तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

Tamas (Hindi Novel) : Bhisham Sahni

तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड : भीष्म साहनी

तमस (उपन्यास) : पाँच

अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रोशनी में उनके थके-थके पीले चेहरे साफ़ नज़र आने लगे। मेहताजी को छोड़कर लगभग सभी के कपड़े मुचड़े हुए और मैले थे। बख्शी के सिर पर गांधी टोपी एक ओर से चिपकी हुई थी मानो सिर पर लादा हुआ कोई बोझ अभी-अभी फेंककर आया हो। शंकर, मास्टर रामदास और अज़ीज़ ने कन्धों पर झाडू उठा रखे थे। देसराज और शेरखान के हाथों में कड़ाहियाँ थीं। जरनैल लम्बा-सा बाँस उठाए था। दिन की रोशनी में मास्टर रामदास अपने हाथ में झाडू देखकर सकुचाने लगा था।

"ब्राह्मणों से भी झाड़ उठवाते हो गांधी महात्मा, जो करो थोड़ा है। जी! ब्राह्मणों के हाथ में भी झाड़ उठवा दिया!"

और वह हल्के-हल्के हँस दिया। झाड़ उसने पीठ पीछे कर लिया था। अपने वाक्य का किसी ओर से भी उत्तर न पा उसने तनिक ऊँची आवाज़ में बख्शीजी को सम्बोधन करके कहा, "मैं नाली साफ नहीं करूँगा। पहले बोल दूँ।"

“क्यों? तुम्हें सुरखाब के पर लगे हैं?"

"क्यों? गांधीजी अपना शौचालय साफ़ कर सकते हैं, तुम नाली साफ़ नहीं कर सकते!"

“मैं झूठ नहीं कहता, मैं झुक नहीं सकता, झुकता हूँ तो कमर में दर्द उठता है। मुझे पथरी की शिकायत रहती है।"

"गाय के लिए सानी-पानी करते हो तो पथरी की शिकायत नहीं रहती। तामीरी काम करते वक़्त ही तुम्हें पथरी की शिकायत होने लगती है?"

इस पर शंकर घूमकर बोला, "मास्टरजी, हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियाँ साफ़ करनी हैं। नाली मैं साफ़ करूँगा, तुम कड़ाही में कूड़ा उठाते रहना।"

थोड़ी दूर जाने के बाद मंडली एक गली में घूम गई।

“यह किस रास्ते पर चल पड़े हो?"

सहसा पीछे से गोसाईंजी ने चिल्लाकर कहा। मंडली के आगे-आगे चलता हुआ देसराज दाएँ हाथ को घूम गया था, और उसके पीछे सारी मंडली ही उस ओर को जाने लगी थी।

“हाँ-हाँ मना कर दो,” बख्शीजी ने हामी भरी। “सुबह-सुबह इन लोगों के नमाज़ का वक़्त होता है, क्या फायदा मस्जिद के सामने से जाने का।"

“ओ, कश्मीरी?" बख्शीजी ने चिल्लाकर कहा, “तुम सब लोग सोए रहते हो! इधर मस्ज़िद के सामने से जाने को तुमसे किसने कहा है? हमेशा अपनी मनमानी करते हो।"

कश्मीरीलाल रुक गया।

"शेरखान और देसराज उधर घूम गए। हम भी उधर घूम गए। मगर कोई बात नहीं बख्शीजी, मस्ज़िद के सामने गाना बन्द कर देंगे।"

"नहीं-नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। देखते नहीं हवा कैसी हो रही है। तुम लौट आओ और पिछली गली में से होकर सीधे चौक की तरफ़ चलो, वहाँ से सड़क पार करके इमामदीन के मुहल्ले में चले जाएँगे।"

मंडली लौट पड़ी, और बाएँ हाथ की तंग गली को लाँघकर थोड़ी देर बाद इमामदीन के मुहल्ले के पास जा पहुँची। यह रास्ता प्रभातफेरी के लिए नया था। आम तौर पर शहर के बाहर की पुरानी बस्तियों में कांग्रेस प्रचार के लिए नहीं जाती थी। कमेटी के मैदान को लाँघकर जाना यों भी दूर पड़ता था। इमामदीन का मुहल्ला कमेटी के मैदान के पार पूर्व की ओर एक सिरे पर था।

एक जगह, चरनी के पास मंडली खड़ी हो गई। कश्मीरीलाल ने, जिसके हाथ में तिरंगा था, सिर ऊँचा उठाकर, पूरे ज़ोर से नारा लगाया, 'इंकलाब!'

जवाब में सभी ने जोश से कहा, "ज़िन्दाबाद!"

“बोलो भारत माता की...जय!"

नारे की आवाज़ सुनकर मुहल्ले के बच्चे भागते हुए, घरों के बाहर आ गए। औरतें टाट के पर्दो के पीछे से झाँकने लगीं। लाल कलगीवाला एक मुर्ग कूदकर कच्ची दीवार के ऊपर चढ़ गया और कुछ देर तक पर फड़फड़ाने के बाद 'कु...क्कडू...कू!' की बाँग लगाई, मानो उसने मुहल्ले की नुमाइन्दगी करते हुए नारे का जवाब दिया हो।

“तुमसे तो यह मुर्ग ही अच्छा है कश्मीरी, देखा, कैसे रोब से बाँग लगाता है!" शेरखान बोला।

"क्यों, कश्मीरी किसी से कम है, कश्मीरी कांग्रेस का कुक्कड़ है।" शंकर ने जोड़ा।

“तू भी सिर पर लाल कलगी लगा ले, कश्मीरी! इसे लाल टोपी ले दो बख्शीजी, फिर बिलकुल कुक्कड़ नज़र आएगा।"

“क्यों, कलगी के बगैर यह कुक्कड़ नज़र नहीं आता? यह मादा कुक्कड़ है, कुक्कड़ी। कश्मीरी कुक्कड़ी...।"

नगर का हास्य-व्यंग्य ऐसा ही था। मौके-बेमौके साथियों के बीच छेड़छाड़ चलती रहती थी।

"बस, बस, अब काम शुरू करो।" बख्शीजी चरनी पर लालटेन रखते हुए बोले।

अधिकांश घर इकहरे, एक-मंज़िला थे। बहुत से घरों के दरवाज़ों पर टाट के पर्दे लटक रहे थे। सामने खुला मैदान था और मैदान के पार, एक-दूसरी के समानान्तर, दो कच्ची गलियाँ थीं। एक गली में नालियाँ थीं, पर कच्ची थीं। दूसरी गली में नालियाँ खोदी ही नहीं गई थीं। गली में ही माल-मवेशी बँधे थे। घरों में से स्त्रियाँ, सिर पर एक-एक दो-दो घड़े रखे पानी भरने जा रही थीं। एक जगह एक बालक भैंस के नीचे से गोबर उठा रहा था। नज़दीक ही चरनी के पास दो बच्चे, मैदान में, एक-दूसरे के सामने बैठे शौच कर रहे थे और बतिया रहे थे।

"तेरी टट्टी पतली क्यों है?"

“मैं बकरी का दूध पीता हूँ। तू क्या पीता है?"

मैदान में ही एक ओर कोने में तन्दूर खड़ा था। यहाँ पहुँचकर लगता था जैसे ये लोग गलियों के ही रास्ते किसी गाँव में प्रवेश कर गए हैं।

"उठाओ बेलचे और तामीरी काम शुरू करो।" बख्शीजी ने कहा।

मेहता और मास्टर रामदास कड़ाही लेकर आँगन की ओर बढ़ गए। शंकर और कश्मीरीलाल ने बेलचे उठाए और नाली साफ़ करने चल पड़े। शेरखान, देसराज और बख्शीजी झाइ उठाकर आँगन बुहारने लगे।

आसपास के लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या होने जा रहा है। ताँगा हाँकनेवाला एक छाछी अपने घर के बाहर आकर मैदान के किनारे पैरों के बल बैठ गया था पर बख्शीजी को झाड़ लगाते देखकर वह उठ खड़ा हुआ और लपककर बख्शीजी के पास जा पहुंचा।

"क्यों हमें शर्मिन्दा करते हो बाबूजी, हमारा घर तुम बुहारोगे? लाइए झाडू मुझे दीजिए।"

"नहीं, नहीं, यह हमारा ही काम है।" बख्शीजी ने जवाब दिया।

"नहीं बन्दापरवर, कभी यों भी हुआ है, आप पढ़े-लिखे खानदानी लोग हो, हम आपसे झाडू लगवाएँगे, तोबह-इस्तफ़ार! लाइए, मुझे दीजिए, हमें क्यों दोज़ख की आग में धकेलते हो..."

बख्शीजी को उसका व्यवहार भला लगा। कांग्रेस के प्रचार का असर हो रहा है, उन्होंने मन ही मन कहा, यही तामीरी काम का मतलब है, और क्या।

कश्मीरी और शंकर बेलचे उठाए घरों के साथ-साथ जानेवाली कच्ची नाली में से लसलसा कीच निकाल रहे थे। जब से नाली खोदी गई थी, उसमें गन्दा पानी जमा होता रहा था, और अब उसने गहरे नीले रंग के लसलसे कीच का रूप ले लिया था। जितनी मुद्दत यह लसलसा कीच नाली में पड़ा रहा, बदबू नहीं आई, पर जब शंकर और कश्मीरीलाल उसे बेलचों से निकाल-निकालकर नाली के किनारे-किनारे जगह-जगह ढेर लगाने लगे तो बदबू से नाक फटने लगी और मच्छर नाली पर से उड़-उड़कर चारों ओर फैलने लगे। नाली कुछ नहीं तो फुट-भर गहरी रही होगी और उसमें ऊपर तक कीच ही कीच भरा था।

"ओ बादशाहो, यह क्या जुल्म करने लगे हो!"

एक छत की मुंडेर के पीछे खड़ा रँगी हुई दाढ़ीवाला कोई बुजुर्ग बोला, "इधर बीमारी फेंक जाओगे तो उठावाएगा कौन! नाली में पड़ा रहने देते तो कम से कम एक जगह पर बना तो रहता। अब इसके जगह-जगह ढेर लगा जाओगे। पहले से भी ज्यादा गन्दगी फैला जाओगे...।"

बख्शीजी दूर से यह काम देख रहे थे। कमर सीधी करके खड़े हो गए। उन्हें शंकर और कश्मीरीलाल पर गुस्सा आया, “ये जवान लोग कभी नहीं समझेंगे।" वह बुदबुदाए। “तामीरी काम का यह मतलब तो नहीं कि सचमुच नालियाँ साफ़ करने लग जाओ। इसका तो इतना-भर मतलब है कि लोगों का ध्यान सफाई की ओर दिलाओ। और देश की आज़ादी की ओर।"

पर बुजुर्ग अपना सुझाव दे चुकने के बाद मुँडेर पर से हट गया था और बख्शीजी फिर आँगन बुहारने में लग गए थे।

तभी सामनेवाली गली में से एक सफे दरीश बुजुर्ग निकला। हाथ में तसबीह पकड़े हुए था। ज़ाहिर है, मस्ज़िद की ओर जा रहा था। सफ़ेद सलवार, सफ़ेद कुर्ता, ऊपर खुली, नए तर्ज की वास्कट और सिर पर मुशद्दी लुंगी पहने था। चाल-ढाल से ही लगता था कि कोई मजहबी आदमी है। इन लोगों को झाडू लगाते और नालियाँ साफ़ करते देखकर रुक गया। फिर रामदास की ओर देखकर जो झाडू हाथ में लिये, धूल-मिट्टी में भूतना बना खड़ा था, बुजुर्ग बोला, “हम लोगों पर अहसान का बोझ लादने आए हो?" पर वह उनके सेवा-भाव से बहुत प्रभावित हुआ जान पड़ा, “आफ़रीन है, वाह-वाह!" और उसकी आँखें आँगन और गली और नाली पर लगे एक-एक कार्यकर्ता की ओर जाने लगीं। "खुश रहो, वाह-वाह, कैसा नेक दिल पाया है, आफ़रीन है।" वह बार-बार कह रहा था।

"हम क्या सफाई करेंगे बुजुर्गवार, हम कितना कुछ कर सकते हैं," बख्शीजी बुजुर्ग को बोलता देखकर झाडू उठाए उसके पास चले आए थे। पर बुजुर्ग ने समझाते हुए कहा, “मतलब गलियाँ साफ़ करने से नहीं, इसके पीछे जो जज्बा काम कर रहा है, वह बहुत ऊँचा है। आफ़रीन, सद आफ़रीन!" सफेदरीश बुजुर्ग ने कहा और धीमी गति से चलता मुस्कराता हुआ मुहल्ले में से निकलकर मस्ज़िद की ओर जाने लगा। बख्शीजी को उसके मुँह से तामीरी काम की तारीफ़ सुनकर सुहानी खुशी हुई। उन्हें लगा जैसे आज का तामीरी काम सार्थक हो गया है।

“वह देखो मेहताजी और अज़ीज़ की तरफ़।" शेरखान ने हँसकर कहा। "दोनों ने झाड़ को हाथ तक नहीं लगाया। मेहताजी को तो अपने कपड़ों का ख्याल है।"

बख्शीजी ने घूमकर देखा। बड़े साफ़-सुथरे हाथों से मेहता एक-एक कंकड़ उठाकर कड़ाही में सजा रहा था। तर्जनी और अंगूठे से एक-एक कंकड़ उठाता और कड़ाही के पास आकर बड़े करीने से उसमें डाल देता। दूसरी ओर रामदास था, जिसकी मूंछों और बालों पर अभी से मिट्टी की तह जमने लगी थी।

आसपास, बच्चों के अलावा बहुत से लोग इकट्ठे हो गए थे, टाट के पर्दो के पीछे से अनेक लड़कियाँ और औरतें और छतों पर जगह-जगह खड़े मर्द तामीरी काम का प्रदर्शन देख रहे थे।

जरनैल जो अभी तक लम्बा बाँस हाथ में उठाए चरनी के पास खड़ा था, चलता हुआ नाली साफ़ करनेवालों के पास जा पहुंचा।

“नाली खोलने की ज़रूरत है? बाँस लगाऊँ?" उसने फौज़ी अन्दाज़ में पूछा।

आसपास खड़े लोग हँस दिए।

“यह तामीरी काम बकवास है,” शंकर ने कमर सीधी करते हुए कश्मीरीलाल से कहा, “नालियाँ साफ़ करने से स्वराज्य नहीं मिलेगा।"

शंकर और कश्मीरी दोनों पसीना-पसीना हो रहे थे। नाली के किनारे वे तीन जगह पर कीच के ढेर लगा चुके थे।

"बहुत बकबक नहीं किया कर शंकर,” बख्शीजी ने, जो अब गली के बीचोबीच झाड़ उठाए खड़े थे, शंकर का वाक्य सुन लिया था। “भेजे में बहुत अक्ल आ गई है। बापू तो नालायक हैं न, जो हम सबको चरखा कातने और तामीरी काम करने को कहते हैं।"

“कर तो रहा हूँ, तामीरी काम ही कर रहा हूँ और क्या कर रहा हूँ, पर है यह बकवास।"

बख्शीजी सुबह-सुबह शंकर के मुँह नहीं लगना चाहते थे क्योंकि वह बड़ा मुँहफट आदमी था। फिर भी उनसे नहीं रहा गया, “कुछ समझा कर शंकर, यह हमारी देश-भक्ति का चिह्न है, इस तरह हम गरीबों के स्तर तक उतर आते हैं। क्या गरीबी में काम करने जाओगे तो पतलून पहनकर जाओगे? झाड़ लेकर या खादी पहनकर जाते हो तो लोग तुम्हें अपना समझते हैं।"

जब से तामीरी काम करने लगे हो, आन्दोलन ठप्प हो गया है," शंकर ने कहा, “लगाओ झाड़ और कातो चरखे।" और उसने एक और बेलचा कीच से भरकर ढेर पर डाल दिया।

तभी जरनैल ऊँची आवाज़ में बोला, “तुम गद्दार हो। मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम कम्युनिस्ट हो!"

"बस बस, जरनैल!" बख्शीजी ने झट से कहा। जरनैल बोलने लगेगा तो एक और बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। उसे रोक पाना नामुमकिन हो जाएगा।

"तुम भी शंकर, वक्त-बेवक्त अपनी हाँकने लगते हो। यह कोई जगह है बहस करने की?"

उसी वक़्त एक आदमी कमेटी के मैदान की तरफ से भागता हुआ आया और शेरखान के घर की गली लाँघकर एक ओर खड़े मुहल्ले के कुछ लोगों के पास जा पहुँचा और उनके साथ खुस-फुस करने लगा। उसने काले रंग की वास्कट पहन रखी थी, और बड़ा उत्तेजित लग रहा था। यों तो इस तरह भागकर आना मामूली-सी बात थी, मगर वह जिस ढंग से भागता हुआ आया था वह आसपास खड़े लोगों को अनूठा-सा लगा। देखते ही देखते इधर-उधर खड़े लोग वहाँ से हटने लगे, केवल छोटे-छोटे बच्चे वहाँ खड़े रह गए। फिर पलक मारते ही टाट के पर्दो के पीछे से स्त्रियाँ हट गईं। एक स्त्री लपककर बाहर आई और शौच करनेवाले दो बच्चों में से एक की बाँह पकड़कर उसे घसीटती हुई घर के अन्दर ले गई।

सकता-सा छा गया। कांग्रेस के कार्यकर्ता हैरान थे कि क्या बात हुई है।

तभी वहीं सफ़ेदरीश जो हाथ में तसबीह पकड़े आफ़रीन-आफ़रीन कहते मुस्कराते हुए यहाँ से गए थे, लौटते दिखाई दिए। मेहता और बख्शीजी साथ-साथ खड़े थे और अनुमान लगा रहे थे कि क्या बात हुई है जो आनन-फानन लोग वहाँ से हट गए हैं। उनका मन हुआ कि बुजुर्ग के पास जाकर उनसे पूछे कि क्या मामला है। हाथ में तसबीह झुलाता हुआ सफ़ेदरीश उनके पास आकर खड़ा हो गया। क्षण-भर वहाँ ठिठका खड़ा रहा, फिर छूटते ही बोला, “आप साहिबान यहाँ से चले जाइए। अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो यहाँ से फ़ौरन चले जाओ।" कहते-कहते उसकी आवाज़ ऊँची हो गई और ठुड्डी काँपने लगी और उसका चेहरा पीला पड़ गया।

वह जैसे बख्शीजी और मेहताजी को ही सम्बोधन करके कह रहा था। अन्य कार्यकर्ता लपककर पास आ गए।

“उठ जाइए यहाँ से।" बुजुर्ग बोले जा रहा था, "बस हो चुका जो आपको करना था। सुन रहे हैं आप?" उसकी आवाज़ काँपने लगी थी, "खंजीर के बच्चो, यहाँ से चले जाओ!" वह चिल्लाया। और कदम बढ़ाता हुआ वहाँ से चला गया। चारों ओर चुप्पी छा गई। बख्शी और मेहता एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। बख्शी ने सोचा मुमकिन है शंकर या कश्मीरीलाल ने, जो अक्सर ऊलजलूल बकते रहते हैं, किसी से कुछ कह दिया है जिससे मुहल्लेवालों को बुरा लगा है, मगर यह आदमी तो बाहर से आया था। पहले, यहाँ से जाते समय तो हमारी तारीफ़ करता गया था, अब क्या बात हो गई है जो इतना बौखला गया है।

तभी एक उड़ता हुआ पत्थर आया और बख्शीजी के पास आकर गिरा। कश्मीरीलाल और शंकर हत्बुद्धि-से बख्शीजी की ओर देखने लगे।

"क्या बात है?" मास्टर रामदास ने पास आकर पूछा।

"चलो, यहाँ से चलें, यहाँ कोई गड़बड़ है," बख्शी ने कहा। “यहाँ पर आना ही भूल थी। कहाँ है देसराज जो हमें इधर ले आया है?"

मगर देसराज वहाँ पर नहीं था। किसी को मालूम नहीं था कि वह कब वहाँ से खिसक गया था।

"कोई शरारत है। ज़रूर कोई शरारत है।"

दो-तीन पत्थर एक के बाद एक उड़ते हुए आए। एक पत्थर सीधा रामदास के कन्धे पर लगा।

“निकल चलो यहाँ से, यहाँ ठहरो नहीं।"

कार्यकर्ताओं की मंडली हड़बड़ाकर वहाँ से निकलने लगी।

ऊँचा बाँस हाथ में उठाए जरनैल चिल्लाया, “तुम सब बुजदिल हो, मैं तुम में से एक-एक को जानता हूँ। मैं यहाँ तामीरी काम करके जाऊँगा।"

इस पर बख्शीजी ने कड़ककर, फौज़ी हुक्म सुनाते हुए जरनैल से कहा, "झंडा सँभालो जरनैल, कहाँ है झंडा?"

जरनैल फौरन अटेंशन हो गया और चप्पलें घसीटता चरनी के पास रखे झंडे को उठाने चला गया।

तभी दो पत्थर, एक के बाद एक उड़ते हुए आए, एक चरनी पर गिरा, दूसरा जहाँ जरनैल खड़ा था, ज़मीन पर पड़ा। इसके साथ ही तीन आदमी सामने से गली लाँघकर आए और गली के सिरे पर खड़े हो गए।

मंडली के लोग चुपचाप वहाँ से निकलने लगे। कश्मीरीलाल ने जरनैल के हाथ से झंडा ले लिया। मेहता ने ज़मीन पर रखी कड़ाही वहीं उलट दी जिसमें वह कंकड़ बटोरता रहा था और ख़ाली कड़ाही उठाए मैदान पार करने लगा। बख्शीजी के हाथ में लालटेन झूल रही थी पर उनकी गर्दन झुकी हुई थी।

“बेलचे-कड़ाहियाँ शेरखान के घर में रख दें?" मास्टर रामदास ने बख्शीजी से पूछा।

“अब जैसे हो, चलते जाओ। यहाँ पर रुको नहीं।"

कश्मीरीलाल ने घूमकर देखा, गली के सिरे पर अब तीन की जगह पाँच आदमी खड़े थे। मैदान के पार लोग आकर खड़े हो गए थे और उनकी ओर देखे जा रहे थे। मुहल्ले में से निकलकर वह कुतुबदीन की गली में घुसे तो नानबाई की दुकान पर भी वैसा ही दृश्य देखने को मिला। तीन आदमी जो नानबाई की दुकान के सामने खड़े थे, घूमकर इन लोगों की ओर घूर-घूरकर देखने लगे, मगर इनमें से बोला कोई नहीं।

“कहीं कोई गड़बड़ है।" बख्शीजी ने मेहता से कहा।

"क्या मालूम कश्मीरी या शंकर ने मुहल्ले की किसी लड़की-बड़की को छेड़ा हो। आपने भी तो कांग्रेस में लोफ़र भर्ती कर रखे हैं।"

“कैसी बातें कर रहे हो मेहताजी। कश्मीरी तो सारा वक़्त नाली साफ करता रहा था। यहाँ कोई दूसरी बात जान पड़ती है।"

मोहयालों की गली में मुइने पर उन्हें तीन-चार आदमी गली के सिरे पर खड़े नज़र आए।

“कहाँ जा रहे हो बख्शीजी? उधर नहीं जाओ।" एक लम्बे क़द के मोहयाल व्यक्ति ने, जो बख्शीजी का परिचित था, आगे बढ़कर कहा।

"क्या बात है?"

"बस, उधर मत जाओ।"

"कुछ बताओ तो, हुआ क्या है?"

इस वक़्त तक कश्मीरी, जरनैल और मास्टर रामदास भी बख्शी और मेहता के पास पहुँच चुके थे।

"उधर गली के बाहर देखो।"

बख्शीजी ने सामने की ओर देखा। गली के बाहर, सड़क के पास एक मस्ज़िद थी जिसे 'केलों की मस्ज़िद' कहा जाता था।

"क्या है?"

“आपको कुछ नज़र नहीं आया? मस्ज़िद के दरवाजे के नीचे सीढ़ी की ओर देखिए।"

मस्ज़िद की सीढ़ी पर कोई काली-काली चीज़ पड़ी थी।

"कोई आदमी सुअर मारकर फेंक गया है।"

बख्शीजी ने मेहता के चेहरे की ओर देखा, मानो कह रहे हों 'देखा! मैंने कहा था ना, कोई गड़बड़ है!'

सभी ने घूमकर उस ओर देखा, मस्ज़िद की सीढ़ी पर एक काले रंग का बोरा-सा रखा नज़र आया जिसमें दो टाँगे बाहर को निकली हुई थीं। मस्जिद का हरे रंग का दरवाज़ा बन्द था।

“लौट चलो, यहीं से लौट चलो," मास्टर रामदास ने धीरे-से कहा।

"आख थू!" कश्मीरीलाल ने सुअर की ओर देखकर कहा, और मुँह फेर लिया।

"बख्शीजी, यहीं से लौट चलें। आगे मुसलमानों का मुहल्ला है।" रामदास ने फिर कहा।

"किसी ने शरारत की है।" मेहता बुदबुदाया।

"आपको पक्का मालूम है कि सुअर ही है?" मेहताजी बोले।

"क्या मालूम कोई और जानवर हो।"

“कोई और जानवर होगा तो मुसलमान इतना बिगड़ेंगे?" बख्शीजी ने खीझकर कहा।

जरनैल भी अपनी घनी भौंहों के बीच छिपी छोटी-छोटी आँखें मस्ज़िद की ओर गाड़े खड़ा था, छूटते ही बोला, “अंग्रेज़ ने फेंका है!"

उसके नथुने फड़कने लगे, और वह फिर से चिल्लाकर बोला, "अंग्रेज़ की शरारत है। मैं जानता हूँ।"

“हाँ-हाँ, जरनैल, अंग्रेज़ की ही शरारत है, मगर इस वक़्त तुम चुप रहो।" बख्शी ने उसे समझाते हुए कहा।

"पिछली गली में से घूम जाएँ।” मास्टर रामदास ने फिर कहा। पर अबकी बार जरनैल उस पर बरस पड़ा, “तुम बुज़दिल हो। यह अंग्रेज़ की शरारत है। मैं उसका भंडाफोड़ करूँगा।"

इस पर मेहताजी ने झुककर बख्शी के कान में कहा, "इस पागल को साथ क्यों ले आते हो? यह सभी को मरवाएगा। निकालो इसे कांग्रेस में से।"

सड़क पर गाहे-बगाहे कोई मुसलमान गुज़रता और मस्ज़िद की सीढ़ी पर आँख पड़ते ही पहले तो घूरकर देखता, फिर मुँह फेर लेता और बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ जाता।

सहसा सामनेवाली सड़क पर एक ताँगा सरपट दौड़ता हुआ निकल गया। इसके बाद मस्ज़िद की बग़ल में भागते कदमों की आवाज़ आई। सड़क के पार, बाईं ओर बैठनेवाले कसाई ने टँगे हुए बकरों पर कपड़ा चढ़ाकर दूकान पर ताक चढ़ा दिए। मोहयालों की गली में घरों के दरवाजे बन्द होने लगे।

बख्शीजी ने घूमकर देखा। मास्टर रामदास सरक गया था और दूर गली के सिरे की ओर बढ़ता जा रहा था। थोड़ी दूरी पर उसके पीछे अज़ीज़ और शेरखान भी चले जा रहे थे। गली में जगह-जगह दो-दो, चार-चार लोगों की टोलियाँ खड़ी थीं।

"आप यहाँ से निकल जाएँ बख्शीजी, यहाँ आप लोगों के रहने से इश्तआल बढ़ेगा।" बख्शीजी के मोहयाल मित्र ने समझाते हुए कहा।

बख्शीजी ने उस आदमी की ओर देखा, फिर कश्मीरीलाल से बोले, "झंडा बाँस में से निकालकर तह कर लो।" फिर मोहयाल सज्जन से बोले, "इस सुअर की लाश को तो यहाँ से हटवा दें। जितनी देर लाश वहाँ पड़ी रहेगी, तनाव बढ़ता जाएगा।"

“आप सुअर की लाश को उठाएँगे?" मोहयाल ने हैरान होकर कहा।

"आपको तो, मैं समझाता हूँ, उस तरफ़ जाना भी नहीं चाहिए।"

“मैं इनसे इत्तफ़ाक करता हूँ,” मेहताजी बोले, “हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए। इससे मामला बिगड़ सकता है।"

“पर यहाँ से निकल जाएँगे तो मामला नहीं बढ़ेगा? क्या मुसलमान लोग इस लाश को यहाँ से हटाएँगे?" ।

"वे नहीं हटाएँगे तो किसी भंगी-जमादार का इन्तज़ाम करेंगे। ब-हर सूरत हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए।"

बख्शी ने अपने हाथ की लालटेन एक घर के चबूतरे पर रखी, और मेहता की ओर देखकर बोला, “मेहताजी, आप क्या कह रहे हैं? हम चुपचाप यहाँ से निकल जाएँ और तनाव को बढ़ने दें? अपनी आँखों से न देखा होता तो दूसरी बात थी।" फिर कश्मीरीलाल और जरनैल को सम्बोधन करके बोले, "तुम आ जाओ मेरे साथ।" और वे गली में से निकलकर मस्ज़िद की ओर जाने लगे।

कश्मीरी दुविधा में पड़ गया जाए या न जाए। इमामदीन के मुहल्ले में पत्थर पड़े थे, यहाँ पर न जाने कोई क्या कर बैठे? उसके माथे पर पसीना आ गया। उसने झंडे का बाँस दीवार के साथ खड़ा कर दिया और वहीं ठिठका खड़ा रहा। टाँगों में लरजिश-सी होने लगी। पर उस वक़्त तक जरनैल और बख्शी सड़क पार कर चुके थे। थोड़ी देर तक कश्मीरी वहीं ठिठका खड़ा रहा, फिर वह भी उनके पीछे-पीछे गली में से निकल आया। सड़क पर पहुंचकर उसने पीछे मुड़कर देखा। मोहयाल सज्जन जा चुके थे, केवल मेहताजी वहाँ खड़े थे। उसे लगा जैसे सारी गली सुनसान पड़ गई है। बाएँ हाथ सड़क के किनारे तीन-चार दूकानें थीं, सभी बन्द पड़ी थीं। दाएँ हाथ दूर कुएँ के पास दूकानों की कतार थी, वहाँ भी दूकानें बन्द थीं। और कुछ लोग कुएँ के पास गाँठ-सी बनाए खड़े इसी ओर देखे जा रहे थे। इससे भास हुआ जैसे छज्जों पर जगह-जगह लोग खड़े हैं, लेकिन घरों के दरवाजे बन्द हैं।

"सबसे पहले इस सुअर की लाश को यहाँ से हटाएँ।" बख्शीजी कह रहे थे।

काले रंग का सुअर था। कोई उस पर बोरा डाल गया था, पर बोरे के नीचे से उसकी टाँगें, थूथनी और पेट का कुछ हिस्सा नज़र आ रहा था।

मेहता अभी भी गली में दीवार से लगकर खड़े थे। वह अभी भी असमंजस में थे। सुअर को वहाँ से हटाने में जोखिम तो थी ही लेकिन साथ में उजले खादी के कपड़े गन्दे हो जाने का भी डर था। बख्शी और जरनैल ने सुअर को टाँगों से पकड़ा और उसकी लाश घसीटकर मस्ज़िद की सीढ़ी पर से उतार दी, फिर उसे घसीटते हुए सड़क के पार ले आए और ईंटों के एक ढेर के पीछे ढकेलकर छिपा दिया।

“अभी तो इसे यहीं पर रखो। मस्ज़िद का दरवाज़ा तो खुले। मस्ज़िद की सीढ़ी को धो देते हैं।" बख्शी ने कहा और कश्मीरीलाल से बोले, "तुम जाओ कश्मीरी, इधर पीछे भंगियों के डेरे में चले जाओ। वहाँ म्युनिसपेलिटी के भंगी रहते हैं। देखो, अगर दो भंगी अपना ठेला ले आएँ तो इसे उठवा देते हैं।"

तभी कुएँ की ओर से किसी के भागते क़दमों की आवाज़ आई। तीनों ने घूमकर देखा, एक गाय भागती आ रही थी। उसके पीछे-पीछे एक आदमी सिर पर मुँडासा बाँधे और हाथ में डंडा लिये गाय के पीछे-पीछे भागता हुआ, उसे हाँके लिये जा रहा था। उसकी छाती खुली थी और गले में तावीज झूल रहा था। चिकनी खालवाली, बादामी रंग की गाय थी, मोटी-मोटी चकित-सी आँखें। डर के ही मारे उसकी पूँछ उठी हुई थी। लगता जैसे रास्ता भटक गई है। तीनों ठिठक गए। मुँडासेवाले आदमी ने मुँह लपेट रखा था। गाय को हाँकता हुआ वह सड़क पर से गुज़रा और फिर उसे दाएँ हाथ एक गली की ओर ले गया।

बख्शीजी देर तक ठिठके खड़े रहे। फिर धीरे-से बोले, “लगता है शहर पर चीलें उड़ेंगी। आसार बहुत बुरे हैं।" और उनका चेहरा पहले से भी ज़्यादा पीला और गम्भीर लगने लगा।

तमस (उपन्यास) : छह

साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोकों में भारतीय संस्कृति का सार पाया जाता था और वर्षों के आग्रह के बाद वानप्रस्थीजी ने सभी सभासदों को ये मन्त्र कंठस्थ करवा दिए थे। वेदी पर बैठे ही बैठे, आँखें बन्द कर हाथ जोड़ और सिर नवाकर वानप्रस्थीजी मन्त्रोचारण करने लगे :

“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग भवेत।"

सारे सत्संग में अकेले वानप्रस्थीजी ही थे जो संस्कृत के ज्ञाता थे, उन्होंने सभी वेद-वेदांग पढ़ रखे थे। इसलिए जब वह पढ़ते तो कभी उच्चारण में भूल नहीं होती थी बल्कि लगता एक-एक शब्द पूरी समझ-बूझ के साथ दिल की गहराइयों में से निकल रहा है। उपनिषद् के श्लोक के बाद उन्होंने गीता के दो श्लोक पढ़े :

“आपूर्यमाणम् अचल प्रतिष्ठम्...

सभासद साथ-साथ गुनगुनाने लगे। कुछ लोग उच्चारण में पीछे छूट गए, इस कारण वानप्रस्थीजी के पढ़ चुकने के बाद भी सभा में से कुछ देर तक गुनगुनाती आवाजें आती रहीं।

अन्त में शान्तिपाठ हुआ और सारा हॉल पुरुष-स्त्रियों के कंठ से गूंजने लगा। क्योंक शान्ति पाठ का मन्त्र सभी को कंठस्थ था :

ॐ द्यौ शान्ति पृथ्वी, शान्तिरापः
शान्तिरौषधयः, शान्ति वनस्पतिः

सचमुच ऐसा जान पड़ने लगा जैसे शान्ति का लौकिक प्रभाव वायुमंडल में छाने लगा है, चारों ओर शान्ति व्यापने लगी है, और इन मुक्त कंठों से निकलनेवाली शान्ति की ध्वनि घर-घर तक पहुँच रही है। ‘अन्तिम आहुति' में सचमुच सभी को बड़ा आनन्द आता था। मन्त्रोचारण के बाद एक प्रार्थना का गीत गाया जाता और उसमें भी समस्त चर-अचर जगत के सुख की कामना की जाती। ताली बजा-बजाकर वानप्रस्थीजी गा रहे थे:

“सब पर दया करो भगवान
सब पर कृपा करो भगवान...”

पुण्यात्माजी के आग्रह पर सत्संग में परम्परागत आरती का गायन बहुत कम कर दिया गया था, क्योंकि उसमें 'मैं मूरख, खल कामी' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था जो वानप्रस्थीजी के विचारानुसार हीन भावना पैदा करते थे, उसी तरह किन्हीं खन्नाजी का लिखा हुआ वह गीत भी निकाल दिया गया था जिसमें हम सब ही पुत्त कपुत्त तेरे' की चर्चा की गई थी जो वानप्रस्थीजी को मंजूर नहीं था।

'अन्तिम आहुति' समाप्त हुई। इसके बाद सभा को विसर्जित हो जाना चाहिए था परन्तु सभासद बैठे रहे क्योंकि मन्त्रीजी को कोई ज़रूरी सूचना देनी थी। मन्त्रीजी उठे पर उठकर उन्होंने केवल इतना ही कहा कि सभा-विसर्जन के बाद अन्तरंग सभा के सदस्य कृपया बैठे रहें, एक ज़रूरी विषय पर विचार करना है। इस ज़रूरी विषय के बारे में भी सभासदों को खटका पहले से था, वानप्रस्थीजी के भाषण में भी बार-बार इस विषय का संकेत मिलता रहा था, यहाँ तक कि प्रवचन देते समय वानप्रस्थीजी स्वयं अत्यधिक विचलित और भावोद्वेलित हो उठे थे, उनका चेहरा तमतमाने लगा था और होंठ भडभड़ाने लगे थे, विशेष रूप से जब उन्होंने आवाज़ ऊँची उठाकर मर्मभेदी आवाज़ में ये पंक्तियाँ पढ़ी थीं:

“फैलाए घोर पाप यहाँ मुसलमीन ने
नेअमत फ़लक ने छीन ली, दौलत ज़मीन ने।"

इसलिए सभी लोग जानते थे कि अन्तरंग सभा किस विषय पर विचार करने जा रही है।

मन्त्री जी की सूचना के बाद लोग उठने लगे। सभा विसर्जित होने लगी। लोग मन्दिर के सात दरवाज़ों में से निकल-निकलकर बरामदे में अपना-अपना जूता खोजकर पहनने लगे। कुछ लोग मन्दिर में प्रवेश करते समय जान-बूझकर दाएँ पैर का जूता एक दरवाजे के सामने और बाएँ पैर का जूता तीसरे या चौथे दरवाजे के सामने छोड़ देते थे ताकि सत्संग के बाद जूतों का पुनः मिल जाना सुनिश्चित हो सके। इसलिए बरामदे में थोड़ी देर के लिए भीड़-सी बनी रही। यों भी सभा-विसर्जन के बाद दो-दो चार-चार आदमी बरामदे में खड़े बतियाते रहा करते थे, और आज तो शहर की स्थिति की चर्चा हर एक की ज़बान पर थी। वानप्रस्थीजी अपने मर्मस्पर्शी भाषण के बाद अभी भी वेदी पर ही बैठे थे। वह अभी भी उत्तेजित जान पड़ रहे थे और उनका चेहरा दमक रहा था।

तभी आँगन में से कुछ लोग मन्दिर के अन्दर आते दिखाई दिए। बरामदे में खड़े छिटपुट लोग उन्हें पहचान गए। वे शहर की अन्य हिन्दू धार्मिक संस्थाओं के गण्यमान अधिकारी थे। उनके पीछे पाँच-सात सिख सज्जन भी अन्दर आते दिखाई दिए। वे स्थानीय बड़े गुरुद्वारे में से आए थे। इन्हें भी अन्तरंग सभा की बैठक में भाग लेने के लिए न्योता दिया गया था।

अन्तरंग सभा की बैठक शुरू हुई। मन्त्रीजी ने जो दुबले-पतले किन्तु बड़े जोशीले सज्जन थे, नगर की बिगड़ती स्थिति का ब्यौरा दिया, कुछ उड़ती अफ़वाहों की भी चर्चा की, मस्ज़िद के सामने पाई गई सुअर की लाश का भी जिक्र किया। यह भी बताया कि जामा मस्ज़िद में लाठियाँ, भाले और तरह-तरह का असला बहुत दिनों से इकट्ठा किया जा रहा है। नगर की स्थिति का ब्यौरा देने के बाद मन्त्रीजी ने विषय पर गम्भीरता से विचार करने और अपने-अपने सुझाव पेश करने का अनुरोध किया।

“यहाँ पर बैठना उचित नहीं है।"

आवाज़ वानप्रस्थीजी की थी, जो वेदी पर बैठे अपना हाथ उठाकर बड़ी गम्भीरता से कह रहे थे, “इस विषय पर किसी दूसरी जगह बैठकर विचार करना चाहिए।"

और वानप्रस्थीजी वेदी पर से उतर आए, और मन्दिर के पिछवाड़े की ओर हो लिए। अन्तरंग सभा के सभी सदस्य भी उनके पीछे-पीछे जाने लगे। मन्दिर के पिछवाड़े से सीढ़ियाँ चढ़कर वानप्रस्थीजी सभी को एक छोटे से कमरे में ले गए जहाँ मन्दिर का साज-सामान रखा रहता था और कुछ एक कुर्सियाँ और बेंच रखे रहते थे। __सभी लोगों के बैठ जाने पर पुण्यात्माजी धीर-गम्भीर आवाज़ में बोले, "सबसे पहले अपनी रक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। सभी सदस्य अपने-अपने घर में एक-एक कनस्तर कड़वे तेल का रखें, एक-एक बोरी कच्चा या पक्का कोयला रखें। उबलता तेल शत्रु पर डाला जा सकता है, जलते अंगारे छत पर से फेंके जा सकते हैं..."

सदस्य ध्यान से सुनते रहे। बात दो-टूक थी लेकिन वानप्रस्थीजी के मुँह से सुनते हुए कुछ लोगों को तनिक झेंप हुई। अधिकांश सदस्य व्यापारी लोग थे और बड़ी उम्र के थे, कुछ नौकरीपेशा थे, दो-एक वकील थे। चिन्तित तो सभी थे लेकिन वानप्रस्थीजी की तरह उत्तेजित नहीं थे। उन्हें अभी तक पूरी तरह से विश्वास नहीं हो पाया था कि शहर की स्थिति यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि घरों में तेल के कनस्तर रखने की नौबत आ गई है। वे अभी भी समझते थे कि छोटी-मोटी घटनाओं के बाद सरकार स्थिति पर काबू पा लेगी, शरारत को दबा देगी और फ़साद नहीं होने देगी।

इस पर एक सज्जन ने मन्त्रीजी से पूछा, “युवक समाज का काम ठंडा पड़ा हुआ है। देवव्रतजी को आपने और कामों में लगा रखा है। मैं समझता हूँ युवकों को लाठी सिखाने का काम फौरन शुरू कर देना चाहिए। दो सौ लाठियाँ आज ही मँगवाकर बाँट दी जाएँ।"

इस पर सभा के दानवीर प्रधानजी, जो शहर के जाने-माने व्यापारियों में से थे, सिर हिलाकर बोले, “यह रकम मैं दूंगा। आप आज ही दो सौ लाठियाँ मँगवाकर युवकों को बाँट दें।"

'वाह, वाह!' की आवाज़ सुनाई दी। उपस्थित सज्जनों ने प्रधानजी की उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बीच में से एक सदस्य की आवाज़ आई, यही तो हम हिन्दुओं में बहुत बड़ी कमज़ोरी है। हम प्यास लगने पर कुआँ खुदवाते हैं। आज जब हालत बिगड़ रही है और मुसलमान जामा मस्ज़िद में असला इकट्ठा कर रहे हैं, हम लाठियाँ ख़रीदने जा रहे हैं।" ।

इस पर मन्त्रीजी छूटते ही बोले, “इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता नहीं है, युवक समाज पूरी तरह से सक्रिय है। और इस ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया जा रहा है। स्वयं वानप्रस्थीजी तन-मन के साथ इस काम में रुचि ले रहे हैं। पठन-पाठन और हवनयज्ञ के अतिरिक्त वानप्रस्थीजी हिन्दू संगठन के पुण्य कार्य में बड़ी लगन के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन प्रधानजी के सुझाव का मैं स्वागत करता हूँ, उनकी उदारता के ही बल पर हमारे अनेक काम सम्पन्न हो रहे हैं। हमें अपनी तैयारी में कोई कमी नहीं आने देनी चाहिए।"

तभी बाहर से आए सज्जनों में से एक वयोवृद्ध सज्जन, जो देर से अपनी छड़ी पर ठुड्डी रखे बैठे थे और जिन्होंने एक-एक करके अपनी दोनों टाँगें कुर्सी पर चढ़ा ली थीं, अपनी पतली तीखी आवाज़ में बोले, “भरावो, यह सब ठीक है, पर मैं कहूँगा, डिप्टी कमिश्नर के पास जाओ। डिप्टी कमिश्नर से मिलो। पानी भी न पियो और डिप्टी कमिश्नर से मिलो। यह बखेड़ा यहाँ ख़त्म होनेवाला नहीं है। उससे मिलो और उसे समझाओ कि हिन्दुओं के जान-माल को बहुत ख़तरा है।"

"डिप्टी कमिश्नर के पास जाना आवश्यक है, ज़रूर, लेकिन लालाजी, अपनी रक्षा तो अपने हाथों होगी।" वानप्रस्थीजी ने कहा।

“ओ महाराज, बच्चों को लाठी चलाना ज़रूर सिखाओ, नेजा और तलवार चलाना भी सिखाओ, सूरमा बन जाएँगे हमारे बेटे, पर सबसे पहले डिप्टी कमिश्नर से मिलो, उससे कहो कि शहर में फ़साद नहीं होने दे। डिप्टी कमिश्नर का बड़ा दबदबा है। वह चाहे तो चिड़ी नहीं फड़क सकती।"

"आज इतवार है, डिप्टी कमिश्नर नहीं मिलेगा।" मन्त्रीजी ने कहा।

"मैं कहता हूँ घर पर जाकर मिलो। यही वक़्त है। यहीं से कुछ लोग उठकर सीधे डिप्टी कमिश्नर से मिलने चले जाओ।"

इस पर एक सिख सज्जन ने सूचना देते हुए कहा, “मैंने सुना है एक वफ्द पहले से डिप्टी कमिश्नर से मिलने चला गया है।"

"कौन लोग हैं उसमें?"

“उसमें कुछ कांग्रेसी हैं, कुछ लीगी हैं और कुछ शहर के और लोग हैं।"

थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही।

"वह वफ्द क्या करेगा? हिन्दुओं-सिखों को अलग से जाकर मिलना चाहिए। उसे तो यह बताना है कि देखो मुसलमान क्या कर रहे हैं, अगर मुसलमान भी साथ होंगे तो तुम डिप्टी कमिश्नर को क्या कह सकते हो? यह सारा काम कांग्रेसियों ने बिगाड़ा हुआ है। उन्होंने ही मुसलों को सिर पर चढ़ा रखा है।"

“शरारत तो बहुत बढ़ रही है, इसमें तो शक नहीं।" एक सिख सज्जन बोले, “सुना है एक गाय भी काटी गई है। माई सत्तो की धर्मशाला के बाहर उसके अंग फेंके गए हैं। मैं नहीं जानता कहाँ तक यह ख़बर ठीक है, लेकिन सुनने में ज़रूर आया है।"

इस पर वानप्रस्थीजी का चेहरा तमतमाने लगा, और उनकी आँखों में खून उतर आया, पर वह कुछ बोले नहीं, चुपचाप अपनी उत्तेजना को दबाते हुए मौन बैठे रहे।

“गो-वध हुआ तो यहाँ खून की नदियाँ बह जाएँगी।” मन्त्रीजी उत्तेजित होकर बोले।

कुछ देर तक सभी चुप रहे। अगर यह बात सचमुच ठीक है तो इसके पीछे गहरी शरारत है। मुसलमान जो न करे कम है।

इस पर शहर के हिन्दू-सिखों को व्यापक रूप से संगठित करने, आत्मरक्षा की साक्षी योजना बनाने के लिए सुझावों पर विचार किया जाने लगा।

“मुहल्ला-कमेटियों की क्या स्थिति है?" एक सज्जन ने पूछा।

“यहाँ मुहल्ला-कमेटियाँ बनाना बड़ा मुश्किल काम है। सभी मुहल्लों में मुसलमान घुसे बैठे हैं। यह शहर ही इस बेढब्बे से बना है कि हर मुहल्ले में हिन्दू भी रहते हैं, और मुसलमान भी रहते हैं। मुहल्ला-कमेटियाँ क्या बनाओगे हर बात की खबर मुसलमानों को हो जाती है। 1926 के फ़सादों के बाद दो-तीन मुहल्ले ऐसे बने हैं जिनमें हिन्दुओं ने आँखें खोलकर मकान बनवाए हैं, जैसे नया मुहल्ला, राजपुरा, आदि, जो अलग से हिन्दुओं-सिखों के हैं, वरना सभी में मुसलमान घुसे हुए हैं।"

मुहल्ला-कमेटियों के बारे में देर तक गम्भीरता से विचार हुआ। एक उपसमिति भी बनाई गई जो फौरन इन मुहल्ला-कमेटियों के साथ सम्पर्क स्थापित करे। ऐसी योजना पर भी विचार किया जाने लगा कि ख़तरे के वक़्त यह सम्पर्क कैसे कायम रहे।

तभी एक वयोवृद्ध सज्जन ने सुझाव दिया, “शिवाले पर लगे घड़ियाल की जाँच भी करवा लीजिए।"

“क्यों? उसे क्या हुआ है?"

“यों ही, एहतियात के लिए। रात के वक़्त ही खतरे की घंटी बजानी पड़ जाए तो कम से कम वह काम तो करता हो। यह न हो कि रस्सी खींचो तो रस्सी ही टूट जाए। घड़ियाल ही न बजे।"

शहर के ऐन बीचोबीच एक टीले पर स्थित शहर का पुराना मन्दिर था। उसी को लोग शिवाला कहते थे। आसपास दूकानें थीं। वहीं पर मन्दिर के ऊपर यह घड़ियाल भी किसी ज़माने में लगाया गया था।

“अर्सा भी तो बहुत हो चुका है," वयोवृद्ध कह रहे थे, “1927 में लगवाया था, या शायद इससे भी पहले।"

इस पर एक सज्जन के मुँह से सहसा निकल गया, “न ही बजे तो अच्छा है, भगवान कभी न बजवाए!"

"इसी भाव ने हमें कायर बना दिया है।" वानप्रस्थीजी तुनककर बोले, "बात-बात पर खतरे से डरना। इसी कारण म्लेच्छ हमारी खिल्ली उड़ाते हैं, हमारे युवकों को ‘कराड़' और 'बनिया' कहकर पुकारते हैं।"

लोग फिर चुप हो गए। धारणाएँ ज़रूर सभी उपस्थित लोगों की एक जैसी थीं लेकिन वे वानप्रस्थीजी की भाँति उत्तेजित नहीं थे। वे भी मानते थे , कि मुसलमान शरारत करेंगे, लेकिन वे यह भी नहीं चाहते थे कि फ़साद फूल. पड़े क्योंकि इससे सचमुच हिन्दू-सिखों की जान और माल को ख़तरा था।

दूर तक उपायों और साधनों पर विचार होता रहा। रक्षा-सम्बन्धी उपायों पर भी और फ़साद को रोकने के उपायों पर भी। अनेक सुझाव पेश किए गए : मुहल्ला-कमेटियाँ बनाई जाएँ, वालंटियर कोर बनाई जाए जो शहर के सभी हिन्दुओं-सिखों के संगठनों के बीच सम्पर्क रखे, कड़वे तेल के अतिरिक्त रेत और पानी का इन्तज़ाम किया जाए। इस गम्भीर विचार-विमर्श के बीच बार-बार, किसी राग की स्थायी पंक्ति की भाँति वयोवृद्ध अपना सुझाव बार-बार दोहरा देते, “ओ भरावो, डिप्टी कमिश्नर से मिलो। पानी भी न पियो, डिप्टी कमिश्नर से मिलो। यहीं से उठकर कुछ लोग उसके पास चले जाओ। मैं भी साथ चलने के लिए तैयार हूँ।..."

अन्त में यही तय पाया कि मन्त्रीजी पीछे रुक जाएँ, तेल और कोयला और लाठियों से सम्बन्धित निर्णयों के बारे में घर-घर चपरासी भेजकर सदस्यों को सूचित करें, अन्य संगठनों से सम्पर्क स्थापित करें, चौकीदारों के लिए गोरखों का प्रबन्ध करें, शिवालेवाले घड़ियाल की मरम्मत के लिए सनातन धर्म सभा के मन्त्रीजी से बात करें, युवक सभा को चौकस करें, जबकि अन्तरंग-सभा की बैठक में भाग लेनेवाले अन्य सभी सज्जन उसी वक़्त ताँगों पर बैठकर डिप्टी कमिश्नर के बँगले की ओर रवाना हो जाएँ-वानप्रस्थीजी को छोड़कर, क्योंकि आध्यात्मिक उपदेश देनेवाले, और सफ़ेद बाना पहननेवाले वानप्रस्थी का यह काम नहीं है कि दुनियावी बखेड़ों में गृहस्थियों के पास घिसटते फिरें।

*****

घर पर पहुँचे तो दानवीर प्रधानजी को पता चला कि बेटा घर पर नहीं है। उनका माथा ठनका कि कहीं अभी से उस आँधी की लपेट में तो नहीं आ गया है जो इस शहर में उठनेवाली है।

जिस समय वह घर की ओर लौट रहे थे, उसी समय रणवीर अखाड़ासंचालक मास्टर देवव्रत के पीछे-पीछे शहर की तंग गलियों में से एक गली के बाद दूसरी गली पार करता हुआ चला जा रहा था। मास्टर देवव्रत के बोझिल बूटों की टाप गलियों की दीवारों के साथ टकरा-टकराकर गूंज रही थी। और उनके पीछे-पीछे चलते हुए पन्द्रह साल के तरुण रणवीर के दिल में उमंगें लहरों की तरह उठ रही थीं और रोम-रोम पुलक रहा था। आज उसकी परीक्षा होगी और यदि वह परीक्षा में खरा उतरा तो उसे दीक्षा मिलेगी।

शहर की कोई गली सीधी नहीं थी। एक गली थोड़ी दूरी तक सीधी चलती, फिर कुछ गज की ही दूरी पर एक ओर टेढ़ी गली उसमें आ मिलती थी। दोनों ओर के इकहरे मकान उस पर झुके पड़ते थे, लगता, उन्हीं के बोझ से गली टेढ़ी हो गई है। कभी-कभी लगता अन्धी गली में पहुंच गए हैं, आगे चलकर गली बन्द मिलेगी। पर ऐन अन्त तक पहुँचने पर एक सँकरा-सा रास्ता बाईं या दाईं ओर को निकल गया होता। देवव्रत के पटपटाते बूट सभी गलियों को पहचानते थे।

रणवीर उम्र में छोटा था, इसी कारण उसकी आँखों में अभी भी कुतूहल और सरल विश्वास झलकते थे, उसमें वह संजीदगी नहीं थी जो विशिष्ट परीक्षण के लिए जरूरी है। पर संजीदगी न सही, उत्साह तो था, मास्टरजी के आदेश पर मर मिटने की क्षमता तो थी, दृढ़ संकल्प तो था।

रणवीर, जब इससे भी छोटा था तो मन्त्रमुग्ध-सा मास्टरजी के मुँह से वीरों की कहानियाँ सुना करता था जब राणा प्रताप की आधी बची हुई रोटी बिल्ली खा गई थी और उन्हें पहली बार अपनी निःसहाय स्थिति का बोध हुआ था। शहर के आस-पास के पहाड़ों को देखता तो उन पर उरो कभी चेतक घोड़ा दौड़ता नज़र आता, कभी किसी चट्टान पर घोड़े की पीठ पर बैठे शिवाजी नज़र आते, दूर तुर्कों के लश्करों की ओर देखते हुए, जब शिवाजी म्लेच्छ सरदार से बगलगीर हुए थे। मास्टरजी ने ही रस्सी में तरह-तरह की गाँठें लगाना सिखाया था, मकान की दीवार फांदकर ऊपर चढ़ना, अग्निबाण और मेघबाण के गुण बताए थे।

"हवा में छोड़ा हुआ अग्निबाण आगे बढ़ता है, उसकी नोक घर्षण के कारण चमकती है, उसमें से अंगारे फूटते हैं। महाभारत के युद्ध में ऐसा ही अग्निबाण छोड़ा गया था। हवा को काटता चला जा रहा था। फिर वह कौरवों के एक योद्धा की ढाल से जा लगा, ढाल में से अंगारे फूटने लगे। पर तीर फिर भी आगे बढ़ता गया। अग्निबाण की यही विशेषता है, वह गिरता नहीं। वह बाण घूमता है, समस्त रणभूमि में घूमता है, घूमता है और चारों ओर से आग की लपटें उठने लगती हैं। कहीं किसी योद्धा के मुकुट को छू लिया, वहाँ आग की लपट निकलने लगी; किसी रथ के छत्र से जा लगा, छत्र जलने लगा। चारों ओर घूमता हुआ बाण उस समय तक घूमता रहता है जब तक धू-धू करके चारों ओर आग नहीं जलने लगती है। फिर बाण लौट आता है, शत्रु की छावनी को जलाकर विजयी सैनिक की भाँति, उसमें से प्रकाश फूट रहा होता है, देखते ही आँखें चुंधिया जाती हैं, हवा को चीरता हुआ आता है, लगता है हवा को आग लगाता जा रहा है..."

मास्टरजी के ही मुँह से उसने सुना था कि वेद में सब लिखा है, विमान बनाने का ढंग, बम बनाने का ढंग। उन्हीं के मुँह से योगशक्ति की महिमा भी सुनी थी। "जिस मनुष्य में योगशक्ति है वह सब कुछ कर सकता है। हिमालय की तलहटी पर एक योगीराज योग साधना कर रहे थे। उन्हें सिद्धि प्राप्त थी। एक दिन जब वह समाधि में थे तो एक म्लेच्छ उनकी समाधि भंग करने के लिए वहाँ जा पहुँचा। म्लेच्छ तो गन्दे लोग होते हैं, म्लेच्छ नहाते नहीं, पाखाना करके हाथ नहीं धोते, एक-दूसरे का झूठा खा लेते हैं, समय पर शौच नहीं जाते, तो वह गन्दा म्लेच्छ योगीजी के सामने खड़ा उन्हें घूरता रहा। उसकी कलुषित छाया पड़ने की देर थी कि योगीजी ने अपने नेत्र खोले, आँखों में से ऐसी दैवी ज्योति निकली कि म्लेच्छ वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो गया।..."

रणवीर की आँखों के सामने बार-बार म्लेच्छ घूम जाते थे। पड़ोस में सड़क के किनारे बैठा मोची म्लेच्छ है, घर के सामने टाँगा हाँकनेवाला गाड़ीवान म्लेच्छ है, मेरी ही कक्षा में पढ़नेवाला हमीद म्लेच्छ है, गली में मंजीफा माँगनेवाला फकीर म्लेच्छ है। पड़ोस में रहनेवाला परिवार म्लेच्छों का है। वैसा ही कोई म्लेच्छ योगीराज की साधना भंग करने हिमालय पर जा पहुँचा होगा। आज अपने आठ साथियों में से अकेले रणवीर को दीक्षा के लिए चुना गया था। देवव्रतजी से सभी को डर लगता था। वह ख़ाकी निक्कर के नीचे काले रंग के डबल बूट पहनते थे, और कड़कड़ी आवाज़ में बोलते थे, और किसी को भी किसी समय धुन सकते थे। पर यह परीक्षण गुप्त था, केवल दीक्षित युवक ही इसके बारे में कुछ जानते थे, और वे कभी भी इसके रहस्य नहीं बतलाते थे।

गलियाँ उजड़ी हुई-सी लगती थीं। एक जगह रणवीर को लगा जैसे कुछ दूरी पर गली अन्धकार के घने पुंज में खो गई है। परन्तु पास पहुँचने पर पता चला कि किसी घर की दीवार टूटी हुई थी और खप्पे में से अँधेरा झाँक रहा था।

एक जगह देवव्रतजी के क़दम रुक गए। रणवीर का दिल अभी भी उत्साह और उमंग से बल्लियों उछल रहा था। हालाँकि इस निर्जन गली में पहुँचकर वह कुछ सहम-सा गया था। लम्बी दीवार में एक धूसर-सा दरवाज़ा था, जो भिड़ा हुआ था। मास्टरजी ने हाथ बढ़ाकर दरवाज़े को धकेलकर खोल दिया।

सामने एक चौड़ा-सा आँगन था जिसके पार एक कोठरी के दरवाज़े पर टाट का पर्दा लटक रहा था। आँगन में बाईं ओर ईंटों, पत्थरों का ढेर लगा था। रणवीर को यह जगह बड़ी बीहड़-सी लगी।

आँगन पार करके मास्टरजी ने कोठरी के दरवाजे को थपथपाया। अन्दर कोई बँखारा, फिर किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी।

“मैं हूँ देवव्रत।"

दरवाज़ा खुला। सामने स्कूल का बूढ़ा गोरखा चौकीदार खड़ा था। दरवाज़ा खोलते ही उसने हाथ बाँध दिए।

कोठरी के अन्दर अँधेरा था। उसमें एक ओर खाट बिछी थी और उस पर मैली-सी दरी बिछी थी। दाईं ओर दीवार के सहारे एक लाठी रखी थी। पास ही एक चिलम उल्टी रखी थी। दीवार में झूटी से चौकीदार का खाकी रंग का लम्बा गरम कोट टँगा था और उसी के ऊपर, उसी झूटी के सहारे काले रंग की म्यान में बन्द किरच लटक रही थी।

इतने में बाईं ओर से मुर्गियों के कुड़कुड़ाने की आवाज़ आई। रणवीर ने गर्दन घुमाकर देखा। एक बड़ी-सी टोकरी में पाँच-छह सफेद रंग की मुर्गियाँ बन्द थीं।

रणवीर को बाजू से पकड़कर मास्टरजी पिछले आँगन में ले आए। यह आँगन छोटा था और दूसरी ओर साथवाले मकान की ऊँची दीवार खड़ी थी। गोरखा एक हाथ में एक मुर्गी उठाए दूसरे हाथ में छुरा लिये उनके पीछे-पीछे चला आया।

"इधर दीवार के पास बैठ जाओ रणवीर, और इस मुर्गी को काटो। दीक्षा से पहले तुहें अपनी मानसिक दृढ़ता का परिचय देना होगा।"

उन्होंने रणवीर को बाजू से पकड़ा और उसे आगे ले आए, “आर्य युवकों के लिए मनसा वाचा कर्मणा तीनों प्रकार की दृढ़ता की ज़रूरत है। छुरी हाथ में लो और उधर बैठ जाओ।"

रणवीर को लगा जैसे सहसा चारों ओर भयानक चुप्पी छा गई है, भयानक सन्नाटा। दाईं ओर टूटी ईंटों का ढेर था जिस पर जगह-जगह मुर्गियों के पंख बिखरे पड़े थे। ढेर के पास नीचे पत्थर की एक सिल थी जो मुर्गियों के खून से काली पड़ गई थी।

"इधर बैठ जाओ। मुर्गी का एक पैर अपने दाएँ पैर के नीचे दबा लो।"

रणवीर के हाथ में छुरा देते हुए उन्होंने मुर्गी के दोनों पंख पकड़कर एक-दूसरे में खोंस दिए। एक पंख के नीचे दूसरा पंख खोंसा, फिर ऊपरवाले पंख को मरोड़कर पहले पंख के नीचे दे दिया। मुर्गी ज़ोर से कुड़कुड़ाई। पर पंख बँध जाने से उसका फड़फड़ाना बन्द हो गया।

"लो पकड़ो।" मास्टरजी ने कहा और रणवीर के पास बैठ गए। “अब चलाओ छुरी।"

पर रणवीर के माथे पर पसीना आ गया और उसका चेहरा बुरी तरह से पीला पड़ गया था। मास्टरजी समझ गए कि उसे मतली आनेवाली है।

"रणवीर!" उन्होंने चिल्लाकर कहा और एक सीधा थप्पड़ उसके गाल पर दे मारा। रणवीर दोहरा होकर ज़मीन पर आ गिरा। उसका सिर बुरी तरह से चकरा रहा था। गोरखा अभी भी उसके पीछे खड़ा था। रणवीर को रुलाई आ रही थी और वह बुरी तरह से व्याकुल हो उठा था। लेकिन थप्पड़ खाने से उसकी मतली बहुत कुछ जाती रही थी।

"उठो, रणवीर।" मास्टरजी ने डपटकर कहा।

रणवीर उठा और बोझिल, त्रस्त आँखों से मास्टरजी की ओर देखने लगा।

"इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। लो, मैं तुम्हें दिखाता हूँ।"

और उन्होंने मुर्गी का पैर अपने दाएँ बूट के नीचे दबाया। मुर्गी की आँखें पहले से मुँदने लगी थीं। मास्टरजी ने उसका गला अपने बाएँ हाथ में लिया और छुरी को केवल एक ही बार उसके गले पर फेर दिया। खून की धार फूट पड़ी। कुछ बूंदें मास्टरजी के बाएँ हाथ पर भी पड़ीं। पर मास्टरजी ने मुर्गी को छोड़ा नहीं। मुर्गी का सिर तो अलग होकर उनके बूट के पास ही पड़ा था लेकिन मास्टरजी बाएँ हाथ से उसकी गर्दन की नली को नीचे की ओर दबाए रहे। सफ़ेद-सी नली बाहर आने के लिए उछल रही थी जिसे मास्टरजी अपने बाएँ हाथ के अंगूठे से दबाए हुए थे। मुर्गी का सारा शरीर काँप रहा था। मास्टरजी ज़ोर से नली को दबाए रहे और कुछ ही देर के बाद मुर्गी का बदन स्थिर हो गया, और खून से सने मुट्ठी-भर पंख रणवीर के सामने पड़े रह गए। मास्टरजी ने मुर्गी को एक ओर फेंक दिया और उठकर खड़े हो गए।

"अन्दर से एक और मुर्गी ले आओ।" उन्होंने गोरखा से कहा।

तभी उन्होंने देखा कि रणवीर ने वहीं बैठे-बैठे कै कर दी है और दोनों हाथों से अपना सिर पकड़े बैठा हाँफ रहा है। मास्टरजी का मन हुआ कि एक थप्पड़ रसीद कर दें, पर चुप खड़े रहे। थोड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहने के बाद धीमी आवाज़ में बोले, “एक और अवसर तुम्हें दिया जाता है। जो युवक एक मुर्गी को नहीं मार सकता वह शत्रु को कैसे मार सकता है।"

थोड़ी देर तक हाँफते रहने के बाद रणवीर थोड़ा हल्का महसूस करने लगा। पेट में जो अकुलाहट पैदा हुई थी वह धीरे-धीरे शान्त होने लगी।

“पाँच मिनट तुम्हें और दिए जाते हैं। इस बीच भी अगर तुम इसे नहीं काट पाए तो तुम्हें दीक्षा नहीं दी जाएगी।"

और मास्टरजी घूमकर कोठरी के अन्दर चले गए।

पाँच मिनट बाद जब देवव्रतजी कोठरी में से निकलकर आए तो एक मुर्गी दीवार के पास छटपटा रही थी और खून के छींटे उड़ रहे थे। रणवीर अपना दायाँ हाथ घुटनों के बीच दबाए बैठा था, जिसे देखकर मास्टरजी समझ गए कि मुर्गी ने हाथ पर चोंच मारी है और रणवीर केवल उसे ज़ख्मी कर पाया है, उसकी गर्दन पूरी तरह से काट नहीं पाया। रणवीर बड़ी कठिनाई से मुर्गी को दबोच पाया था और जैसे-तैसे उसकी हिलती गर्दन पर ही छुरा चला दिया था। और फिर खून निकलता देखकर ही रणवीर ने उसे छोड़ दिया था।

मुर्गी बार-बार ज़मीन पर से उछल रही थी। एक-एक गज़ ऊँची उछलती और नीचे गिरने पर उसके पंख और भी बिखर-से जाते और गर्दन में से रिसते खून से ज़मीन पर एक और चित्ता पड़ जाता था। और मुर्गी फिर से उछलती। और खून के छींटे उड़ने लगते।

पर रणवीर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था!

"उठो रणवीर!" मास्टरजी ने कहा, और पास आने पर रणवीर की पीठ थपथपा दी। "शाबाश! तुममें दृढ़ता है, संकल्प-शक्ति है, भले ही हाथ में ताक़त अधिक नहीं है। तुम दीक्षा के अधिकारी हो।" कहते हुए मास्टरजी ज़मीन की ओर झुके और पत्थर की सिल पर पड़े खून से अपनी उँगली भिगोकर रणवीर के माथे पर खून का टीका लगा दिया।

रणवीर अभी भी बेसुध-सा खड़ा था, उसका सिर अभी भी चकरा रहा था, लेकिन अर्द्ध-चेतन में भी मास्टरजी का वाक्य सुनकर उसे सन्तोष हुआ।

*****

अन्य सभी चीज़ों का प्रबन्ध कर लिया गया था। पर युवकों को तेल उबालने के लिए बड़ी कड़ाही नहीं मिल रही थी। खिड़की के दासे पर तीन चाकू, एक छुरा, एक छोटी-सी किरपान साथ-साथ जोड़कर रख दिए गए थे। कमरे के एक कोने में दस लाठियाँ रखी थीं जिनके सिर पर पीतल की मूठ और नीचे मेखें गाड़ दी गई थीं। दीवार के साथ, एक के साथ एक तीन तीर-कमान लटक रहे थे। बोधराज लेटकर बाण चला सकता था, शब्दबेधी बाण चला सकता था, शीशे में अक्स देखकर बाण चला सकता था, लटकती रस्सी को निशाना बना सकता था। बाणों के सिर पर लगाने के लिए वह धातु की तिकोन नोकें बनवा लाया था और अपने साथियों से उनकी सम्भावनाएँ बयान करता रहा था, “इसकी नोक पर संखिया रगड़ दें तो यह विषवाण बन जाएगा; इसके आगे मुश्क काफूर लगा दें तो अग्निबाण बन जाएगा, जहाँ चोट करेगा वहीं आग निकलेगी, नीला थोथा लगा दें तो बाण जहाँ लगेगा वहीं उसमें से ज़हरीली गैस निकलेगी।

धर्मदेव कहीं से खाली कारतूसों की पेटी उठा लाया था, उसे भी दीवार पर लटका दिया गया था, ताकि सभी ओर से शस्त्रास्त्रों का आभास मिलता रहे। रणवीर ने कमरे के अन्दर ही दरवाजे के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में 'शस्त्रागार' शब्द लिख दिया था।

पर वानप्रस्थीजी ने तेल के विषय में जो आदेश भेजा था उसे अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका था। युवक संघ के सदस्यों में से किसी के भी घर में इतनी बड़ी कड़ाही नहीं थी जिसमें पूरा एक कनस्तर तेल उबाला जा सके। यों तेल का कनस्तर मुहय्या कर लिया गया था जो एक ओर दीवार के साथ रखा था। इसके लिए सभी युवकों ने चार-चार आने जमा किए थे और बाकी कुछ पैसे बाद में अदा करने का वचन देकर कनस्तर पंसारी की दूकान से उठा लाए थे। तेल की कड़ाही मन्दिर में भी नहीं थी जहाँ आए दिन सहभोज हुआ करते थे।

तभी संगठन के नायक, बोधराज को एक विचार सूझा, कड़ाही हलवाई की दूकान पर से लाई जा सकती है।

“पर उसकी दूकान पर ताला चढ़ा है।"

"हलवाई रहता कहाँ पर है?"

"नए मुहल्ले में रहता है।"

"किसी ने उसका घर देखा है?"

बोधराज ने स्वयं देखा था लेकिन वह नायक की हैसियत से इस समय यह छोटा काम अपने ऊपर नहीं लेना चाहता था।

तभी रणवीर ने आगे बढ़कर कहा, “दूकान का ताला तोड़ दो।"

युवकों के बदन में झुरझुरी हुई, परन्तु सुझाव समय के अनुरूप था।

नायक कुछ देर तक छत की ओर ताक़ता खड़ा रहा। गुट का संचालन बड़ी जिम्मेदारी का काम है, ताला तोड़ते हुए युवक पकड़ा नहीं जाना चाहिए। किसी की नज़र उस पर नहीं पड़नी चाहिए। नायक कमसरीट के नाबू मस्तराम का बेटा था और स्थानीय कालिज में फ़र्स्ट इअर में पढ़ता था। मंडली में यही एक युवक था जो दो जेबोंवाली फौज़ी कमीज़ पहनता था।

“हाँ, ताला तोड़ दो। मगर यह काम छिपकर करना होगा। कौन ताला तोड़ने जाएगा?"

"मैं जाऊँगा।" रणवीर ने आगे बढ़कर कहा। नायक ने रणवीर को सिर से पाँव तक देखा, और सिर हिला दिया।

"तुम्हारा क़द छोटा है, ताला ऊपर को लगा होगा तो तुम्हारा हाथ भी नहीं पहुँचेगा।"

"नहीं, ताला नीचे लगा है, मैंने देखा है। मैंने कई बार देखा है।"

रणवीर बहुत बढ़-बढ़कर बात करता था, नायक को अखरता था। पर लड़का चुस्त भी था, बहुत तेज़ दौड़ता था, हर काम फुर्ती से करता था। इसमें अनुशासन की कमी थी।

नायक मन ही मन जानता था कि रणवीर जैसे भी होगा कड़ाही ले आएगा, लेकिन वह लापरवाही बरत सकता है, कहीं कोई भूल भी कर सकता है, जिससे मंडली के लिए खतरा पैदा हो सकता है।

“तुम और धर्मदेव दोनों जाओ।" नायक ने अपना निर्णय दिया, "लेकिन ध्यान रहे किसी को पता न चल पाए कि तुम ताला तोड़कर कड़ाही लाए हो। और उस वक़्त जाओ जब सड़क खाली हो और दोनों एक साथ नहीं जाओ, अलग-अलग जाओ।"

चौराहा पार करने पर ही नाले के पार बाईं ओर हलवाई की दूकान थी। दूकान के पीछे ही रणवीर को कुछ हिलता नज़र आया, उसे हलवाई की सफ़ेद पगड़ी नज़र आई। तो इसका मतलब है हलवाई आ गया है और दूकान खोलने जा रहा है। पर हलवाई वहीं पर दूकान के पीछे डोल रहा था। क्या बात है, हलवाई वहाँ पर खड़ा क्या कर रहा है? क्या यह हलवाई ही है या कोई और आदमी? कोई म्लेच्छ उसकी दूकान लूटने तो नहीं चला आया? रणवीर ने ध्यान से देखा। हलवाई ही था, अपनी दूकान का पिछला दरवाज़ा खोल रहा था।

सड़क ख़ाली थी। इस समय सड़क यों भी खाली रहती थी, कोई इक्का-दुक्का खोमचेवाला आ जाए तो आ जाए, या कभी इक्का-दुक्का ताँगा। इस सड़क पर केवल शाम के वक्त की रौनक होती थी।

दोनों युवक, बारी-बारी से सड़क पार कर गए।

"तुम उसे बातों में लगा लेना, मैं अन्दर से कड़ाही उठा लाऊँगा," रणवीर ने कहा।

"इसकी ज़रूरत ही नहीं होगी। वह हमारा हिन्दू भाई है, अपने आप दे देगा।"

“मैं उससे कड़ाही माँगूंगा, तु नहीं माँगना।"

"चल-बे-चल, बौने, तू अपने को समझता क्या है?"

पीछे की ओर से दोनों युवक दूकान की ओर बढ़े। दूकान का दरवाज़ा खुला था पर हलवाई बाहर नहीं खड़ा था। वह ज़रूर अन्दर चला गया होगा।

सड़क के किनारे रहते हुए भी दूकान के अन्दर अँधेरा था। तेल और घी और मैल से चीकट तख्तों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। दूकान के अन्दर से समोसों की बू आ रही थी। रणवीर ने अन्दर से झाँककर देखा।

"क्या है?" अन्दर से आवाज़ आई। “आज दूकान बन्द है।"

दोनों युवक अन्दर दाखिल हो गए। एक ओर को खड़ा हलवाई मैदे का टीन बोरी में उँडेल रहा था। दरवाज़े के बाहर सहसा किसी का चेहरा देखकर ठिठक गया था।

“आओ-आओ।" हलवाई ने मुस्कराकर कहा। “आज कुछ भी नहीं बनाया। मैंने सोचा थोड़ी रसद निकालकर घर लेता जाऊँ। शहर की हवा अच्छी नहीं है। बेटा तुम्हें भी घर बैठना चाहिए। बाहर नहीं घूमना चाहिए।"

"उठा लो वह कड़ाही।" रणवीर ने धर्मदेव को हुक्म दिया।

धर्मदेव पिछली दीवार के साथ लगी कड़ाहियों की ओर बढ़ा।

“जाति की रक्षा के लिए कड़ाही ले जाई जा रही है। संकट समाप्त होने पर लौटा दी जाएगी।" बात हलवाई की समझ में नहीं आई।

“क्या बात है? कौन हो तुम? किसलिए कड़ाही की ज़रूरत पड़ गई है? क्या कोई शादी-ब्याह है?"

पर दोनों में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

“बीचवाली कड़ाही उठा लो। वह सामने रखी है।" रणवीर ने फिर कहा।

"ठहरो-ठहरो, बताओ तो बात क्या है? किधर ले जा रहे हो कड़ाही?"

"बाद में पता चल जाएगा। उठाओ जी कड़ाही।"

“वाह, ऐसे भी कोई करता है। न पूछा न माँगा, अपने-आप कड़ाही उठा ली। पहले बताओ बात क्या है, कौन हो तुम?"

तभी रणवीर ने अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला, और फिर चिल्लाकर बोला, “तुम नहीं दोगे कड़ाही?" और वह उछला।

पेश्तर इसके कि हलवाई कुछ कहे उसके दाएँ गाल पर खून की धार बह रही थी। एक बार उछलने के बाद रणवीर का हाथ फिर कुर्ते की जेब में चला गया था। हलवाई दोनों हाथों से चेहरा ढाँपे पैरों के बल ‘हाय-हाय' करता बैठ गया। खून की बूंदें बराबर उसके गाल पर गिर-गिरकर फर्श पर पड़ रही थीं।

"इस बात का किसी को पता न चले वरना क़त्ल कर दिए जाओगे।"

धर्मदेव कड़ाही उठाए नाला पार कर गया था। रणवीर थोड़ा ठिठककर उससे थोड़ी दूरी पर आने लगा था। रणवीर सोच रहा था मारना मुश्किल नहीं है। इसे मैं आसानी से क़त्ल कर सकता था। हाथ उठाया और बस! हाँ, लड़ना मुश्किल होता है। वह भी जब अगला आदमी मुकाबला करने के लिए खड़ा हो जाए। पर छुरा घोंपकर मार डालना आसान काम है, इसमें कोई मुश्किल नहीं।

घर की ड्योढ़ी में पहुँचकर धर्मदेव रुक गया।

"तुमने उसे मारा क्यों?" रणवीर के पहुँचने पर धर्मदेव ने पूछा।

“उसने हुज्जतबाज़ी क्यों की?"

पर धर्मदेव का गला सूख रहा था और ज़बान हकला रही थी, “अगर किसी ने देख लिया होता तो? अगर हलवाई चिल्लाना शुरू कर देता तो?" धर्मदेव ने थूक निगल पाने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए कहा।

"हम किसी से डरते नहीं हैं। कर ले जो करना चाहता है। तुम भी कर लो जो करना चाहतो हो।"

रणीवर ने दबंग आवाज़ में कहा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

तमस (उपन्यास) : सात

दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा।

चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए। रिचर्ड दरवाजे के पास ही खड़ा रहा और कमरे में रखी कुर्सियों की ओर इशारा करता रहा और तैरती नज़र से शिष्टमंडल के सदस्यों की ओर देखता रहा। फिर मेज़ के पीछे कुर्सी पर जा बैठा और बैठते ही पेंसिल हाथ में ले ली। चार आदमी पगड़ियोंवाले थे, एक सूमी टोपीवाला था, दो गांधी टोपी पहने थे। रिचर्ड ने शिष्टमंडल की बनावट से ही समझ लिया कि इनसे निबटता कठिन नहीं होगा।

“कहिए, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?"

सदस्यों को डिप्टी कमिश्नर की शिष्टता बहुत भली लगी। इससे पहले कमिश्नर तो सीधे मुँह बात भी नहीं करता था, उससे मिलना तक मुश्किल हुआ करता था।

अब तक रिचर्ड ने लगभग सभी सदस्यों का जायज़ा ले लिया था। पुलिस की रिपोर्टो से वह सियासी आदमियों के बारे में समझ गया था कि कौन-कौन होंगे। गांधी टोपीवाला वही ढीला-ढाला आदमी बख्शी होगा जो सोलह साल तक तेल काट चुका है। और वह नुक्कड़ में बैठा रूमी टोपीवाला हयात बख्श है, मुस्लिम लीग का कारकुन। साथ में मिशन कालिज का अमरीकी प्रिंसिपल हरबर्ट भी आया था। और ये लोग साथ में प्रोफेसर रघुनाथ को भी पकड़ लाए हैं, क्योंकि यह मेरा परिचित है। बाकी लोग विभिन्न संस्थाओं से आए होंगे।

रिचर्ड बख्शीजी को मुखातिब होकर बोला, “मुझे ख़बर मिली है कि शहर के अन्दर तनाव पाया जाता है।"

"हम इसी सिलसिले में आपसे मिलने आए हैं।" बख्शीजी बोले। बख्शीजी उत्तेजित थे, सुबह के सारे कार्यकलाप से वह खीझे हुए थे। अपनी पहलकदमी पर पहले लीग के प्रधान के घर गए थे, फिर वहाँ बेरुखी देखकर, उन्होंने डिप्टी कमिश्नर के पास ही शिष्टमंडल ले जाने का निश्चय किया था, और एक-एक सदस्य को घर से पकड़-पकड़कर इकट्ठा किया था और अपने साथ लाए थे। डिप्टी कमिश्नर के पास आने में किसी को एतराज़ नहीं था।

“सरकार की तरफ़ से फौरन ऐसी कार्रवाई की जानी चाहिए जिससे स्थिति काबू में आ जाए। वरना...वरना इस शहर पर चीलें मँडराएँगे!" उन्होंने वही वाक्य दोहरा दिया जो बार-बार उनके जेहन में घूम रहा था।

अन्य सदस्य चिन्तित थे पर बख्शीजी की तरह उत्तेजित नहीं थे।

तभी प्रोफेसर और रिचर्ड की नज़रें मिलीं। प्रोफेसर ही एक ऐसा हिन्दुस्तानी था जिसके साथ रिचर्ड का थोड़ा-बहुत उठना-बैठना था, दोनों को अंग्रेजी साहित्य और भारतीय इतिहास में रुचि थी और रिचर्ड को वह सदा ही एक सुशिक्षित व्यक्ति लगा करता था। आँखों-आँखों में ही दोनों मुस्करा दिए। मानो एक-दूसरे से कह रहे हों, 'ये लोग दुनियावी कामों में भी हमें घसीट लाए हैं, वरना हमारी दुनिया तो दूसरी है।'

रिचर्ड ने सिर हिलाया और पेंसिल से मेज़ को ठकोरा।

“सरकार तो बदनाम है। मैं अंग्रेज़ अफ़सर हूँ। ब्रिटिश सरकार पर आपको विश्वास नहीं है, उसकी बात को तो आप कहाँ सुनेंगे!" रिचर्ड ने व्यंग्य से कहा और पेंसिल ठकोरता रहा।

“मगर ताक़त तो ब्रिटिश सरकार के हाथों में है और आप ब्रिटिश सरकार के नुमाइन्दा हैं। शहर की रक्षा तो आप ही की जिम्मेदारी है।"

बख्शीजी बोले और बोलते हुए उनकी ठुड्डी काँप गई और उत्तेजनावश चेहरा पीला पड़ गया।

"ताक़त तो इस वक़्त पंडित नेजरू के हाथ में हैं।" रिचर्ड ने फिर मुस्कराकर धीमे से कहा। फिर बख्शीजी की ओर देखकर बोले, “आप लोग ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ तो भी दोष ब्रिटिश सरकार का, और जो आपस में लड़े तो भी दोष ब्रिटिश सरकार का।" उसके होंठों पर मुस्कान बराबर बनी रही। वह फिर जैसे सँभल गया और बोला, "लेकिन कहिए, हमें इस मसले को मिलजुलकर सुलझाना चाहिए।" और उसने हयातबख्श की ओर देखा।

“अगर पुलिस मोहतात रहे तो कुछ नहीं होगा," हयातबख्श बोला, “यों मज़िस्द के सामने जो कुछ पाया गया है, उसके पीछे हिन्दुओं की बहुत बड़ी शरारत है।"

“आप कैसे कह सकते हैं कि इसमें हिन्दुओं की शरारत है?" दानवीर लक्ष्मीनारायण ने उछलकर कहा, और बोलते-बोलते उनकी आवाज़ ऊँची होती गई।

रिचर्ड के लिए मामला अपने-आप सुलझता जा रहा था।

"एक-दूसरे को दोष देने से कोई लाभ न होगा।" रिचर्ड ने आश्वस्त भाव से कहा, “आप लोग, ज़ाहिर है, मामले को सुलझाने के लिए मेरे पास आए हैं।"

"बेशक," हयातबख्श बोला, “हम भी नहीं चाहते कि शहर में फसाद हो, मारकाट हो।"

लक्ष्मीनारायण को बड़ा अकेलापन महसूस हुआ। उन्हें अपने धर्म-बन्धुओं पर गुस्सा आया। वे भी साथ में होते तो इस वक्त उन्हें अकेले तो मुसलमानों के खिलाफ़ न बोलना पड़ता। डिप्टी कमिश्नर को दस बातें बताते कि कैसे जामा मस्ज़िद में असला इकट्ठा किया जा रहा है, कैसे एक गाय को काट डाला गया है। यहाँ बोलना तो नक्कू बननेवाली बात थी। शायद यही बेहतर था कि हिन्दू-सिखों का वफद अलग से डिप्टी कमिश्नर से मिलता, उनके सामने स्याह और सफ़ेद खोलकर रखता।

बख्शीजी ने रिचर्ड को सम्बोधन करते हुए कहा, “अगर शहर में पुलिस गश्त करने लगे, जगह-जगह फौज़ की चौकियाँ बिठा दी जाएँ तो दंगा-फसाद नहीं होगा, स्थिति काबू में आ जाएगी।" ।

रिचर्ड ने सिर हिलाया, फिर मुस्कराकर बोला, “मै डिप्टी कमिश्नर हूँ, फौज़ का इन्तज़ाम तो मेरे हाथ में नहीं है। यहाँ पर छावनी तो है, पर इसका यह मतलब नहीं कि फौज़ मेरे हुक्म से काम करती है।"

“छावनी भी ब्रिटिश सरकार की है और हुकूमत भी ब्रिटिश सरकार की है," बख्शीजी ने कहा, “अगर आप फौज़ बिठा देंगे तो मामला काबू में आ जाएगा।"

रिचर्ड से सिर हिला दिया, “फौज़ को मैं हुक्म नहीं दे सकता, यह तो आप भी जानते होंगे। डिप्टी कमिश्नर को ऐसा कोई अधिकार नहीं है।"

“आप फौज़ नहीं बैठा सकते तो शहर में कर्फ्यू लगा दें। इसी से स्थिति सँभल जाएगी। पुलिस की ही चौकियाँ बैठा दें?"

“इस छोटी-सी बात को लेकर कर्फ्यू लगा देने से क्या शहर में घबराहट और ज़्यादा नहीं फैलेगी? आप क्या सोचते हैं?"

रिचर्ड ने इस लहजे में ये शब्द कहे मानो उनसे मशविरा माँग रहा हो। पर साथ ही उसने रैक में से एक कागज़ उठाया और उस पर पेंसिल से कुछ लिख लिया। और फिर घड़ी की ओर देखा।

“सरकार अपनी ओर से जो कार्रवाई कर सकती है, ज़रूर करेगी," रिचर्ड ने आश्वासन के स्वर में कहा, "लेकिन आप लोग शहर के नेता हैं, लोग आपकी बात ध्यान से सुनेंगे। आपको चाहिए कि आप मिलकर लोगों से अपील करें कि अमन कायम रखें।"

दो-तीन सिर फौरन हिलने लगे। साहब ठीक कहते हैं।

रिचर्ड कहे जा रहा था, “मुस्लिम लीग और कांग्रेस, दोनों के लीडर यहाँ मौजूद हैं। आप सरदारजी को साथ ले लीजिए और सब मिलकर अमन कमेटी बनाइए और काम शुरू कर दीजिए। सरकार आपकी हर तरह से मदद करेगी..."

“वह तो हम करेंगे ही,” बख्शीजी फिर उत्तेजित स्वर में बोले, “मगर इस वक्त हालत नाजुक है। अगर मार-काट शुरू हो गई तो उसे सँभालना कठिन होगा। अगर एक हवाई जहाज़ ही शहर के ऊपर उड़ जाए तो लोगों को कान हो जाएँगे कि सरकार बाख़बर है। फ़साद को रोकने के लिए इतना भी काफ़ी होगा।"

रिचर्ड ने फिर से सिर हिला दिया, मुस्कराया और काग़ज़ पर पेंसिल से कुछ लिख लिया।

"हवाई जहाज़ों का महकमा भी मेरे अधीन नहीं है,” रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा।

"आपके अधीन सब-कुछ है, साहब, अगर आप कुछ करना चाहें तो।"

इतना चुप भी रहना ठीक नहीं है, रिचर्ड ने सोचा यह आदमी बढ़ता ही जा रहा है।

"वास्तव में आपका मेरे पास शिकायत लेकर आना ही गलत था। आपको तो पंडित नेहरू या डिफेंस मिनिस्टर सरदार बलदेवसिंह के पास जाना चाहिए था। सरकार की बागडोर तो उनके हाथ में है।" कहते ही रिचर्ड हँस दिया।

डिप्टी कमिश्नर का रुख देखकर बाकी लोग चुप हो गए। पर बख्शीजी फिर उत्तेजित होकर बोले, "हमें खबर मिली है कि अभी घंटा-भर पहले, आपके अंग्रेज़ पुलिस अफसर रॉबर्ट साहिब ने जबर्दस्ती एक मुसलमान परिवार को घर में से निकाला है। इससे उस सारे इलाके में तनाव बढ़ गया है, क्योंकि वह मुसलमान एक हिन्दू मालिक-मकान का किराएदार था। मैं सोचता हूँ शहर की हालत को देखते हुए इस तरह की कार्रवाई को स्थगित किया जा सकता था।"

रिचर्ड को इस घटना के बारे में मालूम था, बल्कि पुलिस अफसर ने कार्रवाई करने से पहले रिचर्ड से मशविरा भी किया था। और रिचर्ड ने यह कह दिया था कि कोर्ट के फैसले पर अमल करना रोज़मर्रा की सामान्य कार्रवाई है, उसे स्थगित करने में कोई तुक नहीं। लेकिन उसने शिष्टमंडल के सदस्यों पर ज़ाहिर नहीं होने दिया कि वह इस घटना के बारे में कुछ भी जानता है। पेंसिल से काग़ज़ पर कुछ लिखते रहने के बाद उसने कहा, “मैं दर्याफ्त करूँगा," और फिर घड़ी की ओर देखा।

इस पर हरबर्ट, जो बड़ी उम्र का अमरीकी पादरी और स्थानीय मिशन कालिज का प्रिंसिपल था, धीमी आवाज़ में बोला, "शहर की हिफाज़त का सवाल राजनीतिक सवाल नहीं है, यह राजनीतिक पार्टियों के ऊपर सवाल है, शहर के सभी लोगों का, नागरिकों का सवाल है। इसमें अपनी-अपनी पार्टियों को भूल जाना होगा। सरकार का भी रोल इसमें बहुत बड़ा है। हम सबको मिलकर शहर की स्थिति को सँभाल लेना चाहिए। हमें इसी वक़्त शहर का दौरा करना चाहिए। और लोगों को समझाना चाहिए, उनसे अपील करनी चाहिए कि वे आपस में नहीं लड़ें।"

रिचर्ड ने फौरन इस सुझाव का समर्थन करते हुए इसे और भी ज़्यादा ठोस शक्ल में पेश किया, "मेरा सुझाव है कि एक बस ले ली जाए और उस पर लाउडस्पीकर लगा दिया जाए। आप लोग उसमें बैठ जाएँ और शहर-भर में घूमकर लोगों तक अपनी आवाज़ पहुँचाएँ।"

रिचर्ड के मुँह से ये शब्द निकलने की देर थी कि बाहर बागीचे की ओर से तरह-तरह की घबराहट-भरी आवाजें सुनाई देने लगीं।

"पुल के पार एक हिन्दू को क़त्ल कर दिया गया है।" बाहर बैठे चपरासी से कोई आदमी कह रहा था, "सभी बाज़ार बन्द हो गए हैं।"

शिष्टमंडल के सदस्यों के कान खड़े हो गए। डिप्टी कमिश्नर का बँगला शहर से बहुत दूर था। अगर सचमुच फसाद छिड़ गया है तो उनके लिए अपने-अपने घर तक पहुँच पाना असम्भव हो जाएगा। तभी दूर बँगले के पार, किसी ताँगे के सरपट दौड़ने की आवाज़ आई। सड़क पर किसी के भागते क़दमों की भी आवाज़ आई।

“लगता है शहर में गड़बड़ शुरू हो गई है।" लक्ष्मीनारायण ने घबराकर कहा और उठ खड़ा हुआ।

“जो भी मुमकिन हुआ, किया जाएगा।" रिचर्ड ने कहा।

"गड़बड़ शुरू हो गई है तो बुरी बात है।"

एक-एक करके सभी सदस्य उठ खड़े हुए, और चिक उठाकर बाहर आने लगे। डिप्टी कमिश्नर भी दरवाजे तक उनके साथ आया।

"आपको भेजने का इन्तज़ाम हम करेंगे। पुलिस के कुछ सिपाही आपके साथ जाएँगे।" रिचर्ड ने कहा और मेज़ पर रखे टेलीफोन की ओर मुड़ा।

“आप हमारी चिन्ता न करें। ज़रूरी यह है कि शहर में गड़बड़ न हो।" बख्शीजी ने बाहर आते हुए कहा, "अभी भी वक़्त है, आप कर्फ्यू लगा दें।

साहब ने मुस्कराकर सिर हिला दिया।

*****

बँगले में से निकलते ही शिष्टमंडल के सदस्यों के दिमाग में जैसे धूल उड़ने लगी। फाटक पार करते ही उन्होंने एक-दूसरे से बोलना बन्द कर दिया था। कुछ दूरी तक वे एक साथ चलते गए, फिर सहसा लक्ष्मीनारायण और सरदारजी सड़क पार करने लगे। लक्ष्मीनारायण ने सिर पर से पगड़ी उतारकर बगल में दबा ली और भागता हुआ-सा सड़क पार करने लगा।

बँगले के बाहर सड़क पर पहुँचने पर दाएँ हाथ ढलान पड़ती थी जो सीधी उस पुल तक चली गई थी जो शहर को छावनी से अलग करता था।

हरबर्ट अपनी साइकिल पर आया था। वयोवृद्ध आदमी अभी भी साइकिल चलाता था, वह धीरे-धीरे साइकिल चलाता हुआ ढलान उतर गया। एक बार उसके मन में आया कि पूछे कि अमन कमेटी की मीटिंग कब और कहाँ होगी, पर इन लोगों को घबराया देखकर चुप हो गया। अगर फ़साद फूट पड़ा है तो मीटिंग अब क्या होगी?

हयातबख्श भाग नहीं रहा था, केवल तेज़-तेज़ चल रहा था और बार-बार पीछे की ओर घूमकर देख रहा था। पीछे की ओर लगभग सभी घूम-घूमकर देख रहे थे।

'कोई बात नहीं, आराम से चलो, इलाका मुसलमानी है!' हयातबख्श ने मन ही मन कहा। सड़क के पार सरदारजी क़दम बढ़ाते हुए आगे निकल गए। उनके पीछे लगभग दस गज की दूरी पर लक्ष्मीनारायण चला आ रहा था। देह भारी होने के कारण उसके लिए तेज़ चलना कठिन हो रहा था और वह बार-बार रूमाल से अपनी गर्दन पोंछ रहा था। बख्शी और मेहता कुछ देर तक गेट के पास ठिठके खड़े रहे। फिर वे भी ढलान उतरने लगे।

“आओ टाँगा कर लें। पैदल पहुँचने में देर लगेगी।" मेहता ने कहा। बख्शी रुक गया। एक टाँगा पीछे से आ रहा था। मेहता ने घोड़े की टाप सुनी और सड़क के किनारे खड़ा हो गया और हाथ हिला-हिलाकर उसे रुक जाने को कहने लगा।

“कहाँ जाना है?" साँवले रंग के छोटी उम्र के गाड़ीवान ने घोड़े की रास खींचते हुए पूछा।

“अड्डे तक ले चलो।"

“दो रुपए होंगे।"

"किस बात के दो रुपए! मज़ाक़ है?" पुरानी आदत के मुताबिक बख्शी ने कहा। टाँगा चलने को हुआ।

“बैठो, बैठो, बख्शीजी, जो माँगता है दो। यह वक़्त सौदा करने का नहीं है, चलो बैठो।" और मेहताजी पिछली सीट पर बैठ गए। “जल्दी-से-जल्दी शहर पहुँचो।"

उन्हें टाँगे पर चढ़ते देखकर लक्ष्मीनारायण भी मुड़कर उन्हीं की तरफ़ जाने लगा। लेकिन टाँगा चल पड़ा था। लक्ष्मीनारायण सड़क के बीचोबीच खड़े उन्हें देखते रह गए।

"हिन्दू हिन्दू के साथ ऐसा ही व्यवहार करेगा। प्राचीन काल से यही कुछ होता आ रहा है, वाह रे हिन्दुओ!"

लक्ष्मीनारायण ने क्षोभ से मन-ही-मन कहा और छड़ी ठकोरता उन्हीं क़दमों पटरी की ओर वापस लौट गया।

इस बीच बाकी तीन व्यक्ति एक-दूसरे से अलग, एक-दूसरे से काफी फासले पर ढलान उतर रहे थे। लक्ष्मीनारायण से थोड़ा आगे हकीम अब्दुलगनी थे, जो कांग्रेस कमेटी के रुकन और पुराने कार्यकर्ता थे। उनके आगे सरदारजी थे और सबसे आगे हयातबखश । हयातबख्श ने कोट उतारकर कन्धों पर डाल लिया था।

टाँगे में बैठते ही बख्शीजी ने कहा, “कुछ लोगों को टाँगे में बिठा लो।"

“किसी को नहीं बिठाओ बख्शीजी, यही बाएँ हाथ की सड़क से निकल चलो। वे अपना इन्तज़ाम कर लेंगे।" मेहता बोला, फिर तर्क देने की कोशिश करने लगा, "किस-किसको बिठाओगे।"

बख्शीजी को लगा जैसे टाँगे में बैठकर वह कोई भूल कर बैठे हैं। उन्हें मेहता पर खीझ उठी, अपने पर खीझ उठी कि क्यों वह मेहता तथा अन्य लोगों की बातों में आ जाते हैं, यहाँ इकट्ठे आए थे, इकट्ठे ही जाना चाहिए था पर वह फिर भी बैठे रहे।

टाँगा जब हयातबख्श के पास से गुज़रा तो हयातबख्श हँसकर बोला, "भागते हो कराड़ो! पहले इश्तआल देते हो, बाद में भागते हो!"

बख्शीजी के साथ उसकी बेतकल्लुफी थी, इसी शहर में दोनों बड़े हुए थे, अलग-अलग राजनीति के बावजूद वे एक-दूसरे से हँसकर मिलते थे, दोनों का आपस में मज़ाक चलता था।

हयातबख्श ने घूमकर पीछे देखा, अपने पीछे सरदार बिशनसिंह को आता देखकर बोले, “बख्शीजी तो निकल गए! अमन करवाने चले थे! यह तो ख़सलत है इन लोगों की!"

पर सरदार बिशनसिंह चुप रहा। सिर नीचा किए चलता गया।

सबसे पीछे चलते हुए लक्ष्मीनारायण की ख्वाहिश हुई कि आगे बढ़कर जैसे-तैसे हयातबख्श के साथ हो लें। यह इलाक़ा मुसलमानी था और मुसलमान के साथ-साथ चलते हुए वह बेखतर इलाका पार कर जाएँगे। हयातबख्श को जानते भी सभी लोग हैं।

"ठहरो जी, ऐसी जल्दी भी क्या है।" उसने ऊँची आवाज़ में कहा।

उसकी आवाज़ सुनकर तीनों व्यक्ति अपनी-अपनी जगह पर रुक गए, पर लक्ष्मीनारायण छड़ी पटपटाते सीधे निकलते गए और अन्त में हयातबख्श तक जा पहुंचे।

"बहुत बुरी बात होगी अगर शहर में गड़बड़ हो गई," उसने कहा और हयातबख्श के साथ-साथ चलने लगा। हयातबख्श, लक्ष्मीनारायण का इरादा समझ गया था। और इसमें हयातबख्श का अपना हित भी था, क्योंकि पुल पार करने के बाद थोड़ी दूर आगे जाने पर हिन्दुओं का मुहल्ला शुरू हो जाता था और हयातबख्श का घर उससे भी आगे था। लक्ष्मीनारायण साथ में होगा तो हिन्दुओं का मुहल्ला वह पार करा देगा। यों हयातबख्श भी जानता था कि डर-ख़तरे वाली ऐसी कोई बात नहीं थी, सभी लोग शहर के जाने-माने बुजुर्ग थे, कोई उन पर आसानी से हाथ नहीं उठा सकता था।

टाँगे में बैठे बख्शीजी मन-ही-मन बड़े क्षुब्ध और विचलित हो उठे थे। जब भी किसी प्रकार के संकट की स्थिति होती तो वह बड़बड़ाते, साथियों के साथ खीझकर बोलते, उनका दिमाग काम करना बन्द कर देता था, भावनाओं के रेले के सामने सभी कुछ ढह जाता था।

"चीलें उड़ेंगी मेहताजी, शहर पर चीलें उड़ेंगी।" उन्होंने फिर से कहा और झाँक-झाँककर टाँगे के बाहर देखने लगे।

"अब तो जो होगा देखा जाएगा, पहले तो शहर पहुँचो।"

इस पर बख्शीजी तुनककर बोले, “शहर पहुँचकर क्या हो जाएगा। अब तो सिर पर आ गई।"

मेहता घबराया हुआ जरूर था, लेकिन बख्शी की तरह बौखलाया हुआ नहीं था।

"डिप्टी कमिश्नर ने बात तो सुनी, पहला डिप्टी कमिश्नर तो सीधे मुँह बात ही नहीं करता था।"

“यह क्या कर लेगा, खोती का सिर?" बख्शीजी खीझकर बोले, "इसने हमारी कौन-सी बात सुनी है?"

फिर बख्शी का दिमाग दूसरी ओर जाने लगा।

"किसी का एतबार नहीं किया जा सकता।" मेहता बोला।

"मुसलमान का नहीं तो हिन्दू का किया जा सकता है?" बख्शी ने फिर तुनककर कहा।

"देखो बख्शीजी, बात छोटी है मगर दानिशमन्द को उसी से पता चल जाता है। मुबारकअली जिला कांग्रेस-कमेटी का मेम्बर है। खादी का कुर्ता और खादी की सलवार पहनता है। पर सिर पर पेशावरी टोपी पहनता है, गांधी टोपी नहीं पहनता। मुजफ्फर को छोड़कर कोई भी कांग्रेसी मुसलमान गांधी टोपी नहीं पहनता।"

बख्शी ने जेब में से रूमाल निकालकर पसीना पोंछा और पगड़ी को बगल के नीचे से निकालकर गोद में रख लिया।

“हिन्दू सभा वालों ने मुहल्ला कमेटियाँ बनाई हैं, हमसे तो वह भी नहीं हो सकता। मुहल्ले-मुहल्ले में अमन-कमेटियाँ ही बना लेते।" मेहता ने गर्दन पोंछते हुए कहा :

"डूब मरो मेहताजी, चुल्लू भर पानी में डूब मरो,” बख्शीजी बिफरकर बोले।

"क्यों? डूब क्यों मरूँ? मैंने क्या किया है?"

"दो बेड़ियों में टाँग रखना अच्छा नहीं होता। तुम हमेशा यही करते रहे हो। एक टाँग कांग्रेस में, दूसरी हिन्दू सभा में। तुम समझते हो किसी को मालूम नहीं, सभी को मालूम है।"

"अगर फ़िसाद हो गया तो तुम मुझे बचाने आओगे? नाले के पार का सारा इलाक़ा मुसलमानी है और मेरा घर नाले के सिरे पर है। फिसाद हो गया तो उस वक़्त तुम मुझे बचाने आओगे? या बापूजी आकर बचाएँगे? उस वक़्त तो मुझे मुहल्लेवाले हिन्दुओं का ही आसरा है। छुरा मारनेवाला मुझसे यह तो नहीं पूछेगा कि तुम कांग्रेस में थे या हिन्दू सभा में थे।...अब चुप क्यों हो गए हो?"

"डूब मरो मेहताजी, डूब मरो। यही वक्त होता है जब आदमी के विश्वास परखे जाते हैं। तुमने बहुत माया इकट्ठी कर ली है। तुम्हारी अक्ल पर चरबी चढ़ती गई है। तुम्हारा घर मुसलमानों के मुहल्ले के पास है तो क्या मेरा हिन्दुओं के मुहल्ले में है?"

"तुम्हारा क्या है, तुम तो साधु-बैरागी हो, तुम्हारी न रन्न न कन्न। तुम्हें कोई मारकर क्या करेगा?" मेहता ने कहा, फिर वह भी उबल पड़ा, "कहा था लतीफ को कांग्रेस के दफ्तर में से निकालो। मैं लिखकर दे सकता हूँ कि वह खुफिया पुलिस का आदमी है और हम सबकी रिपोर्ट देता ;। डायरियाँ लिखता है। तुम्हें भी मालूम है और मुझे भी। फिर भी तुम आस्तीन का साँप पाल रहे हो। उधर मुबारकअली लीगियों के साथ साँठगाँठ कर रहा है। तुमसे भी पैसे लेता है, लीगवालों से भी लेता है। पक्की ईंटों का मकान उसने बनवा लिया, पर तुम लोग तो अच्छे हो, सब-कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखते।"

"ले-देकर दो-तीन मुसलमान तो हमारे बीच में काम करते हैं, उन्हें भी निकाल दें? तुम्हारी अक्ल ठिकाने है या नहीं? एक लतीफ बुरा है तो सभी बुरे हो गए? हकीमजी भी बुरे हैं, जो तुमसे भी पहले का कांग्रेस में काम कर रहे हैं? अजीज अहमद बुरा है?..”

टाँगा ढलान उतर चुका था और पुल की ओर घूम गया था।

दाईं ओर इस्लामिया स्कूल बन्द पड़ा था। सड़क पर आमदरफ्त बहुत कम थी। इस्लामिया स्कूल की इमारत के बाहर चार-पाँच आदमी गाँठ बाँधे खड़े थे। किसी-किसी वक़्त कोई ताँगा या साइकल-सवार सड़क पर से गुज़र जाता था।

पीछे, अभी भी वे चारों लोग ढलान पर से उतर रहे थे। बिजली दफ्तर के सामने हयातबख्श को मौलादाद सड़क के किनारे खड़ा मिल गयादाढ़ीवाला मौलादाद जो बिजली कम्पनी में क्लर्क था और मुस्लिम लीग का कारकुन था।

"क्या कर आए हो?" उसने हयातबखश से पूछा, "डिप्टी कमिश्नर से मिलने गए थे न!"

“मिल आए हैं। वहाँ उसके पास बैठे ही थे कि बाहर शोर हुआ। सभी ने सोचा गड़बड़ हो गई और मीटिंग बरखास्त हो गई। सभी वहाँ से निकल आए। शहर की क्या ख़बर है?"

"तनाव है, तनाव बढ़ रहा है। रत्ते के पास सुनते हैं कोई गड़बड़ हुई है। इधर पीछे क्या हाल है?"

“पीछे ठीक है।"

इतने में हकीम अब्दुलग़नी और सरदार बिशनसिंह भी पहुँच गए। कुछ फासला अलग-अलग तय करने के बाद दोनों एकसाथ चलने लगे थे। हकीमजी कांग्रेसी मुसलमान थे, इसलिए बिशनसिंह को इनके साथ-साथ चलने में संकोच नहीं हुआ।

"फसाद होना भी नहीं चाहिए,” लक्ष्मीनारायण बोला, “बहुत बुरी बात है।"

मौलादाद ने बड़ी तीखी नज़र से लक्ष्मीनारायण की ओर देखा, “आप लोगों का बस चले तो आप तो फसाद करवाकर ही छोड़ोगे। हमीं लोग बरर्दाश्त किए जा रहे हैं।" फिर उसकी नज़र हकीमजी पर पड़ी और उन्हें देखते ही मौलादाद का पारा तेज़ हो गया, “यह हिन्दुओं का कुत्ता भी आपके साथ गया था? यह किसकी नुमाइन्दगी करने गया था?"

तीनों चुप हो गए। हकीमजी सुना-अनसुना करते हुए मुँह ऊँचा किए पुल की दिशा में देखने लगे। पर मौलादाद हकीमजी को देखते ही तिलमिला उठा था।

“मुसलमान का दुश्मन हिन्दू नहीं है, मुसलमान का दुश्मन वह मुसलमान है जो दुम हिलाता हिन्दुओं के पीछे-पीछे जाता है, उनके टुकड़ों पर पलता है...।"

"देखिए मौलादाद साहिब," हकीमजी ने बड़े ठहराव के साथ कहा, "आपका जो मन आए मुझे कहिए। पर सबसे अहम सवाल हिन्दुस्तान की आज़ादी का है, अंग्रेज़ से ताक़त छीनने का है, हिन्दू-मुसलमान का नहीं है।"

“चुप रह कुत्ते," मौलादाद ने चीखकर कहा। उसकी आँखें लाल हो रही थीं और होंठ काँप रहे थे।

“छोड़ो-छोड़ो, जाने दो, जाने दो, यह वक़्त झगड़ा करने का नहीं है।"

क्षण-भर के लिए लक्ष्मीनारायण की टाँगों में पानी भर गया। लेकिन हयातबख्श बुजुर्ग आदमी था, उसने स्थिति सँभाल ली, “जाइए-जाइए हकीमजी, मगर आपके सरपरस्त तो ताँगे पर बैठकर निकल गए हैं। आपको अकेला छोड़ गए हैं।"

हकीमजी धीरे-धीरे सरकने लगे थे। सरदारजी भी उनके साथ-साथ जाने लगे। लक्ष्मीनारायण ज्यों का त्यों खड़ा रहा।

"घर जा रहे हो?" मौलादाद ने हयातबख्श से पूछा। “लीग के दफ़्तर में नहीं चलोगे?"

“मैं बाद में पहुँच जाऊँगा, तुम चलो।"

मौलादाद समझ गया कि हयातबख्श ने क्यों लक्ष्मीनारायण को अपने साथ ले रखा है। बड़े आदर-भाव से दिल पर हाथ रखकर लक्ष्मीनारायण से बोला, “खातिर जमा रखिए लालाजी, हमारे रहते आपका कोई बाल भी बाँका नहीं करेगा।"

हयातबख्श और लक्ष्मीनारायण आगे बढ़ गए।

*****

बारह बजे के करीब लीज़ा टहलती हुई बरामदे में खुलनेवाले दरवाज़े की ओर आ गई। पर्दे को थोड़ा हटाकर लीज़ा ने बाहर झाँककर देखा। बरामदे के बाहर चिलचिलाती धूप सारे बाग को ढके थी, लगता था जैसे काँच चमक रहा है। लगता, जैसे ज़मीन में से कोई चीज़ काँप-काँपकर निकल रही है, हवा में थरथरा रही है। अभी से धूप इतनी तेज़ हो गई थी। उसने पर्दा गिरा दिया।

अँगीठी के पास से गुज़रते हुए उसकी नज़र एक बुत पर पड़ी जो अँगीठी पर बीचोबीच रखा था। बढ़ी हुई तोंदवाला कोई हिन्दू देवता जिसके माथे पर लाल और सफ़ेद रेखाएँ खिंची थीं, बैठा हँस रहा था। उसे देखकर लीज़ा को मतली-सी आने लगी। उसे यह बुत बड़ा घिनौना लगा। रिचर्ड इसे कहाँ से उठा लाया है?

वह बड़े कमरे में आ गई। जगह-जगह रखी प्रतिमाओं और बुतों को देखकर उसे जड़ता का-सा भास हुआ, जैसे वहाँ पर प्रतिमाएँ नहीं, मृत बुद्धों के सिर रखे हों जिन्हें अकेले में देखकर कभी-कभी उसे झुरझुरी होने लगती थी। किताबों और मूर्तियों से भरे इस घर में उसे घुटन महसूस होने लगी थी। कमरे में घूमती तो उसे लगता जैसे बुद्ध के बुत कनखियों से उसकी ओर देख रहे हैं। रिचर्ड के चले जाने पर इन सभी चीज़ों में जड़ता आ जाती थी। शायद इसका कारण यही था कि वह अकेली रह जाती थी। दिन-भर उसे इन्हीं बुतों और किताबों के ढेरों के साथ बिताना पड़ता था। दिन-भर अकेले इन्हीं को देख-देखकर वह एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर काटती रही थी। वह बुद्ध की प्रतिमा के सामने जा खड़ी हुई। मनबहलाव के लिए उसने बिजली का बटन दबाया। सचमुच बुद्ध के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान खिल उठी थी। उसने बिजली बुझा दी, मुस्कान ओझल हो गई। उसने फिर से बटन दबाया, मुस्कान फिर से लौट आई। पर उसे लगा जैसे बुत कनखियों से उसकी ओर घूरे जा रहा है। उसने झट-से बिजली बुझा दी।

लीज़ा अपने कमरे में चली गई। अन्दर पहुँचते ही उसे हलकी-सी टुनटुन की आवाज़ सुनाई दी। ऐन पलँग के पीछे खिड़की के सामने काँसे की बनी छोटी-सी घंटी लटक रही थी। हर बार हवा का झोंका आने पर घंटी टुनटुनाने लगती, बहुत ही धीमी और मीठी-सी टुनटुनाहट की आवाज़ उसमें से सुनाई पड़ती थी, जैसे वह आवाज़ कहीं दूर से आ रही हो। सारा वक़्त कमरे में मधुर टुनटुनाती आवाज़ बनी रहती थी। घर में यह चीज़ नई थी, लीज़ा के लौटने से पहले ही रिचर्ड ने उसे कहीं से लाकर उसके कमरे में टाँग दिया था। लीज़ा को उपहार देने के लिए, उसे खुश करने के लिए रिचर्ड उसे लाया था।

तभी खटाक् का शब्द हुआ। लीज़ा ने घूमकर बाईं ओर देखा। उसे पहले तो कुछ नज़र नहीं आया, फिर उसकी नज़र ड्रेसिंग टेबल पर गई। एक छिपकली वहाँ औंधी पड़ी थी ओर ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी, जैसे तड़प रही हो। लीज़ा सिर से पाँव तक सिहर उठी। छिपकली दीवार पर से बिजली की बत्ती के पास से गिरी थी। शीघ्र ही छिपकली ने हिलना-डुलना छोड़ दिया। लीज़ा समझ गई कि वह मर गई है। गरमी बढ़ रही थी और आए दिन छिपकलियाँ मर रही थीं। अनगिनत कमरों के बावजूद बँगला पुराना था; अंग्रेज़ों की अमलदारी ने पंजाब में जब अपने पैर जमाए थे, तभी का था।

दो बरस पहले ऐसे ही एक बँगले से नौकरों के क्वार्टरों में से डेढ़ गज लम्बा साँप निकला था। वह कभी खाटों के नीचे घुस जाता, कभी लहराता हुआ बरामदे की दीवार के साथ-साथ रेंगने लगता। पर इस घटना के बाद उसके लिए बँगले में रह पाना असम्भव हो गया था। डर के मारे उसने कई दिन तक कपड़ों की अलमारी नहीं खोली थी कि अलमारी में कोई फनियर साँप नहीं बैठा हो, और इसी मनःस्थिति में वह विलायत लौट गई थी।

लीज़ा ने दरवाजे के पास कॉल-बेल का बटन दबाया और स्वयं कमरे से निकलकर बाहर आ गई।

जब लीज़ा भारत आई थी तो बहुत-सी योजनाएँ बनाकर कि वह भारत की दस्तकारी के नमूने इकट्ठे करेगी, खूब घूमेगी, तस्वीरें उतारेगी, शेर की पीठ पर बैठकर तस्वीर खिंचवाएगी, साड़ी पहनकर घूमा करेगी, और जाने क्या-क्या। यहाँ उसे मिली थी चिलचिलाती धूप, बड़े बँगले का कारावास, कभी न ख़त्म होनेवाला दिन और गौतम बुद्ध के बुत और छिपकलियाँ और साँप...। बँगले के बाहर के जीवन में भी वैसी ही एकरसता थी-क्लब, अंग्रेज़ अफसरों की पलियाँ, कमिश्नर की पत्नी कमिश्नर स्वयं इतनी अधिक कमिश्नरी नहीं करता था जितनी उसकी पत्नी करती थी-ब्रिगेडियर की पत्नी का सभी स्त्रियों के साथ छोटाई और बड़ाई के आधार पर मेल-मिलाप और बड़े अफसरों की पत्नियाँ अधिक थीं क्योंकि तब रिचर्ड छोटा अफसर था। शनीचर की रात क्लब में डांस होता, आए दिन पार्टियाँ होती, पर लम्बे दिन फिर भी काटे नहीं कटते थे। और तभी उसे बीयर पीने की लत पड़ गई थी, कमरों में आती-जाती वह ऊब उठती और बीयर का गिलास भर लेती। ऊब से बचने का और कोई उपाय नहीं था।

"तुम्हारी रगों में ज़रूर जर्मन खून दौड़ता होगा जो तुम्हें बीयर इतनी ज़्यादा पसन्द है।"

रिचर्ड मज़ाक में कहता, लेकिन लीज़ा की यह आदत बढ़ती गई थी। कभी-कभी लंच के समय रिचर्ड घर लौटता तो लीज़ा की आँखें चढ़ी होती और वह अस्त-व्यस्त सोफे पर पड़ी होती। चुम्बनों और आलिंगनों और हिचकियों के बीच वह बार-बार कस्में खाती कि अब ज़्यादा बीयर नहीं पियेगी लेकिन अगले दिन फिर वक़्त काटे नहीं कटता था।

अबकी बार वह अधिक स्वस्थ होकर आई थी। उसने सोचा था कि अबकी बार वह न केवल रिचर्ड की दिलचस्पियों में शामिल होगी बल्कि उसके प्रशासन के काम में भी रुचि लेगी, और सार्वजनिक कामों में भी भाग लेगी।

जानवरों की रक्षा के लिए बनाई जानेवाली संस्था क्या काम करेगी, उसने मन ही मन सोचा। मुझे उसमें क्या काम करना होगा?...लीज़ा के मन में ज़ोरों की ललक उठी कि खानसामा जब आए तो उसे बीयर लाने के लिए कहे। खानसामा नया था और उसकी इस कमज़ोरी के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। क्या वह स्वयं गली-गली, सड़क-सड़क घूमेगी, घोड़ों और आवारा कुत्तों को एक-एक करके मरवाती फिरेगी? यह कैसा काम होगा? या वह ज़िले की प्रथम महिला होने के नाते प्रधान बनी रहेगी और काम निचले लोग करेंगे? लीज़ा की मनःस्थिति विचित्र हो रही थी। एक ओर ऊब का भय और दूसरी ओर जिले की प्रथम महिला, जिलाधीश की पत्नी होने का गर्व, दर्जनों नौकर-चाकर, इतना बड़ा बँगला, जो एक ओर भाँय-भाँय करता था तो दूसरी ओर उसे प्रभुता का भास देता था।

"मेम साऽऽब!"

खानसामा सामने खड़ा था।

"हमारे कमरा में ड्रेसिंग टेबल पर छिपकली मरा है। उसे उठाओ। जाओ।" उसने दबदबे से कहा।

खानसामना ने सलाम किया, 'हुजूर!' कहा और वहाँ से चला गया।

लीज़ा चलती हुई फिर बरामदे की खिड़की के पास आ गई। पर्दा उठाने पर फिर उसे तपते काँच-जैसी चौंधियाती धूप से साक्षात् हुआ। पर साथ ही बरामदे में एक ओर लगी छोटी-सी मेज़ पर रिचर्ड के दफ्तर का बाबू बैठा नज़र आया जो चिट्ठियाँ छाँट रहा था काले रंग का छोटी उम्र का बाबू जिसके सफ़ेद दाँत बहुत चमकते थे और जो हर वाक्य के साथ रिचर्ड से 'यस सर! यस सर!' दो बार ज़रूर कहता और दाएं-बाएँ सिर हिलाता था। उसे देखकर लीज़ा मुस्करा दी। बाबू अंग्रेज़ी जानता था। और उसे अंग्रेज़ी में बातें करते सुनकर लीज़ा का बड़ा मनोरंजन हुआ था। लीज़ा खानेवाले कमरे के रास्ते बरामदे में आ गई।

“बाबू!" रिचर्ड की देखादेखी लीज़ा ने भी उसे बाबू ही कहकर पुकारा और दरवाजे के पास रखी कुर्सी पर बैठ गई।

बाबू अपनी फाइल सँभालता हुआ भागकर लीज़ा के सामने आ खड़ा हुआ, “यस सर! यस मैडम!" बाबू का चेहरा साँवला था और दाँत बेहद सफेद थे, और बाबू के शरीर का प्रत्येक अंग जैसे उसके धड़ के साथ पेचों से जोड़ा गया था क्योंकि उसका कोई न कोई अंग हर वक़्त झटका खाकर टेढ़ा हो जाता था। कभी दायाँ कन्धा झुक जाता, कभी बायाँ घुटना झुक जाता, पर मुँह हर वक़्त खुला रहता और सफेद दाँत सारा वक्त झिलमिलाते रहते।

"यू हिंडू, बाबू?"

“यस, मैडम," बाबू ने तनिक झेंपकर कहा।

लीज़ा अपनी सूझ पर खिल उठी।

“आई गेस्ड राइट!"

“यस, मैडम!"

लीज़ा उसकी ओर देखती रही। देखते ही देखते वह द्विविधा में पड़ गई। उसने किस आधार पर कहा था कि वह हिन्दू है। पोशाक में उसने पतलून-कोट-टाई पहन रखे थे। वह सोच में पड़ गई। कौन-से चिह्न होते हैं जिनसे एक हिन्दू को पहचाना जाता है! फिर वह उठ खड़ी हुई और अपना हाथ बढ़ाकर उसके सिर के बालों में कुछ ढूँढ़ती रही। बाबू झेंप गया। तीसेक साल का बाबू पिछले दस साल से दफ्तर में स्टेनो का काम कर रहा था। लीज़ा ही पहली डिप्टी कमिश्नर की पत्नी थी जो बेतकल्लुफी से उसके साथ बातें करने लगी थी। अन्य डिप्टी कमिश्नरों की पत्नियाँ बड़ी रुखाई और उपेक्षा से उससे पेश आया करती थीं।

बरामदे के सिरे पर किचन की ओर जानेवाले छोटे-से आँगन में खानसामा, बाग का माली और किचन का रसोइया खड़े थे और उन्हीं की ओर देखे जा रहे थे।

“नो, इट इजंट देयर!" लीज़ा बोली। बाबू को सिर से पैर तक झुरझुरी हुई। झेंप में उसके मुस्कुराते होंठ काँप रहे थे।

“यू आर नो हिंडू, यू टोल्ड ए लाई!"

“नो मैडम, आई एम ए हिन्दू, एक ब्राह्मण हिन्दू!"

“ओ नो, दैन वेयर इज युअर टफ्ट?"

बाबू डर रहा था। शहर में दंगे की आशंका थी और वह कठिनाई से बचता हुआ दफ्तर पहुंचा था। पर लीज़ा की बात सुनकर वह आश्वस्त-सा महसूस करने लगा। काले चेहरे में उसके सफ़ेद दाँतों की लड़ी चमक उठी।

“आई हैव नो टफ्ट मैडम!"

“दैन यू आर नो हिंडू!"

लीज़ा ने अपनी तर्जनी उसकी ओर हिलाते हुए हँसकर कहा, “यू टोल्ड ए लाई!"

“नो मैडम, आई एम ए हिन्दू।"

"टेक ऑफ युअर कोट, बाबू!" लीज़ा ने कहा।

"ओह, मैडम!" बाबू फिर झेंप गया।

"टेक ऑफ, टेक ऑफ हरी!"

बाबू ने मुस्कराते हुए कोट उतार दिया।

"वैरी गुड, नाउ अन्बटन युअर शर्ट?"

"वॉट मैडम?"

“डोंट से वॉट मैडम, से आई बैग युअर पार्डन मेडेम। ऑल राइट, अन्बटन युअर शर्ट!"

बाबू निःसहाय-सा लीज़ा के सामने खड़ा रहा, फिर नेकटाई के नीचे हाथ डालकर एक-एक करके तीन बटन खोल दिए।

"शो मी युअर थ्रेड।"

"वॉट, मैडम?”

"युअर थ्रेड,"

"वॉट मेडेम!"

"शो मी युअर हिन्दू थ्रेड!"

बाबू समझ गया। मेम साहिब यज्ञोपवीत के बारे में पूछ रही थीं। बाबू के यज्ञोपवीत नहीं था। दसवीं जमात पास करके कालिज में आने पर उसने चुटिया कटवा ली थी और बारहवीं जमात में प्रवेश करने पर उसने यज्ञोपवीत उतारकर फेंक दिया था।

"आई हैव नो ब्रैड मैडम।" उसने खिसियाई-सी मुस्कान के साथ कहा।

"नो थ्रेड, दैन यू आर नो हिंडू।"

“आई एम ए हिन्दू मैडम, आई स्वेयर बाई गॉड, आई एम ए हिन्दू।" वह फिर से डरने लगा था।

“नो, यू आर नो हिंडू, यू टोल्ड ए लाई! आई शैल टैल युअर बॉस अबौट इट।"

बाबू का चेहरा पीला पड़ गया। कमीज़ के बटन बन्द कर कोट पहनते हुए उसने घबराकर कहा, “आई टैल यू सिंसियर्ली मैडम आई एम ए हिन्दू, माई नेम इज रोशनलाल।"

"रोशनलाल! बट दि कुक्स नेम इज रोशनडीन, एंड ही इज ए मुसलमान।"

“यस मैडम," बाबू बोला, उसके लिए समझाना कठिन हो गया। "ही इज रोशनदीन मैडम, आई एम रोशनलाल। आई एम ए हिन्दू, ही इज मुस्लिम।"

"नो, रिचर्ड टोल्ड मी यू पीपल हैव डिफरेंट नेम्स।"

फिर बाबू की ओर तर्जनी उठाकर झूठे आक्रोश के स्वर में बोली, "नो बाबू, यू टोल्ड ए लाई! आई शैल टैल युअर बॉस।"

बाबू का गला सूख रहा था और दिल धड़कने लगा। शहर में गड़बड़ के कारण ही तो यह पूछताछ नहीं हो रही है! मेम साहिब चाहती क्या हैं?

सहसा लीज़ा ऊब उठी।

“गो बाबू! आई शैल टैल एवरीथिंग टु युअर बॉस!"

बाबू ने बरामदे के फर्श पर से अपनी फाइल उठाई और पीछे को मुड़ गया। अभी वह बरामदा लाँघकर जा ही रहा था जब लीज़ा ने फिर से आवाज़ लगाई, “बाबू!"

बाबू मुड़ा।

"कम हियर!"

नज़दीक आने पर लीज़ा ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा, “वेयर इज युवर बॉस?"

“इन दी ऑफ़िस मैडम। ही इज वैरी बिजी, मैडम।"

"ऑल राइट, गो! यू ऐंड युअर बॉस! गो! गैट आउट ऑफ हियर!" उसने चिल्लाकर कहा।

“यस मैडम," और बाबू फिर काँपता हुआ मुड़ गया।

बाबू के चले जाने के बाद लीज़ा को जैसे मतली आने लगी। उसका हँसोड़ मूड फिर विरक्ति और वितृष्णा में बदलने लगा। बाबू को कन्धे झुकाए हुए जाता देखकर उसे लगने लगा जैसे कोई लसलसा-सा जीव जा रहा है। न जाने रिचर्ड कैसे इन लोगों के साथ दिन-भर काम कर सकता है। एक गहरी हूक-सी उसके मन में उठी, और वह उन्हीं कदमों बँगले के अन्दर जाने के लिए मुड़ गई।

  • तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड (अध्याय 8-10 ) : भीष्म साहनी
  • तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड (अध्याय 1-4 ) : भीष्म साहनी
  • मुख्य पृष्ठ : हिंदी कहानियां और उपन्यास ; भीष्म साहनी
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां