तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

Tamas (Hindi Novel) : Bhisham Sahni

तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड : भीष्म साहनी

तमस (उपन्यास) : आठ

शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम हिन्दू भी करते थे और मुसलमान भी।

शिवाले का बाज़ार किसी दुल्हन के चेहरे की तरह खिला हुआ था। वहाँ रोज़ जैसी ही रौनक थी, कोई नहीं कह सकता था कि कहीं कोई तनाव पाया जाता है। सुनारों की दुकानों पर अनेक बुर्केवाली गाँवों की औरतें चाँदी के ज़ेवर खरीदने-बनवाने के लिए जगह-जगह बैठी थीं। हकीम लाभराम की दूकान के सामने दवाइयाँ कूटनेवाले दो कश्मीरी मुसलमान नाक-मुँह लपेटे दौरी में दवाइयाँ कूट रहे थे। कुबड़े हलवाई की दुकान पर लगभग रोज़ जैसी ही भीड़ थी। खोमचेवाला सन्तराम आज भी ठीक एक बजे अपनी हथगाड़ी धीरे-धीरे चलाता हुआ, सराफों का बाज़ार लाँधकर शिवाले के बाज़ार में आ गया था और रोज़ के ही मुताबिक दर्जी खुदाबख्श और उसके दो भाइयों के लिए आधी-आधी छटाँक हलवे के तीन पत्ते बनाकर भेज रहा था।

वातावरण में स्थिरता थी। सुबह की घटना से पैदा होनेवाला तनाव कुछ दब गया था, कुछ बिखर गया था। सड़कों पर चहल-पहल थी। खुदाबख्श की दूकान के सामने, गली के सिरे पर कमेटी का कारिन्दा सीढ़ी लगाकर, दीवार में लगे लैम्प की चिमनी साफ़ कर रहा था और लैम्प में तेल डाल रहा था। नगर का कार्य-कलाप फिर से जैसे किसी संगीत की लय पर चलने लगा हो। जब इब्राहीम इत्रफरोश कन्धों और पीठ पर से तरह-तरह की बोतलें लटकाए एक गली से दूसरी गली इत्र-फुलेल की आवाज़ लगाता अपनी स्थिर चाल से गुज़रता जाता तो लगता नगर की इस धुन पर उसके पाँव उठ रहे हैं, इसी धुन पर औरतें अपने घड़े लेकर गली के नल पर जातीं, इसी धुन की लय पर सड़कों पर ताँगे चलते, इसी धुन पर बच्चे स्कूल जाते, लगता, शहर का सारा व्यापार किसी मीठी सहज धुन पर चल रहा है। लगता इसकी एक कड़ी टूटेगी तो साज़ के सारे तार टूट जाएँगे। या यों कहो कि शहर की सभी क्रियाएँ मिलकर किसी सतत संगीत का निर्माण करतीं जो शहर के दिल की धड़कन के साथ-साथ बजता था। शहर में लोग जवान होते हैं तो इसी लय पर, बूढ़े होते हैं तो इसी लय पर, इसी पर पीढ़ियाँ अपना जीवन व्यतीत करती हुई चली जाती हैं। आप इसे संगीत कह लीजिए या नाजुक-सा सन्तुलन जिसमें व्यक्तियों के आपसी रिश्ते, जन-समूहों के आपसी रिश्ते एक विशेष धारा पर स्थिर हो चुके होते हैं...।

यह तो नहीं कहा जा सकता कि शहर के जीवन में लहरें नहीं उठती थीं; कांग्रेस के आन्दोलन चलते तो जबर्दस्त लहरें उठती थीं, हर साल गुरुपर्व के अवसर पर सिखों का जुलूस निकलता तो शहर में तनाव आ जाता; जामा मस्ज़िद के सामने से जुलूस बाजा बजाता हुआ निकलेगा या नहीं, उस पर पथराव होगा या नहीं। मुसलमानों के ताज़िए निकलते, और छातियाँ पीटते 'या हुसैन!' बोलते, पसीने से तर मुसलमानों की मंडलियाँ निकलतीं तब भी शहर में तनाव आ जाता पर इसके बाद तनाव ढीला भी पड़ जाता और जन-साधारण के जीवन की गति फिर से इसी लय पर चलने लगती, फिर से वातावरण में स्निग्धता आ जाती, फिर से लोग हँस-खेलकर दिन बिताने लगते।

दर्जी खुदाबख्श की दूकान पर सरदार हाकिम सिंह की पत्नी उलाहना दे रही थी, “बे बख्शिया, तूं कपड़े की देसें-भरसें या फेरे ही पवाँदा रहसे?"

(कभी हमारे कपड़े भी सीकर देगा या रोज़ तेरी दूकान के चक्कर ही मारती रहूँ?)

खुदाबख्श मुस्करा दिया। शहर की सभी हिन्दवाणियाँ, सरदारनियाँ, विशेषकर खाते-पीते घरों की औरतें उसे 'बख्शा' ही कहकर पुकारती थीं। बख्शे की दूकान पर शादी के लिए सिले जानेवाले कपड़ों का ढेर लगा रहता था।

“जद्द मैं कहँदा रिहा बीबी भेजो कपड़े भेजो कपड़े, तुसाँ कुझ न कीता, सारियाँ सरदारियाँ लँघा दित्तियाँ। हुण वकत ताँ लगदै। सोलह हत्थ ताँ नहीं मेरे।"

(जब मैं कहता था, बीबी लाओ कपड़े, लाओ कपड़े, आपने कोई परवाह न की। सारा जाड़ा बीत गया। अब वक़्त तो लगेगा ही, मेरे सोलह हाथ तो नहीं हैं।)

"क्यों जाड़ा कैसे बीत गया?"

"क्यों भला, शिवराम के बेटे के ब्याह के पन्द्रह दिन बाद आपने बेटी की सगाई की थी या नहीं? तब कौन-सा महीना चल रहा था?"

हाकिम सिंह की पत्नी हँसने लगी।

“हाँ भाई तू सब जानता है। अब बोल, बेटी का सूट कब देगा?"

“कारज कब है?"

“वाह जी, बेटी की सगाई का दिन इसे याद है, ब्याह का दिन नहीं जानता।"

"पच्चीस को है ना? आज कौन-सी तारीख है? पाँच तारीख । दे दूंगा।"

"दे दूँगा नहीं, बता कब देगा? ब्याह-कारज वाले दिन तू चक्कर लगवाएगा, मैं तुझे जानती नहीं हूँ जैसे। विद्या के ब्याह पर भी तूने ऐसे ही किया था, उधर बरात आनेवाली थी, इधर जरी के सूट के लिए मैं बार-बार आदमी भेज रही थी। ठीक-ठीक बता कब देगा?"

वह अभी बात कर ही रही थी जब उसके पीछे से किसी ने बख्शे की झोली में कपड़े का एक पुलिन्दा फेंका, हरे रंग का रेशमी कपड़ा, साथ में तिल्ले का बॉर्डर। “बख्शया, कपड़े को माप लेना, और ज़रूरत हो तो बुद्धसिंह की दूकान पर से मेरा नाम लेकर ले लेना।"

एक महिला थी। बख्शे ने कपड़े के एक कोने पर लब लगाकर उसे भिगो लिया। फिर कान के पीछे खोंसी पेंसिल निकालकर कपड़े को आँक लिया और बगलवाली अलमारी में डाल दिया। अलमारी ब्याह-शादी के लिए सिलनेवाले कपड़ों से भरी थी।

“दे दूंगा, दे दूंगा, मैं खुद घर पर पहुँचा आऊँगा।"

“तू बातें बहुत करता है। अबकी वक्त पर कपड़े नहीं दिए तो मैं तेरी दूकान पर कभी पैर नहीं रसूंगी।"

और हाकिमसिंह की पत्नी दूकान पर से चली गई।

औरत चली गई तो खुदाबख्श की नज़र शिवाले की दीवार पर पड़ी। कोई आदमी उस पर चढ़ा हुआ था। खुदाबख्श ने ध्यान से देखा। गोरखा चौकीदार था, पर यह वहाँ क्या कर रहा है? दीवार के पीछे शहर का पुराना मन्दिर था जिसका कलश दूर-दूर से चमकता नज़र आता था। उसी मन्दिर की दीवार के ऊपर एक घड़ियाल लगा था। गोरखा चौकीदार उसी घड़ियाल को साफ़ कर रहा था।

"देखो तो वह क्या है?" खुदाबख्श ने अपने एक कारिन्दे से कहा, जो उसके पास ही बैठा मशीन पर कपड़ा सी रहा था।

“घड़ियाल दुरुस्त किया जा रहा है।” कारिन्दे ने कहा।

“या अल्लाह!” खुदाबख्श के मुँह से निकला।

"शहर में फ़साद का डर है..." फिर दोनों चुप हो गए।

सन् छब्बीस के फ़िसाद के बाद यह घड़ियाल लगवाया गया था। तब से अब तक उसकी चमक बहुत कुछ जाती रही थी। धूप और बारिश के कारण उसके आस-पास की दीवार पर से भी पलस्तर उखड़ गया था। पहले फ़िसादों के समय खुदाबख्श बीस-बाईस बरस का युवक था, जब उसे दंड पेलने और कसरत करने का शौक था। उन्हीं दिनों वह अपने बाप की दर्जी की दूकान पर बैठा था। उन्हीं दिनों घड़ियाल यहाँ लगाया गया था। अब खुदाबख्श अधेड़ उम्र का हो चला था, और शहर में विरले ही कोई ऐसा ब्याह होता होगा जिसके कपड़े सिलने के लिए इसके पास न आते हों। दीवार पर चढ़ा हुआ गोरखा रामबलि भी वही पुराना चौकीदार था, जिसके हाथों घड़ियाल लगाया गया था। पिछले फ़िसादों के बाद अपनी मुस्तैदी, सेवा-भाव और ईमानदारी के कारण अपने काम पर बना रहा था। दसियों बरस के अर्से में उसका शरीर गदरा गया था, चेहरे पर लकीरें पड़ गई थीं, कनपटियों पर के बाल सफ़ेद पड़ गए थे, पर शिवाला की चौकीदारी अभी भी वह पहले की ही मुस्तैदी से करता था।

घड़ियाल की हल्की-सी टुन-टुन सुनाई दी। खुदाबख्श की नज़र फिर दीवार पर गई। गोरखा घड़ियाल के साथ नई रस्सी बाँध रहा था। घड़ियाल इसी कारण हिल गया था और टुन-टुन की आवाज़ आई थी। गोरखे ने गरारियों में तेल लगा दिया था, और घड़ियाल चमचमा रहा था।

"इस घड़ियाल की आवाज़ सुनकर रूह काँप जाती है।" खुदाबख्श ने कहा, “पहले फ़साद में जब बजा था तो मंडी में आग लगी थी और शोले आधे आसमान को ढके हुए थे।"

दीवार पर गोरखा अभी भी घड़ियाल साफ़ किए जा रहा था मानो कोई त्योहार या पर्व आनेवाला हो। और घड़ियाल इस तरह चमकने लगा था जैसे पीतल का माँजा हुआ बर्तन चमकता है। साथ में नई मोटी रस्सी झूलने लगी थी।

खुदाबख्श की नज़र घड़ियाल पर से हटकर साथवाली सुनार की दूकान पर गई जहाँ अधेड़ उम्र का एक आदमी और उसकी पत्नी-जो किसी गाँव से आए जान पड़ते थे-अपनी बेटी से काँटों की जोड़ी लेने का आग्रह कर रहे थे।

“तुझे पसन्द है तो ले क्यों नहीं लेती। जल्दी कर, हमें और भी बहुत-सा सामान खरीदना है, गाँव भी लौटना है।"

बेटी की आँखें चमक रही थीं। वह बार-बार काँटों को कान के पास ले जाती और शरमाकर अपनी माँ को दिखाने लगती।

"कैसे लगते हैं, माँ?"

लजाती-सकुचाती युवती निश्चय नहीं कर पा रही थी कि काँटों की जोड़ी उसे फबती है या नहीं, वह उन्हें ख़रीदे या नहीं खरीदे।

खुदाबख्श की नज़र फिर एक बार मन्दिर की दीवार की ओर उठी तो बूढ़ा चौकीदार दीवार पर से उतर रहा था और चमचमाते घड़ियाल से लगी रस्सी दीवार के ऊपर झूल रही थी। खुदाबख्श के मुँह से फिर एक बार 'या अल्लाह!' निकला और उसने मुँह फेर लिया।

*****

उधर फ़ज़लदीन नानबाई की दुकान पर मजलिस जमी थी। ढलती दोपहर के वक़्त काम मन्दा पड़ जाने पर आसपास के यार-दोस्त बतियाने आ जाते और हुक्के के दौर में दीन-दुनिया की बातें चलतीं।

बातों का सिलसिला शुरू तो उसी घटना से हुआ जो आज शहर में चर्चा का विषय बनी हुई थी, मगर बातों में से बात निकलती गई और उस नुक्ते पर जा पहुंची जहाँ बूढ़ा करीमखान कहने लगा कि हाकिमों के मन की थाह पाना आम आदमी के बस का नहीं होता, हाकिम दूर की सोचता है, उसके हर फेअल के पीछे दूरअन्देशी पाई जाती है, जो कुछ वह देखता है उसे आम इनसान नहीं देख पाता।

"मूसा ने एक दिन खिज़र से कहा," करीमखान कह रहा था, "कि तुम मुझे अपना शागिर्द बना लो। सुन, जिलानी सुन, बड़ा सबक आमोज़ किस्सा है।

“मूसा छोटा था और मूसा खुद पैगम्बर बनना चाहता था। अभी वह पैगम्बर बना नहीं था। मगर चाहता बहुत था। खिज़र तो पहले ही पैगम्बर था। समझे? और उम्र में भी बड़ा था, सब लोग उसकी बड़ी इज़्ज़त करते थे।" करीमखान कहे जा रहा था। उसकी छोटी-छोटी आँखें सारा वक़्त मुसकराती रहतीं और जब हँसता तो अपने जानूँ पर चपत मारता, जिस पर आस-पास बैठे सभी लोग मुसकराने लगते।

"तो एक दिन मूसा ने खिज़र से कहा कि तुम मुझे अपना शागिर्द बना लो। खिज़र ने कहा अच्छी बात है, बना लेंगे, मगर एक शर्त पर।" “वह क्या?" मूसा ने पूछा। “शर्त यह कि तुम बोलोगे नहीं, मैं कुछ भी करूँ, तुम अपना मुँह बन्द रखोगे।" मूसा ने कहा मंजूर है तो खिज़र ने उसे अपना शागिर्द बना लिया।

“अब खिज़र उसे सिखाना चाहता था। क्या सिखाना चाहता था? कि देखता तो खुदावन्द ताला है, हम इनसान तो कुछ भी नहीं देख सकते, हम तो अपने दिमाग घिसा-घिसाकर सबब और बायस खोजते रहते हैं, मगर हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता क्योंकि देखता तो खुदावन्द करीम है। तो खिज़र ने कहा कि तुम बोलोगे नहीं, मैं कुछ भी करूँ, कुछ भी बोलूँ, तुम अपना मुँह बन्द रखोगे।"

हुक्का करीमखान ने आगे सरका दिया था, अब उस पर जिलानी फूंकें मार रहा था। ढलती दोपहर में भिश्ती दूकान के सामने छिड़काव कर गया था और मिट्टी की सोंधी-सोंधी गन्ध हवा में फैली थी। सड़क पर आमदरफ्त कम हो गई थी। कुछ लोग जामा मस्जिद में दिन की नमाज़ पढ़ने जाते एक-एक करके सामने से गुज़रते नज़र आते।

"तो क्या हुआ दूसरे रोज़ खिज़र एक गाँव से दूसरे गाँव की तरफ़ जाने लगा। मूसा भी पीछे-पीछे। बाद में मूसा बहुत बड़ा पैगम्बर बना, पर उस वक़्त वह खिज़र का चेला था। सुन जिलानी, कान खोल के सुन, बड़ा सबक आमोज़ किस्सा है।...तो दोनों चल पड़े। अब रास्ते में नदी पड़ती थी, और किनारे पर एक किश्ती बँधी थी जिसमें लोग नदी पार करते थे। अब क्या हुआ कि दोनों नीचे उतरे और किश्ती में बैठ गए और पत्तन वाला उन्हें पार ले जाने लगा। तो थोड़ी देर में मूसा ने क्या देखा कि खिज़र किश्ती के तले में छेद कर रहा है। किश्ती बिलकुल नई थी जैसे आज ही बनकर आई हो और खिज़र उसके पेंदे में छेद किए जा रहा है। एक छेद कर चुकने के बाद उसने एक और छेद कर दिया, फिर एक और। मूसा चिल्लाया, “वल्लाह, आप क्या कर रहे हैं, किश्ती डूब जाएगी! हम दोनों डूब जाएँगे...।"

खिज़र ने उँगली अपने होंठों पर रखकर उसे चुप रहने का इशारा किया। पर मूसा परेशान हो उठा था क्योंकि नाव में पानी भरने लगा था और वह डर रहा था कि नाव अब डूबी कि अब डूबी। पर वह चुप हो गया, खिज़र को जबान जो दे चुका था। थोड़ी देर बाद खिज़र ने एक-एक करके छेद बन्द कर दिए लेकिन तब तक नाव का तला बहुत कुछ ख़राब हो चुका था।... अब दोनों पार हुए...पार हुए तो...अल्लाह रहम करे...दोनों जा रहे थे जब एक जगह एक छोटा-सा लड़का ज़मीन पर बैठा खेल रहा था। बच्चे के पास से गुज़रे तो खिज़र ने आव देखा न ताव, बच्चे को उठाकर उसकी गर्दन मरोड़ दी।"

“यह क्या? यह क्या?" मूसा चिल्लाया, “मासूम बच्चे को मार डाला!" पर खिज़र चुप। खिज़र ने फिर उँगली होंठों पर रख दी और मूसा को चुप रहने का हुक्म किया।

“अलहमदुलिल्लाह! बोलूँ नहीं? आपने बेगुनाह बच्चे की गर्दन मरोड़ दी। न जान न पहचान, इस गाँव में आपने पहले कभी कदम नहीं रखा। इस मासूम से भला आपकी क्या अदावत थी?" मूसा बहुत परेशान हुआ। अन्दर से तो वह भी पैगम्बर ही था न, अभी उसे पैगम्बरी मिली नहीं थी। करीमखान ने सिर हिलाकर कहा, “अब खुदा रहम करे, दोनों आगे जाने लगे। गाँव पार किया। अब जो गाँव की हदबन्दी पर पहुँचे तो वहाँ पर टूटी-फूटी दीवार थी। मूसा तो एक छलाँग में उसे पार कर गया, मगर पीछे मुड़कर देखा खिज़र दीवार के पास खड़े हैं और आस-पास गिरी टूटी ईंटों को उठा-उठावर दीवार पर रख रहे हैं, दीवार की चुनाई कर रहे हैं। मूसा लौट आया, 'बुजुर्गवारम! उस बच्चे को तो आपने मौत के घाट उतार दिया जिसने ज़िन्दगी के दो दिन भी नहीं देखे और इस दीवार को जो वर्षों से टूटी पड़ी है, फिर से खड़ा कर रहे हैं। यह क्या माजरा है? आपकी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं।"

खिज़र ने फिर उँगली उठाकर उसे चुप रहने का इशारा किया। मूसा फिर चुप हो गया।

वे फिर आगे बढ़े। चलते गए, चलते गए। एक बाग में पहुँचे जहाँ चश्मा बह रहा था और ऊपर छायादार पेड़ था। दोनों ने मुँह-हाथ धोया और पेड़ के नीचे बैठ गए। अब खिज़र बोला।

"सुन बरखुरदार, वह जहाँ मैंने किश्ती में छेद किया था, और तू बिगड़ने लगा था, दरअसल उस गाँव का हाकिम बड़ा ज़ालिम है, वह अपनी ऐश-ओ-इशरत के लिए गरीब लोगों की किश्तियाँ छीन लेता है। मैंने सोचा उस नाव में छेद कर दूं तो हाकिम के आदमी इसे उठाएँगे नहीं, उसे वहीं छोड़ जाएंगे और पत्तनवाले का रोज़गार बना रहेगा।" मूसा चुपचाप सुनता रहा। “पर आपने उस बेगुनाह बच्चे को क्यों मारा?" "सुनो, सुनो, अभी बताता हूँ। वह बच्चा हराम का बच्चा था, हलाल का बच्चा नहीं था। जिस आदमी की वह औलाद है वह बड़ा ज़ालिम है, ज़ालिम और नापाक। मैंने उस बच्चे को इसलिए क़त्ल कर दिया कि वह भी बड़ा होकर ज़ालिम बनता और बेगुनाह लोगों पर जुल्म ढाता। अब कहो, मैंने अच्छा किया या बुरा किया?"

मूसा सोच में पड़ गया, उसका सिर झुक गया। “मगर आपने उस टूटी-फूटी दीवार की मरम्मत क्यों की? इससे किसी को क्या फायदा?"

“वह भी सुनो,” खिज़र बोला, “यह जिस टूटी-फूटी दीवार की मैंने मरम्मत की है, उसके नीचे खजाना गड़ा है। बहुत बड़ा खजाना। मगर गाँववालों को इसकी कुछ भी ख़बर नहीं है। और गाँववाले बहुत गरीब हैं, और बहुत ज़रूरतमन्द हैं। मैं उनकी मदद करना चाहता हूँ। मैंने दीवार को पक्का कर दिया है। जब वे लोग अपने हल चलाते हुए यहाँ तक पहुँचेंगे तो यह दीवार उनके रास्ते में रुकावट साबित होगी और वे एक दिन उसे तोड़ देंगे, और एक-एक ईंट उठाकर खेतों के बाहर फेकेंगे, और उन्हें नीचे से गड़ा हुआ खजाना मिल जाएगा और वे मालामाल हो जाएँगे। इनके तन पर कपड़ा होगा और घर में रोटी होगी। अब बता मैंने क्या बुरा किया?..."

करीमखान ने किस्सा कह चुकने के बाद सिर हिलाते हुए एक-एक साथी की ओर देखा, फिर बोला, “तो कहने का मतलब कि जो बात हाकिम देख सकता है वह आम लोग, तुम और हम नहीं देख सकते। अंग्रेज़ हाकिम की आँख चारों तरफ़ देखती है वरना क्या यह मुमकिन है कि मुट्ठी-भर फिरंगी सात समन्दर पार से आकर इतने बड़े मुल्क पर हुकूमत करें? अंग्रेज़ बहुत दानिशमन्द हैं, दूरअन्देश हैं..."

"बेशक! बेशक!" आसपास बैठे लोगों ने सिर हिलाए।

इसी दूकान में एक ओर नत्थी भी बैठा था। कहवे की प्याली सामने रखे, हाथ में लम्बा-सा रस का टुकड़ा उठाए, वह डुबो-डुबोकर खा रहा था और ध्यान से करीमखान की बातें सुन रहा था। जब से उस सुअर के दड़बे में से निकला था, वह कभी शहर के एक हिस्से में तो कभी दूसरे हिस्से में चक्कर काट रहा था। जहाँ बैठता लोग सुअर की चर्चा करते सुनाई देते। राह जाते लोगों की बातें सुनते हुए उसके कान खड़े हो जाते। किसी-किसी वक़्त उसे लगता जैसे लोग किसी दूसरे ही सुअर की बात कर रहे हैं, वह उस सुअर की बात नहीं कर रहे जिसे उसने ज़िबह किया था, पर फिर किसी-किसी वक़्त लोगों की बातें सुनते हुए उसका दिल बैठ जाता। यहाँ, इस नानबाई की दूकान पर भी बात अगर झगड़ा-फसाद नहीं हो तो यह बड़ी मामूली-सी घटना बनकर रह जाएगी। सरकार की आँख सब कुछ देखती है तो कोई अनहोनी बात नहीं होगी।

नत्थू ने फिर एक बार अपनी जेब छूकर देखी। नोट चरमराया। उसे तसल्ली हुई। भला हो मुरादअली का जो पहले ही सारी की सारी रकम दे गया वरना अगर अठन्नी हाथ पर रखकर बाकी रकम बाद में देने को कह जाता तो नत्थू चमार उसका कर ही क्या सकता था। मुरादअली ज़बान का पक्का निकला तो नत्थू को भी अपनी ज़बान का पक्का होना चाहिए था। पर वह उस दड़बे में से भाग आया था, जबकि उसने मुरादअली से कसम खाकर कहा था कि वह वहाँ पर उसका इन्तज़ार करेगा। उस कोठरी में उसका दम घुटने लगा था। पर शहर में पहुँचने की देर थी कि उसका खून ठंडा पड़ गया था, जगह-जगह सुअर की चर्चा हो रही थी।

वह अन्दर ही अन्दर बड़ा परेशान था। तरह-तरह के विचार उसके मन में घूम रहे थे; जितनी अधिक घबराहट बढ़ती जाती उतना ही अधिक उसके विचारों में बिखराव आता जाता। बात करे तो किससे, और पूछे तो क्या? उसके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था। मुरादअली ने सलोतरी का नाम लेकर सुअर मरवा लिया था और मस्ज़िद के सामने फिंकवा दिया था। पर क्या मालूम यह कोई दूसरा सुअर रहा हो? उसने मस्ज़िदवाले सुअर को देखा, तो वह नहीं था। उसका मन बार-बार बेचैन हो उठता। अगर यह वही सुअर है तो क्या होगा? अगर लोगों को पता चल जाए कि उसी ने सुअर मारा था तो क्या होगा? इसी बेचैनी में कभी उसका मन करता भागकर घर चला जाए और अन्दर से साँकल चढ़ाकर पड़ रहे, कभी उसका मन करता गलियों में घूमता-भटकता रहे, कभी कुछ, कभी कुछ। मैं घर नहीं जाऊँगा, रात होते ही मोतिया रंडी के पास जाऊँगा। वह एक रुपया माँगेगी तो मैं पाँच रुपए दूंगा। रात-भर उसके पास रहूँगा।

पर सड़कों की खाक दिन-भर छानते रहने के बाद उसे अपनी पत्नी की याद सताने लगी। इस वक़्त अपने घर में होता तो अपने साथी चमारों के साथ बैठकर चिलम पीता, दो बातें करता। नहीं, मैं अपने डेरे पर जाऊँगा, नहाऊँगा, कुर्ता बदलूँगा, घरवाली को पास में बैठाकर उससे बातें करूँगा। जाते ही उसे बाँहों में भर लूँगा, मुरादअली का नाम लेने की ज़रूरत नहीं, उसे कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं, इस सारे घिनौने किस्से को सुनाने की ज़रूरत नहीं। उसकी छाती पर सिर रखूगा तो चैन मिलेगा। मोतिया के पास जाऊँगा तो कड़वा बोलेगी, बुरा-भला कहेगी। घरवाली चुप रहनेवाली औरत है, ढाढ़स बँधानेवाली, सुख पहुँचानेवाली। नत्थू ने मन ही मन कहा, दो रुपए मोतिया को देने की बजाय घरवाली के लिए कुछ ले जाऊँगा। वह खुश हो जाएगी, कहेगी तुम क्यों लाए, मेरे पास सबकुछ है। वह कभी कुछ नहीं माँगती। उसे लगा जैसे दूर बैठे हुए भी वह उसे अपनी बाँहों में लिये हुए है, और उसके मन का सारा क्षोभ दूर होता जा रहा है। दुख से छुटकारा पाने के लिए आदमी सबसे पहले औरत की तरफ ही मुड़ता है। औरत को बाँहों में लेने पर उसके सभी क्लेश मिट जाएँगे, उसे इस बात का विश्वास बना रहता है। वह बड़े सब्रवाली औरत है। उसकी छातियों में प्यार भरा है।

कहवाखाना धुएँ से अटा पड़ा था। दूकान के बाहर दो बेंच रखे थे जिन पर बोझा उठानेवाले मज़दूर बैठे टीन की प्लेटों में खाना खा रहे थे, दाल की तश्तरी सामने रखे, बेंच के आर-पार टाँगें लटकाए, नान तोड़ रहे थे। सड़क पर भिश्ती फिर से छिड़काव कर रहा था।

तभी देर से ढोल बजने की-सी आवाज़ आई। बाहर बैठे मजदूरों ने पीछे मुड़कर सड़क की ओर देखा। ढोल बजने की ही आवाज़ थी और बराबर नज़दीक आती जा रही थी। कहवाखाने के अन्दर लोग चुप हो गए।

“क्या है?" किसी ने पूछा।

"मुनादी है।" किसी ने जवाब दिया, “इधर ही आ रही है।"

इतने में एक ताँगा जिस पर कांग्रेस का झंडा लहरा रहा था और ताँगे के अन्दर बैठा कोई आदमी ढोल पीट रहा था, लगभग नानबाई की दूकान के सामने ही आकर रुक गया। अगली सीट पर से एक आदमी उठकर खड़ा हो गया। तभी ढोल पीटना बन्द हो गया और वह आदमी उठकर मुनादी करने लगा:

“वतन का फ़िक्र कर ज़्यादा मुसीबत आनेवाली है।
तेरी बरबादियों के तज़करे हैं आसमानों में॥

साहिबान,

आज शाम के छः बजे गंजमंडी में जिला कांग्रेस कमेटी की तरफ से एक आम पब्लिक जलसा होगा जिसमें हिन्दुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद में अंग्रेज़ी सरकार की फूट की नीति का पर्दाफाश किया जाएगा और सारे शहर के अवाम से अपील की जाएगी कि वे अमन को बरकरार रखें। भारी तादाद में शामिल होकर जलसे की रौनक बढ़ाएँ।"

ताँगे की पिछली सीट पर जरनैल ढोल थामे बैठा था। मुनादी करानेवाला शंकर था जो मुनादी ख़त्म कर चुकने पर फिर से अपनी सीट पर बैठ गया था। ढोल फिर से बजने लगा और लहराते झंडे के साथ ताँगा वहाँ से रवाना हो गया।

ताँगा जब दूर निकल गया तो एक मज़दूर दूसरे से बोला, "गंजमंडी तों इक बाबू नी पण्ड चुक्की आ रिहा सी जे बाबू हकण लगा, 'आज़ादी आवण वाली है।' मैं हस्स के कहा, 'आवे आज़ादी बाबूजी सानू के, असाँ हुण की पण्ड चक्कणी ऐं, पिच्छोवी पण्ड चक्काँगे।" कहकर मज़दूर ठहाका मारकर हँस पड़ा। और उसके लाल-लाल मसूड़े चमक उठे।

"असाँ हुण वी पण्ड चक्कणी ते पिच्छों वी पण्ड चक्कणी!" और वह फिर हँसने लगा।

(बाबू ने कहा आज़ादी आनेवाली है। मैंने कहा, आए आज़ादी, पर हमें क्या? हम पहले भी बोझा ढोते हैं, आज़ादी के बाद भी बोझा ढोएँगे।)

तभी कहवाखाने के अन्दर बैठा दाढ़ीवाला एक अधेड़ उम्र का आदमी बोला, “वह आदमी पकड़ा गया है या नहीं जिसने मस्ज़िद की तौहीन की थी? खंजीर का बच्चा! उसके हाथ-पाँव में कीड़े पड़ें।"

"बहुत बुरा हुआ है।" कोई बुदबुदाया। नत्थू ने सुना और सिर से पाँव तक सिहर उठा।

फिर कोई और आदमी बोला, “सुना है कोई गाय भी मारी गई है। गन्दे नाले के पास कोई मारकर फेंक गया है।"

“यह भी बहुत बुरा हुआ है।"

इस पर छोटी-छोटी आँखोंवाला हँसमुख बुजुर्ग करीमखान फिर से बाअज़ करने लगा, “कुरान शरीफ में फर्माया है कि इनसान की खेतियाँ मेरे हुक्म से खड़ी हैं, इनसान के सब इरादे मेरे हुक्म पर खड़े हैं। मेरा हुक्म नहीं होगा तो लहलहाती खेतियाँ झुलस जाएँगी, मेरे हुक्म पर बाढ़ आएगी, शहरों के शहर तबाह हो जाएँगे," और बूढ़े ने कहा, "सभी कुछ मालिक के हाथ में है, इनसान के हाथ में कुछ भी नहीं। सब काम पाक परवरदिगार के हुक्म से होते हैं। उसका जो हुक्म होगा, वही होगा।"

आस-पास बैठे लोगों ने सिर हिलाए। हुक्के का दौर बराबर चलता रहा। बाहर एक मज़दूर ऊँची हेक लगाकर गाने लगा :

“ओये उड़ी-उड़ी कियाँ तक्कणै
माहड़े सुत्थणे नी चूड़ियाँ।"
(क्यों तुम झुक-झुककर मेरी सलवार के चुन्नटों को घूरे जा रहो हो?)

यह वही मज़दूर था जो कुछ देर पहले खी-खी करके बाबू के साथ हुए अपने वार्तालाप को दोहराता रहा था। उसके हँसोड़ बेपरवाह स्वभाव को देखकर नत्थू को रश्क हुआ।

तभी सड़क पर फिर हरकत हुई। चलते-चलते लोग खड़े हो जाने लगे और सबकी नज़रें दाईं ओर घूम गईं, जिस ओर जामा मस्ज़िद थी।

"पीर साहिब तशरीफ लाए हैं! गोलड़ा शरीफ के पीर आए हैं।"

सड़कों पर खड़े किसी आदमी ने नानबाई से कहा, और दिल पर हाथ रखे पीर साहिब की राह देखने लगा।

नानबाई भी उठकर खड़ा हो गया। तभी कहवाखाने के अन्दर बैठे सभी लोग बाहर आ गए और सड़क पर जैसे पलकें बिछाए पीर साहिब की आमद का इन्तज़ार करने लगे।

एक कद्दावर, दाढ़ीवाला व्यक्ति नमूदार हुआ। लम्बा काला कुर्ता, गले में बड़े-बड़े मणकोंवाले तीन-चार हार, पगड़ी के पीछे गर्दन पर गिरते हुए लम्बे बाल, हाथ में तसबीह। चौड़े गोरे चेहरे से नूर बरस रहा था। दाएँ-बाएँ और पीछे बहुत से मुरीद चले आ रहे थे।

नानबाई बढ़कर आगे आ गया और सिर झुका, जानू पर हाथ रखकर सड़क के बीचोबीच खड़ा हो गया। पीर साहिब ने अपना बायाँ हाथ आगे बढ़ाया, नानबाई ने उसे झुककर आँखों से चूमा, फिर अपना दायाँ हाथ दिल पर रखे पहले की तरह आगे की ओर दोनों हाथ बाँधे झुका-झुका खड़ा हो गया। पीर साहिब ने हाथ तनिक ऊपर उठाया, और बिना कुछ बोलें आगे बढ़ गए। बारी-बारी से सड़क पर खड़े लगभग सभी आदमी उनके पास गए। सभी ने अपनी आँखों से पीर साहिब के हाथ चूमे, सभी को पीर साहिब ने दुआ दी।

"बहुत पहुँचे हुए पीर हैं," नानबाई ने अपनी जगह पर लौटते हुए कहा,

"वल्लाह, चेहरे पर कितना जलाल है, पेशानी से नूर बरसता है।"

और लोग भी लौट आए थे, कुछ लोग वहीं से अपने-अपने घरों की ओर चले गए। कहवाखाने में अब पीर साहिब की चर्चा चल पड़ी।

"बहुत पहुँचे हुए हैं, दिल की बात बूझ लेते हैं।" नानबाई कहे जा रहा था। फिर वह तख्ते पर बैठा अन्दर की ओर मुँह करके बोला, "मैं एक बार ज़ियारत करने गोलड़ा शरीफ गया। पीर साहिब के हुजूर में पहुँचा तो मुझे देखकर कहने लगे : 'कुछ दाने उठा ले, देखता क्या है?' सामने गेहूँ के दानों का ढेर लगा था। मैंने यों ही झुककर मुट्ठी में कुछ दाने उठा लिये। इस पर पीर साहिब ने फर्माया, 'बस! सिर्फ एक सौ सत्तर दाने! ज़्यादा उठा लेता!'

“मैं हक्का-बक्का वहीं बैठकर दाने गिनने लगा। पूरे एक सौ सत्तर दाने थे।"

इस पर करीमखान बोला, “इनके हाथ में बड़ी शफ़ा है। मेरा पोता है, अब तो रोठा हो गया, जब छोटा-सा बच्चा था तो उसे कनपेड़े हो गए। दोनों गाल सूज गए। किसी ने कहा गोलड़ा शरीफ के पास ले जाओ। पीर साहिब ने इशारा किया, 'बच्चे को मेरे सामने लिटा दो,' मैंने लिटा दिया। फिर उन्होंने पास रखा बड़ा-सा छुरा उठाया और उसे एक-एक बार बच्चे के दोनों गालों को छुवा दिया। फिर हाथ के पंजे पर अपने मुँह से अपनी लब ली और बच्चे के दोनों गालों पर लगा दी। बस इतना ही। मैं पीर साहिब की क़दमबोसी करके बच्चे को उठाकर घर ले आया। घर पहुँचते-पहुँचते सूजन उतर चुकी थी और बुखार जा चुका था।"

“पीरों-दस्तगीरों के हाथ में शफा होती है। उधर मसियाड़ी के पास बाबा रोडा बैठता है, उसके हाथ में भी बड़ी शफा है।"

“पीर साहिब काफिरों को हाथ नहीं लगाते; काफिरों से नफरत करते हैं। पहले पीर साहिब के पास हर कोई जा सकता था। अगर कोई काफिर इलाज के लिए आए तो छड़ी की नोक उसकी नब्ज पर रखते थे, छड़ी का दूसरा सिरा कान पर लगाते थे और नब्ज सुन लेते थे, पर अब वह किसी काफिर को नज़दीक नहीं आने देते।"

"अक्सर गर्मी के मौसम में शहर नहीं आते। अबकी बार ही आए हैं।"

“पीरों के लिए गर्मी-सर्दी क्या?"

"मुमकिन है इन तक खबर पहुँची हो। वह जो मस्ज़िद को नापाक किया गया है।"

“इन्हें हर बात की ख़बर रहती है। इन्हें कोई बताने थोड़े ही गया होगा। इन्हें अपने-आप पता चल जाता है। अपने-आप इल्म हो गया होगा और पहुँच गए होंगे।"

"इनकी नज़र चाहिए। पीर-फकीर की बद्दुआ लग जाए तो शहरों के शहर तबाह हो जाते हैं।"

'बजा है।"

"वाअज़ करेंगे क्या?"

"क्या मालूम । जुम्मा तक रहे तो ज़रूर करेंगे।"

"जो आए हैं तो जुम्मा तक तो रुकेंगे ही। वाअज़ तो करेंगे ही, जो आए हैं तो शहर को पाक करके ही जाएँगे।"

नत्थू वहाँ से निकला तो दोपहर अलसा रही थी, उसका दिल फिर हल्का-हल्का महसूस करने लगा। एक प्रकार की धुकधुकी जो सुबह से उसे परेशान करती रही थी, एक अज्ञात-सी आशंका जो उसके दिल को कुरेदती रही थी, अब बहुत कुछ दूर हो गई थी। शहर-भर में रौनक थी, चहल-पहल थी, लोग सुअर फेंकनेवाले की बात करते मगर उसे 'सिरफिरा' पागल कहकर दो-एक गालियाँ देते और फिर इस घटना को भूल भी जाते थे। फिर वह ही क्यों इतनी-सी बात को अपनी छाती का बोझ बनाता फिरे? उसने यह भी देख लिया था कि उसके बारे में किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं हो पाई। सभी लोग इस घटना को किसी जनूनी का पागलपन या किसी 'कराड़' की शरारत कह रहे थे। मुरादअली ही केवल इस बारे में जानता है, तो क्या मुसलमान होकर वह किसी से कहेगा कि उसने यह बुरा काम करवाया है?

नत्थू को आस-पास की चीजें भली लगीं। एक छोटी-सी दूकान के सामने कोई गाँव का आदमी अपनी पत्नी से नये जूतों का जोड़ा लेने का आग्रह कर रहा था, “ले लो न जी, मैं जो कह रहा हूँ। तुम्हारे पास एक भी जोड़ा नहीं है। वह जूती फट चुकी है।"

और पास बैठी, सिर से पैर तक बुर्के से ढकी उसकी पत्नी अपनी मधुर आवाज़ में इंकार किए जा रही थी, “मुझे इसकी ज़रूरत नहीं। मेरा काम चल रहा है। तुम्हारे पास अच्छा जूता नहीं है, तुम ले लो एक अच्छा-सा जोड़ा। तुम्हें ज़्यादा चलना पड़ता है।" नत्थू आगे बढ़ गया। उसे सुख का भास हुआ। वह सड़क पार करके दाएँ हाथ आ गया और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। नानबाइयों की दूकानों की एक और कतार आ गई थी। बड़े-बड़े देग और देगों में से उठती मांस-मसालों की गन्ध और नानों के ढेर-के-ढेर। दूकानें खचाखच भरी थीं। ज़्यादा लोग मज़दूर, बोझा ढोनेवाले, या आस-पास के गाँवों में से आनेवाले परिवार थे। दिन-भर के काम के बाद अथवा खरीद-फरोख्त के बाद भोजन पर टूट रहे थे। यह बाज़ार शहर के एक सिरे पर था। खाना खा चुकने के बाद किसान लोग अपनी-अपनी बैलगाड़ियों पर बैठकर शहर के बाहर उन लम्बी राहों पर निकल जाएँगे जो उन्हें अपने-अपने गाँवों को ले जाती हैं।

नानबाइयों की दूकानों के पीछे उसे जामा मस्ज़िद की ऊँची भव्य इमारत नज़र आई। ढलती दोपहर में मस्ज़िद और भी ज़्यादा धुली-धुली और सफ़ेद लग रही थी। वही रोज़ का-सा दृश्य था। सीढ़ियों पर भिखमंगे, लेटने-सुस्ताने वाले गज़दूर, आने-जाने वाले लोगों का ताँता। सहसा उसने देखा, बड़े मेहराबदार दरवाज़े में से सैकड़ों लोग एक साथ निकल आए हैं। जोक-दर-जोक लोगों का हुजूम अन्दर से निकल रहा है, वे फाटक पार करके आते, सीढ़ियों के सिरे पर अपना-अपना जूता पहनते या हाथ में लिये सीढ़ियाँ उतरने लगते। नत्थू देखता रह गया। केवल ईद के दिन इतने ज़्यादा लोग मस्ज़िद में से निकलते नज़र आया करते थे। तो क्या आज कोई वाअज़ था? उसे सहसा ख्याल आया, क्या गोलड़ा शरीफ के पीर तो वाअज़ देने नहीं आए थे? क्या वाअज़ देने के बाद ही तो वह नहीं लौट रहे थे? उसका दिल फिर धक् से रह गया। उसे लगा जैसे मस्ज़िद में इकट्ठा होनेवाले ये सैकड़ों लोग उसी के कुकर्म की चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए थे। गोलड़ा के पीर भी इसी की खबर पाकर शहर में आए होंगे।

नत्थू जामा मस्ज़िद को सामने से लाँघ गया। जिस जगह जामा मस्ज़िद की दीवार ख़त्म होती थी वहाँ बगल में एक गन्दा नाला बहता था। शहर-भर का गन्दा पानी इसी नाले में इकट्ठा होकर शहर के बाहर जाता था। नत्थू नाले के डंडहरे को पकड़कर खड़ा हो गया।

उसकी नज़र नीचे की ओर गई तो उसने देखा, डंडहरे के थोड़ा नीचे नाले के किनारे एक चबूतरा-सा था और उस पर नंग-धडंग एक आदमी लेटा हुआ था। स्याह रंग का काला आदमी। दाढ़ी और सिर पर सूखे खिचड़ी बाल, उलझे हुए, गले में तावीज़। नाले की ही दीवार के साथ अपना टीन का डिब्बा एक कील के साथ लटकाकर लेट रहा था। चबूतरा तंग-सा था, सोए-सोए करवट बदलने पर भी वह सीधा नीचे नाली में गिर सकता था। यह भी शायद कोई पहुँचा हुआ पीर-फकीर होगा, नत्थू ने मन ही मन कहा और उसकी ओर देखता रहा।

सहसा फकीर उठ बैठा और आँखें फाड़-फाड़कर नत्थू की ओर देखने लगा। और देखते ही देखते दाएं-बाएँ ज़ोर-ज़ोर से सिर हिलाने लगा, वैसे ही जैसे जनूनी लोग सिर हिलाते हैं।

नत्थू ने मुँह फेर लिया और बाज़ार की ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद जब उसने फिर मुड़कर देखा तो उसने सिर हिलाना छोड़ दिया था और फटी-फटी आँखों से नत्थू की ओर देखते हुए अपनी तर्जनी से उसे अपनी ओर बुला रहा था। नत्थू सहम-सा गया, वह डर गया कि यह फकीर कहीं उस पर कोई जादू-टोना न कर दे या उसे बटुआ न दे दे। उसने जेब में हाथ डाला और एक इकन्नी निकालकर फकीर के सामने फेंक दी और वहाँ से चलने को हुआ। उसके देखते ही देखते फकीर ने इकन्नी उठा ली और नाले में फेंक दी और फिर उसकी ओर घूरते हुए तर्जनी हिला-हिलाकर उसे अपनी ओर बुलाने लगा। नत्थू डर गया, और काँपकर वहाँ से हट गया।

बड़ा बाज़ार में बड़ी चहल-पहल थी। नत्थू को शहर का यह इलाका सबसे ज़्यादा आकर्षक लगता था। सोड़ा-वाटर की दोनों दूकानों पर रंगारंग की असंख्य बोतलें चमक रही थीं। नीचे, उजले कपड़े पहने दूकानदार पालथी मारे नींबू पानी के गिलास भर-भरकर ग्राहकों को दे रहे थे। सड़क की पटरी पर फूलों के गजरे बेचनेवाले अभी से आ पहुँचे थे। सोड़ा-वाटर की दूकानों की बगल में ही सीख-कबाबवाले बैठते थे। और नज़दीक ही ठेका-शराबवालों की दूकान थी। वहीं पर ही कसाई गली सड़क में खुलती थी जहाँ रंडियाँ बैठती थीं। नत्थू सड़क के किनारे ठिठका खड़ा रहा।

दूकानों के सामने सड़क पर बहुत से ताँगे खड़े थे-चमचमाते साज़, घोड़ों के सिर पर नाचती कलंगियाँ, मेले का-सा समाँ। किसी-किसी वक्त कोई ताँगा सड़क के ऐन बीचोबीच आकर रुक जाता। घोड़े का कसमसाता शरीर साज़ तुड़ाने के लिए जैसे अंगड़ाइयाँ ले रहा होता। और ताँगे में कोई तुर्रेवाला रईस अपने दो-एक साथियों के साथ बैठा होता।

नत्थू चमार आश्वस्त होकर इधर-उधर घूमने लगा। उसे लगा जैसे सभी लोग मस्त हैं और अपने लिए खुशियाँ बटोर रहे हैं। नत्थू चमार देर तक वहाँ टहलता रहा, फिर जब शाम हो गई और बाज़ार में रौनक और भी ज़्यादा बढ़ गई तो वह लपककर सीख-कबाबवाले की दूकान पर जा पहुँचा। वहाँ से उसने अठन्नी के कबाब लिये और सीधा देसी शराब के ठेके पर जाकर बेंच पर बैठ गया। और खुशी-खुशी बैठकर खाने लगा और घुट-घुट करके शराब पीने लगा।

शाम के साए उतर आए और बड़ा बाज़ार की बत्तियाँ जल उठीं। छिड़काव से फिर एक बार सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू आने लगी और फूलों के गजरों की खुशबू से मिलकर नत्थू के दिमाग पर अजीब मस्ती-सी छाने लगी। नत्थू को मालूम नहीं था कि कब उसने फूलों का गजरा ख़रीदकर गले में डाल लिया था। उसे यह भी मालूम नहीं था कि कब यह देसी शराब की दूकान पर से उठकर राजाबाज़ार का खुला इलाक़ा लाँधकर रंडियोंवाली गली में जा पहुंचा था।

तभी सहसा उसे सामने की ओर से मुरादअली आता नज़र आया। घुटनों तक लम्बा कोट, हाथ में पतली छड़ी, ठिगना, गठे शरीरवाला, काली-काली मूंछोंवाला मुरादअली। क्या वह सचमुच मुरादअली था? या नत्थू ख्वाब देख रहा था? उसकी आँखों के सामने मुरादअली एक प्रेत की भाँति मँडराता-सा नज़र आया जो गली-गली, कूचा-कूचा घूमता फिरता था, छड़ी झुलाता हुआ। क्या सचमुच मुरादअली नाम का कोई व्यक्ति भी है जो इस शहर में रहता-बसता है या कोई प्रतिछाया ही एक गली से दूसरी गली घूमती रहती है और लोगों ने उसका नाम मुरादअली रख छोड़ा है। नहीं, मुरादअली ही था, मंडी की ओर से गली के रास्ते चला आ रहा था। नत्थू शराब की हिलोर में नहीं होता तो किसी घर के चबूतरे की आड़ में छिप जाता। पर नत्थू के हौसले बढ़े हुए थे। वह सीधा गली के बीचोबीच आ गया। उसने ज़्यादा नहीं पी रखी थी। चमड़ा रँगनेवाले चमार के लिए दो कुल्हड़ शराब तो पानी के बराबर होती है। दिन-भर अकेला घूमते रहने के बाद अब जाकर उसे कोई परिचित मिला था। और सहसा नत्थू को गर्व का भास हुआ। हम जिस काम को हाथ में लेते हैं, पूरा करके छोड़ते हैं।

"सलाम, हुजूर!"

नत्थू ने आगे बढ़कर हँसते हुए कहा और तनकर खड़ा हो गया।

मुरादअली क्षण-भर के लिए ठिठका। उसकी पैनी आँखों ने नत्थू को देखा और सारी स्थिति उसकी समझ में आ गई। बिना कुछ कहे अथवा नत्थू के अभिवादन का बिना उत्तर दिए वह आगे बढ़ गया।

"सलाम, हुजूर। मैं नत्थू हूँ, आपने मुझे पहचाना नहीं?" नत्थू कहकर हँस दिया।

मुरादअली इस बीच आगे जा चुका था।

नत्थू हत्बुद्धि-सा गली के बीचोबीच खड़ा रहा, फिर वहीं से चिल्लाकर बोला, "हुजूर, मुरादअली साहब!"

पर मुरादअली नहीं रुका।

सहसा नत्थू के मन में एक विचार उठा : मुझे कम से कम मुरादअली को बता तो देना चाहिए कि मैंने उनका काम कर दिया है। वह इस मुगालते में तो न रहें कि मैं यहाँ घूम रहा हूँ और उनका काम पूरा नहीं किया है।

नत्थू लड़खड़ाता हुआ मुरादअली के पीछे हो लिया। आगे और ज़्यादा अँधेरा था मगर दूर मुरादअली की काया उसे बराबर नज़र आ रही थी। वह गिरता-पड़ता बढ़ता गया। जैसे-तैसे वह भागने लगा था। हुजूर को बताना तो बहुत ज़रूरी है कि काम पूरा हो गया है।

उसे लगा जैसे वह मुरादअली के नज़दीक पहुंच रहा है। वास्तव में गली सूनी होती जा रही थी और उसे लगा जैसे मुराद अली ने अपनी चाल धीमी कर दी है।

“हुजूर, मैं कहना भूल गया। वह काम हो गया था। वक्त पर भेज दिया था। हत्थगाड़ीवाले आ गए थे...”

तभी नत्थू ने देखा कि मुरादअली रुक गया है और अपनी छड़ी उठाए उसकी ओर देख रहा है।

अभी मुरादअली उसकी ओर बढ़कर आएगा। मगर उसने छड़ी को ऊँचा क्यों उठा रखा है? और वह कुछ भी बोलता क्यों नहीं? अँधेरी गली के एक सिरे पर दोनों खड़े एक-दूसरे को घूरे जा रहे थे।

नत्थू ने फिर एक बार कहा, “आपका काम हो गया था, हुजूर। ठिकाने लगा दिया था हमने।"

उसके कहने की देर थी कि उसे लगा मुरादअली फिर घूमकर आगे-आगे जाने लगा है, क़दम बढ़ाए आगे बढ़ता जाता है, गली के सिरे पर ढलान आ गई है और वह ढलान पर चढ़ता जा रहा है।

नत्थू ने नज़र उठाई। मुरादअली फिर दूर जा चुका था, गली में से निकलकर शिवाले की ओर जानेवाली ऊँची ढलान पर चढ़ता जा रहा था। पीठ पीछे नत्थू को फिर लगा जैसे कोई प्रेत बढ़ता जा रहा है, दूर होता जा रहा है लेकिन आँखों से ओझल नहीं हो रहा है।

*****

दरवाज़ा खोलने पर नत्थू को दहलीज़ पर खड़े देखकर नत्थू की पत्नी की जैसे जान में जान आई और उसकी आँखों में आँसू छलक आए। “तुम ऐसे नहीं किया करो जी," वह रोती हुई खाट पर जा बैठी, “मेरा दिल डूब-डूब रहा था। मैं सोचूँ तुम गए तो कहाँ गए। यह भी कोई तरीका है! परेशान कर दिया।"

साड़ी के पल्लू से आँख पोंछकर वह उसकी ओर देखती रही और सहसा मुस्करा दी : “यह क्या स्वाँग बनाकर आए हो? कान में फूलों का गज़रा लटका रखा था। किसके पास गए थे?"

मगर नत्थू चुप रहा, और चुपचाप खाट पर जा बैठा।

"शराब पी है तो हँसते-गाते क्यों नहीं हो। पहले जब पीते थे तो हँसते हुए घर लौटते थे।"

नत्थू की पत्नी भगवान से धीरज का वरदान लेकर आई थी। नत्थू क्रोध में आकर कभी बकझक भी करता तो आगे से बोलती नहीं थी। इतना-भर कहती, “कह लो, कह लो, मन हल्का कर लो!" या फिर एक ओर को सिमटकर खड़ी हो जाती और होंठों पर उँगली रखकर कहती, "बस, बस, और कुछ मत कहो। बाद में तुम्हें ही पछतावा होगा।" अब किसी के मांस में तो कोई काँटा चुभोए, मिट्टी के लोंदे में कोई क्या काँटा चुभोए? उसके शीतल स्वभाव के कारण नत्थू चमार भी चुप रहने लगा था। पड़ोस की कोठरियों में कुछ नहीं तो बीस चमार और उनके परिवार रहते थे और सभी घरों से उसका मेल-मिलाप था, सभी का सुख-दुख बाँटती थी। अपने थोड़े में ही सन्तुष्ट रहनेवाली और भगवान से डरनेवाली स्त्री थी। कुछ लोगों में स्वभाव से ही ऐसी सूझ होती है कि वे अपनी स्थिति को भली भाँति समझ लेते हैं और ज़िन्दगी से कुछ भी ऐसा नहीं माँगते जिसके मिलने की सम्भावना न हो। इसीलिए उनका मन सदा खिला-खिला रहता है।

नत्थू अभी भी चुपचाप बैठा था।

“तुम बोलते क्यों नहीं? तुम इतनी देर बाहर रहे, मैं मछली की तरह तड़पती रही हूँ।"

नत्थू ने आँख उठाकर अपनी पत्नी की ओर देखा। एक बाढ़-सी उसके दिल में उठी। सहसा उसने सिर झटक दिया : भाड़ में जाए मुरादअली और उसका सुअर! उसने मन ही मन कहा। हम तो घर लौट आए हैं!

"बाड़ेवाले मेरे बारे में पूछते थे?"

"हाँ पूछते थे, एकाध बार पूछा था।"

"तुमने क्या कहा?"

"मैंने कहा काम पर गए हैं। आते ही होंगे।"

"क्या बार-बार पूछते थे?"

"नहीं जी, लोग काम पर जाते नहीं हैं? शाम को साथवाली ने पूछा तो मैंने कहा घोड़े की खाल उतारने गए हैं।"

एक हल्की-सी मुस्कराहट नत्थू के होंठों पर दौड़ गई।

“मगर तुम कहाँ गए थे?"

"फिर बताऊँगा।

नत्थू की पत्नी उसके मुँह की ओर देखती रही। पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था कि नत्थू उससे कोई बात छिपा जाए। मगर चुप रहना बेहतर था, चुप रहूँगी तो कुछ दिन बाद अपने-आप बता देगा।

"नहीं पूछूँगी, तुम नहीं चाहते तो नहीं पूछूँगी।...खाना खाओगे? मैं अभी मिनटों में गरम-गरम रोटियाँ सेक देती हूँ। चाय के साथ रोटी खा लो।"

और वह खाट पर से उतर आई। पर किसी भावावेश में नत्थू ने उसे रोक लिया और अपनी ओर खींचकर अपने पास बैठाए रखा।

"नहीं, तुम इधर ही बैठो।" पत्नी उसके साथ सटकर बैठी रही।

"तुमने खाना खाया?" नत्थू ने भावावेश में उसके बाल सहलाते हुए पूछा।

"हाँ खाया।"

पत्नी को नत्थू का व्यवहार अनोखा-सा लगा।

"झूठ बोलती हो। सच बता, खाना खाया?"

पत्नी ने आँख उठाकर हँसते हुए कहा, "हमने बनाया था, पर हमसे खाया नहीं गया।"

"सुबह को खाया था या नहीं?"

"खाया था।"

"फिर झूठ! सच-सच बता, खाया था?"

उसने फिर पति की ओर देखा और हँस दी, "नहीं खाया था। मैं तुम्हारी बाट देख रही थी, खाती कैसे?"

“और जो आज रात भी मैं नहीं आता, तो?"

“आते क्यों नहीं, मुझे मालूम था तुम आओगे।"

कोई धूमिल अस्पष्ट-सी अकुलाहट थी जो नत्थू के दिल को अभी भी मथ रही थी। इस धुकधुकी के कारण वह सड़कों पर चक्कर लगाता रहा था, इसी कारण उसने शराब पी थी। पत्नी के साथ बैठने पर भी अन्दर ही अन्दर कोई शंका उसका कलेजा चाट रही थी। सहसा नत्थू को खटका-सा हुआ और उसे लगा जैसे मुरादअली दरवाज़े के बाहर खड़ा है और उसकी छड़ी की नोक दरवाज़े पर रखी है। उसका दिल धक् से रह गया। फिर उसने मन ही मन अपने को आश्वासन देते हुए कहा, "मुरादअली ने मुझे पहचाना नहीं होगा वरना बात तो करता। चुपचाप चला गया। उसने जरूर यही समझा होगा कि कोई पियक्कड़ है, जो नशे में धुत्त, उसे परेशान करने आया है। आखिर पाँच रुपए का नोट वह मेरे हाथ में देकर गया था।"

"मैं जानती थी तुम्हें कोई क्लेश है। तुम खुश नहीं हो। इसीलिए मैं घबरा रही थी।"

नत्थू ने घूमकर पत्नी को देखा। वह एकटक उसकी ओर देखे जा रही थी।

“लोग कहते थे शहर में गड़बड़ का डर है। किसी ने सुअर मारकर किसी मसीत के आगे फेंक दिया था। इससे भी मैं घबरा रही थी। मैं कहूँ, कोई गड़बड़ हो गई तो मैं तुम्हें कहाँ ढूँढ़ने जाऊँगी।"

नत्थू ठिठककर पत्नी के चेहरे की ओर देखने लगा।

“कौन-सा सुअर? कैसा सुअर?"

“सुअर कैसे होते हैं," उसकी पत्नी हँस दी। उसे भला लग रहा था कि नत्थू लौट आया है, वह चाहती थी कि दोनों बैठे रहें और इसी तरह बतियाते रहें।

“काला था या सफ़ेद?" नत्थू ने पूछा। उसके कान पत्नी के उत्तर की ओर लगे हुए थे।

“इससे क्या फर्क पड़ता है?"

“तुमने देखा था?"

“मैं सुअर देखने जाऊँगी क्या? मुझे क्या पड़ी है?"

"बाड़े में किसने देखा है?"

"तुम भी कैसी बातें करते हो जी। बाड़े के लोग सुअर देखने जाएँगे? सुनी-सुनाई बात लोगों ने कह दी।"

रात गहराने लगी थी। आसपास की कोठरियों में से आवाजें आना लगभग बन्द हो चुका था।

"बाहर सोओगे या अन्दर?" पत्नी ने कनखियों से पति की ओर देखते हुए पूछा।

"क्यों?"

“तुम्हारा क्या भरोसा? बाहर सो रहे हों तो उठाकर अन्दर ले आते हो। हमने सोचा पहले ही पूछ लें। जो तुम्हारी नीयत ख़राब हो तो पहले ही अन्दर पड़े रहें। अन्दर उमस बहुत है।" और वह बैठी-बैठी अपने बाल खोलने लगी।

"तुमने कुछ नहीं बताया, खाना खाओगे या नहीं? चाय बना दूँ? इतने गुमसुम क्यों बैठे हो? कल तुम नहीं थे, घर काटने को दौड़ता था।"

पत्नी को लापरवाही से बाल खोलते देख वेदना-भरी उन्माद की लहर नत्थू के तन-बदन में उठी और उसने पागलों की तरह अपनी पत्नी को बाँहों में भर लिया और उसके गाल, उसके होंठ, उसके बाल, उसकी आँख बार-बार चूमने लगा, यह भावावेग उत्तरोत्तर बढ़ता गया और उसका रोम अपनी पत्नी के गदराए और उसकी उत्तेजित साँसों में खोने लगा।

"मैं तीन बार रोई हूँ आज के दिन। बरामदे में खड़ी घंटों तुम्हारी राह देखती थी, फिर अन्दर आकर रो देती थी। मुझे लगता था जैसे अब तुम लौटकर नहीं आओगे।"

पत्नी के आलिंगनों में नत्थू खोता जा रहा था, दीन-दुनिया को भूलता जा रहा था, उसके भूखे बेचैन होंठ तृप्ति के लिए भटकते हुए कभी पत्नी के होंठों से जा लगते, कभी उसके स्तनों को जा पकड़ते। हाँफता हुआ वह पत्नी के अंग-अंग में त्राण और सुख और विस्मृति की खोज में जैसे भटक रहा था।

तभी मैदान के पार कुत्ते ज़ोरों से मूंकने लगे। और दूर कहीं से दबा-दबा-सा शोर कानों में पड़ने लगा। नत्थू को किसी बात का होश नहीं था। पर कुछ ही देर में नत्थू की पत्नी की नज़र छत के नीचे दीवार पर पड़ गई। रोशनदान के सामने की दीवार पर हल्की-सी रोशनी थिरक रही थी, लगा जैसे कोई लाल-सी छाया नाचने लगी है। उसे लगा जैसे दीवार पर पड़नेवाली रोशनी काँप रही है। दूर से दबा-दबा शोर सुनाई देने लगा।

"यह क्या है जी?" दीवार की ओर देखते हुए पत्नी बोली, “वह देखो तो दीवार पर। यह कैसी रोशनी है? लगता है जैसे आग की लपट हो। कहीं आग लगी है क्या? सुनो तो, यह शोर कैसा है?"

नत्थू ने सिर उठाकर देखा तो एक हल्की कराह-सी उसके मुँह में से निकली। कुत्ते और भी ज़्यादा ज़ोर से भूँकने लगे थे, और दूर का शोर बढ़ने लगा था। उसकी अस्फुट-सी गूंज वातावरण में फैल रही थी बढ़ते आते लश्करों की आवाज़ की तरह। दीवार के ऊपरी हिस्से में लौ और भी ज़्यादा अस्थिर, और भी ज़्यादा गहरी हो उठी थी, मानो आग के हिलते साए हों।

"कहीं आग लगी है!" उसने भर्राई-सी आवाज़ में कहा, और उठ बैठा।

तभी भिनभिनाते शोर के ऊपर तैरती-सी किसी घड़ियाल के बजने की आवाज़ आई : दोनों के लिए नई-सी आवाज़ थी। यों हर रोज़ ही शेखों के बाग में लगी घड़ी की आवाज़ आया करती थी। चौके से निबटने के बाद जब नत्थू की पत्नी आती और दोनों सोने की तैयारी कर रहे होते और घंटा बजता तो पत्नी अक्सर दस गिना करती थी। कभी-कभी ग्यारह भी सुनने को मिलते, पर यह शेखों की घड़ी की आवाज़ थी, किसी घड़ियाल के बजने की आवाज़ जिसे नत्थू ने भी पहले कभी नहीं सुना था। घड़ियाल बराबर बज रहा था और बढ़ते शोर में उसकी टुनटुनाती आवाज़ कभी साफ़ सुनाई देती, कभी थोड़ी देर के लिए डूब जाती थी, फिर आवाज़ के ऊपर तैरती हुई-सी उसके कानों तक पहुँच जाती।

दूर का शोर बढ़ता जा रहा था। बाड़े के अन्दर से, कोठरियों में से आवाजें आने लगी थीं। लोग जाग-जागकर कोठरियों के बाहर आ रहे थे।

"मंडी में आग लगी है!" कोई आदमी ज़ोर से चिल्लाया। तभी सहसा कहीं दूर से आवाजें आईं। आवाज़ बहुत ऊँची थी, बहुत साफ़ थी :

"अल्लाहो-अकबर!"

नत्थू का शरीर सिर से पाँव तक झनझना उठा। वह आँखें फाड़े छत की ओर देखे जा रहा था। लगता था जैसे उसे लकवा मार गया हो।

"चलो बाहर चलें," उसकी पत्नी ने सहमी-सी आवाज़ में कहा, "बाड़ेवालों से पूछे, मुझे यहाँ डर लगता है।"

मगर नत्थू उसे पकड़े रहा, और जड़-सा खाट पर बैठा रहा।

थोड़ी देर बाद बढ़ते शोर में एक और आवाज़ बहुत से कंठों में से एक साथ फूटकर आई:

"हर-हर-हर महादेव!"

अन्तिम शब्द बहुत लम्बा करके बोला गया था।

इस बढ़ते शोर और बराबर बजते हुए घड़ियाल के बीच बार-बार ये ऊँची आवाजें सुनाई देने लगी थीं। लगता जैसे कोई बहुत बड़ा पर्व मनाया जाने लगा है।

आखिर नत्थू की पत्नी से न रहा गया। वह नत्थू से बाजू छुड़ाकर उठी और दरवाज़ा खोलकर बाहर चली गई। नत्थू अभी भी फटी-फटी आँखों से छत की ओर देखे जा रहा था।

*****

यही शोर, एक अस्फुट-सी स्वर-लहरी बनकर, शहर के बाहर, दूर रिचर्ड के बँगले की दीवारों के साथ भी टकराने लगा था। इस गहराती गूंज में कुछ देर बाद घड़ियाल की टुन-टुन भी तैरती हुई आने लगी। रिचर्ड उस समय गहरी नींद में सो रहा था लेकिन लीज़ा उसे सुनकर जाग गई थी। आवाज़ को सुनकर पहले तो लीज़ा को लगा जैसे उसी के कमरे में लगी घंटी धीमे-धीमे टुनटुनाने लगी है, जैसे दिन के वक़्त हवा का झोंका आने पर टुनटुनाती थी। पर जब उसकी नींद पूरी तरह से टूटी तो उसे लगा जैसे वह आवाज़ भिन्न है। किसी-किसी वक़्त यह आवाज़ बिलकुल हवा में खो जाती, लगता जैसे हवा उड़ाकर ले गई है, फिर सहसा बज उठती, अन्धकार की बीहड़ दूरियों में से तैरती हुई-सी आ जाती है। लीज़ा की आँखों में नींद भरी थी। उसे किसी-किसी वक्त लगता जैसे तूफान में, सागर की लहरों से जूझते अपना रास्ता खोजते किसी जहाज़ की घंटी बज रही हो।

उसने कोहनियों के बल उठकर रिचर्ड की ओर देखा। रिचर्ड हल्के-हल्के खरटि भर रहा था। रिचर्ड के चरित्र की ही खूबी कहिए कि तकिए पर सिर रखते ही सो जाता था। निर्लिप्त, निर्विकार पलँग पर लेटते ही वह गहरी नींद में खो जाता था।

लीज़ा के लिए कमरे का अँधेरा बोझिल हो रहा था। गेट पर पहरेदार के बूट चलते, सड़के को पीटते सुनाई दे रहे थे।

"यह क्या आवाज़ है, रिचर्ड?" और लीज़ा उसके पास सट गई।

"ऐं, क्या है?" रिचर्ड जाग गया।

“यह क्या आवाज़ है?"

"कुछ नहीं, सो जाओ।" और रिचर्ड ने करवट बदल ली।

पर लीज़ा ने अपनी बाँह उसके गले में डाल दी। “कहीं कोई घड़ियाल-सा बज रहा है रिचर्ड।" लीज़ा ने कहा, "जैसे किसी गिरजे की घंटी हो।"

रिचर्ड जाग गया। उसने ध्यान से सुना और कोहनियों के बल उठ बैठा।

“गिरजे की घंटी की आवाज़ ज़्यादा गहरी होती है। यह मन्दिर की घंटी जैसी आवाज़ है, हिन्दुओं के मन्दिर की घंटी जैसी!"

“यह इस वक़्त क्यों बज रही है रिचर्ड, क्या हिन्दुओं का कोई बड़ा दिन है? इस घड़ियाल को सुनते हुए लगता है जैसे समुद्र में तूफान उठा हो और कोई जहाज़ ख़तरे की घंटी बजा रहा हो।" रिचर्ड चुप रहा।

शहर की ओर से आनेवाला भिनभिनाता-सा शोर उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। कभी-कभी कोई आवाज़ इस भिनभिनाते शोर में से ऊपर उठ जाती, जैसे कोई किसी को बुला रहा हो फिर उसी शोर के सागर में डूब जाती। तभी अन्धकार की लहरों पर तैरती हुई एक और आवाज़ आई :

“अल्लाह-हो-अकबर!"

रिचर्ड का सारा शरीर एक बार तन गया, फिर थोड़ी देर में ही ढीला भी पड़ गया।

"क्या आवाज़ है? यह क्या आवाज़ है? इसका क्या मतलब है?"

"इसका मतलब है, गॉड इज ग्रेट!"

"यह आवाज़ इस वक़्त क्यों उठाई जा रही है? ज़रूर कोई धार्मिक पर्व होगा।"

रिचर्ड मन ही मन हँस दिया।

"यह धार्मिक पर्व नहीं है लीज़ा, दरअसल शहर में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फ़साद हो गया है।"

"तुम्हारे रहते फ़साद हो गया है रिचर्ड?"

रिचर्ड को लगा जैसे सब कुछ जानते-बूझते हुए लीज़ा यह अटपटा सवाल कर रही है।

"हम इनके धार्मिक झगड़ों में दखल नहीं देते। लीज़ा, तुम जानती तो हो।"

क्षण-भर के लिए लीज़ा को लगा जैसे वह किसी भयानक जंगल से चारों ओर से घिरी है, और दूर से आनेवाली आवाजें जैसे जंगल की ही आवाजें हैं, सियारों, गीदड़ों और तरह-तरह के जन्तुओं की आवाजें।

"तुमने इसे बन्द क्यों नहीं करवा दिया रिचर्ड? यहाँ मुझे डर लगता है।"

रिचर्ड चुप रहा। कोहनियों के बल बैठा रहा। उसका मस्तिष्क फिर से बड़ी तेज़ी से सोचने लगा था कि इस स्थिति में मुझे क्या करना होगा, सरकार की नीति को किस भाँति कार्यान्वित करना होगा।

लीज़ा ने अपनी बाँहें उसके गले में डाल दी थीं। “ये लोग लड़ेंगे तो तुम्हारी जान को भी तो ख़तरा है, रिचर्ड!" लीज़ा ने कहा और उसका दिल रिचर्ड के प्रति सहानुभूति से भर उठा। दुबला-पतला रिचर्ड, बर्बर लोगों के बीच अकेला घूम रहा है। ऐसे लोगों पर शासन क्या कोई आसान काम है?

बीच-बीच में, अन्धकार की गुफाओं में से निकलती हुई घड़ियाल की टुन-टुन की आवाज़ सुनाई दे जाती।

"ये लोग आपस में लड़ें, क्या यह अच्छी बात है?"

रिचर्ड हँस दिया।

"क्या यह अच्छी बात होगी कि ये लोग मिलकर मेरे खिलाफ लड़ें, मेरा खून करें?" रिचर्ड ने कहा और करवट बदलकर एक हाथ से लीज़ा के बाल सहलाने लगा। "कैसा रहे अगर इस वक्त ये आवाजें मेरे घर के बाहर उठ रही हों, और ये लोग मेरा खून बहाने के लिए संगीने उठाए बाहर खड़े हों?"

लीज़ा सिर से पाँव तक काँप उठी। वह रिचर्ड के और पास आ गई और अँधेरे में उसके चेहरे की ओर देखती रह गई। उसे लगा जैसे मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं होता, वास्तव में महत्त्व केवल शासकीय मूल्यों का होता है। इतने में रिचर्ड फिर उठकर बैठ गया, “शहर में गड़बड़ है लीज़ा, तुम सो जाओ। मुझे मालूम करना होगा।"

तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी।

तमस (उपन्यास) : नौ

'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्ही-सी कुल्हाड़ी रख छोड़ी थी जो इस समय नहीं मिल रही थी। और उधर शहर में गड़बड़ शुरू हो गई थी। दो बार वह कोठरी में से बाहर घरवाली से पूछने जा चुके थे कि तुमने तो कुल्हाड़ी नहीं देखी, और दोनों ही बार पत्नी ने एक सवाल के दो जवाब दिए थे।

"देखो जी, दातून मैं नहीं करती जो मुझे कुल्हाड़ी से दातून के लिए कीकर काटनी हो, लकड़ियाँ मैं नहीं फाड़ती कि मुझे कुल्हाड़ी की ज़रूरत होगी, आप क्यों बार-बार मुझसे पूछते हैं?"

“अब पूछना भी गुनाह है, कुल्हाड़ी न मिले तो तुमसे न पूछूँ तो किससे पूछूँ?"

"देखो जी, क्यों परेशान होते हो, ऊपर भगवान् भी तो है, उसी के सहारे बैठे रहो। इस छोटी-सी कुल्हाड़ी से तुम किस-किसका बचाव करोगे?"

कुल्हाड़ी सचमुच छोटी-सी थी, पीले रंग के दस्ते पर लाल और हरे रंग के बेलबूटे बने हुए थे। लालाजी बच्चों को एक बार मेले पर ले गए थे और वहाँ से यह कुल्हाड़ी लेते आए थे। फिर कुछ दिन तक सुबह घूमते समय छड़ी की जगह इसे अपने साथ ले जाते रहे थे, और उन्होंने देखा कि इससे कीकर पर से दातून के लिए टहनी तोड़ी जा सकती है। चुनाँचे यह उसे अपने साथ रोज़ ले जाने लगे थे और घर में दातूनों का ढेर लगने लगा था। अपनी ज़रूरत तो उन्हें एक दातून की रहती थी पर टहनी तोड़ो और उसे तराशते हुए घर लौटो तो एक टहनी में से कितने ही दातून निकल आते थे। पत्नी बचे हुए दातूनों को कचरे की टोकरी में फेंकने जाती तो इन्हें बुरा लगता :

"ताज़ा दातून फेंकने जा रही हो? कुछ तो ध्यान किया करो।"

"देखो जी, ताज़ा हों या पुराने, ये किसी के मतलब के तो नहीं। अब इन्हें रख के क्या करोगे?"

"तुम खुद दातून किया करो।"

"मेरे दाँत हिलते हैं। तुम्हारे दातूनों की मेहरबानी से ही हिलने लगे हैं, पहले लोहे जैसे मज़बूत हुआ करते थे।" वह कहती और सीढ़ियों के पास रखी कचरे की बाल्टी की ओर जाने लगती।

"देख नेकबख्त, एक दिन और इन्हें पड़ा रहने दे। जब सूख जाएँगे तो मैं कुछ नहीं कहूँगा, पर हरे दातूनों को कौन फेंकता है?"

आज कुल्हाड़ी खो गई थी। कुल्हाड़ी के घर में रहते उन्हें सुरक्षा का भास रहता था। कुल्हाड़ी न रहने पर लगता, वह निहत्थे हो गए हैं। और घर में इसके अतिरिक्त कोई ऐसी चीज़ न थी जिसे हथियार का नाम दिया जा सके। कुछेक मसहरी के डंडे थे या फिर रसोई के चाकू। तेल के नाम पर केवल एक शीशी सरसों के तेल की थी और कोयला न के बराबर । वानप्रस्थीजी के प्रवचन के बावजूद लालाजी इन चीज़ों का कोई प्रबन्ध नहीं कर पाए थे। उन्हें मन-ही-मन विश्वास था कि सरकार फ़िसाद नहीं होने देगी। और अगर हो भी गया तो उसकी आँच बहुत जल्दी उन तक नहीं पहुंचेगी।

कुल्हाड़ी इस समय युवक संघ के 'शस्त्रागार' की शोभा बढ़ा रही थी। वह खिड़की के दासे पर रखी थी जहाँ रणवीर ने तीर कमानों के 'फल' एक के साथ एक सजाकर रखे थे।

"ऐसा 'बेवाका' घर है, अब मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ?" वह फिर बड़बड़ाए।

“तूने कुल्हाड़ी देखी है, नानकू?" उन्होंने नौकर को बुलाकर पूछा। “यहीं पर थी पिताजी, पर मैंने नहीं देखी।"

"घर में थी तो अब पंख लगाकर उड़ गई? तू मुझे चराता है? तुझे भी नहीं मालूम, तो कहाँ गई कुल्हाड़ी?"

मैंने नहीं देखी, पिताजी।" नानकू दहलीज़ पर खड़ा था।

अन्तरंग सभा की मीटिंग में उसी रोज़ प्रातः जब शहर की स्थिति पर बहस हो रही थी तो उन्हें हिन्दू-जाति की सामूहिक रक्षा का ख्याल बार-बार आता रहा था। 'लड़कों को लाठी चलाना सिखाओ, इस काम में एक दिन की भी देरी नहीं करो। मैं इस काम के लिए पाँच सौ रुपए दूंगा।' लालाजी ने कहा था और देखते-ही-देखते उनकी प्रेरणा से अढ़ाई हज़ार रुपए इकट्ठे हो गए थे। पर उस समय उन्हें शत्रु से लोहा लेने, उसे नीचा दिखाने की धुन थी, अपने को वह सुरक्षित समझते थे। और वास्तव में वह थे भी सुरक्षित। पैसेवाले जाने-माने व्यक्ति थे, ऊँचे मकान में रहते थे, किसका हाथ उन पर उठ सकता था? आसपास मुसलमान लोग रहते थे लेकिन सभी छोटे तबके के थे। शहर के अनेक मुसलमान व्यापारियों के साथ लालाजी व्यापार करते थे। उनके साथ भी रखरखाव था। फिर डर किस बात का था। पर आग लग जाने पर शहर का माहौल बदल गया था, और सब कुछ जानते समझते हुए भी उनका दिल डूबने लगा था।

“सुनती हो? मुझे लगता है, होनहार कुल्हाड़ी को युवक समाज में दे आया है।"

"तुम जानो और तुम्हारा बेटा जाने। मुझे तो तुम लोग बेवकूफ समझते हो। मैं तुम्हारी बातों में पडूं ही क्यों?"

"तुम्हें कुछ कहकर गया है?"

"कौन?"

"कौन क्या? रणवीर और कौन?"

“मुझे कुछ नहीं कह गया। तुम्हारे ही उपदेश दिन-भर सुनता रहता है, अब मैं क्या जानूँ कहाँ गया है। इस परलो की रात में बेटा घर पर नहीं है।"

लालाजी हाथ झटककर फिर कोठरी की ओर घूम गए। पर अब कोठरी में जाने में क्या तुक थी। कुल्हाड़ी तो वहाँ पर थी नहीं। उन्होंने कोठरी के कोने में रखे मसहरी के डंडे उठाए और बाहर आ गए। एक डंडा उन्होंने नानक को दिया और उससे कहा कि हाथ में लेकर नीचे दरवाज़े के पास जाकर बैठ जाए। दूसरा डंडा उन्होंने उस जगह दीवार के साथ टिकाकर रख दिया जहाँ उनकी पत्नी जवान बेटी के साथ खाट पर बैठी थी। एक डंडा उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। थोड़ी देर उसे हाथ में लिये खड़े रहे, फिर अटपटा-सा महसूस करने लगे और उसे भी दीवार के साथ खड़ा कर दिया। फिर सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर चले गए जहाँ पर घर का शौचालय बना हुआ था।

पिछली बार फ़िसाद भड़का था तो केवल मंडी में आग ही लगी थी, मार-काट नहीं हुई थी। अबकी बार हवा में ज़हर ज़्यादा था, लोग भड़के हुए थे। अन्तरंग सभा की मीटिंग तक तो लालाजी स्वयं भी भड़के हुए थे।

आग पहले से ज़्यादा फैल चुकी थी। उत्तर-पश्चिम की ओर आकाश लाल हो रहा था। इसी लाली में से कौंधती हुई आग की लपटें किसी महानाग की जीभ की तरह लपलपा रही थीं। आग इस वक़्त उत्तर की दिशा में धीरे-धीरे फैल रही थी, वैसे ही जैसे दसहरे पर लंका जलती है, और बराबर तेज़ हो रही थी। नीचे की ओर आग के बवंडर से घुमड़ते हुए नज़र आते गठरियों जैसे, फिर सहसा उनमें से नाचते हुए आग के शोले सीधे आसमान की तरफ लपकते। आकाश में लालिमा का पुट बढ़ने लगा था। किसी-किसी वक़्त लाल धूल का एक बादल-सा ऊपर को उठता और फिर छितरा जाता, लाल से धुएँ में बदलकर आकाश में बिखर जाता। तारे फीके पड़ चुके थे। क्षितिज के कुछ ऊपर तक का भाग गहरा लाल था पर उसके ऊपर लाली में पीलिमा घुलती जा रही थी। धुएँ का रंग भी जैसे सफ़ेद पड़ता जा रहा था। किसी-किसी वक़्त आग का कोई बवंडर सीधा ऊपर को उठता हुआ दूर तक आकाश में चला जाता, जैसे एक बादल में से दूसरा बादल निकल रहा हो, घुमड़-घुमड़कर आगे बढ़ता जा रहा हो।

शौचालय में से निकलकर लालाजी छत की मुँडेर के पीछे खड़े हो गए। दहकते आकाश की पृष्ठभूमि में मकानों की छतों पर खड़े लोगों की आकृतियाँ अधिक स्पष्ट नज़र आने लगी थीं। सभी आग की ओर देख रहे थे। दूर तक फैले शहर के घरों के मुँडेर, बरसातियों के चौकोर ढाँचे एक तसवीर की तरह उघड़ आए थे। लालाजी का गोदाम बड़ा बाज़ार की एक गली में था जो मंडी से थोड़ा हटकर उत्तर-दक्षिण की ओर पड़ता था। उन्हें यह देखकर सन्तोष हुआ कि वहाँ पर अभी अँधेरा है, आग उस ओर को नहीं फैल रही थी।

मुँडेर पर से लालाजी ने झाँककर नीचे देखा तो पड़ोसवालों की छत पर तीन आदमी खड़े थे। तीनों का मुँह आग की ओर था। फतहदीन और उसका भाई और उनका बूढ़ा बाप खड़े थे। फतहदीन की नज़र आसमान की लाली को देखती हुई पिछवाड़े की ओर मुड़ गई तो उसे लालाजी खड़े नज़र आए।

"कैसा कहर टूटा है बाबूजी उफ्फो! कैसी बुरी आग लगी है।" उसने कहा।

लालाजी ने कोई जवाब नहीं दिया। पर पर फतहदीन ने आश्वासन के लहजे में कहा, "बेखबर रहो बाबूजी, आपके घर की तरफ़ कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता। पहले हम पर कोई हाथ उठाएगा, फिर आप पर उठने देंगे।"

"क्यों नहीं, क्यों नहीं, पड़ोसी तो इनसान के बाजू होते हैं, और फिर आप जैसे पड़ोसी!"

“आप बेफ़िक्र रहें, ये फ़सादी लोग फ़साद करते हैं, शरीफों को परेशान करते हैं। यहाँ सभी को एक ही शहर में रहना है, फिर लड़ाई-झगड़ा किस बात का? क्यों बाबूजी?"

"बेशक-बेशक!"

लालाजी को फतहदीन की बात पर विश्वास था भी और नहीं भी था। बीस बरस यहाँ रहते हो गए थे, इन लोगों से उन्हें कभी शिकायत नहीं हुई थी, पर आखिर थे तो मुसलमान । यों डरने की ऐसी कोई बात नहीं थी। अगर किसी ने मेरे घर को आग लगाई तो मेरा तो केवल एक घर जलेगा, मुसलमानों का सारा मुहल्ला जलेगा। फिर सुबह हयातबख्श ने, जो मुस्लिम लीग का प्रधान था, यकीन दिलाया था कि उसके रहते कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। गोदाम के बारे में भी उन्हें विशेष चिन्ता नहीं थी। गोदाम के सारे माल का बीमा हो चुका था। फिर भी हालत बिगड़ते देर नहीं लगती और इन 'मुसल्लों' का एतवार नहीं किया जा सकता।

उन्हें चिन्ता थी तो केवल रणवीर की जो इस वक़्त घर नहीं था। जोशीला लड़का है, कहीं कोई भूल नहीं कर बैठे। यों तो मास्टर देवव्रत ने ही उसे गड़बड़ देखकर रोक लिया होगा। शाम के वक्त रणवीर का एक मित्र कह भी गया था कि सभी लड़के मास्टर जी के पास हैं। पर क्या मालूम उसने मंडी का रुख कर दिया हो?

तभी उनके कानों में घड़ियाल की आवाज़ आई। सुनकर उन्हें सन्तोष हुआ। अन्तरंग सभा की बैठक में उन्हीं ने सुझाव दिया था कि ख़तरे की घंटी को ठीक करवा लिया जाए और उसमें नई रस्सी डलवा ली जाए। उन्हें यह देखकर खुशी हुई कि उनके सुझाव को अमली जामा पहना दिया गया है। पर दूसरे ही क्षण आग के इन बवंडरों के बीच घड़ियाल का बजना उन्हें बेमानी और निरर्थक-सा लगा।

*****

इधर ख़तरे की घंटी बज रही है, उधर मंडी जल रही है, हिन्दुओं का लाखों का नुकसान हो रहा है। हम हिन्दुओं को इसी चीज़ ने मारा है, और किसने मारा है...वह बड़बड़ाए।

वह पीठ पीछे दोनों हाथ बाँधे टहल रहे थे और बड़बड़ाते जा रहे थे। किसी-किसी वक़्त उनका दिल डूबने लगता। घर में जवान बेटी थी, अगर इस तरफ़ गड़बड़ हो गई तो मैं इन्हें कहाँ सँभालूँगा। और न जाने रणवीर कहाँ घूम रहा है।

"बड़ा 'बेवाका' लड़का है, किसी की नहीं सुनता। समाज-सेवा, समाज-सेवा, रट लगाए रहता है। जिसे अपने माँ-बाप की चिन्ता नहीं, वह समाज-सेवा क्या करेगा?"

कभी-कभी उन्हें लगता जैसे रणवीर ने अनाज मंडी का रुख कर लिया है जहाँ आग लगी है। और यह विचार मन में आते ही उनके सारे बदन में सिहरन-सी दौड़ जाती।

और लोगों के भी बेटे हैं, वे भी मंडली में जाते हैं, लाठी चलाना सीखते हैं, पर यह नहीं कि खतरे के वक़्त घर के बाहर घूम रहे हों। बड़ा वीर सैनिक बना फिरता है।...उन्हें अपने पर क्रोध आया। मीटिंग में और लोग चुप बने रहते हैं, जबकि मैं बोलता रहता हूँ। पाँच सौ रुपया भी मुझसे निकलवा लिया, और किसी ने सौ से ज़्यादा नहीं दिया। मुझ पर अगर ऐसी-वैसी कोई बात हुई तो कोई 'भड़वा' नज़दीक नहीं आएगा। यहाँ मुसलमानों के मुहल्ले में मेरी मदद करने कौन आएगा?"

मुँडेर के पास खड़े होकर लालाजी ने घर के अन्दर झाँककर देखा। नीचे घुप्प अँधेरा था। जंगले के पास बेटी चुपचाप खाट के पायताने माँ से सटकर बैठी थी

"हरि का नाम लो!" माँ कह रही थी, "हरि का नाम लो। गायत्री का जाप करो।"

और बेटी गोद में हाथ रखे गायत्री मन्त्र का पाठ करने लगी।

ऊपर से लालाजी ने धीमी आवाज़ में पूछा, "रणवीर आया है? क्यों रणवीर की माँ, रणवीर आ गया?"

"नहीं जी, अभी कहाँ आया है, कोई नहीं आया।"

"अच्छा धीरे बोल । तुझसे धीरे नहीं बोला जाता?"

लालाजी फिर छत पर टहलने लगे। बार-बार मन को हौसला देते : मेरे घर को आग लगाएँगे तो इनकी सारी गली जलेगी। पर आख़िर उनसे न रहा गया, बड़बड़ाते हुए सीढ़ियाँ उतर आए।

पर परिवार के सामने पहुंचे तो उनका रुख बदल गया।

"इस तरह गुमसुम होकर क्यों बैठी हो, रणवीर की माँ? घबराने की क्या बात है, हिम्मत से काम लो।"

माँ चुप रही। उसका दिल भी रणवीर के बारे में धक्-धक् कर रहा था, मन ही मन वह भी व्याकुल थी।

हमें हिम्मत से काम लेने को कह रहे हैं, स्वयं तीन बार शौच हो आए हैं।" माँ ने धीरे से बुदबुदाकर कहा।

लालाजी जंगले के पास से हटकर कमरे की ओर चले गए।

थोड़ी देर बाद माँ को खटका-सा हुआ।

"विद्या, जा देख तो, तेरे पिताजी क्या करने गए हैं।"

विद्या उन्हीं क़दमों उठकर पिता के कमरे की ओर गई। लालाजी अपनी अढ़ाई गज धोती उतारकर पाजामा पहन रहे थे। विद्या उन्हीं क़दमों माँ के पास लौट आई।

“वह तो कहीं बाहर जा रहे हैं।" विद्या ने घबराई हुई आवाज़ में कहा।

"हे भगवान्, इनका कुछ पता नहीं चलता।" और माँ खाट पर से उतरकर सीधी अपने पति के कमरे में जा पहुँची, “देखो जी, मेरा गड़ा मुर्दा देखोगे अगर घर के बाहर कदम रखोगे।"

"तो क्या करूँ?" उसकी भी सुध लूँ या घर पर बैठा रहूँ?"

“अपनी जवान बेटी को मेरे पास अकेली छोड़कर चले जाओगे। देखो तो कैसा कहर का वक़्त आया है।" माँ ने उत्तेजित आवाज़ में कहा।

“बेटा बाहर गया हो और मैं चूड़ियाँ पहनकर घर बैठा रहूँ? कुछ होश की बात कर।"

"बेटा तुम्हारा है तो मेरा भी है! इस वक्त उसे ढूँढ़ने जाओगे तो कहाँ जाओगे? स्कूल बन्द पड़ा होगा, मन्दिर में से लोग कब के जा चुके होंगे। उसे कहाँ खोजते फिरोगे? समझदार लड़का है, ज़रूर कहीं रुक गया होगा। शाम को उसका दोस्त भी बोल गया था कि सभी लड़के मास्टरजी के घर में हैं। मैं कितना कहती थी, कोई ज़रूरत नहीं बच्चे को आर्यवीर बनाने की। यह पढ़े-लिखे, खाए-पीए। मगर नहीं, तुमने मेरी एक नहीं सुनी। उसके कवायदें करवाते रहे, लाठी चलाना सिखवाते रहे। मुसलमानों का शहर है, सारी उम्र हमें इन्हीं के साथ रहना है। समन्दर में रहकर मगर से बैर कहाँ की अक्लमन्दी है? अब देख लो क्या हो रहा है?"

"बहुत उपदेश नहीं दिया कर। क्या बुरा किया है जो वह युवक समाज में जाने लगा है तो? देश और समाज का काम करना ही चाहिए।"

"करो फिर देश और समाज का काम और भुगतो। पर मैं तो इस वक़्त बाहर नहीं जाने दूंगी। कुछ भी कर लो, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी।"

लालाजी ने बाहर जाने का इरादा स्थगित कर दिया। उन्हें इस बात की आशा नहीं थी कि आग इतनी ज़्यादा भड़क उठेगी। उन्हें मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा तो अक्सर आया करता था, पर उन्हें इस बात का भी विश्वास था कि अंग्रेज़ उन्हें दबाकर रखेंगे।

“और लोग भी हैं, अफसरों के साथ, हमसायों के साथ, हिन्दू-मुसलमान सभी के साथ मेल-मिलाप बनाए रखते हैं। अपने समधियों को ही देखो, मुसलमानों का उनके घर ताँता लगा रहता है। तुमने न अफसरों के साथ बनाकर रखी, न हमसायों के साथ।"

वास्तव में यह बात जैसे उनकी पत्नी ने उन्हीं के मुँह से छीन ली हो। क्योंकि ऐन उस वक़्त वह भी इसी बात के बारे में सोच रहे थे। उनके समधी की गहरी दोस्ती शाहनवाज़ के साथ थी और शाहनवाज़ बड़ा असर-रसूखवाला मुसलमान था, उनकी मोटरें जगह-जगह चलती थीं, उसका पेट्रोल का ठेका था और लालाजी के समधी के साथ लुकमा तोड़ने जैसा रिश्ता था। सबसे अच्छा हो कि उसकी मदद से हम जैसे-तैसे यहाँ से कुछ दिन के लिए निकल जाएँ। आग भड़क उठी है तो जल्दी शान्त नहीं होगी और जाने क्या-क्या गुल खिलाए। बेटी को लेकर सदर बाज़ार में कुछ दिन के लिए चले जाएँ। पर यह कैसे सम्भव हो?

तभी दूर से नारों की गूंज सुनाई देने लगी। ‘अल्लाहो-अकबर!' का नारा उठा तो दूर कहीं से, मगर वह बार-बार मकानों की छतों पर से दोहराया जाने लगा। मकानों की छतों पर चढ़े हुए, आग का तमाशा देखनेवाले लोग भी उसे दोहराने लगे। एक शोर-सा मचने लगा। दूर शिवाले की ओर से हिन्दू-नारों की भी आवाज़ आती लेकिन बहुत कम और बहुत धीमी-सी। आसपास कहीं भी उसे दोहराया नहीं जा रहा था। इससे लालाजी और भी ज़्यादा त्रस्त हो उठे।

"सुनो, रणवीर की माँ, तुम नानकू को ऊपर बुलाओ।"

"क्यों, क्या बात है?"

"हर बात के साथ क्यों नहीं लगाया करो, तुम उसे बुलाओ, मैं उसके हाथ एक चिट्ठी लिखकर भेजना चाहता हूँ।"

पत्नी लालाजी के चेहरे की ओर देखती रह गई, “इस वक्त इसे भेजोगे? कहाँ भेजना चाहते हो?"

पत्नी का मन रणवीर की दिशा में दौड़ रहा था।

“यह रणवीर का पता लगाएगा? मास्टर ने आपको कहला जो भेजा है कि रणवीर उसके साथ है, अब क्यों परेशान होते हो? भगवान पर विश्वास रखो, और सुबह तक चुपचाप बैठे रहो।"

"नहीं, रणवीर के पीछे मैं इसे नहीं भेजना चाहता। मेरा एक दूसरा काम है...।"

"देखो जी, इस गरीब को कहाँ भेजोगे? बाहर कहर टूट रहा है। इसे कोई जानता नहीं, पहचानता नहीं।"

“तू हर बात में टाँग क्यों अड़ाती है? मैं नहीं चाहता कि विद्या को लेकर हम यहाँ पड़े रहें। कुछ भी हो सकता है। मैं समधी को ख़त लिख रहा हूँ कि अपने दोस्त शाहनवाज़ से कहकर हमें यहाँ से निकाल लें। जवान बेटी घर में है, मैं यहाँ नहीं रहना चाहता।"

“यह काम भी तो कल सवेरे ही हो सकता है ना, इस वक्त तो नहीं हो सकता। क्या समधी तुम्हारी चिट्ठी पाकर शाहनवाज़ के घर जाएगा? तुम भी कैसी बातें करते हो जी।"

पर लालाजी ने नहीं माना। “एक बात इनके दिमाग में बैठ जाए तो निकलती नहीं।" पत्नी बुदबुदाई, फिर ऊँची आवाज़ में बोली, “यह कहाँ तुम्हारी चिट्ठी पहुँचाएगा? यह कुछ नहीं जानता।"

"क्यों नहीं पहुँचाएगा? इसे रखा किसलिए है? गलियों के रास्ते दो मिनट में समधियों के घर पहुँच जाएगा। पास ही तो है।"

"तुम क्यों इतनी जिद पकड़ लेते हो जी? यहाँ से निकालोगे भी तो दिन को ही निकालोगे, इस वक्त किसी को लिखने से क्या लाभ? समधियों को भी परेशान करोगे।"

लालाजी क्षण-भर के लिए ठिठके खड़े रहे, फिर धीमी आवाज़ में बोले, “अगर हो सके तो आज रात ही निकल जाना चाहता हूँ।"

“ऐसी भी क्या बात है जी? तुम्हें हमसायों से डर लगता है, मुझे नहीं लगता। भगवान का नाम लो और चुपचाप बैठे रहो।" पत्नी ने कहा पर इसके बाद चुप हो गई।

कोई कारण रहा होगा जो यह इतने उतावले हो रहे हैं। नानकू के लिए जोखिम था पर जवान बेटी का ख्याल आते ही माँ की स्थिरता भी डोल गई। क्या मालूम इसी समय यहाँ से निकल जाने में भला हो! भगवान न करे अगर कुछ हो गया तो मैं इसे कहाँ छिपाती फिरूँगी?

"इसे कहो मसहरी का डंडा साथ लेता जाए।" लालाजी ने नानकू के प्रति सद्भावना व्यक्त करते हुए कहा।

चिट्ठी देकर लालाजी देर तक नानकू को समझाते रहे, “अगर देखो किसी गली में शोर है तो दूसरी गली में मुड़ जाना। हो सके तो मन्दिर में से चपरासी को साथ ले लेना। अब जाओ, देरी नहीं करो। जैसे भी हो, ख़त पहुँचाकर आना।"

पर उसके जाने से पहले पत्नी फिर एक बार बिफरकर बोली, “देखो जी, भगवान के सहारे आज रात पड़े रहो। कल जो होगा देखा जाएगा। यह भी किसी माँ का बेटा है, क्यों इसे जलती आग में धकेलते हो?"

"कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा, मैं जा सकता हूँ तो यह नहीं जा सकता? इसके हाथों पर मेहँदी लगी है?"

पर तभी पिछली गली में किसी के भागते क़दमों की आवाज़ आई। आवाज़ नज़दीक आ रही थी और क्षण-प्रतिक्षण ऊँची होती जा रही थी। उसी रात गली में चलते क़दमों की हर आवाज़ ऊँची होती गई थी और कानों के साथ-साथ सीधे दिल पर बजती थी।

लालाजी चलते-चलते रुक गए। उनकी टाँगों में जैसे पानी भर गया था। दिल की धड़कन तेज़ हो गई। क्या रणवीर कहीं से भागकर आ रहा है?

भागते क़दमों की आहट से कौन किसी को पहचान सकता है?

सहसा किसी दूसरे व्यक्ति के भागते क़दमों की भी आवाज़ आने लगी। लगा जैसे कोई आदमी गली का मोड़ काटकर गली के अन्दर आ गया है और भागते व्यक्ति के पीछ-पीछे भागने लगा है।

फिर सहसा अँधेरे को चीरती हुई आवाज़ आई :

"बचाओ...ब...चा...ओ!"

लालाजी का शरीर सिर से पाँव तक सिहर उठा। गली के पिछले हिस्से में अब एक नहीं, दो-तीन भागते व्यक्तियों के क़दमों की आवाज़ आ रही थी। ये आवाजें खाट पर बैठी माँ और उसकी बेटी ने भी सुनीं, पास-पड़ोस के घरों की छतों पर खड़े लोगों ने भी सुनीं, वे सारे वातावरण में जैसे गूंज रही थीं।

“ब...चा...ओ!"

फिर आवाज़ आई। चीखती-सी आवाज़ थी, किसी बदहवास डरे हुए आदमी की आवाज़। इस आवाज़ से भी अपने बेटे की आवाज़ को पहचान पाना नामुमकिन था। भयाकुल, भागते हुए लोग सभी एक जैसी ही आवाज़ से पुकारते हैं।

गली में किसी चीज़ के फेंकने की आवाज़ आई। कोई लाठी थी या पत्थर था? किसी ने शायद भागते आदमी के पीछे लाठी फेंकी थी। या शायद कुल्हाड़ी फेंकी थी जो नज़दीक ही दीवार के साथ टकराई थी और फिर गली के फर्श के साथ टकराकर पटपटाती-सी आगे चली गई थी।

“पकड़ो...मा...रो...ए...मा...रो...ए!"

फिर बचाव की पुकार करनेवाला व्यक्ति हाँफता हुआ पैर पटपटाता, गली लाँघ गया था और गली लाँघते ही उसके क़दमों की आवाज़ दूर हो गई थी, धीमी पड़ गई थी जबकि उसका पीछा करनेवाले क़दमों की आवाज़ ऊँची होती जा रही थी।

क्या लाठी उसे लगी नहीं थी? क्या रणवीर पर किसी ने लाठी फेंकी थी? क्या रणवीर बचकर आ गया है? क्या वह अभी दरवाज़ा खटखटाएगा?

पीछा करनेवाले कदम गली से बाहर चले गए थे। लालाजी का दिल धक्-धक् किए जा रहा था। उनके कान दरवाज़े पर लगे थे कि अभी कोई दरवाज़ा खटखटाएगा। पर किसी ने दरवाज़ा नहीं खटखटाया।

लालाजी के पैरों में गति आई। वह चलते हुए छज्जे पर गए ताकि सड़क पर से इन भागते लोगों को देखें। सड़क सुनसान पड़ी थी, सामने कच्चे घर की छत पर औरतें, मर्द और बच्चे खड़े थे, उन्होंने भी ये आवाजें सुनी होंगी। सभी निश्चेष्ट-से खड़े थे। तभी लगभग छज्जे के नीचे तीन आदमी सड़क पर से गली की ओर लौटते नज़र आए। तीनों ने मुश्कें बाँध रखी थीं, तीनों ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहे थे और तीनों के हाथ में लाठियाँ थीं।

“निकल गया सिखड़ा। जो भागता नहीं तो हम उसका पीछा भी नहीं करते।" उनमें से एक कह रहा था।

और उनके क़दम गली के अन्दर मुड़ गए और धीरे-धीरे दूर होने लगे।

लालाजी ने चैन की साँस ली और फिर से पीठ पीछे हाथ बाँधे कमरे में टहलने लगे। नानकू ने भी मसहरी का डंडा उठाया और सीढ़ियाँ उतरकर दरवाजे के पीछे जा बैठा।

तमस (उपन्यास) : दस

दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा पुत रही थी, जबकि रात के वक़्त आसमान लाल हो रहा था। सत्रह दूकानें जलकर राख हो चुकी थीं।

दूकानें बन्द थीं। दूध-दही की दूकानें कहीं-कहीं खुली थीं और उनके निकट दो-दो, चार-चार आदमी खड़े रात की घटनाओं के बारे में कयास लगा रहे थे। मार-काट के बारे में अफवाहें ज़्यादा थीं, गवालमंडीवाले कहते रत्ता में दंगा हुआ है, रत्तावाले कहते कमेटी मुहल्ले में दंगा हुआ है।

नया मुहल्ला के चौक में एक घोड़ा मरा हुआ पाया गया था। शहर के बाहर गाँव को जानेवाली सड़क पर एक अधेड़ उम्र के आदमी की लाश मिली थी। कालिज रोड पर जूतों की एक दूकान और साथ में बैठनेवाले दर्जी की दूकान लूट ली गई थी। एक और लाश शहर के सिरे पर एक कब्रिस्तान में मिली थी। लाश किसी अधेड़ उम्र के हिन्दू की थी और उसकी जेब में से कुछ रेजगारी और दहेज के कपड़ों की एक फेहरिस्त मिली थी।

मुहल्लों के बीच लीकें खिंच गई थीं, हिन्दुओं के मुहल्ले में मुसलमान को जाने की अब हिम्मत नहीं थी, और मुसलमानों के मुहल्ले में हिन्दू-सिख अब नहीं आ-जा सकते थे। आँखों में संशय और भय उतर आए थे। गलियों के सिरों पर, और सड़कों के नाकों पर जगह-जगह कुछ लोग हाथों में लाठियाँ और भाले लिये और मुश्कें बाँधे, छिपे बैठे थे। जहाँ कहीं हिन्दू और मुसलमान पड़ोसी एक-दूसरे के पास खड़े थे, बार-बार एक ही वाक्य दो रा रहे थे : 'बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ है।' इससे आगे वार्तालाप बढ़ ही नहीं पाता था। वातावरण में जड़ता-सी आ गई थी। सभी लोग मन ही मन जानते थे कि यह कांड यहीं पर ख़त्म होनेवाला नहीं है, लेकिन आगे क्या होगा किसी को मालूम नहीं था।

घरों के दरवाज़े बन्द थे, शहर का कारोबार, स्कूल, कालिज, दफ्तर सभी ठप्प हो गए थे। सड़क पर चलते आदमी को सारा वक्त इस बात का भास बना रहता कि खिड़कियों के पीछे, मकानों की अँधेरी ड्योढ़ियों, दरारों, छिद्रों में से उस पर आँखें लगी हैं, उसका पीछा किए जा रही हैं। लोग अपने-अपने मुहल्लों में बन्द हो गए थे, केवल उड़ती अफवाहों के बल पर एक-दूसरे से सम्पर्क रखे हुए थे, खाते-पीते घरों के लोग अपने-अपने बचाव में उलझ गए थे। सार्वजनिक काम ठप्प हो गए थे। कांग्रेस की प्रभातफेरी और तामीरी काम और सभी काम एक दिन में ख़त्म हो गए थे। फिर भी सुबह-सवेरे, हस्बे-मामूल जरनैल जैसे-तैसे सड़कें लाँघता कांग्रेस के दफ्तर के सामने पहुँच गया था। वहाँ पर ताला चढ़ा देखकर वह पौ फटने तक साथियों का इन्तज़ार करता रहा, और जब वे नहीं आए तो नाली के ऊपर बने चबूतरे पर खड़ा होकर उसने छोटी-सी तकरीर की और वहाँ से रवाना हो गया।

“साहिबान, चूँकि आज सभी बुजदिल चूहों की तरह घरों में घुसे बैठे हैं, मुझे अफसोस से कहना पड़ता है, कि आज प्रभातफेरी नहीं होगी, मैं आप सबसे माफ़ी चाहता हूँ और दरख्वास्त करता हूँ कि आप सब शहर में अमन बनाए रहें। यह सब शरारत अंग्रेज़ की है जो भाई-भाई को आपस में लड़ाता है। जय हिन्द!" और वह चबूतरे पर से उतरकर लेफ्ट-राइट करता अँधेरे में खो गया था।

उधर रणवीर रात को घर नहीं लौटा था, लेकिन जैसे-तैसे मास्टर देवव्रत ने उसके कुशल-क्षेम की खबर लाला लक्ष्मीनारायण को भिजवा दी थी। दूसरे, लालाजी अभी सोच ही रहे थे कि क्या करें, कहाँ जाएँ, कि शाहनवाज़ स्वयं पहुँच गया था। ऊँचा लम्बा रोबीला शाहनवाज़, वह अपनी गहरे नीले रंग की ब्यूक गाड़ी लेकर आया था। शाहनवाज़ के साथ लालाजी की जान-पहचान तो थी, पर बेतकल्लुफी नहीं थी। देखते ही देखते लालाली, उनकी पत्नी और बेटी उसी मोटर में बैठकर मुहल्ले में से निकल गए थे। नानकू अकेला मकान की हिफाजत के लिए पीछे छोड़ दिया गया था।

“मुस्तैदी से चौकीदारी करना, सोए नहीं रहना, नानकू, सारा घर तुम पर छोड़कर जा रहे हैं।"

और मोटर रवाना हो गई थी। नीली ब्यूक गाड़ी सुनसान सड़कों पर बल खाती चली जा रही थी। जगह-जगह रास्ते पर खड़े लोगों की नज़र उन पर जाती थी, सभी देखते थे कि अगली सीट पर ड्राइवर की जगह तुर्रेदार पगड़ी पहने शाहनवाज़ बैठा था, दोस्तों का दोस्त, चिट्टा दमकता चेहरा और उसकी बग़ल में लाला लक्ष्मीनारायण बैठे हैं, और पीछे जनानी सवारियाँ बैठी हैं। यों निकलकर जाना बड़ी हिम्मत की बात थी, और जब कहीं सड़क पर लोगों की गाँठ नज़र आती, लालाजी दूसरी ओर देखने लगते थे, जबकि पिछली सीट पर बैठी लालाजी की पत्नी शाहनवाज़ को असीसें दे रही थी-ऐसे लोगों के दिल में भगवान बसता है जो मुसीबत में लोगों का हाथ पकड़ते हैं।

और अब ब्यूक गाड़ी, लालाजी और उनके परिवार को सदर बाज़ार में उनके किसी सम्बन्धी के घर छोड़ देने के बाद फिर से शहर की सड़कों पर बढ़ती चली जा रही थी। अब शाहनवाज़ सीधे अपने जिगरी दोस्त रघुनाथ के डेरे पर जा रहा था। पर शाहनवाज़ को अपने बचाव की कोई चिन्ता नहीं थी, उसकी ब्यूक मोटर सभी जगह जाती थी।

जामा मस्ज़िद के सामने से होती हुई ब्यूक गाड़ी माई सत्तो के तालाब की ओर जा रही थी। सड़क के दोनों ओर के मकान छोटे-छोटे थे। छोटी-छोटी दूकानें, जिनके आगे लाठियों के सहारे सायबान खड़े किए गए थे, खंडहर-सी लग रही थीं। यह मुसलमानी इलाक़ा था। अधटूटा पुल पार करने के बाद मोटर सैयदों के मुहल्ले की ओर बढ़ चली। दाएं-बाएँ के घर ऊँचे उठने लगे। छज्जोंवाले दो-मंज़िला, तीन-मंज़िला घर, नीचे आगे को बढ़े हुए चबूतरे, किवाड़ों-खिड़कियों के ऊपर रंगीन शोशे। यहाँ हिन्दू वकील और ठेकेदार रहते थे। एक-आध को छोड़कर सभी हिन्दू थे, शाहनवाज़ का अनेकों के साथ उठना-बैठना था, बेतकल्लुफी थी, दोस्ती-यारी थी। वह जानता था इस वक़्त झरोखों में लगी आँखें उसकी ओर देखे जा रही हैं, पर उसे इस बात का भी विश्वास था कि सभी आँखें उसे पहचानती हैं। फिर भी उसने मोटर की रफ़्तार थोड़ी तेज़ कर दी।

माई सत्तो के तालाब के पास पहुँचकर वह दाएँ हाथ को मुड़ गया। यह इलाक़ा मिला-जुला इलाका था, सभी तरह के लोग रहते थे। दूकानों की एक लम्बी कतार जूतियाँ बनानेवालों की थी, ये लोग होशियारपुर से आए थे, सभी सिख थे, सभी दूकानें बन्द थीं। आगे चलकर कुछ कच्चे घर थे, जिनकी दीवारों पर गोबर की थापियाँ लगी थीं, यह इलाका भी सुनसान पड़ा था। यह भंगियों की बस्ती थी। शाहनवाज़ की मोटर फिर धीमी हो गई। यहाँ संकट का साया इतना गहरा हुआ नहीं जान पड़ता था, बिजली के खम्भे के इर्द-गिर्द दो बच्चे, एक-दूसरे को पकड़ने की कोशिश करते हुए घूम रहे थे। उन्हीं के नज़दीक बच्चों की एक और टोली खेल रही थी। पास से गुज़रते हुए शाहनवाज़ ने ध्यान से उनकी ओर देखा। बच्चे घेरा बनाए खड़े थे और घेरे के अन्दर एक छोटी-सी लड़की कुर्ता ऊपर खींचकर ज़मीन पर लेटी थी और उसकी जाँघों पर एक नन्हा-सा लड़का बैठा था-उसने भी अपना कुर्ता ऊपर को चढ़ा रखा था। आस-पास खड़े सभी बच्चे हँसी से लोट-पोट हो रहे थे। “कमज़ात! इन्हें और कोई खेल नहीं सूझा!" शाहनवाज़ बुदबुदाया और हँसकर आगे बढ़ गया। इस इलाके में अभी तक तनाव नहीं आया था. यदि था तो नजर नहीं आता था।

शाहनवाज़ के चेहरे की ओर देखते हुए यह नहीं लगता था कि कभी उसके मन में भी ओछे या क्षुद्र विचार उठ सकते होंगे। रोबीला जवान, छाती तनी रहती, तुर्रा लहराता रहता, बूट चमचमाते रहते, सदा सरसराते धोबी के धुले कपड़े पहनता था। 'ईमान से, यह किसी लड़की की तरफ़ देखकर मुसकरा दे, तो वह मुसकराए बिना नहीं रह सकती!'-उसके बारे में कहा जाता था। पर यह वर्षों पहले की बात थी, अब वह धीर-गम्भीर दुनियादार आदमी था, पेट्रोल के दो पम्पों का मालिक, इसकी मोटरें-लारियाँ चलती थीं, पर फिर भी दोस्तपरवर, मिलनसार, हँसमुख और जज़्बाती, जैसा पहले हुआ करता था, अब भी था।

दोस्तपरवरी उसका ईमान थी। जब शहर में गड़बड़ शुरू हुई थी और वह रघुनाथ का सुख-समाचार लेने आया था तो उसने रघुनाथ के घर की बगल में बैठनेवाले नानबाई से कहा था, “देख फकीरे, दोनों कान खोलकर सुन ले। अगर मेरे यार के घर को किसी ने बुरी नज़र से देखा तो मैं तुझे पकडूंगा। कोई इस घर के नज़दीक नहीं आए।"

मोटर अब बड़ी सड़क पर आ गई थी। इलाका खुल गया था, सड़कें चौड़ी थीं और आसपास के घर सड़कों से काफी दूरी पर थे। इलाका मुसलमानी था और मोटर धीमी रफ़्तार से चली जा रही थी। भाभड़खाने की ओर जानेवाली सड़क के सिरे पर मौलादाद खड़ा था। पीछे एक दूकान के चबूतरे पर पाँच-सात आदमी मुश्कें बाँधे और लाठियाँ और भाले हाथ में लिये बैठे थे। मौलादाद आज भी अपनी निराली पोशाक में था, खाकी रंग की बिरजिस, गले में हरे रंग का रेशमी रूमाल। शाहनवाज़ की मोटर को आता देखकर आगे बढ़ आया था। “क्या ख़बर है?" शाहनवाज़ ने मोटर खड़ी करते हुए पूछा।

"क्या ख़बर है खानजी, उधर पिछले मुहल्ले में काफिरों ने एक गरीब मुसलमान को मार डाला है।" कहते हुए मौलादाद के होंठों पर गुस्से से झाग आ गया।

मौलादाद की नज़र में गस्सा था, मानो वह कह रहा हो : 'तुम तो खान जी, काफिरों से बग़लगीर होते हो, उनके साथ उठते-बैठते हो जबकि मुसलमान मर रहे हैं।' पर वह कुछ भी बोला नहीं। मौलादाद जानता था कि उसकी पहुँच उस जगह तक नहीं जा सकती जिस जगह तक शाहनवाज़ की पहुँच जा सकती है। शाहनवाज़ का उठना-बैठना डिप्टी कमिश्नर तक से था, शहर के रईसों तक था, जबकि मौलादाद कमेटी के आस-पास ही बरसों से चक्कर काट रहा था।

“पाँच काफिर हमने भी काटे हैं। इनकी माँ की..."

शाहनवाज़ ने सुना-अनसुना कर दिया और मोटर चला दी।

वह थोड़ी दूर ही आगे गया था जब दाईं ओर एक गली में से सहसा बहुत-से लोग नमूदार हुए। चुपचाप चलते हुए लोग सड़क पार करने लगे थे। जनाज़ा था। आगे-आगे हयातबख्श चला जा रहा था। सिर पर कुल्ला, सफ़ेद कमीज़ और सलवार। लोगों के पैरों की हल्की-हल्की आहट हवा को जैसे थपकियाँ देती जा रही थी। शाहनवाज़ समझ गया था कि वह उसी मुसलमान की मय्यत होगी। जनाज़े के पीछे दो छोटे-छोटे लड़के भी जा रहे थे जो ज़रूर उसके बेटे रहे होंगे।

थोड़ी देर बाद सड़क साफ़ हो गई थी, शाहनवाज़ ने गाड़ी फिर चला दी।

फाटक लाँघकर शाहनवाज़ ने मोटर पेड़ के नीचे खड़ी कर दी और चाबी झुलाता बँगले की ओर बढ़ने लगा। पर्दे के पीछे खिड़की के पास रघुनाथ की पत्नी ने उसे सबसे पहले देखा, और उसे पहचानते ही उसे हार्दिक खुशी हुई।

"ओ कराड़, खोल दरवाज़ा।" बाहर से आवाज़ आई। रघुनाथ की पत्नी लपककर बाथरूम की ओर गई।

"शाहनवाज़ तुमसे मिलने आया है।" उसने दरवाज़े के बाहर पति को सम्बोधन करते हुए कहा, "मैं उसे बिठलाती हूँ, तुम आओ।"

दरवाज़ा खुलने से पहले ही शाहनवाज़ फिर से बोलने लगा था, "ओह याबू, बँगले में रहने लगा है तो दरवाज़ा ही नहीं खोलता।" फिर भाभी को सामने खड़ा देखकर अचकचा गया, “भाभी सलाम! किधर है मेरा यार?" उसने कहा और बैठनेवाले कमरे में दाखिल हो गया।

रघुनाथ की पत्नी ने बताया कि रघुनाथ बाथरूम में था और वह शाहनवाज़ के निकट कुर्सी पर बैठ गई।

“यहाँ कैसा है भाभी?" कोई तकलीफ तो नहीं? अच्छा किया वहाँ से निकल आए।"

"अच्छा है, पर अपना घर तो अपना ही होता है। अब न जाने कभी उसमें जाना होगा या नहीं!" कहते-कहते उसकी आँखें भर आईं।

शाहनवाज़ भी भावुक हो उठा। “रो नहीं भाभी, अगर मैं ज़िन्दा रहा तो तुम लोग ज़रूर फिर अपने घर में जाओगे। तू बेफ़िक्र रह।"

रघुनाथ की पत्नी शाहनवाज़ से पर्दा नहीं करती थी। उसके दोस्तों में से यही एक मुसलमान दोस्त था जिसके सामने वह बेझिझक आ जाती थी। रघुनाथ को इस बात का गर्व हुआ करता था कि उसका सबसे नज़दीकी दोस्त एक मुसलमान है।

“फातिमा को नहीं लाए? जब आते हो अकेले चले आते हो?"

"शहर में गड़बड़ है भाभी, तुम क्या समझती हो, मैं सैर को निकला हूँ?"

"तुम आ सकते हो तो वह नहीं आ सकती? मोटर में वह भी बैठ सकती थी।"

तभी रघुनाथ आ गया।

"ओ याबू, तुझे यहाँ भी टट्टियाँ लगी हैं। उधर से भाग के आया है काफिर और यहाँ भी टट्टियाँ करने लगा है।"

और दोनों बगलगीर हो गए। शाहनवाज़ का दिल फिर भावोद्रेक में डूब-डूब गया। "इस मेरे यार पर तो मेरी जान भी कुर्बान है, इसे कोई हाथ लगाकर तो देखे, उसकी चमड़ी उधेड़ दूं?'

भाभी बाहर जाने को हुई तो शाहनवाज़ ने उसे रोक दिया, “कहाँ जा रही हो भाभी, मैं खाना-वाना नहीं खाऊँगा।"

"क्यों? खाना क्यों नहीं खाओगे?"

“यह तो बोलता ही रहेगा जानकी, तुम खाना तैयार करो।" रघुनाथ बोला।

"जा जा, भिंडी खिलाएगा, मैं भिंडी नहीं खाता, भाभी मेरे लिए कुछ नहीं बनाना।"

पर जानकी जा चुकी थी, उसने पीछे से आवाज़ दी, “खुदाकसम भाभी, मैं कुछ नहीं खाऊँगा। मुझे जल्दी जाना है, मैं दो मिनट के लिए आया हूँ।"

“खाना नहीं खाओगे, चाय तो पियोगे?" भाभी कमरे की दहलीज़ पर लौट आई थी।

“यह तो मैं पहले से जानता था तुम खाना नहीं खिलाओगी, पर लाओ तुम चाय ही पिला दो।"

दोनों दोस्त बैठ गए। रघुनाथ ने गम्भीर आवाज़ में कहा, “बहुत गड़बड़ है, दिल को बड़ा दुख होता है, भाई-भाई का गला काट रहा है।"

पर सहसा इस वाक्य से दोनों के बीच एक तरह की दूरी-सी पैदा हो गई। उनके आपसी रिश्ते की बात और थी, हिन्दू-मुसलमान के रिश्ते की बात दूसरी थी, इस वाक्य से रघुनाथ ने मानो निजी रिश्ते के साथ जातियों के रिश्ते को जोड़ने की कोशिश की थी जिसके बारे में दोनों के अपने अलग-अलग विचार थे।

"सुना है गाँवों में भी फ़साद शुरू हो गए हैं।" रघुनाथ ने कहा। पर इस विषय पर अधिक वार्तालाप की गुंजाइश नहीं थी। दोनों अटपटा-सा महसूस करने लगे। यह विषय उनके हार्दिक वार्तालाप पर कोहरे की चादर-सा बिछ गया था।

“छोड़ याबू, तू अपनी बात कर।" शाहनवाज़ ने विषय बदलते हुए कहा, "जानता है कल मेरी किससे मुलाकात हो गई? भीम से।" शाहनवाज़ ने चहककर कहा।

"कौन-सा भीम?" रघुनाथ ने पूछा और फिर दोनों ठहाका मारकर हँस पड़े। भीम उनका लड़कपन का सहपाठी रहा था और किसी छोटे-से 'डेपुटी असिस्टेंट सिटी पोस्टमास्टर' का बेटा था और इसी नाम से अपना परिचय दिया करता था। इसी कारण सभी दोस्त उसका मज़ाक उड़ाया करते थे।

“यहीं रहता है काफिर, दो साल से, कभी मिला ही नहीं।" शाहनवाज़ ने कहा और शाहनवाज़ फिर ताली बजाकर हँस दिया। “मैंने दूर से ही उसे पहचान लिया, मैंने ज़ोर से कहा, 'डेपुटी असिस्टेंट सिटी पोस्टमास्टर साहिब!' कम्बख्त खड़ा हो गया। पर मिला बड़े प्यार से।"

भाभी चाय ले आई थी। मेज़ पर रखते हुए बोली, “मुझे आपसे एक काम है खानजी?"

भाभी के आ जाने से दोनों को इत्मीनान हुआ। फ़सादों के बारे में बात करते समय दोनों अटपटा महसूस करते थे, और मिल बैठें और इस भयानक स्थिति की चर्चा न करें, यह भी अटपटा लगता था। बचपन के मज़ाक और हँसी-मज़ाक भी इस परिप्रेक्ष्य में कुछ-कुछ खोखले लगने लगे थे।

"कहो न, भाभी।"

"अगर तकलीफ न हो तभी।"

"तुम कहो भी।"

"मेरे और मेरी जेठानी के जेवरों का एक डिब्बा घर में पड़ा है, वह निकलवाना है। जब आए थे तो थोड़ा-सा सामान लेकर चले आए, मैं कुछ भी साथ नहीं लाई।"

"इसमें क्या मुश्किल है भाभी, छोटा-सा तो काम है। कहाँ रखे हैं?"

“अधछत्तीवाली कोठरी में।"

शाहनवाज़ उनके घर के कोने-कोने से परिचित था। दोस्तों में यही एक दोस्त घर के अन्दर आ सकता था।

"उस पर तो ताला चढ़ा होगा? इतना बड़ा सिक्के का ताला।"

"मैं चाबियाँ देती हूँ। मैं जगह भी समझा दूंगी।"

"निकाल लाऊँगा। आज ही निकाल लाऊँगा।"

"मिलखी वहाँ पर होगा, वह ताला-वाला खोल देगा।"

"मिलखी वहीं पर है। मैं सुबह उस तरफ़ चक्कर लगा आया हूँ। उसे ख़बरदार करता रहता हूँ।"

"खाना-वाना कहाँ खाता है?"

"सारा घर उसके पास है। वहीं रसोईघर में खाना बना लेता होगा और क्या?" रघुनाथ बोला।

"रसद तो इतनी है कि छह महीने तक खाए तो ख़त्म नहीं होगी।" रघुनाथ की पत्नी ने कहा, फिर शाहनवाज़ की ओर देखकर बोली, "फिर लाऊँ चाभियाँ?"

शाहनवाज़ फिर भावुक हो उठा, उसे फिर गर्व का भास हुआ। हज़ारों के ज़ेवर की चाभियाँ भाभी मेरे हाथ में दे रही है, मुझे अपना समझती है तभी तो।

भाभी चाभियाँ खनकाती ले आई।

"और जो मैं तुम्हारा ज़ेवर हज्म कर जाऊँ तो, भाभी?"

"तुमसे ज़ेवर अच्छा है, खानजी? तुम उसे फेंक भी आओ तो मैं 'सी' नहीं करूँगी। मैं कहूँगी तुम्हारी बला से।"

और फिर गुच्छों में से चुन-चुनकर चाभियाँ दिखाने और समझाने लगी।

थोड़ी देर बाद शाहनवाज़ जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। दोनों दोस्त बाहर आए और चुपचाप चलते हुए मोटर तक आ गए।

"किस मुँह से तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ शाहनवाज़, तुमने मुझ पर बहुत बड़ा अहसान किया है।" रघुनाथ के दिल से अपने-आप ही जैसे कृतज्ञता के शब्द निकल आए थे।

“ओ चुप ओए, कराड़!" शाहनवाज़ ने कहा। "जा घर जाकर बैठ, टट्टी कर!" उसने कहा और मोटर का दरवाज़ा खोलकर अन्दर बैठ गया। रघुनाथ ठिठका खड़ा रहा।

"जा ना, जा, इधर मेरा मगज़ क्यों चाट रहा है?"

रघुनाथ फिर भी खड़ा रहा। उसने हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया, “जा न, अब जा न, मेरा हाथ गन्दा नहीं कर। जा किसी वाकिफ़ से बात कर। जा-जा, क्यों खड़ा मगज चाट रहा है? तेरे जैसे बहुत देखे हैं।"

और शाहनवाज़ ने मोटर चला दी।

*****

दोपहर ढल चुकी थी जब ज़ेवरों का डिब्बा लेने शाहनवाज़, रघुनाथ के पुश्तैनी घर पर पहुंचा।

मिलखी ने दरवाज़ा देर से खोला, “कौन है जी?"

“खोलो दरवाज़ा, मैं हूँ शाहनवाज़।"

"कौन जी?"

"खोलो-खोलो, मैं शाहनवाज़ हूँ।"

“जी आया जी, अन्दर से ताला लगा है जी, अभी लाता हूँ जी चाभी, अँगीठी पर रखी है।"

सड़क के पार फीरोज़ खालवाले का गोदाम था। फीरोज़ अपने गोदाम के चबूतरे पर खड़ा खालों की दो गाँठों को ठिकाने लगा रहा था। शाहनवाज़ ने उस ओर देखा तो वह बुत की तरह खड़ा शाहनवाज़ की ओर देखे जा रहा था। शाहनवाज़ ने मुँह फेर लिया, पर उसे लगा जैसे अभी भी फीरोज़ उसकी ओर नफरत से देखे जा रहा था।

आज भी हिन्दुओं के घर का दरवाज़ा खटखटा रहे हो!' मानो वह मन ही मन कह रहा था।

एक ताँगा पास से गुज़रा । शाहनवाज़ ने घूमकर देखा। चौधरी मौलादाद अपनी अनोखी पोशाक पहने-बिरजिस और गले में हरे रंग का रेशमी रूमाल-खुले ताँगे में मुसलमानी इलाके की गश्त लगा रहा था। शाहनवाज़ को देखकर वह हँस दिया और हाथ ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचा उठाकर 'सलाम अलैकम!' कहा।

शाहनवाज़ को झेंप हुई और नौकर पर गुस्सा आया कि वह क्यों दरवाज़ा खोलने में देरी लगा रहा है।

अन्दर ताला खुलने की आवाज़ आई, फिर मिलखी ने धीरे से दरवाजे का पल्ला थोड़ा-सा सरकाया और शाहनवाज़ को देखकर बत्तीसी निपोरने लगा। शाहनवाज़ ने पैर की ठोकर से दरवाज़ा खोल दिया और अन्दर चला गया।

"बन्द कर दो दरवाज़ा।"

“जी, खानजी।"

घर का अँधेरा बरामदा लाँघते हुए उसे स्निग्धता का भास हुआ। इस अँधेरे बरामदे में वह बहुत दिन बाद आया था। घर की सुपरिचित महक उसे अच्छी लगी। वर्षों पहले जब वह रघुनाथ के साथ बरामदा लाँधकर अन्दर आया करता था तो उसकी छोटी बेटी मुँह में उँगली दबाए देर तक उसकी ओर ताकती रहती थी, फिर दोनों बाँहें उठा देती थी कि मुझे गोद में उठा लो। हर बार वह आता तो वह भागती हुई बरामदे के सिरे पर आ जाती थी और दोनों बाँहें उठाकर हँसने लगती थी। इसी बरामदे को लाँघते समय घर की जवान औरतें दरवाज़े की ओर से अन्दर भाग जाया करती थीं, यह भी वर्षों पहले की बात थी जब रघुनाथ शुरू-शुरू में उसे अपने घर लाने लगा था। उन हँसती औरतों में से किसी की नज़र शाहनवाज़ पर पड़ जाती तो वह भागना छोड़कर रुक जाती।

“हाय आप हैं, मैंने सोचा, न जाने कौन है।"

शाहनवाज़ का दिल भर आया। इस घर में उसने रघुनाथ और उसके परिवार के साथ बड़ी अच्छी शामें बिताई थीं। यहाँ आते ही रघुनाथ के छोटे भाई की बहू उसके लिए अंडों का आमलेट बनाने चली जाती थी। घर के सभी लोग जानते थे कि शाहनवाज़ को आमलेट खाना पसन्द है। और धीरे-धीरे घर के सभी लोग आँगन में आकर बैठने लगते थे।

“खानजी, घर के सब लोग सुख से हैं न जी?" मिलखी ने हाथ जोड़कर पूछा।

तभी शाहनवाज़ का ध्यान मिलखी की ओर गया। मिलखी हाथ जोड़े घिधियाता-सा सामने खड़ा था। मिलखी की गॅदली आँखें और बातें करने का गिड़गिड़ाहट भरा ढंग और पिचका हुआ शरीर उसे कभी भी पसन्द नहीं आया था। इस वक्त भी मिलखी की आँखें गँदली थीं। कभी-कभी घर के सभी लोग मिलकर मिलखी से मज़ाक करते तो वह शरमाकर बाँहों से अपना मुँह ढक लेता, बिलकुल औरतों की तरह, तो सभी खिलखिलाकर हँसने लगते। तब वह शाहनवाज़ को बुरा नहीं लगता था, पर आम तौर पर वह उसे लसलसी छिपकली-सा लगा करता था। न जाने मिलखी कहाँ से आया था, न पंजाबी था, न गढ़वाली। अपने घिसे-पिटे छोटे-छोटे दाँतों के बीच से किसी खिचड़ी भाषा के शब्द पीस-पीसकर निकालता था।

आँगन के ऐन बीचोबीच तीन ईंटें रखकर मिलखी ने अपना चूल्हा बना रखा था। उसकी राख आँगन में जगह-जगह बिखरी थी, पर इससे भी ज़्यादा बीड़ियों के टुकड़े जगह-जगह पड़े थे।

“तू रसोईघर के अन्दर अपनी हाँडी क्यों नहीं पकाता?" शाहनवाज़ ने पूछा। मिलखी सिर टेढ़ा करके मुस्करा दिया।

"अकेला हूँ साहिबजी, यहीं पर अपनी दाल चढ़ा लेता हूँ।"

"रसद काफ़ी है न? किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं?"

"बहुत है खानजी, साथवाला नानबाई है न, वह भी रोज़ पूछ लेता है। आप ही उसे बोलकर गए थे।"

"कौन-सा नानबाई?"

“साहिब, जो नाले के पास बैठता है। वह मुझे बीड़ी के पैकेट भी फेंक देता है। बहुत भला आदमी है।" और मिलखी खी-खी करके हँस दिया।

आँगन के अन्दर से, ऐन रसोईघर की बगल में से सीढ़ियाँ ऊपर को चली गई थीं। शाहनवाज़ ने सीढ़ियों पर पैर रखते हुए आँगन में देखा। बड़े कमरे का दरवाज़ा जो आँगन में खुलता था, बन्द पड़ा था। कमरे के अन्दर क्या है, वह एक-एक चीज़ को जानता था, अँगीठी पर रघुनाथ की माँ का चित्र रखा है, कमरे में दो खाटें और एक ऊँचा पलँग बिछे हैं। बन्द दरवाज़े को देखते हुए उसे बड़ा सूना-सूना लगा। बन्द दरवाज़े के बाहर दहलीज़ के साथ मिलखी की चिलम उलटी पड़ी थी, पास में मैला-सा कपड़े का चिथड़ा पड़ा था।

"तू यहाँ बैठा क्या करता रहता है? फ़र्श भी नहीं बुहारता!"

“अब क्या बुहारना साहिबजी, अब तो वे चले गए!" मिलखी ने बत्तीसी निपोरते हुए कहा। शाहनवाज़ को लगता कि जब वे बातें करते हैं तो जैसे गुम्बद में से आवाज़ आती है और जब वे बोल चुकते हैं तो फिर चारों ओर सन्नाटा छा जाता है।

"असबाबवाली कोठरी बीचवाली छत पर है न?"

"जी, इधर सीढ़ियों के सामने, जहाँ बड़े ट्रंक रखे हैं।"

और मिलखी शाहनवाज़ के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

चाभियों के गुच्छे में कुछ नहीं तो पन्द्रह चाभियाँ होंगी। कुछेक छोटी-छोटी पीतल की चाभियाँ थीं। भाभी ने पहले बड़े ताले की चाभी अलग करके दिखाई थी, फिर अलमारी के ताले की छोटी-सी पीतल की चाभी दिखाई थी : “यह चाभी है खानजी, भूलना नहीं।"

पर शाहनवाज़ को चाभी ढूँढ़ने में दिक्कत हो रही थी, "इस बड़े ताले की कौन-सी चाभी है, तुम्हें कुछ मालूम है?"

"हाँ साहिबजी, मैं बताऊँगा।"

और मिलखी चाभियों के गुच्छे पर झुककर यों ढूँढ़ने लगा जैसे कोई मुनीम बही पर झुककर आँकड़े पढ़ता है। ले-देकर मिलखी शाहनवाज़ की कोहनी से कुछ ऊपर तक आता था। शाहनवाज़ को पगड़ी के नीचे से मिलखी की चुटिया झाँकती नज़र आई, बाएँ कान के ऐन ऊपर कनखजूरे की तरह निकली हुई थी। शाहनवाज़ को झुरझुरी-सी हुई।

मिलखी ने ताला खोल दिया। कोठरी के अन्दर घुटन थी और अँधेरा था। मिलखी ने आगे बढ़कर कोठरी की एक खिड़की खोल दी जो घर के पिछवाड़े की ओर खुलती थी और जहाँ से एक मस्ज़िद का पूरा का पूरा आँगन नज़र आता था। खिड़की खुल जाने से कोठरी के अन्दर रखी सभी चीजें साफ़ नज़र आने लगीं।

कोठरी में घुटन थी, पर उससे अधिक औरतों के कपड़ों की महक थी। तीनों भाइयों की बीवियाँ, लगता था घर छोड़ने से पहले, जैसे-तैसे अपने कपड़े लपेटकर, कोठरी में ट्रंकों के ऊपर फेंक गई थीं। कोठरी सन्दूकों और ट्रंकों से ठसाठस भरी थी।

ट्रंकों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए वह उस अलमारी तक जा पहुँचा, जिसमें ज़ेवरों का डिब्बा रखा था।

तभी उसकी नज़र खुली खिड़की से मस्ज़िद के आँगन में पड़ी। वजू करने के ताल के पास बहुत-से आदमी बैठे थे। लगता था उनके बीच किसी आदमी की लाश रखी थी। उसकी आँखों के सामने उस जनाज़े का दृश्य भी घूम गया जब मोटर में वह रघुनाथ के घर की ओर जा रहा था। देर तक शाहनवाज़ खिड़की में से मस्ज़िद की ओर आँखें लगाए रहा।

डिब्बा निकालने में देर नहीं लगी। नीली मखमल से ढका डिब्बा, जो घर की किसी स्त्री का सिंगार-बक्स था, उसने बड़े एहतियात से निकाल लिया और अलमारी को ताला लगा दिया।

बाहर आने पर दोनों सीढ़ियाँ उतरने लगे। मिलखी के हाथ में चाभियों का गुच्छा था और वह आगे-आगे उतर रहा था। डिब्बे को दोनों हाथों में उठाए शाहनवाज़ पीछे-पीछे चला आ रहा था जब सहसा उसके अन्दर भभूका-सा उठा। न जाने ऐसा क्यों हुआ : मिलखी की चुटिया पर नज़र जाने के कारण, मस्ज़िद के आँगन के लोगों की भीड़ को देखकर, या इस कारण कि जो कुछ वह पिछले तीन दिन से देखता-सुनता आया था वह विष की तरह उसके अन्दर घुलता रहा था। शाहनवाज़ ने सहसा ही बढ़कर मिलखी की पीठ में ज़ोर से लात जमाई। मिलखी लुढ़कता हुआ गिरा और सीढ़ियों के मोड़ पर सीधा दीवार से जा टकराया। जब वह नीचे गिरा तो उसका माथा फूटा हुआ था और पीठ टूट चुकी थी, क्योंकि जहाँ गिरा वहाँ से वह उठ नहीं पाया। शाहनवाज़ उसके पास से निकलकर आया तो मिलखी का सिर नीचे की ओर लटक रहा था और टाँगें आखिरी दो सीढ़ियों से लटक रही थीं। शाहनवाज़ का गुस्सा, जिसका कारण वह स्वयं नहीं जानता था, बराबर बढ़ता जा रहा था। पास से गुज़रते हुए उसका मन हुआ पैर उठाकर उसके मुँह पर दे मारे, और कीड़े को कुचल दे, पर सीढ़ियों के मोड़ पर उसे अपना सन्तुलन खो देने का डर था।

नीचे आँगन में पहुँचकर उसने एक बार मिलखी की ओर देखा। मिलखी की आँखें खुली थीं और शाहनवाज़ के चेहरे पर ऐसे लगी थीं मानो बात उसकी समझ में भी न आ रही हो कि उसकी किस भूल से खफा होकर खानजी ने उसे मारा था। मिलखी के मुँह से गिरते समय घुटता-सा शब्द निकला था, पर अब मिलखी चुप था, या तो भय से ही दम तोड़ गया था, या बेहोश पड़ा था या फिर गर्दन की हड्डी टूट गई थी।

शाहनवाज़ ने उसे वहीं छोड़ा, ज़ेवरों का डिब्बा बग़ल में दबाकर वहाँ से निकल आया और बड़ा ताला जो पहले मिलखी ने घर के अन्दर लगा रखा था उसे घर के बाहर लगा दिया।

*****

उसी रात भाभी के हाथों में ज़ेवरों का डिब्बा देते हुए शाहनवाज़ विचलित नहीं हुआ। डिब्बा हाथ में लेते समय भाभी की आखें डबडबा आईं। भाभी का रोम-रोम कृतज्ञता से भर उठा था। रघुनाथ अन्दर ही अन्दर उसके चरित्र, उसके ऊँचे विचारों की प्रशंसा कर रहा था जिनके कारण आज के ज़माने में जब चारों ओर आग की लपटें उठ रही थीं, एक मुसलमान दोस्त उसके प्रति इतना निष्ठावान था।

“पर एक बुरी ख़बर भी लाया हूँ भाभी।"

"क्यों, क्या चोरी हो गई है?"

"नहीं, मिलखी सीढ़ियों पर से बुरी तरह गिरा है और शायद उसकी कोई हड्डी टूट गई हो। पहले सोचा किसी डॉक्टर-वाक्टर को बुलाऊँ, पर आजकल डॉक्टर मिलते कहाँ हैं। कल उसका कोई इन्तज़ाम करूंगा।"

"बेचारा।"

"कहो तो उसे यहाँ डाल जाऊँ। वहाँ अकेला कहाँ पड़ा रहेगा? मैं अपना कोई आदमी रखवाली के लिए छोड़ आऊँगा।"

पर भाभी और रघुनाथ दोनों ही इस सुझाव पर हिचकिचाए। वे स्वयं नए इलाके में अभी अजनबी थे। उनसे एक मरीज की देखभाल कहाँ होगी। अगर शाहनवाज़ के लिए डॉक्टर ढूँढ़ना कठिन हो रहा है तो उनके लिए कहाँ सम्भव होगा।

"मैं इन्तज़ाम कर दूंगा।" शाहनवाज़ ने सिर हिलाकर कहा, "कोई न कोई इन्तज़ाम हो जाएगा, ऐसी मुश्किल भी क्या है।"

भाभी इस बात पर भी शाहनवाज़ की कृतज्ञ थी और उसके ऊँचे प्रशस्त ललाट, दमकते चेहरे को देख-देखकर उसे लग रहा था जैसे वह किसी पुण्यात्मा के दर्शन कर रही है।

  • तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड (अध्याय 11-13 ) : भीष्म साहनी
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