शेष प्रश्न (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
Shesh Prashna (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay
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दिन का तीसरा पहर है। शीत की सीमा नहीं। आशु बाबू की बैठक की काँच की खिड़कियाँ सारे दिन बन्द रहती हैं। वे आरामकुर्सी के दोनों हत्थों पर पैर फैलाकर गहरे मनोयोग के साथ पड़े-पड़े कुछ पढ़ रहे थे। हाथ के काग़ज़ पर पीछे के दरवाजे की तरफ़ से एक छाया पड़ते ही वे समझ गये कि अब उनके नौकर की दिवा-निद्रा समाप्त हुई है। बोले - कच्ची नींद में तो नहीं उठ बैठे यदु, नहीं तो सिर दुखेगा। खास तक़लीफ न मालूम हो तो रजाई से ज़रा गरीब के पैर ढँक दो।
नीचे कार्पेट पर रजाई पड़ी थी, आगन्तुक ने उसे उठाकर उनके पैर नीचे तलवों तक अच्छी तरह ढक दिये।
आशु बाबू ने कहा - हो गया, हो गया, ज़्यादा जतन की ज़रूरत नहीं। अब एक चुरट देकर और थोड़ा सो लो - अभी तो दिन बाक़ी है। पर समझ रखना कि - कल, हाँ, कल।
अर्थात् कल तुम्हारी नौकरी चली ही जायेगी। कोई जवाब नहीं आया, कारण मालिक के इस तरह के मन्तव्य से नौकर अभ्यस्त हो चुका है। जैसे उसका प्रतिवाद करना व्यर्थ है, वैसे ही विचलित होना भी फिजूल है।
आशू बाबू ने हाथ बढ़ाकर चुरट ले लिया और दियासलाई जलने की आवाज़ के साथ ऊपर मुँह उठाकर देखा। कुछ क्षण अभिभूत की तरह दंग रहकर बोले, ”यही तो सोच रहा था कि यह क्या यदुआ का हाथ है! इस तरह पैर ढकना तो उसकी चौदह पीढ़ियाँ भी नहीं जानती होंगी।”
कमल ने कहा - पर इधर जो हाथ जला जा रहा है।
आशु बाबू ने शीघ्रता से उसके हाथ से जलती हुई दियासलाई फेंक दी और उस हाथ को अपने हाथ में लेकर उसे ज़ोर से सामने खींच लिया। बोले - इतने दिनों से तुम्हें देखा क्यों नहीं बेटी?
पहले-पहल उन्होंने उसे ‘बेटी’ कहकर पुकारा। परन्तु उन्हें यह कहने के बाद स्वयं मालूम हो गया कि उनके प्रश्न का कोई अर्थ नहीं है।
कमल एक कुर्सी खींचकर ज़रा दूर बैठना चाहती थी, पर उन्होंने उसे ऐसा नहीं करने दिया। कहा - ”वहाँ नहीं बेटी, तुम मेरे बिल्कुल पास आकर बैठो।” और उसे बिल्कुल पास खींचकर बोले - ”आज अचानक कैसे कमल।”
कमल ने कहा - ”आज बहुत जी चाहने लगा आपको देखने का - इससे चली आयी।”
आशु बाबू ने उत्तर में सिर्फ़ कहा - ”अच्छा किया।” और इससे ज़्यादा वे न बोल सके। अन्यान्य सभी लोगों के समान उन्हें भी मालूम था कि कमल का कोई संगी-साथी नहीं है, कोई उसको चाहता नहीं, किसी के घर जाने का उसे अधिकार नहीं - नितान्त निःसंग जीवन ही इस लड़की को बिताना पड़ता है; फिर भी यह बात उनके मुँह से न निकली कि ‘कमल’ तुम्हारी जब तबीयत हो, खुशी से चली आया करो, और चाहे जिससे हो, पर मेरे साथ तुम्हें संकोच नहीं करना चाहिये।’
इसके बाद शायद शब्दों के अभाव से ही वे दो-तीन मिनट तक मानो अन्यमनस्क की तरह मौन रहे। उनके हाथ के काग़ज़ नीचे खिसक जाने पर कमल ने उन्हें उठा लिया और उनके हाथ में देते हुए कहा, ”आप पढ़ रहे थे, मैंने असमय में ही आकर शायद विघ्न डाल दिया।”
आशु बाबू ने कहा - ”नहीं। मैं पढ़ चुका। जो कुछ थोड़ा-बहुत बाकी है उसे बगैर पढ़े भी काम चल सकता है, और पढ़ने की इच्छा भी नहीं है।” ज़रा ठहरकर फिर कहा ”इसके अलावा तुम्हारे चले जाने पर मुझे अकेला रहना पड़ेगा; उससे अच्छा तो यह है कि तुम बातें करो, मैं सुनूँ।”
कमल ने कहा - मैं आपसे दिन-भर बात कर सकूँ तो कहना ही क्या है। पर और सब जो नाराज़ होंगे?
उसके मुँह पर हँसी होने पर भी आशु बाबू को चोट पहुँची। बोले - बात तुम्हारी झूठी नहीं कमल। पर जो लोग नाराज़ होंगे, उनमें से यहाँ कोई मौजूद नहीं है। यहाँ के नये मजिस्ट्रेट एक बंगाली हैं। उनकी स्त्री से मणि की मित्रता है, दोनों साथ-साथ कालेज में पढ़ी हैं। दो दिन हुए वे यहीं पति के पास आई हैं - मणि उन्हीं के यहाँ घूमने गयी है, शायद रात को लौटेगी।
कमल ने हँसते हुए पूछा - आपने कहा, कि जो लोग नाराज़ होंगे - सो एक तो मनोरमा हुई, और बाकी के और कौन हैं?
आशु बाबू ने कहा - सभी हैं। यहाँ ऐसों की कमी नहीं। पहले मालूम होता था कि अजित की तुम्हारे प्रति नाराज़गी नहीं है; पर अब देखता हूँ कि उसका विद्वेष ही सबसे बढ़कर है। उसने तो अक्षय बाबू को भी मात कर दिया है।
यह देखकर कि कमल चुपचाप सुन रही है, वे कहने लगे - जब आया था तब उसे ऐसा नहीं देखा था, अचानक दो ही तीन दिन में मानो वह बिल्कुल बदल गया है। अब अविनाश को भी ऐसा ही देख रहा हूँ। इन सबों ने मिलकर मानो तुम्हारे विरुद्ध षडयन्त्र-सा रच रखा है।
अबकी बार कमल हँस दी। बोली - अर्थात्, कुशांकुर के ऊपर बज्राघात! पर मुझ जैसी समाज और दुनिया से बहिष्कृत एक तुच्छ औरत के विरुद्ध षड्यन्त्र किसलिए? मैं तो किसी के घर जाती नहीं।
आशु बाबू ने कहा - ”सो तो ठीक है। शहर में यह भी कोई नहीं जानता कि तुम्हारा घर कहाँ है, पर इसीलिए तुम तुच्छ नहीं हो कमल। और इसीलिए ये लोग तुम्हें न भूल ही सकते हैं और न माफ़ ही कर सकते हैं। तुम्हारी चर्चा बगैर किये, तुम्हें कोंचे बग़ैर इन्हें न चैन मिलता है न शान्ति।” कहते-कहते वे अकस्मात हाथ के काग़ज़ों को उठाकर बोले - ”यह क्या है, जानती हो? अक्षय बाबू की रचना है। अंग्रेज़ी में नहीं होती तो तुम्हें सुनाता। नाम-धाम नहीं है, पर शुरू से आखिर तक सिर्फ़ तुम्हारी ही बातें हैं, तुम्हीं पर हमला है। कल मजिस्ट्रेट साहब के घर पर, सुनते हैं नारी-कल्याण समिति का उद्घाटन होगा, यह उसी का मंगल अनुष्ठान है।” यह कहकर उन्होंने उसे दूर फेंक दिया और कहा - यह सिर्फ़ निबन्ध ही नहीं है, बीच-बीच में किस्से के तौर पर पात्र-पात्रियों के मुँह से इसमें तरह-तरह की बातें भी कहलवायी गयी हैं। इसकी मूल नीति के साथ किसी का विरोध नहीं - विरोध हो भी नहीं सकता। पर इसमें इतनी ही बात नहीं, व्यक्ति-विशेष पर क़दम-क़दम पर आघात करते रहने में ही मानो इसका आनन्द है। पर अक्षय का आनन्द और मेरा आनन्द एक नहीं है, कमल। इसे तो मैं अच्छा नहीं कह सकता।
कमल ने कहा - पर मैं इस लेख को सुनने नहीं जाऊँगी - फिर मुझ पर चोट करने की सार्थकता क्या हुई?
आशु बाबू ने कहा - ”कुछ भी सार्थकता नहीं, इसी से शायद उन लोगों ने मुझे पढ़ने को दिया है। सोचा होगा ‘डूबते में से मुट्ठी भर ही सही।’ इस बूढ़े को दुःख देकर जितना क्षोभ मिटाया जा सके उतना ही अच्छा।” कहते हुए उन्होंने हाथ बढ़ाकर फिर एक बार कमल को अपनी ओर खींचा। इस स्पर्श मात्र में कितनी बातें थीं, कमल सबकी सब तो नहीं समझ सकी फिर भी उसका अन्तःकरण न जाने कैसा हो उठा।
वह ज़रा ठहरकर बोली - ”आपकी कमज़ोरी को तो उन लोगों ने भाँप लिया, पर आपके भीतर के असल आदमी को वे नहीं पहचान सके।”
“क्या तुमने पहचान लिया है बेटी?”
“शायद उन लोगों से ज़्यादा।”
आशु बाबू ने इसका उत्तर नहीं दिया, बहुत देर तक नीरव रहकर वे धीरे-धीरे कहने लगे - सभी सोचते हैं कि हमेशा खुश रहने वाले इस बूढ़े के समान सुखी कोई नहीं। बहुत रुपया है, काफी जमीन-जायदाद -
“पर यह तो झूठ नहीं।”
आशु बाबू ने कहा - झूठ नहीं। धन और सम्पत्ति मेरे पास काफी है, पर यह आदमी के लिए कितना-सा है कमल?
कमल हँसती हुई बोली - बहुत है आशु बाबू।
आशु बाबू ने गरदन फेरकर उसकी तरफ़ देखा, फिर कहा - अगर कुछ ख़्याल न करो तो तुमसे एक बात कहूँ -
“कहिये?”
“मैं बूढ़ा आदमी हूँ, और तुम मेरी मणि की उमर की हो। तुम्हारे मुँह से अपना नाम मेरे खुद के कानों में न जाने कैसा खटकता है कमल। तुम्हें कोई एतराज न हो तो तुम मुझे ‘चाचाजी’ कहा करो।”
कमल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आशु बाबू कहने लगे - ”कहावत है कि बिल्कुल मामा न होने से तो काना मामा ही अच्छा; मैं काना न सही, पर लंगड़ा ज़रूर हूँ, गठिया से लाचार। बाजार में आशु वैद्य की कानी कौड़ी की कीमत नहीं।” फिर उन्होंने हँसकर कौतुक के साथ हाथ का अँगूठा हिलाते हुए कहा - न हो तो क्या है बेटी, लेकिन जिसके पिता जिन्दा नहीं उसके इतने शक्की होने से काम नहीं चलेगा। उसके लिए लँगड़ा चाचा भी अच्छा!
दूसरे पक्ष से जवाब न पाकर वे फिर कहने लगे - ”अगर कोई चिढ़ाये कमल, तो उससे विनय के साथ कहना, ‘मेरे लिए इतना ही बहुत है।’ कहना ‘गरीब के लिए राँगा ही सोना है’।”
उनकी कुर्सी के पीछे बैठी कमल छत की ओर आँखें किये आंसू रोकने की कोशिश करने लगी, कुछ जवाब न दे सकी। इन दोनों में कहीं से भी कोई मेल नहीं, और सिर्फ़ अनात्मीय-अपरिचय का ही जबर्दस्त फासला नहीं है, बल्कि शिक्षा, संस्कार, रीति-नीति, गार्हस्थिक और सामाजिक व्यवस्था में भी दोनों में कितना जबर्दस्त अलगाव है! जहाँ कोई सम्बन्ध ही नहीं, वहाँ सिर्फ़ एक सम्बोधन के छल से ही उसे बाँध रखने की चतुराई को देख कमल की आँखों में बहुत दिनों के बाद आज आँसू भर आये।
आशु बाबू ने पूछा, ”क्यों बिटिया, कह सकोगी?”
कमल ने उमड़ते हुए आँसुओं को सम्भालते हुए सिर्फ़ इतना कहा - ”नहीं।”
“नहीं? नहीं क्यों?”
कमल ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, दूसरी बात छेड़ दी। बोली - ”अजित बाबू कहाँ हैं?”
आशु बाबू कुछ देर चुप रहकर बोले - ”क्या मालूम, शायद घर पर ही होगा।”
फिर कुछ देर मौन रहकर धीरे-धीरे कहने लगे - कई दिन से मेरे पास विशेष आता जाता नहीं और शायद वह यहाँ से जल्दी ही जायेगा।
कहाँ जायेंगे?
आशु बाबू ने हँसने का प्रयास करते हुए कहा - ”बूढ़े आदमी को सब लोग क्या सब बातें बताते हैं, बेटी? नहीं बताते। शायद ज़रूरत ही नहीं समझते बताने की।” ज़रा ठहरकर बोले - सुना होगा शायद, मणि के साथ उसका सम्बन्ध बहुत दिनों से तय था, सहसा मालूम हो रहा है कि दोनों में किसी बात पर झगड़ा हो गया है। कोई किसी के साथ अच्छी तरह बात ही नहीं करता।
कमल चुप ही रही। आशु बाबू एक गहरी साँस लेकर बोले - जगदीश्वर मालिक हैं, उनकी इच्छा। एक गाने-बजाने में उन्मत्त है और दूसरा अपने पुराने अभ्यासों को मय ब्याज के ठीक करने में लग गया है। इस समय यही तो चल रहा है।
कमल से चुप नहीं रहा गया, कुतूहल के मारे पूछ बैठी - पुराने अभ्यास क्या?
आशु बाबू ने कहा - बहुत से हैं। पहले गेरुआ पहनकर संन्यासी हुआ, फिर मणि से प्रेम किया, देशोद्धार के काम में जेल गया, विलायत जाकर इंजीनियर हुआ, वहाँ से वापस आने के बाद गृहस्थ होने की इच्छा हुई - पर फ़िलहाल शायद वह इच्छा कुछ बदल गयी है। पहले मांस-मछली नहीं खाता था, उसके बाद खाने लगा था, अब देखता हूँ कि कल-परसों से फिर छोड़ बैठा है। यदु कहता है, बाबू घण्टे-घण्टे भर कमरे में बैठे नाक दबाकर योगाभ्यास करते हैं!
“योगाभ्यास करते हैं?”
“हाँ। नौकर ही कह रहा था, देश लौटते समय शायद काशी उतरकर समुद्र-यात्रा के लिए प्रायश्चित करता जायेगा।”
कमल ने अत्यन्त आश्चर्य के साथ कहा - समुद्र यात्रा के लिए प्रायश्चित करेंगे? अजित बाबू?
आशु बाबू ने सिर हिलाते हुए कहा - वह कर सकता है। उसमें सर्वतोमुखी प्रतिभा है।
कमल हँस दी। कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने में दरवाजे के पास किसी आदमी की छाया दिख पड़ी और जिस नौकर ने इतनी विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ मालिक को पहुँचायी थी वही सशरीर आ खड़ा हुआ, और उसी ने सबसे बढ़कर कठोर सूचना यह दी कि अविनाश, अक्षय, हरेन्द्र, अजित आदि बाबुओं का दल आ रहा है। - सुनकर सिर्फ़ कमल का ही नहीं, बल्कि, बन्धुवर्ग के आगमन पर उच्छवसित उल्लास से अभ्यर्थना करना जिनका स्वभाव है, उन आशु बाबू तक का मुँह सूख गया। क्षण भर बाद आगन्तुक शिष्ट समुदाय कमरे में घुसते ही आश्चर्यचकित हो गया। कारण, यह बात उनकी कल्पना के बाहर थी कि यह औरत यहाँ इस तरह मिल सकती है। हरेन्द्र ने हाथ उठाकर कमल को नमस्कार करके कहा - अच्छी तो हैं? बहुत दिनों से आपको देखा नहीं।
अविनाश ने हँसने जैसी मुखाकृति करके एक बार इधर और एक बार उधर गरदन हिलाई जिसका कोई अर्थ ही समझ में नहीं आया। अक्षय सीधा आदमी ठहरा। वह सीधे मार्ग से आया और सीधे अभिप्राय से पत्थर की तरह क्षण भर सीधे कड़े रहकर एक आँख से अवज्ञा और दूसरी से विरक्ति बरसाता हुआ एक कुरसी खींचकर बैठ गया। आशु बाबू से उसने पूछा - ”मेरा आर्टिकल पढ़ा?’ यह पूछने के बाद ही उसकी नजर मिट्टी में लोटते हुए अपने लेख पर पड़ी। उसे वह खुद ही उठाने जा रहा था कि हरेन्द्र उसे रोकते हुए कहा - रहने दीजिए न अक्षय बाबू, झाड़ू लगाते वक़्त नौकर ही फेंक देगा।
उसका हाथ अलग करके अक्षय ने काग़ज़ उठा लिये।
“हाँ पढ़ लिया।” कहते हुए आशु बाबू उठकर बैठ गये। आँख उठाकर देखा कि अजित ने उधर के सोफे पर बैठकर कल के अख़बार पर नजर दौड़ाना शुरू कर दिया है। अविनाश ने कुछ कहने का मौका पा जाने से एक सन्तोष की साँस ली और कहा - मैंने भी अक्षय का लेख शुरू से आखिर तक ध्यान से पढ़ा है आशु बाबू। अधिकांश बातें सच और मूल्यवान हैं। देश की सामाजिक व्यवस्था का अगर सुधार किया जाये तो उसे अच्छी तरह जाने हुए और पक्के मार्ग पर ही करना चाहिए। हम मानते हैं कि यूरोप के समागम से हमने बहुत-सी अच्छी चीज़ें पायी हैं और बहुतेरी त्रुटियों को हमने देखा है, परन्तु हमारा सुधार हमारे अपने मार्ग पर ही होना चाहिए। दूसरों के अनुकरण से हमारा कल्याण नहीं हो सकता। भारतीय नारी की जो विशिष्टता है, जो उसकी अपनी चीज़ है, अगर लोभ और मोह के वश होकर हम उससे उसे भ्रष्ट करें, तो हम हर तरफ़ से असफल होंगे। - ठीक है कि नहीं, अक्षय बाबू?
बातें अच्छी हैं और सब अक्षय बाबू के लेख की है। विनय-वश उन्होंने मुँह से और कुछ नहीं कहा, पर आत्मगौरव की अनिवर्चनीय तृप्ति से आधे मुंदे नेत्रों से कई बार सिर हिलाया।
आशु बाबू ने निष्कपटता से स्वीकार करते हुए कहा - इस विषय में तो कोई तर्क नहीं, अविनाश बाबू। अनेक मनीषी अनेक दिनों से यह बात कहते आये हैं, और शायद भारत का कोई भी आदमी इसका विरोध नहीं करता।
अक्षय बाबू ने कहा - करने का रास्ता ही नहीं, और इसके अलावा और भी एक विषय है जो इस लेख में लिखा नहीं गया है, किन्तु कल नारी-कल्याण समिति में मैं अपने भाषण में कहूँगा।
आशु बाबू ने कमल की तरफ़ मुँह फेरकर कहा - तुम्हारे लिए तो समिति की तरफ़ से निमन्त्रण आया नहीं है, तुम वहाँ नहीं आओगी। मैं भी गठिया से लाचार हूँ। मैं भले ही न जाऊँ, पर है वह तुम्हीं लोगों की भलाई-बुराई की बात। अच्छा कमल, तुम्हें तो इस बात पर आपत्ति नहीं होगी?
और किसी समय होता तो आज के दिन कमल चुप ही रहती, पर एक तो उसका मन यों ही ग्लानि से भरा हुआ था, दूसरे इतने आदमियों की इस पौरुषहीन संघबद्धता और दम्भपूर्ण प्रतिकूलता से उसके मन में एक आग-सी जल उठी। परन्तु अपने को यथासाध्य संयत करके वह मुँह उठाकर हँसती हुई बोली - कौन-सी बात पर आशु बाबू? अनुकरण पर या भारतीय विशिष्टता पर?
आशु बाबू ने कहा - मान लो कि दोनों ही पर?
कमल ने कहा - अनुकरण की गयी चीज़ अगर सिर्फ़ बाहर की नकल हो तो वह धोखा है, अनुकरण है ही नहीं; क्योंकि तब वह आकृति से मेल खाते हुए भी प्रकृति से नहीं मिलती। मगर भीतर-बाहर से वह अगर एक-सी हो तो ‘अनुकरण’ होने के कारण लज्जित होने की उसमें कोई भी बात नहीं।
आशु बाबू ने सिर हिलाते हुए कहा - है क्यों नहीं कमल, है। उस तरह सर्वांगीण अनुकरण में हम अपनी विशेषता खो बैठते हैं। उसका अर्थ है अपने को बिल्कुल ही खो बैठना। इसमें अगर दुख और लज्जा नहीं, तो किसमें है, बताओ?
कमल ने कहा - भले ही खो बैठें आशु बाबू! भारत के वैशिष्ट्य और यूरोप के वैशिष्ट्य में बड़ा भारी भेद है, परन्तु किसी देश के किसी वैशिष्ट्य के लिए मनुष्य नहीं है, बल्कि मनुष्य के लिए ही उस वैशिष्ट्य का आदर है। असल बात विचारने की यह है कि वर्तमान समय में वह वैशिष्ट्य उसके लिए कल्याणकर है या नहीं। इसके सिवा और सब बातें सिर्फ़ अन्ध मोह हैं।
आशु बाबू ने व्यथित होकर कहा - सिर्फ़ अन्ध मोह ही है कमल, उससे ज़्यादा कुछ नहीं?
कमल ने कहा - नहीं, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। सिर्फ़ इसीलिए कि किसी एक जाति की कोई एक विशेषता बहुत दिनों से चली आ रही है, क्या उस देश के मनुष्यों को अपने कल्याण-अकल्याण का ख़्याल किये बग़ैर उसी साँचे में हमेशा ढलते रहना होगा? इसके क्या मानी? मनुष्य से बढ़कर मनुष्य की विशेषता नहीं हो सकती, और इस बात को जब भूल जाते हैं तब विशेषता भी जाती रहती है और मनुष्य को भी हम खो बैठते हैं। यहीं पर तो वास्तविक लज्जा है आशु बाबू।
आशु बाबू मानो हतबुद्धि से हो गये, बोले - तब तो फिर सब एकाकार हो जायेगा? भारतीय के रूप में तो फिर हमें पहचाना भी नहीं जा सकेगा। इतिहास में ऐसी घटनाओं का साक्ष्य भी मौजूद है।
आशु बाबू के कुण्ठित और विक्षुब्ध चेहरे की तरफ़ देखकर कमल ने हँसते हुए कहा - तब मुनि-ऋषियों के वंशधर के रूप में भले ही न पहचाना जाय, पर मनुष्य के रूप में तो हमें पहचाना ही जायेगा और जिसे आप ईश्वर कहा करते हैं, वह भी पहचान लेगा, उससे भी गलती न होगी।
अक्षय ने उपहास के ढंग से चेहरे को कठोर बनाकर कहा - ईश्वर सिर्फ़ हम ही लोगों का है? आपका नहीं?
कमल ने जवाब दिया - नहीं।
अक्षय ने कहा - यह सिर्फ़ शिवनाथ की प्रतिध्वनि है, सिखाई हुई बात है।
हरेन्द्र बोल उठा - ब्रूट!
“देखिए हरेन्द्र बाबू - “
“देख रहा हूँ। बीस्ट।”
आशु बाबू सहसा मानो स्वप्नोत्थित की भाँति जाग उठे। बोले - देखो कमल, दूसरों की बात मैं नहीं कहना चाहता, पर हमारा वैशिष्ट्य सिर्फ़ बात ही बात नहीं है। इसका चला जाना कितनी जबर्दस्त क्षति है, उसका हिसाब लगाना दुःसाध्य है। कितने धर्म, कितने आदर्श, कितने पुराण-इतिहास, काव्य, उपाख्यान, शिल्प - कितनी-कितनी अमूल्य सम्पदाएँ - सब कुछ इसी वैशिष्ट्य पर ही तो आज तक जीवित है। फिर इनमें से तो कुछ भी नहीं रह जायेगा?
कमल ने कहा - रहने-रखने के लिए आखि़र इतनी व्याकुलता क्यों? जो जाने वाले नहीं, सो नहीं जायेंगे। मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार फिर वे नवीन रूप, नवीन सौन्दर्य, नवीन मूल्य लेकर दिखाई देंगे। वही होगा उनका सच्चा परिचय। अन्यथा सिर्फ़ इसीलिए कि बहुत दिनों से कोई चीज़ है, उसे और भी बहुत दिनों तक पकड़े रहना होगा - यह कैसी बात है?
अक्षय ने कहा - इससे समझने की शक्ति नहीं है आप में।
हरेन्द्र ने कहा - आपके अशिष्ट व्यवहार पर मुझे आपत्ति है अक्षय बाबू। आशु बाबू ने कहा - यह मैं नहीं कहता कमल कि तुम्हारी युक्तियों में सत्य नहीं, पर जिसकी तुम अवज्ञा से उपेक्षा कर रही हो उसके भीतर भी बहुत सा सत्य है। नाना कारणों से हमारे सामाजिक विधि-विधानों पर तुम्हारी अश्रद्धा हो गयी है। मगर एक बात मत भूलो कमल कि बाहर के बहुत-से उत्पात हमें सहने पड़े हैं, फिर भी जो आज तक हम अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं को लिये जिन्दा हैं सो केवल इसीलिए कि हमारा आधार सत्य था। संसार की बहुत-सी जातियाँ बिल्कुल लुप्त हो चुकी हैं।
कमल कहने लगी - भले ही हो। पिताजी से मैंने सुना था कि आर्यों की एक शाखा यूरोप में जाकर रहने लगी थी, आज वह नहीं है। मगर उनके बदले जो हैं, वे और भी बड़े हैं। ऐसा ही अगर यहाँ होता तो उनकी तरह ही हम लोग भी आज पूर्व पितामहों के लिए शोक करने न बैठते और न अपने सनातन वैशिष्ट्य पर दम्भ करते हुए दिन ही गुजारते। आप कह रहे थे कि अतीत के उपद्रवों की बात, पर यह भी तो सत्य नहीं कहा जा सकता कि उनसे भी बढ़कर उपद्रव भविष्य में हमारे भाग्य में नहीं बदे हैं, या हमारी सारी बाधाएँ कट चुकी हैं। तब हम लोग जीवित रहेंगे किसके बल पर, बताइए भला?
आशु बाबू ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया; मगर अक्षय बाबू उद्दीप्त हो उठे। बोले - तब भी हम जीवित रहेंगे अपने उस आदर्श की नित्यता के बल पर जो कि हजारों युगों से हमारे मन में अविचलित बना हुआ है। जो आदर्श हमारे दान में, हमारे पुण्य में, हमारी तपस्या में मौजूद है, जो आदर्श हमारी नारी जाति के अक्षय सतीत्व में निहित है, हम उसी के बल पर जीवित रहेंगे। हिन्दू कभी नहीं मरते।
अजित हाथ का अखबार फेंककर उनकी तरफ़ आँखें फाड़-फाड़कर देखता रहा, और क्षण भर के लिए कमल भी चुप रही। उसे ख़्याल आ गया कि निबन्ध लिखकर इसी आदमी ने उस पर अकारण आक्रमण किया है। उसे वह कल नारी जाति के कल्याण के लिए अनेक नारियों के समक्ष दम्भ के साथ पढ़ेगा, और उसमें के सारे के सारे कटाक्ष सिर्फ़ उसी को लक्ष्य करके किये गये हैं। दुर्जय क्रोध से उसका चेहरा सुखऱ् हो उठा, परन्तु इस बार भी उसने अपने को सँभाल लिया और स्वाभाविक स्वर में कहा - ”आपके साथ बात करने की मेरी इच्छा नहीं होती अक्षय बाबू, मेरे आत्मसम्मान को चोट लगती है।” यह कहकर वह आशु बाबू की तरफ़ मुँह फेरकर कहने लगी - यही बात मैंने आपसे कहनी चाही थी कि कोई भी आदर्श सिर्फ़ इसीलिए कि वह बहुत काल तक स्थायी रहा है नित्य स्थायी नहीं हो सकता और उसके परिवर्तन में भी लज्जा की कोई बात नहीं, उससे जाति की विशिष्टता भी अगर जाती हो, तो भी। एक उदाहरण देती हूँ। अतिथि सत्कार हमारा एक बड़ा आदर्श है। कितने काव्य, कितने कथानक, कितनी धर्मकथाएँ इस पर रची जा चुकी हैं। अतिथि को खुश करने के लिए दाता कर्ण ने पुत्र तक की हत्या कर दी थी। इस बात पर न जाने कितने आदमियों ने आँसू बहाये होंगे। फिर भी, यह कार्य आज सिर्फ़ कुत्सित ही नहीं बल्कि वीभत्स माना जायेगा। एक सती स्त्री ने पति को कन्धे पर रखकर गणिकालय पहुँचा दिया था - सतीत्व के इस आदर्श की भी किसी दिन तुलना नहीं थी - मगर आज ऐसी घटना कहीं हो जाये तो वह मनुष्य के हृदय में सिर्फ़ घृणा ही उत्पन्न करेगी। आपका अपने जीवन का जो आदर्श, जो त्याग, लोगों के मन में श्रद्धा और विस्मय का कारण हो रहा है, किसी दिन ऐसा आ सकता है जब यह सिर्फ़ अनुकम्पा की बात रह जायेगी और उस निष्फल आत्म-निग्रह की ज्यादती पर लोग उपहास करके चले जायेंगे।
इस आघात की निर्ममता से लहमे भर के लिए आशु बाबू का चेहरा वेदना से पीला पड़ गया। वे बोले - कमल, इसे निग्रह के रूप में ले क्यों रही हो, यह तो मेरा आनन्द है। यह तो मेरा उत्तराधिकार-सूत्र से प्राप्त अनेक युगों का धन है।
कमल ने कहा - हो अनेक युगों का। सिर्फ़ वर्ष गिनकर ही आदर्श का मूल्य नहीं आँका जाता। अचल, अटल गलतियों से भरे समाज के हजारों वर्ष भी, सम्भव है, भविष्य के दस वर्ष के गति-वेग में बह जायें। वे दस वर्ष ही उन हजारों वर्षों से बहुत ज़्यादा बड़े हैं, आशु बाबू!
अजित अकस्मात मनुष्य के छोड़े हुए तीर की तरह सीधा खड़ा हो गया, बोला - आपकी बातों की उग्रता से इन लोगों के शायद आश्चर्य का ठिकाना न रहा होगा; मगर मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ। मैं जानता हूँ कि इस विजातीय मनोभाव का मूल स्रोत कहाँ है? किसलिए हमारे समस्त मंगल-आदर्शों के प्रति आपको इतनी जबर्दस्त घृणा है? मगर चलिए, अब हमारे पास व्यर्थ देर करने का वक़्त नहीं है, पाँच बज गये।
अजित के पीछे-पीछे सभी लोग चुपचाप कमरे से बाहर निकल गये। किसी ने उससे अभिवादन तक नहीं किया, और न किसी ने उसकी तरफ़ मुड़कर देखा ही। युक्तियाँ जब हार मानने लगीं तब इस तरह से पुरुषों के दल ने विजय-घोषणा करके अपने पौरुष को कायम रखा। उन लोगों के चले जाने पर आशु बाबू ने धीरे-धीरे कहा - कमल, मुझ पर ही आज तुमने सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाई है, किन्तु मैंने ही आज तुम्हें मानो सम्पूर्ण हृदय से प्यार किया है। मेरी मणि से मानो किसी अंश में भी तुम कम नहीं हो बेटी।
कमल ने कहा - ”इसका कारण यह है कि आप सचमुच में महान पुरुष हैं चाचाजी। आप तो इन लोगों की तरह मिथ्या नहीं हैं। पर मेरा भी समय निकला जा रहा है, मैं जाती हूँ।” इतना कहकर उसने उनके पांवों के पास जाकर झुक कर प्रणाम किया।
प्रणाम वह साधारणतः किसी को भी नहीं करती। आज उसके इस अनहोने आचरण से आशु बाबू चंचल हो उठे। आशीर्वाद देते हुए बोले - अब कब आओगी बेटी?
“अब शायद मेरा आना न होगा चाचाजी।” इतना कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी और आशु बाबू उसकी तरफ़ देखते हुए चुपचाप बैठे रहे।
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आगरे के मजिस्ट्रेट की स्त्री का नाम है मालिनी। उन्हीं के प्रयत्न से और उन्हीं के मकान पर नारी-कल्याण समिति की स्थापना हुई। प्रथम अधिवेशन की तैयारियाँ ज़रा कुछ समारोह के साथ ही हुई थीं; किन्तु अधिवेशन अच्छी तरह सम्पन्न तो हुआ नहीं, बल्कि उसमें न जाने कैसी एक विश्रृंखला-सी पैदा हो गयी। बात मुख्यतः यह थी कि यद्यपि आयोजन सब स्त्रिायों के लिए ही था, पर पुरुषों के शरीक होने की भी मनाही नहीं थी, बल्कि देखा जाये तो इस आयोजन में पुरुष ही कुछ विशेषता से निमन्त्रिात हुए थे। अविनाश पर इसका भार था। मननशील लेखक के तौर पर अक्षय का नाम था; और लेखों का दायित्व उन्होंने ग्रहण किया था। अतएव, उन्हीं के परामर्श के अनुसार एक शिवनाथ के सिवा और किसी को भी छोड़ा नहीं गया था। अविनाश की छोटी साली नीलिमा घर-घर जाकर धनी से लेकर गरीब तक शहर की सभी बंगाली शिष्ट महिलाओं से आने के लिए अनुरोध कर आयी थी। सिर्फ़, जाने की इच्छा नहीं थी आशु बाबू की, पर गठिया के दर्द ने आज उनकी रक्षा नहीं की, मालिनी खुद आकर उन्हें पकड़ ले गयी। अक्षय अपना व्याख्यान हाथ में लिए तैयार था, मामूली विनय-भाषा के प्रचलित दो-चार शब्दों के बाद वह सीधा और कठोर होकर खड़ा हो गया और व्याख्यान पढ़ने लगा। थोड़ी ही देर में ऐसा लगा कि उसका वक़्तव्य-विषय जैसा अरुचिकर है, वैसा ही लम्बा भी। साधारणतः जैसा हुआ करता है, प्राचीन काल की सीता-सावित्री आदि का उल्लेख करके उसने आधुनिक नारी जाति की आदर्शहीनता पर कटाक्ष किये थे। एक आधुनिक और शिक्षिता महिला के घर पर उन्हीं की ‘तथाकथित’ शिक्षा के विरुद्ध कड़वी बातें कहने में उसे संकोच नहीं हुआ। कारण अक्षय को गर्व था कि अप्रिय सत्य कहने में वह डरता नहीं। लिहाजा, व्याख्यान में सत्य हो, चाहे न हो, अप्रिय वचनों की कमी नहीं थी। और उस ‘तथाकथित’ शब्द की व्याख्या के लक्ष्य में विशिष्ट उदाहरण की नजीर थी कमल। इस अनाआमंत्रित स्त्री के प्रति अक्षय के व्याख्यान में इतना अपमान था कि जिसकी हद नहीं। अन्त के अंश में वह गहरे दुख के साथ ये शब्द कहने के लिए मजबूर हो गया कि इसी शहर में ठीक ऐसी ही एक स्त्री मौजूद है, जो शिष्ट समाज में बराबर प्रश्रय पा रही है। ऐसी स्त्री, जिसने अपने दाम्पत्य जीवन को अवैध जानकर भी लज्जित होना तो दूर रहा, सिर्फ़ उपेक्षा की हँसी ही हँसी है, जिसके लिए विवाह-अनुष्ठान सिर्फ़ अर्थहीन संस्कारमात्र है और पति-पत्नी का अत्यन्त एकनिष्ठ प्रेम जिसकी दृष्टि में महज मानसिक कमज़ोरी है। उपसंहार में अक्षय ने इस बात का भी उल्लेख किया कि नारी होकर भी जो नारी के गम्भीरतम आदर्श को अस्वीकार करती है, तथाकथित उस शिक्षित नारी के उपयुक्त विशेषण और वास स्थान के निर्णय में वक़्ता को अपनी तरफ़ से कोई संशय न होने पर भी सिर्फ़ संकोचवश वह उसे बताने में असमर्थ है। इस त्रुटि के लिए वह सबसे क्षमा चाहता है।
वर्तमान महिला-समाज में मनोरमा के सिवा और किसी ने उसे आँखों से नहीं देखा था। परन्तु उसके रूप की ख्याति और चरित्र की अख्याति ने हरेक पुरुष के मुँह पर चढ़कर व्याप्त होने में कसर नहीं रखी। यहाँ तक कि इस नव-प्रतिष्ठित नारी-कल्याण-समिति की सभानेत्री मालिनी के कानों में भी वह पहुँच चुकी थी। इस विषय को लेकर नारी-मण्डल में परदे के भीतर और बाहर कुतूहल की सीमा न रही थी। इसलिए रुचि और नीति के सम्यक विचार के उत्साह से उद्दीप्त प्रश्नमाला की प्रखरता से व्यक्तिगत आलोचना तीव्र हो उठने में शायद देर न लगती, किन्तु वक़्ता का परम मित्र हरेन्द्र ही इसमें कठोर प्रतिबन्धक हो उठा। वह सीधा उठकर खड़ा हो गया और बोला - अक्षय बाबू के इस निबन्ध का मैं पूर्णतः प्रतिवाद करता हूँ। सिर्फ़ अप्रासंगिक होने की वजह से ही नहीं - किसी भी महिला पर उसकी गैरमौजूदगी में आक्रमण करने की रुचि बीस्टली और उसके चरित्र का अकारण उल्लेख करना अशिष्ट और हेय है। नारी-कल्याण समिति की तरफ़ से इस निबन्ध-लेखक को धिक्कार देना चाहिए।
इसके बाद ही एक विचित्र उपद्रव उठ खड़ा हुआ। अक्षय हिताहित ज्ञानशून्य होकर जो मन में आया, कहने लगा और उसके उत्तर में स्वल्प-भाषी हरेन्द्र बीच-बीच में ‘बीस्ट’ और ‘ब्रूट’ कहकर जवाब देने लगा।
मालिनी नयी-नयी ही इनके सम्पर्क में आयी थी, सहसा इस तरह के वाक् वितण्डा की उग्रता से बड़ी आफत में पड़ गयी; और इस उत्तेजना के प्रवाह में अपना मतामत प्रकट करने में किसी ने भी कंजूसी से काम नहीं लिया। चुप रहे सिर्फ़ एक आशु बाबू। निबन्ध पढ़े जाने के प्रारम्भ से ही जो वे गर्दन झुकाकर बैठे सो सभा खत्म होने तक फिर उन्होंने मुँह नहीं उठाया। और फिर एक आदमी ने इस तर्कयुद्ध में साथ नहीं दिया, और वे थे हरेन्द्र-अक्षय की बातचीत के नित्य-अभ्यस्त अविनाश बाबू।
इस बात को मालिनी जानती थी कि व्यक्ति-विशेष के चरित्र की भलाई-बुराई का निरूपण करना इस समिति का लक्ष्य नहीं है और इस प्रकार की आलोचना से नर-नारी में से किसी का भी कल्याण नहीं होता। इस बात को भी अच्छी तरह मालिनी समझ गयी कि निबन्ध में आशु बाबू पर भी विशेष कटाक्ष किया गया है और इससे उनको अत्यन्त क्लेश हुआ है। सभा भंग होने के बाद वह चुपके से अपना आसन छोड़कर इस प्रौढ़ व्यक्ति के पास आकर बैठ गयी और लज्जित मृदु कण्ठ से बोली - आज निरर्थक आपकी शान्ति नष्ट करने के लिए दुखित हूँ आशु बाबू।
आशु बाबू ने हँसने की कोशिश करते हुए कहा - घर में भी मैं अकेला ही बैठा रहता। यहाँ कम से कम समय तो कट गया।
मालिनी ने कहा - ”वह इससे अच्छा था।” फिर ज़रा ठहरकर कहा - आज वे हैं नहीं यहाँ, मणि यहाँ से खा-पीकर जायेगी।
“अच्छी बात है, मैं यहाँ से जाकर गाड़ी भेज दूँगा? लेकिन और सब स्त्रियाँ!“
“वे सब भी आज यहीं भोजन करेंगी!“
अविनाश और अजित के साथ आशु बाबू गाड़ी में बैठ ही रहे थे कि हरेन्द्र और अक्षय आ धमके। उन्हें भी पहुँचा देना होगा। राजी होना पड़ा। रास्ते भर आशु मौन रहे। निरन्तर उन्हें इस बात का ख़्याल होता रहा कि कमल को लक्ष्य करके स्त्रिायों के बीच अक्षय ने उन पर अशिष्ट कटाक्ष किया है।
गाड़ी घर पर पहुँची। नीचे के बरामदे में एक परिचित आदमी बैठा था। बम्बई वालों जैसी उसकी पोशाक थी। पास जाकर आशु बाबू का उसने अंग्रेजी में अभिवादन किया।
“क्या है?”
जवाब में उसने एक परचा हाथ में देते हुए कहा - चिट्ठी है।
चिट्ठी उन्होंने अजित के हाथ में दे दी। अजित ने उसे मोटर की बत्ती के सामने ले जाकर पढ़ा, बोला - कमल की चिट्ठी है।
“कमल की? क्या लिखा है कमल ने?”
“लिखा है, पत्र ले जाने वाले से सब मालूम होगा।” आशु बाबू के जिज्ञासु चेहरे की तरफ़ देखते हुए उसने कहा - उनकी इच्छा नहीं थी कि यह चिट्ठी और किसी के हाथ पड़े। आप उनके अपने आदमी हैं। मेरे उन पर कुछ रुपये चाहिए थे।
बात खतम भी न हुई थी आशु बाबू सहसा अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे, बोले - मैं उसका अपना आदमी नहीं हूँ, असल में वह मेरी कोई नहीं होती। उसकी तरफ़ से मैं क्यों रुपये देने लगा?
गाड़ी में से अक्षय ने कहा - जस्ट लाइक हर!
बात सभी के कान में पड़ी। पत्रवाहक भला आदमी था। लज्जित होकर बोला - रुपये आपको नहीं देने होंगे, वे ही देंगी। आप सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए जमानतदार बन जायें तो -
आशु बाबू का गुस्सा और भी बढ़ गया। उन्होंने कहा - जमानतदार होने की गर्ज मेरी नहीं है, उनके पति हैं, कर्ज की बात उन्हीं से करियेगा।
भला आदमी अत्यन्त विस्मित हुआ, बोला - उनके पति की बात तो मैंने सुनी नहीं।
“पता लगाने से सुन लेंगे। गुड नाइट। आओ अजित, अब देर न करो।”
कहकर वे उसे लेकर ऊपर चले गये। ऊपर के सहन वाले बरामदे से झाँककर फिर एक बार ड्राइवर को याद दिला दिया कि मजिस्ट्रेट साहब की कोठी पर गाड़ी पहुँचाने में देर नहीं होनी चाहिए। अजित सीधा अपने कमरे में जा रहा था, पर आशु बाबू उसे अपनी बैठक में ले गये। बोले - बैठो। देख लिया मजा?
इस बात के माने क्या हुए, अजित समझ गया। वास्तव में उनकी स्वाभाविक सहृदयता, शान्तिप्रियता और चिराभ्यस्त सहिष्णुता के साथ उनकी इस क्षण भर पहले की अकारण और अनचाही रुक्षता ने एक अक्षय के सिवा शायद और किसी को भी आघात पहुँचाने में कसर नहीं रखी। बग़ैर कुछ जाने एक दिन इस रहस्यमयी तरुणी के प्रति अजित का अन्तःकरण श्रद्धा और विस्मय से भर उठा था। मगर जिस दिन कमल ने निशीथ रात्रि में अपने विगत नारी जीवन का कच्चा चिट्ठा अनायास ही खोलकर रख दिया, उस दिन से अजित के मन में विराग और घृणा की सीमा न रही। इसी तरह उसके ये कई दिन बीते हैं, और इसी से आज नारी-कल्याण समिति के उद्घाटन के अवसर पर आदर्शवादी अक्षय ने जो नारीत्व का आदर्श दिखाने के बहाने इस स्त्री पर जितने भी कटाक्ष और कटूक्तियाँ की थीं, उनसे अजित को दुख नहीं हुआ था। मानो उसने ऐसी ही आशा कर रखी थी। फिर भी अक्षय की क्रोधान्ध बर्बरता में चाहे जितना भी तीक्ष्ण शूल क्यों न हो, आशु बाबू अभी-अभी जो कर बैठे उससे कमल के मानो कान रगड़ दिये गये - केवल अनचाही होने के कारण ही नहीं, पुरुष के अयोग्य होने के कारण भी। कमल को वह अच्छा नहीं कहता। उसके मतामत और सामाजिक आचरण की सुतीव्र निन्दा में अजित ने अन्याय नहीं देखा। वह अपने अन्दर इस रमणी के विरुद्ध कठोर घृणा का भाव ही परिपुष्ट होता देख रहा है। वह कहता है, शिष्ट समाज में जो चलता नहीं, उसे छोड़ देने में अपराध छूता तक नहीं। मगर इससे क्या हुआ? - दुर्दशा में पड़ी एक कर्जदार स्त्री की बुरे दिनों में माँगी गयी मामूली सी कुछ रुपयों की भीख को लात मार देने में मानो वह पुरुष मात्र के चरम असम्मान का अनुभव करके मन ही मन जमीन में गड़ गया। उस रात की सारी बातचीत उसे याद आ गयी। उसे बड़े जतन से खिलाते वक़्त कमल ने जो उसे चाय बगीचे की आप-बीती सारी घटनाएँ सुनायी थीं; उसकी माँ का किस्सा, उसका अपना इतिहास, अंग्रेज-मैनेजर साहब के घर पैदा होने का वर्णन - सब बातें उसके दिमाग में घूमने लगीं। वे जितनी अद्भुत थीं, उतनी ही अरुचिकर। मगर वह सब कहने की उसे ज़रूरत क्या थी? और छिपा रखती तो नुकसान ही क्या होता? मगर दुनिया की इस सहज सुबुद्धि के जमा-खर्च का हिसाब शायद कमल के ख़्याल में नहीं आया। अगर आया भी हो तो उसने उसकी परवाह नहीं की।
और सबसे बढ़कर आश्चर्यजनक उसका कठोर से कठोर धैर्य है। दैवक्रम से उसी के मुँह से पहले-पहल मालूम हुआ कि शिवनाथ कहीं बाहर नहीं गया, इसी शहर में छिपा हुआ है। और सुनकर वह चुप रही। चेहरे पर न वेदना का आभास दिखाई दिया और न जबान से शिकायत की भाषा निकली। इतने बड़े व्यभिचार के विरुद्ध उसने दूसरे के सामने शिकायत करने का नाम तक नहीं लिया - उस दिन सम्राट-महिषी मुमताज के स्मृति-सौंध के किनारे बैठकर जो बातें उसने हँसते हुए मुँह से हँसी-हँसी में निकाली थी, उनका बिल्कुल अक्षरशः पालन किया।
आशु बाबू खुद भी शायद क्षण भर के लिए अनमने हो गये थे, सहसा सचेत होकर पहले प्रश्न की पुनरावृत्ति करते हुए बोले - मज़ा देख लिया न अजित! मैं निश्चय के साथ कहता हूँ कि यह उस शिवनाथ की ही चालाकी है।
अजित ने कहा - नहीं भी हो। बिना जाने कुछ कहा नहीं जा सकता।
आशु बाबू ने कहा - हाँ, हो सकता है। मगर मेरा विश्वास है कि यह चाल शिवनाथ की है। मुझे वह बड़ा आदमी जानता है न?
अजित ने कहा - यह तो सभी को मालूम है। कमल खुद भी न जानती हो, सो बात नहीं।
आशु बाबू ने कहा - तब तो और भी ज़्यादा बुरा है। पति से छिपाना तो अच्छी बात नहीं।
अजित चुप रहा। आशु बाबू कहने लगे - पति से छिपाकर और शायद उसकी राय के खिलाफ दूसरे से रुपये उधार लेना स्त्री के लिए कितनी बुरी बात है। इसे हरगिज प्रश्रय नहीं दिया जा सकता।
अजित ने कहा - उन्होंने रुपये माँगे नहीं, सिर्फ़ जमानतदार होने के लिए अनुरोध किया था।
आशु बाबू ने कहा - ”दोनों बातें एक ही हैं।” क्षण भर मौन रहकर वे फिर बोले - और फिर मुझे अपना आदमी बताकर उस आदमी को धोखा किसलिए दिया? वास्तव में मैं तो उसका कोई लगता नहीं।
अजित ने कहा - शायद वे आपको सचमुच अपना समझती हों। मालूम होता है, उनका किसी को धोखा देने का स्वभाव नहीं है।
“नहीं, नहीं, मैंने ठीक वैसी बात नहीं कही अजित।” कहकर मानो उन्होंने अपने प्रति जवाबदेही की। उस आदमी को सहसा झोंक में आकर विदा कर देने से उन्हें भी मन ही मन बड़ी भारी ग्लानि-सी हो रही थी। बोले - अगर वह मुझे अपना ही समझती थी और दो-चार सौ रुपयों की ज़रूरत ही आ पड़ी थी तो वह सीधी खुद आकर ले जाती। बेकार एक बाहर के आदमी को सबके सामने भेजने की क्या ज़रूरत थी? और चाहे जो हो, पर उस लड़की में विवेक बिल्कुल नहीं।
नौकर ने आकर कहा कि भोजन तैयार है। अजित उठना चाहता था कि आशु बाबू ने कहा - तुमने उस आदमी को मार्क किया था अजित, कैसा भद्दा चेहरा था - मनी-लैण्डर ठहरा न! वहाँ जाकर शायद तरह-तरह की बातें बनाकर कहेगा।
अजित ने हँसकर कहा - ”बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी - सच-सच कह देना ही काफी है।” यह कहकर ज्यों ही वह जाने को तैयार हुआ कि आशु बाबू सचमुच ही विचलित हो उठे, बोले - ”यह अक्षय तो बिल्कुल ही नुईसन्न मालूम होता है। आदमी की सहन-शक्त की सीमा लाँघ जाता है। बल्कि एक काम करो अजित, यदु को बुलाकर उस ड्रॉअर को खोलकर देखो तो क्या है। कम से कम पांच-सात सौ रुपया - फिलहाल जो हो, भेज दो। अपना ड्राइवर शायद उन लोगों का घर जानता है - शिवनाथ को कभी-कभी पहुँचा आया है।” कहकर उन्होंने खुद ही ज़ोर-ज़ोर से नौकर को पुकारना शुरू कर दिया।
अजित ने रोकते हुए कहा - जो होना था सो हो चुका - अब रात में यह रहने दीजिए, कल सबेरे विचार कर देखियेगा।
आशु बाबू ने प्रतिवाद किया - तुम समझते नहीं अजित, कोई खास ज़रूरत के बिना रात ही को वह आदमी हरगिज न भेजती।
अजित क्षण-भर स्थिर खड़ा रहा। अन्त में बोला - ”ड्राइवर तो अभी है नहीं यहाँ, मनोरमा को लेकर न जाने कब लौटे। इस बीच कमल को सब मालूम हो ही जायेगा। उसके बाद रुपया भेजना उचित न होगा। शायद आपसे अब वे सहायता लेंगी भी नहीं।”
“मगर वह तो सिर्फ़ तुम्हारा अनुमान ही है अजित?”
“हाँ, अनुमान तो है ही।”
“लेकिन, परदेस में रुपये की ज़रूरत तो उसके लिए इससे भी ज़्यादा हो सकती है?”
“सो हो सकती है, मगर वह ज़रूरत शायद आत्मसम्मान से बढ़कर न भी हो।”
आशु बाबू ने कहा - ”लेकिन यह भी तो तुम्हारा सिर्फ़ अनुमान ही है?”
अजित ने सहसा कोई उत्तर नहीं दिया। क्षण भर सिर झुकाये चुप रहकर वह बोला - ”नहीं, यह अनुमान से बढ़कर है। यह मेरा विश्वास है।” इतना कहकर वह धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकल गया।
आशु बाबू ने अबकी उसे रोका नहीं, सिर्फ़ वेदना से दोनों आँखें फैलाकर वे उसको देखते रहे। इस बात को वे खुद भी जानते हैं कि कमल के सम्बन्ध में ऐसा विश्वास होना न असम्भव है और न असंगत। निरुपाय पश्चाताप उनके अन्तःकरण को मानो खरोंचने लगा।
13
नारी-कल्याण समिति से लौटने पर नीलिमा अविनाश बाबू को से कह बैठी, ”मुखर्जी महाशय, कमल से एक बार मिलूँगी। मेरी बड़ी इच्छा है, उसे निमन्त्रण देकर खिलाऊँ।”
अविनाश ने आश्चर्य के साथ कहा - तुम्हारी हिम्मत तो कम नहीं है छोटी मालकिन! सिर्फ़ जान-पहचान ही नहीं, एकबारगी निमंत्रण तक कर देना चाहती हो?
“क्यों, वह कोई बाघ-भालू है? उससे इतना डर किसलिए?”
अविनाश ने कहा - बाघ-भालू इस प्रान्त में नहीं मिलते, नहीं तो तुम्हारे हुक्म से उन्हें भी निमन्त्रण दे आता। मगर इन्हें नहीं दे सकता। अक्षय सुन लेगा तो फिर खैर नहीं। मुझे देश निकाला देकर ही पिण्ड छोड़ेगा।
नीलिमा बोली - अक्षय बाबू से मैं नहीं डरती।
अविनाश ने कहा - तुम्हारे न डरने से कोई नुकसान नहीं; उसका काम मेरे अकेले डरने से चल जायेगा।
नीलिमा ने जिद करते हुए कहा - नहीं, सो नहीं होगा। तुम न जाओगे, तो मैं खुद जाकर उन्हें लिवा लाऊँगी।
“मगर मैं तो उनका घर जानता नहीं।”
नीलिमा बोली - लालाजी जानते हैं। मैं उनके साथ चली जाऊँगी। वे तुम जैसे डरपोक नहीं हैं।
फिर ज़रा सोचकर कहने लगी - तुम लोगों के मुँह से जो सुना करती हूँ, उससे तो मालूम होता है कि शिवनाथ बाबू का ही कसूर है। सो उन्हें तो मैं निमन्त्रण देना नहीं चाहती। मैं चाहती हूँ कमल को देखना, उनसे बातचीत करना। कमल अगर आने को राजी हो जाये तो मजिस्ट्रेट साहब की स्त्री - वे भी आने के लिए कहती हैं, समझे?
अविनाश समझ तो सब गये, पर साफ़-साफ़ सम्मति न दे सके और न उनकी रोकने की ही हिम्मत हुई। नीलिमा पर वे सिर्फ़ स्नेह और श्रद्धा ही करते हों सो बात नहीं, मन ही मन उससे डरते भी थे।
दूसरे दिन सबेरे हरेन्द्र को बुलवाकर नीलिमा ने कहा - लालाजी, तुम्हें एक काम और करना होगा। तुम कुँआरे आदमी ठहरे, घर में बहू तो है नहीं जो सदाचार के नाम पर तुम्हारे कान ऐंठ देगी। बासे में रहते हो, बिना माँ-बाप के अनाथ लड़कों के झुण्ड में - तुम्हें डर किस बात का है?
हरेन्द्र ने कहा - ”डर की बात पीछे होती रहेगी, पहले बताइए, काम क्या करना होगा?”
नीलिमा ने कहा - कमल से मैं मिलूँगी, बातचीत करूँगी, घर बुलाकर खिलाऊँगी। तुम उनका घर जानते हो क्या? मुझे साथ लेकर उन्हें निमन्त्रण दे आना होगा। किस वक़्त चलोगे, बताओ?
हरेन्द्र ने कहा - ”जिस वक़्त हुक्म करोगी उसी वक़्त। लेकिन घर के मालिक यानी भाई साहब का विचार क्या है?” कहकर उसने बरामदे के उस तरफ़ बैठे हुए अविनाश की तरफ़ इशारा किया। वे इजी चेयर पर पड़े हुए, ‘पायोनियर’ पढ़ रहे थे। सुना सब कुछ, पर बोले कुछ नहीं।
नीलिमा ने कहा - वे अपना विचार अपने पास रखें - मुझे उसकी ज़रूरत नहीं। मैं उनकी साली हूँ, साली की बहन नहीं जो ‘पति परमगुरु’ की गदा घुमाकर मुझ पर शासन करेंगे! मेरे जी में जिसे आयेगा, उसे खिलाऊँगी। मजिस्ट्रेट की बहू ने कहा है कि उन्हें खबर मिल गयी तो वे भी आयेंगी। उन्हें अच्छा न लगे तो उतना समय वे और कहीं जाकर बिता आवें।
अविनाश ने अखबार पर से दृष्टि बिना हटाये ही जवाब दिया - लेकिन यह काम अच्छा नहीं होगा। हरेन्द्र, कल की बात याद है न? आशु बाबू जैसे सदाशिव आदमी को भी सावधान होना पड़ता है।
हरेन्द्र ने कुछ जवाब नहीं दिया और डर से कहीं कल की वह रुपयों वाली बात न उठ खड़ी हो और नीलिमा को भी न मालूम हो जाये, उसने इस प्रसंग को चट से दबाकर कहा - एक काम क्यों न करें भाभी, उन्हें मेरे घर पर आने का निमंत्रण दे आइए और आप बन जाइए उस घर की मालकिन। लक्ष्मीहीन घर में कम से कम एक दिन तो लक्ष्मी का आविर्भाव हो जाये। मेरे लड़के भी थोड़ी-बहुत बुरी-भली चीज़ें खाकर खुशी मना लें।
नीलिमा ने अभिमान के स्वर में कहा - अच्छी बात है, ऐसा ही सही - मैं भी भविष्य में उलाहनों से बच जाऊँगी।
अविनाश उठकर बैठ गये। बोले - अर्थात छीछालेदार होने में फिर कोई कसर ही न रह जायेगी। कारण शिवनाथ को छोड़कर सिर्फ़ उन्हीं को तुम्हारे घर निमन्त्रिात करने की फिर कोई कैफियत ही नहीं दी जा सकेगी। इससे तो बल्कि, यही सुनने में तो बहुत अच्छा लगेगा कि औरतें आपस में जान-पहचान करना चाहती हैं। बात सचमुच ही युक्तिसंगत थी। इसलिए यही तय हुआ कि कालेज की छुट्टी होने के बाद हरेन्द्र नीलिमा को साथ ले जाकर कमल को न्योता दे आवे। शाम को हरेन्द्र ने आकर कहा कि अब तक़लीफ उठाकर वहाँ जाने की कोई ज़रूरत नहीं। कल रात को न्योते की बात उनसे कही जा चुकी है और वे आने को राज़ी हो गयी हैं।
नीलिमा उत्सुक हो उठी। हरेन्द्र कहने लगा - ”कल घर लौटते वक़्त अचानक उनसे रास्ते में भेंट हो गयी। साथ में पल्लेदार के सर पर एक भारी भरकम सन्दूक था। मैंने पूछा कि इसमें क्या है? कहाँ जा रही हो? उन्होंने कहा - ”जा रही हूँ ज़रा काम से।” तब फिर मैंने आपका परिचय देते हुए कहा - ”भाभी ने आपको कल शाम के लिए न्योता भेजा हे। औरतों का मामला ठहरा, आपको जाना ही पड़ेगा। ज़रा चुप रहकर उन्होंने कहा - अच्छा। मैंने कहा - तय हुआ है कि मेरे साथ चलकर वे आपको बाकायदा न्योता दे आयें - अब उनके आने की ज़रूरत ही क्या? ज़रा हँसकर उन्होंने कहा - नहीं। मैंने पूछा - अकेली तो आप आ नहीं सकेंगी, कब किस वक़्त आकर मैं आपको लिवा जाऊँ? सुनकर वे वैसे ही हँसने लगीं। बोली - अकेली ही मैं पहुँच जाऊँगी, अविनाश बाबू का मकान मैं जानती हूँ।
नीलिमा पिघल गयी। बोली - लड़की ऐसे तो बहुत अच्छी मालूम होती है। घमण्ड बिल्कुल नहीं।
बग़ल के कमरे में अविनाश बाबू कपड़े बदलते हुए कान लगाकर सब सुन रहे थे, वहीं से पूछने लगे - और कुली के सिर पर वह भारी बक्स? उसका इतिहास तो बताया ही नहीं भाई साहब?
हरेन्द्र ने कहा - पूछा नहीं।
“पूछते तो अच्छा करते। शायद बेचने या गिरवी रखने जा रही होंगी।”
हरेन्द्र ने कहा - ”हो सकता है। आपके पास गिरवी रखने आवें तो आप इतिहास पूछ लीजिएगा।” इतना कहकर वह चला ही जा रहा था कि सहसा दरवाजे के पास खड़ा होकर बोला - भाभी, अपनी नारी-कल्याण समिति में अक्षय का व्याख्यान तो आपने सुन ही लिया होगा? हम लोग उसे ‘बू्रट’ कहा करते हैं। मगर उस बेचारे में और थोड़ी-सी पाखण्ड बुद्धि होती तो वह समाज में बड़ी आसानी से साधु-महन्त के रूप में चल जाता। क्यों, ठीक है न भाई साहब?
अविनाश भीतर से ही गरज उठे - हाँ जी, नित्यानन्द श्रीगौरांग महाप्रभु जी, इसमें सन्देह ही क्या है? बन्धुवर को वह कौशल सिखा दो न जाकर।
“कोशिश करूँगा। लेकिन अब चल दिया भाभीजी, कल फिर यथासमय हाजिर होऊँगा।” कहकर वह चला गया।
नीलिमा ने तैयारी में कोई कसर नहीं उठा रखी। मनोरमा शुरू से ही कमल के बहुत खिलाफ थी। यह जानकर कि वह किसी भी हालत में नहीं आयेगी। आशु बाबू के घर में किसी से भी नहीं कहा गया था। मालिनी को खबर भेजी गयी थी, पर अचानक अस्वस्थ हो जाने से वे भी नहीं आ सकीं।
कमल ठीक वक़्त पर आ गयी। यान-वाहन पर नहीं, अकेली और पैदल आ पहुँची। घर-मालकिन ने उसे आदर के साथ बिठाया। अविनाश सामने खड़े थे। कमल को उन्होंने बहुत दिनों से देखा नहीं था, आज उसके चेहरे और कपड़ों की तरफ़ देखकर आश्चर्यचकित रहे गये। गरीबी की छाप उन पर साफ़ पड़ी हुई थी। आश्चर्यप्रकट करते हुए बोले - रात को अकेली ही पैदल चली आ रही हो क्या, कमल?
कमल ने कहा - इसका कारण अत्यन्त साधारण है अविनाश बाबू समझने में ज़रा भी कठिनाई नहीं।
अविनाश बाबू लज्जित हो गये, और लज्जा छिपाने के लिए चट से बोल उठे - नहीं-नहीं, क्या कह रही हो तुम? काम ठीक नहीं हुआ। लेकिन छोटी बहू, ये ही हैं कमल। इन्हीं का दूसरा नाम है शिवानी। इन्हीं को देखने के लिए तुम इतनी उतावली हो रही थीं। चलो, भीतर चलकर बैठो। तैयारी तो तुम्हारी सब हो चुकी होगी छोटी मालकिन, फिर निरर्थक देर करने से क्या फायदा? ठीक समय पर इन्हें फिर घर भी तो पहुँचना है।
इस सब उपदेश और पूछताछ में बहुत कुछ ज्यादती थी। न तो इसमें जबाव की कोई ज़रूरत थी और न इसकी कोई उम्मीद ही करता था।
हरेन्द्र ने आकर कमल को नमस्कार किया। बोला - ”अतिथि को स्वागत के साथ ग्रहण करते वक़्त मैं पहुँच नहीं पाया भाभीजी, कसूर हो गया। अक्षय आया था, उसे यथोचित मीठे वाक्यों से परितुष्ट करके विदा करने में देर हो गयी।” और वह हँसने लगा।
भीतर जाकर कमल ने भोजन-सामग्रियों का प्राचुर्य देखा तो क्षणभर चुपचाप खड़ी रह गयी और बोली - ”मेरे लिए चीज़ें तो ये खूब बनायी हैं, लेकिन मैं तो यह सब खाती नहीं।” इस पर सब परेशान हो उठे तो वह बोली - आप लोग जिसे हविष्यान्न कहते हैं, मैं सिर्फ़ वही खाती हूँ।
सुनकर नीलिमा दंग रह गयी। बोली - यह क्या बात कही आपने? आप हविष्य खायेंगी, किस दुख के कारण?
कमल ने कहा - बात ठीक है। दुख नहीं है, सो बात नहीं, लेकिन यह सब खाती नहीं हूँ, इसलिए मेरी ज़रूरतें भी कम हैं। आप कुछ ख़्याल न करें।
“पर बिना ख़्याल किये काम भी तो नहीं चलता।” नीलिमा ने क्षुण्ण होकर कहा
- ”नहीं खाने से इतनी चीज़ें मेरी जो नष्ट होंगी?”
कमल हँस दी। बोली - जो होना था सो तो हो चुका, उसे लौटाया नहीं जा सकता। उस पर फिर खाकर खुद क्यों नष्ट होऊँ?
नीलिमा ने विनय के साथ अन्तिम चेष्टा करते हुए कहा - सिर्फ़ आज भर के लिये। सिर्फ़ एक दिन के लिये भी क्या नियम भंग नहीं कर सकतीं?
कमल ने सिर हिलाकर कहा - नहीं।
उसके हँसते हुए मुँह के सिर्फ़ एक ही शब्द को सुनकर सहसा किसी को कुछ भी ठीक ख़्याल नहीं आ सकता कि उसमें दृढ़ता कितनी जबरदस्त थी। परन्तु इस दृढ़ता की भनक पड़ी हरेन्द्र के कान में और सिर्फ़ वही समझा कि इसमें किसी तरह का फेराफेर नहीं हो सकता। इसी से घर-मालकिन की तरफ से अनुरोध की पुनरुक्ति होते ही उसने टोक दिया। बोला - रहने दो भाभी, अब मत कहो। आपकी चीज़ कोई बिगड़ेगी नहीं, मेरे यहाँ के लड़के आकर पोंछ-पोंछ के सब साफ़ कर जायेंगे। पर इनसे अब आग्रह मत करो। बल्कि जो कुछ खायें उसका इन्तज़ाम करो।
नीलिमा गुस्सा होकर बोली - सो किये देती हूँ। पर मुझे अब तसल्ली देने की ज़रूरत नहीं लालाजी, तुम रहने दो। यह घास-फूस नहीं है जो तुम अपने झुण्ड के झुण्ड भेड़-बकरों को चरा दोगे। इसे मैं रास्ते में फेंक दूँगी, पर उन्हें न खिलाऊँगी।
हरेन्द्र ने हँसते हुए कहा - क्यों, आपकी इतनी नाराज़गी उन पर क्यों है?
नीलिमा ने कहा - ”उन्हीं की बदौलत तो तुम्हारी यह दुगर्ति है। बाप रुपया छोड़ गये हैं, खुद भी कम पैदा नहीं करते; - अब तक बहू आती तो लड़के-बालों से घर भर जाता। ऐसा अभागा काण्ड तो न होता। खुद भी जैसे कुंआरे कार्तिक महाराज हो, दल भी वैसा ही लायक तैयार हो रहा है। तुमसे कहे देती हूँ, उन्हें मैं हर्गिज न खिलाऊँगी। - जाने दो, मेरा सब बिगड़ जाने दो!
कमल कुछ भी न समझ सकी, आश्चर्य से देखती रह गयी। हरेन्द्र लज्जित होकर बोला - ”भाभीजी की बहुत दिनों से मुझ पर जो नालिश चल रही है, यह उसी की सजा है।” कहते हुए संक्षेप में मामला सुलझाना चाहा। बोला - वे बिना माँ-बाप के मेरे अनाथ छात्र हैं। मेरे पास रहकर स्कूल और कालेज में पढ़ते हैं। उन्हीं पर इनका सारा का सारा गुस्सा उतर रहा है।
कमल ने अत्यन्त आश्चर्य के साथ कहा - यह बात है क्या? कहाँ, मैंने तो आज तक कभी सुना नहीं?
हरेन्द्र ने कहा - सुनने लायक इसमें कुछ नहीं। लेकिन वे हैं सब चरित्रवान अच्छे लड़के। उन पर मेरा स्नेह है।
नीलिमा क्रुद्ध स्वर में बोल उठी - उनका प्रण है कि बड़े होकर वे सब देश सेवा करेंगे। अर्थात गुरू जैसे ब्रह्मचारी वीर बनकर दिग्विजय करेंगे।
हरेन्द्र ने कहा - चलेंगी एक दिन उन्हें देखने? देखकर प्रसन्न होंगी।
कमल उसी वक़्त राजी होकर बोली - अगर आप ले जायें तो मैं कल ही जा सकती हूँ।”
हरेन्द्र ने कहा - नहीं, कल नहीं, और किसी दिन। हमारे आश्रम के राजेन्द्र व सतीश काशी गये हैं, उन लोगों के आ जाने पर आपको ले जाऊँगा। मैं दावे के साथ कहता हूँ, उन्हें देखकर आप खुश हो जायेंगी।
अविनाश अभी-अभी आकर खड़े हुए थे। उसकी बात सुनकर वे आँखें फाड़कर बोले - कुछ अभागे-आवारों का अड्डा अभी से आश्रम भी हो गया क्या? न जाने कितना पाखण्ड रचना तुझे आता है रे हरेन्द्र।
नीलिमा नाराज़ हो गयी। यह तुम्हारी गन्दी आदत है मुखर्जी साहब! लालाजी तो तुमसे आश्रम के लिये चन्दा माँगने आये नहीं जो पाखण्डी कहकर गाली दे रहे हो? अपने खर्चे से पराये लड़कों को आदमी बनाना पाखण्ड नहीं है। बल्कि जो ऐसा आक्षेप करते हैं, उन्हीं को पाखण्डी कहना चाहिये।”
हरेन्द्र हँसता हुआ बोला - ”भाभी, अभी-अभी आप ही तो उन्हें भेड़-बकरों का झुण्ड बताकर तिरस्कार कर रही थीं, अब आपकी ही बात दुहरा देने में भाई साहब को यह पुरस्कार मिल रहा है?”
नीलिमा ने कहा - मैं कह रही थी गुस्से में। लेकिन उन्हों ने ऐसा क्या सोचकर कहा? पाखण्ड किसे कहते हैं, पहले अपने अन्दर स्पष्ट कर लें, फिर दूसरे से कहें।
कमल ने पूछा - आपके तो सभी लड़के स्कूल-कालेज में पढ़ते होंगे?
हरेन्द्र ने कहा - हाँ, बाहर से तो ऐसा ही है।
अविनाश बोल उठे - और भीतर से क्या सब प्राणायाम और रेचक-कुम्भक की चर्चा करते हैं? उसे भी साथ-साथ क्यों नहीं कह देते?
यह बात सुनकर सब हँस दिये। नीलिमा ने अनुनय के स्वर में कमल से कहा - ”मुखर्जी महाशय का आज का मिजाज देखकर उन के विषय में कोई धारणा न बना लीजियेगा। कभी-कभी इनका दिमाग बहुत ठण्डा रहता है, नहीं तो बहुत पहले ही मुझे यहाँ से भागकर जान बचानी पड़ती।” कहकर वह हँसने लगी।
कहीं पर ज़रा कुछ उत्ताप की भाप जमती जा रही थी, इस स्निग्ध परिहास के बाद मानो वह उड़ गयी। इतने में महाराज ने आकर खबर दी कि कमल का भोजन तैयार है। अतएव, वर्तमान चर्चा स्थगित रखकर सबको उठना पड़ा।
करीब दो घण्टे बाद भोजनादि हो चुकने पर सब आकर जब बाहर के कमरे में बैठे, तब कमल ने पूर्व-प्रसंग के सिलसिले में पूछा - लड़के आपके रेचक-कुम्भक नहीं करते तो न सही, पर कालेज की पुस्तकें कण्ठस्थ करने के सिवा और जो कुछ भी करते हैं सो क्या है?
हरेन्द्र ने कहा - करते ज़रूर हैं। इस बात की कोशिश में भी वे लापरवाही नहीं करते जिससे कि भविष्य में वास्तव में आदमी बन सकें। मगर जिस दिन आपके पाँवों की धूल वहाँ पड़ेगी, उस दिन सब बातें समझा दूँगा। आज नहीं।
इस स्त्री का इतना ज़्यादा सम्मान किया जा रहा था कि अविनाश का सारा बदन ईष्र्या से जलने लगा, मगर वे चुप ही बने रहे।
नीलिमा ने कहा - आज कहने में आखिर अड़चन क्या है, लालाजी? अपनी शिक्षा-पद्धति को इनके सामने नहीं खोलना चाहते तो न सही, पर यह बताने में क्या दोष है कि प्राचीन काल के भारतीय आदर्श पर अपनी तरह सबको ब्रह्मचारी बनने की शिक्षा दे रहे हो? तुमसे तो मैंने आभास के रूप में यही सुना था?
हरेन्द्र ने विनय के साथ कहा - ”झूठ सुना है, यह तो मैं नहीं कह रहा भाभीजी!“ कहते-कहते उसे उस दिन की बहस की बात याद आ गयी। कमल को देखकर बोला - आपको भी शायद मेरे काम से सहानुभूति न होगी।
कमल ने कहा - आपका काम क्या है, बगैर ठीक से मालूम किये तो कुछ कहा नहीं जा सकता, हरेन्द्र बाबू। मगर यह तो कोई युक्ति नहीं है कि प्राचीन काल के ढाँचे में ढाल देना ही वास्तव में मनुष्य बना देना है -
हरेन्द्र ने कहा - परन्तु वही तो हमारे भारतवर्ष का आदर्श है।
कमल ने जवाब दिया, पर यह किसने तय कर दिया कि भारत का आदर्श ही चिर-युग का चरम आदर्श है - बताइये?
अविनाश अब तक कुछ बोले नहीं थे। अब गुस्से को दबाकर बोले - हो सकता है कि चरम आदर्श नहीं भी हो, लेकिन कमल, यह हमारा पूर्वपुरुषों का आदर्श जो है। भारतवासियों का यह हमेशा का लक्ष्य है, यही उन लोगों के चलने का एकमात्र मार्ग है। हरेन्द्र के आश्रम की बात मैं नहीं जानता, लेकिन उसने यही लक्ष्य अगर ग्रहण किया है तो मैं उसे आशीर्वाद देता हूँ।
कमल कुछ देर तक चुप बैठी उनके मुँह की तरफ़ देखती रही, फिर बोली - मालूम नहीं, क्यों आदमी से यह ग़लती होती है। अपने सिवा मानो वे और किसी भारतवासी को आँखों से देखते ही नहीं। भारत में और भी तो बहुत-सी जातियाँ रहती हैं, वे इस आदर्श को भला क्यों अपनाने चलीं?
अविनाश कुपित हो उठे, बोले - चूल्हे में जायें वे। मेरे पास ऐसा आवेदन निष्फल है। मैं तो सिर्फ़ अपना ही आदर्श अगर स्पष्टता से देख सका तो उसी को काफी समझूँगा।
कमल ने धीरे से कहा - ”यह आपकी बहुत ही गुस्से की बात है अविनाश बाबू। नहीं तो, आपको इतना बड़ा अन्धभक्त समझने की मेरी प्रवृत्ति नहीं होती।”
फिर ज़रा ठहरकर कहने लगी - मगर, क्या मालूम, शायद पुरुष सबके सब इसी तरह विचार किया करते हों। उस दिन अजित बाबू के सामने भी अकस्मात यही प्रसंग छिड़ गया था। भारत की सनातन विशिष्टता और उसकी स्वतंत्रता नष्ट होने के उल्लेख से उनका तमाम चेहरा मारे वेदना के सफेद फक पड़ गया था। किसी दिन वे उत्कट स्वदेशी थे - आज भी भीतर-ही-भीतर शायद वही हैं - यह बात उनके लिये सिर्फ़ प्रलय का दूसरा नाम है।” इतना कहकर उसने लम्बी साँस ली और चुप रह गयी। अविनाश शायद कुछ जवाब देने को थे, पर कमल उधर बिना देखे ही कहने लगी - लेकिन मैं सोचती हूँ कि इसमें डर किस बात का है? किसी एक देश विशेष में पैदा होने की वजह से ही उसका आचार-व्यवहार छाती से क्यों चिपटाये रहना पड़ेगा? चली ही गयी उसकी अपनी विशेषता, तो इसमें हर्ज किस बात का? इतनी ममता क्यों? विश्व के समस्त मानव अगर एक ही विचार, एक ही भाव, एक ही विधि-विधान की ध्वजा थामकर खड़े हो जायँ, तो इसमें हानि ही क्या है? यही डर है न कि फिर भारतीय के तौर पर हम पहचाने नहीं जायेंगे? न पहचाने जायें, न सही। इस परिचय पर तो कोई आपत्ति नहीं करेगा कि विश्व की मानव-जाति में के हम एक हैं, उसका गौरव क्या कुछ कम है?”
अविनाश को सहसा कोई जवाब ढूँढे न मिला, बोले - कमल, तुम जो कह रही हो, खुद ही उसका अर्थ नहीं समझतीं। इससे मनुष्य का सर्वनाश होगा।
अविनाश ने कहा - ये सब कोरी शिवनाथ की बातें हैं।
कमल ने कहा - ”यह तो मुझे नहीं मालूम कि वे भी यही बात कहते हैं।”
इस बार अविनाश अपने को सँभाल न सके। व्यंग्य से चेहरे को स्याह करके बोले - खूब मालूम है, सब बातें कण्ठस्थ कर रखी हैं, और जानती नहीं कि किसकी हैं?
उनके इस भद्दे अशिष्ट व्यवहार का कमल ने कोई जवाब नहीं दिया, जवाब दिया नीलिमा ने। बोली - ”बातें चाहे जिसकी भी हों मुखर्जी साहब, मास्टरी के काम में कड़ी बात की धमकी देकर छात्रों का मुँह बन्द किया जा सकता है, पर उससे समस्या का हल नहीं होता। प्रश्न का जवाब न दे सकते हो लालाजी, तो इसमें शरमाने की कोई बात नहीं, पर शिष्टता को लाँघ जाने में, ज़रूर शरम आनी चाहिये! - एक गाड़ी बुलवाने भेजो किसी को भइया। तुम्हें इन्हें घर तक पहुँचा आना पड़ेगा। तुम ब्रह्मचारी आदमी ठहरे, तुम्हें साथ भेजने में तो कोई डर है ही नहीं।” कहते हुए उसने कटाक्ष से अविनाश की तरफ़ देखा, और बोली - ”मुखर्जी साहब का चेहरा जैसा मीठा हो उठा है, उसको देखकर अब ज़्यादा देर करना ठीक नहीं।”
अविनाश गम्भीर होकर बोले - ”अच्छी बात है, तुम लोग बैठी गप्पें करो, मैं सोने जा रहा हूँ।” और वे उठकर चल दिये।
नौकर गाड़ी लाने गया था। हरेन्द्र ने कमल के प्रति लक्ष्य करके कहा - मेरे आश्रम में मगर एक दिन आना ही होगा। उस दिन लिवाने जाऊँ तो आप ‘ना’ नहीं कर सकेंगी।
कमल ने हँसते हुए कहा - ब्रह्मचारियों के आश्रम में मुझे क्यों घसीट रहे हैं हरेन बाबू? मैं न गयी तो न सही।
“नहीं, सो नहीं होगा। ब्रह्मचारी होने से हम लोग ऐसे भयानक नहीं, बिल्कुल सीधे-साधे हैं। गेरुआ नहीं पहनते, जटा-वल्कल वगैरह भी कुछ नहीं। सर्वसाधारण के बीच में हम उन्हीं के साथ मिले हुए हैं।”
“मगर यह भी तो अच्छा नहीं। असाधारण होकर साधारण में आत्मगोपन की कोशिश करना भी एक तरह का अयुक्त आचरण है। शायद अविनाश बाबू ने इसी को पाखण्ड कहा होगा। इससे तो बल्कि जटा-वल्कल, गेरुआ वगैरह कहीं अच्छा। उसी से आदमी को पहचानने में सहूलियत होती है, और ठगाये जाने की भी कम सम्भावना है।”
हरेन्द्र ने कहा - आपके साथ तर्क में जीतना मुश्किल है - हारना ही पड़ेगा। मगर वास्तव में क्या आप हमारी संस्था को अच्छा नहीं समझतीं? सफल होऊँ चाहे न होऊँ, इसका आदर्श तो महान है?
कमल ने कहा - सो तो मैं नहीं कह सकती हरेन्द्र बाबू। अन्य सभी संयमों की तरह यौन-संयम में भी सत्य है, मगर वह गौण सत्य है। धूमधाम या समारोह के साथ उसे जीवन का मुख्य सत्य बना देने से वह भी एक तरह का असंयम हो जाता है। उसका दण्ड भी है। आत्म-निग्रह के उग्र दम्भ से आध्यात्मिकता क्षीण होने लगती है। - तो ठीक है, मैं आऊँगी आपके आश्रम में एक दिन।
हरेन्द्र ने कहा - ”आना ही होगा, न आने से मैं छोड़ूंगा नहीं। लेकिन एक बात कहे देता हूँ, हमारे यहाँ आडम्बर नहीं है, प्रदर्शन के तौर पर हम कुछ नहीं करते।” कहते-कहते सहसा नीलिमा की तरफ़ इशारा करके बोला - मेरी आदर्श तो ये हैं। इन्हीं की तरह हम लोग स्वाभाविकता के पथिक हैं, वैधव्य का कोई वाह्य प्रकाश नहीं है - बाहर से मालूम होगा कि मानो विलासिता में ये मग्न हो रही हैं; मगर मैं जानता हूँ इनका दुःसाध्य आचार-विचार, इनका कठोर आत्म-शासन - कमल मौन रही। हरेन्द्र भक्ति और श्रद्धा से विगलित होकर कहने लगा -
आप भारत के अतीत युग के प्रति श्रद्धा सम्पन्न नहीं हैं, भारत का आदर्श आपको मुग्ध नहीं करता; परन्तु बताइये तो भला कि नारीत्व की इतनी बड़ी महिमा - इतना बड़ा आदर्श और किस देश में है? इस घर की ये गृहिणी हैं, भाईसाहब की मातृहीन सन्तान की ये जननी के समान हैं इस घर की सारी जिम्मेवारी इन्हीं पर है। यह सब होते हुए भी, इनका कोई स्वार्थ नहीं, कोई बन्धन नहीं। बताइये न, किस देश की विधवाएँ इस तरह पराये काम में अपने को खपा सकती हैं?
कमल का चेहरा स्मित हास्य से विकसित हो उठा। उसने कहा - इसमें भलाई की कौन-सी बात है हरेन बाबू? हो सकता है कि पराये घर की निःस्वार्थ गृहिणी और पराये बच्चों की निःस्वार्थ जननी होने का दृष्टान्त संसार में और कहीं न हो। नहीं होना अद्भुत हो सकता है, मगर अद्भुत होने के कारण ही अच्छा हो जायेगा, किस तरह?
सुनकर हरेन्द्र दंग रह गया; और नीलिमा मारे आश्चर्य के एकटक उसके चेहरे की तरफ देखती रह गयी। कमल ने उसी को लक्ष्य करके कहा - वाक्यों की छटा से, विशेषणों के चातुर्य से लोग इसे चाहे जितना गौरवान्वित क्यों न कर डालें, पर गृहिणीपने के इस मिथ्या अभिनय में सम्मान नहीं है। इस गौरव को छोड़ देना ही अच्छा है।
हरेन्द्र ने गम्भीर वेदना के साथ कहा - यह तो एक सुश्रंृखल घर-गृहस्थी को नष्ट करके चले जाने का उपदेश है। इस बात की आपसे कोई आशा नहीं रखता था।
कमल ने कहा - ”मगर घर-गृहस्थी तो इनकी अपनी है नहीं, होती तो ऐसा उपदेश न देती। और मजा यह कि इसी तरह से कर्म-भोग के नशे में पुरुष हमें मतवाली बनाये रखते हैं। उनकी वाहवाही की तेज शराब पीकर हमारी आँखों पर नशा छा जाता है। सोचती हैं, यही शायद नारी-जीवन की चरम सार्थकता है। हमारे यहाँ के चाय के बगीचों के हरीश बाबू की बात याद आ गयी। उनकी जब सोलह साल की छोटी बहन का पति मर गया तब उसे घर लाकर वे अपने झुण्ड के झुण्ड बाल-बच्चे दिखाकर रोते हुए बोले - लक्ष्मी, बहन मेरी, अब ये ही तेरे बाल-बच्चे हैं। फिकर किस बात की बहन, इन्हें पाल-पोसकर आदमी बनाओ, इनकी अपनी माँ की तरह। - इस घर की सर्वे-सर्वा बनकर आज से तू सार्थक हो, यही मेरा आशीर्वाद है, हरीश बाबू बड़े भले आदमी हैं, बगीचे-भर में सब लोग धन्य-धन्य कर उठे। -
सभी ने कहा - लक्ष्मी के भाग्य अच्छे हैं।’ - अच्छे तो हैं ही। सिर्फ़ स्त्रिायाँ ही समझ सकती हैं कि इतना बड़ा दुर्भाग्य - इतनी बड़ी धोखेबाजी और कुछ हो ही नहीं सकती। मगर एक दिन जब वह विडम्बना पकड़ी जाती है तब प्रतिकार का समय निकल जाता है?
हरेन्द्र ने कहा - फिर?
कमल ने कहा - ”फिर की बात मुझे नहीं मालूम हरेन्द्र बाबू। लक्ष्मी की सार्थकता का अन्त मैं नहीं देख पायी - उसके पहले ही वहाँ से मुझे चला आना पड़ा था। लेकिन बस, अब तो गाड़ी आ गयी है। चलिये, रास्ते में जाते-जाते बताऊँगी। नमस्कार।” कहकर वह उसी क्षण उठकर खड़ी हो गयी।
नीलिमा चुपचाप नमस्कार करके खड़ी रही। उसकी आँखों के तारे मानो अंगारों की तरह जलने लगे।
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‘आश्रम’ शब्द कमल के सामने हरेन्द्र के मुँह से अचानक ही निकल गया था। उसे सुनकर अविनाश ने जो मजाक उड़ाया था, वह अन्याय नहीं था। लोगों को यही मालूम था कि कुछ गरीब विद्यार्थी वहाँ रहकर बिना खर्च के स्कूल-कालेज में पढ़ते हैं। वास्तव में अपने वासस्थान को बाहरवालों के सामने इतने बड़े गौरव के पद पर प्रतिष्ठित करने का संकल्प हरेन्द्र के मन में नहीं था। वह बिल्कुल ही एक मामूली बात थी और शुरू-शुरू में उसका श्रीगणेश भी साधारण तौर पर ही हुआ था। परन्तु इन सब चीज़ों का स्वभाव ही ऐसा है कि दाता की कमज़ोरी से अगर एक बार भी इनमें गति पैदा हो गयी तो फिर उस गति में विराम नहीं आता। कठोर जंगली पौधे की तरह मिट्टी का सारा का सारा रस खींचकर जड़ से लेकर पत्तों तक व्याप्त होने में फिर देर नहीं लगती। हुआ भी यही। इस विषय में यहाँ कुछ और कह देना ठीक होगा।
हरेन्द्र के कोई भाई-बहन नहीं है। पिता वकालत करके धन-संचय कर गये थे। उनकी मृत्यु के बाद घर-भर में रह गयी सिर्फ़ हरेन्द्र की विधवा माँ। वे भी तब परलोक सिधार गयीं जब हरेन्द्र की पढ़ाई खत्म हुई। लिहाजा अपना कहने लायक घर में कोई न रहा जो उसे ब्याह करने के लिये तंग करता, अथवा स्वयं मेहनत और आयोजन करके उसके पाँवों में बेड़ी डाल देता। इसलिये पढ़ाई जब खत्म हो गयी तब महज कोई काम न रहने के कारण ही हरेन्द्र ने देश और देशवासियों की सेवा में मन लगाया। काफी साधु-संगति की, बैंक में पड़ी रकम का ब्याज निकाल-निकालकर एक दुर्भिक्ष-निवारण समिति कायम की, बाढ़-पीड़ितों की सहायता के लिये आचार्यदेव के दल में शामिल हो गया, सेवक-संघ में मिलक लूले-लंगड़े, काने-बहर, गूँगे-भूखों को ला-लाकर उनकी सेवा करने लगा। इस तह जैसे-जैसे उसका नाम जाहिर होने लगा वैसे-वैसे भले आदमियों का दल आ-आकर उससे कहने लगा - ”रुपया दो, परोपकार करें।” बेशी रुपये खत्म होने को थे, पूँजी में हाथ लगाये बिना अब कोई चारा नहीं था। ऐसी अवस्था जब आ पहुँची, तब अकस्मात एक दिन अविनाश के साथ उसकी भेंट हुई और परिचय हो गया। सम्बन्ध चाहे जितनी दूर का हो, पर उसी दिन उसे पहले-पहल पता चला कि उसकी दुनिया में अब भी एक आदमी ऐसा है जिसे वह आत्मीय कह सकता है। अविनाश के कालेज में तब एक अध्यापक की जगह खाली थी; कोशिश करके वे उस काम पर उसको नियुक्त करा कर अपने साथ आगरा ले गये। इस प्रान्त में आने का यही उसका इतिहास है। पछाँह की तरफ़ मुसलमानी राज्य के शहरों में पुराने जमाने के बहुत से बड़े-बड़े मकान अब भी कम किराये पर मिल जाया करते हैं; और उन्हीं में से एक हरेन्द्र ने ले लिया। यही उसका आश्रम है।
यहाँ आकर कई दिन उसने अविनाश के घर बिताये, इसी बीच नीलिमा के साथ उसका परिचय हो गया। उस रमणी ने उसे बिना जान-पहचान का आदमी समझकर एक दिन भी ओट में रहकर नौकर-नौकरानी की मार्फत आत्मीयता दिखलाने की कोशिश नहीं की। एकबारगी पहले ही दिन सामने निकल आयी। बोली - ”तुम्हें कब क्या चाहिये लालाजी, मुझसे कहने में शरमाना मत। मैं घर की गृहिणी नहीं हूँ, मगर गृहिणीपन का सारा भार मेरे ही ऊपर है। तुम्हारे भाईसाहब कहते थे - ”छोटे बाबू की खातिरदारी में कमी रह गयी तो तनखा कट जायेगी। सो इस गरीबिनी का नुकसान मत करा देना भाई, अपनी ज़रूरतों से वाकिफ कराते रहना।”
हरेन्द्र क्या जवाब दे, उसकी कुछ समझ में न आया। मारे शरम के वह ऐसा सिकुड़ गया कि जो इन मीठी बातों को अनायास ही हँसती हुई कह गयी उसके मुँह की तरफ़ देख भी न सका। पर शरम दूर होने में भी उसे दो-एक दिन से ज़्यादा देर न लगी। मालूम हुआ, जैसे उसे बिना दूर किये दूसरा कोई चारा ही नहीं। इस रमणी की जैसी स्वछन्द और अनाडम्बर प्रीति है वैसी ही सहज स्वाभाविक सेवा। एक तरफ़ जैसे यह बात उनके चेहरे-मोहरे, ओढ़ाव-पहनाव और मधुर आलाप-आलोचना से नहीं मालूम हो सकती कि वे विधवा हैं, इस घर में उनका कोई वास्तविक आश्रय नहीं। वे भी इसमें गैर हैं - वैसे ही यह भी मालूम पड़ता कि उनका यही सब कुछ है जो बाहर से दिख रहा है।
उमर भी उनकी बिल्कुल कम हो, सो बात भी नहीं है। शायद तीस के लगभग पहुँच चुकी है। उस उमर के योग्य गम्भीरता उनमें खोज निकालना मुश्किल है - जैसे हल्का हँसी-खुशी का मेला हो। और मजा यह कि ज़रा-सा ध्यान देने से ही यह बात साफ़ समझी जा सकती है कि एक ऐसा अदृश्य आच्छादन उन्हें दिन-रात घेरे रहता है जिसके भीतर प्रवेश करने का कोई रास्ता ही नहीं। न तो घर के नौकर-चाकर या दास-दासी ही वहाँ घुस सकते हैं और न मालिक ही।
इस घर में, इसी आब-हवा के बीच हरेन्द्र के दो सप्ताह बीत गये। सहसा एक दिन यह सुनकर कि उसने अलग एक मकान किराये पर ले लिया है, नीलिमा ने नाराज़ होकर कहा - ”इतनी जल्दी क्यों कर डाली लालाजी, यहाँ ऐसा कौन तुम्हें पकड़ रखना चाहता था?”
हरेन्द्र ने लज्जित होकर कहा - एक दिन तो जाना ही पड़ता भाभीजी!
नीलिमा ने जवाब दिया - सो तो शायद जाना पड़ता। मगर देश-सेवा के नशे का रंग अभी तक तुम्हारी आँखों से गया नहीं लालाजी, और भी कुछ दिन भाभीजी की हिफाजत में रह लेते तो अच्छा था।
हरेन्द्र ने कहा - सो तो रहूँगा ही भाभीजी। यहीं तो हूँ, यहाँ से मिनट का रास्ता है, आपकी निगाह से बचकर जाऊँगा कहाँ?
अविनाश घर के भीतर बैठे काम कर रहे थे; वहीं से बोले - जाओगे जहन्नुम में। बहुत मना किया कि और कहीं मत जा रे, यहीं रह। मगर सो कैसे हो? - इज़्ज़त बड़ी है या भाई साहब की बात बड़ी है? जा, नये अड्डे में जाकर दरिद्र-नारायण की सेवा में चढ़ा जो कुछ पास है सो। - छोटी मालकिन, उससे कहना-सुनना व्यर्थ है। वह ठहरा सड़क का संन्यासी - पीठ छिदाकर चरखी की तरह घूमे बगैर इन लोगों का जीना ही ग़लत है।
नये मकान में आकर हरेन्द्र ने नौकर, रसोइया वगैरह रखकर अत्यन्त शान्त शिष्ट निरीह मास्टरों की तरह कालेज के काम में मन लगाया। बहुत बड़ा मकान है, उसमें बहुत-से कमरे हैं। दो-एक कमरों के सिवा बाकी ये सब यों ही खाली पड़े रहे। महीने भर बाद ही ये सूने कमरे उसे पीड़ा देने लगे। किराया देना ही पड़ता है और काम कुछ आते नहीं। लिहाजा चिट्ठी गयी राजेन्द्र के पास। वह था उसकी दुर्भिक्ष निवारिणी समिति का मंत्री। देशोद्धार के लिये विशेष आग्रह के कारण दो साल की सजा भुगतकर पांच-छह महीने हुए छूटा था और पुराने बन्धु-बान्धवों की तलाश में घूम रहा था। हरेन्द्र की चिट्ठी और रेल का किराया पाकर वह उसी वक़्त चला आया।
हरेन्द्र ने कहा - ”देखूँ, अगर तुम्हारे लिये कोई नौकरी-औकरी दिला सकूं।” राजेन्द्र ने कहा - ”अच्छी बात है।” उसका परम मित्र था सतीश। वह किसी तरह हवालात से बचकर मेदिनीपुर जिले के किसी एक गाँव में ब्रह्मचर्याश्रम खोलने की उधेड़बुन में लगा था। राजेन्द्र का पत्र पाते ही वह एक हफ्ते के अन्दर अपने साधु-संकल्प को स्थगित रख आगरे चला आया और अकेला ही नहीं आया, कृपा करके गांव से एक भक्त को भी साथ लेता आया। सतीश ने इस बात को युक्ति और शास्त्र वचनों के बल पर बड़ी खूबी के साथ साबित कर दिया कि भारतवर्ष ही एकमात्र धर्म-भूमि है। मुनि-ऋषिगण ही इसके देवता हैं। हम लोग ब्रह्मचारी होना भूल गये हैं। इसी से हमारा सब कुछ चला गया है। इस देश के साथ संसार के किसी भी देश की तुलना नहीं हो सकती। कारण, हम ही लोग एक दिन थे जगत के शिक्षक और हम ही लोग थे मनुष्य के गुरु। लिहाजा, वर्तमान में भारतवासियों के लिये एकमात्र करने लायक काम है गाँव-गाँव और नगर-नगर में असंख्य ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित करना। देशोद्धार करना अगर कभी सम्भव हुआ तो वह इसी रास्ते से सम्भव होगा।
उसकी बातें सुनकर हरेन्द्र मुग्ध हो गया। सतीश का नाम तो उसने सुन रखा था, परन्तु परिचय न था; इसलिये इस सौभाग्य के लिये उसने मन ही मन राजेन्द्र को धन्यवाद दिया। इसके लिये भी अपने को धन्य समझा कि पहले उसका ब्याह नहीं हो गया। सतीश सर्ववादि सम्मत अच्छी-अच्छी बातें जानता था और कई दिनों तक वही बातें चलती रहीं। हम ही लोग इस पुण्य-भूमि के मुनि-ऋषियों के वंशधर हैं, हमारे ही पूर्वपुरुष एक दिन संसार के गुरु थे - अतएव फिर एक दिन गुरु-पद के हम ही उत्तराधिकारी हो सकते हैं। कौन आर्य-रक्त से उत्पन्न पाखण्डी इस बात का विरोध कर सकता है? - नहीं कर सकता। और कर सकने लायक दुर्मतिसम्पन्न आदमी भी वहाँ कोई न था।
हरेन्द्र उन्मत्त-सा हो गया, परन्तु तपस्या और साधना की चीज़ होने के कारण आश्रम की सारी बातें यथासाध्य गुप्त रखी जाने लगीं; सिर्फ़ राजेन्द्र और सतीश बीच-बीच में बाहर जाकर लड़के संग्रह करके ले आने लगे। जो उमर में छोटे थे वे स्कूल में भरती हो जाते और स्कूल की शिक्षा पूरी करके उत्तीर्ण हो जाते वे हरेन्द्र की कोशिश से किसी-न-किसी कालेज में दाखिल करा दिये जाते। इस तरह थोड़े ही समय में लगभग सारा मकान नाना उमर के लड़कों से भर गया। बाहर के लोग विशेष कुछ जानते भी न थे और न कोई जानने की कोशिश ही करता था। उड़ती हुई ख़बर से सिर्फ़ इतना ही सुन लेते थे कि हरेन्द्र के घर में रहकर कुछ गरीब बंगाली लड़के पढ़ते-लिखते हैं। इससे ज़्यादा अविनाश को भी मालूम न था और न नीलिमा को पता था।
सतीश के कठोर शासन में घर में मांस-मछली आने का कोई रास्ता न था, ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सबको स्त्रोत पाठ, ध्यान, प्राणायाम आदि शास्त्र विहित प्रक्रियाएँ करनी पड़ती थीं; उसके बाद पढ़ना-लिखना और नित्य कर्म। मगर अधिकारियों का इससे भी मन नहीं भरा, और साधन-मार्ग क्रमशः कठोरतर हो गया। रसोइया महाराज भाग खड़े हुए, नौकर को बरखास्त कर दिया गया और उनका काम पारी-पारी से लड़कों पर आ पड़ा। किसी दिन एक ही तरकारी होती तो किसी दिन वह भी नहीं; लड़कों का पढ़ना-लिखना जाता रहा - स्कूल में उन पर फटकार भी पड़ने लगी, किन्तु कठोर बँधे हुए नियमों में शिथिलता नहीं आयी। सिर्फ़ एक विषय में अनियम था और वह बाहर से कहीं निमंत्रण आने पर। नीलिमा के किसी एक व्रत-उद्यापन के उपलक्ष्य में इस व्यतिक्रम को हरेन्द्र ने जबरदस्ती कायम किया था। इसके सिवा और कहीं भी किसी विषय में क्षमा के लिये स्थान न था। लड़के नंगे पाँव रहते और बाल रूखे रहते। इस विषय में सतीश की अत्यन्त सतर्क आँखें हरदम पहरा देने लगीं कि कहीं किसी छिद्र-पथ से उनमें विलासिता का अनधिकार प्रवेश न हो जाये। इसी तरह आश्रम के दिन बीत रहे थे। सतीश का तो कहना ही क्या। हरेन्द्र के मन में भी आत्म-गौरव की सीमा न रही थी। बाहर के किसी आदमी के सामने वे विशेष कोई बात प्रकट नहीं करते थे, परन्तु अपने अन्दर हरेन्द्र आत्म-प्रसाद और परितृप्ति के उच्छ्वसित आवेग में अक्सर यह कह दिया करते कि इनमें से एक भी लड़के को अगर वे आदमी बना सके तो समझेंगे कि इस जीवन की चरम सार्थकता उन्हें प्राप्त हो गयी। यह सुनकर सतीश कुछ बोलता नहीं, विनय से सिर्फ़ अपना सिर झुका लेता।
सिर्फ़ एक विषय में हरेन्द्र और सतीश दोनों को पीड़ा का अनुभव होता था। दोनों ही इस बात का अनुभव करते थे कि कुछ दिनों से राजेन्द्र का आचरण पहले जैसा नहीं रहा है। आश्रम के किसी काम में अब वह उतनी दिलचस्पी नहीं लेता, सबेरे के साधन भजन में अब वह प्रायः अनुपस्थित रहता है और पूछने पर कहता है कि तबियत ठीक नहीं है। इस पर मजा यह है कि तबियत खराब होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते। क्या उसकी शिकायत है; क्यों वह ऐसा हुआ जा रहा है - पूछने पर भी कुछ जवाब नहीं मिलता। किसी दिन सुबह ही उठकर कहीं चला जाता है, दिन भर आता ही नहीं, और रात को जब घर लौटता तब उसका चेहरा ऐसा होता है कि हरेन्द्र तक को कारण पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती। और मजा यह कि ये सब बातें आश्रम के नियमों के सर्वथा विरुद्ध हैं। इस बात को राजेन्द्र अच्छी तरह जानता था कि एक हरेन्द्र के सिवा शाम के बाद और किसी को भी बाहर रहने का अधिकार नहीं है - फिर भी उसे कोई परवाह नहीं। आश्रम का सेक्रेटरी था सतीश, उसी पर श्रृंखला-रक्षा का भार है। इन सब अनाचारों के विरुद्ध वह हरेन्द्र से ठीक शिकायत के तौर पर तो कुछ कह सकता नहीं; किन्तु बीच-बीच में आभास और इशारे से यह भाव प्रकट कर देता है कि उसे आश्रम में रखना अब उचित नहीं है। - लड़के बिगड़ सकते हैं। यह बात नहीं कि हरेन्द्र खुद भी न समझता हो, किन्तु मुँह खोलकर कुछ कहने की हिम्मत उसमें नहीं थी। एक दिन सारी रात वह लापता रहा , सबेरे जब वह घर लौटा तब उसी की बात को लेकर खूब ज़ोर की आलोचना होने लगी; हरेन्द्र ने आश्चर्य के साथ उससे पूछा - ”बात क्या है, राजन, कल रात-भर थे कहाँ?”
उसने ज़रा हँसने की कोशिश करते हुए कहा - ”एक पेड़ के नीचे पड़ा था।”
“पेड़ के नीचे? पेड़ के नीचे क्यों?”
“बहुत रात हो गयी थी। उस वक़्त शोर मचा आप लोगों को जगाकर परेशान नहीं किया।”
“अच्छा। इतनी रात कैसे हो गयी?”
“ऐसे ही घूमते-घामते।” कहकर वह अपने कमरे में चला गया।
सतीश पास ही बैठा था। हरेन्द्र ने पूछा - ”क्या बात है, बताओ तो?”
सतीश ने कहा - ”आपकी बात टालकर चला गया। कुछ परवाह ही नहीं की। फिर भला मैं कैसे जान सकता हूँ?”
“बात तो ठीक है भाई, इतनी ज्यादती तो ठीक नहीं।”
सतीश मुँह भारी करके कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला - ”आप एक बात तो जानते होंगे कि पुलिस ने उसे दो साल जेल में रखा था?”
हरेन्द्र ने कहा - जानता हूँ, लेकिन वह तो झूठे सन्देह पर रखा था। उसका र्कोई अपराध नहीं था।
सतीश ने कहा - मैं सिर्फ़ उसका मित्र होने की वजह से ही जेल जाते-जाते बच गया था। पुलिस की दृष्टि ने उसे आज भी छुटकारा नहीं दिया है। हरेन्द्र ने कहा - असम्भव कुछ नहीं।
उत्तर में सतीश ने ज़रा विषभरी हँसी हँसकर कहा - ”मैं सोचता हूँ, उसके कारण कहीं हमारे आश्रम पर पुलिस को मोह न हो जाय!”
सुनकर हरेन्द्र चिन्तित चेहरे से चुप रहा। सतीश खुद भी कुछ देर चुप रहकर सहसा पूछ बैठा - आपको शायद मालूम होगा कि राजेन्द्र ईश्वर का अस्तित्व तक नहीं मानता!
हरेन्द्र दंग रह गया, बोला - नहीं तो!
सतीश ने कहा - मुझे मालूम है, वह नहीं मानता। आश्रम के कामकाज और विधि-निषेधों पर उसकी रंचमात्र श्रद्धा नहीं। इससे तो बल्कि उसकी कहीं नौकरी-औकरी लगा दीजिये तो अच्छा।
हरेन्द्र ने कहा - नौकरी तो पेड़ का फल नहीं सतीश कि जब चाहूँ तब तोड़कर हाथ में दे दूँ। उसके लिये काफी कोशिश करनी पड़ती है।
सतीश ने कहा - ”तो वही कीजिये। आप जबकि आश्रम के प्रतिष्ठाता और प्रेसिडेण्ट हैं और मैं सेक्रेटरी हूँ, तब सभी विषय आपको जताते रहना मेरा कर्त्तव्य है। आप उससे अत्यन्त स्नेह करते हैं और मेरा भी वह मित्र है। इसी से उसके विरुद्ध कोई बात कहने की अब तक मेरी प्रवृत्ति नहीं हुई, मगर अब आपको सावधान कर देना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ।
हरेन्द्र मन ही मन डरकर बोला - लेकिन मैं जानता हूँ कि उसका चरित्र निर्मल है -
सतीश ने गर्दन हिलाकर कहा - ”हाँ। इस तरफ़ से तो उसको उसका बड़े से बड़ा शत्रु भी दोषी नहीं ठहरा सकता। राजेन्द्र आजीवन कुँवारा है, लेकिन वह ब्रह्मचारी भी नहीं है। असल कारण यह है कि इस बात को सोचने का भी उसके पास वक़्त नहीं कि स्त्री नाम की कोई चीज़ भी संसार में है।” फिर क्षण-भर चुप रहकर बोला - ”उसके चरित्र की शिकायत मैं नहीं करता, वह अस्वाभाविक रूप से निर्मल है, लेकिन - “
हरेन्द्र ने पूछा - आखिर तुम्हारे ‘लेकिन’ का मतलब क्या?
सतीश ने कहा - कलकत्ते के बासे में हम दोनों एक साथ रहा करते थे। वह तब कैम्बेल कालेज का छात्र था और घर पर बी.एस.सी. पढ़ता था। सभी जानते थे कि वही फस्र्ट पास होगा, लेकिन परीक्षा के पहले अकस्मात न जाने वह कहाँ चला गया -
हरेन्द्र ने विस्मित होकर पूछा - वह डाक्टरी पढ़ता था क्या? मगर मुझसे तो कहता था कि वह शिवपुर इंजीनियरिंग कालेज में भरती हुआ था, पर वहाँ की पढ़ाई बड़ी सख्त होने से उसे भाग आना पड़ा।
सतीश ने कहा - ”लेकिन तलाश करें तो मालूम होगा कि कालेज में थर्ड ईयर में वही अव्वल आया था और बिना कारण चले आने के कारण वहाँ के सभी शिक्षक अत्यन्त दुखित हुए थे। उसकी बुआ धनी घर में ब्याही हैं, वे ही पढ़ने का खर्च दे रही थीं। इस तरह की हरकतों से नाराज़ होकर उन्होंने खर्च देना बन्द कर दिया, उसके बाद ही शायद आपसे उसका परिचय हुआ है। लगभग दो साल घूम-फिरकर जब वह घर पहुँचा तब उसकी बुआ ने उसी की राय से उसे डाक्टरी स्कूल में भरती कर दिया। क्लास में प्रत्येक विषय में वह फस्र्ट हो रहा था, फिर भी तीन साल बाद सहसा एक दिन सब छोड़-छाड़कर अलग हो गया। यही उसमें एक ऐब है। बड़ा कठोर है। मैं उससे पार नहीं पा सकता। वहाँ से छोड़-छाड़ हमारे यहाँ आकर खूँटा गाड़ा है। मुझसे बोला - ‘लड़के पढ़ाकर बी.एस.सी. पास करूँगा और कहीं किसी गांव में जाकर मास्टरी करके जीवन बिताऊँगा।’ मैंने कहा - ‘अच्छी बात है, यही करो।’ उसके बाद, पन्द्रह-बीस दिन पढ़ने में ऐसी मेहनत की कि न नहाने का ठीक न खाने का, आँखों की नींद तक गायब हो गयी - ऐसी मेहनत की कि देखकर आश्चर्य होता है। सब कहने लगे, ऐसा बगैर किये क्या कोई प्रत्येक विषय फर्स्ट हो सकता है?”
हरेन्द्र को पूरा हाल मालूम न था, उसने साँस रोके हुए ही कहा - फिर?
सतीश कहने लगा - उसके बाद जो कुछ उसने शुरू किया वह भी अद्भुत है। किताबें तो फिर उसने छुई ही नहीं। न जाने कहाँ रहता है - कुछ पता ही नहीं। जब लौटकर आता है तब उसका चेहरा देखने से डर लगने लगता है। मानो इतने दिनों तक उसने नहाया-खाया ही न हो।
फिर एक दिन दलबल के साथ पुलिस आ धमकी और उसने मकान भर में जैसे दक्ष-यज्ञ शुरू कर दिया। उसे छोड़कर उसे बखेरती, उसे खोलकर इसे बन्द करती, किसी को डांटती, किसी को रोकती, ऐसा ऊधम मचाया कि बिना अपनी आँखों देखे कोई उसका अनुमान भी नहीं कर सकता। मेस में रहनेवाले प्रायः सभी क्लर्की का काम करते थे, मारे डर के दो जनों को तो जुकाम हो गया। सभी ने सोच लिया कि अब बचना मुश्किल है, पुलिसवाले आज सभी को पकड़कर फांसी पर लटका देंगे।
“फिर क्या हुआ?”
“फिर लगभग तीसरे पहर पुलिस राजेन को और राजेन का मित्र होने के कारण मुझे पकड़ ले गयी। मुझे चार दिन बाद छोड़ दिया, पर उसका फिर कोई पता नहीं लगा। छोड़ते वक़्त साहब ने मेहरबानी करके मुझे बार-बार सावधान कर दिया कि ‘वन स्टेप, ओनली वन स्टेप! - तुम्हारे घर से इस जेल का फासला सिर्फ़ एक कदम का रहा है!’ गो। मैं गंगा स्नान करके, माँ काली के दर्शन करके! घर लौट आया।
सबने कहा - ”सतीश तुम बड़े भाग्यवान हो।’ आफिस पहुँचा, साहब ने दो महीने की तनखा हाथ में थमाकर कहा - ‘गो’। सुना कि इस बीच में मेरी काफ़ी तलाशी हो चुकी है।”
हरेन्द्र स्तब्ध रह गया। कुछ देर उसी तरह रहकर अन्त में धीरे-धीरे बोला - तो क्या तुम्हें निश्चित मालूम होता है कि राजेन -
सतीश ने विनती के स्वर में कहा - मुझसे मत पूछिये मेरा वह मित्र है।
हरेन्द्र खुश नहीं हुआ। बोला - मेरा भी तो वह भाई की तरह है।
सतीश ने कहा - एक बात विचार करने की यह है कि उन लोगों ने मुझे बेकसूर पकड़कर परेशान ज़रूर किया था, पर छोड़ भी दिया।
हरेन्द्र ने कहा - ”बेकसूर परेशान करने का भी तो कानून नहीं है। जो लोग वह कर सकते हैं, वे यह क्यों नहीं कर सकेंगे?” यह कहकर वह उस समय तो कालेज चला गया, परन्तु उसके मन में अशान्ति बनी रही। सिर्फ़ राजेन्द्र के भविष्य की चिन्ता करके ही नहीं, बल्कि इसलिये भी कि देश सेवा के काम में देश के लड़कों को आदमी बनाने का यह जो आयोजन चल रहा है, कहीं बिना कारण नष्ट न हो जाय। हरेन्द्र ने तय किया कि बात झूठ हो या सच, पुलिस की दृष्टि अकारण आश्रम पर आकर्षित करना हरगिज उचित नहीं। खासकर जबकि वह साफ़-साफ़ यहां के नियम भंग करता जा रहा है, तब कहीं नौकरी लगवाकर या और किसी बहाने उसे अन्यत्र हटा देना ही वांछनीय है।
इसके कई दिन बाद ही मुसलमानों के किसी त्योहार पर दो दिन की छुट्टी थी। सतीश काशी जाने की अनुमति लेने आया। भारत में सर्वत्र आश्रम के अनुरूप आदर्श पर संस्थाएँ संगठित करने की विशाल कल्पना हरेन्द्र के मन में थी और उसी उद्देश्य को लेकर सतीश काशी जा रहा था। राजेन्द्र ने सुना तो वह भी आकर कहने लगा - हरेन्द्र भइया, सतीश के साथ मैं भी कुछ दिनों के लिये काशी घूम आऊँ। हरेन्द्र ने कहा - उसे काम है, इसीलिये जा रहा है।
राजेन्द्र ने कहा - मुझे काम नहीं है, इसी से जाना चाहता हूँ। जाने का रेलभाड़ा मेरे पास है।
हरेन्द्र ने पूछा - लेकिन वापस आने का?
राजेन्द्र चुप रहा। हरेन्द्र ने कहा - राजेन्द्र, कुछ दिन से तुम्हें एक बात कहना चाहता हूँ, पर कह नहीं पाता। राजेन्द्र ने ज़रा हँसकर कहा - ”कहने की ज़रूरत नहीं हरेन्द्र भइया, मैं जानता हूँ“ कहकर वह चला गया।
रात की गाड़ी से वे जानेवाले थे। घर से निकलते वक़्त हरेन्द्र ने दरवाजे के पास आकर अकस्मात उसके हाथ में एक कागज की पुड़िया थमाते हुए चुपके से कहा - तुम वापस न आओगे तो मैं बहुत दुखित होऊँगा राजेन्द्र। और इतना कहकर वह लहमे-भर में अपने कमरे में चला गया।
इसके दस-बारह दिन बाद दोनों ही जने लौट आये। हरेन्द्र को एकान्त में बुलाकर सतीश ने प्रफुल्ल चेहरे से कहा - उस दिन आपका उतना ही कहा काम कर गया हरेन्द्र भइया। काशी में आश्रम स्थापित करने के लिये राजेन ने इन कुछ दिनों में अमानुषिक परिश्रम किया है।
हरेन्द्र ने कहा - परिश्रम करता है तो वह अमानुषिक ही करता है।
“हाँ, यही किया उसने। पर उसका चौथाई हिस्सा भी अगर हमारे इस आश्रम के लिये मेहनत करे तो क्या कहने हैं!“
हरेन्द्र ने आशान्वित होकर कहा - करेगा भई, करेगा। अब तक शायद वह ठीक बात को ध्यान में नहीं ला सका। मैं निश्चय से कहता हूँ, तुम देख लेना, अबसे उसके काम की हद न रहेगी।
सतीश ने खुद भी यह विश्वास कर लिया।
हरेन्द्र ने कहा - तुम्हारे वापस आने की प्रतीक्षा में एक काम स्थगित पड़ा हुआ है। जानते हो, मैंने मन-ही-मन तय किया है? हमारे आश्रम का अस्तित्व और उद्देश्य छिपाये रखने से अब काम नहीं चल सकता। देश की और दस जनों की सहानुभूति प्राप्त करना हमारे लिये ज़रूरी है। इसकी विशिष्ट कार्य-पद्धति का जन-साधारण में प्रचार करना आवश्यक है।
सतीश ने सन्दिग्ध कण्ठ से कहा - परन्तु उससे क्या काम में विघ्न न आयेगा? हरेन्द्र ने कहा - नहीं। इसी रविवार को मैंने कुछ लोगों को आमंत्रित किया है, वे सब देखने आयेंगे। ऐसा करना होगा कि आश्रम की शिक्षा, साधना, संयम और विशुद्धता के परिचय से उस दिन हम उन्हें मुग्ध कर सकें - तुम्हारे ही ऊपर सब दायित्व है।
सतीश ने पूछा - कौन-कौन आयेंगे?
हरेन्द्र ने कहा - अजित बाबू, अविनाश दादा, भाभीजी। शिवनाथ बाबू फिलहाल यहाँ है नहीं, सुना है कि किसी काम से जयपुर गये हैं। पर उनकी स्त्री कमला का नाम सुना होगा, वे आयेंगी। अगर तबियत ठीक रही तो शायद आशु बाबू को भी पकड़ ला सकूँगा। जानते तो हो, ये लोग कोई ऐसे-वैसे आदमी नहीं है। इस बात का ख़्याल रखना है कि उस दिन इन लोगों से हम वास्तविक श्रद्धा वसूल कर सकें। इसका भार तुम्हीं पर है।
सतीश विनय से सिर हिलाता हुआ बोला - आशीर्वाद दीजिये कि ऐसा ही हो।
रविवार को शाम के पहले ही अभ्यागत लोग आ पहुँचे। आये नहीं सिर्फ़ आशु बाबू। हरेन्द्र दरवाजे से उन सबको सम्मान के साथ स्वागतपूर्वक भीतर ले आया। लड़के उस समय आश्रम के नित्य-कार्यों में लगे हुए थे। कोई बत्ती जला रहा था, कोई चूल्हा सुलगा रहा था, कोई पानी भर रहा था और कोई रसोई की तैयारियाँ कर रहा था। हरेन्द्र ने अविनाश के प्रति लक्ष्य करके हँसते हुए कहा - ”भाई साहब, आप जिन्हें अभागे आवारों का दल कहा करते हैं, ये ही हैं वे हमारे आश्रम के लड़के। हमारे यहाँ नौकर रसोइयाँ नहीं है, ये ही लोग सब काम अपने हाथों से करते हैं। - भाभीजी, चलिये हमारी भोजनशाला में। आज हमारे यहाँ पर्व का दिन है, वहाँ का आयोजन देख आइये, एक बार चलिये।”
नीलिमा के पीछे-पीछे सब रसोईघर के सामने जा खड़े हुए। एक दस-बारह साल का लड़का चूल्हा सुलगा रहा था और उसी उमर का दूसरा लड़का हँसिया से आलू चीर रहा था। दोनों ने उठकर नमस्कार किया। नीलिमा ने लड़कों से स्नेह से सम्बोधन करते हुए पूछा - आज तुम लोगों के यहाँ क्या-क्या रसोई बनेगी, बेटा?
एक लड़के ने प्रसन्न मुख से उत्तर दिया - आज रविवार के दिन हमारे यहाँ आलूदम बनते हैं।
“और क्या-क्या बनता है?”
“और कुछ नहीं।”
नीलिमा ने व्याकुल होकर पूछा - सिर्फ़ आलू दम बस? दाल, झोल या और कुछ -
लड़के ने कहा - दाल हमारे यहाँ कल बनी थी।
सतीश पास ही खड़ा था। उसने समझाते हुए कहा - हमारे आश्रम में एक चीज़ से ज़्यादा बनाने का नियम नहीं है।
हरेन्द्र ने हँसते हुए कहा - होने की गुंजाइश भी नहीं भाभीजी, होगा कहाँ से?
हमारे भाई साहब इसी तरह दूसरों के आगे आश्रम का गौरव बढ़ाया करते हैं।
नीलिमा ने पूछा - नौकर-चाकर भी नहीं होंगे शायद?
हरेन्द्र ने कहा - नहीं। उन्हें रखा जायेगा तो आलूदम विदा कर देना पड़ेगा। लड़के उसे पसन्द नहीं करेंगे।
नीलिमा ने आगे कुछ नहीं पूछा। उन लड़कों की सूरत देखकर उसकी आँखें डबडबा आयी। बोली - लालाजी, और कहीं चलो।
सबने इस बात के मतलब समझे। हरेन्द्र पुलकित होकर बोला - ”चलिये, मैं निश्चय के साथ जानता था भाभी कि यह आपसे सहा नहीं जायेगा।” फिर उसने कमल की तरफ़ देखकर कहा - लेकिन आप तो खुद ही इसमें अभ्यस्त हैं - सिर्फ़ आप ही समझेंगी इस संयम की सार्थकता को। इसी से उस दिन इस ब्रह्मचर्याश्रम में आने का विनय के साथ आपको आमंत्रण दिया था।
हरेन्द्र के गम्भीर चेहरे की तरफ़ देखकर कमल हँस पड़ी। बोली - मेरी खुद की बात और है, लेकिन इन सब बच्चों को इतने आडम्बर के साथ इस तरह की निष्फल दरिद्रता का आचरण कराने का नाम क्या आदमी बनाना है हरेन्द्र बाबू? ये ही हैं शायद यहाँ के ब्रह्मचारी? इन्हें आदमी बनाना हो तो साधारण और स्वाभाविक मार्ग से बनाइये। झूठे दुख का बोझ सिर पर लादकर असमय में ही इन्हें बौना या कुबड़ा न बना डालिये।
कमल के शब्दों की कठोरता से हरेन्द्र तिलमिला गया; अविनाश ने कहा - कमल को बुलाना तुम्हारा ठीक नहीं हुआ हरेन्द्र।
कमल शरमा गई, बोली - सचमुच, मुझे बुलाना किसी के लिये भी ठीक नहीं हुआ।
नीलिमा ने कहा - ”मगर मैं उन किसी में शामिल नहीं हूँ कमल। मेरे घर में कभी तुम्हारा अनादर न होगा। चलो, हम लोग ऊपर चलकर बैठें। देखें, लालाजी के आश्रम में और क्या-क्या आतिशबाजियाँ निकलती हैं?” यह कहकर उसने अपने स्निग्ध हास्य के आवरण से कमल की लज्जा ढँक दी।
दूसरी मंजिल पर काफी लम्बा-चौड़ा आश्रम का खास कमरा था। पुराने जमाने का नक्काशी का काम छत के नीचे और दीवारों पर अब भी मौजूद है। बैठने के लिये एक बेंच और चार-पाँच कुर्सियाँ हैं, पर साधारणतः उनपर कोई बैठता नहीं। फर्श पर एक दरी बिछी हुई है। आज खास दिन होने के कारण उस पर सफेद चादर बिछा दी गयी है और उस पर पड़ोसी लालाजी के यहाँ से बड़े-बड़े तकिये मँगाकर रख दिये हैं। बीच में उन्हीं के यहाँ से लाया हुआ बेल-बूटेदार बारह डालियोंवाला शमादान और एक कोने में हरे रंग के शेड से ढँकी हुई दीवारगिरी जल रही है। नीचे की अन्धकारमय और आनन्दहीन आब-हवा में से इस कमरे में आकर सभी लोग खुश हुए।
अविनाश ने एक तकिये का सहारा लिया और दोनों पैर सामने की ओर पसारकर सन्तोष की साँस लेते हुए कहा - उफ्! जान में जान आयी।
हरेन्द्र पुलकित होकर बोला - हमारे आश्रम का यह कमरा कैसा है भाई साहब?
अविनाश ने कहा - ”यहीं तो तुमने मुश्किल में डाल दिया हरेन्द्र। कमल मौजूद है, उसके सामने किसी चीज़ को अच्छा बताने की हिम्मत नहीं पड़ती - हो सकता है कि तीव्र प्रतिवाद के ज़ोर से वह अभी साबित कर दे कि इसके छत की नक्काशी से लेकर फर्श तक सब कुछ बुरा है।” इतना कहकर वे कमल के मुँह की तरफ़ देखकर ज़रा हँस दिये और बोले - ”इसे तो तुम भी मानोगी कि मेरे पास और कोई पूँजी भले ही न हो, पर उमर की पूँजी मैंने खूब जमा कर रखी है। उसी के बल पर तुमसे एक बात कहता हूँ। मैं अस्वीकार नहीं करता कि सच बात बहुधा अप्रिय होती है, पर इसका अर्थ नहीं कि प्रिय बात-मात्रा सत्य नहीं होती कमल। तुम्हें बहुत-सी बातें शिवनाथ ने सिखाई हैं, सिर्फ़ यही एक बात सिखाना बाकी रख छोड़ा है।”
कमल का चेहरा सुखऱ् हो उठा, पर इसका जवाब दिया नीलिमा ने। बोली, शिवनाथ की जो इतनी त्रुटि रह गयी है मुखर्जी साहब, हम उन पर जुरमाना करके उसका बदला लेंगे, मगर गुरुगीरी में तो कोई भी पुरुष कम नहीं मालूम होता। इसलिये प्रार्थना है कि अब आप उमर की पूँजी में से और भी दो-एक प्रिय वाक्य बाहर निकालें। हम लोग सुनकर धन्य हों।
अविनाश भीतर से जल-भुन गये। इतने आदमियों के बीच उनका जो अपमान किया गया, केवल उसी के कारण नहीं, बल्कि इस वक्रोक्ति के तीर के भीतर जो तीक्ष्ण फल छिपा हुआ था, उसने विद्ध करके ही दम नहीं लिया, अपमान भी किया। कुछ दिनों से एक तरह के असन्तोष की गरम हवा न जाने कहाँ से आकर दोनों के बीच में बह रही थी। वह आँधी की तरह भीषण नहीं थी, पर घास-तिनके, धूल-रेत उड़ाकर कभी-कभी दोनों की आँखों में झोंक देती थी। कम हिलते हुए दांतों की तरह चबाने का काम तो चलता था; परन्तु चबाने के आनन्द से दोनों वंचित थे। हरेन्द्र को लक्ष्य करके उन्होंने कहा - ”नाराज़ तो नहीं हो सकता हरेन्द्र, तुम्हारी भाभी ने बिल्कुल झूठ नहीं कहा कि मुझे पहचानने में तो अब उनके लिये कुछ बाकी नहीं है, उन्हें ठीक ही मालूम है कि मेरी पूँजी जो कुछ है पुराने जमाने की सीधी-सादी है, उसमें वस्तु होने पर भी रस-कस कुछ नहीं।”
हरेन्द्र ने पूछा - इसके माने क्या भाई साहब?
अविनाश ने कहा - तुम संन्यासी आदमी ठहरे, माने ठीक समझोगे नहीं। मगर छोटी मालकिन अचानक कमल की जैसी भक्त हो उठी हैं, उससे आशा की जाती है कि अगर वे उनके अनुभव से काम लेंगी तो धन्य होने का रास्ता अपने आप साफ़ हो जायेगा।
इस व्यंग्य की सदहृदयता स्वयं उन्हें भी अपने कानों में खटकी थी, और दुर्विनय की स्पर्धा से और भी कुछ कहना चाहते थे कि हरेन्द्र ने उन्हें रोक दिया। उसने व्यथित-कण्ठ से कहा - भाई साहब आज आप सभी यहाँ के अतिथि हैं। इस बात को अगर आप लोग भूल गये कि कमल को हम आश्रम की तरफ़ से सम्मान के साथ निमंत्रित करके लाये हैं तो फिर हमारे दुख की सीमा न रहेगी।
नीलिमा ने कहा - तो फिर मेरे सम्बन्ध में कृपाकर उन्हें स्मरण करा दो लालाजी कि अगर कोई किसी को छोटी मालकिन कहकर पुकारने लग जाये तो वह उसकी सचमुच की गृहिणी नहीं हो जाती। उसे उस पर शासन करने की मात्रा का भी ज्ञान रहना चाहिये। मेरी तरफ़ से मुखर्जी साहब के अनुभव के भण्डार में इतना आज और जमा करा दिया जाये - भविष्य में वह काम में आ सकता है।
हरेन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा, रक्षा कीजिये भाभी साहिबा, सारी की सारी अनुभव-अभिज्ञता की लड़ाई क्या आज मेरे ही यहाँ आकर लड़ी जायेगी? जितनी बाकी बची है, उतनी रहने दीजिये, घर जाकर पूरी कर लीजियेगा; नहीं तो हम लोग तो वैसे ही मारे जायेंगे। जिस बात के डर से अक्षय को नहीं बुलाया आखिर क्या वही बात तकदीर में बदी है?
सुनकर अजित और कमल दोनों ही हँस पड़े। हरेन्द्र ने पूछा - अजित बाबू, सुना है कल आप अपने घर जायेंगे?
“पर आपने सुना किससे?”
“आशु बाबू को बुलाने गया था। उन्होंने कहा कि शायद कल आप जा रहे हैं।”
अजित ने कहा - शायद। पर कल नहीं, परसों। यह भी निश्चित नहीं कि घर जाऊँगा या और कहीं। हो सकता है कि शाम तक स्टेशन पहुँच जाऊँ और उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम जिस तरफ़ की गाड़ी मिल जाय उसी पर यात्रा शुरू कर दूँ।
हरेन्द्र ने हँसते हुए कहा - लगभग वैरागी होने के ढंग पर अर्थात गन्तव्य स्थान का कोई निश्चय नहीं।
अजित ने कहा - नहीं।
“लेकिन लौटने का?”
“नहीं, उसका भी फिलहाल कोई निश्चय नहीं।”
हरेन्द्र ने कहा - अजित बाबू, आप भाग्यवादी आदमी हैं। परन्तु बोरिया-बिस्तर ढोने के लिये अगर चाहिये तो मैं एक आदमी दे सकता हूँ; परदेश के लिये ऐसा मित्र मिलना मुश्किल है।
कमल ने कहा - और रसोइये की ज़रूरत हो तो मैं भी एक ऐसा व्यक्ति दे सकती हूँ जिसकी जोड़ी मिलना मुश्किल है। आप भी स्वीकार करेंगे कि हाँ, है तो अहंकार करने लायक ही।
अविनाश को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, वे बोले - हरेन्द्र, अब देर काहे की है, चलने की तैयारी करो न। क्या कहते हो?
हरेन्द्र ने विनय के साथ कहा - लड़कों के साथ ज़रा परिचय न कीजियेगा? थोड़ा-बहुत उपदेश उन्हें न दे जाइयेगा, भाई साहब?
अविनाश ने कहा - उपदेश देने तो मैं आया नहीं, आया था सिर्फ़ इन लोगों का साथी बनकर। शायद उसकी भी अब ज़रूरत नहीं रही।
सतीश बहुत-से लड़कों के साथ ऊपर आ पहुँचा। दस-बारह वर्ष से लेकर उन्नीस-बीस वर्ष के युवक तक उसमें थे। जाड़े के दिन और बदन पर सिर्फ़ एक कुरता, पाँव में जूते तक नहीं - शायद इसलिये कि जीवन धारण के लिये उनका कोई विशेष प्रयोजन नहीं। खाने-पीने की व्यवस्था पहले ही दिखा दी गयी है। ब्रह्मचर्याश्रम में यह सब शिक्षा के ही अंग हैं। हरेन्द्र ने आज एक सुन्दर भाषण रट रखा था। वह मन ही मन उसी को दुहराते हुए यथोचित गम्भीरता के साथ बोला - इन लड़कों ने देश के काम में जीवन अर्पण कर दिया है। यही आशीर्वाद आप लोग हमें दीजिये कि आश्रम का यह महान आदर्श भारत के नगर-नगर और गाँव-गाँव में ये प्रचार कर सकें।
सबने मुक्त कण्ठ से आशीर्वाद दिया।
हरेन्द्र ने कहा - ”अगर समय मिला तो अपना वक़्तव्य मैं बाद में सुनाऊँगा।”
यह कहकर उसने कमल को लक्ष्य करके कहा - आपको ही आज खास तौर से आमंत्रण देकर हम लोगों ने बुलाया है, कुछ सुनने की आशा से। लड़के आशा लगाये हुए हैं कि आपके मुँह से आज वे ऐसी कोई बात सुनेंगे जिससे उनके जीवन का व्रत अधिकाधिक उज्जवल हो उठे।
मारे संकोच और दुविधा के कमल सुखऱ् हो उठी। बोली - मैं तो व्याख्यान नहीं दे सकती हरेन बाबू।
इसका उत्तर दिया सतीश ने, बोला - व्याख्यान नहीं उपदेश चाहते हैं हम। देश के काम में जो चीज़ इनके सबसे ज़्यादा काम में आयेगी, सिर्फ़ उसी के बारे में।
कमल ने उसी से पूछा - देश के काम से आपका तात्पर्य क्या है, पहले यह बताइये?
सतीश ने कहा - जिससे देश का सर्वांगीण कल्याण हो वही तो देश का काम है।
कमल ने कहा, मगर कल्याण की धारणा तो सबकी एक-सी होती नहीं। आपके साथ मेरी धारणा का अगर मेल न बैठा तो मेरा उपदेश आपके काम नहीं आ सकता।
सतीश संकट में पड़ गया। इस बात का ठीक उत्तर उसे ढूँढे न मिला। उसका इस संकट से उद्धार करने के लिये हरेन्द्र ने कहा - देश की मुक्ति जिससे मिले वही है, देश का एकमात्र कल्याण। देश में ऐसा कौन होगा जो इस सत्य को न मानता हो?
कमल ने कहा - कहने में डर लगता है हरेन बाबू कि सबके सब भड़क उठेंगे। नहीं तो मैं ही कहती कि अपने आपको और दसूरों को भूलभुलैया में डालने वाला इस ‘मुक्ति’ शब्द के समान और कोई छल ही नहीं। किससे मुक्ति हरेन बाबू? विविध दुख से या भव-बन्धन से? बताइये कि किसे देश का एकमात्र कल्याण समझकर आश्रम-प्रतिष्ठा में आप लोग नियुक्त हुए हैं? यही क्या आपकी स्वदेश-सेवा का आदर्श है?
हरेन्द्र घबराकर बोला - ”नहीं, नहीं, नहीं, यह सब नहीं, यह सब नहीं, यह कामना हमारी नहीं।”
कमल ने कहा - तो फिर ऐसा कहिये कि यह हमारी कामना नहीं, कहिये कि हमारा आदर्श इससे भिन्न है। कहिये कि संसार त्याग और वैराग्य-साधन हमारा लक्ष्य नहीं। हमारी साधना है संसार में सम्पूर्ण ऐश्वय, सम्पूर्ण सौन्दर्य, सम्पूर्ण जीवन लेकर जीवित रहना? मगर उसकी शिखा क्या यही है। बदन पर कपड़े नहीं, पाँवों में जूते नहीं, फटे-पुराने कपड़े पहन रखे हैं, रूखे बाल हैं, एक वक़्त अधपेट खाकर जो लड़के अस्वीकार के बीच बढ़ रहे हैं, प्राप्ति के आनन्द का जिनके भीतर चिह्न तक नहीं रहा है, देश की लक्ष्मी क्या उन्हीं के हाथ अपने भण्डार की चाबी सौंप देगी? हरेन्द्र बाबू, संसार की तरफ़ एक बार मुँह उठाकर देखिये तो सही। जिन्हें बहुत मिला है, उन्हाँेंने ही आसानी से दिया है। उन लोगों को ऐसी अकिंचनता का स्कूल खोलकर त्याग का ग्रेजुएट नहीं बनाया गया था।
सतीश हतबुद्धि सा हो गया। - क्या आप कहना चाहती हैं कि देश के मुक्ति संग्राम में धर्म की साधना और त्याग की दीक्षा की कतई ज़रूरत नहीं?
कमल ने कहा, मुक्ति संग्राम का अर्थ तो पहले स्पष्ट हो जाये?
सतीश बगलें झाँकने लगा। कमल हँसती हुई बोली - आपके भावों से मालूम होता है कि आप विदेशी राजशक्ति के बन्धन से मुक्त होने को ही देश का मुक्ति संग्राम कह रहे हैं। अगर यही सतीश बाबू तो मैंने न कभी धर्म की साधना की है और न त्याग की दीक्षा ही ली है, फिर भी आपसे कहे देती हूँ कि मुझे आप सबसे आगे सामना करनेवालों के दल में पाइयेगा - आप लोग तब ढूँढे़ भी न मिलेंगे। सतीश कुछ बोला नहीं। वह न जाने कैसा घबड़ा-सा गया। उसकी चंचल दृष्टि का अनुसरण करती हुई कमल कुछ देर के लिये जिस व्यक्ति की ओर से आँखें न फेर सकी वह था राजेन्द्र। सतीश के सिवा किसी ने उधर लक्ष्य ही नहीं किया था कि कब वह चुपके से दरवाजे के पास आ खड़ा हुआ था। वह भावाच्छन्न की भाँति निष्पलक दृष्टि से अब तक कमल की ओर देख रहा था, और अब भी ठीक उसी तरह देख रहा था। उसका चेहरा एक बार देखकर फिर भूलना मुश्किल था। उमर शायद पच्चीस छब्बीस के लगभग होगी, रंग बिल्कुल साफ़ गोरा, सहसा देखने से अस्वाभाविक-सा मालूम पड़ता है। ऊँचा प्रशस्त ललाट इसी उमर में बाल उड़ जाने के कारण सामने की तरफ़ बहुत बड़ा दिखाई देता था। आँखें गहरी और खूब छोटी-छोटी हैं जैसे अँधेरे बिल में से चूहे की आँखें चमक रही हों। नीचे का मोटा होंठ सामने की ओर झुककर मानो अन्तःकरण के कठोर संकल्प को किसी तरह दबाये हुए है। सहसा देखने से ऐसा लगता है कि इस आदमी से बचकर चलना ही अच्छा है।
हरेन्द्र ने कहा - ”ये ही मेरे मित्र हैं राजेन्द्र - सिर्फ़ मित्र ही नहीं बल्कि छोटे भाई जैसे। इतना कर्मठ कार्यकर्ता, इतना बड़ा स्वदेशभक्त, इतना निडर और साधुचित्त पुरुष मैंने दूसरा नहीं देखा। भाभी जी, इन्हीं का जिक्र मैं उस रोज आपसे कर रहा था। यह जैसे हँसते-खेलते पाता है, वैसे ही हँसते-खेलते फेंक देता है। आश्चर्यजनक आदमी है। अजित बाबू, इन्हीं को मैं आपके साथ दे रहा था, भार वहन करने के लिये।”
अजित कुछ कहना ही चाहता था कि एक लड़के ने आकर खबर दी, ”अक्षय बाबू आये हैं।”
हरेन्द्र विस्मित होकर बोला - अक्षय बाबू?
अक्षय ने घर में घुसते हुए कहा - ”हाँ जी, हाँ - तुम्हारा, परम मित्र अक्षय कुमार!“ फिर सहसा चौंककर कहा - ”ऐं! आज बात क्या है? यहाँ तो सभी लोग इकट्ठे हैं! आशु बाबू के साथ कार में घूमने निकला था, सहसा ख़्याल आया, हरि घोष की गोशाला तो ज़रा देखते जायें। इसी से चला आया। चलो, अच्छा ही हुआ।”
इन सब बातों का किसी ने जवाब नहीं दिया; कारण उसमें न तो कुछ जवाब देने लायक था और न उस पर किसी ने विश्वास ही किया। अक्षय का न तो यह रास्ता ही है और न इधर वह कभी आता है।
अक्षय ने कमल की तरफ़ देखकर कहा - ”तुम्हारे यहाँ कल सबेरे ही जाने की सोच रहा था, लेकिन मकान तो मुझे मालूम नहीं - अच्छा ही हुआ जो भेंट हो गयी। एक शुभ संवाद है।”
कमल चुपचाप देखती रही; हरेन्द्र ने पूछा - ”शुभ संवाद क्या है, सुनाओ तो सही। यह निश्चित है खबर जब शुभ है तो गोपनीय तो होगी नहीं।”
अक्षय ने कहा - ”नहीं छिपाने लायक अब रह ही क्या गया है! रास्ते में आज उस सिलाई की मशीन बेचनेवाले कमबख्त पारसी से भेंट हो गयी जो उस दिन कमल की तरफ़ से रुपये उधार लेने गया था। गाड़ी रोककर मामला पूछा गया।” फिर कमल की तरफ़ इशारा करके कहा - ”आप उधार में एक मशीन खरीद कर फतुइ-वतुई सीकर खर्च चला रही थीं। - शिवनाथ मौज से लापता है। - मगर इकरार के मुताबिक किस्त तो वक़्त पर चुकनी ही चाहिये, इसी से वह मशीन छीन ले गया।
आशु बाबू ने आज उसे पूरी कीमत देकर खरीद लिया है। कमल, कल सबेरे ही आदमी भेजकर मशीन मँगा लेना। खाने-पहनने से भी तंग हो, हम लोगों से तो यह बात कहनी थी?”
इसके कहने की बर्बर निष्ठुरता से सबके सब मर्माहत हुए। कमल के लावण्यहीन शीर्ण चेहरे का कारण जानकर मारे शरम के अविनाश तक का चेहरा लाल हो उठा।
कमल ने मृदु कण्ठ से कहा - मेरी तरफ़ से कृतज्ञता जताकर उन्हें मशीन वापस कर देने को कह दीजियेगा। अब मुझे उसकी ज़रूरत नहीं।
हरेन्द्र ने कहा - अक्षय बाबू, आप चले जाइये इस घर से। आपको मैंने बुलाया नहीं था और न चाहा ही था कि आप यहाँ आयें। फिर भी, आप चले आये। आदमी की ब्रुटेलिटी (पशुता) की क्या कहीं कोई हद ही नहीं?
कमल ने सहसा मुँह उठाते ही देखा कि अजित की दोनों आँखें आंसुओं से भर आयी हैं। बोली - अजित बाबू, क्या आपकी गाड़ी साथ है, कृपाकर मुझे पहुंचा दीजियेगा?
अजित कुछ बोला नहीं। उसने सिर्फ़ सिर हिलाकर हाँ कर दी।
कमल ने नीलिमा से नमस्कार करके कहा - अब शायद जल्दी भेंट न होगी, मैं यहाँ से जा रही हूँ।
पूछने का किसी को साहस नहीं हुआ कि कहाँ? नीलिमा ने सिर्फ़ उसका हाथ लेकर अपने हाथ में दबा दिया और दूसरे क्षण कमल हरेन्द्र को नमस्कार करके अजित के पीछे-पीछे कमरे से बाहर निकल गयी।
15
मोटर में बैठकर कमल अन्यमनस्क-सी होकर आकाश की ओर देख रही थी। गाड़ी थमते ही इधर-उधर देखकर उसने पूछा - यह कहाँ आ गये अजित बाबू, मेरे घर का रास्ता तो यह नहीं है?
अजित ने उत्तर दिया - नहीं, यह घर का रास्ता नहीं।
“नहीं है? तो लौटना पड़ेगा शायद?”
“सो आप जाने। हुक्म करते ही लौट पड़ूँगा।”
सुनकर कमल आश्चर्य में पड़ गयी। इस अद्भुत उत्तर के कारण उतनी नहीं जितनी कि उसके कण्ठ की अस्वाभाविकता से वह विचलित हो उठी। क्षण-भर मौन रहकर उसने अपने को दृढ़ किया और फिर हँसते हुए कहा, ” राह भूलने का अनुरोध तो मैंने किया नहीं अजित बाबू, जो संशोधन का हुक्म मुझको ही देना होगा? ठीक जगह पहुँचा देने का दायित्व आपका है - मेरा कर्त्तव्य है सिर्फ़ आप पर विश्वास किये रहना।”
“मगर दायित्वबोध की धारणा में अगर भूल कर बैठा होऊं कमल, तो?”
“मगर’ के ऊपर तो कोई विचार चल नहीं सकता अजित बाबू। भूल के बारे में पहले निःसंशय हो जाने दो, उसके बाद इसका विचार करूँगी।”
अजित ने अस्फुट स्वर में कहा - ”तो विचार ही कीजिये, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।” इसके बाद वह क्षण-भर स्तब्ध रहकर सहसा बोल उठा - ”कमल, उस दिन की बात याद है तुम्हें? उस दिन भी ठीक ऐसा ही अन्धकार था।”
“हाँ, ऐसा ही अन्धकार था।” कहकर कमल ने गाड़ी का दरवाजा खोला, वह पीछे से उतरी और अजित की बगल में सामने की सीट पर जा बैठी। सुनसान अंधकार, रात्रि बिल्कुल नीरव थी। कुछ देर तक दोनों में से कोई कुछ बोला नहीं।
“अजित बाबू?”
“हूँ।”
अजित की छाती के भीतर आँधी उठ रही थी, जवाब देने में उसकी बात मुँह की मुँह में ही हिलग रही। कमल ने फिर पूछा, ”क्या सोच रहे हैं, बताइये न?”
अजित का कण्ठ काँपने लगा, बोला - ”आशु बाबू के मकान में उस दिन का मेरा आचरण तुम्हें याद है? उस दिन सोचा था कि तुम्हारा अतीत ही शायद तुम्हारा सबसे बड़ा अंश है, मैं उसके साथ समझौता कैसे कर सकता हूँ? पीछे की ही छाया को सामने बढ़ाकर मैंने तुम्हारा चेहरा ढक लिया था और इस बात को भूल गया था कि सूर्य घूमा करता है। मगर उसे जाने दो - लेकिन आज क्या सोच रहा हूँ, तुम नहीं समझ सकतीं?”
कमल ने कहा - ”स्त्री होकर इसके बाद भी न समझ सकूंगी, मैं क्या इतनी निर्बोध हूँ? राह जब भूले, मैंने तो समझ लिया था।”
अजित धीरे-धीरे उसके कन्धे पर बायाँ हाथ रखकर चुप हो रहा। कुछ देर बाद उसने कहा - कमल, मालूम होता है, आज जब मैं अपने को सँभाल नहीं सकूँगा? कमल हटकर नहीं बैठी। उसके आचरण में विस्मय या विह्वलता का नाम तक न था। सहज-स्वाभाविक शान्त कण्ठ से बोली - इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं अजित बाबू, ऐसा तो हुआ ही करता है। लेकिन आप तो सिर्फ़ पुरुष ही नहीं हैं, न्यायनिष्ठ शिष्ट पुरुष हैं। इसके बाद फिर मुझे कन्धे से उतारियेगा कैसे? इतना छोटा काम तो आप कर नहीं सकेंगे।
अजित गाढ़े स्वर में बोला - ”ऐसी आशंका तुम करती ही क्यों हो कमल कि ऐसा काम करना ही पड़ेगा?”
कमल हँस दी और बोली - आशंका मैं अपने लिये नहीं करती अजित बाबू, करती हूँ सिर्फ़ आपके लिये। आपसे करते बनता तो मुझे कोई डर न था, चिन्ता इसी की है कि करते नहीं बनेगा। सिर्फ़ एक रात की गलती के बदले इतनी बड़ी सजा आपके सिर लाद देने में मुझे तरस आता है। अब नहीं, चलिये लौट चलें।
बात अजित के कान तक पहुँची, पर हृदय तक नहीं पहुँची। लहमे-भर में उसकी नसों का खून पागल हो उठा - अपनी छाती के पास ज़ोर से उसे खींचकर मत्त कण्ठ से बोल उठा - मुझ पर क्या तुम विश्वास नहीं कर सकतीं कमल? क्षण भर के लिये कमल की साँस रुक गयी, बोली - कर सकती हूँ।
“तो किसलिये लौटना चाहती हो कमल? चलो, हम चले चलें।”
“चलिए।”
गाड़ी चलाते वक़्त अजित ने सहसा रुककर पूछा, ”घर से साथ लाने लायक क्या तुम्हारे पास कुछ भी नहीं?”
“नहीं। लेकिन आपके?”
अजित को सोचना पड़ा। जेब में हाथ डालकर बोला - रुपये-पैसे तो कुछ साथ हैं नहीं - उनकी तो ज़रूरत पड़ेगी।
कमल ने कहा - गाड़ी बेच देने से रुपये आ जायेंगे।
अजित ने आश्चर्य के साथ कहा - गाड़ी बेचूँगा? मगर यह तो मेरी नहीं है - आशु बाबू की है।
कमल ने कहा - इससे क्या? आशु बाबू मारे लज्जा और घृणा के गाड़ी का नाम तक जबान पर न लायेंगे। कोई चिन्ता मत कीजिये - चले चलिये।”
सुनकर अजित स्तब्ध हो रहा। उसका बायाँ हाथ अब भी कमल के कन्धे पर था, वह खिसककर नीचे जा पड़ा। बहुत देर चुप रहकर वह बोला - तुम क्या मेरा मजाक उड़ा रही हो?
“नहीं तो, सच कह रही हूँ।”
“सच कह रही हो और सच ही समझ रही हो कि मैं गाड़ी चुरा सकता हूँ? यह काम तुम खुद कर सकतीं?”
कमल ने कहा - ”सकने न सकने पर अगर आप निर्भर करते अजित बाबू, तो मैं इसका जवाब देती। परायी चीज़ हड़प लेने की हिम्मत आपमें नहीं है। चलिये, गाड़ी घुमाकर मुझे घर पहुँचा दीजिये।
लौटते वक़्त अजित ने धीरे से पूछा - परायी चीज़ हड़प लेने को क्या बहुत बड़ी बात समझती हो तुम?
कमल ने कहा - बड़ी-छोटी की बात नहीं की मैंने। यह साहस आपमें नहीं है, बस, यही कहा है।
“नहीं, नहीं है, और उसके लिये मैं लज्जा का अनुभव भी नहीं करता।” यह कहकर अजित ज़रा रुका और फिर बोला - ”बल्कि होता तो उसे मैं लज्जा की बात समझता और मेरा तो विश्वास है कि सभी शिष्ट व्यक्ति इस बात को स्वीकार करेंगे।”
कमल ने कहा - क्योंकि स्वीकार करना बहुत आसान है। उसमें वाहवाही जो मिलती है।
“सिर्फ़ वाहवाही ही? उससे ज़्यादा कुछ नहीं? शिक्षा और संस्कार नाम की क्या कोई चीज़ ही नहीं देखी तुमने कभी?”
“अगर देखी भी हो तो उसकी आलोचना अगर कभी मौका आया तो और किसी दिन करूँगी, आज नहीं“ और वह क्षण-भर मौन रहकर बोली - ”आपके तर्क पर अगर और कोई होता तो व्यंग्य से कहता कि ‘कमल को हड़प लेने की कोशिश में तो शिक्षा और संस्कार को संकोच हुआ नहीं?’ मगर मैं ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि, कमल किसी की सम्पत्ति नहीं है। वह सिर्फ़ अपनी ही है, और किसी की भी नहीं।” ”किसी दिन शायद हो भी नहीं सकतीं?”
“यह तो भविष्य की बात है अजित बाबू - आज कैसे इसका जवाब दूँ?
“जवाब शायद किसी भी दिन नहीं दे सकोगी। मालूम होता है, इसीलिये शिवनाथ की इतनी बड़ी निर्ममता भी तुम्हें नहीं खटकी। बहुत ही आसानी से उसे तुमने झाड़ फेंका।” कहकर अजित ने ज़ोर की साँस ले ली।
मोटर के उजाले में देखा कि सामने कई एक बैलगाड़ियाँ खड़ी हैं। पास ही शायद गांव है, किसान जैसी की तैसी गाड़ियाँ सड़क पर ढील कर, बैल लेकर घर चले गये हैं।
अजित सावधानी से उस जगह को पार करके बोला - कमल, तुम्हें समझना कठिन है।
कमल ने हँसकर कहा - कठिन कैसे? ठीक ही तो समझे थे कि राह भूलते ही मुझे भुलाकर ले जाया जा सकता है।
“शायद वह समझना मेरी भूल थी।”
कमल ने हँसते हुए कहा - रास्ता भूलना भूल, भुलाकर ले जाने की कोशिश भूल, और अपनी भी भूल? इतना बड़ा भूल का बोझा आपका दूर होगा कब? अजित बाबू, अपने पर श्रद्धा रखना सीखिये। इस तरह से अपने सामने अपने को छोटा मत बनाइये।
“मगर अपनी भूल को अस्वीकार करना ही क्या अपने पर श्रद्धा रखना है, कमल?”
“नहीं, सो नहीं। पर अस्वीकार करने की भी एक रीति है। संसार सिर्फ़ अपने को लेकर ही तो है नहीं। अगर ऐसा होता तो फिर सब झंझट ही मिट जाता। यहाँ और भी दस जनों का वास है, उनकी भी इच्छा-अनिच्छा - उनके भी काम की धारा हमारी देह से आ टकराती है। इसी से, अन्तिम फलाफल। अगर मन के माफिक न हो, तो उसे भूल जानकर धिक्कार देते रहना अपना ही अपमान करना है। अपने प्रति इससे बढ़कर अश्रद्धा, बताइये, और क्या प्रकट की जा सकती है?”
अजित ने क्षणभर चुप रहकर पूछा - लेकिन जहाँ सचमुच की भूल हो?
शिवनाथ के सम्बन्ध में भी क्या तुम्हें शर्म-पश्चाताप नहीं हुआ कमल? और यही क्या मुझे तुम विश्वास करने को कहती हो?
कमल ने इस प्रश्न का शायद ठीक से उत्तर नहीं दिया। बोली - विश्वास करने न करने की गर्ज तो आपकी है। उनके विरुद्ध तो किसी के पास किसी दिन मैंने शिकायत की नहीं।
शिकायत करनेवाली स्त्री तुम नहीं हो। पर भूल के लिये क्या अपने आप भी कभी अपने को नहीं धिक्कारा?”
“नहीं।”
“तो इतना ही सिर्फ़ मैं कह सकता हूँ कि तुम अद्भुत हो, तुम असाधारण हो।”
इस मन्तव्य का कमल ने कोई जवाब नहीं दिया, वह चुप हो गये।
दस मिनट बीत जाने के बाद अजित सहसा पूछ बैठा - कमल, ऐसी भूल अगर फिर भी कर बैठूँ, तो भी क्या तुमसे भेंट होगी?
“‘अगर’ का जवाब तो ‘अगर’ से ही दिया जा सकता है अजित बाबू। अनिश्चित प्रस्ताव के निश्चित समाधान की आशा नहीं करनी चाहिये।”
“अर्थात, यही तुम्हारा विश्वास है कि मेरा यह मोह कल तक टिकेगा नहीं?”
“मुझे लगता है, ऐसा होना कम से कम असम्भव तो नहीं।”
अजित मन ही मन आहत होकर बोला - मैं और चाहे जो भी होऊँ कमल, शिवनाथ नहीं हूँ।
कमल न जवाब दिया - सो मैं जानती हूँ अजित बाबू, और शायद आपसे भी ज़्यादा जानती हूँ।
अजित ने कहा - जानती होतीं तो यह विश्वास न कर लेतीं कि आज मैंने तुम्हें झूठ से बहकाना चाहा था, इसमें सत्य कुछ भी नहीं था।
कमल ने कहा - झूठ की बात तो हो नहीं रही अजित बाबू, मोह की बात हो रही थी। ये दोनों एक चीज़ नहीं। आज मोह के वश होकर अगर आपने किसी को बहकाना चाहा तो वह अपने को ही बहकाना चाहा है। मुझको बहकाना नहीं चाहा - जानती हूँ।
“पर अन्त में ठगायी तो तुम ही जातीं कमल। इसे निश्चित समझकर भी कि मेरा रात का मोह दिन के उजाले में कट जायेगा, तुमने साथ चलने से इन्कार नहीं किया? यह क्या सिर्फ़ उपहास ही था?”
कमल ज़रा हँस दी - जाँच कर देख क्यों नहीं लिया? रास्ता खुला था, एक बार भी तो मैंने मना नहीं किया था।
अजित ज़ोर की एक साँस छोड़कर बोला - अगर नहीं किया तो मैं यही कहूँगा कि तुम्हें समझना वास्तव में ही कठिन है। एक बात मैं तुमस कहता हूँ कमल कि जैसे नारी का प्रेम हृदय को आच्छन्न कर देता है, वैसे ही उसके रूप का मोह भी बुद्धि को बेहोश कर डालता है। किया करे, पर इनमें से एक जितना बड़ा सत्य है, दूसरा उतना ही बड़ा असत्य है। तुम तो जानती थी कि यह मेरा प्रेम नहीं है, सिर्फ़ क्षणिक मोह है। फिर कैसे तुम इसे बढ़ावा देने को तैयार हो गयी? कमल, कुहरा चाहे जितने बड़े समारोह के साथ सूर्य के प्रकाश को ढक दे, फिर भी वह असत्य है। ध्रुव सत्य तो सूर्य ही है।
कमल अन्धकार में क्षण-भर निर्निमेष दृष्टि से उसकी तरफ़ देखती रही, उसके बाद शान्त कण्ठ से बोली - यह तो कवि की उपमा है अजित बाबू, कोई युक्ति नहीं, सत्य भी नहीं। मालूम नहीं किस आदिम काल में कुहरे की सृष्टि हुई थी, पर आज भी वह उसी तरह मौजूद है। सूर्य को उसने बार-बार ढँका है और बार-बार ढँकता रहेगा। मालूम नहीं सूर्य ध्रुव है या नहीं, पर कुहरा भी असत्य प्रमाणित नहीं हुआ। दोनों ही नश्वर हैं, और हो सकता है कि दोनों ही नित्य हों। इसी तरह भले ही मोह क्षणिक हो, पर क्षण भी तो असत्य नहीं। क्षण-भर का सत्य लेकर ही वह बार-बार वापस आया करता है। मालती फल की आयु सूर्यमुखी की तरह लम्बी नहीं, पर उसे असत्य कहकर कौन उड़ा सकता है? यही अगर आपकी शिकायत हो कि मैंने एक रात के मोह को बढ़ावा क्यों देना चाहा था, तो मैं पूछती हूँ कि मनुष्य काल की लम्बाई ही क्या जीवन का इतना बड़ा सत्य है?
यह जानकर भी कि ये बातें अजित समझ नहीं रहा है, वह कहने लगी - आपके लिये मेरी बातें समझने का दिन अब भी नहीं आया। इसी से शिवनाथ के प्रति आपके क्रोध की सीमा नहीं, मगर मैंने उन्हें क्षमा कर दिया है। इसकी मुझे ज़रा भी शिकायत नहीं कि जितना उनसे मैंने पाया है, उससे ज़्यादा मुझे क्यों नहीं मिला।
अजित ने कहा, ”यानी मन को इतना निर्विकार बना डाला है! अच्छा,संसार में किसी के विरुद्ध क्या तुम्हें कोई भी शिकायत नहीं?”
कमल उसके मुँह की ओर देखकर बोली, ”है, सिर्फ़ एक के विरुद्ध।”
“किसके विरुद्ध, बताओ तो सही कमल?”
“क्या करेंगे आप परायी बात सुनकर?”
“परायी बात? कोई भी हो, फिर भी कम से कम निश्चिन्त हो सकूंगा कि मुझ पर तुम्हारा गुस्सा नहीं है?”
कमल ने कहा - ”निश्चिन्त होने से ही क्या आप खुश हो जायेंगे? पर उसके लिये अब समय नहीं रहा, हम लोग आ पहुँचे, गाड़ी रोकिये, मैं उतर जाऊँ“
गाड़ी रुक गयी। अँधेरे में सड़क के किनारे कोई खड़ा था, पास आते ही दोनों चौंक पड़े। अजित डरा हुआ बोला - कौन?
“मैं हूँ राजेन्द्र। वही जिसे आज हरेन्द्र भइया के आश्रम में देखा था।”
“अच्छा, राजेन्द्र? इतनी रात में यहाँ कैसे?”
“आप लोगों की ही बाट देख रहा था। आप लोगों के आने के बाद ही आशु बाबू के यहाँ से आदमी आया था आपको ढूँढ़ने।” यह कहकर वह कमल की तरफ़ देखने लगा।
कमल ने कहा - मुझे ढूँढ़ने का कारण?
उसने कहा - ”आपने शायद सुना होगा कि चारों तरफ़ ज़ोर का एन्फ्लुएँजा फैल रहा है, और बहुत-से लोग मर रहे हैं। शिवनाथ बाबू बहुत ज़्यादा बीमार हैं। अचानक उन्हें मैं डोली में लिटाकर आशु बाबू के घर पहुँचा आया हूँ। आशु बाबू ने सोचा होगा कि आप आश्रम में होंगी, इसी से वहाँ बुलाने भेजा था।”
“अभी क्या वक़्त होगा?”
“शायद तीन बज चुके हैं।”
कमल ने हाथ बढ़ाकर गाड़ी का दरवाजा खोला और कहा - भीतर बैठिये, रास्ते में आपको आश्रम में उतारते चलेंगे।
अजित ने एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला। काठ के पुतले की तरह चुपचाप गाड़ी चलाता हुआ हरेन्द्र के घर के सामने जाकर ठहर गया। राजेन्द्र के उतरने पर कमल ने कहा - आपको धन्यवाद। मुझे खबर देने के लिये आज आपको बहुत कष्ट हुआ।
“यह तो मेरा काम ही है। ज़रूरत होते ही खबर दीजियेगा।” कहकर वह चला गया। न कोई भूमिका, न कोई आडम्बर - सीधे-सादे शब्दों में जता गया कि यह उसके कर्तव्य के अन्तर्गत है। आज ही शाम को हरेन्द्र के मुँह से इस लड़के के विषय में जो कुछ उसने सुना था, सब याद आ गया। एक तरफ़ उसकी परीक्षा पास करने की असाधारण दक्षता, और दूसरी तरफ़ सफलता के सामने पहुँचते ही उसे त्याग देने की उदासीनता। उमर भी कम, हाल ही यौवन में कदम रखा है - और इसी उमर में ‘अपना’ कहने को कुछ भी हाथ में नहीं रखा, पराये काम में सब बाँट दिया।
अजित तब से चुप ही था। यह सुनने के बाद कि रात के तीन बज चुके हैं, किसी बात पर ध्यान देने लायक शक्ति उसमें नहीं थी। एक असम्बद्ध काल्पनिक प्रश्नोत्तर माला के आघात-प्रतिघात के नीचे इस निशीथ अभियान की निरविच्छिन्न कुत्सितता से उसका अन्तःकरण काला हो उठा। जहाँ तक सम्भव है, कोई भी उससे कुछ पूछेगा नहीं, और हो सकता है कि पूछने की हिम्मत भी किसी को न पड़े; पर सिर्फ़ अपनी इच्छा, अभिरुचि और विद्वेष की तूलिका से लोग अज्ञात घटना की कहानी आद्योपान्त पूरी की पूरी बना लेंगे। इससे भी ज़्यादा उसे व्याकुल कर रखा था इस लज्जाहीन नारी की निर्भय सत्यवादिता ने। इस दुनिया में झूठ बोलने की इसे आवश्यकता ही नहीं। यह मानो सारी दुनिया को संकट में डालने और लांक्षित करने के लिये ही पैदा हुई।
उधर उसे नहीं मालूम कि शिवनाथ की बीमारी में कौन और कैसे-कैसे लोग आये होंगे। यह कल्पना करके कि इस स्त्री से सब लोग इतनी देर होने का कारण पूछ रहे हैं, उसका खून ठण्डा हो गया। सहसा उसे ख़्याल आया कि वह कमल से घृणा करता है और इसी के लब्ध आश्वासनों से उसने आत्म-विस्मृत उन्मत्त की तरह क्षणभर के लिये ही सही, अपना होश खो दिया था। मन-ही-मन यह कहकर वह बार-बार अपने को अभिशाप देने लगा कि ज़रूर इसकी उसे सजा मिलनी चाहिये। गेट के अन्दर घुसते ही उसकी नजर पड़ी खुली खिड़की के सामने खड़े हुए आशु बाबू पर। शायद वे उसी की प्रतीक्षा में उत्कण्ठित हैं। गाड़ी की आहट से नीचे की ओर देखकर बोले - ”अजित आ गये? साथ में कौन है कमल?”
“हाँ।”
“यदु, कमल को शिवनाथ के कमरे में ले आओ। - सुना होगा शायद, वे बीमार हैं?” कहते-कहते वे खुद ही उतर आये, और बोले - ”यह ऋतु बदलने का समय ऐसा खराब है कि अचानक चारों तरफ़ बीमारी शुरू हो गयी है और काफी लोग मर रहे हैं। मेरी अपनी तबियत भी आज सबेरे से ठीक नहीं, हरारत सी मालूम पड़ रही है।”
कमल उद्विग्न होकर बोली - ”तो आप जाग रहे हैं? यहाँ देख-रेख करनेवालों की तो कमी नहीं है?”
“कौन है, बताओ? डाक्टर आकर देखभाल गये हैं, मुझे सोने भेजकर मणि स्वयं ही बैठी जाग रही है। पर मुझे नींद ही नहीं आती थी और तुम्हारे आने में देर होने लगी। कमल, पति की बीमारी के समय भी क्या अभिमान रखा जाता है? लड़ाई-झगड़ा तो होता ही रहता है, पर तुमने खबर तक नहीं ली कि तीन-चार दिन से कहाँ किस मकान में वह बुखार में पड़ा हुआ है? छिः यह काम अच्छा नहीं हुआ, अब अकेली तुम्हीं को तो सब भुगतना पड़ेगा।”
सुनकर कमल को बड़ा आश्चर्य हुआ, और समझ गयी कि इस सरलचित्त व्यक्ति को भीतर की कोई भी बात मालूम नहीं। वह चुप रही; आशु बाबू उसके अभिमान को शान्त करने के अभिप्राय से कहने लगे - ”हरेन्द्र बाबू के मुँह से सुना कि तुम घर पर नहीं हो, तभी मैं समझ गया कि अजित ने तुम्हें छोड़ा नहीं। वह खुद खूब घूमना पसन्द करता है, तुम्हें भी ले गया होगा। लेकिन सोचो तो ज़रा, अँधेरे में अचानक कोई दुर्घटना हो जाती तो तुम लोग कैसी आफत में पड़ते?”
अजित की छाती पर से पत्थर-सा उतर गया। आशु बाबू के लिये वह सोचने लगा - किसी बुराई की तरफ़ मानो उनका मन जाना ही नहीं चाहता, निष्कलुष अन्तःकरण हरदम अकलंक शुभ्रता से चमका करता है। स्नेह और श्रद्धा से उसने मन-ही-मन उन्हें नमस्कार किया। लेकिन, कमल ने उनकी सब बातों पर ध्यान नहीं दिया, इसकी ज़रूरत भी नहीं समझी। उसने पूछा - ”वे अस्पताल न जाकर यहाँ क्यों आये?”
आशु बाबू ने आश्चर्य के साथ कहा - ”अस्पताल? यह देखो? अभी तक तुम्हारा गुस्सा नहीं गया!“
“गुस्से की बात नहीं कह रही आशु बाबू, जो संगत और स्वाभाविक है, वही कह रही हूँ।”
“यह स्वाभाविक नहीं है, और संगत तो है ही नहीं। हाँ इतना मानता हूँ कि मणि को उचित था कि यहाँ न लाकर वह तुम्हारे पास भेज देती।”
कमल ने कहा - नहीं, उचित नहीं था। मणि जानती है कि इलाज कराने की शक्ति नहीं है मेरी।
इस बात से उन्हें और एक बात याद आ गयी और उससे वे अत्यन्त लज्जित हो गये। कमल कहने लगी - सिर्फ़ मनोरमा ही नहीं शिवनाथ बाबू भी जानते हैं कि सेवा से ही रोग नहीं जाता, दवा-दारू की भी ज़रूरत पड़ती है। शायद यह अच्छा ही हुआ कि खबर मेरे पास न जाकर मणि के पास पहुँची। उनकी आयु का ज़ोर समझिये।
आशु बाबू लज्जा से म्लान होकर सिर हिलाते हुए बार-बार कहने लगे, ”यह बात नहीं कमल - सेवा ही सब कुछ है। तीमारदारी सबसे बड़ी दवा है। नहीं तो, डाक्टर-वैद्य तो महज एक उपलक्ष्य हैं।” उन्हें अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद आ गयी, बोले - ”मैं तो भुक्तभोगी हूँ कमल, बीमारी भुगतते-भुगतते मुझे इसकी शिक्षा मिल चुकी है। घर चलो, तुम्हारी चीज है, जैसा तुम ठीक समझोगी वैसा ही होगा। मेरे रहते दवा-दारू की तक़लीफ नहीं होगी।” और उसे वे रास्ता दिखाते हुए आगे ले चले। अजित किंकर्तव्यविमूढ़ होकर, बगैर समझे ही उनके साथ हो लिया। इस डर से कि रोगी के कमरे में शोर होने से कहीं उसके विश्राम में विघ्न न हो, सबने दबे-पाँव प्रवेश किया। देखा, शय्या के पास कुरसी पर बैठी मनोरमा रात्रि-जागरण की क्लान्ति से रोगी की छाती पर अपना थका हुआ मस्तक रखकर शायद अभी-अभी सो गयी है और उसकी गर्दन में परस्पर सन्नद्ध दोनों बाहें डाले शिवनाथ भी सो रहा है।
इस स्वप्नातीत दृश्य पर अकस्मात जैसे ही पिता की आँखें पड़ीं, वैसे ही उन पर मानो घनान्धकार का जाल उतर आया। क्षण-भर बाद ही वे वहाँ से भाग खड़े हुए। अजित और कमल आँख उठाकर परस्पर एक-दूसर का मुँह ताकने लगे और उसके बाद जैसे आये थे वैसे ही चुपचाप बाहर चले गये।
16
जहाँ आने के रास्ते के पास ही एक छायादार बरामदा है, रोगी के कमरे से निकलकर अजित और कमल वहीं रुक गये। एक छोटी सी घिसे काँच की लालटेन वहाँ झूल रही थी, जिसके अस्पष्ट प्रकाश में स्पष्ट दीख पड़ा कि अजित का चेहरा सफेद फक पड़ गया है; अकस्मात धक्का खाकर मानो सारा खून कहीं हट गया है। तीसरा कोई व्यक्ति वहाँ नहीं था फिर भी अजित ने एक अनात्मीया शिष्ट महिला के योग्य सम्मान दिखाते हुए कमल से पूछा, ”आप क्या अभी घर लौट जाना चाहती हैं? अगर जाना चाहें तो मैं उसका इन्तजाम कर सकता हूँ।”
कमल उसके मुँह की तरफ़ देखकर चुप रह गयी। अजित ने कहा - इस मकान में अब तो आपका एक क्षण भी रहना ठीक न होगा।
“और आपका रहना ठीक होगा?”
“नहीं, मेरा रहना भी नहीं। कल सबेरे ही मैं और कहीं चला जाऊँगा।”
कमल ने कहा - यही अच्छा है। मैं भी तभी जाऊँगी। फिलहाल, इस कुरसी पर बैठकर रात बिता दूँगी, आप जाकर आराम करें।
छोटी कुरसी की तरफ़ देखकर अजित बगलें झांकने लगा, बोला, ”लेकिन -”
कमल ने कहा - ‘लेकिन’ रहने दीजिये अजित बाबू, उसमें बड़ा झंझट है।
इस वक़्त न घर जाना ही सम्भव है और न आपके कमरे में। आप जाइये, देर न कीजिये।
सबेरे बेहरा आकर अजित को आशु बाबू के सोने के कमरे में बुला ले गया। अब तक वे खाट से उठे भी न थे। पास ही एक कुरसी पर कमल बैठी थी, उसे पहले ही बुला लिया गया था।
आशु बाबू ने कहा - तबियत कल से ही ठीक नहीं थी। आज मालूम होता है मानो - अच्छा बैठो अजित।
उसके बैठने पर वे कहने लगे - मैंने सुना कि आज सबेरे ही तुम जा रहे हो, पर तुम्हें रहने के लिये भी मैं नहीं कहता। ठीक है - गुड बाइ। भविष्य में शायद कभी भेंट न हो, पर यह निश्चय समझो कि मैंने तुम्हें सर्वान्तःकरण से आशीर्वाद दिया है कि हम लोगों को क्षमा करके तुम जीवन में सुखी हो सको।
अजित ने अब तक उनके मुँह की तरफ़ देखा नहीं था, अब जवाब देने के लिये मुँह उठाते ही उससे कुछ कहते नहीं बना। बल्कि यों कहना चाहिये कि अकस्मात मानो वह अपनी बात को भूल गया। इस बात की कल्पना भी न कर सका कि एक रात के कुछ ही घण्टों में किसी में इतना परिवर्तन हो सकता है।
आशु बाबू खुद भी दो-तीन मिनट मौन रहकर कमल से कहने लगे, ”तुम्हें बुलवा तो लिया, पर तुम्हारी आँखों में आँखें मिलाने से मेरा सिर नीचा हुआ जा रहा है। सारी रात मेरे मन में क्या-क्या होता रहा है - क्या-क्या सोचता रहा हूँ सो मैं किससे कहूँ?”
फिर ज़रा ठहरकर बोले - अक्षय ने एक दिन कहा था कि शिवनाथ शायद तुम्हारे यहाँ अक्सर नहीं रहते। उस बात पर मैंने ध्यान नहीं दिया था, सोचा था कि शायद उसकी अत्युक्ति है - उसके विद्वेष की ज्यादती है तुम रुपयों की कमी के कारण संकट में थी, तब उसका कारण मैं नहीं समझा था, मगर आज सब-कुछ स्पष्ट हो गया है - कहीं भी कोई सन्देह नहीं रहा।
दोनों चुप हो रहे। थोड़ी देर बाद आशु बाबू कहने लगे - तुम्हारे साथ मैं कई बार अच्छा व्यवहार नहीं कर सका, पर उस दिन प्रथम परिचय के दिन से ही मैं तुम पर स्नेह करने लगा था कमल। इसी से आज बार-बार ख़्याल आ रहा है कि आगरा न आता तो अच्छा था।
कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू आ गये, उन्हें हाथ से पोंछते हुए वे बोले - जगदीश्वर!
कमल उठकर उनके सिरहाने जा बैठी और माथे पर हाथ रखकर बोली - आपको तो बुखार है आशु बाबू!
आशु बाबू ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा - रहने दो कमल, मैं जानता हूँ, तुम अत्यन्त बुद्धिमती हो। मेरा कोई एक किनारा तुम कर दो। इस घर में उस आदमी का अस्तित्व मेरे सारे शरीर में आग-सी लगाये दे रहा है। कमल ने अजित की ओर देखा - वह नीचे को सिर झुकाये बैठा है। उसकी तरफ़ से कोई इशारा न पाकर वह क्षण भर मौन रही, फिर बोली - ”मुझे आप क्या करने को कहते हैं? कहिये।” परन्तु कोई जवाब न पाकर वह क्षणभर चुप बैठी रही, फिर बोली - ”शिवनाथ बाबू को आप यहाँ रखना नहीं चाहते, पर वे बीमार हैं। इस हालत में या तो उन्हें अस्पताल भेज दीजिये या फिर उनके घर। और अगर आप समझते हैं कि मेरे घर भेजने से ठीक रहेगा तो वहाँ भेज सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं; मैं जी-जान से सिर्फ़ सेवा ही कर सकती हूँ, उससे ज़्यादा कुछ नहीं।”
आशु बाबू कृतज्ञता से भर उठे, बोले - कमल, मालूम नहीं क्यों, पर ऐसे ही उत्तर की मैंने तुमसे आशा की थी। यह मैं जानता था कि पाखण्डी को जवाब देने में तुम खुद पत्थर न हो सकोगी। तुम अपनी चीज़ अपने घर ले जाओ, इलाज के खर्चे की तुम फिकर मत करो, इसका भार मेरे ऊपर रहा।
कमल ने कहा - पर इस विषय में एक बात पहले से ही स्पष्ट हो जानी चाहिये।
आशु बाबू चट से कह उठे - तुम्हें कहने की ज़रूरत नहीं कमल, मैं जानता हूँ। एक-न-एक दिन सारी गन्दगी दूर हो जायेगी। तुम कोई चिन्ता मत करो; मेरे जीते जी इतना बड़ा अन्याय-अत्याचार तुम पर मैं नहीं होने दूँगा।”
कमल उनके मुँह की तरफ़ देखती हुई स्थिर बैठी रही, कुछ बोली नहीं।
“क्या सोच रही हो कमल?”
“सोच रही थी कि आप से कहने की ज़रूरत है या नहीं। पर मालूम होता है कि ज़रूरत है; नहीं तो कुछ भी स्पष्ट न होगा, उलझन बढ़ती ही जायेगी। आपके पास रुपया है, हृदय है, दूसरों के लिये खर्च करना आपके लिये कोई मुश्किल नहीं, लेकिन यह भ्रम अगर आपके अन्दर हो कि इस तरह आप मुझ पर दया कर रहे हैं, तो वह दूर हो जाना चाहिये। किसी भी बहाने मैं आपकी दी हुई भीख नहीं लूँगी। आशु बाबू को सिलाई की मशीन की बात याद आ गयी, वे व्यथित होकर बोले - मुझसे गलती अगर कभी हो गयी हो, तो क्या उसके लिये क्षमा नहीं कर सकतीं?
कमल ने कहा - गलती शायद इतनी तब नहीं की जितनी कि आप अब करने जा रहे हैं। आप सोचते होंगे कि शिवनाथ बाबू को बचाना प्रकारान्तर से मुझको ही बचाना है - मुझ पर ही अनुग्रह करना है। मगर असल में बात ऐसी नहीं। इसके बाद आपकी जो इच्छा हो, कर सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं।
आशु बाबू ने सिर हिलाते हुए कहा - ऐसा ही गुस्सा आता है कमल, यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं और न अन्याय ही है। अच्छी बात है, मैं शिवनाथ को ही बचाना चाहता हूँ, तुम पर अनुग्रह नहीं करता। अब तो ठीक है न?
कमल के चेहरे पर विरक्ति का भाव दिखाई दिया। उसने कहा - ”नहीं, यह ठीक नहीं। आपको जबकि मैं समझा नहीं सकती तो फिर कोई उपाय नहीं। उन्हें आप अस्पताल नहीं भेजना चाहते, तो हरेन्द्र बाबू के आश्रम में भेज दीजिये। वे बहुतों की सेवा किया करते हैं, इनकी भी करेंगे। आपको जो कुछ खर्च करना हो, वहीं कीजियेगा। मैं खुद भी बहुत ज़्यादा थक गयी हूँ, अब चलती हूँ।” इतना कहकर वह सचमुच ही जाने को तैयार हो गयी।
उसकी बात और आचरण से आशु बाबू मन ही मन क्रुद्ध हो उठे बोले - यह तुम्हारी ज़्यादती है कमल। तुम्हारे दोनों के कल्याण के लिये जो कुछ मैं करने जा रहा हूँ, उसे तुम अकारण विकृत करके देख रही हो। एक ओर तो मेरे लिये लज्जा की सीमा नहीं - और मैं जानता हूँ कि इस कदाचार को अंकुर से नष्ट किये बिना मेरी असीम ग्लानि बनी ही रहेगी - दूसरी ओर यह भी सच नहीं कि मेरी लड़की का इससे सम्बन्ध है, इसीलिये मैं किसी तरह बच निकलने का रास्ता देख रहा हूँ। शिवनाथ को मैं बहुत तरह से बचा सकता हूँ, मगर सिर्फ़ इतना ही मैं नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि ऐसे संकट के दिनों में तुम सर्वान्तःकरण से उसकी सेवा करके उसे फिर से पूर्ववत पा जाओ। इसीलिये मेरा यह प्रस्ताव है। - सिर्फ़ अपने स्वार्थवश ही मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ।
बातें सब सच थीं, सकरुण और आन्तरिकता से पूर्ण। मगर कमल के मन पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने कहा - ठीक यही बात मैं आपको समझाना चाहती थी आशु बाबू। सेवा करने से मैं इन्कार नहीं करती। चाय के बगीचे में रहते हुए मैंने बहुतों की सेवा की है, इसका मुझे अभ्यास है। लेकिन मैं उन्हें फिर से पाना नहीं चाहती; न सेवा करके, और न बिना सेवा किये। यह मेरी अभिमान की आग नहीं, और न झूठा दर्प ही है - असल में हम दोनों का सम्बन्ध टूट गया है; उसे मैं जोड़ नहीं सकती।
जो कुछ उसने कहा, उसमें न तो किसी तरह की गरमी थी न उच्छ्वास - बिल्कुल सीधी-सादी बात थी। परन्तु इसी ने आशु बाबू को दंग कर दिया। क्षण-भर बाद उन्होंने कहा - यह कैसी बात कह रही हो कमल? इस मामूली-सी बात पर पति को त्याग देना चाहती हो? यह शिक्षा तुम्हें किसने दी।
कमल चुप रही। आशु बाबू कहने लगे - ”बचपन में यह शिक्षा तुम्हें चाहे जिसने भी दी हो, उसने गलत शिक्षा दी है, यह अन्याय है, असंगत है - यह भारी अपराध है। चाहे किसी भी घर में तुम पैदा हुई हो, तुम भारतीय कन्या हो। यह मार्ग तुम्हारा -हमारा नहीं है - इसे तुम्हें भूलना ही होगा। जानती हो कमल, एक देश का धर्म दूसरे देश के लिये अधर्म है। और ‘स्व-धर्म में मृत्यु भी श्रेय’ है।” कहते-कहते उनकी आँखें चमक उठीं। और बात खतम करके वे हाँफने लगे। परन्तु जिसे लक्ष्य करके ये बातें कही गयी वह रंच-मात्र भी विचलित नहीं हुई।
आशु बाबू कहने लगे - ”यह मोह ही एक दिन हमें रसातल की ओर खींचे लिये जा रहा था। पर भ्रान्ति पकड़ में आ गयी कुछ मनीषियों की दृष्टि में। देशवासियों को बुलाकर बार-बार वे सिर्फ़ एक ही बात कहने लगे - ”तुम लोग उन्मत्त की तरह जा कहाँ रहे हो? तुम्हें किसी बात की कमी नहीं, दीनता नहीं, किसी के आगे हाथ पसारने की ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ एक बार हाथ बढ़ाकर उठा भर लो। विलायत का तो सभी कुछ मैं अपनी आँखों से देख आया हूँ; अब सोचता हूँ कि ठीक समय पर ऐसी सावधान-वाणी अगर वे नहीं घोषित कर गये होते, तो आज देश की क्या दशा होती? बचपन की सभी बातें याद हैं - उफ् - शिक्षित लोगों की तब कैसी दशा थी!“ इतना कहकर उन्होंने स्वर्गीय मनीषियों को लक्ष्य करके हाथ जोड़कर नमस्कार किया।
कमल ने मुँह उठाकर देखा कि अजित मुग्ध दृष्टि से आशु बाबू की ओर देख रहा है। कल्पना के आवेश में मानो उसे होश ही नहीं रहा, ऐसी हालत थी।
आशु बाबू का भावावेश अब तक दबा नहीं था। कहने लगे - कमल, और कुछ भी अगर वे न कर जाते, तो भी, सिर्फ़ इतने के ही कारण देशवासियों के हृदय में वे प्रातः स्मरणीय बने रहते।
“क्या सिर्फ़ इतनी ही बात के लिये वे प्रातः स्मरणीय हैं?”
“हाँ, सिर्फ़ इतनी ही बात के लिये। बाहर से हटाकर सिर्फ़ घर की तरफ़ आँख उठाकर देखने को कहा था, इसी के लिये।”
कमल ने पूछा - बाहर अगर प्रकाश हो रहा हो और पूर्व-आकाश में अगर सूर्योदय हो रहा हो, तो भी पीछे मुड़कर पश्चिम के स्वदेश की ओर देखना पड़ेगा?
और वही होगा स्वदेश-प्रेम?
मगर यह प्रश्न शायद आशु बाबू के कानों तक नहीं पहुँचा, वे अपनी ही झोंक में कहते गये - हमारे देश का धर्म, देश के पुराण-इतिहास, देश का आचार-व्यवहार, रीति-नीति विदेश के दबाव से लुप्त होने जा रही थी, उसके प्रति हमारे अन्दर जो आज फिर से श्रद्धा और विश्वास वापस आया है, सो सिर्फ़ उन्हीं की भविष्य-दृष्टि का फल है। जाति के हिसाब से हम ध्वंस की ओर बढ़ते चले जा रहे थे, उससे बच जाना क्या मामूली बचना है कमल? यह ज्ञान हमें किसने दिया कि उसे फिर से सब प्राप्त किये बगैर किसी भी तरह हम बच नहीं सकते - बताओ तो?
अजित उत्तेजना के मारे अकस्मात उठ खड़ा हुआ, बोला, ”मैंने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि इन सब बातों का विचार भी आपके मन में कभी स्थान पा सकता है। मुझे बड़ा भारी दुख है कि अब तक मैंने आपको पहचाना नहीं, आपके चरणों में बैठकर कभी उपदेश ग्रहण नहीं किया।” वह और भी बहुत-कुछ कहने जा रहा था, पर बीच में विघ्न आ पड़ा। नौकर ने आकर खबर दी कि हरेन्द्र बाबू वगैरह भेंट करने आ रहे हैं; और दूसरे ही क्षण हरेन्द्र, सतीश और राजेन्द्र के साथ आ पहुँचा। कहा - ”मालूम हुआ कि शिवनाथ बाबू सो रहे हैं। आते वक़्त डाक्टर के यहाँ भी होता आया हूँ। उनका कहना है कि सीरियस (खतरनाक) नहीं, जल्दी आराम हो जायेगा।” कहते हुए उसने कमल को नमस्कार किया और अपने साथियों के साथ एक तरफ़ बैठ गया।
आशु बाबू ने सिर हिलाया, पर उनकी दृष्टि थी अजित की तरफ़, और उसी को लक्ष्य करके वे बोले - मेरा सारा यौवन विलास में बीता है, इस बात को तुम लोग भूल क्यों जाते हो? ऐसी बहुत-सी चीजें़ हैं जो नज़दीक से नहीं दिखाई देतीं, दूर जाकर खड़े होने से ही दिखाई देती हैं। मैंने जो स्पष्ट देखा है वह है शिक्षित मानस का परिवर्तन। इन्हीं हरेन्द्र के आश्रम को ही देखो न, इनका जो नगर-नगर में शाखा-प्रशाखाएँ विस्तार करने का आयोजन है, उसके मूल में क्या वही भावना नहीं है? विश्वास न हो, इन्हीं से पूछ देखो। वही ब्रह्मचर्य, वही संयम की साधना, वही पुरानी रीति-नीति का पुनः प्रवर्तन - ये सब हमारे उस अतीत काल की पुनःप्रतिष्ठा का उद्यम नहीं तो और क्या है? उसी को अगर हम भूल जायें, उसी के प्रति अगर हम अपनी आस्था खो बैठें तो फिर आशा करने के लिये हमारे पास बाकी ही क्या रह जाता है? तपोवन का आदर्श सिर्फ़ हमारे ही यहाँ था। संसार छान डालने पर भी क्या उसका जोड़ कहीं मिल सकता है अजित? किसी जमाने में जिन लोगों ने हमारे समाज का निर्माण किया था, हमारे वे शास्त्रकार व्यवसायी नहीं थे; सन्यासी थे; उनके दान को बिना किसी संशय के नतमस्तक होकर ग्रहण करने में ही हमारी चरम सार्थकता है; - यही हमारे कल्याण का मार्ग है कमल, इसके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं।
अजित स्तब्ध हो गया। सतीश और हरेन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा - यह साहबी चाल-चलन का आदमी आज कह क्या रहा है! राजेन्द्र तो समझ ही न पाया कि अकस्मात क्यों और कैसे यह प्रसंग छिड़ गया। सभी के मुँह पर एक निष्कपट श्रद्धा का भाव प्रस्फुटित हो उठा।
स्वयं वक़्ता को भी कम आश्चर्य नहीं हुआ। सिर्फ़ कहने की शक्ति के लिये ही नहीं, बल्कि इसलिये कि इस तरह किसी से कहने का उन्हें पहले कभी मौका ही नहीं मिला - उनके मन में एक तरह की अनिर्वचनीय तृप्ति की लहर दौड़ने लगी। क्षण-भर के लिये वे क्षण-भर पहले का दुख भूल गये। बोले - समझी कमल, क्यों मैं तुमसे ऐसा अनुरोध कर रहा था?
कमल ने सिर हिलाकर कहा - नहीं।
“नहीं? नहीं क्यों?”
कमल ने कहा - सिर्फ़ यही एक समाचार आप परमानन्द के साथ सुना रहे थे कि विदेशी शिक्षा के प्रभाव को दूर कर फिर पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने की चेष्टा शिक्षितों में प्रचलित होती जा रही है। आपकी धारणा है कि इससे देश का कल्याण होगा परन्तु कारण आपने कुछ भी नहीं बतलाया। बहुत-सी प्राचीन नीतियाँ लुप्त होती जा रही थीं, हो सकता है कि यह सच हो कि उनके पुनरुद्धार का उद्योग हो रहा है, मगर भला इसका प्रमाण क्या है आशु बाबू कि उससे हमारा भला ही होगा? कहाँ, यह तो आपने बताया ही नहीं?
“बताया कैसे नहीं?” ”नहीं, नहीं बताया। जो कुछ आप कह रहे थे, वह तो सभी सुधार-विरोधी और प्राचीनता के अन्धस्तुतिकार कहा करते हैं। इसका कोई भी प्रमाण नहीं कि सभी लुप्त वस्तुओं का पुनरुद्धार अच्छा ही होगा। मोह के नशे में बुरी चीज़ों का पुनरुद्धार भी संसार में होते देखा जाता है।”
आशु बाबू को इसका जवाब ढूँढ़े न मिला, परन्तु अजित ने कहा - बुरी चीज़ का उद्धार करने में कोई शक्ति का क्षय नहीं करता।
कमल ने कहा - बहुत लोग करते हैं। बुरी के लिये नहीं, बल्कि पुरानी वस्तु-मात्र को स्वतःसिद्ध अच्छी चीज़ समझकर करते हैं। एक बात आप से पहले ही कहना चाहती थी, पर आपने ध्यान नहीं दिया। चाहे लौकिक आचार-अनुष्ठान हो और चाहे पारलौकिक धर्म-कर्म, अपने देश की चीज़ समझकर उसे गले लगाये रहने में स्वदेश-भक्ति की वाहवाही तो मिल सकती है, पर स्वदेश के कल्याण के देवता उससे खुश नहीं किये जा सकते। बल्कि वे इससे नाराज़ ही होते हैं।
आशु बाबू दंग रह गये। बोले - तुम कह क्या रही हो कमल? अपने देश का धर्म, अपने देश का आचार-अनुष्ठान त्यागकर यदि हम बाहर से भीख माँगने लगें तो फिर अपना कहने को हमारे पास बाकी ही क्या रह जायेगा? फिर हम संसार में मनुष्यत्व का दावा करने के लिये अपना क्या परिचय देंगे?
कमल ने कहा - दावा खुद हमारे घर आ जायेगा, परिचय की ज़रूरत न होगी। फिर विश्व-जगत हमें बिना परिचय ही जान जायेगा।
आशु बाबू व्याकुल होकर बोले - तुम्हें तो मैं समझ ही न सका कमल!
“समझने की बात भी नहीं आशु बाबू, ऐसा ही होता है। इस चलनशील संसार में प्रगतिशील मानव-चित्त को कदम-कदम पर जो सत्य नित्य नये-नये रूप में दिखाई देता है, उसे सभी नहीं पहचान सकते। सोचते हैं, यह आफत कहाँ से आ गयी?
आपको उस दिन की ताजमहल की छाया के नीचे खड़ी शिवानी की याद है? आज कमल के भीतर उसे पहचाना भी नहीं जा सकता। मन-ही-मन कहेंगे, जिसे उस दिन देखा था वह गयी कहाँ? किन्तु यही मनुष्य का सच्चा परिचय है - मैं तो यही चाहती हूँ कि हमेशा इसी भाव से लोगों में परिचित हो सकूँ।”
ज़रा ठहरकर फिर बोली - पर तर्क-वितर्क की आँधी में हमारी असल बात तो उड़ ही गयी - मूल विषय से हम बहुत दूर जा पड़े हैं। लेकिन मैं बहुत थकी हुई हूँ, अब जाती हूँ।
आशु बाबू से कुछ जवाब देते न बना, विह्नल की भाँति देखते रह गये। इस स्त्री को कहीं उन्होंने अस्पष्ट समझा और कहीं बिल्कुल ही नहीं समझ पाया। उन्हें ऐसा लगने लगा कि अभी-अभी उसने जिस आँधी का जिक्र किया था, उसकी प्रचण्ड झँझा में तिनके की तरह उनका सब तरह का आवेदन-निवेदन उड़कर कहीं का कहीं चला गया।
कमल उठ खड़ी हुई। अजित को इशारे से बुलाकर बोली - साथ लाये थे, अब चलिये न पहुँचा दीजिये।
मगर आज वह मारे संकोच के सिर भी न उठा सका। कमल मन-ही-मन ज़रा हँसकर आगे बढ़ी और सहसा राजेन्द्र के कन्धे पर हाथ रखकर बोली - राजेन्द्र बाबू, तुम चलो न भाई, मुझे पहुँचा आओ!
इस आकस्मिक भाई के सम्बोधन से राजेन्द्र ने विस्मित होकर एक बार उसकी तरफ़ देखा और उसके बाद कहा - चलिये।
दरवाजे के पास जाकर कमल सहसा खड़ी हो गयी, बोली - ”आशु बाबू, अपना प्रस्ताव मैंने वापस नहीं लिया है। उसी शर्त पर इच्छा हो तो भेज दीजियेगा, मैं यथासाध् य कोशिश कर देखूँगी। बच जायें तो अच्छा ही है, न बचें तो उनका भाग्य।” इतना कहकर वह चली गयी। सबके सब स्तब्ध होकर बैठे रहे। अस्वस्थ आशु बाबू की आँखों के आगे प्रभात का प्रकाश भी विवर्ण और विस्वाद हो उठा।
आधे रास्ते में राजेन्द्र ने विदा ले ली और कहा - ”मैं घण्टे भर में अपना एक काम निबटाकर वापस आता हूँ।” कमल ने अन्यमनस्कता के कारण ही शायद कोई आपत्ति नहीं की, या हो सकता है कि और कोई वजह हो। जल्दी-जल्दी घर पहुँचकर उसने देखा कि सीढ़ीवाले दरवाजे में ताला बन्द है, घर खोला नहीं गया है। रास्ते के उस तरफ़ मोदी की दुकान में तलाश करने पर मालूम हुआ कि नौकरानी बीमार पड़ गयी है, काम करने नहीं आयी और उसकी छोटी नातिन सबेरे आकर घर की चाबी रख गयी है।
घर खोलकर कमल घर के काम-धन्धे में लग गयी। एक तरह से कल से ही वह बगैर खाये थी; उसने तय किया था कि झटपट किसी तरह कुछ बना-खाकर आराम करेगी, आराम करने की उसे सख्त ज़रूरत भी थी, पर घर का काम इतना पड़ा था कि वह खतम ही नहीं होता था। चारों तरफ़ इतना कूड़ा-करकट जमा हो गया था कि उसे देखकर वह हैरान हो गयी। - इतनी विश्रृंखला में उसके दिन कट रहे थे कि इधर उसका ध्यान ही नहीं गया था। आज जिस किसी चीज़ पर भी उसकी नज़र पड़ी, वही मानो उसका तिरस्कार करने लगी। छत के नीचे से पुराना चूना झड़कर खाट पर आ पड़ा है, उसे साफ़ करना ज़रूरी है; चिड़ियों के घोसलों का बचा हुआ मसाला बिछौने पर पड़ा है, उसे भी साफ़ करना है; चादर बदलनी है; तकिये के खोल बहुत मैले हो गये हैं, उन्हें भी बदलना है; टेबुल-कुरसी स्थान भ्रष्ट हो रही है, दरवाजे पर पड़े पाँवपोश पर मिट्टी जमी हुई है; आईने की ऐसी हालत है कि साफ़ करते-करते शाम हो जायेगी; दावात की स्याही सूख गयी है; कलम का पता ही नहीं; पैड का ब्लांटिंग पेपर लापता है - इस तरह जिधर आँख उठाकर देखा, उधर ही ऐसी गन्दगी मालूम हुई कि उसे खुद ही लगा कि इतने दिनों से यहाँ कोई आदमी रहता है या और कोई? नहाना-खाना यों ही पड़ा रहा, किधर से कैसे और कब दिन बीत गया - कुछ मालूम ही नहीं पड़ा। सब काम निबटाकर जब वह नीचे से नहा-धोकर ऊपर आयी तब शाम हो चुकी थी। इतने दिनों से वह निश्चित समझ रही थी कि यहाँ उसे नहीं रहना है। रहना सम्भव भी नहीं और उचित भी नहीं। महीने के महीने किराया कहाँ से दिया जाये? जाना तो पड़ेगा ही, पर सिर्फ़ जाने के दिन तक पहुँचना ही मानो उसके लिये मुश्किल हो रहा था - रात के बाद सबेरा और सबेरे के बाद रात आ-आकर उसे कदम बढ़ाने का समय नहीं दे रहे थे।
घर से कोई ममता नहीं; फिर भी किसलिये वह दिन-रात मेहनत करती रही, अकस्मात इसकी क्या ज़रूरत आ पड़ी - इसी तरह की एक धुँधली-सी जिज्ञासा उसके मन में घूम रही थी। काम छोड़कर वह छज्जे पर बैठती और शून्य दृष्टि से सड़क की तरफ़ देखती हुई न जाने क्या भूलने की कोशिश करती; और फिर भीतर आकर काम में लग जाती। इसी तरह आज उसका काम और दिन दोनों खत्म हुए। दिन तो रोज ही खत्म होता है, पर इस तरह नहीं। शाम के बाद बत्ती जलाकर उसने रसोई चढ़ा दी और महज समय काटने के लिये एक किताब उठाकर बिस्तर के सहारे बैठी-बैठी उसके पन्ने उलटने लगी। लेकिन आज उसकी थकावट की कोई हद न थी, इसका पता भी नहीं चला कि कब किताब के पन्नों के साथ-साथ उसकी आँखों के पलक बन्द हो गये। जब पता लगा तब कमरे की बत्ती बुझ चुकी थी और खिड़की में से अरुण प्रकाश ने आकर सारे कमरे को आरक्त कर दिया था। दिन चढ़ने लगा, पर महरी नहीं आयी। इसलिये बासा तलाश करके उसकी भी खबर सुध लेने की आवश्यकता मालूम हुई। कपड़े बदलकर वह निकल ही रही थी इतने में ज़ीने पर किसी के चढ़ने की आहट हुई। उसका कलेजा धड़क उठा।
वहीं से किसी ने पुकारा, ”घर है क्या? आ सकता हूँ?”
“आइये।”
जो आये, उनका नाम है हरेन्द्र। कुरसी खींचकर उस पर बैठ गये और बोले - कहीं बाहर जा रही थीं क्या?
“हाँ। जो बुढ़िया मेरे यहाँ काम करती थी, वह बीमार है। उसी को देखने जा रही थी।”
“अच्छी खबर है। इन्फ़्लुएँजा के सिवा और कुछ नहीं। मालूम होता है आगरे में भी शायद एपिडेमिक फार्म शुरू हो गया है। बस्तियों में तो मौतें शुरू हो गयी हैं। यदि मथुरा-वृन्दावन की तरह शुरू हुआ तो भागना पड़ेगा। बुढ़िया रहती कहाँ है?”
“मालूम नहीं। सुना है कि यहीं पास ही कहीं रहती है, ढूँढ़ना पड़ेगा।”
हरेन्द्र ने कहा - बड़ी छुतैल बीमारी है, ज़रा सावधान रहियेगा। इधर की खबर मिली होगी शायद?
कमल ने गर्दन हिलाकर कहा - नहीं तो।
हरेन्द्र उसके मुँह की तरफ़ देखकर क्षण भर चुप रहा, फिर बोला - डरो मत, डर की ऐसी कोई बात नहीं। कल ही आना चाहता था, पर समय नहीं मिला। हमारे अक्षय बाबू कालेज नहीं आये, सुना है कि उनकी भी तो तबियत खराब है। आशु बाबू बिस्तर पर पड़े हैं, सो आप कल देख ही आयी हैं - उधर अविनाश भइया को कल शाम से बुखार है, भाभी का चेहरा भी देखा कि सूखा-सूखा सा हो रहा है। वे खुद कभी बीमार न पड़ जायें।
कमल चुप बैठी उसकी तरफ़ देखती रही। इन सब खबरों पर मानो वह अच्छी तरह ध्यान ही न दे सकी।
हरेन्द्र कहता गया। - इसके अलावा शिवनाथ बाबू भी पड़े हैं। इन्फ्लुएँजा का मामला है, कुछ कहा नहीं जा सकता। अस्पताल भी नहीं जाना चाहते। कल शाम को उनके घर पर ही उन्हें रिमूव कर दिया गया है। आज एक बार जाकर खबर लेनी है।
कमल ने पूछा - वहाँ है कौन?
“एक नौकर है। ऊपर की कोठरी में कुछ पंजाबी रहते हैं, जो ठेकेदारी का काम करते हैं। सुना है आदमी अच्छे हैं।”
कमल एक उसाँस लेकर चुप रह गयी। थोड़ी देर बाद बोली - ”एक बार राजेन्द्र बाबू को मेरे पास भेज सकते हैं?
“भेज सकता हूँ, पर वह मिलेगा कहाँ? आज तड़के से ही निकल पड़ा है। उधर कहीं मोचियों के मुहल्ले में ज़ोर की बीमारी फैल रही है, वह गया है उनकी सेवा करने। आश्रम में अगर खाने आया तो कह दूँगा।”
“उन्हें घर पहुँचाया किसने? आपने?”
“नहीं, राजेन्द्र ने। उसी के मुँह से सुना कि पंजाबी लोग उनकी देखभाल कर रहे हैं। फिर भी, वे करें या न करें, पर राजेन्द्र को जबकि पता लग गया है तो वह किसी बात की त्रुटि नहीं होने देगा - सम्भव है, खुद ही तीमारदारी करने लग जाये। एक बात का पक्का भरोसा है कि उसे रोग नहीं पकड़ता। पुलिस न पकड़े तो वह अकेला ही एक सौ के बराबर है। वह केवल उन्हीं लोगों से घबराता है - नहीं तो उसे काबू कर सके ऐसा तो दुनिया में कोई दिखाई नहीं देता।”
“पकड़े जाने की आशंका है क्या?”
“आशा तो की जाती है। कम से कम इससे आश्रम की तो रक्षा हो जायेगी।”
“उन्हें कह क्यों नहीं देते कि चले जायें?”
“यही तो मुश्किल है। कहने से उसी वक़्त चला जायेगा और ऐसा जायेगा कि फिर सर दे मारने पर भी वापस न आयेगा।
“न आवे तो नुकसान ही क्या है?”
“नुकसान? उसे तो आप जानती नहीं, बगैर जाने उस नुकसान का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। आश्रम न रहे तो सहा जा सकता है, लेकिन मुझसे उसका नुकसान न सहा जायेगा।” इतना कहकर हरेन्द्र मिनट-भर चुप रहा, फिर सहसा प्रसंग बदलकर बोल उठा - ”एक बड़े मजे की बात हो गयी है। किसी की मजाल नहीं कि उसकी कल्पना भी कर सके। कल भाई साहब के यहाँ से लौटकर रात र्को घर आया तो देखता क्या हूँ कि अजित बाबू पधारे हैं। मैं तो डर गया कि आखिर मामला क्या है? बीमारी बढ़ गयी क्या? मालूम हुआ कि नहीं ऐसी कोई बात नहीं, बकस-बिस्तर-वगैरह सब साथ ले आये हैं। आश्रम के नियमानुसार आश्रम के काम में ही अपना जीवन बितायेंगे। यह उनकी प्रतिज्ञा है, इसमें कोई भी व्यतिक्रम नहीं हो सकता। ऐसे बड़े आदमी मिलें तो हमारे लिये अच्छा ही है, पर शंका होती है कि भीतर कोई गड़बड़ न हो। सबेरे आशु बाबू के पास गया, सुनकर उन्होंने कहा कि ”संकल्प तो बहुत ही उत्तम है, पर भारत में आश्रमों की कोई कमी नहीं, वह आगरा छोड़कर और कहीं जाकर यह वृत्ति अवलम्बन करता तो मैं कुछ दिन और यहाँ टिका रहता। देखता हूँ, अब मुझे यहाँ से जाना ही पड़ेगा।”
कमल ने किसी तरह का आश्चर्य प्रकट नहीं किया, चुप रही।
हरेन्द्र ने कहा - ”उन्हीं के यहाँ से सीधा आ रहा हूँ, वापस जाकर अजित बाबू से क्या कहूँगा?”
कमल समझ गयी कि शिवनाथ बाबू को स्थानान्तरित करने के विषय में बहुत कठोर वाद-विवाद हो गया है। शायद प्रकट में और स्पष्ट रूप से एक शब्द भी न कहा गया होगा, सब कुछ चुपचाप ही किया गया होगा; फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि कर्कशता में वह सब तरह के कलह को लाँघ गया होगा। परन्तु एक बात का भी उसने उत्तर नहीं दिया, जैसी की तैसी चुप बनी रही।
हरेन्द्र कहने लगा - मालूम होता है, आशु बाबू ने सब कुछ सुन लिया है।
शिवनाथ का आपके प्रति जो आचरण हुआ है उससे वे मर्माहत हुए हैं। लगभग जबरदस्ती ही उन्हें घर से विदा किया है। मनोरमा की शायद ऐसी इच्छा नहीं थी - शिवनाथ उसके संगीत के गुरु हैं - पास रखकर इलाज कराने का ही उसका विचार था, पर वैसा हो नहीं सका। अजित बाबू ने शायद इस पक्ष का अवलम्बन करके ही झगड़ा कर डाला है।
कमल ज़रा हँस दी, बोली - आश्चर्य नहीं। पर आपने यह सब सुना किससे?
राजेन्द्र ने कहा था?
“राजेन्द्र? भला राजेन्द्र कहेगा! वह ऐसा आदमी ही नहीं। जानता होगा तो भी न बतायेगा। यह मेरा ही अनुमान है। इसी से सोच रहा हूँ आखिर समझौता तो होगा ही, फिर अजित को चिढ़ाने से क्या लाभ? चुपचाप रहना ही ठीक है। जितने दिन वह आश्रम में रहेगा, हमारी तरफ़ से स्वागत-सत्कार में त्रुटि न होगी।”
कमल ने कहा - ”यही ठीक है।”
हरेन्द्र ने कहा - अच्छा, तो अब चला। भाई साहब के लिये चिन्ता है, बहुत थोड़े में घबरा जाते हैं। समय मिला तो कल एक बार आऊँगा।
“आइयेगा।” कहकर कमल ने उठकर नमस्कार किया और कहा - राजेन्द्र को भेजना न भूलियेगा। कहियेगा, मैं बड़ी मुसीबत में पड़कर बुला रही हूँ।
“मुसीबत में पड़कर बुला रही हैं?” हरेन्द्र आश्चर्य के साथ बोला - भेंट होते ही उसी वक़्त भेज दूँगा; लेकिन वह मुसीबत क्या मुझसे नहीं कही जा सकती? मुझे भी आप अपना अकृत्रिम बन्धु समझियेगा।
“सो समझती हूँ। लेकिन उन्हीं को भेज दीजियेगा।”
“भेज दूँगा, ज़रूर भेज दूँगा।” कहकर हरेन्द्र आगे बात न बढ़ाकर चला गया।
तीसरे पहर राजेन्द्र आ पहुँचा।
“राजेन्द्र, मेरा एक काम करना होगा।”
“कर दूँगा। पर कल तक तो मेरे नाम के साथ ‘बाबू’ था, आज वह भी उड़ा दिया गया?”
“अच्छा ही तो हुआ, हल्के हो गये। मंज़ूर न हो तो कहो, जोड़ दूँ।”
“नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। मगर आपको मैं क्या कहकर पुकारा करूं?”
“सभी ‘कमल’ कहके पुकारते हैं और इससे मेरे सम्मान की हानि नहीं होती।
नाम के आगे-पीछे बोझ लादकर अपने को भारी बनाने में मुझे लज्जा आती है। ‘आप’ कहने की भी ज़रूरत नहीं। मुझे सहज नाम से ही पुकारा करें।”
इसके स्पष्ट जवाब को बचाते हुए राजेन्द्र ने कहा - मुझे क्या करना होगा?
“मेरा बन्धु होना होगा। लोग कहते हैं, तुम क्रान्तिकारी हो। यह अगर सच हो तो मेरे साथ तुम्हारी मित्रता अक्षय रहेगी।
“यह अक्षय मित्रता मेरे किस काम आयेगी।”
कमल विस्मित हुई। यह संशय और उपेक्षा की ध्वनि उसके कानों में खटकी, बोली - ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। मित्रता जैसी चीज़ संसार में दुर्लभ है, और मेरी मित्रता उससे भी ज़्यादा दुर्लभ है। जिसे पहचानते नहीं, उस पर अश्रद्धा करके अपने को छोटा मत बनाओ।
मगर इस शिकायत ने उस युवक को कुण्ठित नहीं किया, उसने मुस्कराते चेहरे से स्वाभाविक स्वर में ही कहा - अश्रद्धा के कारण नहीं - मित्रता की आवश्यकता नहीं समझने के कारण ही कहा था और अगर आप समझें कि यह चीज़ मेरे काम आ सकती है, तो मैं अस्वीकार भी नहीं करूँगा। लेकिन सोच यही रहा हूँ कि क्या काम आयेगी।
कमल का चेहरा सुर्खहो उठा। जैसे किसी ने चाबुक मारकर उसे अपमानित किया हो। वह उच्च शिक्षिता, अत्यन्त सुन्दरी और प्रखर बुद्धिशालिनी है। उसकी धारणा थी कि वह पुरुष के लिये कामना का धन है, उसका निष्कपट विश्वास था कि उसका दीप्त तेज अपराजेय है। संसार में नारियों ने उससे घृणा की है, पुरुषों ने आतंक की आग से भस्म करना चाहा है, और अवज्ञा का ढोंग भी न किया हो सो बात नहीं; मगर यह तो कुछ और ही चीज़ है! आज इस युवक के सामने अपनी तुच्छता महसूस करके मानो वह जमीन में गड़ गयी। शिवनाथ ने उसे धोखा दिया है, वंचित किया है; मगर इस तरह दीनता का चीर उनके शरीर पर नहीं लपेटा। कमल के मन में एक सन्देह प्रबल हो उठा, उसने पूछा - मेरे सम्बन्ध में शायद तुमने बहुत-सी बातें सुनी होंगी।
राजेन्द्र ने कहा - हाँ, यह लोग प्रायः कहा तो करते हैं।
“क्या कहते हैं?”
उसने ज़रा हँसने की कोशिश करते हुए कहा - देखिये, इन बातों में मेरी स्मरणशक्ति बहुत ही ख़राब है। प्रायः कुछ भी याद नहीं है।
“सच कहते हो?”
“सच ही कह रहा हूँ।”
कमल ने जिरह नहीं की, विश्वास कर लिया। समझ गयी कि स्त्रिायों की जीवन-यात्रा के सम्बन्ध में अब तक इस आदमी के मन में किसी तरह का कुतूहल ही पैदा नहीं हुआ। उसने जैसे सुना है वैसे भूल भी गया है। और भी एक बात उसकी समझ में आयी। ‘तुम’ कहने का अधिकार दिये जाने पर भी क्यों उसने उसे स्वीकार नहीं किया और अब भी ‘आप’ कहकर सम्बोधन कर रहा है। असल में उसके अकलंक पुरुष-चित्त की भूमिका पर अब भी नारी-मूर्ति की छाया नहीं पड़ी है - इसी से ‘तुम’ कहकर घनिष्ठ होने के लोभ का उसे भान नहीं हुआ है। कमल ने मन-ही-मन मानो सन्तोष की साँस ली। थोड़ी देर बाद वह बोली, ”शिवनाथ बाबू ने मुझे त्याग दिया है, मालूम है?”
“मालूम है।”
कमल ने कहा - उस दिन हमारे विवाह के अनुष्ठान में तो धोखा था, पर मन में धोखा नहीं था। लोगों ने सन्देह करके तरह-तरह की बातें कहीं, कहा कि यह विवाह पक्का नहीं हुआ। लेकिन मैं डरी नहीं, मैंने कहा - ”होने दो कच्चा। हमारे भीतर के मन ने जब मान लिया है तब हमें यह देखने की ज़रूरत नहीं कि बाहर की गांठ में कितने फेरे पड़े, बल्कि मैंने तो सोचा, यह अच्छा ही हुआ कि जिसे पति के रूप में स्वीकार किया है उसे ऊपर से नीचे कसकर बांधा नहीं। उसकी मुक्ति की अर्गला अगर थोड़ी ढीली ही रह गयी तो रहने दो। मन ही अगर दिवालिया हो जाय, तो फिर पुरोहित के मंत्र को महाजन बना के खड़ा करने से सूद भले ही अदा हो जाय, पर असल तो डूब ही जायेगा। मगर यह सब तुमसे कहना व्यर्थ है, तुम समझोगे नहीं।
राजेन्द्र चुप रहा। कमल कहने लगी - तब सिर्फ़ यही बात मैं जानती थी कि उन्हें रुपयों का लोभ इतना ज़बरदस्त है। जानती होती तो कम से कम लांछना की आफत से बच जाती।
राजेन्द्र ने पूछा - ”इसके माने?”
कमल ने सहसा अपने को रोक लिया, बोली - रहने दो माने। तुम सुनकर क्या करोगे?
कुछ देर हुई सूर्य अस्त हो चुका है, घर में बाहर का अँधेरा घना होता जा रहा है। कमल ने बत्ती जलायी और उसे टेबिल के एक किनारे रखकर अपनी जगह पर आते हुए कहा - ”खैर, जो भी हो, मुझे एक बार उनके घर पर ले चलो!
“क्या करेंगी जाकर?”
“अपनी आँखों से एक बार देखना चाहती हूँ। अगर ज़रूरत होगी तो रह जाऊँगी। नहीं तो तुम पर भार सौंपकर निश्चिन्त हो जाऊँगी। इसीलिये तुम्हें बुलाया था। तुम्हारे सिवा यह काम और कोई नहीं कर सकता। उनके प्रति लोगों की नफरत की हद नहीं।” कहते-कहते कमल सहसा बत्ती को ज़रा बढ़ा देने की गरज से उठी और राजेन्द्र की तरफ़ पीठ करके खड़ी हो गयी।
राजेन्द्र ने कहा - ”अच्छी बात है, चलिये। मैं एक ताँगा कर लाऊँ।” और वह चला गया।
ताँगे पर सवार होकर राजेन्द्र ने कहा - शिवनाथ बाबू की सेवा का भार मुझ पर सौंपकर आप निश्चिन्त होना चाहती हैं, सो मैं यह भार तो ले सकता था; लेकिन अब यहाँ मेरा रहना नहीं होगा, बहुत जल्द चले जाना पड़ेगा। आप और कोई इन्तज़ाम करने की कोशिश करें तो अच्छा हो।
कमल ने उद्विग्न होकर पूछा - क्यों, पुलिस शायद पीछे लगके परेशान कर रही है?
“उसकी आत्मीयता का तो मैं आदी हो गया हूँ, इसके लिये नहीं।”
कमल हरेन्द्र की बातें याद करके बोली - तो क्या आश्रम के लोग जाने के लिये कहते हैं? लेकिन पुलिस के डर से जो लोग इस तरह आतंकित रहते हैं, उन्हें इतने समारोह के साथ देश के काम में उतरना ही नहीं चाहिये। फिर तुम्हें यहाँ से चले ही क्यों जाना पड़ेगा? इसी आगरे शहर में एक ऐसा व्यक्ति है जो तुम्हें जगह देने में ज़रा भी नहीं डरेगा।
राजेन्द्र ने कहा - सो शायद खुद आप ही हैं। इसे सुन लिया, सहज ही भुला नहीं सकूँगा। लेकिन इस उपद्रव से डरते न हों, भारत में ऐसे आदमी विरले ही हैं। अगर होते तो देश की समस्या बहुत कुछ सहल हो जाती।
ज़रा ठहरकर फिर बोला - मगर मैं इस वजह से नहीं जा रहा हूँ। आश्रम को भी दोष नहीं दे सकता। और चाहे जिसके मुँह से निकल जाय, पर मेरे लिये चले जाने की बात हरेन्द्र दादा के मुँह से नहीं निकल सकती।
“तो क्यों जा रहे हो?”
“जा रहा हूँ अपने ही लिये। वह है ज़रूर देश का काम, पर मेरा उनके साथ मत नहीं मिलता, और न काम की धारा ही मेल खाती है। मेल है सिर्फ़ प्रेम की दृष्टि से। हरेन्द्र दादा को मैं सहोदर से प्रिय हूँ, उससे भी ज़्यादा अपना हूँ। किसी दिन इसका व्यतिक्रम भी नहीं होने का।”
कमल की दुश्चिन्ता दूर हो गयी। बोली - ”इससे बढ़कर और क्या हो सकता है राजेन्द्र? मन जहाँ मिल गया, वहाँ मत का मेल न हो, न सही, काम की धारा न मिले न सही, इससे क्या आता-जाता है? सब कोई एक ही तरह से सोचेंगे, एक ही तरह का काम करेंगे और तभी एक साथ रहेंगे, यह क्यों? और हम अगर दूसरे के मत पर श्रद्धा न कर सकें तो फिर शिक्षा ही क्या हुई? मत और कर्म दोनों ही बाहर की चीज़ें हैं राजेन्द्र, एक मन ही सत्य है। और, इन बाहर की चीज़ों को ही बड़ा मानकर अगर तुम दूर चले जाओ तो तुम जो कह रहे थे कि तुम्हारे प्रेम में कोई व्यतिक्रम नहीं होने का, सो इस तरह तो उसे अस्वीकार करना होगा। यह तो किताब में लिखा है कि ‘छाया के लिये काया छोड़ी’, सो यह भी ठीक वैसी ही बात होगी!“
राजेन्द्र कुछ बोला नहीं, सिर्फ़ हँस दिया।
“हँसे क्यों?”
“हँसा इसलिये कि तब हँसा नहीं था। आपने अपने खुद के विवाह के मामले में मन के मेल को ही एकमात्र सत्य स्थिर करके बाह्य अनुष्ठान को बेमेल ‘कुछ नहीं’ कहके उड़ा दिया था। वह सत्य नहीं था, इसलिये आज आप दोनों का सब कुछ असत्य हो गया।”
“इनके माने?”
राजेन्द्र ने कहा - मन के मेल को मैं तुच्छ नहीं समझता, मगर उसी को अद्वितीय कहकर उच्च स्वर से घोषित करना भी आजकल एक ऊँचे ढंग का फैशन हो गया है। इससे उदारता और महत्ता दोनों ही प्रकट होती है, परन्तु सत्य नहीं प्रकट होता। यह कहना गलत है कि संसार में सिर्फ़ एक मन ही है और उसके बाहर जो कुछ है, सब छाया है।
ज़रा ठहरकर वह फिर कहने लगा - अभी-अभी विभिन्न मतवादों के प्रति श्रद्धा रख सकने को ही बड़ी भारी शिक्षा बता रही थीं, मगर आप जानती हैं कि सब तरह के मतों पर श्रद्धा कौन रख सकता है? जिसके अपने मत का कोई बल नहीं, वही रख सकता है। शिक्षा के द्वारा विरुद्ध मत की चुपचाप उपेक्षा की जा सकती है, पर उस पर श्रद्धा नहीं की जा सकती।
कमल को अत्यन्त विस्मय हुआ, वह अवाक रह गयी। राजेन्द्र कहने लगा - हमारी ऐसी नीति नहीं है, झूठी श्रद्धा से हम संसार का सर्वनाश नहीं करते - मित्र के मत पर भी नहीं, उस श्रद्धा को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर डालते हैं। यही हम लोगों का काम है।
कमल ने कहा - इसी को तुम लोग ‘काम’ कहते हो?
राजेन्द्र ने कहा - हाँ, कहते हैं। मत का बेमेल अगर हमारे काम में बाधा पहुँचाता रहे तो मन के मेल से हमें क्या करना है? हम चाहते हैं मत की एकता, काम की एकता - हमारे लिये भावों के विलास का कोई भी मूल्य नहीं शिवानी - कमल आश्चर्यचकित होकर बोली, ”मेरा यह नाम भी तुम्हें मालूम हो गया है?”
“हाँ। कर्म के जगत में आदमी के व्यवहार का मेल ही बड़ा मेल है, मन का नहीं। मन हो तो बना रहे; अन्तःकरण का विचार अन्तर्यामी करेंगे, हमारा काम व्यावहारिक एकता के बिना नहीं चल सकता। यही हमारी कसौटी है - इसी से हम जाँच करते हैं। बाहर से अगर स्वर में मेल न हो तो केवल दो जनों के मन के मेल से संगीत सृष्टि नहीं होती, वह तो सिर्फ़ कोलाहल ही कहलायेगा। राजा की जो सेनाएँ युद्ध करती हैं, उनकी बाहर की एकता ही राजा की शक्ति है। मन से उसे केाई मतलब नहीं। नियम का शासन-संयम है - और यही हम लोगों की नीति है। इसे छोटा बनाने से मन के नशे के लिये खुराक जुटाई जा सकती है, और कुछ नहीं। यह उच्छृंखलता का ही नामान्तर है। तांगेवाले, रोको-रोको - शिवानी, यही है उनका घर।”
सामने एक पुराना टूटा-फूटा मकान है। दोनों चुपके से उतरकर नीचे की एक कोठरी में पहुँचे। आहट सुनकर शिवनाथ ने आँख खोलकर देखा, पर दिये के धुंधंले उजाले में शायद पहचान न सका। क्षण-भर बाद ही उसने आँखें मींच लीं और तन्द्राच्छन्न हो गया।