तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

Tamas (Hindi Novel) : Bhisham Sahni

(आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी है, जिसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उद्घाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं। और इस सारी प्रक्रिया में जो तबाही हुई है उसका शिकार बनते रहे हैं वे निर्दोष और गरीब लोग जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इन्सान हैं, और हैं भारतीय नागरिक। भीष्म साहनी ने आजादी से पहले हुए साम्प्रदायिक दंगों को आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर सामने रखा है जो अपनी विकृतियों का परिणाम जनसाधारण को भोगने के लिए विवश करती हैं।)

तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड

तमस (उपन्यास) : एक

आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद बत्ती अपने-आप सीधी हो जाती और उसमें से उठनेवाली धुएँ की लकीर आले को चाटती हुई फिर से ऊपर की ओर सीधे रुख़ जाने लगती। नत्थू का साँस धौंकनी की तरह चल रहा था और उसे  लगा जैसे उसके साँस के ही कारण दीये की बत्ती झपकने लगी है।
नत्थू दीवार से लगकर बैठ गया। उसकी नज़र फिर सुअर की ओर उठ गयी। सुअर फिर से किकियाया था और अब कोठरी के बीचोबीच कचरे के किसी लसलसे छिलके को मुँह मार रहा था। अपनी छोटी छोटी आँखें फ़र्श पर गाड़े गुलाबी-सी थूथनी छिलके पर जमाये हुए था। पिछले दो घण्टे से नत्थू इस बदरंग, कँटीले सुअर के साथ जूझ रहा था।

 तीन बार सुअर की गुलाबी थूथनी उसकी टाँगों को चाट चुकी थी और उनमें से तीखा दर्द उठ रहा था। आँखें फ़र्श पर गाड़े सुअर किसी वक्त दीवार के साथ चलने लगता, मानो किसी चीज़ को ढूँढ़ रहा हो, फिर सहसा किकियाकर भागने लगता। उसकी छोटी-सी पूँछ जहरीले डंक की तरह, उसकी पीठ पर हिलती रहती, कभी उसका छल्ला-सा बन जाता, लगता उसमें गाँठ पड़ जायेगी, मगर फिर वह अपने-आप ही खुलकर सीधी हो जाती थी। बायीं आँख में से मवाद बहकर सुअर के थूथने तक चला आया था। जब चलता तो अपनी बोझिल तोंद के कारण दायें-बायें झूलने सा लगता था। बार बार भागने से कचरा सारी कोठरी में बिखर गया था। कोठरी में उमस थी। कचरे की जहरीली बास, सुअर की चलती साँस और कड़वे तेल के धुएँ से कोठरी अटी पड़ी थी। फ़र्श पर जगह-जगह ख़ून के चित्ते पड़ गये थे लेकिन ज़रक़ के नाम पर सुअर के शरीर में एक भी ज़ख्म नहीं हो पाया था। पिछले दो घण्टे से नत्थू जैसे पानी में या बालू के ढेर में छुरा घोंपता रहा था। कितनी ही बार वह सुअर के पेट में और कन्धों पर छुरा घोंप चुका था। छुरा निकालता तो कुछ बूँदें ख़ून की फ़र्श पर गिरतीं, पर ज़ख्म की जगह एक छोटी सी लीक या छोटा सा धब्बा भर रह जाता जो सुअर की चमड़ी में नज़र तक नहीं आता था। और सुअर गुर्राता हुआ या तो नत्थू की टाँगों को अपनी थूथनी का निशाना बनाता या फिर से कमरे की दीवार के साथ साथ चलने अथवा भागने लगता। छुरे की नोक चर्बी की तहों को काटकर लौट आती थी, अन्तड़ियों तक पहुँच ही नहीं पाती थी।
मारने को मिला भी तो कैसा मनहूस सुअर। भद्दा इतनी बड़ी तोंद पीठ पर के बाल काले, थूथनी के आस पास के बाल सफेद कँटीले जैसे साही के होते हैं।

उसने कहीं सुना था कि सुअर को मारने के लिए उस पर खौलता पानी डालते हैं। लेकिन नत्थू के पास खौलता पानी कहाँ था। एक बार चमड़ा साफ़ करते समय सुअर की चर्बी की बात चली थी। और उसके साथी भीखू चमार ने कहा था, ‘‘सुअर की पिछली टाँग पकड़कर सुअर को उलटा कर दो। गिरा हुआ सुअर जल्दी से उठ नहीं सकता। फिर उसके गले की नस काट दो। सुअर मर जायेगा।’’ नत्थू ये सब तरकीबें कर चुका था। एक भी तरकीब काम नहीं आयी थी। इसके एवज़ उसकी अपनी टाँगों और टख़नों पर ज़ख्म हो चुके थे। चमड़ा साफ़ करना और बात है, सुअर मारना बिल्कुल दूसरी बात। जाने किस ख़ोटे वक्त उसने यह काम सिर पर ले लिया था। और अगर पेशगी पैसे नहीं लिये होते तो नत्थू ने कब का सुअर को कोठरी में से धकेलकर बाहर खदेड़ दिया होता।

‘‘हमारे सलोतरी साहिब को एक मरा हुआ सुअर चाहिए, डाक्टरी काम के लिए।’’ मुराद अली ने नत्थू से कहा था जब वह खाल साफ़ कर चुकने के बाद नल पर हाथ-मुँह धो रहा था।
‘‘सुअर ? क्या करना होगा मालिक ?’’ नत्थू ने हैरान होकर पूछा था।
‘‘इधर पिगरी के सुअर बहुत घूमते हैं, एक सुअर को इधर कोठरी के अन्दर कर लो और उसे काट डालो।’’
नत्थू ने आँख उठाकर मुराद अली के चेहरे की ओर देखा था।
‘‘हमने कभी सुअर मारा नहीं मालिक, और सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन है। हमारे बस का नहीं होगा हुजूर। खाल-वाल उतारने का काम होता कर दें। मारने का काम तो पिगरीवाले ही करते हैं।’’

‘पिगरीवालों से करवाना होता तो तुमसे क्यों कहते। यह काम तुम्हीं करोगे।’’ और मुराद अली ने पाँच रुपये का चरमराता नोट जेब में से निकाल कर नत्थू के जुड़े हाथों के पीछे उसकी जेब में ठूँस दिया था।
 
‘‘यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ा काम नहीं है। सलोतरी साहिब ने फ़रमाइश की तोहम इन्कार कैसे कर देते।’’ फिर मुराद अली ने लापरवाही के अन्दाज़ में कहा : ‘‘उधर मसान के पार पिगरी के सुअर घूमते हैं। एक को पकड़ लो। सलोतरी साहिब खुद बाद में पिगरीवालों से बात कर लेंगे।’’

और नत्थू कुछ कहे या न कहे कि मुराद अली चलने को हुआ था। फिर अपनी पतली-सी छड़ी अपनी टाँगों पर धीरे-धीरे ठकोरते हुए कहने लगा : ‘‘आज ही रात यह काम कर दो। सवेरे-सवेरे जमादार गाड़ी लेकर आ जायेगा, उसमें डलवा देना। भूलना नहीं। वह अपने-आप सलोतरी साहिब के घर पहुँचा देगा। मैं उसे कह दूँगा। समझ लिया ?’’
नत्थू के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात निकल नहीं पाती थी।
‘‘इधर इलाका मुसलमानी है। किसी मुसलमान ने देख लिया तो लोग बिगड़ेंगे। तुम भी ध्यान रखना। हमें भी यह काम बहुत बुरा लगता है, मगर क्या करें साहिब का हुक्म है, कैसे मोड़ दें।’’ और मुराद अली छड़ी को फिर से टाँगों पर ठकोरता हुआ वहाँ से चला गया था।

मुराद अली से रोज़ काम पड़ता था, नत्थू कैसे इन्कार कर देता। जब कभी शहर में कोई घोड़ा मरता, गाय या भैंस मरती तो मुराद अली खाल दिलवा दिया करता था, अठन्नी रुपया मुराद अली को भी देना पड़ता मगर खाल मिल जाती। बड़े रख-रखाववाला आदमी था, मुराद अली, कमेटी का कारिन्दा होने के कारण बड़े-छोटे सभी लोगों को उससे काम पड़ता था।
शहर की कोई सड़क न थी जिसके बीचोबीच लोगों ने मुराद अली को चलते न देखा हो। पतली बैंत की छड़ी झुलाता हुआ, ठिगना, काला मुराद अली, जगह जगह घूमता था। शहर की किसी गली में, किसी सड़क पर वह किसी वक्त भी नमूदार हो जाता था। साँप की सी छोटी छोटी पैनी आंखें और कँटीली मूँछें और घुटनों तक लम्बा खाकी कोट और सलवार और सिर पर पगड़ी-उसे सब फबते थे इन सबको मिलाकर ही मुराद अली की अपनी ख़ास तस्वीर बनती थी। अगर हाथ में पतली छड़ी न होती तो भी और जो सिर पर पगड़ी न होती तो भी और जो उसका क़द ठिगना नहीं होता तो भी उसकी तस्वीर अधूरी रह जाती।

मुराद अली खुद तो हुक्म चलाकर निकल गया, नत्थू की जान साँसत में आ गयी। सुअर कहाँ से पक़ड़े और उसे काटे कैसे। नत्थू के मन में आया था कि शहर के बाहर सीधा पिगरी में चला जाये, और उन्हीं से कह दे कि एक सुअर काटकर सलोतरी साहिब के घर भिजवा दें। मगर उसके क़दम पिगरी की ओर नहीं उठे।

सुअर की कोठरी के अन्दर लाना कौन-सा आसान काम रहा था। उसने आवारा घूमते सुअरों को कचरे में मुँह मारते देखा था। उसे और कुछ नहीं सूझा। एक कचरे के ढेर पर से कचरा उठा-उठाकर लाता रहा और इस टूटी-फूटी कोठरी के बाहर आँगन में, दरवाजे के पास कचरे का ढेर लगाता रहा था। शाम के शाये उतरने लगे थे जब गन्दे पानी के पोखरों, गोबर के ढेरों और गर्द से अटी झाड़ियों के पास से घूमते हुए तीन सुअर उधर से आ निकले थे। तभी उनमें से एक सुअर कचरा सूँघता हुआ आँगन के अन्दर आ गया था और नत्थू ने झट से किवाड़ बन्द कर दिया था। फिर झट से भागकर उसने आँगन के पार कोठरी का दरवाज़ा खोल दिया था और अपनी लाठी से सुअर को हाँकता हुआ कोठरी के अन्दर ले गया था। फिर इस डर से कि सुअर-बाड़े का आदमी सुअर को खोजता हुआ उधर नहीं आ निकले और सुअर को किकियाता न सुन ले, नत्थू फिर से कचरा उठा-उठाकर कोठरी के अन्दर डालता रहा था। कोठरी के अन्दर कचरा पहुँच जाने पर सुअर उसी में खो गया था और नत्थू आश्वस्त होकर देर तक कोठरी के बाहर बैठा बीड़ियाँ फूँकता और अँधेरा पड़ जाने का इन्तजार करता रहा था। बहुत देर के बाद जब रात गहराने लगी थी तो नत्थू कोठरी के अन्दर घुसा था। दीये की मद्धम, नाचती-सी रोशनी में उसने देखा कि कचरा सारी कोठरी में बिखर गया है और उसमें से कीच की सी सड़ाँध उठ रही है। तभी इस बोझिल बदसूरत सुअर को देखकर उसका दिल बैठ गया था और मन ही मन खीझने पछताने लगा था कि उसने यह गन्दा जोखिम भरा काम क्यों सिर पर ले लिया है। तब भी उसका मन आया था कि लपककर कोठरी का दरवाज़ा खोल दे और सुअर को बाहर धकेल दे।

और अब रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी और सुअर ज्यों का त्यों कचरे के बीचोबीच अलमस्त सा घूम रहा था। फ़र्श पर ख़ून के धब्बे पड़ गये थे, और सुअर की तोंद पर दो एक जगह खरोचों के से निशान नज़र आ रहे थे और उसकी अपनी टाँगों पर सुअर की थूकनी के जख़्म थे और बस। सुअर पहले की ही भाँति जीता जागता कोठरी में मौजूद था जबकि नत्थू की साँसफूल रही थी, और बदन पसीने से तर हो रहा था, और कहीं इस झंझट में से निकल पाने का रास्ता नजर नहीं आ रहा था।

दूर शेखों के बाग की घड़ी ने दो बजाये। नत्थू घबराकर उठ खड़ा हुआ। उसकी नज़र फिर सुअर पर गयी। सुअर ने कचरे के टुकड़ों के बीच खड़े खड़े फिर से पेशाब कर दी थी, और झींकता हुआ कमरे के बीच में से हटकर दायें हाथ की दीवार के साथ साथ चलने लगा था। दीये की लौ फिर से झपकने लगी थी, और किसी दुःस्वप्न की तरह साये बार बार दीवारों पर डोलने लगे थे। स्थिति में तनिक भी अन्तर नहीं आया था। सुअर पहले की तरह सिर नीचा किये, थूथने से कभी कचरे के टुकड़े को सूँघने के लिए रुक जाता, कभी दीवार के साथ साथ चलने लगता और कभी किकियाकर दीवार के साथ साथ भागने लगता। पहले की ही तरह उसकी पतली-सी दुम किसी पतले, लम्हे कीड़े की तरह छल्ले बनाती खुलती जा रही थी।

‘‘ऐसे नहीं चलेगा।’’ नत्थू ने दाँत पीसकर कहा, ‘‘यह मेरे बस का रोग नहीं है। यह सुअर आज मुझे ले-दे जायेगा।’’
उसका मन हुआ एक बार फिर सुअर की टाँगे पीछे से खींचकर उसे उलटा गिराने की कोशिश कर देखे। बायें हाथ में छुरे को ऊँचा उठाये, वह धीरे धीरे कदम बढ़ाता हुआ कोठरी के बीचोबीच चला आया। सुअर दायें हाथ की दीवार के सिरे तक पहुँचकर बायीं ओर दीवार के साथ साथ चलने लगा था। नत्थू को अपनी ओर बढ़ते देखकर भागने की बजाय वह मुड़कर नत्थू की ओर आने लगा। एक बार सुअर गुर्राया भी जैसे वह नत्थू पर झपटने जा रहा हो। नत्थू एक एक कदम पीछे की ओर उठाने लगा। उसकी आँखें अभी भी सुअर की थूथनी पर लगी थीं। अब सुअर उसके ऐन सामने था, उसी की ओर बढ़ रहा था। इस स्थिति में उसकी पिछली टाँग को पकड़कर पीछे की ओर खींचना और उसे पीठ के बल गिरा पाना असम्भव हो गया था। सुअर की छोटी-छोटी लाल आँखों में खुमार छाया था। न जाने क्या कर बैठे। पर नत्थू बदहवास हो रहा था। दो बज चुके थे, और जो काम पिछली शाम से अब तक नहीं हो पाया वह अब पौ फटने से पहले कैसे हो पायेगा। किसी वक्त भी जमादार का छकड़ा आ सकता है और जो काम न हुआ तो मुराद अली का क्या भरोसा, दोस्त से दुश्मन बन जाये, खालें दिलवाना बन्द कर दे, कोठरी में से उठवा दे, किसी से पिटवा दे, परेशान करे। नत्थू के हाथ-पैर फूलने लगे। वह मन ही मन जानता था कि सुअर पिछले पाँव से पकड़ने पर सुअर काट खायेगा। या उछलेगा और हाथ छुड़ा लेगा।

सहसा नत्थू भन्ना उठा। बिना किसी स्पष्ट कारण के जैसे उसके तन-बदन में आग लग गयी। ‘या मैं नहीं रहूँगा, या यह नहीं रहेगा’ उसने कहा और झट से लौटकर आले के फ़र्श पर रखी पत्थर की सिल उठा ली। सिल उठाकर वह सीधा कोठरी के बीचोबीच पहुँच गया। सिल को दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाये वह क्षण भर के लिए ठिठका रहा। सुअर की थूथनी अभी भी अगले पैरों पर थी और वह खरबूजे के छिलके को सूँघ रहा था। उसकी लाल-लाल आँखें मिचमिचा रही थीं। पीठ के पीछे उसकी नन्हीं सी पूँछ बराबर हिल रही थी। अगर यह हिले डुले नहीं और सिल सीधी उसके शरीर पर जा पड़े तो कहीं पर तो वह वार करेगी, और कोई न कोई अंग तो सुअर का टूटकर रहेगा ही। अगर एक टाँग ही टूट जाये तो वह भी गनीमत है, उसका चलना पहले से कठिन हो जायेगा।

फिर दोनों हाथ तौलकर नत्थू ने सिल को सुअर पर दे मारा। आले में रखे दीये की लौ थरथरायी और दीवारों पर साये डोल गये। सिल सुअर के लगी थी लेकिन नत्थू ठीक तरह से नहीं जानता था कि कहाँ लगी है। सुअर ज़ोर से किकियाया और सिल खटाक से फर्श पर जा गिरी। नत्थू सिर फेंकते ही पीछे हट गया, और सुअर की ओर घूर-घूरकर देखने लगा। नत्थू को देखकर आश्चर्य हुआ, सुअर की अधमुँदी आँखें मिचमिचा रही थीं और उसकी थूथनी अभी भी अगली टाँगों पर टिकी थी।
सहसा सुअर गुर्राया और पिछली दीवार से हटकर कोठरी के बीचोबीच आने लगा। वह दायें-बायें झूल रहा था। नत्थू एक ओर को, आँगन में खुलने वाले दरवाज़े की ओर सरककर खड़ा हो गया। दीये की अस्थिर रोशनी में सुअर एक काले पुंज की तरह आगे बढ़ता आ रहा था। सिल उसके माथे पर पड़ी थी जिससे वह शायद चकरा गया था और उसे ठीक तरह से दिखायी नहीं दे रहा था। नत्थू डर गया। सुअर ज़रूर उसकी ओर बढ़ता आ रहा है और वह उसे ज़रूर काट खायेगा। सिल का उस पर कोई असर हुआ नहीं जान पड़ता था।
नत्थू ने झट से दरवाज़ा खोला और कोठरी के बाहर हो गया।

‘किस मुसीबत में जान फँस गयी हैं।’ वह बुदबुदाया और आँगन में आकर मुँडेर के पास खड़ा हो गया। बाहर पहुँचकर स्वच्छ बहती और हवा में उसे राहत मिली। कोठरी की घुटन और बदबू में वह परेशान हो उठा था। पसीने से तर उसके शरीर को हवा के हल्के से स्पर्श से असीम आनन्द का अनुभव हुआ। क्षणभर के लिए उसे लगा जैसे वह फिर से जी उठा है, उसकी शिथिल मरी हुई देह में फिर से जान आ गयी है। ‘मुझे क्या लेना इस काम से सलोतरी को सुअर नहीं मिलता तो न मिले, मेरी बला से, मैं कल मुराद अली के सामने पाँच का नोट पटक दूँगा और हाथ जोड़ दूँगा। यह मेरे बस का नहीं है हुजूर मैं यह काम नहीं कर सकता। मेरा क्या बिगाड़ लेगा। दो दिन मुँह बनाये रखेगा, मैं घुटनों पर हाथ रखकर उसे मना लूँगा।’’

मुँडेर के पीछे वह ठिठका खड़ा रहा। चाँद निकल आया था और चारों और छिटकी चाँदनी में उसे आस-पास का सारा इलाका पराया-पराया और रहस्य पूर्ण सा लग रहा था। सामने से गुजरने वाली बैलगाड़ियों की कच्ची सड़क इस वक्त सूनी पड़ी थी। मूक और शान्त। दिन भर उस पर उत्तर के गाँव से आनेवाली बैलगाड़ियों की खटर-पटर और बैलों के गले में बँधी घण्टियों की टुन टुन सुनायी देती रहती थी। उनके पहियों से सड़क पर गहरी लीकें बन गयी थीं और मिट्टी पिस–पिसकर इतनी बारीक हो गयी थी कि इस पर पैर रखते ही पैर घुटनों तक मिट्टी में धँस जाता था। सड़क के पार तीखी ढलान पर जो नीचे मैदान में उतर गयी थी, छोटी छोटी झाड़ियाँ और बेरों के पेड़ और कँटीली ‘झोर के झुरमुट धूल से अटे थे और चाँदनी रात में धुले-धुले से लग रहे थे।

मैदान के पार मसान था जिसके पीछे दो कोठरियों में एक डोम रहता था। इस समय एक के साथ एक सटी हुई, उजड़ी हुई सी लग रही थीं। किसी भी कोठरी में दीया नहीं टिमटिमा रहा था। डोम रात को शराब पिये हुए चिल्लाया बड़-बड़ाता रहा था। और उसकी आवाज़ मैदान के पार इस कोठरी तक आती रही थी। पर इस वक्त जैसे वह मरा पड़ा था। नत्थू को सहसा अपनी पत्नी की याद आयी, जो इस वक्त आराम से चमारों की बस्ती में सोयी पड़ी होगी। यह संकट मोल न लिया होता तो इस वक्त वह उसके पास होता, उसकी अलस, गदराई देह उसकी बाँहों में होती। अपनी युवा पत्नी को बाँहों में भर पाने की ललक उसे बुरी तरह से बेचैन करने लगी। न जाने कितनी देर तक वह उसकी राह देखती रही होगी। उससे बिना कुछ कहे सुने वह घर से चला आया था। एक ही शाम उससे दूर रहकर वह परेशान हो उठा था।

कच्ची सड़क दायें हाथ को दूर तक जाकर नीचे उतर गयी थी। इस वक्त चाँदनी में वह कितनी साफ़ धुली-धुली लग रही थी। उसके किनारे, एक ओर को हटकर कच्चा कुआँ और उस पर पड़ा उसका चक्कर और माल भी बुरे नहीं लग रहे थे। थोड़ी दूर जाने पर ही यह वीरान इलाका खत्म हो जाता था और कच्ची सड़क शहर को जानेवाली पक्की सड़क से जा मिलती थी। चारों और चुप्पी छायी थी। दूर बायीं और पिगरी की नीचे की इमारत थी जो चाँदनी में चपटे काले डिब्बे सी लग रही थी। दूर दूर तक खाली ज़मीन पड़ी थी जिस पर जगह-जगह कँटीली झाड़ियाँ और छोटे छोटे पेड़ छितरे पड़े थे। दूर, बहुत दूर, फ़ौजी छावनी की बारकें थीं, अलग-अलग, जहाँ तक पहुँच पाने में घण्टों लग जाते थे।

नत्थू की देह शिथिल पड़ गयी थी। उसका मन हुआ वहीं खड़ा-खड़ा मुँडेर पर सिर रखकर झपकी ले ले। कोठरी में से बाहर निकलकर यह जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गया था। स्वच्छ, शीतल हवा और चारों ओर छितरी चाँदनी में उसे अपनी स्थिति पर रुलायी-सी आने लगी। बाहर आकर उसे अपने हाथ में पकड़ा छुरा असंगत-सा लगने लगा। उसका मन हुआ वहाँ  से भाग जाये, कोठरी में झाँककर देखे भी नहीं और भाग जाये। कल सुअर-बाड़े का पूर्बिया ज़रूर इधर से गुजरेगा और कचरा देखकर ही समझ जायेगा कि सुअर कोठरी में होगा और वह उसे हाँककर वहाँ से ले जायेगा।
उसे फिर से अपनी पत्नी की याद सताने लगी। अपनी पत्नी के पास पहुँचकर उसके साथ हौले-हौले बतियाते हुए ही उसके क्षुब्ध व्याकुल मन को चैन मिल सकता था। कब वह झंझट खत्म होगा और कब वह उसके पास चमारों की बस्ती में लौट पायेगा ?

सहसा दूर शेखों के बाग की घड़ी ने तीन बजाये और नत्थू की सारी देह थरथरा गयी। उसकी नज़र उसके हाथ पर गयी जिसमें अभी भी वह छुरा पकड़े हुए था। एक गहरी टीस उसके मन में उठी अब क्या होगा ? वह यहाँ पर खड़ा क्या कर रहा है जबकि सुअर अभी तक नहीं मरा ? जमादार छकड़ा लेकर आया ही चाहता होगा। वह उसे क्या कहेगा, क्या जवाब देगा। आकाश में हल्की-सी पीलिमा घुल गयी थी। पौ फटने वाली थी, और वह अभी तक अपने काम से निबट नहीं पाया था। उसे अपनी स्थिति पर रुलायी आने लगी।

घबराया हुआ सा कोठरी की ओर गया। धीरे से दरवाज़ा खोलकर उसने अन्दर झाँका। कोठरी का दरवाज़ा खोलते ही बदबू का भभूका-सा जैसे उस पर झपटा। लेकिन दीये की रोशनी में उसने देखा कि कोठरी के ऐन बीचो-बीच सुअर खड़ा है, निश्चल सा, मानो घूम-घूमकर थक गया हो, निढाल—सा। किसी अन्त:प्रेरणावश नत्थू को लगा जैसे अब उसे मार गिराना इतना कठिन नहीं होगा। नत्थू ने दरवाजा़ भेड़ दिया और फिर आले के नीचे चुपचाप जाकर खड़ा हो गया और एकटक सुअर की ओर देखने लगा।

नत्थू के अन्दर आ जाने पर सुअर ने अपना नथुना उठाया। नत्थू को लगा जैसे सुअर का नथुना ज्यादा लाल हो रहा है और सुअर की आँखें सिकुड़ी हुई हैं। उस पर फैंकी हुई पत्थर की सिल सुअर के पीछे कुछ दूरी पर पड़ी थी। दीये की टिमटिमाती लौ ने फिर झपकी ली, और अस्थिर रोशनी में नत्थू को लगा जैसे सुअर फिर से हिला है, और चलने लगा है। वह आँखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखने लगा। सुअर सचमुच हिला था। वह सचमुच ही बोझिल स्थिर गति से आगे की ओर, नत्थू की ओर बढ़ने लगा था। दो एक क़दम, दायें-बायें झूलकर चलने के बाद एक अजीब-सी आवाज़ सुअर के मुँह में से निकली। नत्थू फिर से छुरा ऊँचा उठाकर फ़र्श पर पैरों के बल बैठ गया। सुअर ने दो तीन कदम और आगे की ओर बढ़ाये। उसका नथुना अपने पैरों की ओर और अधिक झुक गया और नत्थू के पास पहुँचते-न-पहुँचते वह एक ओर को लुढ़ककर गिर गया। उसकी टाँगों में एक बार ज़ोर का कम्पन हुआ मगर कुछ क्षणों में ही वे हवा में उठी-कभी उठी रह गयीं। सुअर ढेर हो चुका था।
नत्थू ने छुर्रा फ़र्श पर रख दिया, मगर उसकी आँखें अभी भी सुअर पर लगी थीं। तभी दूर पड़ोस के किसी घर में किसी मुर्गे ने पर फड़फड़ाये और बाँग दी। उसी समय दूर कच्ची सड़क पर हिचकोले खाते छकड़े की आवाज़ आयी। और नत्थू ने चैन की साँस ली।

तमस (उपन्यास) : दो

प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था।

हवा में अभी खुश्की थी। रात को कमरे के अंदर सोते थे, फिर भी सुबह-सुबह कंबल ओढ़ने की ज़रूरत रहती थी। प्रभातफेरी में शामिल होनेवाले बड़ी उम्र के लोग कनटोपे चढ़ाकर आते थे।

शेखोंवाले बाग़ की घड़ी ने चार बजाए। कांग्रेस-कमेटी के दफ़्तर के सामने सड़क पर केवल दो-तीन व्यक्ति खड़े अन्य सदस्यों की राह देख रहे थे। खुफ़िया पुलिस के दो सिपाही साधारण कपड़े पहने थोड़ी दूरी पर अभी से खड़े थे।

तभी दूर अँधेरे में रोशनी नज़र आई। कोई आदमी हाथ में हरीकेन लैंप उठाए बड़ा बाज़ार का मोड़ काटकर उस ओर आने लगा था। लैंप की रोशनी के दायरे में उस आदमी का केवल पाजामा ही नज़र आ रहा था। लगता था धड़ के बिना दो टाँगें चली आ रही हैं।

‘‘लो बख्शीजी आ गए,’’ दूर से पाजामा पहचानकर अज़ीज़ बोला।

बख्शीजी कहा करते थे, चार बजे का मतलब है चार बजे, न एक मिनट इधर, न एक मिनट उधर। पर आज वह स्वयं लेट आ रहे थे।

बख्शीजी ही थे, बलगमी शरीरवाले ज़िला कांग्रेस-कमेटी के सेक्रेटरी, उम्र-रसीदा आदमी, देह शिथिल पड़ गई थी पर वह न आएँ तो कोई भी नहीं आएगा, प्रभातफेरी के लिए कोई पहुँचेगा ही नहीं।

उनके नज़दीक पहुंचने पर अज़ीज़ ने छूटते ही शे’र पढ़ा:

‘‘ मुल्ला मियाँ मिशालची तीनों एक समान ,

लोकाँ नूँ दस्सण चाणना , आप हनौ जाण।’’

बख्शी ने नज़दीक पहुँचकर अपनी सफ़ाई में कहा, “रात देर से सोए, सुबह नींद ही नहीं खुली।’’ फिर दुआ-सलाम करने के बाद छूटते ही बोले, ‘‘मास्टर रामदास नहीं आया?’’

जवाब अज़ीज़ ने दिया, ‘‘वह गाय दुहकर आएगा, इससे पहले थोड़े ही आएगा।’’

‘‘जब तनख्वाह बढ़वानी थी तब तो रात के 11 बजे भी बुलाओ तो आ जाता था। अब तनख्वाह बढ़ गई है, उसे क्या गर्ज़ पड़ी है कि वक़्त पर आए।’’

दूर अँधेरे में नए मुहल्ले की ओर से ऊँचे लंबे क़द का एक आदमी सिर से पाँव तक सफ़ेद कपड़ों में मलबूस, ढलान चढ़कर सामने की ओर से आता नज़र आया।

‘‘लो देखो आ गए जिनके पल्ले सच है। मेहताजी, तुम सचमुच लीडर लगते हो।’’

मेहताजी ने पास आकर और लोगों के बारे में दर्याफ़्त किया कि अजीत सिंह पहुँचा है या नहीं, देसराज, शंकर, मास्टर रामदास, सभी कहाँ हैं, फिर बख्शीजी की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘‘मैंने कहा था चार बजे का वक़्त देना ठीक नहीं प्रभातफेरी के लिए।’’

‘‘चार बजे का वक़्त दोगे तभी कहीं पाँच बजे प्रभातफेरी पर निकल सकोगे।’’ बख्शीजी ने जवाब दिया, ‘‘पाँच का वक़्त देते तो धूप निकल आने पर भी लोग इकट्ठे नहीं हो पाते। ख़ुद तो देर से आते हो और हमें कहते हो यह वक़्त नहीं देना चाहिए, वह वक़्त नहीं देना चाहिए।’’ कहते हुए बख्शीजी ने चादर के नीचे वास्कट की जेब में हाथ डालकर सिगरेटों की डिब्बी निकाली। अज़ीज़ ने मेहताजी से फिर चुटकी ली, ‘‘दूर से आप सचमुच लीडर लगते हो, मेहताजी।’’

मेहताजी गंभीर भाव से मुस्कराए, फिर धीमे से अज़ीज़ के कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘‘उस दिन मोटरों के अड्डे पर खड़ा था तो आदमी दूसरे से पूछने लगा, ‘क्या वह जवाहरलाल नेहरू खड़ा है?’’’ और मेहताजी ने दोनों हाथों से अपनी गांधी टोपी का ज़ाविया थोड़ा टेढ़ा करते हुए कहा, ‘‘बहुत लोगों को मुग़ालता हो जाता है।’’

‘‘आप किसी से कम हैं मेहताजी, वाह वाह, आपकी अपनी शख़्सियत है।’’

‘‘मैं क़द में उनसे थोड़ा लंबा हूँ,’’ मेहताजी ने संजीदगी से कहा।

‘‘नहाकर आए हो मेहताजी?’’ कश्मीरीलाल बोला।

‘‘वाह, यह भी कोई पूछने की बात है। मैं सदा नहाकर आता हूँ। गर्मी-सर्दी मेरा यह नियम है। प्रभातफेरी पर तो नहाए बिना किसी को आना ही नहीं चाहिए, कश्मीरीलाल। तू अपनी बता, तूने मुँह भी धोया है या नहीं?’’

तभी दूर ढलान की ओर से फिर आवाज़़़ आई, “लेफ्ट...लेफ्ट...राइट...लेफ्ट लेफ्ट...’’

‘‘लो जरनैल भी पहुँच गया है!’’ बख्शीजी ने कहा और सभी हँस पड़े।

लैंप की रोशनी सबसे पहले उसके फटे जूतों पर पड़ी। कुछ पता नहीं चलता था कि वे स्लीपर थे या जूते थे। जूतों के लगभग छह इंच ऊपर ख़ाकी पतलून शुरू होती थी, उसके ऊपर ख़ाकी कोट जिस पर गांधी और नेहरू के जितने तमगे जरनैल को मिल सकते थे उसने लगा रहे थे, साथ में रंगीन थिगलियाँ, डोरे, सूखे हुए बुढ़ऊ शरीर पर मुचड़ा हुआ ख़ाकी कोट लटक रहा था। ऊपर खसखस दाढ़ी नुची-खुची और सबसे ऊपर मूँगिया रंग की पगड़ी।

जरनैल ही एक ऐसा आदमी था जो आंदोलन हो या न हो, जेल जाता रहता था, जलसे हों या न हों, शहर में स्वयं तक़रीरें करता फिरता था, हर आए दिन शहर में कहीं न कहीं उसकी पिटाई हो जाया करती थी। बग़ल में छोटा-सा बेंत दबाए वह सदा कभी एक मुहल्ले में, कभी दूसरे मुहल्ले में घूमता नज़र आता था। मुनादी करने के लिए ताँगा निकलता तो ताँगे में बैठनेवाले तीन आदमियों में से एक आदमी ज़रूर जरनैल हुआ करता था। जलसा शुरू होने पर सबसे पहले जरनैल की तक़रीर होती थी जिसमें उसकी खोखली-फुसफुसाती आवाज़़़ केवल आगे बैठे चंद आदमियों तक ही पहुँच पाती थी।

जरनैल के पहुँचते ही कश्मीरीलाल ने चुटकी ली, ‘‘जरनैल, कल जलसे में से भाग क्यों गए थे?’’

जरनैल ने आवाज़़़ पहचानकर अपनी छोटी-छोटी आँखों से कश्मीरीलाल को घूरकर देखा और बेंत बग़ल में दबाते हुए बोला, ‘‘मैं सुबह-सुबह तुम जैसे आदमी के मुँह नहीं लगना चाहता। दूर रहो तुम।’’

बख्शी ने कश्मीरीलाल को रोका, ‘‘यह कौन-सा वक़्त है छेड़खानी करने का। बस, चुप रहो तुम।’’

पर जरनैल बिफर उठा था, ‘‘मैं तुम्हारा पर्दाफाश करूँगा। तुम्हारा कम्युनिस्टों के साथ उठना-बैठना है। मैं जानता हूँ। देवदत्त कम्युनिस्ट के साथ कुबड़े हलवाई की दुकान पर मैंने तुम्हें छैनामुर्ग़ी खाते देखा है।’’

‘‘बस बस, ठीक है जरनैल, और पर्दाफाश नहीं करो,’’ बख्शी ने समझाते हुए कहा।

इतने में चौड़े पायँचोंवाला पाजामा फड़फड़ाते हुए शंकरलाल पहुँच गया।

अँधेरे में प्रभात की पीलिमा मिलने लगी थी। दाएँ हाथ बैंक की ऊँची दीवार पर से अँधेरे की एक और परत झरकर गिर गई थी। सड़क के पार आर्य स्कूल की इमारत में हलवाई की अँगीठी में से धुआँ उठने लगा था। बग़लवाली गली में से हवाखोरी के शौकीन खंखारते, छड़ी ठकोरते किसी-किसी वक़्त निकलने लगे थे। कहीं-कहीं कोई महिला, मुँह-सिर लपेटे गुरुद्वारे की ओर जाती नज़र आती।

बख्शीजी ने हाथ में पकड़े हरीकेन लैंप को ऊपर उठाया और फूँक मारकर बत्ती बुझा दी।

‘‘क्यों, हम पहुँचे हैं बख्शीजी तो आपने बत्ती ही गुल कर दी,’’ शंकर मुनादीवाले ने कहा।

‘‘क्यों, तूने मेरा चेहरा देखना है या मेहताजी का देखना है?’’ बख्शीजी बोले। ‘‘तेल ज़ाया होता है। यह कांग्रेस-कमेटी का लैंप नहीं है, मेरा अपना लैंप है। कांग्रेस-कमेटी से तेल की मंज़ूरी ले दो, मैं इसे दिन-रात जलाए रखूँगा।’’

इस पर दबी आवाज़ में कश्मीरीलाल की पीठ पीछे खड़े-खड़े शंकर बोला, ‘‘सिगरेटों के लिए आपको मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं तो मिट्टी के तेल के लिए क्यों होगी?’’

वाक्य बख्शीजी ने सुन लिया पर ज़हर का घूँट पीकर चुप बने रहे। ऐसे लोफ़रों को मुँह लगाना अपना अपमान करवाना था।

‘‘आप तो मालिक हैं बख्शीजी, आपको मंज़ूरी की क्या ज़रूरत है। आपके हुक्म के बिना तो चिड़ी नहीं फड़क सकती,’’ शंकर बोला, फिर मेहताजी की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘‘जयहिंद, मेहताजी!’’

‘‘जय हिंद!’’

‘‘मैंने आपको देखा ही नहीं।’’

‘‘तुम अब हमें कहाँ देखते हो शंकर, तुम्हारे पौ-बारह हैं।’’

"आज आप अपना बैग नहीं लाए?"

"बैग की प्रभातफेरी में क्या ज़रूरत है?"

"वाह जी, बैग की सभी जगह ज़रूरत रह सकती है। बीमा का ग्राहक भी फंस सकता है।"

मेहताजी चुप रहे। कांग्रेस का काम करने के साथ-साथ वह बीमा का काम करते थे।

"कभी जबान भी बन्द किया कर, शंकर। मेहताजी तेरे से तिगुनी उम्र के हैं। बड़ों को बड़ा समझते हैं।" बख्शीजी ने कहा।

"मैंने क्या कहा है? मैंने यही पूछा है ना कि बैग नहीं लाए। मैंने यह तो नहीं पूछा कि सेठी से पचास हज़ार का बीमा मिला है या नहीं मिला।"

शंकर ने तीर छोड़ दिया। आम तौर पर शंकर इस ढंग से लगाकर बात नहीं करता था। मुँहफट आदमी था, जली-कटी मुँह पर सुनाता था। पर पचास हज़ार के बीमेवाली चोट बहुत बुरी थी। मेहताजी ऐसे सहमे कि एक शब्द मुँह से नहीं कह पाए। मेहताजी छोटी हस्ती नहीं थे। कुल मिलाकर सोलह बरस जेलों में काटकर आए थे और जिला कांग्रेस-कमेटी के प्रधान थे। और सबसे उजली खादी पहनते थे। उन पर यह आरोप लगाना बड़ी हिमाकत थी, पर अर्से से अफ़वाह चली आ रही थी कि सेठी ठेकेवाले का पचास हज़ार का बीमा उन्हें मिलनेवाला है, और इसके एवज़ मेहताजी सेठी को चुनावों में कांग्रेस का टिकट दिलवानेवाले हैं।

"यह तो भौंका है मेहताजी, इसकी बात को बस, सुन छोड़ा करो।"

“मैंने यह तो नहीं कहा कि मेहताजी ने टिकट का वादा किया है। टिकट देने का अख्तियार तो प्रान्तीय कमेटी को है। और सिफारिश ज़िला कमेटी करेगी। अन्दरखाते प्रधान और मन्त्री फैसला कर लें तो अलग बात है। पर वह काम हम नहीं करने देंगे। दोनों, प्रधान और मन्त्री खड़े सुन रहे हो। बड़े-बड़े ठेकेदारों को टिकट मिलने लगा तो बस कांग्रेस ख़त्म हुई समझो।"

मेहताजी वहाँ से हटकर कश्मीरीलाल से बातें करने लगे। बख्शीजी ने एक और सिगरेट सुलगा ली।

शंकर की और मेहताजी की वास्तव में पटती नहीं थी। यह उस दिन से नहीं पटती थी जब से लाहौर में होनेवाले एक सम्मेलन में जिसमें नेहरूजी भाग लेनेवाले थे-ज़िला कमेटी की ओर से कुछ प्रतिनिधि भेजे गए थे, और मेहताजी ने शंकर का नाम उस लिस्ट में नहीं रखा था। शंकर फिर भी लाहौर पहुँच गया था और सम्मेलन में भाग लेता रहा था। इतना ही नहीं, सम्मेलन के दौरान विशाल पैमाने पर एक सहभोज का आयोजन किया गया था जिसमें नेहरूजी शरीक हुए थे। सभी प्रतिनिधियों से इस सहभोज के लिए आठ-आठ आने लिये गए थे। अपने प्रतिनिधियों का चन्दा मेहताजी ने कांग्रेस फंड में से दिया था। वहाँ भी शंकर का चन्दा उन्होंने देने से इनकार कर दिया। शंकर बहुत बिगड़ा था और बावजूद मेहताजी की उपेक्षा के सहभोज में शामिल हुआ था और मेहताजी के ऐन सामने पाँत में बैठा था, और भूखे भेड़िए की तरह खाने पर टूटा था। हाथ भी सने हुए और होंठ भी और दाल-सब्जी बाँटनेवालों पर चिल्लाए जा रहा था। मेहताजी से न रहा गया :

“खाने बैठा है शंकर, तो इंसानों की तरह तो खा। हमारी जिला कांग्रेस की रुसवाई करवा रहा है।"

“इस वक़्त चुप रहिए मेहताजी, यह कांग्रेस के पैसे से नहीं खा रहा हूँ, अपने पैसे से खा रहा हूँ। अपना ज़र खर्चा है। आपके साथ लौटकर बातें होंगी। मैंने आप-जैसे बहुत देखे हैं।"

"क्या देखे हैं, ओए, तू सारा वक़्त बकता रहता है। तू घर चलकर मेरा क्या कर लेगा?"

लाहौर से लौटने पर शंकर ने मेहताजी को सचमुच आड़े हाथों लिया। प्रदेश कांग्रेस के चुनाव होनेवाले थे और प्रत्येक जिला कमेटी से चार सदस्य भेजने की योजना थी.। मेहताजी ने अन्य तीन सदस्यों के साथ चौथा नाम कोहली का तजवीज़ कर दिया। कोहली ज़रूर ज़िला कमेटी की ओर से चुन लिया जाता अगर शंकर बेहूदगी नहीं करता। स्क्रुटिनी कमेटी की मीटिंग चल रही थी जब शंकर उठ खड़ा हुआ।

"माफ़ कीजिए। मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ।"

मेहताजी का माथा ठनका।

"यह स्क्रूटिनी कमेटी की मीटिंग हो रही है। जो सवाल पूछना हो बाद में पूछ लेना।"

"मैं आपसे नहीं, स्क्रुटिनी कमेटी से पूछना चाहता हूँ।"

फिर वह बड़े नाटकीय अन्दाज़ से इस इन्तज़ार में खड़ा रहा कि स्क्रुटिनी के प्रधान उससे कहें तब वह बोले।

"कहो, क्या है?" प्रधान ने कहा।

"मैं पूछ सकता हूँ कि कांग्रेस-सदस्यता के नियम क्या हैं?"

"तुम काम की बात करो, उल्टी-सीधी बात करने का यह वक़्त नहीं है।"

“मेहताजी, मैं आपसे बात नहीं कर रहा हूँ। आप खामोश रहिए।"

"कहने दो, कहने दो, हाँ बोलो भाई शंकर, क्या कहते हो? कांग्रेस की सदस्यता के क्या नियम हैं?"

“कि सदस्य चार आने सालाना चन्दा देता हो, शुद्ध हाथ की कती, हाथ की बुनी खादी पहनता हो, चरखा कातता हो, क्यों ठीक है कि नहीं?"

“ठीक है।"

“मैं कोहली साहिब से दरख़ाश्त करूँगा कि वह एक मिनट के लिए खड़े हो जाएँ।" सभी चुप रहे।

“गुस्ताखी माफ़, स्क्रुटिनी कमेटी के सामने हर सदस्य को सवाल पूछने का हक हासिल है।"

मेहताजी गुर्राए।

“मेहता साहिब, आप यहाँ पर प्रधान नहीं हैं। यहाँ पर आपको अपनी रूड़पंची चलाने की कोई ज़रूरत नहीं है। हाँ जी, तो कोहली साहिब, एक मिनट के लिए खड़े हो जाइए।"

कोहली खड़ा हो गया।

"आप खादी पहनते हैं ना?"

“यह क्या नाटक कर रहे हो तुम? सीधी बात कहो। तुम पूछना क्या चाहते हो?"

“अपना नाड़ा दिखाइए। नाड़ा मतलब आज़ारबन्द।"

"क्यों? तुम्हारा मतलब?"

"यह मेम्बर की तौहीन है। यह क्या मज़ाक चल रहा है?"

“मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ, मेहता साहिब, आप ख़ामोश रहिए। बिना प्रधानजी की इजाज़त के आपको बोलने का कोई हक़ नहीं है। हाँ, कोहली साहिब, मैंने क्या कहा। अपना नाड़ा दिखाइए। आजारबन्द दिखाइए।"

“जो न दिखाऊँ तो?"

“आपको दिखाना पड़ेगा। मैं जो बात साबित करना चाहता हूँ उसके लिए नाड़ा दिखाना ज़रूरी है।"

"दिखा दो यार, यह भौंका काम नहीं करने देगा। कैसे-कैसे लोफ़र कांग्रेस में घुस आए हैं।"

"क्या कहा मेहताजी, मैं लोफ़र हूँ तो आप शोहदे हैं? मुझसे कुछ मत कहलवाइए, मैं स्याह-सफ़ेद सब जानता हूँ। हाँ तो कोहली साहिब!"

"तुम क्या चाहते हो, मैं सबके सामने नाड़ा खोलूँ?"

"मैं खोलने को नहीं कह रहा हूँ, मैं सिर्फ दिखाने को कह रहा हूँ।"

"दिखा दो यार, ख़त्म करो।"

कोहली ने अचकन का पल्ला उठाया। नीचे से खादी के कुर्ते का अगला भाग ऊपर को उठाया। नीचे पीले रंग का आजारबन्द लटक रहा था। शंकर लपककर आगे बढ़ गया और नाड़े को पकड़ लिया।

"देख लीजिए साहिबान, नाड़ा रेशमी है। हाथ के कते सूत का नहीं है। मशीनी है, अकड़े का है। आप खुद छूकर देख सकते हैं।"

"तो फिर? फिर क्या हुआ?"

“कांग्रेस-सदस्य रेशमी नाड़ा पहने? और आप उसे प्रादेशिक कांग्रेस का उम्मीदवार बनाकर भेजेंगे? कांग्रेस के कोई असूल हैं या नहीं?"

स्क्रुटिनी कमेटी के सदस्य एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। मज़बूर होकर कोहली का नाम काटना पड़ा। उस दिन से शंकर मेहताजी को फूटी आँख नहीं सुहाता था।

बख्शीजी परेशान हो रहे थे। न मास्टर रामदास पहुँचा न देसराज। गाएगा कौन? प्रभातफेरी में कम से कम एक तो गानेवाला चाहिए ही। कुछ न हुआ तो वह खुद ही गा लेंगे लेकिन जो लोग ज़िला कमेटी से तनख्वाह पाते हैं, उन्हें तो पहुँचना ही चाहिए।

“देख लेना मेहताजी, हम प्रभातफेरी शुरू कर देंगे। तीन गलियाँ लाँघ जाएँगे तो मास्टर दौड़ा आएगा। कहेगा बछड़ा दूध पी गया था, मैं क्या करता। इस तरह ये लोग काम करते हैं।" फिर अन्य सदस्यों को सम्बोधित करके बोले, “कश्मीरीलाल, अब और इन्तज़ार नहीं किया जा सकता। शुरू करो तुम।"

पर कश्मीरीलाल को लोगों की टाँग खींचने में मज़ा आता था। झट से जरनैल की ओर मुखातिब होकर बोला, “तकरीर करो जरनैल, तकरीर करो। प्रभातफेरी शुरू करने से पहले तकरीर होनी चाहिए।"

जरनैल को और क्या चाहिए। फौरन छड़ी झुलाता, लेफ्ट-राइट करता सड़क के किनारे एक पत्थर पर खड़ा हो गया।

“यह क्या कर रहे हो कश्मीरीलाल। यार कोई वेला-वक़्त देखा करो।" बख्शी ने खीझकर कहा। “तुम नहीं चाहते प्रभातफेरी हो तो सीधा कहो।" फिर जरनैल की ओर बढ़ आए। लेकिन जरनैल तकरीर शुरू कर चुका था।

“साहिबान..."

"कोई नहीं साहिबान-वाहिबान, नीचे उतर आओ।" बख्शी ने हाथ झुलाकर कहा, “उतारो यार इसे, क्यों तमाशा करवाते हो सुबह-सुबह।"

"मेरी जबान कोई बन्द नहीं कर सकता।" जरनैल ने पत्थर पर खड़े-खड़े कहा, और तकरीर शुरू कर दी :

“साहिबान...” अपनी खरज, फुसफुसाती आवाज़ में जरनैल बोलने लगा।

जरनैल की उम्र पचास के कुछ ऊपर रही होगी-पर बरसों की जेल के बाद उसके शरीर में कुछ रह नहीं गया था। जहाँ शहर के अन्य कांग्रेसियों को कम से कम बी-क्लास मिलता था, जरनैल को हमेशा सी-क्लास में डाला जाता रहा, जिससे वह बीमार भी पड़ता रहा और बालू से भरी रोटी भी खाता रहा। पर जरनैल ने न तो तोबा की, न ही अपनी जरनैली वर्दी को छोड़ा। जवानी के दिनों में लाहौर-कांग्रेस के समय वह अपने शहर से लाहौर में वालंटियर बनकर गया था। नेहरूजी के साथ वह भी रावी नदी के किनारे नाचा था जब पूर्ण स्वराज का नारा लगाया गया था। उसी दिन से वह वालंटियर की वर्दी पहनता आया था। जब दिन अच्छे होते तो उस वर्दी में कभी सीटी लग जाती, कभी तिरंगे की डोरी बँध जाती। दिन खस्ता होते तो वर्दी धुल तक नहीं पाती थी। न जरनैल को कहीं कोई काम मिला, न उसने किया। कांग्रेस के दफ्तर से पन्द्रह रुपए महीना प्रचारक का मेहनताना लिया करता था। जो बख्शीजी आनाकानी करें तो वहीं खड़ा होकर तकरीर करने लगता था। मन में सनक थी, उसी के बल पर ज़िन्दगी के दुख और क्लेश पार कर जाता था। उसका न घर था न घाट, न बीवी थी न बच्चा, न काम न धाम। हफ्ते में दो-तीन बार कहीं न कहीं से पिट आता था। पुलिस के लाठी-चार्ज में जहाँ बाकी लोग जान बचाकर निकल जाते थे, वहाँ जरनैल अपनी सनक का मारा अपनी छोटी-सी झुर्रियों-भरी छाती फैलाए खड़ा रहता था और पसलियाँ तुड़वाकर आता था।

“कश्मीरीलाल, उतारो यार इसे। सुबह-सुबह तमाशा दिखाने लगे हो।" अबकी बार मेहताजी ने ऊँची आवाज़ में कहा। पर जरनैल और भी डटकर खड़ा हो गया।

“साहिबान, हमें अफ़सोस से कहना पड़ता है कि जिला कांग्रेस के प्रधान ने देश के साथ विश्वासघात किया है। जो वचन हमने रावी के किनारे सन् 1929 में लिया, हम मरते दम तक उस पर कायम रहेंगे। आपका बहुत वक़्त न लेता हुआ मैं इतना ही कहूँगा कि कोई माई का लाल अभी तक पैदा नहीं हुआ जो कांग्रेस के उसूलों की खिलाफ़वी कर सके। मेहताजी किस खेत की मूली हैं? हम इनसे भी निबटेंगे और इनके पिळुओं, कश्मीरीलाल, शंकरलाल, जीतसिंह जैसे गदारों से भी निबटेंगे..."

ज़ोर का ठहाका हुआ।

“यह इस तरह से नहीं उतरेगा।" कश्मीरीलाल, जिसने यह शोशा खड़ा किया था, स्वयं ही बख्शीजी के कान में सुझाव डाल रहा था। “अगर उतारने की कोशिश करेंगे तो और ज्यादा ज़िद पकड़ लेगा।"

बख्शी ने आगबबूला होकर कश्मीरीलाल की ओर देखा।

“ताली बजाएँगे तो यह उतर आएगा, आप चिन्ता नहीं करें। दो-तीन बार तालियाँ बजाएँगे, अपने-आप तकरीर ख़त्म कर देगा।" कहते हुए कश्मीरीलाल ने ताली बजाई। बाकी लोगों ने भी तालियाँ बजाईं।

“वाह वाह, बहुत अच्छा, बहुत खूब!"

"साहिबान, मैं आपका ज़्यादा वक्त न लेता हुआ आपका शुक्रिया अदा करता हूँ जो आपने इतने सबर और सन्तोष के साथ मेरे इन टूटे-फूटे लफजों को सुना। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि वह दिन दूर नहीं है जब हिन्दुस्तान आज़ाद होगा। कांग्रेस अपने मकसद में ज़रूर कामयाब होगी। जो शपथ मैंने रावी के किनारे...”

"खूब खूब, बहुत खूब!" कश्मीरीलाल ने फिर ताली बजाई।

"साहिबान, मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। मैं आपके सामने फिर किसी दिन हाजिर होऊँगा। अब आप मेरे साथ मिलकर नारा लगाइए, इंकलाब!”

दो-चार आवाजें जवाब में उठीं, “ज़िन्दाबाद!"

"क्यों? रोटी नहीं खाते हो? ज़ोर से नारा लगाओ-इंकलाब!"

ऊँची आवाज़ में जवाब आया, “ज़िन्दाबाद!"

और जरनैल बैंत बग़ल में दबाकर पत्थर पर से नीचे उतर आया!

'ज़िन्दाबाद!' एक आवाज़ ढलान की ओर से भी आई, और मास्टर रामदास हाँफता हुआ सुबह के झुटपुटे में सामने आया।

"यह कोई वक्त है आने का?" बखशीजी ने गुस्से से कहा।

जवाब कश्मीरीलाल ने दिया, “बछड़ा दूध पी गया था, इस कारण देर हो गई...।"

सभी हँसने लगे। पर मास्टर रामदास संजीदा आवाज़ में बोला, “आज प्रभातफेरी नहीं होगी।"

"क्यों?"

"आज तामीरी काम का जो फैसला हुआ है।"

"तामीरी काम का किसने फैसला किया है?"

"मुझे गोसाईंजी ने कल रात कहा था कि इमामदीन के मुहल्ले के पीछे ढोक में गलियाँ साफ़ करेंगे।"

"देर से आए हो और अब बहाना बना रहे हो।"

"क्यों? मैं तो झाड़-बेलचे भी वहाँ पहुँचा आया हूँ। कुछ रात को पहुँचाए थे, कुछ आज सुबह ले गया था।" फिर वह स्वयं ही गिनाने लगा, “पाँच बेलचे, बारह झाड़, तीन गैंतियाँ और पाँच कड़ाहियाँ मैं रात को ही पहुँचा आया था। शेरखान के घर पर सब सामान रखा है।"

"हमें तो किसी ने नहीं बताया।"

"इसीलिए तो मैं भागा आ रहा हूँ। मैं जब पहले आया था तो यहाँ कोई भी नहीं था।"

"ढोक की नालियाँ साफ़ होंगी? तेरा दिमाग खराब है?" कश्मीरीलाल ने पूछा। "वहाँ पर तो नालियाँ हैं ही नहीं।"

"हैं, हैं, हैं क्यों नहीं। कच्ची नालियाँ हैं, पक्की नहीं।"

"कच्ची नालियाँ हैं तो बरसों का लसलसा कीच वहाँ जमा होगा। नालियाँ कौन साफ़ करेगा?"

"हम करेंगे। तुम गद्दार हो।" जरनैल ने तुनककर कहा।

"कभी कोई फैसला कभी कोई। गोसाईंजी ने फैसला किया था तो बताया क्यों नहीं।"

अँधेरा इस बीच छटने लगा था। प्रभातफेरी के लिए इकट्ठे हुए व्यक्ति बड़ा अटपटा महसूस कर रहे थे।

"चलो, अब यहाँ से तो निकलो।" बख्शीजी ने कहा, और बुझा हुआ लैम्प उठाए आगे आए। “यहाँ से गाते हुए चलेंगे। शुरू करो रामदास।"

जरनैल लैपट-राइट कहता आगे चलने लगा। तिरंगा कश्मीरीलाल ने उठा लिया। रामदास ने प्रभातफेरी का पुराना गीत-जिससे सदा प्रभातफेरी शुरू की जाती थी और जो कभी भी जम नहीं पाया था अपनी ऊँची, बेसुरी आवाज़ में शुरू किया :

“जरा वी लगन आजादी दी
लग गई जिन्हाँ दे मन दे विच।"

चलते कदमों की टाप के साथ-साथ मंडली ने पंक्तियाँ दोहरा दीं।

रामदास ने अगली दो पंक्तियाँ उठाईं :

"ओह मजनूँ बण फिरदे ने
हर सेहरा हर बन दे विच।"

मंडली ने कुतुबदीन की ढोक का रुख किया।

तमस (उपन्यास) : तीन

गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से निकलकर उसने खुली हवा में चैन की साँस ली। जिस भाँति उसकी रात बीती थी उसकी तुलना में अधजगी गलियों में उसे शान्ति का भास हुआ।

बाईं ओर उसे औरतों के धीमे-धीमे बतियाने और चूड़ियाँ खनकने की आवाज़ आई। उसने पास से गुज़रते हुए देखा। नल के किनारे दो-तीन औरतें अपने-अपने घड़े सामने रखे, बैठी बतिया रही थीं। नल में अभी पानी नहीं आया था। नत्थू को यह भी भला लगा।

कुछ क़दम आगे बढ़ने पर उसके पैर को ठोकर लगी। उसे लगा जैसे उसके पाँव से टकराकर कोई चीज़ बिखर गई है। फिर वह समझ गया और समझते ही उसका शरीर झनझना उठा। एक घर के सामने कोई औरत 'टोना' कर गई थी : कुछ थिगलियों में लिपटे कंकड़ और गुँधे आटे का पुतला और उसमें खोंसी हुई लकड़ी की खपचियाँ थीं। कोई बदनसीब औरत अपना क्लेश किसी दूसरे के घर पर डालने के लिए 'टोना' कर गई थी। नत्थू ने इसे अपने लिए अपशगुन समझा। ऐसी रात बिताने के बाद 'टोने' पर पैर आ जाने पर गहरी खीझ उठी, पर दूसरे ही क्षण वह सँभल गया। आम तौर पर ये 'टोने' बच्चों पर से ग्रह टालने के लिए किए जाते हैं जबकि नत्थू के कोई औलाद नहीं थी। वह आश्वस्त-सा फिर आगे बढ़ गया।

इस गली को वह भली भाँति पहचानता था। जहाँ से वह गली में दाखिल हुआ था वहाँ कुछ दूरी तक मुसलमानों के घर थे। एक-दो धोबियों के, कुछ कसाइयों के जो गली के बाहर छोटी-सी सड़क के किनारे गोश्त की दुकानें लगाते थे। यहीं पर महम्मदू हमामवाला भी रहता था। आगे चलकर कुछ घर हिन्दुओं और सिखों के पड़ते थे और गली के अगले छोर तक पहुँचते-पहुँचते फिर मुसलमान शेखों के घर शुरू हो जाते थे।

एक घर के अन्दर से गुज़रते हुए उसे अन्दर से किसी बूढ़े की आवाज़ आई, “या अल्लाह कुल दी खैर कुल दा भला!" बूढ़ा जागकर सभी के कुल की दुआ कर रहा था। फिर उसके बँखारने और अंगड़ाई लेकर उठने की आवाज़ आई। लोग जाग रहे थे।

वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा होगा कि उसका दायाँ पैर फिर किसी लसलसी चीज़ में धंस गया और वह गिरते-गिरते बचा। साथ ही गोबर की तीखी गन्ध आई। उसने खींचकर पैर निकाला तो अधटूटा घड़ा लुढ़क गया। वह समझ गया और जहाँ पहले उसके मुँह में से गन्दी गाली निकलने जा रही थी वहाँ एक हल्की-सी मुस्कान उसके होंठों पर खेल गई। 'टोने' का अपशगुन इस ठोकर ने जैसे धो-पोंछ डाला हो। कुछ दिन से तपिश बढ़ रही थी और आसमान से छींटा नहीं पड़ा था। जब कभी छींटा पड़ने में देर हो जाती तो मुहल्लों में मनचले लड़के टूटे घड़े से गोबर और गाय-घोड़े का मूत्र इकट्ठा करके किसी मूज़ी के घर की ड्योढ़ी में फेंक आते थे। इसे बारिश बुलाने का शगुन माना जाता था।

एक घर के सामने एक आदमी गली में बँधी गाय के पास खड़ा सानी-पानी कर रहा था। पास ही किसी घर में से प्याले खनकने और साथ में चूड़ियाँ खनकने की आवाज़ आई। चाय तैयार हो रही थी। इतने में सामने से कोई औरत दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे मुँह से गुनगुनाती हुई पास से गुज़री। उसने हाथ में कटोरी उठा रखी थी। कोई औरत मन्दिर या गुरुद्वारे में माथा नवाने जा रही है, नत्थू ने मन-ही-मन कहा। बड़े सहज सामान्य ढंग से दिन का व्यापार शुरू हो रहा था। तभी गली के सिरे की ओर से नत्थू को इकतारा' बजाने और साथ में किसी फ़कीर के गाने की आवाज़ आई। यह आवाज़ वह पहले भी सुन चुका था, पर उसने इस फ़कीर को कभी देखा नहीं था। प्रभात के झुटपुटे में यह फ़कीर अक्सर इकतारा बजाता और धीमी आवाज़ में गाता हुआ शहर की गलियों में से गुज़र जाया करता था, विशेषकर रमज़ान के दिनों में जब मुसलमान लोग सुबह-सवेरे उठकर अपना रोज़ा खोलते थे। नज़दीक पहुँचने पर उसने देखा फ़कीर ऊँचे क़द का, लम्बे छरहरे बदन का बूढ़ा आदमी था, छोटी-सी सफेद दाढ़ी और सिर पर चिन्दिया टोपी और लम्बा चोगा और कन्धे पर से बड़ा-सा झोला लटक रहा था। नत्थू रुक गया। वह चाहता था कि फ़कीर के गीत के शब्द उसके कान में पढ़ें :

"तैनूँ गाफला जाग न आई चिड़ियाँ बोल रहियाँ...!" [ऐ गाफ़िल, तू अभी तक सोया पड़ा है जबकि पक्षी चहचहाने लगे हैं]

फ़कीर गीत गाता हुआ आ रहा था। इकतारे की धीमी-सी आवाज़ जो अक्सर नत्थू के सपनों में घुलमिल जाया करती थी और सोए-सोए भी उसे प्यारी लगती थी, अब भी उसे बड़ी मीठी लगी। उसने जेब में से एक पैसा निकालकर फ़कीर के हाथ में दे दिया।

“अल्लाह सलामत रखे! घर भरे रहें!" फ़कीर ने दुआ दी।

नत्थू आगे बढ़ गया।

गली पार करने पर वह कुछ-कुछ उजाले में आ गया। यहाँ से ताँगा हाँकनेवाले गाड़ीवानों का मुहल्ला शुरू हो जाता था। सड़क पर पहुँच जाने पर भी दृश्य बहुत कुछ बदला नहीं था, केवल यहाँ उजाला हो चला था। सड़क किनारे दो-तीन ताँगें खड़े थे, जिनके बम आसमान की ओर उठे हुए मानो सबके लिए दुआ माँग रहे थे। लम्बी दीवार के सामने खड़ा एक गाड़ीवान अपने घोड़े को 'खरहरा' कर रहा था। पास में बैठी दो औरतें गोबर की थापियाँ बना-बनाकर अभी से मिट्टी की दीवार पर लगा रही थीं। सड़क के बीचोबीच एक घोड़ा अपने-आप, अकेला ही सहज-स्वाभाविक गति से चहलकदमी कर रहा था। प्रातःकाल के शान्त सुहावने समय में जगह-जगह हल्की-हल्की जीवन की गति अँगड़ाइयाँ ले रही थी।

नत्थू को लगा जैसे वह टहलने निकला है। वह नहीं चाहता था कि कोई उसे देखे या पहचाने पर साथ ही साथ उसके मन की अपनी बड़बड़ाहट बहुत कुछ दूर हो चुकी थी और वह स्वयं चहलकदमी-सी करता हुआ एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जा रहा था।

सहसा उसे ख्याल आया छकड़ा कहाँ तक पहुँचा होगा? वह किस ओर जा रहा होगा? बड़ा असंगत-सा सवाल था पर ख्याल आते ही अनायास ही उसके कदम तेज़ हो गए। क्या वह दूर छावनी में पहुँच चुका होगा? सम्भव है सलोतरी के अस्पताल के सामने इस वक़्त खड़ा हो। नत्थू के मुँह से गाली निकली। क्या दिन के वक़्त सुअर को नहीं मारा जा सकता था? सलोतरी को मरे हुए सुअर की क्या ज़रूरत पड़ गई। ज़रूर कहीं सुअर का मांस बेचने के लिए उसे मरवाया गया होगा। रात का व्यापार याद करके उसके बदन में सिहरन-सी हुई। उसने बड़ी भौंडी रात काटी थी, पसीना, सुअर की बू, बन्द कोठरी, सुअर की हुंकारें, तीन बार सुअर ने अपनी थूथनी से उसके पैर चाटे थे और उसकी चमड़ी ही पैरों पर से नोच डाली थी। सुअर के मरने तक नत्थू स्वयं अधमरा-सा हो चुका था। भाड़ में जाए मुरादअली, जहाँ नत्थू का मन आएगा वहीं घूमेगा। उसने जेब पर हाथ लगाकर फिर से नोट की चरमराहट सुन ली। हमें क्या, हमने अपने पैसे खरे कर लिये हैं।

चरनी के पास पहुँचकर वह दाएँ हाथ घूम गया। तभी दूर शेखों के बाग की घड़ी की आवाज़ सुनाई दी। शायद चार का घंटा बजा रही थी। इस वक़्त उसकी आवाज़ कितनी साफ़ सुनाई दे रही थी। दिन के वक़्त कभी सुन नहीं पड़ती थी, शहर के शोर में खो जाती थी। इस वक़्त तो लगता आसमान के रास्ते आकर उसके कानों में पड़ रही है। कुछ ही क्षण बाद दूर शहर के बीचोबीच ऊँचे टीले पर बने शिवाले पर से मन्दिर की घंटियों की आवाज़ आई। आवाजें बढ़ रही थीं। जगह-जगह घरों के दरवाजे खुल रहे थे, कुछ लोग बँखारते अपनी छड़ियाँ सड़क पर पटपटाते घूमने जा रहे थे। एक बकरवाहा अपनी तीन-चार बकरियाँ लिये बकरियों का दूध बेचने निकल पड़ा था। नत्थू के कदम फिर शिथिल पड़ गए। उसे सुबह की शीतल सुहावनी हवा में घूमने में मज़ा आ रहा था।

अब वह गाड़ीवानों का मुहल्ला लाँघ आया था और इमामदीन के मुहल्ले के बाहर ‘कमेटी' के बड़े मैदान के किनारे रेलिंग के साथ-साथ चलता जा रहा था। दाएँ हाथ रेलिंग के पार ढलान थी; और ढलान उतरकर बहुत बड़ा मैदान शुरू हो जाता था। इस मैदान में हर आए दिन कुछ-न-कुछ होता रहता था। जाड़ों में हर इतवार को यहाँ कुत्तों की लड़ाई हुआ करती थी, लोग शर्ते बाँधते थे। ज़ख्मी कुत्ता मैदान में से भागने की कोशिश करता तो चारों ओर खड़ी भीड़ उसे भागने नहीं देती थी। यहीं पर इसी मैदान में नेज़ाबाज़ी हुआ करती थी, हज़ारों का जमाव होता था। यहीं पर बाहर से आनेवाले सरकस लगा करते थे, ताराबाई का सरकस और परशुराम का सरकस। यहीं पर बैसाखी का ढोल बजा करता था और दंगल हुआ करते थे। यहीं पर अब सियासी जलसे होने लगे थे। अब आए दिन जलसे होते थे। इस मैदान में मुस्लिम लीग के जलसे होते थे, और बेलचा पार्टी के भी, जबकि कांग्रेस के जलसे यहाँ से दूर अनाज मंडी के पास छते हुए मैदान में होते थे।

उसने जेब में से बीड़ी निकाली और ठंडी-ठंडी रेलिंग पर बैठकर बीड़ी के कस लगाने लगा।

तभी इमामदीन के मुहल्ले के पीछे से मस्जिद में से अज़ान पढ़ने की आवाज़ आई। प्रभात का अँधेरा एक ओर परत छनकर गिर गया था और आसपास के घर कुछ-कुछ साफ़ नज़र आने लगे थे। नत्थू रेलिंग पर से उतर आया और बीड़ी बुझा दी, और फिर से इमामदीन के मुहल्ले की गलियों का रुख किया। उसे सहसा याद हो आया था कि मुरादअली इसी 'कमेटी' के मैदान के एक ओर कहीं रहता था, उसे यकीनी तौर पर तो मालूम नहीं था लेकिन उसने दो-एक बार मुरादअली को उस ओर से आते देखा था। यों तो मुरादअली शहर-भर में घूमता था, अपनी पतली-सी छड़ी उठाए सड़कों के बीचोबीच चलता कभी किसी मुहल्ले में तो कभी किसी मुहल्ले में नज़र आया करता था। उसकी घनी काली मूंछों के बीच कभी भी उसके दाँत नज़र नहीं आते थे, हँसता भी, तब भी नज़र नहीं आते थे, केवल बाछे खिल जाती थीं और उसके गोलमटोल चेहरे में आँखें, छोटी-छोटी पैनी आँखें साँप की आँखों की तरह चमकती रहती थीं। क्या मालूम यहीं कहीं फिर से नज़र आ जाए। यहाँ से चल देना ही बेहतर है। अगर कहीं उसने देख लिया तो बिगड़ेगा। उसने नत्थू से ताकीद की थी कि सुअर की लाश उठवा देने के बाद वह उसी कोठरी में मुरादअली का इन्तज़ार करे पर नत्थू वहाँ से भाग आया था। सुअर-कटाई के पैसे मिल गए तो क्यों वहाँ कचरे और बू में पड़ा रहता?

नत्थू एक सँकरी गली में दाखिल हो गया और कुछ दूर जाकर दाएँ हाथ को एक दूसरी गली में मुड़ गया जो बल खाती हुई उत्तर की ओर चली गई थी। थोड़ी दूर जाने पर उसके कानों में किसी गान-मंडली की आवाज़ पड़ी, वैसे ही जैसे कुछ देर पहले फकीर के गाने की आवाज़ आई थी। वह कुछ ही क़दम आगे बढ़ पाया था कि दूर सामनेवाली गली के मोड़ पर उसे गानेवालों की आवाज़ अधिक स्पष्ट और ऊँची सुनाई देने लगी। नत्थू समझ गया था कि यह कोई प्रभातफेरी की मंडली होगी। उन दिनों शहर में कुछ ज़्यादा ही जलसे-जुलूस नज़र आने लगे थे। नत्थू की समझ में कुछ भी साफ़ नहीं था। पर हवा में नारे थे और उन्हें वह बहुत दिनों से सुनता आ रहा था। यह गान-मंडली कांग्रेसवालों की जान पड़ती थी क्योंकि मंडली के आगे-आगे कोई आदमी तिरंगा झंडा उठाए आ रहा था। जब मंडली नज़दीक पहुँची तो नत्थू एक ओर को गली की दीवार के साथ सटकर खड़ा हो गया। मंडली गीत गाती हुई सामने से गुजरने लगी। उसने देखा, आठ-दस लोग थे, दो-एक के सिर पर सफ़ेद गांधी टोपी थी, कुछ के सिर पर फैज टोपी थी, दो-एक सरदार भी थे। उम्र-रसीदा लोग भी थे और जवान भी। उसके पास से गुज़रने पर एक आदमी ने ऊँची आवाज़ में नारा लगाया :

"कौमी नारा!"

"बन्दे मारतम!"

"बोल भारतमाता की जय!

महात्मा गांधी की जय!'

इसके बाद सहसा केवल क्षण-भर की चुप्पी के बाद कुछ ही दूरी पर जहाँ एक और गली इस गली को काट गई थी, एक और नारा उठा :

“पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!

पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!

कायदे आज़म-ज़िन्दाबाद!

कायदे आज़म-ज़िन्दाबाद!"

नत्थू ने झट से मुड़कर देखा। तीन आदमी गली के मोड़ पर से सहसा प्रगट हो गए थे और नारे लगाने लगे थे। नत्थू को लगा जैसे गली के बीचोबीच खड़े वे गान-मंडली का रास्ता रोके खड़े हैं। इन तीन आदमियों में से एक के सिर पर रूमी टोपी थी और आँखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा था। वह आदमी गली के बीचोबीच खड़ा मंडली को ललकारता हुआ-सा बोल रहा था, “कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है। इसके साथ मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं है!"

इसका जवाब मंडली की ओर से एक बड़ी उम्र के आदमी ने दिया, "कांग्रेस सबकी जमात है। हिन्दुओं की, सिखों की, मुसलमानों की। आप अच्छी तरह जानते हैं महमूद साहिब, आप भी पहले हमारे साथ ही थे।"

और उस वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर रूमी टोपीवाले आदमी को बाँहों में भर लिया। मंडली में से कुछ लोग हँसने लगे। रूमी टोपीवाले ने अपने को बाँहों में से अलग करते हुए कहा, "यह सब हिन्दुओं की चालाकी है, बख्शीजी, हम सब जानते हैं। आप चाहें जो कहें, कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है। कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है और मुस्लिम लीम मुसलमानों की। कांग्रेस मुसलमानों की रहनुमाई नहीं कर सकती।"

दोनों मंडलियाँ एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं। लोग बतिया भी रहे थे और एक-दूसरे पर चिल्ला भी रहे थे।

वयोवृद्ध कांग्रेसी कह रहा था, “वह देख लो, सिख भी हैं, हिन्दू भी हैं, मुसलमान भी हैं। वह अज़ीज़ सामने खड़ा है, हकीमजी खड़े हैं-"

“अज़ीज़ और हकीम हिन्दुओं के कुत्ते हैं। हमें हिन्दुओं से नफरत नहीं, इनके कुत्तों से नफरत है।" उसने इतने गुस्से से कहा कि कांग्रेस-मंडली के दोनों मुसलमान खिसिया गए।

“मौलाना आज़ाद क्या हिन्दू है या मुसलमान?" वयोवृद्ध ने कहा। "वह तो कांगेस का प्रेजिडंट है।"

"मौलाना आज़ाद हिन्दुओं का सबसे बड़ा कुत्ता है। गांधी के पीछे दुम हिलाता फिरता है, जैसे ये कुत्ते आपके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं।"

इस पर वयोवृद्ध बड़े धीरज से बोले, “आज़ादी सबके लिए है। सारे हिन्दुस्तान के लिए है।"

"हिन्दुस्तान की आज़ादी हिन्दुओं के लिए होगी, आज़ाद पाकिस्तान में ही मुसलमान आज़ाद होंगे।"

तभी गान-मंडली में से एक दुबला-पतला सरदार, मैले-कुचैले कपड़े पहने और बगल में बेंत दाबे हुए आगे बढ़ आया, और चिल्लाकर बोला, “पाकिस्तान मेरी लाश पर!"

इस पर कांग्रेस-मंडली के लोग हँसने लगे।

“चुप ओए चुप!" किसी ने उसे चुप कराने को कहा। नत्थू को भी उसकी तीखी खरज आवाज़ सुनकर अटपटा लगा था। लोगों को हँसता देखकर उसने रामझ लिया कि यह कोई सनकी आदमी होगा।

पर वह बोले जा रहा था, “गांधीजी का फरमान है कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा, मैं भी पाकिस्तान नहीं बनने दूंगा।"

लोग फिर हँसने लगे।

"गुस्सा थूक दो, जरनैल।"

"बस, बस, जरनैल कभी चुप भी रहा कर!" बख्शीजी ने कहा।

इस पर जरनैल बिगड़ उठा, “मुझे कोई चुप नहीं करा सकता। मैं नेताजी सुभाष बोस की फौज़ का आदमी हूँ। मैं सबको जानता हूँ। आपको भी जानता हूँ..."

लोग हँसने लगे।

पर जब गान-मंडली आगे बढ़ने लगी तो रूमी टोपीवाले ने रास्ता रोक लिया, “आप इधर से मत जाइए, यह मुसलमानों का मुहल्ला है।"

"क्यों?" वयोवृद्ध बोला, “आप सारे शहर में पाकिस्तान के नारे लगाते हैं, कोई आपको रोकता है, और हम तो सिर्फ हुब्बुलवतनी के गीत गा रहे हैं।"

इस पर रूमी टोपीवाला कुछ पिघल-सा गया, पर बोला, “आप लोग जाना चाहते हैं तो जाइए, लेकिन हम इन कुत्तों को तो अपने मुहल्ले में नहीं घुसने देंगे।" और उसने फिर दोनों बाँह फैला दी मानो गली का रास्ता फिर से रोक रहा हो।

तभी नत्थू ने देखा रूमी टोपीवाले से थोड़ा हटकर पीछे की ओर मुरादअली खड़ा था। उसे देखते ही नत्थू का सारा शरीर झनझना उठा। यह कहाँ से पहुँच गया है? नत्थू दीवार के साथ-साथ सरकता हुआ गान-मंडली के पीछे हो गया। मुरादअली ने कहीं देख तो नहीं लिया? गान-मंडली के सदस्यों के पीछे खड़ा वह सचमुच छिप-सा गया था। यहाँ से उसे मुरादअली भी नज़र नहीं आ रहा था। कुछ देर स्तब्ध-सा खड़ा रहने के बाद उसने सिर टेढ़ा करके देखा। मुरादअली वहीं पर खड़ा था और दूर से बहस में उलझे लोगों की बातें सुन रहा था।

नत्थू धीरे-धीरे पीछे की ओर सरकने लगा। जब तक ये लोग बहस में उलझे रहेंगे, मुरादअली भी शायद वहीं बुत बना खड़ा रहेगा। यही मौका है यहाँ से निकल भागने का। अगर मुरादअली ने देख लिया है तो वह ज़रूर डेरे पर पहुँच जाएगा और जवाबतलबी करेगा। कुछ दूर तक सरकते रहने पर नत्थू ने सहसा पीठ मोड़ी और तेज़ चलने लगा और शीघ्र ही गली का मोड़ मुड़कर आँखों से ओझल हो गया और सरपट भागने लगा।

तमस (उपन्यास) : चार

टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ और उन पर स्वच्छ नीला आकाश जिसकी पारदर्शी ऊँचाइयों में चीलें तैर रही थीं। बाईं ओर ऊँचा पहाड़ था जिसे नीली आभा ढंके हुए थी। पहाड़ की ऊँचाई पश्चिम की ओर ढलते-ढलते इतनी कम हो गई थी कि मैदानों को छूने लगी थी। दाईं ओर दूरियों के धुंधलके में लाली-मायल की पहाड़ियों की धूमिल-सी आकृतियाँ नज़र आ रही थीं।

सूर्योदय के समय इस दृश्य को दिखा पाने के लिए ही रिचर्ड अपनी पत्नी को ले आया था। रिचर्ड ने मुड़कर लीज़ा के चेहरे की ओर देखा। इस दृश्य को देखकर उस पर कैसा असर हुआ होगा, वह देखना चाहता था। इस मनोरम दृश्य को वह इस ढंग से लीज़ा के सामने पेश करना चाहता था मानो इतने दिन तक इसे एक तोहफ़े की तरह सँभालकर रखे रहा हो।

प्रातः की सुहावनी हवा में लीज़ा के सुनहरे बाल हौले-हौले उड़ रहे थे। उसकी नीली आँखों में एक विशेष प्रकार की स्वच्छता और चमक थी। केवल आँखों के नीचे हल्के-हल्के गूमड़ बनने लगे थे, जो ऊब के कारण, अधिक बीयर पीने तथा देर तक सोते रहने के कारण पैदा हो गए थे।

लीज़ा को खुश कर पाने के लिए ही वह उसे यहाँ लाया था। अबकी बार लगभग छह महीने के बाद लीज़ा विलायत से लौटी थी, और रिचर्ड नहीं चाहता था कि पिछली कहानी फिर से दोहराई जाए, और लीज़ा नई जगह पर ऊबने लगे और परेशान होकर फिर विलायत लौट जाए। यदि लीज़ा को यह शहर पसन्द नहीं आया तो यहाँ का निवास दोनों के लिए नरक बन जाएगा। वह दिन-भर दफ्तर में काम करने के बाद लौटेगा तो दोनों के बीच कोसा-कासी शुरू हो जाएगी। रिचर्ड ने मन ही मन पक्का इरादा कर लिया था कि सुबह का वक़्त वह लीज़ा के साथ बिताया करेगा, इसी कारण पिछले एक हफ्ते से जब से लीज़ा आई थी, वह कभी ठंडी सड़क पर, कभी टोपी पार्क में तो कभी घुड़सवारी पर उसे बाहर लाता रहा था। अपनी ओर से लीज़ा भी पूरी कोशिश कर रही थी कि वह भी रिचर्ड की रुचियों में रुचि लेने लगे और अपने मन को लगाए रखे। जिले के डिप्टी कमिश्नर की पत्नी के नाते लीज़ा अकेली भी छावनी-सदर में घूमती तो देसी लोग उठ-उठकर सलाम करते थे, भाग-भागकर उसका हुक्म बजा लाते थे, पर कोई यहाँ तक अकेला घूम सकता है, और डिप्टी कमिश्नर का समय अपना समय नहीं होता। इसलिए दोनों के ही मन में अन्दर ही अन्दर इस बात का खटका भी था कि वह ज्यादा देर तक चल पाएगा या नहीं, चाहते हुए भी निभ पाएगा या नहीं।

"वह सुन्दर है," लीज़ा बोली, “वह सामने पहाड़ कौन-सा है? क्या यहीं से हिमालय के पहाड़ शुरू हो जाते हैं?"

“हाँ, यही समझो,” रिचर्ड ने प्रोत्साहित होकर कहा, “और यह घाटी आगे चलकर ऊँचे पहाड़ों के बीच सैकड़ों मील दूर तक चली गई है।"

"कितनी सुनसान-सी घाटी है," लीज़ा बुदबुदाई।

"नहीं लीज़ा, यह बड़ी ऐतिहासिक घाटी है। हिन्दुस्तान में आनेवाले सभी हमलावर इसी रास्ते से आए थे। मध्य एशिया से आनेवाले भी और मंगोलिया से आनेवाले भी।" रिचर्ड का उत्साह बढ़ रहा था, “अलेक्सांडर भी इसी रास्ते हिन्दुस्तान में आया था। आगे चलकर घाटी दो रास्तों में बँट गई है, एक रास्ता तिब्बत की तरफ चला गया है, दूसरा अफगानिस्तान की तरफ़। इसी रास्ते सौदागर लोग भी और बुद्ध धर्म के प्रचारक भी दूर-दूर तक जाते थे। बड़ा ऐतिहासिक इलाका है। मैं तो पिछले महीने-भर से इसमें घूम रहा हूँ। इतिहासकार के लिए तो यह इलाका बेशकीमत है। जगह-जगह पुरानी इमारतों के खंडहर हैं, किले, बुद्ध-विहार, सराएँ..."

"तुम तो रिचर्ड यों बातें कर रहे हो जैसे यह तुम्हारा अपना देश हो!" लीज़ा ने हँसकर कहा।

"देश अपना नहीं है लीज़ा, पर इतिहास का विषय तो अपना है!" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। फिर घुड़सवारी का बेंत पहाड़ी की ओर दिखाते हुए बोला, "उस पहाड़ के पीछे करीब सत्तरह मील की दूरी पर टेक्सिला के खंडहर हैं। टेक्सिला जानती हो न?"

"हाँ, नाम सुना है।" "वहाँ किसी ज़माने में बहुत बड़ी यूनिवर्सिटी हुआ करती थी।"

लीज़ा मुसकरा दी। वह समझ गई कि रिचर्ड अब घाटी का सारा इतिहास सुनाएगा। उसे रिचर्ड का उत्साह अच्छा लगा। रिचर्ड सूखे पत्थरों के बारे में भी बड़े उत्साह से बातें कर सकता है, इसमें बच्चों-जैसा कुतूहल है, डिप्टी कमिश्नर होने के बावजूद एक प्रकार का भोलापन है। काश कि वह भी इन बातों में दिलचस्पी ले सकती।

“वहाँ पर एक म्यूजियम भी है, तुम्हें अच्छा लगेगा। वहाँ से हाल ही में मैं गौतम बुद्ध का एक बुत लाया हूँ।"

"क्यों, पहले तुम्हारे पास क्या कम बुत थे जो एक और उठा लाए हो?"

"वहाँ नज़दीक ही खुदाई हो रही थी। बहुत से बुत मिले हैं। क्यूरेटर ने एक बुत मुझे भेंट किया है।"

लीज़ा की आँखों के सामने बँगले का बड़ा कमरा घूम गया जिसमें रिचर्ड ने तरह-तरह के बुत और भारतीय लोक-कला के नमूने सजा रखे थे, और अलमारियों में किताबें ठसाठस भरी थीं। यही धुन इसे कीनिया में भी सवार रहती थी। वहाँ अफ्रीका की लोक-कला के नमूने भरता रहता था, तरह-तरह के तीर-कमान, मणके, पक्षियों के पर, टोटम। और यहाँ बुत इकट्ठे करता रहता है।

लीज़ा का ध्यान फिर आसपास के दृश्य की ओर गया। बाईं ओर नीचे छोटे-छोटे पेड़ों का घना जंगल था, उसी के अन्दर से घोड़े चलाते हुए वे टीले के ऊपर आए थे। जंगल में से निकलकर टीले के ऊपर जाने पर दृश्य खुल गया था। दाईं ओर छोटे-छोटे टीले थे और उनके आगे मैदान था जो फैलकर दूर धुंधलके में खो गया था।

“यहाँ की मिट्टी कैसी है, लाल-लाल रंग की?" लीज़ा टीलों की ओर देखती हुई बुदबुदाई। फिर रिचर्ड की ओर मुड़कर बोली, “सड़क कहाँ है? या क्या हम फिर से जंगल के रास्ते ही लौटकर जाएँगे?" फिर मज़ाक़ के-से स्वर में बोली, “वह सड़क तो दिखाओ जिस पर से अलेक्सांडर हिन्दुस्तान आया था।"

“उन दिनों पक्की सड़कें नहीं थीं, लीज़ा। लेकिन एक पुरानी सड़कलगभग चार सौ साल पुरानी-उस टीले के पीछे से होकर चली गई है।"

लीज़ा ने रिचर्ड की ओर देखा। मोटे फ्रेम के चश्मे के नीचे रिचर्ड के चेहरे का निचला हिस्सा बड़ा नाजूक-सा लगता था। लीज़ा का मन हुआ रिचर्ड उस इलाके के पत्थरों-खंडहरों की चर्चा छोड़कर उसके साथ लाड़-प्यार की बातें करे। पर रिचर्ड अपनी लहर में बोले जा रहा था।

“इस इलाके के लोग भी बहुत पुराने ज़माने से सैकड़ों बरसों से यहाँ बसे हुए हैं।" फिर लीज़ा की ओर घूमकर बोला, “क्या यहाँ के लोगों को तुमने ध्यान से देखा है? एक ही नस्ल के लोग हैं। नाक-नक्श सबके एक-जैसे हैं, एक तरह की नाक, होंठ, चौड़ा माथा, ब्राउन रंग की आँखें यहाँ के लोगों की आँखें ब्राउन रंग की हैं-तुमने ध्यान दिया, लीज़ा?"

“एक ही नस्ल के कैसे हो सकते हैं रिचर्ड, जबकि तुम कहते हो कि इस रास्ते से तरह-तरह के लोग आते रहे हैं?"

“नहीं, नहीं, लीज़ा यही बात तो लोग भूल जाते हैं।" रिचर्ड की आवाज़ में उत्तेजना आ गई थी, मानो वह अपनी किसी खोज को प्रमाणित करने जा रहा हो। “जो लोग मध्य-एशिया से सबसे पहले यहाँ आए, शताब्दियों के बाद उन्हीं के नाती-पोते अन्य देशों से इधर आए। नस्ल सबकी एक ही थी। वे लोग जो आर्य कहलाते थे और हज़ार वर्ष पहले यहाँ पर आए, और वे भी जो मुसलमान कहलाते थे और लगभग एक हजार वर्ष पहले यहाँ पर आएएक ही नस्ल के लोग थे। सभी एक ही मूल जाति के लोग थे।"

“इन बातों को ये लोग भी जानते होंगे?"

“यहाँ के लोग कुछ नहीं जानते। ये वही कुछ जानते हैं जो हम इन्हें बताते हैं।" फिर थोड़ी देर तक मौन रहकर बोला, "ये लोग अपने इतिहास को जानते नहीं हैं, ये केवल उसे जीते-भर हैं।"

लीज़ा ऊबने लगी थी। रिचर्ड पर कोई धुन सवार हो जाए तो वह सब-कुछ भूल जाता था। जितना अधिक वह अपनी धुन में खोता जाता उतना ही अधिक लीज़ा पीछे धकेल दी जाती थी। अपनी किताबों में खोया हुआ रिचर्ड या तो डिप्टी कमिश्नर था या फिर इतिहास का खोजी। लीज़ा को वह बहुत चाहता था लेकिन लीज़ा के लिए उसके पास समय नहीं था। घर में अलमारी के सामने खड़े-खड़े किसी किताब के पन्ने पलटने लगता तो उसी में डूब जाता। इसी कारण लीज़ा जब ऊबने लगती तो उसकी ऊब का कोई ठिकाना नहीं होता था, हर चीज़ काटने को दौड़ती थी, नेटिव लोग ज़हर-से लगने लगते और अन्त में या तो वह 'नरवस ब्रेक-डाउन' का शिकार हो जाती या फिर छः महीने, साल के लिए विलायत लौट जाती थी।

“यहाँ पर कोई पिकनिक-स्पॉट भी है?" लीज़ा ने रिचर्ड की बात काटते हुए पूछा।

रिचर्ड को धक्का-सा लगा, पर यह सवाल भी उसके लिए बहुत असंगत नहीं था।

"बहुत हैं।" फिर अपनी छड़ी से बाईं ओर ऊँचे पर्वत की ओर संकेत करते हुए बोला, “उस पहाड़ की तलहटी पर पानी के झरने हैं और घने पेड़ों के झुरमुट हैं। जल के सोते नीचे तक पहुँचकर पहाड़ में से फूटे हैं, बहुत सुन्दर जगह है। हिन्दुओं ने झरनों के आसपास पत्थर की चिनाई करके वहाँ ताल बना लिए हैं। एक-एक झरने को अलग-अलग नाम दे दिया है : राम और सीता और अपनी मायथोलॉजी के अन्य नामों पर।" यह कहते हुए रिचर्ड मुस्करा दिया, यह सोचकर कि ये नाम लीज़ा के लिए बड़े अनूठे और अपरिचित नाम होंगे। “बहुत स्थान हैं," वह कहे जा रहा था “जगह-जगह पर अनजाने पीरों की क़बरें हैं जिन पर लोग दीये जलाते हैं, पुराने किले हैं, मन्दिर हैं...” फिर बेंत से उसी पहाड़ी के दामन में फैले एक और पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए बोला, “वहाँ थोड़ी दाईं ओर भी एक बढ़िया पिकनिक-स्पॉट है, वहाँ किसी पीर की क़ब्र है, मुसलमानों के किसी पीर की क़ब्र है। वहाँ पर वसन्त के मौसम में एक अनूठा मेला लगता है, दूर-दूर से नाचने-गानेवाली औरतें जमा होती हैं और पन्द्रह दिन तक मेला लगा रहता है। दिन को लोग जुआ खेलते हैं, रात को नाच-गाना होता है। तुम्हें कभी ले चलूँगा।"

"क्या आजकल वहाँ मेला लगा है?"

"हाँ, लगा है, पर इन दिनों जाना ठीक नहीं।"

"क्यों?"

"इन दिनों हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव पाया जाता है। दंगा-फसाद का डर है।"

लीज़ा ने हिन्दुओं और मुसलमानों की स्थिति के बारे में सुन रखा था, लेकिन वह इनके बारे में जानती बहुत कम थी।

“मैं तो अभी तक हिन्दुओं और मुसलमानों को अलग-अलग से पहचान भी नहीं सकती। तुम पहचान लेते हो रिचर्ड, कि आदमी हिन्दू है या मुसलमान?"

"हाँ, मैं पहचान लेता हूँ।"

"घर का खानसामा क्या हिन्दू है या मुसलमान?"

"मुसलमान।"

“तुम कैसे जानते हो?"

“उसके नाम से, फिर उसकी छोटी-सी दाढ़ी से, उसके पहनावे से भी, फिर वह नमाज़ पढ़ता है, यहाँ तक कि उसके खान-पान के तरीके भी अलग हैं।"

"तुम्हे सब मालूम है, रिचर्ड?"

"कुछ-कुछ मालूम है।"

"तुम कितना-कुछ जानते हो, तुम्हें ढेरों बातें मालूम हैं, मैं तो कुछ भी नहीं जानती। तुम मुझे भी बताना रिचर्ड, मैं भी समझना चाहती हूँ। और वह तुम्हारा सेक्रेटरी, वह जो उस रोज़ स्टेशन पर आया था, सफ़ेद-सफ़ेद दाँतोंवाला, वह कौन है? हिन्दू या मुसलमान?"

"वह हिन्दू हैं।"

"तुमने कैसे जाना?"

"उसके नाम से।"

"तुम नाम से ही जान जाते हो?"

"बड़ा आसान है, लीज़ा। मुसलमानों के नामों के अन्त में अली, दीन, अहमद, ऐसे-ऐसे शब्द लगे रहते हैं जबकि हिन्दुओं के नामों के पीछे ऐसे शब्द जैसे लाल, चन्द, राम लगे रहते हैं। रोशनलाल होगा तो हिन्दू, रोशनदीन होगा तो मुसलमान, इकबालचन्द होगा तो हिन्दू, और जो इकबाल अहमद होगा तो मुसलमान।"

"इतना कुछ तो मैं कभी भी नहीं जान सकूँगी," लीज़ा हतोत्साह होकर बोली।

"और वह टर्बनवाला आदमी कौन है जो तुम्हारी ‘गाड़ी' चलाता है, जिसके लम्बी-सी दाढ़ी है?"

"वह सिख है।"

"उसे पहचानना मुश्किल काम नहीं है।" लीज़ा हँसकर बोली।

"सभी सिखों के नाम के पीछे सिंह लगा रहता है।" रिचर्ड ने कहा।

दोनों टीले पर से नीचे उतरने लगे। हवा में हल्की-हल्की तपिश आने लगी थी। सूरज निकल आया था और वातावरण पर से रहस्य का झीना पर्दा उतरने लगा था।

"इस इलाके में घूमने का बहुत मज़ा है, तुम्हें अच्छा लगेगा लीज़ा। हर वीक-एंड कहीं न कहीं निकल जाया करेंगे।"

रिचर्ड का घोड़ा आगे-आगे था। दोनों गोल-गोल पत्थरों से अँटे सूखे नाले को पार कर रहे थे।

"इस वीक-एंड को कहाँ चलोगे?...टेक्सिला?"

लीज़ा की आवाज़ में रिचर्ड को हल्का-सा व्यंग्य का भास हुआ। रिचर्ड के लिए टेक्सिला बहुत ही सुन्दर और महत्त्वपूर्ण स्थल था। वहाँ पर वह घंटों घूमता रहता था, बार-बार जाना चाहता था। लेकिन लीज़ा? क्या लीज़ा को भी बँडहरों में घूमना पसन्द होगा?

"कुछ दिन के लिए वहाँ नहीं जा पाएँगे, लीज़ा । आजकल शहर में थोड़ा तनाव पाया जाता है। जब स्थिति बेहतर हो गई तो चलेंगे। इस वीक-एंड तो...” रिचर्ड को सूझ नहीं पाया कि क्या कहे। आनेवाला वीक-एंड कैसा होगा, वह कहीं लीज़ा को ले जा पाएगा या नहीं, वह स्वयं स्पष्टतया नहीं जानता था।

"कहीं निकल जाएँगे," वह बुदबुदाया और नीचे पहुँचकर घोड़े की बाग मोड़ दी।

नाश्ता करने से पहले रिचर्ड और लीज़ा बँगले के अनगिनत कमरे लाँघते हुए बड़े कमरे में आकर रुक गए। अप्रैल का महीना शुरू होते ही दिन चढ़ने पर ही खिड़कियों और दरवाज़ों पर पर्दे डाल दिए जाते थे जिससे घर के अन्दर स्निग्ध-सा अँधेरा बना रहता और दिन को भी बिजली की रोशनी की ज़रूरत रहती थी। चारों ओर दीवारों के साथ लगी अलमारियों में किताबें ठसाठस भरी थीं। उनके बीच, जगह-जगह दीवार के साथ लकड़ी के ऊँचे आधार रखे थे जिन पर बुद्ध तथा बोधिसत्त्वों के अनेक ऊर्ध्वकाय बुत रखे थे। प्रत्येक बुत के ऊपर बिजली की रोशनी का अलग से प्रबन्ध किया गया था। बटन दबाने पर रोशनी ऐसे कोण से बुत के चेहरे पर पड़ती कि उसका रूप खिल उठता। इनके अतिरिक्त दीवारों पर भारतीय चित्रकला के अनेक चित्र, अँगीठी पर गुड़िया और ताम्रपत्र पर लिखा एक ग्रन्थ रखे थे। अँगीठी के सामने शिलालेख का एक बड़ा-सा टुकड़ा लकड़ी के कुन्दे के सहारे खड़ा था। निकट ही तीन मूढ़े और काली लकड़ी की एक लम्बी, नीची तिपाई रखी थी। यहाँ रिचर्ड पाइप सुलगाकर पढ़ा करता था। यहीं पर खानसामा स्टोव पर पानी की केतली और चाय के बर्तन भी रख जाता था, रिचर्ड को स्वयं चाय बनाकर पीने का शौक था तिपाई पर अधखुली किताबें, पत्रिकाएँ रखी थीं और साथ में पाइप-स्टैंड रखा था जिसमें तरह-तरह के सात-आठ पाइप रखे थे। तिपाई के ऐन ऊपर बड़े गोल शेड का लैम्प लटक रहा था। पढ़ते समय बत्ती जलाने पर प्रकाश का वृत्त इन्हीं तीन 'मूढ़ों' और तिपाई पर ही बना रहता, बाकी कमरे में अँधेरा रहता था।

लीज़ा की कमर में हाथ डाले रिचर्ड बुद्ध की मूर्तियाँ-जिन्हें उसने लीज़ा के चले जाने के बाद इकट्ठा किया था-एक-एक करके दिखा रहा था।

"बँगले के बाहर होता हूँ तो हिन्दुस्तान के किसी शहर में होता हूँ। बँगले में लौटता हूँ तो पूरे हिन्दुस्तान में लौट आता हूँ!" रिचर्ड कह रहा था।

मोटे काले फ्रेम का चश्मा, मुँह में पाइप, कोहनियों पर लगे झब्बोंवाला पुराना कोट और नीचे कार्डराय की ढीली-सी पतलून पहने एक कमरे से दूसरे कमरे में जाता हुआ रिचर्ड किसी संग्रहालय का क्यूरेटर लगता था।

वे बुद्ध की एक मूर्ति के सामने आकर रुक गए।

“बुद्ध की मूर्तियों की सबसे बड़ी खूबी वह धीमी-सी मुस्कान है जो उसके होंठों के आसपास खेलती रहती है। बुद्ध के चेहरे को ऐसी रोशनी में रखना चाहिए जिसमें यह मुस्कान उघड़ आए। ठहरो, मैं तुम्हें दिखलाता हूँ।" रिचर्ड ने कहा और सामने रखी बुद्ध की मूर्ति को थोड़ा दाईं ओर को घुमा दिया और बटन दबा दिया जिससे बुद्ध के ऐन ऊपर टँगी रोशनी जग गई।

"देखा लीज़ा, देखा?" रिचर्ड ने चहककर कहा। लीज़ा को भी लगा कि बुद्ध के चेहरे पर मुस्कान सहसा खिल उठी है-शान्त, स्निग्ध, तनिक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान।"

"मुस्कान होंठों के कोनों में छिपी रहती है। पैंतालीस डिग्री के कोण पर से हल्की-सी रोशनी डालो तो जैसे मुस्कान फूटकर बाहर आ जाती है। अब इसी का कोण मोड़ दूं तो मुस्कान बहुत-कुछ ओझल हो जाएगी..."

लीज़ा ने मुड़कर रिचर्ड के चेहरे की ओर देखा। ये आदमी लोग कितने अजीब होते हैं, कितना रस ले-लेकर पत्थरों और खंडहरों के बारे में बातें करते रहते हैं। कोई स्त्री इन बातों के बारे में जानते हुए भी इतना चहकेगी नहीं, इतनी डींग नहीं मारेगी। उसने रिचर्ड का बाजू दबा दिया और उसके कन्धे पर अपना गाल रख दिया।

“बुद्ध के बुतों की यही सबसे बड़ी खूबी है। एक हल्की-सी मुस्कान बुद्ध के होंठों पर खेलती रहती है।" रिचर्ड ने कहा और झुककर लीज़ा के बालों को चूम लिया।

हर कमरे में तरह-तरह की बत्तियाँ थीं। जहाँ कहीं बैठने का प्रबन्ध था, वहाँ से घंटी की तार किचन तक अथवा बाहर बरामदे तक चली गई थी।

इन कमरों में घूमते रिचर्ड को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह ज़िले का सबसे बड़ा अफ़सर है। यहाँ पर तो वह भारतीय इतिहास का मर्मज्ञ था, भारतीय कला का पारखी। हाँ, जब वह प्रशासक की कुर्सी पर बैठता तो वह ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतिनिधि था, और उन नीतियों को कार्यान्वित करता जो लन्दन से निर्णीत होकर आती थीं। एक काम को दूसरे काम से अलग रखना, एक भावना को दूसरी भावना से अलग रखना उसके प्रशिक्षण की, उसके स्वभाव की विशिष्टता थी। वह एक तरह के काम से बिलकुल दूसरी तरह के काम में बड़ी आसानी से अपने को ढाल लेता था। वह निजी रुचियों को सरकारी काम से अलग रख सकता था, अलग से देख सकता था। एक विशेष अनुशासन में उसका जीवन घूमता था। सप्ताह में तीन दिन वह कचहरी करता था, जिला मजिस्ट्रेट के नाते मुकद्दमे सुनता था। जब जज की कुर्सी पर बैठता तब वह भूल जाता कि वह हाकिमों का नुमाइन्दा है, और नेटिव लोगों के मुकद्दमे सुन रहा है। तब वह न्याय करता, इंडियन पीनल कोड की धाराओं को यथावत् लागू करता। एक क्षेत्र के विचार और भावनाएँ दूसरे क्षेत्र में उलझ नहीं पाती थीं। इसी कारण से उसे मानसिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था, वह कभी भी द्विविधा का शिकार नहीं होता था। उसके अपने विश्वास क्या हैं, धारणाएँ क्या हैं, इनके बारे में निश्चय से कुछ भी कह पाना कठिन था, शायद रिचर्ड ने यह सवाल अपने से भी कभी न पूछा होगा। जब कभी द्विविधा उठती तो वह अपने संवेदन को, अपने विचारों को अपनी डायरी में उँडेल देता था, प्रशासन के क्षेत्र में उसकी निजी मान्यताओं का कोई दखल नहीं था, बल्कि वे असंगत थीं। यह विचार कि हमारा आचरण हमारी मान्यताओं के अनुरूप होना चाहिए, एक ऐसा भोंडा आदर्शवाद है जिससे सिविल सर्विस में नाम लिखाते ही अफ़सर अपना पिंड छुड़ा लेता है। फिर रिचर्ड की अपनी भूमिका क्या थी, प्रशासन में उसका विशिष्ट योगदान किस बात में था? वह उस योग्यता में पाया जाता था जिससे वह ब्रिटिश सरकार की नीतियों को कार्यान्वित करता था; उस पैनी दृष्टि में था, उस सूझ में था जिससे वह स्थिति को समझ लेता था, तथ्यों को पकड़ लेता था; उस चौकसी में था, जिससे, बिना किसी आहट के, ब्रिटिश सरकार की नीतियों को अमली जामा पहनाया जाता था। यों तो यह सवाल ही असंगत है कि उसकी निजी मान्यताएँ क्या थीं। कोई भी व्यक्ति अपना व्यवसाय चुनते समय उसके नैतिक पक्ष के बारे में सोचता ही कब है, वह तो केवल निजी लाभ और निजी हित के बारे में ही सोचता है।

एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले दोनों डाइनिंग रूम की ओर चल पड़े। लीज़ा को घर में यही कमरा सबसे अधिक पसन्द था। बलूत की लकड़ी की बनी काले रंग की गोल मेज़ के ऐन बीचोबीच पीतल की एक चौड़ी गोल तश्तरी रखी थी जिसमें लाल गुलाब के फूल चुन-चुनकर भर दिए गए थे। इस तश्तरी के ऐन ऊपर जालीदार शेडवाला बिजली का लैम्प था जो छत पर से लटककर सीधा तश्तरी के ऊपर उतर आया था। रोशनी का वृत्त सीधा फूलों की तश्तरी पर पड़ रहा था और जालीदार शेड में से छन-छनकर रोशनी टेबल पर रखी चीनी की सुन्दर प्लेटों और उसके आसपास रखे लाल रंग के सर्वियेटों पर पड़ रही थी। रिचर्ड को इस तरह की सजावट में रस मिलता था और लीज़ा जानती थी कि उसके साथ रहते हुए उसे रिचर्ड की ही सनकों के अनुरूप अपने को ढालना होगा।

मेज़ पर नाश्ते के लिए बैठने से पहले रिचर्ड दहलीज़ पर ठिठका खड़ा रहा।

"क्या सोच रहे हो?" लीज़ा ने रिचर्ड के कन्धे पर सिर रखते हुए कहा।

“सोच रहा हूँ कि कहाँ से शुरू करूँ।"

"तुम यहाँ के लोगों के बारे में जानना चाहती हो न, यहाँ की स्थितियों के बारे में..."

"मैं कुछ भी जानना नहीं चाहती। मैं यही जानना चाहती हूँ कि तुम दफ्तर से कब लौटोगे?" और लीज़ा हाथ बढ़ाकर रिचर्ड का वक्ष सहलाने लगी। रिचर्ड ने झुककर उसके होंठ चूम लिए।

“अभी से ऊबने लगीं?"

उसे फिर से भास हुआ जैसे क्षितिज पर कोई बादल का टुकड़ा नमूदार हो गया है जो धीरे-धीरे बड़ा होने लगेगा, गहराने लगेगा और समय पाकर सारे आकाश को ढंक लेगा।

रिचर्ड ने उसे और ज़्यादा ज़ोर से बाँहों में भींच लिया। पर रिचर्ड को इस दुलार में कोई विशेष रस नहीं मिल रहा था। इसके पीछे एक प्रकार की आशंका थी कि अबकी बार लीज़ा के साथ कैसे दिन करेंगे। अपने होंठों से लीज़ा के बाल और माथा और आँखें सहलाते हुए उसे किसी विशेष उत्तेजना का भास नहीं हो रहा था। रात को जिस देह को उत्तेजना और आग्रह के साथ वह लीज़ा की देह के साथ चिपटाए रहता था, इस समय वही देह उसे स्थूल और मांसल-सी लग रही थी। लीज़ा को बहलाने के लिए वह केवल प्रेम का अभिनय कर रहा था, एक प्रकार का फर्ज़ अदा कर रहा था।

तभी मेज़ के पीछे अँधेरे में खड़ा खानसामा धीरे-से आगे बढ़ आया। रोशनी के वृत्त में पहुंचने पर उसकी सफ़ेद वर्दी पर बँधा लाल रंग का कमरबन्द चमक उठा। दबे पाँव, तनिक भी आहट किए बिना वह मेज़ पर नाश्ता लगाने लगा।

लीज़ा और रिचर्ड पहले ही की भाँति एक-दूसरे की बाँहों से बँधे रहे। पहले-पहल, जब कभी खुले दरवाज़े में खड़े वे एक-दूसरे से प्यार कर रहे होते और कोई खानसामा या नौकर अचानक किसी काम से आ जाता तो लीज़ा ठिठककर अलग हो जाती थी, पर रिचर्ड उसे बाँहों में दबाए रखता, और खानसामा अपना काम करता रहता। झेंप के कारण लीज़ा अपनी आँखें बन्द कर लेती ताकि वह खानसामा की उपस्थिति को भूली रहे। पर धीरे-धीरे वह समझ गई थी कि खानसामा एक नेटिव ही तो है, इस पर भी मामूली खानसामा है, इसलिए उसकी उपस्थिति को वह बाधा नहीं समझती थी।

“अबकी बार तुम्हें ज़रूर किसी न किसी काम में दिलचस्पी लेते रहना चाहिए, लीज़ा।"

"किस काम में?"

"कितने ही काम हैं। डिप्टी कमिश्नर की पत्नी तो जिले की प्रथम महिला गिनी जाती है, तुम जो भी काम हाथ में लोगी, उसी में अन्य अफसरों की बीवियाँ तुम्हारी मदद करेंगी।"

"मैं जानती हूँ, जानती हूँ। रेड-क्रॉस के लिए चन्दा इकट्ठा करो, फ्लॉवर-शो का आयोजन करो, बच्चों का फ़ीट तैयार करो, सैनिकों की मदद के लिए कपड़े और जूते इकट्ठे करो, यही ना?"

“एक और संस्था भी है जो यहाँ खोलने का इरादा है, जानवरों की देखभाल और रक्षा के लिए। यहाँ पर अभी तक इस किस्म की कोई संस्था नहीं है। कैंटोनमेंट की सड़कों पर आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं, उन्हें हटाना, घोड़ागाड़ियों में बूढ़े लँगड़े घोड़े जुते रहते हैं...।"

"इनका क्या करोगे?"

“इन्हें मरवा देना चाहिए। इनसे काम लेते रहना तो जुल्म है। आवारा कुत्ते बीमारी फैलाते हैं, हलक जाते हैं तो लोगों को काट खाते हैं। तुम कोई-सा काम चुन लो, जिसमें तुम्हारी रुचि हो।"

“तुम तो डिप्टी कमिश्नरी करो और मैं कुत्ते मरवाती फिरूँ? मुझे क्या पड़ी है।" उसने कहा, “तुम मेरे साथ मज़ाक कर रहे हो। तुम हमेशा मेरे साथ मज़ाक़ करते हो।"

"मैं मज़ाक नहीं करता, मैं तो चाहता हूँ तुम किसी न किसी काम में रुचि लेने लगो।"

“मैं तुम्हारे कामों में रुचि लूँगी। तुम मुझे बताओ जो सुबह बता रहे थे।...हिन्दुस्तानी लोगों के बारे में।"

रिचर्ड मुस्करा दिया।

“सुनो! सभी हिन्दुस्तानी चिड़चिड़े मिज़ाज के होते हैं, छोटे-से उकसाव पर भड़क उठनेवाले, धर्म के नाम पर खून करनेवाले, सभी व्यक्तिवादी होते हैं, और...और सभी सफ़ेद चमड़ीवाली औरतों को पसन्द करते हैं...!"

लीज़ा को वाक्य का अन्तिम अंश सुनते हुए लगा कि रिचर्ड फिर मज़ाक करने लगा है। लीज़ा की नज़र में वह बड़ा विद्वान और योग्य व्यक्ति था, पर उसे यह भी लगता कि वह लीज़ा को जाहिल समझता है, और उसके वाक्यों में अक्सर व्यंग्य छिपा रहता है। गम्भीर विषय पर बात करते हुए भी वह सहसा एकाध वाक्य ऐसा लगा देता, मानो मज़ाक कर रहा हो। इससे लीज़ा को शक होने लगता कि उसकी गम्भीर बात में भी कोई तथ्य है या वह भी मज़ाक़ ही थी।

"तुम कोई भी बात मेरे साथ संजीदगी से नहीं करते।" लीज़ा ने उलाहने के स्वर में कहा।

“संजीदगी से बात करने में तुक ही क्या है।" रिचर्ड ने खोए-खोए मन से कहा। "सुनो लीज़ा, यहाँ पर शायद कोई गड़बड़ हो।"

लीज़ा ने आँखें ऊपर उठाईं और रिचर्ड के चेहरे की ओर देखने लगी। क्या गड़बड़ होगी? फिर जंग होगी?"

“नहीं, मगर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनातनी बढ़ रही है, शायद फसाद होंगे।"

"ये लोग आपस में लड़ेंगे? लन्दन में तो तुम कहते थे कि ये लोग तुम्हारे ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं।"

"हमारे ख़िलाफ़ भी लड़ रहे हैं और आपस में भी लड़ रहे हैं।"

"कैसी बातें कर रहे हो? क्या तुम फिर मज़ाक करने लगे?"

“धर्म के नाम पर आपस में लड़ते हैं, देश के नाम पर हमारे साथ लड़ते हैं।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा।

"बहुत चालाक नहीं बनो, रिचर्ड। मैं सब जानती हूँ। देश के नाम पर लोग तुम्हारे साथ लड़ते हैं, और धर्म के नाम पर तुम इन्हें आपस में लड़ाते हो। क्यों, ठीक है ना?"

"हम नहीं लड़ाते, लीज़ा, ये लोग खुद लड़ते हैं।"

"तुम इन्हें लड़ने से रोक भी तो सकते हो। आखिर हैं तो ये एक ही जाति के लोग।"

रिचर्ड को अपनी पत्नी का भोलापन प्यारा लगा। उसने झुककर लीज़ा को चूम लिया। फिर बोला, “डार्लिंग, हुकूमत करनेवाले यह नहीं देखते प्रजा में कौन सी समानता पाई जाती है, उनकी दिलचस्पी तो यह देखने में होती है कि वे किन-किन बातों में एक-दूसरे से अलग हैं?"

तभी खानसामा ट्रे उठाए चला आया। उसे देखकर लीज़ा बोली, यह हिन्दू है या मुसलमान?"

“तुम बताओ।" रिचर्ड ने कहा।

लीज़ा देर तक खानसामा की ओर देखती रही जो ट्रे का सामान रख चुकने के बाद बुत का बुत बना खड़ा रहा।

"हिन्दु है।"

रिचर्ड हँस दिया, “गलत।"

"गलत क्यों?"

"फिर ध्यान से देखो।"

लीज़ा ने ध्यान से देखा, “सिख है, इसके दाढ़ी है। सिर पर टर्बन है।"

रिचर्ड फिर हँस दिया। खानसामा अभी भी मूर्तिवत् निश्चेष्ट खड़ा था। उसके चेहरे की एक भी मांसपेशी नहीं हिली थी।

"इसने दाढ़ी को तराश रखा है। सिख लोग दाढ़ी को तराश नहीं सकते, यह उनके धर्म के खिलाफ़ है।"

“यह तो तुमने मुझे नहीं बताया था।" लीज़ा बोली।

"मैंने कितनी ही और बातें तुम्हें नहीं बताई हैं।"

"जैसे?"

"जैसे यह कि सिखों के पाँच निशान होते हैं, बालों के अलावा चार चिह और हैं, हिन्दुओं के सिर पर चुटिया होती है, और मुसलमानों के भी अपने निशान होते हैं। फिर खान-पान में भी। हिन्दू गाय का मांस नहीं खाते, और मुसलमान सुअर का मांस नहीं खाते, सिख लोग झटके का मांस खाते हैं जबकि मुसलमान लोग हलाल का मांस खाते हैं..."

"तुम नहीं चाहते कि मैं इनके बारे में कुछ भी सीख पाऊँ। इतनी ढेर-सी बातें किसी को याद रह सकती हैं?" फिर खानसामे की ओर देखकर बोली, “यह सब जान लेने पर क्या मैं देखते ही बता सकूँगी कि आदमी हिन्दू है या मुसलमान? एक-एक निशान देखे बिना कोई कैसे बता सकता है?" फिर हँसकर बोली, "मैं शर्त बाँधकर कह सकती हूँ कि इन लोगों को खुद नहीं मालूम होता होगा कि हिन्दू कौन है और मुसलमान कौन है। और रिचर्ड, तुम भी झूठ बोलते हो, तुम्हें भी पता नहीं चलता होगा।"

फिर खानसामा की ओर मुखातिब होकर बोली, "खानसामा, तुम मुसलमान...?"

"मुसलमान, मेम साहब।"

"तुम हिन्दू को मारेगा?"

खानसामा सकपका गया, उसने आँख उठाकर मेम साहब की ओर देखा, फिर मुस्कराकर साहब की ओर देखने लगा। फिर वह आगे बढ़कर रोशनी के वृत्त में आ गया और एक तश्तरी साहब के सामने बढ़ा दी जिस पर एक तह किया हुआ कागज़ रखा था, और फिर पीछे अँधेरे में हट गया। रिचर्ड ने काग़ज़ को खोलकर देखा और फिर तह करके तश्तरी पर रख दिया।

"क्या है रिचर्ड?"

“नगर की रिपोर्ट है, लीज़ा।" रिचर्ड ने धीमे से कहा और अपने विचारों में खो गया।

“कैसी रिपोर्ट, रिचर्ड?"

"शहर की स्थिति की। तुम तो जानती हो मेरे पास हर रोज़ सुबह तीन-चार महकमों की रिपोर्ट आती हैं, पुलिस सुपरिटेंडेंट की, हैल्थ ऑफिसर की, सिविल सप्लाइज़ ऑफ़िसर की। मुझे माफ़ करना..." कहता हुआ रिचर्ड खानेवाले कमरे के बाहर निकल गया।

थोड़ी देर तक लीज़ा हतबुद्धि-सी बैठी रही। रिचर्ड ने अभी तक कॉफी नहीं पी थी। वह असमंजस में थी कि वह स्वयं कॉफी पी ले या रिचर्ड का इन्तज़ार करे, पर रिचर्ड शीघ्र ही लौट आया।

“यह किसकी रिपोर्ट थी, रिचर्ड?"

“पुलिस सुपरिटेंडेंट की।" रिचर्ड ने कहा, फिर आश्वासन के स्वर में बोला, "कोई खास बात नहीं है, रोज़ की रुटीन रिपोर्ट है।"

लेकिन लीज़ा को लगा जैसे रिचर्ड कुछ छिपा रहा है।

“कुछ तो है रिचर्ड, तुम कुछ छिपा रहे हो?"

"छिपाने को है क्या लीज़ा, फिर तुमसे छिपाऊँगा? शहर की बातों से मुझे या तुम्हें लगाव ही क्या है कि मैं छिपाता फिरूँ?"

"फिर भी कुछ तो है। सुपरिटेंडेंट ने क्या-क्या लिखा है?"

“उसने इतना-भर लिखा है कि शहर में थोड़ा तनाव पाया जाता है, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच। मगर यह कोई नई बात नहीं है। हिन्दुस्तान में आजकल जगह-जगह यह तनाव पाया जाता है।"

"फिर तुम क्या करोगे, रिचर्ड?"

“मुझे क्या करना चाहिए, लीज़ा? मैं शासन करूँगा, और क्या करूँगा?" लीज़ा ने आँखें ऊपर उठाईं।

"तुम फिर मज़ाक़ करने लगे, रिचर्ड?"

"मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा। अगर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव पाया जाता है तो मैं क्या कर सकता हूँ?"

"तुम उनका झगड़ा निपटाओगे नहीं?"

रिचर्ड मुस्करा दिया और कॉफी का घूट भरकर सहज भाव से बोला, “मैं उनसे कहूँगा तुम्हारे धर्म के मामले तुम्हारे निजी मामले हैं, इन्हें तुम्हें खुद सुलझाना चाहिए। सरकार तुम्हारी मदद करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।"

"तुम उनसे यह भी कहना कि तुम एक ही नस्ल के लोग हो, तुम्हें आपस में नहीं लड़ना चाहिए। तुमने मुझे यही बताया था न रिचर्ड?"

"ज़रूर कहूँगा, लीज़ा!" रिचर्ड ने तनिक व्यंग्य से कहा।

दोनों चुपचाप कॉफी के घूट भरते रहे, फिर सहसा लीज़ा का चेहरा चिन्तित हो उठा, “तुम्हें तो कोई खतरा नहीं है ना, रिचर्ड?"

“नहीं, लीज़ा। अगर प्रजा आपस में लड़े तो शासक को किस बात का ख़तरा है।"

लीज़ा के जेहन में बात उतरी तो उसकी आँखों में रिचर्ड के प्रति आदरभाव छलक आया।

“ठीक ही तो कहते थे। तुम कितना कुछ जानते हो, रिचर्ड। तुम सचमुच बड़े समझदार हो। मैं यों ही डर गई थी। मुझे जैक्सन की पत्नी ने एक बार बताया था कि हिन्दुस्तानियों की किसी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए जैक्सन अकेला रिवॉल्वर हाथ में लिये, भीड़ के पीछे-पीछे भागने लगा था। और वह पोर्टिको पर खड़ी देख रही थी और बेहद डर गई थी कि जाने क्या हो जाए। तुम सोचो रिचर्ड, अकेला जैक्सन और सड़कों पर लोगों की भीड़। कुछ भी तो हो सकता था।"

“तुम चिन्ता नहीं करो, लीज़ा।" रिचर्ड ने कुर्सी से उठकर लीज़ा का गाल थपथपाया और बाहर निकल गया।

  • तमस (उपन्यास) : प्रथम खंड (अध्याय 5-7 ) : भीष्म साहनी
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