साधु बन गए गोनू झा (कहानी)

Sadhu Ban Gaye Gonu Jha (Maithili Story in Hindi)

मिथिलांचल में साध- सन्तों में लोगों को काफी भरोसा है । गोनू झा के जमाने में भी था । गोनू झा के पिता सत्संग प्रेमी थे। साधु- सन्तों की सेवा करना अपना धर्म समझते थे। तांत्रिकों-ज्योतिषियों पर खर्च करने से भी वे पीछे नहीं रहते । गोनू झा ने उन्हें कई बार समझाया मगर उनके पिता पर कोई असर नहीं हुआ । आए दिन ज्योतिषियों और साधु सन्तों का आना उनके घर में जारी रहा ।

एक दिन गोनू झा ने अपने पिता को साधु-सन्तों की अंध आस्था से निकालने की ठान ली । उन्होंने घर में घोषणा की कि उन्हें कुछ काम से बाहर जाना है, दो -तीन माह में वे लौट आएंगे । माता-पिता के चरण छूकर वे घर से निकल पड़े ।

गाँव से बाहर जाकर गोनू झा ने एक तालाब में स्नान किया। झोले से गेरुआ वस्त्र निकालकर धारण किया । नकली दाढ़ी-मूंछे और जटाओं जैसी संरचना की टोपी लगाई और फिर सिर पर गेरुआ पगड़ी लगा ली कि यह तो लगे कि जटाधारी साधु हैं मगर जटा नकली है इसका अन्दाजा किसी को नहीं लगे। दर्पण में झाँककर देखा तो पूरी तरह सन्तुष्ट हुए कि उन्हें कोई पहचान नहीं सकता । फिर उन्होंने रही सही कसर ललाट पर चन्दन के आलेपन से पूरी की ।

उसी तालाब के पास के एक बरगद के पेड़ के नीचे उन्होंने धूनी रमाई और पद्मासन लगाकर ध्यानमस्त मुद्रा में आ गए । उन्हें मालूम था कि देर-सबेर गाँव का कोई न कोई आदमी इधर से गुजरेगा ही और एक साधु को धूनी रमाये वहाँ बैठा देख, इस बात की सूचना उनके पिता को अवश्य देगा । अभी अधिक समय नहीं गुजरा था कि गाँव का एक किसान उनके पास आया मगर गोनू झा तो ध्यानमस्त थे-उसकी तरफ देखा तक नहीं, किसान थोड़ी देर तक हाथ जोड़े बैठा रहा । मगर जब 'साधु महाराज' हिले तक नहीं तो वहाँ मत्था टेककर उठ खड़ा हुआ । गोनू झा उसे जाता देख मन ही मन खुश हुए । उन्हें विश्वास था कि गाँव में अब यह चर्चा हो जाएगी कि तालाब के किनारे एक सिद्ध महात्मा धूनी रमाये बैठे हैं ।

गोनू झा अपने साथ झोले में पर्याप्त मेवे और फल लेकर आए थे। इसलिए उन्हें भोजन की परवाह नहीं थी ।

दूसरे दिन जब आम साधुओं की तरह वे भोजन की व्यवस्था के लिए गाँव में नहीं गए तब ग्रामीणों को विश्वास हो गया कि तालाब किनारे बैठा साधु कोई सिद्ध पुरुष है । इस बात की खबर गोनू झा के पिता को भी लगी तो उनसे रहा नहीं गया । वे महात्मा के दर्शन के लिए तालाब किनारे पहुँचे। अपने पिता को आया देख गोनू झा ध्यानमस्त हो गए । गोनू झा के पिता वहाँ काफी देर तक बैठे रहे मगर साधु महाराज की तंद्रा भंग नहीं हुई । उनके पिता गाँव लौट आए। गाँव में चर्चा फैल गई कि गाँव के बाहर एक महात्मा तपस्या में लीन हैं समाधि की अवस्था में हैं । साधु महाराज के दर्शन के लिए ताँता लग गया ।

तीसरे दिन उस स्थान पर ग्रामीणों की भीड़ जम गई। कुछ उत्साही ग्रामीणों ने वहाँ भजन -कीर्तन करना शुरू कर दिया तब जाकर महात्मा जी ने आँखें खोलीं। लेकिन कुछ बोले नहीं। सबसे अधिक उत्सुकता गोनू झा के पिता को ही थी । वे बढ़े और महात्मा जी के चरण छू लिए और कहा-“कुछ बताइए महाराज!"

गोनू झा ने पद्मासन में बैठे-बैठे ही पास पड़ी एक स्लेट उठाई और उस पर चॉक से लिखा-“आप लोग जाएँ । कल आएँ। मेरा मौन व्रत है।" सभी लौट गए ।

दूसरे दिन ग्रामीण आए। कोई फल लेकर तो कोई मिठाई लेकर। सबने साथ लाई चीजें साधु महाराज के कम्बल पर श्रद्धापूर्वक रख दीं-धूनी के पास और मत्था टेककर बैठ गए। गोनू झा ने स्लेट पर लिखा-आप सब लौट जाएँ। आज केवल एक व्यक्ति, और उन्होंने अपने पिता को इशारा से बुलाया और बैठ जाने का संकेत किया । ग्रामीण लौट गए । भला महाराज जी के आदेश की अवहेलना कैसे होती ?

गोनू झा के पिता गद्गद थे। उन्होंने फिर कहा-"महाराज कुछ बताइए!"

और गोनू झा ने स्लेट पर उनके अतीत के बारे में ऐसी- ऐसी बातें लिखीं जो गाँव के लोग कतई नहीं जानते थे। इसी तरह उनके रोग, उनकी कामनाएँ, पुत्र और पत्नी से सम्बन्ध के बारे में भी स्लेट पर सटीक एवं बिलकुल खड़ी बातें गोनू झा ने लिख दीं । गोनू झा उनके बेटे ही तो थे। उनकी सारी सच्चाइयों से अवगत । गोनू झा के पिता ने अब तक ऐसा गुनी महात्मा नहीं देखा था ... वे अभिभूत हो गए और महात्मा जी के चरण पकड़ लिए ।

“मेरा कल्याण करें महाराज ! मेरे घर पधारें ।" उन्होंने विनती की ।

महात्मा बने गोनू झा ने स्लेट पर लिखा-धैर्य धारण करें । अवश्य आऊँगा। एक दिन । अभी आप जाएँ। विश्राम करें।

गोनू झा के पिता लौट आए । गाँव के लोगों ने उन्हें अपने घर जाते देखा तो पूछने चले आए-"महात्मा जी ने क्या कहा ? वे बोले या वैसे ही स्लेट पर लिखकर ही कुछ बताया ?"

गोनू झा के पिता ने महात्मा जी की खूब सराहना की । ग्रामीणों का ताँता इसके बाद गोनू झा के धूनी स्थल पर रोज लगने लगा । रोज किसी न किसी को गोनू झा रोक लेते और उसके अतीत की सीधी-सच्ची बात स्लेट पर लिखकर कुछ जरूरी सलाह भी उसके साथ लिख देते । अब तो गाँव में 'महात्मा जी' की धूम मच गई । इस तरह एक महीना बीत गया । गोनू झा अब इस नाटक से ऊब गए थे। उन्होंने उस दिन स्लेट पर लिखा-कल मैं मौन व्रत खोलूँगा । आज मुझे एकांत चाहिए।

ग्रामीण आए । माथा टेका और वापस लौट गए । इसके बाद वाले दिन गाँव के लोग सुबह से ही वहाँ पहुँचने लगे। सबसे पहले आने वालों में गोनू झा के पिता थे। गोनू झा ने मौन व्रत खोला, सबको उपदेश दिया और कहा कि अब वे प्रस्थान करेंगे। ग्रामीण इस बात का आग्रह कर रहे थे कि वे एक बार गाँव अवश्य चलें । गोनू झा के पिता ने उन्हें याद दिलाया, “महात्मा जी ! आपने मुझे आश्वस्त किया था कि एक दिन मेरे घर अवश्य आएँगे।"

गोनू झा ने अपनी विशिष्ट मुद्रा में कहा-“अवश्य ! मुझे स्मरण है!"

फिर गोनू झा ग्रामीणों के साथ अपने पिता के दरवाजे पर पहुंचे। उन्होंने कहा -" अब विलम्ब नहीं करें । मुझे प्रस्थान करना है।"

ग्रामीण अपने-अपने घरों से चढ़ावा लेकर आए और आग्रहपूर्वक गोनू झा महाराज जी को भेंट किया । उनके पिता ने भी एक रत्नजड़ित स्वर्ण मुद्रिका उन्हें भेंट की और आग्रहपूर्वक दक्षिणा के रूप में एक हजार एक रुपए प्रदान किए। ग्रामीणों ने भी यथाशक्ति भक्ति दिखलाई । महात्मा बने गोनू झा ने वह धनराशि अपने झोले में डाली और अलख निरंजन का घोष करते हुए उठ खड़े हुए । ग्रामीण उनके पीछे पीछे गाँव के बाहर तक आए । फिर गोनू झा ने रुककर सबसे कहा-“आप सब अपने घरों को लौट जाएँ । मोह में नहीं पड़ें । अपने कर्तव्यों का पालन करें, फिर अलख निरंजन का घोष करते हुए खड़ाऊँ खटखटाते हुए आगे बढ़ गए ।

इसके दस दिनों के बाद गोनू झा अपने समान्य रूप में घर लौटे । उन्हें घर आया देख उनके सरल चित्त पिता बहुत खुश हुए। उन्होंने गाँव में एक सिद्ध- पुरुष के आने की घटना का पूरा वृतान्त उन्हें विस्तारपूर्वक बताया ।

गोनू झा मुस्कुराते हुए अपने पिता की बातें सुनते रहे । जब उनके पिता चुप हुए तब गोनू झा ने अपनी जेब से ढेर सारे रुपए निकालकर अपने पिता को दिए। उनके पिता इतने सारे रुपए देखकर चकित हो गए। फिर गोनू झा ने जेब से अँगूठी निकाली और अपने पिता को दे दी । अँगूठी देखते ही उनके पिता चौंक पड़े क्योंकि यही अँगूठी उन्होंने महात्मा जी को श्रद्धापूर्वक भेंट की थी ।

बिना कुछ बोले गोनू झा ने अपने झोले से जटा-जूट, दाढ़ी-मूँछे और गेरुआ वस्त्र निकालकर पिता के सामने रख दिया ।

उनके पिता समझ गए कि महात्मा जी का रहस्य क्या था । वे बोले -" बेटा गोनू! तुमने मेरी आँखें खोल दीं । मैं अब कभी भी महात्माओं के चक्कर में नहीं पडूंगा।"

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