आपका बंटी (उपन्यास) : मन्नू भंडारी
Aapka Bunty (Hindi Novel) : Mannu Bhandari
आपका बंटी (उपन्यास) : तीन
शकुन के लिए समय जैसे एक लंबे अरसे से ठहर गया था। यों घड़ी की सुई तो बराबर
ही चलती थी। रोज सवेरे पीछे के आँगन से घुसकर धूप सारे घर को चमकाती-दमकाती
दोपहर को लॉन में फैल-पसरकर बैठ जाती और शाम को बड़ी अलसायी-सी धीरे-धीरे
सरकती हुई पीछे की पहाड़ियों में छिप जाती। एक-दूसरे को ठेलते हुए मौसम भी
आते ही रहे। फिर भी शकुन को लगता था कि समय जैसे ठहरकर जम गया है और जमे हुए
समय की यह चट्टान न कहीं से पिघलती थी, न टूटती थी। बस, टूटती रही है तो
शकुन-धीरे-धीरे, तिल-तिल। यों तो पिछले दो-तीन सालों से ही ठहराव का यह एहसास
बराबर ही होता रहा है, पर इधर एक साल से तो यह एहसास तीखा होते-होते जैसे
असह्य-सा हो गया था।
सामने खड़ी लंबी छुट्टियाँ और गरमी के बेहद लंबे अलस और उदास दिन ! कॉलेज
क्या बंद हो जाएँगे जैसे समय गुज़ारने का एक अच्छा-खासा बहाना ख़त्म हो
जाएगा। वरना उसके नितांत घटनाहीन जीवन में मात्र कॉलेज जाना भी एक घटना की ही
अहमियत रखता है। कॉलेज, और कॉलेज के साथ जुड़ी अनेक समस्याओं की आड़ में वह
कम से कम किसी में व्यस्त रहने का संतोष तो पा लेती है। वरना उसकी अपनी
जिंदगी में कुछ भी तो ऐसा नहीं है, जो क्षण-भर को भी उत्तेजना पैदा कर सके।
बंटी यदि सिर के बल खड़ा हो गया, तो उसी को लेकर वह उत्तेजित-सा महसूस करती
रहती है। यदि उसने ठीक से खाना नहीं खाया या कि वह किसी बात पर ज़िद करके रो
दिया या कि उसने कोई ऐसी बात पूछ ली, जो इस उम्र के बच्चे को नहीं पूछनी
चाहिए तो वह उत्तेजित होने की स्थिति तक परेशान हो जाया करती है। हालाँकि
भीतर ही भीतर वह भी कहीं जानती है कि इनमें से कोई भी बात उसे सही अर्थों में
उत्तेजित करके नहीं थकाती, वरन् सही अर्थों में उत्तेजित होने के प्रयत्न में
ही वह थक जाती है। केवल थक ही नहीं जाती, एक प्रकार से टूट जाती है।
पर कल वकील चाचा ने उसके सामने जो प्रस्ताव रखा और आज जिसके लिए वे फिर
आनेवाले हैं, उसने उसे भीतर से जैसे पूरी तरह झकझोर दिया।
हालाँकि वह समझ नहीं पा रही है कि आखिर कल की बात में ऐसा नया क्या था, जिसे
लेकर वह इतनी परेशान या विचलित हो रही है। एक बहुत-बहुत पुरानी,
समाप्तप्राय-सी कहानी की पुनरावृत्ति ही तो है ! फिर ? फिर भी कुछ है कि सारी
बात को वह बहुत सहज ढंग से नहीं ले पा रही है। लग रहा है जैसे उसे पूरी तरह
मथ दिया गया है।
वकील चाचा जब भी आते हैं, एक बार वह पूरी तरह मथ जाती है। बाहर से तो तब भी
कुछ घटित नहीं होता, एक पत्ता तक नहीं हिलता, पर मन के भीतर ही भीतर उसे जाने
कितने आँधी-तूफ़ानों को झेलना पड़ता है। उसने झेले हैं।
अजय के किसी के साथ संबंध बढ़ने की सूचना और फिर उसके साथ सैटल हो जाने की
सूचना ने उसे कितना तिलमिला दिया था। अकेले रहने के बावजूद तब एक बार फिर नए
सिरे से अकेलेपन का भाव जागा था, बहुत तीखा और कटु होकर। अपमान की भावना ने
उस देश को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया था।
और कोई एक साल से ऊपर हुआ, चाचा ने ही आकर कहा था, “क्या बताएँ, कुछ समझ में
नहीं आता। बंटी को लेकर उसके मन में एक कचोट है और यही कचोट कभी-कभी..." तो
वह ऊपर से नीचे तक क्रूर संतोष से भर गई थी। न चाहते हुए भी आशा की एक
हलकी-सी किरण मन में कौंधी थी। कौन जाने बंटी ही...
चाचा ने बंटी के लिए खिलौने दिए तो जाने क्यों लगा था कि ये मात्र बंटी के
लिए ही नहीं हैं। बंटी को माध्यम बनाकर उस तक भी कुछ भेजा गया है। उसके बाद
अजय स्वयं आया था। हमेशा की तरह अलग ही ठहरा, अलग ही रहा और केवल बंटी को
बुलवाया। उससे तो मुलाक़ात तक नहीं की, फिर भी शकुन को लगता रहा था कि न
मिलकर भी अजय जैसे कहीं फिर से उससे जुड़ गया है। उस दिन अजय के पास से लौटने
पर वह बड़ी देर तक बंटी को दुलारती-पुचकारती रही थी, मानो बंटी वहाँ से अकेला
नहीं लौटा हो, अपने साथ अजय को भी ले आया हो।
पर धीरे-धीरे वह कचोट भी शायद समाप्त हो गई, कम से कम यह तो स्पष्ट हो गया कि
उसे लेकर कुछ भी आशा करना एकदम व्यर्थ है। और उसके बाद से बराबर यह लगता रहा
है कि अब सबकुछ समाप्त हो गया है, अंतिम और निर्णयात्मक रूप से। और तब से समय
उसके लिए जम गया था, शिला की तरह।
चाचा ने कल बात शुरू करने से पहले कहा था, "अब तो कोई उम्मीद नहीं है।" तो
उसे यही लगा था कि उम्मीद तो उसे न अब है, न पहले कभी थी। फिर किस बात की
उम्मीद ? फिर से साथ रहने की कोई चाहना उसके मन में नहीं थी। उसने कई बार
अपने और अजय के संबंधों के रेशे-रेशे उधेड़े हैं-सारी
स्थिति में बहुत लिप्त होकर भी और सारी स्थिति से बहत तटस्थ होकर भी, पर
निष्कर्ष हमेशा एक ही निकला है कि दोनों ने एक-दूसरे को कभी प्यार किया ही
नहीं।
शुरू के दिनों में ही एक गलत निर्णय ले डालने का एहसास दोनों के मन में बहुत
साफ़ होकर उभर आया था, जिस पर हर दिन और हर घटना ने केवल सान ही चढ़ाई थी।
समझौते का प्रयत्न भी दोनों में एक अंडरस्टैंडिंग पैदा करने की इच्छा से नहीं
होता था, वरन् एक-दूसरे को पराजित करके अपने अनुकूल बना लेने की आकांक्षा से।
तर्कों और बहसों में दिन बीतते थे और ठंडी लाशों की तरह लेटे-लेटे दूसरे को
दुखी, बेचैन और छटपटाते हुए देखने की आकांक्षा में रातें। भीतर ही भीतर
चलनेवाली एक अजीब ही लड़ाई थी वह भी, जिसमें दम साधकर दोनों ने हर दिन
प्रतीक्षा की थी कि कब सामनेवाले की साँस उखड़ जाती है और वह घुटने टेक देता
है, जिससे कि फिर वह बड़ी उदारता और क्षमाशीलता के साथ उसके सारे गुनाह माफ
करके उसे स्वीकार कर ले, उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को निरे एक शून्य में
बदलकर। और इस स्थिति को लाने के लिए सभी तरह के दाँव-पेंच खेले गए थे-कभी
कोमलता के, कभी कठोरता के। कभी सबकुछ लुटा देनेवाली उदारता के, तो कभी सबकुछ
समेट लेनेवाली कृपणता के। प्रेम के नाटक भी हुए थे और तन-मन को डुबो देनेवाले
विभोर क्षणों के अभिनय भी। पता नहीं, उन क्षणों में कभी भावुकता, आवेश या
उत्तेजना रही भी हो, पर शायद उन दोनों के ही शंकालु मनों ने कभी उन्हें उस
रूप में ग्रहण ही नहीं किया। दोनों ही एक-दूसरे की हर बात, हर व्यवहार और हर
अदा को एक नया दाँव समझने को मजबूर थे और इस मजबूरी ने दोनों के बीच की दूरी
को इतना बढ़ाया, इतना बढ़ाया कि फिर बंटी भी उस खाई को पाटने के लिए सेतु
नहीं बन सका, नहीं बना।
साथ रहने की यंत्रणा भी बड़ी विकट थी और अलगाव का त्रास भी। अलग रहकर भी वह
ठंडा युद्ध कुछ समय तक जारी ही नहीं रहा, बल्कि अनजाने ही अपनी जीत की
संभावनाओं को एक नया संबल मिल गया था कि अलग रहकर ही शायद सही तरीके से महसूस
होगा कि सामनेवाले को खोकर क्या कुछ अमूल्य खो दिया है। और वकील चाचा की हर
ख़बर, हर बात इन संभावनाओं को बनाती-बिगाड़ती रही थी।
सामनेवाले को पराजित करने के लिए जैसा सायास और सन्नद्ध जीवन उसे जीना पड़ा
उसने उसे खुद ही पराजित कर दिया। सामनेवाला व्यक्ति तो पता नहीं कब परिदृश्य
से हट भी गया और वह आज तक उसी मुद्रा में, उसी स्थिति में खड़ी है-साँस रोके,
दम साधे, घुटी-घुटी और कृत्रिम !
सात वर्षों में विभागाध्यक्ष से प्रिंसिपल हो जाने के पीछे भी कहीं अपने को
बढाने से ज्यादा अजय को गिराने की आकांक्षा ही थी। वह स्वयं कभी अपना लक्ष्य
रही ही नहीं। एक अदृश्य अनजान-सी चुनौती थी, जिसे उसने हर समय अपने सामने हवा
में लटकता हुआ महसूस किया था और जैसे उसका मुकाबला करते-करते, उससे
जूझते-जूझते ही वह आगे बढ़ती चली गई थी।
पर इतने पर भी जब सामनेवाला नहीं टूटा तो उसकी सारी प्रगति उसके अपने लिए ही
जैसे निरर्थक हो उठी थी।
कल पहली बार मन में आया कि यदि वह अपनी दृष्टि अजय की जगह अपने ही ऊपर रखती
तो शायद इतनी मानसिक यातना तो नहीं भोगती। तब उसका हर बढ़ता हुआ क़दम, उसकी
हर उपलब्धि उसे कुछ पाने का एहसास तो कराती। पर अब नहीं, अब और नहीं।
बीच में मेज पर दस्तखत किए हए कागज़ एक गिलास के नीचे दबे हए फड़फड़ा रहे
हैं। मेज़ के इस ओर शकुन बैठी है और दूसरी ओर वकील चाचा।
कितने दिनों के बाद उसने अजय के हस्ताक्षर देखे थे और देखकर एक अजीब-सी
अनुभूति हुई थी, पर चाहकर भी वह उसे नाम नहीं दे पाई।
एक अध्याय था, जिसे समाप्त होना था और वह हो गया। दस वर्ष का यह विवाहित
जीवन-एक अँधेरी सुरंग में चलते चले जाने की अनुभूति से भिन्न न था। आज जैसे
एकाएक वह उसके अंतिम छोर पर आ गई है। पर आ पहुँचने का संतोष भी तो नहीं है,
ढकेल दिए जाने की विवश कचोट-भर है। पर कैसा है यह छोर ? न प्रकाश, न वह
खुलापन, न मुक्ति का एहसास। लगता है जैसे इस सुरंग ने उसे एक दूसरी सुरंग के
मुहाने पर छोड़ दिया है-फिर एक और यात्रा-वैसा ही अंधकार, वैसा ही अकेलापन।
उसके अपने ही मन में जाने कितने-कितने प्रश्न तैर रहे हैं। क्या ख़ुद उसे अजय
का संबंध भारी नहीं पड़ने लगा था ? क्या वह खुद भी उससे मुक्त होना नहीं
चाहती थी ? तो फिर ? कैसा है यह दंश ? क्या वह आज तक अजय से कुछ अपेक्षा रखती
आई है ?
नहीं, अजय से कुछ न पा सकने का दंश यह नहीं है, बल्कि दंश शायद इस बात का है
कि किसी और ने अजय से वह सब कुछ क्यों पाया, जो उसका प्राप्य था। या कि इस
बात का था कि वह सब कुछ तोड़-ताड़कर निकलती और अजय उसके लिए दुखी होता,
छटपटाता। साथ नहीं रह सकते थे, इसलिए साथ नहीं रह रहे हैं, स्थिति तब भी वैसी
ही रहती, पर फिर भी कितना कुछ बदल गया होता ! यदि अजय के साथ मीरा न होती
बल्कि उसके अपने साथ कोई होता...सच पूछा जाए तो अजय के साथ न रह पाने का दंश
नहीं है यह, वरन् अजय को हरा न पाने की चुभन है यह, जो उसे उठते-बैठते सालती
रहती है।
इन फरफराते पन्नों ने उसके और वकील चाचा के बीच अनजाने ही शायद बहुत बड़ी खाई
खोद दी है, तभी तो चाचा अस्वाभाविक रूप से चुप हो आए हैं। वरना इतनी देर तक
चुप रहना चाचा के लिए संभव नहीं।
दोनों के बीच जबरदस्ती घिर आए इस मौन ने सारी स्थिति को जैसे कहीं और अधिक
जटिल बना दिया। शकुन ने कागज़ों को उठाया और तह करके चाचा की ओर बढ़ाते हुए
बोली, “इन्हें रख लीजिए। आप इतने चुपचाप क्यों हो गए ?"
अपने स्वर की सहजता से वह स्वयं चौंकी। कहीं यह भाव भी जागा कि ऐसी स्थिति
में भी बहुत सहज-स्वाभाविक बने रहने की क्षमता उसमें है ?
चाचा ने इतनी गहरी साँस ली मानो बहुत देर से वे साँस रोके हुए ही बैठे “आख़िर
यह काम भी मेरे ही हाथों होना था। लोग जोड़ते हैं, मैं तोड़नेवाला बना। पता
नहीं। तुम भी क्या सोच रही होगी।"
स्वर की व्यथा शकुन को ऊपर से नीचे तक सहला गई। कोई बहुत ही मीठी-सी बात कहकर
चाचा को आश्वस्त करने का मन हुआ।
“आया तो था कि आज तुमसे बहुत बातें करूँगा, तुम्हें समझाऊँगा, पर क्या बताऊँ
शकुन, कुछ कहते ही नहीं बन रहा है।' उनका स्वर एकदम भर्राया हुआ था।
सीधे-सच्चे मन से निकली हई चाचा की इन बातों में उसे कहीं भी बनावटीपन या
कृत्रिमता की बू नहीं आ रही।
“आप क्यों इतना गिल्टी फ़ील कर रहे हैं...? इसमें नया तो कुछ नहीं हुआ ? जो
था उसे ही तो कानूनी रूप दिया जा रहा है।" और कहने के साथ ही उसे लगा, काश !
वह अपने मन को भी ऐसे ही समझा पाती।
दोनों के बीच फिर मौन घिर आया। वे दोनों और आस-पास का सारा माहौल कुछ अजीब
तरह से स्तब्ध था। केवल पास में पलंग पर सोया बंटी रह-रहकर हाथ-पैर चलाता या
करवट ले लेता।
और फिर एकाएक चाचा ने बात शुरू कर दी, बिना किसी भमिका के। शायद शकुन की बात
ने, उसके स्वर ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था या कि उस संकोच को तोड़ दिया
जिसके नीचे दबे-दबे वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे।
"हो सकता है तुम्हें मेरी कल की बात का बुरा लगा हो। रात में भी मैं इसी बात
पर सोचता रहा था। पर बंटी को तुम्हें हॉस्टल भेज ही देना चाहिए।"
चाचा फिर अपने फ़ॉर्म में आ गए थे, पर शकुन का मन सशंकित हो आया। शकुन जानती
है कि हॉस्टल का आग्रह चाचा के अपने मन की उपज नहीं, वे उसे कलकत्ते से ढोकर
लाए हैं। यह एक आदेश है जो सुझाव के खोल में लपेटकर उसके पास भेजा गया है और
इसीलिए वह बहुत कटु हो आई।
“सात साल से मैं अकेली ही तो बंटी को पाल रही हूँ। उसका हित-अहित मैं दूसरों
से ज़्यादा जानती हूँ।"
“तुम मुझे दूसरों में गिनने लगी हो ? कब से ? यह सही है कि मैं अजय का मित्र
हूँ, कलकत्ते रहता हूँ, पर तुम्हारे लिए भी मेरे मन में कम स्नेह नहीं।
पक्षपात की शिकायत भी करना चाहोगी तो एक बात तक तुम्हें ढूँढ़े नहीं मिलेगी।"
शकुन एक क्षण को भीतर ही भीतर कहीं लज्जित हो आई।
"नहीं, मेरा यह मतलब नहीं, आप गलत समझ गए। मैं तो..."
"खैर छोड़ो !" शकुन को अब सुनना है, बोलने वे नहीं देंगे।
"तुम यह मत सोचो कि केवल अजय ही ऐसा चाहता है, मुझे ख़ुद ऐसा लगता है कि बंटी
को तुम्हें एकदम हॉस्टल भेज देना चाहिए। इट इज़ ए मस्ट !" शकुन चुप।
"तुम भी जानती हो, मैं बहुत साफ़ और दो ट्रक बात कहनेवाला आदमी हूँ। ज़रा
सोचो, स्कूल के अलावा बंटी सारे दिन तुम्हारे साथ रहता है या तम्हारी उस फूफी
के साथ। तुम्हारे यहाँ अधिकतर महिलाएँ ही आती होंगी। यानी इसकी क्या कंपनी है
? बहुत हुआ पड़ोस के एक-दो बच्चों के साथ खेल लिया। पर एक आठ-नौ साल के
ग्रोइंग बच्चे के लिए यह तो कोई बात नहीं हुई न। ही शुड ग्रो लाइक ए बॉय,
लाइक ए मैन।"
शकुन चुपचाप चाचा का मुँह ताकती रही और जानने की कोशिश करती रही कि इसमें से
कितनी बातें चाचा की अपनी हैं और कितनी को वे केवल उस तक पहुँचा रहे हैं।
पर एकाएक अजय बंटी को हॉस्टल भेजने को इतने उत्सुक क्यों हो गए ? उसे सारी
बात में एक अजीब-सी गंध आने लगी। पहले अजय ने अपने को काटा, अब क्या बंटी को
भी शकुन से काटना चाहते हैं। जाने कैसी कड़वाहट-सी उसके तन-बदन में घुलने
लगी।
“बोलो, मैं गलत कह रहा हूँ ? कल मैं देख रहा था कि किस कदर वह अभी भी तुमसे
चिपका-चिपका रहता है। यह सब बहुत नार्मल नहीं है। अपनी उम्र के बच्चों का साथ
उसके लिए बहुत ज़रूरी है। और वह तो उसे इस घर में मिल नहीं सकता।"
थोड़ी देर पहले चाचा के चेहरे पर जो उदासी थी, गिल्ट का जो बोझ था, वह सब पता
नहीं कब बह गया। पर शकुन के मन की टूटन...रोम-रोम को सालता वह दंश तो अभी भी
जैसे का तैसा बना हुआ है। ऊपर से वे सारी बातें ? वकील चाचा को क्या एक बार
भी इस बात का ख़याल नहीं आ रहा कि कितना सह सकती है आख़िर शकुन ?
“अच्छा बताओ, बंटी जिस तरह पल रहा है तुम उससे संतुष्ट हो ?" और जैसे पहली
बार उसका उत्तर सुनने के लिए वे चुप हुए।
“मैं जितना भी संभव हो सकता है, उसके लिए करती हूँ। कॉलेज के बाद का सारा समय
एक तरह से उसी पर देती हूँ, और कर ही क्या सकती हूँ ?"
“ओफ्फोह ! बात तुम्हारे करने की तो नहीं है। इससे किसको इंकार है कि तुम बहत
करती हो, बल्कि जितना नहीं करना चाहिए उतना करती हो। पर उसे तुम हमउम्र
बच्चों की कंपनी तो नहीं दे सकती हो न ?”
और उन्होंने नज़रें शकुन के चेहरे पर गड़ा दीं। एक बार शकुन का मन हुआ कि वह
एक शब्द भी नहीं बोले, ढीठ बनकर सब सुनती चली जाए-देखें, कहाँ तक बोलते हैं ?
क्यों सुने वह अब इन लोगों की बातें ? क्यों माने इन लोगों के सुझाव ? अपने
और बंटी के बारे में वह पूरी तरह स्वतंत्र है, कुछ भी सोचने के लिए, कुछ भी
करने के लिए।
“बोलो !'
“बंटी को हॉस्टल भेजने की बात तो आपने कह दी, पर कभी यह भी सोचा है कि उसे
हॉस्टल भेजकर मैं कितनी अकेली हो जाऊँगी।" और उसका स्वर जैसे एकाएक ही बिखर
गया। वह कहीं से भी अपनी दुर्बलता नहीं दिखाना चाहती थी, पर जाने कैसे गला
भिंच-सा गया।
चाचा की नज़रों की चुभन और भी तीखी हो गई। शकुन को लगा जैसे बात कहने के पहले
या तो वे अपनी बात का वज़न तौल रहे हैं या शकुन के सहने का सामर्थ्य। वह भीतर
ही भीतर कहीं से बेचैन होने लगी। साथ ही मन में एक आक्रोश भी घुलने लगा। बंटी
उसके अधिकार की सीमा है, जिसमें वह किसी को नहीं आने देगी। अपने चेहरे पर
नज़रें टिकाए चाचा उसे बड़े घाघ लगे। एक क्षण को इच्छा हुई, ऊपर से ओढ़ी हुई
इस सद्भावना के रेशे-रेशे बिखेर दे और वात्सल्य में छिपी उस मक्कारी को
उघाड़कर रख दे। कौन-सा दाँव अब चलेंगे...वह अपने को पूरी तरह तैयार करने लगी।
“मुझे डर है शकुन, कहीं तुम अपना अकेलापन ख़त्म करने के चक्कर में बंटी का
भविष्य ही न ख़त्म कर दो ! तुम्हारा यह अतिरिक्त स्नेह उसे बौना ही न छोड़
दे।"
शकुन ऊपर से नीचे तक तिलमिला गई। पर फिर भी उससे एक शब्द तक नहीं कहा गया।
चाचा धीरे-धीरे और सँभल-सँभलकर बोल रहे थे। शायद शकुन के चेहरे की
प्रतिक्रिया भी उन्होंने समझ ली थी और स्थिति की नाजुकता भी।
"चीजों को सही तरीके से लेना सीखो, शकुन ! मैं जानता हूँ कि तुम्हें इस बात
में तरह-तरह की गंध आ रही होगी। जिस स्थिति में तुम हो, उसमें यह बहुत
स्वाभाविक भी है। जब आदमी एक जगह धोखा खाता है तो उसे लगता है, सब जगह धोखा
ही धोखा है। पर ऐसा होता नहीं है।"
शकुन चुपचाप पैर के नाखून से धरती कुरेदती रही। उसे कुछ नहीं कहना, बस वह
करेगी वही, जो उसे ठीक लगेगा।
"बात बंटी के हित की है और सच पूछो तो बंटी से भी ज़्यादा तुम्हारे हित की
है। तुम मानोगी नहीं और कहना भी बड़ा अजीब लगता है, पर मेरे सामने इस समय
तुम्हारी बात ही सबसे प्रमुख है।"
शकुन चौंकी। अब यह कोई नया दाँव है क्या ? अँधेरे में चाचा का चेहरा बहुत
साफ़ नहीं दिखाई दे रहा, पर स्वर में कहीं भी किसी तरह के दाँव-पेंच की गंध
नहीं थी। क्या भरोसा, वकील आदमी ठहरे !
“ज़रा आज से आठ-नौ साल बाद की बात सोचो जब बंटी की अपनी जिंदगी होगी, अपने
स्वतंत्र संबंध होंगे, अपनी इच्छाएँ और अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ होंगी, तब
तुम्हारा कितना अस्तित्व होगा उसकी जिंदगी में ?"
चाचा एक क्षण को रुके। मानो बात को धीरे-धीरे कहकर उसके एक-एक पहलू के
महत्त्व को समझा देना चाहते हों।
“और इस स्थिति की दो ही परिणतियाँ हो सकती हैं...होंगी। या तो तुम उसके
स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करके उस पर हावी होने की कोशिश करोगी और या फिर
अपने को बहुत ही उपेक्षित और अपमानित महसूस करोगी। उस समय तुम्हें यही लगेगा
कि जिसके पीछे तुमने अपनी सारी जिंदगी बरबाद की, वह अब तुम्हें ही भूलकर अपनी
जिंदगी जीने की बात सोच रहा है। उस समय तुम्हें बुरा लगेगा। आज अजय को लेकर
तुम्हारे मन में जो कटुता है, हो सकता है कि वही फिर बंटी को लेकर हो...और आज
से दस गुना ज़्यादा हो..."
शकुन को लगा जैसे कोई पूरे होश-हवास में उसे आरी से चीरे जा रहा है। एक बहुत
ही कट और वीभत्स सच्चाई है, जिसे उसके पूरे नंगेपन में चाचा उसके सामने रखना
चाहते हैं। पर क्यों...क्या वह यह सब नहीं जानती ? या कि उसने इस सब पर नहीं
सोचा है ? दिनों, हफ्तों, महीनों सोचा है। रात-रात-भर जागकर सोचा है, पर यह
सोचना उसे कहीं उबारता नहीं, केवल डुबोता है, गहरे में, और गहरे में।
एक क्षण को कहीं बहुत गहरे में डूबी-डूबी-सी शकुन को चाचा की आवाज़ बड़ी
अस्वाभाविक-सी लगी। वह एकटक चाचा के चेहरे को देखकर भी जैसे कुछ नहीं देख रही
थी।
“जो होना था सो तो हो ही गया, और चलो अच्छा ही हुआ। सारी जिंदगी उस तनाव में
काटने की अपेक्षा तो उससे मुक्त होना लाख गुना अच्छा था। यह क़ानूनी
कार्यवाही हो जाएगी सो भी अच्छा ही रहेगा। यह संबंध ही ऐसा है कि लाख लड़
भिड़ लो, अलग रहने लगो, पर कहीं न कहीं आशा का एक तंतु जुड़ा ही रह जाता है।
वह आशा चाहे जिंदगी-भर पूरी न हो...होती भी नहीं है...फिर भी मन है कि
इधर-उधर नहीं जाता, बस उसी में अटका रह जाता है।"
शकुन का मन हुआ कि साफ़ कह दे कि उसके मन में आशा का कोई भी तंतु-वंतु नहीं
है, पर इतना बड़ा झूठ उससे नहीं बोला गया, सो भी वकील चाचा के सामने। उम्र और
अनुभवों ने सान चढ़ाकर जिनकी नज़रों को बहुत पैना बना दिया है। “पर मैं चाहता
हूँ कि अब तुम अपने बारे में सोचना शुरू करो, बिलकुल नए ढंग से, एकदम
व्यावहारिक स्तर पर।"
शकुन की आँखों में एक बड़ा असहाय-सा भाव उतर आया। क्या रखा है सोचने के लिए
अब उसके पास ?
“तुम सोच रही होगी कि पहले इन कागजों पर दस्तख़त करवाए, फिर बंटी को अलग करने
की बात शुरू कर दी, कितना क्रुएल हूँ मैं, क्यों ? यही सोच रही थी न ?"
"नहीं तो...मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सोचा।" झूठ बोलते समय उसका अपना स्वर शायद
बहुत काँप-सा रहा था, कम से कम उसे ऐसा ही लगा।
“सोचा भी हो तो मैं बुरा नहीं मानूँगा। पर मैं तुम्हें तकलीफ़ देने के लिए
बंटी को अलग नहीं करना चाहता, बिना बंटी को अलग किए भी तुम सोच सको तो अच्छा
है। पर इतना ज़रूर कहूँगा कि तुम केवल बंटी की माँ ही नहीं हो, इसलिए केवल
बंटी की माँ की तरह ही मत जियो, शकुन की तरह भी जियो।"
चाचा का अभिप्राय वह समझ भी रही थी और नहीं भी समझ रही थी।
"ठीक है, जो कुछ भी हुआ, वह बहुत सुखद नहीं है, पर वह अंतिम भी नहीं है। कम
से कम तुम जैसी औरत के लिए वह अंतिम नहीं हो सकता, नहीं होना चाहिए।"
और एकाएक ही शकुन को वह रात याद आ गई, जब इसी तरह आमने-सामने बैठकर चाचा उसे
समझा रहे थे-दो जने साथ रहते हैं तो एडजस्ट तो करना ही पड़ता है शकुन, अपने
को कुछ तो मारना ही पड़ता है। और जब उनके सारे हथियार चुक गए थे तो बड़े हताश
स्वर में बोले थे, “यदि ऐसा ही है तो फिर अच्छा है कि तुम लोग अलग हो जाओ।
संबंध को निभाने की ख़ातिर अपने को ख़त्म कर देने से अच्छा कि संबंध को ख़त्म
कर दो।"
विवाह के बाद से ही उसके जीवन के हर महत्त्वपूर्ण मोड़ के साथ चाचा किसी न
किसी रूप से जुड़े ही हुए हैं। अब फिर किस महत्त्वपूर्ण दिशा की ओर संकेत कर
रहे हैं ये ?
“अगर अजय अपनी जिंदगी की नई शुरुआत कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकती ?
क्यों अपने को इतना बाँध-बाँधकर रखती हो ? आख़िर प्रिंसिपल होने के नाते यहाँ
के भद्र समाज में तुम्हारा उठना-बैठना होगा ही, इस दृष्टि से कभी..." इस बार
शकुन एकाएक जैसे चौंकी। क्या चाचा डॉक्टर जोशी की ओर संकेत कर रहे हैं ? पर
नहीं, जिस बात को पूरी तरह उभरने के पहले ख़ुद उसने मन ही मन में दबा दिया,
उसे चाचा जान ही कैसे सकते हैं ? फिर भी वह हलके से सावधान हो आई।
“तुममें क्या नहीं है ? बुद्धिमान हो, पढ़ी-लिखी हो, प्रिंसिपल हो, सारे शहर
में तुम्हारा मान-सम्मान है।" फिर एक क्षण को ठहरकर हलके से विनोद के साथ
बोले, “परिस्थितियों ने चाहे तुम्हें जितना तोड़ा हो, समय को तुमने अपने ऊपर
हाथ नहीं रखने दिया। रियली यू सीम टू बी एज-प्रूफ।"
और इस वाक्य के साथ ही वातावरण जैसे हलका हो आया। सारी बात को और अधिक सहज
बनाने के लिए उन्होंने फिर कहा, “जो कुछ हो गया उसे भूल जाओ। बीती बातों को
कातते रहना बूढ़ों का स्वभाव होता है। पर तुम तो..."
पास सोये बंटी ने करवट ली और एकदम पलंग की पाटी पर आ गया। शकुन झटके से उठी
और उसे गिरने से बचाया।
"इतना लोटता है कि अगल-बगल में रुकावट न हो तो रात में पाँच-दस बार तो नीचे
ही गिरे।" फिर धीरे से बीच में करके उसे बड़े स्नेह से थपकने लगी।
चाचा ने मेज़ पर से टोपी उठाकर सिर पर रखी और उठने की मुद्रा में बोले, "अरे,
अब छोड़ो ये रुकावटें लगाना। गिरता है तो गिरने दो। कुछ नहीं होता इसतरह
गिरने से। गिर-गिरकर ही बच्चे बड़े होते हैं, बनते हैं।" और वे उठ खड़े हुए।
"इस सिलसिले में मुझे एक अमरीकन की बात याद आती है। वह कुछ महीनों यहाँ रहा
था और देखने-सुनने के बाद बोला था कि हिंदुस्तानी लोग बच्चों से प्रेम नहीं
करते, उन्हें बच्चों से मोह होता है, अंधा मोह। सच कहता हूँ तब मुझे बड़ा ताव
आ गया था उस पर, पर बाद में सोचा, वह ठीक ही कहता था। एक आम हिंदुस्तानी
बच्चे की सही ढंग से परवरिश करना जानता ही नहीं। प्यार और देखभाल के नाम पर
माँ-बाप ही अपने को इतना थोपे रहते हैं बच्चे पर कि कभी वह पूरी तरह पनप ही
नहीं पाता।"
और अपनी छड़ी उठाकर वे एकदम खड़े हो गए। उनसे दुगुनी उनकी छाया लॉन में लेट
गई।
"यह क्या आप एकदम ही चल दिए ?"
“और नहीं तो क्या ? साढ़े दस तो बज गए। वैसे भी आज सवेरे का निकला हुआ हूँ।"
"कल तो चले जाएँगे न ?''
"बस, कल कूच !"
“अगला चक्कर कब लगेगा अब आपका ?" साथ-साथ चलते हुए ही शकुन ने पूछा।
“अपना आना अपने मुवक्किलों के हाथ है, जब भी किसी की तारीख पड़ जाए।"
आगे बढ़कर शकुन ने फाटक खोला। चाचा घूमकर खड़े हो गए। “देखो शकुन, मेरी बातों
पर ज़रा गंभीरता से सोचना, जो कुछ मैंने कहा, वह महज तसल्ली देने के लिए
नहीं, बल्कि आई मीन इट !" और उन्होंने बड़े स्नेह से शकुन का कंधा थपथपाया तो
शकुन भीतर तक भीग आई। फिर एक क्षण रुककर बोले, "देखो, अब जब भी तारीख पड़ेगी
अजय आ जाएगा, बस एक दस मिनट के लिए कोर्ट जाना होगा। इस किस्से को भी ख़त्म
ही करो। अच्छा !"
और वे घूम पड़े। अँधेरे में तेज़-तेज़ कदमों से चलता हुआ उनका आकार
छोटे-से-छोटा होता चला गया और फिर मोड़ पर जाकर अदृश्य हो गया। पर शकुन जहाँ
की तहाँ खड़ी रही।
चाचा की उपस्थिति के, स्वर की आत्मीयता के और लाजवाब तर्कों के जादू ने उसके
मन की सारी शंकाओं और संदेह को दूर कर दिया था। मंत्रविद्ध-सी उसने चाचा की
एक-एक बात पर विश्वास कर लिया था और उसे चाचा की सारी बातों में अपना हित ही
नज़र आया था, पर चाचा के अंतिम वाक्य ने जैसे एक झटके-से सारा जादू तोड़
दिया।
कुछ नहीं, वे केवल उससे हस्ताक्षर करवाने आए थे...कहीं वह अड ही जाती तो अजय
के लिए एक संकट पैदा हो सकता था। 'मीरा इज़ एक्सपेक्टिंग' चाचा के शब्द उभरे।
तो इसीलिए यह सारा जाल रचा गया था। यह बात तो अजय भी लिख सकता था, पर शायद
इसीलिए चाचा को भेजा गया कि कोई रास्ता बाकी न रह जाए शकुन के बच निकलने के
लिए। तारीख़ भी जल्दी ही डलवानी है, बच्चा होने से पहले सारा रास्ता साफ़ कर
ही लेना है।
वह फिर छली गई, वह फिर बेवकूफ बनाई गई। उसका रोम-रोम जैसे सुलगने लगा।
वे बंटी को हॉस्टल भेजना चाहते हैं, शायद उसे भी धीरे-धीरे कब्जे में कर लेना
चाहते हैं। पर वह बंटी को कभी भी हॉस्टल नहीं भेजेगी। वह जानती है, अजय बंटी
को बहुत प्यार करता है, पर अब से वह बंटी को मिलने भी नहीं देगी। बंटी से न
मिल पाने की वजह से अजय को जो यातना होगी उसकी कल्पना मात्र से उसे एक
क्रूर-सा संतोष मिलने लगा।
मरे-मरे हाथों से शकुन ने गेट बंद किया और किसी तरह अपने को घसीटती हुई पलंग
तक लाई। बंटी सोया था, बेख़बर और निश्चित। ज़रूर किसी राजा-रानी और परियों के
सपनों में खोया होगा। रोज़ कहानी सुनता है, पढ़ता है और फिर ऐसे ही सपने
देखता है।
उसने झुककर उसे एक बार प्यार किया। उसके माथे पर बालों की जो लटें छितरा आई
थीं, उन्हें समेटकर पीछे किया। लगा, बंटी का शरीर एकदम ठंडा हो आया है। बाहर
ठंडक बहुत ज्यादा बढ़ चुकी थी, अपने में ही डूबे-डूबे उसे पता ही नहीं लगा।
उसने जल्दी में बंटी को गोद में उठाकर साड़ी का पल्ला उसके चारों ओर लपेट
दिया और उसे भीतर ले आई।
बहुत ही धीरे-से सँभालकर उसने उसे पलंग पर सुला दिया...जैसे कुछ बहुत ही
अमूल्य, बहुत ही क़ीमती हो।
और तब एक अजीब-सी भावना मन में आई-बंटी केवल उसका बेटा ही नहीं है, वह हथियार
भी है, जिससे वह अजय को टारचर कर सकती है, करेगी।
और जब वह खुद पलंग पर लेटी तो सबसे पहला चेहरा डॉक्टर जोशी का ही उभरा-वह
चेहरा, जो एक समय बार-बार उभरने लगा था अपनी अनेक-अनेक मुद्राओं के साथ। पर
जिसको उसने बरबस ही अपने से परे हटा दिया था। इधर चार-पाँच महीनों से कोई पता
ही नहीं।
एक तो शहर का सबसे बड़ा डॉक्टर, फिर शकुन का निहायत ही सर्द और जड़ व्यवहार।
आज अचानक फिर से सब कुछ याद हो आया। पिछली सर्दियों में बंटी बीमार हो गया था
तो कितनी आत्मीयता और एहतियात से सँभाला था उसे। केवल बंटी को ही नहीं, बुखार
के बढ़ते हर पाइंट के साथ हौसला खोती और घबराती शकुन को भी सँभाला था।
बीमारी के कारण ही दोनों का परिचय हुआ था। धीरे-धीरे कारण हट गया, बस परिणाम
बाकी रह गया। वह पति से अलग होकर रहती है, यह शायद सारा शहर जानता है, इसलिए
एक बार भी बंटी के पापा के बारे में नहीं पूछा था। हाँ, अपनी पत्नी की मृत्यु
का समाचार ज़रूर दे दिया था और फिर बिना कुछ कहे ही बहुत-कुछ कह दिया था।
शायद ऐसी बातें कभी शब्दों की मुहताज नहीं रहतीं।
जब-तब बंटी के समाचार जानने या कि ‘ऐसे ही इधर से जा रहा था' का सहारा लेकर
आते रहे थे। चाय-पानी होता था, बातचीत होती थी, पर शकुन उन सारे संकेतों के
प्रति उसी उत्साह या ललक के साथ रिएक्ट नहीं कर पाती थी।
और फिर शकुन की उदासी के कारण ही सब कुछ समाप्त हो गया। शायद शुरू होने से
पहले ही। किशोर उम्रवाली भावुकता तो थी नहीं कि आदमी खाना-सोना तक भूल जाए।
बड़े नामालूम-से ढंग से सब शुरू हुआ था और वैसे ही ख़त्म भी हो गया। बस एक
हलका-सा अक्स उसके मन पर कहीं रह गया था, आज अनजाने ही वकील चाचा उस पर से
समय की धूल पोंछ गए।
चेहरा उभरने के साथ ही पहली बात मन में आई-अजय के मुकाबले में जोशी कैसे हैं?
और दूसरी बात आई-मीरा के मुकाबले में कैसे हैं ? मीरा को उसने नहीं देखा। बस
सुना है उसके बारे में। अनेक काल्पनिक चेहरे भी उभरे हैं मन में। पहले वह उन
काल्पनिक चेहरों की तुलना अपने से किया करती थी। वह तुलना बहुत स्वाभाविक भी
थी। पर जोशी और मीरा के मुकाबले की क्या तुक भला ? फिर भी मन है कि बार-बार
कुछ तौल-परख रहा है। उसे याद है, पहले भी जब-जब उसने जोशी के बारे में कुछ
सोचा था, अनजाने और अनचाहे ही हमेशा अजय आकर उपस्थित हो गया था...केवल अजय ही
नहीं, कहीं मीरा भी आकर उपस्थित हो जाती थी। उसे साफ़ लगता था कि जोशी या
किसी का भी चुनाव उसे करना है तो जैसे अपने लिए नहीं करना है, अजय को दिखाने
के लिए करना है...मीरा की तुलना में करना है। पर जब-जब यह भावना उठी उसने
स्वयं अपने को बहुत धिक्कारा, अपनी भर्त्सना की। क्यों नहीं वह अपने लिए जीती
है, अपने को लक्ष्य बनाकर जी पाती।
पर आज फिर अजय आकर खड़ा हो गया, अनदेखी मीरा आकर खड़ी हो गई। उसने अभी-अभी
हस्ताक्षर करके दिए हैं, कम से कम अब तो वह इन सबसे मुक्त हो जाए। उसे मुक्त
होना ही है, एक नई जिंदगी की शुरुआत करनी ही है।
पर फिर मन में कहीं तैर ही गया। अजय को उसे दिखा ही देना है कि वह अगर एक नई
जिंदगी की शुरुआत कर सकता है तो वह भी कर सकती है। नहीं, उसे किसी को कुछ
नहीं दिखाना है। जो कुछ भी करना है, अपने लिए करना है। और तब उसने बरबस ही सब
चेहरों को परे धकेल दिया...
केवल जोशी का चेहरा बड़ी देर तक आँखों के सामने टँगा रहा।
आपका बंटी (उपन्यास) : चार
आज पापा आनेवाले हैं।
दस बजे बंटी को सरकिट हाउस पहँच जाने को लिखा है। ममी हैं कि पता नहीं कैसा
मुँह लिए घूम रही हैं। न हँसती हैं, न बोलती हैं। बस गुमसुम। इस बार वकील
चाचा के जाने के बाद से ही ममी ऐसी हो गई हैं। वकील चाचा भी एक ही हैं बस।
ख़ुद तो बोल-बोलकर ढेर कर देंगे और ममी बेचारी की बोलती बंद कर जाएँगे। पता
नहीं क्या हो गया है ममी को ? उसे देखना शुरू करेंगी तो देखती ही रहेंगी, ऐसे
मानो उसके भीतर कुछ ढूँढ़ रही हों। रात को कहानी भी नहीं सुनातीं। ज़्यादा
कहो तो कह देती हैं, 'सो जा, कल सुनाऊँगी। वह तो सो ही जाता है, पर ममी को
ऐसा करना चाहिए ?
उस दिन रात में पता नहीं कब बंटी की नींद खुल गई। देखा, दूर पेड़ के नीचे कोई
खड़ा है। डर के मारे उससे तो चीख़ा तक नहीं गया था, बस साँस जैसे घुटकर रह गई
थी। और वे ममी निकलीं। उसके बाद कितनी देर तक ममी उसे थपकती रहीं, दिलासा
देती रहीं, पर भीतर दहशत जैसे जमकर बैठ गई थी। आधी रात को ऐसे कहीं घूमा जाता
होगा ? चाचा जो कह गए थे गड़बड़ होने की बात। वह बिलकुल ठीक है। ज़रूर कुछ
गड़बड़ हुआ है। ममी पहले तो ऐसी नहीं थीं। पर वह क्या करे ? ममी जब चुप-चुप
हो जाती हैं तो उसका मन बिलकुल नहीं लगता।
परसों ही तो पापा की चिट्ठी आई थी। लिफ़ाफ़े पर ममी का नाम लिखा था। पिछली
बार तो लिफ़ाफे पर भी उसका नाम था। अंदर भी दो काग़ज़ निकले, एक ममी खुद
पढ़ने लगीं, दूसरा उसे पकड़ा दिया। तो क्या ममी के पास भी पापा की चिट्ठी आई
है ? ममी-पापा क्या दोस्ती करनेवाले हैं ? उसने अपनी चिट्ठी पढ़ ली और फिर
ममी की ओर ध्यान से देखने लगा। ममी क्या ख़ुश नज़र आ रही हैं ? कहीं कुछ
नहीं, बस वैसे ही चुप बैठी हैं, मानो पापा की कोई चिट्ठी ही नहीं आई हो। एक
बार उसकी चिट्ठी पढ़ने तक के लिए नहीं माँगी। पिछली बार तो केवल उसी के पास
चिट्ठी आई थी और उसे पढ़कर ही ममी कितनी प्रसन्न हुई थीं। पापा के पास भेजने
से पहले उसे अपनी बाँहों में भरकर इतना प्यार किया था, इतना प्यार किया था,
मानो वह कहीं भागा जा रहा हो। और जब वह लौटकर आया था तो ममी उससे सवाल पर
सवाल पूछे जा रही थीं... 'और क्या कहा और क्या कहा'... के मारे परेशान कर
दिया था।
ममी से छिपकर उसने ममीवाला पत्र उठाकर देखा, घसीटी हुई अंग्रेज़ी की चार-छह
लाइनें थीं, वह कुछ भी समझ नहीं सका। उसका पत्र हिंदी में था और बड़े-बड़े
साफ़ अक्षरों में।
परसों रात को जब वह सोया तो बराबर उम्मीद कर रहा था कि ममी ज़रूर पहले की तरह
प्यार करेंगी, कुछ कहेंगी। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा, सिर्फ पूछा, 'त जाएगा
पापा के पास ?' यह भी कोई पूछने की बात थी भला ! पापा आ रहे हैं और वह जाएगा
नहीं ? उसके बाद ममी बोली नहीं।
इस समय ममी उदास बिलकुल नहीं हैं। ममी की उदासी वह खूब पहचानता है। बिना आँसू
के भी आँखें कैसी भीगी-भीगी हो जाती हैं।
अच्छा है, बैठी रहें ऐसी ही। वह तब पापा के पास जाकर खूब घूमेगा, चीजें
खरीदेगा, हाँ, नहीं तो।
वह जल्दी-जल्दी तैयार हो रहा है और मन ही मन कहीं उन चीज़ों की लिस्ट तैर रही
है जो उसे माँगनी है। कैरम-बोर्ड जरूर लेगा, एक व्यू मास्टर भी।
“दूध-दलिया खा लो।" फूफी अलग ही अपना मुँह फुलाए घूम रही है। पिछली बार भी
पापा आए थे तो यह ऐसे ही भन्ना रही थी, जैसे इसकी भी पापा से लड़ाई हो।
“मैं नहीं खाता दूध-दलिया। बस रोज़ सड़ा-सा दूध-दलिया बनाकर रख देती है।"
“बंटी, क्या बात है ?" कैसी सख्त आवाज़ में बोल रही हैं ममी। बंटी भीतर ही
भीतर सहम गया। धीरे-से बोला, “हमें अच्छा नहीं लगता दूध-दलिया।"
"क्यों, दूध-दलिया तो तुझे खूब पसंद है। एक दिन भी न बने तो शोर मचा देता है।
आज ही क्या बात हो गई ?"
"पसंद है तो रोज-रोज वही खाओ, एक ही चीज बस। मैं नहीं खाता।"
"देख रही हूँ जैसे-जैसे तू बड़ा होता जा रहा है, वैसे ही वैसे ज़िद्दी और ढीठ
होता जा रहा है। अच्छा है, भद उड़वा सबके बीच मेरी।"
कैसे बोल रही हैं ममी ! इसमें भद्द उड़वाने की क्या बात हो गई ! वह नहीं
खाएगा दूध-दलिया, बिना नाश्ता किए ही चला जाएगा।
वह मेज़ से उठ गया तो ममी ने एक बार भी नहीं कहा कि कुछ और बना दो ! न कहें,
उसका क्या जाता है ?
हीरालाल को कल ही कह दिया था कि ठीक नौ बजे आ जाना। साढ़े नौ बज रहे हैं, पर
उसका पता नहीं। बंटी बेचैनी से इधर-उधर घूम रहा है। थोड़ी-थोड़ी देर में घड़ी
देख लेता है। ममी किताब लेकर ऐसे बैठ गई हैं, जैसे समय का उन्हें कुछ होश ही
नहीं हो। वह बताए कि साढ़े नौ बज गए। पर क्या फ़ायदा, कह देंगी अभी आता होगा।
वह सब समझता है। अब उतना बुद्ध नहीं है। ममी को शायद अच्छा नहीं लग रहा है कि
बंटी पापा के पास जा रहा है। पर क्यों नहीं लग रहा है ? उसकी तो पापा से
लड़ाई नहीं है। पर ऐसा होता है शायद !
एक बार क्लास में विभू से उसकी लड़ाई हो गई थी तो उसने अपने सब दोस्तों की
विभू से कुट्टी नहीं करवा दी थी ? शायद ममी भी चाहती हैं कि वह भी पापा से
कुट्टी कर ले। तो ममी उसे कहतीं। अच्छा मान लो ममी उससे कहती तो वह कुट्टी कर
लेता ? और उसके मन में न जाने कितनी चीजें तैर गईं-कैरम-बोर्ड,
व्यू-मास्टर...मैकेनो...ग्लोब...
तभी हीरालाल की छोटी लड़की आई, “बापू को ताप चढ़ा है, वे नहीं आ सकेंगे।"
"क्या हो गया ?" ममी की आवाज़ में जरा भी परेशानी नहीं है। हाँ, उनका क्या
बिगड़ता है। वे तो चाहती ही हैं कि मैं नहीं जाऊँ। मैं ज़रूर जाऊँगा, चाहे
कुछ भी हो जाए।
“भोत ज़ोर का ताप चढ़ा है, सीत देकर। वे तो गुदड़े ओढ़कर पड़े हैं, मुझे
इत्तिला देने को भेजा है।" और वह चली गई।
“अब ?" बंटी रोने-रोने को हो आया।
ममी एक क्षण चुप रहीं। फिर फूफी को बुलाकर कहा तो फूफी अलग मिज़ाज दिखाने
लगी, "बहुजी, मैं नहीं जाऊँगी वहाँ।"
"क्यों ? बस तुम ही मुझे छोड़कर आओगी।" बंटी फूफी का हाथ पकड़कर झूल आया,
"जल्दी चलो, अभी चलो।"
“छोड़ आओ फूफी, वरना कौन ले जाएगा ?” कैसी ठंडी-ठंडी आवाज़ में बोल रही हैं।
जैसे, कहना है, इसलिए कह रही हैं बस। ले जाए, न ले जाए, कोई फ़रक नहीं
पड़ेगा।
फूफी एकदम बिफर पड़ी, “कोई नहीं है ले जानेवाला तो नहीं जाएगा। मिलने की ऐसी
ही बेकली है तो ख़ुद आकर ले जाएँगे। इस घर में आ जाने से तो कोई धरम नहीं
बिगड़ जाएगा। आप जो चाहे सज़ा दे लो बहूजी, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। मुझसे तो,
आप जानो..."
और बड़बड़ाती हुई फूफी चली गई। ममी ने कुछ भी नहीं कहा। ममी का अपना काम होता
तो कैसे बिगड़तीं। अब फूफी को कहो न कि बिगड़ती जा रही है, ढीठ होती जा रही
है। बस डाँटने के लिए मैं ही हूँ। ठीक है कोई मत ले जाओ मुझे। और बंटी एकदम
वहीं पसरकर रोने लगा।
“रो क्यों रहा है ? यह भी कोई रोने की बात है भला ? ठहर जा, कॉलेज के माली को
बुलवाती हूँ।"
ममी माली को समझा रही हैं, “देखो, कह देना कि आठ बजे तुम लेने आओगे इसलिए
जहाँ कहीं भी हों, आठ बजे तक सरकिट हाउस पहुँच जाएँ। तू भी कह। देना रे। आठ
से देर नहीं करें, समझे !' कैसी सख्त-सख्त आवाज़ में बोल रही हैं, एकदम
प्रिंसिपल की तरह।
रास्ते में भी बंटी सोचता गया कि बहुत सारी बातें हैं जो वह पापा से पूछेगा।
ममी से पूछी नहीं जातीं। कभी शुरू भी करता है तो या तो ममी उदास हो जाती हैं
या सख्त। उदास ममी बंटी को दुखी करती हैं और सख्त ममी उसे डराती हैं। और इधर
तो ममी को पता नहीं क्या कुछ होता जा रहा है। पास लेटी ममी भी उसे बहुत दूर
लगती हैं। उसके और ममी के बीच में ज़रूर कोई रहता है। शायद वकील चाचा की कही
हुई कोई बात, शायद कोई गड़बड़ी। उसे कोई कुछ नहीं बताता, वह अपने-आप समझे भी
क्या ? ममी की बात तो पापा से भी नहीं पूछी जा सकती है।
पर एक बात वह ज़रूर पूछेगा कि क्या तलाकवाली कुट्टी में कभी अब्बा नहीं हो
सकती ? अगर पापा भी साथ रहने लगें तो कितना मज़ा आए ! पर ऐसी बात पूछने पर
पापा ने डाँट दिया तो ?
पापा बाहर ही मिल गए। बंटी देखते ही दौड़ गया और पापा ने उठाकर छाती से लगा
लिया, "बंटी बेटा !" और दोनों गालों पर ढेर सारे किस्सू दे दिए।
"इतनी देर क्यों कर दी, हम तो कब से राह देख रहे हैं तुम्हारी।"
“हीरालाल बीमार पड़ गया, कोई लानेवाला ही नहीं था।"
माली ने आठ बजेवाली बात कही तो पापा बड़ी लापरवाही से बोले, "हाँ-हाँ, ठीक
है, आ जाना आठ बजे !" और बंटी को लेकर भीतर आ गए।
कुछ किताबें, एक मैकेनो और टाफ़ी का एक डिब्बा बंटी के सामने फैले पड़े हैं।
"पसंद हैं सब ?"
“मुझे कैरम-बोर्ड और व्यू-मास्टर चाहिए।" बड़े शरमाते हुए बंटी ने कहा।
“अरे, तो तुम हमको लिख भेजते। तुम तो हमें कभी चिट्ठी ही नहीं लिखते।
अच्छा कोई बात नहीं, अगली बार दिलवाएँगे।"
बंटी का मन हुआ कि यहीं से दिलवाने को कह दें। पर कहा नहीं गया। ममी होतीं तो
ज़िद करके ले लेता।
“तुम तो इस बार बहुत बड़े हो गए।" पापा उसे एकटक देख रहे हैं। वह झेंप गया।
पापा हैं कि एक के बाद एक प्रश्न पूछे जा रहे हैं।
“पढ़ाई कैसी चल रही है ? अच्छे नंबर लाते हो न ?''
“कल हमारे यहाँ इन्स्पेक्शन था। मैंने खूब अच्छे जवाब दिए तो इन्स्पेक्टर
साहब ने मुझे शाबाशी दी और सर ने भी।"
"शाबाश ! लो हमने भी शाबाशी दे दी !" और पापा ने उसकी पीठ थपथपा दी।
“और खेल कौन-कौन से खेलते हो ?''
“ताश, लूडो, कैरम..."
“क्या कहा, ताश लूडो, कैरम-धत्तेरे की ! यह भी कोई खेल हुए, लड़कियों के।
क्रिकेट खेलो, हॉकी खेलो, कबड्डी खेलो, लड़कोंवाले खेल खेलो। घर से बाहर
निकलकर भागने-दौड़नेवाले..
“अच्छा, पेड़ पर चढ़ सकते हो ?''
"नहीं, ममी डाँटती हैं, कहती हैं, गिर जाएगा !"
"तैरना सीखा ? तैरने की कोई जगह है ?"
"पता नहीं।"
“साइकिल चलाना आता है छोटी, दो पहिएवाली ?"
“ममी कहती हैं, जब दस साल का हो जाऊँगा तब दिलवाएँगी।"
"दोस्त कितने हैं ?"
"टीटू !"
"कौन है टीट् ?"
“घर के पास रहता है। हमारे स्कूल में पढ़ता है, पर मुझसे एक क्लास आगे है। और
कुन्नी है।"
“कुन्नी कौन ?''
"शर्मा साहब की लड़की है, मेरी दोस्त। उनका घर भी उधर ही है। हमारे घर के
पीछे चलिए, फिर इधर को मुड़िए, फिर थोड़ा-सा चलिए, बस उनका घर आ जाता है।"
इतनी अच्छी तरह समझाया फिर भी पापा हँस रहे हैं। “और कौन दोस्त है ?" "कोई
नहीं।"
"बस, कुल दो दोस्त !"
“नहीं, स्कूल में तो बहुत सारे हैं। पर उनके घर तो दूर-दूर हैं।"
"तुम्हारा मन कैसे लगता है सारे दिन ? बच्चों को तो खूब दोस्तों के साथ रहना
चाहिए, खूब खेलना चाहिए।"
"लग जाता है। ममी खूब कहानियाँ सुनाती हैं, खूब ! ताश भी खेलती हैं। फिर मैं
किताबें पढ़ता हूँ। ड्राइंग बनाता हूँ। खूब सारी पेंटिंग बना रखी हैं मैंने।
अच्छी-अच्छी तो ममी ने कमरे में लगा दीं।"
“अच्छा, इस बार हमारे लिए भी एक बनाना। हम भी अपने कमरे में लगाएँगे।"
तो एक क्षण को बंटी पापा का चेहरा देखता रहा। कह दे कि पापा हमारे साथ क्यों
नहीं रहते ? इस घर में तो मेरी पेंटिंग लगी ही हुई हैं। पापा इसी घर को अपना
घर क्यों नहीं बना लेते ? अलग घर में क्यों रहते हैं ? इस घर में मेरा बगीचा
भी तो है-खूब सुंदर-सा।
"इस बार छुट्टियों में कलकत्ता चलोगे हमारे साथ ?"
बंटी ने बड़ी सशंकित-सी नज़र से पापा की ओर देखा। उसे साथ चलने को क्यों कह
रहे हैं, पहले तो कभी नहीं कहा ?
"बहुत मज़ा आएगा, खूब घूमेंगे। बोलो ?"
“ममी चलेंगी तो चलूँगा।"
“छी-छी, इतने बड़े होकर भी ममी के बिना नहीं रह सकते। यह गंदी बात है बेटे !
अब तुम्हें ममी के बिना रहने की आदत डालनी चाहिए। तुम क्या लड़की हो जो ममी
से चिपटे-चिपटे फिरते हो ?''
बंटी बहुत संकुचित हो आया। भीतर ही भीतर कहीं गुस्सा भी आने लगा। फूफी ऐसा
कहती तो मज़ा चखा देता। पापा से क्या कहे ? पर पापा ऐसी बात कहते ही क्यों
हैं ? ख़ुद तो ममी के साथ नहीं रहते, चाहते हैं वह भी नहीं रहे। बहुत चालाक
हैं। एकाएक उसके मन में सामने बैठे पापा के लिए गुस्सा उफनने लगा। बहुत मन
हुआ पूछे, आप ममी को भी साथ लेकर क्यों नहीं चलते ? उसने एक उड़ती-सी नज़र
डाली। पता नहीं पापा उसकी बात से कहीं नाराज़ हो जाएँ तो ? वह पापा को जानता
ही कितना है ? ममी की तो हर बात का उसे पता है, पर पापा...
“बोलो, इस बार छुट्टियों में तुम्हें वहाँ बुलवाने का इंतज़ाम करें ?
छुट्टियाँ ख़त्म हो जाएँगी तो वापस भिजवा देंगे। नई-नई चीजें
देखोगे-विक्टोरिया मेमोरियल, बोटेनिकल गास, लेक्स, जू...।"
और पापा एक-एक चीज़ के बारे में विस्तार से बताने लगे। बड़ा शहर, बड़े शहर की
बड़ी-बड़ी इमारतें, बड़ी-बड़ी बातें। और थोड़ी देर पहले समाया हुआ बंटी के मन
का संकोच और भय इन बातों के बीच घुलने लगा। एक-एक जगह के कई-कई चित्र उसकी
आँखों के सामने बनने-बिगड़ने लगे।
मन में एक साथ ही जाने कितना उत्साह और कौतूहल जाग उठा।
"वहाँ सब बँगला में बोलेंगे तो मैं क्या करूँगा ?"
"वहाँ सब मछली-भात खाते हैं ? तब तो सारे शहर में भछली की बदबू है। आती रहती
होगी !"
"तेरह-चौदह तल्ले का मकान कितना ऊँचा होगा ?" और वह नज़र ऊँची करके अंदाज़
लगाने लगा।
“हुगली में जहाज भी तो चलते हैं ? हम देख सकते हैं भीतर तक जाकर ?''
"पी.सी. सरकार भी तो वहीं रहता है ? आपने जादू देखे हैं उनके ? कमाल ? सात
बौनोंवाली कहानी के जादूगर जैसा है पी.सी. सरकार। अच्छा पापा, बंगाल की
जादूगरनियाँ देखी हैं आपने, जो आदमी को भेड़ बनाकर रख लेती हैं ? जादू के
ज़ोर से आदमी वेश बदल सकता है ?"
और हर उत्तर के साथ उसके सामने कौतूहल-भरी एक नई दुनिया खुलती जा रही है। वह
मुग्ध-सा सुन रहा है और कल्पना की आँखों से बहुत कुछ देख भी रहा है।
पर 'बोलो आओगे छुट्टियों में ?' के साथ ही सारा जादू एक झटके के साथ टूट गया।
नहीं बिना ममी के वह नहीं जाएगा, जा ही नहीं सकता।
खाना खाकर पापा ने कहा, “चलो, थोड़ी देर सो लेते हैं। शाम को फिर घूमने
चलेंगे। दोपहर में तो सोते हो न ?"
उसने यों ही सिर हिला दिया। पापा ने उसे पलंग पर लिटा दिया और खुद नीचे लेट
गए। ममी होती तो साथ ही सला लेतीं। लेटते ही पापा को नींद आ गई। बंटी क्या
करे, उसे नींद ही नहीं आती। यहाँ से तो निकलकर भी नहीं जा सकता। थोड़ी देर तो
वह चुपचाप लेटा-लेटा कलकत्ता ही देखता रहा, फिर एकाएक उसे घर की याद आने लगी।
ममी की याद आने लगी। वह शाम को आता तभी ठीक था।
लो, पापा की तो नाक भी बजने लगी-घुर्रऽऽऽऽ खू, घुर्रऽऽऽऽ खूँ।
बंटी को हँसी आने लगी। वह एकटक पापा के चेहरे की ओर देखने लगा। बिना चश्मे के
कैसा लग रहा है पापा का चेहरा ? उसे ख़याल आया उसने इतने गौर से तो पापा का
चेहरा कभी देखा ही नहीं।
ममी के चेहरे की तो एक-एक लाइन उसकी जानी-पहचानी है। पापा के हाथों में बाल
कितने बड़े-बड़े हैं। और तभी आँखों के सामने ममी की चूड़ीवाली कलाई उभर आई।
बंटी बहुत ऊबने लगा तो पापा की लाई हुई किताबों में से एक किताब शुरू कर दी।
शाम को ताँगे में बिठाकर पापा ने उसे घुमाया। आइसक्रीम खिलाई, चाट खिलाई।
गन्ने का रस पिलाया। बंटी सोच रहा था कि पापा शायद कुछ चीजें और दिलवाएँगे।
लेकिन उन्होंने कुछ नहीं दिलवाया तो बंटी को थोड़ी-सी निराशा हुई। पर फिर भी
उससे माँगा नहीं गया। खा-पीकर, घूम-फिरकर शाम को वे लोग वापस आ गए। ताँगे से
उतरकर बंटी भीतर जाने लगा कि एकदम पापा की चिल्लाहट सुनाई दी। मुड़कर देखा।
पापा ताँगेवाले को डाँट रहे थे। पता नहीं ताँगेवाले ने क्या कहा कि पापा और
ज़ोर से चिल्लाए, “झूठ बोलते हो ? घड़ी देखकर ताँगा किया था। मैं एक पैसा भी
ज़्यादा नहीं दूंगा।"
बंटी सहमकर जहाँ का तहाँ खड़ा हो गया।
ताँगेवाले ने कुछ कहा और कूदकर ताँगे से नीचे उतर आया। पापा एकदम चीख पड़े,
“यू शट अप ! ज़बान सँभालकर बात करो। जितना रहम खाओ उतना ही सिर पर चढ़े जा
रहे हैं, जूते की नोक पर ही ठीक रहते हैं ये लोग..." पापा का चेहरा एकदम
सुर्ख हो रहा था और आँखों से जैसे आग बरस रही थी। बंटी की साँस जहाँ की तहाँ
रुक गई। चपरासी और दरबान ने बीच-बचाव करके ताँगे को रवाना किया।
पापा अभी भी जैसे हाँफ रहे थे और बंटी सहमा हुआ था। उसने पापा को कभी गुस्सा
होते हुए तो देखा ही नहीं। एकाएक ख़याल आया, कभी इस तरह उस पर गुस्सा हों तो
? वह भीतर तक काँप गया। एकाएक उसे बड़ी ज़ोर से ममी की याद आने लगी। अब वह
एकदम ममी के पास जाएगा। माली आया या नहीं ?
तभी चपरासी ने कहा, “बाबा को लेने के लिए आदमी आया था। आधा घंटे तक बैठा भी
रहा, अभी-अभी गया है, बस आपके आने के पाँच मिनट पहले ही।"
बंटी की आँखों में आँसू आ गए। किसी तरह उन्हें आँखों में ही पीता हुआ वह बड़ी
असहाय-सी नज़रों से पापा की ओर देखने लगा। मन में समाया हुआ एक अनजान डर जैसे
फैलता ही जा रहा था।
पापा ने एक बार घड़ी की तरफ़ नज़र डाली, “चपरासी चला गया तो ? यह भी अच्छा
तमाशा है, घड़ी देखकर घर में घुसो। जो समय उधर से दिया गया है उसी में
घूमो-फिरो और लौट आओ। नॉनसेंस !"
एकाएक ही बंटी की छलछलाई आँखें बह गईं। पता नहीं माली के लौट जाने की बात
सुनकर या पापा का गुस्सा देखकर या कि इस भय से कि पापा कहीं रात में यहीं
रहने को न कह दें। दो दिन से पापा को लेकर जो उत्साह मन में समाया हुआ था, वह
एकदम बुझ गया और सामने खड़े पापा उसे निहायत अजनबी और अपरिचित-से लगने लगे।
“अरे तुम रो क्यों रहे हो ? रोने की बात क्या हो गई ?"
"माली चला गया, अब मैं घर कैसे जाऊँगा ?" सिसकते हुए बंटी ने कहा।
“पागल कहीं का ! यहाँ क्या जंगल में बैठा है ? मैं नहीं हूँ तेरे पास ?"
"ममी के पास जाऊँगा।" रोते-रोते ही बंटी ने कहा।
"हाँ-हाँ, तो मैंने कब कहा कि ममी के पास नहीं जाओगे।"
“पर माली तो चला गया ?"
"चला गया तो क्या ? मैं तुम्हें छोड़कर आऊँगा, बस।"
बंटी ने ऐसे देखा जैसे विश्वास नहीं कर रहा हो। कहीं उसे बहका तो नहीं रहे।
अभी चुप करने के लिए कह दें और फिर कहने लगें कि सो जाओ।
पापा ने पास आकर उसका माथा सहलाया, गाल सहलाए तो टूटा विश्वास जैसे फिर
जुड़ने लगा। पापा फिर अपने लगने लगे।
“पागल कहीं का ! इतना बड़ा होकर रोता है ममी के लिए।" तो अँसुवाई आँखों से ही
बंटी हँस दिया। भीतर ही भीतर बड़ी शरम महसूस हुई अपने ऊपर। सचमुच उसे इतनी
जल्दी रोना नहीं चाहिए। बच्चे रोया करते हैं बात-बात पर तो, वह तो अब बड़ा हो
गया है। अब कभी नहीं रोएगा इस तरह।
बंटी पापा के साथ ताँगे में बैठा तो मन एकदम हलका होकर दूसरी ओर को दौड़ गया।
पापा को देखकर ममी को कैसा लगेगा ? एकदम खुश हो जाएँगी। वह खींचकर पापा को
अंदर ले जाएगा और ममी का हाथ, पापा का हाथ मिला देगा-चलो कुट्टी ख़तम। फिर
ममी और वह मिलकर पापा को जाने ही नहीं देंगे। सोते, घूमते-फिरते कितनी बार मन
हुआ था कि ममी की बात करे। पापा से वह सब पूछे, जो ममी से नहीं पूछ पाता है।
पर पापा का चेहरा देखता और बात भीतर ही घुमड़कर रह जाती। पर पापा को साथ लाकर
और दोस्ती की बात सोच-सोचकर उसका मन थिरकने लगा।
जाने कैसे-कैसे चित्र आँखों के सामने उभरने लगे। पापा, ममी और वह घूमने जा
रहे हैं। वह पापा के साथ मिलकर ममी को चिढ़ा रहा है या कभी ममी के साथ मिलकर
पापा को।
अजीब-सा उत्साह है, जो मन में नहीं समा रहा है। कहानियों के न जाने कितने
राजकुमार मन में तैर गए, जो अपनी-अपनी माँ के लिए समुद्र तैर गए थे या पहाड़
लाँघ गए थे। वह भी किसी से कम नहीं है। माँ के लिए पापा को ले आया। अब दोस्ती
भी करवा देगा। वरना कोई ला सकता था पापा को ? अब चिढ़ाए फूफी कि बंटी लड़की
है। अब ममी कभी उदास नहीं होंगी। लेटे-लेटे छत या आसमान नहीं देखेंगी। टीटू
की अम्मा यह नहीं पूछेगी, “आते हैं तुम्हारे पापा यहाँ ?"
उसने बड़े थिरकते मन से पापा की ओर देखा। पापा एकदम चुप क्यों हैं ? अँधेरे
में चेहरा ठीक से नहीं दिखाई दे रहा है। वह चाहता है, पापा कुछ बोलते चलें,
कलकत्ता चलने की बात ही कहें या कि उसे लड़केवाले खेल खेलने की बात ही कहें,
पर कुछ तो कहें। बोलते हुए पापा उसे अपने बहुत पास लगने लगते हैं। चुप हो
जाते हैं तो लगता है जैसे पापा कहीं दूर चले गए। जैसे उसके और पापा के बीच
में कोई और आ गया।
उसी निकटता को महसूस करने के लिए उसने अनायास ही पापा का हाथ पकड़ लिया।
पर पापा हैं कि बिलकुल चुप ! पापा की चुप्पी से बंटी के मन में अजीब तरह की
बेचैनी घुलने लगी। कहीं दोस्ती की बात करते ही पापा चिल्लाने लगें आँखें
लाल-लाल करके तो ? पापा का वही चेहरा उभर आया। ऐसे चिल्लाते होंगे तभी शायद
ममी ने कुट्टी कर ली होगी। बंटी ने फिर एक बार पापा की ओर देखा। अँधेरे में
पापा का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा।
"बस, बस यहीं घर है, बाईं तरफ़वाला।" कॉलेज के पास आते ही ताँगा थम गया था।
बंटी ने कहा तो ताँगेवाले ने बाईं तरफ़ को लगा दिया।
बंटी ने हाथ और कसकर पकड़ लिया। हाथ पकड़े-पकड़े ही वह ताँगे से नीचे उतरा और
एक तरह से पापा को खींचता हुआ गेट की तरफ़ चला। उसे लग रहा था कि यदि उसकी
पकड़ ज़रा भी ढीली हुई तो पापा छूटकर चल देंगे।
सड़क पर से वह चिल्लाया, “ममी, पापा आए हैं।"
लॉन में से एक छायाकृति तेज़-तेज़ क़दमों से फाटक की ओर आई। फाटक खुला और ममी
सामने आ खड़ी हुईं। ममी को देखते ही बंटी का हौसला बढ़ गया। लगा, जैसे वह
अपनी सुरक्षित सीमा में आ गया है। पापा के हाथ को पूरी तरह खींचता हुआ बोला,
"भीतर चलिए न पापा ? मैं अपना बगीचा दिखाऊँगा। मोगरा खूब फूला है।"
पर ममी और पापा जहाँ के तहाँ खड़े हुए हैं, चुप और जड़ बने हुए।
“मैंने आदमी भेजा था। आपको शायद लौटने में देर हो गई। सो वह राह देखकर चला
आया। आपको तकलीफ़ करनी पड़ी।"
"कोई बात नहीं।" बंटी ने चौंककर पापा की ओर देखा। यह पापा बोले थे?
एकदम बदला हुआ स्वर। न प्यारवाला, न गुस्सेवाला। पता नहीं उस स्वर में ऐसा
क्या था कि बंटी की पकड़ ढीली हो गई। फिर भी उसने कहा, “पापा, एक बार भीतर
चलिए न ! ममी, तुम कहो न !" बंटी रुआँसा हो आया।
"कुछ देर बैठ लीजिए। बच्चे का मन रह जाएगा।" ममी कैसे बोल रही हैं ? किसी को
ऐसे कहा जाता होगा ठहरने के लिए ?
"रात हो गई है, फिर लौटने में बहुत देर हो जाएगी।"
“इसी ताँगे को रोक लीजिए, अभी कहाँ देर हुई है, चलिए न !” हाथ पर झूलते हुए
बंटी ने पापा को भीतर खींच ही लिया।
पापा भीतर आए। लॉन में ही ममी-पापा आमने-सामने कुर्सी पर बैठ गए। बंटी
पुलकित। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे और कैसे करे।
"कल दस बजे ही पहुँच जाना। दूसरा ही नंबर है, पंद्रह-बीस मिनट में नंबर आ ही
जाएगा। अपने-आप आ सकोगी न ?”
“हाँ, पहुँच जाऊँगी।"
अँधेरे में दोनों के चेहरे नहीं दिखाई दे रहे, पर आवाजें कैसी बदली हुई हैं।
पापा ने कहाँ आने को कहा है ? मन हुआ पूछे, पर हिम्मत नहीं हुई। ममी-पापा की
कोई बात है, उसे बीच में नहीं बोलना चाहिए।
तभी एकदम दौड़कर गया। रात में पौधे सोते हैं, उन्हें छूने से भी पाप लगता है
और अगर फूल-पत्ता तोड़ो तब तो बहुत बड़ा, कालावाला पाप लगता है, यह बात अच्छी
तरह जानते हए भी बंटी अपने को रोक नहीं सका। चार-पाँच पत्तियों के बीच में
तीन बड़े-बड़े मोगरे सवेरे ही खिले थे, उन्हें ही लंबी डंडी के साथ तोड़
लिया।
“कहाँ लगाऊँ, बुश्शर्ट में कहीं फूल लगेगा ?" उसकी समझ में नहीं आ रहा था,
कैसे ख़ातिर करे वह पापा की !
“लाओ, हाथ में दे दो।" पापा उठ खड़े हुए।
"यह मेरा बोया हुआ मोगरा है, मैं ही इन्हें सींचता हूँ रोज़। दिन में आकर
देखिए।"
बंटी ने फिर हाथ पकड़ लिया। वह जैसे पापा को जाने नहीं देना चाहता है।
ममी भी साथ-साथ चलीं। फाटक पर आकर पापा ने एक बार उसके गाल थपथपाए, पीठ पर
हाथ फेरा और फिर धीरे-से हाथ छुड़ाकर ताँगे में जा बैठे। ताँगा चल दिया।
बंटी सन्न-सा रह गया। ममी का चेहरा नहीं दिख रहा, पर उसकी अपनी आँखों में
आँसू आ गए और आँसुओं के साथ-साथ थोड़ी देर पहले ममी-पापा के साथ रहने के जो
चित्र मन में बने थे, सब बह गए। वह और ममी-पहले की तरह, बिलकुल अकेले-अकेले।
उसने बड़ी ही निरीह-बेबस नज़रों से ममी को देखा। ममी शायद उधर देख रही थीं,
जिधर ताँगा गया था। फिर धीरे-से घूम गईं।
"चल, भीतर चलकर कपड़े बदल।" मरी-मरी-सी आवाज़ में ममी ने कहा और उसकी पीठ पर
हाथ रखकर उसे सहारा देती-सी भीतर ले चलीं। ममी का हाथ उसकी पीठ पर रखा था,
फिर भी किसी स्पर्श का एहसास उसे नहीं हो रहा था, कम से कम ममी के स्पर्श का
नहीं।
तो क्या ममी उससे नाराज हैं ? सवेरे की अनमनी ममी उसकी आँखों के सामने एक बार
फिर घूम गईं।
उसने कुर्सी पर रखे डिब्बे और किताबें उठाईं और ममी के साथ-साथ भीतर आया।
कमरे में पहुँचकर जैसे ही बत्ती जलाई, बंटी ने देखा ममी की आँखें लाल हैं। तो
ममी रोई हैं, शायद बहुत ज़्यादा रोई हैं। जाने क्यों उसका अपना मन रोने-रोने
को हो आया। एक अजीब-सी अपराध भावना मन में घुलने लगी। जैसे वह कोई बहुत ही
गलत काम करके आ रहा हो। वह ममी को छोड़कर क्यों गया ? सचमुच अब ममी की तरफ़
देखने की हिम्मत भी नहीं हो रही।
ममी कुछ बोल भी तो नहीं रहीं। बस, चपचाप कपडे निकालकर दे दिए और ऐसे ही बाहर
देखने लगीं। शायद नहीं चाहती कि बंटी उनकी ओर देखे। एक बार उसका मैकेनो तो
देखतीं। कित्ता बड़ा है !
“बदल लिए कपड़े ? बस्ता भी अभी से जमाकर रख ले, सवेरे फिर जल्दी नहीं उठा गया
तो ?"
"कल छुट्टी नहीं है, इन्स्पेक्शन की !''
“ओह ! मैं भूल गई थी।"
ममी ने जल्दी से बत्ती बुझा दी और उसे लेकर बाहर आ गईं। बंटी और ममी के पलंग
पास-पास बिछे हुए हैं। पर बंटी हमेशा पहले ममी के पलंग पर ही सोता है। ममी
कहानी सुनाती हैं। फिर दोनों दुनिया भर की बातें करते हैं, उसके बाद बंटी
अपने पलंग पर जाता है। कभी-कभी तो वह कहानी सुनते-सुनते ममी के पलंग पर ही सो
जाता है, ममी बाद में उसे उसके पलंग पर लिटा देती हैं।
पता नहीं क्यों उसे लग रहा है कि आज वह जैसे ही ममी के पलंग पर सोएगा ममी मना
कर देंगी। कहेंगी, अपने ही पलंग पर सोओ, इतने बड़े हो गए, अभी तक ममी के साथ
सोते हो, या ऐसे ही कुछ भी। एक क्षण वह दुविधा में खड़ा रहा, फिर धीरे से
अपने ही पलंग पर लेट गया, इस आशा के साथ कि ममी उसे अपने पास बुलाएँगी। उससे
कुछ तो बात करेंगी। आज सारे दिन उसने क्या-क्या किया, कहाँ घूमा, क्या खाया !
पर ममी चुप !
ममी शायद मुझसे नाराज़ हैं तो डाँट क्यों नहीं लेतीं ? मैं क्या मना करता हूँ
? पर कुछ तो बोलें।
वह तो पापा और ममी की दोस्ती कराने की बात सोच रहा था, अब तो ममी ने भी उससे
कुट्टी कर ली। उसकी आँखों में आँसू आ गए। पर ममी उससे नाराज़ क्यों हैं ? और
उस 'क्यों' का बोझ लिए-लिए ही सारे दिन के थके-माँदे बंटी की आँखें झपकने
लगीं-और वह सो गया। गाल पर बह आए आँसू भी धीरे-धीरे सूख गए।
आपका बंटी (उपन्यास) : पाँच
सवेरे चिड़ियों की चहचहाहट से ही बंटी की नींद उचटी। आँखें बंद किए-किए ही
उसने करवट बदली। बिस्तर के अनछुए हिस्से की नमी-भरी ठंडक, सारे शरीर में एक
फरहरी-सी दौड़ाती हुई, उसे ऊपर से नीचे तक ताज़गी से भर गई। नींद की दुनिया
से वह असली दुनिया में आया तो कल का सारा दिन एक क्षण को खुमारी-भरी आँखों के
सामने कौंध गया-पापा के साथ बिताया हआ दिन। और साथ ही खयाल आया ममी का ! ममी
की उदास, सूजी-सूजी-सी आँखें। बिना एक शब्द भी बोले उसे चुपचाप सुला देना। न
एक बार भी अपने पलंग पर आने को कहा, न प्यार किया, न सारे दिन के बारे में
कुछ पूछा, पर क्यों ?
और कल की बात के साथ ही कल का ‘क्यों' भी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसने
करवट बदली। अधमँदी आँखों से ही ममी के पलंग की ओर देखा। पलंग खाली था। तो ममी
उठकर चली गईं। एक बोझ जैसे उस पर से उतर गया। वरना ममी के सामने वह कैसे
आँखें खोलता ? कल वापस लौटने के बाद से बराबर ही लग रहा था, जैसे उससे कुछ
गुनाह हो गया, कुछ गलत हो गया। नहीं भेजना था तो ममी मना कर देतीं। इतना
नाराज़ होने और रोने की क्या ज़रूरत थी ?
अब वह भीतर जाएगा तो अभी भी ममी उससे नहीं बोलेंगी ? ममी नहीं बोलेंगी तो
कैसे रहेगा ? अब इम्तिहान भी तो शुरू होनेवाले हैं, कौन पढ़ाएगा उसे ? एकाएक
बंटी का मन रोने को हो आया। वह उठा। देखता हूँ, कैसे नहीं बोलेंगी। मैं क्या
कर सकता था, पापा ने जो बुलाया था।
कमरे में घुसते ही नज़र पापा की दी हुई चीज़ों पर पड़ी। एक बार इच्छा हुई
मैकेनो को खोलकर देखे। पर नहीं, अभी नहीं, वह दबे पैरों गया और सब चीजें
उठाकर सोफ़े के पीछे रख दीं। ममी कॉलेज चली जाएँगी तब खोलेगा, उसकी तो आज
छुट्टी है।
फिर दौड़कर वह पीछेवाले आँगन में आया, जैसे सीधा बाहर से ही आ रहा हो। ममी
अख़बार पढ़ रही हैं। दरवाज़े की ओर पीठ है, इसलिए चेहरा नहीं दिखाई दे रहा।
अच्छा ही है। हमेशा की तरह बंटी गया और पीठ पर लदकर गले में झूल गया।
“उठ गए ?" ममी ने उसको अलग करते हुए पूछा।
पर बंटी पीठ पर लदा रहा। अपनी तरफ से वह पूरी तरह सुलह कर लेना चाहता है। अब
ममी को एक मिनट के लिए भी नाराज़ नहीं रहने देगा, दुखी भी नहीं रहने देगा।
ममी नहीं चाहेंगी तो वह कहीं नहीं जाएगा, कुछ भी नहीं करेगा।
“जा, ब्रश करके आ बेटा ! फूफी दूध गरम कर रही है।" लगा स्वर हमेशा की तरह
मुलायम ही था। बंटी हलके से आश्वस्त हुआ और दौड़ता हुआ बाथरूम की ओर चला गया।
लौटा तो मेज़ पर ममी की चाय और उसका दूध रखा हुआ था। ममी अखबार पढ़ने के
साथ-साथ चाय पी रही थीं। वह आया तो उसका दूध उसके सामने रख दिया, उसके टोस्ट
पर मक्खन लगा दिया।
“ममी !" जैसे भीतर से हिम्मत जुटाकर बंटी बोला।
“हूँ ?''..अख़बार पर नज़र गड़ाए-गड़ाए ही ममी ने पूछा। बंटी को लगा जैसे ममी
उससे नज़र नहीं मिला रहीं। आँखें शायद अभी सूजी हुई हैं। ममी क्या बहुत
तकलीफ़ में हैं ? बंटी भीतर ही भीतर ममी के दुख से कातर होने लगा।
“ममी, तुम मुझसे गुस्सा हो ?' उसकी आवाज़ रुआंसी-सी हो गई।
ममी ने अख़बार हटाकर भरपूर नज़रों से उसकी ओर देखा और देखती ही रहीं। बंटी को
लगा-ममी की आँखें, ममी का चेहरा जैसे पिघलकर एकदम नरम-नरम हो गया।
“पागल कहीं का ! किसने कहा मैं तुझसे नाराज़ हूँ ?" और आँखों में वही प्यार
उमड़ आया-माँ वाला प्यार।
बंटी का मन हुआ दूध-टोस्ट रखकर ममी के गले से लिपट जाए, पर वह हिला नहीं। बस,
ममी की आँखों के उस लाड़ को रोम-रोम में महसूस करता बैठा रहा। लगा मन पर एक
बहुत बड़ा बोझ था, वह उतर गया।
ममी फिर अख़बार पढ़ने लगीं। धीरे-धीरे उनके चेहरे पर फिर वही उदासी फैल गई।
ममी उदास होती हैं तो सारा घर कैसा उदास हो जाता है ? कमरे, कमरे की हर चीज़।
हमेशा बकर-बकर करनेवाली फूफी भी जाने कैसे-कैसे हो जाती है।
बंटी बोले तो किससे बोले, करे तो क्या करे ? तभी आँखों के सामने मैकेनो का वह
डिब्बा घूम गया। नहीं, अभी बिलकुल नहीं।
ममी ने हीरालाल को बुलाकर कहा, “हीरालाल, आज हम कॉलेज नहीं आ पाएँगे।
मिसेज़ कौशिक से कहना ज़रा देख लेंगी।"
“जी, बहुत अच्छा सरकार।" हीरालाल ने सलाम ठोंका और चला गया।
ममी को तैयार होता देख बंटी ने पूछा, “ममी, तुम कहाँ जा रही हो ?' एक क्षण को
बिंदी लगाता हुआ ममी का हाथ जहाँ का तहाँ रुक गया। माथे पर बल पड़े, चेहरे पर
एक अजीब-सी उलझन आई। फिर धीरे-से बोली, “ज़रा काम से बाहर जाना है।"
पापा ने दस बजे ममी को पहुँचने के लिए कहा था। पर कहाँ ? ममी पापा के पास जा
रही हैं तो उसे क्यों नहीं ले जा रहीं ? पूछ ले।
“तुम पापा के पास जा रही हो, ममी ?"
ममी फिर एक क्षण को रुकीं। फिर थोड़ी सख्त आवाज़ में कहा, “कहा न, काम से जा
रही हूँ।"
हूँऽऽ! न ले जाना चाहती हैं तो न ले जाएँ, झूठ क्यों बोलती हैं ? कल उसके
सामने ही तो पापा ने कहा था कि दस बजे पहुँच जाना। मत बताओ, मेरा क्या जाता
है।
सवेरे मन में जो एक अपराध-बोध था, भय था, वह धीरे-धीरे गुस्से में बदलने लगा।
अच्छा है, कोई कुछ मत बताओ। मेरा क्या जाता है। मैं भी अपनी कोई बात नहीं
बताऊँगा। इम्तिहान होगा तो यह भी नहीं बताऊँगा कि कैसा करके आया हूँ। तब पता
लगेगा।
फूफी से बात करके ममी चली गईं। बंटी ने मडकर देखा भी नहीं। ममी के पास भी
नहीं गया। हालाँकि मन में बराबर उम्मीद थी कि जाते-जाते एक बार ममी ज़रूर
बुलाएँगी...कुछ कहेंगी पर ममी चली गईं। दूर होती घोड़े के घुघरुओं की आवाज़
से ही बंटी ने जाना कि ममी का ताँगा चला गया।
फनफनाता हुआ वह फूफी के पास गया, “फूफी बताओ तो ममी कहाँ गई हैं?"
"गई हैं भाड़ झोंकने !' बंटी अवाक्-सा उसका मुँह देखता रह गया।
"क्या बक रही है ?"
“हम कहते हैं, तुम यहाँ से चले जाओ बंटी भय्या। हमारे तन-बदन में आग लगी हुई
है इस बख़त। बहू को ले जाकर थाना-कचहरी में खड़ा करेंगे। मर्दानगी दिखाएँगे।
अरे हाथ पकड़कर निभाने की मर्दानगी जिनमें नहीं होती, वह ऐसे ही मर्दानगी
दिखाते हैं। अनबन किसमें नहीं होती, तो क्या ब्याही औरत को यों छोड़ दिया
जाता है ?"
“तब से तुम बकर-बकर किए जा रही हो। बताती क्यों नहीं कि ममी कहाँ गई हैं ?"
"हमें नहीं मालूम कहाँ गई हैं ? पूछ लिया होता न अभी ! तुम हमारे सामने से
चले क्यों नहीं जाते हो ? नहीं, हम चार बात अभी तुम्हें भी सुना देंगे, समझे
!"
"हैं सुना देंगे ! बड़ी आई है सुनानेवाली ! कोई मत बताओ मुझे कि क्या बात
है।" गुस्से से भन्नाता हुआ बंटी कमरे में आया।
ब्याही औरत छोड़ने की बात का अर्थ तो फिर भी उसकी समझ में आ गया था, पर
थाना-कचहरी की क्या बात है ? एकाएक चाचा की कुछ बातें मन में उभरीं। यह सब
चाचा का ही चलाया हुआ चक्कर है। वकील हैं तो यही सब करेंगे। थाना-कचहरी में
ममी को पुलिस ने ही रख लिया तो ? एक अजीब-सी दहशत उसके मन में भरने लगी।
सब-कुछ जान लेने की आतुरता और कुछ भी न जान पा सकने की विवशता से बंटी को
रोना आ गया।
मैं भी पापा के खिलौने से खेलूँगा, ज़रूर खेलूँगा। जिसको गुस्सा होना हो, होए
गुस्सा। बंटी ने सोफ़े के पीछे से सब चीजें निकालीं और मैकेनो का डिब्बा
खोलकर बैठ गया। अच्छा है ममी आकर देखें।
"चलकर नाश्ता कर लो।"
लो, अब ये फूफी भी रोकर आई है। अच्छा है, सब रोओ, खूब रोओ। पर उसे कुछ मत
बताना। वह होता ही कौन है किसी का ?
मेज पर दूध-दलिया और एक सेब कटा हुआ रखा था। देखते ही बंटी फिर भभक उठा-"फिर
वही दूध-दलिया। मैं नहीं खाता रोज़-रोज़ सड़ा दलिया।" और गुस्से में आकर बंटी
ने दूध-दलिये की कटोरी उछाल दी। झन्नऽऽ की आवाज़ कमरे में गूंजती हुई सारे घर
में फैल गई। अजीबोगरीब क़िस्म के नक्शे बनाता हुआ दलिया सारे कमरे में यहाँ
से वहाँ तक बिखर गया।
पूरी तरह तैयार होने के बावजूद, एक क्षण को बंटी जैसे अपने किए पर सहम गया।
“फेंको, खूब फेंको, सारी चीजें उठाकर फेंक दो। आखिर तम किसी से कम हो ? यह तो
एक बहूजी हैं जो तुम्हारे पीछे जान हलकान किए रहती हैं। नहीं तो..."
"चोऽप कर !" बंटी पूरी ताकत लगाकर चीखा।
“चुप करे वह जिसके जीभ नहीं है। आने दो ममी को, यों का यों पड़ा रहने दूँगी
यह सारा दलिया। देखें तो तुम्हारे कारनामे। अभी से तुम्हारा यह हाल है तो
बड़े होकर पता नहीं क्या सुख दोगे अपनी महतारी को !"
बंटी ने अपनी बंदूक उठाई और फूफी को यों ही बकता छोड़कर बगीचे में आकर दनादन
दागने लगा...ठाऽय, ठाऽय...
पेड़ों पर बैठे कौवे और चिड़िया उड़ गए और चारों ओर कुछ भी समझ में न आनेवाली
आवाज़ों का शोर फैल गया।
कमरे के एक कोने में ममी खड़ी हैं, दूसरी ओर फूफी और बंटी। बीच में दलिया
फैला पड़ा है। एक ओर को कटोरी लुढ़की पड़ी है।
"बंटी!"
बंटी चुप। जमीन में आँखें गड़ाए, पत्थर की तरह खड़ा है।
"बंटी !” आवाज में न सख्ती है न नरमी। जैसे कोई बटन दबा दिया हो और आवाज़
निकल गई।
बंटी टस से मस नहीं हुआ। जहाँ का तहाँ पत्थर का बना खड़ा रहा। उसने एक बार
आँख तक उठाकर नहीं देखा। ज़मीन पर नज़रें टिकाए-टिकाए ही उसने जान लिया कि
ममी चलकर उसके पास आ रही हैं। क्षणांश को वह सकपका गया। कहीं आते ही एक चाँटा
नहीं जड़ दें। ठीक है, खा लेगा वह चाँटा भी, मारें तो सही। अब यहाँ कुछ भी हो
सकता है। हमेशा ममी के गुस्से से या डाँट से बचानेवाली फूफी अगर बकर-बकर करके
शिकायत कर सकती है तो ममी भी मार सकती हैं।
"बंटी !"
बंटी फिर भी चुप।
“तू सुन नहीं रहा बेटा, मैं क्या कह रही हूँ ?" और ममी का हाथ बंटी की पीठ
सहलाने लगा। इस अप्रत्याशित स्नेह के लिए तो बंटी बिलकुल तैयार नहीं था। पर
मिला तो जैसे वह एकाएक पिघल गया। इतनी देर का गुस्सा, खीझ, दुख और भी जाने
क्या-क्या जमा हुआ था मन में, सब आँखों के रास्ते बह निकलने को अकुलाने लगा।
“रोज-रोज दलिया बनाकर रख देती है, हमसे नहीं खाया जाता। सवेरे-से गंदी-गंदी
बातें बक रही है। तुम इसे कुछ नहीं कहतीं। पूछो तो इससे क्या-क्या कह रही
थी..." और बंटी का गला भिंच गया।
ममी ने जैसे ही बड़े प्यार से उसे अपने से सटाया कि बंटी एकदम फूट पड़ा। बस
फिर रोता ही रहा। रोते-रोते जैसे हिचकियाँ बँध गईं।
“जब कल इसने कह दिया था कि दलिया अब इसे अच्छा नहीं लगता तब तुमने आज फिर
क्यों दलिया बनाया फूफी ? तुम इसका इतना भी ख़याल नहीं रख सकती ?"
“मत इतना सिर चढ़ाओ बहूजी, हम अभी से कहे देते हैं, नहीं फिर आप ही दुखी
होंगी।"
"तुम गई हो तब से ऐसी ही गंदी-गंदी बातें कर रही है। और भी बहुत गंदी-गंदी
बातें।"
ममी ने उसके आँसू पोंछे तो आने के बाद पहली बार उसने भरपूर नज़र से ममी को
देखा। और उसकी रोई-रोई आँखें ममी के चेहरे पर जैसे चिपक गईं। तभी ख़याल आया
ममी थाना-कचहरी से लौटी हैं। वहाँ ममी के साथ क्या हुआ ?
और खराब काम करने पर भी प्यार करनेवाली ममी के लिए उसके अपने मन में ढेर सारा
प्यार भर गया।
लगता है, ममी बहुत परेशान हैं, शायद दुखी भी।
ममी बाथरूम में गईं तो वह कमरे में आ गया। पलंग पर फैला हुआ मैकेनो उसने
जल्दी से समेटा और सोफ़े के पीछे छिपा दिया। अब वह ममी को बिलकुल भी दुखी
नहीं करेगा।
ममी शायद सिर में भी पानी डालकर आई हैं। उन्होंने जड़ा खोला और गीले बालों की
एक ढीली-सी चोटी बना ली। बंटी छिपी-छिपी नज़रों से देख रहा है, उनका चेहरा,
उनके हाव-भाव, उनका हर काम, और अपने हिसाब से सब कुछ समझने की कोशिश कर रहा
है।
“बाहर गरमी बहुत तेज़ थी, माथे में जैसे गरमी चढ़ गई।" ममी ने कहा और पलंग पर
सीधे लेटकर बाँह आँखों पर रख ली। ममी का आधे से ज़्यादा चेहरा ढक गया।
ममी शायद नहीं चाहती कि बंटी उनका चेहरा देखे। कल से ही तो कितनी उदास हैं
ममी ! और ममी की उदासी से बंटी ख़ुद भीतर ही भीतर कहीं बड़ा उदास और दुखी हो
आया है। क्या करे ममी के लिए वह ? सारे घर में एक चक्कर लगा आया। पर कुछ भी
तो समझ में नहीं आया। लौटकर फिर कमरे में आया। ममी वैसे ही लेटी हैं। दबे
पाँव उसने सोफ़े के पीछे से पापा का दिया सामान निकाला और धीरे-से अलमारी
खोलकर उसमें बंद कर दिया।
अब ?
एकाएक ख़याल आया ममी के लिए शिकंजी बनाकर ले आए। वह दौड़ा-दौड़ा गया। नहीं,
फूफी से वह बिलकुल बात नहीं करेगा। उस पर सवेरे से भूत चढ़ा हुआ है। अपने हाथ
से शिकंजी बना लेगा। जाने कैसी फुर्ती आ गई है उसके हाथों में। स्टूल पर
चढ़कर चीनी उतारी, नीबू काटा, बरफ़ निकाली। फूफी कैसे देख रही है उसकी तरफ़ !
बोले तो सही अब कुछ।
"ममी !” सारी मिठास घोलकर उसने धीरे-से पुकारा।
ममी चुप। क्या सो गई ? नहीं शायद रो रही हैं। वह गौर से देखने लगा कहीं से
बदन थिरक रहा है। पर नहीं, ममी एकदम निस्पंद लेटी थीं।
“ममी, यह शिकंजी लो। मैं बनाकर लाया हूँ।" और उसने एक हाथ से खींचकर उनका हाथ
हटा दिया।
बंद आँखें और ऐसा कातर चेहरा कि बंटी भीतर तक पिघल गया। क्या हो गया ममी को !
“ममी, शिकंजी पिओ न !'' बड़े अनुरोध-भरे स्वर में उसने कहा, पर अंत तक
आते-आते उसका अपना स्वर जैसे बिखर गया।
ममी उठीं। उसके हाथ से गिलास लेकर बोली, “तू बनाकर लाया है शिकंजी, ममी के
लिए ? मेरा राजा बेटा !" और बंटी को इस तरह एकटक देखने लगीं कि उनकी आँखों
में पानी छलछला आया।
उन्होंने एक घूँट में गिलास खाली करके नीचे सरका दिया और बंटी को अपने पास
खींचकर दोनों गालों पर एक-एक किस्सू दिया। बंटी जैसे निहाल हो गया। मन हुआ वह
भी ममी के गले में बाँहें डालकर खूब प्यार करे।
अब ममी ज़रूर उसे अपने पास लिटाएँगी और सारी बातें बताएँगी। जो बच्चा माथे
में गरमी चढ़ जाने पर अपने हाथ से शिकंजी बनाकर ला सकता है वह ममी की और बात
नहीं समझ सकता ?
पर ममी ने इतना ही कहा, “जो भी तुझे पसंद हो, फूफी से कहकर बनवा ले और खा ले
बेटा, मैं थोड़ा सोऊँगी।"
ममी लेट गई और बंटी वहीं खड़ा रह गया-अपमानित सा, उपेक्षित-सा। ममी उसे बताती
क्यों नहीं कि क्या हुआ है ?
दोपहर में बारिश हुई थी और नहाया-धोया लॉन बड़ा ताज़ा-ताज़ा लग रहा था। आज
क्यारियों को सींचने की ज़रूरत नहीं है। बंटी माली के साथ-साथ पौधों के पास
उग आई घास को उखाड़-उखाड़कर फेंक रहा है। लॉन के एक सिरे पर बैठी ममी को
रह-रहकर देख लेता है। जब से ममी जागी हैं, वह उन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रहा
है। इस उम्मीद में कि शायद ममी कभी उसे बुला ही लें। या कि शायद उन्हें कभी
उसकी ज़रूरत ही पड़ जाए। वह आज टीटू के यहाँ भी नहीं गया, न टीटू को ही यहाँ
बुलाया। होगा टीटू समझदार, पर क्या वह यह समझ सकता है कि आज का दिन
हल्ला-गुल्ला करनेवाला नहीं है। यह तो केवल बंटी ही समझता है कि उसके घर में
कुछ बड़ी बात है। ममी बहुत उदास हैं, इसलिए उसे भी उदास रहना चाहिए। आज क्या
खेल-कूद हो सकता है यहाँ ?"
घास उखाड़ते-उखाड़ते वे दोनों ममी के पास आ पहुँचे। उसी कोने में बंटी ने कुछ
दिनों पहले आम की गुठलियाँ बोई थीं, जो अब एक-दो बारिश के बाद छोटे से पौधे
के रूप में फूट आई थीं। बंटी रोज़ उन्हें देखता और प्रसन्न होता।
आज उनमें और दो-चार नई पत्तियाँ फूटी हुई थीं। बंटी ने बड़े दुलार से तांबई
रंग की उन कोंपलों को छुआ-नरम-नरम, मुलायम-मुलायम। फिर सारी पत्तियों को
गिना।
“माली दादा, अच्छा बताओ तो कितने दिनों में वह पौधा बन जाएगा बड़ा पेड़
जिसमें आम लगने लगें ?"
माली ने अपना झुर्रियोंवाला चेहरा ऊपर को उठाया, फिर अपनी गिजगिजी-सी आँखों
को मिचमिचाते हुए बोला, "हमारे बंटी भैया बच्चे तो उनका पौधा भी बच्चा। बंटी
भैया जब जवान होंगे तो पौधा पेड़ हो जाएगा। फिर बंटी भैया का ब्याह होगा,
बहरिया आएगी, बाल-बच्चे होंगे तो पेड़ में भी बौर फूटेगा, कोयल कूकेगी, आम
लटकेंगे। बंटी भैया के ब्याह में इसी आम की बंदनवार बाँधूंगा। समझे !" फिर
ममी की ओर देखकर बोला, “सुन रही हैं बहूजी, बहुत बड़ी बख्शीश लूँगा बंटी भैया
के ब्याह में। आशीर्वाद दीजिए कि आपका यह बूढ़ा माली जिंदा रह जाए तब तक।"
“धत्, बेकार की बातें करते हो।" बंटी झेंप गया, फिर उसने छिपी नजरों से ममी
की ओर देखा। एक बड़ी फीकी पर मोहक-सी मुसकान ममी के चेहरे पर लिपटी हुई थी।
तो क्या माली की बात से ममी खुश हुईं ?
"बताओ न, कब होगा यह पेड़ ?"
"बताया तो, अब तुम नहीं मानते तो बहूजी से पूछ लो।"
आखिर क्यारी साफ़ करके माली हाथ झाड़कर खड़ा हो गया, “आप ही बताओ बहूजी, आम
का पौधा बंटी भैया के साथ ही जवान नहीं होगा ? मैं क्या झूठ कहता हूँ ?''
“तुम बताओ ममी !" और वह ममी की कुर्सी के हत्थे पर जा बैठा। यह बात ही शायद
ममी और उसके बीच सेतु बन जाए। वह ममी से बोलना चाहता है, कुछ भी, किसी भी
विषय पर, ममी जो भी कहें, वह सुनेगा, पर ममी कहें तो।
“आम के पेड़ को बहुत साल लगते हैं बेटे, शायद दस साल।"
"बाऽप रे, दस साल !" बहुत ही जल्दी दूसरी बात नहीं पूछेगा तो ममी चुप हो
जाएँगी और उसे जैसे कोई बात ही समझ में नहीं आ रही है। बिना ज़रूरत के तो
सैकड़ों बात दिमाग में आएँगी और इस समय...
“अच्छा ममी, कुछ-कुछ कहानियों में ऐसे पेड़ होते हैं न, जिनमें चाँदी की
पत्तियाँ होती हैं, सोने के फल और फलों के अंदर मोतियों के दाने निकलते हैं।
ऐसे पेड़ हम नहीं उगा सकते ?"
“नहीं रे, वे सब तो कहानियों की बातें होती हैं।" "पर अगर ऐसा होता नहीं है
तो कहानी में कैसे आ जाता है ? कहानी तो आदमी ही बनाता है, जिस चीज़ को आदमी
ने कभी देखा ही नहीं, वह बात उसके दिमाग में आती ही कैसे है फिर ? ज़रूर कभी
ऐसा रहा होगा..."
पता नहीं बंटी ने ऐसा क्या कह दिया कि ममी एकटक उसका चेहरा देखने लगीं और
छलछलाई आँखों ने उनके चेहरे की उदासी को और गहरा दिया।
"ऐसा नहीं होता, मैंने कुछ गलत कहा है ममी ?" बंटी ने इस तरह कहा जैसे कोई
अपराध हो गया हो उससे।
"होता होगा, मुझे नहीं मालूम।" और बात का सूत्र फिर टूट गया। बात को जोड़ने
के प्रयत्न में बंटी का अपना मन जैसे कहीं से बिखरता जा रहा है।
रात को हाथ-मुँह धोकर, नाइट-सूट पहनकर, बिना एक बार भी 'नहीं' किए दूध पीकर
एकदम राजा बेटा बना हुआ वह ममी के पास आया। लेकिन ममी ने फिर भी उसे अपने पास
सोने के लिए नहीं कहा। थोड़ी देर वह इस प्रतीक्षा में खड़ा रहा, फिर बिना कहे
ही वह ममी के पलंग पर बगल में लेट गया। मन हुआ ममी के तिल पर धीरे-धीरे उँगली
फेरे, उनके गले में बाँहें डाल दे, पर आज जैसे उससे कुछ भी करते नहीं बन रहा
था। बस, सवेरे से वह टुकुर-टुकुर ममी को देखता रहा है और प्रतीक्षा करता रहा
है कि अब कुछ हो, अब कुछ हो। होना क्या था, यह शायद उसे भी नहीं मालूम था। पर
फिर भी जैसे 'कुछ होने' की उसने हर क्षण प्रतीक्षा ज़रूर की है।
"-बंटी !" एकाएक ममी ने उसकी ओर करवट करके बहुत धीमी आवाज़ में कहा और अनायास
ही उनकी उँगलियाँ उसके बालों को सहलाने लगीं।
"हाँ, माँ !" बहुत लाड़ में आकर वह ममी को माँ ही कहता है, एक बार ममी ने कहा
भी था, तेरा 'माँ' कहना मुझे बहुत प्यारा लगता है।
"कल पापा के साथ क्या-क्या किया बेटा ?"
एक क्षण को बंटी समझ नहीं पाया कि कल की बात में से कौन-सी बात बतानी चाहिए
और कौन-सी नहीं।
"कुछ नहीं, पहले पापा बातें करते रहे, फिर घुमाने ले गए, खिलाया-पिलाया,
चीजें दिलवाईं और बस।" बात से भी ज़्यादा स्वर और लहजे को सहज बनाकर बंटी ममी
को यह विश्वास दिला देना चाहता है कि कल कुछ ऐसा नहीं हुआ जिससे ममी नाराज़
हों या दुखी।
“जब बाहर से लौटकर वापस आए और देखा कि चपरासी वापस चला गया है तो मैंने पापा
से कह दिया कि मैं यहाँ बिलकुल नहीं रहूँगा, घर ही जाऊँगा, ममी के पास। रात
में मैं ममी के बिना रह नहीं सकता।" और इतना कहकर बंटी ने बाँह ममी के गले
में डाल दी।
"क्या-क्या बातें करते रहे तुमसे ?"
"बहुत सारी। पढ़ाई की, खेल-कूद की, दोस्तों की, कलकत्ता की।" फिर एकाएक जैसे
कुछ याद आ गया हो, इस तरह बोला, “पता है ममी, पापा क्या कह रहे थे ?” और वह
एकदम कोहनियों के बल उठ आया।
"क्या ?"
“कह रहे थे तुम इस बार छुट्टियों में कलकत्ता आना। खूब घुमाएँगे-फिराएँगे,
छुट्टियाँ ख़त्म होने पर फिर वापस छोड़ जाएँगे।"
इस वाक्य से ही ममी की जड़ता एकाएक जैसे टूट गई। अपने चेहरे पर गड़ी हुई
नज़रों के तीखेपन को बंटी ने भीतर तक महसूस किया। अब इस बात से वह सचमुच ममी
को जीत लेगा, उनकी सारी नाराजगी दूर कर देगा, ममी पहले ही पूछतीं तो वह सब
बता देता। बिना कुछ जाने-पूछे बेकार ही सवेरे से नाराज़-नाराज़ घूम रही हैं।
अब जानें सारी बात और देखें उसकी समझदारी।
"फिर तूने क्या कहा ?''
"मैं क्या कहता, मना कर दिया। कह दिया कि मैं तो ममी के बिना कहीं जाता ही
नहीं।" बंटी एकाएक उत्साह में आ गया। अब तो ममी जान लें कि पापा के बुलाने से
उनके पास हो आया तो क्या, वह बेटा तो ममी का ही है।
“अच्छा किया।" ममी का स्वर भीगा हुआ और आवाज़ सैंधी हुई-सी थी। “मैं क्यों
जाऊँगा, अकेला तो मैं कब्भी जा ही नहीं सकता।"
"बंटी बेटा, तू मेरे ही पास रहना।" और उसके बाल सहलाती हुई ममी फिर जैसे अपने
में ही खो गईं।
तो ममी को यह डर है कि पापा उसे अपने साथ ले जाएँगे। इसीलिए शायद सवेरे से ही
नाराज़ थीं। पर पापा उसे क्यों ले जाएँगे भला ? वह तो शुरू से ही ममी के पास
रहा है। कैसी लड़ाई है यह, ममी-पापा की ?
तभी मन में एक बात टकराई। याद आया एक बार उसकी और टीटू की लड़ाई हो गई थी,
धुआँधार, घूसे, मुक्के, मार-पीट, सभी कुछ हुआ था। फूफी ने बीच-बचाव करके टीटू
को उसके घर भेज दिया था। वह रोता हुआ चला गया था और थोड़ी देर बाद ही शन्नो
आई थी-'बंटी, टीटू की सारी चीजें दे दो, वह अब तुमसे कभी नहीं बोलेगा। पक्की
कुट्टी कर ली है उसने।' कर ली है तो कर ले। हमारी भी पक्की कुट्टी है। उसने
कहा, पहले हमारी चीजें दे जाएगा, फिर अपनी ले जाएगा। हमें नहीं चाहिए,
सड़ी-सड़ी चीजें। हँऽ-घमंडी, कटखना कहीं का...
और फिर दोनों ने अपनी-अपनी चीजें वापस ले ली थीं और दूसरे की लौटा दी थीं।
घंटे-भर के भीतर-भीतर सारे हिसाब-किताब साफ़ कर लिए थे। लड़ाई में शायद ऐसा
ही होता है।
पर वह भी किसी की चीज है क्या ? है तो किसकी ? ममी की या पापा की ? नहीं, वह
ममी का है, ममी के ही तो पास रहता है। पापा उसे प्यार करते हैं, वह भी पापा
को प्यार करता है, पापा उसे अच्छे भी लगते हैं, पर पापा उसे लेना क्यों चाहते
हैं ? लेकिन पापा लड़े तो नहीं, उसने मना किया कि मैं वहाँ नहीं रहूँगा, घर
जाऊँगा तो चुपचाप यहाँ छोड़ गए। यहाँ तो दोनों बिलकुल नहीं लड़े।
ममी-पापा की लड़ाई शायद ऐसी ही होती होगी, चुपचापवाली। कहीं ऐसा तो नहीं है
कि सवेरे पापा ने ममी को बुलाकर कुछ कहा हो, और इसीलिए ममी इतनी उदास हों।
उसने एक बार ममी को देखा। फिर हिम्मत करके पूछा, “ममी, आज सवेरे तुम पापा के
पास गई थीं। वहाँ क्या हुआ ?"
“अब होने को बाकी ही क्या रह गया था ? बस, अब से तू मेरा बेटा है, केवल मेरा।
भूल जा कि तेरे पापा..." और ममी का स्वर भिंच गया। उनसे फिर कुछ भी बोला नहीं
गया।
ममी के रूंधे हुए स्वर और अँसुवाई आँखों ने बंटी को भीतर तक दहला दिया। पर
ममी के प्रति सारे लाड़-प्यार और उनके दुख में दुखी होने के बावजूद एक क्षण
को मन में यह बात ज़रूर आई-पापा को वह कैसे भूलेगा ? पापा तो उसे बहुत अच्छे
लगते हैं।
कि एकाएक ममी फूट-फूटकर रो पड़ीं। तकिए में मुँह गड़ा लिया। सवेरे से जिस
आवेग को रोके बैठी थीं, अचानक ही वह जैसे सारे बाँध तोड़कर बह निकला। बंटी
बुरी तरह सकपका गया। ममी को उसने रोते देखा है, पर उसके सामने कभी रोती नहीं,
इस तरह तो कभी रोती ही नहीं।
बंटी को कुछ भी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे, कैसे ममी को चुप कराए। और
जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो ममी के गले से लिपटकर खुद भी फफक-फफककर रो
पड़ा। "मत रोओ ममी-रोओ मत-"