संगी : वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’
Sangi : Walter Bhengra Tarun
एक्सरसाइज से बटालियन अभी-अभी लौटी है। जवानों के चेहरे पर लंबे सफर की थकान स्पष्ट दिखाई दे रही है। वरदी काली पड़ गई हैं। लॉरियाँ, जीप और अन्य गाड़ियाँ धूल-गर्द से बेशर्म होकर अपना रंग खेल रही हैं। इसके बावजूद जवानों की आँखों में छावनी वापस आने की खुशी झलक रही है। ऐसे अवसर पर छावनी किसी घर से कम महत्त्व की नहीं होती।
युद्ध हो अथवा शांति, हथियार पर सान चढ़ा होना आवश्यक है। ऐसा न हो कि ऐन वक्त पर तलवार धोखा दे जाए। जंग भयंकर है। ‘एक्सरसाइज’ में जो नकली युद्ध होता है, वह भी कम भयानक नहीं होता। इसमें भी जवान मारे जाते हैं। राजस्थान के रेगिस्तान में रेतीले टीलों से होकर भागना, पश्चिमोत्तर सीमा से सटे दुर्गम पहाड़ी मार्गों पर आगे बढ़ना कोई कम
जोखिम भरा और कष्टदायक नहीं होता। बंदूकें, राइफल्स, मशीनगन, तोप, मोर्टार, टैंक, मिसाइलें, बारूदी सुरंगें, हवाई हमले आदि सबकुछ तो होता है इस नकली युद्ध में। पूरी सतर्कता और सजगता के बावजूद कई सैनिक इस नकली जंग में भी मारे जाते हैं। एक-एक क्षण तनावपूर्ण होता है।
उन लंबे तनावपूर्ण क्षणों के बाद छावनी का वातावरण कितना अपनापन लिये हुए होता है, कितना शांत और प्रिय लगने लगता है।
‘‘लांस नायक फागू मुंडा चिट्ठी!’’ बैरक में कदम रखते ही फागू को चिट्ठी मिली। एक पल के लिए वह खड़ा रह गया।
‘‘अरे दोस्त, चिट्ठी आराम से पढ़ो, आराम से। पहले अपना बोझ तो हलका कर लो!’’ पीछे से एक साथी जवान ने फागू का कंधा थपथपाते हुए कहा।
उसकी ओर देखकर वह मुसकराया।
ऊपर लिखे पते की लिखावट पहचान न पाया वह। आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाता वह अपने पलंग के पास पहुँचा। कंधों और पीठ का सामान उतारकर लिफाफा खोलने लगा।
‘संगी’ पत्र के प्रथम संबोधन से ही उसके सामने बीता हुआ कल चित्रित हो उठा। उस चित्र में एक युवती का खिलता हुआ रूप उभरने लगा था। फिर वह अतीत में खो गया...
गाँव के बाजार के बीचोबीच कुछ शरारती नौजवान एक नवयुवती के पीछे पड़े थे। कभी वे उसका आँचल खींच लेते, तो कभी चलते-चलते उसे अपने घेरे में ले लेते। भीड़ भरे बाजार की बात थी। ऐसी जगह में धक्कम-धुक्की तो लगी ही रहती है। करती क्या? लोग अपनी खरीद-बिक्री में व्यस्त थे। ऐसे मनचले लड़कों को इसी तरह के अवसरों की ही तलाश रहती है।
फागू अपनी लंबी छुट्टी में अपने गाँव आया हुआ था। उसे भी बाजार से कुछ जरूरी सामान खरीदना था। उस युवती पर फागू की दृष्टि भी पड़ी थी। कुछ लंबे कद-काठी की वह युवती गाँव की उस भीड़ में अपनी धारीदार उजली साड़ी में अलग तरह से खिल रही थी। उसके चेहरे पर एक प्रकार का तेज था, जिससे अनायास कोई भी उसकी ओर आकर्षित हो जाता। वनफूलों के बीच मानो अनजाने कोई गुलाब का एक फूल रख गया हो।
फागू कुछ रोमानी सा हो गया था उसे देखकर। लेकिन उन नवयुवकों की तरह बेशर्म नहीं।
अचानक उसे लगा कि वह युवती कुछ अधिक ही परेशान हो उठी थी। फिर उसके अंदर का फौजी पौरुष जागा था। उसकी ललकार से वे मनचले युवक भाग खड़े हुए।
‘‘धन्यवाद!’’ वह कृतज्ञता प्रकट करती हुई बोली। ‘‘अगर आप न आए होते तो पता नहीं मेरा क्या होता? उन लड़कों ने काफी परेशान कर रखा था।’’
‘‘लेकिन आप अकेली...!’’ फागू ने प्रश्न करना चाहा।
‘‘आज ही शहर से आई हूँ।’’ वह बीच में ही बोल पड़ी। ‘‘पास के गाँव मुरूमकेल में मेरे मामू रहते हैं।’’
‘‘मुरूमकेल से आगे का गाँव मेरा है।’’ फागू ने कहा।
फिर वे दोनों ही चल पड़े थे। बाजार से करीब दो-ढाई किलोमीटर की दूरी तय करने के दौरान उन दोनों के बीच परिचय का दायरा बढ़ा।
‘‘फागू तोपनो, फौजी हूँ!’’
‘‘आप को देखकर लगा था मुझे कि आप सेना में होंगे। जो देश के लिए लड़ता है, वह किसी की भी रक्षा कर सकता है।’’ उस युवती ने कहा।
‘‘आपने अपना नाम तो बताया ही नहीं।’’ फागू ने एक क्षण उसकी ओर देखकर कहा।
‘‘ओह! मेरा नाम दुलारी है। दुलारी हेम्बरोम!’’
‘‘कॉलेज में पढ़ती हैं?’’
‘‘हाँ, इस बार बी.ए. की परीक्षा दी हूँ। वैसे हमारा परिवार चाय बगान में है। कॉलेज की पढ़ाई समाप्त हो गई है।
वापस जाने से पहले मैंने सोचा कि गाँव-घर के रिश्तेदारों से एक बार फिर मिलती जाऊँ। मामू ने जोर देकर आने के लिए पत्र लिखा था।’’ वह बोली।
‘‘अच्छा किया आपने। हमारे झारखंडी भाई-बहन वर्षों पहले असम, बंगाल और भूटान की चाय बगानों तथा अंडमान-निकोबार टापू के जंगलों में काम की खोज में गए और वहीं बस गए। वहाँ जाकर भी उन्होंने यहाँ की अपनी पहचान और संस्कृति को बरकरार रखा। किंतु अब...अब ऐसी बात यहाँ झारखंड में ही नहीं रही। आज बड़े-बड़े कारखानों, खदानों और बड़ी-बड़ी योजनाओं के नाम पर यहाँ के आदिवासी उखड़ने और बिखरने लगे हैं। हर रोज सैकड़ों आदिवासी यू.पी., दिल्ली, पंजाब, नागालैंड और कहाँ-कहाँ नहीं रोजी-रोटी की तलाश में जा रहे हैं। ठेकेदारों के दलाल इस रास्ते पर उनकी मदद कर रहे हैं।’’
‘‘हाँ, आपकी बात बिल्कुल ठीक है। यहाँ के लोग कहाँ-कहाँ भटक रहे हैं और बाहर से लोग यहाँ आकर यहाँ के लोगों की जमीन आदि हड़पने लगे हैं, जो इनकी अपनी खूँटकटी जमीन है। कितनी बड़ी बिडंबना है यह!’’ दुलारी ने अपनी सहमति प्रकट की।
‘‘यहाँ के लोग गरीब होते जा रहे हैं। दूसरी ओर जिनके पास कुछ नहीं था, वे मालामाल हो रहे हैं।’’ फागू ने कहा।
‘‘आप सेना में कब से हैं?’’ दुलारी ने अचानक विषय बदलकर सवाल किया।
‘‘लगभग तीन साल से। क्यों?’’
‘‘आपकी बातों से ऐसा नहीं लगता कि आप फौजी हैं।’’
‘‘फिर क्या लगता है?’’ उत्सुकता से फागू ने पूछा।
‘‘इतिहास के प्रोफेसर!’’ वह हँसकर बोली।
‘‘हिस्ट्री मेरा फेवरिट सब्जेक्ट था कॉलेज में।’’
‘‘आप कॉलेज में थे, कहाँ? कब?’’ उछल पड़ी थी दुलारी आश्चर्य से।
‘‘हाँ, गे्रजुएट हूँ।’’
‘‘फिर सेना में कैसे चले गए?’’
‘‘पहले लोग देशभक्ति से सेना में भरती होते थे। मैंने बेरोजगारी से तंग आकर। वैसे फौजी बनने के बाद देशभक्ति भी अपने आप आ जाती है। सेना में रहते हुए कम-से-कम ऐसा तो नहीं लगता कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। वह उक्ति याद है आपको ‘यह मत सोचो कि देश तुम्हें क्या देगा, परंतु यह सोचो कि तुम अपने देश को क्या दे सकते हो?’ अब इस सवाल का जवाब मेरे पास है...भले ही उस एवज में हमें मुफ्त भोजन और मासिक वेतन भी मिलता है।’’
‘‘आप तो इतिहासकार के साथ दर्शनशास्त्र के भी...’’ दुलारी खिलखिलाकर हँसने लगी।
‘‘नहीं भई, नहीं! हम फौजी तो बस लेफ्ट-राइट करना और बंदूक चलाना भर जानते हैं।’’ फागू ने सरलता से कहा।
‘‘आप मजाक भी खूब कर लेते हैं।’’ हँसती रही वह।
बातों-बातों में दुलारी का गंतव्य आ गया।
‘‘आपका यह छोटा सा संग बहुत अच्छा लगा।’’
दुलारी ने रुककर कहा, ‘‘आपको मैं ‘संगी’ कहूँ?’’
फागू ने कुछ नहीं कहा।
दो महीने की छुट्टी कैसे समाप्त हो गई, कुछ पता ही न चला। समय को कोई बाँध पाया है आज तक! नहीं। वापसी के दौरान ट्रेन में बड़े नाटकीय ढंग से पुनः दुलारी से भेंट हो गई।
फागू जिस डिब्बे में बैठा था, उसके दूसरे छोर पर शोर-शराबा सुनकर वह उस ओर गया था। देखा, दुलारी मजदूरों के बीच खड़ी थी।
‘‘कौन है तुम लोगों का सरदार? कहाँ है ठेकेदार तुम्हारा? तुम लोग चुप क्यों हो?’’ वह ऊँची आवाज में सवाल-पर-सवाल किए जा रही थी।
‘‘क्या हुआ?’’ फागू ने पीछे से आवाज दी।
‘‘ओह, संगी आप!’’ दुलारी ने फागू को देखकर मानो राहत की साँस ली। ‘देखिए इन भोले-भाले गाँव के मजदूरों को शहर के ठेकेदार बहला-फुसलाकर दिल्ली-पंजाब ले जा रहे हैं। पूछने पर बता रहे हैं कि ठेकेदार ने इन्हें बीस रुपए प्रतिदिन की मजदूरी के साथ मुफ्त राशन-पानी और इलाज आदि की सुविधा देने की बात कही है। यह कितना बड़ा झूठ और फरेब है! आज इतनी बड़ी रकम कोई भी ठेकेदार अपने मजदूरों को नहीं देता। और देखिए, इनमें जवान बहनें और मासूम बच्चे भी शामिल हैं। इन्हें चोरी-छिपे ले जाया जा रहा है। रास्ता खर्च-भाड़ा आदि के नाम पर इनसे दो-दो सौ रुपए भी ऐंठ लिये गए हैं। इनके पास टिकट भी नहीं है। कानूनन राज्य से बाहर मजदूरों को रजिस्ट्रेशन कराने के बाद ही ले जाया जा सकता है।’’
‘‘गाड़ी छूटने में अभी आधा घंटा से अधिक समय बाकी है।’’ फागू ने घड़ी देखते हुए कहा।
‘‘आओ, स्टेशन मास्टर से मिलते हैं।’’
दोनों उतर पड़े। सामने ही रेलवे थाना का कार्यालय था। फागू ने एक पल रुककर उधर देखा।
‘‘पुलिस कुछ नहीं करेगी। अगर वह इतनी ही कर्तव्यपरायण होती, तो हर रोज सैकड़ों आदिवासी मजदूरों का इस तरह पलायन नहीं होता।’’ दुलारी के स्वर में दृढता थी।
‘‘स्टेशन मास्टर साहब, आपके स्टेशन के सामने की गाड़ी में अनरजिस्टर्ड मजदूर पंजाब ले जाए जा रहे हैं, जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं।’’ दुलारी ने घुसते ही कहा।
‘‘तो इस मामले में मैं क्या कर सकता हूँ? हर रोज सैकड़ों मजदूर बाहर जाते हैं।’’ स्टेशन मास्टर ने लापरवाही से कहा।
‘‘वे अनपढ़ हैं और गरीबी से मारे हुए। स्टेशन मास्टर साहब, आपको मालूम ही होगा कि इस तरह की सूचना पुलिस को देनी चाहिए।’’
‘‘वह पुलिस का अपना काम है।’’ बेरुखी से स्टेशन मास्टर ने कहा।
‘लेकिन आपके स्टेशन पर यह हो रहा है, आपकी भी तो कुछ मानवीय जिम्मेदारी होगी? आप इस गाड़ी को तब-तक जाने नहीं देंगे, जब तक डी.सी. अथवा कोई मजिस्ट्रेट चेकिंग के लिए यहाँ आ नहीं जाते।’’ दुलारी का स्वर उत्तेजना से काँपने लगा था।
‘‘अरे जाने भी दीजिए इन गरीबों को। कहीं जाकर वे अपनी रोजी-रोटी कमा-खा लेंगे। आखिर आपको क्या पड़ी है?’’ स्टेशन मास्टर से बचाव का रुख अपनाया।
‘‘जी नहीं! मुझे पड़ी...बहुत पड़ी है।’’ दुलारी का स्वर गुस्से में और भी अधिक काँपने लगा था। ‘‘ये अनपढ़ आदिवासी मजदूर हमारे भाई-बहन हैं! इनका शोषण और नहीं किया जा सकता। इन्हें लालच देकर, बहला-फुसलाकर चोरी से ले जाया जा रहा है, गैर-कानूनी ढंग से। बंधुआ मजदूरों की तरह इनसे काम लेते हैं ठेकेदार।’’
स्टेशन मास्टर चुप हो गए थे।
‘‘क्या मैं आपका टेलीफोन इस्तेमाल कर सकती हूँ?’’ अनुमति की प्रतीक्षा किए बगैर दुलारी टेलीफोन उठाकर नंबर घुमाने लगी।
‘‘हैलो...जी, डी.सी. साहब हैं?...जी, मैं रेलवे-स्टेशन से बोल रही हूँ...! जी, उन्हीं से बात करवाइए। धन्यवाद! जोहार सर! मैं दुलारी हेम्बरोम बोल रही हूँ...जी हाँ सर! मैं आपको एक जरूरी सूचना देना चाहती हूँ...सर, कुछ आदिवासी मजदूरों को गैर-कानूनी ढंग से राज्य के बाहर ले जाया जा रहा है। आपसे विनती है सर कि आप, जी हाँ, सर, गाड़ी अभी खड़ी है, स्टेशन माटर यहीं हैं...धन्यवाद सर! लीजिए बात कीजिए।’’
दुलारी ने स्टेशन मास्टर की ओर टेलीफोन बढ़ा दिया।
‘‘हैलो...यस सर!...यस सर!...जी सर!’’ स्टेशन मास्टर हकलाते हुए जबाब दे रहे थे। ‘‘जी सर...बीस मिनट बाकी हैं सर! यस सर!’’
फागू चुपचाप दुलारी के पीछे खड़ा देखता रह गया था, आश्चर्यचकित होकर। कहाँ तो बाजार की भीड़ में चार-पाँच
मनचले युवकों से बेचैन हो उठी थी, और अब यहाँ सबको बेचैन कर रखा था।
स्टेशन मास्टर भीगी बिल्ली बने बैठे थे। दुलारी की ओर नजरें उठाकर नहीं देख रहे थे।
थोड़ी ही देर में डी.सी. साहब वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के साथ सशस्त्र पुलिस के जवानों को लेकर वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही स्टेशन मास्टर उठकर खड़े हो गए।
‘‘आपने ही फोन किया था?’’ दुलारी को देखकर पूछा डी.सी. ने।
‘‘जी हाँ, सर!’’
‘‘मजदूर कहाँ हैं?’’ डी. सी. ने पूछा।
‘‘आइए सर, मैं दिखलाती हूँ।’’ दुलारी आगे-आगे चल पड़ी।
दुलारी का इशारा पाकर पुलिस के जवानों ने डिब्बे को घेर लिया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने खिड़की के पास खड़े होकर कहा, ‘‘चलो, तुम लोग नीचे उतरो।’’ सभी मजदूर सहमे-सहमे नीचे उतर आए।
‘‘साहब, हम कोनो गलती नहीं करे हैं। हमको मत धरो साहेब। हमको जेल मत ले जाओ।’’ एक मजदूर ने हाथ जोड़कर कहा।
‘‘तुम्हें नहीं,’’ दुलारी ने आगे आकर कहा। ‘‘साहब लोग तुम्हें कुछ नहीं करेंगे।’’
‘‘तुम्हारा ठेकेदार कौन है?’’ पुलिस अधिकारी ने पूछा।
‘‘साहेब, रघु और हरबीर दुई जन हैं। हमको गाँव में आकर ऊ लोग बोला कि दिल्ली-पंजाब चलेगा, तो वहाँ बीस गो रुपिया दिहाड़ी मजदूरी मिलेगा। ई लोग, ई भी बोला कि राशन-पानी और दवा-दारू भी फिरीए मिलेगा।’’ एक अन्य मजदूर ने हाथ जोड़कर बताया।
‘‘गाँव में फसल बरबाद हो गया, साहेब। का करें हम? भूखमरी में जनी-पुता सब जाने के वास्ते राजी हो गिए।’’
‘‘कहाँ हैं वे दोनों?’’ डी.सी. ने पूछा।
‘‘रेलवे थानावालों को पता होगा, सर!’’ स्टेशन मास्टर ने कहा।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पीछे मुड़े ही थे कि रेलवे थाना प्रभारी ने आकर सलामी दागी।
‘‘यह सब क्या है?’’ उन्हें देखते ही अधिकारी झल्ला पड़े। ‘‘रघु और हरबीर के बारे में आपको कुछ पता है?’’
‘‘सर, इस समय वे दोनों बाहर रामलाल की चाय गुमटी में चाय पी रहे होंगे।’’
‘‘पकड़कर लाइए उन दोनों को।’’
रघु और हरबीर को पुलिस के जवान पकड़कर ले आए। उनकी नजरें झुकी हुई थीं।
‘‘सर गाड़ी का समय हो गया। आप इजाजत दे दें, तो सिग्नल दे दूँ।’’ स्टेशन मास्टर ने धीरे से कहा।
‘‘ठीक है, आप अपना काम कीजिए।’’ डी.सी. ने कहा। फिर दुलारी की ओर मुड़कर बोले, ‘‘थैंक यू, आपने हमें अपना सहयोग दिया। इन दोनों के विरुद्ध आवश्यक कारवाई की जाएगी।’’
‘‘धन्यवाद सर!...मैंने तो सिर्फ अपना एक नागरिक कर्तव्य और अपने ग्रामीण भाई-बहनों के प्रति छोटा सा दायित्व ही निभाया है।’’ नम्रता से दुलारी ने हाथ जोड़कर कहा। ‘‘सर इन गरीब मजदूरों के बारे में...!’’
‘‘डोंट वरी, आई विल पर्सनली लुक टू दिस मैटर। इनकी आवश्यकता के अनुसार हम मदद करेंगे।’’ डी.सी. महोदय ने आश्वासन दिया।
‘‘ट्रेन छूटनेवाली है’’ फागू ने धीरे से दुलारी के कान में कहा। वह उसकी ओर मुड़ी। दोनों डिब्बे में दाखिल हो गए।
‘‘आप सचमुच कितने अच्छे संगी हैं! आपने मेरा पूरा साथ दिया, साहस बढ़ाया...और बेचारे गाँववाले फरेबियों से बच गए।’’ दुलारी शून्य की ओर खिड़की के बाहर ताकने लगी थी। उसकी आँखें भर आई थीं।
‘‘क्या हुआ?’’ फागू ने पूछा। ‘‘एकाएक मायूस क्यों हो गई? अरे? तुम्हारी आँखें तो...।’’
‘‘मामू की जवान बेटी और उसी गाँव की दो अन्य जवान लड़कियाँ इसी तरह दो साल पहले मजदूरी करने के लिए आस-पड़ोस के गाँववालों के साथ निकली थीं, बाकी सभी लौट आए, लेकिन उन तीनों का आज तक कुछ पता न चल सका।’’ इतना बोलते-बोलते दुलारी का स्वर गीला हो गया।
फागू की समझ में यह बात तब आई कि गाँव के बाजार में छुई-मुई सी बनी दुलारी अपने मामू से मिलने के बाद किस तरह बदल गई थी। मामू का दुःख दुलारी के दिल में गहरा असर कर गया था।
‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है!’’ दुलारी ने कहा। ‘‘आप अपना पता मुझे देंगे?’’
फागू ने अपना पता उसे दे दिया था।
आज उसी का पत्र आया था।
फागू पत्र पढ़ने लगा...
साभार : वंदना टेटे