ठग उन्मूलन अभियान (कहानी) : गोनू झा

Thag Unmoolan Abhiyan (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

मिथिला में चोर -उचक्कों और ठगों का कभी बहुत जोर था । चोर-उचक्कों के इस जोर के कारण ही कोई अजनबी न तो मिथिला जाना चाहता था और न वहाँ के लोगों से मेल -जोल बढ़ाने का ही साहस कर पाता था । मिथिलांचल नरेश ने चोरी और ठगी रोकने के कई उपाय किए लेकिन सारे विफल रहे ।

एक दिन उन्होंने गोनू झा से कहा -" अब आप ही कोई उपाय करें पंडित जी ! राज्य में चोरी और ठगी की घटनाएँ इतनी बढ़ गई हैं कि पड़ोस के राज्यों से कोई मिथिला भ्रमण के लिए आना ही नहीं चाहता । मिथिला की कलात्मक तस्वीरों के लिए पहले यहाँ पर्यटकों की भीड़ लगी रहती थी । मिथिला अपने प्राकृतिक रंग-निर्माण के लिए अपनी प्रसिद्धि के कारण व्यापारियों को भी आकर्षित करता था । मखाने की खेती में यह क्षेत्र अव्वल है लेकिन चोरों और ठगों के उत्पात के कारण अब मखाने के व्यापार पर भी असर पड़ने लगा है । मिथिला की मछलियाँ दूर-दराज तक के खरीददार ले जाया करते थे लेकिन मछलियों की माँग भी कम होती जा रही है । यदि यही हाल रहा तो राजस्व में कमी आएगी और हमें नए कर लगाने होंगे। इससे हमारी प्रजा पर अतिरिक्त आर्थिक दबाव आएगा । यह उचित नहीं होगा । मुझे विश्वास है पंडित जी आप ही कोई ऐसा रास्ता निकालेंगे जिससे मिथिला की प्रजा को इन ठगों-चोरों और लुटेरों से निजात मिल सकेगी।"

गोनू झा मिथिला नरेश की बातों को स्पष्ट आदेश के रूप में लेते थे। प्रखर बुद्धि और त्वरित सूझ के अपने विशिष्ट गुणों के कारण गोनू झा मिथिला नरेश के दरबार में सभी दरबारियों से भिन्न थे। उनकी इस विशेषता के कारण ही मिथिला नरेश उनका सम्मान करते थे। मिथिला नरेश की बातें सुनकर गोनू झा ने कहा -” महाराज! आपका आदेश सिर आँखों पर । बस, मुझे राज्य के सुरक्षा- प्रहरियों में से कुछ प्रहरियों का चुनाव कर उनसे मनचाहा काम लेने की सुविधा प्रदान करें ।"

महाराज ने गोनू झा को यह सुविधा प्रदान कर दी ।

गोनू झा ने सुरक्षा प्रहरियों में से अपनी पसन्द के जवानों का चुनाव किया और उन्हें अपने गाँव में ग्रामीणों जैसे लिबास में बुलवाया । तीन-चार दिनों तक वे उन्हें समझाते रहे कि उन्हें क्या करना है । इसके बाद वे महाराज के पास गए तथा कहा -" महाराज, अब मैं ठगी चोरी निषेध अभियान पर लग गया हूँ । न तो अगले तीन माह तक मैं दरबार में आऊँगा और न यह बताऊँगा कि मैं और मेरे प्रहरी क्या कर रहे हैं और न यह बात आप किसी भी कारण से मुझसे पूछेगे।"

महाराज ने स्वीकृति दे दी ।

गोनू झा ने इन सुरक्षा प्रहरियों को पर्यटकों के वेश में विभिन्न क्षेत्रों के धर्मशालाओं में ठहर जाने का निर्देश दिया तथा राजकोष से मँगाकर सबको कुछ- कुछ धन भी प्रदान किया । जवानों के चयन में गोनू झा ने एक विशेष नीति अपनाई थी । उन्होंने ऐसे जवानों का चयन किया था जो देखने में मूर्ख लगते थे। तीन दिनों के प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने इन जवानों को मूर्खतापूर्णढंग से देखने, बोलने आदि की कला भी सिखाई थी ।

गोनू झा के गाँव से थोड़ी दूरी पर एक मवेशी मंडी थी जहाँ रविवार को मवेशियों का बाजार लगा करता था । एक सुरक्षा प्रहरी किसान के वेश में उस हाट में भेजा गया । वह दिन भर हाट में घूमता रहा और मूर्खों के से हाव-भाव के साथ मवेशियों के पास जाता, उन्हें निहारता और फिर उसके मालिक से उसकी कीमत पूछता फिर अपनी अंटी से पैसे निकालकर उन्हें सबके सामने गिनने बैठ जाता । फिर कहता कि उसके पास पैसे कम हैं । लगभग चार -पाँच चक्कर वह पूरे हाट का लगा चुका था । अब वह किसी भी मवेशी के पास रुकता तो मवेशी का मालिक उसे दुत्कार कर भगा देता – “जा-जा, आगे बढ़ । लेना न देना आ गया फिर मगज चाटने !"

हाट में घूम-घूमकर थक जाने के बाद वह जवान एक जगह पर बैठ गया । उसने महसूस किया कि उसके आस-पास, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चार लोग बैठ गए हैं । चुपचाप ! सब की पीठ उसकी तरफ थी । जवान ने फिर अपनी अंटी से पैसों की थैली निकाली और वहाँ बैठकर उन्हें गिनने लगा । पैसे गिनकर उसने थैली में डाले और थैली अपनी अंटी में रखकर वह फिर से मंडी के चक्कर लगाने लगा । चक्कर लगाते-लगाते उसकी नजर एक छोटे से बछड़े पर पड़ी । वह बछड़े के मालिक से उसका मोल पूछा । पहले तो बछड़े का मालिक उस पर नाराज हुआ मगर जब उसने अपनी अंटी से रुपए निकालकर दिखाए तो उसने उसकी कीमत दो सौ रुपए बताई । मोल-तोल करने के बाद डेढ़ सौ रुपए में बछड़ा खरीदकर वह जवान उस बछड़े को अपने कंधे पर लाद लिया और गोनू झा के गाँव की ओर चलने को हुआ तो जिसने बछड़ा बेचा था, वह उसकी मूर्खता पर हँसते हुए पूछा-“बड़े मजबूत जवान हो ! किस गाँव से आए हो ?"

जवान ने चलते हुए कहा-" भड़ौरा गाँव है मेरा । भड़वारा जानते हो न ? वही।"

इतने में चार लोग उसके पास से लगभग दौड़ते हुए निकल गए। जवान ने देखा, ये वही चार लोग थे जो कुछ देर पहले उसके आस- पास आकर बैठ गए थे। जवान ने उन्हें देखकर अनदेखा कर दिया और धीमी चाल से वह आगे की ओर चल पड़ा । मवेशी मंडी से थोड़ी दूर निकल जाने के बाद एक मोड़ पर उसने देखा कि एक आदमी उसे रुकने का इशारा कर रहा है, मगर वह उस पर बिना ध्यान दिए धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा । उसे इशारा करनेवाला आदमी तेज कदमों से चलकर उसके पास आ गया और कहने लगा-“का गणेशी भाई! नाराज छी की ? अतेक आवाज देलौं, इशारो कैलो, अहाँ ध्यानो न देलौं ? किऐक ?" ( क्यों गणेशी भाई, नाराज हैं क्या ? इतनी आवाज दी, इशारा भी किया मगर आपने ध्यान ही नहीं दिया, क्यों ? )

जवान अपनी धीमी गति से चलता रहा। उस आदमी ने फिर कहा-“की बात छई, बोलवे नहिं करई छी ?” ( क्या बात है ? बोलते ही नहीं हैं ? )

तब जवान ने बिना उसकी ओर देखे कहा -”मेरा नाम गणेशी नहीं, माधो है। माधो! माधव झा ! मुकुंद माधव झा !"

" हाँ यौ झा जी । ई बताऊ कि ई बकरा कतेक में भेटल ? ( हाँ ! झा जी । यह बताइए कि यह बकरा कितने में मिला ? )

“ई बकरा?"...माधो झुंझलाया और बोला-“तुम्हें यह बकरा दिख रहा है?"

" त आउर का ?"( तो और क्या ? )

माधो चलते हुए बोल रहा था – “भाई, इ बकरा नहीं है।

बाछा है बाछा।” “बाछा ? कौन कहता है ? अरे बकरा और बाछा में अन्तर नहीं समझता क्या ? क्या मेरे पास आँखें नहीं हं ? क्यों मूर्ख बना रहे हो ?" वह आदमी अब रोष में बोल रहा था ।

माधो ने भी उत्तेजित होकर जवाब दिया-“हाँ, बाछा है, बाछा... बाछा... बाछा...। एक नहीं, सौ बार बाछा।”

उस आदमी ने माधो से भी ऊँची आवाज में कहा, " बकरा- बकरा-बकरा !" माधो फिर चीखा – “बाछा...बाछा...बाछा!”

ऐसे ही चीखते-चीखते दोनों गाँव के मोड़ तक पहुँच गए । वहाँ उन्हें तीन आदमी दिखे। उनमें से एक ने उन्हें टोका -" अरे ! क्यों चीख रहे हो दोनों ?"

माधो ने रुआँसा होकर कहा-“यह आदमी मेरे बाछा को बकरा बता रहा है।"

“बाछा?" चौंककर उस टोकनेवाले आदमी ने पूछा-“कहाँ है बाछा?"

माधो ने मासूमियत से जवाब दिया-“मेरे कंधे पर।"

वह आदमी ठठाकर हँस पड़ा। फिर हँसते-हँसते बोला-“अच्छा मजाक कर लेते हो ।"

“मजाक ? मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ । मेरे कंधे पर बाछा है और यह आदमी मुझे तब से तंग कर रहा है-बाछा नहीं, बकरा है कह- कहकर मुझे आजिज कर चुका है।"

“अरे भाई! है बकरा तो बाछा कैसे कह दे कोई? अब तुमको बाछा को बकरा कहना हो तो कहो।” उस आदमी ने कहा।

उसकी बात सुनकर माधो ने अपने कंधे से बाछा को उतारा और उसे देखने लगा । फिर बोला-“यह बाछा ही है। क्यों मुझे परेशान कर रहे हो ? जाओ, अपना रास्ता देखो ।"

अभी ये बातें हो ही रही थीं कि गाँव के मोड़ पर खड़े दो आदमी माधो की तरफ आ गए । माधो ने उन्हें देखा-उसे याद आया -जब वह मंडी में सुस्ताने के लिए बैठा था तब यही चारों उसके आजू -बाजू आकर बैठ गए थे ।

उन दोनों ने बाछा को सहलाया, फिर बोले-“वाह! क्या बात है! बहुत मस्त बकरा है तुम्हारा । बोलो, बेचोगे?"

माधो उनकी बात सुनकर हताश-सा दिखने लगा। उनमें से एक ने फिर कहा-“बताओ कितने में बेचोगे ? मुझे पसन्द आ गया है । बहुत शानदार बकरा है।"

माधो बारी-बारी से चारों को देख रहा था । उसे चुप देखकर उन चारों में से एक ने कहा -" अरे भाई, तुम तो बाछा खरीदने गए थे। मतलब कि तुम्हें तो बाछा की जरूरत है, बकरे की नहीं । ऐसे में ई बकरा तो तुम्हारे लिए बेकार हुआ न ? ऐसे ... तुम्हारी मर्जी। तुम्हारे लिए जो फालतू चीज है-उसकी हमें जरूरत है । तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि जो चीज तुम्हारे लिए फालतू है उसका खरीददार तुम्हें राह चलते मिल गया । बेचना चाहो तो बेच दो । जितने में लाए हो उतनी रकम तुम्हें हम दे देंगे । बोलो, कितने में खरीदा था ?"

माधो ने मायूसी-भरे शब्दों में बोला -" डेढ़ सौ में ।"

“डेढ़ सौ यानी एक सौ पचास रुपए। एक सौ पचास रुपए मतलब-150 रुपए । है न भाई?” एक आदमी ने माधो से पूछा।

माधो ने सिर हिलाकर हामी भर दी ।

फिर उनमें से एक ने माधो का कन्धा थपथपाकर कहा, “भाई मेरे। एक पाँच शून्य रुपए में एक और पाँच का तो मतलब है मगर हिसाब -किताब में शून्य का तो कोई मानी होता ही नहीं है। बताओ, होता है क्या ?"

माधो ने फिर सिर हिलाकर न कहा। उसके चेहरे पर उस समय मूर्खता बरस रही थी ।

" तो एक पाँच शून्य में से, शून्य हटा दो तो बचे एक और पाँच यानी एक पर पाँच-पन्द्रह ! ये लो पन्द्रह रुपए। “उनमें से एक ने माधो के हाथ में पन्द्रह रुपए रखते हुए कहा-“अब यह बकरा हमारा हुआ ।”

माधो हाथ में पन्द्रह रुपए थामे उन लोगों को देखता रहा और वे लोग बाछा लेकर एक साथ मुड़ गए और तेज गति वे वहाँ से जाने लगे ।

माधो उन लोगों को जाते हुए देखता रहा । जब वे लोग उसकी आँखों से ओझल हो गए तब माधो ने गोनू झा के गाँव की तरफ अपना रुख किया । उस समय सूरज डूब रहा था । गाँव की पगडंडियों के आस-पास के पेड़ों पर चिड़ियों की चहचहाहट का शोर था । हवा मंथर वेग से बह रही थी । माधो धीरे-धीरे चलते हुए गोनू झा के घर आया । उस समय आसमान में सितारे टिमटिमाने लगे थे। आसमान में चाँद की मद्धिम रोशनी फैल चुकी थी । चाँदनी रात में गोनू झा अपने दरवाजे पर खटिया रखकर उस पर अधलेटे से पड़े थे। वह माधो को आता देख खटिया से उठ गए और टहलते हुए माधो के पास पहुँच गए । माधो ने उन्हें सारी घटना बता दी । गोनू झा मुस्कुराते हुए माधो की बातें सुनते रहे । फिर उन्होंने माधो का कंधा थपथपाते हुए कहा-“तुमने बहुत बुद्धिमानी से काम किया । ठीक ऐसा ही काम मैं चाहता था । अब अगले हफ्ते हाट के दिन हम लोग अलग-अलग मवेशी मंडी पहुँचेंगे । मुझे विश्वास है, उस दिन ये चारों उस बाछा को बेचने आएंगे । अब सात दिनों तक तुम मस्ती करो ।

माधो के जाने के बाद गोनू झा ने अन्य रंगरूटों को बुलवाया और उनसे जानकारी ली ।

वे लोग भी अन्य ग्रामीण मंडियों में इसी तरह ठगी के शिकार हुए थे। गोनू झा मुस्कुराते हुए उनकी बातें सुनते रहे और अगले मंडी के दिन मंडी में ही मिलने की बात कहकर उन लोगों को विदा किया और फिर सोने चले गए ।

अपने गाँव के पास लगने वाली मवेशी मंडी में अगले सप्ताह गोनू झा मंडी लगने से पहले ही पहुँच गए और एक पेड़ के नीचे बोरा बिछाकर बैठ गए। उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वे मिथिला नरेश के दरबार के नामचीन दरबारी हैं । साधारण कृषक के लिबास में गोनू झा ठेठ ग्रामीण लग रहे थे। गोनू झा के मंडी में पहुँच जाने के बाद धीरे-धीरे मवेशी बाजार जमने लगा। दो घंटे में बाजार पूरी तरह सज गया । गोनू झा की आँखें माधो को तलाश रही थीं । एक पेड़ के नीचे बैठा माधो उन्हें दिख गया । वह पोटली से रुपए बार बार निकाल उन्हें गिनने में लगा हुआ था । लगभग डेढ़-दो घंटे बाद माधो अचानक अपनी जगह से उठा और तेजी से मवेशी मंडी के पूर्वी कोने की ओर जाने लगा। गोनू झा भी उठे और धीमी गति से माधो की तरफ जाने लगे ।

माधो चलते हुए जिस जगह पर रुक गया था, उस जगह पर चार आदमी एक सफेद और शानदार बछड़े के साथ खड़े थे। माधो ने उनके पास पहुँचकर बछड़े को सहलाना शुरू किया । शायद उन चारों ने माधो को पहचाना नहीं था या फिर पहचानकर भी अनजान बन रहे थे। माधो को प्यार से बछड़े को सहलाते देखकर उनमें से एक ने कहा-“क्या बात है, पसन्द आ गया ?... पूरे बाजार में ऐसा बाछा तुम्हें देखने को नहीं मिलेगा। बोलो, लेना है ?"

माधो ने गर्दन हिलाकर हामी भरी । फिर पूछा-"कितने में दोगे?"

" दो सौ रुपए। एक दाम।" उसने जवाब दिया ।

अभी बातों का सिलसिला शुरू ही हुआ था कि गोनू झा वहाँ पहुँच गए और ऊँची आवाज में पूछा-“अरे यह बकरा किसका है ?"

चारों के चेहरे का रंग इस सवाल पर उड़ गया । ठीक उसी समय माधो ने कहा-“अरे ! लगता है मेरा ही दिमाग खराब हो गया है कि बकरा मुझे बाछा सा दिखता है। पिछले हफ्ते भी मैंने एक बकरा को बाछा समझकर खरीद लिया था ।"

गोनू झा ने फिर जोर से, लगभग चीखते हुए पूछा -" अरे बकरे का दाम कौन बताएगा ? बता जल्दी!

गोनू झा की इस आवाज को सुनकर चार-पाँच हट्टे- कट्टे ग्रामीण दौड़कर उस स्थान पर पहुँच गए और बछड़े के साथ आए चारों ठगों के आजू-बाजू में जाकर खड़े हो गए ।

गोनू झा के चीखकर पूछने पर उन चारों में से एक ने कहा-“दो सौ का बाछा है हुजूर । यह बकरा नहीं, बाछा है ।"

गोनू झा मुस्कुराए, फिर बोले -" जो भी हो, मैं तो बकरा ही कहूँगा... “गोनू झा थोड़ी देर बारी -बारी से उन चारों को देखते रहे फिर मुस्कुराते हुए धीमी आवाज में बोले – “दो सौ दाम बताया न ? दो सौ रुपए। है न ?”

उन चारों ने गर्दन हिलाकर हामी भरी।

गोनू झा ने अपनी आवाज को और धीमा किया और लगभग फुसफुसाते हुए बोले, “दो सौ रुपए मतलब-200, है न ? और दो सौ रुपए का मतलब दो शून्य शून्य ।” इतना कहने के बाद वे उन चारों में से एक के पास पहुँचे और उसके कानों के पास फुसफुसाते हुए बोले -" और हिसाब-किताब में शून्य का कोई मतलब नहीं होता । है न ? तो दो शून्य हटे बच गया दो । यह लो दो रुपए और यह बकरा मेरा हुआ ।"

गोनू झा की बात सुनकर चारों आदमी ने भागने की कोशिश की लेकिन उनके आजू- बाजू खड़े लोगों ने उन्हें धर दबोचा और उनकी मुश्कें चढ़ाकर उन्हें बाँध दिया गया । मंडी में रौनक होने के कारण वहाँ भीड़ लग गई । तब गोनू झा ने भीड़ में शामिल लोगों से पूरा वृत्तान्त कह सुनाया कि कैसे इन लोगों ने माधो को असमंजस में डालकर उसका बाछा पन्द्रह रुपयों में ले गए थे ।

फिर गोनू झा ने उन लोगों से जिन्होंने इन चारों की मुश्कें चढ़ा दी थीं, कहा-“जाओ, इन्हें ले जाकर हवालात में बन्द कर दो । कल फिर मुकाम पर तैनात रहो।"

जब ये लोग उन चारों को लेकर जाने लगे तो गोनू झा ने हँसते हुए कहा-“जाओ भाइयो, ये लोग तुम्हें हिसाब-किताब में शून्य का प्रयोग कैसे होता है, बता देंगे।” इसके बाद गोनू झा और माधो वह बाछा लेकर घर आ गए ।

दूसरे दिन, दूसरे गाँव की मंडी में छह और तीसरे दिन तीसरे गाँव की मंडी में दस लोगों को इसी तरह गोनू झा की सूझ-बूझ से रंगरूटों ने धर दबोचा । सात दिनों के अभियान में ही पूरे मिथिलांचल में छोटी-बड़ी ठगी करते पचास से अधिक लोग पकड़ में आ गए । इसके बाद उनकी पिटाई कर रंगरूटों ने कुछ और ठगी करनेवालों का नाम- पता हासिल किया और जाल बिछाकर उन्हें ठगी करते रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया ।

तीन माह व्यतीत हो गए । गोनू झा के ठग उन्मूलन अभियान को मिथिलांचल में अपार सफलता मिली। तकरीबन पौने दो सौ ठगों को रंगरूटों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया ।

तीन माह पूरा होते ही गोनू झा मिथिला दरबार में उपस्थित हुए और महाराज को अपनी सफलता का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया । महाराज खुश हुए तथा गोनू झा की सफलता से प्रसन्न होकर विशेष दरबार का आयोजन किया। दरबारियों के सामने उन ठगों को पेश किया गया जिन्हें गोनू झा की सूझ-बूझ के कारण पकड़ा गया था । महाराज ने दरबार में गोनू झा की मुक्त कंठ से प्रशंसा की । गोनू झा से जलने वाले दरबारी नाक-भौं सिकोड़ने लगे । काना नाई तो इस घोषणा से इतना व्यथित हुआ कि दरबार से ही बाहर चला गया । महाराज उसे जाते हुए देखते रहे । वे जानते थे कि उनका यह दरबारी गोनू झा से ईष्या करता है ।

दरबार समाप्त हो जाने के बाद महाराज, गोनू झा को अपने साथ महल में लेकर आ गए और उन्हें उचित आसन पर बैठाकर पूछा कि आखिर मिथिला के सभी ठगों को इस तरह दबोचने में उन्हें सफलता कैसे मिली ?

गोनू झा मानो इस प्रश्न के लिए तैयार थे । उन्होंने छूटते ही कहा -" महाराज ! मैंने आपकी आज्ञा से, सुरक्षा प्रहरियों में से ऐसे जवान छाँटे जो देखने में मूर्ख या बेअक्ल प्रतीत होते थे। इन जवानों को मैंने राजकोष से कुछ रुपए दिलाए जिसकी सहायता से ये जवान ग्रामीण-पर्यटक के रूप में घूम सकते थे और कुछ खरीददारियाँ कर सकते थे। तीन दिनों तक मैंने इन्हें मूर्ख दिखने और मूर्खतापूर्ण आचरण करने का प्रशिक्षण दिया । पूरे मिथिलाँचल को मैंने सात क्षेत्रों में बाँटा और इन सात क्षेत्रों के लिए सात केन्द्र स्थापित किए। इन जवानों के साथ ही मैंने गाँवों में लगनेवाली मंडियों में ग्रामीण वेशधारी रंगरूटों को तैनात किया । जवानों को मैंने खुला निर्देश दिया कि जब कोई उन्हें ठगने की कोशिश करे तो वे ऐसा दिखाएँ कि वे उसके झाँसे में आ गए हैं और ठगे जाएँ। रंगरूटों को निर्देश था कि जब कोई जवान ठगा जाए तो वे उसे ठगनेवालों को भनक तक लगे बिना, उसके घर तक पीछा करें । नाम-पता आदि की सूची तैयार कर लें । सच कहें महाराज, मैंने तो अँधेरे में तीर चलाया था जो ठीक निशाने पर लगा।"

गोनू झा की, महराज ने खूब आवभगत की और उन्हें महल के दरवाजे तक छोड़ने आए । गोनू झा को विदा करते समय गद्गद कंठ से महाराज बोले -" तो पंडित जी आज से मिथिलांचल ठग-मुक्त क्षेत्र घोषित किया जा सकता है न !"

गोनू झा ने उन्हें नमस्कार करते हुए कहा -" क्यों नहीं महाराज !"

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