1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल

1984 (Novel in Hindi) : George Orwell

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-7

अगर कहीं उम्मीद है, विंस्टन ने लिखा, तो वह सर्वहारा में है।

अगर कहीं उम्मीद बची है तो वह सर्वहारा में ही होगी क्योंकि उस तुच्छ उपेक्षित जनता की बजबजाती भीड़ में जो ओशियनिया की आबादी का 85 फीसद थी ही पार्टी का खात्मा करने की ताक़त पैदा की जा सकती थी। पार्टी को भीतर से उखाड़ पाना सम्भव नहीं था। पार्टी के दुश्मनों के पास ऐसा कोई तरीक़ा नहीं था कि वे एक साथ एकजुट हो सकें, यहाँ तक कि दूसरे की शिनाख्त कर पाएँ। जिस ब्रदरहुड की बात की जाती थी यदि वह वाक़ई वजूद में था भी, सम्भव है कि रहा भी हो, तो इसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि उसके सदस्य दो-तीन को छोड़कर कभी बड़ी संख्या में एकत्रित हो पाएँगे। यहाँ तो निगाह का एक रुख, आवाज़ की एक सिहरन और महज़ एक फुसफुसाहट ही बगावत का सबब बन जाती थी। लेकिन जनता को अगर किसी भी तरह अपनी ताक़त का अन्दाज़ा लग जाए, तो उसे कोई साज़िश रचने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। उसे तो बस उठ खड़ा होना था और एक अदद हरकत कर देनी थी, जैसे कोई घोड़ा मक्खियों से पीछा छुड़ाने के लिए अपनी देह को झटक देता है। वे अगर चाह लेते तो अगली सुबह ही पार्टी के टुकड़ेटुकड़े कर देते। आज नहीं तो कल या कभी भी क्या उन्हें यह महसूस होगा कि ऐसा कर देना चाहिए? फिर भी...

उसे याद आया एक वाक़या जब वह भीड़ भरी एक सड़क से गुज़र रहा था कि अचानक सैकड़ों औरतों की आवाज़ एक साथ उसे सुनाई दी–थोड़ा आगे जाकर बगल वाली एक सड़क से वे आवाजें फूट रही थीं। ज़बरदस्त गुस्से और दर्द से भरी आवाजें थीं। बहुत तीक्ष्ण सामूहिक चीत्कार, जो किसी घंटे के बजने के बाद देर तक सुनाई देने वाली प्रतिध्वनि की तरह “ॐ...हॅ...हॅ..." करके गूंज रही थी। उसका दिल कुलाँचे मार रहा था। उसके मन में ख़याल आया-दंगा...लगता है शुरू हो गया। जनता आख़िर हत्थे से उखड़ ही गई। मौके पर पहुँचकर उसने देखा कि कोई दो-तीन सौ की संख्या में औरतें बाज़ार की दुकानों को घेरे ऐसे बदहवास खड़ी हैं गोया वे किसी डूबते हुए जहाज़ पर सवार हों। ठीक इसी मौके पर सामूहिक अवसाद छोटे-छोटे फसादों में बदल गया। पता चला कि वहाँ एक दुकान पर टिन के सॉसपैन बिकते थे। उसके पैन भले ख़राब और कमज़ोर रहे हों, लेकिन आजकल तो खाना पकाने के बरतन मिलना ही मुश्किल था। ऐसे में उस दुकान में अचानक माल ख़त्म हो गया था। कुछ औरतें जिनके हाथ सॉसपैन लग गए थे उन्हें दूसरी औरतों ने घेर लिया था और धक्का-मुक्की कर रही थीं। वे दुकानदार पर पक्षपात का आरोप लगा रही थीं। उनका कहना था कि उसने कहीं गोदाम में और पैन छिपा रखे हैं। अचानक चीख़-चिल्लाहट फिर से शुरू हो गई। दो मोटी औरतें, जिनमें से एक के बाल खुलकर लटक गए थे, अपने हाथ लगे एक सॉसपैन को एक-दूसरे से झपटने में लगी हुई थीं। कुछ देर खींचातानी चलती रही और इसी चक्कर में उसका हैंडिल टूटकर हाथ में आ गया। विंस्टन उन्हें वितृष्णा से देख रहा था। वह सोच रहा था कि थोड़ी ही देर पहले दूर से जब इन सैकड़ों औरतों की सामूहिक आवाजें सुनाई दी थीं तो वे कितनी ताक़तवर जान पड़ती थीं। ये औरतें आख़िर किसी सार्थक मुददे पर इतना हल्ला क्यों नहीं मचा पाती हैं?

उसने लिखा:

वे बग़ावत तब तक नहीं करेंगे जब तक उनमें चेतना नहीं आ जाती। एक बार वे बगावत कर बैठे तो उनकी चेतना हर ली जाएगी।

लिखने के बाद उसे लगा कि यह तो पार्टी की एक किताब में लिखे एक वाक्य की तक़रीबन नक़ल जैसा हो गया, चूँकि ज़ाहिर तौर पर पार्टी यह दावा करती थी कि उसने जनता को गुलामी से मुक्त करवाया है। पार्टी बताती थी कि क्रान्ति से पहले पूँजीपति लोग जनता का ज़बरदस्त उत्पीड़न करते थे। उन्हें भूखा रखा जाता था और बेंतों से मारा जाता था। औरतों से कोयले की खदानों में काम करवाया जाता था (यह और बात है कि औरतें आज भी कोयले की खदानों में काम करती हैं)। छह साल के मासूम बच्चों को कल-कारखानों में काम के लिए बेच दिया जाता था। यह बताने के साथ ही पार्टी दोरंगेपन के अपने फ़लसफ़े का पालन करते हुए यह भी सिखाती थी कि आम सर्वहारा जनता स्वाभाविक रूप से नीच होती है जिसे जानवरों की तरह बाँधकर रखा जाना चाहिए। इसके लिए बस कुछ सरल नियम-कानूनों की ज़रूरत होगी। वास्तव में आम लोगों के बारे में जानकारी बहुत कम थी। और बहुत कुछ जानने की ज़रूरत भी नहीं थी। वे जब तक चुपचाप खटते रहें और बच्चे पैदा करते रहें, उनकी दूसरी गतिविधियाँ ख़ास मायने नहीं रखती थीं। उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया गया था, जैसे अर्जेंटीना के मैदानों में मवेशियों को खुला छोड़ दिया जाता है। ऐसे में उन्होंने जो जीवन शैली अपना ली थी वह उन्हें स्वाभाविक जान पड़ती थी गोया पूर्वजों के ज़माने का चलन हो। वे पैदा होते थे, गटर में बड़े होते थे, बारह साल की उम्र में काम पर लग जाते थे, फिर सौन्दर्य और कामवासना के एक संक्षिप्त दौर से गुज़रकर थोड़ा खिलते थे और बीस की उम्र में ब्याह कर लेते थे। तीस तक आते-आते आधी ज़िन्दगी बीत जाती और साठ के आसपास पहुँचकर ज़्यादातर मर जाते थे। उनकी मानसिक बनावट कठिन शारीरिक परिश्रम, घर-बार और बच्चों की देखभाल, पड़ोसियों से झगड़ा-झंझट, फ़िल्मों, फुटबॉल, बीयर और इन सबके ऊपर भारी जुए से मिलकर तैयार होती थी। इसलिए उन्हें काबू में करना ज़्यादा मुश्किल काम नहीं था। हमेशा ही उनके बीच विचार पुलिस के एकाध एजेंट घूमते रहते थे जिनका काम अफ़वाहें फैलाना और पहचानकर ऐसे लोगों को निपटाना था जो भविष्य में ख़तरनाक साबित हो सकते थे, हालाँकि पार्टी की विचारधारा को उनके बीच फैलाने की कोई कोशिश नहीं की जाती थी। माना जाता था कि जनता के बीच राजनीतिक भावनाएँ प्रबल नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह ठीक नहीं है। कुल मिलाकर उनसे एक आदिम क़िस्म की देशभक्ति की अपेक्षा होती थी जिसे ज़रूरत पड़ने पर उभारा जा सके, चाहे वह काम के लम्बे घंटों को स्वीकार करने का मामला हो या फिर राशन में कटौती का सरकारी फ़ैसला। कभी-कभार वे असन्तुष्ट भी हो जाते थे। ऐसे में उनका असन्तोष उन्हें कहीं पहुँचाने के क़ाबिल नहीं होता था क्योंकि किसी सामान्य विचार के अभाव में वे केवल छोटी-मोटी टुच्ची शिकायतों पर ही खुद को केन्द्रित कर पाते थे। बड़ी समस्याएँ उनकी नज़र से ओझल ही रहती थीं। ज़्यादातर लोगों के घरों में तो टेलिस्क्रीन भी नहीं थी। यहाँ तक कि सामान्य पुलिस भी उनसे कम ही उलझती थी। वैसे तो लंदन में जुर्म की दुनिया बहुत बड़ी थी। चोरों, डकैतों, वेश्याओं, नशे के तस्करों और हर क़िस्म के गिरोहबाज़ों की अपनी-अपनी परतदार दुनिया थी। इसके बावजूद जो कुछ भी घटता था वह सब आम जनता के बीच ही सीमित रह जाता था, इसलिए उसकी कोई अहमियत नहीं थी। नैतिकता के मसलों पर उन्हें अपने पूर्वजों के तय किए रिवाजों को अपनाने की पूरी छूट थी। पार्टी की यौन शुचिता जनता पर लागू नहीं होती थी। व्यभिचार दंडनीय नहीं था और तलाक़ देने की छूट थी। इस लिहाज़ से देखें तो पूजा-पाठ की छूट भी दी ही जा सकती थी यदि जनता इसकी ज़रूरत या चाह ज़ाहिर करती। ये लोग सन्देह के घेरे से बाहर थे। पार्टी ने इनके लिए एक नारा रचा था : “जनता और जानवर मुक्त हैं।"

विंस्टन ने नीचे झुककर सावधानी से अपने टखने का घाव खुजाया की। उसमें फिर से खुजली मच रही थी। सब कुछ सोचते हुए आदमी घूम-फिर कर अन्तत: एक ही नतीजे पर पहुँचता था कि क्रान्ति से पहले जिन्दगी वास्तव में कैसी रही होगी यह जानना नामुमकिन था। उसने दराज से बच्चों की इतिहास की एक किताब बाहर निकाली जो मिसेज पारसन्स से माँगकर लाया था और उसमें से एक अंश डायरी में उतारने लगा :

महान क्रान्ति से पहले पुराने दिनों में लंदन वैसा खूबसूरत शहर नहीं था जैसा आज हम जानते हैं। यह एक अँधेरी, गन्दी और दयनीय जगह हुआ करती थी जहाँ खाने के लिए बमुश्किल ही किसी के पास पर्याप्त होता था और जहाँ सैकड़ों-हज़ारों लोगों के पैरों में जूते तक नहीं होते थे, न ही सोने के लिए सिर पर कोई छत। तुम्हारी उम्र के बच्चों को जालिम मालिकान के लिए बारह-बारह घंटे काम करना पड़ता था जो धीरे काम करने पर कोड़े मारता था और खाने को बासी रोटी के टुकड़े और पानी के अलावा कुछ नहीं देता था। चौतरफ़ा फैली इस गरीबी के बीच कुछेक भव्य और खूबसूरत मकान थे जिनमें रईस लोग रहते थे जिनके यहाँ देखभाल के लिए तीस-तीस नौकर-चाकर हुआ करते थे। उन रईसों को पूँजीपति कहा जाता था। सामने वाले पन्ने पर जैसी तस्वीरें बनी हैं, वे लोग वैसे ही मोटे, भददे और शैतानी चेहरे वाले हुआ करते थे। आप देख सकते हो कि वे लम्बे काले कोट पहनते थे जिसे फ्रॉककोट कहा जाता था और उनके सिर पर एक अजीब किस्म की चिमनीनुमा चमकदार टोप होती थी जिसे लम्ब टोप कहा जाता था। यही पूँजीपतियों की वर्दी हुआ करती थी। कोई और इसे नहीं पहन सकता था। दुनिया की हर चीज़ पूँजीपतियों की थी और बाक़ी हर कोई इनका गुलाम था। सारी ज़मीनें, सारे मकान, सारे कारखाने और सारा पैसा उनका था। कोई अगर इनकीनाफ़रमानी करतातो उसे जेल में डाल दिया जाता था या फिर वे उसे नौकरी से निकाल देते और भूखा मार देते थे। कोई आम आदमी जब किसी पूँजीपति से बात करता था तो उसे झुककर बात करनी होती थी और ऐसा करते वक़्त अपनी टोपी उतारकर 'सर' बोलना होता था। सारे पूँजीपतियों के प्रधान को राजा कहते थे और...

इसके आगे की कहानी उसे मालूम थी। पूरी ढीली बाजू के परिधान पहनने वाले बिशप, अर्मीन का लबादा ओढ़ने वाले जज, दंड देने के लिए सिर और हाथ फँसाने वाली काठ की टिकठी, पैर फँसाने वाली टिकठी, जेल की चक्की, कई सोंटों वाला कोड़ा, लॉर्ड मेयर की भव्य दावत, पोप के चरण चूमने की रवायत–इन्हीं सब चीज़ों का ज़िक्र आना था। इसके अलावा 'प्रथम रात्रि अधिकार' नाम की भी एक रवायत होती थी जो शायद बच्चों की किताबों में नहीं डाली गई होगी। यह एक ऐसा क़ानून था जो हर पूँजीपति को उसके कारखाने में काम करने वाली औरत के साथ सोने का अधिकार देता था, खासकर शादी के बाद पहली रात को।

अब समस्या यह है कि आप कैसे पक्के तौर पर बता सकते हैं कि इसमें से कितना झूठ है और कितना सही? बहुत मुमकिन है कि क्रान्ति से पहले के दौर के मुक़ाबले एक औसत आदमी आज की तारीख़ में बेहतर ज़िन्दगी जी रहा हो। इसे गलत साबित करने के लिए अगर कोई इकलौता सबूत हो सकता है तो वह है आपकी हइडियों के भीतर चल रहा आन्दोलन लगातार भीतर चल रहा बेचैनी भरा अहसास कि आज जिन स्थितियों में आप जी रहे हैं वे नाक़ाबिले बरदाश्त हैं और कोई तो ऐसा वक़्त रहा ही होगा जब चीजें अलहदा रही होंगी। उसे एक बात कौंधी कि आधुनिक जीवन का सही-सही लक्षण उसमें निहित क्रूरता और असुरक्षा नहीं है, बल्कि उसका उजाड़, उसका मालिन्य और खालीपन से भरी उदासी है। आदमी खुद को ही पलटकर देखे, तो ज़िन्दगी वैसी बिलकुल नहीं है जैसे झूठ लगातार टेलिस्क्रीन उगलती रहती है। यही नहीं, वास्तव में पार्टी जिन आदर्शों को हासिल करने में लगी हुई है, उनका भी हक़ीक़त में ज़िन्दगी से कोई वास्ता नहीं है। यहाँ तक कि पार्टी के सदस्यों की ज़िन्दगी का भी मोटा हिस्सा बुनियादी रूप से अराजनीतिक और उदासीन ही है। उनकी सारी कवायद नीरस कामों में खटने से लेकर ट्यूब में अपनी जगह पाने के लिए झगड़ने, फटे-चीथड़े जुराबों को रफू करने, सैकरीन की टिकिया माँगने और सिगरेट का अन्तिम टुकड़ा बचा ले जाने तक सीमित है। पार्टी ने जो आदर्श गढ़े थे वे बहुत भव्य थे स्टील और कंक्रीट से बनी, दानवाकार मशीनों और हौलनाक हथियारों की एक जटिल व दमकती हुई दुनिया सम लय पर एक साथ आगे की ओर क़दमताल करते, एक ही जैसा सोचते और एक ही जैसे नारे लगाते हुए योद्धाओं और उन्मादियों का एक ऐसा राष्ट्र जो लगातार काम पर लगा हुआ है, लड़ रहा है, जीत रहा है और सजाएँ दे रहा है। कुल तीस करोड़ लोग, सभी का चेहरा एक। इसकी हक़ीक़त उन जर्जर व गन्दे शहरों में दिखती थी जहाँ फटे हुए जूतों में चहलकदमी करते कुपोषित लोग उन्नीसवीं सदी के पैबन्द लगे ऐसे मकानों में रहते थे जिनसे करमकल्ले और टट्टी-पेशाब की बास आती थी। उसके मन में लंदन की छवि विस्तीर्ण खंडहर के जैसी उभरती थी जो लाखों कूड़ेदानों का एक शहर था। इसी छवि के बीच उसे मिसेज पारसन्स भी दिखाई देती थीं-सिलवटदार चेहरे और पतले बालों वाली निस्सहाय महिला जो बन्द नाबदान की मोरी खोलने में ही उलझी हुई है।

उसने नीचे झुककर फिर से टखने खुजलाए। दिन-रात चौबीसों घंटा टेलिस्क्रीन से निकल रहे आँकड़ों का सीसा कानों में घुलते रहते थे और साबित करने की कोशिश करते थे कि लोगों के पास आज ज़्यादा खाना, ज़्यादा कपड़े, बेहतर मकान, मनोरंजन के बेहतर साधन उपलब्ध हैं; कि लोग अब लम्बा जी रहे हैं, उनके काम के घंटे कम हो गए हैं, वे अब ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट, मज़बूत, स्वस्थ, सुखी, बुदधिमान हो चुके हैं और पचास साल पहले के मुकाबले उन्हें अब बेहतर शिक्षा मिल रही है। इस दावे में एक भी शब्द ऐसा नहीं था जिसे आप पूरी तरह सही या गलत साबित कर सकें। मसलन, पार्टी का दावा था कि आज की तारीख में चालीस फीसद प्रौढ़ लोग साक्षर हैं जबकि क्रान्ति से पहले यह दर पन्द्रह फीसद थी। पार्टी दावा करती थी कि आज शिशु मृत्यु दर प्रति हज़ार एक सौ साठ है जबकि क्रान्ति से पहले यह तीन सौ थी। ऐसे ही तमाम दावे किए जाते थे। ऐसा लगता था जैसे दो-चार राशियों से बना एक गणितीय समीकरण हो। यह बहुत मुमकिन था कि इतिहास की किताबों का एक-एक शब्द, यहाँ तक कि जिन चीज़ों को बिना सवाल किए मान लिया जाता था, सब कुछ कपोल कल्पना हो। उसे तो कुल मिलाकर इतना पता था कि प्रथम रात्रि अधिकार जैसा न कोई क़ानून कभी था, न ही पूँजीपति नाम का कोई प्राणी या फिर उसके सिर पर लम्ब टोप जैसा कोई परिधान।

हर चीज़ कुहासे में डूबी हुई थी। अतीत को मिटा दिया जाता था, मिटौने को भुला दिया जाता था, फिर हर झूठ अपने आप सच बन जाता था। ज़िन्दगी में बस एक बार उसके हाथ एक ऐसी ठोस चीज़ लगी थी जो अतीत को झुठलाए जाने का पक्का साक्ष्य थी। कोई तीस सेकंड तक उसने अपनी उँगलियों में उसे दबाए रखा था। यह बात 1973 की रही होगी या मोटे तौर पर तब की जब कैथरीन उससे अलग हुई थी। शायद सही-सही तारीख़ कोई सात या आठ साल पहले की रही होगी।

यह कहानी साठ के दशक के मध्य में शुरू होती है, महान सफ़ाई अभियान के दौर में, जब क्रान्ति के असली नेताओं को हमेशा के लिए मिटाया जा रहा था। 1970 आते-आते मोटा भाई के अलावा और कोई नहीं बचा था। बाक़ी सभी को या तो गद्दार या प्रतिक्रान्तिकारी घोषित कर दिया गया था। गोल्डस्टीन भागकर न जाने कहाँ छिप गया था, कोई नहीं जानता था। कुछ और नेता गायब हो गए थे जबकि ज़्यादातर को तो भव्य सार्वजनिक मुकदमों के बाद मार दिया गया था जिनमें उन्होंने अपना जुर्म क़बूल कर लिया था। केवल तीन नेता अन्त में बचे थे—जोन्स, आरनसन और रदरफोर्ड। उन तीनों को शायद 1965 में गिरफ्तार किया गया था। जैसा कि अकसर होता है, वे तीनों एकाध साल तक गायब रहे ताकि किसी को ख़बर न हो सके कि वे ज़िन्दा हैं या मार दिए गए। फिर हमेशा की ही तरह उन्हें दंड देने के लिए सामने लाया गया। उन्होंने दुश्मन की मुखबिरी (उस वक़्त भी दुश्मन यूरेशिया ही होता था), सार्वजनिक पैसे के गबन, पार्टी के तमाम विश्वस्त सदस्यों की हत्या, मोटा भाई के नेतृत्व के खिलाफ़ षड्यंत्र (जो क्रान्ति के बहुत पहले ही शुरू हो चुका था) और अन्दरूनी विध्वंस पैदा करके सैकड़ों-हज़ारों लोगों की जान लेने का आरोप क़बूल कर लिया। सारे जुर्म कबूल करने के बाद उन्हें माफ़ कर दिया गया और पार्टी में ऐसे पदों पर वापस बहाल कर दिया गया था जो सुनने में तो अहम लगते थे लेकिन दायित्वहीन थे। तीनों ने दि टाइम्स में अपनी बगावत के कारणों का विश्लेषण करते हुए लम्बे-लम्बे लेख लिखे थे और उसमें खुद को सुधारने के वादे किए थे।

उनकी रिहाई के कुछ समय बाद विंस्टन ने इन्हें चेस्टनट ट्री कैफ़े में देखा था। उसे याद है कि नज़र बचाकर उन्हें देखते वक़्त उसे कैसा आतंकित करने वाला रोमांच महसूस हुआ था। वे तीनों उससे उम्र में कहीं ज़्यादा बड़े थे, पुराने ज़माने के लोग थे और पार्टी के ओजपूर्ण दौर के बचे हुए तक़रीबन अन्तिम महान व्यक्तित्व थे। भूमिगत संघर्ष और गृहयुद्ध की चमकदमक उनके साथ धुंधली ही सही, लेकिन अब भी नत्थी जान पड़ती थी। उस वक़्त तक तारीख़ और तथ्य आपस में गड्डमड्ड होने लगे थे, फिर भी उसे ऐसा लगा कि वह उन तीनों के नाम तो बरसों पहले से जानता है, जब मोटा भाई को भी नहीं जानता था। दिक़्क़त यह है कि तीनों ही अपराधी थे, दुश्मन थे, इस लिहाज़ से अस्पृश्य भी थे और एकाध साल के भीतर ही उनका मारा जाना तय था। विचार पुलिस के हाथ कोई एक बार लग जाए तो उसका अन्त होना तय है। यहाँ पकड़े जाने के बाद आदमी एक ज़िन्दा लाश होता है जिसे बस क़ब्र में भेजे जाने का इंतज़ार रहता है।

वे तीनों जिस टेबल पर बैठे थे, उसके आसपास वाली टेबल पर कोई नहीं था। ऐसे लोगों के आसपास दिख जाना भी ठीक नहीं समझा जाता था। उस कैफ़े की ख़ासियत थी लौंग की खुशबू वाली जिन, जो टेबल पर रखी हुई थी और वे एकदम शान्त बैठे हुए थे। उन तीनों में रदरफोर्ड की शिख़्सयत ने विंस्टन को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था। रदरफोर्ड एक ज़माने में बड़ा मशहूर व्यंग्य चित्रकार हुआ करता था जिसके सच्चे कार्टूनों ने क्रान्ति के दौरान और उससे पहले लोगों की धारणा को आकार देने में बहुत भूमिका निभाई थी। अब भी लम्बे अन्तरालों पर उनके कार्टून दि टाइम्स में दिख जाते थे लेकिन उनमें वह बात नहीं रह गई थी। पहले बनाए कार्टूनों की वे महज़ नक़ल थे जिनमें न तो कोई जान थी, न वैसी विश्वसनीयता। पुराने विषयों को ही नए सिरे से थोड़ा सँवारकर वे परोस देते थे, जैसे झुग्गियाँ, भूखे बच्चे, सड़कों पर होने वाली झड़पें, लम्ब टोप में पूँजीपति यहाँ तक कि बैरिकेडों पर भी पूँजीपति लम्ब टोप ओढ़े दिखते थे जो अतीत में वापस जाने की एक अन्तहीन और बेकार कवायद थी। वह बदसूरत आदमी था, जिसके सिर पर अयाल जैसे पके हुए चिकने बाल थे। उसका झुरींदार चेहरा किसी थैले की तरह लटका हुआ था और होंठ किसी नीग्रो की तरह मोटे थे। उसे देखकर किसी ज़माने में उसके शारीरिक सौष्ठव का पता लगता था लेकिन आज उसकी तगड़ी देह चारों ओर से झूलती, ढलकती और फैलती नज़र आती थी। उसे देख ऐसा लगता था गोया आपकी आँखों के सामने कोई पहाड़ दरक रहा हो।

दिन के तीन बजे थे। सन्नाटे का वक़्त था। अब जाकर विंस्टन को याद आया कि उस दिन वह इस पहर कैफ़े कैसे पहुँच गया था। वह जगह एकदम निर्जन थी। टेलिस्क्रीन पर कर्कश संगीत बज रहा था। वे तीनों अपने कोने में तक़रीबन जड़वत् और एकदम शान्त बैठे हुए थे। बिना कहे रा ताज़ा जिन से भरे गिलास ले आया। उनके साथ वाली टेबल पर शतरंज बिछी हुई थी। मोहरें सजी हुई थीं। खेल अभी शुरू नहीं हुआ था। और फिर, शायद आधे मिनट के भीतर जाने क्या हुआ कि टेलिस्क्रीन की धुन बदल गई और धुन की लय भी बदल गई। विंस्टन को याद आया लेकिन इसको शब्दों में समझा पाना मुश्किल था। वह एक विलक्षण राग था-कर्कश, दरकता हुआ, रँभाता हुआ, जैसे उपहास कर रहा हो। विंस्टन इसे मन ही मन पीतराग कहता था।

और फिर टेलिस्क्रीन पर गीत बजने लगा :

शाहबलूत की ये छतनार
हम तुम करते छल व्यापार
फैला झूठ का कारोबार
शाहबलूत की ये छतनार

तीनों के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई। विंस्टन ने रदरफोर्ड के दरकते हुए चेहरे को फिर से देखा। अबकी उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। पहली बार उसका ध्यान गया कि आरनसन और रदरफोर्ड दोनों की नाक टूटी हुई थी। वह भीतर से जैसे हिल गया, हालाँकि इसकी वजह उसे समझ नहीं आई।

थोड़ी ही देर बाद तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसा जान पड़ता था कि रिहाई के बाद से ही तीनों नई साज़िशें बुनने में लग गए थे। दूसरे मुकदमे के दौरान उन्होंने अपने पुराने सारे जुर्म तो क़बूल किए ही, कई नए अपराध भी सामने आए जो उन्होंने स्वीकार कर लिए। फिर तीनों की हत्या कर दी गई। भावी पीढ़ियों को चेताने के लिए उनकी कहानी पार्टी के इतिहास में दर्ज कर ली गई। इसके कोई पाँच साल बाद 1973 में विंस्टन अपने दफ्तर में कुछ काग़ज़ देख रहा था जो हवानली से उसकी डेस्क पर ठीक करने के लिए आए थे। अचानक उसके हाथ एक ऐसा काग़ज़ लगा जो शायद भूल से दूसरे कागज़ों के साथ चला आया था। उसे खोलते ही विंस्टन को उसकी अहमियत का अन्दाज़ा लग गया। कोई दस साल पुराने दि टाइम्स के एक पन्ने का आधा फटा टुकड़ा था-पन्ने के ऊपर वाला आधा हिस्सा जहाँ तारीख़ लिखी होती है और उस पर न्यूयॉर्क में आयोजित पार्टी के किसी समारोह में गए प्रतिनिधिमंडल की तस्वीर थी। उस समूह के बीच प्रमुख लोगों में जोन्स, आरनसन और रदरफोर्ड मौजूद थे। उससे पहचानने में कोई गलती नहीं हुई थी। वैसे भी उनके नाम नीचे कैप्शन में लिखे हुए थे।

पेच यह था कि दोनों ही मुकदमों में तीनों व्यक्तियों ने क़बूल किया था कि उस तारीख़ को वे यूरेशिया में थे। गवाही के मुताबिक़ वे कनाडा के किसी गुप्त मैदान से उड़कर साइबेरिया में कहीं गए थे और वहाँ यूरेशिया के जनरल स्टाफ के साथ उन्होंने कुछ गोपनीय सैन्य सूचनाएँ साझा की थीं जो विश्वासघात था। वह तारीख़ विंस्टन को इसलिए अच्छे से याद थी क्योंकि संयोग से वह गर्मियों के बीच का दिन था। वैसे भी यह कहानी तमाम और जगहों पर रिकॉर्ड में रखी ही होगी। इसका केवल एक मतलब निकलता था, कि इक़बालिया बयान झूठे थे।

ज़ाहिर है यह अपने आप में कोई खोज नहीं थी। विंस्टन तो उस वक़्त भी यह नहीं मानता था कि सफाई अभियान के दौरान जिन्हें मौत के घाट उतारा गया उन्होंने वाक़ई वे जुर्म किए होंगे जिनका आरोप उन पर लगा था। लेकिन यह एक ठोस साक्ष्य था यह नष्ट कर दिए गए अतीत का एक टुकड़ा था, जैसे कोई जीवाश्म किसी गलत सतह में बरामद हुआ हो जिसके चलते एक समूचा भूगर्भीय सिद्धान्त ही बेकार हो जाए। पार्टी को टुकड़ेटुकड़े करने के लिए काग़ज़ का यह टुकड़ा ही काफ़ी था, बशर्ते किसी तरह यह दुनिया के सामने छपकर आ जाता और इसकी अहमियत समझाई जा सकती।

वह सीधे काम पर आया था। इसलिए उसे जैसे ही यह तस्वीर दिखाई दी और इसका अर्थ समझ में आया, उसने तुरन्त एक कागज़ से उसे ढक दिया। बाद में जब उसने काग़ज़ हटाकर गोलियाई हुई परची को खोला तो संयोग से टेलिस्क्रीन की आँख के हिसाब से तस्वीर उलटी खुली।

उसने लिखने वाला पैड अपने घुटनों पर रखा और कुर्सी को पीछे की ओर धकेला ताकि जितना सम्भव हो टेलिस्क्रीन से दूर हट सके। चेहरे को भावशून्य रखना मुश्किल नहीं था, साँस पर भी नियंत्रण पाया जा सकता था लेकिन धड़कन का क्या करिए! उस पर तो आपका काबू है नहीं जबकि टेलिस्क्रीन इतना संवेदनशील है कि उसे भी पकड़ लेता है। उसका ख़याल है कि कोई दस मिनट तक उसने समय को यूँ ही जाने दिया और इस दौरान लगातार डरा-सहमा रहा कि कहीं कोई हादसा न हो जाए। मसलन, अचानक डेस्क पर हवा का तेज़ झोंका ही आ गया तब क्या होगा? धोखा हो जाएगा। फिर बिना ढके उसने तस्वीर को स्मृतिनाशक बिल के हवाले कर दिया। साथ में कुछ और बेकार कागज़ डाल दिए। शायद अगले एक मिनट के भीतर ही वह तस्वीर राख बन गई होगी।

यह बात कोई दस-ग्यारह साल पहले की है। आज ऐसा घटता तो शायद वह तस्वीर अपने पास ही रख लेता। कितनी अजीब बात है, उसे लगता है कि तब अपने हाथ में उस तस्वीर के होने का अहसास आज भी एक फ़र्क डाल रहा है जबकि न केवल तस्वीर बल्कि उसमें दर्ज घटना भी अब स्मृति का हिस्सा है। क्या अतीत पर पार्टी की पकड़ उतनी मज़बूत नहीं थी? उसे अचरज हुआ, क्योंकि सबूत का एक टुकड़ा जो अब वजूद में नहीं है उसका कभी तो अस्तित्व था ही?

आज हालाँकि मान भी लें कि किसी तरह उसे राख से वापस बरामद कर लिया गया तब भी वह तस्वीर खुद में साक्ष्य नहीं बन पाएगी। दरअसल जिस वक़्त उसे इसका पता चला था उस समय ओशियनिया की यूरेशिया से जंग नहीं चल रही थी। उस समय के हिसाब से सच यह बनता था कि तीनों मृतकों ने देश के साथ गददारी ईस्टेशिया के लिए मुखबिरी करके की थी। उसके बाद से भी दो या तीन बार, उसे याद नहीं कितनी बार, परिस्थिति बदल चुकी है। बहुत सम्भव है कि उनके इक़बालिया बयानों को बार-बार फिर से लिखा गया होगा और आज मूल तथ्यों और तारीखों का कोई ख़ास महत्त्व नहीं बच रहा होगा। अतीत केवल बदलता नहीं था बल्कि निरन्तर बदला जाता था। उसे कभी यह बात पूरी तरह समझ नहीं आई थी कि इतना बड़ा पाखंड आख़िर क्यों रचा जाता था। यह सवाल किसी दुःस्वप्न की तरह उसे सताता था। ये ठीक है कि अतीत को झुठलाने के तात्कालिक फ़ायदे हो सकते हैं लेकिन इसकी बुनियाद में जो मंशा थी वही अपने आप में रहस्यमय थी। उसने क़लम उठाई और लिख डाला :

मैं कैसे को समझता हूँ : मुझे क्यों का जवाब नहीं मालूम।

उसे शक हुआ कि कहीं वही तो विक्षिप्त नहीं है। पहले भी कई बार उसे ऐसा लगा था। पागल होना शायद अपने आप में अकेला होना था। एक ज़माना वह भी था जब उसे पागल समझा जाता था जो मानता था कि सूरज का चक्कर धरती लगाती है। आज यह मानने वाले को पागल समझा जाता है कि अतीत बदला नहीं जा सकता। हो सकता है कि वह अकेला ही ऐसा मानता हो, और यदि वाक़ई वह अकेला ही है तो पक्का विक्षिप्त है। वैसे, पागल होने का ख़याल उसे बहुत परेशान नहीं करता था, लेकिन इसमें सबसे बड़ा डर यह छिपा था कि कहीं वह यहाँ भी गलत न साबित हो जाए।

उसने बच्चों की इतिहास वाली किताब उठाई और उसके मुखपृष्ठ पर बनी मोटा भाई की तस्वीर को देखने लगा। उसकी सम्मोहक आँखें उसकी आँखों में झाँक रही थीं। ऐसा लगता था गोया कोई बहुत भारी ताक़त आपको ऊपर से दबाए दे रही हो। कुछ ऐसा जो आपकी खोपड़ी में ज़बरन घुस गया हो, आपकी आस्थाओं के चलते आतंकित कर रहा हो और ज़बरदस्ती कर रहा हो कि आप अपनी इंद्रियों से अनुभूत चीज़ों पर विश्वास करना छोड़ दें। ऐसे ही रहा तो एक दिन पार्टी ऐलान कर देगी कि दो और दो पाँच होते हैं और आपको मानना पड़ेगा। और ऐसा आज नहीं तो कल होना ही है। उनकी तर्क पदधति को ही इसकी दरकार है। उनका दर्शन न सिर्फ आपके अनुभवों की वैधता को, बल्कि बाहरी दुनिया में मौजूद हक़ीक़त के वजूद को ही नकारता है। यहाँ पाखंड और विधर्म ही सहज ज्ञान है। भयावह बात यह है कि वे आपको दूसरे तरीके से सोचने के लिए जान से नहीं मारेंगे बल्कि इसलिए क्योंकि वे सही हो सकते हैं। वैसे भी, क्या तरीक़ा है जानने का कि दो और दो चार ही होते हैं? या फिर यह कि गुरुत्व नाम का कोई बल काम करता है? या फिर यह जानने का कि अतीत को बदला नहीं जा सकता? अगर अतीत और बाहरी जगत केवल आपके दिमाग की पैदाइश है और दिमाग को काबू में किया जाना मुमकिन है, तब क्या?

नहीं! उसके भीतर से आवाज़ आई। ऐसा लगा कि उसके भीतर अपने आप साहस इकट्ठा हो गया है। उसके दिमाग में ओ'ब्रायन का चेहरा घूम गया, हालाँकि इसकी कोई ज़ाहिर वजह नहीं थी। वह अब पहले से कहीं ज़्यादा इस बात से आश्वस्त था कि ओ'ब्रायन उसके पाले का आदमी है। वह ओ'ब्रायन के लिए डायरी लिख रहा था ओ'ब्रायन को सम्बोधित। यह एक अन्तहीन पत्र था जिसे कोई भी, कभी भी नहीं पढ़ेगा, लेकिन यह एक ख़ास शख्स को सम्बोधित था और वहीं से अपनी प्रेरणा खींच रहा था।

पार्टी का कहना था कि आप अपनी आँखों देखी और कानों सनी को खारिज करें। यह उनका अन्तिम और सबसे ज़रूरी निर्देश था। उसे अब यह महसूस हुआ कि कितनी बड़ी ताक़त उसके ख़िलाफ़ काम कर रही थी। उसे तो पार्टी का कोई भी बौदधिक कितनी आसानी से बहस में हरा देगा क्योंकि उनके महीन तर्क तो उसे समझ में आएंगे नहीं, फिर उनका जवाब देना तो दूर की बात रही। यही सब सोच के उसका दिल डूबा जा रहा था। इसके बावजूद वह अपनी जगह बिलकुल सही था। गलत तो वे थे। जो कुछ भी ज़ाहिर है, सहज है और सच है, उसे बचाया ही जाना होगा। स्वयंसिद्ध चीजें सत्य होती हैं। बस वहीं छूटा गाड़ दो। बुनियादी बात यह है कि यह मूर्त जगत अस्तित्व में है और इसके नियम नहीं बदलते। पत्थर ठोस होता है, पानी गीला होता है, बिना किसी बाहरी बल प्रयोग या सहारे के चीजें धरती के केन्द्र की ओर गिरती हैं। उसे लगा कि वह ओ'ब्रायन से संवाद कर रहा है और एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त की स्थापना कर रहा है, सो उसने लिखा :

दो और दो मिलकर चार होते हैं, ऐसा कहने की आज़ादी ही आज़ादी है। अगर इतनी आज़ादी है, तो बाक़ी सब कुछ यहीं से निकलेगा।

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-8

गलियारे में कहीं नीचे से भुनी हुई कॉफ़ी की खुशबू-विक्टरी कॉफ़ी नहीं, असली कॉफ़ी हवा में तैरती हुई सड़क तक आई। विंस्टन के पाँव अपने आप ठिठक गए। दो सेकंड के लिए उसे अपने बचपन की याद हो आई, जिसे वह आधा भुला चुका था। फिर ज़ोर से एक दरवाज़ा बजा और उस आवाज़ के साथ ही वह ख़ुशबू भी अचानक ही गायब हो गई।

वह पटरी पर कई किलोमीटर पैदल चलकर आ चूका था और उसके टखने का अल्सर अब कष्ट दे रहा था। बीते तीन हफ़्ते में यह दूसरी बार था कि उसने सामुदायिक केन्द्र की शाम गोल कर दी थी। यह लापरवाह हरकत थी क्योंकि इतना तो तय था कि वहाँ सबकी हाज़िरी बाक़ायदा गिनी जाती थी। क़ायदे के मुताबिक़ पार्टी के सदस्यों के पास खाली समय नहीं होना चाहिए था और अपने बिस्तर के अलावा कहीं भी वे अकेले नहीं हो सकते थे। यह मानकर चला जाता था कि जब वह काम पर न हो, खा न रहा हो या सो न रहा हो तो किसी न किसी क़िस्म के सामुदायिक मनोरंजन में भाग ले रहा होगा। कोई भी ऐसी गतिविधि जो एकाकीपन की चाह को दर्शाती हो, चाहे अकेले टहलने जाने की इच्छा भी, वह हमेशा ही थोड़ा ख़तरे का सबब होती थी। न्यूस्पीक में ऐसी प्रवृत्ति के लिए एक शब्द था-स्वजीवन या ओनलाइफ। इसका आशय व्यक्तिवाद या असामान्यता से लगाया जाता था। उस शाम हालाँकि मंत्रालय से विंस्टन जब बाहर आया तो अप्रैल की कोमल हवा ने उसे मोह लिया। आकाश भी थोड़ा गाढ़ा नीला था। ऐसा आकाश उसने उस साल में एक बार भी नहीं देखा था। ऐसे में अचानक सामुदायिक केन्द्र की वह भीड़-भड़क्के वाली लम्बी शाम, वही उबाऊ-थकाऊ खेल, व्याख्यान, जिन के प्याले पर जुड़ने वाली नाजुक मित्रताएँ, ये सब बरदाश्त करने लायक़ नहीं था। इसीलिए एक झटके में वह बस स्टॉप से वापस मुड़ गया और लंदन की जटिल सड़कों की ओर पैदल ही निकल लिया। पहले दक्षिण, फिर पूरब, फिर वापस उत्तर में मुड़ा और इस तरह अनजान सड़कों के बीच वह कहीं गुम हो गया। अब उसे दिशा का कोई भान नहीं था और वह बेपरवाह चला जा रहा था।

“अगर कहीं उम्मीद बची है," उसने अपनी डायरी में लिखा था, "तो वह सर्वहारा में है।" ये शब्द घूम-फिर कर उसके पास लौट आते थे, जैसे कोई रहस्यमय सच हो या कोई ऐसी बेतुकी बात जो उसे भीतर से महसूस होती हो। अभी वह भूरे रंग की कुछ अजीबोगरीब झुग्गियों के बीच था। कभी जहाँ सेंट पैनक्रैस स्टेशन हुआ करता था, यह जगह उसके उत्तर और पूरब में थी। वह छोटे-छोटे दोमंजिला मकानों के साथ वाली एक सड़क से गुज़र रहा था जिस पर छोटे-छोटे पत्थरों के पैबन्द लगे थे। उन मकानों की चौखट टूटीफूटी थी। उनके दरवाज़े सीधे पटरी पर खुलते थे। उन्हें देखकर लगता था कि चूहों ने यहाँ पर बिल बना रखे हैं। पत्थरों के बीच में कहीं-कहीं गन्दा पानी जमा हुआ था। उन अँधियारी चौखटों के आर-पार और दोनों ओर अलगअलग शाखाओं में फूटती सँकरी गलियों में बर्र के छत्ते की तरह लोग जमा थे -अनगढ़ ढंग से लिपस्टिक पोते नौजवान लड़कियाँ और उनको ताड़ते हुए पीछा कर रहे लड़के, ठमकती हुई मोटी औरतें जिनकी तरह उन लड़कियों को आज से दस साल बाद हो जाना था, छितराए पंजों पर चहलकदमी करते निहरे हुए बूढ़े और खुरदरे पंजों वाले बच्चे, जो पानी के गड़हों में नंगे पैर छप-छप खेल रहे थे और गुस्से में चीख़ती अपनी माँओं की आवाज़ सुनते ही इधर-उधर छिटक जाते थे। उस सड़क पर शायद एक-चौथाई मकानों की खिड़कियाँ टूटी हुई थीं और उन पर तख़्ती चढ़ी हुई थी। वहाँ ज़्यादातर लोगों का ध्यान विंस्टन की ओर नहीं गया। कुछ थे जो थोड़ा सतर्क जिज्ञासा के साथ उसे देख रहे थे। एक चौखट के बाहर अपने एप्रन के इर्द-गिर्द बाँह मोड़े खड़ी ललपित्ती चमड़ी वाली दो कुरूप औरतें आपस में बात कर रही थीं। उनके पास पहुँचते ही विंस्टन को बातचीत के कुछ टुकड़े सुनाई दिए।

“हाँ,” मैं उससे यही कह रही थी कि “ये सब तो ठीक है लेकिन अगर तुम मेरी जगह रही होती तो तुम भी वही करती जो मैंने किया। दूसरे की कमी निकालना आसान होता है," मैं बोली, “लेकिन मेरी समस्या कुछ और है, तुम उसको नहीं समझोगी।"

दूसरी ने कहा, "हाँ, सही बात है। बिलकुल सही बात है।" अचानक दोनों की तेज़ आवाज़ आना बन्द हो गई जब वह बग़ल से गुज़रा। दोनों ने चुपचाप उसका मुआयना किया, लेकिन उनकी निगाह में कोई विद्वेष का भाव नहीं था। बस एक किस्म का चौकन्नापन था, जैसे एक पल के लिए किसी अपरिचित जानवर के क़रीब आ जाने से कोई सीधा तनकर खड़ा हो जाता है। ऐसी सड़कों पर पार्टी की नीली वर्दी वाले आदमी का दिखना आम बात नहीं थी। वास्तव में ऐसी जगहों पर पाया जाना समझदारी भरा काम नहीं था, जब तक कि किसी ठोस काम से आप यहाँ न आए हों। अगर सामने गश्ती दल वाले पड़ गए तो वे पक्का रोक लेंगे और सवालों की बौछार कर देंगे। “क्या हम आपके कागज़ देख सकते हैं, कॉमरेड? आप यहाँ क्या कर रहे हैं? कितने बजे आप दफ़्तर से निकले थे? क्या इस रास्ते से रोज़ अपने घर जाते हैं आप?" ऐसे ही दुनिया भर के सवाल। किसी अलग रास्ते से घर जाने की कोई मनाही या नियम नहीं था, लेकिन इसकी भनक अगर विचार पुलिस को लग जाती तो बेमतलब उनका ध्यान आपकी ओर खिंच जा सकता था।

अचानक सड़क पर हल्ला मच गया। हर ओर से चेतावनियों की आवाज़ आने लगी। लोग ख़रगोशों की तरह दरवाज़ों की ओर भागने लगे। विंस्टन के थोड़ा सा आगे ही एक नौजवान महिला अचानक अपने दरवाज़े से बाहर आई, पानी में खेलते अपने बच्चे को उसने गोदी में उठाया और उसी एक झटके में वापस छलाँग लगाकर अपनी जगह पहँच गई। ठीक उसी वक़्त काले सूट में एक व्यक्ति जो बगल वाली गली से निकला था, आकाश की ओर इशारा करते हुए विंस्टन की तरफ़ लपका।

"स्टीमर!" वह चिल्लाया। “ध्यान से गवर्नर साहब! आपके सिर के ठीक ऊपर है! लेट जाइए, जल्दी!'

पता नहीं क्यों, जनता रॉकेट बम को स्टीमर बोलती थी। विंस्टन तुरन्त सतर्क होकर नीचे की ओर झुक गया। इस तरह के मामलों में जनता की छठी इंद्रिय बहुत तेज़ काम करती थी और अकसर ही उनकी चेतावनी सही निकलती थी। पता नहीं उनके भीतर कौन सी सूझबूझ थी कि वे रॉकेट गिरने से कुछ सेकंड पहले ही उसे भाँप लेते थे, हालाँकि रॉकेट की रफ़्तार आवाज़ से तेज़ होती है। विंस्टन ने अपने सिर के ऊपर अपने हाथ कस लिए। एक ज़बरदस्त धमाका हुआ। ऐसा लगा कि जैसे सड़क किनारे की पटरी उखड़ गई हो। उसे पीठ पर हल्की-फुल्की चीज़ों की बौछार सा कुछ अहसास हुआ। जब सीधा खड़ा हुआ तो पता चला कि पास वाली खिड़की के काँच के टुकड़ों से वह ढका हुआ था।

वह चलता रहा। इस बम ने सड़क पर कोई 200 मीटर के दायरे में कुछ मकानों को नष्ट कर दिया था। हवा में काले धुएँ का थक्का लटका पड़ा था और नीचे प्लास्टर और धूल का एक बादल, जिसके इर्द-गिर्द लोग जुटना शुरू हो गए थे। पटरी पर उसके ठीक आगे प्लास्टर का एक घूरा जमा हुआ था जिसके ठीक बीचोबीच उसको कुछ चमकदार लाल रंग का दिख रहा था। पास पहुँचने पर उसने देखा कि वह किसी का कटा हुआ हाथ था जो कलाई से अलग हो गया था। वहाँ जमे खून के थक्के को छोड़ दें तो हाथ कुछ इस तरह से सफ़ेद पड़ चुका था जैसे उस पर प्लास्टर चढ़ा हो।

उसने एक लात मारकर उसको गटर में पहँचा दिया और भीड़-भाड़ से बचने के लिए दाईं ओर की एक सड़क पर मुड़ गया। तीन से चार मिनट के भीतर वह उस इलाके से बाहर निकल आया था जहाँ धमाका हुआ रहा। बिलकुल पहले जैसा दृश्य सामने था। यहाँ भी भीड़ कुछ इस तरह जमा थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। शाम के आठ बजने को थे और शराब के ठेकों पर जनता जुटी पड़ी थी। वे लोग इन्हें पब कहते थे, जिनके लगातार खुल रहे और बन्द हो रहे डोलने वाले मैले दरवाज़ों के भीतर से पेशाब, लकड़ी के बुरादे और खट्टी बीयर का मिला-जुला भभका आ रहा था। सामने एक मकान था जिसका आगे वाला हिस्सा कुछ बाहर की ओर निकला हुआ था। उसी के एक कोने में तीन आदमी बहुत सटकर खड़े थे। बीच वाला आदमी एक मुड़ा हुआ अख़बार पकड़े हुए था और बाक़ी दोनों उसके कन्धे पर उचककर अख़बार पढ़ रहे थे। क़रीब आकर विंस्टन उनके चेहरों को गौर से पढ़ पाता, उससे पहले ही उनकी भंगिमाओं से उसे लगा कि वे पूरी तरह अख़बार में डूबे हुए हैं। ज़ाहिर है कोई गम्भीर ख़बर ही रही होगी। उनसे वह कुछ ही क़दम की दूरी पर था कि अचानक तीनों छिटक गए और दो लोग आपस में भिड़ गए। एक पल को लगा कि बात मारामारी तक पहँच जाएगी।

“तुम्हें सुनाई नहीं दे रहा मैं क्या कह रहा हूँ? चौदह महीने से एक भी नम्बर ऐसा नहीं लगा जिसके अन्त में सात हो।"

"बताऊँ, लगा हो तो!"

"नहीं, एक बार भी नहीं। दो साल तक घर पर मैंने एक-एक नम्बर काग़ज़ पर खोज-खोज कर लिख मारे थे लेकिन हर बार नियम से सब बेकार हो जाते हैं। मैं बता रहा हूँ न सात से ख़त्म होने वाला एक भी नम्बर नहीं लगेगा।"

“लगा है, सात वाला लगा है एक बार। मैं पक्का बता रहा हूँ चार सौ सात लगा था। फरवरी में फरवरी के दूसरे हफ़्ते में।"

"तुम्हारी माँ का फरवरी! साफ़-साफ़ एक-एक नम्बर जुटाया था मैंने और बता रहा हूँ एक भी नहीं, एक भी।"

“एह, चलो हो गया, ख़त्म करो," तीसरे ने कहा।

वे लोग लॉटरी के बारे में बात कर रहे थे। कोई तीस मीटर आगे जाने के बाद विंस्टन ने पीछे मुड़कर देखा। वे अब भी बहस कर रहे थे। उनका चेहरा अलग-अलग साफ़ नज़र आ रहा था। यहाँ हर हफ्ते लॉटरी निकलती थी और भारी इनाम का ऐलान होता था। यह इकलौता ऐसा आयोजन था जिसमें जनता की गम्भीर दिलचस्पी थी। यह भी हो सकता है कि ऐसे लाखों आम लोग रहे हों जिनके जीने की और वजहों के बीच लॉटरी सबसे बड़ी वजह थी। लॉटरी उनके लिए आनन्द, मूर्खता, दर्दनाशक और बौद्धिक खुराक का काम करती थी। लॉटरी की बात आने पर तो अनपढ़-गँवार लोग भी गणित लगा लेते थे और इनकी याददाश्त इस मामले में बहुत तेज़ थी। एक समूची प्रजाति थी ऐसे लोगों की जो सट्टा-लॉटरी, भविष्यवाणी, क़िस्मती तावीज़ आदि के धंधे से अपनी ज़िन्दगी चला रहे थे। विंस्टन का लॉटरी के धंधे से वैसे तो कोई लेना-देना नहीं था क्योंकि यह श्री मंत्रालय के अधीन आता था, लेकिन उसे इतना पता था (पार्टी में हर किसी को पता था) कि लॉटरी निकलने पर दिए जाने वाले इनाम ज़्यादातर काल्पनिक होते हैं। हक़ीक़त में बहुत मामूली राशि दी जाती थी जीतने वालों को जबकि बड़ी रक़म जीतने वाला आदमी आम तौर से बेनाम होता था, जिसका कहीं कोई अता-पता न था। चूंकि ओशियनिया के एक हिस्से का दूसरे के साथ कोई सम्पर्क नहीं था इसलिए इस कारोबार को सँभालने में दिक़्क़त नहीं आती थी।

फिर भी अगर कहीं कोई उम्मीद थी तो वह जनता में ही थी। इस खूटे को छोड़ना नहीं था। यह बात बोलने में तार्किक लगती है लेकिन जब आप पटरी पर अपने बग़ल से गुज़र रहे इनसानों को देखते हैं तब इसको लेकर आपके मन में आस्था जगती है। उसे लगा कि वह यहाँ पहले भी आ चुका है और पास में ही एक मुख्य मार्ग होना चाहिए। वहीं कहीं आगे से चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। उस सड़क पर आगे एक तीखा मोड़ था जिसके बाद सीढ़ियाँ आ जाती थीं जो नीचे एक गली में ले जाती थीं, जहाँ कुछ रेहड़ीपटरी वाले बासी सिब्ज़याँ बेच रहे थे। अब जाकर विंस्टन को यह जगह याद आई। यह गली आगे मुख्य मार्ग पर निकलती थी और आगे जाकर पहले मोड़ पर ही, मुश्किल से पाँच मिनट की दूरी पर, एक कबाड़ी की दुकान है जहाँ से उसने वह कोरी डायरी खरीदी थी जिसमें आजकल लिख रहा था। वहीं ज्यादा दूर नहीं एक स्टेशनरी की छोटी-सी दुकान है जहाँ से उसने अपना कलमदान और स्याही की शीशी ख़रीदी थी।

सीढ़ियों पर एक पल को वह ठिठका। गली के दूसरी ओर एक गन्दा सा पब था जिसकी खिड़कियों पर लगता था कि ओस जमी है लेकिन वह धूल की परत थी। झींगे जैसी बाहर की ओर निकली हुई सफ़ेद मूंछों वाला एक काफ़ी बूढ़ा आदमी, कमर से झुका हुआ लेकिन फुर्तीला, डोलने वाले दरवाज़े को धकेलकर भीतर घुसा। कम से कम अस्सी साल का तो रहा ही होगा वह, यानी जब क्रान्ति हुई होगी तो वह अधेड़ रहा होगा। वहीं खड़े-खड़े उसे देखते हुए विंस्टन के दिमाग में यह ख़याल कौंधा। वह और उसके जैसे लोग ही बीते ज़माने की पूँजीवादी दुनिया का आखिरी सिरा हैं जो अब तक बचे हुए हैं। पार्टी के भीतर भी अब ऐसे लोग बहुत नहीं बचे जिनके विचार क्रान्ति के पहले बने रहे होंगे। पचास-साठ के दशक में चले महान सफ़ाए में पुरानी पीढ़ी के ज़्यादातर लोग मार दिए गए थे। जो बचे रह गए थे उन्हें पूरी तरह बौदधिक आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया गया। अगर इस सदी के शुरुआती दशकों का हाल बताने के लिए कोई ज़िन्दा बचा होगा तो पक्का वह जनता के बीच का ही कोई आदमी निकलेगा। अपनी डायरी में इतिहास की किताब से जो अंश उसने नक़ल किए थे, अचानक विंस्टन के दिमाग में कौंध गए और वह उत्तेजित हो गया। पब में जाना है, बुड्ढे से परिचय गाँठना है और उससे सवाल पूछना है अपने बचपन के बारे में बताइए। उन दिनों क्या माहौल हुआ करता था? आज के मुकाबले चीजें बेहतर थीं या बुरी?

इससे पहले कि मन में कोई डर बैठ जाए, बिना कोई समय गँवाए वह सीढ़ी से नीचे उतरा और वह सँकरी गली पार की। ज़ाहिर है यह सनक ही थी। जनता के आदमी से बात करने पर कोई रोक नहीं थी। उनके पब में जाने पर भी कोई रोक नहीं थी। फिर भी यह ऐसी असामान्य हरकत थी जो बिना नज़र में आए नहीं रह सकती थी। अगर कहीं गश्ती दल वाले मिल गए तो वह बेहोशी का नाटक कर लेगा, ये बात अलग है कि वे सहज ही उस पर विश्वास नहीं करेंगे। यही सोचते हुए उसने दरवाज़े को धकेला। खट्टे बीयर की भयानक बदबू ने उसका स्वागत किया। उसके घुसते ही वहाँ का कोलाहल लगभग आधा हो गया। अपने पीछे वह भाँप रहा था कि लोग उसकी नीली वर्दी पर निगाह गड़ाए हुए थे। कमरे के दूसरे छोर पर चल रहे निशाना लगाने वाले डार्टगेम में कोई तीस सेकंड के लिए खलल पड़ गया। जिस बूढ़े का पीछा करते हुए वह आया था, वह काउंटर पर बारवाले से किसी बहस में उलझा हुआ था। बारवाला लम्बा, तगड़ा, बड़ी सी नाक वाला आदमी था जिसकी बाँहें बहुत पुष्ट थीं। आसपास जुटी मंडली में लोग अपने-अपने गिलास लिये तमाशा देख रहे थे।

बूढ़े ने झगड़े की मुद्रा में अपने कन्धे झटकते हुए कहा, “तुम्हें समझ नहीं आ रहा मैंने क्या कहा? ऐसे कैसे तुम कह सकते हो कि पूरी दुकान में एक पिंट का मग तक नहीं है तुम्हारे यहाँ?" काउंटर पर अपने हाथ की उँगलियों पर ज़ोर देकर आगे की ओर उचकते हुए बारवाले ने जवाब दिया, “यह पिंट क्या बला है?" “लानत है! अपने को बारमैन कहते हुए शर्म नहीं आती जब यही नहीं पता कि पिंट क्या होता है। पिंट का मतलब है आधा लीटर से ज़्यादा और चार पिंट मिलकर एक गैलन बनता है। अब लगता है तुम्हें ए बी सी भी सिखानी पड़ेगी।" बारवाले ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, “मैंने तो कभी नहीं सुना। हम लोग तो केवल एक लीटर और आधा लीटर ही बेचते हैं। वह आपके सामने शेल्फ पर गिलासें रखी हुई हैं।"

बूढ़े ने ज़ोर देकर कहा, “मुझे तो पिंट पसन्द है। तुम चाहते तो बड़ी आसानी से मेरे लिए एक पिंट ला सकते थे। मेरी जवानी के दिनों में ये लीटर नहीं हुआ करते थे।"

बारवाला वहाँ खड़े दूसरे लोगों की ओर देखकर बोला, “जब आप जवान थे तो हम लोग पेड़ों पर रहते थे।" ।

इस बात पर सभी ठठाकर हँस पड़े और विंस्टन के आने से माहौल में जो असहजता पैदा हो गई थी वह चली गई। बूढ़े का ठूठ जैसा सफ़ेद चेहरा गुलाबी पड़ गया। वह खुद में कुछ बड़बड़ाते हुए पीछे मुड़ा और विंस्टन से जा टकराया। विंस्टन ने हल्के से उसकी बाँह पकड़कर सहारा दिया।

विंस्टन ने उससे पूछा, “क्या मैं आपके लिए ड्रिंक ले सकता हूँ?"

"भले आदमी," अपने कन्धे झटकते हुए बूढ़े ने कहा। शायद उसकी नज़र विंस्टन की नीली वर्दी पर अब तक नहीं गई थी। बारवाले की ओर देखते हुए वह बोला, "पिंट!" और थोड़ा आक्रामक होकर आगे जोड़ दिया, "पिंट ऑफ़ वैलप।"

काउंटर के नीचे रखी बाल्टी के पानी में खंगालकर बारवाले ने दो गिलास निकाले और उनमें आधा-आधा लीटर गाढ़ी भूरी बीयर उड़ेल दी। जनता के पब में केवल बीयर मिलती थी। उन्हें जिन पीने की मनाही थी, हालाँकि कोई चाहे तो बड़ी आसानी से मिल जाती थी। डार्टगेम अपने शबाब पर था और काउंटर के पास खड़े लोगों की मंडली लॉटरी के बारे में बात कर रही थी। एक पल के लिए विंस्टन की मौजूदगी को लोगों ने भुला दिया था। वहाँ खिड़की के नीचे एक मिक़दार टेबल थी जहाँ दोनों बैठकर बात कर सकते थे जो किसी को सुनाई नहीं पड़ता। यह काम ख़तरे से खाली नहीं था लेकिन शुक्र है कि कमरे में कोई टेलिस्क्रीन नहीं था। विंस्टन ने पहले घुसते ही इस बात को पकड़ लिया था।

टेबल पर गिलास रखकर आराम से बैठते हुए बूढ़े ने कहा, “वह चाहता तो मुझे पिंट दे सकता था। आधे लीटर से काम नहीं चलता, मन नहीं भरता है। एक लीटर ज़्यादा हो जाती है। एक तो पैसे का मामला है, फिर मेरा पेट भी ख़राब हो जाता है।"

विंस्टन ने थोड़ा लापरवाही से पूछा, "अपनी जवानी के दिनों से लेकर अब तक आपने तो काफ़ी बदलाव देखे होंगे।"

बूढ़े की हल्की नीली पुतलियाँ डार्टबोर्ड से घूमती हुई काउंटर तक गईं, फिर उधर जिधर पुरुष लिखा हुआ था, गोया उन बदलावों का मुआयना वह यहीं बार में कर रहा हो।

उसने कहा, “बीयर अच्छी मिलती थी। और सस्ती भी थी! मैं जब जवान था, तब हल्की बीयर चार पेंस की एक पिंट मिला करती थी। हम लोग उसे वैलप कहते थे। ये जंग से पहले की बात है।"

विंस्टन ने पूछा, "कौन सी जंग?"

बूढ़े ने हवा में जवाब दिया, “सब जंग ही तो है।" उसने गिलास उठाई, कन्धों को झटककर सीधा किया और बोला, "तुम्हारी सेहत के नाम ये जाम।"

उसकी दुबली गरदन से बाहर उभरा हुआ नुकीला कंठ काफ़ी तेज़ी से ऊपर-नीचे हरकत में आया और सारी बीयर भीतर चली गई। विंस्टन काउंटर पर गया और दो आधा लीटर और उठा लाया। ऐसा लगा कि बूढ़ा आदमी भूल चुका था एक लीटर उसे नहीं पचती।

विंस्टन बोला, “आप तो मेरे से बहुत ज़्यादा उम्र के हैं। मेरे जन्म के वक़्त तो आप बहुत बड़े रहे होंगे। आपको याद होगा कि क्रान्ति से पहले पुराने दिन कैसे थे। मेरा मतलब है कि मेरी उम्र के लोगों को उस दौर के बारे में वास्तव में कुछ नहीं पता। हम लोग तो बस किताबों में पढ़ लेते हैं लेकिन किताबें पता नहीं कितना सच बताती होंगी। इस पर थोड़ा बताइए न। जैसे इतिहास की किताब में लिखा है कि क्रान्ति से पहले ज़िन्दगी आज से बिलकुल अलग हुआ करती थी। भयंकर उत्पीड़न था, नाइंसाफ़ी थी, गरीबी हमारी कल्पना से भी ज्यादा थी। यहाँ लंदन में ज़्यादातर लोगों को पूरी ज़िन्दगी खाने को ठीक नहीं मिलता था। आधे लोगों के पास तो पहनने को जूते भी नहीं होते थे। दिन में बारह घंटे काम करना पड़ता था। नौ साल में ही बच्चे स्कूल छोड़ देते थे। एक कमरे में दस-दस लोग रहते थे। और उसी समय कुछ मुट्ठी भर लोग, कुछ हज़ार लोग जिन्हें पूँजीपति कहते थे, बहुत पैसे वाले और ताक़तवर थे। हर चीज़ उनकी थी। वे विशाल भव्य मकानों में रहते थे और उनके यहाँ तीस नौकर हुआ करते थे। वे लोग मोटरकार और चार घोड़ों से जुती बग्घी में चलते थे। वे शैम्पेन पीते थे, लम्ब टोप पहनते थे।"

अचानक बूढे की आँखों में चमक आ गई।

उसने कहा, “लम्ब टोप! मस्त याद दिलाए। कल ही मेरी खोपड़ी में यह बात आई थी। पता नहीं क्यों, मैं तो बस सोच रहा था। मैंने तो बरसों से लम्ब टोप नहीं देखी। अब तो गायब हो चुकी है। पिछली बार मैंने अपनी साली के कफ़न-दफ़न में एक लम्ब टोप पहनी थी। और ये बात खैर, तारीख़ तो क्या ही याद है, कोई पचास साल पहले की बात होगी। समझो कि उसी मौके के लिए मैंने उसे किराए पर लिया था।"

विंस्टन ने थोड़ा धैर्य बरतते हुए कहा, "मैं लम्ब टोप की बात नहीं कर रहा था। वह उतना ज़रूरी नहीं है। असल बात वे पूँजीपति और उनके सहारे रहने वाले कुछ वकीलों और पंडों की थी जो इस धरती पर राज करते थे। हर चीज़ उन्हीं को फायदा पहुंचाने के लिए थी। आप जैसे आम लोग–मज़दूर लोग तो उनके गुलाम थे। वे जो चाहते आपके साथ कर सकते थे। वे आप लोगों को मवेशियों की तरह लादकर के कनाडा भेज देते थे। आपकी बेटियों के साथ अपनी मर्जी से जब चाहे सो सकते थे। वे आपको कई सोंटे वाले कोड़े से पीटने का फ़रमान दे सकते थे। उनके सामने से गुज़रने पर आप लोगों को अपनी टोपी उतारनी पड़ती थी। और हर पूँजीपति के साथ उसके टुओं का एक गिरोह चलता था जो...।"

बूढ़ा फिर से हरकत में आया।

“टट्टू!" वह बोला, “यह शब्द तो कितने वक़्त से मैंने नहीं सुना। टटू! इससे कुछ याद आ रहा है। ओह, याद पड़ता है कि बहुत साल पहले मैं इतवार की दोपहर कभी-कभार हाइड पार्क में जाया करता था लोगों के भाषण सुनने। कई लोग वहाँ भाषण देते थे—मुक्तिसेना के लोग, रोमन कैथलिक, यहूदी, हिन्दुस्तानी हर तरह के लोग होते थे। उन्हीं में एक वक्ता था, मुझे नाम याद नहीं लेकिन ज़बरदस्त बोलता था। वह दबाकर उन्हें गरियाता था! वह कहता था, “टटू! बुर्जुआजी के टटू! सत्ताधारियों के चाटुकार!" हाँ, एक और शब्द बोलता था वह-टुकड़खोर। और लकड़बग्घे भी -हाँ, पक्का, लकड़बग्घे बोलता था। तुम्हें तो पता होगा लेबर पार्टी के लिए ये नाम पुकारे जाते थे।"

विंस्टन को महसूस हुआ कि दोनों दो दिशाओं में बात कर रहे हैं।

उसने कहा, “देखिए, मैं दरअसल यह जानना चाह रहा था कि क्या आपको पहले के मुकाबले आज ज़्यादा आज़ादी का अहसास होता है? क्या आज आपको ज़्यादा इनसान समझकर बरताव किया जाता है? पुराने दिनों में अमीर लोग, ऊपर बैठे लोग...।"

बूढ़े ने याद करते हुए कहा, "हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स।"

"चलिए, हाउस ऑफ़ लॉईस ही सही, लेकिन मैं जो कहना चाह रहा है वह ये कि क्या ये लोग केवल इसलिए आप लोगों के साथ बुरा बरताव करते थे क्योंकि वे अमीर थे और आप गरीब? जैसे, मान लीजिए कि आप उनके पास से गुज़र रहे हों तो आपको अपनी टोपी उतारकर क्या उन्हें 'सर' बोलना होत था?"

ऐसा लगा कि बूढ़ा गहरी सोच में डूब गया हो। जवाब देने से पहले उसने आधी बीयर निपटा दी।

फिर बोला, “हाँ, वे चाहते थे कि हम उनके सामने अपनी टोपी उतार दें। ये इज्ज़त देने के लिए किया जाता था। मैं खुद इसे पसन्द नहीं करता था लेकिन कई बार मैंने भी ये किया है। कह सकते हो करना पड़ा।" ।

“और क्या ये सामान्य था मतलब मैंने ये सब केवल किताबों में पढ़ा है -लेकिन क्या ये रोज़मर्रा की बात थी कि वे लोग या उनके आदमी आप लोगों को पटरी पर से गटर में धकेल देते थे?"

बूढ़े ने कहा, “बस एक बार किसी ने मुझे धकेला था। लगता है जैसे कल की ही बात हो। वह नौका दौड़ वाली रात थी। बहुत झगड़ा-फसाद होता था इसमें। बहुत बखेड़ा खड़ा करते थे सब बोट रेस वाली रात को। उसी रात शाफ्ट्स बरी एवेन्यू पर मैं एक आदमी से टकरा गया जो भाषण देता था। सज्जन लग रहा था देखने में बढ़िया शर्ट, लम्ब टोप, काला ओवरकोट। वह पटरी पर लहराते हुए चल रहा था और मैं पता नहीं कैसे उससे टकरा गया। हादसा जैसा ही था। वह बोला, “देख के क्यों नहीं चलते?" मैंने कहा, "तुम्हारे बाप की सड़क है क्या?” उसने जवाब दिया, “मुझसे भिड़ोगे तो मैं तुम्हारी खोपड़ी उड़ा दूंगा।" मैंने कहा, “तुम नशे में हो, आधा मिनट नहीं लगेगा तुम्हें निपटाने में मुझे।" तुम मानोगे नहीं, उसने मेरी छाती पर हाथ रखा और उठाकर ऐसा फेंका कि मैं वहाँ से गुज़र रही एक बस के चक्के के नीचे आतेआते बाल-बाल बच गया। खैर, तब मैं भी जवान था, उसे छोड़ता नहीं।"

विंस्टन जैसे असहाय-सा महसूस करने लगा। बुड्ढे की याददाश्त में केवल छोटी-छोटी घटनाओं का कचरा भरा था, और कुछ नहीं। आप दिन भर उससे पूछते रहिए, कुछ क़ायदे का हाथ नहीं लगने वाला। हो सकता है कि पार्टी का बताया इतिहास सच ही हो, सम्भव है पूरी तरह सच हो। उसने आख़िरी दाँव खेला।

विंस्टन बोला, “लगता है मैं अपनी बात समझा नहीं पाया आपको। मैं जो कहना चाह रहा था वह ये है कि आप बहुत पुराने आदमी हैं और आधी ज़िन्दगी आप क्रान्ति से पहले जी चुके थे। 1925 में तो अच्छे-खासे बड़े रहे होंगे। आपने उस वक़्त जो भी देखा-सूना था, उसके आधार पर क्या इतना बता सकते हैं कि 1925 की ज़िन्दगी आज से बेहतर थी या नहीं? अगर आपको चुनने का मौक़ा मिले, तो आप क्या उस दौर में वापस जाना चाहेंगे?" बुड्ढा कुछ देर डार्ट बोर्ड पर ध्यान लगाकर देखता रहा। फिर उसने बीयर निपटाई, धीरे-धीरे। फिर उसके मुँह से जब ज़बान निकली तो उसका अन्दाज़ फ़लसफ़ाना था गोया बीयर ने उसे भीतर से पिघला दिया हो।

“मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे क्या कहलवाना चाह रहे हो। तुम चाहते हो मैं ये बोलूँ कि जैसे मैं जल्द ही फिर से जवान हो जाऊँगा। ज्यादातर लोगों से पूछो तो वे यही कहेंगे कि वे जवान होना चाहते हैं। जवानी में आप स्वस्थ होते हैं, ताक़तवर होते हैं। मेरी उम्र तक पहुँचते-पहँचते आप हमेशा दुरुस्त नहीं रह पाते। जैसे मेरे पैर में पता नहीं क्या गड़ता रहता है और मेरा पेट तो ख़राब ही रहता है। रात में छह-सात बार बिस्तर से उठना पड़ता है। बूढ़े होने के हालाँकि अपने फ़ायदे भी हैं। आपकी चिन्ताएँ वही नहीं रह जाती। औरतों का झंझट भी नहीं रहता, और इससे बढ़िया क्या होगा। अगर बड़ाई की ही बात है, तो मैं तीस साल से किसी औरत के पास नहीं गया। इच्छा भी नहीं है। और क्या चाहिए।"

विंस्टन खिड़की की सिल से पीठ टिकाकर बैठ गया। कोई फायदा नहीं था और बात करने का। उसने सोचा थोड़ी और बीयर ले आवे लेकिन इतने में ही बुड्ढा वहाँ से उठा और तेज़ी से कमरे के एक ओर बदबूदार शौचालय की ओर लपका। लगता है कि आधा लीटर ज़्यादा बीयर अपना काम कर गई थी। अपने ख़ाली गिलास को देखता विंस्टन एकाध मिनट वहाँ बैठा रहा, फिर उसे पता ही नहीं चला कि कब उसके पैर उसे वापस सड़क पर खींच लाए। वह सोच रहा था कि एक साधारण सहज सा सवाल कि “ज़िन्दगी क्रान्ति से पहले बेहतर थी या अब है?" बमुश्किल अगले बीस साल में हमेशा के लिए जवाब देने लायक़ ही नहीं रह जाएगा। वैसे तो आज भी इसका जवाब नहीं मिल पा रहा क्योंकि बीते ज़माने के एकाध छिटके हुए लोग याद हैं-काम पर अपने साथी से हुआ झगड़ा, साइकिल के खोये हुए पम्प की तलाश, काफ़ी पहले गुज़र चुकी बहन के चेहरे के भाव, सत्तर साल पहले की किसी सुबह हवा में उठता धूल का बवंडर; लेकिन जितने भी काम के तथ्य हैं सब उनकी स्मृति से बाहर जा चुके हैं। ये लोग चींटी की तरह हैं। बस छोटीछोटी चीजें देख पाते हैं, बड़ी चीजें नहीं। ऐसे में जब याददाश्त जवाब दे जाती है और सारे दस्तावेज़ों को झूठा बनाया जा चुका होता है, तब पार्टी के इस दावे को मानना ही पड़ता है कि जीने के इनसानी हालात सुधरे हैं क्योंकि कोई ऐसा पैमाना मौजूद ही नहीं है, न कभी होगा जिससे तुलना करके इस दावे की जाँच की जा सके।

उसके विचारों की रेल यहीं आकर अचानक रुक गई। उसने ठहरकर ऊपर देखा। वह एक सँकरी गली में था जहाँ मकानों के बीच अँधेरे में कुछ छोटी-छोटी दुकानें फैली हुई थीं। उसके सिर के ठीक ऊपर धातु के तीन बदरंग गोले लटक रहे थे जिनसे पता लगता था कि उन पर कभी सोने का पानी चढ़ा रहा होगा। उसे लगा कि इस जगह से वह परिचित है। हाँ, बेशक! वह उसी कबाड़ी की दुकान के बाहर खड़ा था जहाँ से उसने डायरी ख़रीदी थी।

भय की एक हल्की सी टीस उसके भीतर उठी। उसी समय वह डायरी ख़रीदना लापरवाही भरा काम था। तभी उसने क़सम खाई थी कि दोबारा यहाँ आसपास फटकेगा भी नहीं। और फिर से जैसे ही उसने अपने विचारों को खुला छोड़ा, उसके पाँव अपने आप चलते हुए उसे यहाँ तक लेकर आ गए। वास्तव में ऐसे ही आत्मघाती आवेगों से बचने के लिए उसने डायरी लिखनी शुरू की थी। उसका ध्यान गया कि रात के नौ बजने को हैं लेकिन दुकान अब तक खुली हुई है। उसे लगा कि बाहर पटरी पर खड़े रहने के बजाय कम से कम भीतर वह कम संदिग्ध दिखेगा, उसने चौखट लाँघ ली और भीतर चला आया। कोई पूछे तो वह झट से बोल देगा कि रेजर की ब्लेड लेने वहाँ आया था।

दुकान मालिक ने अभी-अभी बत्ती जलाई थी। उसके जलने की महक गन्दी लेकिन परिचित सी लगती थी। वह साठ साल का शख़्स रहा होगा, कमज़ोर और झुका हुआ, लम्बी और भद्र नाक वाला और सौम्य आँखों वाला जो मोटे चश्मे के भीतर से थोड़ा टेढ़ी-मेढ़ी दिखती थीं। उसके बाल तक़रीबन सारे सफ़ेद थे लेकिन भौहें काली और घनी थीं। उसका चश्मा, उसकी विनम्र चाल और उसकी पहनी पुराने ढंग की काली मखमली जैकेट से उसके इर्दगिर्द एक बौद्धिकता का आभामंडल-सा दिखता था, जैसे कि वह साहित्य-संगीत का आदमी हो। उसकी आवाज़ नरम और म्लान थी, उसकी भाषा बाक़ी जनता के मुकाबले कम भ्रष्ट थी।

उसने छूटते ही कहा, “मैंने आपको बाहर से ही पहचान लिया था। आप ही न थे जिन्होंने वह जवान लड़कियों को तोहफ़े में दी जाने वाली सादी किताब ख़रीदी थी। क्या मक्खन कागज़ था उसका। उसे क्रीम-लेड कहते थे। हिमाकत होगी, जो मैं आपको बताऊँ कि ऐसा काग़ज़ तो बीते पचास साल में आज तक नहीं बना।" अपने चश्मे के ऊपर से उसने विंस्टन पर निगाह डाली। “क्या मैं आपकी कुछ ख़ास सेवा कर सकता हँ? या फिर आप बस ऐसे ही घूमकर देखना चाहेंगे?"

विंस्टन ने बेपरवाही से कहा, “मैं तो बस इधर से गुज़र रहा था, तो भीतर आ गया। कुछ ख़ास नहीं चाहिए।" दूसरे शख्स ने कहा, “कोई बात नहीं। मुझे लगता है कि मैं आपको सन्तुष्ट नहीं कर पाया।" अपनी नरम हथेलियों वाले हाथों से उसने खेद जताने की सी मुद्रा बनाई और बोला, “आप तो देख ही रहे हैं, इस दुकान में कुछ भी नहीं, कह सकते हैं कि बिलकुल खाली है। पुरानी चीज़ों का व्यापार एकदम ख़त्म हो गया है। ये बात सिर्फ मेरे और आपके बीच है। माँग नहीं है तो माल भी ख़त्म है। फ़र्नीचर, चाइना ग्लास, सब टूटा-फूटा है। धातु का सारा सामान तो ज़्यादातर पिघल ही चुका है। बरसों से मैंने पीतल का एक चिरागदान तक नहीं देखा।"

भीतर से दुकान बहुत तंग थी और ठसाठस भरी पड़ी थी, हालाँकि कुछ भी उसमें ऐसा नहीं था जिसका कोई हल्का सा भी महत्त्व हो। फ़र्श पर ख़ाली जगह बहुत कम थी क्योंकि चारों ओर की दीवारों पर अनगिनत तस्वीरों के फ्रेम जड़े हुए थे जिन पर धूल चिपकी थी। खिड़कियों पर नट-बोल्ट की ट्रे, भोथरी छेनी, टूटी हुई पत्तियों वाले क़लमतराश, मैली जेबघड़ियाँ रखी थीं जिनमें समय रुका पड़ा था। ऐसे ही और तमाम कचरा वहाँ भरा पड़ा था। बस कोने में एक छोटी-सी मेज़ पर कुछ अनगढ़ चीज़ों का अम्बार जमा था जो थोड़ा अलग जान पड़ती थीं जैसे रंग-रोगन किए गए नसवार के डिब्बे, सुलेमानी पत्थर से बनी जड़ाऊ पिनें, इत्यादि। ऐसा लगता था कि इनमें कुछ दिलचस्प हो सकता है। उसी टेबल के इर्द-गिर्द टहलते हुए विंस्टन की निगाह एक गोल, चिकनी सी चीज़ पर गई और उसने वह उठा लिया।

वह काँच का भारी गोला था एक ओर तराशा हुआ और दूसरी ओर सपाट, जिससे उसकी आकृति अर्धगोलाकार हो जा रही थी। काँच के रंग और दानों में एक विलक्षण क़िस्म की मुलायमियत थी, जैसा बारिश की बूंदों में होती है। उसके भीतर बीचोबीच उभरी हुई एक अजीबोगरीब पेचीदा सी गुलाबी चीज़ थी, जो गुलाब के फूल या समुद्री एनिमोन की याद दिलाती थी।

चमत्कृत विंस्टन ने पूछा, “यह क्या है?"

“यह कोरल है," बुजुर्ग ने कहा, “यह पक्का हिन्दी महासागर से आया होगा। इसे काँच के भीतर जड़ा जाता था। यह कम से कम सौ साल पहले बना होगा। देखने से तो ऐसा ही लगता है।"

“यह बहुत खूबसूरत है," विंस्टन बोला।।

बुजुर्ग ने कहा, “यह वाक़ई खूबसूरत चीज़ है, लेकिन ऐसा कहने वाले ज़्यादा नहीं बचे हैं आजकल।" वह खाँसा, फिर बोला, “अगर इसे ख़रीदना चाहो तो चार डॉलर चुकाने होंगे। मुझे वह दौर भी याद है जब ऐसी किसी चीज़ की क़ीमत आठ पाउंड हुआ करती थी और आठ पाउंड का मतलब होता था अगर मैं सही-सही अन्दाज़ा लगाऊँ तो, बहुत सारा पैसा। आजकल किसे परवाह है ऐसी ख़ालिस पुरानी चीज़ों की, वैसे भी जब ये मुट्ठी भर ही बची हों।"

विंस्टन ने तत्काल चार डॉलर चुकाए और उस बेशकीमती चीज़ को अपनी जेब के हवाले कर दिया। विंस्टन के लिए उसका असली मोल उसकी खूबसूरती में उतना नहीं, बल्कि उसकी प्राचीनता में था। वैसा बारिश की बूंदों सा नरम काँच उसने ज़िन्दगी में नहीं देखा था। उसका आकर्षण इस बात से भी दोगुना हो जाता था कि वह एक अनुपयोगी चीज़ थी गोकि किसी दौर में उसका इस्तेमाल पेपरवेट के तौर पर ही होता रहा होगा ऐसा उसने अन्दाज़ा लगाया। उसकी जेब में काफ़ी वज़न महसूस हो रहा था, लेकिन गनीमत थी कि बाहर बहुत उभरा हुआ नहीं दिख रहा था। पार्टी के आदमी के पास एक पेपरवेट का होना सनक ही माना जाता, बल्कि उस पर सन्देह पैदा कर सकता था। किसी भी पुरानी चीज़ को, या कहें किसी भी खूबसूरत चीज़ को पार्टी में हमेशा सन्देह की निगाह से देखा जाता था। चार डॉलर मिलने के बाद बूढ़ा दुकानदार ताज़ादम दिख रहा था। विंस्टन को उसे देखकर महसूस हुआ कि वह इसके बदले तीन या दो डॉलर तक भी ले सकता था।

बूढ़े ने कहा, "ऊपर एक और कमरा है, आप चाहें तो कुछ वहाँ भी देख सकते हैं। वैसे तो वहाँ कुछ ख़ास नहीं है, कुछेक सामान हैं। अगर ऊपर चलना हो तो मैं रोशनी कर सकता हूँ।"

उसने एक लैम्प जलाया और झुकी हुई कमर से धीरे-धीरे राह दिखाते हुए एक सँकरे गलियारे के रास्ते खड़ी और पुरानी सीढ़ियों पर चढ़ते हुए एक कमरे में दाखिल हुआ। इस कमरे से सड़क नहीं दिखती थी। नीचे पत्थरों की पटिया से बना एक आँगन था और सामने चिमनियों का जंगल दिखाई देता था। विंस्टन ने इस बात पर ध्यान दिया कि वहाँ फ़र्नीचर ऐसे करीने से रखे हुए थे जैसे वह कमरा रहने के लिए बना हो। फ़र्श पर कालीन की एक पट्टी बिछी थी, दीवारों पर एकाध तस्वीरें लगी थीं और अँगीठी के सामने एक ढीली आरामकुर्सी रखी हुई थी जो भीतर से काफ़ी गहरे धंस चुकी थी। अँगीठी के ऊपर बनी पट्टी पर टिकटिक करती काँच की एक दीवार घड़ी लगी हुई थी जिस पर बारह का घंटा बना हुआ था। खिड़की के नीचे एक विशाल पलंग था जिस पर गद्दा पड़ा हुआ था। वह कमरे की करीब एक-चौथाई जगह को घेरे हुए था।

“मेरी पत्नी के गुज़रने तक हम यहीं रहते थे," हल्के खेद भाव में बूढ़े ने कहा, “अब एक-एक करके मैं फ़र्नीचर बेच रहा हूँ। वह खूबसूरत पलंग महोगनी की लकड़ी का बना है, या कह सकते हैं कि वैसा हो जाएगा अगर इससे खटमल निकाल दिए जाएँ तो, हालाँकि धृष्टता होगी जो मैं कहूँ कि ये काम बोझिल है।"

पूरे कमरे को रोशन करने के लिए उसने लैम्प को थोड़ा ऊँचा उठा रखा था। उस गुनगुनी मद्धम रोशनी में कमरा अपनी ओर अजीब तरीके से खींच रहा था। विंस्टन के मन में ख़याल आया कि हर हफ्ते के हिसाब से कुछ डॉलर ख़र्च करके इस कमरे को किराए पर लिया जा सकता है, अगर वह यह जोखिम उठाने को तैयार हो जाए। सोचते ही उसे लगा कि यह कल्पना इतनी नामुमकिन और बेबुनियाद है कि इससे तुरन्त छुटकारा पाया जाना चाहिए, लेकिन इस कमरे ने उसके भीतर किसी पुरानी स्मृति को जगा दिया था। उसे लगा वह बहुत अच्छे से जानता था कि ऐसे एक कमरे में आग के सामने फेंडर पर पैर फैलाए हुए हाथी पर नितान्त अकेले और महफूज़ बैठने में कैसा महसूस होता है, जबकि आपके बग़ल में गरमाती हुई एक केतली रखी हो और उसकी सीटी व घड़ी की परिचित टिकटिक के अलावा और कोई भी आवाज़ आपका पीछा न कर रही हो।

“यहाँ कोई टेलिस्क्रीन नहीं है," वह खुद को बदबूदाने से रोक नहीं सका।

बूढ़े ने कहा, “ओह, मेरे पास ऐसी चीजें कभी नहीं रहीं। बहुत महँगी हैं। और मुझे उसकी ज़रूरत कभी महसूस भी नहीं हुई। वहाँ कोने में मुड़नेखुलने वाली एक बेहतरीन टेबल रखी है। पल्लों का इस्तेमाल करना चाहो तो आपको उसमें नए क़ब्ज़े लगवाने होंगे।"

कमरे के दूसरे कोने में किताबों की छोटी-सी एक अलमारी थी। विंस्टन पहले ही उधर खिंचा चला गया था। उसमें केवल कचरा भरा था। किताबों को खोजकर नष्ट करने का अभियान लोगों के घरों में और हर जगह एक सा ही चलाया गया था। पूरे ओशियनिया में 1960 से पहले छपी किसी किताब की एक भी प्रति के मिलने की गुंजाइश असम्भव सी थी। बुजुर्ग आदमी अब भी हाथ में रोशनी लिये अँगीठी के दूसरी ओर पलंग के ठीक सामने वाली दीवार पर टॅगी एक तस्वीर को देख रहा था जो शीशम के फ्रेम में जड़ी हुई थी।

उसने विनम्रता से कहा, “अगर आपकी दिलचस्पी पुरानी तस्वीरों में हो तो।"

विंस्टन ने क़रीब आकर उस तस्वीर का मुआयना किया। वह स्टील पर उकेरी गई एक अंडाकार इमारत की तस्वीर थी जिसमें आयताकार खिड़कियाँ थीं और जिसके सामने एक छोटी-सी मीनार थी। इमारत के चारों ओर एक रेलिंग थी और पीछे की तरफ़ एक बुत जैसा कुछ था। थोड़ी देर तक विंस्टन उसे देखता रहा। दूर से कुछ जाना-पहचाना हुआ सा तो लगता था, हालाँकि बुत के बारे में उसे कुछ याद नहीं आ रहा था।

“यह फ्रेम दीवार में जड़ा हुआ है," बुजुर्ग ने कहा, "लेकिन हिमाकत होगी जो मैं कहूँ कि आपके लिए मैं इसे निकाल सकता हूँ।"

"उस इमारत को मैं पहचान रहा हूँ,” विंस्टन ने कहा, “अब तो वह खंडहर है। पैलेस ऑफ़ जस्टिस के बाहर वाली सड़क के बीच में पड़ती है।"

“बजा फ़रमाया आपने। अदालत के बाहर। उसे बम से उड़ा दिया गया था कई साल पहले। एक वक़्त में वह चर्च था, उसका नाम था सेंट क्लीमेंट डेन्स।" थोड़ा खेदजनक तरीके से वह मुस्कुराया गोया उसने जानबूझकर कोई हास्यास्पद बात कह दी हो, फिर बोला, "सेंट क्लीमेंट की घंटियाँ, बोलें नीबू और नारंगियाँ।"

“मतलब?" विंस्टन ने पूछा।

“ओह–“सेंट क्लीमेंट की घंटियाँ, बोलें नीबू और नारंगियाँ" एक कविता थी जो हम लोग बचपन में गाया करते थे। पूरी तो मुझे याद नहीं लेकिन अन्त बेशक याद है, "ये शमा तुम्हें सुला देगी, ये छरी तुम्हें मिटा देगी।" वह एक तरह का डांस था। उसमें लोग अपने हाथ फैलाकर दूसरे के फैले हुए हाथ पकड़ लेते थे और उसके नीचे से आपको गुज़रना होता था। फिर जैसे ही यह लाइन आती कि 'ये छुरी तुम्हें मिटा देगी' वे हाथ नीचे करके आपको पकड़ लेते थे। उस कविता में केवल चर्चों के नाम थे। लंदन के सारे चर्चों के नाममतलब जितने भी बड़े चर्च हैं।"

विंस्टन सोच रहा था कि ये चर्च भी जाने किस सदी के हैं। लंदन की इमारतों की उम्र पता करना हमेशा ही मुश्किल होता था। कोई भी आकर्षक और भव्य इमारत जो देखने में नई सी लगती हो, उसके बारे में तो दावा कर दिया जाता था कि इसे क्रान्ति के बाद बनाया गया है जबकि किसी भी पुरानी चीज़ को एक अँधेरे दौर से जोड़ दिया जाता जिसे मध्य युग कहते थे। माना जाता था कि सदियों चले पूँजीवाद के दौर में कुछ भी मूल्यवान पैदा नहीं हुआ। इतिहास जानने के लिए किताबों से कहीं बेहतर वास्तुकला है। प्रतिमाएँ, अभिलेख, स्मारक, सड़कों के नाम कुछ भी जो अतीत को रोशन कर सकता था हर उस चीज़ को बड़े व्यवस्थित तरीके से बदल दिया गया था।

उसने कहा, “मुझे पता ही नहीं था कभी वह इमारत चर्च थी।"

बुजुर्ग ने कहा, “ऐसी बहुत सी इमारतें बची हुई हैं, हालाँकि अब उन्हें किसी और काम में लाया जा रहा है। ओह, वह कविता मुझे याद आ गई, कुछ ऐसे थी:

सेंट क्लीमेंट की घंटियाँ, बोलें नीबू और नारंगियाँ
सेंट मार्टिन की घंटियाँ, माँगें मेरी तीन दमड़ियाँ...

बस, इतना ही याद है। दमड़ी ताँबे के छोटे सिक्के को कहते थे जो सेंट की तरह दिखता था।"

विंस्टन ने पूछा, “और सेंट मार्टिन कहाँ था?"

"सेंट मार्टिन? वह तो अब भी खड़ा है। विजय चौक पर, कला दीर्घा के साथ में। वह तिकोने दवारमंडप वाली इमारत जिसके सामने कई स्तम्भ हैं और जिसकी सीढ़ियाँ बड़ी गहरी हैं।"

विंस्टन उस जगह को अच्छे से जानता था। वह एक संग्रहालय था जहाँ तमाम किस्म की झाँकियाँ निकलती थीं जिनका इस्तेमाल राजनीतिक दुष्प्रचार के लिए किया जाता था, जैसे रॉकेट बम और जलमहल के छोटे मॉडलों की झाँकी, दुश्मन की यातनाओं को दिखाने के लिए मोम के बने चित्रों की झाँकी, इत्यादि।

बुजुर्ग ने जोड़ा, “उसे मार्टिन्स-इन-दि-फील्ड्स कहते थे, हालाँकि मुझे याद नहीं पड़ता कि उधर आसपास कोई मैदान था।"

विंस्टन ने तस्वीर नहीं ख़रीदी। काँच के पेपरवेट के मुक़ाबले वह और विचित्र होता और उसे घर भी नहीं ले जाया जा सकता था जब तक कि उसे फ्रेम से बाहर न निकाल लिया जाए। फिर भी कुछ और मिनट वह वहाँ रुका रहा, बुड्ढे से बातें करता रहा। इसी दौरान उसे पता चला कि बुड्ढे का नाम वीक्स नहीं था, जैसा कि अन्दाज़ा दुकान के बाहर लिखे नाम को देखकर लगता था। उसका नाम चारिंगटन था। वह तिरसठ साल का विधुर था और तीस साल से यह दुकान चला रहा था। तब से ही उसके दिमाग में था कि खिड़की के ऊपर दुकान का लिखा नाम बदल दिया जाए लेकिन वह बस सोचता ही रहा, कर नहीं पाया। जितनी देर वे बात करते रहे, विंस्टन के दिमाग में वह अधूरी कविता बजती रही। सेंट क्लीमेंट की घंटियाँ, बोलें नीबू और नारंगियाँ, सेंट मार्टिन की घंटियाँ, माँगें मेरी तीन दमड़ियाँ! अद्भुत कविता है। ख़ुद से मन में दुहराइए तो वास्तव में आपको घंटियाँ सुनाई देने लगती हैं। उस गुम हो चुके लंदन की घंटियाँ जो अब भी कहीं किसी और शक्ल में मौजूद हैं लेकिन जिन्हें भुलाया जा चुका है। उसे एक के बाद एक भुतहे गिरजाघरों से आता घड़ियालों का घोष सुनाई दे रहा था। जहाँ तक याद पड़ता है, वास्तव में ज़िन्दगी में उसने एक बार भी चर्च के घंटे-घड़ियालों की आवाज़ नहीं सुनी है।

मिस्टर चारिंगटन से विदा लेकर वह सीढ़ियों से नीचे अकेले ही उतरा ताकि उस बुड्ढे को ये न लगने पाए कि दरवाज़े से बाहर क़दम रखने से पहले वह सड़क की टोह ले रहा है। उसने सोच लिया था कि थोड़ा समय बीत जाए, मसलन एक महीना, तब वह फिर से इस दुकान पर आने का जोखिम उठाएगा। सामुदायिक केन्द्र की एक गोल करने से शायद ज़्यादा खतरनाक नहीं था यहाँ आना। अव्वल तो यहाँ से डायरी ख़रीदने के बाद बिना यह जाँचे कि इस दुकानदार पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं, दोबारा वापस आकर भारी गलती तो हो ही चुकी थी। बहरहाल...|

इसके बावजूद उसने सोचा कि फिर से यहाँ आना तो बनता है। वह यहाँ के खूबसूरत कचरे में से फिर कुछ और ख़रीदेगा। वह सेंट क्लीमेंट डेन्स की नक़्क़ाशी वाली तस्वीर भी ख़रीदेगा, उसे फ्रेम से निकालकर अपनी वर्दी के भीतर जैकेट में छिपाकर घर ले आएगा। उस कविता की बाक़ी पंक्तियाँ भी उसे मिस्टर चारिंगटन से जाननी हैं। यहाँ तक कि ऊपर वाला कमरा भाड़े पर लेने का झक्की ख़याल भी उसके दिमाग में एक पल को कौंध गया। महज़ पाँच सेकंड के इस उल्लास ने उसे ऐसा लापरवाह बना दिया कि खिड़की से बाहर का मुआयना किए बगैर ही वह पटरी पर निकल आया। उसने तो अपनी एक धुन भी बना ली थी और कविता गुनगुना रहा था:

सेंट क्लीमेंट की घंटियाँ, बोलें नीब और नारंगियाँ
सेंट मार्टिन की घंटियाँ, माँगें..

सहसा उसका दिल जम गया और पेट में गड़गड़ होने लगी। बमुश्किल दस मीटर दूर से नीली वर्दी में कोई पटरी पर उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था। वह गल्प विभाग वाली लड़की थी, गहरे बालों वाली। रोशनी कम हो रही थी लेकिन उसे पहचानने में कोई दिक़्क़त नहीं आई। उसने विंस्टन के चेहरे को घूरकर देखा, फिर तेज़ी से ऐसे निकल ली जैसे देखा ही न हो।

कुछ सेकंड के लिए तो विंस्टन को काठ मार गया था। फिर वह दाईं ओर मुड़ा और भारी क़दमों से निकल लिया बगैर इस बात का अहसास किए कि वह ग़लत दिशा में जा रहा है। चाहे जो हो, एक सवाल तो हल हो चुका था। अब कोई सन्देह नहीं रह गया था कि लड़की उसकी जासूसी कर रही थी। पक्का वह उसका पीछा करती हुई ही यहाँ तक आई होगी क्योंकि यह इत्तेफ़ाक़ तो नहीं हो सकता कि उसी शाम को उसी सड़क पर वह भी टहलती हुई मिले, जो पार्टी सदस्यों की रिहाइश से कई किलोमीटर दूर थी। यह संयोग से कुछ ज़्यादा ही था। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि वह विचार पुलिस की एजेंट है या महज़ एक शौक़िया गुप्तचर, जो अनधिकार चेष्टा में लगी हुई है। बस इतना ही काफ़ी था कि वह उस पर निगरानी रख रही थी। हो सकता है कि उसे पब जाते हुए भी उसने देखा हो।

चलने में दिक़्क़त हो रही थी। जेब में रखा काँच का गोला हर क़दम पर जंघे से लड़ रहा था। मन में आ रहा था कि उसे निकाल बाहर फेंक दे। सबसे बुरा हाल पेट का था। पेट दर्द के चलते एकाध मिनट को उसे लगा कि अगर जल्दी ही किसी शौचालय में नहीं गया तो मर जाएगा, लेकिन इस इलाके में सार्वजनिक शौचालय होते ही नहीं थे। धीरे-धीरे मरोड़ चली गई और हल्का सा दर्द रह गया।

वह एक अन्धी सड़क थी। विंस्टन कछ सेकंड ठहरकर सोचने लगा कि क्या किया जाए, फिर पीछे मुड़ा और अपने क़दमों की निशानदेही करने लगा। उसे अहसास हुआ कि लड़की ने उसे केवल तीन मिनट पहले ही देखा था। अगर वह दौड़ लगा दे तो उसे शायद पकड़ लेगा। फिर उसका पीछा करेगा और कोई सुनसान जगह मिलते ही पटिये से उसका भेजा फॅच देगा। उसकी जेब में रखा काँच का गोला ही इस काम के लिए काफ़ी था। इस विचार को उसने तुरन्त ही त्याग दिया क्योंकि ऐसी स्थिति में शारीरिक बल लगाने की वह सोच भी नहीं सकता था। न तो वह दौड़ पाएगा, न उसे मार पाएगा। उस पर से लड़की जवान और मज़बूत थी, खुद को बचा लेती। फिर उसे लगा कि भागकर सामुदायिक केन्द्र पहुँचे और उसके बन्द होने तक वहीं पड़ा रहे ताकि कम से कम आंशिक उपस्थिति ही दर्ज हो जाए, लेकिन यह भी मुमकिन नहीं था। उसे जानलेवा शिथिलता ने जकड़ लिया था। कुल मिलाकर वह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि चैन से चुपचाप बैठ सके।

दस बजे के बाद वह अपने फ़्लैट पर पहुँचा। मुख्य द्वार की बत्ती साढ़े ग्यारह बजे बन्द हो जाती थी। पहँचते ही वह रसोई में गया और तक़रीबन एक कप भरकर विक्टरी जिन गटक गया। फिर वह टेबल पर गया, वहाँ बैठा और दराज से उसने डायरी निकाली, लेकिन तुरन्त उसे खोला नहीं। टेलिस्क्रीन पर एक महिला की कर्कश आवाज़ में देशभक्ति का गीत तूफ़ानी अन्दाज़ में बज रहा था। उसने अपनी खोपड़ी के भीतर उस आवाज़ से निजात पाने की कोशिश में किताब के संगमरमरी आवरण पर अपना ध्यान टिकाया, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हुआ।

यहाँ लोगों को रात में ही उठाया जाता है, हमेशा रात में। आप उनके हाथ लग जाएँ, बेहतर है कि उससे पहले ही आदमी खुदकुशी कर ले। बेशक कुछ लोगों ने ऐसा किया भी है। कई लोग जो अचानक गायब हो गए, उन्होंने वास्तव में खुदकुशी कर ली थी लेकिन खुदकुशी भी यहाँ बहुत संकल्प और साहस माँगती थी। इस दुनिया में जान देने के लिए कोई हथियार या तेज़ी से असर करने वाला कोई ज़हर तो कहीं बिकता नहीं था। बड़े विस्मय से उसने सोचा कि यह दर्द और डर जैसे ये भाव जैविक रूप से कितने वाहियात हैं, कि ऐन मौके पर जब आपको खुद पर ज़ोर लगाने की ज़रूरत होती है, वहीं शरीर जम जाता है। इनसान की देह कैसी छलिया है। अगर उसी वक़्त वह हरकत में आ गया होता तो उस गहरे बालों वाली लड़की को ख़त्म कर सकता था, लेकिन एकदम ख़तरे की पराकाष्ठा पर ही कुछ करने की उसकी ताक़त जाती रही। उसे अहसास हुआ कि संकट के पल में आप बाहरी दुश्मन से नहीं, अपनी देह से लड़ रहे होते हैं। जिन पीने के बावजूद उसके पेट में अब भी हल्का-हल्का दर्द था जिसके चलते उसकी विचार प्रक्रिया टूट रही थी। उसको समझ में आया कि प्रत्यक्ष तौर पर चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, साहसिक या त्रासद, यह बात हर जगह लागू होती है। जंग के मैदान में, यातना शिविर में, डूबते हुए जहाज़ में, कहीं भी आप जिन मुददों से लड़ रहे होते हैं वे हमेशा ज़ेहन से बाहर हो जाते हैं क्योंकि पूरे ब्रह्मांड का केन्द्र आपका शरीर बन जाता है। देह सब कुछ व्याप लेती है। और ऐसा तब भी होता है जब आप डरे हुए नहीं होते या दर्द से चीख़ नहीं रहे होते हैं। मसलन, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को ही ले लें जो अपने आप में पल-पल एक संघर्ष है-कभी भूख के ख़िलाफ़ तो कभी ठंड के, कभी अनिद्रा के ख़िलाफ़ तो कभी बदहज़मी के और कभी एक अदद दाँत का असहनीय दर्द।

उसने डायरी खोली। अब कुछ लिखना ज़रूरी था। टेलिस्क्रीन पर महिला ने नया गीत शुरू कर दिया था। उसकी आवाज़ दिमाग को काँच के नुकीले किरचों की तरह भेद रही थी। उसने ओ'ब्रायन के बारे में सोचने की कोशिश की, जिसके लिए या जिसको सम्बोधित यह डायरी लिखी जा रही थी, लेकिन इसके बजाय वह यह सोचने लगा कि विचार पुलिस उसे उठा ले जाएगी तो उसके साथ क्या-क्या होगा। एक झटके में वे जान ले लें तो कोई गम नहीं। मारा जाना तो अपेक्षित ही है, लेकिन उससे पहले (हर कोई जानता था लेकिन ऐसी चीज़ों पर बोलता नहीं था) जुर्म क़बूल करवाने का एक लम्बा सिलसिला चलता था : फ़र्श पर रेंगना और रहम के लिए चिल्लानागिड़गिड़ाना, हड्डियाँ तोड़ा जाना, दाँत तोड़ा जाना और बालों में जमे खून के थक्के। अगर अन्त हमेशा एक ही होना था तो इतना सब झेलने की क्या ज़रूरत? उम्र के कुछ हफ़्ते या कुछ दिन कम ही कर दें तो इसमें क्या दिक़्क़त है? जासूसी से आज तक कोई नहीं बच पाया था और कोई नहीं था जिसने जुर्म क़बूल न किया हो। एक बार आपने वैचारिक अपराध कर दिया तो उसी वक़्त यह तय हो जाता था कि एक निश्चित तारीख़ तक आप मर चुके होंगे। फिर ऐसे ख़ौफ़नाक मुस्तकबिल की क्या उपयोगिता जिससे कुछ भी नहीं बदलने वाला था?

ओ'ब्रायन की छवि को दिमाग में लाने के लिए उसने पहले से थोड़ा कारगर ज़ोर लगाया। "हम वहाँ मिलेंगे जहाँ कोई अँधेरा नहीं होगा,” यही कहा था ओ'ब्रायन ने उससे। वह जानता था कि इसका अर्थ क्या है, या उसे ऐसा लगता था कि वह जानता है। जहाँ अँधेरा न हो, ऐसी जगह एक कल्पित भविष्य है जिसे देखा तो नहीं जा सकता लेकिन पूर्वज्ञान के आधार पर किसी से रूहानी स्तर पर साझा ज़रूर किया जा सकता है। उसके कानों को लगातार चिढ़ा रही टेलिस्क्रीन से निकलने वाली आवाज़ सोचने में खलल डाल रही थी। वह अब और आगे सोच नहीं पा रहा था। उसने मुँह में सिगरेट लगाई। आधी तम्बाकू उसकी जीभ पर ही गिर गई। एकदम कड़वी धूल थी जिसे थूकने में ज़बान और कड़वी हो गई। ओ'ब्रायन की जगह मोटा भाई का चेहरा उसके जेहन में तैर गया। कुछ दिन पहले ही ऐसा होने पर जो उसने किया था, वही दुहराया-जेब से एक सिक्का निकाला और उसे देखने लगा। उस पर बना चेहरा उसे एकटक घूर रहा था भारी, निश्चल, सरपरस्तलेकिन उसकी गाढ़ी मूंछों के पीछे जो मुस्कान छिपी थी, उसमें क्या था? तभी, मौत के किसी मनहूस फ़रमान की तरह ये शब्द उसके पास लौट आए :

युद्ध, शान्ति है
आज़ादी, गुलामी है
अज्ञान, ताक़त है

  • 1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-दूसरा भाग-अध्याय 1-4
  • 1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-अध्याय 4-6
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