शेष प्रश्न (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
Shesh Prashna (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay
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अजित ने कहा - पानी थमने का तो कोई लक्षण नहीं दिखाई देता?
हरेन्द्र ने कहा - नहीं। लिहाजा फिर हम दोनों को उसी टूटी छतरी में सिर से सिर भिड़ाकर समानाधिकार तत्व की सत्यता प्रमाणित करते हुए अन्धकार मार्ग में चलते हुए अन्त में आश्रम पहुँच जाना चाहिए। अवश्य ही उसके बाद की चिन्ता नहीं रही, उसे यही पूरा कर चुके हैं, लिहाजा, फिर से एक बार भीगे कपड़े बदलना और सो जाना रह जायेगा।
आशु बाबू व्यग्र होकर बोले - तो फिर तुम लोगों ने पेट भर के ही क्यों नहीं खा लिया?
हरेन्द्र कह उठा - नहीं-नहीं, रहने दीजिए, इससे क्या हुआ? आप इसके लिए कोई चिन्ता न करें।
नीलिमा पहले तो खिलखिलाकर हँस पड़ी, उसके बाद शिकायत के स्वर में बोली - ”लालाजी, क्यों यों ही रोगी आदमी की व्याकुलता बढ़ा रहे हो?” फिर आशु बाबू से बोली - ये संन्यासी आदमी ठहरे, बैरागीगिरी में पक्के हो गये हैं - लिहाजा खाने-पीने की तरफ़ इनकी त्रुटि किसी के नजर नहीं आ सकती। हाँ, अजित बाबू के लिए ज़रूर सोचने की बात है। इनका आज का खाना देखकर समझा जा सकता है कि ऐसे संसर्ग में भी ये जल्दी पक नहीं पाये हैं।
हरेन्द्र ने कहा - शायद मन में पाप होगा, इससे। पकड़े तो जायेंगे ही किसी न किसी दिन।
अजित का चेहरा मारे शरम के सुखऱ् हो उठा। बोला - आप न जाने क्या कह रहे हैं हरेन्द्र बाबू!
नीलिमा क्षण भर हरेन्द्र के मुँह की तरफ़ देखती रही और बोली - तुम्हारे मुँह पर फूल-चन्दन पड़े लालाजी, ऐसा ही हो। उनके मन में थोड़ा-बहुत पाप हो और किसी दिन पकड़े जायें तो मैं कालीघाट जाकर ठाठ से पूजा दे आऊँ। ”तो फिर तैयारियाँ करना शुरू कर दीजिए।”
अजित बहुत ही नाराज़ हो गया। बोला - आप क्या वाहियात बक रहे हैं हरेन्द्र बाबू, बड़ा भद्दा मालूम होता है।
हरेन्द्र ने फिर कुछ नहीं कहा। अजित के मुँह की तरफ़ देखकर नीलिमा का कुतूहल तीक्ष्ण हो उठा, पर वह भी चुप रही!
इसके कुछ देर बाद हरेन्द्र ने नीलिमा को लक्ष्य करके कहा - हमारे आश्रम पर कमल बहुत नाराज़ है। आपको शायद याद होगा भाभी?
नीलिमा ने सिर हिलाते हुए कहा - हाँ है। अब भी उनका वही रुख है क्या? हरेन्द्र ने कहा - ”वही रुख नहीं, बल्कि उससे भी ज़रा बढ़ गया है, इतना फर्क है।” फिर बोला - ”और सिर्फ़ हम ही लोगों पर नहीं, सब तरह की धार्मिक संस्थाओं पर उनका आत्यन्तिक अनुराग है। चाहे ब्रह्मचर्य को ले लीजिए, चाहे वैराग्य की बात लीजिए; या ईश्वर की चर्चा कीजिए, सुनते ही अहेतुक भक्ति और प्रीति की बहुलता से वे अग्निवत हो उठती हैं। और मिजाज अनुकूल हो तो बूढ़ों और बच्चों के खेल में भी कौतुक का आनन्द लेने में वे असमर्थ नहीं। कमाल ही समझिये।
बेला चुप बैठी सुन रही थी, बोल उठी - ”ईश्वर भी उनके लिए लड़कों का खेल है और आप उन्हीं के साथ मेरी तुलना कर रहे थे, आशु बाबू?” इतना कहकर उसने एक तरफ़ से सबके मुँह की ओर देखा, पर किसी की तरफ़ से कोई उत्साह नहीं मिला। उसका रुका स्वर किसी के कान तक पहुँचा या नहीं, सो भी ठीक समझ में नहीं आया।
हरेन्द्र कहने लगा - और मजा यह कि उनके अपने अन्दर एक ऐसा निद्र्वन्द्व संयम, नीरव मिताचार और निःशंक तितिक्षा है कि देखकर आश्चर्य होता है। आपको शिवनाथ का मामला तो याद होगा आशु बाबू? वह हम लोगों का कौन था? फिर भी इतना बड़ा अन्याय हमसे सहा नहीं गया और दण्ड देने की आकांक्षा से हमारे मन के भीतर आग जल उठी। पर कमल ने कहा - ‘नहीं।’ उसका उस दिन का चेहरा स्पष्ट याद है। उसकी ‘नहीं’ में विद्वेष नहीं था, जलन नहीं थी, ऊपर से हाथ बढ़ाकर दान देने की श्लाघा नहीं थी, और क्षमा का दम्भ भी नहीं था - उसका दाक्षिण्य मानो अविकृत करुणा से भरा हुआ था। शिवनाथ ने चाहे कितना ही बड़ा अन्याय क्यों न किया हो, फिर भी, मेरे प्रस्ताव पर कमल ने चौंककर सिर्फ़ यही कहा - ‘छिः छिः - नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।’ अर्थात एक दिन जिसे उसने प्यार किया है, उसके प्रति निर्ममता की तुच्छता की वह कल्पना ही न कर सकी, और सबकी निगाह के ओझल उसके सब दोष चुपके से बिल्कुल पोंछकर फेंक दिये। उसमें न कोई कोशिश थी न चंचलता थी, और न शोकाच्छन्न हाहाकार का कोई भाव था - मानो पहाड़ के शिखर पर से जल की धारा लीलामात्र में स्वतः ही बह आई हो।
आशु बाबू ने एक गहरी साँस ली और कहा - सच्ची बात है।
हरेन्द्र कहने लगा - पर मुझे ज़्यादा गुस्सा तब आता है जब वह सिर्फ़ हमारे आदर्श को ही नहीं बल्कि हमारे धर्म, इतिहास, रीति, नैतिक अनुशासन आदि सबको मजाक में उड़ा देना चाहती है। मैं जानता हूँ कि उसके शरीर में उत्कट विदेशी खून है और मन में भी वैसी ही उग्रता के साथ पर धर्म का भाव प्रवाहित है, फिर भी उसके मुँह के सामने खड़े होकर जवाब नहीं दे पाता। उसके कहने में न मालूम कैसी एक दृढ़ निश्चय की दीप्ति फूट निकलती है कि मालूम होती है मानो उसने जीवन के तत्व को खोज लिया है। शिक्षा के जरिए नहीं, और न अनुभव-उपलब्धि के जरिए ही, बल्कि ऐसा लगता है कि तत्व को जैसे वह आँखों से साफ़-साफ़ प्रत्यक्ष देख रही हो।
आशु बाबू खुश होकर बोले - ”ठीक यही बात मेरे भी मन में अनेक बार आयी है। यही वजह है कि जैसी उसकी बातें हैं वैसे ही उसके काम हैं। वह अगर असत्य भी समझी हो तो वह असत्य भी गौरवपूर्ण हो उठा है,“ फिर ज़रा ठहरकर बोले - देखो हरेन्द्र, एक तरह से अच्छा ही हुआ जो वह पाखण्डी चला गया। उसको हमेशा ढँककर रखने से न्याय की मर्यादा नहीं रहती। सुअर के गले में मोती की माला की तरह यह भी अपराध होता।
हरेन्द्र ने कहा - और फिर दूसरी तरफ़ ऐसी माया-ममता है कि सिर्फ़ एक भाभी को छोड़कर मैं और किसी स्त्री को उसके समान नहीं पाता। सेवा में ऐसी समझिए जैसे लक्ष्मी। शायद पुरुषों से बहुत सी बातों में बहुत बड़ी होने के कारण ही वह अपने को उनके सामने ऐसी साधारण बनाये रखती है कि आश्चर्य होता है। मन लुढ़ककर मानो पैरों पर लोट जाना चाहता है।
नीलिमा ने हँसते हुए कहा - लालाजी, तुम पहले जन्म में शायद किसी राज़रानी के स्तुति-पाठक थे इसी से इस जन्म में भी वह संस्कार दूर नहीं हुआ। लड़के पढ़ाने का काम छोड़कर अगर यह रोजगार करते तो इससे कहीं ज़्यादा आराम पाते। हरेन्द्र हँस दिया। बोला - क्या करूँ भाभी, मैं सरल सीधा आदमी हूँ, जो मन में सोचता हूँ वही कह डालता हूँ। लेकिन, आप इन अजित बाबू से पूछ देखिये ज़रा, अभी आस्तीन चढ़ाकर मारने को तैयार हो जायेंगे। - भले हो जायें, पर जिन्दा रहीं तो देख लीजिएगा किसी दिन -
अजित क्रुद्ध कण्ठ से बोल उठा - आह, आप क्या कहते हैं हरेन्द्रबाबू, आपके आश्रम से तो मालूम होता है, अब चला ही जाना पड़ेगा किसी दिन।
हरेन्द्र ने कहा - सो मैं जानता हूँ। पर जब तक गये नहीं हैं तब तक तो सहन करना पड़ेगा।
”तो आप कहते जाइये जो तबियत में आवे, मैं जाता हूँ।”
नीलिमा ने कहा - लालाजी, तुम अपने ब्रह्मचर्याश्रम को उठा क्यों नहीं देते? तुम भी बच जाओ और लड़कों की भी जान बचे।
हरेन्द्र ने कहा - लड़के तो बच सकते हैं भाभी, पर मेरे बचने की कोई आशा नहीं, कम से कम अक्षय के जीते जी तो कतई नहीं। वह मुझे यमराज के हवाले किये बगैर पीछा नहीं छोड़ने का।
आशु बाबू ने कहा - तब तो, मालूम होता है, अक्षय से तुम लोग डरते हो?
”जी हाँ, डरते हैं। विष खाना सहज है, पर उसके कटाक्ष हजम करना असाध्य है। इन्फ्लुएँजा में इतने आदमी मर गये, पर वह नहीं मरा। ठीक वक़्त पर भाग गया।”
सब हँस पड़े। नीलिमा ने कहा - अक्षय बाबू से मैं बोलती नहीं, पर अबकी बार बाहर निकलकर तुम्हारी तरफ़ से मैं क्षमा की भीख माँग लूँगी। भीतर ही भीतर जल-भुनकर खाक हुए जा रहे हो!
हरेन्द्र ने कहा - हम लोग ही तो पकड़े जायेंगे भाभी, आप लोग तो सब जलने-भुनने के परे पहुँच चुकी हैं। विधाता ने आग की सृष्टि सिर्फ़ हम लोगों को जलाने के लिए की थी, आप लोग उसके इलाके से बाहर हैं!
नीलिमा मारे शर्म के सुखऱ् हो उठी, बोली - और नहीं तो क्या!
बेला ने कहा - ठीक तो है। बाहर तो हैं ही।
क्षण भर सब चुप रहे। अजित ने कहा - ”उस दिन ठीक इसी विषय पर एक बड़ी सुन्दर कहानी पढ़ी थी।” फिर आशु बाबू की तरफ़ देखकर पूछा - ”आपने नहीं पढ़ी क्या?”
”कौन-सी याद तो नहीं पड़ता।”
”आपके जो मासिक पत्र विलायत से आते हैं, उन्हीं में से किसी में है। किसी फ्रांसीसी लेखिका की कहानी का अंग्रेजी अनुवाद है। लेडी डॉक्टर अपने परिचय में कहती है - मैंने यौवन पार करके प्रौढत्व में कदम रखा है। - वह है सामने के शेल्फ पर - कहता हुआ वह पत्रिका उठा लाया।
आशु बाबू ने पूछा - कहानी का नाम क्या है?
अजित ने कहा - ”नाम ज़रा अजीब सा है - ”एक दिनः जिस दिन मैं नारी थी।”
बेला ने कहा - इसके माने? लेखिका अब पुरुषों में शामिल हो गयी है क्या?
अजित ने कहा - लेखिका ने आपबीती लिखी है और शायद डॉक्टर होने की वजह से नारी देह के क्रम विकास का जो चित्र खींचा है वह कहीं-कहीं रुचि को चोट पहुँचाता है। जैसे -
नीलिमा चट से बोल उठी - ‘जैसे’ बताने की ज़रूरत नहीं अजित बाबू, रहने दीजिए।
अजित ने कहा - रहने दीजिए। मगर उन्होंने नारी के भीतर का, यानी उसके हृदय का जो चित्र खींचा है, वह मधुर न होते हुए भी आश्चर्यजनक है।
आशु बाबू को कुतूहल हुआ। बोले - अच्छी बात है अजित, ज़रा-कुछ काट-छांट करके संक्षेप में सुनाओ तो सुनें। वर्षा भी अभी रुकी नहीं और रात भी ज़्यादा नहीं हुई।
अजित ने कहा - कहानी बहुत बड़ी है, इसलिए काट-छांट कर ही पढ़ी जा सकती है - आप चाहें तो पीछे पढ़ लीजिए।
बेला ने कहा, ”पढ़िए, ज़रा सुनें। कम से कम वक़्त तो कटेगा।”
नीलिमा के मन में आया कि उठकर चली जाये, पर जाने का कोई बहाना न मिलने के कारण वह संकोच के साथ वहीं बैठी रही।
बत्ती के सामने बैठकर अजित किताब खोलकर कहने लगा - शुरू-शुरू में ज़रा भूमिका-सी है, उसे संक्षेप में कह देना ज़रूरी है। जिसकी यह आत्मकहानी है वह सुन्दरी है, सुशिक्षिता है और बड़े घर की लड़की है। चरित्र निष्कलंक था या नहीं, इसका कहानी में स्पष्ट उल्लेख नहीं है, पर इतना निःसन्देह समझ में आ जाता है कि अगर उसके कोई दाग किसी दिन किसी कारण से लगा भी हो तो वह यौवन के प्रारम्भ में - बहुत दिन पहले लगा होगा।
”उस समय उसको बहुतों ने चाहा था - एक ने तो समस्या का कोई हल न पाकर आत्महत्या कर ली और एक चला गया समुद्र के उस पार कनाडा में। चला तो गया पर आशा न छोड़ सका। दूसरे से कृपा-भिक्षा माँगते हुए उसने इतनी चिट्ठियाँ लिखीं कि उन्हें अगर इकट्ठा किया जाता तो एक समूचा जहाज भर जाता, लेकिन जवाब की आशा उसने नहीं की ओर न जवाब पाया ही। उसके बाद एक दिन दोनों में मुलाकात हुई। देखते ही सहसा मानो वह चौक पड़ा। इस बीच पन्द्रह वर्ष बीत गये थे, और इसकी उसे धारणा ही नहीं थी कि जिसे वह पचीस साल की युवती देखकर विदेश चला गया था, उसकी उमर अब चालीस साल की हो गयी है। कुशल-प्रश्न अनेक हुए, उलाहने भी कम पेश नहीं किये गये, परन्तु पहले आँखें चार होते ही उसकी आँखों के कोनों से जो चिन्गारियाँ निकलने लगती थीं और उन्मत्त कामना का जो झंझावात समस्त इन्द्रियों के बन्द दरवाजों को तोड़कर बाहर निकलना चाहता था - आज उसका कोई चिह्न तक कहीं दिखाई नहीं दिया। अब वह न जाने कब का स्वप्न-सा मालूम देने लगा। स्त्रियों को और सब विषयों में धोखा दिया जा सकता है, पर इस विषय में नहीं। - यहीं से कहानी शुरू होती है।” कहकर अजित आगे पढ़ने के विचार से किताब के पन्ने पर झुक पड़ा।
आशु बाबू ने टोकते हुए कहा - नहीं-नहीं, अंग्रेजी नहीं अजित, अंग्रेजी नहीं। तुम्हारे मुँह से बंगला में कहानी का सहज भाव बहुत मीठा लग रहा है, तुम बाकी का हिस्सा भी इसी तरह कहते जाओ।’
”मुझसे बनेगा कैसे?”
”बनेगा, बनेगा। जैसे अभी कह रहे थे वैसे ही कहते जाओ।”
अजित ने कहा - ”हरेन्द्र बाबू की तरह मुझे भाषा का ज्ञान नहीं, भाषा के दोष से अगर सारा का सारा कड़वा हो जाये तो उसमें मेरी ही असमर्थता समझिएगा।” इसके बाद वह कभी किताब के पन्ने की तरफ़ देखकर और कभी बगैर देखे ही कहने लगा।
”फिर वह घर पहुँची। उस आदमी को उसने कभी प्यार नहीं किया था और न करना चाहा था; बल्कि, सर्वान्तःकरण से उसने हमेशा यही प्रार्थना की थी कि भगवान किसी दिन उसे मोह-मुक्त कर दें, उसे इस निष्फल प्रणय के दाह से छुटकारा दे दें - असम्भव वस्तु के लुब्ध आश्वासन से वह अब तक़लीफ न पाये। देखा गया, कि भगवान ने इतने दिनों बाद उसकी वही प्रार्थना मंजूर की है। कोई बात नहीं हुई, मगर फिर भी इतना तो निःसन्देह समझ में आ गया कि वह कनाडा वापस जाये या न जाये, पर दीनता से प्रणय की भीख माँगकर न अब वह खुद ही निरन्तर दुख पायेगा और न उसे ही दुख देगा। दुःसाध्य समस्या की आज मानो अन्तिम मीमांसा हो गयी। हमेशा से ‘नहीं’ कहकर बराबर वह स्त्री अस्वीकार ही करती आयी है, और आज भी उसमें व्यतिक्रम नहीं हुआ, किन्तु वह अन्तिम ‘नहीं’ आज आयी उल्टी तरफ़ से। उस स्त्री ने इसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि दोनों ‘नहीं’ में इतना जबर्दस्त प्रभेद होगा। पुरुषों की लोलुप दृष्टि ने हमेशा उसे परेशान ही किया है, लज्जा से पीड़ित ही किया है - आज ठीक उसी दिशा से अगर उसे मुक्ति मिली हो और शरीर-धर्म के कारण उसके अस्तप्राय यौवन ने अगर पुरुषों की उद्दीप्त कामना, उन्माद और आसक्ति का रास्ता रोक दिया हो तो इसमें शिकायत की कौन सी बात है? मगर फिर भी, घर लौटते समय, रास्ते में मानो आज सारा विश्व-संसार उसे बिल्कुल अपरिचित मूर्ति धारण करके दिखाई देने लगा। प्रेम नहीं, हृदय में एकान्त मिलने की व्याकुलता नहीं - ये सब तो दूसरी बातें हैं, बड़ी बातें हैं। किन्तु आज के पहले उसे इसकी क्या खबर थी कि जो बड़ी नहीं, जो रूपज हैं, अशुभ है, असुन्दर हैं, अत्यन्त क्षणस्थायी हैं - उन सब कुत्सित बातों के लिए भी उस नारी के अविज्ञात चित्त के नीचे इतना बड़ा आसन बिछा हुआ था। और उनके कारण पुरुष की विमुखता उसे ऐसे निर्मम अपमान से आहत कर सकती है!“
हरेन्द्र ने कहा - अजित कहते तो बड़े अच्छे ढंग से हैं। कहानी को खूब ध्यान से पढ़ा है।
स्त्रियाँ चुपचाप बैठी सिर्फ़ देखती रहीं, उन्होंने कुछ राय जाहिर नहीं की।
आशु बाबू ने कहा - हाँ। उसके बाद, अजित?
अजित कहने लगा - ”फिर उस महिला को अचानक ख़्याल आया कि सिर्फ़ एक ही पुरुष तो उसे नहीं चाहता था, बहुत-से लोग बहुत दिनों से उससे प्रेम करते आ रहे थे, प्रार्थना करते आ रहे थे - उस दिन उसकी ज़रा-सी मुस्कान और मुँह के एक शब्द के लिए उनकी व्याकुलता की हद न थी। प्रतिदिन के प्रत्येक पदक्षेप में से वे न जाने कहाँ से और किस जमीन को फोड़कर बाहर निकल आते थे। पर वे सब भी आज कहाँ गये? कहीं भी तो नहीं गये - अब भी तो कभी-कभी दिखाई दे जाते हैं। तो क्या उसके अपने कण्ठ का स्वर बिगड़ गया है? उसकी हँसी का रूप बदल गया है? अभी-अभी उस दिन की बात ही तो है - दस-पन्द्रह वर्ष, सो ऐसे कितने दिन हो गये? - इतने में क्या उसका सब कुछ बीत गया, सब कुछ खो गया?”
आशु बाबू सहसा बोल उठे - गया कुछ भी नहीं अजित, गया हो तो शायद उसका यौवन, उसकी माँ होने की शक्ति खो गयी होगी।
अजित उनकी तरफ़ देखकर बोला - यही बात है। कहानी आपने पढ़ी थी?
”नहीं।”
”नहीं तो ठीक यही बात आपने कैसे जान ली?”
आशु बाबू उत्तर में सिर्फ़ हँस दिये, बोले - तुम आगे पढ़ो।
अजित कहने लगा - ”घर लौटकर वह अपने शयनागार में खूब बड़े आईने के सामने बत्ती जलाकर खड़ी हो गयी। बाहर जाने की पोशाक उतारकर रात के सोने के कपड़े पहनते-पहनते अपनी छाया पर आज पहले-पहल उसकी नज़र पड़ी और पड़ते ही एकाएक मानो उसकी दृष्टि ही बदल गयी। इस तरह धक्का खाये बग़ैर शायद अब भी उसे दिखाई न देता कि नारी की जो सबसे बड़ी सम्पदा है - आप जिसे बता रहे थे कि उसकी माँ होने की शक्ति - वह शक्ति आज बिल्कुल निस्तेज और म्लान हो चुकी है, वह आज सुनिश्चित मृत्यु के मार्ग पर कदम बढ़ाये खड़ी है, इस जीवन में अब उसे वापस नहीं लाया जा सकता। उसकी निश्चेतन देह के ऊपर से अविच्छिन्न जल-धारा की तरह बहकर वह सम्पदा प्रतिदिन की व्यर्थता में क्षय हो चुकी है। यह बात उसे आज इस शेष समय में मालूम हुई कि इतना बड़ा ऐश्वर्य इतना स्वल्पायु है!“
आशु बाबू ने एक गहरी उसाँस ली और कहा - ”ऐसा ही होता है अजित, ऐसा ही होता है। जीवन की बहुत-सी बड़ी चीजों को हम पहचान पाते हैं जब उन्हें खो देते हैं। हाँ, फिर?” अजित कहने लगा - ”फिर उस आइने के सामने खड़ी-खड़ी वह अपने यौवनान्त शरीर का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण करती है। एक दिन क्या थी और अब क्या होने जा रही है? मगर उस वर्णन को न मैं कह सकता हूँ और न पढ़ ही सकता हूँ।”
नीलिमा पहले की भाँति ही व्यग्र होकर बोल उठी - न न न, अजित बाबू उसे रहने दीजिए। उसे छोड़कर आगे कहिए।
अजित कहने लगा - ”उस महिला ने विश्लेषण के अन्त में कहा है कि जिस तरह नारी के दैहिक सौन्दर्य के समान सुन्दर वस्तु इस संसार में नहीं है, उसी तरह इसकी विकृति के समान असुन्दर वस्तु भी शायद ही पृथ्वी पर कोई हो।”
आशु बाबू ने कहा - यह ज़रा कुछ ज्यादती है अजित।
नीलिमा ने सिर हिलाते हुए प्रतिवाद किया - नहीं, ज़रा भी ज्यादती नहीं इसमें। बिल्कुल सच है।
आशु बाबू ने कहा - मगर उसकी जो उमर है उसे तो विकृति की उमर नहीं कहा जा सकता, नीलिमा।
नीलिमा ने कहा - कहा जा सकता हे। कारण वह तो कोई सालों की गिनती से स्त्रियों के जीने का हिसाब नहीं है, इस बात को और चाहे जो भूल जाये, पर स्त्रियों के भूलने से काम नहीं चलेगा कि यौवन का आयुष्काल अत्यन्त ही कम है।
अजित सिर हिलाकर और खुश होता हुआ बोला - ”ठीक यही उत्तर उसने खुद दिया है। कहा - ”आज से समाप्ति की शेष प्रतीक्षा करते रहना ही होगा। अवशिष्ट जीवन का एकमात्र सत्य है। मैं जानती हूँ कि इसमें कोई सान्त्वना नहीं, आनन्द नहीं, आशा नहीं - फिर भी उपहास की लज्जा से तो बच ही जाऊँगी। ऐश्वर्य का भग्न स्तूप आज भी शायद किसी अभागे का मन हर सके, परन्तु वह मुग्धता जैसे उसके लिए विडम्बना के सिवा कुछ नहीं, वैसे ही मेरे लिए भी वह मिथ्या है, झूठ है। यह मुझसे नहीं होगा कि रूप का सचमुच का प्रयोजन खत्म हो चुका है, उसी को नाना प्रकार से, नाना वेशभूषा से सजाकर कहूँ कि ‘खत्म नहीं हुआ’ तथा अपने को और दूसरों को धोखा देकर ठगती फिरूँ।”
इस पर और किसी ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ नीलिमा बोल उठी - बहुत सुन्दर है। उसके ये शब्द मुझे बहुत ही सुन्दर लगे अजित बाबू।
अन्य लोगों की तरह हरेन्द्र भी खूब ध्यान से सुन रहा था; वह इस मन्तव्य से खुश न हुआ। बोला - ”यह आपका भावावेश का उफान है भाभी, खूब सोचविचारकर नहीं कहा आपने। ऊँची डाल पर सेमर का फूल भी सहसा सुन्दर दीख पड़ता है, फिर भी फूलों के दरबार में उसकी कोई क़दर नहीं। रमणी की देह क्या ऐसी तुच्छ चीज है कि इसके सिवा उसका और कोई उपयोग ही न हो?”
नीलिमा ने कहा - नहीं है, सो तो लेखिका ने कहा नहीं। यह आशंका उसे खुद भी थी कि अभागे आदमियों की आवश्यकता आसानी से नहीं मिटती।
फिर ज़रा हँसकर कहा, ”और उफान की जो बात कह रहे थे छोटे बाबू, सो अक्षय बाबू मौजूद नहीं, वे होते तो समझ जाते कि उफान की ज़्यादती किस ओर है।”
हरेन्द्र ने जवाब दिया - आप गाली-गलौज करती रहेंगी तो मैं ऊब जाऊँगा, सो नहीं होगा भाभी।
सुनकर आशु बाबू खुद भी ज़रा हँस दिये। बोले - वास्तव में हरेन्द्र, मुझे भी ऐसा लगता है कि इस कहानी में लेखिका ने स्त्रियों के रूप के वास्तविक प्रयोजन की तरफ़ ही इशारा किया है।
”मगर, क्या यही ठीक है?”
”ठीक नहीं, यह बात दुनिया की तरफ़ देखते ख़्याल करना कठिन है।”
हरेन्द्र उत्तेजित हो उठा, कहने लगा, ”दुनिया की तरफ़ देखकर आप चाहे कुछ भी ख़्याल करें, मनुष्य की तरफ़ देखकर इसे स्वीकार करना मेरे लिए भी कठिन है। मनुष्य का प्रयोग जगत के साधारण प्रयोजन को पार करके बहुत दूर चला गया है, इसी से तो उसकी समस्या ऐसी विचित्र, ऐसी दुरूह होती जा रही है। इसी में तो उसकी मर्यादा है आशु बाबू कि चलनी से छानकर उसे अलग नहीं किया जा सकता?”
”सो हो सकता है। कहानी का बाकी हिस्सा क्या है, सुनाओ तो अजित।”
हरेन्द्र क्षुण्ण हो गया। बाधा देते हुए बोला - सो नहीं होगा आशु बाबू। यह मैं नहीं होने दूँगा कि इस बात को तुच्छ समझकर आप जवाब देने से बच जायें। या तो मेरी बात स्वीकार कीजिए या फिर मेरी गलती दिखा दीजिए। आपने बहुत कुछ देखा है, बहुत पढ़ा है - बहुत बड़े विद्वान हैं आप, यह मुझसे नहीं सहा जायेगा कि इस अनिर्दिष्ट ढीली-ढाली बात की सेंध में भाभी जीत जायें। कहिये? आशु बाबू हँसते हुए बोले - तुम ब्रह्मचारी आदमी ठहरे - रूप के विवेचन में हार भी जाओ तो इसमें तुम्हारे लिए लज्जा की कोई बात नहीं हरेन्द्र।”
”नहीं, सो मैं नहीं सुनूँगा।”
आशु बाबू क्षण भर चुप रहे, फिर धीरे-धीरे बोले - ”तुम्हारी बात को अप्रमाणित ठहराने के लिए कमर बाँधकर बहस करने में मुझे शर्म आती है। वास्तव में यही अच्छा है कि नारी के रूप का निगूढ़ अर्थ अपरिस्फुट ही रहे।” फिर ज़रा चुप रहकर बोले - ”अजित की कहानी सुनते-सुनते मुझे बहुत दिन पहले की एक दुख की कहानी याद आ रही थी। बचपन में मेरे एक अंग्रेज मित्र थे; वे एक पोलिश स्त्री को प्यार करते थे। लड़की बहुत ही सुन्दर थी; छात्राओं को पियानो सिखाकर जीविका चलाती थी। सिर्फ़ रूप में ही नहीं, अनेक गुणों में गुणवती भी थी। हम सभी उनकी शुभ कामना करते थे और निश्चित जानते थे कि उनके विवाह में कहीं भी कोई विघ्न न आयेगा।”
अजित ने पूछा, ”विघ्न कैसे आया?”
आशु बाबू ने कहा - ”सिर्फ़ उमर की बात पर। देश से एक दिन उसकी माँ आ पहुँची। उसी के मुँह से बातों ही बातों में अचानक पता लगा कि उसकी उमर पैंतीस पार कर चुकी है।”
सुनकर सब चौंक पड़े। अजित ने पूछा - उस महिला ने क्या आप लोगों से अपनी उमर छिपायी थी?
आशु बाबू ने कहा - ”नहीं। मेरा विश्वास है कि पूछने पर वह छिपाती नहीं, उसकी ऐसी प्रकृति ही न थी, मगर पूछने की बात किसी के ध्यान में ही न आयी। उसकी देह की गठन ऐसी थी, चेहरे की ऐसी सुकुमार श्री थी और ऐसा मधुर कण्ठस्वर था कि कभी किसी को आशंका ही न हुई कि उसकी उमर तीस से ज़्यादा हो सकती है।”
बेला ने कहा - ”आश्चर्य है! आप लोगों में से किसी के क्या आँख ही न थी?”
”थी क्यों नहीं। मगर दुनिया के सभी आश्चर्य आँखों से नहीं पकड़े जा सकते। इसे उसी का एक दृष्टान्त समझो।”
”और उस आदमी की उमर क्या थी?”
”वह मेरी ही उमर का था - तब शायद अट्ठाइस-उन्तीस से ज़्यादा न होगी उसकी उमर।”
”फिर?”
आशु बाबू ने कहा - ”फिर की घटना अत्यन्त संक्षिप्त है। उस युवक का सारा हृदय एक ही क्षण में उस प्रौढ़ा रमणी के विरुद्ध मानो पाषाण बन गया। उस बात को जमाना बीत गया, पर आज भी सोचता हूँ तो मन में एक तरह की टीस उठती है। कितने आंसू, कितनी हाय-हाय, कितना जाना-आना, कितना मनाना-रिझाना होता रहा; पर उसके मन से उस नफरत को ज़रा भी हिलाया-डुलाया नहीं जा सका। इस बात के आगे वह और कुछ सोच ही न सका कि यह ब्याह असम्भव है।”
क्षण भर सभी चुप रहे। नीलिमा ने पूछा - मगर बात इससे ठीक उल्टी होती तो शायद असम्भव न होता?
”शायद न होता।”
”पर ऐसा ब्याह क्या उस देश में एक भी नहीं होता? ऐसे पुरुष क्या वहाँ हैं ही नहीं?”
आशु बाबू ने हँसते हुए जवाब दिया, ”हैं क्यों नहीं। इस कहानी की लेखिका ने शायद खास तौर से ऐसे पुरुषों को लक्ष्य करके ‘अभागे’ विशेषण का प्रयोग किया है। लेकिन अब रात तो बहुत हो गयी अजित, इसका अन्त क्या है?”
अजित ने चौंककर उनकी ओर देखा, और कहा - ”मैं आपकी ही कहानी की बात सोच रहा था। इतना प्रेम होते हुए क्यों वह उसे ग्रहण नहीं कर सका? इतनी बड़ा सत्य वस्तु किधर से कैसे एक क्षण में झूठी हो गयी? - जिन्दगी भर शायद वह महिला यही सोचती रही होगी, ‘एक दिन, जिस दिन मैं नारी थी।’ इसके पहले शायद उस विगतयौवना नारी ने कभी इस बात की चिन्ता भी न की होगी कि नारीत्व की वास्तविक समाप्ति नारी के बिना जाने ही कब और कैसे हो जाती है।”
”लेकिन तुम्हारी कहानी का शेष?”
अजित शान्त भाव से बोला - ”रहने दीजिए। यौवन का वह शेष अभी तक निःशेष नहीं हुआ - अपने और दूसरों के आगे स्त्रियों की इस प्रतारणा की करुण कहानी के साथ कहानी खत्म होती है। अब आज रहने दीजिए, फिर किसी दिन सुनाऊँगा।
नीलिमा ने सिर हिलाते हुए कहा, ”नहीं-नहीं, इससे तो बल्कि उसे असमाप्त ही रहने दीजिए।”
आशु बाबू ने हाँ में हाँ मिला दी, वेदना के साथ बोले - वास्तव में स्त्रियों के लिए यही समय निसंग जीवन होने के कारण सबसे बुरा होता है, इसी से शायद असहिष्णु, कपटी, पर छिद्रान्वेषी - यहाँ तक कि निष्ठुर होकर सब देश के पुरुष इन अविवाहिता प्रौढ़ा स्त्रियों से बचकर चलना चाहते हैं नीलिमा।
नीलिमा ने हँसकर कहा - ”ऐसा कहना ठीक नहीं आशु बाबू, बल्कि यों कहिए कि तुम जैसी पति-पुत्रहीना अभागी स्त्रियों से बचकर चलना चाहते हैं।”
आशु बाबू ने इसका कोई जवाब नहीं दिया, पर इशारे को स्वीकार कर लिया। बोले - पर मजा तो यह है कि जो पति-पुत्र में सौभाग्यवती हैं, वे स्नेह-पे्रम और सौन्दर्य-माधुर्य से ऐसी परिपूर्ण हो उठती है कि उन्हें पता भी नहीं लग पाता कि जीवन का इतना बड़ा संकट काल कब और किस रास्ते से निकल गया।
नीलिमा ने कहा - उन भाग्यवतियों से मैं डाह नहीं करती आशु बाबू, ऐसी प्रेरणा आज तक मन में कभी नहीं आयी, पर भाग्य के दोष से जो हमारी तरह भविष्य की सारी आशाओं को जलांजलि दे चुकी हैं, बता सकते हैं कि उनके मार्ग का निर्देश किस तरफ़ है?
आशु बाबू कुछ देर तक तो स्तब्ध हुए बैठे रहे, फिर बोले - इसके जवाब में मैं सिर्फ़ बड़ों की बात की प्रतिध्वनि मात्र कर सकता हूँ नीलिमा, उससे ज़्यादा मुझमें शक्ति नहीं। वे कह गये हैं कि दूसरों के लिए अपने को उत्सर्ग कर देना चाहिए। संसार में न तो दुख का ही अभाव है और न आत्मनिवेदन के दृष्टान्तों का असद्भाव है। यह सब मैं भी जानता हूँ - परन्तु इसे मैं आज तक निःसंशय होकर नहीं जान पाया कि इसके भीतर नारी का सचमुच का अविरुद्ध कल्याणमय आनन्द है या नहीं। हरेन्द्र ने पूछा, ”यह सन्देह, क्या आपका शुरू से ही था?”
आशु बाबू मन ही मन कुछ कुण्ठित से हुए। ज़रा ठहरकर बोले - ठीक याद नहीं पड़ता हरेन्द्र। मनोरमा को गये तब दो-तीन दिन हुए होंगे। मन बोझिल था और शरीर विवश। इसी कुरसी पर चुपचाप पड़ा था, अचानक देखा कि कमल आ पहुँची है। आदर से बुलाकर उसे पास बिठाया। मेरी व्यथा की जगह को सावधानी से बचाते हुए उसने निकल भी जाना चाहा, पर वह निकल नहीं सकी। बातों ही बातों में कुछ ऐसा प्रसंग उठ खड़ा हुआ कि फिर उसे कुछ होश ही न रहा। तुम लोग तो उसे जानते ही हो, जो भी कुछ प्राचीन है उस पर उसे कैसी प्रबल वितृष्णा है। उसे झकझोरकर तोड़ डालना ही मानो उसका ‘पैशन’ है। मन गवाही नहीं देना चाहता, हमेशा का संस्कार मारे डर के सिकुड़ जाता है। फिर भी जबाब ढूँढ़े नहीं मिलता और हार माननी पड़ती है। याद है, उस दिन भी मैंने उसके सामने स्त्रियों के आत्मोसर्ग का उल्लेख किया था, मगर उसे मंजूर ही नहीं किया। कहने लगी - ”स्त्रियों की बात मैं आपसे ज़्यादा जानती हूँ। वह प्रवृत्ति उनमें है, पर वह उनके भीतर की पूर्णता से नहीं आती, आती है सिर्फ़ शून्यता से, और उठती है हृदय खाली करके। वह तो स्वभाव नहीं अभाव है और अभाव के आत्मोसर्ग पर मैं कानी-कौड़ी का भी विश्वास नहीं करती। मेरी तो समझ में ही न आया कि इसका क्या जवाब दूँ, फिर भी मैंने कहा - ‘कमल, सभ्यता की मूल वस्तु से तुम्हारा परिचय होता तो आज शायद तुम्हें मैं समझा देता कि त्याग और विसर्जन की दीक्षा में सिद्धि प्राप्त करना ही हमारी सबसे बड़ी सफलता है और इसी मार्ग का अनुसरण कर हमारी कितनी ही विधवा स्त्रियाँ जीवन की सर्वोत्तम सार्थकता अनुभव कर गयी हैं।
इस पर कमल हँसकर बोली - ‘करते हुए देखा है आपने? एकआध नाम तो बताइए?’ मुझे नहीं मालूम था कि वह ऐसा प्रश्न कर बैठेगी, बल्कि मैंने तो यह सोचा था कि शायद वह बात को मान लेगी। मैं बड़े चक्कर में पड़ गया - “
नीलिमा बोल उठी - खूब! आपने मेरा नाम क्यों नहीं बता दिया? याद नहीं आयी होगी शायद?
कैसा कठोर परिहास है। हरेन्द्र और अजित ने सिर झुका लिया, और बेला ने दूसरी तरफ़ मुँह फेर लिया।
आशु बाबू कुछ अप्रतिभ से तो हुए, पर उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया, बोले - नहीं, याद ही नहीं आयी। आँखों के सामने की चीज पर जैसे कभी-कभी नजर नहीं पड़ती वैसे ही। तुम्हारा नाम ले लेने से सचमुच ही उसका माकूल जवाब हो आता, किन्तु तब वह याद ही नहीं आया।
”तब कमल ने कहा - ”मुझे जिस शिक्षा का आपने उलाहना दिया है, खुद आप लोगों के सम्बन्ध में भी क्या वह सोलहों आने सच नहीं है? सार्थकता का जो आइडिया बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में आप लोग भरते आये हैं, उसकी रटी हुई बातों को ही तो वे दर्प के साथ दुहराकर सोचा करती हैं कि शायद वही सत्य है। नतीजा यह होता है कि आप लोग भी धोखा खाते हैं और आत्मप्रसाद के व्यर्थ अभिमान से वे खुद भी मर मिटती है।”
”इतना कहकर वह फिर बोली - ”सहमरण की बात तो आपके ध्यान में आनी चाहिए। जो स्त्रियाँ जलकर मरती थीं और जो उन्हें प्रेरणा दिया करते थे; दोनों ही पक्षों का दम्भ उस दिन यह सोचकर आकाश से जा छूता था कि वैधव्य जीवन के इतने बड़े आदर्श का दृष्टान्त संसार में और है कहाँ!’
”इसका मैं क्या उत्तर देता, कुछ समझ में ही न आया। मगर उसने उत्तर की अपेक्षा भी नहीं की, खुद ही कहने लगी - ‘उत्तर है ही नहीं, देंगे क्या?’ फिर ज़रा ठहरकर मेरे मुँह की तरफ़ देखकर बोली - ‘लगभग सभी देशों में आत्मोसर्ग शब्द से एक तरह का बहुव्याप्त और बहुप्राचीन पारमार्थिक मोह है। उस मोह का नशा जिसे चढ़ता है, उसकी दृष्टि में परलोक की असाधारण अवस्तु भी इस लोक की संकीर्ण साधारण वस्तु को ढँक देती है - वह उसे सोचने ही नहीं देती कि उसमें नर और नारी इन दोनों में से किसी के संस्कार उससे मानो कान पकड़वा के मनवा लेते हैं - उसी तरह जिस तरह कि लगभग सहमरण को उन्होंने मनवा लिया था। बस और नहीं, मैं जाती हूँ, कहकर उसे सचमुच ही चले जाते देखकर मैंने व्यग्र होकर कहा - ‘कमल, प्रचलित नीति और समस्त प्रतिष्ठित सत्य को अवज्ञा से चूर-चूर कर देना ही मानो तुम्हारा व्रत है। यह शिक्षा जिसने तुम्हें दी है उसने जगत का कल्याण नहीं किया है।’
”कमल ने कहा - ‘मेरे पिता ने दी है।’
”मैंने कहा - ‘तुम्हारे ही मुँह से सुना है कि वे ज्ञानी और विद्वान आदमी थे।
यह बात क्या उन्होंने कभी तुम्हें सिखाई ही नहीं कि अन्त तक सर्वस्व दान करके ही आदमी सत्यरूप में अपने को पाता है? स्वेच्छा से दुख स्वीकार करने में ही आत्मा की यथार्थ प्रतिष्ठा है।’
”कमल ने कहा - ‘वे तो यही कहा करते थे कि आदमी का सर्वस्व चूस लेने का जिन्होंने षडयंत्र रच रखा है, जिन्हें दुख का अनुभव नहीं, वे ही दुख स्वीकार करने की महिमा गान में पंचमुख हो जाया करते हैं। वह दुख संसार के दुर्लघ्य शासन का नहीं है - वह तो मानो उसे स्वेच्छा से जान-बूझकर बुला लाना है - अर्थहीन शौक की चीज की तरह महज एक लड़कों का खेल है वह। उससे बड़ा नहीं।’
मैं तो आश्चर्य से हतबुद्धि सा हो गया। बोला - ‘कमल, तुम्हारे पिता क्या तुम्हें शुद्ध भोग का मंत्र ही दे गये हैं, और जगत में जो कुछ महान है, उस पर अश्रद्धा से अवज्ञा करने को ही कह गये हैं?”
”कमल ने इस तरह के दोषारोपण की शायद मुझसे आशा नहीं की थी। उसने क्षुण्ण होकर उत्तर दिया - ‘यह आपकी असहिष्णुता की बात है आशु बाबू। आप निश्चित जानते हैं कि कोई भी पिता अपनी कन्या को ऐसा मंत्र नहीं दे जा सकता। मेरे पिता के प्रति आप अविचार कर रहे हैं। वे साधु पुरुष थे।’
”मैंने कहा - ‘जैसा कि तुम कह रही हो, यदि वास्तव में यह शिक्षा वे तुम्हें दे गये हों तो उनके प्रति’ सुविचार करना भी कठिन है। मनोरमा की जननी की मृत्यु के बाद अन्य किसी स्त्री को जो मैं प्यार न कर सका इसे सुनकर तुमने कहा था कि यह चित्त की कमज़ोरी है, कमज़ोरी को लेकर गर्व नहीं किया जा सकता। मृत पत्नी की स्मृति के सम्मान को तुमने निष्फल आत्म-निग्रह कहकर उपेक्षा की दृष्टि से देखा था। संयम के कोई माने ही उस दिन तुम्हारे ध्यान में नहीं आये थे।
”कमल ने कहा - ‘आज भी नहीं आते आशु बाबू। जो संयम उद्धत आस्फालन से जीवन के आनन्द को म्लान कर देता है, वह तो कोई चीज ही नहीं, महज मन की एक लीला है, उसे बाँधने की ज़रूरत है। सीमा मानकर चलना ही तो संयम है। शक्ति की स्पद्र्धा में भी संयम की सीमा को लाँघ जाना सम्भव है। तब फिर उसे उतनी इज्ज़त नहीं दी जा सकती। यह बात क्या आपने कभी विचार करके नहीं देखा कि अति-संयम भी एक तरह का असंयम है?”
”विचार करके नहीं देखी, यह सच था। इसी से विचार करके देखने की बात चट से याद आ गयी। मैंने कहा, ‘यह तो सिर्फ़ तुम्हारी बातों की जादूगरी है, उसी भोग की वकालत से भरी हुई। पर आदमी जितना ही ज़्यादा जकड़-पकड़ के भोग को लील जाना चाहता है, उतना ही उसे खो बैठता है। उसकी भोग की भूख तो मिटती नहीं - बल्कि निरन्तर अतृप्ति ही बढ़ती चलती है। इसी से हमारे शास्त्रकार कह गये हैं कि उस मार्ग में शान्ति नहीं है, तृप्ति नहीं है, उससे मुक्ति की आशा व्यर्थ है। उनका कहना है कि ‘न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति, हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एकाभिवर्द्धते। ‘आग में घी देने से जैसे वह और भी ज़ोर से जलने लगती है, वैसे ही भोग-उपभोगों के द्वारा कामना बढ़ती ही जाती है, कभी घटती नहीं।”
हरेन्द्र उद्विग्न होकर बोल उठा - उसके सामने शास्त्र-वाक्य आप क्यों कहने गये? हाँ, फिर?
आशु बाबू ने कहा - ”तुमने ठीक कहा। सुनकर वह हँस पड़ी और बोली, ‘शास्त्र में ऐसी बात है क्या? सो तो होगी ही। उन्हें यह भी तो मालूम था कि ज्ञान की चर्चा से ज्ञान की इच्छा बढ़ती है, धर्म की साधना से धर्म की प्यास भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, पुण्य के अनुशीलन से पुण्य का लोभ भी क्रमशः उग्र होता जाता है - मालूम होता है मानो अभी बहुत बाकी है। इसकी भी ठीक वही हालत है। यह कामना भी शान्त नहीं होती। इसलिए, इस क्षेत्र में भी वे लोग यही आक्षेप नहीं कर गये? - उनमें विवेक था, शायद इसलिए?’
हरेन्द्र, अजित, बेला और नीलिमा चारों के चारों हँस पड़े।
आशु बाबू बोले - ”हँसने की बात नहीं। लड़की के उपहास और व्यंग्य से मानो में हतवाक हो गया, अपने को संभाल कर बोला - ‘नहीं, उनका यह अभिप्राय नहीं, वे तो यही निर्देश कर गये हैं कि भोग से तृप्ति नहीं हो सकती, कामना से निवृत्ति नहीं हो सकती।”
”कमल ज़रा रुककर बोली - ‘मालूम नहीं, ऐसे बाहुल्य का इंगित वे क्यों कर गये? यह क्या बाजार में बैठकर ‘यात्रा’ के गान सुनना है या पड़ोसी के घर का ग्रामोफोन है जो बीच हीं में मालूम हो जायेगा कि जाने दो, काफी तृप्ति हो चुकी, अब ज़रूरत नहीं। इस तृप्ति-अतृप्ति की असल सत्ता तो बाहर के भोग में है नहीं, उसका स्रोत तो है जीवन के मूल में। वहीं से वह हमेशा, जीवन की आशा, आनन्द और रस जुटाया करती है और शास्त्र का धिक्कार व्यर्थ होकर दरवाजे पर पड़ा रह जाता है - उसे छू तक नहीं पाता।’
”मैंने कहा - ‘सो हो सकता है, मगर है तो आखिरकार वह शत्रु ही, हमें उसे जीतना तो चाहिए ही?’
कमल ने कहा - मगर शत्रु कहके गाली देने से ही तो वह छोटा न हो जायेगा। प्रकृति के लिखे पक्के पट्टे के अनुसार वह दखलदार है, उसके किस स्वत्व को कब कौन सिर्फ़ विद्रोह करके ही उड़ा सका है? दुख से घबराकर आत्महत्या करना तो दुख को जीतना नहीं है? फिर भी मजा यह कि ऐसी ही युक्तियों के बल पर आदमी अकल्याण के सिंह द्वार पर शान्ति का रास्ता टटोलता फिरता है। इससे शान्ति तो मिलती नहीं स्वस्थता भी चली जाती है।’
”सुनकर मुझे ऐसा लगा कि शायद वह सिर्फ़ मुझको ही कोंच रही है।” इतना कहकर वे क्षण भर चुप रहे, फिर कहने लगे - और न जाने कैसा मेरा जी हो गया कि मुँह से चट से निकल पड़ा - ‘कमल, तुम अपने जीवन पर तो एक बार विचार कर देखो। ‘बात मुँह से निकल जाने के बाद खुद मुझे ही अपने कानों को खटकी, कारण कटाक्ष करने लायक उसके पास कुछ था ही नहीं - कमल को खुद भी आश्चर्य हुआ, पर वह न तो गुस्सा हुई, न रूठी, शान्त चेहरे से मेरी तरफ़ देखती हुई बोली - मैं प्रतिदिन ही विचार कर देखती हूँ आशु बाबू। दुख नहीं पाती हूँ सो मैं नहीं कहती, पर मैंने उस दुख को ही जीवन का चरम नहीं मान लिया है। शिवनाथ को जो कुछ देना था, वे दे चुके, मुझे जो मिलना था, सो मिल गया। आनन्द के वे छोटे-छोटे क्षण ही मेरे मन में मणि-माणिक्य की तरह संचित है। न तो निष्फल मानसिक दाह से मैंने उन्हें जलाकर खाक किया और न सूखे झरने के नीचे रीते हाथ पसारकर भीख माँगने के लिए ही खड़ी हुई। उनके पे्रम की आयु जब खत्म हो चुकी तो शान्त मन से उन्हें विदा दे दी; पछतावे और शिकायत के धुएँ से आकाश काला करने की मेरी प्रवृत्ति ही नहीं हुई। इसी से उनके सम्बन्ध में मेरा उस दिन का आचरण आप लोगों को अद्भुत सा लगा। आप लोगों ने सोचा था कि इतने बड़े अपराध को कमल ने माफ कैसे कर दिया? मगर मेरे मन में उस दिन उनके अपराध से बढ़कर अपने ही दुर्भाग्य की बात ज़्यादा आयी थी।”
”सुनते-सुनते मुझे ऐसा लगा कि मानो उसकी आँखों से आंसू छलक आये हैं। हो सकता है कि सच हो, या शायद मेरी भूल हो। उस वक़्त मेरा हृदय मानो वेदना से ऐंठ गया, उसमें और मुझमें प्रभेद ही कितना सा था! मैंने कहा - ”कमल ऐसे मणि-माणिक्यों का संचय मैंने भी अपने मन में किया है, वही तो मेरे लिए सात राज्यों का धन है, अब हम लोग किसके लिए लोभ करने जायें बतलाओ?
”कमल चुपचाप देखती रह गयी। मैंने पूछा - इस जीवन में क्या अब तुम और किसी को प्यार कर सकती हो कमल? इस तरह समस्त देह-मन से अंगीकार कर सकती हो और किसी को?
कमल ने अविचलित कण्ठ से जवाब दिया - ‘कम से कम जिन्दा तो यही आशा लेकर रहना पड़ेगा आशु बाबू। असमय में बादलों की ओट में आज अगर सूर्य अस्त हो गया सा मालूम दे तो क्या वह अन्धकार ही सत्य हो जायेगा और कल प्रभात में अरुण प्रकाश से अगर आकाश छा जाये तो क्या अपनी आँखों को बन्द करके यह कह दूंगी कि यह प्रकाश नहीं है, अन्धकार है? जीवन को क्या ऐसे ही बच्चों के खेल-खेल में खतम कर दूँगी?”
”मैंने कहा - ‘रात तो सिर्फ़ एक ही नहीं होती कमल, प्रभात का प्रकाश खत्म करके वह तो दुबारा भी आ सकता है’?
उसने कहा, ‘आया करे। तब भी प्रभात पर विश्वास करके फिर रात बिता दूँगी।’
”मैं तो मारे आश्चर्य के सन्न होकर बैठा रहा। कमल चली गयी।”
”बच्चों का खेल! सोचा था, शोक में से गुज़रकर हम दोनों की विचार-धारा शायद एक ही स्रोत में मिल गयी है। परन्तु देखा कि नहीं, सो बात नहीं है। जमीन-आसमान का फर्क है। उसके दृष्टिकोण से तो जीवन का अर्थ ही अलग है - हम लोगों के साथ उसका कोई मेल ही नहीं। वह न तो अदुष्ट को ही मानती है और न अतीत की स्मृति उसके आगे का रास्ता ही रोकती है, उसके लिए अनागत ही सब कुछ है, जो आज तक आया नहीं है। इसी से उसकी आशा भी जितनी दुर्निवार है, आनन्द भी उतना अी अपराजेय है। सिर्फ़ इसी वजह से कि किसी गैर ने उसके जीवन को धोखा दिया है, वह अपने जीवन को धोखा देने या वंचित रखने के लिए किसी तरह तैयार नहीं।”
सब चुप रहे।
उठते हुए दीर्घ निःश्वास को दबाकर आशु बाबू फिर कहने लगे - विलक्षण लड़की है! उस दिन नफरत और पछतावे का ठिकाना न रहा, पर साथ ही यह बात भी मन ही मन स्वीकार किये बिना न रहा गया कि सिर्फ़ बाप से सीखकर रटी हुई भाषा नहीं है। जो कुछ उसने सीखा है, बिल्कुल निःसंशय होकर पूरी तरह खुद ही सीखा है। ऐसी विशेष उमर भी नहीं, पर फिर भी मालूम होता है कि अपनी आत्मा को उसने इसी उमर में पूरी तरह उपलब्ध कर लिया है?
फिर ज़रा ठहरकर कहने लगे - और बात भी सच है। वास्तव में जीवन कोई बच्चों का खेल तो है नहीं। भगवान का इतना बड़ा दान इसलिए नहीं आया। ऐसी बात भी भला मैं कैसे कह सकता था कि कोई एक आदमी किसी दूसरे के जीवन में विफल हो गया तो उसी शून्यता की जिन्दगी भर जय घोषणा करता रहे? बेला ने आहिस्ते से कहा - बात तो बड़ी सुन्दर है।
हरेन्द्र चुपके से उठकर खड़ा हो गया। बोला - रात काफ़ी हो गयी, वर्षा भी कम हो गयी - आज इजाज़त मिले।
अजित भी उठ खड़ा हुआ, कुछ बोला नहीं। दोनों नमस्कार करके बाहर हो गये।
बेला सोने चली गयी। नीलिमा को छोटे-मोटे दो-एक काम करने बाकी थी, पर आज वे यों ही अधूरे पड़े रहे और अन्यमनस्क की तरह वह भी चुपचाप चल दी। नौकर की प्रतीक्षा में आशु बाबू आँखों पर हाथ धरे पड़े रहे।
बड़ा भारी मकान था। बेला और नीलिमा के सोने के कमरे आमने-सामने थे। दोनों कमरों में बत्ती जल रही थी; इतनी सबकी सब बातें और आलोचनाएँ सुने निःसंग कमरों में पहुँचने के बाद मानो धुँधली सी हो गयीं, फिर भी, परम आश्चर्य की बात यह है कि कपड़े बदलने के पहले दर्पण के सामने जाकर खड़े होने पर दोनों नारियों के मन में, एक ही समय में, ठीक एक ही प्रश्न उठ खड़ा हुआ, ‘एक दिन, जिस दिन मैं नारी थी!’
24
दस-बारह दिन हुए कमल आगरा छोड़कर कहीं बाहर चली गयी है। इधर आशु बाबू को उसकी सख़्त ज़रूरत है। थोड़ी बहुत चिन्ता तो सभी को हुई थी, पर उद्वेग के काले बादल सबसे ज़्यादा हरेन्द्र के ब्रह्मचर्य आश्रम के माथे पर मँडराये। ब्रह्मचारी हरेन्द्र और अजित व्याकुलता की प्रतिस्पद्र्धा में ऐसे सूखने लगे कि शायद उनका ‘ब्रह्म’ भी खो जाता तो ऐसे परेशान न होते। अन्त में उन्होंने एक दिन उसे ढूँढ़ ही निकाला। घटना अत्यन्त साधारण थी। कमल का चाय के बगीचे का एक घनिष्ठ परिचित फिरंगी साहब वहाँ का काम छोड़कर टुंडला में रेलवे की नौकरी करने आया है, उसके स्त्री नहीं है, दो-ढाई साल की एक छोटी लड़की है। बड़ी परेशानी में पड़कर वह कमल को टुंडला ले गया है। उसकी घर-गृहस्थी ठीक करने में कमल को इतनी देर लग गयी। आज सबेरे वह घर लौटी है और तीसरे पहर उसके लिए मोटर भेजकर आशु बाबू बाट देख रहे हैं।
सिलाई करते-करते नीलिमा सहसा बोल उठी - उस आदमी के घर में स्त्री नहीं, एक नन्ही-सी लड़की के सिवा और कोई औरत भी नहीं - फिर भी उसके घर कमल ने आसानी से दस दिन बिता दिये।
आशु बाबू ने बड़ी मुश्किलों से सिर घुमाकर उसकी तरफ़ देखा; पर वे समझ न सके कि इस बात का तात्पर्य क्या है।
नीलिमा मानो अपने मन ही मन कहने लगी - ”वह तो मालूम होता है, नदी की मछली है जिसके पानी में भीगने न भीगने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, खाने-पहनने की उसे चिन्ता नहीं - बिल्कुल स्वाधीन है।” आशु बाबू ने सिर हिलाते हुए मृदु कण्ठ से कहा - ”बात तो क़रीब-क़रीब ऐसी ही है।”
”उसके रूप-यौवन की सीमा नहीं, बुद्धि भी वैसी ही अनन्त है। राजेन्द्र के साथ उसकी कितने दिन की जान-पहचान थी, मगर उपद्रव के डर से जब कहीं उसे जगह नहीं मिली, तो उसे भी उसने बिना किसी संकोच के अपने घर बुला लिया। किसी के मतामत की परवाह न उसके कर्तव्य में विघ्न नहीं डाला। जो किसी से नहीं बना, उसे वह बड़ी आसानी से कर गुज़री। सुनकर ऐसा लगा जैसे सब उससे छोटे हो गये हैं, इसके लिए दूसरी औरतों को न जाने कितने-कितने बातों का ख़्याल रखना पड़ता है।”
आशु बाबू ने कहा, ”ख़्याल तो रखना ही चाहिए नीलिमा?”
बेला ने कहा - हम भी चाहें तो वैसी ही बेपरवाह और स्वाधीन बन सकती है।
नीलिमा ने कहा - नहीं, नहीं बन सकतीं। मैं भी नहीं बन सकती और आप भी नहीं। कारण दुनिया हम पर जो स्याही उड़ेल देगी, उसे धो-पोंछकर साफ़ कर डालने की शक्ति हम लोगों में नहीं है।
ज़रा ठहरकर नीलिमा कहने लगी - वैसी इच्छा एक दिन मेरी भी हुई थी, इससे सब ओर से मैंने इस बात को सोच देखा है। पुरुषों के बने हुए अविचार और अत्याचार का असली रूप कमल को देखने के पहले हमें कभी नहीं दिखाई दिया। स्त्रियों की मुक्ति, स्त्रियों की स्वाधीनता तो आजकल हरेक स्त्री-पुरुष की ज़बान पर है, पर वह ज़बान के आगे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ती। सो क्यों, जानती हैं? अब मालूम हुआ है कि स्वाधीनता तत्व-विचार से नहीं मिलती, न्याय और धर्म की दुहाई देने से भी नहीं मिल सकती, सभा में खड़े होकर पुरुषों के साथ कलह करने से भी नहीं मिलती, असल में स्वाधीनता जैसी चीज कोई किसी को दे ही नहीं सकता, लेन-देन की वह चीज़ ही नहीं। कमल को देखते ही दीख जाता है कि यह स्वधीनता हमारी अपनी पूर्णता से, आत्मा के अपने विस्तार से, स्वतः ही आती है। बाहर के अण्डे का छिलका तोड़कर भीतर के जीव को मुक्ति देने से वह मुक्ति नहीं पाता, बल्कि मर जाता है। हमारे साथ यहीं पर उसका पार्थक्य है।
फिर बेला से बोली - अभी जो वह दस-बारह दिन के लिए न जाने कहाँ चली गयी, सबों के डर का ठिकाना न रहा, पर यह आशंका किसी को स्वप्न में भी न हुई कि ऐसा कोई काम वह कर सकती है जिससे उसकी इज़्ज़त पर बट्टा लगे? बताइए, हम होतीं तो आदमी के दिलों में इतना जबर्दस्त विश्वास का ज़ोर कहाँ पाती? यह गौरव हमें कौन देता? न पुरुष ही देते, न औरतें हीं।
आशु बाबू आश्चर्य के साथ उसके मुँह की तरफ़ क्षण-भर देखते रहे, फिर बोले - वास्तव में यह सच है नीलिमा।
बेला ने पूछा - लेकिन उसका पति होता तो वह क्या करती?
नीलिमा ने कहा - ”उसकी सेवा करती, रसोई बनाती-खिलाती, घर-द्वार झाड़ती-बुहारती, बच्चे होते तो उनकी परवरिश करती, और क्या करती? अभी तो वह अकेली है और रुपये-पैसे से भी तंग है, न ही तो वैसी हालत में, मैं तो समझती हूँ, समय के अभाव में वह हम लोगों से मिलने-जुलने तक न आ सकती।”
बेला ने कहा - तब फिर?
नीलिमा ”तब फिर क्या?” कहकर हँस दी और बोली - घर का कामकाज नही करे, तंगी या शिकायत कुछ रहे नहीं, हरदम सैर-सपाटा करती फिरें, क्या यही स्त्रियों की स्वाधीनता का मानदण्ड है? स्वयं विधाता के भी कामकाज का अन्त नहीं, लेकिन कोई क्या इस कारण उन्हें पराधीन सोचता है? इस संसार में हमारी खुद की मेहनत-मशक्कत भी क्या कुछ कम है?
आशु बाबू गहरे आश्चर्य के साथ मुग्ध-दृष्टि से उनकी तरफ़ देखते रहे। असल में इस ढंग की कोई बात अब तक उन्होंने नीलिमा के मुँह से नहीं सुनी थी।
नीलिमा कहने लगी - कमल बैठी रहना तो जानती ही नहीं, तब वह पति-पुत्र और घर-गृहस्थी के कामों में इतनी तल्लीन हो जाती, आनन्द की जलधारा की तरह घर-गृहस्थी उसके माथे पर से बही चली जाती उसे पता भी न लगता। मगर जिस दिन समझती कि पति का काम बोझ बनकर उसके सिर पर सवार हो गया है, उस दिन मैं सौगन्ध खाकर कह सकती हूँ कि उसे संसार में कोई एक दिन के लिए भी पकड़कर नहीं रख सकता।
आशु बाबू आहिस्ते से बोले - सो तो ठीक है। ऐसा ही मालूम होता है।
इतने में परिचित मोटर का हार्न सुनाई दिया। बेला ने खिड़की से झाँककर देखा और कहा - अपनी ही गाड़ी है।
थोड़ी देर बाद नौकर बत्ती रखने आया और कमल के आने की खबर दे गया। कई दिन से आशु बाबू उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे, मगर फिर भी खबर पाते ही उनका चेहरा अत्यन्त म्लान और गम्भीर हो गया। अभी-अभी वे आरामकुर्सी पर सीधे होकर बैठे थे, अब फिर पीठ टेककर लेट गये।
भीतर आकर कमल ने सबको नमस्कार किया, और आशु बाबू के पास की कुरसी पर जाकर बैठ गयी। बोली - ”मैंने सुना कि आप मेरे लिए बड़े व्यग्र हैं, किसे मालूम था कि आप लोग मुझे इतना चाहते हैं - नहीं तो जाने के पहले अवश्य ही आपको खबर दे जाती।” कहते हुए उसने आशु बाबू का शिथिल हाथ बड़े स्नेह के साथ खींचकर अपने हाथ में ले लिया।
आशु बाबू का मुँह दूसरी ओर था, और अब भी वह उधर ही रहा। उसकी बात का वे कुछ भी उत्तर न दे सके।
कमल ने पहले तो समझा कि उनके सम्पूर्ण स्वस्थ होने के पहले ही वह चली गयी थी और अब तक कोई खबर-सुध नहीं ली, इसी से उनका यह अभिमान है। फिर उसने उनकी मोटी उँगलियों में अपनी चम्पा की कली सी उंगलियाँ उलझाते हुए कान के पास मुँह ले जाकर चुपके से कहा - ”मेरी गलती हुई है, मैं माफी माँगती हूँ।” मगर इसका भी जब कोई जवाब नहीं मिला। तब उसे सचमुच ही बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही डर भी लगा।
बेला जाने के लिए कदम बढ़ा चुकी थी, खड़े होकर उसने विनय के साथ कहा - ”अगर मालूम होता कि आप आयेंगी तो आज मालिनी का निमंत्रण मैं हर्गिज स्वीकार न करती, लेकिन अब तो न जाने से उन लोगों को बड़ी निराशा होगी।”
कमल ने पूछा - ”मालिनी कौन?”
नीलिमा ने जवाब दिया - यहाँ के मजिस्ट्रेट साहब की स्त्री - नाम शायद तुम्हें याद नहीं रहा।” फिर बेला की तरफ़ मुखातिब होकर कहा - ”सचमुच ही आपका जाना ज़रूरी है। नहीं जाने से उनकी गाने की सारी महफिल बिल्कुल मिट्टी हो जायेगी।
”नहीं, नहीं मिट्टी नहीं होगी, मगर हाँ, रंज ज़रूर होगा। सुना है कि उन्होंने और भी दो-चार सज्जनों को आमंत्रित किया है। अच्छा तो आज तो वही जाती हूँ, फिर और किसी दिन बातचीत होगी। नमस्कार।” कहकर वह ज़रा कुछ व्यग्रता के साथ बाहर चली गयी।
नीलिमा ने कहा - अच्छा ही हुआ जो आज उनका बाहर निमंत्रण था, नहीं तो सब बातें खुलासा करने में हिचकिचाहट होती। अच्छा कमल तुम्हें मैं ‘आप’ कहती थी या ‘तुम’ कहकर पुकारती थी?
कमल ने कहा - ” ‘तुम’ कहकर। मगर मैं तो कोई ऐसे निर्वासन में नहीं गयी थी जो इस बीच में ही भूल जाती?”
”नहीं, सिर्फ़ ज़रा खटका हो गया था। और होने की बात भी है। खैर, इसे जाने दो। सात-आठ दिन से तुम्हें हम लोग ढूँढ़ रहे थे। हमारा यह सिर्फ़ खोजना ही नहीं था, बल्कि मेरी तो यह तुम्हें पाने के लिए मन ही मन की तपस्या थी।”
परन्तु तपस्या का शुष्क गाम्भीर्य उसके चेहरे पर न था, इसलिए अकृत्रिम स्नेह के मीठे परिहास की कल्पना करके कमल हँसती हुई बोली - ”इस सौभाग्य का कारण? मैं तो सबकी परित्यक्ता हूँ दीदी, शिष्ट समाज का तो कोई मुझे चाहता तक नहीं।”
उसका यह ‘दीदी’ का सम्बोधन बिल्कुल नया था। नीलिमा की आँखें सहसा भर आयीं, पर वह चुप रही।
आशु बाबू से न रहा गया, उसकी तरफ़ मुँह करके बोले - शिष्ट समाज को ज़रूरत होगी तो इस अनुयोग का जवाब वही देगा, लेकिन मैं जानता हूँ, जीवन में किसी ने अगर वास्तव में तुम्हें चाहा है तो नीलिमा ने ही चाहा है। इतना प्रेम तुमने शायद किसी का भी न पाया होगा कमल।
कमल ने कहा - सो मैं जानती हूँ।
नीलिमा चंचल पैरों से उठ खड़ी हुई। कहीं जाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि इस ढंग की चर्चा में व्यक्तिगत इशारे से वह हमेशा कुछ अस्थिर सी हो जाया करती है, बहुत से मौकों पर प्रिय जनों को इससे गलतफहमी हुई है, फिर भी ऐसा ही उसका स्वभाव है। बात को झटपट दबाकर उसने कहा - ”कमल, तुम्हें आज दो खबरें सुनाती हैं।
कमल उसके मन का भाव समझ गयी, हँस कर बोली - ”अच्छी बात है, सुनाइए।”
नीलिमा ने आशु बाबू की तरफ़ इशारा करके कहा - ”ये शरम के मारे तुम से मुँह छिपाये हुए हैं, इससे मैंने ही भार लिया है सुनाने का। मनोरमा के साथ शिवनाथ का ब्याह होना तय हो गया है, पिता और भावी श्वसुर की अनुमति और आशीर्वाद पाने के लिए दोनों ने पत्र दिये हैं।”
सुनते ही कमल का चेहरा फक पड़ गया; पर उसी क्षण अपने को संभालते हुए उसने कहा - ”इसमें इनके लिए लज्जा की क्या बात है?”
नीलिमा ने कहा - इनकी लड़की है इसलिए। और चिट्ठी पाने के बाद से इन कई दिनों में इनके मुँह से सिर्फ़ एक ही बात बार-बार निकली है कि आगरे में इतने आदमी मर गये, भगवान ने मुझ पर दया क्यों नहीं की? अपनी जान में किसी दिन कोई अनुचित काम नहीं किया, इसी से इनका अनन्य विश्वास था कि ईश्वर मुझ पर भी सदय है। और यह अभिमान की व्यथा ही मानो इनकी सारी वेदनाओं से बढ़ गयी है। मेरे सिवा किसी से कुछ कह नहीं सके हैं, रात-दिन मन ही मन सिर्फ़ तुम्हीं को पुकार रहे हैं। शायद, इनकी धारणा है कि सिर्फ़ तुम ही इसके परित्राण का रास्ता बता सकती हो।
कमल ने झुककर देखा हक आशु बाबू की मिची आँखों के कोनों से आँसू ढलक रहे हैं, हाथ से उन आँसुओं को चुपचाप पोंछकर वह खुद भी स्तब्ध हो गयी। बहुत देर बाद बोली - ”एक खबर तो यह हुई और दूसरी?”
नीलिमा ने कुछ परिहास के ढंग से बात कहनी चाही, पर ठीक से कहते नहीं बना, बोली - ”मामला ज़रा अचिन्तनीय ज़रूर है, पर ऐसा कुछ भयंकर नहीं। हमारे मुखर्जी महाशय के स्वास्थ्य के विषय में सब कोई बहुत चिन्तित थे, सो वे स्वस्थ हो गये हैं और उसके बाद उनके भाई और भाभी ने मिलकर उनकी इच्छा के सर्वथा विरुद्ध जबरन उनका ब्याह कर दिया है। और बड़ी शर्म के साथ उन्होंने यह समाचार आशु बाबू को अपने पत्र में लिखा है, बस।” इतना कहकर अबकी बार वह खुद ही हँसने लगी।
उसकी इस हँसी में न तो सुख ही था और न कौतुक ही। कमल उसके मुँह की तरफ़ देखकर बोली, ”दोनों ही ब्याह की खबरें हैं। एक हो गया है, और एक का होना तय हो गया है - लेकिन मेरी पुकार क्यों हुई? इनमें से किसी को भी तो मैं रोक नहीं सकती?”
नीलिमा ने कहा - ”पर, रुकवाने की कल्पना करके ही शायद ये तुम्हें ढूँढ़ रहे थे। लेकिन मेंने तुम्हें नहीं ढूँढ़ा बहन, मैं तो काय-मन से भगवान से यही चाह रही थी कि भेंट होने पर तुम्हारी प्रसन्न दृष्टि प्राप्त कर सकूँ। इस देश में स्त्री के रूप में जन्म लेकर भाग्य को दोष देने चलूँ तो उसका किनारा न खोज पाऊँगी, अपनी बुद्धि के दोष से मायका और ससुराल दोनों ही खो दिये हैं - उस पर ऊपरी नुकसान जो हुआ है उसका विवरण नहीं दे सकूँगी। - अब बहनोई का आश्रय भी जाता रहा।”
फिर आशु बाबू की तरफ़ इशारा करके कहा - ”इनके तो दया-दाक्षिण्य की हद ही नहीं, जितने दिन ये यहाँ हैं, किसी तरह दिन कट ही जायेंगे। मगर उसके बाद मुझे अन्धकार के सिवा अपनी आँखों के आगे और कुछ नहीं सूझ रहा है। सोचा है, अबकी बार तुम्हीं से जगह देने को कहूँगी, और न मिली तो मर जाऊँगी। अब पुरुषों से कृपाभिक्षा माँगती हुई नदी के कूड़े की तरह घाट-घाट टकराती हुई आयु के अन्त तक प्रतीक्षा न कर सकूँगी।” कहते-कहते उसका स्वर भारी हो आया, पर आँखों का पानी उसने किसी तरह जबर्दस्ती दबा लिया।
कमल उसके मुँह की तरफ़ देखकर सिर्फ़ ज़रा हँस दी।
”हँसी क्यों?”
”इसलिए कि हँसना जवाब देने की अपेक्षा सहज है।”
नीलिमा ने कहा - ”सो जानती हूँ, पर आजकल बीच-बीच में जाने कहाँ अदृश्य हो जाया करती हो? डर तो इस बात का है।”
कमल ने कहा - ”होती रहूँ अदृश्य, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर मुझे ढूँढ़ने नहीं जाना पड़ेगा दीदी, मैं ही आपको देश भर में ढूँढ़ने निकल पड़ूंगी। इस विषय में आप निश्चिन्त रहें।”
आशु बाबू ने कहा - ”अब इसी तरह मुझे भी अभय दो कमल, मैं भी जिससे इसकी तरह निश्चिन्त हो सकूँ।”
”आदेश दीजिए, मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ?”
”तुम्हें और कुछ नहीं करना होगा कमल, जो करना होगा मैं खुद ही करूँगा। मुझे सिर्फ़ इतना ढाढ़स दो कि पिता के कर्तव्य के खिलाफ मैं कोई अपराध न कर बैठूँ। इतना ही नहीं कि इस ब्याह में सिर्फ़ राय ही नहीं दे सकता, बल्कि मैं उसे होने भी नहीं दे सकता।”
कमल ने कहा - राय आपकी है, सो आप नहीं भी दें। पर ब्याह नहीं होने देंगे, सो कैसे? लड़की तो आपकी बड़ी हो चुकी है।
आशु बाबू अपनी उत्तेजना को दबा न सके, कारण, यह बात उनके मन में भी दिन-रात चक्कर काटती रही है कि अस्वीकार करने का कोई उपाय नहीं। बोले - सो मैं जानता हूँ। लेकिन लड़की को भी मालूम होना चाहिए कि बाप से बड़ा नहीं हुआ जा सकता। सिर्फ़ मतामत ही मेरी अपनी चीज नहीं कमल, सम्पत्ति भी मेरी अपनी है। आशु वैद्य की कमज़ोरी के परिचय का ही लोगों को अभ्यास हो गया है, पर उसका एक दूसरा पहलू भी है, उसे लोग भूल गये हैं।
कमल ने उनके मुँह की तरफ़ देखकर स्निग्ध कण्ठ से कहा - आपके उस पहलू को लोग भूले ही रहें तो अच्छा, आशु बाबू। लेकिन, अगर ऐसा न हो, तो क्या उसका परिचय सबसे पहले अपनी लड़की को ही देना होगा?
”हाँ, अबाध्य लड़की को।” वे क्षण भर चुप रहकर बोले - वह मेरी मातृहीन एकमात्र सन्तान है। किस तरह मैंने उसे आदमी बनाया है, इसे वे ही जानते हैं जिन्होंने पितृ हृदय की सृष्टि की है। इसकी मार्मिक व्यथा कितनी बड़ी है, उसे अगर मुँह से व्यक्त किया जाये तो उसकी विकृति सिर्फ़ मेरा ही नहीं, बल्कि सबके पिता के जो पिता हैं उन तक का उपहास करने लगेगी। इसके सिवा इसे तुम समझ भी कैसे सकती हो। लेकिन पिता के स्नेह ही नहीं है, कमल, उसका कर्तव्य भी तो है? शिवनाथ को मैं पहचान गया हूँ। उसके सत्यानाशी ग्रास से लड़की को बचाने का इसके सिवा और कोई रास्ता ही मुझे नजर नहीं आता। कल उन लोगों को चिट्ठी में लिख दूँगा कि इसके बाद मणि मुझसे एक कौड़ी की भी आशा न रखे।
”पर उस चिट्ठी पर अगर वे विश्वास न करें? अगर सोच लें कि यह गुस्सा ज़्यादा दिन न रहेगा, एक दिन आप अपनी गलती को खुद ही सुधार लेंगे - तब?”
”तब वे उसका फल भोगेंगे। लिखने की ज़िम्मेदारी मेरी है, विश्वास करने का दायित्व उन पर है।”
”यही क्या आपने वास्तव में तय किया है?”
”हाँ।”
कमल चुप बैठी रही और प्रतीक्षा में सिर ऊपर उठाये आशु बाबू खुद भी कुछ देर तक चुप मन ही मन व्याकुल हो उठे। बोले - ”चुप हो कमल, जवाब नहीं दिया?”
”कहाँ, आपने तो कोई प्रश्न नहीं किया? संसार में यह व्यवस्था तो प्राचीन काल से ही चली आ रही है कि एक के साथ जब दूसरे के मत का मेल नहीं खाता, तो जो शक्तिशाली होता है, वह कमज़ोर को दण्ड देता है। इसमें कहने की क्या बात है?”
आशु बाबू के क्षोभ की सीमा न रही। बोले, ”यह तुम्हारी कैसी बात है कमल? सन्तान के साथ पिता का शक्ति-परीक्षा का सम्बन्ध तो है नहीं, जो उसके कमज़ोर होने के कारण ही मैं उसे दण्ड देना चाहता हूँ? कठोर होना कितना कठिन है, सो सिर्फ़ पिता ही जानता है, फिर भी मैंने जो इतना बड़ा कठोर संकल्प किया है वह सिर्फ़ इसलिए कि उसे गलती से बचा लूँ। सचमुच ही क्या तुम इसे समझ नहीं सकी हो?”
कमल ने सिर हिलाते हुए कहा - समझ तो सकी हूँ, पर अगर आपकी बात न मानकर वह भूल ही कर बैठे, तो उसका दुख भी तो वही पायेगी। अगर उस दुख को दूर न कर सकें तो इसलिए क्या आप गुस्से में आकर उसके दुख के बोझ को और भी हजार-गुना बढ़ा देना चाहेंगे?
फिर ज़रा ठहरकर कहा - आप उसके सब आत्मीयों से बढ़कर परमात्मीय हैं। जिस आदमी को आपने बहुत ही बुरा समझ लिया है, क्या उसी के हाथ अपनी लड़की को हमेशा के लिए निःस्व निरुपाय करके विसर्जित कर देंगे? - किसी दिन लौटने का कोई रास्ता ही किसी तरफ़ से खुला न रहने देंगे?
आशु बाबू विह्नल दृष्टि से देखते रह गये, एक शब्द भी उनके मुँह से न निकला - सिर्फ़ देखते-देखते उनकी दोनों आँखों से आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें ढुलक पड़ीं।
कुछ देर इसी तरह बीत जाने पर उन्होंने अपनी आस्तीन से आँखें पोंछी और रुके हुए कण्ठ को साफ़ करके धीरे-धीरे सिर हिलाकर कहा, ”लौटने का रास्ता अभी ही है, बाद में नहीं। पति को त्यागकर जो लौटना है, जगदीश्वर करें कि वह मुझे अपनी आँखों से न देखना पड़े।”
कमल ने कहा - यह अनुचित है बल्कि, मैं तो यह कामना करती हूँ कि भूल अगर उसे कभी अपनी आँखों से दिखाई दे जाये, तो उस दिन उसके संशोधन का मार्ग किसी भी तरफ़ से बन्द न रहे। इसी तरह तो मनुष्य अपने को सुधारते आज मनुष्य हो सका है। भूल से तो कोई डर नहीं आशु बाबू, जब तक कि दूसरी तरफ़ का मार्ग खुला है। वह मार्ग आँखों के सामने बन्द दिखाई देता है तभी तो आज आपकी आशंका की सीमा नहीं है।
मनोरमा उनकी कन्या न होकर अगर और कोई होती तो यह सीधी-सी बात सहज ही में उनकी समझ में आ जाती; परन्तु एकमात्र सन्तान के भयंकर भविष्य की निसन्दिग्ध दुर्गति की कल्पना ने कमल के सम्पूर्ण आवेदन को विफल कर दिया।
उन्होंने अनुनय के स्वर में कहा - नहीं कमल, इस ब्याह को रोकने के सिवा और कोई रास्ता मुझे सुझायी नहीं देता। इसका कोई भी उपाय क्या तुम नहीं बता सकती?
”मैं?” उनका इशारा इतनी देर बाद कमल की समझ में आया, और उसी को स्पष्ट करने में उसका स्निग्ध कण्ठ क्षण भर के लिए गम्भीर हो उठा, पर वह सिर्फ़ एक ही क्षण के लिए। नीलिमा की तरफ़ नजर जाते ही उसने अपने को सँभालते हुए कहा - नहीं, इस विषय में कोई भी सहायता मैं आपकी न कर सकूँगी। नहीं जानती कि उत्तराधिकार से वंचित करने का डर दिखाने से वह डरेगी या नहीं। पर अगर डर जाये तो मैं कहूँगी कि आपने खिला-पिलाकर और स्कूल-कालेज की किताबें रटाकर लड़की को बड़ा भले ही किया हो पर उसे मनुष्य नहीं बनाया। उस अभाव को दूर करने का सुयोग दैव ने आज ला ही दिया हो, तो मैं उसके बीच में अन्तराय बनने क्यों जाऊँ?
आशु बाबू को बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा - तो क्या तुम यह कहना चाहती हो कि रोकना मेरा कर्तव्य नहीं?
कमल ने कहा - कम से कम डर दिखाकर रोकना तो नहीं। फिर भी मैं इतना कह सकती हूँ कि अगर मैं आपकी लड़की होती और शायद बाधा पाती, तो इस जीवन में फिर कभी आप पर श्रद्धा न कर सकती। मेरे पिता मुझे इसी तरह से गढ़ गये हैं।
आशु बाबू ने कहा - इसमें कोई असम्भव बात नहीं कमल, तुम्हारे कल्याण का मार्ग उन्होंने उधर ही देखा होगा। पर मुझे नहीं दीखता। फिर भी, मैं पिता हूँ कमल, मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि शिवनाथ से वह यथार्थ प्रेम नहीं कर सकती, यह उसका मोह है। यह मिथ्या है और जिस दिन इस क्षणस्थायी नशे की खुमारी दूर होगी, उस दिन मणि के दुख का अन्त नहीं रहेगा। मगर तब उसे बचाओगी कैसे?
कमल ने कहा - नशे में ही चिन्ता की बात है, पर जब नशा दूर हो जायेगा और वह स्वस्थ हो जायेगी तब तो फिर डर की कोई बात रह नहीं जायेगी। तब तो वह स्वस्थता ही उनकी रक्षा करेगी।
आशु बाबू ने अस्वीकार करते हुए कहा - यह सब बातचीत का दाँव-पेच है कमल, युक्ति नहीं। सत्य इससे बहुत दूर है। भूल का दण्ड उसे बड़े रूप में पाना ही होगा, वकालत के ज़ोर से उससे उसे छुटकारा नहीं मिल सकता।
कमल ने कहा - छुटकारे की बात मैंने नहीं कही आशु बाबू! मैं जानती हूँ कि भूल का दण्ड पाना ही पड़ता है। पर उस दण्ड पाने में दुख है, लज्जा नहीं, क्योंकि मणि ने किसी को ठगना नहीं चाहा। यही भरोसा आपको मैंने दिलाना चाहा था कि भूल मालूम होने पर वह अगर जहाँ की तहाँ लौट आना चाहे तो उसे सिर नीचा करके न आना पड़े।
”फिर भी तो भरोसा नहीं हो रहा है कमल। मैं जानता हूँ, उसे भूल मालूम पड़े बिना न रहेगी, लेकिन उसके बाद भी तो उसे लम्बे समय तक ज़िन्दा रहना है, तब जियेगी क्या लेकर? किस आधार पर दिन काटेगी?”
”ऐसी बात न कहिए। मनुष्य का दुख ही यदि दुख पाने का अन्तिम परिणाम होता तो उसका कोई मूल्य नहीं था। एक तरफ़ का नुकसान दूसरी तरफ़ के भारी लाभ से पूरा हो जाता है, नहीं तो, मैं ही भला आज कैसे जी सकती? बल्कि आप तो यह आशीर्वाद दीजिए कि किसी दिन भूल अगर मालूम पड़े तो वह अपने को मुक्त कर सके, तब उसे कोई लोभ, कोई भय राहुग्रस्त न कर रखे।”
आशु बाबू चुप हो गये। जवाब देने में उन्हें हिचकिचाहट सी हुई, पर स्वीकार करने में उससे भी ज़्यादा हिचकिचाये। बहुत देर बाद बोले - पिता की दृष्टि से मैं मणि का भविष्य-जीवन अन्धकारमय देख रहा हूँ। इस पर भी तुम क्या यही कहोगी कि वास्तव में मुझे रुकावट न डालना चाहिए, और चुपचाप मान लेना ही मेरा कर्तव्य है?
”मैं माँ होती तो अवश्य मान लेती। उसके भविष्य की आशंका से शायद आप जैसी ही व्यथा पाती, फिर भी इस तरीके से रुकावट डालने को तैयार न होती। और यह भी मुझे स्वीकार करना होगा कि मैं तब मन ही मन कहती कि इस जीवन में जिस रहस्य के सामने आकर आज वह खड़ी हुई है, वह मेरी समस्त दुश्चिन्ताओं से बढ़कर है।”
आशु बाबू फिर कुछ देर मौन रहे, और बोले - फिर भी मैं न समझ सका कमल। शिवनाथ का चरित्र और उसकी सभी दुष्कृतियों का हाल मणि जानती है - एक दिन इस घर में आने देने में भी उसे आपत्ति थी, मगर आज जिस सम्मोहन से उसका हिताहित ज्ञान - उसकी सारी की सारी नैतिक बुद्धि ढक गयी है, वह यथार्थ पे्रम नहीं है, वह जादू है, वह मोह है - यह असत्य, चाहे जैसे भी हो, दूर करना ही पिता का कर्तव्य है।
अबकी बार कमल एकदम स्तब्ध हो गयी। इतनी देर में जाकर दोनों की विचार-धारा के मौलिक भेद पर उसकी दृष्टि पड़ी। इन दोनों विचार-धाराओं की जाति ही अलग-अलग है, और चूँकि यह भेद तक की चीज़ नहीं है, इस कारण अब तर्क की इतनी आलोचना और बातचीत बिल्कुल विफल सिद्ध हुई। कमल इस बात को समझ गयी कि जिस तरफ़ उनकी दृष्टि लगी हुई है, उधर हजारों वर्ष देखने रहने पर भी इस सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता, और समझ गयी कि इसमें वही बुद्धि की जाँच, वही हिताहित बोध, वही भले-बुरे और सुख-दुख का अतिसतर्क हिसाब, वही मजबूत नींव डालने के लिए इंजीनियर बुलाना है - इसके सिवा और कुछ नहीं। गणित फैलाकर ये लोग प्रेम का फल या नतीजा निकालना चाहते हैं। अपने जीवन में आशु बाबू ने अपनी पत्नी को अत्यन्त एकान्त भाव से प्रेम किया था। उनकी स्त्री को मरे जमाना बीत गया, फिर भी आज तक शायद उस प्रेम की जड़ उनके हृदय में शिथिल नहीं हुई। संसार में इसकी तुलना बहुत कम मिलती है। फिर भी यह सब कुछ सत्य होते हुए भी, यह मानना पड़ता है कि ये हैं दोनों भिन्न जातीय। इन दोनों धाराओं की भलाई-बुराई का प्रश्न उठाकर बहस करना निष्फल है। अपने दाम्पत्य जीवन में एक दिन के लिए भी पत्नी के साथ आशु बाबू का मतभेद नहीं हुआ - हृदय में मालिन्य तक ने स्पर्श नहीं किया। निर्विघ्न शान्ति और अविच्छिन्न सुख-चैन के साथ जिनका दीर्घ विवाहित जीवन बीता है उनके गौरव और माहात्म्य पर भला कौन गर्व कर सकता है? संसार ने मुग्धचित्त से उनका स्तवगान किया है, उनकी दुर्लभ कहानियाँ लिखकर कवि अमर हो गये हैं और अपने जीवन में इसी को प्राप्त करने की व्याकुलतापूर्ण वासना से मनुष्य के लोभ की सीमा नहीं रही है। जिसकी निःसन्दिग्ध महिमा स्वतःसिद्ध प्रतिष्ठा से चिरकाल से अविचलित है, उसे कमल तुच्छ करेगी किस बिरते पर? किन्तु मनोरमा? जिस दुःशील अभागे के हाथ अपने को वह विसर्जन करने को तैयार है, उसका सब कुछ जानते हुए भी सम्पूर्ण जानने के बाहर कदम बढ़ाते हुए उसे डर नहीं मालूम होता। दुखमय परिणाम की चिन्ता से पिता शंकित हैं, इष्टमित्र दुखित हैं - सिर्फ़ वह अकेली निःशंक है।
आशु बाबू जानते हैं कि इस विवाह में सम्मान नहीं है, यह शुभ भी नहीं है - वंचना पर इसकी नींव है। यह स्वल्पकाल व्यापी मोह जिस दिन दूर हो जायेगा, उस दिन आजीवन लज्जा और दुख रखने को जगह न रहेगी। हो सकता है कि आशु बाबू की यह चिन्ता सत्य हो, किन्तु यह बात आशु बाबू को वह कैसे समझावे कि सब कुछ खोने के बाद भी इस प्रवंचित लड़की के पास जो वस्तु बाकी बचेगी, वह पिता के शान्ति सुखमय दीर्घ-स्थायी दाम्पत्य जीवन की अपेक्षा बड़ी है। परिणाम ही जिसकी दृष्टि में मूल्य-निर्णय का एकमात्र मानदण्ड है, उसके साथ तर्क कैसे चल सकता है? कमल के मन में एक बार आया कि कहे, आशु बाबू मोह भी मिथ्या नहीं है। हो सकता है कि कन्या के चित्ताकाश में क्षण भर के लिए भी चमक जाने वाली बिजली की रेखा-दीप्ति आपके हृदय में प्रतिष्ठित अनिर्वापित दीपशिखा को भी लाँघ जाये। पर उससे यह कहते नहीं बना और वह चुप बैठी रही।
पिता के कर्तव्य के सम्बन्ध में अपना अत्यन्त स्पष्ट अभिमत प्रकट करके आशु बाबू उत्तर की प्रतीक्षा में अधीर हो रहे थे, परन्तु कमल को वैसे ही निरुत्तर और सिर झुकाये बैठे देख उनकी समझ में आ गया कि वह वाद-विवाद नहीं करना चाहती। इसलिए नहीं कि उसके पास शब्द नहीं, बल्कि इसलिए कि अब इसकी ज़रूरत नहीं। पर इस तरह एक के चुप हो जाने से तो दूसरे के मन में शान्ति नहीं आती। वास्तव में इस प्रौढ़ आदमी के गहरे अन्तःकरण में सत्य के प्रति एक वास्तविक निष्ठा है। एकमात्र सन्तान के भावी बुरे दिनों की आशंका से लज्जित और उद्भ्रान्त चित्त वे मुँह से चाहे कुछ भी क्यों कहें, पर वास्तव में बल प्रयोग को वे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। कमल को उन्होंने जितना देखा है, उतना ही उनका आश्चर्य और श्रद्धा बढ़ती गई है। लोकदृष्टि में वह हेय है, निन्दित है, शिष्ट-समाज द्वारा परित्यक्ता है, सभाओं में शरीक होने का उसे निमन्त्रण नहीं मिलता; फिर भी इस लड़की की नीरव अवज्ञा का उन्हें सबसे ज़्यादा डर है, उसी के सामने उनका संकोच नहीं मिटता।
आशु बाबू ने कहा - कमल, तुम्हारे पिता यूरोपियन थे, फिर भी तुम कभी उस देश में नहीं गयी हो। मगर मैंने उन लोगों में बहुत दिन बिताये हैं, उनका बहुत कुछ देखा है। बहुत-से प्रेम के विवाहोत्सवों में भी जब कभी निमन्त्रण मिला है, आनन्द के साथ शामिल हुआ हूँ, और जब वह सम्बन्ध अनादर और अनाचार से टूटा है तब भी मैंने आँसू पोंछे हैं। वहाँ जातीं तो तुम भी ऐसा ही देखेतीं।
कमल ने उनकी तरफ़ मुँह उठाकर कहा - बग़ैर गये भी देखा करती हूँ आशु बाबू! सम्बन्ध-विच्छेद की नज़ीरें उस देश में प्रतिदिन पुंजीभूत हुआ करती हैं - और होने की बात भी है, मगर जैसे यह सच है, वैसे ही उन नजीरों के द्वारा वहाँ के समाज के स्वरूप को समझने की कोशिश भी भूल है। विचार की यह पद्धति ही नहीं आशु बाबू।
आशु बाबू अपनी ग़लती को समझकर ज़रा अप्रतिभ हुए। इस तरह इसके साथ तर्क नहीं चल सकता। बोले - उसे जाने दो, पर हमारे अपने देश की तरफ़ भी ज़रा ग़ौर से आँख पसारकर एक बार देखो। जो प्रथा चिरकाल से चली आ रही है, उसके सृष्टिकर्ताओं की दूरदर्शिता को भी ज़रा देखो। यहाँ वर कन्या पर दायित्व नहीं होता, दायित्व होता है माँ-बाप और गुरुजनों पर। इसी कारण विचार-बुद्धि यहाँ आकुल-असंयम से भ्रष्ट नहीं हो जाती, बड़े-बूढ़ों की एक शान्त और अविचलित मंगल-भावना जीवन भर सदा उनके साथ बनी रहती है। कमल ने कहा - मगर मणि तो मंगल का हिसाब लगाने नहीं बैठी आशु बाबू, उसने चाहा है, प्रेम; एक का हिसाब बुजुर्गों की सुयुक्तियों से मिल जाता है, पर दूसरे का हिसाब हृदय के देवता के सिवा और कोई नहीं जानता। लेकिन मैं बहस करके व्यर्थ में आपको परेशान कर रही हूँ। - जिसके घर में पश्चिम की खिड़की के सिवा और सब खिड़कियाँ बन्द हैं, वह प्रभात में सूर्य का आविर्भाव नहीं देख पाता, देख पाता है सिर्फ़ सन्ध्या का अवसान। परन्तु सन्ध्या के उस चेहरे और रंग का सादृश्य मिलाकर अगर वह प्रभात पर तर्क करता रहे तो सिर्फ़ बात ही बढ़ेगी, मीमांसा नहीं हो सकती। मुझे रात हुई जा रही है, अब जाती हूँ।
नीलिमा अब तक चुप थी। इतनी बातें हुईं पर किसी भी बात में उसने योग नहीं दिया। अब बोली - मैं भी तुम्हारी सब बातें साफ़-साफ़ नहीं समझ पायी कमल, पर इतना महसूस कर रही हूँ कि घर की और खिड़कियाँ भी खोल देना चाहिए। पर यह तो आँखों का दोष नहीं - दोष है बन्द खिड़कियों का। नहीं तो, जिधर खुला है उधर मृत्युकाल पर्यन्त खड़े-खड़े देखते रहने पर भी जो दिखाई दे रहा है, उसको छोड़कर कभी कोई चीज दिखाई नहीं देगी।
कमल उठके खड़ी हो गयी तो आशु बाबू व्याकुल कण्ठ से कह उठे - ”जाओ मत कमल, ज़रा और बैठो। मुँह में अन्न नहीं जाता। आँखों में नींद नहीं - लगातार छाती के भीतर ऐसा कुछ हो रहा है कि तुम्हें मैं समझा नहीं सकता। तो भी, और एक बार कोशिश कर देखूँ, तुम्हारी बातें अगर सचमुच ही समझ सकूँ। तुम क्या यथार्थ ही कह रही हो कि मैं चुप रहूँ, और यह भद्दी घटना हो जाने दी जाये?”
कमल ने कहा - मनोरमा यदि वास्तव में उनसे प्रेम करती हैं तो मैं उसे भद्दा नहीं कह सकती।
”मगर यही तो मैं तुम्हें सौ-सौ बार समझाना चाहता हूँ कमल, कि यह मोह है, यह प्रेम नहीं - यह गलती उसकी दूर होगी ही नहीं।”
कमल ने कहा - सिर्फ़ गलती ही - सिर्फ़ मोह ही दूर होता है सो नहीं आशु बाबू, सचमुच प्रेम भी संसार में नष्ट हो जाया करता है। इसी से अधिकांश प्रेम के विवाह क्षणस्थायी हो जाते हैं। इसीलिए उस देश की इतनी बदनामी है और इतने विवाह-विच्छेद के मामले वहाँ चला करते हैं।
सुनकर आशु बाबू को सहसा मानो एक प्रकाश दिखाई दिया। उच्छवसित आग्रह के साथ वे कह उठे - यही कहो, यही कहो। यह तो मैं अपनी आँखों से देख आया हूँ।
नीलिमा अवाक होकर उनकी तरफ़ देखती रही।
आशु बाबू ने कहा - मगर हमारे देश की विवाह-प्रथा? उसे तुम क्या कहोगी? यह तो सारी जिन्दगी नहीं टूटता?
कमल ने कहा - टूटने की वजह भी नहीं आशु बाबू। वह तो अनभिज्ञ यौवन का पागलपन नहीं, बहुदर्शी बड़े-बूढ़ों का हिसाब से किया गया कारोबार है। स्वप्न का मूलधन नहीं - आँखों देखी पक्के आदमी की जाँच-पड़ताल की हुई खालिस चीज है। गणित करने में कोई सांघातिक गलती जब तक न हो गयी हो तब तक उसमें दरार नहीं पड़ती। क्या इस देश में और क्या उस देश में, सभी जगह वह बड़ी मजबूत चीज होती है - जिन्दगी भर वज्र की तरह टिकी रहती है।
आशु बाबू एक उसाँस लेकर स्थिर हो रहे। कोई उत्तर उनकी जबान पर न आया।
नीलिमा चुपचाप देख रही थी, अब उसने धीरे से पूछा - कमल तुम्हारी बात ही अगर सच हो, सचमुच का प्रेम भी अगर भूल के प्रेम के समान ही टूट जाता हो तो मनुष्य खड़ा काहे पर होगा? उसके पास आशा करने के कलिए फिर बाकी क्या रह जायेगा?
कमल ने कहा - जिस स्वर्गवास की मियाद निपट चुकी है, रह जायेगी उसी की एकान्त मधुर स्मृति और रह जायेगा उसी की बगल में व्यथा का समुद्र। आशु बाबू के सुख और शान्ति की सीमा नहीं थी, लेकिन उससे अधिक उनकी और पूँजी नहीं है। भाग्य ने जिन्हें इतनी सी पूँजी देकर विदा कर दिया है, उनके लिए हम सिवा क्षमा करने के और कर ही क्या सकती हैं दीदी?
फिर ज़रा ठहरकर बोली - लोग बाहर से सहसा ऐसा समझ लेते हैं कि गया, अब सब गया और इष्ट-मित्रों के डर का ठिकाना नहीं रहता। फिर तो वे दोनों हाथों से उसका रास्ता रोकना चाहते हैं; और निश्चित समझ लेते हैं कि उनके हिसाब के बाहर सिवा शून्य के और कुछ है ही नहीं पर शून्य नहीं होता दीदी। सब चला जाने पर भी जो बच जाता है, वह मणि-माणिक्य की तरह मुट्ठी में ही आ जाता है। मगर हाँ, दर्शकों का दल जब देखता है कि चीजों की भरमार से रास्ता भर के जुलूस तो निकाला नहीं जा सकता तब वे उसे धिक्कारते हुए अपने-अपने घर लौट जाते हैं और कहते हैं, यही तो सर्वनाश है।
नीलिमा ने कहा - कहने का कारण है कमल, असल में मणि-माणिक्य सबके पास नहीं होता, और न वह सर्वसाधारण के लिए है। पाँव से लेकर चोटी तक सोने-चांदी के गहने मिले बिना जिनका मन ही नहीं भरता, वे तुम्हारे उस मुट्ठी भर मणि-माणिक्य की कदर नहीं समझेंगी। जिन्हें बहुत चाहिए वे गाँठ पर बहुत-सी गांठें लगाकर निश्चिन्त हो सकते हैं। उनके लिए बहुत-सा बोझ, बहुत-सा आयोजन बहुत-सी जगह घिरनी चाहिए तब कहीं वे चीज की कीमत का अन्दाज लगा सकते हैं। पश्चिम का दरवाजा खोलकर सूर्योदय दिखाने की कोशिश व्यर्थ होगी कमल, बन्द करो यह चर्चा।
आशु बाबू के मुँह से फिर एक दीर्घ निःश्वास निकल पड़ी। धीरे-धीरे बोले, ”व्यर्थ क्यों होगी नीलिमा, व्यर्थ नहीं होगी। अच्छी बात है - न हो तो मैं चुप ही रहूँगा।”
नीलिमा ने कहा - नहीं, सो आप मत कीजिएगा। सत्य क्या सिर्फ़ कमल के विचारों में ही है, और पिता की शुभ्र बुद्धि में नहीं है? ऐसा हो ही नहीं सकता। कमल के लिए जो सत्य है, मणि के लिए वह सत्य नहीं भी हो सकता है। स्त्री के दुश्चरित्र पति को त्याग देने में चाहे जितना भी सत्य हो, वह मैं ज़ोर के साथ कह सकती हूँ कि बेला के पति-परित्याग में रत्ती भर भी सत्य नहीं। सत्य न तो पति के त्याग में है, और पति की दासी-वृत्ति करने में, ये दोनों ही सिर्फ़ दायें-बायें के रास्ते हैं, गन्तव्य स्थान तो अपने आप ढूँढ़ लेना पड़ता है, तर्क करके उसका पता नहीं लगाया जा सकता।
कमल चुपचाप उसकी ओर देखती रही।
नीलिमा कहने लगी - सूर्य का उदय होना ही उसका सब कुछ नहीं है, उसका अस्त होना भी उतना ही महत्व रखता है। रूप और यौवन का आकर्षण ही अगर प्रेम का सर्वस्व होता तो लड़की के सम्बन्ध में बाप की दुश्चिन्ता की कोई ज़रूरत ही न थी, मगर ऐसा नहीं है। मैंने किताबें नहीं पढ़ीं, ज्ञान-बुद्धि भी कम है, तर्क से मैं तुम्हें समझा नहीं सकती, लेकिन मुझे मालूम होता है कि असल चीज का पता तुम्हें अभी तक मिला ही नहीं। श्रद्धा, भक्ति, स्नेह, विश्वास - इन्हें कड़ाई करके नहीं पाया जा सकता, बड़े दुख से और बहुत देर में ये दिखाई देते हैं। मगर जब दिखाई देते हैं कमल, तब रूप यौवन का प्रश्न जाने कहाँ मुँह छिपाकर दुबक जाता है, कुछ पता ही नहीं पड़ता।
तीक्ष्ण बुद्धि कमल एक क्षण में यह समझ गयी कि उपस्थित आलोचना में उसका यह कथन अग्राह्य है। यह न तो प्रतिवाद ही है और न समर्थन ही, ये सब नीलिमा की अपनी बातें हैं। उसने देखा कि उज्जवल दीपालोक में नीलिमा के बिखरे हुए घने काले बालों की श्यामल छाया ने उसके चेहरे पर एक अकल्पित सुन्दरता ला दी है और उसकी प्रशान्त आँखों की सजल दृष्टि सकरुण स्निग्धता से ऊपर तक लबालब भर उठी है। कमल ने मन ही मन कहा, यह पूछना व्यर्थ है कि यह नवीन सूर्योदय है या थके हुए सूर्य का अस्त-गमन, रक्तिभ आभा से आकाश की जो दिशा आज रंगीन हो उठी है - पूर्व-पश्चिम दिशा का निर्णय किये बिना ही उसके लिए मेरा श्रद्धा के साथ नमस्कार है।
दो-तीन मिनट बाद आशु बाबू सहसा चौंककर बोले - कमल, तुम्हारी बातें मैं फिर एक बार अच्छी तरह विचार कर देखूँगा, पर हमारी बातों की भी तुम इस तरह अवज्ञा मत करना। अनेकानेक मानवों ने इसे सत्य मानकर स्वीकार किया है, असत्य के द्वारा कभी इतने आदमियों को नहीं बहकाया जा सकता।
कमल ने अन्यमनस्क की भाँति ज़रा हँसकर सिर हिला दिया, लेकिन जवाब दिया उसने नीलिमा को। बोली - जिस चीज से एक बच्चे को बहकाया जा सकता है, उसी से लाखों बच्चों को भी बहकाया जा सकता है। संख्या का बढ़ जाना ही बुद्धि बढ़ने का प्रमाण नहीं, दीदी। एक दिन जिन लोगों ने कहा था, कि नर-नारी के प्रेम का इतिहास ही मानव-सभ्यता का सबसे सत्य इतिहास है, उन्हीं ने सबसे बढ़कर सत्य का पता पाया था, किन्तु जिन लोगों ने यह घोषणा कि पुत्र के लिए भार्या की आवश्यकता है, वे स्त्रियों का सिर्फ़ अपमान ही करके शान्त नहीं हुए, बल्कि अपने बड़े होने का रास्ता भी वे चिरकाल के लिए बन्द कर गये। और चूँकि उस असत्य पर ही उन्होंने सारी भीत उठायी थी, इसलिए आज तक भी उनकी सन्तान को दुख का कोई किनारा नहीं मिला।
”पर यह बात मुझे क्यों कह रही हो कमल?”
”क्योंकि, आज मुझे आपको ही जताने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। हमें चाटु-वाक्यों में नाना अलंकार पहनाकर जिन लोगों ने यह प्रचार किया था कि मातृत्व में नारी की चरम सार्थकता है, उन लोगों ने समस्त नारी-जाति को धोखा दिया था। जीवन में किसी भी अवस्था में क्यों न पड़ना पड़े, दीदी, पर इस मिथ्या नीति को हरगिज़ न मानना। यही मेरा अन्तिम अनुरोध है। पर अब नहीं, मैं जाती हूँ।” आशु बाबू ने थके हुए स्वर में कहा - अच्छा जाओ। नीचे तुम्हारे लिए गाड़ी खड़ी है, पहुँचा आयेगी।
कमल ने व्यथा के साथ कहा - आप मुझसे स्नेह करते हैं, पर हम दोनों में कहीं भी तो मेल नहीं। नीलिमा ने कहा - है क्यों नहीं कमल। पर वह मालिक की फरमाइश के अनुसार काँट-छाँट कर बनाया हुआ मेल नहीं, विधाता की सृष्टि का मेल। चेहरा अलग-अलग है, पर ख़ून एक ही है - आँखों की ओझल नसों में बहा करता है वह। इसी से तो बाहर का अनैक्य चाहे कितनी गड़बड़ी क्यों न पैदा करे, भीतर का प्रचण्ड आकर्षण हर्गिज नहीं छूटता।”
कमल ने पास आकर आशु बाबू के कन्धे पर हाथ रखकर धीरे-धीरे कहा - लड़की के बदले आप मेरे ऊपर गुस्सा नहीं हो सकेंगे, मैं कहे देता हूँ। आशु बाबू कुछ बोले नहीं, सिर्फ़ स्तब्ध होकर बैठे रहे।
कमल ने कहा - अंग्रेजी में एक शब्द है, ‘इमोंसिपेशन’। आप तो जानते हैं, प्राचीन काल में पिता की कठोर अधीनता से सन्तान का मुक्त किया जाना भी उसका एक बड़ा अर्थ था। उस जमाने के लड़के-लड़कियों ने मिलकर इस शब्द का आविष्कार नहीं किया था, आविष्कार किया था जो आप जैसे महान पिता थे उन्होंने - अपनी बन्धन की रस्सी ढीली करके जिन्होंने अपनी कन्याओं को मुक्ति दी थी उन्होंने। आज भी इमेन्सिपेशन के लिए चाहे कितनी ही स्त्रियाँ मिलकर झगड़ा क्यों न करती रहें, देने वाले असल मालिक पुरुष ही हैं, हम स्त्रियाँ नहीं। जगत-व्यवस्था के इस सत्य को मैं एक दिन के लिए भी नहीं भूलती। मेरे पिता अक्सर कहा करते थे कि संसार के क्रीत दासों को उनके मालिकों ने ही एक दिन स्वाधीनता दी थी, और उस दिन उनकी तरफ़ से लड़े भी थे, वे ही जो उनके मालिकों की जाति के थे - दासों ने युद्ध के बल पर या युक्तियों के बल पर स्वाधीनता नहीं पायी। ऐसा ही होता है। विश्व का नियम ही यह है, शक्तिमान ही शक्ति के बन्धन से दुर्बलों का परित्राण देते हैं। उसी तरह नारियों को भी पुरुष ही मुक्ति दे सकते हैं। दायित्व तो उन्हीं का है। मनोरमा को मुक्ति देने का भार आपके हाथ में है। मणि विद्रोह कर सकती है, पर पिता के अभिशाप में तो सन्तान की मुक्ति नहीं रहती, उसकी मुक्ति तो उनके आशीर्वाद में ही निहित है।
आशु बाबू भी कुछ न बोल सके। इस उच्छृंखल प्रकृति की लड़की ने संसार में असम्मान और अमर्यादा के बीच में ही जन्म-लाभ किया है, किन्तु जन्म की उस लज्जाजनक दुर्गति को हृदय से सम्पूर्ण विलुप्त करके अपने लोकान्तरित पिता के प्रति उसने जो भक्ति और स्नेह का भाव संचित कर रखा है उसकी सीमा नहीं है! कमल के पिता को उन्होंने देखा नहीं, और अपने संस्कार और प्रकृति के अनुसार उस आदमी पर श्रद्धा करना भी कठिन है, फिर भी उस व्यक्ति के लिए उनकी आँखों में पानी भर आया। अपनी लड़की का विच्छेद और विरुद्धाचरण उनके हृदय में शूल की तरह चुभा हुआ है, मगर फिर भी, इस पराई लड़की के मुँह की तरफ़ देखकर मानो इस बात का आभास-सा मिला कि सब बन्धन तोड़कर भी आदमी को कैसे हमेशा के लिए बाँध के रखा जा सकता है, और वे अपने कन्धे पर उसका हाथ खींचकर क्षण भर चुपचाप बैठे रहे।
कमल ने कहा - अब मैं जाऊँ?
आशु बाबू ने हाथ छोड़ दिया, कहा - जाओ।
इससे ज़्यादा उनके मुँह से और कुछ निकला ही नहीं।
25
जाड़ों का सूर्य अस्त हो गया है। सन्ध्या की छाया ने घर के भीतर का हिस्सा धुँधला सा कर दिया है। सिलाई का एक ज़रूरी काम थोड़ा-सा बचा है, जिसे कमल दिया-बत्ती के पहले ही पूरा कर देना चाहती है। पास ही कुरसी पर अजित बैठा है। उसकी भावभंगिमा से मालूम होता है कि कोई बात कहते-कहते अचानक रुक गया है और व्याकुल आग्रह के साथ उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है।
मनोरमा और शिवनाथ का मामला सबको मालूम हो चुका है। आज का प्रसंग उसी विषय को लेकर शुरू हुआ है। अजित ने शुरू-शुरू में कहा था कि उसने आगरे में आते ही सन्देह किया था कि अन्त में जाकर ऐसी ही बात होगी।
पर सन्देह के कारण के सम्बन्ध में कमल ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। उसके बाद अजित अनर्गल बकते-बकते अन्त में ऐसी जगह आकर रुका जहाँ दूसरी तरफ से उत्तर पाये बिना नहीं बढ़ा जा सकता।
कमल अत्यन्त तल्लीनता के साथ सिलाई करने में ही लगी रही, मानो उसे सिर उठाने की भी फुरसत नहीं।
दो-तीन मिनट सन्नाटे में बीते। आगे न जाने और कितनी देर लगे, इसलिए अजित को फिर कोशिश करनी पड़ी, बोला - आश्चर्य तो यह है कि शिवनाथ का आचरण तुम्हारी निगाह की पकड़ में नहीं आया।
कमल ने मुँह नहीं उठाया, किन्तु सिर हिलाकर कहा - नहीं।
”तुम ऐसी भोली-भाली हो कि तुम्हें कुछ सन्देह नहीं हुआ, इस पर क्या कोई विश्वास कर सकता है?”
”और कोई कर सकता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। पर क्या आप भी नहीं कर सकते?”
अजित ने कहा - शायद कर सकता हूँ, लेकिन तुम्हारे मुँह की ओर देखकर - ऐसे ही नहीं।
अब कमल ने मुँह ऊपर किया और हँसकर कहा - तो देखिये, और कहिये, कर सकते हैं या नहीं?
अजित की आँखें चमक उठीं। बोला - तुम्हारी बात सच है। उस पर अविश्वास नहीं किया; उसी का यह नतीज़ा हुआ।
”हुआ है सो मैं मानती हूँ, पर यह भी तो खुलासा कर बताइए के आपने अपने सन्देह का अच्छा नतीजा किस परिणाम में पाया?” कहकर वह फिर ज़रा हँसी और काम में लग गयी।
इसके बाद अजित सम्बद्ध और असम्बद्ध बहुत-सी बातें दस-पन्द्रह मिनट तक लगातार कहता रहा। अन्त में थककर बोला - कभी हाँ, कभी ना, पहेली बुझाने के सिवा क्या तुम सीधी बात करना जानती ही नहीं?
कमल ने सिलाई का काम सीधा करते हुए कहा - स्त्रियाँ पहेली बुझाना ही पसन्द करती हैं, उनका यह स्वभाव है।
”तो उस स्वभाव की मैं तारीफ नहीं कर सकता। स्पष्ट करना भी ज़रा सीखो, उसके बिना संसार में काम नहीं चलता।”
”आप भी पहेली समझना ज़रा सीखिए, अन्यथा दूसरे पक्ष को भी ऐसी ही असुविधा होती है।” कमल ने हाथ की चीज तह करके टोकनी में रखते हुए कहा, ”स्पष्ट कहने का लोभ जिन्हें बहुत ज़्यादा होता है, वे अगर वक़्ता हुए तो अखबार में वक़्तृता छपाते हैं, लेखक हुए तो अपने ग्रन्थ की भूमिका लिखते हैं और अगर नाट्यकार हुए तो खुद ही अपने नाटक के नायक बनकर अभिनय करते हैं! सोचते हैं, शब्दों से जो व्यक्त नहीं हो सका उसे हाथ-पैर हिलाकर व्यक्त कर देना चाहिए - पर सिर्फ़ यही मैं नहीं जानती कि अगर वे प्रेम करते हैं तो क्या करते हैं? लेकिन ज़रा बैठिये आप, मैं बत्ती जला लाऊँ।” कहकर वह जल्दी से दूसरे कमरे में चली गयी।
पाँच-छह मिनट बाद वह लौट आयी और टेबल पर बत्ती रखकर जमीन पर बैठ गयी।
अजित ने कहा - वक़्ता, लेखक या नाटककार, इनमें से मैं कोई भी नहीं, लिहाजा, उनकी तरफ़ से मैं कैफियत नहीं दे सकता, लेकिन अगर वे प्रेम करते हैं तो क्या करते हैं, सो मैं जानता हूँ। वे शैव विवाह का कूट-कौशल नहीं रचते, बल्कि साफ़ और जानी हुई राह पर कदम रखकर चलते हैं। वे इस बात का ख़्याल रखते हैं कि उनके पीछे कहीं घर वालों को खाने-पहनने की तक़लीफ न उठानी पड़े, आश्रय के लिए किसी मालिक-मकान का मुँह न ताकना पड़े, असम्मान की चोट - कमल बीच ही में रोककर बोल उठी - ”बस, बस, हो गया।” और फिर हँसते हुए कहा - ”यानी वे शुरू से आखिर तक इमारत को ऐसे भयंकर रूप से ठोस और मजबूत बना देते हैं कि कब्र के मुरदे के सिवा उसमें जिन्दा आदमी के लिए दम लेने की भी सन्धि नहीं रहती। वे साधु पुरुष हैं - “
सहसा दरवाजे के बाहर से अनुरोध आया - हम लोग भीतर आ सकते हैं?
हरेन्द्र की आवाज़ थी। पर ‘हम लोग’ कौन?
”आइए, आइए।” कहती हुई कमल अभ्यर्थना के लिए दरवाजे के पास जा खड़ी हुई।
हरेन्द्र था और साथ में एक और युवक। हरेन्द्र ने कहा - सतीश को हमारे आश्रम में तुमने सिर्फ़ एक दिन देखा था, फिर भी आशा है कि भूली न होगी। कमल ने मुस्कराते हुए जवाब दिया - नहीं। फर्क सिर्फ़ इतना है कि उस दिन कपड़े सफेद थे, आज हैं पीले।
हरेन्द्र ने कहा - यह तो उच्चतर भूमि पर आरोहण की बाह्य घोषणा मात्र है और कुछ नहीं।
काशीधाम से सद्यः प्रत्यागत हुए हैं - दो घण्टे से ज़्यादा नहीं हुए। एक तो थके हुए हैं, और दूसरे तुम्हारे प्रति प्रसन्न नहीं, फिर भी मुझे यहाँ आते देख आवेग का संवरण न कर सके। यह हम ब्रह्मचारी लोगों के मत का औदार्य है और कुछ नहीं।” कहते हुए उसने भीतर की तरफ़ झाँका, और कहने लगा, ”अरे आप हैं। यहाँ तो और भी एक नैतिक ब्रह्मचारी पूर्वाद्द से ही समुपस्थित है। ख़ैर, अब कोई आशंका का कारण नहीं। मेरा आश्रम तो टूट रहा है, लेकिन दूसरा नया पैदा हुआ ही समझो।” यह कहकर वह भीतर घुसा, दूसरी कुरसी सतीश को दिखाता हुआ बोला - ”बैठो“ और आप खाट पर जा डटा। यह देखकर कि कमल खड़ी है और तीसरा आसन है नहीं, सतीश बैठने में दुविधा कर रहा था, हरेन्द्र इस बात को न समझा हो सो बात नहीं, फिर भी वह हँसकर बोला - ”बैठो जी, सतीश, जाति न जायेगी। काशी हो जाने के कारण तुम चाहे जितनी भी ऊंचे चढ़ गये हो, पर इस बात को न भूलो कि संसार में उससे भी ऊँची कोई जगह है।”
”नहीं, नहीं, इसलिए नहीं?” कहकर सतीश अप्रतिभ-सा होकर बैठ गया। उसका मुँह देखकर कमल हँसी। उसने कहा - किसी पर व्यंग्य करना आपके मुँह से शोभा नहीं देता हरेन्द्र बाबू। आश्रम के प्रतिष्ठाता भी आप हैं और महन्त-महाराज भी आप ही हैं। ये लोग उमर में भी छोटे हैं और पण्डागिरी में भी पीछे हैं। इनका काम तो सिर्फ़ आपके उपदेश और आदेश के अनुसार चलना है। इसीलिए-
हरेन्द्र ने कहा - आपका यह ‘इसलिए’ तो बिल्कुल ही अनावश्यक है। आश्रम का प्रतिष्ठाता शायद मैं ही हूँ, पर महन्त और महाराज हैं ये ही दोनों मित्र सतीश और राजेन्द्र। एक का काम है मुझे उपदेश देना और दूसरे का काम था यथासाध्य मेरी न मानकर चलना। एक का तो पता ही नहीं और दूसरे लौटे हैं बहुत ज़्यादा तत्व-संचय करके। मुझे डर है कि इनके साथ कदम से कदम मिलाकर शायद ही मैं चल सकूँगा। अब सिर्फ़ उन अर्ध उपासे लड़कों की चिन्ता है जिन्हें काशी-कांची-भ्रमण कराकर ये वापस ले आये हैं। मैंने उनकी तरफ़ देखते ही समझ लिया कि इस बीच में उनकी आचार-निष्ठा में रंचमात्र भी त्रुटि नहीं हुई। क्षोभ सिर्फ़ इतना ही है कि और ज़रा ज़ोर से तपस्या करा दी जाती तो वापस आने का रेल-किराया मेरा नहीं लगता।
कमल ने हार्दिक वेदना के साथ पूछा - लड़के बहुत दुबले हो गये होंगे?
हरेन्द्र ने कहा - ”दुबले?” आश्रम की परिभाषा में शायद उसके लिए एक अच्छा-सा शब्द है - सतीश को मालूम होगा - आधुनिक काल में अंकित किया हुआ ‘शुक्राचार्य के तपोवन में कच का चित्र’ क्या तुमने देखा है? - नहीं देखा? तो तुम मेरी बात नहीं समझ सकोगी। - मैंने जब ऊपर के बरामदे से देखा तो मालूम हुआ कि कचों का एक झुण्ड सहसा पंक्तिवार स्वर्ग से उतरकर आश्रम में प्रवेश कर रहा है। मुझे आशा बँध गयी कि आश्रम जब टूट जायेगा तब, खाना-पीना न मिलने पर भी वे न मरेंगे, देश के किसी भी चित्रकारी के स्कूल में जाकर चित्र के लिए मॉडेल का काम दे सकेंगे।
कमल ने कहा - लोग कहते हैं कि आप आश्रम बन्द कर रहे हैं। यह क्या सच है?
”सच है। तुम्हारे वाक्य-बाण मुझसे सहे नहीं जाते। सतीश के यहाँ आने का यह भी एक कारण है। इसकी धारणा है कि तुम असल में भारतीय रमणी नहीं हो। इसलिए भारत की निगूढ़ सत्य वस्तु को पहचान ही नहीं सकती। तुम्हें यह यही बात समझा देना चाहता है। समझोगी या नहीं सो तो तुम्हीं जानो, पर इसे मैंने आश्वासन दे दिया है कि मैं कुछ भी क्यों न करूँ, उन लोगों के लिए डर की कोई बात नहीं। कारण, मालूम नहीं, चतुर्विध आश्रमों में से अजित कुमार स्वयं कौन-सा आश्रम ग्रहण करेंगे, पर फिर भी, परम्परा से इतनी खबर मुझे मिल गयी है कि वे बहुत सा अर्थ व्यय करके ऐसे और भी दस-बीस आश्रम जगह-जगह खोल देना चाहते हैं। उनके पास अर्थ भी है और देने की सामथ्र्य भी। सो उनमें से एक का नायकत्व तो सतीश को मिल ही जायेगा।”
कमल भीतर ही भीतर मुस्कराती हुई बोली - दानशीलता जैसी दुष्कृति को ढँकने के लिए इससे अच्छा आच्छादन और नहीं हो सकता। पर भारत की सत्य वस्तु को मुझे समझाने से सतीश बाबू को क्या फायदा होगा? हरेन्द्र बाबू से मैंने आश्रम बन्द कर देने के लिए भी नहीं कहा, और रुपयों के बल पर भारत भर में आश्रम खोलने के लिए भी अजित बाबू को मैं मना नहीं करूँगी। मेरी आपत्ति तो सिर्फ़ उसी को सत्य मान लेने में है। उसमें किसी का क्या नुकसान?
सतीश विनीत स्वर में बोला - नुकसान का परिणाम बाहर से नहीं दिखाई देता। बहस के लिए नहीं, बल्कि शिक्षार्थी के तौर पर मैं आपसे अगर कुछ प्रश्न करूं तो क्या आप उनका उत्तर देंगी?
”मगर आज तो मैं बहुत थकी हुई हूँ सतीश बाबू।”
सतीश ने उसकी बात पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया बोला - हरेन्द्र भैया ने अभी-अभी हँसी के तौर पर कहा था कि मैं काशी जाकर चाहे जितना भी ऊँचा चढ़ गया होऊँ, संसार में उससे भी ऊंचा और स्थान है सो, वह यही घर है। मैं जानता हूँ कि आपके प्रति इनकी श्रद्धा असीम है। आश्रम टूट जाने से हानि नहीं, किन्तु आपकी बातों से इनका अगर मन टूट गया तो नुकसान की पूर्ति होना कठिन है।
कमल चुप रही। सतीश कहने लगा - राजेन्द्र को आप अच्छी तरह जानती होंगी, वह मेरा मित्र है। मूल विषय पर मत का मेल न होता तो हम दोनों की मित्रता होती ही नहीं। उसी के समान मैं भी चाहता हूँ कि भारत की सर्वांगीण मुक्ति से स्वजाति का परम कल्याण हो। उसी आशा से हम लड़कों को संघबद्ध करके गढ़ना चाहते हैं। हमें मृत्यु के बाद कल्पकाल तक बैकुण्ठवास करने का लोभ नहीं, लेकिन नियम के कठोर बन्धन के बिना संघ की सृष्टि हरगिज नहीं हो सकती। और सिर्फ़ लड़कों के लिए ही नहीं, उस बन्धन को हम लोगों ने स्वयं अपने ऊपर भी लागू किया है। कष्ट वहाँ ज़रूर है - और रहेगा ही, क्योंकि बहुत ‘श्रम’ करके महान वस्तु को प्राप्त करने के स्थान को ही तो ‘आश्रम’ कहते हैं। इसमें उपहास की तो कोई बात नहीं।
कोई जवाब न पाकर सतीश फिर कहने लगा - हरेन्द्र भैया का आश्रम चाहे जैसा भी हो, उसके विषय में मैं आलोचना नहीं करूँगा, कारण, तब उसके व्यक्तिगत हो जाने पर डर है। परन्तु इसे तो अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय आश्रमों में, भारत के अतीत के प्रति निष्ठा और परम श्रद्धा निहित होनी चाहिए। त्याग, ब्रह्मचर्य, संयम - ये सब शक्तिहीन असमर्थों के धर्म नहीं है। जाति-गठन के प्राण और उपादान उस समय इन्हीं में निहित थे, और आज इस युग में भी वे उपेक्षा की सामग्री नहीं। मरणोन्मुख भारत को सिर्फ़ एक इसी मार्ग से पुनर्जीवित किया जा सकता है। आश्रम के आचार और अनुष्ठान के द्वारा हम अपने इसी विश्वास और इसी श्रद्धा को जगाये रखना चाहते हैं। एक दिन इस मंत्र-मुखरित, होमाग्नि, प्रज्जवलित, तपस्या-कठोर भारत में जो आश्रमों की प्रतिष्ठा हुई थी वह जाति-जीवन के एक मौलिक कल्याण को सुफल करने के उद्देश्य से ही हुई थी और इस सत्य को कौन ऐसा मूर्ख होगा जो स्वीकार नहीं करेगा कि वह प्रयोजन आज भी मिटा नहीं है?
सतीश की वक़्तृता में हार्दिकता का ज़ोर था। उसकी बातें अच्छी थीं और निरन्तर कहते रहने के कारण कण्ठस्थ हो गयी थीं। आखिर में उसका मुलायम स्वर तेज हो गया और मारे उत्तेजना के काला चेहरा बैगनी हो उठा। उसी की तरफ़ चुपचाप और निष्पलक दृष्टि से देखते रहने के कारण एक प्रकार के धार्मिक जोश से अजित का आपाद-मस्तक रोमांचित हो उठा; साथ ही हरेन्द्र भी, यद्यपि इसके पहले वह अपने आश्रम के विरुद्ध कितना ही मौखिक आस्फालन कर चुका है, आश्रम के विगत गौरव के वर्णन से विश्वास और अविश्वास के बीच आँधी के वेग से झूलने लगा। उसी के मुँह की तरफ़ तीक्ष्ण दृष्टि रखकर सतीश कहने लगा - हरेन्द्र भैया, हम भले ही मर जायें, पर इस सत्य को कि इस तरह के आश्रमों में ही हमारे नव-जन्म-लाभ का विज्ञान है, आप भूले जा रहे हैं, किस युक्ति पर? आप तोड़ना चाहते हैं, पर तोड़ना ही क्या बड़ी बात है? आप ही बताइए कि बनाना क्या उससे बहुत बड़ी बात नहीं है?
फिर कमल के मुँह की तरफ़ देखकर उसने पूछा - जीवन में कितने आश्रम आपने अपनी आँखों देखें हैं? और कितनों के साथ आपका गूढ़ परिचय हुआ है?
”कठिन प्रश्न है।” कमल ने कहा - वास्तव में एक भी नहीं देखा और आप लोगों के आश्रम के सिवा और किसी के साथ मेरा कोई परिचय भी नहीं हुआ। ”तब बताइये?”
कमल ने हँसते चेहरे से कहा - आँखों से क्या सभी कुछ देखा जा सकता है? आप लोगों के आश्रम का ‘श्रम’ ही आँखों से देख आयी थी, मगर उससे किसी महान वस्तु के प्राप्त करने की बात तो ओट की ओट ही में रह गयी।
सतीश ने कहा - आप फिर हँसी उड़ा रही है।
उसका क्रुद्ध चेहरा देखकर हरेन्द्र स्निग्ध स्वर में बोल उठा - नहीं-नहीं सतीश, हँसी नहीं उठा रहीं, यों ही सिर्फ़ विनोद कर रही हैं। यह तो इनका स्वभाव है।
सतीश बोला - स्वभाव है? पर स्वभाव कहने से ही कैफियत नहीं हो जाती हरेन्द्र भैया। यह तो भारत के अतीत काल का जो भी कुछ नित्य पूजनीय और नित्य आचारणीय तत्व है, उसी का अपमान - उसी के प्रति अश्रद्धा दिखाना है। उसकी तो उपेक्षा नहीं की जा सकती।
हरेन्द्र ने कमल की तरफ़ इशारा करके कहा - इस बात पर इनसे अनेक बार बहस हो चुकी है। इनका कहना है कि अतीत का इसमें कोई महतव नहीं। वस्तु अतीत होती है काल के धर्म से, मगर अच्छी होती है अपने गुण से। सिर्फ़ प्राचीन होने से ही वह पूज्य नहीं हो जाती। जो बर्बर जाति किसी जमाने में अपने बूढ़े माँ-बाप को जिन्दा गाड़ देती थी, वह आज भी अगर उस प्राचीन अनुष्ठान की दुहाई देकर मनुष्य के कर्तव्य का निर्देश करना चाहे तो उसे भी तो रोका नहीं जा सकता सतीश।
सतीश क्रोध में आकर ऊँचे स्वर में कह उठा - ”प्राचीन भारत के साथ बर्बरों की तुलना नहीं हो सकती हरेन्द्र दादा।
हरेन्द्र ने कहा - सो मैं जानता हूँ। पर यह तो युक्ति नहीं सतीश, यह तो गले के ज़ोर की बात है।
सतीश और भी उत्तेजित हो उठा। बोला - यह हम लोगों ने स्वप्न में भी न सोचा था हरेन्द्र दादा कि आपको भी एक दिन इस नास्तिकता के चक्कर में पड़ना पड़ेगा।
हरेन्द्र ने कहा - तुम जानते हो कि मैं नास्तिक नहीं हूँ। लेकिन यह गाली देकर सिर्फ़ अपमान ही किया जा सकता है सतीश, मत की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। कठोर बात ही दुनिया में सबसे ज़्यादा कमज़ोर होती है।
सतीश शर्मिन्दा हो गया। उसने झुककर हरेन्द्र के पाँव छू लिये और कहा, ”अपमान मैंने नहीं किया हरेन्द्र भइया। आप तो जानते हैं, हम लोग आपकी कितनी भक्ति करते हैं, मगर हमें दुख होता है जब सुनते हैं कि भारत की शाश्वत तपस्या पर भी आप अविश्वास करने लगे हैं। एक दिन जिन उपादानों और जिस साधना से उन तपस्वियों ने भारत की इस विशाल जाति और विराट सभ्यता का निर्माण किया था, वह सत्य कभी विलुप्त नहीं हुआ। सुनहले अक्षरों में लिखा हुआ मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि वही भारत का मज्जागत धर्म है, वही हमारी अपनी चीज है। इस ध्वंसोन्मुख विराट जाति को फिर उन्हीं उपादानों से जिलाया जा सकता है हरेन्द्र भइया, और कोई मार्ग नहीं।”
हरेन्द्र ने कहा - न भी जिलाया जा सके, सतीश यह तुम्हारा विश्वास है - और इसकी कीमत सिर्फ़ तुम्हीं तक सीमित है। एक दिन ठीक इसी ढंग की बात के जवाब में कमल ने कहा था - ‘जगत के आदिम युग में एक दिन विराट अस्थि, विराट क्षुधा वाले एक विराट जीव की सृष्टि हुई थी, उसी देह और क्षुधा से वह संसार को जय करता फिरता था, और उस दिन वे थे उसके सत्य उपादान। किन्तु फिर एक दिन ऐसा आया कि उसी देह और उसी क्षुधा ने उसकी मृत्यु ला दी। एक दिन के सत्य के उपादानों ने दूसरे मिथ्या उपादान बनकर उसे संसार से निश्चिह्न कर दिया - ज़रा भी दुविधा नहीं की। उसकी अस्थि आज पत्थर में परिणत हो गयी है, और अब वह सिर्फ़ पुरातत्व के विद्वानों की गवेषणा की चीज रह गयी है।
सतीश को सहसा जवाब ढूँढ़े न मिला। वह कहने लगा - तो क्या हमारे पूर्व-पुरुषों का आदर्श भ्रान्त था? उनके तत्व निरूपण में सत्य नहीं था?
हरेन्द्र ने कहा - हो सकता है कि उस दिन उसमें सत्य रहा हो, पर आज उस सत्य के न रहने में कोई बाधा नहीं। उस दिन जो पथ स्वर्ण का पथ था अगर आज वही हमें यमराज के दक्षिण द्वार पर पहुँचा दे तो मुँह फुलाने का मैं तो कोई कारण नहीं देखता, सतीश।
सतीश अपने गूढ़ क्रोध को जी-जान से दबाकर बोला - हरेन्द्र दादा, यह सब सिर्फ़ आप लोगों की आधुनिक शिक्षा का फल है और कुछ नहीं।
हरेन्द्र ने कहा - असम्भव नहीं। किन्तु आधुनिक शिक्षा अगर आधुनिक काल में, हमें कल्याण का मार्ग दिखा सके तो मैं उसमें लज्जा की कोई बात नहीं देखता सतीश।
सतीश बहुत देर तक निर्वाक होकर स्तब्ध बैठा रहा, फिर धीरे-धीरे बोला - मगर मैं तो लज्जा का बल्कि महालज्जा का कारण देखता हूँ, हरेन्द्र दादा। भारत का ज्ञान और भारत का प्राचीन तत्व इस भारत का ही वैशिष्ट्य और प्राण है। उस तत्व को तिलांजलि देकर अगर देश को स्वाधीनता प्राप्त करना हो तो वह स्वाधीनता भारत की जय न होगी, बल्कि उससे तो सिर्फ़ पाश्चात्य नीति और पाश्चात्य सभ्यता की ही जय होगी। वह तो पराजय का ही नामान्तर है। उससे तो मृत्यु अच्छी।
सतीश की वेदना हार्दिक है। उस व्यवस्था का परिणाम अनुभव करके हरेन्द्र मौन रहा और अबकी बार जवाब दिया कमल ने। उसके मुँह पर सुपरिचित परिहास का चिह्न तक न था, और कण्ठ स्वर संयत, शान्त और मृदु था। उसने कहा - सतीश बाबू, आपने जीवन में जैसे अपने आपको समर्पित कर दिया है, अपने संस्कारों को भी वैसे ही अगर समर्पित कर सकते तो आज यह बात भी अनुभव करने में आपको कठिनाई न होती कि किसी विशेष भाव के लिए या किसी वैशिष्ट्य के लिए आदमी नहीं है, बल्कि आदमी के लिए ही उस वैशिष्ट्य का आदर है, मूल्य है। पर मानव ही अगर नष्ट हो जाये तो उस तत्व की महिमा की प्रचेष्टा से लाभ ही क्या होगा? भारत के मत की जय न भी हो तो क्या हुआ, मनुष्य की जय तो होगी। तब मुक्ति पाकर इतने नर-नारी धन्य हो जायेंगे। ज़रा नवीन तुर्की की तरफ़ तो देखिये। जब तक वह अपनी प्राचीन रीति-नीति, आचार-विचार और परम्परागत पुराने अनुष्ठान मार्ग को सत्य जानकर पकड़े रहा, तब तक उसकी बार-बार पराजय ही होती रही। आज उसने क्रान्ति में से सत्य को पाया है - उसका सारा का सारा, कूड़ा-करकट बह गया है - किसकी ताक़त है कि आज उसका उपहास करे? और मजा यह कि किसी दिन उसके प्राचीन मत और मार्ग ने ही उसे विजय दी थी, ऐश्वर्य दिया था, कल्याण दिया था, मनुष्यत्व दिया था। पहले उसने सोचा था कि वही शायद चिरन्तन सत्य है। सोचा था कि उसी को जीजान से पकड़े रहने से विगत गौरव को आज भी वापस पाया जा सकता है। उसे इस बात का ख़्याल भी न था कि उसका भी विवर्तन है। आज उसका वह मोह तो मर गया, पर आदमी जी उठा। ऐसे दृष्टान्त और भी है, और भी होंगे। सतीश बाबू, आत्मविश्वास और आत्म-अहंकार दोनों एक चीज नहीं है।
सतीश ने कहा - जानता हूँ। मगर ऐसा भी तो हो सकता है कि पश्चिम के लोगों ने मनुष्य के प्रश्न का जो उत्तर दिया है वह शेष उत्तर न हो? ऐसा भी तो हो सकता है कि उनकी सभ्यता का भी किसी दिन ध्वंस हो जाये?
कमल ने सिर हिलाकर कहा - हाँ, हो सकता है। और मेरी धारणा है कि ध्वंस होगा भी।
”तब फिर?”
कमल ने कहा - उसमें धिक्कार की कोई बात नहीं होगी सतीश बाबू। बुरा तो अच्छे का दुश्मन नहीं हुआ करता, अच्छे का दुश्मन तो वह है जो उससे और भी अच्छा है। ‘वह और भी अच्छा’ जिस दिन अच्छे के सामने उपस्थित होकर प्रश्न का जवाब चाहता है, उस दिन उसी के हाथ में राजदण्ड सौंपकर उसे अलग हो जाना पड़ता है। एक दिन शक, हूण और तातारों ने आकर भारत को शारीरिक बल पर जीत लिया, मगर यहाँ की सभ्यता को वे नहीं बाँध सके, वे खुद ही बँध गये। जानते हैं इसका कारण क्या था? असल कारण यह था कि वे खुद ही छोटे थे। पर मुगल पठानों की परीक्षा बाकी ही रह गयी, क्योंकि इसी बीच फ्राँसीसी और अंग्रेज आ धमके। लेकिन उनकी मियाद आज भी खत्म नहीं हुई है। भारत को इसका जवाब उन्हें एक दिन देना ही होगा। खैर, उस प्रश्न को जाने दीजिए - लेकिन पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान और सभ्यता के सामने भारतवर्ष को आज अगर नीचा देखना पड़े तो उससे उसके दम्भ को चोट ज़रूर पहुँचेगी, किन्तु यह मैं निश्चय से कह सकती हूँ कि उससे उसके कल्याण को चोट न पहुँचेगी।
सतीश ने ज़ोर से सिर हिलाते हुए कहा - ”नहीं, नहीं, नहीं। जिनके आस्था नहीं, श्रद्धा नहीं, विश्वास की नींव जिनकी बालू पर है, उनके सामने यह कहना तो सर्वनाश को निमन्त्रण देना होगा।” कहकर उसने कनखियों से हरेन्द्र को देखा और कहा - ”ठीक इसी तरह एक दिन बंगाल में - अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए - विदेश के विज्ञान, विदेश के दर्शन और विदेश की सभ्यता को बड़ा मानकर कुछ सत्यभ्रष्ट और आदर्शभ्रष्ट लोगों ने अपनी अधूरी शिक्षा के विजातीय दम्भ से स्वदेश का जो कुछ अपना था उसी को तुच्छ करके देश के मन को विक्षिप्त और कदाचारी बना डाला था। मगर इतना बड़ा अकल्याण विधाता से सहा न गया, उसकी प्रतिक्रिया हुई और विवेक लौट आया। भूल दिखाई दे गयी। उन विषम दिनों में जो मनस्वी अपनी जाति के केन्द्र विमुख उद्भ्रान्त चित्त को अपने घर की ही ओर फिर से वापस ले आये थे, वे सिर्फ़ बंगाल के ही नहीं, समग्र भारत के वन्दनीय हैं।” यह कहते हुए उसने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये।
बात सच थी और सभी जानते थे। लिहाजा हरेन्द्र और अजित दोनों ने जो उसका अनुकरण करके वन्दनीयों के लिए नमस्कार किया, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। अजित ने मृदु स्वर में कहा - ”नहीं तो शायद बहुत से लोग उस समय ईसाई हो जाते। सिर्फ़ उन्हीं के कारण ऐसा न हो सका।” बात कहने के बाद ही उसने कमल के मुँह की तरफ़ देखा - उसकी आँखों में इसका अनुमोदन नहीं था, सिर्फ़ तिरस्कार का भाव ही दिखाई दिया। फिर भी वह चुप ही रही। शायद, जवाब देने की इच्छा भी नहीं थी। अजित को वह जानती थी - पर हरेन्द्र ने इसी की अस्फुट प्रतिध्वनि सी की, तब उसकी कुछ देर पहले कही हुई बातों के साथ यह ससंकोच जड़ता ऐसी भद्दी दीख पड़ी कि वह चुप न रह सकी। बोली - हरेन्द्र बाबू, कुछ ऐसे आदमी होते हैं जो भूत तो नहीं मानते, पर भूत से डरते ज़रूर हैं। आप उन्हीं में से एक हैं और इसी का नाम है भाव के घर चोरी। इतना अनुचित और कुछ हो ही नहीं सकता। इस देश में आश्रम जैसी संस्थाओं के लिए न कभी रुपयों की कमी होगी और न लड़कों का अकाल पड़ेगा; इसलिए आपके बिना भी सतीश बाबू का काम चल जायेगा मगर इन्हें त्याग देने का मिथ्याचार आपको हमेशा खलता रहेगा।
फिर ज़रा ठहरकर बोली, ”मेरे पिता ईसाई थे, पर मैं कौन हूँ इस बात की खोज न तो कभी उन्होंने की और न मैंने ही। उन्हें इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी, और मुझे कुछ याद न था। मैं तो यही कामना करती हूँ कि धर्म को आमरण इसी तरह भूली रह सकूँ। परन्तु अभी-अभी उच्छृंखल और अनाचारी कहकर आपने जिनका तिरस्कार किया और वन्दनीय कहकर जिन्हें नमस्कार किया, उनमें से स्वदेश के सर्वनाश में किनका दान भारी है, इस प्रश्न का जवाब लोग किसी न किसी दिन अवश्य चाहेंगे।”
सतीश की देह पर मानो किसी ने कसकर चाबुक मार दिया। तीव्र वेदना से वह अकस्मात उठकर खड़ा हो गया और बोला - आप जानती हैं उनके नाम? कभी सुने हैं किसी के मुँह से?
कमल ने सिर हिलाकर कहा - नहीं।
”तो, पहले जान लीजिए।”
कमल ने हँसते हुए कहा - अच्छा। पर नाम का मोह मुझे नहीं है। नाम जानने को ही मैं जानने की इति नहीं मान सकती।
प्रत्युत्तर में सतीश अपनी आँखों से सिर्फ़ अवज्ञा और घृणा बरसाता हुआ तेज कदमों से बाहर चला गया।
वह गुस्से में चला गया है, इसमें कोई सन्देह नहीं रहा। इस अप्रीतिकर घटना को कुछ हल्का करने के लिए कुछ देर बाद हरेन्द्र ने हँसने की कोशिश करते हुए कहा - कमल की आकृति तो प्राच्य की है पर प्रकृति बिल्कुल प्रतीच्य की। एक तो दिखाई देती है और दूसरी बिल्कुल आँखों से ओझल रह जाती है। यही आदमी को गलतफहमी होती है। इनकी परोसी हुई चीज खायी तो जा सकती है, पर हजम करते वक़्त पेट की बत्तीसों नाड़ियों में मानो मरोड़ उठने लगता है। हमारी किसी भी प्राचीन चीज पर न तो इन्हें विश्वास है और न सहानुभूति। बेकाम कहकर रद्द कर देने में इन्हें जैसे कुछ दर्द ही नहीं मालूम होता। लेकिन, इस बात को ये समझ ही नहीं सकतीं कि सूक्ष्म कांटा हाथ आ जाने से ही सूक्ष्म वजन करना नहीं आ जाता।
कमल ने कहा - समझ सकती हूँ, लेकिन सिर्फ़ दाम देते वक़्त एक के बदले दूसरी चीज नहीं ले सकती। मेरी आपत्ति वही हैं।
हरेन्द्र ने कहा - ”मैंने तय कर लिया है कि आश्रम ज़रूर उठा दूँगा। मुझे सन्देह हो गया है कि उस शिक्षा से लड़के आदमी बनकर देश की मुक्ति और परम कल्याण को पुनः प्राप्त कर सकेंगे या नहीं। लेकिन समझ में नहीं आता कि दीनहीन घरों के जिन लड़कों को सतीश घर छुड़ाकर ले आया है उनका क्या करूँ? सतीश के हाथ सौंप देना भी मुझसे नहीं हो सकता।”
कमल ने कहा - सौंपने की कोई ज़रूरत नहीं। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि उनके द्वारा कोई असाधारण या अलौकिक बात करवा डालने की ख्वाहिश न रखी जाये। दीन-दुखी घरों के लड़के सभी देशों में हैं, वहाँ वाले जैसे उन्हें बड़ा करते हैं वैसे ही आप भी इन्हें आदमी बनाने की कोशिश करते रहें।
हरेन्द्र ने कहा - इस विषय में भी अभी तक मैं निःसंशय नहीं हो सका हूँ कमल। शिक्षक लगाकर मैं उन्हें पढ़ा लिखा सकता हूँ, पर इसका मुझे भय है कि जिस संयम और त्याग की शिक्षा उन्हें दी जा रही थी उससे दूर करके भी उन्हें आदमी बनाया जा सकता है या नहीं।
कमल ने कहा - हरेन्द्र बाबू, सभी बातों को आप लोग इस तरह एकांगी रूप से सोचा करते हैं, इसी से किसी प्रश्न का सीधा उत्तर आप लोगों को नहीं मिल सकता। आपका ख़्याल है कि लड़के या तो देवता बनेंगे, या फिर बिल्कुल ही उच्छृंखल पशु बन जायेंगे। जगत का सहज सरल स्वाभाविक सौन्दर्य आपकी दृष्टि के सामने आता ही नहीं। आप लोग दूसरों के हाथ के मनगढ़न्त अन्याय की अनुभूति से अपने सम्पूर्ण चित्त को शंका से त्रस्त और मलिन रखा करते हैं। उस दिन मैं आश्रम में जो कुछ देख आयी हूँ यह क्या संयम और त्याग की शिक्षा है? उन लोगों को मिला ही क्या है? सिर्फ़ दूसरों का दिया हुआ दुख का बोझ ही तो मिला है, अनधिकार मिला है, और मिली है प्रवंचित की क्षुधा। चीन देश में लड़कियों के पांव जन्म से छोटे बनाये जाते हैं। मेरे लिए यह सह्य है कि पुरुष वर्ग उन्हें सुन्दर बतावें, पर वहाँ की स्त्रियाँ ही जब अपने उन पंगु और विकृत पैरों की सुन्दरता पर खुद मोहित हो जाती हैं, तब फिर सुधार की कोई आशा शेष नहीं रह जाती। इस समय आप लोग अपने कृतित्व पर खुद ही मुग्ध हो रहे हैं। मैंने उन लोगों से पूछा - ”बच्चो, कैसे रहते हो तुम लोग, बताओ?’ लड़कों ने एक साथ जवाब दिया - ”बहुत अच्छी तरह।” उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि ‘अच्छी तरह’ किसे कहते हैं। सोचने विचारने की शक्ति भी उनकी जाती रही है - ऐसा जबर्दस्त शासन है उन पर। नीलिमा दीदी ने मेरी तरफ़ देखकर शायद इसका उत्तर चाहा था, पर छाती पीटकर रोने के सिवा मुझे इस बात का कोई जवाब ही ढूँढ़े न मिला। मन ही मन सोचने लगी, ये ही लोग क्या भविष्य में देश की स्वाधीनता अर्जन करेंगे?
हरेन्द्र ने कहा - लड़कों की बात जाने दो, लेकिन राजेन्द्र सतीश वगैरह तो युवक हैं? ये भी तो सर्व त्यागी हैं।
कमल ने कहा - राजेन्द्र को आप लोग पहचानते नहीं, लिहाजा उसकी चर्चा छोड़िये। बात असल में यह है कि वैराग्य यौवन के सर पर ही ज़्यादा सवार होता है। वह जहाँ शक्ति बनकर बैठा हुआ है वहाँ विरुद्ध शक्ति के बिना उसे वश में कौन करेगा?
हरेन्द्र ने कहा - गुस्सा मत होना कमल - तुम्हारे खून में तो वैराग्य है ही नहीं। तुम्हारे पिता यूरोपियन थे और उन्हीं के हाथ से तुम्हारा शिशु-जीवन गढ़ा गया है। माँ इस देश की थीं, पर उनका जिक्र न करना ही अच्छा है। इसी से, पश्चिम की शिक्षा से तुमने भोग को ही जीवन की सबसे बड़ी चीज समझ लिया है।
कमल ने कहा - गुस्सा मैं नहीं करती, हरेन्द्र बाबू। पर ऐसी बात आप न कहें। सिर्फ़ भोग को ही जीवन की सबसे बड़ी चीज समझकर संसार में कोई भी जाति बड़ी नहीं हो सकती। मुसलमानों ने जिस दिन ऐसी गलती की, उस दिन उनका त्याग भी गया और भोग भी छूट गया। ऐसी ही गलती यदि पश्चिमवालों ने की, तो वे भी मरेंगे। पश्चिम भी तो कोई दुनिया से अलग नहीं है। अगर वे इस विधान की उपेक्षा करके चलेंगे तो उनके जीने का फिर कोई रास्ता नहीं रह जायेगा।
थोड़ी देर मौन रहकर फिर कहने लगी - ”लेकिन तब मन ही मन मुस्कराकर आप लोग कहेंगे - क्यों, कहा था न! हम तो पहले से ही जानते थे कि यह थोड़े ही दिन की उछलकूद है इनकी, सो किसी न किसी दिन खत्म हो जायेगी। लेकिन, इधर देखा, हम लोग शुरू से आखिर तक वैसे ही टिके हुए हैं“ और कहते-कहते सुनिर्मल हँसी से उसका सारा का सारा चेहरा खिल उठा।
हरेन्द्र ने कहा - ऐसा ही हो, वही दिन आये।
कमल ने कहा - ऐसी बात नहीं कहना चाहिए हरेन्द्र बाबू। इतनी बड़ी जाति अगर गिर जाये, तो उसकी धूल से ही संसार के बहुत-से प्रकाश स्तम्भ म्लान हो जायेंगे। मनुष्य जाति के लिए वे बहुत ही बुरे दिन साबित होंगे।
हरेन्द्र उठ खड़ा हुआ। बोला - उसे अभी देर है, पर अपने बुरे दिनों का आभास मैं अभी से ही पा रहा हूँ। बहुत से प्रकाश स्तम्भ बुझते दिखाई दे रहे हैं। अपने पिता से तुमने उन्हें बुझाने का ही कौशल सीखा है कमल, जलाने की विद्या नहीं सीखी।
अच्छा, अब चल दिया। अजित बाबू को अभी देर होगी शायद?
अजित उठने के लिए ज़रा हिला-डुला, पर उठा नहीं।
कमल ने कहा - हरेन्द्र बाबू, प्रकाश स्तम्भ का प्रकाश रास्ते पर न पड़कर अगर आँखों पर पड़े तो ठोकर खाकर नाली में गिरना पड़ता है। उस प्रकाश को जो बुझा देता है उसे हितैषी मित्र ही समझिएगा।
हरेन्द्र ने एक गहरी साँस ली और कहा - बहुत बार ख़्याल आता है कि तुम्हारे साथ बुरे क्षण में परिचय हुआ था। विश्वास का इतना ज़ोर तो मुझमें नहीं हैं जितना कि तुममें है, फिर भी मैं कह सकता हूँ कि वे विद्या, बुद्धि, ज्ञान और पौरुष की चाहे जितनी चकाचौंध दिखायें, भारत के सामने वह कुछ भी नहीं - सब अकिंचित्कर है।
कमल ने कहा - ”यह तो ऐसी बात हुई जैसे क्लास में प्रमोशन न पाने वाले विद्याथी का एम.ए. पास करने वाले को धिक्कार देना। हरेन्द्र बाबू, ”आत्मसम्मान-ज्ञान’ जैसे एक शब्द है, वैसे ‘बड़ाई करना’ भी एक शब्द है।’
हरेन्द्र को क्रोध आ गया। कहने लगा - शब्द तो बहुत है। लेकिन यह भारत ही एक दिन सारे जगत का गुरु था। बहुतों के पुरखे तो तब शायद पेड़ों की डालियों पर उछला करते थे। और, फिर एक दिन ऐसा आयेगा जब भारतवर्ष ही जगत के शिक्षक का आसन ग्रहण करेगा। करेगा, अवश्य ही करेगा।
कमल को गुस्सा नहीं आया, वह हँस दी। बोली - आज तो वे लोग डालियों पर से नीचे उतर आये हैं। पर यदि इसी आलोचना का आनन्द उठाना हो कि कौन-से महाअतीत काल में किसके पूर्व पुरुष जगत के गुरु थे और कौन से महा भविष्य काल में उनके वंशधर फिर पैतृक पेशा अख्तियार कर लेंगे, तो अजित बाबू को जाकर पकड़िये। मुझे बहुत काम करना है।
हरेन्द्र ने कहा - अच्छा, नमस्कार।
और वह विषण्ण गम्भीर चेहरा लिये घर से निकल गया।
26
आठ दिन बाद कमल आशु बाबू के घर मिलने गयी। जिन लोगों को लेकर यह कहानी है, उनके जीवन में इधर कई दिनों में एक उलटफेर हो गया है। किन्तु न तो उसे आकस्मिक कहा जा सकता है और अप्रत्याशित ही। इधर कुछ दिनों से जो आकाश में इधर-उधर से हवा में उड़ते हुए बादलों के टुकड़े जमा हो रहे थे, उनके परिणाम के सम्बन्ध में विशेष संशय न था - और हुआ भी वही।
फाटक पर दरबान हाज़िर नहीं है। नीचे के बरामदे में साधारणतः कोई बैठता न था फिर भी वहाँ कुछ मेजें और कुर्सियाँ पड़ी रहती थीं, दीवार पर बड़े आदमियों की कई एक तस्वीरें भी थीं - किन्तु आज वे सब नदारद हैं। सिर्फ़ छत से एक काली-कलूटी लालटेन लटक रही है। जगह-जगह कूड़ा-करकट जमा हो गया है, उसे साफ़ करने की अब शायद आवश्यकता नहीं रह गयी है। न जाने कैसा एक श्रीहीन वातावरण है, जिसे देखकर सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि मकानमालिक अब यहाँ से पलायन कर रहे हैं।
कमल ऊपर जाकर आशु बाबू की बैठक में पहुँची। दिन ढल रहा था। आशु बाबू आरामकुर्सी पर पैर फैलाये पड़े थे। कमरे में और कोई न था। परदा हटने के शब्द से उन्होंने आँखें खोलीं और वे उठकर बैठ गये। कमल के आने की शायद उन्होंने आशा नहीं की थी, इससे कुछ ज़्यादा खुश होकर उन्होंने अभ्यर्थना की। बोले - कमल हो! आओ बेटी, आओ।
उनके चेहरे की तरफ़ देखकर कमल के हृदय में चोट पहुँची। उसने कहा - ”यह क्या? आप तो बूढ़े-से दिखाई देने लगे हैं, चाचाजी?
आशु बाबू हँस दिये। बोले - ”बूढ़ा? यह तो भगवान का आशीर्वाद है कमल।
भीतर ही भीतर जबकि उमर बढ़ती जाती है तब मनुष्य के लिए इससे बढ़कर दुर्भाग्य और नहीं हो सकता कि बाहर से बूढ़ा न दिखाई दे। यह अवस्था बचपन में ही गंजे हो जाने जैसी करुण है।”
”लेकिन तबियत भी तो अच्छी नहीं दीख रही है?”
”नहीं।”
परन्तु, इसके बाद, फिर उन्होंने आगे प्रश्न करने का मौका नहीं दिया, बोले - तुम कैसी हो, सो तो बताओ?
”अच्छी हूँ। मैं तो कभी बीमार पड़ती नहीं, चाचाजी।”
”सो तो मालूम है। न देह और न मन, तुम्हारे दोनों ही बीमार नहीं होते। कारण इसका है कि तुम्हें लोभ नहीं। तुम कुछ भी नहीं चाहती, इसी से भगवान ने तुम्हें दोनों हाथों से सब कुछ उँड़ेल कर दे दिया है।”
”मुझे? क्या देते देखा आपने, बताइए तो?”
आशु बाबू ने कहा - ”यह डिप्टी साहब की अदालत नहीं जो धमकी देकर मामला जीत जाओगी। खैर, कुछ भी हो, पर मैं मानता हूँ कि दुनिया के विचार से मैंने खुद भी कम नहीं पाया। यही तो मैं आज सबेरे से थैली झाड़कर और फ़र्द मिला-मिला कर देख रहा था। देखा कि शून्य के अंकों ने ही इतने दिनों से तहवील फुला रही थी - अन्तःसारहीन थैली के भारी-भरकम आकार ने आदमियों की आँखेां को महज धोखा ही दिया - भीतर कोई चीज़ उसमें थी ही नहीं। लोग सिर्फ़ गलती से ही सोचा करते हैं बेटी, कि गणितशास्त्र के अनुसार शून्यों की भी कीमत है। मैंने तो देखा कि उनकी कोई भी कीमत नहीं। एक के अंक की दाहिनी तरफ़ वे अगर पंक्तिवार खड़े हो जायें तो उस एक को ही एक करोड़ बना देते हैं, पर अगर सिर्फ़ शून्य ही अपनी संख्या के ज़ोर से चाहें कि करोड़ हो जायें तो नहीं हो सकते। जहाँ कोई और अंक नहीं, वहाँ तो वे सिर्फ़ माया ही हैं। मेरा पाना भी ठीक उन शून्यों को पाने जैसा है।”
कमल ने बहस नहीं की, वह उनके पास कुरसी खींचकर बैठ गयी। आशु बाबू ने अपना दाहिना हाथ कमल के हाथ पर रखते हुए कहा - बेटी, अब तो सचमुच ही मेरे जाने की पारी आ गयी, कल-परसों तक चला जाऊँगा। बूढ़ा हो गया - न जाने अब फिर कब भेंट होगी। पर इतना तुम भरोसा दो कि मुझे कभी भूलोगी नहीं।
कमल ने कहा - नहीं, भूलूँगी नहीं। और भेंट भी होगी फिर कभी। आपको अपनी थैली सूनी मालूम पड़ रही है, पर मैंने अपनी थैली शून्यों से नहीं भर रखी है चाचाजी, उसमें सचमुच की चीज है - माया नहीं।
आशु बाबू ने इस बात का कुछ जवाब नहीं दिया, पर मन में समझ लिया कि लड़की ने रंचमात्र भी झूठ नहीं कहा।
कमल ने कहा - ”मैं घर में घुसते ही समझ गयी कि आप यहाँ हैं ज़रूर, पर आपका मन यहाँ से विदा हो गया है। इसलिए अब आपको पकड़कर नहीं रखा जा सकता। कहाँ जायेंगे? - कलकत्ते?”
आशु बाबू धीरे से सिर हिलाते हुए बोले - ”नहीं, वहाँ नहीं। इस बार ज़रा दूर जाने की सोची है। पुराने मित्रों को वचन दिया था कि अगर जिन्दा रहा तो फिर एक बार मिल जाऊँगा। यहाँ तुम्हें तो कोई काम नहीं कमल, चलोगी बिटिया, मेरे साथ विलायत? अगर वहाँ से मैं न लौट सका तो तुम्हारे मुँह से कोई खबर तो सुन ही लेगा।”
इस अनुदिष्ट सर्वनाम का उद्दिष्ट कौन है, सो कमल को समझने में देर न लगी, परन्तु इस अस्पष्टता को सुस्पष्ट कर देना भी उसने अनावश्यक समझा।
आशु बाबू कहने लगे - डर की कोई बात नहीं बेटी, इस बूढ़े की तुम्हें सेवा न करनी होगी। इस अकर्मण्य देह की कीमत ही क्या है? इसे ढोते रहने के लिए मैं अपने ऊपर किसी का ऋण नहीं बढ़ाना चाहता। पर कौन जानता था कमल, कि इस मांस-पिण्ड को लेकर भी प्रश्न जटिल हो सकता है? ऐसा लगता है कि मारे लज्जा के जमीन में गड़ा जा रहा हूँ। इस दुनिया में इतनी बड़ी आश्चर्य की बात भी होती है, सो भला कब कौन सोच सकता है, बताओ?
कमल सन्देह से चौंक पड़ी। बोली - ”नीलिमा दीदी को नहीं देख रही हूँ चाचाजी, वे कहाँ हैं?”
आशु बाबू ने कहा - ”शायद अपने कमरे में होगी, कल सबेरे से ही नहीं दिखाई दे रही है। सुना है कि हरेन्द्र आकर उसे अपने घर ले जायेगा।”
”अपने आश्रम में?”
”आश्रम अब नहीं रहा। सतीश चला गया है, कुछ लड़कों को भी अपने साथ ले गया है। सिर्फ़ चार-पाँच लड़कों को हरेन्द्र ने नहीं जाने दिया है, वे यही हैं। उनके माँ-बाप, नाते-रिश्तेदार कोई भी नहीं हैं, वह चाहता है कि उन्हें वह अपनी आइडिया के अनुसार नवीन ढंग से तैयार करे। तुमने सुना नहीं शायद? - सुनतीं भी किससे?” ज़रा ठहरकर फिर कहने लगे - ”परसों शाम को लोगों के चले जाने पर अधूरी चिट्ठी पूरी करके नीलिमा को सुनाने लगा। कई दिनों से वह बराबर कुछ अन्यमनस्क सी रहती थी, इधर उसे देख भी कम पाता था। चिट्ठी थी कलकत्ते के अपने कर्मचारी के नाम, मेरे विलायत जाने का सारा इन्तज़ाम जल्दी पूरा करने के लिये एक नये वसीयतनामे का मसविदा भी भेजा था - शायद यही मेरा आखिरी वसीयतनामा - अटर्नी को दिखाकर पक्का करके दस्तखत के लिए वापस भेजने को लिखा था। और भी बहुत-सी आशाएँ थीं। नीलिमा कुछ सी रही थी। उसकी तरफ़ से भला-बुरा कुछ भी उत्तर न पाकर मैं मुँह उठाकर उसकी तरफ़ देखने लगा तो देखा, उसके हाथ का सिलाई का कपड़ा जमीन पर पड़ा है, सिर चौकी के एक किनारे लुढ़क गया है, आँखें मिंची हैं और चेहरा बिल्कुल सफेद हो गया है। मेरी कुछ समझ ही में न आया कि अचानक क्या हो गया, झटपट उठकर जमीन पर लिटाया, गिलास में पानी था, उसके मुँह और आँखों पर छींटे मारे। पंखा था नहीं, सो अखबार उठाकर उससे हवा करने लगा - नौकर को पुकारना चाहा, मुँह से आवाज़ ही न निकली। शायद दो-तीन मिनट ही यह अवस्था रही, ज़्यादा नहीं, इसके बाद उसने आँखें खोलीं और झिझक के साथ उठकर बैठ गयी। एक बार सारा शरीर काँप उठा और फिर वह औंधी होकर मेरी गोद में मुँह छिपाकर ज़ोर से रोने लगी। ऐसी रोयी कि कुछ पूछो मत। मालूम हुआ कि जैसे उसकी छाती ही फट जायेगी। बहुत देर बाद मैंने उठाकर बिठाया - कितने दिनों की कितनी ही बातें और कितनी ही घटनाएँ याद आ गयीं, फिर मुझे समझने में कुछ भी बाकी न रह गया।”
कमल चुपचाप उनके मुँह की तरफ़ देखती रही।
आशु बाबू ने क्षण भर अपने को संभालने में लगाया और फिर कहा - ”मैं समझता हूँ, इस तरह दो-तीन मिनट बीते होंगे। मेरे यह सोचने के पहले ही कि ऐसी हालत में मुझे क्या कहना चाहिए, वह तीर की तरह उठ खड़ी हुई - मेरी ओर एक बार देखा तक नहीं - और कमरे से बाहर निकल गयी। न तो उसने कोई बात कही और न मैं ही कुछ बोल सका। उसके बाद फिर मुलाकात नहीं हुई।”
कमल ने कहा - यह क्या आप पहले समझ नहीं पाये थे?
आशु बाबू ने कहा - नहीं। कभी स्वप्न में भी न सोचा था। और कोई होता तो सन्देह करता कि महज छल हैं, स्वार्थ है। पर उसके विषय में ऐसी बात सोचना भी अपराध है। यह स्त्रियों का मन कितनी आश्चर्यजनक चीज है। इससे बढ़कर संसार में और क्या आश्चर्य की बात होगी कि यह रोगातुर शरीर, ऐसा अक्षम ओर अवसन्न मन, जीवन की यह सन्ध्या बेला जिसमें जीवन की कानीकौड़ी भी कीमत नहीं - इसपर भी किसी सुन्दरी युवती का मन आकृष्ट हो? फिर भी, यह सच है, ज़रा भी झूठ नहीं।
इतना कहकर वह सदाचारी प्रौढ़ आदमी क्षोभ, वेदना और निष्कपट लज्जा से एक साँस लेकर चुप हो गया। आशु बाबू कुछ देर इसी तरह रहकर फिर कहने लगे - मगर मैं यह निश्चित जानता हूँ कि यह बुद्धिमती नारी मुझसे कुछ भी प्रत्याशा नहीं करती। वह सिर्फ़ चाहती है मेरी सेवा करना, और वह भी इसलिए कि सेवा के अभाव में मेरे जीवन के बाकी दिन कहीं दुख में न बीतें। केवल दया और अकृत्रिम करुणा, बस।
कमल को चुप देख वे कहने लगे - बेला ने विवाह-विच्छेद का जब मामला चलाया था तब मैंने अपनी सम्मति दी थी। बातों ही बातों में उस दिन जब प्रसंग उठ पड़ा तो नीलिमा बहुत नाराज़ हुई और उसके बाद से तो बेला उसके लिए असह्य हो गयी। अपने पति को इस तरह सर्वसाधारण के सामने लज्जित और बेइज्जत करने की प्रतिहिंसा को नीलिमा हृदय से पसन्द न कर सकी। उसने कहा कि ‘पति को त्याग देना कोई बड़ी बात नहीं, उसे फिर से पाने की साधना ही स्त्री के लिए परम सार्थकता है। अपमान का बदला लेने में ही स्त्री की वास्तविक मर्यादा नष्ट होती है, अन्यथा, वह तो कसौटी है जिस पर जाँचकर प्रेम की कीमत आँकी जाती है। और फिर यह कैसा आत्म-सम्मान का भाव कि जिसे असम्मान के साथ अलग कर दिया, उसी से अपने खाने-पहनने का खर्च हाथ पसारकर लिया जाये? क्या गले में फाँसी डालने के लिए रस्सी भी नहीं जुटी? सुनकर मैंने सोचा था कि नीलिमा की यह बात बेजा है, ज्यादती है। पर आज सोचता हूँ कि प्रेम क्या नहीं कर सकता। रूप, यौवन, सम्मान, सम्पदा - यह सब कुछ नहीं बेटी, क्षमा ही उसकी वास्तविक आत्मा है। जहाँ क्षमा नहीं, वहाँ पे्रम सिर्फ़ विडम्बना है - वहाँ पर रूप-यौवन का विचार-वितर्क उठता है और वहीं पर आता है आत्मसम्मान-ज्ञान का ‘टग ऑफ वार’।
कमल उनके मुँह की तरफ़ देखती हुई चुप रही।
आशु बाबू कहने लगे - ”कमल, तुम ही उसकी आदर्श हो - पर चांद की चाँदनी मानो सूर्य-किरणों से भी बढ़ गयी है। तुमसे जो कुछ उसने पाया है, अपने हृदय के रस में भिगोकर स्निग्ध माधुर्य के साथ उसने उसे न जाने कितनी तरफ़ बिखेर दिया है। मैंने इन दो दिनों में दो सौ वर्ष की चिन्ता की है, कमल। स्त्री का प्रेम मैंने पाया था, उसका स्वाद मैं पहचानता हूँ, स्वरूप जानता हूँ, परन्तु इस नवीन तत्व ने, कि नारी के प्रेम का वह सिर्फ़ एक ही पहलू था, सहसा आज मुझे आच्छन्न कर दिया है। इसमें न जाने कितनी बाधा है, न जाने कितनी व्यथा है, अपने को विसर्जन करने की न जाने कितनी बिनजानी तैयारियाँ हैं। यद्यपि मैं उसे हाथ पसारकर ले नहीं सका, पर क्या कहके उसे नमस्कार करूँ सो भी मेरी समझ में नहीं आ रहा है कमल।”
कमल समझ गयी कि पत्नी-प्रेम की सुदीर्घ छाया ने इतने दिन जिन दिशाओं में अँधेरा कर रखा था, आज वे ही दिशाएँ धीरे-धीरे उज्जवल होती जा रही हैं। आशु बाबू ने कहा - ठीक है, मणि को मैंने क्षमा कर दिया है। बाप के अभिमान को मैं अब उसके आगे लाल आँखें न करने दूँगा। मैं जानता हूँ कि वह दुख पायेगी, जगत का विधिबद्ध शासन उसे छुटकारा नहीं देगा। अनुमति तो नहीं दे सकूंगा, पर जाते समय यह आशीर्वाद छोड़ जाऊँगा कि दुख में से वह फिर अपने को किसी दिन खोज ले। उसकी भूल-भ्रान्ति और प्रेम, भगवान उन लोगों का सुविचार करें। कहते-कहते उनका गला भारी हो आया।
इसी तरह नीरवता में बहुत क्षण कट गये। उनके मोटे हाथ पर कमल धीरे-धीरे हाथ फेर रही थी। बहुत देर बाद उसने मृदु कण्ठ से कहा - चाचाजी, नीलिमा दीदी के विषय में आपने क्या निर्णय किया?
आशु बाबू अकस्मात सीधे होकर बैठ गये। जैसे किसी ने उन्हें ठेलकर उठा दिया हो, बोले - देखो बेटी, तुम्हें मैं पहले भी नहीं समझा सका हूँ और अब भी न समझा सकूँगा और शायद अब सामथ्र्य भी नहीं है। पर ऐसा संशय मेरे मन में कभी नहीं आया कि एकनिष्ठ प्रेम का आदर्श मनुष्य का सच्चा आदर्श नहीं। नीलिमा के प्रेम पर मैं सन्देह नहीं करता, पर जैसे वह सत्य है वैसे ही उसे अस्वीकार करना भी मेरे लिए वैसा ही सत्य है। किसी तरह भी मैं इसे निष्फल आत्म-वंचना नहीं कह सकता। तर्क से इसका मेल नहीं खायेगा, पर यह सच है कि निष्फलता में से होकर मनुष्य आगे बढ़ेगा। मैं नहीं मानता कि कहाँ जायेगा, पर जायेगा ज़रूर। यद्यपि वह मेरी कल्पना से अतीत है, पर मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि इतनी बड़ी व्यथा का प्रतिफल मनुष्य किसी न किसी दिन पायेगा अवश्य। नहीं तो संसार असत्य, सृष्टि असत्य हो जायेगी।
वे कहने लगे - इसी नीलिमा को ही ले लो, किसी भी आदमी के लिए जो नारी अमूल्य सम्पदा हो सकती है - उसके लिए कहीं भी खड़े होने की जगह नहीं। उसकी व्यर्थता मेरे बाकी दिनों को शूल की तरह चुभती रहेगी। इसी से सोचता हूँ, अगर वह और किसी से प्रेम करती। यह उसकी कैसी भूल है।
कमल ने कहा - भूल सुधार के दिन तो अभी उसके खत्म नहीं हो गये चाचाजी!
”कैसे? तुम समझती हो, अब क्या वह फिर किसी से प्रेम कर सकती है?”
”कम से कम, असम्भव तो नहीं है। इसे भी क्या आपने कभी सम्भव समझा था कि आपके अपने जीवन में कभी ऐसी घटना हो सकती है?”
”लेकिन नीलिमा? उसके जैसी स्त्री?”
कमल ने कहा - सो नहीं जानती। पर उसके लिए क्या आप यही प्रार्थना करेंगे कि जिसे उसने पाया नहीं, और पा सकती नहीं, उसी की याद में सारा जीवन व्यर्थ निराशा में काट दे?
आशु बाबू के चेहरे की दीप्ति अत्यधिक मलिन हो गयी। बोले - ”नहीं, ऐसी प्रार्थना नहीं करूँगा।” फिर क्षण भर चुप रहकर कहने लगे - मगर मेरी बात भी तुम नहीं समझोगी, कमल। मैं जो कर सकता हूँ, वह तुम नहीं कर सकतीं। सत्य का मूलगत संस्कार तुम्हारे और मेरे जीवन का एक नहीं है - बिल्कुल भिन्न है। इस जीवन को ही जिन लोगों ने मानव-आत्मा की परम प्राप्ति समझा है, उसके लिए प्रतीक्षा करना मुश्किल है, वे तो आजन्म भोग की अन्तिम बूँद तक इसी जीवन में पी लेना चाहेंगे, परन्तु हम जन्मान्तर मानते हैं, प्रतीक्षा करने का समय हमारे लिए अनन्त है - उसमें औंधे होकर पीने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
कमल ने शान्त कण्ठ से कहा - मैं आपकी यह बात मानती हूँ चाचाजी।
लेकिन, सिर्फ़ इसी कारण तो आपके संस्कार को युक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता और आकाश-कुसुम की आशा से विधाता के दरवाजे पर हाथ पसारे जन्मान्तर-काल तक प्रतीक्षा करने लायक धैर्य भी मुझमें नहीं है। जिस जीवन को सबके बीच सहज बुद्धि से पाया है, वही मेरे लिए सत्य है, वही महान है, फूल-फल और शोभा सम्पदा से मेरा यह जीवन भर उठे, परलोक के विशाल लाभ की आशा से मैं जीवन की उपेक्षा, अवज्ञा और अपमान न करूं - इतना ही मैं ठीक समझती हूँ। चाचाजी, इसी तरह आप लोग आनन्द से और सौभाग्य से स्वेच्छापूर्वक वंचित रहा करते हैं। आप लोग इहलोक को तुच्छ समझते हैं, इसी से इहलोक ने भी आप लोगों को सारे जगत के सामने तुच्छ बना रखा है। नीलिमा जीजी से भेंट होगी या नहीं, सो नहीं मालूम, अगर होगी तो मैं उनसे यही बात कह जाऊँगी।
कमल उठकर खड़ी हो गयी। आशु बाबू ने सहसा ज़ोर से उसका हाथ पकड़ लिया। बोले - जा रही हो बेटी? यह सोचते ही कि ‘तुम जा रही हो’ मेरी छाती के भीतर हाहाकार-सा मच जाता है।
कमल बैठ गयी। बोली - पर आपको तो मैं किसी तरफ़ से तसल्ली दे नहीं पाती चाचाजी, देह और मन से जब कि आप अत्यन्त अस्वस्थ हैं, और सान्त्वना देना ही जब कि सबसे ज़रूरी वस्तु है, तब मैं सब तरफ़ से मानो आपको चोट ही पहुँचाया करती हूँ। फिर भी, यह सच है कि मैं आपको किसी से भी कम प्यार नहीं करती चाचाजी।
आशु बाबू ने इसे मन ही मन स्वीकार करते हुए कहा - इसके अलावा नीलिमा - वह भी क्या साधारण आश्चर्य है। पर जानती हो इसका कारण क्या है कमल? कमल ने मुस्कुराते हुए कहा - शायद आपके अन्दर दलदल नहीं है - इसी से दलदल अपने शरीर का भी बोझ नहीं ढो सकता - पाँवों के नीचे से अपने को हटाकर अपने आपको डुबो देता है। लेकिन ठोस मिट्टी लोहे और पत्थर का भी बोझ झेल लेती है - इमारत उसी पर बनायी जा सकती है। नीलिमा दीदी को सब स्त्रियाँ नहीं समझ सकतीं, हाँ जिनके अपने को लेकर खेल खेलने के दिन बीत चुके हैं और सिर का बोझ उतार कर जो सहज निःश्वास लेती हुई जीना चाहती हैं, वे उन्हें समझ सकेंगी।
”हाँ।” कहकर आशु बाबू ने एक गहरी साँस ली, और कहा - ”और शिवनाथ?”
कमल ने कहा - जिस दिन से मैंने उन्हें सचमुच समझा है, उस दिन से क्षोभ और अभिमान मेरे मन से बिल्कुल धुल-पुँछ गया है - ज्वाला बुझ गयी है। शिवनाथ गुणी आदमी हैं, कलाकार हैं - कवि हैं। चिरस्थायी प्रेम कलाकारों के मार्ग का विध् न है, उनकी सृष्टि के लिए अन्तराय है, उनके स्वभाव का परम विरोधी है। यही बात उस दिन ताज के सामने खड़ी होकर मैं कहना चाहती थी। स्त्रियाँ तो एक उपलक्ष्य मात्र हैं - नहीं तो, असल में वे प्रेम करते हैं सिर्फ़ अपने आप से। अपने मन को दो भागों में विभक्त करके उनकी दो दिन की लीला चलती है - उसके बाद वह खत्म हो जाती है। इसीलिए उनके गले का स्वर ऐसा विचित्र होकर बजता है - अन्यथा वह बजता नहीं, सूखकर जम जाता। मैं तो समझती हूँ, शिवनाथ ने उसे नहीं ठगा, मनोरमा ने अपने आप ही भूल की है। सूर्यास्त के समय बादलों पर जो रंग खिलने लगता है चाचाजी, वह न तो स्वार्थी होता है और न उसका वह स्वाभाविक रंग ही है। लेकिन फिर भी उसे झूठ कौन कह सकता है?
आशु बाबू ने कहा - सो मालूम है, पर केवल रंग से ही तो आदमी के दिन नहीं कटते बेटी, और न उपमा से उसकी व्यथा ही मिटती है। बताओ बेटी, इसका क्या उपाय है?
कमल का चेहरा क्लान्ति से मलिन हो गया, उसने कहा, ”इसी से घूमफिरकर एक ही प्रश्न बार-बार सामने आ जाया करता है चाचाजी, वह जैसे शेष ही नहीं होता। बल्कि यही ठीक है कि जाते समय आप अपना यही आशीर्वाद छोड़ जाये कि मणि दुख के दिनों में अपने आपको ढूँढ़ निकाले, जो झड़ने वाला है उसके झड़ जाने के बाद वह बिना किसी संशय के अपने को पहचान सके। और आपसे भी मै कहूँगी कि संसार में होनेवाली अनेक घटनाओं में से विवाह भी एक घटना है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। उसी को जिस दिन से नारी का सर्वस्व मान लिया गया है उसी दिन से स्त्रियों के जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी शुरू हो गयी है। विदेश जाने के पहले अपने मन की असत्य की जंजीर से अपनी लड़की को मुक्त कर जाइए। चाचाजी, यही आपसे मेरी अन्तिम प्रार्थना है।
सहसा दरवाजे के पास किसी के पैरों की आहट सुनकर दोनों उधर देखने लगे। हरेन्द्र ने भीतर आकर कहा - ”भाभी जी को मैं लिवाने आया हूँ, आशु बाबू, वे भी तैयार हैं - ताँगा लाने के लिए आदमी भेज दिया है।”
आशु बाबू का चेहरा फक पड़ गया। बोले - ”अभी? लेकिन दिन तो अब नहीं रहा?”
हरेन्द्र ने कहा - दस-बीस कोस नहीं है, पांच मिनट में पहुँच जायेगी।
उसका चेहरा जैसा गम्भीर था बातें भी उसकी वैसी ही नीरस थीं।
आशु बाबू ने आहिस्ते से कहा - सो तो ठीक है। पर शाम का वक़्त है - आज जाये बगैर नहीं चलेगा?
हरेन्द्र ने जेब में से कागज का एक टुकड़ा निकालकर आगे बढ़ाते हुए कहा, ”आप ही विचार कीजिए।”
उसमें लिखा था - ”लाला जी, यहाँ से मुझे ले जाने का उपाय अगर तुम न कर सको, तो मुझे खबर दे देना। पर कल मत कहना कि मुझसे कहा क्यों नहीं?
- नीलिमा।”
आशु बाबू सन्न रह गये।
हरेन्द्र ने कहा - निकट-आत्मीय के रूप में तो मैं दावा नहीं कर सकता, पर उन्हें तो आप जानते हैं उनकी इस चिट्ठी के पाने के बाद देर करने की हिम्मत नहीं पड़ती।
”तुम्हारे ही घर पर तो रहेगी?”
”हाँ, कम से कम उससे अच्छी व्यवस्था जब तक न हो सके तब तक। सोचा कि इस घर में उनके इतने दिन बीत गये तो उस घर में भी कुछ अनुचित न होगा।”
आशु बाबू चुप रहे। इतना भी न कहा कि यह सुबुद्धि अब तक कहाँ रही?
इतने में बेहरा आया और बोला - मेम साहब का सामान लेने मजिस्ट्रेट साहब के यहाँ से आदमी आया है।
आशु बाबू ने कहा - उनका जो कुछ सामान है सब बता दो।
कमल की आँखों में आँखे मिलते ही उन्होंने कहा - कल सबेरे बेला यहाँ से चली गयी है। मजिस्ट्रेट की स्त्री उसकी सहेली है। तुम्हें एक सुसमाचार देना तो भूल ही गया कमल, बेला के पति आये हैं उसे लेने के लिए, मालूम होता है शायद आपस में उकना ‘रिकन्सोलिएशन’ हो गया है।
कमल ने थोड़ा आश्चर्य प्रकट न करते हुए कहा - लेकिन यहाँ क्यों नहीं आये?
आशु बाबू ने कहा - शायद आत्म गौरव पर आंच नहीं आती। जब विवाह-बन्धन तोड़ने का मामला चला था तब बेला के पिता की चिट्ठी के उत्तर में मैंने अपनी तरफ़ से सम्मति दी थी। उसके पति शायद इस बात को क्षमा न कर सके होंगे।
”आपने सम्मति दी थी?”
आशु बाबू ने कहा - इसमें आश्चर्य की बात क्या है कमल? जो पति चरित्रदोष का अपराधी है, उसे त्यागने में मैं अन्याय नहीं देखता। मैं नही मान सकता कि यह अधिकार सिर्फ़ पति को ही है, स्त्री को नहीं।
कमल चुप रही। उसे फिर एक बार स्मरण हो आया कि इस आदमी की विचार-धारा में किसी तरह का कपट नहीं, मन और वचन एक ही स्वर में बँधे हुए हैं।
नीलिमा दरवाजे के पास से नमस्कार करके चली गयी। न तो भीतर आयी, और न उसने किसी की तरफ़ आँख उठाकर देखा ही।
बहुत देर तक कमल उसी तरह आशु बाबू के हाथ पर हाथ फेरती रही, कुछ बोली-चाली नहीं। अन्त में जाने के पहले, उसने धीरे से कहा - ‘यदु के सिवा इस घर में पुराना और कोई नहीं रह गया।”
”यदु?”
”हाँ, आपका पुराना नौकर।”
”पर वह तो यहाँ है नहीं, बिटिया। उसका लड़का बीमार है, सो चार-पांच दिन हुए छुट्टी लेकर घर गया है।”
फिर बहुत देर तक कोई बातचीत नहीं हुई। आशु बाबू अकस्मात पूछ बैठे - अच्छा, वह लड़का राजेन्द्र कहाँ है, कुछ मालूम है तुम्हें, कमल?
”नहीं, चाचाजी।”
”जाने के पहले उसे एक बार देखने की इच्छा हो रही है। तुम दोनों मानो बहन-भाई हो, एक ही पेड़ के दो फूल से लगते हो।” इतना कहकर वे चुप होना चाहते थे कि सहसा एक बात याद आ गयी और बोले - ”तुम लोगों का दारिद्र्य ऐसा लगता है जैसे महादेव का दारिद्र्य। तुम्हारे धन-ऐश्वर्य काफ़ी हैं, पर अन्यमन्सक-से होकर जैसे उसे कहीं भूल आये हो। ऐसी उदासीनता कि उसे ढूँढ़ने की भी कोई गर्ज नहीं।”
कमल ने हँसते हुए कहा - ऐसा क्यों कहते हैं चाचाजी? राजेन्द्र की बात मैं नहीं जानती, पर मैं तो पैसे-पैसे के लिए दिन-रात मेहनत किया करती हूँ।
आशु बाबू ने कहा, ”सो, मैंने सुना है। यही तो बैठा सोचा करता हूँ।”
उस दिन कमल को घर लौटने में काफी देर हो गयी। आते समय आशु बाबू ने कहा, ”डरने की कोई बात नहीं बेटी, जो आज तक कभी मुझे छोड़कर नहीं रही, आज भी वह मुझे छोड़कर न जायेगी। निरुपाय का उपाय वही करेगी।” कहते हुए उन्होंने हाथ उठाकर सामने की दीवार पर टँगी हुई अपनी स्वर्गीया धर्मपत्नी की तस्वीर दिखा दी ओर चुप हो रहे।
कमल ने घर पहुँचकर देखा कि ऊपर जाने का रास्ता बन्द है, बक्सों का ढेर सीढ़ी के सामने अड़ा पड़ा है। एकाएक उसकी छाती के भीतर छौंक सा लग गया। किसी तरह रास्ता निकालकर वह ऊपर पहुँची। रसोई घर में शोरगुल सुनकर उसने झाँककर देखा कि अजित ने नौकरानी की मदद से स्टोव जलाकर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया है, और चाय-चीनी आदि की तलाश में घर-भर की तमाम चीज़ें उथल-पुथल कर डाली हैं।
”यह क्या कर रखा है?”
अजित ने चौंककर कमल की ओर देखा। बोला - ”चाय-चीनी वगैरह क्या तुम लोहे की तिज़ोरी में बन्द रखा करती हो? सब पानी कब से खौलकर मिट्टी हुआ जा रहा है।”
”लेकिन मेरे घर की चीज आपको मिलेगी कैसे, सो तो बताइए? चलिए, इधर आइए, मैं तैयार किये देती हूँ।”
अजित हटकर अलग खड़ा हो गया।
कमल ने कहा - पर आज बात क्या है? बक्स-ट्रंक, गठरी-पोटली - यह सब किसका सामान है?
”मेरा। हरेन्द्र बाबू ने नोटिस दे दिया है।”
”नोटिस दिया है तो वहाँ से चले जाने का दिया होगा। पर यहाँ आने की बुद्धि किसने दी?”
”वह मेरी अपनी है। इतने दिनों से पराई बुद्धि पर ही चलता आ रहा हूँ, अब मैंने अपनी बुद्धि ढूँढ़ निकाली है।
कमल ने कहा - ”अच्छा किया है। पर सामान क्या सब नीचे ही पड़ा रहेगा? कोई चुरा नहीं ले जायेगा वहाँ से?”
सुनते ही अजित चंचल हो उठा। बोला - चुरा तो नहीं ले गया कोई कुछ?
एक चमड़े के सूटकेस में बहुत से रुपये रखे हैं।
कमल ने सिर हिलाकर कहा - बहुत अच्छा किया है। एक खास जाति के आदमी होते हैं जो अस्सी वर्ष की उमर तक भी बालिग नहीं हुआ करते, उनके सर पर एक न एक अभिभावक होना ही चाहिए। पर इसकी व्यवस्था भगवान स्वयं कृपा करके कर देते हैं। चाय रहने दीजिए, चलिए, नीचे चलिए पहले - किसी तरह पकड़-थामकर सामान ऊपर लाने की कोशिश की जाये।
27
मकानवाला अभी-अभी पूरे महीने का किराया लेकर गया है। इधर-उधर बिखरे हुए सामान के बीच, विश्रृंखल कमरे के एक किनारे, केन्वास की आरामकुर्सी पर अजित आँखें मींचे पड़ा है। मुँह सूखा हुआ है, देखते ही पता चल जाता है कि उसके चिन्ताग्रस्त मन में सुख का लेश भी नहीं है। कमल सिलसिलेवार बँधी चीजों को फर्द से मिलाकर एक कागज पर लिख रही है। स्थान छोड़ने का समय सन्निकट है, इस कारण उसके काम में किसी तरह की चंचलता नहीं आयी है। ऐसा लगता है मानो यह उसका रोजमर्रा का काम हो। सिर्फ़ नीरवता कुछ अधिक है।
इतने में हरेन्द्र के यहाँ से शाम के भोजन का निमंत्रण आया। किसी आदमी के मार्फ़त नहीं, डाक से। अजित ने चिट्ठी खोलकर पढ़ी। आशु बाबू की विदाई के उपलक्ष्य में यह आयोजन है। बहुत से परिचित लोगों को आमंत्रित किया गया है। नीचे के एक कोने में छोटे हरफ में लिखा है। ‘कमल, ज़रूर आना बहन। - नीलिमा’ अजित ने उसे दिखाते हुए पूछा - ”जाओगी क्या?”
”जाऊँगी क्यों नहीं। मेरी कदर इतनी थोड़े बढ़ गयी हे कि निमत्रंाण जैसी चीज की उपेक्षा कर सकूं। मगर तुम?”
अजित ने दुविधा के स्वर में कहा - ”यही सोच रहा हूँ। आज तबियत कुछ - “
”तो ज़रूरत नहीं जाने की।”
अजित की निगाह अब तक चिट्ठी पर ही थी। नहीं तो वह कमल के ओठों पर आयी हुई कौतुकपूर्ण मुस्कराहट ज़रूर देख लेता।
चाहे जैसे भी हो, बंगाली समाज में यह खबर सबको लग गयी है कि ये दोनों आगरा छोड़कर कहीं जा रहे हैं। पर इस विषय में कि किस तरह और कहाँ, लेागों का कुतूहल अभी तक सुनिश्चित मीमांसा पर नहीं पहुँचा है। असमय के बादलों की तरह वह अन्दाज और अनुमान की हवा में ही उड़-उड़कर भटक रहा है और मजा यह कि जानना कोई कठिन बात नहीं थी - कमल से पूछने से ही मालूम हो सकता था कि फिलहाल उनका गन्तव्य स्थान अमृतसर है। - पर पूछने का किसी को साहस न हुआ।
अजित के पिता गुरु गोविन्द सिंह के परम भक्त थे। इसी से सिखों के महातीर्थ अमृतसर में उन्होंने खालसा-कालेज के पास खुले मैदान में एक बंगला बनवाया था। समय और सुविधानुसार वे वहाँ जाकर रहा करते थे। उनकी मृत्यु के बाद बंगला किराये पर उठा दिया गया था, पर अब वह खाली है। दोनों वहीं जाकर कुछ दिन रहेंगे। असबाब सब लारी में जायेगा, और शेष रात्रि में पौ फटते-फटते ये दोनों मोटर से रवाना होंगे, उसी प्रथम दिन की स्मृति में - यही कमल की अभिलाषा है।
अजित ने कहा - ”हरेन्द्र के यहाँ क्या तुम अकेली ही जाओगी?”
”जाऊँगी नहीं? आश्रम का दरवाजा तो तुम्हारे लिए हमेशा ही खुला रहेगा, जब चाहो तब भेंट कर आ सकते हो। पर मेरे लिए तो उसके खुलने के आगे कोई आशा नहीं - अन्तिम बार जाकर मिल आऊँ, क्यों, क्या कहते हो?”
अजित चुप रहा। उसे स्पष्ट ही दिखाई देने लगा कि वहाँ तरह-तरह के छल से तथा व्यक्त और अव्यक्त इशारों से तीखे और कड़ुवे वाक्य-बाण आज सिर्फ़ उसी को लक्ष्य करके छूटेंगे और उन आक्रमणों के सामने इस अकेली रमणी को छोड़ देना कितनी बड़ी कायरता है। पर उसमें साथ देने की भी हिम्मत नहीं थी और मना करना भी उतना ही कठिन था।
नयी मोटर खरीदी गयी है, शाम होने के कुछ देर बाद शोफर कमल को लेकर चला गया।
हरेन्द्र के घर दूसरी मंज़िल पर लम्बा हॉल था। उसी में नयी क़ीमती कार्पेट बिछाकर अतिथियों के लिए इन्तज़ाम किया गया है। बहुत-सी बत्तियाँ जल रहीं हैं, कोलाहल भी कम नहीं हो रहा है। बीच में आशु बाबू हैं, और उन्हें घेरे हुए कुछ सज्जन बैठे हैं। बेला आयी है और उनके साथ एक और महिला - मजिस्ट्रेट की स्त्री मालिनी भी आयी हैं। एक सज्जन इधर की ओर पीठ किए हुए उनसे बातें कर रहे हैं। नीलिमा नहीं है, शायद अन्यत्र कहीं काम में फँसी हुई होगी।
हरेन्द्र भीतर पहुँचा और पहुँचते ही उसने देखा कि दरवाजे के पास कमल खड़ी है। आश्चर्य के साथ उसने मीठे स्वर में उसका स्वागत किया - ओ हो, कमल आ गयी। कब आयी? अजित कहाँ है?
सबकी दृष्टि एकाग्र होकर उसी तरफ़ मुड़ गयी। कमल ने देखा कि जो व्यक्ति महिलाओं के साथ बातचीत कर रहा था वह और कोई नहीं, स्वयं अक्षय है। कुछ दुबला हो गया है। इन्फ्लुएँजा से तो बच गया, पर बंगाल के मलेरिया से न बच सका। अच्छा ही हुआ जो वह लौट आया, नहीं तो अन्तिम बार उससे भेंट न हो पाती, मन में पछतावा रह जाता।
कमल ने कहा - अजित बाबू नहीं आये, तबियत ज़रा ठीक नहीं है। मैं तो बहुत देर की आयी हूँ।
”बहुत देर की? कहाँ थी?”
”नीचे। लड़कों की कोठरियाँ घूम-घूमकर देख रही थी। देख रही थी कि धर्म को तो धोखा दिया है, साथ ही कर्म को भी धोखा दिया या नहीं।” कहकर वह हँसती हुई कमरे के भीतर जाकर बैठ गयी।
मानो वह वर्षा ऋतु की वन्य लता हो जो दूसरों की आवश्यकता के लिए नहीं, बल्कि अपनी ही आवश्यकता के लिए आत्मरक्षा का सम्पूर्ण संचय लेकर मिट्टी फोड़कर ऊपर सिर उठाती आ रही हो। पारिपाश्र्विक विरोध का उसे न तो थोड़ा भी डर है, और न चिन्ता है - काँटों का घिराव बनाकर उसकी रक्षा की कोशिश ही मानो ज्यादती है। आखिर वह ऐसी क्या थी! - परन्तु फिर भी जब भीतर जाकर बैठी तब ऐसा मालूम हुआ जैसे रूप, रस और गौरव से उसने अपनी महिमा का एक स्वच्छन्द प्रकाश सब चीजों पर बिखेर दिया है।
ठीक यही भाव हरेन्द्र की बात से भी प्रकट हुआ। अन्य दो नारियों के सामने शालीनता में भले ही कुछ त्रुटि हो गयी हो, पर वह आवेग में आकर कह ही बैठा - ”अब कहीं हमारी मिलन सभा पूर्णता को प्राप्त हुई।” कमल के सिवा शायद वह और किसी के लिए ऐसी बात नहीं कह सकता था।
अक्षय ने कहा - ”क्यों?” इससे दर्शनशास्त्र का ऐसा कौन-सा सूक्ष्म तत्व परिस्फुटित हो गया, ज़रा कहो तो सही?”
कमल ने हरेन्द्र से हँसते हुए कहा - ”अब बताइए? दीजिए इसका जवाब?”
हरेन्द्र तथा औरों ने भी मुँह फेरकर अपनी-अपनी हँसी छिपाने की कोशिश की।
अक्षय ने नीरस कण्ठ से पूछा - क्यों कमल, मुझे पहचाना कि नहीं?
आशु बाबू मन ही मन असन्तुष्ट हुए। बोले - तुम पहचान लो इतना ही काफी है। तुमने तो पहचान लिया न?
कमल ने कहा - यह प्रश्न आपका बेजा है आशु बाबू। आदमी पहचानना तो इनका खास पेशा है। इसमें भी सन्देह करना इनके पेशे पर चोट पहुँचाना है। बात उसने इस ढंग से कही कि अबकी बार किसी से हँसी दबाये नहीं दबी। मगर साथ ही इस डर से कि यह दुःशासन आदमी कहीं कुछ कुत्सित बात न कह बैठे, सब शंकित हो उठे। आज के दिन अक्षय को बुलाने की हरेन्द्र की इच्छा नहीं थी, पर यही सोचकर निमंत्रण दे दिया गया था कि वह बहुत दिन बाद घर से आया है, न देने से बहुत ही भद्दा दिखेगा। हरेन्द्र ने डरते हुए और विनय के साथ कहा - हमारे इस शहर से - अथवा यों कहिए कि इस देश से ही आशु बाबू चले जा रहे हैं। इनके साथ परिचित होना किसी भी आदमी के लिए सौभाग्य की बात है और वह सौभाग्य हम लोगों को प्राप्त हुआ है। आज आपकी तबियत ठीक नहीं है, मन भी अवसन्न है, इसलिए हमें आशा करनी चाहिए कि आज हम आपको सहज-सौजन्य के साथ विदा कर सकेंगे।
बातें साधारण-सी थीं, पर उस शान्त सहृदय प्रौढ़ व्यक्ति के चेहरे की तरफ़ देखते ही वे सबके हृदय में पैठ गयी।
आशु बाबू को संकोच मालूम हुआ। इस आशंका से कि बातचीत का सिलसिला कहीं उन्हीं के विषय में न चल पड़े, उन्होंने चट से दूसरी बात छेड़ दी बोले - अक्षय, शायद तुम्हें मालूम हो गया होगा कि हरेन्द्र का ब्रह्मचर्य अब नहीं रहा। राजेन्द्र तो पहले से ही लापता हैं और सतीश भी उस दिन चलता बना। जो कुछ दो-चार लड़के रहे गये हैं, हरेन्द्र की इच्छा है कि उन्हें संसार के सीधे रास्ते से ही आदमी बनाया जाये। तुम सब लोग बहुत दिनों तक बहुत सी बातें करते रहे, पर नतीजा कुछ नहीं हुआ। अब तुम लोगों का कर्तव्य है कि कमल को धन्यवाद दो!
अक्षय भीतर से जल गया और सूखी हँसी हँसता हुआ बोला - अन्त में फल फला शायद इनकी बातों से? लेकिन कुछ भी कहिए आशु बाबू, मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ। यह अनुमान तो मैंने बहुत पहले से ही कर रखा था!“
हरेन्द्र ने कहा - सो तो करते ही, क्योंकि आदमी पहचानना आपका पेशा ठहरा!
आशु बाबू बोले - फिर भी, मैं समझता हूँ, तोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं थी। सभी धर्म या मत मूलतः एक ही हैं - सिद्धि प्राप्त करने के अर्थ वे सिर्फ़ कुछ प्राचीन आचार-अनुष्ठान ही तो हैं? जो उन्हें मानते नहीं या पालते नहीं, वे न मानें या न पालें, पर जिनमें मानने या पालने का अध्यवसाय है उन्हें निरुत्साह करने से क्या लाभ? क्या कहते हो अक्षय?
अक्षय ने कहा - ज़रूर।
आशु बाबू ने कमल की तरफ़ देखा। उनके देखते ही वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोल उठी - आपका यह दृढ़ विश्वास तो नहीं हुआ आशु बाबू, बल्कि यह तो अविश्वास उपेक्षा की बात हुई। इस तरह सोच सकती तो मैं आश्रम के विरुद्ध एक शब्द भी न कहती, मगर बात ऐसी नहीं है। यह कहना कि आचार-अनुष्ठान मनुष्य के लिए धर्म से भी बड़ी वस्तु है, वैसा ही है जैसा कि राजा से बढ़कर राजा के कर्मचारियों को बड़ा बताना।
आशु बाबू ने हँसते हुए कहा - माना कि यह ठीक है, पर इससे क्या तुम्हारी उपमा को ही युक्ति मान लूँ?
यह बात कमल के चेहरे से ही जाहिर थी कि उसने परिहास नहीं किया। उसने कहा - ”क्या सिर्फ़ उपमा ही है आशु बाबू, उससे ज़्यादा कुछ नहीं? इसे मैं मानती हूँ कि सभी धर्म असल में एक हैं, सर्व कालों और सर्वदेशों में वे उसी एक अज्ञेय वस्तु की असाध्य साधना हैं। उन्हें मुट्ठी के अन्दर पाया तो जा सकता नहीं। प्रकाश और हवा को लेकर मनुष्य का विवाद नहीं होता, विवाद होता है अन्न के बंटवारे के लिए - जिसे कि अपने अधिकार में लिया जा सकता है या दखल करके अपने वंशधरों के लिए इकट्ठा किया जा सकता है। इसी से तो जीवन की आवश्यकताओं में वह इतना बड़ा सत्य हो गया है। यह तो सभी जानते हैं कि विवाह का मूल उद्देश्य सभी क्षेत्रों में एक ही है पर इससे क्या सब उसे मान सकते हैं? आप ही बताइए न अक्षय बाबू, ठीक है कि नहीं?” इतना कहने के पश्चात उसने हँसकर मुँह फेर लिया। इसका भीतरी अर्थ सभी समझ गये। क्रुद्ध अक्षय ने इसके जवाब में कोई कड़ी बात कहनी चाही, पर वह उसे ढूँढ़े न मिली।
आशु बाबू ने कहा - पर मुश्किल तो यह है कमल, कि तुम कुछ भी मानना नहीं चाहतीं। सभी आचार-अनुष्ठानों के प्रति तुम्हारे अन्दर अवज्ञा का भाव है, इसी से तो तुम्हें समझाना कठिन है।
कमल ने कहा - कुछ भी कठिन नहीं। एक बार सामने का परदा हटा दीजिए और फिर कोई समझे या न समझे, आपको समझने में देर न लगेगी। यह नहीं होता तो आपका स्नेह मैं कैसे पा सकती? बीच में कुहरे की ओट न हो सो बात नहीं, मगर फिर भी वह प्रेम मुझे मिला है। मैं जानती हूँ आपको चोट पहुँचती है, लेकिन आचार-अनुष्ठान को मैं झूठा बताकर उड़ा देना नहीं चाहती, मैं करना चाहती हूँ सिर्फ़ उसमें परिवर्तन। समय के धर्मानुसार आज जो अचल हो रहा है, चोट पहुँचाकर मैं उसी को सचल कर देना चाहती हूँ। यह जो मेरी अवज्ञा है, वह इसीलिए है कि उसका मूल्य मैं समझती हूँ। झूठ समझती होती तो झूठ के साथ स्वर मिलाकर झूठी श्रद्धा से सबके साथ मेल मिलाकर ही जीवन बिता देती, ज़रा भी विद्रोह न करती। ज़रा ठहरकर वह फिर कहने लगी - ”यूरोप के उन रेनेसांस के दिनों की याद कीजिए। उन लोगों ने नयी सृष्टि करनी चाही, पर आचार-अनुष्ठान को हाथ भी न लगाया। पुराने की देह पर ही ताजा रंग चढ़ाकर भीतर ही भीतर करने लगे उसकी पूजा। भीतर जड़ पहुँची नहीं, और यह फैशन दो ही दिन में गायब हो गया। डर था हमारे हरेन्द्र बाबू को कि कहीं उच्च अभिलाषा इसी तरह बिला न जाये। पर अब कोई डर नहीं, वे संभल गये हैं।” और वह हँसने लगी।
इस हँसी में हरेन्द्र शरीक न हो सका, गम्भीर हो गया। उसने काम तो कर डाला है, पर भीतर से अब भी समर्थन नहीं मिल रहा है, और अब भी मन रह-रहकर भारी हो उठता है। वह बोला - मुश्किल तो यह है कि तुम भगवान को नहीं मानतीं और मुक्ति पर भी तुम्हारा विश्वास नहीं। मगर जो लोग तुम्हारी उस ‘अज्ञेय वस्तु’ की साधना में लगे हुए हैं और उसके तत्व निरूपण में व्यग्र हैं, उनके लिए कठोर आचार-पालन के सिवा और कोई मार्ग भी तो नहीं है। आश्रम उठा देकर मैं अहंकार नहीं करता, उस दिन जब लड़कों को लेकर सतीश चला गया तब मैंने अपनी कमज़ोरी ही महसूस की है।
कमल ने कहा - तब तो आपने अच्छा नहीं किया हरेन्द्र बाबू। मेरे पिता कहा करते थे कि जिन लोगों का भगवान जितना ही अधिक सूक्ष्म और अधिक जटिल है, वे लोग उतने ही ज़्यादा उलझकर मरते हैं और जिन लोगों के भगवान जितने ही अधिक स्थूल और सहज हैं, वे लोग उलझनों से उतनी ही दूर, किनारे के निकट हैं। ईश्वर को मानना असल में नुकसान का कारोबार है। कारोबार जितना ही विस्तृत और व्यापक होगा, नुकसान की मात्रा उतनी ही बढ़ जायेगी। उसे समेटकर छोटा कर डालने में यद्यपि लाभ ज़्यादा नहीं होता किन्तु नुकसान की मात्रा ज़रूर घट जाती है। हरेन्द्र बाबू, आपके सतीश से मैंने बातचीत करके देखा है। आश्रम में उन्होंने अनेक प्रकार के प्राचीन नियमों का प्रवर्तन किया था, मन की कामना थी कि उसी प्राचीन युग में लौटा जाये। उन्होंने सोचा था कि दुनिया की उमर में से दो हजार वर्ष पोंछ डालने से ही परम लाभ अपने आप पहुँचेगा। यूरोप में भी एक दिन ऐसे ही झूठे लाभ की स्कीम बाँधी थी प्यूरिटनों के एक दल ने। सोचा था कि भागकर अमेरिका चले जायेंगे और पिछली सत्रह शताब्दियाँ बिना किसी झंझट के आनन्द के साथ बाइबिल का सतयुग कायम कर लेंगे। किन्तु उनके लाभ का हिसाब आज बहुतों को मालूम हो गया है, नहीं मालूम है तो मठाधीशों के दल को। पिछले जमाने के दर्शन शास्त्र से जब वर्तमान विधि-विधानों का समर्थन किया जाने लगता है तभी उन विधि-विधानों के वास्तव में टूटने का दिन आ जाता है। हरेन्द्र बाबू, आपके आश्रम को शायद नुकसान पहुँचाया हो मैंने, पर उस टूटे हुए आश्रम से जो बाकी बच रहे हैं उनका मैंने नुकसान नहीं किया।
प्यूरिटनों का इतिहास अक्षय को मालूम था, क्योंकि वह इतिहास का प्रोफेसर था। इस बार और सब चुप रहे, सिर्फ़ उसी ने सिर हिलाकर इसका समर्थन किया। आशु बाबू कहने लगे - पर उस युग के इतिहास का जो उज्जवल चित्र है-
कमल बीच में ही बोल उठी - चाहे जितना उज्जवल हो वह चित्र, पर है तो चित्र ही, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। ऐसी पुस्तक आजकल संसार में लिखी ही नहीं गयी आशु बाबू, जिससे समाज के यथार्थ प्राणों का परिचय प्राप्त किया जा सकता।
आलोचना करके हम गर्व अनुभव कर सकते हैं, पर पुस्तक से मिला-मिलाकर समाज नहीं गढ़ सकते। श्रीरामचन्द्र के युग का भी नहीं, युद्धिष्ठर के युग का भी नहीं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ में चाहे जितनी ही बातें लिखी हों पर उनके श्लोकों को टटोलने से उस जमाने के साधारण मनुष्य के दर्शन नहीं मिल सकते, और माँ की कोख चाहे जितनी ही निरापद क्यों न हो, बड़े होने पर उसमें वापस नहीं जाया जा सकता। संसार की सम्पूर्ण मानव-जाति को मिलाकर ही तो मनुष्य का अस्तित्व है, वह तो आपके चारों तरफ़ है। कम्बल ओढ़कर क्या हवा के दबाव को रोका जा सकता है?
बेला और मालिनी चुपचाप बैठी सुन रही थीं। इस स्त्री के सम्बन्ध में बहुत-सी बातें उन लोगों ने सुन रखी थीं, पर आज आमने-सामने बैठकर इस परित्यक्ता और निराश्रया महिला के वाक्यों की निःसंशय निर्भयता देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
दूसरे ही क्षण यही भाव आशु बाबू के मुँह से प्रकट हुआ। उन्होंने कहा - बहस में हम चाहे जो कहा करें कमल, पर तुम्हारी बहुत-सी बातें हम मानते हैं। जिसे हम नहीं कर सकते, हृदय से उसकी अवज्ञा भी नहीं करते। इसी घर में किसी दिन स्त्रियों का दरवाजा बन्द था और सुना है, एक दिन तुम्हारे आ जाने से सतीश ने इस जगह को कलुषित समझ लिया था। मगर, आज हम सभी यहाँ आमन्त्रिात होकर आये हैं, किसी के आने की रोक-टोक नहीं।
इतने में एक लड़का दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया। साफ़-सुथरी पोशाक पहने था, चेहरे पर आनन्द और सन्तोष का भाव झलक रहा था, बोला - बहनजी ने कहा है, रसोई तैयार है, आसन बिछाये जाये?
अक्षय ने कहा - हाँ, हाँ, बिछाये जायें। कहो जाकर, रात भी तो हो रही है।
लड़का चला गया। हरेन्द्र ने कहा - जब से भाभी जी आयी हैं, खाने-पीने की चिन्ता किसी को नहीं करनी पड़ती। उनके लिए तो कहीं जगह न रह गयी थी, पर सतीश गुस्सा होकर चला गया।
आशु बाबू का चेहरा क्षण-भर के लिए सुर्ख हो उठा।
हरेन्द्र कहने लगा - और मजा यह कि सतीश के लिए भी और कोई उपाय नहीं था। वह त्यागी ब्रह्मचारी आदमी ठहरा - उसकी साधना में यह सम्पर्क विघ्न था। पर मुश्किल तो यह है कि मेरी कुछ समझ ही में नहीं आ रहा कि वास्तव में कौन-सा काम ठीक हुआ।
कमल ने तुरन्त निःसंकोच स्वर में कहा - यही काम हरेन्द्र बाबू, यही काम ठीक हुआ है। संयम जब सहज स्वाभाविक न रहकर दूसरे पर आघात करने लगता है, तब वह दुर्वह हो उठता है।” कहते-कहते उसने लहमे भर के लिए आशु बाबू की तरफ़ देखा, शायद कोई एक गुप्त इशारा था - पर फिर उसने हरेन्द्र से कहा -
”भगवान के रूप में वे अपने आपको ही बढ़ाकर देखते हैं, अपने आपको ही खींच-तानकर वे अपने भगवान की सृष्टि करते हैं। इसी से उनकी भगवान की पूजा, बार-बार सिर्फ झुकाकर, अपनी ही पूजा पर उतर आती है। इसके सिवा उनके लिए और कोई रास्ता भी नहीं। मनुष्य न तो सिर्फ़ पुरुष ही हैं और न सिर्फ़ स्त्री ही, दोनों मिलकर ही एक होते हैं। आधे को त्यागकर शेष आधा जब सिर्फ़ अपने को ही विशाल रूप में पाना चाहता है, तब वह अपने को भी नहीं पाता और भगवान को भी खो बैठता है। सतीश बाबू के लिए दुश्चिन्ता मत रखिए हरेन्द्र बाबू, उनकी सिद्धि स्वयं भगवान के जिम्मे हैं।
सतीश को लगभग कोई भी देख न पाता था, इसी से अन्तिम बात पर सबके सब हँस पड़े। आशु बाबू भी हँसे, परन्तु बोले - हमारे हिन्दू-शास्त्रों में जो सबसे बड़ी बात है कमल, वह है आत्म-दर्शन। अर्थात, अपने को गम्भीरता के साथ जान लेना। ऋषियों का कहना है कि इसकी खोज में ही विश्व की सम्पूर्ण जानकारी - सम्पूर्ण ज्ञान भरा पड़ा है। भगवान को पाने का यही एक मार्ग है और इसी के लिए ध्यान का उपदेश है। तुम ईश्वर को नहीं मानती - पर जो मानते हैं, विश्वास करते हैं, उन्हें चाहते हैं - वे अगर संसार के अनेक विषयों से अपने को वंचित न रखें तो एकाग्रचित्त होकर ध्यान में सफल नहीं हो सकते। सतीश की बात मैं नहीं कहता - पर कमल, यह तो हिन्दुओं का अविच्छिन्न-परम्परा से प्राप्त संस्कार है, और यही तो योग है। समुद्र से लेकर हिमालय तक सम्पूर्ण भारत अविचल श्रद्धा से इसी तत्व पर विश्वास करता है-
भक्ति, विश्वास और भाव के आवेग से उनकी दोनों आँखें छलछला आयीं। सब तरह के बाहरी साहबी ठाठ के नीचे उनका जो दृढ़ निष्ठा विश्वास परायण हिन्दू चित्त निर्वात दीपशिखा की तरह जल रहा था, कमल ने क्षण भर के लिए उसका अनुभव किया। वह कुछ कहना चाहती थी, पर संकोच के मारे कह न सकी। संकोच और किसी बात का नहीं, सिर्फ़ इसी बात का कि इस सत्यव्रती संयतेन्द्रिय वृद्ध पुरुष को व्यथा पहुंचाना ठीक नहीं। परन्तु उत्तर न पाकर जब वे खुद ही पूछने लगे - ”क्यों कमल, क्या यह सत्य नहीं?” तब उसने सिर हिलाते हुए कहा - नहीं, आशु बाबू, यह सच नहीं। सिर्फ़ हिन्दू धर्म में नहीं, यह विश्वास सभी धर्मों में है। मगर सिर्फ़ विश्वास के ज़ोर से ही तो कोई बात कभी सत्य नहीं हो जाती। न त्याग के ज़ोर से ही वह सच हो सकती है और न मृत्यु वरण करने के ज़ोर से ही। संसार में अत्यन्त तुच्छ-तुच्छ मतभेदों के कारण बहुत से प्राणों का बहुत बार लेना-देना हो चुका है। उससे जिद का ज़ोर ही प्रमाणित हुआ है, विचारों की सत्यता प्रमाणित नहीं हुई। योग किसे कहते हैं सो मैं नहीं जानती, लेकिन, अगर वह निर्जन स्थान में बैठाकर केवल आत्म-विश्लेषण और आत्म-चिन्तन करना ही है तो मैं यही बात ज़ोर के साथ कहूँगी कि इन दो सिंहद्वारों से संसार में जितने भ्रम और जितने मोह ने प्रवेश किया है, उतना और कहीं से नहीं। और ये दोनों अज्ञान के ही सहचर हैं।
सुनकर सिर्फ़ आशु बाबू ही नहीं, हरेन्द्र भी मारे आश्चर्य और दुख के चुप हो गया।
इतने में उस लड़के ने फिर आकर कहा - थाली परोस दी गयी है, चलिए। सब नीचे चले गये।
28
भोजन हो चुकने के बाद कमल को क्षण भर के लिए एकान्त में पाकर अक्षय ने चुपके से कहा - सुना है कि आप यहाँ से चली जा रही हैं। लगभग सभी परिचितों के घर आप एक-आध बार हो आयी हैं, सिर्फ़ मेरे ही -
‘आप!’ कमल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सिर्फ़ स्वर में ही परिवर्तन हो, सो बात नहीं सम्बोधन में भी ‘आप’! इस बात पर कि क्यों सब लोग उससे ‘तुम’ कहकर बोलते हैं, उसे न तो कोई शिकायत थी और न किसी से वह नाराज़ ही होती थी। परन्तु अक्षय की बात ही और थी। वह इस स्त्री के लिए ‘आप’ कहना ज्यादती समझता था, बल्कि उसकी तो यहाँ तक धारणा थी कि ऐसा करना शिष्टता का दुरुपयोग है। कमल को यह बात मालूम थी, पर इस अति तुच्छ ओछेपन की तरफ़ देखने में भी उसे शर्म आती थी। उसे डर था कि कहीं इसी विषय को लेकर कोई बहस न छिड़ जाये।
कमल ने हँसते हुए कहा - आपने तो कभी मुझे बुलाया नहीं!
”नहीं। यह मेरा कसूर है। जाने के पहले क्या अब आपको वक़्त न मिलेगा?”
”कैसे मिल सकता है बताइए, हमलोग कल भोर में ही रवाना हो रहे हैं।”
”भोर में ही?” फिर ज़रा ठहरकर कहा - ”भविष्य में इधर अगर फिर कभी आना हो तो मेरे घर आपका निमन्त्रण रहा।
कमल ने हँसते हुए कहा - क्या एक बात आपसे पूछ सकती हूँ अक्षय बाबू?
अचानक मेरे विषय में आपकी राय कैसे बदल गयी? बल्कि अब तो आपको और भी कठोर होना चाहिए था?
अक्षय ने कहा - साधारण तौर से वैसा ही होता। लेकिन अबकी बार देश से कुछ अनुभव इकट्ठा कर लाया हूँ। आपने जो प्यूरिटनों का दृष्टान्त दिया न, सो मेरे हृदय में जाकर बिंध गया। और किसी ने समझा या नहीं, मैं नहीं कह सकता - और न समझना कोई आश्चर्य की बात भी नहीं, मगर, मैं तो उस सम्बन्ध में बहुत-कुछ जानता हूँ। एक बात और है। हमारे गाँव में लगभग चौदह आने मुसलमान हैं, वे आज भी अपने डेढ़ हजार वर्ष के पुराने सत्य पर दृढ़ हैं - वही सब विधि-निषेध, कायदे-कानून आचार-अनुष्ठान हैं, कुछ भी व्यत्यय नहीं हुआ है।
कमल ने कहा - उनके सम्बन्ध में मुझे लगभग कुछ भी नहीं मालूम, जानने का मौका कभी नहीं मिला। पर अगर आपकी बात सच हो, तो मैं सिर्फ़ यही कह सकती हूँ कि उनके लिए भी अब सोचने-समझने के दिन आ पहुँचे हैं। यह सत्य की सीमा किसी एक बीते-दिन में ही सुनिर्दिष्ट नहीं हो गयी है, उन्हें भी किसी न किसी दिन मानना ही पड़ेगा। लेकिन, ऊपर चलिए।
”नहीं, मैं यहाँ से विदा लूँगा। मेरी स्त्री बीमार है। इतने आदमियों से भेंट की है आपने, एक बार उससे भी भेंट न कीजिएगा?”
कमल कुतूहलवश पूछ बैठी - कैसी हैं वे देखने में?
अक्षय ने कहा - ठीक नहीं मालूम। हमारे परिवारों में ऐसा प्रश्न कोई नहीं करता। पिताजी नौ साल की उमर में उसे पुत्रवधू बनाकर घर ले आये थे। पढ़ने-लिखने का न तो समय ही मिला, न ज़रूरत ही समझी गयी। रसोई बनाना, घर के काम-धन्धे, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ - इसी में लगी रहती है - मुझको ही इहलोक-परलोक का देवता समझती है, बीमार होने पर दवा नहीं खाना चाहती, कहती है, ‘पति के पादोदक से ही सब बीमारियाँ अच्छी हो जाती हैं। अगर न अच्छी हों तो समझना चाहिए कि स्त्री की आयु खत्म हो चुकी।’
कमल को इसका थोड़ा-बहुत आभास हरेन्द्र से मिल चुका था, उसने कहा - तब तो आप भाग्यवान हैं - कम से कम स्त्री के भाग्य से। इतना जबर्दस्त विश्वास इस युग में दुर्लभ है।”
अक्षय ने कहा - शायद ऐसा ही हो, ठीक नहीं जानता। सम्भव है, इसी को स्त्रीभाग्य कहते हो। पर कभी ऐसा मालूम होता है कि संसार में मेरा कोई नहीं, मैं अकेला हूँ - बिल्कुल निःसंग अकेला! अच्छा नमस्कार।
कमल ने हाथ उठाकर प्रति-नमस्कार किया।
अक्षय एक कदम बढ़ाकर फिर मुड़ गया, बोला - एक अनुरोध करूँ?
”कहिए।”
”अगर कभी समय मिले, और मेरी याद रहे तो एक पत्र लिखियेगा? आप खुद कैसी हैं, अजित बाबू कैसे हैं - यही सब आप लोगों की बात मैं अक्सर सोचा करूँगा। अच्छा अब जाता हूँ, नमस्कार।” इतना कहकर अक्षय जल्दी से चला गया और कमल वही स्तब्ध होकर खड़ी रही। भले-बुरे का विचार करके नहीं, उसे सिर्फ़ इसी बात का ख़्याल हुआ कि वह वही अक्षय है! और लोगों की जानकारी के बाहर इस भाग्यवान का दाम्पत्य जीवन निर्विध्न शान्ति के साथ इस तरह बहा चला जा रहा है। एक चिट्ठी के लिए उसे इतना कौतूहल ऐसी विनीत और सच्ची प्रार्थना।
ऊपर जाकर देखा कि नीलिमा के सिवा और सब यथास्थान बैठे हैं। यह नीलिमा का स्वभाव है - इस पर कोई कुछ ख़्याल भी नहीं करता। आशु बाबू ने कहा
- हरेन्द्र ने एक मजे की बात कही थी कमल, सुनने से पहले तो सहसा वह एक पहेली सी मालूम होती है, पर बात असल में सच है। कह रहे थे, लोग इतना भी नहीं समझ सकते कि समाज के प्रचलित विधि-विधानों के उल्लंघन करने का दुख सिर्फ़ चरित्र बल और विवेक बुद्धि के बल पर ही सहन किया जा सकता है। मनुष्य बाहर के अन्याय को ही देखता है, अन्तःकरण की प्रेरणा की कुछ खबर ही नहीं रखता। और यहीं पर समस्त द्वन्द्व और विरोधों की सृष्टि होती है।
कमल ने समझा कि इसका लक्ष्य वह खुद और अजित है, इसलिए वह चुप रही। उसने यह बात नहीं कही कि उच्छृंखलता के ज़ोर से भी समाज के विधि-विधानों का उल्लंघन किया जा सकता है। दुर्बुद्धि और विवेक बुद्धि दोनों एक चीज नहीं है।
बेला और मालिनी उठ खड़ी हुईं, उनके जाने का समय हो गया। कमल की बिल्कुल उपेक्षा करके उन्होंने हरेन्द्र और आशु बाबू को नमस्कार किया। इस स्त्री के सामने उन्होंने हमेशा अपने को छोटा समझा है, इसलिए अन्त में उसका बदला चुकाया उपेक्षा दिखाकर। उनके जाने पर आशु बाबू ने स्नेह के साथ कहा - कुछ ख़्याल मत करना बेटी, इसके सिवा उनके पास और कुछ है ही नहीं। मैं भी तो उसी दल का आदमी हूँ। सब जानता हूँ।
आशु बाबू ने हरेन्द्र के सामने आज पहली बार उसे ‘बेटी’ कहकर पुकारा। कहा - ”दैवयोग से वे पदस्थ व्यक्तियों की स्त्रियाँ हैं, हाई सर्किल की महिलाएँ ठहरीं। अंग्रेजी बातचीत में, चाल-चलन और पहनाव-उढ़ाव में अप-टू-डेट हैं। यह भूल जाने से तो उनकी मूल पूँजी पर चोट पड़ती है, कमल। उन पर गुस्सा होना भी अन्याय है।”
कमल ने हँसते हुए कहा - गुस्सा तो मैं नहीं हुई।
आशु बाबू ने कहा - ”सो मैं जानता हूँ। गुस्सा मुझे भी नहीं आया, सिर्फ़ हँसी आयी। पर, घर कैसे जाओगी बेटी, मैं उतारता जाऊँगा तुम्हें?”
”वाह, नहीं तो मैं जाऊँगी कैसे?”
कहीं लोगों की निगाह न पड़ जाये, इस डर से उसने अपनी मोटर लौटा दी थी।
”अच्छी बात है। पर, अब देर करना भी शायद ठीक न हो, क्यों ठीक है न?”
सबको ख़्याल हो आया कि अभी वे सम्पूर्ण नीरोग नहीं हुए हैं।
इतने में जीने में जूते की आवाज़ सुनाई दी, और दूसरे क्षण सबने अत्यन्त आश्चर्य के साथ देखा कि दरवाजे के बाहर अजित आ खड़ा हुआ है।
हरेन्द्र ने मीठे स्वर से स्वागत किया - हल्लो! बेटर लेट देन नेव्हर।
ब्रह्मचर्याश्रम का कैसा सौभाग्य है!
अजित अप्रतिभ होकर बोला - ”लेने आया हूँ।” और पलक मारते ही एक अनचीती दुःसाहसिकता ने उसके भीतर की बात को ज़ोर से धक्का देकर बाहर निकाल दिया, बोला - ”नहीं तो फिर मुलाकात न होती। हम लोग भोर में ही चले जा रहे हैं।”
”भोर में? आज की रात बीते?”
”हाँ। सब तैयारियाँ हो चुकी हैं। यहीं से हम लोगों की यात्रा शुरू होगी।”
बात किसी से छिपी हुई नहीं थी, फिर भी सबके सब मानो लज्जा से म्लान हो उठे।
इतने में दबे पाँव चुपके से नीलिमा आ पहुँची और एक तरफ़ बैठ गयी।
संकोच दूर करके आशु बाबू ने आँख उठाकर देखा। जो बात वे कहना चाहते थे, वह एक बार उनके गले में अटकी, फिर धीरे-धीरे वे बोले - हो सकता है कि हम लोगों की अब फिर कभी भेंट न हो, तुम दोनों मेरे स्नेह के पात्र हो, अगर तुम लोगों का ब्याह हो जाता तो मैं देख जाता।
अजित को सहसा मानो किनारा नजर आ गया, वह व्यग्र कण्ठ से बोल उठा - ”यह चीज मैं नहीं चाहता आशु बाबू, यह तो मेरे लिए कल्पना के बाहर की बात है। विवाह के लिए मैंने बार-बार कहा है, और बार-बार सिर हिलाकर कमल ने अस्वीकार कर दिया है। अपनी सारी सम्पत्ति, जो कुछ मेरे पास है सब - उसके नाम लिखकर मैं मजबूती से पकड़े जाने को तैयार था, पर कमल, राजी नहीं हुई। आज इन सबके सामने मैं फिर प्रार्थना करता हूँ कमल, तुम राजी हो जाओ। मैं अपना सर्वस्व तुम्हें देकर जी जाऊँ। धोखे के कलंक से छुटकारा पा जाऊँ?”
नीलिमा अवाक होकर देखती रह गयी। अजित स्वभावतः झेंपू प्रकृति का आदमी था, सबके सामने उसकी ऐसी असीम व्याकुलता देख सबके सब मारे आश्चर्य के दंग रह गये। आज वह अपने को बिल्कुल निःस्व कर देना चाहता है। अपनी कहने की कोई चीज अपने हाथ में रखने की आज उसे कोई आवश्यकता ही नहीं मालूम हो रही है।
कमल ने उसके मुँह की तरफ़ देखकर कहा - क्यों तुम्हें इतना डर किस बात का हो रहा है?
”डर आज न सही, पर - “
”पर का दिन पहले आये तो सही।”
”आने पर तो फिर तुम हर्गिज कुछ लोगी नहीं, मैं जानता हूँ।”
कमल ने हँसते हुए कहा - जानते हो? तो वही होगा तुम्हारे लिए सबसे बड़ा और मजबूत बन्धन!
ज़रा ठहरकर फिर कहने लगी - तुम्हें याद नहीं, मैंने एक दिन कहा था कि बहुत ज़्यादा मजबूत बनाने के लोभ से बिल्कुल ठोस और निच्छिद्र मकान बनाने की कोशिश मत करो। उससे मुरदे की कब्र भले ही बन जाये, पर जीवित मनुष्य का शयनागार नहीं बन सकता।
अजित ने कहा - ”कहा था, मुझे याद है। जानता हूँ, तुम मुझे बाँधना नहीं चाहतीं - पर मैं जो बँधना चाहता हूँ। नहीं तो फिर मैं तुम्हें किस चीज़ से बाँध रखूँगा कमल? मुझमें कहाँ है इतना ज़ोर?
कमल ने कहा - ”ज़ोर की ज़रूरत नहीं। बल्कि तुम अपनी कमज़ोरी से ही मुझे बाँध रखना। मैं इतनी निष्ठुर नहीं कि तुम जैसे आदमी को दुनिया में यों ही बहाकर चली जाऊँ।” फिर पलकमात्र आशु बाबू की तरफ़ देखकर बोली - ”भगवान को तो मैं नहीं मानती नहीं, तो उनसे प्रार्थना करती कि तुम्हें संसार के समस्त आघातों की ओट में रखकर ही मैं एक दिन मर सकूँ।”
नीलिमा की आँखों में आँसू भर आये। आशु बाबू ने भी अपनी आँसुओं से व्याकुल आँखों को पोंछते हुए रुँधे कण्ठ से कहा - ”तुम्हें भगवान मानने की भी ज़रूरत नहीं कमल। सब एक ही बात है बेटी। यह आत्मसमर्पण ही तुम्हें एक दिन गौरव के साथ उनके पास पहुँचा देगा।”
कमल हँस दी, बोली - ”वह तो मेरी ऊपरी प्राप्ति होगी। हक की प्राप्ति से भी उसकी ज़्यादा इज़्ज़त है:“
”सो ठीक है, बेटी। पर यह जान लेना कि मेरा आशीर्वाद निष्फल नहीं होने का।”
हरेन्द्र ने कहा - अजित, खाकर तो आये नहीं होगे, चलो नीचे!
आशु बाबू हँसते हुए बोले - तुम्हारी अक्ल भी खूब है। ऐसा भी कभी हो सकता है कि अजित बिना खाये-पीये ही चला आये और कमल यहाँ खा-पीकर निश्चिन्त हो जाये।
अजित ने लज्जा के साथ स्वीकार किया कि बात दरअसल ऐसी ही है। वह बिना खाये नहीं आया।
इस बात का स्मरण आते ही कि यही शेष रात्रि है, किसी का जी नहीं चाहता था कि सभा भंग हो, परन्तु आशु बाबू के स्वास्थ्य का ख़्याल करके आखिर उठने की तैयारी करनी पड़ी। हरेन्द्र ने कमल के पास आकर धीमे स्वर में कहा - इतने दिनों बाद अब असल चीज पायी कमल, मेरा अभिनन्दन ग्रहण करो।
कमल ने उसी तरह चुपके से जवाब दिया - ”पायी है? कम से कम यही आशीर्वाद दीजिए।”
हरेन्द्र ने आगे और कुछ न कहा। परन्तु कमल के कण्ठ से जैसा चाहिए वैसा दुविधाहीन परम निःसंशय स्वर झंकृत नहीं हुआ और यह बात उनके कानों को खटकी। मगर फिर भी ऐसा ही हुआ करता है। विश्व का विधान ही ऐसा है।
कमल को दरवाजे की ओट में बुलाकर नीलिमा ने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा - ”कमल, मुझे भूल न जाना कहीं।” इससे ज़्यादा उससे कहते नहीं बना।
कमल ने उसे झुककर नमस्कार किया और कहा - ”दीदी, मैं फिर आऊँगी, पर जाने के पहले मैं आपके पास एक प्रार्थना रख जाऊँगी कि जीवन में कल्याण को कभी अस्वीकार न करना। उसका सत्य रूप आनन्द का रूप है। उसी रूप में वह दिखाई देता है - वह और किसी भी तरह पहचाना नहीं जा सकता। तुम और चाहे जो भी करो दीदी, पर अविनाश बाबू के घर की बेगार करने को अब राजी न होना।”
नीलिमा ने कहा - ऐसा ही होगा कमल।
आशु बाबू गाड़ी में जाकर बैठे तो कमल ने हिन्दू रीति से उनके पांव छूकर प्रणाम किया। आशु बाबू ने उसके माथे पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। कहा - ”तुमसे मुझे एक वास्तविक तत्व का पता लगा कमल। अनुकरण से मुक्ति नहीं मिलती, मुक्ति मिलती है ज्ञान से। इससे डर लगता है कि तुम्हें जिसने मुक्ति दे दी है, कहीं अजित को वही असम्मान में न डुबो दे। उससे इसकी रक्षा करना बेटी। आज से इसका भार तुम्हीं पर है।”
कमल ने इशारा समझ लिया।
आशु बाबू फिर कहने लगे - तुम्हारी ही बात मैं तुम्हें याद दिलाये देता हूँ कमल! उस दिन से मैंने इस बात पर बार-बार विचार किया है कि प्रेम की पवित्रता का इतिहास ही मनुष्य की सभ्यता का इतिहास है - उसका जीवन है। यही उसके महान होने का धारावाहिक वर्णन है। फिर भी शुचिता की संज्ञा या व्याख्या को लेकर मैं चलते वक़्त तर्क नहीं करूँगा। अपने क्षोभ के निःश्वास से तुम लोगों की विदा की घड़ियों को मैं मलिन नहीं करना चाहता। मगर इस बूढ़े की इतनी सी बात याद रखना कमल, कि आदर्श या आइडिया सिर्फ़ दो चार आदमियों के लिए ही है - इसी से उसकी कीमत है। उसे साधारण के बीच खींच लाने से फिर वह पागलपन हो जाता है, उसका शुभ मिट जाता है और बोझ दुःसह हो उठता है। बौद्ध युग से लेकर वैष्णव युग तक इसकी बहुत सी दुखद नजीरें संसार में फैली पड़ी हैं। क्या तुम फिर से वही दुख का विप्लव संसार में खींच लाना चाहती हो बेटी?
कमल ने मृदु कण्ठ से उत्तर दिया, यह तो मेरा धर्म है चाचा जी!
”धर्म? तुम्हारा यह धर्म है?”
कमल ने कहा - हाँ। जिस दुख से आप डर रहे हैं चाचाजी, उसी में से फिर उससे भी बड़ा आदर्श पैदा होगा। और उसका भी काम जिस दिन खतम हो जायेगा, उस दिन उसके मृत शरीर के सार में से उससे भी महान आदर्श की सृष्टि होगी। इसी तरह संसार में आज का शुभ कल के शुभतर के चरणों में आत्म-विसर्जन करके अपना ऋण चुकाता रहता है। यही तो मनुष्य की मुक्ति का मार्ग है। देखते नहीं चाचाजी सती दाह का बाहरी चेहरा राजशासन से बदल गया है, पर उसके भीतर की आग आज भी ज्यों का त्यों धधक रही है और उसी तरह भस्म किये जा रही है। यह बुझेगी किस चीज से?”
आशु बाबू से कुछ बोला नहीं गया, वे एक गहरी साँस लेकर रह गये। परन्तु दूसरे ही क्षण बोल उठे - कमल, मणि की माँ का बन्धन मैं आज तक नहीं तोड़ सका, सो इसे तुम कहा करती हो कि मोह है - मालूम नहीं वह क्या है, पर यह मोह जिस दिन जाता रहेगा उस दिन उसके साथ-साथ मनुष्य का बहुत कुछ चला जायेगा, बेटी। मनुष्य की यह बहुत तपस्या की पूँजी है कमल। अच्छा, अब जायें। चलो वासुदेव।
इतने में टेलीग्राफ पियून सामने आकर साइकिल से उतरा। अर्जेण्ट तार है। हरेन्द्र ने गाड़ी की बत्ती के सामने जाकर तार खोलकर पढ़ा। लम्बा टेलीग्राम है, मथुरा जिले के एक छोटे सरकारी अस्पताल के डाक्टर ने भेजा है। उसमें लिखा है,
”गांव के एक मन्दिर में आग लग गयी थी। बहुत दिनों की बहुजनपूजित प्रतिमा ध्वंस होने को थी। रक्षा का कोई भी उपाय न रह गया था कि इतने में उस जलते हुए मन्दिर के अन्दर राजेन्द्र घुस पड़ा और मूर्ति को बाहर ले आया। देवता की रक्षा हो गयी, पर उनके रक्षा कर्ता की रक्षा न हो सकी। दो दिन चुपचाप अव्यक्त यातना सहता हुआ आज सबेरे वह बैकुण्ठ चला गया। दस हजार जनता ने मिलकर कीर्तन भजनादि के साथ जुलूस निकालकर यमुना तट पर उसकी अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की है। मरते समय राजेन्द्र आपको समाचार देने के लिए कह गया है।” स्वच्छ नील आकाश से वज्र गिरा।
रुलाई से हरेन्द्र का गला रुक गया, और स्वच्छ चांदनी रात मुहूर्त भर में अन्धकार में एकाकार हो गयी।
आशु बाबू रो पड़े, बोले - दो दिन, अड़तालीस घण्टे, इतने नज़दीक, फिर भी ज़रा खबर तक नहीं दी?
हरेन्द्र आँखें पोंछता हुआ बोला - ज़रूरत नहीं समझी। कुछ किया तो जा नहीं सकता था, इसी से शायद उसने किसी को दुख देना नहीं चाहा।
आशु बाबू ने अपने दोनों हाथ माथे से लगाकर कहा - इसका अर्थ यह है कि सिवा देश के, किसी आदमी को उसने अपना आत्मीय नहीं माना। सिर्फ़ देश - समग्र भारतवर्ष। फिर भी, भगवान तुम अपने चरणों में उसे स्थान देना। तुम और चाहे जो भी करो, पर इस राजेन्द्र की जाति को संसार से न मिटाना। - वासुदेव, चलो।
इस शोक की मार्मिक चोट कमल से बढ़कर शायद और किसी को न पहुँची होगी, परन्तु वेदना की भाप से उसने अपने कण्ठ को रुँधने नहीं दिया। उसकी आँखेां से चिन्गारियाँ सी निकलने लगीं। बोली - ”दुख किस बात का? वह बैकुण्ठ गया है।” फिर हरेन्द्र से बोली - ”रोइए मत हरेन्द्र बाबू अज्ञान की बलि हमेशा इसी तरह होती है।
कमल के स्वच्छ कठोर स्वर ने पैने छुरे की तरह सबके कलेजे को छेद दिया।
आशु बाबू चले गये। उस शोकाच्छन्न स्तब्ध-नीरवता के बीच कमल अजित के साथ गाड़ी में जा बैठी। बोली, ”रामदीन - चलो।”