सिद्धार्थ (उपन्यास) : हरमन हेस

Siddhartha (German Novel in Hindi) : Hermann Hesse

('सिद्धार्थ' उपन्यास आज के विषण्णमना मानव के लिए समस्त सनातन प्रश्नों का उद्घाटन करता है जो कि उसके मानस को झकझोर कर चेतन तत्व से भर देते हैं मूल रूप से स्विस भाषा में लिखित इस उपन्यास के लेखक को 1946 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वास्तव में इस शताब्दी में प्रणीत ऐसी थोड़ी-सी पुस्तकें हैं जिन्हें साश्वत साहित्य की कोटि में रखा जा सके। इस उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते पाठक की अन्तर्दृष्टि जागरुक हो उठती है और उसके ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं। सिद्धार्थ एक प्रकाश स्तंभ के समान मनुष्यों की जीवन-दशा को स्थिर रखने में सहायक सिद्ध हो सकेगा, ऐसा विश्वास है।

 यह उपन्यास उस कोटि की साहित्यिक कृति है जो अनेक राजनीतिक मतवाद, प्रत्येक सामाजिक विधान, अर्थतंत्र अथवा संस्कृति के ढांचे पर कसी जाकर अपनी प्रेरक बोध-शक्ति लेशमात्र भी नहीं खोती और उपन्यास का नायक सिद्धार्थ जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरता हुआ उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसे दार्शनिकों की भाषा में स्थित प्रश्न कहा जाता है। उपन्यासकार हरमन हेस ने इस उपन्यास में पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिकता का अपूर्व समागम किया है। इस उपन्यास में भारतीय वेदान्त को जीवन के सच्चे जीवन-दर्शन के रूप में अंगीकार किया गया है। उपन्यास की भाषा सरल और भावप्रण है। कला और भाव पक्ष-दोनों का इस उपन्यास में अपूर्व सम्मिश्रण किया गया है।)

अनुवादक के शब्द

यह उपन्यास जिस समय पाठक पढ़ता है तो आनन्द से मन गदगद हो उठता है। ज्ञान और आनन्द, विचार और साधना से युक्त सिद्धार्थ की दृष्टि जब पाठक की दृष्टि बनती है तो थका देनेवाला कोलाहलमय संसार-व्यापार एक स्वाभाविक और आनन्दयुक्त जीवन दीख पड़ने लगता है-ईर्ष्या, द्वेष, घृणामत्सर से अतीत, प्रेम और सुख से परिपूर्ण। इस ग्रन्थ के अनुवाद के पीछे भी इसी प्रेरक भावना ने काम किया है।

आज के संघर्ष और स्पर्धा से युक्त गत्यात्मक-प्रिय युग में बहुधा लोग यह प्रश्न उठाना भी भूल जाते हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ? हम पैदा होते हैं, बढ़ते और जरा से एक ही झोंके से सूखी कली के समान झर जाते हैं ! जीवन-मरण का यह व्यापार कौन-से रहस्य से घिरा हुआ है और इसे माया के आवरण को विदीर्ण करके कैसे हम अपने ज्ञान चक्षुओं को प्रकाशमान करें ?

सिद्धार्थ आज के विषण्णमना मानव के लिए इन समस्त सनातन प्रश्नों का उद्घाटन कर देता है जो कि उसके मानस को झकझोरकर चेतन तत्त्व से भर लेते हैं। तब, मनुष्य संसार की व्यापक मशीन का एक पुर्जामात्र न रहकर एक जागरूक, प्रबुद्ध और चिन्मय प्राणी हो जाता है, जिसका काम समय के आवर्तन-प्रतिवर्तन के साथ भटकना-मात्र नहीं होता, वरन् समय को एक सुनिश्चित दिशा देता है और बिखरे हुए जीवन-क्रम को एक विवेकपूर्ण योजना प्रदान करता है।
‘सिद्धार्थ’ मूलत: स्विस भाषा में लिखा गया उपन्यास है। सन् 1946 में इस लघु ग्रन्थ पर लेखक को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। लगभग पचास वर्ष से समस्त यूरोपीय साहित्य में सिद्धार्थ की धूम है और अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।

‘सिद्धार्थ’ नाम होने से इस उपन्यास के गौतम बुद्ध का चरिताख्यान होने का भ्रम होता है। पर इस उपन्यास को चरितनायक सिद्धार्थ नाम का एक ब्राह्मण युवक है जो बुद्ध का समकालीन था। एक बार बुद्ध से उसका साक्षात्कार भी हुआ था। ब्राह्मण-पुत्र सिद्धार्थ का जीवन प्रारम्भ से ही व विद्रोही था। बचपन में एक ब्राह्मण-पुत्र की तरह शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की। वह सुन्दर था, प्रतिभावान और तेजस्वी था। उसके प्रचण्ड, तेज और प्रकाण्ड ज्ञान के सम्मुख बड़े-बड़े दिग्गज पंडित निरुत्तर हो जाते, पर वह स्वयं इस ज्ञान की श्रृंखला में उलझता जाता था। अपने बालमित्र गोविन्द के साथ वह यज्ञोपासना इत्यादि कर्मकाण्ड में निरत रहता, पर उसके अन्तर की जिज्ञासा निरन्तर तीव्र होती जाती कि आखिर इस समस्त ज्ञान-विज्ञान, यज्ञ और उपासना का अन्त क्या है। बुद्ध की तरह वह भी जीवन का परम सत्य जानना चाहता था और इसीलिए एक दिन जब कुछ श्रमणों के साथ चला जाता है। श्रमणों की संगति में घोर तपस्या करने के उपरान्त भी उसकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती। हठ-योग की साधना में अनेक विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने पर भी श्रमणों के संग को छोड़कर वे दोनों मित्र बुद्ध के दर्शन करने जाते हैं। गोविन्द भिक्षु बन जाता है। परन्तु सिद्धार्थ को शिष्यत्व कबूल नहीं होता। सिद्धार्थ अपने ही तरीके से जीवन-सत्य की खोज में आगे बढ़ जाता है। तथापि बुद्ध के विराट और भव्य व्यक्तित्व को देखकर सिद्धार्थ अभिभूत होता है, परन्तु बुद्ध का मार्ग उसे स्वीकार्य नहीं होता। गोविन्द से बिछड़कर वह पुन: नागरिक जीवन में प्रवेश करता है। सुन्दरी नर्तकी कमला से वह प्रेम करता है। वह सांसारिक सुख में डूब जाता है। धन-वैभव, भोग-विलास के जीवन से भी एक दिन उसे विरक्ति होती है और अपने प्राणों से प्यारी कमला को भी छोड़कर अपने मार्ग पर बढ़ जाता है।

जब वह अपने बीते जीवन का सिंहवलोकन करता है तो उसे बुद्ध के उपदेश की याद आती है। वह अपने जीवन के प्रति धिक्कार और ग्लानि से भर उठता है, नदी में डूबकर आत्महत्या करना चाहता है, परन्तु अपने चिरपरिचित ‘ओउम्’ के उच्चारण से उसे जैसे जीवन-दान मिलता है। नदी उसे उबार लेती है। अब वह बूढ़े नाविक वासुदेव के साथ रहता है। वासुदेव एक ऐसा एकान्तसाधक है जो नदी से प्रेरणा लेता है। नदी के स्वर में ही उसे जीवन का समस्त ज्ञान-बोध
होता है। अन्त में सिद्धार्थ भी अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न होकर ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण होता है।

इस शताब्दी में प्रणीत ऐसी थोड़ी ही पुस्तकें हैं जिन्हें शाश्वतसाहित्य की कोटि में रखा जा सके। ‘सिद्धार्थ’ पढ़ते-पढ़ते पाठक की अन्तर्दृष्टि जागरूक हो उठती है और उसके ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं। जीवन के उस हाहाकार में जहाँ क्षुद्र स्वार्थों के लिए मनुष्य अपने स्व को भूलकर अनेक पाशविक वृत्तियों का शिकार होता है, सिद्धार्थ एक प्रकाश-स्तम्भ के समान उसकी जीवन-दिशा को स्थिर करने में सहायक होता है। ‘सिद्धार्थ’ उस कोटि की साहित्य-कृति है जो प्रत्येक राजनीतिक मतवाद, प्रत्येक सामाजिक विधान, अर्थतन्त्र अथवा संस्कृति के ढाँचे पर कसी जाकर अपनी प्रेरक बोध-शक्ति लेशमात्र भी नहीं खोती।

उपन्यास का नायक सिद्धार्थ जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरता हुआ उस अवस्था को पहुँच पाता है जिसे दार्शनिकों की भाषा में स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

यह एक विलक्षण बात है कि श्री हरमन हेस ने भारतीय इतिहास के उस काल को उपन्यास की पृष्ठभूमि के रूप में ग्रहण किया है जबकि भारतीय दर्शन का क्षितिज गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर की प्रखर प्रतिभा से आलोकित था और बड़े ही सहज भाव से तत्त्कालीन संस्कृति और लोकाचार का चित्रण किया गया है। सिद्धार्थ के इस जीवन की कल्पना सम्भवत: लेखक के अपने मानस की कल्पना हो जो उन्होंने गौतम बुद्ध के बारे में की है। इस कारण इस उपन्यास में पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिकता का अपूर्व समागम हुआ है। इस उपन्यास में भारतीय वेदान्त को जीवन के सच्चे जीवन-दर्शन के रूप में अंगीकार किया गया। जैन और बौद्ध दर्शन पर बहुत ही मासूमियत से विचार करते हुए उनकी महान जीवनी-शक्ति का सार-संचयन करके यह स्पष्ट किया गया है कि अनेक जीवन-दर्शनों में जो ज्ञान-गरिमा समाविष्ट है वह विरोधी नहीं वरन् एक दूसरे की पूरक है।

उपन्यास की भाषा अत्यन्त सरल है और भावों की सम्पदा अमूल्य है।
भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित होने के कारण हिन्दी में ‘सिद्धार्थ’ पूरी तरह मौलिक ग्रन्थ प्रतीत हो, इसकी भरसक चेष्टा की गई है। इस प्रयत्न में जहाँ असफलता रह गई हो, उसे पाठक अनुवादक की ही त्रुटि समझें, क्योंकि उसके उचित भारतीयकरण का दायित्व स्वयं लेखक से भी अधिक हमारा हो जाता है।
केवल पाठकों के लिए ही नहीं, लेखक बन्धुओं के लिए भी ‘सिद्धार्थ’ पलक उघाड़ने वाली रचना है क्योंकि विदेशी लेखक भारतीय इतिहास और दर्शन से महान् साहित्य-मूर्तियाँ अपने साँचे में गढ़कर महान् और शाश्वत साहित्य की रचना कर रहे हैं-जबकि हमारी नज़र में वहाँ कोई चीज़ सारवान दीख ही नहीं पड़ती।

-महावीर अधिकारी

1 : ब्राह्मण-पुत्र

घर की छाया में, नदी के तट पर नौकाओं में तथा सन्दल और अञ्जीर के वृक्षों के नीचे बाल-सुलभ क्रीड़ाएँ करते हुए सुन्दर ब्राह्मण-पुत्र सिद्धार्थ अपने बालमित्र गोविन्द के साथ आयुष्मान होने लगा। नदी-तट पर खेलने के कारण, पवित्र-स्नान करते-करते और यज्ञ में सम्मिलित होने के कारण उसके कृष-स्कन्ध सूर्य-किरणों से तप गए थे। जिस समय वह आम्र-कुञ्जों में खेलता होता, उसकी माता संकीर्तन करती होती, उसके पिता प्रवचन करते होते अथवा वह विद्वानों के साथ सत्संग करता होता, तो छाया उसके नेत्रों के आर-पार घूम जातीं। विद्वानों से सम-लाप करते हुए उसे काफी समय हो गया था और अपने मित्र गोविन्द के साथ शास्त्रार्थ तथा विचार और ध्यान करने की उसकी साधना भी बहुत लम्बी हो चली थी। शब्दों के शब्द ओउम् का मौन उच्चारण भी उसे सिद्ध हो गया था-प्राण-वायु के आयाम और निर्याण के साथ अपनी आत्मा में इस शब्द की झंकृति भी वह अनुभव कर सकता था। पवित्र-आत्मा की दीप्ति उसकी भौहों में प्रकाशमान होती थी। अपने अस्तित्व के अन्तराल में अविनाशी, सर्वव्यापी आत्मन् को वह अनुभव कर सकता था।

अपने पुत्र को देखकर ब्राह्मण के हृदय में आह्लाद होता, क्योंकि वह मेधावी और ज्ञान-पिपासु था और विश्वास था कि वह एक महान् विद्वान बनेगा, धार्मिक पुरुष और ब्राह्मण-कुल शिरोमणि होगा।

जब उसकी माँ उस हृष्टपुष्ट, सुन्दर सिद्धार्थ को चलते, बैठते-उठते हुए देखती, जो पूरे आदर के साथ उसका अभिवादन करता हुआ, अपने छोटे-छोटे पैरों से चलता उसके पास से गुज़रता, तो उसकी छाती में आनन्द की हिलोर उठने लगती।

जिस समय सिद्धार्थ नगर-पथ से गुजरता, तो उसकी ऊँची भौहों, उसके राजपुरुषोपम नेत्रों और छरहरी देह को देखकर ब्राह्मण-कुमारियों के हृदयों में प्रेम की तरंगें मचल उठतीं।

उसका मित्र, गोविन्द, उसे सबसे अधिक प्रेम करता था। वह सिद्धार्थ की आँखों और उसके सुस्पष्ट स्वर को प्यार करता था। उसके चलने के ढंग, उसके देहान्दोलन की शालीनता उसे प्रिय थी, जो कुछ भी सिद्धार्थ करता अथवा कहता, वही उसे प्रिय होता और सबसे अधिक उसकी मेधा, भावुकतापूर्ण विचार, दृढ़ इच्छा-शक्ति और उच्च धार्मिकता के प्रति उसका अनुराग था। गोविन्द जानता था कि वह साधारण ब्राह्मण नहीं बनेगा-सामान्य याज्ञिकों, जादू-टोने की कथाओं से टके बनाने वाले लालची ब्राह्मणों अथवा घमंडी मूर्ख वक्ताओं, दुष्ट कुटिल पुजारियों अथवा अनेक भेड़ों के झुण्ड में की एक भली-चंगी भेड़ के समान जीवन व्यतीत करना उसका काम नहीं होगा। और वह स्वयं भी अपनी किस्म के उन दस ब्राह्मणों में से किसी भी एक के समान बनना नहीं चाहता था, वह सर्वप्रिय महामहिम सिद्धार्थ का अनुवर्ती बनने का आकांक्षी था। और यदि कभी सिद्धार्थ देवत्व को प्राप्त होकर स्वर्ग में निवास करेगा, तो गोविन्द उसके मित्र की हैसियत से उसके अनुचर, उसके दण्ड-वाहक और उसकी छाया के रूप में ही उसके साथ प्रवेश करने का आकांक्षी था।

इस प्रकार सिद्धार्थ सभी का प्रेम-पात्र था और वह भी सभी को प्रसन्न करता और सभी को सुख प्रदान करता था।

लेकिन सिद्धार्थ स्वयं सुखी नहीं था। अजीर की वाटिका में गुलाबपुष्पों से कुसुमित पथों पर जब वह भटकता, कुञ्जों की सुनील छाया में जब वह ध्यान करता होता अथवा चाहे वह आत्मशुद्धि के लिए पवित्र-स्नान करता होता, या आम्र-उद्यान की घनी छाया में बैठा हुआ यज्ञ करता होता तो अपनी सौम्यता और शालीनता से वह सभी के दिलों में अनुराग और उछाह पैदा करता, किन्तु स्वयं उसके हृदय में आह्लाद नहीं था। नदी से स्वप्न और विकलता से भरे विचार उसे अपनी ओर उमड़ते दीख पड़ते, रात्रि में टिमटिमाते हुए तारों और सूर्य की अस्तोन्मुखी किरणों से भी स्वप्न और विकलता उसे अपनी ओर अग्रसर होती दीख पड़ती। स्वप्न और आत्मा की वेदना उसे यज्ञ के धूएँ, ऋग्वेद के मन्त्रों और वयो-वृद्ध ब्राह्मणों के उपदेशों में से निकलती दिखाई पड़ती।

सिद्धार्थ के अन्तर में असन्तोष के अंकुर उगते दीख पड़ते थे। उसने यह अनुभव करना शुरू कर दिया था कि उसके पिता और माता का प्रेम, उसके मित्र गोविन्द का प्रेम, सदैव ही उसे सुख प्रदान नहीं करता रह सकेगा, उसे शान्ति, सन्तोष नहीं देता रह सकेगा। और न ही वह उसमें आत्मतुष्टि पा सकेगा। उसे यह सन्देह होने लगा था कि यद्यपि उसके सुयोग्य पिता और अनेक विद्वान् ब्राह्मणों ने अपना सम्पूर्ण और श्रेष्ठतम ज्ञान इस रिक्त पात्र में उंडेल दिया है तथापि यह पात्र अभी अपूर्ण ही बना है, उसकी बौद्धिकता को अभी संतोष नहीं मिला था, उसकी आत्मा को शान्ति नहीं मिली थी और उसका हृदय शान्त नहीं था। पवित्र स्नान अच्छा था, परंतु वह पानी ही तो था, स्नान से पाप तो नहीं धोये जा सकते थे और स्नान संतप्त हृदय को सुखी तो नहीं कर सकते थे। यज्ञ और देव-पूजन अच्छे हैं, पर क्या वही सब कुछ है? क्या यज्ञ से सुख मिल सकता है? और देवताओं का क्या? क्या प्रजापति ने इस विश्व की सृष्टि की थी? क्या आत्मा से ही समस्त सृष्टि की रचना नहीं हुई? क्या देवों का स्वरूप मेरी और आपकी ही तरह का नहीं है, जरा और मरण के बन्धन से बँधा हुआ। मनुष्य किसके लिए यज्ञाहुति अर्पित करे, उस एक के अतिरिक्त जो आत्मा है और किसी अन्य की उपासना करने से लाभ! और आत्मा को कहाँ खोजा जाय, उसका निवास स्थान कहाँ है? उसका सनातन हृदय कहाँ धड़कता रहता है, अगर वह आत्मा में, हृदय के अन्तरतम प्रदेश में नहीं है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर में उसी एक शाश्वत् के अंशरूप में विद्यमान है। लेकिन यह स्व कहाँ है, यह अन्तरतम? यह मांस-मज्जा नहीं है, यह विचार और चेतना भी नहीं है। बुद्धिमान् लोग यही तो बताते हैं। तो फिर वह कहाँ है? स्व की ओर प्रगति, आत्मा की ओर-क्या कोई अन्य मार्ग भी है जिसकी खोज अभिवाञ्छनीय है। किसी ने भी आज तक वह पथ दिखाया नहीं, कोई भी उस पथ को जानता नहीं-न उसके पिता, न शिक्षक और न विद्वान् लोग और न ही पवित्र गान । ब्राह्मण और उनके धर्म-ग्रन्थ सर्वज्ञान-सम्पन्न हैं, वह सभी कुछ जानते हैं, उन्होंने प्रत्येक वस्तु में पैठ की है, नियति रचना, स्वर की उत्पत्ति, भोजन, प्राणायाम और प्रश्वास, इन्द्रियों का कार्य-व्यापार और देवताओं के कार्य सभी कुछ तो उन्हें भली-भाँति विदित हैं। वे विपुल ज्ञान-सम्पन्न हैं, किन्तु इन चीजों के जानने में कोई सार्थकता है, अगर वह एक चीज़ नहीं जानते, या एक ही आवश्यक चीज़ को नहीं जानते!

धर्म ग्रन्थों के अनेक मन्त्र और सर्वोपरि सामवेद के उपनिषद् इस अन्तरतम वस्तु की बात कहते हैं। स्पष्ट लिखा है-"सर्व खल्विदं ब्रह्म।"

यह कहता है कि जिस समय तुम शयन करते हो तो तुम्हारी चेतना अन्तरतम-प्रकोष्ठ को भेदकर आत्मा में निवास करने लगती है। इन ऋचाओं में विलक्षण ज्ञान समाहित है, जो कि मधु-मक्षिकाओं द्वारा संचित मधु के समान पवित्र है। नहीं, इस विशाल ज्ञान-राशि का, जिसे ब्राह्मणों ने पीढ़ीदर-पीढ़ी सुरक्षित रखा है, यूँ ही उपेक्षित नहीं किया जा सकता। किन्तु वह सभी ब्राह्मण, पुजारी और बुद्धिमान् लोग जिन्होंने इस ज्ञान की उपलब्धि ही नहीं की, वरन् उसे अनुभव भी किया, आज कहाँ है ? लेकिन वह स्थितप्रज्ञ, जो निद्रावस्था में आत्मा को प्राप्त करके, चेतनावस्था में, जीवन में, सर्वत्र वाणी में और कार्य-कलाप में भी उसे यथावत् रख सकते थे, अब कहाँ है? सिद्धार्थ अनेक सुपात्र ब्राह्मणों को जानता था। सर्वोपरि स्वयं उसके पिताश्री एक पवित्रात्मा, ज्ञानवान और प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे। उसके पिता प्रशंसा के भागी थे, आचरण में वह शान्त और भद्र थे। उनका जीवन सुकृत् था, उनके वचनों में ज्ञान की गरिमा थी, सुन्दर और भद्र विचारों से उनका मस्तिष्क समृद्ध था-किन्तु क्या वह भी जो इतना कुछ जानते थे पूर्णकाम थे, क्या उन्होंने शान्ति प्राप्त कर ली थी? क्या वह भी खोजी ही नहीं थे-चिरन्तन जिज्ञासा से युक्त। क्या वह अपनी चिर अतृप्त प्यास को लेकर पवित्र धामों की यात्रा नहीं करते, यज्ञों में, पुस्तकों में और ज्ञान-चर्चा में क्या वह किसी अज्ञात् की खोज नहीं करते? वह निष्कलंक होते हुए भी नित्यप्रति पवित्र स्नान द्वारा पाप-मोचन और आत्मशुद्धि की आवश्यकता क्यों अनुभव करते हैं? तो क्या उनके अन्तर में आत्मा का निवास नहीं है? क्यों, क्या उनके अन्तर में ही साधन नहीं है। मनुष्य को अपने अन्तर से साधन उपलब्ध करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी कुछ को खोज कहा जायेगा, आत्म-छलना अथवा भ्रम कहा जायगा।

ये थे सिद्धार्थ के विचार, यह थी उसकी ज्ञान-पिपासा और यही उसकी पीड़ा थी।

वह छन्दोग्य-उपनिषद् का यह मंत्र बहुधा दोहराया करता था-

तस्य ह वा एतस्य ब्रह्मणो नाम सत्यमिति"
अहरहर्वा एवं वित्स्वर्ग लोकमेति।

(छान्दोग्योपनिषद अष्टम प्रपाठक-चतुर्थ-खंड-श्लोक-4-5)

देवलोक तो निकट ही दिखाई पड़ता है, लेकिन वह कभी भी वहाँ पहुँच नहीं सका था, अपनी अन्तिम साध को पूरा नहीं कर सका था। और उन विज्ञ-जनों में से कोई भी वहाँ पहुँच नहीं सका था? हालाँकि उन सभी के उपदेशों को वह पसन्द करता था, उनमें से एक को भी यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका था कि वह अपनी अनन्त पिपासा को परितृप्त कर सकते।

"गोविन्द!" सिद्धार्थ ने अपने मित्र से कहा, "गोविन्द ! मेरे साथ वटवृक्ष के नीचे चलो। वहाँ चलकर हम लोग समाधि लगायेंगे।"

वे वट वृक्ष के नीचे चले गए और एक दूसरे से बीस कदम की दूरी पर बैठ गए। समाधि के लिए आसन ग्रहण करते हुए सिद्धार्थ ने मन्त्रोच्चारण करना प्रारम्भ कर दिया-

प्रणवोधनुः शरोह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमतेन वेद्धयव्यं शरवत्तन्मयो-भवेत्।।

(मुण्डकोपनिषद्, 11 प्रपाठक, 2 खण्ड, 4 श्रुति)

जिस समय समाधि लगाने का सामान्य समय समाप्त हो गया, गोविन्द उठ गया। सन्ध्या हो गई थी। अब सन्ध्या-समय का पवित्र स्नान करने का समय हो गया था। उसने सिद्धार्थ को नाम लेकर पुकारा लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया। सिद्धार्थ डूबा बैठा था, उसकी दृष्टि किसी दूरस्थ लक्ष्य पर टिकी हुई थी, उसकी जिह्वा का अग्रभाग उसके दाँतों के मध्य दबा हुआ था, वह साँस लेता दिखाई नहीं देता था। वह इसी प्रकार बैठा था, ध्यान-मग्न, ओ३म् पर विचार करता हुआ, उसकी आत्मा तीर के समान थी और उसका लक्ष्य ब्रह्म पर था।

एक बार कुछ श्रमण सिद्धार्थ के नगर से गुजरे। वह विचरने वाले तीन साधु थे, तीनों ही नितान्त कृषकाय थे, वे न वृद्ध दीखते थे और न युवक, उनके कंधों पर गर्द जमी थी और लहू-लुहान थे, प्रायः नग्न थे, सूर्य-किरणों से उनकी देहचर्म झुलस गई थी, एकाकी, विचित्र और ख़ौफ़नाक और मनुष्यों की दुनिया में वे अपदार्थ शृगाल-से दिखाई देते थे। उनके चारों तरफ़ भाव-जगत् से उपराम होने का वातावरण था, उनकी साधना विध्वंसक थी और अपने अस्तित्व के प्रति घोर उपेक्षा से भरी थी।

ध्यानोत्तर काल में सन्ध्या समय सिद्धार्थ ने गोविन्द से कहा, "कल, मेरे मित्र, सिद्धार्थ श्रमणों के साथ मिल जायेगा। वह श्रमण बनना चाहता है।"

गोविन्द ने ज्योंही ये शब्द सुने और अपने मित्र के मुँह पर अंकित दृढ़ निश्चय को भी देखा तो उसका शरीर सफ़ेद पड़ गया। धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सिद्धार्थ का निश्चय अपनी लक्ष्य प्राप्ति में अटल था। अपने मित्र के नेत्रों की भाषा को पढ़कर गोविन्द ने समझ लिया कि बस अब श्रीगणेश हुआ। सिद्धार्थ अपने रास्ते पर चल खड़ा हुआ था, उसका भवितव्य अब प्रकट होने लगा था और उसके भवितव्य के साथ गोविन्द का अपना भाग्य भी स्पष्ट हो गया था। यह सोचकर वह बरगद के वृक्ष की छाल की तरह पीला पड़ गया।

"ओ सिद्धार्थ!"वह चिल्लाया, "क्या तुम्हारे पिता अनुज्ञा प्रदान करेंगे?"

सिद्धार्थ ने उसकी ओर देखा, जैसे वह किसी नींद से जागा हो। उसने विद्युतगति से गोविन्द की शंका के मर्म को परख लिया, उसकी विकलता और दृढ़ निश्चय को भी समझ लिया।

"अब हम शाब्दिक द्वन्द्व में समय नष्ट नहीं करेंगे गोविन्द," उसने स्वाभाविकता से कहा, "कल पौ फटने के बाद मैं एक श्रमण का जीवन करना प्रारम्भ कर दूंगा। अच्छा हो, यदि हम इस विषय पर और अधिक बातें न करें।"

सिद्धार्थ उस कमरे में गया जहाँ उसके पिता चटाई पर बैठे थे। वह अपने पिता के पीछे जाकर खड़ा हो गया और तब तक खड़ा रहा जब तक उन्होंने उसकी उपस्थिति को अनुभव नहीं कर लिया। "क्या तुम खड़े हो सिद्धार्थ?" ब्राह्मण ने पूछा, "बोलो, तुम्हारे मन में जो कुछ भी हो बोलो।"

सिद्धार्थ ने कहा, "आपकी आज्ञा से, पिता जी, मैं आपसे यह कहने आया हूँ कि मैं कल आपका घर छोड़ दूंगा और साधुओं के साथ चला जाऊँगा। मैं श्रमण बनना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है कि इसमें आपको कोई आपत्ति नहीं होगी।

ब्राह्मण सुनकर चुप हो गया और तब तक चुप रहा जब तक छाया उस छोटी खिड़की में इधर से उधर न घूम गई और जब तक सारा समय-विधान ही न बदल गया, तब कहीं जाकर उस कमरे का मौन-भंग हुआ, उसका पुत्र हाथ जोड़े और निश्चल भाव से खड़ा था। पिता भी खामोश और निश्चल आसन पर बैठे रहे, और सितारे आकाश की यात्रा करके उस पार पहुंच गए। तब पिता ने कहा, "ब्राह्मणों को यह शोभा नहीं देता कि वह ऊँचे और क्रुद्ध स्वर से बातें करें, लेकिन मेरे मन में आक्रोश है। मैं नहीं चाहता कि तुम दोबारा मुझसे इस प्रकार की प्रार्थना करो?"

ब्राह्मण इतना कहकर धीरे से उठ खड़ा हुआ और सिद्धार्थ हाथ जोड़े खड़ा रह गया।

"अब तुम क्यों प्रतीक्षा कर रहे हो?" पिता ने पूछा।

"आप जानते हैं, क्यों?" सिद्धार्थ ने उत्तर दिया।

उसके पिता अप्रसन्न होकर कमरे से बाहर निकल गए और अपने बिस्तर पर लेट गए।

लेटे-लेटे एक घंटा गुजर गया, लेकिन फिर भी ब्राह्मण को नींद नहीं। आई, तो वह उठ खड़ा हुआ, वह घर में इधर से उधर भटकता रहा और फिर घर छोड़कर चला गया। उसने छोटी खिड़की से देखा तो पाया सिद्धार्थ हाथ जोड़े खड़ा है-निश्चल। उसका पीला अंगरखा चन्द्रमा की रोशनी में चमक रहा था। पिता के हृदय में कष्ट होने लगा और वह पुनः अपने बिस्तर पर लौट आया।

दूसरा घंटा भी गुज़र गया लेकिन ब्राह्मण फिर भी नहीं सो सका, तो कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद फिर घर से बाहर निकल आया। उसने खिड़की में से देखा-सिद्धार्थ अडिग खड़ा था, उसके हाथ बँधे हुए थे। उसके टखनों पर चन्द्रमा का प्रकाश चमक रहा था। उसका हृदय दुखने लगा। वह पुनः बिस्तर में जाकर लेट गया।

इसी प्रकार वह घंटे भर बाद और फिर दो घंटे बाद उठकर आया, उसने खिड़की में से देखा कि सिद्धार्थ खडा है। चन्द्रमा के प्रकाश में तारों के प्रकाश में और फिर अंधकार में उसने उसे वैसे ही खड़े देखा। वह बार-बार घण्टे-घण्टे भर बाद आ-आकर उसे देखता रहा और उसने देखा कि वह अडिग खड़ा है। उसका हृदय क्रोध से, चिन्ता से, भय से और दुःख से भर-भर आता रहा।

और रात्रि के अन्तिम प्रहर में, पौ फटने से पहले वह फिर लौटकर आया, उसने कमरे में प्रवेश किया और देखा कि युवक फिर भी वैसे ही खड़ा है। उसका कद उसे बहुत ऊँचा लगा और वह एक अजनबी-सा दीख पड़ने लगा।

"सिद्धार्थ!" उसने कहा, "तुम किस लिए प्रतीक्षा कर रहे हो?"

"आप जानते हैं, क्यों?"

"क्या तुम दिन निकले तक, दोपहर तक और शाम तक इसी प्रकार खड़े रहकर प्रतीक्षा करते रहोगे?"

"मैं खड़ा रहूँगा और प्रतीक्षा करूँगा।"

"तुम थक जाओगे, सिद्धार्थ !"

"मैं थक जाऊँगा?"

"तुम सो जाओगे, सिद्धार्थ!"

"मैं सो नहीं सकूँगा!"

"तुम मर जाओगे, सिद्धार्थ!"

"मैं मर जाऊँगा?"

"और अपने पिता की आज्ञा मानने की अपेक्षा तुम मर जाना पसन्द करोगे?"

"सिद्धार्थ ने सदैव अपने पिता की आज्ञा का पालन किया है।"

"तो क्या तुम अपना निश्चय बदल दोगे?"

"सिद्धार्थ वही करेगा जो कुछ उसके पिता की आज्ञा होगी।"

सूर्य की प्रथम किरण ने कमरे में प्रवेश किया, ब्राह्मण ने देखा कि सिद्धार्थ के घुटनों में हल्का-सा कम्पन पैदा हो गया है, किन्तु सिद्धार्थ के मुख पर कोई कम्पन नहीं था, उसकी आँखें कहीं दूर देख रही थीं, पिता ने अनुभव किया कि सिद्धार्थ अब अधिक समय तक घर में उसके साथ नहीं रह सकता कि वह कभी का उन लोगों को छोड़ चुका है।

पिता ने सिद्धार्थ के कन्धे का स्पर्श किया।

"तुम वन-यात्रा करोगे?" उसने कहा,"श्रमण बनोगे? अगर जंगल में तुम्हें परम मंगलमय के दर्शन हो जायें तो लौटकर आना और मुझे भी दीक्षा देना। अगर तुम्हें वहाँ प्रवञ्चना दीख पड़े, तो भी लौट आना। हम लोग मिलकर फिर भजन-पूजन करेंगे। अब जाओ, अपनी माता का चुम्बन करो और उनसे कहो कि तुम कहाँ जा रहे हो? मेरा तो अब नदी पर जाकर स्नान करने का समय हुआ।"

उसने पुत्र के कंधे पर से हाथ उठा लिया और बाहर चला गया। सिद्धार्थ ने ज्योंही चलने का प्रयत्न किया, वह लड़खड़ा गया। उसने अपने आप पर अधिकार किया, उसने झुककर पिता को प्रणाम किया। जैसा उससे कहा गया था उसी के अनुसार कार्य करने के लिए वह अपनी माता के पास गया।

ज्योंही शिथिल पगों से सिद्धार्थ दिन निकलते समय सोते हुए नगरवासियों को छोड़कर विदा हो रहा था, एक सहमी हुई छाया अन्तिम झोंपड़ी में से निकली और इस धर्मयात्री के साथ हो गई। वह गोविन्द की छाया थी।

"तुम आ गए?" सिद्धार्थ ने कहा और मुस्करा दिया।

"मैं आ गया हूँ।" गोविन्द ने उत्तर दिया।

2 : श्रमणों की संगति में

सन्ध्या समय तक उन्होंने श्रमणों को पकड़ लिया, और उनके साथ रहने और शिष्यत्व ग्रहण करने की प्रार्थना की।

उन्हें स्वीकार कर लिया गया।

सिद्धार्थ ने अपने वस्त्र सड़क पर मिलने वाले एक ब्राह्मण को दे दिये। केवल जाँघिया और भगवा रंग का बिना सिला अंगरखा रख लिया। वह केवल एक बार भोजन करता था और कभी भी भोजन बनाता नहीं था। उसने चौदह दिन का उपवास किया। उसने अट्ठाईस दिन का भी उपवास किया। उसकी टाँगों और कपोलों पर से मांस गायब हो गया। उसकी विशाल आँखों में अजीब स्वप्नों की छाया घूमने लगी। उसकी पतली अंगुलियों पर लम्बेलम्बे नाखून उग आए और उसकी चिबुक पर एक खुरदरी-सी दाढ़ी उग आई। जब वह स्त्रियों को देखता तो उसकी दृष्टि सर्द हो जाती, जब वह सुन्दर वस्त्रों से आभूषित नगरवासियों के मध्य से गुजरता तो घृणा से उसके होंठ तिरछे पड़ जाते। वह नगर-सेट्ठियों को व्यापार करते हुए, राजकुमारों को आखेट करते हुए, मृतकों के शवों पर परिजनों को विलाप करते हुए, वीरांगनाओं को अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए, चिकित्सकों को रोगियों का उपचार करते हुए, पुजारियों को अन्न-वपन की तिथि का निर्णय करते हुए, प्रेमियों को प्रेम करते और माताओं को अपने शिशुओं को दुलार करते देखता, तो कहीं भी एक निगाह-भर देखने की सार्थकता उसे नजर नहीं आती थी, हर ओर झूठ था, हर चीज झूठ से दुर्गन्धित थी, सभी में ऐन्द्रिक सुख और सौन्दर्य की छलना थी। सभी का क्षय होना निश्चित था। संसार का रस तिक्त था। जीवन दुःखमय था।

सिद्धार्थ के समक्ष केवल एक ही लक्ष्य था-रिक्त होना, तृष्णा, इच्छा, स्वप्न, हर्ष और विषाद से रिक्त होना-आत्मा को निर्मूल कर देना। वह अब आत्म-विनिर्मुक्त होना चाहता था, वह रिक्त अन्तर की शान्ति का अनुभव करना चाहता था, निर्मल विचार का अनुभव करना ही उसका उद्देश्य था। जिस समय स्वयं को जीत लिया जाएगा और आपा मर जायगा, जब समस्त चाहों और आकांक्षाओं का दमन हो जाएगा, तब अन्तिम का जागरण होगा, अन्तरतम अस्तित्व उदित होगा-जो स्वयं से अतीत है जो महान् रहस्य है!

चुपचाप सिद्धार्थ सूरज की चिलचिलाती धूप में, पीड़ा और प्यास से व्याकुल खड़ा हो तप करने लगा और तब तक वैसे ही खड़ा रहा जब तक दर्द होना और प्यास लगना बन्द नहीं हो गया। चुपचाप वह वर्षा में खड़ा हुआ। उसके बालों से पानी चू-चूकर उसके ठिठुराए कन्धों पर गिरता रहा, उसके नितम्बों और टाँगों पर गिरता रहा। और वह साधु तब तक खड़ा रहा, जब तक कि वह जड़ न हो गए। चुपचाप वह काँटों पर सो गया। टीस से भरी उसकी त्वचा से रक्त टपकता रहा, फफोले पड़ गए, लेकिन सिद्धार्थ पड़ा रहा, निस्पन्द, जब तक कि रक्त बहना बन्द न हो गया, जब तक कि चुभन और टीस बिलकुल शान्त न हो गई।

सिद्धार्थ ने पद्मासन से बैठकर साँस को कम करना प्रारम्भ कर दिया, उसने अत्यन्त अल्प प्राण-वायु से जीवित रहना आरम्भ कर दिया, उसने साँस रोककर जीवित रहना प्रारम्भ कर दिया। उसने साँस लेते समय हृदय के स्पन्दन को बन्द कर लेने का अभ्यास कर लिया, धड़कन की गति को धीमी करने का-यहाँ तक कि धड़कन का भान होना तक समाप्त करने का अभ्यास उसने कर लिया।

ज्येष्ठ श्रमण की शिक्षा के अनुसार सिद्धार्थ ने आत्म-परिहार और समाधि लगाना प्रारम्भ कर दिया। बाँस-वन के ऊपर उड़ता हुआ एक बगला आया। सिद्धार्थ ने बगले की आत्मा को अपनी आत्मा में प्रविष्ट कर लिया, उसने जंगलों और पहाड़ों के ऊपर उड़ान भरी, बगला बन गया, उसने मछलियों का शिकार किया, उसने बगले की-सी क्षुधा का अनुभव किया, बगले की ही भाषा बोली और बगले की ही तरह मृत्यु को प्राप्त हो गया। रेतीले कछार पर उसे एक मरा हुआ गीदड़ मिल गया। वह मरा हुआ गीदड़ बन गया। कछार पर पड़ रहा। वह फूल गया, दुर्गन्ध से भर उठा और फिर क्षय को प्राप्त होने लगा, भिड़नों ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, गृद्धों ने उसे उठा लिया, वह हड्डियों का पिंजरमात्र रह गया। वह धूल बन गया और फिर वातावरण में खो गया। और सिद्धार्थ की आत्मा पुनरावर्तित हुई, मृत्यु को प्राप्त हुई, क्षय को प्राप्त हुई, मिट्टी में मिली। उसने जीवन-चक्र का कष्टपूर्ण आवर्तन भी अनुभव किया, और प्रत्येक जीवन-चक्र की समाप्ति पर वह इस प्रकार खड़ा रह गया जैसे किसी दरार के आ जाने पर कोई शिकारी खड़ा रह जाता है। वह जानना चाहता था कि जीवन-चक्र कहाँ समाप्त होता है, इस शाश्वत् कारण का अन्त कहाँ है, वह विषादहीन अनन्त कब प्रकट होगा? उसने अपनी इन्द्रियों का निरसन कर दिया, उसने अपनी स्मृति को समाप्त कर दिया, वह अपने स्व से हजारों प्रकारों से मुक्त हुआ। वह पशु बना, मृतदेह बना, पत्थर, लकड़ी तथा जल बना और प्रत्येक बार उसमें जीवन जाग उठा। वह सूर्य अथवा चन्द्रमा कहीं भी गया, वह सात्म हो गया, पुनः-पुनः जीवन-चक्र में पड़ा, प्यास की अनुभूति उसे हुई, उसने प्यास को जीत लिया और फिर-फिर नई प्यास उसके अन्तर में जाग उठी।

सिद्धार्थ ने श्रमणों से बहुत-कुछ सीखा, उसने आपे को खोने के अनेक उपाय सीखे। वह आत्म-यन्त्रणा के पथ पर चला, उसने आत्मरोपित यातनाएँ सहीं और पीड़ा को जीत लिया, भूख, प्यास और थकान के द्वारा पीड़ा पर विजय प्राप्त की। उसने ध्यान-मार्ग से अपनी निजता को खोने का प्रयत्न किया, उसने अपने मस्तिष्क को छाया-मुक्त कर लिया। उसने इन सभी मार्गों से यात्रा करना सीख लिया। उसने हज़ारों प्रकार से अपने स्वयं को खो दिया और अनेक दिन उसने अनस्तित्व में निवास किया। हालाँकि इन उपायों द्वारा वह कुछ काल के लिए स्व का परिहार करने में सफल हो गया, किन्तु वह फिर ज्यों का त्यों निजता के बन्धन में लौट आया। हालाँकि हज़ारों बार वह निजता के बन्धन से छूटा, शून्य में निवास करता रहा, पशु और पत्थर में रहता रहा, प्रत्यावर्तन अपरिहार्य था, वह क्षण अपरिहार्य था जब कि वह पुनः अपनी निजता को प्राप्त कर लेता था, चाहे सूर्य की चिलचिलाती धूप में हो, चाहे चन्द्रमा के प्रकाश में, किन्तु उसे फिर भी निजता को प्राप्त होना था, सिद्धार्थ बनना था और उस कष्टकर जीवन-चक्र की पीड़ा को फिर सहन करना था।

उसके साथ ही उसकी छाया की तरह गोविन्द चल रहा था, उसने भी उन्हीं मार्गों से यात्रा की थी, वैसे ही प्रयत्न किए थे। अपने अभ्यास और सेवा के लिए आवश्यक बातों को छोड़कर वह कभी-कभी ही परस्पर बातें करते थे। कभी-कभी वह दोनों साथ-साथ गाँवों में अपने और अपने शिक्षकों के लिए भिक्षा माँगने भी जाते थे।

"तुम्हारा क्या विचार है, गोविन्द?" एक दिन भिक्षाटन के लिए जाते हुए सिद्धार्थ ने पूछा, "क्या तुम्हारा विचार है कि हमने कोई प्रगति की है? क्या हम अपने लक्ष्य को पहुंचे हैं?"

गोविन्द ने उत्तर दिया, "हमने बहुत-कुछ सीखा है और सीखने जा रहे हैं। तुम एक महान् श्रमण बनोगे सिद्धार्थ! तुमने प्रत्येक आसन को कितनी जल्दी सीख लिया है? ज्येष्ठ श्रमण ने अनेक बार तुम्हारी प्रशंसा की है। एक दिन तुम पुण्यपद को प्राप्त करोगे सिद्धार्थ!"

सिद्धार्थ ने कहा, "मुझे तो ऐसा नहीं दिखाई देता, मेरे मित्र! इन श्रमणों से मैंने जो कुछ सीखा है, वह तो मैं सराय में किसी वेश्या के यहाँ, किसी बोझा ढोने वाले मज़दूर अथवा किसी सामान्य जुआरी के यहाँ भी सीख सकता था।" गोविन्द ने कहा, "सिद्धार्थ तुम उपहास कर रहे हो। तुम उन पतितात्माओं के यहाँ ध्यान लगाना, प्राणायाम और भूख-प्यास और पीड़ा से अतीत हो सकना किस प्रकार सीख सकते थे?"

सिद्धार्थ ने आहिस्ता से बोलना प्रारम्भ किया, जैसे कि वह स्वगत वार्ता कर रहा हो, "ध्यान लगाना क्या है, देह के ऐन्द्रिक आवेगों से अतीत होना भी क्या है? उपवास क्या है? प्राणायाम भी क्या है? यह सब अपने आप से भागने की चेष्टा है और देह की व्याधि से बचने का तात्कालिक प्रबन्ध है। पीड़ा और जीवन की त्रुटियों को दूर करने का अल्पकालिक उपचार है। एक बैलगाड़ी हाँकने वाला भी इसी प्रकार से जीवन से पलायन करता है। जब वह सराय में ठहरकर धान की शराब अथवा नारियल का दूध पीता है, तो वह भी इसी अल्पकालिक चैन के लिए ही करता है। इसकी मादकता में वह भी अपने आपको भूल जाता है, जीवन की पीड़ा को अनुभव नहीं करता, वह भी दुःख से सामयिक निवृत्ति पा जाता है। अपनी शराब का प्याला पीकर जब वह खुमारी में मस्त होता है, तो जिस प्रकार सिद्धार्थ और गोविन्द अपनी लम्बी क्रियाओं द्वारा अपनी देहों का बन्धन त्यागकर अनस्तित्व में रमण करते हैं, उसी प्रकार वह भी अपने सामान्य जीवन से अतीत हो जाता है।

गोविन्द ने कहा, "तुम इस तरह बातें करते हो, मित्र, जब कि जानते हो कि सिद्धार्थ कोई गाड़ीवान नहीं है और श्रमण मद्यपी नहीं होते। एक मद्यपी को भी निस्सन्देह जीवन की पीड़ा से विराम मिलता है लेकिन उसका विराम और संतोष क्षणिक होता है, शीघ्र ही वह स्थिति समाप्त हो जाती है, और वह ज्यों-का-त्यों हो जाता है। मद्य पीकर वह अधिक बुद्धिमान नहीं बनता, उसे ज्ञान नहीं प्राप्त होता और वह ऊँचाई की ओर नहीं बढ़ता?"

जिस समय वह उत्तर देने लगा, सिद्धार्थ के मुँह पर एक हल्की-सी मुस्कान खेल गई, "मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं कभी भी शराबी नहीं रहा हैं. लेकिन मैं. जो सिद्धार्थ हँ. अपनी क्रियाओं और समाधि में कुछ वैसी ही विश्रान्ति पाता हूँ, मैं भी ज्ञान से, मोक्ष से, उतनी ही दूर हूँ जितना एक गर्भस्थित शिश। गोविन्द ! मैं यह अच्छी तरह मानता हूँ?"

एक दूसरे अवसर पर जबकि सिद्धार्थ और गोविन्द अपने सहकर्मियों और शिक्षकों के लिए भिक्षा माँगने जा रहे थे, तो सिद्धार्थ ने बोलना शुरू कर दिया और पूछा, "अच्छा गोविन्द, तुम विचार करो, क्या हम उचित पथ पर चल रहे हैं? क्या हम ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं? क्या हम भक्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं? या हम लोग जो कि जीवन-चक्र से निवृत्ति पाने के लिए इस मार्ग पर आये थे और भी अधिक चकफेरी में कसते जा रहे हैं?"

गोविन्द ने कहा, "हमने बहुत कुछ सीख लिया है सिद्धार्थ ! अभी भी बहुत कुछ और सीखना शेष है। हम लोग चक्र में नहीं घूम रहे हैं, हम लोग ऊपर उठ रहे हैं। यह मार्ग बहुत पेंचदार है। हम कई सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ चुके हैं?"

सिद्धार्थ ने उत्तर दिया, "तुम्हारे विचार से हमारे ज्येष्ठ श्रमण, जो हमारे योग्य शिक्षक हैं, की आयु कितनी होगी?"

गोविन्द ने कहा, "मेरे विचार से सबसे बड़े श्रमण की आयु 60 वर्ष के लगभग होगी।"

सिद्धार्थ ने कहा, "वह साठ वर्ष के हो चुके और अभी तक निर्वाण प्राप्त नहीं कर सके। वह सत्तर वर्ष और उसके बाद अस्सी वर्ष के होंगे और तुम और मैं भी निरन्तर क्रियाएँ करते हुए, उपवास करते और समाधि लगाते हुए इतनी ही आयु को प्राप्त हो जाएँगे और न हमें निर्वाण मिलेगा और न उन्हें मिलेगा। मेरा विश्वास है कि इन समस्त श्रमणों में एक भी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकेगा। हमें केवल परितोष प्राप्त होता है, हमें वह कौशल आ गया है जिसके आधार पर हम अपने को धोखा दे लेते हैं, परंतु वास्तविक मार्ग हाथ नहीं लगता, असली चीज़ हाथ नहीं लगती।"

"ऐसे भयानक शब्द मत बोलो, सिद्धार्थ!" गोविन्द ने कहा। "यह किस प्रकार सम्भव है कि इतने अधिक ज्ञानवान लोगों में से, इतने ब्राह्मणों, इतनी बड़ी संख्या में तपी और सुयोग्य श्रमणों में से. इतने अधिक खोजियों, आन्तरिक जीवन के साधकों और इतने असंख्य साधुओं में से किसी एक को भी निर्वाण प्राप्त नहीं होगा!"

सिद्धार्थ ने खेद और उपहासमिश्रित कोमल स्वर में कहा-जिसमें जितना दुःख था उतना ही व्यंग्य भी था,"बहुत शीघ्र ही गोविन्द, तुम्हारा मित्र श्रमणों का यह मार्ग छोड़ देगा, जिस पर वह तुम्हारे साथ काफ़ी आगे बढ़ आया है। मेरे अन्दर प्यास है गोविन्द, और इस श्रमण-मार्ग पर चलकर मेरी प्यास कम नहीं हुई। मेरे अन्दर सदैव ज्ञान की प्यास रही है, और मेरे अन्तर में हमेशा प्रश्न उठते रहे हैं। वर्षों तक मैं ब्राहाणों से प्रश्न करता आया हूँ, वर्षों तक मैंने वेदों पर शंकाएँ उठाई हैं। सम्भवतः यह उचित होता कि मैं अपनी जिज्ञासा-पूर्ति के लिए गैंडों या चिम्पांजियों से प्रश्न करता। मैंने बहुत समय व्यतीत कर दिया, गोविन्द! यह जानने के लिए कि मनुष्य कुछ भी जान नहीं सकता। प्रत्येक वस्तु की तह में, मेरा विश्वास है, कुछ ऐसी वस्तु है जिसे केवल ज्ञान की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। मेरे मित्र! केवल एक ज्ञान है जो सर्वव्यापी है-जो आत्मा है-जो कि मुझ में है, तुम में और प्राणिमात्र में है और मुझे यह विश्वास होता जा रहा है, उस ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु वही है-जिसे हम ज्ञानी पुकारते हैं-जिसे हम ज्ञान पुकारते हैं।"

इसके बाद गोविन्द सड़क पर चलता-चलता रुक गया, उसने अपना हाथ उठाया और कहा, "सिद्धार्थ इस प्रकार की बातें करके अपने मित्र को दुःखी न करो। सचमुच तुम्हारे शब्दों से मुझे घोर कष्ट होता है। जरा सोचो तो, अगर, जैसा कि तुम कहते हो, ज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं है, तो हमारी प्रार्थनाओं का क्या परिणाम होगा, ब्राह्मणों की उस प्रतिष्ठा का और श्रमणों की पवित्रता का क्या होगा? सिद्धार्थ! दुनिया की हर चीज़ इस तरह व्यर्थ हो जायेगी। पृथ्वीतल पर पवित्रता नाम की कोई वस्तु नहीं रह जायेगी। श्रेष्ठता कहाँ रहेगी और पुण्य नाम की वस्तु कहाँ रहेगी?"

गोविन्द ने मरमर स्वर में उपनिषद् की उक्ति दोहराई-

"वह मनुष्य जिसकी पवित्र जीवात्मा आत्मा में लय हो जाती है। वह उस परमानन्द का अनुभव करता है जिसका वर्णन शब्दों की शक्ति के परे है।"

सिद्धार्थ चुप हो गया। गोविन्द द्वारा उच्चरित शब्दों पर बहुत देर तक विचार करता रहा।

हाँ, उसने सोचा, और वह नतशिर होकर सोचता रहा कि जो कुछ हमें पवित्र दिखाई पड़ता है, उसका क्या होगा? फिर क्या अवशेष रह जायगा? क्या सुरक्षित रखा जा सकेगा? और वह सिर हिलाता रहा।

जब दोनों युवकों को श्रमणों के पास रहते और क्रियाएँ करते तीन वर्ष के लगभग हो गए तो एक बार उन्होंने एक अफ़वाह, एक ख़बर सुनी। किसी महापुरुष का आगमन हुआ है, उसे लोग गौतम कहते हैं, अर्हत बुद्ध पुकारते हैं। उसने सांसारिक दुःखों पर विजय प्राप्त कर ली है और उसने आवागमन के चक्र को जीत लिया है। वह देश-देशान्तर में उपदेश देता घूम रहा है, साथ में उसके शिष्यगण हैं, उनके पास कोई धन-दौलत नहीं है, घर, पत्नी, कुछ भी नहीं है, साधुओं की तरह पीत वस्त्र पहनता है, लेकिन उसकी भौंहें ऊँची हैं, वह पवित्रात्मा है, ब्राह्मण और राजकुमार सभी उसके सम्मुख झुकते हैं और उसकी शरण में जाते हैं।

यह समाचार, यह अफ़वाह, यह कहानी लोग सुनते थे और इसी प्रकार वह सब जगह फैलती जाती थी। नगरों में ब्राह्मणों और जंगलों में श्रमणों के लिए वह चर्चा का विषय बन गया था। गौतम बुद्ध का नाम युवकों के कानों में भी पड़ता था, कोई उसकी प्रशंसा करता और कोई अप्रशंसा करता था।

यह समाचार बिलकुल इस प्रकार का था जैसे कि देश में प्लेग की बीमारी फैली हो, और कोई ऐसी अफ़वाह हो कि एक आदमी है, ज्ञानवान और सिद्ध जिसके शब्दों में केवल श्वास में ही, रोगी को नीरोग कर देने की सामर्थ्य है, और यह समाचार जैसे-जैसे फैलता जाता है, कोई उसमें विश्वास करता है कोई अविश्वास; लेकिन उसके बारे में बातें हर कोई करता है ! अनेक लोग ऐसे भी हैं जो खबर सुनते ही उस महापुरुष, उद्धारकर्ता के दर्शन करने के लिए चल खड़े होते हैं। इसी प्रकार यह सुखद समाचार शाक्यमुनि गौतम बुद्ध के बारे में सारे देश-भर में फैल गया। उसके विश्वासी कहते थे कि वह परम ज्ञानवान् है, उसे अपने पूर्व जीवनों का भी स्मरण है, उसने निर्वाण प्राप्त कर लिया है और वह जीवन-चक्र से मुक्त हो गया है, वह योनियों के दु:खमय जीवन-चक्र में अब और अधिक नहीं फँसेगा। अनेक आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय बातें उसके विषय में सुन पड़ती थीं, उसने अनेक चमत्कार दिखाए थे, उसने शैतान को जीत लिया था, वह देवताओं से सम्भाषण कर सकता था। उसके शत्रु और अविश्वासी लोग फिर भी कहते थे कि गौतम एक कुटिल और दुष्ट है। वह आभिजात्य जीवन व्यतीत करता है, यज्ञों से घृणा करता है, ज्ञानहीन है और वह न क्रियाएँ जानता है, न उसने तप किया है।

बुद्ध सम्बन्धी अफ़वाहों में आकर्षण था, इन समाचारों में एक जादू था। दुनिया रुग्ण थी, जीवन दुष्कर था और यहाँ-वहाँ आशा की किरण दिखाई देती थी, कहीं-कहीं सन्देश सुनाई पड़ता था जो सुखकर, कोमल और आशाप्रद था। यत्र-तत्र-सर्वत्र बुद्ध की ही चर्चा थी। भारत का तरुणवर्ग इन चर्चाओं को सुनता और उसके हृदय में एक अनुराग और आशा उत्पन्न होती जाती थी। नगरों और ग्रामों में ब्राह्मण-पुत्र उस यात्री अथवा अजनबी का सोत्साह स्वागत करते जो उन्हें बुद्ध के विषय में समाचार सुना सकता था।

वह प्रदेश में यह समाचार श्रमणों तथा सिद्धार्थ और गोविन्द के पास लगभग एक ही सपय पहुँचा। समाचार का प्रत्येक अंश आशा और सन्देह से समान रूप से भरा हुआ था। उन्होंने इस चर्चा को बहुत-कुछ दबा ही रहने दिया क्योंकि ज्येष्ठ श्रमण ऐसे समाचारों के प्रति कोई साधु विचार नहीं रखता था। उसने यह सुन रखा था कि यह कथित बुद्ध पहले साधु था, और जंगल में रहता था, फिर वह आभिजात्य जीवन व्यतीत करने लगा और संसार के सुखों के प्रति उसमें अनुराग उत्पन्न हो गया। वह किसी प्रकार भी इस बुद्ध की पैरवी करने को तैयार नहीं था।

"सिद्धार्थ!" गोविन्द ने अपने मित्र से कहा, "आज मैं गाँव में गया था, तो एक ब्राह्मण ने मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दिया। उस ब्राह्मण के घर में मगध देश का एक ब्राह्मण-पुत्र ठहरा हुआ था। वह कहता था कि उसने बुद्ध को अपनी आँखों से देखा है और उसे उपदेश करते हुए सुना है। उस समय से मेरे अन्तर में एक दुर्धर्ष उत्कण्ठा और जिज्ञासा जाग उठी है। मेरी आकांक्षा है कि मैं और सिद्धार्थ उस दिन को देखने के लिए जीवित रहें, जब कि हम उस पूर्ण पुरुष के वचन सुन सकेंगे। मेरे मित्र, क्या हम उधर नहीं जा सकते और बुद्ध के उपदेशामृत का पान नहीं कर सकते?" ।

सिद्धार्थ ने कहा, "मैं तो हमेशा यही सोचता था कि गोविन्द श्रमणों के साथ ही रहेगा। मैंने तो सदैव यही विश्वास किया था कि गोविन्द साठ और सत्तर वर्ष की आयु को प्राप्त होगा फिर भी उन्हीं क्रियाओं और अभ्यासों को करता रहेगा जो श्रमण लोग सिखाते हैं, लेकिन मेरा अनुमान कितना निराधार था गोविन्द! मैं कितना कम जानता था कि गोविन्द के दिल में क्या है! अब, मेरे मित्र, तुम उस नवीन पथ के राही होना चाहते हो और बुद्ध के उपदेश सुनने के लिए जाना चाहते हो?"

गोविन्द ने कहा, "मेरा उपहास करने में तुम्हें सुख मिलता है। कोई बात नहीं, तुम मेरा उपहास कर लो। लेकिन क्या तुम्हारे मन में उत्कण्ठा नहीं है और तुम उसके उपदेश नहीं सुनना चाहते? और क्या तुमने ही मुझसे एक दिन यह नहीं कहा था कि मैं अब अधिक दिन श्रमणों के साथ नहीं रहूँगा?"

सिद्धार्थ इस प्रकार हँसा कि उसके हास्य में विषाद और परिहास दोनों की समान छाया उद्भासित होती थी, उसने कहा, "तुमने अपना अभिमत बहुत अच्छी प्रकार रखा गोविन्द, तुमने स्मरण भी खूब रखा है परंतु तुम्हें वह सब भी स्मरण रखना चाहिए था जो कि मैंने इसके साथ और भी कहा था कि ज्ञान और उपदेश में से मेरी आस्था उठ गई है, और यह कि मुझे उन शब्दों में बहुत कम विश्वास रह गया है जो कि उपदेष्टाओं के मुँह से निकलते हैं। बहुत अच्छा, मेरे मित्र! मैं यह नया उपदेश भी सुनने को तैयार हूँ, हालाँकि मैं मानता हूँ कि इस उपदेश का श्रेष्ठतम फल हम भली-भाँति चख चुके हैं।"

गोविन्द ने उत्तर दिया, "मुझे यह जानकर आनन्द हुआ कि तुम मुझ से सहमत हो। लेकिन मुझे यह बताओ कि गौतम के उपदेश का श्रेष्ठतम फल तुमने कैसे चख लिया जबकि उसे तुमने अभी सुना तक नहीं?"

सिद्धार्थ ने कहा, "हमें इस फल का आनन्द लेना चाहिए और भविष्य में भी अधिक आशा करनी चाहिए, गोविन्द! फल यह कि गौतम ने हमें श्रमणों के मोह से मुक्त कर दिया। हम इसके लिए उसके कृतज्ञ हैं। अगर कहीं इससे श्रेष्ठतर दूसरे फल भी हमें चखने को मिलने वाले हैं, तो उनकी प्रतीक्षा हमें सन्तोष के साथ करनी चाहिए।"

उसी दिन सिद्धार्थ ने ज्येष्ठ श्रमण को यह सूचना दे दी कि वे लोग उनका साथ छोड़कर जाना चाहते हैं। उसने अपना निवेदन बड़े श्रमण के समक्ष एक युवक और विद्यार्थी के अनुरूप सभ्यता और विनम्रता के साथ किया था। लेकिन बूढ़ा आदमी यह जानकर क्रुद्ध हो उठा कि दोनों युवक उसका साथ छोड़ जाने पर तुले हुए हैं। उसने ऊँचे स्वर में उन दोनों को बहुत अधिक धिक्कारा।

गोविन्द अत्यन्त चमत्कृत हुआ, किन्तु सिद्धार्थ ने अपने होंठ गोविन्द के कान पर लगा दिए और धीरे से फुसफुसाया, "अब मैं इस बूढ़े को यह दिखा दूंगा कि मैंने उससे क्या कुछ प्राप्त किया है?"

वह श्रमण के निकट खड़ा हो गया, उसका मानस निश्चय से परिपूर्ण था, उसने बूढ़े की आँखों में अपनी आँखें डाल दी और उन्हें बाँध लिया, उसे मुग्ध कर लिया, उसे नि:शब्द कर दिया, उसकी इच्छा को जीत लिया, और मौन भाव से अपना मनोवाञ्छित कार्य करने का आदेश दिया। बूढ़ा आदमी चुप हो गया, उसकी आँखें चमकने लगी, उसकी इच्छा-शक्ति लड़खड़ा गई, उसकी बाँहें नीचे ढुलक गईं और सिद्धार्थ के विचारों ने श्रमण के विचारों को अभिभूत कर लिया और वह उसके विचारों की प्रेरणा के अनुसार कार्य करने पर बाध्य हो गया। और बूढ़ा श्रमण अनेक बार नतशिर हुआ, उसने अपना आशीर्वाद दिया और उनकी मंगल यात्रा के लिए कुछ स्फुट वाक्य भी कहे। युवकों ने उसकी सद्भावना के लिए धन्यवाद कहा, झुककर उसके प्रति अभिवादन किया और विदा हो गए।

रास्ते में गोविन्द ने कहा, "सिद्धार्थ! तुमने श्रमणों से इतना अधिक सीख लिया है कि मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी। एक वृद्ध श्रमण को मुग्ध कर सकना कठिन है, बहुत ही कठिन है। सच तो यह है कि यदि तुम यहाँ ठहरते, तो शीघ्र ही तुम पानी पर चलना भी सीख सकते थे।"

"पानी पर चलने की मेरी कोई इच्छा नहीं है," सिद्धार्थ ने कहा, "यह कलाएँ श्रमणों को ही साधु रहें।"

3 : गौतम

श्रावस्तीनगर में बच्चा-बच्चा भगवान बुद्ध के नाम से परिचित था और उनके मौन अनुगामियों के भिक्षा-पात्रों को भरने के लिए हर कोई तैयार रहता था। इस नगर के निकट ही जैतवन नाम का बुद्ध का प्रिय विहार था जिसे उसके प्रिय समृद्ध शिष्य अनथपिंडिक ने बनवाया था और बाद में उन्हें समर्पित कर दिया था।

ये दोनों युवक साधु गौतम के निवास स्थान की खोज करते-करते अनेक कहानियों और प्रश्नोत्तरों के आधार इस प्रदेश में आ पहुंचे थे। श्रावस्ती पहुँचने के बाद जिस समय सबसे पहले घर के सामने उन्होंने मौनभाव से भिक्षा-याचना की तो तत्काल उनके सम्मुख भोजन प्रस्तुत किया गया। उन्होंने इस परिवार के यहाँ भोजन प्राप्त किया और जिस महिला ने उन्हें भोजन कराया था, सिद्धार्थ ने उसी से पूछा, "भद्रे! हम यह जानना चाहते हैं कि इस समय महात्मा बुद्ध के दर्शन कहाँ हो सकते हैं ? हम दोनों श्रमण वनप्रान्त से आये हैं और उस पुण्यात्मा के दर्शन करना चाहते हैं और उन्हीं के कंठ से उनका उपदेशामत ग्रहण करने के आकांक्षी हैं।"

महिला ने कहा, "हे वन-प्रदेश से समागत श्रमणवर! तुम अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच चुके हो। महात्मा बुद्ध इस समय अनथपिंडिक के उद्यान जैतवन में निवास करते हैं। हे यात्री! तुम भी उसी स्थान पर जाकर विश्राम करो, क्योंकि वहाँ उन लोगों के ठहरने के उपयुक्त स्थान हैं-जो उनके श्रीमुख से उनका उपदेश सुनने के उद्देश्य से यहाँ आते हैं?"

गोविन्द हर्ष से पुलकित हो उठा और उसने आनन्दित स्वर में कहा, "ओह, हम अपने लक्ष्य पर पहुँच चुके हैं और अब हमारी यात्रा का अन्त हो गया! परंतु हे माता, अब कृपा करके बताइये कि क्या आप बुद्ध को जानती हैं? क्या आपने अपने नेत्रों से उनके दर्शन किए हैं।"

महिला ने कहा, "मैंने अनेक बार तथागत के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त किया है। पीत परिधान पहने हुए, मौन भाव से हाथ में भिक्षा-पात्र धारण किए मैंने अनेक बार उन्हें सड़क से गुज़रते और गृह-द्वारों पर भिक्षा प्राप्त करते तथा भिक्षा से परिपूर्ण पात्र को लेकर वापस लौटते देखा है।"

गोविन्द मुग्धभाव से उस वार्ता को सुनता रहा। उसका मन अनेक प्रश्न करने के लिए और उत्तर में बहुत-कुछ सुनने के लिए उतावला हो उठा था, लेकिन उसी समय सिद्धार्थ ने उसे स्मरण कराया कि अब चलने का समय हो गया है। उन्होंने महिला को धन्यवाद कहा और विदा ली। अब उन्हें पथ-निर्देश प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रह गई थी क्योंकि अनेक यात्री और साधुगण जैतवन की ओर जा रहे थे। जिस समय वह जैतवन पहुंचे, रात्रि हो चुकी थी, किन्तु आगन्तुकों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती थी। विश्राम और सुरक्षा प्राप्त करने की प्रार्थनाओं से समस्त वातावरण गूंज उठा था। लेकिन भ्रमण-द्वय ने जिन्हें वन्य-जीवन व्यतीत करने का अभ्यास था-- बड़े शीघ्र रात-भर के विश्राम के लिए एक सुरक्षित स्थान प्राप्त कर लिया।

प्रात:काल जब वे सोकर उठे, तो अनुयायियों और दर्शनार्थियों की इतनी बड़ी संख्या देखकर वे दंग रह गए। उद्यान के सुरम्य कुञ्जों में पीतवस्त्रधारी साधु घूम रहे थे। अनेक साधु वृक्षों के नीचे समाधि लगाए बैठे थे, अथवा उत्साहपूर्ण वार्तालाप में व्यस्त थे। घनी छाया से युक्त उद्यान मधुमुक्षिकाओं की गुजार से युक्त एक विशाल नगर के समान प्रतीत होता था। बहुत से साधु मध्याह्नोत्तर भोजन के लिए-जो कि दिन-भर का उनका एकमात्र भोजन होता था-भिक्षा-पात्र लेकर भिक्षा के लिए चल पड़े थे। स्वयं बुद्ध भी प्रात:काल भिक्षा के लिए बाहर निकले थे।

सिद्धार्थ ने उन्हें देखते ही पहचान लिया था. मानो कि उसे कोई दैवसंकेत हुआ हो। उसने देखा कि हाथ में भिक्षा-पात्र धारण किए वे बाहर निकले, अत्यन्त सरल भाव से एक पीत उष्णीष धारण किए हुए?

"देखो," सिद्धार्थ ने धीरे से गोविन्द से कहा, "वह बुद्ध हैं।"

गोविन्द ने पीत-उष्णीषधारी साधु को एकान्त भाव से देखा जो कि सहस्रों साधुओं से किसी प्रकार भी भिन्न नहीं था, किन्तु उसने उन्हें फिर भी पहचान लिया था। हाँ, वे ही बुद्ध हैं और उन दोनों ने उनका पदानुसरण करना प्रारम्भ कर दिया और उनकी गतिविधि का अवलोकन करने लगे।

बुद्ध चिन्तन में डूबे हुए, मौन-भाव से अपने पथ पर अग्रसर हुए। उनकी प्रशान्त मुद्रा पर न हर्ष था, न विषाद। लगता था कि उनका अन्तर्मन कोमल हास्य से आलोकित है। शिशु-सुलभ एक रहस्यमयी मुसकान लिए वह धीर एवं मौन भाव से चल रहे थे। वह अपना चोला धारण किए हुए थे और दूसरे साधुओं की तरह चल रहे थे, लेकिन उनकी मुद्रा और उनका पद-निक्षेप, उनका अलसभाव से नीचे लटका हुआ प्रशान्त कर और कर की प्रत्येक अंगुलिका शान्ति की वाचक थी, पूर्णकामत्व की सूचक थी, उनमें कोई चाह नहीं थी, वह अनुकरण रहित थी, उनमें सनातन मौन की प्रतिछवि थी, एक चिरव्यापी प्रकाश और अखण्ड शान्ति थी।

इस प्रकार बुद्ध भिक्षा की खोज में नगर-पथों पर भ्रमण करने लगे। उनकी शान्त मुद्रा, उनके स्वरूप के स्थैर्य, जिसमें परिग्रहसूचक कुछ नहीं था, कोई आकांक्षा नहीं थी, कोई अनुकृति अथवा चेष्टा नहीं थी-वरन् केवल प्रकाश था और शान्ति थी, केवल इन्हीं दो उपकरणों को देखकर श्रमणों ने उन्हें पहचान लिया था।

"आज उन्हीं के मुखारविन्द से हमें उनके उपदेश सनने का सौभाग्य प्राप्त होगा,"गोविन्द बोला।

सिद्धार्थ ने उत्तर नहीं दिया। उपदेश सुनने की उसके मन में उत्कण्ठा नहीं थी। उसे विश्वास था कि उसमें कोई नवीन शिक्षा नहीं होगी। वह और गोविन्द बुद्ध के उपदेशों का सार सुन चुके थे, चाहे वह सार इधर-उधर का सुना हुआ ही था। लेकिन सिद्धार्थ गौतम के सिर, स्कन्धों, चरणों और उसके स्थिर हाथ को एकाग्र मन से देखता रहा। उसे लगा कि जैसे उसकी अंगुलियों की प्रत्येक गाँठ में ज्ञान की ग्रन्थि है, वे मुखर थीं, प्राणपन्न थीं और प्रकाश प्रकीर्ण करती थीं। यह मानव, बुद्ध, आपादमस्तक पवित्र पुरुष है! सिद्धार्थ के हृदय में इतनी प्रतिष्ठा आज तक किसी को भी प्राप्त नहीं हुई थी, आज तक किसी भी आदमी को उसने इतना प्रेम नहीं किया था।

उन्होंने देर तक बुद्ध का अनुसरण किया और बाद में चुपचाप लौट आये। वह स्वयं उस दिन उपवास रखने की इच्छा रखते थे। उन्होंने गौतम को लौटते देखा, अपने शिष्यों की मंडली में उन्होंने उसे भोजन करते देखा, जो कुछ उसने खाया वह एक पक्षी के लिए मुश्किल से पर्याप्त हो सकता था, और उन्होंने उसे आम्र-कुंज में वापस होते भी देखा।

सन्ध्या समय जब गर्मी कम हो गई और उद्यान-स्थित प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ हो गया और सभी लोग एकत्र हो गए, तो बुद्ध ने प्रवचन प्रारम्भ किया। उन्होंने उसका स्वर सुना और वह भी सम्पूर्ण, सुस्थिर और शान्त था। गौतम ने दुःख के उद्गम के बारे में और दुःख से परित्राण प्राप्त करने के उपाय के विषय में प्रवचन किया। जीवन एक पीड़ा है और संसार दुःख से परिप्लावित है किन्तु दुःख से निवृत्ति पाने का मार्ग प्राप्त हो गया है। जो बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करेंगे, वह निर्वाण को प्राप्त करेंगे?

अर्हत का स्वर कोमल किन्तु दृढ़ था, उन्होंने चार प्रमुख सिद्धान्तों और आठ मार्गों का उल्लेख किया, उदाहरण और पुनरावृत्ति करते हुए प्रवचन की सामान्य पद्धति से उपदेश दिया। एक प्रकाश-रेखा के समान, तथा आकाशस्थित तारक सदृश उनकी सुस्पष्ट, सुस्थिर स्वर श्रोताओं तक पहुंच रहा था।

जिस समय बुद्ध ने प्रवचन समाप्त किया तो रात्रि हो चुकी थी। अनेक यात्री आगे बढ़कर सम्मुख उपस्थित हुए और उन्होंने संघ की शरण में स्वीकार किए जाने की प्रार्थना की और बुद्ध ने उन्हें स्वीकार कर लिया और कहा, "तुमने उपदेशों का सम्यक् श्रवण किया। आओ हम में सम्मिलित होओ और दुःख का परिहार करके आनन्द में विचरण करो।"

गोविन्द भी, जो लज्जालु था, आगे बढ़ा और बोला, "मैं भी तथागत और उनके उपदेशों के प्रति अपनी आस्था प्रकट करता हैं।" उसे संघ की शरण में स्वीकार कर लिये जाने की प्रार्थना की और उसे स्वीकार कर लिया गया। ज्योंही बुद्ध रात्रि के विश्राम के लिए विमुक्त हुए, गोविन्द आतुरतापूर्वक सिद्धार्थ के निकट आया और व्यग्रता से बोला, "सिद्धार्थ तुम्हारी भर्त्सना करना मेरा उद्देश्य नहीं है। हम दोनों ने तथागत का प्रवचन सुना और उसके उपदेशों को भी सुना। गोविन्द ने उसके धर्मोपदेशों को सुना, उन्हें स्वीकार कर लिया, लेकिन तुम मेरे मित्र, क्या तुम निर्वाण के पथ पर कदम नहीं बढ़ाओगे? क्या तुम विलम्ब करोगे, क्या तुम अब भी प्रतीक्षा करोगे?"

जिस समय सिद्धार्थ ने गोविन्द के शब्द सुने, तो वह जैसे नींद से चौंक उठा। वह देर तक गोविन्द के चेहरे की ओर देखता रहा। तब उसने धीरे-धीरे बोलना प्रारम्भ किया, उसके स्वर में उपहास नहीं था, "गोविन्द, मेरे मित्र, तुमने कदम उठाया, तुमने अपना मार्ग चुन लिया। आज तक तुम सदैव ही मेरे मित्र रहे और तुम्हारा प्रत्येक कदम मेरे कदम के बाद उठा। बहुधा मैं सोचता था, क्या मेरी अपेक्षा किए बिना स्वयं अपनी आस्था के अनुसार निर्णय करने की योग्यता कभी तुम प्राप्त करोगे भी? अब तुम पूर्ण पुरुष हो और तुमने अपना पथ स्वयं चुन लिया। मेरी कामना है कि तुम इस पथ पर आस्थापूर्वक अन्त तक पहुँचो। मेरे मित्र, तुम निर्वाण प्राप्त करो।"

गोविन्द ने, जो अभी तक मर्म को नहीं समझ पाया था, उत्सुकतापूर्वक फिर दोहराया, "बोलो, मेरे मित्र, कहो कि बुद्ध के मार्ग के अतिरिक्त अन्य किसी मार्ग में तुम्हें भी शान्ति नहीं मिलेगी?"

सिद्धार्थ ने गोविन्द के कन्धे पर अपना हाथ रख दिया, "तुमने मेरा साधुवाद सुन लिया गोविन्द, मैं उसे पुनः दोहराता हूँ। भगवान् करे कि तुम अपने मार्ग पर अन्त तक चलते चलो। तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो?"

उस क्षण में गोविन्द ने अनुभव किया कि उसका मित्र उससे विदा हो रहा है और उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह चली।

"सिद्धार्थ!" वह पुकार उठा।

सिद्धार्थ ममतापूर्वक बोला, "मत भूलो गोविन्द कि अब तुम एक बौद्ध भिक्षु हो। तुमने माता-पिता और घर-बार त्याग दिये हैं। तुमने कुल और सम्पत्ति का परित्याग कर दिया है, यही तो धर्मोपदेश है, यही तो अर्हत की इच्छा है। यही तो तुम चाहते थे। कल, गोविन्द, मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा।"

बहुत देर तक दोनों मित्र वन में घूमते रहे। वह बहुत देर तक लेटे रहे, किन्तु सो नहीं सके। गोविन्द ने बार-बार अपने मित्र पर यह बताने के लिए जोर दिया कि उसने बुद्ध की शिक्षा ग्रहण क्यों नहीं की, उसमें उसे क्या त्रुटि दिखाई दी, किन्तु बार-बार सिद्धार्थ उसे टालता रहा।"शान्त होओ गोविन्द! अर्हत के धर्म-वचन बहुत अच्छे हैं। मैं उन्हें दोषपूर्ण किस प्रकार बता सकता हूँ?"

प्रातःकाल बहुत शीघ्र ही एक बुद्धानुयायी, एक बूढ़ा भिक्षु उद्यान में आया और उसने उन सबको अपने पास बुलाया जिन्होंने धर्मोपदेश ग्रहण कर लिए थे। उन सभी को पीत-काषाय-परिवेष्ठित किया गया, प्राथमिक दीक्षा दी गई और उन्हें उनके कर्तव्यों का निर्देश किया गया। उस समय गोविन्द ने अपने आपको खींच लिया, अपने बाल-मित्र को अंक में भरकर आलिंगन किया और भिक्षु-वेश धारण कर लिया।

सिद्धार्थ विचारों में डूबा हुआ कुञ्ज में घूमता रहा।

वहाँ संयोग से उसे अर्हत गौतम के दर्शन हो गए। युवक ने आदरपूर्वक अभिवादन किया और बुद्ध की मुख-मुद्रा पर इतनी भद्रता और शान्ति थी कि युवक को साहस हो आया और उसने अर्हत से प्रार्थना की कि क्या वह कुछ निवेदन कर सकता है? बुद्ध ने स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया।

सिद्धार्थ ने कहा, "कल, ओ वदान्य! आपके आश्चर्यजनक उपदेश सुनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। अपने मित्र के साथ मैं बड़ी दूर से चलकर आपको सुनने आया था और अब मेरा मित्र आपके पास रहेगा क्योंकि वह आपका शरणागत हो गया है। मैं, हालाँकि, अपनी यात्रा पर पुनः प्रस्थान कर रहा हूँ।"

"जैसी तुम्हारी इच्छा," अर्हत ने सहजभाव से कहा।

"मेरी बातें सम्भवत: अनावश्यक रूप से उद्धत हों," सिद्धार्थ ने कहा, "किन्तु अपने विचार अर्हत के सम्मुख निवेदन किए बिना यहाँ से जाने को मेरा मन नहीं चाहता। क्या आप मेरी बातें सुनने के लिए थोड़ा समय और दे सकेंगे?"

मौन भाव से बुद्ध ने अपनी स्वीकृति दी।

सिद्धार्थ ने कहा, "ओ, परम् पुनीत, सर्वोपरि, एक बात के लिए मैं आपके उपदेश का आदर करता हूँ कि प्रत्येक वस्तु उसमें स्पष्ट और स्वयंसिद्ध है। आपने यह दिखाया है कि दुनिया एक परिपूर्ण, अविच्छिन्न और शाश्वत श्रृंखला है जो कार्य-कारण सिद्धान्त की कड़ियों से जुड़ी हुई है। यह सत्य आज तक इतना स्पष्ट रूप से कभी प्रस्तुत नहीं किया गया, कभी इतने अकाट्य, तर्कसंगत रूप से नहीं कहा गया। मुझे यह विश्वास है कि प्रत्येक ब्राह्मण-पुत्र के हृदय की गति बढ़ जायगी-जब वह आपके उपदेश के अनुसार संसार को देखेगा, जिसमें सम्पूर्ण सामंजस्य है, कोई त्रुटि नहीं है। जो पारदर्शी है, केवल संयोग पर निर्भर नहीं है, केवल देवताओं के भरोसे पर निर्भर नहीं है। संसार सत् है अथवा असत्, जीवन स्वयं एक पीड़ा है अथवा आनन्द या कि वह अनित्य है-हो सकता है कि ऐसा हो भी किन्तु वह अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु संसार की एकता, समस्त घटनाओं की अन्योन्याश्रयता और सामंजस्य, छोटे और बड़े सभी का एक ही धारा द्वारा अंगीकार, एक ही कारण द्वारा सभी का उद्भव-सिद्धान्त, जीवन और मरण का चक्र-ये सभी बातें आपके उपदेश से बिलकुल स्पष्ट हो गई हैं। लेकिन, ओ, महामहिम! आपकी शिक्षा के अनुसार ही प्रत्येक वस्तु की एकता और तर्कसम्मत परिणति का सिद्धान्त एक स्थान पर टूटता दिखाई देता है। एक छोटी-सी दरार के द्वारा इस संसार के सौंदर्य में एक आश्चर्यजनक वस्तु सरक आई है, एक नई चीज, जो कि पहले नहीं थी और आज भी प्रदर्शित अथवा सिद्ध नहीं की जा सकती-कि आप भी दुनिया से ऊपर उठने का सिद्धान्त बताते हैं, मुक्ति की बात कहते हैं। इस छोटे-से रिक्त मार्ग से इस शाश्वत् और सनातन श्रृंखला का सिद्धान्त टूट जाता है। इस आपत्ति के लिए मुझे क्षमा करें?"

गौतम ने मौन और निश्चल भाव से सब कुछ सुना था। और अब वह अपनी कोमल, विनम्र और सुस्पष्ट वाणी में बोले, "तुमने उपदेश को भली प्रकार सुना है-हे ब्राह्मण-पुत्र! और तुम धन्य हो कि तुमने यह दोष निकाल लिया है। इनके बारे में फिर भली प्रकार विचार करना, मैं तुम्हें सावधान किए देता हूँ कि तुम्हारे अन्तर में ज्ञान की पिपासा है, सम्मतियों और शब्दों के संघर्ष के बारे में तुम्हें सचेत रहना है। सम्मतियाँ निरर्थक होती हैं, बुद्धिमत्तापूर्ण हों अथवा मूर्खतापूर्ण; कोई भी उन्हें अंगीकार कर सकता है अथवा उन्हें अवहेलित कर सकता है। तुमने मेरे उपदेशों को सुना, वह कोई सम्मति नहीं है, और न उनका उद्देश्य ज्ञान-पिपासुओं के लिए दुनिया का रहस्य प्रकट करना है। इसका उद्देश्य बिलकुल भिन्न है, इसका लक्ष्य दुःख से मुक्ति पाना है। गौतम केवल यही शिक्षा देता है, और कुछ भी नहीं।"

"मुझ पर क्रुद्ध न हों, हे अर्हत!" युवक ने कहा, "आपसे निवेदन करने का मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि मैं आपसे शाब्दिक संघर्ष में पड़ना चाहता हूँ। आपका यह कथन सर्वथा उचित है कि सम्मतियाँ निरर्थक होती हैं, किन्तु क्या मैं एक चीज और भी कह सकता हूँ। मैंने क्षणमात्र के लिए भी आप में सन्देह नहीं किया। और मैंने इसमें भी सन्देह नहीं किया कि आप बुद्ध हैं और आपने उस लक्ष्य की प्राप्ति कर ली है जिसके लिए सहस्रों ब्राह्मण-पुत्र प्रयत्न कर रहे हैं। आपने अपनी जिज्ञासा के द्वारा, अपने प्रकार से, विचार और ध्यान के द्वारा, ज्ञान और प्रकाश से उसकी उपलब्धि की है। आपने उपदेशों के द्वारा कुछ भी प्राप्त नहीं किया और मेरा भी यही विचार है, हे अर्हत, कि उपदेश के द्वारा कोई मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। जिन क्षणों में आपको ज्ञान का आविर्भाव हुआ, उस स्थिति को शब्दों और उपदेशों के द्वारा किसी को समझाना सम्भव नहीं है। ज्ञान पण्डित बुद्ध के उपदेशों की सीमा विस्तृत है, वह अनेक वस्तुओं का आलिंगन करते हैं, वे बहुत कुछ शिक्षा देते हैं कि किस प्रकार सुकर्ममय जीवन व्यतीत किया जाय और असत् का परिहार किया जाय, लेकिन एक वस्तु है जो इस सुस्पष्ट सुयोग्य शिक्षा में नहीं है-इसमें वह रहस्य ज्ञापित नहीं किया गया, जिसे अर्हत ने स्वयं अनुभव किया है तथा कोटि-कोटि जनों में से केवल एक आपने। आपका उपदेश सुनकर मैं यही सोचता रहा और मैंने यही अनुभव किया। इसलिए मैं अपनी यात्रा को जारी रखता हूँ कोई दूसरा और श्रेष्ठतर सिद्धान्त खोजने के लिए नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वैसा कोई भी नहीं है किन्तु समस्त सिद्धान्तों और शिक्षकों को तिलांजलि देकर अपना लक्ष्य स्वयं प्राप्त करने अथवा मृत्यु का आलिंगन करने के लिए। लेकिन, हे अर्हत! मेरी स्मृति में यह क्षण अमिट रहेगा आज जब कि मैं एक पवित्रात्मा के दर्शन कर रहा हूँ।"

बुद्ध की पलकें नीचे झुक गईं। उनकी भावनाविहीन मुद्रा पूर्ण एकात्मकता से गम्भीर हो उठी।

"मेरा विचार है तुम्हारा तर्क निराधार नहीं है।" अर्हत ने आहिस्ता से कहा, "तुम्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता मिले, लेकिन मुझे बताओ कि क्या तुमने पुण्यकर्म भिक्षुओं को और मेरे अनेक भाइयों को जिन्होंने इस शिक्षा को ग्रहण किया है, देखा है ? क्या तुम सोचते हो, हे दूरागत श्रमण, कि इन सबके लिए यह उचित होगा कि वे इस मार्ग का परित्याग करके पुनः संसार और इच्छाओं के मार्ग को ग्रहण कर लें?"

"वह विचार तो मेरे मन में कभी आया ही नहीं," सिद्धार्थ ने उच्च स्वर में कहा, "वे सभी इस उपदेश का पालन करें! उन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो! मेरे लिए दूसरे के जीवन का निर्णय करना अभीष्ट नहीं। मुझे अपने ही मार्ग की खोज करना है। मुझे चयन करना है और अस्वीकार कर देना है। हम श्रमण लोग, हे अर्हत, स्व से मुक्ति पाना चाहते हैं। यदि मैं आपके अनुयायियों में से एक होता, तो मुझे भय है कि मैं केवल ऊपरी सतह पर ही रह जाता, मैं अपने को धोखा देता होता कि मैं शान्ति प्राप्त कर चुका हूँ और मुक्त हूँ, जबकि वास्तविकता यह होती कि मेरी निजता जीवित रहती और परिवर्द्धित होती रहती। क्योंकि वह आपके उपदेशों और आपके भिक्षु-वर्ग के प्रति मेरी आस्था और प्रेम के रूप में परिवर्तित हो जाती।"

अस्फुट मुस्कान तथा अव्याहत तेज और मैत्रीभाव सहित बुद्ध ने उस अपरिचित के मुँह की ओर दृढ़ता के साथ देखा और एक अलक्ष्य भाव से उसे विमुक्त कर दिया।

"तुम चतुर हो श्रमण," अर्हत ने कहा। "वाक्चातुर्य के रहस्य को तुम जानते हो, मेरे मित्र, चातुर्य की अतिशयता के प्रति सदैव खबरदार रहना!"

बुद्ध तब उठ गए और उनकी वह दृष्टि, वह अधखिली-मुस्कान सिद्धार्थ की स्मृति में सदैव के लिए अमिट हो गई।

उसने सोचा, आज तक मैंने कोई मनुष्य नहीं देखा, इस प्रकार देखते, मुस्कराते, बैठते और चलते; कोई आदमी नहीं देखा। मैं भी उसी तरह देखना, मुस्कराना, बैठना और चलना चाहता हूँ, कितना निर्मुक्त, कितना संयत, कितना उत्तम, कितना स्पष्ट कि शिशुवत् और कितना रहस्यमय था यह सब! केवल वही आदमी इस प्रकार देख और चल सकता है, जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है। मैं भी अपने आप पर विजय प्राप्त करूँगा।

मैंने आज केवल एक आदमी देखा है, केवल एक आदमी, सिद्धार्थ ने सोचा, जिसके सम्मुख मेरी आँखें झुकी हैं। मैं और किसी भी आदमी के सम्मुख अपनी आँखें नहीं झुकने दूंगा। किसी का उपदेश मुझे आकर्षित नहीं कर सकेगा; क्योंकि इस आदमी का उपदेश वैसा नहीं कर सका।

बुद्ध ने मुझे लूट लिया, सिद्धार्थ सोचता रहा। उसने मुझे लूट लिया परंतु उसने बहुत अधिक मूल्यवान् कुछ दे दिया। उसने मेरा मित्र मुझसे छीन लिया, जिसकी मुझ में आस्था थी, वह मेरी छाया था और अब गौतम भी छाया है। लेकिन उसने मुझे सिद्धार्थ दे दिया, मेरा आपा मुझे प्रदान कर दिया।

  • सिद्धार्थ (उपन्यास) अध्याय 4-8 : हरमन हेस
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