राबिन्सन क्रूसो (उपन्यास) : डैनियल डीफ़ो, अनुवादक : पं. जनार्दन झा

Robinson Crusoe (Novel in Hindi) : Daniel Defoe

उत्तरार्ध
क्रूसो की मानसिक अशान्ति

बहुत लोग यह समझेगे कि मैं इतना बड़ा धनाढ्य होकर भ्रमण करना छोड़ एक जगह स्थिर होकर बैठ रहा हूँगा। किन्तु मेरे भाग्य में यह लिखा ही न था। घूमने का रोग मेरी नस नस में घुसा हुआ था। उस पर न मेरे बन्धु-बान्धव थे, न स्वजन-परिवार था और न घर-द्वार था, जिनके मोह से मैं देश छोड़ अन्यत्र नहीं जाता। संसार ही मेरा घर था; संसार के मनुष्य ही मेरे आत्मीय बन्धु थे। देश में आते ही फिर मुझे बेज़िल जाने की इच्छा होने लगी। एक बार फिर अपने उस टापू को देखने की इच्छा हुई। उस टापू में आने वाले स्पेनियर्ड लोगों का क्या हुआ, यह जानने के लिए मेरा चित्त बड़ा ही उत्सुक था। मेरे मित्र की पत्नी ने रोक रोक कर मुझे सात वर्ष देश में अटका रक्खा। इस अरसे में मैंने अपने दोनों भतीजों को कुछ लिखा-पढ़ाकर और कुछ रुपया-पैसा देकर मनुष्य बना दिया। उनकी हैसियत ऐसी हो गई जिससे वे अपना जीवन-निर्वाह अच्छी तरह कर सकते थे। मेरा एक भतीजा जहाज़ का कप्तान हुआ। वही छोकरा मुझे इस वृद्धावस्था में फिर विपत्ति के साथ युद्ध करने के लिए घर से खींचकर बाहर ले गया।

जब मैं लौटकर देश गया था तब मैंने ब्याह किया था। दो लड़के और एक लड़की होने के बाद मेरी स्त्री की मृत्यु हुई। उसी अवसर पर, १६९४ ईसवी को, मैं अपने भतीजे के जहाज़ पर सवार हो वाणिज्य करने की इच्छा से अमेरिका को रवाना हुआ।

लोग कहा करते हैं, "जाको है जौन सुभाव, सुनो वह कोटि उपाय किये न हिलै," "न घिसने से स्वभाव जाता है, और न धोने से कलङ्क छूटता है।" यह कहावत मुझपर खूब घटती थी। पैंतीस वर्ष तक दारुण कष्ट भोगने के बाद सात वर्ष शान्ति से सुख भोग कर इस एकसठ साल के बुढ़ापे में देश-भ्रमण की इच्छा जाग उठने का कोई कारण न था, क्योंकि जो लोग देश घूमते हैं वे या तो द्रव्योपार्जन के लिए जाते हैं या देश देखने के लिए। किन्तु मैंने देश घूम कर रुपया भी खूब बटोरा और देश भी अनेक देखे। अतएव देशान्तर जाने की मुझे कोई आवश्यकता न थी। परन्तु यह बात मैं ऊपर कह आया हूँ कि "स्वभावो बलवत्तरः", मेरा सैर करने का स्वभाव मुझको घर से बाहर होने के लिए दिन रात तक़ाज़ा करने लगा। इस विषय में मेरा जो इतना लगा रहता था कि स्वप्न में भी देश-भ्रमण की ही बात देखता और बकता था। मेरे इस विषय की नित्य प्रति की एक ही बात लोगों को कर्णकटु हो उठी थी। यह मै भली भाँति समझता था, किन्तु भ्रमण का उन्माद मेरे सिर पर सवार था। वह मुझे दूसरी ओर हिलने डुलने न देता था।

पथ-विहरण की लालसा लगी रहे जिय माँहि।
मनो पुकारत सो हमें छिनहू बिसरत नाँहि॥

मैं किसी तरह उसके खिंचाव को रोक नहीं सकता था, किन्तु यह भी न जान सकता था कि मेरा झुकाव उस तरफ़ इतना क्यों है। चाहे जिस कारण से हो, मुझे घूमने का नशा था और उसने मुझको अपने अधीन बना रक्खा था। बुद्धिमान् लोग कहा करते हैं कि असल में भूत-प्रेत कुछ नहीं है, केवल मस्तिष्क की ख़राबी से लोगों के ख़यालात बदल जाते हैं और उसी से भूत-प्रेत देख पड़ते हैं; वे भूतों के साथ बाते करते हैं और उनकी बातें सुन सकते हैं। यथार्थ में भूत है कि नहीं, यह मैं नहीं जानता। अब तक तो मैंने कभी भूत नहीं देखा, किन्तु दिमाग गर्म होने से जो मन में भाँति भाँति की भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं इसका मुझे पूर्णपरिचय है। मस्तिष्क उत्तेजित होने से लोगों के मन में विचित्र भावनायें होने लगती हैं। कभी कभी मेरे मन में यह भावना होती थी कि मैं अपने द्वीप में गया हूँ और अपने किले के भीतर बैठ कर स्पेनियर्ड, फ़्राइडे के बाप तथा विद्रोही नाविकों के साथ बातें कर रहा हूँ; उनका पारस्परिक विवाद मिटा कर कर्तव्य की मीमांसा कर रहा हूँ और अपराधियों के दण्ड की व्यवस्था कर रहा हूँ। इस तरह सोचते-विचारते कई साल गुज़र गये। मेरे पास आराम की सब सामग्री थी, फिर भी मुझे दिन-रात छटपटी लगी रहती थी। न दिन को चैन मिलता था न रात को नींद आती थी। मैं हर घड़ी सोच-सागर में डूबा रहता था। एक दिन मेरी स्त्री ने कहा, "आपके चित्त की अवस्था देख कर यही जान पड़ता है कि ईश्वर किसी महान् उद्देश से आपको इस ओर खींच रहे हैं। इस समय मैं और बाल-बच्चे आपके बाधक हो रहे हैं। मैं आपको छोड़ कर अकेली न रह सकूँगी। मेरी मृत्यु होने ही से आप निर्बन्ध हो सकते हैं। अभी आप अपने को एक प्रकार से बद्ध समझें।" यह कहते कहते उस बेचारी की आँखों से आँसू टपक टपक कर गिरने लगे। इसके बाद फिर उसने कहा, "इस बुढ़ापे में आपका देशदेशान्तर का घूमना अच्छा नहीं। आपकी अब वह उम्र नहीं जो स्वतन्त्रता-पूर्वक देश-भ्रमण करें, यदि आपका जाना ज़रूरी ही होगा तो मैं भी आपके साथ चलूँगी।" स्त्री की ऐसी स्नेह-भरी मीठी बात सुनकर और मीठे तिरस्कार का इशारा पाकर मुझे कुछ चेत हुआ। तब मैंने समझा कि मैं यथार्थ में पागलपन करने को उद्यत हुआ हूँ। मन ही मन अनेक तर्क-वितर्क कर के मैंने अपनी चित्त-वृत्ति को रोका।

मैंने बेडफ़ोर्ड जिले में एक छोटा सा गँवई-मकान खरीद लिया। वह मकान काम चलाने लायक़ अच्छा था। हाते के भीतर ज़मीन भी बहुत थी। मैंने खेती-बाड़ी में जी लगाया। छः महीने के भीतर मैं पक्का किसान हो गया। अनाज से बुखारी भर गई, गाय-बछड़ों से गोठ भर गया। कई घोड़े भी खरीद लिये। नौकर-चाकरों से घर भर गया। कोई घर का काम करता, कोई बाहर का और कोई खेती-बाड़ी की देखभाल करने लगा। मैं गृहस्थी के कामों में लग कर समुद्र-यात्रा की बात एक प्रकार से भूल ही गया। मैं नगर-निवास के समस्त पाप-प्रलोभन से बच कर निश्चिन्तभाव से देहात में रह कर समय बिताने लगा।

किन्तु मेरे इस भरे-पूरे सुख में भगवान् ने मेरे एक-मात्र स्नेहबन्धन को तोड़ दिया; मेरे बने-बनाये घर को बिगाड़ दिया। मेरे दबे हुए भ्रमणात्मक रोग को फिर उभड़ने का अवसर दिया। मेरी स्त्री का देहान्त होगया। मैं यहाँ उसके गुणों का सविस्तार वर्णन करके पृष्ठों की संख्या बढ़ाना नहीं चाहता किन्तु इतना ज़रूरी है कि वह मेरे विश्राम की एकमात्र आश्रय थी; संसार-बन्धन और समस्त उद्यमों की केन्द्र थी। मेरी माता के गरम आँसू, पिता के उपदेश, मित्रों के परामर्श और मेरा अपना विवेक जिस समुद्रयात्रा से मुझे न रोक सका उसे मेरी पत्नी ने अपने मधुर उपदेश से रोक दिया था। अब उस स्त्री-रत्न को खोकर मैं एकदम निराश्रय और निरवलम्ब हो गया।

स्त्री के न रहने से मैं फिर अकेले का अकेला रह गया। जब मैं पहले पहल ब्रेज़िल गया था तब जैसे किसी के साथ मेरा परिचय न था वैसे ही अब भी मैं सब के लिए अपरिचित सा हो रहा। द्वीप में जाकर जैसे मैं अकेला रहता था, वैसे ही अब भी रहने लगा। अब मैं क्या करूँगा, यह मेरी समझ में न आता था। मैं अपने भविष्यजीवन को किस तरीके पर बिताऊँगा इसका कुछ निर्णय नहीं कर सकता था। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर सभी लोग सांसारिक व्यवहार में लगे हुए हैं। उनमें कितने ही ऐसे हैं जो मुट्ठी भर अन्न के लिए जी तोड़ परिश्रम करते हैं। कितने ही दुर्व्यसन में, आनन्द के अध्यासमात्र का अनुभव कर के, उसीके पीछे हैरान रहते हैं; कितने ही लोग पागलपन ही में मिथ्या आनन्द खोजते रहते हैं। निष्कर्ष यह कि सभी लोगों का भला या बुरा अपना एक उद्देश ज़रूर रहता है। सभी लोग जीने के लिए श्रम करते हैं और श्रम करने के लिए जीते हैं। बिना परिश्रम के कोई रोजी हासिल नहीं कर सकता। जब तक इस शरीर से जीवन का सम्बन्ध बना रहता है तब तक भोजन का सम्बन्ध भी छूटने वाला नहीं। जीवन-धारण के लिए जैसे भोजन अत्यावश्यक है वैसे ही भोजन प्राप्त करने के लिए शरीर-परिचालन भी नितान्त आवश्यक है। सभी लोग कमाते कमाते मर मिटते हैं पर वास्तविक सुख किमी को नहीं मिलता। इस शरीर-यात्रा के साथ अपनी द्वीपान्तर की शरीर-यात्रा की तुलना करने से वह सुगम जँचती थी। मैं अपने प्रयोजन से अधिक अन्न न उपजाता था। वहाँ सन्दूक़ में रक्खे हुए रुपये काले पड़ गये थे, पर बीस वर्ष के दरमियान कभी उनको एक बार भी देखने की आवश्यकता न हुई थी। अब मैं कुछ कुछ समझने लग गया था कि मनुष्य-जीवन का उद्देश केवल आहार-निद्रा और विषय-भोग ही नहीं है, प्रत्युत आत्मा की उन्नति ही उसका चरम उद्देश है। उसी के सहायतार्थ देह रक्षा भी आवश्यक है। अर्थ की अपेक्षा धर्म ही मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पत्ति है। किन्तु इस सम्पत्ति की रक्षा अब मुझसे कौन करावेगा? मेरी प्रिय शिष्या और सचिव मुझे अकेला छोड़ चली गई। मैं कर्णधार-विहीन नौका की भाँति धन-दौलतरूपी तूफान में पड़ कर संसार में डूबता-उतराता हूँ।

विदेश-भ्रमण की चिन्ता फिर मेरे शान्त निरापद भाव से-गृह वास के सुख और खेती-बाड़ी के आनन्द को भुला कर-बड़ी निर्दयता के साथ मुझे बाहर की ओर खींचने लगी। बहरों के लिए संगीत की तरह, बिना जीभ वाले के लिए स्वादिष्ट खाद्य की तरह मेरे लिए मेरे घर का सुख नितान्त निरर्थक सा अँचने लगा। कई महीने बाद मैं अपना घर द्वार भाड़े पर दे कर लन्दन गया।

लन्दन में भी मेरा जी न लगा। वहाँ भी चित्त को चैन न मिला। बिना कुछ रोज़गार के जीवन का बोझ लेकर घूमना कैसा कष्ट-दायक है, यह वही समझ सकेंगे जो चिरकाल से कर्मनिष्ठ हैं और जिनका जीवन-समय कभी व्यर्थ नहीं जाता। आलसी होकर एक जगह बैठा रहना जीवन की हेयतम अवस्था है। वह जीवन के लिए एक बड़ी लाञ्छना है। लन्दन में बैठकर आलसी की तरह जीवन बिताने की अपेक्षा निर्जन द्वीप में रह कर जब मैं छब्बीस दिन में एक तख्ता तैयार करता था तब वह मेरे लिए कहीं बढ़कर सुख का समय था।

दूसरी बार की विदेशयात्रा

१६९३ ईसवी के कुछ दिन पहले ही मेरा जहाज़ी भतीजा जहाज़ का सफ़र तय कर के देश लौट आया। उसके परिचित कुछ सौदागर, अपने साथ लेकर, उसको भारत और चीन में वाणिज्य करने का अनुरोध करने लगे। उसने एक दिन मुझसे कहा,-चाचाजी, यदि आप मेरे साथ चले तो आपको ब्रेज़िल आदि पूर्व-परिचित देश दिखा लाऊँ।

"जो रोगी को भावे सो बैद बतावे" की कहावत चरितार्थ हुई। मैंने अपने मन में निश्चय किया था कि मैं यहाँ से लिसबन जाऊँगा और वहाँ अपने कप्तान मित्र से सलाह लेकर एक बार अपने द्वीप में जाकर देख आऊँगा कि मेरे उत्तराधिकारी कैसे हैं! इस देश से लोगों को ले जाकर उस द्वीप में बसाने की कल्पना कर के भी मैं मन ही मन सुख का अनुभव कर रहा था। किन्तु अपने मन की ये बातें मैं किसीसे कहता नहीं था। सहसा अपने भतीजे के इस प्रस्ताव से विस्मित होकर मैंने कहा-बेटा! सच कहो, किस शैतान ने तुमको ऐसा अयुक्त प्रलोभन दिखलाने भेजा है? मेरा भतीजा पहले, यह समझ कर कि मैं उसके प्रस्ताव से रुष्ट हो गया हूँ, चुप होकर मेरे मुँह की ओर देखने लगा। परन्तु बार बार मेरे चेहरे की ओर ध्यान से देख कर उसने समझा कि मेरा मन उतना अप्रसन्न नहीं है। तब उस ने ठंढी साँस भर कर और मुसकुरा कर कहा-मैं आशा करता हूँ कि इस बार अयुक्त प्रलोभन न होगा। आप अपने पूर्व-राज्य को देख कर सुखी होंगे।

मैं शीघ्र ही उसके प्रस्ताव पर सम्मत हो कर बोला,-"अच्छा तुम ले चलो, पर मैं अपने उसी टापू तक जाऊँगा, उससे आगे न बढ़ेगा। मुझे बहुत दूर जाने का साहस नहीं होता।" उसने कहा-"क्यों? आप फिर उसी द्वीप में रहना तो नहीं चाहते?" मैंने कहा,-"नहीं, तुम जब उधर से लौटो तब फिर मुझे अपने साथ लेते आना।" उसने कहा,-"उस राह से लौटने में सुभीता न होगा। मान लीजिए, यदि मैं किसी कारण से लौटती बार उस द्वीप में न पहुँच सकूँ तब तो फिर आपका निर्वासन ही होगा।" यह बात मुझे खूब युक्तिसंगत जान पड़ी। किन्तु हम दोनो ने तत्काल एक उपाय सोच लिया। हम लोग एक नाव का फ्रेम (पार्श्वभाग) जहाज़ पर रख लेंगे और कुछ बढ़ई मिस्त्रियों को भी साथ ले लेंगे। वे द्वीप में पहुँच कर उस फ़्रेम के भीतर तख़्ते जड़ कर ठीक कर देंगे। भतीजा मुझे द्वीप में छोड़ कर चला जायगा; लौटते समय वह मुझको जहाज़ पर चढ़ा लेगा तो अच्छा ही है, नहीं तो मैं उसी नाव पर सवार हो कर ब्रेज़िल जाऊँगा और वहाँ से यात्री-जहाज़ के द्वारा अपने देश को लौट आऊँगा।

मेरी वृद्धा मित्र-पत्नी ने मेरा इस बुढ़ापे में विपत्ति के मुख में घुसना पसन्द न किया। उसने लम्बी समुद्रयात्रा के क्लेश, विपत्ति की सम्भावना, और मेरे बाल-बच्चों की बात याद दिला कर मुझको जाने से रोकने की चेष्टा की। किन्तु जब उसने मुझको जाने के लिए अत्यन्त आतुर देखा तब बाधा देना छोड़ दिया और लाचार होकर स्वयं मेरी यात्रा का सब सामान ठीक कर देने में प्रवृत्त हुई।

मैंने एक वसीयतनामा लिख कर अपनी धन-सम्पत्ति अपने बच्चों के नाम से लिख पढ़ दी। सन्तानों की शिक्षा-रक्षा का भार वृद्धा विधवा ही को सौंपा। यह भार उपयुक्त व्यक्ति को सौंपा गया था। कारण यह कि कोई माता भी उससे बढ़ कर अपने बच्चों का यत्नपूर्वक लालन-पालन नहीं कर सकती। जब मैं लौट कर देश पहुँचा तब भी वह जीवित थी। मैं उसका काम देख कर बहुत प्रसन्न हुआ था और उसे धन्यवाद देकर अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का मुझे अवसर मिला था।

१६९४ ईसवी की ८ वीं जनवरी को हम और फ़्राइडे अपने भतीजे के जहाज़ पर सवार हुए। छप्परदार-नाव के सिवा अपने द्वीप के लिए मैंने अनेक प्रकार की चीजें साथ रख ली। इस बार मैंने कई नौकरों को भी अपने साथ ले लिया। यह इसलिए कि जब तक मैं उस द्वीप में रहूँगा तब तक वे लोग मेरी मातहती में काम करेंगे। इसके बाद जो वहाँ रहना चाहेंगे, रहेंगे और जो देश पाना चाहेंगे वे मेरे साथ लौट आवेंगे। मैंने दो बढ़ई, एक कुम्हार, एक पीपे बनाने वाले और एक दर्जी को साथ ले लिया। पीपे बनाने वाला अपनी वृत्ति के सिवा कुम्हार का भी काम करना जानता था और नक़शा खोदने आदि का भी काम जानता था। वह बड़े काम का आदमी था। मैंने और वस्तुओं की अपेक्षा कपड़े बहुतायत से ले लिये थे जिनसे टापू भर के लोगों का काम सात वर्ष तक मज़े में चल सकता। इसके अतिरिक्त दस्ताने, टोपी, जूते, मोज़े, बिछौने, बर्तन, कल आदि गृहस्थी की प्रायः सभी आवश्यक वस्तुएँ जहाज़ पर लाद लीं। युद्ध का भी कुछ सामान साथ रख लिया। सौ बन्दूक़ें, तलवार, पिस्तौल, गोली, बारूद, तथा शीशे और पीतल की बनी दो मज़बूत तो भी जहीज़ पर रख लीं।

मेरा नसीब जैसा ख़राब था वैसा कोई विशेष संकट इस दफ़े संघटित न हुआ। पर यह बात नहीं कि सङ्कटों ने मेरा पीछा कतई छोड़ दिया। रवाना होने के साथ ही प्रतिकूल वायु बहना और पानी बरसना शुरू हुआ। मैंने समझा कि मुझको विपत्ति में डालने ही के लिए इस प्रकार प्रकृतिविपर्यय हो रहा है। प्रतिकूल वायु हम लोगों के जहाज़ को उत्तर ओर ठेल कर ले गया। हम लोग आयरलेन्ड के गालवे बन्दर में बाईस दिन तक टिके रहे। यहाँ खाद्य-सामग्री खूब सस्ते दाम पर बिकती थी। हम लोगों ने साथ की रसद ख़र्च न कर के ख़रीद कर खाया और कुछ जहाज़ में रख भी लिया। यहाँ मैंने बहुत से सूअर, गाय, और बछड़े मोल लिये। मैंने उन्हें अपने टापू में ले जाना चाहा था, पर वहाँ तक वे न पहुँच सके।

हम लोग ५वीं फ़रवरी को अनुकूल वायु पा कर आयरलेन्ड से रवाना हुए। २8 वीं फरवरी को जहाज़ के मेट ने आ कर कहा-"हमने तोप छुटने की आवाज़ सुनी है और आग की झलक देखी है!" हम लोग दौड़ कर डेक के ऊपर गये। कुछ देर तक तो कुछ सुनाई न दिया पर कुछ ही देर के बाद आग की ज्वाला देखने में आई। कहीं दूर ख़ूब ज़ोर की आग लगी है। उस महासमुद्र में पाँच सौ मील के भीतर कहीं स्थल का नाम-निशान न था, इसलिए सोचा कि ज़रूर किसी जहाज़ में आग लगी है। इसके पहले जो तोप की आवाज़ सुनी गई थी वह इसी विपत्ति की सूचना थी। जब तोप की आवाज़ हुई थी तब वह जहाज़ हमारे जहाज़ से बहुत दूर न था। हम लोग उस प्रकाश की ओर जहाज़ को ले चले। जितना ही आगे जहाज़ जाने लगा उतना ही प्रकाश का आधिक्य दिखाई देने लगा। कुहरा फैला रहने के कारण हम लोग अग्नि-प्रकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं देख सकते थे। आध घंटे के बाद हम लोगों ने स्पष्ट देखा कि समुद्र में एक बड़ा सा जहाज़ जल रहा है।

यह देख कर हम लोगों के हृदय में दया उमड़ आई। यद्यपि हम लोग न जानते थे कि यह कहाँ का जहाज़ है और वे लोग किस देश के यात्री हैं, तथापि उन लोगों की वेदना से हम लोग व्याकुल हो उठे। तब मुझे अपनी विपत्तियों से उद्धार पाने की बात स्मरण होने लगी। यदि उन विपद्ग्रस्त बेचारों के पास और कोई नाव न हो तब उनकी न मालूम क्या दुर्दशा होगी, यह विचार कर मैंने आज्ञा दी कि हमारे जहाज़ से पाँच बार तोप की आवाज़ की जाय। इससे वे लोग समझेगे कि उनके सहायक निकटवर्ती हैं और वे नाव पर आरूढ़ हो कर अपनी प्राणरक्षा कर सकेंगे। आग के कारण हम लोग उनके जहाज़ को देख सकते थे, पर वे लोग हमारे जहाज़ को नहीं देख सकते थे। हम लोग प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगे। इतने में एकाएक वह जलता हुआ जहाज़ आकाश की ओर उड़ गया और देखते ही देखते आग एक दम बुझ गई। समुद्र गाढ़ अन्धकार में डूब गया। ऐसा मालूम हुआ जैसे वह जहाज़ सर्वदा के लिए समुद्र के गर्भ में विलीन हो गया। हम लोग यद्यपि ऐसी ही किसी दुर्घटना की आशङ्का कर रहे थे तथापि उसे आँखों के सामने होते देख हम लोगों के मन में बड़ा ही भय हुआ। उस जहाज़ के यात्रियों की दुर्दशा की बात सोच कर जी व्याकुल होगे लगा। वे लोग या तो जहाज़ के साथ जल गये होंगे या समुद्र में डूब कर मर गये होंगे अथवा इस अपार महासागर में नाव के ऊपर डूबने ही पर होंगे! वे सब के सब घोर अन्धकार में छिपे हैं। हम लोग कुछ निश्चय न कर सके कि वे अभी किस अवस्था में हैं। उन लोगों को सूचना देने के लिए मैंने अपने जहाज़ के चारों ओर रोशनी कर दी और गोलन्दाज़ से सारी रात तोप की आवाज़ करने को कह दिया।

हम लोगों ने जाग कर रात बिताई। सबेरे आठ बजे हम लोगों ने दूरबीन लगा कर देखा कि दो छप्परदार नावे आरोहियों से भरी हुई घिरनी की तरह बीच समुद्र में नाच रही हैं। हवा हमीं लोगों की ओर से हो कर बहती थी। वे प्रतिकूल वायु में पड़ कर प्राणपण से नाव खे कर हम लोगों की ओर आ रहे थे और हम लोगों की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए भाँति भाँति की चेष्टायें कर रहे थे। हम लोगों ने झंडी उड़ा कर उन लोगों को संकेत द्वारा जता दिया कि हम लोगों ने तुमको देख लिया। अब हम लोग पाल तान कर बड़ी तेज़ी से उन लोगों की ओर अग्रसर होने लगे। आध घंटे में हम लोग उनके पास पहुँच गये और चौसठ पुरुष, स्त्री और बालकों को अपने जहाज़ पर चढ़ा लिया।

दरियाफ़्त करने से मालूम हुआ कि वह एक फ़्रांसवासी सौदागर का जहाज़ है, कनाडा देश के क्यूबिक शहर से देश को जा रहा था। माँझियों की असावधानी से जहाज़ में भाग लग गई और बहुत उपाय करने पर भी बुझ न सकी। तब जहाज़ के सभी यात्री निरुपाय हो कर नाव पर सवार हुए। उन लोगों के भाग्य से खुब बड़ी बड़ी दो नावें साथ में थीं, इससे वे लोग झटपट कुछ खाने-पीने की चीज़ें ले कर उन पर उतर आये। किन्तु नाव पर सवार हो जाने पर भी अपार समुद्र में उन लोगों के प्राण बचने की आशा न थी। केवल दुराशा मात्र थी कि कोई जहाज़ उन लोगों को आश्रय दे दे तो दे दे। उन लोगों के साथ पतवार, पाल और कम्पास था। उन्हींके सहारे वे अमेरिका लौट जाने का उपक्रम कर रहे थे। ऐसे समय उन लोगों ने विधाता की आश्वासवाणी की तरह एक बार तोप का शब्द सुन पाया और क्रमशः चार बार और भी सुना। वे लोग अमेरिका लौटने की चेष्टा ही करते थे पर लौटने की आशा न थी। मेघ, पानी, हवा और जाड़े की अधिकता से व्यथित हो कर वे लोग रास्ते ही में मर जाते। इसके अतिरिक्त नाव डूबने की आशङ्का भी पग पग पर थी। इस विषम भय में उन लोगों ने उद्धार का आश्वासन पा कर फिर छाती को दृढ़ किया। वे लोग पाल गिरा कर, पतवार खींचना बन्द कर के, प्रभातकाल की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ देर बाद वे हम लोगों के जहाज की रोशनी देख कर और तोप की आवाज सुन कर हम लोगों के जहाज की ओर आने के लिए फिर नाव खेने लगे। प्रतिकूल वायु में उन लोगों को नव अधिक दूर आगे न आ सकी, किन्तु भोर होने पर जब उन्होंने देखा कि हम लोग उनको आते देख रहे हैं तब उनकी जान में जान आई।

उन लोगों ने रक्षा पाकर जो अनेक भावों से भरी विविध चेष्टाओं से अपना आवेग प्रकट किया था उसे बताने में मैं असमर्थ हूँ। शोक या भय की प्रात्यन्तिक दशा शायद वर्णन करके कुछ समझा भी सकता हूँ, उस विपदावस्था का चित्र खींच सकता हूँ; बारम्बार लम्बी साँस लेना, आँसू बहाना, विलाप करना, हाथ-पैरों को पटकना यही मोटी मोटी दुःख-भय की परिभाषा है; किन्तु अत्यन्त हर्ष की परिभाषायें अनेक प्रकार की होती हैं, उसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन सहज में नहीं हो सकता। वे लोग अपना पुनर्जीवन मान कर मारे ख़ुशी के विदेह बन गये थे। किसी को अपने-पराये की सुध न थी, सभी आनन्द में उन्मत्त थे। कोई रोता था, कोई हँसता था, कोई नाचता था, कोई गाता था, कोई पागल की भाँति अंट संट बकता था, कोई जहाज़ में इधर से उधर दौड़ता था, कोई चित्रवत् खड़ा था, कोई चुपचाप मौन साधे बैठा था, कोई वमन करता था, कोई बेहोश पड़ा था और कोई कृतज्ञता-पूर्वक भगवान् को धन्यवाद दे रहा था।

मैंने इसके पहले उमङ्ग की ऐसी विचित्र अवस्था कभी न देखी थी। फ़्राइडे ने जब अपने पिता को देखा था तब उसके उस समय के आनन्दोच्छ्वास, और द्वीप में निर्वासित कप्तान तथा उसके दो संगियों को जब मैंने आश्वासन दिया था उस समय के उनके विस्मय और अनिर्वचनीय आनन्द का कुछ कुछ भाव इन लोगों के आनन्दोद्रेक से मिलता था।

इन आगन्तुकों के आनन्दोच्छ्वास के प्रकाश के जितने भाव मैं ऊपर दिखा आया हूँ वे एक एक व्यक्ति को एक ही प्रकार से होकर निवृत्त हो गये हों यह नहीं, बल्कि एक ही व्यक्ति पर्यायक्रम से सभी प्रकारों के उद्धत भाव और आवेग प्रकट कर रहा था। कुछ देर पहले जो चुपचाप मौन साधे थे वे कुछ ही देर बाद पागल की भाँति नाचने, गाने और ख़ूब ज़ोर से चिल्लाने लग जाते थे। तुरन्त ही उनका वह भाव बदल जाता था और वे रोने लग जाते थे। रोना समाप्त होते न होते वे कै करने लग जाते थे। कै करते ही करते उन्हें मूर्च्छा आ जोती थी। यह दशा सब की थी। यदि हम लोग झटपट उनका इलाज न करते तो उनकी मृत्यु होना भी असंभव न था। हमारे जहाज़ के डाक्टर ने ३०, ३२ व्यक्तियों की नस काट कर रक्त-निकाल दिया जिससे उन लोगों का आवेग शान्त हुआ।

उन लोगों में दो व्यक्ति पादरी थे। एक वृद्ध था और दूसरा युवा। किन्तु आश्चर्य का विषय यह था कि उस वृद्ध की अपेक्षा वह नव-युवक धर्म-विश्वास और इन्द्रिय-निग्रह में बढ़ कर था। वृद्ध ने हमारे जहाज़ पर आकर ज्यों ही देखा कि अब प्राण बच गये त्योंही वे धड़ाम से गिर कर एकदम मूर्च्छित हो गये। हमारे डाक्टर ने दवा देकर और रक्त-मोक्षण करके उन्हें सचेत किया। तब वे एक रमणी का इलाज करने गये। थोड़ी देर बाद एक आदमी ने डाक्टर से जाकर कहा कि वह वृद्ध पुरोहित पागल हो गये हैं। तब डाक्टर ने उनको नींद आने की दवा दी। कुछ देर बाद उन्हें अच्छी नींद आ गई। दूसरे दिन सबेरे जब वे जागे तब भले-चंगे देख पड़े।

युवा पुरोहित ने अपने आत्म-संयम और प्रशान्त चित्त का अच्छा परिचय दिया था। उन्होंने हमारे जहाज़ पर पैर रखते ही ईश्वर को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। मैंने समझा कि शायद उन्हें मूर्च्छा हो पाई है, इसीसे मैं झटपट उन्हें उठाने गया। तब वे सिर उठा कर धीर गम्भीर स्वर से बोले-"मुझे कुछ नहीं हुआ है, मैं परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा हूँ, इसके बाद आपको भी धन्यवाद दूँगा।" उनको ईश्वरोपासना के समय बाधा देकर मैं सन्तप्त हुआ। कुछ देर बाद वे उठ कर मेरे पास आये और आँसू भरे नयनों से उन्होंने मुझको धन्यवाद दिया। मैंने उनसे कहा-मैंने धन्यवाद पाने का कौन सा काम किया है। मैंने उसी कर्तव्य का पालन किया है जो मनुष्य के प्रति मनुष्य का है।

इसके बाद वह भद्र-पुरुष अपने साथियों को सान्त्वना देकर उनकी सेवा में नियुक्त हुए। क्रम क्रम से उन्होंने सब को शान्त और प्रकृतिस्थ किया।

इन लोगों के अभद्र भावों का प्रातिशय्य देख कर मैंने समझा कि जीवन के लिए संयम क्या वस्तु है। असंयत आनन्द लोगों को ऐसा अधीर और उन्मत्त बना डालता है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रु-असंयत होने पर लोगों से कौन सा अनर्थ नहीं करा सकते। मनुष्य-जीवन में संयम (आत्म-निग्रह) ही अमृत है, अमूल्य धन है और वही महत्त्व का परिचायक है।

पहले दिन हम लोग इन अतिथियों को लेकर बड़े ही गोलमाल में पड़े। दूसरे दिन जब वे लोग गाढ़ी नींद के आने के बाद उठे तब मालूम हुआ जैसे ये लोग वे नहीं हैं जो कल थे। सभी हम लोगों से सेवा और साहाय्य पाकर विनयपूर्वक सकृतज्ञ भाव से शिष्टता का परिचय देने लगे। उन के जहाज़ के कप्तान और पुरोहित दूसरे दिन मुझसे और मेरे भतीजे से भेंट करके कहने लगे-आपने हम लोगों के प्राण बचाये हैं, हम लोगों के पास इतनी जमा-जथा नहीं जो आपकी इस दया के बदले देकर कृतज्ञता प्रकट कर सके। हम लोग जल्दी में, जहाँ तक हो सका, कुछ रुपया और थोड़ा बहुत माल-असबाब आग के मुँह से बचाकर साथ लाये हैं। यदि आप आज्ञा दें तो हम लोग वे सब रुपये आपकी सेवा में समर्पण करें। हम लोगों की केवल यही प्रार्थना है कि आप कृपा कर के हम लोगों को ऐसी जगह उतार दें जहाँ से हम लोग देश लौट जाने का प्रबन्ध कर सकें।

मैंने अपने भतीजे को, उनसे रुपया ले लेने के लिए खूब उत्सुक देखा। उसका मतलब था कि पहले रुपया ले लें फिर उनकी कोई व्यवस्था कर देंगे। किन्तु उसके इस आशय को मैंने पसन्द न किया। क्योंकि पास में धन न रहने से अपरिचित देश में कितना क्लेश होता है, इसे मैं बखूबी जानता था। मैं इन विषयों का पूर्णरूप से भुक्त-भोगी था। यदि वे पोर्तुगीज़ कप्तान आफ़्रिका के उपकूल में मुझको बचा-कर मेरा सर्वस्व ले लेते तो मैं ब्रेज़िल में जाकर दासत्त्ववृत्ति के सिवा और क्या करता? एक मूर जाति के दासत्व से भाग कर दूसरे के दासत्व में नियुक्त होता।

मैंने कप्तान से कहा,-हम लोग मनुष्य हैं। मनुष्यता दिखलाना हम लोगों का धर्म और कर्तव्य है। इस ख़याल से ही हमने आप को इस जहाज़ पर आश्रय दिया है। यदि आपकी दशा में हम होते और हमारी सी अवस्था आपकी होती तो हम भी आपसे ऐसे ही सहायता चाहते। हमने रक्षा के विचार से ही आप लोगों को जहाज़ पर चढ़ा लिया है न कि लूटने के मतलब से। आप लोगों के पास जो कुछ बच रहा है वह लेकर आप लोगों को अज्ञात देश में और असहाय अवस्था में छोड़ देना क्या अत्यन्त निर्दयता और नीचता का परिचय देना नहीं है? तो क्या मारने ही के लिए आप लोगों की यह रक्षा हुई है? क्या डूबने से बचाकर भूखों मारने की व्यवस्था विधेय है? मैं आप लोगों की एक भी वस्तु किसी को लेने न दूँगा किन्तु आप लोगों को अनुकूल स्थान में उतारना ही एक कठिन समस्या है। हम लोग भारत की ओर जा रहे हैं। यद्यपि हम लोग निर्दिष्ट-मार्ग को छोड़ कर बड़े ही टेढ़े मेढ़े पथ से जा रहे हैं तथापि यह समझ कर सन्तोष होता है, कि आपही लोगों के उद्धारार्थ ईश्वर की प्रेरणा से हम लोग इधर आ पड़े। अब हम लोग इच्छा रहते भी गन्तव्य पथ को न छोड़ सकेंगे। किन्तु हम लोग इतना कर सकते हैं कि रास्ते में यदि कोई ऐसा जहाज़ मिल जायगा जो देश लौट कर जाता होगा तो उस पर आप लोगों को चढ़ा देंगे।

मेरे प्रस्ताव का प्रथम अंश, अर्थात् उन लोगों से हम कुछ न लेंगे, सुन कर उन्होंने अत्यन्त आह्लादित होकर हम लोगों को धन्यवाद दिया। किन्तु अन्य अंश सुन कर वे बहुत डरे। हम उन लोगों को भारत की ओर ले जायँगे, यह उन लोगों के लिए बड़ी विपत्ति-वार्ता थी। वे हम लोगों से अनुरोध करने लगे कि जब आप लोग इतना पश्चिम आही चुके हैं तो कुछ ही दूर और हट कर जाने से फ़ौन्डलेन्ड देश तक पहुँच जायँगे। वहाँ से हम लोग किसी तरह कनाडा, जहाँसे आये थे, जा सकेंगे।

मैंने इस प्रस्ताव को युक्ति-संगत समझ करके स्वीकार कर लिया। कारण यह कि इतने लोगों को सुदूरवर्ती पश्चिम देश में ले जाना केवल उन लोगों के प्रति अत्याचार ही न होगा बल्कि उनके साथ हम लोगों का सर्वनाश होना भी संभव है। इतने लोगों को प्राहार पहुँचाने ही में मेरा खाद्यभण्डार खाली हो जायगा।

हम लोगों ने रास्ते में कई यूरोपगामी जहाज़ देखे। उनमें दो फ़्रांस के थे। किन्तु उन लोगों को प्रतिकूल वायु के कारण रास्ते में बहुत देरी हो गई है। खाद्य-सामग्री घट जाने के भय से वे लोग और यात्रियों को अपने जहाज़ पर चढ़ा लेने को राजी न हुए। तब हमने लाचार होकर उन लोगों को न्यू फौन्डलेन्ड के किनारे उतार दिया। सभी लोग उतर गये। केवल वह युवा पुरोहित हम लोगों के साथ भारत जाने को रह गया और चार व्यक्ति नाविक का काम करने की इच्छा से हमारे जहाज़ पर नियुक्त हुए।

इसके बाद बीस दिन तक हम लोग अमेरिका के द्वीपपुञ्ज के सामने से जाने लगे। एक दिन फिर एक घटना के कारण परोपकार का सुयोग मिल गया। उस दिन मार्च की उन्नीसवीं तारीख़ थी। हम लोगों ने देखा कि एक जहाज के सभी मस्तूल टूटे हैं, उसके जहाजियों ने विपत्ति के संकेत-स्वरूप तोप की आवाज़ की। हम लोग उसके पास गये।

वह जहाज़ इँगलेन्ड के ब्रिस्टल शहर को जा रहा था। रास्ते में सख्त तूफ़ान आने के कारण उसकी ऐसी दुर्दशा हुई थी। जहाज़ इस प्रकार अकार्य-भाजन होकर नौ सप्ताह से समुद्र में इतस्ततः घूम रहा था। उन लोगों के पास खाद्य-सामग्री भी न थी। निराहार रहने के कारण वे मृतप्राय हो रहे थे। एक मात्र जीवन का अवलम्ब यही था कि पानी बिलकुल खर्च न हुआ था। प्राधा पीपा मैदा था और कुछ चीनी थी। उस जहाज़ पर एक युवक यात्री था। उसके साथ उसकी माता और दासी भी थी। उसके पास खाने को कुछ न था, खाद्य वस्तु बिलकुल निबट चुकी थी। नाविक गण स्वयं खाद्य के अभाव से कष्ट पा रहे थे इस लिए उन पर दया कर के कोई कुछ खाने को न देता था। इससे उन तीनों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो गई थी।

मैंने झट पट पहले उनके खाने की व्यवस्था कर दी। मैंने अपने भतीजे को एकदम दबा रक्खा था। वह मेरी आज्ञा के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकता था, यद्यपि जहाज़ का कप्तान वही था। यदि किसी स्थान में जहाज़ लगा कर खाद्य-सामग्री ख़रीदनी पड़ती तो वह भी मुझे स्वीकार था, पर भूखों को न खिला कर मैं अपना पेट कैसे भरता? हम लोगों के पास यथेष्ट खाद्य-वस्तु थी। मार्ग में कहीं कुछ मोल लेने का अवसर प्राप्त होने की संभावना न थी।

हमने उन लोगों को भोजन दिया। किन्तु वे लोग खाना पाकर भी बड़ी विपदा में पड़े। जो कुछ थोड़ा सा खाने को दिया वही, दीर्घ उपवास के बाद, उन लोगों के पेट में गुरुपाकी हो गया। यदि वे लोग अपनी अवस्था पर ध्यान न देकर अधिक खा बैठते तो बड़ी कठिनता होती। कितने ही लोग कङ्कालरूप हो गये थे, ठठरी मात्र बच रही थी। मैने सब को सावधान कर के थोड़ा थोड़ा खाने को कहा। कोई कोई तो दो एक कौर खाते ही वमन करने लगे। तब डाक्टर ने उन लोगों के भोजन में एक प्रकार की दवा मिला दी। इससे उन लोगों को कुछ आराम मिला। कोई खाने की वस्तु को बिना चबाये ही गट गट निगलने लगा। दो मनुष्यों ने इतना खाना खाया था कि अन्त में उनका पेट फटने पर हो गया।

इन लोगों का कष्ट और अवस्था देख कर मेरा हृदय दया से द्रवित हो उठा था। मैं अपने ऊपर की बीती बात सोचने लगा। जब मैं पहले पहल उस जन-शून्य द्वीप में जा पड़ा था तब मेरे पास एक मुट्ठी अन्न का भी कोई उपाय न था। यदि मुझे कुछ खाने को न मिलता तो मेरी भी ऐसी ही भयङ्कर और शोचनीय दशा होती।

जो लोग चलने में एक दम असमर्थ होगये थे उन लोगों के लिए उन्हीं के जहाज़ पर थाल भर पावरोटी और मांस भेज दिया। डाक्टर ने मांस पकाने की व्यवस्था करके रसोईघर में इसलिए पहरा बैठा दिया कि कोई कच्चा ही मांस न खा ले। मांस का शोरवा तैयार हो जाने पर हर एक को थोड़ा थोड़ा देने की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार सख्त ताकीद से डाक्टर साहब ने उनमें कई एक व्यक्तियों को मृत्यु के मुख से बचा लिया। नहीं तो चान्द्रायण व्रत के अनन्तर एकाएक अपरिमाण भोजन से विशूचिका का भयङ्कर आक्रमण हुए बिना न रहता।

उन उपेक्षित तथा अनाहत तीनों यात्रियों को मैं स्वयं उनके जहाज़ पर देखने गया था। जहाज़ के कितने ही क्षुधार्त व्यक्ति चूल्हे पर से कच्चा खाद्य लेने के लिए हल्ला मचा रहे थे। रसोईघर के पहरेदार उनको समझा बुझाकर रोकने में असमर्थ होकर बल से काम ले रहे थे। जबर्दस्ती हाथ पकड़ पकड़ कर उन्हें हटा रहे थे और बीच बीच में उन्हें थोड़ा सा बिस्कुट देकर शान्त भी किये जा रहे थे। नहीं तो वे लोग खाने के लिए प्राण तक देने को मुस्तैद थे। भूख ऐसी ही अदम्य राक्षसी है!

उनमें तीन मुसाफ़िरों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। उन लोगों के पास खाने की कुछ भो वस्तु न थी और न किसी से उन्हें कुछ सहायता ही मिली। छः सात दिन से वे लोग एकदम निराहार थे। इसके पूर्व भी कई दिनों से उन लोगों ने पेट भर कर न खाया था। माँ स्वयं न खा कर अपना अंश अपने बेटे को खिला दिया करती थी, इससे वह एकदम सेज में सट गई थी। यद्यपि वह अभी तक मरी नहीं है पर उसके मरने में अब कुछ देर नहीं है। मैंने चम्मच से थोड़ा सा झोल उसके मुँह में डाला। इस पर वह कुछ बोल तो न सकी पर इशारे से उसने जताया, कि मेरे मरने में अब विलम्ब नहीं है, यह सब चेष्टा वृथा होगी। उसने अपने बेटे को देखने की इच्छा प्रकट की। धन्य माता का हृदय! आप मृत्यु के मुख में पड़ी थी तो भी सन्तान की एकमात्र चिन्ता उसके मन में थी। उसी रात को उस स्त्री का देहान्त हो गया। अपनी स्नेहमयी माता के यत्न से युवक उतनी बुरी हालत में न था, उसकी दशा कुछ अच्छी थी फिर भी वह बिछौने पर बेहोश पड़ा था। उसके मुँह में चमड़े के दस्ताने का एक टुकड़ा था, उसीको वह धीरे धीरे चबा रहा था। कई चम्मच झोल पीने पर उसने आँखें खोलीं। माता की अपेक्षा उसकी चेष्टा कुछ अच्छी थी, इसीसे वह बच गया। फिर दो-तीन चम्मच शोरवा पिलाने से उसने तुरन्त कै कर डाली।

तब हम लोगों ने दासी की शुश्रूषा की ओर ध्यान दिया। वह अपनी स्वामिनी के पास पड़ी थी। मृगी का चक्कर आने पर जो हालत शरीर की होती है वही हालत उसके शरीर की थी। एक हाथ से वह कुरसी के पाये को ऐसे ज़ोर से पकड़े थी कि उसे हम लोग सहज ही छुड़ा नहीं सके। उसकी दशा देख कर हम लोगों ने समझा कि वह मृत्यु की यन्त्रणा से व्याकुल हो रही है, फिर भी उसके बचने का कुछ कुछ लक्षण दिखाई देता था। वह बेचारी भूख से तो कष्ट पा ही रही थी, इसके ऊपर मृत्यु के भय से और आँखों के सामने अपनी स्वामिनी को निराहार के कारण मरते देख कर उसके हृदय में शोक का भारी धक्का लगा था। डाक्टर की चिकित्सा से वह बच तो गई, पर उसका स्वभाव उन्मादिनी का सा हो गया।

स्थलयात्रा की तरह जलयात्रा नहीं होती कि काम पड़ने से एक जगह दस-बीस दिन ठहर गये और काम हो जाने पर फिर आगे बढ़ने लगे। हम लोग इन सबों की सहायता करते थे परन्तु एक जगह स्थिर होकर रहने का सुभीता न था। बिना मस्तूल के जहाज़ को साथ ले चलने के कारण हम लोग पाल नहीं तान सकते थे। इससे हम लोगों का जहाज़ भी ठिकाने के साथ न चल कर उसी टूटे जहाज़ के साथ लड़खड़ाता हुआ चला। इस अरसे में उन लोगों के जहाज़ के मस्तूलों को काम चलाने योग्य ठीकठाक करके और जितनी हो सकी उतनी खाद्य-वस्तु दे कर उन्हें बिदा कर दिया। केवल वह यात्री युवक और उसकी दासी दोनों अपनी चीज़-वस्तु लेकर हमारे जहाज़ पर चले आये।

युवक की उम्र सत्रह वर्ष से अधिक न थी। वह सुन्दर, शिष्ट, शान्त और बुद्धिमान् था। माता की मृत्यु से वह बेचारा एकदम सूख गया था। इसके कई महीने पूर्व उसके पिता का भी देहान्त हो गया था। वह अपने जहाज़ के लोगों पर बहुत ही रुष्ट था। वह कहा करता था कि उन लोगों ने मेरी माँ को भूखों मार डाला है। उन लोगों ने वास्तव में किया भी ऐसा ही था, पर उसके होश हवास में नहीं, उसकी निश्चेष्ट अवस्था में यह लीला हुई थी। वे लोग चाहते तो युवक की माँ को यत्किञ्चित् आहार दे कर उसके प्राणों को अब तक बचाये रह सकते थे। किन्तु लोगों के धर्म, ज्ञान और धैर्य को क्षुधा स्थिर रहने नहीं देती। लोगों का मन भूख से अत्यन्त चञ्चल और दुर्दमनीय हो उठता है। उस समय अपना पराया सब भूल जाता है; दया, धर्म, और नोति-अनोति का ज्ञान एकदम लुप्त हो जाता है।

डाक्टर ने युवक को बतला दिया कि हम लोग श्रमुक देश को जा रहे हैं और यह भी समझा दिया कि हम लोगों के साथ जाने से आप अपने बन्धु-बान्धवों से एक बारगी बहुत दूर जा पड़ेंगे । युवक ने कहा,- यह हमें मंजूर है, परन्तु हम उन राक्षसों के जहाज़ में जा कर अपना प्राण गवाँना नहीं चाहते । उन लोगों से पिण्ड छुटाने ही में हम अपना कल्याण समझते हैं।

हमने युवक और उसकी दासी को अपने जहाज़ पर चढ़ा लिया । युवक के साथ कई बोरे चीनी थी । हम लोग उस चीनी को अपने जहाज़ पर न ले सके । भग्न जहाज़ के कप्तान से चीनी की रसीद लेकर कह दिया कि यह माल ब्रिस्टल के रौज़र्स नामक सौदागर से रसीद ले कर उसके हवाले कर देना । किन्तु पीछे देश लौटने पर मालूम हुआ कि वह जहाज़ ब्रिस्टल में पहुंचा ही नहीं। अधिकतर सम्भावना उसके समुद्र में ही डूब जाने की थी।

दासी का चित्त कुछ स्वस्थ होने पर उसके साथ बात- चीत करते करते मैंने पूछा—"बेटी, क्या तुम हमको समझा सकती हो कि अनाहार से कैसे मृत्यु होती है ?" उसने कहा- "हाँ, मैं कोशिश करती हूं, शायद समझा सकूं। पहले कई दिन तक हम लोगों का बड़े कष्ट से भोजन चला । अल्प आहार से दिन दिन शरीर दुर्बल होने लगा। आख़िर हम लोगों के पास खाने को कुछ न रहा। केवल चीनी का शरबत पीकर हम लोग रहने लगीं। प्रथम उपवास के दिन सन्ध्या समय पेट बिल- कुल ख़ाली मालूम होने लगा । शरीर की सारी नसें सिकुड़ने लगीं, बार बार जम्हाई आने और आँखें झपने लगीं । मैं बिछौने पर जा कर लेट रही, लेटते ही नींद आ गई। तीन घंटे के बाद नींद टूटने पर कुछ आराम मालूम हुआ। फिर सोने की चेष्टा की, पर नींद न आई। पाँच बजे सबेरे तक जागती रही, तब बड़ी कमज़ोरी और क्लान्ति मालूम होने लगी। दूसरे दिन भी पहले तो बड़ी भूख लगी फिर उबकाई आने लगी। रात में सिर्फ थोड़ा सा पानी पीकर सो रही। नींद आने पर सपने में देखा कि मैं एक बाज़ार में गई हूँ। बाज़ार के दोनों ओर अनेक प्रकार के पकवानों की दूकानें लगी हैं। मैंने भाँति भाँति की खाने की चीज़ ख़रीद कर स्वामिनी को दी और मैंने भी पेट भर खाया। इसके बाद मेरा पेट खूब भरा हुआ सा मालूम होने लगा जैसे दूसरे के घर से भोज खाकर आई हूँ। जागने पर मैंने देखा कि मैं एकदम विह्वल हो गई हूँ। मैंने थोड़ा सा चीनी का शरबत बना कर पिया। रात में कितना ही भला-बुरा सपना देख कर जब सबेरे जाग उठी तब भूख से मेरे पेट में आग सी लग रही थी। राक्षसी क्षुधा ने मुझे बेहाल कर दिया था। मेरी गोद में यदि बच्चा होता तो उस समय उसे कच्चा ही खा डालती, ऐसी दुर्जय दुर्निवार क्षुधा व्याप रही थी। भूख के मारे मैं एकदम उन्मादिनी हो उठी। ऐसी उन्मादिनी कि गारद में रखने योग्य। मैं पागलपन करते करते, खाट के पाये पर गिर पड़ी जिससे नाक में बड़ी चोट लगी, नाक से खून गिरने लगा। कुछ लोहू बाहर निकल जाने से मुझे कुछ चैतन्य हो आया और फिर उबकाई आने लगी पर क़ै न हुई। होती क्या? जब कुछ पेट में रहे तब तो! कुछ देर के बाद मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। सभी ने समझा, मैं मर गई। मेरे पेट में एक अनिर्वचनीय यन्त्रणा होने लगी। अँतड़ियाँ ऐठने लगीं। भयानक भूख से प्राण आकुल-व्याकुल होने लगे। पुत्र-विच्छेद से स्नेहातुरा माँ जैसी विकल होती है वैसी ही विकल मैं भी हो गई थी। मैंने फिर ज़रा होश कर के चीनी का शरबत पिया। पर वह पचा नहीं, तुरन्त उल्टी हो गई। तब थोड़ा सा पानी पिया, वह पेट में ठहरा। इसके अनन्तर बिछौने पर लेट कर मैं एकाग्र मन से यो ईश्वर की प्रार्थना करने लगी-'हे ईश्वर, अब मुझे अपनी मृत्यु-तापहारिणी गोद में जगह दीजिए। इस प्रकार मुझे भूखो क्यों मार रहे हैं?' इस प्रकार प्रार्थना करने से चित्त को कुछ शान्ति मिली। मैं मृत्यु की दुराशा को हृदय मे रख कर सो गई। कुछ देर के बाद नींद टूट जाने पर सम्पूर्ण संसार शून्य सा दीखने लगा। मैं जीती हूँ या मर गई, इसका भी कुछ ज्ञान न रहा। मैं इस अवस्था को परमशान्तिमय मान कर अपने मन और आत्मा को ईश्वर के चरण-कमलों में समर्पित कर के मौन हो रही। मेरे मन में यह इच्छा होने लगी कि कोई मुझको समुद्र में फेंक कर सलिलसमाधि द्वारा मेरी जठराग्नि की ज्वाला को ठंडा कर दे।

"मेरी इस अवस्था तक मेरो स्वामिनी मेरे हो पास पड़ी थी और धीरे धीरे मृत्यु मुख की ओर अग्रसर हो रही थी। वह मेरी भाँति उतावली न हुई। वह शान्त भाव से प्रात्मत्याग कर के मृत्यु से मिलने के लिए हाथ पसार रही थी। वह अपने मुँह की रोटी अपने बेटे को खि ना कर आप निश्चिन्त थी।

"प्रातःकाल ज़रा मेरी आँखें लगीं। जागने पर मैं आपही आप न मालूम क्यों रोने लगी। मैं अपने रोदन को किसी प्रकार रोक़ नहीं सकती थी। उसके साथ साथ भूख की ज्वाला भी नहीं सही जाती थी। मैं हिंस्र पशु की भाँति लोलुपदृष्टि से चारों ओर ढूँढ़ने लगी। यदि मेरी स्वामिनी उस समय मर गई होती तो मैं उनका मांस नोच कर खाये बिना न रहती। उन पर मेरा असीम अनुराग था, इसीसे मैं रुक रही, नहीं तो उन्हें जीवित अवस्था ही में नोच खाती। दो-एक बार मैंने अपने ही सूखे हाथ का मांस दाँत से नोच कर खाने की चेष्टा की। उसी समय मेरी दृष्टि एकाएक उस लोहू पर जा पड़ी जो कल मेरी नाक से गिर कर जम गया था। मैं उसी घड़ी बड़ी आतुरता के साथ उसे मुँह में डाल कर जल्दी जल्दी निगलने लगी। मुझे इस बात का भय होने लगा कि शायद कोई देख ले तो कहीं छीन कर न ले जाय। उसके खाने से क्षुधा किञ्चित् शान्त हुई। थोड़ा सा पानी पीकर मैं कुछ देर के लिए स्थिर होगई। क्रमशः निराहार अवस्था में तीन दिन बीत गये, चौथा दिन आया, तब भी कुछ खाने को न मिला। रात में फिर वैसी ही भूख लगी; पेट में ज्वाला, वमन, तन्द्रा, हृत्कम्प, उन्माद और बेहोशी मालूम होने लगी। मैं बहुत देर तक रोई। फिर यह सोच कर, कि अब मरने ही में कुशल है, ज्यों त्यों कर पड़ रही।

"सारी रात बेचैनी में कटी। एक बार भी नींद न आई। क्षुधा के मारे पाकस्थली में बड़ी कठिन यन्त्रणा होने लगी। सबेरे मेरे नवयुवक सर्कार ने खूब ज़ोर से मुझे पुकार कर कहा-'सुसान, सुसान! देखो, देखो, मेरी माँ मर रही है।" मैंने ज़रा सिर उठा कर देखा, वह तब तक मरी न थी, पर उसके जीने का भी कोई लक्षण न था।

"मैं उदर की यन्त्रणा से न उठ सकी। इसी समय सब लोग चिल्ला उठे-'जहाज़ जहाज़!' तब सभी लोग मारे खुशी के शोर-गुल मचाते हुए उछलने-कूदने लगे। मैं पड़ी पड़ी सब सुनने लगी। इसके बाद आप हमारे उद्धार के लिए आ गये।"

मैंने भूख से मर जाने का ऐसा वर्णन आज तक न सुना था और न ऐसा भयङ्कर दृश्य ही इसके पूर्व कभी देखा था। उस युवक ने भी ऐसे ही अपने ऊपर बीती कितनी ही बाते कहीं, किन्तु उसे थोड़ा थोड़ा आहार मिलता गया था, इससे उसका वर्णन वैसा लोमहर्षण न हुआ जैसा उस दासी का था।

द्वीप में पुनरागमन

हम लोग रास्ते में तूफ़ान और बादल के साथ लड़ते-झगड़ते १६९५ ईसवी की १० एप्रिल को अपने पुराने आवासद्वीप के निकट पहुँचे। ढूँढ़ने पर बड़ी कठिनता से अपने पूर्वपरिचित मित्रों से भेट हुई। द्वीप के दक्खिन ओर अपने घर के पास ही, खाड़ी के सामने, हमने जहाज़ का लंगर डाला।

मैंने फ़्राइडे से पुकार कर कहा-"तुम बतला सकते हो कि वह कौन सी जगह है?" वह उस ओर देखते ही ताली बजा कर नाच उठा, "हाँ हाँ, यह वही जगह है" यह कह कर वह पागल की भाँति हाथ-मुँह मटकाने लगा। वह जहाज़ से कूद कर, समुद्र तैर कर ही, किनारे जाने को प्रस्तुत हुआ। किन्तु हमने उसे रोक रक्खा।

मैंने फ़्राइडे से पूछा-"अच्छा बतलाओ तो, तुम क्या सोचते हो। यहाँ हम लोग किसीको देख पावेंगे या नहीं? क्या तुम्हारे बाप से भेंट होगी?" वह कुछ देर चित्रवत् चुपचाप खड़ा रहा । इसके बाद उसकी आँँखों से झर झर आँँसू गिरने लगे ।

मैंने पूछा-फ्राइडे, क्या तुम बाप के साथ भेंट होने की बात सुन कर रोने लगे ?

फ्रा़इडे रुद्ध-कराठ से बोला —नहीं नहीं, अब बाप से मेरी भेंट न होगी ।

मैं—यह तुमने कैसे जाना ?

फ्रा़इडे—बह बूढ़ा आदमी कभी का मर गया होगा।

मैं-"पागल कहीं का, मनुष्य के जीवन-मरण का कोई निश्चय नहीं कि कौन कब तक जियेगा और कौन कब मरेगा। मान लो तुम्हारे बाप से यहाँ भेट न हो तो न सही पर किसी से तो भेट होगी ।" फ्रा़इडे ने मेरे किले के पास के पहाड़ की ओर दिखा कर कहा –"हाँ, हाँ, वह देखो, लोगों का झुंड है । वे खड़े होकर हम लोगों की ओर देख रहे हैं।" पर मैंने किसी को नहीं देखा । फिर भी उसीकी बात पर विश्वास करके मैंने हुक्म दिया कि झण्डी उड़ा कर तीन बार तोप की आवाज़ की जाय ! आध घंटे के बाद मैंने खाड़ी के पास धुवाँ उठते देखा। तब यहाँ की बस्ती के सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं रहा । मैंने उसी समय एक नाव जहाज़ से पानी में उतारने को कहा। सोलह हथियारबन्द नाविक, फ्रांसवासी पुरोहित और फ्रा़इडे को साथ ले मैं नाव पर सवार हुआ । हम लोग शत्रु नहीं, बन्धु हैं,- यह जताने के लिए एक सादी पताका उड़ाते चले ।

हम लोग ज्वार के समय में रवाना हुए थे । इससे नाव एकदम खाड़ी के भीतर पहुँच गई । मेरी दृष्टि सब के पहले उस स्पेनियर्ड के ऊपर पड़ी जिसको मैंने आसन्नमृत्यु से बचाया था। उसको देखते ही मैंने पहचान लिया। मैंने कहा-"नाव से किसी के उतरने की ज़रूरत नहीं, मैं अकेला ही पहले जाऊँगा।" किन्तु फ़्राइडे को रोक रखने की सामर्थ्य किस की थी। वह दूर ही से अपने बाप को देख कर व्यग्र हो उठा था। हम लोग उतनी दूर से कुछ भी न देख सके थे। यदि उसे मैं नाव से उतरने न देता तो वह पानी में ही कूद पड़ता। वह सूखे में पैर रखते ही तीर की तरह सन्न से अपने बाप के पास दौड़ गया। पिता को देख कर पहली बार उसके मन में जो आनन्द का उद्रेक होता था, वह देख कर आँसू रोक सके, ऐसा कठिन मनुष्य संसार में बिरला ही होगा। उसने बड़े ही विनीत-भाव से पिता को प्रणाम किया और बार बार उनके पैरों को चूमा। उसने बड़ी देर तक अपने पिता के मुँह की ओर स्थिर-दृष्टि से देखा। लोग जैसे बारीक नज़र से सुन्दर से सुन्दर चित्र को देखते हैं वैसे ही वह बड़ी स्नेह-दृष्टि से बार बार अपने पिता को देखने लगा मानो उसे अपने पिता को बारंबार देख कर भी तृप्ति न होती थी। इसके बाद उसने फिर पिता के पैर चूमे और उन्हें गले से लगाया। मारे उमङ्ग के वह कभी तो अपने पिता का हाथ पकड़ कर समुद्र के किनारे किनारे घूमता था और जिन नये देशों को देख आया है उन देशों के कितने ही वृत्तान्त सुनाता था; और कभी दौड़ कर नाव से विविध खाद्य लाकर इन्हें खिलाता था। यदि ऐसी अपूर्व सुन्दर पितृभक्ति सभी को होती तो यह संसार वर्ग के सदृश पवित्र और अतिरम्य हो जाता।

मैं नाव से उतर कर स्पेनियर्ड के पास गया। वह पहले मुझे पहचान न सका। कारण यह कि स्वप्न में भी उसका यह खयाल न था कि मैं फिर यहाँ आऊँगा। मैंने उससे कहा-"महाशय, आपने मुझको पहचाना नहीं?" मेरा कण्ठस्वर पहचान कर वह कुछ न बोला। वह अपने हाथ की बन्दूक दूसरे को देकर बाँह पसार कर दौड़ा और स्पेनिश-भाषा में न मालूम क्या कहता हुआ मेरे गले से लिपट गया। फिर उसने कहा-"मैंने आपको पहले न पहचान कर बड़ा अपराध किया है। आप मेरे प्राणदाता मित्र हैं।" इस प्रकार प्रीतिपगी बातें कह कर उसने मुझसे पूछा-"आप एक बार अपने पुराने घर चलेंगे या नहीं?" मैं उसके साथ वहाँ गया। उसने किले के रास्ते में ऐसे घने पेड़ों को लगा कर पथ संकीर्ण कर दिया है कि किले के भीतर अपरिचित लोगों के जाने की संभावना न थी।

स्पेनियर्ड ने स्वस्थ होकर मेरे अनुपस्थितकाल के दस वर्ष का इतिहास मुझसे कह सुनाया। वह संक्षेप से मैं यहाँ लिखता हूँ-

स्पेनियर्ड कहने लगा-"जब मैंने आकर देखा कि आप चले गये तब मुझे बड़ा ही दुःख हुआ! किन्तु जब मैंने सुना कि आप का उद्धार यहाँ से बड़ी आसानी से होगया है तब मुझे हर्ष भी हुआ। किन्तु आप जिन तीन बदमाशों को यहाँ छोड़ गये हैं वे बड़े ही नृशंस हैं। उन्होंने हम लोगों को मार डालने की चेष्टा की थी। तब हम लोगों ने लाचार हो कर उनसे हथियार ले लिये और उन्हें अपने अधीन कर लिया है। इससे संभव है कि आप हम लोगों पर कुछ अप्रसन्न हो।" मैंने कहा-नहीं नहीं, मैं न समझता था कि वे लोग ऐसे छटे बदमाश हैं। यदि मेरे रहते आप वहाँ से लौट आते तो भी मैं उन लोगों को आप के अधीन करके ही जाता। आपने जो उन लोगों पर प्रभुत्व स्थापित किया है इससे मैं प्रसन्न हूँ।

मैं उससे इस प्रकार कही रहा था कि और ग्यारह स्पेनियर्ड वहाँ आ गये। किन्तु उनकी तत्कालीन पोशाक देख कर उनकी जाति का निर्णय करना कठिन था। स्पेनियर्ड कप्तान ने मुझ से उनका और उनसे मेरा परिचय कराया। तब वे लोग बड़े विनीत-भाव से एक एक कर मेरे पास आये और भक्ति-पूर्वक मेरा अभिवादन किया। मानो मैं ही उस द्वीप का सम्राट् था, और वे लोग अन्यदेशीय दूत थे। मैं उन लोगों को शिष्ट व्यवहार देख कर मुग्ध हुआ।

क्रूसो के अनुपस्थित-समय का इतिहास

मैंने उन स्पेनियर्ड लोगों से उनका वृत्तान्त पूछा। स्पेनियर्ड-कप्तान मेरे अनुपस्थित-समय का इतिहास कहने लगा। वह मेरे पास से बिदा हो कर अपने साथियों के पास गया था। उसे देख उसके साथी अत्यन्त विस्मित और आनन्दित हुए। जब उन लोगों ने कप्तान के मुँह से अपने उद्धार की बात सुनी तब उन्हें यह शुभ-संवाद सपने की सम्पत्ति की भाँति अत्यन्त सुखद प्रतीत होने लगा। परन्तु कप्तान के पास अस्त्र-शस्त्र देख कर उन्हें विश्वास हुआ। वे यात्रा की तैयारी करने लगे। यात्रा के लिए सबसे प्रथम आवश्यक नाव थी। उन लोगों ने अपने आश्रय-दाता असभ्यों से मछली मारने को जाने का बहाना कर के दो डोंगियाँ माँग लीं। उन्हीं पर सवार हो कर वे लोग यहाँ चले आये।

इन लोगों के साथ वे तीनो अँगरेज़ नाविक पहले अच्छा सलूक करते थे। स्पेनियर्ड लोग ढूँढ़ ढूँढ़ कर खाद्य सामग्री लाते थे और वे लोग बाबू साहब की भाँति बड़े चैन से खाते और द्वीप में इधर उधर घूम फिर कर सैर करते थे। फिर उन्होंने क्रम क्रम से इन लोगों पर अत्याचार करना आरम्भ किया। कभी इन लोगों का खेत काट कर पशुओं को खिला देते थे, कभी पालतू बकरों को मार डालते थे और कभी गोली भर कर मारने का भय दिखलाते थे। कभी घर में आग लगाने की धमकी देते थे। एक दिन एक स्पेनियर्ड ने उनके इस नीच व्यवहार का प्रतिवाद किया। क्रमशः बात ही बात में झगड़ा बढ़ चला। तब उन्होंने स्पेनियों को पराजित करने का संकल्प किया। इसलिए स्पेनियों ने उनसे हथियार छीन लिये। निरस्त्र होने पर वे दुष्ट क्रोध से एकदम पागल हो उठे और स्पेनियर्डों से सम्पर्क त्याग कर चले गये।

पाँच दिन के बाद तीनों आदमी घूमते-फिरते थके-माँदे भूख से व्याकुल होकर लौट आये और बड़े विनीत भाव से उन लोगों से आश्रय की प्रार्थना की। स्पेनियर्डों ने बड़ी शिष्टता से उन्हें खाने-पीने को दिया और बड़ी मुलायमियत से समझा दिया कि इस सुदूरवर्ती द्वीप में हम लोग इने गिने कई मनुष्य हैं। यदि इन कई व्यक्तियों में परस्पर मेल न रहा, सद्भाव न रहा तो यह बड़ी लज्जा का विषय है। इस प्रकार की शिक्षा और मीठे तिरस्कार से उन लोगों ने अपनी भूल स्वीकार की और अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की। फिर वे इस शर्त पर रख लिये गये कि जिन कामों को वे बिगाड़ गये हैं उनका फिर से सुधार करें। वे लोग इस शर्त पर राज़ी होकर बड़ी योग्यता से काम करने लगे। उनके अच्छे आचरण से सन्तुष्ट होकर स्पेनियर्डों ने उन्हें फिर अस्त्र दे दिये।

हाथ में अस्त्र आते ही उन अकृतज्ञों ने फिर रङ्ग बदला। एक दिन स्पेनियर्डों के सरदार रात में बिछौने पर पड़े हुए अपने ऊपर बीती बातें सोच रहे थे। बहुत चेष्टा करने पर भी जब उन्हें नींद न आई तब वे बिछौने पर लेटे न रह सके। उठ कर ज्योंही किले के बाहर आये त्योंही उन्होंने कुछ दूर पर आग जलती देखी और साथ ही मनुष्यों के बोलने की ध्वनि भी सुनी। वह भी दो चार की नहीं, बहुतों की। उन्होंने झट लौट कर साथियों को जगाया और सब बातें कहीं। यह समाचार सुन कर सभी डर गये। सभी ने बाहर आकर देखा कि बहुत से असभ्य तीन जगह आग जलाये अपनी अपनी गोष्ठी बाँधे बैठे हैं, उनमें कोई कोई घूम भी रहे हैं।

अपने रहने के स्थान को मैं जिस तरह छिपा रखने का यत्न करता था, वैसा ये लोग न करते थे। इससे इन लोगों को यह सोच कर डर लगा कि असभ्य गण मनुष्य की बस्ती का चिह्न देख कर फ़सल और पशुओं को नष्ट कर के कहीं सर्वस्वान्त न कर डालें। उन लोगों ने बहुत सोच-विचार करके फ़्राइडे के पिता को जासूस बना कर खोज-ख़बर लेने के लिए भेजा। फ़्राइडे का बाप एकदम नग्न होकर उन लोगों के दल में जा मिला और दो घंटे के बाद ख़बर लाया कि वे दो जातियों के दो दल हैं। देश में उन लोगों की परस्पर ख़ूब लड़ाई हुई है। बन्दियों को मार कर खाने के लिए दोनों दल इस द्वीप में आये हैं। दैवयेाग से दोनों दल एक ही जगह आ गये हैं इससे दोनों दलों के भोज का आनन्द नष्ट हो गया है। संभव है, सुबह होने पर फिर दोनों दल परस्पर युद्ध करें। किन्तु अभी तक उन लोगों को मनुष्य की बस्ती का कुछ पता नहीं लगा। फ़्राइडे के पिता की बात खतम होते न होते देखा कि वे असभ्य लोग बिकट चीत्कार कर के युद्ध-ताण्डव में मत्त हो उठे।

उन का युद्ध देखने के लिए सभी व्यग्र हो उठे। फ़्राइडे का पिता सबको समझाने लगा कि "उन लोगों से छिप कर रहने ही में भला है। जाहिर होने में शायद कोई संकट आ पड़े। वे लोग आपस में लड़ झगड़ कर कट मरेंगे। जो बचेंगे वे अपने देश को लौट जायँगे।" पर कौन किसकी सुनता है? विशेष कर अँगरेज़ों को रोक रखना कठिन हुआ। तमाशा देखने की लालसा ने उन लोगों की हित-बुद्धि को मन्द कर डाला। वे लोग छिप कर जंगल के भीतर से युद्ध देखने गये।

सुबह होते होते खूब भयङ्कर युद्ध हुआ। दो घंटे पीछे एक दल युद्ध में हार कर भागने लगा। तब हम लोगों के पक्षवालों को भय होने लगा। भय का कारण यह था कि उन भागने वालों में से यदि कोई मेरे घर के सामने की उपवाटिका में आ छिपेगा तो सहज ही हम लोगों के घर का पता लग जायगा। इसके बाद उसके पीछा करने वालों से भी पता छिपा न रहेगा। इसलिए जितने स्पेनियर्ड थे सभी ने सशस्त्र होकर रहने का विचार किया और यह भी सोचा कि जो इस तरफ़ छिपने आवेंगे उन्हें फ़ौरन मार डालेंगे, जिसमें कोई अपने देश तक ख़बर न पहुँचा सके। परन्तु यह कार्य बन्दूक़ से न किया जाय क्योंकि उसका शब्द और लोग सुन लेंगे। यह काम बन्दूक के कुन्दे और तलवार से लेना ही ठीक होगा।

जिस बात की आशङ्का थी वही हुई। तीन पराजित असभ्य भाग कर उपवाटिका में आ छिपे। पर उन लोगों को खोजने कोई न आया। यह देख कर स्पेनियर्ड कप्तान ने कहा-"इन्हें मत मारो। ये लोग मरने ही के भय से तो यहाँ भाग कर आ छिपे हैं। गुप्त रीति से तुम लोग इन पर आक्रमण करो और इन्हें गिरफ्तार करके ले आओ।" दयालु कप्तान की आज्ञा के अनुसार ही काम हुआ। अवशिष्ट पराजित असभ्य अपनी डोंगी पर सवार हो कर समुद्र पार चले गये। विजयी दल भी विजय के उल्लास से दो बार खूब ज़ोर से गरजा और दिन को पिछले पहर चला गया। इसके बाद इस द्वीप में स्पेनियर्ड लोगों का ही एकाधिपत्य हुआ। असभ्य लोग कई वर्ष तक इस द्वीप में फिर न आये।

उन असभ्यों के चले जाने पर स्पेनियर्ड लोग किले से निकल कर रणभूमि देखने गये। देखा, बत्तीस आदमी युद्धक्षेत्र में मरे पड़े हैं। उनमें एक भी व्यक्ति घायल न था। घायलों को वे लोग अपने साथ उठा ले गये थे।

यह मामला देख-सुन कर वे अँगरेज़ कई दिनों तक कुछ शान्तभाव धारण किये रहे। मनुष्य को मनुष्य खालेता है, इस अद्भुत व्यापार ने उनके मन में भय उत्पन्न कर दिया था। पर कुछ ही दिनों में उनका क्रूरस्वभाव फिर प्रबल हो उठा।

वे इन तीनों बन्दियों से नौकर का काम लेने लगे। किन्तु मैंने जिस तरह फ़्राइडे को शिक्षा देकर एकदम अपना अङ्ग बना लिया था वैसा वे लोग न कर सके। धर्म-शिक्षा तो दूर की बात है, साधारण शिक्षा भी उन्होंने उन असभ्यों को न दी। इससे वे मजबूर होकर काम करते थे, पर मन से नहीं करते थे। इस कारण, सेव्य-सेवकों में प्रीति और विश्वास का नितान्त अभाव था।

एक दिन सभी मिल कर खेती का काम कर रहे थे। एक अँगरेज़ ने असभ्य जाति के एक नौकर से कोई काम करने को कहा। वह उस काम को वैसा न कर सका जैसा उसे करने को उस अँगरेज़ ने बताया था। इससे क्रुद्ध हो कर उस बदमिज़ाज अँगरेज़ ने कमरबन्द से खंजर निकाल कर उस बेचारे दास के कन्धे पर एक हाथ जमा दिया। यह देख कर एक स्पेनियर्ड ने झट जा कर उस अँगरेज़ का हाथ पकड़ लिया। इससे वह एकदम क्रोधान्ध हो कर स्पेनियर्ड का ही खून करने पर उद्यत हो गया। इस पर सभी स्पेनियर्ड बिगड़ गये और इसी कारण अँगरेज़ों तथा स्पेनियों में एक छोटी सी लड़ाई हो गई। स्पेनियर्ड दल में अधिक लोग थे इससे अत्याचारी अँगरेज़ शीघ्र ही पराजित हो कर बन्दी हुए। तब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि इन दुर्दान्त पशुबुद्धियों को कौन सी सज़ा दी जाय। ये लोग जैसे उग्र, उद्दण्ड, आलसी और अपकारक हैं इससे इन लोगों को ले कर गृहस्थी का काम करना कठिन है। इन्होंने बार बार जैसा अत्याचार और विद्रोह किया है और कर रहे हैं इससे इनके साथ रहने में प्राणों को हथेली पर रख कर रहना होगा।

स्पेनियर्ड मुखिया ने कहा-यदि ये हमारे स्वदेशो होते तो इन लोगों को फाँसी दे कर कमी के इस झंझट को किनारे कर देते। जो लोग समाज-द्रोही हैं उनके दूर होने ही में समाज का मङ्गल है। किन्तु ये लोग अँगरेज़ हैं। इधर एक अँगरेज़ की ही दया से हम लोगों के प्राण बचे हैं और वही इन लोगों को यहाँ रख गये हैं। अब इन्हें मार कर हम लोग उनको क्या जवाब देगे? इसलिए इन लोगों काविचार नितान्त दयालुभाव से करना होगा।

बहुत तर्क-वितर्क के बाद यह तय हुआ कि इन लोगों के हथियार ज़ब्त करके इन्हें अपने दल से निकाल देना चाहिए। अब इन्हें बन्दूक़, गोली-बारूद, तलवार या दूसरा कोई हथियार न देना चाहिए। इन लोगों की जहाँ इच्छा हो वहाँ जा कर रहें। हम लोगों में कोई इनसे वार्तालाप न करे। वे लोग अपनी एक निर्दिष्ट सीमा का अतिक्रम करके स्पेनियर्डों की सीमा के भीतर पैर न रक्खें। इस प्रकार परित्यक्त होने पर भी यदि वे किसी का कुछ अपकार या नुकसान करेंगे तो उनको मृत्यु निश्चित है, तब उनकी एक भी उन न सुनी जायगी।

स्पेनियर्डों के मुखिया बड़े ही दयालु थे। उन्होंने कहा, एक बात और सोच लेनी चाहिए। ये लोग हमारे समाज से निकाले जाने पर क्या खायँगे? अनाज उपजाने में भी समय लगेगा। इन लोगों को भूखों मार डालना उचित नहीं। इन लोगों के लिए खाने-पीने को कुछ व्यवस्था कर के तब समाज से अलग कर देना ठीक होगा। इन्हें आठ महीने का खाद्य और बीज के उपयुक्त अनाज, छः बकरियाँ, चार बकरे तथा खेती करने का सामान्य उपकरण देकर बिदा कर दो।" यही हुआ। उन लोगों से इस बात का मुचलका ले लिया गया कि अब वे भविष्य में किसी साधारण से भी साधारण व्यक्ति का कुछ अपकार न करेंगे। इसके बाद सर्दार की प्राज्ञा के अनुसार उन्हें जीवन-यात्रा के लिए वे सब वस्तुएँ दे दी गईं। इन वस्तुओं को लेकर वे लोग बहुत उलझन में पड़े। न उनसे जाते ही बनता था और न ठहरते ही। आखिर वे लोग क्या करते। लाचार हो कर वहाँ से बिदा हुए और अपने रहने को जगह ढूँढ़ने लगे।

उन्होंने टापू के दूसरी ओर एक सुभीते की जगह ढूँढ़ ली। तीनों अँगरेज़ वहाँ घर बनाकर एक साथ रहने लगे। मारने लायक़ हथियार के सिवा उन लोगों को और किसी वस्तु की कमी न रही। इस प्रकार स्वतन्त्रता-पूर्वक उन्होंने छः मास बिताये। जब उन लोगों की गृहस्थी का कारबार जम गया तब फिर उनको शैतानी करने की सूझी। उन लोगों को जीवन-निर्वाह का यह श्रमसाध्य ढंग अच्छा नहीं लगा। उन्होंने सोचा कि असभ्य देश में जाकर दो-चार असभ्यों को पकड़ लावें और उनसे नौकर का काम लें। इस विचार को चरितार्थ करने के लिए वे लोग व्यग्र हो उठे। एक दिन उन्होंने स्पेनियों की निर्दिष्ट सीमा के पास आकर स्पनियों को एक बात सुनने के लिए पुकारा। स्पेनियर्ड जब सुनने गये तब उन्होंने अपना मतलब कह सुनाया और स्पेनियों से एक डोंगी तथा आत्मरक्षा के लिए एक बन्दूक़ उधार माँगी।

स्पेनियर्ड तो चाहते ही थे कि किसी तरह इन दुष्टों की संगति से छुट्टी मिले-"बरु भल वास नरक कर ताता, दुष्ट संग जनि देहिं विधाता।" इसलिए अँगरेज़ों के इस प्रस्ताव को उन लोगों ने सहर्ष माना। तथापि उन लोगों ने शिष्टता को जगह देकर अँगरेज़ों को बहुत तरह से समझाया कि तुम्हारा यह संकल्प बहुत ही विपद्-मूलक है। वे उस देश में जाकर या तो भूखों मरेंगे या वहाँ के निवासी नर-पिशाचों के मुँह के आहार होकर प्राण गवाँवेंगे। किन्तु वे लोग अपने संकल्प पर दृढ़ थे। उन्होंने कहा कि हम लोग यहाँ भी भूखों ही मरेंगे। कारण यह कि हम लोग परिश्रम करके अपनी जीविका नहीं चला सकते। बिना श्रम के रोटी पैदा करना कठिन है। इसलिए जब मरना ही होगा तब एक बार साहस करके विदेश को देख-सुन कर ही मरेंगे। यदि विदेशीय असभ्य हम लोगों को मार डालेगे तो सब बखेड़ा तय हो जायगा। हम लोगों के न स्त्री है न बाल-बच्च, जो शोकाकुल होकर रोयें-कलपेंगे। आप लोग अस्त्र दें या न दें, हम लोग ज़रूर जायँगे।

तब स्पेनियर्डों ने उन लोगों को अपनी सामान्य पूँजी में से दो बन्दूक़ें, एक पिस्तौल, एक तलवार और थोड़ी सी गोली-बारूद दी। उन लोगों ने एक महीने के लायक भोजन साथ रख लिया। थोड़ा सा मांस, एक जीवित बकरा, एक टोकरी सूखे अंगूर और एक घड़े भर जल लेकर समुद्र-यात्रा की। समुद्र का दूसरा तट कम से कम चालीस मील पर होगा। स्पेनियर्डों ने उन को बिदा करके एक तरह से अपनी बला को टाल दिया। उन अँगरेज़ों से दुबारा भेंट होने की आशा किसी को न थी। उनके जाने से सभी निश्चिन्त हुए।

उन लोगों के चले जाने पर स्पेनियर्ड-लोग आपस में कहने लगे,-"उन पाखण्डियों के चले जाने से हम लोगों का समय अब बड़े आराम और आनन्द से कटेगा। आफ़त टली।" किन्तु वास्तव में उन लोगों की आफ़त टली न थी। बाईस दिन के बाद एक व्यक्ति ने देखा कि तीन आदमी टापू में आये हैं। उनके कन्धे पर बन्दूक़ें हैं। वह गिरता पड़ता हाँफता हुआ सर्दार के पास दौड़ कर आया और उनसे कहा कि टापू में कोई बड़ा आदमी आया है। सर्दार ने कहा-"असभ्य लोग आये होंगे।" उसने कहा-"नहीं नहीं, असभ्य नहीं हैं। पोशाक पहने हैं, कन्धे पर बन्दूक रक्खे हैं।" सर्दार ने कहा-तो फिर डरने की क्या बात है? यदि वे लोग असभ्य नहीं हैं तो वे हमारे मित्र ही होंगे, क्योंकि किसी सभ्य जाति से हम लोगों का मङ्गल के सिवा अमङ्गल होने की आशङ्का नहीं है।

इस तरह बातचीत हो ही रही थी कि इतने में उन तीनों अँगरेज़ों ने किले के समीपवर्ती उपवन से निकल कर स्पेनियर्डों को पुकारा। वे अपने परिचित अँगरेज़ों का कण्ठस्वर पहचान कर भेद समझ गये। परन्तु वे अँगरेज़ कहाँ से, और किस उद्देश्य से, लौट आये हैं इसका असली तत्त्व समझने की चिन्ता भी तो कुछ कम न थी।

स्पेनियर्डों ने उन्हें किले के भीतर बुला कर उनसे वृत्तान्त पूछा। अँगरेज़ों ने यों कहना प्रारम्भ किया-

"हम लोग दो दिन में समुद्र के उस पार गये, किन्तु वहाँ के निवासी हम लोगों के आगमन से डर कर तीर-धनुष सँभाल कर के हमारी अभ्यर्थना करने लगे। हम लोग सशस्त्र अभ्यर्थना को पसन्द न करके वहाँ उतरने का साहस न कर सके। छः सात घंटे किनारे किनारे नाव ले जाकर हम लोगों ने और भी कई टापू देखे। एक जगह हम लोग अपने भाग्य के भरोसे उतर पड़े। वहाँ के रहनेवालों ने हम लोगों को भ्रातृ-भाव से ग्रहण किया और फल-मूल तथा सूखी मछलियाँ खाने के लिए देकर आतिथ्य-सत्कार किया। क्या स्त्री क्या पुरुष, सभी हम लोगों के अभाव-मोचन के लिए उत्साह-पूर्वक दूर दूर से अपने सिर पर आवश्यक वस्तुएँ ढो ढो कर लाने लगे। हम लोग यहाँ चार दिन रहे और इशारे से उनसे आसपास के द्वीप-निवासियों के शील-स्वभाव का हाल पूछने लगे। असभ्यों ने संकेत द्वारा कहा-'सभी टापुओं के मनुष्य नर-मांस खाते हैं, केवल हम लोग ऐसे हैं जो सब मनुष्यों का मांस नहीं खाते। किन्तु हम लोग भी युद्ध में गिरफ़्तार हुए नर-नारियों को मार कर विजय के उपलक्ष में भोज ज़रूर करते हैं। अभी हाल ही में हम लोगों ने ऐसा ही नर-मेध किया है। हम लोगों के महाराज ने दो सौ दुश्मनों को बन्द कर रक्खा है। अभी वे खूब खिला-पिला कर पुष्ट किये जा रहे हैं। इसके बाद एक दिन बहुत बड़ा भोज होगा।' उन सब बन्दियों को देखने के लिए हम लोग अधिक उत्कण्ठित हुए। उन बन्दियों के देखने का बड़ा कुतूहल हुआ। किन्तु उन असभ्यों ने इस कुतूहल को नर-मांस-लोलुपता समझ कर इशारे से कहा-'इसके लिए इतनी आतुरता क्या? कल तुम लोगों को भी कुछ मनुष्य ला देंगे, उन्हें खा लेना।' दूसरे दिन सबेरे ग्यारह पुरुष और पाँच स्त्रियाँ लाकर हम लोगों को उपहार में दीं। मानो इन मनुष्य का मूल्य भेड़-बकरों से अधिक नहीं है। हम लोग निर्दय और घातक होने पर भी नर-मांस खाने का नाम सुन कर सहम उठे। हम लोगों को उबकाई आने लगी और असभ्यों की इस राक्षसी प्रकृति पर हमें बड़ी घृणा हुई, किन्तु नरबलि का उपहार लौटाना असभ्यों के आतिथ्य का विषम अपमान है। इसलिए हम लोग बड़े संकट में पड़े। इतने लोगों को लेकर हम क्या करेंगे? तथापि हमें यह उपहार स्वीकार करना ही पड़ा और उपहार के बदले हमने उन असभ्यों को एक कुल्हाड़ी, एक टूटी कुञ्जी, एक छुरी, और पाँच छः शीशे की गोलियाँ दीं। इन कई साधारण वस्तुओं को पाकर वे असभ्य गण मारे खुशी के उछल उठे। इसके बाद उन असभ्यों ने बन्दियों के हाथ-पैर बाँध कर उन्हें नाव में रख दिया। हम लोगों ने वहाँ विलम्ब करना उचित न समझ शीघ्र यात्रा की। कौन जाने, पीछे वे असभ्य हमें नर-मांस खाने के लिए कहीं निमन्त्रण ही दे बैठे। हम लोगों ने रास्ते में एक द्वीप में आठों बन्दियों को उतार कर छोड़ दिया। हम इतने लोगों को लेकर क्या करते? या उन्हें खाने ही को क्या देते? स्त्रियों को स्वस्थ और सबल देख कर हम लोगों ने अपने लिए रख छोड़ा। बाकी बन्दियों के साथ हमने बातचीत करने की चेष्टा की, पर कुछ फल न हुआ। हम लोग जभी कुछ पूछते थे तभी वे भय से काँपने लगते थे। वे समझते थे कि इसी बार हम लोग उन्हें खा डालेंगे। हम लोगों ने ज्योंही उनका बन्धन खोलना चाहा त्योंहीं वे आर्तस्वर से चिल्ला उठे मानो अभी उनके गले पर तेज़ छुरी फेरी जायगी। उनको जब कुछ खाने के लिए दिया जाता तब वे यही समझते कि उनको मोटा-ताज़ा करने का उपाय किया जा रहा है। किसी की ओर देखने से वह सकुच जाता था। वह समझता था कि वह मारे जाने के योग्य हृष्ट-पुष्ट है या नहीं, इसीकी तजवीज हो रही है। उन लोगों के साथ विशेष सद्व्यवहार करने पर भी उनके जी में मारे जाने की आशङ्का प्रतिपल बनी ही रहती थी। हम लोग उन्हें इस द्वीप में ले आये हैं और घर के भीतर बन्द कर आये हैं।"

यह अद्भुत वृत्तान्त सुन कर सभी स्पेनियर्ड कुतूहलाक्रान्त होकर उनको देखने चले। उन लोगों ने अँगरेज़ों के घर जाकर देखा कि सभी के हाथ बँधे हैं। स्त्री-पुरुष दोनों बिलकुल नङ्ग धड़ङ्ग हैं और सब एक ही साथ बैठे हैं। यह दृश्य स्पेनियर्डों की आँखों में बेतरह बुरा मालूम हुआ।

पुरुष अच्छे हट्टे-कट्टे और बलिष्ठ थे। क़द लम्बा सा, शरीर सुगठित, चेहरा देखने में बुरा न था। उम्र तीस से पैंतीस के भीतर थी। स्त्रियाँ भी बदसूरत न थीं। शरीर लावण्य-युक्त था। केवल रङ्ग साँवला था। यदि बदन का रंग गोरा होता तब तो वे ख़ास लन्दन की सुन्दरियों में परिगणित होतीं और आदर पातीं। उनमें दो स्त्रियाँ तीस-चालीस वर्ष की थीं। दो स्त्रियों की उम्र चौबीस-पच्चीस वर्ष की थी। एक नव-यौवना थी। उसकी उम्र सोलह सत्रह वर्ष से अधिक न थी। सब की अपेक्षा यही विशेष रूपवती थी।

फ़्राइडे के पिता ने दुभाषिया बन कर उन असभ्यों को समझा दिया कि 'तुम लोगों को प्राणों का भय न होगा। सभ्यजाति के लोग मनुष्य का मांस नहीं खाते।' यह आश्वासन-वाक्य सुन कर उन लोगों के हर्ष का वारापार न रहा। वे अपने हृदय का उल्लास इस प्रकार प्रकट करने लगे, जिसका वर्णन करना कठिन है।

इसके बाद उन लोगों से यह बात पूछी गई कि तुम हमारे समाज की अधीनता स्वीकार कर काम करने को राजी हो या नहीं। यह प्रश्न सुनते ही वे लोग मारे खुशी के नाचने लगे। इसका आशय यही कि हम लोग हृदय से काम करना पसन्द करते हैं।

किन्तु स्पेनियर्डों के सर्दार स्त्रियों के आने से डर गये। अँगरेज़ लोग यों ही आपस में लड़ते-झगड़ते थे। अब इन स्त्रियों के कारण, मालूम होता है भारी फ़साद उठ खड़ा होगा। उन्होंने अँगरज़ों से पूछा, तुम लोग इन स्त्रियों को लेकर क्या करोगे? दासी बना कर रक्खोगे या पत्नी?

अँगरेज़-हम लोग उनसे दोनों ही काम लेंगे। वे हमारी दासी भी होंगी और पत्नी भी।

स्पेनियर्ड-सरदार-"अच्छी बात है, मैं इस विषय में तुम्हें कोई बाधा न दूँगा। तुम जो अच्छा समझो, करो। किन्तु मुझे यह व्यवस्था कर देनी चाहिए जिसमें तुम लोग आपस में किसी तरह की तकरार न करो। इसलिए तुम लोगों से मेरा एक अनुरोध है कि तुम लोग एक स्त्री से अधिक ग्रहण न करो। दार-परिग्रह के अनन्तर तुम सब आपस में मिल जुल कर रहो। कोई किसी के अधिकार पर हस्तक्षेप न करे। सब अपनी अपनी स्त्री का भरण-पोषण करें।" इन प्रस्तावों पर अँगरेज़ सहज ही में सम्मत हो गये। उन्होंने स्पेनियर्डों से पूछा-"क्या तुम लोगों में कोई ब्याह करना चाहता है?" उन सब ने एक साथ इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर के अपने आत्म-निग्रह और धर्मनिष्ठा का परिचय दिया। उनमें कितने ही यह कह कर, कि देश में हमारी स्त्री और बालबच्चे हैं, पुनर्विवाह करने पर स्वीकृत न हुए। किसी किसी ने असभ्य जाति की स्त्रियों से ब्याह करना पसन्द न किया।

अँगरेज़ों ने विवाहित होकर अपना नया घर बसाया। स्पेनियर्ड लोग और फ़्राइडे का पिता मेरे ही पुराने घर में रहते थे। उन लोगों ने गुफ़ा के भीतरी हिस्से को खोद कर खूब लम्बा-चौड़ा कर लिया था। इसके पूर्व उन लोगों ने असभ्यों के पारस्परिक युद्ध के समय जिन तीन व्यक्तियों को गिरफ़्तार किया था, उन पर किसी तरह का अत्याचार न कर के उनसे नौकर का काम लेने लगे। इस निर्जन द्वीप में यही तीन नौकर उन लोगों के प्रधान आश्रयवर्ती थे। वे सभी लोगों के लिए आहार का संग्रह करते और यथासाध्य हर एक काम में अपने पालकों को मदद देते थे।

विवाह के समय उन लोगों में किसी तरह का कुछ असमञ्जस न हुआ। पहले किसका ब्याह हो? इसका निश्चय इस प्रकार हुआ कि तीनों के नाम काग़ज़ के तीन टुकड़ों पर लिखे गये। तीनों टुकड़े मोड़ कर एक जगह रक्खे गये। एक व्यक्ति ने आँख मूँद कर उनमें से एक टुकड़ा उठा लिया। उस टुकड़े में जिसका नाम निकला उसीका पहले ब्याह हुआ। उसने उन स्त्रियों में जिसे पसन्द किया उसे अपनी अर्धाङ्गिनी बनाया। आश्चर्य का विषय यह है कि जिस व्यक्ति ने पहिले ब्याह किया था उसने उन स्त्रियों में जो सब से पुरानी थी उसीको पसन्द किया। मालूम होता है, उन स्त्रियों में वही प्रधान थी। दूसरी बार जिसका नाम निकला उसने अधेड़ स्त्री को लिया। तीसरे व्यक्ति ने नवयुवती का पाणिग्रहण किया। मेरे जहाज़ के दो अँगरेज़-नाविक और इस द्वीप में रहते थे। उन्होंने अन्य दो स्त्रियों के साथ ब्याह कर लिया।

स्त्रियों ने जब देखा कि एक एक व्यक्ति घर में आता है और क्रमशः एक एक स्त्री को लिये जाता है तब उन्होंने निश्चय किया कि इस बार हमारी जान न बचेगी। तीसरे व्यक्ति ने जब जा कर युवती का हाथ पकड़ा तब सभी औरतें आर्तस्वर से चिल्ला उठीं, और उस युवती के बदन से लिपट गईं। सभी ने उसको गले लगा कर इस करुणभाव से उससे बिदा माँगी, जिसे देख कर मनुष्य की तो कुछ बात ही नहीं पत्थर का हृदय भी बिना पसीजे न रहता। तब फ़्राइडे के बाप ने उन स्त्रियों को बहुत तरह से समझाया कि वे मारी जाने के लिए नहीं, ब्याह करने के लिए बुलाई जा रही हैं।

इस प्रकार वैवाहिक विधि सम्पन्न होने पर अँगरेज़ों ने गृहस्थी की ओर ध्यान दिया। स्पेनियर्ड उन सभों को यथासाध्य सहायता देने लगे। अँगरेज़ों में जो सब से बढ़ कर दुश्शील था उसीको सबसे बढ़ कर सुशीला और गुणवती स्त्री मिली। ईश्वर का विधान और उनकी लीला सर्वत्र ऐसी ही विचित्र देखने में आती है। वे सर्वत्र ही कमी-वेशी और भाव-अभाव को मिला कर परस्पर के न्यूनाधिक्य को पूरा कर देते हैं। और स्त्रियाँ भी पहली की तरह सुशीला और विनीत न होने पर भी गुणहीन न थीं। सभी गृहस्थी के काम में प्रवीण और शील-सम्पन्न थीं। अँगरेज़ों ने अपनी अपनी स्त्री की सहायता से भली भाँति घर का प्रबन्ध कर लिया। घर के चारों ओर वृक्ष रोप कर घेरा बना दिया। उन वृक्षों पर अंगूर की लतायें चढ़ा दीं और पहाड़ को खोद कर एक कृत्रिम गुफा बना कर के विपद आ पड़ने पर छिपने की एक जगह बना ली।

वे तीनों उद्धत अँगरेज़ कोमल-स्वभावा रमणियों की संगत से बहुत कुछ सीधे और शान्त हो गये। किन्तु उन लोगों का आलस्य किसी तरह दूर न हुआ। उन लोगों के खेतों के चारों ओर छोटे पौधों का घेरा था, जिसे लाँघ कर जङ्गली बकरे खेत चर जाया करते थे। कहावत है, 'चोर भागने पर बुद्धि बढ़ती है।' धान चर जाने पर सूखी लकड़ियों से वे उस रास्ते को बन्द करले थे जिधर से बकरे खेत में घुस कर फसल चर जाते थे। वे लोग दिन-रात इसीके पीछे हैरान रहा करते थे। किन्तु अन्य दो अँगरेज़-नाविकों का घर-बार खेती-बाड़ी सभी मानो खिल खिला कर हँस रही थी। वे सभी काम आलस्य छोड़ कर करते थे, इसीसे उनके एक भी काम में व्यतिक्रम न था। जहाँ श्रम है वहीं लक्ष्मी का वास है। जहाँ तत्परता है वहीं उन्नति है। जहाँ मनोयोग है वहीं सौन्दर्य है। जहाँ आलस्य है वहाँ दरिद्र का निवास है। आलसी मनुष्य के सभी काम बेतरतीब होते हैं। आलसियों के भाग्य में सुख कहाँ? जो श्रम-विमुख हैं उन्हें सभी वस्तुओं का अभाव रहता है। उन्हें अभाव नहीं रहता है केवल दुःख और दारिद्रय का। परिश्रमी को किसी बात की तकलीफ़ नहीं रहती। उसके चारों ओर आनन्द छाया रहता है। दरिद्रता पास फटकने नहीं पाती। उन तीनों आलसी अँगरेज़ों की स्त्रियाँ बड़ी सुघड़ थीं इसीसे उन लोगों का किसी तरह समय कट जाता था, नहीं तो वे अपनी मक्खियाँ भी न हाँक सकते।

द्वीप में असभ्यों का उपद्रव

सभी लोग सुख-स्वच्छन्द से अपने अपने घर का काम धन्धा कर रहे थे। एक दिन सबेरे असभ्यों से भरी हुई पाँच छः नावें इस द्वीप में आ पहुँचीं। मालूम होता है, वे लोग नर-मांस खाने ही के लिए आये होंगे। द्वीप-वासी सभी लोग इस बात को अच्छी तरह समझ गये थे कि उन लोगों की दृष्टि से बच कर रहने में विपत्ति की कोई सम्भावना नहीं है। इसलिए सभी लोग छिपे रहे। असभ्य लोग अपना काम निकाल कर चले गये। उन लोगों के चले जाने पर द्वीप-वासियों ने एक बार वहाँ जाकर देख पाना चाहा कि असभ्यगण क्या करने आये थे। सभी लोगों ने वहाँ जाकर देखा, जहाँ वे उतरे थे। तीन असभ्य धरती पर लेटे घोर निद्रा में अचेत पड़े थे। शायद ये लोग बेअन्दाज़ नर-मांस खाकर, अफर कर, सो रहे थे। निद्रित होने के कारण इन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि साथी लोग कब चले गये। संभव है, इनकी नींद न टूटी हो और वे लोग बिना जगाये चल दिये हों अथवा ये लोग जंगल में घूमने गये होंगे। जब इन लोगों ने लौट कर देखा होगा कि साथी चले गये तब निश्चिन्त होकर सो रहे होंगे। जो हो, उनको सोते देख सभी भय और आश्चर्य से ठिठक रहे। सभी ने सर्दार से पूछा कि इन लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। सर्दार की समझ में भी कुछ न आता था जो अपनी राय जाहिर करते। द्वीप-वासियों के पास बहुत से दास थे ही, वे और लेकर करेंगे ही क्या, या उन्हें खाने ही को क्या देंगे? तब इन असभ्यों को मार डालना चाहिए। किन्तु इन लोगों का अपराध ही क्या है? निर्दोष बेचारों को प्राणदण्ड देना भी तो ठीक नहीं। निरपराधियों को मारने में राक्षसों का भी हाथ सहसा नहीं उठता। बड़े बड़े निर्दय और नृशंस भी ऐसे काम में सङ्कुचित हो उठते हैं। वे असभ्य जागने पर चले जाते तब तो सब बखेड़ा ही मिट जाता। किन्तु बिना नाव के वे लोग जायँगे कैसे? जागने पर वे लोग द्वीप भ्रमण में प्रवृत्त होंगे और द्वीपवासियों का पता पाकर अनर्थ का बीज बोयेंगे। अन्ततोगत्वा यही स्थिर हुआ कि उन लोगों को क़ैद करके रखना चाहिए। वे जगा कर कैद कर लिये गये। जब उनके हाथों में हथकड़ी डाली गई तब वे बहुत भयभीत हुए। उन्होंने समझा कि "अब की बार अपने विजयी के भोज में हमारा कबाब बने बिना न रहेगा।" उनका इस तरह सोचना स्वाभाविक ही था। मनुष्य दूसरे को बहुत करके अपने ही जैसा समझता है। द्वीप-निवासियों ने उन्हें समझा-बुझा कर निर्भय कर दिया।

बन्दियों को वे लोग मेरे कुञ्जभवन में ले गये। उन्होंने उन बन्दियों को किले का पता न बता कर अच्छा ही किया था। क्योंकि दो-एक दिन के बाद उनमें से एक आदमी काम करते करते न मालूम किस तरह सब की नज़र बचा कर जङ्गल में भाग गया। बहुत खोजने पर भी वह कहीं न मिला। कई दिन पीछे असभ्यों का एक दल नाव पर चढ़ कर द्वीप में नरमांस खाने आया था। वह उन्हीं लोगो के साथ देश लौट गया होगा। यदि यह बात सच है तब तो सर्वनाश होना ही सम्भव है। असभ्य लोग टापू में मनुष्य की गन्ध पा कर राक्षस की भाँति झुंड के झुंड आकर अनर्थ करेंगे। असंख्य राक्षसों का मुकाबला यहाँ के इने गिने साधारण अधिवासी कैसे कर सकेंगे? कुशल इतना ही है कि वे किले का हाल नहीं जानते और बन्दको की गोलियों की मार के सामने वे लोग देर तक ठहर सकेंगे, इसकी भी संभावना नहीं है।

डेढ़-दो महीने बाद एक दिन सूर्योदय के साथ साथ छः नावों पर असभ्य लोग आकर इस द्वीप में उतरे। वे कुल पचास-साठ आदमी होंगे। उन्होंने कुञ्जभवन ही की ओर नावें लगाईं। उस कुञ्जभवन में दो अँगरेज़ रहते थे। असभ्य लोग किनारे से कोई आध मील पर थे तभी अँगरेज़ों ने उनको आते देख लिया। समुद्र-तट से कुञ्जभवन भी एक मील से कम न था। इसलिए अँगरेज़ों को सावधान होने का थोड़ा सा समय मिल गया। किन्तु द्वीपनिवासी समस्त व्यक्तियों को यह ख़बर देने का उन्हें अवसर न मिला। सारे द्वीपनिवासी एक जगह आ कर खड़े हो जाते तो उतना भय न था। किन्तु पचास-साठ योद्धाओं का सामना करना दो व्यक्तियों के लिए यथार्थ में कठिन काम था।

दोनों अँगरेज़ उन असभ्यों की चाल-ढाल देख कर ही समझ गये कि वे लोग ख़बर पा कर पा रहे हैं। इसलिए उन्होंने फ़रार-असामी के दोनों साथियों को फ़ौरन बाँध लिया और दो विश्वास-पात्र असभ्य-नौकरों के साथ उन को और अपनी स्त्रियों को कृत्रिम गुफा के भीतर भेज दिया। उन्होंने नौकरों और स्त्रियों से घर की आवश्यक चीज़ उठवा कर प्रस्थान किया। इसके बाद उन्होंने पालतू बकरों को, स्थान का फाटक खोल कर, जङ्गल में इसलिए भगा दिया कि असभ्यगण उन बकरों को जङ्गली समझ कर छोड़ देंगे। इन कामों का झटपट प्रबन्ध कर के उन्होंने एक असभ्य नौकर के द्वारा स्पेनियडौँ तथा उन तीनों अँगरेज़ों को ख़बर भेज दी। फिर आप दोनों आदमी बन्दूक़ और गोली-बारूद लेकर जङ्गल में जा छिपे, और उन असभ्यों पर तेज़ निगाह डाले रहे।

वे दोनों उस गुप्त स्थान से छिप कर देखने लगे। इधर झुंड बाँध बाँध कर असभ्यगण कुञ्जभवन में आकर एकत्र होने लगे। कुञ्जभवन में आते ही उन लोगों ने घर-द्वार, खेत-खलिहान में आग लगा दी। सभी एक साथ जल उठे। बड़े कष्ट से बनाये हुए घर-द्वार को अपनी आँखों के सामने जलते देख कर उन दोनों अँगरेज़ों का हृदय भी जलने लगा। असभ्यगण धीरे धीरे जङ्गल और झाड़ी में गृहवासियों को खोजने लगे। असभ्यों के झुंड को आगे बढ़ते देख कर अँगरेज़ कुछ और पीछे हट गये। जङ्गल में एक बहुत मोटा पेड़ था जो सूख कर खोखला हो गया था। वे दोनों अँगरेज़ उसीके भीतर छिप कर असभ्यों को देखने लगे। कुछ ही देर बाद उन्होंने देखा कि दो असभ्य उनकी ओर दौड़े आ रहे हैं। उनकी चेष्टा देखने से यही मालूम होता था कि वे गुप्तस्थान का पता पाकर अँगरेज़ों को पकड़ने के लिए पा रहे हैं।

यह सोच कर अँगरेज़ बहुत घबराये। वे भागे या वहीं रहे, इसकी चिन्ता हुई। भागे ही तो कहाँ जायँ? असभ्य लोग चारों ओर जंगल में फैल गये थे। भागने से अधिक संभव था कि उनके सामने जा पड़ते। यह सोच-विचार कर उन्होंने जहाँ थे वहीं स्थिर रहना उचित समझा। यदि किसी तरह की गड़बड़ देखने में आती तो वे पेड़ पर चढ़ जाते।

अग्रवर्ती दोनों असभ्य उनके पास से होकर आगे बढ़ गये। इससे मालूम हो गया कि उन्होंने अँगरेज़ों को नहीं देखा। किन्तु उनके पीछे तीन आदमी और उनके भी पीछे के पाँच आदमी बिलकुल सामने उसी पेड़ की ओर आने लगे। तब अँगरेज़ भरी हुई बन्दूक का लक्ष्य ठीक करके उनको अपने समीपवर्ती होने की अपेक्षा करने लगे। जब वे असभ्य कुछ और अग्रसर हुए तब अँगरेज़ों ने पहचाना कि उनमें एक वही था जो पहले बन्दी हुआ था। उसको देखते ही अँगरेज़ों के हृदय में एकाएक आग बल उठी। उन्होंने निश्चय किया कि चाहे जो हो, इस साले को यहाँ से जीते जी जाने न देंगे। उसके निकटवर्ती होते ही अँगरेज़ ने उसे गोली मार दी। एक ही आवाज़ में तीन आदमी गिरे। उनमें एक तो उसी घड़ी मर गया और दो घायल हुए। घायलों में पलायित व्यक्ति बहुत ज़ख्मी हुआ। तीसरे व्यक्ति का सिर्फ कन्धा गोली से छिल गया था, पर वह उतने ही में भय से अधमरा सा हो गया और खूब ज़ोर से चिल्ला कर आर्तनाद करने लगा।

इन तीनों के पीछे जो पाँच आदमी थे वे विपत्ति का पूरा हाल न समझ कर केवल शब्द से ही डर कर जहाँ के तहाँ खड़े हो रहे। घने वन में बन्दूक का शब्द बड़ा ही गम्भीर और भयोत्पादक हुआ। जंगल के एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त तक शब्द की बार बार भीषण प्रतिध्वनि हुई। अगणित पक्षियों के उड़ने तथा कल कल शब्द से सारा जंगल भर गया। ऐसा अश्रुतपूर्व शब्द सुन कर असभ्य गण जो चकित, भीत और स्तब्ध हो तो आश्चर्य ही क्या। थोड़ी ही देर में फिर सर्वत्र सन्नाटा छा गया। असभ्य लोग इस अपूर्व शब्द का कुछ कारण न समझ कर धीरे धीरे उन आहत व्यक्तियों के पास आये। इन अभागों को इस बात की आशङ्का तक न हुई कि हमारे ऊपर भी वही विपत्ति आवेगी जो कि साथियों पर आ पड़ी है। उन लोगों ने वहाँ पर घायलों को घेर कर समाचार पूछा। तीसरे व्यक्ति को बहुत ही हलका ज़ख्म हुआ था। उसने कहा कि "हम लोगों पर देवता का कोप हुआ है। पहले बिजली की तरह एक चमक पैदा हुई, उसके बाद वज्रपात होने से दो आदमी मर गये हैं और मैं घायल हुआ हूँ।" सांसारिक विषयों में जो अनभिज्ञ है उसका इस प्रकार व्याख्यान देना स्वाभाविक ही है। क्योंकि जहाँ लोगों का नाम निशान नहीं वहाँ अकस्मात् ऐसी दुर्घटना दैवी नहीं तो क्या है?

ऐसे मूर्ख-जो विपत्ति के मुख में पहुँच कर भी निरुद्विग्न भाव से खड़े हैं, इन असभ्यों को मारने में अँगरेज़ों का मन व्यथित होता था, किन्तु आत्म-रक्षा के लिए क्या करते? उन्होंने फिर गोली चलाई। चार आदमी घायल हो कर गिर पड़े। पाँचवें व्यक्ति को कुछ चोट न लगने पर भी वह केवल डर से ही मृतप्राय हो गिर पड़ा। अँगरेज़ों ने सबको गिरते देख समझा कि सभी मर गये।

सभी मर चुके, इसी विश्वास पर दोनों अँगरेज अपनी बन्दूक़ों को बिना भरे ही साहस कर के अपने गुप्त स्थान से निकल कर वहाँ गये। खाली बन्दूक़ लेकर बाहर निकलना भारी मूर्खता हुई थी, क्योंकि जब वे उन असभ्यों के पास पहुँचे तब देखा कि तीन-चार आदमी जीवित हैं। उनमें दो व्यक्तियों को बहुत कम चोट लगी थी और एक तो गोली से बेलाग बचा हुआ था। उसे कुछ भी चोट न लगी थी। यह देख कर अँगरेज़ बन्दूक के कुन्दे से काम लेने लगे। पहले उस विश्वासघाती भगोड़े का काम तमाम किया। फिर अन्य दो व्यक्तियों को संसार-यातना से छुड़ा दिया। यह देख कर, जिसे कुछ आघात न लगा था वह उन अँगरेज़ों के सामने हाथ जोड़ घुटने टेक कर दया की प्रार्थना करने लगा। उसने गिड़गिड़ा कर बड़ी दीनता दिखाई, पर उसका एक अक्षर भी उन दोनों की समझ में न आया। तब उन अँगरेज़ों ने उस असभ्य के हाथ-पैर रस्सी से बाँध कर एक पेड़ के नीचे छोड़ दिया। इसके बाद वे अग्रगामी दो असभ्यों की खोज में चले। यदि वे किसी तरह जङ्गल के भीतर की गुफा का पता पा ले तो एकदम सर्वनाश हो सकता है। इसलिए उनको रोक देना चाहिए। वे दोनों असभ्य बहुत दूर पर दिखाई दिये। पर वे गुफा की तरफ़ नहीं, उसकी प्रतिकूल दिशा में अर्थात् समुद्र की ओर जा रहे थे। यह देख कर अँगरेज़ निश्चिन्त हो उस पेड़ के नीचे लौट आये जहाँ वह बन्दी असभ्य था। वहाँ आकर देखा रस्सी पड़ी है, बन्दी का कहीं पता नहीं। अँगरेज़ों ने समझा कि उसके साथी बन्धन खोल कर उसे ले गये होंगे।

अब वे दोनों किंकर्तव्य-विमूढ़ हो खड़े रहे। क्या करें, किधर जायँ, कुछ निश्चय न कर सकते थे। आखिर उन्होंने अपनी स्त्रियों के पास गुफा में जाने ही का निश्चय किया। गुफा के भीतर जा करके देखा, सभी सुख-चैन से हैं, केवल स्त्रियाँ बहुत भयभीत हो रही हैं। आक्रमणकारी उनके स्वदेशी हैं फिर भी उनके भय की सीमा नहीं, वे बेहद डर रही हैं। कारण यह कि वे आक्रमणकारियों के स्वभाव से भली भाँति परिचित थीं। असभ्य लोग गुफा के बिलकुल समीप आकर लौट गये हैं। घने पेड़ों की आड़ होने के कारण उन्हें गुफा देख न पड़ी, इसीसे इधर वे लोग न आये। आते तो भारी उपद्रव मचाते।

असभ्यों के आने की ख़बर पा कर सात व्यक्ति स्पेनियर्ड, अँगरेजो की सहायता के लिए आये। यह देख कर अँगरेज़ों को धैर्य हुआ और उनका साहस बढ़ गया। अन्य दस व्यक्ति स्पेनियर्ड और फ़्राइडे का पिता किले के समीपवर्ती खेत-खलिहान की रक्षा के लिए पहरे पर रहे। किन्तु असभ्य उधर भूल कर भी नहीं गये। सात स्पेनियर्डों के साथ अँगरेजों का वह बन्दी-भृत्य भी पाया जो स्पेनियों को खबर देने गया था, और वह क़ैदी भी पाया है जिसे कुछ देर पहले हाथ-पैर बाँध कर पेड़ के नीचे डाल दिया था। स्पेनियर्डों ने आते समय उसके हाथ-पैरों का बन्धन खोल कर उसे साथ ले लिया था। गुफाके भीतराने पर बन्दी को फिर बाँध कर दूसरे दो बन्दियों के साथ बैठा दिया।

द्वीपवासियों को ये बन्दी भार-स्वरूप जान पड़े। क्योंकि ये लोग अधीनता में नहीं रहना चाहते थे। उनको घर में खाली बिठा कर खिलाना भी कठिन है; और जो छोड़ दें तो वे देश जाकर अनर्थ खड़ा करेंगे। ऐसी हालत में उनके बध के सिवा और कोई उपाय नहीं। किन्तु सर्दार उन लोगों को मारने की अनुमति नहीं देते। उन्होंने हुक्म दिया कि ये बन्दी अभी मेरी बड़ी गुफा में रहे, दो स्पेनियर्ड उनके पहरे पर रहेंगे, और स्पेनियर्ड लोग उनके खाने-पीने का प्रबन्ध करेंगे।

स्पेनियर्डों के आने से साहस पाकर अँगरेज़ उन असभ्यों की खोज में बाहर निकले और बड़ी सावधानी से कुछ दूर आगे जाकर देखा कि सभी असभ्य जाने के लिए नाव पर सवार हो रहे हैं। उन लोगों के चलते समय बन्दूक की गोली से एक बार बिदाई का संभाषण न कर सकने के कारण वे उदास हुए। किन्तु उन को जाते देख कर प्रसन्न भी हुए। अँगरेज़ों का घर-द्वार खेती बाड़ी सब नष्ट हो गई थी। इस कारण सभी ने मिलकर हाथों-हाथ थोड़े ही दिनों में उनकी गृहस्थी का सब सामान ठीक कर दिया। यहाँ तक कि उन तीन दुःशील अँगरेज़ों ने भी उनकी सहायता से मुँह न मोड़ा।

असभ्यों के चले जाने पर भारी तूफ़ान उठा। दो दिन के बाद द्वीपवासियों ने बड़ी खुशी के साथ देखा कि असभ्यों, की तीन डोंगियाँ और समुद्र में डूब कर मरे हुए दो असभ्यों की लाशें बही जा रही हैं।

द्वीप में असभ्यों का दुबारा उपद्रव

धीरे धीरे पाँच छः महीने बीत गये। असभ्यों के आने की कहीं कुछ भनक न पाई गई। द्वीपनिवासियों ने समझा कि या तो वे लोग द्वोप के मामले को भूल गये हैं या भय से इस तरफ़ नहीं आते हैं।

एक दिन उन लोगों ने अकस्मात् देखा कि धनुष-बाण, लाठी और लकड़ी की तलवार आदि अनेक अस्त्र-शस्त्र लिये असभ्य लोग एक साथ अट्ठाइस डोंगियों पर सवार हो टापू में उतर आये।

यह देख कर द्वीपवासियों के भय की सीमा न रही। असभ्य लोग सन्ध्या समय टापू में आ पहुँचे इसलिए द्वीप वालों को सारी रात सलाह-विचार करते ही बीती। अन्त में यही तय हुआ कि इतने दिन हम लोग छिप कर ही बेखटके रहे हैं इसलिए अब भी छिपकर रहना ही अच्छा है। यह निश्चय करके सभी ने दोनों अँगरेज़ों के घर को उजाड़ कर उसका चिह्न तक न रहने दिया; और बकरों को गुफा के भीतर छिपा कर बन्द कर रक्खा। असभ्य लोग सिर्फ उन्हीं दोनों अँगरेज़ों के निवास स्थान का पता जानते थे इसलिए वे लोग पहले इसी स्थान पर आक्रमण करेंगे, यह सोच कर हम लोग वहीं एकत्र होकर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगे। सुबह होते ही कोई डेढ़ सौ असभ्य वहाँ आकर इकट्ठे हुए। हम लोगों के दल में बहुत कम आदमी थे। सत्रह स्पेनियर्ड, पाँच अँगरेज़, फ़्राइडे का बाप, और छः विश्वासी नौकर। हम लोगों की संख्या अल्प थी सो तो थी ही, उस पर अस्त्रों की कमी और भी असुविधा दे रही थी। हमारे दल में सब के पास यथेष्ट अस्त्र-शस्त्र न थे। भृत्यों को बन्दूक़ें नहीं दी गई थीं। उन लोगों के हाथ में सिर्फ एक एक खंजर था। दो स्त्रियाँ युद्ध-क्षेत्र से किसी तरह विमुख न हुई। वे धनुष-बाण ले, कमर कस कर, युद्ध करने के लिए तैयार हो गई। उनकी कमर में एक एक खंजर भी था।

स्पनियर्डों के सर्दार इन थोड़े से सिपाहियों के सेनापति हुए और अँगरेज़ों में जो सबसे बढ़कर बदमाश था वह सहकारी सेनापति नियत हुआ। उसका नाम विल एटकिंस था। वह अत्यन्त क्रूर और अन्यायी होने पर भी खूब बहादुर था। वह छः मनुष्यों के साथ एक झुरमुट के भीतर छिप रहा। जब असभ्य उस झुरमुट के सामने से होकर निकलेंगे तब वह उन पर आक्रमण करेगा। असभ्य लोग सिंहनाद करते, उछलते-कूदते हुए हम लोगों पर आक्रमण करने के लिए चले आ रहे थे। जब असभ्यों की कुछ संख्या झुरमुट से कुछ आगे निकल आई तब एटकिंस ने अपने दल के तीन व्यक्तियों को उन पर गोली बरसाने का हुक्म दिया। उन्होंने एक एक बन्दूक में छः छः सात सात गोलियाँ भर कर चलाई। असभ्यों के दल में कितने ही हत और कितने ही आहत हुए। वे सब के सब भौंचक से खड़े हो रहे। उनके आश्चर्य और भय की सीमा न रही। एकाएक इस प्रकार भीषण शब्द होने और अकारण अपने साथियों के मारे जाने की बात पर वे लोग आपस में मिलकर कोलाहल कर ही रहे थे कि एटकिंस आदि तीन व्यक्तियों ने फिर गोली मार कर कितनों ही को धराशायी कर दिया। इसी समय प्रथम तीन व्यक्तियों ने झट बन्दूक़ें भर लीं और एक ही बार गोली बरसा कर उन असभ्यों को छिन्न भिन्न कर डाला। इस अचानक अभिघात का कुछ कारण न समझ कर अवशिष्ट असभ्य लोग किंकर्तव्य-विमूढ़ हो रहे। बीच में झाड़ी की ओट रहने के कारण असभ्य लोग किसी को न देख कर शायद यह समझ रहे थे कि "देवता का गुप्त वज्रास्त्र हम लोगों का नाश करने के लिए उदीप्त हो उठा है।" यदि एटकिंस इस समय चुपचाप वहाँ से हट जाता तो बड़ा अच्छा होता। असभ्य लोग देवकर्तृक भय मान कर भाग जाते; किन्तु एटकिंस ने इस विषय में बार बार चिताये जाने पर भी उसका पालन न किया। वह उजड्ड था न। वहीं रह कर वह फिर बन्दूक़ भरने लगा। उधर जो असभ्य पीछे से आ रहे थे उन्होंने एटकिंस प्रभृति को देख कर एकाएक उन पर आक्रमण किया। एटकिंस आदि छः व्यक्तियों ने लगातार गोली बरसा कर बीस-पचीस आदमियों को धरती पर लिटा दिया, तो भी असभ्य पीछे न हटे। उन्होंने तीर से एक अँगरेज़ को मार डाला, और एटकिंस को भी घायल किया। फिर एक स्पेनियर्ड और एक असभ्य नौकर को भी मार गिराया। वह असभ्य नौकर बड़ा साहसी वीर था। उसने मरते मरते भी सिर्फ लाठी की मार से पाँच दुश्मनों को मार डाला था।

हमारे दल वाले भयंकर रूप से आक्रान्त होने पर दौड़ कर एक टीले पर चढ़ गये। हम लोगों ने भागते भागते भी तीन बार बन्दुके चलाईं। किन्तु असभ्य लोग ऐसे हठी थे कि पचास-साठ मनुष्यों को हत और इससे भी अधिक व्यक्तियों को घायल होते देख कर भी हम लोगों का पीछा नहीं छोड़ते थे और बराबर आगे बढ़े ही आते थे। उन्होंने इतने बाण चलाये कि बाणों से आकाश-मण्डल भर गया। उन असभ्यों में जो व्यक्ति घायल हुए थे, पर पूरे तौर से ज़ख़्मी नहीं हुए थे, उन लोगों के सिर पर खून सवार हो गया था। इसीसे वे लोग पागल की भाँति युद्ध करते थे।

असभ्य लोग अँगरेज़ और स्पेनियर्ड की लाश को देख उस पर हथियार चलाने लगे, मरे को मारने लगे। उन मुर्दों के हाथ-पैर, और गला काट कर मृत-शरीर को खण्ड खण्ड कर के उन्होंने अपनी नीचता का परिचय दिया। हम लोगों को भागते देख कर उन लोगों ने दूर तक पीछा न किया। सभी ने मण्डलाकार खड़े होकर दो बार उच्चस्वर से जयध्वनि की। किन्तु उनके घायल आदमी अधिक लहू बहने के कारण मुर्च्छित तथा प्राण-हीन हो होकर गिरने लगे। यह देख कर वे लोग फिर दुःखी हुए।

एटकिंस की इच्छा थी कि फिर दल-बल के साथ उन पर आक्रमण किया जाय किन्तु सर्दार ने कहा-"नहीं, इसकी अब ज़रूरत नहीं। कल सबेरे फिर देखा जायगा। आज अब शान्त होकर रहना ही ठीक है। असभ्यों के घायलों की भली भाँति सेवा-शुश्रूषा न होने से उनकी हालत बुरी हो जायगी। अधिक रक्त-क्षय होने से वे दुर्बल हो जायँगे और घाव की पीड़ा से चल-फिर न सकेंगे तब हम लोगों के शत्रुओं की संख्या और भी कम होगी।" एटकिंस ने जरा हँस कर और ज़ोर देकर कहा-हाँ हाँ, कल मेरी भी तो वैसी ही दशा होगी। इसी कारण तो चटपट आज ही काम चुका लेना चाहता हूँ।

सर्दार-नहीं भाई, आज तुमने बड़ी बहादुरी के साथ लड़ाई की है। यदि कल तुम युद्ध न भी कर सकोगे तो तुम्हारी ओर से खुद में युद्ध करूँगा।

चटकीली चाँदनी रात है। हम लोगों ने देखा कि असभ्य लोग अपने मुदौ और घायलों को लेकर बड़ी चिन्ता में पड़े हैं। सभी आपस में अपने मन की बातें कर रहे हैं। यह देख कर सर्दार ने उन असभ्यों पर एक बार रात में ही आक्रमण करने का विचार किया। हम लोग जंगल के भीतर ही भीतर छिप कर इधर उधर चक्कर काटते हुए एकदम असभ्यों के समीप जा पहुँचे। हम लोगों ने एक साथ आठ बन्दू के दाग दी। आध मिनट के बाद फिर आठ बन्दूक़ों की आवाज़ हुई। कितने ही मरे, और कितने ही घायल हुए। असभ्य लोग किधर भागे, कुछ निर्णय न कर जहाँ के तहाँ खड़े हो मरने लगे।

हमारे आठ आठ आदमियों की तीन टोलियाँ हो गईं और तीनों तरफ से एक साथ सिंहनाद करके उन असभ्यों पर टूट पड़े, और उन सबों को लाठी, बन्दूक़ के कुन्दे, फरसे और कुल्हाड़ी आदि हथियारों से मारने लगे। थोड़ी ही देर में असंख्य असभ्य भूतलशायी हो गये। दो-एक ने तीर मारने की चेष्टा की थी किन्तु उन्हें अवसर न मिला। एक तीर ने फ्राइडे के पिता को किञ्चित् घायल किया था। जो असभ्य बचे वे चिल्लाते हुए जहाँ तहाँ भाग गये। हम लोग उनको मारते मारते थक गये थे इस लिए उनका पीछा न कर सके। कुल १८० असभ्य मारे गये। बचे हुए असभ्य दौड़ कर समुद्रतट में अपनी नाव पर सवार होने गये। किन्तु उन लोगों पर विपत्ति पर विपत्ति आने लगी। सन्ध्याकाल से ही हवा बहुत तेज़ बह रही थी। इसलिए उन को शीघ्र भागने का भी अवसर न मिला। हवा समुद्र से किनारे की ओर बह रही थी। हवा की झोंक और ज्वार की लहर से नावे एकदम सूखे में आ लगी थीं और हवा लगने से एक की टक्कर दूसरी में लगते लगते टूट फूट गई थीं।

हमारे सैनिक विजय प्राप्त कर के उल्लसित हो उठे, किन्तु उस रात में उन लोगों को विश्राम नसीब न हुआ। वे लोग कुछ देर दम लेकर देखने गये कि असभ्य-लोग क्या करते हैं। युद्ध-स्थल के भीतर होकर जाते समय उन लोगों ने देखा कि तब भी कोई कोई असभ्य ऊपर को दम खींच रहे हैं, पर अधिक देर तक उनके बचने की संभावना न थी। उन की अन्त-कालिक अवस्था देख कर हमारे दल के लोग दुःखी हुए, कारण यह कि युद्ध में शत्रुओं का निपात करते दुःख नहीं होता, किन्तु उनका दुःख देख कर सुखी होना सहृदयता का लक्षण नहीं। जो हो, हम लोगों के असभ्य नौकरों ने कुठार के आघात से, उन आसन्नमृत्यु शत्रु-सैनिको को सब कष्टों से छुड़ा दिया।

आख़िर उन्होंने देखा कि एक जगह लगभग सौ हतावशिष्ट असभ्य ज़मीन में बैठे हैं और घुटनों पर हाथ और हाथ पर सिर रक्खे अपनी दुर्दशा को सोच रहे हैं।

हमारे पक्ष के लोगों ने उन्हें डरवाने के लिए सर्दार की आज्ञा से दो बन्दूकों की खाली आवाज़ की। शब्द सुनते ही वे लोग डर गये और चिल्लाते हुए जङ्गल के भीतर जा छिपे। अब एटकिंस ने उनकी डोंगियों को नष्ट कर डालने की राय दी। किसी किसी ने उसका प्रतिवाद कर के कहा कि, ऐसा करने से बड़ी खराबी होगी। जाने का उपाय न रहने से वे लोग मरने पर कमर कस कर नाना प्रकार के उपद्रव करेंगे। हिंस्र पशुओं की भाँति जङ्गल भर में घूमते फिरेंगे। उन लोगों के भय से हम लोगों को अकेले बाहर निकल कर काम करना कठिन हो जायगा। तब उन्हें वन्य जन्तुओं की तरह ढूँढ़ ढूँढ़ कर मारना होगा, नहीं तो वे लोग अपने पेट की आग बुझाने के लिए हम लोगों के खेत, खलिहान और पालतू पशुओं को लूट ले जायँगे। एटकिंस ने कहा-यह सही है, सौ मनुष्यों का सामना मैं स्वयं कर सकता हूँ पर सौ जातियों का धक्का कौन सँभालेगा? ये लोग देश को लौट जायँगे तो हम लोगों का प्राण बचना कठिन होगा। असंख्य असभ्य बार बार आकर हम लोगों को सतावेंगे।

उसकी यह बात सभी ने पसन्द की। सभी लोग कुछ सूखी लकड़ियाँ बटोर लाये और आग को अच्छी तरह प्रज्वलित कर डोंगियों को जलाने लगे। यह हाल देख कर असभ्य लोग दौड़ आये और हाथ जोड़ कर धरती में घुटने टेक कर डोंगियों की भिक्षा माँगने लगे। वे लोग इशारे से जताने लगे कि ऐसा अपकर्म हम फिर कभी न करेंगे। एक बार देश जाने ही से हम लोग फिर कभी इस टापू में न आवेंगे। किन्तु उन लोगों का देश लौटना तो हम लोगों के लिए हितकर न था। क्योंकि एक व्यक्ति के लौट कर घर जाने और खबर देने से इतना अनिष्ट हुआ है, जब ये सब के सब देश में जा कर लोगों से यहाँ की बात कहेंगे तब तो हम लोगों का सर्वनाश होना ही सम्भव है। हमारे दल के लोगों ने उन की कातर दृष्टि और गिड़गिड़ाहट पर ध्यान न दे कर उनकी डोंगियों को नष्ट कर डाला। यह देखकर वे विकट चीत्कार करते हुए पागल की भाँति जङ्गल में इधर उधर दौड़ने लगे। वे लोग खेतों को रौंदने लगे; अधपके अंगूरों को तोड़ तोड़ कर कुछ खाने और कुछ फेंकने लगे। ऐसे ही और भी अनेक उत्पात करने लगे। किन्तु भाग्यवशात् उन लोगो ने हमारे किले का और गुफा के भीतर वाले पालतू बकरों का कुछ पता न पाया था, इसी से कितनी ही वस्तुएँ बच गई थीं। तब भी वे गिनती में इतने अधिक और दौड़ने में ऐसे तेज थे कि निरस्त होने पर भी उन पर एकाएक आक्रमण करने का साहस कोई नहीं करता था। क्रमशः उन लोगों की दशा शोचनीय हो उठी और साथ साथ हमारे पक्ष की भी। हम लोगों की दुरवस्था का कारण खाद्य-सामग्रियों का अभाव न था; कारण था दुर्दम्य हिंस्र मनुष्यों का उत्पात। असभ्य लोग भूख से व्याकुल होकर चारों ओर विभीषिका फैलाते फिरते थे। द्वीप-निवासियों को उनका उपद्रव असह्य हो उठा। आख़िर उन लोगों ने अपने बचाव के लिए असभ्यों का शिकार करना निश्चय किया। यदि उनमें कोई अधीनता स्वीकार कर आज्ञानुसार काम करने को राजी होगा तो वे और असभ्य नौकरों की भाँति किसी काम में लगा लिये जायँगे। अब हम लोगों की तरफ़ के आदमी उन असभ्यों को देखते ही बाघ-भालू की तरह मारने लगे। आख़िर वे लोग ऐसे सीधे हो गये कि उनकी और बन्दूक़ उठाते ही वे जमीन पर गिर पड़ते थे। प्राणों के भय से सभी घने जङ्गल के भीतर छिप कर रहने लगे और भूखों मरने लगे।

यह देख़ कर सभी का चित्त दया से द्रवित हो उठा, विशेष कर सर्दार का। उन्होंने सबसे कहा कि एक जीवित असभ्य को पकड़ कर उसे सब बातें भली भाँति समझा कर कह देनी चाहिएँ। इसके बाद उन लोगों से सन्धि स्थापन करानी चाहिए।

बहुत दिनों के अनन्तर एक असभ्य गिरफ्तार किया गया। किन्तु पकड़े जाने से वह बड़ा दुखी हुआ। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। आख़िर जब उसने देखा कि उसके साथ दया का व्यवहार हो रहा है तब वह कुछ शान्त हुआ और उसका चित्त स्थिर हुआ। फ़्राइडे के बाप ने उसे समझा दिया कि तुम लोग यदि हमारे साथ अच्छा बर्ताव करोगे तो हम तुम्हें न सतावेंगे, बल्कि तुम लोगों को सब तरह से सहायता देंगे। जो कदाचित् तुम लोग इस प्रस्ताव पर सम्मत न होगे तो तुम लोगों की मृत्यु निश्चित है।

उस व्यक्ति से सन्धि का प्रस्ताव पाकर सभी असभ्य हम लोगों के पास आये। उन्होंने कुछ खाने को माँगा। अब भी उनमें ३७ व्यक्ति जीवित थे। उन लोगों की प्रार्थना पर भात, रोटी और तीन जीवित बकरे उनको दिये गये। भोजन पाकर उन लोगों ने पूर्ण रूप से कृतज्ञता प्रकट की। टापू के दक्षिण भाग में, एक पहाड़ की तराई में, उन लोगों के रहने के लिए जगह दी गई। वे लोग अब भी शान्ति-पूर्वक वहीं रहते हैं। किसी वस्तु की नितान्त आवश्यकता न हो तो वे हम लोगों के अधिकार में किसी प्रकार का दस्तन्दाज़ी नहीं करते। हमारे दलवालों ने उन्हें खेती करना, रोटी बनाना, पशुओं का पालना और दूध दुहना आदि काम सिखलाया है। उनके समाज में सिवा स्त्री के और किसी वस्तु की कमी नहीं है। उन लोगों के अधिकार में डेढ़ मील दौड़ी और चार मील लम्बी भूमि दी गई है जिसमें वे लोग निर्द्वन्द्व होकर घूमते-फिरते हैं और अपनी खेती-बाड़ी करते हैं। अब वे लोग बड़े सीधे सादे हो गये हैं और हम लोगों की आज्ञा के अनुसार काम करते हैं। वे लोग अब वृथा समय नष्ट न कर भाँति भाँति के टोकरे, डलियाँ, चलनी, कुरसी, टेबल, खाट, आलमारी, बक्स, आदि सुन्दर सुन्दर काम की चीज़े तैयार करके सबका अभाव दूर करते हैं। वे लोग अब अच्छे शिष्ट और सभ्य बन गये हैं।

उपनिवेश में समाज और धर्म-संस्थापन

इन अनेक घटनाओं के बाद इस टापू में मेरा आकस्मिक आगमन मेरे उपनिवेश-वासियों के लिए ईश्वर-प्रेरित आशीर्वाद ही की तरह सुखद हुआ था। मैंने इस टापू में आकर उन लोगों के सभी प्रकार के प्रभावों को दूर कर दिया। वे लोग मुझसे छुरी, कैची, कुदाल, खनती, और कुल्हाड़ी आदि उपयोगी औज़ार पाकर अपने अपने घर बनाने लग गये। विल एटकिंस पहले जैसा आलसी था वैसा ही अब ब्याह करने पर परिश्रमी हुआ। उसने अत्यन्त सुन्दर सुदृढ़ घर बनाया। उसमें चटाइयाँ बुन कर लगाईं। घर के चारों ओर खूब गोल घेरा बना दिया। उसके बीच में उसका घर अष्टदल कमल की भाँति शोभायमान हो रहा था। उसके प्रत्येक कोने में उसने खुब मज़बूत खम्भे की टेक लगा रक्खी थी। उसने अपनी ही बुद्धि से काठ की धोंकनी तथा लोहे की हथौड़ी और नेहाई बना कर काम चलाने लायक लोहे की कितनी ही चीज़ें तैयार कर ली थीं।

एटकिंस के घर में आँगन, दालान, चबूतरा और बरांडा सभी ऐसे सुन्दर थे और सर्वत्र ऐसी सफाई थी कि जो देखते ही बन आवे। एटकिंस के घर सा सुहावना घर मैंने और कहीं नहीं देखा। इस घर में एटकिंस और उसके दो साथियों के कुटुम्बी लोग रहते थे। जो व्यक्ति असभ्यों के हाथ लड़ाई में मारा गया था उसकी विधवा स्त्री अपने तीन बच्चों को लेकर यहीं रहती थी। और भी सन्तान सहित दो विधवाओं का वह प्रतिपालन करता था।

वे स्त्रियाँ भी गृह-कार्य में बड़ी चतुर थीं। उन्होंने अँगरेज़ पति पाकर अँगरेज़ी बोलना सीख लिया था। उनके लड़के भी अँगरेज़ी बोलते थे। मैंने उन सब बच्चों को जाकर देखा । सब से बड़े बच्चे की उम्र छः वर्ष की थी।

मैंने देखा, इस समय स्पेनियर्डों और अँगरेज़ों के बीच किसी तरह की अनबन न थी। दोनों मिल जुल कर अपना अपना काम करते थे। मैंने एक भोज देकर सबको सम्मानित किया। मेरे जहाज़ के रसोइये ने भोजन बना कर सब को खिलाया-पिलाया। बहुत दिनों बाद स्वादिष्ठ भोजन पा कर सभी लोग अपनी रसना को परितृप्त कर के प्रसन्न हुए।

भोज का जलसा समाप्त होने पर मैंने जहाज़ पर से वे चीज़ उठवा मँगाईं जो उन लोगों के लिए अपने साथ लाया था। उन लोगों में वे चीज़ मैंने इस हिसाब से बाँट दी कि जिसमें उन लोगों में पीछे से आपस में, समान भाग न मिलने के कारण, तकरार न हो। मैंने उन सौगाती चीज़ों को बराबर बराबर बाँट दिया।

मैं उन लोगों का यहाँ तक हितचिन्तक था, यह देखकर उन लोगों का हृदय प्रेम से पसीज उठा और सारा शरीर पुलकित हो गया। उनकी आँखों से आँसू बह चले। उन लोगों ने एक वाक्य से स्वीकार किया कि वे लोग मुझको अपने पिता के तुल्य समझते हैं; वे लोग आजीवन मेरी अधीनता स्वीकार करके इसी द्वीप में मेरी प्रजा बन कर रहेंगे। बिना मेरी आज्ञा पाये कोई इस टापू का त्याग न करेगा।

वस्तु-वितरण के अनन्तर मैंने दर्जी, लुहार, बढ़ई आदि मिस्त्रियों को उन लोगों के सिपुर्द कर दिया। दर्ज़ी ने हर एक को एक एक कुर्ता सी दिया और स्त्रियों को सिलाई के कामों में खुब निपुण कर दिया। बढ़ई ने हम लोगों की बनाई टेबुल, कुर्सी आदि वस्तुओं को एक ही घड़ी में सुन्दर और सुडौल बना दिया।

इसके बाद मैंने अपनी प्रजा को खेती के उपयुक्त हथियार बाँट दिये। हरएक को एक एक कुदाल, खुरपी और खनती दी। बढ़ई के उपयुक्त हथियार विभक्त न करके एक बढ़ई रख दिया। मैं छुरी, कैंची और लोहे की छड़ें आदि बहुतायत से लाया था। वे वस्तुएँ साधारण भण्डार में रख दी गई। जिसे जब जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, उसे मिलेगी। उन लोगों के लिए मैं लोहा इसलिए बहुत लाया था, कि लुहार उससे उनके प्रयोजन की वस्तु बना देंगे।

इसके बाद मैंने हरएक को एक एक बन्दूक़ और बहुत सी गोली-बारूद दी। उन्हें पाकर वे लोग बहुत खुश हुए। अब वे हज़ारों असभ्यों का मुकाबला कर सकेंगे।

जिस युवक को और उसकी दासी को मैंने भूखों मरने से बचाया था, वे मेरे पास आकर कहने लगे कि "हम अब भारतवर्ष क्या करने जायँगे। आपकी आज्ञा हो तो हम इसी टापू में रह जायँ।" मैंने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार करके उन्हें भी अपनी प्रजा में सम्मिलित कर लिया। एटकिंस के घर के समीप ठीक उसी के घर के नक्शे का एक घर बनवा कर उस नवयुवक को रहने के लिए दे दिया।

मेरे साथ जो पुरोहित आये थे वे बड़े धार्मिक, शिष्ट और साम्प्रदायिक विषय में खूब पहुँचे हुए थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा-देखिए साहब, आपकी अँगरेज़ प्रजा असभ्य जाति की स्त्रियों से पति-पत्नी का सम्बन्ध जोड़कर निवास कर रही है। परन्तु इन लोगों ने सामाजिक प्रथा या कानून के अनुसार ब्याह नहीं किया है। ऐसी अवस्था में संभव है कि जब ये लोग चाहेंगे तब इन निराश्रया रमणियों को छोड़ देंगे। इसलिए, इस दोषोद्धार के हेतु, उनका उन स्त्रियों से विधिपूर्वक ब्याह करा देना चाहिए। विवाह बन्धन कुछ साधारण सम्पर्क नहीं है कि जब चाहे उससे अलग हो जायँ। जब आप उन लोगों के नेता हैं तब उन लोगों के सम्पत्ति-सम्बन्धी शुभाशुभ के आप जैसे भागी हैं वैसे ही उनके नैतिक शुभाशुभ के भी। आपको उचित है कि उनको यथाविधि ब्याह दें।

मैंने उनकी धर्मनिष्ठा देख प्रसन्न होकर कहा-मुझे इतना समय कहाँ? मैं दूसरे के जहाज़ का एक यात्री मात्र हूँ। यहाँ रहने के लिए मैंने बारह दिन की छुट्टी ली है। इसके बाद जितने दिन विलम्ब करूँगा उतने दिनों के लिए पचास रुपये रोज़ के हिसाब से हर्जाना देना होगा। यहाँ मुझको आज तेरह दिन हो गये। अधिक विलम्ब करने से मुझे भी इसी टापू में रहना होगा। इस बुढ़ापे में फिर निर्वासन का, दुःख भोगने की इच्छा नहीं होती।

पुरोहित ने कहा-तो मुझे आप यहाँ छोड़ते जायँ। मैं इन लोगों को धार्मिक शिक्षा दूँगा और इन लोगों के हृदय में ईश्वर की भक्ति स्थापित करने की चेष्टा करके अपने को धन्य मानूँगा।

उनके मुख की उज्वल शोभा और उत्साह देखकर मैं दङ्ग हो रहा। आख़िर मैंने पूछा-"क्या आपने इस बात को भली भाँति सोच लिया है कि इस निर्जन टापू में रहना कितना कष्टकर है? और यहाँ से इस जीवन में देश लौट जाने की संभावना भी नहीं है। हो सकता है, इसी टापू में जीवन-लीला समाप्त हो।" ये बातें जानकर भी वे इस टापू में रहने को राजी हुए। उन्होंने कहा-इन धर्महीन नरनारियों के मन में परमेश्वर की महिमा और दयाभाव का ज्ञान उपजाकर यदि इन्हें सत्पथ पर ला सकूँगा तो मैं अपने जीवन को सफल समझूँगा। तब मेरा यह द्वीपान्तरवास भी परमसुख का कारण होगा। हाँ, यदि आप कृपा करके अपने सेवक फ़्राइडे को यहाँ छोड़ जायँ तो मेरा विशेष उपकार हो। यह मेरा दुभाषिया बनकर मुझे इस काम में यथेष्ट सहायता देगा।

फ़्राइडे को मैं अपने पास से जुदा नहीं कर सकता था। उससे बिलग होने की बात सुनकर मैं अधीर हो उठा। ऐसे आज्ञाकारी निष्कपट भृत्य को प्राण रहते क्या कोई अपनी आँखों के सामने से हटा सकता है? मैंने पुरोहित से कहा- "फ़्राइडे को छोड़ना मेरे लिए नितान्त कष्टकर है। किन्तु आप जिस काम में अपने जीवन का उत्सर्ग कर रहे हैं उस काम की सहायता के लिए मुझे भृत्य-विच्छेद का कष्ट स्वीकार करना लाज़िमी है। परन्तु बात यह है कि मैं किसी तरह फ्राइडे को छोड़ भी दूँ तो वह मुझे न छोड़ेगा।

यह सुन कर पुरोहित चिन्तित हुए। वे बेचारे फ्रांसीसी थे। वे किसीकी भाषा नहीं समझते थे और न कोई दूसरा ही उनकी बोली समझ सकता था। तब उपाय क्या? तो क्या भगवान् की महिमा के प्रचार का कोई उपाय न होगा? मैंने उनसे कहा-फ़्राइडे के पिता ने स्पेनिश भाषा सीखी है और आप भी कुछ कुछ स्पेनिश भाषा जानते हैं, इसलिए उसी के द्वारा आपका काम निकल जायगा।

यह बातचीत होने के पीछे मैंने अँगरेज़ों को बुला कर उनसे विधिपूर्वक ब्याह करने की बात कही। वे सभी इस प्रस्ताव पर सम्मत हुए। एटकिन्स ने अगुवा होकर कहा कि "हम लोग अपने पुत्र-कलत्र को इतना प्यार करते हैं कि उन्हें छोड़ हम लोग राजपद पाना भी सुखकर नहीं समझते।" स्त्रियों को विवाह का अर्थ अच्छी तरह समझा देने पर वे भी सन्तुष्ट हुईं।

दूसरे दिन ब्याह की तैयारी हुई। किन्तु पुरोहित ने एक उज्र पेश किया कि स्त्रियों को धर्म-दीक्षित किये बिना ब्याह कैसे होगा? मैंने उन सब को पुरोहित के उज्र की बात समझा दी। सभी ने स्वीकार किया कि उन लोगों ने अपनी स्त्रियों को कभी कुछ धर्मशिक्षा नहीं दी है। वे लोग स्वयं धर्मज्ञान से वञ्चित थे तो दूसरे को क्या उपदेश देते? कभी कभी ईश्वर के नाम से जो उन लोगों को सौगन्द खाने की बुरी आदत थी, इसीसे वे लोग इतना जानते थे कि ईश्वर कोई होवा। किन्तु उनका नाम केवल शपथ के लिए ही वे उपयुक्त समझ बैठे थे। परन्तु वास्तव में ईश्वर किसे कहते है यह समझ उन लोगों को न थी। ईश्वर की अलौकिक शक्ति और विचित्र लीला की ओर उन का ध्यान कभी नहीं जाता था। तब हमने उन लोगों से कहा,-"तुम लोग पहले ईश्वर की महिमा भली भाँति जान लो फिर स्त्रियों को ईश्वर पर विश्वास उत्पन्न करा कर उन्हें दीक्षित करो।" एटकिंस ने लम्बी साँस लेकर कहा-"हा भगवन्! मैं तो अत्यन्त दुराचारी और पापिष्ठ हूँ। मैं ईश्वर की महिमा के प्रचार करने का उपयुक्त पात्र नहीं।" मैने कहा-"सबकी अपेक्षा तुम्हीं विशेष उपयुक्त हो। दुष्कर्मी और पापियों को ईश्वर अनुताप के द्वारा पवित्र कर के उनपर अपनी दया और महत्व का प्रकाश करते हैं।" एटकिन्स ने गम्भीरतापूर्वक मेरी बात सुनी और वहाँ से उठ कर वह धीरे धीरे स्त्री के पास गया।

हम लोगों ने बड़ी देर तक उसके लौट आने की प्रतीक्षा को। इसके बाद उसे पुकारने जाकर देखा कि वे स्त्री-पुरुष एकत्र हो ईश्वर की उपासना कर रहे हैं। यह देख कर हम लोगों का हृदय हर्ष से उच्छ्वसित हो उठा। पुरोहित तो यह दृश्य देख कर अपनी आँखों के आनन्दाश्रु को न रोक सके। वे रोने लगे। उपासकों को उसी अवस्था में छोड़ कर हम चले आये। हमने जो उनको उपासना करते देखा था वह बात गुप्त ही रही। किसीसे हम लोगों ने कही नहीं।

कुछ देर बाद एटकिंस के लौट आने पर मैंने उससे बात ही बात में पूछा-एटकिंस, तुमने कहाँ तक लिखना-पढ़ना सीखा था? तुम्हारे पिता कौन थे?

एटकिंस-मेरे पिता पादरी थे।

मैं-उन्होंने तुमको क्या शिक्षा दी थी?

एटकिंस-उन्होंने मुझको शिक्षा देने में कोई त्रुटि नहीं की किन्तु मैंने उनका एक भी उपदेश ग्रहण नहीं किया। मैं बड़ा पापिष्ठ था। मैंही अपने पिता की मृत्यु का कारण हुआ।

मैं-तो क्या तुमने अपने बाप को मार डाला?

एटकिंस-मैंने अपने हाथ से उनका गला नहीं काटा, किन्तु अपने विरुद्धाचरण से उनके हृदय को सन्तप्त कर के मैं ही उनकी असमय-मृत्यु का कारण हुआ था।

मैं-अच्छा एटकिंस, इन बातों को जाने दो। बीती हुई बातों की आलोचना से क्या फल? इस बात की चर्चा से तुम्हें कष्ट तो नहीं हो रहा है?

एटकिंस-क्या कष्ट कुछ ऐसा वैसा है? वह मैं आपसे क्या कहूँ!

मैं-कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। तुम्हारे कष्ट का अनुभव स्वयं मेरे मन में हो रहा है। इस टापू के प्रत्येक वृक्ष, लता, गुफा और पहाड़ मेरी अकृतज्ञता के साक्षी हैं। मैं भी अपने बुरे आचरण के द्वारा अपने पिता की मृत्यु का कारण हुआ था। तुममें और मुझमें भेद इतना ही है कि तुम मेरी अपेक्षा अधिक अनुतप्त हुए हो। पर यह तो बतलाओ कि ऐसा भाव तुम्हारे मन में क्योंकर उत्पन्न हुआ?

एटकिंस-मैं अभी पहले पहल अपनी स्त्री को ईश्वर विषयक ज्ञान सिखलाने की चेष्टा कर रहा था। पर मैं उसे क्या सिखलाऊँगा; मैं ही उसके पास से धर्मतत्त्व की शिक्षा प्राप्त कर आया हूँ।

मैं-अच्छा एटकिंस, यह तो कहो कि तुमने स्त्री को क्या समझाया?

एटकिंस अपने और अपनी स्त्री के कथोपकथन का वर्णन करने लगा।

एटकिंस ने पहले स्त्री को यह समझा दिया कि ब्याह क्या है। इसके बाद उसने क्रम क्रम से ईश्वर का महत्व और उनकी अतुल दया की बात समझाई वह इतना बड़ा पापिष्ठ था तब भी भगवान् ने उसके अनेकानेक अपराधों को भुला कर उसे स्वास्थ्य, आनन्द, भोजन, पान और प्रणय का सुख प्रदान कर उसे सुरक्षित कर रक्खा है। इसके लिए उन्हें एक बार भी अब तक इस मुँह से धन्यवाद तक नहीं मिला। वे अपनी मूर्ख सन्तान को सत्यधर्म के पथ पर लाने की चेष्टा करते हैं। जो उस पथ पर आता है उसे वे असीम आनन्द देते हैं और उनकी कृपा से वह कृतकृत्य होता है। यह सुन कर उसकी स्त्री ने कहा-यदि ईश्वर सत्य और न्याय-परायण है, यदि वे सर्वशक्तिमान् और सृष्टि के विधायक हैं, यदि वे धर्म के बन्धु और पाप के शत्रु हैं तो मैं कभी उनकी आज्ञा के प्रतिकूल काम न करूँगी और न तुम्हींको बुरा काम करने दूँगी। वे दिन दिन हम लोगों के भले की कामना करते हैं। हम लोग अपनी चित्तवृत्ति के वशीभूत हो कर अपने आप अशुभ मार्ग पर जाकर धर्मभ्रष्ट होती हैं। हम अब बुरे मार्ग से बच कर चलेंगी। वही दीनबन्धु परमेश्वर हम लोगों को अशुभ प्रवृत्ति के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य देंगे और उन्हीं की कृपा से हम लोग उस पर विजय प्राप्त कर के सुखी होंगे। मैं तुम्हारे साथ नित्य शाम-सबेरे उनका गुण गाऊँगी और उनसे अपने अपराध की क्षमा माँगूँगी। वह संसार के परिचालक एक अद्वितीय हैं।

स्त्री की यह बात सुन कर एटकिंस स्थिर नहीं रह सका। वह अपनी स्त्री को साथ ले कर ईश्वर की उपासना करने लगा। इसी अवस्था में हम लोगों ने उनको देखा था।

मेरे टापू में धर्म की स्थापना हुई। किन्तु वह धर्म, हृदय के आग्रह से, आप ही उत्तेजित हुआ था। इससे सम्प्रदाय की संकीर्णता इस धर्म में न थी। किसी तरह की खुशामद या आडम्बर की आवश्यकता न थी।

धार्मिक दीक्षा के बाद उन लोगों का फिर से विधिवत् ब्याह हुआ। उस दिन के ऐसा आनन्द और उत्सव मैंने अपनी ज़िन्दगी में प्रायः कभी न मनाया था।

उन स्त्री-पुरुषों को धर्म-दीक्षित कर के ही पुरोहित सन्तुष्ट न हुए, प्रत्युत टापू में जो ३७ असभ्य थे उनको धर्म-शिक्षा देने के लिए वे व्यग्र हो उठे।

मैं इस प्रकार टापू में सामाजिक और धार्मिक शिक्षा का सूत्रपात करके जब जहाज़ पर सवार होने की तैयारी कर रहा था तब उस नव-युवक ने, जिसे निराहार के कष्ट से मैंने बचाया था, आकर मुझसे कहा-महाशय, आपने सबका ब्याह तो विधिपूर्वक करा दिया, एक और ब्याह करा कर तब आप जायँ।

उसकी बात सुन कर मैं दङ्ग होगया। क्या यह छोकरा इस अधेड़ दासी के साथ ब्याह करना चाहता है? मैं उसे समझा कर कहने लगा-"देखो भैया, कोई काम एकाएक कर डालना ठीक नहीं। तुम अच्छे घराने के मालूम होते हो। तुम्हारा शीलस्वभाव भी अच्छा है। देश में तुम्हारे स्वजनवर्ग भी हैं। ऐसी अवस्था में एक दासी के साथ ब्याह करना क्या तुम्हें अच्छा जान पड़ता है? फिर वह दासी भी तो तुम्हारे योग्य पात्री नहीं है। एक तो वह तुम्हारी टहलनी है, दूसरे तुमसे वह नौ दस वर्ष उम्र में बड़ी है। तुम अधिक से अधिक सत्रह-अठारह वर्ष के होगे और दासी की उम्र २६-२७ साल से कम न होगी। मैं तुमको इस द्वीप से तुम्हारे देश पहुँचा दूँगा। तब तुम ज़रूर इस हठकारिता के लिए अनुतप्त होगे और तुम दोनो का जीवन शोचनीय हो उठेगा।" मैं असम ब्याह के अनेक दोषों के सम्बन्ध में एक लम्बी वक्तृता देने चला था, किन्तु उसने मुसकुरा कर बड़ी नम्रता से मेरे व्याख्यान में बाधा डाल कर कहा-महाशय, आपने मेरी बात समझी नहीं। मेरा वह मतलब नहीं जो आपने समझा है। मैं दासी के साथ ब्याह करना नहीं चाहता। आपके लाये हुए मिस्त्री के साथ वह ब्याह करना चाहती है।

यह सुन कर मैं प्रसन्न हुआ। वह दासी जैसी शान्त-स्वभावा, शिष्ट और सुशीला थी वैसा ही उसने अपने लिए वर भी चुना था। मैने उसी दिन उस दासी का ब्याह कर दिया। उन वधू-वरों को मैंने यौतुक-स्वरूप कुछ ज़मीन दी और उस नव-युवक को भी थोड़ी सी ज़मीन दी। पीछे ये लोग आपस में जगह-ज़मीन के लिए लड़ाई-झगड़ा न करें, इसलिए सबके रहन-सहन, खेत-खलिहान आदि के योग्य ज़मीन के चारों ओर की सीमा निर्दिष्ट कर के पट्टा लिख दिया और उन लोगों से क़बूलियत लिखा ली। पट्टे पर मैंने अपनी मुहर कर दी और क़बूलियत पर उन लोगों का हस्ताक्षर करा कर गवाहों से भी दस्तखत करा लिये। मैंने पट्टे में यह शर्त लिख दी कि इस ज़मीन की पैदावर पुश्त दरपुश्त तुम सुख से उपभोग कर सकोगे और यह ज़मीन बराबर तुम्हारे क़ब्ज़े में रहेगी। इसमें कभी किसीको किसी प्रकार का उज्र न होगा। यदि कोई किसीकी सम्पत्ति पर दावा करेगा तो वह दावा अनुचित समझा जायगा।

यदि आपस में किसी तरह का कोई झगड़ा छिड़ जाय तो वे लोग आपस में ही पञ्चों के द्वारा तसफ़िया कर लें। उन लोगों का समाज साधारण-तन्त्र-प्रणाली के अन्तर्गत रहे। कोई किसी के ऊपर हुकूमत न कर सकेगा और न कोई प्रधान बन कर ही कोई काम कर सकेगा। सब लोग आपस में मिल जुल कर काम करेंगे। ३७ असभ्यों को भी इस समाज के अन्तर्गत कर लेना होगा। वे लोग मज़दूरी कर के अपना गुज़ारा करेंगे। किन्तु वे लोग एक दम खरीदे हुए दास न समझे जायँ। उन लोगों को इतनी स्वाधीनता अवश्य रहेगी कि वे जहाँ चाहे कमा खायें। किसी का उनपर जोर नहीं रहेगा। मैंने इस प्रकार की व्यवस्था कर दी जिससे कोई किसीके साथ मेरे परोक्ष में विवाद न करे। असभ्यों में प्रायः सभी ने मज़दूरी करना स्वीकार किया; उनमें सिर्फ चार-पाँच व्यक्तियों ने खुद खेती करके जीवन निर्वाह करने की इच्छा प्रकट की। उन्हें भी मैंने थोड़ी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दी। वे असभ्य लोग अब सभ्यमण्डली में आने से शिक्षा-दीक्षा के उपयुक्त-पात्र समझे गये।

दासी सचमुच ही बड़ी धर्म-शीला थी। उसने सब स्त्रियों को धर्मोपदेश देकर सबके हृदय में धर्म-निष्ठा जागृत कर दी। विल एटकिंस पुरुषों में धर्म का प्रचार करने लगा। अहा! ईश्वर की बड़ी विचित्र महिमा है! जो व्यक्ति दो दिन पहले उनका नाम न लेता था वही आज उनकी महिमा का सर्वश्रेष्ठ प्रचारक बन बैठा। मैंने इन लोगो को अपनी बाइबिल दी। एटकिंस ने उस ग्रन्थ को देख कर बड़े आग्रह से दोनों हाथों से उठा लिया और मारे खुशी के उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने अपनी स्त्री को पुकार कर कहा-देखो, देखो, जिस ग्रन्थ के लिए मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा था वह ग्रन्थ आज अनायास मुझे मिल गया। यह ग्रन्थ हम लोगों की अज्ञता का निवारक, धर्म-पथ का शिक्षक, विपद में सहायक और शोक के समय धैर्यदायक होगा।

एटकिंस की स्त्री ने समझा कि स्वयं ईश्वर ने हम लोगों के उपकारार्थ यह ग्रन्थ भेज दिया है। मैंने उन लोगों को समझा दिया कि ईश्वर अप्रत्यक्ष-कारण होने पर भी वे मनवाणी के अगोचर है। वे जो कुछ करते है अप्रकट रूप से ही करते हैं। उनका अलौकिक कार्य ही उनके कारण होने का पूरा प्रमाण है। धूर्त पुरोहितगण इसी विषय को लेकर अनेक सम्प्रदाय कल्पित करके उन्हें विविध-भ्रान्त-धारणाओं में उलझा रखते हैं। किन्तु मेरी इच्छा थी कि मेरे टापू में बुद्धिविचार से ही धर्म की प्रतिष्ठा हो।

मैं इन लोगों के लिए जलक्रीड़ा करने के उपयुक्त नाव और तोप लाया था। वे दोनों चीज़ मैंने इन लोगों को न दीं। कारण यह कि ये लोग जो इतने दिनों से आपस में लड़ते झगड़ते आये हैं, सो कौन जाने मेरे परोक्ष में ये लोग फिर वैसे ही झगड़ने लग जायँ तब तो सर्वनाश ही होगा।

मैं इन लोगों से बिदा हो छठी मई को जहाज़ पर सवार हुआ। आज कल करते करते टापू में पच्चीस दिन बीत गये। इँगलैन्ड से मैं जो पशु लाया था वे रास्ते ही में मर गये थे। इसलिए द्वीप-निवासियों से मैंने चलते समय कहा कि हो सकेगा तो ब्रेज़िल से कुछ पशु भेज दूँगा। दूसरे दिन पाँच बार तोप की आवाज़ के द्वारा रवानगी का संकेत कर के मैं जहाज़ पर चढ़ा।

फ़्राइडे की मृत्यु

मैं अपने टापू का सुप्रबन्ध कर के बिदा हुआ। तीन दिन समुद्रयात्रा करने के पीछे नाविको ने खूब ज़ोर से चिल्ला कर कहा "पूरब ओर स्थल दिखाई दे रहा है।" साँझ होने के पहले ही स्थल-भाग का किनारा देखते ही देखते घोर कृष्णवर्ण हो उठा। किन्तु ऐसा क्यों हुआ, इसका कुछ कारण हम लोग समझ न सके। जहाज़ का मेट मस्तूल के ऊपर चढ़कर दूरबीन से देखकर चिल्ला उठा "सैन्य-दल, सैन्य-दल।" मैं उसके कथन का अविश्वास कर उसकी बात काटने लगा। तब वह बोला-आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। डोगियों पर करीब एक हज़ार सैनिक-लवार हो हमारी ओर दौड़े चले आ रहे हैं।

यह सुन कर मैं और जहाज़ का कप्तान मेरा भतीजा बड़े ही अचम्भे में पड़ गया। वह बेचारा कभी इतनी दूर न आया था। उस पर मेरे टापू में जाकर असभ्यों की भयङ्कर वृत्ति की कहानी सुन कर उसे अत्यन्त भय हुआ था। उसने दो तीन बार मुझसे कहा-"अब की बार वे लोग आकर हम लोगों को ज़रूर मार कर खा डालेंगे।" मेरा भी मन स्थिर न था। कारण यह कि हवा रुक गई थी और समुद्र की तीक्ष्ण तरङ्ग हम लोगों को हठात् किनारे ही की ओर खींचे लिये जा रही थी। तथापि मैं सबको साहस देने लगा। ज्योंही असभ्य हमारे समीप पहुँचे त्योंही मैंने लंगर डालने का हुक्म दिया।

वे लोग बात की बात में हमारे जहाज़ के पास आ गये। मैंने जहाज़ के पालों को उतारने और लंगर डालने की आज्ञा दी। जहाज़ के सामने और पीछे एक एक नाव उतार कर उन पर कतिपय सशस्त्र नाविकों को इसलिए सवार किया कि यदि असभ्य लोग जहाज़ में आग लगाने की चेष्टा करेंगे तो नाविक लोग बालटी के द्वारा समुद्र का जल सींच कर आग बुझा देंगे।

किन्तु असभ्य लोग हम लोगों के समीप आकर और एक बड़ा सा जहाज देख कर एकदम भौंचक्का हो रहे। ऐसा प्रकाण्ड जहाज़ तो उन लोगों ने अपने बाप की ज़िन्दगी में आज तक कभी न देखा था। हम लोगों के साथ वे कैसा व्यवहार करें, यह उन लोगों की समझ में न आता था। तथापि वे लोग जान पर खेल कर एक बार जहाज के बिलकुल पास आये और हमारे जहाज को चारों ओर घूम कर देखना चाहा।

मैंने नाविकों से कहा-"ख़बरदार! उन लोगों को हमारे जहाज से भिड़ने मत देना।" यह हुक्म पाकर नाविकों ने उन असभ्यों को हाथ का इशारा देकर दूर रहने को कहा। उस इशारे का मतलब समझ कर वे लोग अपनी डोंगियों को हटा ले गये। फिर हमारे जहाज़ियों को लक्ष्य करके उन लोगों ने एक साथ पचास तीर छोड़े। इससे हमारे जहाज़ का एक नाविक पूरे तौर से घायल हुआ। मैंने कई एक काठ के तख्ते नावों पर उतरवा दिये। नाविकगण तख्ते खड़े करके उनकी आड़ में छिप रहे। अब मैंने उन्हें बन्दूक़ चलाने की मनाही कर दी।

आध घंटे तक इतस्ततः करने के बाद वे लोग झुण्ड बाँधकर जहाज़ के पश्चाद्भाग के खूब नज़दीक आ गये। तब हम लोगों ने उन्हें स्पष्ट रूप से देखा। उनमें कितने ही मेरे पुराने परिचित थे। द्वीप-निवास के समय कई बार उन लोगों के साथ मेरा मुकाबला हो चुका था। मैंने अपनी तोपों को ठीक करके फ़्राइडे को डेक के ऊपर इसलिए भेज दिया कि वह अपनी देशभाषा में अपने देशवासियों से उनके आगमन का कारण पूछे। फ़्राइडे ने खूब उच्चवर से पूछा, किन्तु असभ्यों ने फ़्राइडे की बात का कुछ जवाब न देकर हम लोगों की ओर पीठ करके और सामने की ओर झुककर हम लोगों को पश्चाद्भाग दिखलाया। ऐसा बीभत्स व्यवहार हम लोगों के प्रति अपमान या युद्ध के लिए सन्नद्ध होने का संकेत है, यह मैं न समझ सका। किन्तु उन लोगों को इस तरह करते देख फ़्राइडे ने चिल्लाकर कहा,-"देखो देखो ये लोग अभी बाण बरसावेंगे।" उसकी बात पूरी होते न होते टिड्डीदल की तरह सैकड़ो बाण एक साथ उड़कर जहाज़ पर आ गिरे और कई बाण मुझे अत्यन्त दुख देकर फ्राइडे के शरीर में चुभ गये। तीन बाणों की सख्त चोट लगने से फ्राइडे मर गया। उसके पार्श्ववर्ती और भी तीन व्यक्ति मरे । वे असभ्य होकर भी ऐसे अचूक तीरन्दाज़ थे।

मैंने अपने पुराने भृत्य की मृत्यु से अत्यन्त क्रुद्ध हो कर एक साथ नौ तोपें सीधी कर असभ्यों पर गोले बरसाने की आज्ञा दी। एक साथ नौ तोपों का भयङ्कर शब्द उन लोगों के पुरुषों ने भी आज तक कभी न सुना था। उनकी तीन चार नावें एक दम भर में उलट गईं। फ़्राइडे मेरा मित्र, नौकर, मन्त्री, साथी और पुत्र सब कुछ था। उस की मृत्यु से मैं ऐसा क्रुद्ध हुआ कि वे असभ्य सब के सब मारे जाकर उनकी सब नावें नष्ट-भ्रष्ट हो जलमग्न हो जातीं तो कदाचित् मेरे हृदय का ताप कुछ शान्त होता।

एक ही साथ उतनी तोपों की आवाज़ होने से असभ्यदल में बड़ी खलबली मच गई। नावों में परस्पर टक्कर लगने से तेरह-चौदह नावें टुकड़े टुकड़े हो गईं और उन के सवार समुद्र में गिरकर तैरने लगे। और लोग अपनी अपनी नाव खेकर बड़े वेग से भाग चले। उन लोगों ने कुछ भी खबर नहीं ली कि हमारे नौकाहीन साथियों की क्या दशा हुई। जलमग्न लोगों में प्रायः सभी मर मिट, केवल एक व्यक्ति को हमारे जहाज़ वालों ने जहाज़ पर खींच कर बचा लिया था। उस दिन सन्ध्या समय खूब तेज़ हवा बहने लगी। तब हम लोग पाल तान कर ब्रेज़िल की तरफ़ रवाना हुए। वह बन्दी असभ्य ऐसा दुखी था कि न कुछ खाता था और न कुछ बोलता था। मैंने देखा कि वह उपवास करते ही करते मर जायगा। तब मैंने उसे जहाज़ की डोंगी में उतार कर इशारे से कहा-"कुछ कहो तो कहो, नहीं तो तुझे अभी समुद्र में फेंक दूंगा।" तब भी वह कुछ न बोला। उसकी यह असभ्यता देख नाविकों ने धर पकड़ कर उसे पानी में गिरा दिया। अब वह जल पर तृण की भाँति तैरता हुआ जहाज़ के पीछे पीछे आने लगा और अपनी मातृभाषा में हम लोगों से न मालूम क्या कहने लगा। इसके बाद वह फिर जहाज़ पर चढ़ा लिया गया। अब से वह कुछ कुछ हम लोगों की बात मानने लगा।

जहाज़ मज़े में जा रहा है। किन्तु प्रिय सेवक फ़्राइडे के वियोग से मेरे चित्त में चैन नहीं। मैंने बड़ी श्रद्धा और सम्मान के साथ समुद्र में उसको प्रवाह किया। उसके मृतशरीर को भली भाँति कपड़े से ढँक कर और उसे एक बक्स में बन्द कर समुद्र में डाल दिया। उसके सम्मानार्थ ग्यारह बार तोप दागी गई। इसके बाद सभी चुप हो रहे। मेरे परम विश्वासी, प्रीति-भाजन, स्वामिभक्त, कर्तव्यनिष्ठ, निश्छल, सत्यशील और सहृदय भृत्य की जीवन-लीला समाप्त हुई। ऐसा सत्सेवक सौभाग्य से ही किसीको मिलता है। आज बार बार मैं अपने मन में यों कहने लगा

बहुत दिनों में भ्रम़ण कर लौटे हम निज गेह।
हाय हमारा भृत्य वह चला गया तज देह॥

क्रूसो का फिर ब्रेज़िल में आना

बारह दिन समुद्रयात्रा करने के बाद हम लोगों ने अमेरिका का उपकूल देखा। इसके चार दिन बाद हम लोगों ने ब्रेज़िल पहुँच कर लंगर डाला। यह वही जगह थी जहाँ से मेरे सौभाग्य और अभाग्य की सूचना आरम्भ हुई थी।

हम लोग ब्रेज़िल में आये तो सही किन्तु हम लोगों को स्थल में उतरने की आज्ञा नहीं मिली। मेरे पुराने हिस्सेदार अब भी जीवित थे। मेरे और उनके बीच जो शर्तनामा लिखा गया था वह भी इस समय हम लोगों का कोई उपकार न कर सका। सौदागरों ने हम लोगों के लिए बहुत कुछ सिफ़ारिश की किन्तु उससे भी कुछ फल न हुआ। मेरे द्वीप के अद्भुत कार्यकलाप की ख्याति भी हम लोगो को इस अनुग्रह का पात्र नहीं बना सकती थी। तब मेरे हिस्सेदार को स्मरण हुआ, कि मैंने वहीं को धर्मशाला के फ़ण्ड और दरिद्रों के भरण-पोषण के लिए यत्किञ्चित् दान दिया था। इससे उन्होंने धर्मशाला में जाकर महन्त को मेरी उदारता का स्मरण दिलाया और उन्हें नगराधीश के निकट, हम लोगों के लिए जहाज़ से उतरने की, अनुमति लाने को भेजा। बड़ी बड़ी मुश्किल से मैं, मेरा भतीजा (कप्तान), और छः व्यक्ति, कुल पाठ आदमियों को जहाज़ से उतरने की आज्ञा मिली। किन्तु यह भी इस शर्त पर कि हम लोग जहाज़ से कोई माल न उतारेंगे और बिना सरकार की आज्ञा के किसी व्यक्ति को वहाँ से अपने साथ न ले जा सकेंगे। इस शर्त का पालन इतनी कड़ाई से हुआ कि अपने हिस्सेदार को उपहार देने की सामग्री भी मैं बड़ी कठिनाई से जहाज़ पर से उतारने पाया ।

मेरे हिस्सेदार बड़े सज्जन थे। वे भी मेरी ही भाँति बिना कुछ पूँजी के व्यापार शुरू कर के अब अच्छे धनी हो गये थे। जितने दिन तक हम लोग जहाज़ से न उतर सके उतने दिन तक उन्होंने तरह तरह की खाने-पीने की स्वादिष्ठ वस्तुएँ भेज कर हम लोगों का सत्कार किया था। मैंने जहाज़ से उतर कर उनको प्रतिदान-स्वरूप विविध उपहार दिये।

मैं इँगलैन्ड से जो एक छप्परवाली नाव का फ्रेम लाया था उसमें इन्हींकी सहायता से तख़्ते जड़वा लिये। उन्होंने मिस्त्री के द्वारा उसे भली भाँति ठीक ठाक करा दिया। मैंने वह नाव एक व्यक्ति को सौंप कर उसकी मारफ़त भाँति भाँति की चीज़ें अपने टापू में भेज दीं। हमारे साथ का एक नाविक टापू में जाकर रहने की इच्छा करने लगा। मैंने उसे भी जाने की आज्ञा दी। असभ्य बन्दी को उसीके हवाले किया। वह नाविक का भृत्य होकर रहेगा। स्पेनियर्ड सरदार को मैंने एक चिट्ठी लिख दी कि इस नाविक को खेती के लिए ज़मीन, खेती-बारी के उपयुक्त हथियार और अन्यान्य आवश्यक वस्तुएँ दे देना।

नाव रवाना होने के पहिले मेरे कारबार के साझेदार ने मुझसे कहा कि-हमारा परिचित एक सज्जन यहाँ के पुरोहित-सम्प्रदाय की आँखों का काँटा हो रहा है। उस पर उनकी बुरी दृष्टि है। वह अपनी स्त्री और दो लड़कियों को लेकर यहाँ से भागने का उपाय खोज रहा है। यदि आप उसको अपने टापू में भेज कर खेती के लिए ज़मीन दें और सब बातों का प्रबन्ध कर दें तो उस भले मानस का बड़ा उपकार हो। वह पुरोहितों के हाथ में कहीं पड़ गया तो वे उसे जीते ही जला डालेंगे।

इस बात को मैंने तुरन्त स्वीकार कर लिया। उन लोगों को अपने जहाज़ में लाकर छिपा रक्खा। जब नाव रवाना होने लगी तब उन्हें उस पर सवार करा कर बिदा कर दिया।

ये महाशय यहाँ के एक प्रसिद्ध काश्तकार थे। जाते समय ये अपने साथ कुछ ऊख की जड़ें इसलिए लेते गये कि वहाँ जाकर ऊख की खेती करेंगे।

मैंने अपने द्वीप की प्रजा के लिए निम्न लिखित वस्तुएँ भेज दीं-तीन दुधार गायें, पाँच भेड़ें, बाइस सुअर, दो घोड़ियाँ और एक घोड़ा; तथा स्पेनियर्डों के विवाहार्थ तीन पोर्तुगीज़ रमणियाँ भी। ब्याहने योग्य और कन्याएँ भी मैं भेज सकता था किन्तु स्पेनियों में पाँच ही व्यक्ति अविवाहित थे और सभी विवाहित थे। देश में उनके स्त्रीपुत्र घर-द्वार सब कुछ थे। पाँच व्यक्तियों के विवाहार्थ मैंने तीन कन्यायें भेजीं और दो कुमारिकायें उस भगोड़े भलेमानस के साथ गई थीं।

मेरी भेजी हुई वस्तुएँ टापू में सुरक्षित पहुँच गई थीं और वहाँ के निवासियों के परम आनन्द का कारण हुई थीं। इँगलैन्ड पहुँचने पर जब मुझे उनकी चिट्ठी मिली तब मालूम हुआ कि उस समय ७० आदमी द्वीप में थे। उनमें बालकों की गिनती न थी।

द्वीप के साथ मेरा यही अन्तिम सम्पर्क था। द्वीप की बात ख़तम हुई। अब वहाँ का वृत्तान्त कहने का मुझे अवसर न मिलेगा। इसके अतिरिक्त पाठकगण केवल एक वृद्ध की निर्बुद्धिता का इतिहास पढ़ सकेंगे। वह वृद्ध कैसा कि एकदम नासमझ, विपत्ति की बार बार ठोकरें खाकर और दूसरे की अवस्था देख कर भी उसमें कुछ समझ न आई। चालोस वर्ष का असाधारण कष्ट या आशातीत ऐश्वर्य भी उसे किसी प्रकार शान्त न कर सका।

किसी स्वाधीन सज्जन को जेलखाने में कैद होकर रहने की जैसे कोई आवश्यकता नहीं वैसे ही मुझे भी भारतवर्ष में जाने की कोई आवश्यकता न थी। यदि मैं इँगलैंड से एक छोटे से जहाज़ पर आवश्यक वस्तुओं को अपने टापू में ले जाता और इँगलैंड के राजा से अनुमतिपत्र ग्रहण कर इँगलैंड के नाम से द्वीप को अपने अधिकार में करके उसकी रक्षा करता तो मेरी अक्ल की तारीफ़ की जा सकती। यदि मैं वहीं रह कर द्वीप से देशान्तर को चावल भेजता और द्वीपनिवासियों के लिए आवश्यक वस्तुएँ देश से मँगा कर बनजब्यापार करता तो मैं अपनी बुद्धि का कुछ न कुछ परिचय देता। किन्तु मुझे तो भ्रमण का रोग दबाये बैठा था। मेरे सुख के पीछे शनिग्रह लगा फिरता था। द्वीपनिवासियों का अध्यक्ष होकर ही मैं अपने को धन्य मान बैठा था। अहङ्कार में फूल कर उन लोगों पर हुकूमत करता था। किन्तु उन लोगों को किसी राजा के नाम से आबद्ध करने की बात कभी जी में न आती थी। यहाँ तक कि मैंने उस द्वीप का अब तक कुछ नाम भी न रक्खा था। वे लोग मुझको अपना सर्दार मानते थे और मेरी आज्ञा के अनुसार चलते थे किन्तु वह भी उनकी इच्छा पर निर्भर था। उन पर ज़ोर करने योग्य मेरी क्षमता ही क्या थी? कुछ दिन के बाद मुझे ख़बर मिली कि विल एटकिंस मर गया; पाँच स्पेनियर्ड रुष्ट होकर देश चले गये हैं और सभी लोग देश लौट जाने के हेतु व्यग्र हो रहे हैं। मैं कोरे का कोरा ही रह गया। भर पेट खाना और नींद भर सोना ही मेरा कर्तव्य रह गया। इससे संसार में किसका क्या उपकार हुआ? यह न समझिए कि मेरी मूर्खता का अन्त यहीं होगया; इसके अतिरिक्त मैं अपनी अज्ञता का अभी बहुत कुछ परिचय दूँगा। ईश्वर मेरी प्रार्थना को पूरी कर के दिखला देते थे कि तुम जो चाहते हो वह तुम्हारी भूल है, उससे तुम्हारा कोई कल्याण न होगा। मैं प्रार्थित फल पाकर भी पीछे से हाय हाय कर के मरता था। जिसे मैं सुख का कारण समझ कर चाहता था भगवान् वही मेरे हाथ देकर दिखला देते थे कि 'तेरे ज्ञान की दौड़ कहाँ तक है' और जिसको हम लोग सुख का कारण समझते थे, वह न मालूम कहाँ तक दुःखदायक था। इसी कारण उपनिषद् के परमज्ञाता ऋषियों ने ईश्वर से प्रार्थना करके कहा है-हे जगत्पिता, हमें आप वहो दें जिससे हम लोगों का परममङ्गल हो, हम लोग जो चाहे वही न दे दें।

मदागास्कर टापू में हत्याकाण्ड

ब्रेज़िल से बिदा हो हम लोग अटलांटिक महासागर पार करके गुडहोप अन्तरीप में पहुँचे। रास्ते में कोई विघ्न नहीं हुआ। यहाँ से समुद्र-पथ हम लोगों के लिए अनुकूल हुआ। स्थल-मार्ग ही विघ्नों का घर हो उठा। अब से जो कुछ विपत्ति आई वह स्थलमार्ग में ही, समुद्र-पथ में नहीं।

गुडहोप अन्तरीप में पानी लेने के लिए जितनी देर तक रहना दरकार था उतनी देर जहाज़ रोक रक्खा गया। वहाँ से रवाना होकर जहाज मदागास्कर टापू में जा लगा। वहाँ के निवासी अत्यन्त नृशंस थे। वे बाणविद्या और शक्तिप्रक्षेप में सुपटु थे, फिर भी उन लोगों ने हमारे साथ अच्छा बर्ताव किया। हम लोगों ने उन्हें छुरी, कैंची आदि सामान्य वस्तुएँ उपहार में दीं। इसीमें सन्तुष्ट हो कर उन लोगों ने हमको ग्यारह हृष्ट-पुष्ट बछड़े ला दिये।

देश देखने का उन्माद विशेष कर मुझी को था। ज़रा सा सुयोग पाते ही मैं स्थल में उतर जाता था और समुद्र-तटवर्ती लोग चारों ओर इकट्ठे हो चुपचाप खड़े होकर देखते थे। उन लोगों में सन्धि-स्थापन की प्रणाली बड़ी विचित्र थी। एक तरह के वृक्ष की तीन डालें काट कर एक जगह गाड़ देते थे। यदि अपर पक्ष के लोग इस सन्धि से सम्मत होते थे तो वे भी उनके सामने इसी तरह तीन वृक्ष-शाखाएँ गाड़ देते थे। दोनों दलों के सन्धिस्थापन के बीच की जगह वाणिज्य-व्यवहार और बात-चीत के लिए निर्दिष्ट होती थी। उस मध्यवर्ती स्थान में यदि कोई जाना चाहता था तो उसे निरस्त्र होकर जाना पड़ता था।

एक दिन सन्ध्या-समय हम लोग स्थल में उतर पड़े। वहाँ के रहने वालों ने चारों ओर से आकर हम लोगों को घेर लिया। किन्तु उन लोगों ने कोई प्रतिकूल आचरण न कर बडे शान्त भाव से हम लोगों के साथ सन्धि का बर्ताव किया। हम लोगों ने भी सन्धि-शाखा गाड़ कर के वहीं रात बिताने की इच्छा से कई तम्बू खड़े किये।

सभी लोग निश्चिन्त हो कर सो रहे। किन्तु न मालूम मुझे नींद क्यों न आई। तब मैं नाव पर गया और नाव के ऊपर पेड़ के डाल-पत्तों का एक छप्पर छा दिया। उसके नीचे पाल बिछा कर मैं सो रहा। नाव की रक्षा के लिए दो आदमी और भी नाव पर थे। मैंने नाव को किनारे से ज़रा हटा कर लंगर डाल दिया।

दो बजे रात को हम लोगों के साथी खूब ज़ोर से चिल्ला कर नाव को किनारे लगाने के लिए हम लोगों के नाम ले ले कर पुकारने लगे। इसके साथ साथ पाँच बार बन्दूक़ की आवाज़ सुनाई दी। कुछ कारण न समझने पर भी हम लोगों ने झट पट नाव को किनारे लगा दिया और तीन बन्दूक़ें लेकर हम लोग उनकी सहायता के लिए प्रस्तुत हुए।

किन्तु नाव किनारे भिड़ते न भिड़ते हमारे साथी लोग नाव पर चढ़ने के लिए पानी में धँस पड़े। उनके पीछे पीछे तीन चार सौ आदमी दौड़े चले आ रहे थे। हम लोगों के आदमी गिनती में कुल नौ थे, जिनके साथ सिर्फ पाँच बन्दूक़ें थीं।

हम लोग बड़े कष्ट से सात मनुष्यों को नाव पर चढ़ा सके। उनमें तीन व्यक्ति बहुत घायल थे। किन्तु नाव पर आजाने पर भी छुटकारा नहीं हुआ। वहाँ के निवासी लोग अँधाधुन्ध बाण बरसा रहे थे। दैवयोग से नाव में कई तख्ते और बेञ्च थीं। उन्हीं को खड़ा कर कर के हम लोग उनकी आड़ में छिप रहे। द्वीप-निवासियों का जैसा अचूक बाण चलता था उससे यदि दिन का समय होता तो हम लोगों के शरीर का कोई अंश सामने पड़ जाने पर फिर उनके हाथ से बचना मुश्किल था। हम लोगों के भाग्य से उस समय रात थी। चाँदनी रात में तख्तों के छिद्र से देखा कि वे लोग किनारे खड़े होकर हम लोगों पर बाण बरसा रहे हैं। हम लोगों ने बन्दूक़ें भर कर एक साथ गोली चलाईं। उन लोगों की चिल्लाहट से मालूम हुआ कि कई आदमी घायल हुए हैं। किन्तु वे लोग बन्दूक की विशेष परवा न करके सबके सब पाँत बाँध कर प्रभात की अपेक्षा से खड़े रहे। कारण यह कि दिन के उजेले में वे लोग अच्छी तरह लक्ष्य करके हम लोगों पर बाण चलावेंगे।

हम लोग उनके डर से बड़े दुखी हुए। न हम लोग लङ्गर उठा सकते थे, न पाल तान सकते थे और न लग्गे से नाव ही खे सकते थे। ये सब काम करने के लिए खड़ा होना पड़ेगा, और वे लोग जिसे खड़ा देखेंगे उसे बाण से मार गिरावेंगे। अब हम लोगों ने अपने जहाज़ वाले साथियों को विपत्ति का संकेत किया। जहाज़ यद्यपि किनारे से करीब एक मील पर था तथापि जहाज़ के कप्तान मेरे भतीजे ने हम लोगों की बन्दूक की आवाज़ सुनी और दूरबीन से देख कर उसने अच्छी तरह जान लिया कि हम लोग कैसी अवस्था में हैं। उसने तुरन्त लङ्गर उठा कर यथासंभव जहाज़ को किनारे की ओर हटा लिया और एक नाव पर दस आदमियों को सवार करा के मेरी सहायता के लिए भेजा। इस नाव के आरोहियों को हम लोगों ने खूब ज़ोर से चिल्ला कर अपनी नाव के निकट आने से रोका। तब उस नाव में से एक आदमी खूब मोटा रस्सा लेकर पानी में उतरा और नाव की ओट ही ओट से तैर कर हमारी नाव के पास आ गया और नाव को उस रस्से से खूब कस कर के बाँध दिया। तदान्तर दूसरी नाव के माँझी उस रस्से को खींच कर हमारी नाव को वहाँ से हटा कर दूर ले गये। अब हम लोग उन द्वीप-निवासियों के बाण के लक्ष्य से बाहर निकल गये।

हम लोगों की नाव, जहाज़ और किनारे के बीच से, दूर हटते ही जहाज़ की तोपों से गोले बरसने लगे। जो द्वीपवासी किनारे खड़े थे वे सबके सब उन गोलों की मार से एक ही बार जल भुन कर ख़ाक़ हो गये। हम लोग जहाज़ पर बेखटके सवार हो गये। तब मैंने द्वीपवासियों के अकस्मात् आक्रमण का कारण अनुसन्धान कर के मालूम किया कि हम लोगों के एक नाविक ने उनकी एक स्त्री का अपमान किया था; इसीसे उन लोगों ने सन्धि को तोड़ कर रमणी के अपमान का बदला लेने के लिए एकत्र होकर हम लोगों के नाविकों पर आक्रमण किया था। जो नाविक इस अनर्थ की जड़ था वह हम लोगों के साथ लौट कर न पा सका। हम लोगों ने उसके प्रत्यागमन की आशा से दो दिन जहाज़ को रोक रक्खा और उसको लौट आने के लिए अनेक प्रकार के संकेत किये। किन्तु संकेत का कोई उत्तर न पाकर हम लोगों ने उसकी आशा छोड़ दी।

किन्तु उसकी कोई खबर न पाकर मैं स्थिर न रह सका। इस घटना के तीन दिन बाद मैं अँधेरे में अपने बदन को भली भाँति ढक कर किनारे पर उतरा और उन असभ्य लोगों की खोज में चला। मेरे साथ कुछ नाविक भी चले। मैं अच्छा काम करने जाकर फिर एक भारी अनर्थ कर बैठा।

मेरे साथ क़रीब २०, २२ आदमी बड़े बलिष्ठ थे। दस बजे रात को हम लोग चुपचाप स्थल में उतरे और साथ के लोगों को दो भागों में बाँटकर एक के परिचालन का भार मैने लिया तथा दूसरे भाग का भार जहाज़ के माँझी ने लिया। हम लोगों ने चन्द्रमा के प्रकाश में देखा कि कुल बत्तीस आदमी हम लोगों की गोली से मर कर समुद्र के किनारे पड़े थे। घायलों को शायद द्वीप-निवासी उठाकर ले गये थे।

मैंने यहीं से जहाज़ में लौट चलने का प्रस्ताव किया किन्तु माँझी को यह प्रस्ताव स्वीकृत न हुआ। उसने कहा कि "मैं एक बार इन नारकी कुत्तों (इसी तरह अवज्ञा के साथ वह बोला) के शहर में जाऊँगा और वहाँ जाकर उन का धन लूट लाऊँगा। वहाँ जाने से कदाचित् खोये हुए नाविक टाम जेफ्री का भी कुछ पता लग जाय।" उसने मुझसे भी चलने के लिए अनुरोध किया। किन्तु मैं उसके इस अति साहसिक काम का अनुमोदन न कर सका। मैं उसी घड़ी जहाज़ में लौट आया। मेरे दल के लोग जाने के लिए मुझसे बार बार आग्रह करने लगे। मैं उन लोगों को रोकने की चेष्टा करने लगा। किन्तु इससे असन्तुष्ट हो वे सबके। सब मुझसे बिगड़ गये, और कहने लगे, "तुम हमारे रोकने वाले कौन?" यह कह कर एक एक कर सभी चले गये । मेरे बहुत कहने-सुनने पर एक नाविक और एक लड़का मेरे साथ नाव पर रहा।

जब वे नाविक मेरे आदेश की उपेक्षा कर जाने लगे तब उन्हें मैंने कितना ही समझाया कि तुम्हीं लोगों के जीवन और शुभाशुभ पर जहाज़ का शुभाशुभ अवलम्बित है। तुम लोगों को इस उजड्डपन के लिए यहाँ और परलोक की अदालत में धर्मराज के सामने जवाबदेही करनी होगी। किन्तु कौन किसकी सुनता है? वे लोग शहर में जाने के लिए क्रुद्ध हो उठे थे। मेरा कहना अरण्य-रोदन के समान हुआ। वे इतना कह गये कि "आप रुष्ट न हो, हम लोग अभी एक आध घंटे में लौट आते हैं।" मैंने बड़ी स्पष्टता के साथ उनसे कह दिया, "जाते हो तो जाओ। किन्तु मेरी बात को अच्छी तरह याद रखना, तुम लोगों में कितनों ही की दशा टाम जेफ़्री की भाँति होगी।" जो लोग किसी तरह बच आवेंगे उनकी प्रतीक्षा करके हम लोग बैठ रहे।

वे सबके सब चले गये। यद्यपि यह विषम साहसिक कर्म पागलपन के सिवा और क्या कहा जा सकता है तथापि वे लोग बड़ी सावधानी के साथ जाने लगे। ऐसे साहसी और हथियारबन्द लोग प्रायः बहुत कम ऐसे बुरे काम में प्रवृत्त होते हैं। उन लोगों के साथ बन्दूक़, बर्छा, तलवार, कुल्हाड़ी और बम आदि सभी कुछ यथेष्ट परिमाण में थे।

उन लोगों का प्रधान उद्देश्य था लूटना। उन लोगों ने समझा था कि लूट में बहुत सोना और जवाहरात मिलेंगे। वे लोग घटनाक्रम से एक दम शैतानी से मत्त हो उठे। कुछ आगे बढकर उन्होंने देखा कि सिर्फ बारह तेरह घर की एक बस्ती है। क्या इस देश का यही शहर है? हा, सभी के मुँह फीके पड़ गये। तथापि एकदम हताश न होकर उन लोगों ने स्थिर किया कि एक बार खोजकर देखना चाहिए कि शहर कहाँ है। किन्तु शहर किस तरफ है, इसका पता कैसे लगेगा? यह बात किसीसे पूछने का भी साहस नहीं होता था, क्योंकि बस्ती वाले सो रहे थे। इस सोच विचार में इधर-उधर घूमते फिरते उन लोगों ने एक पेड़ के नीचे एक पशु बँधा हुआ देखा। इसी पशु को उन लोगों ने पथ-प्रदर्शक बनाने का निश्चय किया। "पशु छोड़ देने पर यदि वह छोटी बस्ती की ओर जायगा तब तो शहर का पता लगाना कठिन होगा किन्तु यदि वह शहर का होगा तो शहर ही की ओर जायगा। तब उसके पीछे पीछे हम लोग शहर में सहज ही पहुँच जायँगे। पीछे जो होगा देखा जायगा"। यह सोचकर उन लोगों ने पशु का बन्धन काट दिया। बन्धन कटते ही पशु शहर की ओर चला। ये लोग भी उसके पीछे पीछे चले। थोड़ी देर में वे लोग उसके साथ साथ शहर में पहुँच गये। उन्होंने शहर में घूमकर देखा, प्रायः दो सौ घर की आबादी थी। किसी घर में परिवार की संख्या कुछ अधिक थी। घर सभी फूस के थे।

शहर वाले सभी सो रहे थे। सर्वत्र निद्रादेवी की शान्त निःस्तब्धता विराज़मान थी। शहर के निवासी बेचारे स्वप्न में भी न जानते थे कि सभ्यताभिमानी दुरन्त नीचाशय मनुष्यों का एक दल हमारा सर्वनाश करने के लिए आया है। नाविकों ने आपस में सलाह की कि हम लोग तीन भागों में विभक्त होकर तीन ओर से शहर में आग लगा दें और जो भयार्त नर-नारियाँ घर से बाहर निकलें उन्हें गिरफ्तार करलें। जो कोई इस निष्ठुर कार्य में बाधा डालने आवेगा उसकी क्या दशा होगी, यह कहने की आवश्यकता नहीं। इसके बाद वे लोग बेरोक लूटपाट मचावेंगे।

इस इरादे से कुछ आगे बढ़ कर उन लोगों ने देखा कि एक पेड़ में उन के लापता संगी टाम जेफ़्री का धड़ टँगा है। उसका गला कटा है। बदन पर एक भी कपड़ा नहीं है। एक हाथ रस्सी से बँधा है जिसके सहारे वह झूल रहा है। उसके समीप ही एक मकान में समाज के कुछ प्रधान व्यक्ति एकत्र हो आपस में गपशप कर रहे थे। शायद टाम जेफ़्री के सन्धिभङ्ग की बात हो रही थी। यह देखकर नाविकों के सिर पर खून सवार हो गया। उन्होंने अपने साथी की मृत्यु का भरपूर बदला लेने की प्रतिज्ञा की और संकल्प किया कि स्त्री-पुरुष बाल-वृद्ध, कोई हो, किसी पर दया न की जाय।

इसके बाद उन लोगों ने घर घर में आग लगा दी। सबसे पहले वही घर जलाया गया जिसमें शहर के मुखिया लोग ग़पशप कर रहे थे। फूस का छप्पर था। आग लगते ही ले उड़ा। घर घर भाग नाचने लगी। सभी लोग बड़े आराम से पहली नींद सो रहे थे। गृहदाह की बात सुनते ही सब लोग हड़बड़ा उठे। क्या स्त्री क्या पुरुष, डर कर, सभी घर के भीतर से दौड़ कर बाहर हुए। बाहर आते ही वे लोग अँगरेज़ नर-पिशाचों के हाथ से अशेष यन्त्रणा भोग कर फिर जलते हुए घर के भीतर ही घुसने लगे। वे लोग उन नर-पिशाचों के तेज़ बरछे की चोट की अपेक्षा धधकती हुई आग का आलिङ्गन अच्छा समझते थे। जहाज़ के माँझी लोग घर के द्वार पर खड़े हो, प्राणभय से भीत, नर-नारियों को बरछे की नोक से बींध कर जलते हुए घर के भीतर लौटा देते थे। जो नहीं लौटते थे उन्हें तलवार से टुकड़े टुकड़े कर के आग में फेंक देते थे। किसीके अङ्ग-प्रत्यङ्ग में बरछी भोक कर बड़ी निर्दयता के साथ मारते थे। जहाँ बहुत लोगों को एक स्थान में जमा देखते थे वहाँ बम का गोला फेंक कर सभीको चौपट कर अपनी शैतानी का अन्त कर दिखलाते थे।

माँझियों ने अब तक एक भी बन्दूक की आवाज न की थी, कारण यह कि बन्दूक का शब्द सुन कर बहुत लोग जाग उठते। किन्तु थोड़ी ही देर में चारों ओर आग फैल गई। तब सभी जाग गये। फूस का घर झटपट जल कर भस्म होने लगा। आग के दाह से नाविकों को मार्ग में खड़ा होना कठिन हो गया। तब वे भी आग के साथ साथ आगे बढ़ने लगे। वे नाविक रास्ते में जिसको पाते उसीको आग में ढकेल देते थे या उसे तलवार से टुकड़े टुकड़े कर डालते थे। अब वे लोग धड़ाधड़ बन्दूक़ें भी चलाने लगे।

मैं नाव पर से यह भीषण अग्नि-प्रसार देख कर डर गया। जहाज़ का कप्तान सो गया था। माँझियों ने जाकर उसे जगाया। वह आँख मलता हुआ उठा और उठते ही एकाएक इतनी बड़ी अग्निज्वाला देख कर और बन्दूक़ों की आवाज़ सुन कर मेरे लिए उद्विग्न हो उठा। यद्यपि उसके पास थोड़े से नाविक रह गये थे तथापि वह तेरह नाविकों को साथ ले एक नाव पर सवार हो स्वयं किनारे आ पहुँचा।

मेरा भतीजा (कप्तान) किनारे आकर और दूसरी नाव पर मुझे देख कर बहुत खुश हुआ, किन्तु और लोगों के लिए उसको कम उत्कण्ठा न हुई। तब भी आग वैसे ही धधक रही थी और शोर-गुल भी उसी तरह हो रहा था। ऐसी अवस्था में कुतूहलाक्रान्त चित्त को रोक चुप साध कर बैठ रहना एक प्रकार से असंभव था। भतीजे ने कहा-"जो भाग्य में बदा होगा सो होगा, एक बार वहाँ जाकर देखूँ तो क्या हाल है"। मैं उसे समझाने लगा कि "ऐसा मत करो, क्योंकि जहाज का भला-बुरा तुम्हारे ही ऊपर निर्भर है। इसलिए उस भयङ्कर स्थान में तुम्हारा जाना उचित नहीं, बल्कि कहो तो दो आदमी साथ लेकर मैं जाता हूँ और देख आता हूँ कि क्या मामला है।" मेरा सब समझाना वृथा हुआ। कितना ही मना किया पर उसने न माना। वह चला ही गया। मैं करता ही क्या? मैं अब हाथ पाँव मोड़ कर चुपचाप बैठा न रह सका। मैं भी उसके साथ साथ चला। जहाज के पैंसठ नाविकों में दो व्यक्ति मारे गये, और कुछ पहले ही शहर देखने जा चुके थे, कुछ मेरे साथ चले। सिर्फ सोलह आदमी जहाज़ पर रह गये।

हम लोग इतनी तेजी से दौड़ चले कि धरती पर प्रायः पैर न लगते थे। आग को लक्ष्य कर हम लोग उसी तरफ़ दौड़ चले। उस समय रास्ते का खयाल किसीको थोड़े ही था। समीप जाकर कासर नर-नारियों का आर्तनाद सुन कर हम लोगों का हृदय काँप उठा। इतिहास में कितने ही नगरों के विध्वंस की बात पढ़ी है, एक ही दिन में सहस्र सहस्र नर-नारी और बाल-वृद्धों के विनाश का वृत्तान्त सुना है किन्तु मेरी धारणा में न था कि वह व्यापार इतना घृणोत्पादक और बीभत्स होता है।

हम लोग शहर में जा पहुँचे। किन्तु आग को चीर कर किसका सामर्थ्य था जो रास्ते पर चलता? कितने ही घर जल कर खाक हो गये थे। उस भस्म-राशि में और उसके पास कितने ही जले और अस्त्र-हत लोग इधर उधर मरे पड़े थे। चारों ओर हाहाकार मच रहा था। हम लोगों के साथ के आदमी इतने बड़े शैतान और राक्षस होंगे, यह विश्वास के बाहर की बात थी। जो लोग ऐसा अमानुषी काम कर सकते हैं उनका उचित दण्ड घोर यन्त्रणामय मृत्यु के सिवा और हो ही क्या सकता है?

हम लोग धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। जहाँ आग खूब तेजी पर थी वहाँ जाकर देखा कि तीन स्त्रियाँ बिलकुल नङ्ग-धड़ङ्ग इस प्रकार दौड़ी हुई आ रही थीं जैसे उड़ती आती हों और उनके पीछे वहीं के सोलह सत्रह पुरुष उसी तरह भय से व्याकुल होकर बेतहाशा दौड़े आ रहे थे। तीन नृशंस अँगरेज उनका पीछा कर रहे थे। जब वे उन भगोड़े स्त्री-पुरुषों को न पकड़ सके तब उन पर गोली चलाई। हम लोगों की आँखों के सामने ही एक आदमी गोली की चोट खा कर गिर पड़ा। बचे हुए स्त्री-पुरुषों ने दौड़ कर आते आते सामने हम लोगों को देखा। वे लोग हम लोगों को भी हत्याकारी शत्रु समझ कर चिल्ला उठे। पीछे शत्रु, आगे शत्रु; वे लोग भागे तो किधर? स्त्रियाँ ऐसी भयभीत हुईं कि उनमें दो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।

यह घोर अत्याचार देखकर मेरा सर्वाङ्ग शून्य सा हो गया। मेरा अन्तःकरण विकल हो उठा। उन नगर-निवासियों को खदेड़ते हुए वे दुष्ट नाविक यदि मेरे पास आते तो आश्चर्य नहीं कि मैं उनको गोली मार देता। हम लोगों ने उन भयार्त नर-नारियों को अभय दिया। तब वे हम लोगों के सामने घुटने टेक कर बैठे और अत्यन्त कातर हो रो रोकर प्राण की भिक्षा चाहने लगे। हम लोगों ने उन्हें पूर्णरूप से आश्वासन दिया। तब वे इकट्ठे होकर हमारा आश्रय ग्रहण कर हमारे पीछे पीछे चले। मैंने अपने साथवाले नाविकों से कहा―“तुम लोग उन आततायी नाविकों में से किसी के साथ जा मिलो। किन्तु ख़बरदार! किसीको व्यर्थ न सताना। उन उद्दण्ड माँझियेां को समझा दो कि रात में ही यहाँ से भाग चलें नहीं तो सबेरे लाखों आदमी इस पैशाचिक कर्म का बदला लेने आवेंगे।” इसके बाद हमने दो आदमियों को साथ ले उन भयभीत नर-नारियों के समीप जाकर बड़ा ही भयानक दृश्य देखा। हाय! हाय! कोई कोई भयानक रूप से आग में पड़कर झुलस गये हैं। एक स्त्री दौड़ने के समय अग्निकुण्ड में जा गिरी थी, उसका सारा अङ्ग जल गया था। दो एक व्यक्तियों की पीठ और पसुली में माँझियों ने तलवार मार दी थी। एक आदमी को किसीने गोली मार दी थी। वह मेरी आंखों के सामने ही मर गया।

इस राक्षसी व्यवहार का कारण जानने के लिए मेरे मन में बड़ी ही व्यग्रता हो रही थी। किन्तु जानता कैसे? द्वीप- निवासियों ने इशारे से जताया कि इस आकस्मिक आक्र- मण का कारण हम कुछ भी नहीं जानते। मुझसे अब रहा न गया। मैं शहर के भीतर जाने और जिस तरह हो इस घोर हत्याकाण्ड को रोकने के लिए चञ्चल हो उठा। मैं अपने साथियों को पुकार कर चलना ही चाहता था कि इतने में जहाज़ का माँझी और चार नाविक हताहत स्त्री-पुरुषों के शरीर को पैरों से कुचलते, उछलते-कूदते मेरे पास आये।

उनका शरीर लह से लथपथ था तो भी उन लोगों की रक्तपिपासा अब तक मिटी न थी। भूखे बाघ की भाँति वे लोग तब भी अनावश्यक नरहत्या के लिए लोलुप बने फिरते थे। हमारे साथियों ने उन्हें पुकार कर बुलाना चाहा, पर वह पुकार क्या उनके कानों में प्रवेश करती थी? बड़ी बड़ी मुश्किल से एक ने हम लोगों की पुकार पर ध्यान दिया। पीछे सभी मेरे पास आ गये।

माँझी हम लोगों को देखते ही मारे उल्लास के सिंहनाद कर उठा। उसने समझा कि उनके इस पैशाचिक कर्म के पृष्ठ-पोषक और भी कई व्यक्ति आये हैं। वह मेरी बात सुनने की कुछ अपेक्षा न करके उच्चवर से बोला-"कप्तान, कप्तान! आप आये हैं, अच्छा हुआ। हम लोगों को अब भी आधा काम करना है। टाम जेफ़्री के सिर में जितने बाल हैं उतने मनुष्यों का जब तक बलिदान न करेंगे तब तक हम लोग दम न लेगे। इन दोज़ख़ी कुत्तो का इस दुनिया से नाम-निशान मिटाकर ही यहाँ से हम लोग जायँगे। अभी क्या हुआ है?" यह कहकर उन लोगों ने दौड़ लगाई। मेरी एक भी बात सुनने की अपेक्षा न की।

उनको रोकने के लिए मैंने चिल्लाकर कहा-"अरे नीच, पिशाच! तुझे क्या सूझा है? ख़बरदार! अब एक आदमी को भी तू न मार सकेगा। किसी पर हाथ चलाया कि समझ रख तू अपनी जान से हाथ धो बैठेगा।" माँझी इस बात से ज़रा ठिठक कर बोला-"क्यों महाशय! क्या आप नहीं जानते कि इन सालों ने कैसा अनर्थ किया है? यदि नहीं जानते तो इस तरफ़ आकर देखिए।" उसने मुझे अपने साथ ले जाकर टाम जेफ़्री की टँगी हुई लाश दिखला दी।

यह देखकर मेरा भी चित्त उत्तेजित हो उठा। किन्तु मैंने अपने हृदय के आवेग को रोक कर विचार किया कि इस हत्या का बदला बहुत अधिक लिया जा चुका है। इससे मैं चुप हो रहा। किन्तु मेरे साथी लोग चिढ़ गये, यहाँ तक कि मेरा भतीजा कप्तान पर्यन्त बिगड़ उठा। अपने पोताध्यक्ष को अपने दल में सम्मिलित देखकर नाविकगण उद्दण्ड होकर हत्या में प्रवृत्त हुए। मैं उन लोगों को रोकने में अक्षम हो चिन्ताकुल चित्त से लौट चला। हाय! ऐसा निर्दय हत्याकाण्ड क्या देखने को वस्तु है! इन आक्रान्त घायल नर-नारियों का आर्तनाद क्या सुना जाता था!

मैं किसी को नहीं लोटा सका। केवल तीन आदमी मेरे साथ लौट चले। किन्तु इस घोर अत्याचार के समय ऐसे बलहीन होकर लौट जाना हमारे लिए नितान्त असम साहस का काम हुआ। सुबह को सफ़ेदी आसमान में छाती जा रही थी। उधर हम लोगों के अत्याचार की खबर गाँव गाँव में फैलती जा रही थी। एक गाँव में चालीस आदमी धनुष, बाण, और भाले आदि अनेक अस्त्र लिये खड़े थे। दैवयोग से हम लोग उस रास्ते से न जाकर दूसरी राह से एकदम समुद्र के किनारे जा पहुँचे। उस रास्ते से जाते तो अनर्थ होता। हम लोग जब समुद्र-तट पर पहुँचे तब प्रातःकाल की प्रभा स्पष्ट हो चुकी थी। मैं नाव के सहारे जहाज़ में जा बैठा और नाव को वापस कर दिया। यदि कोई वहाँ से लौट आवे तो उसे चढ़ाकर ले आवेगी।

धीरे धीरे आग बुझ गई। हल्ला भी कम हुआ। इससे जान पड़ा कि वे अत्याचारी अब लौटे आ रहे हैं। कुछ देर के बाद एक साथ कई बन्दूकों की आवाज़ सुन पड़ी। रास्ते में ग्रामवासियों के सोलह मनुष्यों को मारकर और कितने ही घरों को जलाकर कीर्तिमान् लोग लौट आये। वे दल बाँध कर नहीं पाते थे। सभी अलग अलग घूमते फिरते आ रहे थे। यदि कोई साहस करके उन पर आक्रमण करता था तो उसका प्राण बचना कठिन हो जाता था। समूचे देश में बड़ी सनसनी फैल गई। पाँच नाविकों को देखकर सौ द्वीपनिवासी जान लेकर भागते थे। अँधेरे में एकाएक आक्रान्त होने के कारण उनकी अक्ल यहाँ तक मारी गई थी कि उनमें किसी को हिम्मत न पड़तो थी कि कोई उन दुराचारियों के दुष्कर्म में बाधा डाले। इससे हमारे नृशंस नाविकों को ज़रा भी चोट न आई; सिर्फ एक आदमी का पैर मोच खा गया था, और एक आदमी का हाथ जल गया था।

मैं सभी के ऊपर अत्यन्त रुष्ट था, विशेष कर अपने भतीजे के ऊपर। वह कैसा निर्बुद्धि था, वह जहाज़ का कप्तान होकर ऐसे बुरे कामों में फँस पड़ा! जहाज़ का भला-बुरा सब उसी के ऊपर निर्भर था। उसने अपने अधीन कर्मचारियों को विपत्तिजनक नीचकर्म से निवृत्त न करके उन्हें और उत्तेजित किया। मेरी झिंड़कियाँ खाकर मेरे भतीजे ने बड़ी मुलायमियत के साथ मुझे उत्तर दिया-"हाँ, अन्याय मुझ से बेशक हुआ है। पर क्या किया जाय? मैं भी मनुष्य ही हूँ। अपने नाविक की ऐसी निर्दय हत्या देखकर मैं स्थिर न रह सका।" नाविकगण जानते थे कि वे मेरे अधीन नहीं हैं। इसलिए मेरे तिरस्कार की उन्होंने कुछ परवा न की।

तथापि मैंने उन लोगों का तिरस्कार करना न छोड़ा। जभी मौका मिल जाता उन लोगों का तिरस्कार किये बिना न रहता था। माँझी अपने पक्ष के समर्थन की चेष्टा करते थे। मैं उन लोगों को खूनी कहता था और जब तब उन लोगों से कह दिया करता था कि तुम लोग भगवान् के रोषानल में अवश्य पड़ोगे। तुम्हारी वाणिज्ययात्रा कभी शुभप्रद न होगी।

भारत में क्रूसो का निर्वासन

हम लोगों ने मदागास्कर से चल करके भारत की ओर जाने के रास्ते में फ़ारस की खाड़ी में प्रवेश कर के अरव के उपकूल में जहाज़ लगाया। हमारे पाँच नाविक साहस कर के किनारे उतरे, किन्तु फिर उन का पता न मिला कि वे लोग कहाँ गये, क्या हुए। या तो अरब के लोगों ने उन्हें मार डाला होगा या वे लोग उन्हें नौकर बनाने के हेतु पकड़ ले गये होंगे। मैंने अन्यान्य नाविकों से तिरस्कार-पूर्वक कहा-"यह भगवान् का ही दण्ड है।" इसपर माँझी रुष्ट होकर बोला"-इन पाँचों में एक व्यक्ति भी मदागास्कर के हत्याकाण्ड में लिप्त न था, तब उनके ऊपर भगवान् का यह दण्ड क्यों हुआ?" मैंने कहा-सङ्ग-दोष से।

मैं जो नाविकों का उनकी अन्याय-परता और नृशंसता के लिए जब तब तिरस्कार किया करता था उसका फल उलटा ही हुआ। "उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये। पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्॥" जो माँझी उस अत्याचार का अगुआ था वह एक दिन बड़े निर्भीक भाव से मेरे पास आकर मेरी ओर लक्ष्य कर के बोला-तुम कौन होते हो जो रात-दिन इस बात को लेकर उपदेश की झड़ी लगाये रहते हो, और हम लोगों को झिड़कियाँ बताते हो? तुम तो इस जहाज़ के मामूली यात्री हो। हम लोगों पर तुम इतनी हुकूमत क्यों करते हो? मैं देखता हूँ, तुम हम लोगों को फँसाने की चेष्टा कर रहे हो। इँगलैंड जाकर हम लोगों को तुम कानून के जुर्म में फँसा कर, मालूम होता है, भारी फ़साद उठाओगे। इसलिए अभी कहे देता हूँ कि यदि तुम मौन साध कर भले आदमी की तरह न रहोगे तो तुम्हारे हक में अच्छा न होगा।

मैंने धीरता-पूर्वक उसकी सब बातें चुपचाप सुन लीं। इसके बाद मैंने गम्भीरता-पूर्वक कहा-"तुम लोगों के व्यवहार से मेरे चित्त को सन्तोष नहीं होता। इसीसे मैं बराबर तुम्हारे इस काम में बाधा डालता आता हूँ। इतना कहने का अधिकार प्रायः सब को है। इसे तुम प्रभुता समझो या जो तुम्हारे जी में आवे सो समझो।" यह कहते कहते ज़रा मैं भी क्रुद्ध हो उठा।

माँझी इस पर कुछ न बोला। मैंने समझा, विवाद यहीं तक रहा। इतने में हम लोग कारोमण्डल उपकूल से हो कर भारत में पहुँच गये। वह देश देखने के लिए मैं किनारे उतर पड़ा। सन्ध्या समय जहाज़ पर लौट जाने का उद्योग कर रहा था कि जहाज़ से एक आदमी ने आकर मुझसे कहा, "आप नाव पर चढ़ने का कष्ट न उठावें। आपको जहाज़ पर जाने की मनाही है।" इस अतर्कित संवाद से जो मेरे मन में क्षोभ और आश्चर्य हुआ, वह कहने का नहीं। मैंने पूछा-"तुमसे यह किसने कहा है"? उस नाविक ने कहा-माँझी ने।

मैंने उससे और कुछ न पूछ कर जहाज़ के भण्डारी को जहाज़ पर भेज कर अपने भतीजे को यह ख़बर दी। किन्तु यह ख़बर न देने से भी काम चल जाता। मेरे भतीजे को यह हाल पहले ही मालूम हो चुका था। जहाज़ से उतर कर मैं ज्योंही स्थल में पाया त्योंही माँझी प्रभृति प्रधान नाविकों ने कप्तान के पास जाकर मेरे ऊपर नालिश की और कहा, हम लोग उस आदमी के साथ कभी एक जहाज़ पर न रहेंगे। अच्छा हुआ कि वह इस जहाज़ पर से आप ही उतर गया, नहीं तो हम लोग उसे जबर्दस्ती इस जहाज़ पर से उतार देते। यदि आप उसका पक्ष ले कर हम लोगों की प्रार्थना पर ध्यान न देंगे तो हम लोग सबके सब जहाज़ छोड़ कर चले जायेंगे। माँझी का इशारा पा कर सभी नाविक एक स्वर से बोल उठे-हाँ, माँझी का कहना सही है।

जहाज़ का कप्तान (मेरा भतीजा) बड़ा ही समझदार और दीर्घदर्शी था। उसने इस उत्कट प्रस्ताव से क्षुब्ध होने पर भी गम्भीर-भाव धारण कर के उन लोगों से कहा "इसका जवाब मैं सोच कर दूँगा। जब तक उनसे इस विषय में सलाह न कर लूँगा तब तक तुम लोगों से कुछ न कह सकूँगा।" उसने उन लोगों के इस प्रस्ताव की अयुक्तता दिखलाने की कुछ चेष्टा की किन्तु नाविको ने कप्तान के मुँह के सामने ही प्रतिज्ञा कर के स्पष्ट रूप से कह दिया कि यदि कप्तान हम लोगों की बात न मानेंगे तो हम लोग जहाज़ से उतर कर चले जायँगे।

मेरा भतीजा बड़े संकट में पड़ा। नाविकों की बात मानता तो मुझसे उसे नाता तोड़ना पड़ता है और यदि मेरा पक्ष लेता है तो वे लोग बिगड़ कर चले जायँगे। नाविक न रहने से जहाज़ कैले चलेगा? किन्तु उन लोगों के कारण वह मुझको कैसे छोड़ दे, इस चिन्ता ने उसके चित्त को मथ डाला। तब उसने कुछ बात बनाकर उन लोगों से कहा-"मेरे चचा साहब इस जहाज़ के हिस्सेदार हैं, इसलिए उनको अपनी निज की सम्पत्ति से दूर करने वाला मैं कौन हूँ? तुम लोग रहना न चाहो तो जहाज़ छोड़ कर चले जाओ। किन्तु इस बात को भली भाँति याद रक्खो कि देश लौटने पर तुम लोग सहज ही न छुट सकोगे। बेहतर होगा कि माँझी मेरे साथ चले। इस विषय में सब आदमी मिल कर जो राय तय करेंगे वही होगा।" माँझी ने कहा-"उसके साथ हम लोगों का कोई सम्पर्क नहीं है। वह यदि जहाज़ पर आवेगा तो हम लोग उतर जायँगे।" तब कप्तान ने उन सबोंसे कहा-अच्छा, तो मैं ही जा कर उनको ख़बर देता हूँ।

जब मैंने भण्डारी को उसके पास भेजा उसके कुछ ही देर बाद मेरा भतीजा मेरे पास आ पहुँचा। उसे देख कर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मुझे इस बात का भय था कि शायद नाविकगण उसे मुझसे भेट न करने दें। इस दूर देश में मुझे खजन-हीन निःसहाय अवस्था में छोड़ जाने से मैं निःसन्देह बड़ी विपत्ति में पड़ जाता। मैं उस निर्जन द्वीप में जैसा पहले पहल जा पड़ा था, उसकी अपेक्षा भी यहाँ की अवस्था शोचनीय हो उठती। भतीजे ने मुझसे नाविकों के असहनीय संकल्प की बात कही। मैंने उससे कहा कि इसके लिए चिन्ता करने से कोई फल न होगा। मेरा माल-असबाब और कुछ रुपया मुझको देते जाओ, तो मैं किसी तरह देश लौट जाऊँगा।

इस बात से मेरा भतीजा अत्यन्त दुखी हुआ किन्तु इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के सिवा और उपाय ही क्या था? उसने जहाज़ पर लौट कर नाविकों से कहा कि मेरे चचा अब इस जहाज़ पर न जायँगे तब सभी नाविक अपने अपने काम पर गये। मेरे भतीजे ने मेरी सब चीजें जहाज़ पर से उतार दी। मैं अपने देश से बहुत दूर अपरिचित देश में निर्वासित हुआ।

मैं छाती को पत्थर सी किये खड़ा खड़ा देखता रहा। सचमुच ही जहाज़ मुझको छोड़ पाल तान कर चल दिया। मेरा भतीजा मेरे आश्वासन के लिए एक किरानी और अपने एक नौकर को मेरे पास छोड़ गया। मैंने एक अँगरेज़ रमणी के घर में डेरा किया। वहाँ कई एक फ़्रांसदेशी, यहूदी, और एक व्यवसायी अँगरेज़ भी पहले ही से ठहरा था। यहाँ सुख खच्छन्द से मैंने नौ दस महीने बिताये। मेरे पास काफ़ी रुपये थे और कुछ वाणिज्य की वस्तुएँ भी थीं। उन वस्तुओं को बेच कर मैंने अच्छे हीरे मोल लिये। अब में बेखौफ़ अपने सर्वस्व को साथ ले कर देश लौट जा सकूँगा।

क्रूसो का वाणिज्य

मेरा बहुत समय भारतवर्ष के पूर्वी भाग बङ्गाल में ही बीत गया। देश लौटने के जितने उपाय मुझे बतलाये जाते थे उन में एक भी मेरे पसन्द न आता था। आखिर एक दिन अँगरेज़ वणिक् ने मुझसे कहा-आप मेरे स्वदेशी हैं। आपसे मुझे एक प्रस्ताव करना है। मैं आशा करता हूँ कि आप उससे असन्तुष्ट न होंगे। हम लोग देश से बहुत दूर आ पड़े हैं-आप दैवयोग से और मैं अपनी इच्छा से। किन्तु परिणाम में दोनों की अवस्था अभी बराबर है। जो हो, परन्तु यह देश ऐसा है कि यहाँ वाणिज्य करने से अपने देश की एक मुट्ठी धूल के बदले मुट्ठी भर सोना मिल सकता है। आइए, दस हज़ार रुपया आप दीजिए और दस हज़ार में देता हूँ। हम लोगों की पसन्द लायक यदि कोई जहाज़ मिल जाय तो भाड़े पर लेकर हम लोग चीन वालों के साथ उस मूलधन से व्यवसाय करने जायँगे। आप होंगे जहाज़ के अध्यक्ष और मैं बनूँगा व्यापारी। आलसी होकर समय बिताना ठीक नहीं। संसार में कोई निर्व्यवसायी नहीं है। सभी अपनी अपनी उन्नति में लगे रहते हैं। सभी कर्म-शील हैं। ग्रह-नक्षत्र भी एक जगह बैठे नहीं रहते। सभी जीव जब अपने अपने काम पर तत्पर रहा करते हैं तब हमी लोग मौन साध कर क्यों बैठे रहे?

यह प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा। यद्यपि वाणिज्य मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं तथापि भ्रमण ही सही। जिस देश को मैंने पहले कभी नहीं देखा है उसके देखने की लालसा मेरे मन में जागती ही रहती थी। वहाँ जाने की संभावना मेरे लिए कभी अप्रीतिकारक नहीं हो सकती थी।

मनोनुकूल जहाज़ मिलने में बहुत दिन लगे। जहाज़ मिला भी तो अँगरेज़ नाविक नहीं मिलते थे। बड़े बड़े कष्ट से मेंट, एक माँझी और एक गोलन्दाज़ का प्रबन्ध किया। एक मिस्त्री और तीन नाविक भी मिल गये। बाकी भारतीय नाविक नियुक्त कर लिये गये।

हम लोग सुमात्रा टापू की सरहद से होते हुए स्याम देश में पहुँचे। वहाँ हम लोगों ने वस्तुएँ बेच कर अफ़ीम और कुछ अर्क़ ख़रीदे। उस समय चीन देश में अफ़ीम की बड़ी खपत थी। आठ महीने वाणिज्य करने के बाद हम फिर भारत को लौट आये। इन देशों में तिजारत कर के द्रव्योपार्जन की सुविधा और विलक्षण लाभ देख कर मेरा जी बहुत खुश हुआ। मेरी उम्र यदि एक चौथाई अर्थात् १५, २० वर्ष और कम होती तो मैं इस देश को छोड़ कर द्रव्य खोजने के लिए अन्यत्र कहीं न जाता। किन्तु मेरे ऐसे साठ वर्ष के बुड्ढे और प्रचुर धन-शाली व्यक्ति को केवल लाभ के सम्बन्ध से इन देशों पर विशेष मोह न था। क्योंकि मैं तो रुपया कमाने के लिए आया नहीं था। देश देखने ही के लिए मेरा आना हुआ था। सो इन नये देशों के दर्शन हो गये। अब देश लौटने के लिए जी अकुलाने लगा। देश में रहने से बाहर जाने के लिए चित्त व्यग्र होता था और बाहर आने पर देश जाने के लिए जी में छटपटी लगी रहती थी। मेरे साथी अँगरेज़ पूरे व्यवसायी थे। ये अपने व्यवसाय के पीछे दिन-रात हैरान और परेशान रहते थे। जिधर कुछ अधिक लाभ देखते उधर ही दौड़ पड़ते थे। मेरा खयाल केवल घूमने-फिरने की ओर था। एक स्थान को दोबारा देखना मेरी आँखों में खटकता था। मेरे साझी ने मुझसे यह प्रस्ताव किया कि अब की बार मसाला टापू में जाकर एक जहाज़ भर लौंगे लाकर व्यवसाय किया जाय। यद्यपि वाणिज्य-व्यवसाय में मेरा पूर्ण उत्साह नहीं था तथापि "बैठे से बेगार भली" की कहावत चरितार्थ करना उचित जान मैं लवङ्ग खरीदने चला। मैं बोर्नियो प्रभृति टापुओं में घूमता-फिरता पाँच महीने में फिर अपने बड़े पर आ पहुँचा और फारस के सौदागरों के हाथ लवङ्ग और जायफल बेच कर एक के पाँच वसूल कर मैंने बहुत धन कमाया।

हम लोगों ने लाभ का रुपया आपस में बाँट लिया। मेरे साझीदार अँगरेज ने मुझ पर जरा आक्षेप करके कहा-"कहिए साहब! आलसी होकर बैठ रहने की अपेक्षा इधर उधर घूमना-फिरना अच्छा है या नहीं?" मैंने कहा-हाँ, अच्छा तो है, किन्तु आप मेरे स्वभाव को भली भाँति नहीं जानते। जब भ्रमण का उन्माद मेरे सिर पर सवार होगा तब आपको दम लेने की भी फुरसत न दूँगा। आपकी नाक में रस्सी डाल कर अपने साथ साथ लिये फिरूँगा।

चोरी के जहाज़ पर क्रूसो

इसके कुछ दिन बाद बाताविया से एक पोर्तगाल का जहाज़ पाया। जहाज़ के मालिक ने उस जहाज के बेचने का विज्ञापन दिया। मैंने जहाज मोल लेने का निश्चय करके अपने साझी से कहा। वे भी राजी हुए। हमने मूल्य देकर जहाज ले लिया। हमने जहाज के नाविको को नौकर रखने की इच्छा से उनको खोजने जाकर देखा कि जहाज पर एक भी प्राणी नहीं है। सभी न मालूम कहाँ चम्पत हुए। खबर मिली कि वे लोग यहाँ से मुग़लों की राजधानी आगरा जायँगे। वहाँ से सूरत, और सूरत से फ़ारस की खाड़ी होते हुए अपने देश को लौट जायँगे।

देश लौटने के लिए ऐसे संगी और सुयोग को हाथ से जाते देख मेरे मन में कई दिनों तक शान्ति न रही। नाविकों के रहने से तिजारत करने जाकर एक के दो करता। नये नये देश देखने में आते और जब चाहता घर को लौट चलता। किन्तु कुछ दिन के बाद मालूम हुआ कि वे लोग (अर्थात् जहाज के विक्रेता और उनके साथी) सत्यवादी नहीं, बड़े धूर्त थे। यह जहाज मलयदेश में वाणिज्य करने गया था। जहाज़ के कप्तान और कई नाविकों को मलयवासियों ने मार कर समुद्र में डाल दिया। इस दुर्वृत्तियोग से नाविक जहाज़ लेकर यहाँ भाग आये और दूसरे का जहाज़ अपने नाम से बेच कर चम्पत हुए।

हम लोगों ने इस बात को सुन कर भी इस पर विशेष ध्यान न दिया। उन लोगों ने चोरी की तो की, उससे हम लोगों का क्या? हम लोगों ने तो वाजिब दाम दे कर खरीदा है। चोरी का माल समझ कर तो लिया ही नहीं। हम लोगों ने कई अँगरेज़ और देशी नाविकों को नौकर रख करके फ़िलिपाइन और मलका आदि टापुओं से लवङ्ग और इलायची प्रभृति सौदा लाने के हेतु जाने की तैयारी की।

रवाना होने पर कई दिन तक हम लोग प्रतिकूल वायु के कारण मलक्के की खाड़ी में अटक रहे। हवा का ज़ोर कुछ कम पड़ने पर जहाज का लंगर उठा लिया गया। समुद्र में प्रवेश करने पर देखा कि जहाज के भीतर पानी आता है। हम लोग बहुत चेष्टा करने पर भी निश्चय न कर सके कि छिद्र कहाँ है, किधर से पानी पा रहा है। तब हम लोगों ने किसी बन्दर में आश्रय लेने के लिए कम्बोडिया नदी के मुहाने में प्रवेश किया। कम्बोडिया नदी के किनारे जहाज़ लगा कर उसकी मरम्मत की तैयारी की जा रही थी। इसी अवसर पर एक दिन एक अँगरेज़ ने आकर मुझसे कहा-"महाशय! आप मेरे अपरिचित हैं तथापि मैं आपसे एक ऐसी बात कहना चाहता हूँ जिससे आपका विशेष उपकार होगा।" मैं उसका इङ्गित, आकार और चेष्टा देख कर विस्मित हो उसके मुँह की ओर चुपचाप देखता रहा। सचमुच ही मैंने उसको कभी कहीं नहीं देखा था। वह मुझसे क्या कहेगा? मैंने पूछा "एकाएक आपको परोपकार की इच्छा इतनी प्रबल क्यों हो उठी?" उसने कहा-"मैं देखता हूँ कि आप बड़ी विपत्ति में फँसे हैं पर आपको कुछ मालूम नहीं कि क्या हो रहा है।" मैंने कहा-विपत्ति की बात तो मैं भी प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि मेरे जहाज़ में पानी आ रहा है। इसके पेंदे में कहाँ छेद है, यह खोजने से भी नहीं मिलता। इससे कल जहाज़ को किनारे लगा कर देखूँगा कि इसमें कहाँ छेद है।

उसने कहा-"छेद हो या न हो,-खोजने से वह मिले चाहे न मिले,-जहाज़ को कल किनारे लगाना बुद्धिमानी का काम न होगा। क्या आप नहीं जानते कि दो बड़े अँगरेज़ी जहाज़ और तीन पोर्चगीज़ जहाज़ यहाँ से बहुत करीब ही आ लगे हैं?" मैंने कहा-"लगे रहे, इससे मुझे क्या?" उस व्यक्ति ने कहा-"जो लोग आपकी भाँति मतलबी काम में लगे रहते हैं वे आसपास की कोई खोज-खबर न रखकर निश्चिन्त रहे, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्या आप अपने मन में यह समझते हैं कि आप लोग उनका मुकाबला कर सकेंगे?" उसकी ऐसी भेद-भाव से भरी ऊटपटाँग बाते सुन कर मुझे बड़ा कुतूहल हुआ। मैंने कहा-"भाई, साफ़ साफ़ क्यों नहीं कह डालते कि क्या मामला है? हम लोग न चोर हैं न डाकू हैं, तब हम लोगों को किसीसे डरने की क्या वजह हो सकती है?" उसने कहा-"मैं देखता हूँ कि आप फायदे की बात न सुनेगे, परामर्श की बात पर ध्यान न देंगे। यदि मैं दूसरे किसीका इतना बड़ा उपकार करता तो वह आपकी अपेक्षा मेरे साथ अवश्य ही अच्छा व्यवहार करता। ठहरिए, यदि आप इसी घड़ी जहाज़ को यहाँ से अन्यत्र न ले जायँगे तो आप ही इसका मज़ा चखेंगे। जब वे लोग आपको लुटेरा समझ कर फाँसी देंगे तब आपको मेरी कृतज्ञता की बात सूझेगी।" मैंने कहा-"जो व्यक्ति मेरे उपकार की चेष्टा कर रहे हैं उनके निकट मैं कभी अकृतज्ञ नहीं हो सकता। जब आप कह रहे हैं कि मेरी विपत्ति आसन्न है तब मैं अभी यहाँ से भागता हूँ। किन्तु भाई साहब, क्या आप भय का कारण कुछ खुलासा करके नहीं बतला सकते?" उसने कहा-"मुखतसर बात इतनी ही है कि तुम यह जहाज़ लेकर सुमात्रा टापू गये थे। तुम्हारे कप्तान और कई एक नाविक वहाँ मारे गये। इसके बाद तुम जहाज़ लेकर वहाँ से चम्पत हुए। इस समय तुम लोग उद्दण्ड होकर समुद्र में जहाज़ पकड़ते फिरते हो। यह ख़बर तुम्हारे निकट नई नहीं है। यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ, किन्तु अब किसी बड़े जहाज के हाथ पड़ जाओगे तो तुम्हारा उद्धार होना कठिन है।" मैंने आगे-पीछे की बातें सोचकर कहा-"भाई, इतनी देर बाद तुमने सब बाते सीधे तौर से कह सुनाई। यद्यपि हम लोगों ने यह जहाज जैसा आप समझते हैं उस तरह नहीं लिया है तो भी आपके कथनानुसार हम लोग अभी यहाँ से भागते हैं। किन्तु मेरे मित्र! मैं तुम्हारे इस उपकार का बदला कैसे चुकाऊँगा?" उसने कहा-मैं नाविक हूँ और एक पोर्चुगीज मेरा सङ्गी है। हमारा आठ नौ महीने का वेतन बाकी है। यदि आप वह दे दें तो हम आप ही के यहाँ रह जायें। इसके बाद जो आपके धर्म में आवे, हमें दीजिएगा।

मैं इस शर्त पर राज़ी होकर उन्हें साथ ले जहाज़ पर सवार हुआ। जहाज़ पर पाँव रखते ही मेरा साथी अँगरेज़ खुशी से चिल्ला कर बोला-वाह, वाह, छेद तो बन्द हो गया। बिलकुल बन्द हो गया।

मैं सच कहो, धन्य परमेश्वर! तो अब देर करने की क्या ज़रूरत? अभी लंगर उठाओ।

शरीक-लंगर उठावे! यह क्यों? मैं इस प्रश्न का उत्तर पीछे दूँगा। अभी एक मिनट भी विलम्ब करने का समय नहीं है। सभी लोग मिल कर जहाज़ को शीघ्र यहाँ से ले चलो।

सभी लोगों ने बड़े अचम्भे में आकर तुरन्त जहाज़ खोल दिया। मैं अपने साथी अँगरेज़ को कमरे में बुला कर यह सब वृत्तान्त कही रहा था कि इतने में एक नाविक ने आकर खबर दी-हम लोगों को पकड़ने के लिए पाँच जहाज बड़ी तेज़ी से दौड़े आ रहे हैं।

मैंने सब नाविकों से कह दिया कि वे लोग हमें लुटेरे (जलदस्यु) समझ कर पकड़ने आ रहे हैं। यदि तुम लोग हमारी सहायता करने को प्रस्तुत हो तो मैं उन लोगों से एक बार भिड़ जाऊँ। मेरी राय मान कर सभी ने मेरी आज्ञा का पालन करना स्वीकार किया।

जहाज़ के गोलन्दाज़ ने टूटे फूटे लोहे के काँटों और छड़ों से और जो कुछ कठिन पदार्थ हाथ में आ गये उनसे दो तोपें भर रक्खीं। हमारा जहाज़ अनुकूल वायु पाकर सुदूर समुद्र में ठिकाने के साथ चला जा रहा था। किन्तु कई नावे पाल तान कर तीर को तरह तीव्रगति से पीछे आ रही थीं। दो नावें बड़े वेग से हमारी ओर भारही थीं। वे दोनों कुछ देर में ज़रूर ही हमारे जहाज के पास पहुँच जायँगी-यह जान कर हम लोगों ने तोप की एक ख़ाली आवाज़ की। किन्तु वे इसको कुछ परवा न कर के अग्रसर होने लगीं। तब हम लोगों ने श्वेत-पताका उड़ा कर सन्धि का संकेत किया। पर वे उसे भी अग्राह्य कर के समीप आ गई। तब हम लोगों ने सफ़ेद झण्डी हटा कर विरोध-सूचक लाल-पताका उड़ाई और भेरी बजा कर उन्हें दूर रहने को कहा। किन्तु इस पर भी उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। वे लोग और भी तेजी से आगे की ओर बढ़ने लगे। तब जहाज को उनके सामने तिर्यक खड़ा कर के एक ही बार पाँच तोपें छोड़ी। गोले की चोट से एक नाव का पिछला हिस्सा एकदम उड़ गया। नाव के सवार झटपट पाल गिरा कर नाव के पिछले भाग की ओर इसलिए एकत्र हो गये कि नाव कहीं डूब न जाय। अब हम लोग उस नाव के आक्रमण से निश्चिन्त हुए। पीछे की नाव अग्रसर होकर टूटी हुई नाव के सवारों को लेने लगी और पहली नाव एकाएक हमारे जहाज़ के पास आ पहुँची। हम लोगों ने उन्हें फिर समझाने की चेष्टा की। पर वे लोग हमारी बात को अनसुनी कर के हमारे जहाज पर चढ़ने की चेष्टा करने लगे।

तब गोलन्दाज़ ने फिर तोप छोड़ी। किन्तु गोला लक्ष्यभ्रष्ट होने से नाव के लोग मारे ख़ुशी के उल्लसित होकर अग्रसर होने लगे। किन्तु गोलन्दाज़ ने तुरन्त ही फिर तोप दाग कर नाव को खण्ड खण्ड कर डाला। नाव के सवार पानी में गिर कर तैरने लगे। हम लोगों ने डूबते हुए तीन व्यक्तियों को जहाज़ पर ले लिया। इसके बाद पाल तान कर हम लोग भाग चले। पीछे वाली तीन नावे पानी में गिरे हुए लोगों के उद्धार करने में व्यस्त हो रहीं, हम लोगों का पीछा न कर सकीं।

क्रूसो का भागना

इस अकारण-विपत्ति से बच कर हम लोगों ने निश्चय किया कि अब यूरोपीय जहाज़ों के सामने न जायँगे। उन लोगों ने जब हमें सामुद्रिक लुटेरा मान लिया है तब उनके सामने पड़ कर उनसे सहज ही छुटकारा न पा सकेंगे। जो नालिश करे वही यदि विचारक हो तो सुविचार की संभावना बहुत कम रहती है। अतएव वाणिज्य अभी हम लोगों के माथे ही पर रहे; यही विचार निष्पन्न हुआ। जंगल का भूला-भटका साँझ को अपने अड्डे पर पहुँच जाय तो इसे कुशल ही मानना चाहिए। अभी हम लोग बंगाले को लौट जायँ तो वहाँ पर कुछ सही-सबूत दे भी सकेंगे। स्थल-भाग के विचारक पहले फाँसी देकर पीछे विचार न भी करें।

इधर हम लोगों की सुख्याति का प्रचार चारों ओर अच्छी तरह हो चुका है। अभी लौट जाने से पोर्चुगीज़ या अँगरेज़ जहाज़ की शुभ दृष्टि से बचना कठिन होगा। इसलिए हम लोगों ने अभी चीन के किसी बन्दर में जाने का निश्चय किया। वहाँ जैसे होगा, जहाज़ बेच डालेंगे। इस पाप से किसी तरह पिण्ड छुड़ा कर हम लोग किसी दूसरे जहाज़ पर सवार होकर घर को लौट जायँगे।

हम लोग चीन ही की ओर चले किन्तु सीधे मार्ग से नहीं। रास्ते से हट कर चलना ही उचित समझा। कौन जाने, यदि किसी जहाज़ के सामने पड़ जायँ, जो हमारे हालात से वाकिफ़ हो तो फिर विपत्ति में फँसना होगा।

इस समय की अवस्था मुझे बहुत बुरी लगती थी। इतने दिनों तक अनेक प्रकार की विपत्तियों में पड़ चुका हूँ परन्तु ऐसी आफ़त में कभी न पड़ा था। क्या इस बुढ़ापे में विधाता ने चोरी-डकैती का अपवाद भी मेरे कपार में लिखा था? यदि इस जीवन में कभी किसी का कुछ अनिष्ट भी किया होगा तो वह अपना ही। मैं आप ही अपना शत्र हूँ। इसके अतिरिक्त आज तक मैंने कभी किसी के साथ कोई ठगाई का काम नहीं किया है। मैं ऐसी अवस्था में पड़ गया हूँ कि अपनी निर्दोषता को सप्रमाण सिद्ध करना कठिन हो पड़ा है। मेरे पास प्रमाण ही क्या है? बिना कुछ सबूत दिखलाये मेरी बात का विश्वास ही कौन करेगा? इसलिए प्रतिपक्षियों से छिप कर भागने के लिए मेरा मन व्याकुल हो उठा था। किन्तु किस तरफ़ भागने से बच सकूँगा इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता था। अन्त में चीन के टंकुइन-उपसागर (खाड़ी) के मैकाओ बन्दर में जहाज़ ले जाने की बात तय हुई।

समुद्र के मध्यवर्ती होकर जाने में खटका था इस लिए हम लोग जहाज़ को एक नदी के मुहाने में ले गये। भाग्य से ही यह बात सूझी थी। हम लोगों के टंकुइन-उपसागर में प्रवेश करने के बाद तुरन्त दो ओलन्दाज़ (पोर्चुगीज़) जहाज़ वहाँ आ पहुँचे।

जहाँ मैं रहूँ वहाँ शान्ति की संभावना कहाँ? हम लोगों के पीछे तो शत्रु थे ही, पर भाग्यदोष से हम लोगों के सम्मुख भी मित्र न मिले। चीनवाले हम लोगों को देख कर जो भाव प्रकाश करने लगे उससे किसी को सन्देह न रहा कि ये लोग हम लोगों के साथ अच्छा बर्ताव करेंगे।

हमारे जहाज़ को किनारे पर देख झंड के झंड चीनी लोग टिड्डीदल की भाँति नदी के किनारे एकत्र होने लगे। हम लोगों ने जब जहाज को किनारे लगा कर उस पर से चीज़-वस्तुओं को उतार कर जहाज को मरम्मत के लिए उलट दिया तब चीनी लोगों ने समझा कि इन का जहाज किनारे लग कर उलट गया है। इससे वे लोग हम सबको दासरूप में बन्दी करने और हम लोगों का माल-असबाब लूटने के लिए आतुर हो उठे। हमारे नाविक जब जहाज की मरम्मत कर रहे थे तब चीनी लोग नाव पर सवार हो हम लोगों को घेरने लगे। उन का दुराशय समझ कर हम अपनी तरफ के लोगों को जहाज से बन्दूक़ और गोली-बारूद देने लगे। चीनियों ने समझा कि हम लोग टूटे जहाज पर से माल उतार रहे हैं। वे लोग निःशङ्क भाव से झट आकर हमारे नाविकों को पकड़ने की चेष्टा करने लगे। हम लोगों का जहाज एक तरफ़ किनारे लगा था। सभी लोग एक तरह से असावधान थे। यह समय युद्ध करने के लिए उपयुक्त न था। हम लोगों ने झटपट माल-असबाब को सहेज कर अपने जहाज को किनारे से हटा कर पानी में ले जाना चाहा। चीनी लोग हमारी नाव पर चढ़ कर एक नाविक को ज्योंही पकड़ने गये त्योंही उसने हाथ की बन्दूक़ नीचे रख दी और भले आदमी की तरह अपने को पकड़ाने के लिए खड़ा हो गया। उसकी यह दशा देख मैं तलुवे से चोटी तक मारे क्रोध के जल उठा। किन्तु उस नाविक को मैंने जैसा मूर्ख समझ रक्खा था वास्तव में वह वैसा न था। चीनी ने हाथ बढ़ा कर ज्योंही उसे पकड़ना चाहा त्यों ही उसने चीनी का हाथ पकड़ कर ऐसा झटका दिया कि वह जहाज के भीतर धड़ाम से जा गिरा और उस चीनी के मस्तक को ऐसे जोर से ठोका कि उसीसे उसके प्राण निकल गये। दूसरे नाविक को पकड़ने गये तो उसने बन्दूक़ के कुन्दे से उनका अच्छा सत्कार किया। उससे पाँच आदमी जख्मी हुए। किन्तु इससे भी चीनी लोग शान्त न हुए। वे चालीस आदमी थे। हमारे नाविक गिनती में केवल पाँच थे और नाव पर बैठ कर जहाज़ की मरम्मत कर रहे थे। जहाज़ का छेद बन्द करने के लिए अलकतरा, मोम, चर्बी और तेल आदि मसाले गरम हो रहे थे। तेल खूब खौल रहा था। नाविको ने वही गरम तेल और अलकतरा उन चीनियों पर छिड़क दिया। खौलता हुआ तेल पड़ने से वे छटपटाते हुए पानी में जा गिरे। यह देख कर मिस्त्री ने चिल्ला कर कहा-"वाह, वाह! बड़ा अच्छा हुआ। सालों पर दो चार कलछी और डाल कर पूरे तौर से आतिथ्य कर दो। ये साले हमारे मेहमान हैं। इनकी खूब गरम गरम अभ्यर्थना करो।" यह कहते कहते वह खुद आगे बढ़ कर बड़ी फुरती से उन चीनियों पर गरम गरम तेल और अलकतरा छिड़कने लगा। चीनी लोग अजब तरह से चिल्लाते हुए वहाँ से भाग गये।

यह विचित्र लीला देख कर हँसते हँसते मेरा दम फूलने लगा। ऐसा कुतूहल-पूर्ण विजय मैंने और कभी न देखा था। पहले ही जो एक चीनी मर चुका था उसे छोड़ और कोई मरा नहीं। जीत हमारी हुई। प्राण क्या ऐसी उपेक्षा की वस्तु है? मेरा सिद्धान्त तो यही है कि अपनी कुछ हानि भी हो तो भी किसीका प्राण लेना ठीक नहीं। इसीसे यह बिना खून-खराबी का विजय मेरे विशेष आनन्द का कारण हुआ।

इतने में हम लोगों ने जहाज को एक तरह से दुरुस्त कर लिया। अब यहाँ रहना निरापद नहीं हो सकता। चीनी लोग अब ऐसा दल बाँध कर आवेगे कि अलकतरे से काम न चलेगा। दूसरे दिन खूब तड़के हम लोग पाल तान कर रवाना हो गये। जहाज के भीतर पानी पाना बन्द हो गया। हम लोगों ने टङ्कइन-उपसागर में जाकर देखा कि वहाँ और भी कितने ही जहाज़ हैं। इसलिए हम लोग फ़ौरन वहाँ से फारमोसा टापू की ओर चले गये। वहाँ जहाज लगा कर हम लोगों ने खाने-पीने की वस्तुओं का संग्रह कर लिया। वहाँ के लोगों ने अपनी शिष्टता दिखला कर हम लोगों को तृप्त किया। हम लोग क्रमशः उत्तर ही की ओर इस मतलब से जाने लगे, कि अँगरेजो के जहाज जहाँ तक जाते हैं उस सीमा से बाहर हो जाने से हम लोग निश्चिन्त हो सकेंगे।

क्रूसो का छुटकारा

हम लोग जब किनारे पर जहाज़ लगाने के लिए बन्दर खोज रहे थे तब एक दिन एक नाव हमारे जहाज के पास आ लगी। उसमें बैठ कर एक वृद्ध पोर्चुगीज़ हम लोगों को बन्दर में पहुँचा देने के लिए आया था। हम लोगों ने उस को अपने जहाज पर बिठा लिया। नाव वहाँ से चली गई।

मैंने समझा कि इस वृद्ध को हम लोग जहाँ जहाज ले चलने को कहेंगे वहाँ वह बेउज्र ले चलेगा। हम लोगों को अपना आशय प्रकट करना ही पड़ा। मैंने वृद्ध से जहाज़ को नानकुइन-उपसागर में ले चलने के लिए कहा-वह चीन का नितान्त उत्तरीय उपकूल था। बूढ़े ने जरा व्यंग की हँसी हँस कर कहा-"मैं नानकुइन-उपसागर को भलो भाँति जानता हूँ। किन्तु एकदम उत्तर ओर जाने का अभिप्राय क्या है?" उसकी यह व्यङ्ग की हँसी और दूसरे का अभिप्राय जानने की धृष्टता देख कर मेरा जी जल उठा। मैंने कहा-"हम लोग अपने जहाज की विक्रय वस्तुएँ बेच कर चीनी बर्तन, छींट, रेशम, चाय और कपड़े आदि देसावरी चीजें खरीदेंगे।" वृद्ध ने कहा-"यह काम तो मैकिंग बन्दर में भी बड़े सुभीते के साथ हो जाता। इतना घूम कर उत्तर और जाने की क्या ज़रूरत है?" एक बार तो मेरे मन में आया कि बूढ़े से कह दूँ कि "मेरी खुशी। मैंने खूब अच्छा किया कि टेढ़ी राह से आया हूँ और टेढ़ी राह से ही जाऊँगा इसमें तुम्हारा क्या? तुम विदेशी हो, जहाज़ों को बन्दर में पहुँचा देना ही तुम्हारा पेशा है। तुम वही करो जो मैं कहता हूँ। हल्दी बेचने वालों के लिए जवाहिर का भाव ताव करना वृथा है।" किन्तु बूढ़े को नाराज कर देना अभी अच्छा न समझ कर मैंने बड़ी मुलायमियत से कहा-"हम लोग निरे व्यवसायी ही नहीं हैं। हम लोग रईस हैं। देश देखने की भी हमारी इच्छा है। हम लोग एक बार पेकिन शहर में जाकर चीन के सम्राट का दरबार देखना चाहते हैं।" इस पर भी वह चुप न हो कर तुरन्त बोल उठा-"तब तो आप लोगों का निम्पो से होकर नदी के रास्ते जाना ही ठीक होगा।" मैंने क्रुद्ध हो कर कहा-"हम लोग अभी पेकिन न जायँगे। हम पहले नानकुइन जायँगे, तब वहाँ से पेकिन। साफ़ साफ़ कहो, हम लोगों को तुम नानकुइन ले जा सकते हो या नहीं।" उसने कहा-"क्यों न ले जा सकूँगा। यही तो कुछ देर पहले एक बहुत बड़ा पोर्चुगीज़ जहाज़ उस ओर गया है।" पोर्चुगीज़ जहाज़ का नाम सुनते ही हृदय काँप उठा। बूढ़े ने पोर्चुगीज़ जहाज़ के नाम से मुझको चौंकते देख कर कहा-पोर्चुगीज़ जहाज़ से अभी आपको डरने का कोई कारण नहीं। उन लोगों के साथ आपके देशवासियों की तो अभी कोई दुश्मनी नहीं है?

मैंने कहा-"सच है, दुश्मनी तो नहीं है, किन्तु मनुष्य किसको किस नजर से देखते हैं यह बात पहले नहीं जानी जा सकती। इसी से अपरिचित लोगों से दबना पड़ता है।" बूढ़े ने कहा-"आप सीधे सादे व्यवसायी है, इसमें डरने की क्या बात है? आप लोग लुटेरे तो हैं नहीं।" लुटेरे का नाम सुनते ही मेरा मुँह लज्जा से लाल हो उठा। वृद्ध ने मेरे चेहरे पर लक्ष्य देकर कहा-"महाशय, मैं देख रहा हूँ कि आपके मन में कुछ गोलमाल है। खैर, आपका जहाँ जी चाहे जहाज़ ले चलें। मैं यथासाध्य आपका उपकार करूँगा।" मैंने बात टालने के इरादे से कहा-"महाशय! आपका अनुमान बहुत ठीक है, मैं इस बात का अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका कि इस जहाज को कहाँ ले जाऊँ। आपके मुँह से लुटेरे का नाम सुन कर मुझे और भी डर लग रहा है।" वृद्ध ने कहा-आप क्यों डरते हैं? इस तरफ़ समुद्र में लुटेरे नहीं रहते। क़रीब एक महीना हुआ, स्याम की खाड़ी में सुमात्रा द्वीप के निकट एक दुर्घटना हो गई है। जहाज़ का कप्तान जब मलय देशवासियों के हाथ से मारा गया तब जहाज़ के नाविकगण जहाज़ चुरा कर ले गये। फिर उन नाविकों ने लुटेरों के हाथ वह जहाज़ बेच डाला। वह लुटेरा जहाज़ स्याम-उपसागर में पोर्चुगीज़ (ओलन्दाज) और अँगरेजी जहाज़ के हाथ पकड़ा ही जाने को था पर जरा सा अवकाश मिल जाने से वह भाग गया। उस लुटेरे जहाज़ की बात सभी जहाज़ी सुन चुके हैं। देखते ही उसे पहचान लेंगे। अब जहाँ उसे एक बार पकड़ पावेंगे तहाँ फिर उसे कुछ कहने का भी मौका न देंगे। गिरफ्तार होते ही उन नाविकों को मस्तूल को रस्सी से लटका देंगे।

हाय हाय! हे भगवान्! यह हमारी ही कीर्ति-कहानी है और प्राण जुड़ाने वाले भविष्य चित्र का निदर्शन है। वह बूढ़ा पथ-प्रदर्शक इस समय सम्पूर्ण रूप से हमारी आज्ञा के अधीन है। इसका उतना भय नहीं। यह सोच कर मैंने उससे खुलासा कहा-"महाशय, इसी कारण हम लोग उद्विग्न होकर उत्तर ओर दौड़े जा रहे हैं। वे भागने वाले हमी लोग हैं। लुटेरे न होने पर भी हम उस कलङ्क से कलङ्कित हैं।" इसके बाद मैंने अपने जहाज़ का समस्त इतिहास उससे कह सुनाया। सुन कर वृद्ध बेचारा अवाक् हो रहा। उसने हम लोगों से कहा-आप लोगों ने बहुत दूर उत्तर ओर आकर सचमुच ही बहुत बुद्धिमानी का काम किया है। मैं आपके इस जहाज़ को बेच कर एक दूसरा जहाज़ ख़रीद दूँगा। उससे आप लोग निर्विघ्न बंगाल को लौट जा सकेंगे।

मैंने कहा-महाशय! जहाज़ तो आप बेव देंगे, किन्तु जो भलेमानस इस जहाज़ को खरीदेंगे उनके साथ तो यह आफ़त लगी ही रहेगी। क्योंकि सभी इस जहाज़ पर नाराज़ हैं। वह मनुष्य भीतर से कितना ही निर्दोषी और सज्जन क्यों न होगा पर पोर्चुगीज़ों और अँगरेज़ों के जहाज़ से उसकी रक्षा न होगी।

वृद्ध ने कहा-मैं उसका भी प्रबन्ध कर दूँगा। बहुत कप्तानों के साथ मेरा परिचय है। वे लोग जब इस रास्ते से जायँगे तब मैं उन सबों से भेट करके सब वृत्तान्त समझा कर कह दूँगा।

हम लोगों ने नानकुईन-उपसागर के प्रान्तीय क्युच्याँग बन्दर में जाकर जहाज़ लगाया। आफ़त की जड़ जहाज़ से उतर कर धरती में पाँव रखते ही हम लोगों की जान में जान आई। यदि जहाज़ मिट्टी मोल भी बिक जायगा तो हम लोग एक बार सिर न हिलावेंगे। रात-दिन भयभीत बना रहना कैसी विडम्बना है! आँखों में नींद नहीं, चित्त में चैन नहीं, खाने-पीने की इच्छा नहीं। केवल मृत्यु और कलङ्क की विभीषिका को सामने रख कर समय बिताना बड़ा कष्टकर है। मैं इस बुढ़ापे में चोरी की इल्लत में पकड़ा जाकर विदेश में फाँसी से प्राण गवाँने बैठा था। किन्तु मैं किसी भाँति यह अपमानजनक मृत्यु सह्य नहीं कर सकता। मैं शत्रुओं के साथ प्राणपण से युद्ध करता। यदि युद्ध में जीत न सकता तो जहाज़ को बारूद से उड़ा देता। किसीको विजय-जनित अहङ्कार करने का अवकाश न देता। जब मैं इन बातों को सोचता था तब मेरा दिमाग गरम हो उठता था। एक दिन ऊँघते ऊँघते मैने जहाज़ के तख्ते पर ऐसे ज़ोर से घूँसा मारा कि हाथ में चोट लगने से लहू बह निकला।

समुद्र में रहने से जितना ही प्राण व्याकुल था उतना ही स्थल में आने से आराम मालूम होने लगा। किनारे उतर कर वृद्ध महाशय ने हम लोगों के रहने के लिए एक स्थान ठीक कर दिया। हम लोग उसी स्थान में अपना माल उतार कर ले गये और वहीं रहे। घर बेत के बने थे। घर के चारों ओर मोटे मोटे बेतों का घेरा था। इस देश में चोरों का बड़ा भय था। वहाँ मैजिस्ट्रेट ने हम लोगों के माल की निगरानो के लिए कई पहरेदार तैनात कर दिये थे। उन लोगों के खाने के लिए चार मुट्ठी चावल और चार आना पैसे रोज़ देकर उन्हें काबू में कर लिया था। वे लोग फरसे को कन्धे पर रख कर बड़ी सावधानी के साथ पहरा देने लगे।

चोरी के जहाज़ की सद्गति

यहाँ इन दिनों एक मेला हुआ करता था। मेला ख़तम हो चुका था, तब भी कई जापानी सौदागर वहाँ थे। हमारे वृद्ध विदेशी महाशय एक जापानी सौदागर को अपने साथ ले आये। उस सौदागर ने हम लोगों को कुल अफ़ीम खुब चढ़े बढ़े दर से तौला ली और उसके बदले सोना तौल दिया। तब हम लोगों ने उससे जहाज मोल लेने का प्रस्ताव किया। वह सिर हिलाकर चला गया।

कई दिन पीछे उसने फिर आकर कहा-जहाज़ खरीदने का इरादा पहले न था इसीसे सौदा खरीदने ही में मैंने सब रुपये खर्च कर डाले। अब हाथ में इतना रुपया नहीं कि जहाज मोल ले सकूं। इसलिए यदि आप जहाज भाड़े पर दे सके तो मैं ले सकता हूँ।

अच्छा यही सही, मैं देशभ्रमण कर पाऊँ तो फिर मुझे क्या चाहिए। एक बार जापान देश भी तो देख आऊँ। किन्तु मेरे साझेदार मुझसे अधिक बुद्धिमान् थे। वे मुझको इस बद- कार जहाज़ पर किसी तरह भी जाने देना नहीं चाहते थे। मैं सोच ही रहा था, कि अब क्या करना चाहिए इतने में वही नवयुवक मुंशी, जिसे मेरा भतीजा मेरे पास छोड़ गया था, मेरे पास आकर कहने लगा,―महाशययदि आप मुझ पर विश्वास करके यह जहाज़ मेरे ज़िम्मे कर दें तो मैं एक बार वाणिज्य करके देखूँ। यदि मैं जीते जी इँगलैण्ड लौटूँगा तो आपका जो कुछ मेरे ज़िम्मे पावना निकलेगा वह आपको देकर हिसाब समझा दूँगा।

मैंने अपने साझी अँगरेज़ से इस विषय में परामर्श किया। उन्होंने कहा-जहाज़ बड़ा अभागा है। उस पर अब हमें और आपको पैर रखना लाज़िम नहीं। आपका मुंशी यदि इस जहाज़ को लेकर कुछ व्यवसाय करना चाहता है तो भले ही करे। उसमें हम लोगों की हानि ही क्या है? हम लोग जब राम राम करके कुशलपूर्वक इँगलैंड पहुँँच जायँगे और वह भी यदि नफ़ा उठा कर वहाँ लौट आवेगा तब उस लाभ का आधा उसका होगा और आधा हमारा और आपका।

इस शर्त पर उसके साथ लिखा-पढ़ी हो गई। वह जहाज़ लेकर जापान गया। जापानी सौदागर ने उसे भाड़ा चुकाकर फ़िलिपाइन और मैनिला आदि टापुओं में बनज करने भेजा। वह जापान का माल टापुओं में ले जाकर बेचता और टापुओं से मसाला लाकर जापान में बेचता था। ईस प्रकार ख़रीद-फ़रोख़्त करके मैनिला से उसने अच्छा लाभ उठाया और उस जहाज़ को तिजारती जहाज क़ायम कर सनद लिखा ली। मैनिला सरकार की ओर से वह जहाज़ भाड़े पर मैक्सिको भेजा गया। मेरे मुंशी ने मैक्सिको जाकर उस को बेच डाला। कोई आठ वर्ष के बाद वह मुंशी प्रचुर धन उपार्जन करके इँगलैण्ड लौट आया।

चीन में क्रूसो

अभी मैं चीन में हूँ। देश से कितनी दूर आ गया हूँ! मेरा देश पृथिवी के एक प्रान्त में है, और पाया हूँ दूसरे प्रान्त में। अपने देश लौट जाने का कोई सुयोग या संभावना अभी देखने में नहीं आती। चार महीने बाद यहाँ एक और मेला होगा। तब एक नाव मिल जायगी तो ख़रीद लूँगा और भारत को लौट जाऊँगा। इसके पहले लौटने का कोई सुयोग देखने में न आया। उस मेले के अवसर पर यदि कोई यूरोपीय जहाज़ भाग्य से मिल जाय तब तो सब भाँति अच्छा ही होगा। अब बदकार जहाज़ चला गया, किसी का कुछ भय नहीं रहा। इसी आशा से हम लोग वहाँ ठहर गये।

यहाँ ठहरने से धीरे धीरे कई एक यूरोपीय पादरियों से परिचय हो गया। हम लोग उनके साथ चीन देश देखने के लिए घूमने लगे। इस देश में अब भी कुछ विशेष उन्नति नहीं हुई। प्रायः सभी लोग जाहिल हैं। ग्रहण होने से वे लोग समझते हैं कि राहु नामक एक दैत्य सूर्य को निगल जाता है, इसलिए दैत्य को भय दिखाकर भगाने के लिए सभी लोग मिलकर घड़ी-घंटा बजाते और खूब शोर-गुल मचाते हैं। शासन-प्रणाली अपूर्ण, सैन्य अशिक्षित और वैज्ञानिक विषय की अनभिज्ञता अधिकतर देखने में आई। हम लोग चीन की राजधानी पेकिन देखने चले। उसी समय एक प्रादेशिक शासनकर्ता पेकिन जारहे थे। हम उन्हींके साथ हो लिये।

चीन के सभी स्थान मनुष्यों से भरे थे किन्तु अधिकांश लोग दरिद्र और मूर्ख थे। तथापि इस अवस्था पर भी लोगों के अहङ्कार का अन्त नहीं। चीन के हाकिम राजधानी को जारहे हैं। रास्ते के लोग उनके लिए रसद जमा करते हैं। वे अपने ख़र्च से फ़ाज़िल चीज़ हम लोगों के हाथ बेच कर मजे में चार पैसे पैदा कर रहे हैं। उस पर भी ये राजप्रतिनिधि हैं।

रास्ते में कोई दुर्घटना नहीं हुई। केवल एक दिन एक छोटी सी नदी पार होने के समय मेरा घोड़ा, पाँव पिछलने से, गिर पड़ा और बेवक्त़ मुझे स्नान करा दिया।

पचीस दिन रास्ता चल कर हम लोग पेकिन पहुँचे। हम पाँच आदमी थे। मैं, मेरे भतीजे का दिया हुआ नौकर, मेरा साझेदार अँगरेज़, उनका नौकर और वृद्ध महाशय। ये भी पेकिन देखने हमारे साथ आये थे।

एक दिन वृद्ध ने मेरे पास आकर हँसते हँसते कहा-"एक बहुत अच्छी खबर है, सुनने से आप लोग खुश होंगे।" वह सुसंवाद सुनने के लिए हम लोगों ने उत्सुक होकर पूछा। उन्होंने कहा-व्यापारियों का एक दल स्थल-मार्ग से साइबीरिया होकर यूरोप जा रहा है। हम लोग चाहें तो उनके साथ यूरोप लौट जा सकते हैं।

सचमुच में ख़बर बहुत अच्छी थी। हम लोग जाने को राजी हुए। हम लोग राह-खर्च देकर वृद्ध को उनके देश पहुँचा देंगे, इस शर्त पर उन्हें भी साथ ले लिया।

क्रूसो का स्थलमार्ग से स्वदेश को लौटना

हम लोग फ़रवरी महीने के पहले ही पेकिन से रवाना हुए। हमारे साथ अठारह ऊँट और आठ घोड़े थे। रेशमी कपड़े, छींट, लवङ्ग, जायफल, ज़रीदार वस्त्र और चाय आदि अनेक प्रकार की सामग्री ऊँटों और घोड़ों पर लाद ली थी।

हम लोगों का दल एक छोटी मोटी फ़ौज के बराबर था। सब मिलाकर एक सौ बीस आदमी थे। तीन चार सौ घोड़े थे। और भी कुछ चौपाये थे, जिन पर चीजें लदी थीं और आदमी भी सवार थे। सभी लोग अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित थे। कोई भी हथियार से खाली न था। रास्ते में तातारी डाकुओं का बेहद भय था।

इस दल में सभी जातियों के मनुष्य थे। यूरोप के कई देशों के यहूदी, चीनी तथा और भी कितनी ही जातियों के लोग थे।

हम लोगों के साथ पाँच पथ-प्रदर्शक थे। सभी लोगों ने चन्दा कर के उनको कुछ रुपया दे दिया था। उसी रुपये से रास्ते में साईसों के लिये खाना और पशुओं के लिए दाना-घास खरीदी जाती थी। दल में एक व्यक्ति इसलिए प्रधान मुकर्रर किया गया था कि मार्ग में उसी की आज्ञा के अनुसार सबको चलना होगा।

रास्ते में दोनों तरफ़ कुम्हारों की बस्ती थी। वे लोग चीनी मिट्टी के बर्तन बनाते थे। रास्ते में एक मकान देखा। उसकी दीवार और छत आदि सभी चीनी मिट्टी की थी। प्रभातकालिक सूर्य की प्रभा में वह स्वच्छ तुषार की भाँति झकाझक कर रहा था। उस मकान की सफ़ेद दीवारों पर नीले रङ्ग की भाँति भाँति की तसवीरें अङ्कित थीं। इससे उसकी उग्र स्वच्छता कुछ कोमल हो गई थी। इस मकान की शोभा बड़ी विलक्षण थी। दल के मनुष्य रुके नहीं, नहीं तो मैं यहाँ कुछ दिन रह कर इस मकान को जी भर कर देख लेता। बाग़ के भीतर चीनी मिट्टी ही की मूर्तियाँ बनी थी। तालाब का घाट चीनी मिट्टी का बंधा था। चीनी मिट्टी का सफ़ेद हौज़ बना था। उसमें लाल रङ्ग की मछलियाँ थीं। सभी सुन्दर और सभी दर्शनीय थे।

इस मनोरम दृश्य को देखते देखते मैं दल से पीछे रह गया। दो घंटे बाद काफ़िले में आ मिला। इस भूल के कारण मुझे जुर्माना देना पड़ा और दलपति से क्षमा माँगनी पड़ी। यह भी अङ्गीकार करना पड़ा कि अब ऐसी भूल न करूँगा और सँभल कर रहूँगा।

दो दिन के बाद हम लोग चीन की प्रसिद्ध दीवार के पार हुए। तातार-देशीय डाकुओं के आक्रमण से देश को बचाने के लिए यह दीर्घ-दीवार बनाई गई थी। हमारे दल के लोग जितनी देर तक दीवार पार करते रहे उतनी देर तक मैं एक तरफ खड़ा होकर दीवार के चारों ओर जहाँ तक देख सका देखता रहा।

दीवार पार होते ही बीच बीच में अश्वारोही तातार डाकुओं के साथ भेट होने लगी। वे लोग निरे डाकू थे। मुसाफिरों का माल लूटना ही उनका काम था। उन लोगों के पास न कोई अच्छा अस्त्र-शस्त्र था, न वे लोग आक्रमण करने का ढङ्ग जानते थे। उन लोगों की पूँजी तीर-धनुष और टट्टू थे। वे लोग बीच बीच में हम लोगों पर आक्रमण करने लगे। किन्तु हम लोगों की बन्दूक़ के आगे उनकी एक न चली। वे भी तीर चलाने में बड़े दक्ष थे। उनके तीर का लक्ष्य प्रायः व्यर्थ न जाता था। भाग्यवश हम लोग किसी खतरे में न पड़े।

हम लोग नगरों से निकल कर मैदान में आ गये। जिधर दृष्टि जाती थी उधर मैदान ही मैदान देख पड़ता था। देखते ही जी घबरा उठता था। भय से हृदय काँप उठता था। हम लोग एक महीने तक इसी भाँति मैदान का सफ़र करते रहे। कभी कभी रास्ते में तातारों के छोटे छोटे दलों के साथ भेंट हो जाती थी, पर कोई कुछ बोलता न था। हम लोग भी उनकी ओर दृक्पात न कर के चुपचाप चले जाते थे।

मैदान पार कर के हम लोग एक गाँव में पहुँचे। वहाँ ऊँट और घोड़े बिकते थे। मुझे एक ऊँट मोल लेने का शौक़ हुआ। मैंने एक आदमी से एक ऊँट लाने को कहा। वह ले आता, किन्तु मेरे सभी कामों में उलझन लगी रहती थी, इससे मैं स्वयं गया। गाँव से दो मील पर मैदान के बीच ऊँटो और घोड़ों का बाज़ार था। मैं पगडंडी की राह से चला। साथ में वही वृद्ध पथ-दर्शक और एक चीनी मनुष्य था।

हम लोग एक ऊँट खरीद कर लौटे आ रहे थे। इसी समय पाँच तातारी घुड़सवार दौड़ कर आये। उनमें दो आदमी तो ऊँट छीन कर ले गये और तीन आदमियों ने आगे से आकर हम लोगों को घेर लिया। मेरे साथ सिर्फ़ एक तलवार थी और कोई अस्त्र न था। हम तीनों पैदल आदमी उन घुड़सवारों का कर ही क्या सकते थे? तथापि मुझको तलवार निकालते देख पहला तातारी ठिठक कर खड़ा हो रहा। वे लोग ऐसे भीरु थे। किन्तु दूसरे ने पीछे से आकर मेरे सिर पर लाठी मारी। मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। दैवयोग से वृद्ध के पाकेट में एक पिस्तौल थी। उन्होंने झट पिस्तौल निकाल गोली भर कर उस तातार डाकू को मार डाला, और जिस तातारी ने हम लोगों पर पहले आक्रमण किया था उस पर तलवार चलाई। तलवार उस तातारी को न लग कर घोड़े के कान को काटती हुई उसको गर्दन में घुस गई। इससे वह जख्मी होकर डर से हाँफता हुआ सवार को लेकर बड़े वेग से भाग चला। बहुत दूर जाकर उसने पिछली टाँगों के बल खड़े होकर सवार को गिरा दिया और आप भी उस पर गिर पड़ा। तीसरा तातारी डाकू अपने को असहाय देख वहाँ से भाग निकला।

इतनी देर बाद मुझे कुछ होश हुआ। जान पड़ा, जैसे गाढ़ी नींद से सोकर उठा हूँ। फिर सिर में वेदना मालूम होने पर मैंने हाथ से टटोल कर देखा तो हाथ में लोहू लग गया। तब मुझे सब बात याद हो आई। मैं झट उछल कर खड़ा हुआ और तलवार की मूठ पकड़ी, परन्तु तब वहाँ कोई शत्रु न था। मुझको खड़े होते देख वृद्ध पोर्चुगीज़ ने दौड़ कर मुझे छाती से लगा लिया। फिर वह देखने लगा कि मेरे सिर में कैसी चोट लगी है। चोट गहरी न थी। दो ही तीन दिन में ज़ख्म भर आया। ऊँट के बदले मुझे तातार का घोड़ा मिला। खैर, यही सही।

धीरे धीरे हम लोग एक शहर में पहुँचे। वहाँ खबर मिली कि दस हज़ार तातारी लुटेरे चले आ रहे हैं। इसकी सूचना सभी बटोहियों को दी जा रही है। अब क्या उपाय किया जाय? शहर के अध्यक्ष ने हम लोगों के साथ पाँच सौ चीनी सैनिक कर दिये। वे हम लोगों को कुछ दूर तक पहुँचा कर लौट आवेंगे।

तीन सौ सैनिक आगे और दो सौ पीछे चले। हम लोग दोनों पार्श्वों में होकर, माल लदे हुए घोड़ों ओर ऊँटों को बीच में करके, रवाना हुए। अब हम लोग पन्द्रह-सोलह मील लम्बी चौड़ी मरुभूमि में आ गये। जिधर देखो उधर बालू का मैदान नज़र आता था। दूर तक धूल उड़ते देख कर हम लोगों ने ताड़ लिया कि शत्रु-दल समीप आ गया। चीनी सैनिक जो पहले अपनी बातूनी वीरता की झड़ी बाँध उछलकूद कर रहे थे वे शत्रु-दल को सामने आते देख बार बार पीछे की ओर घूम कर देखने लगे। सैनिकों के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है। यह पीठ दिखलाने का पूर्वरूप है। मैंने उनका लक्षण ठीक न देख कर अपने यूथनायक से जाकर कहा। तब हमीं लोग पचास पचास मनुष्यों की टोली बाँध कर उन सैनिकों के दहने-बाएँ जाकर उन्हें साहस देने लगे।

देखते देखते तातारी डाकू आँखों के सामने आ गये। वे लोग गिनती में दस हज़ार से कम न रहे होंगे। उनको निकट आते देख हम लोगों ने बन्दूक़ों से उनकी अभ्यर्थना की। वे लोग इसका कुछ उत्तर न देकर एक तरफ़ से रास्ता काट कर निकल गये। हम लोगों के साथ कुछ छेड़-छाड़ नहीं की। यह देख कर हम लोगों ने आराम से साँस ली। इतने लोगों के साथ युद्ध करने से निःसन्देह सर्वनाश होता।

हम लोगों ने आपस में चन्दा करके चीनी सैन्य को पुरस्कार देकर बिदा कर दिया। रास्ते में कई एक बड़ी बड़ी नदियाँ और बड़े बड़े बालू के मैदान पार करने पड़े। १३ वीं अपरैल को हम लोग रूस के राज्य में पहुँचे।

संसार में इतना बड़ा राज्य दूसरा नहीं है। इसके पूरब चीन सागर, उत्तर में ध्रुव महासागर, दक्षिण में भारत समुद्र और पच्छिम में बाल्टिक समुद्र है।

इस देश के लोग बड़े असभ्य होते हैं। एक जगह देखा कि गाँव के लोग बड़े समारोह से भगवान की पूजा कर रहे है। भगवान् एक पेड़ का तना काट कर बनाये गये थे। उस काष्ठनिर्मित मूर्ति को ही वे लोग भगवान् मान कर आराधना करते थे। मूर्ति भी सुन्दर नहीं, साक्षात् यमदूत सी भयङ्कर और भूत सी देखने में कुरूप थी। विचित्र आकार का मस्तक था। उसके दोनों तरफ़ भेड़े के सींग की तरह दो बड़े बड़े कान थे। करताल की तरह आँखे, खाँड़े के सदृश नाक और चौकोन मुँह के भीतर सुग्गे की चोंच की तरह टेढ़े दाँतो की पंक्ति थी। ऐसी शकल की मूर्ति देख कर किसे श्रद्धा उत्पन्न होगी? उस पर भी उसके हाथ पैर नहीं। सिर पर चमड़े की टोपी थी। उसमें दो सींग जड़े थे। सम्पूर्ण कलेवर चमड़े से ढका था। यही उनके आराध्यदेव थे। इसीका वे पूजोत्सव मना रहे थे।

यह जूजू नामक देवता गाँव के बाहर प्रतिष्ठित था। मैं इसे देखने गया। सोलह सत्रह स्त्री-पुरुष उस मूर्ति के सन्मुख धरती में पड़े थे। मुझको आते देख वे लोग कुत्ते की तरह भों भों करके मेरी ओर दौड़े। तीन पुरोहित क़साई की तरह हाथ में खड्ग लिये खड़े थे। कई एक बकरे और अन्य चौपाये पड़े थे जिनका सिर काट लिया गया था। बेचारे निर्दोष पशुओं को पकड़ पकड़ कर जूजू देवता के आगे बलिदान दिया गया है।

ईश्वर की सृष्टि में जितने प्राणी हैं उन सब में श्रेष्ठ मनुष्य ही है। ईश्वर ने उसको ज्ञान दिया है। उस ज्ञान का ऐसा कुव्यवहार देख कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ। अपने हाथ के बनाये एक अद्भुत आकार के पदार्थ को देवता समझ कर पूजना कैसी मूर्खता है? इस बात को सोचते सोचते मुझे अत्यन्त क्रोध हुआ। मैंने तलवार से उस मूर्ति के सिर पर की टोपी काट डाली, और मेरे साथी ने उसके बदन पर से चमड़े की ओढ़नी खींचली। जिन लोगों का वह देवता था वे लोग शोरो-गुल मचा कर रोने लगे। बड़ा हल्ला हुआ। देखते ही देखते तीन चार सौ आदमी धनुष-बाण लेकर वहाँ आ गये। लक्षण ठीक न देख कर हम लोग वहाँ से खिसक गये।

इस गाँव से चार मील पर हम लोगों के साथी वणिक डेरा डाले थे। तीन दिन वहाँ रह कर हम लोगों को कुछ घोड़े खरीदने थे। क्योंकि हम लोगों के अनेक घोड़े मार्गश्रम से बेकाम हो गये थे। समय का यह सुयोग पाकर हम तीनों ने सलाह की कि इस विचित्र देवता को किसी तरह ध्वंस करना चाहिए। एक काठ के कुन्दे को परमेश्वर मान कर पूजा करना परमेश्वर का अपमान करना है।

हम लोग तातारी का छद्मवेष धारण कर रात होने पर चुपचाप मूर्तिविध्वंस करने चले। ग्यारह बजे रात को हम लोग मूर्ति के पास पहुँचे। उसके समीप एक घर के भीतर वही तीनों पुजारी पाँच छः व्यक्तियों के साथ ग़प शप कर रहे थे। बाहर अंधेरा था। घर में एक चिराग टिमटिमा रहा था।

हमने निश्चय किया कि पहले इन लोगों को गिरफ्तार कर के तब काठ के कुन्दे में आग लगा कर उसे जला देंगे इसलिए हम ने किवाड़ में जाकर धक्का मारा। तब एक शख़्स किवाड़ खोल कर बाहर आया। उसको पकड़ कर हम लोगों ने झट उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और हाथ-पाँव बाँध एक तरफ़ डाल दिया। दूसरे व्यक्ति के निकलने की अपेक्षा से हम लोग देर तक बैठे रहे, पर कोई न निकला। यह देख कर हमने फिर किवाड़ों में धक्का दिया। दूसरे व्यक्ति के घर से बाहर होते ही वही व्यवहार किया गया जो पहले के साथ किया गया था। ऐसे ही हमने कई व्यक्तियों को बाँध लिया। बाको कई व्यक्ति कुछ भेद न समझ कर भय से ऐसे निस्तेज हो गये थे कि उन्होंने बिना कुछ कहे-सुने बन्धन स्वीकार कर लिया। हम लोग उन्हें उसी अवस्था में, उनके मुँह बन्द किये, उनके देवता के समीप ले आये और उनकी आँखों के सामने उस भयानक मूर्ति को अलकतरा, तेल और बारूद से पोत कर के उसमें आग लगा दी।

इस काम को इस तरह पूरा करके हम लोग रातोरात अपने दल में आ मिले और यात्रा का सामान दुरुस्त करने लगे जैसे हम लोग बड़ी शान्त-प्रकृति के मनुष्य हो, कुछ जानते ही नहीं। हम लोगों पर किसी ने कुछ सन्देह भी नहीं किया।

किन्तु यह मामला थोड़े ही में न निबटा। दूसरे दिन ग्रामनिवासियों ने मिल कर रूस के हाकिम के पास जाकर नालिश की। ये लोग नाममात्र के लिए रूस के अधीन थे। ये बात की बात में बिगड़ बैठते थे। रूस के हाकिम ने पहले इन लोगों को मीठी मीठी बातों में भुलाने की चेष्टा की और दोषी को पकड़ कर पूरे तौर से दण्ड देने की बात कह कर उन्हें धैर्य दिया। ग्रामवासी लोग सूर्यमण्डलवर्ती चामचीथौङ्गु देवता के शोक में आर्तनाद करने लगे।

रूस के शासक ने हमारे दल में चुपचाप यह खबर भेज दी कि "तुम्हारे दल में यदि किसी ने यह अपकर्म किया हो तो वह शीघ्र यहाँ से भाग जाय"। हमारे दल में किसने यह काम किया है? यह मुँह देख कर परखना कुछ काम रखता था। जो हो, हम लोग दिन रात अविश्रान्त रूप से भाग चले। दो दिन के बाद देखा कि पीछे की ओर बेतरह धूल उड़ रही है। मालूम हुआ कि वे लोग हम सबों को पकड़ने आ रहे हैं। भाग्य से हम लोगों को सामने एक झील मिल गई। उसके चारों ओर परिक्रमा करके हम लोग उसके दक्खिन तरफ़ चले गये और हमारा पीछा करने वाले शत्रुगण झील के चारों ओर घूमघाम कर उत्तर ओर चले गये। हम लोग बेलाग बच गये।

तीसरे दिन वे लोग अपनी भूल समझ कर दक्खिन ओर लौट चले। उसी दिन सन्ध्या-समय वे हम लोगों के समीप आ गये; किन्तु हम पर कोई अत्याचार न कर के उन्होंने दूत भेज कर चामचीथौङ्ग देवता के अपमानकर्ता को पकड़ कर भेज देने का अनुरोध किया। उन्होंने कहलाया, यदि अपमान कारी को पकड़ कर भेज दिया तब तो अच्छा ही है, नहीं तो सबके सब मारे जाओगे। यह खबर सुन कर हम लोगों के दल में खलबली मच गई। सभी लोग परस्पर एक दूसरे का मुँह देखने लगे। दल में किसने ऐसा काम किया है? किसके चेहरे पर अपराध का चिह्न झलकता है? यह कौन जान सकता है?

हम लोगों के सर्दार ने कहला भेजा कि हमारे दल में किसीने ऐसा काम नहीं किया। इस बात से वे लोग सन्तुष्ट न होकर आक्रमण का उद्योग करने लगे।

हमारे दल का एक आदमी, रूस के शासनकर्ता के दूत का स्वाँग धारण कर, क्रुद्ध ग्रामवासियों के पास जाकर बोला-असली अपराधी का पता लग गया। वह पीछे की ओर भाग गया है।

उसकी बात पर विश्वास करके ग्रामवासी पीछे की ओर दौड़ पड़े। हम लोग झगड़े से बच कर आगे बढ़ चले।

रास्ते में एक लम्बा चौड़ा बालू का मैदान मिला। उसके पार होने में पूरे तेईस दिन लगे। इस मरुभूमि में पेड़-पौधे, और पानी कहीं कुछ नहीं था। गाड़ी पर पानी लाद लिया गया था। इसीसे लोगों के प्राण बचे।

हम लोग क्रमशः यूरोप के निकटवर्ती होने लगे। इन देशों में भी कितने ही लोग देखने में आये। पर सभ्यता उन लोगों में भी न थी। वे लोग भी मूर्तिपूजक थे, चमड़े की पोशाक पहनते थे। पोशाक देखकर कोई नहीं समझ सकता था कि उनमें कौन पुरुष है और कौन स्त्री। स्त्रियों के चेहरे पर ज़रा भी लावण्य था कोमलता नहीं झलकती थी। देश जब बर्फ से ढक जाता था तब ये लोग मिट्टी के नीचे गुफा बनाकर रहते थे। तातार देश के प्रायः हरेक गाँव में चामचीथोंगु देवता ही प्रधान है। यहाँ रहने वालों के घर घर में मूर्ति-पूजा होती है। इसके सिवा वे लोग सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, जल, वायु और बर्फ़ आदि समस्त प्राकृतिक पदार्थों को पूजते थे मानों प्रकृति ही उनकी देवी-देवता है। सम्पूर्ण प्रकृतिमयी सृष्टि में एक ईश्वर ही की शक्ति का विकाश है, इसका ज्ञान उन लोगों को कुछ भी नहीं है। वे लोग अविद्या के गाढ़ अन्धकार में पड़कर सभी को भिन्न भिन्न मानकर पूजते हैं।

सब आया इस एक में झाड़-पात फल-फूल।
कबिरा पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जिन मूल॥

क्रमशः हम लोग टोबालस्क नगर में उपस्थित हुए। हम लोग सात महीने से बराबर रास्ता चल रहे थे। अब पाला पड़ने लगा। जाड़े की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। हम लोग चिन्तित हो उठे। किन्तु रूसी लोग उत्साह देकर कहने लगे कि चलने का मज़ा तो शीतकाल ही में है। सफ़र शीतकाल ही का अच्छा। जब जल, थल, पहाड़ और मैदान सभी स्थान कठिन बर्फ़ से ढँककर एक से चिकने हो जाते हैं तब उनके ऊपर बल्गा हरिण की बेपहिये की गाड़ी में बैठ कर दिन-रात चलने में बड़ा आनन्द और आराम मिलता है।

तुम लोगों का आनन्द और आराम तुम्हें मुबारिक हो। बर्फ से आच्छादित देश में मुझे तो विशेष सुख का अनुभव न होता था। हाय! इस समय मुझे वह अपना टापू स्मरण हो आया। वहाँ बराबर वसन्त ही बना रहता था। देह पर कपड़ा डालने की भी प्रायः आवश्यकता न पड़ती थी; और यहाँ यह दुरन्त दारुण शीतकाल की कठिन विभीषिका! कितना ही बदन में कपड़ा लपेटो तो भी बदन गरम न हो।

इसी शीतप्रधान दारुण देश में रूस के क़ैदी निर्वासित किये जाते हैं। यहाँ रूसी सरकार के रोष से दण्डित तथा निर्वासित कितने ही भद्र नर-नारियों को हम लोगों ने देखा। बहुतों के साथ बात चीत की। उनमें प्रायः सभी बड़े शिक्षित और धार्मिक थे। वे लोग और कुछ अपराध तो नहीं, केवल सच्ची भक्ति और श्रद्धा से देशसेवा करते हैं। ऐसा करना राजाज्ञा के विरुद्ध आचरण हुआ। इसी कारण वे लोग दण्डित हुए हैं। एक युवक ने अपने धर्मज्ञान के द्वारा मुझे ख़ूब ही मुग्ध किया था। उनका सिद्धान्त यही था कि "अपने आत्मा को जीतना ही वास्तविक महत्व है। राजप्रासाद की अपेक्षा यह निर्वासन मेरे लिए कहीं बढ़कर सुखद है। इन्द्रिय और चित्तवृत्ति को रोक कर सब अवस्थाओं में प्रसन्न रहना ही मनुष्यज्ञान की चरम सार्थकता है। बाहरी यन्त्रणाओं को सह करके मन की शान्ति और सन्तोष को अव्याहत रखना ही धीरता है।" जब वे पहले निर्वासित हुए थे तब निष्फल क्रोध और अकारण क्षोभ से अपने हाथ से अपने सिर के बाल नोचते थे। किन्तु कुछ ही दिन के सोच-विचार और तत्त्व-चिन्ता से वे समझ गये कि संसार में सुख-दुःख केवल मन की अवस्था है। "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।" चित्त की गति स्थिर हो तो सभी अवस्थाओं में सुख है। चित्तवृत्ति के निरोध ही का नाम योग है। यथार्थ में दुःख कुछ हई नहीं। संसार में यदि दुःख कुछ है तो अज्ञानता मात्र; जिसमें जितना ही अज्ञानता का भाग अधिक है वह उतना ही अधिक दुखी रहता है। ज्ञान का उदय होते ही दुःख का फिर कहीं नाम-निशान नहीं रहता। अहङ्कार, लोभ और इन्द्रियवशता त्याग देने पर धन, सम्पत्ति, सम्मान, और यश आदि सभी सुखोत्पादक विषय तुच्छ जान पड़ते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश, वायु, मीठा जल और एक मुट्ठी अन्न तथा शारीरिक स्वास्थ्य ही प्राणियों के परममित्र हैं। इतनी वस्तुएँ मिल जाय तो शरीर यात्रा के लिए और कुछ दरकार नहीं। धर्म ही मनुष्य को सभी यन्त्रणाएँ सहने, प्रकृत महत्त्व प्राप्त करने, दुःख में सुख पाने और सांसारिक वासनाओं को जीतने की शिक्षा देता है। जो सर्वश्रेष्ठ सुखों के निधान आनन्द स्वरूप है उनका साक्षात् परिचय होने से तुच्छ वस्तुओं की ममता नहीं रहने पाती। परम आनन्द पाकर दुःख के समीप कौन जाना चाहेगा?

उनका यह आध्यात्मिक भाषण सुन कर मैंने निश्चय किया कि इस तरह की मानसिक अवस्था ही प्रकृत राजत्व है। जिसका मन ऐसा है वहीं सम्राट है। वही महाराजों का महाराज है।

चाह घटी चिन्ता गई मनुआँ बे परवाह।
जाको कछू न चाह है सो शाहनपति शाह॥

इन धार्मिक नर-नारियों की सङ्गति में हम लोगों के आठ महीने बड़े सुख से कटे। जाड़ा भी बीत चला। अब ज़रा ज़रा दिन का प्रकाश भी दिखाई देने लगा। मैं मई महीने में यात्रा का ठीकठाक करने लगा। मैंने उन ज्ञानोपदेशक महाशय से कहा, "यदि आप चाहें तो मैं आपको छिपाकर किसी अच्छी जगह पहुँचा सकता हूँ।" उन्होंने इसके लिए मुझको धन्यवाद देकर कहा-महाशय, अब आप़ मुझको ऐसा प्रलोभन न दें। मन बड़ा ही दुर्बल होता है। इतने दिनों की साधना एक ही घड़ी में खो बैठूँगा। मैं जहाँ हूँ वहीं रहूँगा। एक जगह स्थिर होकर रहने ही में सुख है। हाँ, यदि आप अनुग्रह करना चाहते है तो मेरे पुत्र को इस देश से मुक्त कर दें। यह मुझ पर ही एहसान होगा। इससे मै विशेष उपकृत हूँगा।

जून का प्रारम्भ होते ही मैं रवाना हुआ। मेरे साथ कुल बतीस ऊँट-घोड़े थे। और सब साथी, जो जहाँ के थे, क्रम क्रम से चले गये। उतने बड़े दल में एक में ही यात्री बच रहा था। छद्मवेशी रूसो सज्जन और उनका नौकर हमारे नये साथी हुए। हम लोग रेगिस्तान पार हुए। तदनन्तर हम प्रधान-पथ छोड़ कर टेढ़े मेढ़े रास्ते से चलने लगे। किसी शहर में जाते भी न थे। क्या जाने, मेरे साथी छद्मवेशी भद्र महाशय को कोई पहचान ले।

क्रमानुगत हम लोगों ने यूरोप देश में प्रवेश किया। एक जंगल के भीतर होकर जाते समय हम लोगों का जीवन-धन सब लुटेरों के हाथ जाते जाते बचा। ये लोग भी तातारी घुड़सवार लुटेरे थे। गिनती में पच्चीस से कम न थे। वे हम लोगों पर आक्रमण करने की घात में लगे। किन्तु वे लोग जिस तरफ़ जाते थे उसी तरफ़ हम लोग भी जाते थे। इस तरह हम लोगों ने बड़ी देर तक उन्हें घुमा-फिरा कर हैरान किया। रात होने पर वे लोग चले गये । हम लोगों ने भी एक झाड़ी की आड़ में जाकर आश्रय लिया।

कुछ ही देर बाद हम ने देखा कि क़रीब अस्सी डाकू हम लोगों का माल-असबाब लूटने के लिए चले आ रहे हैं। निकट आते ही उनको हम लोगों ने गोली मारी। उससे बहुत लोग मरे और घायल हुए। और लोग डर कर वहाँ से दूर भाग गये। हम लोग उनके कई घोड़े पकड़ लाये।

सारी रात जागते रह कर हम लोग प्रातःकाल की प्रतीक्षा करते रहे । सुबह होते होते देखा कि शत्रुओं की संख्या बहुत बढ़ गई है । किनारे आकर जहाज़ उलटना चाहता है ! सब जगह से बच कर अन्त में यह क्या आफत आई !

हम लोग दिन भर चुपचाप बैठे रहे । डाकुओं ने हमारे साथ कोई छेड़छाड़ न की । हम लोगों ने भो उनसे कुछ न कहा। साँझ होने पर हम लोगों ने भागने का विचार करके उन्हें धोखा देने के लिए खूब आग प्रज्वलित की और ऐसा प्रबन्ध किया जिसमें सारी रात आग धधकती रहे। इसके बाद हम लोग अँधेरी रात में घोड़ों और ऊंटों को साथ ले जंगल के भीतर ही भीतर चुपचाप भाग चले । आग को धधकते देख लुटेरे निश्चिन्त बैठे थे । उन्हें यह धारणा थी कि हम लोग वहीं उनके हाथ से मरने के लिए बैठे हैं ।

हम लोग एक वर्ष पाँच महीने चल कर अन्त में, सब विघ्न बाधाओं से बचकर, समुद्र के तट पर पहुंच गये । रूसी सजन ' जो मेरे साथ आये थे वे, यहाँ से जर्मनी चले गये ।

१७०५ ईसवी के जनवरी महीने की १० वीं तारीख को लगभग ३५ हज़ार रुपया ले कर दस वर्ष नौ महीने के अनन्तर मैं अपने देश इंग्लैंड को लौट आया । में अब बहत्तर साल का हुआ। इतने बड़े जीवन में देशाटन के अनेक उपद्रवो को झेल कर अब मे परलाक की दीर्घयात्रा के लिए शान्तिमय के पथ का पथिक होने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।

ईश्वर ने जल-थल में जैसे राबिन्सन क्रूसो की रक्षा की वैसे ही सबकी रक्षा करें। शान्ति: ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

  • रॉबिन्सन क्रूसो (उपन्यास) : डैनियल डीफ़ो (भाग-2)
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