उजाले के मुसाहिब (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

Ujale Ke Musahib (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'

कह रे चकवा बात। कटे ज्यों रात। घरबीती या परबीती। घरबीती तो घर-घर जाने। अपनी-अपनी सब कोई ताने। परबीती में परमानन्द। सुनते ही कट जाए फन्द। जैसी बुद्धि वैसी बोली। किसने मापी, किसने तौली? जैसी मेहनत, वैस अनाज। खाये मुँह और अँखियन में लाज। तो अमर अवधूत साँईं सबको सुमति दे कि एक था अनाम राजा। जिसका वही राग और वही बाजा। उसकी समझ का बोझ अतिशय भारी। एक पलड़े में राजा तो दूजे में रैयत सारी। बिन बुलाये क्यों कर मरता! वह तो करता ज्यों ही करता। जिसके दरबार में चुनिन्दा नौ रतन। मंशा मुताबिक सारे जतन-ही-जतन। अखूट हीरे-मोती और अखूट खजाना। जैसा बढ़िया रूप, वैसा ही बाना। कहूँ झूठ फिर भी सच माने। कहूँ साँच तो उसे भी झूठ जानो। बताऊँ रात, फिर भी दिन मानो। कहूँ दिन तो उसे भी रात जानो।

उस राजा की बुद्धि लीक तोड़कर बहती थी और दरबार के नौ रत्नों की अक्ल हर दम छलकती रहती थी। फिर भी राजा के पास हमेशा ऋषि, मुनि, औघड़, महात्मा व सन्त-ज्ञानियों का ताँता लगा रहता। एक जाता और इक्कीस आते। और उनके प्रवचन-दर-प्रवचन ऐसी बौछार होती कि राजा और दरबारियों की अक्ल का पानी सवा बाँस ऊँचा चढ़ जाता। फिर तो वह कगार-किनारे तोड़ता कलकल करता सारे राज्य में हवा की गति से फैल जाता। राजा का जैसा-तैसा भी आदेश मिलता तो रियासत की तमाम प्रजा उस मुताबिक काम में जूझ पड़ती। न कोई शंका न कोई विवाद। निरीह प्रजा तो राजा के हाथ-पाँव, वह ज्यों सोचे, त्यों डोले। न कोई बूझे, न कोई बोले।

राजा और रैयत का अहोभाग्य कि एक बार साधु-सन्तों का सिरमौर, ज्ञानियों का गुरु एक तीर्थंकर ऐसा प्रकट हुआ कि राजा सहित तमाम दरबारियों की बुद्धि चकरा गयी। मानो प्रत्यक्ष परमेश्वर ही अवतरित हुआ। जिसने भी सुना, सब काम छोड़कर उसका प्रवचन सुनने के लिए दरबार में हाजिर हुआ। सबका जीवन एक साथ ही सार्थक हो जाएगा।

एक ही प्राण और एक ही जत्थे के साँचे में ढली भीड़ महात्मा के दर्शन की प्रतीक्षा में अविचलित खड़ी थी कि अचानक राजा के साथ तीर्थंकर पधारते दीखे। आँख-आँख की ज्योति में महात्मा की छवि उतर गयी। हवा और उजाले के साँचे में ढली पवित्र काया, जैसे है और नहीं भी है। कुदरत का साम्प्रत सृजनहार तो मानो आज ही अवतीर्ण हुआ हो। प्रवचन सुनाते ही कलुषित काया का मल धुप जाएगा।

प्रत्येक बन्दे की याचक दीठ महात्मा के चरणों में लोटने लगी। आशीर्वचन के उपरान्त महात्मा के होंठ खुले। जैसे स्वयं कुदरत की अपने मुँह से बखान सुना रही हो। प्रजा के कानों में अमृत-सा घुलने लगा। बिजली की लहरों के उनमान महात्मा के श्रीमुख से शब्दों की आभा निःसृत हो रही थी, ’काले-बहरे अँधियारे को मिटाकर तुम्हें सम्पूर्ण उजियारा जगमगाना है। केवल चिरन्तन प्रकाश से ही मनुष्य-जीवन सार्थक होगा। अँधियारे में औंधी सूझती है। उजियारे में सब-कुछ स्पष्ट नजर आता है। निर्धूम आलोक आत्मा के सम्मुख झिलमिलाने लगता है। जिसकी जोत के दर्शन नितान्त अन्धा मानुष भी कर सकता है। अँधियारे में जीना निपट अकारथ है। सम्यक् उजाले में मरना भी श्रेयस्कर है।

इसलिए अँधियारे को हर घड़ी हर पल मिटाने का प्रयास करो और अनन्त उजियारे की अखण्ड जोत जलाओ। अधिक भागवत बाँचने में कोई सार नहीं। इस बखान के बहाने तुम्हें सूरज की यह दिव्य किरण सौंप रहा हूँ। इसके चमत्कार से अभेद्य अँधियारे को मिटाने का प्रयास करना। तभी तुम्हारे अन्तस् का अकलुषित उजियारे से साक्षात्कार होगा। परब्रह्म की अनुभूति होगी। अँधियारा नरक की अमिट कालिमा है और अनिन्द्य उजियारा स्वर्ग का प्रत्यक्ष रूप। जब तक साँस है मेरी बात को नहीं भूले तो सबका कल्याण होगा।’

प्रवचन के उपरान्त राजा और समस्त दरबारियों ने हाथ जोड़कर बेहद निहोरे किये पर महात्मा ने प्रसाद ग्रहण करने की हामी नहीं भरी सो नहीं भरी। बार-बार एक ही उत्तर देते कि राज्य का अँधियारा मिटने पर वे बिन-बुलाये सर के बल चले आएँगे। तब तक वे इस धरती पर पानी की बूँद तक नहीं चखेंगे। वे जिस तरह अवरोहित हुए, उसी तरह सपने की नाईं अन्तर्धान हो गये।

उस राजा को तो बस कोई बहाना भर मिलना चाहिए था, फिर तो उसके दिमाग में जुगनू झिलमिलाने लगते। बरसों के बाद ऐसा सुनहरा सुयोग मिला तो वह गुरमुखी राजा दूसरे दिन ही राज के नौ रत्न व दरबारियों के साथ बैठकर अन्धकार को मिटाने की खातिर आमादा हो गया। सिंहासन, मुकट और खजाना उसी दिन सार्थक होंगे जब चिरन्तन प्रकाश की बधाई सुनकर महात्मा सोने के थाल में प्रसाद ग्रहण करेेंगे। पर राजा तो राजा ही होता है। पूरे राज्य का एकछत्र अधिपति। बुद्धि के बिना इतनी बड़ी रियासत एक घड़ी भी नहीं चल सकती। शरीर की ताकत तो बुद्धि के पीछे चलती है। वरना शेर, सूअर, हाथी या भेड़िया ही मनुष्यों का राजा होता।

घड़ी भर तक राजा, दीवान और नौ रत्न सभी चुपचाप विचार करते रहे कि उनके राज्य से अँधेरे को हमेशा के लिए कैसे खदेड़ा जाए? दुनिया में ऐसा कौन-सा मसला है जो गहराई से सोचने पर नहीं सुलझे! अकस्मात् राजा की छलकती बुद्धि में बिजली के उनमान एक विचार कौंधा। गहरे चिन्तन की मुद्रा बनाकर उसने दीवान से पूछा, ’क्यूँ दीवान जी, पिछले साल…………नहीं नहीं, तीन साल पहले राजमहल का तहखाना बाढ़ के कारण पूरा भर गया तो उलीच-उलीचकर सारा पानी बाहर उछाला था कि नहीं?’
’हाँ, हाँ उछाला था अन्दाता।’
’मुझे आज की तरह याद है। तुम सब लोग अच्छी तरह जानते हो कि मैं याद रखनेवाली बात कभी भूलता नहीं……।’
दीवान सिर झुकाकर बीच में बोला, ’हुजूर के भूलने पर तो सर्वत्र प्रलय हो जाएगा।’

’मैं तो प्रवचन के दौरान ही महात्मा जी के मन की बात भाँप गया था।’ गुलाबी अधरों पर गुमान की मुस्कराहट छितराते राजा ने कहा, ’अँधेरा मिटाने की आधी-दूधी तरकीब तो उसी समय सोच ली थी। मुझे पक्का भरोसा है कि तहखाने के पानी की तरह अँधेरा भी उलीचने पर समाप्त हो जाएगा। क्यूँ, उलीचने के बाद वह पानी तहखाने में वापस तो नहीं आया?’
’ना गरीब-परवर, ना! क्या मजाल कि एक बूँद भी वापस आयी हो!’ दीवान अपनी चतुराई के प्रति पूर्णतया आश्वस्त था।

राजा ने नाभि तक गहरी हामी भरी, ’हुँ…….! तब तो यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि अँधेरा भी उलीचने पर वापस नहीं आएगा।’
’हाँ गरीब-नवाज!’ दीवान ने मिलती-मारते कहा, ’हमेशा-हमेशा के लिए इसका काला मुँह हो जाएगा।’
एक रत्न ने गरदन खुजाते आशंका प्रकट की, ’पानी तो उलीचकर तहखाने से बाहर उछाल दिया, मगर अँधेरे को कहाँ उछालेंगे? वह तो चारों दिशाओं में छाया रहता है।’
’सवेरे सूरज उगने पर अँधेरा अपना ठिकाना छोड़कर कहीं-न-कहीं तो जाता ही है।’ दूसरे रत्न ने उसका खण्डन करते कहा, ’जरा…………..सोच-विचारकर जवाब दो कि वह अपनी जगह छोड़ता है कि नहीं?’
’हाँ, जगह छोड़ने पर ही तो ओझल होता है।’ पहले वाला रत्न मुँह उतार कर बोला।
करने का जिम्मा तुम्हारा! अलबत्ता तुम्हारे साथ बैठने से मुझे दूर की सूझती है।’

’हुजूर तो आज्ञा फरमाते रहें, हम कुछ भी करने को तैयार हैं।’ एक रत्न ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

’दीवान जी, सारे राज्य में घर-घर डोंडी पिटवा दो कि इसी अमावस के शुभ मुहूर्त में दिन ढलते ही हर व्यक्ति अँधेरा उलीचने लगे सो तब तक नहीं रुके, जब तक उसका पूरा सफाया न हो जाए।’ राजा ने धमकाते कहा, ’किसी ने भी इस काम में ढिलाई बरती तो उसकी आँतें चील-कौओं को फिंकवा दूँगा। महात्मा जी को जितनी जल्दी भोजन का आमन्त्रण दूँ, तभी मुझे चैन मिलेगा।’
एक रत्न ने वाजिब सुझाव दिया, ’हुजूर! अँधेरा उलीचने के लिए यथायोग्य ठाँव-बासन भी तो होने चाहिए।’
’वही तो बता रहा हूँ। ज्यादा उतावली ठीक नहीं।’ राजा ने उसे झिड़कते कहा, ’तुम समझते हो कि उलीचने के बासनों का मुझे ध्यान नहीं है?’
दीवान ने फिर वही रटी-रटायी उक्ति चुपड़ते कहा, ’अन्नदाता का ध्यान चूकने पर तो सूरज का उगना ही बन्द हो जाएगा।’
राजा अपना गुस्सा भूलकर हिदायत के लहजे में बोला, ’जिसके घर में जो बासन हो, उसी से उलीचने का काम करे।’
ज्यों-ज्यों याद आते रहे सभी रत्न आपस में मिलजुलकर बरतन-बासनों के नाम बताने लगे, ’तगारी, हाँड़ी, परात, कटोरा-कटोरी, घड़ा, मटकी, चरी, टोकरी, मूण……….।’

एक बुद्धिमान रत्न ने तुरन्त बीच में शंका की, ’मूण तो काफी भारी होती है, आसानी से उठेगी नहीं।’
राजा ने खुलासा करते पूछा, ’मूण भरी कि खाली?’
’भरी हुई गरीब-नवाज!’
’ना, तुम यहीं पर भारी भूल कर गये।’ अभिमान से छितरी मुस्कराहट को दबाकर राजा ने गम्भीर सुर में समझाते कहा, ’अँधेरे से भरी होने पर भी मूण में वजन तो रत्ती भर भी नहीं बढ़ेगा। क्योंकि अँधेरा नजर तो आता है, पर उसका ठोस आकार नहीं होता। फिर तो हाथी की छाया हाथी जितनी ही भारी होनी चाहिए?’
दीवान के साथ-साथ सभी रत्नों ने जयघोष किया, ’खम्मा-घणी, खम्मा-घणी! भला, अन्दाता के अलावा इतनी गहरी बातें और किसे सूझ सकती हैं?’

राजा के चिर-अभ्यस्त कानों की खातिर अब कैसी भी खुशामद का कोई स्वाद नहीं रह गया था। सुनी-अनसुनी करके झुँझलाते कहा, ’यहाँ बैठे-बैठे खम्मा-घणी चिल्लाने से कुछ पार नहीं पड़ेगा। जितनी जल्दी हो सके, सारे राज्य में डोंडी पिटवाने का इन्तजाम करो। जिस घर के आस-पास अंधेरा नजर आएगा, उसे भरपूर दण्ड मिलेगा।’

दीवान ने झुककर बन्दगी की, ’तीसरे दिन ही घर-घर खबर न हो तो दीवानगिरी छोड़ दूँगा!’
पर उसे दीवानगिरी छोड़ने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। बल्कि समय-समय पर पुरस्कार-सिरोपाव भी मिलते रहे। राजा के आदेश की अनुपालना में वह बेहद पारंगत था। और उधर डोंडी का फरमान सुनने के बाद प्रजा ने भी कतई ढिलाई नहीं बरती। अमावस की साँझ घिरते ही जिसके हाथ जो बासन पड़ा उसी से अँधियारा उलीचने में मुस्तैद हो गया।

यहाँ तक आते-आते चकवा किसी भी सूरत में अपनी हँसी रोक नहीं सका। खिल-खिल हँसी के साथ उसकी चोंच से चिनगारियाँ झड़ने लगीं। हँसते-हँसते ही कहने लगा, ’अब उस राज्य के सौभाग्य की क्या सीमा! आठ पहर बत्तीस घड़ी फकत प्रकाश-ही-प्रकाश जगमगाएगा। इतने बरस यह छोटी-सी बात भी किसी की समझ में क्यों नहीं आयी? दुगुना काम निपटेगा। दीया जलाने की आफत मिट जाएगी। तेल का खर्च बचेगा सो नफे में। मगर चोरों के मन में सनसनी दौड़ गयी। अँधेरा मिट गया तो उन्हें जबरदस्त हानि पहुँचेगी पर राजा के आदेश की भला कौन अवज्ञा कर सकता है? चोर भी प्रजा के साथ अँधेरा उलीचने में जुट गये।’

राजमहल के इर्द-गिर्द हो-हल्ले का तूफान मच गया। आधी रात ढलने पर राजा को नींद सताने लगी तो दीवान को हिदायत देते बोला, ’अब तो नींद के मारे मेरा जगना मुश्किल है, वरना सारी रात यह नजारा देखता। मगर तुम पूरे चौकस रहना। ऐसा न हो कि मेरे जाते ही लोग ढीले पड़ जाएँ!’
’नहीं अन्दाता, सपने में भी कोई ऐसी गुस्ताखी नहीं करेगा। आप किसी बात की चिन्ता न करें।’
’पर अँधेरे का सफाया होते ही मुझे बेधड़क जगा देना, समझे!’
दीवान ने कोरनिश करते हुए अतिशय आदर के साथ हामी भरी तो राजा निश्चिन्त होकर रंग-महल में सोने के लिए दासियों के साथ रवाना हो गया। और घोड़े पर चढ़ा दीवान सारी रात प्रजा को जोश दिलाता रहा कि वह पलभर के लिए भी विश्राम न करे। ऐसा शानदार काम दुनिया के किसी राजा ने आज दिन तक नहीं किया। यह बात तो अन्दाता को सूझी जैसे ही सूझी। बुद्धि के सागर अपने हुजूर की भला कौन बराबरी कर सकता है? दूसरे सभी राजा-महाराजा इनके सामने छछूँदर हैं, छछूँदर!

अँधेरा उलीचते-उलीचते प्रजा की कमर टूटने लगी। हाड़-हाड़ टीसने लगा। बाँहें फटने लगीं। बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाएँ-कोई भी पीछे नहीं रहा। बड़ा काम तो सबके जुटने पर ही सम्भव होता है।

सवेरे की मंगल वेला जब नगरवासियों को यह आशा बँधी कि उलीचते-उलीचते आखिर अँधेरा काफी कम पड़ने लगा है तो उनके जोश को बड़ा सहारा मिला। वह चौगुने उत्साह से उस काम में तल्लीन हो गये।

सचमुच, राजा की बात तो एकदम सही निकली। ऐसे राजा की रेयत होने से बड़ा अहोभाग्य और क्या हो सकता है?….देखते-देखते अँधेरा तो बिलकुल समाप्त हो गया। घोड़े पर सवार दीवान की खुशी का पार नहीं था। चरवादार को घोड़े की लगाम थमाकर वह तो सीधा रंग-महल पहुँचा। बाहर खड़े-खड़े ही जोर से फरियाद की, ’अन्दाता, अँधेरा तो एकदम नष्ट हो गया। पहाड़ों के आर-पार दिखे जैसा प्रकाश हुआ हुजूर! ईश्वर की तरह आपकी टेक भी रह गयी।’

हुजूर तो नींद में सोते-सोते ही चिरन्तन प्रकाश के सपने देख रहे थे। राजा अपने हठ पर अड़ा था और महात्मा अपने सिद्धान्त पर डटे हुए थे कि सोने के बाजोट और थाल को अदेर परे हटा ले, वरना वे भूखे ही लौट जाएँगे। इस तकरार के बीच बधाई की गुहार सुनी तो वह सोने के पलंग से तत्काल उठ बैठा। उन्माद के आवेश में उछलते-फाँदते बाहर आया। चारों ओर गरदन फुलाकर देखा। सर्वत्र उजाला-ही-उजाला! ऐसा तेज प्रकाश तो कभी नजर नहीं आया। समस्त दरबारियों के बीच राजा भी बावरे की तरह नाचने लगा। सारे राज्य में खुशी का समन्दर हिलोरें भरने लगा-दिप-दिप!

फटाफट दरबार जुड़ा। राजा ने दीवान, नौ रत्नों और सब दरबारियों से बार-बार पूछा कि वे अच्छी तरह से छानबीन करके बताएँ कि आज वाले प्रकाश व पहले वाले प्रकाश में क्या अन्तर है?

सभी सत्यवादियों ने समवेत सुर में कहा कि आज वाला प्रकाश बहुत-बहुत श्रेष्ठ है। यही असली और सच्चा प्रकाश है। पहले वाला प्रकाश तो कुछ धुँधला-धुँधला था। ऐसी अपूर्व निष्ठा और अथक मेहनत से उलीचने के बाद उजियारे की चमक में क्या खामी! पहले वाले प्रकाश पर छिपे हुए अँधियारे की छाया पड़ती थी। पर आज के प्रकाश में तो कुदरत का रूप ही बदल गया। मानो कुदरत प्रमूदित होकर मुस्करा रही हो।
आनन्द में सराबोर राजा ने खूब दान-पुण्य किया। फिर चतुर दीवान को आदेश दिया कि जहाँ-कहीं भी हों उन पहुँचे हुए महात्मा को लाने के लिए सौ घोड़े दौड़ाएँ। उनके चरण पखालने पर ही उसका जीवन सार्थक होगा।

एक रत्न ने धीमे से कहा, ’हुजूर, दो-तीन दिन तो इस प्रकाश की जाँच-पड़ताल कर लेते……..!’’
’कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो?’ राजा बीच में टोककर बोला, ’कुछ भी जाँच करने की जरूरत नहीं। अब तो इसके पुरखे भी अपने राज्य की ओर मुँह नहीं कर सकते। तुम्हें इस नये प्रकाश की कुछ विशेषता नजर नहीं आयी?’
’नजर तो आयी अन्दाता……….लेकिन………….।’
दीवान ने हँसकर टालते कहा, ’अब लेकिन-वेकिन का कोई लफड़ा नहीं।’
’फिर भी एक दिन तो और………।’
’दिन?’ दूसरे रत्न ने उसकी बात का विरोध करते कहा, ’रात होने पर ही दिन का हिसाब रहता है। अब तो आठों पहर फकत उजाला-ही-उजाला जगमगाएगा। अब न तो रात होगी और न दिन!’

इस बात का ध्यान तो राजा को भी नहीं था। समझदार रत्न की राय सुनते ही राजा ने जोशियों को खरी हिदायत दी कि वे घड़ियों की गिनती के हिसाब से वार-तिथि का लेखा-जोखा रखें, वरना बहुत झमेला पड़ जाएगा!
किन्तु जोशियों का सौभाग्य कि झमेला पड़ने की नौबत ही नहीं आयी। उजाले की खुशियाँ मनाते-मनाते दिन तो चटपट बीत गया। हमेशा ही तरह पश्चिम दिशा की गोद में सूरज धीरे-धीरे समाने लगा तो एक साथ सबके मुँह उतर गये। मगर राजा का बुलन्द हौसला कि उसने हार नहीं मानी। दरबारियों को धैर्यपूर्वक समझाने लगा, ’युगयुगान्तर से यह चिर अभ्यस्त अँधेरा आसानी से हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। तुम सभी जानते हो कि गुमशुदा गाय भी एक बार तो पुराने खूँटे पर लौट आती है। यह अँधेरा भी कम ढीठ नहीं है। पर हमेशा इस तरह उलीचने से वह जरूर हार-थकेगा। पस्त होगा। दीवान जी, इस काम को तुम पूरी मुस्तैदी से चालू रखो।’
’जो हुक्म अन्दाता!’

लेकिन कुदरत तो दीवान और दरबारियों के उनमान राजा का लिहाज नहीं रखती। कई पखवाड़ों तक उलीचने के उपरान्त भी अँधेरे का सफाया नहीं हुआ। वह तो प्रतिदिन सूर्योदय के साथ लोप हो जाता और उसके अस्त होते ही अपना विकराल रूप लेकर वापस प्रकट हो जाता। आखिर उसकी हठधर्मी के सामने राजा को भी झुकना पड़ा।

मगर अभी तो फकत एक ही उपाय गलत साबित हुआ। यों चुपचाप बैठने से राजा का काम नहीं चलता। कुछ-न-कुछ तरकीब तो फिर सोचनी होगी। बेचारी तरकीब का क्या बूता कि वह राजा के सोचने पर नहीं सूझे!

उस राजा को अपने दीवान और नौ रत्नों पर बेहद अभिमान था। वैसे धुरन्धर विद्वान् किसी दूसरे राज्य में नहीं थे। और न उस जोड़ का राजा भी दुनिया में कोई दूसरा था। सबके साथ बैठकर राजा फिर अँधेरे को मिटाने का उपाय सोचने लगा। मनुष्य की बुद्धि का अन्य प्राणियों से कोई मुकाबला नहीं। तिस पर राजा की शान तो कुछ और ही है। स्वयं ईश्वर भी उसकी मान-मर्यादा का ध्यान रखता है।

दरबारियों को भी नये-नये उपाय सूझते, पर वे राजा को कुछ भी सुझाव देने में संकोच करते। राजा का भय भी मौत के भय से कम नहीं होता। भय मिट जाए तो राज चलता ही नहीं। सचमुच भय के बगैर तो प्रीत भी नहीं होती। तो नया उपाय सोचने की करामात राजा के अलावा पण्डितों में भी नहीं थी। आखिर मगजमारी करते-करते राजा को एक नामी उपाय सूझा। खुशी में बौराया-सा कहने लगा, ’लाख बुरा मानो, तुम सब में एक बड़ी खामी है कि अपनी आँखें खुली नहीं रखते। वरना मेरी तरह बीसियों उपाय सूझने लगें। बोलो, रसोई की दीवारें ईंधन के धुँए से काली होती हैं कि नहीं?’
’क्यों नहीं होतीं?’ दीवान के साथ-साथ नौ रत्नों ने भी जवाब दिया, ’सफेद दीवारें देखते-देखते काली-स्याह पड़ जाती हैं, अन्दाता।’
’और वे काली-स्याह दीवारें वापस सफेद कैसे होती हैं?’

इस बार अकेले दीवान ने ही कहा, ’कैसे क्या हुजूर, दो-तीन बार कूँची से कलई पोतने पर वापस सफेद हो जाती हैं।’
राजा ने परिहास के आशय से मुस्कराकर पूछा, ’अब भी नहीं समझे?’ राजा के मन का भेद उसके बिना कहे ही सब समझ जाते थे। फिर भी न जाने किस मजबूरी के कारण दीवान को कहना पड़ा, ’नहीं हुजूर, हमारी बुद्धि आप जैसी कहाँ चलती है?’

’तो अब सारी बात खुलासा करके समझानी होगी?’ राजा ने गुमान की मुद्रा में फिर एक सवाल पूछा, ’बताओ, यह अँधेरा क्या है?’
बड़ा कठिन सवाल था। सभी दरबारी एक-दूसरे का मुँह जोहने लगे तो दीवान ने हिम्मत जुटाकर कहा, ’अँधेरा तो अँधेरा ही है, गरीब-परवर!’
’यही तो गड़बड़ है!’ राजा ने जंघा पर थाप देते कहा, ’इतना भी नहीं जानते कि यह अँधेरा तो फकत सूरज की लपटों का धुआँ है!’
सभी दरबारी खुशी में उछलते बोले, ’हाँ अन्दाता, अब कहीं सारी बात समझ में आयी। रसोई के धुएँ की तरह अँधेरे को पोतने से वह भी सफेद-झक्क हो जाएगा!’

स्वयं आश्वस्त होने के लिए राजा ने जोर से पूछा, ’बोलो, होगा कि नहीं?’
’क्यूँ नहीं होगा हुजूर, जरूर होगा!’
’तो दीवान जी, अब सारे राज्य में फरमान भिजवाने का जिम्मा तुम्हारा। देखो ढील न हो।’
राजा के कहने पर ढील होने की गुंजाइश ही कहाँ थी! ढिंढोरा पिटवाने की पूरी तैयारी तो पहले ही कर रखी थी। सो तीसरे दिन ही राज्य की प्रजा दिन अस्त होते ही कलई का घोल और कूँचियाँ लेकर अँधेरे को पोतने लगी तो फिर विश्राम का नाम ही नहीं। वहीं अँधेरा और वे ही कूँचियाँ!

आधी रात ढलने पर कृष्णपक्ष की पंचमी का चाँद गगन की कोख से बाहर आया तो धीरे-धीरे चाँदनी घुलने लगी। हाँ, इस बार यह उपाय कुछ तो कारगर साबित हुआ। कलई पोतने से अँधेरा थोड़ा-थोड़ा सफेद होने लगा था। महाबली मनुष्य के हाथों प्रपंच करने पर ऐसी कौन-सी बात है जो पार न पड़े!

आखिर पुताई करते-करते अँधेरा तो दिप-दिप चमकने लगा। ऐसा उजाला तो पहले कभी नहीं हुआ! सूरज की धूप को भी मात करे जैसी पुताई! दीवान ने फिर रंग-महल के बाहर खड़े होकर खुश-खबरी सुनायी, ’अन्दाता, यह उपाय तो जबरदस्त कामयाब रहा। फकत होली-दीवाली पोतने पर ही सूरज की लपटों का धुआँ सफेद-झक्क हो जाएगा।’
राजा ने रंग-महल से बाहर आकर देखा तो दीवान की बात पूरमपूर सही निकली। दमकते प्रकाश की ओर राजा से देखा तक नहीं गया। आँखें टमकारते बोला, ’पुताई ज्यादा कर दी? आँखें चुँधिया रही हैं!’
’हाँ, जहाँ पनाह, भूल हो गयी।’ दीवान ने हाँ-में-हाँ मिलाते कहा, ’कुछ तो कलई गाढ़ी थी और कुछ पुताई…..।’
’डरने की कोई बात नहीं।’ ढाढ़स बँधाने की मंशा से राजा बीच ही में बोला, ’पहली बार भूल हो ही जाती है। आगे ध्यान रखना।’
दीवान ने हाथ जोड़कर कहा, ’पूरा ध्यान रखूँगा, गरीब-परवर।’

’शाबाश! अच्छी तरह ध्यान रखने से कभी किसी काम में खोट नहीं रहती।’ पर दीवान की चौकसी के बावजूद पुताई के काम में पूरी खोट रह गयी। कुदरत को किसी का कुछ भी ध्यान नहीं था। हमेशा की तरह दिन अस्त होते ही अन्धकार तो फिर प्रकट हो गया। वैसा ही अथाह और वैसा ही काला-स्याह! सभी दरबारियों के मुँह साँवले पड़ गये। पर बुलन्द हौसलेवाला राजा हताश नहीं हुआ।
चकवे ने पूछा, ’ध्यान से सुन रही हो न?’
’उफ्फ! बीच में रसभंग मत करो।’ चकवी ने चैंककर कहा, ’दुनिया में एक भी ऐसा प्राणी है जो तुम्हारी बात को ध्यान से न सुने? खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती! और यह बात तो इतनी शानदार है कि कानों के बिना भी सुनी जा सकती है! बस, तुम कहते जाओ और मैं सुनती रहूँ, सुनती रहूँ!’

चकवे के कण्ठ में जाने कितनी बातें बसी हुई थीं! जीवन सहचरी के मुँह से ऐसी प्रशंसा सुनकर उसके उत्साह में उफान आ गया। ठाट से कहने लगा, ’कुछ दिन ठहराकर नौ रत्नों को राजा ने अपने पास बुलाया। उन्हें काफी देर समझाने के उपरान्त उसने अन्त में कहा, ’यों निराश होने से काम नहीं चलेगा। तुम मेरे राज्य के नौ सूरज हो। थोड़ा दिमाग लड़ाओ तो बेचारे अँधेरे की क्या औकात जो तुम्हारे सामाने टिक सके। आज ही, दिन उगने से घड़ी भर पहले एक मामूली दीये की लौ देखकर मुझे एक नयी बात सूझी। बड़े गौर से समझने की कोशिश करना। दीया जलाने पर उजाला होता है कि नहीं?’ ’होता है अन्दाता, हमेशा होता है।’ दीवान ने सबसे पहले हामी भरी।
’घर में चूल्हा जलाने पर उजाला होता है कि नहीं?’

इस बार नौ रत्नों ने एक साथ स्वीकार किया, ’होता है अन्दाता, हमेशा होता है। भला, चूल्हा जलाने पर उजाला क्यों नहीं होगा?’
’बस, यही बात अच्छी तरह समझने की है।’ राजा दृढ़ विश्वास के साथ कहने लगा, ’हम अँधेरे को जलाते हैं तो उजाला होता है। उसके जलते ही प्रकाश प्रकट होता है। कुछ समझे या नहीं?’
दीवान और नौ रत्नों ने जोश के साथ जवाब दिया, ’समझ गये गरीबपरवर अच्छी तरह समझ गये। आप समझाएँ और हम न समझें, भला यह कैसे हो सकता है?’

’तो फिर ढील किस बात की?’ राजा उतावली दरसाते बोला, ’मेरे राज्य में लाखों आदमी हैं। यदि हर आदमी दोनों हाथों में मशालें लेकर अँधेरे को जलाने लगे तो पीछे मुट्ठी भर राख भी नहीं बचेगी! पूरा नष्ट होने के बाद वह चूँ तक करने के काबिल नहीं रहेगा!’
’हाँ, गरीब-नवाज, यह उपाय तो वाकई बेमिसाल है। बस, राज्य में डोंडी पिटवाने भर की देर है, फिर तो अखूट आलोक हरदम जगमगाता रहेगा।’ इतना कहकर दीवान तो अदेर वहाँ से रवाना हो गया। उसके जी को भी कम बवाल नहीं थे।
राज्य का फरमान जारी होने पर किसकी हिम्मत जो विरोध करे। सारे राज्य की रैयत दोनों हाथों में मशालें लेकर अँधेरे को जलाने लगी सो सवेरे तक जलाती रही। पैरों पर खड़े हो सकने वाले बच्चे भी उस महायज्ञ में शामिल हो गये। मनुष्य इतना प्रपंच करे तो कुछ भी असम्भव नहीं! अँधेरा तो जलकर भस्म हो गया और आह तक नहीं भर सका!

राजा ने अपनी बात को प्रमाणित करने के आशय से पूछा, ’क्यों दीवान जी पहले की तरह यह उजियारा सूरज का प्रकाश तो नहीं है?’
राज-दरबार के दीवान तो सवालों के पहले ही जवाब तैयार रखते हैं। हाथ जोड़कर बोला, ’नहीं जहाँ पनाह, हरगिज नहीं। बेचारे सूरज की ऐसी सूरत ही कहाँ! यह तो साम्प्रत जले हुए अँधेरे का उजाला है।’ फिर उसने नौ रत्नों की ओर देखकर पूछा, ’क्यूँ, आपको भी कुछ फर्क नजर आ रहा है कि नहीं?’
’फर्क है तो नजर क्यूँ नहीं आएगा?’ नौ रत्नों ने एक साथ गरदनें हिला कर जवाब दिया, ’इस तरह जला हुआ अँधेरा अब तो शायद ही जिन्दा हो सके!’

दीवान और नौ रत्नों के अडिग विश्वास से राजा को भी अपने उपाय पर पुख्ता भरोसा हो गया। शायद दान-पुण्य व निछरावल करने से भरोसा और भी दृढ़ हो, इस उद्देश्य से राजा ने दान-पुण्य में कोई कसर न रखी और न निछरावल में।

मगर कुदरत वामन-पण्डितों की नाईं न दान-पुण्य से राजी होती है, न दीवान व नौ रत्नों के उनमान इनाम-इकरार से और न भिखारियों की तरह निछरावल से। वह तो अपनी मति से चलती है। अपनी गति से घूमती है। अपने निर्दिष्ट स्थान पर साँझ होते ही पूनम का चाँद उगा। हौले-हौले चाँदनी की आभा सर्वत्र फैलने लगी। दीवान, नौ रत्न और दरबारियों ने सोचा कि अँधेरे को पूरा जलाने में थोड़ी खामी रह गयी। पाँच-सात बार अच्छी तरह जलाने से राजा की तरकीब-निस्सन्देह कारगर साबित होगी, इसमें कोई मीनमेख नहीं।

आखिर अँधेरे को जलाने का उपाय भी व्यर्थ हुआ। सभी दरबारियों के मुँह पर कालिख पुत गयी। मगर राजा का तेजस्वी मनोबल रंचमात्र भी मलिन नहीं हुआ। नया उपाय सोचने में सिर खपाने लगा। भला ऐसी कौन-सी गुत्थी है जो मनुष्य के चाहने पर न सुलझे! कुछ दिन अकेले सोचते-सोचते उसे एक नयी युक्ति सूझी। और सूझते ही स्वयं आश्वस्त होने के लिए समस्त दरबारियों की विशेष बैठक बुलायी। दीवान और नौ रत्नों को अपनी समझ पर भले ही अविश्वास हो, किन्तु राज्य के एकछत्र अधिपति की सूझबूझ पर उन्हें इक्कीस आना भरोसा था।
राजा ने भिड़ते ही उनसे पूछा, ’बोलो, हाथी में जबरदस्त ताकत होती है कि नहीं?’
’होती है अन्दाता, उस में बेजोड़ ताकत होती है।’
’फिर भी साँकल से बाँधने पर उसे काबू किया जा सकता है कि नहीं?’
’किया जा सकता है अन्दाता, बछड़े की तरह काबू किया जा सकता है।’

’तब इतना परेशान होने की क्या वजह है? सूरज अस्त न हो तो अँधेरा भी न हो। पतली-पतली किरणों को रस्सियों से बाँधकर हम सूरज को एक जगह रोक लें तो चिरन्तन प्रकाश होगा कि नहीं?’
’होगा अन्दाता, जरूर होगा।’ दीवान ने मस्तक नवाते कहा, ’लेकिन इसके लिए सारे राज्य में ढिंढोरा पिटवाने की दरकार नहीं। सूरज की किरणों को तो शहर के वासी ही जकड़कर बाँध लेंगे। फिर हुजूर के तपतेज की तुलना में बेचारे सूरज की क्या औकात!’

ज्यों-ज्यों शासन की बागडोर ढीली पड़ती गयी, दीवान की चाटुकारिता सीमा का अतिक्रमण करने लगी। पर कुदरत न किसी राजा की खुशामद करती है और न उसका अंकुश मानती है। वह तो अपनी मति से चलती है। अपनी गति से घूमती है। शहर के तमाम नागरिकों ने सूरज की किरणों को बाँधने का खूब प्रयत्न किया, पर सब अकारथ। न उसके तपतेज में कुछ खामी पड़ी और न उसके नितनेम में! वह तो हमेशा की तरह समय पर पश्चिम दिशा में डुबकी लगाकर अदीठ हो जाता। और उसके अदीठ होते ही अँधेरा साँवला रूप धरकर धीरे-धीरे आकाश में व्याप्त होने लगता। इस बार राजा को भी अंधेरे के सामने पस्त होना पड़ा। न दरबारियों की खुशामद काम आयी और न नौ रत्नों की सूझबूझ।

तत्पश्चात् राज्य का एकमात्र अधिष्ठाता होते हुए भी राजा ने विख्यात पण्डितों को बुलाकर पूछा, ’आज दिन तक मेरा कोई उपाय अकारथ नहीं गया। इस बार यह क्या अनहोनी हुई? मेरे नक्षत्र अचानक इतने खराब कैसे हो गये? अच्छी तरह पंचांग देखकर इसका मायना बताओ।’
राजा ने पूछा तो पण्डितों को मायना बताना ही था। स्वामी के आदेश की अवहेलना कैसे करते? पंचांग में काफी देर गड़ाकर उन्होंने पुख्ता दिनमान बताये। अन्त में क्षमा माँगते हुए अरदास की, ’गरीब-परवर इसके लिए आपको एक टोटका सारना होगा। शंकर भगवान के नन्दी जितना प्रचण्ड खरे सोने का साँड दान करके हुजूर को सात दिन का अखण्ड मौन रखना होगा……….।’

’मेरा तो पेट ही फट जाएगा!……….सात दिन का मौन?’
’हाँ, गरीब-नवाज, पूरे सात दिन का मौन! एक घड़ी भी कम नहीं।’
’अच्छा!’ पण्डितों के ज्ञान से प्रभावित होकर राजा ने माकूल सवाल पूछा, ’किसे दान करना होगा? गरीब-गुरबों को?’
’नहीं, करुणा-निधान, पण्डितों को। नन्दी का स्वर्णदान तो हमेशा पण्डितों को ही दिया जाता है। फिर भी हुजूर के दिल में गरीबों के लिए दया-माया हो तो गणेश भगवान के चूहे का दान…….!’
’खूब, बहुत खूब!’ दयावन्त राजा ने पण्डितों को बीच में टोककर कहा, ’गणेश भगवान भी किस रूप में कम है? शंकर जैसा औघड़ पिता और पार्वती जैसी ममतामयी माँ!’

’खम्मा-घणी अन्दाता, खम्मा-घणी। आप से क्या छिपा है? आप तो सर्वज्ञ हैं। एक मामूली-सी अरदास आपके चरण-कमलों में प्रस्तुत करना चाहते हैं कि नगर के भीम-तालाब में सतह से सवा हाथ नीचे सात घोंसले खुदवाने का श्रीमुख से आदेश फरमाएँ गरीब-परवर। जब उन घोंसलों में शकुन चिड़िया अलग-अलग अण्डे देगी, तब आपका कोई भी उपाय व्यर्थ नहीं जाएगा। फिर तो सूरज को हथेली में खिलाएँ तो अन्दाता की मरजी और चाँद को ठोकर से उछालें तो हुजूर की इच्छा………।’

बात के बीच में सहसा चकवे ने यों ही खिजाने की मंशा से पूछा, ’रात अब ढलने पर है, तुझे नींद तो नहीं आ रही है?’
तब पति की अक्ल पर गुमान करते चकवी बोली, ’ऐसी उम्दा बात सुनकर तो नींद की भी ऊँघ उड़ जाए, फिर भला मेरी पलकें क्यों झपक सकती हैं?’

अपनी सुमधुर वाणी में चकवा आगे कहने लगा, ’राजा को अपने पण्डितों के पंचांग पर पक्का भरोसा है। उस शुभ दिन की मंगल वेला से ही हजारों-हजार चाकर तैनात हुए सो आज दिन तक उस भीम-तालाब के पानी में सात घोंसले खोदने का अविरल प्रयास कर रहे हैं। जाने कब पानी में घोंसलें खुदें, कब शकुन चिड़िया उनमें अलग-अलग अण्डे दे और जाने कब राजा का उपाय सफल हो? पण्डितों के ज्ञान पर राजा को पूरा विश्वास है कि यह टोटका सम्पन्न होने पर उसके राज्य में चिरन्तन प्रकाश जगमगा उठेगा। मनुष्य की आस्था और विश्वास ही बड़ी बात है। हम पंछी-जानवरों की क्या हस्ती कि उसके विश्वास पर सन्देह करें। बस, इत्ती-सी बात और इत्ती-सी रात। अब सो जाएँ तो बिना सुने ही मैं राजा के शानदार सपनों का सुराग लगा लूँगा। यह तो उसके जागते समय की कहानी है।

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