सच्चाई का भ्रम (लघु-कथा) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Sachchai Ka Bhram (Laghu-Katha) : Vijaydan Detha 'Bijji'
किस्मत की मारी एक बामनी ने जटिये से घरवास किया।
कुंड में भीगे हुए कच्चे चमड़े की दुर्गंध से नाकों दम होने लगा, जी मितलाता, उबकाई आने लगती, सर चकराता। न पूरी भूख लगे और न रात को अच्छी तरह नींद आये। आँखें हरदम जलती रहती। हर वक्त नाक में इत्र के फोहे रखती और मुँह पर कपड़ा।
दिन बीतने में बरस नहीं लगते।
एक दिन बामनी ने गुमान के स्वर में जटिये से कहा, देखी मेरी करामत!
मेरे आने से तेरे घर की बदबू ही मिट गई, ऊँची जात का तो चमत्कार ही ऐसा होता है!
पति ने तनिक व्यंग्य से भरे परिहास में कहा, बदबू तो वैसी ही है, पर तू उसकी आदी हो गई है। तेरे नाक की कोंपल इत्ती जल्दी मर जायेगी, मुझे ऐसी आशा नहीं थी।
अब तो इत्र-फुलेल का खरच कम कर दे।
तुम मुझे अकल देने चले हो? वह तो कभी का कम कर दिया, अपने घर का भला मैं नहीं सोचूँगी तो और कौन सोचेगा?