सिद्धार्थ (उपन्यास) : हरमन हेस
Siddhartha (German Novel in Hindi) : Hermann Hesse
9 : केवट
सिद्धार्थ ने सोचा, अब मैं इस नदी पर ही रहूँगा। यही वह नदी है, जिसे पार करके मैं नगर में गया था। एक सज्जन केवट ने मुझे पार उतारा था। मैं उसी के पास जाऊँगा। मेरे नये जीवन का मार्ग उसी की झोंपड़ी से प्रारम्भ हुआ था, अब वह जीवन पुराना-मृतक हो चुका है। मेरा नया मार्ग, मेरा नवीन जीवन, उसी स्थान से फिर क्यों न प्रारम्भ हो।
उसने प्रेम-भावना से प्रवाहमान जल की ओर देखा, जल पारदर्शी और हरितवर्ण था, उसकी स्फटिक तरंगें एक विचित्र योजना से क्रीड़ा कर रही थीं, वह देख रहा था कि तल में नए मोती जगमगा रहे थे, मुकुर पर बुबुद् तैर रहे थे और नीले आकाश में उनकी प्रतिच्छवि अंकित हो रही थी, नदी सहस्र नेत्रों से उसकी ओर निहार रही थी, ये नेत्र हरित, शुभ्र, बिल्लौरी और आकाश के समान सुनील वर्ण के थे, वह उस नदी को कितना प्यार करता था, यह किस तरह उसे मोहित कर सकी थी, वह उसका कितना कृतज्ञ था! अपने हृदय में उसने नव-जाग्रत ध्वनि की गूंज सुनी जो उससे कह रही थी, "इस नदी को प्रेम करो, इसी के पास ठहरो, और इससे सीखो।" हाँ, वह उससे सीखना चाहता था, वह उसकी भाषा को सुनना चाहता था। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि जो उस नदी और उसके रहस्यों को समझ सकेगा, वह बहुत कुछ समझ सकेगा, अनेक रहस्यों को समझ सकेगा, समस्त रहस्यों को समझ सकेगा।
आज उसने नदी का केवल एक ही रहस्य देखा था और उसने उसकी आत्मा को जकड़ लिया था। उसने देखा कि जल निरन्तर प्रवाहित हो रहा है, बहता जाता है फिर भी सदैव वहीं उपस्थित रहता है, वह सदा ही एक-सा होता है और फिर भी प्रत्येक क्षण वह नवीन हो जाता है। इसे कौन समझ सकता है, कौन इसके यथार्थ की परिकल्पना कर सकता है। वह उस रहस्य को समझ नहीं पाता था, केवल एक धुंधले संदेह का उसे भान होता था, एक क्षीण स्मृति और अलौकिक ध्वनियों का उसे कुछ बोध होता था।
सिद्धार्थ उठ खड़ा हुआ। क्षुधा को कचोट अब असह्य होती जा रही थी। वह पीड़ा को सहेजे नदी-तट पर घूमता रहा, जल की तरंगों का नाद सुनता रहा और अपनी देह कुतरने वाली भूख की आवाज को भी सुनता रहा।
वह नौका के निकट पहुँचा जो किनारे पर पहले से उपस्थित थी और वह केवट जो कभी इस युवक श्रमण को पार ले गया था, नौका में खड़ा हुआ था। सिद्धार्थ ने उसे पहचान लिया-बुढ़ापा उस पर भी पर्याप्त रूप में स्पष्ट हो चुका था।
"क्या तुम मुझे पार उतार दोगे?"-उसने पूछा।
केवट उस महापुरुष-से दीख पड़ने वाले आदमी को एकाकी और पैदल आते देखकर चकित हुआ, उसे नौका में बैठाया और पार उतारने के लिए रवाना हो गया।
"तुमने एक शानदार जीवन अपने लिए चुना है,"-सिद्धार्थ ने कहा, . "इस नदी पर रहना और नित्यप्रति इसमें विहार करना कितना सुखद है!"
केवट मुस्कराया; हल्के-हल्के वह अपनी पतवार चलाता रहा।
"यह काम बहुत अच्छा है, जैसा कि आप कहते हैं, परंतु क्या प्रत्येक जीवन, प्रत्येक काम इसी की तरह अच्छा नहीं होता?"
"हो सकता है, परंतु तुम्हारे काम से मुझे ईर्ष्या होती है।"
"ओह ! इस कार्य की प्रियता बहुत शीघ्र आपके लिए नष्ट हो जाएगी। यह काम इतने बहुमूल्य वस्त्रालंकार धारण करने वालों के लिए नहीं है।"
सिद्धार्थ हँस पड़ा, "आज ही एक बार और भी वस्त्रों को देखकर मेरे बारे में निर्णय किया जा चुका है, और संदेह की दृष्टि से मुझे देखा गया है। क्या तुम इन वस्त्रों का उपहास मुझ से प्राप्त करना स्वीकार करोगे जो कि मेरे लिए झंझट बने हुए हैं। क्योंकि मैं तुम्हें यह स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि पार उतारने के लिए तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।"
"भद्र, आप मेरे साथ उपहास कर रहे हैं?"-केवट ने कहा।
"मैं उपहास नहीं कर रहा हूँ, मेरे मित्र! तुमने एक बार और भी निःशुल्क मुझे नदी के पार उतारा था, इसलिए कृपापूर्वक आज भी पार उतार दो और इस कार्य के लिए तुम मेरे वस्त्र स्वीकार करो।"
"तो क्या भद्र बिना वस्त्रों के ही अपने मार्ग पर अग्रसर होंगे?"
"मैं तो चाहूँगा कि मैं आगे न जाऊँ। मैं यह भी चाहूँगा कि तुम मुझे कुछ पुराने कपड़े दे दो और मुझे अपने सहायक के रूप में रख लो या केवल सहायक के रूप में, क्योंकि मैं नाव चलाना नहीं जानता हूँ।"
केवट बहुत देर तक इस अजनबी की ओर ध्यानपूर्वक देखता रहा।
"मैं आपको पहचान गया हूँ," उसने कहा, "आप एक बार मेरी झोंपड़ी में सो चुके हैं। लेकिन यह बहुत दिनों की बात है, हो सकता है बीस वर्ष से अधिक पहले की बात हो। तब मैंने सुबह आपको पार उतारा था और हम मित्र बनकर एक-दूसरे से विदा हुए थे। क्या उस समय आप श्रमण नहीं थे? आपका नाम तो मुझे स्मरण नहीं आ रहा है।"
"मेरा नाम सिद्धार्थ है, और पिछली बार जब तुमने मुझे देखा था तो मैं श्रमण ही था।"
"तुम्हारा स्वागत है सिद्धार्थ! मेरा नाम वासुदेव है। आज तुम मेरे मेहमान रहोगे और मेरी झोंपड़ी में फिर सोओगे, और मुझे बताओगे कि तुम कहाँ से आ रहे हो और इन बढ़िया वस्त्रों से क्यों तंग आ गए हो।"
वे नदी के मध्य में पहुंच चुके थे और तेज़ धार आ जाने के कारण वासुदेव अधिक बल लगाकर पतवार चला रहा था। अपनी सुदृढ़ भुजाओं द्वारा धैर्यपूर्वक डाँड चला रहा था और उसकी दृष्टि नौका के छोर पर लगी हुई थी। सिद्धार्थ बैठे-बैठे उसे देखता रहा और उसे याद आया कि किस प्रकार अपने श्रमण-जीवन में इस आदमी के प्रति उसके अन्तर में प्रेम उमड़ आया था। उसने कृतज्ञतापूर्वक वासुदेव का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। जब वे तट पर पहुँच गए तो उसने नौका को तट पर बाँध देने में वासुदेव की सहायता की। तब वासुदेव उसे झोंपड़ी में ले गया। उसके सम्मुख भोजन और जल प्रस्तुत किया, सिद्धार्थ ने सब कुछ आनन्दपूर्वक स्वीकार किया और वह आम भी मजे से खाया जो वासुदेव ने उसे दिया।
बाद में जब सूर्य अस्त होने लगा तो वे नदी के निकट एक वृक्ष के तने पर बैठ गए। सिद्धार्थ ने उसे अपने जन्म, जीवन और निराशा के क्षणों में उसने आज अपने को किस रूप में देखा, वह सारी कहानी सुना दी। कहानी समाप्त होते-होते रात काफी गहरी हो चुकी थी।
वासुदेव अत्यन्त दत्तचित्त होकर वह कहानी सुनता रहा, उसने उसके जन्म और बाल्यकाल के बारे में सब कुछ सुना, उसके अध्ययन और उसकी खोज, उसके भोग-विलास और आवश्यकताओं के बारे में सब कुछ सुना। केवट में एक महान् गुण था कि वह धैर्यपूर्वक दूसरे की बात सुन सकता था। सिद्धार्थ ने अनुभव किया था कि यद्यपि वासुदेव एक शब्द नहीं बोला था किन्तु उसने प्रत्येक शब्द शान्तिपूर्वक और आशान्वित होकर सुना था और उसने सब कुछ समझ भी लिया था। उसने कुछ भी कहने की आतुरता प्रगट न की और न प्रशंसा की, न अप्रशंसा-वह केवल सुनता रहा। सिद्धार्थ ने अनुभव किया कि ऐसा श्रोता प्राप्त होना कितना आश्चर्यजनक सौभाग्य है, जिसे उसके अपने जीवन में, अपने प्रयत्नों में, और अपने दःखों में आत्मसात किया जा सकता है।
तथापि जब सिद्धार्थ अपनी कहानी का अन्तिम भाग कह रहा था और नदी के निकटस्थ वृक्ष और अपनी महान् निराशा का वर्णन कर रहा था और पवित्र ओ३म् का वर्णन कर रहा था और अपनी नींद के बाद उसने किस तरह नदी के प्रति प्रेम अनुभव किया था; यह सब बता रहा था, तो केवट ने ध्यान को और भी एकाग्र कर लिया था, वह पूर्णत: निमग्न हो चुका था, उसके नेत्र मुंद गए थे।
जब सिद्धार्थ समाप्त कर चुका तो काफी देर तक खामोशी रही, फिर वासुदेव ने कहा-"जैसा मैं सोचता था, वैसा ही हुआ। नदी ने तुमसे वार्ता की है। तुम्हारे प्रति भी इसका मैत्री भाव है, यह तुम से बोलती है। यह अच्छा है, बहुत अच्छा है। मेरे साथ ठहरो, मेरे मित्र सिद्धार्थ! जब मेरी पत्नी थी, उसका और मेरा बिस्तर साथ-ही-साथ बिछता था, बहुत दिन हुए वह मर गई। बहुत दिन से मैं एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा हूँ, आओ और मेरे साथ रहो, हमारे दोनों के लिए स्थान और भोजन काफ़ी मात्रा में उपलब्ध हो सकेगा।"
"मैं तुम्हारा आभार मानता हूँ," सिद्धार्थ ने कहा-"मैं धन्यवाद सहित तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार करता हूँ। मैं इतने संतोषपूर्वक अपनी बात सुनने के लिए भी तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। बहुत थोड़े लोग होते हैं जो धैर्यपूर्वक किसी की बात सुन सकते हैं। आज तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिला जो तुम्हारी तरह दूसरे की बात सुन सके। इस दिशा में भी मुझे तुमसे बहुत कुछ सीखना है।"
"तुम सीखोगे," वासुदेव ने कहा-"लेकिन मुझसे नहीं। नदी ने मुझे सुनना सिखाया है, तुम भी उससे सीख लोगे। नदी सब कुछ जानती है, आदमी नदी से सब कुछ सीख सकता है। तुम नदी से यह तो सीख भी चुके हो कि तल की ओर चेष्टा करना उत्तम है, डूबना और गहराई को पहुँचना बहुत उत्तम है। समृद्ध और सावंत सिद्धार्थ एक मल्लाह बनेगा, विद्वान् ब्राह्मण सिद्ध एक केवट बनेगा। तुमने यह सब नदी से सीखा है, तुम और कुछ भी अवश्य सीख लोगे?"
बहुत देर चुप रहने के बाद सिद्धार्थ ने कहा, "और कुछ भी क्या, वासुदेव?" वासुदेव अब उठ खड़ा हुआ। "बहुत रात हो गई,", उसने कहा, "अब हमें सो जाना चाहिए। मैं तुम्हें बता नहीं सकता, मेरे मित्र, कि वह और कुछ क्या है ? तुम स्वयं जान लोगे, शायद तुम पहले से ही जानते हो। मैं विद्वान् नहीं हूँ, मैं बातचीत करना अथवा विचार करना नहीं जानता। मैं तो केवल सुनना और अनुरक्त होना जानता हूँ, अन्यथा मैंने कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया है। यदि मैं बोल सकता और उपदेश कर सकता तो शायद मैं उपदेष्टा होता, लेकिन वास्तविकता यह है कि मैं एक नाविक मात्र हूँ और मेरा काम लोगों को पार उतारना है। मैंने हज़ारों लोगों को पार उतारा है और उनके लिए यह नदी उनके मार्ग में एक बाधा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रही है। उनमें अनेक यात्री पैसे और व्यापार के लिए निकले थे, कुछ वरयात्रा और कुछ तीर्थयात्रा पर निकले थे, यह नदी उनके रास्ते में आई थी, और नाविक ने शीघ्रतापूर्वक उन्हें इस बाधा के पार उतार दिया था। तथापि उन हज़ारों में कुछ ऐसे थे, चार या पाँच, जिनके लिए यह नदी बाधा नहीं थी। उन्होंने इसकी आवाज़ सुनी थी। और उस पर ध्यान दिया था और उनके लिए मेरी ही तरह यह नदी भी एक पवित्र नदी बन गई थी। अब आओ, चलकर सोएँ, सिद्धार्थ।"
सिद्धार्थ इस नाविक के पास ही ठहर गया। उसने नाव की देखभाल करना भी सीख लिया, जब नाव पर काम नहीं होता तो वह धान के खेत में वासुदेव के साथ काम करता, लकड़ी बीनकर लाता और केले तोड़कर उसने पतवार बनाना, नाव की मरम्मत करना, और टोकरियाँ बनाना सीख लिया। जो भी वह करता और सीखता, उससे उसे खुशी होती और दिन और महीने तेज़ी से गुज़रते गए। लेकिन जितना वासुदेव उसे सिखा सकता उससे ज्यादा वह नदी से सीखता। वह उससे निरन्तर सीखता। और बातों के अलावा उसने नदी से सुनना सीखा, स्थिर हृदय से सुनना, एक प्रतीक्षा करने वाली, उदार आत्मा के साथ, उद्वेग के बिना, कामना के बिना, बिना कोई फ़ैसला सुनाये, बिना कोई राय जाहिर किए।
वह वासुदेव के साथ खुश-खुश रहता था और कभी-कभार उनमें शब्दों का लेन-देन होता, थोड़े-से और लम्बे समय तक विचारे गए शब्द। वासुदेव शब्दों का प्रेमी नहीं था। सिद्धार्थ मुश्किल से ही उसे कुछ बोलने के लिए उकसा पाता।
उसने एक बार वासुदेव से पूछा, “क्या तुमने यह रहस्य भी नदी से सीखा है; कि समय जैसी कोई चीज़ नहीं होती। ”
वासुदेव के चेहरे पर एक खिली हुई मुस्कान फैल गई।
“हाँ, सिद्धार्थ" उसने कहा। “क्या तुम्हारा मतलब यह है कि नदी उसी समय पर हर जगह है, स्रोत और मुहाने पर, झरने और घाट पर, धारा में, सागर में और पहाड़ों में, हर जगह और वर्तमान का अस्तित्व सिर्फ़ उसी के लिए है, न तो अतीत की छाया के लिए, न भविष्य की छाया के लिए?”
“यही है वह,” सिद्धार्थ बोला, “और जब मैंने उसे सीखा, मैंने अपनी ज़िन्दगी को दोबारा परखा और वह भी एक नदी थी और बालक सिद्धार्थ, प्रौढ़ सिद्धार्थ बूढ़े सिद्धार्थ को सिर्फ़ परछाइयों ने अलग कर रखा था, वास्तविकता ने नहीं। सिद्धार्थ के पिछले जीवन भी अतीत में नहीं थे और उसकी मृत्यु और ब्रह्म में वापसी भी भविष्य में नहीं है। कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं रहेगा, हर चीज़ में वास्तविकता और उपस्थिति है।”
सिद्धार्थ उत्फुल्ल मन से बोला। इस खोज ने उसे बहुत खुश कर दिया था। तब फिर क्या सारा दुख समय में नहीं था, सारी आत्म-प्रताड़ना और आशंका समय में नहीं थी? क्या समय को जीतते ही, समय का निवारण करते ही, दुनिया की सारी मुश्किलें और सारी बुराई नहीं जीत ली जाती। सिद्धार्थ ने प्रफुल्लता से बात की थी, लेकिन वासुदेव उसे देखकर खिलकर मुस्कराता रहा और सिर हिलाकर अपनी सहमति व्यक्त करता रहा। उसने सिद्धार्थ के कंधे को सहलाया और फिर वापस अपने काम पर चला गया।
और एक बार फिर जब वर्षा ऋतु में नदी चढ़ गई और ऊँचे स्वर में गरजी तो सिद्धार्थ ने कहा, “क्या यह सच नहीं है, मेरे मित्र, कि नदी के बहुत सारे स्वर हैं? क्या उसका स्वर सम्राट जैसा, योद्धा सरीखा, वृषभ सरीखा, रात के पखेरू जैसा, गर्भवती स्त्री और आहें भरते आदमी जैसा नहीं है, और हज़ार दूसरे स्वर?”
“ऐसा ही है,” वासुदेव ने सिर हिलाया, “सभी जीवित प्राणियों के स्वर उसके स्वर में है।”
“और तुम्हें पता है,” सिद्धार्थ ने बात जारी रखी, “कौन-सा शब्द यह बोलती है जब कोई इसके सभी दस हज़ार शब्द एक ही समय सुनने में सफल हो जाता है?”
वासुदेव प्रसन्नता से हँसा; वह सिद्धार्थ की तरफ़ झुका और उसने उसके कान में धीरे-से पवित्र ओम कहा। और यही वह शब्द था जो सिद्धार्थ ने सुना था।
समय के साथ उसकी मुस्कान माँझी की मुस्कान जैसी दिखने लगी, लगभग उतनी ही खिली हुई, लगभग उतनी ही प्रसन्नता-भरी, हज़ारों छोटी-छोटी झुर्रियों के बीच से उतनी ही दमकती हुई, उतनी ही बचकानी, उतनी ही जगराग्रस्त। बहुत-से यात्रा दोनों माँझियों को जब साथ-साथ देखते तो उन्हें भाई समझ लेते। अक्सर वे शाम के समय नदी के किनारे वाले पेड़ के तने पर मिलकर बैठते। दोनों खामोशी से पानी की आवाज़ सुनते, जो उनके लिए महज़ पानी नहीं था, बल्कि जीवन का स्वर था, अस्तित्व का, सतत 'होने' का, स्वर था। और कभी-कभी ऐसा होता कि नदी को सुनने के दौरान दोनों को एक-से विचार आते, शायद पिछले दिन की किसी बातचीत के या किसी यात्री के जिसकी किस्मत और परिस्थितियाँ उनके मस्तिष्क पर छाये होते, या मृत्यु अथवा बाल्य-जीवन और जबकि नदी उन्हें एक साथ ही कुछ उत्तम बात कहती वे एक-दूसरे की ओर देखते, एक ही विचार पर चिन्तन करते हुए, दोनों एक ही प्रश्न का एक ही उत्तर एक-दूसरे से पाकर अत्यन्त प्रसन्न होते।
इस नौका और उन दोनों नाविकों में से कुछ प्रकीर्ण होता हुआ प्रतीत होता जिसे अनेक यात्री अनुभव कर चुके थे। बहुधा ऐसा होता कि कोई यात्री नाविकों में से किसी एक की ओर देखता और अपने जीवन और अपनी कठिनाइयों के बारे में कहना प्रारम्भ कर देता, अपने पापों को अंगीकार करने लगता और उनसे सान्त्वना और परामर्श की याचना करता। कभी ऐसा होता कि कोई यात्री रात्रि को उनके साथ विश्राम करने की अनुमति माँगता ताकि वह नदी का स्वर सुन सके। कभी-कभी यह भी होता कि कुछ जिज्ञासु लोग यह सुनकर कि दो बुद्धिमान् लोग, जादूगर अथवा महात्मा लोग घाट पर आए हुए हैं, सत्संग के लिए आ पहुँचते। ये जिज्ञासु लोग अनेक प्रश्न पूछते किन्तु उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता, उन्हें न कहीं जादूगर दीख पड़ते और न बुद्धिमान् आदमी। उन्हें दो अच्छे स्वभाव के आदमी जरूर मिलते, जो बहुधा मौन रहना पसन्द करते और अटपटे और गँवार-से लगते। और ये जिज्ञासु लोग हँसते और कहते, "लोग कितने मूर्ख और अंधभक्त हैं कि इस प्रकार की अफ़वाहें उड़ाते हैं।"
वर्ष गुजरते गए, कोई भी उनकी गणना नहीं करता। एक दिन कुछ साधु आए; वे गौतम बुद्ध के अनुयायी थे, और नदी के पार उतारने के लिए कह रहे थे। नाविकों को इन यात्रियों से विदित हुआ कि वे अपने महान् गुरु के दर्शन करने जा रहे हैं और शीघ्र-से-शीघ्र वहाँ पहुँचने के आकांक्षी हैं। क्योंकि अर्हत सख्त बीमार हैं और शीघ्र ही इहलोक यात्रा समाप्त करके निर्वाण दो प्राप्त होंगे। उसके शीघ्र ही बाद साधुओं की एक दूसरी जमात और फिर तीसरी टुकड़ी आई और साधु तथा दूसरे यात्री गौतम बुद्ध की मृत्यु को छोड़कर दूसरी किसी भी चीज़ पर बात नहीं करते थे। लोग जिस प्रकार किसी सैनिक अभियान अथवा सम्राट् के राजतिलक के अवसर पर एकत्रित होते हैं, उसी प्रकार वह मधु-मक्खियों के झुण्ड की तरह एकत्रित हो रहे थे, किसी मकनतीस के समान एक स्थान पर खिंचते जा रहे थे। उस स्थान पर जाने के लिए जहाँ बुद्ध मृत्यु-शैया पर लेटा हुआ था, जहाँ यह महान् घटना घटित हो रही थी और जहाँ युग का एक महान् संत्राता अनन्त में विलीन हो रहा था।
इस समय सिद्धार्थ ने मुमूर्ष सन्त के बारे में बहुत-कुछ सोचा, जिसकी वाणी ने हज़ारों आत्माओं को आन्दोलित कर दिया था, जिसकी वाणी को उसने स्वयं भी एक बार सुना है और जिसकी मुखाकृति की ओर उसने भय और आदर के साथ देखा है। उसने प्रेमपूर्वक उसका स्मरण किया, उसका निर्वाण का मार्ग स्मरण किया और फिर मुसकान के साथ उसने उन शब्दों को स्मरण किया जो उसने अर्हत के सम्मुख कहे थे। उसे लगा कि वे शब्द अतिशय दर्पयुक्त और छोटे मुँह में बड़ी बात थे। बहुत समय तक उसे ऐसा अनुभव होता रहा कि वह गौतम से अलग नहीं है, हालाँकि वह उसके उपदेश को ग्रहण नहीं कर सकता था। नहीं, एक सच्चा अन्वेषी किसी भी धर्म को ग्रहण नहीं कर सकता, वस्तुतः वह ईमानदारी से किसी चीज़ को खोज लेना चाहता है। लेकिन जिसने कुछ पा लिया है, वह प्रत्येक मार्ग, प्रत्येक लक्ष्य को अपना समर्थन प्रदान कर सकता है, उन सहस्रों से, जो अनन्त में निवास करते हैं और परम पद को प्राप्त हो चुके हैं, कोई भी वस्तु उसे अलग नहीं कर सकती।
एक दिन जब म्रियमाण बुद्ध के दर्शन करने के लिए जाने वाले बहुत अधिक यात्री आए, कमला, जो कभी अन्यतम सुन्दरी नर्तकी रह चुकी है, वह भी यात्रियों में दिखाई दी। बहुत समय पहले उसने अपने पूर्व जीवन से संन्यास ले लिया था, उसने अपना उद्यान गौतम के भिक्षुओं को दे दिया था, उसके धर्म की शरण ग्रहण कर ली थी, और उन स्त्रियों में एक थी जो यात्रियों के कल्याण के लिए उनके साथ थीं। गौतम की आसन्न मृत्यु का समाचार सुनकर वह पैदल ही यात्रा पर रवाना हो गई, अपने पुत्र के साथ, अत्यन्त सामान्य वेशभूषा में। यात्रा करते-करते वे नदी तक आ पहुँचे किन्तु लड़का शीघ्र ही थक गया, वह घर जाना चाहता था, आराम करना चाहता था, वह भोजन करना चाहता था। वह बहुधा आगे बढ़ने से ठिठकता और रोता। कमला को बहुधा उसके साथ विश्राम करने के लिए रुकना पड़ता। वह अपनी इच्छा के सम्मुख कमला की इच्छा-शक्ति की परीक्षा लेने का अभ्यस्त हो गया था। वह उसे खाना देती, आराम देती और झिड़कियाँ भी। लड़के की समझ में यह नहीं आता था कि उसकी माँ उस अज्ञात स्थान के लिए वह थकान से चूर कर देने वाली यात्रा क्यों कर रही है, उस विचित्र आदमी के दर्शन करने के लिए जो कि एक महान् आत्मा था और मर रहा था। वह मर जाए, इससे उस लड़के को वास्ता ही क्या था।
यात्री लोग वासुदेव की नौका से बहुत दूर नहीं थे, जब कि तरुण सिद्धार्थ ने विश्राम करने के लिए कहा। कमला स्वयं भी थक चुकी थी और जबकि लड़का एक केला खा रहा था, वह स्वयं भूमि पर लेट गई, उसने अपनी आँखें आधी बन्द कर ली और आराम करने लगी। सहसा, वह पीड़ा से चीत्कार कर उठी। बालक घबराकर उसकी ओर मुड़ा और देखा कि भय से उसका मुँह सफ़ेद पड़ गया है। उसके कपड़ों के नीचे से एक छोटा काला नाग, जिसने कमला को काट लिया था, खिसककर दूर हो गया।
वे दोनों तेजी के साथ दौड़े ताकि किसी आदमी के पास पहुँच जाएँ। जब वह नौका के निकट आ गए तो कमला गिर गई और एक कदम भी आगे बढ़ने में असमर्थ हो गई। बालक सहायता के लिए चिल्लाया और अपनी माँ को अपने हृदय से लगाता और प्यार करता रहा। उसकी आवाज़ में माँ ने भी अपनी आवाज़ मिलाई। आख़िर वह आवाज़ नाव पर खड़े वासुदेव के कानों तक पहुंच गई। वह शीघ्रतापूर्वक उधर आया, स्त्री को अपनी बाँहों में उठाया और नौका की ओर लेकर बढ़ गया। लड़का उसके साथ था, और वे दोनों शीघ्र ही झोंपड़ी में आ गए। सिद्धार्थ खड़ा था और आग जला रहा था। उसने सिर उठाकर देखा और लड़के का मुँह देखकर उसे किसी चीज़ की याद हो आई। तब उसने कमला को देखा जिसे उसने तत्काल पहचान लिया। हालाँकि वह नाविक के हाथों में मूर्छित पड़ी हुई थी। तब उसने जाना कि वह उसका ही पुत्र है जिसे देखकर उसे किसी चीज़ की याद हो आई थी और उसके हृदय की गति तेज़ हो गई।
कमला का जख्म धो डाला गया लेकिन वह पहिले ही काला पड़ गया था और उसका शरीर फूल गया था। उसे होश में लाने वाली औषधि दी गई। उसे चेतना प्राप्त हो गई। वह सिद्धार्थ के बिस्तर पर लेटी हुई थी और सिद्धार्थ, जिसे उसने कभी इतना प्यार किया था, उस पर झुका हुआ था।
उसने सोचा वह सपना देख रही है और मुस्कराते हुए उसने अपने प्रेमी के चेहरे को निहारा। धीरे-धीरे उसे अपनी स्थिति का आभास हुआ, साँप के काटने की याद आई और उद्विग्न होकर उसने अपने बेटे को आवाज़ दी।
“चिन्ता मत करो,” सिद्धार्थ बोला, “वह यहीं है।”
कमला ने उसकी आँखों में देखा। शरीर में फैले ज़हर की वजह से उसे बोलने में कठिनाई हो रही थी। “तुम बूढ़े हो गए हो, प्यारे,” वह बोली, “तुम्हारे बाल पक गए हैं, लेकिन तुम उसी युवा श्रमण की तरह हो, जो बहुत दिन पहले मेरी वाटिका में मेरे पास आया था, बिना परिधान के, धूल भरे पाँव लिये। जब तुम कामस्वामी और मुझे छोड़कर आए थे, उसकी तुलना में तुम कहीं ज़्यादा उस जैसे हो। तुम्हारी आँखें वैसी ही हैं, सिद्धार्थ। आह, मेरी भी उमर बढ़ गई है-क्या तुमने मुझे पहचान लिया था?”
सिद्धार्थ मुस्कराया। “मैंने तुम्हें तत्काल पहचान लिया था, कमला! ”
कमला ने अपने बेटे की तरफ़ इशारा किया, “क्या तुमने इसे भी पहचाना? यह तुम्हारा बेटा है।”
उसकी आँखें फड़फड़ाई और बन्द हो गईं। लड़का रोने लगा। सिद्धार्थ ने उसे अपने घुटने पर बैठा लिया, और उसके बाल सहलाते हुए उसे रोने दिया। बच्चे के चेहरे को देखते हुए उसे ब्राहमणों की एक प्रार्थना याद आई जिसे उसने सीखा था जब वह खुद एक छोटा-सा बच्चा था। धीरे-धीरे और गाती हुई आवाज़ में वह उसका पाठ करने लगा; उसके बचपन और अतीत से उस प्रार्थना के शब्द उसे याद आते गए। उसके पाठ करने के दौरान बच्चा खामोश हो गया, कुछ देर सुबकियाँ लेता रहा, फिर सो गया। सिद्धार्थ ने उसे वासुदेव की चारपाई पर लिटा दिया। वासुदेव चूल्हे के पास खड़ा चावल उबाल रहा था। सिद्धार्थ ने उसे देखा और वासुदेव उसे देखकर मुस्कराया।
“वह मर रही है,” सिद्धार्थ ने मद्धिम स्वर में कहा।
कमला ने सिर हिलाया। चूल्हे की आग उसके ममता-भरे चेहरे में प्रतिबिंबित हो रही थी। कमला को फिर होश आ गया। उसके चेहरे पर पीड़ा थी; सिद्धार्थ ने उसके मुँह पर, उसके फीके पड़ गए चेहरे पर, पीड़ा को पढ़ लिया। उसने उसे खामोशी से, ध्यान से, प्रतीक्षा करते हुए, उसकी वेदना में हिस्सा बँटाते हुए पढ़ा। कमला को इसका आभास था; उसकी नजर ने सिद्धार्थ की निगाहों को खींचा।
उसकी तरफ देखते हुए वह बोली: “अब मैं देख पाती हूँ कि तुम्हारी आँखें भी बदल गई हैं। वे काफ़ी कुछ अलग-सी हो गई है। मैं कैसे पहचानूँ कि तुम अब भी सिद्धार्थ हो? तुम सिद्धार्थ हो और इस पर मी तुम सिद्धार्थ नहीं हो।"
सिद्धार्थ ने कुछ नहीं कहा; खामोशी से वह उसकी आँखों में देखता रहा। “क्या तुम्हें वह मिल गई है?” उसने पूछा। “क्या तुम्हें शान्ति मिल गई है?” वह मुस्कराया और उसने अपना हाथ कमला के हाथ पर रख दिया। “हाँ,” वह बोली, “मैं देख सकती हूँ। मुझे भी शान्ति मिल जाएगी।
"तुम्हें मिल गई है,” सिद्धार्थ फुसफुसाया।
कमला एकटक उसे देखती रही। उसका इरादा था कि तीर्थयात्रा पर गौतम के पास जाए, तथागत का चेहरा देखने के लिए, उनकी शांति का थोड़ा-सा हिस्सा पाने के लिए और उनकी जगह उसने सिद्धार्थ को पाया था और यह अच्छा था, उतना ही अच्छा, मानो उसने उस दूसरे को देखा होता। वह उसे यह बताना चाहती थी, पर अब उसकी जीभ उसकी इच्छा का पालन नहीं कर रही थी। खामोशी से वह उसे देखती रही और सिद्धार्थ ने जीवन को उसकी आँखों से लुप्त होते देखा। जब अन्तिम पीड़ा उसकी आँखों में भर कर वहाँ से गुज़र गई, जब अंतिम कँपकँपी उसकी देह को झकझोर कर शान्त हो गई, तब सिद्धार्थ की उँगलियों ने उसकी पलकें मूँद दीं।
वह काफ़ी देर तक वहाँ बैठा उसके मृत चेहरे को देखता रहा। देर तक उसने उसके मुंह पर नज़रें गड़ाए रखीं, उसके बूढ़े थके चेहरे पर और सिकुड़ गए होंटों पर, और याद किया कि कभी कैसे उसने, अपने जीवन के वसंत में, उसके होंटों की उपमा ताज़ी कटी अंजीर से दी थी। बहुत देर तक वह आँखें गड़ाकर उस निर्वर्ण चेहरे को, थकी हुई झुर्रियों को, देखता रहा और उसने खुद भी अपने चेहरे को उसी रूप में देखा, उतना ही श्वेत और मृत। और उसी समय उसने अपने और उसके चेहरे को देखा, यौवन से भरपूर, लाल होंटों वाला, उत्साह-भरी आँखों के साथ और वह इस भावना से अभिभूत हो गया कि यह सब अतीत में नहीं, वर्तमान में था, असली था। इस घड़ी में उसे और भी तीव्रता से जीवन की अनश्वरता का, हर पल की अनन्तता का, एहसास हुआ।
जब वह उठा तो वासुदेव उसके लिए थोड़े-से चावल बना चुका था, लेकिन सिद्धार्थ ने खाया नहीं। बाड़े में, जहाँ बकरी बँधी थी, दोनों बूढ़ों ने थोड़ा सा पुआल बिछाया और वासुदेव लेट गया। लेकिन सिद्धार्थ बाहर चला गया और अपने जीवन के सभी चरणों से एक ही साथ प्रभावित और आच्छादित, अतीत में डूबा हुआ, नदी को सुनता, कुटिया के सामने सारी रात बैठा रहा। लेकिन समय-समय पर वह उठता, कुटिया के दरवाज़े तक जाता और यह सुनने के लिए कान लगाता कि लड़का सो रहा था या नहीं।
सुबह-सवेरे जब सूरज दिखाई नहीं दिया था, वासुदेव बाड़े से बाहर आया और अपने मित्र के पास पहुँचा |
“तुम सोये नहीं,” उसने कहा।
“नहीं, वासुदेव, मैं यहाँ बैठा नदी को सुनता रहा। उसने मुझे बहुत कुछ बताया, उसने मुझे बहुत-से उत्कृष्ट विचारों से भर दिया, एकता के विचारों से।"
“तुमने दुख सहा है, सिद्धार्थ, तो भी मैं देखता हूँ कि दुख तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचा है।” नहीं, मित्र। मैं क्यों दुखी रहूँ? मैं जो धनी और खुश था अब और भी धनी और खुश बन गया हूँ। मेरा बेटा मुझे मिल गया है।”
"मैं तुम्हारे पुत्र का भी स्वागत करता हूँ। लेकिन, सिद्धार्थ अब हमें क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए, अभी बहुत-कुछ करना बाकी है। कमला उसी बिस्तर पर मरी है, जहाँ मेरी पत्नी मरी थी, इसलिए हम कमला की चिता भी उसी पहाड़ी पर बनाएँगे, जहाँ मैंने कभी अपनी पत्नी की चिता बनाई थी।"
बालक सोता रहा, और उन दोनों ने चिता तैयार कर ली।
10 : पुत्र
भय-विजड़ित और रोते हुए, कमला के बेटे ने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार होते देखा था; डरा हुआ और उदास वह सुनता रहा था जब सिद्धार्थ ने उसे अपना बेटा कहते हुए वासुदेव की कुटिया में उसके रहने का प्रबंध किया था। कई दिनों तक वह फीका, बुझा हुआ चेहरा लिये, मुर्दों की पहाड़ी पर बैठा रहा, दूर कहीं ताकता हुआ, अपने दिल के किवाड़ बन्द करता हुआ, अपने भाग्य के खिलाफ़ लड़ता और संघर्ष करता।
सिद्धार्थ ने उसके साथ समझ-बूझ से काम लिया था और उसे अकेला छोड़ दिया था, क्योंकि वह उसके दुख का सम्मान करता था। सिद्धार्थ यह समझता था कि उसका बेटा उसे नहीं जानता था, कि वह पिता के रूप में उसे प्यार नहीं कर सकता था। धीरे-धीरे उसने यह भी देखा और उसे यह बोध भी हुआ कि वह ग्यारह वर्षीय बालक, माँ का दुलारा और नरम बिस्तर का आदी था, नौकरों को आदेश देने का अभ्यस्त था। सिद्धार्थ समझता था कि वह बिगड़ा हुआ और शोक-संतप्त लड़का अचानक एक अपरिचित और गरीब जगह में संतुष्ट नहीं रह सकता था। सिद्धार्थ ने उस पर दबाव नहीं डाला; वह उसके लिए बहुत कुछ करता और हमेशा खाने-पीने के सबसे अच्छे निवाले उसके लिए बचाए रखता। धीरे-धीरे, मित्रता-भरे धीरज के बल पर उसने उसे जीतने की उम्मीद रख छोड़ी थी। जब लड़का उसके पास आया था तो उसने खुद को धनी और प्रसन्न समझा था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता और लड़का प्रतिकूल और खिन्न बना रहा, या जब वह घमंड और अवज्ञा से भरा व्यवहार करता, जब वह कोई काम न करता, जब वह बड़े-बूढ़ों का आदर न करता और वासुदेव के पेड़ों से फल चुराता, तब सिद्धार्थ को यह एहसास होने लगा कि उसके बेटे के साथ कोई सुख और शांति नहीं आई थी, बल्कि सिर्फ़ दुख और परेशानी। लेकिन वह उसे प्यार करता था और इस प्रेम के दुख और पोशानी को लड़के के बिना सुख-शान्ति की बनिस्बत पसन्द करता धा। चूँकि नन्हा सिद्धार्थ कुटिया में था, दोनों बूढ़ों ने काम बाँट लिया था। वासुदेव ने घाट का सारा काम सँभाल लिया था और सिद्धार्थ, अपने बेटे के पास बने रहने के लिए, कुटिया और खेतों में काम करता।
कई महीनों तक सिद्धार्थ इस उम्मीद में धीरज के साथ प्रतीक्षा करता रहा कि उसका बेटा उसे समझने लगेगा, कि वह उसका प्रेम स्वीकार करेगा और शायद उसे लौटाएगा भी। कई महीनों तक वासुदेव उसे देखता रहा, प्रतीक्षा करता रहा और खामोश रहा। एक दिन जब नन्हा सिद्धार्थ अपने पिता को अपनी अवज्ञा और क्रोध से तंग कर रहा था और उसने चावल के दोनों कटोरे तोड़ दिए थे, वासुदेव शाम के समय अपने मित्र को एक ओर ले गया और उसने उससे बात की।
“क्षमा करना,” वह बोला। “मैं तुमसे एक मित्र के नाते बात कर रहा हूँ। मैं देख सकता हूँ कि तुम चिंतित और दुखी हो। तुम्हारा बेटा, प्यारे मित्र, तुम्हें तंग कर रहा है और मुझे मी। यह युवा पखेरू एक अलग ज़िन्दगी, एक अलग घोंसले का आदी है। वह धन-संपदा से और नगर से उकताहट और घृणा की भावना से नहीं भागा, जैसा कि तुमने किया था; उसे ये सारी चीज़ें अपनी इच्छा के खिलाफ़ छोड़नी पड़ी हैं। मैंने नदी से पूछा है, मित्र, मैंने कई बार उससे पूछा है और नदी हँस दी है, वह मुझ पर हँसी है और वह तुम पर हँसी है; हमारी मूर्खता पर वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई है। पानी तो पानी से मिलेगा, यौवन यौवन से। तुम्हारा बेटा इस जगह खुश नहीं रहेगा। तुम नदी से पूछो और सुनो कि वह क्या कहती है।"
अत्यन्त कातर दृष्टि से सिद्धार्थ ने उस करुण मुख की ओर देखा जिसकी झुर्रियों में मृदु-स्वभाव के अनेक लक्षण विद्यमान थे।
"मैं उसे अपने से किस प्रकार अलग कर सकता हूँ," उसने आहिस्ता से कहा, "मुझे अभी थोड़ा अवकाश और दो मित्र। मैं उसके हृदय तक पहुँच जाना चाहता हूँ। मैं प्रेम और धैर्य के द्वारा उसे जीत लूँगा। नदी उससे भी किसी दिन बातें करने लगेगी, वह भी नदी की सेवा में उपस्थित हुआ है।"
वासुदेव का हास्य और भी सौहार्दपूर्ण हो उठा। "ओह! ठीक है," उसने कहा, "वह भी उपस्थित हुआ है, वह भी चिरन्तन जीवन का एक अंग है। लेकिन क्या तुम और मैं यह जानते हैं कि वह क्या करने के लिए आया है, उसका मार्ग कौनसा है, उसे क्या काम करने हैं और उसके दुःख-शोक क्या होने हैं? उसका दुःख कभी कम नहीं होगा। उसका हृदय अत्यन्त दर्पयुक्त और कठोर है। सम्भवत: उसे अधिक पीड़ा होगी, वह अनेक भूलें करेगा, वह अधिक अन्याय करेगा और अनेक पाप करेगा। मुझे बताओ मित्र, क्या तुम अपने बेटे को कोई शिक्षा दे रहे हो? क्या वह आज्ञाकारी है ? क्या तुम उसे मारते हो या दण्ड देते हो?"
"नहीं, वासुदेव मैं तो इनमें से कोई भी काम नहीं करता।"
"मैं यह जानता था। तुम उसके साथ कठोरता का व्यवहार नहीं करते, तुम उसे दण्ड नहीं देते, तुम उस पर शासन नहीं करते, क्योंकि तुम यह मानते हो कि कठोरता से कोमलता अधिक बलवान होती है। बहुत अच्छा है, मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ। किन्तु यह शायद तुम्हारी भूल नहीं है कि तुम उसके प्रति कठोर नहीं हो, उसे दण्ड नहीं देते हो! क्या तुमने अपने प्रेम के बन्धन में उसे बाँध नहीं रखा है? क्या तुम अपनी भद्रता और सहिष्णुता से नित्यप्रति उसे लज्जित नहीं करते हो, और उसके लिए स्थिति को और भी दुष्कर नहीं बना रहे हो? क्या तुम उस अभिमानी और बिगड़े हुए बालक को केला खाकर झोंपड़ी में पड़े रहने वाले दो बूढों के साथ रहने पर मजबूर नहीं कर रहे हो, जिन्हें केवल चावल का आहार भी मोहनभोग प्रतीत होता है, जिनके विचार कभी भी उसके अनुरूप नहीं हो सकते और जिनके दिलों पर बुढ़ापा छा चुका है और उनकी धड़कन कभी भी उसके दिल की धड़कन के साथ मेल नहीं खा सकतीं। क्या इस सबसे उस पर कोई ज़ोर नहीं पड़ता और उसे दण्ड नहीं मिलता?"
सिद्धार्थ बेचैनी के साथ पृथ्वी को ओर देखने लगा।"तो तुम मुझे क्या करने को कहते हो?" उसने आहिस्ता से पूछा।
वासुदेव ने कहा, "उसे शहर ले जाओ, उसे उसकी माँ के घर में ले जाओ। वहाँ अब भी नौकर होंगे, उसे उनके पास ले जाओ। और अगर नौकर इत्यादि वहाँ न मिलें तो उसे किसी शिक्षक के पास ले जाना केवल अक्षरज्ञान के लिए नहीं, वरन् जगह ऐसी होनी चाहिए जहाँ वह दूसरे लड़कों और लड़कियों से मिल सके, जिनका साहचर्य प्राप्त होना उसके लिए अत्यन्त आवश्यक है। क्या तुमने इस पर कभी भी विचार नहीं किया?"
"तुम मेरे हृदय को देख सकते हो।" सिद्धार्थ ने दुखी कण्ठ से कहा, "मैं अक्सर इस समस्या पर विचार करता रहा हूँ, लेकिन वह लड़का जो इतना कठोर हृदय है, इस दुनिया में किस प्रकार प्रविष्ट हो सकेगा? क्या वह अपने को बड़ा नहीं समझेगा? क्या वह विलास और शक्ति में उन्मत्त नहीं हो जायेगा? क्या वह अपने पिता की भूलों को नहीं दोहराएगा? क्या वह सम्भवतः इस संसार में बिलकुल ही नहीं खो जाएगा?"
नाविक फिर मुस्कराया। उसने स्नेह से सिद्धार्थ की बाँह का स्पर्श किया और कहा,"नदी से इस बारे में पछना, मेरे मित्र! उसे सुनना, वह तुम्हें हँसती मिलेगी इस बात पर। क्या तुम्हारा विचार यह है कि तुमने जीवन में भूलें इसलिए की थी ताकि तुम्हारा पुत्र उनसे बच सके? तो क्या तुम अपने पुत्र की संसार से रक्षा कर सकते हो? किस तरह? उपदेश द्वारा, प्रार्थना द्वारा, परामर्श द्वारा, मेरे मित्र तुम सम्भवतः ब्राह्मण-पुत्र सिद्धार्थ की वह कहानी भूल चुके हो, जो एक दिन तुमने मुझे सुनाई थी। श्रमण सिद्धार्थ की संसार से. किसने रक्षा की? पाप, लोभ और भूलों से उसे किसने बचाया? क्या उसके पिता की पवित्रता ने, क्या उसके शिक्षक के ज्ञान ने, उसके अपने ज्ञान ने, या उसकी अपनी खोज ने उसे बचाया? कौनसा बाप और कौन-सा शिक्षक उसे जीवन धूलि को शिरोधार्य करने से, अपना जीवन स्वयं जीने, पाप का गट्ठर सिर पर धारण करने और तिक्य पेय पीने से रोक सका? क्या तुम सोचते हो, मेरे प्रिय मित्र, कि कोई भी आदमी इस मार्ग से मुक्ति पा सकता है? शायद तुम्हारा पुत्र उनसे बच पाए, क्योंकि तुम चाहते हो कि वह दुःख, शोक और निराशा से बच जाए। परंतु यदि दस जीवन भी धारण करो, तब भी तुम उसके भाग्य को लेशमात्र भी नहीं बदल सकते?
आज तक वासुदेव ने कभी भी खुलकर बातें नहीं की थीं। सिद्धार्थ ने उसे मित्रभाव से धन्यवाद किया, अत्यन्त कातर मन से झोंपड़ी में गया किन्तु सो नहीं सका। वासुदेव ने ऐसी कोई बात उसे नहीं बतलाई थी, जिस पर उसने स्वयं विचार न किया हो, अथवा जिसे वह स्वयं जान चुका हो। लेकिन उसके ज्ञान से भी अधिक बालक के प्रति प्रेम, अनुराग और उसे खो देने का भय उसके हृदय में विद्यमान था। क्या उसने और किसी आदमी के प्रति इतनी सम्पूर्णता के साथ अपने हृदय का समर्पण किया था? क्या उसने किसी को इतना प्रेम किया था, इतनी आँख मींचकर, इतनी व्यथा सहकर, इतनी निराशा पाकर तथापि इतने सुख का अनुभव करते हुए?
सिद्धार्थ अपने मित्र का परामर्श स्वीकार न कर सका, वह अपने पुत्र का परित्याग नहीं कर सका। उसने अपने को बालक के आदेशों पर बचाया और उसके द्वारा अपमानित होता रहा। वह खामोशी के साथ प्रतीक्षा करता रहा, उसने मैत्रीपूर्वक और धैर्य के साथ नित्यप्रति मौन संघर्ष करना प्रारम्भ कर दिया। वासुदेव भी खामोश था और प्रतीक्षा कर रहा था, मैत्रीपूर्वक, सद्भावना-सहित और सहिष्णुता के साथ। दोनों ही अपार धैर्य के स्वामी थे।
एक बार लड़के के मुँह को देखकर उसे कमला की याद आ गई। कोई बात जो बहुत दिन हुए कमला ने कही थी-"तुम प्यार नहीं कर सकते।"-यह बात उससे कही गई थी और उसने इस आरोप को स्वीकार कर लिया था। उसने अपनी तुलना एक तारक से की थी और दूसरे की तुलना गिरती हुई पत्तियों से की थी, तथापि उसके स्वर में उसने किंचित भर्त्सना का अनुभव किया था। यह सत्य था कि उसने किसी भी व्यक्ति में इतनी आसक्ति नहीं रखी कि वह अपने को ही भूल जाए, वह किसी की प्रेरणा के द्वारा प्रेमजन्य भूलें उसने नहीं की। वह किसी प्रकार भी वैसा नहीं कर सका और उसे यह लगता था कि उसमें और साधारण जन-समाज में यही एक अन्तर था, किन्तु जब से उसका पुत्र उसके पास आया था सिद्धार्थ सामान्य लोगों की तरह दुःख और प्रेम की भावना से पीड़ित हो रहा था। वह प्रेम से मूर्ख बन गया था। अब उसने देर से ही सही, अपने जीवन में एक बार, उस सबसे शक्तिशाली और सबसे विचित्र आवेग को भी अनुभव किया था। वह उसकी वजह से गहरी पीड़ा महसूस करता, तिस पर भी वह ऊँचा उठता, किसी तरीके से दोबारा नया होकर, अधिक समृद्ध होकर।
वह महसूस करता कि सचमुच यह प्रेम, अपने बेटे के लिए यह अन्धा प्यार, एक बहुत मानवीय आवेग था, कि वह संसार था, गहरे पानी का हलचल-भरा सोता। इसी के साथ उसे यह अनुभूति भी होती कि वह निरर्थक नहीं था, कि वह आवश्यक था कि वह उसकी अपनी प्रकृति की देन था। यह भावना, यह पीड़ा, ये मूर्खताएँ भी अनुभव की जनी थी।
इस बीच, उसके बेटे ने उसे अपनी मूर्खताएँ करने दीं, उसे प्रयास करने दिए, अपनी मर्ज़ी के आगे झुकने को मजबूर किया। उसके पिता में ऐसा कुछ भी नहीं था जो उसे आकर्षित करता और ऐसा कुछ भी नहीं जिससे वह डरता। यह पिता एक अच्छा आदमी था, दया से भरपूर नरम आदमी था, शायद एक धर्मपरायण आदमी था, शायद पवित्र आदमी था-लेकिन ये सब ऐसे गुण नहीं थे जो लड़के को जीत पाते। यह पिता जो उसे इस घटिया-सी कुटिया मेँ रखता था, उसमें ऊब पैदा करता और जब वह उसके रूखेपन का जवाब मुस्करा कर, हर अपमान का जवाब भलमनसाहत से, हर शैतानी का जवाब दया से देता तो यह उस बूढे सियार की सबसे घृणित चतुराई थी। अगर उसने लड़के को धमकाया होता, उसके साथ बुरा व्यवहार किया होता तो लड़के को ज़्यादा सही लगता।
एक दिन नन्हे सिद्धार्थ ने जो उसके मन में था, वह कह दिया और खुले तौर पर अपने पिता का विरोध किया। सिद्धार्थ ने उसे कुछ टहनियाँ इकट्ठा करने के लिए कहा था। लेकिन लड़का कुटिया के बाहर नहीं गया, वह वहीं खड़ा रहा, अवज्ञा से भरा और क्रुद्ध; उसने फ़र्श पर पैर पटके, मुट्ठियाँ कसीं और प्रचण्डता से अपने पिता के मुंह पर अपनी घृणा और तिरस्कार व्यक्त किया।
"अपनी लकड़ी अपने आप लाइए," मुँह में झाग भरते हुए वह चिल्लाया, "मैं तुम्हारा नौकर नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम मुझे पीट नहीं सकते, तुम में पीटने की हिम्मत ही नहीं है। लेकिन मैं जानता हूँ कि अपनी उदारता और प्रेम से तुम मुझे काफी पीड़ा पहुँचाते हो। तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारी तरह बनूँ, इतना पवित्र, इतना ही सज्जन और इतना ही बुद्धिमान् किन्तु तुम्हारे समान बनने की अपेक्षा मैं डाकू और हत्यारा बनकर नरक में जाना पसन्द करूँगा, केवल तुम्हारी इच्छा का विरोध करने के लिए। मैं तुमसे नफरत करता हूँ। तुम मेरे पिता नहीं हो सकते, लाख बार चाहे तुम मेरी माता के प्रेमी क्यों न रहे हो।"
क्रोध और पीड़ा से भरकर उसने अपने पिता पर असभ्य और अनर्गल शब्दों की बौछार लगा दी। तब लड़का भाग गया और साँझ पड़े झोंपड़ी में लौटकर आया।
अगले दिन प्रात:काल लड़का गायब हो गया। झाऊ की बनी एक दोरंगी टोकरी जिसमें नाविक लोग चाँदी और ताँबे की मुद्राएँ रखते थे जो पारिश्रमिक स्वरूप उन्हें मिलता था-वह गायब हो गई। नाव भी जा चुकी थी। सिद्धार्थ ने नदी के दूसरे तट पर उसे देखा। लड़का भाग चुका था।
"मैं उसके पीछे जाऊँगा," सिद्धार्थ ने कहा। लड़के के सख्त शब्द सुनकर उसके हृदय को अत्यन्त पीड़ा हुई थी। "एक बालक इस जंगल से पार किस तरह जा सकता है? उसके साथ कुछ भी अशुभ घटित हो सकता है। हमें पार उतरने के लिए एक बेड़ा तैयार करना चाहिए, वासुदेव?"
"हम लोग बेड़ा तैयार करेंगे," वासुदेव ने कहा, "अपनी नाव को वापस लाने के लिए, जो कि लड़का ले गया है। लेकिन उसे जाने दो मित्र, वह अब बालक नहीं रह गया है। अब वह अपनी ख़बरगीरी करने में स्वयं समर्थ हो चुका है। वह नगर की ओर जाना चाहता है, और वह ठीक कर रहा है। यह भूल मत जाओ। वह वही कर रहा है जिसे करने में तुमने उपेक्षा दिखाई है। वह अपनी देखभाल स्वयं कर रहा है और अपने मार्ग का अनुसंधान स्वयं कर लेगा। ओह, सिद्धार्थ, मैं देखता हूँ कि तुम्हें पीड़ा हो रही है, जिस पीड़ा पर मनुष्य को हँसना चाहिए और जिस पर शीघ्र ही तुम स्वयं भी हँसने लगोगे?
सिद्धार्थ ने उत्तर नहीं दिया। उसने एक कुल्हाड़ी हाथ में ले ली थी और वह बाँस से बेड़ा बनाने में जुट गया। वासुदेव ने उसे सरपत की रस्सी से बाँसों को बाँधने में मदद की। फिर वे उस पार जाने के लिए चले, धारा में बहुत दूर पहुँच गए, लेकिन उन्होंने बेड़े की दिशा सही करके उसे दूसरी तरफ़ पहुँचा ही दिया।
“तुम कुल्हाड़ी क्यों अपने साथ लाए हो?” सिद्धार्थ ने पूछा।
वासुदेव ने कहा, “हो सकता है कि हमारी नाव का डाँड खो गया हो।”
लेकिन सिद्धार्थ जानता था कि उसका मित्र क्या सोच रहा था-शायद लड़के ने डाँड़ को फेंक दिया हो या बदले की भावना से तोड़ दिया हो, ताकि वे उसका पीछा न कर पाएँ। और सचमुच नाव में कोई डाँड नहीं था। वासुदेव ने नाव के पेंदे की तरफ़ इशारा किया और अपने मित्र को देखकर मुस्कराया, मानो कह रहा हो; क्या तुम देख नहीं रहे हो कि तुम्हारा बेटा तुमसे क्या कहना चाहता है? क्या तुम देख नहीं रहे कि वह नहीं चाहता, उसका पीछा किया जाए? लेकिन वासुदेव ने शब्दों में यह सब नहीं कहा और नया डाँड़ बनाने में जुट गया। सिद्धार्थ ने लड़के को खोजने के लिए उससे विदा ली। वासुदेव ने उसे रोका नहीं।
काफ़ी देर वन में भटकने के बाद सिद्धार्थ को यह खयाल आया कि उसकी तलाश बेकार थी। उसने सोचा, या तो लड़का बहुत पहले ही वन से निकलकर नगर में पहुँच गया होगा या फिर अगर वह अब भी रास्ते में होगा तो अपना पीछा करने वाले से छिपा रहेगा। और जब उसने और विचारा तो उसने पाया कि वह अपने बेटे को लेकर परेशान नहीं था, कि अन्दर-ही-अन्दर यह जानता था कि लड़के को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था, न उसे वन में किसी संकट की आशंका थी। इसके बावजूद, सिद्धार्थ सधी चाल से बढ़ता गया, अब लड़के को बचाने के लिए नहीं, बल्कि इस इच्छा से कि शायद वह उसे फिर से देख सके और वह चलते-चलते नगर के बाहरी हिस्से तक आ गया।
जब वह नगर के पास चौड़ी सड़क तक आ पहुँचा तो वह उस प्रमोद उद्यान के द्वार पर खड़ा रह गया जो कभी कमला का रह चुका था। और जहाँ उसने सर्वप्रथम कमला को पालकी में बैठा हुआ देखा था। अतीत उसके नेत्रों के सम्मुख जीवित हो उठा। एक बार पुनः उसने तरुण दाढ़ी वाले और नग्न श्रमण को वहाँ खड़े देखा, जिसके बालों में धूल भरी हुई थी। सिद्धार्थ बहुत देर तक वहाँ खड़ा रहा और खुले हुए द्वार से उद्यान के अन्दर देखता रहा। उसने देखा कि सुन्दर वृक्षों के नीचे साधु इधर-उधर घूम रहे हैं।
वह बहुत देर तक वहाँ खड़ा रहा, विचार करता रहा, चित्र देखता रहा और अपने जीवन की सम्पूर्ण कहानी को देखता रहा। साधुओं की ओर देखता हुआ, वह बहुत देर तक खड़ा रहा और उनके स्थान पर कमला और तरुण सिद्धार्थ को सुन्दर वृक्षों की छाया में घूमते हुए देखता रहा। उसने स्पष्ट देखा कि अपनी सर्वप्रथम भेंट में कमला ने उसकी किस प्रकार अभ्यर्थना की थी और उसे प्रथम बार चुम्बन प्रदान किया। उसने यह भी देखा कि कितने अभिमान और घृणापूर्वक उसने अपने श्रमण जीवन को देखा था और कितने गर्व और उत्सुकता के साथ उसने अपना सांसारिक जीवन प्रारम्भ किया था। उसने कामस्वामी को देखा, भृत्यवर्ग, जश्नों, जुआरियों और गायकगायिकाओं को भी देखा। उसने पिंजरे में बन्द कमला के गायक पक्षी को भी देखा, उसने फिर एक बार वह जीवन अनुभव किया, पुनः संसार उसकी साँस में बस गया, पुनः वह बूढ़ा हुआ और थक गया, पुनः उसे ग्लानि हुई और मरने की इच्छा हुई और पुन: उसने ओ३म् का स्वर सुना।
उद्यान के द्वार पर बहुत देर तक खड़े रहने के पश्चात् सिद्धार्थ ने अनुभव किया कि जिस इच्छा से वह यहाँ खिंचा चला आया है, वह मूर्खतापूर्ण है, वह अपने पुत्र की कोई सहायता नहीं कर सकता, और उसे अपना व्यक्तित्व उसके ऊपर लादना नहीं चाहिए। उसने उस भागे हुए लड़के के प्रति एक गहन प्रेम अनुभव किया, जिसकी पीड़ा एक घाव के समान थी और साथ ही उसने यह भी अनुभव किया कि इस जख्म को बढ़कर नासूर नहीं बन जाना है, इसको मर ही जाना चाहिए।
क्योंकि जख्म उन क्षणों में भरा नहीं था, इस कारण वह दुःखी था। उसके लक्ष्य-स्थान पर जो उसे अपने पुत्र की खोज में यहाँ लाया, यहाँ केवल रिक्तता ही उसके हाथ आई थी। शोकाकुल, वह भूमि पर बैठ प्रतीक्षा करता रहा। उसने यह नदी से सीखा था; प्रतीक्षा करना, धैर्य करना, सुनना। वह धूल भरे मार्ग में बैठा सुनता रहा, अपने हृदय को सुनता रहा जिसमें एक थकी हुई, उदास धड़कन थी और जो एक आवाज़ की प्रतीक्षा कर रहा था। वह वहीं दुबका रहा और घंटों तक सुनता रहा; अब वह कोई दृश्य नहीं देख रहा था, बस खालीपन में डूबता जा रहा था और बाहर निकलने का कोई रास्ता देखे बिना खुद को डूबने दे रहा था। और जब उसे घाव में टीस उठती महसूस होती, वह फुसफुसाकर ओम कहता, खुद को ओम से भर लेता। वाटिका में मौजूद भिक्षुओं ने उसे देखा और चूँकि वह कई घंटों तक वहीं बैठा रहा और उसके खिचड़ी बालों में धूल जमा हो गई, एक भिक्षु उसके पास आया और उसके सामने दो केले रख गया। बूढ़े आदमी ने उसे नहीं देखा।
उसके कन्धे पर एक हाथ के स्पर्श ने उसे उसकी समाधि से जगाया। उसने इस नरम, भीरु स्पर्श को पहचाना और फिर से अपने होश सँभाले। वह उठा और उसने वासुदेव का स्वागत किया जो उसके पीछे-पीछे आ गया था। जब उसने वासुदेव का स्नेह-भरा चेहरा देखा, हँसने पर पड़ जानेवाली झुर्रियाँ देखीं और उसकी चमकीली आँखों में झाँका तो वह भी मुस्कुरा दिया। अब उसने अपने पास रखे दो केले देखे। उसने उन्हें उठाया, एक माँझी को दिया और दूसरा खुद खा लिया। फिर वह चुपचाप वासुदेव के साथ फिर से वन को पार करते हुए नाव तक गया। दोनों में से किसी ने जो हुआ था, उसकी चर्चा नहीं की; किसी ने लड़के का नाम नहीं लिया; किसी ने उसके भागने की बात नहीं की, न चोट की। कुटिया में पहुँचकर सिद्धार्थ अपने बिस्तर पर लेट गया और जब कुछ देर बाद वासुदेव उसे थोड़ा-सा नारियल पानी देने के लिए गया तो उसने सिद्धार्थ को सोता हुआ पाया।
11 : ओ३म्
वह जख्म बहुत समय तक कसकता रहा। सिद्धार्थ अनेक ऐसे यात्रियों को पार उतारता जो अपने पुत्र या पुत्री को साथ लिये होते और कोई भी ऐसा नहीं होता जिसे देखकर उसके हृदय में ईर्ष्या न होती, विचारोत्तेजन न होता; इतने लोग इस सुख से सम्पन्न हैं, फिर मैं ही क्यों नहीं हूँ? दुष्ट लोग, चोर और डाकुओं के भी बच्चे होते हैं, वे भी उन्हें प्यार करते हैं, और उनके द्वारा प्यार पाते भी हैं, केवल मैं ही क्यों वंचित हूँ। वह इस तरह बालकों के समान और अतर्कपूर्ण विचार करता, वह इतना अधिक सामान्य लोगों की तरह बन चुका था।
वह लोगों की ओर पहले से विभिन्न एक दूसरी दृष्टि से देखता था, अब वह उतनी चतुराई, उतना गर्व अनुभव न कर पाता, इसलिए उसका हृदय अधिक ऊष्मित, उत्सुक और सहानुभूतिपूर्ण हो चुका था।
जब वह साधारण कोटि के यात्रियों को पार ले जाता, व्यापारियों, सैनिकों और स्त्रियों को तो वे उसे अजनबी-से दिखाई न देते थे। वह उनके विचारों और धारणाओं को तो समझ नहीं पाता, किन्तु जीवन की प्रेरणाओं और आकांक्षाओं में वह उनका भागीदार बनता था। हालाँकि वह आत्मानुशासन की उच्च स्थिति को पहुंच चुका था, और अपने अन्तिम व्रण को सहन कर चुका था, किन्तु अब वह अनुभव करता था कि ये सामान्यजन उसके बन्धु हैं। उनकी आन-बान, आकांक्षाएँ और क्षुद्रताएँ अब उसे भौंडी प्रतीत होती थीं, अब उन्हें समझा जा सकता था, प्यार किया जा सकता था और अब वे प्रतिष्ठा की पात्रता को प्राप्त हो चुकी थीं। एक माता का अपनी सन्तान के लिए अन्धा प्रेम, एक पिता का अपने पुत्र के लिए गर्व, एक नवयौवना शोख स्त्री का आभूषणों और पुरुषों की प्रशंसा की चाह ये सभी भावनाएँ वह देखता था। ये सभी सरल, मूर्खतापूर्ण, परंतु अतिशय शक्तिशाली, महत्त्वपूर्ण और भावुक अन्तर-प्रेरणाएँ और आकांक्षाएँ अब सिद्धार्थ को तुच्छ प्रतीत होती थीं। इन्हीं भावनाओं के लिए, वह देखता था, कि लोग जीवित रहते हैं, बड़े-बड़े काम करते हैं, यात्रा करते हैं, युद्ध करते हैं, कष्ट सहते हैं और वह इन्हीं कारणों से उन्हें प्यार करता था। उनकी इन समस्त आकांक्षाओं और आवश्यकताओं में उसे जीवन, सप्राणता, अविनाशी तत्त्व और ब्रह्म के दर्शन होते थे। अपनी अन्ध भक्ति, अन्ध शक्ति और लगन से भरकर काम करने वाले लोग प्रेम और प्रशंसा के पात्र होते हैं। केवल एक छोटी-सी, अत्यन्त ही छोटी-सी वस्तु को छोड़कर उनके अन्दर महापुरुषों और विचारकों की समानता में कोई भी अन्तर नहीं होता और वह चीज़ यह है कि उन्हें समस्त जीवन की एकता का ज्ञान नहीं होता। और अनेक बार सिद्धार्थ को यह संदेह होने लगता कि उसका यह ज्ञान, यह विचार क्या वस्तुतः इतना मूल्यवान है, और क्या वह वस्तुतः विचारकों की बालकों-जैसी प्रशंसा मात्र नहीं, जो कि सम्भवतः विचार करने वाले शिशुओं से अधिक कुछ भी नहीं है। सांसारिक लोग भी विचारकों के समकक्ष ही होते हैं, कई बार उनसे श्रेष्ठ भी होते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आवश्यकता पड़ने पर पशु भी अविचलित दृढ़ता की दृष्टि मनुष्य से अधिक श्रेष्ठता का परिचय दे देते हैं।
वस्तुतः ज्ञान क्या है और उसकी खोज का उद्देश्य क्या है ? आत्मा की साधना, एक सामर्थ्य, चिन्तन की एक गुप्त कला, और जीवन के प्रत्येक क्षण में ऐक्य की भावना को अनुभव करना, इसी विचार को हर साँस में अनुभव करना, इसके अतिरिक्त ज्ञान और कुछ भी नहीं है। यह विचार उसके अन्दर धीरेधीरे परिपक्व हो गया, और यही ज्ञान वासुदेव के शिशु-समान वृद्ध मुखण्डल पर छविमान होता था, एकलयता, विश्व की सम्पूर्णता का ज्ञान और ऐक्य!
लेकिन उसके व्रण में अब भी टीस होती थी। सिद्धार्थ अपने पुत्र की याद में अत्यन्त विह्वल और विकल हो उठता था, उसके अपने प्रेम और कोमल भावों को हृदय में अब भी पोषित करता था, अपनी पीड़ा की कचोट को सहन करता था और प्रेमजनित सभी भूलें वह करता था। वह ज्योति आप-से-आप बुझी नहीं थी।
एक दिन जब चोट बुरी तरह टीस रही थी, लालसा और उत्कंठा से ग्रस्त सिद्धार्थ नाव को खे कर दूसरे किनारे पर ले गया और अपने बेटे की खोज में नगर तक जाने के उद्देश्य से उतर गया। नदी अपनी धीर-गंभीर गति से बह रही थी। सूखे मौसम के दिन थे, लेकिन अजीब ढंग से उसकी आवाज़ गूँज रही थी, वह हँस रही थी, वह स्पष्ट रूप से हँस रही थी। नदी बूढ़े माँझी पर साफ़-साफ़ और मस्ती से हँस रही थी। सिद्धार्थ निश्चल खड़ा रहा; वह बेहतर ढंग से सुनने के लिए पानी पर झुका। उसने धीमी गति से बहते पानी में अपने चेहरे की परछाईं देखी और इस झलक में कुछ ऐसा था जिसने उसे ऐसी बात की याद कराई जिसे वह भुला चुका था और जब उसने उस पर विचार किया तो उसे याद हो आई। उसका चेहरा एक ऐसे व्यक्ति के चेहरे से मेल खाता था जिसे कभी वह जानता था, प्यार करता था और यहाँ तक कि जिससे वह डरता भी था। वह उसके ब्राह्मण पिता का चेहरा था जिससे उसका चेहरा अब मेल खाने लगा था। उसे याद आया कि कैसे जब वह एक युवक था उसने अपने पिता को विवश किया था कि वे उसे जा कर तपस्वियों में शामित्र होने दें, कैसे उसने उनसे विदा ली थी, कैसे वह चला आया था और फिर कभी वापस नहीं गया था। क्या उसके पिता ने वही पीड़ा नहीं सही थी जो अब वह अपने बेटे के लिए सह रहा था? क्या उसके पिता भी एक लम्बा अर्सा पहले बिना अपने बेटे को दोबारा देखे, अकेले, गुज़र नहीं गए थे? क्या उसे भी उसी नियति की अपेक्षा नहीं थी? क्या यह एक प्रहसन नहीं था, एक अजीब और गूढ़ बात, यह दोहराव, भाग्य-चक्र का यह घटनाक्रम?
नदी हँसती थी। हाँ, ऐसा ही था यह सब। हर चीज़ जो अन्त तक भोग कर अन्ततः समाप्त नहीं की जाती थी, दोबारा होती थी और वही-वही दुख फिर से सहे जाते थे। सिद्धार्थ फिर से नाव में सवार हुआ और अपने पिता के बारे में सोचता हुआ, अपने बेटे के बारे में सोचता हुआ, नदी को अपने ऊपर हँसते सुनता हुआ, अपने आप से लड़ता हुआ, हताशा के कगार पर लटका हुआ और अपने ऊपर और सारी दुनिया के ऊपर ऊँची आवाज़ में हँसने की वैसी ही इच्छा के साथ नाव को लेकर वापस कुटिया तक ले आया। उसका जख्म अब भी दु:ख रहा था, अपने भाग्य के विरुद्ध उसके हृदय में अब भी विद्रोह था। मन में शान्ति नहीं थी और उसने दुःख पर विजय नहीं पाई थी। फिर भी उसके अन्तर में आशा बनी हुई थी और जिस समय वह झोंपड़ी में पहुँचा, तो उसके हृदय में एक दुर्धर्ष इच्छा हुई कि जो कुछ हुआ था, वह सब-का-सब वासुदेव के सम्मुख कह डाले, समस्त रहस्योद्घाटन उस आदमी के समक्ष कर दे जिसे सुनने की कला आती थी।
वासुदेव झोंपड़ी में बैठा एक टोकरी बुन रहा था। वह अब नौका पर काम नहीं करता था, उसकी आँखें कमजोर होती जा रही थीं। उसकी भुजाएँ और हाथ भी, परंतु उसका सुख और उसकी मुखाकृति पर विराजने वाला हास्य यथावत् अपरिवर्तित और एक विलक्षण तेज से उद्दीप्त था।
सिद्धार्थ उस बूढ़े आदमी के पास बैठ गया और उसने धीरे-धीरे बोलना शुरू कर दिया। उसने वह सब कुछ कह दिया, जो आज तक उसने कभी न कहा था, किस प्रकार वह उस बार नगर में गया था, अपने कसकते हुए घाव के बारे में, सुखी पिताओं को देखकर हृदय में उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या, इस प्रकार की भावनाओं के मूर्खतापूर्ण होने का उसका बोध और अपने साथ संघर्ष करने की अपनी असफल चेष्टा, सभी कुछ उसने कह दिया। उसने सभी कुछ कह दिया, वह उससे कुछ भी कह सकता था, मर्मान्तक पीडायुक्त चीजों के बारे में भी, वह सब कुछ खोलकर उसके समक्ष रख सकता था। उसने अपने जख्म उसके सामने खोलकर रख दिया, उस दिन के भाग चलने की कहानी भी कह दी, किस प्रकार नगर में भटकने के लिए वह नाव चलाकर उस पार पहुँच गया था और किस प्रकार नदी उसका उपहास कर रही थी।
जैसे-जैसे वह अपनी कहानी कहता जाता था, सिद्धार्थ शान्त मुद्रा से सुनता जाता था, सिद्धार्थ सदैव से अधिक आज वासुदेव की एकाग्रता को परिलक्षित कर रहा था। वह अनुभव कर रहा था कि किस प्रकार उसका अन्तर्द्वन्द्व, उसकी चिन्ताएँ और उसकी गुप्त आशाएँ तैरकर उसके पास जाती हैं और फिर लौट आती हैं। श्रोता के सम्मुख अपने घाव को खोलकर रखना जैसे नदी में स्नान करने के समान था, जब तक घाव शीतल न हो जाए और नदी के साथ उसका एकाकार न हो जाए। ज्यों-ज्यों बातें करता गया और स्वीकार करता गया, सिद्धार्थ अधिकाधिक मात्रा में अनुभव करता गया कि वह अब वासुदेव नहीं रह गया है, अब वह उसका श्रोतामात्र नहीं रह गया है। उसने अनुभव किया कि निस्पंद श्रोता उसकी स्वीकारोक्तियों को ठीक उसी प्रकार आत्मसात् कर रहा है, जिस प्रकार कोई वृक्ष वर्षा को आत्मसात् करता है कि वह जैसे स्वयं सरिता हो, स्वयं भगवान् हो, कि जैसे वह स्वयं शाश्वत हो। सिद्धार्थ ने और अपने घाव के बारे में सोचना बन्द कर दिया, वासुदेव के अन्दर इस परिवर्तन ने उस पर अधिकार कर लिया और ज्यों-ज्यों वह उसे अनुभव करता गया, त्यों-त्यों वह उसे कम विचित्र दिखाई पड़ता गया और उसे यह अनुभव होता गया कि प्रत्येक वस्तु स्वाभाविक और यथावत् थी। वासुदेव बहुत समय से, प्रायः सदैव ही वैसा ही रहा है, केवल वही उसे पहचान नहीं पाया है, वास्तव में वह स्वयं भी उससे कुछ भी भिन्न नहीं था। उसने अनुभव किया कि उसने वासुदेव को इस प्रकार देखना शुरू कर दिया है, जैसे लोग देवताओं को देखते हैं और यह स्थिति अधिक देर तक नहीं टिक सकती। आन्तरिक रूप में वह वासुदेव से विदा ले चुका था, किन्तु वह फिर भी बातचीत करता जा रहा था।
जब वह अपनी बात समाप्त कर चुका तो वासुदेव ने किंचित शिथिल दृष्टि से उसकी ओर देखा। वह बोला नहीं, किंतु उसकी मुखाकृति से प्रेम और सौमनस्य, सद्भावना और ज्ञान प्रकीर्ण हो रहा था। उसने सिद्धार्थ का हाथ पकड़ लिया, उसी नदी के तट पर बैठने के स्थान पर ले गया, उसके निकट बैठ गया और नदी को देखकर मुस्कराने लगा।
"तुमने उसे हँसते हुए सुना है," उसने कहा, "लेकिन तुमने अभी तक सब-कुछ नहीं सुना है। आओ, हम दोनों सुनें। निश्चय ही तुम बहुत-कुछ सुन सकोगे।"
वे दोनों सुनने लगे। अनेक स्वरों से संयुक्त नदी की ध्वनि कोमल स्वर से प्रतिध्वनित होने लगी। सिद्धार्थ ने नदी में देखा और उसे प्रवाहमान जल में अनेक तस्वीरें दिखाई देने लगीं। उसने अपने पिता को देखा, एकाकी, अपने पुत्र के लिए शोकाकुल; उसने अपने को भी देखा, एकाकी, अपने दूरंगत पुत्र के प्रति ममता से आबद्ध; उसने अपने पुत्र को भी देखा, हरेक अपने लक्ष्य पर एकाग्र, हरेक अपने लक्ष्य के वशीभूत, हरेक तकलीफ पाता हुआ। नदी का स्वर करुण था। वह लालसा और अवसाद से मिलकर गा रही थी, अपने लक्ष्य की ओर बहती हुई।
“क्या तुम सुन रहे हो?” वासुदेव की निःशब्द इष्टि ने पूछा। सिद्धार्थ ने पैर हिलाया।
“और अच्छी तरह सुनो!” वासुदेव फुसफुसाया।
सिद्धार्थ ने और अच्छी तरह सुनने की कोशिश की। उसके पिता की छवि, उसकी अपनी छवि और उसके बेटे की छवि सब बहकर एक-दूसरे में मिल गईं। कमला की छवि भी प्रकट हुई और आगे को बह गई। वे सब नदी का हिस्सा बन गए। यह उन सभी का लक्ष्य था, व्याकुल होना, इच्छा करना, तकलीफ सहना; और नदी का स्वर लालसा से भरा था, टीसते दुख से भरा, तृप्त न होने वाली इच्छा से भरा, तृष्णा से भरा। नदी अपने लक्ष्य की ओर बही जा रही थी। सिद्धार्थ ने नदी की शीघ्रता को देखा, जिसमें वह और उसके संबंधी और वे सारे लोग शामिल थे जिन्हें उसने कभी देखा था।
सारी लहरें और पानी जल्दी में था, तकलीफ़ज़दा, मंज़िलों, बहुत-सी मंज़िलों की ओर, झरने की ओर, सागर की ओर, धारा की ओर, महासागर की ओर और सभी मंज़िलें हासिल कर ली गई थी और हर मंज़िल के बाद दूसरी आती रही। पानी भाप बना और उठा, बारिश बना और फिर नीचे आया, सोता, नाला और नदी बना, फिर से बदला, फिर से बहा। लेकिन वह सालस, आकुल स्वर बदल चुका था। वह अब भी शोकाकुल, खोजता हुआ-सा गूँज रहा था, लेकिन दूसरे स्वर उससे आ मिले थे, खुशी और दुख के स्वर, भले और दुष्ट स्वर, हँसते और दुख मनाते स्वर, सैकड़ों स्वर, हज़ारों स्वर।
सिद्धार्थ सुनता रहा। वह अब एकाग्र होकर सुन रहा था, पूरी तरह तल्लीन, एकदम रिक्त, सब कुछ ग्रहण करता हुआ। उसे महसूस हुआ कि उसने अब सुनने की कला को पूरी तरह सीख लिया था। उसने बहुधा यह सब-कुछ पहले भी सुना था, लेकिन नदी के विभिन्न प्रकार के स्वर आज कुछ बदले हुए-से लगते थे। अब स्वरों की विभिन्नता उसे सुनाई पड़नी बन्द हो गई, रुदन और उल्लास के स्वर, बाल-स्वर और वयस्कस्वर सभी एक-समान सुन पड़ने लगे। वह सभी एक-दूसरे के अंग थे, तृष्णा में फँसे हुओं का शोक, ज्ञानियों का ज्ञान, घृणा-युक्त क्रोध की चीख और मरणासन्नों की कराहट-सभी एक-दूसरे के अंग बन गए थे। वह सभी एक-दूसरे के साथ बुने थे, उलझे थे और हज़ारों तरीके से गुंथे हुए थे। और ये सभी स्वर, ये सभी लक्ष्य, ये सभी अभिलाषाएँ, ये समस्त विषाद, ये सभी हर्ष, यह समस्त सद् और असद, ये सभी चीजें मिलकर संसार बनती थीं। ये सभी मिलकर घटनाओं का तारतम्य बनाती थीं और इन सभी से जीवनसंगीत का निर्माण होता था। जिस समय सिद्धार्थ ने ध्यानपूर्वक इस नदी को सुना, इन सहस्रों स्वरों के गायन को सुना, जब उसे दु:ख और हास्य सुनाई पड़ने बन्द हो गए, जब उसने किसी एक स्वर से अपनी आत्मा को बाँधना बन्द कर दिया और अपने स्वर में उसे सहेजना बन्द कर दिया लेकिन समस्त स्वरों को सुनना प्रारम्भ कर दिया, सम्पूर्ण को, पूर्णक्य को, तब उन सहस्रों स्वरों के महान् संगीत से एक शब्द बना, ओ३म्-सम्पूर्णत्व।
"क्या तुम सुन रहे हो?" वासुदेव की दृष्टि-संकेत ने पुनः प्रश्न किया।
वासुदेव की मुस्कान आभायुक्त थी, उसके मुखमण्डल की समस्त सलवटों के ऊपर वह मँडरा रही थी, नदी के समस्त स्वरों के ऊपर ओ३म् मँडरा रहा था। जिस समय वह अपने मित्र की ओर देखता तो उसकी मुस्कराहट से एक आभा विकीर्ण होती थी, अब वही मुस्कान सिद्धार्थ के मुखमण्डल पर भी उदित हो चुकी थी, उसका घाव भर रहा था। उसकी पीड़ा अन्तर्धान हो रही थी, उसका स्वर पूर्णैक्य में विलीन हो रहा था।
उस क्षण से सिद्धार्थ ने अपने भवितव्य से जूझना बन्द कर दिया। उसके मुखमण्डल पर ज्ञान की दिव्यता आविर्भूत हो चुकी थी, उसके समान जिसके अन्तर में आकांक्षाओं का संघर्ष नहीं होता, जो मुक्ति का वरण कर चुका होता है, घटनाओं के तारतम्य से, जीवन की धारा से एकलय हो चुका होता है, जो स्वयं सहानुभूति और अनुकम्पा हो चुका होता है, जिसने धारा के प्रति अपना उत्सर्ग कर दिया होता है, जो समस्त वस्तुओं की एकता का अंग बन चुका होता है।
नदी के तट पर अपने स्थान से वासुदेव उठ खड़ा हुआ। जब उसने सिद्धार्थ की आँखों में देखा, और ज्ञान की विभूति उनमें चमकती हुई दीखी, तो उसने अपने दयालुतापूर्ण अभिभावक-कर से उसका स्कन्ध स्पर्श किया और कहा, "मैंने इसी क्षण की आज तक प्रतीक्षा की थी मेरे मित्र, अब समय आ पहुँचा, मुझे जाने दो। मैं वासुदेव नाविक बहुत दिन तक रह चुका। अब यह समाप्त होता है। अलविदा झोंपड़ी! अलविदा नदी! अलविदा सिद्धार्थ !"
"मैं यह जानता था," उसने आहिस्ता से कहा, "क्या तुम वन की ओर प्रस्थान कर रहे हो?"
"हाँ, मैं वन की ओर जा रहा हूँ। मैं सम्पूर्ण तत्त्वों की एकता में निवास करने जा रहा हूँ," वासुदेव ने कहा। उसके चारों ओर आभा-मण्डल उदित हो गया था। और इस प्रकार वह चला गया। सिद्धार्थ उसे देखता रहा। एक महान् हर्ष और गम्भीरता से वह उसे देखता रहा, उसके शान्त पद-निक्षेप को, दीप्तिमान मुखमण्डल को और प्रकाशयुक्त उसकी समस्त देह को भी देखता रहा।
12 : गोविन्द
गोविन्द एक बार विश्राम करने के लिए उसी उद्यान में ठहरा, जो कमला नर्तकी ने भिक्षुओं को अर्पित कर दिया था। उसने लोगों को एक वृद्ध नाविक की चर्चा करते सुना जो कि वहाँ से एक दिन की यात्रा की दूरी पर रहता था और जिसे अनेक लोग एक 'पहुँचा हुआ' आदमी मानते थे। जिस समय गोविन्द ने यात्रारम्भ की तो वह नौका की ओर अग्रसर होने वाले मार्ग पर ही चला, उसके अन्तर में नाविक को देखने की उत्कण्ठा थी। हालाँकि उसने नियमपूर्वक अपना जीवन व्यतीत किया था और तरुण भिक्षुक उसकी आयु और सज्जनता के कारण उसे प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखते थे, तथापि उसके अन्तर में अभी तक बेचैनी थी और उसकी खोज अभी विराम-सन्धि को नहीं प्राप्त हुई थी।
वह नदी-तट पर आ पहुँचा और उसने नाविक से पार उतारने के लिए कहा। दूसरे तट पर पहुँचकर जब वह नौका में से उतरने लगे तो उसने वृद्ध नाविक से कहा, "तुम साधुओं और तीर्थयात्रियों के प्रति अत्यधिक भावना प्रकट करते हो, तुमने हम में से अनेक को पार उतारा है। क्या तुम स्वयं भी सत्य-पथ के खोजी नहीं हो?"
सिद्धार्थ के वृद्ध नेत्रों में मुसकान भर उठी। उसने कहा, "क्या तुम अपने को खोजी कहते हो, हे भद्र पुरुष! तुम जो कि आयु का अधिकांश भाग समाप्त कर चुके हो और गौतम के भिक्षुओं का चोला धारण करते हो?"
"मैं वास्तव में बूढ़ा हो चुका हूँ," गोविन्द ने कहा, "लेकिन मेरी खोज ने कभी विराम नहीं पाया। मैं कभी खोज करना बन्द भी नहीं करूंगा। मेरे भाग्य में सम्भवतः यही लिखा है। मुझे लगता है कि तुमने भी खोज की है। क्या तुम इस बारे में मुझसे कुछ बात करोगे, मित्र?”
सिद्धार्थ ने कहा, “मैं तुम्हें क्या कह सकता हूँ जिसका कोई मूल्य होगा, सिवा यह कि शायद तुम बहुत अधिक खोजते हो, कि अपनी खोज के परिणामस्वरूप तुम पाते नहीं।
“यह कैसे?” गोविन्द ने पूछा।
“जब कोई खोज रहा होता है,” सिद्धार्थ ने कहा, “तो बड़ी सरलता से होता यह है कि वह उसी चीज़ को देखता है जिसे वह खोज रहा होता है; वह कुछ भी पाने में सफल नहीं होता, कुछ भी आत्मसात करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि वह केवल उसी चीज़ के बारे में सोचता है जिसे वह खोज रहा है, क्योंकि उसके पास एक लक्ष्य है, क्योंकि वह अपने लक्ष्य से अभिभूत है। खोजने का मतलब है: एक लक्ष्य का होना; लेकिन पाने का मतलब है मुक्त होना, ग्रहण करने योग्य होना किसी लक्ष्य को सामने न रखना। तुम, भन्ते, शायद सचमुच एक अन्वेषक हो, क्योंकि अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के प्रयास में तुम बहुत-सी चीज़ें नहीं देखते जो तुम्हारी नाक के नीचे हैं। ”
"मैं अब भी पूरी तरह नहीं समझा,” गोविन्द ने कहा, “क्या मतलब है तुम्हारा?”
सिद्धार्थ ने कहा, “एक बार, भन्ते, बहुत साल पहले तुम इस नदी पर आये थे और तुमने एक आदमी को यहाँ सोते पाया था। तुम उसके सोने के दौरान उसकी रक्षा करने के लिए उसके पास बैठे थे, पर तुमने सोते हुए आदमी को नहीं पहचाना था, गोविन्द।”
चकित और मंत्रमुग्ध व्यक्ति की तरह, भिक्षु उस माँझी को देखता रहा।
“क्या तुम सिद्धार्थ हो?” उसने दबी हुई आवाज़ में पूछा। “मैंने इस बार भी तुम्हें नहीं पहचाना। मैं तुम्हें फिर से देखकर बहुत खुश हूँ, सिद्धार्थ! तुम बहुत बदल गए हो, मित्र। और अब तुम एक माँझी बन गए हो क्या?”
सिद्धार्थ खुले दिल से हँसा, “हाँ, मैं मॉँझी बन गया हूँ। कई लोगों को बहुत बदलना और तरह-तरह के परिधान धारण करने पड़ते हैं। मैं उन्हीं में से हूँ, मित्र।| तुम्हारा स्वागत है, गोविन्द, और मैं अपनी कुटिया में रात बिताने का न्योता तुम्हें देता हूँ।
गोविन्द रात्रि में झोंपड़ी में ठहर गया और उसी बिस्तर पर सोया, जहाँ वासुदेव सोया करता था। उसने अपनी युवावस्था के मित्र से अनेक प्रश्न किए और सिद्धार्थ के पास अपने जीवन के बारे में बताने के लिए बहुत-कुछ था।
जिस समय अगले दिन गोविन्द के विदा होने का समय आया, उसने किंचित झिझक के साथ कहा, "अपनी यात्रारम्भ करने के पूर्व, सिद्धार्थ, मैं तुमसे एक प्रश्न और पूछना चाहता हूँ। क्या तुम्हारा भी कोई सिद्धान्त है, कोई विश्वास या ज्ञान है, जिसे तुम मान्यता देते हो, जो तुम्हें जीवित रहने और सत्कर्म करने में सहायता करता है।"
सिद्धार्थ ने कहा, "तुम जानते हो, मित्र, कि जब मैं युवक था, जब हम जंगल में साधुओं के साथ रहते थे, मुझे सिद्धान्तों और शिक्षकों पर अविश्वास हो गया था और मैंने सदैव के लिए उनकी ओर पीठ कर ली थी। मेरा मस्तिष्क आज भी जीवन के उसी मोड़ पर है, हालाँकि, उस समय से, मेरे अनेक शिक्षक रह चुके हैं। एक सुन्दरी नर्तकी बहुत समय तक मेरी शिक्षिका रह चुकी है, एक अमीर व्यापारी और एक जुआरी भी। एक अवसर पर बुद्ध का एक भ्रमण करता हुआ भिक्षु भी मेरा शिक्षक रह चुका है। जिस समय मैं जंगल में सोया पड़ा था तो उसने मेरे पास बैठने के लिए अपनी यात्रा स्थगित कर दी थी। मैंने उससे भी कुछ सीखा है और मैं उसका कृतज्ञ हूँ, बहुत कृतज्ञ। लेकिन अधिकांश मैंने नदी से सीखा और अपने पूर्ववर्ती वासुदेव से। वह अत्यन्त सरल आदमी था, वह विचारक नहीं था, लेकिन गौतम की तरह उसने सत्य की उपलब्धि कर ली थी। वह पवित्रात्मा था, वह संत था।"
गोविन्द ने कहा, "मुझे ऐसा लगता है, सिद्धार्थ, कि तुम्हारी उपहास करने की आदत अब भी बनी हुई है। मुझे तुम्हारा विश्वास है और मैं जानता हूँ कि तुमने किसी गुरु का अनुसरण नहीं किया, लेकिन क्या तुम्हारा अपना कोई, अगर सिद्धान्त नहीं, तो विचार भी नहीं है। क्या तुम्हें ऐसे किसी ज्ञान की उपलब्धि नहीं हुई है जिससे तुम्हें जीवित रहने में सहायता मिली हो। मुझे बड़ा सुख होगा, यदि तुम उसके बारे में भी कुछ मुझे बता सकोगे।"
सिद्धार्थ ने कहा, "अवश्य, यहाँ-यहाँ, कुछ विचार तो मेरे मस्तिष्क में अवश्य आए हैं। कभी-कभी एक घण्टे अथवा कुछ इतने ही समय तक मुझे ज्ञान का भान भी हुआ है, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई अपने हृदय में जीवन का आभास पाता हो। अनेक विचार मेरे मन में आए हैं, लेकिन उनके बारे में कुछ भी बता सकना अत्यन्त कठिन है। लेकिन एक विचार यह है गोविन्द कि ज्ञान प्रसारणीय वस्तु नहीं है। यदि कोई बुद्धिमान् पुरुष बुद्धिमत्ता का प्रसारण करना चाहता है, तो यह प्रयास उपहासास्पद-सा प्रतीत होता है।"
"क्या तुम उपहास कर रहे हो?" गोविन्द ने पूछा।
"नहीं, मैं तो तुम्हें वही कुछ बता रहा हूँ जिसका मैंने अनुसन्धान किया है। ज्ञान दान दिया जा सकता है किन्तु बद्धिमत्ता प्रदान नहीं की जा सकती। मनुष्य उसे उपलब्ध कर सकता है, जी सकता है, और उसके द्वारा सुरक्षित रह सकता है, उसके द्वारा आश्चर्य उत्पन्न कर सकता है, किन्तु बुद्धिमत्ता का प्रसारण नहीं किया जा सकता, वह दिखाई नहीं जा सकती। जब मैं युवक था, तभी मुझे इसका सन्देह हुआ था, और इसी सन्देह से मुझे शिक्षकों ने दूर कर दिया। मेरे पास केवल एक विचार रहा है, गोविन्द तुम समझोगे कि मैं फिर मजाक करने लगा हूँ, या प्रलाप करने लगा हूँ, और वह विचार यह है कि प्रत्येक सत्य का विरोधी पक्ष भी समान रूप से सत्य है। उदाहरणार्थ, कि अगर कोई सत्य एकांगी है, तभी वह विचार और अभिव्यक्ति द्वारा शब्दों में बाँधा जा सकता है। प्रत्येक वह वस्तु जो शब्दों में विचारी और अभिव्यक्त की जा सकती है, वह एकांगी होतो है, सत्य का केवल एक पक्ष होगी, उसमें सम्पूर्णता, परिपूर्णता और एकता का सर्वथा अभाव होगा। जिस समय अर्हत बद्ध संसार के बारे में उपदेश करते हैं तो उन्हें भी संसार और निर्वाण, भाषा और सत्य, दुःख और मुक्ति नाम से रूपों में संसार को प्रस्तुत करना पड़ा है। यह बिना किए काम नहीं चल सकता, जिन्हें उपदेश करना होता है, उनके लिए यह विभाजन अपरिहार्य है। किन्तु संसार अपने आप जिसका स्थान हम में और हमारे चारों ओर है कभी भी एकांगी नहीं होता। कोई भी व्यक्ति अथवा कोई भी कार्य न तो पूर्णतः सांसारिक होता है और न पूर्णत: मुक्त; कोई भी आदमी न तो सर्वथा सन्त होता है और न पापी। यह केवल इस कारण प्रतीत होता है क्योंकि हमने यह मिथ्या धारणा बना ली है कि समय अपने आप में कोई यथार्थ वस्तु है। समय वास्तव नहीं है, गोविन्द! मैंने बार-बार यही अनुभव किया है। और अगर समय वास्तविक नहीं है तो फिर इस दुनिया और अनन्तता के बीच, दुख और आनन्द के बीच, अच्छाई और बुराई के बीच जो विमाजक रेखा जान पड़ती है, वह भी एक भ्रम है।”
“यह कैसे?” चकरा कर गोविन्द ने पूछा।
“सुनो, मित्र! मैं पापी हूँ और तुम पापी हो, लेकिन एक दिन पापी फिर से ब्रह्म हो जाएगा, एक दिन निर्वाण प्राप्त कर लेगा, एक दिन बुद्ध बन जाएगा। अब यह “एक दिन' भ्रम है; यह केवल एक तुलना है। पापी बुद्ध-सरीखी अवस्था की ओर नहीं अग्रसर है; वह विकसित नहीं हो रहा, हालाँकि हमारी सोच चीज़ों का बोध दूसरी तरह नहीं कर सकती। नहीं, वह संभावित बुद्ध पहले ही से पापी में मौजूद है; उसका भविष्य पहले ही वहाँ है। उसके, तुम्हारे, हर एक के संभावित प्रच्छनन बुद्ध को पहचाना जाना चाहिए। विश्व अपूर्ण नहीं है गोविन्द, न पूर्णता की ओर एक लम्बे पथ पर विकसित हो रहा है। नहीं, वह हर पल पूर्ण है; हर पाप पहले ही से अपने भीतर क्षमा लिये चल रहा होता है, सभी छोटे बच्चे सम्भावित बुड्ढे हैं, सभी शिशुओं के भीतर मृत्यु मौजूद होती है, सभी मरने वालों के भीतर अनन्त जीवन। एक आदमी के लिए यह देखना सम्भव नहीं है कि दूसरा पथ पर कितना आगे है; बुद्ध का अस्तित्व चोर और जुआरी में है; चोर ब्राहमण के भीतर मौजूद है। गहरी समाधि और ध्यान में समय को निरस्त करना सम्भव है, सम्भव है एक ही साथ सारे भूत, वर्तमान और भविष्य को देखना और तब हर चीज़ अच्छी है, हर चीज़ पूर्ण है, हर चीज़ ब्रहम है। इसलिए मुझे लगता है हर चीज़ जो मौजूद है वह अच्छी है-मृत्यु भी और जीवन भी, पाप भी और पुण्य भी, बुद्धि भी और मूर्खता भी। हर चीज़ ज़रूरी है, हर चीज़ को सिर्फ़ मेरी सहमति, मेरी हामी, मेरी स्नेह-मरी समझदारी की ज़रूरत है, फिर मेरे साथ सब ठीक है और कुछ भी मुझे नुकसान नहीं पहुँचा सकता। मैंने अपनी देह और आत्मा के माध्यम से सीखा कि मेरे लिए पाप करना ज़रूरी था कि मुझे वासना की आवश्यकता थी, कि मुझे धन-सम्पदा के लिए प्रयास करना ही था और मिचलाहट और हताशा की गहराइयों का अनुभव करना ही था, ताकि मैं उनका प्रतिरोध न करना सीख सकूँ, ताकि मैं दुनिया को प्यार करना सीख सकूँ और उसकी तुलना आगे फिर किसी प्रकार की इच्छित काल्पनिक दुनिया से, पूर्णता की किसी काल्पनिक छवि से न करूँ, बल्कि वह जैसी है उसे वैसा छोड़ दूँ उसे प्यार करूँ और उसका होने में खुशी महसूस करूँ। ये हैं कुछ विचार, गोविन्द, जो मेरे मन में हैं। ”
सिद्धार्थ ने नीचे झुककर ज़मीन से एक पत्थर उठाया और उसे अपने हाथ में ले लिया।
“यह,” उसने पत्थर को हाथ में लिये-लिये कहा, “एक पत्थर है और काल की किसी अवधि में यह शायद मिट्टी हो जाएगा और मिट्टी से यह पौधा, पशु या मनुष्य बन जाएगा। पहले मैंने यह कहा होता कि यह पत्थर सिर्फ़ एक पत्थर है; उसका कोई मूल्य नहीं, यह माया के संसार से जुड़ा है, लेकिन शायद परिवर्तन के चक्र में चूँकि यह मनुष्य और आत्मा भी बन सकता है, इसलिए इसका भी महत्त्व है। मैंने ऐसा ही सोचा होता। लेकिन अब मैं सोचता हूँ: यह पत्थर पत्थर है; यह पशु, ईश्वर और बुद्ध भी है। मैं इसलिए इसका आदर नहीं करता, क्योंकि यह एक चीज़ था और कुछ और चीज बन जाएगा, बल्कि इसलिए कि यह अर्सा पहले से हर चीज़ रहा है और हमेशा हर चीज़ है भी। मैं इसे पसन्द करता हूँ महज़ इसलिए कि यह एक पत्थर है, क्योंकि आज और अभी यह मुझे पत्थर लगता है। मैं इसकी हर सूक्ष्म रेखा और गड्ढे में, इसके पीलेपन में, इसके धूसर रंग में, इसकी कठोरता में, इसकी ध्वनि में जब मैं इसे ठकठकाता हूँ, इसकी सतह के सूखेपन और नमी में मूल्य और अर्थ देखता हूँ। ऐसे पत्थर हैं जो तेल या साबुन जैसे महसूस होते हैं, जो पत्तों या रेत जैसे दिखते हैं और हरेक अलग है और अपने निजी ढंग से ओम की पूजा करता है, इनमें से हरेक ब्रह्म है। उसी समय वह पूरी तरह पत्थर है, तेल जैसा या साबुन जैसा और यही है जो मुझे पसन्द आता है और अदभुत और पूजा के योग्य लगता है। लेकिन मैं अब इसके बारे में अब और कुछ नहीं कहूँगा। शब्द विचारों को बहुत अच्छी तरह व्यक्त नहीं करते। जैसे ही उन्हें व्यक्त किया जाता है, वे तत्काल कुछ अलग बन जाते हैं, थोड़े-से विकृत, थोड़े-से मूर्खतापूर्ण। और इस पर भी मुझे यह भी पसन्द है और उचित लगता है कि जो एक आदमी के लिए मूल्यवान और बुद्धिमानी से भरा है वह दूसरे को अर्थहीन लगता है।”
गोविन्द चुपचाप सुनता रहा था।
“तुमने मुझे पत्थर के बारे में क्यों बताया?” उसने छोटे-से अन्तराल के बाद हिचकिचाते हुए पूछा।
"मैंने ऐसा बिना किसी इरादे के किया। लेकिन शायद यह इस बात को उदाहरण के साथ समझाता है कि मुझे महज़ इस पत्थर और नदी और इन सारी चीज़ों से प्यार है जिन्हें हम देखते हैं और जिनसे हम सीख सकते हैं। मैं एक पत्थर से प्रेम कर सकता हूँ, गोविन्द, और एक पेड़ से या पत्र के टुकड़े से। ये चीज़ें हैं और हम चीज़ों से प्यार कर सकते हैं। लेकिन कोई शब्दों से प्यार नहीं कर सकता। इसलिए प्रवचन और सिद्धान्त मेरे किसी काम के नहीं हैं; उनमें कोई कठोरता नहीं, कोई कोमलता नहीं, कोई रंग नहीं, कोई कोने नहीं, कोई गंध नहीं, कोई स्वाद नहीं--उनमें शब्दों के सिवा कुछ भी नहीं। शायद यही है जो तुम्हें शान्ति पाने से रोकता है, शायद शब्द ही बहुत ज़्यादा है क्योंकि मोक्ष और सद्गुण, संसार और निर्वाण भी शब्द ही हैं, गोविन्द। निर्वाण कोई चीज़ नहीं है; निर्वाण सिर्फ़ शब्द है।”
गोविन्द ने कहा, “निर्वाण केवल एक शब्द ही नहीं है, मित्र; वह एक विचार है। ”
सिद्धार्थ ने बात जारी रखी, “वह एक विचार हो सकता है, लेकिन मुझे मानना पड़ेगा मित्र, कि मैं विचारों और शब्दों के बीच बहुत अन्तर नहीं कर पाता। सच पूछो तो, मैं विचारों को भी बहुत महत्त्व नहीं दे पाता। मैं चीज़ों को ज़्यादा महत्त्व देता हूँ। मिसाल के लिए, इस घाट पर एक आदमी था जो मेरा पूर्ववर्ती और गुरु था। वह एक पुण्यात्मा था जिसका बहुत वर्षों तक केवल नदी में विश्वास था और किसी चीज़ में नहीं। उसका ध्यान गया कि नदी का स्वर उससे बातें करता था। वह उससे सीखता; उसने उसे शिक्षित किया और सिखाया। नदी उसे ईश्वर के समान प्रतीत होती थी और अनेक वर्षों तक भी यह पता नहीं था कि प्रत्येक वायु, प्रत्येक बादल, प्रत्येक पक्षी और प्रत्येक गुबरैला भी समान रूप से ब्रह्मरूप है। और पुण्य सरिता के समान ज्ञान-सम्पन्न है और सिखा सकता है। किन्तु जिस समय वह पवित्रात्मा वन में जाने लगा, वह सब कुछ जानता था, वह तुमसे और मुझसे अधिक जानता था, बिना गुरु और ग्रन्थ की सहायता के सब कुछ जानता था, केवल इसलिए कि वह नदी में विश्वास करता था।"
गोविन्द ने कहा, "किन्तु वस्तु को तुम क्या कहते हो? इसमें क्या कुछ यथार्थ और सत्य निहित है? क्या वह भी माया की छलना मात्र नहीं है, केवल छवि अथवा स्वरूप मात्र । तुम्हारा पत्थर, तुम्हारा वृक्ष-क्या वे यथार्थ हैं?"
"इससे भी मुझे अधिक उलझन अनुभव नहीं होती," सिद्धार्थ ने कहा, "अगर ये छलना मात्र हैं, तो फिर मैं भी छलना मात्र हूँ, फिर भी वह उसी तत्त्व से बने सिद्ध होते हैं जिनसे मैं बना हूँ। यही कारण है जो उन्हें इतना अधिक प्रेम और आदर का पात्र बनाता है। यही कारण है कि मैं उन्हें प्यार करता हूँ। और इसे सिद्धार्थ भी कहा जा सकता है। जिसे सुनकर तुम हँसोगे। मुझे ऐसा लगता है, गोविन्द कि प्रेम का स्थान संसार में सर्वोपरि है। महान् विचारों के लिए दुनिया परीक्षा करने के लिए, उसे खुलासा करके रखने और उससे घृणा करने के लिए भी प्रेम आवश्यक हो सकता है, लेकिन मेरे विचार से संसार को प्यार करना ही उचित है, घृणा नहीं करनी चाहिए वरन् हमें ऐसा बनना चाहिए कि हम दुनिया को, मनुष्यमात्र को और प्राणीमात्र को अपना प्रेम, प्रशंसा और प्रतिष्ठा दे सकें।"
"मैं यह समझता हूँ," गोविन्द ने कहा, "लेकिन यही तो चीज़ है जिसे तथागत ने माया कहा है। वह सेवा, सहिष्णुता, सहानुभूति और सन्तोष की शिक्षा देते हैं, किन्तु प्रेम की नहीं।"
"मैं यह जानता हूँ," सिद्धार्थ ने उद्दीप्त मुस्कान में विभोर होते हुए कहा, "मैं यह जानता हूँ गोविन्द, और यहीं आकर हम अपने को अर्थ के विवाद और शाब्दिक संघर्ष में उलझा पाते हैं, क्योंकि मैं अस्वीकार नहीं करता कि प्रेम-विषयक मेरे शब्द स्पष्टतया गौतम के सिद्धान्त के विरुद्ध हैं। यही कारण है कि मैं शब्दों में इतना अविश्वास करता हूँ और उन्हें माया मानता हूँ। मैं जानता हूँ कि मुझ में और गौतम में पार्थक्य नहीं है। यह किस प्रकार सम्भव हो सकता है कि जिसने सम्पूर्ण मानवता की निःसारता और अनित्यता को जान लिया है और फिर भी मानवता को उतना प्रेम करता है कि केवल लोगों की सहायता करने और उन्हें सद्ज्ञान देने के लिए उसने अपना समूचा जीवन अर्पित कर दिया कि वह प्रेम को न जानता हो। इस महान् शिक्षक के बारे में भी यही कहना है कि उसके शब्दों से मुझे वह स्वयं अधिक प्रिय हैं, उसके कर्म और उसका जीवन मुझे उसके प्रवचनों की अपेक्षा अधिक प्रिय है, उसके हाथ का संकेत मेरे लिए उसकी सम्मति की अपेक्षा अधिक मूल्यवान प्रतीत होता है। वाणी और विचार से मैं उसे महान् आत्मा नहीं मानता, वरन् उसके कर्म और जीवन से मानता हूँ।"
दोनों वृद्ध कुछ देर तक शान्त रहे । गोविन्द क्योंकि जाने की तैयारी में था, उसने कहा, "अपने विचारों के बारे में इतना कुछ बताने के लिए मैं तुम्हारा आभार मानता हूँ, सिद्धार्थ। इनमें से कुछ तो बहुत ही विचित्र हैं। तत्काल वह मेरी समझ में भी नहीं आते। तथापि मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ और कामना करता हूँ कि तुम अनेक शान्तिपूर्ण दिवस व्यतीत करो।"
तथापि आन्तरिक रूप से उसने सोचा-सिद्धार्थ बड़ा विचित्र आदमी है और वह बड़े अजीब विचार प्रकट करता है। उसके विचार पागलपन से प्रतीत होते हैं। तथागत के सिद्धान्त इससे कितने विभिन्न प्रतीत होते हैं। वे कितने स्पष्ट हैं, सीधे, बुद्धिगम्य हैं, उनमें कितनी विचित्रता, कितनी वहशत और हास्यास्पदता है, लेकिन सिद्धार्थ के हाथ, पैर, आँखें, भौंहें, उसकी साँस, उसकी मुस्कान, उसकी अभ्यर्थना और व्यक्तित्व उसके विचारों से कितने विभिन्न प्रतीत होते हैं। गौतम बुद्ध के बाद से आज तक किसी भी आदमी को देखकर मैंने यह अनुभव नहीं किया कि यह महानात्मा है। उसके विचार विचित्र हो सकते हैं, उसके शब्द मूर्खतापूर्ण प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन उसकी दृष्टि और उसके हाथ; उसकी त्वचा और उसके केश सभी से एक पवित्रता, शान्ति, सभ्रान्ति, कमनीयता और सन्तपन टपकता है। गौतम बुद्ध की मृत्यु के बाद आज तक किसी में भी ऐसी दिव्यता मुझे दिखाई नहीं दी।
जिस समय गोविन्द इन विचारों में तल्लीन था और उसका हृदय संघर्ष से भरा था वह सिद्धार्थ के सम्मुख झुक गया, हृदय उसके प्रति प्रेम से भरा था। वह प्रशान्त भाव से बैठे हुए वृद्ध पुरुष के सम्मुख काफ़ी नीचे तक झुकता चला गया।
"सिद्धार्थ," उसने कहा, "अब हम बूढ़े हो चुके हैं। शायद इस जीवन में हम एक-दूसरे को फिर कभी न देख सकें। मैं यह देख रहा हूँ, मेरे प्रिय मित्र कि तुम्हें शान्ति मिल चुकी है। मैं अनुभव करता हूँ कि मुझे अभी तक वह प्राप्त नहीं हो सकी है। मुझे एक बात और बताओ मेरे आदरणीय मित्र, कोई ऐसी बात जिसे मैं सोच सकूँ, जिसे मैं समझ सकूँ, मुझे अपने मार्ग पर अग्रसर होने के लिए सम्बल रूप कुछ दो सिद्धार्थ। मेरा मार्ग बहुधा कठिन और अंधकार-युक्त प्रतीत होता है।
सिद्धार्थ मौन था और प्रशान्त मुद्रा से उसकी ओर देख रहा था। गोविन्द दृढ़तापूर्वक उसके मुखमण्डल को देख रहा था, उसके अन्तर में बेचैनी थी, अभिलाषा थी। कष्ट सतत खोज, सतत असफलता उसकी मुद्रा पर स्पष्ट अंकित हो उठे थे।
सिद्धार्थ ने यह देखा और वह मुस्कराने लगा।
"मेरे पास आओ," उसने गोविन्द के कान में फुसफुसाया, "और भी निकट आओ, बिलकुल ही निकट, और मेरे मस्तक का चुम्बन करो, गोविन्द।"
गोविन्द यह सुनकर सकपकाया, परंतु अपने मित्र के प्रति महान् प्रेम और पूर्वाभास होने के कारण उसने उसके आदेश का पालन किया, वह उसके निकट झुक गया और अपने होंठों से उसके मस्तक का स्पर्श किया।
ज्योंही उसने ऐसा किया उसको सहसा कुछ विलक्षण आभास हुआ। हालाँकि अपने मन में अभी तक वह सिद्धार्थ के विचित्र शब्दों पर विचार कर रहा था और समय सम्बन्धी धारणा को दूर करने का असफल प्रयत्न कर रहा था, निर्वाण और संसार को एक ही समझने का यत्न कर रहा था, हालाँकि उसके शब्दों के प्रति मन में उत्पन्न हो उठने वाली घृणा अब भी उसके प्रति प्रेम और आदर से संघर्ष कर रही थी, यह विलक्षण आभास फिर भी उसे हुआ।
वह अब अपने मित्र सिद्धार्थ का चेहरा नहीं देख पा रहा था। इसके बदले उसने दूसरे चेहरे देखे, बहुत-से चेहरे, चेहरों की एक लम्बी श्रृंखला, एक अनवरत धारा—सैकड़ों, हज़ारों जो सब के सब आए और लुप्त हो गए और तिस पर भी सब उसी समय वहाँ उपस्थित भी जान पड़ते थे, जो सब निरन्तर बदल रहे थे और अपने को फिर से नया कर रहे थे और जो इसके बावजूद सब-के-सब सिद्धार्थ थे। उसने डरावने, पीड़ा से विकुंचित मुँह वाली एक मछली, एक शफरी का चेहरा देखा, बुझी-बुझी आँखों वाली एक मरती हुई मछली। उसने एक नये जन्मे शिशु का चेहरा देखा, लाल और झुर्रियों से भरा, रोने को तैयार। उसने एक हत्यारे का चेहरा देखा, उसे एक आदमी के शरीर में छुरा भोंकते देखा, उसी पल उसने इस अपराधी को घुटनों के बल, बँधे हुए बैठे देखा और उसके सिर को वधिक द्वारा काटे जाते। उसने आवेग-भरे प्रणय की मुद्राओं और विभोरता में लीन पुरुषों और स्त्रियों के नग्न शरीर देखे। उसने शव देखे, लेटे हुए, निश्चल, ठंडे, रिक्त। उसने पशुओं के सिर देखे, जंगली शूकर, मगरमच्छ, हाथी, बैल, पक्षी। उसने कृष्ण और अग्नि को देखा। उसने इन सारे रूपों और मुखाकृतियों को एक-दूसरे के साथ हज़ारों सम्बन्धों में देखा, सब एक-दूसरे की मदद करते हुए, एक-दूसरे को प्यार करते हुए, नफ़रत करते और नष्ट करते हुए और नये जन्म लेते हुए। हरेक उस सबका, जो अस्थायी और नश्वर है, एक मरणधर्मा, आवेग-भरा, पीड़ादायक उदाहरण था। तिस पर भी उनमें से एक भी मरा नहीं, वे सिर्फ़ बदलते रहे, हमेशा फिर से जन्म लेते रहे, लगातार एक नये चेहरे के साथ: एक चेहरे और दूसरे चेहरे के बीच सिर्फ़ समय मौजूद रहा। और ये सभी रूप और मुखाकृतियाँ रुकतीं, बहतीं, फिर से जन्मतीं, तैरती चली जातीं और एक-दूसरे में मिल जातीं और उन सबके ऊपर लगातार कुछ था—पतला, अवास्तविक और इस पर भी अस्तित्वमान—पतले काँच या बर्फ़ की तरह, पारदर्शी त्वचा, छिलके, रूप या पानी के मुखौटे की तरह आर-पार फैला हुआ—और यह मुखौटा सिद्धार्थ का मुस्कराता चेहरा था जिसे उस पल गोविन्द ने होंटों से छुआ था। और गोविन्द ने देखा कि यह मुखौटे जैसी मुस्कान, बहते हुए रूपों के ऊपर एकता की यह मुस्कान, हज़ारों जन्मों और मौतों के ऊपर यह एककालिकता की मुस्कान—सिद्धार्थ की यह मुस्कान—हू-ब-हू वैसी ही थी जैसी गौतम बुद्ध की शान्त, सुकुमार, अभेद्य, शायद कृपालु; शायद उपहास-भरी, प्रज्ञावान, हज़ार-गुना मुस्कान, जैसी उसने विस्मय के साथ सैकड़ों बार अनुभव की थी। गोविन्द को मालूम था कि इसी ढंग से तथागत मुस्कराते थे।
उसे यह चेतना न रह गई थी कि समय का अस्तित्व है भी या नहीं, कि यह प्रदर्शन एक निमेष के लिए हुआ था या सौ वर्ष तक, कि उसके सम्मुख सिद्धार्थ उपस्थित था, या गौतम या आत्मा, या कुछ और। इस अलौकिक तीर से बिंधकर जिसकी पीड़ा से उसे आह्लाद हो रहा था, मुग्ध और तुरीयावस्था को प्राप्त गोविन्द, सिद्धार्थ के प्रशान्त मुख पर झुका हुआ रह गया, जिसे उसने अभी-अभी चूमा था और जो अभी-अभी समस्त वर्तमान और भावी स्वरूपों का पटल बन चुका था। इस सहस्र रूप मुकुर के अन्तर्धान हो जाने के बाद भी उसकी मुद्रा बदली नहीं। एक शान्ति और मुस्कान उसके चेहरे पर अंकित थी, सम्भवतः उत्पन्न दयालुतापूर्ण सम्भवतः अत्यन्त व्यंग्यमयी, ठीक वैसी ही गौतम के मुख पर विराजती थी।
गोविन्द नीचे झुक गया। एक अजस्र अश्रुधारा उसके वृद्ध मुखमण्डल से बह उठी। एक महान् प्रेम, अति विनम्र आदर-भावना से वह अभिभूत हो उठा। वह नीचे झुका, उसका मस्तक पृथ्वी तक पहुँच गया, उस मनुष्य के समीप जो निश्चेष्ट आसीन था, जिसकी मुस्कान उसे प्रत्येक वस्तु का स्मरण कराती, जिसे उसने अभी भी जीवन में प्यार किया है, उस प्रत्येक वस्तु की जिसे उसने अमरत्व और पवित्र समझा है।