आपका बंटी (उपन्यास) : मन्नू भंडारी

Aapka Bunty (Hindi Novel) : Mannu Bhandari

(आपका बंटी मन्नू भंडारी के उन बेजोड़ उपन्यासों में है जिनके बिना न बीसवीं शताब्दी के हिन्दी उपन्यास की बात की सकती है, न स्त्री-विमर्श को सही धरातल पर समझा जा सकता है। तीस वर्ष पहले (1970 में) लिखा गया यह उपन्यास हिन्दी के लोकप्रिय पुस्तकों की पहली पंक्ति में है। दर्जनों संस्करण और अनुवादों का यह सिलसिला आज भी वैसा ही है जैसा धर्मयुग में पहली बार धारावाहिक के रूप में प्रकाशन के दौरान था।

बच्चे की निगाहों और घायल होती संवेदना की निगाहों से देखी गई परिवार की यह दुनिया एक भयावह दुःस्वप्न बन जाती है। कहना मुश्किल है कि यह कहानी बालक बंटी की है या माँ शकुन की। सभी तो एक-दूसरे में ऐसे उलझे हैं कि त्रासदी सभी की यातना बन जाती है।

शकुन के जीवन का सत्य है कि स्त्री की जायज महत्वाकांक्षा और आत्मनिर्भरता पुरुष के लिए चुनौती है-नतीजे में दाम्पत्य तनाव से उसे अलगाव तक ला छोड़ता है। यह शकुन का नहीं, समाज में निरन्तर अपनी जगह बनाती, फैलाती और अपना कद बढ़ाती ‘नई स्त्री’ का सत्य है। पति-पत्नी के इस द्वन्द में यहाँ भी वही सबसे अधिक पीसा जाता है जो नितान्त निर्दोष, निरीह और असुरक्षित है-बंटी।

बच्चे की चेतना में बड़ों के इस संसार को कथाकार मन्नू भंडारी ने पहली बार पहचाना था। बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ-बूझ के लिए चर्चित, प्रशंसित इस उपन्यास का हर पृष्ठ ही मर्मस्पर्शी और विचारोत्तेजक है।
हिन्दी उपन्यास की एक मूल्यवान उपलब्धि के रूप में आपका बंटी एक कालजयी उपन्यास है।)

जन्मपत्री: बंटी की : मन्नू भंडारी का वक्तव्य

वह बांकुरा की एक साँझ थी।
अचानक ही पी. का फ़ोन आया- ‘‘तुमसे कुछ बहुत ज़रूरी बात करनी है, जैसे भी हो आज शाम को ही मिलो, बांकुरा में।’’ मैं उस ज़रूरी बात से कुछ परिचित भी थी और चिंतित भी। रेस्त्राँ की भीनी रोशनी में मेज़ पर आमने-सामने बैठकर, परेशान और बदहवास पी. ने कहा- ‘‘समस्या बंटी की है। तुम्हें शायद मालूम हो कि बंटी की माँ (पी. की पहली पत्नी) ने शादी कर ली। मैं बिलकुल नहीं चाहता कि अब वह वहाँ एक अवांछनीय तत्त्व बनकर रहे, इसलिए तय किया है कि बंटी को मैं अपने पास ले आऊँगा। अब से वह यहीं रहेगा।’’ और फिर वे देर तक यह बताते रहे कि बंटी से उन्हें कितना लगाव है, और इस नई व्यवस्था में वहाँ रहने से उसकी स्थिति क्या हो जाएगी। मैंने उनकी भावना, चिंता उद्विग्नता को समझते हुए अपनी पहली प्रतिक्रिया व्यक्त की- ‘‘आप ऐसा नहीं सोचते कि यह ग़लत होगा ? मुझे लगता है कि उसे अपनी माँ के पास ही रहना चाहिए क्योंकि साल में दो-एक बार मिलने के अलावा उसके साथ आपके आसंग नहीं हैं। जबकि माँ के साथ वह शुरू से रह रहा है, एकछत्र होकर रहा है। इस नाज़ुक उम्र में वहाँ से वह उखड़ जाएगा और संभवत: यहाँ जम नहीं पाएगा।’’ लंबी बातचीत के बाद तय हुआ कि बंटी अभी कुछ दिनों के लिए वहीं रहे। लेकिन उस दिन लौटते हुए सचमुच बंटी कहीं मेरे साथ चला आया। आकर डायरी में मैंने बंटी की पहली जन्मपत्री बनाई। उस रात बंटी की विभिन्न स्थितियों के न जाने कितने कल्पना-चित्र बनते-बिगड़ते रहे। मुझे लगा, बंटी अपनी नई माँ के घर आ गया है।

नई माँ और पिता के बीच एक बालिका। लगभग छ: महीने बाद की घटना है। ड्राइंग रूम में अनेक बच्चे धमा-चौकड़ी मचाए हैं-उन्मुक्त और निश्चिंत। बारी-बारी से सब सोफ़े पर चढ़कर नीचे छलाँग लगा रहे हैं। उस बच्ची का नंबर आता है। सोफ़े पर चढ़ने से पहले वह अपनी नई माँ की ओर देखती है। माँ शायद उसकी ओर देख भी नहीं रही थी, पर उन अनदेखी नज़रों में भी जाने ऐसा क्या था कि सोफ़े पर चढ़ने के लिए बच्ची का ऊपर उठा हुआ पैर वापस नीचे आ जाता है। बच्ची सहमकर पीछे हट जाती है। अनायास ही मेरे भीतर छ: महीने पहले का बंटी उस वातावरण में व्याप्त एक सहमेपन के रूप में जाग उठता है। खेल उसी तरह चल निकला है, लेकिन अगर कोई इस सारे प्रवाह से अलग हटकर सहमा हुआ कोने में खड़ा है, तो वह है बंटी। रात में सोई तो लगा छ: महीने पहले जिस बंटी को अपने साथ लाई थी, वह सिर्फ़ एक दयनीय मुरझायापन बनकर रह गया है।
एक और चित्र-सिर्फ पुरानी माँ और बंटी।

मैं कमरे में प्रवेश करती हूँ तो चौंकानेवाला दृश्य सामने आता है। टूटी हुई प्लेटें, बिस्कुट और टोस्ट बिखरे पड़े हैं और बंटी माँ के शरीर पर लगातार मुक्के मार रहा है, ‘‘...तुम कहाँ गई थीं...किसके साथ गई थीं...क्यों गई थीं...?’’ मेरी उपस्थिति के बावजूद यह दृश्य थोड़ी देर तक चलता रहा। माँ तिलमिलाहट, गुस्से और दुख को दबाकर मेरे सामने सहज होने की बहुत कोशिश करती है, लेकिन उस वातावरण के दमघोटू तनाव में वहाँ फिर कुछ भी सहज नहीं हो पाता।

घर लौटकर मैंने पाया कि बंटी एक आकार ग्रहण करने लगा है।

मुझे लगा बंटी किन्हीं एक-दो घरों में नहीं, आज के अनेक परिवारों में- अलग-अलग संदर्भों में, अलग-अलग स्थितियों में। लेकिन एक बात मुझे इन बच्चों में समान लगी और वह यह कि ये सभी फ़ालतू, ग़ैर-ज़रूरी और अपनी जड़ों से कटे हुए हैं। किसी एक व्यक्ति के साथ घटी घटना दया, करूणा और भावुकता पैदा कर सकती है, लेकिन जब अनेक ज़िंदगियाँ एक जैसे साँचे में ही सामने आने लगती हैं तो दया और भावुकता के स्थान पर मन में धीरे-धीरे एक आतंक उभरने लगता है। मेरे साथ भी यही हुआ। बंटी के इन अलग-अलग टुकड़ों ने उस समय मुझे करुणा-विगलित और उच्छ्वसित ही किया था, लेकिन जब सब मिलाकर बंटी मेरे सामने खड़ा हुआ तो मैंने अपने-आपको आतंकित ही अधिक पाया, समाज की दिनों-दिन बढ़ती हुई एक ऐसी समस्या के रूप से, जिसका कहीं कोई हल नहीं दिखाई देता। यही कारण है कि बंटी मुझे तूफ़ानी समुद्र-यात्रा में किसी द्वीप पर छूटे हुए अकेले और असहाय बच्चे की तरह नहीं वरन् अपनी यात्रा के कारणों के साथ और समानांतर जीते हुए दिखाई दिया। इसके बाद ही स्थितियों को देखने का सारा धरातल बदल गया। भावना के स्तर पर उद्वेलित और विगलित करनेवाला बंटी जब मेरे सामने एक भयावह सामाजिक समस्या के रूप में आया तो मेरी दृष्टि अनायास ही उसे जन्म देने, बनाने या बिगाड़नेवाले सारे सूत्रों, स्रोतों और संदर्भों  की खोज और विश्लेषण की ओर दौड़ पड़ी। संदर्भों से काटकर किया हुआ बंटी का अध्ययन शरत्चंद्रीय भावुकता भले ही जगा दे, उसे एक वैचारिक धरातल नहीं दे सकता।

बंटी के तत्काल संदर्भ अजय और शकुन हैं। दूसरे शब्दों में वे संदर्भ अजय और शकुन के वैवाहिक संबंधों का अध्ययन और उसकी परिणति के रूप में ही मेरे सामने आए। यहाँ मुझे भारतजी की बात सही लगी कि जैनेंद्रजी ने स्त्री-पुरुष के संबंधों को जिस एकांतिक दृष्टि से देखा है, उसका एक अनिवार्य आयाम बंटी भी है क्योंकि शकुन-अजय के संबंधों की टकराहट में सबसे अधिक पिसता बंटी ही है। शकुन और अजय तो आपसी तनाव की असहनीयता से मुक्त होने के लिए एक-दूसरे से मुक्त हो जाते हैं, लेकिन बंटी क्या करे ? वह तो समान रूप से दोनों से जुड़ा है, यानी खंडित-निष्ठा उसकी नियति है। चूँकि वह शकुन के साथ रहता है इसलिए बंटी को उसकी समूची स्थिति के साथ समझने के लिए माँ-बेटे के आपसी संबंधों के विश्लेषण के साथ ही कुछ गरिमामयी मिथ्या धारणाएँ और सदियों पुरानी ‘मिथ’ टूटने लगीं।

 शकुन चक्की पीस-पीसकर बेटे का जीवन बनाने में अपने-आपको स्वाहा कर देनेवाली माँ नहीं थी; बल्कि स्वतंत्र व्यक्तित्व, आकांक्षाएँ और आजीविका के साधनों से दृप्त माँ थी। इस नारी और माँ के आपसी द्वंद्व का अध्ययन ही शकुन को उसका वर्तमान रूप देता है। आज तो लगता है कि कहानी में बिखरी लोक-कथाएँ अनायास ही नहीं आ गई हैं, वे शकुन के जीवन की दो नितांत विरोधी स्थितियों, मिथ और वास्तविकता के अंतर्विरोध को उजागर करती हैं। अगर माँ की ममता के मारे उस राजकुमार की कहानी है, जो सात-समुद्र पार करके अपनी निष्ठा प्रमाणित करता है तो सोनल रानी की भी कहानी है, जो भूख लगने पर रूप बदलकर अपने ही बेटे को खा जाती है। शकुन बंटी को माध्यम बनाकर अजय से प्रतिशोध लेती हो या बंटी में तन्मय होकर अपनी सार्थकता तलाश करती हो, उसे कभी हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हो या कभी अपने एकाकी जीवन के आधार के रूप में...मुझे तो सभी कुछ को निहायत तटस्थ होकर एक मानवीय धरातल पर देखना-समझना था। ज़िंदगी को चलाने और निर्धारित करनेवाली कोई भी स्थिति कभी इकहरी नहीं होती, उसके पीछे एक साथ अनके और कभी-कभी बड़ी विरोधी प्रेरणाएँ निरंतर सक्रिय रहती हैं। शकुन और बंटी- दोनों के चरित्रों की वास्तविकता इन्हीं अंतर्विरोधों में जीने की वास्तविकता है। परोक्ष रूप से अजय के जीवन की वास्तविकता भी यही है।

शायद यही कारण है कि मैं इस त्रिकोण की किसी एक भुजा को न अस्वीकार कर सकी, न ही ग़लत सिद्ध कर सकी। पात्र अपनी-अपनी दृष्टि, संवेदना की सीमाओं में एक-दूसरे को ग़लत-सही कहते रह सकते हैं, लेकिन देखना यह ज़रूरी होता है कि लेखकीय समझ किसी के प्रति पक्षपात तो नहीं कर रही ? ग़लत और सही अगर कोई हो सकते हैं तो वे अजय, शकुन और बंटी के आपसी संबंध। इस पूरी स्थिति की सबसे बड़ी विडंबना ही यह है कि इन संबंधों के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार और सब ओर से बेगुनाह बंटी ही इस ट्रैजडी के त्रास को सबसे अधिक भोगता है। शकुन-अजय के संबंधों का तनाव और चटख बंटी की नस-नस में ही प्रतिध्वनित होती है। स्थिति की इस विडंबना ने ही मेरे मन में एक आतंक जगाया था। शकुन-अजय के आपसी संबंधों में बंटी चाहे कितना ही फ़ालतू और अवांछनीय हो गया हो, परंतु मेरी दृष्टि को सबसे अधिक उसी ने आकर्षित किया। वस्तुत: उपन्यासकार के लिए अप्रतिरोध चुनौती, सहानुभूति और मानवीय करुणा के केंद्र सिर्फ़ वे ही लोग हो पाते हैं, जो कहीं न कहीं फ़ालतू हो गए हैं।

बहरहाल, बंटी की यह यात्रा चाहे परिवार की संश्लिष्ट इकाई से टूटकर क्रमश: अकेले, जड़हीन, फ़ालतू और अनचाहे होते जाने की रही हो; लेकिन मेरे लिए यह यात्रा भावुकता, करुणा से गुज़रकर मानसिक यंत्रणा और सामाजिक प्रश्नाकुलता की रही है। जीते-जागते बंटी का तिल-तिल करके समाज की एक बेनाम इकाई-भर बनते चले जाना यदि पाठक को सिर्फ़ अश्रुविगलित ही करता है तो मैं समझूँगी कि यह पत्र सही पतों पर नहीं पहुँचा है।

आपका बंटी (उपन्यास) : एक

ममी ड्रेसिंग टेबुल के सामने बैठी तैयार हो रही हैं। बंटी पीछे खड़ा चुपचाप देख रहा है। ममी जब भी कॉलेज जाने के लिए तैयार होती हैं, बंटी बड़े कौतूहल से देखता है। जान तो वह आज तक नहीं पाया, पर उसे हमेशा लगता है कि ड्रेसिंग टेबुल की इन रंग-बिरंगी शीशियों में, छोटी-बड़ी डिबियों में ज़रूर कोई जादू है कि ममी इन सबको लगाने के बाद एकदम बदल जाती हैं। कम से कम बंटी को ऐसा ही लगता है कि उसकी ममी अब उसकी नहीं रहीं, कोई और ही हो गईं।

पूरी तरह तैयार होकर, हाथ में पर्स लेकर ममी ने कहा "देखो बेटे, धूप में बाहर नहीं निकलना, हाँऽ।" फिर फूफी को आदेश दिया। “बंटी जो खाए वही बनाना, एकदम बंटी की मर्जी का खाना, समझीं।"

चलने से पहले ममी ने उसका गाल थपथपाया। बालों में उँगलियाँ फँसाकर बड़े प्यार से बाल झिंझोड़ दिए। पर बंटी जैसे बुत बना खड़ा रहा। बाँह पकड़कर झूला नहीं, किसी चीज़ की फरमाइश नहीं की। ममी ने खींचकर उसे अपने पास सटा लिया। पर एकदम चिपककर भी बंटी को लगा जैसे ममी उससे बहुत दूर हैं। और फिर वे सचमुच ही दूर हो गईं। उनकी चप्पल की खटखट जब बरामदे की सीढ़ियों पर पहुंची तो बंटी कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। और ममी जब फाटक खोलकर, सड़क पार करके, घर के ठीक सामने बने कॉलेज में घुसी तो बंटी दौड़कर अपने घर के फाटक पर खड़ा हो गया। सिर्फ दूर जाती हुई ममी को देखने के लिए। वह जानता है, ममी अब पीछे मुड़कर नहीं देखेंगी। नपे-तुले क़दम रखती हुई तीधी चलती चली जाएँगी। जैसे ही अपने कमरे के सामने पहुँचेंगी चपरासी सलाम ठोंकता हुआ दौड़ेगा और चिक उठाएगा। ममी अंदर घुसेंगी और एक बड़ी-सी मेज़ के पीछे रखी कुर्सी पर बैठ जाएँगी। मेज़ पर ढेर सारी चिट्ठियाँ होंगी। फाइलें होंगी। उस समय तक ममी एकदम बदल चुकी होंगी। कम से कम बंटी को उस कुर्सी पर बैठी ममी कभी अच्छी नहीं लगीं।

पहले जब कभी उसकी छुट्टी होती और ममी की नहीं होती, ममी उसे भी अपने साथ कॉलेज ले जाया करती थीं। चपरासी उसे देखते ही गोद में उठाने लगता तो वह हाथ झटक देता। ममी के कमरे के एक कोने में ही उसके लिए एक छोटी-सी मेज़-कुर्सी लगवा दी जाती, जिस पर बैठकर वह ड्राइंग बनाया करता। कमरे में कोई भी घुसता तो एक बार हँसी लपेटकर, आँखों ही आँखों में ज़रूर उसे दुलरा देता। तब वह ममी की ओर देखता। पर उस कुर्सी पर बैठकर ममी का चेहरा अजीब तरह से सख्त हो जाया करता है। लगता है, मानो अपने असली चेहरे पर कोई दूसरा चेहरा लगा लिया हो। ममी के पास ज़रूर एक और चेहरा है। चेहरा ही नहीं, आवाज भी कैसी सख्त हो जाती है ! बोलती हैं तो लगता है जैसे डाँट रही हों। बंटी को ममी बहत ही कम डाँटती हैं। बस, प्यार करती हैं इसीलिए यों सख्त चेहरा लिए डाँटती, प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठी ममी उसे कभी अच्छी नहीं लगतीं।

वहाँ उसके और ममी के बीच में बहुत सारी चीजें आ जाती हैं। ममी का कॉलेज के ढेर सारे काम ! थोड़ी-थोड़ी देर में बजनेवाले घंटे, घंटा बजने पर होनेवाली हलचल...इन सबके एक सिरे पर वह रहता है चुपचाप, सहमा-सा और दूसरे पर ममी रहती हैं-किसी को आदेश देती हुईं, किसी के साथ सलाह-मशवरा करती हुईं, किसी को डाँटती हुईं। और इसीलिए उसने कॉलेज जाना छोड़ दिया। घर में चाहे वह अकेला रह ले, पर वहाँ नहीं जाता। वहाँ किसके पास जाए ? ममी तो वहाँ रहती नहीं। रहती हैं बस एक प्रिंसिपल, जिनके चारों ओर बहुत सारे काम, बहुत सारे लोग रहते हैं। नहीं रहता है तो केवल बंटी।

थोड़ी देर तक बंटी गेट पर खड़े-खड़े आने-जानेवालों को यों ही देखता रहा। फिर लोहे के फाटक पर झूलने लगा। सामने से दो लड़के साइकिल पर बातें करते हुए गुज़र गए तो उसने सोचा, थोड़ा और बड़ा हो जाएगा तो वह भी दो पहिए की साइकिल खरीदेगा। वह जानता है, ममी उसे कभी बाहर निकलकर साइकिल नहीं चलाने देंगी। जाने क्यों, उन्हें हमेशा यही डर लगा रहता है कि वह बाहर निकला और एक्सीडेंट हुआ। हुँह ! वह ज़रूर बाहर चलाएगा। पुलिया पर जब बिना पैडिल मारे ही फर्राटे से साइकिल उतरती है तो कैसा मज़ा आता होगा ?

उसके बाद आँखों के सामने वे बड़े-बड़े मैदान तैर गए जो स्कूल जाते समय बस में से दूर-दूर दिखाई देते हैं। मैदान के दूसरे सिरे पर बनी हुईं पहाड़ियाँ, जिनके पीछे से सूरज निकल-डूबकर दिन और रात करता है। कौन जाने उन पहाड़ियों की तलहटी में कोई साधू बैठा हो, जिसके पास जादू की खड़ाऊँ हों, जादू का कमंडल हो। एक बार जाकर ज़रूर देखना चाहिए, पर जाए कैसे ? साइकिल मिलने से जाया जा सकता है। बस, किसी को बताए नहीं और चलता जाए, चलता चला जाए तो पहुँच ही सकता है। पर ममी को मालूम पड़ जाए तो...बाप रे...

ममी उसे बहत ज्यादा घर से बाहर नहीं जाने देती हैं। पर ममी को पता ही नहीं चल पाता है कि पलंग पर उनकी बगल में लेटे-लेटे वह उन साधुओं की तलाश में कहाँ-कहाँ घूमता है ? अनदेखे-अनजाने पहाड़ों में, जंगलों में...घाटियों में...

अब छुट्टी के दिन समझ ही नहीं आता, वह क्या करे ? एक बार यों ही बगीचे का चक्कर लगाया। मोगरे खूब महके हुए थे। एक-एक पौधे को उसने खूब प्यार से छुआ। फिर गिनकर देखा, कितनी नई कलियाँ खिली हैं। हर एक पौधे की फूल-पत्तियों का हिसाब-किताब उसके पास है। एक-दो पौधे की पत्तियाँ गंदी लगीं तो जल्दी से पाइप लेकर उनको धोया। कुछ इस ढंग से जैसे ममी सवेरे-सवेरे उसका मुँह धुलाती हैं।

"बस, हो गए साफ़। चलो, अब हवा में झूलो।"

भीतर आया तो कमरे में घुसते ही नज़र ड्रेसिंग-टेबुल पर गई। वही रंग-बिरंगी शीशियाँ ! और ममी का वही सख्त चेहरा याद आ गया...रूखा-रूखा और एकदम बदला हुआ। कैसे बदल जाता है चेहरा ? और तब न जाने कितनी बातें एक साथ दिमाग में घुमड़ने लगीं।

"तुम यहाँ खड़े-खड़े क्या कर रहे हो बंटी भय्या ? चलकर नहा काहे नहीं लेते ?" हाथ में झाड़ लिए-लिए फूफी घुसी तो बंटी ने झाड़ छीन लिया और उसके हाथ पर झूलता हुआ बोला, “फूफी, वह कहानी सुनाओ तो सोनल रानी की, जो सचमुच में डायन थी और रानी बनकर रहती थी।"

"एल्लो, और सुनो ! यह कहानी कहने-सुनने का बखत है ! काम सारा पड़ा है, और तुम्हें कहानी सूझ रही है। कहानी रात में सनी जाती है, दिन में नहीं।"

"नहीं मैं अभी सुनूँगा। कोई काम-वाम नहीं।" फिर आँखों में जाने कितना कौतूहल भरकर पूछा, “अच्छा फूफी, वह डायन से रानी कैसे बन जाती थी ? उसके पास जादू था ?"

“और क्या तो ? डायन थी, सारे जादु बस में कर रखे थे। बस, जो चाहती बन जाती। मन होता वैसा भेस धर लेती।"

"क्यों फूफी, आदमी भी चाहे तो ऐसा कर सकता है ?"

“कइसे कर लेगा आदमी ? आदमी के बस में क्या जादू होता है ?"

"तुमने डायन देखी है फूफी ? कैसी होती होगी ? जब आदमी के भेष में होती होगी तब तो कोई पहचान भी नहीं सकता होगा।" बंटी की आँखों में जाने कैसे-कैसे चित्र तैरने लगे।

"अरे, हमने नहीं देखी कोई डायन-वायन, तुम चलकर नहा लो।"

"नहीं, अभी नहीं नहाता।" और बंटी पीछे के आँगन में आया तो झम-झम करती सोनल रानी भी साथ आ गई। सतमंज़िले महल में रहनेवाली, सात सौ दास-दासियों से घिरी सोनल रानी। ऐसा रूप कि न लोगों ने देखा, न सुना। राजा तो जैसे प्राण देते। कोई भला देखता भी कैसे ? वह रूप क्या कोई आदमी का था ? वह तो डायन का जादू था।

फिर धीरे-धीरे कहानी की एक पूरी की पूरी दुनिया खुलती चली जाती। भेड़ बनाकर रखे हुए राजकुमार...मैना बनाकर रखी हुई राजकुमारी...ऐसा कुछ होता ज़रूर है, जिससे आदमी भेष बदल लेता है।

बंटी फिर भीतर गया। चुपचाप ड्रेसिंग टेबुल के पास जाकर शीशियों को उठा-उठाकर देखने लगा। एक बार मन हुआ अपने मुँह पर भी लगा देखे। क्या उसका चेहरा भी ममी की तरह बदल जाएगा ?

“यह क्या ? फिर तुम ड्रेसिंग-टेबुल पर पहुँच गए ?" फूफी खड़ी हँस रही थी। बंटी एकदम सकपका गया।

"हम कहते हैं, यही सौख रहे तुम्हारे तो बड़े होकर तुम ज़रूर लड़की बन जाओगे।"

“मारूँगा मैं, फिर वही गंदी बात कही तो !" बंटी हाथ उठाकर अपनी झेंप गुस्से में छिपाने लगा।

फूफी भी अजब है ! ममी कभी प्यार करते हुए उसे गोद में बिठा लेंगी या अपने साथ लिटाकर कहानी सुनाएँगी...तो हमेशा उसे ऐसे ही चिढ़ाएँगी...

"तुम अभी तक माँ की गोद में चिपककर बैठते हो ? छिः-छिः, तुम तो एकदम लड़की हो बंटी भय्या !"

"देख लो ममी, यह फूफी..."

पर ममी है कि फूफी को कुछ नहीं कहतीं। बस, हँसती रहती हैं, क्योंकि उस समय घर में जो रहती हैं ममी ! वह भी एकदम ममी बनी हुई। कॉलेज में हो तो पता लगे इस फूफी को। ऐसी घुड़की मिले कि सारा चिढ़ाना भूल जाए।

"मेरा तो बेटा भी यही है और बेटी भी यही है।" हँसती हुई ममी उसे अपने से और ज्यादा सटा लेती हैं।

उस समय फूफी के सामने माँ की बाँहों से छूटकर भागने के लिए वह ज़रूर कसमसाता रहता है, पर यों उसे ममी की गोद में बैठना, उनके साथ सटकर सोना अच्छा लगता है। सोने से पहले ममी उसे रोज़ कहानी सुनाती हैं...राजा-रानी की, परियों की। ऐसे-ऐसे राजकुमारों की, जो अपनी माँ को बहुत प्यार करते थे और अपनी माँ के लिए बड़े-बड़े समुद्र तैर गए थे, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ पार कर गए थे।

फिर ममी उसके गाल सहलाते हुए पूछतीं, “अच्छा, बता तू मेरे लिए इतना सब करेगा बड़ा होकर या कि निकाल बाहर करेगा...हटाओ बुढ़िया को, बोर करती है।"

“धत्, ममी को कभी नहीं छोडूंगा।"

तब ममी निहाल होकर उसे बाँहों में भर लेतीं और उसके गालों पर ढेर सारे किस्सू देतीं। फिर पता नहीं छत में क्या देखने लगतीं। बस, फिर देखती ही रह जातीं और उसे लगता जैसे उसके और ममी के बीच में फिर कहीं कोई आ गया है। पर कौन ? यह वह न समझ पाता। ममी के चेहरे पर गहराती हुई उदासी की परतें उसे कहीं हलके-से बेचैन कर देतीं। उसका मन करता कि ममी को पक्की तरह समझा दे कि वह उन्हें कब्भी-कभी नहीं छोड़ेगा। पर कैसे ? और जब कुछ भी समझ में नहीं आता तो वह ममी के गले में हाथ डालकर लिपट जाता।

तभी फूफी की बात याद आ जाती है। हुँह ! फूफी बकवास करती है। कहीं ममी को प्यार करने से या कि ममी के साथ सोने से कोई लड़का लड़की बन जाता होगा भला !

“तुम नहा लो बंटी भय्या ! कहो तो हम नहला दें ?"

“नहीं, अपने-आप नहाऊँगा। बड़ी आई नहलानेवाली !'

"तो जाओ अपने आप नहाओ। हम कपड़ा-वपड़ा निकालकर रख देते हैं।'

"अभी नहीं नहाता, जब मर्जी आएगी नहाऊँगा।" फूफी को लेकर अभी भी गुस्सा भरा हुआ है।

बंटी ने अपनी अलमारी खोली। ममी के खरीदे हुए और पापा के भेजे हुए खिलौनों से अलमारी भरी हुई है। उसने नई वाली बंदूक निकाली, खूब बड़ी-सी। और एकदम आँगन में झाड़ लगाती हुई फूफी की पीठ में नली लगा दी। बोला, “अब कहेगी कभी लड़की, कर दूँ शूट ? गोली से उड़ा दूंगा, हाँ, याद रखना !"

बंटी जब बहुत लाड़ में होता है या बहुत नाराज़ तो फूफी को तू ही कहता है।

“और क्या, अब तुम बंदूक ही तो मारोगे...इसी दिन के लिए तो पाल-पोसकर बड़ा किया है।"

तब पता नहीं क्यों ममी की कोई बात याद आ गई और बंटी का हाथ अपने-आप हट गया।

ख़याल आया, उसने अपनी बंदूक टीटू को तो दिखाई ही नहीं। उसके मुकाबले में टीटू के पास बहुत कम खिलौने हैं, फिर भी ऐसी शान लगाता है जैसे लाट साहब हो। उस दिन कैरम-बोर्ड दिखा-दिखाकर कितना इतरा रहा था। वह ममी से कहकर अपने लिए भी कैरम-बोर्ड खरीदेगा। और नहीं तो इस बार पापा आएँगे तो उनसे लेगा।

पिछली बार पापा जिस दिन आए थे, उसी दिन उसका रिज़ल्ट निकला था।

कितने खश हए थे पापा उसका रिजल्ट देखकर ! खूब प्यार किया था, शाबाशी दी थी और ढेर सारी चीजें दिलवाई थीं।

इस बार कब आएँगे पापा ?

"यह किधर चले ?” उसे पिछले दरवाज़े से बाहर जाते देख फूफी चिल्लाई।

"मैं टीटू के यहाँ जा रहा हूँ, अभी आ जाऊँगा।"

“वहीं मत खेलने बैठ जाना, ममी गुस्सा होंगी नहीं तो। नहाया-धोया कुछ नहीं है।"

बंटी दूर निकल आया। फूफी की तो आदत है, कुछ न कुछ बकते रहने की।

टीटू के घर के दरवाज़े पर आकर एक मिनट को झिझका। कहीं सबसे पहले टीटू की अम्मा ही न मिल जाए। कैसे बोलती हैं वे भी। एक दिन इसी तरह छुट्टी के दिन सवेरे-सवेरे आ गया था तो बोली, “आ गए बंटी। छुट्टी के दिन तो तुम्हारा सूरज भी इसी घर में उगता है और इसी घर में डूबता है।" तो मन हुआ था कि उलटे पैरों लौट जाए।

ममी तो टीट को कभी ऐसे नहीं कहतीं, चाहे वह सारे दिन रह ले। उसका बस चले तो वह कभी टीटू के घर नहीं जाए। वैसे भी उसे अपने ही घर में खेलना अच्छा लगता है। फूफी कहती है-घर में काहे नहीं अच्छा लगेगा ? ऐसी लाट साहबी करने को और कहाँ मिलती है बच्चों को !

टीटू से कितना कहा कि तू ही आ जाया कर छुट्टी के दिन, पर शाम के पहले वह कभी आता ही नहीं। घर में ही खेलता रहता है...बिन्दा है, शन्नो है...हुँह। कहने दो कहती हैं तो। बंदूक दिखाकर अभी लौट भी जाऊँगा। मैं वहाँ रुकूँगा ही नहीं। और सूरज तो अब कभी का उग गया।

बरामदे में ही टीटू की अम्मा बैठी तरकारी काट रही हैं। क्षण-भर को पाँव ठिठक गए। न भीतर को जाते बना, न लौटते।

“कौन, बंटी ! आओ। अरे बड़ी ज़ोरदार बंदूक ले रखी है। इत्ती बड़ी किसने दिलवाई ?"

“पापा ने।"
“ऐं ! आए थे क्या पापा ?"

“नहीं, किसी के साथ भिजवाई थी।" एकाएक स्वर की खुशी जैसे बुझ गई। मन हआ अम्मा के सीने में ही दाग दे बंदूक। जब देखो तब वही बात।

बंटी भीतर दौड़ गया।

टीटू शन्नो के साथ बैठा-बैठा कैरम खेल रहा था। बंटी ने चुपचाप उसकी पीठ पर बंदूक की नली लगाई और ज़ोर से चिल्लाया, "हैंड्स अप !" टीटू एकदम डर गया तो बंटी खिलखिला पड़ा..."कैसा डराया !"

"अरे, इतनी बड़ी बंदूक, देखू ज़रा।" टीटू इतनी बड़ी बंदूक देखकर एकाएक उत्साह में आ गया।

"चल, बाहर चलकर निशाना लगाएँगे।" आज वह भी आसानी से बंदूक नहीं देगा। उस दिन कैरम को लेकर कैसा इतरा रहा था...हटो, हटो, तुम्हें खेलना नहीं आता।

“ऐ टीटू ! पहले खेल पूरा करके जाओ। हार रहा है तो कैसा भागने लगा।" जीतती हुई शन्नो ने कुरता पकड़कर उसे खींचा।

"ले खेल, और खेल।" टीटू ने दोनों हथेलियों से सारी गोटों को इधर-उधर छितरा दिया और बंटी को लेकर बाहर भाग गया।

"हारू-हारू...” खिसियाई-सी शन्नो चीखती रही।

मुग्ध भाव से बंदूक पर हाथ फेरते हुए टीटू ने कहा, “दिखा तो यार, ज़रा !"

“खाली देखने से काम नहीं चलेगा। समझना पड़ता है। यह कोई आठ आनेवाला तमंचा नहीं है, जो हर कोई चला ले।" बंटी अपने को महत्त्वपूर्ण महसूस करने लगा।

“अभी खरीदी है ?" बड़ी ललचाई-सी नज़रों से देखते हुए टीटू ने पूछा।

"नहीं, पापा ने भिजवाई है।" बड़े रौब से बंटी ने जवाब दिया और उसी रौब के साथ वह उसमें कारतूस भरने लगा।

"चल, तेरे पापा साथ नहीं रहते तब भी तेरे लिए चीजें तो खूब भेजते रहते हैं।"

“और क्या ? इस बार आएँगे तो मेरे लिए बड़ावाला मैकेनो लाएँगे। मैं तो ममी से जो माँगता हूँ, ममी भी झट दिलवा देती हैं।"

बंदूक हाथ में मिल जाती तब तो टीटू फिर भी बंटी के इस रौब को जैसे-तैसे झेल जाता। पर खाली बातों का रौब...

“क्यों रे बंटी, तेरा मन नहीं होता कि पापा तेरे साथ रहें ?'' बंटी का कमज़ोर हिस्सा वह जानता है।

बंटी चुप। बस, बंदूक के घोड़े को ऊपर-नीचे करता रहा।

“जब यहाँ आते हैं तो तू कहता क्यों नहीं ?... पर अब शायद रह नहीं सकते !"

बंटी ने बड़े प्रश्नवाचक भाव से टीटू की ओर देखा।

"तेरे ममी-पापा में तलाक जो हो गया है।"

न चाहते हुए भी बंटी पूछ बैठा, “तलाक ? तलाक क्या होता है ?"

“तू नहीं जानता ? बुद्ध कहीं का। ममी-पापा की जो लड़ाई होती है न, उसे तलाक कहते हैं।"

"तुझे कैसे मालूम ?''
"मेरी अम्मा बता रही थीं, पापा बता रहे थे।"
बंटी तब भीतर ही भीतर कहीं अपमानित हो आया।

ठाँय ! ठाँय ! वह हवा में बंदूक दागने लगा। और टीटू को अपनी बंदूक से पूरी तरह चकित करके, बिना एक बार भी उसे चलाने का अवसर दिए वापस लौट आया।

मन में जाने कैसा गुस्सा उफन रहा था। उसके ममी-पापा की बात उसे नहीं मालूम और टीटू को मालूम ! पापा साथ नहीं रहते तो क्या हुआ, वे तो शुरू से ही साथ नहीं रहते। वह तो हमेशा से ही ममी के पास रहता है। उसकी ममी कोई ऐसी-वैसी हैं ? कॉलेज की प्रिंसिपल हैं, आते-जाते लोग कैसे सलाम ठोंकते हैं। करेगा कोई ऐसे सलाम इनकी अम्मा को ?

और पापा पास नहीं रहते तो क्या हुआ ? उसे प्यार तो खूब करते हैं। टीटू के पापा तो जब देखो तब डाँटते ही रहते हैं। उस दिन उसके सामने ही कैसा कान उमेठा था कि में बोल गई। सारा चेहरा सुर्ख हो आया। अच्छा है, पापा के साथ रहो, डाँट खाओ, पिटो और कान खिंचवाओ।

पर ममी को तो ऐसा नहीं करना चाहिए न ? ममी उसे पापा की बात बताती क्यों नहीं हैं ? कितनी ही बार उसने ममी से यह बात करनी चाही, पर जब भी वह ऐसी बात करता है, ममी का चेहरा जाने कैसा कैसा हो जाता है। उसे डर-सा लगने लगता है। फिर उससे कुछ भी नहीं पूछा जाता।

इस बार पापा आएँगे तो वह पापा से पूछेगा कि वे दोनों दोस्ती क्यों नहीं कर लेते ? पापा तो उसकी बात बहुत मानते हैं; जहाँ कहता है, वहीं घुमाने ले जाते हैं। जो माँगता है, वही दिला देते हैं। यह बात नहीं मानेंगे ! अब तो वह बड़ा हो गया है, पापा को समझा सकता है।

पर ममी-पापा की लड़ाई क्यों हुई ? ममी कभी पापा की बात नहीं करतीं। पापा आते हैं तो सरकिट हाउस में ठहरते हैं। ममी को बुलाते भी नहीं, ममी की बात भी नहीं करते। क्या इतने बड़े-बड़े लोग भी लड़ते हैं ? ऐसी लड़ाई, जिसमें कभी दोस्ती ही न हो। क्या ममी को पापा की याद नहीं आती होगी ?

शाम को ममी लॉन में पलंग डालकर लेटी हैं। मौसम में हलकी-सी ठंडक है, पर फिर भी बाहर खूब अच्छा लग रहा है। ममी की छाती पर एक खुली हुई किताब उलटी रखी है। आसमान में जाने क्या देख रही हैं ममी ! बंटी दौड़-दौड़कर क्यारियों में पानी डाल रहा है ! टीटू पाइप लेकर पौधे धो रहा है। धुलकर पत्तियाँ कैसी चटकीली हो उठती हैं। रातरानी की महक धीरे-धीरे चारों ओर फैलने लगी है। हर पौधे, हर फूल और हर गंध के साथ बंटी का जैसे बड़ा गहरा संबंध है।

पानी दे चुकने के बाद बंटी ने एक बड़ा-सा मोगरे का फूल तोड़ा। इस बगीचे में से फूल तोड़ने का अधिकार केवल बंटी का है क्योंकि यह बगीचा केवल उसी का है। बिना उससे पूछे तो ममी भी नहीं तोड़ सकतीं।

फूल लेकर वह चुपचाप गया और लेटी हुई ममी के बालों में खोंस दिया। ममी बड़ा मीठा-सा मुसकराईं और पकड़कर उसे अपने पास खींच लिया।

“लाड़ कर रहा है ममी का ?" और बैठकर फूल को ठीक से पीछे की ओर लगा लिया।

इस समय ममी कितनी अच्छी लग रही हैं। वैसे तो शाम के समय ममी बिलकुल उसकी अपनी हो जाती हैं। बालों की खूब ढीली-ढाली चोटी और चेहरा भी एकदम मुलायम-सा। कोई तनाव नहीं, कोई सख्ती नहीं। हमेशा ही इस समय बंटी को ममी बहुत अच्छी लगती हैं। बहुत सुंदर भी। कभी-कभी वह ममी की नज़र बचाकर एकटक ममी को देखता रहता है। ममी की ठोड़ी का तिल उसे बहुत अच्छा लगता है। रात में पास लेटता है तो अकसर उस पर धीरे-धीरे उँगली फिराता रहता है।

उसे आज भी याद है। पहली बार जब उसने ऐसा किया था तो ममी जैसे चौंक गई थीं। एकदम उसका हाथ हटा दिया था और बड़ी देर तक उसके चेहरे पर जाने क्या देखती रही थीं। अजीब-अजीब नज़रों से। फिर एक गहरी साँस छोड़कर वे छत की ओर देखने लगी थीं। उनका चेहरा न जाने क्यों बड़ा उदास और बेजान हो आया था। वह जैसे भीतर ही भीतर सहम गया था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि आख़िर उसने ऐसा क्या कर दिया, जो ममी इतनी उदास हो गईं और उसने तय कर लिया कि अब वह कभी तिल पर हाथ नहीं रखेगा।

पर तीन-चार दिन बाद ममी ने खुद ही उसकी उँगली लेकर तिल पर रख दी, "फिरा, मुझे अच्छा लगता है।" और हँसने लगीं।

ममी भी सचमुच अजीब हैं, इन्हें कभी-कभी कुछ हो जाता है।

आज रात में तिल पर उँगली फेर-फेरकर ही बात करेगा, पापावाली बात। अब वह सब समझता है। हिस्ट्री में रामायण-महाभारत की लड़ाई की बात समझ ली, ममी-पापा की लड़ाई की बात नहीं समझ सकता ? ममी बताएँ तो ! टीटू के अम्मा-पापा उसे सब बता सकते हैं और ममी उसे नहीं बता सकतीं ?

सवेरे की कचोट जैसे फिर ताज़ी हो गईं। टीटू को दिखाते हुए बंटी ममी के गले से झूम गया। लो, देख लो, ममी कैसा दुलार करती हैं मेरा। तुम झूमो तो जरा अपनी अम्मा के गले में। न झटककर अलग कर दें तो। न रहें पापा उसके पास, उससे क्या ? ममी अकेली जितना प्यार करती हैं उसे, तुम्हारे अम्मा-पापा मिलकर भी उतना प्यार नहीं कर सकते।

और उसकी आँखों के सामने खटिया पर नंगे-बदन बैठे, कभी खाँसते तो कभी पेट पर हाथ फेरते टीटू के पापा और हल्दी के दागों से भरी साड़ी पहने अम्मा घूम गईं।

तब मन एक गर्वयुक्त तृप्ति से भर गया। हुलसकर उसने कहा, "ममी, आज बहुत-बहुत लंबीवाली कहानी सुनाओ।"

कहानी चल रही है, सात भाई चम्पा की। सौतेली माँ ने कैसे सातों लड़कों को मरवाकर गड़वा दिया। जहाँ-जहाँ बच्चे गाड़े गए वहाँ-वहाँ चम्पा का एक-एक पेड़ उग आया।

“सौतेली माँ बहत बुरी होती है ममी ?"
"हाँ और नहीं तो क्या ? मारकर गड़वा देती है।"
"बच्चों के पापा ने क्यों नहीं कुछ कहा ?"
“सौतेली माँ ने उन्हें पता ही नहीं लगने दिया।"
“हुँह ! ऐसा भी कभी हो सकता है ? झूठ ! सात बच्चे गायब हो जाएँ और पापा को पता ही नहीं लगे !"

"हाँ होता है ऐसा। पापा कोई ऐसा-वैसा आदमी था ? राजा था। उसके पास राज्य के बहुत सारे काम थे...बच्चों का ख़याल ही नहीं रहा। पापा लोग ऐसे ही होते हैं। उन्हें बच्चों का खयाल कभी रहता ही नहीं। यह तो माँ ही होती है, जो..."

और ममी एकाएक चुप हो गईं। उसने ममी की ओर देखा। ममी वैसे ही आसमान की ओर देख रही हैं। क्या देखती रहती हैं ममी आँखें गड़ाकर-कभी आसमान में, कभी छत में ? उसे तो वहाँ कभी कुछ नहीं दिखाई देता। एकाएक ख़याल आया, पापा की बात पूछ ले।

"ममी !"

"हूँ!"

बंटी पसोपेश में। कैसे पूछे ? ममी ने कहीं डाँट दिया या कि ममी बहुत उदास हो गईं तो ? शाम और रात में ही तो वह ममी के बहुत-बहुत पास हो जाता है। सवेरे तो इन्हीं ममी में से एक और ममी निकल आती हैं।

उसने एक बार फिर ममी की ओर देखा। आँखें आसमान पर टिकी हईं। लटें चेहरे पर बिखरी हुईं। सचमुच ममी सुंदर हैं। वह बेकार ही क्यों डरने लगता है ममी से ! उसने हिम्मत जुटाकर कहा, “ममी, ममी !"

इस बार ममी ऐसे चौंककर बोलीं जैसे कहीं और चली गईं थीं, “चल, तू बहुत बहस करता है, मैं नहीं सुनाती तुझे कहानी।"

“ममी, पापा हम लोगों के साथ क्यों नहीं रहते ?"

ममी चुप !

“आज टीटू कह रहा था..."

"क्या कह रहा था टीटू ?" ममी एकदम बंटी पर झुक आईं। आवाज़ की सख्ती से बंटी जैसे एक क्षण को सहम गया।

“बता क्या कह रहा था टीटू ?..."

"टीटू कह रहा था कि तेरे ममी-पापा का तलाक हो गया है। अब पापा कभी हमारे साथ नहीं रह सकते।" बंटी ने जैसे-तैसे कह दिया।

"क्यों रे, तू और टीटू ये ही सब बातें करते रहते हो ?" ममी की आवाज में गुस्सा था या दुख, पता नहीं चला।

"मैं नहीं करता ममी, टीटू ही कह रहा था। मुझे तो तलाक का मतलब भी नहीं मालूम। उसी ने बताया कि ममी-पापा की लड़ाई को तलाक कहते हैं। जब देखो, उनके घरवाले पापा की बात ज़रूर करते हैं।"

बंटी रुआँसा हो आया।

ममी एकाएक ढीली हो आईं। ठंडी साँस खींचकर बोलीं, “करने दो। इन लोगों के पास ये बातें न हों तो ये जिएँ कैसे बेचारे ?' फिर बंटी को अपने पास खींचती हईं बोली, “पापा नहीं रहते तो क्या, मैं तो हूँ तेरे पास।"

और उसके बाद बंटी से कुछ भी नहीं पूछा गया, कुछ भी नहीं कहा गया। ममी उसे कितना ही प्यार करें फिर भी वह ममी से कहीं डरता ज़रूर है। कितनी बातें सोची थीं उसने आज कहने के लिए। दिन में कई बार दोहरा-दोहराकर भी देख लिया था। पर हमेशा की तरह बात बीच में ही टूट गई।

ममी चुप-चप उसके बालों और गालों पर उँगलियाँ फिराने लगीं। दोनों चप हो गए तो दूर लेटी फूफी की आवाज़ ही हवा में थिरकती रही। उखड़ा-बिखरा स्वर, “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई..."

"हवा में ठंडक बढ़ गई, चल, भीतर चल !” और बंटी ममी के पीछे-पीछे अंदर चला गया।

बाहर था तो जैसे मन के सारे प्रश्न चारों ओर फैले हुए थे। कमरे में आते ही सब सिमटकर मन में समा गए और बंटी को एक अजीब-सी बेचैनी होने लगी।

कैसे पूछे वह ? क्यों नहीं बतातीं ममी उसे कुछ ?

अच्छा, ममी को क्या कभी भी पापा की याद नहीं आती ? वह तो टीटू या कुन्नी से अगर लड़ाई कर लेता है तो दो-तीन दिन तो बिना बोले रह लेता है।


अकेला-अकेला खेलता रहता है, पर उसके बाद तो ऐसा जी घबराने लगता है कि बोले बिना रहा ही नहीं जाता। कुछ न कुछ बहाना निकालकर फिर दोस्ती कर लेता है। अकेला-अकेला खेले भी कितने दिन तक आखिर ?

पर ममी तो हमेशा से ही अकेली रह रही हैं। तलाक में फिर क्या दोस्ती हो ही नहीं सकती ? किससे पूछे ?

कल टीटू से ही पूछेगा। टीटू अगर तलाक की बात जानता है तो तलाक की दोस्ती की बात भी ज़रूर जानता होगा।

आपका बंटी (उपन्यास) : दो

शनिवार को ममी लंच के बाद कॉलेज नहीं जातीं।

खाना खाकर ममी उठीं और सोने के कमरे के सारे परदे खींच दिए। कमरे में हलका-सा अँधेरा हो गया। अभी तो उतनी गरमी नहीं है, वरना ममी रोशनदानों में भी काले या भूरे कागज़ चिपकवा देती हैं। गरमी में उन्हें रोशनी बिलकुल अच्छी नहीं लगती। और बंटी है कि उसका अँधेरे में जैसे जी घबराता है।

अँधेरा यानी कि सोओ। रात-भर अँधेरा रहता है और रात-भर वह सोता भी है। अब दिन में भी अँधेरा कर दोगे तो कोई रात थोड़े ही हो जाएगी। और रात नहीं तो सोए कैसे ? पर ममी सुनती हैं कोई बात ?

"बंटी, चलो सोओ !" और पकड़कर पलंग पर डाल देती हैं।

बंटी जानता है कि कुछ भी कहना-सुनना बेकार है, इसलिए जैसे ही ममी ने परदे खींचे, चुपचाप आकर पलंग पर लेट गया। जब तक आँखें खुली हैं, नजर कमरे की दीवारों में कैद है, पर आँख बंद करते ही जैसे सारी सीमाएँ टूट जाती हैं और न जाने कहाँ-कहाँ के जंगल, पहाड़ और समुद्र तैर आते हैं आँखों के सामने। परीलोक की परियाँ और पाताललोक की नाग-कन्याएँ तैरती हुईं उसके सामने से निकल जाती हैं।

अच्छा, अगर कोई उसे जादू के पंख या उड़नेवाला घोड़ा दे दे तो वह क्या करे ? एकदम पापा के पास चला जाए और उन्हें चौंका दे। अचानक उसे आया देख पापा कितने खुश हो जाएँगे। इधर ममी ढूँढ़-ढूँढ़कर परेशान। बाहर देखेंगी, टीटू के घर में जाएँगी, कुन्नी के घर जाएँगी, फूफी सारे में दौड़ती फिरेगी और वह जादू की टोपी पहने सबकुछ देखता रहेगा...परेशान होती ममी को, इधर-उधर दौड़ती हुई बौखलाई-सी फूफी को। और जब ममी रो पड़ेंगी तो झट से टोपी उतारकर उनके गले में लिपट जाएगा।

पर ये सब चीजें मिलती कहाँ हैं ? सारी कहानियों में इनकी बातें हैं, पर किसी ने भी यह नहीं लिखा कि ये मिलती कहाँ हैं। कोई साधू मिल जाए तो बता सकता है या उसके पास भी ऐसी चीजें हो सकती हैं।

ममी सो गईं। एक क्षण बंटी ममी को देखता रहा...कहीं पलकें हिल तो नहीं रहीं। तभी ख़याल आया, सोती हुई ममी कितनी अच्छी लगती हैं। अच्छा, ममी तरह-तरह की कैसे हो जाया करती हैं ? टीटू की अम्मा को तो कभी भी जाकर देख लो, हमेशा एक-सी रहती हैं, फूफी भी।

बंटी दबे पाँव पलंग से उतरा। धीरे से कमरे के बाहर निकला और दौड़कर करोंदे की झाड़ियों के पास पहुँच गया। कुन्नी ने कहा था कि बंटी अगर उसे खूब सारे करोंदे तोड़कर देगा तो वह बंटी को करोंदे की माला बनाकर देगी, खूब सुंदर-सी।

टीटू भी आ जाता तो दोनों मिलकर तोड़ते, पर वह बुलाने तो नहीं ही जाएगा। वहाँ उसकी अम्मा मिल गईं तो बस, कबाड़ा। कोई बात नहीं, वह अकेला ही तोड़ेगा।

अचानक लोहे का फाटक बजा तो बंटी घूम पड़ा, “अरे, वकील चाचा !" पसीने में सराबोर वकील चाचा एक तरह से हाँफते हुए अपनी पतली-सी छड़ी हिलाते हुए चले आ रहे थे।

चिपचिपाते हाथों को कमीज़ से ही पोंछता हुआ बंटी दौड़ा और वकील चाचा की बाँह से झूल गया।

“आप कब आए चाचा ?"

“क्यों रे, तू ऐसी भरी धूप में यहाँ करोंदे तोड़ रहा है ?"

"धूप ! कहाँ, मुझे तो नहीं लग रही।" बंटी दुष्टता से हँस रहा है।

"हाँ, धूप कहाँ, यह तो चाँदनी है न ? शैतान कहीं का ! शकुन घर में है या कॉलेज ?"

“शनिवार को तो एक बजे ही छुट्टी हो जाती है कॉलेज की। भीतर सो रही हैं।" और फिर 'ममी-ओ ममी, वकील चाचा आए हैं' के बिगुल नाद के साथ ही बंटी चाचा को लेकर भीतर घुसा।

भरी नींद में से ममी उठीं और वकील चाचा को सामने देखकर जैसे एकदम सिटपिटा गईं। साड़ी ठीक करके उठती हुई बोली, “अरे आप कब आए ?"

"यह बंटी वहाँ करोंदे तोड़ रहा था ऐसी धूप में।"

"ममी पूछ रही हैं, आप कब आए ? पहले उनकी बात का तो जवाब दीजिए।"

“तू बड़ा तेज़ हो गया है।" वकील चाचा ने अपनी टोपी उतारकर मेज़ पर रखी और ठीक पंखे के नीचे बैठे गए। अभी तो ज़रा भी गरमी नहीं है और चाचा के इतना पसीना ! “तुम्हारे यहाँ आज आया हूँ तो समझ लो शहर में आज ही आया हूँ।"

"क्यों रे, तू उठकर फिर करोंदे तोड़ने चला गया। तुझे नींद नहीं आती तो फिर पढ़ता क्यों नहीं ? इम्तिहान नहीं पास आ रहे ! आँख लगी नहीं कि गायब !"

ममी सचमुच ही गुस्सा होने लगीं। पर बंटी है कि अभी भी हँस रहा है। चाचा इस समय कवच की तरह उसके सामने बैठे हैं। ममी का गुस्सा बेकार।

"चाचा, आपको जितनी गरमी लग रही है, उससे तो लगता है कि आप ठंडा ही पिएँगे, बोलिए क्या लाऊँ ?"

चाचा की आँखों में एकाएक लाड़ उमड़ आया, "बड़ी ख़ातिर करना सीख गया। तू तो एकदम ही बड़ा और समझदार हो गया लगता है।"

“मैं अभी आई।" कहकर ममी अंदर चली गईं। शायद मुँह धोने या चाचा के लिए कुछ लाने !

बंटी धीरे-से सरककर चाचा के पास आया और उनकी कुर्सी के हत्थे पर बैठता हआ बोला, "चाचा, पापा कब आएँगे इस बार ?"

इस प्रश्न में पापा के बारे में जानने की इच्छा भी थी, साथ ही यह उत्सुकता भी कि पापा ने कुछ भेजा हो चाचा के साथ तो चाचा निकालें।

पता नहीं क्यों चाचा एकटक उसका चेहरा ही देखने लगे। घनी भौंहों के नीचे, कुछ अंदर को धंसी आँखें जाने कैसी गीली-गीली हो गईं। बड़े दुलार से, पीठ पर हाथ फेरते हुए बोले, “पापा की याद आती है बेटे ?"

झेंपते हुए बंटी ने गरदन हिला दी।

बंटी को लगा जैसे चाचा कहीं उदास हो गए हैं। पीठ सहलाता हुआ उनका हाथ उसे काँपता-सा लगा। पापा की बात कहकर उसने कहीं गलती तो नहीं कर दी ? पता नहीं, जब भी वह पापा की बात करता है, सब कुछ गड़बड़ा जाता है। किससे करे वह पापा की बात ? किससे पूछे उनके बारे में ?

“पापा भी आएँगे बेटा, मैं जाकर उन्हें भेजूंगा।" चाचा का स्वर इतना बुझा-बुझा क्यों है ? वे तो हमेशा इतने ज़ोर-ज़ोर से बोलते हैं जैसे क्लास में पढ़ा रहे हों।

“मैं तो इस बार मिलकर भी नहीं आ सका, वरना ज़रूर तेरे लिए कुछ भेजते।"

और चाचा बड़े प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगे। मानो कुछ न लाने की कमी वे प्यार से ही पूरी कर देंगे।

चाचा कुछ लाए भी नहीं, इस सूचना ने बंटी को और भी खिन्न कर दिया, वरना जब भी चाचा आते हैं, पापा उसके लिए ज़रूर कुछ न कुछ भेजते हैं और शायद यही कारण है कि उसे चाचा अच्छे लगते हैं, चाचा का आना अच्छा लगता है।

“जो बंदूक तुम्हारे लिए भेजी थी, वह तुम्हें पसंद आई ?"

"बहुत अच्छी, बहुत ही अच्छी। आपने देखी थी ?" बंदूक के नाम से ही जैसे मरा हुआ उत्साह एक क्षण को जाग उठा।

"हमने साथ ही जाकर तो ख़रीदी थी।"

फिर चाचा यों ही कमरे में इधर-उधर देखने लगे।

“ये चित्र तुमने बनाए हैं ?"

दीवारों पर ममी ने उसकी पेंटिंग्स गत्ते पर चिपका-चिपकाकर लटका रखी हैं। तीन शीशे के फ्रेम में मढ़वा रखी हैं।

"हाँ।" बड़े गर्व से बंटी ने कहा, "स्कूल में मेरी और भी अच्छी-अच्छी रखी हैं। आर्ट-क्लब का चीफ़ हूँ..”

“अच्छा !" चाचा ने शाबाशी देते हुए उसकी पीठ थपथपाई और फिर जैसे कहीं से उदास हो गए। पर यह भी कोई उदास होने की बात हुई भला !

इतने में ममी घुसी। हाथ में ट्रे लिए हुए। लगा, वह मुँह भी धोकर आई हैं। यों भी सोकर उठती हैं तो ममी का चेहरा बहुत ताज़ा-ताज़ा लगता है। चाचा को गिलास पकड़ाकर ममी सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गईं।

"तुम्हारा बेटा तो बड़ा गुनी है शकुन। कलाकार बनेगा। देखो न, इस उम्र में ही बड़ी अच्छी पेंटिंग्स बना रखी हैं।"

ममी ने उसे देखा क्या, जैसे लाड़ में नहला दिया। बंटी सोच रहा था, ममी उसकी तारीफ़ में कुछ और कहेंगी, पर फिर सब चुप हो गए।

हमेशा बोलते रहनेवाले चाचा भी चुप और चाचा के सामने चुप रहनेवाली ममी भी चुप। अँधेरा-अँधेरा कमरा और भीतर बैठे लोग चुप। जैसे एक अजीब-सी उदासी वहाँ उतर आई हो। चाचा कभी एक चूंट पीते हैं, कभी उसकी ओर देखते हैं तो कभी खिड़की की ओर। पर खिड़की तो बंद है, उस पर परदा पड़ा है। वहाँ तो देखने को कुछ है ही नहीं। ममी एकटक ज़मीन ही देखे जा रही हैं और वह है कि कभी ममी को देखता है तो कभी चाचा को।

"चाचीजी अच्छी हैं, बच्चे ?" आख़िर ममी ने पूछा।

"हूँ, ठीक हैं सब।" कुछ इस भाव से कहा मानो उन्हें इन सबमें कोई दिलचस्पी ही न हो।

"तुम गर्मियों की छुट्टियों में कहीं बाहर नहीं जा रहीं इस बार ?"

"नही, एक तो पहले से ही कहीं जगह का इंतज़ाम नहीं किया, यों भी इस बार यहीं रहने का इरादा है।"

ममी पापा की बात क्यों नहीं पूछ रहीं ? लड़ाई में क्या बात भी नहीं पूछते हैं?

“कलकत्ते में तो अभी से गरमी शुरू हो गई होगी ? यहाँ शाम को तो अभी भी बहुत अच्छा रहता है और रात को ठंड रहती है।"

बातें कर रहे हैं, पर बंटी तक को लग रहा है कि जैसे कमरे का मौन नहीं टूट रहा है। उदासी नहीं छंट रही है। यह चाचा को क्या हो गया है ? वैसे तो चाचा जब भी आते हैं, उन्हें ममी से बहुत-बहुत बातें करनी रहती हैं। शाम को या दोपहर को आएँगे तो रात के पहले कभी नहीं जाएँगे और जब तक बैठेंगे लगातार कुछ न कुछ बोलते ही जाएँगे। अगर ममी थोड़ी देर को उठकर चली भी जाएँ तो चाचा उससे बातें करने लगेंगे। और कुछ नहीं तो उसका टेस्ट ही ले डालेंगे। टेबल पूछेगे, स्पेलिंग पूछेगे। चुप तो चाचा रह ही नहीं सकते। उन्हें इस तरह लगातार बोलते देखकर बंटी को ख़याल आता, अगर इन्हें कभी क्लास में बैठना पड़े तो ? बाप-रे-बाप ! सारा दिन सज़ा खाते ही बीते। मुँह पर उँगली रखे खड़े हैं या कि मुँह पर डस्टर बाँधे बैठे हैं।

उसने पिछली बार यह बात ममी को बताई तो हँसते हुए उसका कान खींचकर कहा था, "यही सब सोचता रहता है बड़ों के बारे में ?...और फिर देर तक हँसती रही थीं। मुँह पर डस्टर बँधे चाचा की कल्पना में वह ख़ुद हँस-हँसकर दोहरा होता रहा था।

वही चाचा आज चुप हैं। चुप ही नहीं, उदास भी हैं।

“आप कितने दिन हैं यहाँ पर ?''

“परसों की तारीख है। बस उसी दिन शाम को चला जाऊँगा।" फिर एक क्षण ठहरकर बोले, "तुमसे कुछ बातें करनी थीं, तो सोचा कि एक दिन हाथ में होगा तो ठीक रहेगा।"

ममी की आँखें चाचा के चेहरे पर टिक गईं। हजारों सवाल उन आँखों में झलक आए। चेहरे पर एक अजीब-सा तनाव आने लगा। बंटी के मन में जाने कैसा-कैसा डर-सा समाने लगा।

पहले वह कुछ भी जानता-समझता नहीं था। जानने-समझने की कोई इच्छा भी नहीं थी। पर अब जानने लगा है। और जितना जानता है, उससे बहुत ज़्यादा जानने की इच्छा है, बल्कि सब कुछ जान लेने की इच्छा है। उसे मालूम है कि चाचा पापा के पास से आते हैं, और आने पर पापा की ही बातें करते हैं। क्या बातें करते रहे हैं, उसे नहीं मालूम। उसने कभी सुनने की कोशिश ही नहीं की। पर इस बार जरूर सुनेगा।

हाँ, इतना उसे ज़रूर मालूम है कि चाचा एक-दो दिन के लिए आकर ममी को दस-बारह दिनों के लिए बदल जाते हैं। कभी-कभी तो ममी इतनी उदास हो जाया करती थीं कि उनसे बात करना भी बंद कर देती थीं। साथ सुलाकर भी न उसे प्यार से सहलातीं, न कहानी सुनातीं।

पर पिछली बार ममी बहुत खुश हुई थीं, इतनी खुश कि बिना बात ही उसे बाँहों में भर-भरकर प्यार करती रही थीं।

तब बंटी को शक हुआ था कि चाचा की छड़ी में तो कोई जादू नहीं है ! ममी पर फेरकर चले गए और ममी बदल गईं। तब उसने चुपचाप छड़ी को अपने ऊपर फिराकर देखा था, फूफी पर भी फिराकर देखा था, पर उनको तो कुछ नहीं हुआ। नहीं, छड़ी में नहीं, चाचा की बात में ही कुछ होता है।

आज पता नहीं कैसी बात करेंगे ? उसके बाद ममी खुश होंगी या उदास ? इस बार वह सारी बात ध्यान से सुनेगा।

उसने एक उड़ती-सी नजर ममी पर डाली। ममी की आँखें वैसे ही चाचा पर टिकी हुई हैं। आँखों में वैसे ही सवाल झूल रहे हैं। पर चाचा हैं कि चुप। बोलते क्यों नहीं ? बात करनी है तो करें बात। वहाँ खिड़की में क्या देखे जा रहे हैं ? बात वहाँ तो लिखी हुई नहीं है।

"शकुन !'' चाचा बोले नहीं, जैसे शब्दों को किसी तरह ठेला। कैसी मरी-मरी आवाज़ निकल रही है आज उनकी।

टकटकी लगाए-लगाए ममी की आँखें जैसे पथरा गई हैं। बस मूर्ति की तरह वे बैठी हैं, मानो साँस भी नहीं ले रही हों।

“वह चाहता है कि अब इस सारी बात की कानूनी कार्यवाही भी कर ही डाली जाए।" चाचा का स्वर कैसा बिखर-बिखर रहा है।

यही बात कहनी थी चाचा को ? पर इसका मतलब ? 'वह' तो पापा हैं, बात भी पापा की ही है, पर क्या है, कुछ भी समझ में नहीं आया।

"तो क्या इसीलिए आपको यहाँ भेजा है ?" ममी का चेहरा ही नहीं, उनकी आवाज़ भी सख्त हो गई है, वही प्रिंसिपलवाला चेहरा।

"नहीं-नहीं, मैं तो अपने काम से आया था। पर जब आने लगा तो उसने मुझे तुमसे इस विषय में बात करने को कहा था। मैं नहीं आता तो वह ख़ुद शायद तुम्हें लिखता।

इसका मतलब चाचा मिलकर आए हैं पापा से और अभी-अभी उससे कहा था कि आने से पहले मिला नहीं। चाचा इतने बड़े होकर भी झूठ बोलते हैं। उसे बड़ों की बात के बीच में नहीं बोलना चाहिए, वरना वह अभी पूछता।

चाचा ने शरीर ढीला छोड़कर पीठ कुर्सी पर टिका दी और आँखें मूंद लीं, जैसे बहुत-बहुत थक गए हों।

बस, हो गई बात, इतनी-सी बात करने आए थे ? हुँह ! यह भी कोई बात हुई भला !

“आप कुछ देर आराम कर लीजिए। रात के सफ़र की थकान भी होगी। बाकी बातें शाम को हो जाएँगी। ऐसी कौन-सी नई बात करनी है।" वाक्य का अंतिम हिस्सा ममी ने जैसे अपने-आपसे कहा और बिना चाचा का उत्तर पाए ही अलमारी खोलकर एक चादर निकाली और ड्राइंग-रूम के दीवान पर बिछा दी।

"चलिए, जाकर लेट जाइए।" ममी ने ऐसे कहा जैसे बंटी को कह रही हों। और चाचा भी बिलकुल चुपचाप उठकर चले गए। पता नहीं वे सचमुच ही थके हुए थे या पता नहीं वे जैसे बात टालना चाह रहे थे।

“और तू सोता क्यों नहीं है ? यहाँ बैठकर गुटर-गुटर बातें सुन रहा है। भरी दोपहर में भी तुझे नींद नहीं आती।"

बंटी उछलकर पलंग में दुबक गया। पर नींद का कोई प्रश्न ही नहीं। ममी की ओर देखकर पूछा, “चाचा क्या कहते थे ममी ?"

ममी ने ऐसी चुभती नजरों से उसे देखा कि वह भीतर तक सहम गया और खट से उसने आँखें बंद कर लीं। पर बंद आँखों से भी वह उस चुभन को महसूस करता रहा। फिर बंद आँखों से ही उसने जाना कि ममी भी उसकी बग़ल में आकर लेट गई हैं। अब सबको सुलाकर ममी जागती रहेंगी।

चाचा की कही हुई बात क्या बहुत बुरी थी ? अनायास ही ममी की उँगलियाँ उसके बालों को सहलाने लगीं, काँपती-थिरकती उँगलियाँ। उन उँगलियों के पोरों में से झर-झरकर जाने कैसा स्नेह बंटी की नसों में दौड़ने लगा कि मन में थोड़ी देर पहले जो भय समाया था, वह अपने-आप ही धीरे-धीरे बह गया। स्पर्श से ही वह जान गया कि अब तक ममी के चेहरे की वह सख्ती भी ज़रूर पिघल गई होगी।

उसने धीरे-से आँखें खोलीं। ममी हमेशा की तरह छत की ओर देख रही थीं। आँख से शायद अभी-अभी झरा आँसू कनपटी को भिगोता हआ बालों की लट में लटका था। ममी का आँसू। ममी को उसने उदास होते देखा है, गुस्सा होते और डाँटते हुए भी देखा है, पर रोते हुए कभी नहीं देखा।

चाचा ने शायद कोई बहुत ही खराब बात कह दी है। चाचा को लेकर उसके मन में एक अजीब तरह का आक्रोश घुलने लगा। एक तो कुछ लाए नहीं, फिर झूठ बोला और अब कोई गंदी-सी बात कहकर ममी को...

ममी शायद बहुत दुखी हैं। जैसे भी होगा वह ममी के दुख को दूर करेगा। ये लोग सारी बात बताएँगे तो ठीक है, नहीं तो ख़ुद पता लगाएगा। माँ का दुख दूर करनेवाले राजकुमार तो कैसे कठिन-कठिन काम करते थे।

वह सरककर ममी से और सट गया। फिर अपनी छोटी-सी बाँह ममी के गले में डालकर बोला, बहुत आग्रह के साथ, बहुत मनुहार के साथ, “मुझे बताओ न ममी, चाचा ने क्या कहा ?"

“तू सोएगा नहीं बंटी !" उदासी में भी ममी ने ऐसे कड़ककर कहा कि बंटी ने चुपचाप आँखें मूंद लीं।

ढेर-ढेर प्रश्नों का, ढेर-ढेर कौतूहल का सागर उसके चारों ओर उमड़ने लगा, जिसमें वह डूबता ही चला गया, गहरे और गहरे। और फिर पता नहीं उसे कब नींद आ गई।

धूप ढल गई तो ममी और चाचा लॉन में आ बैठे। वह जब से जगा है इन लोगों के आसपास ही मंडरा रहा है। आज जैसे भी हो उसे सारी बात जाननी है, पर चाचा उस तरह की कोई बात ही नहीं कर रहे। उसकी पढ़ाई की बात, ममी के कॉलेज की बात और दुनिया भर की बातें कर रहे हैं, पर जो बात करने आए हैं, बस वही नहीं कर रहे। शायद वह बैठा है, इसलिए, पर वह जाएगा भी नहीं, बैठे रहें रात तक। रात को वह आँख मूंदकर सोने का बहाना करके पड़ा रहेगा और सा री बातें सुन लेगा।

"बंटी बेटे, तुम शाम को खेलते-वेलते नहीं हो ? अच्छा ज़रा बताओ तो, कौन-कौन से खेल आते हैं तुम्हें ?"

खेल-वेल ! सीधे से क्यों नहीं कहते कि यहाँ से चलते बनो। ठीक है. मैं चला ही जाता हूँ। मेरा क्या है, मत बताओ मुझे। ममी भी ऐसे देख रही हैं, मानो मेरे जाने का इंतज़ार कर रही हों।

बंटी बिना एक शब्द भी बोले भीतर आ गया। पर मन उसका जैसे वहीं अटका रह गया। नहीं, वह ज़रूर सुनेगा।

मेहंदी की मेड़ के किनारे-किनारे घुटनों के बल चलकर वह फिर वहीं आ गया। चाचा की कुर्सी के पीछे मोरपंखी का जो पौधा है, उसके पीछे दुबककर बैठ जाए तो कम से कम चाचा की बात तो सुन ही सकेगा। बात तो उन्हें ही करनी है। कहीं ममी या चाचा ने देख लिया तो ? बाप रे ! इस बात से ही मन भीतर तक काँप गया। तभी भीतर से मन ने धिक्कारा-बस, इसी बूते पर कुछ करना चाहते हो। राजकुमार तो राक्षसों के महलों तक में घुस गए, बड़ी-बड़ी मुसीबतें उठा लीं और तुम कुर्सी के पीछे तक नहीं जा सकते। आख़िर हिम्मत करके, बिना ज़रा भी आवाज़ किए, पहले मोरपंखी के घने-घने पौधों के पीछे आया और फिर सरककर चाचा की कुर्सी के पीछे। कुछ बड़ा काम कर डालने का संतोष भी मन में था और कुछ बुरा काम करने का डर भी पर नहीं, ममी का दुख दूर करने के लिए शायद सभी को सभी तरह के काम करने पड़ते हैं। यह ममी का काम है, अच्छा काम !

ममी कुछ बोल रही हैं शायद ! कितना धीरे बोलती हैं ममी ! कुछ भी तो सुनाई नहीं दे रहा। नहीं, शायद कोई कुछ बोल ही नहीं रहा। अजीब बात है !

“शकुन !” ठीक है, खूब साफ़ सुनाई दे रहा है। पर चाचा रुक क्यों गए ? फिर सब चुप !

“शकुन ज़िंदगी चाहने का नाम नहीं..." लो अब आवाज़ इतनी धीरे कर दी कि ठीक से कुछ सुनाई नहीं दे रहा। बार-बार जिंदगी-जिंदगी कर रहे हैं, पापा की बात ही नहीं कर रहे।

बंटी थोड़ा और पास सरका। अब शायद ममी बोल रही हैं। खूब धीरे बोल रही हैं फिर भी सुनाई दे रहा है। अपनी ममी की तो धीरे से धीरे कही हुई बात भी वह सुन सकता है, समझ सकता है। “उम्मीद का तो प्रश्न ही नहीं उठता वकील चाचा। उम्मीद तो न पहले थी, न अब है।"

“नहीं ! ऐसी बात नहीं है। शुरू के तीन-चार साल तक तो मुझे बहुत उम्मीद थी, खासकर बंटी के प्रति उसका रुख देखकर। बच्चे..."

पता नहीं बीच-बीच में क्या बोलते जा रहे हैं। मेरे बारे में बोलते-बोलते सीमेंट की बात करने लगे। एकाएक ख़याल आया टीटू को ले आता, वह शायद सारी बात समझ लेता। पर नहीं, अपने घर की बात सबको नहीं बतानी चाहिए।

“मीरा के साथ तो उसका खूब अच्छा है। यू नो शी इज़..."

अब बीच में पता नहीं यह किसकी बात घुसा दी। चाचा को कभी इम्तिहान देना हो तो एकदम अंडा। लिखना है कुछ और आप इधर-उधर का लिख रहे हैं।

ममी तो शायद कुछ बोल ही नहीं रहीं। ये बोलने ही नहीं देंगे। दोपहर में तो गरमी और थकान के मारे शायद बोलती बंद हो रही थी...अब तो फिर पहले की तरह चालू हो गए। भले ही बोलें, पर ऐसी बात तो बोलें, जो समझ में आए।

तभी ममी की आवाज़ सुनाई दी। बात तो कुछ समझ में नहीं आ रही, बस, यह पता लग रहा है कि आवाज़ खूब सख्त है ! चेहरा भी ज़रूर सख्त हो गया होगा। मन हुआ एक बार देख ही ले। पीछे बैठते समय जो डर लग रहा था वह धीरे-धीरे दूर हो गया था और अब जैसे हौसला बढ़ रहा था। वह कुर्सी से एकदम सट गया।

“मैं क्या जानता नहीं, इसीलिए तो कह भी दिया। कोई और होता तो कभी बोच में नहीं पड़ता। अजय ने दस्तख़त करके फार्म दे दिया है। कल तुम भी उस पर दस्तख़त कर देना। मैं कचहरी में जमा करके जल्दी ही कोई तारीख देने के..."

धत्तेरे की ! ये वकील चाचा भी एक ही घनचक्कर हैं। पापा-ममी की बात के बीच में भी अपनी कचहरी-तारीख़ ज़रूर लगाएँगे। वकील की दुम !

लो, अब कोई कुछ बोल ही नहीं रहा। दोनों गुमसुम होकर बैठ गए। बंटी का मन हुआ, वहाँ से सरक ले। ऐसे तो कुछ भी समझ में नहीं आएगा, जो कुछ पूछना है ममी से पूछेगा।

“क्या बताएँ कुछ भी समझ में नहीं आता। लगता है, जब एक बार धरी गड़बड़ा जाती है तो फिर जिंदगी लड़खड़ा ही जाती है...फिर कुछ नहीं होता...कुछ भी नहीं..." और जाने कैसे अचानक चाचा का लंबा-सा हाथ पीछे को लटका और बंटी के सिर से टकरा गया। बंटी एकदम सकपका गया। ये चाचा भी अजीब हैं। बात करनी है, सीधी तरह से करो। इतना हाथ-पैर नचाने की क्या ज़रूरत है ?

“अरे यह क्या, बंटी ! तुम यहाँ क्या कर रहे थे ?"

बंटी को काटो तो खून नहीं।

"छिपकर बातें सुन रहे थे ?" चाचा ममी की ओर इस तरह देख रहे हैं जैसे बंटी नहीं, ममी चोरी करते हुए पकड़ ली गई हों।

बंटी ने नज़रें झुका लीं। ज़रूर ममी भी वैसी सख्त नज़रों से उसे देख रही होंगी। उसकी हिम्मत नहीं हो रही है कि आँख उठाकर एक बार देख भी ले। उसकी आँखें ही नहीं, उसका सारा शरीर भी जैसे जहाँ का तहाँ जम गया। भीतर से बस एक धिक्कार उठ रही है, पता नहीं अपने लिए, पता नहीं चाचा के लिए।

"अच्छा है चाचा, मैं तो खुद चाहती हूँ कि यह अब सब कुछ जान ले। आखिर कब तक इससे छिपाकर रखा जा सकता है ! अब इसके मन में यह बात बहुत घुमड़ने लगी है आजकल !''

बंटी जैसे उबर आया। मन हुआ दौड़कर ममी के गले से लिपट जाए, कह दे चाचा को कि ममी तो उसे सब कुछ बताएँगी, क्या कर लेंगे आप।

"हाँ-हाँ, बताने-जानने को कौन मना करता है, पर ठीक से जाने। मेरा मतलब था, यह छिपकर सुनने की आदत ठीक नहीं है।" फिर आवाज़ को बहत मुलायम बनाकर बोले, "बंटी बेटे, जाओ खेलो, अच्छे बच्चे हर समय बड़ों के बीच में नहीं बैठते और बंटी तो बहुत अच्छा...क्लास में इतने अच्छे नंबरों से पास होता है, इतनी बढ़िया ड्राइंग करता है!"

बंटी ने फिर ममी की ओर देखा। शायद वे उसे अपने पास बैठने को ही कह दें।

"टीट्र के साथ खेलने नहीं जाएगा बंटी ?” ममी ने बहुत धीमे से पूछा। ममी का चेहरा ही नहीं, ममी की आवाज़ भी बहुत उदास हो गई लगती है।

''मैं तो अपने पौधों को पानी दे रहा था, ममी !” रुआंसी-सी आवाज़ में बंटी ने एक बार जैसे अपने यहाँ रहने की सफ़ाई दी।

“अच्छा, पानी देते हो अपने पौधों को ? बहुत अच्छे बच्चे हो, शाबाश ! अब खेलने जाओ, अपने टीटी-वीटी के साथ खेलो।"

बंटी ने मन ही मन जीभ चिढ़ाया चाचा को। हुँह ! नाम तक तो लेना आता नहीं। टीटी हो गया।

और फिर वहाँ से तीर की तरह भाग गया, कुछ इस भाव और फुर्ती के साथ मानो उसे वहाँ बैठने की या कि उन दोनों के बीच की बातचीत सुनने-जानने की कोई इच्छा नहीं है, वह तो बस यों ही बैठ गया था। रखें, अपनी बात अपने पास।

दौड़ते हुए ही चाचा के अंतिम वाक्य को याद किया, “जब धुरी गड़बड़ा जाती है तो जिंदगी लड़खड़ा जाती है।" ज़रूर इस धुरी में ही कोई बात है, तभी तो उसे भगा दिया। धुरी का मतलब क्या होता है ? किससे पूछे ? टीटू से ही पूछेगा। टीटू सचमुच बहुत सारी ऐसी बातें जानता है, जो वह नहीं जानता। उसके अम्मा-पापा उसके सामने ही तो सारी ऐसी बातें करते हैं, इसलिए सब जानता भी है। धुरी भी जरूर जानता होगा।

टीटू गुलेल में कंकड़ लगाकर पेड़ पर बने घोंसले का निशाना साध रहा था।

"क्या कर रहा है ?"

“पापा ने कहा है, मुझे भी तेरे जैसी बंदूक दिलवा देंगे। बस, पहले मैं निशाना लगाना सीख जाऊँ। निशाना तो गुलेल से भी सीखा जा सकता है।"

“मैं तुझे अपनी बंदूक ही दे दूंगा, सीख लेना।" इस समय कुछ अतिरिक्त रूप से उदार हो रहा है बंटी का मन।

“दे देगा ? चल तो ले आएँ।" टीटू ने गुलेल में फँसे कंकड़ को लापरवाही के साथ तड़ाक से ज़मीन पर ही उछाल दिया।

“अभी नहीं। वकील चाचा आए हैं। ममी और उनमें कोई बात हो रही है, ज़रूरीवाली। अभी बच्चों को उधर नहीं जाना चाहिए।" बड़े बुजुर्गी अंदाज़ में बंटी ने कहा।

"ऐ टीटू, एक बात बताएगा ?"
"क्या ?"
“धुरी का क्या मतलब होता है रे ? तू जानता है ?''

“धुरी ?" टीटू सोचने लगा। फिर पूछा, “पर क्यों ?"

"एक बात है। पर तू पहले मतलब बता। कोई बहुत गड़बड़ मतलब होना चाहिए।" और बंटी की आँखों के सामने ममी का उदास चेहरा घूम गया। लगा जैसे जो कुछ गड़बड़ है, वह यहीं है और जैसे भी हो इसका मतलब जानना ही है।

"शब्द-अर्थ की कापी लाऊँ, शायद उसमें कहीं लिखा हो।" फिर एकाएक बोला, “बताऊँ, याद आ गया।" बंटी की आँखें खुशी से चमक उठीं।

"वह एक लाइन है न यार-सब धन धूरि समान।"

"कौन-सी लाइन, मुझे तो नहीं मालूम !"

"तुझे कैसे मालूम होगा। तू जब चौथी में आएगा, तब तो पढ़ेगा !"

"तो मतलब क्या हुआ ?" बंटी जैसे कहीं से खिन्न हो आया।

"धूरि यानी धूल-मिट्टी समझा। एक बार पढ़ी हुई बात मैं कभी नहीं भूलता हूँ।"

पर टीटू के इस आत्मसंतोष से बंटी का मन हलका नहीं हुआ। मन ही मन दुहराया, जब एक बार धूल गड़बड़ा जाती है तो...धत् ! यह नहीं, कुछ और होना चाहिए।

"बात क्या है, तू बता न ?"

बंटी ने एक बार इधर-उधर देखा। फिर ज़रा पास सरककर बोला, "जब एक बार धुरी गड़बड़ा जाती है तो जिंदगी ही लड़खड़ा जाती है।" और फिर कुछ इस भाव से देखने लगा मानो कह रहा हो समझ लो, इतनी बड़ी बात है। बता सकते हो इसका अर्थ ?

“यह क्या हुआ ! धत् पागल है तू तो।"

"नहीं, पागल नहीं हूँ। बहुत बड़ी बात होती है यह। इतनी बड़ी कि मैं और तू तो समझ ही नहीं सकते। ममी-पापा लोगों की बात होती है। शायद उनकी लड़ाई की बात।"

और रात में जब सोया तो बार-बार मन हो रहा था कि ममी से इस बात का अर्थ पूछे। चाचा क्या बात कर गए हैं, सब पूछे। ममी ने तो ख़ुद बताने को कहा था। पर कुर्सी के पीछे छिप करके बैठने की हरकत से वह कहीं भीतर ही भीतर इतना सहमा हुआ था कि पूछने का साहस ही नहीं हुआ। सब कुछ जानने का यह कौतूहल उसके अपराध को और पुख्ता ही करेगा। नहीं, उसे कुछ भी नहीं जानना।

पर बिना कुछ पूछे और जाने भी उसे बराबर लग रहा है कि कोई एक बहुत बड़ी गड़बड़ी है, जो उसके चारों ओर है, जो ममी के चारों ओर है, उस गड़बड़ी की बात बताने के लिए ही चाचा कलकत्ते से यहाँ आए हैं, ममी इतनी उदास हैं, पर अब किससे पूछे !

उसके पास भी जादू का लैंप होता तो घिसकर जिन्न को बुलाता और सब पूछ लेता। कैसे मिल सकता है जादू का लैंप !

और फिर धीरे-धीरे कहानियों का जादुई माहौल उसकी पलकों पर उतरने लगा और वह सो गया।


  • आपका बंटी (उपन्यास) (अध्याय 3-5): मन्नू भंडारी
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कहानियाँ और उपन्यास; मन्नू भंडारी
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां