तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

Tamas (Hindi Novel) : Bhisham Sahni

तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड : भीष्म साहनी

तमस (उपन्यास) : ग्यारह

देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। देवदत्त के दिमाग में डायरी थी। वह हाथ मलता, नाक सहलाता डायरी में एक के बाद एक काम टाँक रहा था। 'रत्तेवाले साथी से रिपोर्ट नहीं आ पाएगी, रत्ते में गड़बड़ है। किसी साथी को वहाँ भेजना होगा।' __ 'शहर में दंगों को रोकने के लिए एक बार फिर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के लीडरों को इकट्ठा करना होगा। हयातबख्श और बख्शी को आपस में मिलाना होगा। कल भी देवदत्त जैसे-तैसे बहुत-से लोगों के घर बारी-बारी से गया था। राजाराम ने उसे देखते ही दरवाज़ा बन्द कर दिया था, रामनाथ तुनककर बोला था, कम्युनिस्टों को बुरा-भला कहता रहा था पर हयातबख्श मिलने के लिए तैयार हो गया था; हयातबख्श की आँखें लाल हो रही थीं, वह नारे लगाने लगा था; 'लेके रहेंगे पाकिस्तान!' 'बनके रहेगा पाकिस्तान!' उसने देवदत्त को बात करने का मौका ही नहीं दिया था। आज उनके पास फिर जाना होगा।' देवदत्त ने फिर हाथ मले, नाक सहलाई। बख्शीजी को हयातबख्श के पास भेजो, अटल को साथ लेकर बख्शीजी के पास जाओ और अमीन को लेकर हयातबख्श के पास। फिर तजवीज़ रद्द कर दी। लीडरों को छोड़ो, दस-दस आदमी कांग्रेस, मुस्लिम लीग और सिंह सभा के मिल बैठे। उसने सिर हिलाया। पार्टी आफिस में जाकर साथियों के साथ इसे अमली जामा पहनाना होगा। एक और मसला सामने उतरा : मज़दूरों के इलाकों में गड़बड़ को रोकने के लिए एक-एक साथी काफ़ी नहीं है। रत्ता मुसलमानी इलाका है। वहाँ साथी जगदीश को भेजा गया है, अकेला जगदीश काफ़ी नहीं है; गाँवों में फौरन दो-तीन साथी भेजे जाने चाहिए जो एक गाँव से दूसरे गाँव का दौरा करें। साथियों की कमी है, मगर जहाँ तक बन पड़े दंगों को रोकने का काम करना होगा। उसने फिर नाक पर हाथ फेरा, फिर कलाई पर बँधी घड़ी देखी। कम्यून में दस बजे मीटिंग है, जिसमें साथी अपने-अपने इलाके की रिपोर्ट देंगे। अब चलूँ। देवदत्त चुपचाप अन्दर जाकर चुपके से बरामदे में से साइकल निकालने लगा।

"कौन है? देवदत्त?"

देवदत्त ने साइकल को छोड़ दिया और कमरे के अन्दर चला गया।

"फिर कहीं जा रहे हो?" खाट पर बैठा अधेड़ उम्र का स्थूलकाय बाप बोला, “मरना चाहते हो तो पहले अपने घरवालों को मारकर जाओ। देखते नहीं बाहर की क्या हालत हो रही है?"

देवदत्त दहलीज़ पर चुपचाप खड़ा हाथ मलता और नाक सहलाता रहा। माँ रसोईघर में से दुपट्टे के साथ हाथ पोंछती अन्दर आई, "तुझे क्या मिलता है हम लोगों को तड़पाने में? देखते नहीं कैसे हमने रात काटी है, उधर से आग, उधर तुम रात-भर गायब रहे।"

देवदत्त हाथ रगड़कर बोला, “पीछे से मरी रोड तक और आगे से कम्पनी बाग तक सारा इलाका हिन्दुओं का है। चारों तरफ़ खाते-पीते हिन्दू लोग रहते हैं। आप लोगों को कोई खतरा नहीं।"

"तुझे इलहाम हो गया है कि हमें कोई खतरा नहीं?" बाप गुर्राकर बोला।

“इस लाइन में दस घरों के पास बन्दूकें हैं, इसी मुहल्ले के युवकसभावाले तीन क़त्ल कर चुके हैं..."

"ओ उल्लू के पठे, अपने ख़तरे के बारे में कौन सोच रहा है? हम तो तेरे ख़तरे के बारे में सोच रहे हैं।"

“ऐसी खतरे की कोई बात नहीं।" और देवदत्त फिर लौटकर बरामदे में आ गया और साइकल निकालने लगा।

माँ ने दुपट्टा गले में डाल लिया और उसका रास्ता रोकने लगी।

“सारी रात मैंने तड़प-तड़कर बिताई है। देखता नहीं कौन-पा वक्त ऊपर आया है?" मसला टेढ़ा हो रहा था, देवदत्त ने फिर नाक सहलाई, हाथ मले और माँ के पास मुँह ले जाकर बोला, "मैं जल्दी लौट आऊँगा, तू चिन्ता न कर।"

"मुझे चरकाता है, कल भी कहके गया था, लौट आऊँगा। मेरे जिस्म को हाथ लगाके कह, दिन ढलने से पहले लौट आएगा?"

“लौट आऊँगा, लौट आऊँगा, कसमें मैं नहीं खाता।" और वह साइकल लेकर आगे बढ़ने लगा। अन्दर से पिताजी की आवाज़ आई :

"यह हरामी नहीं मानेगा, क्यों सिर खपा रही है? यह हमें ज़लील करके रहेगा। सुअर का बच्चा, माँ-बाप का ख्याल नहीं, फसाद बन्द करने जा रहा है, हरामी कहीं का...।"

देवदत्त साइकल लेकर घर के बाहर आ चुका था।

अन्दर से आवाज़ बराबर ऊँची होती जा रही थी।

"सभी गालियाँ देते हैं, न काम, न धाम। दो-दो पैसे के पाँड़ियों, मज़दूरों, कुलियों को इकट्ठा करता फिरता है, उन्हें लेक्चर झाड़ता फिरता है, हरामी, मुँह पर दाढ़ी नहीं उतरी, लीडर बन गया है, सुअर का बच्चा...।"

देवदत्त चौक तक पहुँच चुका था।

स्थिति में पहले से कहीं अधिक उग्रता आ गई थी। सड़कों की सड़कें सूनी पड़ी थीं, न कोई दूकान खुली थी, न कहीं कोई टाँगा-मोटर चल रही थी। अगर किसी दूकान के किवाड़ खुले हों तो समझ लो लूट ली गई है। अगर लाठियाँ लिये कुछ लोग खड़े हों तो समझ लो उन्हीं के सम्प्रदाय के लोगों का वह मुहल्ला है और जहाँ वे खड़े हैं, वहाँ से दूसरे सम्प्रदाय के लोगों का मुहल्ला शुरू हो जाता है। पर सभी मुहल्ले यों बँटे हुए नहीं थे। सड़क के किनारे-किनारे के पक्के दो-मंजिला मकान हिन्दुओं के, पीछे गलियों में कच्चे मकान मुसलमानों के, या देवदत्त की शब्दावली में, सड़कों पर खुलनेवाले मकान मध्यमवर्ग के, गलियों में खुलनेवाले मकान निम्नवर्ग के।

"देवदत्त!" चौक के बाएँ हाथ से किसी ने आवाज़ लगाई। साइकल पर बैठे-बैठे ज़मीन पर पैर रखकर देवदत्त रुक गया।

“आगे मत जाओ, एक आदमी मरा पड़ा है।"

हाथ में लाठी उठाए, गिठने क़द का एक आदमी सड़क पर आ गया।

“कहाँ पर?"

"चौक के पार, ढलान पर।"

"कौन है?"

"मुसलमान है, और कौन? तुम इस वक़्त कहाँ जा रहे हो?"

"मैं अपने काम से पार्टी ऑफ़िस जा रहा हूँ।"

"एक हिन्दू उस तरफ़ क़ब्रिस्तान में मरा पड़ा है।" कहते हुए ठिगने क़द के आदमी ने झुंझलाकर कहा, “तुम बड़ा मुसलमानों के हक में बोलते थे, अब उनसे जाकर कहो हमारी लाश ले जाएँ, अपनी उठा ले जाएँ।"

दाएँ हाथ ऊपर छज्जे पर से आवाज़ आई, “मत आओ, वे लोग मार डालेंगे।"

"यह मुसलमानों की बग़ल में घुसा रहता है, इसे कोई नहीं मारेगा।"

“है तो हिन्दू।" छज्जे पर से आवाज़ आई।

जो लोग पहले छिप-लुककर काम करते थे, अब बेधड़क बाहर आ गए थे।

“उनसे जाकर कह दो, हमारा एक मरेगा, हम उनके तीन मारेंगे।"

आदमी शायद मरा नहीं था, सिसक रहा था। ढलान पर उसका शरीर थोड़ा नीचे खिसक आया था। उसके दाढ़ी थी जो पहले खिचड़ी रही होगी, अब खून के रंग की थी। खाकी कोट पर जिस्त के बटन थे, सबसे सस्ते जो एक पैसे के आठ आते हैं। जूतों के फीते खुले थे मानो अगले जहान जाने से पहले खुद ही खोल दिए हों। कोई कश्मीरी जान पड़ता था। देवदत्त ने मुड़कर सड़क की ओर देखा, सड़क के नाके पर एक टोली खड़ी थी और उसे घूरे जा रही थी। दूसरी बार लाश को देखने पर उसने पहचान लिया, यह कश्मीरी हतो है जो फतहचन्द के टाल पर काम करता था, कोयला और लकड़ियाँ घर-घर पहुँचानेवला। फतहचन्द का टाल कुछ ही दूरी पर था।

देवदत्त ने नाक सहलाई और सिर हिला दिया। यह वक्त इस आदमी को बचाने की कोशिश करने का या लाश ठिकाने लगाने का नहीं था। न ही हिन्दू की लाश के दर्शन करने का था। यह वक्त पार्टी-ऑफिस में पहुँचने का था।

पार्टी-ऑफ़िस में झंडे ही झंडे थे, आदमी ले-देकर तीन बैठे थे। कम्यून में कुल आठ आदमी थे। इस समय पाँच ड्यूटी पर थे। एक बुरी खबर भी थी। एक मुसलमान कामरेड का विश्वास टूट चुका था और वह कम्यून छोड़कर जा रहा था। अपनी बात कहते-कहते उसके होंठ काँप-काँप जाते थे और गुस्से से आगबबूला हो रहा था :

"अंग्रेज़ की शरारत, अंग्रेज़ की शरारत, इसमें अंग्रेज़ कहाँ से आ गया! मस्ज़िद के सामने सुअर फेंकते हैं, मेरी आँखों के सामने तीन गरीब मुसलमानों को काटा है, हटाओ जी, सब बकवास है।"

देवदत्त बौखलाए हुए कामरेड को इतना ही कह पाया, "जल्दबाजी में कोई काम नहीं करो साथी, हम मध्यमवर्ग के लोग हैं, पुराने संस्कारों का हम पर गहरा प्रभाव है। मजदूर वर्ग के होते तो हिन्दू-मुसलमान का सवाल तुम्हें परेशान नहीं करता।" पर साथी ने बुचका उठाया और कम्यून छोड़कर निकल गया।

“साथी का सैद्धान्तिक आधार कच्चा है। जज़्बात की रौ में बहकर कोई कम्युनिस्ट नहीं बनता, इसके लिए समाज विकास को समझना ज़रूरी है।"

मीटिंग शुरू हुई। 'शहर की स्थिति' पहला आइटम था। इसमें भी मज़दूर बस्तियों पर विचार करना सबसे पहले ज़रूरी था।

“रत्ते में गड़बड़ की बात गलत है। किसी मज़दूर बस्ती में अभी तक कोई गड़बड़ नहीं हुई, हाँ तनाव पाया जाता है। साथी जगदीश मुसलमान मजदूरों की बस्ती में बैठा है, लोग अभी भी उसकी बात सुनते हैं, सिख मज़दूरों के वहाँ बीस घर हैं, एक भी वारदात वहाँ पर अभी तक नहीं हुई; लेकिन साथी जगदीश ने इत्तला दी है कि स्थिति बिगड़ रही है। दो मज़दूरों के बीच कल गाली-गलौज हो गई थी। बाहर से आनेवाली अफवाहें बहुत बुरा असर पैदा कर रही हैं।"

फैसला हुआ कि क़ुर्बानअली को भी रत्ते में भेज दिया जाए ताकि साथी जगदीश अकेला न रहे। और देवदत्त ने काग़ज़ पर फैसला आँक लिया।

'दारा' गाँवों में जा चुके हैं। कोई खबर नहीं। आमदरफ्त बन्द हो चुकी है। केवल एक मोटर, गहरे नीले रंग की मोटर गाँव-गाँव जाती देखी गई है। किसकी मोटर थी, क्यों गई, कुछ मालूम नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि शाहनवाज़ की मोटर थी।

मीटिंग देर तक चलती रही। तीनों कामरेड देर तक देवदत्त के साथ बैठे विचार करते रहे, कॉपी पर एक-एक आइटम पेंसिल से टिक होता गया। फिर अन्तिम आइटम सामने आया :

"सभी पार्टियों के नुमाइन्दों की मीटिंग बुलाना!"

"यह मीटिंग नहीं हो सकेगी," एक साथी बोला, “कांग्रेस दफ्तर पर ताला चढ़ा है। लीगवालों से बात करो तो पाकिस्तान के नारे लगाने लगते हैं। वे हर बात में कहते हैं, पहले कांग्रेसवाले कबूल करें कि कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है, फिर हम उनके साथ बैठने के लिए तैयार हैं। और इस वक्त तो अपने-अपने मुहल्लों से कोई बाहर ही नहीं निकल रहा। मीटिंग किसके साथ करोगे?"

नाक फैलाते हुए देवदत्त ने फिर मत बदल लिया : दस-दस नुमाइन्दोंवाली बात नहीं चलेगी, चुनिन्दा-चुनिन्दा लीडरों को ही जैसे-तैसे इकट्ठा करो। उन्हीं के साथ कुछ लोग आ जाएँगे।

“कोई नहीं आएगा, कामरेड,” दूसरे साथी ने कहा, “अगर आएँगे भी तो तू-तू, मैं-मैं होगी, नतीज़ा कुछ नहीं निकलेगा।"

“कामरेड, उनके मिल बैठने से ही लोगों पर अच्छा असर होगा। फिर हम उनके नाम से शहर में अमन कायम करने की अपील कर सकते हैं। मुहल्ले-मुहल्ले में उसकी मुनादी करवा सकते हैं। इस वक्त क्या है? इस वक्त फसाद और खुली मार-काट नहीं हो रही, लेकिन जहाँ इक्का-दुक्का आदमी मिलता है उसे काट दिया जाता है। उन्हें आपस में मिलाना निहायत ज़रूरी है।..."

कुछेक और पहलुओं पर विचार किया गया। कहाँ पर मीटिंग बुलाई जाए? फैसला हुआ हयातबख्श के घर पर। "मैं बख्शीजी को लाऊँगा। मुसलमानों के मुहल्ले में पहुँचने पर साथी अज़ीज़ मुहल्ले के दो-तीन मुसलमान शहरियों को लेकर मिलेगा और हम सब हयातबख्श के घर जाकर बैठेंगे।"

“हयातबख्श के साथ बात कर ली है?"

"अभी जाकर बात करूँगा।"

"कामरेड, तुम किस दुनिया में रह रहे हो। हयातबख्श के घर पर तुम जाओगे? वहाँ तक तुम्हें पहुँचने कौन देगा?"

"तुम मेरे साथ चलोगे।" देवदत्त ने मुस्कराकर अज़ीज़ से कहा। "ये पानी के छींटे हैं कामरेड, इनसे यह आग नहीं बुझेगी।"

पर मीटिंग के बाद सचमुच देवदत्त और अज़ीज़ गलियाँ लाँघते, छिपते-लुकते कहीं गालियाँ खाते, कहीं धमकियाँ सुनते हयातबख्श के घर जा पहुंचे।

और सचमुच उस दोपहर को हयातबख्श के घर मीटिंग भी हुई। बख्शीजी को देवदत्त लाया, किसी और कांग्रेसी से देवदत्त कहता तो वह शायद नहीं आता, देवदत्त को विश्वास था कि बख्शी आएगा क्योंकि वह कुल मिलाकर सोलह साल जेल में रह चुका था। भले ही उसका जेहन साफ़ न हो, राजनीतिक गुत्थियाँ सुलझाने में वह असमर्थ हो लेकिन वह खूरेज़ी नहीं चाहता। वह तुनक-तुनककर पिछले दिनों में सबसे बोल रहा है, क्योंकि वह बौखलाया हुआ है, अन्दर से परेशान है, स्थिति उसके काबू में नहीं है। देवदत्त के साथ आते हुए सारे रास्ते कम्युनिस्टों को गालियाँ देता रहा, पर वह आया था और उसके साथ दो जवान कांग्रेसी और भी आए और मीटिंग हुई। और तू-तू मैं-मैं भी हुई, और आधा घंटे तक हयातबख्श इस बात पर अड़ा रहा कि बख्शी कबूल करे कि वह हिन्दुओं की नुमाइन्दगी करने आए हैं, कि कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है। फिर देवदत्त ने कहा, "साहिबान, यह मौका इन बहसों में पड़ने का नहीं है। बाहर लोग मर रहे हैं, घर जल रहे हैं, सुनते हैं आग गाँवों में भी फैलनेवाली है। इस वक़्त हमारा फर्ज़ है? मैं गुज़ारिश करूँगा कि हम वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए इस आग को फैलने से रोकें।" फिर देवदत्त ने अमन की अपील पढ़कर सुनाई। बहस फिर से छिड़ गई। यह कांग्रेस और लीग की तरफ़ से नहीं हो सकती। यह हयातबख्श और बख्शी की तरफ़ से हो सकती है। नहीं, इसमें और लोगों को भी शामिल किया जाए।...

फिर लोग थक गए, और हयातबख्श के कान में उसके बेटे ने कहा कि अपील पर दस्तख़त करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, अमन की अपील ही तो है। तो उसने दस्तख़त कर दिए। बख्शी ने भी दस्तख़त कर दिए। फिर पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे लगे और इन्हीं नारों के बीच बख्शीजी अभी जूता पहन रहे थे कि खबर आई कि रत्ते में, मज़दूरों की एक बस्ती में भी फसाद हो गया है, और दो सिख बढ़ई मार डाले गए हैं...।

पहले तो देवदत्त ने ख़बर को झूठ कहा, मानने से इनकार कर दिया। "वहाँ पर दंगा आपने देखा है? अपनी आँखों से? कौन ख़बर लाया है?" यह वाक्य तो वह अन्त तक दोहराता रहा, पर उसका सिर झुक गया, और उसे लगा कि अगर मज़दूर आपस में लड़ सकते हैं, तो यह विष बहुत गहरा असर कर चुका है। तो फिलहाल इस मीटिंग को पानी पर खिंची लकीर ही समझना चाहिए।

और तभी देवदत्त ने मन ही मन फैसला किया कि दफ़्तर से साइकल उठाओ और सीधे रत्ता पहुँचो, जैसे भी हो रत्ता पहँचो, अकेले साथी जगदीश के बस की यह बात नहीं रह गई है। मेरे पहुंचने से शायद स्थिति बेहतर हो जाए, मज़दूर आपस में न लड़ें।

पर जब देवदत्त जैसे-तैसे दफ्तर में पहुँचा तो उसका बाप वहाँ पहले से मौजूद था। हाथ में छड़ी उठाए हुए। और जब देवदत्त ने स्थिति का मार्सा विश्लेषण किया और बताया कि दंगा रोकने की कोशिश जारी है और फिर साइकल निकालने लगा, तो उसका बाप बिफर उठा, "उल्लू के पट्टे, हरामी, कोई मार डालेगा तो लाश उठानेवाला भी नहीं मिलेगा। तू देखता नहीं, वक़्त कैसा जा रहा है। हरामी, तू अकेला दंगा रोकने जा रहा है?..." और बाप ने गली में खुलनेवाला दरवाज़ा बन्द कर दिया। उसका मन चाहता था बेटे को धुन दे। उसने छड़ी उठाई भी, पर फिर दहाड़ मारकर रो पड़ा, "क्यों हमें रुला रहा है? हमारा तू एक ही बेटा है। कुछ समझ से काम ले। कुछ अकल कर। देख, तेरी माँ कितनी परेशान है। तू कहता है तो पगड़ी तेरे पैरों पर रख देता हूँ। चल घर।"

देवदत्त ने नाक सहलाई, हाथ मले, स्थिति टेढ़ी हो रही थी। किसी को बीच में डालना होगा। इन्हें घर तक पहुँचाना होगा।

“मुझे रत्ता जाना है," वह बोला, “मैं रुक नहीं सकता। पर मैं आपको घर पहुँचाने का इन्तज़ाम किए देता हूँ, साथी रामनाथ आपके साथ जाएगा।"

उसी दोपहर एक और मौत हुई। जरनैल मारा गया। सनकी तो वह पहले ही था, बग़ल में छड़ी दबाए, लेफ्ट-राइट करता हुआ दंगा रोकने निकल पड़ा। कोई नहीं जानता कि उसके मन में कोई विचार उठते थे या नहीं, पर दिल में वलवले ज़रूर उठते थे और क़दम ज़रूर उठते थे, और दिमाग में शायद सनक उठती थी। शहर में दंगा हो रहा है, यह क्या कोई अच्छी बात है और वे सभी कांग्रेसी गद्दार हैं जो घर पर बैठे हुए हैं।

वह निकला और जगह-जगह सड़क के किनारे कभी एक चबूतरे पर तो कभी दूसरे चबूतरे पर खड़ा होकर लेक्चर देने लगा।

“साहिबान, मैं आपको इत्तला देना चाहता हूँ कि श्री जवाहरलाल नेहरू जी ने रावी के किनारे पूर्ण स्वराज्य की शपथ ली थी, और वह वहाँ रावी के किनारे नाचे थे और मैं भी नाचा था और हम सबने शपथ ली थी। आज जो लोग घरों में बैठे हैं वे सब गद्दार हैं, मैं एक-एक को जानता हूँ। मैं पूछता हूँ ये लोग घरों में बैठे क्या कर रहे हैं? इन्हें बुर्का पहनकर बैठना चाहिए, इनको अपने हाथों पर मेहँदी लगानी चाहिए। साहिबान, गांधीजी ने कहा है कि हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं। इन्हें आपस में नहीं लड़ना चाहिए। मैं आपसे, बच्चे, बूढ़े, जवान, मर्द और औरतों सभी से अपील करता हूँ कि आपस में लड़ना बन्द कर दें। इससे मुल्क को नुकसान पहुँचता है। देश की दौलत इंगलिस्तान में जाती है, अंग्रेज़-यह गोरा बन्दर, हम पर हुक्म चलाता है..."

एक चबूतरे से दूसरे चबूतरे पर। गलियाँ-सड़कें लांघता वह कमेटी मुहल्ले में जा पहुंचा। उधर दिन ढल रहा था। वह वाअज़ कर रहा था जब कुछ मनचले आकर खड़े हो गए थे। जरनैल को कुछ मालूम नहीं था वह किस मुहल्ले में है, कहाँ है।

“साहिबान, मैं आपसे कहता हूँ कि हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं, शहर में फसाद हो रहा है, आगजनी हो रही है और उसे कोई रोकता नहीं। डिप्टी कमिश्नर अपनी मेम को बाँहों में लेकर बैठा है और मैं कहता हूँ कि हमारा दुश्मन अंग्रेज़ है। गांधीजी कहते हैं कि वही हमें लड़ाता है और हम भाई-भाई हैं। हमें अग्रेजों की बातों में नहीं आना चाहिए। और गांधीजी का फर्मान है कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा। मैं भी यही कहता हूँ कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा, हम एक हैं, हम भाई-भाई हैं, हम मिलकर रहेंगे..."

"तेरी माँ की..." आसपास खड़े लोगों में से एक ने कहा और लाठी के एक ही भरपूर वार से जरनैल की खोपड़ी फोड़ दी। छड़ी कहाँ गई, और फटी हुई मूँगिया पगड़ी कहाँ गई और फटी हुई चप्पलें कहाँ गईं, और फिकरा ख़त्म किए बिना ही जहाँ जरनैल खड़ा था वहीं ढेर हो गया।

तमस (उपन्यास) : बारह

एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड़क आ गई थी।

लाठियाँ, कुल्हाड़ी, छुरे, तीर-कमान और गुलेलें-इन हथियारों के बावजूद 'शस्त्रागार' खाली-खाली लग रहा था। कमरे के बाहर, सीढ़ियों से थोड़ा हटकर चूल्हे पर तेल का कड़ाहा रखा था, पर लकड़ियाँ कम पड़ जाने के कारण तेल को उबालने का विचार कल ही छोड़ दिया गया था।

"जो आज्ञा, सरदार!" शम्भू ने कहा और छज्जे पर चला गया।

चारों योद्धाओं के दिल कसमसा रहे थे। रणभूमि में उतरने का और अपने जौहर दिखाने का समय आ गया था। छज्जे के पीछे खड़े वे वैसा ही महसूस कर रहे थे जैसा चट्टानों की आड़ में खड़े राजपूत नीचे हल्दी घाटी में आनेवाले म्लेच्छों का इन्तज़ार करते हुए महसूस करते रहे होंगे। म्लेच्छों पर टूट पड़ने का वक्त आ गया था।

रणवीर क़द का छोटा था इसलिए वह मन-ही-मन शिवाजी की भूमिका में अपने को देखा करता था। छाती पर दोनों बाँहें बाँधे, तिरछी आँखों से वह सड़क और सड़क के आस-पास के इलाके का जायजा लिया करता था। किसी-किसी वक़्त उसके मन में ललक उठती कि कमर में तलवार लटकती हो, चौड़ा कमरबन्द हो, अँगरखा हो, और सिर पर पीले रंग की पगड़ी हो, और उस पर शिरस्त्राण हो। ढीला-सा पाजामा पहनकर इतने बड़े संग्राम में भाग लेना बड़ा अटपटा लगता था। पाजामा और सीधी-सादी कमीज़ और नीचे फटी हुई चप्पल वीर सैनिक का बाना नहीं था। पर जो अधिकार-भाव उसकी वेशभूषा में नहीं था, उसे रणवीर ने कड़ककर हुक्म देनेवाली अपनी आवाज़ से पूरा कर लिया था। फौज़ के कमांडरों की तरह हुक्म देता था और दल के सभी सदस्यों को कड़े अनुशासन में रखता था। पीछे-पीछे हाथ बाँधे, तनिक झुककर, गहरी चिन्ता में खोया हुआ वह 'शस्त्रागार' में ऊपर-नीचे टहलता, वैसे-ही-जैसे औरंगजेब के साथ लोहा लेने से पहले शिवाजी टहलते रहे होंगे।

“सरदार!"

रणवीर ने घूमकर देखा। मनोहर खड़ा था जो कुछ देर पहले एक-एक गुलेल के पास एक-एक ढेरी कंकड़ों की लगा रहा था।

"लकड़ियाँ कम पड़ गई हैं। तेल नहीं उबल सकता।"

"क्या कोयला भी नहीं है?"

"नहीं, सरदार।"

रणवीर कमरे में पीठ पीछे हाथ बाँधे कुछ देर तक टहलता रहा। रणनीति यही कहती है कि निर्णय अविलम्ब किया जाना चाहिए। स्थिति को पहचान लेना, उसकी तह तक जा पहुँचना और तत्परता से निर्णय कर लेना नेता के लिए अनिवार्य है।

"अपने घर से उठा लाओ। जो भी मिले, लकड़ी या कोयला, और जितना भी मिले, उठा लाओ। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिए।"

मनोहर ठिठका खड़ा रहा।

"क्या है?"

"अगर माँ नहीं लाने दे, तो?"

इस पर सरदार शस्त्रागार' के बीचोबीच खड़ा मनोहर के चेहरे की ओर देखने लगा, फिर कड़ककर बोला, “मेरे मुँह की ओर क्या देख रहे हो? जहाँ से जो हो, लकड़ी लाओ!"

“जो आज्ञा, सरदार।" मनोहर ने कहा और पीछे हट गया।

"मगर अभी रुक जाओ। इस वक़्त जाने की ज़रूरत नहीं है।" और तभी तेल उबालने का विचार स्थगित कर दिया गया था।

'शस्त्रागार' एक दोमंज़िले घर की ऊपरवाली मंज़िल में बनाया गया था जो खाली पड़ी थी। निचली मंज़िल में शम्भू के बूढ़े दादा-दादी रहते थे। ऊपरवाली मंज़िल का छज्जा सड़क पर खुलता था, और सड़क के किनारे पीपल का सुन्दर पेड़ था जिससे छज्जा बहुत-कुछ ढका रहता था। पर घर के अन्दर जाने का रास्ता एक गली में से था जो पीपल के पेड़ के सामने ही अन्दर चली गई थी। यह गली टेढ़ी-मेढ़ी थी, अँधेरी और सँकरी थी। सड़क पर से जानेवाला व्यक्ति गली में खो-सा जाता था। रणवीर को इसकी स्थिति समझाते हुए शम्भू ने इसे 'चक्रव्यूह' के प्रवेश की संज्ञा दी थी और दल की सरगर्मियों के लिए इसे सबसे ज़्यादा उपयुक्त बताया था। गली थोड़ी दूर जाकर बाएँ हाथ को मुड़ गई थी। मोड़ पर किसी पीर का टूटा हुआ मज़ार था और मज़ार के सामने एक बूढ़ा मुसलमान रहता था जिसकी दो बीवियाँ थीं। आगे चले जाओ तो पानी का नल आता था जो दोपहर के वक़्त बन्द रहता था। चार बजे दोपहर तक नल पर कोई जीव नज़र नहीं आता था। नल के आगे सभी मकान हिन्दुओं के थे, केवल गली के अन्त में दो-तीन कच्चे मकान थे जिनमें मुसलमान रहते थे। एक में महमूद धोबी रहता था, दूसरे में रहमान हमामवाला। इसके अतिरिक्त जगह-जगह से दाएँ-बाएँ अन्य गलियाँ निकल गई थीं। अगर म्लेच्छ पर हमला इस गली में किया जाएगा तो वह पानी के नल और गली के छोर के बीच के हिस्से में ही किया जा सकता है। ख़तरा हो तो किसी-न-किसी हिन्दू के घर की ड्योढ़ी में घुसा जा सकता है।

"तुम गली में रहनेवाले म्लेच्छों को जानते हो?"

रणवीर ने शम्भू से पूछा था।

“हाँ सरदार, मैं इन्हें जानता हूँ। महमूद धोबी हमारे घर के कपड़े धोता है, और पीर की क़ब्र के सामने जो मियाँजी रहते हैं वे मेरे दादाजी के साथ बहुत उठते-बैठते हैं।"

“तुम इस गली में काम नहीं करोगे।" रणवीर ने निर्णायक स्वर में कहा। शम्भू हतोत्साह हो गया।

आज ये लोग अपने पहले शिकार पर धावा बोलनेवाले थे। चारों वीर उत्तेजित थे। अभी तक केवल तैयारी चलती रही थी, आज रणभूमि में जौहर दिखाने का समय आ गया था। “आज रण में जाके धूम मचा दे बेटा!" धर्मदेव के कानों में वीररस भरे इस गीत की पंक्ति देर से गूंज रही थी। मनोहर तनिक चिन्तित था। वह अपनी माँ से कुछ भी कहे बिना चला आया था, और अब दिन के दो बजा चाहते थे और मनोहर को डर था कि चौका समेटने के बाद उसकी माँ उसे ढूँढ़ने निकल पड़ेगी और कौन जाने ढूँढ़ती-ढूँढ़ती इधर ही आ निकले?

रणवीर ने अन्य तीनों योद्धाओं को 'शस्त्रागार' में इकट्ठा किया और रणनीति पर विचार करते हुए बोला, “शत्रु पर उबलता तेल डालने का समय अभी नहीं आया है। उबलता तेल उस समय डाला जाता है जब शत्रु अपने दुर्ग पर हमला कर दे और आप हथियारों से उसका मुकाबला न कर सकते हों।" फिर उसने तनिक सोचकर कहा, “यहाँ केवल छुरा चलेगा, कमानीदार छुरा।"

फिर उसने इन्द्र को सम्बोधित करके कहा, “एक बार फिर पैंतरा करके दिखाओ। उठाओ छुरा दासे पर से।"

इन्द्र फुरती से छुरा उठा लाया। कमरे के बीचोबीच दोनों टाँगें फैलाए वह क्षण-भर के लिए खड़ा रहा। छुरे की मूठ उसके दाएँ हाथ में थी और उसका फल पीछे की ओर था। फिर बायाँ कदम उठाकर वह उछला, और हवा में अर्द्धवृत्त काटकर फिर दोनों टाँगें फैलाए रणवीर की पीठ की ओर मुँह किए फर्श पर उतरा। इसी बीच उसने रणवीर की कमर को निशाना बनाते हुए उलटे हाथ से छुरे के वार का संकेत किया था।

रणवीर ने सिर हिलाया, “शत्रु की छाती अथवा पीठ को कभी भी निशाना नहीं बनाओ। वार हमेशा कमर में करो या पेट में। और घुमावदार छुरा घोंपने के बाद उसे अन्दर ही अन्दर थोड़ा मोड़ दो, इससे अंतड़ियाँ बाहर आ जाएँगी। अगर तुम भीड़ में शत्रु पर वार करते हो तो छुरा बाहर खींचने की कोशिश नहीं करो, उसे वहीं रहने दो और भीड़ में खो जाओ।"

रणवीर वही कुछ बोले जा रहा था जो उसने मास्टर देवव्रत के मुँह से सुना था।

थोड़ी देर बाद दल दो हिस्सों में बँट गया था। पहले हमला इन्द्र के हाथों किया जाएगा। इसलिए इन्द्र, शम्भू और सरदार शस्त्रागार को छोड़कर नीचे ड्योढ़ी में आ गए, जबकि मनोहर ऊपर बना रहा। फैसला किया गया कि सड़क की ओर छज्जे पर खड़ा सैनिक नज़र रखेगा और गली में आनेजानेवाले लोगों पर रणवीर और इन्द्र और शम्भू। और रणवीर के हुक्म से इन्द्र ड्योढ़ी में से निकलकर शत्रु पर हमला करेगा। गली में घूमनेवाले दरवाजे को थोड़ा-सा खोल देने पर सड़क का कुछ हिस्सा और गली का शुरू का हिस्सा नज़र आते थे। पीपल के तने के पार सड़क का हिस्सा था जो दोपहर की धूप में चमक रहा था।

गली के सामने एक ताँगा रुका। रणवीर ने दरवाज़े को लगभग पूरा मूंद दिया और एक पतली-सी दरार में से बाहर की ओर देखने लगा।

“कौन है?" इन्द्र ने फुसफुसाकर पूछा।

रणवीर चुप रहा। अन्य दो सैनिकों ने भी आगे बढ़कर दरार पर आँख लगाई।

"जलालखान है। नवाबज़ादा जलालखान।" शम्भू बोला, "यह सड़क के किनारे सामनेवाले मकान में रहता है। हमारे मुहल्ले का बहुत बड़ा रईस है। डिप्टी कमिश्नर से मिलने जाता है।" शम्भू एक साँस में कह गया।

दरार में से क्षण-भर के लिए उसका सफ़ेद तुर्रा, चढ़ी हुई मूंछे और लाल दमकता चेहरा नज़र आए। पर जैसे वह सामने आया वैसे ही ओझल भी हो गया। गली में से गुज़रते हुए उसकी सरसराती सलवार और चरमराते जूते सुनाई दिए। कुछ निर्णय कर सकने के पहले ही वह अपने घर के अन्दर जा चुका था। तीनों वीर-सैनिक ठगे-से खड़े रह गए। वह यों भी क़द में बहुत ऊँचा-लम्बा था। उसे सामने से जाता देखकर तीनों सहम-से गए थे। और सोचने का मौका ही नहीं मिला था।

मास्टरजी ने कहा था कि अपने शत्रु की ओर ध्यान से कभी नहीं देखो, इससे निश्चय डगमगाने लगता है। किसी भी जीव की ओर ध्यान से देखो तो उसके प्रति दिल में सहानुभूति पैदा होने लगती है। ऐसा कभी नहीं होने देना चाहिए।

पीछे गली में कोई दरवाज़ा खुला और फिर खड़ाक् से बन्द हो गया। तीनों के कान खड़े हो गए। रणवीर ने दरवाजे के पर्दे को इस तरह से खोला कि पर्दो के बीच की दरार गली की ओर खुल गई।

"कौन है?" इन्द्र ने फुसफुसाकर पूछा।

“म्लेच्छ है।" रणवीर बोला।

दोनों मित्र ऊपर-नीचे दरार से आँख लगाकर खड़े हो गए। एक दाढ़ीवाला बड़ी उम्र का आदमी गली में से चलता हुआ सड़क की ओर आ रहा था।

“मियाँजी हैं।" शम्भू पहचानते हुए बोला, “पीर की कब्र के सामनेवाले घर में रहते हैं। इस वक्त मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने जा रहे हैं। रोज़ इस वक़्त नमाज़ पढ़ने जाते हैं।"

“चुप रहो।"

मियाँ गली का थोड़ा-सा हिस्सा लाँघकर पीपल के पेड़ के पास आया और वहाँ से बाएँ हाथ घूम गया। वह काले रंग की वास्कट पहने था और नीचे सलवार और ढीली-सी चप्पल। उसके दाएँ हाथ में छोटी-सी तसबीह लटक रही थी। बूढ़ा होने के करण उसकी पीठ झुकी थी और वह धीरे-धीरे चलता जा रहा था।

“जाऊँ?" इन्द्र ने झट से सरदार से पूछा।

"नहीं, अब वह सड़क पर पहुँच चुका है।"

"तो क्या हुआ?"

"नहीं। सड़क पर हमला करने की मनाही है।"

शम्भू को इन्द्र की आवाज़ में उतावलापन लगा, जबकि स्वयं शम्भू का मन शिथिल-सा पड़ रहा था। इन्द्र के पूछने पर शम्भू को एक अजीब धक्का-सा लगा था। सरदार की मनाही पर उसे मन ही मन राहत-सी मिली।

कुछ देर तक वे फिर दरवाज़े के पीछे खड़े रहे। वक्त बीतता जा रहा था। चार बजे नल खुल जाएगा और गली की औरतें घड़े उठाए नल पर पहुँच जाएँगी। दोपहर बीतते ही इक्का-दुक्का और लोग भी बाहर निकलने लगेंगे।

इस बीच एक-एक करके दो आदमी गली में दाखिल हुए। एक के हाथ में साइकल थी और आँखों पर चश्मा था।

"यह बाबू चूनीलाल है। यह एक दफ्तर में काम करता है। इसके पास कुत्ता है।"

और दूसरा एक सिख सरदार गली में आया, जो कन्धे पर गठरी उठाए हुए था।

दोनों बारी-बारी से आए और अपने पटपटाते जूतों के साथ गली लाँघ गए।

तभी उन्हें फिर किसी के क़दमों की आहट मिली। इन्द्र ने दरार में से झाँककर देखा और रणवीर की कोहनी को छू दिया।

"कौन है?" इन्द्र कुछ नहीं बोला और बाहर देखता रहा।

पटपटाते हुए जूतों की आवाज़ आई। रणवीर झट से दरार में से झाँकने लगा। शम्भू भी दरार के साथ चिपक गया था।

"कौन है?"

"कोई खोमचेवाला है।" इन्द्र ने फुसफुसाकर कहा।

"नहीं, इत्र-फुलेल बेचता है। दूर कहीं रहता है, इस वक्त रोज़ इधर से गुज़रता है। म्लेच्छ है।"

एक भारी-भरकम आदमी, मेहँदी से रँगी मूछों और कूची दाढ़ीवाला अपने अगल-बग़ल बहुत-से थैले लटकाए पीपल के पेड़ के नीचे से होकर गली के अन्दर आ गया था। बोझ के कारण उसके माथे पर पसीने की बूंदें छलक आई थीं। उसके दाएँ कान में रुई के फाहे थे और ऊपर दो-तीन सलाइयाँ पगड़ी में खोंस रखी थीं।

रणवीर को लगा जैसे उसकी पीठ-पीछे कोई हरकत हुई हो। उसने घूमकर देखा। इन्द्र का हाथ अपनी जेब में रखे घुमावदार छुरे पर चला गया था।

क्षण बीत रहे थे और निर्णय का वक्त आ गया था। यह आदमी म्लेच्छ था, अजनबी था, थैलों से लदा था, न भाग सकता था, न अपने को बचा सकता था, और थका हुआ था। सभी गुण मौजूद थे। कुछ सवालों का जवाब मस्तिष्क नहीं देता, अन्तःप्रेरणा देती है। क्षण बीत रहे थे और फेरीवाला गली में आगे बढ़ता जा रहा था। रणवीर ने आँख का इशारा किया और इन्द्र लपककर बाहर हो गया। उसके बाहर निकलने पर क्षण-भर के लिए बाहर की रोशनी का चुंधियाता पुंज जैसे अन्दर घुस आया। पर रणवीर ने फिर से दरवाज़ा बन्द कर दिया।

कोई आहट या आवाज़ नहीं थी। रणवीर और शम्भू दम साधे दरवाज़े के पीछे खड़े थे। रणवीर अत्यधिक उत्तेजित हो उठा। उससे न रहा गया। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला और सिर बाहर निकालकर देखा। गली में कुछ दूरी पर इत्रफरोश झूलता हुआ चला जा रहा था। थैलों के बोझ के कारण उसकी पीठ झुकी हुई थी। और इन्द्र, बौना छोटा-सा इन्द्र, उससे कुछ दूर उसके पीछे-पीछे चलता जा रहा था। इन्द्र का हाथ कुरते के जेब में था और वह उचक-उचककर चल रहा था।

रणवीर के लिए दरवाज़े में से सिर निकालकर गली में झाँकना उतना ही असम्भव था जितना दरवाज़ा बन्द करके उसके पीछे खड़े रहना। उसका सभी बातों पर नियन्त्रण था, परन्तु अपने बाल-सुलभ कुतूहल पर कोई नियन्त्रण नहीं था। तभी उसे शम्भू ने पीछे खींच लिया। शम्भू डरा हुआ था और उसकी टाँगों में जैसे पानी भर गया था। आखिरी झलक में रणवीर केवल इतना ही देख पाया था कि इन्द्र उस भारी-भरकम म्लेच्छ के साथ-साथ जा रहा था और दोनों गली का मोड़ काट रहे हैं।

शम्भू ने साँकल चढ़ा दी और दोनों अँधेरे में एक-दूसरे को देखते खड़े रह गए। दोनों बुरी तरह हाँफ रहे थे। शम्भू के लिए खड़े हो पाना असम्भव हो रहा था जबकि रणवीर बाहर जाने के लिए अधीर था।

गली का मोड़ मुड़ने पर सहसा इत्रफरोश की नज़र बालक पर पड़ गई। अपने पटपटाते जूतों के कारण शायद वह उसके पाँवों की आहट नहीं सुन पाया था।

इत्रफरोश मुस्करा दिया।

"किधर जा रहे हो बेटे इस वक्त?" उसने कहा और मुस्कराते हुए अपना हाथ बढ़ाकर इन्द्र के सिर पर रख दिया।

इन्द्र ठिठक गया और एकटक उसके चेहरे की ओर देखने लगा। उसका हाथ अपनी जेब में था। इन्द्र के अवचेतन में यह बात उठी कि इस आदमी के गाल फूले हुए हैं और मास्टरजी ने एक बार कहा था कि फूले हुए गालोंवाले लोग बुजदिल होते हैं और उनका मेदा ख़राब होता है और वे भाग नहीं सकते, जल्दी हाँफने लगते हैं। और यह आदमी सचमुच हाँफ रहा था।

इन्द्र अपने शिकार पर झपटने के लिए पैर तौल रहा था। उसकी आँखें अभी भी म्लेच्छ के चेहरे पर गड़ी थीं।

इत्रफरोश को लड़का मासूम-सा लगा, छोटी उम्र का, कोमल-सा जो शायद आश्रय खोजता हुआ उसके पीछे-पीछे चला आया था। शायद डरा हुआ था, शहर में आज सभी लोग डरे हुए थे।

“कहाँ रहते हो? चलो मेरे साथ आते जाओ। आज के दिन बाहर अकेले नहीं घूमना चाहिए।"

लेकिन इन्द्र टस से मस नहीं हो रहा था। अभी भी वह इत्रफरोश के चेहरे की ओर घूरे जा रहा था।

"तेली मुहल्ले तक मैं तुम्हें पहुँचा दूंगा।" आगे कहीं जाना हुआ तो तुम्हें किसी के सुपुर्द कर दूंगा। आज शहर में गड़बड़ है।"

और बिना बालक के उत्तर की प्रतीक्षा किए वह घूमकर आगे बढ़ने लगा।

क्षण-भर के लिए इन्द्र वहीं ठिठक खड़ा रहा, फिर साथ हो लिया।

आसपास के घरों में चुप्पी छाई थी। उनकी ड्योढ़ियों में इतना अधिक अँधेरा था कि आँखें फाड़-फाड़कर भी देखो तो भी कुछ नज़र नहीं आता था।

“मुझे भी आज फेरी पर नहीं निकलता चाहिए था,” उसने इन्द्र से कहा, “आज भी कोई दिन है फेरी करने का? सारे शहर में सूखा पड़ा है। पर मैंने सोचा घर पर बैठकर क्या करूँगा, दो-चार आने की जुगाड़ हो जाए तो क्या बुरा है, दूकानदार घर पर बैठा रहे तो खाएगा कहाँ से?" और इत्रफरोश हँस दिया।

पानी का नल नज़दीक आ रहा था। नल में पानी नहीं था और उसके नीचे पत्थर की सिल जो घिस-घिसकर गहरी हो गई थी, सूखी पड़ी थी। और उसके आसपास दो-तीन बरें उड़ रहे थे। कुछ ही दिन पहले तक इन्द्र बर्रे पकड़ा करता था।

'इत्र के चार फाहे भी कोई हमसे ले ले तो हमारी चवन्नी खरी हो जाती है।' इत्रवाले ने जैसे अपने-आपसे बात करते हुए कहा। वक़्त काटने के लिए वह बतियाना चाहता था या शायद शहर की सूनी गलियाँ लाँघने के बाद वह खुद डरा हुआ था।

“हमें एक-एक गली का मालूम है कि वहाँ कौन इत्र ख़रीदता है। जिस मर्द की दो बीवियाँ हों, वह ज़रूर इत्र लेता है, वह वसमा भी लेगा और सुरमा भी लेगा। वह मर्द भी इत्र ख़रीदता है जो उम्र में बड़ा हो और जिसकी जवान बीवी हो। अच्छा, और बताऊँ!" वह बच्चे का मन बहलाने के लिए बोले जा रहा था।

इत्रफरोश की बातों के ही कारण इन्द्र सँभल गया था और पैर मज़बूती से चल रहे थे और कमानीदार चाकू की मूठ को भी उसने मज़बूती से पकड़ रखा था। उसके मन में एकाग्रता आने लगी थी, उसकी आँखें इत्रफरोश की कमर पर टिकने लगी थीं। वही एकाग्र दृष्टि जिससे अर्जुन ने पेड़ पर बैठे पक्षी की आँख को फोड़ा था। इत्रफरोश के बाएँ कन्धे से झूलता थैला बार-बार घड़ी के पेंडुलम की तरह उसकी कमर के आगे हिल रहा था। उसका गाढ़े का कुरता बोतलों के थैले के नीचे कुछ-कुछ उभरा हुआ था।

नल पार करते ही इन्द्र की सारी चेतना जैसे उसके दाएँ हाथ में आ गई। नल के आगे का फासला एक-एक बालिश्त जैसे उसके मस्तिष्क में गिना जाने लगा था। बोतलों का थैला झूल रहा था, कमर बार-बार सामने आ रही थी और इत्रफरोश के पटपटाते जूते उसके साथ-साथ बज रहे थे।

"बाज़ार में फाहे ज़्यादा बिकते हैं, घरों में इत्र और तेल ज़्यादा बिकता है," इत्रफरोश कह रहा था। सहसा इन्द्र लपका और उसने पैंतरा मारा। इत्रफरोश को लगा जैसे उसके बाएँ हाथ कोई चीज़ ज़ोर से हिली है। उसे भास हुआ जैसे कोई चीज़ चमकी भी है। पर वह खड़ा होकर घूमकर देखे कि क्या बात है तब तक उसे थैले के नीचे तीखी चुभन का-सा भास हुआ। इन्द्र का निशाना ठीक बैठा था। वार करने के बाद सरदार के आदेशानुसार उसने चाकू को थोड़ा मोड़ दिया था और अंतड़ियों के जाल में फँसा भी दिया था।

इत्रफरोश अभी पूरी तरह से मुड़ नहीं पाया था कि उसने देखा, लड़का पीछे की ओर भागा जा रहा है। उसे फिर भी समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है। उसकी इच्छा हुई कि लड़के को आवाज़ देकर बुला ले, लेकिन तभी उसे अपने पैरों पर बहता खून नज़र आया और कमर में कुछ कराहता, कुछ डूबता-सा महसूस हुआ। मीठा-सा दर्द उठा, फिर तेज़ नश्तर-सा दर्द और वह डर के मारे बदहवास हो गया।

"ओ लोको, मार डाला! मुझे मार डाला! ओ लोको!..."

इत्रफरोश इतना घबरा गया था कि उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहा था। वह कमर में लगे ज़ख्म से इतना नहीं मर रहा था जितना त्रास और भय से और भोले बालक द्वारा किए गए हमले से। उसके लिए अपने थैलों का बोझ उठा पाना असम्भव हो रहा था और उनके बोझ के नीचे ही वह मुँह के बल धड़ाम से गिरा।

इन्द्र के भागते पाँव उसे दो क्षण पहले साफ़ नज़र आ रहे थे, पर अब गली में उस लड़के का नाम-निशान नहीं था।

"ओ लोको...!" वह फुसफुसाया।

एक शिथिल-सी चीख उसके होंठों से निकली और उसकी आँखें गली के ऊपर फैले गहरे नीले आसमान के छोटे-से टुकड़े पर लग गईं। वहाँ दो-तीन चीलें उड़ रही थीं। चीलें अब दो की जगह चार हो गई थीं और आकाश की नीलिमा धीरे-धीरे हिलने और धूमिल पड़ने लगी थी।

तमस (उपन्यास) : तेरह

नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं हूँ, मुझे क्या मालूम किस काम के लिए मुझसे सुअर मरवाया जा रहा है। कुछ देर के लिए उसका मन ठिकाने भी आ जाता, लेकिन फिर जब किसी घटना की बात सुनता तो फिर बेचैन होने लगता। यह सब मेरे किए का फल है। सभी चमार सुबह से एक-दूसरे की कोठरियों के बाहर बीड़ियाँ फूंकते बतिया रहे थे। नत्थू बार-बार उनके बीच जा खड़ा होता। वह स्वयं भी बतियाने की कोशिश करता, लेकिन बार-बार उसका हलक सूखने लगता और टाँगें काँपने लगतीं और वह अपनी कोठरी में लौट आता। क्या मैं अपनी पत्नी से सारी बात कह दूँ? वह समझदार औरत है, मेरी बात समझ जाएगी, मेरा दिल हल्का होगा। कभी उसका मन चाहता शराब का पौवा कहीं से मिल जाता तो कुछ देर के लिए बेसुध पड़ा रहता। पर इस वक़्त शराब कहाँ मिलनेवाली थी? औरत को बताना भी जोखिम मोल लेना था। बातों-बातों में उसने किसी से कह दिया तो? फिर क्या होगा? मुझे कोई छोड़ेगा नहीं। क्या मालूम पुलिस ही मुझे पकड़कर ले जाए? फिर क्या होगा? मेरी बात कौन मानेगा कि मुरादअली के कहने पर मैंने ऐसा काम किया है? मुरादअली मुसलमान है, क्या वह मस्ज़िद के सामने सुअर फिंकवाने का काम करेगा?...नत्थू बेचैन हो उठता तो उसका दिमाग त्राण पाने के लिए दूसरी दिशा, में सोचने लगता। वह सुअर ज़रूर कोई दूसरा रहा होगा। यह वह सुअर था ही नहीं जिसे मस्ज़िद के सामने फेंका गया था। मैंने इसे देखा ही नहीं। यह काला सुअर था तो दूसरा भी तो काले रंग का सुअर हो सकता है। क्या दो सुअर काले रंग के नहीं हो सकते? यह मेरा भ्रम है, मैं ख्वाहमख्वाह इस तरह सोचे जा रहा हूँ। यह सचमुच कोई दूसरा सुअर था। ऐसा सोचने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ हँसने-बतियाने लगता। खुद उठकर किसी पड़ोसी की कोठरी में जा बैठता और मंडी की आग की चर्चा करने लगता। लेकिन यह मनःस्थिति भी ज़्यादा देर तक नहीं बनी रहती। रात के व्यापार को याद करके ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते। सुनसान इलाक़ा, बदबू और सीलन-भरी कोठरी, चुराया हुआ सुअर और अँधेरे के पर्दे में आता हुआ कालू का छकड़ा। सारी की सारी घटना ही दुःस्वप्न की तरह उसकी आँखों के आगे घूम जाती। कभी यों भी सलोतरी साहब सुअर कटवाएँगे? 'पिगरी के सुअर उधर घूमते रहते हैं, किसी एक को पकड़ लेना...रात को छकड़ा आएगा, उसमें डाल देना...जब तक मैं न आऊँ, मेरी राह देखना।' कभी यों भी काम हुए हैं? क्या यह भी कोई ढंग है काम करने का? उसका मन हुआ सीधा उठकर कालू भंगी के पास जाए और उससे पूछे कि वह सुअर को कहाँ ले गया था। मुरादअली के पास सीधा जाए और उससे कहे...पर मुरादअली क्या कहेगा? अगर उसके दिल में चोर है तो वह धक्के देकर घर से निकाल देगा, बल्कि उल्टा मुझ पर इलज़ाम लगाएगा, वही उल्टे मुझे पकड़वा भी सकता है...

उसने फिर चिलम उठा ली। भाड़ में जाए मुरादअली और उसका सुअर! जो हो गया सो हो गया। मैंने जान-बूझकर कुछ नहीं किया है। मैंने तो जो कुछ किया अनजाने में किया, ये लोग जो आग लगा रहे हैं, और राह जाते लोगों को मार रहे हैं, ये तो आँखें खोलकर सब काम कर रहे हैं, ये क्यों बुरा करम कर रहे हैं? मेरे एक सुअर को मार देने से क्या होता है? एक सुअर को मार देने में रखा ही क्या है? मैं मुजरिम हूँ तो क्या ये लोग मुजरिम नहीं? वे लोग जिन्होंने मंडी में आग लगाई है? मैंने जान-बूझकर कुछ नहीं किया। हो गया जो होना था। मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है...

नत्थू को अपने बाप की याद आई। भगवान से डरनेवाला आदमी था वह। सदा यही सीख दिया करता था : "बेटा, हाथ साफ रखना, जिसका हाथ साफ है वह कोई बुरा काम नहीं करता...इज़्ज़त की रोटी खाना...।" नत्थू को याद करके रुलाई आ गई। उसकी छाती पर फिर से बोझ बढ़ने लगा, असह्य होने लगा।

मैदान के पार कोई आदमी चलता-चलता रुक गया था और मुड़कर चमारों के डेरे की ओर देखे जा रहा था। उसे देखकर नत्थू का दिल धक्-धक् करने लगा। उसे लगा जैसे वह उसी को ढूँढ़ने आया है, जैसे उसे पता चल गया था कि उसी ने सुअर मारा है।

नत्थू की औरत धोती के पल्लू से हाथ पोंछती हुई बाहर निकली। उसे देखकर उसके मन में फिर अकुलाहट हुई। नत्थू का मन हुआ उसे सारी बात कह डाले। कोई तो हो जिसे वह अपने दिल की बात कह सके।

नत्थू की आँखें फिर मैदान के पार खड़े आदमी की ओर घूम गईं।

"तू क्या देख रहा है?" उसकी पत्नी ने पूछा, फिर मैदान के पास उस आदमी की ओर देखकर बोली, “कौन है वह? क्या तू उसे जानता है?"

"नहीं तो, मैं क्या जानूँ कौन है। मैं नहीं जानता।" नत्थू ने कहा और फटी-फटी आँखों से अपनी पत्नी की ओर देखने लगा।

"तू यहाँ क्यों खड़ी है, जा, अपना काम देख।" नत्थू ने रुखाई से कहा।

उसकी पत्नी उन्हीं क़दमों कोठरी के अन्दर लौट गई।

नत्थू ने कनखियों से फिर सड़क की ओर देखा। वह आदमी जा रहा था। मैदान के छोर पर उसने सिगरेट सुलगा ली थी और अब सिगरेट के कश छोड़ता हुआ आगे बढ़ रहा था।

'मेरा भरम था,' नत्थू ने मन ही मन कहा, 'काम के दिन इधर बीसियों आदमी आते हैं, जिन्हें हम लोगों से काम रहता है।'

उसका मन आश्वस्त हो गया, नाहक ही औरत से खीझकर बोला। "सुन तो," उसने पत्नी को पुकारकर कहा, “थोड़ी चाय बना दे।"

उसकी स्त्री दहलीज़ पर लौट आई। उसके शरीर में अथवा उसके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ था कि नत्थू उसे अपने समीप पाकर अधिक सुरक्षित महसूस करता था। वह घर में बनी रहती तो लगता घर में स्थिरता है, वह आँखों से ओझल हो जाती तो नत्थू को लगता जैसे सारी मुष्टि डोलने लगी है। मन-ही-मन वह आज भी चाहता था कि उसकी स्त्री उसके पास बनी रहे। वह कभी परेशान और उत्तेजित नहीं होती थी, घबराती नहीं थी, उसका दिल कभी भी धक्-धक् नहीं करता था, कोई बात उसके कलेजे को चाटती नहीं थी। इसलिए कि यह गदराए शरीर की है, मेरी तरह सूखी-पिचकी नहीं है, जो सारा वक्त दिल का गम खाता रहता हूँ। उसके अलसाए शरीर में नत्थू को स्निग्धता का भास मिलता था, उसकी चाल-ढाल में, प्रत्येक गति में स्थिरता थी, सन्तुलन था।

वह दहलीज़ पर आकर खड़ी हो गई थी, एक हाथ उठाकर चौखट पर रखे थी और धीरे-धीरे मुस्कराए जा रही थी।

"पहले तो कभी तुम इस वक्त चाय नहीं माँगते थे। आज छुट्टी मना रहे हो, इसलिए?''

इस पर वह तुनक उठा, “छुट्टी मना रहा हूँ? यह तुझे छुट्टी नज़र आ रही है? तू नहीं बना सकती तो मैं खुद बना लूँगा। लम्बी बात क्यों करती है!"

और नत्थू उठकर कोठरी के अन्दर चला गया।

"अभी बना देती हूँ; चाय बनाने में कौन-सी देर लगती है। तू बिगड़ता क्यों है?"

"नहीं तू हट जा, मैं अपने-आप बना लूँगा।" नत्थू ने गस्से से कहा।

“मेरे रहते तू चूल्हा जलाएगा, मैं मर न जाऊँ?" वह बोली और आगे बढ़कर उसकी बाँह पकड़कर उसे उठाने लगी, “उठ जा, तुझे मेरे सिर की कसम।"

नत्थू उठ खड़ा हुआ, गहरी टीस-सी उसके मन में उठी। क्षणभर के लिए वह ठिठका-सा खड़ा रहा, फिर आगे बढ़कर वह अपनी पत्नी से लिपट गया।

“आज तुझे क्या हो गया है?" उसकी स्त्री ने कहा और हँस दी। पर पति के आलिंगनों में उसे उसके दिल की छपपटाहट का भास मिलने लगा। कोई बात है जो इसके दिल में काँटे की तरह चुभी है, जिससे यह कल रात से अजीब-सा व्यवहार कर रहा है।

"कल रात से तुम कैसे बहके-बहके से हर बात कर रहे हो!" उसने कहा, “ऐसा नहीं करो जी, मुझे डर लगता है।"

“हमें क्यों डर लगेगा, हमने तो किसी का घर नहीं जलाया है!" नत्थू ने अटपटा-सा उत्तर दिया।

उसकी पीठ पर पत्नी का हाथ रुक गया, पर वह नत्थू को अपनी बाँहों में लिये रही।

नत्थू की उत्तेजना और क्षोभ, दोनों ही, उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे थे, वह पागलों की तरह वैसे ही व्यवहार करने लगा जैसे कल रात करने लगा था।

उसकी आँखों के सामने सहसा सुअर की लाश घूम गई। फर्श के बीचोबीच, चारों टाँगें ऊपर को उठी हुईं, और नीचे खून का ताल-सा। और वह सिहर उठा। पत्नी की बाँहों में नत्थू का शरीर जैसे ठंडा पड़ने लगा। उसके कन्धों पर पसीने की परत आ गई और उसकी पत्नी को लगा जैसे उसका मन भटककर फिर दूर कहीं चला गया है। खड़े-खड़े नत्थू के मुँह से सिसकीसी निकल गई और वह अपनी पत्नी से अलग हो गया।

“हाय नहीं, आज नहीं, मेरा मन नहीं करता। देखो तो बाहर क्या हो रहा है? लोगों के घर जल रहे हैं।"

नत्थू बेचैन-सा खड़ा हो गया और देर तक ठिठका खड़ा रहा।

“क्या है?" उसकी पत्नी घबराकर बोली, “तुम इतने गुमसुम क्यों हो गए हो? सच-सच बताओ, तुम्हें मेरे सिर की कसम।"

पर नत्थू चुपचाप हटकर खाट पर जा बैठा।

“क्या हुआ है?"

"कुछ नहीं।"

"कुछ तो हुआ है। तू मुझसे छिपा रहा है।"

"कुछ नहीं।" उसने फिर से कहा।

पत्नी नत्थू के पास आ गई, और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, "तू बोलता क्यों नहीं?"

"कुछ कहने को हो तो बोलूँ।" उसने धीरे से कहा।

"चाय बना दूँ? ठहर, मैं चाय बना देती हूँ।" ।

"मुझे चाय नहीं चाहिए।"

“अभी तो खुद बनाने को कह रहा था, अभी चाय नहीं चाहिए।"

“नहीं, मुझे नहीं चाहिए।"

"अच्छा फिर चल, खाट पर चल।" उसकी पत्नी ने हँसकर कहा।

"नहीं, खाट पर भी नहीं चलूँगा।"

"नाराज़ हो गया? तू मेरे साथ बात-बात पर नाराज़ होने लगा है।" पत्नी ने उलाहने के स्वर में कहा।

नत्थू चुप रहा। वह सचमुच बिसूरते बच्चे की तरह व्यवहार कर रहा था।

“तू कल रात कहाँ गया था? तूने मुझे कुछ भी नहीं बताया।" नत्थू की पत्नी ने कहा और उसके साथ फर्श पर बैठ गई।

नत्थू ने ठिठककर पत्नी की ओर देखा। इसे ज़रूर पता चल गया है। सभी को देर-सवेर पता चल जाएगा। नत्थू को लगा जैसे उसकी टाँगें काँपने लगी हैं।

"बताएगा नहीं तो मैं यहीं सिर पीट लूँगी। तू कभी भी मुझसे दिल की बात नहीं छिपाता था, आज क्यों छिपाने लगा है?"

नत्थू की आँखें देर तक पत्नी के चेहरे पर टिकी रहीं। अगर इसे शक हो गया है तो न जाने क्या सोच रही होगी, मेरे बारे में क्या सोचने लगी होगी। पर पत्नी की विश्वासभरी और याचनाभरी आँखें अभी उसकी ओर देखे जा रही थीं। फिर सहसा वह अपने-आप ही बोलने लगा, “तुझे मालूम है मंडी में आग क्यों लगी है?"

“मालूम है, मसीत के सामने किसी ने सुअर मारकर फेंका था। इस पर मुसलमानों ने मंडी को आग लगा दी।"

"वह सुअर मैंने मारा था।"

नत्थू की पत्नी को काटो तो खून नहीं।

"तूने? तूने यह बुरा काम क्यों किया?"

और उसके चेहरे पर से सारा खून उतर गया और वह नत्थू की ओर फटी आँखों से देखती रह गई।

नत्थू ने धीरे-धीरे सारा किस्सा कह सुनाया।

"सुअर को फेंकने भी तू गया था?" पत्नी ने पूछा।

"नहीं, कालू उसे छकड़े पर लादकर ले गया था।"

"कालू तो मुसलमान है, वह कैसे ले गया?"

"कालू मुसलमान नहीं है, वह ईसाई है, गिरजे में जाता है।"

उसकी पत्नी देर तक उसके चेहरे की ओर देखती रही, 'तूने बहुत बुरा काम किया है, पर इसमें तेरा क्या दोष? तुझसे लोगों ने धोखे से काम करवाया है। तूने धोखे में आकर यह काम किया है। वह मानो अपने से बात करती हुई बुदबुदाई। पर नत्थू की बात सुनकर वह सिर से पाँव तक काँप गई थी। उसकी पत्नी को लगा जैसे किसी भयानक ग्रह की छाया उनके घर पर पड़ गई है, जो उपवास करने से भी नहीं टलेगी, प्रायश्चित करने से भी नहीं टलेगी।

पर फिर भी उसके मन पर बराबर बोझ बना रहा।

नत्थू के दिल में से गहरी हूक-सी उठी। पत्नी ने आँख उठाकर नत्थू की ओर देखा। उसे विचलित देखकर उसकी पत्नी के दिल में फिर ममता का सोता फूट पड़ा। वह उठकर नत्थू के पास जा बैठी और उसका हाथ पकड़कर बोली, "तभी तो मैं कहूँ यह इतना परेशान क्यों है। मुझे क्या मालूम, तूने मुझे बताया क्यों नहीं? अपना दुख मन के अन्दर नहीं रखते।"

“मुझे मालूम होता तो मैं यह काम क्यों करता?" नत्थू बुदबुदाया, "मुझसे तो कहा सलोतरी साहब ने सुअर माँगा है।" फिर नत्थू अपनी उधेड़बुन में और भी गहरा डूबते हुए बोला, “कल रात मुरादअली को मैंने देखा था, पर वह मेरे साथ बोला ही नहीं। मैं उसके पीछे-पीछे भागता था और वह आगे-ही-आगे बढ़ता गया। उसने मेरे साथ बात तक नहीं की..." नत्थू की आवाज़ अनिश्चय में खो-सी गई, मानो उसके मन में सन्देह उठने लगा हो कि क्या सचमुच उसने मुरादअली को देखा भी था या नहीं।

"कितने पैसे मिले थे सुअर मारने के?"

“पाँच रुपए। वह मुझे पेशगी ही दे गया था।"

“पाँच रुपए? इतने ज़्यादा? तूने क्या किया उन रुपयों का?"

"कुछ नहीं किया। चार रुपए बच रहे हैं, उधर ताकी पर रखे हैं।"

“मुझे बताया क्यों नही?"

"मैंने सोचा तेरे लिए धोतियों का जोड़ा लाऊँगा...।"

"मैं इन पैसों से धोतियाँ लूँगी? मैं इन पैसों को आग नहीं लगाऊँगी?" नत्थू की पत्नी ने आवेश में कहा, “तुमसे ऐसा कुकर्म करवाया।" पर फिर वह सँभल गई। मुस्कराने की निष्फल चेष्टा करते हुए बोली, “यह तो तेरी कमाई के पैसे हैं, मैं क्यों नहीं लूंगी। इनसे जो कहेगा लूंगी।"

वह उठ खड़ी हुई और ताक के पास गई, एड़ियाँ उठाकर ताक के ऊपर रखी रकम को देखा, फिर पति की ओर लौट आई। नत्थू की गर्दन और भी ज्यादा झुक गई थी और वह फिर किसी गहरी अँधेरी खोह में जा पहुँचा था।

“तूने वह आदमी देखा था जो मैदान के पार खड़ा था?" नत्थू ने सिर ऊपर उठाकर पूछा।

"हाँ तो, मगर इससे क्या है?"

"मैं सोचता हूँ वह बागड़ी था, जिसका सुअर मैंने अन्दर खींच लिया था। उसे ज़रूर पता चल गया होगा।"

"तुम्हें क्या हो गया। पता चल गया है तो आकर तुमसे ले ले। तुम कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगे हो जी?" नत्थू की पत्नी ने ऊँची आवाज़ में कहा। फिर सिर फटककर बोली, "देखो जी, हम लोग चमड़े का काम करते हैं। जानवरों की खाल खींचना, उन्हें मारना हमारा काम है। तूने सुअर को मारा। अब वह उसे मस्ज़िद के सामने फेंके या हाट-बाज़ार में बेचे इससे हमें क्या? और तुम्हें क्या मालूम वही सुअर था या नहीं था जिसे मसीत के सामने फेंका था? तेरा इसमें क्या है?" फिर वह बड़ी लापरवाही के अन्दाज़ में बोली, "मैं तो इन पैसों से धोतियाँ लूँगी, ज़रूर लूँगी। तेरी कमाई के पैसे हैं। मेहनत की मजूरी है।" और वह फिर ताकी की ओर लौट गई और हँसते-चहकते हुए ताक पर से पैसे उठा लिये। पर फिर उसी क्षण उन्हें वहीं पर रख दिया।

"हाँ मुझे क्या! तू ठीक ही तो कहती है, मुझे क्या! भाड़ में जाए मुरादअली और उसका सुअर! मैं कल भी यही कहता था..."

नत्थू ने कहा और आश्वस्त-सा महसूस करने लगा।

"अब पूरे पन्द्रह रुपए मेरे पास हो गए...अब तू भी अपने लिए कुछ ले लेना।"

"मुझे कुछ नहीं चाहिए।" नत्थू भावोद्वेलित होकर बोला, "जब तू मेरे पास होती है तो मुझे लगता है मेरे पास सबकुछ है।"

नत्थू की पत्नी झट से कोठरी के कोने में रखे चूल्हे के पास जा बैठी और चाय बनाने लगी।

"जिसका दिल साफ़ होता है उसे भगवान कुछ नहीं कहते।" नत्थू की पत्नी बोली, “हमारा दिल साफ़ है। हमें किसी का डर क्यों होने लगा?" फिर वहीं बैठी-बैठी बोली, “मुझे तो बताया, अब डेरे में और किसी से नहीं कहना।"

"नहीं, मैं क्यों कहूँगा! तू भी किसी से नहीं कहना।"

नत्थू की पत्नी गिलासों में चाय डाल रही थी जब मैदान पार भागते क़दमों की आवाज़ आई। नत्थू की पत्नी का हाथ ठिठक गया। उसने आँख उठाकर नत्थू की ओर देखा पर बोली कुछ नहीं, उलटे मुस्करा दी।

थोड़ी देर बाद बाड़े में किसी चमार की आवाज़ आई। एक चमार दूसरे से पूछ रहा था, “क्या हुआ है चाचा?"

"दंगा हो गया है, रस्ते में।"

“कहाँ?"

"रस्ते में। हिन्दू-मुसलमान का दंगा हो गया है। कहते हैं दो आदमी मारे गए हैं।"

“यह आदमी कौन था जो भागा जा रहा था?"

"नहीं मालूम कौन था।...कोई बाहर का आदमी रहा होगा।"

कोठरी के अन्दर और बाहर फिर से चुप्पी छा गई। चमार अपनी कोठरी के अन्दर चला गया था या पिछवाड़े चला गया था।

नत्थू के हाथ में चाय का गिलास देते हुए उसकी पत्नी ने कहा, "तुम भी जाओ, डेरेवालों से मिल लो। चलो, मैं भी चलती हूँ। यहाँ बैठे-बैठे क्या करेंगे!"

नत्थू की पत्नी उठी और अनायास ही झाड़ लेकर कोठरी बुहारने लगी। एक-एक कोना, एक-एक चीज़ उठाकर नीचे से झाडू लगाने लगी। उसे स्वयं मालूम नहीं था कि वह ऐसा क्यों कर रही है। जैसे झाड़ से वह किसी छाया को कोठरी में से बुहारकर बाहर कर देना चाहती हो। देर तक वह कोठरी को बुहारती रही, फिर उसने कोठरी के फर्श को धोया, खूब पानी डाल-डालकर फ़र्श धोती रही। पर अन्त में जब थककर खाट पर बैठी तो उसे लगा जैसे बन्द दरवाज़े की दरारों में से बड़ी छाया फिर कोठरी में लौट आई है, कोठरी अँधेरी पड़ गई है, और छाया कोठरी के अन्दर चारों ओर मुस्कराने लगी है।

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