सिद्धार्थ (उपन्यास) : हरमन हेस

Siddhartha (German Novel in Hindi) : Hermann Hesse

4 : जागरण

जिस समय सिद्धार्थ ने इस उद्यान से विदा ली, जिसमें पूर्णात्मा बुद्ध रहता था और जिसमें अब गोविन्द भी रहने लगा था, उसने सोचा कि उसका अतीत भी इसी उद्यान में पीछे छूट गया है। वह धीरे-धीरे अपने पथ पर अग्रसर हुआ, उसका मस्तिष्क विचारों से भरा हुआ था। वह गम्भीरता से विचार करता रहा, जब तक कि उसकी भावना ने उसे अभिभूत न कर लिया और वह ऐसी स्थिति में न पहुँच गया जहाँ मनुष्य को कारण का उद्भास होने लगता है, क्योंकि कारणों का ज्ञान लेना ही, उसे लगता था, वास्तविक विचार करना है और विचार को प्रक्रिया से गुजरकर भावनाएँ ज्ञान का रूप धारण करती हैं और विनष्ट न होकर और भी अधिक परिपक्व स्वरूप धारण करती हैं।

अपने मार्ग पर चलते-चलते सिद्धार्थ गम्भीरतापूर्वक विचार करता जाता था। उसने अनुभव किया कि वह युवक नहीं रह गया है, वह अब आदमी हो गया है। उसने अनुभव किया कि सर्प की कैंचुली के समान उसने कुछ छोड़ दिया है। कुछ अब उसके साथ नहीं है, कुछ उसकी सम्पूर्ण यौवनावस्था में उसके साथ रहा है और अब उसके अस्तित्व का एक अंग बन चुका है। यह 'कुछ' शिक्षक प्राप्त करने और उनकी शिक्षा ग्रहण करने की भावना थी। वह अब अन्तिम गुरु-जो महानतम् सर्वाधिक ज्ञान-सम्पन्न पवित्रतम् स्वयं बुद्ध था-को भी छोड़ रहा है। वह उसे छोड़ने पर बाध्य था। वह उसके मत को स्वीकार नहीं कर सकता था।

शनैः-शनैः विचारक अपने पथ पर बढ़ गया। उसने अपने आपसे पूछा। वह क्या चीज़ है जो तुम शिक्षकों और उपदेशकों से सीखना चाहते थे और हालाँकि उनसे तुनने बहुत-कुछ सीखा, वह क्या चीज़ थी जो वे तुम्हें नहीं सिखा सके? और उसने सोचा-मैं अपने स्व को, उसके गुण और कर्म को जानना चाहता था। मैं इसी स्वकीयता से मुक्ति पाना चाहता था, इसको जीतना चाहता था, किन्तु जीत नहीं सका। केवल उसे धोखा दे सका, केवल उससे दूर भाग सका, केवल उससे नजर बचा सका। सचमुच दुनिया की किसी वस्तु ने मेरे मन पर इतना अधिकार नहीं किया, जितना इस निजता ने। यह एक पहेली कितनी अजेय है कि मैं जीवित हूँ, कि मैं अमुक हूँ तथा प्रत्येक अन्य वस्तु से विभिन्न हूँ कि मैं सिद्धार्थ हूँ और दुनिया में सम्भवतः कोई वस्तु ऐसी न होगी जिसके विषय में मैं इतना कम जानता हूँ, जितना अपनी इस निजता के विषय में, सिद्धार्थ के बारे में।

विचारक, अपने पथ पर शनैः-शनैः बढ़ता-बढ़ता रुक गया, वह अपने विचारों की जकड़ में बँध गया और इसमें से एक दूसरा विचार तत्काल निकल आया। विचार था-यह रहस्य कि मैं अपने स्वयं के बारे में कुछ भी क्यों नहीं जानता, यह रहस्य कि सिद्धार्थ मेरे लिए अज्ञेय और अजनबी क्यों रहा है; केवल एक वस्तु में सन्निहित है कि मैं अपने स्वयं से भयभीत रहा हूँ कि मैं अपने आप से भागता रहा हूँ; मैं ब्रह्म, आत्मा की खोज में था; मैं अपने स्वयं को मिटा देना चाहता था; अपने आपे से दूर भाग जाना चाहता था; उस अज्ञात् अन्तरतम् की खोज के लिए जहाँ प्रत्येक वस्तु का आधार है-जो आत्मा, जीवन, आधिभूत और परम् सत्तावान् है।

सिद्धार्थ ने ऊपर और इधर-उधर देखा, उसके मुखमंडल पर एक मुस्कान खिल उठी। दीर्घ स्वप्न से सहसा जाग उठने वाली एक बलवती भावना उसके प्राणों में इधर से उधर तक दौड़ गई। वह तत्काल आगे बढ़ गया, तीव्र गति से, उस आदमी की तरह जो अपने कर्तव्य से भलीभाँति अवगत हो चुका हो।

ठीक है, उसने एक गहरी उसाँस लेते हुए कहा, अब मैं सिद्धार्थ से बच निकलने का प्रयत्न कभी नहीं करूंगा। मैं आत्मा और संसार के पचड़े में अपने को न फंसने दूंगा। अब मैं अपने स्वयं का अंग-भंग और विध्वंस नहीं करूँगा कि उन खंडहरों के पीछे छिपे किसी रहस्य को जानने की चेष्टा करूँ। अब योग-वेद और अथर्ववेद अथवा तापस ज्ञान का अध्ययन नहीं करूँगा या अन्य किसी उपदेश की खोज में नहीं भटकूँगा। मैं अपने आपसे ज्ञान ग्रहण करूँगा, स्वयं अपना शिष्य बनगा, मैं सिद्धार्थ का रहस्य भी अपने स्वयं से प्राप्त करूँगा।

उसने अपने चारों तरफ इस प्रकार देखा जैसे कि वह दुनिया को पहली बार देख रहा हो। संसार उसे सुन्दर, आश्चर्यजनक और रहस्यमय प्रतीत हुआ जो कि यहाँ पीला, वहाँ नीला और वहाँ हरित था। आकाश, नदी, वन और पर्वत थे, सब-कुछ सुन्दर, सब-कुछ रहस्यमय और मोहक था और उसके मध्य वह सिद्धार्थ जो जाग उठा था, खड़ा था जो अपने स्वयं के खोजपथ पर चल पड़ा था। यह सब-यह पीला, और नीला, नदी और वन आज पहली बार सिद्धार्थ की पुतलियों में घूम गए। यह अब मार का सम्मोहनमात्र नहीं था, अब यह केवल माया का आवरणमात्र नहीं रह गया था, सब निरर्थक और इस मिथ्या संसार का संयोगजन्य पार्थक्यमात्र नहीं था, जिसे सभी अन्तर्ज्ञानी ब्राह्मण अस्वीकार करते हैं, क्योंकि वे पार्थक्य से घृणा करते हैं, और ऐक्य की खोज में तल्लीन हैं। सरिता सरिता है और यदि आत्मा और ब्रह्म जिसका सन्निवास सिद्धार्थ में है, वह आकाश और सरिता में भी है तो यह आधिभौतिक कला और इच्छा का प्रतिफल है कि संसार में पीला और नीला है, आकाश और वन है और यहाँ सिद्धार्थ है। सत्य और यथार्थ वहाँ चीजों के पीछे छिपे नहीं हैं, वे इन सभी में हैं, सभी चीज़ों में हैं।

मैं कितना बधिर और मूर्ख रहा हूँ, उसने सोचा और तेजी से कदम उठाकर चलता रहा। यदि कोई व्यक्ति कुछ पढ़ता है तो वह अक्षरों और विराम-चिह्नों से घृणा नहीं करता, उन्हें भ्रम, संयोग और व्यर्थ की पोल नहीं पुकारता, परंतु वह उन्हें पढ़ता है, अक्षरश: अध्ययन करता है और प्यार करता है। और मैं जो संसार की तथा अपने आपकी पुस्तक पढ़ना चाहता था, उसने अक्षरों और चिह्नों से नफ़रत करने की पूर्व-कल्पना कर ली थी। मैंने दृश्यमान् जगत् को माया स्वीकार कर लिया था। मैंने अपनी आँखों और जिह्वा को संयोग मान लिया था। अब वह समाप्त हुआ, अब मेरी आँखें खुल गई हैं। वस्तुतः आज मैं पहली बार जागृतावस्था में आया हूँ और आज ही पैदा हुआ हूँ ।

जिस समय ये विचार सिद्धार्थ के मन में आ रहे थे, वह सहसा सन्न-सा खड़ा रह गया मानो कि कोई सर्प उसके रास्ते में आ गया हो।

तब अकस्मात् यह भी साफ़ हो गया। उसे जो अभी जागा हो अथवा पैदा हुआ हो, जीवन बिलकुल नये सिरे से आरम्भ करना होता है। जिस समय प्रात:काल उसने बुद्ध के जैतवन विहार से विदा ली थी जो उसकी प्रथम जागरण-वेला थी और वह अपनी निजता को प्राप्त हो रहा था, उसकी इच्छा थी और वर्षों के तापस् जीवन के उपरान्त यह स्वाभाविक भी प्रतीत होता था कि वह सर्वप्रथम अपने घर माता-पिता के पास लौटकर जायेगा। अब, जबकि वह सन्न खड़ा रह गया था, जैसे कि साँप उसका रास्ता काट गया हो, यह विचार भी उसके मन में आया-मैं जो कुछ था, अब नहीं रह गया हूँ, अब मैं साधु नहीं रह गया हूँ, पुजारी और ब्राह्मण भी नहीं हूँ। तो फिर मैं घर जाकर अपने पिता के पास क्या करूँगा-पारायण, यश-कर्म! समाधि लगाने का अभ्यास! अब तो यह सब मेरे लिए समाप्त हुआ।

सिद्धार्थ निश्चल-सा खड़ा रह गया और एक क्षण के लिए एक बर्फानी शीत उस पर दौड़ गई। वह अपने अन्तर में एक क्षुद्र पशु, एक पक्षी या खरगोश की तरह कम्पायमान हो उठा, यह देखकर कि वह कितना अकेला है। वह वर्षों गृह-विहीनावस्था में रहा है, परंतु आज जैसा भाव उसने कभी अनुभव नहीं किया था। अब वह उसे अनुभव कर रहा था। पहले जब ध्यान की गहनतम समाधि में स्थित था, वह अपने पिता का पुत्र था, वह उच्चवर्गीय ब्राह्मण, एक धार्मिक पुरुष था। अब वह केवल सिद्धार्थ था, जागा हुआ, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। उसकी साँस गहरी हो गई और वह काँप उठा। कोई भी उसके समान एकाकी नहीं। वह कोई आभिजात्यवर्गीय भद्रजन नहीं है, कोई दस्तकार नहीं कि किसी कुनबे में जाकर शरण ग्रहण करता और उसकी भाषा और जीवन में सम्मिलित हो सकता। वह ब्राह्मण नहीं है कि ब्राह्मण-कर्म को अंगीकार कर लेता और साधु भी नहीं कि श्रमणों के संघ में चला जाता। निर्जन वन में तपस्या करने वाला तपस्वी भी अकेला नहीं होता, वह भी लोगों के एक वर्ग का अंग होता है। गोविन्द भिक्षु बन चुका था और अब सहस्रों भिक्षु उसके भाई हैं, उसी के समान वस्त्र पहनते हैं, उसके विश्वास के सहभागी हैं और उसके समान ही भाषा बोलते हैं। लेकिन सिद्धार्थ, वह कहाँ का है? वह किसके जीवन का सहचर बनेगा? वह किसकी भाषा का सहकार करेगा?

उस क्षण, जबकि उसके चारों ओर की दुनिया अदृश्य हो उठी थी, वह आकाश में टिमटिमाते हुए एकाकी सितारे की तरह खड़ा था, इस नैराश्यभावना से पूर्णत: अभिभूत, किन्तु फिर भी वह सदैव से अधिक आत्मस्थ था, वह उसके नव-जागरण का अन्तिम कम्पन था, प्रसव की अन्तिम पीड़ा थी। तत्काल वह आगे बढ़ गया और शीघ्रतापूर्वक चलने लगा, अपने घर की दिशा में नहीं, अपने पिता के पास भी नहीं। अब वह पराडमुखापेक्षी भी नहीं रह गया था।

5 : कमला

सिद्धार्थ अब प्रत्येक पग पर नवीन ज्ञान प्राप्त कर रहा था, क्योंकि उसके लिए विश्व का नवकल्प हो चुका था और उस पर मोहिनी पड़ चुकी थी। अब वह दिनमणि को वन और पर्वत के ऊपर उदय होते हुए और दूरस्थ खजूर वृक्षों के पीछे अस्त होते हुए देख सकता था। रात्रि के समय वह आकाश के तारों को देखता और हँसिये के आकार का चन्द्रमा सुनील व्योम में उसे नौका के समान दिखाई देता था। वृक्ष, तारकगण, पशु, पयोधि, इन्द्रधनु, चट्टान, तृण, पुष्प, उत्स और सरिता सभी उसे दृष्टि-सुख पहुँचाते थे, प्रात:काल झाड़ियों पर चमकने वाले ओस-बिन्दुओं को भी वह देखता, सुदूर-स्थित नीले और पीले ऊँचे-ऊँचे पर्वतों को देखता, पक्षियों को गाते हुए, मधुमक्षिकाओं को गुजारते हुए सुनता और पवन को धानों के खेतों में बहते हुए देखता । यह बहुवर्णी और अनन्त रूपा नियति सदैव ही उसके चारों ओर वर्तमान रही है। सूर्य और चन्द्रमा सदैव ही चमकते रहे हैं, सरिता सदैव ही बहती रही है और मधुमक्षिकाएँ सदैव ही गुजारती रही हैं, किन्तु आज तक सिद्धार्थ के लिए उनका कुछ भी मूल्य नहीं था, उसके नेत्रों में उनका महत्त्व क्षणिक छलनापूर्ण था, वह प्रत्येक वस्तु को अविश्वास की दृष्टि से देखता था, हर वस्तु प्रतिष्ठा-वर्जित थी क्योंकि वह यथार्थ नहीं थी, क्योंकि यथार्थ दृश्यमान् जगत् दूसरी ओर था। किन्तु अब उसकी दृष्टि इस पक्ष में उलझी हुई थी और वह दृश्यमान् जगत् को देख और पहचान सकता था और अब उसमें अपने लिए स्थान खोज रहा था। वह अब यथार्थ की खोज में नहीं था, उसे अब दूसरी ओर से कोई सरोकार नहीं था। आज जब वह बिना खोज के, निर्व्याज होकर, बालक के समान सरल होकर देख रहा है तो दुनिया कितनी खुशनुमा हो गई है। चन्द्रमा और तारे भी सुन्दर थे, उत्स, कुल, पर्वत और शिलाखंड, आज का स्वर्गीय गुबरैला फूल और तितली सभी कुछ सुन्दर थे। इतना बाल-सरल, इतना जागरूक और प्रस्तुत के प्रति इतना सचेष्ट विश्वासी होने के बाद दुनिया की प्रत्येक वस्तु कितनी खुशनुमा और खुशगवार लगती है। कहीं पर चिलचिलाती धूप निकल रही है, कहीं पर वन की छाया में शीतलता है और कहीं पर लौकी और केले लगे हुए हैं। दिन और रात छोटे प्रतीत होते हैं। प्रत्येक घंटा तेजी के साथ नौका-विहार के समान सुखदायक व्यतीत होता है, आनन्द और सम्पत्ति से भरी जलयान-यात्रा के समान प्रतीत होता है। सिद्धार्थ ने घने जंगल में ऊँचे वृक्षों की शाखाओं पर उछलते बन्दरों को देखा और उनकी किलकारियों को सुना। सिद्धार्थ ने देखा कि एक मेंढ़ा एक भेड़ का पीछा कर रहा है और मैथुनरत हो गया है। एक सरोवर में उसने एक मच्छ को सान्ध्य-आहार के लिए हलचल करते देखा और छोटी फुदकती और चमकती तथा प्राणों के लिए इधर-उधर भागती मछलियों को भी देखा। उस क्रुद्ध आक्रान्ता की हलचलों से पैदा होने वाली लहरों में उसने शक्ति और इच्छा की प्रतिच्छाया देखी।

यह सब कुछ सदैव ही रहा है, किन्तु उसने कुछ भी देखा नहीं, वह स्वयं कभी भी जीवित रहा नहीं। अब वह वर्तमान है और उसका एक अंग है। अपनी दृष्टि से वह प्रकाश और छाया को देख सकता है और अपने मानस के द्वारा वह चन्द्रमा और तारों से भी तद्गत हो सकता है।

यात्रा-पथ में सिद्धार्थ को वह सभी कुछ याद आने लगा-जो उसने जैतवन में अनुभव किया था, वह उपदेश-जो उसने पुण्यात्मा बुद्ध से सुने थे, और गोविन्द से विदाई और अर्हत के साथ अपनी बातचीत भी। उसे एक-एक शब्द, जो उसने अर्हत से कहे थे, याद था और उसे आश्चर्य हो रहा था कि किस प्रकार उसने ऐसी बातें कहीं-जिन्हें वस्तुतः वह जानता नहीं था। उसने बुद्ध से क्या कहा! कि बुद्ध का ज्ञान और रहस्य सिखाया नहीं जा सकता था, व्यक्त और देय नहीं है। और जो कुछ उसने आविर्भाव के क्षणों में अनुभव किया था, वही कुछ वह भी अनुभव करने के लिए जा रहा है और जिसे उसने अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है। उसे स्वयं ही अनुभव प्राप्त करना है। वह कितने ही समय से जानता था कि उसका अपना स्व ही आत्मा है और ब्रह्म का ही एक अंग है, परंतु आत्मा को आज तक जाना नहीं था, क्योंकि वह उसे विचारों के जाल में फाँस लेना चाहता था। देह आत्मा नहीं है, इन्द्रियों की क्रिया, विचार, समझ तथा अर्जित ज्ञान अथवा कला भी आत्मा नहीं है कि उसकी सहायता से हम निर्णयों पर पहुँच सकें अथवा वर्तमान विचारों के आधार पर नये विचारों का ताना-बाना बुन सकें। नहीं, यह विचारों की दुनिया भी इसी ओर की है और यदि कोई इस घटव्यापी आत्मा के इन्द्रियव्यापारों को नष्ट कर डाले और उन्हें विचारों और पांडित्य से ही भरता रहे तो उसके विचार भी लक्ष्य को नहीं पहुँचते, किन्तु विचार और इन्द्रियाँ बहुत अच्छी वस्तु हैं, इन्हीं दोनों के पीछे अन्तिम ज्ञान छिपा हुआ है। इन दोनों की प्रेरणा को सुनना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। दोनों के साथ खेलना, किसी को भी दूसरे की समानता में हेय मानना, किन्तु दोनों की आवाज़ को समान एकाग्रता से सुनना ही श्रेयस्कर है। अपने अन्तर की ध्वनि के अनुसार ही वह अपने आचरणों को ढालेगा और जब तक उसका अन्तर नहीं कहेगा तब कहीं रुकेगा नहीं। जिस समय बुद्ध को ज्ञान का आविर्भाव हुआ तो वह वट-वृक्ष के नीचे समाधि लगाकर क्यों बैठे थे! उन्होंने अन्तर्रेरणा को सुना था-जिसने उन्हें उस वट-वृक्ष की छाया में विश्राम करने को कहा था और उन्होंने दैहिक यन्त्रणा, यज्ञ-कर्म, स्नान और पूजा, भोजन और पान, निद्रा अथवा स्वप्न सभी को तिलाञ्जलि देकर अन्तर्ध्वनि को ही सुना था। उन्होंने किसी भी बाह्य आदेश का पालन करना छोड़ दिया था, केवल अपनी अन्तर्ध्वनि का आदेश पालन करना उनका कर्त्तव्य हो उठा था।

रात्रि के समय सिद्धार्थ एक मल्लाह की फँस की झोंपड़ी में सोया, तो उसने एक स्वप्न देखा। उसने देखा कि एक भिक्षु की पीली पोशाक धारण किये गोविन्द उसके सामने खड़ा हुआ है। गोविन्द उदास प्रतीत होता था। उसने कहा, "तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गए?" इतना सुनकर सिद्धार्थ ने गोविन्द को आलिंगनबद्ध कर लिया, और अपने वक्ष से सटाकर उसका चुम्बन कर लिया, लेकिन अब वह गोविन्द नहीं रह गया था, वह स्त्री बन. चुका था और उसकी पोशाक में से दो स्तन उभर आए थे। सिद्धार्थ ने लेटकर दूध पिया। दूध कितना मीठा और शक्ति-वर्द्धक लगा। उसमें नारी और पुरुष; सूर्य और वन; पशु और पुष्प; प्रत्येक फल और प्रत्येक वैभव का स्वाद था। वह उन्मत्त करने वाला था। जिस समय सिद्धार्थ जागा, तो झोंपड़ी के द्वार के निकट पीली नदी झिलमिला रही थी, और दूसरी तरफ में उल्लू का गम्भीर और स्पष्ट स्वर प्रतिध्वनित हो रहा था।

दिनारम्भ होते ही सिद्धार्थ ने अपने मेजबान नाविक से कहा कि वह उसे पार पहुँचा दे। नाविक ने उसे बाँस के बेड़े पर बैठाकर पार उतार दिया। प्रातःकालीन प्रकाश में जल की सतह सुर्ख झलकियाँ पैदा कर रही थी।

"यह बहुत ही सुन्दर नदी है," उसने अपने साथी से कहा।

"हाँ," नाविक ने कहा, "यह नदी बहुत सुन्दर है। मैं तो इसे दुनिया की हर वस्तु से अधिक प्यार करता हूँ। मैंने इसका संगीत सुना है, मैं इसके सौंदर्य को देखता रहा हूँ, और सदैव ही इससे शिक्षा ग्रहण करता रहा हैं। नदी से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।"

"मैं तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूँ, भद्र पुरुष!" सिद्धार्थ ने किनारे पर उतरते हुए कहा, "मुझे खेद है कि मेरे पास तुम्हें देने के लिए न कोई वस्तु है और न पारिश्रमिक। मैं तो स्वयं गृह-विहीन ब्राह्मण-पुत्र और श्रमण हूँ।"

"मैं यह भली प्रकार समझ सकता हूँ," नाविक ने कहा, "और मुझे आपसे किसी भेंट अथवा पुरस्कार की अपेक्षा भी नहीं है। किसी और समय आप मुझे यह सब प्रदान करेंगे, मुझे विश्वास है।"

"क्या तुम्हें विश्वास है?" सिद्धार्थ ने प्रसन्न होकर कहा।

"निस्संदेह! मुझे यह शिक्षा भी नदी से ही प्राप्त हुई है। प्रत्येक वस्तु लौटकर वापस आती है। तुम भी श्रमण, एक दिन वापस आओगे। अच्छा अब विदा! ईश्वर करे तुम्हारी मैत्री ही मेरा पुण्य पारितोषिक बने! जिस समय तुम देवताओं के लिए यज्ञ-बलि करो तो मेरी स्मृति तुम्हारे अन्तर में बनी रहे बस!"

मुसकानमय चेहरों से उन्होंने एक-दूसरे से विदा ली। नाविक का मैत्रीभाव देखकर सिद्धार्थ को बहुत सुख हुआ। वह भी गोविन्द की तरह है, वह मुसकराता हुआ सोचता रहा। सभी लोग जो पथ पर मुझे मिलते हैं, गोविन्द की तरह हैं। सभी मेरे प्रति कृतज्ञ हैं, हालाँकि वे स्वयं ही धन्यवाद के पात्र हैं। सभी मेरे प्रति सेवा-भावना रखते हैं, सभी मेरे मित्र होना चाहते हैं, सभी आज्ञाकारी हैं और बहुत थोड़ा विचार करना चाहते हैं। लोग कितने शिशु समान हैं।"

मध्याह्न के समय वह एक गाँव में से गुजरा। मिट्टी के घरों के सामने गलियों में बच्चे रास-रंग मचा रहे थे। उन्होंने कछुओं और घोंघों की गेंद बना रखी थीं। वह ज़ोर-ज़ोर से शोर मचा रहे थे और कुश्ती लड़ रहे थे किन्तु ज्योंही उन्होंने श्रमण को देखा तो भीगी बिल्ली की तरह भाग खड़े हुए। गाँव जहाँ समाप्त हुआ वहाँ रास्ता एक चश्मे के किनारे पर होकर जाता था, और इस चश्मे के छोर पर एक औरत झुकी हुई थी, और कपड़े धो रही थी। जिस समय सिद्धार्थ ने उसे सम्बोधित किया, तभी उसने सिर ऊपर उठाया और मुसकराने लगी। उसने देखा कि उसकी आँखों में चमक आ गई है। उसने यात्रियों की परम्परानुसार आशीर्वाद का एक वाक्य उसके प्रति कहा, और पूछा कि नगर को जाने वाली सड़क अभी कितनी दूर है ? इतना सुनकर वह सीधी खड़ी हो गई और उसके समीप आई। उसके भीगे हुए होंठ उसके यौवनसिक्त मुख में अतीव आकर्षक लग रहे थे। कुछ स्फुट वाक्यों का आदान-प्रदान उनमें हुआ। उसने पूछा कि क्या उसने भोजन किया है और यह भी कि क्या यह सच है कि श्रमण लोग जंगलों में सोते हैं और उन्हें अपने साथ औरतें नहीं रखने दी जातीं। तब उसने अपना बायाँ पैर उसके दायें पैर पर रखा और संकेत किया। यह संकेत वैसा ही था जैसा कि प्रेम-रस का आस्वादन करने के लिए कोई स्त्री पुरुष के प्रति करती है, जिसे धर्म ग्रन्थों में 'वृक्षारोहण' कहा जाता है। सिद्धार्थ ने अपने रक्त में एक संचार का अनुभव किया और ज्योंही उसने अपने स्वप्न की साकार मूर्ति उस स्त्री को देखा तो वह उसकी ओर थोड़ा झुका और उसकी कुच के काले अग्रभाग को अपने होंठों से स्पर्श किया। सिद्धार्थ ने अपनी दृष्टि जब ऊपर उठाई तो देखा कि . स्त्री के मुख पर मुसकान खिल उठी है, उसकी आँखों में याचना है और झपकी पलकों में प्रणय का निवेदन भर उठा है।

सिद्धार्थ ने भी अपने अन्तर में काम-वासना की कसमसाहट अनुभव की, लेकिन क्योंकि आज तक उसने किसी स्त्री का स्पर्श नहीं किया था, उसके सामने झिझक बाकी थी, हालाँकि उसकी बाहु अपने क्रोड़ में उसे आबद्ध कर लेने के लिए फड़क रही थीं। उसी क्षण उसने अपनी अन्तर्ध्वनि को सुना। ध्वनि के स्वर में 'नहीं' था। तब उस युवती के मुसकराते हुए मुख से समस्त मोहिनी तिरोहित हो गई। एक आसक्त युवती की उद्दीप्त दृष्टि के अतिरिक्त उसे और कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसने आहिस्ता से उसके कपोलों को थपथपाया और उस निराश युवती को छोड़कर बहुत शीघ्रता के साथ बाँस के वन में अन्तर्धान हो गया।

सन्ध्या से पूर्व ही वह नगर में पहुँच गया। वह अत्यन्त प्रसन्न था, क्योंकि वह जन-सम्पर्क के लिए अत्यन्त लालायित था। बहुत समय से वह जंगल में ही रहता रहा था और नाविक की ड्स की झोंपड़ी की छत शायद पहली छत थी जिसके नीचे उसने इतने दिनों में पिछली रात शयन किया था।

नगर से बाहर एक सुन्दर बाड़े से घिरे हुए उद्यान के निकट, यात्री को कतिपय सेवक और सेविकाओं का एक दल मिला जो कि टोकरियों से लदे हुए थे। उसके मध्य एक अलंकार-युक्त पालकी में एक स्त्री बैठी हुई थी, चार आदमी उसे लेकर चल रहे थे और वह स्त्री, स्वामिनी उस पालकी के चित्र-युक्त रंगीन चॅदोबे के नीचे-लाल मसनदों के सहारे बैठी थी। सिद्धार्थ उद्यान के द्वार पर चित्रलिखित-सा खड़ा रह गया और पुरुष-सेविकाओं और टोकरियों के जलूस को गुज़रते हुए देखता रहा। उसने पालकी को देखा और उसमें बैठी स्त्री को भी। घनी श्याम केश-राशि से ढके उसने उसके कान्त, मधुर और अत्यन्त उज्ज्वल मुख को देखा जो ताजे कटे हुए अंजीर-सा दीख पड़ता था और कलात्मक भौंहों को, जो आयताकार बनी थीं तथा उज्ज्वल और चपल श्याम नेत्रों तथा उसकी कम्बु ग्रीवा को भी देखा। उसकी पोशाक हरित और सुवर्णमण्डित थी। उस स्त्री की बाँहें सुचिक्कण, पुष्ट, दीर्घ और सुडौल थीं और वह कलाइयों पर सोने के चौड़े कड़े पहिने हुए थी।

सिद्धार्थ ने देखा कि वह कितनी सुन्दर है और उसका हृदय पुलक से भर उठा। ज्योंही पालकी उसके निकट से गुजरी उसका सिर झुक गया। जिस समय उसने पुनः सिर उठाया तो उज्ज्वल कोमल मुख को निर्निमेष दृष्टि से देखने लगा और उसके आयताकार चतुर नेत्रों को क्षण भर के लिए देखता रह गया। एक मदिन सुवास, जिसे वह पहचानता तक नहीं था, उसके फेफड़ों में भर उठी। एक क्षण के लिए उस सुन्दरी ने भी अपनी दृष्टि उधर घुमाई और वह मुसकराई और तब अपने अनुचर वर्ग के साथ उद्यान में अन्तर्धान हो गई।

सिद्धार्थ ने सोचा कि नागरिक जीवन में उसका प्रथम प्रवेश किसी शुभ नक्षत्र में हुआ समझा जाना चाहिए। उसके मन में एक बार यह विचार आया कि वह तत्काल उद्यान में चला जाय, परंतु उसने पुनः विचार किया कि उसकी चेष्टा को वह दास और दासियाँ कितनी घृणा, अविश्वास से देख रहे थे और उनकी दृष्टि में उसके दूर जाने के लिए कितनी धिक्कार-भावना थी।

मैं तो अभी तक भी श्रमण ही हूँ, उसने सोचा, अभी तक भी एक साधु और भिखारी हूँ। अब मैं न श्रमण रहूँगा और न भिखारी। इस प्रकार तो मैं उद्यान में प्रवेश नहीं पा सकता। और वह अपने स्वयं पर अट्टहास कर उठा।

पथ में जो प्रथम आगन्तुक मिले, उनसे उसने इस स्त्री के विषय में जानकारी प्राप्त की और उसे पता चला कि वह नगर की प्रसिद्ध नर्तकी कमला है और वह उसका ही उद्यान है। इसके अतिरिक्त नगर में भी उसका एक घर है।

तब उसने नगर में प्रवेश किया। उसके सामने अब केवल एक ही उद्देश्य था। उसी उद्देश्य की परिपूर्ति के लिए उसने नगर भर में भ्रमण किया, और गलियों के चक्कर काटे, अनेक स्थानों पर निश्चेष्ट होकर खड़ा रह गया और उसने नदी-तट पर स्नान और घाट की पत्थर की सीढ़ियों पर आराम किया। सन्ध्या समय उसने एक नापित से मित्रता कर ली जो कि एक गुम्बद में बैठकर हजामत बना रहा था। वह विष्णु-मन्दिर में प्रार्थना के समय फिर मिल गया, जहाँ उसने उसे विष्णु और लक्ष्मी की कथा सुनाई। रात्रि के समय वह नदी-तट पर नौका के अन्दर सोया और नितान्त प्रात:काल, जब कि नापित की दूकान में कोई ग्राहक नहीं आया था, वह वहाँ पहुँचा और उसने अपनी दाढ़ी मूंडवा दी। उसने बालों में कंघा करवाया और सुगन्धित तेल की मालिश भी करवाई। इसके बाद वह नदी पर स्नान करने गया।

मध्याह्नोत्तर काल में जिस समय सुन्दरी कमला अपनी पालकी में बैठकर उद्यान में आई, तो सिद्धार्थ प्रवेश-द्वार पर उपस्थित था। वह झुका और उसने नर्तकी का अभिवादन स्वीकार किया। उसने सेवकों के इस जलूस के अन्तिम व्यक्ति को रोका, उससे कहा कि वह अपनी स्वामिनी से निवेदन करे कि एक ब्राह्मण-पुत्र उससे भेंट करना चाहता है। कुछ समय उपरान्त सेवक लौटकर आया और उसने सिद्धार्थ से अपने साथ आने के लिए कहा; और चुपचाप उद्यान-भवन में ले गया, जहाँ कमला कोच पर लेटी हुई थी और वहाँ ले जाकर उसे छोड़ दिया।

"क्या कल भी तुमचर पर नहीं थे और तुमने मुझे अभिवादन नहीं किया था?" कमला ने पूछा।

"हाँ, कल ही मैंने तुम्हें देखा और तुम्हें अभिवादन किया।"

"लेकिन कल तुम्हारे मुँह पर लम्बी दाढ़ी थी और तुम्हारे बाल लम्बे थे, जिनमें धूल भरी हुई थी?"

"तुमने सब कुछ भलीभाँति देख लिया है और समझ लिया है। तुमने ब्राह्मण-पुत्र सिद्धार्थ को भी देख लिया जिसने श्रमण बनने के लिए अपना घर-बार छोड़ दिया था और जो तीन वर्ष तक श्रमण-जीवन व्यतीत करता रहा। अब मैंने वह मार्ग छोड़ दिया है और मैं नगर में आया हूँ और नगरप्रवेश के पूर्व प्रथम व्यक्ति जिसे मैंने देखा वह तुम थीं। मैं यह कहने आया हूँ कमला कि तुम प्रथम स्त्री हो जिससे सिद्धार्थ बिना पलकें झुकाए ही बोला है और अब जीवनपर्यन्त किसी सुन्दरी को देखकर मेरी पलकें नहीं झुकेंगी।"

कमला मुसकराई और मोर-पंख से बने पंखे के साथ खेलती रही। उसने पूछा, "क्या केवल यही कुछ कहने के लिए सिद्धार्थ ने यहाँ आने का कष्ट किया है?"

"मैं तुम्हारे पास यही बताने आया हूँ कि तुम इतनी सुन्दर हो। और तुम्हारा साधुवाद लेने आया हूँ; यदि मेरा यह कथन तुम्हें अप्रसन्न न करे; कमला, तो मैं तुमसे मैत्री और शिक्षा प्राप्त करने की प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि जिस कला में तुम इतनी प्रवीण हो मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता।"

यह सुनकर कमला और भी जोर से अट्टहास कर उठी।

"ऐसा अनुभव मेरे जीवन में कभी नहीं हुआ कि जंगल से चलकर कोई श्रमण आए और मुझसे शिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना करे। आज तक कोई भी लम्बे-लम्बे बालों वाला और फटी हुई लंगोटी लगाने वाला श्रमण मेरे पास नहीं आया। अनेक युवक मेरे पास आते रहे हैं, अनेक ब्राह्मण-पुत्र भी किन्तु वे सभी सुन्दर वेश-भूषा, सुन्दर पदत्राण धारण करके आते थे, उनके केशों में इत्र होता था और उनकी जेबों में मुद्राएँ होती थीं। हे श्रमण! मेरे पास जो कोई भी आता है, वह इसी तरह आता है।"

सिद्धार्थ ने कहा, "मैंने तो तुमसे शिक्षा ग्रहण करना शुरू भी कर दिया है। मैंने कल भी कुछ सीखा था। मैं अपनी दाढ़ी से मुक्ति पा चुका हूँ और मैंने अपने बालों में कंघा कराया है और सुगन्धित तेल का मर्दन करवाया है। अब बहुत अधिक अभाव नहीं रह गया है। हे सुमुखि! बहुमूल्य वस्त्र, सुन्दर पदत्राण और मुद्राएँ भी मेरी मंजूषा में अनतिकाल में आ जाएँगी। इन नगण्य-सी वस्तुओं को छोड़कर सिद्धार्थ ने बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ की हैं और अन्त में सफलता प्राप्त की है। जो कुछ प्राप्त करने का निश्चय मैंने कल कर लिया है उसे मैं क्यों नहीं प्राप्त कर पाऊँगा? तुम्हारा मित्र बन कर प्रेम के आनन्द का लाभ क्यों नहीं प्राप्त कर सकूँगा? तुम्हें मेरे अन्दर एक सुयोग्य शिष्य मिलेगा। कमला! जो कुछ शिक्षा तुमसे प्राप्त होती है, उससे कहीं अधिक कठिन बातें मैं सीख चुका हूँ। तो सिद्धार्थ इस स्थिति में तुम्हारे लिए निरर्थक है, केवल उसके बालों में तेल है, सुन्दर वस्त्र नहीं हैं, पदत्राण और मुद्राएँ भी उसके पास नहीं हैं!"

कमला हँस पड़ी और बोली, "नहीं, अभी वह किसी काम का नहीं है। उसे वस्त्र प्राप्त करने हैं, सुन्दर वस्त्र; उसे जूते भी प्राप्त करने हैं, सुन्दर जूते और अपार धनराशि और कमला के लिए बहुमूल्य उपहार भी प्राप्त करने हैं। क्या तुमने मेरी बात सुनी, हे जंगल से आए हुए श्रमण क्या तुम्हारी समझ में मेरी बातें आईं?"

"मैं सब कुछ अच्छी तरह समझ रहा हूँ," सिद्धार्थ बोला, "इतने सुन्दर मुख से निकले हुए शब्दों को समझने में मैं किसी प्रकार भूल कर सकता हूँ। तुम्हारा मुख, ताजे कटे हुए अजीर की तरह है, कमला! मेरे होंठ भी लाल और ताजे हैं और तुम्हारे होंठों पर अत्यन्त उपयुक्त प्रतीत होंगे, यह तुम भलीभाँति देखोगी। लेकिन मुझे बताओ तो सुन्दर कमला! क्या तुम वन-प्रान्त से प्रेम की शिक्षा ग्रहण करने आने वाले श्रमण से भयभीत नहीं होती?"

"मैं श्रमण से क्यों भयभीत होऊँ, उस श्रमण से जो जंगल में गीदड़ों के पास से आया है और स्त्रियों के बारे में कुछ भी नहीं जानता?"

"अरे! श्रमण बड़ा शक्तिशाली होता है और किसी चीज से नहीं डरता, वह तुम पर बल प्रयोग भी कर सकता है, सुन्दरी! वह तुम्हें लूट सकता है और चोट पहुँचा सकता है?"

"नहीं, मैं श्रमण से नहीं डरती। क्या कभी कोई श्रमण या ब्राह्मण इस बात से डरता है कि कोई चोर आएगा, उस पर प्रहार करेगा और उसका ज्ञान, पवित्रता और गम्भीर विचार कर सकने की शक्ति को चुराकर ले जाएगा। नहीं, क्योंकि वह उसकी सम्पत्ति है और वह तभी प्राप्त हो सकती है जबकि वह उन्हें स्वयं प्रदान करेगा, करना चाहेगा। बिलकुल यही बात कमला के द्वारा प्रेम-सुख प्राप्त करने के बारे में है। कमला के होंठ सुन्दर और अरुण हैं, किन्तु इसकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें स्पर्श करने का प्रयत्न करो तो तुम्हें माधुर्य की एक बूंद भी प्राप्त नहीं होगी, हालाँकि वह भलीभाँति जानते हैं कि माधुर्यदान किस प्रकार दिया जाता है। तुम एक योग्य शिष्य हो सिद्धार्थ, इसलिए यह भी जान लो कि आदमी याचना करके, श्रम करके, प्रेम पा सकता है, वह अर्पित किया जा सकता है अथवा उसे बाजार में प्राप्त किया जा सकता है, परंतु उसे चुराया नहीं जा सकता। तुमने गलत समझा है। हाँ, यह कितना दयनीय है कि तुम्हारे जैसा सुन्दर युवक इतना गलत समझे।"

सिद्धार्थ ने नमन किया और वह मुस्कराया-"तुम ठीक कहती हो, कमला! यह दयनीय बात तो है ही। यह तो अत्यन्त दयनीय बात है। नहीं तुम्हारे होंठों से या मेरे होंठों से माधुर्य की एक बूंद भी क्यों खोने पाये। सिद्धार्थ एक दिन फिर आएगा, जब उसके पास वस्त्रों, उपानहों और मुद्राओं का अभाव नहीं होगा। लेकिन सौम्ये! क्या तुम मुझे थोड़ा-सा परामर्श नहीं दे सकती हो?"

"परामर्श! क्यों नहीं, एक अकिंचन, उस श्रमण को जो जंगल के शृगालों के मध्य से आता हो, कौन होगा जो इच्छापूर्वक परामर्श न देगा?"

"प्रिय कमला, इन तीनों वस्तुओं को शीघ्र-से-शीघ्र प्राप्त करने के लिए कहाँ जाऊँ?"

"मेरे मित्र! अनेक लोग यही जानना चाहते हैं। जो कुछ तुमने सीखा है, वही काम करो और उसके द्वारा सम्पत्ति, वस्त्र और उपानह प्राप्त करो। एक गरीब आदमी और किस प्रकार ये चीजें प्राप्त कर सकता है?"

"मैं तो केवल समाधि लगा सकता हूँ, प्रतीक्षा कर सकता हूँ और उपवास कर सकता हूँ।"

"और कुछ भी नहीं?"

"कुछ भी नहीं, ओ, हाँ, मैं कविता भी कर सकता हूँ। क्या तुम एक कविता के बदले में मुझे एक चुम्बन दे सकती हो?"

"हाँ दे भी सकती हूँ, यदि तुम्हारी कविता मुझे पसन्द आ जाय। क्या है तुम्हारी कविता?"

थोड़ी देर तक विचार करने के बाद सिद्धार्थ ने कविता-पाठ प्रारम्भ किया।

सुन्दरी कमला अपने उद्यान में आई,
उद्यान के द्वार पर ताम्र वर्ण श्रमण खड़ा हुआ था।
ज्योंही उसने इस कमल-पुष्प को देखा,
श्रद्धा से उसका मस्तक झुक गया।
कमला मुसकराई और उसने अभिवादन स्वीकार किया।
और युवक श्रमण ने सोचा,
कि देवताओं के लिए यज्ञ करने की अपेक्षा
कमला के लिए यज्ञ क्यों न किए जायें।

आश्चर्य से चकित कमला ने जोरों से हथेलियाँ बजाईं और उसके हाथों के स्वर्ण-वलय खनक उठे।

"तुम्हारी कविता तो सुन्दर है ताम्रवर्ण श्रमण! सचमुच अगर मैं तुम्हें एक चुम्बन दे दूँ तो बहुत घाटे का व्यापार नहीं रहेगा।"

उसने अपनी आँखों में निकट आने का आह्वान किया। उसने अपना मुँह उसके मुंह पर रख दिया, और अपने होंठ उसके होंठों पर, जो कि ताजे कटे हुए अजीर के समान थे। कमला ने अत्यन्त घनता के साथ उसका चुम्बन किया, और आश्चर्य से चकित होते हुए सिद्धार्थ ने अनुभव किया कि वह उसे कितनी शिक्षा दे चुकी है, वह कितनी चतुर है, वह किस प्रकार उसकी स्वामिनी बन गई है, पहले उसका तिरस्कार करके, किस तरह उस पर मोहिनी डालने में सफल हो गई है! और यह सुदीर्घ चुम्बन किस तरह अनेक नित्यनव्य चुम्बन प्राप्त होने की सम्भावना अपने पीछे छिपाये हुए था। वह खड़ा था और उसकी साँस गहरी हो गई थी। उस क्षण उसकी स्थिति एक शिशु के समान थी जो कि प्रस्तुत ज्ञान की कल्पना करके अवाक रह गया हो।

"तुम्हारी कविता बहुत सुन्दर है," कमला ने कहा, "अगर मैं मालदार होती तो उसके लिए मैं तुम्हें द्रव्य भी देती। लेकिन मात्र कविता के आधार पर वाञ्छित मात्रा में धनोपार्जन करना तुम्हारे लिए अत्यन्त कठिन होगा। क्योंकि यदि तुम कमला के मित्र होना चाहते हो तो तुम्हें बहुत अधिक धन की आवश्यकता पड़ेगी।"

आह ! तुम्हारे चुम्बन में कितने प्राण हैं?" सिद्धार्थ ने लड़खड़ाती वाणी में कहा।

"हाँ, ठीक है, तभी तो मेरे पास अच्छे वस्त्रों, उपानहों तथा किंकणों तथा अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुओं का अभाव नहीं है। लेकिन तुम क्या काम करने का निश्चय करने जा रहे हो? क्या तुम समाधि लगाने, उपवास करने और कविता करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते?"

"मैं यज्ञ मन्त्र भी जानता हूँ," सिद्धार्थ ने कहा, "लेकिन अब मैं उनका उच्चारण नहीं करूंगा। मैं सम्मोहन मन्त्र भी जानता हूँ, परंतु उनका भी उपयोग नहीं करूंगा। मैंने धार्मिक ग्रन्थ भी पढ़े हैं,"

"ठहरो!"." कमला ने बाधा उपस्थित की, "क्या तुम लिख-पढ़ भी सकते हो?"

"निश्चय ही मैं लिख-पढ़ सकता हूँ, इतना तो बहुत-से लोग कर सकते हैं।"

"बहुत से लोग नहीं। मैं नहीं कर सकती। यह बहुत अच्छा हुआ कि तुम लिखना-पढ़ना जानते हो, बहुत अच्छा। हो सकता है कि तुम्हें अपने सम्मोहन मन्त्रों का भी प्रयोग करना पड़े?"

उसी समय एक सेवक उपस्थित हुआ और उसने अपनी स्वामिनी के कानों में कुछ फुसफुसाया।

"मेरे पास कोई अभ्यागत पधारे हैं!" कमला ने कहा, "जल्दी करो और यहाँ से गायब हो जाओ सिद्धार्थ। कोई भी तुम्हें यहाँ देखने न पाये। कल मैं फिर तुमसे मिलूंगी।"

तथापि उसने अपने सेवक को आदेश दिया कि वह उस ब्राह्मण संत को एक सफ़ेद अंगरखा दे दे। बिना यह जाने कि यह सब क्या लीला हो रही है-सिद्धार्थ उस सेवक के साथ-साथ चलता गया और एक घुमावदार रास्ते से होकर वह एक बगीचे में पहुंचा, वहाँ सेवक ने उसे एक अंगरखा दिया, उसे घनी झाड़ियों में प्रविष्ट करा दिया और स्पष्ट रूप से संकेत कर दिया कि यथाशीघ्र वह वहाँ से चला जाय ताकि उसे कोई देखने न पाये।

बड़े सन्तोष के साथ जो कुछ उससे कहा गया, सिद्धार्थ ने किया। वन्य-जीवन का अभ्यस्त होने के कारण वह झाड़-झंखाड़ों में से होता हुआ उद्यान के बाहर चला गया। सन्तुष्ट मानसिक अवस्था में ही वह नगर में पहुँच गया। अपना लिपटा हुआ अंगरखा वह बग़ल में दबाए हुए था। वह एक सराय के सामने खड़ा हुआ था, जहाँ यात्री लोग मिलते हैं, और ख़ामोशी से उसने भोजन के लिए याचना की और उसे चावल की एक रोटी मिल भी गई। शायद कल, उसने सोचा, मुझे भोजन के लिए भिक्षा नहीं माँगनी पड़ेगी।

एक आत्मगौरव की भावना ने सहसा उसे अभिभूत कर लिया। अब वह श्रमण नहीं रह गया है। अब उसके लिए भिक्षा ग्रहण करना शोभनीय प्रतीत नहीं होता। उसने चावल की रोटी एक कुत्ते के सामने डाल दी और स्वयं निराहार रह गया।

सिद्धार्थ ने सोचा, यहाँ के लोग जो जीवन व्यतीत करते हैं, वह अत्यन्त सरल है। उसमें कठिनाइयाँ अधिक नहीं हैं, जिस समय मैं श्रमण था तो प्रत्येक वस्तु कितनी कठिन, संकटमय और अन्तिम रूप से निराशाजनक प्रतीत होती थी। अब हर चीज़ कितनी सरल प्रतीत होती है। कमला द्वारा दी गई चुम्बन-परीक्षा के समान ही सरल! मुझे केवल वस्त्रों और मुद्राओं की ही तो आवश्यकता है, सिर्फ इतना ही तो। ये उद्देश्य इतने सरल हैं कि इनके कारण मनुष्य की नींद में कोई बाधा नहीं पड़ती।

उसने बहुत पहले कमला के नगरस्थित भवन का पता लगा लिया था, और अगले दिन वह वहीं पहुँच गया।

"हर चीज़ संतोषप्रद ढंग से प्रगति कर रही है," कमला ने उसे आता देखकर कहा, "कामस्वामी की इच्छा है कि तुम उससे मिलो, वह इस नगर का समृद्धतम सौदागर है। अगर तुम उसे प्रसन्न कर सको तो वह तुम्हें अपने यहाँ रख लेगा। होशियारी से काम लेना, ताम्रवर्णी श्रमण! मैंने दूसरों के द्वारा तुम्हारा नाम उसके पास पहुँचाया था। उसके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना। उसके पास बहुत बड़ी शक्ति है, किन्तु बहुत अधिक विनम्र मत होना। मैं नहीं चाहती कि तुम उसके सेवक होकर रहो, वरन् यह चाहती हूँ कि उसके समकक्ष होकर रहो, अन्यथा मैं तुमसे अप्रसन्न हो जाऊँगी। कामस्वामी अब बूढ़ा और अकर्मण्य हो चला है। अगर तुम उसे प्रसन्न कर सको, तो वह तुम्हें अपना विश्वासपात्र बना लेगा।"

सिद्धार्थ ने उसको धन्यवाद कहा और हँसा, और जिस समय कमला को पता लगा कि उसने पिछले दिन भोजन नहीं किया है, उसने फल और भोजन लाने का आदेश दिया और स्वयं उसकी सुश्रुषा में उपस्थित रही।

"तुम आरम्भ से ही भाग्यवान् रहे," उसने सिद्धार्थ के विदा होने के समय कहा, "एक के बाद दूसरे द्वार तुम्हारे लिए खलते जा रहे हैं। यह किस तरह होता जा रहा है? क्या तुम्हारे पास कोई सम्मोहन है?"

सिद्धार्थ ने कहा, "कल मैंने तुमसे कहा था कि मैं समाधि लगाना, प्रतीक्षा करना और उपवास करना जानता हूँ, किन्तु तुमने इन गुणों को निरर्थक समझा था। लेकिन तुम देखोगी कि ये कितने मूल्यवान् गुण हैं, कमला! तुम यह भी जानोगी कि जंगल में निवास करने वाले मूर्ख श्रमण असंख्य उपयोगी बातें जानते हैं, परसों तक मैं एक भिक्षुक था और कल मैं कमला का चुम्बन प्राप्त कर सका और शीघ्र ही मैं एक बहुत बड़ा सौदागर बन जाऊँगा और वह समस्त उपादान प्राप्त कर लूँगा जिन्हें तुम महत्त्वपूर्ण समझती हो।"

"माना," उसने सहमति प्रकट की, "लेकिन अगर मैं न होती तो तुम यह सब कैसे करते? अगर कमला तुम्हारी सहायता न करती तो तुम कहाँ होते, कौन जाने?"

"प्रिय कमले!" सिद्धार्थ ने कहा, "जिस समय मैं उद्यान में तुम्हारे पास आया था, वह मेरा प्रथम प्रयास था। मेरी इच्छा थी कि मैं तुम्हारे जैसी सर्वसुन्दरी से प्रेम का रहस्य सीखू। उसी समय यह मेरा लक्ष्य बन गया था, और मुझे मालूम था कि मैं उसे प्राप्त कर सकूँगा। मैं जानता था कि तुम मेरी सहायता करोगी। उद्यान के बाहर पहले ही दिन तुम्हारी दृष्टि से मैं समझ गया था कि तुम मेरी सहायता अवश्य करोगी।"

"और अगर मैं नहीं चाहती तो...?"

"लेकिन तुमने चाहा तो। सुनो, कमला! अगर तुम पानी में पत्थर फेंको तो वह शीघ्र ही तल तक पहुँच जाता है। जब सिद्धार्थ अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है, तो सदैव यही सिद्धान्त घटित होता है। सिद्धार्थ कुछ नहीं करता, वह प्रतीक्षा करता है, विचार करता है और उपवास करता है, किन्तु प्रयत्न को उसकी अन्तिम सीमा तक ले जाकर छोड़ता है। उसी प्रकार जैसे पत्थर जलाशय के तल पर पहुँचकर रुकता है, बिना कोई चेष्टा किए, बिना आन्दोलन किए, यह पत्थर तल द्वारा खींच लिया जाता है और वह अपने आपको डूबने देता है। उसका लक्ष्य उसे अपनी ओर खींचता है क्योंकि वह अपने मस्तिष्क में ऐसी कोई चीज़ नहीं आने देता जो उसकी लक्ष्य-प्राप्ति में बाधक हो। सिद्धार्थ ने श्रमणों से यही सीखा है। यही वह चीज़ है जिसे मूर्ख लोग जादू पुकारते हैं और सोचते हैं कि जादू दानवों की माया है। दानव कुछ भी नहीं कर सकते, दानव नाम की किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं होता। हर कोई जादू कर सकता है, हर कोई अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है, अगर वह विचार कर सकता हो, प्रतीक्षा कर सकता हो और उपवास कर सकता हो।"

कमला ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनती रही। उसकी वाणी उसे प्रिय लग रही थी, उसके नेत्रों की दृष्टि-छवि उसे प्रिय लग रही थी।

"शायद जैसा तुम कहते हो, यथार्थ वही हो, मेरे मित्र!" उसने अलस भाव से कहा, "और शायद सफलता का रहस्य इसमें भी हो कि सिद्धार्थ एक सुन्दर पुरुष है, क्योंकि उसके नेत्रों की छवि स्त्रियों को भली लगती है जिसके कारण वह सौभाग्यशाली बन गया है।"

सिद्धार्थ ने उसका चुम्बन किया और विदा ली, "तुम्हारी वाणी सत्य हो, मेरी शिक्षिके! मेरी दृष्टि तुम्हें सदैव सुख प्रदान करती रहे और तुम्हारे द्वारा सौभाग्य-नक्षत्र सदैव ही मेरे मस्तक पर उदित होता रहे।"

6 : जनता के बीच

सिद्धार्थ सौदागर कामस्वामी से भेंट करने गया। जिस भवन में उसे प्रविष्ट कराया गया, वह अत्यन्त वैभवपूर्ण था। सेवकों द्वारा उसे अभ्यागतकक्ष तक पहुँचाया गया, पथ में बहुमूल्य ग़लीचे बिछे हुए थे, वहाँ बैठकर उसे गृहस्वामी की प्रतीक्षा करनी थी।

कामस्वामी यथासमय आया। उसकी देह कोमल और स्फूर्त थी, उसके केश भूरे हो चले थे, नेत्रों से चातुर्य और बुद्धिमत्ता झलकती थी और मुख की आकृति कामुकता प्रकट करती थी। स्वामी और अभ्यागत दोनों ने मैत्रीपूर्ण ढंग से एक दूसरे का अभिवादन किया।

"मुझे विदित हुआ है," सौदागर ने वार्ता प्रारम्भ की, “कि आप ब्राह्मण हैं, विद्वान् हैं और एक सौदागर के यहाँ कार्य करने के इच्छुक हैं। तो क्या आप पर कोई आवश्यकता आ पड़ी है, विप्रवर, या आप नौकरी ही करने के इच्छुक हैं।"

"नहीं," सिद्धार्थ ने कहा, "मुझे कोई आवश्यकता नहीं है और आज तक मुझे कभी भी किसी वस्तु की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। मैं श्रमणों के पास से आ रहा हूँ, जिनके बीच मैं बहुत समय तक रहा हूँ।"

"अगर आप श्रमणों के पास से आए हैं तो यह कैसे सिद्ध होता है कि आप जरूरतमन्द नहीं हैं। क्या श्रमणों के पास कोई वस्तु नहीं होती?"

"मेरे पास भी कोई वस्तु नहीं है," सिद्धार्थ ने कहा, "अगर आपके पूछने का यह आशय हो। मेरे पास निश्चय ही कोई वस्तु नहीं है। हाँ, मेरी स्वतन्त्र इच्छा मेरे पास अवश्य है। इसलिए मैं अपने को आवश्यकता से अतीत मानता हूँ।"

"लेकिन यदि आपके पास कुछ नहीं है, तो आप जीवित कैसे रहेंगे?"

"मैंने कभी भी इस बात पर विचार नहीं किया, भद्र! लगभग तीन वर्ष तक बिना किसी सम्पत्ति के रहता रहा हूँ और मैंने कभी भी यह विचार नहीं किया कि मेरा निर्वाह किस चीज़ पर होगा।"

"यानी कि आप दूसरों की सम्पत्ति पर निर्वाह करते रहे हैं?"

"जाहिर है। सौदागर भी दूसरों की सम्पत्ति पर ही जीवित रहता है।"

"बहुत अच्छा कहा, लेकिन आप जानते हैं कि सौदागर बिना कुछ लिये दूसरों को कुछ नहीं देता, वह अपना माल किसी वस्तु के बदले में देता है।"

"यह तो दुनिया का व्यापार है। हर कोई देता है, हर कोई लेता है। जीवन का नियम ही ऐसा है।"

"आह! लेकिन अगर आपके पास कुछ भी नहीं है, तो आप देंगे क्या?"

"हर कोई वही कुछ देता है, जो उसके पास होता है। सैनिक शक्ति देता है, सौदागर माल देता है, शिक्षक शिक्षा देता है, किसान चावल और मछियारा मछली देता है।"

"बहुत अच्छा, पर आप क्या दे सकते हैं? आपने क्या कुछ सीखा है, जो आप प्रदान कर सकते हैं?"

"मैं विचार कर सकता हूँ, प्रतीक्षा कर सकता हूँ और उपवास कर सकता हूँ।"

"बस, केवल इतना ही?"

"मेरे विचार में बस केवल इतना ही।"

"और इनकी सार्थकता क्या है ? उदाहरणार्थ उपवास की क्या सार्थकता है?"

"यह एक अत्यन्त मूल्यवान् वस्तु है, भद्र! किसी आदमी के पास खाने के लिए कुछ नहीं है, तो सबसे अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण बात यह होगी कि वह उपवास करे। उदाहरणार्थ, अगर सिद्धार्थ ने उपवास रखना न सीखा होता तो वह कोई-न-कोई काम खोजने के लिए बाध्य अवश्य होता, चाहे आपके पास, चाहे किसी दूसरी जगह, क्योंकि भूख उसे विकल कर देती। लेकिन यथार्थ यह है कि सिद्धार्थ संतोष के साथ प्रतीक्षा कर सकता है। वह बेसब्र नहीं है, वह ज़रूरतमंद नहीं है, वह बहुत अधिक समय तक भूख को अपने से दूर रख सकता है और उस पर हँस सकता है, इसलिए उपवास एक अत्यन्त उपयोगी वस्तु है, भद्र!"

"आप ठीक कहते हैं श्रमण, एक क्षण ठहरो।"

कामस्वामी बाहर आया और अपने साथ एक बही लाया, और पूछा, "क्या आप यह पढ़ सकते हैं?"

सिद्धार्थ ने बही देखी। वह कोई ऐसी बही थी जिस पर कोई विक्रीयसम्विदा उल्लिखित था। सिद्धार्थ ने उसे पढ़ना प्रारम्भ कर दिया।

"बहुत सुन्दर, क्या इस काग़ज़ पर कुछ लिखकर भी दिखा सकते हैं?"

उसने काग़ज़ का एक पुर्जा और लेखनी उसे दे दी। सिद्धार्थ ने उस पर कुछ लिखा और लौटा दिया।

कामस्वामी ने पढ़ा, "लिखना श्रेष्ठ है, चिन्तन श्रेष्ठतर है। चातुर्य श्रेष्ठ है. धैर्य श्रेष्ठतर है।"

"आप बहुत अच्छा लिखते हैं," सौदागर ने प्रशंसा की, "हम लोग अभी भी अनेक चीजों पर विचार करेंगे, किन्तु आज मैं आपसे अपना अतिथि बनने और मेरे स्थान पर ही निवास करने की प्रार्थना करता हूँ।"

सिद्धार्थ ने उसे धन्यवाद कहा और आतिथ्य स्वीकार कर लिया। अब वह सौदागर के घर में ही रहने लगा। वस्त्र और जूते उसके लिए प्रस्तुत किये गए। नित्यप्रति एक सेवक उसके लिए स्नान तैयार कर देता था। दिन में दो बार शानदार भोजन उसकी सेवा में प्रस्तुत किया जाता, किन्तु वह केवल एक बार खाता था। वह मांस अथवा मदिरा किसी भी वस्तु का सेवन नहीं करता था। कामस्वामी उससे बातें करता था, उसे माल, वस्तु-भण्डार और लेखा दिखाता था। सिद्धार्थ ने बहुत-सी. नयी बातें सीखीं; वह सुनता बहुत था, बोलता बहुत कम था। और कमला के शब्दों को स्मृति में धारण करते हुए वह कभी सौदागर की अधीनता स्वीकार नहीं करता था, किन्तु उसे बाध्य करता था कि वह उसके साथ समकक्ष जैसा वरन् श्रेष्ठ जैसा व्यवहार करे। कामस्वामी अपने व्यापार का संचालन अत्यन्त चिन्तापूर्वक और मनोयोग से करता था लेकिन सिद्धार्थ उस सबको खेलमात्र समझता था। वह व्यापार के नियमों को भलीभाँति सीखने के लिए सचेष्ट था, किन्तु कार-व्यापार उसके अन्तर में किसी प्रकार का आन्दोलन न कर पाता था।

जिस समय वह अपने स्वामी के व्यापार में काम करता होता तो कभीकभी बहुत समय के लिए उसे बाहर भी रहना पड़ता था। किन्तु जिस समय भी कमला उसे निमन्त्रित करती वह उसके पास जाता था। अब वह सुन्दर वस्त्र धारण करता, सुन्दर जूते पहनता और अनेक बहुमूल्य उपहार भी उसके लिए ले जाता था। उसने उसके बुद्धिमान् लाल होंठों से बहुत-सी बातें सीखी थीं। उसकी सुकोमल बाँहों ने भी उसे बहुत कुछ सिखाया था। प्रेम सम्बन्धी मामलों में वह बालक मात्र था और वह उसके अन्तस्तल को पा लेने के लिए आँखें मींचकर और चिर-अतृप्त की तरह गोता लगाने के लिए तत्पर था, और कमला ने उसे सिखाया था कि मनुष्य प्रेम के व्यापार में आनन्द का अनुभव तब तक नहीं कर सकता जब तक कि वह स्वयं प्रेम का उत्सर्ग न करे। प्रेमास्पद के प्रत्येक संकेत, प्रत्येक आलिंगन, स्पर्श, दृष्टिपात् और अंग-प्रत्यंग में एक प्रेम-रहस्य सन्निहित होता है, अगर किसी में उसके समझने की सामर्थ्य हो। उसने उसे यह भी बताया कि प्रेम-प्रसंग के उपरान्त जिस समय प्रेमी विदा हों तो उन्हें एक-दूसरे की प्रशंसा किए बिना अलग न होना चाहिए, एक-दूसरे पर विजय प्राप्त किए बिना भी अलग न होना चाहिए ताकि प्रज्वलन और विछोह की भावना या प्रेम में अनुचित रूप से प्रयुक्त होने या करने की भावना किसी प्रकार की स्थायी कटुता न पैदा करने पाये। उसने चतुर नर्तकी के सम्पर्क में अनेक आश्चर्यजनक क्षण व्यतीत किये और वह उसका शिष्य, प्रेमी और मित्र सभी कुछ बना। कमला के यहाँ ही उसके जीवन का वास्तविक मूल्य और सार्थकता थी, कामस्वामी के व्यापार में नहीं।

सौदागर ने महत्त्वपूर्ण पत्रों और आदेशों के लिखने का भार सिद्धार्थ पर ही छोड़ दिया। और सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उससे परामर्श करने का उसे अभ्यास पड़ गया। उसे शीघ्र ही पता चल गया कि चावल, ऊन, माल के विदेश भेजने या देश में निकासी करने के विषय में सिद्धार्थ यद्यपि कुछ भी नहीं जानता, परंतु उसमें पुलकयुक्त साहसिकता थी और शान्ति और लगन में तथा सुनने और दूसरों पर प्रभाव डालने की विलक्षण कला में सौदागर स्वयं अपने को उससे बहुत कम पाता था।"यह ब्राह्मण," वह बहुधा अपने मित्रों से कहता, "हक़ीक़त में कोई सफल सौदागर नहीं है, और न कभी बन सकेगा, क्योंकि वह व्यापार में डूबता नहीं। लेकिन उसमें कोई ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा सफलता बिना बुलाए उसके पास आ जाती है। नहीं कह सकते कि वह जन्मजात् भाग्यशाली आदमी है, या उसे जादू सिद्ध है या उसने उस रहस्य को श्रमणों के यहाँ सीखा है। वह सदैव ही व्यापार के साथ खेल खेलता है, व्यापार उस पर कोई प्रभाव नहीं पैदा करता, व्यापार उसका प्रभु नहीं बन पाता, वह असफलता से कभी भयभीत नहीं होता और हानि हो जाने पर कभी चिन्तातुर नहीं होता।"

उसके मित्रों ने सौदागर से कहा-"जितना व्यापार वह तुम्हारे लिए करता है, उसमें से एक-तिहाई का भाग उसे दे दो। लेकिन यदि हानि भी हो तो उसे एक-तिहाई हानि भी भुगतने दो। इस उपाय से उसकी व्यापार में दिलचस्पी और अधिक बढ़ जायगी।"

कामस्वामी ने इस परामर्श पर अमल किया, लेकिन सिद्धार्थ पर उसका भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। अगर उसे लाभ होता तो वह उसे शान्तिपूर्वक ग्रहण कर लेता और अगर हानि होती तो वह हँसता और कहता, "ओह! इस व्यापार में हानि हो गई!"

वास्तव में वह व्यापार के प्रति उदासीन था। एक बार उसने चावल खरीदने के लिए एक गाँव की यात्रा की। जिस समय वह गाँव पहुँचा तो देखा कि चावल पहले ही किसी दूसरे सौदागर को बेचा जा चुका है। तथापि सिद्धार्थ कई दिन तक उस गाँव में ठहरा, उसने किसानों का उचित सत्कार किया, बच्चों को पैसे दिये, उनके एक विवाह में भी सम्मिलित हुआ और यात्रा से लौटते समय वह पूर्णतः सन्तुष्ट था। कामस्वामी ने तत्काल लौट आने के लिए तथा समय और पैसा इस तरह व्यय करने के लिए उसकी भर्त्सना की।

सिद्धार्थ ने उत्तर दिया-"झिड़कियाँ देने की आवश्यकता नहीं है, मित्र! भर्त्सना करने से दुनिया में किसी ने कभी कुछ प्राप्त नहीं किया। यदि हानि हो गई है तो उस हानि को मैं सहन नहीं करूंगा। मैं अपनी यात्रा से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। इस यात्रा में अनेक लोगों से मेरा परिचय हुआ, एक ब्राह्मण से मेरी मैत्री हो गई, बच्चे मेरे घटनों पर बैठकर खेलते रहे और किसानों ने मुझे अपने खेत दिखाए। किसी ने भी मुझे सौदागर नहीं समझा।"

"यह सब तो बहुत अच्छा है," कामस्वामी ने झिझकते हुए कहा, "लेकिन तुम तो वास्तव में सौदागर थे। या तुमने केवल मनोरंजन के लिए यात्रा की थी।"

"निश्चित ही मेरी यात्रा मनोरंजन के उद्देश्य को लिये हुए थी।" सिद्धार्थ खिलखिलाया, "क्यों नहीं अनेक नये लोगों और प्रदेशों से मेरा परिचय हुआ। मुझे मैत्री और विश्वसनीयता का सुख प्राप्त हुआ। अगर मैं कामस्वामी होता तो मैं वहाँ से खिल्लाकर तत्काल चल खड़ा होता और खरीदारी करने की असमर्थता के लिए बहुत कुछ उद्विग्न हो उठता। उस स्थिति में समय वस्तुतः व्यर्थ नष्ट होता। लेकिन मेरा समय अत्यन्त सुखद था, मैंने बहुत कुछ सीखा और उतावलेपन अथवा उद्विग्नता के कारण न अपने चित्त को दुखी होने दिया और न किसी दूसरे को कष्ट पहुँचाया। अगली फसल में मैं चावल खरीदने के लिए या किसी अन्य उद्देश्य से वहाँ जाऊँगा तो वहाँ के लोग मित्रतापूर्वक मेरा स्वागत करेंगे और मुझे इस बात के लिए खेद नहीं होगा कि पिछली बार मैंने उतावलेपन और उद्विग्नता का परिचय यहाँ दिया था। तथापि, इस प्रसंग को समाप्त करो, मित्र! और भर्त्सना द्वारा अपने मित्र को दुखी न करो। यदि किसी दिन तुम यह समझो कि सिद्धार्थ के कारण मेरी हानि हो रही है तो केवल एक शब्द कह देना, सिद्धार्थ अपने रास्ते चला जायेगा। उस समय तक हमें परस्पर मित्रतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए।"

सौदागर का यह सिद्ध करने का प्रयत्न भी निष्फल हुआ कि सिद्धार्थ उसकी रोटियाँ खा रहा है। सिद्धार्थ अपनी ही रोटियाँ खा रहा है, या कह लीजिए कि सभी लोग दूसरों की रोटियाँ खाते हैं, हर किसी की रोटियाँ खाते हैं। सिद्धार्थ कभी भी कामस्वामी के कष्ट से उद्विग्न नहीं होता था और कामस्वामी के कष्ट भी अनेक थे। अगर किसी सौदे के प्राप्त होने में असफलता होती दिखाई देती, अगर किसी परेषित माल के नष्ट होने की आशंका होती, अगर कोई कर्जदार कर्ज अदा करने में असमर्थ दिखाई देता तो कामस्वामी अपने सहयोगी को कभी न बता सका कि दुखी या खिन्न होने में, पेशानी पर सलवटें डालने और रात्रि में उद्विग्नतापूर्वक सोने में कौन-सी सार्थकता है। जिस समय एक दिन कामस्वामी ने उसे स्मरण कराया कि उसने सब कुछ उसी से सीखा है तो उसने उत्तर दिया-"इस प्रकार का विनोद करना व्यर्थ है। मैंने तुमसे केवल यही सीखा है कि एक टोकरी मछलियों का दाम कितना है, अथवा रुपया उधार देकर कोई कितना सूद प्राप्त कर सकता है। यही तुम्हारा ज्ञान है। लेकिन मित्र कामस्वामी! मैंने चिन्तन करना तुमसे नहीं सीखा। यदि यह गुण तुम मुझ से सीख लो तो बहुत अच्छा हो।"

उसका हृदय वास्तव में व्यापार में नहीं था। व्यापार की सार्थकता उसके लिए केवल यही थी कि उसके द्वारा वह कमला के लिए सम्पत्ति ला! सकता था और वह आजकल आवश्यकता से अधिक प्राप्त कर लेता था। प्रत्युत सिद्धार्थ की सहानुभूति तथा जिज्ञासा अपेक्षाकृत उन लोगों के प्रति अधिक थी जिनके कार्यों, कष्टों, सुखों और मूर्खताओं से वह नितान्त अनभिज्ञ था और जो उसके लिए चन्द्रमा के समान दूरस्थ थे। हालाँकि किसी से भी बातें कर लेना, किसी के भी साथ रह सकना, किसी से भी सीखने को तत्पर रहना उसके लिए अत्यन्त सहज था, किन्तु वह इस सत्य के प्रति अत्यन्त जागरूक था कि कुछ ऐसी बात ज़रूर है जो उसे लोगों से दूर रखती है और यह इसलिए था कि वह श्रमण जीवन व्यतीत कर चुका था। वह लोगों को शिशुवत् और पशु-सदृश जीवन व्यतीत करते हुए देखता। इन दोनों बातों को वह स्वयं करता भी था लेकिन घृणा के साथ। वह लोगों को श्रम करते देखता, और उन्हें धन, क्षणिक आनन्द और क्षुद्र प्रतिष्ठा जैसी तृष्णाओं के लिए दुखी होते, बाल सफ़ेद करते देखता जो उसके लिए अत्यन्त नगण्य थीं। वह उन्हें एक-दूसरे से लड़ते हुए देखता और ऐसे कष्टों के लिए हाहाकार करते देखता जिन पर श्रमण हँसता है, और ऐसे-ऐसे अभावों के संताप होते हुए देखता जिन्हें श्रमण लोग अनुभव ही नहीं करते।

लोग जो कुछ उसे भेंट करते, वह स्वीकार कर लेता। अगर कोई सौदागर लिनेन बेचने के लिए लाता तो उसका भी वह स्वागत करता, यदि कोई कर्ज माँगने आता तो उसका भी स्वागत होता और यदि कोई भिखारी अपनी ग़रीबी की दास्तान घण्टे-भर बैठकर सुनाता, जो फिर भी किसी श्रमण के समान ग़रीब न होता, वह उसका भी स्वागत करता। किसी विदेश से आये हुए सौदागर के साथ व्यवहार करने में वह कोई विशेषता नहीं करता था और अपने नापित अथवा केला बेचने वाले फेरी वाले से भी, जो उससे पैसे भी ठग ले जाता था, ठीक उसी तरह व्यवहार करता था। अगर कामस्वामी उसके पास आता और अपने कष्टों का वर्णन करता, अथवा किसी लेन-देन के बारे में कोई कहन-सुनन करता तो वह ध्यानपूर्वक सुनता, और जहाँ कहीं वह आवश्यक समझता उसके सुझावों को अंगीकार करता। वह उसे आश्चर्यभरी निगाह से देखता, उसे समझने की चेष्टा करता और फिर दूसरे आदमी की ओर आमुख हो जाता, जो कोई और आदमी उससे बातें करने के लिए आया होता। वह लोगों को परामर्श देता और इस समस्त व्यापार के प्रति वह अपने विचार और लोगों के प्रति आकांक्षाओं को उतने ही सहेजकर रखता जितना पहले ईश्वर और ब्रह्म के बारे में रखता था।

समय-समय पर वह अपने अन्तर में कोमल और क्षीण ध्वनि अब भी सुनता, जो उसे अत्यन्त अस्पष्ट स्वर में चेतना कराती और प्रतारणा करती। लेकिन उसे वह मुश्किल से ही समझ पाता। तब उसने अकस्मात् एक दिन अनुभव किया कि वह एक विचित्र जीवन व्यतीत कर रहा है, कि वह अनेक काम ऐसे कर रहा है जो मात्र खेल हैं, कि वह यद्यपि कभी-कभी प्रसन्न होता था और आनन्द का भी अनुभव करता था किन्तु वास्तविक जीवन की धारा जैसे उसके निकट से होकर निकल जाती और उसे वह स्पर्श नहीं कर पाता था। वह एक खिलाड़ी की तरह, जो अपनी गेंद के साथ और व्यापार के साथ खेलता है, अपने चारों ओर रहने वाले लोगों को देखता, उनसे मनोरंजन भी ग्रहण करता, किन्तु अपने वास्तविक हृदय और प्रकृति के साथ वह उनके मध्य उपस्थित नहीं हो पाता। उसकी वास्तविक आत्मा कहीं दूसरी जगह, कहीं दूर और अज्ञात रूप से निरन्तर भटकती थी और उसके जीवन से उसका थोड़ा-सा भी सरोकार नहीं था। वह कभी-कभी इन विचारों से भयभीत हो उठता और यह चाहता कि काश वह इन दैनिक जीवन की हलचलों को, बालसुलभ औत्सुक्य की घनता को अनुभव कर सकता, सचाई के साथ उनमें सम्मिलित हो सकता, और उस जीवन में एक दर्शकमात्र न रहकर रस ग्रहण कर सकता और एकात्मकता अनुभव कर सकता!

कमला से भेंट करना उसका नैत्यिक कार्यक्रम था। उससे वह प्रेम की कला सीखता। ऐसी कला जिसमें समर्पण और परिग्रहण का पार्थक्य अनुभव नहीं होता। वह उससे बातें करता, उससे बहत-कछ सीखता, उसे परामर्श देता और उससे परामर्श ग्रहण करता। किसी समय गोविन्द उसे जितनी अच्छी तरह समझता था, कमला उससे भी अधिक अच्छी तरह उसे समझने लगी थी। वह उसी की तरह थी।

एक बार उसने कमला से कहा था-"तुम मेरी ही तरह हो, और लोगों से बिलकुल भिन्न हो। तुम कमला हो, दूसरी कोई भी नहीं और तुम्हारे अन्तर में एक शान्त और पवित्र स्थल है जहाँ तुम जब चाहो अपने को समेट लेती हो और बिलकुल आत्मस्थ हो जाती हो; ठीक उसी प्रकार जैसे मैं। बहुत कम लोगों में यह क्षमता होती है, हालाँकि सभी लोगों के लिए यह क्षमता सहज-सुलभ हो सकती है।

"सभी लोग चतुर नहीं होते," कमला ने कहा।

"इसका चातुर्य से कोई सम्बन्ध नहीं है, कमला," सिद्धार्थ ने कहा"कामस्वामी भी मेरे समान ही चतुर है, फिर भी उसके अन्तर में कोई पवित्र स्थल नहीं है। दूसरे लोग जो बच्चों की तरह हैं, उनमें यह आन्तरिक पवित्रता होती है। बहुत-से लोग, कमला, पतझड़ की पत्तियों की तरह होते हैं, जो वायु-वेग में इधर-उधर भटकते फिरते हैं, खड़खड़ाते हैं, पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। लेकिन कुछ लोग सितारों की तरह होते हैं, जो एक सुव्यवस्थित मार्ग पर चलते हैं, कोई हवा उन तक नहीं पहुँचती। उनके अपने अन्तर में पथ और पथ-प्रदर्शक दोनों होते हैं। दुनिया के इन समस्त बुद्धिमान् लोगों में-जिनमें से अनेकों को मैं जानता हूँ-केवल एक है जो इस दृष्टि से सम्पूर्ण है। उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। वह गौतम तथागत है, जो अपने धर्म का प्रचार करता है। सहस्रों नवयुवक उसके उपदेश को सुनते हैं और उसके आदेशों का पालन करते हैं, लेकिन वह सभी पतनोन्मुख पत्तियों की तरह हैं। उनके अन्तर में बुद्धि और मार्ग-दर्शक दोनों नहीं हैं।"

कमला ने उसकी ओर देखा और मुसकरा दी। "तुम उसके बारे में बातें कर रहे हो," उसने कहा-"तुम्हारे मन में फिर श्रमणों जैसे विचार आ रहे हैं?"

सिद्धार्थ मौन था। उन्होंने फिर प्रेम-क्रीड़ा की। लगभग तीस या चालीस विभिन्न खेल खेले, जो कमला जानती थी। उसकी देह चीते की तरह या शिकारी की कमान के समान लोचदार थी। जो कोई भी उससे प्रेम-क्रीड़ा सीखता, प्रेम के अनेक आनन्दों और रहस्यों का उद्घाटन उसके सम्मुख होता। वह सिद्धार्थ के साथ बहुत देर तक खेलती रही, उसे चिढ़ाती रही, उसने उसे अभिभूत कर लिया, जीत लिया और अपने करतब पर प्रसन्न हुई, जब तक कि सिद्धार्थ पूर्ण पराजित होकर उसके पार्श्व में लेट न गया।

तब नर्तकी उसके ऊपर झुक गई और देर तक उसके मुँह की ओर ताकती रही, उसके नेत्रों में देखती रही-जिनमें अवसाद की छाया दीख पड़ती थी।

"आज तक जितने प्रेमी यहाँ आये, तुम उनमें सर्वोपरि हो," उसने विचार-मुद्रा से कहा-"तुम औरों की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान् हो, अधिक लोचदार और अधिक इच्छुक। तुमने मेरे हुनर को अच्छी तरह सीख लिया है, सिद्धार्थ! एक दिन जब मैं बड़ी हो जाऊँगी तो तुम से संतान धारण करूँगी मेरे प्रिय, तुम सदैव श्रमण ही रहे हो। तुम वस्तुतः मुझे प्यार नहीं कर सके हो। तुम किसी को भी प्यार नहीं करते। क्या यह सच नहीं है?" -

"हो सकता है," सिद्धार्थ ने अलस भाव से कहा, "मैं बिलकुल तुम्हारी ही तरह हूँ। तुम भी तो प्रेम नहीं करतीं, वरना प्रेम को कला के रूप में किस प्रकार प्रयोग करना सम्भव होता। शायद हमारे जैसे लोग प्रेम नहीं कर सकते, सामान्य-जन कर सकते हैं। यही सम्भवतः उनके आनन्द का रहस्य है।"

7 : संसार

बहुत समय तक सिद्धार्थ सांसारिक जीवन व्यतीत करता रहा लेकिन वह उसमें लिप्त नहीं हुआ। श्रमण जीवन की उत्कट साधना-काल में जिन विषय-वासनाओं का उसने पूर्णतः दमन कर दिया था, वे अब पुनः जाग उठी थीं। उसने वैभव, विलास और शक्ति का उपभोग तो किया था किन्तु वह अन्तर से बहुत दिनों तक श्रमण ही बना रहा था। चतुर कमला ने यह रहस्य जान लिया था। उसके जीवन के उत्प्रेरक सिद्धान्त चिन्तन, प्रतीक्षा और उपवास ही रहे थे। सांसारिक लोग, सामान्य-जन अभी तक उसे अजनबी-से ही लगते थे, ठीक उसी प्रकार भिन्न जैसे वह स्वयं उनसे भिन्न था।

एक के बाद दूसरा वर्ष व्यतीत होता गया। समस्त सुख-सुविधाओं से सम्पन्न सिद्धार्थ को उनके व्यतीत होने का भान भी नहीं हुआ। वह अब धनाढ्य हो गया था। नदी-तट पर उसने अपने लिए भवन और उद्यान का निर्माण करा लिया था और उसका भृत्यवर्ग अब अपना निजी था। लोग उसे पसन्द करते थे और यदि धन अथवा परामर्श की उन्हें आवश्यकता होती तो वह उसके पास आते थे। तथापि, कमला के अतिरिक्त उसका कोई भी अन्तरङ्ग मित्र नहीं बन पाया था।

वह महामहिम ऊर्ध्वमुखी जागरण-जिसकी अनुभूति उसने किसी समय अपने यौवन-काल में की थी-गौतम से भेंट होने और गोविन्द से अलग होने के बाद वह चेतनापूर्ण सम्भावनाएँ तथा किसी मार्गदर्शक अथवा सिद्धान्त की सहायता के बिना ही जीवन में अग्रसर होने का वह गर्व और अपने अन्तर में उस अलौकिक ध्वनि के सुनने के लिए वह उत्सुकता और तत्परता, जो अब शनैः-शनैः स्मृतिमात्र बनकर रह गई थी, अब जैसे समाप्त हो गए थे। वह पवित्र उत्स, जो अत्यन्त सन्निकट प्रतीत होता और जिसका कलकल निनाद उसके अन्तर्प्रदेश में मुखरित होता रहता था, अब किसी दूरागत प्रतिध्वनि के समान प्रतीत होता था। तथापि अनेक चीजें जिसे उसने श्रमणों से सीखा था, गौतम से और अपने पिता और ब्राह्मण-आचार्यों से सीखा था, अभी भी उसके साथ थीं-एक सामान्य जीवन, चिन्तन में सुखानुभव करना, समाधि के क्षण, आत्मा का रहस्य ज्ञान, शाश्वत आत्मा-जो कि न शरीर है और न जीवात्मा-ये सभी चीजें उसके साथ थीं। इनमें से अनेक उसके पास थीं, कुछ पर धूल जम गई थी। जैसे कुम्भकार का चक्र जब एक बार गतिवान् होता है तो बहुत समय तक घूमता रहता है, फिर अत्यन्त धीमी गति से घूमता है और अन्त में रुक जाता है। इसी प्रकार तापस् जीवन का चक्र, चिन्तन का चक्र और विवेक का चक्र सिद्धार्थ की आत्मा में गतिवान रहा, अब भी घूमता था, किन्तु बहुत शिथिल गति से और वह प्रायः विरामता को प्राप्त हो चुका था। मरणासन्न वृक्ष के तने में प्रविष्ट अग्नि के समान जो कि उसे गलाकर जर्जर कर डालती है, संसार और अकर्मण्यता ने सिद्धार्थ की आत्मा को जर्जर कर डाला, वह शनैः-शनैः उसकी आत्मा में भर गई, उसे बोझिल बना दिया, उसे विश्रान्त कर डाला और अन्त में उसे प्रसुप्त कर दिया। दूसरी ओर उसकी वासनाएँ जाग उठीं, उनसे उसने बहुत-कुछ सीखा और बहुत-कुछ अनुभव भी किया।

सिद्धार्थ ने सीख लिया था कि व्यापार में लेना-देना किस प्रकार होता है। लोगों पर अपना प्रभाव किस प्रकार डाला जा सकता है, रमणियों के साथ किस प्रकार रमण किया जाता है, किस प्रकार सुन्दर वस्त्र धारण किये जाते हैं, भृत्यवर्ग पर किस प्रकार शासन किया जाता है और किस प्रकार इत्र से सुवासित जल में स्नान किया जाता है। अब उसे विदित हो गया था कि मधुर और सुपाचित भोजन किस प्रकार खाया जाता है; वह मछली, मांस, पक्षी और मसाले खाने लगा था। वह मदिरा-पान भी करने लगा था, जो मनुष्य को काहिल और आत्म-विस्मृत-सा बना देती थी। वह चौपड़ और शतरंज खेलने लगा था, नर्तकियों के नृत्य देखने लगा था, पालकियों में बैठकर चलने लगा था और आरामदेह तोषकों पर सोने लगा था। लेकिन जीवन में उसने अपने को सदैव ही दूसरों से भिन्न और श्रेष्ठ समझा था, और मन में थोड़ी घृणा लेकर लोगों की गतिविधियों को देखा था। यह घृणा ठीक उसी प्रकार की उपहासमिश्रित उपेक्षा से भरी होती जो कि बहुधा श्रमणों के मन में सांसारिकों को देखकर हो जाया करती है। अगर कामस्वामी का मिजाज़ बिगड़ जाता, अगर वह अनुभव करता कि उसका अपमान हुआ है या उसके व्यापार में अनुचित हस्तक्षेप किया गया है, तो सिद्धार्थ केवल मुँह बिचकाकर उसकी उपेक्षा कर देता। लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुज़रता गया, अज्ञात रूप से शनैः-शनै: यह उपहास और श्रेष्ठता की भावना घटती गई। ज्यों-ज्यों सिद्धार्थ के पास धन-दौलत बढ़ती गई, त्यों-त्यों उसके अन्दर सामान्य सांसारिकों जैसे गुण पैदा होते गए, उसमें बालकों जैसी मूर्खता और आतुरता पैदा होती गई। फिर भी वह आम लोगों से ईर्ष्या करता था, ज्यों-ज्यों वह उनके समान होता जाता था, ईर्ष्या की मात्रा उतनी ही बढ़ती जाती थी। वह उनसे एक चीज़ में ईर्ष्या करता, जो उसमें नहीं थी और उनमें थी, जीवन को उसके उचित महत्त्व के साथ जीने की भावना, हर्ष और विषाद को पूरी गहराई के साथ अनुभव करने की भावना और प्रेम-प्रसंग में नैरन्तरिक आतुरता और मधुर आह्लाद भाव से निरत रहने की शक्ति का अभाव, वह अपने अन्दर अनुभव करता था। ये लोग सदैव अपने से, शिशुओं से, प्रतिष्ठा और पैसे से, योजनाओं और वाञ्छा से प्रेम कर सकते थे। लेकिन वह उनसे यह शिशुओं के समान प्रसन्न रहने और मूर्खताएँ करना नहीं सीख सका, उसने केवल अप्रियकर बात ही सीखीं, जिनसे वह घृणा करता था। बहुधा ऐसा होता कि जब कभी वह रंगीली रात व्यतीत करता, अगले दिन प्रात: दिन-चढ़े उठता और बहुत सुस्ती अनुभव करता। जिस समय कामस्वामी अपनी चिन्ताओं से उसे परेशान करता तो वह झल्ला उठता और धैर्य खो बैठता। जिस समय वह चौपड़ की बाजी हार जाता तो असाधारण रूप से अट्टहास कर उठता। उसकी मुखाकृति पर दूसरे लोगों की समानता में अब भी अधिक चातुर्य और बौद्धिकता परिलक्षित होती थी, लेकिन अब वह कभी-कभी ही हँसता था। धीरे-धीरे उसके मुख पर वैसी ही भावनाएँ उभर आईं, जो बहुधा धनिकों के मुख पर अंकित रहती हैं-असन्तोष, रुग्णता, खिन्नता, अवसाद और प्रेमहीनता इत्यादि।

एक आवरण के समान, एक हलके कुहासे के समान प्रमाद की भावना सिद्धार्थ पर छाती गई और हर दिन यह पर्त घनीभूत होता जाता था, हर मास अधिक काला और हर वर्ष भी समाप्ति पर गुरुतर होता जाता था। जिस प्रकार समय व्यतीत होने के साथ पोशाक पुरानी पड़ जाती है, उसकी चमक चली जाती है, उसमें दाग़ और शिकन पड़ती जाती है, गोट उधड़ती जाती है और जगह-जगह छिन्नक पड़ जाते हैं, उसी प्रकार गोविन्द से अलग होने के उपरान्त सिद्धार्थ जीर्ण होता जा रहा था। सिद्धार्थ के जीवन का रंग भी इसी तरह फीका पड़ता जाता था, दीप्ति बुझती जाती थी, शिकन और दागों का तमार बनता जाता था और वह अन्तराल में अन्तर्हित होते जाते थे, कहीं-कहीं उभर भी आए थे और वैराग्य तथा विरक्ति की भूमिका बनती जाती थी। सिद्धार्थ को इसका भान नहीं था। उसे केवल इतना अनुभव होता था कि उसके अन्तर की तेजपूर्ण और स्पष्ट ध्वनि, जो श्रेष्ठतम घड़ियों में सदैव ही उसका पथ प्रदर्शन करती थी, अब पूर्णतः स्वप्नहीन हो गई थी।

अब वह संसार-चक्र में फंस चुका था-हर्ष, स्पृहा, प्रमाद और लिप्सा ने, जिसे वह सदैव ही अत्यन्त तिरस्कार योग्य और घृणित समझता था, उसे अभिभूत कर लिया था। सम्पत्ति और सामान तथा भोगविलास की वस्तुएँ उसे फँसा चुकी थीं। अब ये वस्तुएँ उसके लिए खेल और खिलौना नहीं रह गई थीं, वह अब एक श्रृंखला और बन्धन बन चुकी थीं। चौपड़ के खेल ने उसे अध:पतन के इस विचित्र और पेचीदा मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया था। जिस समय से सिद्धार्थ अपने हृदय में श्रमण नहीं रह सका, वह उत्तरोत्तर परिवर्धित उत्साह से धन और हीरे-जवाहरात के लिए पाँसा फेंकने लगा, जब कि प्रारम्भ में उसने सामान्य लोक-रुचि के साथ विनोद और व्यस्तता के लिए खेलना प्रारम्भ किया था। अब वह एक दुर्धर्ष खिलाड़ी बन चुका था, उसके दाँव इतने ऊँचे और दुर्धर्ष होते कि लोगों का साहस न होता कि उसके साथ बाजी लगाएँ। अब वह हृदय की आन्तरिक प्रेरणा से बाज़ी लगाता था। इस घृणित सम्पत्ति से जुए में हारकर धूआँधार खर्च करके वह मुक्त होना चाहता था। धनपतियों के इस झूठे उपास्य देवता की अवहेलना करना और किस प्रकार सम्भव था? वह सहस्रों रुपये जीतता और सहस्रों यों ही फेंक देता, उसने पैसा खोया, हीरे-जवाहरात खोये, एक भवन खोया, फिर जीत लिया और फिर खो दिया। वह इस आतुरता को प्यार करता था। चौपड़ के खेल में पाँसा फेंकते समय, और ऊँचे-ऊँचे दाँव लगाते हुए उसे एक भयानक और दुर्दान्त आतुरता की अनुभूति होती। वह इस अनुभूति को प्रेम करता था और उसे बार-बार अनुभव करने, बढ़ाने, और प्रोत्साहित करने के लिए सचेष्ट रहता था क्योंकि यही वह अनुभूति थी जिसके द्वारा उसे थोड़ा-बहुत सुख, थोड़ा-बहुत आन्दोलन और श्रेष्ठ जीवन की प्रतीति होती थी, अन्यथा उसका जीवन भोगविलास से नाक से ऊपर तक भरा था, निर्जीव और नीरस हो गया था। प्रत्येक बड़ी हानि के उपरान्त वह नई सम्पत्ति के अर्जना के लिए उतावला हो उठता, उत्सुकता से अपने व्यापार में संलग्न हो जाता और कर्जदारों से रुपया वसूल करने के लिए दबाव डालता, जुआ खेलने की चाह फिर उभरती, फिर उस सम्पत्ति को बहाने की भावना मन में मचल उठती और धन सम्पत्ति के प्रति वह अपनी घृणा फिर से प्रदर्शित करने के लिए बेचैन हो उठता। अब सिद्धार्थ को हानि होती तो उसका धैर्य विचलित हो उठता, धीरे-धीरे कर्ज अदा करने वालों पर वह खीझ उठने लगता, फ़क़ीरों के लिए उसके हृदय में दया नहीं रह गई थी। वह, जो चौपड़ के एक दाँव पर दस हज़ार लगाकर भी, अट्टहास कर सकता था, व्यापार में अधिक सख्त और कमीना होता जा रहा था और रात में उसे धन-सम्पत्ति के स्वप्न आने लगे थे। जिस समय वह इस घृणित सम्मोहन से मुक्त होता, अपने शयन-कक्ष की भित्ति पर लगे मुकुर में अपने, प्रौढ़, भद्दे मुँह की प्रतिछवि देखता, जब कभी लज्जा और ग्लानि उस पर छा जाती तो वह नया दाँव लगाने के लिए दौड़ता, दिग्भ्रमित होकर और वासना, मदिरा में डूब जाता और वहाँ से लौटता तो फिर अधिक धन-सम्पत्ति अर्जित करने और संग्रह करने में दत्तचित हो जाता। इस निरर्थक चक्र ने उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को बाँध लिया था और वह बूढा और रुग्ण होता जाता था।

एक स्वप्न ने एक बार उसे अतीत का स्मरण करा दिया। सन्ध्या उसने कमला के साथ उसके सुन्दर उद्यान में व्यतीत की थी। वे देर तक एक वृक्ष के नीचे बैठे बातें करते रहे थे। कमला की वाणी में गाम्भीर्य था, दुख और अवसाद उसके शब्दों में अन्तर्निहित थे। वह उससे गौतम के बारे में सुनना चाहती थी। अब तक जो कुछ उसने बताया था, उससे उसे परितोष नहीं हुआ था। उसके नेत्र कितने स्वच्छ थे, उसका मुख कितना प्रशान्त और सुन्दर था, उसकी मुस्कान कितनी करुणापूर्ण थी और उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व कितना प्रशान्त था-ये सब बातें बार-बार सुनने की इच्छा होती थी। काफ़ी देर तक उसे अर्हत बुद्ध के विषय में बताते रहना पड़ा और कमला ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, "एक दिन, शायद बहुत शीघ्र ही, मैं भी बुद्ध की अनुगामिनी बन जाऊँगी। मैं अपना विहार-कुञ्ज उन्हें अर्पण कर दूंगी और उनके संघ की शरण में चली जाऊँगी।" लेकिन बाद में उसने उसे मोहित कर लिया। प्रेम-क्रीड़ा करते समय वह इतनी आतुरता और इतनी उद्दामता के साथ उसे अपने आलिंगन में जकड़ लेती थी, जैसे कि वह उस क्षणिक आनन्द की अन्तिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहती हो। सिद्धार्थ के समक्ष आज तक इससे अधिक स्पष्ट कभी नहीं हुआ था कि वासना और मृत्यु का कितना निकट सम्बन्ध है। वह उसके पास लेट गया, कमला का मुँह उसके मुँह के बिलकुल निकट था, और उसके नेत्र कोटरों तथा उसके मुख कोणों में उसने पहली बार एक दुःखसूचक चिह्न परिलक्षित किया था, सुस्पष्ट रेखाएँ और झुर्रियाँ उभर आई थीं, पतझड़ और बुढ़ापे के लक्षण प्रकट हो गए थे। सिद्धार्थ स्वयं, जो अभी चालीसी से ही गुजर रहा था कि उसके काले बालों में कहीं-कहीं सफेद बाल दिखाई पड़ने लगे हैं। कमला की मुखाकृति पर अवसाद अंकित हो चुका था, और वह अवसाद एक ऐसी जीवन-यात्रा पर चलते रहने के कारण उभर आया था जिसका कोई सुखद अन्त नहीं था, अवसाद और बुढ़ापे की तिक्त अनुभूति के साथ वह प्रच्छन्न और अकथित भय भी अज्ञात रूप से काम कर रहा था, जिसका भान शायद प्रकट रूप से उसे आज तक नहीं हुआ था, किन्तु जो जीवन के पतझड़ काल में आदमी पर छा जाता है। यही बुढ़ापे का भय होता है, यही मृत्यु के भय का रूप धारण कर लेता है। एक दीर्घ निःश्वास उसके हृदय से निकल गया, उसका अन्तर परिक्लान्ति और एक अज्ञात भय से अभिभूत था।

उस दिन सिद्धार्थ ने अपने घर पहुँच रात्रि सुरा और सुन्दरियों के मध्य व्यतीत की। उसने अब भी अपने साथियों की अपेक्षा अपने को श्रेष्ठ समझने का प्रयास किया, जो कि वह अब रह नहीं गया था। उसने बहुत अधिक मद्यपान किया और रात-ढले सोया, वह काफ़ी थका था, उसका मन अत्यन्त उद्विग्न था, उसकी आँखें आँसुओं से भीगी थीं। और एक ज़र्बदस्त मायूसी उसके अन्तर में छाई हुई थी। लेकिन सोने का सभी उपक्रम व्यर्थ ही सिद्ध हुआ। उसके मन में जो वेदना थी, उसे वह अब और अधिक सहन नहीं कर सकता था। उसके अन्तर में ग्लानि भर उठी थी, जिस प्रकार बदमज़ा शराब पीकर, या अतिशय मधुर और कृत्रिम संगीत सुनकर या नर्तकियों की अतिमधुर मुसकान या उनके बालों और कुचों की अतिमधुर सुवास से आदमी को ग्लानि हो जाती है, उसी प्रकार की यह ग्लानि थी। सबसे अधिक ग्लानि उसे अपने आप से थी, अपने सुगन्धित बालों, अपने मुँह से निकलने वाली शराब की गन्ध और अपनी कोमल और पिलपिली त्वचा से होती थी। जिस प्रकार अधिक मदिरा पीने वाला आदमी यद्यपि कष्ट के साथ उल्टी करता है किन्तु उल्टी करने के बाद बेहतर अनुभव करता है, ठीक उसी प्रकार यह बेचैन आदमी एक भीषण निःश्वास के साथ इन समस्त आमोदप्रमोद की वस्तुओं, और सर्वथा निरर्थक जीवन की आदतों से अपने को मुक्त कर लेना चाहता था। केवल पौ फटने पर जब कि उसके नगर-स्थित भवन के चारों ओर कोलाहल आरम्भ हो चुका था, उसे थोड़ी ऊँघ आई थी, अथवा उसे अर्द्ध-विस्मृतावस्था या सम्भवतः नींद भी कहा जा सकता है।

कमला के यहाँ एक सोने के छोटे से पिंजरे में एक गाने वाला पक्षी था। स्वप्न में उसे यही पक्षी दिखाई दिया था। यह पक्षी, जो बहुधा प्रात:काल में गाता था, अकस्मात् मूक हो गया था। यह देखकर उसे आश्चर्य हुआ और पिंजरे के पास पहुँचकर उसने अन्दर देखा। नन्हा-सा पक्षी मर चुका था और उसका शरीर फ़र्श पर अकड़ा पड़ा था। उसने उसे बाहर निकाला, क्षण-भर हाथ में लेकर देखा और फिर सड़क पर फेंक दिया। इसी समय उसका हृदय भयाक्रान्त हो उठा और अजीब-सी टीस से भर गया मानो कि उसने उस पक्षी के साथ वह सब कुछ फेंक दिया जो उसके अपने अन्दर सद् और सार्थक था।

उस स्वप्न से जब वह जागा तो उसका मन शोक से अभिभूत हो गया था। उसे लगा कि उसने अपना जीवन नितान्त निरर्थक और निरुद्देश्य रूप से व्यतीत किया है। उसके जीवन में अब क्या रह गया था जो सार्थक हो, या जो किसी भी प्रकार मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण हो? वह किनारे पर खड़े उस आदमी की तरह एकाकी था जिसका जहाज़ टकरा गया हो।

शोकाकुल सिद्धार्थ अपने प्रमोद-उद्यान में पहुँचा, उसने द्वार बन्द कर दिये, वह आम्र-वृक्ष के नीचे बैठ गया, उसने अपने हृदय में भय और मृत्यु का अनुभव किया। वह बैठा रहा और उसने अनुभव किया कि वह मृत्यु को प्राप्त हो रहा है, मुरझा रहा है और समाप्त हो रहा है। शनै:--शनैः उसने अपने विचारों पर अधिकार किया, स्मरणीय बाल्यकाल से लेकर आज तक के अपने समस्त जीवन का मानसिक सिंहावलोकन किया। जीवन में वस्तुतः क्या वह कभी सुखी रहा था? उसने कभी वास्तविक आनन्द की अनुभूति की थी? उसे अनेक बार ये अनुभूतियाँ हुई थीं। बाल्यकाल में जब ब्राह्मण लोग उसकी प्रशंसा किया करते थे, जब वह अपने सहपाठियों को बहुत पीछे छोड़ जाया करता था, जब वह मन्त्रों का उच्चारण करने में दक्षता प्राप्त कर रहा था, जब कभी वह विद्वानों से तर्क करता और जब वह अपने पिता की यज्ञ में सहायता करता होता-उसने अनेक बार सुख और आनन्द की अनुभूति की थी। उस समय वह अपने हृदय में अनुभव करता था-'तुम्हारे समक्ष एक प्रशस्त मार्ग है, जिस पर अग्रसर होने के लिए तुम्हारा आह्वान किया जा रहा है। देवता तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं?' और जब वह तरुण था और उसका यह ज्वलन्त लक्ष्य जब उसे अपने समान खोजियों की प्रतिद्वन्द्विता में कभी गिराता-कभी उठाता, जब वह ब्राह्मणों के ज्ञान को समझने की चेष्टा करता, जब कि प्रत्येक नये ज्ञान से अधिक जानने की प्यास पैदा होती और अपनी इस प्यास और प्रयासों के मध्य वह सोचता-'आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, यही तुम्हारा मार्ग है। जिस समय उसने गृह त्याग कर श्रमण-जीवन अंगीकार किया था, उसके अन्तर में यही अन्तर्ध्वनित हुआ था, जिस समय श्रमणों को छोड़कर वह पूर्णकाम बुद्ध के पास गया था और जिस समय उससे विदा होकर वह एक अज्ञात मार्ग की ओर अग्रसर हुआ था, तब भी उसके अन्तर में यही ध्वनि गूंज उठी थी। इस ध्वनि को सुने और किसी प्रकार की भी उच्चता को प्राप्त हुए कितना समय हो गया था? कितना उथला और निष्प्रयोजन उसका मार्ग रहा है? बिना किसी उच्च लक्ष्य की सिद्धि किये ही, बिना किसी प्यास को मन में लिये, बिना कोई गौरव प्राप्त किये और क्षुद्र लालसाओं के पीछे और उनमें भी कोई वास्तविक संतोष प्राप्त किये बिना ही उसने अपने जीवन के कितने लम्बे-लम्बे वर्ष गजार दिये। बिना जाने ही उसने इन तमाम दिनों दूसरे लोगों की तरह बनने की अभिलाषा और प्रयत्न किया है। इन शिशुओं की तरह तथापि उसका जीवन उनकी अपेक्षा कितना अकिंचन और कुत्सित जीवन रहा है, क्योंकि उनका उद्देश्य उसका अपना उद्देश्य नहीं बन सका था, उनका विषाद उसका अपना विषाद नहीं बन पाया था। कामस्वामी सदृश लोगों की दुनिया उसके लिए हमेशा ही एक खेल, नृत्य अथवा एक प्रहसन मात्र रही है, जिसे लोग केवल दर्शक की तरह देखते भर हैं। केवल कमला ही उसे प्रिय रही, केवल उसकी ही उसके लिए कुछ सार्थकता थी, किन्तु क्या उसकी सार्थकता भी पूर्ववत् बनी हुई है? क्या उसे कमला की अब भी आवश्यकता थी और क्या कमला को उसकी आवश्यकता निःशेष रह गई थी? क्या वे ऐसा खेल नहीं खेल रहे थे जिसका कोई अन्त नहीं था? क्या उसको साध्य मानकर करते जाने की आवश्यकता थी, नहीं? इसी खेल का नाम तो संसार है, बच्चों को खेल जो कि शायद एक बार खेलने में, दो बार अथवा दस बार खेलने में आनन्दप्रद प्रतीत हो सकता था, परंतु निरन्तर उसे खेलते रहने में कोई सार्थकता क्या है। सिद्धार्थ को विदित हो गया था कि अब खेल खत्म हो गया था और वह अधिक समय तक उसे खेल नहीं सकता। उसकी समस्त देह में एक कम्पन दौड़ गई, उसने अनुभव किया कि उसके अन्दर कुछ था जो अब मर चुका है।

सारा दिन यह आम्र-वृक्ष के नीचे बैठा रहा, और अपने पिता, गोविन्द और गौतम के बारे में सोचता रहा। क्या उसने इन सब का परित्याग इसलिए किया था कि वह कामस्वामी बने? वह वहीं बैठा रहा, और रात हो गई। जब उसने सिर ऊँचा किया और सितारों को देखा तो सोचा-"मैं यहाँ अपने प्रमोद-उद्यान में इस आम्र-वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हूँ।" वह किंचित मुस्करा उठा। क्या यह आवश्यक था, क्या यह उचित था और क्या यह केवल मुर्खता मात्र नहीं थी कि उसने आम्र-वृक्ष और उद्यान का स्वामी होने की भावना को अपने हृदय में स्थान दिया? अब वह उसे समाप्त कर चुका था। उसका अन्तर्मन अब प्रशान्त हो चुका था। वह उठ बैठा और उसने आम के वृक्ष और प्रमोद-उद्यान से विदा ली। आज प्रातः से उसने कुछ नहीं खाया था, इस समय उसे जोरों से भूख लगी थी और अपना नगर-स्थित भवन, कक्ष और शैया तथा भोजन से सज्जित मेज़ उसे याद आ रहे थे। एक अवसादपूर्ण मुस्कान उसकी मुखाकृति पर उभर आई, उसने अपना नकारसूचक सिर हिलाया और इन समस्त वस्तुओं को भी अलविदा कह दिया।

उसी रात्रि सिद्धार्थ उद्यान और नगर छोड़कर चला गया और फिर कभी नहीं लौटा। बहुत दिनों तक कामस्वामी ने उसे खोजने का प्रयत्न जारी रखा क्योंकि उसका ख्याल था कि वह कहीं दस्युओं के हाथों में पड़ गया है। कमला ने उसे खोजने का प्रयत्न नहीं किया। जिस समय उसने सुना कि सिद्धार्थ अन्तर्धान हो गया है, उसे लेशमात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ। क्या वह सदैव ही इस घटना की सम्भावना नहीं देखती रही है? क्या वह एक श्रमण ही नहीं था, गृह-विहीन केवल मात्र एक यात्री? अपनी उस अन्तिम भेंट में उसने उसके इस स्वरूप को सबसे अधिक अनुभव किया था और अपनी इस हानि की वेदना के मध्य ही उसे यह सोचकर अपार प्रसन्नता हुई कि इस अन्तिम भेंट में उसने एक प्रगाढ़ आलिंगन द्वारा अपने हृदय से लगाया था, और आज प्राणपण से उसे अपना स्वामी और आधीश स्वीकार किया था।

जब उसने सिद्धार्थ के गायब होने का समाचार सुना तो वह उस गायक पक्षी के पिंजरे के निकट गई जो खिड़की में टँगा हुआ था। उसने पिंजरे का द्वार खोल दिया, पक्षी को बाहर निकाला और उसे मुक्त कर दिया। उस दिन से उसने अपने यहाँ आने वालों को मनाही करवा दी और अपने भवन को बन्द रखने लगी। कुछ समय उपरान्त उसने अनुभव किया कि सिद्धार्थ से अपनी अन्तिम भेंट के परिणामस्वरूप उसने अपने गर्भ में एक सन्तान को ग्रहण कर लिया है।

8 : नदी-तट पर

सिद्धार्थ घूमता हुआ वन-प्रान्त की ओर निकल गया, यह स्थान नगर से काफ़ी दूर था। उसे केवल यह चीज़ मालूम थी कि अब वह लौटकर नहीं जा सकता। पिछले अनेक वर्षों तक उसने जो जीवन व्यतीत किया है, उसका स्मरण करके ही मन में ग्लानि उत्पन्न होती थी। वह गायक पक्षी मर चुका था, उसकी मृत्यु जिसे उसने स्वप्न में देखा था-वस्तुतः उसके अपने अन्तर में निवास करने वाले पक्षी की मृत्यु थी। वह संसार-चक्र में अत्यन्त जटिलता के साथ फंस चुका था और उसने चारों ओर से आत्म-ग्लानि और मृत्यु को ही आमंत्रित किया था, ठीक उस स्पंज की तरह जो तब तक पानी अपने अन्दर जज्ब करता जाता है, जब तक जल से परिपूर्ण नहीं हो जाता। उसके अन्तर में विराम-वेदना और मृत्यु भर गई थी, और दुनिया में अब ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे उसे आह्लाद और परितोष प्राप्त हो सकता।

वह बड़ी उत्कटतापूर्वक कामना करता था कि किसी प्रकार उसका अतीत विस्मृत हो जाय, वह शान्त होना चाहता था, वह निष्प्राण होना चाहता था। काश अगर बिजली की एक कौंध उसे छू जाती! काश कोई चीता ही आकर उसे फाड़ डालता! काश कोई मदिरा या विष ऐसा होता जो उससे उसकी स्मृति छीन लेता, या उसे इतनी गहरी नींद में सला देता कि जिससे वह कभी न उठ पाता! क्या कोई ऐसी गन्दगी थी जिसमें उसने अपने को डुबोया नहीं था, कोई पाप अथवा मूर्खता शेष रह गई थी जिसे उसने किया नहीं था या उसकी आत्मा पर ऐसा कोई दाग़ था जिसके लिए वह और केवल वह उत्तरदायी नहीं था। तो क्या अब भी जीवित रहने में कोई सार्थकता है? तो क्या बार-बार साँस, निःश्वास लेना सम्भव है, भूख लगना और फिर खाना, फिर से सोना और स्त्रियों के साथ विहार करने की कोई सम्भावना है? क्या उसके लिए यह सब निःशेष नहीं होगा, कभी भी परिसमाप्त नहीं होगा?

सिद्धार्थ वन में से होकर बहने वाली नदी के तट पर पहुँच गया। यह वही नदी थी जिसके पार नाविक ने उसे उतारा था, जिस समय वह युवक ही था और गौतम के नगर से आ रहा था। वह नदी के पास रुक गया और कुछ झिझकता-सा वह कगार पर खड़ा हो गया। थकान और भूख से उसका शरीर निःशक्त हो चुका था। अब वह आगे चलकर क्यों आए, कहाँ और किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए? अब जीवन में कुछ भी अवशेष नहीं था, दिग्भ्रम युक्त स्वप्न को समाप्त कर देने, बासी शराब को थूक देने और उस कड़वे और पीड़ा-युक्त जीवन को समाप्त कर देने के अतिरिक्त कोई भी आकांक्षा शेष नहीं रह गई थी।

नदी के तट पर एक नारियल का वृक्ष था। सिद्धार्थ उसी का सहारा लेकर खड़ा हो गया। उसने वृक्ष के तने को अपनी बाँहों में भर लिया और अपने नीचे बहते हुए पानी में दृष्टि डाली। उसने देखा और उसका मन हुआ कि अपने को गिर जाने दे और जल की गहराई में अपने को डूब जाने दे। जल की शीत-रिक्तता में उसे अपने अन्तर की रिक्तता की प्रतिच्छवि दिखाई देने लगी। हाँ, वह अब अन्तर को प्राप्त हो चुका था। अब इसके अतिरिक्त उसके सम्मुख क्या था कि वह अपनी हस्ती को मिटा दे, अपने जीवन के असफल पंजर को नष्ट कर डाले, उसे दूर फेंक दे ताकि देवतागण उसका उपहास कर सकें। अब वह केवल एक ही कृत्य कर डालना चाहता कि उस स्वरूप को नष्ट कर डाले जिससे उसे घृणा थी। अच्छा हो अगर मछलियाँ उसे हड़प जाएँ, यह श्वानवत् सिद्धार्थ, यह उन्मत्त पुरुष, यह कुत्सित और नारकीय देह, यह निस्तेज और कुप्रयुक्त आत्मा? अब उसकी सार्थकता ही क्या? हाँ, हाँ मछलियाँ और मगर उसे निगल क्यों न जाएँ और दानव चीरफाड़कर उसके परखच्चे क्यों न उड़ा दें?

एक विकृत मुखमुद्रा से उसने जल में झाँका। उसने अपने मुँह की छाया जल में देखी और उस पर थूक दिया। उसने वृक्ष के तने से अपने हाथ हटा लेने चाहे ताकि वह सिर के बल गिरे और सदैव के लिए नदी के गर्भ में समा जाय। वह झुका-उसके नेत्र बन्द थे-मृत्यु की ओर उसने अभियान किया।

उसी समय अपनी आत्मा के किसी दूरस्थ प्रकोष्ठ से उसने अपनी थकी ज़िन्दगी के अतीत में से निकलती हुई एक ध्वनि को उसने सुना। यह केवल एक शब्द, एक पद्यांश था जिसे बिना चिन्तना के उसने अस्फुट स्वर से उच्चरित किया, ब्राह्मण-उपासना का वह आदिम और अन्तिम शब्द 'ओ३म्' था। जिस समय ओ३म् स्वर सिद्धार्थ के कानों में पड़ा उसकी सोई आत्मा अकस्मात् जाग उठी और उसने अपने कार्य की जड़ता को पहचाना।

सिद्धार्थ का हृदय सिहर उठा-अच्छा, तो वह यहाँ तक पहुँच चुका है ! वह इतना खो चुका है, इतना दिग्भ्रमित और अज्ञानी हो चुका है कि वह मृत्यु की शरण में परित्राण चाहने लगा है! यह इच्छा, यह शिशु-सदृश् अभिलाषा शरीर को नष्ट कर देने के बाद ही शान्ति की कल्पना करने लगी है। निकट अतीत काल की वह सब परेशानियाँ, वह निराशा, वह मायूसी भी उसे इतनी पीड़ा नहीं पहुंचा सकी थी जितना कि उस दुष्कृत्य की चेतना ने उसे पहुँचाया जो कि ओ३म् के उच्चारण से उसके अन्तर में जाग उठी थी।

'ओ३म्', उसने अन्दर-ही-अन्दर उच्चारण किया और ब्रह्म का आविर्भाव होता हुआ प्रतीत हुआ। जीवन की नश्वरता उसके समक्ष प्रकट हो गई, जो कुछ वह भूल चुका था, उसे याद आ गया था, जो अलौकिक था। उसकी स्मृति मनस्पटल पर अंकित हो चुकी थी।

किन्तु यह सब एक निमिष के लिए हुआ, एक झलक के समान । सिद्धार्थ वृक्ष की जड़ में थकान से चूर होकर ढेर हो रहा। अस्फुट स्वर में ओ३म् का उच्चारण करते हुए वह वृक्ष की जड़ पर सिर का सहारा देकर गहरी नींद में डूब गया।

उसकी नींद गहरी और स्वप्नरहित थी। बहुत दिन से वह ऐसी नींद नहीं सोया था। कई घण्टों के उपरान्त जब वह उठा, तो उसे लगा कि जैसे दस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। उसने जल का कलकल नाद सुना, उसे यह पता नहीं था कि वह कहाँ है और कौन उसे वहाँ लाया? उसने ऊपर देखा और अपने ऊपर वृक्षों और आकाश को देखकर उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसे याद आया कि वह कहाँ है और किस प्रकार वहाँ आया है। उसके मन में आया कि वह चिरकाल तक वहीं रहे। उसका अतीत उसे आवरण से आच्छन्न प्रतीत हुआ, अत्यन्त प्राचीन और अमहत्त्वपूर्ण प्रतीत हुआ। वह केवल इतना जानता था कि उसका पूर्व-जीवन (चेतना प्राप्त करने के प्रथम क्षण में उसका व्यतीत जीवन उसे पिछले जन्म के समान, वर्तमान आत्मा के पूर्व जन्म के समान प्रतीत हुआ) समाप्त हो चुका है और उसके अत्यन्त ग्लानियुक्त और कुत्सित होने के कारण वह उसे परिसमाप्त कर ही देना चाहता था। किन्तु इस नदी-तट पर आकर उसे आत्मज्ञान हुआ था, इस नारियल वृक्ष के नीचे और ओ३म् शब्द को अपने होंठों पर धारण किये हए। तब ही उसे नींद आ गई थी और अब वह जागा था तो वह एक नये आदमी की तरह दुनिया को देख रहा था। उसने आहिस्ता से पुनः ओ३म् का उच्चारण किया, इसी शब्द का उच्चारण करते हुए वह सोया था और उसकी सम्पूर्ण प्रसुप्तावस्था जैसे ओ३म् की दीर्घ और गम्भीर उच्चारण मात्र बन गई थी, ओ३म् के चिन्तन में और ओ३म् में परिस्नात् और प्रविष्ट हो चुकी थी तथा उस अनाम और अलौकिक का उच्चारण बन चुकी थी।

यह कितनी विचित्र नींद थी। आज तक कभी भी नींद ने उसे इतना तरोताज़ा, इतना नवल और इतना यौवनयुक्त नहीं किया था। सम्भवतः वह मर चुका था, वह डूब चुका था। अब दूसरे रूप में उसका जन्म हुआ था। नहीं, उसने अपने को पहिचान लिया था, उसे अपने हाथ, अपने पैर, वह स्थान जहाँ वह लेटा था, उसका अपना हृदयस्थ सिद्धार्थ, आत्मस्थता और व्यष्टि रूप सभी कुछ याद आ गए थे। किन्तु यह सिद्धार्थ कुछ बदल चुका था, नया हो चुका था। वह आश्चर्यजनक रूप से सोया था और अब वह असाधारण रूप से जाग उठा था, सुख और उत्सुकता से भरा हुआ।

सिद्धार्थ उठकर बैठा तो उसे पीले वस्त्र पहने एक भिक्षु अपने पास - बैठा दिखाई दिया। उसका सिर घुटा था और वह ठीक सामने विचारक की मुद्रा में बैठा था। उसने उस आदमी को देखा जिसके सिर अथवा दाढ़ी पर एक भी बाल नहीं था और जब उसने पहिचान लिया कि यह भिक्षुक और कोई नहीं उसका गोविन्द ही है, तो उसने उसकी ओर देखना बन्द कर दिया। वह उसका बालसाथी गोविन्द था जिसने अर्हत बुद्ध की शरण ग्रहण कर ली थी। गोविन्द के मुँह पर प्रौढ़ता के चिह्न उभर आये थे किन्तु उसके पुराने गुण-जिज्ञासा, स्वामिभक्ति, उत्सुकता और आतुरता अब भी उसके मुँह पर स्पष्ट उल्लिखित थे। किन्तु जब गोविन्द ने उसकी दृष्टि को अनुभव करते। हुए निगाह उठाई और उसकी ओर देखा तो सिद्धार्थ ने जाना कि वह उसे पहचान नहीं सका है। उसे जागा देखकर गोविन्द को सुख हुआ। प्रकटतः वह बहुत देर से उसके जागने की प्रतीक्षा करता रहा था, हालाँकि वह उसे जानता न था।

"मैं सो रहा था," सिद्धार्थ ने कहा, "तुम यहाँ किस प्रकार आ पहुँचे, भद्र?"

"तुम सो रहे थे,"गोविन्द ने उत्तर दिया, "ऐसे स्थान में-जहाँ सर्प और अन्य वन्य जन्तु इधर-उधर डोलते रहते हैं, और जहाँ सोना अच्छा नहीं है। मैं शाक्यमुनि अर्हत गौतम बुद्ध का एक अनुयायी हूँ और कुछ साथियों सहित यात्रा पर जा रहा हूँ। मैंने देखा कि तुम इस संकटापन्न स्थान पर सोए पड़े हो, तो मैंने तुम्हें जगाने की चेष्टा की, और जब मैंने देखा कि तुम बहुत गहरी नींद में सोए पड़े हो तो मैं अपने बन्धुओं से पीछे रह गया और तुम्हारी देखभाल करने लगा। लेकिन लगता यह है कि मैं जो तुम्हारी देखभाल करने बैठा था, स्वयं ही सो गया था। मुझ पर थकान छा गई थी और मैंने अत्यन्त असावधानी से अपना काम सम्पन्न किया है। लेकिन अब तुम जाग उठे हो, अब मुझे चलना चाहिए और अपने साथियों का साथ पकड़ लेना चाहिए।"

"मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ श्रमण कि तुमने सुप्तावस्था में मेरी रक्षा की। वस्तुतः अर्हत के अनुयायी बहुत ही दयालु होते हैं, लेकिन अब तुम अपनी यात्रा पर प्रस्थान कर सकते हो।"

"मैं जाता हूँ, तुम्हारा मंगल हो।"

"मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ, श्रमण!"

गोविन्द ने नमन किया और कहा, "विदा!"

“विदा! गोविन्द!" सिद्धार्थ ने कहा।

साधु चकित-सा खड़ा रह गया। "क्षमा करें, भद्र, आप मेरा नाम किस तरह जानते हैं?"

यह सुनकर सिद्धार्थ हँस पड़ा।

"मैं तुम्हें तब से जानता हूँ गोविन्द, जब तुम अपने पिता के घर में थे, जब ब्राह्मण-पाठशाला में पढ़ते थे, जब तुम यज्ञ किया करते थे, श्रमणों के साथ व्यतीत होने वाले अल्पकाल और जैतवन की कुंज में व्यतीत होने वाले उस क्षण से जब तुमने अर्हत बुद्ध के अनुयायी होने का प्रण किया था।"

"तुम सिद्धार्थ हो?" गोविन्द उच्च स्वर से चिल्लाया, "अब मैं तुम्हें पहचानता हूँ और मेरी समझ में नहीं आता कि मैंने तुम्हें पहले ही क्यों न पहचाना। स्वागत है सिद्धार्थ, मैं तुम्हें पुनः देखकर अत्यन्त सुखी हुआ हूँ।"

"मैं भी पुनः तुम से मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ। तुमने सोते समय मेरी देखभाल की है। मैं फिर तुम्हारा आभार स्वीकार करता हूँ, हालाँकि मुझे सुरक्षा की आवश्यकता नहीं थी। तुम कहाँ जा रहे हो मेरे मित्र?"

"मैं कहीं भी नहीं जा रहा हूँ। भिक्षु लोग तो बरसात को छोड़कर हर समय भ्रमण ही करते रहते हैं। हम सदैव एक जगह से दूसरी जगह भ्रमण करते रहते हैं, नियमानुसार जीवन यापन करते हैं, उपदेश देते हैं, भिक्षा ग्रहण करते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। हमेशा यही क्रम रहता है। लेकिन तुम किधर जा रहे थे सिद्धार्थ?"

सिद्धार्थ ने कहा-"जिन नियमों का तुम पालन करते हो, उन्हीं का मैं पालन करता हूँ, मेरे मित्र! मैं कहीं भी नहीं जा रहा हूँ। मैं केवल पथिक हूँ और तीर्थयात्रा पर जा रहा हूँ।"

गोविन्द ने कहा-"तुम कहते हो कि मैं यात्रा पर जा रहा हूँ, मैं तुम्हारा विश्वास करता हूँ। किन्तु क्षमा करना, सिद्धार्थ! तुम यात्री की तरह दिखाई नहीं पड़ते हो। तुम अमीरों की तरह वस्त्र पहने हुए हो, तुम फैशन-प्रिय लोगों की तरह जूते पहने हुए हो और तुम्हारे सुगन्धित बाल तीर्थ-यात्रियों की तरह के नहीं हैं, ये बाल श्रमणों-जैसे नहीं हैं।"

"तुमने सब-कुछ सम्यक् देख लिया है मित्र! अपनी पारदर्शी आँखों से सब-कुछ देख लिया है। लेकिन मैंने तुमसे यह तो नहीं कहा कि मैं श्रमण हूँ। मैंने कहा कि मैं तीर्थयात्रा कर रहा हूँ, और यह ठीक है।"

"तुम तीर्थयात्रा तो कर रहे हो," गोविन्द ने कहा, "लेकिन ऐसे वस्त्र, ऐसे जूते और ऐसे बाल रखकर बहुत कम लोग तीर्थयात्रा करते हैं। मैं वर्षों से भ्रमण कर रहा हूँ किन्तु ऐसा यात्री मेरी आँखों ने आज तक नहीं देखा।"

"मुझे तुम्हारा विश्वास है गोविन्द, लेकिन आज ऐसे जूते और वस्त्र पहनकर जाने वाला आदमी भी तुमने देख लिया। याद रखो मेरे मित्र! यह दृश्य जगत अनित्य और परिवर्तनशील है, हमारे परिधान और बालों की शैली अत्यंत नश्वर और अस्थायी है। हमारे केश और हमारे शरीर भी भंगुर हैं। तुमने सही ढंग से परखा है। मैं एक धनी व्यक्ति के-से कपड़े पहने हुए हूँ और मैंने इसलिए उन्हें धारण किया हुआ है, क्योंकि मैं एक धनी व्यक्ति था और मैंने अपने केश सांसारिक और सभ्य समाज के लोगों जैसे रखे हुए हैं, क्योंकि मैं भी उनमें से एक रहा हूँ। ”

“और अब तुम क्या हो, सिद्धार्थ?"

"मैं नहीं जानता; मैं उतना ही थोड़ा-सा जानता हूँ जितना तुम। मैं बीच राह में हूँ। मैं एक धनी व्यक्ति था, लेकिन अब मैं नहीं हूँ और कल मैं क्‍या हूँगा मुझे मालूम नहीं।"

“क्या तुमने अपनी धन-सम्पत्ति गँवा दी है?”

मैंने उसे गँवा दिया है या वो मुझे गँवा बैठी है...मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता। दृश्य जगत का चक्र तेज़ी से घूमता है, गोविन्द। कहाँ है ब्राह्मण सिद्धार्थ, कहाँ है श्रमण सिद्धार्थ, कहाँ है धनी व्यक्ति सिद्धार्थ? जो नश्वर है वह जल्द ही बदलता है, गोविन्द। तुम्हें यह पता है। ” बहुत देर तक गोविन्द शक की नजर से अपनी युवावस्था के मित्र की तरफ देखता रहा। फिर उसने झुक कर उसे नमन किया, जैसे कोई व्यक्ति रुतबे वाले आदमी के साथ करता है और अपने रास्ते पर चला गया।

मुस्कुराते हुए सिद्धार्थ उसे जाते हुए देखता रहा। वह अब भी उससे प्यार करता था, इस सच्चे चिन्तित मित्र से। और उस पल, उस उत्कृष्ट घड़ी में, अपनी अदभुत निद्रा के बाद, ओम से परिव्याप्त, वह किसी व्यक्ति या किसी चीज़ को चाहे बिना कैसे रह सकता था। उसकी नींद के दौरान और उसके अन्दर ओम के होने पर यही वह जादू था जो उस पर हुआ था-वह हर चीज़ से प्रेम करता था, वह उस सबके प्रति, जिसे वह देखता, आनन्दमय प्रेम से भर हुआ था। और उसे एहसास हो गया था कि ठीक इसी कारण वह पहले इतना बीमार क्‍यों रहा था-क्योंकि वह किसी चीज या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकता था।

चेहरे पर एक मुस्कान के साथ सिद्धार्थ जाते हुए भिक्षु को देखता रहा था। उसकी नींद ने उसको शक्ति प्रदान की थी, किन्तु वह अत्यन्त तीव्र भूख से व्याकुल होता जा रहा था क्योंकि दो दिन से उसने बिलकुल ही भोजन नहीं किया था और भूख को दूर रख सकने का समय अब समाप्त हो चुका था। व्याकुलता सहित किन्तु फिर भी हँसते हुए,उसने अपने वह क्षण याद किये जब उसने कमला से तीन भद्र कलाओं पर अधिकार होने की शेखी बघारी थी। उपवास, प्रतीक्षा और चिन्तन-यही उसकी सम्पत्ति थे, उसकी शक्ति और बल थे, उसके दृढ़ मेरुदण्ड थे। अपने यौवन-काल में अत्यन्त श्रम और साधना करके उसने दो-तीन कलाएँ सीखी थीं। और उसके स्थान पर उसने अनेक कुत्सित गुणों को अपने अन्तर में सन्निहित कर लिया था, जो अत्यन्त अस्थायी था, उसने इन्द्रिय सुख उच्च जीवन और धन-सम्पत्ति की लिप्सा को अंगीकार किया था, उसने एक विचित्र पथ पर यात्रा आरम्भ की थी, और अब उसे लगता था कि वस्तुतः वह एक साधारण आदमी रह गया है।

सिद्धार्थ ने अपनी स्थिति पर विचार किया। उसने विचार करना कठिन पाया, तथापि उसने बलपूर्वक अपने को प्रवृत्त किया।

अब, उसने सोचा, जब कि समस्त अस्थायी वस्तुएँ मुझ से दूर चली गई हैं, मैं फिर से एक बार सूर्य के नीचे उसी प्रकार खड़ा हूँ, जिस प्रकार मैं बाल्यावस्था में अनुभव करता था। मेरा कुछ भी नहीं है, मैं कुछ भी नहीं जानता, मेरा कोई स्वत्त्व नहीं, मैंने आज तक कुछ भी नहीं जाना। यह सब कितना विचित्र है! अब, जब कि मैं युवक नहीं रह गया हूँ, मेरे बाल श्वेत होते जा रहे हैं, शक्ति का ह्रास हो रहा है, मैं फिर से एक बालक की तरह जीवन आरम्भ कर रहा हूँ। बरबस उसके मुख पर मुस्कान खिल गई। हाँ, उसका भवितव्य एक विचित्र वस्तु है! वह पीछे लौट रहा है। अब वह फिर रिक्त-नग्न और अज्ञानी के समान खड़ा रह गया है, किन्तु उसे इस स्थिति पर खेद नहीं था। नहीं, उसके मन में होता था कि वह अट्टहास करे, अपने ऊपर अट्टहास करे और इस अविवेकी संसार के ऊपर अट्टहास करे।

तुम्हारे साथ तुम्हारा अतीत फिर उभरता आ रहा है, उसने सोचा और वह हँस पड़ा। और ज्यों ही वह यह सब कह रहा था, उसकी दृष्टि नदी के अंचल पर पड़ गई, उसने सोचा कि नदी भी निरन्तर पीछे की ओर बह रही है, और मस्ती के साथ गा रही है। यह देखकर उसे महान् हर्ष हुआ और वह उत्फुल्लता के साथ नदी की ओर मुस्कराने लगा। क्या यह वही नदी नहीं है, जिसमें एक दिन वह अपने को डूबो देना चाहता था, सैकड़ों वर्ष पहले की बात है-या। उसे केवल वैसा स्वप्नमात्र आया था।

उसने सोचा, उसका जीवन कितना विचित्र है! यह विचित्र मार्गों पर भटकता रहा है। "जब बालक था तो मैं देवताओं और यज्ञों के प्रभाव में था, युवक हुआ तो साधुओं की संगति में ध्यान और समाधि लगाने लगा। मैं ब्रह्म की खोज में था और आत्मा में अनन्त की उपासना करता था। युवावस्था में मैं आत्म-शुद्धि की ओर आकर्षित हुआ। मैं जंगलों में रहा, आतप और शीत को सहन किया। मैंने उपवास करना सीखा और अपने ऊपर विजय प्राप्त करनी सीखी। तब मैंने आश्चर्यपूर्वक महान् गौतम बुद्ध के उपदेशों का ज्ञान प्राप्त किया। मैंने ज्ञान को अनुभव किया और संसार की एकता को अपने रक्त के समान ही अपने में चक्रित होते देखा। परंतु मैंने बुद्ध और उसके महान् ज्ञान को भी तिलाञ्जलि देने पर अपने को बाध्य पाया। मैं कमला और कामस्वामी के पास गया और एक से प्रेम का सुख प्राप्त करना और दूसरे से व्यापार करना सीखा। मैंने धन संग्रह किया और उसे पानी की तरह बहा दिया, मैंने भोजन में स्वाद ग्रहण करना सीखा, और अपनी इन्द्रियों को उत्तेजित करना भी सीखा। अपनी समझ को खोने में मैंने इस प्रकार कई वर्ष व्यय किये, सोचने की शक्ति को नष्ट करने और तत्त्वों की आधारभूत एकता की बात को भूलने में कितने ही वर्ष लगा दिये। क्या यह सच नहीं है, कि शनैः-शनैः और विभिन्न प्रकार से मैं एक आदमी से पुनः बालक बन गया? एक विचारक से एक सामान्य आदमी बन गया? तथापि यह मार्ग अच्छा ही रहा है और मेरे अन्तर का पक्षी मरा नहीं, लेकिन यह मार्ग कैसा था? मुझे इतने गर्हित जीवन, इतने कुटेवों, इतनी भूलों, इतनी ग्लानि, निराशा और शोक केवल इसलिए अनुभव करने पड़े कि मैं फिर से शिशु बन जाऊँ और पुनः जीवन आरम्भ करूँ। किन्तु यह उचित ही है कि इसी प्रकार सब कछ घटित होता। मेरा हृदय उसे अंगीकार करता है। मुझे निराशा की अनुभूति प्राप्त करनी थी, मुझे मानस की अतल गहराइयों में भी अवगाहन करना था, आत्महत्या के विचार तक को भी मन में ले आना था ताकि मैं गरिमा को प्राप्त कर सकूँ, ताकि मैं फिर ओ३म् का नाद सुन सकूँ, एक गहरी नींद में डूब सकूँ और फिर से तरोताज़ा होकर जाग उठू। अपने अन्तर में आत्मन् की खोज करने के लिए मुझे निर्बुद्ध बनना ही था। मुझे एक बार पाप करना ही था ताकि मैं जीवन को प्राप्त कर सकूँ। और अब आगे मेरा यह मार्ग मुझे कहाँ ले जाएगा? यह मार्ग बड़ा कुटिल है, वह घुमेर खाता चलता है, शायद गोल चक्कर ही लगाता है, किन्तु यह किधर भी जाए, मैं इसका अनुगमन करूँगा।"

उसे अनुभव हो रहा था कि उसके अन्तर में आनन्द की एक भावना आकण्ठ भरती आ रही है।

यह कहाँ से आती है, उसने अपने आप से पूछा? आनन्द की अनुभूति की जड़ में कौन-सा रहस्य है। क्या यह आनन्द मेरी सुदीर्घ निद्रा से प्राप्त हुआ है जिसने मुझे बहुत लाभ पहुंचाया है। या ओ३म् के उच्चारण ने यह सब किया! या इसलिए कि मैं अतीत से पलायन कर चुका हूँ, और मेरी दौड़ सम्पन्न हो चुकी है या इस कारण कि मैं पुनः स्वतन्त्र हो गया हैं और एक शिशु की तरह आकाश के नीचे खड़ा हूँ। आह, यह पलायन और निर्बन्धता कितनी अच्छी बात है। उस जगह जहाँ से मैं बचकर आ गया, वहाँ सर्वदा ही प्रसाधन, मसालों अति और अकर्मण्यता का वातावरण था। मैं उस धनसम्पत्ति, अतिशय मद्यपान और द्यूत-क्रीड़ा से कितनी घृणा करता था। मैं अपने आप से कितनी घृणा करता था, अपने ऊपर कितना अत्याचार करता था, विष-पान करता था और पीड़ाएँ सहता था, मैंने अपने को बूढ़ा और भद्दा बना डाला। जीवन में फिर कभी यह विचार मन में नहीं लाऊँगा-जैसा कि मैं एक बार सोच चुका हूँ-कि सिद्धार्थ बहुत चतुर है। लेकिन एक काम मैंने बहुत अच्छा किया है, जिससे मुझे प्रसन्नता होती है, जिसकी प्रशंसा होनी चाहिए कि मैंने अपने से घृणा करने की भावना पर विजय प्राप्त कर ली है, उस निर्बुद्धि, रिक्त जीवन से मैंने मुक्ति पा ली है। मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ, सिद्धार्थ कि इतने दिन गलत मार्ग पर रहकर भी तुम्हारे मन में यह फिर से एक शानदार विचार आ गया कि तुमने कोई सफलता प्राप्त कर ली है, कि तुमने अपने अन्तर-प्रकोष्ठ में बैठे पक्षी का गायन फिर से सुना है और उसका अनुगमन किया है।

इस प्रकार उसने अपनी प्रशंसा की, अपने आप पर प्रसन्न हुआ, उसने अपने उदर की ओर ध्यान दिया जो भूख के कारण गड़गड़ा रहा था। उसने अनुभव किया कि उस दुःख और दुर्भाग्य का कुछ भाग जो उस अतीत की देन था, उसने अच्छी तरह भोग लिया है, और निराशा और मृत्यु तक के रूप में उसके प्रतिफल भोगकर विसर्जित भी कर दिया है। लेकिन सब कुछ ठीक ही था। वह और भी अधिक समय तक कामस्वामी के साथ रह सकता था, धनोपार्जन और अपव्यय दोनों कर सकता था, अपने शरीर का पोषण और आत्मा की उपेक्षा करता रह सकता था, अपने कोमल और प्रचुर सामग्री से युक्त नर्कालय में बहुत दिनों तक निवास कर सकता था, यदि सम्पूर्ण निराशा और उदासी का भाव उस पर छा न गया होता, यदि उस क्षण की भावनाओं में जब वह जल के ऊपर वृक्ष से लिपटा हुआ और आत्महत्या करने पर सन्नद्ध था-इतनी घनता न आई होती। उदासी और आत्यन्तिक ग्लानि, जो उसने अनुभव की थी, कभी सम्पूर्णत: उसे अभिभूत न कर पाई थीं। उसके अन्दर का पक्षी, वह स्पष्ट उत्स और ध्वनि अभी तक जीवित थे, यही कारण था कि वह इतना आनन्दित था, यही कारण था कि वह अट्टहास कर रहा था, यही कारण था कि शुभ्र केशराशि से सुसज्जित उसके मुख-मण्डल पर अब भी चमक थी।

प्रत्येक वस्तु को अपनी अनुभूति से जानना बहुत अच्छी बात है। जब मैं बालक था तो मैंने सीखा था कि संसार के भोग-विलास और धन-सम्पत्ति में कोई सार नहीं। कितने ही समय से मैं इस बात को जानता था, किन्तु उसने अनुभव अभी ही किया है। आज मैं केवल बुद्धि से इस सत्य को नहीं जानता हूँ, वरन् नेत्रों द्वारा हृदय और उदर द्वारा इससे अवगत हुआ हूँ। और यह अच्छी बात है कि मैं यह जानता हूँ।

वह अपने अन्तर के परिवर्तन पर देर तक विचार करता रहा, उसने पक्षी के गान को उल्लासपूर्वक सुना। अगर उसके अन्तर में स्थित यह पक्षी मर जाता तो क्या वह समाप्त हो जाता? नहीं, उसके अन्दर कुछ और मरता, वह वस्तु जिसकी उसने चिरकाल से आकांक्षा की है, वह मर जाती। क्या यह वही वस्तु नहीं थी जिसके उन अस्तित्त्व की कामना उसने अपने साधुजीवन में की थी। क्या वह उसका स्व नहीं था, वह क्षुद्र, भीर और अहम्मन्य स्व जिसके साथ उसने इतने वर्षों तक युद्ध किया था, किन्तु जिसने उसके ऊपर विजय प्राप्त कर ली थी, जो समय-समय पर उभार खाता रहा है और जिसने उसके सुख पर डाका डाला है और उसको भय से आक्रान्त कर लिया है। क्या यही वह वस्तु नहीं थी जो आज वन में नदी तट पर पूर्णावसान को प्राप्त हो चुकी है। क्या उसी की मृत्यु का यह शुभ परिणाम नहीं है कि वह पुनः एक शिशु के समान बन गया है, विश्वास और आनन्द से परिपूर्ण और भय से सर्वथा विमुक्त!

सिद्धार्थ को अब यह भी अवगत हो गया था कि इस स्व पर विजय प्राप्त करने में अपनी ब्राह्मणावस्था और श्रमण जीवन में उसका संघर्ष सदैव ही असफल रहा है। अतिशय ज्ञान ने उसके मार्ग में बाधा उपस्थित की थी, अतिशय पवित्र उपासना-मन्त्रों ने, अनेकानेक धार्मिक यज्ञकर्मों ने, इन्द्रियों के आत्यन्तिक दमन ने, आत्यन्तिक क्रिया और प्रयत्न ने उसको सफल नहीं होने दिया था, उसका हृदय आत्माभिमान से सदैव परिपूर्ण रहा, वह सदैव ही एक पग अग्रसर, सदैव ही विद्वान् अथवा बौद्धिक, सदैव ही उपासक अथवा महात्मा रहा है। उसके याज्ञिकता में स्व का अखण्ड राज्य था। वह कसकर वहाँ बैठा था और बढ़ता जाता था, जबकि वह सोचता रहा कि उपवास और तपस्या से वह उसका परिहार कर रहा है। अब उसकी समझ में आ गया था और उसने अपनी अन्तर्ध्वनि की सत्यता को अनुभव कर लिया था कि किसी भी शिक्षक की शिक्षा से मुक्ति का द्वार प्रशस्त नहीं हो सकता। यही कारण था कि उसे संसार में प्रवृत्त होना पड़ा, अपने स्व को शक्ति, स्त्री और सम्पत्ति में विभोर कर देना पड़ा, यही कारण था कि वह व्यापारी बना, जुआरी बना, एक मद्यपी और धनिक बनते रहने पर बाध्य हुआ, जब तक कि उपासक और श्रमण का अवसान न हो गया। यही कारण था कि उसे वह द्वन्द्वपूर्ण समय व्यतीत करना पड़ा, ग्लानि सहनी पड़ी, और उसे एक अन्तहीन, निरर्थक और रिक्त जीवन के उन्माद का पाठ पढ़ना पड़ा, ताकि वह एक तिक्त निराशा के छोर तक पहुँच जाए, ताकि आमोद-प्रमोद के पीछे दौड़ने वाला सिद्धार्थ और ऐश्वर्य में खो जाने वाला सिद्धार्थ मर सके। वह मर चुका था और उस नींद के बाद एक नया सिद्धार्थ जाग उठा था। वह भी एक दिन आयु को प्राप्त होगा और मर जाएगा। सिद्धार्थ भी अनित्य है, सभी रूप अनित्य हैं, लेकिन आज वह तरुण है, शिशु है यह नवीन सिद्धार्थ-और वह आज अत्यन्त सुखी है।

ये विचार उसके मन में आते रहे। एक मुस्कान के साथ वह अपने उदर की भाषा को सुनता रहा और कृतज्ञतापूर्वक एक मधुमक्षिका के गान को सुनता रहा। उसने आन्तरिक सुख की भावना से प्रवाहित सरिता की ओर देखा। आज तक इस नदी के समान किसी दूसरी नदी ने इतना आकर्षित नहीं किया था। बहते हुए जल का स्वर और स्वरूप उसे आज तक इतना सुन्दर कभी नहीं लगा था। उसे ऐसा लगा कि उसे नदी से कुछ सीखना है, जिसे वह आज तक जानता न था, ऐसा कुछ जिसकी उपलब्धि उसे अभी करनी थी। सिद्धार्थ के मन में आया कि इस नदी में वह अपने को डुबो दे; और जर्जर, थकित और निराशायुक्त सिद्धार्थ वास्तव में इसमें डूब चुका था। नवीन सिद्धार्थ के मन में इस प्रवाहमान जल के प्रति एक आन्तरिक प्रेम-भावना जाग उठी थी और उसने यह निश्चय कर लिया था कि अब इतनी शीघ्रतापूर्वक वह उसका साहचर्य नहीं खो देगा।

  • सिद्धार्थ (उपन्यास) अध्याय 9-12 : हरमन हेस

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