आपका बंटी (उपन्यास) : मन्नू भंडारी
Aapka Bunty (Hindi Novel) : Mannu Bhandari
आपका बंटी (उपन्यास) : चौदह
बंटी के बाहर का ही नहीं, भीतर का भी जैसे सबकुछ थम गया। थम नहीं गया जैसे
सबकुछ सहम गया। ज़िद, गुस्सा, रोना-चिल्लाना।
स्कूल से लौटकर पोर्टिको में खड़ा-खड़ा वह अमि, जोत और ममी की राह देखता रहता
है, पर जब वे लोग आ जाते हैं तो लगता है, नहीं, वह उनकी राह तो नहीं देख रहा
था। तीनों एक साथ उतरते हैं, पर बुरा नहीं लगता।
“ऐ बंटी, चल रमी खेलें।" तो खेलने बैठ जाता है।
“स्कूल से आए नहीं कि तुम लोगों की ताश शुरू हो गई...आज होमवर्क नहीं करना है
?" ममी झिड़कती है तो चुपचाप पढ़ने बैठ जाता है।
कई बार पेंटिंग करने को मन करता है। पर रंग की बहुत सारी शीशियाँ तो टूट गईं।
सारे रंग बह गए। अब जो बचे-खुचे रंग हैं उनसे कुछ बनता ही नहीं।
ममी जब भी उसे अकेला पाती हैं, आकर कारण-अकारण प्यार करने लगती हैं। उस समय
ममी की आँखों में जाने क्या कुछ तैरता रहता है।
खाने की मेज़ पर बैठते समय नज़र नीची किए रहने पर भी अ ब स त्रिकोण उभर आता
है और उसकी भुजाएँ एक सिरे से दूसरे तक दौड़ती रहती हैं। ममी की आँखें उसकी
प्लेट में चिपकी हुई उसे घूरती रहती हैं। जब तक डॉक्टर साहब घर में रहते हैं,
ममी कहीं भी रहें, कुछ भी करें, उनकी आँखें बंटी के आगे-पीछे ही घूमती रहती
हैं, उसे ही देखती रहती हैं। वह पढ़ता है तब भी, वह खाता है तब भी, सोता है
तब भी-सतर्क, चौकन्नी और घूरती हुई आँखें। पहले बंटी उन आँखों की एक तीखी-सी
चुभन महसूस करता था, अब केवल आँखों का होना-भर महसूस करता है।
सवेरे डॉक्टर साहब के जाते ही ममी की आँखें लौटकर उनके अपने चेहरे पर चिपक
जाती हैं और वे जल्दी-जल्दी कॉलेज जाने के लिए तैयार होने लगती हैं। उस समय
तक वे आँखें बिलकुल बदल जाती हैं।
अच्छा, ममी बिना आँखों के देखती कैसे होंगी ? पर देखती हैं। शायद वैसे ही
जैसे वह आजकल आँखें होने पर भी कुछ नहीं देखता। या कि हो सकता है “बोल बेटे,
मैं गुस्सा नहीं हो रही। सिर्फ़ पूछ रही हूँ। भेजी हैं तूने चिट्ठियाँ ? कैसे
भेजीं, किसके हाथ भेजीं !"
बंटी चुप। क्या बोलने को कुछ है ही नहीं ?
“मैं सोच रही थी, यह उनका अपना आग्रह है, अपनी ही ज़िद है। पर अगर तूने लिखा
है तब तो...” पता नहीं, ममी उससे बोल रही हैं या अपने-आपसे।
एकाएक ममी ने बंटी को खींचकर अपने से चिपका लिया। “क्यों बंटी, क्या तेरा
सचमुच ही मन नहीं लगता ? तू पापा के पास जाना चाहता है, जाएगा ?"
"ठीक है बेटे, तू वहीं चला जा। तेरे पापा तुझे लेने आ रहे हैं। अब मैं भी
नहीं रोकूँगी। जब तू ही खुश नहीं तो...आख़िर अपने पापा से कम ज़िद्दी तो तू
भी नहीं।"
और ममी के हाथ की पकड़ ढीली हो गई।
बंटी तब भी कुछ नहीं समझा।
सारी बात तो सवेरे समझ में आई। नहीं, सारी बात तो अभी भी उसकी समझ में नहीं
आई। बस, मालूम हुआ कि पापा आ रहे हैं। पर सारी बात कुछ इससे ज्यादा है। पिछली
बार भी पापा केवल उससे मिलने नहीं आए थे। और भी बहुत कुछ कर गए थे। उसे तो
बाद में पता लगा था। उसके बाद ममी का रोना...
इस बार क्या करेंगे ? उसने डॉक्टर साहब की ओर देखा। वे सामने सड़क पर नजर
गड़ाए हुए गाड़ी चला रहे हैं। पापा ने डॉक्टर साहब को देखा है कभी ? बिना
जान-पहचान के डॉक्टर साहब घर आने के लिए कैसे कहेंगे ?
सवेरे ममी ने बंटी को अपने हाथ से तैयार किया और खुद यों ही घूमती रहीं तो
डॉक्टर साहब ने पूछा, “तुम स्टेशन नहीं चलोगी ?"
"नहीं।"
"क्यों ?"
"बस यों ही। तुम और बंटी जाओ।"
डॉक्टर साहब एक क्षण देखते रहे। "हूँ ! ठीक है।" फिर उनका चेहरा अख़बार में
छिप गया।
“तुम कॉलेज तो नहीं जा रही हो न ?” अख़बार एक ओर रखकर उन्होंने पूछा तो ममी
ने ऐसे देखा मानो पूछ रही हों-क्या ?
“भई किसी को तो घर में रहना चाहिए। मुझे तो दस बजे एक ज़रूरी मीटिंग में जाना
है।"
“पर वे यहाँ आएँगे नहीं।"
"क्यों नहीं आएँगे ? आइ विल इनसिस्ट। बंटी, तुम भी जोर लगाना बेटे, समझे !"
और बंटी ने तभी सोच लिया कि वह एक बार भी नहीं कहेगा। पापा यहाँ आ गए तो वह
बात कैसे करेगा ? इस घर में तो वह बात कर ही नहीं सकता। कितनी-कितनी बातें
करनी हैं उसे...और फिर जैसे एक सिरे से बातें उभरने लगीं इतनी-इतनी कि सबकुछ
गड़बड़ होने लगा।
पापा घर आ गए तो ? पापा आएँगे ?
पर पापा नहीं आए।
स्टेशन पर बंटी ने ही पापा को पहचाना, देखते ही हमेशा की तरह पापा ने लपककर
उसे बाँहों में भर लिया और गोद में उठाकर ढेर सारे किस्सू दे दिए। फिर ज़ोर
से सीने से चिपका लिया। बंटी बेटाऽऽ...
बाँहों में भिंचे-भिंचे, सीने से चिपके-चिपके बंटी के मन में बहुत दिनों का
जमा हुआ कुछ पिघलने लगा। अनायास ही आँखों में आँसू आ गए। उन्हें भीतर ही भीतर
पीता हुआ वह गोद से नीचे उतर आया। इतना बड़ा होकर वह रोएगा भी नहीं, गोद में
भी नहीं चढ़ेगा। पापा की पहलेवाली बात याद आ गई-लड़कियों की तरह रोते हो...
पापा दोनों कंधों से थामे उसे देख रहे हैं। पर जैसे पहले देखते थे वैसे नहीं,
खूब घर-घूरकर देख रहे हैं। एकाएक लगा, ज़रूर कहीं आगे-पीछे से ममी की आँखें
भी देख रही होंगी। सब लोग उसे इस तरह क्यों देखते हैं ? उसे जाने कैसा-कैसा
लगने लगता है, डर-सा।
पापा उसी तरह देखते हुए उससे कुछ पूछ रहे हैं, कुछ कह रहे हैं और डॉक्टर साहब
एक तरफ़ खड़े हैं चुपचाप।
और अब डॉक्टर साहब हाथ मिलाकर घर चलने के लिए ज़िद कर रहे हैं। खूब-खूब, कुछ
और भी कह-सुन रहे हैं और बंटी एक तरफ़ खड़ा है चुपचाप।
"बंटी, तुम घसीटकर ले चलो पापा को। देखो तो बात ही नहीं मानते !"
बंटी ने पापा की ओर देखा। पापा वैसे मुसकरा रहे हैं, पर बिलकुल नहीं मुसकरा
रहे हैं। ऐसे कहीं मुसकराया जाता है ? सारा चेहरा तो कैसा सख्त-सख्त हो रहा
है। पापा भी कहीं प्रिंसिपल हो गए क्या ? अभी भी नजरें बंटी के चेहरे पर ही
टिकी हुई हैं।
'कहो बेटा, पापा से चलने के लिए।"
"चलिए न पापा !"
उसने सहमे-सहमे स्वर में कहा तो पापा की नज़रों की चुभन और तीखी हो गई। बंटी
और भी ज्यादा सहम गया।
"बात यह है...” पापा डॉक्टर साहब से कुछ कह रहे हैं।
एक क्षण को बंटी की आँखों के सामने धीरे-धीरे रात का अँधेरा फैल गया और उसकी
छोटी-सी हथेली में से पापा का हाथ फिसलता ही चला गया। अपने घर के फाटक पर रह
गए वह और ममी अकेले-अकेले !
वह और डॉक्टर साहब लौट रहे हैं। पापा सरकिट-हाउस उतर गए। उसे उतरने के लिए भी
नहीं कहा, कितनी बातें करनी थीं उसे पापा से, अब ? चार बजे घर आएँगे तो वह
क्या बात कर पाएगा ? बंटी की बात से भी ज़्यादा ज़रूरी पापा का काम है ? पापा
उसके लिए नहीं आए हैं, अपने काम के लिए आए हैं। और थोड़ी देर पहले बंटी के मन
में जो कुछ पिघला था, वह जैसे फिर जमने लगा।
स्कूल भी नहीं गया और पापा भी नहीं ले गए। अब वह क्या करे ? इस कमरे से उस
कमरे में, भीतर से बाहर यों ही आ-जा रहा है। घर में वह और ममी रहें
अकेले-अकेले, ऐसा बहुत कम होता है आजकल। पर जब भी होता है, उसे अच्छा लगता
है। तब ममी उसे प्यार करती हैं और थोड़ी देर के लिए पुरानीवाली ममी हो जाती
हैं।
आज भी तो दोनों ही हैं। वह कुछ न कुछ करता हुआ ममी के पास जाता भी है तो ममी
बस एक बार उसकी ओर देखती ज़रूर हैं और फिर नज़रें हटाकर कुछ करने लगती हैं।
जैसे कटी-कटी फिर रही हों।
वह पापा के पास से आया है, इसलिए ममी नाराज़ हैं, दुखी हैं। अच्छा है, हों
नाराज़, हों दुखी ! अभी क्या है, अभी तो वह यहीं घूमने गया था, जब उनके साथ
कलकत्ता चला जाएगा, तब पता लगेगा ! अब कहकर तो देखें उससे कि मत जा, तब वह
बताएगा ! पर ममी ने कुछ भी नहीं कहा।
साढ़े चार बजे के करीब पापा आए तो ममी ने ऐसे नमस्ते किया जैसे अजनबी को कर
रही हों। जोत भी कैसे देख रही है पापा को ? बंटी का मन हो रहा है कि पापा जोत
से बातें करें, उसे प्यार करें, तभी तो जोत को अच्छे लगेंगे पापा। उसने कहा
था कि मेरे पापा भी खूब अच्छे लगेंगे, पर पापा तो...
चाय की मेज़ पर गए तो ढेर सारी खाने की चीजें फैली हुई थीं। वे लोग जिस दिन
इस कोठी में आए थे ठीक उसी तरह। उस दिन डॉक्टर साहब ममी की खातिर कर रहे थे।
आज क्या ममी पापा की खातिर कर रही हैं ?
बार-बार लग रहा है कि कोई लंबा-सा आदमी आएगा और दहाड़ता हुआ कहेगा-वाह ! आज
खाने की मेज़, खाने की मेज़ लग रही है।
वह, ममी और पापा ! अमि और जोत नए आदमी के सामने कैसे चुपचुप बैठे हैं, जैसे
वह उस दिन बैठा था। पर आज भी तो वह चुप है। उसका बड़ा मन हो रहा है कि वह कुछ
न कुछ बोलता ही रहे जैसे अमि और जोत उस दिन बोल रहे थे, जैसे हमेशा बोलते
हैं, पर पापा की नज़रें इस तरह गड़ी हुई हैं उसके चेहरे पर कि कुछ कहा भी
नहीं जाता। फिर ममी भी तो चुप हैं। मान लो वह कुछ कहे और पापा जवाब ही न दें
तो जोत कहेगी नहीं-कैसे हैं तेरे पापा ?
पापा ही उससे क्यों नहीं कुछ पूछते-बोलते ! अपने ममी-पापा के साथ बैठकर भी
खाने की मेज, खाने की मेज़ लगी ही नहीं।
चाय के बाद ममी पापा को लेकर बैठने के कमरे में घुसी तो वह भी पीछे-पीछे लगा
चला गया। ममी गरदन घुमा-घुमाकर इस तरह कमरे को देख रही हैं जैसे पापा नहीं,
वे खुद बाहर से आई हैं। और पापा हैं कि कमरा देख ही नहीं रहे।
"मुझे ख़बर देर से मिली थी, इसलिए बधाई भी नहीं भेज सका।"
ममी चुप।
बंटी का मन हो रहा है कुछ बात करे, इधर-उधर की कुछ भी-ममी, पापा और उसने एक
साथ नाश्ता किया है। एक साथ कमरे में बैठे हैं। और वह इस समय को, इस स्थिति
को जैसे पूरी तरह महसूस करना चाहता है, भीतर तक। पर अपनी जगह ऐसा जम गया है
कि न हिला-डुला जा रहा है, न कुछ बोला ही जा रहा है।
एकाएक इच्छा हुई कि पापा से कहे, चलिए पापा, हमें घुमा लाइए। यहाँ तो रात तक
भी बैठा रहा तो कुछ नहीं कहा जाएगा। और ढेर सारी बातें...जोत देख तो ले कि
पापा उसे ले जा रहे हैं, वह सारी चीजें लिए चला आ रहा है। अमि उछल-उछलकर,
उसकी चीजें देख रहा है-अरे, यह भी है बंटी भैया।
"वैसे तो मैंने लिखा ही था...यों भी सवेरे से मुझे यह बहुत..." बात अधूरी
छोड़कर पापा बंटी की ओर देखने लगते हैं। ममी एक बार बंटी की ओर देखती हैं,
फिर पापा की ओर। फिर उनकी नज़रें ज़मीन में गड़ जाती हैं। उनका चेहरा कैसा
पीला-पीला हो रहा है !
अच्छा है, अब ममी को पता लगेगा। बता दे पापा को कि ममी यहाँ आने के बाद उसे
मारने भी लगी हैं, कभी उसके साथ नहीं सोतीं, और-और-खट उँगलियों का क्रास बन
जाता है।
"बंटी, तू अमि और जोत के साथ खेल बेटा !"
हुँह ! उसे हटा देना चाहती हैं, डर रही होंगी न कि बंटी सब बता देगा। वह
बिलकुल नहीं जाएगा और पापा को सारी बात बताएगा। पापा उसी के लिए तो आए हैं।
ममी की तो पापा से कुट्टी है, फिर ?
वह टस से मस नहीं हुआ।
पापा उसे देख रहे हैं पर जैसे उसका चेहरा नहीं देख रहे, चेहरे के भीतर और कुछ
देख रहे हों। और ममी सहमी-सहमी पापा को देख रही हैं।
फिर अ-ब-स...
“जाओ बेटे, बाहर खेलो !'' इस बार पापा ने कहा तो बंटी भन्नाता हुआ चला गया।
स्टेशन पर गया तो-'बेटे, इस समय हमें कुछ ज़रूरी काम है, शाम को हम आएँगे। अब
की बार आए तो 'बेटे बाहर खेलो।' फिर आए किसलिए हैं यहाँ पर ? कहीं अमि
टिलिलिलि करता हुआ हवा में तैर गया।
पर गुस्सा पापा पर नहीं, ममी पर आ रहा है। पहले ममी नहीं थीं तो सारे दिन
पापा ने उसे कितना घुमाया था। आज ज़रूर ममी ने कुछ...और फिर जैसे पुराना सारा
गुस्सा भी एक साथ उभर आया। कुछ ऐसा करे कि ममी को पता लगे।
और जब थोड़ी देर बाद बुलाकर, पापा ने प्यार से अपनी गोद में बिठाकर पूछा,
'बेटा, हमारे साथ कलकत्ता चलोगे न ? मैं तुम्हें लेने आया हूँ।' तो ममी की ओर
देखते-देखते ही गुस्से में ऐसे बोला जैसे पापा को नहीं, ममी को जवाब दे रहा
हो, “जरूर चलूँगा, मैं यहाँ बिलकुल नहीं रहूँगा।" यह बात उसने हज़ारहज़ार बार
ममी को ही तो कहनी चाही है। अच्छा है, ममी भी सुन लें।
पापा ने उसे अपनी बाँह में समेट लिया तो बंटी के मन में अभी का जमा हुआ
गुस्सा जैसे बह आया। पापा से चिपका-चिपका ही वह रो पड़ा।
पापा ने कसकर उसे सीने से चिपका लिया, "रो मत बेटे, बंटी रो मत..." और उनकी
अपनी आवाज़ भी भीग गई।
जाने कहाँ से देखती हुई ममी की आँखें बिलकुल सूख गईं। बिना आँसू की भीगी-भीगी
आँखें। सफ़ेद चेहरा। अब पता लगेगा ममी को।
पापा उसे घुमा रहे हैं। कलकत्ते के बारे में बता रहे हैं। पर बंटी कुछ सुन ही
नहीं रहा। वह सोच रहा है, सोच ही नहीं रहा, देख रहा है-ममी उसके पलंग पर बैठी
रो-रोकर कह रही हैं, “मत जा बंटी, मत जा ! मैं तेरे बिना रह नहीं सकूँगी। आज
तक कभी..."
और मन ही मन में वे शर्ते तैरती हैं जो ममी के सामने वह रखेगा। ममी सब
मानेंगी तो वह रहेगा। पक्कावाला प्रॉमिस, झूठ-झूठ का बहकावा अब नहीं चलेगा।
वह क्या जानता नहीं कि ममी उसके बिना रह नहीं सकतीं। डॉक्टर साहब, अमि, जोत,
कोठी-वोठी सब ठीक है, पर बंटी...
“अच्छा बंटी, ये डॉक्टर साहब तुम्हें कैसे लगते हैं ?'' अचानक पापा ने पूछा,
और नज़रें बंटी के चेहरे पर गड़ा दीं तो बंटी की समझ में ही नहीं आया कि क्या
कहे। बस, कहीं हलके से डॉक्टर साहब का चेहरा उभर आया। फिर धीरे से बोला,
“अच्छे हैं।"
“और उनके ये बच्चे ?"
“जोत तो बहुत अच्छी है। मुझे बहुत प्यार करती है, मुझसे कभी झगड़ा भी नहीं
करती..."
अरे, ये पापा ऐसे क्यों देख रहे हैं ? लगा जैसे कहीं कोई गलती हो गई। पर उसने
तो किसी के बारे में कोई भी बुरी बात नहीं की।
“अच्छा, कांजी पिओगे तुम ?" पापा ने उसके बाद कुछ नहीं पूछा।
रात में बंटी अपने पलंग पर लेटा-लेटा बराबर राह देख रहा है कि कब ममी आती हैं
और कब रो-रोकर उसके सामने गिड़गिड़ाती हैं। रास्ते में सोची हुई सारी शर्तों
को उसने फिर एक बार मन ही मन दोहरा लिया।
जोत अपनी एक सहेली के यहाँ गई है। अमि साथ-साथ टँगा हुआ चला गया। अकेले
लेटे-लेटे बंटी का समय ही नहीं कट रहा है। यों सामने एक किताब खोल रखी है, पर
ध्यान तो सारा...
ममी अपने कमरे में हैं डॉक्टर साहब के साथ। ज़रूर रो रही होंगी। हो सकता है
डॉक्टर साहब से कह रही हों कि वे समझाएँ। सोचती होंगी कि मैं उनसे डर जाऊँगा।
अब तो पापा हैं। अब तो मैं कहूँगा-यह सब नहीं चलेगा। मैं बर्दाश्त नहीं
करूँगा।
अगर कहीं डॉक्टर साहब समझाने आ ही गए तो ? उनको क्या जवाब देगा ? यह तो सोचा
ही नहीं। नहीं, उन्हें कोई जवाब नहीं देगा।
पर कोई आ ही नहीं रहा। हिम्मत ही नहीं हो रही है आने की शायद ! इतने में जोत
और अमि आए और सीधे ममी के कमरे में घुस गए। ये लोग कैसे उनके कमरे में घुस
जाते हैं। जाने क्यों वह इस तरह कभी उस कमरे में घुस ही नहीं पाता। या तो कभी
ममी ले गई हैं तो गया है या फिर छिपकर।
थोड़ी देर बाद जोत आई और पूछा, “तू कल अपने पापा के साथ कलकत्ते जा रहा है ?"
तो उस कमरे में यही सब बात हो रही है ?
“हाँ, मेरे पापा लेने आए हैं, जाऊँगा नहीं मैं ?" बंटी इतनी जोर से बोला कि
ममी अपने कमरे में भी सुन लें।
पता नहीं ममी ने सुना या नहीं पर जोत ने सुन लिया और कपड़े बदलने चली गई।
कहाँ तो ममी की आँखें उसके आगे-पीछे घूमा करती थीं, उसके भीतर तक का जैसे
सबकुछ देखती रहती थीं, अब आज क्या हो गया ? उसकी आँखें भी इस तरह घूम-फिर
सकतीं तो वह भी देखता कि ममी क्या कर रही हैं, क्या कह रही हैं ?
थोड़ी देर बाद एकाएक ममी कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गईं। बंटी ने भरपूर
नज़रों से ममी को देखा और फिर किताब पढ़ने लगा, जैसे उसे किसी का कोई इंतज़ार
नहीं। धीरे-धीरे ममी पास आकर बैठ गईं। बंटी ने मन ही मन में जल्दी से एक बार
सब दुहरा लिया। कहीं ऐसा न हो कि ममी रोने लगें तो वह खुद भी रो पड़े। नहीं,
रोना-वोना बिलकुल नहीं है इस बार।
पर ममी कुछ नहीं बोलीं। बस, उसका सिर सहलाने लगीं। उसने एक बार फिर ममी की ओर
देखा। नहीं, ममी रो तो नहीं रहीं। अब रोएँ शायद ! पर जब नहीं रोईं तो बंटी ने
कहा, "मैं कल पापा के साथ कलकत्ते जा रहा हूँ।"
ममी एकटक उसकी ओर देखती रहीं। जैसे उसकी बात का अर्थ समझने की कोशिश कर रही
हों, या कि जैसे उस पर विश्वास नहीं हो रहा हो। पर रो तो नहीं रहीं।
"मैं फिर कभी तुम्हारे पास आऊँगा भी नहीं। पापा के पास ही रहूँगा, हमेशा...”
ममी उसके बाल और गाल ही सहलाती रहीं। फिर धीरे से बोलीं, "बंटी!"
बंटी जैसे अगले वाक्य के लिए तैयार ! अब कहो कि मत जा !
“तेरे लिए क्या-क्या लाऊँ बेटे, तू अपनी पसंद की चीजें बता दे। वही सब..."
तो क्या ममी उसे रोक नहीं रही हैं ? उसे सचमुच ही भेज रही हैं। उसके भीतर ही
भीतर कुछ ऐंठने लगा।
"मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं तुम्हारी कोई चीज़ नहीं लूँगा।" उसने जलती नज़रों
से ममी को देखा, मानो कह रहा हो...अब, अब बोलो, अब रोओ !
पर इस पर भी ममी नहीं रोईं। सूखी आँखें और उससे भी ज़्यादा सूखा चेहरा।
डॉक्टर साहब हैं न घर में इसीलिए नहीं रो रहीं। डरती जो हैं। कल देखना। और
नहीं रोईं तो क्या है, वह तो चला जाएगा। पापा के साथ खूब घूमेगा कलकत्ते में,
नई-नई चीजें देखेंगे। इतना बड़ा शहर। घूमते-घूमते मर भी जाओ तो ख़त्म ही न
हो।
रात में वह पापा के साथ घूमता रहा अजीब-अजीब जगहों में। अचानक कहीं से ममी आ
गईं और उसे गोद में उठाकर रोने लगीं, फूट-फूटकर। वह, ममी और पापा लौट रहे
हैं...चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं और जैसे ही घर के दरवाज़े पर पहुँचते
हैं, पापा डॉक्टर साहब में बदल जाते हैं। वह घर भी पता नहीं कौन-सा था। सवेरे
आँख खुली तो वह अपने बिस्तर में था।
दसरे दिन भी ममी नहीं रोईं। उससे एक बार भी नहीं कहा कि तू मत जा तो बंटी खुद
रो पड़ा। छिपकर, बाथरूम में।
नाश्ते की मेज़ पर सब चुप। जोत और अमि उसे ऐसे देख रहे हैं, जैसे जानते ही
नहीं हों। डॉक्टर साहब और ममी मेज़ पर नज़रें गड़ाए हुए भी जैसे उसे ही देख
रहे हों। सब देखो, पर कोई मत कहो कि मत जा, सब शायद यही चाहते हैं कि मैं चला
जाऊँ। ममी भी ?
और जैसे मन में कुछ उफनने लगा। गले में आकर कुछ ऐसा फँस गया कि खाते नहीं
बना। बस, अँसुआई आँखों के सामने से एक बार फिर लाल तिकोन तैर गया।
न ममी कॉलेज गईं, न उसे स्कूल भेजा। बहुत मन हुआ कि कह दे वह स्कूल क्यों
नहीं जाएगा ? कल भी नहीं गया, आज भी नहीं ? उसे पढ़ना नहीं ? उसे पढ़ना नहीं
है ? पर कुछ भी नहीं कहा गया। गला जैसे किसी ने भींच दिया है। गला नहीं, कहीं
कुछ और जैसे भिंच गया है।
ममी चुपचाप उसका सामान जमा रही हैं। उसके कपड़े, उसके खिलौने। मन हुआ
भड़भड़ाता जाए और एक-एक कपड़ा बाहर निकाल डाले। नहीं जाएगा वह कलकत्ते, क्यों
जाएगा, कैसे जाएगा ? एक महीने बाद इम्तिहान नहीं हैं उसके ? वह रहा है कभी
ममी के बिना ?
पर कुछ नहीं, कुछ भी नहीं कहा गया उससे। वह आँसू पीता हुआ इधर-उधर घूमता रहा।
ममी सामान जमाती रहीं। जैसे-जैसे समय बीतता गया, आँसू भी जैसे भीतर जाकर जम
गए।
और जब सबकुछ जम-जमा गया तो ममी उसके सामने आकर खड़ी हो गईं। उसके दोनों कंधों
को पकड़कर पूछा, "बंटी, वहाँ जाकर मुझे बिलकुल भूल तो नहीं जाएगा ? चिट्ठी
लिखेगा मुझे ? और देख बेटे, यदि वहाँ..."
"मैं बिलकुल याद नहीं करूँगा, मैं कभी भी चिट्ठी नहीं लिखूगा। तुम मेरी..."
बाकी शब्द जैसे भीतर ही घुटकर रह गए।
अब बोलो, अब रोओ...रोओ !
और ममी की आँखें सचमुच ही छलछला आईं। पर वे कुछ नहीं बोलीं। चुपचाप लौट गईं।
पापा को लेने के लिए कार गई हुई है। बंटी का सारा सामान तैयार है। सामान के
ऊपर तीन-चार पैकेट रखे हुए हैं। ममी ने लाकर रखे हैं। वह बिलकुल नहीं ले
जाएगा। ममी कहेंगी तब भी नहीं। डॉक्टर साहब भी आ गए हैं।
"बंटी तू गरमी की छुट्टियों में यहीं आ जाना। हम लोग फिर चाची अम्मा के पास
चलेंगे!"
वह एक क्षण तक जोत का चेहरा देखता है। फिर कहता है, “नहीं, मैं क्यों आऊँगा
यहाँ, मुझे नहीं जाना कहीं। मैं तो वहीं घूमँगा छुट्टियों में।"
और उसे लगता है, जैसे वह जोत से नहीं कह रहा है, अपने-आपसे कह रहा है। अब तो
सचमुच-सचमुच वह कभी नहीं लौटेगा, कभी नहीं। क्या समझ रखा है ममी ने उसे !
“आपने तो बड़ी देर कर दी। हम तो कभी से राह देख रहे थे। आपके साथ बैठने का तो
बिलकुल समय मिला ही नहीं।"
पापा भीतर नहीं आ रहे, “आइ एम सो सॉरी। बस कुछ ऐसा ही हो गया कि...” फिर कोट
की बाँह सरकाकर घड़ी देखते हुए बोले, “अब तो एकदम गाड़ी का समय हो गया। बंटी,
तैयार हो न बेटे ?"
तो बंटी दौड़कर पापा के पास जाकर खड़ा हो गया। भीतर ही भीतर सहमा हुआ, पर ऊपर
से जैसे सधा हुआ। सब देख लें कि उसे भी खूब-खूब प्यार करनेवाले पापा हैं, जो
उसे ले जा रहे हैं अपने साथ ! कोई मत रखो उसे यहाँ।
ममी अभी भी नहीं आ रहीं ? पापा की नज़रें भी शायद उन्हीं को ढूँढ़ रही हैं।
ममी क्या निकलेंगी ही नहीं ?
बंसीलाल सामान जमाने लगा तो बंटी ने वे पैकेट निकालकर अलग कर दिए।
“अरे, ये तो तुम्हारे लिए ही लाए हैं बेटा, तुम ले जाओ।"
बंटी कुछ नहीं बोला, चुपचाप उन डिब्बों को सीढ़ियों के एक किनारे पर रख दिया।
पापा ने एक बार घूरकर डॉक्टर साहब को देखा। डॉक्टर साहब का चेहरा जाने
कैसा-कैसा हो आया।
तभी भीतर से ममी निकलकर आईं। उन्होंने एक बार पापा की ओर देखा, फिर बंटी की
ओर और फिर पैकेट की ओर। फिर धीरे से आगे बढ़कर उन्होंने बंटी को पकड़कर अपनी
ओर खींचा और प्यार किया, पर बोलीं कुछ नहीं।
बंटी छिटककर पापा के पास चला गया और उनकी बाँह पकड़कर खड़ा हो गया। जैसे वह
पूरी तरह यह दिखा देना चाहता हो कि वह पापा का बंटी बन गया है और अब पापा के
पास ही जा रहा है।
गाड़ी में सब बैठे। डॉक्टर साहब, अमि, जोत। बस ममी बाहर ही खड़ी रहीं। पापा
ने डॉक्टर साहब की ओर देखा...
“अंड शी इज़ वेरी अपसेट।" और उन्होंने गाड़ी स्टार्ट कर दी।
न चाहते हुए भी बंटी की नज़र ममी की ओर चली ही गई। उनका एक हाथ हिल रहा था और
वे शायद रो रही थीं।
रोती हुई ममी पीछे छूट गईं। कोठी, कोठी का उजड़ा हुआ अहाता, कोठी के बाहर लाल
तिकोन, सब-सब पीछे छूट गए।
स्टेशन और स्टेशन की भीड़। गाड़ी में बैठा खिड़की से झाँकता बंटी।
प्लेटफ़ार्म पर खड़े हुए डॉक्टर साहब, पापा, अमि, जोत ! और भी ढेर सारे लोग।
डॉक्टर साहब के टूटे-टूटे वाक्य, “आप इसकी खबर देते रहिएगा...यू नो शी
इज...अगर बहुत परेशान हो तो..."
"बंटी भैया, हम भी कलकत्ता घूमने आएँगे !"
"बंटी, मुझे चिट्ठी लिखना।"
और इसके साथ ही बहुत सारा शोर, तरह-तरह का। और एकाएक ही सारे शोर के ऊपर
उभरता है-बंटी, मत जा बेटे, मैं तेरे बिना नहीं रह सकूँगी। दौड़ती-दौड़ती ममी
चली आ रही हैं, बदहवास, लाल आँखें। पर ममी जैसे उस तक पहुँच नहीं पा रही हैं,
सिर्फ उनकी आवाज़ उसके इर्द-गिर्द घूम रही है।
तभी गाड़ी चल दी और जो लोग आए थे वे भी छूट गए। हाथ हिलाते हुए डॉक्टर साहब,
अमि और जोत। धीरे-धीरे सबके चेहरे घुल-मिल गए और फिर एक बिंदु में बदलकर ओझल
हो गए। फिर प्लेटफ़ार्म की भीड़ और शोर, शहर का हिस्सा, जाना-पहचाना, सब-कुछ
सरकता चला गया, छूटता चला गया। और थोड़ी ही देर में गाड़ी खेत-खलिहानों और
मैदानों की अनंत सीमाओं के बीच दौड़ने लगी।
बंटी ने गरदन भीतर की ओर मोड़ ली-सब अपरिचित चेहरे। इतने अपरिचित चेहरों के
बीच जाने कैसी दहशत बंटी को हुई कि वह उठकर पापा के पास चला गया और उनसे एकदम
सट गया। पापा ने बहुत दुलार से उसकी पीठ सहलाई, "बंटी !"
तो अपने-आप ही जैसे आगे के शब्द तैर गए, “वहाँ अपना घर होगा, तुझे बहुत अच्छा
लगेगा बेटा !''
पर पापा पूछ रहे थे, “बिस्तर लगा दें, तुम लेटोगे ?''
इतने अपरिचितों के बीच जैसे वह अपने-आपसे अपरिचित हो आया। बस, बार-बार नज़र
पापा की ओर उठ जाती है। इतने नए-नए चेहरों के बीच पापा का जाना-पहचाना,
परिचित चेहरा ही जैसे आश्वस्त करता है। मन हो रहा है कि उन्हें ही कसकर पकड़
ले। कहीं ऐसा न हो कि पापा भी छूट जाएँ ! थोड़ी-थोड़ी देर बाद कोई न कोई
बहाना बनाकर वह उन्हे छू लेता है, कभी हाथ पकड़ लेता है।
लेकिन रात में बंटी फिर उन्हीं परिचित चेहरों और परिचित जगहों के बीच ही
घूमता रहा। घूरती हुई ममी या उदास-उदास ममी, चिढ़ाता हुआ अमि, प्यार करती
जोत, गंभीर-गंभीर डॉक्टर साहब। सवाल समझाते हुए सर...साइलेंस...
साइलेंस...विभू, कैलाश, टीटू...यार बंटी कहाँ चला गया ? बंसीलाल...लाल तिकोन
...माली दादा...आम का पौधा...सभी कुछ तो उसके आसपास, उसकी पहुँच के भीतर,
रोज़ की तरह।
पर सवेरे आँख खुली तो फिर चारों ओर नए चेहरे। वह एकदम पापा के पास चला गया।
और दूसरे दिन जब हावड़ा पर उतरा तो लगा जैसे अपरिचितों के एक छोटे-से दायरे
में से उठाकर किसी ने उसे अपरिचितों के एक बड़े-से समुद्र में ही फेंक दिया
है।
कितनी भीड़ कितना शोर-सबकुछ कितना अनजाना, अनचीन्हा।
उसका मन एक अजीब-सी दहशत से भर गया। उसने कसकर पापा की उँगली पकड़ ली।
धक्के-मुक्के के बीच में बराबर यही खटका लगा रहा कि अगर पापा की उँगली छूट गई
तो फिर कहीं उसका पता नहीं लगेगा।
पापा टैक्सी के लिए क्यू में जाकर खड़े हो गए। बंटी की कुछ समझ में नहीं आ
रहा है। बस, भकुवाई-सी आँखों से वह पापा को देखे जा रहा है।
"तुम यहाँ बैठ जाओ।" उसे शायद थका समझकर पापा ने उसे एक बॉक्स पर बिठा दिया।
आसपास देखने को कितना कुछ है इस नई जगह में, पर वह तो जैसे सब ओर से सुन्न हो
आया है। बस, नज़र इस तरह पापा पर टिकी हुई है, मानो उसे किसी ने वहाँ कील
दिया हो। धूप में पापा की लंबी-सी परछाई लेटी है-खूब लंबी-सी। वह बैठा हुआ
पापा को देख रहा है, पर मन हो रहा है कि जाकर हाथ ही पकड़ ले। पापा का हाथ
छूटने से ही अजीब-सी घबराहट हो रही है।
आख़िर वह उठा। पापा की बगल में जाकर, उनसे एकदम सटकर उसने उनका हाथ पकड़
लिया।
और उसकी छोटी-सी परछाँई पापा की लंबी-सी परछाँई में ही घुल-मिल गई।
आपका बंटी (उपन्यास) : पंद्रह
जस्टिफ़िकेशन !
पर क्यों ! किस बात के लिए ? क्या किया है शकुन ने ?
अजय बंटी को ले जाना चाहते थे और वह ख़ुद जाना चाहता था। उसे यहाँ अच्छा नहीं
लगता था। इतनी कोशिश करने पर भी वह बंटी को इस घर में रचा-पचा नहीं सकी। वह
इसे अपना घर समझ ही नहीं सका। पता नहीं, क्या चाहता था वह इस घर से ? नहीं,
शायद शकुन से।
अजय ने भी न जाने क्या चाहा था उससे। वह नहीं दे पाई तो अजय उसकी जिंदगी से
निकल गया। अब बंटी भी कुछ चाहता था। पता नहीं बंटी ही चाहता था या कि अजय ही
बंटी में उतरकर नए सिरे से फिर वही चाहने लगा था, जो तब वह उसे नहीं दे पाई
थी। नहीं, यह उसका भ्रम है। अजय उससे कुछ नहीं चाहता। वह अपनी भरी-पूरी
जिंदगी जी रहा है। उसने शकुन को काट दिया है, शायद कोई कसक भी बाकी नहीं है।
पर जब शकुन ने अपने जीवन को भरा-पूरा करना चाहा, अजय की कसक को भी धो-पोंछना
चाहा तो बंटी...
सब लोग केवल उससे चाहते ही हैं और वह उनकी चाहनाओं को पूरती रहे यही एकमात्र
रास्ता है उसके लिए। बस, वह कुछ न चाहे। जहाँ चाहती है, वहीं गलत क्यों हो
जाती है ? ऐसा अनुचित-असंभव भी तो उसने कुछ नहीं चाहा। एक सहज सीधी जिंदगी,
जिसमें रहकर वह कम से कम यह तो महसूस कर सके कि वह जिंदा है। केवल सूरज
डूब-उगकर ही उसे रात होने और बीतने का एहसास न कराए, उसके अतिरिक्त भी 'कुछ'
हो।
कितनी सहज-स्वाभाविक इच्छाएँ थीं उसकी ! फिर भी सब ग़लत, केवल इसलिए कि वे
उसकी थीं।
'जहाँ जस्टिफ़िकेशन है, समझ लो वहाँ गिल्ट है। आदमी अपने गिल्ट को जस्टिफ़ाई
न करे तो...' शायद कभी किसी संदर्भ में यह डॉक्टर ने ही कहा था।
कहा होगा। शकुन को लग रहा है, उसके मन में इस समय कुछ नहीं है। न गिल्ट न
जस्टिफ़िकेशन। कुछ है तो सिर्फ़ दुख कि बंटी चला गया, कि बंटी एक दिन भी वहाँ
खुश नहीं रहेगा। न उस घर में, न हॉस्टल में। बिना शकुन के वह कहीं खुश रह ही
नहीं सकता। और इन दिनों तो शकुन के साथ भी।
वह समझ ही नहीं सका कि शकुन से बदला लेते-लेते कितना बड़ा बदला उसने
अपने-आपसे ले लिया है। शकुन को कष्ट देने के लिए कितना बड़ा कष्ट उसने
अपने-आपको दे डाला है।
वह नहीं समझ सका, पर शकुन तो सब समझ रही थी। फिर भी वह चुप रही। क्या वह यह
नहीं महसूस करने लगी थी कि बंटी अब उसके जीवन की सहज गति में एक रुकावट बन
गया है ? जिस नई जिंदगी की शुरुआत का सारा आयोजन उसने कर डाला, वह शुरू होकर
भी जैसे शुरू नहीं हो पा रही है कि बंटी उसमें जब-तब दरार डाल देता है।
कनफ़ेशंस !
नहीं, उसे कुछ कनफ़ेस नहीं करना। आदमी शायद कनफ़ेस इसलिए नहीं करता है कि
दूसरों की नज़रों में गुनहगार बनकर अपनी नज़रों में बेगुनाह हो जाए। वह अपने
गुनाहों को स्वीकार नहीं करता, बड़ी निरीहता के साथ उन्हें दूसरे के कंधे पर
डालकर स्वयं उनसे मुक्त हो जाता है।
पर शकुन को ऐसा कुछ नहीं करना, वह कर ही नहीं सकती। बंटी उसके जीवन का अभिन्न
अंश है, उसका अपना अंश। उसके जाने का दुख भी उसका अपना है और उसे भेजकर यदि
उसने कुछ गलत किया तो वह गलती भी उतनी ही उसकी अपनी है। इस सबको न वह किसी के
साथ शेयर कर सकती है, न किसी और के कंधों पर डालकर उस सबसे मुक्त हो सकती है।
अहं और गुस्से से भरे-भरे, शकुन की लाई हुई चीजों को बिना देखे, बिना छुए एक
ओर सरका देने, उमड़ते आँसुओं को भीतर ही भीतर रोककर सूखी आँखों से मोटर में
बैठकर विदा हो जाने की व्यथा बंटी से कहीं ज्यादा शकुन की अपनी व्यथा है और
ऐसी व्यथा जिसे कोई भी बाँट नहीं सकता...आज भी नहीं, आगे भी नहीं।
कार लौट आई। उसमें से डॉक्टर, अमि और जोत उतरे तो उसे एक बार फिर नए सिरे से
धक्का-सा लगा। तो बंटी चला गया ? और साथ ही ख़याल आया कि इतनी देर से वह ऊपर
से चाहे कुछ भी सोचती रही हो, भीतर ही भीतर तो लगातार जाने कैसे-कैसे चित्र
बनते-बिगड़ते रहे हैं। यहाँ के परिचित माहौल और शकुन की उपस्थिति में थमा हुआ
आवेग, स्टेशन के अपरिचित माहौल में फूट पड़ा है-मैं नहीं जाऊँगा, मैं ममी के
पास जाऊँगा-ममी के पास ही रहूँगा। अजय का कातर हो आया चेहरा, डॉक्टर का
असमंजस-जोत से चिपककर खड़ा डरा-सहमा बंटी। ममीऽऽ...गाड़ी से उतरकर वह उससे
लिपट गया है-दोनों की आँखों में आँसू...गलती हुई बर्फ की दीवार।
“उस समय जल्दी-जल्दी में चाय नहीं पी सके। जल्दी से चाय पिलवा दो तो मैं
जाऊँ। आइ एम ऑलरेडी लेट !"
बस ?
“गाड़ी भी आधा घंटे लेट थी।"
और ?
“ममी, मैंने बंटी को कह दिया है कि वह मुझे चिट्ठी ज़रूर लिखेगा।"
“मिस्टर बत्रा को भी कह दिया है कि जाते ही चिट्ठी लिख देंगे और सारी बात
यानी जो भी जैसा भी होगा लिख देंगे।"
और ?
और सब चुप !
दो प्यालों में चाय ढल गई और दो गिलासों में दूध। बंटी की कुर्सी खाली
“पापा, हमारा ज्योमेट्री बॉक्स एकदम बेकार हो गया। हमें नया चाहिए, कल ही
हमारा टेस्ट है। आप ड्राइवर के हाथ मँगवा लीजिए।"
जोत और अमि आज भी अपनी ज़रूरतों के लिए डॉक्टर से ही कहते हैं। बंटी होता तो
? वहाँ बंटी किससे कहेगा ?
“सर्दी तो ख़त्म हो ही गई। दस-पंद्रह दिनों में तो पसीने से नहाने का मौसम आ
जाएगा। स्टेशन पर तो आज ही बाकायदा गरमी लग रही थी।"
“गाड़ियों में इतनी भीड़ क्यों जाती है पापा ? रोज़-रोज़ जानेवाले इतने आदमी
कहाँ से आ जाते हैं ?''
गाड़ी लेट थी। स्टेशन पर गरमी थी। स्टेशन पर भीड़ थी। सबकुछ था, बस जैसे नहीं
था तो बंटी। जैसे सब उसके आस-पास से कतराकर निकल रहे हैं। कोई उसके पास नहीं
पहुंच रहा या कि पहुँचना नहीं चाहता।
“आज चाय कैसी है ? शायद पानी पूरी तरह नहीं खौला।" दूसरा पानी आ जाता है।
“लौटते हुए मैं वर्मा के यहाँ जाऊँगा। तुम भी चलो तो गाड़ी भेज दूँ ? देख
आएँगे, तीन-चार दिन से जा नहीं पाया।"
शकुन ने डॉक्टर की ओर देखा, फिर धीरे से बोली, “आज रहने दो।"
“ऐं ? अच्छा !" डॉक्टर मुड़ गए।
“पापा, हमारे लिए भी कोई चीज़। अच्छी-सी !”
सायास ढंग से बोले हुए ये अनायास वाक्य ! जैसे सबने तय कर लिया है कि कोई भी
उस विषय पर कुछ नहीं बोलेगा। और ये वाक्य उस तक पहुँचकर भी नहीं पहुंच रहे
हैं। सेतु नहीं बन रहे हैं।
सेतु ! बंटी सेतु नहीं बन सका। इसीलिए शायद उसे भी कट जाना पड़ा।
डॉक्टर चले गए, अमि और जोत पढ़ने बैठ गए ! सबकुछ कितना सहज-स्वाभाविक हो आया।
कहीं कुछ नहीं। जैसे एक अनावश्यक प्रसंग था, ऊपर से थोपा हुआ। उसे एक न एक
दिन समाप्त होना ही था। सब लोग जैसे इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
वह भी ? सचमुच वह भी कहीं चाहने ही तो लगी थी। उसे ख़द लगने लगा था कि वह एक
अनावश्यक तत्त्व...शायद वह हो ही गया था। शायद ऐसा ही होता है।
'यह बच्चा किसका है ?' बंसीलाल की बहू खुसर-फुसर करके पूछ रही थी। 'इनके
पहलेवाले आदमी का बच्चा।' दबा-दबा-सा जवाब।
'दहेज़ में यही लेकर आई हैं ?' खी...खी...खी...
और उस हँसी ने उसे भीतर तक तिलमिला दिया था। 'यह बच्चा ? ओह, हाँ ! क्या नाम
है बेटे तुम्हारा ?' वर्मा का बुलंद प्रश्न !
'अरूप बत्रा !' उतना ही बुलंद जवाब।
सवाल और जवाब दोनों में ही तो कुछ था। न चाहते हुए टालते हुए भी ध्यान एक
क्षण को उस ओर गया था।
और फिर रात में सर्दी से अकड़ा, डर से सहमा बंटी उसकी छाती से चिपका था। साँस
जैसे हिचकियों में बँध गई थी।
'यह अकसर इस तरह डर जाया करता है क्या ?' पता नहीं स्वर में नींद की खुमारी
थी या कि एक रूखापन। व्याघात पड़ जाने की खीज। कम से कम शकुन को ऐसा ही लगा
था। और वह बंटी को लेकर हलके से चौकन्नी हो आई थी।
'यह तो बहुत ही ज़िद्दी बच्चा है भाई ! लगता है, तुमने इसे बहुत ज़्यादा लाड़
में स्पॉइल कर दिया है !' एक हलका-सा आक्रोश था स्वर में।
'मत इतना सिर चढ़ाओ बहूजी ! नहीं, एक दिन आप ही दुखी होंगी।'
एक-सी ही तो बातें थीं, पर अर्थ बदल गए थे क्योंकि शायद संदर्भ बदल गए थे।
और तब पहले दिन का वह चौकन्नापन अनायास ही एक हलकी-सी अपराध-भावना में बदल
गया। जैसे ज़िद बंटी ने नहीं की, उसने ख़ुद की है। एक गलत और अनुचित ज़िद।
पता नहीं, मन का भाव शायद चेहरे पर अंकित हो आया था। डॉक्टर ने कंधे पर हाथ
रखकर पूछा, “बुरा मान गईं ?" उसने झूठ बोला था और साथ ही लगा था कि अब पता
नहीं कितनी बार उसे झूठ बोलना पड़ेगा।
डॉक्टर मुसकरा रहे थे। मानो बंटी ने जो कुछ किया, उसने कतई परेशान नहीं किया
है उन्हें।
वह भी मुसकराई। मानो उसने डॉक्टर की बात का बिलकुल बुरा नहीं माना है। असली
बात पर नकाब डालने का सिलसिला उसी दिन से शुरू हुआ था। कम से कम बंटी को
लेकर।
और फिर एक नक़ली-सा व्यवहार। या कि असली व्यवहार में भी नक़लीपन का एहसास !
या तो इस विषय पर बात होती ही नहीं या होती तो बहुत ही सँभल-सँभलकर।
पर बंटी था कि हर दिन एक नया हंगामा। कुछ भी होता और मन ही मन शकन अपने को
सफ़ाई देने के लिए तैयार करती थी। पर डॉक्टर देख-जानकर भी चुप रह जाते तो
उनकी चुप्पी, बंटी की ज़िद, बंटी के हंगामे से भी ज़्यादा बड़ा बोझ बनकर शकुन
के मन पर छा जाती।
अपनी हर समस्या, अपने हर बोझ को बड़े निर्द्वद्व भाव से डॉक्टर के कंधों पर
डालकर निश्चित हो जानेवाली शकुन के मन में एक कोना उभर आया था, जिसकी बात
वहीं घुमड़ती रहती थी और शकुन थोड़ी-सी भयभीत रहती थी कि कहीं यहाँ की बात
बाहर न आ जाए। साथ ही आशंकित भी कि कहीं यह कोना अपनी सीमा तोड़कर फैलना न
शुरू कर दे और फिर फैलता ही चला जाए, फैलता ही चला जाए।
वह जानती थी कि ये कोने जब होते हैं तो कितने पैने होते हैं। कैसे इनसे सबकुछ
कटता चलता है, विश्वास, सद्भावना, अपनत्व ! सारी की सारी जिंदगी बँट जाती है
खंडों में, टुकड़ों में कि इसके बाद एक पूरी जिंदगी जीना...नहीं, वह अब और उस
सबसे गुज़रना भी नहीं चाहती। बड़ी से बड़ी क़ीमत भी चुकानी होगी तो चुका
देगी।
क़ीमत चुका दी और लग रहा है कि वह जैसे एकदम ख़ाली और खोखली हो गई है।
“ममी, हमें ग्रामर समझा दो !'
लेटे-लेटे ही शकुन ने पास खड़ी जोत को देखा। स्वर में कैसा आग्रह है
याचना-जैसा। हमेशा क्या वह इसी तरह कुछ कहती-माँगती है ? कभी ध्यान ही नहीं
गया।
अब शायद नए सिरे से अमि और जोत से परिचित होना पड़ेगा। अभी तक तो ये लोग भी
बंटी के साथ इस तरह जुड़े हुए थे कि कभी अलगाव महसूस ही नहीं हुआ, बंटी के
साथ-साथ इन दोनों का काम भी होता ही चलता था। अब ?
“देखो तो जोत ! अमि क्या कर रहा है ? उसे भी यहीं बुला लो। दोनों यहीं पढ़ो।"
“अमिऽऽ” जोत दौड़ती हुई चली गई।
बंटी को उसने कभी इस कमरे में बैठकर नहीं पढ़ाया। वह कभी आता भी नहीं था।
जाने कैसा एक सहमा-सहमापन उसके मन में घर कर गया था। आज उस कमरे में जाते हुए
वह सहम रही है। वह मेज़...वह कोना।
"ममी, मैंने चार सम्स कर लिए, पाँचवाँ कर रहा हूँ। कुल दस करने हैं। बस
होमवर्क ख़त्म, होमवर्क फ़िनिश।"
दोनों बच्चे अपना-अपना काम करने बैठ गए तो ख़याल आया, बिना बंटी के वह इन
लोगों को उसी तरह प्यार कर सकेगी जैसे बंटी को करती थी ? इन्हें उतना ही अपना
समझ सकेगी ? शायद नहीं।
मीरा भी बंटी के लिए ऐसे ही सोचेगी ? वह भी उससे कभी जुड़ा हुआ महसूस नहीं
करेगी। उसे कभी अपने बच्चे की तरह प्यार नहीं करेगी।
एकाएक शकुन ने कापी पर झुके हुए अमि को खींचकर अपनी गोद में भर लिया, उसके
दोनों गालों पर प्यार किया। अमि सकपका-सा गया और फिर अलग हो गया। जोत अजीब-सी
नज़रों से देखने लगी।
ऐसा करने पर बंटी कभी उसके गले में बाँहें डाल दिया करता था। अकसर वह उसकी
गोद में लेटकर ही पाठ याद किया करता था। जोर-ज़ोर से बोलकर और जब तक बंटी
पढ़ता था, शकुन कुछ नहीं कर सकती थी।
समय के साथ सबकुछ कैसे बह जाता है !
अजय का पत्र बीच में पड़ा था। शकुन और डॉक्टर आमने-सामने बैठे थे। दोनों के
बीच एक मौन घिर आया था-एक तनावपूर्ण मौन ! कम से कम शकुन को ऐसा ही लगा था।
अजय ने बहुत संयत ढंग से लिखा था, लिखा ही नहीं, एक तरह से आग्रह किया था कि
अब बंटी को वह अपने पास ही रखना चाहता है। फिर भी इस विषय में उन दोनों की
राय के बिना वह कुछ नहीं करेगा।
डॉक्टर ने पत्र पढ़ लिया था और चुप हो आए थे और शकुन के मन में हज़ार-हज़ार
बातें एक साथ आ-जा रही थीं। वह बंटी को भेज दे और अपने घर के इस तनाव से
मुक्त हो जाए। वह बंटी को क्यों भेजे, अजय किस अधिकार से उसे अपने साथ रखना
चाहते हैं ? उसने शादी कर ली है इसीलिए उसका बंटी पर से अधिकार समाप्त हो
जाता है, तो अजय ने भी तो शादी कर ली है।
डॉक्टर जान लें कि इस घर के लिए बंटी अनावश्यक हो, फालतू हो, पर कोई है, एक
ऐसा भी घर है जहाँ बंटी की आवश्यकता है, बंटी की प्रतीक्षा है। यहाँ बंटी एक
ज़िद्दी, एबनॉर्मल बच्चा हो सकता है, पर वहाँ...कि अजय का शकुन से चाहे कोई
संबंध न रहा हो, पर बंटी से उसका संबंध है, आत्मीयता का, अपनत्व का, रक्त का,
अब बंटी को लेकर वह इतना अपराधी महसूस नहीं करेगी।
डॉक्टर चाहें तब भी वह नहीं भेजेगी। शकुन के साथ उन्हें बंटी को भी स्वीकार
करना ही होगा। बंटी उसके साथ था और हमेशा रहेगा।
बातें हैं कि एक के बाद एक फिसलती चली जा रही हैं।
"तुमने कुछ कहा नहीं पत्र पढ़कर ?" और शकुन ने बहुत ही भेदती-सी नज़रों से
डॉक्टर को देखा मानो उसे केवल शब्दों पर ही विश्वास नहीं करना है, उन्हें ही
अंतिम नहीं मानना है, उसके भीतर छिपे अर्थों को भी देखना है। वह भीतर ही भीतर
कहीं बहुत चौकन्नी हो आई।
असमंजस और दुविधा में लिपटे डॉक्टर चुप। और वह चुप्पी ही हज़ार-हज़ार अर्थ
प्रकट करने लगी।
“बताओ न क्या जवाब दूं अजय को ?' शकुन को जैसे जवाब चाहिए ही, वह भी डॉक्टर
से ही !
"मैं मिस्टर बत्रा को बिलकुल नहीं जानता। उन्होंने यह क्यों लिखा है, यह भी
नहीं समझ सका। क्या जवाब हो सकता है इसका ? मैं क्या बताऊँ ?"
वही तटस्थता-वही उपेक्षा। बोलकर भी चुप रहना क्या इसी को नहीं कहते ? शकुन
क्या जानती नहीं कि डॉक्टर इसी तरह चुप रहेंगे, पर क्यों ?
"क्यों ? अभी चाची अम्मा लिखें कि अमि को शुरू से मैंने पाला है, उसे मेरे
पास भेज दो तो तुम जवाब नहीं दोगे ? कुछ नहीं बताओगे ?" आवेश से जैसे उसका
स्वर काँपने लगा।
“वह बात बिलकुल दूसरी होगी।" डॉक्टर का स्वर कभी भी, कहीं से भी विचलित क्यों
नहीं होता ? कैसी आस्था है ! कौन-सा विश्वास है यह अपने ऊपर, जो कहीं भी
डिगने नहीं देता। डॉक्टर के सधाव के सामने शकुन जैसे और ज़्यादा-ज़्यादा
बिखरा महसूस कर रही है।
"बात दूसरी नहीं है, बस, यह कहो कि बच्चा दूसरा है। अमि तुम्हारा बच्चा है,
तुम उसके बारे में निर्णय ले सकते हो। बंटी तुम्हारा..."
"शकुन !" और डॉक्टर की दोनों हथेलियाँ शकुन के कंधों पर आ टिकीं।
बात बीच में ही टूट गई। शकुन एकटक डॉक्टर का चेहरा देखती रही। क्या था डॉक्टर
के स्वर में, डॉक्टर के चेहरे में कि मन का आवेग जैसे अपने-आप ही धीरे-धीरे
उतरने लगा।
“पागल हो गई हो ? लगता है, इस पत्र ने परेशान कर दिया है। पर इस तरह परेशान
होने से तो कोई चीज़ हल नहीं होती।''
शकुन को लगा जैसे उसके कंधे डॉक्टर की हथेलियों पर टिक गए हैं।
"तुम लोग अपने को, अपने ईगो को ऊपर न रखकर बंटी को ऊपर रखो। आई मीन उसकी
दृष्टि से सारी बात सोचो तो ज्यादा सही होगा।"
वही सधा हुआ स्वर, सुलझी हुई दृष्टि। संशय और संदेह के उभरे हुए सारे काँटे
जैसे उलटकर उसे ही बेधने लगे।
उसका अपना कुंठित मन बातों को, व्यक्तियों को कभी सही रूप में नहीं ले सकेगा।
"तुमसे कुछ नहीं होगा। मैं ही बंटी को अपने साथ लंबी ड्राइव पर ले जाऊँगा।
बहुत प्यार से, विश्वास में लेकर उससे पूछूगा, उसकी मनःस्थिति जानने की कोशिश
करूँगा, क्यों वह यहाँ एडजस्ट नहीं कर पा रहा है...क्या बताऊँ शकुन, मुझे समय
नहीं मिलता।"
यह सब डॉक्टर कह रहे हैं ! एक बार भी यह नहीं कहा कि तुम्हें मुझ पर विश्वास
हो तो मैं बंटी को ले जाऊँ ? एक बार भी क्या इनको यह ख़याल नहीं आता कि बंटी
को लेकर वह डॉक्टर की ओर से उतनी आश्वस्त नहीं हो पाती, कोशिश करके भी नहीं
हो पाती; कि वह इस प्रसंग को लेकर अपने और डॉक्टर के बीच में एक हलकी,
नामालूम-सी दरार महसूस करने लगी है और हमेशा आशंकित रहती है कि वह दरार
धीरे-धीरे कहीं खाई न बन जाए। फिर एक और खाई !
“मैं तुम्हें भी नहीं ले जाऊँगा, समझीं। जवाब उसके बाद हो जाएगा। ओ. के. ?”
और एक बार ज़ोर से उसके कंधे थपथपाकर उन्होंने हाथ हटा लिए।
उनके इस अतिरिक्त विश्वास के सामने शकुन का अविश्वासी मन जैसे हार गया। वह
अपनी ही नज़रों में बहुत अपराधी हो उठी। अपराधी और छोटी, क्यों वह चीज़ों को
ग़लत रूप में लेती है ? क्यों नहीं सही ढंग से देख पाती ?
पर शायद चीजें ही गलत थीं और इसीलिए देखने का हर सही ढंग भी घूम-फिरकर आख़िर
में ग़लत ही हो जाया करता था।
शकुन जानती थी कि अजय घर नहीं आएगा। पर डॉक्टर का घर आने के लिए आग्रह करने
स्टेशन तक जाना उसे अच्छा लगा।
लेकिन जब अजय ने चार बजे आने को कहा तो डॉक्टर ने बताया कि वह उस समय तक
मीटिंग में रहेगा। शायद वह चाहते हों कि यह बात शकुन और अजय आपस में ही तय
करें, कि डॉक्टर एक बाहरी आदमी की तरह क्यों रहे ? डॉक्टर की उस समय
अनुपस्थित रहने की बात उसे कहीं अच्छी भी लगी थी और बुरी भी। उसे खुद नहीं
मालूम कि उसे कैसा लगा था।
पता नहीं उसे क्या हो गया है कि एक ही बात एक ही समय में उसे अच्छी भी लगती
है और बुरी भी। शायद कुछ और भी लगता है। हर बात कितने-कितने स्तरों पर चलती
है, उसके मन में ! वह खुद कुछ नहीं समझ पाती। हर बात उसके लिए जैसे एक पहेली
बन जाती है। या फिर वह खुद अपने लिए एक पहेली बन जाती है।
डॉक्टर कैसे एक ही स्तर पर जी लेते हैं। एक सुलझी हुई सहज जिंदगी। उसे डॉक्टर
से ईर्ष्या भी होती है, डॉक्टर पर गुस्सा भी आता है। क्यों नहीं वह शकुन के
मन में होनेवाले द्वंद्वों को समझ पाते ? उसके हर पहलू, हर स्तर को देख पाते
?
पर क्या वह उन सबको देख-समझ पाती है ? या कि कोई भी उसे समझ पाएगा ? टुकड़ों
में बँटी यह जिंदगी और हर टुकड़ा जैसे अलग ढंग से सोचता है, अलग ढंग से
धड़कता है।
अजय चार बजे घर आ रहा है। यह बात उसे अच्छी भी लग रही है और बुरी भी।
मन में कहीं एक संतोष है, एक इच्छा है कि एक बार अजय को अपना सुख, अपना वैभव
ही दिखा दे।
एक कचोट है कि बंटी ने पत्र लिखकर उन सारे सुखों के अस्तित्व को धूल में मिला
दिया। अब सबकुछ कितना बेमानी हो उठेगा।
साथ ही एक आशा भी है कि आवेश में आकर बंटी ने लिख चाहे जो कुछ दिया हो, वह
जाएगा नहीं। वह यहाँ रोए या तूफ़ान मचाए, शकुन से चाहे कितना ही कटा-कटा फिरे
पर शकुन के बिना वह कहीं नहीं रह सकता। एक रात को वह सरकिट हाउस रह नहीं सका
था, अब हमेशा रह सकेगा !
बच्चों का गुस्सा, बच्चों का मान, बच्चों का अहं...कितना छोटा और कितना निरीह
होता है सबकुछ ! फिर बंटी, जो छाया की तरह चिपककर रहा है उसके साथ !
“अकेला तो मैं कब्भी जा ही नहीं सकता...” इस वाक्य को जैसे वह पकड़े बैठी है।
भूल ही गई कि इसके बीच से नौ-दस महीने का समय बीत चुका है। परिवर्तनों से भरा
हुआ समय !
दिन-भर शकुन तैयारी करती रही थी। हर चीज़ लक-दक ! और मन ही मन अपने को साधती
भी रही थी कि इस बार बहुत सहज होकर ही वह अजय से मिलेगी। इस असहज प्रसंग को
वह अपने व्यवहार से इतना सहज बना देगी कि अजय खाली हाथ लौटें तो भी कचोट लेकर
न लौटें। यहाँ का सबकुछ देखकर बंटी को ले जाने की बात उन्हें खुद बेतुकी-सी
लगे, कि वे खुद आश्वस्त हो जाएँ।
पत्र भी तो उसने बहुत सहज ढंग से ही लिखा था।
पर चाय की मेज़ पर घिर आए मौन के नीचे उसकी सहजता अपने-आप ही गलने लगी। मेज़
पर ढेरों चीजें फैली पड़ी थीं। उसने ख़ुद सबकुछ बड़े जतन से बनाया-सजाया था।
पर अजय का ध्यान उधर नहीं था। एक बार उसने अमि और जोत से ज़रूर बात की थी,
प्यार से ही कुछ कहा-पूछा और फिर नज़र बंटी के चेहरे पर टिक गई। और बस फिर
वहीं टिकी रही।
तब नए सिरे से उसका अपना ध्यान बंटी की ओर गया। वह उसे देखने लगी। अपनी
नज़रों से नहीं, जैसे अजय की नज़रों से।
और भीतर सबकुछ गड़बड़ाने लगा।
कितने दिनों बाद अजय और शकुन आमने-सामने एक कमरे में बैठे हुए हैं। घर के एक
कमरे में। कमरा बहुत कोजी है, पर मन शायद उतना कोजी नहीं है। कम से कम शकुन
को ऐसा ही लगने लगा है। एक घबराहट, इम्तिहान में बैठने के पहले जैसी।
“बंटी के बारे में कुछ सोचा ?' शकुन की नज़रें अजय के चेहरे पर टिक गईं। किसी
भी तरह का कोई तनाव नहीं है वहाँ। प्रश्न भी ऐसा कि कोई ज़िद और दुराग्रह
नहीं। बस, जैसे साथ बैठकर सोचने की बात ही हो।
तो आज भी ऐसा कुछ है जिस पर साथ बैठकर सोचा जाए। और क्षणांश को फिर जैसे नए
सिरे से लगा कि वे साथ बैठे हैं।
“यह सही है कि बंटी को अब मैं अपने साथ ही रखना चाहता हूँ। फिर भी यह निर्णय
मैं अकेला नहीं ले सकता-मेरा मतलब..."
“पर इस समय तो बंटी वैसे भी नहीं जा सकता। अगले महीने उसकी परीक्षाएँ हैं। एक
साल खराब नहीं हो जाएगा ?"
अजय कुछ इस नज़र से देखने लगा मानो पूछ रहा हो-बस ? यही आपत्ति है ? तो शकुन
को लगा जैसे उससे गलती हो गई। आपत्ति उसे कहीं और से शुरू करनी थी। वह जैसे
अगली बात सोचने लगी।
“कलकत्ते में सेशन जनवरी से शुरू होता है और अप्रैल तक एडमीशन हो जाते हैं।
मेरा परिचय है।"
"नए लोगों के बीच यह बहुत सहम जाता है। यों भी इस उम्र में ही बहुत
इंट्रोवर्ट होता जा रहा है। मुझे लगता है...''
"हूँऽ! सो तो मैंने भी देखा। सवेरे बिलकुल बोला ही नहीं। अभी भी एकदम सहमा
हुआ, चुपचाप।" और अजय ख़ुद चुप हो गया। जैसे कहीं गहरी चिंता में पड़ गया हो,
जैसे कहीं से दुखी हो आया हो।
शकुन का वार जैसे उलटकर उसी पर आ गया। और अनायास ही मन के भीतर की परतें, और
एक-एक परत पर उठनेवाली अनेक-अनेक बातें कुलबुलाने लगीं। मन हुआ कि कहे यह एक
तलाकशुदा माँ-बाप का बच्चा है, इसलिए कहीं एबनॉर्मल है; कि वहाँ जाकर ही इसे
कौन परिचित मिल जाएगा ? कहने-भर को तुम चाहे इसके पापा हो, पर कितना जानते हो
तुम इसे, और कितना जानता है यह तुम्हें ? तुम इसके कपड़ों को देखो तो पहचान
सकते हो ? जानते हो इसके कितने नंबर का जूता आता है ?
“अगर बंटी राजी हो जाए और मैं इसे अभी अपने साथ ले जाऊँ तो तुम्हें कोई
एतराज़ होगा ? बार-बार आना जरा..."
मुझे कोई एतराज़ नहीं होगा। सच पूछो तो मैं ख़ुद अब यही चाहने लगी थी कि इसे
तुम्हारे पास ही भेज दूं। बहुत रख लिया। अब कम से कम मैं अपनी जिंदगी जिऊँ-एक
परत पर उभरा और उससे भी भीतर की परत पर उभरा-अच्छा है, तुम्हारे और मीरा के
बीच में भी दरार पड़े, हर दिन एक परेशानी, हर दिन एक तूफ़ान...
पर ऊपर उसने बहुत संयत ढंग से केवल इतना ही कहा, "आप बंटी से ही पूछ लीजिए।
हम लोग अपनी-अपनी इच्छाएँ क्यों थोपें उस पर ?” और उसे खुद ही लगा कि
कहनेवाली और सोचनेवाली शकुन एक ही है।
बंटी आया तो उसने जैसे अपने को कठघरे में खड़ा पाया-फैसले की प्रतीक्षा करते
हुए।
“जाऊँगा, ज़रूर जाऊँगा।"
और कमरे का सारा सामान, झूलते हुए परदे, झिलमिलाता झाड़-फानूस-सब एकाएक धूमिल
हो उठे। चारों ओर बिखरा वैभव जैसे एक बिंदु में सिमट आया। मन में कुछ बुरी
तरह सुलगने लगा। मन हुआ कि हाथ पकड़कर बंटी को भीतर ले जाए और कहे कि बैठकर
पढ़ो। या एकदम निकाल दे कि जाओ, अभी जाओ ! पर नहीं, वह कुछ नहीं कर सकती।
यहाँ आने के बाद से ही वह बंटी पर धीरे-धीरे अधिकार खोती रही है। आज तो चाहकर
भी वह कुछ नहीं कह सकती या कि वह कुछ भी क्यों कहे ?
अजय अकेले बंटी को लेकर घूमने निकला तो ख़याल आया-उस दिन डॉक्टर अकेले बंटी
को लेकर लंबी ड्राइव पर जानेवाले थे-उसे समझने और समझाने के लिए। प्यार से
उसके मन में एक नया विश्वास जगाने, एक अपनापन...
उस दिन वह नहीं हो सका और इसीलिए आज यह हो रहा है।
और इस समय छत पर अकेले खड़े-खड़े उसे ख़याल आ रहा है-कुछ नहीं, सब बेकार की
बातें हैं। शकुन ने शादी कर ली और इससे अजय के अहं को कहीं चोट लगी है। बंटी
को ले जाकर वह केवल अपने उस आहत अहं को सहलाना चाहता है। वह शकुन को टॉरचर
करना चाहता है।
जब अजय ने शादी की थी तो कभी उसने भी ऐसे ही सोचा था कि बंटी को वह कभी अजय
के पास नहीं भेजेगी-यहाँ तक कि अब बंटी से उसका मिलना-जुलना भी बंद करवा
देगी। बंटी को लेकर वह अजय को टॉरचर कर सकती है, करेगी।
सच, हम लोग शायद बंटी को मात्र एक साधन ही समझते रहे ! अपने-अपने अहं,
अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और अपनी-अपनी कुंठाओं के संदर्भ में ही सोचते
रहे। बंटी के संदर्भ में कभी सोचा ही नहीं।
दो घंटे से खड़ी-खड़ी वह बंटी के नाम पर अपने, डॉक्टर और अजय से जुड़ने-कटने
की बातें ही तो सोचती रही है।
एकाएक ही बंटी का टुकुर-टुकुर देखता हुआ चेहरा आँखों के सामने उभर आया। बिना
बोले, मुँह फेरे-फेरे ही मानो कह रहा हो-मुझे रोक लो ममी, मुझे रोक लो। और
फिर तो जैसे हजार-हजार चेहरे उसके आगे-पीछे घूमने लगे-उसे प्यार करते हुए,
उसके गले में बाँहें डाले हुए, उसकी बगल में लेटे हुए...नन्हे-नन्हे हाथों से
क्यारियाँ खोदते हुए...
और उन चेहरों के साथ ही साथ वह कहीं बहत गहरे में उतर आई, उतरती ही चली गई।
उसने तो अब अपने भीतर झाँकना ही छोड़ दिया था। अजय से कटकर वह अतीत में डूब
गई थी, डॉक्टर से जुड़कर वह फिर वर्तमान में लौट आई और भविष्य में झाँकने
लगी।
पर आज ! कितनी बातें हैं, कितने चित्र हैं कि उभरते ही चले आ रहे हैं, अपने
सारे रगो-रेशे के साथ।
‘उन्होंने जो किया तो आपकी मट्टी पलीद हुई और अब जो आप करने जा रही हैं तो इस
बच्चे की मट्टी पलीद होगी। कैसा चेहरा निकल आया है !'
वह उस निकले हुए चेहरे को क्यों नहीं कभी देख पाई ? कहाँ होगी फूफी ?
'ये पौधे तो सूख रहे हैं माली ?'
“नहीं बहूजी साहब, सूख नहीं रहे, अब तो जड़ें पकड़ ली हैं।'
“कहाँ ? ये पत्तियाँ तो सूख रही हैं।'
माली की हँसी-ये तो सूखेंगी ही। उस जमीन के खाद-पानी की पत्तियाँ हैं, ये तो
सूखकर झड़ जाएँगी। फिर नई पत्तियाँ फूटेंगी। जड़ पकड़ने के बाद कोई डर नहीं।
और उसने ख़ुद उन मरी-मुरझाई पत्तियों को झाड़ दिया था।
'आप बाग़वानी की बात नहीं समझतीं। बंटी भैया से पूछ लीजिए-सब बता देंगे। बड़ी
कम उमिर में सब सीख लिया है हमारे भैया ने।'
एक ही बात इतने-इतने अर्थ भी लपेटे रह सकती है अपने में ?
'शकुन, तुम्हारा बेटा तो कलाकार बनेगा !'
खड़-खड़ झन्नऽऽ... शीशियाँ टूटी पड़ी हैं और सारे रंग फैले पड़े हैं, वह रंग
की शीशियाँ और ब्रश भी लेकर आई थी। वहाँ और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी
पेंटिंग ही किया करेगा।
पर अपने सब रंग यहीं छोड़ गया।
क्यों नहीं उसने बंटी को रोक लिया ?
एकाएक शकुन फूट-फूटकर रो पड़ी। यह आवेग एक या दो दिन का नहीं था, कई दिनों का
आवेग था, जिसे वह साधे-साधे घूमती थी, कभी भय से तो कभी अपराध से। अब उसे
किसी के सामने डरना नहीं है, किसी के सामने अपराधी चेहरा लिए नहीं घूमना है।
पर मन है कि इस बात से हलका और आश्वस्त नहीं हो रहा, सिर्फ रो रहा है,
बिसूर-बिसूरकर। अपने को कोस रहा है।
'मत रोओ ममी-रोओ मत।' दो छोटी-छोटी बाँहें लिपट आती हैं। टुकड़ों में बँटी
शकुन जैसे अपने को समेटने की कोशिश कर रही है और शकुन है कि और...और टूटती
चली जा रही है, बिखरती चली जा रही है। वे बाँहें जैसे उसे अपने में समेट नहीं
पा रही हैं।
“शकुन !” डॉक्टर का स्वर छत के सन्नाटे में यहाँ से वहाँ तक फैल गया।
"तुम यहाँ हो और नीचे किसी को पता तक नहीं। अरे, यह क्या, तुम रो रही हो ?
शकुन !” और दो सबल बाँहें उसके चारों ओर घिर आईं और धीरे-धीरे पूरी की पूरी
शकुन उनमें अपने-आप ही बँधती चली गई, सिमटती चली गई।
बस, दो नन्ही-नन्ही बाँहें उन सबल बाँहों के नीचे अनदेखे अनजाने ही शायद मसल
गईं।
आपका बंटी (उपन्यास) : सोलह
एक और यात्रा !
वैसा ही रेल का डिब्बा है, पापा हैं और बंटी है। ढेर सारे नए-नए लोग हैं।
बंटी बैठा-बैठा टुकुर-टुकुर सबको देख रहा है, फिर भी जैसे उसे कुछ नहीं दिखाई
दे रहा है।
पता नहीं कैसे क्या हुआ कि उसके भीतर दो आँखें और उग आईं और उसके बाद से ही
सब कुछ गड़बड़ हो गया। बाहर की आँखों से वह एक चीज़ देखता है तो भीतर की
आँखें दूसरी चीज देखने लगती हैं। कभी भीतर की चीजें बाहर की चीजों को दबोच
लेती हैं तो कभी बाहर की भीतर की चीजों को। कभी-कभी दोनों एक-दूसरी में ऐसी
गड्डमड्ड हो जाती हैं कि फिर तो कुछ भी समझ में नहीं आता। बस, सबकुछ गोलमोल
अंडा।
भीतर ही भीतर कई कान भी उग आए हैं। तभी तो एक बात को ठेलकर दूसरी बात आ जाती
है। आवाज़ के ऊपर आवाज़ तैरने लगती है और सारी आवाजें मिलकर बस एक शोर।
यह सब बंगाल के जादू से हुआ है। और क्या, पहले तो ऐसा कभी नहीं था। उसने कई
बार अपने शरीर को छू-छूकर देखा है। कहाँ हैं वे आँखें, कहाँ हैं वे कान ? पर
दिखते नहीं, जादू की चीजें कहीं दिखती हैं ? वे आँखें कभी नहीं दिखतीं, पर उन
आँखों से देखे हुए दृश्य बार-बार दिखते हैं और दिखते ही चले जाते हैं; ठीक
ऐसे जैसे सबकुछ सामने ही हो रहा हो। और जो सामने होता है, सब गायब हो जाता
है। बाहर की आँखें खुले-खुले ही बंद हो जाती हैं।
यह भी तो जादू ही है। पर किसने किया जादू ? कब किया ? यही सब पता लग जाए तो
फिर जादू ही क्या ?
उसने तो पी.सी. सरकार का जादू भी नहीं देखा। बोटेनिकल गार्डेन का बड़ा पेड़,
ज, दक्षिणेश्वर, वैलूर मठ-केवल नाम सने थे। आज भी बस नाम ही जानता है।
“जब तुम सर्दी की छुट्टियों में आओगे तब सारी चीजें दिखाएँगे बंटी बेटे
तुमको। उस समय कलकत्ते का मौसम भी बस, वाह ! क्रिसमस की छुट्टियाँ भी
रहेंगी।" सामान बाँधते हुए पापा कह रहे हैं और पापा के भीतर से एक और पापा
उभर रहे हैं।
कलकत्ते में तुम्हें वो घुमाएँगे बेटे कि बस ! हर इतवार को पिकनिक पर और रोज
शाम को सेटरडे क्लब। जाते ही तैरना सिखा देंगे, बस फिर रोज़ तैरना। सीखोगे तो
? अब लड़कियोंवाले खेल नहीं....
और शाम को बालकनी में बैठे-बैठे उसकी आँखों के सामने दूर-दूर तक फैली हुई
कोलतार की सड़कें एकाएक लहराने लगतीं और उन पर दौड़ती हुई ट्रामें, बसें,
दौड़ते-भागते ढेर-ढेर आदमी मछलियों में बदल जाते, पानी को चीरते हुए तीर की
तरह इधर से उधर तैरते रहते।
“अरे, तुम इतना चुपचाप क्यों रहते हो बच्चे ? ऐसे गुमसुम रहकर मन कैसे लगेगा
? आओ, मेरे साथ भीतर आओ, चीनू के साथ खेलो, उसे प्यार करो, तभी तो वह तुम्हें
भैया कहेगा।"
और तभी इस आवाज़ को तैरती हुई एक और आवाज़ तैर जाती है, “बंटी भैया, मैं भी
कहानी सुनूँगा..."
"तुम लेटो तो बिस्तर लगा दें ?" शायद पापा पूछ रहे हैं।
एक क्षण बंटी ने पापा की ओर ऐसे देखा, मानो कुछ समझ में नहीं आ रहा हो। सचमुच
आजकल इतनी चीजें एक साथ घुल-मिल जाती हैं कि कुछ भी समझ में नहीं आता।
"तुम लेटोगे ?" शायद उसे गुमसुम देखकर पापा ने फिर पूछा।
बंटी ने धीरे से नकारात्मक सिर हिला दिया और सरककर खिड़की पर दोनों हथेलियाँ
रखीं और उस पर अपनी ठोड़ी टिका ली। आँखों के सामने दूर-दूर तक फैले हुए
हरे-भरे मैदान बिखर गए। बड़े-बड़े पेड़ और छोटी-छोटी झाड़ियाँ, बिजली के खंभे
और उनमें बँधे हुए तार। कभी लगता जैसे सबके सब उसके साथ-साथ दौड़ रहे हैं,
दौड़े चले आ रहे हैं। कभी लगता बस, वह दौड़ रहा है, बाकी सब छूटते चले जा रहे
हैं। उसने गरदन निकालकर देखा, सचमुच सभी तो पीछे छूट गए, कोई साथ नहीं दौड़
रहा, सब जहाँ के तहाँ खड़े हैं, बस, वही आगे-आगे जा रहा है। फिर ऐसा लगता
क्यों है कि साथ-साथ दौड़ रहे हैं ? मन हुआ पापा से पूछ ले।
ज़रा-सी गरदन घुमाकर देखा, पापा किताब पढ़ रहे हैं। हुँह ! शायद ऐसा ही होता
होगा।
देखते ही देखते झाड़ियों और पेड़ों से भरे हुए उन मैदानों में सड़कें उभर
आई-लंबी-चौड़ी, भीड़-भरी, एक-दूसरे को काटती हुई सड़कें। बंटी की टैक्सी
दौड़ी चली जा रही है। बंटी कसकर पापा की उँगली पकड़े चारों ओर देख रहा है। नई
जगह आने का डर और नई-नई जगह देखने की खुशी।
"देखा, इतने ऊँचे-ऊँचे मकान होते हैं यहाँ !" बंटी गरदन ऊँची करके देखता।
“यह डबल-डेकर बस है, दो तल्ले की।" वह जब बैठेगा तो ऊपर जाकर बैठेगा। ऊपर की
बस कैसे चलती होगी ?
“यह ट्राम है, रेल की पटरी पर चलती है। यह मैदान है"-इतना बड़ा, इतना
बड़ा...
"यह अपना घर है।" सीढ़ी चढ़कर एक गलियारे में खड़े पापा बटन दबा रहे हैं।
बंटी दरवाजे पर लगी नेम-प्लेट देख रहा है। इस समय उसके और पापा के अलावा वहाँ
कोई नहीं है, फिर भी उसने पापा की उँगली पकड़ रखी है, उतनी ही कसकर। इस नई
जगह में पापा को छूकर, पापा को पकड़कर कैसा भरोसा-भरोसा लगता है, जैसे...
'खट' दरवाज़ा खुला और बंटी की नज़रें नीची हो गईं।
"अरे आ गए तुम ? मैं सोच रही थी शायद एकाध दिन की देर हो जाए इस बार।" एक औरत
की आवाज़। नीची नज़रों से सिर्फ पंजों का थोड़ा-सा हिस्सा, चप्पल और साड़ी का
बॉर्डर दिखाई दे रहा है।
पहली बात मन में उभरी-यह ममी नहीं हैं। ममी के पैरों को वह खूब पहचानता है।
उनकी चप्पलों को भी और उनकी साड़ियों के बॉर्डर को भी।
“ओहो ! ये हैं बंटी साहब ! तुम तो बहुत प्यारे-प्यारे हो भाई !” और एक बाँह
पूरी पीठ को घेरती हुई उसके कंधे पर आ टिकी।
नए सिरे से फिर उभरा-नहीं, ये ममी नहीं हैं। ममी की बाँहें, ममी का छूना
...और एकाएक ही बड़ी ज़ोर से ममी की याद आने लगी। पापा की उँगली की पकड़ और
ज़्यादा कस गई।
"हमारे पास आओ बच्चे ! इतना शरमा क्यों रहे हो ?''
बच्चे ! झट से बंटी की नज़रें ऊपर उठीं। सामने जो चेहरा था उसमें दीपा आंटी
का चेहरा घुल-मिल गया, पर फिर धीरे-धीरे सामनेवाला चेहरा खूब साफ़ होकर उभर
आया। मुसकराता हुआ चेहरा, पर दीपा आंटी से भी अलग, ममी से भी अलग।
नज़रें फिर झुक गईं। वह पापा से और ज़्यादा सट गया। पापा रास्ते में जिस मीरा
की बात कर रहे थे वह यही हैं शायद। बंटी को अब इन्हीं के साथ रहना होगा।
“बहादुर ! चीनू को इधर लाओ !' एक लड़का गोद में एक गोरे गुदगुदे-से बच्चे को
लेकर भीतर आया।
"चीनू बेटा !'' पापा ने हुमसकर बाँहें फैलाईं और उस बच्चे को गोद में ले
लिया। 'बंटी बेऽटाऽ' पापा क्या सबको इसी तरह गोद में लेते हैं ?
"बंटी, यह तुम्हारा छोटा भाई है चीनू ! खेलोगे इसके साथ, खूब हँसेगा !" तो
बंटी को एक बार फिर फूले-फूले गालवाला चेहरा देखने की इच्छा हो आई। उसने
आँखें उठाकर देखा तो उस चेहरे के पीछे कहीं अमि का चेहरा भी उभर आया-यह अमि
है, तुम्हारा छोटा भाई। और साथ ही ख़याल आया-जोत क्या कर रही होगी इस समय ?
“आओ, तुम्हें घर दिखा दें ! यह तो बैठने और खाने का कमरा हो गया न और यह देखो
सोने का कमरा।" तब उस नीले कमरे से अलग करके ही इस कमरे को देखना पड़ा।
डॉक्टर साहब पापा से लंबे हैं।
“सोने के कमरे से जुड़ा हुआ यह छोटा-सा कमरा-अब से यह तुम्हारा कमरा होगा।
बंटी छोटा तो बंटी का कमरा भी छोटा। और यह बालकनी, यहाँ खड़े होकर कलकत्ते का
शोर-शराबा देखो।" और घूमकर वह फिर बैठनेवाले कमरे में आ गए।
बस, हो गया घर ! इतने-से घर में रहते हैं सब लोग ? कोई खुली जगह भी नहीं ? और
इतने दिनों से मन में बसा हुआ लंबा-चौड़ा कलकत्ता, कलकत्ते के ऊँचे-ऊँचे
मकान, सब जैसे एक क्षण में ही अ ड ड ड धम हो गए।
खाने की मेज़ पर बैठे हैं सब। बंटी वैसे ही चुपचाप, नज़रें नीची किए हुए।
“आज तो तुम्हारे पापा को ऑफ़िस जाना था, सो जल्दी-जल्दी में कुछ भी बना दिया।
अब तुम हमें बता दो बच्चा, तुम्हें क्या-क्या पसंद है, क्या-क्या खाते हो ?
फिर वही सब बनाया करेंगे।" 'वे' बोल रही हैं।
बंटी चुप !
“बता दो बेटे, शरमाते नहीं ! यह तो अपना घर है, अपने घर में कैसा शरमाना ?"
'अरे ये अपना घर छोड़कर दूसरों के घर खेलने जाएँगे कइसे ? अपने घर जइसी
लाटसाहबी करने को मिलती कहाँ है ?...कइसी मार खाकर आए हो बंटी भय्या, तुम तो
बस अपने घर के ही शेर हो...'
और वह चार कमरे का बँगलानमा घर अपने लहलहाते बगीचे के साथ आँखों के सामने तैर
गया। पीछे के आँगन में तुलसी के चबूतरे पर टिमटिमाता हुआ दीया, फूफी के
हनुमान जी...
'वहाँ अपना घर होगा बेटा, अपने लोग' तो वह लहलहाता बगीचा एक सूखे बंजर अहाते
में बदल गया और छोटा-सा घर फैलता ही चला गया, फैलता ही चला गया।
'यह नीम का पेड़ बाबा ने पापा के जन्म के साथ लगाया था। और दोनों घर एक-दूसरे
में डूबने-उतराने लगे और फिर धीरे-धीरे सब गायब। बस, काले-काले धब्बे, गोलमोल
अंडा !
“बंटी, कुछ खाओगे बेटे ? निकाल दें तुम्हें ?'' बंटी चौंका। पता नहीं पापा कब
से उसके पास खड़े-खड़े उसका कंधा झकझोर रहे हैं। गरदन भीतर की तो देखा बैठे
हुए लोग किसी बात पर जोर-ज़ोर से बहस कर रहे हैं। वह तो सुन ही नहीं रहा था।
बाहर के कान बंद थे शायद !
"भूख लगी है ?"
"नहीं।"
पापा उसी के पास बैठ गए। बाँह में समेटकर उसे अपने से सटा लिया।
"बंटी, तुम इतने सुस्त-सुस्त क्यों हो बेटे ? तुम इस तरह उदास होते हो तो
हमें अच्छा नहीं लगता है।"
बंटी ने पापा की ओर देखा। पता नहीं उसकी आँखों में आँसू हैं या पापा की।
“बंटी बेटा पढ़ने जा रहा है हॉस्टल में। बहुत होशियार बनकर आएगा वहाँ से।
कितनी-कितनी तो चीजें सिखाते हैं वहाँ पर। तुम तो...'
क्या-क्या बोले चले जा रहे हैं पापा। बस, वह सुन रहा है। पर समझ कुछ नहीं
रहा। पता नहीं क्या हो गया है उसे आजकल, कुछ समझ में ही नहीं आता।
उस दिन भी पापा की कोई बात समझ में नहीं आई थी शायद, तभी तो सब गड़बड़ हो
गया। उसे एडमिशन के लिए इम्तिहान देने जाना था और पापा कह रहे थे, “देखो
घबराना नहीं। जो लिखने को दें लिख देना और जो कुछ पूछे जवाब दे देना। झेंपना,
शरमाना नहीं, बोल्डली एंड स्मार्टली।"
पापा के चेहरे पर रह-रहकर ममी का चेहरा उग आता था और पापा की आवाज़ के ऊपर
ममी की आवाज़-‘देख बेटे, खूब सोच-सोचकर करना और सवालों के उत्तर पेपर पर लिख
लाना।' फिर तैयार करते हुए-‘एक का दाम दिया हो और ज़्यादा का पूछे तो गुणा
करना और ज्यादा का देकर एक का पूछे तो भाग।'
खाना खिलाते हुए भी-'जिस भूमि-खंड के चारों ओर पानी हो उसे द्वीप कहते हैं।'
बस के लिए खड़े-खड़े भी-‘अकबर दूसरे धर्मों का आदर करता था। उसने
राजपूतों...'
इस घर में पापा ममी बन गए ?
नहीं, ममी नहीं बने बल्कि पापा, पापा भी नहीं रहे। दूर रहते थे तो लगता था
पापा बहुत पास हैं। पापा की हर चीज़ वह जानता है। पर पास रहकर लगता है, पापा
को वह जानता ही नहीं। दूर रहकर भी कई बार उसने पापा को फ़ाइलों में डूबे हुए
देखा है, ललाट पर तीन सल और खूब गंभीर चेहरा लिए हुए। कई बार वाश-बेसिन पर
शेव करते और नाश्ते की मेज़ पर अख़बार पढ़ते हुए पापा उसकी आँखों के सामने
उभरे हैं पर यहाँ जब पापा को मेज़ पर शेव करते हुए और दीवान पर लेटकर अख़बार
पढ़ते हुए देखता है, तो ख़याल आता है-वे शायद टीटू के पापा थे। वह शायद
डॉक्टर साहब थे। इन पापा को तो....
भीड़-भरी ट्राम ! पापा ने उसे बिठा दिया और ख़ुद डंडा पकड़कर खड़े हो गए।
बंटी की आँखें ही नहीं बल्कि रोम-रोम जैसे पापा पर अटका है। वह सड़क की ओर भी
नहीं देख रहा। कहीं पापा उतर जाएँ और वह भीतर ही रह जाए तो ? ट्राम तो रुकती
है और खट से चल देती है। हर बार ट्राम जब चलती है तो उसे लगता है जैसे वह
पीछे छूट गया है और डर के मारे उसकी साँस रुकने लगती है। मन हो रहा है, उठकर
पापा को पकड़ ले। पर अपनी जगह से हिला तक नहीं गया।
पापा का हाथ पकड़कर उतर गया, फिर भी दहशत जैसी की तैसी बनी हुई है। कितनी
भीड़ है सड़क पर ! पर यहाँ के लोग क्या घरों में नहीं रहते, सड़कों पर ही
घूमते रहते हैं। पापा को कसकर पकड़े रहने के बावजूद बराबर यही भय बना हुआ है
कि पापा का हाथ छूट गया कि वह इस भीड़ में खो गया। इतने नए-नए चेहरे, नए-नए
लोगों की भीड़। इतने सारे लोगों में पापा को ढूँढ़ा जा सकता है ? उसने पापा
का कोट देखा। वह तो पापा के कपड़ों को भी नहीं पहचानता। हलके सलेटी पर काले
रंग का चारखाना। उसने कोट से गहरी पहचान कर ली।
"हरी बत्ती हो गई, चलो ! याद रखना, लाल बत्ती पर कभी सड़क मत पार करना।" वह
उँगली पकड़े-पकड़े ही सड़क पार कर गया।
"वह देखो, वह रहा तुम्हारा स्कूल।"
पता नहीं, पापा किधर इशारा कर रहे हैं। बंटी के सामने तो अपना स्कूल तैर गया।
आज कौन-सा दिन है ? शायद बुधवार ! इस समय ज्योग्राफी की क्लास हो रही होगी।
कौन पाठ पढ़ा रहे होंगे सर ? महाराष्ट्र, बंगाल ? वह तो बंगाल में ही घूम रहा
है।
“देखो बेटे, डरना नहीं, अंग्रेज़ी बोल लोगे न ? खूब सोचकर लिखना।"
सर पूछ रहे हैं, "व्हाट्स योर नेम डियर ?"
“अरूप बत्रा !" बंटी को लग रहा है, जैसे उसकी आवाज़ काँप रही है।
"यू हेव कम विद योर फ़ादर ?' बंटी सिर्फ़ धीरे से सिर हिला देता है। "व्हाट्स
योर फ़ादर ?' बंटी एक क्षण सर की तरफ़ देखता है, फिर नीचे देखने लगता है। समझ
ही नहीं आता कि क्या कहे।
"टेल मी अरूप !"
पर जवाब तो नहीं आता। उसे मालूम ही नहीं।
"माइ ममी इज़ प्रिंसिपल !"
जाने कैसे उसके मुँह से निकल जाता है। और कहने के साथ ही वह खुद रुआँसा हो
आता है।
सर हँस रहे हैं। बंटी को लग रहा है कि सर और ज्यादा हँसे तो वह रो देगा।
काग़ज़-पेंसिल देकर सर ने उसे बिठा दिया, "राइट ए स्टोरी इन योर ओन वर्ड्स।
एनी स्टोरी यू लाइक।"
बंटी के सामने ढेर सारी कहानियाँ तैर रही हैं-ममी की कहानियाँ, फूफी की
कहानियाँ, पर उन सबको कैसे लिखा जा सकता है ? वह तो जवाब ही नहीं दे सका। सर
ने क्या समझा होगा ? पापा क्या कहेंगे ? सामने फैले काग़ज़ पर आँसू टपक पड़ते
हैं।
शाम को वकील चाचा को आया देखकर एकाएक इच्छा हुई कि दौड़कर उनकी बाँह में झूम
जाए, जैसे पहले झूम जाया करता था। पर अपनी जगह से हिला तक नहीं गया। बस, एक
बार चाचा की तरफ देखा और नज़रें ज़मीन में गड़ गईं।
"अरे, यह क्या, बंटी चुपचाप खड़ा है। देखो, मैं तो तुमसे मिलने आया हूँ।"
चाचा ने पास आकर उसे गोद में उठा लिया और फिर जाने क्यों एकटक उसका चेहरा ही
देखते रहे। चाचा की गोद में आकर बंटी को लगा जैसे चाचा अकेले नहीं आए हैं।
चाचा के साथ बंटी का अपना पुराना घर भी आ गया है, बंटी की ममी भी आ गई हैं।
और तभी ख़याल आया-पहले चाचा आते थे तो पापा की ख़बर लाकर देते थे, पापा की
भेजी हुई चीजें लाकर देते थे। अब ? उसने बड़ी उम्मीद से चाचा की ओर देखा।
"अरे वकील चाचा, आप !" 'वे' भीतर से आ गईं।
“क्या हुआ, दे आया टेस्ट, हो गया एडमिशन ?' चाचा ने बंटी को एकदम अपने से
सटाकर बिठा लिया। पर उसका मन हो रहा है, उठकर यहाँ से भाग जाए। नज़रें हैं कि
ज़मीन में धंसती चली जा रही हैं। “कहाँ हुआ एडमिशन ! कुछ किया ही नहीं, शायद
नर्वस हो गया था कि..." 'वे' बोल रही हैं।
और तभी कहीं से उभरकर आया-
'फूफी ! आज हलवा बनाओ। बंटी बेटा सेकंड आया है। तीनों सेक्शन में !'
"लगता है वहाँ के स्टैंडर्ड और यहाँ के स्टैंडर्ड में बहुत फ़रक है। ये तो
बताते थे कि हमेशा क्लास में...पता नहीं अंग्रेजी की वजह से हो।" वे ही बोले
जा रही हैं और चाचा चुप हैं !
चाचा चुप रहें और कोई और बोले, मतलब कुछ गड़बड़ है। बंटी का मन हो रहा है कि
कहीं चला जाए।
"इस स्कूल में तो थोड़ी जान-पहचान भी थी, अब आप ही इनसे बात करिए चाचा। मेरी
बात तो ये सुनते ही नहीं। यों भी मेरा बोलना..."
बंटी को लग रहा है कि चाचा की नज़रें जैसे उसी पर गड़ी हुई हैं।
मैंने इतना समझाया कि देखो अभी मत लाओ। पहले उसके एक्जाम्स होने दो। छटिटयों
में लाकर यहाँ रखना, यदि हिल जाए, उसका मन लग जाए तो यहाँ भर्ती करा देना।
वरना बच्चे के साथ भी तो कितनी ज़्यादती है। पर इनको तो जैसे झख सवार हो गई।
रात-रात भर नींद नहीं आती थी।"
चाचा क्यों नहीं कुछ बोल रहे ?
"...पता नहीं वहाँ से भेज भी कैसे दिया इस तरह ? मैं तो बाबा...” और कसकर
चीनू को उन्होंने छाती से लगा लिया। चाचा शायद बोलेंगे ही नहीं। बंटी झटके से
उठा और बाहर बालकनी में आ गया। किसी ने उसे रोका नहीं, किसी ने उसे बुलाया भी
नहीं...वह पापा से कहेगा कि पापा उसे वापस ममी के पास भेज दें। वह यहाँ रहेगा
भी नहीं, यहाँ पढ़ेगा भी नहीं, वह अपने स्कूल में ही पढ़ेगा। पर बाहर के
ढेर-ढेर शोर में जैसे उसका अपना सोचना भी दब गया। धुआँ उड़ाती हुई बसों का
शोर, ट्रामों की टनटन, मोटरों की पी-पीं, आदमियों का शोर, शाम का अख़बार
बेचनेवालों का शोर, तरह-तरह की चीजें बेचनेवालों का शोर...कितना शोर हो रहा
है चारों ओर।
अरे ! यह तो स्टेशन आ गया।
"थोड़ी देर नीचे उतरोगे बेटे ?" पापा पूछ रहे हैं।
बंटी ने सिर हिला दिया। पर पापा उतर गए तो लगा जैसे वह अकेला छूट गया है।
नज़रें पापा के साथ लगी-लगी चलने लगीं। पापा हाथ में दोने लिए चले जा रहे
हैं।
“लो खाओ !” सामने समोसे और नमकीन सेब रखे हैं।
बंटी खाने लगा।
"मिर्च तो नहीं लग रही न ?"
बंटी ने सिर हिला दिया। पानी दिया तो पी लिया।
सीटी, हरी झंडी, फिर सीटी। गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। प्लेटफ़ार्म,
प्लेटफ़ार्म की सारी भीड़, सारा शोर पीछे छूटता चला गया। पापा फिर उसके पास
आकर बैठ गए। उनका एक हाथ उसके कंधे पर आ टिका है।
“अब बिलकुल डरने की बात नहीं है बेटा, वहाँ कोई इम्तिहान नहीं होगा। मैंने
सारी लिखा-पढ़ी कर ली है। बस, अब तो सीधे क्लास में।" पता नहीं, कितनी बार
पापा यह बात कह चुके हैं। और हर बार मन ही मन उसने दोहराया है-माइ फ़ादर इज़
डिविज़िनल मैनेजर-पापा की एक-एक बात उसने रट ली है। पर हो सका...
बंटी ने खिड़की पर ठोड़ी टिका ली और बाहर का तो कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा।
शायद भीतर की आँखें खुल गई हैं।
अपने पास लिटाकर पापा समझा रहे हैं- “यहाँ नहीं हुआ तो कोई बात नहीं, मैंने
हॉस्टल के लिए चिट्ठी लिख दी है।"
बंटी बहुत हिम्मत जुटा रहा है कि कह दे कि वह हॉस्टल नहीं जाना चाहता। रात-भर
वह जो सोचता रहा है, सब कह दे, पर कुछ भी तो नहीं कहा जाता।
"हॉस्टल में तुम्हें अच्छा लगेगा। तुम्हारी उम्र के बच्चों को तो हॉस्टल में
ही रहना चाहिए। अपने बराबरी के बच्चों के साथ पढ़ो, उन्हीं के साथ खेलो,
उन्हीं के साथ रहो...”
'वहाँ तुम्हें अच्छा लगेगा बंटी। वहाँ जोत है, अमि है, उनका साथ रहेगा। यहाँ
अकेला-अकेला कितना बोर होता है।'
"प्रिंसिपल मेरे दोस्त हैं। लोकल गार्जियन रहेंगे। इतवार को अपने घर ले
जाएँगे। उन्हें पापा ही समझना।"
तैरता हुआ डॉक्टर जोशी का चेहरा सामने से निकल गया-तू इन्हें पापा क्यों नहीं
कहता रे ?
हॉस्टल की कितनी बातें पापा बता रहे हैं। बंटी दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाता है
पर फिर भी हॉस्टल की कोई तसवीर उसके सामने नहीं उभरती।
पहले पापा जब कलकत्ते की बातें बताया करते थे तो कलकत्ते की कितनी तसवीरें
उभरती थीं उसके मन में। एक-एक जगह की अनेक-अनेक तसवीरें।
"बंटी, तुम अपनी बनाई हई तसवीरें नहीं लाए बेटे ? मीरा, जानती हो, यह बहुत
बढ़िया पेंटिंग करता है। वकील चाचा को बनाकर देगा कि नहीं एक ?"
“तुम हॉबी की तरह बागबानी ले सकते हो, पेंटिंग ले सकते हो। कलकत्ते में तो
बाग़बानी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है। सारा शौक़ ही मर जाएगा। हॉस्टल में
तो..."
हॉबी, तसवीरें, बागवानी, कलकत्ता, हॉस्टल, सब एक-दूसरे पर चढ़ते चले आ रहे
हैं, एक-दूसरे में घुलते जा रहे हैं। पापा और भी जाने क्या-क्या बताते-समझाते
रहे। दुलारते और थपकते रहे। और जब उसने आँखें मूंद ली तो उठकर अपने कमरे में
चले गए।
नींद में उसने देखा कि वह पापा की उँगली पकड़े-पकड़े स्कूल से निकल रहा है और
पापा डाँट रहे हैं, गुस्सा हो रहे हैं। जोड़-बाक़ी के मामूली से सवाल तक नहीं
आए ? सारे समय उँगली पकड़े-पकड़े रहते हो, चिपक कहीं के। तभी तो किसी के
सामने बोला नहीं जाता। या तो लड़कियों की तरह रोओगे, शरमाओगे या...और
उन्होंने उँगली छुड़ाकर उसे अलग कर दिया है। अलग होते ही बंटी जैसे भीड़ में
खो गया है। बदहवास-सा वह चारों ओर देख रहा है, दौड़-दौड़कर लोगों को पकड़ रहा
है, पर जिसे भी पकड़ता है वही धीरे-से हाथ छुड़ाकर आगे चला जाता है। नए-नए
चेहरे, नए-नए लोग, नई-नई जगह। वह ज़ोर से चीख पड़ा-“पापा !"
"बंटी, बंटी बेटा !” किसी ने जैसे उसे गोद में उठा लिया है। उसका नाम कौन
जानता है ? चेहरा नहीं दिख रहा, सिर्फ़ आवाज़...
"डर गए बेटा ? सपना देखा था ? देखो मैं पापा..."
वह आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा है। सामने पापा का चेहरा दिखाई देता है। यह
क्या, वह रो रहा है ? नहीं, उसकी आँखों में नहीं, पापा की आँखों में आँसू हैं
शायद !
पापा ने उसे फिर से सुला दिया। कमरे में फिर से अँधेरा हो गया है। सिर्फ़
आवाजें तैर रही हैं। अँधेरे की आवाजें भी कितनी अलग तरह की होती हैं !
“क्या हाल हो गया है बच्चे का ? कितना सहमा-सहमा, डरा-डरा रहता है। कैसे नहीं
भेजें इसे हॉस्टल ? यह जब सबसे कटकर रहेगा, अपने बराबरी के बच्चों के बीच में
ही रहेगा तभी नार्मल होगा। हो खर्चा, जैसे भी हो-जो भी हो।"
“आप मेरी बात ठीक ढंग से समझ ही नहीं रहे हैं। ठीक है, मैं अब इस बारे में
कुछ बोलँगी ही नहीं।" और फिर आवाजें भी अँधेरे में डूब जाती हैं।
“अब तुम सो जाओ। बाहर भी तो अँधेरा हो चला है।" तो पहली बार ख़याल आया कि
सचमुच बाहर तो बिलकुल अँधेरा हो गया है। इतनी देर से खिडकी पर ठोड़ी टिकाए वह
देख क्या रहा है ? पापा ने खेस बिछाकर तकिया लगा दिया तो बंटी बिना एक शब्द
भी बोले चुपचाप लेट गया।
"नींद नहीं आ रही हो तो किताब दें ? पढ़ोगे लेटे-लेटे ?''
"नहीं।" बंटी को नींद नहीं आ रही थी, फिर भी उसने आँखें बंद कर लीं। आँखें
बंद करते ही चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा फैल गया और डिब्बे में बैठे नए-नए
लोग, पापा-सब उसमें घुल-मिल गए। रंग-बिरंगे, तरह-तरह के आकार के छोटे-बड़े
धब्बे उसके चारों ओर तैरते चले जा रहे हैं, अलग-अलग, एक-दूसरे में मिलकर।
फिर दृश्य...फिर तसवीरें...एक-दूसरी को काटती हुईं, एक-दूसरी को धकेलती
हुईं...
पापा जल्दी-जल्दी खाना खाकर ऑफ़िस चले गए हैं और बंटी अकेला रह गया है। यों
घर में 'वे' हैं, बहादुर है, उसकी गोद में लटका हुआ गुदगुदा चीनू है, फिर भी
उसे लग रहा है, जैसे पापा उसे अकेला छोड़ गए हैं। और यह नया घर और भी ज्यादा
नया हो गया है। बंटी कहाँ जाए, कहाँ बैठे, क्या करे ? जहाँ जाता है; जहाँ
बैठता है वही जगह जैसे उसे अपने से परे धकेलती है।
पापा क्या रोज़ इसी तरह छोड़कर चले जाया करेंगे ? वह तो सोचता था, वह होगा,
पापा होंगे और रोज़ घूमना होगा।
'बच्चा ! तुम्हारे खिलौने, किताबें वगैरह निकाल दें ? खेलो-पढ़ो ! वहाँ
छुट्टी के दिन अपनी ममी के साथ क्या किया करते थे ?''
जाने क्यों हर बार दीपा आंटी याद आ जाती हैं। 'वे' ममी की, उस घर की बातें
पूछती जा रही हैं और उसके सामने ममी, जोत, अमि, डॉक्टर साहब, कोठी घूमते चले
जा रहे हैं। क्या बताए, कहाँ से शुरू करे ? उससे कुछ नहीं बोला जाता।
"चलो, तुम हमसे बात नहीं करते तो खेलो !"
खिलौने, बंदूक, किताबें-सब बंटी के सामने रखे हैं। पर बंटी बैठा है, वैसे ही
चुप। इस नए घर में आकर उसकी अपनी चीजें भी जैसे नई हो गई हैं।
“आओ हम खेलें तुम्हारे साथ।" 'वे' चीनू को लेकर पास आ बैठी हैं। चीनू प्रसन्न
हो-होकर खिलौनों को इधर-उधर उठा-पटक रहा है। ख़याल आया-वह अमि को अपने खिलौने
नहीं लेने देता था।
चाबी की मोटर करती हुई निकल गई। फ्लाइंग-प्लेट लाल-पीली रोशनी दिखा-दिखाकर
घूम रही है। चीन किलकारी मार रहा है।
"चीनू देख, वो गिरा ! चीनू देख...” और चीन के साथ-साथ 'वे' भी हँस रही हैं।
एक-एक खिलौना चीनू को चला-चलाकर दिखा रही हैं।
बंटी बालकनी में खड़ा है, सामने की भीड़-भाड़, शोर-शराबे में डूबा हुआ।
ढेर-ढेर आवाजें हैं, पर कुछ समझ में नहीं आ रहा है, ढेर-ढेर शक्लें हैं, पर
कोई पहचानने में नहीं आ रहा और सबके ऊपर है यह बात कि पापा शाम को आएंगे।
शाम को पापा आए हैं, "कैसे रहे बंटी, क्या किया सारे दिन बेटे ?" जवाब 'वे'
दे रही हैं- “सारे समय बालकनी में बैठा रहा, बिलकुल नहीं बोलता। मैं तो खेलने
भी बैठी पर...सच मुझे तो तरस आने लगा। और इस चीनू को देखो, पाँच बजे से ही
आँखें फाड़-फाड़कर चारों तरफ़ ऐसे देखता है जैसे कुछ ढूँढ़ रहा है। बस,
तुम्हें ढूँढ़ता है। यह तो अब तुम्हें बहुत मिस करने लगा है..."
उन्होंने चीन को पापा की गोद में लाद दिया। वह हँस रहा है, पापा के बाल नोंच
रहा है।
“ले भैया के गाल नोंच।” पापा ने चीनू को बंटी की ओर मोड़ दिया तो चीनू बंटी
के गाल नोंचने लगा।
“लो प्यार करो इसे, इससे खेलो, इससे दोस्ती करो बेटे !” तो बंटी ने उँगलियाँ
उसके गुदगुदे गालों पर फिरा दीं।
चीनू ने पापा की गोद में खड़े होकर पापा के कान पकड़ लिए। चीनू हँस रहा है,
'वे' हँस रही हैं, “यह तुम्हारे कान खींचकर तुम्हें ठीक करेगा।" पापा भी हँस
रहे हैं।
बंटी चुपचाप उठकर बालकनी में चला गया। जगमगाती बत्तियाँ, लालनीली-पीली नियॉन
लाइट्स। रात में जैसे सड़क बिलकुल बदली हुई लग रही है। चीजें इतनी बदल कैसे
जाती हैं ?
फिर वही प्रश्न !
“अकेले में डरोगे तो नहीं, सो जाओगे न ?"
बंटी का मन हो रहा है कि कह दे-वह बहुत-बहुत डरेगा। इस घर में तो वह अकेला सो
ही नहीं सकता। वहाँ तो फिर भी अमि और जोत थे, यहाँ तो ...वह सारे दिन भी एक
तरह से डरता ही रहा है। पता नहीं कैसा-कैसा डर।
"अरे बंटी अपना बहादुर बच्चा है, कोई लड़की है जो डरेगा ?"
“न हो तो बहादुर भी यहीं सो जाएगा। क्यों बच्चा ठीक है न ?”
“और बीच का दरवाज़ा खुला रहेगा बेटे, हम लोग तो उधर हैं ही।"
'वे' और पापा ही बोले चले जा रहे हैं। बंटी तो कुछ बोल ही नहीं पाता।
“सो जाओगे न ?” बंटी ने एक बार पापा की ओर देखा। पापा के साथ 'उनका' चेहरा भी
था। और बंटी ने धीरे से कह दिया, "हाँ !"
बहादुर तो पड़ते ही सो गया पर बंटी जैसे कंबल के नीचे भी काँप रहा है।
अपने-अपने पलंग पर सोते हुए अमि और जोत, उस कमरे से आया हुआ रोशनी का टुकड़ा,
बातों के टुकड़े-सबको जैसे पकड़ने की कोशिश कर रहा है।
'खट' उधर की बत्ती बंद हो गई तो जैसे हाथ से वह रोशनी का टुकड़ा भी फिसल गया।
जोत और अमि के पलंग भी जैसे कहीं अँधेरे में डूब से गए। सिर्फ़ आवाजें। और
फिर बंटी जैसे बिलकुल अकेला हो गया।
गंदी बात। क्या पापा और ये भी...इच्छा हो रही है कि उठकर देखे। वही दृश्य
अँधेरे में से जैसे चारों ओर लटक गया। जाने कैसी हिम्मत आ गई।
दबे पैरों बंटी दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ। झाँककर देखा-अँधेरा घुप्प ! कहीं कुछ
दिखाई नहीं दे रहा। तभी एक ओर एक छोटा-सा लाल तारे जैसा कुछ चमक उठा, लाल
सुर्ख क्या है ये ?
"कौन, बंटी ?"
दौड़कर अपने बिस्तर में दुबक गया, पर बिस्तर में लेटकर भी बंटी का दिल धक-धक
कर रहा है। वह लाल-लाल क्या चमक रहा था, पापा ने देखा तो नहीं।
फिर वही बात।
पापा अपने पास बिठाकर पूछ रहे हैं, “एक बात कहें बेटा, मानोगे ?"
बंटी नज़रें पापा के चेहरे पर टिका देता है।
"तुम मीरा को क्या कहते हो ?"
बंटी चुप।
“ममी कहोगे ?"
"बंटी, डॉक्टर साहब को पापा कहा कर बेटे''...और तड़ाक से दिया हुआ अपना जवाब
ही कानों में गूंज गया-मेरे पापा तो कलकत्ते में हैं।
पर अब ? अब जैसे कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा। वह सिर्फ पापा की ओर देखता रहता
है।
"छोटी ममी ! ठीक है ?"
तो आँखों के सामने जैसे ममी आकर खड़ी हो गईं। बंटी की नजरें झुक गईं।
"शरम आती है ? शरभ की क्या बात, ममी ही तो हैं। वहाँ की ममी वे, यहाँ की ममी
ये। कहोगे न ?”
बंटी ने धीरे से 'हाँ' कह दिया और कहने के साथ ही जैसे भीतर की आँखें रो
पड़ीं। पापा पीठ थपथपा रहे हैं। उन्होंने कहीं देख तो नहीं लिया-लड़की की तरह
रोते हो..
"बच्चे, उठो बच्चे, बहुत दिन उग आया।"
बंद आँखों से ही बंटी सुन रहा है और भीतर ही भीतर सिकुड़ा चला जा रहा है-शरम
से, डर से, दुख से...
“अरे यह क्या पिस्सी कर दी...”
उसके बाद कुछ पता नहीं, शायद बहादुर कपड़े बदलवा रहा है। कमरे में सिर्फ़
आवाजें तैर रही हैं-उनकी आवाजें, पापा की आवाजें, बहादुर की आवाजें। और सारी
आवाज़ों को चीरते हुए कहीं से दो हाथ आकर बिस्तरे को रजाई से ढक देते हैं।
उसके चारों ओर शॉल लिपट जाता है-सब गुपचुप !
“बहादुर, ये चद्दर धुलने डाल और गद्दे के उतने हिस्से को धोकर बाहर फैला दे।
गद्दा बाहर फैल गया है और सड़क पर चलते हर आदमी को भी जैसे मालूम पड़ता जा
रहा है कि...अब बंटी कहाँ खड़ा हुआ करेगा ? अपने घर में तो कब्भी-कभी बिस्तर
में सू-सू नहीं की उसने, पर अब...
शाम को सब जैसे के तैसे हो गए। बस, पापा का चेहरा जाने कैसे एकदम ममी के
चेहरे की तरह हो गया है। खाने की मेज़ पर बैठे बंटी को बराबर लगता रहा कि
जैसे पापा की आँखें भी उसकी प्लेट पर चिपककर उसे घूरेंगी। उससे प्लेट की तरफ
नहीं देखा जा रहा। ‘उनकी' और पापा की ओर भी नहीं देखा जा रहा है। अपने में ही
सिमटा-सिकुड़ा वह बैठा है।
और बिना कहीं देखे ही लग रहा है जैसे अ...ब...स...
एकाएक ही लगा जैसे उसे बहुत ज़ोर से सू-सू आ रही है। ओह ! पता लग गया, अभी
कहीं भीतर ही हो जाती तो रेल में बैठे इतने आदमियों को भी मालूम पड़ जाता।
कहीं हॉस्टल में भी हो गई तो...वह झटके से उठा।
बाहर सारा डिब्बा रोशनी से भरा हुआ है। सामने बैठे हुए पापा किताब पढ़ रहे
हैं। "क्या बात है बेटे ?” पापा पूछ रहे हैं। पापा को देखकर, पापा की आवाज़
सुनकर लगा जैसे वह पता नहीं कहाँ से...
"बाथरूम जाऊँगा !"
पापा उसके साथ बाथरूम तक चलते हैं। भीतर कोई है। वे दोनों बाहर ही खड़े हो
गए। पापा ने एक सिगरेट लगा ली और खिड़की की तरफ़ सरक गए। बाहर खुब अँधेरा।
पापा ने सिगरेट का एक कश खींचा तो सिरा दमक उठा।
लाल तारा। बाहर के गाढ़े अँधेरे में जाकर वह तारा टॅक गया। एक रहस्य था जो
खुल गया। बंटी जैसे कहीं से हलका हो आया।
हिलती ट्रेन में बाथरूम जाने में उसे थोड़ा डर लगता है पर हिम्मत करके घुस
गया।
“अब खाना खाकर ही सोना।” पापा टोकरी में से डिब्बे निकालने लगे।
बंटी खिड़की में से झाँकने लगा। स्याह अँधेरे में जुड़े हुए रोशनी के
छोटे-छोटे चौखटों की पूरी की पूरी कतारें उसके साथ-साथ दौड़ी चली जा रही हैं,
एक क्षण को बंटी का मन कहीं से पुलक आया। मन हुआ हाथ निकालकर, एक चौखटे को
पकड़ ले। सिर आगे किया तो ?
सामनेवाले चौखटे पर ही एक काला-सा धब्बा उभर आया। बंटी सिर हिला-हिलाकर, हाथ
हिला-हिलाकर उसमें तरह-तरह की आकृतियाँ बनाने लगा। जोत और अमि होते तो उन्हें
दिखाते। मन हुआ पापा को बुलाकर दिखाए।
“बेटे, इधर ही आ जाओ।"
और खाते हुए बंटी ने पहली बार डिब्बे में बैठे हुए लोगों को देखा, डिब्बे को
पूरी तरह देखा। लगा जैसे वह अभी-अभी डिब्बे में घुसा है। यह मूंछवाला आदमी
उसके सर जैसा नहीं है ?
उसने एक पूरी और ली। सब्जी उसे अच्छी लगी। खाना खाकर वह पापा को भी रोशनी के
चौखटे दिखाएगा।
“क्यों साहब, हॉस्टल का खर्चा कितना पड़ जाता होगा ?" तो इस आदमी को मालूम है
कि...
“यही करीब... ढाई सौ के करीब। लेकिन...” और पापा ने बात बीच में ही छोड़ दी।
हॉस्टल !
और रोशनी के चौखटों पर जैसे कहीं से एक धुंध की परत छा गई। लेटा तो साथ-साथ
दौड़ते हुए रोशनी के सारे के सारे चौखटे स्याह अँधेरे में ही घल गए। वह चमकता
हुआ लाल तारा भी ड्रबा। और बंटी उस अँधेरे में डूबता ही चला गया। फिर उस
अँधेरे में से ही एक और अँधेरा उभरा...
सारा हॉल अँधेरा घुप्प ? केवल आवाज़ तैर रही है। बंटी को अजीब-सी धुकधुकी हो
रही है। कैसा जादू होगा ? देखते ही देखते एक बड़ा फीका, हलका-सा प्रकाश फैला
और सिर पर नीला आसमान तन गया। झिलमिल-झिलमिल सितारे चमकने लगे।
बंटी चकित, जादू में बँधा हुआ। अलग-अलग तारों के नाम और भी जाने क्या-क्या और
धीरे-धीरे वह भूल ही गया कि वह प्लेनेटोरियम में बैठा हुआ है।
बंगाल का जादू ! दिन में ही रात, छत में सितारे। सिनेमावाले नहीं
सच्ची-मुच्ची के। बंटी पुलकित, उसने जादू देखा।
प्लेनेटोरियम से विक्टोरिया-मेमोरियल तक बंटी पापा के साथ छलाँग लगालगाकर
चलता रहा। वहाँ 'वे' बहादुर और चीन के साथ बैठी हुई हैं। चारों तरफ़ ढेर-ढेर
लोग। यहाँ के लोग घरों में कभी बैठते ही नहीं क्या ?
'उन्होंने' चीनू को पापा की गोद में बिठा दिया।
मोशला मूड़ी...चीना बदाम।
मुरमुरे और मूंगफली ! धत्तेरे की, यह भी कोई नाम हुए। बड़ी देर तक बंटी को
जैसे हँसी आती रही।
पास ही उगी हुई कदली की क्यारियों में कितनी घास-फूस उग आई। बंटी गया और
क्यारी की सफ़ाई करने लगा। छी-छी, इतनी गंदी क्यारी।
“अरे बच्चा ! वहाँ मिट्टी क्यों खोदा-खादी कर रहे हो, हाथ गंदे हो जाएँगे।"
झट से बंटी ने हाथ खींच लिए।
“क्यारी बहुत गंदी थी पापा, पौधे खराब नहीं हो जाएँगे।" उसने पापा को जैसे
सफ़ाई दी।
पापा एक क्षण उसकी ओर देखते रहे, फिर उनका चेहरा जाने कैसा-कैसा हो गया। बंटी
ने कुछ गलत कर दिया ? नहीं, पापा ने तो उसे गोद में बिठाकर प्यार किया।
रात में सोया तो छत पर फिर तारे झिलमिलाने लगे। ज़मीन पर चाबीवाली मोटर
दौड़ने लगी। फ्लाइंग प्लेट घूमने लगी। दो पहलवान बॉक्सिंग करने लगे। चीनू की
किलकारियाँ गूंजने लगीं। हम भी चलाएगा शाब, हम भी चलाएगा। अपनी मिचमिची आँखों
को झपकते-खोलते बहादुर हर चीज़ को बड़े कौतुक से देखने लगा। हवा के बीच में
ही कहीं मोगरा खिल आया तो कहीं डहेलिया।
"तुम बहस मत करो मीरा, इस बात पर कुछ भी मत कहो।" एकाएक सारे तारे बुझ गए।
मोगरा और डहेलिया गायब हो गए। सारा दृश्य जहाँ का तहाँ स्थिर हो गया। सिर्फ
पापा की आवाज़ यहाँ से वहाँ तक गूंजती रही, गुस्से से भरी हुई आवाज़।
“मुझे किसी और स्कूल में कोशिश नहीं करनी, उसे हॉस्टल ही भेजना है। यहाँ घर
में रखने के लिए मैं उसे नहीं लाया हूँ। मैं क्या जानता नहीं कि इस घर
में..."
और फिर बातों के टुकड़े-टुकड़े-एबनॉर्मल...महीना कैसे चलेगा...तुम्हारी
ज़िद...मेरा तो कुछ कहना ही गलत...
और फिर केवल आवाजें, बिना शब्दों की आवाजें-कभी ज़ोर-ज़ोर की, कभी दबी-दबी,
फुसफुसाती हुईं।
और फिर सन्नाटा। तो पापा उसे सचमुच हॉस्टल भेज देंगे ? हॉस्टल भेजने के लिए
ही यहाँ लाए हैं?
सन्नाटा और ज्यादा गहरा हो गया !
बंटी ने अपने दोनों पैर सिकोड़कर पेट से सटा लिए और दोनों हथेलियों को जाँघों
के बीच दबोचकर अपने को पूरी तरह समेट लिया।
न्यू मार्केट की भीड़-भाड़, चहल-पहल ! बाज़ार नहीं, जैसे कोई प्रदर्शनी हो।
पापा के हाथ में लिस्ट है और चीजें खरीदी जा रही हैं। बंडल हैं कि बढ़ते ही
जा रहे हैं।
बंटी कभी दर्जी के यहाँ खड़ा नाप दे रहा है, कभी जूतेवाले के यहाँ जूते पहनकर
देख रहा है।
“एक साइज़ बड़ा ही दो, बच्चों को बढ़ते देर नहीं लगती...'
जूते, मोज़े, बनियान, पैंट्स, शर्ट्स, जाने कितनी चीजें हैं !
बंटी को सिर्फ पापा के साथ रहना है, अपना नाप देना है। चुनने का तो कोई
प्रश्न ही नहीं। कपड़ा, रंग, डिज़ाइन, संख्या, सबकुछ पहले से ही तय है...
ये वाला नहीं वो वाला। नीला नहीं ब्राऊन, बटन नहीं जिप। एक नहीं दो ...ममी को
तो वह परेशान कर देता था।
लिस्ट पर टिक मार्क लगता जा रहा है। सूटकेस, अटैची, एयर-बैग, होल्डॉलसब पर
बंटी का नाम, पता ! पता देखकर ही बंटी को मालूम हुआ कि पापा आजकल चौरंगी रोड
पर रहते हैं। वह तो इसे अब तक एलगिन रोड ही समझे था।
बाहर की भीड़-भाड़ से लौटते तो घर बड़ा सुनसान-सा लगता है। एक अजीब-सा
सन्नाटा ! जहाँ कहीं भी 'वे', पापा और बंटी बैठते, जाने कहाँ से बंटी के मन
में अ-ब-स उभर आता। उसके बाद बराबर लगता कि पापा की आँखें भी सब तरफ़ से बस
उसे ही देख रही हैं। पर ममी की तरह पापा की आँखों को उसने कभी नहीं देखा-न
प्लेट में, न इधर-उधर।
ममी की आँखों को देखे भी कितने दिन हो गए।
"बंटी की सारी चीज़ों पर नाम टॅक गए ?"
“आज रात को टाँक दूंगी।"
“आज रात को ज़रूर टाँक देना। इट इज़ ए मस्ट।"
"मुझे मालूम है।"
और रात में बंटी बाथरूम जाने के लिए उठा तो देखा अपने चारों ओर ढेर सारे
कपड़े फैलाए 'वे' नाम टाँक रही हैं। बंटी एक क्षण ठिठककर देखता रहा...
'जा बेटे, तू जाकर खाना खा ले और सो जा। मैं सब कवर चढ़ा दूंगी।' क्षण-भर को
दोनों चेहरे, दोनों दृश्य एक-दूसरे में घुल-मिल गए।
सामान बँध रहा है। उसके पुराने कपड़े, उसके खिलौने, उसका बक्सा सब अलग करके
रख दिए गए हैं।
बंटी चुपचाप बैठा बस देख रहा है और कहीं उभर रहा है-ये सब खिलौने इस टोकरी
में जमा दो बंसीलाल, ये सब बंटी की पसंद के खिलौने हैं। बंदूक नहीं आ रही तो
हाथ में ले जाएगा। यह तो उसकी ख़ास चीज़ है।
बहादुर और चीनू उन खिलौनों पर जुटे हुए हैं।
टैक्सी नीचे खड़ी है। बहादुर सामान उतार रहा है। सारा नया-नया सामान। उसका
नाम न हो तो वह इनमें से एक भी चीज़ को पहचान भी न पाए।
'वे' नीचे खड़ी हैं। बहादुर चीनू को लिए खड़ा है। पापा पीछे सामान जमा रहे
हैं। प्यार करवाकर और नमस्ते करके बंटी टैक्सी में बैठ गया।
जाने कैसे ममी का चेहरा रह-रहकर 'उनके चेहरे पर चिपक जाता है। पूरा का पूरा
दृश्य किसी और दृश्य के साथ घुल-मिल जाता है। कभी 'वे' ममी बन जाती हैं, कभी
वे 'वे' रह जाती हैं।
टैक्सी चली तो 'उन्होंने' हाथ ज़रा-सा ऊपर उठाकर हिला दिया। 'वे', बहादुर,
चीनू-सब पीछे छूट गए। एक क्षण को आँखों के सामने वह कमरा उभर आया जिसमें
अभी-अभी वह अपना सारा सामान और सारे खिलौने छोड़कर आया है। अब शायद वह कभी
अपनी बंदूक नहीं चला पाएगा।
बार-बार उसे लग रहा है, जैसे पापा उसे बाँहों में समेटकर अपने पास खींच
लेंगे, कुछ कहेंगे। नहीं, ऐसा तो ममी करती थीं। पता नहीं क्यों पापा का, ममी
का, 'उनका'-सबके चेहरे एक-दूसरे से गड़बड़ होते जा रहे हैं...
'हरे कृष्ण। हरे कृष्ण। कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे'...ज़ोर-ज़ोर से कहीं गाने की
आवाज़ आ रही है।
बंटी की आँख खुल गई-ओह ! वह गाड़ी में है। गाड़ी शायद खड़ी है। डिब्बे में ही
कोई गा रहा है। बंटी उठकर बैठ गया।
दो लड़के लकड़ी की टिकटी बजा-बजाकर गा रहे हैं-झूम-झूमकर।
“पानी पिओगे बेटा ?” उसे उठा देखकर पापा ने पूछा। पापा के पूछने से ही लगा कि
उसे प्यास लग रही है, शायद बहुत देर से प्यास लग रही है।
पानी पीकर बंटी फिर सो गया। वे लड़के उतर गए पर हरे-हरे की आवाज़ जैसे सारे
डिब्बे में भर गई है, हर तरफ़ से जैसे वही आवाज़ आ रही है। संगीत की लय,
गाड़ी के हिचकोलों के साथ-साथ बंटी जैसे कहीं गहरे में डूबता जा रहा है।
गाने की आवाज़ में ढेर-ढेर आवाजें मिलती जा रही हैं। आवाजें आकार ले रही
हैं...चॉलबे ना, चॉलबे ना, हॉबे ना, हॉबे ना...इंकलाब जिंदाबाद। क़तार बाँधकर
हवा में मुट्ठियाँ उछालते हुए लोग चले जा रहे हैं, लाल झंडियाँ लिए।
“यह कम्युनिस्टों का जुलूस है। कलकत्ता जुलूसों का शहर है।" पापा बता रहे
हैं।
बंटी रोज़ जुलूस देखता है और लोगों के साथ-साथ ख़ुद भी चिल्लाता है। उसने
चॉलबे ना, हॉबे ना सीख लिया है। पर बस मन ही मन में। रोज़ सोचता कि वह भी
ज़ोर से चिल्लाएगा, हवा में मुट्ठी उछालकर...चॉलबे ना...चॉलबे ना। पर एक दिन
भी चिल्ला नहीं पाया।
'बोलो हरि, हरि बोऽल...बोलो हरि, हरि बोऽल' साथ में घंटी टुनटुना रही है।
“मरे हुए आदमी को यहाँ इसी तरह से ले जाते हैं।" पापा ने बताया तो बंटी एक
क्षण को सकते में आ गया। अनायास ही दोनों उँगलियाँ जड़ गईं। स्काउट मास्टर ने
बताया था कि डेड-बॉडी को देखकर सेल्यूट करना चाहिए।
मुँह भी खुला हुआ ! मरा हुआ आदमी क्या जिंदा आदमी की तरह ही होता है ? कहीं
जिंदा आदमी को ही तो नहीं ले जा रहे ?
दो-तीन दिन तक उठते-बैठते, सोते-जागते 'हरि बोल' ही गूंजता रहा। साथ ही एक
अजीब-सा डर।
धीरे-धीरे सारी आवाजें भी गायब हो गईं।
वह पापा के साथ चला जा रहा है। एकदम नई और सुनसान जगह है।
"वह सामने तुम्हारा हॉस्टल है।" पापा ने कहा तो बंटी की आँखें ऊपर उठ गईं।
कहीं भी तो कुछ नहीं।
"तुम्हें प्रिंसिपल से मिलवाकर, सबसे जान-पहचान करवाकर शाम को हम चले
जाएँगे।" और पता नहीं बंटी को क्या हुआ कि पापा जाएँ उसके पहले वही पापा को
छोड़कर दौड़ पड़ा है। वह दौड़ता जा रहा है, बिना पीछे मुड़े-बस आगे ही आगे।
नदी-नाले, पहाड़-मैदान-सब पार करता जा रहा है और फिर पता नहीं कहाँ गिर जाता
है।
सफ़ेद दाढ़ी, सफ़ेद जटा, खड़ाऊँ, कमंडल...एक साधु उसके पास खड़े हैं। वह डर
नहीं रहा है। इन साधु को तो उसने कई बार देखा है, पर याद नहीं आ रहा,
कहाँ-कब...
"तुम कौन हो बेटा ? कहाँ से आए हो ?''
बंटी याद करने की कोशिश कर रहा है, पर जैसे उसे कुछ याद भी नहीं आ रहा।
“बोलो बेटा, बताओ !"
वह बहुत ज़ोर लगा रहा है...वह कहाँ से आया है, कहाँ से...और उसके मन में एक
अजीब-सी दहशत भरने लगी है।
"डरो नहीं, बताओ बेटा।" वे उसका कंधा थपथपा रहे हैं। "बंटी, उठो बेटा, अब
उतरना है।" कोई उसे कंधों से पकड़े हुए है और वह याद करने की कोशिश कर रहा है
कि वह कुछ जवाब दे सके...
उसे गोद में उठाकर किसी ने खड़ा कर दिया। सफ़ेद दाढ़ीवाले चेहरे में से एक और
चेहरा उभर आया-पापा !
“जल्दी से मुँह धो लो, नींद उड़ जाएगी। पाँच-सात मिनट में ही स्टेशन आनेवाला
है।"
तो बंटी धीरे-धीरे जैसे अपने में लौट आया। रेल का डिब्बा, डिब्बे में बैठे
हुए लोग, सामान बाँधते हुए पापा। सवेरे का उजास चारों ओर फैल गया था।
पता नहीं क्या हुआ कि इतनी देर में मन पर रखा हुआ पत्थर जैसे एकाएक ही दरक
गया। और ढेर-ढेर आँसू उफन आए। भीतर की आँखों में ही नहीं बाहर की आँखों में
भी।
आँसू-भरी आँखों के सामने डिब्बे की हर चीज़, बैठे हुए अजनबी लोगों के चेहरे
पहले धुंधले हुए, और धुंधले हुए और फिर एक-दूसरे में मिल गए। पापा का चेहरा
भी उन्हीं में मिल गया और फिर धीरे-धीरे सारे चेहरे एक-दूसरे में गड्डमड्ड हो
गए।
***