तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

Tamas (Hindi Novel) : Bhisham Sahni

तमस (उपन्यास) : द्वितीय खंड : भीष्म साहनी

तमस (उपन्यास) : चौदह

पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में केतली पर चढ़ाया गया पानी सुबह से खौलता रहा। दूकान के सामने दोनों बेंच खाली पड़े थे। पहले बेंचों पर भीड़ लगी रहती थी, गाँव का कोई आदमी नहीं था जो आता-जाता हरनामसिंह की दूकान पर न बैठता हो। बस-स्टॉप पर दो-तीन झबरेले कुत्ते घूम रहे थे। चारों ओर जैसे सकता छा गया था।

स्त्री की सूझ पैनी होती है। बन्तो ने कल शाम से ही कहना शुरू कर दिया था कि इस गाँव से निकल चलो, खानपुर चले चलो जहाँ हमारे और सगे-सम्बन्धी रहते हैं। इस सारे गाँव में अकेले ये दो जीव सिख परिवार के थे, बाकी सारा गाँव मुसलमानों का था। पर हरनामसिंह नहीं माना। चलती दूकान छोड़कर कैसे भाग जाए? झगड़े-फसाद तो होते रहते हैं पर काम-धन्धा तो बन्द नहीं किया जा सकता। फिर जाएँ तो कहाँ जाएँ? शहर में जाएँ जहाँ पहले से ही आग लग रही है? खानपुर में जाएँ तो वहाँ हमारा कौन खिलाने के लिए बैठा है? पीछे किसी ने दूकान लूट ली तो फिर खाएँगे कहाँ से? बेटे के पास जाएँ? बेटा बीस मील दूर मीरपुर गाँव में बैठा है। जैसे हम यहाँ अकेले हैं, वैसे ही वहाँ पर वह अकेला है। जहाँ बैठे हो, गुरु महाराज के आसरे वहीं बैठे रहो। उसके पास पहुंच भी गए तो वह हम बूढ़ों की जान बचाएगा या अपनी जान बचाएगा? अपनी जेब से भी खाएँगे तो कितने दिन और कोई दूसरा खिलाएगा तो कितने दिन? और चौकी पर बैठा हरनामसिंह गोद में रखे हाथ जोड़ देता है और कहता है :

"जिसके सिर उपरि तूं सुआमी सो दुख कैसा पावै!"
(हे मालिक! जिसके सिर पर तेरा हाथ है वह दुख क्योंकर पाएगा)

बन्तो सुनती और चुप हो जाती। फिर जब अन्दर ही अन्दर उसका दिल डूबने लगता तो कहती : चलो मेरी बहन के गाँव चले चलो, वह तो नज़दीक है, वहाँ गुरुद्वारे में पड़े रहेंगे, बहन के पास नहीं रहेंगे, वहाँ सिख संगत बड़ी है, अपने लोगों का आसरा होता है। पर हरनामसिंह! वह भी नहीं माना। उसे अन्दर ही अन्दर विश्वास था कि और लोगों के साथ भले ही बुरा-भला हो जाए, इसके साथ नहीं हो सकता।

“सुण भागे भारिए, असाँ कदे किसे दा बुरा नहीं चेतिया, बुरा नहीं कीता। इत्थो दे लोकी बी साडे नाल भरावाँ वाँग रहे हन। तेरियाँ अखाँ साहमणे करीमखान दस वारा कह गिया है : चुपचाप बैठे रहवो, तुहाडे वल कोई अँख चुक के वी नहीं बेखणगा। करीमखान तो बड़ा मोतबर इत्थे कोण है? इक्को इक इत्थे सिख घर है? के गिराँवालियाँ नूँ साडे ते हत्थ चुकदियाँ गैरत नहीं आएगी?"

(सुण भागे भारिए, हमने किसी का कुछ देना नहीं है, हमने किसी का कभी बुरा नहीं चेता है, कभी बुरा नहीं किया है। ये लोग भी हमारे साथ कभी बुरी तरह पेश नहीं आए हैं। तेरे सामने, कुछ नहीं तो दस बार करीमखान कह गया है : आराम से बैठे रहो, तुम्हारी तरफ़ कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। अब करीमखान से बड़ा मोतबर इस गाँव में और कौन होगा? सारे गाँव में एक ही तो सिख घर है। इन्हें गैरत नहीं आएगी कि हम निहत्थे बूढ़ों पर हाथ उठाएँगे?

बन्तो फिर चुप हो गई। तर्क का जवाब तो तर्क में दिया जा सकता है, पर विश्वास का जवाब तर्क के पास नहीं है। जहाँ बन्तो का दिल किसी-किसी वक़्त डूबने लगता था, वहाँ हरनामसिंह एक बार भी विचलित नहीं हुआ। उसका चेहरा बराबर खिला रहा। सारा वक्त वह गुरु महाराज का नाम लेता रहा और उसे देखकर बन्तो को भी त्राण मिलता था।

पर आज कोई बस नहीं आई थी, एक भी ग्राहक दूकान पर नहीं चढ़ा था, और सड़क सूनी पड़ गई थी। बल्कि दो-तीन बार इक्के-दुक्के आदमी जिन्हें उसने पहले कभी नहीं देखा था, गाँव की ओर जाते हुए उनके घर की ओर घूर घूरकर देखते रहे थे।

और जब दोपहर ढलने को आई तो ढक्की पर से उसे किसी के क़दमों की परिचित-सी आहट आई। करीमखान लाठी टेकता चला आ रहा था। हरनामसिंह का ढाढ़स बँधा। करीमखान कुछ बताएगा, कोई सुझाव देगा, कोई तरकीब करेगा। यहाँ ख़तरा हुआ तो हम करीमखान के डेरे पर चले जाएँगे।

करीमखान दूकान के सामने आया पर रुका नहीं, न ही हरनामसिंह की ओर मुँह किया, केवल चाल धीमी कर दी और खखारने के बहाने बुदबुदाया :

“हालत अच्छी नहीं हरनामसिंह, तू चला जा।" दो-एक क़दम जाकर फिर बोला, “गाँववाले तेरे वल अक्ख वी नहीं चुक्कणगे पर बाहरों लोकाँ दे आण दा डर है। उन्हाँ न रोकणा सॉडे बस दा नहीं।"

और फिर खाँसता हुआ, लाठी पटपटाता आगे बढ़ गया।

तभी पहली बार हरनामसिंह की विश्वास की टेक बुरी तरह से हिल गई। करीमखान रुका नहीं तो इसका मतलब है सचमुच ख़तरा है और जो करीमखान आया है तो जोखम ही उठाकर आया होगा। फिर भी हरनामसिंह इतना घबराया नहीं जितना उदास हो गया। वैराग्य का भाव उसके दिल में ज्यादा उठा, क्षोभ, क्रोध, भय आदि का कम।

पाँचेक मिनट के बाद करीमखान फिर लौटकर आया। फिर वैसे ही ढक्की चढ़ते, कमर पर हाथ रखे, हाँफते-झंखारते उसने क़दम धीमे किए और बुदबुदाया, “देर नहीं कर हरनामसिंह, हालत चंगी नहीं, बाहरों बलवाइयाँ दे आण दा डर है।"

और उसी तरह कमर पर हाथ रखे हाँफता हुआ ढक्की चढ़ने लगा।

हरनामसिंह कहाँ जाए? मीलों दूर तक रास्ते और मैदान और घाटियाँ फैली थीं। करीमखान ने तो कह दिया कि चले जाओ मगर कहाँ जाए? उन्हें कहाँ आश्रय मिल सकता था। साठ की उम्न और साथ में औरत जात, वह कितनी दूर तक भागकर जा सकता है? फिर भागकर जाएगा भी तो कहाँ जाएगा?

मन के अन्दर से फिर एक बार आवाज़ आई : कहीं नहीं जाओ, यहीं बने रहो, जब बलवाई आएँ तो दूकान भी हाजिर कर देना और जान भी हाजिर कर देना। यहाँ मर जाना अच्छा है, परदेशों की खाक छानने से। कौन आएगा हमला करने? बार-बार वह सोचता पर यक़ीन नहीं होता था कि गाँव का कोई आदमी उस पर हमला करने आएगा। या गाँववाले बाहरवाले को हमला करने देंगे।

हरनामसिंह उठकर पीछे कोठरी में आ गया, जहाँ बन्तो बैठी थी।

"करीमखान आकर कह गया है कि यहाँ से निकल जाओ। बाहर से बलवाई आ रहे हैं।"

क्षणभर में बन्तो के सारे शरीर में खून की जगह पानी भर गया। बैठी की बैठी रह गई। रात सिर पर आनेवाली थी और कहीं पर ठौर-ठिकाना नहीं था। और उधर अँधेरी कोठरी में खड़ा उसका पति अवसाद की मूर्ति लग रहा था।

पर अब न सोचने का वक़्त था न ज़्यादा देर ठहरने का वक़्त था, जितनी जल्दी हो सके, अँधेरा पड़ते ही यहाँ से निकल चलो।

"मैं तो अब भी कहता हूँ यहीं बैठे रहो। कहीं नहीं जाओ।" फिर उसने एक ओर दीवार के साथ टँगी अपनी दोनाली बन्दूक की ओर इशारा करके कहा, "मरने-मारने पर नौबत आ गई तो मैं पहले तुम्हें मार दूंगा, फिर अपने को मार डालूँगा।"

बन्तो चुप सुनती रही। क्या कहे, क्या मशवरा दे? सामने चारा ही क्या था?

हरनामसिंह दूकान के चबूतरे पर लौट गया, टाट के नीचे से कमाई के पैसे निकाले, फिर अन्दर आया, बक्से में से पूँजी के पैसे निकाले, फिर नोटों को अलग से छाँट लिया और रेज़गारी वहीं छोड़ दी। नोटों का पुलिन्दा अन्दर की बंडी की जेब में रख लिया। फिर कोठरी के अन्दर दीवार पर टँगी बन्दूक उतार ली और उसे कन्धे से लटका लिया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या माल ले जाए और क्या नहीं ले जाए। दूकान की रजिस्ट्री के कागज़ ले लूँ? पर उन्हें ढूँढ़ने-निकालने का वक्त नहीं था। बन्तो की भी यही हालत थी। अपना ज़ेवर उठा लूँ? खाने के लिए कुछ थोड़ा-बहुत बना लूँ। दो रोटियाँ सेंक लू? रास्ते में कहाँ कुछ खाने को मिलेगा? अपने कपड़े बदल लूँ? बाहर जाओ तो कपड़े उजले पहनकर जाना चाहिए। पर बन्तो की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, क्या उठाए क्या छोड़ दे।

"गहनों की पोटली का क्या करूँ?" उसने पूछा, “इन्हें बदन पर पहन लूँ?"

“पहन ले," हरनामसिंह ने कहा, फिर तनिक सोचकर बोला, “तेरे गहने देखकर ही तुझे कोई मार डालेगा। उन्हें दूकान के पीछे गाड़ दे।"

बन्तो ने कमीज़ के नीचे ज़ेवर पहन लिया, कुछ रूमाल में लपेटकर ट्रंक के अन्दर छोड़ दिया, बाकी ज़ेवर पिछवाड़े ज़मीन में गाड़ आई जहाँ उन्होंने सब्जी की क्यारियाँ लगा रखी थीं। कोठरी में सन्दूक रखे थे, खेस, दरियाँ पूरे-के-पूरे बिस्तर थे जो बेटी के ब्याह के समय बनवाए थे, कितना कुछ था, और कुछ भी नहीं उठाया जा सकता था।

"दो रोटियाँ सेंक लूँ? जाने कहाँ-कहाँ भटकना होगा।"

"रोटियाँ सेंकने का कहाँ वक़्त रह गया है, भली लोग। पहले जाने का सोचा होता तो यह भी कर लेते।"

तभी कहीं दूर से ढोल बजने की आवाज़ आई। दोनों एक-दूसरे की ओर देखते रह गए।

"बलवाई आ गए हैं, खानपुर की तरफ़ से आए जान पड़ते हैं।" उधर ढोल बजने की आवाज़ आई, इधर गाँव के पार से नारे लगने शुरू हो गए।

“या अली!"

“अल्लाह-हो-अकबर।"

'ये अशरफ और लतीफ होंगे। वही गाँव के लीगी हैं। वही पाकिस्तान के नारे लगाते रहते हैं।' हरनामसिंह ने मन ही मन कहा।

वातावरण जैसे थर्रा उठा।

शाम पड़ चुकी थी लेकिन झुटपुटा अन्धकार में नहीं बदला था। बलवाइयों की आवाज़ बाएँ हाथ कस्सी के पार से आई जान पड़ती थी।

तभी हरनामसिंह की नज़र कोठरी की छत से लटकते मैना के पिंजरे पर पड़ी।

"बन्तो, पिंजरा कोठरी के पीछे ले जा और उसे खोलकर मैना को उड़ा दे।"

कुछ ही देर पहले बन्तो ने मैना के पिंजरे में रखी कटोरियों में पानी और दाना डाल दिया था। अब जब वह पिंजरे को उतारकर बाहर ले चली तो मैना ने रोज़ की रटी हुई गरदान बोल दी, “बन्तो, रब्ब राखा, सरबद्ध दा रब्ब राखा।"

सुनते ही बन्तो का गला भर आया और जवाब में बन्तो भी बुदबुदा दी, “हाँ मैना, रब्ब राखा, सरबद्ध दा रब्ब राखा।"

ये शब्द मैना ने हरनामसिंह से सीख लिए थे। अक्सर हरनामसिंह दूकान के पटरे पर बैठा होता और उसकी पत्नी पीछे कोठरी में बैठी होती और जब दूकान पर कोई ग्राहक नहीं होता तो हरनामसिंह अन्दर बैठा बन्तो के साथ गुरुवाणी और धर्म की बातें किया करता था, कभी उठते-बैठते वह कहा करता था, "रब्ब राखा, सरबद्ध दा रब्ब राखा!"

और मैना इन शब्दों को घर में दोहराने लगी थी।

मैना के मुँह से ये शब्द सुनकर बन्तो को बड़ी ताक़त मिली थी। उसमें साहस और स्थिरता आ गई। मानो नन्हा-सा पक्षी उसे सीख दे रहा था।

पिछवाड़े ज़मीन के छोटे-से टुकड़े में हरनामसिंह ने सब्जी रोप दी थी, एक आम का पेड़ उगा रखा था। आँगन के बीचोबीच पहुँचकर बन्तो ने पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया और धीमे से बोली, “जा मैना, तेरा रब्ब राखा, सरबद्ध रब्ब राखा!"

पर मैना ज्यों की त्यों पिंजरे में बैठी रही।

"उड़ जा, उड़ जा मैना, उड़ जा माँ सदके!"

और बन्तो का कहते-कहते गला भर आया और वह पिंजरे को वहीं ज़मीन पर छोड़कर लौट आई।

तभी फिर ढोल बजने की आवाज़ आई। अब भी आवाज़ ज़्यादा नज़दीक थी। गाँव में भी आवाज़ों की भिनभिनाहट बढ़ने लगी थी। लगता बहुत-से लोग इकट्ठे होकर कहीं से बढ़े आ रहे हैं। गाँव के अन्दर से नारे की आवाज़ बराबर किसी-किसी वक्त आ रही थी।

बन्तो और हरनामसिंह अपने तीन कपड़ों में, और थोड़ी-बहुत पूँजी और बन्दूक सँभाले दूकान को ताला लगाकर बाहर निकल आए। घर के बाहर क़दम रखते ही सारा प्रदेश पराया हो गया। कहाँ जाएँ? किधर को घूमें? बाएँ हाथ को गाँव फैला था, उसी ओर कस्सी थी और कस्सी के पार से बलवाइयों के ढोल सुनाई दे रहे थे। दाईं ओर पक्की सड़क खानपुर की ओर चली गई थी, उस ओर जाना ख़तरे से कम खाली नहीं था, और इस ओर किनारा ऊँचा था। अगर कहीं जाया जा सकता था तो उसी रास्ते छिपलुककर जाया जा सकता था। सड़क पर चलना ख़तरे से खाली नहीं था। नाले में पानी न के बराबर था, चौड़ा पाट सूखा और रेतीला था और कंकड़ों-पत्थरों से अटा था।

दोनों ने सड़क पार की, और थोड़ी दूरी तक आकर नाले की ओर उतरने लगे। तब तक बलवाई गाँव के निकट पहुँच चुके थे और इसी ओर बढ़े आ रहे थे। वातावरण उनके नारों और ढोल-मजीरे की आवाज़ से गूंज रहा था।

हरनामसिंह और उसकी पत्नी नाले की ओर उतर रहे थे जब ऊपर कहीं से क्षीण-सी आवाज़ आई :

“बन्तो तेरा रब्बा राखा...
सर्बद्ध दा रब्बा राखा।"

मैना उन्हीं के पीछे उड़कर चली आई थी और पेड़ पर बैठ गई थी।

तभी बलवाई उस टीले के ऊपर पहुँच गए जिसकी ढलान उतरने पर नीचे दाएँ हाथ हरनामसिंह की दुकान थी। बलवाई चिंग्घाड़ रहे थे, ऊँचे-ऊँचे नारे लगाते ढोल बजाते नीचे उतर रहे थे।

चाँद निकल आया था, और चारों ओर छिटकी चाँदनी में हर पेड़ और हर चट्टान के पीछे छिपे किसी अज्ञात शत्रु का भास होने लगा था। नदी सूखी पड़ी थी और चाँदनी में नदी का पाट सफ़ेद चादर-सा बिछा था। पति-पत्नी ऊँचे किनारे पर से उतर आए थे और अब उसी की ओट में धीरे-धीरे दाएँ हाथ आगे की ओर बढ़ने लगे थे। नदी का किनारा जहाँ वे चले जा रहे थे, छोटे-बड़े पत्थरों से अटा पड़ा था और दोनों हाँफने लगे थे। दोनों के कान बलवाइयों की ओर लगे थे।

शोर पहले तो नज़दीक आता गया, फिर थम गया। हरनामसिंह को लगा कि बलवाई उसकी दूकान के सामने रुक गए हैं और निश्चय नहीं कर पा रहे कि अब क्या करें। हरनामसिंह ने मन ही मन करीमखान को धन्यवाद कहा। वह वक्त पर न कह देता तो भागना भी असम्भव हो गया था। तभी किसी चीज़ पर ज़ोर-ज़ोर से प्रहार करने की आवाज़ आई। हरनामसिंह समझ गया कि बलवाई उसकी दूकान का दरवाजा तोड़ रहे हैं। आगे चल पाने के लिए दोनों के पैर काँप रहे थे। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ धीरे-धीरे आगे सरकने लगे।

“वाह गुरु का नाम लेकर चलती आओ।" हरनामसिंह पत्नी को अपने साथ खींचते हुए बोला।

तभी एक कुत्ते के भुंकने की आवाज़ आई। दोनों ने नज़र उठाकर ऊपर देखा। ऊँचे किनारे पर छिटकी चाँदनी में एक भयानक काले रंग का कुत्ता खड़ा उन पर भुंके जा रहा था। हरनामसिंह को काटो तो खून नहीं। अब क्या होगा? गुरु महाराज किस पाप की इतनी भयानक सज़ा दे रहे हैं? कुत्ते का भूँकना सुनकर तो वे भागते हुए इधर चले आएंगे, उन्हें पता चलते देर नहीं लगेगी कि हम किस रास्ते से भागकर आए हैं।

“तुम चलते जाओ जी, रुको नहीं,” बन्तो बोली।

कुत्ता बराबर भूँकता जा रहा था। झबरैला कुत्ता, जो अक्सर उसकी दूकान के सामने टहलता, जगह-जगह मुँह मारता नज़र आया करता था। कुछ दूर तक चलते रहने के बाद बन्तो ने मुड़कर देखा। कुत्ता अभी भी टीले पर खड़ा भूँके जा रहा था मगर आगे बढ़कर नहीं आया था, न तो टीले के ऊपर किनारे-किनारे से और न ही नीचे उतरा था।

वे आगे सरकते गए।

"जैसे-तैसे गाँव पीछे छूट जाए, आगे भगवान मालिक हैं।"

"कुत्ता रुक गया है, आगे नहीं आ रहा।"

" भूँक तो रहा है।"

एक चट्टान के पीछे दोनों छिपकर खड़े हो गए और दम साधे कुत्ते का भूँकना सुनते रहे। उधर दूकान का दरवाज़ा टूटकर गिर गया था और “या अली!" चिल्लाते हुए बलवाई उसमें घुस गए थे।

“लूट रहे हैं, हमारा घर-बाहर लूट रहे हैं।" ।

पर कुत्ते के भूँकने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। दोनों पहले से अधिक आश्वस्त हो गए थे। ध्यान चला भी जाता तो भी शायद वे इनका पीछा न करते, इन्हें मारने से उन्हें क्या मिलता। दूकान में से तो कितना कुछ माल हाथ लगनेवाला था।

“अब किसकी दूकान और किसका घर! छोड़ आए तो हमारा कहाँ रह गया!" बन्तो ने कहा।

चाँदनी में झिलमिलाता नदी के पाट का प्रसार, कहीं-कहीं पर पेड़ों के झुरमुट, टीले के ऊपर खड़ा झबरैला कुत्ता जो बराबर भूँके जा रहा था, सब मिलकर एक सपना-सा लग रहा था। कितनी जल्दी सब कुछ बदल गया था। बीस साल तक एक जगह में रहने के बाद पलक मारते वे परदेसी और बेघर हो गए थे। हरनामसिंह का हाथ ठंडा और पसीने से तर था। पर वह बार-बार एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था, “निकल आओ, अब जैसे भी हो निकल आओ।"

गाँव पीछे छूट चुका था। कुत्ता अभी भी किनारे पर खड़ा था, वह आगे नहीं आया था। कुछ देर बाद शायद अपने-आप लौट जाए। दूकान लूटी जा चुकी थी, बलवाइयों का शोर थम गया था, लूट के सामान से ही वे सन्तुष्ट हो गए जान पड़ते थे, या क्या अब वे उन्हें खोजने निकलेंगे? अब केवल कंकड़ों-पत्थरों पर चलते लड़खड़ाते कदमों की आवाज़ आ रही थी और चारों ओर निःस्तब्धता छाई थी।

थोड़ी दूर चलने के बाद बन्तो को लगा जैसे आकाश में रौशनी फैल गई है। उसने मुड़कर देखा तो नाले के ऊँचे किनारे के पीछे गाँव की ओर आसमान लाल होने लगा था। बन्तो देखती की देखती रह गई।

"देखो जी, क्या है?"

“क्या है बन्तो, दूकान जल रही है, और क्या है?" हरनामसिंह ने कहा। वह भी खड़ा उसी ओर देख रहा था। थोड़ी देर तक वे मन्त्रमुग्ध-से आग के शोलों को देखते रहे। अपने घर में से उठते हुए शोले ज़रूर ही किसी दूसरे के घर में से उठनेवाले शोलों से भिन्न होते होंगे वरना वे क्यों मूर्तिवत् खड़े के खड़े रह जाते और उन्हें ताकते रहते।

“सब खाक हो गया!" हरनामसिंह शिथिल-सी आवाज़ में बोला।

“आँखों के सामने सब खाकस्याह हो गया।"

“वाहगुरु को यही मंजूर था!” उसने ठंडी साँस भरी और वे फिर चलने लगे।

दीवारें मनुष्य को छिपाए रहती हैं, पर यहाँ कोई दीवार न थी, केवल टीले थे, कहीं-कहीं पर चट्टानें थीं जिनके पीछे मनुष्य छिप सकता था पर कितनी देर के लिए? कुछ ही घंटों में रात का अँधेरा छंट जाएगा और वे फिर 'से जैसे नंगे हो जाएंगे, सिर छिपाने को जगह नहीं मिलेगी।

बन्तो का मुँह सूख रहा था और हरनामसिंह की टाँगें बार-बार लड़खड़ा जाती थीं। पर इस समय केवल वे दो ही नहीं, अनगिनत लोग दर्जनों गाँवों में से इसी भाँति जान बचाते घूम रहे थे, अनेक लोगों के कानों में टूटते किवाड़ों की आवाजें पड़ रही थीं। पर उनके पास न सोचने के लिए वक्त था, न भविष्य के मनसूबे बाँधने के लिए। वक्त था जैसे-तैसे जान बचा पाने के लिए। उस वक्त तक चलते जाओ जब तक रात के साए तुम्हें अपनी ओट में लिये हुए हैं। शीघ्र ही दिन चढ़ आएगा और ज़िन्दगी के खतरे चारों ओर से भूखे भालुओं की तरह हमला कर देंगे।

कुछ ही देर में वे थककर चूर हो गए थे।

पर जब से उन्हें इस बात का भास होने लगा था कि वे बचकर निकल आए हैं तभी से दोनों पति-पत्नी की आँखों के सामने अपने बेटे-बेटी के चित्र घूमने लगे थे। इकबालसिंह इस समय कहाँ होगा, उस पर क्या बीत रही होगी, और जसबीर कहाँ होगी? जसबीर की उन्हें अधिक चिन्ता नहीं थी क्योंकि जसबीर बड़े कस्बे में थी जहाँ उनकी जाति के लोग अधिक संख्या में थे, सम्भव है सारी सिख-संगत गुरुद्वारे में इकट्ठी हो गई हो, सम्भव है उन्होंने अपने बचाव का कोई साधन ढूँढ निकाला हो, पर इकबालसिंह अकेला था और अपने गाँव में छोटी-सी बजाजी की दूकान करता था। क्या मालूम समय रहते निकल गया हो, क्या मालूम इस वक़्त हमारी ही तरह कहीं मारा-मारा घूम रहा हो। सभी विचार व्याकुल करनेवाले थे। हरनामसिंह ने आँखें बन्द करके और हाथ जोड़कर गुरु महाराज का नाम लिया और फिर उनकी वाणी के वही शब्द दोहरा दिए :

"जिसके सिर उपरि तूं सुआमी
सो दुखु कैसा पावे।"

जब पौ फटने का समय हुआ तो वे एक छोटे-से झरने के किनारे पत्थरों पर बैठे थे। हरनामसिंह इस इलाके से परिचित था। वे ढोक मुरीदपुर-एक छोटे-से गाँव के निकट पहुँच चुके थे। रात सारी चिन्ता, उधेड़बुन और पाँव घसीटने में लग गई थी। पर पौ फटने से पहले अनायास ही जैसे मन को शान्ति मिल गई थी। हवा में दूर से तैरती हुई लुकाटों के बौर की गन्ध आई। ढोक मुरीदपुर में लुकाटों के बाग थे और उनके बीच में से झरने बहते थे। चाँद का रंग पहले नारंगी-लाल पड़ गया, फिर उसमें चाँदी-सी घुलने लगी। स्वच्छ नीलिमा आकाश में फैलने लगी। आसपास पक्षी चहचहाने लगे।

“मुँह धो ले बन्तो, फिर जप जी महाराज का पाठ करके चलेंगे।"

प्रातः की सुहावनी घड़ी में हरनामसिंह का विश्वास फिर से जैसे लौट आया था।

“अब जाएँगे कहाँ?" बन्तो ने चिन्तित आवाज़ में पूछा, “दिन-भर मारे-मारे कहाँ फिरोगे? दो रोटियाँ सेंक ली होतीं तो कोई बात नहीं थी, दिन-भर बेशक यहीं किसी पत्थर की ओट में पड़े रहते।"

“इसी ढोक में चलकर किसी का दरवाज़ा खटखटाते हैं। उसके दिल में रहम हुआ तो आसरा दे देगा, न हुआ तो जो गुरु महाराज को मंजूर है।"

"तुम इस ढोक में जानते किसी को नहीं हो?"

हरनामसिंह मुस्करा दिया :

“जहाँ सबको जानता था, वहाँ किसी ने आसरा नहीं दिया, सामान लूट लिया और घर को आग लगा दी। यहाँ जाननेवालों से क्या उम्मीद हो सकती है? उन लोगों के साथ तो मैं खेल बड़ा हुआ था...।"

प्रातः का झुटपुटा साफ़ होने पर दोनों उठकर गाँव की ओर जाने लगे। पहले पेड़ों का एक झुरमुट आया। शहतूत और शीशम के पेड़ थे, झुरमुट के बाहर छोटा-सा कब्रिस्तान था, टूटी-फूटी कलें, छोटी-बड़ी, उन्हीं के एक ओर किसी पीर की भी क़ब्र जान पड़ती थी क्योंकि उस पर दीया टिमटिमा रहा था और हरी झंडियाँ लटक रही थीं। फिर खेत आए, गेहूँ पक गया था, कटाई के दिन नज़दीक थे, फिर सपाट छतोंवाले मिट्टी के कोठे सामने आ गए जिनके बाहर गाय-भैंसें बँधी थीं, कहीं-कहीं पर मुर्गियाँ अभी से अपने चूजों के साथ चुग्गे की तलाश में घूमने लगी थीं।

“बन्तो, अगर वे लोग मारने पर उतारू हुए तो मैं पहले तुझे ख़त्म कर दूंगा, फिर अपने को ख़त्म कर लूँगा। जीते-जी मैं तुझे दूसरों के हाथ में पड़ने नहीं दूंगा।"

तभी वे, गाँव के बाहर ही, पहले घर के सामने रुक गए। दरवाज़ा बन्द था। बदरंग-सा मोटी लकड़ी का दरवाज़ा। न जाने किसका घर था, कौन लोग दरवाज़े के पीछे रहते थे। दरवाज़ा खुलेगा तो किस्मत जाने क्या गुल खिलाएगी! हरनामसिंह ने हाथ ऊपर उठाया, क्षण-भर के लिए उसका हाथ ठिठका रहा, फिर उसने दस्तक दी।

तमस (उपन्यास) : पन्द्रह

गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे :

“तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..."

संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद में हिलते हुए। कोई-कोई व्यक्ति हाथ पर ताल दिए जा रहा था। यह कुर्बानी की आवाज़ शताब्दियों के फासले लाँघकर फिर से गूंज रही थी। तीन सौ साल पहले भी ऐसा ही गीत दुश्मन से लोहा लेने से पहले गाया जाता था। आत्म-बलिदान की भावना से ओत-प्रोत वे सब-कुछ भूले हुए थे। इस विलक्षण क्षण में उनकी आत्मा अपने पुरखाओं की आत्मा से जा मिली थी, वे फिर से जैसे अतीत में जा पहुँचे थे। तुर्कों के साथ लोहा लेने का फिर से समय आ गया था। सिक्ख जाति पर फिर से संकट आया है, फिर से तुर्कों की ओर से ही आया है। उनकी चेतना फिर से शताब्दियों पहले के वायुमंडल में साँस लेने लगी थी। लश्कर किस ओर से आएगा, अभी तक मालूम नहीं था। बाहर से आएगा या गाँव के अन्दर से ही दुश्मन चिंघाड़ता हुआ निकलेगा, अभी तक स्पष्ट नहीं था। दुश्मन का कोई एतबार नहीं था पर संगत का प्रत्येक सिंह सिर हथेली पर रखे बैठा था।

गुरुद्वारे के अन्दर रोशनी पिछली दो खिड़कियों में से आ रही थी जिनके ऊपर लाल, हरे और पीले रंग के शीशे लगे थे। लकड़ी के चार खम्भों के बीच गुरुग्रन्थ साहब की चौकी थी और चौकी के इर्द-गिर्द पीतल का कटहरा बना था। चौकी को लाल रंग के रेशमी कपड़े से, जिस पर सुनहरे रंग की किनारी लगी थी, ढक दिया गया था, जिसका एक सिरा नीचे फर्श तक फैला था जहाँ सफ़ेद चादरें बिछी थीं। जगह-जगह, चौकी के सामने, फर्श पर सिक्के-दुवन्नियाँ, इकन्नियाँ-बिखरे पड़े थे; एक ओर आटे का ढेर लगा था।

प्रवेश करने पर गुरुद्वारे के बाईं ओर स्त्रियाँ बैठी थीं, सभी ने दुपट्टों में मुँह-सिर लपेट रखे थे, सभी के चेहरे दमक रहे थे, सबकी आँखों में कुरबानी का नूर चमक रहा था। किसी-किसी स्त्री की कमर से कटार लटक रही थी। प्रत्येक नर-नारी का रोम-रोम इस बात को महसूस कर रहा था कि सिख इतिहास की लम्बी श्रृंखला में वह भी एक कड़ी है जो इस संकट के समय अपने पुरखाओं ही की भाँति आत्म-बलिदान के लिए मैदान में उतर रहा है।

असला पिछले बरामदे में तथा ग्रन्थी की कोठरी में इकट्ठा किया जा रहा था। गाँव में सात गुरुसिंघों के पास दोनाली बन्दूकें थीं और पाँच बक्से कारतूसों के थे। जत्थेदार किशनसिंह सुरक्षा का प्रबन्ध कर रहा था। किशनसिंह पिछली जंग में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुका था और बर्मा की लड़ाई के दाँव-पेंच वह अपने कस्बे के मुसलमानों पर चलाना चाहता था। सुरक्षा की कमान संभालते ही वह घर जाकर अपनी खाकी कमीज़ पहन आया था जिस पर सरकार इंगलिशिया के तीन तमगे और अनगिनत रंगीन फीते लगे थे। कमीज़ मुचड़ी हुई थी पर इस वक्त लोहा करवाने का वक्त नहीं था। दो बन्दूकों का एक मोर्चा गली के बाएँ सिरे पर, एक मकान में बनाया गया था, और दो ही बन्दूकों का मोर्चा गली के दाएँ छोर पर। बाद में दाएँ हाथवाला मोर्चा नकारा साबित हुआ था, क्योंकि उसी घर में रहनेवाला सरदार हरीसिंह अपने हमसायों पर गोली चलाने से अन्त तक कतराता रहा था। बाकी तीन बन्दूकों का मोर्चा गुरुद्वारे की छत पर बना था। और किशनसिंह स्वयं सारा वक़्त छत पर कुर्सी बिछाकर बैठा रहा। बन्दूकों का इस्तेमाल बस इतने तक ही था, बाकी हथियार भाले, बर्छ, तलवारें, लाठियाँ आदि थीं। गुरुद्वारे की पिछली दीवार के साथ यह असला सजा दिया गया था। रंग-बिरंगी मखमली मियानों में बन्द तलवारें एक के साथ एक दीवार के साथ खड़ी थीं। खिड़की में से धूप की किरण सीधी उन पर पड़ रही थी जिससे वे अत्यन्त प्रभावशाली लग रही थीं। रोशनी की किरण भालों और बों की नोकों पर भी पड़ रही थी जिससे वे झिलमिला रहे थे। कुछेक ढालें भी थीं जो निहंग सिखों से मिल गई थीं। दो निहंग सिख छत पर पहरा दे रहे थे। दोनों के पस अपने बर्छ थे। दोनों ने अपना-अपना जामा पहन रखा था। नीला बाना, नीली पगड़ी और पगड़ी के ऊपर लोहे का चक्र और पीला कमरबन्द। दोनों छाती ताने, भाले हाथ में सँभाले, एक छत के एक सिरे पर, दूसरा दूसरे सिरे पर दूर-दूर तक नज़रें डाले खड़े थे। कौन जाने लश्कर किस ओर धूल उड़ाते चले आएँ।

“निहंगसिंहजी, भाला नीचा कर दो, धूप में उसकी नोक चमकती है, दुश्मन उसे दूर से देख सकता है।" एक बार किशनसिंह ने समझाते हुए कहा तो निहंगसिंह बिगड़ उठा।

“निहंगसिंह का बर्थो नीचा कभी नहीं हो सकता।" निहंगसिंह ने जवाब दिया और ज्यों का त्यों भाला उठाए क्षितिज पर आँखें गाड़े खड़ा रहा। निहंग सिखों की आँखों के सामने वही पुरानी लड़ाइयों के चित्र घूम रहे थे जब लश्कर कूच किया करते थे, तलवारें चमकती थीं, घोड़े हिनहिनाते थे, नगाड़े और शंख गूंजते थे। इसी की कल्पना करते हुए उनके दिल में सिक्खी जोश हिलोरें लेने लगा था।

दो निहंग नीचे गुरुद्वारे के प्रवेश-द्वार पर तैनात थे। दोनों के हाथ में बर्छ थे और दोनों बड़ी मुस्तैदी से खड़े थे। दोनों ने मूंछों को ताव दे रखा था, और नीले बाने पर पीला कमरबन्द बाँध रखा था। पुराने ज़माने में ख़ालसा पीला बाना पहनकर रणभूमि में उतरता था। इस वातावरण में हर किसी की कोशिश थी कि जहाँ तक हो सके अपनी पोशाक में भी उस अखंड परम्परा का कोई न कोई चिह्न आ सके जिनसे वे अपने अतीत के साथ और गहरे में जुड़ सकें।

बिशनसिंह मनिहारीवाले ने, जिसकी ड्यूटी खालसा लंगर में लगाई गई थी, पीले रंग का रेशमी रूमाल अपनी पगड़ी में खोंस रखा था। बसन्त पंचमी के मेले के बाद उसने पीले रंग का रूमाल अपने बेटे के सिर पर से उतारकर जेब में डाल लिया था। आज अचानक जेब में हाथ डालने पर उसे यह रूमाल मिल गया था और उसने अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। संगत में किसी-किसी ने कमरबन्द भी बाँध रखा था, पर अधिकांश लोग सलवार-कमीज़ में ही थे, और तो और, सरदार किशनसिंह ने भी तमगोंवाली खाकी कमीज़ के नीचे पाजामा ही पहन रखा था। पर यह वक़्त पोशाक की ओर ध्यान का नहीं था। दिलों में बलिदान की भावना लहरें मार रही थी, और उस वक़्त पोशाक और वर्दी का ध्यान भी आता था तो उस गहरी भावना के ही कारण जो हर पहलू से परम्परा के साथ जुड़ जाना चाहती थी।

गुरुद्वारे का माहौल भरे-बादलों जैसा गम्भीर हो रहा था। कीर्तन में सभी के सिर झूम रहे थे, सभी की चेतना में वे सभी बातें थीं जो दूर अतीत में हुआ करती थीं, बलिदान की भावना, मुसलमान शत्रु, ढाल-तलवार, गुरु का प्रसाद, अखंड एकता-जो नहीं था तो उनकी चेतना में अंग्रेज़ नहीं था। कस्बे से पच्चासेक मील की दूरी पर अंग्रेज़ों की देशभर में सबसे बड़ी छावनी थी, उस छावनी की ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा था। शहर और प्रान्त में बैठे अंग्रेज़ अधिकारियों की ओर भी नहीं, मानो देश में उनका कोई अस्तित्व ही न हो। अस्तित्व था तो तुर्क का, या खालसा का, उसके बढ़ते आ रहे लश्करों का, आत्म-बलिदान की बेला में उस महायज्ञ का जिसमें सभी अपने प्राणों की आहुति डालने के लिए तैयार थे।

गोलाबारी का डर सबसे अधिक गुरुद्वारे के पिछवाड़े की ओर से ही था जहाँ हरे छज्जेवाले शेखों के मकान में कस्बे के मुसलमान असला इकट्ठा कर रहे थे। शेखों के मकान में भी कुछ-कुछ वैसी ही भावना व्याप रही थी, यहाँ पर गाँव के सभी मुसलमान-किसान, तेली, नानबाई अब मुजाहिद बन गए थे, काफिरों के खिलाफ जिहाद की तैयारियाँ चल रही थीं, आँखों में यहाँ भी खून उतर आया था, और कुर्बानी का जज्बा दिलों में लहरें मार रहा था।

गुरुद्वारे के ऐन सामने गली के पार सिखों की ही दूकानों का सिलसिला था और दूकानों के पीछे तीखी ढलन थी जो सीधी छोटी-सी नदी तक चली गई थी और नदी के पार लुकाटों का लम्बा-चौड़ा बाग था। इसलिए सामने की ओर से तो कोई माई का लाल हमला नहीं कर सकता था, जो आता तो छत पर मोर्चा बाँधे किशनसिंह की बन्दूकें उसे भून डालतीं।

बाएँ हाथ गली के सिरे पर मुसलमानों के कुछ घर थे और उनके पीछे खालसा स्कूल खड़ा था, और फिर खेत शुरू हो जाते थे। दाएँ हाथ भी गली के सिरे पर से मुसलमानों का पूरा-का-पूरा मुहल्ला शुरू हो जाता था, पर मोर्चा यहाँ भी बाँध दिया गया था।

गुरुद्वारे के पिछवाड़े दो गलियाँ छोड़कर शेख गुलाम रसूल का ऊँचा दोमंजिला मकान था, और मुख़बरों की सूचना के मुताबिक मुसलमानों ने उसी को अपना किला बना रखा था। उसी में असला इकट्ठा करते जा रहे थे। छज्जे के पीछे सभी दरवाजे बन्द थे, और ऊपर हरी खिड़कियोंवाली बरसाती भी बन्द थी और कोई भी आदमी छज्जे पर खड़ा नज़र नहीं आ रहा था। पर इसी घर पर सबकी नज़रें थीं कि पहली गोली यहीं से दागी जाएगी।

यों देखा जाए तो यह गाँव बड़ा सुन्दर था, अमन-चैन के दिन कोई यहाँ आए तो इसकी खूबसूरती पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता था। लगता भगवान ने अपने हाथ से बनाया है। छोटी-सी नदी के ऊपर एक छोटी-सी पहाड़ी पर घोड़े की नाल की शक्ल में यह गाँव खड़ा था। नदी के नीले जल-प्रवाह के पार लुकाटों के घने बाग थे जहाँ अनेक झरने बहते थे, इन दिनों लुकाट पक रहे थे और तोतों के झुंड पेड़ों में बसे हुए थे। इन दिनों नदी का रंग भी आसमान के रंग की तरह गहरा नीला लग रहा था। जमीन की मिट्टी लाली मायल थी, गाँव के बाहर खेतों का प्रसार उस पहाड़ी तक चला गया जो इस प्रदेश की पीठ पर खड़ी थी। हर घड़ी पहाड़ी का रंग बदलता रहता था। कभी वह झीनी-सी नीली चादरे ओढ़ लेती, कभी उसका चेहरा तपे ताँबे जैसा दमकने लगता, कभी उसके कन्धों पर सुरमई घटाएँ खेलने लगतीं, कभी उस पर हरियावल बिछ जाती। इस पहाड़ी के भी दामन में झरने ही झरने थे, और घने बड़े इंजीर के पेड़ थे। इसी प्रकृति-स्थल की गोद में इस गाँव के सभी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी रहते चले आए थे।

सहसा गुरुद्वारे के अन्दर बिजली की-सी लहर दौड़ गई। सभी की आँखें प्रवेश-द्वार की ओर उठ गईं जहाँ गाँव के मुखिया सरदार तेजासिंह पधार रहे थे। गुरुद्वारे के चबूतरे पर चढ़कर तेजासिंहजी घुटने टेककर बैठ गए और फिर आगे को झुककर उन्होंने गुरुद्वारे की दहलीज़ को आँखों से चूम लिया। चबूतरे पर रखे उनके दोनों हाथों की उँगलियाँ काँप-काँप उठीं।

देर तक तेजासिंहजी अपना माथा दहलीज़ पर नवाए रहे। यहाँ तक कि उनकी आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे। तेजासिंहजी वजद में थे। उनका रोम-रोम पन्थ की रक्षा के लिए निछावर था।

फिर वह उठे और दोनों हाथ बाँधे, गर्दन झुकाए-उनकी सफ़ेद दाढ़ी उनकी छाती को ढके हुए थी-आकर गुरुग्रन्थ साहब की बेदी के सामने माथा नवाने के लिए झुक गए। यहाँ भी वह देर तक झुके रहे। उनका चेहरा लाल हो गया और टप-टप आँसू फर्श पर बिछी सफेद चादर पर बराबर गिरते रहे।

सारी संगत दम साधे देखे जा रही थी, सभी के कलेजे दिल को आ रहे थे। जब तेजासिंह उठे तो एक लहर-सी सारे हाल में दौड़ गई।

वे उठे और धीरे-धीरे चलते हुए खम्भे के पास आकर खड़े हो गए जहाँ पर एक पुरानी तलवार खम्भे के साथ रखी थी। उन्होंने काँपते हाथों से तलवार की मूठ को पकड़ा और हाल के बीचोबीच आकर खड़े हो गए। यह उनके नाना की तलवार थी जिनके पिता महाराजा रणजीतसिंह के दरबारी हुआ करते थे।

हाथ में तलवार उठाने की देर थी कि संगत में बलिदान-भावना का जैसे ज्वार उमड़ उठा। सिर झूम उठे। दरवाजे के पास खड़े युवा प्रीतमसिंह के मुँह से अनायास नारा फूट पड़ा :

"जो बोले सो निहाल!" सारी संगत ने एक जबान होकर उत्तर दिया :

“सत सिरी अका ऽऽऽ ल!"

नारे की गूंज से गुरुद्वारे की दीवारें हिल उठीं। यों नारा लगाने की मनाही थी क्योंकि संगत नहीं चाहती थी कि दुश्मन का पता चल पाए कि गाँव की सारी जनता सिख गुरुद्वारे में जमा है। लेकिन कुछ बातों पर इंसान का कोई बस नहीं चलता। इस तीव्र असह्य भावना को नारे के द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता था।

बूढ़े हाथों ने तलवार की मूठ को पड़का, उसे उठाकर दोनों आँखों से चूमा तो सारी संगत ने सिसकारी भरी। प्रवेश-द्वार पर खड़े निहंग का सिर दाएँ-बाएँ झूलने लगा। सैकड़ों सिर हिलने लगे।

“आज फिर खालसा पन्थ को गुरु के सिंहों के खून की ज़रूरत है।" उन्होंने काँपती हुई भावोद्वेलित आवाज़ में कहना शुरू किया :

"हमारे इम्तहान का वक़्त आ गया है, हमारी आजमाइश का वक़्त आ गया है। महाराज का इस वक्त एक ही हुक्म है-कुरबानी! कुरबानी! कुरबानी!"

तेजासिंह के मस्तिष्क में सुनहरी धूल उड़ने लगी थी। यही मस्ती थी, यही वजद था। सभी भावनाएँ एक ही शब्द 'करबानी' पर आकर केन्द्रित हो गई थीं।

“अरदास पढ़ो, गुरु के सिंघो, अरदास पढ़ो।"

सारी संगत उठ खड़ी हुई। हाथ जुड़ गए, माथे झुक गए, सभी कंठ मुखरित हो उठे। गुरुद्वारा गुरुवाणी से गूंज उठा। देर तक अरदास पढ़ी जाती रही। अन्तिम शब्दों पर आवाज़ अपने-आप और ऊँची हो गई :

"राज करेगा खालसा, आकी रहे न को...”

आवाज़ की लहरें सारे गुरुद्वारे के वायुमंडल में लहरों की तरह उठ रही थीं।

अरदास खत्म होने की देर थी कि प्रवेश-द्वार पर खड़े निहंगसिंह ने हाथ ऊपर उठाया और तीखी ऊँची आवाज़ में, यहाँ तक कि उसके गले की नसें उभर आईं और आँखें बन्द हो गईं, फिर से नारा लगाया :

"जो बोले सो निहाल!"

जवाब में संगतों ने हाथ उठाकर छाती में गहरी साँस भरकर नारे का उत्तर दिया:

"सत सिरी अ का ऽऽऽल!"

नए बलबले उठने लगे। नारों की गूंज में एकता और बलिदान की भावना और भी अधिक उग्र हो उठती है।

तभी बाहर कुछ दूरी पर गगनभेदी आवाज़ सुनाई दी :

"नारा-ए-तकबीर!" और जवाब आया : "अल्ला -हो-अकबर!"

"नारा-ए-तकबीर!"

"अल्ला -हो-अकबर!"

प्रवेश-द्वार पर खड़े निहंगसिंहजी ने फिर हाथ की मुट्ठी भींची और उसे कन्धों के ऊपर उठाकर नारा मारने जा ही रहे थे कि तेजासिंहजी ने रोक दिया।

"बस, काफ़ी है। दुश्मन को पता चल गया है...।"

पर मुसलमानों के जवाबी नारे से संगतों को कुछ-कुछ वस्तुस्थिति का भी बोध हुआ।

"हम नहीं चाहते कि दुश्मन को हमारी ताक़त का पता चले। हम यह भी नहीं चाहते कि उन्हें पता चले कि सिख संगत गुरुद्वारे में इकट्ठी हो चुकी है। यह नीति की बात है।"

इस पर संगतों को स्थिति का ब्यौरा देते हुए बोले, "हमने कोशिश की है कि जिले के हाकिम-ए-आला डिप्टी कमिश्नर साहब बहादुर को इत्तला कर दी जाए कि मुसलमानों ने यहाँ कौन-सी हरकतें करना शुरू कर दी हैं। रिचर्ड साहब को मैं जानता हूँ। वह बड़े ही मुनसिफमिज़ाज और बड़ी सूझबूझवाले सज्जन हैं। हम इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते कि हाकिम-ए-आला तक अपनी आवाज़ पहुँचाएँ। तरह-तरह की ख़बरें हमारे पास पहुँच रही हैं। हमें पता चला है कि रहीम तेली के घर में असला इकट्ठा किया जा रहा है, यह भी पता चला है कि गहरे नीले रंग की एक मोटर दोपहर के वक़्त शहर की तरफ से आई थी और कस्बे के बाहर फ़ज़लदीन स्कूल मास्टर के घर के सामने रुकी थी और उसमें से कुछ सामान फ़ज़लदीन को दिया गया था। इसके बाद मोटर सीधी आगे निकल गई। यह मोटर जगह-जगह जाती और रुकती रही है। यह भी पता चला है कि यहाँ के मुसलमानों ने मुरीदपुर के मुसलमानों को खबर भेजी है कि असला लेकर यहाँ पहुँचें, हमने पूरी कोशिश की है कि शेख गुलाम रसूल और गाँव के और मुसलमानों के साथ बात करें पर उनका कोई एतबार नहीं है...।"

“आपने कोई कोशिश नहीं की है। यह सरासर झूठ है।"

सहसा संगत के अन्दर से आवाज़ आई और गुरुद्वारे में सकता छा गया। यह कौन था बीच में बोलनेवाला? गुरुद्वारे में बैठे लोगों के तेवर चढ़ गए।

एक दुबला-पतला-सा युवक उठ खड़ा हुआ, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम लोगों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है, और मुसलमानों को हमारे खिलाफ भड़काया जा रहा है। हम झूठी अफवाहें सुन-सुनकर एक-दूसरे के खिलाफ़ तैश में आ रहे हैं। हमें अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए कि गाँव के मुसलमानों के साथ मेल-जोल बनाए रखें और हत्तुलवसा कोशिश करें कि गाँव में फ़साद न हो।"

"बैठ जाओ! बैठ जाओ!"

"कौम के गद्दार! कौन है यह?"

"मैं नहीं बैलूंगा। भाइयो, मैं अभी भी कहूँगा कि हमें भी शेख गुलाम रसूल और गाँव के ही संजीदा मुसलमानों से मिलना चाहिए। अगर शेख गुलाम रसूल नहीं मानता तो न सही, गाँव में और बहुत-से संजीदा मुसलमान हैं जिनके साथ मिलकर हमें गाँव में अमन बनाए रखना चाहिए। अगर उन्हें मुरीदपुर से असला आ रहा है तो क्या हम लोग कहुटा से असला मँगवाने की कोशिश नहीं कर रहे? क़त्ल-ओ-गारत कोई नहीं चाहता। कस्बे के सिख और मुसलमान आपस में मिलें और गाँव में अमन बनाए रखें। मैं आज ही सुबह गुलाम रसूल और कुछ मुसलमानों से मिला हूँ।"

"तुम वहाँ क्या करने गए थे? क्या लगते हैं वे तुम्हारे?"

"तेरा बाप लगता है गुलाम रसूल?"

"मुझे बोलने दो। शरारत बाहर के गाँववाले करेंगे। हमें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि इस गाँव में बाहर के लोग नहीं आएँ। इसका एक ही तरीका है कि यहाँ के अमनपसन्द सिख और मुसलमान मिलकर उन्हें रोकें। वे हमारे डर से असला इकट्ठा कर रहे हैं, और हम उनके डर से असला इकट्ठा कर रहे हैं..."

"मुसलमानों का कोई एतबार नहीं है। बैठ जाओ।"

"वे लोग कहते हैं कि सिखों का कोई एतबार नहीं है।"

"बैठ जाओ!" एक बड़ी उम्र का आदमी उठकर खड़ा हो गया और सोहनसिंह को सम्बोधन कर गुस्से से काँपते होंठों के साथ बोला, "तू कौन है बीच में बोलनेवाला? तेरे होंठों पर अभी तक तेरी माँ का दूध नहीं सूखा है, बड़ों की बातों में बोल रहा है।"

तीन-चार सरदार जगह-जगह पर उठ खड़े हुए थे, “तुम जानते हो, शहर में उन्होंने मंडी को जला दिया है...।"

“यह सब अंग्रजों की शरारत है।” सोहनसिंह की आवाज़ और ऊँची उठ गई थी, "हमारा लाभ इसी में है कि फ़साद न हो। सुनो भाइयो, शहर से आज कोई बस नहीं आई। रास्ते कटते जा रहे हैं। यह सारा इलाक़ा मुसलमानी है। अगर गाँव पर बाहर के लोगों ने हमला कर दिया तो तुम कहाँ तक उनका मुकाबला कर सकोगे? कुछ यह भी सोचो। कहूटा से तुम्हें कितनी मदद मिल जाएगी? तुम ऐंठ किस बात पर रहे हो?" थोड़ी देर के लिए गुरुद्वारे में चुप्पी छा गई।

तब तेजासिंहजी गुरुद्वारे के बीचोबीच आकर खड़े हो गए और अपनी काँपती आवाज़ में बोले, "मेरा दिल यह देखकर टुकड़े-टुकड़े हो जाता है कि हमारे ही बच्चे गुमराह होकर ऐसी बातें करते हैं। अपने ही पन्थ के खिलाफ़ आवाजें उठाते हैं। क्या हम फ़साद चाहते हैं? मैंने खुद शेख गुलाम रसूल से कहा है, उसने दिल पर हाथ रखकर कहा कि गाँव में कुछ नहीं होगा। और मेरे पीठ मोड़ने की देर थी कि खालसा स्कूल पर कुछ लोगों ने हमला किया, वहाँ का पंडित चपरासी मार डाला गया और मुसलमान उसकी बीवी को उठाकर ले गए। यह ख़बर मैंने अभी तक आपको नहीं बताई, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि आपको इश्तआल दिलाऊँ।" गम और गुस्से की लहर फिर गुरुद्वारे में दौड़ गई।

“आपको किसी ने गलत ख़बर दी है।" सोहनसिंह फिर बोल पड़ा। खालसा स्कूल पर हमला ज़रूर हुआ था, लेकिन गाँव के मुसलमानों ने हमला नहीं किया। ढोक इलाहीबख्श से कुछ गुंडे आए थे। पर मीरदाद, हमारा साथी जो शहर से आया है, वह वक़्त पर पहुँच गया, उसने और गाँव के दो और लड़कों ने बीचबचाव करके हालत को बिगड़ने से बचा लिया। चपरासी को केवल चोटें आई हैं, वह मरा नहीं है और उसकी बीवी को भी भगा करके कोई नहीं ले गया। वह भी स्कूल में मौजूद है।"

"यह मीरदाद कौन है?” एक सरदार बोला।

“मैंने इसे मीरदाद के साथ कहवाखाने में बैठे देखा है। न जाने आपस में ये क्या बातें करते रहते हैं। जब मुसले हमारी औरतों की असमत लूट रहे हैं, इधर हमारे ही लड़के मुसलों से गठ्ठ-जोड़ कर रहे हैं।" फिर उसी दुबले-पतले सरदार की ओर मुखातिब होकर बोला, “हमें क्या समझाते हो? मुसलों को जाकर समझाओ। क्या सिखों ने किसी को अभी तक मारा है, किसी का घर लूटा है? बड़ा आया हमें उपदेश देनेवाला।"

हवा फिर बदल गई थी। दरवाज़े पर खड़ा निहंगसिंह चलता हुआ, कदम बढ़ाता, दुबले-पतले सरदार के पास आया और सीधा एक धौल उसकी गर्दन पर जमा दिया।

"बस-बस, मत मारो, मत मारो!"

पास बैठे कुछ लोग उठ खड़े हुए और निहंगसिंह का हाथ रोक दिया।

ऐन उस वक़्त जब यह हंगामा गुरुद्वारे में चल रहा था, मुसलमानों के मुहल्ले में मीरदाद की जान साँसत में थी।

तीन कसाइयों की दूकानें साथ-साथ थीं, पर इस वक़्त बन्द थीं और कुछ लोग चबूतरों पर बैठे मीरदाद से उलझ रहे थे।

“ओ चुप ओए, अंग्रेज़ को किसने देखा है? शहर में कितने ही मुसलमान हलाक हुए हैं, उनकी लाशें भी अभी गलियों में पड़ी हैं। उन्हें अंग्रेज़ों ने मारा है ओए? मस्ज़िद के सामने खंजीर फेंका है, वह भी अंग्रेज़ फेंक गए हैं ओए?"

“ओ कुछ समझो," मीरदाद ने हाथ झटककर कहा, “अगर हिन्दूमुसलमान-सिख मिल जाते हैं, उनमें इत्तहाद हो जाता है, तो अंग्रेज़ की हालत कमज़ोर पड़ जाती है। अगर हम आपस में लड़ते रहते हैं तो हालत मज़बूत बनी रहती है।"

वही घिसा-पिटा तर्क था जिसे ये लोग रोज़ सुनते थे, पर अब पानी सिर से ऊपर जा चुका था, इस तर्क का कहीं असर नहीं होता था।

"जा-जा, सिर पर बादामरोगन की मालिश कर।" मोटे कसाई ने कहा, "हमारा अंग्रेज़ ने क्या बिगाड़ा है ओए? हिन्दू-मुसलमान की अदावत पुराने ज़माने से चली आ रही है। काफिर-काफिर है और जब तक दीन पर ईमान नहीं लाएगा वह दुश्मन है। काफिर को मारना सवाब है!"

“ओह सुन चाचा," मीरदाद बोला, "राज किसका है?"

"किसका है, अंग्रेज़ का है और किसका है।"

"फौज़ किसकी है?"

"अंग्रेज़ की है।" कसाई बोला।

"तो अगर वह लड़ाई रोकना चाहे तो रोक नहीं सकता?"

"रोक सकता है, पर वह हमारे मजहबी मामलों में नहीं पड़ता। अंग्रेज़ इनसाफ़पसन्द है।"

"मतलब, कि हम एक-दूसरे का सिर काटें और वह मजहबी मामला कहकर तमाशा देखता रहे, फिर वह हाकिम कैसा हुआ?"

इस पर मोटा कसाई बिफर उठा, “सुन ओए मीरदाद, लड़ाई हिन्दूमुसलमान की है, इसमें अंग्रेज़ का दखल नहीं है। तू इधर बक-बक नहीं कर। अगर बाप का बेटा है तो जा, इसी वक़्त जा गुरुद्वारे में, तू उनको समझा कि असला इकट्ठा नहीं करें। उन्हें जाकर मना ले। वे मान जाएँ, अपना असला-बारूद गुरुद्वारे में छोड़कर अपने-अपने घरों में चले जाएँ। हम भी लड़ाई नहीं चाहते। हम भी अपने-अपने घरों में जा बैठेंगे। बस, मर्द का बेटा है तो जा उनसे बात कर, इधर हमारा मगज़ नहीं खा।"

जब से फ़िसादों का तनाव शुरू हुआ था, मीरदाद, कस्बे में जगह-जगह, नानबाई की दूकान पर, गंडापिंह चायवाले की दूकान पर, शेख की बैठक में, कुएँ-झलार पर, जहाँ पाँच-चार आदमी बैठे होते यही चर्चा ले बैठता था। लोग उसकी बात को सुनते क्योंकि वह दो अक्षर पढ़ा हुआ था, लाहौर-बम्बईमद्रास तक घूम आया था, और अब अपने छोटे भाई अल्लाहदाद के पास शहर से आया था। मगर कस्बे में तनाव बढ़ने पर और बाहर से तरह-तरह की खबरें आने पर, वह उत्तरोत्तर अकेला होता गया था। उसकी बात में वज़न इसलिए भी नहीं था कि उसके पास अपनी जमीन नहीं थी, न ज़मीन न मकान। नानबाई की दुकान के बाहर खाट बिछाकर सोता था। शहर से इसलिए आया था कि यहाँ एक स्कूल खोलेगा। गाँव के लोग समझते थे कि स्कूल बन जाने से उसे कमाई का छोटा-मोटा साधन मिल जाएगा, जबकि यह विचार मीरदाद के मन में नहीं था। वह स्कूल के माध्यम से कस्बे के लोगों को मिल बैठने का स्थान जुटाना चाहता था ताकि हर कोई उसमें आ-जा सके, लोग बैठें, कोई उन्हें अखबार पढ़कर सुनाए, वे मसलों-मामलों की चर्चा करें जिससे उनकी सूझबूझ बढ़े। इस समय उसे देवदत्त ने कस्बे में जमे रहने और फ़िसाद को रोकने के लिए भेजा था। हरबंससिंह को भी इसी काम के लिए भेजा गया था। दोनों एक ही पार्टी के कार्यकर्ता थे, दोनों के सम्बन्धी इसी कस्बे में रहते थे, पर दोनों में से किसी की भी दाल नहीं गल रही थी।

तभी कसाइयों की इन दुकानों के पास ही एक छोटी-सी घटना घटी। दूकानों से हटकर, गली के अँधेरे हिस्से में, एक टाट के पर्दे के पीछे बैठा एक आदमी इनकी बातें सुन रहा था। वह गुरुद्वारे से भेजा गया मुखबिर था। आसपास मुसलमानों के घर थे, पर इस बीचवाले घर में जिसके टाट के पर्दे के पीछे गोपालसिंह बैठा था, बूढ़ी विधवा चन्ननदेई रहती थी। पिछले घर की दीवार फांदकर गोपालसिंह यहाँ आकर बैठ गया था ताकि मुसलमानों की योजनाओं का पता लगा सके। मीरदाद और कसाइयों के बीच बातें सुनते हुए एक बार उसने टाट का पर्दा उठाया और चुपचाप गली में सरककर साथवाले मकान के चबूतरे के पीछे छिपकर बैठ गया। यहाँ से वार्तालाप ज़्यादा साफ़ सुनाई देता था। घरों के दरवाजे बन्द थे और गली में अँधेरा था, और उसने सोचा था कि अगर कहीं से आहट सुनाई दी तो वह झट से उठकर टाट के पर्दे के पीछे छिप जाएगा। लेकिन इसका उसे मौका नहीं मिला। उसके कान वार्तालाप पर लगे थे जब सहसा उसके पीछे आहट हुई। उसने घूमकर देखा तो गली के झुटपुटे में बग़लवाले मकान में से एक आदमी चबूतरे की दो सीढ़िया उतरकर सीधा गोपालसिंह की ओर बढ़ा आ रहा था। सरदारजी को काटो तो खून नहीं। अँधेरे में वह दृश्य उसे बेहद भयानक लगा। वह आदमी चबूतरे पर से उतर आया था और अपने दोनों हाथ कमीज़ के नीचे किए हुए था, मानो अपना तमंचा या खंजर निकाल रहा हो। गोपालसिंह मुखबिर हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और उसके मुँह से चीख निकल गई। टाट के पर्दे की ओर तो वह क्या लपकता, वह सीधा सिर पर पाँव रखकर वहाँ से भागा। इस हड़बड़ी में वह उस आदमी से बुरी तरह टकरा गया जो कमीज़ के नीचे से तमंचा निकालने जा रहा था। वास्तव में टक्कर होने से पहले वह आदमी अपना आजारबन्द खोलकर नाली पर लगभग बैठ चुका था। गोपालसिंह मुखबिर की नज़र उसके पोपले मुँह, घुटे हुए सिर और लगभग अन्धी आँखों की ओर नहीं गई। टकराव में बूढ़ा नूरखान गली में गिर पड़ा और फिर उसके मुँह से भी चीख निकली, “मारी दित्ता, ओ मारी दित्ता।"

यह सब पलक मारते हो गया था। और बूढ़े नूरू की आवाज़ और भागते क़दमों की आवाज़ सुनकर कसाइयों की दूकानों पर से दो आदमी बर्ले उठाए एक साथ लपक पड़े थे। अशरफ कसाई तो सीधा भागते आदमी के पीछे भागा और ज़ोर से अपनी लाठी फेंकी। लाठी मुखबर को नहीं लगी, पर उसके करीब ही गिरने पर उसका साहस छूट गया और वह भी चिल्ला उठा, "बचाओ, बचाओ, मार डाला!"

तभी और लोग भी गली में आ गए। बूढ़ा नूरू अभी भी नाली के किनारे उकडूं पड़ा था और नाड़ा उसके हाथ में था और बिलबिलाती-सी आवाज़ में अभी भी बोले जा रहा था, “मारी दित्ता, ओ मिछी मारी दित्ता!"

गली में से अशरफ को आवाजें लगाई जाने लगीं, “लौट जाओ, आगे नहीं जाओ, वापस आ जाओ!"

उस वक़्त गली में खड़े लोगों में से मीरदाद आगे बढ़ा और बूढ़े नूरू को उठाने की कोशिश करने लगा। इस पर मोटा कसाई आगबबूला हो गया, "देख लिया ओ मीरदाद के बच्चे! नूरू को अंग्रेज़ ने मारा है? चला जा यहाँ से खुदा कसम, नहीं तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इसी वक़्त चला जा, दूर हो जा हमारी आँखों से, हट जा," और मीरदाद को क़रीब-करीब धक्के देकर वहाँ से निकाल दिया, "न घर न घाट, न आगा न पीछा, अमन करवाने आया है। ओ तू है कौन? जिन्हें माँ नहीं पूछती हमारे पास चले आते हैं। मुफ्तखोर कहीं के!"

गली के सिरे पर मीरदाद ने मुड़कर फिर कुछ कहने की कोशिश की, पर कसाई बिफरा हुआ था, कड़ककर बोला, “जा-जा, निकल यहाँ से मरदूद कहीं का। एक झापड़ दूंगा मुँह पर, दाँत बाहर आ जाएँगे। जा, अपने बाप को लचकर दे।"

झुके कन्धे, दुबला-पतला मीरदाद वहाँ से जाने लगा। शुरू-शुरू में कुछ लोग जो उसकी बात सुनते थे और हाँ में हाँ मिलाते थे, वे भी अब कहीं देखने को नहीं मिल रहे थे। यही मोटा कसाई उससे पहले हँस-हँसकर बातें करता था। पर अब उसकी आँखों में भी खून उतर आया था।

गोपालसिंह मुखबिर भागता गया और चिल्लाता गया और गुरुद्वारे के नज़दीक पहुँचने तक चिल्लाता रहा। संगतों के बीच फिर उत्तेजना की लहर दौड़ गई। लोग लपक-लपककर बाहर आने लगे। कुछ देर के लिए सारा अनुशासन भंग हो गया। दोनों निहंगसिंह बाहर आ गए, छत पर खड़े निहंगसिंह सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गए। “क्या हुआ, क्या हुआ?" गुरुद्वारे के अन्दर अधिकांश लोग खड़े हो गए।

दस आदमियों ने अंग-अंग टोहकर देखा, गोपालसिंह को कहीं चोट नहीं आई थी। वह हाँफ रहा था और उसका गला सूख रहा था। बहुत कोशिश करने पर भी वह ठीक तरह से समझा नहीं पाया कि क्या हुआ है।

"वह सीधा मुझ पर वार करने आ रहा था...।"

"कौन था वह?" तेजासिंहजी ने पूछा।

"बाबा नूरा।"

गोपालसिंह के मुँह से निकल गया। भागने से क्षण-भर पहले उसने बाबा नूरे को पहचान लिया था।

“अन्धा बाबा नूरा?"

"मुझे क्या मालूम कौन था। उसी के घर में से निकलकर आया था..."

"फिर क्या हुआ?"

"फिर कसाई गली में से भी लोग आ गए, मैं भागा तो मुझ पर लाठियाँ फेंकते रहे।"

लोगों की भीड़ गली में जमा होने लगी थी। एक सरदारजी लोगों को हटाने लगे, “चिन्ता की कोई बात नहीं। सिंह खालसा सही-सलामत लौट आया है, दुश्मन के मोर्चे पर से लौट आया है। बाल-बाल बच गया है। अन्दर चलो, संगत अन्दर चलें।"

जब गोपालसिंह की साँस कुछ ठिकाने आई तो तेजासिंहजी ने उससे धीरे से पूछा, “क्या कुछ सुना? उनकी क्या स्कीम है?"

"वहाँ पर मीरदाद अपनी बकवास कर रहा था, कुछ सुनने ही नहीं देता था। मोटा कसाई उससे कह रहा था : जा, गुरुद्वारेवालों को समझा, हमें क्या समझाता है, वे अपने-अपने घरों को चले जाएँ तो हम भी अपने-अपने घरों को चले जाएँगे...। ऐसा ही कुछ कह रहा था।"

संगत गुरुद्वारे में लौट आई। पर गोपालसिंह की इस चिल्लाहट से जोश और अधिक फैलने लगा था। कीर्तन फिर से चलने लगा था, और छैने तबले और बाजे की आवाज़ और ऊँची होने लगी थी।

"देख लिया? देख लिया सरदार?" एक आदमी गुरुद्वारे के बीचोबीच खड़ा सोहनसिंह पर बरस रहा था, "बचकर निकल आया। मुसलों ने उसे मारने की तो पूरी कोशिश की थी। अब देख लिया? बड़ा आया हमें उपदेश देनेवाला..."

इस पर एक और सरदारजी ने उठकर कहा, “मेरा सुझाव है कि इस आदमी को नज़रबन्द कर दिया जाए। काल कोठरी में डाल दिया जाए। इस पर हमें विश्वास नहीं है। क्या मालूम यह उसकी मुखबरी करता हो।"

इस पर निहंगसिंह ने आगे बढ़कर सोहनसिंह को एक और धौल जमा दिया।

“बस-बस, मारो नहीं, मत मारो।"

"समझाना है तो जाकर अपने चाचों को उन शेखों को समझाओ जिनकी बगल में सारा वक्त बैठे रहते हो। जाओ यहाँ से।" और कीर्तन फिर से जारी हो गया।

साँझ उतरने लगी थी। गुरुग्रन्थ-साहिब की वेदी के दाएँ-बाएँ छत से लटकते दो फानूसनुमा लैम्प जला दिए गए। लैम्प के नीचे बैठे तेजासिंहजी की नीली पगड़ी के नीचे उनका सफ़ेद दुपट्टा और सफेद दाढ़ी रोशनी से चमक उठे। रोशनी स्त्रियों के दमकते चेहरों पर पड़ रही थी। भावनाओं से उद्वेलित चेहरे। उत्कंठा, भय, अथाह श्रद्धा और विश्वास सभी उनकी आँखों में छाये थे। कहीं-कहीं किसी युवती की चकित आँखें गुरुद्वारे का अनूठा दृश्य देखे जा रही थीं। इन्हीं युवतियों में जसबीर भी बैठी थी-हरनामसिंह चायवाले की बेटी-जो इसी गाँव में ब्याही थी और जिसने अपने पिता से अटूट धार्मिक प्रेरणा जन्मघुट्टी में प्राप्त की थी। जिस समय अरदस गाई जा रही थी उसी समय संगत में बैठे लोगों की आवाज़ से एक ही आवाज़ मेल नहीं खा रही थी, वह जसबीर की आवाज़ थी। पतली ऊँची तीखी आवाज़ पर वह निःसंकोच गाए जा रही थी। एक छोटी-सी किरपान काली पट्टी से बँधी सारा वक़्त उसकी कमर से झूलती रहती थी। संगत में सभी लोग इस आवाज़ को पहचानते थे और सभी उसे गुरु-बेटी कहकर बुलाते थे। जसबीर का खिला हुआ चौड़ा चेहरा सबसे अधिक दमक रहा था। अपने हाथ से जसबीर गुरुद्वारे की सीढ़ियाँ धोया करती, जो रेशमी कपड़ा गुरु-ग्रन्थ साहिब को ढकने के लिए रखा था उस पर जसबीर कौर ने ही बारीक कढ़ाई का काम किया था, उसके दिल में से ही तरह-तरह के 'उलेल' उठते रहते थे। अपने-आप ही उठकर संगतों को पंखा झलने लगती, ठंडा जल पिलाने लगती, संगतों के जूतों की रखवाली करने लगती और मौज आती तो अपने दुपट्टे के छोर से संगतों के जूतों को पोंछ-पोंछकर उनके सामने रखने लगती। उसका बस चलता तो संगतों के चरण छू-छूकर अपने हाथ से उन्हें जूता पहनाती। जब से संकट शुरू हुआ था उसकी आँखें तेजासिंहजी के मुखारविन्द पर लगी थीं मानो उस मुखड़े से उसे दैवी सन्देश की अपेक्षा हो, पल-पल छिन-छिन वह इस सन्देश को सुन पाने के लिए कान लगाए बैठी थी। कुछ-कुछ ऐसी ही भावना गुरुद्वारे में बैठे सभी नर-नारियों के दिलों में हिलोरें ले रही थी।

तभी छत पर तैनात निहंगसिंह को गाँव के पार दूर क्षितिज के पास धूल उड़ती नज़र आई। धूल का बवंडर था। उसने आँख लगाकर देखा, धूल का बवंडर आगे बढ़ता आ रहा था। उसने किशनसिंह से कहा, किशनसिंह ने उठकर झरोखे में से देखा, और देर तक देखता रहा। धूल का बवंडर ही था पर इस ओर सचमुच बढ़ता आ रहा था। उसे पहले तो अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, पर उसे देखते ही देखते गहरी भिनभिनाती-सी आवाज़ उसके कानों में पड़ने लगी। उसका माथा ठनका। सभी को विश्वास था शरारत गाँव के अन्दर से होगी, कालू मलंग, अशरफ कसाई और नबी तेली जैसे लोग फसाद पर तुले हुए जान पड़ते थे, पर बलवाई सचमुच बाहर से आ रहे थे। वह अभी खड़ा सुन ही रहा था कि ढोल बजने की गहरी दबी आवाज़ उसके कानों में पड़ी। देखते ही देखते स्थिति ने गम्भीर और विकट रूप ग्रहण कर लिया था। उसने निश्चय किया कि नीचे जाकर तेजासिंहजी को आगाह कर दे, पर यहाँ मोर्चे पर खड़े होकर दुश्मन की चाल-ढाल को देखना भी ज़रूरी था, चुनाँचे सूचना देने का काम उसने निहंगसिंह के सुपुर्द कर दिया।

निहंग भागता हुआ सीढ़ियाँ उतरा और आखिरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते चिल्लाकर बोला, “तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!"

बिजली की-सी लहर गुरुद्वारे में दौड़ गई, और तभी दूर से ढोल बजने की आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगी।

तेजासिंहजी कुछ देर के लिए सचमुच हैरान-से रह गए। उन्हें आशा नहीं थी कि सचमुच हमला हो जाएगा। उन्हें ख्याल था कि तेलियों के मुहल्ले या गाँव के सिरे पर इक्का-दुक्का वारदात हो जाएगी और अगर कस्बे के सिंह डटे रहे तो गाँव के मुसलमानों की हिम्मत नहीं होगी कि हाथ उठाएँ, सिख भारी संख्या में थे और मुसलमानों का कारोबार बहुत-कुछ सिखों के साथ था, सिख धनी भी थे और उनके पास बन्दूकें और असला भी था। पर यहाँ बात उलटी पड़ गई जान पड़ती थी।

ढोल बजने की आवाजें नज़दीक आने लगीं। ‘या अली!' का शोर भी नज़दीक से सुनाई दिया। तभी पिछवाड़े से ज़ोर का नारा बुलन्द हुआ :

“अल्लाह-हो-अकबर!"

क्षण-भर के लिए हॉल के अन्दर सकता-सा छा गया। फिर गुरुद्वारे के अन्दर उत्तेजना की लहर दौड़ गई।

“जो बोले...सो निहाल, सत सिरी अका ऽऽऽल!" का जवाबी नारा हवा में गूंज गया।

“गुरु का प्यारा कोई सिंह यहाँ से बाहर नहीं जाए! सब अपने-अपने मोर्चे पर पहुँच जाओ!"

जसबीर कौर का हाथ अपनी किरपान की मूठ पर पहुँच गया। सिहों ने लपक-लपककर दीवार के साथ रखी अपनी-अपनी तलवार उठा ली। सारी संगत उठकर खड़ी हो गई थी।

"तुर्क! तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!" सबकी ज़बान पर था। "तुर्कों का लश्कर आ गया!"

"तुर्क आ गए!" जसबीर ने भावविह्वल आवाज़ में कहा और अपने सिर पर से चुन्नी उतारकर गले में डाल ली और पास खड़ी स्त्री को गले से लगा लिया।

"तुर्क आ गए!" उसने भावविह्वल होकर कहा।

स्त्रियों ने अपने दुपट्टे उतारकर गले में डाल लिये थे और 'तुर्क आ गए, तुर्क आ गए!' कहती हुई एक-दूसरी के गले मिल रही थीं। गुरु के सिंह भी एक-दूसरे के साथ बग़लगीर होकर यही शब्द दोहराने लगे थे।

"सब अपनी-अपनी जगह पहुँच जाओ!"

कुछेक सिंहों ने बाल खोल लिए थे और तलवारें मियानों में से निकाल ली थीं।

"तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!" फिर एक साथ तीन कंठों से आवाज़ आई : “जो बोले सो...निहाल।" फिर से सारा गुरुद्वारा गूंज उठा : “सत सिरी अकाल!"

युद्ध समिति के सदस्य, सरदार मंगलसिंह सुनार, प्रीतमसिंह बजाज और भगतसिंह पंसारी तीनों सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर चले गए जहाँ तेजासिंह और किशनसिंह के साथ मिलकर युद्धनीति पर विचार करने की ज़रूरत थी।

ढोल-मजीरे बजाते तुर्क गाँव में पहुंच गए। शायद अपनी आमद की सूचना देने के लिए ही हवा में गोली चलाई थी। नारों से आकाश गूंजने लगा:

“या अली!" "अल्लाह-हो-अकबर!"

"सत सिरी अकाल!"

फिर किसी ने कहा कि तुर्क नदी की ओर से गाँव की ओर बढ़ रहे हैं। इसका मतलब था कि पीछे से वे ढलान चढ़कर सिखों के घरों की लूट-पाट करेंगे, आग लगाएँगे, क्योंकि घरों में इस वक़्त कुछ बूढ़े लोगों के सिवाय, जिन्हें धर्म-रक्षा की उत्तेजना में उनके बेटे वहाँ छोड़ गए थे, दूसरा कोई नहीं था और सामान पर हाथ साफ़ करना बड़ा आसान था।

शाम के साए अभी पूरी तरह उतर नहीं पाए थे और नदी का रंग डूबते सूरज की लाली के कारण लाल होने लगा था। बाएँ हाथ सिरे का मोर्चा उन घरों से दूर था जिनको इस समय तुर्कों से ख़तरा था।

तभी बलदेवसिंह को अपनी माँ की याद आई। उसे वह घर में अकेला छोड़ आया था और दिन-भर उसकी सुध नहीं ली। उधर अब माँ की जान पर आ बनी होगी। संगत में और भी कुछेक व्यक्ति ऐसे थे जिनका दिल धक्-धक् कर रहा था कि अब उनके बूढ़े माँ-बाप पर क्या बीतेगी।

बलदेवसिंह से न रहा गया। देखते ही देखते उसने केस खोल दिए, पाजामा उतार दिया, तलवार नंगी कर दी, और एक कच्छा और बनियान पहने नंगी तलवार सिर के ऊपर झुलाता हुआ अपने घर की ओर भाग खड़ा हुआ।

"खून का बदला खून से लेंगे!" वह चिल्लाया।

कुछ लोगों ने उसे लौट आने के लिए पुकारा, पर वह बढ़ता गया।

"खून का बदला खून से लेंगे!" चिल्लाता हुआ वह गली में भागने लगा।

हडियल, दुबला-पतला बलदेवसिंह, भागते समय उसकी पतली-सी टाँगें बकरी की टाँगों जैसी लग रही थीं। लोगों की समझ में नहीं आया कि वह बाएँ हाथ की गली की ओर क्यों भाग गया है। सामने ढलान उतरता तो समझा जा सकता था कि वह जोश में बलवाइयों से लोहा लेने जा रहा है, दाएँ हाथ जाता तो वह रास्ता कसाइयों की गली की ओर जाता था। बाईं ओर जाने में क्या तुक थी?

पर थोड़ी ही देर बाद वह गली में गुरुद्वारे की ओर लौट रहा था। वह अभी भी हाथ में तलवार को थामे हुए है, पर अब वह उसे झुला नहीं रहा है। तलवार की धार भी शाम के सायों में काली-सी नज़र आ रही है। नज़दीक आने पर लोगों ने देखा, तलवार लहूलुहान हो रही थी। उसके बनियान और कच्छा पर भी लहू के छींटे थे। अब वह चिल्ला नहीं रहा था, न ही भाग रहा था, बल्कि उसके चेहरे पर अजीब वहशत-सी छा गई थी।

कुछ लोग समझ गए थे कि वह किसी की हत्या करके लौटा है। वह गली के नुक्कड़ पर रहनेवाले, बूढ़े लुहार करीमबख्श के सीने में तलवार भोंककर आया था। यह सोचकर कि माँ तो अब बच नहीं सकती, माँ को तो तुर्कों ने मौत के घाट उतार ही दिया होगा, उसने खून का बदला खून से लेने की ठान ली थी और बूढ़ा करीमबख्श ही उसके आड़े आ सकता था।

गाँव पर साए उतर-उतर आए थे। नारों की गूंज और अधिक तेज़ होने लगी थी, बाईं ओर ढलान के ऊपर सचमुच किवाड़ तोड़ने और चिंघाड़ने की आवाजें आने लगी थीं। गुरुद्वारे में उत्तेजना पराकाष्ठा तक जा पहुंची थी।

तमस (उपन्यास) : सोलह

हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई :

"घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।"

हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने देखा तो नहीं।

"तू दरवाज़ा खोलने को कह, बन्तो, अन्दर औरत जात है।" और हरनामसिंह एक ओर को हट गया।

बन्तो ने दरवाज़ा खटखटाया और साथ में ऊँची आवाज़ में बोली, “करमावालियो दरवाज़ा खोलो, असी मुसीबत दे मारे आए हाँ।"

अपनी पत्नी की आवाज़ सुनकर क्षण-भर के लिए हरनामसिंह की आँखें झुक गईं। यह वक़्त भी देखना बदा था जब उसकी पत्नी आश्रय माँगने के लिए गिड़गिड़ाएगी।

दरवाजे के पीछे क़दमों की आहट सुनाई दी फिर अन्दर से किसी ने साँकल खोली। थोड़ा-सा दरवाज़ा खुला। उनके सामने ऊँची-लम्बी बड़ी उम्र की एक ग्रामीण औरत खड़ी थी, उसके दोनों हाथ गोबर से सने थे और उसने दुपट्टा उतार रखा था। उसके पीछे उलझे बालोंवाली छोटी उम्र की एक युवती खड़ी थी, उसने भी आस्तीनें चढ़ा रखी थीं जिससे लगता गाय-भैंस के लिए सानी-पानी कर रही है।

"कौन हो? क्या काम है?"

बड़ी उम्र की औरत ने पूछा हालाँकि एक नज़र में ही वह उनकी स्थिति को समझ गई थी।

"बदनसीब हैं, ढोक इलाहीबख्श से आए हैं। वहाँ बलवाई आ गए थे। हमारा घर-बार लूट लिया है। रात-भर चलते रहे हैं।"

क्षण-भर के लिए वह औरत ठिठकी खड़ी रही, वह निर्णायक क्षण जब मनुष्य अपने समस्त संस्कारों, विचारों, मान्यताओं के पुंजीभूत प्रभाव के आधार पर कोई निर्णय लेता है। और कुछ देर तक उनकी ओर देखती रही। फिर उसने दरवाज़ा पूरा खोल दिया।

“आ जाओ, अन्दर आ जाओ।"

हरनामसिंह और बन्तो की पलकें उठीं और दोनों दहलीज़ लाँघकर आँगन में आ गए। उनके अन्दर आ जाने पर उस औरत ने बाहर झाँककर दाएँ-बाएँ देखा और फिर झट से साँकल चढ़ा दी।

छोटी उम्र की लड़की एकटक इन दोनों की ओर देख रही थी। उसकी आँखों में संशय और अविश्वास था।

“खाट बिछा दे, अकराँ।" औरत ने कहा और स्वयं ज़मीन पर बैठकर पहले की तरह गोबर से थापियाँ बनाने लगी।

अकराँ कोठरी में से कन्धों पर पल्ला ओढ़ती हुई चली आई और दीवार के साथ लगी खाट को वहीं पर बिछा दिया।

"भला हो तेरा बहन, हम एक दिन में ही घर से बेघर हो गए हैं।" और बन्तो की आँखों में आँसू आ गए।

"ढोक इलाहीबख्श में सारी उम्र काटी है। वहीं पर दूकान थी, अपना घर था। पहले तो सबने कहा, यहीं बैठे रहो, कुछ नहीं होगा। फिर कल करीमखान ने मशवरा दिया कि गाँव में बने रहने में ख़तरा है तुम चले जाओ। उसने ठीक ही कहा। हमारी पीठ मोड़ने की देर थी कि बलवाई आ गए, दूकान भी लूट ली और उसे आग भी लगा दी।" हरनामसिंह ने कहा। और चुप रहा। इस बीच बन्तो खाट पर से उठकर नीचे आ गई और उस औरत के पास आकर बैठ गई।

अकराँ आई और बड़े तसले में रखी थापियाँ उठाकर ले गई और एकएक करके आँगन की दीवार पर लगाने लगी। औरत चुपचाप गोबर के ढेर में हाथ डाल-डालकर थापियाँ बनाती रही। मुँह से कुछ नहीं बोली।

"मर्द कहाँ गए हैं?" हरनामसिंह ने पूछा।

औरत ने एक बार घूमकर हरनामसिंह की ओर देखा, पर उसके सवाल का जवाब नहीं दिया। हरनामसिंह को सहसा समझ आ गया कि मर्द कहाँ गए होंगे और उसका सारा शरीर झनझना उठा।

"हम तो इन दो कपड़ों में निकल आए हैं।" बन्तो बोली, "सलामत रहे करीमखान, उसने हमारी जान बचा दी। और सलामत रहो तुम बहन, जिसने आसरा दिया है।"

घर में अजीब तरह की चुप्पी छाई थी जिससे हरनामसिंह कुछ कहते-कहते चुप हो जाता था। छोटी स्त्री अन्दर चली गई थी और हरनामसिंह को बार-बार लगता जैसे वह कोठरी के अँधेरे में खड़ी उनकी ओर घूर-धूरकर देख रही है।

औरत उठ खड़ी हुई और तसले में रखे पानी से हाथ धोकर एक ओर को चली गई जहाँ रसोई के बरतन रखे थे। फिर उसने मिट्टी का कटोरा उठाया और उसमें लस्सी डालकर ले आई। हरनामसिंह अभी भी बन्दूक को कन्धे के साथ लटकाए हुए था। कारतूसों की पेटी पसीने से सनी उसकी कमीज़ से जैसे चिपकी हुई थी।

"लो लस्सी पी लो, रात-भर के थके हो।"

कटोरा हाथ में लेते ही हरनामसिंह फफक-फफककर रो पड़ा। रात-भर की थकान, उत्तेजना और दबी भावनाएँ एकाएक फूटकर निकल आई और वह बच्चों की तरह बिलख उठा। आख़िर तो खाता-पीता दूकानदार था, कमर में सौ-दो सौ रुपए भी बाँधकर ले आया था, सारी उम्र किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया था और अब एक दिन में दर-दर की ठोकरें खाने लगा था।

“यहाँ ऊँचा-ऊँचा रोओ नहीं सरदारजी, गली-मुहल्लेवाले सुनेंगे तो दौड़े आएँगे। चुपचाप बैठे रहो।"

हरनामसिंह अपनी सिसकियाँ दबाकर चुप हो गया, और पगड़ी में से शमला निकालकर आँसू पोंछने लगा।

"भला हो तुम्हारा बहन, तुम्हारा किया हम कभी नहीं उतार सकेंगे।"

"रब्ब घरों बेघर किसी आँ न करे। रब्ब दी मेहर होई ताँ सब ठीक हो जाएगा।"

(भगवान किसी को घर से बेघर न करे। अल्लाह की कृपा बनी रही तो सब ठीक हो जाएगा।)

औरत अभी भी लस्सी का कटोरा हाथ में पकड़े बन्तो के सामने खड़ी थी। लस्सी के कटोरे की ओर देखकर बन्तो असमंजस में पड़ गई। बन्तो ने आँखें उठाकर पति की ओर देखा, उसका पति उसी की ओर देख रहा था। मुसलमान के हाथ से कटोरा कैसे ले ले? उधर रात-भर की थकान, हलक सूख रहा था। उनकी झिझक को घर की औरत समझ गई।

"तुम्हारे पास अपना कोई बर्तन हो तो उसमें डाल लो। इधर गाँव में एक पंडित की दूकान है। अगर वह घर पर हुआ तो मैं उससे तुम्हारे लिए दो बर्तन ले आऊँगी। पर क्या मालूम वह मिलता है या नहीं। हमारे हाथ का नहीं लो, पर दिन-भर भूखे कहाँ पड़े रहोगे?"

इस पर हरनामसिंह ने हाथ बढ़ाकर कटोरा ले लिया।

"तेरे हाथ का दिया अमृत बराबर है बहन, हम तुम्हारा किया कभी नहीं उतार सकते।"

धूप निकल आई थी, और आसपास के घरों से आवाजें आने लगी थीं। हरनामसिंह ने आधी लस्सी पीकर कटोरा बन्तो के आगे बढ़ा दिया।

“सुनो जी सरदारजी, मैं तुमसे कुछ छिपाऊँगी नहीं।" घर की मालकिन बोली, “मेरा घरवाला और बेटा दोनों गाँववालों के साथ बाहर गए हुए हैं। वे अभी लौटते होंगे। मेरा घरवाला तो अल्लाह से डरनेवाला आदमी है, तुम्हें कुछ नहीं कहेगा, पर मेरा बेटा लीगी और उसके साथ और लोग भी हैं। तुमसे वे कैसा सलूक करेंगे, मैं नहीं जानती। तुम अपना नफा-नुकसान सोच लो।"

हरनामसिंह का दिल धक् से रह गया। अभी-अभी तो यह औरत अलग से बर्तन देने तक की बात कह रही थी और अब कुछ और ही सुनाने लगी है। उसने हाथ बाँध दिए।

"इस वक़्त दिन-दहाड़े हम कहाँ जाएँ?"

"मैं क्या जानूँ? और दिन होता तो कोई बात नहीं थी, पर अब कोई किसी की नहीं सुनता। मैंने तुम्हें बता दिया है कि मर्द बाहर गए हैं और अब लौटनेवाले होंगे। वे तुम्हारे साथ कैसा सुलूक करेंगे, मैं नहीं जानती। अगर कोई चंगी-मन्दी हो गई तो मुझे नहीं कहना।"

हरनामसिंह देर तक गहरे सोच में डूबा बैठा रहा, फिर शिथिल-सी आवाज़ में बोला, “सत बचन, जो वाहगुरु को मंजूर होगा वहीं होगा। तेरे दिल में रहम जगा, तूने दरवाज़ा खोल दिया। अब तू कहेगी बाहर चले जाओ तो हम बाहर चले जाएँगे। चल बन्तो, उठ..."

हरनामसिंह ने बन्दूक सँभाली और दोनों पति-पत्नी दरवाज़े की ओर बढ़े। वह जानता था कि दरवाज़े के बाहर प्रलय मुँह फाड़े खड़ी है। पर कोई चारा न था।

औरत ज्यों की त्यों आँगन के बीचोबीच खड़ी रही और उनकी ओर देखती रही।

जब हरनामसिंह ने साँकल खोलने के लिए हाथ उठाया तो औरत फिर बोल पड़ी, “न जाओ जी, रुक जाओ, साँकल चढ़ा दो।" वह बोली, "तुमने मेरे घर का दरवाज़ा खटखटाया है, दिल में कोई आस लेकर आए हो। जो होगा देखा जाएगा। तुम लौट आओ।"

पीछे अँधेरी कोठरी की दहलीज़ पर खड़ी अकराँ अपनी सास की ओर देखे जा रही थी, उसे बोलते देखकर आगे बढ़ आई, "जाने दो न माँ, हमने मर्दो से पूछा भी नहीं है। उन्हें बहुत बुरा लगेगा।"

“मैं जवाब दे लूँगी। तू जा अन्दर से सीढ़ी उठा ला, जल्दी कर । घर आए को निकाल दूँ? अल्लाह की दरगाह में सभी को जाना है। जा, खड़ी मेरा मुँह क्या देख रही है, अन्दर से सीढ़ी उठा ला!"

हरनामसिंह और उसकी पत्नी दरवाजे पर से मुड़ आए। हरनामसिंह ने फिर हाथ बाँध लिए।

“वाहगुरु तुम्हें सलामत रखे बहन, तू हमें जैसा कहेगी हम वैसा ही करेंगे।"

दिन निकल आया था। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ एक-दूसरी के घर आने-जाने लगी थीं, जगह-जगह फ़सादों की चर्चा हो रही थी। इस गाँव से भी पिछली शाम बहुत-से मर्द नारे लगाते, बर्ले-भाले हवा में झुलाते और ढोल बजाते गाँव में घूमते रहे थे और बाद में पूरब की दिशा में निकल गए थे। न जाने वे कहाँ घूमते रहे थे और रात-भर क्या करते रहे थे, पर अब दिन निकल आया था और घर-घर में उनका इन्तज़ार था।

अकराँ सीढ़ी ले आई। उसकी सास ने सीढ़ी उसके हाथ से ले ली और दीवार के साथ लगा दी जहाँ कोठरी के ऊपर एक छोटी-सी मियानी बनी थी।

“इधर आओ जी, तुम दोनों ऊपर चढ़कर मियानी में बैठ जाओ। आवाज़ नहीं करना, किसी को पता नहीं चले कि तुम यहाँ पर हो। आगे, अल्लाह मालिक है।"

हरनामसिंह को चढ़ने में कठिनाई हुई। एक तो बोझल देह, दूसरे कन्धे पर से लटकती बन्दूक बार-बार टाँगों में उलझ रही थी। जैसे-तैसे हाँफता हुआ वह ऊपर पहुँच गया, पीछे-पीछे बन्तो भी चढ़ गई। मियानी छोटी-सी थी, मुश्किल से उकइँ होकर बैठ पाने की जगह थी, पीछे ठसाठस सामान भरा था। और जब हरनामसिंह ने ताकी बन्द की तो कुछ अँधेरा हो गया। दोनों चुपचाप बैठे अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे। न कुछ सोचने को था, न कहने को। एक पतले-से डोरे के सहारे किस्मत लटक रही थी।

देर तक हरनामसिंह हाँफता रहा। मियानी के अन्दर घुटन थी, कुछ अँधेरा था। कुछ देर तक बैठे रहने के बाद लाचार होकर हरनामसिंह ने ताकी को थोड़ा-सा खोल दिया ताकि थोड़ी-सी हवा और रोशनी अन्दर आ सके। उस पतले से छिद्र में से उसे बाहर खुलनेवाला आँगन का दरवाज़ा और थोड़ा-सा आँगन का हिस्सा नज़र आ रहे थे। नीचे चुप्पी थी।

उसे लगा जैसे सास और बहू दोनों आँगन में से हट गई हैं।

"अगर कोई बुरी बात हो गई बन्तो, हमारी जान पर बन आई, तो मैं पहले तुम पर गोली चलाऊँगा, तुम्हें अपने हाथ से ख़त्म कर दूंगा..." हरनामसिंह ने फुसफुसाकर तीसरी बार कहा। “अगर हम पकड़े गए तो और कोई चारा नहीं।"

बन्तो चुप रही। वह एक-एक क्षण गिन रही थी कि अब क्या होगा, अब क्या होगा, उसकी सूझ इससे आगे जा ही नहीं पा रही थी।

नीचे, पिछली कोठरी के अन्दर सास-बहू के बीच दबा-दबा वार्तालाप चल रहा था। अकराँ मुँह फुलाए हुए थी।

“काफरों की पनाह देने ओ। बहु माड़ा करने ओ। मड़द तुदाँ पुछसन।"

(काफिरों को पनाह दी है, बहुत बुरा किया है। मर्द आकर तुमसे पूछेंगे।)

पर उसकी सास विचलित नहीं हुई।

"तू चुप कर। कोई बदनसीब आए मैं उसे धक्का देकर बाहर निकाल दूँ ?"

“न जान-पहचान। ये हमारे क्या लगते हैं? कितना बुरा लगेगा अब्बा को भी और रमज़ान को भी। ऊपर दोनों चढ़ बैठे हैं, और सिखड़े के हाथ में बन्दूक है। अगर हमारे मर्द आए और उसने गोली चला दी, तो? तुमने तो एतबार करके उन्हें ऊपर बैठा दिया।"

सास अकराँ के चेहरे की ओर देखती रह गई। उसकी बात में सार था। अगर बात बिगड़ जाए, मर्दो के लौटने पर उन्हें पता चल जाए और उनके बीच तू-तू मैं-मैं हो जाए, गाली-गलौज हो जाए, रमज़ान यों भी कितने दिनों से बौखलाया हुआ है और यह ऊपर बैठा गोली चला दे तो क्या होगा? नीचे खड़े आदमी को तो हलाक कर ही देगा। किसी को पनाह देना और बात है, और अपने बेटे और घरवाले की जान जोखिम में डालना दूसरी बात। इसमें क्या अक्लमन्दी है। यह बात उसे सूझी क्यों नहीं?

वह उठकर मियानी के नीचे जा खड़ी हुई। "सुण, सरदारजी मेरी बात।" उसने दबी आवाज़ में कहा।

हरनामसिंह ने ताकी को और थोड़ा खोल दिया।

"क्या है बहन?" “अपनी बन्दूक मुझे दे दे। इधर से लटका दे, मैं पकड़ लूंगी।"

हरनामसिंह उत्तर देने से पहले ठिठका चुप बना रहा।

"मैं बन्दूक कैसे दे दूँ बहन?"

"नहीं, तू बन्दूक दे दे। बन्दूक लेकर तुम ऊपर नहीं बैठ सकते।"

फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गई। बन्दूक दे देने का मतलब था अपनी जान उनके हाथ में दे देना। अगर वह इनकार कर दे तो वह फौरन घर से बाहर निकाल सकती है, और बाहर, दिन-दहाड़े बन्दूक कन्धे से लटक भी रही हो, तो कोई हिफाजत नहीं।

“सुनते हो सरदारजी, बन्दूक दे दे। मेरे घर के अन्दर रहते तुझे बन्दूक की क्या ज़रूरत है?"

“बन्दूक देकर तो मैं बिलकुल निहत्था हो जाऊँगा बहन! कहाँ मारा-मारा फिरूँगा। इसका मुझे हौसला है।"

“तू बन्दूक दे दे, इधर लटका दे, जब जाएगा तो मैं तुम्हें लौटा दूंगी।"

हरनामसिंह ने अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखा। फिर चुपचाप बन्दूक नीचे लटका दी।

बन्दूक दे चुकने के बाद हरनामसिंह को इस बात का ध्यान आया कि देने से पहले उसमें से गोलियाँ तो निकाल लेता। भरी हुई बन्दूक उसके हाथ में दे दी। पर फिर सिर झटक दिया। जहाँ जिन्दगी ही अनिश्चय में डोल रही है, वहाँ क्या फर्क पड़ता है कि बन्दूक में से गोलियाँ निकाल ली या नहीं निकालीं। निकाल लेता तो मौत का एक और मनसूबा कम हो जाता, नहीं निकालीं तो मौत के हज़ार मनसूबों में एक और मनसूबा जा मिला। हरनामसिंह ने ठंडी साँस भरी, इतनी गहरी कि बन्तो को लगा नीचे खड़ी औरत और उसकी बहू ने भी सुन ली होगी।

मियानी में फिर अँधेरा छा गया।

क्या-से-क्या हो गया था। कल इस वक़्त बन्तो अपने घर में सन्दूक में से कपड़े सहेज रही थी, आज पति-पत्नी चूहों की तरह इस अँधेरी मियानी में घुसे बैठे थे। कल वह और करीमखान इन फ़िसादों को बुरा-भला कह रहे थे, उन लोगों को बुरा-भला कह रहे थे जिनकी आँखों में से 'दीद' उड़ गया था, मानो जो कुछ हो रहा था वह उनके बाहर कहीं हो रहा था, जिस पर वे तटस्थता से बहस कर सकते थे, अपनी टिप्पणियाँ दे सकते थे। और अब वे स्वयं फ़िसादों के एक ही झोंके से कहाँ-से-कहाँ पटक दिए गए थे।

सहसा यह सोचकर उसका दिल डूब गया कि बन्दूक हाथ से निकल गई है, कि अब वह उसे वापस नहीं मिलेगी। यह मैं क्या कर बैठा? अपने हाथों से अपने हाथ काट लिए। बन्दूक तो मेरे लिए अन्धे की लाठी के समान थी। अब वह मुझे कहाँ मिलेगी? सोचते ही हरनामसिंह का पसीना छूट गया। उसे अपने से भी अधिक अपनी पत्नी की स्थिति शोचनीय लगी। अब मैं इसे अपने साथ ले जाऊँगा तो किस बूते पर? अब तो लोग पत्थर मार-मारकर हमें मार डालेंगे। भक्ति और ज्ञान और मानव-प्रेम की बरसों की कमाई हरनामसिंह यथार्थ के एक ही थपेड़े में खो बैठा था।

“जसबीरो का कुछ पता चल जाता।" सहसा बन्तो बुदबुदाई।

हरनामसिंह चुप रहा। कहता भी क्या। रह-रहकर किसी-किसी वक़्त बन्तो के अन्दर माँ बोलने लगती। रात को नाले के किनारे चलते हुए भी उसने दो-एक बार अपने बच्चों को याद किया था, अब फिर से करने लगी थी। जब भी कुछ देर के लिए उसके अपने सिर पर से ख़तरे का साया टल-सा जाता, उसे अपने बच्चों की याद सताने लगती थी।

गाँव में शोर हुआ। शोर बढ़ता जा रहा था, मर्द-औरतें एक साथ बतियाती सुनाई देने लगीं। तभी किसी ने दरवाज़े को ज़ोर से खटखटाया और किसी स्त्री की आवाज़ आई :

“री अकराँ, आ बाहर, देख वे लोग आ रहे हैं।"

अकराँ की किसी सहेली की आवाज़ थी। अकराँ भागती हुई दरवाज़ा खोलकर बाहर चली गई।

ऊपर बैठे हरनामसिंह का दिल फिर से धड़कने लगा। बन्तो ने आँखें ऊपर उठाकर पति के चेहरे की ओर देखा। रोज़ दमकता रहनेवाला चेहरा पीला पड़ गया था और कपड़े मुचड़े हुए और मैले हो रहे थे। मियानी की अधखुली ताकी में से हरनामसिंह को घर की मालकिन नज़र आई। आँगन में खुले दरवाजे के सामने कमर पर दोनों हाथ रखे खड़ी थी। उसका ऊँचा-लम्बा क़द, सीधी सतर काया देखकर उसका मन सँभल-सा गया। उसका विश्वास फिर जैसे लौट आया। इस औरत के रहते अभी सबकुछ खो नहीं गया है, सबकुछ मर नहीं गया है।

“अगर वाहगुरु को मंजूर होगा तो हम पर आँच नहीं आएगी। तुम तो भगत हो, तुम्हें किस बात का डर है!" बन्तो ने अपने पति को आश्वासन देते हुए कहा। हरनामसिंह चुप बना रहा।

बाहर आवाजें बढ़ने लगीं, हँसी-ठठे की आवाजें थीं, बढ़ते कदमों का शोर था। आँगन का दरवाज़ा खुला पड़ा था। तभी अकराँ के बोलने और ऊँचा-ऊँचा हंसने की आवाज़ आई। हरनामसिंह समझ गया कि घर के मर्द रात-भर की कारगुजारियों के बाद लौट आए हैं।

कुछ ही देर बाद अकराँ का ससुर और अकराँ एक बड़ा-सा काले रंग का ट्रंक उठाए हुए आँगन के अन्दर आए। ससुर के सिर की पगड़ी बैठी हुई थी, लगता था ट्रंक को गाँव तक सिर पर उठाकर लाया है।

हरनामसिंह ने हाथ बढ़ाकर अपनी पत्नी के घुटने को छुआ।

"हमारा ट्रंक है, बड़ा काला ट्रंक। हमारी दूकान लूटते रहे हैं।"

बन्तो ने बाहर झाँककर देखने की कोशिश नहीं की।

"अभी तक ताला चढ़ा है।" हरनामसिंह बुदबुदाया।

अकराँ का ससुर ट्रंक के ऊपर बैठ गया था और पगड़ी उतारकर माथे का पसीना पोंछ रहा था। उसकी पत्नी ने आगे बढ़कर दरवाज़ा बन्द कर दिया।

"रमज़ान नहीं आया?" "रमज़ान तबलीग करने गया है।"

ऊपर बैठे हरनामसिंह ने हाथ बढ़ाकर अपनी पत्नी का घुटना छुआ : "एहसानअली है। मैं इसे जानता हूँ। इसका मेरे साथ लेन-देन रहा है।"

"बन्द का बन्द ट्रंक उठा लाए हो, अब्बा, क्या मालूम इसमें कुछ है भी या नहीं।"

"क्यों? इतना भारी था, मेरी तो कमर दोहरी हो गई। कपड़ों का ट्रंक है, कुछ न कुछ तो ज़रूर होगा।"

"बस, एक ट्रंक ही लाए हो? रमज़ाना भी कुछ लाया है?"

"वही यह खींचकर बाहर लाया था। साबूत का साबूत ट्रंक उठा लाए हैं, तुम्हें और क्या चाहिए?"

"लाओ, इसे खोलते हैं, इसका ताला तोड़ें।" अकराँ ने कहा और भागकर कोठरी में से हथौड़ी उठा लाई। चोरी के माल को देख पाने की उत्सुकता में वह अपने ससुर से मियानी में छिपे कराड़ों के बारे में बताना भी भूल गई। उसकी सास अभी भी चुपचाप पास खड़ी थी।

“लस्सी पिला राजो, प्यास लगी है।" ससुर ने कहा और उसकी पत्नीराजो-उन्हीं क़दमों से लस्सी लाने चली गई। ट्रंक के ताले पर ठकाठक शुरू हो गई।

एहसानअली कटोरा हाथ में लिये लस्सी पी रहा था जब राजो-उसकी पत्नी ने उसे बताया कि उसने घर में एक सिख और उसकी पत्नी को पनाह दे रखी है।

तभी ऊपर से हरनामसिंह ने ताकी खोल दी और गर्दन निकालकर बोला, "ताला क्यों तोड़ती हो बेटी, यह लो चाभी, यह हमारा ही ट्रंक है।" फिर एहसानअली की तरफ़ मुखातिब होकर बोला, “एहसानअली, मैं हरनामसिंह हूँ, तुम्हारी घरवाली ने हमें यहाँ पनाह दी है। गुरु महाराज तुम्हें सलामत रखें। यह ट्रंक हमारा है, पर अब इसे तुम अपना ही समझो। अच्छा हुआ जो यह तुम्हारे हाथ लगा, किसी दूसरे के हाथ नहीं लगा।"

एहसानअली ने नज़र ऊपर उठाई तो झेंप गया, मानो वह चोरी करते पकड़ा गया हो।

अकराँ के हाथ थम गए और वह चिल्लाकर बोली, “अम्मा ने इन्हें पनाह दी है। मैंने कहा भी था काफिर हैं, इन्हें अन्दर मत घुसने दो, पर अम्मा ने मेरी बात नहीं मानी।"

अकराँ अपने ससुर को खुश करने के लिए कह रही थी, पर एहसानअली अभी भी ठिठका खड़ा और अटपटा महसूस कर रहा था। किसी ज़माने में दोनों के बीच लेन-देन रहा था और अच्छी जान-पहचान रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हरनामसिंह के प्रति कैसा व्यवहार करे, ऐसे साक्षात की उसे उम्मीद नहीं थी। उसके खून में ऐसी गर्मजोशी भी नहीं थी कि किसी हिन्दू अथवा सिख को देखकर आगबबूला हो उठे।

"हरनामसिंह, नीचे आ जा।" फिर अपनी चोरी को उस एहसान की ओट में छिपाते हुए, जो राजो ने इन दो व्यक्तियों पर किया था, तनिक दिलेरी के साथ बोला, “खैर मनाओ, जो तुमने मेरे घर में पनाह ली। और किसी के घर जाते तो इस वक्त जान से भी हाथ धो चुके होते।"

अकराँ ताला खोलने के लिए उतावली हो रही थी, लेकिन राजो ने उसके हाथ से चाभी ले ली थी और उसके बार-बार माँगने पर भी देने से इनकार कर रही थी।

“मैं तो तुमसे कुछ नहीं कहूँगा, हरनामसिंह, तुम मेरे घर आए हो, पर अब तुम यहाँ से चले जाओ। मेरे बेटे को पता चल गया कि तुम यहाँ पर हो तो वह तुम्हारे साथ अच्छा सुलूक नहीं करेगा। गाँववालों को भी पता चले कि हमने तुम्हें पनाह दी है तो हमारे लिए बहुत बुरा होगा।"

हमें सब मंजूर है एहसानअली, हमारा क्या कोई बस चल सकता है? पर इस वक़्त दिन-दहाड़े हम बाहर जाएँगे तो हमें कौन छोड़ेगा?"

एहसानअली चुप हो गया और अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखने लगा मानो कह रहा हो, यह कौन-सा बखेड़ा तुमने खड़ा कर दिया है।

“कल रात भी लोग तुम्हें ढूँढ़ रहे थे।" एहसानअली ने कहा, “अब अगर किसी को पता चल गया कि तुम यहाँ छिपे बैठे हो, तो लोग हमें भी नहीं छोड़ेंगे। तुम्हारा भी इसी में भला है और हमारा भी इसी में भला है कि तुम यहाँ से चले जाओ।"

अकराँ अपने-आप सीढ़ी उठाकर ले आई और मियानी के नीचे लगा दी। दोनों पति-पत्नी चुपचाप नीचे उतर आए। दोनों बलि के बकरे नज़र आ रहे थे।

पर फिर वही नाटक हुआ जो सुबह के वक्त हुआ था। दोनों नीचे उतर आए थे। दोनों में कोई भी नहीं गिड़गिड़ाया। दोनों शान्त थे और चुपचाप खड़े थे। हरनामसिंह अपनी बन्दूक माँगने जा रहा था और राजो आँगन के बीचोबीच चुपचाप कमर पर हाथ रखे खड़ी थी, जब एहसानअली बोला, "इन्हें भूसे की कोठरी में बैठा दे, राजो, बाहर से ताला चढ़ा दे। ले, यही ताला खोलकर ले जा, जा जल्दी कर।" फिर हरनामसिंह पर एहसान जताते हुए बोला, “निगाह का लिहाज है हरनामसिंह, पर जो कुछ काफिरों ने शहर में किया है, खुदा कसम उसे याद करके खून खौल उठता है।"

आगे-आगे राजो चल रही थी और पीछे-पीछे बन्तो और हरनामसिंह। कोठरी लाँधकर घर के पीछे वे एक अँधेरे-से दालान में पहुँचे जहाँ गोबर, चारा और मवेशियों की तीखी गन्ध आ रही थी। यहीं पर राजो ने एक कोठरी का दरवाज़ा खोला। कोठरी फर्श से लेकर छत तक सूखे चारे से भरी थी।

"इधर बैठ जाओ। मेरा आदमी बड़ा नेकबख्त है। मुझे नहीं मालूम था कि तुम लोगों की जान-पहचान है। जैसे-तैसे यहाँ वक़्त काट लो।"

हरनामसिंह और उसकी पत्नी यहाँ भी उसी तरह जा बैठे जैसे मियानी में बैठ गए थे। यहाँ राजो ने दरवाज़ा भेड़ दिया और बाहर से साँकल लगा दी।

वक़्त कटने लगा, दोनों को कुछ-कुछ हौसला होने लगा कि यहाँ शाम तक पनाह मिली रहेगी। दिन में किसी वक़्त राजो रोटियाँ और लस्सी भी दे गई। दोनों के पेट में रोटी गई तो त्राण मिला। देर तक दोनों अँधेरे में बैठे फटी-फटी आँखों से अँधेरे में देखते रहे। बन्तो ने फिर हरनामसिंह से पूछा, "तुम क्या सोचते हो, इकबालसिंह गाँव में ही होगा या वहाँ से भाग गया होगा?"

"जो वाहगुरु को मंजूर होगा। कोई नेकबख्त उसे भी मिल जाए तो उसकी जान बच जाए।"

"जसबीरो अकेली नहीं है, यह अच्छा है। गाँव में अपनी संगत के लोग बहुत हैं, सभी एक जगह इकट्ठे हो गए होंगे।"

इस पर हरनामसिंह ने पूछा, “यह लोग हमारी बन्दूक लौटा देंगे न? तू क्या सोचती है? पर मेरा दिल नहीं मानता।"

वे देर तक बातें करते रहे। कोठरी बन्द थी, पर यहाँ उतनी उमस नहीं थी जितनी मियानी में रही थी, चारे के गट्ठरों के आगे बैठे-बैठे दोनों की आँखें झपकने लगीं। रात-भर के थके थे, कुछ देर बाद दोनों को झपकी आ गई।

उनकी नींद तब टूटी जब उनके दरवाज़े पर कुल्हाड़े पड़ रहे थे और कोई चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, “निकलो ओ बाहर, कहाँ घुसे बैठे हो, तुम्हारी माँ की...निकलो बाहर तुम्हारी..."

कुल्हाड़ी के प्रहार बराबर पड़ते जा रहे थे। हरनामसिंह और उसकी पत्नी दोनों हड़बड़ाकर उठ बैठे, मानो कोई दुःस्वप्न देखकर उठे हों, और सिर से पाँव तक काँप उठे

“निकाल चाभी, काफिरों को पनाह दी है। तुम्हारी काफिरों की मैं...।" और फिर एक और प्रहार दरवाजे पर पड़ा।

"आहिस्ता बोल रमज़ाना।" किसी औरत की आवाज़ थी। शायद अकराँ अपने पति को धीमा बोलने को कह रही थी।

दरवाज़े पर फिर से कुल्हाड़ी पड़ने लगी। दरवाज़ा ऊपर से चिर गया था जिससे रोशनी की एक और दरार नज़र आने लगी।

फिर किसी दूसरी औरत की आवाज़ सुनाई दी, "क्यों भौंक रहा है तू? क्या हुआ है?" राजो की आवाज़ थी, “किधर है यह चुडैल? तेरी मैंने जीभ न खींच ली तो कहना, हरामजादी, तुझे मना किया था इसे नहीं बताना, क्यों बताया है? तेरे पेट में बात नहीं पचती?...तू क्या चाहता है, रमज़ाना? घर में खून करेगा? घर में पनाह लेनेवाले को मारेगा? यह आदमी हमारी जान-पहचान का है, हम इसके देनदार रहे हैं।"

बहुत बक-बक नहीं कर माँ, शहर में इन काफिरों ने दो सौ मुसलमान हलाल कर डाले हैं।" इस पर कुल्हाड़ी का एक और प्रहार हुआ, “निकलो ओ बाहर काफिरो, तुम्हारी..."

दो प्रहारों में की कुंडा टूट गया और दरवाज़ा भरभराकर खुल गया। ढेरों रोशनी एक साथ आ गई थी। रमज़ान हाँफ रहा था, कुल्हाड़ी उसके हाथ में थी, पास में अकराँ खड़ी थी, पीला ज़र्द सहमा हुआ-सा चेहरा, एक ओर राजो खड़ी थी। उसके दोनों हाथ कमर पर थे।

"निकलो बाहर काफिरो..."

रमज़ान ने अन्दर झाँककर देखा। हरनामसिंह और उसकी पत्नी अँधेरे में एक-दूसरे के साथ सटकर बैठे दरवाजे की ओर चुंधियाती आँखों से देखे जा रहे थे। दरवाज़ा खुलने पर हरनामसिंह उठ खड़ा हुआ और चुपचाप बाहर आ गया।

"मार डाल..." खोखली-सी आवाज़ में हरनामसिंह ने कहा।

"तेरी मैं..." रमज़ान बोला और बायाँ हाथ बढ़ाकर हरनामसिंह की गर्दन पकड़ ली। हरनामसिंह की गाढ़े की कमीज़ का ऊपरवाला बटन टूटकर गिर पड़ा। इस झटके में हरनामसिंह की पगड़ी ढीली हो गई। फिर, जिस तेज़ी से रमज़ान ने उसके गले को पकड़ा था, उसी तेज़ी से उसे छोड़ भी दिया। गर्दन पर उँगलियों के लाल-लाल निशान पड़ गए।

हरनामसिंह को उसने भी पहचान लिया था, उसकी दूकान पर दो-एक बार उसने चाय पी थी। उसकी दाढ़ी अब पहले से कहीं ज़्यादा सफ़ेद हो गई थी और शरीर दुबला हो गया था।

दो-तीन बार रमज़ान ने कुल्हाड़ी उठाने की कोशिश की, पर कुल्हाड़ी हाथ में रहते भी उसे उठा नहीं पाया। काफिर को मारना और बात है, अपने घर के अन्दर जान-पहचान के पनाहगजीन को मारना दूसरी बात। उसका खून करना पहाड़ की चोटी पार करने से भी ज़्यादा कठिन हो रहा था। मजहबी जनून और नफरत के इस माहौल में एक पतली-सी लकीर कहीं पर अभी भी खिंची थी जिसे पार करना बहुत ही मुश्किल था। उसे रमज़ान भी पार नहीं कर पा रहा था।

रमज़ान उसके सामने हाँफता खड़ा रह गया। फिर गालियाँ बकता हुआ बाहर चला आया।

लगभग आधी रात का समय रहा होगा जब ऊँची-लम्बी राजो आगे-आगे चली जा रही थी और हरनामसिंह और बन्तो उसके पीछे-पीछे थे। पेड़ों के झुरमुट तक राजो उनके साथ आई। चाँद पेड़ों के झुरमुट के ऊपर खिला था और आकाश उसकी चाँदनी में झिलमिला रहा था। फिर वही अलौकिक, रहस्यपूर्ण, स्वप्निल दृश्य, फिर वही चाँदनी और अँधेरा आपस में आँखमिचौनी खेलते हुए। पेड़ों के इस झुरमुट और उसके पार फैला हुआ असीम प्रसार फिर से रहस्यपूर्ण और भयावना नज़र आने लगा था। आगे जाती राज की काया बड़ी गम्भीर लग रही थी। राजो हाथ में दोनाली बन्दूक उठाए हुए थी।

वे फिर से नदी की ओर उतर रहे थे। बाईं ओर, दूर अ फाश लाल हो रहा था। हरनामसिंह ने धीरे से अपनी पत्नी का हाथ दबाकर कहा, "बाईं ओर देख, देखा?"

"देखा है, कोई गाँव जल रहा है।"

"...वाह गुरु...।" बन्तो बुदबुदाई।

चलते-चलते हरनामसिंह के पाँव फिर ठिठक गए। बहुत दूरी पर, दूसरी ओर भी क्षितिज लाल हो रहा था।

"वह गाँव कौन-सा है? वह भी जल रहा है।" बन्तो चुप रही।

हरनामसिंह ने घूमकर देखा। चाँदनी में गाँव के चपटे मिट्टी के घर खड़े थे। किसी-किसी घर में दीया टिमटिमा रहा था। घरों के बाहर भूसे के ऊँचे-ऊँचे ढेर, कहीं कोई बैलगाड़ी खड़ी थी।

पेड़ों के झुरमुट में पीर की सफेद कब्र उन्हें नज़र आई। उस पर दीया नहीं जल रहा था। आज के रोज़ उस पर दीया जलाना लोग भूल गए थे।

राजो झुरमुट के किनारे-किनारे चलती जा रही थी। फिर झुरमुट का छोर आ गया और वह ढलान आ गई जिसे चढ़कर उसी रोज़ प्रातः हरनामसिंह और उसकी पत्नी गाँव में दाखिल हुए थे। राजो रुक गई। राजो ने अपने हाथ में पकड़ी बन्दूक हरनामसिंह के हाथ में दे दी।

“जाओ हुण, रब्ब राखा। सीधे किनारे-किनारे चले जाओ। आगे जो तुम्हारी किस्मत।"

और उसकी आवाज़ आर्द्र हो उठी।

तुमने हम पर बड़ा अहसान किया है राजो बहन, हम इसे कभी नहीं भूल सकते।" बन्तो ने कहा।

"जे ज़िन्दगी रही ताँ तेरा एहसान...” हरनामसिंह की आवाज़ लड़खड़ा गई। "मैं के जाणा भैण, अपणा-अपणा नसीबा। चहवाँ पासे अग लगी है।"

(मैं क्या जानूँ बहन? मैं नहीं जानती मैं तुम्हारी जान बचा रही हूँ या तुम्हें मोत के मुँह में झोंक रही हूँ। चारों तरफ़ आग लगी है।)

यह कहते हुए राजो ने अपना हाथ अपने कुर्ते की जेब में डाला और सफेद कपड़े में लिपटी एक छोटी-सी पोटली निकाल लाई।

“यह लो, यह तुम्हारी चीज़ है।" "क्या है राजो बहन?"

“एह तुसॉडे सन्दूक विचों मिले हन। मैं कड्ढ लियायी हाँ। तुसॉडे ऊपर औखा वेला आया है, ज़ेवर कोल होये ताँ सहारा होवेगा।"

(ये तुम्हारे ट्रंक में से मिले हैं, तुम्हारे दो गहने हैं। मैं निकाल लाई हूँ। तुम्हारे आगे कठिन समय है, पास में दो गहने हुए तो सहारा होगा।)

"वाहगुरु तुम्हें सलामत रखे बहन, अच्छे करम किए थे जो तुमसे मिलना हुआ।" कहते हुए बन्तो रो पड़ी।

"जाओ, रब्ब राखा, देर हो रही है।" राजो ने कहा। वह उन्हें कुछ नहीं बता सकती थी कि किस दिशा में जाएँ, किस गाँव की ओर जाएँ, किस घर का दरवाज़ा खटखटाएँ, उसके लिए कुछ भी कह पाना असम्भव था।

दोनों पति-पत्नी ढलान उतरने लगे। राजो टीले पर खड़ी रही और उन्हें जाते हुए देखती रही। वही ऊबड़-खाबड़, बालू और गोल-गोल पत्थरों से अटा रास्ता था। ऊपर चाँद चमक रहा था जिससे सारा मैदान काले और सफ़ेद चित्रों में बँटा पड़ा था। कहीं अन्धकार का पुंज था तो कहीं पारे-सी चमकती चाँदनी थी।

थोड़ी दूर तक जाने के बाद उन्होंने घूमकर देखा, राजो अभी भी टीले पर खड़ी थी और अज्ञात की ओर बढ़ते उनके क़दमों को जैसे देख रही थी। फिर उनके देखते-देखते ही वह लौट पड़ी और गाँव की ओर जाने लगी। उसके चले जाने से चारों ओर फैली वीरानी इन दोनों के लिए और भी अधिक भयावह हो उठी।

तमस (उपन्यास) : सत्रह

इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भागता सिख नज़र आ गया। यह नहीं मालूम कि वह इस गिरोह को देखकर भागा था या पहले से ही भागता आ रहा था, पर जब इन लोगों को वह नज़र आ गया तो सचमुच इन्हें एक खेल मिल गया। 'या अली!' रमज़ान ने ललकारा और सभी लोग-बीस-तीस लोग रहे होंगे उसके पीछे भाग खड़े हुए। ज़मीन हमवार नहीं थी, जगह-जगह टीले, नीची खाइयाँ और टीलों के बीच तरह-तरह के खोह बने थे। सरदार ने मुँह तो गाँव की ओर ही कर रखा था लेकिन बैलगाड़ियों का रास्ता छोड़कर खेतों-कस्सियों के रास्ते से जाने की कोशिश कर रहा था। उसका ख्याल था कि इस तरह वह देहातियों की नज़र से बच जाएगा।

एक बार नज़र आने के बाद वह आँखों से ओझल हो गया।

"छिप गया है सिखड़ा!" रमज़ान ने कहा और क़दम तेज़ कर दिए। अभी पच्चीसेक गज की दूरी रही होगी जब सरदार की एक और झलक मिली। सरदार टीलों-खाइयों के रास्ते अभी बढ़ता ही जा रहा था। पर जब वे लोग ऐन उस जगह पर पहुँचे जहाँ पर सरदार उन्हें नज़र आया था, तो वह गायब हो चुका था।

"किसी खोह में घुस गया है!" नूरदीन बोला, “निकालो माँ के...को।"

उस समय ये लोग टीले के ऊपर खड़े थे। कुछ देर पहले से ही इन मुजाहिदों ने ढेले और पत्थर उठा-उठाकर उस भागते सिख की दिशा में फेंकने शुरू कर दिए थे, लेकिन अब वे आसपास टीलों में बने खोहों के अन्दर चाँदमारी करने लगे कि जिस खोह में छिपा बैठा है, पत्थर खाकर अपने-आप बाहर आ जाएगा। अगर सरदार भागता रहता तो ज़रूर ही पत्थरों की इस बौछार में मारा जाता जैसे बरसाती चूहा मारा जाता है, पर वह भागने की बजाय एक टीले के अन्दर बनी अँधेरी खोह में दुबककर बैठ गया था। आसपास अनगिनत खोह थे और उनमें से किसमें वह छिपा बैठा है, इन लोगों के लिए ढूँढ़ना आसान नहीं था।

“ओ सिक्खा, बड़ी तरिक्खा, निकल बाहर!" नूरदीन ने ऊँची आवाज़ में कहा जिस पर सभी लोग ठहाका मारकर हँस दिए। नूरदीन रमज़ान के ही गाँव का रहनेवाला था, गधों पर मिट्टी और ईंटें लादकर लाता-ले जाता था और उसके दाँतों के ऊपर लाल-लाल मसूड़े थे, जब हँसता तो मसूड़े दूर तक नज़र आते थे।

कुछ लोग नीचे उतरे।

"इस खोह में होगा।" एक बोला।

"निकल बाहर तेरी माँ की..." दूसरे ने कहा और ढेला उठाकर ज़ोर से अन्दर फेंका। पर उसका कोई असर नहीं हुआ। खोह के अन्दर अँधेरा था, और खोह काफ़ी गहरी थी, कोई जवाब नहीं आया।

फिर बहुत-से लोगों ने एक साथ ढेले उठा-उठाकर फेंके, पर इनका भी कोई असर नहीं हुआ।

“अन्दर जाकर देखो ओए, इस तरह से पता नहीं चलेगा।" रमज़ान बोला।

“सँभलके जाओ रमज़ान उसके पास किरपान होगी।"

“उसकी माँ की..." रमज़ान ने हँसकर कहा, पर फिर भी एहतियात के लिए अपना चाकू खोल लिया। रमज़ान अन्दर घुसा तो पीछे-पीछे दो-तीन साथी और भी घुस गए।

“निकल ओए कराड़ा...!"

रमज़ान चिल्लाया। और कुछ लोग अन्दर की ओर बढ़ गए।

उन लोगों ने सारी खोह छान मारी मगर सरदार नहीं मिला। वह किसी दूसरी खोह में छिपा बैठा था।

तभी गिरोह का एक आदमी जो अभी भी टीले पर खड़ा था, चिल्ला उठा, "वह जा रहा है, उधर को गया है।" और उसने बाएँ हाथ को दो-तीन टीले छोड़कर पिछले एक टीले की ओर इशारा किया। सरदार के झिलमिलाते कपड़े उसे उस ओर नज़र आए थे।

सभी लोग उस ओर दौड़े। दो-तीन खोहों के अन्दर एक साथ ढेले पड़ने लगे। एक खोह में एक ढेला सीधा सरदार के घुटने पर लगा, वह चिल्लाया नहीं और पीछे दुबककर बैठ गया। फिर धड़ाधड़ ढेले पड़ने लगे। कोई ढेला खोह की दीवार के साथ जा लगता, कोई सीधा उसके घुटनों पर या कन्धे पर या माथे पर जा लगता। और सरदार सिसककर रह जाता। ढेले बराबर तीनों खोहों में पड़ते रहे। पर थोड़ी देर बाद एक खोह में से कराहने-बिलबिलाने की दबी-दबी आवाज़ आने लगी। अब हमलावरों को यकीन हो गया कि वह इसी खोह में दुबका बैठा है, और ढेलों की बौछार और तेज़ हो गई।

तभी एक बुद्धिमान को कोई विचार सूझा और वह चिल्लाकर बोला, “ओए, ठहरो ओए! मत मारो पत्थर!"

कुछ लोगों ने हाथ रोक लिए, इक्का-दुक्का पत्थर फिर भी पड़ता रहा।

फिर वह दानिशमन्द, खोह के मुँह के सामने आकर खड़ा हो गया और ऊँची आवाज़ में बोला, “ओ सरदार, दीन कबूल कर ले, हम तुम्हें छोड़ देंगे!"

अन्दर से कोई जवाब नहीं आया, केवल काँपती-सी कराहने की आवाज़ आती रही।

"बोल सरदार; इसलाम कबूल करेगा या नहीं? अगर मंजूर है तो अपने-आप बाहर आ जा, हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे। वरना ढेले मार-मारकर मार डालेंगे।"

अन्दर से फिर भी कोई जवाब नहीं आया। इक्के-दुक्के पत्थर अभी भी पड़ रहे थे ताकि सरदार जल्दी फैसला कर सके।

"निकल बाहर, खज़ीर के तुख्म, नहीं तो अन्दर से तेरी लाश निकलेगी।"

फिर भी चुप। अन्दर से आवाज़ नहीं आई। लोग फिर से ढेले उठाउठाकर अन्दर मारने लगे। फिर रमज़ान अली एक बड़ा-सा पत्थर उठा लाया और खोह के सामने जा खड़ा हुआ।

"अभी निकल आओ, नहीं तो इस पत्थर से भुरथा बना दूंगा।"

कुछ लोग हँस दिए। पत्थर बराबर पड़ रहे थे।

तभी खोह के अन्दर से हाथों और पैरों के बल चलता हुआ सरदार खोह के मुँह पर आ गया। उसकी पगड़ी खुलकर गले में लटक आई थी, कपड़े, मिट्टी से सने थे और जगह-जगह से फट गए थे और ढेलों के कारण उसका माथा और घुटने जगह-जगह से सूज रहे थे और ज़ख्मों में से खून रिस रहा था।

सरदार अभी भी जैसे चारों पायों पर बैठा था और उसकी आँखें इधर-उधर ताके जा रही थीं। दर्द के कारण उसका मुँह टेढ़ा हो रहा था।

"बोल, कलमा पढ़ेगा या नहीं?" रमज़ान ने कहा। वह अभी भी बड़ा-सा पत्थर हाथ में उठाए हुए था।

सरदार पहले तो भयाकुल-सा सामने की ओर फटी-फटी आँखों से देखता रहा, फिर ऊपर-नीचे सिर हिला दिया।

नूरदीन के पीछे खड़े एक आदमी ने सरदार को पहचान लिया। यह इकबालसिंह था, मीरपुर में बजाजी की दूकान करता था, इसका बाप हरनामसिंह ढोक इलाहीबख्श में चाय की दूकान करता था। शायद यह ढोक इलाहीबख्श की ओर ही भागा जा रहा था जब रास्ते में धर लिया गया। पहचानते ही वह आदमी नूरदीन के और पीछे हो गया ताकि इकलाबसिंह से उसकी नज़रें नहीं मिल पाएँ, बल्कि इसके बाद वह पीछे-पीछे ही रहा, न कुछ बोला, न पत्थर फेंका, पर साथ ही और लोगों को मना भी नहीं किया। यहाँ पर वह जानता था कि उसके मना करने का कोई असर नहीं होगा।

"मुँह से बोल मादर...! बोल, नहीं तो देख यह पत्थर अभी तेरी खोपड़ी पर पड़ेगा।"

"कलमा पढूँगा।" सिसकियों के बीच इकबालसिंह ने कहा।

तभी गगनभेदी आवाज़ उठी :

"अल्लाह-हो-अकबर!"

"नारा-ए-तकबीर! अल्लाह-हो-अकबर!" फिर सभी ने नारा लगाया।

रमज़ान ने पत्थर एक ओर को फेंक दिया। सभी ने अपने-अपने हाथ में से पत्थर फेंक दिए। रमज़ान ने हाथ आगे बढ़ाकर कहा, “उठ आ, अब तू हमारा भाई है।"

इकबालसिंह का जिस्म जगह-जगह से दर्द कर रहा था। वह अभी भी कराह रहा था। पीड़ा, घबराहट और त्राण के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था।

"आ जा, गले मिल ले।" रमज़ान ने कहा और उसे गले से लगा लिया।

रमज़ान के बाद बारी-बारी से सभी ने उसे गले लगाया। पहले सिर दाएँ कन्धे पर रखते, फिर वहाँ से उठाकर बाएँ कन्धे पर, फिर लौटाकर दाएँ कन्धे पर। बग़लगीर होने का यही मुसलमानी तरीका था। इकबालसिंह की टाँगें लड़खड़ा रही थीं और गला सूख रहा था, पर तीन-चार बार की मश्क से वह बग़लगीर होने का ढंग समझ गया।

इकबालसिंह को आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी माहौल बदल जाएगा, कि उसके खून के प्यासे लोग उसे छाती से लगाने लगेंगे।

तब वे टीलों के झुरमुट से बाहर निकल आए, रमज़ान उसे थामे हुए था। फिर वे गेहूँ के लहलहाते खेतों के बीच से उसे आगे-आगे हाँकते हुए-से ले चले। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे अपनी फतह की निशानी के तौर पर उसकी नुमाइश करते ले चलें, या एक हकीर कैदी की तरह जिसने भागने की कोशिश की और अन्त में पकड़ा गया था या एक धर्मभाई की भाँति ले चलें, जिसे उन्होंने गले लगाया था। इकबालसिंह से ठीक तरह चला नहीं जा रहा था। कुछ नहीं तो पाँच ढेले उसके बाएँ घुटने पर ही पड़े थे। माथे से भी खून रिस रहा था। एक जगह पर खेत की मेड़ पार करते समय जब वह लड़खड़ाया तो पीछे से नूरदीन ने मज़ाक में उसे धक्का दे दिया जिससे वह औंधे मुँह जा गिरा।

"देखो रमज़ानजी, मुझे अभी भी धक्के लगा रहे हैं।" उसने उठते हुए बिलबिलाकर कहा, उस बालक की तरह जिसे अच्छा व्यवहार करने की सौगन्ध खाने के बाद भी पीटा जा रहा हो।

“धक्का नहीं दो, ओए।" रमज़ान ने कहा और अपने साथियों की ओर देखकर मुस्करा दिया और आँख मारी।

“मत धक्का दो, ओए।" पीछे से किसी ने रमज़ान की नकल उतारते हुए कहा और एक छोटा-सा धक्का इकबालसिंह को फिर दे दिया।

घृणा और द्वेष इतनी जल्दी प्रेम और सद्भावना में नहीं बदल सकते, वे केवल भौंड़े हास्य और व्यंग्य में ही बदल सकते हैं। वे इकबालसिंह को पीट नहीं सकते थे तो कम से कम उसे अपने क्रूर व्यंग्य का लक्ष्य तो बना ही सकते थे।

"देखो रमज़ान भाई, किसी ने मुझे पीछे से ठोंगा मारा है।"

इकबालसिंह उस वक़्त आत्म-सम्मान के निम्नतम स्तर तक पहुँच चुका था, जब जीवन से चिपके रहनेवाला त्रस्त जीव केवल गिड़गिड़ा सकता है, रेंग सकता है, हँसने के लिए कहो तो हँस देगा, रोने के लिए कहो तो रो देगा।

तभी नूरदीन को मसखरी सूझी।

“ठहर ओए।" उसका हाथ पकड़कर रोकते हुए उसने कहा।

इकबालसिंह रुक गया और कातर आँखों से नूरदीन की तरफ़ देखने लगा।

"इसकी सलवार उतार दो। इसे नंगा गाँव में ले चलो। यह हमसे बहुत छिपता था।"

और उसने आगे बढ़कर इकबालसिंह की सलवार में हाथ डाला। कुछ लोग हँसने लगे।

"देखो रमज़ानजी..." इकबालसिंह ने रमज़ान की ओर देखकर शिकायत की।

“खबरदार ओए, किसी ने सलवार उतारी तो...” रमज़ान ने चिल्लाकर कहा।

"अभी इसने कलमा नहीं पढ़ा है। जब तक यह कलमा नहीं पढ़ता यह काफिर है, मुसलमान नहीं है। उतारो इसकी सलवार।"

रमज़ान को अपना पक्ष लेते देखकर इकबालसिंह का हौसला बढ़ गया। वह भी उचककर बोला, “नहीं उतारने दूंगा सलवार। कर लो जो मेरा करना है।"

इस पर कुछ लोग हँस दिए।

इसी तरह इकबालसिंह के साथ खिलवाड़ करते, उसे ज़लील करते हुए वे गाँव पहुँचे।

इमामदीन तेली के डेरे पर तबलीग की रस्म अदा की जाने लगी। गाँव का नाई भी पहुँच गया, मस्ज़िद का मुल्ला भी पहुँच गया। तेली के घर के आँगन में पूरी भीड़ जमा हो गई।

नाई की उँगलियाँ थक गईं, बाल काटे नहीं कटते थे, भीड़ के बीचोबीच ज़मीन पर बैठा इकबालसिंह फिर से उद्भ्रान्त हो उठा था। शुरू-शुरू में नाई कैंची से बाल काटता रहा, फिर घोड़े के गोबर और मूत से उसके बालों के गुच्छे अलग-अलग से बाँधकर बाल काटता रहा, अन्त में वह घोड़ों के बाल काटनेवाली बड़ी मशीन ले आया। मशीन चली तो इकबालसिंह की खोपड़ी पर लहरिये-से बनने लगे। फिर उस्तरे से उसकी चाँद साफ की गई। इसके बाद इकबालसिंह को गर्दन सीधी करने का मौका मिला। दाढ़ी को काटा नहीं गया। जब दाढ़ी कतरने का वक्त आया तो बहुत-सी आवाजें एक साथ सुनाई देने लगीं:

“दाढ़ी की काट मुसलमानी होनी चाहिए।"

"ख़त निकालकर दाढ़ी काटो, मूंछे पतली कर दो।"

इकबालसिंह का पिचका हुआ चेहरा उसकी डरी हुई त्रस्त आँखों के बावजूद सचमुच मुसलमानी नज़र आने लगा था।

तभी भीड़ में से अपना रास्ता बनाता हुआ नूरदीन अन्दर आया। जब इकबालसिंह के बाल काटे जाने लगे थे तो वह बीच में से निकल गया था और किसी को पता नहीं चला था। लेकिन अब वह लौट आया था और लोगों को धकेल-धकेलकर अन्दर घुस रहा था।

"हटो ओए आगे से, रास्ता दो।"

अन्दर आते ही वह सीधा इकबालसिंह के पास बैठ गया। बाएँ हाथ से इकबालसिंह का मुँह खोला और दाएँ हाथ में पकड़ा मांस का बड़ा-सा टुकड़ा, जिसमें से टप-टप खून की बूंदें चू रही थीं, इकबालसिंह के मुँह में डाल दिया। इकबालसिंह की आँखें बाहर आ गईं। उसका साँस रुक रहा था।

“खोल मुँह, तेरी माँ की...खोल मुँह।...अब चूस जा इसे मादर..."

और नूरदीन लोगों की तरफ़ देखता हुआ अपने लाल मसूड़े दिखाता खी-खी करके हँसने लगा।

तभी मुल्ला और गाँव के एक बुजुर्ग सामने आ गए। बुजुर्ग ने नूरदीन को वहाँ से डाँटकर उठा दिया, "हटो यहाँ से, तुम दीन कबूल करनेवाले अपने भाई को परेशान कर रहे हो।"

बुजुर्ग के अन्दर आ जाने से सारा दृश्य बदल गया। लोग पीछे हट गए। इकबालसिंह को सँभालकर उठाया गया। एक आदमी खाट उठा लाया और उसे खाट पर बैठाया गया। बाकी की रस्म बड़ी सावधानी से सर-अंजाम दी जाने लगी।

तसबीह, हाथ में लिये मुल्ला ने इकबालसिंह से कलमा पढ़वाया-

"ला इलाह इल्लिल्ला,
मुहम्मद रसूल अल्ला!"

तीन बार कलमा दोहराया गया। आसपास खड़े लोगों ने उँगलियों को आँखों से लगाया, फिर उन्हें चूम लिया। फिर एक-एक करके बीसियों आदमी उससे बग़लगीर हुए।

इसके बाद जुलूस की शक्ल में उसे कुएँ पर ले जाया गया, गुसल के बाद नए कपड़े पहनने को दिए गए।

जब नहाकर नए साफ़ कपड़े पहनकर निकला तो इकबालसिंह सचमुच इकबाल अहमद नज़र आने लगा। लोगों ने फिर नारे लगाए :

"नारा-ए-तकबीर! अल्लाह-हो-अकबर!"

जुलूस फिर इमामदीन तेली के घर की ओर रवाना हुआ। वातावरण में गहरी संजीदगी और धर्म-भावना काँप रही थी। दिन ढलते-ढलते इकबाल अहमद की सुन्नत हुई। उसके लिए इस दर्द को बर्दाश्त करना बहुत कठिन नहीं रह गया था। बुजुर्ग सारा वक़्त उसे सहारा दिए हुए थे, और सुन्नत के वक़्त बार-बार उसके कान में कह रहे थे, “तेरा निकाह कराएँगे। बड़ी खूबसूरत औरत तुम्हें देंगे, कालू तेली की बेवा तेरी उम्र की है-जवान, गठीली। उसे देखकर तेरी रूह खुश हो जाएगी। अब तू हमारा अपना है, अब तू शेख है, शेख इकबाल अहमद!"

शाम ढलते-ढलते इकबालसिंह के शरीर पर से सिखी की सब अलामतें दूर कर दी गई थीं और मुसलमानी की सभी अलामतें उतर आई थीं। पुरानी अलामतें हटाकर नई अलामतें लाने की देर थी कि इनसान बदल गया था, अब वह दुश्मन नहीं था, दोस्त था, काफिर नहीं था, मुसलमान था। मुसलमानों के सभी दरवाज़े उसके लिए खुल गए थे।

खाट पर पड़ा इकबाल अहमद रात-भर छटपटाता रहा।

  • तमस (उपन्यास) : द्वितीय खंड (अध्याय 18-21 ) : भीष्म साहनी
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