सिकन्दर और कौआ (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

Sikander Aur Kaua (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'

सिकन्दर महान् ! सिकन्दर महान् भी जब आम आदमी की तरह बुखार से उत्पीड़ित हो जाए, तब यह कैसी महानता है? उस फुफकारते प्रश्न पर आगे सोचने की हिम्मत नहीं हुई तो उसने लेटे-लेटे ही अष्ट धातु का टकोरा बजाया । उसी क्षण एक यूनानी सैनिक हाजिर। कवच और शिरस्त्राण से लैस । दाहिने हाथ में दुधारी तलवार । बायें हाथ में लम्बा भाला। तीन बार कोरनिश करके आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया। सिकन्दर ने आँखें तरेरकर कुछ कहना चाहा, मगर खाँसी के कारण व्यवधान उपस्थित हो गया । भरपूर कद-काठी का बलिष्ठ सैनिक कठपुतली की नाईं आ बढ़ा। अब के साथ झुककर चाँदी की पीकदानी उठाई और पलंग के पास खड़ा हो गया। तीन-चार बार खाँसकर सम्राट ने पीकदानी में बलगम थूका और अशक्त की भाँति वापस लेट गया। सिकन्दर के कण्ठ में भी आम सैनिक - सा चिपचिपा और गन्दा बलगम ! सैनिक ने होठों पर चिपका बलगम पोंछा । चाँदी की झारी से कुल्ला कराया। छत की ओर शिथिल आँखों से देखते हुए सिकन्दर ने हुक्म सुनाया, “आज तीन दिन हो गये, एक भी यूनानी दवा कारगर साबित नहीं हुई । हकीमों के सिर तो बाद में कलम किए जाएँगे, उसके पहले पंजाब का कोना-कोना छानकर किसी अनुभवी वैद्य को लाओ। बुखार घटना तो दूर, सरदर्द और बेचैनी ज्यादा बढ़ गई । नींद भी पूरी नहीं आती। काढ़े से रही-सही भी कम हो गई । फुर्ती करो। शाम के पहले वैद्य नहीं आया तो सबको कत्ल करवा दूँगा। मैं तो बुखार के मारे लेटा रहूँ और तुम सब स्वस्थ - दुरुस्त घूमते रहो ! शर्म नहीं आती? तुम सब-के-सब बेहया हो, बेहया ! जब तक मेरा बुखार न उतरे, किसी भी सैनिक ने खाना खाया तो उसकी खैर नहीं है। जाओ ! इस तरह खड़े-खड़े मेरा मुँह क्या ताक रहे हो ? "

कोई आध घड़ी या पौन घड़ी के पश्चात् सैनिक वापस आया तो सिकन्दर नेपलकें उघाड़कर पूछा, “कह दिया सबको ?”

“ जरूरत ही नहीं पड़ी, गरीबपरवर!” सैनिक ने आधा झुककर जवाब दिया, “हिन्दुस्तान के बहुत बड़े वैद्य अपनी इच्छा से स्वयं ही चले आए।”

सिकन्दर ने मुस्कराने की चेष्टा की, पर मुस्करा नहीं सका । विस्मय प्रकट करते कहा, “बड़ा अजीब मुल्क है! कई देश जीते पर ऐसा मुल्क नहीं देखा !” अचानक बुखार का ध्यान आते ही पूछा, “पर वे हैं कहाँ ? साथ लेकर क्यों नहीं आये?”

“बाहर खड़े हैं, हुजूर! आपका आदेश हो तो अभी ले आता हूँ । ”

“बकवास बन्द करो!” उसने गुस्से से कहा, “इसमें भी आदेश की जरूरत है ? वक्त पर काम लेने के लिए ही अक्ल की नियामत मिली है ! समझे? जाओ जल्दी लेकर जाओ ।" वह इतने जोर से बोला कि बाहर खड़ा वैद्य बिन बुलाए ही भीतर चला आया । मुस्कराते बोला, “बुलाने की जरूरत नहीं । मैंने अक्ल से काम लिया और स्वयं चला आया !”

सिकन्दर ने चौंककर देखा - साफ-शफ्फाफ सफेद दाढ़ी। सफेद ही जटा । प्रशस्त ललाट । चमकती हुई बत्तीसी । तीखी नासिका । स्नेह और माधुर्य से आप्लावित आँखें ! जैसे कोई देवदूत प्रकट हुआ हो! क्षणभर के लिए सम्राट अपनी बीमारी भूल गया। कमरे में पर्याप्त रोशनी थी। उधर वैद्य भी बिस्तर पर लेटे बीमार की सूरत और आँखें ध्यानपूर्वक निहारता रहा - यूनानी देवता के उनमान प्रदीप्त चेहरा । आसन्न बीमारी से किंचित् क्लान्त! दर्प के उन्मत्त नयन । घनी - स्याह भौंहें । पतले और गुलाबी अधर । सशक्त लम्बी भुजाएँ । साँचे में ढली - सी कद्दावर देह ।

सिकन्दर की आँखों में क्षणभर के लिए गुरुवर अरस्तू की स्नेह-सिक्त निगाहें कौंध गईं। किन्तु अगले ही क्षण खाँसने की भनक कानों में चुभते ही उसने नब्ज दिखाने की खातिर हाथ आगे किया । बूढ़े वैद्य ने गरदन हिलाते कहा, “ना, नब्ज की बजाय सूरत और आँखों से पहले ही निदान हो गया। मियादी बुखार है - अन्तर्ज्वर । सत्ताईस दिन से पहले नहीं उतरेगा।” फिर कुछ रुककर कहने लगा, “अब तक जो खाया-पीया, उसकी चर्चा करने में कोई सार नहीं । पर आज से गरिष्ठ भोजन व मांस-मदिरा सब बन्द । बुखार उतरने के बाद भी पूरे एक पखवाड़े तक जैसा कहूँ, परहेज रखना पड़ेगा । वरना बीमारी उथल जाने का पूरा खतरा है!”

विश्वविजेता भीतर-ही-भीतर काँप उठा। युद्ध में हजारों की नृशंस हत्या करने वाले को स्वयं अपनी मौत का बेहद डर लगा ! तनिक हकलाते पूछा, “ खतरा ?

किस बात का खतरा ? मामूली बुखार से कैसा खतरा ? तुम्हारा मतलब क्या है... ? साफ-साफ बताओ!”

“यह बुखार मामूली नहीं है । तीन दिन जो बदपरहेजी की, उसका भी बुरा असर हुआ है। अब पूरी सावचेती बरतेंगे, तभी उपचार में हाथ डालूँगा, अन्यथा नहीं !”

वैद्य की यह बात दोनों को ही काफी नागवार महसूस हुई। सैनिक ने तलवार की मूठ कुछ कसकर पकड़ी। सिकन्दर तैश में आकर बोला, “किसी भी सम्राट के आदेश की अवहेलना का मतलब जानते हो? फिर मैं तो सिकन्दर हूँ, सिकन्दर ! मेरी शोहरत सुनी नहीं क्या ?"

“खूब सुनी है ! आँखों से भी देखी है ।" वैद्य ने अकृत्रिम भाव से कहा, " पंजाब का हिंसक संहार क्या भुलाया जा सकता है... ? "

सम्राट कुछ गहरे सोच-विचार में उलझा - सा प्रतीत हुआ । वैद्य की परिपक्व दृष्टि ने भी उसे लक्षित किया। वह आगे कुछ कहे, उसके पहले ही सिकन्दर एक उच्छ्वास भरकर बोला, “फिर भी तुम मेरे इलाज की खातिर स्वयं चलकर आये, बात कुछ समझ में नहीं बैठी ... !”

वृद्ध के होठों पर एक मार्मिक मुस्कान थिरक उठी। दो-एक कदम आगे बढ़कर उसकी आँखों में गहराई से झाँकते कहने लगा, “इसमें समझने लायक कुछ भेद है ही नहीं। देश के प्रति मेरी निष्ठा और रोगी के प्रति मेरा कर्तव्य, ये दो अलग-अलग मसले हैं! दोनों को साथ मिलाकर देखने से ही झमेला होता है ! "

“रोगी? क्या कहा रोगी ?” सिकन्दर के दिल पर एक असह्य चोट लगी । गर्वित स्वर में बोला, “मैं सिकन्दर हूँ! सिकन्दर महान् ! पहला विश्वसम्राट ! कुछ होश भी है तुम्हें...?"

“ पूरा होश है, तभी तो बिन बुलाए चला आया ! कोई दूसरा होश मुझे रखना ही नहीं है। पर मेहरबानी करके अब दीगर चर्चा बन्द कीजिए । बाकी सब औषधियाँ तो लाया ही हूँ । एकाध जड़ी-बूटी के लिए मुझे अरण्य में जाना पड़ेगा।"

किसी की आज्ञा लिए बिना ही वह बाहर चल दिया। सिकन्दर ने अदेर हिदायत दी, “सुनो, दो सैनिक हरदम इसके साथ रहने चाहिए ।"

“जो हुक्म, जहाँपनाह!”

और जहाँपनाह ने स्वयं को ही सुनाते हुए धीमे से कहा, “बड़े विचित्र लोग हैं! क्या बच्चे, क्या बूढ़े और क्या औरतें - सभी तो दार्शनिक हैं । कहाँ मेरे गुरु अरस्तू तो यूनानियों के अलावा सबको ही जन्मजात गुलाम समझते हैं, जिन्हें बोली लगाकर बेचना ही उचित है। हुँ, क्योंकर उचित है? पोरस से मुकम्मल सन्धि करके, बस, यहीं बस जाने की इच्छा हो रही है !”

अपने हुनर मे पूर्णतया पारंगत होने पर भी बुजुर्ग वैद्य राजनीति की पेचीदगियों में अधिक समझता नहीं था, सो अरण्य से अपने आप ही काढ़ा बनाकर लाया । सीपी भरकर सिकन्दर की मनुहार करते बोला, “ तीन-तीन घड़ी के बाद मैं खुद अपनी निगरानी में आपको यह आसव पिलाऊँगा ।”

सम्राट मना करे उसके पहले ही सैनिक ने लपककर सीपी छीन ली। रुआब से बोला, “पहली खुराक आपको पीनी पड़ेगी ! यही शाही कायदा है...!”

अपनी कमजोरी को छिपाने की मंशा से सिकन्दर तत्काल उठ बैठा। एक अबोध बच्चे की नाईं वृद्ध की दाढ़ी निहारते कहने लगा, “कहीं इसमें प्राण घातक जहर मिला हुआ न हो।” और दूसरे ही क्षण उसके होठों पर एक अलौकिक मुस्कान दीप्त हो उठी । “मगर आपके हाथ से तो जहर भी पीने को तैयार हूँ। माँ ओलम्पियास ठेठ बचपन में इसी तरह दवा पिलाती थी । बिल्कुल ऐसी ही सीपी में ।” इतना कहकर उसने अदेर एक शिशु की नाईं अपना मुँह खोला और वृद्ध ने सीपी का आसव उसे पिला दिया। बेहद आश्चर्य कि युवा सम्राट एक ही जीवन में दुबारा वैसा ही शिशु बन गया ! सहज हाव-भाव से सीपी झपटकर उसे चाटने लगा। फिर चंचल आँखें घुमाते हुए जूठी सीपी सैनिक के हाथ में थमा दी। बड़ी से बड़ी दिग्विजय के बर्बर परितोष की अपेक्षा एक सात्विक आनन्द की उदात्त अनुभूति से उसका अन्तस् छलछला उठा! लेटने की इच्छा होते हुए भी वह लेटा नहीं। कुछ देर तक बैठ रहा । फिर अपनी बाल्य जिज्ञासा प्रकट करते पूछा, “आपको मेरी बीमारी का पता क्योंकर चला? न तो आपने किसी से पूछा और न किसी ने आपको कुछ बताया !”

“जिस तरह दूर-दराज के पक्षियों को पानी का पता चलता है । भँवरों को फूलों का और मधुमक्खियों को पराग का पता चलता है ?” फिर बुजुर्ग वैद्य ने तनिक मुस्कराते कहा, “जिस तरह गिद्ध - कौवों को मरणासन्न पशुओं का पता चलता है!”

प्रतिवाद की कोई गुंजाइश नजर नहीं आयी तो वह वैद्य की दाढ़ी के रुपहले बाल टुकुर-टुकुर देखता रहा ।

दूसरे दिन अल्ल-सवेरे वैद्य ने दवा पिलाते समय सिकन्दर को आगाह किया, “करीब पचासी घड़ियों तक सीने में जलन, सारे शरीर में टूटन, सिर में दर्द, जी में घबराहट और बेचैनी रहेगी । किसी तरह की चिन्ता न करके, मामूली हिम्मत से काम लें। फिलहाल नदी के चमकते बालू- कणों का उबला पानी, अध- सिंकी जेठी बाजरी का दलिया व बकरी का दूध ही एकमात्र पथ्य है। तीन दिन बाद गाय के दूध में उबली हुई अंजीरों का सेवन मुफीद रहेगा। मुझे पूरी आशा है कि आप पहले से अधिक तन्दुरुस्त हो जाएँगे।”

अनुभवी वैद्य ने जैसा कहा, वैसा ही हुआ । सम्राट की हालत धीरे-धीरे बिगड़ती गयी सो पचासी घड़ियों तक बिगड़ती ही रही । विश्वविजेता का बुरा हाल ! उसकी सेना में हजारों बहादुर सैनिक थे । पसीने की जगह खून बहाने वाले! पूरे वफादार ! पर कोई भी उसकी बीमारी बाँट नहीं सका । उसे अकेले ही जस-तस भोगनी पड़ी! सीने के भीतर मानो आँच सुलग रही हो । हथेलियों में जलन । पाँवों में जलन । ओझरी और अंतड़ियों में कुलबुलाहट । विश्वसम्राट एक बच्चे की नाईं छटपटा रहा था । अर्द्धविमूर्च्छित अवस्था में नितान्त नयी-नयी अनुभूतियों से उसका साक्षात्कार हो रहा था । वाणी और शब्दों से सर्वथा परे ! यूनान और मेसेडोनिया की शान व प्रतिष्ठा को कुछ समय के लिए वह भूल चुका था। जिसकी विजय दुन्दुभि परसिया, मिस्र, सीरिया, अफ्रीका, मध्य एशिया तक निर्बाध गूँजती रही, वह रोगशैया पर अकेला लेटा है ! खामोश । पत्नी रोकसाना भी साथ नहीं दे सकी । थेबिस के निवासियों ने जब उसकी दासता स्वीकार करने से मना कर दिया तो भयंकर भूचाल की नाईं उसने सारे शहर को ही नेस्तनाबूद कर दिया। छह हजार बाशिन्दे जो कुछ समय पहले जीवित थे, हँसते-मुस्कराते थे, सपने देखते थे- उन्हें मौत के घाट उतार दिया ! निःस्वप्न बना दिया ! हजारों बच्चों एवं हजारों औरतों को गुलाम बनाकर बेच डाला। आज वे सभी अपनी साँसों का लेखा-जोखा उससे माँग रहे हैं! सत्तर नये शहर बसाने वाला एक छोटे-से कमरे में बेबस की नाईं पड़ा है! न हीरे-मोतियों से उसकी बीमारी कम हुई, न बेशुमार सोने-चाँदी से ! रह-रहकर उसकी आँखों के सामने आलोक एवं अँधियारा बुझता और दमकता ...!

लेकिन पचासी घड़ियाँ गुजरते ही मानो किसी दुःस्वप्न का अभिशाप आँख खुलते ही मिट गया हो । सिकन्दर को पहली चेतना तो यह हुई कि वह मरते-मरते बच गया! यूनानी हकीमों के भरोसे तो कुछ उम्मीद रखना ही बेकार था । सम्राट ने वैद्य की ओर कृतज्ञता भरी आँखों से देखा और वैद्य ने वात्सल्य भाव से अपने रोगी को निहारा । मौन की वाणी क्षणभर में ही बहुत कुछ व्यक्त कर जाती है। जो थूक सनी जिह्वा से सम्भव नहीं... !

बीमारी भुगतने पर ही अजेय सम्राट को स्वस्थ जीवन की अहमियत समझ में आयी - जिस प्रकार सूरज दिन में एक बार ही उगता है, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को जीन के निमित्त फकत एक ही ज़िन्दगी मिलती है! कोई भी मनुष्य एक ही जीवन में दो बार नहीं जी सकता ! मगर सिकन्दर ने कभी इस सच्चाई पर गौर नहीं किया। एक के बाद एक युद्ध की सफलताओं और नरसंहार के दौरान उसे यह सोचने का वक्त ही नहीं मिला कि वह स्वयं नश्वर है ! उसके दिवंगत होने के बाद भी यह दुनिया इसी तरह मजे में आबाद रहेगी - क्षणभर के लिए भी उसे यह परम सत्य महसूस नहीं हुआ ! बलवती महत्त्वाकांक्षाओं के प्रति ऐसा उदासीन तो वह कभी नहीं रहा ! स्वयं किसी निश्चित निर्णय पर पहुँच सका तो उसने वयोवृद्ध वैद्य से पूछना ही उचित समझा। उस पर सम्राट का विश्वास कुछ बढ़ता जा रहा था । गर्दन खुजलाते शंका प्रकट की, “यदि संयोग से आप मेरा उपचार नहीं करते तो सच बताइए, क्या मैं मर जाता...?”

वैद्य इसी अवसर की प्रतीक्षा में था ! दृढ़ निश्चयात्मक स्वर में कहा, “नहीं, अभी तुम्हारी उम्र शेष है !”

" कितनी ? कितनी उम्र शेष है? बताइए कितनी ?” सिकन्दर ने अत्यधिक व्यग्रता से पूछा ।

“क्यों जानना चाहते हो? न जानना ही श्रेयस्कर है ! राजा के लिए भी और रंक के लिए भी !”

“मेरे न रहने पर दुनिया के असंख्य बाशिन्दे जिन्दा रहें, मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता...! मेरे मौजूद न रहने पर भी सूरज चाँद उगें, फूल खिलें, लोग सुहागरात मनाएँ, जच्चा के गीत गाएँ और बरसात में नहाएँ, मैं हरगिज, हरगिज नहीं चाहता! एक अदना आदमी जिन्दा रहे, हँसता - मुस्कराता रहे और सिकन्दर कूच कर जाए, ऐसा नहीं हो सकता... !”

“ऐसा ही होता है ! " वैद्य ने धीमे पर दृढ़ स्वर में कहा, “आपके पिताश्री प्रयाण कर गये और दुनिया जीवित है ! ऐसा ही होता है, होता रहेगा...!”

“नहीं, वे मरे नहीं, उनकी तो हत्या हुई थी ।”

“ मौत अपने जिम्मे कुछ नहीं लेती ! उसे तो फकत बहाना भर चाहिए। समय पर जो भी बहाना मिल जाए, बस, इतना ही पर्याप्त है उसके लिए...!”

“पर मेरे लिए एक भी बहाना उसे नहीं मिलेगा...!"

" बहाने तो अपने-आप उद्घटित होते रहते हैं, वह कहीं खोजने नहीं जाती !” फिर उसने तनिक गम्भीर स्वर में कहा, “क्या तुम सचमुच अमर होना चाहते हो? मैं तो नहीं चाहता!”

सिकन्दर ने बेबाक उत्तर दिया, “आप किस प्रलोभन की खातिर अमर होना चाहेंगे, भला? मेरे पास तो अनेक प्रलोभन हैं- कई विजित साम्राज्य, हजारों गुलाम, बेशुमार दौलत, अनगिनत हीरे-मोती और बेइन्तहा सोना-चाँदी ! मुझसे पहले संसार में ऐसा कोई सम्राट नहीं हुआ, जिसके पास इतना बड़ा साम्राज्य और इतनी माया हो ! क्या एक दिन अचीता मर जाने के लिए मैंने इतना खूब बहाया...?”

वैद्य ने कुछ सोच-विचारकर कहा, “यदि तुम्हारी ऐसी ही प्रचण्ड कामना है तो तुम्हें अमर होने का उपाय भी बताऊँगा ! मेरे सिवाय कोई नहीं जानता । वचन दो कि तुम किसी को भी नहीं बताओगे !"

सिकन्दर की खुशी का पार नहीं रहा, जैसे तारों भरा आकाश उसकी मुट्ठी में समा गया हो ! उसके शरीर में और भी दस-बीस जिह्वाएँ होतीं तो सभी से एक साथ कहता, किन्तु विश्वविजेता होने पर भी उसके मुँह में मात्र एक ही जीभ थी ! बोला, “नहीं, हरगिज नहीं बताऊँगा । रोकसाना को भी नहीं, जिसे में बहुत चाहता हूँ। औरतों को तो अमर होने की जरूरत ही नहीं है ! उन्हें तो बीस बरस की उम्र में ही मर जाना चाहिए ! बस, एक बात और कि मैं समय के साथ बूढ़ा भी नहीं होना चाहता, जैसा आज हूँ वैसा ही बना रहूँ...! "

बूढ़ा वैद्य दार्शनिक मुद्रा में कुछ देर तक सोचता रहा। फिर अकस्मात् इस तरह धीर - गम्भीर स्वर में कहने लगा, मानो सिकन्दर के कमरे की स्तब्ध हवा से वे बोल-बरस रहे हों ! “ कामना करता हूँ कि परमेश्वर तुम्हें सुमति प्रदान करे ! क्या तुम्हें यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि अपने जन्म की वेला तुम उतने ही असहाय निरीह और अशक्त थे, जितने कि अन्य शिशु होते हैं ! समय पाकर ही तुम धीरे-धीरे बड़े हुए हो ! जवान हुए हो ! समय के साथ ही नश्वर प्राणियों की नाईं तुम्हें भी बुढ़ापा निर्बल, निर्वीर्य और जर्जर कर देगा! अकाल मृत्यु की बात छोड़ भी दूँ, तब भी तुम्हें समझाना चाहूँगा कि मरण के चिर वरदान की वजह से ही जीवन की महिमा है ! पर तुमने यमराज की जिम्मेवारी हाथ में लेकर हजारों निर्दोष व्यक्तियों का अकाल संहार किया है ! फिर भी तुम अमर होना चाहते हो? बोलो क्यों ? क्यों ?”

जीवन में पहली बार सिकन्दर को अपनी इच्छा के विरुद्ध प्रतिवाद के कड़वे बोल सुनने पड़े, तब भी उसने आपा नहीं खोया । इसलिए कि वह अमर होना चाहता था और जिसका उपाय सिर्फ उस बूढ़े वैद्य के पास ही था । और उसी ने सिकन्दर को जीवनदान दिया था। अपनी सफाई के पहलू से आश्वस्त नहीं होते हुए उसने ऊपरी मन से कहा, “इसलिए कि मुझसे पहले इतने बड़े साम्राज्य का सम्राट और इतनी दौलत का दावेदार समूचे विश्व में कोई नहीं हुआ ! इस प्रलोभन को मैं जीत नहीं सकता! मुझे अमरत्व का वरदान चाहिए ही चाहिए...!”

इस बार धवल बत्तीसी और होठों के साथ-साथ बूढ़े वैद्य की दाढ़ी का बाल-बाल एक अलौकिक मुस्कान से दीप्त हो उठा । स्वीकृति के आशय से गरदन हिलाते कहने लगा, “अब मुझे कुछ भी नहीं कहना है । जाने क्यों मुझे आशा थी कि अरस्तू जैसे महान् गुरु के शिष्य में कुछ तो वैसी समझ होगी ! खैर, तुम्हारी यही अन्तिम इच्छा है तो इसे अधूरी नहीं रखना चाहूँगा । इस बार जुदा होने के पश्चात् तुमसे मेरी मुलाकात नहीं होगी। पर मेरी मंगल कामना सदैव तुम्हारे साथ रहेगी। आश्रम में लौटते ही अपने शिष्यों को अन्तिम प्रवचन सुनाकर, अपनी स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करूँगा !... तो अब ध्यानपूर्वक सुनो। सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में एक लम्बी गुफा है। जिसके मुँह पर एक प्रचण्ड शिला युगों से रखी हुई है । विश्वस्त सैनिकों से हटवाकर तुम अकेले ही उसके भीतर आगे बढ़ते रहना । निःशंक और निःशस्त्र । उस अछूती जमीन पर पहली बार तुम्हारे ही पदचिह्न अंकित होंगे !”

सिकन्दर की सुगठित देह के भीतर और बाहर आलोड़ित भावों को कुछ देर परिलक्षित करने के पश्चात् वैद्य आगे कहने लगा, “ काफी दूर चलने पर एक झरने का पानी एक तलैया में समाहित होते हुए तुम्हें साफ दिखलाई पड़ेगा ! वह अद्भुत तलैया न कभी खाली होती है और न कभी पूरमपूर भरी होती है ! वहीं पीपल के पेड़ पर एक कौआ हरदम चिल्लाता रहता है- क्राँव ! क्राँव ! क्राँव ! इस सृष्टि में फकत वही अमर है, जो अपने अमरत्व की प्रतिक्षण उद्घोषणा करता रहता है ! झरने के निःशेष होते प्रवाह से तुम सात अंजलि पानी पी लेना । फिर तुम्हारे शाश्वत जीवन को चुनौती देनेवाला कोई नहीं है-न देवता, न असुर, न मनुष्य ! केवल इक्कीस विश्वस्त सैनिकों को साथ ले जाओ। उन्हें गुफा से तीन हजार कदम दूर रखना। इसी शुक्ल पक्ष की नवमी को प्रस्थान करना । तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।”

तत्पश्चात् स्वस्थ-दुरुस्त सिकन्दर के लिए कैसी ढील! सुहाने सपने की नाईं वह इक्कीस सशस्त्र सैनिकों के साथ हवा से बातें करता हुआ सुमेरु पर्वत की उस निर्देशित गुफा के पास पहुँचा । बलिष्ठ सैनिकों की बेजोड़ ताकत के बावजूद । वह भरकम शिला बड़ी मुश्किल से दूर खिसक पाई ! गुफा के भीतर प्रवेश करते हुए सिकन्दर का माथा ठनका। भीतर छिपे हुए पौरस के सैनिकों ने हमला कर दिया तो वह अकेला निःशस्त्र हाथों से क्योंकर उनका सामना कर सकेगा ? मौत के मर्मान्तक भय की उसे पहली बार दुर्दान्त अनुभूति हुई ! कायर की भाँति वापस लौटने की प्रबल इच्छा के बावजूद उसने मौत के भय को तत्काल झटक दिया । नहीं-नहीं, भारतवर्ष का वह निश्छल देवदूत अपने दुश्मन के साथ भी विश्वासघात नहीं कर सकता ! बर्फ की नाईं दमकती उस धवल दाढ़ी का बाल-बाल उसे आश्वस्त करता रहा और वह बेधड़क आगे बढ़ता रहा !... सचमुच, गहर घुमेर पीपल की डाल पर बैठा कौआ अपने अमरत्व की अविराम रट लगा रहा था - क्राँव ! क्राँव ! क्राँव! और पास ही कल-कल की सुमधुर ध्वनि झंकृत करता हुआ स्वच्छ झरना अविरल बह रहा था। सिकन्दर के आश्चर्य और आनन्द की सीमा नहीं रही कि इतनी दूर गुफा के भीतर यह मद्धिम - मद्धिम आलोक कहाँ से आ रहा है? उसने विस्फारित आँखों से एकटक देखा कि ठौर-ठौर बेशकीमती हीरे बिखरे पड़े हैं! जिनकी किरणों से जो अप्रतिम द्युति झिलमिला रही है, वह पूनम की चाँदनी और सूर्योदय के उजाले से सर्वथा भिन्न है ! कौए के अलावा कहीं कोई प्राणी उसे नजर नहीं आया ! तो क्या यह कौआ ही इस अकूत खजाने का मालिक है ? क्या उसे एहसास भी है अपने इस अपरिमित वैभव का ? झरने का पानी पीकर वह गुफा के तमाम नगीने हथियाने की तजबीज सोचेगा ! सिकन्दर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं...!

हठात् कौए की अविराम क्राँव-क्राँव बन्द हो गयी ! सिकन्दर ने चौंककर उधर देखा। पीपल की शाख पर बैठा कौआ पूर्ण सतर्क होकर उसे ही एकटक घूर रहा है ! कहीं उसके प्रच्छन्न प्रलोभन का आभास तो नहीं हो गया उसे? सहसा झरने की अविरल पुकार भी शान्त हो गयी, जैसे किसी के अदीठ खूनी पंजों ने उसे दबोच लिया हो ! उस असह्य शान्ति का नीरव कोलाहल उसके कानों को बेधने लगा!...यदि यह आलोक भी इसी तरह अचानक बुझ गया तो वह न झरने के पास पहुँच सकेगा और न गुफा से बाहर निकल सकेगा ! तब इस अनादि और अनन्त अन्धकार में एक ही ठौर खड़ा खड़ा वह निश्चित रूप से सूख जाएगा । सिकन्दर की आँखों के सामने निर्धूम कोहरा - सा छाने लगा तो चेतना के परे ही उसके पाँव झरने की ओर स्वतः बढ़ चले, मानो मस्तिष्क की बजाय उसके पाँवों ने यह बात सोची हो !

अमर होने की लालसा के वशीभूत उसके हाथ पानी की ओर बढ़े ही थे कि कौए की ललकार सुनकर, वे जहाँ थे, वहीं रुक गये - जरा ठहरो सिकन्दर ! मेरी स्वीकृति के बिना इस झरने की एक बूँद भी चख ली तो यहीं ढेर हो जाओगे ! जिस भूल के कारण मैं हजारों-हजार बरस से अमरता का यह अभिशाप भोग रहा हूँ, तू सपने में भी यह गलती मत करना ! मैं इस शाश्वत ज़िन्दगी से तंग आ गया हूँ! जाने कितनी शताब्दियों से मरना चाहता हूँ, लेकिन मर नहीं सकता ! निरंतर क्राँव-काँव के रुदन से मेरे कान सर्वथा संवेदन- शून्य हो चुके हैं ! और जिस माया के प्रति तेरी चाह जागी, मैं ही उसका एकछत्र स्वामी हूँ ! यदि तू मृत्यु के देवता यमराज के पास जाकर मेरे लिए मरने का नुस्खा ले आये तो यह समूची सम्पदा तेरे हवाले कर दूँगा ! मुझे तो यह फूटी आँखों भी नहीं सुहाती ! मेरी मृत्यु के बाद जितनी इच्छा हो, इस झरने का पानी पीते रहना! ना रे ना, जिस तलवार से तूने हजारों व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा, मैं उससे मरने वाला नहीं हूँ! न अग्नि में जलकर, न पानी में डूबकर और न कैसा ही हलाहल विष खाकर मैं आत्महत्या कर सकता हूँ ! भगवान भले ही मर जाए, मैं नहीं मर सकता ! जीने का सुख और आनन्द तभी है, जब मरने का संयोग उसके साथ जुड़े ! मृत्युविहीन अमरता से बड़ा अभिशाप और कुछ भी नहीं है ! मेरा चिर- दुर्भाग्य कि मैं वही त्रासदी भुगत रहा हूँ ! अरे ! तू किस चिन्ता में डूब गया ? तेरे हाथ से मरे हुए एक व्यक्ति या गुलाम के रूप में बेचे हुए एक बच्चे की जीवन्त साँसों की तुलना में इन अगणित हीरों का मूल्य एक कानी- कौड़ी भी नहीं है ! कौए की योनि पाकर, जो बात मेरी समझ में आ गयी और एक मानुस होकर भी तेरी समझ में नहीं आयी ? फिर बुद्धि का मायना क्या है? उसकी सार्थकता क्या है ? क्राँव ! क्राँव ! क्राँव !”

अपनी ख्याति के चढ़ते दौर में, विश्वविजेता की सर्वोच्च प्रतिष्ठा के बावजूद सिकन्दर एक कौए से पराजित होकर उलटे पाँव वापस लौट पड़ा! तब उन दोनों में कौन महान् है - सिकन्दर या कौआ ? कौआ या सिकन्दर ? उस चिर-ज्वलन्त प्रश्न का उत्तर आज भी शेष है! शेष है...!!

5 दिसम्बर, 1997, शुक्रवार

  • मुख्य पृष्ठ : विजयदान देथा 'बिज्‍जी' : हिन्दी कहानियाँ, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियाँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां