वैतरणी (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Vaitarni (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'
राजा माने सो रानी। बादल बरसे सो पानी। तो भगवान भले दिन दे कि एक था जाट।
गाँव से थोड़ी दूर वह एक ढाणी में रहता था। पीढ़ियों से खेती-बाड़ी का
धन्धा। पर इस बेभरोसे के धन्धे में कोई खास बरकत नहीं हुई। जैसे-तैसे
गाड़ी घिसट रही थी। पेट में गाँठें और गले में फंदा। खेत-खलिहान के झंझट
से मौत के अलावा कभी मुक्ति नहीं मिलती थी। इसलिए रामनाम और भजनभाव में मन
लगाना पड़ता था। वीणा के तारों की झनकार से हृदय में अदृश्य सुख की
हिलोरें उठती थीं। चौधराइन के गुजरने के बाद चौधरी का मन घर-गृहस्थी से
बिलुकल उचट गया। दूसरी औरत बिठाने के लिए नाते-रिश्तेदारों ने बहुत कहा,
पर चौधरी नहीं माना। हर बार यही जवाब देता कि एक बार पछताया वही बहुत है।
पहले तो अजाने खाई में गिरा। अब जानते-बूझते गलती नहीं करेगा। अपने सुख के
लिए चार नन्हे बच्चों को सौतेली माँ के हवाले कैसे करे ! सुख का तो फकत
नाम ही सुना है। दुःख और अभाव मिलकर भुगतें अब तो यही सबसे बड़ा सुख है।
वीणा को जीवन-साथी बनाया है सो मरते दम तक साथ निभाएगा।
नाते-रिश्तेदार मसखरी करते कि अभी तो सर में एक भी सफेद बाल नहीं आया।
चौधरी हाथ जोड़कर कहता, ‘‘काले-सफेद का फर्क तुम्हें
दिखता होगा मुझे नहीं।’’
तब कोई हमउम्र चुटकी लेता, ‘‘यों आँखें मूँद कर
अँधेरा करने से कैसे चलेगा ! अगर ढलती उम्र में मुँह काला हो गया तो
?’’
चौधरी मुस्कराकर जवाब देता, ‘‘डरो मत, कालिख पोंछने
के लिए तुम्हें तकलीफ नहीं दूँगा। वीणा ने इतने बरस मेरी लाज रखी वही आगे
भी रखेगी।’’
और सचमुच चौधरी वीणा के सहारे दुर्गम घाटी पार कर गया। पर चाहे जितना संयम
रखा हो, काले बालों को बखत के हाथों रंग बदलना ही पड़ा। चारों बाल-गोपाल
बखत और हवा के थपेड़े खा-खाकर बड़े हो गए। जैसे खेजड़ी, फोग और नीम बड़े
होते हैं वैसे आप ही बड़े हुए। बखतसर चारों का ब्याह हुआ। चौधरी बाबा के
घर में चार बहुएँ। पाँच पोते-पोतियाँ। धन्धा वही कदीमी। खेत-झंखाड़ से
लठम-लठा। और रात को ब्यालू के बाद वीणा पर भजनभाव। बड़े तीन बेटे हूबहू
बाप पर गए, पर सबसे छोटे बेटे का रंग-ढंग कुछ अलग था। भगवान जाने क्यों
भजनभाव में उसका मन नहीं रमता था ! दिन के उजाले में काम और रात के अँधेरे
में नींद। और नींद में हमेशा एक सरीखे सपने—बाड़े में सफेद गाय।
सफेद बछिया। चारों थनों से झरती सफेद धारें। हाण्डियों में सफेद दही।
झरड़-झरड़ बिलोना। घी। छाछ-राब। नाँद पर रँभाती गाय। कच्ची ज्वार के चारे
के कूतर। सुथराई से जमाए उपलों का पिंढा़रा। कभी-कभी सपने के बीच में नींद
उचट जाती। फिर जागती आँखों वही धुँधला-धुँधला सपना। किसे अपने मन की उलझन
बताए ? एक दिन हिम्मत करके घरवाली से सपने का अर्थ पूछा। गँवार बहू सपने
का अर्थ क्या जाने ! साफ और सीधी बात कही कि वह गाय खरीदना चाहे तो वह
पीहर से लाई अपनी हँसुली देने को तैयार है। गाय न खरीदकर वह सपने का मतलब
ही जानना चाहे तो पण्डित से पूछे।
खुशी से बौराया पति गाल सहलाते हुए बोला, ‘‘अब मुझे
मतलब पूछकर क्या करना ! तू तो तू ही है। तेरे जैसी घरवाली बड़े भाग से
मिलती है।’’
उसके बाद घर में किसी से कहे सुने बिना ही छोटे बेटे ने आसपास के गाँवों
और ढाणियों में ढूँढ़-ढाँढ़कर हूबहू अपने सपने सरीखी सफेद गाय खरीदी।
गीतों से बधाकर घर में लिया। हाथ के गुलाबी छापे लगाए। नाम
रखा—बगुली। बगुलों को भी मात करे जैसा सफेद रंग। रेशम जैसी कोमल
रोमावली। छोटा मुँह। कुण्डलिया सींग। छोटे कान। छोटी दन्तावली। सुहानी
गलकंबल। चौड़ी माकड़ी। छोटी तार। पतली लम्बी पूँछ। एक सरीखे गुलाबी थन।
बाड़े में खूँटे पर गाय क्या बँधी जैसे मनुष्य योनि के सारे सुख और सारी
आशाएँ रँभाने लगीं। घर में नई चाल-चोल हो गई। कोई गलकंबल सहलाता। कोई थुई
और पुट्ठों पर हाथ फेरता। कोई पूँछ के बाल सहलाता। छोटे बेटा अपने प्राणों
से बढ़कर बगुली की सार-सँभाल करता था। खेजड़ी और बबूल की फलियों और
बेर-खेजड़ी के पान का ढेर लगा दिया। खेंतो में साथ ले जाता। अपने हाथों से
टोकरियाँ गूँथीं। खुली आँखों का सपना साथ हो तो कोताही कैसी !
एक बाँभन चौधरी बाबा का गुरु था। उसी की संगत से उसे भजनभाव और रामनाम की
सनक सवार हुई थी। चार-पाँच दिन में ढाणी का चक्कर लगा लेता था। बगुली को
देखा तो उसकी छवि हृदय में उतर गई। बिना कहे सगुनी गाय के पांचांग देखा।
घर में उसके आगमन का बखान किया। बाबा की मुक्ति बगुली के प्रताप से ही
होगी। आखिर रामनाम का फल मिलकर ही रहता है।
पहले पण्डित चार-पाँच दिन में आता था। अब एक-दो दिन में आने लगा। अपने
लंगोटिया बाबा से गपशप करता। बाबा भी पण्डित का मन रखता था। उसी ने उसे
परलोक का सुरंगा बगीचा दिखाया था। नहीं तो दुःख का भरा जीवन काटना दूभर हो
जाता।
एक दिन बगुली के बदन पर ठौर-ठौर हाथ के काले छापे देखे तो छोटे बेटे ने
अपनी स्त्री से इसका कारण पूछा। उसने पति से कुछ नहीं छुपाया। साफ-साफ
बताया कि पण्डित बार-बार बगुली को ललचायी नजर से देखता है। नजर लगने से
बचाने के लिए नहीं चाहते हुए भी काले छापे लगाने पड़े।
सुनकर एक बार तो उसके हाथों के तोते उड़ गए। पर अगले ही क्षण आपा सँभाल
लिया। बोला, ‘‘बगुली को नजर लगाए तो मुझे जानता ही है
! बाँभनिए की आँखें नहीं फोड़ दूँ !’’
घरवाली ध्यान से इधर-उधर देखकर बोली, ‘धरे बोलो ! बाबा ने सुन
लिया तो गुस्सा होंगे। लंगोटेए गुरु के लिए उन्हें कुछ कहना बिलकुल नहीं
सुहाता।’’
पति और भड़क गया, ‘‘गुरू है तो अपनी ठौर है। मैं क्या
डरता हूँ !’’
घरवाली मुस्कराते हुए बोली, ‘‘डरते नहीं सो तो ठीक
है, पर बगुली आज-कल में ब्याने वाली है। सुवावड़ का इन्तजाम करो
!’’
गहरा निःश्वास छोड़ते हुए पति ने कहा, ‘‘साहूकार के
सिवा कोई चारा नहीं। बखत-बेबखत ये साहूकार ही काम आते
हैं।’’
घरवाली ने टोका, ‘‘साहूकार की पेढ़ी पर न चढ़ो तो
अच्छा। मेरी ये टोटियाँ और बोर....’’
पति बीच में ही बोला, ‘‘ना, तेरे सुहाग की निशानी
मरकर भी गिरवी नहीं रखूँगा।’’
पति के हठ के आगे पत्नी को झुकना पड़ा। और रास्ता ही क्या था ! सो पति को
साहूकार की पेढ़ी पर जाने देने के लिए राजी हो गई।
पर उसके राजी होने से क्या होता है ! हकले साहूकार ने साफ मना कर दिया कि
गाय को देखे बिना उधार सुवावड़ नहीं देगा। छोटे बेटे ने बगुली के बहुत
बखान किए, पर साहूकार को तो अपने कपड़ों पर भी भरोसा नहीं था। पर बगुली को
देखते ही वह तुरन्त मान गया। जो कहे सुवावड़ तैयार—बाजरा, गुड़,
नारियल, और मेथी। बिनौले ले तब भी उसकी ना नहीं।
सेठ की बदनीयती को ताड़कर बहू के आग-आग लग गई। जोर से बोली,
‘‘बगुली को देखकर तुम्हारी ना क्यों होगी, मेरी ना
है। साहूकार की बही में फँसने से तो जिन्दा जलना अच्छा है। तकलीफ के लिए
माफी चाहती हूँ, हमें सुवावड़ नहीं चाहिए।’’
आगे विवाद करने के लिए पति की हिम्मत नहीं हुई। चुपचाप टोटियाँ और बोर
लेकर चला गया।
लगातार तीन रात जागने पर भी पति-पत्नी को रत्तीभर भी जागरण महसूस नहीं
हुआ। हूबहू शक्ल-सूरत की बगुली ने बछिया जनी। दूज का चाँद ही बढ़ते-बढ़ते
पूनम का चाँद बनता है। घरवालों की खुशी का पार न था। बगुली के दूध की धार
के बहाने जैसे सबके हृदय में हर्ष का झरना बहने लगा।
दूध के लोभ में पण्डित सुबह-साँझ ढाणी का चक्कर लगाने लगा। बहू के कहने से
आते ही बगुली को नजर लगने से बचाने के लिए तीन बार थूकता था। बगुली जैसे
कामधेनु का ही अवतार। दोनों बखत दस-दस सेर दूध देती थी। चक्की सरीखा गाढ़ा
दही। हल्दी जैसा पीला घी। छाछ-राब की इफरात। छोटे बेटे का सपना तो खूब ही
फला !
सफेद दाढ़ी को घड़ी-घड़ी सुलझाते हुए बाबा मन-ही-मन सोचा करता कि ऐसे
आनन्द के बिना जीना व्यर्थ है। सारी उम्र कितना दुःख भुगता ! सुख की इस
अन्तिम झलक से पिछला दुःख उलटा अधिक उजागर होता है। अब अगला जन्म सुधारने
से पिछला घाटा पूरा हो तो हो। भजनभाव और रामनाम के अलावा कोई सहारा नहीं।
बचपन का मित्र बाँभन बाबा को धर्म का झीना मर्म समझता था। बगुली के
दूध-दही के लोभ में कभी नागा नहीं करता था।
बूढ़े बाँभन की आतें आसीस देंगी यह सोचकर घर में बाँभन के लिए किसी ने
ऐतराज नहीं किया। बिना माँगे ही बगुली के दूध में उसका हिस्सा हो गया।
सुख से दिन कट रहे थे। संजोग की बात कि एक दिन बाबा बीमार पड़ गया। भरपूर
उम्र पाई। मरना तो था ही। बाबा का प्राण आँखों में अटका हुआ। जीभ मोटी हो
गई। बूढ़े बाँभन ने मुक्ति के लिए पंचामृत पिलाया। अब तो घड़ी-पलक देर।
बाबा के कहने पर सब ने श्रद्धा अनुसार दान-पुण्य उसके कानों में डाला।
किसी ने ग्यारस बोली तो किसी ने अमावस। छोटे बेटे ने पाँच हाँडी दूध-दही
बोला। किसी ने धड़ी गुड़ तो किसी ने मन बाजरा बोला। तब भी बाबा की साँस
वहीं अटकी हुई। आँखें डबडबा गईं। इतने बरस बचपन के मित्र से धर्म की झीनी
बातें सुनी हुई थीं। अट्ठासी योजन चौ़ड़ी वैतरणी पार पाना दूभर है। फिर
उसकी मुक्ति कैसे होगी ? अगला जन्म भी बिगड़ा इसमें शक नहीं। भरे गले से
गिड़गिड़ाया, ‘‘वैतरणी आड़े आ रही है। इसे पाने की
जुगत बता ! नहीं तो मेरी गति नहीं होगी।’’
बूढ़े बाँभन के रहते मित्र की गति न हो यह कहीं हो सकता है भला ! जोर से
बोला, ‘‘बगुली की पूँछ पकड़ने से चुटकियों में वैतरणी
पार हो जाएगी। बगुली का दान किए बिना बाबा की मुक्ति नहीं
होगी।’’
छोटे बेटे के माथे में जैसे सुरंग छूटी। घबराकर बोला,
‘‘मैं लम्बी पूँछ की कोई बूढ़ी-ठाड़ी गाय दान कर
दूँगा।’
बूढ़ा बाँभन सर धुनते हुए हौले से बोला, ‘‘वैतरिणी की
लहरों में ऐसी-वैसी गाय नहीं टिक सकती। बगुली का गऊदान करने से ही बाबा की
मुक्ति होगी।’’
बाबा की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। छोटे बेटे की ओर हाथ जोड़कर बोला,
‘‘मैं वैतरणी में डूब रहा हूँ। ठौर-ठौर मगरमच्छ काट
रहे हैं। अपने बूढ़े बाप पर कुछ तो दया कर !’’
ऐसी याचना के उपरान्त सोचना कैसा ! बगुली के दान का बोल कान में पड़ते ही
बाबा की मुक्ति हो गई।
रात पर रात ऐसी आती है। दोहरे आघात से घर में त्राहि-त्राहि मच गई। बाबा
से भी बगुली का दुःख अधिक था। सूना बाड़ा। सूनी नाँद। सूनी गोवणियाँ। सूनी
हाण्डियाँ। और सूना बिलोवना। खुली आँखों यों सपने के भस्म होने का दुःख
बहुत भयंकर होता है। न दिन को चैन और न रात को नींद। बच्चे हर घड़ी बगुली
के लिए मन-ही-मन रोते थे। न पानी का होश था न रोटी का। सूना खूँटा जैसे
छोटे बेटे की छाती में रुप गया हो। घरवाली सुबकती हुई उसके पास आई। कहने
लगी, ‘‘बनिए की छुरी से तो बगुली बच गई, पर बाँभन
बगुली को डंके की चोट पर डकार गया।’’
‘‘डकार गया ? डकार गया कैसे ? बगुली तो वैतरणी के उस
पार गई। नहीं तो बाबा वैतरणी पार कैसे करता !’’
घरवाली ने एक जलता हुआ निःश्वास छोड़ा। कहा, ‘‘ये तो
बाँभनों की बातों की वैतरणियाँ हैं। बनिए की बहियाँ भी उनका मुकाबला नहीं
कर सकतीं। बगुली तो पण्डितजी के बाड़े में बँधी है। मैं रात को ही उसका
लाड़ करके आई।’’
फिर तो छोटे बेटे से एक पल भी रुका नहीं गया। धोती के पाँयचे ऊपर खोंसकर
दौड़ा सो बाँभन के घर जाकर ही दम लिया। पत्नी ने सच कहा था।
‘बगुली-बगुली’ कहते ही वह जोर से रँभाई। रस्सी
तुड़ाकर स्वामी की ओर दौड़ी। उसने एक बार फिर खुली आँखों अपने सपने को गले
लगाया।
घबराए हुए पण्डित ने रास्ता रोका तो उसे धक्का देकर गिरा दिया। बछिया और
बगुली को हाँकते हुए बोला, ‘‘वैतरणी के पार गया बाबा
वापस तो आने से रहा ! अब हमें दुनिया की वैतरणी पार करनी है। बगुली के दूध
के बिना वह पार नहीं होगी। खबरदार, मेरे घर की ओर मुँह भी किया तो सीधा
हरिद्वार पहुँचा दूँगा।