शेष प्रश्न (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Shesh Prashna (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

17

चारों तरफ़ देखभालकर कमल सन्न रह गयी। घर की शक़्ल क्या हो रही है! सहसा किसी को विश्वास नहीं हो सकता कि यहाँ कोई आदमी भी रहता है। किसी के आने की आहट सुनाई दी और एक सत्रह-अठारह साल का लड़का आ खड़ा हुआ।

राजेन्द्र ने उसका परिचय देते हुए कहा - ”यह शिवनाथ बाबू का नौकर है। पथ्य बनाने से लेकर दवा खिलाने तक सब इसी की ड्यटी में है। सूर्यास्त से ही शायद सोना शुरू किया था इसने, अभी उठकर आ रहा है। रोगी के सम्बन्ध में अगर कुछ हिदायत देनी हो तो इसी को दीजिये। मालूम होता है कि समझ तो जायेगा, बिल्कुल बेवकूफ़ नहीं है। नाम कल पूछा तो था पर याद नहीं रहा। क्या नाम है रे?”

”फगुआ।”

”आज दवा दी थी?”

लड़के ने बायें हाथ की दो उँगलियाँ दिखाते हुए कहा - ”दो ख़ुराक दी है।”

”और कुछ दिया है।”

”हाँ - दूध भी पिला दिया है।”

”बहुत अच्छा किया। ऊपर के पंजाबी बाबुओं में से कोई आया था?”

लड़के ने याद करके कहा - ”शायद दोपहर को एक बाबू आये थे।”

”शायद? तब तुम क्या कर रहे थे, सो रहे थे?”

कमल ने कहा - ”फगुआ, यहाँ झाडू-आड़ू कुछ है या नहीं?”

फगुआ सिर हिलाकर झाड़ू लेने चला गया। राजेन्द्र बोला - झाड़ू का क्या करेंगी? उसे पीटेंगी क्या?

कमल ने गम्भीर होकर कहा - यह क्या मजाक का वक़्त है? माया-ममता क्या तुम्हारे बिल्कुल है ही नहीं?

पहले थी। फ्लड और फ़ेमिन रिलीफ में उन्हें झाड़-पोंछकर अलग फेंक आया हूँ।”

फगुआ झाड़ू लेकर हाजिर हुआ। राजेन्द्र ने कहा - ”मैं भूख के मारे मरा जा रहा हूँ, कहीं जाकर कुछ खा आऊँ। तब तक झाड़ू और इस लड़के का जो उपयोग कर सकें, आप कीजिये, वापस आकर आपको मैं घर पहुँचा दूँगा। डरियेगा नहीं, मैं डेढ़-दो घण्टे में लौट आता हूँ।” कहकर वह जवाब की परवाह किये बगैर ही चल दिया।

शहर के किनारे का यह स्थान थोड़ी ही देर में निःशब्द और निर्जन हो गया। जो लोग ऊपर रहते हैं उनका कोलाहल और चलने-फिरने की आवाज़ भी बन्द हो गया। मालूम होता है कि वे सब सो गये है। शिवनाथ की खबर लेने कोई नहीं आया। बाहर अंधेरी रात्रि और भी गहरी होने लगी। जमीन पर कम्बल बिछाकर फगुआ ऊँघने लगा। बाहर का दरवाजा बन्द करने का समय हो रहा था। तभी सड़क पर साइकिल की घण्टी सुनाई दी और दूसरे ही क्षण दरवाजा धकेलकर राजेन्द्र भीतर आ गया। उसने इधर-उधर देखा और इस थोड़े-से समय में सारे कमरे में काफ़ी परिवर्तन देखकर कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा, फिर हाथ की पोटली बगल की तिपाई पर रखता हुआ बोला - ”आपको जैसा सोचा था दूसरी स्त्रिायों की तरह, वैसी आप नहीं हैं। आप पर भरोसा किया जा सकता है।”

कमल ने कुछ जवाब नहीं दिया, चुपके से उसके मुँह की ओर देखा। राजेन्द्र ने कहा - इस बीच में आपने तो बिस्तर तक बदल डाला है! और सब कुछ तो आपने ढूँढ़-खोजकर निकाल लिया, पर इन्हें उठाकर उस पर सुलाया कैसे?

कमल ने आहिस्ते से कहा - तरक़ीब मालूम हो तो यह काम मुश्किल नहीं।

”मगर मालूम कैसे हो? मालूम होने की तो कोई बात नहीं थी।”

कमल ने कहा, ”मालूम करना क्या सिर्फ़ तुम्हीं लोगों के हाथ की बात है? बचपन में चाय बगीचे में मैंने बहुत-से रोगियों की सेवा की है।”

”अच्छा, यह बात है!“ कहकर उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ायी, फिर कहा - ”आते वक़्त साथ में कुछ खाने को लेता आया हूँ। देख गया था कि सुराही में पानी है, लीजिये, खा लीजिये, मैं बैठा हूँ।”

कमल उसके चेहरे की तरफ़ देखकर ज़रा हँस दी, बोली - खाने के बारे में तो मैंने कहा नहीं था। अचानक यह बात सूझ कैसे गयी?

राजेन्द्र बोला - ”बात सच है, सूझा तो अचानक ही। जब मेरा पेट भर गया। तब न जाने क्यों ऐसा लगा कि आपको भी भूख लगी होगी। आते वक़्त दुकान से थोड़ा-सा लेता आया। देर न कीजिये, खाने बैठिये।” कहकर वह खुद ही सुराही उठा लाया। पास ही कलईदार गिलास रखा था। बोला - ”ठहरिये, बाहर से इसे माँज लाऊँ।” कहता हुआ उसे बाहर ले गया। वह कल ही जान गया था कि इस घर में कहाँ क्या रखा है। लौटा तो खोजकर साबुन का टुकड़ा उठा लाया और बोला - ”आपने बहुत व्यवस्था की है, ज़रा सावधान रहना अच्छा है। मैं पानी देता हूँ, आप पहले हाथ धो लीजिये।”

कमल को अपने पिता की याद आ गयी। उनकी भी बातों में इसी तरह रसकस कुछ नहीं होता था, मगर वे हार्दिकता से भरी रहती थीं। उसने कहा - ”हाथ धोने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर खा नहीं सकूँगी भाई। तुम्हें तो शायद मालूम है किे मैं खुद अपने हाथ से बनाकर खाया करती हूँ और दूसरे, यह सब कीमती अच्छी-अच्छी मिठाइयाँ भी मैं नहीं खाती। मेरे लिये परेशान होने की ज़रूरत नहीं, मैं तो हमेशा की तरह घर जाकर ही खाऊँगी।”

”तो फिर ज़्यादा रात न करके अब घर ही लौट चलिये, आपको पहुंचा दूं।”

”आप फिर यहीं लौटकर आयेंगे?”

”हाँ।”

”कब तक रहियेगा?”

”कम से कम कल सबेरे तक। ऊपर के पंजाबी भाइयों के हाथ कुछ रुपये दे गया था, उनसे एक बार मुलाक़ात बग़ैर किये नहीं हिलने का। ज़रा थक गया हूँ, पर इसकी कुछ परवाह नहीं। मुझे नहीं मालूम था कि इतनी लापरवाही होगी। उठिए, फिर ताँगा नहीं मिलेगा, पैदल जाना पड़ेगा। लौटते वक़्त मोचियों के मुहल्ले में भी ज़रा देखते जाना है। दो के मरने की बात थी, देखना है, उन लोगों ने क्या किया?”

कमल को फिर उस बात का ख़्याल आ गया कि इस आदमी के हृदय में अनुभूति नाम की कोई बला ही नहीं। लगभग यंत्र-सा काम करता है। न जाने कौन-सी अज्ञात प्रेरणा इसे बार-बार कार्य में जोत देती है, और यह काम करता चला जाता है! अपने लिये नहीं, और शायद कोई आशा लेकर भी नहीं करता। कार्य इसके रक्त में तथा सारे शरीर में जल-वायु की भाँति ही सहज स्वाभाविक हो गया है। मजा यह कि औरों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं, वे सोचते हैं कि ऐसा होता कैसे है? कमल ने पूछा - ”राजेन्द्र, आप खुद भी तो डाक्टर हैं?”

”डाक्टर? नहीं तो। सिर्फ़ ज़रा डाक्टरी स्कूल में कुछ दिन पढ़ा था।”

”तो फिर उन लोगों का इलाज कौन करता है?”

”यम।”

”और आप क्या करते हैं?”

”मैं उनके कार्य में मदद करता हूँ, उनका गुण-लब्ध परम भक्त हूँ।” कहकर वह कमल के विस्मयाच्छन्न चेहरे की तरफ़ क्षण-भर देखता रहा; फिर ज़रा हँसकर बोला - ”यह नहीं, वे हैं यम-राज। बलिहारी है उसकी प्रतिभा की जिसने राजा कहकर इन्हें पहले पहल अभिनन्दित किया था। सचमुच है ता राजा ही। जैसी दया है, वैसा ही विवेक। मैं शर्त बद कर कह सकता हूँ कि विश्व-जगत में कोई अगर सृष्टिकत्र्ता है तो वे उसकी सर्वश्रेष्ठ सृष्टि है।”

कमल ने आहिस्ते से पूछा - ”क्या आप मजाक कर रहे हैं राजेन्द्र?”

”कतई नहीं। सुनकर सतीश दादा मुँह गम्भीर बना लेते हैं, हरेन्द्र दादा गुस्सा हो जाते हैं, मुझे ‘सिनिक’ कहते हैं। और अपने आश्रम में उन सबने मिलकर कृच्छता, संयम, त्याग और अद्भुत कठोरता के तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र पैनाकर मानो यम-राज के विरुद्ध विद्रोह घोषित कर रखा है। वे समझते हैं कि मैं उनका उपहास कर रहा हूँ। मगर सो बात नहीं है। गरीब दुखियों के मुहल्लों में वे जाते नहीं, अगर जाते तो मेरा विश्वास है कि वे भी मेरी तरह परम राज-भक्त हो जाते और श्रद्धा से झुककर यम-राज का गुणगान करते, अकल्याण समझकर उन्हें गाली देते न फिरते।”

कमल ने कहा - यही अगर तुम्हारा वास्तविक मत हो तो तुम्हें ‘सिनिक’ कहने में बुराई क्या है?

”बुराई का विचार पीछे होगा। चलेंगी एक बार मेरे साथ मोचियों के मुहल्लों में? कतार की कतार पड़ी है, सिर्फ़ आजकल के एन्फ्लुएँजा की वजह से ही नहीं - हैजा, चेचक, प्लेग - कोई भी बहाना भर मिलना चाहिये। औषधि नहीं, पथ्य नहीं, सोने के लिये बिस्तर नहीं, ढँकने के लिये कपड़ा नहीं, मुँह में पानी देने के लिये आदमी नहीं - देखते ही एकाएक घबरा जाना पड़ता है कि आखिर इसका किनारा कहाँ है? पर उसी वक़्त किनारा नजर आ जाता है, चिन्ता दूर हो जाती है और मन-ही-मन कहने लगता हूँ - कोई डर नहीं भाई, केाई डर नहीं। - समस्या चाहे कितनी गम्भीर क्यों न हो, उसका समाधान करने की जिन पर जिम्मेदारी है, वे आ ही रहे होंगे। अलग-अलग देशों में अलग-अलग व्यवस्थाएँ हैं, पर हमारी इस देव-भूमि में सारी की सारी जिम्मेदारी यमराज ने ले रखी है, स्वयं राजाधिराज यमराज ने। एक हिसाब से हम बहुत ज़्यादा सौभाग्यवान हैं। - लेकिन न जाने कहाँ से यह सब बातें निकल आयी। चलिये, बहुत रात होती जा रही है। बहुत-सा रास्ता पैदल तय करना है।”

”मगर तुम्हें तो फिर उसी रास्ते वापस भी आना है?”

”सो तो आना ही है।”

”तुम्हारा मोची-मुहल्ला है कितनी दूर?”

”पास ही है, याने यहाँ से एक मील के भीतर।”

”तो तुम साइकिल से घूम आओ - मैं बैठी हूँ।”

राजेन्द्र को आश्चर्य हुआ, बोला - सो कैसे! आपने तो दो दिन से खाया नहीं है?

”किसने दी तुम्हें यह ख़बर?”

”अभी-अभी ख़्याल की बात हो रही थी न, उसी से। पर ख़बर मैंने खुद ही प्राप्त की है। आते वक़्त आपका रसोईघर एक बार झाँककर देख आया था, आलू-भात तैयार रखा था - बटलोई का चेहरा देखने से सन्देह नहीं रहा कि वह गत रात्रि का बनाया हुआ है। अर्थात, दो दिन से आपका कोरा उपवास चल रहा है। लिहाजा या तो चलिये या फिर जो लाया हूँ उसे खा लीजिये। आज हाथ से बनाने का बहाना अवैध है।”

”अवैध?” कमल ज़रा हँसकर बोली - मगर मेरे लिये तुम्हें इतना सिर दर्द क्यों?

”सो नहीं जानता। कारण अभी खुद ही तलाश कर रहा हूँ, पता लगते ही आपको ख़बर दूँगा।”

कमल थोड़ी देर कुछ सोचती रही, उसके बाद बोली - ”ज़रूर देना। शरमाना मत।” फिर कुछ देर चुप रहकर उसने कहा - ”राजेन्द्र, तुम्हारे आश्रम के भाईसाहब ने तुम्हें बहुत कम पहचाना है, इसी से वे तुम्हें उपद्रव समझते हैं। पर मैं तुम्हें पहचानती हूँ। लिहाजा, मुझे भी पहचाने रखना तुम्हारे लिये ज़रूरी है। लेकिन, उसके लिये समय चाहिये, वह परिचय वाद-विवाद करने से नहीं होगा।” और फिर ज़रा स्थिर रहकर कहने लगी - ”मैं खुद अपने हाथ से बनाकर खाती हूँ, एक बेर खाती हूँ, सो भी अत्यन्त गरीबी का खाना - मुट्ठी भर दाल-भात, बस। पर यह मेरा व्रत नहीं है, इसलिये तोड़ भी सकती हूँ। लेकिन सिर्फ़ इसीलिये नियम भंग नहीं करूँगी कि दो दिन से खाया नहीं है। तुम्हारे इस स्नेह को मैं नहीं भूलूँगी, पर तुम्हारी बात भी न रख सकूँगी राजेन्द्र। इसके लिये तुम नाराज़ मत होना, भला!“

”नहीं।”

”क्या सोच रहे हो, बताओ तो सही?”

”सोच रहा हूँ, परिचय की भूमिका का यह अंश बुरा नहीं रहा। देखता हूँ, सहज में भुलाया नहीं जा सकेगा।”

”सहज में मैं तुम्हें भूलने कब दूँगी?” कहकर कमल सहसा हँस पड़ी। बोली - ”मगर अब देर मत करो, जाओ। जितनी जल्दी हो सके, लौट आओ। उस बड़ी आराम कुर्सी पर कम्बल बिछा रखूंगी - दो चार घण्टे सोने के बाद जब सबेरा होगा तब हम लोग घर चलेंगे, क्यों ठीक है न?”

राजेन्द्र ने सिर हिलाकर कहा, ”अच्छी बात है। मैंने सोचा था कि आज की रात भी कोरी आँखों बितानी पड़ेगी, लेकिन छुट्टी मंजूर हो गयी - सेवा का भार आपने खुद अपने ही ऊपर ले लिया। अच्छा हुआ, लौटने में शायद मुझे ज़्यादा देर न लगेगी, पर इस बीच में आप सो मत जाइयेगा।”

कमल ने कहा - ”नहीं। पर यह खबर अपको किसने दी कि ये मेरे पति हैं? यहाँ के भले आदमियों ने शायद? किसी ने भी दी हो, उसने मजाक किया है। विश्वास न हो तो किसी दिन इन्हीं से पूछ लीजियेगा, मालूम हो जायेगा।”

राजेन्द्र ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपके से बाहर चला गया।

शिवनाथ मानो इसी की बाट देख रहा था। उसने करवट बदल आँखें खोलकर देखा और कहा - ”यह कौन है?”

सुनकर कमल चौंक पड़ी। कण्ठ का स्वर स्पष्ट था, जड़ता का चिह्न भी न था। आँखों की चितवन में थोड़ी-बहुत सुस्ती ज़रूर थी, पर चेहरा बिल्कुल स्वाभाविक था। अधूरी नींद उचट जाने से जैसा आच्छन्न भाव रहता है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं था। पर कमल सहसा इस बात पर विश्वास न कर सकी कि इतनी जबरदस्त बीमारी इतनी आसानी से और इतनी जल्द खत्म हो गयी। इसी से जवाब देने में उसे देर लगी।

शिवनाथ ने फिर पूछा - ”यह कौन आदमी है शिवानी? तुम्हें साथ लेकर यही आये हैं?”

”हाँ। मुझे भी लाये हैं और तुम्हें भी कल यहाँ पहुँचा गये हैं। वही हैं।”

”नाम क्या है?”

”राजेन्द्र।”

”तुम दोनों क्या अभी तक एक ही मकान में रह रहे हो?”

”कोशिश तो यही कर रही हूँ। मगर रह जायें तो मेरा भाग्य।”

”हूँ। उसे यहाँ क्यों लायी हो?”

कमल ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। शिवनाथ ने भी फिर कोई प्रश्न नहीं किया, आँख मींचे पड़ा रहा। बहुत देर तक सन्न रहने के बाद शिवनाथ ने पूछा - ”यह बात तुमने किसके मुँह से सुनी कि मेरे साथ तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा?

मैंने कहा है - ऐसा लोग कह रहे हैं क्या?”

कमल ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, किन्तु इस बार उसने खुद ही प्रश्न किया - ”मुझसे तुमने ब्याह नहीं किया, सो मैंने इस पर भले ही विश्वास न किया हो, तुम तो करते थे? पर मुझे छोड़कर चले आते वक़्त यह बात तुम मुझसे कह क्यों नहीं आये? यही सोच रखा था क्या तुमने कि मैं तुम्हें बाँधकर रोक सकती हूँ या रो-पीटकर अनर्थ खड़ा कर सकती हूँ? ऐसा मेरा स्वभाव नहीं, सो तो तुम अच्छी तरह जानते ही थे, फिर कहकर क्यों नहीं आये?”

शिवनाथ थोड़ी देर नीरव रहकर बोला - काम की झंझट के कारण यहाँ रोजगार की ख़ातिर कुछ दिनों के लिये मकान लेकर रहने लगना ही क्या त्यागना हो गया? मैं तो सोचता था -

शिवनाथ की बात मुँह की मुँह में ही रह गयी। कमल बीच में ही बोल उठी- ”रहने दो, मैं नहीं जानना चाहती।” पर कहने के साथ ही वह अपनी उत्तेजना से आप ही लज्जित हो गयी। कुछ देर चुप रहकर अपने को शान्त करके अन्त में बोली- ”तुम क्या सचमुच ही बीमार थे?”

”सच नहीं तो क्या झूठ?”

”सचमुच ही अगर बीमार थे तो वहाँ न जाकर आशु बाबू के घर किसलिये गये? तुम्हारे एक काम ने तो मुझे व्यथा ही पहुँचाई है, पर दूसरे काम ने मेरा इतना अपमान किया है कि जिसकी हद नहीं! मैं जानती हूँ, यह सुनकर कि मुझे दुख हुआ है तुम हँसोगे; पर यह जानना मेरे लिये सान्त्वना है। तुम इतने ओछे हो सिर्फ़ इसीलिये, मैंने सह लिया, नहीं तो मुझसे नहीं सहा जाता।”

शिवनाथ ने धीरे-धीरे कहा - तुम्हारी इस दया के लिये मैं कृतज्ञ हूँ शिवानी।

कमल ने कहा - तुम मुझे ‘शिवानी कहकर मत पुकारो, कमल कहकर पुकारा करो।

”क्यों?”

”सुनने में मुझे घृणा होती है, इसीलिये।”

”मगर एक दिन तो तुम इसी नाम को सबसे ज़्यादा पसन्द करती थी।” कहते हुए शिवनाथ ने कमल का हाथ अपने हाथ में ले लिया। कमल चुप रही। अपने हाथ को लेकर खींचातानी करने में उसे संकोच मालूम हुआ।

”चुप हो गयी, जवाब क्यों नहीं देतीं?”

कमल पूर्ववत चुप रही।

”क्या सोच रही हूँ, जानते हो? सोच रही हूँ कि इन बातों की याद दिलानेवाले आदमी को कितना बड़ा पाखण्डी होना चाहिये!“

शिवनाथ की आँखों में आँसू छलक आये, उसने कहा - पाखण्डी मैं नहीं हूँ शिवानी। एक दिन आयेगा जब अपनी भूल तुम आप ही समझ जाओगी - उस दिन तुम्हारे पश्चाताप की सीमा न रहेगी। क्यों मैंने अलहदा कमरा किराये पर लिया है-

”लेकिन अलहदा कमरा किराये पर लेने का कारण तो तुम से मैंने एक बार नहीं पूछा? मैंने तो सिर्फ़ इतना ही जानना चाहा था कि यह बात तुम मुझे जताकर क्यों नहीं आये? तुम्हें एक दिन के लिये भी मैं पकड़कर नहीं रखती।”

शिवनाथ की आँखों से आंसू ढलक पड़े। उसने कहा - ”कहने की मुझे हिम्मत नहीं पड़ी शिवानी?”

”क्यों?”

शिवनाथ कुरते की आस्तीन से आँखे पोंछता हुआ बोला - ”एक तो रुपयों की तंगी, उस पर आये दिन बाहर जाना पड़ता पत्थर खरीदने माल लादने-उतारने के लिये स्टेशन के पास एक - “

कमल बिस्तर से उठकर दूर एक कुर्सी पर जा बैठी। बोली - ”मुझे अपने लिये अब दुख नहीं होता। होता है एक दूसरे आदमी के लिये। पर आज तुम्हारे लिये भी दुख हो रहा है शिवनाथ बाबू!“

बहुत दिन बाद फिर आज उसने नाम लेकर पुकारा। बोली - ”देखो, कोरी वंचना को ही मूल-धन मानकर दुनिया में रोजगार नहीं किया जा सकता। मेरे साथ, हो सकता है कि फिर कभी तुम्हारी मुलाकात न हो, लेकिन मेरी तुम्हें याद आयेगी। जो होना था सो तो हो चुका, वह अब वापस नहीं आ सकता; परन्तु भविष्य में जीवन को और एक पहलू से देखने की कोशिश करोगे तो हो सकता है कि तुम्हारा भला हो, तुम अच्छी तरह रहो।”

कमल ने बड़ी मुश्किल से अपने आँसू रोके। यह बताकर कि आशु बाबू ने उसे अपने घर से हटा। दिया, उसका असली कारण क्या था। वह इतनी बड़ी चोट, इतनी बात हो जाने पर भी उसे न पहुँचा सकी।

बाहर साइकिल की घण्टी सुन पड़ी। शिवनाथ बिना कुछ बोले चुपचाप करवट बदलकर सो गया।

भीतर आकर राजेन्द्र ने धीमे स्वर से कहा - अच्छा, सचमुच ही जाग रही हैं आप। रोगी का क्या हाल है? दवा-अवा कुछ खिलायी-पिलायी क्या?

कमल ने सिर हिलाकर कहा - नहीं, कुछ नहीं खिलाया।

राजेन्द्र ने उँगली से इशारा करके कहा - चुप। नींद उचट जायेगी, नींद खराब होना अच्छा नहीं।

”नहीं। पर तुम्हारे मोचियों ने क्या किया?”

”वे भले आदमी थे; बात रख ली। मेरे पहुँचने के पहले ही यमराज के भैंसे आकर दो आत्माओं को ले गये। सबेरे दोनों मुर्दों को म्युनिसिपालिटी के भैंसों के हवाले कर छुट्टी पा लूँगा। और भी आठ-दस साँसें भर रहे हैं, कल एक बार आपको ले जाकर दिखा लाऊँगा। आशा है, आपको पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होगा। मगर आराम कुर्सी पर मेरा कम्बल का बिछौना कहाँ है? भूल गई?”

कमल ने कम्बल बिछा दिया।

”ओफ् - जान में जान आयी!“ कहकहर उसने एक लम्बी साँस ली और हथेली पर पाँव पसारकर वह पड़ रहा। बोला - ”दौड़-धूप करते-करते पसीने से लथपथ हो गया हूँ, पंखा-वंखा कुछ है क्या?”

कमल हाथ में पंखा लेकर कुरसी खींचती हुई उसके सिरहाने बैठ गयी और बोली - ”मैं हवा कर रही हूँ, तुम सो जाओ। रोगी के लिये दुश्चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं, वे अच्छे हैं।”

”वाह! तब तो सब तरफ़ शुभ-ही-शुभ समाचार है।” कहते हुए उसने आँखें मींच लीं।

18

इन्फ्लुएँजा इस देश में बिल्कुल नयी बीमारी नहीं है, ‘डेंगू’ या हड्डी तोड़ बुखार के नाम से यहाँ वाले इसे बहुत कुछ अवज्ञा और उपहास की दृष्टि से देखते रहे हैं। लोगों की यही धारणा थी कि दो-तीन दिन तक़लीफें देने के सिवा उसका और कोई गहरा उद्देश्य नहीं होता। परन्तु इसकी किसी को कल्पना तक न थी कि सहसा ऐसी दुर्निवार महामारी के रूप में उसका प्रकोप हो सकता है। लिहाजा, इस बार अकस्मात इसी अपरिमेय शक्ति की सुनिश्चित कठोरता से लोग पहले तो हतबुद्धि-से हो गये, बाद में जिससे जिधर बन सका, भाग खड़ा हुआ। अपने और पराये में ज़्यादा भेदभाव न रहा। बीमार की तीमारदारी करना तो दूर रहा, मरते वक़्त मुँह में पानी देनेवाला भी बहुतों के भाग्य में न जुटा। शहर और गांव सर्वत्र ही एक-सी दशा थी। आगरे के भाग्य में भी अन्यथा कुछ नहीं हुआ। उस समृद्ध जन-बहुल प्राचीन नगरी की शक्ल कुछ ही दिनों में बिल्कुल ही बदल गयी। स्कूल-कॉलेज बन्द हो गये हैं, बाज़ार और मण्डियों की दुकानों में ताले लग गये हैं, जमुना का किनारा सुनसान है - हिन्दू और मुसलमान शववाहकों के शंकाकुल त्रस्त पैरों की आवाज़ के सिवाय सड़कों पर बिल्कुल सन्नाटा है। किसी भी तरफ़ देखने से यही मालूम होता है कि मारे भय और आशंका के सिर्फ़ आदमियों की ही नहीं, बल्कि मकानों और पेड़ पौधों तक की शक्ल-सूरत बिगड़ गयी है। शहर की ऐसी हालत में चिन्ता, दुख और शोक की ज्वाला के कारण बहुतों के साथ बहुतों का समझौता हो गया है - कोशिश करके बातचीत द्वारा या मध्यस्थ मानकर नहीं, बल्कि यों ही अपने आप। आज भी जो लोग जिन्दा हैं, अभी तक इस दुनिया से अलग नहीं हुए, वे सभी मानो परस्पर एक-दूसरे के परम आत्मीय हो गये हैं। बहुत दिनों से जिनमें बातचीत तक बन्द थी, सहसा रास्ते में भेंट होते ही उनकी भी आँखों में आंसू छलक आते हैं - किसी का भाई मर गया है तो किसी का लड़का, किसी की स्त्री मर गयी है तो किसी की लड़की, नाराज़ी, से मुँह फेर लेने की ताकत अब किसी में नहीं रह गयी - कभी किसी से बात हुई और कभी वह भी नहीं हुई, चुपचाप मन ही मन एक दूसरे की कल्याण कामना करके विदा ले ली है।

मोचियों के मुहल्ले में अब ज़्यादा आदमी नहीं बचे हैं। जितने मरे उतने ही भाग गये हैं। बाकी के लिये राजेन्द्र अकेला ही काफी है। उनकी गति और मुक्ति का भार स्वयं उसी ने अपने जिम्मे ले लिया है। सहकारिणी के तौर पर कमल हाथ बँटाने आयी थी। उसी का उसको भरोसा था कि बचपन में चाय के बगीचे में बीमार कुलियों की उसने सेवा की थी, पर दो ही तीन दिन में वह समझ गयी कि उस पूँजी से यहाँ काम नहीं चल सकता। उफ् मोचियों की वह कैसी दुर्दशा थी! भाषा में उसका वर्णन करके विवरण देना असम्भव है। झोपड़ियों में पाँव धरते ही सारा शरीर काँप उठता था - कहीं भी बैठने को जगह नहीं। वहाँ आने के पहले कमल नहीं जानती थी कि गन्दगी कैसा भयंकर रूप धारण कर सकती है। इस बात की कल्पना को भी वह अपने मन में स्थान न दे सकी कि इन सबके मध्य में हरदम रहते हुए, अपने को सावधानी से बचाये रखकर, रोगियों की सेवा और देखभाल की जा सकती है। बड़े दर्प के साथ वह राजेन्द्र के साथ यहाँ आयी थी। दुस्साहसिकता में वह किसी से कम नहीं थी - संसार की किसी बात से वह डरती नहीं थी - मौत से भी नहीं, और उसने झूठ भी नहीं कहा था; पर यहाँ आकर उसने समझा कि इसकी भी एक सीमा है। कुछ दिनों में ही डर के मारे उसकी देह का ख़ून सूखने लगा। फिर भी बिल्कुल ही दिवालिया हौकर लौट आने के पहले राजेन्द्र उसे आश्वासन देते हुए बार-बार कहने लगा - ऐसी निर्भीकता मैंने जीवन में नहीं देखी। ठीक तूफान के मुँह को ही आपने संभाल लिया। पर अब ज़रूरत नहीं - आप घर जाकर कुछ दिन आराम कीजिये। इनके लिये जो कुछ आप किये जा रही हैं उसका ऋण ये अपने जीवन में न चुका सकेंगे।

”और तुम?”

राजेन्द्र ने कहा - ”इन बचे हुओं को महायात्रा कराकर मैं भी भागूँगा। नहीं तो, आप चाहती हैं कि इनके साथ मैं भी मर जाऊँ?”

कमल को जवाब ढूँढ़े न मिला। क्षण-भर उसकी तरफ़ देखती रही, फिर चली आयी। मगर इसके माने यह नहीं कि वह इतने दिनों में अपने घर पर बिल्कुल नहीं आ सकी हो। रसोई बनाकर साथ ले जाने के लिये उसे रोज एक बार अपने घर आना पड़ता था। पर आज यह जानकर कि उसे फिर उस भयानक स्थान में वापस न आना पड़ेगा, एक ओर जैसे उसे तसल्ली हुई, वैसे ही दूसरी ओर अव्यक्त उद्वेग से उसका सारा जी भर उठा। आते वक़्त वह राजेन्द्र से खाने के बारे में पूछना भूल गयी थी। मगर यह त्रुटि चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, जहाँ उसे वह छोड़ आयी है, उसके लेखे कुछ नहीं थी।

स्कूल कालेज बन्द होने के समय से ही हरेन्द्र का ब्रह्मचर्याश्रम भी बन्द है। ब्रह्मचारी बालकों को किसी निरापद स्थान पर पहुँचा दिया गया है और देखरेख के लिये सतीश उनके साथ है। अविनाश की बीमारी के कारण हरेन्द्र खुद नहीं जा सका।

आज वह कमल के घर आया और नमस्कार करके बोला - ”पाँच-छह दिनों से रोज आ रहा हूँ, आपसे भेंट ही नहीं होती। कहाँ थीं?”

कमल ने मोचियों के मुहल्ले का नाम लिया तो वह अत्यन्त विस्मित हुआ, बोला - ”वहाँ? वहाँ तो, सुनते हैं बहुत लोग मर रहे हैं! यह सलाह आपको दी किसने? पर किसी ने भी दी हो, अच्छा काम नहीं किया।”

”क्यों?”

”क्यों क्या? वहाँ जाने का अर्थ है लगभग आत्महत्या। मैं तो यह सोच रहा था कि शिवनाथ बाबू आगरे से चले गये हैं, सो शायद आप भी कहीं चली गयी होंगी। पर कुछ दिनों के लिये ही, नहीं तो मकान खाली किये बगैर नहीं जातीं - अच्छा राजेन्द्र का पता है कुछ? वह क्या यहीं है या और कहीं चला गया? अचानक ऐसा गोता मारा कि कोई पता ही नहीं मिलता।”

”उनसे क्या आपको कोई ख़ास काम है?”

”नहीं, खास काम के माने जो साधारणतः समझे जाते हैं, वैसा तो कोई काम नहीं। फिर काम ही समझिये। कारण मैं भी अगर उसकी खोज-खबर लेना बन्द कर दूँ तो सिवा पुलिस के और कोई उसका आत्मीय जन नहीं रह जाता। मुझे विश्वास है, आपको मालूम है कि वह कहाँ है।”

कमल ने कहा, ”मुझे मालूम है। पर आपको बताने से कुछ फायदा नहीं। यह अनुसन्धान करना अनुचित कुतूहल है कि जिसे घर से भगा दिया है, अब वह बाहर निकलकर कहाँ गया।”

हरेन्द्र कुछ देर चुप रहा। फिर बोला - ”मगर वह मेरा घर नहीं, आश्रम है। वहाँ उसे स्थान नहीं दे सका। मगर इसकी शिकायत दूसरे के मुंह से सुनना भी मुझे गवारा नहीं। अच्छी बात है, मैं जाता हूँ। उसे पहले भी बहुत बार ढूंढ निकाला है और इस बार भी ढूँढ़ लूँगा। आपक ढक कर नहीं रख सकेंगी।

यह बात सुनकर कमल हँस दी। बोली - ”जैसा कि आप कह रहे हैं हरेन्द्र बाबू, फिर अगर उन्हें मैं ढँक रखूँगी तो क्या आप समझते हैं कि उससे मेरा दुख दूर हो जायेगा?”

हरेन्द्र खुद भी हँस दिया, पर उस हँसी के इर्द-गिर्द कुछ खोखलापन रह गया; उसने कहा - मेरे सिवा इस प्रश्न का जवाब देने वाले आगरे में और भी बहुतेरे हैं। वे क्या कहेंगे, मालूम है? कहेंगे - कमल, आदमी का दुख तो एक तरह का है नही, बहुत तरह का है। उनकी प्रकृतियाँ भी भिन्न हैं और दुख दूर करने का के रास्ते भी भिन्न हैं। लिहाजा, उन दुखी लोगों के साथ अगर कभी मुलाकात हो जाये तो बातचीत करके उन्हीं से निर्णय कर लीजियेगा।” फिर वह ज़रा ठहरकर बोला - लेकिन असल में आप भूल रही हैं। मैं उस दल का नहीं हूँ। व्यर्थ परेशान करने मैं नहीं आया क्योंकि संसार में जितने लोग आप पर सचमुच श्रद्धा रखते हैं, उन्हीं में से मैं भी एक हूँ।

कमल ने उसके चेहरे की तरफ़ एक नजर डालकर धीरे से पूछा - मुझ पर आप सचमुच श्रद्धा रखते हैं सो किस नीति से? मेरे मत या आचरण, किसी के भी साथ तो आप लोगों का मेल नहीं।

हरेन्द्र ने उसी वक़्त उत्तर दिया - नहीं, कोई मेल नहीं। मगर फिर भी मैं गहरी श्रद्धा रखता हूँ। क्यों? यही आश्चर्य की बात मैं अपने आप से बार-बार पूछा भी करता हूँ।

”कोई उत्तर नहीं पाते?”

”नहीं। मगर विश्वास है कि किसी न किसी दिन पा लूँगा ज़रूर।” फिर ज़रा ठहरकर बोला - ”आपका इतिहास कुछ-कुछ आप के निज के मुँह से सुना है, कुछ अजित बाबू से मालूम हुआ है - हाँ, आपको मालूम होगा शायद, वे अब हमारे आश्रम में ही रहने लगे हैं।”

कमल ने सिर हिलाकर कहा - सो तो आप पहले ही बता चुके हैं।

हरेन्द्र कहने लगा - आपके जीवन-इतिहास के विचित्र अध्याय ऐसी उदार सरलता से सामने आ खड़े हुए हैं कि उनके विरुद्ध सरसरी राय जाहिर करने में डर लगता है। अब तक जिन बातों का बुरा मानना सीखा है, आपके जीवन ने मानो उन्हीं के विरुद्ध मामला दायर कर दिया है! इन बातों का न्याय करने वाला कहाँ मिलेगा और उसका नतीजा क्या होगा सो मुझे कुछ भी नहीं मालूम; किन्तु भला बताइये तो सही कि इस तरह से जो निर्भयता से आ सकती है और घूँघट की कोई आवश्यकता ही नहीं समझतीं, उनके प्रति श्रद्धा किये बगैर रहा कैसे जा सकता है?

कमल ने कहा - निर्भयता से आपके सामने खड़ा हो जाना ही क्या कोई बहुत बड़ा काम है? दो कनकटों की कहानी क्या आपने नहीं सुनी? वे भी बीच सड़क से चलते थे। आपने नहीं देखा, लेकिन मैंने चाय-बगीचों के साहबों को देखा है। उनका निर्भय, निःसंकोच, बेहयापन देखकर दुनिया में लज्जा को भी लज्जा आती है। लज्जा को उन्होंने मानो गर्दनियाँ देकर बाहर निकाल दिया है। उनके दुःसाहस की तो सीमा नहीं - मगर उनकी यह बात क्या आदमी के लिये श्रद्धा की चीज़ है?

हरेन्द्र को ऐसे उत्तर की आशा और चाहे किसी से रही हो, इस स्त्री से नहीं थी। सहसा मानो उसे कोई बात ढूँढ़े न मिली, बोला - वह और बात है।

कमल ने कहा - कैसे जाना कि और बात है? बाहर से मेरे पिता को भी लोग इन्हीं में से एक समझा करते थे। मगर मैं जानती हूँ, वह सच नहीं था। लेकिन सच तो सिर्फ़ जानने पर ही निर्भर नहीं है - दुनिया के आगे उसका प्रमाण क्या है? हरेन्द्र इस प्रश्न का भी उत्तर न दे सका और चुप रहा।

कमल कहने लगी - मेरा इतिहास आप सबने सुना है, और खूब सम्भव है कि उस कहानी का परमानन्द के साथ उपयोग भी किया है। पर इस विषय में आप मौन हैं कि मेरे काम सब अच्छे हुए या बुरे, जीवन मेरा पवित्र है या कलुषित - मगर हाँ, वे काम गुप्त रूप से न होकर सब लोगों की आँखों के सामने - सबकी उपेक्षा दृष्टि के नीचे हुए हैं - मेरे प्रति आपकी श्रद्धा के आकर्षण का कारण यही है। हरेन्द्र बाबू, दुनिया में आदमी की श्रद्धा मैंने इतनी ज़्यादा नहीं पायी कि लापरवाही से बिना कहे-सुने उसका अपमान कर सकूँ; पर आप मेरे सम्बन्ध में जैसे और भी बहुत कुछ जानते हैं, वैसे ही यह भी जान रखिये कि अक्षय बाबुओं की अश्रद्धा से बढ़कर यह श्रद्धा ही मुझे पीड़ा पहुँचाती है। अश्रद्धा मुझसे सही जाती है, पर इस श्रद्धा का भार मेरे लिये दुःसह है।

हरेन्द्र पहले की तरह ही क्षण-भर मौन रहा। कमल के वाक्यों से, खासकर उसके कण्ठस्वर की शान्ति से मन-ही-मन उसे अपने अपमान का बोध हुआ। थोड़ी देर बाद उसने कहा - क्या इस पर आपको विश्वास नहीं होता कि विचार और व्यवहार से अनैक्य होते हुए भी किसी पर श्रद्धा की जा सकती है, कम से कम मैं कर सकता हूँ?

कमल ने बहुत ही सरलता से उसी वक़्त जवाब दिया - ”ऐसा तो मैंने नहीं कहा हरेन्द्र बाबू कि विश्वास नहीं होता। मैंने तो सिर्फ़ यही कहा है कि ऐसी श्रद्धा मुझे पीड़ा पहुँचाती है।” फिर ज़रा ठहरकर कहा - आचार और विचार के लिहाज से अक्षय बाबू और आपमें कोई विशेष भेद नहीं। उनमें बहुत जगह अनावश्यक और अत्यधिक कठोरता न होती तो आप सब एक से ही होते। और अश्रद्धा के लिहाज से भी आप सब एक से हैं। मेरे सिर्फ़ इस साहस ने कि मैं लज्जा और संकोच के मारे छिपी-छिपी नहीं फिरती, आप लोगों का आदर प्राप्त किया है। मगर इसकी कितनी-सी कीमत है हरेन्द्र बाबू? बल्कि यह सोचकर कि आप लोग इसी के लिये अब तक मेरी वाहवाही करते आ रहे हैं, मेरे मन में एक अरुचि ही पैदा होती है। हरेन्द्र ने कहा - इसके लिये वाहवाही अगर हो तो क्या वह असंगत है? साहस क्या दुनिया में कोई चीज़ नहीं?

कमल ने कहा - आप लोग हर प्रश्न को इतना एकांगी करके क्यों पूछते हैं? यह तो मैंने नहीं कहा कि साहस कोई चीज़ ही नहीं, मैंने तो कहा था कि यह चीज़ संसार में दुर्लभ है और दुर्लभ होने से ही यह आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है। पर इससे भी बड़ी एक और चीज़ है, और वह चीज़ सहसा बाहर से साहस के अभाव जैसी ही मालूम देती है।

हरेन्द्र ने सिर हिलाते हुए कहा - समझ नहीं सका। आपकी बहुत-सी बातें बहुधा मुझे पहेली-सी मालूम देती हैं, लेकिन आज की बातें तो उन्हें भी लाँघ गयी है। मालूम होता है, आज आप बहुत ही अन्यमनस्क हैं। इसका आपको कुछ ख़्याल ही नहीं कि किसका जवाब किसे दिये चली जा रही हैं।”

कमल ने कहा - ”ठीक यही बात है।” फिर क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, ”हो भी सकता है। सचमुच की श्रद्धा पाना क्या चीज़ है, सो शायद अब तक मैं खुद ही नहीं जानती। उस दिन सहसा चौंक सी गयी। हरेन्द्र बाबू, आप दुखी न हों, परन्तु उसके साथ तुलना करने से और सब बातें आज परिहास-सी ही मालूम होती हैं।”

कहते-कहते उसकी आँखों की प्रखर दृष्टि छायाछन्न सी हो आयी और सारे चेहरे पर ऐसी एक स्निग्ध सजलता प्रवाहित हो उठी कि हरेन्द्र को अनुभव हुआ कि कमल की ऐसी मूर्ति उसने पहले कभी देखी ही न थी। अब उसे ज़रा भी संशय न रहा कि ये बातें कमल किसी अनुद्दिष्ट व्यक्ति को लक्ष्य करके कह रही है। वह सिर्फ़ निमित्त मात्र है और इसीलिये शुरू से आखिर तक सब-कुछ उसे पहेली-सा मालूम हो रहा है।

कमल कहने लगी - अभी-अभी आप मेरी दुर्दम निर्भीकता की प्रशंसा कर रहे थे, अच्छी बात है। आपने सुना है कि शिवनाथ मुझे छोड़कर चले गये हैं?

हरेन्द्र का मारे शर्म के सिर झुक गया। बोला - हाँ।

कमल ने कहा - ”हम दोनों में मन-ही-मन एक शर्त थी कि सम्बन्ध-विच्छेद का दिन अगर कभी आयेगा तो सहज ही दोनों अलग हो जायेंगे। नहीं-नहीं, किसी दस्तावेज पर लिखा-पढ़ी करने की ज़रूरत न होगी, यों ही।”

हरेन्द्र ने कहा - ब्रूट!

कमल ने कहा - सो तो आपके मित्र अक्षय बाबू हैं। शिवनाथ गुणी आदमी हैं, उनके विरुद्ध मुझे अपनी तरफ़ से कोई शिकायत नहीं। और शिकायत करने से लाभ ही क्या है? हृदय की अदालत में इकतरफ़ा फैसला ही होता है, उसकी तो काई अपील कोर्ट है नहीं।

हरेन्द ने कहा - इसके मानी यह हुए कि प्रेम के सिवा और किसी बन्धन को आप नहीं मानतीं?

कमल ने कहा - ”पहली बात तो यह कि हमारे मामले में कोई और बन्धन था या नहीं, और दूसरी, यदि होता भी तो उसे मंजूर कराने से फायदा क्या था? देह का जो हिस्सा लकवे से बेकाम हो जाता है उसके लिये बाहर का बन्धन भारी बोझ हो उठता है। उसके द्वारा काम कराना ही सबसे ज़्यादा खटकता है।” कहकर क्षण-भर वह चुप रही और फिर कहने लगी - ”आप सोचते होंगे कि सचमुच का ब्याह नहीं हुआ, इसी से ऐसी बात मुँह से निकाल रही हूँ, हुआ होता तो न निकाल सकती। परन्तु यह बात नहीं है। हुआ होता तो भी निकाल सकती थी; पर हाँ, तब इतनी आसानी से इस समस्या को हल न कर पाती। नाकाम हिस्सा भी शायद देह से जुड़ा रह जाता, और अधिकांश स्त्रिायों के सम्बन्ध में जैसा होता है, मुझे भी उसी तरह आमरण उस दुख का बोझा लिये यह ज़िन्दगी बितानी पड़ती। मैं बच गयी हरेन्द्र बाबू, भाग्य से छुटकारे का दरवाजा खुला था, सो मुक्ति पा गयी।”

हरेन्द्र ने कहा - आपको शायद मुक्ति मिल गयी। लेकिन इस तरह सभी अगर मुक्ति का द्वार खुला रखना चाहें तो संसार में समाज-व्यवस्था की बुनियाद तक उखड़ जायेगी। ऐसा कोई नहीं जो उस अवस्था की भयंकर मूर्ति को कल्पना में भी अंकित कर सके। इस सम्भावना को सोचा भी नहीं जा सकता।

कमल ने कहा - ”सोचा जा सकता है, और एक दिन ऐसा आयेगा जब सोचा जायेगा। इसका कारण यह है कि मनुष्य के इतिहास का शेष अध्याय अभी तक पूरा लिखा नहीं गया। एक दिन के किसी एक अनुष्ठान के ज़ोर से अगर उसका छुटकारे का रास्ता सारे जीवन के लिये रोक दिया जाये तो वह श्रेयस्कर व्यवस्था नहीं मानी जा सकती। संसार में सभी भूल-चूकों के सुधार की व्यवस्था है, कोई उसे बुरा नहीं बताता; फिर भी जहाँ भ्रान्ति की सम्भावना सबसे ज़्यादा है और उसके निराकरण की आवश्यकता भी उतनी ही अधिक है, वहीं लोगों ने अगर सारे उपायों को अपनी इच्छा से बन्द कर रखा हो तो वह अच्छा कैसे मान लिया जाये, बताइये भला?”

इस स्त्री की तरह-तरह की दुर्दशाओं के कारण हरेन्द्र के मन में गहरी सहानुभूति थी। विरुद्ध आलोचना में वह जल्दी शामिल नहीं होता और जब विरोधी दल तरह-तरह की गवाहियों और प्रमाणों से उसे हीन साबित करने की कोशिश करता तब वह प्रतिवाद भी करता। विरोधी लोग कमल के प्रकट आचरण और वैसी ही निर्लज्ज उक्तियों की नज़ीरें दे-देकर जब धिक्कारते तब हरेन्द्र तर्क-युद्ध में परास्त होकर भी जी-जान से यह समझाने की कोशिश किया करता कि कमल के जीवन में हरगिज यह सच नहीं हो सकता। कहीं न कहीं कोई एक निगूढ़ रहस्य है जो एक-न-एक दिन अवश्य ही व्यक्त होगा। इस पर वे व्यंग्य से कहते, कृपाकर उसे व्यक्त कर दीजिये तो प्रवासी बंगाली समाज में हम लोग बदनामी से बच जायें। और यदि कहीं अक्षय मौजूद होता तो क्रोध से पागल होकर कहता, आप सभी लोग समान हैं। मेरे जैसी विश्वास की शक्ति किसी में भी नहीं है; आप लोग उसे अपना भी नहीं सकते, छोड़ भी नहीं सकते। आजकल के कुछ उग्र विलायती विचारों के भूत ने आप लोगों को ग्रस्त कर रखा है।

अविनाश कहते - ये विचार कमल के मुँह से नये ही सुने हों, सो बात भी नहीं है अक्षय, मैंने तो वे पहले से ही सुन रखे हैं। आज-कल की दो-चार अंगे्रजी की अनुवादित पुस्तकें पढ़ लेना ही इसके लिये काफी है। विचारों की इसमें कोई करामात नहीं!

अक्षय कठोर होकर पूछता - ”तो किसकी करामात है? कमल के रूप की? अविनाश बाबू, हरेन्द्र अविवाहित छोकरा है, उसे माफ किया जा सकता है; मगर आश्चर्य तो यह कि बुढ़ापे में आकर आप लोगों की आँखें भी चौंधिया गयीं।” इतना कहकर वह कनखियों से आशु बाबू की तरफ़ देखता और कहता, ”मगर यह ‘प्रेत-नीर’ का उजाला है आशु बाबू, सड़े कीचड़ से इसकी पैदाइश है। साफ़ दिखाई दे रहा है कि उस कीचड़ में ही किसी दिन बहुतों को खींच ले जाकर मारेगा वह, सिर्फ़ अक्षय को वह भुलावा नहीं दे सकता। वही असल-नकल पहचानता है।”

(‘प्रेत-नीर’-दलदल वाले स्थानों में एकाएक पैदा होने वाला और बुझ जाने वाला प्रकाश जो एक नैसर्गिक चमत्कार है।)

आशु बाबू मुस्कराकर रह जाते, पर अविनाश मारे क्रोध के लाल हो जाते। हरेन्द्र कहता - आप बड़े बहादुर हैं अक्षय बाबू, आपकी जयजयकार हो। हम सब मिलकर जब कीचड़ में डुबकियाँ लेने लगें तब आप किनारे पर खड़े-खड़े बगलें बजाकर नाचियेगा, हममें से कोई भी आपकी निन्दा न करेगा।

अक्षय जवाब देता - निन्दा योग्य काम मैं करता ही नहीं हरेन्द्र। गृहस्थ आदमी हूँ, मैं सहज-सीधी बुद्धि से समाज को मानकर चलता हूँ। न तो मैं ब्याह की कोई नयी व्याख्या करना चाहता हूँ और न दुनिया-भर के वाहियात लड़कों को जमाकर ब्रह्मचारीगिरी ही दिखाता फिरता हूँ। आश्रम में चरणों की धूल का वजन और ज़रा बढ़ा लेने की कोशिश करो दादा, फिर साधन-भजन के लिये चिन्ता न करनी होगी। देखते-देखते सारा का सारा आश्रम विश्वामित्र ऋषि का तपोवन बन जायेगा और शायद हमेशा के लिये तुम्हारी एक कीर्ति रह जायेगी।

अविनाश गुस्सा भूलकर ज़ोर से हँस पड़ते ही निर्मल दबी मुस्कान से आशु बाबू का चेहरा चमक उठता। हरेन्द्र के आश्रम पर किसी की भी आस्था नहीं थी, उसे इन लोगों ने एक व्यक्तिगत खामख़्याली भर समझ रखा था।

जवाब में हरेन्द्र मारे गुस्से के लाल होकर कहता - ”पशु के साथ तो युक्ति-तर्क चल नहीं सकता, उसके लिये दूसरी विधि है। मगर उसकी व्यवस्था करते नहीं बनती, इसीलिये आप चाहे जिसे सींग मारते फिरते हैं। छोटे-बड़े, नीच-ऊँच, स्त्री-पुरुष किसी का भी ख़्याल नहीं करते।” और यह कहते हुए अन्य दो-चार जनों को लक्ष्य करके कहता - ”पर आप लोग इसे प्रश्रय क्यों देते हैं? इतना बड़ा एक कुत्सित इंगित भी मानो कोई परिहास का विषय हो!“

अविनाश अप्रतिभ-से होकर कहते - नहीं-नहीं, प्रश्रय क्यों देने लगे, पर तुम जानते ही हो, अक्षय को बोलते वक़्त उपयुक्त काल और क्षेत्र का ज्ञान नहीं रहता।

हरेन्द्र कहता - ”यह काण्ड-ज्ञान सच पूछा जाय तो उसकी अपेक्षा आप लोगों से और भी कम है। मनुष्य के मन का चेहरा तो दिखाई देता नहीं दादा, नहीं तो हँसी-मजाक कम ही लोगों के मुँह से शोभा देता। विवाह के बहाने शिवनाथ ने कमल को ठग लिया, मगर मेरा दृढ़ विश्वास है कि उस धोखे को भी कमल ने सत्य के समान ही मान लिया। गार्हस्थिक लेन-देन के नफे-नुकसान का बखेड़ा करके उसने उसे लोगों की निगाह में नीचे नहीं गिराना चाहा। पर उसके न चाहने पर भी आप लोग क्यों छोड़ने लगे? शिवनाथ उसके प्रेम की निधि हो सकता है, पर आप लोगों का कौन है? क्षमा का अपव्यय आप लोग न सह सके। यही है न आप लोगों की घृणा का मूल कारण - असल पूँजी? सो उसी को भंजा-भंजाकर आप लोगों से जितना चलाया जाय, चलाइये, पर मैं विदा लेता हूँ।” इतना कहकर हरेन्द्र उस दिन गुस्सा होकर चला गया।

उसके मन में इस बात का दृढ़ विश्वास था कि किसी दिन कमल के मुँह से यह बात व्यक्त होगी कि शैव-विवाह को वास्तविक विवाह मानकर ही वह धोखे से छली गयी थी। अपनी इच्छा से, सब कुछ जानते हुए एक गणिका की तरह उसने शिवनाथ का आश्रय नहीं लिया था। परन्तु आज उसके विश्वास की यह भीत भी मिट्टी में मिल गयी। हरेन्द्र कोई अक्षय या अविनाश नहीं था। बिना किसी भेदभाव के नर-नारी सबके प्रति उसकी तबियत में एक तरह की विस्तृत और गहरी उदारता थी। इसीलिये देश और दस के कल्याण के लिय सब तरह के अनुष्ठानों में उसने बचपन से अपने को लगा रखा था। उसके ब्रह्मचर्य-आश्रम, उसका उदार दान, सबके साथ अपना सब कुछ बांट लेना - इन सबकी जड़ में उसकी वही उदार भावना काम कर रही है और उसकी इस प्रवृत्ति ने ही उसे शुरू से कमल के प्रति श्रद्धान्वित रखा था। परन्तु इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी कि आज वह उसी के मुँह पर उसी के प्रश्न के उत्तर में ऐसा भयानक जवाब दे बैठेगी। भारत के धर्म, नीति, आचार - उसके स्वातंत्रय और विशिष्ट सभ्यता के प्रति हरेन्द्र के मन में अच्छेद्य स्नेह और अपरिमेय भक्ति थी, फिर भी, लम्बी पराधीनता और वैयक्तिक कमजोरियों के कारण उत्पन्न होनेवाले उसके व्यतिक्रमों को भी वह अस्वीकार नहीं करता था। परन्तु कमल के द्वारा ऐसी उग्र अवज्ञा के साथ उसके मूलभूत सिद्धान्तों तक के अस्वीकार किये जाने के कारण उसकी वेदना की सीमा नहीं रही। इस बात की याद करके कि कमल के पिता यूरोपीय थे और माता कुलटा थी - उसकी नसों में व्यभिचार का खून डोल रहा है, मारे घृणा के वह मन-ही-मन स्याह पड़ गया। दो-तीन मिनट चुप रहकर धीरे से बोला - तो अब जाता हूँ -

कमल हरेन्द्र के मन के भाव को ठीक से ताड़ न सकी, सिर्फ़ एक परिवर्तन पर उसका ध्यान गया। धीरे से उसने पूछा - ”मगर जिसके काम के लिये आये थे, उसका तो कुछ किया ही नहीं?”

हरेन्द्र ने सिर उठाकर पूछा - क्या काम?

कमल ने कहा - राजेन्द्र की खबर जानने आये थे, पर बगैर जाने ही चले जा रहे हैं। अच्छा, यहाँ उनके रहने के कारण क्या आप लोगों में बहुत भद्दी आलोचना हुआ करती है? सच बताइयेगा?

हरेन्द्र ने कहा - यदि कभी होती भी है तो उसमें शरीक नहीं होता। मेरे लिये यही काफी है कि वह पुलिस के हाथ में न पड़े। उसे मैं पहचानता हूँ।

”लेकिन मुझे?”

”लेकिन आप तो ऐसी बातों का ख़्याल करती नहीं, और न आपके ऐसे विश्वास ही हैं।”

”बहुत कुछ ऐसा ही है। यानी ऐसी कोई कड़ी शपथ मैंने नहीं ले रखी है कि इन बातों का ख़्याल करूँगी ही। पर मित्र का ही ख़्याल करने से काम नहीं चलता हरेन्द्र बाबू, और एक आदमी का भी ख़्याल करना ज़रूरी है।”

”इसे मैं व्यर्थ समझता हूँ। बहुत दिनों के बहुत काम-काजों में जिसे मैंने बिना किसी संशय के पहचान लिया है, उसके सम्बन्ध में मुझे कोई आशंका नहीं। उसकी जहाँ तबियत हो, मैं निश्चिन्त हूँ।”

कमल ने उसके चेहरे की तरफ़ क्षण-भर चुप रहकर देखा और कहा - आदमी को बहुत-परीक्षाएँ देनी पड़ती हैं हरेन्द्र बाबू। उसका एक दिन पहले का प्रश्न सम्भव है कि दूसरे दिन के उत्तर से मेल न खाये। किसी के सम्बन्ध में भी अपने विचार को इस तरह शेष बनाकर नहीं रखना चाहिये, धोखा खाना पड़ता है।

हरेन्द्र ने अनुमान किया कि कमल ने ये बातें सिर्फ़ तत्व-दृष्टि से ही नहीं कहीं, इनमें कुछ एक इशारा भी है। परन्तु पूछताछ करके उस इशारे को स्पष्ट करने की उसे हिम्मत नहीं पड़ी। राजेन्द्र के प्रसंग को बन्द करके उसने सहसा दूसरा प्रसंग छेड़ दिया। बोला - हम लोगों ने निश्चय किया है कि शिवनाथ को उचित दण्ड दिया जाय।

कमल सचमुच ही आश्चर्य में पड़ गयी। उसने पूछा - ”हम लोगों ने किसने?”

हरेन्द्र ने कहा - ”जो भी हो, उनमें मैं भी एक हूँ। आशु बाबू बीमार हैं, उन्होंने वचन दिया है कि अच्छे होने पर वे मेरी सहायता करेंगे।”

”वे बीमार हैं?”

”हाँ, आज सात-आठ दिन हुए उनकी तबियत खराब है। मनोरमा पहले से ही चली गयी है। आशु बाबू के चाचा काशीवास कर रहे हैं, वे ही आकर उसे ले गये हैं।”

सुनकर कमल चुप रही। हरेन्द्र कहने लगा - ”शिवनाथ जानता है कि कानून की रस्सी उस तक पहुंच नहीं सकती। इसी बल पर उसने अपने मरे हुए मित्र की स्त्री को धोखा दिया, अपनी बीमार स्त्री को त्याग दिया और फिर बेखटके आपका सर्वनाश किया। कानून को वह बहुत अच्छी तरह समझता है, सिर्फ़ यही नहीं जानता कि दुनिया में कानून ही सब कुछ नहीं है, उसके बाहर भी कुछ और मौजूद है।”

कमल ने हँसते हुए कौतुक के साथ पूछा - ”लेकिन आप लोगों ने उनके लिये क्या दण्ड तय किया है? उन्हें पकड़ लाकर फिर एक बार मेरे साथ जोड़ देंगे, यही न?” और वह ज़रा हँस दी। उसका यह प्रस्ताव हरेन्द्र को भी ऐसा हास्यकर प्रतीत हुआ कि उससे भी बगैर हँसे न रहा गया। बोला - ”मगर यह भी तो नहीं हो सकता कि वह जिम्मेदारी को इस तरह छोड़कर अपने मन के माफ़िक बिना किसी बाधा-विघ्न के बचकर निकल जाय और इसके भी कोई माने नहीं कि आपके साथ उसे जोड़ ही देना होगा।”

कमल ने कहा - ”तो आखि़र उन्हें लाकर आप करेंगे क्या? मुझ पर पहरा देने के काम में लगायेंगे, या उनकी गर्दन पकड़ेंगे और नुकसान वसूल कर मुझे दिलायेंगे? पहली बात तो यह कि रुपये मैं लूँगी नहीं, दूसरी वह चीज़ उनके पास है भी नहीं। शिवनाथ कितने गरीब हैं सो और कोई भले ही न जाने, मैं तो जानती हूँ।”

”तो क्या इतने बड़े अपराध का कोई दण्ड ही न होगा? और कुछ हो चाहे न हो पर यह तो उन्हें जता देना ज़रूरी है कि बाज़ार से आज भी चाबुक खरीदा जा सकता है।”

कमल व्याकुल होकर कहने लगी - ”नहीं-नहीं, ऐसा न कीजियेगा। उससे मेरा इतना बड़ा अपमान होगा कि मैं उसे सह नहीं सकूँगी।” फिर उसने कहा - इतने दिन मैं गुस्से में ही जल-भुन रही थी कि इस तरह चोर की भाँति भागे फिरने की क्या ज़रूरत थी और साफ़-साफ़ मुझसे कहके जाते तो क्या मैं उन्हें रोक लेती? तब मुझे यह चोरी-छिपते रहने का असम्मान ही मानो पर्वत के बराबर बनकर दिखाई देता था। उसके बाद सहसा एक दिन मौत के मुहल्ले से बुलाहट आयी। वहाँ न जाने कितनी मौतें अपनी आँखों देखकर आयी। आज मेरी चिन्ता की धारा एक दूसरे ही रास्ते से बहने लगी है। अब सोचती हूँ कि उनमें जो कहकर जाने का साहस नहीं था, सो वही तो मेरा सम्मान है, उनका छिपना, छल-कपट और सारे मिथ्याचार ने मेरी मर्यादा बढ़ा देने का ही काम किया है। पाने के दिन उन्होंने मुझे धोखा देकर ही पाया था, लेकिन छोड़ने के दिन उन्हें ब्याज और मूल सब चुकता करके जाना पड़ा है। अब मुझे कोई शिकायत नहीं, मेरा सबका सब वसूल हो गया है। आशु बाबू को नमस्कार जताकर कहियेगा कि मेरी भलाई करने की कामना से कहीं वे मेरा नुकसान न करें। हरेन्द्र एक भी बात न समझ सका, अवाक होकर देखता रहा।

कमल ने कहा - ”संसार की सब चीजें़ सबके समझने की नहीं होतीं हरेन्द्र बाबू, आप दुखित न हों। पर मेरी बात अब न कीजिये। दुनिया में सिर्फ़ शिवनाथ और कमल ही हों, सो बात नहीं। यहाँ और भी लोग रहते हैं, और उनके भी सुख-दुख हैं।” कहते हुए उसने निर्मल और प्रशान्त हँसी से मानो दुख और वेदना की घनी भाप एक मुहूर्त-भर में दूर कर दी। बोली - ”कौन कैसे हैं सो खबर भी तो दीजिये?”

हरेन्द्र ने कहा - ”पूछिये?”

”अच्छी बात है। पहले बताइये कि अविनाश बाबू का क्या हाल है? सुना था कि वे बीमार हैं, अब अच्छे हो गये?”

”हाँ। पूरी तरह अच्छे न होने पर भी बहुत अच्छे हैं। उनके एक चचेरे भाई रहते हैं लाहौर, स्वास्थ्य ठीक करने के लिये वे लड़के को साथ लेकर वहीं गये हैं। लौटने में शायद दो-एक महीने की देर होगी।”

”और नीलिमा? वे भी क्या साथ गयी हैं?”

”नहीं, वे यहीं हैं।”

कमल ने आश्चर्य के साथ पूछा - ”यहीं हैं? अकेली, उस मकान में?”

हरेन्द्र ने पहले तो ज़रा इधर-उधर किया, फिर कहा - ”भाभी की समस्या सचमुच ही ज़रा कठिन हो गयी थी, पर भगवान ने बचा लिया; आशु बाबू की तीमारदारी के बहाने उन्हें यहीं छोड़ जाने का सुयोग मिल गया।”

यह समाचार इतना बेढ़ब था कि कमल आगे कुछ पूछ न सकी, सिर्फ़ विस्तृत विवरण की आशा से जिज्ञासु-मुख से उसकी तरफ़ देखती रह गयी। हरेन्द्र की दुविध मिट गयी और जब वह बोला तब उसके स्वर से गूढ़ क्रोध का चिह्न प्रकट हुआ। कारण इस मामले में अविनाश के साथ उसका ज़रा-सा कुछ कलह सा भी हो गया था। हरेन्द्र ने कहा - ”परदेश में अपने डेरे पर जो चाहे सो किया जा सकता, पर इसी कारण वयस्का विधवा साली को लेकर चचेरे भाई के घर जाकर नहीं रहा जा सकता। उन्होंने कहा - ‘तुम भी तो मेरे अपने जन हो, तुम्हारे घर क्या - ’ मैंने जवाब दिया कि पहले तो मैं तुम्हारा अपना आदमी हूँ, सो बहुत दूर के नाते से - पर उनका कोई भी नहीं। दूसरे वह मेरा घर नहीं, आश्रम है; वहाँ रखने का नियम नहीं। तीसरे फिलहाल सब लड़के बाहर चले गये हैं, मैं अकेला हूँ। सुनकर भाई साहब को ऐसी चिन्ता हुई जिसकी हद नहीं। आगरे में भी नहीं रहा जा सकता - चारों तरफ़ महामारी फैल रही है, और उनके भाई के यहाँ से बार-बार चिट्ठी और तार आ रहे हैं - भाई साहब बड़े संकट में पड़ गये।”

कमल ने पूछा - पर सुना है कि नीलिमा का मायका भी तो है?

हरेन्द्र ने सिर हिलाकर कहा - ”है। और सुनते हैं, एक बड़ी भारी-सी ससुराल भी है। पर उन सबका कोई जिक्र ही नहीं उठा। अचानक एक दिन इसका विचित्र समाधान हो गया। प्रस्ताव किस तरफ़ से पेश हुआ था, मुझे नहीं मालूम, पर, बीमार आशु बाबू की सेवा का भार भाभी ने ले लिया।”

कमल चुप रही।

हरेन्द्र हँसता हुआ बोला - मगर हाँ, आशा है कि भाभी की नौकरी नहीं जायेगी। उन लोगों के वापस आने पर फिर वे अपने पुराने गृहिणी पद पर बहाल हो सकेंगी।

कमल ने इस श्लेष का भी कोई उत्तर नहीं दिया। वैसे ही मौन बनी रही।

हरेन्द्र कहने लगा - ”मैं जानता हूँ, भाभी वास्तव में सच्चरित्र महिला हैं।

अविनाश दादा को वे उनके बुरे से बुरे दिनों में छोड़कर नहीं जा सकी थीं, और यहाँ रह जाने के कारण ही उधर के उनके सब रास्ते बन्द हो गये। मगर इधर भी देखा कि विपत्ति के दिनों में उनके लिये रास्ता खुला नहीं है। इसी से सोचता हूँ कि बिना किसी अपराध के भी इस देश की स्त्रिायाँ कितनी बेबस हैं।”

कमल उसी तरह चुप मारे बैठी रही, कुछ बोली नहीं।

हरेन्द्र ने कहा - ”ये बातें सुनकर आप शायद मन ही मन हँस रही हैं, क्यों?”

कमल ने सिर्फ़ सिर हिलाकर कहा - ”नहीं।”

हरेन्द्र बोला - मैं अक्सर जाया करता हूँ आशु बाबू को देखने। वे दोनों ही आपकी खबर जानना चाहते थे। भाभी के आग्रह की तो कोई सीमा ही नहीं - एक दिन चलियेगा वहाँ?

कमल उसी वक़्त राजी हो गयी। बोली - आज ही चलिये न हरेन्द्र बाबू, उन्हें देख आयें।

”आज ही चलेंगी? चलिये। अगर मिल जाये तो मैं ताँगा ले आऊँ,“ कहकर वह बाहर जा ही रहा था कि कमल ने उसे वापस बुलाकर कहा - ”तांगे में हम दोनों के साथ जाने से शायद आश्रम के हितैषी लोग नाराज़ होंगे। चलिये, पैदल ही चले चलें।”

हरेन्द्र ने पीछे को मुड़कर कहा - ”इसके माने?”

”माने कुछ नहीं - ऐसे ही। चलिये, चलें।”

19

लगभग तीसरे पहर हरेन्द्र और कमल दोनों आशु बाबू के घर पहुँचे। खाट पर अधलेटी अवस्था में पड़े हुए अस्वस्थ घर-मालिक उस दिन का ‘पायोनियर’ पढ़ रहे थे। कई दिन से उन्हें बुखार नहीं है, अन्यान्य शिकायतें भी दूर होती जा रही हैं, सिर्फ़ शारीरिक कमज़ोरी अभी तक नहीं गयी। इन दोनों के अन्दर पहुँचते ही वे अखबार फेंक, उठकर बेैठ गये और कितने खुश हुए सो उनके चेहरे से साफ़ मालूम हो गया। उनके मन में डर था कि कमल शायद अब न आयेगी। इसी से हाथ बढ़ाकर उसे ग्रहण करते हुए बोले - ”आओ, मेरे पास आकर बैठो।” और हाथ पकड़कर उसे अपनी खाट के पास पड़ी कुरसी पर बिठाते हुए कहा, ”कैसी हो, बताओ तो कमल?”

कमल ने हँसते चेहरे से जवाब दिया - अच्छी ही हूँ।

आशु बाबू ने कहा - सो तो भगवान का आशीर्वाद है। नहीं तो जैसे कुदिन आये हैं, उसमें यह सोचा भी नहीं जा सकता कि कोई अच्छी तरह होगा। इतने दिन थी कहाँ, बताओ तो? हरेन्द्र से रोज ही पूछता हूँ और रोज ही वह जवाब देता है - घर में ताला पड़ा है, उनका कोई पता नहीं। नीलिमा को शक हो रहा था कि तुम कुछ दिनों के लिये कहीं बाहर चली गयी हो।

हरेन्द्र ने उसका जवाब दिया। कहा - ”और कहीं नहीं, इसी आगरे में मोचियों के मुहल्ले में सेवा-कार्य में लगी हुई थीं। आज भेंट हो गयी सो पकड़ लाया।”

आशु बाबू भय-व्याकुल कण्ठ से बोले - मोचियों के मुहल्ले में! पर अखबार में खबर है कि वह मुहल्ला बिल्कुल उजाड़ हो गया है। इतने दिन वहीं थीं? अकेली?

कमल ने सिर हिलाते हुए कहा - नहीं, अकेली नहीं थी, साथ में राजेन्द्र भी थे।

सुनते ही हरेन्द्र ने उसके मुँह की तरफ़ देखा, पर कुछ कहा नहीं। इसका तात्पर्य यह था कि तुम्हारे बगैर कहे ही मैंने अन्दाजा लगा लिया था। इस बात को मैं नहीं जानूंगा तो और कौन जानेगा कि जहाँ दैव का इतना जबर्दस्त निग्रह शुरू हो गया है, वहाँ के उन अभागों को छोड़कर वह एक कदम भी इधर-उधर नहीं जा सकता।

आशु बाबू ने कहा - अद्भुत आदमी है यह लड़का। उसे मैंने दो-तीन बार से अधिक नहीं देखा, उसके बारे में कुछ जानता भी नहीं, फिर भी ऐसा लगता है कि व वह किसी अजीब धातु का बना हुआ है। उसे ले क्यों नहीं आयीं, सब पूछता। अखबारों से तो सब बातें मालूम पड़ती नहीं।

कमल ने कहा - नहीं। लेकिन उनके आने में अब भी देर है।

”क्यों?”

”मुहल्ला अभी तक पूरा का पूरा खत्म नहीं हुआ है। उनका प्रण है कि जो लोग अभी बचे हुए हैं, उन सबको रवाना किये बग़ैर वे वहाँ से छुट्टी न लेंगे।”

आशु बाबू ने उसके मुँह की तरफ़ देखते हुए पूछा - तो फिर तुम्हें कैसे छुट्टी मिल गयी? क्या तुम्हें वहाँ फिर जाना पड़ेगा? मैं मना तो नहीं कर सकता, पर यह तो बड़ी चिन्ता की बात है कमल!

कमल ने सिर हिलाते हुए कहा - चिन्ता की कोई बात नहीं आशु बाबू, चिन्ता कहाँ नहीं है, बताइए। पर मेरी घड़ी में जितनी चाबी भरी थी, उसे समाप्त कर तब मैं आयी हूँ। फिर वे वहाँ जाने का सामथ्र्य मुझमें नहीं है। अब अकेले राजेन्द्र वहाँ रह गये हैं। किसी-किसी के शरीर-यंत्र में प्रकृति ऐसी अनिबट चाबी भरकर दुनिया में भेज देती है न तो वह कभी खतम ही होती है और न वह यंत्र ही कभी बिगड़ता है। राजेन्द्र उन्हीं में से एक है। शुरू-शुरू में ऐसा लगा कि इस भयानक मुहल्ले में वे जीते रहेंगे कैसे? और कितने दिन जीते रहेंगे? वहाँ से जब अकेली चली आयी तो किसी भी तरह मेरी चिन्ता न मिटी, पर अब मुझे कोई डर नहीं है। न जाने कैसे मैं निश्चित समझ गयी हूँ कि प्रकृति ही खुद अपनी गर्ज से ऐसे लोगों को जिलाये रखती है। नहीं तो गरीब-दुखियों के झोपड़ों में जब बाढ़ की तरह मौत आ घुसती है तब उसकी ध्वंसलीला का गवाह कौन रहेगा? आज ही हरेन बाबू से सब किस्सा कह रही थी। शिवनाथ बाबू के घर से आखिरी रात जब लज्जा से सिर झुकाये चली आयी।

आशु बाबू इन घटनाओं को सुन चुके थे। बोले - इसमें तुम्हारे लिए लज्जा की क्या बात है कमल? सुना है, उनकी सेवा करने के लिए ही तुम बिना कहे अपने आप उनके घर पहुँच गयी थीं -

कमल ने कहा - लज्जा उस बात की नहीं आशु बाबू! लज्जा तो मुझे तब हुई जब मैंने देखा कि उन्हें कोई बीमारी ही नहीं है, सब ढोंग हैं। किसी बहाने से आप लोगों की कृपा पाना ही उनका उद्देश्य था जो सफल न हो पाया। आखिर आपने अपने घर से उन्हें निकाल ही दिया। तब मेरा क्या हाल हुआ सो मैं आपको समझा नहीं सकती। राजेन्द्र साथ था उसे भी यह बात बता नहीं सकी, सिर्फ़ किसी तरह रात के अन्धकार में उस दिन चुपचाप वहाँ से निकल आयी। रास्ते में बार-बार सिर्फ़ एक ही बात का ख़्याल आता रहा कि इस अति क्षुद्र कंगाल आदमी को गुस्से में आकर सज़ा देना न तो धर्म है और न इसमें सम्मान है।

आशु बाबू ने विस्मयापन्न होकर कहा - क्या कह रही हो कमल? शिवनाथ की बीमारी क्या सिर्फ़ एक बहाना था? सच नहीं थी?

परन्तु जवाब देने के पहले ही दरवाजे के पास पैरों की आहट सुनकर सबने उधर देखा कि नीलिमा आ रही है। उसके हाथ में दूध का कटोरा है। कमल ने हाथ उठाकर नमस्कार किया। उसने हाथ का कटोरा पलंग के सिरहाने तिपाई पर रखकर प्रति नमस्कार किया और यह समझकर कि इन लोगों की बातचीत में उसने बाधा पहुँचायी है, खुद कुछ न बोलकर एक तरफ़ बैठ गयी।

आशु बाबू ने कहा - लेकिन यह तो कमज़ोरी है कमल! यह चीज तो तुम्हारे स्वभाव से मेल नहीं खाती। मैं बराबर सोचता था कि जो कार्य अनुचित है, जो मिथ्याचार है, उसे तुम माफ नहीं करतीं।

हरेन्द्र ने कहा - ”इनके स्वभाव का तो मुझे पता नहीं, मगर मोची-मुहल्ले की मौतें देखकर इनकी धारणा बदल गयी है और यह खबर इन्हीं से मिली है। पहले इनके मन में चाहे जो बात रही हो, पर अब किसी के खिलाफ शिकायत करने में ये नाराज़ होती है।

आशु बाबू ने कहा - मगर उसने जो तुम्हारे प्रति इतना बड़ा अत्याचार किया, उसका क्या होगा?

कमल ने मुँह उठाते ही देखा कि नीलिमा उसकी तरफ़ एकटक देख रही है। जवाब सुनने के लिए वही मानो सबसे ज़्यादा उत्सुक है। नहीं तो शायद वह चुप रहती, हरेन्द्र ने जितना कहा है उससे ज़्यादा एक शब्द भी नहीं कहती। उसने कहा - ”यह प्रश्न मेरे लिए अब असंगत मालूम होता है। सिर्फ़ इसके लिए कि जो नहीं है, वह क्यों नहीं, आँसू बहाने में मुझे शरम आती है। इस बात पर झगड़ा करने में कि जितना वे कर सके उससे ज़्यादा उन्होंने क्यों नहीं किया, मेरा सिर झुक जाता है। आप लोगों से सिर्फ़ इतनी प्रार्थना है कि मेरे दुर्भाग्य को लेकर उनसे खींचातानी न करें।” इतना कहकर उसने मानो सहसा थककर कुरसी की पीठ से लगकर आँखें मींच लीं।

घर की नीरवता भंग की नीलिमा ने। उसने आँख के इशारे से दूध का कटोरा दिखाते हुए आहिस्ते से कहा, ”यह जो बिल्कुल ही ठण्डा हुआ जा रहा है। देखिये, पी सकेंगे या नहीं, नहीं तो फिर से गरम कर लाने के लिए कह दूँ।”

आशु बाबू ने कटोरा मुँह से लगाकर ज़रा-सा पिया और फिर रख दिया।

नीलिमा ने मुँह उठाकर देखा और कहा, ”रख देने से काम नहीं चलेगा, डॉक्टर की व्यवस्था मैं तोड़ने नहीं दूँगी।”

आशु बाबू थके हुए से होकर मोटे तकिये के सहारे पड़ रहे। बोले - यह बात तुम्हें भूलनी नहीं चाहिए कि डाक्टर से भी बड़ा व्यवस्थापक है हमारा अपना शरीर।

”मैं नहीं भूलती, भूल जाते हैं आप खुद।

”सो तो मेरी उम्र का दोष है नीलिमा, मेरा नहीं।”

नीलिमा ने हँसते हुए कहा - सो तो है ही। दोष लादने लायक उम्र पाने में अब भी आपको बहुत देरी है। अच्छा, कमल को लेकर हम ज़रा उस कमरे में जा रही हैं। गपशप करेंगी, आप आँखें बन्द कर ज़रा आराम कीजिए। क्यों? जायें?

आशु बाबू की शायद ऐसी इच्छा नहीं थी, फिर भी उन्हें सम्मति देनी पड़ी; बोले - मगर एकदम तुम लोग चले मत जाना, आवाज़ देने पर सुन लेना।

”अच्छी बात है। चलो जी छोटे बाबू, हम लोग बगल वाले कमरे में चलकर बैठें।” यह कह वह सबको साथ लेकर चली गयी। नीलिमा की बातें स्वभावतः ही मधुर होती हैं और कहने के ढंग में भी ऐसी एक विशिष्टता होती है जो सहज ही दिखाई दे जाती है; परन्तु आज के ये थोड़े-से शब्द मानो उससे भी बढ़कर आगे निकल गये। हरेन्द्र ने उधर ध्यान नहीं दिया, पर कमल ने गौर किया। पुरुष की दृष्टि में जो नहीं आया, स्त्री की दृष्टि की पकड़ में आ गया। नीलिमा तीमारदारी करने आयी है, और यह भी ठीक है कि साधारण लोगों की दृष्टि में इस बीमार आदमी की तन्दुरुस्ती की तरफ़ खास सावधानी रखने में कोई आश्चर्य की बात नहीं, मगर उन साधारण जनों में कमल का शुमार नहीं किया जा सकता। नीलिमा की इस अत्यन्त सावधानी की अपूर्व स्निग्धता से मानो उसे एक अचिन्त्य विस्मय का सामना करना पड़ा। विस्मय सिर्फ़ एक तरफ़ से नहीं, बहुत तरफ़ से हुआ। ऐसे सन्देह को कि सम्पत्ति के मोह ने इस विधवा को मुग्ध कर लिया है, कमल अपनी कल्पना में भी स्थान न दे सकी, क्योंकि नीलिमा का इतना परिचय तो वह पा ही चुकी थी। आशु बाबू के यौवन और रूप का प्रश्न तो इस मामले में सिर्फ़ असंगत ही नहीं बल्कि हास्यकर है। तब फिर इसका पता कहाँ मिलेगा, मन ही मन कमल उसकी खोज करने लगी। इसके अलावा एक पहलू और भी है। वह है आशु बाबू का अपना पहलू। लोगों का दृढ़ विश्वास था कि इस सरल और सदाशिव भले आदमी के हृदय के नीचे की गहराई में पत्नी-प्रेम का आदर्श ऐसी अचंचल निष्ठा के साथ नित्य पूजित होता आ रहा है कि किसी दिन कोई भी प्रलोभन उस पर दाग नहीं लगा सकता। जिस दिन मनोरमा की माँ की मृत्यु हुई थी, उन दिनों आशु बाबू की उमर ज़्यादा न थी तब तक यौवन बीता नहीं था, उसी दिन से उस लोकान्तरित पत्नी की स्मृति को उखाड़कर नवीन की प्रतिष्ठा करने के लिए घर वालों और इष्ट मित्रों ने प्रयत्न करने में कुछ उठा नहीं रखा था, मगर फिर भी उस दुर्भेद्य दुर्ग का द्वार तोड़ने का कौशल किसी को भी ढूँढ़े नहीं मिला। ये सब बातें कमल ने बहुतों के मुँह से सुनी थी। और दूसरे कमरे में आकर वह अन्यमनस्क सी चुपचाप बैठी सिर्फ़ यही सोचने लगी कि नीलिमा के इस मनोभाव का लेशमात्र भी इस आदमी के ध्यान में आया है या नहीं? अगर आया हो तो दाम्पत्य के जिस सुकठोर व्रत की वे अत्याज्य धर्म की तरह एकाग्र सावधानी के साथ आजीवन रक्षा करते आये हैं, आसक्ति की इस नवजाग्रत चेतना से वह लेशमात्र विक्षुब्ध हुआ है या नहीं?

नौकर चाय-रोटी और फल वगैरह दे गया। अतिथियों के सामने उन सबको रखती हुई नीलिमा तरह-तरह की बातें करने लगी। आशु बाबू की बीमारी, उनकी तन्दुरुस्ती, उनकी सहज सज्जनता और बच्चों जैसी सरलता के छोटे-मोटे विवरण, और इसी तरह की और भी बहुत सी बातें जो इधर कई दिनों में उसकी निगाह से गुजरी हैं। श्रोता के तौर पर हरेन्द्र स्त्रिायों के लिए लोभ की चीज था; उसके साग्रह प्रश्नों के उत्तर में नीलिमा की वाक्शक्ति उच्छवसित आवेग से शतमुखी होकर फूट निकली। उसके कहने की आन्तरिकता से हरेन्द्र ऐसा मुग्ध हुआ कि उसे फिर ध्यान ही नहीं रहा कि जिस भाभी को उसने अविनाश के घर देखता आया है, वह यही है या नहीं। वह परिणत यौवन का स्निग्ध गाम्भीर्य, वह कौतुकपूर्ण उज्जवल परिमित परिहास, वैधव्य की वही सीमित संयम बातचीत वही सुपरिचित स्वभाव - यह सबका सब इन्हीं कई दिनों में छोड़-छोड़कर जो अकल्पित वाचालता से बालिका की तरह प्रगल्भ हो उठी है, सो क्या उसकी वही भाभी है?

बातें करते-करते नीलिमा की नजर कमल पर पड़ी, देखा कि चाय के प्याले में मुँह लगाने के सिवा उसने और कुछ नहीं खाया है। क्षुण्ण स्वर में उसको उलाहना देते ही कमल ने हँसते हुए जवाब दिया - इतने में ही मुझे भूल गयी क्या?

”भूल गयी? इसके माने?”

”इसके माने यह कि मेरे खाने-पीने की बात आपको याद नहीं रही है। मैं तो बेवक़्त कुछ खाती-पीती नहीं।”

”और हजार अनुरोध करने पर भी उसमें फर्क नहीं पड़ता।” हरेन्द्र ने इसमें और जोड़ दिया।

उत्तर में कमल ने वैसे ही हँसते हुए कहा - यह दर्प तो मैं नहीं करती हरेन्द्र बाबू, कि इस हठ में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, पर हाँ, यह मानती हूँ कि साधारणतः इस नियम का मुझे अभ्यास हो गया है।

रास्ते में निकलकर कमल ने हरेन्द्र से पूछा - अब आप जा कहाँ रहे हैं, बताइये न?

हरेन्द्र ने कहा - डरिये मत, आपके घर नहीं जाऊँगा, पर जहाँ से आपको लाया हूँ वहाँ न पहुँचा दूँ तो अनुचित होगा।

तब काफी रात हो चुकी थी, रास्ते में लोगों का आना-जाना नहीं के बराबर था। चलते-चलते अकस्मात अत्यन्त घनिष्ठ की तरह कमल ने हरेन्द्र का एक हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा - चलिए मेरे साथ। उचित-अनुचित का विचार आपका कितना सूक्ष्म हो गया है, परीक्षा दीजिएगा।

हरेन्द्र मारे संकोच के परेशान हो उठा। स्पष्ट देखने लगा कि यह अच्छा नहीं हुआ। इस तरह रास्ते में चलना खतरे से खाली नहीं, और अगर कोई परिचित कहीं से सामने आ पड़ा तो शर्म का ठिकाना न रहेगा; परन्तु बगैर कहे हाथ छुड़ा लेने की अशोभन कठोरता को भी वह मन में स्थान न दे सका। मामला अशोभन सा प्रतीत हो रहा था और उसे संकट की अवस्था मानकर ही वह उसके घर के दरवाजे पर जा पहुँचा। जब उसने विदा माँगी तो कमल ने कहा - इतनी जल्दी क्यों है? आश्रम में अजित बाबू के सिवा तो और कोई है नहीं?

हरेन्द्र ने कहा - नहीं। आज वे भी नहीं हैं, सबेरे की गाड़ी से दिल्ली गये हैं, सम्भवतः कल लौट आयेंगे।

कमल ने पूछा - जाकर खायेंगे क्या? आश्रम में रसोइया रखने की तो व्यवस्था है नहीं?

हरेन्द्र ने कहा - नहीं, हम लोग अपने हाथ से बनाते हैं।

”अर्थात आप और अजित बाबू?”

”हाँ। पर आप हँसती क्यों हैं? निहायत खराब नहीं बनाते हम लोग।”

”अजित बाबू नहीं हैं, इसलिए घर जाकर आपको खुद ही बनाकर खाना होगा। मेरे हाथ की खाने में अगर आपको घृणा न हो तो मेरी बड़ी इच्छा है कि आपको निमन्त्रिात करूँ। खायेंगे मेरे हाथ की?”

हरेन्द्र ने अत्यन्त क्षुण्ण होकर कहा - यह गलत धारणा है। आप क्या सचमुच ही समझती हैं कि मैं घृणा से नामंजूर कर सकता हूँ? और वह क्षण भर चुप रह कर बोला - ”आपको यह बताने में मैंने कोई कसर नहीं रख छोड़ी है कि जो लोग आपको वास्तव में श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, मैं उन्हीं में से एक हूँ। मेरी तरफ़ से आपत्ति सिर्फ़ इतनी ही है कि बेवक़्त मैं आपको तक़लीफ नहीं देना चाहता।

कमल ने कहा - सो आप खुद ही देख लीजिएगा, मुझे कोई खास तक़लीफ नहीं होगी। आइये।

रसोई बनाते हुए कमल ने कहा - मेरी तैयारियाँ बहुत मामूली हैं, लेकिन आश्रमों में आप लोगों का जो कुछ देख आयी हूँ उसे भी प्रचुर नहीं कहा जा सकता। लिहाजा, मुझे भरोसा है कि यहाँ अगर खाने-पीने की कोई तक़लीफ भी हो तो औरों की तरह वह आपको असह्य न होगी।

हरेन्द्र ने खुश होकर जवाब दिया - हमारे यहाँ खाने-पीने की व्यवस्था वही है जो आप देख आयी हैं। सचमुच ही हम लोग बहुत कष्ट के साथ रहते हैं।

”मगर रहते क्यों हैं? अजित बाबू बड़े आदमी हैं, आपकी अपनी अवस्था भी ऐसी बुरी नहीं - फिर कष्ट पाने की तो कोई वजह नहीं?”

हरेन्द्र ने कहा - वज़ह न हो, ज़रूरत तो है ही। मेरा विश्वास है कि इस ज़रूरत को आप भी समझती हैं और इसलिए आपने अपने सम्बन्ध में भी वही व्यवस्था कर रखी है। अगर कोई बाहर वाला आश्चर्य के साथ आपसे इसका कारण पूछ बैठे तो उसे क्या आप इसका कारण बता सकती हैं?

कमल ने कहा - बाहर वालों को भले ही न बता सकूँ, पर भीतर वाले को तो बता ही सकती हूँ। बात यह है कि मैं सचमुच ही बहुत गरीब हूँ, अपने भरण-पोषण के लिए कमाने की जितनी मुझमें शक्ति है, उसमें इससे ज़्यादा नहीं किया जा सकता। पिताजी मुझे कुछ भी नहीं दे जा सकें, पर वे मुझे दूसरों के अनुग्रहों से बचने का यह बीज-मंत्र दे गये हैं।

हरेन्द्र उसके मुँह की तरफ़ चुपचाप देखता रहा। इस परदेश में कमल कैसी निरुपाय है, वह जानता है। सिर्फ़ रुपये-पैसे के लिए नहीं; समाज, सम्मान, सहानुभूति, किसी तरफ़ भी ताकने के लिए उसके पास कुछ नहीं है। मगर इस सत्य को भी वह याद किये बगैर न रह सका कि इतनी जबर्दस्त निःसहायता भी इस रमणी को लेशमात्र दुर्बल नहीं कर सकी है। आज भी वह किसी से भीख नहीं माँगती, बल्कि भीख देती है। जो शिवनाथ उसकी इतनी बड़ी दुर्गति का मूल कारण है, उसे भी दान करने लायक पूँजी अब तक उसकी खत्म नहीं हुई। हरेन्द्र ने शायद साहस और सान्त्वना देने के अभिप्राय से ही उससे कहा - ”आपके साथ मैं तर्क नहीं करना चाहता कमल, मगर इसके सिवा मैं और कुछ सोच भी नहीं सकता कि हमारी तरह आपकी गरीबी भी वास्तविक नहीं है, एक बार भी आप चाहें तो आपका यह दुख मरीचिका की तरह दूर किया जा सकता है। पर ऐसी इच्छा आपमें नहीं है, कारण आप भी जानती हैं कि स्वेच्छा से ग्रहण किये हुए दुख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है।”

कमल ने कहा - ”हाँ, भोगा जा सकता है। मगर क्यों, आप जानते हैं? क्योंकि वह अनावश्यक दुख है - क्योंकि वह दुख का सिर्फ़ एक अभिनय है। सभी अभिनयों में थोड़ा-बहुत कौतुक रहता है, इसलिए उसका उपभोग करने में कोई बाधा भी नहीं।” इतना कहकर वह खुद कौतुक से हँस पड़ी।

उसका हँसना सहसा न जाने कैसा बेसुरा-सा मालूम पड़ा। इस व्यंग्य को सुनकर हरेन्द्र क्षण भर चुप रहा। फिर बोला - मगर यह तो आप मानती हैं कि बहुतायत के भीतर जीवन तुच्छ होने लगता है, दुख-दैन्य में से गुजरकर मनुष्य का चरित्र महान महान और सत्य हो जाता है।

कमल ने ‘स्टोव’ पर से कड़ाही उतार कर नीचे रख दिया और एक दूसरा बरतन चढ़ाकर कहा - ”सत्य बनने के लिए उधर भी तो थोड़ा-बहुत सत्य रहना चाहिए हरेन्द्र बाबू! आप लोग बड़े आदमी हैं, वास्तव में आपको कोई कमी नहीं, फिर भी छद्म अभाव की तैयारी में व्यस्त हैं। और फिर उसमें अजित बाबू भी जा मिले हैं। आपके आश्रम की फ़िलासफ़ी मेरी तो कुछ समझ में आती नहीं, पर इतना समझती हूँ कि गरीबी के कष्ट भोगने की विडम्बना से कभी महत्व को नहीं पाया जा सकता; हाँ, पाया जा सकता है तो थोड़े-से दम्भ और अहम्मन्यता को। संस्कारों से अन्धे न होकर ज़रा आँख खोल कर आप देखें तो यह चीज स्पष्ट दिखाई दे जायेगी। इसके दृष्टान्त के लिए भारत-भ्रमण की ज़रूरत न होंगी। - पर बहस अभी छोड़िये, रसोई बन चुकी, आप खाने बैठिये।”

हरेन्द्र ने हताश होकर कहा - मुश्किल तो यह है कि भारत वर्ष की फिलासफी समझना आपके बूते से बाहर की बात है। आपकी शिराओं में म्लेच्छ रक्त बह रहा है। हिन्दुओं का आदर्श आपकी दृष्टि में तमाशा ही मालूम देगा। दीजिए, क्या बनाया है, खाने को दीजिए।

”देती हूँ।” कहकर कमल ने आसन बिछा दिया। ज़रा भी नाराज़ नहीं हुई। हरेन्द्र उसकी तरफ़ देखकर सहसा बोल उठा - ”अच्छा, मान लीजिए कि कोई अगर वास्तव में अपना सब कुछ दान कर सचमुच के अभाव और दैन्य में अपने को घसीट लाये, तब तो अभिनय कहकर उसका मजाक नहीं किया जा सकेगा? तब तो-

कमल ने बीच में ही रोकते हुए कहा - ”तब फिर मज़ाक नहीं, तब तो

सचमुच का पागल मानकर उसके लिए सिर धुन-धुनकर रोने का समय आ जायेगा। हरेन्द्र बाबू, कुछ दिन पहले मैं भी कुछ-कुछ आप ही जैसा विचार करती थी, उपवास के नशे की तरह मुझे भी उसने मोहित कर रखा था, पर अब वह संशय मेरा जाता रहा है। गरीबी या अभाव इच्छा से आवे या इच्छा के विरुद्ध आवे, उसमें गर्व करने लायक कुछ नहीं होता। उसके भीतर है शून्यता, उसके भीतर है कमज़ोरी और उसके भीतर है पाप। अभाव मनुष्य को कितना हीन और कितना छोटा बना देता है, सो मैंने अपनी आँखों से देखा है, इस महामारी में मोचियों के मुहल्ले में जाकर। और भी एक आदमी ने यह देखा है। वे हैं आपके मित्र राजेन्द्र। पर उनसे तो कुछ मिलने का नहीं - आसाम के गहरे जंगल की तरह क्या-क्या वहाँ छिपा हुआ है, कोई नहीं जानता। मैं अक्सर सोचा करती हूँ कि आप लोगों ने उन्हीं को विदा कर दिया! कहावत है न, हीरे को फेंककर काँच के टुकड़े को गिरह में बाँध लेना - आप लोगों ने ठीक वही किया है। आपने भीतर कहीं से भी निषेध नहीं पाया? आश्चर्य!“

हरेन्द्र ने उत्तर नहीं दिया, चुप रहा।

आयोजन मामूली था, पर कमल ने कितने जतन से अतिथि को खिलाया सो कहा नहीं जा सकता। खाने बैठा तो हरेन्द्र को बार-बार नीलिमा भाभी की याद आने लगी। नारीत्व के शान्त माधुर्य और शुचिता के आदर्श की दृष्टि से वह नीलिमा से बढ़कर, और किसी को भी न मानता था। मन ही मन बोला - ”शिक्षा, संस्कार, रुचि और प्रवृत्ति को देखते इन दोनों में चाहे कितना ही भेद क्यों न हो, पर सेवा और ममता में दोनों बिल्कुल एक सी हैं। असल में वे बाहर की चीजें हैं, इसलिए विषमता का अन्त नहीं और तर्क भी खतम नहीं होता; परन्तु नारी की जो बिल्कुल अपनी चीज है, जो सब तरह के मतामत के घेरे के बाहर की वस्तु है, नारी के उस गूढ़ अन्तःकरण का रूप देखने से आँखें एकदम जुड़ा जाती हैं। नाना कारणों से आज हरेन्द्र को भूख न थी, सिर्फ़ एक को प्रसन्न करने के लिए ही उसने बूते से बाहर खा लिया। कोई एक ‘तरकारी बहुत अच्छी लगी’ है कहकर उसने उसके बरतन को बिल्कुल साफ़ कर दिया। बोला - बहुत बार असमय में जा-जाकर भाभी का मैंने ठीक इसी तरह नाकों दम कर दिया है, कमल!

”किसका, नीलिमा का?”

”हाँ।”

”उनके नाक में दम आता था।”

”ज़रूर, पर मानती न थीं।”

कमल ने हँसकर कहा - ”सिर्फ़ आपकी ही नहीं, सभी पुरुषों की ऐसी मोटी अक्ल हुआ करती है।”

हरेन्द्र ने बहस के अन्दाज़ में कहा - मैंने अपनी आँखों से देखा है।

कमल ने कहा - ”सो मैं जानती हूँ। और इन आँखों से देखने के घमण्ड में ही आप लोग मरे जा रहे हैं।”

हरेन्द्र ने कहा - घमण्ड आप लोगों को भी कम नहीं। तब भाभी खाये बिना रह जाती, उपासी रात बिता देतीं, फिर भी हार नहीं मानतीं।

कमल चुपचाप उसके मुँह की तरफ़ देखती रही। हरेन्द्र कहता रहा - आप लोगों के आशीर्वाद से हम लोगों के मोटी अक्ल ही सदा बनी रहे, इसी में ज़्यादा फायदा है। आप लोगों की सूक्ष्म बुद्धि की डाह से उपवासी मरना हमें मंजूर नहीं।”

कमल ने इस बात का भी कुछ जवाब नहीं दिया। हरेन्द्र बोला - अब से मैं आपकी सूक्ष्म बुद्धि की भी बीच-बीच में परीक्षा लिया करूँगा।

कमल ने कहा - सो आप नहीं ले सकेंगे, गरीब होने से आपको मुझ पर दया आ जायेगी।

सुनकर हरेन्द्र पहले तो लज्जित सा हुआ। फिर बोला - देखिये, इस बात का जवाब देने में जबान रुकती है। क्यों, जानती हैं? जिसे राज-रानी होना शोभता, उसे यह कंगालपना अच्छा नहीं मालूम देता। मालूम होता है, आपकी गरीबी दुनिया की तमाम अमीर स्त्रिायों का मजाक उड़ा रही है।

बात तीर की तरह कमल के कलेजे में जा लगी। हरेन्द्र कुछ और कहना चाहता था कि कमल ने उसे रोकते हुए कहा - आप भोजन कर चुके हों तो उठिये। उस कमरे में जाकर सारी रात गप्प सुनूँगी तब तक इस कमरे का काम खत्म कर लूँ।

थोड़ी देर बाद सोने के कमरे में आकर कमल ने कहा - आज आपकी भाभी का सारा इतिहास सुने बगैर आपको छोड़ूँगी नहीं, चाहे कितनी ही रात क्यों न हो जाये। सुनाइयेगा?

हरेन्द्र संकट में पड़ गया। बोला - भाभी की सारी बातें तो मैं जानता नहीं। उनके साथ पहली जान-पहचान मेरी इसी आगरे में हुई है अविनाश भइया के घर। वास्तव में उनके सम्बन्ध में मुझे लगभग कुछ भी नहीं मालूम। जो कुछ यहाँ के लोग जानते हैं, उतना ही मैं जानता हूँ। सिर्फ़ एक बात शायद संसार में सबसे ज़्यादा जानता हूँ, और वह है उनकी अकलंक शुभ्रता। जब उनके पति मरे थे तब उनकी उमर उन्नीस-बीस साल की थी। भाभी ने उन्हें सर्वान्तःकरण से पाया था। वह स्मृति अब तक पुँछी नहीं है और न कभी पुँछ ही सकती है - जीवन के अन्तिम दिन तक वह अक्षय बनी रहेगी। पुरुषों में जब आशु बाबू की बात उठती है - मैं मानता हूँ, उनकी निष्ठा भी असाधारण है - लेकिन -

”हरेन्द्र बाबू, रात बहुत हो गयी है, अब तो आपका घर जाना हो नहीं सकता - इसी कमरे में आपके लिए बिस्तर कर दूँ?”

हरेन्द्र ने आश्चर्य से पूछा - इसी कमरे में? और आप?

कमल ने कहा - मैं भी यही सोऊंगी। और तो कोई कमरा है नहीं।

हरेन्द्र मारे शर्म के पीला पड़ गया। कमल ने हँसते हुए कहा - आप ब्रह्मचारी जो हैं। आपको भी क्या डरने का कोई कारण हो सकता है?

हरेन्द्र स्तब्ध होकर एकटक उसके चेहरे की तरफ़ देखता रह गया। यह कैसा प्रस्ताव है, उससे कल्पना करते भी न बना। स्त्री होकर मुँह से यह बात निकली कैसे? उसकी हद से ज़्यादा विह्नलता ने कमल को धक्का दिया। उसने कुछ क्षण चुप रहकर कहा - ”मेरी ही गलती हुई, हरेन्द्र बाबू, अपने घर जाइये। इसी कारण आपकी असीम श्रद्धा की पात्री नीलिमा को आश्रम में जगह नहीं मिली, जगह मिली तो आशु बाबू के घर में। सूने घर में अनात्मीय नर-नारी का सिर्फ़ एक ही सम्बन्ध आपको मालूम है - पुरुष के निकट औरत सिर्फ़ औरत ही है, उसके बारे में इससे ज़्यादा खबर आप तक आज तक नहीं पहुँची। - ब्रह्मचारी हो जाने पर भी नहीं। जाइए, अब देर न कीजिए, आश्रम जाइए।” इतना कहकर वह खुद ही बाहर के अंधेरे बरामदे में जाकर अदृश्य हो गयी।

हरेन्द्र मूढ़ की तरह दो-तीन मिनट खड़ा रहा, फिर धीरे-धीरे नीचे उतर गया।

20

लगभग एक महीना बीत गया। आगरे में इन्फ्लुएँजा की विकराल महामारी का रूप शान्त हो गया है, कहीं-कहीं दो-एक नये आक्रमण होने की बात सुनी तो जाती है, पर ऐसे खतरनाक रूप में नहीं। कमल घर में बैठी सिलाई का काम कर रही थी, इतने में हरेन्द्र आ गया। उसके हाथ में एक पोटली थी। उसे पास ही जमीन पर रखते हुए बोला - आपकी मेहनत देखकर तकाजा करने में शरम लगती है, मगर आदमी भी ऐसे बेहया हैं कि भेंट होते ही पूछते हैं ‘बन गया?’ मैं साफ़-साफ़ जवाब दे देता हूँ कि अभी बहुत देर है। बहुत ज़रूरी हो तो कहिये, कपड़ा वापस ला दूँ। मगर मजे की बात तो यह है कि आपके हाथ की चीज जिसने एक बार बरती वह और कहीं सिलाना नहीं चाहता। यह देखिये न, लालाजी के घर से उनका नौकर फिर गरद रेशम का थान और नमूने का कुरता दे गया है -

कमल ने सिलाई पर से आँख उठाकर कहा - ले क्यों लिया?

”लिया क्या यों ही? कह दिया है कि छह महीने से पहले नहीं होगा - उस पर भी राजी हो गया। बोला - छह महीने बाद तो मिल जायेगा? कोई हर्ज नहीं। यह देखिए न, सिलाई के रुपये तक हाथ पर रख गया है।” कहते हुए जेब से उसने एक नोट में मुड़े हुए रुपये निकाल कर कमल के सामने पटक दिये।

कमल ने कहा - ”इतना ज़्यादा काम आता रहा तो मैं देखती हूँ, मुझे आदमी रखना पड़ेगा।” फिर उसने पोटली खोलकर पुराना पंजाबी कुरता उठाकर देखा और कहा - ”किसी बड़ी दुकान का सिला हुआ मालूम होता है - बड़े कारीगर का काम है - मुझसे तो ऐसा सीते न बनेगा। कीमती कपड़ा है, खराब हो जायेगा, इसे वापस दे दीजिएगा।”

हरेन्द्र ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा - आपसे बढ़कर कारीगर और भी है क्या कोई?

”यहाँ न हो, कलकत्ते में तो है। वहीं भेज देने को कहिए।”

”नहीं नहीं, सो नहीं होगा। आपसे जैसा बने वैसा बना दीजिए, उसी से काम चल जायेगा।”

”बनेगा नहीं हरेन्द्र बाबू, बनता तो बना देती।” कहकर वह अकस्मात हँस पड़ी, बोली - ”अजित बाबू बड़े आदमी हैं और शौक़ीन मिज़ाज ठहरे। ऐसा-वैसा बना देने से उनसे पहना कैसे जायेगा? व्यर्थ में कपड़ा खराब करने से कोई फायदा नहीं, आप वापस ले जाइये।”

हरेन्द्र को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, उसने कहा - कैसे जाना कि यह अजित बाबू का है?

कमल ने कहा - ”मैं ज्योतिष जो जानती हूँ। गरद-रेशम का थान, पेशगी रुपया और फिर छह महीने बाद मिले तो भी हर्ज नहीं। यहाँ के लाला लोग ऐसे मूर्ख नहीं होते हरेन्द्रबाबू। उनसे कह दीजिएगा कि उनका कुरता बनाने लायक योग्यता मुझमें नहीं है, मैं तो सिर्फ़ गरीबों के सस्ते दाम के कपड़े ही सीना जानती हूँ। यह नहीं सी सकती।”

हरेन्द्र संकट में पड़ गया। अन्त में बोला - उनकी बड़ी इच्छा है कि आपके हाथ का सिला हुआ कुरता पहनें। लेकिन, आप कहीं जान न जायें और यह न समझ बैठें कि हम लोग किसी तरह आपकी सहायता करने की कोशिश कर रहे हैं, इससे मैं बहुत दिनों से इसे ला नहीं रहा था। उनसे कहा था कि कम दाम का कोई मामूली कपड़ा दें। पर वे राजी नहीं हुए। बोले - यह कोई मेरी रोज की पहनने की मिरजई थोड़े ही है। यह तो कमल के हाथ की सिली हुई चीज है जो सिर्फ़ किसी विशेष पर्व के दिन पहनने के काम आयेगी और रख छोड़ी जायेगी। इस संसार में उनसे बढ़कर आप पर शायद ही कोई दूसरा श्रद्धा करता हो।

कमल ने कहा - कुछ दिन पहले उनके मुँह से शायद ठीक इससे उलटी बात ही बहुतों ने सुनी होगी! ठीक है कि नहीं? ज़रा कोशिश करें तो शायद आपको भी स्मरण हो सकता है। ज़रा याद कर देखिये न?

कुछ ही दिन पहले की बात थी, हरेन्द्र बाबू को सब याद था। वह कुछ लज्जित-सा होकर बोला - झूठ नहीं; मगर ऐसी धारणा तो एक दिन बहुतों की थी। शायद अकेले आशु बाबू की भले ही न हो; लेकिन उन्हें भी एक दिन विचलित होते देखा गया है। खुद मुझको ही देखिए न - आज तो कोई प्रमाण पेश करने की ज़रूरत नहीं, पर उस दिन की कसौटी पर आज भी अगर कोई भक्ति-श्रद्धा की जांच करने लगे तो बताइए मैं कहाँ खड़ा हो सकूँगा?

कमल ने पूछा - राजेन्द्र का पता लगा?

हरेन्द्र ने समझ लिया कि यह हृदय-सम्बन्धी चर्चा पहले की तरह, आज फिर स्थगित रही। उसने कहा - नहीं, अब तक तो नहीं लगा। उम्मीद है कि कहीं से आ खड़ा होगा तो लग जायेगा।

कमल ने कहा - सो तो मैं जानना चाहती नहीं, मैंने तो आपसे सिर्फ़ इतना ही पता लगाने को कहा था कि वह पुलिस का मेहमान हुआ है या नहीं।

हरेन्द्र ने कहा - सो तो पता लगा लिया। फिलहाल उसके हाथ से तो बचा हुआ है।

यह सुनकर कमल निश्चिन्त तो नहीं हो सकी, पर उसे कुछ तसल्ली ज़रूर हुई। पूछा - ”वे कहाँ गये हैं और कब गये हैं, मोचियों के मुहल्ले में ज़रा जाके क्या उनका पता नहीं लगाया जा सका? हरेन्द्र बाबू, उनके प्रति आपको स्नेह कितना है, सो मैं जानती हूँ, इस बारे में पूछना ज्यादती होगी। पर इधर कई दिनों से मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि इसके सिवा और कुछ सोच ही नहीं सकती।” इतना कहकर उसने ऐसी व्याकुल दृष्टि से हरेन्द्र की ओर देखा कि वह विस्मित हो गया। पर दूसरे ही क्षण वह आँख नीची करके पहले की तरह अपने सिलाई के काम में लग गयी।

हरेन्द्र चुपचाप खड़ा रहा। खड़े-खड़े उसके मन में एक-एक करके कई प्रश्न उठते रहे और कुतूहल भी होता रहा। मुँह से शब्दों ने भी निकलना चाहा; पर उसने अपने को हर बार संभाल लिया। किसी भी तरह वह तय नहीं कर पाया कि इस पूछने का नतीजा क्या होगा। इस तरह पांच-सात मिनट बीत जाने पर कमल ने खुद ही बात की। सिलाई को एक तरफ़ रखकर समाप्ति की एक साँस लेकर उसने कहा - ”रहने दो, अब नही करती।” मुँह ऊपर उठाते ही आश्चर्य के साथ बोली - ”यह क्या? खड़े क्यों हैं? कुर्सी खींचकर बैठा भी नहीं गया आपसे?”

”बैठने को तो कहा नहीं आपने।”

”अच्छे रहे। कहा नहीं, सो बैठेंगे भी नहीं?”

”नहीं, बगैर कहे बैठना उचित नहीं।”

”मगर खड़े रहने के लिए भी तो मैंने नहीं कहा, फिर खड़े क्यों हैं?”

”ऐसा अगर आप कहती हैं तो मेरा न खड़ा होना ही उचित था। अपना कसूर मंजूर करता हूँ।”

कमल हँस दी। बोली - ”तो मैं भी अपना कसूर मान लेती हूँ। अब तक अन्यमनस्क रहना मेरा अपराध है। अब बैठिये।”

हरेन्द्र कुर्सी खींचकर उस पर बैठ गया। कमल सहसा ज़रा गम्भीर हो गयी।

एक बार कुछ सोचा, फिर बोली - देखिए हरेन्द्र बाबू, मैं जानती हूँ और आप भी जानते हैं कि असल में इसके अन्दर कुछ है नहीं। फिर भी बात खटकती ही है। यह जो मैं बैठने के लिए कहना भूल गयी - जो आदर अतिथि को देना चाहिए था, वह नहीं दिया। हजार घनिष्ठता के होते हुए भी इस त्रुटि पर आपकी निगाह पड़ ही गयी। नहीं, नहीं। आप नाराज़ हुए हैं, सो मैं नहीं कहती - मगर फिर भी न जाने क्यों मन में कुछ लगता ही हैे। मनुष्य का यह संस्कार जाने पर भी नहीं जाना चाहता, कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत रह ही जाता है। क्यों, ठीक है?

हरेन्द्र इसका मतलब न समझ सका, आश्चर्य के साथ उसके मुँह की तरफ़ देखता रह गया। कमल कहने लगी - इससे संसार में न जाने कितना अनर्थ हो रहा है और मजा यह कि इसी को लोग सबसे ज़्यादा भूलते हैं। क्यों, है न यही बात?

हरेन्द्र ने कहा - यह सब आप मुझसे कह रही हैं, या अपने आपसे? अगर मेरे लिए हो तो ज़रा और खुलासा करके कहिए। यह पहेली मेरे मगज में घुस नहीं रही है?

कमल हँसने लगी। बोली - है तो पहेली ही। सीधा-सरल रास्ता होता है, मालूम ही नहीं होता कि विपत्ति आँखें लाल कर रही है। चलते-चलते ठोकर लगती है और उँगली से खून निकलने लगता है, तब कहीं जाकर होश आता है कि ज़रा और देखकर चलना चाहिए था। क्यों, है न यही बात?

हरेन्द्र ने कहा - रास्ते के बारे में तो यह ठीक है। कम से कम आगरे के रास्तों पर तो ज़रा होश संभालकर ही चलना अच्छा, ऐसी दुर्घटनाएँ आश्रम के लड़कों पर प्रायः घटती हैं। मगर पहेली ही रह गयी, भीतरी मतलब तो कुछ समझ में नहीं आया?

कमल ने कहा - उसका कोई चारा नहीं हरेन्द्र बाबू,। बता देने से ही सभी बातों का मतलब समझ में नहीं आ जाता। मुझको ही देखिये न, मुझे तो किसी ने बताया नहीं, फिर भी मतलब समझने में मुझे कोई अड़चन नहीं हुई।

हरेन्द्र ने कहा - इसका अर्थ यह है कि आप भाग्यवती हैं और मैं अभागा। या तो ऐसी भाषा में कहिए कि साधारण आदमी के दिमाग़ में भी घुस जाये या फिर रहने दीजिए, कुछ मत बोलिए। चीनी आतिशबाजी की तरह जितना इसे खोलना चाहता हूँ उतनी ही यह उलझती जा रही है। अज्ञात अज्ञेय विरोध से शुरू होकर वक़्तव्य अब कहाँ आकर रुका है, इसका ओर-छोर नहीं मिला। ये सब बातें क्या आप राजेन्द्र की याद करके कह रही हैं? उसे मैं भी तो जानता हूँ, सरल बना करके कहें तो शायद कुछ-कुछ समझ भी सकूँ। नहीं तो फिर इस तरह एक स्वप्नमय आदमी की वक़्तृता सुनते-सुनते मुझे अपनी बुद्धि पर विश्वास ही न रह जायेगा।

कमल हँसते मुँह से बोली - किसकी बुद्धि पर? मेरी पर या अपनी पर?

”दोनों की ही।”

कमल ने कहा - सिर्फ़ राजेन्द्र की ही नहीं। मालूम नहीं क्यों, सबेरे से आज मुझे सभी की याद आ रही है - आशु बाबू, मनोरमा, अक्षय, अविनाश, नीलिमा, शिवनाथ - यहाँ तक कि अपने पिताजी की -

हरेन्द्र ने टोका - ”इस तरह नहीं चल सकता। आप फिर गम्भीर होती जा रही हैं। आपके माता-पिता स्वर्ग गये हैं, उनको इस मामले में घसीटना मुझसे नहीं सहा जायेगा। हाँ, जो जिन्दा हैं उनकी बात कीजिए। आप राजेन्द्र की बात कहना चाहती थीं, उसी की कहिए, मैं सुनूँ। वह मेरा मित्र है, उसे मैं जानता हूँ, पहचानता हूँ, प्यार भी करता हूँ, मेरा विश्वास कीजिए, मैं चाहे आश्रम चलाता होऊं या और कुछ करता होऊं, आपको धोखा नहीं दूँगा। संसार में और लोगों की तरह मैं भी प्रेम की कहानी सुनना पसन्द करता हूँ।”

कमल की गम्भीरता सहसा हँसी में परिणत हो गयी, उसने पूछा - सिर्फ़ दूसरों की ही सुनना पसन्द करते हैं? उससे आगे कुछ नहीं चाहते?

हरेन्द्र ने कहा - नहीं। मैं ब्रह्मचारियों का पण्डा हूँ, अक्षय का दल सुन लेगा तो मुझे खा ही जायेगा।

यह उत्तर सुनकर कमल फिर हँस पड़ी - बोली, नहीं, वे नहीं खायेंगे। मैं उसका उपाय कर दूँगी।

हरेन्द्र ने सिर हिलाते हुए कहा - आप नहीं कर सकेंगी। आश्रम तोड़कर भाग जाने पर भी मेरा छुटकारा नहीं है। अक्षय ने एक बार जब कि मुझे पहचान लिया है, तब जहाँ भी मैं जाऊँगा, वहाँ मुझे वह सन्मार्ग पर लगाये ही रखेगा। इससे अच्छा यह है कि आप अपनी ही बात कहें। राजेन्द्र को आप अपने मन से किसी तरह भुला ही नहीं सकतीं। उसकी बात के सिवाय और कोई बात सोच ही नहीं सकतीं, तो फिर वहीं से शुरू कीजिए। किस तरह उस अभागे छोकरे को आप इतना चाहने लगी हैं, यह सुनने की मुझे बड़ी साध है।

कमल ने कहा - ठीक यही प्रश्न मैं बार-बार अपने से भी कर रही हूँ।

”कुछ पता नहीं पा रही हैं?”

”नहीं।”

”पाने की बात भी नहीं, और मुझे विश्वास भी नहीं होता कि यह सच है।”

”क्यों, विश्वास क्यों नहीं होता?”

”खैर, छोड़िये इस बात को। शायद एक बार मैं कह भी चुका हूँ कि इससे भी अच्छे ‘कैण्डिडेट’ मौजूद हैं। आखिरी निर्णय करने के पहले उनके ‘केसों’ पर भी ज़रा नजर डाल देखियेगा। यही प्रार्थना है।”

”मगर केसों पर केवल अनुमान के आधार पर तो विचार किया नहीं जा सकता हरेन्द्र बाबू, बाकायदा गवाह और प्रमाणों की ज़रूरत होती है। सो कौन हाजिर करेगा?”

”वे खुद ही करेंगे! गवाह और सबूत के लिए वे तैयार हैं, पुकार होते ही हाजिर हो जायेंगे।”

कमल ने जवाब नहीं दिया। ऊपर मुँह उठाकर देखा और हँस दी।

उसके बाद पूरे और अधूरे सीये कपड़ों की एक-एक करके ठीक से तह की, उन्हें एक बेंत की टोकरी में जँचा कर रख दिया और उठके खड़ी हो गयी। बोली -

”आपका शायद चाय पीने का वक़्त हो गया हरेन्द्र बाबू, ज़रा-सी चाय बनाकर ले आऊँ, आप बैठिये।”

हरेन्द्र ने कहा - बैठा तो हूँ ही। लेकिन आप तो जानती हैं, चाय पीने के लिए मेरा कोई वक़्त बेवक़्त नहीं। मिले तो पी लेता हूँ, न मिले तो कोई बात नहीं। इसके लिए आपको तक़लीफ उठाने की ज़रूरत नहीं। एक बात आपसे पूँछू?

”खुशी से।”

”बहुत दिनों से आप किसी के यहाँ गयीं नहीं, सो क्या जान बूझकर जाना बन्द कर दिया है?”

कमल को आश्चर्य हुआ। बोली - नहीं तो। मुझे इसका ख़्याल ही नहीं।

”तो फिर चलिए न, आज ज़रा आशु बाबू के मकान तक घूम आवें। वे सचमुच ही बहुत खुश होंगे। जब वे बीमार थे तब एक बार आप गयी थीं, अब तो वे अच्छे हो गये हैं। सिर्फ़ डाक्टर ने मना कर दिया है कि बाहर नहीं निकलें। नहीं तो शायद वे किसी दिन खुद ही यहाँ आ जाते।”

कमल ने कहा - वे न आवें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जाना मुझे ही चाहिए था, लेकिन काम की झंझट से जा नहीं सकी। बड़ी ग़लती हो गयी।

”तो आज ही चलिए न?”

”चलिए। मगर शाम होने दीजिए। आप बैठिए, चट से एक प्याला चाय बनाये लाती हूँ।” इतना कहकर वह बाहर चली गयी।

शाम के झुटपुटे में दोनों घर से निकल पड़े। रास्ते में हरेन्द्र ने कहा - ”ज़रा दिन रहते चलते तो अच्छा रहता।” कमल ने कहा - ”नहीं, जान-पहचान का शायद कोई देख लेता।”

”भले देख लेता। इन सब बातों की अब मैं परवाह नहीं करता।”

”पर मैं तो करती हूँ।”

हरेन्द्र ने समझा कि मजाक किया जा रहा है। वह बोला - लेकिन जान-पहचान वाले ही अगर सुनेंगे कि आप मेरे साथ अकेली निकलने में आजकल संकोच करने लगी हैं, तो वे क्या सोचेंगे?

”शायद यही सोचेंगे कि मैंने मजाक किया होगा?”

”मगर आपको जो पहचानता है, वह क्या और कुछ सोच सकता है? बताइए?” कमल चुप रही।

जवाब न पाकर हरेन्द्र ने कहा - आज आपको क्या हो गया है, मालूम नहीं, सब कुछ दुर्बोध्य हो रहा है।

कमल ने कहा - जो समझने का नहीं है, उसे न समझना ही अच्छा है। राजेन्द्र को भूलना चाहकर भी भूलती नहीं। इसका सबसे ज़्यादा भान होता है आपके आने पर। उसके लिए आश्रम में स्थान नहीं हुआ, हालाँकि किसी पेड़ के नीचे पड़े रहने से भी उसका काम चल जाता। सिर्फ़ मैंने ही वहाँ रहने नहीं दिया और आदर के साथ मैं उसे बुला लायी। मेरे घर आया, कहीं से भी उसके मन को कोई रुकावट नहीं आयी। हवा और प्रकाश की तरह उसके आने पर भी सब दिशाएँ खुली रहीं, पुरुष का मानो एक नया परिचय मिला। यह सोचने को मुझे समय ही नहीं मिला कि यह अच्छा है या बुरा, शायद समझने में देर भी लगे।

हरेन्द्र ने कहा - यह बड़ी भारी सान्त्वना है।

”सांन्त्वना क्यों है?”

”सो नहीं मालूम।”

फिर कोई भी कुछ नहीं बोला, दोनों ही न जाने कैसे अन्यमनस्क से बने रहे। हरेन्द्र ने शायद जान-बूझकर ही ज़रा घुमाव का रास्ता अख्तियार किया था। जब वे आशु बाबू के घर पहुँचे तब शाम बीते बहुत देर हो चुकी थी। भीतर जाने के लिए खबर देने की ज़रूरत न थी, पर पाँच-छह दिन से हरेन्द्र आ नहीं सका था इसलिए नौकर को सामने पाकर बोला - ”बाबू साहब की तबियत अच्छी है?”

उसने नमस्कार करके कहा - ”जी हाँ, अच्छी है।”

”अपने कमरे में ही हैं क्या?”

”नहीं, ऊपर के सामने वाले कमरे में सबके साथ बैठे बातें कर रहे हैं।”

जीने पर चढ़ते कमल ने पूछा - ”सब कौन।”

हरेन्द्र ने कहा - ”भाभी तो हैं ही, और भी शायद कोई होगा, मालूम नहीं।”

परदा हटाकर भीतर घुसते ही दोनों को ज़रा आश्चर्य हुआ। एसेन्स और चुरुट की तेज गन्ध ने एक साथ कमरे की हवा को भारी कर दिया था। नीलिमा मौजूद नहीं थी, आशु बाबू बड़ी आरामकुर्सी के हथेलों पर पैर फैलाये चुरुट पी रहे थे ओर पास ही सोफ़े पर सीधी बैठी एक अपिरिचित महिला बातें कर रही थीं। कमरे की आबहवा की तरह ही उसके मुँह का भाव भी तेज था। बंगालिन थी, पर बंगला बोलने की उसमें रुचि नहीं थी। शायद आदत भी न हो। हरेन्द्र और कमल ने कमरे में कदम रखते ही सुन लिया कि वह अनर्गल अंग्रेज़ी बोल रही है।

आशु बाबू ने मुँह उठाकर देखा। कमल पर निगाह पड़ते ही उनका सारा चेहरा आनन्द से उज्जवल हो उठा। शायद एक बार उठकर बैठने की भी कोशिश की, पर सहसा बैठा नहीं गया। मुँह का चुरुट फेंककर बोले - ”आओ कमल, आओ।” और अपरिचिता रमणी को निर्दिष्ट करके बोले - ”ये मेरी एक रिश्तेदार हैं। परसों आयी हैं, सम्भव है इन्हें कुछ दिन यहाँ रख भी सकूं।”

ज़रा ठहरकर फिर बोले - ”बेला, ये कमल हैं। मेरी लड़की की तरह।”

दोनों ने दोनों के लिए हाथ उठाकर नमस्कार किया।

हरेन्द्र ने कहा - और मैं?

”ओ हो, तुम तो रह ही गये। ये हरेन्द्र हैं, प्रोफेसर अक्षय के परम मित्र। बाकी परिचय यथासमय होता रहेगा, चिन्ता की कोई बात नहीं हरेन्द्र।” और कमल को इशारे से पास बुलाते हुए बोले - यहाँ मेरे पास आओ कमल, तुम्हारा हाथ लेकर कुछ देर चुप बैठा रहूँ। इसके लिए कई दिनों से मेरा जी तड़फड़ा रहा है।

कमल हँसती हुई उनके पास जाकर बैठ गयी और दोनों हाथ बढ़ाकर उसने उनके मोटे भारी हाथ को अपनी गोद में रख लिया।

आशु बाबू ने पूछा - खा-पीकर आयी हो क्या?

कमल ने सिर हिलाकर का - नहीं।

आशु बाबू ने छोटी-सी एक साँस लेकर कहा - ”पूछने से फ़ायदा ही क्या? यहाँ तुम्हें खिला तो सकता नहीं!“

कमल चुप रही।

21

बेला के मुँह की तरफ़ देखकर आशु बाबू ज़रा हँसे और बोले - क्यों, वर्णन मेरा मिल तो गया? इसे बुढ़ापे की ‘एक्स्ट्रावेगन्स’ (बुढ़भस) कहकर मजाक उड़ाना तो तुम्हारा ठीक नहीं हुआ, अब तो मान गयी?

महिला चुप रहीं। आशु बाबू कमल का हाथ हिलाने-डुलाने लगे और बोले - इस लड़की को बाहर से देखकर जैसा आश्चर्य होता है, भीतर से देखकर वैसे ही दंग रह जाना होता है। क्यों हरेन्द्र, ठीक है न?

हरेन्द्र चुप रहा। कमल ने हँसते हुए जवाब दिया - ”ठीक है कि नहीं, इसमें सन्देह है; लेकिन किसी ने अगर बुढ़ापे की ‘एक्स्ट्रावेगन्स’ कहके आपके कामों का मजाक किया हो तो इतना तो बेखटके कहा जा सकता है कि वह ठीक नहीं है। आपका मात्रा-ज्ञान इस दुनिया में अचल है।”

”ओह, ऐसा है!“ आशु बाबू ने गम्भीर स्नेह के स्वर में कहा - जानता हूँ कि इस घर में मैं तुम्हें खिला-पिला कुछ भी न सकूंगा, पर यह तो बताओ अपने घर तुमने क्या-क्या खाया है?

”जो रोज खाया करती हूँ वही।”

”फिर भी, सुनूँ तो सही? बेला सोच रही थी कि यह भी मैंने बढ़ा-चढ़ा के कहा है।”

कमल ने कहा - यानी मेरे विषय में मेरी अनुपस्थिति में बहुत-कुछ चर्चा हो चुकी हैं?

”सो तो हुई है, अस्वीकार नहीं करूँगा।” इतने में चांदी की रकाबी में एक छोटा कार्ड लिए हुए बेहरा आ गया। उसकी लिखावट पर सबकी निगाह पड़ गयी और सभी को आश्चर्य हुआ। इस घर में अजित एक दिन घर के लड़के की तरह था, पर आगरे में रहते हुए भी वह नहीं आता और शायद यही स्वाभाविक है। इस न आने की लज्जा और संकोच के द्वारा दोनों तरफ़ से ऐसा एक व्यवधान उठ खड़ा हुआ है कि उसके इस अप्रत्याशित आगमन से सिर्फ़ आशु बाबू ही नहीं, उपस्थित सभी ज़रा चौंक से पड़े। आशु बाबू के चेहरे पर उद्वेग की एक गहरी छाप पड़ गयी। बोले, ” उन्हें इसी कमरे में ले आ।”

थोड़ी देर बाद अजित आ पहुँचा। एक साथ इतने परिचित और अपरिचित जनों की उपस्थिति की सम्भावना का विचार या आशंका उसने नहीं की थी।

आशु बाबू ने कहा - बैठो अजित। अच्छे तो हो?

अजित ने सिर हिलाते हुए कहा - जी हाँ। आपकी तबियत अब कैसी है?

अब तो अच्छी मालूम होती है?

आशु बाबू ने कहा - बीमारी तो अच्छी हो गयी मालूम होती है।

परस्पर का कुशल-प्रश्नोत्तर यहीं खतम हो गया। कमल न होती तो शायद और भी दो-एक बातें हो सकती थीं, परन्तु आँखें चार होने के डर से अजित ने इधर कमल की ओर आँख उठाकर देखने का साहस ही नहीं किया। दो-तीन मिनट तक सब लोग चुप रहे। हरेन्द्र सबसे पहले बोला, पूछा - ”यहाँ आप क्या अभी सीधे घर से ही आ रहे हैं?”

कुछ बोलने का मौका पाकर अजित के जी में जी आ गया। बोला ”नहीं, ठीक सीधा नहीं आ रहा हूँ, आपको खोजते हुए ज़रा घूम-फिरकर आ रहा हूँ।”

”मुझे खोजते हुए? क्या काम है?”

”काम मेरा नहीं, एक और सज्जन का है। वे राजेन्द्र की खोज में दोपहर से शायद चार बार आ चुके। उनसे बैठने के लिए कहा था, पर वे राज़ी नहीं हुए। स्थिरता से बैठकर प्रतीक्षा करना शायद उनको सहन नहीं है।” हरेन्द्र ने शंकित होकर पूछा - ”था कौन? देखने में कैसा था? कह क्यों नहीं दिया कि यहाँ नहीं है?

अजित ने कहा - ”यह खबर तो उन्हें दे चुका हूँ। पर शायद उन्होंने विश्वास नहीं किया।”

हरेन्द्र का चेहरा उद्विग्नता से भर उठा, वह उठ खड़ा हुआ और कमल को घर पहुँचाने का भार आशु बाबू पर छोड़कर चल दिया। उसके चले जाने पर आशु बाबू ने कहा - ”कमल, इस लड़के राजेन्द्र को मैंने दो-तीन बार से ज़्यादा नहीं देखा, बिना किसी संकट में पड़े उसके दर्शन ही नहीं होते, पर ऐसा लगता है कि उससे मैं काफी स्नेह करने लगा हूँ। मालूम नहीं कौन-सी महामूल्य वस्तु वह अपने साथ लिए फिरता है, और मजा यह है कि हरेन्द्र के मुँह से सुना करता हूँ कि वह बिल्कुल ‘वाइल्ड’ है, पुलिस उसे सन्देह की दृष्टि से देखती है। डर रहता है, न जाने कब क्या उपद्रव खड़ा कर बैठे और शायद उसकी खबर भी न मिले। यही देखो न, किसी को पता ही नहीं लग रहा है कि अचानक कहाँ ग़ायब हो गया।”

कमल पूछ बैठी - अचानक अगर मालूम हो जाये कि वे संकट में पड़ गये हैं, तो आप क्या करेंगे?

आशु बाबू ने कहा - क्या करूँगा, सो जवाब तो सिर्फ़ तभी दिया जा सकता है, अभी नहीं। बीमारी के दिनों में नीलिमा ने और मैंने उसके बहुत-से क़िस्से हरेन्द्र के मुँह से सुने हैं। दूसरों के लिए सचमुच ही अपने आपको किस तरह विलीन कर दिया जा सकता है, समर्पित किया जा सकता है, सुनते-सुनते मानो उसकी तस्वीर-सी खिंच जाती थी सामने। भगवान से प्रार्थना है कि उस पर कभी कोई आफत न आवे।” ऊपर से किसी ने कुछ नहीं कहा, पर मन ही मन शायद सभी ने इस प्रार्थना में साथ दिया।

कमल ने पूछा - नीलिमा को आज देख नहीं रही हूँ? शायद काम में व्यस्त होंगी?

आशु बाबू ने कहा - कामकाजी ठहरीं, दिन-रात काम धन्धे में ही लगी रहती हैं, मगर आज सुना है कि सिर दर्द से बिस्तर पर पड़ी हैं। तबियत शायद कुछ ज़्यादा खराब है। नहीं तो पड़े रहने का उनका स्वभाव नहीं। अपनी आँखों से देखे बगैर विश्वास नहीं किया जा सकता कि कोई आदमी लगातार इतनी सेवा, इतना परिश्रम कर सकता है।

फिर क्षण भर चुप रहकर कहा - अविनाश के साथ मेरी जान-पहचान आगरे में हुई। बीच-बीच में आता-जाता रहा हूँ। कितना-सा परिचय है। फिर भी आज सोचता हूँ कि संसार में अपने-पराये का जो व्यवहार चल रहा है, वह कितना अर्थहीन है। दुनिया में अपना-पराया कोई नहीं। कमल, यह कोई नहीं जानता कि संसार के इस महासमुद्र के बहाव में पड़कर कौन कहाँ से बहता हुआ पास आ जाता है और कौन बहकर दूर चला जाता है।”

सिर्फ़ उस अपरिचित स्त्री बेला के सिवा दोनों ही समझ गये कि यह बात किसको लक्ष्य करके और किस दुख से कही गयी है। आशु बाबू कुछ-कुछ मानो अपने मन ही मन कहने लगे - इस बीमारी से उठने के बाद से संसार की बहुत-सी चीजें मानो कुछ दूसरी ही तरह की नजर आने लगी हैं। ऐसा लगता है कि क्यों इतना खींचतान, संग्रह करना और इतना भले-बुरे का वाद-विवाद किया जाता है? क्यों मनुष्य अपने चारों तरफ़ बहुत-सी भूलों और बहुत-से धोखों को जमा करके स्वेच्छा से अन्धा बन रहा है? अब भी उसे बहुत युगों का अज्ञात सत्य ढूँढ़ निकालना होगा, तब कहीं वह सच्चे अर्थों में मनुष्य हो सकेगा। आनन्द तो नहीं, बल्कि निरानन्द ही मानो उसकी इस सभ्यता और भद्रता का अन्तिम लक्ष्य बन गया है।

कमल आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखती रही। यह बात नहीं कि उनकी बात का मतलब वह बिना किसी संशय के समझ रही हो। उसे ठीक ऐसा लगता था कि जैसे कि कुहरे के बीच किसी आगन्तुक का चेहरा अस्पष्ट-सा दिखता हो,; मगर पैरों की चाल बिल्कुल परिचित हो।

आशु बाबू खुद ही रुके। शायद कमल की विस्मित दृष्टि ने उन्हें सचेतन किया। बोले - तुम्हारे साथ मुझे और भी बहुत सी बातें करनी हैं कमल, किसी दिन फिर आना।

”आऊँगी। आज जाती हूँ।”

”अच्छा। गाड़ी नीचे खड़ी है, तुम्हें वह पहुँचा देगा, इसी से वासुदेव को छुट्टी नहीं दी है। अजित, तुम भी साथ क्यों नहीं चले जाते, लौटते वक़्त तुम्हें आश्रम में उतारता आयेगा?”

दोनों नमस्कार करके बाहर निकल आये। बेला साथ-साथ गाड़ी तक आयी, बोली - ”आपके साथ बातचीत करने का आज वक़्त नहीं रहा, मगर अगली बार जब आयेंगी तब मैं छोड़ूँगी नहीं।”

कमल ने हँसकर सिर हिलाते हुए कहा, ”यह मेरा सौभाग्य हैं लेकिन डर लगता है परिचय पाकर कहीं मन न बदल जाये?”

मोटर में दोनों जने पास-पास बैठे। चौराहे से मुड़ते वक़्त कमल ने कहा -

”उस दिन की रात भी ऐसी ही अँधेरी थी; याद है?”

”हाँ, याद है।”

”और उस दिन का पागलपन?”

”सो भी याद है।”

”मैं राज़ी हो गयी थी, सो याद है?”

अजित ने हँसकर कहा - ”नहीं। मगर आपने जो व्यंग्य किया था, सो याद है।” कमल ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा - ”व्यंग्य किया था? नहीं तो!“

”ज़रूर किया था।”

कमल ने कहा - ”तो आपने गलत समझा था। खैर, उसे छोड़िये। आज तो व्यंग्य नहीं कर रही? चलिए न, आज ही दोनों जने चल दें?”

”धत। आप बड़ी शरीर हैं।”

कमल ने हँसकर कहा - ”शरीर कैसी? बताइए, मेरे जैसी शान्त-सीधी स्त्री कहाँ मिलेगी? अचानक हुक्म किया - कमल, चलो चलें, और मैं उसी वक़्त राजी होकर बोली, चलिए।”

”लेकिन वह तो सिर्फ़ मज़ाक था।”

कमल ने कहा - ”अच्छा, मज़ाक ही सही, लेकिन बताइए, अचानक ऐसा क्या कसूर हो गया जो ‘तुम’ छोड़कर अब ‘आप’ कहना शुरू कर दिया है? कितनी मुसीबत से दिन काट रही हूँ, भला आप ही लोगों के कपड़े सी-सीकर किसी तरह पेट चला रही हूँ, और आपके पास रुपयों का शुमार नहीं - पर एक दिन भी आपने मेरी सुधि ली? मनोरमा ऐसी तक़लीफ में पड़ती तो क्या आपसे रहा जाता? देखिए, दिन-रात मेहनत-मजदूरी कर-कर के कितनी दुबली हो गयी हूँ?” इतना कहकर जैसे ही उसने अपना बायाँ हाथ अजित के हाथ पर रखा वैसे ही अजित चौंक पड़ा और उसका सारा शरीर सिहर उठा। अस्फुट स्वर में उसके मुँह से कुछ निकला ही चाहता था कि कमल सहसा अपना हाथ उठाकर चिल्ला उठी - ”ड्राइवर, रोको-रोको, यहाँ पागलखाने के पास कहाँ आ पड़े? गाड़ी घुमा लो। अँधेरे में कुछ ख़्याल ही नहीं रहा।”

अजित ने कहा - ”हाँ, कुसूर अँधेरे का ही है। तसल्ली सिर्फ़ यही है कि चाहे उस पर हज़ार अन्याय होता रहे, पर बेचारा प्रतिवाद नहीं कर सकता। इस अधिकार से वह वंचित है।” और वह हँस दिया।

सुनकर कमल भी हँस दी, बोली, ”सो तो ठीक है। लेकिन न्याय विचार ही संसार में सब कुछ नहीं है। यहाँ अन्याय अविचार के लिए भी स्थान है, इसी से आज तक दुनिया चल रही है, नहीं तो न जाने वह कब की रुक गयी होती। - ड्राइवर, रोको।”

अजित ने दरवाजा खोल दिया। कमल सड़क पर उतरकर बोली - ”अंधेरे का इससे भी बढ़कर एक और अपराध है अजित बाबू, उसमें अकेले जाने में डर मालूम होता है।”

इस इशारे पर अजित नीचे उतरकर पास जा खड़ा हुआ। कमल ने ड्राइवर से कहा - ”अब तुम घर जाओ, इन्हें जाने में अभी कुछ देर होगी।”

”सो कैसे! इतनी रात में मुझे गाड़ी कहाँ से मिलेगी?”

गाड़ी चली गयी। अजित बोला - ”मुझे मालूम है, कोई भी इन्तजाम न होगा। मुझे अँधेरे में तीन-चार मील पैदल चलकर ही जाना पड़ेगा। और अभी मैं आपको पहुँचाकर आसानी से घर जा सकता था।”

”नहीं जा सकते थे। कारण बगैर खिलाये मैं आपको उस आश्रम की अनिश्चितता में नहीं भेज सकती। चलिए, आइए।”

घर पर नौकरानी आज बत्ती जलाये बाट देख रही थी, पुकारते ही उसने दरवाजा खोल दिया। ऊपर रसोई-घर में जाकर कमल ने उसी सुन्दर आसन को बिछाते हुए अजित से बैठने के लिए कहा। सामान सब तैयार था, स्टोव जलाकर कमल ने रसोई चढ़ा दी और पास ही बैठकर बोली - ”ऐसे ही और एक दिन की बात याद है?”

”ज़रूर।”

”अच्छा, उस दिन और आज में कहाँ क्या फर्क है, बता सकते हैं? बताइये तो देखें?”

अजित कमरे में इधर-उधर देखकर याद करने की कोशिश करने लगा कि कहाँ क्या था।

कमल ने हँसते हुए कहा - ”उधर रात भर भी ढूँढ़ के न बता सकेंगे। किसी दूसरी ही तरफ़ देखना पड़ेगा।”

”किधर बताइए तो?”

”मेरी तरफ़।”

अजित सहसा मारे शर्म के संकुचित सा हो गया। आहिस्ते से - एक दिन भी मैंने आपका मुँह अच्छी तरह नहीं देखा। और सब देखा करते थे, पर मालूम नहीं क्यों, मुझसे देखते नहीं बनता था।

कमल ने कहा - औरों के साथ आपमें यही तो फर्क है। वे जो देख सके उसका कारण यह था कि उनकी दृष्टि में मेरे प्रति सम्मान का भाव नहीं था।”

अजित चुप रहा। कमल कहने लगी - मैंने तय किया था कि कैसे भी होगा आपको खोज निकालूँगी। मुझे आशा नहीं थी कि आशु बाबू के घर आज आपसे भेंट हो जायेगी, पर संयोग से जब भेंट हो गयी तब जान लिया कि पकड़ ही लाऊँगी। भोजन कराना तो महज एक छोटा सा उपलक्ष्य है, इसलिए भोजन कर चुकने पर भी छुट्टी नहीं मिलेगी। आज रात को मैं आपको कहीं भी न जाने दूँगी, इसी घर में बन्द कर रखूँगी।

”पर इसमें आपको फायदा क्या होगा?”

कमल ने कहा - ”फायदे की बात बाद में बतलाऊँगी, पर आप मुझसे ‘आप’ कहते हैं तो सचमुच ही मुझे व्यथा होती है। एक दिन ‘तुम’ कहके बोलते थे, उस दिन मैंने निहोरा नहीं किया था, आपने ही इच्छा से कहा था। आज उसे बदल देने लायक कोई भी कसूर मैंने नहीं किया है। रूठकर अगर उत्तर न दूं तो आप ही कष्ट पायेंगे।”

अजित ने सिर हिलाकर कहा - ”हाँ, शायद पाऊँगा।”

कमल ने कहा - ”‘शायद’ नहीं, निश्चय ही पायेंगे। आप आगरे आये थे मनोरमा के लिए। पर वह जब इस तरह से चली गयी तब सबने सोचा कि अब आप एक क्षण भी यहाँ नहीं ठहरेंगे। सिर्फ़ एक मैं ही जानती थी कि आप नहीं जा सकेंगे। अच्छा, इस बात पर कि मैं आपको प्यार करती हूँ, आप विश्वास करते हैं?”

”नहीं, नहीं करता।”

”ज़रूर करते हैं। इसी से आपके खिलाफ मेरी बहुत-सी नालिशें हैं।”

अजित ने कुतूहल के साथ कहा - बहुत-सी नालिशें? एक-आध सुनाओगी भी?

कमल ने कहा - सुनाऊँगी, इसलिए मैंने जाने नहीं दिया। पहले अपनी बात कहती हूँ। और कोई चारा नहीं, इसलिये गरीबों के कपड़े सीकर अपनी गुजर करती हूँ, यह सब मुझे सह्य है। पर इसलिए कि संकट में पड़ी हूँ, यह कैसे सहा जा सकता है कि आपके भी कुरते सीकर दाम लूँ?”

”पर तुम किसी का दान तो लेती नहीं हो।”

”नहीं, दान मैं किसी का नहीं लेती, यहाँ तक कि आपका भी नहीं। लेकिन दान के सिवा क्या संसार में और देने का कोई रास्ता खुला ही नहीं? आपने आकर ज़ोर देकर क्यों नहीं कहा कि कमल, यह काम मैं तुम्हें नहीं करने दूँगा। मैं उसका क्या जवाब देती? दुदैव से आज अगर मेरी मेहनत-मजूरी करके खाने की शक्ति जाती रहे तो फिर मैं आपके जीते जी भी क्या मैं दर-दर भीख माँगती फिरूँगी?”

इस दर्दभरी बात ने अजित को व्याकुल कर दिया, उसने कहा - यह नहीं हो सकता कमल, मेरे जीते जी यह असम्भव है। तुम्हारे विषय में मैंने एक दिन भी इस तरह नहीं सोचा। अब भी मानो मन में यह बात बैठती नहीं कि जिस कमल को हम सब जानते हैं, वही तुम हो।

कमल ने कहा - और लोग चाहे जो जानते रहें, पर आप क्या उन्हीं में से एक हैं? उनसे ज़्यादा कुछ नहीं?

इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। शायद अत्यन्त कठिन होने के कारण, और इसके बाद दोनों चुप रहे। शायद, दोनों ने यह अनुभव किया कि दूसरे से पूछने की अपेक्षा यह बात अपने से ही पूछने की ज़्यादा ज़रूरत है।

कितना-सा राँधना था! तैयार होने में देर न लगी। खाते-खाते अजित ने गम्भीर होकर कहा - ”फिर भी, मजा यह कि पास चाहे कितना ही रुपया क्यों न हो, तुम्हारी कमाई का अन्न हाथ पसारकर खाये बगैर किसी को छुटकारा नहीं मिलता, और तुम न किसी का लेती हो न किसी का खाती हो, कोई सिर पटककर मर जाये तब भी नहीं।”

कमल ने हसंकर कहा - ”आप ही क्यों खाते हैं? इसके अलावा आपने सिर कब पटका है?”

अजित ने कहा - ”सिर पटकने की इच्छा बहुत बार हुई है। तुम्हारा खाता इसलिए हूँ कि जबर्दस्ती में तुमसे जीत नहीं पाता। आज मैं अगर कहूँ कि कमल, आज से मैंने तुम्हारा सारा भार अपने ऊपर ले लिया, यह उंछवृत्ति अब मत करो, तो सम्भव है कि तुम कोई ऐसी बात कह बैठो कि मेरे मुँह से फिर दूसरा कोई वाक्य ही न निकले।”

कमल ने कहा - ”यह बात क्या कही थी कभी आपने?”

”शायद कही थी।”

”और मैंने सुनी नहीं वह बात?”

”नहीं।”

”तो आपने सुनने लायक तरीके से नहीं कही। शायद, मन ही मन सिर्फ़ इच्छा ही की, मुँह से वह जाहिर नहीं हुई।”

”अच्छा, मान लीजिए, आज ही अगर कहूँ?”

”और मैं भी अगर कहूँ कि नहीं?”

अजित ने हाथ का कौर नीचे रखते हुए कहा - यही तो मुश्किल है। तुम्हें एक दिन के लिए भी हम लोग समझ नहीं सके। जिस दिन ताजमहल के सामने पहले देखा था, उस दिन भी जैसे तुम्हारी बातें समझ में नहीं आयी, वैसे ही आज भी हम लोगों के लिए तुम ‘रहस्य’ ही बनी हुई हो। अभी तुमने कहा था कि मेरा भार संभाल लो और अभी की अभी कह रही हो नहीं!

कमल हँस दी, बोली - ”ऐसी ‘नहीं’ ज़रा आप भी कह देखिये न? कहिये कि आज तो खाया है, फिर कभी न खायेंगे, देखूँ, कैसे आपकी बात रहती है?”

अजित ने कहा - ”रहेगी कैसे? बगैर खिलाये तुम तो छोड़ोगी नहीं।”

इस बार कमल नहीं हँसी। शान्त भाव से बोली - आपके लिए मेरा भार उठाने का समय अभी नहीं आया। जिस दिन आयेगा उस दिन मेरे मुँह से भी ‘ना’ नहीं निकलेगा। रात बढ़ती जा रही है, आप खा लीजिए।

”खाता हूँ। वह दिन कभी आयेगा या नहीं, बता सकती हो?”

कमल ने सिर हिलाते हुए कहा - सो मैं नहीं बता सकती। जवाब आपको खुद ही एक दिन खोज लेना पड़ेगा।

”इतनी शक्ति मुझमें नहीं है। एक दिन बहुत खोजा था, पर मिला नहीं। इसी आशा से कि जवाब तुम्हीं से मिलेगा, मैं हाथ पसारे बैठा रहूँगा।”

इसके बाद वह चुपचाप खाने लगा। थोड़ी देर बाद कमल ने पूछा, ”इस घर के होते हुए भी अचानक हरेन्द्र के आश्रम में रहने क्यों पहुँचे?”

अजित ने कहा - ”कहीं न कहीं तो पहुँचना ही था। तुम खद ही जानती हो, आगरा छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकता था।”

”तो जानती हूँ न?”

”हाँ, जानती तो हो ही।”

”और यही अगर सच हो, तो सीधे मेरे पास क्यों न चले आये?”

”अगर आता, तो सचमुच ही जगह दे देती?”

”सचमुच तो आये नहीं? खैर, इसे छोड़िये, पर हरेन्द्र के आश्रम में तो असुविधाओं का ओर-छोर नहीं, वही उनकी साधना ठहरी, मगर इतनी असुविधाएँ आप कैसे सह लेते हैं?

”मालूम नहीं, कैसे सह लेता हूँ, पर आज मुझे उन सब बातों का मन में ख़्याल भी नहीं आता। अब तो मैं उन्हीं में से एक हो गया हूँ। हो सकता है कि यही मेरा भविष्य का जीवन हो। अब तक चुप भी नहीं बैठा था। आदमी भेजकर जगह-जगह आश्रम कायम करने की कोशिश करता रहा हूँ। तीन-चार जगह से उम्मीद भी मिली है, जी चाहता है, एक बार खुद जाके घूम आऊँ।”

”यह सलाह आपको दी किसने? हरेन्द्र ने शायद?”

अजित ने कहा - ”अगर दी भी हो तो निष्पाप होकर ही दी है। देश का सर्वनाश जिन लोगों ने अपनी आँखों से देखा है, दारिद्र्य का निष्ठुर दुख, धर्महीनता की गहरी ग्लानि, कमज़ोरी से उत्पन्न दयनीय भीरुता - “

कमल बीच में ही बोल उठी - ”हरेन्द्र ने यह सब देखा होगा, मैं इंकार नहीं करती, पर आपके लिये तो ये सब सुनी हुई बातें हैं। अपनी आँखों से तो आपको कभी कुछ देखने का मौका मिला नहीं?”

”पर बातें तो ये सब ठीक हैं?”

”सच नहीं है, सो मैं नहीं कहती, पर उसके प्रतिकार का उपाय क्या इन आश्रमों की प्रतिष्ठा में है?”

”नहीं, क्यों? भारतवर्ष का अस्तित्व सिर्फ़ उत्तर में हिमालय और तीनों ओर समुद्र से घिरा हुआ थोड़ा-सा भूखण्ड ही तो नहीं? यहाँ की प्राचीन सभ्यता, यहाँ की धार्मिक विशिष्टता, यहाँ की नैतिक पवित्रता, न्यायनिष्ठा की महिमा - यही तो भारत है। इसी से इसका नाम है देवभूमि, इसे अत्यन्त हीन दशा से बचाने के लिए तपस्या के सिवा और क्या मार्ग है? ब्रह्मचर्य-व्रतधारी निष्कलंक बच्चों के लिए जीवन में सार्थक होने और धन्य होने के - “

कमल ने उसे रोक दिया। बोल उठी - ”आप भोजन कर चुके हों तो हाथ-मुँह धोकर उठिये। उस कमरे में चलिए। उठिये, अब नहीं।”

”तुम नहीं खाओगी?”

”मैं क्या दोनों वक़्त खाती हूँ जो खाऊँगी? चलिए।”

”पर मुझे तो आश्रम वापस जाना है।”

”नहीं, नहीं जाना है, उस कमरे में चलिए। बहुत-सी बातें आपसे मुझे सुननी हैं।”

”अच्छा चलो। लेकिन बाहर रहने का हमारा नियम नहीं है - कितनी ही रात क्यों न हो, आश्रम में वापस जाना ही पड़ेगा।”

कमल ने कहा - ”वह नियम दीक्षित आश्रमवासियों के लिए है, आपके लिए नहीं।”

”मगर लोग क्या कहेंगे?”

इस उल्लेख से कि लोग क्या कहते हैं, कमल का धैर्य छूट जाता है। उसने कहा - ”लोग सिर्फ़ आपकी निन्दा ही करेंगे, रक्षा नहीं कर सकते। जो रक्षा कर सकेगी उसके निकट आपको कोई डर नहीं। आपके ‘उन लोगों’ से मैं कहीं ज़्यादा आपकी अपनी हूँ। उस दिन आपने साथ चलने को कहा था, पर मैं जा नहीं सकी, आज बगैर चले मेरा काम नहीं चलेगा। चलिए उस कमरे में, मुझसे कोई डर नहीं। मैं उनकी जाति की नहीं हूँ जो पुरुष के भोग की ही वस्तु हैं। उठिए।”

उस कमरे में ले जाकर कमल ने अजित के लिए बिल्कुल नये कपड़ों से पलंग पर सुन्दर बिस्तर कर दिये और अपने लिए जमीन पर मामूली-सा बिछौना कर लिया। फिर उठकर बाहर जाते हुए उसने कहा - ”मैं अभी आती हूँ। दस मिनट लगेंगे, मगर आप सो मत जाइयेगा।”

”नहीं।”

”नहीं तो मैं झकझोर कर जगा दूँगी।”

”उसकी ज़रूरत न होगी कमल, नींद मेरी आँखों से उड़ गयी है।”

”अच्छा, उसकी परीक्षा हो जायेगी।” कहकर वह कमरे से बाहर चली गई।

रसोई के बर्तन यथास्थान उठाके रखना, जूठे बरतन बरण्डे में धरना, घर-गृहस्थी के ऐसे ही सब छोटे-मोटे काम जो बाक़ी थे उन्हें उसने पूरा किया, तब जाके कहीं उसकी छुट्टी हुई।

सूने कमरे में कमल के हाथ से बड़े जतन से बिछाई शुभ्र-सुन्दर शैया पर बैठकर सहसा उसने एक गहरी साँस ली। इसका खास कोई गहरा कारण नहीं था, सिर्फ़ मन के अन्दर ‘अच्छा लगने’ की एक तृप्ति थी। हो सकता है कि उसमें थोड़ा-सा कुतूहल भी मिला हुआ हो, पर आग्रह का उत्ताप नहीं था। मालूम होता था कि मानो एक शान्त आनन्द का मधुर स्पर्श चुपके से उसके सारे शरीर में फैल गया है।

अजित धनाढ्य घर की सन्तान है, जन्म से विलास के भीतर ही वह इतना बड़ा हुआ है, परन्तु हरेन्द्र के ब्रह्मचर्य आश्रम में भरती होने के बाद से गरीबी और आत्मनिग्रह के दुगर्म मार्ग से भारतीय वैशिष्टय की मर्मोपलब्धि की एकाग्र साधना ने उधर से उसकी दृष्टि हटा दी है। सहसा उसकी नजर तकिये पर पड़ी, देखा कि उसकी खोली पर चारों तरफ़ पीले सूत से छोटे चन्द्रमल्लिका के फूल कढ़े हुए हैं। बिछौने की चादर का जो कोना नीचे लटक रहा है, उस पर सफेद रेशम से कढ़ी हुई किसी अज्ञात लता की तस्वीर बनी हुई है। ज़रा-सी कारीगरी थी, मामूली बात, जो न जाने और कितने आदमियों के घर होगी। फुरसत के वक़्त कमल ने इसे अपने हाथ से काढ़ा है। देखकर अजित मुग्ध हो गया। हाथ से उसे हिला-डुला रहा था कि कमल बाहर का काम निबटाकर कमरे में आ खड़ी हुई। अजित उसके चेहरे की तरफ़ देखकर बोल उठा - ”वाह, बहुत सुन्दर है!“

कमल ने आश्चर्य के स्वर में कहा - ”क्या सुन्दर है? यह बेल?”

”हाँ, और यह पीले रंग के फूल। तुमने अपने हाथ से काढ़े हैं, न?”

कमल ने हँसते हुए कहा - ”खूब पूछा। अपने हाथ से नहीं काढ़ती तो क्या बाजार से कारीगर बुलाकर तैयार कराती? आपको चाहिए ऐसा?”

”नहीं, नहीं, मुझे नहीं चाहिए। मैं क्या करूँगा?”

उसके इस आकुल और सलज्ज इन्कार से कमल हँस पड़ी। बोली - ”आश्रम में जाकर इस पर सोइयेगा और कोई पूछे तो कहियेगा कमल ने रात-भर जागकर इसे बना दिया है।”

”धत!“

”धत क्यों? ये सब चीजें कोई अपने लिए थोड़े ही बनाता है, दूसरे ही किसी आदमी के लिए बनायी जाती है। तक़लीफ झेलकर जो फूल काढ़े थे, सो क्या अपने सोने के लिए? एक न एक दिन कोई न कोई आता ही उसी के लिए ये चीजें उठा के रख दी थीं। सबेरे जब आप जाने लगेंगे तब ये आपके साथ रख दूँगी।”

अबकी बार अजित भी हँस दिया, बोला - ”अच्छा कमल, तुमने क्या मुझे बिल्कुल ही मूर्ख समझ रखा है?”

”क्यों?”

”क्या इस बात पर भी मैं विश्वास कर लूँ कि तुमने मेरी ही याद करके यह सब चीजें तैयार की थीं?”

”क्यों नहीं करेंगे?”

”इसलिए कि बात सच नहीं है।”

”पर अगर कहूँ कि मैं सच कह रही हूँ तो विश्वास करेंगे, कहिये?”

‘ज़रूर करूँगा मगर तुम्हारे मजाक की कोई हद नहीं - कहीं भी तुम्हें हिचकिचाहट नहीं होती। उन दिन की मोटर पर घूमने की बात याद आते ही लज्जा की हद नहीं रहती। वह बात दूसरी है, पर इसका मुझे भरोसा है कि मजाक के सिवाय और किसी बात के लिए तुम झूठ नहीं बोलोगी।”

”अगर मैं कहूँ कि वास्तव में मैंने मजाक नहीं किया, बिल्कुल सच कह रही हूँ, तो विश्वास करेंगे?”

”ज़रूर करूँगा।”

कमल ने कहा - ”अगर करें तो आज मैं आपसे सच्ची बात ही कहूँगी। तब तक राजेन्द्र नहीं आया था, अर्थात आश्रम से निकलकर तब तक उसने मेरे यहाँ आश्रय नहीं लिया था। मेरी भी वही दशा थी। आप लोगों ने मिलकर जब मुझे घृणा से दूर कर दिया, इस परदेश में जब किसी के पास जाकर खड़े होने का उपाय नहीं रहा, उसी समय का ही - उन गम्भीर दुख के दिनों का ही यह काम है। शायद मुझे कभी मालूम भी न होता कि उस दिन ठीक किसकी याद करके ये फूल काढ़े थे। लगभग भूल ही चुकी थी, मगर आज बिस्तर बिछाते वक़्त अचानक ऐसा लगा कि नहीं-नहीं, उस पर नहीं - जिसपर कोई किसी दिन सो चुका है उस पर मैं आपको हर्गिज नहीं सुला सकती।”

”क्यों नहीं सुला सकतीं?”

”मालूम नहीं क्यों, जैसे कोई धक्का देकर यह बात कह गया हो।” कहकर वह क्षण भर मौन रही और फिर बोली - ”उसी समय सहसा इन चीजों की याद आयी कि ये बक्स में रखी हैं। आप तब बाहर हाथ-मुँह धो रहे थे। इस डर से कि आप झट से आ पहुँचेंगे, मैंने जल्दी-जल्दी इन्हें निकालकर बिछाना शुरू कर दिया। तब मेरे जी में पहले-पहल यह ख़्याल आया कि उस दिन जिसकी याद करके रात-भर जागकर यह फूल-पत्ती बेलें काढ़ी थीं वह आप ही थे।”

अजित कुछ बोला नहीं। सिर्फ़ एक रंगीन आभा उसके चेहरे पर दिखाई दी और उसी क्षण विलीन हो गयी।

कमल खुद भी कुछ देर चुप रही, फिर बोली - ”चुपचाप क्या सोच रहे हैं, बताइए न?”

अजित ने कहा - ”सिर्फ़ चुप ही हूँ, कुछ सोच नहीं रहा हूँ।”

”इसकी वजह?”

”वजह? तुम्हारी बातें सुनकर मेरी छाती के भीतर मानो आँधी-सी उठ खड़ी हुई है। सिर्फ़ आंधी ही, न तो आया आनन्द और न बँधी आशा ही।”

कमल ने चुपचाप उसकी तरफ़ देखा कि अजित धीरे-धीरे कहने लगा, कमल, एक किस्सा कहता हूँ सुनो। मेरी माँ को एक बार हमारे गृह देवता राधावल्लभ जी ने पूजा वाले कमरे में मूर्ति धारण करके दर्शन दिये और माँ के हाथ से भोग लेकर सामने बैठकर खाया। यह उनकी अपनी आँखों देखी बात थी, फिर भी घर में हम लोगों में से कोई उस पर विश्वास नहीं कर सका। सबने समझा कि सपना होगा, मगर हमारे इस विश्वास का दुख उन्हें मरते दम तक बना रहा। आज तुम्हारी बात सुनकर मुझे वही बात याद आ रही है। मैं जानता हूँ कि तुम हँसी नहीं कर रही हो, मगर फिर भी, मेरी माँ की तरह तुमसे भी कहीं बड़ी भारी गलती हो गयी है। मनुष्य के जीवन में ऐसा बहुत-सा समय चला जाता है जब वह अपने सम्बन्ध में अँधेरे में रहता है। फिर शायद सहसा एक दिन आँख खुलती है। मेरा भी वही हाल है। यों तो मैं अब तक दुनिया में और भी बहुत जगह घूमता रहा हूँ, लेकिन सिर्फ़ इस आगरे में आकर ही मैंने ठीक से अपने को पहचाना है। मेरे पास है तो सिर्फ़ रुपया और वह भी पिता की कमाई का। इसके सिवा ऐसी कोई भी चीज मेरी अपनी नहीं, जिसके लिए तुम मेरी गैर जानकारी में मुझसे प्रेम कर सकतीं।”

कमल ने कहा - ”रुपयों की कोई फिकर न कीजिए आप। आश्रम-वासियों को जब कि एक मरतबा उसका पता चल गया है तब उसकी सब व्यवस्था वे ही कर डालेंगे।” कहते-कहते वह ज़रा हँसी और फिर बोली - लेकिन और सब तरफ़ से आप ऐसे निःस्व हैं, सो इसकी खबर मैंने क्या पहले खाक पाई थी? अगर पाई होती तो क्या कभी प्रेम करने आती? इसके अलावा आपके स्वभाव की भलाई-बुराई समझने का वक़्त ही कहाँ मिला था मुझे? मन में सिर्फ़ एक सन्देह था, जिसका पता नहीं चल रहा था, पर अभी-अभी दस मिनट हुए, अकेली बिस्तर के सामने खड़ी थी कि अकस्मात कोई ठीक खबर मेरे कान में आकर सुना गया।

अजित ने गहरे आश्चर्य के साथ पूछा - सच कह रही हो? सिर्फ़ दस मिनट हुए? पर अगर सच हो तो यह पागलपन है!

कमल ने कहा - पागलपन तो है ही। इसी से तो आपसे कहा था कि मुझे और कहीं ले चलिए। ऐसी भीख तो मैंने माँगी नहीं कि ब्याह करके मेरे साथ घर-गृहस्थी कीजिए।

अजित अत्यन्त कुण्ठित हो गया। बोला - भीख क्यों कहती हो कमल, यह भीख माँगना नहीं है, यह तुम्हारा प्रेम का अधिकार है। मगर अधिकार का दावा तुमने नहीं किया, माँगी ऐसी चीज जो पानी के बुलबुले की तरह अल्पायु है, और उसी की तरह मिथ्या।

कमल ने कहा - हो भी सकता है कि उसकी आयु कम हो, मगर इससे वह मिथ्या क्यों होगी? आयु की दीर्घता को ही जो सत्य समझकर जकड़े रहना चाहते हैं, मैं उनमें से नहीं हूँ।

”पर इस आनन्द में तो कुछ भी स्थायित्व नहीं, कमल!“

”न रहे। लेकिन जो लोग, इस डर से कि असली फूल जल्दी से सूख जाते हैं, देर तक रहने वाले नकली फूलों का गुच्छा बनाते और फूलदानी में सजाकर रखते हैं, उनके साथ मेरे मत का मेल नहीं खाता। आप से पहले भी मैंने एक बार ठीक यही बात कही थी कि किसी भी आनन्द में स्थायित्व नहीं है। स्थायी हैं सिर्फ़ उस आनन्द के क्षणस्थायी दिन, और वे दिन ही तो मानव-जीवन के चरम संचय हैं। उस आनन्द को बाँधने चले कि वह मरा। इसी से ब्याह में स्थायित्व तो है, पर उसका आनन्द नहीं। दुःसह स्थायित्व की मोटी रस्सी गले में बाँधकर वह आनन्द आत्महत्या करके मर मिटता है।”

अजित को याद आया कि ठीक यही बात उसने पहले भी कमल के मुँह से सुनी थी। सिर्फ़ मुँह की बात ही नहीं है यह, यही उसके अन्त-करण का विश्वास है। शिवनाथ ने उससे ब्याह नहीं किया, किन्तु धोखा दिया था, इस बात को लेकर एक दिन के लिए भी उसने कोई शिकायत नहीं की। क्यों नहीं की? आज यह पहले-पहल अजित ने बिना किसी संशय के समझा कि इस धोखे में कमल की अपनी भी राय थी। संसार भर की मानव-जाति के इस प्राचीन और पवित्र संस्कार के प्रति इतनी जबर्दस्त अवज्ञा के कारण अजित का मन धिक्कार से भर उठा।

क्षणभर मौन रहकर वह बोला - ”तुम्हारे सामने गर्व करना मुझे शोभा नहीं देता। पर तुमसे अब मैं कोई बात छिपाऊँगा नहीं। ये लोग कहते हैं कि संसार में कामिनी-कंचन का त्याग ही पुरुष का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। बुद्धि की तरफ़ से मैं इस पर विश्वास करता हूँ और यह भी मानता हूँ कि इस साधना में सिद्धि प्राप्त करने की अपेक्षा और कोई महत्वपूर्ण वस्तु नहीं। कंचन मेरे पास काफी है, उसकी मुझे इच्छा नहीं, परन्तु जब मैं सोचता हूँ कि मुझे अपने सम्पूर्ण जीवन में न कोई प्यार करने वाला मिला और न कोई मिलेगा तब मेरा हृदय मानो सूख जाता है। डर लगता है कि हृदय की इस कमज़ोरी को शायद मैं मरते दम तक न जीत सकूँगा। भाग्य में यही अगर किसी दिन घटा तो मैं आश्रम छोड़कर कहीं चला जाऊँगा। पर तुम्हारा आह्नान तो उससे भी बढ़कर मिथ्या है। उस पुकार का मैं अनुकूल जवाब न दे सकूँगा।”

”इसे आप मिथ्या क्यों कह रहे हैं?”

”मिथ्या तो है ही। मनोरमा का आचरण समझ में आता है, क्योंकि वास्तव में कभी मुझे उसने प्यार नहीं किया, किन्तु शिवनाथ के प्रति शिवानी का प्यार तो मैंने अपनी आँखों से देखा है। उस दिन मानो उसकी कोई सीमा ही नहीं थी, पर आज उसका निशान तक मिट गया है।”

कमल ने कहा - आज वह अगर मिट ही गया हो तो उस दिन का क्या सिर्फ़ मेरा छल ही आपकी निगाह में आया था?

अजित ने कहा - सो तो तुम्हीं जानो, पर आज मुझे लगता है कि नारी के जीवन में इससे बढ़कर मिथ्या और कुछ है ही नहीं।

कमल की दृष्टि प्रखर हो उठी। उसने कहा - नारी जीवन के सत्यासत्य निर्णय का भार नारीपर ही रहने दीजिए। उसके निर्णय का दायित्व पुरुष को लेने की ज़रूरत नहीं - न मनोरमा का और न कमल का। इसी तरह से संसार में न्याय चिरकाल से विडम्बित होता आ रहा है, नारी असम्मानित होती रही है और पुरुष का चित्त संकीर्ण और कलुषित होता गया है। इसी से इस झूठे मामले का आज तक फैसला नहीं हुआ। अविचार से सिर्फ़ एक ही पक्ष क्षतिग्रस्त नहीं होता अजित बाबू, दोनों पक्षों का सर्वनाश होता है। उस दिन शिवनाथ ने जो कुछ पाया था, दुनिया के बहुत कम पुरुषों के भाग्य में उतना बदा होता है, पर आज वह नहीं है। यह तर्क उठाकर कि क्यों नहीं है, पुरुष अपने मोटे हाथ से मोटा डण्डा घुमाकर शासन भले ही कर ले, पर उसे पा नहीं सकता। उस दिन का होना जितना बड़ा सत्य था, आज का न होना भी ठीक उतना ही बड़ा सत्य है। क्योंकि शठता की फटी गुदड़ी ओढ़ाकर इसे ढक देने में शरम आती है, इसी वजह से पुरुष के विचार से यह हो गया नारी जीवन का सबसे बड़ा मिथ्या? क्या इसी सुविचार की आशा से हम आप लोगों का मुँह ताका करती हैं?

अजित ने जवाब दिया - मगर उपाय क्या है? जो इतना क्षणस्थायी है, इतना क्षणभंगुर है, उसे इससे ज़्यादा सम्मान मनुष्य देगा ही क्यों?

कमल ने कहा - ”देगा नहीं, यह मैं जानती हूँ। हमारे आँगन के किनारे जो फूल खिलते हैं उनका जीवन एक छाक से ज़्यादा नहीं। उससे बल्कि वह मसाला पीसने का सिल-लोढ़ा कहीं ज़्यादा टिकाऊ है, कहीं ज़्यादा दीर्घस्थायी है। सत्य की जाँच का इससे ज़्यादा मजबूत मापदण्ड आप लोग और पा ही कहाँ सकते हैं?”

”कमल, यह ठीक उदाहरण नहीं है, यह तो सिर्फ़ गुस्से की बात है।”

”गुस्सा किस बात का अजित बाबू? सिर्फ़ स्थायित्व लेकर ही जिनका कारोबार है, वे इसी तरह कीमत आंका करते हैं। मेरे आह्नान पर जो आप से ‘हाँ’ कहते नहीं बना, उसकी जड़ में भी यही संशय है। दस्तखत करके जो चिरकाल के लिए बन्धन नहीं लेना चाहती, उस पर आप विश्वास करेंगे किस तरह? फूल को जो नहीं जानता उसके लिए वह सिल-लोढ़ा ही सबसे बड़ा सत्य है, क्योंकि उस सिल-लोढ़े के सूखकर झड़ जाने की आशंका नहीं है। फूल की आयु सिर्फ़ एक छाक की है और सिल-लोढ़ा हमेशा के लिए है। रसोईघर की ज़रूरत के मुताबिक वह हमेशा रगड़-रगड़कर मसाला पीस दिया करेगा; रोटी निगलने के लिए तरकारी का वह उपकरण जो ठहरा, उस पर भरोसा किया जा सकता है। उसके न होने से संसार बेस्वाद हो जायेगा।”

अजित उसके मुंह की तरफ़ देखता हुआ बोला - ”यह व्यंग्य किसलिए कमल?”

कमल के कानों तक शायद यह प्रश्न पहुँचा ही नहीं, वह मानो अपने आप ही कहने लगी - ”मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि हृदय लोहे से बना नहीं होता, इस तरह निश्चित निर्भयता से उस पर सारा बोझा नहीं लादा जा सकता। उसमें दुख न होता हो सो बात नहीं - पर यही हृदय का धर्म है, यही उसका सत्य है। फिर भी यह बात कहीं भी नहीं जा सकती और न मानी ही जा सकती है। इससे बढ़कर अनीति संसार में और क्या है? इसी से तो किसी की समझ में न आया कि शिवनाथ को कैसे मैं सर्वान्तःकरण से क्षमा कर सकी हूँ। रो-रोकर यौवन में जोगन बनना उनकी समझ में आ जाता, पर यह उनसे नहीं सहा गया: अरुचि और अवहेलना से उनका सारा मन कड़ुवा हो गया। पेड़ के पत्ते सूख के झड़ जाते हैं और उनकी क्षति को नये पत्ते आकर भर देते हैं; यह तो हुआ मिथ्या और बाहर की लता मर जाने पर भी पेड़ से लिपटी रहती है - कसके चिपटी रहती है, यह हो गया सत्य?”

अजित एक मन से सुन रहा था, उसकी बात ख़तम होते ही एक गहरी साँस छोड़कर बोला - एक बात हम लोग अक्सर भूल जाया करते हैं कि असल में तुम हमारी अपनी नहीं हो। तुम्हारा खून, तुम्हारा संस्कार, तुम्हारी सारी शिक्षा विदेश की है। इसके प्रचण्ड संघात को काटकर तुम किसी तरह ऊपर उठ नहीं सकतीं और इसी जगह हमारी तुम्हारे साथ निरन्तर खटक होती है। रात बहुत हो गयी कमल, इस निष्फल झगड़े को बन्द करो। - यह आदर्श तुम्हारे लिए नहीं है।

”कौन सा आदर्श? आपके ब्रह्मचर्य आश्रम का?”

इस ताने की चोट से अजित मन ही मन गुस्सा हो गया। बोला - अच्छा, सो ही सही। लेकिन इसे तुम नहीं समझोगी कि इसका गूढ़ तत्व विदेशियों के लिए नहीं है।

”आपकी शागिर्दी करने पर भी नहीं।”

”नहीं।”

कमल हँस पड़ी। मानो अब वह पहले की रही ही नहीं। बोली - अच्छा, यह तो बताइए कि उन साधुओं के अड्डे में से आपका नाम कैसे कटवा सकती हूँ? वास्तव में वह आश्रम मेरी आँख का काँटा बन गया है।

अजित बिस्तर पर पड़ रहा। बोला - राजेन्द्र को बुलाकर तुमने अनायास ही जगह दे दी। तुम्हें कुछ भी हिचकिचाहट न हुई, क्यों?

”हिचकिचाहट क्यों होती?”

”इन सब बातों की तुम परवाह ही नहीं करती क्या?”

”क्या परवाह नहीं करती? आप लोगों के मतामत की? सो तो नहीं करती।”

”अपने सम्बन्ध में भी शायद कभी किसी बात से डरतीं नहीं?”

कमल ने कहा - यह तो नहीं कह सकती कि कभी डरती ही नहीं, पर ब्रह्मचारी से डर किस बात का?

”हूँ।” कहके अजित चुप हो गया।

फिर कुछ देर बाद एकाएक बोल उठा - केंचुआ मिट्टी के नीचे अंधेरे में रहता है, वह जानता है कि बाहर के उजाले में निकलने से उसका बचना मुश्किल है। उसे लील जाने के लिए बहुत से मुँह बाये फिर रहे हैं। छिपने के सिवा आत्मरक्षा का और कोई उपाय उसे मालूम नहीं। पर तुम जानती हो कि आदमी केंचुआ नहीं, यहाँ तक कि औरत होने पर भी नहीं। शास्त्रों में लिखा है, अपने स्वस्थ को जान लेना ही परम शक्ति है - और तुम्हारा यह अपना स्वरूपज्ञान ही तुम्हारी असल शक्ति है - क्यों है न ठीक?

कमल कुछ बोली नहीं, चुप रही।

अजित ने कहा - ”स्त्रिायाँ जिस चीज को अपने इहजीवन का सर्वस्व समझती हैं, उस पर तुम्हारी ऐसी एक सहज उदासीनता है कि चाहे कोई कितनी ही निन्दा किया करे, वह तुम्हारे चारों तरफ़ आग की चहारदीवारी बनकर प्रतिक्षण तुम्हें रखाया करती है। तुम तक पहुँचने के पहले ही वह निन्दा खुद जलकर भस्म हो जाती है। अभी-अभी तुम मुझसे कह रही थीं कि जो पुरुष के भोग की वस्तु हैं उनकी जाति की तुम नहीं हो। आज की रात में तुम्हारे साथ आमने-सामने बैठकर उस बात का अर्थ स्पष्ट होता आ रहा है। मैं यह भी समझ रहा हूँ कि लोगों की निन्दा प्रशंसा की अवज्ञा करने की हिम्मत तुम्हें कहाँ से मिला करती है।”

कमल ने कृत्रिम आश्चर्य से मुँह ऊपर कर कहा - आपको हुआ क्या है अजित बाबू, बातें तो आज बहुत कुछ ज्ञानवानों की सी कर रहे हैं?

अजित ने कहा - अच्छा कमल, सच्ची बताओ, तुम्हारे लिए मेरा मतामत भी क्या और लोगों की तरह ही तुच्छ है?

”पर यह बात जानकर आप क्या करेंगे?”

”कमल, अपने को शक्तिमान समझकर मैंने कभी तुम्हारे आगे घमण्ड नहीं किया। वास्तव में भीतर-भीतर मैं जितना कमज़ोर हूँ, उतना ही असहाय भी। किसी काम को ज़ोर से कर डालने की ताकत मुझमें नहीं है।

कमल हँसकर बोली - सो तो मैं आपसे बहुत ज़्यादा जानती हूँ।

अजित ने कहा - मुझे क्या लगता है जानती हो? लगता है कि तुम्हें पाना जितना सरल है, गँवा देना भी उतना ही आसान है।

कमल ने कहा - ”यह भी मुझे मालूम है।”

अजित अपने मन ही मन सिर हिलाकर बोला, ”यही तो मुश्किल है। तुम्हें आज पा लेना ही तो सब कुछ नहीं है। एक दिन अगर इसी तरह गँवा देना पड़ा तो क्या होगा?”

कमल ने शान्त कण्ठ से कहा - कुछ भी न होगा, उस दिन गँवाना भी ऐसा ही सहज हो जायेगा। जितने दिन तक पास रहूँगी, उतने दिन आपको वही विद्या सिखाया करूँगी।

अजित भीतर से चौंक पड़ा। बोला - विलायत में रहते हुए मैंने देखा है कि वहाँ वाले कितनी आसानी से - कितने मामूली कारणों से हमेशा के लिए विच्छिन्न हो जाया करते हैं। मन में सोचता हूँ क्या उन्हें ज़रा भी चोट नहीं लगती? और यही अगर उनके प्रेम का परिचय है तो वे सभ्यता का गर्व कैसे किया करते हैं?

कमल ने कहा - अजित बाबू, बाहर से अखबारों में वह जितना सहज दीखता है, असल में वह उतना सहज नहीं है। मगर फिर भी, मैं तो यही कामना करती हूँ कि नर-नारी का यह परिचय ही किसी दिन जगत में प्रकाश और हवा की तरह सहज-स्वाभाविक बन जाये।

अजित चुपचाप उसके मुँह की तरफ़ ताकता रह गया, कुछ बोला नहीं। उसके बाद आहिस्ते से दूसरी तरफ़ मुँह फेरकर लेटते ही, मालूम नहीं क्यों, उसकी आँखों में आँसू भर आये।

शायद कमल भाप गयी। उठकर वह पलंग के सिरहाने के पास जा बैठी और उसके माथे पर हाथ फेरने लगी। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी उसने मुँह से नहीं निकाला।

सामने की खुली हुई खिड़की से दिखाई दिया कि पूर्व का आकाश स्वच्छ होता आ रहा है।

”अजित बाबू, सोने का अब शायद समय नहीं रहा।”

”नहीं, अब उठता हूँ।” कहकर वह आँख मींचता हुआ उठकर बैठ गया।

22

आशु बाबू ने शायद अपने विधाता के आगे भी कभी इससे ज़्यादा का दावा न किया होगा कि वे संसार के साधारण आदमियों में से एक हैं। जैसे शान्ति आनन्द के साथ उन्होंने अपनी बड़ी भारी पैतृक धन-सम्पत्ति को ग्रहण किया था, वैसे ही अपने विराट देह भार और उसके साथी वात-रोग को भी साधारण दुख के रूप में स्वीकार कर लिया था। और इस सत्य को उन्होंने सिर्फ़ बुद्धि से ही नहीं, किन्तु हृदय से भी अनुभव किया था कि संसार के सुख-दुख विधाता ने केवल उन्हीं को लक्ष्य करके नहीं गढ़े हैं बल्कि वे अपने नियमानुसार हुआ करते हैं, और इसकी प्राप्ति के लिए भी उन्हें कोई तपस्या नहीं करनी पड़ी - उनमें यह बात स्वाभाविक संस्कार के रूप में आयी है। उस दिन, जिस दिन कि आकस्मिक स्त्री-वियोग की दुर्घटना से सारा संसार उनकी दृष्टि में फीका और सूखा दिखाई दिया था, जैसे उन्होंने अपने भाग्य-देवता को हजारों धिक्कारों से लांछित नहीं किया, वैसे ही आज भी जब कि उनकी अत्यन्त स्नेह की पूँजी मनोरमा ने उनकी तमाम आशा-कामनाओं में आग लगा दी, वे सिर धुन-धुन के रोने नहीं बैठे। क्षोभ और दुःसह नैराश्य के बीच भी उनके मन में न जाने कौन मानो अत्यन्त परिचित कण्ठ से बार-बार कहता रहा कि यह ऐसा ही होता रहता है, ऐसे ही बहुत दुख मनुष्यों के भाग्य में बहुत बार आये हैं। ऐसे ही संसार चलता है। इस सुख-दुख की परम्परा में कोई नवीनता नहीं है - यह उतनी ही सनातन है जितनी कि सृष्टि। उफनते हुए शोक की लहरों को फिर से नवीन बनाने और संसार में उन्हें फैला देने में न तो कोई पौरुष है, और न इसकी कोई ज़रूरत ही है। इसी से सब तरह के दुख अपने आप शान्त होकर, उनके भीतर चारों तरफ़ ऐसी एक स्निग्ध प्रसन्नता की वेष्टनी बना लेते हैं कि उसके भीतर पहुँचते ही सबका, सब तरह का बोझ मानो अपने आप ही हल्का और अकिंचितकर हो जाता है।

इसी तरह आशु बाबू की सारी जिन्दगी बीती है। आगरे में आकर अनेक उलट-फेरों के बीच भी उसमें कोई फर्क नहीं आया; पर इधर कुछ दिनों से इसमें व्यतिक्रम लोगों की निगाह में आने लगा है। अकस्मात देखने में आता है कि उनके आचरण में धैर्य की कमी अधिकांश स्थलों पर दबी रहना नहीं चाहती। मालूम होता है कि बातचीत में अकारण ही रूखापन आ जाता है, यहाँ तक कि नौकर-चाकरों तक को उनका कोई-कोई मन्तव्य तीक्ष्ण और अद्भुत सा सुनाई पड़ता है। पर ऐसा क्यों हो रहा है, यह भी समझना मुश्किल है। रोग की ज्यादती में भी उनमें ऐसी विकृति आ जाना अविश्वास मालूम देता, फिर अब वे अच्छे हो गये हैं। परन्तु कारण कुछ भी क्यों न हो, ज़रा ध्यान से देखा जाये तो मालूम होगा कि उनके अन्तस्तल में मानो आग जल रही है और उसकी चिनगारियाँ कभी-कभी बाहर प्रकट हो जाती है। प्रकट रूप में आज तक उन्होंने साफ़-साफ़ जाहिर तो नहीं किया, पर मालूम होता है कि अब उनके आगरे में रहने के दिन खत्म हो गये। शायद ज़रा और स्वस्थ होने की देर है। उसके बाद सहसा जैसे एक दिन यहाँ आ पहुँचे थे वैसे ही अचानक एक दिन चल देंगे।

शाम के वक़्त आजकल बहुत से पदाधिकारी बंगाली सज्जन मुलाकात करने और राजी-खुशी पूछने आ जाया करते हैं। सस्त्रीक मजिस्टेªट साहब, रायबहादुर, सदरआला, कॉलेज की अध्यापक मण्डली, नाना कारणों से जो आगरा छोड़ नहीं सके हैं वे हरेन्द्र, अजित और बंगाली मुहल्ले के वे लोग जो आनन्द के दिनों में बहुत-सा पुलाव-मांस आदि खा गये हैं - कोई न कोई आते ही रहते हैं। आता नहीं तो सिर्फ़ अक्षय, सो भी इसलिए कि यहाँ वह है नहीं। महामारी के शुरू होते ही वह सस्त्रीक देश चला गया है और शायद बीमारी शान्त होने की खबर की बाट देख रहा है। कमल भी नहीं आती। उस दिन जो आयी थी, उसके बाद फिर नहीं आयी।

आशु बाबू मजलिसी आदमी हैं, फिर भी पहले की तरह अब वे मजलिस में शरीक नहीं हो पाते - मौजूद रहने पर भी लगभग चुप बैठे रहते हैं। उनकी स्वास्थ्यहीनता का ख़्याल करके लोग आनन्द के साथ उन्हें माफी भी दे देते हैं। एक

दिन जो काम मनोरमा किया करती थी, अब वे रिश्तेदार होने से बेला को ही करने पड़ते हैं। आतिथ्य में कहीं कोई त्रुटि नहीं होती। बाहर के लोग आकर सिर्फ उसका रस ही लेते हैं, और शायद मजलिस खत्म होने पर परितृप्त चित्त से इस निरभिमानी गृहस्वामी को मन ही मन धन्यवाद देते हुए आश्चर्य के साथ सोचते हैं कि आवभगत की ऐसी त्रुटिशून्य व्यवस्था इस बीमार आदमी से रोजमर्रा कैसे बन पड़ती है।

यह कैसे सम्भव होता है, इसका इतिहास छिपा का छिपा ही रह जाता है।

नीलिमा सबके सामने निकलती नहीं, इसकी उसे आदत भी नहीं और न ही वह निकलना पसन्द ही करती है। परन्तु परदे की ओट में होते हुए भी उसकी जागृत दृष्टि इस घर में सर्वत्र प्रतिक्षण व्याप्त रहा करती है। वह दृष्टि जैसी निगूढ़ होती है वैसी ही नीरव। शिराओं में प्रवहमान रक्तधार की तरह वह निःशब्द प्रवाह शायद आशु बाबू को छोड़कर दूसरा कोई अनुभव भी नहीं कर पाता।

शीत ऋतु का प्रथमार्द्ध बीत चला है, परन्तु फिर भी चाहे किसी भी कारण से हो, इस साल जाड़ा उतना कड़ाके का नहीं पड़ा। लेकिन आज सबेरे से ही थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है, और शाम के वक़्त तो खूब ज़ोर से वर्षा होने लगी। ऐसी बरसात में इसकी कोई सम्भावना ही न रही कि बाहर से कोई आ सकेगा। घर की खिड़कियाँ असमय में ही बन्द कर दी गयी हैं और आशु बाबू पैरों पर दुशाला डाले आराम-कुर्सी पर पड़े कोई किताब पढ़ रहे हैं। बेला शायद कुछ विरक्ति के कारण बोल उठी - ”इस अभागे देश में सभी कुछ उल्टा है। कुछ दिन पहले - जून या जुलाई महीने में जब यहाँ आयी थी तब वर्षा के लिए देश भर में ऐसा जबर्दस्त हाहाकार मचा हुआ था कि बगैर आँखों देखे उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी से सोचती हूँ कि ऐसे कठोर शुष्क देश में आदमी ताजमहल बनाने बैठे सो किस अक्लमन्दी पर?”

नीलिमा पास ही एक कुरसी पर बैठी कुछ सी रही थी, बग़ैर आँख उठाये ही उसने कहा - इसका कारण क्या सभी जान सकते हैं? सब नहीं जान सकते।

बेला ने सरल चित्त से पूछा - क्यों?

नीलिमा ने कहा - तमाम बड़ी चीजें आदमी के हाहाकार में से ही पैदा होती हैं, संसार के आमोद-प्रमोद में जो लोग मगन रहते हैं, उन्हें यह सूझ ही कैसे पड़ सकता है?

उसका यह जवाब ऐसे कल्पनातीत रूप में कठोर था कि सिर्फ़ बेला ही नहीं, बल्कि आशु बाबू तक आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने किताब पर से मुँह उठाया तो देखा, नीलिमा पूर्ववत सीने के काम में लगी हुई है। मानो यह बात उसके मुँह से कतई निकली ही नहीं।

एक तो बेला कलहप्रिय स्त्री नहीं और दूसरे वह सुशिक्षिता है। उसने बहुत कुछ देखा-सुना है और उमर भी शायद पैंतीस के ऊपर पहुँच चुकी है; किन्तु सयत्न-सतर्कता से उसने अपने यौवन के लावण्य को आज भी पश्चिम की ओर ढलने नहीं दिया है। अकस्मात ऐसा मालूम होता है कि शायद वह वैसा ही बना हुआ है। रंग उज्जवल है, चेहरे पर एक विशिष्ट रूप है, पर गौर से देखने से मालूम हो जाता है कि कोमलता के अभाव ने मानो उसे रूखा बना रखा है। आँखों की दृष्टि हास्य-कौतुक से चपल-चंचल है, निरन्तर बहते फिरना ही जैसे उसका काम है, किसी भी चीज पर स्थिर होने लायक न तो उसमें भार है और न तलदेश में कोई जड़ ही। आनन्द-उत्सव में ही वह शोभती है; सहसा दुख के बीच आ जाने पर घर-मालिक को लज्जित होना पड़ता है।

जब बेला की विमूढ़ता का भाव दूर हो गया तब क्षण भर के लिए मारे क्रोध के उसका चेहरा तमतमा उठा। पर नाराज़ होकर झगड़ा करना उसकी शिक्षा और सौजन्य के खिलाफ है, इसलिए उसने अपने को सँभालते हुए कहा - मुझ पर कटाक्ष करने से कोई लाभ नहीं। सिर्फ़ इसलिए ही नहीं कि यह अनधिकार चर्चा है, बल्कि हाहाकार करते फिरना चाहे जितनी बड़ी ऊँची बात क्यों न हो, वह मुझसे करते नहीं बनती और उससे कोई अभिज्ञता संचय करने में भी मैं असमर्थ हूँ। मेरा आत्म-सम्मान ज्ञान बना रहे, उससे बढ़कर मैं कुछ नहीं चाहती।

नीलिमा अपने काम में ही लगी रही, कुछ जवाब नहीं दिया।

आशु बाबू भीतर से क्षुण्ण हो गये थे, पर इस डर से कि बात आगे न बढ़े हड़बड़ाकर बोल उठे - नहीं, नहीं, तुम पर कोई कटाक्ष नहीं किया बेला, इसमें कोई शक नहीं कि बात उन्होंने साधारण भाव से ही कही है। नीलिमा का स्वभाव तो मुझे मालूम है, ऐसा हो ही नहीं सकता। मैं तुमसे कहता हूँ न, ऐसा हर्गिज नहीं हो सकता।

बेला ने संक्षेप में सिर्फ़ इतना ही कहा - न हो यही अच्छा है। इतने दिन से एक साथ रह रही हूँ, ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती।

नीलिमा ने ‘हाँ-ना’ कुछ भी जवाब नहीं दिया, अपने काम में वह ऐसी तन्मय रही मानो उस जगह और कोई है ही नहीं। कमरे में बिल्कुल सन्नाटा छा गया। बेला के जीवन का एक इतिहास है जिसे यहाँ देना आवश्यक है। उसके पिता वकालत का पेशा करते थे, पर अपने पेशे में वे यश या धन दोनों में से कुछ भी प्राप्त न कर सके थे। उनका धर्म क्या था, कोई भी नहीं जानता; और समाज की दृष्टि से भी देखा जाये तो वे हिन्दू, ब्राह्मण या क्रिस्तान किसी समाज को मानकर न चलते थे। लड़की को वे बहुत ज़्यादा प्यार करते थे। उन्होंने सामथ्र्य के बाहर खर्च करके उसे शिक्षा देने की कोशिश की थी। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि उनकी वह कोशिश बिल्कुल व्यर्थ नहीं हुई। ‘बेला’ नाम उन्होंने अपने शौक से रखा था। किसी समाज को न मानने पर भी एक दल तो उनका अपना था ही। सुन्दरी अैर शिक्षिता होने की वजह से बेला का नाम उस दल में सबकी जबान पर चढ़ गया, और इसलिए उसे धनी पात्र मिलने में देर न हुई। वे हाल ही में विलायत से कानून पास करके लौटे थे। कुछ दिन देखाभाला और परस्पर मन निरखने-परखने का सिलसिला चलता रहा, उसके बाद कानून के अनुसार रजिस्ट्री करके ब्याह हो गया। इस तरह कानून के प्रति गहरे अनुराग का एक अंक खतम हुआ। दूसरे अंक में भोग-विलास, साथ-साथ देश भ्रमण, पृथक-पृथक वायु परिवर्तन - आदि ऐसी ही बहुत-सी बातें हुईं। दोनों तरफ़ से तरह-तरह की अफवाहें सुनी गई, परन्तु उनकी चर्चा यहाँ अप्रांसगिक होगी। लेकिन उनमें जो अंश प्रासंगिक था, वह शीघ्र ही प्रकट हो गया। वर पक्ष हाथों-हाथ पकड़ा गया और कन्या-पक्ष विवाह-विच्छेद का मामला दायर करने की सोचने लगा। मित्र-मण्डली में आपस में समझौता कराने की कोशिश हुई, किन्तु शिक्षिता बेला नर-नारी के समानाधिकार तत्व की सबसे बड़ी पण्डा थी। लिहाजा उसने इस असम्मान के प्रस्ताव पर कतई ध्यान नहीं दिया। पति बेचारा चरित्र की दृष्टि से चाहे जैसा भी हो, आदमी के लिहाज से बुरा नहीं था; स्त्री को वह शक्ति और सामथ्र्य के अनुसार प्यार ही करता था। उसने शर्म के साथ अपना कसूर मंजूर करके अदालत की दुर्गति से छुटकारा पाने के लिए हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना की, पर स्त्री ने क्षमा नहीं दी। अन्त में बड़े दुखपूर्ण ढंग से फैसला हुआ। एकमुश्त नगद और खाने-पहनने के लिए मासिक खर्च देना कबूल करके उसने किसी तरह मामले से अपना पिण्ड छुड़ाया। इधर दाम्पत्य युद्ध में विजय पाकर बेला भग्न स्वास्थ्य की मरम्मत के लिए शिमला, मसूरी, नैनीताल आदि पार्वत्य प्रदेशों में दर्प के साथ सैर करने चल दी। उस बात को आज लगभग छह-सात साल हो गये। इसके थोड़े ही दिन बाद उसके पिता का देहान्त हो गया। इस मामले में उनकी राय नहीं थी, बल्कि इससे वे अत्यन्त मर्माहत भी हुए थे। आशु बाबू की स्वर्गीया पत्नी के साथ उनका कोई दूर का रिश्ता था और उसी सम्बन्ध से बेला आशु बाबू की भी रिश्तेदार थी। उसके ब्याह में भी आशु बाबू निमन्त्रिात होकर गये थे, और उसके पति से भी परिचित होने का उन्हें मौका मिला था। इस तरह कई रिश्तों के सिलसिले में बेला आगरा आयी थी; न बिल्कुल गैर होकर आई थी और न निराश्रित होकर ही। तुलना में इसी जगह नीलिमा के साथ उसका काफी अन्तर था।

फिर भी, इससे हालत बिल्कुल दूसरे तरह ही की हो गयी थी। इस विषय में कि इस घर में किसका कहाँ स्थान है, घर के किसी व्यक्ति को रंचमात्र भी सन्देह न था। पर उसका हेतु जैसा अज्ञात था, कर्तृत्च भी वैसा ही अविसंवादी था। बहुत देर तक मौन रहकर बेला ही ने पहले बात की। कहा - यह मैं मानती हूँ कि साफ़-साफ़ कुछ नहीं कहा, पर इस विषय में मुझे ज़रा भी सन्देह नहीं कि मुझे धिक्कारने के लिए ही नीलिमा ने ऐसी बात कही है।

आशु बाबू के मन में भी शायद सन्देह न था, फिर भी विस्मय के स्वर में उन्होंने पूछा - धिक्कार? धिक्कार किसलिए बेला?

बेला ने कहा - आपको तो सब मालूम है। निन्दा करने वालों की उस दिन की कमी नहीं थी, और आज भी नहीं है। परन्तु अपने सम्मान की, सम्पूर्ण नारी-जाति के सम्मान की रक्षा के लिए उस दिन भी मैंने किसी की परवाह नहीं की, आज भी नहीं करूँगी। मैं अपनी इज्जत-आबरू खोकर पति की घर-गृहस्थी चलाने को राजी नहीं हुई थी, इसलिए उस दिन ग्लानि-प्रचार का काम सबसे बढ़िया स्त्रिायों ने ही किया था, और आज भी उन्हीं के हाथ से निस्तार पाना मेरे लिए सबसे कठिन हो रहा है। मगर चूँकि मैंने अनुचित कार्य नहीं किया, इसलिए उस दिन भी जैसे मैं नहीं डरी, आज भी उसी तरह निडर हूँ। अपनी विवेक-बुद्धि के आगे मैं बिल्कुल चोखी हूँ।

नीलिमा ने सिलाई पर से आँखें नहीं उठायी, किन्तु आहिस्ते से कहा - एक दिन कमल कह रही थीं कि विवेक-बुद्धि ही संसार में सबसे बड़ी चीज नहीं है। विवेक की दुहाई देने से ही समस्त उचित-अनुचित की मीमांसा नहीं हो जाती।

आशु बाबू ने आश्चर्य में आकर कहा - वह कहती है क्या?

नीलिमा ने कहा - हाँ। कहती हूँ कि वह तो सिर्फ़ मूर्खों के हाथ का अस्त्र है। आगे-पीछे दोनों तरफ़ चलाया जा सकता है, उसका कोई ठीक-ठिकाना नहीं।

आशु बाबू ने कहा - वह कहती है तो उसे कहने दो; पर ऐसी बात तुम अपने मुँह से न निकालो नीलिमा।

बेला ने कहा - इतने बड़े दुस्साहस की बात तो मैंने कभी सुनी ही नहीं। आशु बाबू क्षण भर मौन रहकर धीरे-धीरे कहने लगे - दुस्साहस तो है ही। उसके साहस का अन्त नहीं। वह अपने नियम पर चलती है, उसकी सब बातें न सब समय समझ में आती हैं और न मानी ही जा सकती हैं।

बेला ने कहा - अपने नियम पर तो मैं भी चलती हूँ आशु बाबू। इसी से बाबूजी की भी मनाही न मान सकी। मैंने पति को त्याग दिया, पर सिर न झुका सकी।

आशु बाबू ने कहा - इसमें शक नहीं कि यह गहरे पश्चाताप का विषय है, परन्तु तुम्हारे पिता के सम्मति न देने पर भी मुझसे तो बिना दिये रहा नहीं गया। बेला ने कहा, ‘थैंक्स, सो मुझे याद है आशु बाबू!“

आशु बाबू बोले - उसकी वजह थी। स्त्री-पुरुष के समान दायित्व और समान अधिकार पर मैं पूरा विश्वास करता हूँ। हमारे हिन्दू समाज में एक बड़ा भारी दोष यह है कि सौ-सौ अपराध करने पर भी पति को न्याय-विचार या दण्ड का डर नहीं और तुच्छ से तुच्छ दोष पर स्त्री को दण्ड देने के हजारों मार्ग खुले हुए हैं। इस व्यवस्था को मैं एक दिन के लिए भी उचित नहीं मान सका। इसी से बेला के पिता ने मेरे पास राय जानने के लिए चिट्ठी लिखी थी उस वक़्त मैंने उत्तर में यही बात कही थी कि हालाँकि यह कोई शोभा की बात नहीं और न सुख की ही, परन्तु वह अगर अपने असच्चरित्र पति को सचमुच ही त्याग देना चाहती है, तो मैं अनुचित कहकर मना नहीं कर सकता।

नीलिमा ने अकृत्रिम विस्मय से आँख उठाकर प्रश्न किया - आपने सचमुच यही बात जवाब में लिखी थी?

”सचमुच नहीं तो क्या?”

नीलिमा स्तब्ध हो गयी।

उस निस्तब्धता में आशु बाबू को न जाने कैसी एक प्रकार की अशान्ति-सी मालूम होने लगी। उन्होंने कहा - इसमें आश्चर्य की ऐसी कोई बात नहीं नीलिमा। बल्कि न लिखना ही मेरी तरफ़ से अनुचित होता।

फिर ज़रा ठहरकर कहा - तुम खुद भी तो कमल की भक्त हो, बताओ, वह खुद ऐसी हालत में क्या करती? क्या जवाब देती? इससे तो उस दिन जब बेला से उसका परिचय कराया था, तब इस बात पर मैंने ज़ोर दिया था कि कमल, तुम्हारी तरह विचार करने और तुम्हारी तरह साहस का परिचय देने में मैंने सिर्फ़ एक ही लड़की को देखा है, और वह है यह बेला।

नीलिमा की आँखें सहसा व्यथा से भर आयीं। बोली - ”वह बेचारी शिष्ट समाज से बाहर - यहाँ तक कि बस्ती के बाहर पड़ी हुई है। उसे आप लोग क्यों घसीटते हैं?”

आशु बाबू घबरा उठे। बोले - नहीं, नहीं, घसीटने की बात नहीं नीलिमा, यह तो सिर्फ़ एक उदाहरण देना है।

नीलिमा ने कहा - यही तो घसीटना है। अभी-अभी आपने कहा था कि उसकी सब बातें सब समय समझ में भी नहीं आती और न मानी ही जा सकती हैं। - माना कुछ नहीं कहा जा सकता, सिर्फ़ उदाहरण ही दिया जा सकता है?

आशु बाबू को अपनी बात में कोई दोष की कोई बात नजर नहीं आ रही थी। वे क्षुण्ण कण्ठ से बोले, ”किसी भी कारण से हो, आज तुम्हारा मन शायद बहुत ही अस्वस्थ हो रहा है। इस समय किसी विषय की चर्चा करना ठीक नहीं।”

नीलिमा ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, वह बोल उठी - उस दिन आपने इनके विवाह-विच्छेद में अपनी राय दी थी और आज बिना किसी संकोच के कमल का दृष्टान्त दे रहे हैं। इनकी-सी हालत में कमल क्या करती सो तो वही जाने; मगर उसके दृष्टान्त का वास्तव में अनुसरण करने के लिए आज इन्हें कुली-मजदूरों के कपड़े सी करके अपनी गुजर करनी पड़ती, सो भी शायद हमेशा नहीं जुटते। कमल और चाहे जो करती, पर जिस पति को वह लांछन लगाकर घृणा से छोड़ देती उसी के दिये हुए अन्न का ग्रास मुँह में देकर और उसी के दिये कपड़ों से आबरू बचाकर हर्गिज न जीना चाहती। अपने को इतनी छोटी या ओछी बनाने के पहले वह आत्महत्या करके मर जाती।

आशु बाबू जवाब देने के बदले भावविष्ट से हो गये, और बेला ठीक वज्राहत की भाँति निश्चल हो गयी। नीलिमा के दिन हँसी मजाक में ही कट जाते हैं सबका मुँह ताकना ही मानो उसका काम है, दोनों में से कोई भी इस बात की उपलब्धि नहीं कर सका कि वह सहसा इस तरह निर्मम हो सकती है।

नीलिमा क्षण-क्षर स्थिर रहकर फिर बोली - आप लोगों की मजलिस में मैं नहीं बैठती, लेकिन लोगों को लेकर जो सब तरह की चर्चाएँ हुआ करती हैं। वे मेरे कानों तक पहुँच जाती हैं। नहीं तो मैं कोई बात कहती भी नहीं। कमल ने एक दिन के लिए भी शिवनाथ की निन्दा नहीं की, एक भी आदमी के आगे अपना दुखड़ा नहीं रोया - क्यों जानते हैं?

आशु बाबू ने विमूढ़ की भाँति पूछा - क्यों?

नीलिमा ने कहा - ”क्यों, सो कहना व्यर्थ है। आप लोग समझ नहीं सकेंगे।”

फिर ज़रा ठहरकर कहा - आशु बाबू, यह एक अत्यन्त मोटी बात है कि पति-पत्नी का अधिकार समान है, मगर इसके माने यह न सोचिये कि स्त्री होकर स्त्रिायों की तरफ़ से इस दावे का मैं प्रतिवाद कर रही हूँ। प्रतिवाद मैं नहीं करती, मैं जानती हूँ कि वह सत्य है, मगर साथ ही यह भी जानती हूँ कि सत्य-सत्य चिल्लानेवाले एक सत्य-विलासी गिरोह ने नर-नारी के मुँह के द्वारा और तरह-तरह के आन्दोलनों से उस सत्य को ऐसा गन्दा कर दिया है कि आज उसे मिथ्या कहने को ही जी चाहता है। आज मेरी हाथ जोड़ के प्रार्थना है कि सबके साथ मिलकर आप कमल के विषय में कोई चर्चा न किया करें।

आशु बाबू ने जवाब देना चाहा, पर उनके कुछ कहने के पहले ही वह सिलाई की चीजें लेकर भीतर चली गयी।

तब क्षुब्ध-विस्मय से एक लम्बी उसाँस लेकर आशु बाबू सिर्फ़ यह कहकर रह गये - उसने कब क्या सुना है मालूम नहीं, पर मेरे विषय में यह बिल्कुल असत्य दोषारोप है।

बाहर कुछ देर के लिए वर्षा रुक गयी थी, किन्तु ऊपर के मेघाच्छन्न आकाश ने घर के भीतर असमय में अन्धकार फैला दिया। नौकर जब बत्ती जला गया तब आशु बाबु ने फिर एक बार पुस्तक उठाकर आँखों के सामने रख ली। छापे के हर अक्षरों में मन लगाना सम्भव न था और इधर बेला के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत करना और भी असम्भव मालूम दिया।

इतने में भगवान ने दया की। एक ही छतरी में रास्ते-भर धक्कम-धक्का करते हुए कृच्छ्रव्रतधारी हरेन्द्र, अजित आँधी की तरह कमरे में आ घुसे। दोनों जने आधे-आधे भीग चुके थे। हरेन्द्र बोला - भाभी कहाँ है?

आशु बाबु के मानो चाँद हाथ लग गया। उनको विश्वास नहीं था कि आजके दिन कोई आयेगा। साग्रह उठकर बैठ गये और स्वागत के स्वर में बोले - आओ अजित, बैठो हरेन्द्र -

”बैठता हूँ। भाभी कहाँ है?”

”ओह! दोनों के दोनों खूब भीगे मालूम होते हो।”

”जी हाँ वे हैं कहाँ?”

”बुलवाता हूँ।” कहकर आशु बाबु ने ज्यों ही पुकारने का उपक्रम किया कि भीतर से परदा हटाती हुई नीलिमा स्वयं ही बाहर निकल आयी। उसके हाथ में दो धोतियाँ और एक कुरता था।

अजित ने कहा - यह क्या? आप ज्योतिष भी जानती है क्या?

नीलिमा ने कहा - ज्योतिष जानने की ज़रूरत नहीं लालाजी, खिड़की से ही देख लिया था। एक टूटी छतरी में जिस तरह एक-दूसरे की तक़लीफ का ख़्याल रखते हुए तुम दोनों चले आ रहे थे, उसे एक मैं ही क्यों, शायद शहरभर के लोगों ने देख होगा।

आशु बाबु ने कहा - ”एक छतरी में दो-दो जने? तभी तो लोगों को भीगना पड़ा है।” और वे हँस दिये।

नीलिमा ने कहा - ”शायद दोनों जने समानाधिकार तत्त्व पर विश्वास करते हैं, अन्याय नहीं करते - इसी से छतरी का ठीक-ठीक बँटवारा करके रास्ता चल रहे थे। लो लालाजी, कपड़े बदल लो।” कहते हुए उसने कपड़े हरेन्द्र के हाथ में दे दिये।

आशु बाबु चुप रहे। हरेन्द्र ने कहा - धोतियाँ तो दे दीं, लेकिन कुरता एक ही है?

”कुरता बहुत बड़ा है लालाजी, एक से ही काम चल जायगा।” कहकर वह गम्भीर बनकर पास की कुरसी पर बैठ गयी।

हरेन्द्र ने कहा - कुरता आशु बाबु का है, लिहाजा इसमें दो ही क्यों, और चार जने समा सकते हैं, मगर तब इसे मसहरी की तरह लटकाना पड़ेगा, यह पहना नहीं जा सकेगा!

बेला अब तक विषण्ण-मुख से चुपचाप बैठी थी, हँसी रोक न सकने के कारण बाहर उठकर चली गयी और नीलिमा खिड़की के बाहर देखती हुई चुप बैठी रही।

आशु बाबू छद्म गम्भीरता के साथ कहने लगे - ”बीमारी में पड़ा-पड़ा सूख के आधा रह गया हूँ हरेन्द्र, अब तुम टोको मत। देखते नहीं, औरतों को कैसा बुरा मालूम हुआ, एक तो उठके बाहर चली गयी और एक ने मारे गुस्से के मुँह फेर लिया।”

हरेन्द्र ने कहा - खोदाई नहीं की आशु बाबू, विराट की महिमा गायी है। खोदने का दुष्प्रभाव तो सिर्फ़ हमारे जैसी नरजाति को ही विपत्ति में डाल सकता है, आप लोगों को छू भी नहीं सकता। अतएव, चिरस्तूयमान हिमालय के समान यह देह अक्षय बनी रहे, स्त्रिायाँ निःशंक हों और आँधी-पानी के बहाने समागत जनों के भाग्य में जो दैनन्दिन मिष्ठान्नादि बदा है, उसमें आज भी रंचमात्र कमी न हो।

नीलिमा ने इधर मुँह उठाया और हँस दी। बोली - बड़ों का स्तुतिवाद तो अनादि काल से चला आ रहा है छोटे देवरजी, वही निर्दिष्ट धारा है और उसमें तुम सिद्धहस्त हो; पर आज ज़रा नियम में व्यतिक्रम करना पड़ेगा आज छोटों की खुशामद बगैर किये इतर जनों के भाग्य में मिष्ठान्न की जगह कोरा शून्य पड़ेगा।

बेला बरामदे से लौटकर भीतर आ बैठी।

हरेन्द्र ने पूछा - क्यों भाभी?

गम्भीर स्नेह से नीलिमा की आँखें भर आयीं, बोली - ऐसी मीठी बात बहुत दिनों से सुनी नहीं है भाई, इसी से सुनने को जी लुभाता है।

”तो शुरू कर दूँ क्या?”

”अच्छा अभी रहने दो। पहले तुम लोग उस कमरे में जाकर कपड़े बदल लो, मैं कुरता भेजे देती हूँ।”

”मगर कपड़े बदल चुकने के बाद? फिर क्या होगा?”

नीलिमा ने हँसते हुए कहा - फिर कोशिश करके देखूँगी कि इतर जनों के भाग्य से ही अगर खाने-पीने को कुछ जुटा पाऊँ।

हरेन्द्र ने कहा - ”तक़लीफ़ उठाकर कोशिश करने की ज़रूरत न पड़ेगी भाभी, सिर्फ़ एक बार आँख खोल के देख भर लीजिएगा। आपकी अन्नपूर्णा की-सी दृष्टि जहाँ पड़ेगी, वहीं अन्न का भण्डार निकल पड़ेगा। चलो अजित, अब कोई फिकर की बात नहीं, हम लोग अब भीगे कपड़े बदल आयें।” कहकर अजित को पकड़कर बगल के कमरे में खींच ले गया।

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