या मतलब होता है। और उसकी अपनी ही आँखों के सामने अपना पट्टियों से बँधा शरीर घूमने लगा। वह पलंग पर कराह रहा है, सब लोग चारों ओर खड़े हैं। ममी रो रही हैं... पर कूदा नहीं गया। तभी फूफी आई। ज़रूर ममी ने ही भेजा होगा। खुद तो हिम्मत नहीं हो रही है आने की।

"बंटी भय्या, चलकर खाना खा लो।"

बंटी और ज़ोर-ज़ोर से बंदूक दागने लगा। जैसे उसने न फूफी को देखा न फूफी की बात सुनी।

“अरे काहे को तुम हमारा खून जलाते हो बंटी भय्या ! कहते हैं न उतरकर खाना खा लो ! फिर मर्जी आए बंदूक चलाना, चाहे तोप।"

"भाग जा यहाँ से, मैं नहीं खाता खाना।" ठाँय-ठाँय...

"जिस घर के लोग लीक छोड़कर चलेंगे, उसमें यही सब होगा। अभी क्या हुआ है, अभी तो बहुत कुछ होगा।" बड़बड़ाती हुई फूफी लौट गई।

अब?

और एकाएक ही बंटी फूट-फूटकर रोने लगा। कोई मत आओ उसे बुलाने। उसे भूख थोड़े ही लगती है। मरे वह भूखा ? ममी का क्या जाता है ? ममी तो डॉक्टर साहब को खाना खिलाएँगी। अमि को तो ज़रूर अपनी बगल में बिठा रखा होगा। और उस काल्पनिक दृश्य से मन और ज़्यादा-ज्यादा उफनने लगा।

पेड़ पर बैठा-बैठा बंटी रोता रहा और जब मन का सारा गुस्सा, सारा आवेग आँसुओं के रूप में बह गया तो धीरे-धीरे मन में एक अजीब-सा डर समाने लगा। ममी के गुस्से का डर। इस तरह तो उसने आज तक कभी नहीं किया। ममी ज़रूर गुस्सा होंगी। होंगी नहीं, हैं। तभी तो एक बार भी नहीं आईं, किसी और को भी नहीं आने दिया।

गुस्सा, दुख, अपमान, भूख और डर ने मिलकर बंटी को भीतर से बिलकुल थका दिया। थक ही नहीं गया जैसे भीतर से कहीं बिलकुल सुन्न हो गया। अब तो न गुस्सा आ रहा है न रोना। बस, बार-बार दरवाज़े की ओर देख लेता है...शायद कोई आ जाए, अब भी कोई आ जाए। अगर जोत भी आकर उससे चलने को कहेगी तो वह चला जाएगा।

पर कोई नहीं आया। लगता है, सब लोगों ने खाना खा लिया है। उसका किसी को ख़याल भी नहीं आया ? ममी को भी नहीं ? एक बार आँखें फिर छलछला आईं।

धीरे-धीरे वह नीचे उतरा। एक बार फाटक पर गया। सड़क पर दोपहर का सन्नाटा था। मन हुआ फाटक खोलकर निकल जाए और दौड़ता चला जाए, दौड़ता चला जाए...पर कहाँ ? इन सड़कों का कहीं अंत भी है ? ये उसे कहाँ ले जाएँगी ?

और इस 'कहाँ' से हारकर वह चुपचाप लौट आया और जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो आकर घास पर लेट गया। जब तक कोई बुलाएगा नहीं, भीतर तो वह जाएगा ही नहीं।

पता नहीं कब तक वह आधी सोती आधी जागती स्थिति में पड़ा रहा कि अचानक ही भीतर से सब लोग एक साथ ही आते दिखाई दिए। उसने झट-से आँखें मूंद लीं। धीरे-धीरे पैरों की आवाजें पास आ रही हैं। पर शायद कोई कुछ बोल नहीं रहा। हो सकता है, उसे इस तरह यहाँ पड़ा देखकर उसके पास आएँ, उसे उठाएँ। वह तो चुपचाप आँखें बंद किए पड़ा रहेगा, बस जैसे सो गया हो।

कई जोड़ी पैरों की मिली-जुली आहट सरकते-सरकते पास आई, पर बिना एक क्षण भी कहीं रुके बराबर दूर होती चली गई। शायद सब लोग फाटक पर पहुँच गए। फटाक-फटाक गाड़ी के दरवाजे बंद हुए और घर्र करती गाड़ी चली गई। अजीब बात है, चलते समय कोई किसी से बात नहीं कर रहा। डॉक्टर साहब भी नहीं बोले ? हर आहट को वह केवल सुन ही नहीं रहा, देख भी रहा है।

चर्र-मर्र...फिर एक आहट, बड़ी परिचित आहट उसके पास चली आ रही है। बंटी को अपनी साँस जैसे रुकती हुई महसूस हुई। लगा आहट पास आएगी तब तक उसकी साँस पूरी रुक जाएगी...आहट बिना उसके पास आए ही भीतर चली गई, तब भी उसकी साँस रुक जाएगी।

किसी ने झुककर उसे धीरे-से झकझोरा-“बंटी...बंटी ?' बंटी चुप।

तब दो बाँहों ने उसे अपने में समेटा। बिना ज़रा भी विरोध किए वह इस प्रकार से सिमट गया मानो बड़ी देर से इसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। एक बार मन हुआ कि गले में बाँहें डालकर चिपट जाए, पर हिलना तो दूर साँस लेने की हिम्मत नहीं है इस समय उसमें।

फिर गद्दे की नरमाई और कंबल की गरमाई में उसका भूखा-थका शरीर डूबता चला गया, डूबता चला गया और उसे ख़ुद पता नहीं चला कि वह कब पूरी तरह डूब गया।

मेज के एक ओर ममी बैठी हैं और सामने की कुर्सी पर बंटी। बीच में प्लास्टिक के सुंदर डिब्बे में वह शीशी रखी है, जो डॉक्टर साहब लाए थे। जादुई शीशी। डॉक्टर साहब का ममी को सुँघाना...साड़ी पर मलना...और फिर तड़ाक...याद नहीं, इसके पहले ममी ने कब मारा था, कभी मारा भी था या नहीं-एक अजीब-सा डर है जो उसके शरीर और मन को जकड़ता जा रहा है।

"बंटी, अब तुम यही सब करोगे ?" ममी की आवाज़ पता नहीं कहाँ से आ रही है।

“आज जो कुछ तुमने किया, वह बहुत अच्छा था न ? कोई घर में आए तो यही सब करना चाहिए ?"

बंटी चुप है। लगा शीशी जैसे मेज़ पर हिलने लगी है।

"इतने साल में मैंने तुझे यही सिखाया है ? यही अक्ल और यही तमीज़ ! जोत को देखा ? कैसा सलीका और तमीज है। जबकि उनको देखने-भालनेवाली माँ नहीं है। मैंने तो नौ साल तक तेरे साथ झक मारी है। घूमना-फिरना, मिलनाजुलना, सब कुछ छोड़ दिया था, सिर्फ इसलिए कि तू कुछ बन जाए..." आवेश के मारे ममी का स्वर ही नहीं, सारा शरीर भी जैसे थरथरा रहा है।

“पर आज चार लोगों के सामने मेरे मुँह पर जूता मारकर तूने बता दिया कि तू क्या बना है और मैं तुझे क्या बना सकी हूँ।" और ममी का स्वर बिखर गया।

बंटी का अपना मन कहीं गहरे में डूबता जा रहा है।

"तू यह सब क्यों करता है बंटी ? मत कर, ऐसे मत कर बेटे..." और ममी फूट-फूटकर रो पड़ीं। जैसे उस दिन रोई थीं... ठीक उसी तरह।

बंटी का मन हो रहा है कि वह दौड़कर ममी से लिपट जाए। रोए, चीखे। पर एकाएक शीशी ने जैसे उसे बुरी तरह दबोच लिया और चीख़ जैसे भीतर ही भीतर घुटकर रह गई।

आपका बंटी (उपन्यास) : नौ

बहुत देर तक बंटी बुत बना बैठा रहा और शकुन ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया तो धीरे-धीरे सुबककर सो गया।

पर शकुन फिर नहीं सो सकी। आज का सारा दिन, दिन में घटी एक-एक घटना उसे नए सिरे से मथने लगी। बंटी तो रो-पीटकर, सारे खिलौने छितराकर भूकंप मचाता हुआ-सा बाहर चला गया, पर वह जैसे अभी तक उसके कंपन को महसूस कर रही है।

अमि-जोत के सहमे हुए चेहरे और क्षण-भर को डॉक्टर के माथे पर खिंच आए बल...लगा जैसे शकुन से ही कोई भारी अपराध हो गया हो। ज़रूर ही उस समय उसके चेहरे पर बड़ी कातर-सी बेबसी उभर आई होगी, तभी तो डॉक्टर ने पीठ सहलाकर उसे दिलासा दी, "बच्चों की बात को लेकर तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो ? टेक इट ईज़ी...” पर ख़ुद वह शायद ईज़ी नहीं हो पाए थे।

उस समय शकुन के मन में इस तरह गुस्सा उफ़न रहा था कि मन हो रहा था बाहर जाए और बंटी की धुनाई कर दे। पर अच्छा ही हुआ कि गई नहीं। वरना इस समय वह बैठी अपने को ही कोस रही होती।

एयर-गन की ठाँय-ठाँय भीतर तक सुनाई देती रही थी और शकुन को लग रहा था जैसे यह शब्द उसके और डॉक्टर के बीच फैलता चला जा रहा है, फैलता चला जा रहा है।

इस समय शकुन के मन में कोई गुस्सा नहीं है। बस, उसे लग रहा है जैसे बंटी उसे हर जगह ही ग़लत सिद्ध कर देता है।

वकील चाचा ने कहा था, “तुम बंटी पर इतना निर्भर करती हो, उसे अपनी जिंदगी का केंद्र बनाकर जीना चाहती हो, यही गलत है। केवल तुम्हारे लिए ही नहीं, बंटी के लिए भी...लेट हिम ग्रो लाइक ए बॉय, लाइक ए मैन ! सारे समय अपने में दुबकाए रखोगी तो क्या बनेगा उसका ?"

तब ऊपर से चाहे उसने न माना हो, पर भीतर ही भीतर ज़रूर महसूस किया था कि बंटी के प्रति उसका रवैया ग़लत ही रहा है।

और आज डॉक्टर को लेकर वह जहाँ पहुँच गई है, उसके मूल में उस समय कहीं बंटी को अपने से मुक्त करने की इच्छा ही नहीं थी ? यों शायद और भी बहुत कुछ था, पर बंटी भी कहीं था तो सही ही।

अपने को परिचित कराने के बाद डॉक्टर शकुन को अपने घर और बच्चों से परिचित करा रहे थे-जोत बहुत सीधी है और अमि बहुत शैतान। लड़कियाँ जिद्दी भले ही हों, पर स्वभाव से शांत और सीधी होती हैं और लड़के जन्म से ही गुस्सैल और ऊधमी।

“लेकिन बंटी उस तरह से ऊधम बिलकुल नहीं करता, ज़िद्दी ज़रूर है फिर भी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार।" और यह कहते हुए अपने बंटी के प्रति उसके मन में कैसा गर्व जागा था।

“तुम उस पर शायद इतना ज़्यादा हावी रही हो कि वह पूरी तरह लड़का बन ही नहीं पाया। तुमने उसे ऊधम करने ही नहीं दिया-हाँ, औरतोंवाली ज़िद और रोना जरूर सिखा दिया।" डॉक्टर सहज भाव से हँस पड़े थे, पर तब भी शकुन ने अपने को अपमानित महसूस किया था।

डॉक्टर शायद भाँप गए थे, “मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा, इस तरह की स्थिति में ऐसा हो जाया करता है। मैं तो स्थिति बता रहा था।"

पर इस संशोधन से स्थिति सँभली नहीं थी। अपने ही मन में एक कचोट थी जो हर बार किसी न किसी बात से गहरी हो जाती थी। ज़िंदगी में हर ओर से कटकर वह पूरी तरह बंटी से जा चिपकी थी। सोचा था, अपना सारा समय और सारा ध्यान वह उसी पर केंद्रित कर देगी...अपने सारे अभावों की पूर्ति उसी से करेगी। लेकिन नहीं, उसने रास्ता ही गलत चुना था, अतः उसका हर क़दम भी गलत होता चला गया।

और तब उसने एक नई जिंदगी शुरू करने का निर्णय ले डाला था। बंटी को अपने से काटकर नहीं, अपने से जोड़कर ही लिया था यह निर्णय।

गर्मियों की छुट्टियों के दो महीने...दो महीने की खिन्नता और ऊब के साथ-साथ बंटी का उन दिनों का व्यवहार। उम्र से पहले ही ओढ़ी हुई उसकी समझदारी को कितनी तकलीफ़ के साथ झेल पाती थी वह। शकुन के हर दुख को अपना दुख और उसकी हर कही-अनकही इच्छा को एक आदेश-सा बना लेने की बंटी की मजबूरी ने शकुन को अपनी ही नज़रों में अपराधी बनाकर छोड़ दिया था। दिन में दो-चार बार पापा की बात करनेवाले बच्चे ने कैसे इस शब्द को काटकर फेंक दिया था...शब्द को ही नहीं, अजय के भेजे खिलौने, उसकी तसवीर तक को अलमारी में बंद कर दिया था। बिना शकुन के चाहे या कहे भी वह उसे प्रसन्न करने का भरसक प्रयत्न करता रहा था और कैसे शकुन का कष्ट बढ़ते बढ़ते असहय-सा हो गया था...

नहीं-नहीं। यह सब अब और नहीं चलेगा, चल नहीं सकता। वे दोनों ही अब अपनी-अपनी जिंदगी जिएँगे। शकुन शकुन की और बंटी बंटी की।

और तभी से उसने अपने को धीरे-धीरे काटकर बंटी को और अधिक आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की है।

वकील चाचा ने केवल संकेत किया था और डॉक्टर ने बहुत ब्लंटली कहा, “यह तुम माँ-बेटों का चूमने-चाटने और गले में बाँहें डाल-डालकर लिपटनेवाला जो रवैया है वह अब बंद होना चाहिए। लगता है, तुम अपनी इस अर्ज को भी बंटी के साथ ही पूरा करती हो। पर अब तो सही जगह और सही ढंग..."

यों शायद बात भीतर तक बेध जाती, पर बात के अंत में जो आमंत्रण-भरा संकेत था वह शकुन को ऊपर से नीचे तक गुदगुदा गया।

तब से उसने बंटी को अपने से अलग सुलाना शुरू किया था। धीरे-धीरे वह आश्वस्त होने लगी थी कि उसने केवल अपने लिए ही नहीं, बंटी के लिए भी एक सही जिंदगी की शुरुआत कर दी है। अब बंटी को हर जगह और हर बात में पापा की कमी नहीं अखरेगी...व्यक्ति चाहे बदल जाए पर उस स्थान की पूर्ति तो हो ही जाएगी। अब वह उतना अकेला नहीं रहेगा। दो बच्चों का साथ उसे और अधिक नॉर्मल बनाएगा। ही विल ग्रो लाइक ए बॉय, लाइक ए मैन।

पर उस दिन कंपनी बाग से लौटने पर अकारण ही बंटी का रोना...उसके बाद बंटी का एक अजीब ही उखड़ा-उखड़ा और कटा-कटा-सा रवैया और आज का तूफ़ान...

क्या शकुन से फिर कहीं कोई गलती हो गई ? वह इतनी देर से बैठी किस बात का लेखा-जोखा कर रही है और क्यों ? किसलिए वह इतने तर्क पेश कर रही है ?

याद नहीं, पर किसी संदर्भ में एक बार डॉक्टर ने ही कहा था कि मनुष्य जब अपने भीतर ही भीतर बहुत गिल्टी महसूस करता है तो तर्क से वह अपने को जस्टिफ़ाई करता रहता है...अपने हर गलत काम को जस्टिफ़ाई करता रहता है। न करे तो इतना अपराध-बोध ढोकर वह जी नहीं सकता। जहाँ जस्टिफ़िकेशन है, वहाँ गिल्ट है।

तो क्या उसके अपने मन में भी कोई गिल्ट है ? इतनी देर से तर्क दे-देकर वह अपने अपराधी मन को ही समझाती रही है ? बार-बार बंटी के हित की दुहाई देकर कहीं वह अपने किसी गलत काम को ही तो सही सिद्ध नहीं कर रही ?

मन न इस बात को मानता है, न उस बात को। सही-गलत की बात भी  वह नहीं जानती, जानना भी नहीं चाहती। इस समय इतना ही काफ़ी है कि जीवन में जितना भरा-पूरा वह इन दिनों महसूस कर रही है, उसने कभी नहीं किया। बल्कि आज अगर उसे किसी बात का अफ़सोस है तो केवल इसी बात का कि यह निर्णय उसने बहुत पहले क्यों नहीं ले लिया ? क्यों नहीं वह बहुत पहले ही इस दिशा की ओर मुड़ गई ? किस उम्मीद के सहारे वह सात साल तक यों घिसटती रही ? सात साल का वह जीवन मात्र घिसटना ही तो था; घिसटना और तिल-तिल करके टूटना। एक पुरुष का साथ जिंदगी को यों भरा-पूरा बना जाता है, यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं था...अजय के साथ रहकर भी नहीं।

आज लगता है, साथ रहना भी कितनी तरह का हो सकता है। सारी जिंदगी साथ रहकर भी आदमी कितना अकेला रह सकता है और किसी का हलका-सा स्पर्श भी कैसे जिंदगी को किसी के साथ होने के एहसास और आश्वासन से भर सकता है।

बाहर से तो कम से कम अभी तक कुछ भी नहीं बदला है। वही कॉलेज, वही घर। बंटी और फूफी भी वही है। पर भीतर से मन का कोना-कोना जैसे भर-सा गया लगता है। उस दिन डॉक्टर की दिलवाई हुई साड़ी पहनकर जब वह गाड़ी में बैठी तो डॉक्टर कुछ देर उसे देखते ही रह गए। वह देखना, केवल देखना-भर नहीं था, कुछ था जिसमें रोम-रोम जैसे भीगता-डूबता चला जा रहा था। केवल उसी समय नहीं, बहुत देर बाद तक भी।

शकुन को ख़ुद कभी-कभी आश्चर्य होता है कि उम्र के छत्तीस वर्ष पार करने पर भी उसके मन में इन सब बातों के लिए किशोर उम्रवाला उल्लास भी है और यौवनवाली उमंग भी। डॉक्टर का साथ होते ही कैसे एकांत की इच्छा हो उठती है और एकांत होते ही...

लगता है, उम्र बीत जाने से कैशोर्य और यौवन नहीं बीत जाता। ये भावनाएँ तो केवल तृप्त होकर ही मरती हैं, वरना और अधिक बलवती होकर आदमी को मारती रहती हैं।

उसकी अपेक्षा डॉक्टर के व्यवहार में एक थिरता है, एक ठहराव। और अकसर उसे लगता है, जैसे डॉक्टर ने अपनी जिंदगी से बहुत कुछ पाया है।

डॉक्टर से हुई एक बात आज भी जब-तब उसे याद आ जाती है और केवल याद ही नहीं आती, मन को कहीं हलके-से कचोट भी देती है।

बहुत दिनों से मन में घुमड़ती हुई बात आख़िर उसने पूछ ही ली थी। पूछी चाहे बहुत घुमा-फिराकर थी।

“अच्छा क्या प्रेम सचमुच ही मात्र एक शारीरिक आवश्यकता और एक सुविधाजनक एडजस्टमेंट का ही दूसरा नाम है ? बताओ, तुम्हें क्या कभी अपनी पत्नी की याद नहीं आती और आती है तो क्यों ? उसे तुम क्या कहोगे ?"

तब सचमुच उसने कहीं चाहा था कि डॉक्टर कह दे कि उसे पत्नी की याद बिलकुल नहीं आती...पत्नी के साथ ही वह सबकुछ भूल भी गया। बात चाहे झूठ ही हो, पर डॉक्टर एक झूठ ही बोल दे। हालाँकि यह सुनने की अपनी इस इच्छा पर भीतर ही भीतर कहीं ग्लानि भी हुई थी। फिर भी...

“अच्छा तो यही होता शकुन, तुम उसका ज़िक्र कभी करती ही नहीं।" डॉक्टर के स्वर की अप्रत्याशित गंभीरता से शकुन के मन में अपनी बात के लिए कहीं पछतावा-सा हुआ।

“प्रमीला के साथ का जीवन-वह जैसा भी था, अच्छा या बुरा...मेरा इतना निजी है कि मैं उसे किसी के साथ शेयर नहीं कर सकता। तुम गलत मत समझना और बुरा भी मत मानना। वह एक अध्याय था, जो उसी के साथ समाप्त हो गया और अब मैं उसे किसी के साथ खोलना नहीं चाहता। चाहूँ तो भी खोल नहीं सकता। शायद अब तो अपने सामने भी नहीं।"

फिर थोड़ा-सा मुसकराकर बोले थे, “और अब ज़रूरत भी क्या है ?" बेहद आहत होकर और भीतर तक तिलमिलाकर भी वह ऐसा अभिनय करने का असफल-सा प्रयास करती रही कि उसे डॉक्टर की बात का बिलकुल भी बुरा नहीं लगा।

साथ ही एक अजीब-सी चाह भी उठी-काश, उसके पास भी ऐसा कुछ होता जो निहायत उसका निजी होता। जिसे वह किसी के भी साथ शेयर करना पसंद न करती। जिसे अपने भीतर ही समेटे रहती...कभी-कभी झाँक-भर लेने के लिए ...पर कहीं भी तो कुछ नहीं...

इस न होने से ही वह कभी-कभी डॉक्टर के सामने अकारण ही अपने को बड़ा छोटा महसूस करने लगती है। लगता है, जैसे डॉक्टर ने स्वीकार करके उस पर बड़ी कृपा की है। छोटा बनकर जीना उसके अहं को बर्दाश्त नहीं और बड़ा होकर जीने लायक उसके पास कोई पूँजी नहीं। तब एक अजीब-सी मानसिक यातना में वह अपने को पाती है।

और फिर डॉक्टर ही उसे इस मानसिक यातना से उबारते हैं।

अब तो हर बात के लिए वह डॉक्टर पर इस कदर निर्भर करने लगी है कि लगता है, एक कदम भी डॉक्टर के बिना चल नहीं सकेगी। औरत कहीं की कहीं पहुँच जाए, फिर भी पुरुष का साथ उसके लिए कितना ज़रूरी है...पर वह साथ हो, सही अर्थों में।

नहीं, वह इस साथ के बीच में अब कोई बाधा बर्दाश्त नहीं करेगी। बंटी की भी नहीं।

कल वह डॉक्टर से ही बात करेगी। डॉक्टर की बातों में, उसके सारे व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है जो शकुन को आश्वस्त करता है। डॉक्टर की सुलझी दृष्टि उसे बहुत-सी उलझनों से उबार लेती है।

उसके और डॉक्टर के संबंध की बात शहर के एक ख़ास तबके में फैल ही गई थी और एक दिन कॉलेज के मैनेजर ने जिस तरह आकर पूछा था तो वह समझ नहीं पाई थी कि बात केवल जानने मात्र के लिए ही पूछी जा रही है या कि जानी हुई बात को एक हलकी-सी भर्त्सना और हिकारत के साथ उस तक वापस पहुँचाया जा रहा है।

मैनेज़र को तो उसने जैसे-तैसे जवाब दे दिया था, पर अपने ही मन को जैसे वह शाम तक जवाब नहीं दे पाई थी।

शाम को जब सारी बात डॉक्टर को बताई तो जाने किस आवेश में कह गई, "ये लोग ज़्यादा धूं-चपड़ करेंगे तो मैं नौकरी ही छोड़ दूंगी। सँभालें अपनी नौकरी !"

तब उसकी बात पर डॉक्टर केवल हँसा था। कुछ ऐसे हलके-फुलके ढंग से, मानो कुछ हुआ ही न हो... “तुम नौकरी करो या छोड़ो, यह बिलकुल तुम्हारी अपनी इच्छा पर है। पर छोड़ो तो कारण यह नहीं होना चाहिए।"

डॉक्टर एक क्षण को रुका था और शकुन के मन में एक हलका-सा संदेह कौंधा था...क्या डॉक्टर नहीं चाहते कि वह नौकरी छोड़े ? उसका पैसा चाहे न हो, पर क्या उसका पद डॉक्टर के लिए...

“आज मैनेजर को आपत्ति हई तो तुमने नौकरी छोड़ दी। कल शहर को आपत्ति होगी तो तुम शहर छोड़ने को कहोगी। और ज़रूर होगी। छोटी जगह है...ऐसी बातें लोग आसानी से पचा नहीं पाते हैं। पर इस तरह कमजोर होने से कहीं काम चलता है, चल सकता है ? और सच पूछो तो आपत्ति बाहर नहीं होती है, कहीं मन के भीतर ही होती है। तभी तो हमें ये छोटी-छोटी बातें परेशान कर देती हैं। वरना इन आपत्तियों पर एक मिनट भी जाया करना मैं उचित नहीं समझता। इन लोगों को क्या हक है तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने का?"

पर बंटी ? बंटी की बात तो बिलकुल दूसरी है। और उसका हक भी बिलकुल दूसरा है।

एकाएक शकुन को लगा जैसे प्यास के मारे उसका गला सूख रहा है। सर्दी में कभी रात में प्यास नहीं लगती...पर आज तो प्यास के मारे गला जैसे चिपक-सा गया है। और इतनी देर से उसे पता ही नहीं चला।

शकुन उठी। उसने बत्ती जलाई और पानी पिया। लौटकर उसने देखा बंटी सोया हुआ है। गरदन तक रजाई ओढ़े। एकाएक उसे लगा, जैसे बंटी नहीं अजय सो रहा है। कितना मिलता है उसका चेहरा...

केवल चेहरा ही !

"बहूजी, मत चढ़ाओ इतना सिर ! आखिर औलाद तो उसी बाप की है ! वे खड़े-खड़े थालियाँ फेंकते थे और ये कटोरी..."

कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कैसे आदमी एक छोटे-से अणु में अपना चेहरा, मोहरा, आदत, स्वभाव, संस्कार-सबकुछ अपने बच्चे में सरका देता है। बंटी को देखकर ही एक बार वकील चाचा ने कहा था।

और एक अजीब-सी बेचैनी शकुन के मन में घुलने लगी। केवल बेचैनी ही नहीं, एक खीज, एक हलका-सा आक्रोश। सारी जिंदगी अजय शकुन को, शकुन के हर काम और बात को, उसके सोचने और उसके हर रवैये को गलत ही तो सिद्ध करता रहा है। शकुन बहुत स्वतंत्र है। शकुन बहुत डॉमिनेटिंग है, शकुन यह है, शकुन वह है...पता नहीं गलत कौन था ? वह या अजय...जो भी हो, पर सात साल तक ग़लत होने के अपराध-बोध को उसने किसी न किसी स्तर पर हर दिन ही झेला है।

और अब यह बंटी...ठीक उसी तरह उसे ग़लत और अपराधी सिद्ध करने पर तुला हुआ है। और शायद सारी जिंदगी उसे ग़लत ही सिद्ध करता रहेगा। ठीक उसी तरह, जैसे...

पर नहीं, अब वह सबकुछ पहले की तरह अपने ऊपर ओढ़ती नहीं चली जाएगी।

बंटी उसके और अजय के बीच सेतु नहीं बन सका तो वह उसे अपने और डॉक्टर के बीच में बाधा भी नहीं बनने देगी। लेकिन तब ? और शकुन ने खट से बत्ती बुझा दी। मन के सारे संशय, सारी दुविधाएँ चारों ओर फैले हुए अँधेरे में ही डूब जाएँ...बस !

बंटी सवेरे सोकर उठा तो जाने कैसी निरीहता उसके चेहरे पर छाई हुई थी। एक अजीब-सा सहमापन, एक अजीब-सी बेबसी।

कहाँ, यह तो बिलकुल बंटी है। इसमें अजय कहाँ है ? हर बात के लिए उस पर निर्भर करनेवाला बंटी, उसी का पाला-पोसा और बड़ा किया हुआ बंटी ! अजय तो शकुन के सामने कभी इतना निरीह, कभी इतना बेबस हुआ नहीं। और रात में हलके-से आक्रोश की जो परतें मन पर जमी थीं, बंटी की उस निरीहता के सामने सब एक-एक करके बह गईं।

पर अब बंटी में अजय को देखकर एकाएक कुछ निर्णय ले डालने का जो एक रास्ता शकुन को दिखाई दिया था, वह फिर जैसे कहीं गुम हो गया। और शकुन जहाँ थी, वहीं लौट आई। उतनी ही परेशान, उतनी ही दुविधाग्रस्त।

अपनी परेशानी के क्षणों में आजकल उसे बस डॉक्टर ही याद आते हैं। किस सहजता और आसानी से वह उसकी हर समस्या और परेशानी को अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं और उसे मुक्त और निर्बंद कर देते हैं, पर बंटी को लेकर...

कल चाहे शकुन को परेशान देखकर डॉक्टर ने कुछ न कहा हो, लेकिन उन्हें क्या बुरा नहीं लगेगा ? उन लोगों ने शादी की तारीख तय  की थी और उस ख़ुशी में ही शकुन ने सबको अपने घर बुलाया था, पर बंटी ने...और तब से ही मन जाने कैसी-कैसी शंकाओं से भरा हुआ है ! बंटी की बात तो डॉक्टर से भी नहीं कर सकती, जिस तरह बहुत चाहने पर भी वह कभी अजय की कोई बात नहीं कर पाई।

कंपनी बाग से लौटने के बाद उस दिन बंटी जिस तरह रोया था और उसके बाद से जिस तरह वह कटा-कटा रहता था...डॉक्टर को लेकर जिस तरह का एक मासूम-सा विरोध उसके मन में उफनता रहता है, शकुन सब समझती है। पर जाने कैसा एक आश्वस्त भाव उसके मन में समाया रहता था इन दिनों कि उसने सोच लिया था कि सब ठीक हो जाएगा। बस, जहाँ तक संभव होता वह बंटी को डॉक्टर से बचाकर रखती...पर कल जैसे उसके उस आश्वस्त भाव में एक दरार-सी पड़ गई। केवल आश्वस्त भाव में ही नहीं, जैसे उसके और डॉक्टर के बीच में भी कहीं कोई अनदेखी-अनजानी-सी दरार पड़ गई, जिसे वह महसूस कर रही है, जो उसे भीतर ही भीतर कचोटे डाल रही है।

सचमुच यदि ऐसा हुआ तो ? डॉक्टर का अध्याय तो समाप्त हुआ और ऐसी पूर्णता के साथ समाप्त हुआ कि उसे अब वह अपने सामने भी नहीं खोलते। चाहें तो भी नहीं खोल सकते। पर उसका अध्याय ? कहीं कुछ समाप्त नहीं हुआ, अपनी अगली कड़ी के साथ ज्यों का त्यों उसके साथ चिपका हुआ है। वह कभी समाप्त भी नहीं होगा।

अजय ने तो अपनी स्लेट पर से उसका नाम, उसका अस्तित्व धो-पोंछकर एक नई जिंदगी शुरू कर दी है...शायद बहुत सुखी, बहुत भरी-पूरी ! पर उसकी स्लेट को तो...

और फिर अजय को लेकर मन में ढेर-ढेर कटुता उभर आई। साथ ही ख़याल आया कि बंटी यदि सहज ढंग से अपने को उसके और डॉक्टर के बीच में से समेट नहीं लेता तो वह उसे अजय के पास भेज देगी।

अजय उसे ले जाना भी तो चाहते थे। अब क्या हुआ ? इधर तो न कोई खबर, न सूचना। लेकिन वह भेज देगी।

बंटी को दरार ही बनना है तो मीरा और अजय के बीच में बने। अजय भी तो जाने कि बच्चे को लेकर किस तरह की यातना से गुज़रना होता है...कि पुरानी स्लेट इतनी जल्दी और इतनी आसानी से साफ़ नहीं होती...

पर तभी बंटी का वही निरीह, सहमा और बेबस-सा चेहरा उभर आया। 'ममी, मैंने तो पापा से कह दिया कि ममी के बिना मैं कहीं जा ही नहीं सकता...ममी मैं तुम्हें कब्भी-कभी नहीं छोड़ेंगा...मत रोओ ममी...मत...रोओ...' और शकन रो पड़ी। फूट-फटकर रोती रही। इस यातना से डॉक्टर भी उसे कैसे उबारेंगे ? उसके पास ऐसा कोई सुख नहीं, पर ऐसी यातना ज़रूर है जिसे वह किसी के साथ शेयर नहीं कर सकती।

इस समय डॉक्टर की बगल में बैठकर भी शकुन का मन कहीं से हलका नहीं हो पा रहा है। बार-बार बात शुरू होती और जैसे बीच में ही टूट जाती है। पता नहीं डॉक्टर क्या सोच रहे हैं, पर शकुन को लग रहा है कि जैसे उन दोनों के बीच कहीं कोई है...शायद बंटी...बंटी के बहाने शायद अजय।

“क्या बात है ? तुम कुछ परेशान नज़र आ रही हो शकुन !" कह दे शकुन ? पर क्या कहे कि बंटी डॉक्टर और उसके संबंध को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है...कि उसे बहुत दिनों से इस बात का आभास था पर...

"बंटी को लेकर परेशान हो ?..."

इतनी देर से जिस प्रसंग को वह बचा रही थी, आख़िर वह आ ही गया। शकुन के चेहरे पर एक अजीब-सी बेबसी उभर आई, जैसे वह कोई अपराध करते हुए पकड़ ली गई हो।

“देखो शकुन बंटी थोड़ा प्रॉब्लम बच्चा है, तो उसकी प्रॉब्लम को तो झेलना ही होगा।"

शकुन को लगा, जैसे डॉक्टर कह रहे हों-इन्फ्लुएंजा है तो बदन में तो दर्द होगा ही। इन बातों पर कहीं इस तरह बात की जाती है ? और क्या प्रॉब्लम बच्चा है ? पागल है, उसका दिमाग खराब है या कि...

पर नहीं, डॉक्टर से वह अपेक्षा ही क्यों करती है कि उसी की तरह सदय होकर, उसकी तरह माँ बनकर बंटी के बारे में सोचें ! डॉक्टर तो शायद बाप बनकर भी नहीं सोच सकते !

“पर इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है ? यह तो बहुत स्वाभाविक है।"

“क्या ?" एकाएक शकुन चौंकी। डॉक्टर कहीं अजय की ओर तो संकेत नहीं कर रहे ? पर उसने तो आज तक डॉक्टर से कभी अजय की कोई बात नहीं की...वह कर ही नहीं पाई।

"यह बंटी का रवैया ! तुम्हारे साथ अकेले रहते-रहते वह बहुत पजेसिव हो गया है। वह किसी और को तुम्हारे साथ देख नहीं सकता...तुम किसी और को..."

और शकुन के मन में कहीं बहुत पहले कहा हुआ वकील चाचा का एक वाक्य तैर गया-'तुम जानती हो, अजय बहुत इगोइस्ट भी है और बहुत पजेसिव भी। अपने-आपको पूरी तरह समाप्त करके ही तुम उसे पा सको तो पा सको, अपने को बचाए रखकर तो उसे खोना ही पड़ेगा...

वह अपने को समाप्त नहीं कर सकी थी, इसलिए उसे अजय को खोना पड़ा। समाप्त तो वह अभी भी अपने को नहीं कर सकेगी। अब अपने को समाप्त करने का मतलब है, अपने और डॉक्टर के बीच का सबकुछ समाप्त कर देना। पर यह तो...शकुन का मन कहीं बहुत गहरे में डूबने लगा।

"तुम्हें बहुत ही धीरज से काम लेना चाहिए। जानती हो, इस तरह बच्चों के साथ सख्ती करने से वे एकदम चुप्पे हो जाएँगे, बहुत ही सबमिसिव और सहमे हुए और नरमाई से पेश आने से वे उदंड हो जाएँगे।"

डॉक्टर जैसे किसी रोगी को उपचार बता रहे हों। केवल उपचार ही था या कुछ और भी।
"बंटी में संतुलन लाने के लिए पहले तुम्हें अपने में संतुलन लाना होगा। पर तुम ख़ुद बहुत समझदार हो शकुन !"

शकुन ने कुछ ऐसी नज़रों से डॉक्टर की ओर देखा मानो इन शब्दों के भीतर की बात को जान ले, असली बात को जान ले।

पर डॉक्टर के चेहरे पर कहीं भी तो कुछ नहीं था। कोई शिकन नहीं, कोई छाया नहीं...या कि शकुन की अपनी दृष्टि ही धुंधला गई है, कुछ भी देखने की सामर्थ्य उसमें नहीं रही है।

वह क्या करे ? छलनी हुआ मन सहज भाव से कुछ भी तो ग्रहण नहीं कर पाता। उसकी आँखें छलछला आईं।

डॉक्टर ने बहुत स्नेह से शकुन की पीठ सहलाई, तो एक बार मन हुआ, वह अपने को डॉक्टर की बाँहों में छोड़ दे।

तो क्या सचमुच ही डॉक्टर के मन में बंटी को लेकर कोई नाराजगी नहीं. कोई दुर्भावना नहीं ? डॉक्टर के उस स्पर्श ने अनायास ही उसके भीतर की गाँठ को धीरे-से खोल दिया।
"लेकिन...” शकुन है कि चाहकर भी जैसे कुछ नहीं कह पा रही है।

“लेकिन क्या ?"

'तुम नहीं समझोगे डॉक्टर...बंटी, बंटी ने अजय को ज्यों का त्यों इनहेरिट किया, वह कभी मेरे साथ तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। मैं जानती हूँ...' शकुन को लगा, अब वह सारी दुविधा खोलकर रख देगी।

"तो क्या हुआ ?"

पर शकुन से कुछ भी नहीं कहा गया। जाने कैसी लक्ष्मण रेखा है यह अपने अहं या स्वाभिमान की या कि अपने कंगलेपन और अपमान की कि इसके पार वह किसी को नहीं आने देना चाहती। क्या बताए कि आगे क्या हो सकता है या कि पहले क्या हुआ था।

"देखो शकुन, तुम अपने पति की रोशनी में बंटी को देखोगी तो शायद कुछ गलत कर बैठो। मैं जानता नहीं, पर सोच सकता हूँ कि उनके लिए शायद तुम्हारे मन में कटुता होगी...अनजाने ही तुम उसी कटुता को...पर यह ठीक नहीं होगा।"

और फिर सारी बात को जैसे समाप्त करते हुए बोले, “अच्छा, तुम बंटी की बात मुझ पर छोड़ दो। इस बात को लेकर अब तुम्हें ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।"

बंटी की बात कैसे छोड़ी जाए, यह शकुन नहीं जानती। यह भी नहीं जानती कि सारे समय अपने काम में व्यस्त रहने पर उसके लिए समय कहाँ है। पर इस समय जैसे उसे किसी ऐसे ही आश्वासन की ज़रूरत थी, किसी ऐसे ही सहारे की, जो उसके थके-हारे मन को सँभाल ले...जिस पर वह अपना सबकुछ छोड़कर निश्चित हो जाए।

बड़ी देर से भीतर ही भीतर एक आवेग था जो घुमड़ रहा था-अपने को डॉक्टर की बाँहों में छोड़ते ही जैसे वह फूट पड़ा।

डॉक्टर उसकी पीठ, उसके कंधे सहलाते रहे...उसे सांत्वना देते रहे। क्या था उन सांत्वना-भरे शब्दों में-उस स्नेह-भरे स्पर्श में कि शकुन को लगा, जैसे उसके भीतर से सारे तनाव अपने-आप ढीले होते चले जा रहे हैं...सारे द्वंद्व अपने-आप गलते जा रहे हैं। कहीं भी तो कुछ नहीं...सभी कुछ तो सहज और सुगम हो उठा।

सारा रास्ता अकेले-अकेले चलकर, सारी परेशानियों से अकेले-अकेले लड़कर भी ऐसा आत्मविश्वास और ऐसी शक्ति तो उसने अपने भीतर कभी महसूस ही नहीं की जो आज अपने को पूरी तरह डॉक्टर के हवाले करके वह महसूस कर रही है।

अपने को पूरी तरह देकर, निर्द्वद्व भाव से समर्पित करके आदमी कितना कुछ पा लेता है।

आपका बंटी (उपन्यास) : दस

ममी की शादी हो गई।

यों शादी जैसा कुछ भी नहीं हुआ था। न बाजा-गाजा, न हाथी-घोड़ा, न आतिशबाज़ी। पर जो कुछ भी हुआ, बंटी ने अपनी आँखों से देखा है। शादी के बीच में रहकर देखा है। फिर भी जाने क्यों उस दिन कुछ भी महसूस नहीं हुआ था।

लेकिन आज, सर्दी की साँझ के इस धुंधलके में, खुली छत पर अकेले लेटे जैसे फिर ममी की शादी हो रही है। बाहर नहीं, बंटी के अपने भीतर हो रही है ...मन की परतों पर। और इस बार बंटी केवल देख ही नहीं रहा, महसूस भी कर रहा है।

हलकी-सी सजावट ओढ़े क्लब का लॉन। परिचित-अपरिचित चेहरों की भीड़। हँसी-मज़ाक, खाना-पीना। बधाई हो...मुबारक हो...अरे बंटी, मिठाई खाओ बेटे, अपनी ममी की शादी की मिठाई खाओ...कितने बच्चे...जाने कितनी आवाजें थीं, कितनी बातें थीं। आज तो सब मिल-जुलकर केवल एक शोर-भर रह गई हैं। उस दिन सारे लॉन के पेड़-पौधों पर लाल-पीली बिजली के फूल खिले थे। न जाने कितने फूल, जिनसे रंगीन रोशनी झर रही थी। इस समय भी वह आँखें बंद करे या खोले, चारों ओर फैले हुए वे फूल झिलमिलाते नज़र आ रहे हैं।

और फूल ही क्यों, या कि शादी की वह साँझ ही क्यों ? शादी के पहले की भी तो बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो पहले केवल बाहर ही हुई थीं, पर इस समय एक साथ मन में डूबती-उतराती आ रही हैं। और कितना साफ़ है वह सब, जैसे अभी-अभी हो रहा है। लगता ही नहीं कि वह सब तो हो चुका। लग रहा है, जैसे तब हुआ ही नहीं था, बस अभी हो रहा है, बिलकुल अभी।

बंटी अपनी टेबुल पर बैठा होमवर्क कर रहा है और ममी कॉलेज की फ़ाइलें देख रही हैं। तभी गोद में गुड़िया को लटकाए पीछेवाले दरवाजे से टीटू की अम्मा घुसी।

ममी थोड़ा चौंकी, “अरे आप ! कहिए कैसे आना हुआ ? बैठिए !'

"क्या बताऊँ भैनजी, पड़ोस में रहकर भी कभी आना नहीं होता। दोपहर को घंटा-आध-घंटा निकल भी जाए, पर सवेरे-शाम को तो पलक झपकने तक को फुरसत नहीं मिलती।" फिर उसकी ओर देखकर बोली, “अब आपके बंटी को देखो ! कैसा चुपचाप पढ़ रहा है। एक हमारे बच्चे हैं, चौबीस घंटे घर में महाभारत मचाकर रखते हैं।"

“टीट् नहीं आया, अम्मा ?" इस घर में आकर अम्मा कैसा मीठा-मीठा बोल रही हैं। तभी तो पूछने की हिम्मत हुई।

"टीटू कहाँ आएगा, वहाँ कैरम जो जमी हुई है।"

"बंटी, जाओ तो बेटे, फूफी से कहो कि चाय बनाए।"

“नहीं भेनजी ! मैं तो पीकर आई हूँ। और यों सच पूछो तो आज तो मिठाई खाने आई हूँ। मुझे तो कल रात को ही इन्होंने आकर ख़ुशख़बरी सुनाई। बोले, तुम जाकर बधाई तो दे आओ। यों आना-जाना चाहे बच्चों तक ही है फिर भी पड़ोसी तो हैं ही !" और अम्मा के चेहरे पर एक अजीब-सी मुसकान फैल गई।

ममी का चेहरा इतना लाल क्यों हो गया ?

“पहले जब, डॉक्टर साहब को एक-दो बार देखा तो सोचा कोई बीमार होगा ! पर जब बंटी ने बताया कि कोई बीमार नहीं है तो सोचा भई आते होंगे !"

ममी चुप ! बस, केवल उनकी एक उड़ती-सी नज़र बंटी ने अपने चेहरे पर महसूस की।

“मेरी तो भैनजी, आप जानो दूसरों के घरों में ताक-झाँक करने की आदत ही नहीं है। अब पड़ोस में रहते हैं तो दीखता तो सभी कुछ है, पर इधर-उधर कुछ पूछताछ करूँ, कुछ कहूँ-सुनूँ ऐसा मेरा स्वभाव ही नहीं। फिर आप पढ़ी-लिखी ठहरी, प्रिंसिपल ठहरी, सो तरह-तरह के लोग आएँगे ही आपके पास।" ममी तो जैसे बुत बन गई हैं।

"बंटी तो बहुत खुश होगा ! बिचारा अकेला डाँव-डाँव डोला करे था। मुझे तो सच बड़ा तरस आता था। अब पापा भी मिल जाएँगे और भाई-बहन भी..."

अनायास ही उसकी नज़रें ममी से जा टकराई थीं। पता नहीं क्या था उन नज़रों में कि वहाँ और बैठा नहीं रह सका।

रात में ममी उसे समझा रहीं थीं, “तुझे अच्छा लगेगा बंटी, वहाँ बहुत अच्छा लगेगा बेटे..."

ममी ने जितनी बातें कहीं, बंटी सब सुनता गया। बिना एक भी प्रश्न किए, बिना ज़रा भी विरोध किए।

बस पापा का चेहरा बराबर आँखों के सामने कौंधता रहा था।

बंटी अपने पलंग पर पड़ा है, गरदन तक रजाई ओढ़े। कमरे में अँधेरा है। सिर्फ़ ममी टेबुल-लैंप जलाकर अपनी मेज़ पर कुछ लिख रही हैं। ममी हमेशा किसी न किसी काम में लगी ही रहती हैं आजकल। बंटी को खाने के लिए कहती हैं तो खा लेता है। दूध पीने के लिए कहती हैं तो दूध पी लेता है। जब पढ़ने के लिए कहती हैं तो पढ़ने बैठ जाता है।

आधे अँधेरे आधे उजाले में बैठी कैसी लग रही हैं ममी ? एकाएक मन में कौंधा-बंगाल की जादूगरनी ! फूफी ने ही सुनाई थी कहानी या शायद पढ़ी थी। उसके आधे शरीर से अँधेरा फूटता था और आधे शरीर से उजाला।

जाने कैसा भय मन में समाने लगा। जिस दिन से डॉक्टर साहब वह जादूवाली शीशी इस घर में रख गए हैं, बंटी के मन में एक अजीब-सा डर कुलबुलाता रहता है। एक बार तो हिम्मत करके उसने उस शीशी को ढूँढ़ा भी था, सारी दराजें, सारी अलमारी, पर नहीं मिली। जादू की चीजें जादू के ढंग से ही छिपाई जाती हैं शायद।

एकाएक ममी ने टेबुल पर झुकी हुई गर्दन ऊपर उठाई और घूमकर बोलीं, "बंटी!"

बंटी ने खट से आँखें बंद कर लीं। वही परिचित स्वर, अपनी ममी का स्वर। तो मन का डर धीरे-धीरे बहने लगा।

“सो गया बेटा ?" ममी पास आईं और एक बार रजाई को ठीक से उसके चारों ओर लपेट दिया। फिर उसी के पलंग पर बैठकर धीरे-धीरे उसका माथा, उसके गाल सहलाती रहीं।

बंटी को लगा, जैसे बिना बोले ही ममी फिर आश्वस्त कर रही हैं-तुझे अच्छा लगेगा बंटी...वहाँ तुझे अच्छा ही लगेगा।

ममी के इस स्पर्श से ही बंटी के मन के भीतर ही भीतर तेजी से कुछ पिघलने लगा। एक बार मन हुआ, रजाई उतारकर फेंक दे और ममी से लिपट जाए। पता नहीं ममी को आश्वस्त करने के लिए या खुद आश्वस्त होने के लिए।

पर उमड़ते आवेग को उसने होंठ भींचकर रोक लिया।

"बहूजी !"

फूफी की आवाज़ कैसी बदली हुई है ! एक बार मन हुआ कि आँख खोलकर देखे कि यह फूफी ही बोल रही है।

“क्या बात हो गई फूफी ?” ममी कितना मीठा बोल रही हैं। बहुत दिनों से उसने ममी की ऐसी मीठी आवाज़ ही नहीं सुनी।

"इतने साल आपकी नौकरी कर ली बहूजी, अब भगवान की नौकरी करेंगे, और क्या ?"

"कुछ बात भी बताओगी ?"

फूफी चुप ! रो तो नहीं रही ? पर किसी तरह की भी तो कोई आवाज़ नहीं आ रही।

"तुम भी मुझसे नाराज़ हो फूफी ?" ममी की आवाज़ जैसे पिघलकर थरथरा रही है।

“अरे हम नौकर आदमी, हम कइसे नाराज़ होंगे। पर भगवान ने जीभ दी है तो बोलेंगे ज़रूर। आप सौ जूता मारेंगी तो हम तनिकों चिंता नहीं करेंगे, पर बोले बिना हमसे रहा नहीं जाएगा।"

बंटी का मन फिर जाने कैसा-कैसा होने लगा।

“अब आप जो कर रही हैं बालक-बच्चा को लेकर, सो आपको शोभा देता है ? बड़े आदमियों की बड़ी बात, मुँह पर कौन बोलेगा, और काहे बोलेगा ?" पर फूफी तो मुँह पर ही बोलेगी ?"

अब फूफी भी शादीवाली बात ही कहेगी। ममी का शादी करना बुरी बात है?

“आप तो जानती हैं, साहब को लेकर हमारे मन में आज भी कइसा गुस्सा है। अब आप भी वही सब करेंगी...हम से नहीं देखा जाएगा यह सब।"

ममी ज़रूर बैठी-बैठी होंठ काट रही होंगी। ममी से जब जवाब देते नहीं बनता है तो बस यों ही होंठ काटती हैं।

“जवानी यों ही अंधी होती है बहूजी, फिर बुढ़ापे में उठी हुई जवानी। महासत्यानाशी ! साहब ने जो किया तो आपकी मट्टी-पलीद हुई और अब आप जो कर रही हैं, इस बच्चे की मट्टी-पलीद होगी। चेहरा देखा है बच्चे का ? कैसा निकल आया है, जैसे रात-दिन घुलता रहता हो भीतर ही भीतर।"

“फूफी !" एक सख्त-सी आवाज़ कमरे को चीरती हुई इस कोने से उस कोने तक गूंज गई। एक क्षण को बंटी भीतर ही भीतर सहम गया।

"देखो फूफी, मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूँ। अपनी माँ से भी ज़्यादा ...पर माँ को भी मैंने कभी अपनी बातों के बीच में नहीं बोलने दिया...मुझे याद नहीं वे कभी बोली हों।" एक क्षण को ममी रुकीं। “यह अधिकार तो मैं किसी को दे ही नहीं सकती।"

“हमने कहा न बहूजी, आप हमें हरिद्वार भिजवा दो...बस !''

"तुम जिस दिन चाहो, मैं इंतज़ाम करवा दूंगी। तुम यहाँ से जो कुछ भी चाहो, ले जा सकती हो, इस घर पर तुम्हारा भी उतना ही अधिकार है जितना मेरा। और तो क्या कहूँ !'' ममी के स्वर में अजीब-सी नरमाई आ गई। नरमाई नहीं, जैसे ममी थक गई हों।

तो क्या फूफी चली जाएगी ? बिना फफी के कैसे रहेगा वह ? रह सकता है कभी ! ममी ने उसे क्यों नहीं समझाया कि 'फूफी, तुम्हें वहाँ भी अच्छा लगेगा, वहाँ भी बहुत अच्छा लगेगा।"

कल वह समझाएगा फूफी को। फूफी ममी की बात चाहे न माने, उसकी बात नहीं टाल सकती। फूफी भी तो उसके बिना कैसे रहेगी ? और अगर फूफी न रुकी तो ?

खट ! ममी ने शायद उठकर टेबुल-लैंप बंद कर दिया। बंद आँखों ने भी महसूस किया कि कमरे का अँधेरा खूब गाढ़ा हो गया है।

बंटी ने आँखें खोलीं। घुप्प अँधेरे में डुबी हुई ममी की आकृति बहुत धुंधली-सी दिखाई दी। धीरे-से वह भी बगलवाले पलंग की रजाई में दुबक गई !

फूफी के जाने के बाद बंटी के मन में बहुत कुछ उखड़-बिखर गया। और ममी की शादी के बाद इस घर में बहुत कुछ उखड़-बिखर गया।

एक दिन में ही इस घर का बहुत-सा सामान उस घर में समा गया। सोमवार को इस घर की ममी भी उस घर में जाकर समा जाएँगी। किसी ने कह दिया कि सोमवार शुभ दिन है सो ममी रुक गईं। फूफी नहीं समा सकी तो हरिद्वार चली गई। बंटी है कि नहीं जानता वहाँ समा पाएगा या नहीं ? पहले ममी ने समझाया था तो बंटी समझ गया था, पर फूफी ने जाकर सब कुछ गड़बड़ा दिया।

फूफी के बिना तो उसे कहीं भी अच्छा नहीं लगेगा, यहाँ भी नहीं और वहाँ तो बिलकुल नहीं।

जब से फूफी गई है, तब से फूफी का जाना आँखों के सामने तैरता ही रहता है। जाते-जाते भी कैसे फूफी रसोई के बरतन धो-धोकर जमाती रही थी।

बंटी कभी मज़ाक करता था-"फूफी, बुलाकी राक्षस की जान तोते की टाँग में बसती थी, तेरी जान इस रसोई में बसती है। तुझे किसी दिन मारना होगा न तो..."

“अरे नहीं बसेगी जान रसोई में तो रोटी नहीं मिलेगी खाने को, समझा..."

जाने क्यों लगता है जैसे फूफी अभी भी अपनी जान यहीं छोड़ गई और चौके की जान ले गई। चौके की ही क्यों, बिना फूफी के सारा घर ही तो कैसा हो गया ? जब रात-दिन फूफी घर में रहती थी, तो फूफी का होना पता ही नहीं लगता था। बस फूफी है तो है ! पर अब फूफी नहीं है, तो सारे समय पता लगता है-फूफी नहीं है, फूफी नहीं है।

प्लेटफ़ार्म पर खड़ी है फूफी ! एक छोटी-सी टीन की संदूकची और उस पर रखी एक गठरी। ममी ने बहुत-कुछ देना चाहा, पर फूफी ने कुछ नहीं लिया। बस, बंटी को अपने से चिपका रखा है। आँख के आँसू हैं कि थम ही नहीं रहे हैं।

बंटी फूफी से चिपककर खड़ा है। आँख में एक भी आँसू नहीं। जो कुछ वह देख रहा है, बस, देख ही रहा है। पर विश्वास नहीं हो रहा कि फूफी सचमुच जा रही है या कि फूफी उसे छोड़कर जा भी सकती है। उसकी छोटी-सी हथेली में फूफी का हाथ है जिसे उसने कसकर पकड़ रखा है। और इसीलिए फूफी उसके पास है, उसकी पकड़ में है।

ममी ने पर्स खोलकर सौ रुपए का नोट देते हुए कहा, “फूफी, तुम्हें बंटी की कसम है, इसे रख लो। यों भी..." पता नहीं ममी आगे क्या कहना चाहती थीं।

"नहीं, हमें पाप में मत डालो बहुजी कसम दिलाकर ! हम कुछ नहीं लेंगे। भगवान के दरबार में जा रहे हैं, रुपया-पइसा का होगा क्या ? देना ही है तो एक वचन दे दो कि हमारे बंटी भय्या को जैसा आपने बिसरा दिया है आजकल, वैसा और मत करना। बाप के रहते यह बिना बाप का हो रहा, अब माँ के रहते यह बिना माँ का न हो जाए..." और फूफी ने साड़ी में मुँह छिपा लिया।

ममी की आँखें छलछला आईं। "कैसी बातें करती हो फूफी..." इससे आगे ममी से कुछ नहीं कहा गया।

चपरासी ने भीड़ में फूफी को भीतर ढकेल दिया। सीटी...झंडी...फिर सीटी ...भीड़, शोर...बदबू। और सबके बीच एक काँपता-पसीजता हाथ बंटी की छोटी-सी हथेली के बीच में से फिसलता चला गया। बंटी और उसे पकड़कर नहीं रख सका। और उसके बाद से जैसे एक-एक चीज़ बंटी के हाथ से निकलती ही जा रही है। अब तो शायद वह किसी को पकड़कर नहीं रख सकेगा।

लौटते समय बंटी सुन्न-सा ममी की बगल में बैठा है। “बंटी !" ममी ने प्यार से उसे अपनी बाँह में समेटा कि बंटी एकाएक फूटकर रो पड़ा, “फूफी को ले आओ ममी...फूफी को ले आओ..."

“रोते नहीं बेटे, थोड़े दिनों में अपने-आप आ जाएगी। तेरे बिना वह रह सकेगी कहीं भी ?" थोड़ी देर पहले प्लेटफ़ार्म, सामान और रेल के बीच में ही बंटी को लग रहा था कि फूफी कहीं नहीं जाएगी, वह जा नहीं सकती। अब ममी के कहने पर भी लग रहा है, वह नहीं आएगी, वह कभी आ नहीं सकती।

दूसरे दिन स्कूल से लौटकर जब माली की बहू ने खाना दिया तो फूफी का जाना जैसे मन को भीतर तक मथ गया। उसे याद नहीं कि स्कूल से लौटने पर किसी और ने भी उसे कभी खाना खिलाया हो। और क्या फूफी केवल खाना खिलाती थी ? खाने के साथ डाँट, डाँट के साथ लाड़ और भी जाने क्या-क्या तो रहता था।

पर इस घर से जा सकती है फूफी ? उसका तुलसी का चबूतरा, तार के एक कोने पर सूखती मटमैली-सी धोती और चोगे जैसा ब्लाउज। आँगन की दीवार में बनी ताक पर रखे, सिंदूर से रँगे-पते उसके हनुमान जी...उसके सरोते की खट-खट, उसके पसीने की गंध...उसके बेसुरे गले से निकली गीत की कड़ियाँ...उसकी कहानियों के राजा-रानी, भूत-प्रेत, जादूगर-राक्षस सबकुछ, इस तरह समाया हुआ है इस घर में कि यहाँ से वह जा ही नहीं सकती।

पर परसों तो यह घर भी छूट जाएगा। तब फूफी भी पूरी तरह छूट जाएगी। "तू ऐसे क्यों रहता है बंटी, मैं सच कहती हूँ तुझे वहाँ अच्छा लगेगा, बहुत अच्छा लगेगा मेरे बच्चे ! डॉक्टर साहब तुझे कितना प्यार करते हैं..." और भी जाने कितनी-कितनी बातें, कितने आश्वासन, कितने...

“अरे कौन बंटी ? आओ, आओ बेटे, और चार दिन का साथ है, खेल लो ! फिर तो बंटी कोठी में चला जाएगा तो पूछेगा भी नहीं कि टीटू किधर बसता है। मोटर में बैठकर आ जाया करना कभी-कभी...अब तो खूब ठाठ होंगे बंटी..."

और अम्मा के चेहरे पर वही मुसकराहट। होंठ फैलाकर भी अम्मा मुसकराती नहीं है, लगता है, जैसे कुछ कह रही हों। बंटी जानता नहीं, पर कुछ है जो बंटी को अच्छा नहीं लगता।

उस दिन के बाद पाँच-छः दिन हो गए यहाँ रहकर भी बंटी टीटू के घर नहीं गया।

आज नए घर में जाना है। शाम को चार के बाद से ही शुभ समय है। डॉक्टर साहब ने कल आकर बहत कहा कि आज ही चलो। रविवार का दिन है सबकी छुट्टी है। शुभ-अशुभ कुछ नहीं होता।

“क्यों बंटी, आज ही चलें न उस घर में ? जोत तुम्हारी राह देख रही है।" बंटी कुछ नहीं बोला। केवल डॉक्टर साहब का चेहरा देखता रहा। वह सचमुच उसी से पूछ रहे हैं ? आँखों में कहीं जोत का चेहरा उभर आया। शादीवाले दिन के बाद से उसे देखा ही नहीं। न ममी उस घर गईं न वहाँ से बच्चों को आने दिया। शायद शुभ समय नहीं था !

“लो, जब इतने दिन रुक गईं तो अब एक दिन की बात है। तुम मानो न मानो, मैं तो अशुभ वेला में कोई भी काम नहीं करूँगी।"

शुभ-अशुभ क्या होता है, कैसे होता है बंटी नहीं जानता। बस इतना जानता है कि ममी ने मना कर दिया है। तो वे अब नहीं जाएँगी। कल जाओ, आज जाओ, क्या फ़रक पड़ता है ! बस जाना है तो जाना है। पर ममी का कोई शुभ-अशुभ है जो नहीं जाने दे रहा है।

पर आज तो अब जाना ही है।

बंटी स्कूल से लौट आया। ममी ने बचा-खुचा सामान भी उस घर में भिजवा दिया। बिना बरतनों की रसोई, बिना कपड़ों की अलमारियाँ, बिना किताबों और मेज़पोश की मेजें, बिना दरी-कारपेट के फ़र्श...

खिलौनों की खाली अलमारी देखकर एक क्षण को सारे खिलौने आँखों के सामने घूम गए...पापा के भेजे हुए खिलौने।

एकाएक ख़याल आया-पापा तो इस घर का ही पता जानते हैं। अब वे आएँगे तो ख़बर कहाँ भेजेंगे ? उन्हें पता कैसे लगेगा ? कितने दिनों से पापा ने न कोई चीज़ भेजी न ख़बर। पापा को पता है कि ममी ने शादी कर ली है। हम लोग अब नए घर में रहेंगे। इस बार पापा को गए कितने दिन हो गए... एक...दो...तीन...छः...सात...आठ महीने हो गए।

तभी डॉक्टर साहब की कार आकर खड़ी हो गई। डॉक्टर साहब नहीं आए। ममी भी आती ही होंगी।

बंटी बरामदे की सीढ़ियों पर ही बैठ गया। ढलती धूप में उसका छोटा-सा बगीचा खूब लहलहा रहा है। पानी देनेवाला मोटा-सा पाइप बल खाया हुआ घास में पड़ा है। इधर तो उसने अपने बगीचे में पानी भी नहीं दिया।

"वहाँ का बगीचा तुझे ही ठीक करना है बेटे," ममी रोज याद दिला देती थीं और बंटी सुन लेता था बस !

कोने में आम का पौधा हरी-चिकनी पत्तियाँ लिए झूम रहा है।

'तुम जब जवान होओगे बंटी भैया तो यह पौधा भी पेड़ हो जाएगा...ब्याह, बच्चे...बौर, आम...तुम्हें बड़े होकर क्या माली बनना है बंटी भैया, जो इतनी खोजबीन कर रहे हो ? थोड़ा-बहुत काम कर लिया और छुट्टी करो !'

खट-खट करती ममी आईं। उनकी शॉल का एक छोर ज़मीन में घिसट रहा है। साथ में हीरालाल और माली भी हैं।

पहले ममी कॉलेज से आती थीं तो चेहरा कैसा थका-थका लगता था। आज लग रहा है, जैसे कॉलेज से आई नहीं, कॉलेज जाने के लिए तैयार होकर निकली हैं। ममी कैसी ख़ुश-खुश रहती हैं आजकल। माँग का सिंदूर चमकता रहता है। पहले दिन ममी की लाल-लाल माँग उसे बड़ी अजीब लगी थी। अब अजीब नहीं लगती, फिर भी नज़र वहीं जाकर अटक जाती है।

“तू आ गया बेटे ? कुछ खाया तो नहीं होगा ? चलो, अभी चलते हैं।"
 
हीरालाल एक-एक करके सारे कमरे बंद करने लगा। ममी बंटी के कंधे पर हाथ रखे माली को आदेश दे रही हैं-

"देखो माली, बंटी भैया के सारे पौधे उखाड़कर उधर ले आना। मोगरा, गुलाब, मोरपंखी-और कौन-कौन से पौधे आ सकते हैं बेटे ?” एकाएक उनकी नज़र उस आम के पौधे पर गई।

“यह आम का पौधा आ सकता है वहाँ ? आ सके तो ज़रूर-ज़रूर ले आना।" ममी को और भी कुछ याद आया।

गाड़ी में बैठकर बंटी ने एक उड़ती-सी नजर अपने घर की ओर डाली और फिर खिड़की पर ठोड़ी टिका ली। अब यह सब पीछे छूट जाएगा। दो-चार दिनों से तो वह ख़ुद मनाने लगा है कि इस सबको यहीं छोड़कर वह चला जाए।

कार चल दी। पर यह क्या ? यह घर, यह बगीचा, हाथ जोड़कर खड़े हुए हीरालाल और माली, सब-के-सब जैसे कार के साथ-साथ दौड़े चले आ रहे हैं-धुंधलाए हुए, थरथराते हुए। कुछ भी तो पीछे नहीं छूटा।

"बंटी !'' और ममी ने उसे अपने पास खींच लिया तो अवश-सा वह ममी पर ही जा लदा। पर बंटी रोया नहीं।

“यह तो कॉलेज का घर था बेटा, अपना घर तो था नहीं ! अब वहाँ अपना घर होगा, अपने लोग होंगे।"

एकाएक ही ममी का स्वर भर्रा गया। पता नहीं खुशी से या दुख से। बंटी के अपने मन में तो न ख़ुशी है न दुख। कुछ भी तो नहीं है सिवाए इस एहसास के कि वह जा रहा है।


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