विचित्र अधिकार (लघु-कथा) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Vichitra Adhikar (Laghu-Katha) : Vijaydan Detha 'Bijji'
एक महात्मा फेरी पर जा रहे थे। एक नवेली बहू ने न तो उन्हें दक्षिणा में आटा डाला और न उन्हें रोटियाँ ही दीं। महात्मा को काफी गुस्सा आया। उनकी ऐसी शान तो पहली
बार ही बिगड़ी। रास्ते भर उसे कोसते हुए, बुरा-भला कहते हुए बड़बड़ाते जा रहे थे कि सर पर लकड़ियों की भारी उठाए बहू की सास मिल गई।
उसे रोककर कहने लगे, कैसी कुलच्छनी बहू लाई हो जो हाथ की बजाए संतों को मुँह से उत्तर दे। क्या एक अंजलि भर आटे व एक रोटी से भी साधु सस्ता हो गया? महात्मा के भेख में एक कुत्ते जितनी भी इज्जत नहीं रखी। मुँह के सामने ही साफ मना कर दिया कि मुफ्तखोर साधुओं को देने के लिए आटा नहीं पीसा। अब तो घर-घर बहुओं का राज होने लगा है। थोड़े दिन बाद तो खुद भगवान भी भूखे मरने लगेंगे।
महात्मा की बात सुनकर सास आगबबूला हो गई। अविश्वास के भाव से पूछा, सच कह रहे हैं?
नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूँ। लगता है अब इन बहुओं के कारण हमें भी झूठ सीखना पड़ेगा।
फिर तो यह दुनिया जीने के काबिल नहीं रहेगी। नहीं महाराज, आप अपने मुँह से ऐसी बात न करें, सुनने से ही पाप लगता है। चलिए मेर साथ। बड़ी आई नवाबजादी, जीभ न खींच लूँ तो मेरे नाम पर जूती। खड़े-खड़े देख क्या रहे हैं, चलिए न मेरे साथ।
महात्मा ने सास का यह रंग-ढंग देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। बार-बार मना करने पर उसके सर की भारी अपने कंधे पर धरने के बाद ही वे उसके पीछे-पीछे चले। सास गुस्से में तेज चलती हुई बहू को दनादन गालियाँ निकाल रही थी। सुनकर महात्मा को भी अचरज हुआ कि इत्ती गालियाँ तो वे भी नहीं जानते। पर मन-ही-मन बड़े खुश थे कि सास-बहू के झगड़े में उनके पौ-बारह हो जाने हैं। लकड़ियों का भारी बोझ उन्हें फूलों की डलिया जैसा हल्का लगा और उधर भार उतरने से सास का मुँह और ज्यादा खुल गया था।
घर पहुँचते ही महात्मा जी से भारी लेकर वह दनदनाती अंदर पहुँची। गले की पूरी ताकत से बहू को झिड़कते हुए उसने अंत में पूछा, बोल तूने, सचमुच महात्मा जी को मना किया?
बहू ने धीमे से अपराधी के नाईं हामी भरी। सास की आँच और तेज हो गई, बेशऊर कहीं की! तेरी इतनी हिम्मत कि मेरे रहते तू मना करे?
महात्मा मन ही मन सोचने लगे कि आज तो यह झोली छोटी पड़ जाएगी। बड़ी लाते तो अच्छा रहता। उन्हें क्या पता कि सास इतनी भली है! उबलती हाँडी के ढक्कन के तरह फदफदाते सास बाहर आई। पर खाली हाथ। गुस्से के उसी लहजे में बोली, भला आप ही बताइए, मेरे रहते वह मना करनेवाली कौन होती है? मरने के बाद भी उसकी ऐसी हिम्मत क्या हो जाए! मना करूँगी तो मैं करूँगी। यूँ मुँह बाए क्यूँ खड़े हैं? हाथ-पाँव हिलाते मौत आती है! खबरदार कभी इधर मुँह किया तो। इस घर की मालकिन हूँ तो मैं हूँ, एक बार नहीं सौ बार मना करूँगी। फौरन, अपना काला मुँह करिए यहाँ से। बेकार झिकझिक करने की मुझे फुरसत नहीं है।
बेचारे महात्मा ने डरते-सहमते अपने सर पर हाथ फेरा। सचमुच, लकड़ियों का गट्ठर तो सास उतार ले गई थी, फिर यह असह्य बोझ काहे का है? उनके पाँव मानो धरती से चिपक गए हों।