तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

Tamas (Hindi Novel) : Bhisham Sahni

तमस (उपन्यास) : द्वितीय खंड : भीष्म साहनी

तमस (उपन्यास) : अठारह

तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खालसा लोहा लिया करता था। यह लड़ाई ऐतिहासिक लड़ाइयों की श्रृंखला में एक कड़ी ही थी। लड़नेवालों के पाँव बीसवीं सदी में थे, सिर मध्ययुग में।

घमासान युद्ध हुआ। दो दिन और दो रात तक चलता रहा। फिर असला चुक गया और लड़ना नामुमकिन हो गया। अब गुरुग्रन्थ साहब की चौकी के पीछे, सफ़ेद चादरों से ढकी सात लाशें पड़ी थीं। पाँच लाशों के सिर अपनी-अपनी गोद में रखे पाँच औरतें बैठी थीं। बहुत आग्रह करने पर कुछ देर के लिए वे उठ जातीं, पर तेजासिंह के पीठ मोड़ने की देर होती कि वे फिर आ बैठती थीं। दो लाशों का वली वारिस कोई नहीं था। इनमें से एक लाश निहंगसिंह की थी जो उस समय भी, जब गोलियों की बौछार पड़ने लगी थी, मूंछों को ताव देता हुआ, छत पर खड़ा रहा था। दूसरी लाश सोहनसिंह की थी जो शहर से फ़साद रोकने के लिए आया था। यह आदमी गली के सिरे पर मारा गया था जहाँ वह लड़ाई के दूसरे दिन युद्ध रोकने का एक सुझाव पेश करने शेख गुलाम रसूल से मिलने जा रहा था। उसकी लाश वहीं पड़ी रहती पर कुछ मुसलमान, गहरी रात गए उसे गुरुद्वारे के नज़दीक फेंक गए, सिखों को यह बताने के लिए कि यह है जवाब उस प्रस्ताव का जो तुमने सोहनसिंह के हाथ भेजा था। उसकी लाश एक ओर को पड़ी थी और उसे किसी ने गोद में नहीं ले रखा था। यों भी सोहनसिंह के मरने के कुछ देर पहले सोहनसिंह और मीरदाद दोनों ही की स्थिति अमन करनेवालों की जगह मात्र हरकारों की रह गई थी।

इनके अलावा बहुत-सी लाशें कस्बे के अन्दर जगह-जगह बिखरी पड़ी थीं। उन्हें ठिकाने लगाने का अभी सवाल ही नहीं उठता था। खालसा स्कूल के चपरासी की लाश स्कूल के आँगन में पड़ी थी। बलवे के दिन, जब गुरुद्वारे में संगतें जमा होने लगी थीं, चपरासी को हिदायत की गई थी कि वह स्कूल में ही डटा रहे। चपरासी की पत्नी ज़िन्दा थी, लेकिन उसे नम्बरदार ने घर पर रख लिया था, इसलिए सही-सलामत थी। माई भागाँ की लाश उसके घर के अन्दर ही आँगन में पड़ी थी। माई भागाँ ने मरकर भी अपने ज़ेवर बचा लिये थे, क्योंकि वे दीवार में गड़े थे और हमलावरों को उनके बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाया। माई भागाँ का घर आग की नज़र होने से भी बच गया था क्योंकि जुड़वाँ घर रहीमे तेली का था। माई भागाँ की एक झापड़ पड़ने से ही जान निकल गई थी। बूढ़ा सौदागरसिंह भी मरा पड़ा था, उसे भी लोग गुरुद्वारे में पहुँचाना भूल गए थे।

कुछ लाशें कस्बे के बाहर भी जगह-जगह पड़ी थीं। एक लाश कुएँ के पास औंधी पड़ी थी। यह आदमी मुगालते में मारा गया था। यह कस्बे का भिश्ती अल्लाहरखाँ था जो फ़िसाद के बावजूद अपनी मश्क लेकर चाँदनी रात में कुएँ पर चला आया था। शेख के घर में पानी का तोड़ा हो गया था और बच्चे पानी माँग रहे थे और तभी भिश्ती मश्क उठाकर पानी लेने आ गया था और शेख के घर की छत पर से ही सीधा अचूक निशाना उसकी पीठ पर लगा था। एक लाश किसी सरदार की थी जो शहर से आनेवाली सड़क पर पड़ी थी। फतहदीन नानबाई, जिसकी दूकान गुरुद्वारे को जानेवाली गली के बाएँ सिरे पर पड़ती थी, स्वयं तो बच गया था लेकिन उसकी दूकान पर काम करनेवाले दोनों छोटे-छोटे लड़के मारे गए थे। फ़िसादों के बावजूद ये बच्चे भाग-भागकर दूकान में से बाहर आ जाते थे। कभी एक-दूसरे के पीछे भागने लगते, कभी गली में खेलने लगते थे। इसके अलावा खालसा स्कूल में से आग के शोले अभी भी निकल रहे थे। बाईं गली के सिरे पर नदी के ऐन ऊपरवाले हिस्से में सिक्खों के सभी मकान आग की नज़र कर दिए गए थे। दूसरी ओर कसाइयों की तीनों दूकानें, और तेली मुहल्ले के तीन-चार मुसलमानों के घर अभी भी जल रहे थे।

अब गुरुद्वारे में असला लगभग चुक गया था। छत पर बैठा किशनसिंह हर मिनट-दो मिनट बाद एकाध गोली चला देता ताकि दुश्मन को मालूम रहे कि मोर्चा कायम है, वरना अन्दर हालत पतली हो चुकी थी। सारे गुरुद्वारे में एक प्रकार की थकान छाने लगी थी। आँखें एक-दूसरे को देखतीं, पर मुँह से बोल नहीं फूटते थे। “बारूद ख़त्म हो रहा है," न जाने किसके मुँह से निकला था, पर जिस-जिसके कान में पड़ा वहीं निश्चेष्ट ताकता रह गया। असला, दूसरी ओर, शेखों के 'किले' में भी चुक गया था, पर उसे छिपाने के लिए बार-बार दोनों ओर से नारे लगाए जा रहे थे। “अल्लाह-हो-अकबर!" के नारे अब एक दिशा की बजाय तीन दिशाओं से आने लगे थे। नारे का जवाब गुरुद्वारे में से भी दिया जाता, पहले से भी ज़्यादा ऊँची आवाज़ के साथ, पर नारों का खोखलापन अब किसी से छिपा नहीं था।

मुख़बरों की खबर थी कि मुसलमानों को बाहर से कुमुक पहुँचनेवाली है, जबकि सिखों का सम्पर्क बाहर से कट गया था। दो आदमी छिपे-लुके कहूटा की ओर कुमुक के लिए भेजे गए थे जो अभी तक लौटकर नहीं आए थे। युद्ध-परिषद् का विचार था कि पैसे दे-लेकर सुलह कर ली जाए और उन्होंने अपने एलची द्वारा शेखों से बात शुरू कर भी दी थी।

गुरुद्वारे के अन्दर, दरवाज़े के पास युद्ध-परिषद् के पाँचों सदस्य तेजासिंह जी के साथ समझौते की शर्तों पर विचार कर रहे थे।

“दो लाख माँगते हैं। दो लाख हम कहाँ से दें?" तेजासिंह ने आवेश में कहा।

"आपने छोटे ग्रन्थी को क्या कहलाकर भेजा था?" एक सदस्य ने पूछा।

समझौते की बातचीत के लिए तेजासिंह ने सोहनसिंह के मर जाने के बाद मीरदाद को बिचौलिया बनाने की कोशिश की थी, क्योंकि वह फ़साद से पहले सुलह कराने की कोशिश करता रहा था। पर उसे जब पता चला कि रुपया ले-देकर गोली चलाना बन्द होगा तो उसने मुँह फेर लिया। लाचार होकर तेजासिंह ने ग्रन्थी के छोटे भाई, जिसे सभी ‘छोटा ग्रन्थी' कहकर पुकारते थे, सन्देश देकर भेजा था।

“मैंने कहा था बीस-तीस हज़ार कहना।" तेजासिंहजी ने कहा, “पर वे दो लाख माँगते हैं।"

"उन्हें पता चल गया होगा कि हमारी हालत कमज़ोर पड़ गई है।"

“उनके बाप को भी पता नहीं चल सकता।" पंसारी हीरासिंह ने तैश में आकर कहा, "हमने उनके कम आदमी नहीं काटे हैं। उन्नीस-बीस का ही फ़र्क होगा, सिंहजी। यह बदकिस्मती हमारी कि असला चुक गया...।"

दूर से फिर आवाज़ आई, “अल्लाह-हो-अकबर!'

"जेवर-गहने कितने इकठे हुए हैं?" एक और सदस्य ने पूछा।

तेजासिंहजी उठकर गुरु-ग्रन्थ साहब की चौकी के सामने रखे एक बक्से के पास गए! उसे खोलकर उन्होंने गहनों को-जो स्त्रियाँ अपने शरीर पर से उतार-उतारकर डाल गई थीं अपने दोनों हाथों में लिया और उनके वजन का अन्दाज़ा लगाते हुए उनका मूल्य आँकने लगे।

“बीस-पच्चीस हज़ार से ज्यादा का नहीं होगा।...वे दो लाख माँगते हैं। हम दो लाख कहाँ से लाएँ?"

"देना चाहें तो दो लाख आप अकेले दे सकते हैं, तेजासिंहजी, आपने बड़ी माया इकट्ठी की है।"

पर तेजासिंह ने इस टिप्पणी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। "कहो पचास हज़ार देंगे।"

“पचास हज़ार बहुत कम हैं, वे नहीं मानेंगे।"

“तुम कहके तो देखो। नीचे से शुरू करोगे तो कहीं एक लाख पर फैसला होगा।"

तेजासिंह ने छोटे ग्रन्थी को बुला भेजा, “जाओ ग्रन्थीजी, उनके साथ एक लाख तक फैसला कर लो। पर शर्त यह है कि बाहर से आनेवाले लोग नदी पर चले जाएँ, फिर अपने तीन नुमाइन्दे भेज दें, हमारे आदमी थैलियाँ लिए खड़े होंगे।"

छोटे ग्रन्थी ने हाथ बाँधकर कहा, “सत बचन, महाराज, पर अगर उन्होंने कहा कि थैलियाँ पहले दो, हम नदी पार बाद में करेंगे, तो मैं क्या कहूँ?"

इस पर पंसारी फिर तैश में आ गया, “क्यों, क्या हमारी ज़बान का एतबार नहीं है? क्या हम लाहौरिए हैं? अमृतसरिए हैं, कि आज कुछ कहें और कल कुछ? हम सैयदपुर के रहनेवाले हैं, हमारी जबान पत्थर पर लकीर होती है।"

सैयदपुर के निवासी होने का सिखों को भी उतना ही गुमान था जितना मुसलमानों को, सभी को सैयदपुर की लाल मिट्टी पर, बढ़िया गेहूँ पर, लुकाटों के बागों पर, यहाँ तक कि सैयदपुर के कड़े जाड़ों पर और बर्फीली हवा पर समान रूप से नाज़ था, और इसी भाँति अपनी मेहमानवाजी पर, दर्यादिली पर और हँसमुख स्वभाव पर भी नाज़ थ। फ़साद शुरू होने पर दोनों ओर के लोग सैयदपुर के निवासी होने के नाते ही छाती ठोककर मैदान में कूदे थे।

चाँद फिर निकल आया था, जिससे मोर्चेवालों को रात का दृश्य भयावह लगने लगा था। आज रात फिर गोलाबारी हुई तो कुछ भी हो सकता है, आगजनी हो सकती है, लूटपाट हो सकती है। अब सभी निर्णय गलत जान पड़ने लगे थे, गुरुद्वारे में इकट्ठा होना भूल थी, शेख गुलाम रसूल और उसके साथियों से बातचीत तोड़ देना भूल थी, इन भूलों का कोई अन्त नहीं था। अगर दुश्मन पर गालिब आ जाते तो यही भूलें रणनीति की बढ़िया चालें मानी जातीं।

शेख गुलाम रसूल के घर के बाहर चबूतरे पर कुछ लोग बैठे बतिया रहे थे। अपनी लाशें ठिकाने लगाने का इन्हें भी मौका नहीं मिला था, मगर जहाँ गुरुद्वारे की स्थिति एक घिरे हुए स्थान की-सी थी वहाँ शेखों का मकान खुली जगह पर था, उसका सम्पर्क आसपास के सभी गाँवों से था।

चबूतरे पर बैठे मुजाहिद बाहर से आए थे। सभी अपने-अपने कारनामों के किस्से सुना रहे थे, अपने-अपने अनुभव सुना रहे थे :

"हम जब गली में घुसे तो कराड़ भागने लगा, कोई इधर जाए, कोई उधर जाए। हिन्दुओं की एक लड़की अपने घर की छत पर चढ़ गई। हमने देख लिया जी। सीधे दस-बारह आदमी उसके पीछे छत पर पहुँच गए। वह छत की मुँडेर लाँघकर दूसरे घर की छत पर जा रही थी जब हमने उसे पकड़ लिया। नबी, लालू, मीरा, मुर्तज़ा, बारी-बारी से सभी ने उसे दबोचा।

"ईमान से?" एक ने संशय से पूछा।

"कसम अल्लाह पाक की। जब मेरी बारी आई तो नीचे से न हूँ, न हाँ, वह हिले ही नहीं, मैंने देखा तो लड़की मरी हुई।" और वह खोखली-सी हँसी हँसकर बोला, “मैं लाश से ही ज़ना किए जा रहा था।"

"ईमान से?" उसके साथी ने हुंकारा-सा भरते हुए कहा।

"कसम कुरान शरीफ की, मैं ठीक कहता हूँ। पूछ ले जलाल से, यह भी वहीं पर था। तभी हमने देखा, औरत मरी हुई है।" और उसने मुँह टेढ़ा करके थूक दिया।

एक और मुज़ाहिद सुनाने लगा, “वक्त-वक़्त की बात है। एक बागड़ी औरत को हमने गली में पकड़ा। हम कराड़ों के घर के अन्दर से निकल रहे थे। ऐसा हाथ चल रहा था, जो सामने आता, एक बार में गर्दन साफ हो जाती। यह औरत सामने आई तो चिल्लाने लगी। हरामज़ादी कहे जा रहे थी, मुझे मारो नहीं, मुझे तुम सातों अपने पास रख लो, एक-एक करके जो चाहो कर लो। मुझे मारो नहीं।"

"फिर?"

"फिर क्या? अज़ीज़े ने सीधा खंजर उसकी छाती में मारा। वहीं ख़त्म हो गई।"

ढलान पर छिटकी चाँदनी में छोटा ग्रन्थी धीरे-धीरे ढलान पर उतर रहा था। नदी के किनारे मुसलमानों के नुमाइन्दे सन्धि-वार्ता के लिए खड़े थे। गुरुद्वारे की एक खिड़की से ढलान नज़र आती थी, इसलिए बहुत-से लोग दम साधे छोटे ग्रन्थी की ओर देखे जा रहे थे। चाँदनी रात में बस एक काया-सी नीचे उतरती नज़र आ रही थी। तभी छत पर भागते कदमों की आवाज़ आई और एक निहंगसिंह ने वहीं से आवाज़ दी, “पश्चिम से बलवाई आ रहे हैं। दुश्मनों को कुमक मिल गई है।"

और देखते ही देखते दूर से सचमुच बलवाइयों की परिचित आवाज़ कानों में पड़ी : ढोल बजने की आवाज़ और “अल्लाह-हो-अकबर!" नारे की आवाज़।

तेजासिंह का चेहरा उतर गया। बड़ा ग्रन्थी जो खिड़की से जुड़ा अपने छोटे भाई को ढलान उतरता देख रहा था, चिल्ला उठा, “मत जाओ मेहरसिंह, लौट आओ!"

पर छोटे ग्रन्थी ने नहीं सुना, वह बराबर नदी-तट के गोल-गोल पत्थरों पर टेढ़ा-मेढ़ा चलता हुआ नीचे उतरता जा रहा था।

“लौट आओ मेहरसिंह, आ जाओ!"

बड़े ग्रन्थी ने कहा, फिर अनेक आवाजें उठीं। छोटे ग्रन्थी ने एक बार रुककर पीछे की ओर देखा और फिर आगे बढ़ने लगा।

ढोल पीटते और बढ़ते आ रहे बलवाइयों की आवाजें और ज़्यादा नज़दीक आती जा रही थीं। जवाब में अब नदी-तट पर खड़े नुजाहिद भी "अल्लाह-हो-अकबर" के नारे लगाने लगे थे। छोटा ग्रन्थी चाँदनी रात की सफ़ेद और काले बड़े-बड़े चित्तों की रोशनी में खोता चला जा रहा था।

खिड़की में से अब बहुत साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन उन्हें लगा जैसे कुछ लोग छोटे ग्रन्थी से मिलने आगे बढ़कर आए हैं, फिर उन्हें यह भी लगा कि लोगों ने ग्रन्थी को घेर लिया है, फिर यह भी कि कुछ लाठियाँ उठी हैं, चाँदनी में कोई चीज़ चमकने भी लगी थी, जो, या तो किसी की कुल्हाड़ी थी या छोटे ग्रन्थी की तलवार थी। और शीघ्र ही “अल्लाह-हो-अकबर!" का नारा फिर बुलन्द हुआ था।

तेजासिंह को काटो तो खुन नहीं। बडा ग्रन्थी बदहवास होकर चिल्लाया, “मारा गया, मेरा भाई मारा गया!" और बिना सोचे-समझे, नंगे पाँव, निहत्था गुरुद्वारे में से निकलकर, गली पार करके ढलान उतरने लगा।

"रोको, रोको इसे" किसी ने चिल्लाकर कहा, जिस पर दरवाजे पर तैनात निहंगसिंह, ग्रन्थी के पीछे लपका और ढलान के बीचोबीच जाकर उसे कमर से पकड़ लिया और फिर उसे बाँहों में उठाकर वापस लाने लगा।

ढोलक-मंजीरे की आवाजें गाँव में पहुँच चुकी थीं। चारों ओर से नारे गूंजने लगे थे, फिर से गोलियाँ दागी जाने लगी थीं। लोग इधर-उधर भागने लगे।

"जो बोले सो निहाल!"

सत सिरी अकाल!"

हवा को चीरता हुआ नारा उठा।

तलवारें हवा में उठीं और दूसरे क्षण झूमती तलवारों को थामे-थामे सिखों का एक जत्था, जिसके बीच अन्य लोगों के साथ बड़ा ग्रन्थी भी था, नारे लगाता, दुश्मन को ललकारता ढलान उतरने लगा। केस खुले हुए, पत्थरों पर उनके पैर उलटे-सीधे पड़ रहे थे, उन्होंने जैसे मरने-मारने की ठान ली थी।

गुरुद्वारे के अन्दर बाएँ हाथ की दीवार के साथ स्त्रियों और बच्चों का जमघट था। बढ़ते चीत्कार में सभी औरतें जैसे स्वयं ही सिमटकर एक जगह पर आ गई थीं। जसबीर कौर का चेहरा मदहोश-सा हुआ जा रहा था। उसकी कमर से लटकती किरपान की मूठ को अभी भी उसका हाथ कसकर पकड़े हुए था।

अपने-आप ही स्त्रियाँ गायत्री का पाठ करने लगी थीं। गुरुद्वारे में उनकी गुनगुनाती आवाज़ धीरे-धीरे ऊँची उठने लगी।

तभी बाएँ हाथ गली के छोर पर खड़े मकान के पीछे से आग के शोले ऊँचे उठने लगे और वातावरण में पहले से भी अधिक लाली घुलने लगी।

“आग लगी है। स्कूल के पास की गली में आग लगी है। किशनसिंह के घर को आग लगी है।" जसबीर ने सुना पर जैसे उसने कुछ नहीं सुना हो। उसके शरीर में बार-बार एक लहर-सी उठ रही थी और आँखों के सामने कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था, जैसे सब चीजें तैर रही हों, अधखिली रोशनी में उसके इर्द-गिर्द घूम रही हों। वह स्त्रियों के बीच ऐन रोशनी के नीचे खड़ी थी, उसके चेहरे पर से अब भी जैसे जलाल टपक रहा था।

गली के बाएँ सिरे का मोर्चा भुरभुराकर गिर गया। चाँदनी में नहाई ढलान पर कुछ आदमी रेंग-रेंगकर चढ़ते नज़र आए। छत पर खड़े निहंगसिंह ने उन्हें सबसे पहले देखा। उसने किशनसिंह को बताया, लेकिन किशनसिंह ने केवल निराशा में सिर हिला दिया। ढलान चढ़नेवालों की काली, रेंगती आकृतियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। और अब आग की लौ में वे साफ़ नज़र आने लगे थे। पर कहाँ था असला जो उन पर गोली चलाई जाती? किशनसिंह ने दो-एक बार फायर किया, पर फिर चुपचाप बैठ गया।

गुरुद्वारे के बाहर खड़ा सिखों का एक और जत्था बाल खोले नंगी तलवारें हाथ में लिये बाईं ओर गली में आगे बढ़ने लगा। क्योंकि गली के सिरेवाला मोर्चा टूटने पर तुर्क इसी रास्ते गुरुद्वारे पर हमला करनेवाले थे। तभी चिल्लाहट भरी आवाजें आईं, दो-चार गोलियाँ चलने की आवाज़ आईं, फिर सहसा आसमान को चीरती हुई आवाज़ आई : “अल्लाह-हो-अकबर!"

और तलवारें झुलाते सरदार गली के अँधेरे में खो गए।

उसी वक़्त गुरुद्वारे में से उजले कपड़ों में मलबूस स्त्रियों की एक डार-सी निकली। आगे-आगे जसबीर कौर थी, अधमुंदी आँखें, तमतमाता चेहरा। लगभग सभी औरतों ने अपने दुपट्टे सिर पर से उतारकर गले में डाल लिए थे; सभी के पैर नंगे थे। सभी के चेहरे तमतमा रहे थे। मन्त्रमुग्ध-सी वे गुरुद्वारे में से निकलती आ रही थीं।

"तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!" कुछ औरतें चिल्ला रही थीं। कोई गुरुवाणी का पाठ कर रही थी, कोई जैसे उन्माद में चिल्लाए जा रही थी :

"जहाँ मेरा सिंहवीर गया है, वहाँ मैं भी जाऊँगी।"

कुछेक के साथ उनके बच्चे थे। दो-एक ने बच्चों को गोदी में उठा रखा था। कुछेक अपने बच्चों को कलाइयों से पकड़े अपने साथ घसीटती लिये जा रही थीं।

गुरुद्वारे में से निकलकर औरतों की यह डार गली में दाईं ओर बाएँ हाथ घूम गई, फिर कुछ दूर जाकर वहाँ दो घरों के बीच छोटी-सी पगडंडी ढलान पर नीचे उतरती थी और बल खाती सीधी कुएँ तक चली गई थी, उसी ओर स्त्रियाँ बढ़ती जा रही थीं।

चारों ओर हाहाकार मचा था। लपलपाती आग की लपटें अब दो जगह से उठने लगी थीं। ढलान पर, मकानों की दीवारों पर, गली के ईंटों के फर्श पर लपटों के साए नाच रहे थे। नदी के जल में लाल लपटों का साया झिलमिला रहा था, पानी अपने-आप ही लाल होने लगा था। इस चीत्कार में घरों के किवाड़ तोड़ने की आवाजें आने लगी थीं। कस्बे में लूट-पाट शुरू हो गई थी। गुरुद्वारे के सामने गली के बीचोबीच निहंगसिंह बर्छा ऊँचा उठाए चिल्ला रहा था:

“आओ तुर्को, आओ! किसमें सकत है, आओ! मैं ललकारता हूँ, आओ!"

स्त्रियों का झुंड उस पक्के कुएँ की ओर बढ़ता जा रहा था, जो ढलान के नीचे दाएँ हाथ बना था, और जहाँ गाँव की स्त्रियाँ नहाने, कपड़े धोने, बतियाने के लिए जाया करती थीं। मन्त्रमुग्ध-सी सभी उसी ओर बढ़ती चली जा रही थीं। किसी को उस समय ध्यान नहीं आया कि वे कहाँ जा रही हैं, क्यों जा रही हैं। छिटकी चाँदनी में कुएँ पर जैसे अप्सराएँ उतरती आ रही हों।

सबसे पहले जसबीर कौर कुएँ में कूद गई। उसने कोई नारा नहीं लगाया, किसी को पुकारा नहीं, केवल 'वाह गुरु' कहा और कूद गई। उसके कूदते ही कुएँ की जगत पर कितनी ही स्त्रियाँ चढ़ गईं। हरिसिंह की पत्नी पहले जगत के ऊपर जाकर खड़ी हुई, फिर उसने अपने चार साल के बेटे को खींचकर ऊपर चढ़ा लिया, फिर एक साथ ही उसे हाथ से खींचती हुई नीचे कूद गई। देवसिंह की घरवाली अपने दूध पीते बच्चे को छाती से लगाए ही कूद गई। प्रेमसिंह की पत्नी खुद तो कूद गई, पर उसका बच्चा पीछे खड़ा रह गया। उसे ज्ञानसिंह की पत्नी ने माँ के पास धकेलकर पहुँचा दिया। देखते ही देखते गाँव की दसियों औरतें अपने बच्चों को लेकर कुएँ में कूद गईं।

जब तुर्क सचमुच गली के बाएँ सिरे से लाशों को रौंदते हुए गुरुद्वारे की ओर बढ़ने लगे तो गुरुद्वारे में एक भी स्त्री नहीं थी, कुएँ के अन्दर से चिल्लाने-चीखने की आवाजें, बच्चों के बिकड़ाट सुनाई देते रहे। गाँव के पास जगह-जगह से “अल्लाह-हो-अकबर" और "सत सिरी अकाल" के नारों के साथ कुएँ में से डूबती औरतों और बच्चों की चीखें मिल गई थीं।

चाँदनी पीली पड़ गई। धीरे-धीरे पौ फटने लगी। रात का ऐन्द्रजालिक वातावरण फिर से छिन्न-भिन्न होने लगा। स्वच्छ, शीतल हवा रोज़ की तरह बहने लगी। गाँव के बाहर पके गेहूँ के खेत इस हवा में झूमने लगे। हवा में लुकाटों की महक थी। नदी की ओर से हवा का झोंका आया, लुकाटों की महक से लदा हुआ। उसमें उन सफ़ेद फूलों की भी भीनी-भीनी गन्ध मिली थी जो इस मौसम में झाड़ियों पर उगते थे। किसी-किसी वक्त लुकाटों के बाग में से तोतों का एक झुंड पर फड़फड़ाता, चीं-चीं करता उड़ जाता। नदी का पानी नीला-नीला हो रहा था। हवा का झोंका आता तो पानी में झुरझुरी-सी होती।

न जाने रात के किस पहर लूटपाट बन्द हो गई थी। अधिक घरों को भी आग नहीं लगाई गई थी क्योंकि गुरुद्वारेवाली गली को छोड़कर गाँव की प्रत्येक गली में मुसलमानों और सिखों, दोनों के घर पाए जाते थे। स्कूल अलग-अलग थे, या नुक्कड़वाले कुछ घर अलग थे। सुबह होने पर आग की लपटें मन्द पड़ गई थीं। छोटे-छोटे घर थे, जलकर राख होते देर नहीं लगी। सुलगते घरों में से अब पीला-पीला धुआँ अधिक निकलने लगा था।

गुरुद्वारे के अन्दर एक बत्ती अभी भी जल रही थी, एक ओर युद्ध-परिषद् के चारों सदस्य अन्तिम घड़ी का जैसे इन्तज़ार कर रहे थे। तेजासिंहजी, थके-माँदे, गुरुद्वारे की रसदवाली कोठरी में गेहूँ की एक बोरी पर सिर झुकाए बैठे थे। किशनसिंह अभी भी छत पर अपनी कुर्सी पर बैठा था। एक निहंगसिंह बर्छा लिए अभी भी दरवाजे की ओट में खड़ा था।

जब रोशनी फैलने लगी तो चीलें और कव्वे, ढेरों-के-ढेरों आसमान में उड़ने लगे। अनेक गिद्ध भी मँडराते हुए आ गए। स्कूल के बाहर खड़े एक रुंड-मुंड पेड़ पर दस-पन्द्रह गिद्ध आकर बैठ गए थे-छोटे-छोटे सिर बड़ी-बड़ी पीली चोंचें। कुछ गिद्ध कुएँ की जगत पर भी आ बैठे थे जहाँ लाशें फूलने लगी थीं और फूल-फूलकर कुएँ के मुँह तक पहुँचने लगी थीं। घरों की मुँडेरों . पर भी जगह-जगह गिद्ध आकर बैठ गए थे। गलियाँ सुनसान पड़ी थीं, बिखरी लाशें गाँव की निःस्तब्धता को और भी गहरा बना रही थीं। अब गाँव की गलियों में कोई धीरे से भी चलता तो उसके पैरों की चाप गूंजती थी। बलवाई लूटपाट का सामान लेकर लौट गए थे, बहुत-से मारे गए थे। गुरुद्वारे के कुएँ की ओर जानेवाले रास्ते पर जगह-जगह औरतों के पराँदे, चुन्नियाँ, चूड़ियाँ गिरी पड़ी थीं। गुरुद्वारे के निकट विशेष रूप से हाथों में से टूटकर गिरी चूड़ियों के टुकड़े जगह-जगह बिखरे पड़े थे। गलियों में टूटे खाली सन्दूक, कनस्तर, खाटें, लूटपाट की कहानी कह रहे थे। मकानों के किवाड़ कहीं अधखुले, तो कहीं टूटे पड़े थे। जगह-जगह उस आँधी के निशान थे जो रात-भर चलती रही थी।

पर लड़ाई अभी बन्द नहीं हुई थी। मोटे कसाई का बड़ा लड़का छिप-लुककर गुरुद्वारे की पिछली खिड़कियों पर तेल छिड़ककर आग लगाने की तैयारी कर रहा था।

सहसा वायुमंडल में एक अजीब-सा शब्द सुनाई देने लगा : गहरा, धीमा, घरघराता-सा शब्द। यह आवाज़ क्या थी? यह आवाज़ कोठरी में बैठे तेजासिंह ने भी सुनी, गुरुद्वारे की छत पर तैनात किशनसिंह ने भी सुनी, शेखों की हवेली में भी सभी के कानों में पड़ी। सभी ठिठक गए। मोटे कसाई का बेटा भी ठिठक गया, जो गुरुद्वारे को आग लगाने जा रहा था। यह कैसी आवाज़ थी? घरघराती गहरी-सी आवाज़ जो बराबर ऊँची होती जा रही थी। दरवाज़ों, दीवारों की ओट में खड़े या बैठे इक्के-दुक्के लोग बाहर झाँकने लगे, किशनसिंह कुर्सी पर से उठ बैठा और भागकर मुँडेर के पास जा खड़ा हुआ।

हवाई जहाज़ था। बड़ा-सा, बड़े-बड़े काले डैनोंवाला हवाई जहाज़। घाटियों-पहाड़ियों के ऊपर डैने फैलाए, घरघराता गाँव की ओर आ रहा था। किसी-किसी वक़्त उसके डैने स्याह काले पड़ जाते, पर किसी वक़्त वे चाँदी की तरह झिलमिलाने लगते। कभी उसका दायाँ डैना नीचे की ओर झुक जाता, कभी बायाँ। हवाई जहाज़ हवा में मानो अठखेलियाँ करता चला आ रहा था।

जब वह नज़दीक पहुँचा तो लोग उठ-उठकर बाहर आने लगे; गलियों, छतों, चबूतरों पर आ-आकर लोग खड़े हो गए और बड़ी उत्सुकता से हवाई जहाज़ की ओर देखने लगे। गाँव के ऊपर उड़ते समय जहाज़ और भी नीचा हो आया था और जहाज़ के अन्दर बैठा चालक-गोरा फौज़ी-अपना हाथ हिला-हिलाकर नीचे खड़े लोगों का अभिवादन कर रहा था। उसकी बड़ी-बड़ी ऐनकों के नीचे कुछ लोगों को उसकी मुस्कराहट नज़र आ गई थी।

"मुस्कराया है, मैंने खुद देखा है।" बाहर खड़ा एक लड़का दूसरे से बोला, “उसने हाथ में सफ़ेद रंग का दस्ताना पहन रखा है। यों हाथ हिला रहा था, तूने नहीं देखा?"

सभी हाथ थम गए, अब और कुछ नहीं होगा, अंग्रेज़ तक फ़साद की ख़बर पहुँच गई है, अब कोई आग नहीं लगाएगा, बन्दूक नहीं चलाएगा। मोटे कसाई के बेटे ने, जिसने गुरुद्वारे की खिड़कियों पर तेल छिड़क दिया था और बस दियासलाई लगाने की ही देर थी, अपने हाथ खींच लिए। लोग मुँह बाए हवाई जहाज़ की ओर देखते जा रहे थे।

कॉकपिट में बैठे गोरे सिपाही ने गुरुद्वारे के ऊपर से उड़ते हुए हाथ हिलाया। नीचे, छत पर खड़े किशनसिंह को लगा जैसे गोरे हवाबाज़ ने उसी को लक्ष्य करके हाथ हिलाया है, उसने अपने साथी सैनिक का अभिवादन किया है। किशनसिंह, जो अभी तक परेशान और बदहवास खड़ा था, उठकर अटेंशन खड़ा हो गया और एड़ियाँ टकराकर सैल्यूट मारी। आख़िर सैनिक सैनिक ही होते हैं, एक सैनिक दूसरे सैनिक को सैल्यूट किए बिना नहीं रह सकता। किशनसिंह का दिल बल्लियों उछलने लगा। बर्मा की लाम में हर शाम वह अपने कप्तान जैक्शन से मिलने जाया करता था। जैक्शन हमेशा बड़े ध्यान से उसकी बात सुनता था और उसके सैल्यूट का जवाब बाकायदा सैल्यूट से दिया करता था।

किशनसिंह ने भावोद्रेक में ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहा :

“गॉड सेव दि किंग, साहिब, गॉड सेव दि किंग!"

हवाई जहाज़ आगे जा चुका था और अब शेखों की हवेली के ऊपर से उड़ रहा था। किशनसिंह आँखें फाड़-फाड़कर उस ओर देखने लगा। शेख के घर की छत पर भी लोग चढ़ आए थे और हाथ हिला-हिलाकर अंग्रेज़ हवाबाज का अभिवादन करने लगे थे। किशनसिंह देखना चाहता था कि गोरे सैनिक ने मुसलों के अभिवादन का जवाब दिया है या नहीं। और उसे सचमुच लगा जैसे पाइलट ने सचमुच हाथ अन्दर खींच लिया है। यह देखकर किशनसिंह को हार्दिक खुशी हुई, वह खड़े-खड़े चहक उठा :

"दो दिन पहले आ जाते साहब, तो हमारा इतना ज़्यादा नुकसान तो नहीं होता, मगर कोई फिक्र नहीं...।"

फिर किशनसिंह को जोश आ गया, मुट्ठियाँ भींचकर, शेखों के घर की ओर देखकर चिल्लाकर बोला, “अब चलाओ गोली, मुसलो, लो मैं सामने खड़ा हूँ! चलाओ गोली! अब क्यों नहीं चलाते! पहले बड़े शेर बनते थे, अब चलाओ गोली!" और भारी-भरकम देहवाला किशनसिंह मुंडेर के पास खड़ा, हाथ झुलाता, मुट्ठियाँ दिखाता पागलों की तरह नाचने लगा।

तेजासिंह सोच रहे थे कि जल्दी से जल्दी शहर पहुँचना होगा और पहुँचकर डिप्टी कमिश्नर साहब को इन सारी घटनाओं का ब्योरा देना होगा, सारे नुकसान की फेहरिस्त बनाकर उन्हें देनी होगी। अब आए तो क्या आए, पर कोई बात नहीं, हमने भी अच्छे भूने हैं, मुसले फिर कभी हमारे साथ लड़ने की हिम्मत नहीं करेंगे।

गुरुद्वारे के पिछवाड़े में खड़े मोटे कसाई के बेटे ने मिट्टी के तेल की बोतल नाली में उँडेलकर चबूतरे के नीचे छिपा दी, सूखी थिगलियाँ गुरुद्वारे के एक झरोखे में से अन्दर को फेंक दी और दियासलाई से सिगरेट सुलगाकर सिगरेट के कश लेता हुआ जिधर से आया था उधर ही लौट गया।

हवाई जहाज़ ने कस्बे के अन्दर तीन चक्कर लगाए। तीसरा चक्कर लगाते समय नीचे खड़े लोग गाँव में भी हाथ हिला-हिलाकर उसके अभिवादन का जवाब दे रहे थे। तीन चक्कर लगाने के बाद वह अन्य गाँवों की ओर आगे बढ़ गया।

कस्बे का माहौल बदल चुका था। लोग बाहर आने लगे थे, लड़ाई बन्द हो गई, लाशें ठिकाने लगाई जाने लगीं, कुछ लोग अपने गहने-कपड़ों की जाँच करने अपने-अपने घरों की ओर चल दिए कि क्या बचा है, क्या कुछ लूट लिया गया है। सेवादार और निहंगसिंह गुरुद्वारे को धोने, साफ़ करने में लग गए। उधर शेख के हुक्म से मस्ज़िद भी बुहारी-धोई जाने लगी। दोनों समुदायों के लोग अपने-अपने धर्मस्थल को धो-धोकर साफ़ कर रहे थे।

जिस-जिस गाँव पर हवाई जहाज़ उड़ता गया, वहीं पर ढोल बजने बन्द हो गए, नारे लगाए जाने बन्द हो गए। आगजनी और लूटपाट बन्द हो गई।

तमस (उपन्यास) : उन्नीस

शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूकों से लैस, किसी मकान के चबूतरे पर बैठे या सड़क के किनारे खड़े नज़र आ जाते। शहर में फौज़ तैनात कर दी गई थी। फसादों के चौथे दिन अठारह घंटे का कर्फ्यू लगा दिया गया था, पर आज पाँचवें दिन कर्फ्यू की मियाद केवल बारह घंटे कर दी गई थी-शाम के छह बजे से लेकर सुबह के छह बजे तक। कानों-कान खबर फैल चुकी थी कि बख्तरबन्द गाड़ी में सिटी मैजिस्ट्रेट और डिप्टी कमिश्नर भी मुसल्लह सिपाहियों के साथ शहर का दौरा कर रहे हैं। कहीं-कहीं पर घुड़सवार पुलिस के दो-दो सिपाही कमर में पिस्तोल लटकाए पले हुए आलीशान घोड़ों पर जगह-जगह गश्त कर रहे थे। दफ़्तर, स्कूल, कालिज अभी भी बन्द थे, गलियों के अँधियारे हिस्सों में या नाकों पर अभी भी गिने-चुने लोग बी-भाले उठाए और मुश्कें बाँधे छिप-लुककर बैठे नज़र आते थे, पर कर्फ्यू लग जाने से और फौज़ तैनात कर देने से फ़साद की स्थिति नहीं रही थी। लोग बाहर निकलने लगे थे, एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्लों में भी दाएँ-बाएँ झाँकते हुए जाने लगे थे। ख़बरों का रुख बदल गया था। सुनने में आ रहा था कि दो रिफ्यूजी कैम्प खुलने जा रहे हैं जिनमें 20 गाँवों से आनेवाले लोग ठहराए जाएँगे; कैंटोनमेंट और शहर के दो सरकारी अस्पतालों में न केवल जख्मियों को भरती किया जाने लगा था, बल्कि मुर्दे भी उठा-उठाकर इकट्ठा किए जाने लगे थे। हर ख़बर में डिप्टी कमिश्नर का नाम ज़रूर सुनने में आता था। पाइप मुँह में लगाए वह हर जगह मौजूद था। उनके बारे में सुनते थे कि कर्फ्यू के वक़्त के बाद गश्त करते हुए उसने एक अस्पताल के बाहर एक युवक को देखा, दो बार उसे ललकारा और फिर गोली से उड़ा दिया था। सारे शहर को कान हो गए थे कि अब दंगा-फसाद नहीं हो सकता। कांग्रेस की ओर से एक स्कूल के अन्दर रिलीफ दफ्तर खुल गया था और गाँवों में से आनेवाले लोगों की भीड़ लगी रहती थी। वहाँ पर भी डिप्टी कमिश्नर तीन मर्तबा हो आया था। सार्वजनिक संस्थाओं के साथ मिलकर सरकार मसलों को सुझालाना चाहती थी। सरकार का यह रुझान देखकर सार्वजनिक संस्थाओं के नेता बड़ी पहलकदमी दिखाने लगे थे, उधर सरकारी अफसरों में चुस्ती आ गई थी। यहाँ तक कि सियासी हल्कों में भी डिप्टी कमिश्नर के बारे में राय बदलने लगी थी। भले ही डिप्टी कमिश्नर साम्राज्यवादी मशीन का पुर्जा हो मगर यह डिप्टी कमिश्नर महज़ पुर्जा नहीं है। यह बड़ी सूझबूझवाला और हमदर्द आदमी है। उसी शाम जब डिप्टी कमिश्नर ने अस्पताल के बाहर एक आदमी को गोली का निशाना बनाया था, वह इतना बेचैन हो उठा था कि वह रात-भर सो नहीं सका। प्रोफेसर रघुनाथ का तो कहना था कि यह आदमी वास्तव में प्रशासन के काम के लिए बना ही नहीं है, वह तो कोमल अनुभूतियोंवाला किताबी आदमी है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने इस काम पर लगाकर उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। हाँ, कुछ सियासी लोग अभी भी इसे गालियाँ दे रहे थे और कह रहे थे कि सब इसी का किया-कराया है।

दौरे पर निकले रिचर्ड की जीप-गाड़ी हेल्थ-ऑफ़िसर के घर के सामने रुकी। हेल्थ-ऑफिसर को टेलीफोन पर ख़बर दे दी गई थी कि साहब आ रहे हैं और खबर पाने पर वह अन्दर ही अन्दर फूला नहीं समा रहा था। और हेल्थ-ऑफिसर ने जान-बूझकर कोट-पैंट के स्थान पर देसी पोशाक-सिल्क का कुर्ता और नीचे सरसराती पंजाबी सलवार और पेशावरी जूती-पहन रखी थी। उसकी पत्नी ने चाय-कॉफी का इन्तज़ाम कर रखा था। साहब के अन्दर आते ही पाइप के तम्बाकू की महक आँगन-भर में फैल गई। पर डिप्टीकमिश्नर ने न चाय पी, न कॉफी। लगभग पाँच मिनट तक खड़े-खड़े ही बात की। हेल्थ-ऑफ़िसर से हाथ मिलाते ही बोला :

"नाइस! वेरी नाइस! तुम्हें इन दिनों में भी अपनी पोशाक का खूब ध्यान रहता है! देसी पोशाक तुम पर बहुत फबती है।"

फिर हेल्थ-ऑफ़िसर की पत्नी से हाथ मिलाते हुए बोला, “आपके लिए अभी दिन नहीं चढ़ा है, क्या?" क्योंकि हेल्थ-ऑफ़िसर की पत्नी अभी भी ड्रेसिंग गाउन में थी।

फिर हेल्थ-ऑफ़िसर को मुखातिब करके बोला, “रिफ्यूजी कैम्पों में पानी का बन्दोबस्त एक बार फिर देख लेना होगा।" डिप्टी कमिश्नर ने इस लहज़े से कहा मानो अपने-आपसे बात कर रहा हो, “और पानी निकालने की नालियाँ अभी तक नहीं खोदी गई हैं।" उसने सिर हिलाते हुए मुस्कराकर कहा, मुस्कराहट का मतलब था, याद दहानी, कि दो दिन पहले का कहा हुआ काम अभी तक नहीं हो पाया है।

“मैंने इन्तज़ाम कर दिया है, आज से काम शुरू हो जाएगा।"

“गुड," डिप्टी कमिश्नर ने कहा और फिर मुस्कराया, "जिस गाँव में औरतें और बच्चे कुएँ में कूद गए हैं, वहाँ पर बीमारी फैलने का डर है। वहाँ आपको जाना चाहिए।"

हेल्थ-ऑफ़िसर के कान खड़े हो गए। गाँव के लोग भाग-भागकर शहर में आ रहे थे, मैं वहाँ क्या करने जाऊँगा? पर डिप्टी कमिश्नर को हर बात का ध्यान था।

“आज तीसरा दिन है, वहाँ पर लाशें फूलकर सड़ने लगी होंगी। कुएँ में फौरन डिस-इंफेक्टेंट डालना होगा ताकि कोई बीमारी नहीं फैले। कल से रोज़ सुबह आप जाइए। बस का इन्तज़ाम मैंने कर दिया है। दो मुसल्लह सिपाही आपके साथ जाएँगे, डर की कोई बात नहीं है।"

डिप्टी कमिश्नर का हाथ न केवल शहर की नब्ज पर था बल्कि ज़िले-भर की नब्ज पर था।

हेल्थ-ऑफिसर की पत्नी इस बीच कपड़े बदलकर और जूड़ा बनाकर चुस्त-दुरुस्त बनकर आ गई थी। उसने चाय-कॉफी का फिर से आग्रह किया, तो डिप्टी कमिश्नर मुस्करा दिया :

“देअर विल बी टाइम फार टी, मिसेज़ कपूर, बट नॉट नो, थेंक यू!" फिर उसी तरह अपनेपन के स्वर में बोला, “वैल, आपको भी थोड़ी मदद करनी होगी। रिफ्यूजी कैम्प में दो हज़ार खाटें तो आज पहुँच जाएँगी, लेकिन कपड़ों वगैरा का थोड़ा इन्तज़ाम करना ज़रूरी है। एक छोटी-सी स्त्रियों की रिलीफ कमिटी बन जाए तो अच्छा काम हो सकता है।" और रिचर्ड ने फिर मुस्कराकर सिर हिला दिया।

रिचर्ड में यह बहुत बड़ा गुण था। वह बात इस ढंग से करता कि लगता कोई मामला मश्विरे के लिए उठा रहा है, पर वास्तव में वह हुक्म होता, निर्देश होता। हेल्थ-ऑफ़िसर की पत्नी भी फूली नहीं समाई। डिप्टी कमिश्नर की पत्नी के साथ काम करने का मौका मिलेगा, इससे बढ़कर क्या चाहिए। पर पेश्तर इसके कि वह कोई जवाब दे, रिचर्ड हेल्थ-ऑफिसर को साथ लिए ड्योढ़ी लाँघकर बाहर जा चुका था।

“मुर्दो के जलाने के बारे में तुम क्या सोचते हो? मैं समझता हूँ, यह काम म्युनिसिपल कमेटी की तरफ से किया जाना चाहिए, और आम लोगों को इसकी खबर देना ज़रूरी नहीं है, इससे तनाव फिर बढ़ सकता है।"

हेल्थ-ऑफ़िसर सौ फीसदी सहमत था।

“पहले से ही ऐसे किया गया है। गड्ढों में फेंको और जला दो। अब एक-एक की अर्थी उठने लगे तो फिर तनाव बढ़ेगा।" हेल्थ-ऑफ़िसर ने डिप्टी कमिश्नर की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, फिर धीरे से बड़बड़ाया, “पहले एक-दूसरे की मार-काट करते हैं, फिर सरकार से इस बात की आशा भी करते हैं कि सरकार उनके मुर्दो को भी ठिकाने लगाए!"

डिप्टी कमिश्नर ने कनखियों से हेल्थ-ऑफिसर की तरफ़ देखा। क्षण-भर के लिए वह ठिठक-सा गया, फिर मुस्करा दिया, “वैल लैट्स गेट गोइंग। नो टाइम टु वेस्ट।" और सिर हिलाकर जीप में सवार हो गया।

दस मिनट के बाद वह रिलीफ कमेटी के दफ्तर में, जहाँ शहर के चीदा-चीदा लोग इकट्ठे हुए थे, सरकार की रिलीफ-सम्बन्धी योजना का ब्योरा दे रहा था :

"बाज़ार खुल गए हैं। कोयले की चार वैगन रेलवे स्टेशन पर मौजूद हैं, दस वैगन और मंगलवार तक पहुँच जाएँगी। अभी कुछ दिन तक शाम को 6 बजे से सुबह 6 बजे तक कप! जारी रहेगा। साथ में फौज़ भी तैनात रहेगी और पुलिस की गश्त भी जारी रहेगी। शहर में से लाशें उठवा दी गई हैं और इनको ठिकाने लगाने का काम सरकार खुद करेगी। पोस्ट ऑफिस आज दोपहर को खुल जाएँगे, लेकिन पिछली डाक को बाँटने का काम हाथ में नहीं लिया जा सकता, बड़े पोस्ट ऑफिस में सारी डाक बाहर रख दी गई है। हाँ रजिस्ट्री, चिट्ठियाँ और पैकेट बाँटे जाएँगे।" बोलते समय किसी-किसी वक़्त रिचर्ड का चेहरा लाल हो जाता और उसके होंठ थरथरा-से जाते मानो वह भाषण देने का अभ्यस्त न हो, लेकिन कोई भी वाक्य, कोई भी शब्द अनावश्यक नहीं होता था।

“रिफ्यूजी कैम्पों में हम चाहेंगे कि पब्लिक संस्थाएँ सरकार को सहयोग दें। राशन की सप्लाई का इन्तज़ाम कर दिया गया है, टेंट लगा दिए गए हैं। हमें कुछ डॉक्टरों की ज़रूरत होगी, बहुत-से वालंटियरों की भी जो रिफ्यूजियों की देखभाल में मदद दे सकें।...”

बोलते समय रिचर्ड की पैनी नज़र ने सभा में बैठे अनेक व्यक्तियों को पहचान लिया था और उनका रुख भी भाँप लिया था। दहलीज़ के पास मनोहरलाल खड़ा था, काला, मोटा मनोहरलाल, वैसे ही व्यंग्यपूर्ण अन्दाज़ में बाँहें छाती पर लपेटे खड़ा मुसकराए जा रहा था, डिप्टी कमीश्नर के एक-एक वाक्य पर नाक-भौंह चढ़ा रहा था। यह वही आदमी था जो फ़िसादों के पहले बलवाइयों के वफ़द के साथ आया था और रिचर्ड के दफ्तर के बाहर ऊँचा-ऊँचा बोलता रहा था। रिचर्ड की नज़र में यह आदमी यहाँ भी बकवास कर सकता था। दूसरा आदमी कम्युनिस्ट देवदत्त था। पिछले एक साल में रिचर्ड उसे दो बार तीन-तीन महीने के लिए जेल भेज चुका था। यह आदमी फ़िसाद के पहले और फ़िसाद के दिनों में भी फ़िसाद को रोकने की कोशिश करता रहा था, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के कारकुनों को एक साथ मिल बैठने और शहर में अमन बनाए रखने के लिए प्रेरित करता रहा था। इसकी नज़र अभी भी अमन पर ही थी, इस समय यह इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं करेगा। दफ्तर में कांग्रेसी कार्यकर्ता बख्शी तथा अनेक अन्य व्यक्ति थे जिन्हें वह जानता था, बहुत-से वकील थे जिन्हें वह पहचानता था। इसी मजलिस में एक और आदमी भी था जो कांग्रेस में भी था, सोशलिस्ट पार्टी में भी था और सी. आई. डी. (खुफिया पुलिस) में भी था। यह आदमी गड़बड़ भी कर सकता है, मीटिंग में से नारे लगाता हुआ वाक आउट भी कर सकता है, सरकार को गालियाँ भी दे सकता है।

पर रिचर्ड ने सीधी लाइन पकड़ी, शहर की स्थिति पर बहस होने ही नहीं दी, अपने सुझाव दिए और बैठ गया।

अभी रिचर्ड के बैठने की देर थी कि लाला लक्ष्मीनारायण उठ खड़ा हुआ : “हम डिप्टी कमीश्नर साहब को यकीन दिलाते हैं कि शहर की जनता और शहर की सभी संस्थाएँ सरकार के साथ पूरा-पूरा सहयोग करेंगी। हमारी खुशकिस्मती है कि इतना योग्य, इतना हमदर्द, हाकिम इस जिले में मौजूद है...।"

इस पर रिचर्ड उठ खड़ा हुआ, रिलीफ कमेटी के कार्यकर्ताओं से विदा ली और बाहर निकल गया। लक्ष्मीनारायण और कुछ वकील भागते हुए कमरे से उसे जीप तक छोड़ने गए। मीटिंग पन्द्रह मिनट में ख़त्म हो गई। पर तभी पीछे से, दरवाज़े की ओर से सहसा आवाज़ आई :

“यहाँ सभी टोडी इकट्ठे हुए हैं, सरकार की चापलूसी करनेवाले। हम किसी से डरते नहीं हैं, साफ बात मुँह पर कहते हैं। इन फ़िसादों के लिए ज़िम्मेदार कौन है? सरकार उस वक़्त कहाँ थी जब शहर में तनाव बढ़ रहा था, अब कयूं लगाया गया है, उस वक़्त क्यों नहीं लगाया गया? उस वक़्त साहब बहादुर कहाँ थे? हम किसी से डरते नहीं हैं, साफ बात मुँह पर कहते हैं..." मनोहरलाल बोले जा रहा था।

पर उस वक़्त तक जीप जा चुकी थी।

"बस, बस, अब इन बातों को यहाँ लाने की ज़रूरत नहीं है।" रिलीफ कमेटी के कारकुन उठने लगे थे जब एक सज्जन ने उसके पास से गुज़रते हुए कहा, “निकाल लो गालियाँ सरकार को, क्या बना लोगे? इस वक्त सरकार को गालियाँ देने से तुम्हें क्या मिल जाएगा?"

“ओ बख्शीजी, आप भी ऐसी बात कहते हैं? आप भी अब जाकर चरखा कातिए या गलियाँ साफ कीजिए। सियासत आपके वश का रोग नहीं है ।"

“तू इतना चिल्लाता क्यों है? क्या मैं नहीं जानता कि फ़िसाद अंग्रेज़ करवाता है, गांधीजी ने एक बार नहीं, दस बार कहा है..."

"फिर आपने किया क्या है?" ।

"क्या नहीं किया है? मुस्लिम लीग वालों के पास गए हैं कि शहर में अमन रखने के लिए हमारे साथ मिलकर काम करो, डिप्टी कमीश्नर के पास गए हैं कि फौज़ बैठाओ और फ़िसाद को रोको। और हम कर ही क्या सकते थे? और अब जब लोग बर्बाद होकर आए हैं, हमारा क्या फर्ज़ है, हम उनकी मदद करें या सरकार को गालियाँ दें? बड़ा आया इन्कलाबी।"

"हमने भी बहुत देखे हैं, हमसे न बुलवाइए बख्शीजी, हम सब जानते हैं। कांग्रेस के मेम्बर रिफ्यूजी कैम्प में सरकार से सप्लाई के ठेके ले रहे हैं। कहो तो नाम भी बता दूँ?"

“ठेके ले रहे हैं तो मैं क्या करूँ?"

“आप लोगों ने उन्हें कांग्रेस में भी चौधरी बना रखा है।"

तभी एक कारकुन मनोहरलाल के पास आया और मनोहरलाल की कमर में अपना हाथ देकर उसे वहाँ से ले चला, “छोड़ो यार, हमने बहुत देखे हैं। यहाँ सब तोते बैठे हैं, गांधीजी वर्धा में बैठे हुक्म देते हैं तो यहाँ उस पर अमन होने लगता है, लेकिन खुद वह कुछ नहीं सोच सकते।

“डिप्टी कमीश्नर को यहाँ बुलाने का क्या मतलब था?"

पर उसका दोस्त उसे धकेलता हुआ फाटक तक ले गया। गेट पर पहुँचकर मनोहरलाल ने बड़बड़ाना छोड़ दिया।

"लाओ अब सिगरेट तो निकालो, दो कश तो लगाएँ...।"

और दोनों दोस्त गेट के पास चबूतरे पर बैठ गए।

डिप्टी कमीश्नर के चले जाने के बाद बख्शीजी के मन की स्थिति भी कुछ-कुछ वैसी हो रही थी।

"फ़िसाद करवानेवाला भी अंग्रेज़, फिसाद रोकनेवाला भी अंग्रेज़, भूखों मारनेवाला भी अंग्रेज़, रोटी देनेवाला भी अंग्रेज़, घर से बेघर करनेवाला भी अंग्रेज़, घरों में बसानेवाला भी अंग्रेज़...” पर जब से फ़िसाद शुरू हुए थे बख्शीजी के दिमाग में धूल-सी उड़ने लगी थी, बस केवल इतना भर ही बार-बार कहते रहे, 'अंग्रेज़ फिर बाज़ी ले गया।' 'अंग्रेज़ फिर बाज़ी ले गया।' पर शुरू से अखीर तक स्थिति उनके काबू में नहीं आई।

जिस बीच रिचर्ड शहर का दौरा कर रहा था, उसी बीच लीज़ा बोरियत से परेशान हो रही थी। अपने बेड-रूम में से निकलकर वह बड़े कमरे में आ गई। अलमारियों में ठसाठस भरी किताबें छाती का बोझ बनी हुई थीं। लगता समय की गति थम गई है और कुछ भी हिल-डुल नहीं रहा है। हर चीज़ को लकवा मार गया है, अगर कुछ जीवित है तो गौतम बुद्ध और बोद्धिसत्त्वों की आँखें, जो अँधेरे कोनों में छल और कपट से भरी, असंख्य षड्यन्त्रों के जाल बिछाती-सी उसकी ओर देखा करती हैं। शाम के वक़्त इस कमरे में आते हुए उसे डर लगने लगा था, जगह-जगह खड़े बुत उसे विषैले साँपों के सिर जैसे लगते थे।

वह खानेवाले कमरे में आई। यहाँ का वायुमंडल कहीं अधिक शान्त था, यहाँ फूल थे, मद्धिम रोशनी थी, यहाँ बुत न थे, न ही किताबों का बोझ था। यहाँ वातावरण में स्निग्धता थी, व्यक्ति यहाँ सब-कुछ भूल सकता था, बहुत-कुछ याद कर सकता था। ऐसी रोशनी प्रेम करने के लिए बनी थी, अलसाने के लिए, आलिंगनों और चुम्बनों के लिए। लीज़ा को अपना गला रुंधता-सा महसूस हुआ और आँखों में आँसू चुभते-से लगे। अन्दर-ही-अन्दर फिर से कुछ घुमड़ने लगा था और धीरे-धीरे उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। इस कमरे की स्निग्धता भी असह्य सन्नाटे में बदल गई। सहसा उसके अन्दर अकुलाहट-सी उठी, अपनी सिसकी को दबाती हुई वह उठी और किचन की ओर जानेवाले बरामदे के पास ज़ोर से चिल्लाई, "बैरा!"

दूर कहीं से दीवारों की अनगिनत परतों को लाँघती हुई-सी आवाज़ आई:

"मेम साऽऽऽब!"

और कन्धे पर झाड़न लटकाए, खानसामा ढुलकी चाल चलता हुआ मेम साहब के सामने आकर खड़ा हो गया। चार बज रहे थे, वह जानता था क्या आदेश होगा। कभी तीन बजे, कभी चार बजे, कभी साढ़े चार बजे तक मेम साहब का धैर्य चुक जाता था। और वह जिस कमरे में भी होती, चिल्लाकर बुलाती थीं, “बीयर लगाओ, ठंडा बीयर माँगता।"

और लीज़ा हल्की-सी कराहट के साथ फिर खानेवाले कमरे में लौट गई। लीज़ा हाउस कोट पहने ही उसके सामने चली आई थी और हाउस कोट की भी पेटी खुली थी। इस सुनसान बियाबान में रहते हुए बीयर के अलावा कुछ रह नहीं गया था जिससे इनसान अपनी स्थिति को, अपने-आपको भूल सके।

रिचर्ड शाम को आठ बजे के करीब लौटा। लीज़ा नशे में धुत्त सोफे पर ही पड़ी-पड़ी सो गई थी। तिपाई पर बीयर की बोतल में अभी भी कुछ यूंट बच रहे थे। सोफे के एक सिरे पर लीज़ा का सिर लुढ़ककर लटक-सा रहा था और उसके बाल उसके आधे चेहरे पर छितरा गए थे। हाउस कोट ऊपर खिसक आया था जिससे घुटने नंगे हो रहे थे।

"डैम दिस कंट्री, डैम दिस लाईफ!" रिचर्ड सोफे के सामने खड़ा-खड़ा बुदबुदाया।

अपने घर में पहुँचने पर रिचर्ड दूसरी दुनिया में पहुँच जाता था, घर के अन्दर इंग्लैंड की ज़िन्दगी थी, उसकी निजी ज़िन्दगी और उसकी समस्याएँ जिनका बाहर की दुनिया से दूर पार का भी सम्बन्ध नहीं था। बाहर की ज़िन्दगी तो धन्धा था, असल ज़िन्दगी तो घर के अन्दर थी, जो उसकी निजी ज़िन्दगी थी। अलावा उस अध्ययन के जिसमें वह घर और बाहर दोनों को भूल जाता था।

वह सोफे के एक सिरे पर बैठ गया और आगे बढ़कर लीज़ा को गाल पर चूम लिया। अपना फर्ज़ निबाहते हुए औपचारिकता में रात को कभी-कभी जिस उत्तेजना और आग्रह के साथ इस देह को बाँहों में भरा करता था, इस वक्त यही देह उसे स्थूल और मांसल और अनाकर्षक लग रही थी। लीज़ा का वजन फिर से बढ़ने लगा था और उसकी आँखों के नीचे गूमड़ बनने लगे थे। बोरियत के कारण लीज़ा मोटी होती जा रही थी। हर बार घर लौटने पर वह लीज़ा को इस स्थिति में देखता तो उसका मन खिन्न हो उठता।

“लीज़ा!" उसने आगे झुककर लीज़ा के कान में कहा और हाथ बढ़ाकर उसके माथे पर से बाल हटा दिए।

लीज़ा ग़नूदगी में थी। रिचर्ड ने उसे कन्धे से हिलाया। फिर यह देखकर कि लीज़ा इस स्थिति में नहीं है कि मेज़ पर बैठकर भोजन करे, उसे उसके बिस्तर में लिटा देना ही मुनासिब होगा; उसने दायाँ हाथ लीज़ा की गर्दन के नीचे दिया और बायाँ हाथ घुटनों के नीचे और लीज़ा को उठाकर कमरे में ले जाने की कोशिश करने लगा। तभी रिचर्ड को लगा जैसे नीचे से लीज़ा का हाउस कोट गीला हो रहा है, और फिर उसकी नज़र सोफे पर पड़ी...जिस ओर लीज़ा की टाँगें रही थीं, वहाँ पर सोफे की सीट पर गोलाकार में सोफे का एक हिस्सा गीला हो रहा था। लीजा ने सोफे पर फिर पेशाब कर दिया था।

रिचर्ड का मन वितृष्णा से भर उठा। पेशाब की तीखी गन्ध उसकी नाक में गई। रिचर्ड ने खड़े-खड़े ही सिर हिला दिया। कहानी फिर से दोहराई जाने लगी है। अभी लीज़ा साल-भर घर में लन्दन में बिताकर आई थी। उससे पहले वह ऊबकर भारत से भाग गई थी। यह फिर भाग जाएगी। या तो फिर से चली जाएगी या फिर मुझे अपनी तबदीली किसी दूसरी जगह करवानी पड़ेगी।

सोफे की ओर देखकर उसे सहसा एक अनोखी-सी बात याद आ गई और वह मुसकरा दिया। यह सोफा उसने यहाँ तबदील होने पर कमीश्नर लारेंस से लिया था जो स्वयं तबदील होकर लखनऊ जा रहा था। और जब बाद में उसने सोफे पर से कपड़ा उतारा था तो उसके नीचे भी वैसा ही भद्दा चटाख नज़र आया था जैसा अब नज़र आ रहा था। और उसने सुन रखा था कि कमीश्नर की पत्नी भी बोरियत का शिकार थी और वह भी नशे में या तो रोते-रोते या हँसते-हँसते सोफे को गीला कर दिया करती थी। और कमीश्नर भी जगह-जगह अपनी तबदीलियाँ करवाता फिरता था और अन्त में उसकी पत्नी उसे छोड़ गई थी और फौज़ के एक युवा कप्तान के साथ ब्याह कर लिया था। रिचर्ड ने अपनी पत्नी की ओर देखा, फिर सोफे की ओर। इस घर का भी ऐसा ही कुछ हश्र होगा, उसने मन-ही-मन कहा और लीज़ा को उठाए हुए उसे बेड-रूम की ओर ले चला।

बेड-रूम तक पहुँचते-पहुँचते लीज़ा जाग गई थी, कुछ नशा भी उतरने लगा था।

“क्या है रिचर्ड, मुझे कहाँ ले जा रहे हो?"

"तुम्हारा गाउन नीचे से गीला हो रहा है, लीज़ा, मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे में ले जा रहा हूँ।"

पर लीज़ा ने इस उत्तर को स्पष्टतः ग्रहण नहीं किया।

लीज़ा को उसने बिस्तर के पास रखी आरामकुर्सी पर बिठा दिया।

"खाना खाओगी, लीज़ा?"

"खाना? कैसा खाना?"

रिचर्ड का मन हुआ उसे दोनों कन्धों पर से पकड़कर झिंझोड़ दे, वह फौरन जाग जाएगी, पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया और दोनों हाथ कमर पर रखे उसे घूरता रहा।

लीज़ा ने छितरे बालों के बीच सिर ऊपर उठाया, “रिचर्ड, तुम हिन्दू हो या मुसलमान?"

और यह कहकर वह हौले से हँस दी।

"तुम कब आए, मुझे पता ही नहीं चला।" लीज़ा ने कहा, “तुम दिन का खाना खाने आए हो या रात का?"

रिचर्ड को क्षण-भर के लिए लगा जैसे लीज़ा व्यंग्य कर रही है, कि वह इतनी ज़्यादा नशे की खुमारी में नहीं है जितनी बन रही है। इस पर वह उसके सामने पलँग पर बैठ गया और उसके बाजू पर हाथ रखकर बोला, “आजकल मुझे बहुत काम है, लीज़ा, तुम्हें मालूम होना चाहिए, बहुत काम है, शहर में अनाज की मंडी जल गई है और देहात में 103 गाँव जल गए हैं।"

“एक सौ तीन गाँव जल गए और मुझे पता ही नहीं चला? मैं सोई रही और मुझे पता ही नहीं चला!" फिर शिकायत के लहज़े में बोली, "मुझे बता तो दिया होता रिचर्ड, मुझे जगाकर ही बता दिया होता। इतनी बड़ी-बड़ी बातें हो गईं और मुझे तुमने बताया ही नहीं?"

“सो जाओ लीज़ा, कपड़े बदलकर सो जाओ, तुम्हें नींद आ रही है।"

"तुम मेरे पास बैठो, मैं अकेली नहीं सो सकती।"

"तुम सोओ, लीज़ा, अभी मुझे बहुत काम करना है।"

"इतने गाँव तो जल गए रिचर्ड, अभी भी तुम्हें काम है? अब तुम्हें और क्या काम करना है?"

रिचर्ड ठिठक गया। क्या लीज़ा व्यंग्य कर रही है? क्या उसके दिल में मेरे प्रति घृणा पैदा होने लगी है जो वह इस तरह की बातें करने लगी है?

नशे में डूबे हुए सभी व्यक्तियों की तरह लीज़ा भी, जो मन में आता, कहे जा रही थी। वह कुर्सी पर से उठी और लड़खड़ाती हुई पलँग पर रिचर्ड से सट कर जा बैठी, फिर अपनी बाँहें रिचर्ड के गले में डालकर अपना सिर उसकी छाती पर रख दिया। नहीं, यह नफरत नहीं हो सकती। उसने अनजाने में ही यह वाक्य कह दिया होगा।

“तुम मुझसे प्यार नहीं करते, मैं जानती हूँ, मैं सब जानती हूँ।"

फिर रिचर्ड के बाल सहलाकर बोली, “कितने हिन्दू मरे, कितने मुसलमान मरे, रिचर्ड? तुम्हें तो सब मालूम होगा? अनाज-मंडी क्या होती है?"

रिचर्ड चुपचाप उसकी ओर देखता रहा। उसकी ओर देखते हुए किसीकिसी वक्त रिचर्ड के मन में लीज़ा के प्रति घृणा का भाव भी उठता, जितना ज़्यादा वह नशा करने लगी थी, उतना ही ज्यादा वह उसके लिए अनाकर्षक होती जा रही थी। मांस का लोथड़ा बनती जा रही थी। इस तरह का रिश्ता ज़्यादा दिन नहीं चल सकता। रिचर्ड की आँखें लीज़ा के चेहरे पर ठिठक रहीं। लीज़ा के प्रति उसकी भावनाएँ भी स्पष्ट नहीं थीं। इस लड़की से विवाह-सम्बन्ध बनाए रखे या तोड़ दे, यह सवाल भी अपने कैरियर के सन्दर्भ में ही सोचा जा सकता था। इस वक्त उसके कैरियर में एक निर्णायक घड़ी आ पहुंची थी, जिसमें एक नाजुक-सा सन्तुलन बनाए रखना बेहद ज़रूरी था, यह देखना निहायत ज़रूरी था कि जनता का असन्तोष ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध न भड़के। अभी तक उसने सब काम बड़ी समझदारी और कुशलता से सम्पन्न किए थे। लोग उसकी ईमानदारी से प्रभावित हुए थे। हर बात सटीक बैठी थी। इसलिए इस समय लीज़ा को जैसे-तैसे साथ बनाए रखना ज़रूरी था।

उसने आगे झुककर लीज़ा का गाल चूम लिया।

“सुनो लीज़ा," रिचर्ड ने उत्साह से कहा, "मुझे कल सैयदपुर जाना है, एक कुएँ में डिसइंफेक्टैंट डलवाना है, जहाँ कुछ औरतें डूब मरी थीं। तुम भी साथ क्यों नहीं चलतीं? उधर से हम मोटर में टेक्सिला की ओर निकल जाएँगे। टेक्सिला का म्यूजियम देख लेंगे। क्या कहती हो? वह सारा इलाका बड़ा सुन्दर है।"

लीज़ा ने उनींदी आँखों से रिचर्ड के चेहरे की ओर देखा, “मुझे कहाँ घुमाने से चलोगे, रिचर्ड? मुझे जलते गाँवों की सैर कराओगे? मैं कुछ भी देखना नहीं चाहती, कहीं भी जाना नहीं चाहती।"

“नहीं-नहीं, घर में बैठे रहने में क्या तुक है? अब स्थिति बदल गई है, अब तुम घूम-फिर सकती हो।" रिचर्ड ने उत्साह का स्वाँग बराबर बनाए रखा, “अब हम एक साथ घूम-फिर सकते हैं। यहाँ का देहाती इलाका सचमुच बड़ा सुन्दर है। उस दिन, इस सैयदपुर में ही, फलों के बाग के पास गुज़रते हुए मैंने लार्क पक्षी की आवाज़ सुनी। इस मौसम में वहाँ लार्क पक्षी मिलता है। मुझे नहीं मालूम था कि इस गर्म देश में भी यह पक्षी रहता होगा। मैं हैरान हो गया। और भी तरह-तरह के पक्षी मिलते हैं जिन्हें तुमने पहले कभी नहीं देखा होगा।"

"क्या यह वही जगह है जहाँ औरतें डूब मरी हैं?"

“हाँ वही, कुएँ के साथ ही नदी बहती है और नदी के पार ही फलों का बाग़ है...।"

एक हल्की-सी मुस्कान लीज़ा के होंठों पर आई और वह रिचर्ड के चेहरे की ओर देखती रही, “तुम कैसे जीव हो रिचर्ड, ऐसे स्थानों पर भी तुम नए-नए पक्षी देख सकते हो, लार्क पक्षी की आवाज़ सुन सकते हो?"

"इसमें कोई विशेष बात नहीं है, लीज़ा, सिविल सर्विस हमें तटस्थ बना देती है। हम यदि हर घटना के प्रति भावुक होने लगें तो प्रशासन एक दिन भी नहीं चल पाएगा।"

“यदि 103 गाँव जल जाएँ तो भी नहीं?"

"तो भी नहीं," रिचर्ड ने तनिक रुककर कहा, “यह मेरा देश नहीं है। न ही ये मेरे देश के लोग हैं।"

लीज़ा रिचर्ड के चेहरे की ओर देखती रह गई।

“मगर तुम तो इन लोगों के बारे में किताब लिखने जा रहे थे रिचर्ड! इनकी नस्ल के बारे में। वही न?"

"किताब लिखना और बात है लीज़ा, उसका प्रशासन से क्या मतलब?"

लीज़ा को फिर से गुमसुम देखकर रिचर्ड बोला, “आज मैंने हेल्थ-ऑफिसर की पत्नी से कहा है कि रिफ्यूजियों के लिए सामान इकट्ठा करे यहाँ पर गाँवों से आनेवाले रिफ्यूजियों के लिए दो कैम्प खोले जा रहे हैं। और मैंने उसे यकीन दिलाया है कि तुम इस काम में हाथ बटाओगी।" फिर अपने सुझाव को अधिक स्पष्ट करते हुए बोला, “रिफ्यूजियों के लिए कपड़ा, रिफ्यूजी बच्चों के लिए खान-पान की चीजें और खिलौने तुम इकट्ठा कर सकती हो। इससे तुम्हें घूमने-फिरने का मौका मिलेगा..."

लीज़ा फिर भी चुप बनी रही। रिचर्ड ने फिर झुककर लीज़ा का गाल चूम लिया और दाएँ हाथ से उसके बाल सहलाते हुए बोला, "मैं नहीं रुक सकता लीज़ा, मुझे बहुत काम है, इस वक़्त मुझे अपने दफ्तर में होना चाहिए था।"

और वह उठ खड़ा हुआ।

"फिर मिलूँगा, लीज़ा! मेरा इन्तज़ार नहीं करना...और देहात में चलने के लिए सुबह तैयार रहना। हम आठ बजे निकल जाएँगे।" और वह कमरे से बाहर निकल गया।

लीज़ा देर तक बैठी खुले दरवाज़े की ओर देखती रही, उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। कमरा फिर साँय-साँय करने लगा।

तमस (उपन्यास) : बीस

हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नुकसान हुआ..."

रिलीफ कमेटी का कार्यकर्ता, रजिस्टर खोले झल्लाकर कहता, फिर रिफ्यूजी थे कि समझते ही नहीं थे। दिन-भर बैठे रहो, रजिस्टर काला करते रहो, शाम के वक़्त लिस्ट तैयार करने लगे तो दो गाँवों के आँकड़े भी पूरे नहीं हो पाते थे। इन्हें कौन समझाए, इनसे रूखा भी नहीं बोला जा सकता था, दफ्तर में से बाहर भी नहीं निकाला जा सकता था, सभी बढ़े चले आते हैं। एक की जगह तीन-तीन एक साथ बोल रहे हैं। कभी-कभी कार्यकर्ता को लगता कि रिफ्यूजी-दफ़्तर में बैठे सैकड़ों रिफ्यूजी एक साथ बोल रहे हैं, और उसी के कान में अपनी-अपनी कहानी चिल्ला-चिल्लाकर सुनाए जा रहे हैं। पर इनसे कोई क्या कहे-बर्बाद होकर आए हैं, बेघर, बेसरो-सामान। सभी उसकी मेज़ पर झुके आते हैं। रिफ्यूजी किस्सा न छेड़ दें तो दो मिनट में पूरे गाँव के आँकड़े लिए जा सकते हैं। मुझे यह सब नहीं सुनाओ, मुझे आँकड़े दो, आँकड़े, पर मेज़ के सामने बैठा करतारसिंह हाथ बाँधे कहे जा रहा है :

“ओ, मैं उस नूँ फिर किहा, इमदादखान, हम खेल बड़े हुए हैं, तू मुझे भूल गया है पर सुबह का वक़्त है, बाबूजी, वाहगुरु झूठ न बुलावे, इमदादखान ने पहले मुझ पर वार नहीं किया..."

बाबू परेशान हो उठता। वह आँकड़े माँगता था, लोग उसे अपने ज़ख्म दिखा रहे थे।

"गँडासा सीधा मेरे माथे पर लगा, इस आँख पर लगा। क्यों बाबूजी मेरी आँख बच जाएगी? दादा कहने लगा : बन्तासिंह, आँख पर से पट्टी नहीं खोलना। मैंने पट्टी नहीं खोली।"

ये आँकड़े नहीं थे, ये बावेला था और अब एक और आदमी मेज़ के सामने आ बैठा था।

आँकड़ोंवाला बाबू मेज़ पर से आँख उठाए बिना सवाल पूछे जा रहा था और जवाब लिखे जा रहा था :

"नाम?"

"हरनामसिंह।"

“वल्दियत?"

"सरदार गुरदयालसिंह।"

“मौज़ा?"

"ढोक इलाहीबख्श।"

"तहसील?"

"नूरपुर।"

"कितने घर हिन्दुओं-सिखों के थे?"

"केवल एक घर, मेरा घर जी।"

बाबू ने सिर ऊपर उठाया। बड़ी उम्र का एक सरदार सवालों के जवाब दिए जा रहा था।

“तुम बचकर कैसे आ गए?"

“करीमखान के साथ हमारे बड़े अच्छे ताल्लुकात थे। शाम को जब..."

बाबू ने उँगली का इशारा करके उसे बोलने से बन्द कर दिया।

"जानी नुकसान?"

"नहीं जी। मैं और मेरी घरवाली बचकर आ गए हैं। बेटा इकबालसिंह नूरपुर में था जी, उसका कुछ मालूम नहीं। बेटी जसबीर कौर सैयदपुर में थी, वह कुएँ में डूब मरी है..."

बाबू ने फिर उँगली का इशारा करके उसे चुप करा दिया, "सीधा कहो, जानी नुकसान?”

"एक बेटी डूब मरी।"

“मगर वह तुम्हारे गाँव में तो नहीं मरी?"

“जी नहीं।"

"यह आँकड़े अन्य गाँवों के हैं, आप अपने गाँव की सुनाइए!"

"माली नुकसान?"

“दूकान जल गई है। सारा सामान लूट लिया गया। एक ट्रंक था, वह भी चोरी हो गया था, पर उसमें से दो सोने के कड़े...। पर वह ट्रंक मैंने खुद ही एहसानअली को दे दिया था जी। राजो, उसकी घरवाली बड़ी नेकबख्त औरत है। उसने..."

बाबू की उँगली फिर से खड़ी हो गई थी, और हरनामसिंह चुप हो गया था।

"दूकान कितनी लागत की होगी?"

"क्यों बन्तो? दूकान कितनी लागत की रही होगी?"

"कुल लागत बताइए, सामान समेत...जल्दी कीजिए, मुझे और भी बहुत काम है..."

“यही सात-आठ हज़ार, पीछे ज़मीन थी, कुछ..."

"दस हज़ार लिख लूँ?"

“जी, लिख लीजिए।"

"कोई माल बरामद करना है?"

“जी एक बन्दूक है, दोनाली बन्दूक है, वह अधिरो में जलालदीन सूबेदार के घर में रखी है...।"

"तुम तो अधिरो के नहीं हो, तुम तो ढोक इलाहीबख्श के हो।"

“जी, हम ढोक इलाहीबख्श से भाग गए थे। पहली रात तो हम नदी के किनारे-किनारे भागते रहे, दिन का वक़्त हम एहसानअली के घर में रहे, रात को फिर चलते रहे। दूसरे दिन अधिरो में जलालदीन ने हमें पनाह दी। वह बहुत भला आदमी है जी, उसने हमें अलग से बर्तन दिए कि अपनी रसोई आप कर लो..."

"बस बस, छोड़िए, इस सूबेदार का नाम और पता बोलिए।"

हरनामसिंह अपनी दास्तान सुनाना चाहता था, अपने बेटे के बारे में पूछताछ करवाना चाहता था, मगर बाबू ने एक नहीं सुनी। सारा वक़्त होंठों पर उँगली रखे रहा और फिर उसे चलता कर दिया।

“अब आप तशरीफ ले जाइए।"

आँकड़ों वाले बाबू ने अपनी ज़रूरत की चीज़ लिख ली थी। अनाज के दाने निकाल लिये थे, बाकी सब भूसी थी। भूसी-ही-भूसी। पर कभी-कभी बाबू सुनने लगता तो सुनता चला जाता। कोई-कोई आपबीती उसे बाँध लेती, उसका दिल और दिमाग जकड़ लेती।

"क्यों बाबूजी, क्या मालूम मेरी सुखवन्त ने कुएँ में छलाँग नहीं लगाई हो! क्या मालूम जी, बेटे को लेकर गाँव में ही कहीं छिपी बैठी हो? मैं गली में भागता हुआ अपने घर गया था जी। खाट लेने के लिए, क्योंकि आसासिंह ज़ख्मी हो गया था। तभी मैंने बहुत-सी औरतों को गुरुद्वारे में से निकलते देखा। सुखवन्त भी उनके साथ थी। मुझे क्या मालूम जी, कहाँ जा रही है। उसके हाथ ऊपर को उठे हुए थे और गले में पल्ला डाल रखा था। जब मैं खाट लेकर आया तो सुखवन्त गली में खड़ी थी, पहले वह भी औरतों के पीछे जा रही थी, फिर वह पीछे खड़ी हो गई थी। हमारा बेटा गुरमीत गुरुद्वारे के चबूतरे पर खड़ा था। उस वक़्त पीछे स्कूल जलने लगा था जी। आग की लपटें कभी ऊपर को उठतीं तो रोशनी तेज़ हो जाती। फिर कभी बैठ भी जातीं तो गली में धूप-छाँह जैसी होने लगती। इसी धूप-छाँह में मैंने देखा, सुखवन्त घबराई हुई थी। वह कभी घबराती नहीं थी जी, पर आज घबराई हुई थी। वह लौट आई, बेटे के पास लौट आई। फिर गली में खड़ी हो गई। जब आग भड़की तो मैंने देखा वह गली के बीचोबीच काँपती-सी खड़ी थी। 'सुखो, क्या कर रही है?' मैंने कहा, पर उस वक़्त सोचने-कहने का वक्त ही कहाँ था। अगर उस वक़्त सुप्तन्त की नज़र मुझ पर पड़ जाती तो वह गुरमीत को तो नहीं ले जाती जी। फिर एक बार वह बेटे के पास गई और फिर चलते-चलते रुक गई। मुझे क्या मालूम था जी, वह क्या करने जा रही है, क्या सोच रही है? तभी गाँव के बाहर शोर होने लगा था। 'या अली', 'या अली' की आवाजें आने लगी थीं। तभी मैंने घूमकर देखा तो सुखवन्त लपककर गुरमीत के पास आई और गुरमीत को बाँहों में उठाकर भागती हुई औरतों के पीछे-पीछे जाने लगी। आखिरी बार जब मैंने उसे देखा तो सुखवन्त भागी जा रही थी और उसका हरे रंग का पल्ला उड़ रहा था, उसके बाद गली का मोड़ आ गया जी और वह आँखों से ओझल हो गई।...मैं यही पूछता हूँ न जी, क्या मालूम सुखवन्त ने कुएँ में छलाँग नहीं लगाई हो। क्या मालूम जी, गुरमीत को साथ में नहीं ले गई हो, क्या मालूम गुरमीत नहीं डूबा हो, वहीं कहीं कुएँ के पास घूम रहा हो। क्यों जी? क्यों बाबूजी? इसका पता नहीं लगाया जा सकता...?" पर ये आँकड़े नहीं थे और बरामद का काम उसका नहीं है, वह देवराजजी करते हैं, बरामद का सारा काम गड़ा हुआ सोना निकालने, कपड़ा-लत्ता निकालने, ऐसे सभी काम वह सँभाले हुए हैं। सरदारजी, बेटे का पता लगाने के लिए आप उनके पास जाइए। मेरे पास आने की ज़रूरत नहीं है। आप तीसरी बार मेरे पास आ चुके हैं, बार-बार यही किस्सा दोहराते हैं, यह सुनना मेरा काम नहीं है....

पर सरदार फिर भी सामने बैठा हुआ बाबू की ओर देखे जा रहा है। यह किस उम्मीद पर मेरे पास आता है, मैं इसे कैसे समझाऊँ कि मैं कुछ नहीं कर सकता। पर अन्त में बाबू धीमी आवाज़ में कहता है :

“मंगलवार को शायद एक बस आपके गाँव जाएगी। मैं देवराजजी से कहूँगा कि उसमें आपको भी भेज दें। मगर आप किसी को बताइएगा नहीं, वरना सारा गाँव मेरे पास दौड़ा चला आएगा।..."

पर इस वाक्य का सरदार पर कोई असर नहीं होता। फिर अपने ही तर्क द्वारा अपने को समझाते हुए वह कहता है, “पर अपनी आँखों से देख लेना अच्छा होता है, सब बात ठोक-बजाकर देख लेनी चाहिए। बेटा कहीं छिपा बैठा होगा तो मुझे देखकर अपने-आप बाहर आ जाएगा। भागता हुआ बाहर आ जाएगा या वहीं से बैठा-बैठा चिल्लाने लगेगा : 'मुझे ढूँढ़ लो! मुझे ढूँढ़ लो!' घर में भी रोज़ छिपता फिरता था, कभी एक दरवाज़े के पीछे, कभी दूसरे दरवाज़े के पीछे...।"

बाबू धीमे से कुर्सी पर से उठा और दफ्तर में से बाहर निकल आया।

बाहर छज्जे पर आकर देखो तो पता चलता था कि कितने लोग दफ्तर में भीड़ जमाए बैठे थे। नीचे आँगन में जगह-जगह गाँवों से आए लोगों की टोलियाँ बैठी हैं। पीछे ऊँचा-लम्बा चबूतरा भरा पड़ा है, जिस पर बैठकर वानप्रस्थीजी वैदिक धर्म की महत्ता का प्रचार किया करते थे। इधर सीढ़ियों पर भी लोग आकर बैठ गए हैं।

"गंडासिंह न रो,” उसके कानों में आवाज़ पड़ी। कोई वयोवृद्ध एक आदमी को समझा रहा था, न रो गंडासिंह, जो चले गए ओह गुरु महाराज नू प्यारे हो गए। पन्थ दी खातिर ऊहाँ जानाँ वार दित्तियाँ। हमेशा लई ओह अमर हो गए।"

"वाहे गुरु, वाहे गुरु! सतनाम, सच्चे बादशाह!"

सीढ़ियों पर बैठे तीन-चार सिखों की आवाज़ आई।

आँकड़ा-बाबू छज्जे पर खड़ा ही था जब एक और सरदार उसके पास आया। उसे देखते ही आँकड़ा बाबू मुस्कराए बिना नहीं रह सका। मोटी-मोटी आँखें, अधेड़ ढीली-सी देह, वह भी बार-बार बाबू के पास पहुँच जाता था और हमेशा बाबू के कान के पास मुँह ले जाकर बात करता था:

“कोई इन्तज़ाम हुआ है जी, गाँव जाने का? बस जाएगी ना? कब जाएगी?"

"जिस दिन बस जाएगी मैं आपको ख़बर कर दूंगा। यों, यह काम मेरा नहीं है लाला देवराज..."

"हमारा काम हो जाएगा न!" फिर अपना मुँह बाबू के कान के और नज़दीक ले जाकर बोला, “मैं तुम्हारा मुँह भी मीठा करवा दूंगा।" ।

इस पर बाबू ने तनिक खीझकर कहा, “ओ सरदारजी, कोई अक्ल की बात किया करो। कुएँ में कुछ नहीं तो 27 औरतें डूब मरी हैं। उनमें से तुम कैसे पहचानोगे कि तुम्हारी घरवाली कौन-सी है?"

"यह तुम मुझ पर छोड़ दो वीरजी, मैं कड़े देखकर ही पहचान लूँगा।

पाँच-पाँच तोले का एक कड़ा है। गले में सोने की जंजीरी है। अब घरवाली डूब मरी, जो सबके साथ हुई है, वह मेरे साथ भी हुई है, पर ये कड़े और जंजीरी मैं कैसे छोड़ दूँ? क्यों वीरजी?"

फिर मुँह कान के पास ले जाकर बोला, “जो उतरवा दो तो बीच में से तुम्हें भी दे दूंगा। ऐसी बात नहीं है...। उस नेकबत ने यह भी नहीं सोचा कि भाई, मैं तो डूबने लगी हूँ, मैं अपने कड़े तो उतारकर देती जाऊँ? क्यों वीरजी? पर हम तुम्हारा मुँह मीठा करा देंगे, आप हमारा यह काम करवा दो।" फिर हटकर बाबू के मुँह की ओर देखता रहा, “और किसी को पता नहीं चले, मैं और आप! बस में और किसी को ले जाने की ज़रूरत नहीं है।"

“ओ सरदारजी, लाशें फूलकर ऊपर तक आ गई हैं। फूली हुई लाश की कलाई पर से आप कड़े उतार सकते हैं? कोई अक्ल की बात किया करो। क्या सरकार आपको उतारने देगी?"

"क्यों जी, बीबी मेरी है, माल मेरा है। कड़े अपने पैसों से बनवाए हैं, किसी के चोरी तो नहीं किए। घन्ना-हथौड़ी साथ में लेकर चलेंगे। कहोगे तो किसी सुनार का कोई छोकरा भी साथ में ले लेंगे। मिनटों में काम हो जाएगा। काम करने की नीयत हो तो सब-कुछ हो सकता है।"

"ओ सरदारजी, कुछ सोच-समझकर बात करो। पहले सरकार शनाखत माँगेगी, गवाहियाँ माँगेगी, फूली हुई लाश को पहचानना क्या आसान काम है?"

“वीरजी, पर यह तो काम आपका है न। मुँह जो आपका मीठा कराएँगे, तो इतना काम तो आप करेंगे ही न।"

“सरदारजी, यह मेरा काम नहीं है, कुछ समझा करो। मैं केवल आँकड़े इकट्ठे करता हूँ। माली नुकसान की फेहरिस्त में मैंने आपकी पत्नी के कड़े और जंजीरी दर्ज कर लिये हैं। माल बरामद करवाने का काम मेरा नहीं है...।"

इस पर सरदार ने बाबू का हाथ पकड़ लिया, “नाराज़ नहीं होवो, नाराज़ नहीं होते बाबूजी, दुनिया के काम चलते ही रहते हैं।" फिर बाबू के साथ सटकर खड़ा हो गया और बाबू के दाएँ हाथ को अपने हाथ में लेकर उसकी तीन उँगलियों को अलग-अलग गिनते हुए बोला, “क्यों? ठीक है? मंजूर है न?" (तीन उँगलियाँ पकड़ने का मतलब था तीन बीसे, यानी साठ रुपए)

“सरदारजी, क्यों अपना वक़्त जाया कर रहे हो? मैं कुछ नहीं कर सकता।"

इस पर सरदार बाबू की उँगलियाँ छोड़ उसके चेहरे की ओर देर तक घूरता रहा। फिर अपनी चादर कन्धे पर सँभाले हुए सीढ़ियों की ओर मुड़ गया। सीढ़ियों के पास पहुँचकर फिर खड़ा हो गया।

"ओ बाबू?...क्यों...?" और हाथ ऊपर-उठाकर चार उँगलियाँ दिखाईं, "क्यों मंजूर है?"

बाबू ने मुँह फेर लिया। थोड़ी देर बाद सरदार की आवाज़ आई, "कुछ तो रहम करो हम लोगों पर; हम बर्बाद होकर आए हैं।"

बाबू ने घूमकर देखा तो वह सीढ़ियाँ उतर रहा था।

कुछ देर बाद बाबू स्वयं सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आँगन में आ गया। मेज़ पर ज़्यादा देर तक बैठे रहना उसके लिए असम्भव हो जाता था। शाम तक दफ्तर में रहना ज़रूरी होता था, क्योंकि दिन-भर की तफसील का शाम के वक़्त जोड़ लगाया जाता था, फिर उन तथ्यों की एक नकल अखबार के नुमाइन्दे को भेजी जाती, एक कांग्रेस के दफ्तर में, तीसरी फाइल में। पर मौत के आँकड़ों में उन्नीस-बीस का ही फ़र्क होता। कहीं दो मुसलमान ज़्यादा तो कहीं दो हिन्दू कम। माली नुकसान हिन्दुओं-सिखों का हुआ था। कल शाम देवदत्त आया था, कहने लगा, “आज क्या जोड़ निकला?" ।

“आज तहसील नूरपुर के कुछ आँकड़े मिले हैं। मरनेवालों की संख्या में बहुत अन्तर नहीं। जितने हिन्दू-सिख, लगभग उतने ही मुसलमान।"

देवदत्त रजिस्टर हाथ में लेकर उसके पन्ने पलटता रहा, फिर उसे लौटाते हुए बोला, “पन्नों पर एक खाना और जोड़ दो। गरीब कितने मरे और खातेपीते लोग कितने मरे।"

“इसमें क्या तुक है? तुम हर बात में अमीर-गरीब को घसीट लाते हो।"

“यह भी एक पहलू है आँकड़े इकट्ठे करने का। दोनों ओर के गरीब कितने मरे। अमीर कितने मरे। इससे भी तुम्हें कई बातों का पता चलेगा।"

आँगन पार करते समय आँकड़ा बाबू की आँखें अनेक व्यक्तियों को पहचानने लगी हैं। सीढ़ियाँ उतरते ही दाएँ हाथ वह लड़की जो रोज़ की तरह डोल रही थी जिसके मंगेतर का पता नहीं चल रहा था कि वह जीवित है या मर गया है। वह तीनों अस्पतालों के चक्कर काट आई थी, पर कुछ पता नहीं चला था। थोड़ा आगे, वही हरनामसिंह दोनाली बन्दूकवाला, अपनी पत्नी के साथ बैठा था। आँकड़ा बाबू ने मुँह फेर लिया। वह जानता था कि आँखें मिलने पर वह फिर अपनी बन्दूक के लिए उसकी मगज़पच्ची करने लगेगा।

चबूतरे पर एक ओर कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ता बैठे आपस में बहस कर रहे थे। कश्मीरीलाल कह रहा था, "तुम सीधा मेरे सवाल का जवाब दो। अगर मुझ पर कोई हमला करे तो उस वक़्त मैं क्या करूँ? उसके आगे हाथ जोड़ दूं कि मुझे मार ले, मैं तो अहिंसा में विश्वास रखता हूँ?"

"चिड़ी जितनी तो तेरी जान है, तुझ पर हमला करके किसी ने लेना क्या है?" शंकर ने ठिठोली की।

"क्यों? हमला क्या पहलवानों पर किया जाता है? हमला हमेशा कमजोर लोगों पर किया जाता है।" जीतसिंह ने जोड़ा।

“यह मज़ाक नहीं है," कश्मीरीलाल ने फिर कहा, "मैं जानना चाहता हूँ कि ऐसे वक्त में अहिंसा क्या कहती है। मैं क्या करूँ?"

उसने बख्शीजी को सम्बोधन करके कहा, पर बख्शीजी उसके सवाल की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रहे थे।

“मैं आपसे पूछ रहा हूँ बख्शीजी, बात को टालिए नहीं।"

“क्या है? पूछ, क्या पूछता है?"

"बापू ने कहा कि हिंसा मत करो। अब फ़िसाद के वक़्त मुझ पर कोई हमला कर दे तो मैं क्या करूँ? क्या उस वक़्त मैं उसके सामने हाथ जोड़ दूँ-मार ले भाई, गर्दन झुका दूँ, काट ले भाई गर्दन। क्या करूँ?"

शंकर बीच में बोल पड़ा, “गांधीजी ने कहा है कि खुद तशद नहीं करो। गांधीजी ने यह कहीं नहीं कहा कि कोई तुम पर हमला करे तो तुम उसका जवाब ही नहीं दो।"

"फिर मैं क्या करूँ?"

“अगर कोई तुम पर हमला करे तो तू उसे कहना, ठहर में कांग्रेस के दफ्तर से पूछ आऊँ कि मुझे अपना बचाव करना है या नहीं।" जीतसिंह बोला।

"बापू ने हिंसा करने की मनाही की है। उस वक़्त तुम उसे समझाओ कि वह जो कुछ कर रहा है बहुत बुरा कर रहा है।"

"मैं कहता हूँ डटकर मुकाबला करो।" मास्टर रामदास बोला।

"डटकर मुकाबला किस चीज़ से करूँ? मेरे घर में तो चरखा-ही-चरखा है।"

“और तू खुद सबसे बड़ा चरखा है, जो फ़िसादों के बाद इस मसले को ले बैठा है।"

"तुम मज़ाक में टाल रहे हो, मगर बात बड़ी संजीदा है।" जीतसिंह ने कहा।

"सुनो बरखुरदार,” बख्शीजी देर तक सुनते रहने के बाद धीमी आवाज़ में बोले। उनकी आवाज़ भर्राई हुई थी, “जरनैल को इस किस्म की कोई दुविधा नहीं थी। उसे अपने बचाव के कारण कभी परेशानी नहीं हुई। जरनैल सनकी था, अनपढ़ था, लेकिन उसे इस बात ने कभी परेशान नहीं किया कि अगर किसी ने उस पर हमला किया तो वह क्या करेगा?..."

सभी चुप हो गए। जरनैल के चले जाने से सबके दिल को ठेस पहुँची थी।

“मगर ये सब जजबाती बातें हैं।" कश्मीरीलाल थोड़ी देर के बाद बोला।

"सुनो," बख्शीजी फिर बोले, "तू खुद तशदुद नहीं कर। नम्बर एक। तू तशदुद करनेवाले को समझा भी, अगर समझाने का मौका है तो। नम्बर दो। और अगर वह नहीं मानता तो डटकर मुकाबला कर। यह है नम्बर तीन।”

"बात हुई न! इसे कहते हैं जवाब। तसल्ली हो गई न, कश्मीरीलाल! अब चुप हो जा।"

पर कश्मीरीलाल बोले जा रहा था, "किसके साथ मुकाबला करूँ? चरखे के साथ?"

"चरखे के साथ क्यों? तलवार के साथ।" जीतसिंह बोला।

"तलवार रखने की इजाज़त है न मुझे? क्यों बख्शीजी?"

बख्शीजी चुप।

"और पिस्तौल रखने की भी?"

"पिस्तौल में हिंसा बहुत है।" शंकर ने जोड़ा।

"तलवार में कम है?"

"हाँ, तलवार में तो अपनी ताक़त लगती है ना। पिस्तौल में तो बस घोड़ा दबाते जाओ और मारते जाओ।"

"फिर मैं तलवार रख लूँ ना? क्यों बख्शीजी?"

बख्शीजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह बोलते तो शायद फिर जरनैल की ही मिसाल देते। आँकड़ा बाबू आगे बढ़ गया। फ़िसादों के बाद सचमुच यह बहस बड़ी बेतुकी लग रही थी।

दंगों का ज्वार-भाटा बहुत-कुछ बैठ चुका था और नीचे खपचियाँ, चिथड़े, हड्डियों के ढाँचे (टूटे टुकड़े) उभरकर सामने आने लगे थे।

बरामदे की ओर निकलनेवाले दरवाजे के पास दस-बारह आदमियों की एक मंडली में हँसी-ठट्ठा चल रहा था। बाबू रुक गया। मंडली के बीचोबीच बड़ी उम्र का नाटे कद का एक सिख लेटा हुआ था। खिचड़ी घनी मूंछ-दाढ़ी में उसकी हँसती आँखें नज़र आ रही थीं। किसी बात पर वह हँस रहा था और बच्चों की तरह अपनी टाँगें झटकते और एड़ियाँ ज़मीन पर पटकते हुए हँस रहा था। आसपास खड़े लोग भी, जो उसी के मित्र व सम्बन्धी जान पड़ते थे, हँस रहे थे।

“अपने गाँव चलोगे, नत्थासिंह?"

इस पर ज़मीन पर लेटे नत्थासिंह ने अपनी टाँगें दोहरी कर ली और करवट बदलकर एक पहलू हो गया और अपने दोनों हाथ जाँघों के बीच बाँध लिए।

"नी जाणा।" (नहीं जाऊँगा।)

"क्यों नहीं जाणा?"

"नी जाणा?" उसने बच्चों की तरह सिर झटककर कहा।

उसने जाँघों के बीच अपने हाथ और ज्यादा कसकर बाँध लिए और घुटने जोड़ दिए। आसपास बैठे लोग हँसने लगे। बाबू को लगा जैसे यह सवाल उसके सामने बहुत बार दोहराया जा चुका है, अब वह एक तरह का खेल बन चुका है।

"क्यों नहीं जाणा?"

"नी जाणा।" उसने कहा और अपनी जाँघे और ज्यादा सिकोड़ ली, और दाएँ-बाएँ बच्चों की तरह सिर हिलाने लगा।

“पर क्यों नहीं जाणा? कोई वजह?"

"उत्थे सुनती करने ने।" (वहाँ सुन्नत करते हैं।)

और वह खुद हँसने लगा और जाँधे और ज़्यादा सिकोड़कर करवट बदल ली। सभी सरदार खिलखिलाकर हँस पड़े।

बरामदे के पार आँगन के एक ओर स्कूल के चपरासी का कमरा पड़ता था। रोज़ की तरह आज भी चपरासी का सम्बन्धी अपनी ब्राह्मणी के साथ चुपचाप सिर झुकाए था। उसकी बेटी लापता हो गई थी और वह और उसकी ब्राह्मणी बहुत रोए थे और उसका पता लगवाने का हाथ जोड़-जोड़कर आग्रह करते रहे थे। उसने यह भी कहा था कि गाँव के एक गाड़ीवान ने उसे घर में बैठा लिया है। पर उसके बाद वे उसके पास नहीं आए।

आँकड़ोंवाला बाबू चलता हुआ पंडित के पास पहुँचकर रुक गया।

"कल सुबह एक बस नूरपुर जाएगी। साथ में हथियारबन्द पुलिस होगी। बेटी का पता लगाने के लिए जाना हो तो कल सुबह चले जाना। साथ में सरकारी आदमी होगा।"

पंडित ने सिर उठाकर अपनी गँदली-सी छोटी-छोटी आँखों से बाबू की ओर देखा, फिर निराशा में सिर हिला दिया।

“अब नहीं मिलेगी जी, अब प्रकाशो कहाँ मिलेगी!"

“पर तुम तो कहते थे गाँव के किसी आदमी ने उसे घर में बिठा लिया है।"

"भगवान जाने जी, क्या हुआ है उसके साथ।"

"कल और लोग भी दूसरे गाँवों में जाएँगे। पंडितानी, क्या कहती हो?"

पंडितानी ने सिर उठाया, फिर जैसे शून्य में देखती हुई बोली, “मैं क्या कहूँगी बाबूजी, जहाँ रहे सुखी रहे।"

बाबू को इस उत्तर की आशा नहीं थी। उसने समझा शायद माँ-बाप गाँव में जाने से डर रहे हैं।

"तुम मुझे अता-पता बता दो, में पुलिसवालों से कहकर दर्याफ्त करवा लूँगा।"

इस पर ब्राह्मणी बोल पड़ी, “अब हमारे पास आकर क्या करेगी जी, बुरी वस्तु तो उसके मुँह में उन्होंने पहले से ही डाल दी होगी।"

इस पर पंडित बोला, “हमसे अपनी जान नहीं सँभाली जाती बाबूजी, दो पैसे जेब में नहीं हैं, उसे कहाँ से खिलाएँगे, खुद क्या खाएँगे!"

आँकड़ोंवाला बाबू अभी तक इस प्रकार के अनुभव से परिचित हो चुका था, थोड़ी देर तक वहाँ ठिठका खड़ा रहा, फिर आगे बढ़ गया।

प्रकाशो को सचमुच अल्लाहरक्खा ने घर पर बैठा लिया था। गाँव में फ़िसाद होने पर माँ-बेटी पहाड़ी की तलहटी पर लकड़ियाँ चुन रही थीं। अल्लाहरक्खा पहले से ही दो-तीन आदमियों के साथ कहीं घात लगाए बैठा था। मौका देखकर वे भागते हुए आए और अल्लाहरक्खा रोती-चिल्लाती प्रकाशो को उठाकर ले गया था। पहली रात तो प्रकाशो अँधेरी कोठरी में पड़ी रही, पर दूसरे दिन अल्लाहरक्खा ने उसके साथ निकाह कर लिया और एक नया जोड़ा भी उसके लिए कहीं से ले आया। दो दिन तक प्रकाशो भूखी-प्यासी पड़ी रोती रही और पथराई आँखों से उसके घर की दीवारों को देखती रही थी, पर तीसरे दिन उसने लस्सी का कटोरा पी लिया था और मुँह भी धोया था और उसे भूख भी लग आई थी। उसके माँ-बाप अभी भी सारा वक़्त उसकी आँखों के सामने घूमते रहते थे, लेकिन प्रकाशो जानती थी कि अल्लाहरक्खा के मुकाबले में वे बहुत ही दुबले, बहुत ही दीन-हीन लोग हैं। उसकी आँखें धीरे-धीरे अल्लाहरक्खा के घर में रखी चीज़ों पर जाने लगी थीं। कोठरी के बाहर आँगन में घोड़ा बँधा था। घोड़े की पीठ पर झुरझुरी उठती थी, लहरियाँ-सी उठती थीं। घर के बाहर, पेड़ के नीचे अल्लाहरक्खा का टाँगा रखा रहता था। प्रकाशो ने पहले भी कई बार उस ट्राँगे को देखा था। वास्तव में अल्लाहरक्खा की नज़र प्रकाशो पर बहुत दिनों से थी। और प्रकाशो को भी इसका भास मिलता रहता था। गाँव में आते-जाते, झरने पर पानी भरते, कपड़े धोते, अल्लाहरक्खा आवाजें कसा करता था और छिप-लुककर उस पर कंकड़ भी फेंका करता था। वह जानती थी कि अल्लाहरक्खा कंकड़ फेंकता है। प्रकाशो अपने पिता से शिकायत नहीं करती थी, क्योंकि वह जानती थी कि उसका बाप कुछ नहीं कर सकेगा, वह अल्लाहरक्खा से भी डरती थी और अपने बाप से भी डरती थी।

और फिर फ़िसादों में अल्लाहरक्खा छटपटाती-रोती प्रकाशो को उठाकर अपने घर में लाने में सफल हो गया था। और इस समय जब रिलीफ दफ्तर में प्रकाशो की माँ रो-रोकर उसे याद कर रही थी और उसे अपने पास लौटा लाने का साहस नहीं जुटा पा रही थी, उसी वक्त प्रकाशो, अल्लाहरक्खा के डर के मारे, नया जोड़ा पहने, अल्लाहरक्खा की कोठरी में खाट पर बैठी थी। और तभी अल्लाहरक्खा उसके सामने आकर बैठ गया था और रूमाल में बँधी पोटली उसके सामने खाट पर खोलकर कह रहा था :

"खा!"

प्रकाशो सारा वक्त खाट के पायताने की ओर देखे जा रही थी, न हूँ न हाँ. उसने आँख उठाकर न तो अल्लाहरक्खा की ओर देखा था और न रूमाल की ओर।

“खा, मिठाई है। सूरे नियें बच्चिये, खा, मिठाई लियायावाँ तेरे वास्ते।"

(...सूअर की बच्ची, खा, तेरे लिए मिठाई लाया हूँ।)

अबकी बार प्रकाशो ने आँख उठाकर मिठाई की ओर देखा, अल्लाहरक्खा की ओर देख पाने की उसे अभी भी हिम्मत नहीं हो रही थी।

“खा!" अल्लाहरक्खा ने सहसा चिल्लाकर कहा, जिससे प्रकाशो सिर से पैर तक काँप गई।

"मिठाई ए, सूरे नियें धीये, ज़हर नहीं।"

(मिठाई है, सुअर की बच्ची, ज़हर नहीं है।)

और अल्लाहरक्खा ने सफ़ेद बर्फी का टुकड़ा हाथ में उठाया और आगे बढ़कर बाएँ हाथ से प्रकाशो के गाल पकड़कर भींचे जिससे प्रकाशो का मुँह खुल गया और उसने बर्फी का टुकड़ा उसमें ठूँस दिया।

प्रकाशो को अल्लाहरक्खा की इस चिल्लाहट के पीछे आग्रह की भनक मिल गई थी, पर वह अभी भी डरी-सहमी बैठी थी, मुसलमान के हाथ से वह मिठाई कैसे खा लेती?

"हिन्दू हलवाई की दुकान की है, सूरे नियें बच्चिये, खा!"

धीरे-धीरे डर की मारी प्रकाशो मिठाई का टुकड़ा मुँह में चबाने लगी थी। उसे चबाता देख अल्लाहरक्खा हँस पड़ा, बोला “ज़हर है कि मिठाई?"

प्रकाशो किसी-किसी वक़्त मिठाई चबाती रहती, किसी वक्त मुँह बन्द कर लेती।

“खा!" इस पर अल्लाहरक्खा ज़ोर से कहता और प्रकाशो का जबड़ा फिर से चलने लगता। प्रकाशो के शरीर की गन्ध अल्लाहरक्खा को बेचैन करने लगी थी।

“अपने हाथ से खा!" अबकी बार अल्लाहरक्खा की आवाज़ धीमी पड़ गई, “नहीं खाएगी तो मैं लिटाकर सारी मिठाई तेरे मुँह में ठूस दूंगा। खा!"

प्रकाशो ने उसकी ओर देखा। अल्लाहरक्खा को उसने पहले भी कई बार देखा था, लेकिन इतने नज़दीक से कभी नहीं देखा था। उसकी पतली-पतली काली मूंछे उसे नज़र आईं। अल्लाहरक्खा ने आँखों में सुरमा डाल रखा था। और उसने कपड़े भी उजले पहन रखे थे। बालों में तेल डाले हुए था।

प्रकाशो का डर कुछ कम हुआ। पर बाहर से वह पहले की ही तरह डरी-सहमी बैठी रही।

“खाएगी या लिटाकर खिलाऊँ?" अल्लाहरक्खा ने कहा और उसका बायाँ हाथ फिर प्रकाशो की ठुड्डी और गाल को पकड़ने के लिए उठा।

धीरे-धीरे प्रकाशो को लगा जैसे उसके शरीर में से अल्लाहरक्खा का भय छनने लगा है, छनता जा रहा है, छनता जा रहा है। बर्फी का टुकड़ा चबाते हुए उसने फिर एक बार अल्लाहरक्खा की ओर देखा। अबकी बार उसकी नज़र उसकी गर्दन में पड़े काले धागे पर पड़ी जिसके साथ ताबीज़ बँधा था। गले पर का बटन खुला था। उसकी नज़र उसकी धारीदार कमीज़ पर भी पड़ी। अल्लाहरक्खा बड़ा साफ-सुथरा बना बैठा था।

अल्लाहरक्खा हाथ में बर्फी का एक और टुकड़ा उठाए हुए था, इस इन्तज़ार में कि कब प्रकाशो चबाना बन्द करे और वह एक और टुकड़ा उसके मुँह में डाले। प्रकाशो की आँखें भी उसके हाथ पर लगी थीं। सहसा प्रकाशो धीमी आवाज़ में बोली, “तू खा!"

इस वाक्य का असर अल्लाहरक्खा पर जैसे बिजली का-सा हुआ।

“बोली तो आखिर!...खा!"

"नहीं"

"खा।"

प्रकाशो ने सिर हिलाया। अल्लाहरक्खा को लगा जैसे क्षीण-सी मुसकान प्रकाशो के होंठों पर दौड़ गई है। प्रकाशो ने आँखें उठाकर अल्लाहरक्खा की ओर देखा।

“तू खिलाएगी तो खाऊँगा।"

प्रकाशो की आँखें क्षण-भर के लिए अल्लाहरक्खा के चेहरे पर ठिठकी रहीं, फिर उसने धीरे से मिठाई का टुकड़ा उठाया। टुकड़े को हाथ में ले लेने पर भी वह उससे उठ नहीं रहा था। प्रकाशो का चेहरा पीला पड़ गया था और हाथ काँपने लगा था मानो उसे सहसा बोध हुआ कि वह क्या कर रही है, और उसके माँ-बाप को पता चले तो वे क्या कहेंगे। पर उसी वक़्त आग्रह और उन्माद से भरी अल्लाहरक्खा की आँखों ने उसकी ओर देखा और प्रकाशो का हाथ अल्लाहरक्खा के मुँह तक जा पहुंचा।

दोनों एक-दूसरे के साथ खुलने लगे थे। अल्लाहरक्खा ने आगे बढ़कर उसे बाँहों में भर लिया। डरी-सहमी रहते हुए भी प्रकाशो इस अनूठे अनुभव में भाग लेने लगी थी, उसे ग्रहण-सी करने लगी थी। उसे लगता जैसे अतीत पीछे छूटता जा रहा है और वर्तमान बाँहें फैलाए उसे आलिंगन में भरने के लिए उतावला हो रहा है। स्थिति इतनी बदल गई थी कि उसके प्रसंग में प्रकाशो के माँ-बाप असंगत होते जा रहे थे।

देर तक वे एक-दूसरे के साथ पड़े रहे। देर तक प्रकाशो चुप रही। फिर जब अल्लाहरक्खा की ओर उसकी पीठ थी और उसकी आँखें कोठरी की दीवार पर लगी थीं तो वह धीरे से बोली, "मैं पानी लेने जाती थी तो मुझे कंकड़ क्यों मारता था?"

जवाब में अल्लाहरक्खा ने अपना हाथ उठाकर प्रकाशो की कमर पर रख दिया।

"कंकड़ मारता था क्योंकि तू मेरे साथ बोलती नहीं थी।"

"मैं क्यों बोलूँगी?"

"अब बोलती है कि नहीं?"

प्रकाशो चुप रही। फिर धीरे से बोली, “मेरी माँ कहाँ है?"

“मुझे क्या मालूम तेरी माँ कहाँ है। घर में नहीं है?"

प्रकाशो चुप रही, उसके दिल में हूक-सी उठी और आँखें भरने लगीं। उसे विश्वास होने लगा था कि माँ-बाप कहीं छूट गए हैं और अब कभी भी नहीं मिलेंगे।

"हमारी कोठरी को आग लगाई थी?"

"नहीं। लोग आग लगाने लगे थे, पर मैंने रोक दिया। मैंने उधर ताला लगा दिया है।"

प्रकाशो को उसका उत्तर अच्छा लगा। उसने धीरे से अपना हाथ उठाकर कमर पर रखे अल्लाहरक्खा के हाथ पर रख दिया।

रिलीफ ऑफ़िस के आँगन में घूमता प्रत्येक व्यक्ति अपना विशिष्ट अनुभव लेकर आया था। लेकिन उस अनुभव को जाँचने, परखने, उसमें से निष्कर्ष निकालने की क्षमता किसी में नहीं थी। शून्य में ताकने, सिर हिला-हिलाकर हर किसी की बात सुनते रहने के अलावा किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। एक अफवाह उठती तो आँगन में लोग उठ-उठकर उसे सुनने के लिए जमा हो जाते। कोई नहीं जानता था कि उसे क्या करना है, किधर जाना है। आगे क्या होगा, उसकी धुंधली-सी रूपरेखा भी किसी की आँखों के सामने नहीं थी। लगता जैसे कोई अनिवार्य घटनाचक्र चल रहा है, जिस पर किसी का कोई बस नहीं, न किसी के हाथ में निर्णय है, न संचालन, न संचालन की क्षमता; कठपुतलियों की तरह सभी घूम रहे थे, भूख लगती तो उठकर इधर-उधर से कुछ खा लेते, याद आती तो रो देते, कान लगाए सुबह से शाम तक लोगों की बातें सुनते रहते।

तमस (उपन्यास) : इक्कीस

अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी हिन्दुस्तानी नहीं था, अमरीकी पादरी था, बड़ा मिलनसार, बड़ा अमनपसन्द। मीटिंग शुरू होने में अभी देर थी, शहर की सभी चीदा-चीदा जमातों के लोग आनेवाले थे। जो लोग पहुँच चुके थे वे या तो लम्बे बरामदे में दो-दो, तीन-तीन की टोलियों में टहलते हुए बतिया रहे थे या हॉल के अन्दर खड़े विचार-विमर्श कर रहे थे।

ठिगना ठेकेदार शेख नूरइलाही से कह रहा था, “अगर खरीदने का इरादा है तो यही वक्त है। बाद में कीमतें चढ़ जाएँगी। मुझसे पूछो शेखजी! मैं ठीक कहता हूँ। अगर ख्याल हो तो बात करूँ?"

"क्या मालूम अभी कीमतें और गिरें?" शेखजी ने कयास लगाते हुए कहा।

"इससे ज्यादा और क्या गिरेंगी? इसी इलाके में मैं 1500 रुपए में अहाता ज़मीन खुद बेच चुका हूँ, अब वही अहाता सात सौ में मिल रहा है।" फिर कोहनी पकड़कर और मुँह ऊँचा ले जाकर बोला, "शेखजी, अमन-अमान हो जाने पर कीमतें चढ़ेंगी या कम होंगी?"

“सोचूँगा।"

“सोचिए, सोचिए, पर सोचते ही नहीं रहिए। पहले भी आपने अच्छेअच्छे सौदे हाथ से गँवाए हैं।"

शहर में फसाद होने के बाद एक लहर-सी चल पड़ी थी, जिस इलाके में मुसलमानों की अक्सरियत थी, वहाँ से हिन्दू-सिख निकलने लगे थे, और जिन इलाकों में हिन्दू-सिखों की अक्सरियत थी, वहाँ से मुसलमान घर-बार बेचकर निकल जाना चाहते थे।

"आप अपना मन पक्का करें, मैं सौ-पचास और कम करवा दूंगा। यह सौदा अच्छा है, फिर नहीं मिलेगा। आप यही चाहते हैं कि मुसलमानी इलाका हो और मकान बर लबे सड़क हो?"

“अच्छी बात है, जल्दी ख़बर करूँगा।"

अगर शेख नूरइलाही दो मिनट और वहाँ खड़ा रहता तो सौदा पक्का हो जाता, पर वह जैसे-तैसे बाजू छुड़ाकर ठेकेदार मुंशीराम के पंजे से निकल गया और म्युनिसिपल कमेटी के कुछ सदस्यों की टोली में जा मिला। मुंशीराम खड़ा इधर-उधर देखता रहा, फिर धीरे-धीरे सरकता हुआ बाबू पृथ्वीचन्द के पास जा पहुँचा :

"आपके साथवाला जुड़वाँ मकान बिकाऊ है?" "वह मकान कहाँ है, बच्चा दड़बा है।"

"दड़बा है तो भी मैं कहूँगा ले लो। कौड़ियों के मोल बिक रहा है। साथ मिला लोगे तो मकान खूब कुशादा हो जाएगा।"

"और अगर पाकिस्तान बन गया तो?"

“छोड़ो बादशाह, यह सियासतदानों के चोंचले हैं। बन भी गया तो क्या होगा, लोग तो यहीं पर रहेंगे, कहीं भागे तो नहीं जा रहे...।"

मुंशीराम नहीं चाहता था कि आज का दिन किसी सौदे से ख़ाली जाए। एक जगह पर इतने धन-पैसे वाले लोग कहाँ एक साथ मिलते हैं।

बाबू पृथ्वीचन्द ने पेशीनगोई करते हुए कहा, “अमन-अमान हो गया तो अपना मुहल्ला छोड़कर कोई नहीं जाएगा।"

"क्या बातें करते हो बाबूजी, अब यह ख्याल ही दिमाग से निकाल दो। अब हिन्दुओं के मुहल्ले में न तो कोई मुसलमान रहेगा और न मुसलमानों के मुहल्ले में कोई हिन्दू। इसे पत्थर पर लकीर समझो। पाकिस्तान बने या न बने, अब मुहल्ले अलग-अलग होंगे, साफ़ बात है।"

लाला लक्ष्मीनारायण दूर से आते दिखाई दिए तो शेख नूरइलाही ने चुटकी ली, "आ गया है कराड़ा।"

नज़दीक पहुँचने पर शेख नूरइलाही ने ऊँची आवाज़ में कहा, “फ़साद करवाकर ही दम लिया तुमने, कराड़ा!"

आसपास खड़े लोग हँस दिए। शेख नूरइलाही और लाला लक्ष्मीनारायण के बीच बेतकल्लुफी थी, दोनों शहर के मिशन स्कूल में एक साथ पढ़े थे, दोनों कपड़े का व्यापार करते थे।

"कराड़ का कोई भरोसा नहीं, क्यों कराड़ा?"

उन्हें इतने प्यार से मिलते देख एक ओर खड़ा सरदार मोहनसिंह अपने ही साथी से बोला, “हम सबको यहीं रहना है। जनून सिर पर चढ़ जाए लेकिन सच बात तो यही है कि हम सबको यहीं रहना है। मामूली लड़ाई-झगड़े की कोई बात नहीं। यों तो घर के बरतन भी एक-दूसरे से ठहक जाते हैं, हमसायों के आपस में झगड़े होते रहते हैं। लेकिन रहना तो हम सबको यहीं पर है। हमसाया तो अपना दायाँ बाजू होता है।"

और दोनों बगलगीर हो गए। अन्दर ही अन्दर दोनों कट्टरपन्थी थे, पर खेल-बड़े हुए थे इसलिए दोस्ती भी थी, मेल-मिलाप भी था, दुख-सुख में थोड़ा-बहुत शरीक भी होते थे। शेख नूरइलाही के वाक्य में मज़ाक़ कहाँ तक था और हिन्दुओं के प्रति घृणा कहाँ तक व्यक्त हुई थी, कहना कठिन है।"

फिर धीरे से लक्ष्मीनारायण से बोला, "तेरी गाँठे मैंने गोदाम में से उठवा दी थीं।"

लक्ष्मीनारायण मुस्करा दिया। फिर शेख नूरइलाही अपने मज़ाकिया अन्दाज़ में बोला, "पहले तो मैंने कहा, जलने दो कराड़ का माल। फिर दिल में आया, नहीं यार, आख़िर तो दोस्त है मेरा...।"

आसपास खड़े लोगों को दोस्तों का यह मिलन भला लग रहा था।

नूरइलाही कहे जा रहा था, “पहले तो बेटे को मज़दूर ही नहीं मिले। उस रात मज़दूर कहाँ से मिलते? मैंने उससे कहा, 'जैसे भी हो गाँठे उठवा दो नहीं तो लाला मुझे जीने नहीं देगा।' पकड़ लाया फिर कहीं से दो मजदूर।"

इस पर दोनों हँस दिए।

यह हँसी-खेल अपनी जगह ठीक था, इसके साथ नज़र का लिहाज था, लेकिन सच्चे गहरे जज़बात नहीं थे, एक प्रकार की अनौपचारिकता थी जो बड़ी उम्र के स्वार्थी पुरुषों में आ जाती है, अन्दर ही अन्दर वैमनस्य भी था, घृणा भी थी, पर दोनों व्यापारी थे, व्यवहारकुशल थे, अपने लिए एक-दूसरे की जरूरत समझते थे।

खम्भे के नीचे बड़ा हयातबख्श किसी शहर की खूबसूरती का वर्णन कर रहा था :

“ऐसा खूबसूरत शहर, सरदारजी, जैसे दुल्हन खड़ी हो।" वह कह रहा था, “शाम को जब रोशनी हो तो चारों तरफ़ जगमग, समन्दर का किनारा, ऐसी सजधज, आपको क्या बताऊँ, जैसे दुल्हन खड़ी हो। साफ़-सुथरी सड़कें, देखते आँख नहीं भरती थी।"

"किस शहर की तारीफ हो रही है, हयातबख्श?"

"रंगून, रंगून । बहुत बढ़िया शहर है। लाम के दिनों में मैं वहाँ गया था। वाह-वाह, क्या बताऊँ तुम्हें!"

आपस में मिलनेवाले, विभिन्न सम्प्रदायों के लोग जान-बूझकर फसादों की चर्चा नहीं कर रहे थे। वरना जलते गाँवों और जलती अनाज-मंडी की पृष्ठभूमि में दुल्हन-जैसी किसी सुन्दर नगरी की चर्चा कोई क्यों करता। दूसरी ओर वयोवृद्ध लाला पृथ्वीचन्द अपनी मंडली में अपनी तीखी पतली आवाज़ में कह रहा था, "मैंने उन्हें समझाया। मैंने कहा, ओए बेवकूफो, गली के मुँह पर लोहे का फाटक बना देने से क्या तुम बच जाओगे?

ओए कोई अक्ल की बात करो। बाहर का आदमी अन्दर नहीं आ सकेगा तो अन्दर का बाहर भी तो नहीं जा सकेगा। गेट बनाकर तुम अपने को कैद कर लोगे।"

लाला श्यामलाल कांग्रेस कमेटी के सदस्य आँकड़ा बाबू को धकेलते हुए एक ओर ले जा रहे थे, “एक बात का ध्यान तुम्हें करना है, बेटा...आओ, इधर बेंच पर बैठकर बात करते हैं।"

दोनों बैठ गए। लालाजी अपना मुँह आँकड़ा बाबू के कान के पास ले जाकर बोले, “म्यूनिसिपल कमेटी के चुनावों में हमारे वार्ड में से कांग्रेस की तरफ से कौन खड़ा हो रहा है?"

"मुझे तो मालूम नहीं लालाजी, अभी तो सभी लोग रिलीफ के काम में लगे हैं।"

“सभी लोग तो नहीं, खैर, तुम रिलीफ के काम में ज़रूर लगे हो। फिर भी तुमने कुछ सुना तो होगा?"

मैंने तो कुछ नहीं सुना लालाजी, पर इन हालात में कमेटी के चुनाव होंगे भी या नहीं, मुझे शक है।"

“दुनिया के काम, बेटा, कभी बन्द हुए हैं? मैं डिप्टी कमिश्नर से मिल चुका हूँ। दो महीने बाद चुनाव होंगे। नाम दाखिल करने की तारीख पन्द्रह जून रखी गई है। इसीलिए अब ज़्यादा वक़्त नहीं रह गया है।"

"मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं, लालाजी।"

“दुनिया में आँखें खोलकर चलते हैं बेटा, अब हम लोग तो ज़्यादा वक़्त बैठे नहीं रहेंगे, तुम नौजवानों को ही दुनिया के काम सँभालने हैं।" फिर आँकड़ा बाबू के कान के पास मुँह ले जाकर बोले, "मैं चुनाव लड़ रहा हूँ।"

बाबू ने लालाजी के चेहरे की ओर देखा। "मैंने सुना है, कांग्रेस मंगलसेन को टिकट दे रही है।"

"पर लालाजी, आपको कांग्रेस-टिकट की ज़रूरत ही क्या है?"

पर सवाल पूछते ही आँकड़ा बाबू स्थिति को समझ गया। यदि कोई हिन्दू अब चुनाव के लिए खड़ा होगा तो उसे कांग्रेस के समर्थन की ज़रूरत होगी, और अगर कोई मुसलमान खड़ा होगा तो उसे मुस्लिम लीग के समर्थन की। लोगों के मन में यह बात बैठ गई थी कि कांग्रेस हिन्दुओं की संस्था है। लाला श्यामलाल का सम्बन्ध कांग्रेस से इतना ही था कि वह ऐसा कपड़ा पहनते थे जो दूर से खादी नज़र आता था।

"कांग्रेस ऐसे लोगों को टिकट देगी तो बदनाम नहीं होगी?" फिर बाबू के कान के पास मुँह ले जाकर बोला, “जुए के अड्डे चलाता है। दो अड्डे हैं उसके। पुलिसवालों के साथ मिलकर अड्डे चलाता है। अब शहर में गांधीजी आएँ, नेहरूजी आएँ और उनके पीछे-पीछे नाचता फिरे, तो इससे वह कांग्रेसी हो जाता है? खादी वह नहीं पहनता।"

“पहनता है।" आँकड़ा बाबू बीच में बोल उठा।

“अब पहनने लगा है, पिछले दो साल से। पहले कहाँ पहनता था? इसके घर में कौन खादी पहनता है?"

बाबू को सहिष्णु श्रोता पाकर लालाजी बोले जा रहे थे, “बीयर पीता है। अगर एतबार न हो तो कम्पनी बाग़ के क्लब में जाकर देख लो, इसका बाप भी ऐबी था, यह भी ऐबी है।" फिर लाला श्यामलाल ने नाक चढ़ाकर कहा, "उसे भगन्दर हो गया था। भगन्दर से मरा था। यह भी भगन्दर से ही मरेगा।"

आँकड़ा बाबू नहीं जानता था कि भगन्दर क्या बला होती है, पर वह हैरान था कि लालाजी मंगलसेन पर क्यों इतना गुस्सा निकाल रहे हैं।

“मैं इसकी पोल खोलने लगूं तो एक दिन में नंगा हो जाए, पर मैं कहता हूँ, नहीं भाई, सभा-सोसाइटी में सभी को जीना है, वह जाने और उसका काम, पर मक्कारी और झूठ के साथ लोगों को धोखा तो न दे।"

"पर लालाजी, मंगलसेन जिला कमेटी का सदस्य है, जबकि आप कांग्रेस के चवन्नी मेम्बर भी नहीं हैं। आपको टिकट कैसे मिल सकता है?"

"टिकट माँगता ही कौन है? मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि वार्ड की सीट के लिए कांग्रेस किसी को भी टिकट न दे, जाती तौर पर कोई भी खड़ा हो जाए..."

उधर लाला लक्ष्मीनारायण हयातबख्श से किसी दवाई के बारे में पूछताछ कर रहे थे। हयातबख्श को बहुत-सी जड़ी-बूटियों आदि का नाम मालूम था, पथरी के लिए वह खुद दवाई तैयार करता था और मुफ्त बाँटता था, केवल नुस्खा नहीं जानता था क्योंकि इससे दवाई की तासीर जाती रहती है।

रणवीर को भागते समय चोट आ गई थी, नाली में पैर पड़ जाने से उसे बुरी तरह मोच आ गई थी और घुटने भी छिल गए थे। हयातबख्श सिर हिला-हिलाकर सुनता रहा, फिर बोला, “न-न, तेल की मालिश नहीं, उसकी तासीर ठंडी होती है। मेरे पास एक तेल है, अशरफ लाहौर से लाया था, उससे नसें ढीली पड़ेंगी, जल्दी आराम आएगा। यकीनी बात है। मैं भेज दूंगा।"

फिर आवाज़ धीमी करके बोला, “कैसे मोच आ गई बेटे को?" फिर आवाज़ और भी धीमी करके बोला, “मैंने सुना है किसी दल-बल में भी हिस्सा लेता है। मेरी मानो, उसे कुछ दिन के लिए कहीं बाहर भेज दो। यहाँ पकड़-धकड़ का डर है।"

लाला लक्ष्मीनारायण के कान खड़े हो गए, पर उन्होंने घबराहट ज़ाहिर नहीं होने दी:

“पन्द्रह साल का तो लड़का है, वह क्या हिस्सा लेगा?"

पर उन्हें मन ही मन तजवीज़ पसन्द आई। रणवीर को कुछ दिन के लिए बाहर भेज देना, यही ठीक होगा।

कालिज के दो चपरासी गेट के पास एक बेंच पर बैठे बतिया रहे थे। एक ने दूसरे से कहा, "हम जाहिल लोग लड़ते हैं, समझदार, खानदानी लोग नहीं लड़ते। यहाँ सभी आए हैं हिन्दू भी, सिख भी, मुसलमान भी; मगर कैसे प्यार-मुहब्बत से बातें कर रहे हैं...।"

सियासी लोगों में लगभग सभी पहुंच चुके थे, शायद बख्शीजी का इन्तज़ार था। सभी स्थानीय लीडरों को देवदत्त घर-घर जाकर इकट्ठा कर लाया था। वह भी मीटिंग में पहुँच चुका था और इस बात को देखकर मन ही मन प्रसन्न था कि लीग और कांग्रेस के रहनुमाओं को एक जगह इकट्ठा करने में वह फिर कामयाब हो गया है। उसकी व्यावहारिक सूझ इस बात से ज़ाहिर होती थी कि मीटिंग शुरू होते ही उसने जलसे की सदारत के लिए उसी कालिज के प्रिंसिपल लूकस साहब का नाम तजवीज़ कर दिया। लूकस अमरीकी थे, उम्ररसीदा थे, शहर के लड़कों की तीन पीढ़ियों को पढ़ा चुके थे, अंग्रेज़ नहीं थे, न ही हिन्दू या मुसलमान थे। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वह सदारत की कुर्सी पर आकर बैठ गए। सभी लोग बरामदों वगैरह से आ-आकर हॉल में बैठने लगे थे तभी मुस्लिम लीग के एक नौजवान कारकुन और एक कांग्रेसी के बीच बहस होने लगी। लीगी उछलकर खड़ा हो गया :

"ले के रहेंगे पाकिस्तान! बख्शीजी, यह फरेब आप छोड़ दें। एक बार मान जाएँ कि कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है, इसके बाद मैं इन्हें गले लगा लूँगा। कांग्रेस मुसलमानों की नुमाइन्दगी नहीं कर सकती।"

फसादों से पहले भी यही वाक्य बार-बार सुनने को मिलता था। इस बीच कहीं से नारा उठा :

"पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!"

उसी वक़्त दस आवाजें जगह-जगह से उठी : "खामोश! खामोश!"

लूकस साहब कहने लगे, “मैं सोचता हूँ इस वक़्त हम सब मिलकर, जैसे भी हो, शहर की फिज़ा को बेहतर बनाएँ। यहाँ शहर के सभी बड़े-बड़े लोग मौजूद हैं, उनकी आवाज़ का बड़ा असर होगा। मेरा विचार है कि एक अमन कमेटी बनाई जाए और यह अमन कमेटी हर मुहल्ले में, हर गली में अमन का प्रचार करें। इसमें सभी सियासी जमातों के नुमाइन्दे शामिल हों। इस काम के लिए, मैं समझता हूँ कि अगर एक बस का इन्तज़ाम हो सके, जिस पर लाउडस्पीकर और माइक्रोफोन लगा दिए जाएँ, और कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा अन्य सियासी जमातों के नुमाइन्दे बैठकर जगह-जगह बस में से अमन की अपील करें तो इसका बड़ा असर होगा।"

तालियों की गड़गड़ाहट से इस प्रस्ताव का स्वागत किया गया।

सहसा एक साहब उठ खड़े हुए। शाहनवाज़ था :

"बस का इन्तज़ाम मैं करूँगा।"

तालियों की फिर गड़गड़ाहट हुई। देवदत्त ने सामने आकर कहा, "हमें इत्तला मिली है कि बस का इन्तज़ाम सरकार की तरफ़ से किया जा रहा है।"

तालियों की फिर गड़गड़ाहट हुई। शाहनवाज़ अभी खड़ा था, “पेट्रोल का सारा खर्च मैं दूंगा।"

“आफरीन, आफरीन, वाह-वाह!"

इस पर एक सज्जन ने उठकर कहा, “साहिबान, प्रोग्राम तय करने से पहले क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम बाकायदा अमन कमेटी कायम कर लें, उसके ओहदेदार चुन लें और बाज़ाब्ता तौर पर काम करें?"

यहाँ भी चुनाव का मसला उठ खड़ा हुआ था, इस पर फौरन ही देवदत्त ने आगे बढ़कर कहा, "मैं तजवीज़ करता हूँ कि इस अमन कमेटी के तीन वाइस प्रेजिडेंट मुन्तखिब किए जाएँ। मैं जनाब हयातबख्श...।"

"ठहरिए! पहले इस बात का फैसला कर लीजिए कि वाइस प्रेजिडेंट तीन हों या कम या ज्यादा। मेरी तजवीज़ है कि वाइस प्रेजिडेंट पाँच होने चाहिए। जितने ज्यादा वाइस प्रेजिडेंट होंगे उतनी ही अमन कमेटी ज़्यादा नुमाइन्दा जमात बनेगी।"

इस पर एक सरदारजी बोले, “मैं दरख्वास्त करूँगा कि वाइस प्रेजिडेंट आप तीन ही रखें, एक हिन्दू, एक मुसलमान भाई, एक सिक्ख । कार्यकारिणी को आप बेशक बड़ा कर लें और उसमें सभी को खुलकर नुमाइन्दगी दें।"

“यहाँ हिन्दू-मुसलमान का सवाल न लाएँ, यह अमन कमेटी है।" देवदत्त फिर आगे बढ़ आया, “मैं दरख्वास्त करूँगा कि सभी सियासी पार्टियों के रुकन इस कमेटी में शामिल हों। मेरी तजवीज़ है कि जनाब हयातबख्श साहब मुस्लिम लीग की तरफ़ से, बख्शीजी कांग्रेस की तरफ़ से और भाई जोधसिंहजी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की तरफ से वाइस प्रेजिडेंट चुने जाएँ।"

एक सज्जन उठ खड़े हुए, “अगर सियासी पार्टियों के नुमाइन्दे चुनना है तो तीनों पार्टियों के प्रधान चुने जाएँ। उनके नाम गिनाए जाएँ।"

लाला लक्ष्मीनारायण उठकर बोले, “मुझे यह देखकर अजहद रंज हो रहा है कि आपने तीन सियासी पार्टियों के नाम तो गिनाए, लेकिन हिन्दू सभा को बिलकुल भूल गए। क्या वह सियासी पार्टी नहीं है?"

"नहीं, वह सियासी पार्टी नहीं है।"

"अगर वह सियासी पार्टी नहीं तो गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी भी सियासी पार्टी नहीं है।"

पाँच-सात व्यक्ति एक साथ उठ खड़े हुए : “यह सिख कौम की तौहीन है। गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ही सिखों की नुमाइन्दगी करती है।"

देवदत्त लपककर फिर सामने आ गया, “साहिबान, इस तरह हम कोई काम नहीं कर सकेंगे। फिरकावाराना अनासर के ख़िलाफ़ हमें लड़ना है। यह ज़रूरी नहीं कि किसको नुमान्दगी मिले, ज़रूरी यह है कि अमन कमेटी सभी फिरकों की एक मुश्तरका जमात बने, ताकि हम हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई मिलकर एक प्लेटफार्म पर से अमन की अपील कर सकें। इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए मैं तजवीज़ करता हूँ कि जनाब हयातबख्श, बख्शीजी और ज्ञानी जोधासिंहजी को अमन कमेटी का वाइस-प्रेजिडेंट मुन्तखिब किया जाए।"

“मंजूर है, ठीक है, चलो आगे।" एक आवाज़ आई। इस प्रकार किसी ने ताली बजाई और तभी बहुत-से लोगों ने तालियाँ बजाईं और प्रस्ताव का विरोध करनेवाले को बोलने का मौका नहीं मिला। तजवीज़ मुतफिक्का राय से पास कर दी गई।

इस पर मास्टर रामदास ने उठकर कहा, “जनरल सेक्रेटरी के लिए मैं कामरेड देवदत्त का नाम तजवीज़ करता हूँ। एक तो यह अनथक मेहनत कर सकते हैं। इन्हीं की कोशिशों से हम आज यहाँ इकट्ठे हुए हैं। अगले कुछ दिन नाजुक होंगे। अमन कमेटी को बड़ी होशियारी और मेहनत से काम करना होगा। इस काम के लिए कामरेड देवदत्त बड़े मौजू आदमी हैं...।"

"क्या शहर में सब नौजवान मर गए हैं?" मनोहरलाल था, आज भी ' एक ओर दीवार के साथ छाती पर बाजू बाँधे पीछे खड़ा था, “मैं पूछता हूँ क्या सरकार के दुमछल्ले, कौम के गद्दार कम्युनिस्ट ही इस काम के लिए रह गए हैं? और सब नौजवान मर गए हैं? यह चुनाव ढोंग है। मैं इस मीटिंग से वॉक-आउट करता हूँ...।"

और वह मुड़कर हॉल के बाहर जाने लगा।

“ठहरो यार, मनोहरलाल, कोई काम होने दिया करो।"

मनोहरलाल अभी भी बिगड़ा हुआ था, “छोड़ो यार, हमने बहुत देखे हैं।" मनोहरलाल सीधा मुँह पर कहता है, वह सगे बाप से नहीं डरता।..."

पर कांग्रेस के कुछेक नौजवान सदस्यों ने उसे रोक लिया। एक आदमी उसे काम पर से उठाकर मीटिंग में लौटा लाया।

“सभी सरकार के पिठू इकट्ठे हुए हैं। मैं इन सबको जानता हूँ।..."

"खामोश! खामोश!"

"मैं कारमेड देवदत्त के नाम की ताईद करता हूँ।"

“मैं ताईद मजीद करता हूँ।"

तालियों की गड़गड़ाहट। काम फिर खुश-अस्लूबी से चलने लगा था। लेकिन कार्यकारिणी के सदस्यों के चुनाव के समय सभी तरह के नाम तजवीज़ किए जाने लगे। लक्ष्मीनारायण, मरयादास, शाहनवाज़...। तभी बहुत-से मुसलमान सदस्य एक साथ उठ खड़े हुए और दरवाज़े की ओर बढ़ने लगे। आगे-आगे मौलाबख्श चला जा रहा था :

“इस कमेटी में हिन्दुओं की अक्सरियत है। हम इस कमेटी में शामिल नहीं हो सकते। हमें पहले ही मालूम था कि यह हिन्दुओं का हथकंडा है।..."

दस आदमी, देवदत्त समेत, उन्हें रोकने के लिए गए। दरवाजे पर देर तक हंगामा होता रहा। आख़िर एक फार्मूले के आधार पर कार्यकारिणी चुनने का फैसला हुआ कि उसमें कुल पन्द्रह सदस्य हों, सात मुसलमान, पाँच हिन्दू और तीन सिक्ख । देर तक बहस हुई, बहस के दौरान लोग थकने लगे थे, पर आखिर में यह फॉर्मूला मंजूर हो गया और इसमें लाला लक्ष्मीनारायण भी शामिल हो गए, लाला मंगलसेन भी, शाहनवाज़ भी और कितने ही और लोग। बेचारे श्यामलाल का नाम किसी ने नहीं लिया। वह देर तक आँकड़ोंवाले बाबू का कोट खींचता रहा, लेकिन आँकड़ोंवाला बाबू झिझकता रहा, आखिर श्यामलाल खुद उठ खड़े हुए :

“मैं दरख्वास्त करूँगा कि मुझे भी इस कमेटी में खिदमत करने का मौका दिया जाए।"

“सीटें पूरी की जा चुकी हैं। बैठ जाइए।" मंगलसेन ने कहा। फिर एक और साहब उठे:

"मैं समझता हूँ कोई हर्ज नहीं है। एक हिन्दू, एक मुसलमान और एक सिख कमेटी में बढ़ा दिए जाएँ।"

"यह नहीं हो सकता। इस तरह आप कितने लोगों को शामिल करते जाएँगे?" मंगलसेन फिर बोला।

मामला अभी तय नहीं हुआ था जबकि भोंपू बजने की आवाज़ आई। देवदत्त प्रधान की कुर्सी के पास जाकर बोला, “साहिबान, अमन की बस आ गई है। हम अपने पहले दौरे पर यहीं से रवाना होंगे। मैं गुजारिश करूँगा कि इसमें प्रेजिडेंट और वाइस प्रेजिडेंट साहिबान और इनके अलावा जितने साथी और चल सकते हैं, सभी चलें। बस में लाउडस्पीकर लगा दिया गया है। बस जगह-जगह रुकती जाएगी और बारी-बारी से हमारे मोहतरिम बुजुर्ग, लोगों को शहर में अमन कायम रखने की ताकीद करते जाएँगे।"

लोग उठ खड़े हुए और उठ-उठकर बाहर आने लगे। गलाबी और सफ़ेद धारियोंवाली बस थी, अमन की बस! आगे छत पर दोनों कोनों में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झंडे लगे थे। लाउडस्पीकर का एक भोंपू आगे और एक पीछे लगा था।

“इस पर यूनियन जैक का भी झंडा लगा दीजिए।" मनोहरलाल ने व्यंग्य से कहा।

लोगों के बाहर आने पर बस में से नारे गूंजने लगे :

"हिन्दू-मुस्लिम एक हो!"

"हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद-ज़िन्दाबाद!"

"अमन कमेटी-ज़िन्दाबाद!"

लोगों ने झाँक-झाँककर बस के अन्दर देखा, कौन आदमी था जो पहले से बस में बैठकर आया था और लाउडस्पीकर पर नारे लगा रहा था। ड्राइवर की सीट के साथवाली सीट पर एक आदमी हाथ में माइक्रोफोन पकड़े बैठा था। बहुत लोगों ने उसे नहीं पहचाना। कुछेक ने पहचान भी लिया। नत्थू मर चुका था, वरना नत्थू यहाँ मौजूद होता तो उसे पहचानने में देर नहीं लगती। मुरादअली था। काले चेहरे और कँटीली मूंछोंवाला मुरादअली, उसकी पतली-सी छड़ी उसकी टाँगों के बीच पड़ी थी और छोटी-छोटी आँखें दाएँ-बाएँ देखे जा रही थीं और लाउडस्पीकर में से नारे गूंज रहे थे।

शान्ति-अभियान पर निकलने से पहले छोटी-सी बहस हुई। कौन किस सीट पर बैठे, आगे कौन और पीछे कौन और पहले कौन बोले और कौन-कौन से नारे लगाए जाएँ।

आगे-पीछे नहीं, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के प्रधान साथ-साथ ड्राइवर के पीछेवाली सीट पर बैठे।

कुछ देर तक गड़बड़ी रही, बस खचाखच भर गई क्योंकि कुछ लोग रास्ते में अपने-अपने घर के सामने उतर जाना चाहते थे। सोहनलाल अन्त तक बिगड़ता रहा, “इस बस में या मैं बैलूंगा या कम्युनिस्ट बैठेगा। मैं मुल्क के गद्दार के साथ हरगिज नहीं बैठ सकता।"

बस के पायदान पर खड़ा देवदत्त बोला, “मनोहरलाल साहब, पर्दे के पीछे हम कोई बात नहीं करते। हम कांग्रेस की दुम नहीं हैं, हम पेशेवर क्रान्तिकारी हैं। शहर में अमन कायम करना ज़रूरी है और इसके लिए ज़रूरी है कि सभी पार्टियों के लीडरों को इकट्ठा किया जाए। आपकी पार्टी के भी, जिसके लीडर भी आप ही हैं, और जनता भी आप ही हैं। हम भी जानते हैं ये रजअतपसन्द हैं, मगर इस वक़्त शहर में अमन के लिए इन्हें एक प्लेटफार्म पर लाना ज़रूरी है।"

“अमन अब क्या करवाओगे?" मनोहरलाल ने चिढ़कर कहा, “अमन तो तुम्हारे साहब ने करवा दिया है। फ़साद करवाने के बाद अब अमन करवा रहा है।"

श्यामलाल बरामदे में खड़े म्युनिसिपल चुनावों में अपनी उम्मीदवारी का जिक्र एक-एक से करते रहे। इस बीच मंगलसेन बस में कूदकर बैठ गया। बैठ ही नहीं गया, काफ़ी आगे की सीट पर जा बैठा और अचानक उस पर नज़र पड़ने पर श्यामलाल आगबबूला हो गया और भागता हुआ आगे बढ़ गया : “मुझे कोई नहीं बताता, मुझे कोई नहीं बताता।" और लोगों को धकेलता, हाँफता हुआ बस के अन्दर चढ़ गया।

मुस्लिम लीग के प्रधान के साथ बैठे हुए बख्शीजी सामने की ओर देखे जा रहे थे, पर गहरी उदासी में डूबे हुए थे। 'चीलें उड़ेंगी, और अभी उड़ेंगी, उन्होंने मन ही मन कहा।

तभी ड्राइवर के साथवाली सीट पर बैठे मुरादअली ने फिर नारे लगाना शुरू कर दिया और गूंजते नारों के बीच अमन की बस अपने शान्ति-अभियान पर निकल पड़ी।

***

बँगले में भोजनकक्ष की स्निग्ध रोशनी में मेज़ के आर-पार बैठे रिचर्ड और लीज़ा अपने भावी कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे। लीज़ा फिर से सँभल गई थी, रिचर्ड को भी आज ज़्यादा काम नहीं था, नगर का जीवन पटरी पर आ रहा था, छोटे अफसरों ने काम सँभाल लिया था।

"मैं चाहता तो था कि यहाँ कुछ देर के लिए रहता, टेक्सिला के म्यूजियम में थोड़ा काम करता, यहाँ के लोगों का अध्ययन करता लेकिन लगता है यहाँ ज़्यादा देर रहना न हो सकेगा।"

लीज़ा को यह सूचना पाकर मन ही मन खुशी हुई : “तो तुम्हारा तबादला होगा? तुम्हारी तरक्की होगी?" रिचर्ड मुस्करा दिया। मुँह से कुछ नहीं बोला।

"तुम बताते क्यों नहीं हो? क्या सचमुच तुम्हारी तरक्की होने जा रही है?"

“तरक्की की बात नहीं है लीज़ा, जिस जगह दंगा-फसाद हो जाए, वहाँ से सरकार आम तौर पर अफसरों को तब्दील कर देती है। नए अफसर आ जाते हैं...”

"क्या जल्दी ही चले जाना होगा?"

"शायद! मैं ठीक तरह से नहीं जानता।"

"मगर तुम तो यहाँ रहना चाहते थे ना, टेक्सिला म्यूजियम में काम करना चाहते थे, अपनी किताब लिखना चाहते थे...?"

रिचर्ड ने कन्धे बिचका दिए। फिर उसने पाइप सुलगाया और मेज़ के नीचे टाँगें पसारकर, तफरीह के मूड में, मुस्कराकर बोला, "कहाँ से शुरू करूँ?"

"क्या, कहाँ से शुरू करो, रिचर्ड?" लीज़ा ने भवें उठाकर पूछा।

"तुम यही जानना चाहती थीं, न कि यहाँ पर क्या कुछ हुआ है!"

अबकी बार लीज़ा ने कन्धे बिचका दिए, मानो कह रही हो, सुनाओ या न सुनाओ, कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

  • तमस (उपन्यास) : द्वितीय खंड (अध्याय 14-17 ) : भीष्म साहनी
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