1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल

1984 (Novel in Hindi) : George Orwell

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-दूसरा भाग-1

सुबह का वक़्त था। विंस्टन शौचालय जाने के लिए अपने क्यूबिकल से निकला।

तेज़ रौशन लम्बे-से गलियारे के दूसरे छोर से कोई आकृति उसकी ओर चली आ रही थी। वह गहरे बालों वाली लड़की थी। आज चार दिन हो गए थे उस शाम को, जब कबाड़ी की दुकान के बाहर विंस्टन उससे टकराया था। वह पास आई। विंस्टन ने देखा कि उसका एक हाथ एक गोफन के सहारे गरदन से लटक रहा है, जो वर्दी के रंग का ही था इसलिए दूर से पता नहीं लगा था। हो सकता है कि उपन्यासों के कथानक तैयार करने वाले विशाल कलाइडोस्कोप पर काम करते हुए हाथ कुचल गया हो। गल्प विभाग में ऐसे हादसे आम थे।

दोनों के बीच कोई चार मीटर का फ़ासला बचा होगा कि लड़की अचानक लड़खड़ाकर तक़रीबन मुँह के बल गिर पड़ी। दर्द में उसके भीतर से बहुत ज़ोर की चीख निकल आई। पक्का वह अपने जख़्मी हाथ के बल ही गिरी थी। विंस्टन ठहर गया। लड़की घुटनों के बल उठी। उसका मुँह दूधिया पीला पड़ गया था लेकिन गाल पहले से भी ज़्यादा सुर्ख हो उठे थे। उसकी निगाहें विंस्टन के चेहरे पर टिकी हुई थीं। जैसे कहना चाह रही हों कि इस वक़्त उसे दर्द से ज्यादा डर लग रहा था।

विंस्टन के दिल में एक अजीब किस्म का अहसास उठा। उसकी आँखों के ठीक सामने वह दुश्मन था जिसने चंद रोज़ पहले उसे मारने की कोशिश की थी। फिर उसे लगा कि यह तो एक इनसान भी है, जिसकी शायद हड्डी टूट गई है और उसे दर्द हो रहा है। वह पहले ही मदद के लिए अपने क़दम आगे बढ़ा चुका था। जब विंस्टन ने गोफन से लटकी बाँह के बल उसे ज़मीन पर गिरते देखा था, उस पल गिरने का दर्द उसे अपने बदन में महसूस हुआ था।

उसने पूछा, “बहुत दर्द हो रहा है?"

"कुछ खास नहीं। बस मेरी बाँह। अभी ठीक हो जाएगी एक सेकंड में।" बोलते वक़्त उसकी धौंकनी तेज़ चल रही थी। उसका चेहरा वाक़ई सफ़ेद पड़ चुका था।

"कुछ टूटा-फूटा तो नहीं?"

"ना, ठीक हूँ मैं। बस उसी समय दर्द हुआ था, बस।"

उसने अपना सही वाला हाथ आगे बढ़ाया और विंस्टन ने उसे उठने में मदद की।

चेहरे की रंगत लौट रही थी और अब वह पहले से कहीं बेहतर लग रही थी।

उसने दुहराया, “कुछ नहीं है। बस कलाई में थोड़ा झटका लग गया है। शुक्रिया कॉमरेड!"

यह कहते ही वह उसी तेज़ी से आगे बढ़ गई जैसे पहले चली जा रही थी गोया कुछ हुआ ही न हो। इतना सब घटने में आधे मिनट से ज़्यादा का वक़्त नहीं लगा होगा। भीतर का अहसास चेहरे पर ज़ाहिर न होने देने का अभ्यास अब स्वाभाविक बात हो चुकी थी और वैसे भी, घटना के वक़्त वे दोनों एकदम टेलिस्क्रीन के सामने ही खड़े थे। बावजूद इसके महज़ दो से तीन सेकंड के वक्फे में ही एक पल ऐसा आया जब विंस्टन को अपना विस्मय दबाने में बड़ी मुश्किल आई थी असल में, जब वह सहारा देकर लड़की को उठा रहा था तब उसने उसके हाथ में कुछ पकड़ा दिया था। इसमें तो कोई शक था ही नहीं कि उसने यह काम जानबूझकर किया था। कोई छोटी-सी चपटी सी चीज़ थी वह। शौचालय के दरवाज़े से घुसते वक़्त उसने वह चीज़ अपनी जेब के हवाले की और उँगलियों से टटोलकर ही महसूस कर लिया कि वह चौकोर आकृति में मुड़ी हुई कागज़ की एक परची है।

पेशाबख़ाने में खड़े-खड़े उसने उँगलियों से जेब के भीतर ही उसे खोलने की कोशिश की। वह पक्का था कि इस पर कुछ न कुछ सन्देश ही लिखा होगा। एक पल को उसे लगा कि नल की ओट में चला जाए और खोलकर पढ़ ले, लेकिन यह बड़ी गलती हो जाती। वह जानता था कि किसी भी और जगह के मुकाबले शौचालय के टेलिस्क्रीन पर लगातार निगाह रखी जाती थी।

वह अपने क्यूबिकल में लौटा। कुर्सी पर बैठा। फिर लापरवाह तरीके से उस कागज़ के टुकड़े को डेस्क पर पड़े कागज़ों के बीच ऐसे ही फेंक दिया; नाक पर चश्मा चढ़ाया, श्रुतलेख मशीन को अपने पास खींचा और खुद से ही उसने कहा, “पाँच मिनट!" "बस पाँच मिनट रुक जाते हैं।" छाती के भीतर उसका दिल डर के मारे इतनी तेज़ धड़क रहा था कि उसे आवाज़ आ रही थी। खुशक़िस्मती ही कहेंगे कि जिस काम में वह लगा हुआ था वह महज़ रोज़मर्रा की चीज़ थी जिस पर बहुत एकाग्रता की ज़रूरत नहीं थी। कुछ आँकड़ों की एक लम्बी सी सूची थी जिसे दुरुस्त किया जाना था।

कागज़ पर चाहे जो भी लिखा रहा हो, उसका कुछ न कुछ राजनीतिक अर्थ तो होगा ही। उसके हिसाब से दो ही बातें मुमकिन थीं। पहली, जिसकी गुंजाइश ज़्यादा थी कि यह लड़की विचार पुलिस की एजेंट है, और इस बात का तो उसे पहले से ही डर था। उसके पल्ले हालाँकि यह नहीं पड़ रहा था कि विचार पुलिस उसके पास कोई सन्देश आख़िर इस तरीके से क्यों भिजवाएगी। फिर भी, हो सकता है उसके अपने कुछ कारण हों, वही जाने। हो सकता है परची में कोई धमकी लिखी हो, कोई समन हो, या फिर खुदकुशी कर लेने का निर्देश या कुछ फँसाने वाली बात ही लिखी हो। उसके मन में इसके साथ ही एक और अजीब क़िस्म की सम्भावना उमड़ रही थी, हालाँकि उसने इससे ध्यान हटाने की हल्की कोशिश की थी। सम्भव है कि विचार पुलिस का इससे कोई लेना-देना ही न हो, बल्कि यह सन्देश किसी भूमिगत क़िस्म के संगठन से आया हो। अगर ऐसा है, तो बहुत सम्भव है कि ब्रदरहुड नाम की चीज़ का वजूद हो। फिर तो वह लड़की भी उसी का हिस्सा होनी चाहिए। बेशक यह ख़याल बेतुका था और वह समझ भी रहा था, फिर भी हाथ में इस कागज़ में आते ही सबसे पहला ख़याल उसके मन में यही कौंधा था। इसके कुछ मिनट बाद ही दूसरी सम्भावना पर उसका ध्यान गया था, जिसकी गुंजाइश कहीं ज़्यादा थी। अब भी उसका दिमाग यही कह रहा था कि यह मौत का फ़रमान है, लेकिन दिल मानने को तैयार नहीं था। एक बेबुनियाद सी उम्मीद उसके भीतर कायम थी। उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था। श्रुतलेख में बोलते हुए बड़ी मुश्किल से वह अपनी आवाज़ को काँपने से रोक पा रहा था।

उसने सारा काम समेटा और काग़ज़ों की भोंगली बनाकर हवानली के सुपुर्द कर दी। आठ मिनट बीत चुके थे। नाक पर चढ़े चश्मे को उसने ठीक किया, लम्बी साँस ली और डेस्क पर पड़े अगले बैच के कागज़ों को अपनी ओर खींचा। उन्हीं के ऊपर काग़ज़ का वह टुकड़ा पड़ा हुआ था। उसने पुर्जी खोली। उस पर बड़े-बड़े बेडौल अक्षरों में लिखा हुआथा :

I love you.

अगले कुछ सेकंड के लिए वह निस्तब्ध रह गया। ऐसा, कि पूर्जी को स्मृतिनाशक बिल में फेंकना तक भूल गया जबकि वह इसके चक्कर में फंस सकता था। जब उसने फेंका, तो उसका मन नहीं माना। वह जानता था कि इसमें ज़रूरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखाना ख़तरनाक हो सकता है, फिर भी खुद को दोबारा उसे पढ़ने से रोक नहीं पाया। वह आश्वस्त हो जाना चाहता था कि जो उसने पढ़ा है, वह वही है और सही है।

इसके बाद तो उसका काम करना ही दूभर हो गया। छिटपुट कामों पर ज़बरन दिमाग लगाना तो बुरा लग ही रहा था, लेकिन उससे ज़्यादा दिक़्क़त यह थी कि कैसे टेलिस्क्रीन की निगाह से अपने भीतर की बेचैनी को छिपाया जाए। उसे पेट के भीतर आग भड़की हुई महसूस हो रही थी। कैंटीन की गरमी, भीड़-भड़क्के और शोरगुल के बीच लंच करना भी एक यातना थी। उसने सोचा था कि लंच के दौरान कम से कम कुछ देर अकेला रह लेगा, लेकिन किस्मत ख़राब निकली। अचानक बगल में जड़बुद्धि पारसन्स आ गया। उसके पसीने की महक स्टू पर भारी पड़ गई। वह लगातार नफ़रत सप्ताह के बारे में बात करता रहा। ख़ासकर वह लुगदी से बने मोटा भाई की खोपड़ी के दो मीटर चौड़े पुतले को लेकर बड़ा उत्साहित था, जिसे उसकी बेटी की गुप्तचर टोली तैयार कर रही थी। इस बीच सबसे खिजाने वाली बात यह हुई कि आवाज़ों के उस कोलाहल में विंस्टन उसे बमुश्किल ही सुन पा रहा था। फिर भी बार-बार कोई न कोई अनर्गल वाक्य दुहराने को उसे कहना पड़ रहा था। बस एक बार उसे लड़की की झलक मिल पाई। कमरे के दूसरे छोर पर वह एक टेबल पर दो और लड़कियों के साथ बैठी हुई थी। ऐसा लगता था कि उसने इसे देखा नहीं था। विंस्टन ने भी दोबारा उधर नहीं देखा।

दोपहर में थोड़ा राहत थी। लंच के ठीक बाद उसके पास जो काम आया वह थोड़ा महीन और जटिल था। इसमें कुछ घंटे लग जाने थे और बाक़ी कामों को एक ओर रखे बगैर इसे निपटाना सम्भव नहीं था। यह दो साल पहले के उत्पादन की सिलसिलेवार रिपोर्टों को झुठलाने का काम था कुछ इस तरह से कि पार्टी के भीतरी हलके के एक कार्यवाहक पर सारा दोष मढ़ देना था, जो आजकल सन्देह के घेरे में चल रहा था। ऐसे कामों में विंस्टन का हाथ अच्छा था। उसने दो घंटे से ज्यादा समय के लिए लड़की की ओर से दिमाग के दरवाज़े पूरी तरह बन्द कर लिए, लेकिन काम पूरा होने के बाद फिर से उसका चेहरा जेहन में वापस आ गया। उसके साथ ही अकेले रहने की उत्कट इच्छा ने ज़ोर मारा। बरदाश्त करना मुश्किल हो रहा था। बिना अकेले बैठे वह इस नई चीज़ के बारे में सोच ही नहीं पाएगा। दिक़्क़त यह थी कि आज रात सामुदायिक केन्द्र में भी जाना था। शाम को उसने कैंटीन का बेस्वाद भोजन भकोसा और काफ़ी तेज़ी से सामुदायिक केन्द्र निकल लिया। वहाँ एक 'चर्चा समूह' की मूर्खतापूर्ण गम्भीरता का हिस्सा बना, टेबल टेनिस के दो गेम खेले, जिनके कई प्याले गटके और आधे घंटे के लिए एक व्याख्यान में जाकर बैठ गया जिसका विषय था 'शतरंज का खेल और इंगसॉक।' उसकी आत्मा ऊब से मरी जा रही थी लेकिन केन्द्र की इस शाम को गड़प करने का आवेग उसके मन में एक बार भी नहीं उठा। असल में, I love you देखकर उसके भीतर जीने की चाह पैदा हो गई थी। छोटे-छोटे खतरे उठाने में उसे अचानक ही बेवकूफ़ी नज़र आने लगी थी। वह रात ग्यारह बजे घर पहुंचा। यहाँ अपने बिस्तर में अँधेरे में पड़े-पड़े आप जब तक शान्त हैं तब तक टेलिस्क्रीन से भी सुरक्षित हैं। इसलिए अब वह लगातार सोच सकता था।

समस्या यह थी कि लड़की से मिला कैसे जाए, बल्कि मिलने का इन्तज़ाम कैसे हो। इस व्यावहारिक समस्या का हल निकालना ज़रूरी था। उसने एक बार भी ये नहीं सोचा कि लड़की उसे फँसाने के लिए कोई जाल बिछा रही होगी। वह जानता था कि ऐसा नहीं है। कागज़ पकड़ाते वक़्त उसके चेहरे की बेचैनी यह सटीक बयाँ कर रही थी। उसका दिमाग ही नहीं काम किया होगा इसीलिए उस वक़्त डर गई होगी। उसके प्रस्ताव को ख़ारिज करने का विकल्प भी इसके दिमाग में नहीं आया। बस पाँच रात पहले की ही तो बात है जब पत्थर की पटिया से उसका सिर कुचल देने की बात इसने सोची थी। इसका हालाँकि अब कोई मतलब नहीं है। उसने अपने सपने में जैसा उसे देखा था, वैसा ही सोचने लगा-तरुणाई से भरी कोरी देह। बाक़ी लड़कियों की तरह उसे भी विंस्टन ने मूढ़ ही समझा था, जिसके दिमाग में झूठ और नफ़रत भरी है और पेट में बर्फ़| अचानक उसे एक व्यग्रता ने जकड़ लिया ये सोचकर कि कहीं वह उसे गँवा न दे। वह शुभ्र जवान काया उसके हाथ से कहीं फिसल न जाए। उसे सबसे ज़्यादा डर इस बात का था कि अगर जल्दी सम्पर्क नहीं किया तो कहीं वह अपना मन न बदल ले, लेकिन मिलना तो अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या थी। जैसे शतरंज के खेल में मात होने के बाद चाल चलना। जिधर देखो, हर तरफ़ तो टेलिस्क्रीन आपके सामने होता है। वास्तव में, परची पढ़ते ही पाँच मिनट के भीतर सम्पर्क करने के तमाम रास्ते उसके दिमाग में घूम गए थे, लेकिन अब थोड़ा ठहरकर सोचने का मौक़ा मिला तो उसने एक-एक विकल्प को तौलना शुरू किया। जैसे अपनी मेज़ पर तमाम औज़ारों को सजा रखा हो और एक-एक कर उन्हें आजमा रहा हो।

ज़ाहिर है आज सुबह जैसा नाटकीय साक्षात्कार तो दोबारा घटने से रहा। वह अगर रिकॉर्ड विभाग में काम कर रही होती तो यह काम फिर भी आसान होता, लेकिन जिस इमारत में गल्प विभाग चलता है उसका उसे हल्का सा अन्दाज़ा भर था और वहाँ जाने का भी कोई बहाना नहीं था। अगर पता होता कि वह कहाँ रहती है और कितने बजे दफ़्तर से निकलती है तो घर के रास्ते में कहीं मिलने की कोशिश की जा सकती थी लेकिन घर तक पीछा करना भी सुरक्षित नहीं था क्योंकि इसके लिए मंत्रालय के बाहर उसके आने तक भटकना पड़ता और ऐसे में किसी न किसी की नज़र पड़ ही जाती। जहाँ तक चिट्ठीबाज़ी का सवाल था, तो यह सवाल ही ग़लत था। यहाँ सबकी चिट्ठी पढ़ी जाती थी और यह कोई छिपी हुई बात नहीं थी। वास्तव में कम ही लोग चिट्ठी लिखते थे। कभी बहुत ज़रूरी हुआ भी कोई सन्देश भिजवाना, तो पहले से छपे हुए पोस्टकार्ड आते थे जिन पर वाक्यों की लम्बी सूची लिखी होती थी। भेजने वाले को बस वह वाक्य काटना होता था जो सन्देश पर लागू नहीं होता था। वैसे भी, उसे न लड़की का नाम मालूम है न उसका पता, तो सोचकर ही क्या करना। आखिर में उसने तय किया कि सबसे महफूज़ जगह कैंटीन ही हो सकती है। अगर किसी तरह कैंटीन के बीच, मने टेलिस्क्रीन से बहुत पास न हो और चारों ओर ठीक-ठाक हल्ला-गुल्ला हो, किसी एक टेबल पर उसे आने का इशारा किया जा सके और इसी माहौल में उसे तीस सेकंड का भी मौक़ा मिल जाए तो कुछ बातें की जा सकती हैं।

इसके बाद तो अगले एक हफ्ते के लिए विंस्टन की ज़िन्दगी एक बेचैन ख़्वाब बन गई। अगले दिन कैंटीन में वह तब तक दिखाई नहीं दी जब तक कि काम पर वापस जाने की सीटी नहीं बज गई और निकलने का समय हो गया। हो सकता है कि उसकी बाद वाली पारी लग गई हो। दोनों एक-दूसरे को बिना देखे बग़ल से गुज़रे। इसके अगले दिन वह कैंटीन में वक़्त पर तो थी, लेकिन साथ में तीन और लड़कियाँ थीं और इनके ठीक ऊपर टेलिस्क्रीन। इसके बाद तीन दिन तक वह दिखी ही नहीं, गायब रही। विंस्टन का पूरा शरीर और मन एक असहनीय भावुकता से तप रहा था। सब कुछ कितना साफ़, पारदर्शी हो गया था। एक-एक हरकत, हर आवाज़, हर स्पर्श, एक-एक लफ़्ज़ जो वह बोल या सुन रहा था, सब कुछ दर्द दे रहा था। नींद में भी वह उससे दूर नहीं जा पा रहा था। उन दिनों उसने डायरी को छुआ तक नहीं। अगर कहीं राहत थी तो वह काम में मिलती थी जहाँ कभी-कभार एकमुश्त दस मिनट के लिए वह खुद को भूल जाता था। उसे कोई अन्दाज़ा नहीं था कि वह कहाँ किस हाल में थी। किसी से पूछ भी नहीं सकता था। हो सकता है उसे ख़त्म कर दिया गया हो, या उसने खुदकुशी कर ली हो या फिर उसे ओशियनिया के दूसरे हिस्से में भेज दिया गया हो। सबसे ज़्यादा सम्भावना इस बात की थी कि कहीं उसने अपना मन न बदल लिया हो और उससे जानबूझकर बच रही हो।

वह अगले दिन दिख गई। बाँह से गोफन उतर चुका था और कलाई में चिपकौवा प्लास्टर का बैंड था। उसे देखकर जो चैन पड़ा विंस्टन को, कि कुछ सेकंड तक वह देखता ही रह गया। अगले दिन उससे बात करने में थोड़ी कामयाबी मिली। जैसे ही वह कैंटीन पहँचा, देखा कि वह दीवार से पर्याप्त दूर एक टेबल पर अकेले बैठी हुई है। अभी भोजन का समय शुरू ही हुआ था इसलिए भीड़ कम थी। लाइन आगे बढ़ती रही और विंस्टन काउंटर के करीब पहँचा ही था कि सामने एक व्यक्ति दो मिनट समय खा गया। वह शिकायत कर रहा था कि उसे सैकरीन की टिकिया नहीं मिली है। विंस्टन के हाथ में ट्रे आया तब तक लड़की अकेले ही बैठी थी। वह टेबल की ओर बढ़ा, थोड़ा लापरवाह तरीके से और इधर-उधर किसी टेबल पर जगह खोजने की मुद्रा में आँखों को नचाते हुए। वह उससे कोई तीन मीटर दूर रही होगी। बस दो सेकंड की दूरी थी, तभी पीछे से एक आवाज़ आई, “स्मिथ!" उसने अनसुना किया।

और ज़ोर से दोबारा आवाज़ आई, "स्मिथ!" कोई लाभ नहीं था, वह पीछे मुड़ा। सुनहरे बालों वाला मूर्ख-सा एक नौजवान विल्शर मुस्कराते हुए उसे अपनी टेबल पर बुला रहा था जहाँ बैठने की जगह ख़ाली थी। विंस्टन उसे बमुश्किल ही जानता था पर इनकार करना सुरक्षित नहीं था। चूँकि उसने देख लिया था, तो अब एक अकेली लड़की के पास जाकर बैठना ठीक नहीं होता। तुरन्त ध्यान चला जाता। वह मुस्कराते हुए वहाँ जाकर बैठ गया। सुनहरे मूर्ख के चेहरे पर चमक आ गई। विंस्टन को लगा कि एक कुदाल होती उसके पास तो वहीं बीच में से उसे फाड़ देता। कुछ मिनट बाद लड़की टेबल भर गई।

इतना तो पक्का था कि उसने विंस्टन को अपनी ओर आते हुए देखा रहा होगा। इशारा तो पहँच ही गया होगा। अगले दिन वह जानबूझकर कैंटीन जल्दी पहुँचा। वह वहीं थी, तक़रीबन कल वाली ही जगह एक टेबल पर बैठी हुई, अकेले। लाइन में विंस्टन के ठीक आगे एक छोटा सा गुबरैला क़िस्म का, सपाट चेहरे और संदिग्ध कंजी आँखों वाला फुर्तीला आदमी था। विंस्टन जैसे ही अपनी ट्रे लेकर काउंटर से मुड़ा उसने देखा कि वह आदमी सीधे लड़की की टेबल की ओर बढ़ा जा रहा है। उसकी तो उम्मीद ही डूब गई। थोड़ा और दूरी पर एक और टेबल ख़ाली थी, लेकिन उस व्यक्ति में कुछ ऐसा था जिसे देखकर समझ आता था कि यह बन्दा अपनी सुविधा के लिहाज़ से ऐसी टेबल चुनेगा जो सबसे ज़्यादा ख़ाली हो। ठंडे दिल से विंस्टन उसके पीछे चलता रहा। जब तक लड़की अकेले में न मिले, तब तक इस सबका कोई मतलब नहीं था। तभी अचानक एक ज़बरदस्त धमाका हुआ। वह छोटा सा आदमी ज़मीन पर चारों खाने चित पड़ा था, उसकी ट्रे हवा में थी और फ़र्श पर कॉफ़ी व सूप की दो नदियाँ बह रही थीं। वह खड़ा हुआ और विंस्टन को ऐसी सख़्त निगाह से देखने लगा जैसे उसे शक हो रहा हो कि उसी ने ठोकर मारी है। शुक्र है सब कुछ ठीक रहा, बात आगे नहीं बढ़ी। पाँच सेकंड बाद ही विंस्टन उस लड़की की टेबल पर था, अपने धड़धड़ाते हुए दिल के साथ।

विंस्टन ने उसकी ओर नहीं देखा। चुपचाप अपनी ट्रे से सामान निकाला और खाने लगा। बीच में कोई और आ जाता इससे पहले ही कुछ बोल देना ज़रूरी था, लेकिन वह भयंकर डरा हुआथा। एक हफ़्ता हो चुका था उस परची वाली घटना को जब वह पहली बार मिली थी। उसका मन बदल न गया हो, बल्कि पक्का ही मन बदल चुका था! इस प्रसंग का कामयाब अंजाम हो ही नहीं सकता। ऐसी चीजें हक़ीक़त में थोड़े ही होती हैं। हो सकता है कि वह अपनी तरफ़ से कुछ बोलता ही नहीं अगर उसने बालदार कानों वाले कवि ऐम्पलफोर्थ को देख न लिया होता, जो अपनी ट्रे लेकर बैठने की जगह खोज रहा था। जाने किस वजह से वह विंस्टन के थोड़े क़रीब था, इसलिए अगर उसे देख लेता तो पक्का ही पास आकर उसकी टेबल पर बैठ जाता। बमुश्किल एक मिनट का समय था, इसी में कुछ कर जाना था। दोनों धीरेधीरे खा रहे थे। पतला सा स्टू था, स्टू भी क्या वास्तव में वह सफ़ेद फली का सूप था। विंस्टन ने बुदबुदाना चालू किया। दोनों ने ही अपना सिर नहीं उठाया। एक चम्मच सूप मुँह में डालकर अगले चम्मच से पहले बिना किसी भाव-भंगिमा के संक्षिप्त में दोनों अपनी बात कह रहे थे।

"दफ्तर से कितने बजे निकलती हो?"

“साढ़े छह।"

“कहाँ मिलना है?"

"विजय चौक, स्मारक के पास।"

"वह तो टेलिस्क्रीन से भरा पड़ा है।"

"भीड़ होती है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता।"

"कोई संकेत?"

"ना, जब तक मैं भीड़ में न घिर जाऊँ, मेरे क़रीब मत आना। और मुझे देखना मत, बस आसपास रहना।"

"कितने बजे?"

"सात बजे।"

"ठीक है।"

ऐम्पलफोर्थ की निगाह विंस्टन पर नहीं पड़ी। वह किसी और टेबल पर बैठ गया। उन दोनों के बीच और कोई बात नहीं हुई। एक-दूसरे को दोनों ने देखा भी नहीं, मतलब उतना ही, जितना एक टेबल पर आमने-सामने बैठे दो व्यक्तियों के बीच सम्भव हो सकता हो। लड़की ने जल्दी से भोजन निपटाया और निकल गई। विंस्टन सिगरेट पीने के लिए वहीं रुक गया।

विंस्टन तय समय से पहले विजय चौक पर था। खड़ी धारियों वाले जिस भीमकाय स्तम्भ के नीचे वह मँडरा रहा था, उसके माथे पर दक्षिण के आकाश को ताकती मोटा भाई की एक प्रतिमा विराजमान थी। उसी आकाश में उन्होंने एयरस्ट्रिप वन की जंग में यूरेशियाई हवाई जहाज़ों को हराया था (कुछ साल पहले की बात हो, तो ईस्टेशियाई हवाई जहाज़ कहेंगे)। उसके सामने वाली सड़क पर एक घुड़सवार की प्रतिमा लगी थी जो माना जाता था कि ओलिवर क्रॉमवेल की थी। सात बजकर पाँच मिनट हो चुके थे और लड़की कहीं दिख नहीं रही थी। विंस्टन के मन में फिर से डर बैठ गया वो नहीं आएगी, उसने अपना मन बदल लिया! वह हल्के क़दमों से चौक की उत्तरी दिशा में बढ़ने लगा कि सामने सेंट मार्टिन का चर्च नज़र आया। देखते ही उसे हल्की सी ख़ुशी मिली और याद आया कि जब इसके घंटियाँ रही होंगी तो पुकारती होंगी, “मेरी तीन दमड़ियाँ।" तभी उसे लड़की नज़र आई। वह स्मारक के नीचे खड़ी थी और स्तम्भ पर सीली आकृति में चिपके एक पोस्टर को पढ़ रही थी या पढ़ने का दिखावा कर रही थी। उस तिराहे पर चारों ओर टेलिस्क्रीन लगी थीं। इसलिए पास जाना सुरक्षित नहीं था, जब तक कि कुछ और लोग वहाँ इकट्ठा न हो जाएँ। उसी वक्त अचानक हल्ला मच गया। उसके बाईं ओर कुछ भारी वाहनों के आने का शोर हुआ और हर कोई चौक के उस पार भागने लगा। लड़की ने काफ़ी फुर्ती से स्मारक के नीचे बने शेरों का चक्कर काटा और उस हुजूम में जाकर शामिल हो गई। विंस्टन पीछे-पीछे भागा। दौड़ते हुए उसे सुनाई पड़ा कि यूरेशियाई कैदियों की कोई खेप वहाँ से गुजरने वाली है।

चौक के दक्षिणी छोर पर पहले ही अच्छी-खासी भीड़ लग चुकी थी और रास्ता जाम हो गया था। विंस्टन का स्वभाव था कि वह ऐसे किसी भीड़भड़क्के और कोलाहल में हमेशा दूर ही खड़ा रहता था। आज वह भीड़ में अपना रास्ता बनाते हुए, धक्का-मुक्की करते हुए किसी तरह बीच में पहुँचने की कोशिश कर रहा था। जल्दी ही वह अन्दर घुस गया। लड़की बमुश्किल एक हाथ की दूरी पर थी, लेकिन बीच का रास्ता एक भारी-भरकम आदमी और उतनी ही भारी एक औरत ने घेर रखा था, जो शायद उस आदमी की पत्नी रही होगी। सामने हाड़-मांस की वह दीवार खड़ी थी। विंस्टन किनारे से धक्का मारने लगा और दोनों के बीच किसी तरह एक झटके से उसने अपना कन्धा फँसा दिया। एक पल को लगा कि उन दो मांसल नितम्बों के बीच उसकी अंतड़ियाँ कहीं पिस न जाएँ, लेकिन किसी तरह उस गिरफ्त से वह छूटकर पार हुआ। अब वह लड़की के ठीक बग़ल में था। यहाँ तक आने में उसका पसीना छूट गया था। दोनों के कन्धे बराबर मिले हुए थे। दोनों अपने ठीक सामने एकटक देख रहे थे।

ट्रकों की एक लम्बी क़तार सड़क पर धीरे-धीरे चली जा रही थी। उन ट्रकों के ऊपर हर कोने में काठ से चेहरे वाले सब-मशीनगन धारी गार्ड चौकस खड़े थे। ट्रकों के भीतर हरे रंग की फटी-चीथड़ी वर्दियों में गेहँए रंग के जवान ठसाठस भरे पड़े थे। उनके उदास मंगोलियाई चेहरे ट्रक के बाहर विचारशून्य नज़रों से सबको देख रहे थे। अचानक बीच-बीच में कोई ट्रक अड़कर झटका मारता तो धातु की खटर-खटर की आवाज़ होती। इन सभी कैदियों के पैरों में लोहे की बेड़ियाँ थीं। एक के बाद एक उदास चेहरों से लदे हुए ट्रक चले जा रहे थे। विंस्टन उधर बीच-बीच में देख ले रहा था। लड़की के कन्धे से लेकर कहनी तक का हिस्सा उससे एकदम सटा हुआ था। दोनों के गाल इतने क़रीब थे कि विंस्टन को उसकी गरमाहट महसूस हो रही थी। लड़की ने तुरन्त पहल की, जैसा उसने कैंटीन में किया था। होंठों को कम से कम हिलाते हुए एकदम सपाट आवाज़ में उसने बोलना शुरू किया, तक़रीबन फुसफुसाहट में, जो भीड़ के हो-हल्ले और ट्रकों की खड़-खड़ में बिलकुल पकड़ में नहीं आती।

"सुनाई दे रहा है?"

"हाँ"

“संडे दोपहर को छुट्टी मार सकते हो?"

“हाँ।"

"तो ध्यान से सुनो। याद रखना। पहले सीधे पैडिंगटन स्टेशन जाना है..."

जिस फ़ौजी शैली में उसने रूट का सटीक विवरण बताया, विंस्टन हैरान रह गया। आधे घंटे की रेल यात्रा, फिर स्टेशन के बाहर बाएँ मुड़ना, सड़क पर दो किलोमीटर तक सीधा चलते रहना, एक गेट आएगा जिसके ऊपर की छड़ गायब होगी, फिर मैदान में एक रास्ता जा रहा होगा, वहाँ एक पगडंडी होगी जिस पर घास उगी है, वहाँ झाड़ियों के बीच एक रास्ता होगा, एकाठ आएगा जिस पर काई जमी होगी। उसके दिमाग में जैसे कोई नक्शा भरा हुआ था। उसने बुदबुदाते हुए पूछा, "इतना सब याद रहेगा?"

"हाँ।"

“पहले बाएँ मुड़ना है, फिर दाएँ, फिर दोबारा बाएँ। गेट के ऊपर वाली छड़ ग़ायब है।"

"ठीक है, समय?"

“तीन बजे के आसपास। तुम्हें इन्तज़ार करना पड़ सकता है। मैं दूसरे रास्ते से वहाँ पहुँचूँगी। पक्का सब याद रहेगा न?"

“हाँ।"

"चलो, अब निकलो यहाँ से जितना जल्दी हो।"

यह आखिरी वाक्य कहने की उसे कोई ज़रूरत नहीं थी, चूँकि उस भीड़ से बाहर निकल पाना इतना आसान नहीं था। ट्रकें अब भी लगातार आ रही थीं और लोग मुंह बाए देखे जा रहे थे। शुरू में थोड़ा उत्साहित होकर चीख़चिल्लाहट मची थी लेकिन वह भीड़ में मौजूद पार्टी के कुछ लोगों की हरकत थी जो जल्द ही रुक गई। अब केवल जिज्ञासा थी लोगों में। विदेशी, चाहे यूरेशिया के हों या ईस्टेशिया के, उनके लिए अजीबोगरीब जन्तु जैसे थे। उन्हें लोगों ने कैदियों के अलावा और किसी रूप में कभी नहीं देखा था। कैदियों की भी झलक हल्की सी ही मिल पाती थी। कोई नहीं जानता था कि उनके साथ क्या होता था, सिवाय उनके जिन्हें युद्ध अपराधी बताकर फाँसी पर लटकाया जाता था। बाक़ी तो चुपचाप गायब हो जाते थे, शायद सश्रम कारावास शिविरों में उन्हें भेज दिया जाता था। गोल मंगोल चेहरे के बाद अब ज़्यादा योरोपीय क़िस्म के चेहरे आ रहे थे-गन्दे, थके-हारे, दाढ़ी वाले। उभरी हुई गाल की हड़ियों के ऊपर से वे एक झटके में विंस्टन को देखते, कभीकभार अजीब तरीके से, और दृश्य बदल जाता। क़ाफ़िला अब ख़त्म होने को था। आख़िरी ट्रक में उसे एक बूढ़ा आदमी दिखा जिसका चेहरा पके हुए बालों से ढका था। वह एकदम सीधा खड़ा था और उसकी कलाइयाँ आगे की ओर आड़ा-तिरछा करके ऐसे बँधी हुई थीं जैसे उसे ऐसे ही रखने की आदत हो। विंस्टन और लड़की के जुदा होने का वक़्त अब हो चला था। ऐन अन्तिम पल में, जब भीड़ अब भी उन दोनों को ठेल रही थी, लड़की ने अन्दाज़े से उसका हाथ महसूस किया और अपने हाथों में भींच लिया।

दस सेकंड भी नहीं बीता होगा, पर ऐसा लगा जाने कितनी देर से उन्होंने एक-दूसरे का हाथ थाम रखा हो। विंस्टन ने इतनी ही देर में उसके हाथों की नस-नस को पहचान लिया। उसने महसूस किया उसकी लम्बी उँगलियों को, उसके सुडौल नख को, काम से कठोर हो चुकी उसकी घट्टेदार हथेली को, और कलाई के नीचे के कोमल मांस को। बस महसूस करके उसे लगा कि यह सब उसने देखकर जाना है। फिर लगा कि लड़की की आँखों का रंग तो उसे पता ही नहीं है। शायद भूरी आँखें हों, लेकिन गहरे बालों वाले लोगों की आँखें अकसर नीली भी होती हैं। अब सिर घुमाकर उसे देखना तो नादानी ही होती। सो, गुत्थमगुत्था इनसानी शरीरों के बीच अपने अदृश्य हाथों से एक-दूसरे को थामे वे दोनों एकटक सामने देखते रहे। लड़की के बजाय वह बुजुर्ग कैदी बालों के घोंसले के बीच अपनी दो शोकाकुल आँखों से टकटकी लगाए विंस्टन को ताक रहा था।

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-दूसरा भाग-2

विंस्टन चित्तीदार रोशनी और छाँव में डूबी सड़क पर चला जा रहा था। पेड़ों की शाखाएँ जहाँ बँटती थीं वहाँ झड़े हुए पत्तों का सुनहरा तालाब बन जाता था। इन्हीं को पार करते हुए बाईं ओर उसने देखा कि पेड़ों के नीचे ब्लूबेल के फूल ओस की बूंदों की तरह ज़मीन पर बिखरे पड़े थे। हवा इतनी नर्म थी कि शरीर को जैसे चूम रही थी। मई का दूसरा दिन था वह। दूर कहीं जंगल के भीतर से कबूतरों की गुटरगूं सुनाई दे रही थी।

वह थोड़ा जल्दी पहुँच गया था। रास्ते में उसे कोई दिक़्क़त नहीं हुई। आम तौर पर उसे जितना डर लगता था आज नहीं लग रहा था क्योंकि लड़की बहुत अनुभवी थी। एक महफूज़ जगह तलाशने के मामले में उस पर भरोसा किया जा सकता था। वैसे मोटे तौर पर आप लंदन के मुक़ाबले यहाँ गाँवों में बहुत सुरक्षित नहीं थे। बेशक इधर टेलिस्क्रीन नहीं लगे थे लेकिन छिपे हुए माइक्रोफ़ोन का ख़तरा हमेशा बना रहता था जिससे आपकी आवाज़ पहचानी जा सकती थी। इसके अलावा अकेले सफ़र करना भी आसान नहीं था क्योंकि लोगों का ध्यान चला ही जाता था। सौ किलोमीटर से कम दूरी के सफ़र में पासपोर्ट पर अनुमति लेना ज़रूरी नहीं था लेकिन कभी-कभार रेलवे स्टेशनों पर गश्ती दल वाले मिल जाते तो अटपटे सवाल पूछने लगते थे। उसे रास्ते में कोई गश्ती वाला नहीं मिला था। स्टेशन से पैदल आते वक़्त वह सावधानी से पीछे मुड़-मुड़ कर देख ले रहा था कि कोई पीछा तो नहीं कर रहा। मौसम में गरमाहट होने के चलते ट्रेन में जनता भरी हुई थी और सब छुट्टी के मूड में थे। लकड़ी की सीटों वाले जिस डिब्बे में वह बैठा था, उसमें एक ही परिवार भरा हुआ था। पोपले मुँह वाली परदादी से लेकर एक महीने की बच्ची तक, बहुत बड़ा परिवार था। वे सब गाँव में ससुराल पक्ष के यहाँ मिलने जा रहे थे। विंस्टन को उन्होंने खुलकर बताया था कि जाने का एक और मकसद कालाबाजारी वाला मक्खन थोड़ा ले आना था।

सड़क चौड़ी हो गई और अगले ही मिनट वह उस पगडंडी पर आ गया जिसका ज़िक्र लड़की ने किया था। यह झाड़ियों के बीच बना एक रास्ता था जिस पर मवेशी चलते होंगे। उसके पास घड़ी नहीं थी लेकिन अन्दाज़ा था कि अभी तीन नहीं बजे होंगे। पैरों के नीचे ब्लूबेल की ऐसी मोटी चादर थी कि उन्हें कुचले बगैर आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था। वह झुककर कुछ फूल चुनने लगा। कुछ तो वक़्त काटने के लिए और कुछ ख़याल यह भी था दिमाग में जब मुलाक़ात होगी तो लड़की को फूलों का गुच्छा भेंट करेगा। काफ़ी बड़ा गुच्छा उसने बना लिया था और उसे सँघ ही रहा था कि पीछे से कुछ आवाज़ आई और वह एकदम से जड़ हो गया। टहनियों पर पैरों के पड़ने की आवाज़ थी वह। वह फूल चुनता रहा। यही सबसे बेहतर विकल्प था। हो सकता है लड़की ही हो या फिर कोई पीछा कर रहा हो, लेकिन पीछे मुड़कर देखना अपने मन का चोर सामने लाने जैसा था। वह एक के बाद एक फूल चुनता रहा। तभी उसके कन्धे पर किसी ने हल्के से हाथ रखा।

उसने ऊपर देखा। लड़की ही थी। लड़की ने ना की मुद्रा में सिर हिलाया, गोया चुप रहने को कह रही हो, और धीमे से झाड़ियों को पार कर जंगल के एक सँकरे रास्ते पर बढ़ चली। जिस तरह से वह दलदली हिस्सों को आदतन चकमा देते हुए आगे बढ़ रही थी, ऐसा लगता था कि वह यहाँ पहले आ चुकी है। अपने हाथ में फूलों का गुच्छा थामे विंस्टन उसके पीछे चलता रहा। उसके भीतर पहला भाव तो राहत का आया था, लेकिन उस मज़बूत और सुडौल काया को अपने ठीक सामने चलता देख और उसका वह लाल कमरबन्द, जो ठीक उतना ही कस के बँधा था कि उसके नितम्बों का वक्र स्पष्ट उभरकर आवे-उसे हीनताबोध ने घेर लिया।

इसीलिए अब भी उसे लग रहा था कि जब वह रुककर पीछे मुड़ेगी और उसे ठीक से देखेगी, तो अन्तत: मन बदल लेगी। हवा की ताज़गी और घास का हरापन अब उसे डरा रहा था। वैसे भी मई की इस चमकदार धूप में स्टेशन से पैदल चलकर यहाँ आने में उसे भीतर से गन्दगी और कुम्हलाहटसी महसूस हो रही थी, चूँकि वह दरवाज़ों के भीतर कैद रहने वाला प्राणी था। उसकी चमड़ी के पोरों में लंदन की धूल बसी हुई थी। उसे इस बात से डर था कि दिन के उजाले में लड़की ने उसे शायद अब तक नहीं देखा है। वे उस ट्ठ तक पहुँच गए जिसका ज़िक्र लड़की ने किया था। लड़की उसे फाँदकर झाड़ियों में घुस गई जबकि उसमें भीतर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखता था। विंस्टन जब उसके पीछे-पीछे वहाँ पहँचा, तो उसने पाया कि सामने बिना पेड़ों वाला एक साफ़ इलाक़ा था। वह घास का एक छोटा सा टीला था जो चारों ओर लम्बे-लम्बे बिरवों से घिरा हुआ था, जिन्होंने उस जगह को पूरी तरह से ढक लिया था। लड़की रुककर पीछे मुड़ी और बोली :

"लो, आ गए हम।"

वह कई क़दम की दूरी पर खड़ा था और पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

लड़की ने कहा, “मैं वहाँ सड़क पर कुछ कहने से बच रही थी। क्या जाने कोई माइक छिपा हो वहाँ। मेरे ख़याल से तो नहीं होना चाहिए, फिर भी। हमेशा ये ख़तरा तो बना ही रहता है कि कोई सुअर आपकी आवाज़ सुनकर पहचान ले। अब हम ठीक जगह पर हैं।"

विंस्टन अब भी उसके करीब जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसने बेवकूफ़ की तरह दोहरा दिया, “हम ठीक जगह पर हैं?"

“हाँ, इन पेड़ों को देखो।" छोटे-छोटे राख के पेड़ थे जो कभी काटे गए रहे होंगे लेकिन उनमें अब हरी कोंपले फिर से उग आई थीं। चारों ओर वे खंबों की तरह तने हुए थे लेकिन किसी की भी मोटाई कलाई से ज़्यादा नहीं थी। “यहाँ कुछ भी इतना बड़ा नहीं है जहाँ माइक को छिपाया जा सके। मैं यहाँ पहले आ चुकी हूँ।"

वे केवल बोल रहे थे। विंस्टन हिम्मत जुटाकर उसके थोड़ा क़रीब आ गया था। एकदम सामने वह खड़ी थी सीधी, मुस्कुराती हुई। लगता था कि हल्की सी व्यंग्यात्मक मुस्कान है गोया अचरज जताती हुई कि वह इतना सुस्त क्यों है। ब्लूबेल के फूल ज़मीन पर झर चुके थे। जैसे खुद ही बिछ जाना चुना हो उन्होंने। विंस्टन ने उसका हाथ पकड़ा।

वह बोला, “तुम विश्वास करोगी कि अब तक मुझे तुम्हारी आँखों का रंग नहीं मालूम था।" उसने गौर से देखा। भूरी आँखें थीं, बल्कि हल्की भूरी, और पलकें एकदम गहरी। “अब तो तुमने मुझे अच्छे से देख लिया है कि मैं कैसा दिखता हूँ। क्या अब भी मुझे देखना पसन्द करोगी?"

“हाँ, बड़े आराम से।"

"देखो, मैं उनतालीस साल का हूँ। मेरी एक पत्नी है जिससे मैं पीछा नहीं छुड़ा सकता। मेरे टखने की नसों में अल्सर है। मेरे पाँच दाँत नक़ली हैं।"

"मुझे इस सबसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता," लड़की बोली।

अगले ही पल, जाने कैसे, वह उसकी बाँहों में थी। किसने पहल की थी, कह पाना मुश्किल है। उस पल विंस्टन के भीतर कोई भाव नहीं था, बस कोरा ताज्जुब था। उसके शरीर पर वह जवान देह तनी हुई थी। उसका चेहरा घने गहरे बालों से ढक गया था। और हाँ! लड़की ने सिर उठाकर चेहरा एकदम सामने कर दिया और अगले ही पल वह उसके भरे लाल गालों को चूम रहा था। लड़की ने अपनी बाँहों का घेरा उसकी गरदन पर डाल दिया। डार्लिंग, मेरे महबूब, मेरी जान, वह बोले जा रही थी। विंस्टन ने उसे खींचकर ज़मीन पर लिटा दिया। वह बिछ गई बिना किसी संकोच के। वह जो चाहे कर सकता था इस वक़्त उसके साथ, लेकिन वास्तव में उसके भीतर कोई जिस्मानी अहसास ही नहीं पैदा हो रहा था, सिवाय शारीरिक सम्पर्क के। कुल मिलाकर उसके मन में एक अविश्वास और आत्मसम्मान जैसा कुछ भाव था। उसे खुशी हो रही थी इस भाव पर, लेकिन कोई शारीरिक चाह नहीं थी। वह औरतों के बगैर रहने का आदी था, आज इस सौन्दर्य और यौवन ने उसे आतंकित कर दिया था। इसकी वजह तो नहीं पता थी उसे, लेकिन ऐसा लगा कि बहुत जल्दबाज़ी हो जाएगी। लड़की उठी, अपने बालों में फँसा एक फूल उसने निकाला, फिर उसके एकदम सामने बैठ गई और उसकी कमर के घेरे को अपनी बाँहों में भर लिया।

“कोई बात नहीं मेरी जान, कोई जल्दी नहीं है। पूरी दोपहर पड़ी है। यह बताओ यह छिपने की जगह कैसी लगी, शानदार है न? एक बार हम लोग सामुदायिक यात्रा पर आए थे और मैं गुम हो गई थी, तब मैंने इसे खोजा था। यहाँ सौ मीटर दूर से ही किसी के आने की आवाज़ पता चल जाती है।"

"तुम्हारा नाम क्या है?" विंस्टन ने पूछा।

"जूलिया। और तुम्हारा मैं जानती हैं। विंस्टन-विंस्टन स्मिथ।"

“यह कैसे पता किया तुमने?"

"मेरी जान, चीजें पता करने में मैं तुमसे बेहतर हँ, समझे। अब यह बताओ कि उस दिन मेरे परची देने से पहले तुम मेरे बारे में क्या सोचते थे?"

झूठ बोलने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी, बल्कि सच चाहे कितना ही बुरा क्यों न हो, शुरुआत उससे करना एक किस्म का प्रेम-प्रस्ताव ही होगा।

“तुम्हें देखने से नफ़रत थी मुझे,” उसने कहा। “मैं तुम्हारी इज्ज़त लूटकर तुम्हारा क़त्ल करना चाहता था। दो हफ्ते पहले तो मैं वाक़ई पत्थर से तुम्हारा सिर कुचल देना चाह रहा था। सच जानना चाहती हो, तो सच कहूँ, मैं मानता था कि तुम विचार पुलिस के लिए काम करती हो।" ।

लड़की ख़ुशी से हँस पड़ी। उसे लगा जैसे उसके छदम भेष की सराहना में मिला यह कोई सम्मान है।

"विचार पुलिस तो क़तई नहीं! सच कहो, तुम ऐसा नहीं सोचते थे?"

“खैर, उतना भी नहीं, लेकिन तुम जैसी दिखती हो उसी से मुझे ऐसा लगा होगा जैसे, तुम जवान हो, ताज़ा हो, स्वस्थ हो। मतलब, समझ रही हो न!"

"तुम्हें लगता था कि मैं पार्टी की भक्त हूँ। शब्द और कर्म में एकदम पवित्र। बैनर, प्रदर्शन, नारे, खेल, सामुदायिक दौरे, और वही सब बकवास। और तुम सोचते थे कि मौक़ा मिलते ही मैं तुम्हें विचार अपराधी ठहरा दूंगी और तुम्हारी हत्या करवा दूंगी?"

“हाँ, कुछ-कुछ ऐसा ही। तुम जानती हो ज़्यादातर जवान लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं।"

“सब इसी हरामज़ादी चीज़ का किया-धरा है," वह बोली, और सेक्स-विरोधी युवा संघ वाला लाल कमरबन्द अपनी कमर से नोचकर एक टहनी पर फेंक दिया। कमर पर हाथ ले जाते ही उसे जैसे कुछ याद आया हो, उसने अपनी वर्दी की जेब को टटोला और उसमें से एक छोटी-सी चॉकलेट निकाली। उसे आधा तोड़ा और एक हिस्सा विंस्टन को दे दिया। खाये बगैर ही खुशबू से वह समझ गया था कि यह चॉकलेट अलग क़िस्म की है-गाढ़ी, चमकदार और चाँदी की पन्नी में लिपटी हुई। वरना यहाँ तो जो धूसर-सी भुरभुरी चॉकलेट मिलती थी उसका स्वाद, ठीक-ठीक कहें तो जलते हुए कचरे के धुएँ के जैसा होता था। इस वाली चॉकलेट के स्वाद से वह परिचित था पहले से, जो उसने दी थी। उसकी खुशबू की पहली ही झलक में जैसे कोई पुरानी स्मृति जग गई, जिसे वह कायदे से पकड़ नहीं पाया, लेकिन ज़बरदस्त और बेचैन करने वाली कोई बात थी।

"ये कहाँ से मिला?" उसने पूछा।

"ब्लैक मार्केट में," लड़की ने अनमने से जवाब दिया। “देखो, मैं तो ऐसी ही लड़की हूँ। देखने में भले अलग लगूं। खेलों में अच्छी हूँ। गुप्तचर टोली की नायक हुआ करती थी मैं। सेक्स-विरोधी युवा संघ के लिए हफ्ते में तीन शाम मैं स्वैच्छिक काम करती हूँ। मैंने घंटों-घंटों उनके वे सड़े हुए पोस्टर पूरे लंदन में चिपकाए हैं। जलसों में मैं हमेशा बैनर का एक कोना पकड़कर चलती हैं। हमेशा खुश दिखती हैं और कभी कामचोरी नहीं करती। मैं हमेशा भीड़ के साथ चिल्लाती हूँ। बचे रहने का यही इकलौता तरीक़ा है।"

चॉकलेट का पहला टुकड़ा विंस्टन की जीभ पर पिघल चुका था। अद्भुत स्वाद था, लेकिन वह स्मृति अब भी दिमाग में चक्कर काट रही थी। कुछ ऐसा जो ज़बरदस्त महसूस हो रहा था लेकिन पकड़ में नहीं आ रहा था। जैसे कोई चीज़ जो कनखिया कर देखी जाए और दिखते हुए भी सही-सही उसका आकार-प्रकार समझ में न आवे। उसने ज़ोर लगाकर उस स्मृति को अपने से दूर धकेला, यह जानते हुए कि इसका ताल्लुक किसी ऐसी बात से है जिससे चाहकर भी वह पीछा नहीं छुड़ा पा रहा है।

“तुम बहुत छोटी हो,” उसने कहा। “कम से कम मुझसे दस-पन्द्रह साल तो छोटी होगी ही। फिर मेरे जैसे आदमी में तुम्हें ऐसा क्या आकर्षक दिख गया?"

"तुम्हारे चेहरे में कुछ ऐसा था कि मुझे लगा एक बार आजमा लेना चाहिए। मैं ऐसे लोगों को पढ़ने में बहुत तेज़ हूँ जो हटकर होते हैं। मैंने जैसे ही तुम्हें देखा था, तुरन्त समझ गई कि तुम उनके ख़िलाफ़ हो।"

उनके से उसका मतलब पार्टी से था, खासकर पार्टी के भीतरी हलके से, जिसके बारे में वह ऐसे खुलकर नफ़रत और उपहास से बात कर रही थी जिसने विंस्टन को थोड़ा असहज कर दिया था, हालाँकि वह जानता था कि अगर वे बाहर खुले में अब तक बचे हुए हैं तो यहाँ तो सुरक्षित रहेंगे ही। एक बात जिसने विंस्टन को हैरान किया वह उसकी भाषा थी। पार्टी के सदस्यों को गाली बकना मना था और खुद विंस्टन भी शायद ही कभी मुँह से कोई अपशब्द निकालता होगा। जूलिया का तो हाल ये था कि पार्टी का, खासकर उसके भीतरी हलके के बारे में वह बिना ज़बान गन्दी किए बात कर ही नहीं सकती थी, वह भी एकदम सड़कछाप गालियाँ। उसे यह बात नापसन्द नहीं थी। यह तो पार्टी और उसके तमाम तौर-तरीक़ों के खिलाफ़ उसकी बगावत का एक लक्षण भर था और स्वाभाविक भी था। जैसे किसी घोड़े की छींक, जो सड़े हुए भूसे की गंध देती है। वे टीले से उठकर अब चितकबरी छाँव में टहल रहे थे और जहाँ कहीं सँकरी पगडंडी होती, वे एक-दूसरे की कमर में बाँहें डाले सटकर चलते। उसने महसूस किया कि कमरबन्द हटने के बाद उसकी कमर कितनी नरम जान पड़ती थी। वे केवल फुसफुसाकर बात कर रहे थे। टीले के पार जूलिया ने कहा कि बेहतर हो वे चुपचाप ही रहें। वे जंगल के एक छोर पर पहुंच चुके थे। जूलिया ने उसे रोका।

“खुले में नहीं जाना है। कोई देख लेगा। पेड़ों के पीछे ही ठीक है।"

वे अखरोट के पेड़ों की छाँव में खड़े थे। पत्तों से छनकर आ रही सूरज की रोशनी अब भी चेहरे पर गरमाहट का अहसास देती थी। सामने उस पार मैदान में विंस्टन ने अपनी निगाह दौड़ाई, तो कुछ जाने-पहचाने कौतूहल से चकित रह गया। उसकी आँखें इस जगह को पहचान रही थीं। यह एक पुराना घास का मैदान था जिसके बीच से एक पगडंडी गुज़रती थी और यहाँ-वहाँ खरगोशों के बिल थे। इसके उस पार झाड़ में एल्म के पेड़ हवा में लहराते थे, उनके सघन पत्ते किसी औरत के बालों की तरह हौले-हौले फड़फड़ाते थे। पक्का यहीं कहीं, नज़र से ओझल, पानी का एक सोता होना चाहिए जिसमें डेस मछलियाँ तैरती होंगी।

उसने पूछा, “यहाँ आसपास कोई पानी का सोता है क्या?"

"हाँ, एक धारा है। अगले मैदान के अन्त में है। उसमें मछलियाँ हैं बड़ीबड़ी। विलो के पेड़ों के नीचे तालाब में तुम उन्हें पूँछ हिलाते नंगी आँखों से देख सकते हो।"

"ये तो सुनहरा प्रदेश-बिलकुल वैसा ही," वह बुदबुदाया।

"सुनहरा प्रदेश?"

"कुछ ख़ास नहीं। मैंने कई बार सपने में ऐसा ही नजारा देखा है।"

“वह देखो!” जूलिया बोली।

बमुश्किल पाँच मीटर दूर एक टहनी पर एक मैना आकर बैठी थी, तक़रीबन उनके चेहरों के सामने उसी ऊँचाई पर। उसने शायद इन्हें देखा नहीं था। ये छाँव में थे, वह धूप में थी। उसने अपने पंख फैलाए, फिर हौले से समेटे, हल्का सा गरदन को झटका दिया जैसे सूरज का अभिवादन कर रही हो और फिर गाने लगी। दोपहर की ख़ामोशी में उसकी आवाज़ हतप्रभ करती थी। मंत्रमुग्ध दोनों एक-दूसरे से लिपट गए। वह गाती रही। हर मिनट उसकी लय बदल जाती थी। एक बार भी दुहराव नहीं। जैसे उन्हें अपना यह कौशल दिखाने ही वहाँ आई हो। कुछ सेकंड को वह रुकती, अपने पर फैलाती, अपनी चितकबरी छाती में दम भरती और फिर गाना शुरू कर देती। विंस्टन जाने किस श्रदधा में डूबकर उसे देखे जा रहा था। किसके लिए गा रही थी वह? क्या था यह? न कोई सखा, न कोई प्रतिद्वंद्वी था वहाँ उसे देखने के लिए। फिर उस एकाकी पेड़ की टहनी के एक सिरे पर बैठकर शून्य में गाते जाने के लिए उसे कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही थी? उसके दिमाग में आया कि कहीं आसपास कोई माइक्रोफ़ोन तो छिपा हुआ नहीं होगा। वैसे तो वह और जूलिया दोनों मद्धम स्वर में ही बात कर रहे थे जिसे माइक पकड़ नहीं पाता, लेकिन इस पक्षी का गीत तो पकड़ में आ ही जाता। कौन जाने माइक के दूसरे छोर पर कोई छोटा सा गुबरैला प्राणी बैठकर उसे सुन ही रहा हो। पर संगीत के ज्वार ने उसके मन की सारी शंकाओं को हर लिया। जैसे उसके ऊपर कोई द्रव्य उड़ेल रहा हो जो पत्तों से छनकर आ रही सूरज की रोशनी के साथ मिलकर उसे सराबोर कर गया हो। उसने सोचना बन्द कर दिया। बस महसूस करने लगा। उसकी बाँहों के घेरे में लड़की की कमर गरम मुलायम जान पड़ती थी। उसने उसे घुमाकर अपनी ओर खींच लिया। दोनों के उर जुड़ा गए थे गोया एक देह दूसरे में पिघल रही हो। वह जहाँ कहीं हाथ रखता, वह अंग पिघलकर पानी बन जाता। होंठ से होंठ जुड़ चुके थे। अबकी मामला पहले लिए गए चुम्बनों से अलग था। जब चेहरे अलग हुए, तो दोनों ने गहरी उसाँस छोड़ी। उद्विग्न पक्षी पंख फड़फड़ाते हुए उड़ गया।

विंस्टन ने अपने होंठ उसके कान से लगाए, “ये सही समय है,” वह फुसफुसाया। “यहाँ नहीं," वह बोली, “चलो, अपनी महफूज़ जगह पर वापस चलते हैं।"

दोनों काफ़ी तेज़ी से टीले की ओर बढ़े, बीच में केवल कुछ टहनियों के पैरों से टूटने की आवाज़ हुई। जैसे ही वे ठूठों के घेरे के भीतर पहँचे, वह पीछे मुड़ी और एकदम सामने आ गई। दोनों की साँसें तेज़ चल रही थीं, लेकिन जूलिया के चेहरे पर मुस्कान वापस आ गई थी। एक पल को वह उसे खड़ी देखती रही, फिर अपनी वर्दी के जिपर को हाथ लगाया। और हाँ, बिलकुल वैसा ही हुआ जैसा विंस्टन ने अपने सपने में देखा था। उसने जैसी कल्पना की थी, बिलकुल उसी फुर्ती से जूलिया ने अपने कपड़े उतारे और जैसे ही उन्हें एक कोने में फेंका, उस अदा में बिलकुल वही भव्यता थी जो एक समूची सभ्यता को एक झटके में ख़ारिज करने का दम रखती थी। उसकी देह सूरज की रोशनी में दमक रही थी, लेकिन उस पल विंस्टन ने उसकी देह को नहीं देखा। उसकी आँखें तो जूलिया के झाईंदार चेहरे पर अटक गई थीं जिस पर एक हल्की-सी निर्भीक मुस्कान थी। उसके सामने वह अपने घुटनों पर बैठ गया और उसके हाथ अपने हाथों में ले लिये।

“पहले कभी किया है?"

"और क्या। सौ बार, बल्कि और ज्यादा, लेकिन उससे क्या।"

"पार्टी के लोगों के साथ।"

“हाँ, हमेशा पार्टी के सदस्यों के साथ।"

"भीतरी हलके के सदस्य?"

"उन सूअरों के साथ तो कभी नहीं, ना। लेकिन वहाँ तो भरे पड़े हैं जिन्हें बस मौक़ा मिलने की देरी है। उतने भी साफ़-सुथरे नहीं हैं सब जितना दिखाते हैं।"

उसका दिल खुशी से उछल गया। कह रही है बहुत बार की है, काश! सैकड़ों नहीं हज़ारों बार उसने किया हो, विंस्टन ने सोचा। ऐसी कोई भी चीज़ जो भ्रष्ट आचरण का संकेत देती थी, वह विंस्टन के दिल में एक अजीब सी उम्मीद जगाती थी। और कौन जाने कि पार्टी सतह के नीचे एकदम सड़ चुकी हो। ऊपर से दिखने वाली सारी सख़्ती और त्याग वाली बातें क्या जाने बस अधर्म को छिपाने के लिए हों। काश! वह उन सबको कोढ़ या सिफिलिस से संक्रमित कर पाता, कितनी खुशी मिलती ऐसा करने में उसे! ऐसा कुछ भी जो इन्हें सड़ा दे, कमज़ोर कर दे, तोड़ दे! उसने जूलिया को नीचे खींचा। अब दोनों अपने घुटनों पर एक-दूसरे के सामने थे।

"सुनो, जितने ज़्यादा आदमियों को तुमने भोगा होगा, मैं तुमसे उतनी ही मोहब्बत करूँगा। समझ रही हो?"

"हाँ, बिलकुल।"

“मुझे शुचिता से घिन है, नफ़रत करता हूँ मैं अच्छाई से! मैं नहीं चाहता कि कहीं कोई भी सदाचार बचा रहे। मैं चाहता हूँ कि अपनी रगों तक हर कोई भ्रष्ट हो जाए।"

“फिर तो मैं तुम्हारे बिलकुल माकूल हूँ, मेरी जान। मेरी नस-नस भ्रष्ट है।"

“तुम्हें यह करना पसन्द है? मेरा मतलब केवल मुझसे नहीं, इस काम से है।"

"बहुत पसन्द है।"

वह दरअसल यही सुनना चाहता था। महज़ किसी इनसान के प्रति प्यार नहीं, बल्कि एक सहज इनसानी वृत्ति, वह विशुद्ध निरपेक्ष लालसा; यही वह ताक़त है जो पार्टी के टुकड़े-टुकड़े कर सकती है। उसने ब्लूबेल के फूलों के बीच घास पर उसे लिटाया। इस बार कोई दिक्कत नहीं हुई। ऊपर-नीचे हो रही दोनों की तेज़ धौंकनी धीरे-धीरे सम पर आई, फिर एक सुखद बेकसी में दोनों निढाल हो गए। सूरज और गरम हो चला था। दोनों उनींदे थे। विंस्टन ने फेंकी हुई वर्दी उठाकर उसके ऊपर डाल दी। फिर दोनों को तुरन्त ही नींद आ गई। करीब आधा घंटा दोनों पड़े रहे।

पहले विंस्टन की आँख खुली। वह उठकर बैठा और उसके झाईंदार चेहरे को देखने लगा। अपनी हथेली का तकिया लगाकर वह अब भी चैन से सो रही थी। उसके गालों को छोड़ दें तो उसे खूबसूरत नहीं कहा जा सकता था। गौर से देखने पर आँखों के इर्द-गिर्द एकाध घेरे नज़र आते थे। उसके छोटे गहरे बाल ज़रूरत से ज़्यादा मोटे थे और मुलायम थे। उसे अचानक खटका कि वह अब तक उसका पूरा नाम-पता नहीं जानता है।

नींद में बेबस उस मज़बूत और जवान देह ने विंस्टन के भीतर स्नेह और सरपरस्ती का भाव जगा दिया था, लेकिन जैसी बेपरवाह करुणा अखरोट के पेड़ के नीचे मैना का संगीत सुनते हुए उसे महसूस हुई थी, वैसा कुछ वापस नहीं आया। उसने जूलिया पर पड़ी वर्दी को एक ओर खींचा और उसकी गोरी कमसिन देह की किनारियों को देखने लगा। उसे याद आया कि पुराने दिनों में लोग लड़कियों की देह को देखकर तय करते थे कि उन्हें वह चाहिए या नहीं। बस इतनी सी बात थी और कहानी ख़त्म। आजकल तो न ख़ालिस प्यार बचा है, न शुद्ध वासना। एक भी भावना खरी नहीं बची। सबमें डर और नफ़रत की मिलावट है। ऐसे में उनका आलिंगन एक संघर्ष रहा है और उसका चरम उनकी जीत थी। यह पार्टी के ख़िलाफ़ एक प्रहार था। यह एक राजनीतिक कार्रवाई थी।

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-दूसरा भाग-3

"हम लोग यहाँ फिर से आ सकते हैं," जूलिया ने कहा। “आम तौर से कोई भी ठिकाना दो बार के लिए तो सुरक्षित रहता ही है, लेकिन बीच में एकाध महीने का अन्तर होना चाहिए।"

नींद से उठते ही उसका हाव-भाव बदल गया था।

वह ऐसे चौकस थी जैसे कि काम पर हो। उसने कपड़े पहने, कमर में लाल कमरबन्द बाँधा और वापस जाने के विवरण तैयार करने लगी। ज़ाहिर है यह काम उसी के भरोसे छोड़ना ठीक था क्योंकि उसमें एक व्यावहारिक चतुराई थी जो विंस्टन में नहीं थी। इसके अलावा लंदन के बाहरी इलाक़े का उसे अच्छा-खासा ज्ञान था जो अनगिनत सामुदायिक यात्राओं की देन था। उसने लौटने का जो रूट विंस्टन को बताया वह उससे अलग था जिससे वह आया था। यह रास्ता उसे किसी दूसरे रेलवे स्टेशन पर निकालता था। "कभी भी उस रास्ते वापस घर मत जाना जिससे आए हो," जूलिया ने कहा, मानो कोई बहुत सामान्य लेकिन अहम सिद्धान्त बता रही हो। पहले वह निकलेगी, फिर आधे घंटे बाद विंस्टन को जाना है।

चार दिन बाद उन्हें काम के बाद जिस जगह मिलना है, वह उसने विंस्टन को बता दिया था। वह शहर के गरीब इलाके की एक सड़क थी जहाँ एक खुला बाज़ार था। वहाँ आम तौर से बहुत भीड़ रहती थी और कोलाहल रहता था। वहीं वह किसी स्टॉल पर जूते के फीते या सिलाई का धागा खरीदने के बहाने पहँचेगी। अगर मैदान साफ़ दिखा तो विंस्टन के आते ही वह इशारे में अपनी नाक साफ़ करेगी। ऐसा नहीं हुआ तो विंस्टन को उसे बिना पहचाने चुपचाप उसके बग़ल से निकल लेना है। किस्मत रही तो भीड़ के बीच पन्द्रह मिनट बात हो जाएगी और अगली मुलाक़ात का तय कर लिया जाएगा।

विंस्टन ने ये तमाम निर्देश जैसे ही याद किए, उसने कहा, “अब मुझे चलना चाहिए।" "मुझे साढ़े सात तक वापस पहुँचना है। फिर दो घंटे सेक्स-विरोधी युवा संघ के साथ परचे आदि बाँटने हैं। क्या यह घटिया काम नहीं है? जरा पीछे से मुझे झाड़ दोगे क्या? मेरे बालों में कोई तिनका तो नहीं फँसा है? पक्का? ठीक है फिर, विदा मेरी जान, गुड बाय!"

वह विंस्टन की बाँहों में झूल गई, तकरीबन हिंसक तरीके से उसे चूमा और क्षण भर बाद ही पेड़ों के बीच से रास्ता बनाते हुए चुपचाप जंगलों में खो गई। अब तक विंस्टन को उसका पूरा नाम और पता नहीं मालूम था। इससे हालाँकि कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। चूंकि यह कल्पना से बाहर की बात थी कि वे कभी बन्द कमरे में मिलेंगे या कभी लिखित सन्देश एक-दूसरे को भेजेंगे।

वे कभी फिर उस जंगल में लौटकर नहीं गए। मई में केवल एक और मौक़ा ऐसा आया जब दोनों ने प्यार किया। वह भी जूलिया का ही जाना हुआ एक ठिकाना था तक़रीबन एक निर्जन इलाके में खंडहर हो चुके एक चर्च का घंटाघर जहाँ तीस साल पहले एटम बम गिरा था। एक बार वहाँ पहुँच जाएँ तो छिपने की बढ़िया जगह थी, लेकिन वहाँ पहुँचना ही अपने आप में जोखिम भरा काम था। बाक़ी दिन वे हर शाम सड़कों पर किसी नए ठिकाने पर मिलते रहे लेकिन एक बार में आधे घंटे से ज़्यादा नहीं। सड़क पर अमूमन एक ख़ास तरीके से ही बात करना सम्भव था। भीड़-भाड़ वाली पटरियों से जब वे गुज़र रहे होते तो एक-दूसरे से थोड़ा दूर हटकर चलते और देखते नहीं थे। ऐसे में जो बातचीत होती वह बीच-बीच में टूट-टूट जाती थी। जैसे समुद्री जहाजों को रास्ता दिखलाने वाली रोशनी के मीनार की बत्ती भुकभुकाती है, वैसे ही। और अगर पार्टी का कोई वर्दीधारी पास आता दिखे या आसपास कोई टेलिस्क्रीन मौजूद हो तो अचानक ही उनकी बातचीत चुप्पी में डूब जाती थी। फिर ख़तरा टलते ही बात जहाँ छूटी थी वहीं बीच से दोबारा शुरू हो जाती थी और फिर से उस जगह टूट जाती जहाँ उस दिन अलग होना तय किया गया था। अगले दिन वहीं से बात शुरू होती, बिना किसी सन्दर्भ के। जूलिया इस तरह से बातचीत की आदी थी। वह इसे किस्तों में बतियाना कहती थी। हैरत की बात है कि वह बिना होंठ हिलाए भी बोल लेती थी और इस काम में काफ़ी माहिर थी। तक़रीबन पूरे महीने हर रात हुई मुलाक़ात में बस एक दिन मौक़ा मिला था उन्हें एक-दूसरे को चूमने का। उस दिन वे चुपचाप एक पटरी से गुज़र रहे थे (जूलिया कभी भी मुख्य सड़क से दूर होती तो बात नहीं करती थी) जब भयंकर कानफोड़ धमाका हुआ। धरती हिल उठी। अँधेरा छा गया और विंस्टन ने अगले ही पल खुद को ज़मीन पर गिरा हुआपाया। वह ज़ख़्मी और डरा हुआथा। ऐसा लगता था कि कहीं पास में ही कोई रॉकेट बम गिरा है। अचानक उसे अपने से थोड़ी दूरी पर जूलिया का चेहरा दिखाई दिया। झक्क सफ़ेद, मौत की तरह, जैसे किसी ने चाक पोत दी हो। उसके होंठ भी सफ़ेद थे। वह मर चुकी थी। यही सोचते हुए उसने उसे बाँहों में भरा और जब चूमा, तो पाया कि उसका चेहरा तो गरम और ताज़ादम था। दोनों के होंठों के बीच कुछ बुरादा-सा आड़े आ गया था। पता चला कि दोनों के चेहरों पर सफ़ेद प्लास्टर की मोटी सतह जमी हुई थी।

कुछ शामें ऐसी भी आईं जब दोनों नियत जगह पर मिले लेकिन बिना इशारा किए या एक-दूसरे को देखे ही उन्हें बग़ल से गुज़र जाना पड़ा क्योंकि गश्ती वाले वहाँ पहुँच गए थे या सिर के ऊपर हेलिकॉप्टर मँडरा रहा था। जब खतरे कम होते थे तब भी मिलने के लिए वक़्त निकाल पाना मुश्किल होता था। विंस्टन के काम के घंटे हफ़्ते में साठ थे। जूलिया और ज्यादा काम करती थी। अकसर काम का दबाव इतना होता था कि उन दोनों का ख़ाली दिन एक साथ नहीं पड़ता था। वैसे भी जूलिया की शामें अकसर व्यस्त ही रहती थीं। व्याख्यान, जलसे आदि में शामिल होना, सेक्स-विरोधी युवा संघ की सामग्री बाँटना, नफ़रत सप्ताह के लिए बैनर बनाना, बचत अभियान के लिए चंदा जुटाना, ऐसी तमाम गतिविधियों में वह बहुत ज़्यादा वक़्त जाया करती थी। उसका कहना था कि यह सब छिपने के काम आता था। इसका फ़ायदा होता था। उसका मानना था कि अगर आप छोटे नियमों को मान लेते हैं तो बड़े नियमों को तोड़ पाते हैं। लिहाज़ा विंस्टन को उसने युद्ध सामग्री के काम में कुछ समय ख़र्च करने के लिए मना लिया था और उसे पंजीकरण करवाना पड़ा था। यह काम पार्टी के कुछ उत्साही सदस्य स्वेच्छा से किया करते थे। हफ़्ते में एक दिन विंस्टन को चार घंटे थका देने वाली ऊब से गुज़रना होता था जिसमें एक हवादार कारखाने के भीतर कम रोशनी में धात् के कुछ टुकड़ों में पेच कसना पड़ता था। शायद ये टुकड़े बम का हिस्सा होते थे। कारखाने में टेलिस्क्रीन के संगीत के साथ लगातार आती हथौड़े की आवाज़ मिलकर उदासी पैदा करती थी।

जब वे चर्च के घंटाघर में मिले, तब जाकर महीने भर से छूटी हुई बात पूरी हो पाई। वह धधकती हुई दोपहर थी। घंटियों के ऊपर बने छोटे-छोटे चौकोर चैम्बरों में कैद हवा गरम थी और चौतरफ़ा कबूतर की बीट की महक व्याप्त थी। तिनकों और लकड़ी से पटे हुए धूसर फ़र्श पर बैठकर उन्होंने घंटों बात की। बीच-बीच में कोई एक उठकर दीवार में बनी मक्की से बाहर झाँक लेता कि कोई आ तो नहीं रहा है।

जूलिया छब्बीस साल की थी। वह एक छात्रावास में तीस और लड़कियों के साथ रहती थी (“हमेशा औरतों की चिक-चिक के बीच! इसीलिए मुझे औरतों से नफ़रत है!" वह ज़ोर देकर बार-बार यह बोलती थी)। गल्प विभाग में उपन्यास लेखन वाली मशीन पर वह काम करती थी, जैसा कि विंस्टन ने अन्दाज़ा लगाया था उसे अपने काम में खुशी मिलती थी, भले ही वह एक भारी-भरकम लेकिन जटिल मोटर का संचालन और रख-रखाव था। इस काम में वह बहुत निपुण' नहीं थी, लेकिन उसे अपने हाथ से उस मशीन को चलाना अच्छा लगता था और उस मशीन से उसका लगाव था। एक उपन्यास की छपाई की पूरी प्रक्रिया को वह समझा सकती थी-योजना कमेटी द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों के पालन से लेकर पुनर्लेखन दल द्वारा अन्तिम सम्पादन तक, सब कुछ। तैयार माल में हालाँकि उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह खुद कहती थी कि उसे 'पढ़ने-वढ़ने से ख़ास मतलब नहीं था।' उसके हिसाब से किताबें हों या जैम या फिर जूते के फीते, सब कुछ उत्पादित किया जाने वाला माल था।

साठ के दशक की शुरुआत से पहले की कोई भी स्मृति उसके जेहन में नहीं थी। क्रान्ति से पहले के दिनों के बारे में बात करने वाले केवल एक शख़्स को उसने आज तक जाना था। वह थे उसके दादा, जो उसके आठ बरस के रहते ही लापता हो गए थे। स्कूल में वह हॉकी टीम की कप्तान हुआ करती थी। दो साल तक लगातार जिमनास्टिक्स की ट्रॉफी उसने जीती थी। इसके अलावा वह गुप्तचर टोली की नायक थी और सेक्स-विरोधी युवा संघ में आने से पहले युवा संघ में शाखा सचिव भी थी। वह पैदा ही विशिष्ट हुई थी। इतनी, कि उसे गल्प विभाग के तहत आने वाले कामुकता खंड में काम करने के लिए चुन लिया गया था (जिसे अच्छी साख का अचूक प्रमाण माना जाता था), जहाँ जनता के बीच बाँटी जाने वाली सस्ती अश्लील सामग्री का उत्पादन किया जाता था। उसने बताया कि वहाँ काम करने वाले अपने विभाग को कीचघर कहते हैं। वहाँ वह एक साल तक बनी रही। उसका काम सीलबन्द पुस्तिकाओं के निर्माण में सहयोग करना था, जिनके नाम भी अजीब हुआ करते थे—'झन्नाटेदार कहानियाँ' या 'कन्या विद्यालय में एक रात।' गरीब नौजवान नाम देखकर ही इन किताबों को चोरी-चोरी ख़रीदकर पढ़ते थे। उन्हें लगता था कि वे कोई गैर-कानूनी चीज़ ख़रीद रहे हैं।

विंस्टन ने जिज्ञासावश पूछा, “कैसी होती हैं ये किताबें?"

"भयंकर कचरा। वास्तव में बेहद ऊबाऊ होती हैं। कुल मिलाकर छह ही कहानियाँ हैं, उन्हीं को उलट-पलट कर छापते रहते हैं। मैं तो केवल मशीन पर काम करती थी। पुनर्लेखन दल में मैं कभी नहीं रही। मैं कोई साहित्यवाहित्य नहीं जानती मेरी जान, मैं तो उसके लायक़ भी नहीं हूँ।"

उसे यह जानकर अचरज हुआ कि कामुकता विभाग में विभाग प्रमुखों के अलावा बाक़ी सभी कर्मचारी महिलाएँ होती थीं। इसके पीछे यह समझदारी थी कि यहाँ जिस तरह की सामग्री से पाला पड़ता था, उस लिहाज़ से आदमी बड़ी आसानी से भ्रष्ट हो जा सकते थे क्योंकि उनकी यौन वृत्तियाँ नियंत्रण में नहीं रहती हैं जबकि औरतें इस मामले में उनसे बेहतर होती हैं।

जूलिया ने बताया, “वे लोग तो यहाँ विवाहित औरतों को भी रखना पसन्द नहीं करते। अविवाहित लड़कियों को हमेशा पवित्र माना जाता है। मेरी बात अलग है।"

उसका पहला प्रेम-प्रसंग सोलह बरस की उम्र में पार्टी के साठ साल के एक आदमी से चला था जिसने बाद में गिरफ़्तारी से बचने के लिए खुदकुशी कर ली थी। “और ठीक ही किया उसने वरना उसके मुंह से वे मेरा नाम उगलवा लेते,” जूलिया बोली। उसके बाद से तो उसके कई प्रसंग चले। उसकी निगाह में ज़िन्दगी बहुत सरल थी। आप मस्त रहना चाहते हैं लेकिन 'वे' मने पार्टीवाले आपको रोकना चाहते हैं ऐसे में आपसे जितना सपर जाए उतना नियम तोड़ लीजिए। उसे यह बात बड़ी स्वाभाविक लगती थी कि वे आपसे आपका सुख छीनना चाहते हैं और आप सुख भोगते हुए पकड़े जाने से बचने में लगे रहते हैं। वह पार्टी से नफ़रत करती थी और खुले शब्दों में इस बात को कहती भी थी, लेकिन उसके पास कोई सुसंगत आलोचना जैसी चीज़ नहीं थी। जब तक उसकी अपनी ज़िन्दगी पर फ़र्क नहीं पड़ता, उसे पार्टी के सिद्धान्तों से न एक लेना था न दो देना। विंस्टन ने इस बात पर गौर किया कि वह न्यूस्पीक के शब्द नहीं बोलती, सिवाय उनके जो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुके थे। उसने कभी भी ब्रदरहड के बारे में नहीं सुना था और इसमें यक़ीन भी नहीं करना चाहती थी। पार्टी के ख़िलाफ़ किसी भी क़िस्म की संगठित बगावत उसे मूर्खतापूर्ण जान पड़ती थी क्योंकि उसे विफल ही हो जाना था। इसलिए चतुराई इसी में थी कि नियम तोड़ते रहो और ज़िन्दा बचे रहो। वह सोच रहा था कि इसके जैसे जाने कितने लोग युवा पीढ़ी में होंगे जो क्रान्ति के बाद की दुनिया में बड़े हुए होंगे और कुछ भी नहीं जानते होंगे, सिवाय इसके कि पार्टी आकाश की तरह सर्वव्यापी चीज़ है जिसमें कभी कोई बदलाव ही नहीं हो सकता। इसीलिए वे कभी भी पार्टी के अख्तियार के ख़िलाफ़ बगावत की नहीं सोच सकते थे, केवल उससे बचने के रास्ते खोजते थे। जैसे एक ख़रगोश किसी कुत्ते को चकमा देता है।

इन दोनों ने शादी करने की गुंजाइश पर कोई बात ही नहीं की। यह बहुत दूर की कौड़ी थी जिसके बारे में सोचने का कोई मतलब नहीं बनता था। किसी तरह यदि विंस्टन अपनी पत्नी कैथरीन से मुक्त हो भी गया तो कोई कमेटी कल्पना में भी इन दोनों को शादी की मंजूरी नहीं देगी। यह दिन में सपना देखने जैसी बात थी जो हताश करती थी।

जूलिया ने पूछा, “वह कैसी थी? तुम्हारी बीवी?"

“तुमने न्यूस्पीक का एक शब्द सुना है गुड थिंकफुल? वैसी ही थी-मने स्वाभाविक रूप से भक्त, जिसके दिमाग में कभी कोई बुरा विचार आ ही नहीं सकता था।"

"नहीं, यह शब्द तो नहीं सुना मैंने लेकिन इस तरह के लोगों को मैं जानती हूँ अच्छे से।"

विंस्टन ने उसे अपने शादीशुदा जीवन की कहानी सुनानी शुरू की, लेकिन अजीब बात थी कि जूलिया को ज़्यादातर अहम बातें पहले से ही मालूम थीं। उसने विंस्टन को बड़े विस्तार से बताया कि जब वह कैथरीन को छूता रहा होगा तो कैसे उसकी देह एकदम सिकुड़कर कठोर हो जाती होगी, जैसे कि उसने खुद देखा या महसूस किया हो। जूलिया ने बताया कि कैसे कैथरीन अपनी पूरी ताक़त लगाकर विंस्टन को धकेलती रही होगी, बावजूद इसके कि उसकी बाँहें उस वक़्त विंस्टन को ही घेरे रहती होंगी। ऐसी बातें जूलिया के साथ करने में उसे कोई दिक्क़त पेश नहीं आती थी। कैथरीन की दर्दनाक स्मृतियाँ तो खैर अब छीज ही चुकी थीं। उसे याद करना कुल मिलाकर अपना ज़ायका ख़राब करना था।

विंस्टन ने कहा, "अगर एक काम वह नहीं करती तो मैं उसके साथ बना रह सकता था।" उसने जूलिया को बताया कि कैसे कैथरीन उसे एक तय रात को हर हफ्ते एक भावशून्य हरकत में ज़बरन शामिल कर लेती थी। "इस काम से उसे नफ़रत थी, फिर भी उसे कभी लगा नहीं कि इसे रोक दिया जाए। पता है, वह इसे क्या कहती थी तुम अन्दाज़ा तक नहीं लगा सकतीं।"

जूलिया ने छूटते ही कहा, “पार्टी के प्रति हमारा कर्तव्य।"

"अरे, तुम्हें कैसे मालूम?"

"मेरी जान, मैं स्कूल भी गई हूँ। सोलह बरस से ऊपर वालों के लिए सेक्स-चर्चा चलती थी, महीने में एक बार। युवा मोर्चे में भी। वे बरसों रगड़रगड़ कर सिखा देते हैं आपको यह सब। और कई मामलों में इसके फ़ायदे भी हैं, फिर भी आप पक्का कह नहीं सकते। लोग इतने पाखंडी हैं।"

इसके बाद इस मुद्दे का उसने रायता ही फैला दिया। उसके लिए हर चीज़ अन्तत: उसकी अपनी यौनिकता पर आकर ठहर जाती थी। बस उसे छेड़ने की देर थी, चाहे जैसे भी, फिर उसकी साफगोई देखने लायक़ होती थी। सेक्स के मामले में पार्टी के शुचिता वाले सिद्धान्त को उसने ऐसा घोंटकर पी लिया था कि विंस्टन से कहीं बेहतर इसका अर्थ समझती थी। बात बस इतनी सी नहीं थी कि सेक्स की सहज वृत्ति अपने आप में एक ऐसी दुनिया रच देती है जिस पर पार्टी का नियंत्रण नहीं रह जाता, केवल इसीलिए पार्टी यथासम्भव इसे नष्ट करने पर तुली रहती थी। ज़्यादा बड़ी बात यह है कि सेक्स-वृत्ति के दमन से एक ऐसा उन्माद पैदा होता है जो पार्टी के लिए फ़ायदेमन्द है क्योंकि फिर इस उन्माद को युद्ध की ओर मोड़ा जा सकता है या नेता की भक्ति में ठेला जा सकता है। इस बात को जूलिया ने कुछ यूँ समझाया:

जब हम प्यार करते हैं तो उसमें अपनी ऊर्जा को खपाते हैं। इससे हमें सुख मिलता है। यह सुख हर चीज़ पर भारी होता है। फिर आपको किसी बात की परवाह नहीं होती। वे कभी नहीं चाहेंगे कि आप ऐसा महसूस करो। वे चाहते हैं कि आप हमेशा ऊर्जा से लबरेज रहो। ये जो यहाँ-वहाँ क़दमताल करना, चीखना-चिल्लाना, नारेबाज़ी करना, झंडे हिलाना है, ये सब दबाए गए सेक्स से निकली चिड़चिड़ाहट है। आप यदि अपने में ही खुश हो, तो आपको मोटा भाई या उसकी तीन वर्षीय योजना या दो मिनट की नफ़रत और ऐसी तमाम सड़ी-गली बकवास चीज़ों पर उत्साह क्यों पैदा होगा?

कितनी सही बात थी, विंस्टन ने सोचा। मतलब यौन-शुचिता और भक्ति में कितना सीधा और गहरा रिश्ता है। वरना पार्टी अपने सदस्यों में जिस भय, नफ़रत और सनक की हद तक आस्था को जगाने की उम्मीद रखती है, वह किसी ताक़तवर वृत्ति को दबाए बगैर कैसे सम्भव हो सकता था, क्योंकि उसी का इस्तेमाल तो दूसरे कामों के लिए करना है। ज़ाहिर है, सेक्स की चाह पार्टी के लिए खतरनाक चीज़ है और पार्टी इस बात को अच्छे से समझती है। बिलकुल यही काम इन्होंने माँ-बाप बनने की भावना के साथ किया है। हक़ीक़त यह है कि आप परिवार को ख़त्म नहीं कर सकते, तो एक तरफ़ लोगों को तक़रीबन पुराने तौर-तरीक़ों से प्रोत्साहित किया जाता है कि वे अपने बच्चों को खूब मानें और दूसरी तरफ़ बच्चों को उनके माता-पिता के ख़िलाफ़ तैयार किया जाता है, उनकी जासूसी करना सिखाया जाता है ताकि वे माँ-बाप के किसी भी भटकाव की रिपोर्ट दे सकें। इस तरह एक परिवार अपने आप में विचार पुलिस की विस्तार शाखा बन जाता है। यहाँ परिवार एक ऐसा औज़ार है जिसके माध्यम से रात-दिन हर किसी पर नज़र रखी जा सकती है और मुखबिर परिवार का ही हिस्सा होता है।

विंस्टन को अचानक कैथरीन की याद हो आई। गनीमत है कि वह इतनी मूर्ख थी जो विंस्टन के असली विचारों को नहीं पकड़ सकी वरना जाने कब का उसे विचार पुलिस के हवाले कर देती। उसकी याद आने की असली वजह हालाँकि उस दोपहर पड़ रही ज़बरदस्त गर्मी थी जिससे विंस्टन के माथे पर पसीना आ गया था। ऐसी ही गर्मी की एक दोपहर कोई ग्यारह साल पहले कुछ ऐसा हुआ था या होने से रह गया था, जिसके बारे में वह जूलिया को बताने लगा।

उनकी शादी को तीन-चार महीने बीते थे। वे केंट में एक सामुदायिक सैर पर गए हुए थे और रास्ता भटक गए थे। बमुश्किल कुछ मिनट पीछे रह गए थे वे बाक़ी लोगों से, लेकिन उन्होंने एक गलत मोड़ ले लिया और चलतेचलते चूने की एक पुरानी खदान के पास पहुंच गए। बस दस या बीस मीटर आगे खदान की गहराई थी और नीचे बड़े-बड़े पत्थर थे। वहाँ कोई नहीं था जिससे रास्ता पूछा जा सके। कैथरीन को जैसे ही भनक लगी कि वे रास्ता भटक गए हैं वह बेचैन हो उठी। समूह के हल्ले-गुल्ले से एक पल के लिए भी दूर होना उसके लिए अपराध जैसा था। वह चाहती थी कि जिस रास्ते से वे आए हैं उसी पर लौट जाएँ और दूसरी दिशाओं में खोजने की कोशिश करें। तभी विंस्टन का ध्यान उनके ठीक नीचे पहाड़ी की दरारों में खिले लूजस्ट्राइफ के फूलों के गुच्छों पर गया। एक गुच्छे में बैगनी और गहरे लाल रंग के फूल थे जो एक ही जड़ से पैदा हुए थे। ऐसा फूल उसने ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा था। उसने कैथरीन को यह दिखाने के लिए बुलाया।

"देखो कैथरीन, इन फूलों को देखो! वह वहाँ नीचे जो गुच्छा दिख रहा है। ध्यान से देखो, दो रंग के दिख रहे हैं न?"

वह वापस जाने के लिए पीछे मुड़ चुकी थी, लेकिन आवाज़ सुनकर खीजती हुई पल भर को पास आई। पहाड़ी के किनारे पर झुककर उसने वहाँ देखने की कोशिश भी की जहाँ विंस्टन इशारा कर रहा था। वह उसके थोड़ा पीछे खड़ा था उस वक़्त, तो उसने बस सहारा देने के लिए उसकी कमर पर हाथ रख दिया। विंस्टन को तभी अहसास हुआकि यहाँ वे कितने अकेले थे। दूर-दूर तक एक भी इनसान नहीं था। एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था, न कोई पक्षी। ऐसी जगह पर किसी छिपे माइक्रोफ़ोन के होने की गुंजाइश भी बहुत कम थी। होता भी तो केवल आवाजें पकड़ पाता। दोपहर का सबसे गरम निर्जन पहर था। ऊपर सूरज धधक रहा था, नीचे उसके चेहरे पर पसीना टपक रहा था। तभी से ख़याल आया कि...

“वहीं उसका कार्यक्रम क्यों नहीं लगा दिया तुमने?" जूलिया ने टोकते हुए पूछा, “मैं होती तो निपटा देती।"

“हाँ जान, तुम तो कर ही देतीं। कर तो मैं भी सकता था बशर्ते तब मैं वही होता जो आज हूँ। या शायद, नहीं भी पक्का नहीं कह सकता।"

“तुम्हें अफ़सोस है?"

“हाँ, मोटे तौर पर कह सकते हैं कि अफ़सोस ही है जो मैं कुछ कर नहीं सका।"

धूल भरी फ़र्श पर इस वक़्त वे दोनों अगल-बग़ल बैठे हुए थे। उसने जूलिया को अपने क़रीब खींचा। उसके कन्धे पर जूलिया ने अपना सिर टिका दिया। उसके बालों की भीनी ख़ुशबू कबूतर की बीट पर भारी थी। वह अभी बहुत जवान थी, उसे ज़िन्दगी से अब भी उम्मीदें थीं, विंस्टन ने सोचा। उसे यह बात अभी समझ में नहीं आएगी कि किसी अप्रिय व्यक्ति को पहाड़ी से धक्का दे देने से कुछ हल नहीं होता है।

वह बोला, “वास्तव में उससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता।" "फिर तुम्हें अफ़सोस क्यों है कि नहीं कर पाए?"

"केवल इसलिए क्योंकि मैं नकारात्मक की जगह सकारात्मक काम को बेहतर समझता है। इस खेल में हम जीत तो सकते नहीं। अब हारना ही है, तो ऐसे हारें जो और शिकस्तों से बेहतर हो। बस इतनी सी बात है।"

विंस्टन को लगा कि उसने असहमति में अपने कन्धे उचकाए थे। वह जब भी कोई ऐसी बात कहता, जूलिया हमेशा उसे काटती थी। अकेले व्यक्ति की हमेशा हार होती है, वह इसे कुदरत का क़ानून मानने को तैयार ही नहीं थी। वैसे एक अर्थ में वह भी खुद को अभिशप्त महसूस करती थी कि देर-सबेर विचार पुलिस उसे पकड़कर मार ही देगी, लेकिन खोपड़ी के दूसरे कोने में उसे विश्वास था कि किसी तरह से एक ऐसी गोपनीय दुनिया ज़रूर बनाई जा सकती है जहाँ आप अपने तरीके से ज़िन्दगी जी सकें। वह मानती थी कि इसके लिए बस क़िस्मत, साहस और चतुराई की ज़रूरत है। वह बिलकुल नहीं समझती थी कि ख़ुशी जैसी कोई चीज़ नहीं होती, कि सच्ची जीत आपके मरने के बहुत बाद सुदूर भविष्य में छिपी हुई है, कि पार्टी के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकते ही आपको मान लेना होगा कि आप एक चलती-फिरती लाश हैं।

“हम लोग मर चुके हैं," विंस्टन ने कहा।

"अभी नहीं मरे हैं," जूलिया ने बड़े नीरस ढंग से जवाब दिया।

“शरीर से नहीं। उसमें तो छह महीना, साल भर बहुत हुआतो पाँच साल बाक़ी होंगे। मुझे मौत से डर लगता है। और तुम तो जवान हो, मेरे ख़याल से मुझसे भी ज़्यादा डरती होंगी। वैसे जितना लम्बा चाहे टाल लो, लेकिन उससे बहुत मामूली फ़र्क पड़ता है। आदमी में जब तक इनसानियत कायम है, ज़िन्दगी और मौत बराबर ही है।"

“बकवास! तुम मेरे साथ सोना पसन्द करोगे या कंकाल के साथ? ज़िन्दा रहने में खुशी नहीं मिलती तुम्हें? तुम्हें यह सोचकर अच्छा नहीं लगता कि यह मैं हूँ, यह रहा मेरा हाथ, ये रहे मेरे पैर। मैं वास्तविक हूँ, ठोस हूँ, मैं ज़िन्दा हॅ! बोलो, यह अच्छा नहीं लगता?"

वह गोल घूमकर सीने के बल उस पर टिक गई। विंस्टन को उसकी पुष्ट छाती का अहसास वर्दी के भीतर से ही हुआ। ऐसा लगा कि उसकी देह अपना कुछ यौवन और जोश इसके भीतर उड़ेल रही हो।

“हाँ, अच्छा लगता है," विंस्टन बोला।

"तो मरने-वरने की बातें बन्द करो फिर। और सुनो, मेरी जान, हमें अगली बार मिलने का भी सब तय करना है। हम लोग वापस उसी जंगल में एक बार फिर चल सकते हैं। अच्छा-खासा वक़्त हो गया है वहाँ गए हुए, लेकिन इस बार तुम्हें दूसरे रास्ते से वहाँ जाना होगा। मैंने पूरा खाका बना लिया है। तुम ट्रेन से ही जाओगे, लेकिन मैं बनाकर समझा देती हूँ, इधर देखो।"

फिर बिलकुल माहिर अन्दाज़ में उसने थोड़ी सी धूल बटोरी और कबूतर के घोंसले से गिरे एक तिनके से फ़र्श पर नक्शा बनाने लगी।

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-दूसरा भाग-4

विंस्टन ने मिस्टर चारिंगटन की दुकान के ऊपर वाले जर्जर कमरे में अपनी निगाह दौड़ाई। खिड़की के साथ बिछे हुए विशाल पलंग पर फटे-चिटे कम्बल रखे थे और बिना गिलाफ़ का एक तकिया पड़ा हुआ था। अँगीठी के ऊपर बनी पट्टी पर बारह का घंटा दिखाने वाली पुरानी-धुरानी दीवार घड़ी टिकटिक कर रही थी। कोने में मुड़ने-खुलने वाली टेबल के ऊपर रखा काँच का वह पेपरवेट हल्के धुंधलके में दमक रहा था, जिसे उसने पिछली बार ख़रीदा था।

फेंडर में एक टिन का टूटा-फूटा स्टोव रखा था, एक सॉसपैन था और दो कप थे जो मिस्टर चारिंगटन ने दिए थे। विंस्टन ने बर्नर जलाया और एक पैन में पानी खौलने के लिए उस पर रख दिया। वह एक लिफ़ाफ़ा भरकर विक्टरी कॉफ़ी साथ लाया था और सैकरीन की कुछ टिकिया भी थीं। घड़ी पाँच बजकर बीस मिनट बजा रही थी यानी सही समय सात बजकर बीस मिनट हुआथा। उसे साढ़े सात बजे आना था।

उसका दिल बार-बार कह रहा था कि यह नादानी है-यह जानबूझकर की जा रही आत्मघाती नादानी है। पार्टी का एक आदमी जितने भी क़िस्म के अपराध कर सकता है, उनमें यही इकलौता अपराध था जिसे छिपाना सबसे कम मुमकिन था। वास्तव में यह ख़याल उसके मन में सबसे पहले काँच के पेपरवेट को देखकर कौंधा था जो मुड़ने वाले टेबल की सतह में अपना अक्स बना रहा था। उसे तभी भीतर से लग गया था कि मिस्टर चारिंगटन को यह कमरा उसे देने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी। ऐसा ही हुआ भी। वैसे भी कुछ ऊपरी कमाई से वे खुश ही थे। विंस्टन ने जब उन्हें बताया कि अपनी महबूबा से मिलने के लिए उसे यह कमरा चाहिए तब भी वे न विचलित हुए, न ही उन्हें कोई झटका लगा। इसके बजाय वे उससे बिना आँख मिलाए कहीं बीच में नज़रें टिकाकर ऐसी नज़ाकत से साधारण बातें करने लगे गोया दिखाना चाह रहे हों कि वे तो बीच में कहीं हैं ही नहीं। उन्होंने कहा कि निजता आजकल बड़ी अनमोल चीज़ हो चली है। हर कोई एक ऐसी जगह चाहता है जहाँ वह जब चाहे अकेला रह सके। ऐसी जगह एक बार मिल जाए, तो तीसरा कोई जो इस बारे में जानता हो उसके शिष्टाचार में यह आता है कि बात अपने तक रखे। उन्होंने जब बताया कि वहाँ दो प्रवेशद्वार हैं जिनमें से एक पीछे आँगन में और दूसरा गली में खुलता है, तो ऐसा लगा वे जताना चाह रहे हों गोया उनका अब वजूद ही नहीं है।

खिड़की के नीचे कोई गाना गा रहा था। विंस्टन ने मलमल के परदे की ओट से बाहर झाँककर देखा। जेठ का सूरज आकाश में अब भी चढ़ा हुआथा। नीचे धूप में नहाए आँगन में नॉर्मन शैली के किसी प्राचीन स्तम्भ जैसी ठोस और भद्दी-सी एक औरत कपड़े धोने के टब और अलगनी के बीच पैर पटकती हुई आ-जा रही थी। वह सफ़ेद रंग के ढेर सारे छोटे-छोटे चौकोर कपड़े फैला रही थी। विंस्टन को लगा था ये किसी बच्चे के डाइपर होंगे। उस औरत के मांसल ललछौंह हाथ थे और उसने अपने विशाल शरीर के तक़रीबन बीच में बोरे की तरह एक एप्रन बाँध रखा था। उसके मुंह में जब भी कपड़े सुखाने वाली चिमटियाँ नहीं दबी होती, वह तगड़ी मरदाना आवाज़ में गुनगुनाती :

नाउम्मीद सी इक लज्जत थी
जो चैत की हिद्दत की तरह बीत गई
दो लफ़्ज़ बस एक ख़्वाब इक नज़र की कशिश
इस चाक गरेबान का दिल जीत गई!

यह गीत लंदन में बीते कई हफ़्तों से छाया हुआथा। संगीत विभाग के एक हिस्से में जनता के लिए ऐसे ही अनगिनत गीत रचे जाते थे। इन गीतों को बनाने में किसी इनसान का दिल-दिमाग नहीं लगता था। इन्हें छंदकार नाम की मशीन पर रचा जाता था। इसके बावजूद वह महिला इसे इतनी खूबसूरत धुन में गा रही थी कि ऐसा घटिया कचरा भी सुनने में अच्छा लग रहा था। विंस्टन औरत को गीत गाते सुन रहा था तो बीच-बीच में पत्थर की पटिया पर उसके चप्पल घिसने की आवाज़ आ रही थी, उधर गली में बच्चे शोर कर रहे थे और दूर कहीं ट्रैफ़िक का धुंधला-सा शोर भी आ रहा था। इसके बावजूद वह कमरा एक अजीब-सी शान्ति का अहसास कराता था। और शुक्र है कि वहाँ कोई टेलिस्क्रीन भी नहीं था।

नादानी! मूर्खता! चूतियापा! उसके दिमाग में रह-रह कर यही ख़याल आ रहा था। यह कल्पना से परे था कि वे बिना धराए यहाँ कुछ हफ़्तों तक आ सकेंगे। फिर भी छिपने की एक ऐसी जगह जो नितान्त अपनी हो, बन्द हो और क़रीब भी हो, इसके लोभ में दोनों मरे जा रहे थे। दरअसल, चर्च के घंटाघर में हुई मुलाक़ात के बाद दोनों का मिलना ही नहीं हो पा रहा था। नफ़रत सप्ताह आने वाला था इसलिए काम के घंटे अचानक बढ़ा दिए गए थे। वैसे तो अभी महीने भर से भी ज्यादा का समय बाक़ी था उसमें लेकिन उसके लिए जितने भव्य स्तर पर तैयारियाँ करनी होती थीं उसका बोझ सभी के ऊपर पड़ रहा था। किसी तरह दोनों एक ही दोपहर में ख़ाली वक़्त निकाल सके और उन्होंने उसी जंगल के टीले पर मिलने का तय किया। ठीक एक शाम पहले सड़क पर वे कुछ देर के लिए मिले। भीड़ में दोनों एक-दूसरे की ओर जब आ रहे थे तो हमेशा की तरह विंस्टन उसे देखने से बच रहा था, हालाँकि थोड़ी दूरी से उसने जब एक नज़र मारी तो उसे लगा कि जूलिया थोड़ा मुरझाई हुई है।

जैसे ही जूलिया को लगा कि अब बात करना सुरक्षित होगा, वह बुदबुदाई, “सब नष्ट हो गया। मतलब कल का प्रोग्राम।"

"क्या ?"

“कल दोपहर मैं नहीं आ पाऊँगी।"

"क्यों?"

“वही, पुरानी दिक्क़त। इस बार भी पहले शुरू हो गया।"

थोड़ी देर के लिए विंस्टन को बहुत तेज़ गुस्सा आया। जूलिया से परिचय के बाद बीते एक महीने में उसकी चाहत का रंग बदल गया था। शुरुआत में उसकी कामुकता उतनी सच्ची नहीं थी। पहली बार जब उन्होंने प्यार किया था तो वह केवल इच्छाशक्ति का मामला था। दूसरी बार के बाद हालाँकि चीजें बदल गई थीं।

उसके बालों की खुशबू, उसके होंठों का स्वाद, उसके रोम का अहसास, सब कुछ जैसे विंस्टन के भीतर घुस चुका था और लगातार उसके इर्द-गिर्द इनका अहसास कायम रहता था। एक तरह से वह उसकी शारीरिक ज़रूरत बन गई थी। वह सिर्फ उसे चाहता नहीं था बल्कि उसके ऊपर अपना अधिकार समझने लगा था। इसीलिए जब उसने कहा कि वह नहीं आ पाएगी, तो विंस्टन को ऐसा लगा कि वह उसे धोखा दे रही है लेकिन बिलकुल इसी पल भीड़ के धक्के ने दोनों को और क़रीब ला दिया और उनके हाथ आपस में छू गए। जूलिया ने उसकी उँगलियों के पोरों को अपनी हथेली में एक झटके में भींच लिया, जैसा लाड़-प्यार में किया जाता है। विंस्टन को समझ आया कि एक महिला के साथ रहने के दौरान ऐसी हताशा का होना तो सामान्य बात है, जो बार-बार सामने आएगी। फिर उसे एक गहरी करुणा ने बाँध लिया। ऐसा उसे जूलिया के लिए पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। उसके मन में चाह जागी कि काश! वे दस साल पुराने विवाहित जोड़े होते तो सड़क पर अभी की ही तरह साथ टहल रहे होते लेकिन बिना किसी भय के और खुलकर। फिर वे दुनिया भर की चीज़ों के बारे में बात करते और घर के लिए राशन-पानी ख़रीद रहे होते। उसे सबसे ज़्यादा एक ऐसी जगह की चाह जगी जहाँ अकेले जब वे एक-दूसरे से मिलें, तो हर बार मिलने पर साथ सोने की बाध्यता का अहसास न हो। ठीक उसी पल तो नहीं, बल्कि अगले दिन किसी वक़्त उसके जेहन में चारिंगटन का कमरा किराए पर लेने का ख़याल आया था। जूलिया को जब उसने यह बताया, तो वह अप्रत्याशित रूप से झट तैयार हो गई। दोनों ही जानते थे कि यह पागलपन है लेकिन जानबूझकर वे अपनी मौत को न्योता दे रहे थे। पलंग के किनारे बैठकर जूलिया का इन्तज़ार करते हुए यही सब सोचते-सोचते विंस्टन को प्रेम मंत्रालय के तहखानों का ख़याल आया। कैसी अजीब बात थी कि वह भयावह नियति ज़ेहन में लगातार आती-जाती रहती थी। भविष्य की इबारत उसमें पहले ही लिखी जा चुकी थी और यह उतना ही पक्का था जितना 100 के पहले 99 का आना। इससे बचा नहीं जा सकता था, टाला ज़रूर जा सकता था। इसके बावजूद आप टालने के बजाय हर चंद अपनी हरकतों से उसे और क़रीब खींचते जाते थे।

तभी सीढ़ियों पर तेज़ क़दमों की आवाज़ हुई। जूलिया कमरे में धड़धड़ाते हुए घुसी। उसके हाथ में खुरदरे तिरपाल वाला भूरे रंग का एक औज़ार बैग था, जैसा विंस्टन ने उसे मंत्रालय में एकाध बार लिये हुए देखा था। उसे बाँहों में भरने के लिए वह आगे बढ़ा, पर उसने बहुत तेज़ी से खुद को अलग कर लिया, शायद इसलिए भी कि औज़ारों वाला झोला अब भी उसके पास था।

"बस आधा सेकंड," जूलिया बोली, “देखो, मैं क्या-क्या लाई हँ। तुम वह घटिया वाली विक्टरी कॉफ़ी लाए हो क्या? मुझे लगा था कि तुम ले आओगे। उसको बाद में निपटा लेना, हमें अब उसकी ज़रूरत नहीं है। यह देखो!"

वह घुटनों के बल बैठ गई और झोला खोल दिया। पहले कुछ पाने निकाले, फिर कुछ पेचकश, जो ऊपर भरे पड़े थे। इनके नीचे साफ़-सुथरे कागज़ के कुछ पैकेट थे। विंस्टन को जो पहला पैकेट उसने थमाया उसे कुछ परिचित-सा लगा। उसमें रेत जैसी कोई भुरभुरी चीज़ भरी हुई थी जो जहाँ से पकड़ो लटक जाता था।

"चीनी तो नहीं है?" विंस्टन ने पूछा।

"असली चीनी। सैकरीन नहीं, शुगर। और यह रहा असली सफ़ेद पाव, हमारा वाला फ़र्जी नहीं और यह छोटी-सी जैम की बोतल भी। यह रही दूध की टिन-और यह देखो! असली माल, जिस पर मुझे ख़ास नाज़ है। इसको मुझे बाहर से थोड़ा कपड़े से लपेटना पड़ा क्योंकि..."

बताने की ज़रूरत नहीं थी कि उसने क्यों लपेटा था। उसकी महक कमरे में पहले ही फैल चुकी थी, एकदम गरमागरम सोंधी गंध जो सीधे विंस्टन के बचपन से उठकर आ रही थी लेकिन अब भी कभी-कभार उससे साबका पड़ ही जाता था, जैसे उस दिन पटरी पर चलते हुए वह दरवाज़ा भड़ाक से बन्द होने के पहले या फिर भीड़-भाड़ वाली सड़क पर रहस्यमय तरीके से हवा में घुली हुई, जो एक सेकंड के लिए पता चलती है फिर गायब हो जाती है।

"कॉफ़ी है न," वह बुदबुदाया, “खालिस कॉफ़ी।"

“पार्टी के भीतरी हलकों में पी जाने वाली कॉफ़ी। पूरा एक किलो है मेरे पास।"

“कहाँ से लाई हो यह सब सामान?"

“सब पार्टी के भीतर का माल है। ऐसी कोई चीज़ नहीं जो उन सूअरों के पास न हो, कोई भी चीज़। अब नौकर, बैरे, जनता, उसी में से काट लेते हैं थोड़ा-बहुत, और देखो-चाय का पैकेट भी है।"

विंस्टन उसके बगल में पालथी मारकर बैठ गया। उसने एक पैकेट फाडा।

“यह तो असली चाय है। ब्लैकबेरी वाली नहीं।"

"इधर बीच तो बहुत चाय आई है। इन्होंने इंडिया पर, ऐसा ही कुछ नाम है, वहाँ पर कब्जा कर लिया है।" उसने लापरवाही से कहा। "अच्छा सुनो, तीन मिनट के लिए अपनी पीठ मेरी ओर कर लो और बिस्तर पर उधर जाकर बैठ जाओ। खिड़की के बहुत पास मत जाना। जब तक मैं बोलूँ नहीं, पलटना मत।"

अनमने भाव से विंस्टन ने मखमल के परदे की ओट में से फिर नीचे झाँका। नीचे आँगन में ललछौंह बाँहों वाली औरत अब भी अलगनी और टब के बीच चहलक़दमी मचाए हुए थी। उसने अपने मुँह में दबी दो चिमटियाँ निकाली और डूबकर गाने लगी :

वक़्त हर घाव सुखा देता है
आदमी चाहे भुला देता है
उम्र भर का तमाम दर्द-ओ-सूकँ
दिल के तारों को जगा देता है!

यह बेहूदा गाना, लगता था उसे पूरा याद था। उसकी मधुर आवाज़ हल्की गर्म हवा के साथ जैसे ऊपर को उठती थी। उसमें एक गहरी उदासी थी, जो बीते दिनों की सुखद स्मृतियों का भी अहसास कराती थी। उसे देखकर यह भाव आता था कि जून की यह शाम अगर कभी न ढले और उसके पास सुखाने को अनंत कपड़े हों, तो वह अगले हज़ार साल तक ऐसे ही घटिया गीत गाते हुए डाइपर धोकर एकदम सन्तुष्ट रह सकती है। अचानक उसे एक अजीबोगरीब बात याद पड़ी कि उसने कभी पार्टी के किसी सदस्य को अकेले में ऐसे ही गुनगुनाते हुए नहीं सुना। हो सकता है इसे अपरम्परागत माना जाता हो क्योंकि यह तो खुद से बात करने जैसा हुआ, जो कि ख़तरनाक रूप से असामान्य बात है। इसीलिए शायद उन्हीं के पास गाने को कुछ होता है जिनके पेट नहीं भरे, जो गरीब-भूखे-नंगे होते हैं।

“अब तुम पीछे मुड़ सकते हो," जूलिया बोली।

वह पीछे मुड़ गया, और सेकंड भर को उसे पहचान ही नहीं पाया। उसने तो उम्मीद की थी कि वह निर्वस्त्र होगी, लेकिन ऐसा नहीं था। कहीं ज़्यादा हैरत में डालने वाली चीज़ हुई थी। उसने अपना चेहरा पोत लिया था।

क्या जाने यहीं जनता के इलाके में किसी दुकान पर जाकर मेक-अप का सारा सामान न बटोर लाई हो। उसके होंठ भयंकर लाल थे, गालों में महावर लगा था, नाक पर पाउडर। यहाँ तक कि आँखों के नीचे भी जाने क्या लगाया था उसने कि वे और चमक रही थीं। यह सब बहुत करीने से नहीं किया गया था, लेकिन विंस्टन भी इन मामलों में कौन सा बड़ा पारखी था। उसने पार्टी की किसी औरत को चेहरे पर रँगाई-पुताई किए न कभी देखा था न इसकी कल्पना की थी। जूलिया का चेहरा हालाँकि ग़ज़ब का निखर आया था। कुछेक सही जगहों पर हल्के से रंग-रोगन ने न सिर्फ उसे और सुन्दर बना दिया था, बल्कि कहीं ज़्यादा ज़नाना बना दिया था। इस धज में उसके छोटे बाल और मरदाना वर्दी चार चाँद लगा रहे थे। उसने जैसे ही जूलिया को अपनी बाँहों में भरा, उसकी नाक में जैसे गाढ़े नक़ली गंध का सैलाब सा आ गया। उसे बेसमेंट वाली रसोई का धुंधलका और उस औरत का गुफानुमा मुँह याद आ गया। जूलिया ने बिलकुल वही इत्र लगाया था, लेकिन फ़िलहाल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था।

"इत्र भी?" उसने पूछा।

“हाँ मेरी जान, इत्र भी। और जानते हो मैं और क्या करने जा रही हँ? मैं जा रही हूँ लड़कियों वाली फ्रॉक का जुगाड़ करने। इस बकवास पैंट की जगह वही पहनूंगी। मैं सिल्क की जुराबें और ऊँची हील वाले जूते भी पहनूँगी। कम से कम इस कमरे में मैं पार्टी कॉमरेड नहीं, औरत रहूँगी।"

दोनों ने अपने कपड़े हवा में उछाल दिए और महोगनी की लकड़ी वाले विशाल पलंग पर कूद गए। पहली बार उसने जूलिया के सामने खुद को निर्वस्त्र किया था। अब तक वह अपने कमज़ोर छरहरे शरीर को लेकर बहुत शर्मिन्दा रहा करता था, उस पर से पिंडलियों की उभरी हुई नसें और टखने पर दाग़| पलंग पर चादर नहीं थी लेकिन जिस कम्बल पर वे लेटे थे वह तार-तार हो चुका था इसलिए मुलायम जान पड़ता था। पलंग के आकार और उसकी लचक से दोनों ही हतप्रभ थे।

जूलिया ने कहा, “पक्का इसमें खटमल भरे पड़े हैं, लेकिन किसको फ़र्क पड़ता है?" आजकल वैसे भी डबल बेड कहीं नहीं दिखता था, केवल जनता के घरों में होता था। विंस्टन जब किशोर था तो ऐसे पलंग पर एक बार सोया था। जूलिया को जहाँ तक याद पड़ता है, वह कभी ऐसे बिस्तर पर नहीं सोई थी।

दोनों को थोड़ी देर के लिए नींद आ गई। विंस्टन की नींद खुली तो घड़ी में क़रीब नौ बज रहे थे। वह हिला नहीं क्योंकि जूलिया का सिर उसकी बाँह पर था। उसका अधिकतर मेक-अप विंस्टन के चेहरे पर या तकिये पर लग गया था। हल्का सा महावर अब भी उसके गालों पर था जिससे गाल की हड्डी उभरकर खूबसूरत दिखती थी। डूबते सूरज की पीली किरन पलंग के पाए पर पड़ रही थी और अँगीठी वाली जगह को रोशन कर रही थी, जहाँ पैन में पानी उबल रहा था। नीचे आँगन से महिला के गाने की आवाज़ आना बन्द हो चुकी थी लेकिन सड़क पर खेल रहे बच्चों का हल्का शोर आ रहा था। उसे आश्चर्य हुआकि मिटा दिए गए अतीत में गर्मियों की शीतल शाम बिस्तर में ऐसे ही पड़े रहना क्या आम बात होती रही होगी-एक आदमी और एक औरत का निर्वस्त्र होना, जब चाहे प्रेम करना, जो चाहे बातें करना, उठने की कोई बाध्यता महसूस न होना, बस ऐसे ही पड़े रहना और बाहर से आती आवाज़ों को चुपचाप सुनते रहना? पक्का ही ऐसा कोई समय तो नहीं रहा होगा जब यह सब सामान्य बात होती हो? जूलिया जग गई, उसने अपनी आँखें मली और कहनी के बल उठकर स्टोव को देखने लगी।

“आधा पानी तो उबलकर उड़ गया," वह बोली। “मैं उठकर बस तुरन्त कॉफ़ी बनाती हैं। अभी हमारे पास एक घंटा बचा है। तुम्हारे फ़्लैट में बिजली कितने बजे काटते हैं?"

“साढ़े ग्यारह।"

"हमारे हॉस्टल में तो ग्यारह बजे का टाइम है, लेकिन हमें उससे पहले अन्दर जाना होता है क्योंकि-अरे! बाहर निकल, घिनौने प्राणी!"

वह अचानक बिस्तर में घूमी, फ़र्श से उसने एक जूता उठाया और एक झटके में उसे कोने में उछाल दिया, बिलकुल वैसे ही जैसे उस सुबह दो मिनट के नफ़रत सत्र में गोल्डस्टीन पर उसे शब्दकोश फेंकते हुए विंस्टन ने देखा था।

वह चौंकते हुए बोला, “क्या था?"

“एक चूहा। मैंने दीवार की पट्टी में से अपनी गन्दी नाक निकालते हुए उसे देख लिया था। वहाँ नीचे एक छेद है। खैर छोड़ो, मैंने ठीक-ठाक डरा दिया उसे।"

विंस्टन बुदबुदाया, “चूहे? इस कमरे में?"

वापस लेटते हुए लापरवाही से जूलिया ने कहा, "चूहे तो भरे पड़े हैं हर जगह। हमारे हॉस्टल की रसोई में भी हैं। लंदन के कुछ हिस्से तो चूहों से बजबजा रहे हैं। तुम्हें पता है कि वे बच्चों पर हमला करते हैं? हाँ, यह सच है। कुछ सड़कों पर तो औरतें अपने बच्चों को दो मिनट भी अकेला नहीं छोड़ती हैं। वे बड़े वाले जो घूस होते हैं न भूरे रंग के, वह हमला करते हैं। सबसे बुरा तो यह होता है कि ये जानवर हमेशा..."

“अब रहने भी दो!" विंस्टन ने कहा। उसकी आँखें मिंची हुई थीं। “जानेमन, तुम्हारा तो चेहरा ही सफ़ेद पड़ गया। क्या बात है? तुम्हें चूहों से बहुत डर लगता है क्या?"

"दुनिया की सारी डरावनी चीज़ों में सबसे ज़्यादा-चूहों से।"

उसने विंस्टन के शरीर पर अपना वज़न दिया और अपने हाथों-पैरों के घेरे में उसे ले लिया, जैसे अपनी देह की गर्मी से उसे सांत्वना दे रही हो। विंस्टन ने तुरन्त आँखें नहीं खोलीं। काफी देर तक उसे उस दुःस्वप्न का अहसास घेरे रहा जो उसने ज़िन्दगी में बार-बार देखा था। इस बार भी बिलकुल वैसा ही हुआ था। उसके ठीक सामने अँधेरे की एक दीवार थी और दूसरी ओर कुछ ऐसा था जो नाक़ाबिले-बरदाश्त था, कुछ भयंकर डरावना जिसका सामना नहीं किया जा सकता था। सपने में हमेशा ही उसके भीतर का सबसे गहरा अहसास ऐसा होता गोया वह खुद को धोखा दे रहा हो। उसे वास्तव में पता था कि अँधेरे के पीछे क्या चीज़ है, लेकिन बहुत मेहनत करके इस बात को वह अपने दिमाग से बाहर निकाल पाता था और जब नींद टूटती, तो वह आश्वस्त होता कि उसने उस चीज़ को देखा नहीं। जब उसने जूलिया को बीच में टोका था, तो दरअसल उसकी कही बात के साथ उसके सपने वाला डर कहीं न कहीं जुड़ गया था।

“सॉरी,” उसने कहा, “कुछ नहीं, बस मुझे चूहे पसन्द नहीं हैं, इतनी सी बात है।"

“तुम चिन्ता मत करो मेरी जान, यहाँ इस कमरे में अब एक भी चूहा नहीं रहेगा। मैं जाने से पहले उस छेद को बोरे से भर दूंगी। अगली बार जब हम आएँगे तो मैं क़ायदे से वहाँ प्लास्टर मार दूंगी।"

शुरुआती सदमे से तो वह उबर गया था, लेकिन थोड़ी शर्मिन्दगी महसूस करते हुए उठकर पलंग के सिरहाने टेक लगाकर बैठ गया। जूलिया बिस्तर से उतरी, उसने अपनी वर्दी पहनी और कॉफ़ी बनाई। सॉसपैन से उठती महक इतनी तेज़ और मादक थी कि उन्होंने खिड़की बन्द कर ली ताकि बाहर किसी को शक न हो जाए। कॉफ़ी के स्वाद से कहीं बेहतर उसकी वह मखमली बुनावट थी जो चीनी के चलते आ गई थी। बरसों से सैकरीन का आदी रहा विंस्टन इसे तक़रीबन भूल ही चुका था। जूलिया अपना एक हाथ जेब में डाले और दूसरे में ब्रेड-जैम लिये कमरे का चक्कर लगा रही थी, किताब की अलमारी को बेरुखी से देख रही थी, मुड़ने वाले टेबल की मरम्मत का बढ़िया तरीक़ा सुझा रही थी, जर्जर आरामकुर्सी में फँसकर उसका जायज़ा ले रही थी और बड़ी दिलचस्पी के साथ बारह घंटे वाली अटपटी दीवारघड़ी को देख रही थी। फिर वह काँच वाला पेपरवेट बेहतर रोशनी में देखने के लिए लेकर बिस्तर पर आई। विंस्टन ने उसके हाथ से वह ले लिया और हमेशा की तरह ओस की बूंदों जैसे नरम काँच की आभा से रोमांचित हो उठा।

"तुम्हारे हिसाब से यह क्या चीज़ है?" जूलिया ने पूछा।

“मेरे ख़याल से यह कोई चीज़ नहीं है मेरा मतलब, कभी इसे उपयोग में लाया ही नहीं गया। यही बात इसके बारे में मुझे अच्छी लगती है। यह इतिहास का एक छोटा सा ऐसा अंश है जिसे वे बदलना भूल गए। इसमें सौ साल पहले का एक सन्देश छिपा है, बशर्ते किसी को पढ़ना आता हो।"

"और वह चित्र वहाँ पर" जूलिया ने सामने वाली दीवार की नक़्क़ाशी पर चेहरे से इशारा किया-“क्या वह भी सौ साल पुराना होगा?"

“ज़्यादा। मैं कहूँ तो दो सौ साल। वैसे कोई नहीं बता सकता। आजकल किसी भी चीज़ की उम्र का पता करना असम्भव है।" वह उसे देखने वहाँ चली गई। “यहीं उस चूहे ने अपनी नाक बाहर निकाली थी,” और ऐसा कहते हुए चित्र के नीचे दीवार की पट्टी पर एक लात मार दी। “यह कौन सी जगह हैं? लगता है मैंने पहले कहीं देखा है इसे?"

“यह एक चर्च है, या कहें पहले हुआ करता था। इसका नाम था सेंट क्लीमेंट डेन्स।"

मिस्टर चारिंगटन ने उसे जो कविता की पंक्ति सुनाई थी उसे याद आ गई। थोड़ा याद करते हुए उसने कहा :

सेंट क्लीमेंट की घंटियाँ, बोलें नीबू और नारंगियाँ।

विंस्टन हतप्रभ रह गया जब जूलिया ने आगे की पंक्ति इसमें जोड़ दी :

सेंट मार्टिन की घंटियाँ, माँगें मेरी तीन दमड़ियाँ,
कब चुकाओगे मेरे पैसे तुम? बोलें ओल्ड बेली की घंटियाँ...

याद नहीं इसके आगे कैसे है, लेकिन इसका अन्त मुझे याद है, “ये शमा तुम्हें सुला देगी, ये छुरी तुम्हें मिटा देगी!"

विंस्टन को लगा जैसे कविता का दूसरा सिरा मिल गया हो, लेकिन 'ओल्ड बेली की घंटियाँ' के बाद भी कोई पंक्ति होगी। हो सकता है चारिंगटन से ज़िक्र करें तो उनकी स्मृति से खोदकर इसे निकाला जा सके।

विंस्टन ने पूछा, “तुम्हें किसने सिखाई ये कविता?"

“मेरे दादा ने। मैं जब छोटी बच्ची थी तो वे मुझे सुनाया करते थे। मैं आठ साल की थी जब उन्हें भाप बनाकर उड़ा दिया गया अब चाहे जो हुआ हो, लेकिन वे गायब हो गए। पता नहीं नीबू कैसे होते होंगे,” असम्बद्ध ढंग से उसने कहा, “सन्तरे तो देखे हैं मैंने, वे पीले और गोल फल होते हैं जिसका छिलका मोटा होता है।"

विंस्टन बोला, “मुझे नीबू याद है। पचास के दशक में तो बहुत आम हुआ करता था। इतना खट्टा होता था कि बस सूंघने भर से दाँत कोठ हो जाएँ।"

“पक्का बता रही हूँ उस चित्र के पीछे कीड़े हैं। किसी दिन उसे उतारकर मैं अच्छे से साफ़ कर दूंगी। मेरे ख़याल से निकलने का वक़्त हो चला है। मुझे अपना चेहरा साफ़ करना चाहिए। क्या वाहियात काम है! इसके बाद तुम्हारे चेहरे से मैं लिपस्टिक साफ़ कर दूंगी।"

विंस्टन कुछ देर और बैठा रहा, उठा नहीं। कमरे में अँधेरा हो रहा था। वह बची-खुची रोशनी की ओर झुका और पेपरवेट के भीतर झाँकने लगा। उसके भीतर जमा प्रवाल उतना दिलचस्प नहीं था जितना खुद काँच का भीतरी हिस्सा था। क्या तो गहराई थी, फिर भी हवा की मानिंद पारदर्शी। यह कुछ ऐसे था मसलन काँच की सतह आकाश का चाप हो जो समूचे वातावरण समेत एक छोटी-सी दुनिया को अपने भीतर समोए हुए है। उसे अहसास हुआ कि वह उसके भीतर जा सकता है, बल्कि भीतर ही तो है और उसके साथ महोगनी की लकड़ी का पलंग और मुड़ने वाली टेबल, दीवारघड़ी, स्टील की नक़्क़ाशी और खुद पेपरवेट, सब के सब भीतर हैं। यह पेपरवेट ही उसका कमरा है जिसमें वह बैठा हुआ है और जूलिया की ज़िन्दगी उसके भीतर जमा प्रवाल। उसकी खुद की ज़िन्दगी उस काँच के बीचोबीच काल के अनन्त प्रवाह में जमी पड़ी है।

  • 1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-दूसरा भाग-अध्याय 5-9
  • 1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-अध्याय 7-8
  • मुख्य पृष्ठ : जॉर्ज ऑरवेल : उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां हिन्दी में
  • ब्रिटेन की कहानियां और लोक कथाएं
  • भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां