राबिन्सन क्रूसो (उपन्यास) : डैनियल डीफ़ो, अनुवादक : पं. जनार्दन झा

Robinson Crusoe (Novel in Hindi) : Daniel Defoe

द्वीप का पुनर्दर्शन

मैं पहले कह पाया हूँ कि समस्त द्वीप देखने की मेरी इच्छा थी। मेरे कुञ्जभवन के पास ही समुद्र था। मैं उसी ओर समुद्र के किनारे किनारे घूमने की इच्छा से बन्दूक, कुल्हाड़ी, कुत्ते, यथेष्ट गोली-बारूद, दो डिब्बे बिस्कुट और एक बड़ो थैली में सूखे अंगूर लेकर रवाना हुआ। समुद्रतट पर जाकर पहले पश्चिम ओर की स्थल-भूमि देखी। किन्तु कुछ निश्चय नहीं कर सका कि वह किस द्वीप या महादेश का किनारा है। अनुमान किया, वह किनारा पन्द्रह-बीस मील से दूर न होगा। मैंने यही मान लिया कि यह अमेरिका ही का कोई अंश होगा और वहाँ असभ्य लोग रहते होंगे। अहा! यदि मैं वहाँ किसी तरह पहुँच सकता तो विधाता का सदय विधान जान कर हृदय से कृतज्ञ होता।

फिर मैंने यह सोचा कि यदि वह स्पेन का राज्य होगा तो एक न एक दिन कोई जहाज़ इस रास्ते से जाते आते ज़रूर दिखाई देगा। यदि ऐसा न होगा तो निश्चय कर लूँगा कि यह असभ्य लोगों का मुल्क है और वे असभ्य कुछ ऐसे वैसे न होंगे, वे ज़रूर नरखादक राक्षस होंगे।

इन बातों को सोचते-विचारते मैं धीरे धीरे आगे बढ़ा। मैंने जिस ओर अपने रहने के लिए घर बनाया था उस ओर से इस तरफ का समुद्रतट अधिक रमणीय मालूम होने लगा। खूब लम्बा-चौड़ा मैदान हरियाली, भाँति भाँति के फूल और तरु-लताओं से शोभायमान था। झुण्ड के झुण्ड हरे रंग के सुग्गे इधर से उधर आकाश को सब्ज़ करते हुए उड़े क्या जा रहे थे मानो आकाश में कमल घास के खेत बहे जाते हों। यदि मैं एक सुग्गे को पकड़ सकता तो उसे पालता और पढ़ना सिखाता। बड़ी युक्ति से मैंने एक दिन एक तोते के बच्चे को लाठी की झपट मार कर नीचे गिराया। उसे पकड़ कर मैं घर पर लाया और यत्नपूर्वक पढ़ाने लगा। किन्तु बहुत दिनों बाद उसका कण्ठ खुला। आख़िर उसने बोलना सीखा। वह बड़ी कोमलता से मेरा नाम लेकर मुझे पुकारने लगा।

इस प्रकार भ्रमण करने से मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हो गया था। निम्न भूमि में कहीं कहीं ख़रगोश और श्टगाल के सदृश जानवर नज़र आते थे। मैंने कई एक खरगोश मारे परन्तु वे ऐसे, विचित्र शकल के, थे कि उनको खाने की प्रवृत्ति न होती थी। मज़बूरी हालत में पड़ कर ही लोग ऐसी वस्तु खाते हैं जो खाने के लायक नहीं। अब भी मुझे खाद्य पदार्थ का अभाव न था। बकरे, कबूतर और कछुए-जिन्हें मैं खूब पसन्द करता था—बहुतायत से पाये जाते थे; इसलिए अनाप शनाप चीज़ खाने की मुझे आवश्यकता न थी। मेरी अवस्था यद्यपि अत्यन्त शोचनीय थी तथापि खाद्य-वस्तुओं की कमी न थी, इस कारण मैं हृदय से ईश्वर का कृतज्ञ था।

मैं एक दिन में दो मील से अधिक रास्ता नहीं चलता था। किन्तु देश की दशा देखने के लिए मैं दिन भर इस प्रकार घूमता रहता था कि रात बिताने के अड्डे पर आते आते एकदम थक कर पड़ रहता था। पेड़ के ऊपर या जमीन में थोड़ी सी जगह घेर कर उसके भीतर रात बिताता था जिसमें कोई जन्तु मेरी निद्रित अवस्था में मुझ पर एकाएक आक्रमण न कर सके।

इस तरफ़ समुद्रतट पर आकर देखा, कछुए और पक्षी बहुत थे। पक्षी प्रायः सब मेरे पहचाने हुए थे। जो परिचित न भी थे उनका भी मांस बहुत स्वादिष्ठ था। तब मैंने समझा कि जिधर द्वीप का सब से ख़राब अंश था उधर ही मैंने घर बनाया है। वहाँ डेढ़ वर्ष के भीतर मुझे इने गिने तीन कछुए मिले थे।

मैं जितना चाहता उतना पक्षियों का शिकार कर सकता था। किन्तु बारूद-गोली शीघ्र चुक जाने की आशङ्का से पक्षियों को यथेच्छ न मार सका। मैं चिड़ियों के शिकार की अपेक्षा बकरों के शिकार को ज़्यादा पसन्द करता था। कारण यह कि एक बकरे से कई दिनों का खाना मजे में चल जाता था। मेरे घर की तरफ़ से द्वीप के इस हिस्से में बकरों की संख्या भी बहुत अधिक थी। किन्तु यह भाग द्वीप के और भागों की तरह ऊँचा नीचा न था। इधर की भूमि समतल थी। इसलिए वे मुझ को दूर से देखते ही बड़ी तेजी से भाग जाते थे। उनका पीछा में कहाँ तक कर सकता।

इधर का सामुद्रिक तट यद्यपि मुझे अधिक रमणीय जँचता था तथापि मुझे अपने वासस्थल को उठाकर इस तरफ़ लाने की इच्छा न होती थी। ऐसे सर्वांशसम्पन्न घर को तोड़ कर नई जगह में आने को जी नहीं चाहता था। मैं इस तरफ़ सिर्फ घूमने ही आया था, जी मेरा अपने हाथ के बनाये हुए घर की ओर ही लगा था। समुद्र के किनारे किनारे मैंने अन्दाज़न बारह मील, जाकर घर लौट आने की इच्छा की। अपने घूमने की सीमा को निर्दिष्ट रखने की इच्छा से मैंने समुद्रतट पर एक लम्बा सा खंभा गाड़ दिया। वही मेरे पश्चिम ओर के भ्रमण का अन्तिम चिह्न हुआ। मैंने निश्चय किया कि घर जाकर अब पूरब ओर की यात्रा करूँगा और उधर से घूमते घूमते जब चिह्मस्वरूप गड़े हुए खमे तक आ जाऊँगा तब समझूँगा कि मेरी द्वीप-परिक्रमा पूरी हुई।

द्वीप का पूरा पूरा परिचय पाने के लिए मैं जिस राह से गया था उस राह से न लौटकर दूसरे रास्ते से लौटा। दो तीन मील आते न आते मैं पहाड़ की एक ऐसी तराई में पहुँचा कि जंगल से ढकी हुई राह में दिशा का र्निर्णय करना कठिन हो गया। मैं अपने दुर्भाग्य से तीन चार दिन तक तराई के जंगल में मार्ग भूलकर घूमता रहा। उसकी वजह यह थी कि कई दिनों से आकाश कुहरे से बिलकुल ढका था, इसलिए सूर्य्य को देखकर दिशा के निर्णय करने का भी सुयोग न था। मैं अत्यन्त उद्विग्नतापूर्वक घूम फिर कर आखिर फिर समुद्र-तट को ही लौट आया। यहाँ मैंने अपने चिह्न-स्वरूप खम्भे को ढूँढ़ निकाला। फिर जिस रास्ते से घूमने आया था उसी रास्ते से लौटा। तब आकाश बिलकुल साफ़ हो गया था। सूर्य का ताप असह्य हो उठा। बन्दूक, कुल्हाड़ी और अन्यान्य भारी वस्तुएँ लिये रहने के कारण पसीने से तरबतर होता हुआ घर पहुँचा। मेरे अदृष्ट की बलिहारी है।

लौटते समय मेरे कुत्ते ने एक बकरी के बच्चे को पकड़ लिया। मैं झट दौड़कर गया और उसके पास से उसे छुड़ा लिया। मैं दो-चार बकरों को पाल कर उनकी संख्या बढ़ाना चाहता था। यह इस लिए कि शायद गोली-बारूद घट भी गई तो मेरे खाने को कुछ टोटा न रहे। इस बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पालूँगा, यह मैंने पहले ही सोच लिया था। अब एक गर्दानी (गले की रस्सी) बना करके उसके गले में बाँध दी और उसमें एक रस्सी बाँधकर उसे खींचते हुए किसी तरह अपने कुञ्जभवन में ले गया। मैं घर लौटने के लिए व्यग्र हो रहा था, क्योंकि घर छोड़े एक महीना हो गया था। बकरे को खींचकर घर ले जाने में विलम्ब होता, इसलिए उसे कुञ्जभवन में ही बाँध रक्खा।

बहुत दिनों के बाद घर लौट कर बिछौने पर सोने से जो आराम और सुख मिला उसका वर्णन नहीं हो सकता। चिरवियोग के बाद प्रिय-सम्मिलन का सुख और परदेशी को स्वदेश लौटने का सुख भी इस सुख के आगे तुच्छ है। मैंने इस निरुद्देशयात्रा में जो कुछ सुख का अनुभव किया था उससे कहीं बढ़कर सुख घर आने पर मिला। इससे मैंने संकल्प किया कि अब से कभी अधिक दूर न जाऊँगा।

मैंने घर आकर एक सप्ताह विश्राम किया। इधर कई दिनों तक मैं तोते के लिए एक पींजरा बनाता रहा। एकाएक मुझे कुञ्जभवन में बँधे हुए बकरी के बच्चे की बात स्मरण हो आई। मैं उसे घर ले आने की इच्छा से रवाना हुआ। वहाँ जाकर देखा, वह मारे भूख-प्यास के अधमरा सा हो गया है। मैंने पेड़ से हरे हरे पत्ते तोड़कर उसे खिलाये। वह भूख से ऐसा व्याकुल था कि खाने के लाभ से पालतू कुत्ते की भाँति आपही मेरे पीछे पीछे आने लगा। मेरे हाथ से दाना-घास पाकर वह खूब हिल गया। मेरे साथ वह सखा का सा व्यवहार करने लगा। मैं भी उसे जी से प्यार करने लगा।

फ़सल

इस द्वीप में मेरा तीसरा साल आरम्भ हुआ। प्रथम वर्ष की तरह दूसरे साल का वृत्तान्त यद्यपि मैं सविस्तार वर्णन न करता तो भी पाठकों ने समझ लिया होगा कि मैं आलसी बनकर बैठ न रहा था। शिकार खेलना, घर बनाना, खाद्य सामग्री तथा आश्रम के उपयुक्त वस्तुओं का संग्रह करना इत्यादि सब काम मुझी को करना पड़ता था। उपकरण न होने से सीधा काम भी मेरे लिए परिश्रमसाध्य और समय-सापेक्ष हो जाता था। दो आदमी जिस तने में से दिन भर में कम से कम छः तख़्ते चीर कर निकाल सकते हैं उसी में से मैंने बयालिस दिन में सिर्फ एक तख्ता निकाला था। पाठकगण इसी से मेरे काम की शृंखला और दौर्भाग्य की बात समझ जायँगे।

मैं इस द्वीप में उतरने की तिथि ३० वीं सितम्बर को बराबर, पर्व दिन की भाँति पवित्र मानकर, उत्सव मनाता था। ईश्वर ने इस जनशून्य द्वीप में, मेरी इस असहाय अवस्था में, जो कुछ सुख की सामग्री दे रक्खी है वह इतने दिन तक कभी स्वजन-समाज में प्राप्त न हुई थी। इस कारण उनके चरणकमलों में मेरा चित्त चिरकृतज्ञ बना रहता था। दूसरी बात यह कि मैं अब अकेला ही कैसे हूँ? ईश्वर अलक्षित रूप से मेरा साथ देकर मेरी निर्जनता को पूर्ण कर रहे हैं। इस समय मुझे उन पर भरोसा है। वे मेरे लिए शान्ति, सान्त्वना और उज्ज्वल आशा के रूप में प्रकाशमान हैं।

पहले जब दुःख के भार से मेरा मन व्याकुल हो उठता था तब मैं रो कर सान्त्वना की खोज करने लग जाता था, किन्तु अब और तरह की सान्त्वना को न खोज कर बाइबिल पढ़ता हूँ। एक दिन मेरा मन बड़ा ही उदास था। मैं सबेरे बाइबिल ले कर पढ़ने बैठा। पन्ना उलटाने के साथ पहले ही इस वाक्य पर दृष्टि पड़ी-ईश्वर का कथन है "मैं अपने भक्तों को कभी नहीं छोड़ता, किसी भी अवस्था में नहीं।" अहा, कैसा चमत्कृत वाक्य है, कैसी मधुमयी वाणी है! मानों स्वयं भगवान् मुझको सान्त्वना दे कर यह बात प्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं। तो अब भय क्या? मैं भी उसी जगत्पिता का एक पुत्र हूँ।

इसी प्रकार काम करते और सोचते विचारते हेमन्तकाल उपस्थित हुआ। इस समय मेरी धान और जौ की फसल के पकने का समय आया। धान के पौदे खूब हरे भरे थे किन्तु मैंने देखा कि धान के विनाशक शत्रुओं से मेरा सर्वनाश होने की सम्भावना है। बकरे और वे जङ्गली जानवर-जिनको मैंने एक किस्म का ख़रगोश मान लिया था-धान के पेड़ों की मधुरता चख कर नित्य रात रात भर मेरे ही खेत में पड़े रहते थे और जहाँ पौदे ज़रा बढ़ने लगते तहाँ उन्हें नोच कर खा डालते थे। इस से उन पेड़ों को झाड़ बाँधने का अवकाश नहीं मिलता था।

इन दुष्ट जन्तुओं से सस्यरक्षा का एकमात्र उपाय बाड़ी लगाना था। बड़ी शीघ्रता से काम करने पर भी उस छोटे से खेत को घेरने में मुझको कोई तीन सप्ताह लगे। मैं दिन में खुद उस खेत की निगरानी करता और सुविधा मिलने पर सस्य-खादक जन्तुओं को गोली से मार डालता था। रात के समय अपने कुत्ते को घेरे के भीतर जाने के मार्ग में पहरा देने के लिए बाँध देता था। उसकी बोली सुन कर कोई जानवर उसके पास से होकर खेत के भीतर जाने का साहस न कर सकता था। इस उपाय के द्वारा शीघ्र ही उन जन्तुओं से खेत की रक्षा हुई। फ़सल भी क्रमशः पकने लगी।

पशुओं के उपद्रव से तो छुटकारा मिला, पर अब पक्षियों ने उत्पात मचाना शुरू किया। धान में बाल निकलते ही भाँति भाँति के पक्षी मेरा सर्वनाश करने के लिए अवसर पाकर खेत में आने लगे। ज्योंही मैं खेत में पहुँचता था त्योंही वे सब के सब उड़ कर इधर उधर पेड़ों पर जा बैठते थे और मेरे वहाँ से चले जाने को प्रतीक्षा करते थे। खेत में जाकर मैंने देखा कि इन पक्षियों ने धान के कितने ही पौधों को नष्ट कर डाला है। किन्तु अब भी कुछ समय था। क्योंकि सब धान पके नहीं थे। जिस तरह होगा बचे हुए धान की रक्षा करनी ही होगी, नहीं तो ये सस्य-घातक पक्षी धान को निःशेष कर के मुझे अन्न के बिना मार ही डालेंगे। मैं खेत से कुछ ही दूर गया हूँगा कि वे सब पक्षी साकांक्ष दृष्टि से देखने लगे कि मैं गया कि नहीं। मेरे ज़रा आँख के ओट होते ही वे झुंड के झुंड पेड़ से उतर कर फिर खेत में गिरने लगे। मैं, सब के उतर आने तक ठहर न सका। मुझे अत्यन्त क्रोध चढ़ आया। बड़ी तेज़ी से घेरे के पास जाकर मैंने उन चिड़ियों पर गोली चला दी। उनमें तीन पक्षी मरे और कुछ घायल हुए। मैंने उन तीनों को डोरी में बाँध कर खेत के तीन तरफ़ लटका दिया। इससे आशातीय उपकार हुआ। उन पक्षियों ने खेत में आना तो छोड़ा ही, साथ ही इसके जितने दिन वे तीनों मृत पक्षी टँगे रहे उतने दिन उन्होंने उस तरफ़ आने का नाम तक नहीं लिया।

दिसम्बर के अख़ीर में फसल अच्छी तरह पक गई। काटने का समय आ पहुँचा। किन्तु उसे काटे कैसे? एक हँसुए की आवश्यकता थी। जहाज़ से जो जंग लगी हुई तलवार लाया था, उसको हँसुए की तरह टेढ़ा कर लिया। मेरा खेत ही कितना था और काटने वाला भी मैं अकेला ही था। किसी तरह उसी निजरचित हँसुए से काम निकल गया। धान की बाले काट कर टोकरे में भरी। पेड़ों को खेत में ही छोड़ दिया, लेकर क्या करता। धान की बाले घर पर ले आया और लाठी से पीट कर उनके दाने छुड़ा लिये।

मेरे आनन्द और उत्साह की सीमा न रही। ईश्वर की कृपा होगी तो समय पाकर अब मेरे आहार का प्रभाव मिट जायगा। किन्तु इतने पर भी मेरी असुविधा का अन्त न था। मैं न जानता था कि किस तरह जो पीस कर उसका आटा निकाला जाता है, आटा निकलने पर किस तरह वह छाना जाता है, छान लेने पर किस तरह उसकी रोटी बनती है और किस तरह सेंकी जाती है। कैसे क्या होगा, इसकी चिन्ता छोड़ कर मैंने इस दफ़े की सारी फसल बीज के लिए रख छोड़ी और बीज बोने के समय से पहले मैं अपने खाने-पीने की सामग्री सञ्चय करने में जुट गया।

एक साधारण रोटी पकाने के लिए कितनी ही सामान्य सामान्य वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इस पर प्रायः बहुत लोग ध्यान नहीं देते। एक तो मेरे रहने का ठिकाना नहीं, दूसरे कोई संगी साथी भी नहीं। खेती करने का कोई सामान नहीं। मेरे पास न हल है न बैल। न कुदाल है न खनती काठ का कुदाल जो बनाया था वह खराब हो गया तो भी उससे किसी किसी तरह काम चलाया। दूसरी दिक्कत यह थी कि बीज बोने के बाद हिंगाने की ज़रूरत थी। उसके लिए हेंगा (लकड़ी का भारी लम्बा तख्ता) चाहिए। मेरे पास वह नहीं था। मैं एक पेड़ की मोटी सी डाल काट कर ले आया और उसे घसीटता हुआ खेत में इधर उधर घूमा। उसे घसीट कर ले चलने से जो खेत में चिह्न पड़ गया उसी से काम चल गया। फसल उगने पर फिर उसकी हिफाज़त के लिए बहुत कुछ करना पड़ा। बाड़ लगाना, पकने पर काटना, अनाज अलग करना आदि कितने ही काम करने पड़े। इसके बाद आटा पीसने के लिए जाँता, चालने के लिए चलनी आदि की आवश्यकता हुई। इसके बाद आटा माँड़ कर रोटी बनाने और सेंकने का नम्बर था। ये सब काम किसी तरह मुझको करने ही पड़ते थे।

इस दफ़े बीज बोने के लिए बहुत लम्बा चौड़ा खेत चाहिए। इसलिए कुछ ज़्यादा खेत ठीक करना होगा। यह सोच कर मैंने सात आठ दिन में एक और काठ का कुदाल बना लिया। पर यह भारी और कुछ भद्दा बना। इसके चलाने में मुझे बड़ी मेहनत पड़ती थी। मैंने अपने घर के बहुत ही नज़दीक दो क्यारी खेत-जोत गोड़ कर ठीक किया। इसके बाद उन पेड़ों की डाल से खेत को चारों ओर से अच्छी तरह घेर दिया जिनकी डाल रोपने से लग जाती है। इस समय बरसात शुरू हो गई थी, इसलिए जभी कुछ फुरसत मिल जाती थी तभी बाड़ी लगा देता था। इसमें मुझे तीन महीने लगे। वृष्टि बन्द होने पर मैं घेरा बनाता था और वृष्टि होने के समय घर में बैठ कर तोते को पढ़ाता था। मैंने तोते का नाम रक्खा था "आत्माराम'। वह बड़े स्पष्ट स्वर में अपना नाम लेकर पुकारता था-"आत्माराम"। इस द्वीप में आकर मैंने अपनी बोली के सिवा यही पहले पहल दूसरे का कण्ठस्वर सुना। अहा! सुनने में क्या ही मधुर लगता था!

मिट्टी के बर्तन बनाना और रोटी पकाना

मैं इस समय केवल तोते के पढ़ाने ही में भूला न था; किन्तु यह भी सोच रहा था कि मिट्टी के बर्तन किस तरह बनाये जा सकेंगे। पहले मैंने सोचा कि बर्तन बनाने के लिए पहले चाक बहुत ज़रूरी है। यदि बर्तन बनाने के लायक मिट्टी मिल जाय तो उससे बर्तन बना कर धूप में सुखा लेने से सूखी चीज़ रखने का सुभीता होगा। पहले मैंने मैदा रखने के लिए खुब बड़ी बड़ी हँड़ियाँ बनाने का विचार किया।

पहले पहल अपने कार्य की विफलता, फिर बर्तन बनाने की अनभिज्ञता, और इसके बाद बेडौल बर्तन गढ़ने का वर्णन करने से पाठकगण अवश्य हँसेंगे। कोई टेढ़ा मेढ़ा, कोई बदशकल, और कोई विचित्र रूप का बर्तन बना। उस पर भी कोई फट जाता, कोई अपने भार से आप ही टूट जाता, और कोई हाथ लगते ही टूट जाता था। दो महीने तक मैं बराबर बर्तन बनाने के पीछे हैरान रहा। मैं बड़े कष्ट से मिट्टी खोद कर लाता था। उसे अच्छी तरह रौंद कर मैंने बार बार विफल प्रयत्न होकर भी अन्त में विचित्र शकल के दो बर्तन (उसका नाम क्या बतलाऊँ, वह न हाँड़ी थी न घड़ा था न कराही थी; न मालूम वह विचित्र आकार का क्या था!) बनाये। इन दोनों अज्ञातनामा बर्तनों को धूप में सुखा कर एक टोकरे में रक्खा और उसके चारों ओर पयाल का बेठन दे दिया।

यद्यपि मैं बड़ा बर्तन गढ़ने में सफलता प्राप्त न कर सका तथापि छोटे छोटे कितने ही बर्तन मैंने एक तरह से उमदा तैयार कर लिये। मलसी, रकाबी, ढकनी, कलसी, इसी किस्म के और भी छोटे मोटे बर्तन जब जो मेरे हाथ से निकल गये उन्हें गढ़ कर तैयार किया और धूप में अच्छी तरह सुखा लिया।

किन्तु इससे मेरी कमी दूर नहीं हुई। मुझे तरल पदार्थ रखने और रसोई-पानी बनाने के उपयुक्त बर्तनों की आवश्यकता थी और ख़ास कर पके हुए बर्तनों की। एक दिन मैंने मांस पकाने के लिए खूब तेज़ आग जलाई। मांस पका कर जब आग बुझा दी तब देखा कि मेरे गढ़े हुए बर्तन का एक टुकड़ा भाग में पक कर खूब बढ़िया ईंट की तरह लाल और पत्थर की तरह सख्त हो गया है। तब मैंने मन में सोचा कि यदि फूटा हुआ पकता है तो साबित बर्तन क्यों न पकेगा? इस आशा से मेरा हृदय आनन्द से उमँग उठा।

मैंने कुम्हार का आवाँ कभी नहीं देखा था तो भी कुछ हाँड़ियाँ, मलसे, कलसियाँ और रकाबियाँ आदि छोटे बड़े बर्तनों को एक के ऊपर एक करके रक्खा; और उसके नीचे कोयले बिछा कर चारों ओर सूखी लकड़ियाँ लगाकर रख दी। उसमें आग लगा कर धीरे धीरे उसके ऊपर और बग़ल में मोटी लकड़ियाँ रख दीं। कुछ देर बाद देखा कि बर्तन भाग की ज्वाला से उत्तप्त होकर लाल हो गये हैं, पर उनमें एक भी फूटा नहीं है। मैंने उन बर्तनों को उसी तरह पाँच छः घंटे कड़ी आँच में रहने दिया। इसके बाद देखा कि बर्तन तो एक भी नहीं टूटा फूटा, किन्तु वे गले जा रहे हैं। जिस मिट्टी से मैने हाँडी बनाई थी उसमें बालू मिली थी। वही बालू अधिक आँच लगने से गल कर काँच होगई। यदि मैं और पाँच देता तो हाँडी गल कर काँच हो जाती। इससे मैं धीरे धीरे आँच कम करने लगा। ज्यों ज्यों आँच कम पड़ने लगी त्यो त्यों बर्तनों की लाली भी मन्द होने लगी। अन्त में ठंडे पड़ जाने पर बर्तन कहीं फूट न जाय, इस आशङ्का से मैं सारी रात बैठा ही रहा और धीरे धीरे आग की आँच कम करता रहा। सबेरे प्राग बुझा कर देखा तो तीन प्यालियाँ और दो हाँड़ियाँ अच्छी तरह पक गईं थीं। जो बर्तन गला जाता था वह ऐसा चिकना हो गया था जैसे उस पर आप ही पालिश हो गई हो।

रसोई बनाने के उपयुक्त, आग सहने योग्य, पका बर्तन जब मुझे मिला तब जो आनन्द हुआ उस आनन्द की तुलना इस संसार में किसी वस्तु से नहीं हो सकती । ऐसी साधारण वस्तु से संसार में इस तरह कभी कोई खुश न हुआ होगा। बर्तनों को ठंडा तक न होने दिया। मैंने एक हाँडी में पानी ढाल कर मांस पकाने के लिए आग पर चढ़ा दिया। मेरा अभीष्ट सिद्ध हुआ। यद्यपि मेरे पास कोई मसाला न था तथापि मांस का मैंने बढ़िया शोरवा बनाया। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर मुझे बर्तनों की दिक्कत न रही। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उन बर्तनों का कोई निर्दिष्ट आकार न था और न वे देखने ही में सुन्दर थे; केवल काम चलाने योग्य थे।

इसके बाद मुझे यह चिन्ता हुई कि धान क्योंकर कूटा जायगा। न मेरे पास ओखली थी, न मूसल था, और न लोहे का ही ऐसा कोई पात्र था जिसमें कूट कर चावल निकाले जा सके। इसके अलावा एक चक्की की भी बड़ी आवश्यकता थी। किन्तु दो हाथ मात्र उपकरण से जाँता तैयार करने की कल्पना भी पागलपन से खाली नहीं कही जा सकती। मैं किस तरह अपने उद्देश्य को सिद्ध करूँगा, यह सोच कर बड़ा ही व्यग्र हुआ। एक भी युक्ति ध्यान में न आई। मैं न जानता था कि किस तरह पत्थर काटा जाता है। दूसरी बात यह कि पत्थर काटने के उपयुक्त कोई औज़ार भी मेरे पास न था। मैंने सोचा कि यदि एक मोटा सा पत्थर का टुकड़ा मिल जाय तो उसके बीच में गड्ढा सा खोद करके ओखली बना लूँगा। किन्तु वैसा एक भी पत्थर कहीं गिरा पड़ा दिखाई नहीं दिया। पहाड़ पर उसकी कमी न थी, किन्तु पहाड़ पर से काट कर या खोद कर ले आना मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात थी। एक बात यह भी थी कि सभी पत्थरों में बालू के कण मिले रहते हैं। ऐसे पत्थर की ओखली बनेगी भी तो वह मसूल का आघात सह न सकेगी। मान लो, यदि सह भी ले तो आटे या चावल में बालू के कण किच किच करेंगे ही। यह सोच विचार कर मैंने पत्थर से काम निकालने की आशा छोड़ दी और सख्त लकड़ी का एक ऐसा कुन्दा ढूँढ़ने लगा जिसको मैं अकेले लुढ़का कर घर पर ला सकूँ। ऐसा कुन्दा ढूँढ निकाला। उसको कुल्हाड़ी से काट कर पहले ढोलक की तरह दोनों ओर चिपटा और बीच में गोल बनाया। फिर उसके नीचे और ऊपर के हिस्से को मोटा रख कर बीच के हिस्से को चारा और से छाँट कर कुछ पतला किया।

अब उसका आकार बहुत कुछ डमरू का सा हुआ। फिर उसे खड़ा करके ऊपर के भाग को कुल्हाड़ी से खोद कर और उसके मध्य भाग को आग से जला कर किसी तरह खोखला किया। मैंने जिस कठोर वृक्ष के कुन्दे की ओखली बनाई उसी पेड़ की एक सीधी डाल काट कर ले आया और उसे कुल्हाड़ी से काटकर खम्भे के आकार का लम्बा सा मूसल बना लिया। ओखली-मुसल तैयार हो जाने पर उन्हें आगामी फसल की उपयोगिता की आशा पर रख छोड़ा। अब चिन्ता इस बात की रही कि फसल उपजने पर मैदा बना करके रोटी कैसे बनाऊँगा इसके बाद मैदा चालने के लिए एक चलनी भी ज़रूर चाहिए। बिना इसके मैदे से भूसी निकालना कठिन है, और भूसी मिले हुए मैदे की रोटी खाने योग्य न होगी। चलनी का काम कैसे चलेगा? यह कठिन समस्या उपस्थित हुई। मेरे पास महीन कपड़ा भी न था। जो कपड़े थे, वे सब फट कर चिथड़े चिथड़े हो गये थे। मेरे पास बकरे की ऊन बहुतायत से थी, पर उससे कुछ बुनना या बनाना मैं न जानता था।

चलनी बनाने का उपाय सोचने में मेरे कई महीने बीत गये पर एक भी उपाय न सूझा। आख़िर मुझे यह बात याद हुई कि जहाज़ पर से जो नाविकों के कपड़े-लत्ते लाया हूँ उनमें कितने ही कपड़े जालीदार और मसलिन (मलमल) भी हैं। मैंने उन्हीं के द्वारा छोटी छोटी तीन चलनियाँ बनाईं। इन चलनियों से कई वर्ष तक मेरा काम निकला। इसके बाद मैंने क्या किया, यह आगे चलकर कहूँगा।

अब रोटी बनाने की चिन्ता हुई। मैदा तैयार होने पर किस तरह रोटी बनाऊँगा? आखिर मैंने सोचा कि रोटी पकाने का काम भी मिट्टी के बर्तन से ही लेना चाहिए। फिर क्या था, मैंने मिट्टी का तवा बना कर उसे भाग में अच्छी तरह पका लिया। इससे रोटी पकाने का काम मजे में निकल गया। मैंने धीरे धीरे रोटी पकाने का सभी सामान दुरुस्त कर लिया। चूल्हा भी बना लिया। मुझे अपने हाथ से रोटी पका कर खाने का सौभाग्य पहले पहल प्राप्त हुआ। इससे मेरे आनन्द की सीमा न रही। रोटी के सिवा मैं अब कभी कभी चावल की पिट्ठी के पुवे भी बनाने लगा। इस द्वीप में निवास करते मेरा तीसरा साल इन्हीं सब कामों में कट गया। इसी बीच मैं अपनी फसल काट कर घर ले आया और उसे टोकरे में भर भर कर हिफाज़त से घर के भीतर रख दिया।

अब मेरे पास अन्न की कमी न रही । मैं अब दिल खोल कर अन्न खर्च करने लगा। खूब रोटी पकाता और भर पेट खाता था। मुझे अब अन्न रखने के लिए बुखारी की ज़रूरत हुई । मैं अन्न की बदौलत इस समय एक अच्छा मातवर आदमी बन गया।

नौका-गठन

जब मैं इन झमेलों को लेकर व्यस्त था तब भी मेरा मन इस जनशून्य द्वीप से मुक्ति पाने के लिए चिन्तित रहा करता था। मैंने इस द्वीप के अन्य भाग से जबसे दूर से स्थलचिह्न देखा था तबसे मेरा जी वहाँ जाने के लिए पातुर हो रहा था। यदि मैं महादेश के किसी अंश में पहुँच जाऊँगा तो घूमते फिरते किसी न किसी दिन स्वदेश का मुँह देख सगा, अथवा जनसमूह में पहुँच जाने से भी कोई न कोई उपाय होगा। मैं मन में यही मन के लड्डू खा रहा था। किन्तु उस समय यह चिन्ता मेरे मन में एक बार भी उदित न होती थी कि यदि कहीं असभ्य जंगली मनुष्यों या हिंस्त्र पशुओं के बीच पहुँच गया तो मेरी क्या दुर्दशा होगी-वे दुष्ट जन्तु मुझे किस निर्दयता के साथ मार कर खा जायँगे। मेरे चित्त को तो एक यही चिन्ता धेरे रहती थी कि इस द्वीप से कब अन्यत्र जाऊँगा।

इस समय उस एकजूरी लड़के की और आफ़्रीका के उपकूल में जिसने बचायाराथा उस लम्बे जहाज़ की बात याद आने लगी। किन्तु वह तो अब मिलने का नहीं। मैं उस डोंगी की खोज में गया जो हम लोगों के जहाज़ के साथ आई थी; जिस पर सवार हो कर हम लोग डूबे थे और जो समुद्र की लहर से ऊपर आकर सूखे में उलट पड़ी थी। वह जहाँ की तहाँ पड़ी थी किन्तु समुद्र की तरङ्ग और वायु के धके खाकर वह उलट गई थी। उसके आस पास चारों ओर बालू जम गई थी और पानी वहाँ से बहुत दूर हट गया था। नाव ज्यों की त्यों थी, कहीं टूटी फूटी न थी। यदि कोई सहायता करने वाला होता तो मैं ठेल पेल कर किसी तरह नाव को पानी में ले जाता। इससे मेरा बहुत काम चलता। मैं सहज ही ब्रेजिल को जा सकता।

यद्यपि मैं जानता था कि नाव को सीधा करना मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात है तथापि असाध्य साधन होता है या नहीं-यह देखने के लिए मैं जंगल से लकड़ी काट कर ले आया और उसको ठेक लगा कर नाव को उलटाने की चेष्टा करने लगा। मेरे शरीर में जितना बल था उसे लगा करके मैं थक गया, पर नाव को हिला तक न सका। इसके बाद नाव के नीचे की बालू खोद कर उसे उलटाने की चेष्टा करने लगा। तीन चार सप्ताह तक मैंने जान लड़ा कर परिश्रम किया, बड़ी बड़ी चेष्टाय की, पर सभी व्यर्थ हुई। जब किसी तरह उसे उलटा न सका तब उस नाव की प्राशा छोड़ दी। किन्तु इससे कोई यह न समझे कि मैंने इसके साथ ही समुद्र पार होने की आशा भी छोड़ दी। नहीं, उपाय जितना ही कठिन प्रतीत होने लगा मेरा आग्रह भी उतना ही बढ़ने लगा।

अब मैं यह सोचने लगा कि क्या मैं स्वयं एक नई डोंगी नहीं बना सकता? आफ़्रीका के रहने वाले तो बिना विशेष अस्त्र शस्त्र के ही पेड़ के तने को खोखला करके अच्छी डॉगी बना लेते हैं; मेरे पास इतने हथियार होते हुए भी क्या मैं एक नाव न बना सकूँगा? यह भावना होते ही मेरे मन में पूर्ण उत्साह हुआ। किन्तु उस समय मुझे यह न सूझा कि हबशियों के औज़ार के अभाव की अपेक्षा भी मुझ में एक गुरुतर अभाव है। हबशियों को जनसमाज का बल रहता है पर मैं अकेला उस बल से रहित हूँ। नाव बन जाने पर भी उसे ठेल कर पानी में कैसे ले जाऊँगा?

मैं इस असुविधा की ओर कुछ भी लक्ष्य न कर के वजमूर्ख की तरह नाव बनाने पर उद्यत हुआ। यदि मन में कभी यह प्रश्न होता भी था तो यही कह कर टाल देता था कि पहले नाव बन ले फिर देखा जायगा।

मैंने एक पेड़ काट डाला। यह पेड़ खुब मोटा और लम्बा था। उसके नीचे का हिस्सा एकसा सीधा, बाईस फुट से भी कुछ ज्यादा लम्बा, था। उसकी जड़ का व्यास पाँच फुट दस इञ्च और बाईस फुट के ऊपर का व्यास चार फट ग्यारह इञ्च था। उसके ऊपर का हिस्सा कुछ पतला सा हो कर शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया था। पेड़ तो मैंने किसी तरह काट कर गिराया। इसकी जड़ काटने में बीस दिन लगे और चौदह दिन इसके ऊपर का हिस्सा काटने और डाल-पात छाँटने में लगे। इसके बाद उस तने को नाव के आकार में गढ़ने में पूरा एक महीना लगा। तदनन्तर रुखानी और बसूले से छील छाल कर बड़े परिश्रम से एक सुन्दर डोंगी तैयार कर ली। यह इतनी बड़ी थी कि इसमें छब्बीस आदमी खुशी से बैठ कर समुद्र-यात्रा कर सकते थे। इसलिए यह नौका मुझ अकेले को और मेरे माल असबाब को ढोकर ले जाने के लिए बड़ी ही उपयुक्त हुई।

नाव बन गई, पर उसे जल में ले जाने का उपाय क्या है? मेरे सब परिश्रम व्यर्थ हुए। नौका पानी से करीब सौ गज़ के फासले पर थी। मैंने नाव को लुढ़का कर ले जाने के लिए मिट्टी खोद कर ज़मीन को ढलुवा बनाया। यह युक्ति भी मेरी ख़ाली गई। अनेक चेष्टा करने पर भी नाव अपनी जगह से न हिली। तब मैंने संकल्प किया कि समुद्र से नाला खोद कर नाव के पास तक पानी ले पाऊँगा, इससे नाव सहज ही पानी पर तैरने लगेगी। समुद्र से नाव तक नाले की लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का परिणाम ठोक कर के देखा कि उतना बड़ा नाला खोदने में मुझ अकेले को कम से कम दस-बारह वर्ष लगेंगे। तब एक दम हतोत्साह होकर मैंने इस संकल्प को त्याग दिया। इस नौका-संगठन से जो मेरे मन में पश्चात्ताप हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता। हाँ, इससे मैंने एक शिक्षा ज़रूर पाई-आगे पीछे की बिना विवेचना किये किसी काम में हाथ डालना ठीक नहीं।

इस समय मेरे एकान्त-वास का चौथा साल पूरा हुआ। यहाँ अपने आने की प्रथम तिथि को पूर्ववत् पर्व की भाँति मान कर उत्सव मनाया। ईश्वर की कृपा से इस समय मैं सांसारिक विषय सम्बन्ध से बहुत कुछ विरक्त हो गया था। माना मैं संसार के सम्पर्क से विमुक्त होकर सदेह परलोकवास कर रहा हूँ। यहाँ मैं ही एक निष्कण्टक बादशाह था। अब मुझे किसी वस्तु की कमी के कारण कोई कष्ट न था। कोई व्यर्थ की वासना अब मन को पीड़ित नहीं करती थी। इसके सिवा इस एकाधिप-सम्पत्ति-सम्भोग में लेशमात्र अहङ्कार न था। यहाँ मैं ढेर का ढेर अन्न उपजा सकता था; पके अंगूरों से घर भर सकता था। अपनी इच्छा के अनुसार जितने चाहिएँ उतने कछुए, बकरे, भाँति भाँति के पक्षी और लड़कियाँ ले आ सकता था। किन्तु इतना लेकर मैं करता क्या? एक व्यक्ति के लिए जितना यथेष्ट हो सकता है उतना ही में लेता था। अधिक लेकर क्या करता? इस समय अपनी अवस्था की बात सोच कर मुझे यत्किञ्चित् यही ज्ञान हुआ कि वस्तुओं का मूल्य आवश्यकता के ही अनुसार होता है। उत्तम से उत्तम पदार्थ तभी तक मूल्यवान् गिना जाता है जब तक लोग उसे आवश्यक समझते हैं। आवश्यकता न रहने पर उसका कुछ मोल नहीं। संसार का सर्वप्रधान लोभी अथवा कृपण मेरी अवस्था में पड़ कर एक अच्छा दानी बन जाता, इसमें सन्देह नहीं। मेरे पास कुछ रुपया था, यह पहले ही पाठकों को मालूम हो चुका है। मैं इस समय मटर, सेम, मूली, शलगम प्रति तरकारियों के एक एक बोज के लिए या एक बोतल स्याही के लिए मुट्ठी भर रुपया देने को प्रस्तुत हूँ। जिस रुपये के लिए संसार के कितने ही लोग दिन रात लालायित रहते हैं वह रुपया मेरे नजदीक इस समय कोई चीज नहीं। इन बातों को सोच विचार कर मेरा मन ईश्वर के प्रति दृढ़ भक्ति से प्रार्द्र हो उठा। मैंने विशुद्ध भाव से ईश्वर की उपासना की और उन्हें अनेकानेक धन्यवाद दिये। मैं इस समय निश्चिन्त मन से अपनी अवस्था का सुविचार कर प्रसन्न था।

वस्त्रों की चिन्ता

मेरी स्याही क्रमशः घटने लगी और मैं थोड़ा थोड़ा पानी मिला कर उसे बढ़ाने लगा। आख़िर वह ऐसी फीकी हो गई कि कागज़ के ऊपर उसका कोई चिन्ह ही न देख पड़ता था। जब तक काम चलाने योग्य कुछ स्याही थी तब तक मैं अपने जीवन की विशेष विशेष घटनाएँ लिख लिया करता था।

एक दिन मैं अपनी डायरी की आलोचना करते करते घटनाओँ की एकता देखकर अत्यन्त विस्मित हुना। ३० वीं सितम्बर को मेरा जन्म हुआ था और इसी तारीख़ को मेरा यहाँ का एकान्तवास भी आरम्भ हुआ। जन्म और विजन वास का प्रारम्भ एक ही दिन! जिस तारीख को मैं अपना देश का घर छोड़ करके भागा, उसी तारीख को मैं दास रूप में बन्दी होकर शैली टापू में गया था। जिस तारीख को मैं यारमाउथ मुहाने में जहाज़ डूबने से बाल बाल बचा, उसी तारीख को मैं शैली से भागा था।

स्याही के साथ रोटी का भी अभाव हो गया। यद्यपि मैंने बहुत अन्दाज़ से ख़र्च किया तो भी जहाज़ पर से लाई हुई सब रोटियाँ ख़तम हो गई। स्वयं अपने हाथ से रोटी बनाने के पहले प्रायः एक वर्ष तक मैंने रोटी नहीं खाई। किन्तु भगवान् की दया से वह कमी भी बड़े विचित्र ढंग से दूर होगई।

मेरे पहनने के कपड़े भी अब धीरे धीरे फटने लगे। एक भी सूती कुर्ता मेरे पास नया न था; सभी पुराने और फटे थे। नाविकों के सन्दूक में जो छींट के कई कुत्ते मिले थे उन्हीं को यत्नपूर्वक पूँजी की तरह सँभाल कर रक्खा था; कारण यह कि किसी किसी समय सूती कपड़े को छोड़ कर दूसरा कपड़ा पहना ही न जा सकता था। यद्यपि यह देश ग्रीष्मप्रधान है, किसी कपड़े की उतनी आवश्यकता नहीं, तथापि मैं नंगा रहना हर्गिज़ पसन्द न करता था। मैं यहाँ एकाकी था फिर भी अपने शरीर की मुझे आप ही लजा होती थी। इसके अतिरिक्त यहाँ धूप इतनी कड़ी पड़ती थी कि खुला बदन रहने से शरीर में फफोले पड़ जाते थे। कुर्ता पहने रहने से उतनी गरमी नहीं जान पड़ती थी बल्कि कुत्ते के भीतर हवा जाने से ठंढक मालूम होती थी। मुझे एक टोपी की भी ज़रूरत थी। खाली सिर धूप में फिरने से सिर में दर्द होने लगता था।

यह सब सोच-विचार कर मैंने एक तरकीब से काम लिया। अपने जिन पुराने कपड़ों को अकारथ समझ कर मैंने त्याग दिया था उन्हें जोड़जाड़ कर कुछ बना सकता हूँ या नहीं, इसकी जाँच कर लेना मैंने उचित समझा। मैं रफ करने में तो अनाड़ी था ही, दर्जी के काम में और भी अनाड़ी था। इसलिए उन कपड़ों से जो कुछ बनाया वह एक विचित्र ढंग की वस्तु हुई। फिर भी वह मेरे काम चलाने योग्य हो गई।

मैंने अब तक जितने पशुओं को मारा था उनके चमड़ों को फेंक न दिया था, बल्कि उन्हें धूप में अच्छी तरह सुखाकर एक लकड़ी में लटकाकर रख दिया था। उनमें से कितने ही तो धूप में सूख कर ऐसे सख्त हो गये थे कि उनसे कोई काम लेना कठिन था। पर उन में कई एक मुलायम भी थे। उसी चमडे की पहले मैंने एक टोपी बनाई। चमड़े का चिकना हिस्सा नीचे रहने दिया और ऊन को ऊपर कर दिया। टोपी बनाने में सफलता प्राप्त करके मैंने उस चमड़े की कुछ पोशाकें भी बनानी चाहीं। कुछ दिन में खूब अच्छी ढीली ढाली कुछ पोशाकें तैयार कर ली। उनकी काट छाँट बहुत भद्दी थी, यह मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा। जो हो, उनसे मेरा काम मज़े में चल जाता था। वृष्टि में भी वे न भीगती थीं। ऊन पर से होकर पानी तुरन्त नीचे गिर पड़ता था। वे मज़े में बरसाती कपड़ों का काम देती थीं।

इसके अनन्तर एक छतरी बनाने में मुझे बहुत श्रम करना और समय लगाना पड़ा। धूप इतनी कड़ी होती थी कि छतरी नितान्त आवश्यक थी। बड़ी कठिनाई और अनेक युक्तियों से मैने जैसी तैसी एक काम चलाने योग्य छतरी तैयार की। वह खोली और मोड़ी भी जाती थी। इसके ऊपर भी ऊन ही थी। वह धूप और पानी दोनों का, विलक्षण रीति से, निवारण करती थी।

इस प्रकार मैं बड़े आराम से अपने को ईश्वर की कृपा के ऊपर निर्भर कर एकान्तवास करने लगा।

नौका को पानी में ले जाना

इस प्रकार एकान्तवास करते मुझे पाँच वर्ष बीत गये। खेती करना, अंगूर सुखाकर रखना, शिकार खेलना आदि नियमित कामों को छोड़कर मैं इस बीच में कोई विशेष काम न कर सका। यदि अपने नियमित नित्यकर्म में कुछ विशेषता थी तो यही कि मैं एक डोंगी बना रहा था। अज्ञानी की भाँति मैंने जहाँ पहली डोंगी बनाई थी वहाँ न मैं नाली खाद कर पानी ला सका और न डोंगी को ही लुढ़काकर पानी तक ले जा सका। वह जहाँ बनाई गई वहीं, मेरी अविवेचना की स्मारक होकर, पड़ी रही। इसके बाद मैं ऐसी जगह एक पेड़ की तलाश करने लगा, जहाँ सहज ही नाला खोदकर पानी ले जा सकूँ। इधर उधर खोजते खोजते समुद्र-तट से आध मील पर नीची जगह में नाव के उपयुक्त एक पेड़ मिल गया। उसे काटकर बड़े कष्ट से मैंने फिर एक डोंगी बनाई। अब रही नाला खोद कर लाने की बात। सो मैंने छः फुट चौड़ा और चार फुट गहरा नाला खोदना शुरू कर दिया। आधा मील नाला खोदकर पानी लाने में मुझे दो वर्ष लगे। किन्तु समुद्र में नाव को उतारकर ले जाने के उत्साह में इस कठिन परिश्रम को मैंने कुछ भी न समझा। आख़िर मेरी डोंगी पानी में बह चली।

नौका पानी में तैरने लगी सही, किन्तु इससे मेरा मतलब सिद्ध न हुअा। यह मेरे मतलब के लायक न थी । चालीस मील समुद्र पार कर के इस डोंगी के सहारे मुझे दूसरे देश में जाने का साहस नहीं होता था इसलिए इस इरादे को एक प्रकार से त्याग दिया। अस्तु, अभी नाव मिल गई है, एक बार इस द्वीप को चारों ओर-परिक्रमा कर के देखूगा। मेरे राज्य में कहाँ क्या है, कहाँ तक उसकी सीमा है, इसे भी देखूँगा।

इसके लिए मैं नाव पर आवश्यक वस्तुओं का आयोजन करने लगा। पहले उस पर एक मस्तूल लगाया। जहाज़ के पाल के टुकड़े से एक पाल तैयार किया। नाव के अगले हिस्से में और अधःप्रदेश में खाने-पीने को चीज़ रखने के लिए दो बक्स बनाये। नाव के ऊपर छपरी तो थी नहीं, इसलिए छतरी ही को तान कर छपरी की तरह खड़ा कर दिया।

इस प्रकार सब सामान दुरुस्त कर के मैं नाव को समद के किनारे किनारे ले चला। समुद्र में दूर तक जाने का साहस न होता था। एक दिन अपने राज्य की सीमा देखने की इच्छा हुई । मैंने खाने-पीने की सब सामग्री नाव में रख ली। दो दर्जन जौ की रोटियाँ, एक हाँड़ी भर भूने चावल, (आजकल मैं इसी खाद्य को ज़्यादा पसन्द करता था), एक घड़ा पानी, बन्दूक़ और बिछौने के लिए दो एक कपड़े ले लिये।

मैं अपने राजत्व या द्वीपान्तर-वास के छठे साल अपनी काष्ठ-अङ्कित तिथि-गणना के अनुसार छठी नवम्बर को द्वीप देखने के लिए नाव पर सवार हुआ। जितना रास्ता चलने की आशा की थी उससे कहीं अधिक मार्ग मुझको चलना पड़ा। द्वीप बहुत बड़ा न था। किन्तु द्वीप के पूरब ओर समुद्र के भीतर दो मील तक पहाड़ और पत्थर की बड़ी बड़ी चट्टाने थीं जिनमें कितनी ही पानी के ऊपर निकली थीं और कितनी ही डूबी थीं। उसके सामने समुद्र की ओर आध मील चौड़ा बालू का मैदान था। इतनी दूर चक्कर लगा कर जाने में मुझे बहुत समय लगा।

पहले, मार्ग की यह अवस्था देख कर मैं आगे बढ़ना नहीं चाहता था-कौन जाने, कितनी दूर तक समुद्र की ओर जाना होगा। कहीं गया भी तो फिर लौटूँगा कैसे? तब मैं लगर डाल कर सोचने लगा। (मैंने जहाज़ के टूटे फूटे लोहों से एक साधारण लङ्गर भी बना लिया था।) मैंने डोगी से उतर कर सूखे रास्ते से पहाड़ के ऊपर चढ़ कर बालू के मैदान की दौड़ देखी। देख कर मुझे साहस हुआ। मैं फिर वहाँ से रवाना हुआ।

थोड़ी दूर जाते न जाते मेरी नौका एक प्रखर प्रवाह में जा पड़ी। यद्यपि मेरी नाव किनारे के बहुत ही समीप थी तथापि मैं ज़ोर करते करते थक गया पर उस को किनारे तक न ला सका। मैंने देखा कि मेरी बाईं ओर एक भँवर था, उसी का उलटा स्रोत मुझे ठेल कर समुद्र की ओर लिये जा रहा था। मैंने नाव खेने का लग्गा रख दिया। वह अपने मन से उस तीक्ष्ण धार में निकल चली। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो बैठ रहा। इस बार मैंने अपने को गया ही समझा। यदि डूबने से बच भी जाऊँगा तो भी महासमुद्र में पड़ कर बे दानापानी के मर मिटूँगा। साथ में जो कुछ खाने-पीने की चीजें हैं वे कै दिन चलेंगी? इन बातों को सोच कर मैं उसो निर्जन टापू के लिए व्याकुल हो उठा। नाभिकुण्ड से बार बार यह शब्द प्रतिध्वनित होने लगा, 'हाय! मैं कहाँ जा रहा हूँ? न मालूम किस किनारे पर मेरी यह छोटी सी नौका लगेगी?' किनारे से मैं बहुत दूर जा पड़ा। साथ में कम्पास (दिनिर्णायक यन्त्र) भी न था। यदि रात हो जाय या कुहरा फैल जाय तो दिशा का भी ज्ञान न कर सकूँगा। भाग्यक्रम से दो-पहर पीछे प्रतिकूल वायु बहने लगी। मैंने पाल गिरा दिया। कुछ दूर जा कर देखा कि स्रोत भी उलटा बह रहा है वह उसी भँवर का परवर्तित स्रोत था। मैंने बड़ी खुशी से उस सोते में नाव छोड़ दी। जिन लोगों ने फाँसी की तख्ती पर खड़े होकर मुक्ति-संवाद सुना होगा या जो बधिक के हाथ की चमचमाती हुई नंगी तलवार के वार से बच गये होंगे वही मेरे उस समय के आनन्द का अनुभव कर सकेंगे। वही समझेगे कि उस समय मुझे कितना हर्ष हुआ होगा।

भँवर के वेग में पड़ कर मैं द्वीप के जिस ओर से रवाना हुआ था, फिरती बार उसकी दूसरी ओर जा पड़ा। अन्दाज़न पाँच बजे दिन को मैंने बड़े कष्ट से नाव को खे कर किनारे लगाया।

मैंने ज़मीन में पाँव रखते ही सब से पहले घुटने टेक कर अपने प्राणत्राण के निमित्त परमेश्वर को धन्यवाद दिया। मैंने अब निश्चय किया कि मुझको इसी टापू में रहना होगा, यही ईश्वर को मंजूर है; किन्तु मैं उसको न मान कर अन्यत्र जाने की चेष्टा करता हूँ तो भी वे मेरे इस विरुद्धाचरण को बार बार क्षमा करते हैं। इस कारण, उनसे बढ़ कर दयालु कौन होगा! मैं ऐसा थका था कि पेड़ के नीचे लेटते ही सो गया।

जब मैं जागा तब मन में यह भावना हुई कि किस रास्ते से घर लौट चलना चाहिए? जिस रास्ते से आया हूँ उसी रास्ते से? उस रास्ते से जाने का तो साहस नहीं होता। जिस राह से पाया हूँ उसके विपरीत मार्ग से? कौन जाने, उस ओर फिर मेरे लिए कोई विपद प्रतीक्षा कर रही हो। आखिर मैंने यही निश्चय किया कि कोई मुहाना मिल जाय तो नाव को वहाँ बाँध कर पैदल ही घर जाऊँगा।

दूसरे दिन सबेरे मैंने कोई तीन मील रास्ता किनारे किनारे चल कर एक छोटी नदी का मुहाना पाया । नाव को उसी मुहाने में ले जा कर बाँध दिया।

ऊपर पाकर मैंने देखा कि एक बार पैदल घूमते घूमते मैं जिस ओर आया था उसी तरफ़ आ गया हूँ। इससे चित्त में बड़ा ही विश्राम मिला। मैं नाव पर से केवल अपनी छतरी और बन्दूक उतार कर ले आया और वहाँ से अपने घर की ओर रवाना हुआ। साँझ को मैं अपने कुलभवन में जा पहुँचा।

छाग-पालन

मैं घेरे को लाँघ कर कुञ्जभवन के भीतर गया। वहाँ देखा, जो पदार्थ जैसे थे वैसे ही हैं। मैं पेड़ के नीचे लेटते ही गाढ़ी नींद में सो गया।

दिन भर के परिश्रम से बड़ी मीठी नींद आई। मैं उसी निद्रित अवस्था में सुनने लगा जैसे कोई मेरा नाम लेकर पुकारता हो। मैं घोर निद्रा में पड़ा था, इससे मन में समझा कि स्वप्न देख रहा हूँ। किन्तु वारंवार जब मेरा नाम ले ले कर पुकारने लगा तब मेरी गाढ़ी नींद क्रम क्रम से पतली होने लगी। आख़िर मैंने स्पष्ट सुना, कोई मुझे पुकार कर कह रहा है "राबिन, राबिन, राबिन क्रूसो! तू कहाँ गया था? अरे तू कहाँ था? अरे तू कहाँ आ पड़ा?" झट मेरी आँखें खुल गईं। उस समय जो मेरे मन में भय हुआ वह कह कर कैसे समझाऊँ? इस मानव-शून्य द्वीप में मेरा नाम ले कर कौन पुकारता है? आँखें मल कर चारों ओर ध्यान से देखते ही मेरा भ्रम जाता रहा। मैंने देखा, घेरे के ऊपर मेरा पाला हुआ आत्माराम नामक सुग्गा बैठ कर मेरी ही सिखाई बोली बोल रहा है।

तब मेरा भय दूर हुआ सही, परन्तु मुझे यह सोच कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आत्माराम पीजरे से क्योंकर निकल पाया। यदि पींजरे से निकल ही आया तो ठीक उसी जगह आ कर क्यों बैठा? मैंने इस पर विशेष तर्क-वितर्क न कर के हाथ बढ़ा कर उसका नाम ले कर पुकारा। पुकारते ही वह फ़ौरन वहाँ से उड़ कर मेरे हाथ पर आ बैठा और बोलने लगा "राबिन, राबिन, राबिन क्रूसो, तू इतने दिन कहाँ था? फिर कहाँ पाया?" मैं उसको ले कर अपने घर आया।

इस समय डोंगी के लिए मेरा मन ललचाने लगा। अहा, यदि उसे इस ओर ला सकता तो कैसा अच्छा होता! किन्तु लाता कैसे? पूरब ओर घूम कर? नहीं बाप रे! इस बात की भावना करते ही मेरे हृदय का उषरण शोणित शीतल हो उठता है। अच्छा उस ओर से नहीं तो पच्छिम ओर से? कौन जाने उस ओर क्या है? इस प्रकार सोच विचार कर मैंने नाव की आशा छोड़ दी। यद्यपि उसके बनाने में बहुत परिश्रम हुआ था, और उसको पानी में उतार ले जाने में और भी अधिक कष्ट उठाना पड़ा था तथापि प्राण के आगे तो उसका कुछ मोल नहीं। प्राण से बढ़ कर तो वह प्रिय न थी।

इसके बाद एक वर्ष और बीता। एक साथी का प्रभाव छोड़ कर मेरे मन में और कुछ क्लेश न था। अब मैं एक प्रवीण रफूगर और कुम्हार बन गया। मैं चाक गढ़ कर मिट्टी का एक से एक सुडौल बर्तन बना सकता था, रफूगरी का काम भी मज़े में चला लेता था। सबसे अधिक आनन्द और कार्य-कौशल का गर्व मेरे मन में तब हुआ जब मैं मिट्टी का एक टेढ़ा मेढ़ा तम्बाकू पीने का नल तैयार कर सका। तम्बाकू पीने का मुझे खूब अभ्यास था। जहाज़ में तम्बाकू पीने का नल था, किन्तु तम्बाकू न रहने के कारण मैं नल न लाया था। इसके बाद जब इस टापू में मैंने तम्बाकू देखी तब मेरे मन में बेहद अफ़सोस हुआ। टोकरी बुनने में भी मैंने खूब उन्नति कर ली।

मैंने देखा कि बारूद की पूँजी मेरी घटती जा रही है। इस अभाव का पूरा करना मेरे सामर्थ्य से बाहर था। जब यह बिलकुल न रह जायगी तब क्या करूँगा? बन्दूक में क्या डाल कर बकरे का शिकार करूँगा, यह शोच कर मैं बहुत ही आकुल हुआ। अपने इस द्वीप-निवास के तीसरे साल मैंने एक बकरी के बच्चे को पोसा था, यह पहले लिख पाया हूँ। उसकी एक जोड़ी मिल जाय तो उसे भी पाल लँ, मैं इसकी खोज में था, पर उसकी जोड़ी मिलने का सुयोग न हुआ। आखिर वह मेरा पालतू बकरा बूढ़ा हो कर मर गया। मैं मोह के मारे उसको मार कर न खा सका।

यह मेरे द्वीप-वास का ग्यारहवाँ साल है। जब बारूद घट गई तब मैं बकरों को पकड़ने के लिए फन्दा बना करके उसी से काम लेने लगा। फन्दे में बकरे फँसते थे ज़रूर परन्तु फन्दे में उन्हें फँसाने के लिए मैं जो खाने की चीज़े रख देता था उन्हें खाकर और फन्दे को तोड़ ताड़ कर वे निकल भागते थे। आखिर बार बार धोखा खाकर मैंने खब मज़बूत फन्दा बनाया। एक दिन मैंने एक साथ तीन फन्दे लगा दिये। एक में एक बूढ़ा बकरा आ फँसा, और दूसरे में तीन बच्चे, जिनमें दो बकरियाँ और एक बकरा था।

बूढ़े बकरे को पाकर मैं बड़ी दिक्कत में पड़ा। उसके पास जाते ही वह इस तरह बब बब करके भयानक रूप धारण कर सींग-पूँछ उठा कर मेरी ओर दौड़ता कि मैं उसके निकट जाने का साहस न कर सकता था, उसे पकड़ना तो दूर रहा। यदि मैं उसको जीता न पकड़ सका तो उसको मार कर ही क्या होगा-यह सोचकर मैंने उसे छोड़ देना ही अच्छा समझा। मैंने फन्दे का मुँह खोल दिया। खोलते ही वह प्राण लेकर खूब ज़ोर से भागा। उसको छोड़ देने पर मुझे अफ़सोस होने लगा। यदि उसे कुछ दिन भूखा रहने देता, और यत्न करता तो वह सुस्त पड़ जाता। भूख एक ऐसी चीज़ है जिससे लाचार हो कर सिंह भी वश में हो जाता है। कहावत है, "आग की ज्वाला सही जाती है पर पेट की ज्वाला नहीं सही जाती।" मैंने बकरे को छोड़ दिया और तीनों बच्चों को रस्सी से बाँध कर किसी तरह खींच खाँच कर ले गया।

कुछ दिन तक उन बच्चों ने कुछ न खाया। आखिर अन्न आदि मधुर खाद्य के लोभ में पड़कर उन्होंने कुछ कुछ खाना प्रारम्भ किया। जब मैं इन बच्चों को पालना चाहता हूँ तब इनके चरने के लिए मुझे एक घेरेदार जगह का प्रबन्ध करना होगा जिसमें बड़े होने पर ये जंगल में न भाग जायँ या मेरी बोई हुई फसल को उजाड़ न दें। एक मनुष्य के लिए एक चरागाह का घेरा लगाना कुछ सहज काम नहीं है। किन्तु मुझे जब यह काम करना ही होगा तब बहुत सोचने से क्या होगा? मैं ऐसी उपयुक्त जगह ढूँढने लगा जहाँ अच्छी हरियाली, पीने योग्य जल और विश्राम लेने के लिए वृक्षों की छाया हो।

बहुत खोजने पर एक जगह मिल गई। उपयुक्त जगह मिल जाने से मैं बहुत खुश हुआ और दो मील के विस्तार को घेरना शुरू किया। बकरी के इने गिने तीन बच्चों के लिए दो मील चरागाह की बात सुन कर सभी लोग हँसेंगे। दो मील का घेरा देना उस समय मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, क्योंकि तब मेरा ऐसा ही खुच्छन्द समय था कि मैं दस मील का घेरा भी मज़े में दे सकता था। किन्तु उस समय मेरे ध्यान में यह बात न आई कि इतनी लम्बी चौड़ी जगह में बकरों को छोड़ देने पर ज़रूरत के समय उनका पकड़ना कठिन होगा। वे जैसे वन में हैं वैसे ही यहाँ भी स्वतन्त्र हो जायँगे। अन्दाज़न पचास गज़ का घेरा दे चुकने पर मेरे ध्यान में यह बात आई। तब मैंने डेढ़ सौ गज़ लम्बा और सौ गज़ चौड़ा स्थान घेरने का विचार किया। पीछे ज़रूरत होगी तो घेरे को बढ़ा कर चरागाह का क्षेत्र-फल और भी बढ़ा दूँगा।

इस समय मैंने बड़ी बुद्धिमानी का काम किया। घेरा देने में तीन महीने लगे। जब चारों ओर से जगह घेरी जा चुकी तब मैंने बकरी के बच्चों को उसके भीतर छोड़ दिया। मेरे हाथ से दाना खा खाकर वे ऐसे पालतू हो गये थे कि चरागाह के भीतर भी वे मिमियाते हुए मेरे पीछे पीछे चलते थे।

एक साल के भीतर छोटे बड़े सब मिला कर मेरे पास बारह बकरियाँ और बकरे हुए। तीसरे साल में तैंतालीस हो गये। तब मैंने चरागाह के पास जमीन के पाँच टुकड़ों को घेरा और एक से दूसरे में जाने का दर्वाज़ा बना दिया।

अब मुझे मांस की कमी तो रही ही नहीं, प्रत्युत यथेष्ट दूध भी मिलने लगा। दूध मिलने की संभावना पहले चित्त पर न चढ़ी थी, पीछे जब इसका खयाल हुआ तब मन में जो आनन्द हुआ उसका क्या पूछना है। उन बकरियों से पाँच सात सेर दूध प्रतिदिन मिलने लगा। यद्यपि मैंने इसके पूर्व कभी दूध नहीं दुहा था और दूध से मक्खन कैसे निकाला जाता है यह भी नहीं देखा था, तथापि प्रकृति ही विशेष शिक्षा देती है और अभाव ही नवीन कल्पना का उत्पादक होता है। अनेक बार विफल प्रयत्न होने के बाद मैंने दूध से मक्खन और समुद्र-जल से नमक निकालना सीखा। एक दिन मैंने एक पहाड़ के ऊपर नमक की खान देखी। तब मुझे नमक का भी कष्ट न रहा।

ईश्वर का विधान बड़ा करुणा-पूर्ण है। उन्हें कैदी भी धन्यवाद देते हैं। असह्य दुःख को भी वे मधुमय बना देते हैं। मुझ सदृश पापिष्ठ के लिए भी उन्होंने इस निर्जन द्वीप में भाँति भाँति के खाद्य पदार्थों का संग्रह कर रक्खा है। इस समय मैं ही मानो इस द्वीप का राजाधिराज हूँ। मेरी प्रजा को जीवन-मरण मेरे ही हाथ में है। मैं अपनी प्रजा को मार भी सकता और रख भी सकता हूँ। मैं जब राजा की भाँति भोजन करने बैठता था तब मेरे भृत्य मुझे घेर कर बैठते थे। उनमें आत्माराम मेरा विशेष सम्मानास्पद था। मेरे साथ बाते करने की प्राक्षा एक उसी को थी। वही एक मेरा मुँह-लगा मुसाहब था। मेरा अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण कुत्ता सामने और दो बिल्लियाँ दोनों बगल में बैठ कर प्रसाद पाने की अपेक्षा करती थीं। इस समय एक प्रगल्भवक्ता साथी को छोड़ मुझे और किसी वस्तु का प्रभाव जनित कष्ट न था। ये वे बिल्लियाँ नहीं हैं जिन्हें मैं जहाज़ पर से लाया था। ये उन्हीं में के एक के बच्चे हैं। वे दोनों तो मर गई। उनके बहुत बच्चे हुए थे, जिनमें ये दोनों तो पल गये और सब बनैले हो गये। पीछे से वे बड़ा उत्पात करने लगे। छिप कर घर की चीज़ खा जाते थे और कितनी ही वस्तुओं को नष्ट-भ्रष्ट कर डालते थे। तब मैं निरुपाय होकर उन पर गोली चलाने लगा। कई एक के मरते ही अवशिष्ट आप ही भाग गये। मैं इस समय बेखटके शान्त भाव से निवास कर रहा हूँ।

खेती

मैं अपनी नाव के लिए अधीर हो उठा था, परन्तु उसके लिए फिर मैं विपत्ति में पड़ना भी नहीं चाहता था। अपनी डोंगी को देखने के लिए दिन दिन मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी। आखिर मैंने स्थल मार्ग से उस नदी के मुहाने तक जाने का विचार किया जहाँ वह नाव बँधी थी। मैं किनारे किनारे चला। जिस स्वरूप से मैं रवाना हुआ, उस शकल में यदि कोई मुझे देखता तो निःसन्देह वह बहुत डरता या हँसते हँसते लोट पोट हो जाता। मैं आप ही अपने को देख कर हँसी न रोक सका। मेरे चेहरे का नमूना इस तरह था,-

सिर में चमड़े की बेडौल टोपी थी, जिसके ऊपर लम्बे लम्बे बाल लटक रहे थे। इसी ढंग का कोट और ढीला पायजामा था। पैरों में भी ऐसा ही एक चमड़ा लिपटा था। न उसे मोजा कह सकते हैं और न जूता ही। कमर के दोनों ओर चमड़े की पेटी से लगकर एक बसूला और एक कुल्हाड़ी झूल रही थी। गले में झूलती हुई एक चमड़े का थैली में गोली-बारूद थी। पीठ पर टोकरी, और कन्धे पर बन्दूक थी। हाथ में वही चर्मनिर्मित छतरी थी। आध हाथ लम्बी डाढ़ी लटक रही थी और मुँह पर पकी हुई लम्बी मोछें फहरा रही थीं।

ऐसा भयङ्कर चेहरा लेकर मैंने यात्रा की। पाँच छः दिन के बाद मैं उस मोड़ के पास आ पहुँचा जहाँ मेरी डोंगी स्रोत में पड़ कर मेरे हाथ से निकल गई थी। इस समय वहाँ स्रोत का चिह्न न देख पड़ा। मैं क्षुब्ध होकर इसका कारण सोचने लगा। सोचते सोचते मेरे ध्यान में यह बात आई कि भाटे के समय किसी नदी के स्रोत का ऐसा भयङ्कर वेग होता होगा।

मेरा यह अनुमान ठीक निकला। यथार्थ ही में जब भाटा आया तब फिर वैसा ही प्रखर स्रोत बहने लगा। तब मैंने सोचा कि ज्वार के समय डोंगी को उधर से ले आना सहज होगा, किन्तु ऐसा करने का साहस न हुआ। प्राणों को संकट में डालने की अपेक्षा फिर एक नाव बना लेना ही मैंने अच्छा समझा। उसके बनाने में अधिक समय और श्रम लगेगा तो लगे, यह मुझे स्वीकार है; पर उस सर्वनाशी प्रखर प्रवाह में जाने का साहस नहीं कर सकता।

इस समय मेरे दो खलिहान थे; एक मेरी चहार दीवारी के पास, और दूसरा कुञ्जभवन के भीतर। इन्हीं के आस पास मेरे पालतू पशुओं की चरागाह थी। इसके चारों ओर पेड़ की डालों के खूब घने खंभे बनाकर और उन्हें धरती में गाड़ कर घेरा दे दिया था। वे शाखाएँ लगकर बड़े बड़े वृक्ष बन गई थीं। यह घेरा इस समय दीवाल की अपेक्षा मज़बूती में बढ़ा चढ़ा था। इन बातों से समझना चाहिए कि मैं कभी आलसी होकर नहीं रहता था, बराबर अपने कामों में लगा रहता था।

मेरा कुञ्जभवन द्वीप के प्रायः मध्यभाग में था इसलिए मैं आजकल अधिक समय तक यहीं रहता था और बीच बीच में डोंगी पर चढ़ कर किनारे के आस पास समुद्र में इधर उधर घूमता था। मैं एक रस्सी से अधिक दूर जाने का साहस न करता था।

अपरिचित पद-चिह्न

एक दिन में दोपहर को अपनी नाव की ओर जा रहा था। तब समुद्र के किनारे बालू के ऊपर किसी आदमी के पैर का चिह्न देखकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। पदचिह्न देखते ही मैं वज्राहत की तरह स्तब्ध हो कर खड़ा हो रहा। चारों ओर दृष्टि उठाकर देखा, कान लगा कर सुना, परन्तु न कहीं किसी को देखा और न किसी को कुछ बोलते सुना। तब ऊँची जगह चढ़कर देखा; समुद्र के किनारे किनारे इधर उधर घूमकर पता लगाया किन्तु सिवा उस एकमात्र पदचिह्न के और कहीं कुछ देख न पड़ा। फिर मैंने सोचा, वह चिह्न मेरे मन का भ्रम तो नहीं है, इसलिए मैं उस चिह्न को फिर अच्छी तरह देखने गया। देखा, भ्रम नहीं, वह सचमुच मनुष्य के पैर का चिह्न था। पैर की उँगलियाँ तलुवा और एँड़ी आदि प्रत्येक अंश का स्पष्ट चिह्न विद्यमान है। मैं किसी भी तरह निर्णय न कर सका कि यह पद-चिह्न यहाँ कैसे पड़ा। मैं हतबुद्धि हो चिन्ताकुल चित्त से अपने किले में भाग आया। मैं उतनी दूर कैसे आया, चल कर या उड़कर? उस समय इसका मुझे कुछ शान न था। दो तीन डग आगे चलता था, फिर पीछे की ओर घूम कर देखता था, कि कोई आ तो नहीं रहा है। प्रत्येक पेड़ पौधे के पास जाते ही मेरा कलेजा काँप उठता था। दूर से पेड़ के तने को देख कर मुझे मनुष्य का भ्रम होता था।

जब मैं अपने किले के भीतर पहुँचा तब मेरी बुद्धि ठिकाने आई। मैं किस रास्ते से गया था और किस रास्ते लौटकर किले के भीतर पहुँचा-यह कुछ मुझे याद न था। मैं भय से ऐसा घबरा गया था कि मुझे तन मन की भी कुछ सुध न रही।

उस रात को मुझे नींद नहीं आई। मैं रात भर भय का काल्पनिक चित्र देखता रहा। अद्भुत हास्यजनक चिन्ता तरह तरह से चित्त को मथित करने लगी। आखिर मैं यह सोच कर निश्चिन्त हुआ कि किसी असभ्य जाति की डोंगी शायद तीक्ष्ण धार में पड़कर या हवा की झोक से किनारे पर आ लगी होगी; उसके बाद वे लोग इस निर्जन द्वीप के स्थलमार्ग से चले गये होंगे।

इस भावना का मन में उदय होते ही मैंने भगवान् को धन्यवाद दिया कि कुशल हुआ, मैं उस समय वहाँ उपस्थित न था; और यह भी अच्छा ही हुआ कि उन लोगों ने मेरी नौका नहीं देखी, देखते तो वे इस द्वीप में मनुष्य की बस्ती का अनुमान करके ज़रूर मुझे ढूँढ़ते। तब नौका ही मेरी दुर्भावना का कारण हो उठी। असभ्य लोग यदि नौका देख कर मेरा पता लगालें तो वे मुझे मार कर खाही डालेंगे। यदि उन्हें मेरा पता न भी लगेगा तो भी वे मेरी खेती-बारी को नष्ट करके और बकरों को भगाकर चले जायँगे। तब मैं खाने के बिना ही मरूँगा।

अब मेरे मन में चैतन्य हुआ। अब तक मैं साल भर के खर्च लायक अनाज उपजा कर ही यथेष्ट समझता था। भविष्य के लिए कुछ भी संचय नहीं रखता था। मानों मेरी ज़िन्दगी में कभी दुर्भिक्ष का समय आवेहीगा नहीं। मैंने अपनी इस मूर्खता के लिए अपने को धिक्कार दिया और भविष्य में अब दो-तीन साल के लिए खाद्य-सामग्री संचय करने का संकल्प किया।

मनुष्य का जीवन भगवान् की विचित्र रचना का बड़ा अनोखा नमूना है! घटना के साथ साथ मनुष्य के मानसिक भाव का बहुत कुछ परिवर्तन होता है। जो आज अच्छा लगता है वही कल बुरा मालूम होता है। जिसको कल देखने के लिए आज जी तरसता है उसीको परसों देख कर डर लगता है। मनुष्य का साथ छुट जाने से इतने दिन तक मैं उद्विग्न था, आज मनुष्य के पैर का एक मात्र चिह्न देख कर भय से पागल हो उठा हूँ। मनुष्य का जीवन ऐसा ही विषम है। अब मैंने बखुबी समझ लिया कि इस निर्जन द्वीप में अकेले ही रह कर मुझे जीवन व्यतीत करना होगा-यही ईश्वर को मंजर है। ईश्वर कब क्या करेंगे, यह जानने का सामर्थ्य मनुष्य में नहीं है। इतने दिन तक मैंने यही समझ रक्खा था कि ईश्वर दयालु और मङ्गलमय हैं इसलिए मैंने उनके इस विधान को शुभ मान लिया। तब मुझे बाइबिल के उस मधुमय वाक्य का स्मरण हो आया-विपत्ति में मेरी शरण गहो, मैं विपत्तिसे तुम्हें छुड़ाऊँगा और तुम मेरी महिमाका प्रचार करोगे।

["अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवहितोऽपि सः॥
शीघ्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥"]

अर्जुन के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण का कहा हुआ यह वाक्य बाइबिल के उपर्युक्त वाक्य से कुछ मिला जुला सा प्रतीत होता है। अस्तु।]

ऐसा ही सोच विचार करते कई सप्ताह बीत गये। किसी तरह वह सुन्दर उपदेश चित्त से न हटता था। एक दिन एकाएक मेरे मन में यह भावना हुई कि वह पद-चिह्न मेरा ही तो न था? जब मैं नाव से उतरा था तब का तो चिह्न नहीं है? इस बात का खयाल होते ही मेरा मन प्रफुल्ल हो उठा। भय दूर हुआ। मैंने अकारण इतना क्लेश पाया। अपनी इस मूर्खता पर मुझे बड़ी हँसी आई। कितने ही गवाँर आदमी जैसे अपनी छाया को देख कर भूत के भय से अभिभूत होते हैं उसी तरह मैंने अपना पद-चिह्न देख कर भय से इतना क्लेश पाया। मारे हँसी के मैं लोट-पोट हो गया। कितने ही लोग भ्रम में पड़ कर ऐसे ही भाँति भाँति के क्लेश सहते हैं।

इस नई भावना से साहस पा कर तीन दिन बाद में फिर बाहर निकला। घर में कुछ खाने की वस्तु भी न थी, और इस बात का स्मरण हुआ कि तीन दिन से बकरियों का दूध भी नहीं दुहा गया है। न मालूम उससे उन्हें कितना कष्ट होता होगा। सम्भव है, कितनी ही बकरियों का दूध एक दम सूख गया हो। सब सोच विचार कर मैं किले से बाहर निकला। बाहर तो निकला पर एकदम निर्भय नहीं हुआ। कुछ दूर आगे जाता और फिर पीछे की ओर ताकताथा। किसी किसी दफ़पीठ पर की टोकरी फेंक कर घर भाग जाने को जी चाहता था।

इस प्रकार डरता हुआ दो-तीन दिन तक घर से बाहर आयागया। डरने की जब कोई जगह न देखी तब मन में कुछ विशेष साहस हुआ और उस पदचिह्न को देखने के लिए फिर समुद्र-तट पर गया। जा कर देखा, जहाँ पैर का चिह्न था वहाँ खाली पैरों मैं कभी नहीं गया था, दूसरे मेरा पैर भी उतना लम्बा न था। इससे मेरा हृदय फिर भय से काँप उठा। मैं अपने हृत्कम्प को किसी प्रकार न रोक सका। मेरा सम्पूर्ण शरीर थर थर काँपने लगा। तब मैंने अपने मन में यही समझा कि इस द्वीप में कोई बाहर का आदमी पाया है या इसी द्वीप के किसी अंश में मनुष्य का निवास है। सम्भव है, किसी दिन एकाएक किसी मनुष्य से भेंट हो जाय। अब मैं अपनी रक्षा के लिए क्या उपाय करूँ-इसका कुछ निश्चय न कर सका।

डरने से लोगों की बुद्धि लोप हो जाती है। पहले मन में यही पाया कि घेरे को तोड़ ताड़ कर बकरों को जङ्गल में भगा दूँ, खेत को खोद कर उजाड़ डालूँ और कुञ्जभवन आदि स्थान को नष्ट भ्रष्ट कर दूँ। इससे कोई मेरा पता न पावेगा। कुछ देर के बाद खूब सोच कर देखा तो जान पड़ा कि ऐसा करने से उस विपत्ति की अपेक्षा लाख गुना अधिक विपत्ति का भय उठ खड़ा होगा। मैं वैसा कुछ न कर सका। यह द्वीप महादेश से अधिक अन्तर पर नहीं है इसलिए यहाँ मनुष्य का पाना भी असम्भव नहीं। तब जो इतने दिनों से किसी का दर्शन नहीं हुआ है यह मेरा परम सौभाग्य है। मैं इस द्वीप में पन्द्रह वर्ष से निवास कर रहा हूँ; इतने दिन बाद यह कौन सा उत्पात आ खड़ा हुआ। जो हो, यहाँ असभ्यो के आने पर छिप सकूँ, ऐसा कोई निरापद स्थान ढूँढ़ निकालना आवश्यक है।

नया आविष्कार

मैंने अपने किले के पीछे वाली गुफा को खोद कर बड़ा किया था, इससे मेरे किले के भीतर घुसने का एक छोटा सा दर्वाज़ा बन गया था। इस बेजा काम के लिए इस समय मुझे अनुताप होने लगा। उस छिद्र को बन्द कर देने के लिए मैंने फिर एक घेरा बनाने का संकल्प किया। पहले खम्भों का घेरा बनाया था, तदनन्तर दूसरा घेरा दरखों का बनाया था। इसको बारह वर्ष हुए। उसके बाद इस समय फिर खुब मज़बूती के साथ खम्भों का अर्ध-चन्द्राकार एक तीसरा घेरा बनाया। इस घेरे के भीतर हाथ जाने लायक सात छिद्र रहने दिये। घेरे के बीच की जगह को मिट्टी से भर दिया और उसके ऊपर चल फिर कर उसे अच्छी तरह पैरों से दबा दिया। इसके अनन्तर उन सातों छिद्रों में अपनी सातो बन्दूक़ें रख दीं। वे कहीं गिर न पड़े इसलिए लकड़ी की एक एक टेक लगा कर उन्हें अच्छी तरह स्थिर कर दिया। यदि अब मेरे किले पर कोई आक्रमण करेगा तो मैं एक साथ दो मिनट के भीतर सात बन्दूके छोड़ सकूँगा। कई महीनों के कठिन श्रम से यह सब काम सम्पन्न हुआ। इसके बाद घेरे के बाहर बहुत दूर तक पेड़ की डाले काट कर गाड़ दी। दो वर्ष में मेरे घेरे के सामने एक उपवन सा बन गया। पाँच छः वर्ष में वह उपवन बृहत् दुर्भद्य वन के रूप में परिणत हुआ। अब उस घन जङ्गल को देख कर कोई यह न समझेगा कि इसके भीतर कोई रहता है। मैं इस समय दो सीढ़ियों के ऊपर से हो कर किले के भीतर जाता-पाता था। एक सीढ़ी बाहर जाने की और एक भीतर आने की थी। दोनों सीढ़ियों को भीतर रख लेने से सहसा कोई मेरे घर में प्रवेश करेगा, इसकी सम्भावना न थी। इस प्रकार अपनी प्राणरक्षा का, जहाँ तक मेरी बुद्धि की दौड़ थी वहाँ तक, मैंने प्रयत्न किया।

मैं केवल अपने घर को ही सुरक्षित करके निश्चिन्त न हुआ। अब मुझे अपने पालतू बकरो की चिन्ता हुई। अब मुझे शिकार का क्लेश उठाना नहीं पड़ता और न गोली-बारूद खर्च करनी पड़ती है। उन बकरियों से सहज ही में मेरे खाद्य की सामग्री मिल जाती है। अतएव किसी तरह इन उपयोगी जन्तुओं की रक्षा करनी चाहिए।

इसके लिए मैंने दो उपाय सोच निकाले। एक तो यह कि कहीं गुफा बना कर उसके भीतर बकरों को बन्द करके, अथवा छोटे छोटे घेरे बना करके उनमें थोड़े थोड़े बकरों को कुछ दूर दूर के फासले पर रक्खा जाय। दूसरा उपाय कुछ अच्छा जान पड़ा । यदि एक घेरे के बकरे किसी तरह खो भी जायँगे तो दूसरे घेरे के बकरे-बकरियों से उनके वंश की वृद्धि होती रहेगी।

इसके लिए मैं कई दिनों तक द्वीप के गुप्त स्थानों की खोज में घूमता रहा। एक बार पहले जिस स्थल-मार्ग से आने के समय मैं रास्ता भूल कर भटकने लग गया था वहीं, एक घने वन के भीतर, एक स्थान मेरे मन के अनुकूल मिला। ऐसे घने जंगल में घेरा लगाने के निमित्त मुझे विशेष कष्ट न उठाना पड़ा। इस जगह को घेर कर मैंने दो बकरों और दस बकरियों को लाकर यहाँ रक्खा और पूर्व के घेरे को भी घेर कर खूब मज़बूत कर दिया।

मैं एक और जगह की तलाश करने लगा। द्वीप के पच्छिम ओर समुद्र के किनारे जा कर मैंने बहुत दूर एक नाव की तरह कुछ देखा। उसको देखते देखते मेरी आँखें चौंधिया गई तथापि वह इतनी दूर थी कि ठीक ठीक निश्चय न कर सका कि वह क्या है। जहाज़ में मुझे दो चार दूरबीने मिली थीं, पर इस समय एक भी मेरे साथ न थी। पहाड़ के ऊपर चढ़ कर देखा तो भी उसका कुछ निश्चय न कर सका। तब मैंने पहाड़ से उतर कर संकल्प किया कि अब बिना दूरबीन साथ में लिये बाहर न निकलूँगा। आखिर वहाँ से आगे बढ़ा। जाते जाते मैं ऐसी जगह पहुँचा जहाँ इसके पहले कभी न गया था। वहाँ जाकर मैंने जो कुछ देखा, उससे निश्चय किया कि यहाँ मनुष्य के पैरों का चिह्न देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस ओर जंगली लोग प्रायः आते हैं। उनके पैरों के बहुत चिह्न यहाँ देख पड़े। मैंने ईश्वर को इस कृपा के लिए धन्यवाद दिया कि मैं जिधर हूँ उधर ये लोग नहीं जाते हैं।

मैंने दक्खिन और पूरब की ओर समुद्र के किनारे जाकर देखा कि मनुष्य की खोपड़ी, हाथ, पाँव और हड्डियाँ बहुतेरी इधर उधर बिखरी पड़ी हैं। यह देख कर मेरे आश्चर्य और भय की सीमा न रही। एक जगह मैंने एक अग्निकुण्ड भी देखा। मालूम होता है, वे राक्षस उस अग्निकुण्ड के चारों ओर बैठ कर मनुष्य का मांस खाया करते हैं।

यह दृश्य देख कर मैं अपनी विपदा की बात भूल गया। इन नर-पिशाचों के राक्षसी व्यवहार की बात ने मेरे हृदय में घर कर लिया। मैंने उस भीषण दृश्य की ओर से अपनी दृष्टि फेर ली। मेरा जी घूमने लगा। मूर्च्छित होने की तरह एक प्रकार से मैं अचेत होगया।

आखिर खब वमन कर डालने पर मेरा शरीर कुछ हलका सा हुआ। वहाँ से झट पट मैंने बड़े बड़े कदम बढ़ा कर अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

मार्ग में जब मुझे कुछ होश हुआ तब ईश्वर की दया के लिए मेरा हृदय कृतज्ञ हो उठा। उन्होंने इतने दिनों से मुझे इन राक्षसों के हाथ से बचाया है, इससे मैंने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया।

इस प्रकार ईश्वर की उदारता को मन ही मन सोचता हा मैं घर पहुँचा। घर पहुँच कर मैं अपने को बहुत कुछ निरापद समझ स्वस्थ हुआ। तब मैंने सोचा कि वे असभ्य राक्षस इस द्वीप में किसी को खोजने या कुछ लेने की आशा से अक्सर नहीं आते। मैं अट्ठारह वर्ष से यहाँ हूँ, पर एक दिन भी किसी मनुष्य की सूरत नहीं देखी। शायद और भी अट्ठारह वर्ष यहाँ रहूँगा, तब भी किसी को न देखूँगा। अब मुझे इतना सावधान होकर रहना चाहिए जिसमें मैं स्वयं उन धूर्तों के चंगुल में न जा फँसूँ। इस भय से मैंने दो वर्ष तक अपने घर की सीमा के बाहर पैर न रक्खा। यहाँ तक कि मैंने अपनी डोंगी की भी कुछ ख़बर न ली। उसकी आशा मैंने एक दम छोड़ दी। उसे लाने के लिए जाकर यदि मैं असभ्यों के सामने पहुँच जाऊँ तो मेरी जो दशा होगी वह मैं जानता हूँ या विधाता जानते हैं। इसलिए मैंने एक और नाव बनाने का संकल्प किया।

जब यों ही अधिक समय बीत गया तब राक्षसों का भय बहुत कुछ जाता रहा। मैं पहले ही की भाँति निश्चिन्त भाव से अपना काम-धन्धा करने लगा। हाँ, चौकन्ना ज़रूर बना रहता था। वे नरभक्षी असभ्य कहीं आवाज़ न सुन लें, इस भय से मुझे बन्दूक चलाने का भी साहस न होता था। अब मैंने समझा कि बकरों को पाल कर मैंने सचमुच बड़ी बुद्धिमानी का काम किया है। यद्यपि मैं बिना बन्दूक लिये कभी बाहर नहीं जाता था तथापि दो वर्ष के बीच मैंने एक बार भी बन्दूक की आवाज़ नहीं की। यदि बकरे की आवश्यकता होती तो जाल बिछा कर पकड़ लेता था।

अभी मेरी जीवन-यात्रा के लिए प्रभाव-जनित कोई कष्ट न था। केवल इन अभागे राक्षसों के भय से मेरी बुद्धि स्तब्ध हो गई थी, इसलिए कोई नवीन वस्तु बनाने की उत्पादिका शक्ति भी मन्द हो गई थी। यदि कुछ चिन्ता थी तो उन्हीं राक्षसों को। दिन रात उनकी चिन्ता मेरे चित्त को घेरे रहती थी। कभी कभी मैं यह सोचता था कि वे हतभागे जो महा-मांस खाते हैं, सो इस राक्षसी वृत्ति से किसी तरह उनका मैं उद्धार कर सकता हूँ या नहीं? उन नर-मांसभक्षियों को इस दुराचार का कुछ दण्ड दे सकता हूँ या नहीं। ऐसे हो न मालूम कितनी अद्भुत और असम्भव बातों को मैं सोचता रहता था। राक्षसों को इस द्वीप में न आने देने के लिए कितने ही उपाय सोचता था किन्तु यह सोची हुई बात एक भो काम में परिणत न होती थी। होती कैसे? असम्भव बातें सोचता रहता था, कारण यह कि संकल्पित काम करने के लिए मुझे उनका सामना करना पड़ेगा। मैं अकेला और वे बीस बाईस से गिनतो में कम न रहते होंगे। मैं उनका शासन क्या करूँगा, मुझी को वे खा डालेंगे।

कभी कभी जी चाहता था कि जहाँ वे लोग आग जलाते हैं वहाँ मैं दो-तीन सेर बारूद गाड़ दूँ तो उसमें आग का संयोग होते ही उनमें से कितने ही अपने आप उड़ जायँगे। किन्तु मेरे पास बारूद बहुत कम बच रही थी। अभी उसे इस तरह ख़र्च करने को मैं राजी नहीं हुआ। अतएव इस इरादे को भी छोड़ देना पड़ा।

गुफा का आविष्कार

पहले की सोची हुई एक भी बात जब चरितार्थ न हो सकी तब मैंने सोचा कि मैं किसी जगह अपनी बन्दूक, पिस्तौल, और तलवार लेकर छिप रहूँगा और राक्षसों को देखते ही उन पर धड़ाधड़ गोलियाँ चलाऊँगा। प्रत्येक बार की गोली में दो तीन को मारूँगा, और दो एक को घायल भी करूँगा। इसके बाद उनके बीच में कूद पड़ेगा और कितनों ही पर सफ़ाई से तलवार का हाथ जमाऊँगा। इससे जो वे बीस-बाईस भी होंगे तो भी मैं उन पर विजय प्राप्त कर सकूँगा।

यही उपाय सबसे अच्छा जान पड़ा। मैं जब तब इसी उपाय को सोचता था। इस बात की चिन्ता बराबर मेरे चित्त में बनी रहती थी। मैं कभी कभी स्वप्न भी देखा करता था कि उन राक्षसों को मार रहा हूँ।

इस काम पर मैं यहाँ तक आरूढ़ हुआ कि अपने को अच्छी तरह छिपाने योग्य एक गुप्त स्थान की खोज में घूमने लगा। मैंने पहाड़ की तराई में एक ऐसो जगह ढूँढ़ निकाली जहाँ छिप कर मैं राक्षसों की नौका देख सकूँ और जङ्गल में कई एक ऐसी जगह ठीक कर रक्खी जहाँ पेड़ की आड़ में छिप कर उन पर एकाएक गोली बरसा सकूँ।

इस विचार को पक्का करके मैं रोज़ सबेरे दो तीन बन्दूकों में और पिस्तौल में गोली भर कर उस पहाड़ के ऊपर जाता और देखता कि उन राक्षसों की नौका आती है या नहीं। वह जगह मेरे किले से तीन मील पर थी। सिर्फ इतनी ही दूर मैं प्रतिदिन जाता-भाता था। पर मैंने किसी दिन किसी को देखा नहीं। दूरबीन लगा कर भी सारे समुद्र में देखता भालता, पर कहीं कोई नाव का चिह्नमात्र भी दिखाई नहीं देता था।

जब तक उत्साह था तब तक मुझे अकारण बीस-बाईस मनुष्यों को मारने की इच्छा अत्यन्त प्रबल थी। किन्तु उन लोगों को कहीं न देख कर जब मेरा उत्साह घट गया-जब तमोगुण की मात्रा कुछ कम हुई-तब शान्त चित्त से सोच कर मैंने देखा कि उन बेचारों का दोष क्या था जो मैं इतने दिनों से उनको मारने पर उद्यत था। मनुष्य का मांस खाना उनके देश का रिवाज है। उन लोगों ने कभी अच्छी शिक्षा नहीं पाई है, केवल अपनी प्रकृति की उत्तेजना से जो उनके जी में आता है, करते हैं। उन लोगों के गुण-दोष की विवेचना करने का मुझे क्या अधिकार है? उन लोगों ने अब तक मेरा क्या बिगाड़ा है? हम लोग भी तो जीवहिंसाजनित क्लेश का कुछ विचार न कर के उदर-तृप्ति के लिए पशु को मार डालते हैं, युद्ध में पकड़े गये शत्रुपक्ष के सैनिकों को बन्दी करके उनकी हत्या करते हैं। आत्मसमर्पण करने पर भी, क्रोध के वशीभूत होकर, शत्रु-सैन्य को मार डालते हैं। इस पर भी हम लोग अपनी सभ्यता की डींग हाँकते हैं। वे लोग भी वैसे ही अपने शत्रुओं को मार कर खाते हैं। इससे उन लोगों के मन में कई विकार उत्पन्न नहीं होता और न उन लोगों का आत्मा दुखी होता है। वे लोग इस अत्याचार को अत्याचार नहीं समझते। उनकी समझ में नहीं आता कि यह महाजघन्य कर्म है। इस विषय में ईसाई लोग भी तो कम नहीं होते। उन लोगों ने अमेरिका और आफ़्रिका के आदिम निवासियों को निर्दय भाव से मार कर गाँव के गाँव नष्ट कर दिये। क्या मैं भी उन्हीं की सी निष्ठुरता करके उनका अनुयायी बनूँगा?

इन बातों को भली भाँति सोचने से मेरा अयुक्त हत्या का उत्साह एकदम कम होगया। तब मुझे मालूम हुआ कि यह मैं सरासर अन्याय करने चला था। जब वे लोग मुझ पर आक्रमण करेंगे तब जो उचित होगा किया जायगा! इसके पूर्व उन लोगों को छेड़ना आप ही अपनी मृत्यु को बुलाना है। यदि मैं उन सबों को न मार सकूँगा तो मेरी क्या गति होगी।

इस सावधानी और सुबुद्धि का साथ धर्मभाव ने दिया। मैं जो रक्तपात के पाप से निवृत्त हुछ एतदर्थ मैंने परमेश्वर को बार बार धन्यवाद दिया। इसी तरह एक वर्ष और बीता।

मैं अपनी डोंगी को खींच कर द्वीप के पूरब और एक समुद्र-संलग्न बृहत् जलाशय में ले गया और नाव में जो कुछ चीजें थीं उनको उस पर से उतार लाया। अब मैं पहले की तरह बाहर घूमने न जाता था। कौन जाने, एक बार सिर्फ पैर का चिह्न देखा है, अब की बार यदि उन पदचिह्न वालों का ही साक्षात् दर्शन हो। उनके सामने पड़ कर उनके हाथ से उद्धार पाना कठिन होगा। इस समय मेरे मन की वह तमोगुणप्रधान समुद्भाविनी शक्ति एकदम नष्ट हो गई थी। यहाँ तक कि एक लोहे की छड़ गाड़ने या लकड़ी काटने का भी साहस न होता था। बन्दूक की आवाज़ करना तो दूर की बात थी।

सब से अधिक डर लगता था मुझे आग जलाते, कारण यह कि झूठे बहुत दूर से देख पड़ता है। यदि उसे कोई देख ले में इसलिए अब से मैं आग का काम अपने कुञ्जभवन में करने लगा।

आग का जलाना कठिन हो गया, परन्तु बिना आग के काम भी तो नहीं चलता था। इसलिए कुछ कोयले बना कर रखना उचित समझा। मैंने अपने देश में देखा था कि लकड़ी में आग लगा कर ऊपर से मिट्टी और घास से दबा देते थे, तब कुछ देर में लकड़ी जल कर कोयला हो जाती थी। मैं भी इस प्रकार कोयला बनाने के लिए एक दिन अपने कुञ्जभवन में लकड़ियाँ काट रहा था। लकड़ी काटते काटते मैंने एक झुरमुट के पास, पहाड़ के नीचे, एक गढ़ा देखा। मैं पेड़ से उतरा और कुतूहलाक्रान्त होकर उसे देखने गया। बड़े कष्ट से झुरमुट के पत्तों को हटा कर मैंने के के सामने गढ़ मुँह के सामने जाकर देखा, जगह मेरे पसन्द लायक थी। उसके भीतर मैं खड़ा हो सकता था तथा दो आदमी और भी मेरे पास ही पास खड़े हो सकते थे। यह गुफा देख कर मेरे आनन्द की सीमा न रही। मैंने इसी के भीतर अपना गुप्तस्थान बनाने का निश्चय किया। यदि कोई असभ्य इस कन्दरा के मुँह के पास तक आवेगा तो भी वह सहसा इसके भीतर प्रवेश करने का साहस न करेगा। मुझको छोड़ दूसरा कोई इसके भीतर घुसने का साहस करता या नहीं, इसमें सन्देह है।

मैंने गुफा के भीतर प्रवेश किया। भीतर भयानक अन्धकार था। अच्छी तरह देखने के लिए आँखे फाड़ कर देखा कि किसी के दो नेत्र उस अन्धकार में तारों की तरह चमक रहे हैं। वह मनुष्य था या शैतान? कौन जाने क्या था? मैंने उसके शरीर का और आकार तो देखा नहीं, देखा सिर्फे वही एक अद्भुत ज्योतिर्मय पदार्थ। तब मैं एक ही छलाँग में कूद कर गुफा के बाहर निकल पाया।

कुछ देर के बाद सँभल कर फिर मैंने साहस किया। एक धधकती हुई लकड़ी लेकर मैं गुफा के भीतर घुसा। तीन चार डग जाते न जाते एक कष्ट-जनक दीर्घश्वास और कराहने का शब्द सुन कर में फिर पूर्ववत् डर गया। मेरा शरीर पसीने से तर बतर हो गया। बार बार रोमाञ्च होने लगा। कुछ देर बाद फिर साहस किया और यह सोचा कि भगवान् सर्वत्र रक्षक हैं-"जाको राखे साँइयाँ मारि सकै नहिं कोय।" मैं फिर गुफा में गया और उस प्रज्वलित लकड़ी को ऊपर उठा कर देखा कि एक बहुत बूढ़ा बकरा मरणासन्न पड़ा है। मैंने उसे हाथ से ज़रा ढकेला, तो उसने उठने की चेष्टा की, पर वह उठ न सका। तब मैंने कहा कि अच्छा, इसे यहीं पड़ा रहने दो। यदि कोई साहस कर के भीतर आवेगा तो मेरी ही भाँति भयभीत होगा।

मैंने अब स्थिर होकर अच्छी तरह देखा। गुफा बहुत बड़ी न थी, ज़्यादा से ज़्यादा भोतर का विस्तार बारह फट होगा। वह न गोल थी न चौकोर, उसका कोई निर्दिष्ट आकार न था। गुफा के एक तरफ़ एक पतली सुरङ्ग थी। कौन जाने, वह कहाँ कितनी दूर तक गई है। आज मेरे पास बत्ती न थी, इससे आज उसके भोतर न गया। कल बत्ती और चकमक साथ में लेकर इसमें प्रवेश करूँगा। इसके भीतर घुटनों के बल जाना होगा।

दूसरे दिन अपने हाथ से बकरे की चर्बी की बड़ी बड़ी छः बत्तियाँ बनाईं। उन्हें साथ ले कर मैं गुफा के भीतर गया और घुटनों के बल सुरङ्ग में घुसा। लगभग दस गज़ भीतर घुस कर मैंने सोचा, कौन जाने में कहाँ जा रहा हूँ। कुछ और आगे बढ़ने पर सुरङ्ग की छत ऊँची देख पड़ी। मैंने खड़े होकर देखा, कि एक छोटी सी कोठरी है, ऊँचाई अन्दाज़न बीस फुट होगी। मैंने वहाँ जो विलक्षण दृश्य देखा, वैसा कभी कहीं न देखा था। इस गुफा की दीवार और छत से मेरी बत्ती के प्रकाश का लाख गुना प्रत्यालोक मेरे चारों ओर प्रतिफलित होने लगा। वह बड़ा उज्ज्वल और विचित्र था। बड़ा अद्भुत चमत्कार था। दीवारों में हीरे जड़े थे या सोने के पत्तर मढ़े थे-कुछ मालूम न हुआ। यह कोठरी बड़े आराम को थी। नीचे की ज़मीन खूब सूखी और साफ़ थी। बीच में पत्थर के टुकड़े बिछे थे। कहीं एक भी कीड़ा-मकोड़ा न था। यहाँ मेरे लिए एक मात्र प्रवेश की असुविधा थी; किन्तु इस संकीर्ण पथ से सुरङ्ग और भी सुरक्षित है, यह जान कर मैंने इसे सुभीता ही समझा।

इस गुफा के आविष्कार से मेरे हर्ष की सीमा न रही। जिन वस्तुओं की मुझे विशेष चिन्ता थी, उन्हें अब शीघ्र ही लाकर यहाँ रख देना चाहा। गोली, बारूद और फालतू तीन बन्दूक़ों को पहले यहाँ लाकर रक्खा। जिस बारूद के पीपे में पानी घुस गया था उसे तोड़ कर देखा, तीन चार इञ्च बारूद चारों ओर पानी पड़ने से जम कर बैठ गई थी, उसके भीतर पानी न पहुँचा था। इसलिए पीपे के बीच की बारूद बहुत अच्छी थी। यह विस्मय मेरे लिए विशेष आनन्दवर्द्धक हुआ। इस पीपे से मैंने तोस सेर बढ़िया बारूद निकाली।

वह बूढ़ा बकरा दूसरे दिन मर गया। उसको खींच कर बाहर फेकने की अपेक्षा मैने उसे वहीं गाड़ देना अच्छा समझा।मैंने गढ़ा खोद कर उसे वहीं गाड़ दिया।

मैं अब बिलकुल निर्भय होगया। पाँच सौ असभ्य आवेगे तब भी मेरा पता न पावेंगे।

द्वीप में असभ्य

देखते ही देखते इस द्वीप में मेरे तेईस वर्ष कट गये। मैं इस निर्जन प्रवास-वास में ऐसा असभ्य होगया था कि असभ्यों का भय न रहता तो मैं बूढ़े बकरे की भाँति शान्तिपूर्वक यहीं वृद्ध होकर अपना जीवन बिता देता। मैंने यहाँ अपना जी बहलाने का भी प्रबन्ध कर लिया था।

मेरा तोता मेरे साथ आत्मीयभाव से मीठी मीठी बातें करता था। पक्षी के मुँह से एस स्पष्ट बात मन और कभी नहीं सुनी थीं। वह छब्बीस वर्ष मेरे पास रहा। मेरा कुत्ता भी, बन्धु की भाँति सोलह वर्ष मेरे साथ रह कर, वृद्ध होकर मर गया। मेरी पालतू दो तीन बिल्लियाँ भी मेरे आत्मीयजनों के अन्तर्गत थीं। और भी कितने ही पालतू बकरे, दो एक, तथा कितने ही जल घर पक्षी मेरे साथी बन गये थे। उन चिड़ियों के मैंने डैने कतर दिये थे। इससे वे मेरे घेरे के पेड़ों पर रहा करती थीं। उन्हें देख कर मैं अत्यन्त आनन्द पाता था। किन्तु मनुष्य-जीवन का सुख सदा निरवच्छिन्न नहीं रहता जिसे दूर करने की इच्छा होती है वही आगे आ खड़ा होता है। जिसे दुख समझते हैं उसी के भीतर सुख का नूतन बीज छिपा रहता है।

दिसम्बर का महीना है। खेती का समय है। मैं खूब तड़के बिछौने से उठ कर बाहर मैदान में गया। समुद्र के किनारे अन्दाज़न दो मील पर आग जलते देख कर मैं अचम्भे में आ गया। यह आग द्वीप के अपर भाग में न थी, मेरे दुर्भाग्य से मेरे ही घर की ओर थी।

मैं भय और आश्चर्य से स्तब्ध होकर अपने कुञ्जभवन के भीतर छिप रहा। कदाचित् अलक्षित भाव से वे असभ्यगण मुझ पर आक्रमण करेंइस भय से मैं आगे बढ़ने का साहस न कर सका। वहाँ भी देर तक ठहरना उचित नहीं समझा। क्या जानें, यदि मेरे खेत या मेरे हाथ का कोई काम देखने से उन्हें यहाँ मनुष्य-वास का गन्ध मिले तब तो वे लोग मेरा पता लगाये बिना न छोड़ेंगे। यह सोच कर मैं अपने किले के पास दौड़ आया और बाहर जो कुछ चीज़ें थीं उन्हें क़िले के भीतर रख दिया, जिसमें किसी को यह न मालूम हो कि यहाँ कोई आदमी रहता है। फिर भीतर जाकर बाहर की सीढ़ी खींच ली।

अब मैं कुछ स्थिर होकर आत्म-रक्षा का प्रबन्ध करने लगा। बन्दूक़ों को भरा और किले की दीवार से सटा कर रख दिया। अब मैं ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करने लगा। मैं किले के भीतर दो घंटे किसी तरह बैठा, फिर बाहर की खबर लेने के लिए व्यग्र हो उठा। मेरे पास चर तो था नहीं जिसे जासूसी के लिए भेजता। कुछ देर और अपेक्षा करके सीढ़ी लगा कर पहाड़ के ऊपर ठहराव की जगह उतर आया। फिर सीढ़ी को पहाड़ से लगा कर उसकी चोटी पर चढ़ गया। वहाँ लेट कर स्थिर दृष्टि से देखा, आग के चारों ओर नौ असभ्य बैठे हैं, जो सब के सब नंगे हैं। ऐसा जान पड़ा जैसे वे लोग राक्षसीवृत्ति को चरितार्थ करने के लिए मनुष्य का मांस पका रहे हों।

उन लोगों के साथ दो डोंगियाँ थीं। दोनों को खींच कर उन्होंने बालू के ऊपर ला रक्खा है। अभी भाटा था, शायद ज्वार आने पर नाव को बहा कर ले जाने की अपेक्षा से वे लोग बैठे हैं। पीछे उन लोगों को अपने घर की ओर और इतने सन्निकट आते देख कर में तो भय से सूख कर काठ हो गया। किन्तु इतना मैं समझ गया कि वे लोग भाटा पड़ने के समय प्राते हैं और ज्वार आते ही चल देते हैं। इसलिए ज्वार के समय में खूब निश्चिन्त होकर खेती-बारी का काम कर सकूँगा। यह सोच कर मैं खुश हुआ।

ज्वार आने के एक प्राध घंटा पहले ही से वे लोग आग की परिक्रमा कर के नाना प्रकार के अङ्ग विक्षेप के साथ नाचने लगे। मैं दूरबीन के द्वारा उन लोगों का अङ्ग विक्षेप स्पष्ट रूप से देख रहा था। वे बिलकुल नङ्ग धड़ङ्ग थे। एक भी वस्त्र उनके शरीर पर न था। वे लोग पुरुष थे या स्त्री, अथवा उनमें कितने पुरुष और कितनी स्त्रियाँ थीं, यह इतनी दूर से मैं नहीं जान सका।

ज्वार आते ही उन लोगों ने नाव खोल दी और लग्गा ले कर नाव खेने लगे। उन लोगों को जाते देख कर मैं झटपट दोनों कन्धों पर दो बन्दूके, कमरबन्द में दो पिस्तौल और हाथ में नङ्गी तलवार ले कर जिधर उन नृशंसों को देखा था उधर खूब ज़ोर से दौड़ कर गया। इतना बड़ा बोझ ले कर वहाँ पहुँचते प्रायः दो घंटे लग गये। वहाँ जा कर देखा कि छोटी बड़ी सब मिला कर पाँच डोगियाँ आई थीं। वे सब की सब एक साथ समुद्र के अपर तट में जा रही हैं। कैसा भयङ्कर दृश्य है! उस समय भी वहाँ आग के चारों ओर उन लोगों के प्रचण्ड आनन्द का कारण दग्ध नर-मांस और नर-कपाल जहाँ तहाँ बिखरे पड़े थे। यह हृदय-विदारक दृश्य देख कर उन नर-मांस-खादकों को मारने की प्रवृत्ति और भी प्रबल हो उठी।

वे लोग कभी कभी यहाँ आते थे। इसके बाद पन्द्रह महीने तक उन लोगों के आने का कोई चिह्न दिखाई नहीं दिया तो भी मैं बराबर भयभीत बना रहता था। सदा विपत्ति के भय से दबा रहना बड़ी विडम्बना है। इसकी अपेक्षा विपत्ति का आ जाना कहीं अच्छा है। मैं भी नर-खादकों के भय से मन ही मन पक्का नरघाती बन गया। इस दफ़े उन लोगों के आने पर किस उपाय से उन्हें मार डालना होगा, इसी की चिन्ता सदा मन में लगी रहती थी। रात में ख़ूब अच्छी नींद नहीं पाती थी। मैं भयङ्कर स्वप्न देख कर बैंक उठता था। यों ही महीने पर महीना बीतने लगा।

द्वीप के पास जहाज़ का डूबना

क्रम क्रम से मई महीना आया। उस दिन सोलहवीं तारीख़ थी। मेरी काठ की यंत्री की गणना से यही ठीक था। दिन भर आँधी के साथ साथ पानी बरसता रहा। रात में भी हवा का वेग कम न हुआ। वन-विद्युत् का प्रभाव भी ज्यों का त्यों बना रहा। मैं बैठ कर बाइबिल पढ़ रहा था। एकाएक समुद्र में तोप का धडाका सुन कर मैं चकित हुआ। मैं आश्चर्यान्वित हो कर झट अपने आसन से उठ बैठा। सीढ़ी के सहारे पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर मैंने देखा, जिस तरफ़ स्रोत के प्रखर वेग में पड़ कर मेरी नाव बह चली थी उसी ओर आग की झलक दिखाई दी। मैंने निश्चय किया कि वहीं से तोप की आवाज़ आई है। यथार्थ में थी भी यही बात। आध मिनट के बाद फिर तोप का शब्द सुन पड़ा। कोई जहाज़ तूफान में पड़ कर साहाय्य का संकेत कर रहा है। मेरी समझ में झट एक बात आगई। मेरे आस पास वहाँ जितनी सूखी लकड़ियाँ थीं सब को मैंने इकट्ठा किया और चकमक से आग बना कर उसमें बत्ती लगा दी। आग लगते ही बल उठी। ऐसा करने का मेरा यह अभिप्राय न था कि मैं उस जहाज़ की कुछ सहायता कर सकूँगा। मेरा इरादा तो यह था कि वही शायद मेरी कुछ सहायता कर सके। मेरे द्वारा प्रज्वलित आग का प्रकाश जहाज़ के लोगों ने देख लिया। मेरी आग की ज्वाला ऊपर की ओर उठते ही पहले तोप की आग की झलक देख पड़ी फिर पीछे शब्द सुन पड़ा। उसके बाद धड़ाधड़ तोप की आवाज़ होने लगी। मैंने सारी रात बैठ कर भाग जलाई। सुबह होने पर बहुत दूर समुद्र में कुछ दिखाई दिया, किन्तु दूरबीन लगा कर भी मैं ठीक न कर सका कि वह क्या था।

मैं दिन भर बार बार उसी ओर देखने लगा किन्तु उससे कुछ फल न हुआ। मैंने सोचा कि कोई जहाज़ लंगर डाले ठहरा है। मैं बन्दूक लेकर झट पहाड़ से उतरा और द्वीप के दक्षिण ओर दौड़ा गया। वहाँ पहाड़ पर चढ़ कर नैराश्य भाव से देखा, वह एक टूटा हुआ जहाज़ था। उसी भँवर के पास वह पहाड़ से टकरा कर टूट जाने के कारण जलमग्न हो गया है। उसके नाविक और यात्री क्या हुए, कहाँ गये, इसका कुछ पता नहीं। उस भन्न जहाज़ को देख कर मैं बहुतेरा अनुमान करने लगा। मैं जिस अवस्था में था उसमें उन लोगों की विपत्ति में समवेदना प्रकट करने के अतिरिक्त और साहाय्य कर ही क्या सकता था! शायद दूसरे जहाज़ ने उन लोगों का इस विपदा से उद्धार किया हो; किन्तु उसका कोई लक्षण दिखाई नहीं दिया। तो क्या इतने जीव सब के सब एक साथ डूब मरे? हाय! यदि उनमें से एक भी आदमी बच कर मेरे पास आता, तो मैं संगी पाकर कितना खुश होता! उसके साथ बात चीत कर के जी का बोझ हलका करता। उन नौकारोहियों में कोई बचा या नहीं, यह मुझे मालूम न हुआ। किन्तु कई दिनों के बाद एक जलमग्न लड़के का मृत कलेवर उतराता हुआ समुद्र के किनारे आ लगा था। उसकी पोशाक नाविक की थी। वह किस देश या किस जाति का था यह, उसे देख कर मैं न जान सका। उसके पाकेट में दो अठनियाँ और एक तम्बाकू पीने का नल था। तम्बाकू के नल को मैंने रुपये से कहीं बढ़ कर मूल्यवान् समझा।

तूफ़ान रुक गया था। मैं अपनी डोंगी पर चढ़कर उस भग्न जहाज़ को देखने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होने लगा। संभव है, उसमें मेरे लिए आवश्यक अनेक पदार्थ मिल जायँ। इसको अपेक्षा मुझे यह भावना और भी उत्साहित करने लगी कि उसमें यदि कोई प्राणी असहाय अवस्था में होगा तो उसके प्राण बचा सकूँगा। यह संभावना मेरे मन को क्षण क्षण में इस प्रकार उत्तेजित करने लगी जैसे इस काम के लिए ईश्वर मुझे प्रेरणा कर रहे हो। उन्हीं के प्रेरणा-विधान पर अपने को निर्भर कर मैं जहाज़ देखने के लिए जाने की आयोजना करने लगा। मैं अपने किले के भीतर आकर एक घड़ा पानी, कुछ रोटियाँ, थैली भर सूखे अंगूर और एक दिगदर्शकयन्त्र लेकर नाव में रख पाया। इसके बाद फिर लौट कर किले के अन्दर से एक थैली में खाना, अपनी छतरी, एक घड़ा और पानी, दो दर्जन चपातियाँ, कुछ पूर्व, बोतल भर दूध, और कुछ खोया साथ लेकर पसीने से तरबतर होता हुआ बड़े कष्ट और कठिनाई से अपनी डोंगी तक पहुँचा। सब चीज़ों को डोगी पर लाद कर और भगवान् का नाम लेकर मै डोगी में सवार हो रवाना हुआ और धीरे धीरे उस भीषण स्रोत के पास पहुँचा। उसका वह तोव वेग देख कर मेरा जी सूखने लगा। आख़िर मैंने ज्वार आने पर जाने का निश्चय किया।

वह रात मैंने नाव ही पर बिताई। सबेरे ज्वार आते ही मैंने डोंगी खोल दी। दो ही घंटे में प्रखर-प्रवाह के सहारे उस, टूटे हुए जहाज़ के पास जा पहुँचा। जहाज़ की दुर्दशा देख कर मेरी छाती फट गई। वह दो पहाड़ों के बीच में पड़कर चूर चूर हो गया है। उसका अगला और पिछला हिस्सा समुद्र की तरङ्ग-ताड़ना से भग्न हो गया है। जहाज़ की गढ़न देख कर मैंने समझ लिया कि वह स्पेन देश का था।

जहाज़ के पास डोगी के पहुँचते ही जहाज़ पर एक कुत्ता मेरी ओर झुक झुक कर भूँकने लगा। मेरे बुलाते ही वह समुद्र में कूद पड़ा। मैंने उसे अपनी डोंगी पर चढ़ा लिया। वह बेचारा मारे भूख-प्यास के अधमरा सा हो गया था। मैंने ज्योंही उसके आगे एक रोटी फेंकी त्योंही वह उसे एक ही बार में निगल गया। तब उसे पीने को थोड़ा सा पानी दिया। यदि मैं उसे पानी पीने से न रोकता तो शायद वह इतना पानी पी लेता कि पेट फटने से मर जाता। इसके बाद मैं जहाज़ के ऊपर गया। देखा, रसोईघर में दो आदमी एक दूसरे से चिपके हुए मरे पड़े हैं। इस कुत्ते के सिवा जहाज़ पर एक भी प्राणी जीता न मिला। दो सन्दूक मिले। उनमें क्या है, यह देखे बिना ही उन्हें उठा कर मैं अपनी डोंगी पर ले आया। कमरे के भीतर कई बन्दूके और बारूद की थैलियाँ थीं। बन्दूको की आवश्यकता न थी। केवल बारूद उठाकर ले आया। कितने ही काठ के बर्तन, जंजीर, चिमटा और कोयला खोदने के कुदाल मिले। ये चीजें बड़ी आवश्यक थीं। इन चीज़ों और कुत्ते को लेकर मैं लौट चला, कारण यह कि भाटा शुरू हो गया था।

मारे परिश्रम के थक कर मैं साँझ को अपने द्वीप में लौट आया। इतना थका था कि नाव से उतरने का साहस न हुआ। उस रात को नाव में ही सो रहा। जहाज़ से लाई हुई नई चीज़ों को घर न ले जाकर नवीन गुफा के भीतर रखने का निश्चय किया। सबेरे उठकर सब चीज़ों को किनारे उतर कर ले गया और देखने लगा कि कौन कौन चीज़े हैं।

सन्दूक़ खोला। उसमें बहुत सी ज़रूरी चीजें मिलीं। सन्दूक में मुख्य चीजें थीं आटा, बोतल में भरी कुछ मिठाई, अच्छी अच्छी कमीज़, डेढ़ दर्जन रूमाल और छींट का गुलूबन्द। इस उपण-प्रधान देश में हाथ मुँह पोंछने के लिए रूमाल की बड़ी आवश्यकता थी । दूसरे सन्दूक में रुपये, सोने का पत्र और बारूद थी।

यद्यपि ये चीज़ें प्रयोजनीय थीं परन्तु ऐसी न थीं जिससे मेरा विशेष उपकार होता। रुपया बहुत मिला ही तो किस काम का, वह तो अभी मेरे पैर की धूल के बराबर है। उसकी न यहाँ कुछ उपयोगिता है और न कुछ मोल है। दो तीन जोड़े जूतो के बदले में ये सब रुपये खुशी से दे सकता था। बहुत दिनों से जूते न होने से कष्ट हो रहा था। जहाज़ के रसोईघर में जो दो आदमी लिपटे हुए मरे पड़े थे, उनके पैरों से मैं दो जोड़े जूते खोल कर लाया था और दो जोड़े सन्दूक में मिल गये। किन्तु ये पहनने में उतने सुखप्रद न थे।

इस जहाज़ में बहुत धन-रत्न थे। किन्तु जिस भाग में वे सब थे वह जल में डूब गया था; नहीं तो मैं कई नाव सोने चाँदी और रुपयों से अपनी गुफा को भर देता। इस अवस्था में भी मेरे पास धन की कमी न थी। यथेष्ट धन था, तथापि उस धन से मैं धनवान थोड़े ही था।

मैं उन चीज़ों को ढोकर ले आया और यथास्थान रख दिया। फिर नाव को अड्डे में ले जाकर बाँध आया। इसके बाद मैं घर गया। वहाँ सब चीज़ ज्यों की त्यो रक्खी थीं। अब मैं विश्राम करने की इच्छा से निश्चिन्त हो घर में रहने लगा। प्रायः बाहर न जाता था। यदि कभी जाता भी था तो पूरब ओर। क्योंकि उस ओर असभ्यों के आने की संभावना कम थी, इससे उस तरफ जाने में बन्दूक-बारूद आदि का भार ढोना न पड़ता था। इस तरह और दो साल गुज़र गये। किन्तु मैं अपने लिए आप ही शनिग्रह था। मैं अपने को कहीं स्थिर न रहने देता था। कभी जी में आता था कि एक बार फिर उस भग्न जहाज़ में जाऊँ; कभी मन में यह तरङ्ग उठती थी कि किसी तरह महासमुद्र के पार हो जाऊँ। यदि आफ्रिका का वह जहाज़ मेरे पास रहता तो जैसे होता मैं समुद्र में धंस पड़ता। जो लोग अपनी अवस्था में सन्तुष्ट नहीं रहते उन लोगों में मेरा नम्बर सब से ऊपर है। उन लोगों के लिए मैं ही शिक्षा का स्थल और ज्वलन्त उदाहरण हूँ। मैं अपने बाप के घर से असन्तुष्ट होकर, न मालूम कितनी दुर्दशा भोगकर, ब्रेज़िल में एक प्रकार से कुछ स्थिति पा गया था, किन्तु वहाँ भी सुख से रहना नसीब न हुआ। फिर मेरे सिर पर भूत सवार हुआ। मैं फिर शनिग्रह के फेर में पड़ा। कितने ही कष्ट सहे। अब भी, मैं सुख से हूँ तथापि मुझे अपनी अवस्था पर सन्तोष नहीं। इसके बाद न मालूम और कितना दुःख कपार में लिखा है। किसी ने सच कहा है-सन्तोषेण बिना पराभवपर्द प्राप्नोति मूढ़ो जनः।

भृत्य-प्राप्ति

अपने इस द्वीपनिवास के चौबीसवें साल के मार्च महीने की एक बदली की रात में मैं बिछौने पर लेटा था। शरीर में कसी प्रकार की अस्वस्थता न थी, और न मन में ही किसी प्रकार की ग्लानि या शोच था। फिर भी न मालूम नींद क्यों न आती थी। मैं पड़ा ही पड़ा अपने जीवन की घटनावली को सोच रहा था। पल पल में मेरे मन का भाव बदलने लगा। अपनी हालत की बात सोच सोच कर भगवान् की असीम करुणा के लिए मेरा हृदय कृतज्ञता से परिपूर्ण होने लगा। धीरे धीरे असभ्यों की चिन्ता ने और उनके घृणित आचार, निर्दय व्यवहार आदि ने फिर मेरे मन पर अधिकार जमाया। यदि उन लोगों के चंगुल में पड़ जाऊँ तो क्या करूँगा, उन लोगों से किसी तरह कुछ सहायता पाकर इस निर्जन टापू से मेरा उद्धार हो सकता है या नहीं, इत्यादि अनेक विषयों को सोचते सोचते मेरा मस्तिष्क गरम हो उठा मानो ज्वर चढ़ आया हो। अन्त में मेरी आँखें लग गईं और मैं सो गया।

सोकर मैंने सपना देखा,-मानो ग्यारह असभ्य दो डोंगियों पर सवार हो कर इस टापू में आये हैं और एक सहायहीन मनुष्य को मार कर खाने का उद्योग कर रहे हैं। वह ज़रा मोहलत पाकर भाग निकला और मेरे किले के सामने उपवन में छिप रहा। मैं उसे इस अवस्था में देख कर एकाएक उसके सामने गया और प्रसन्नता से उसे आश्वासन देने लगा। उसने बड़े विनीत भाव से मुझ से सहायता की प्रार्थना की। मैं उसको सीढ़ी के सहारे किले के भीतर ले आया। तब से वह मेरा सेवक हो गया।

जब मैं जाग कर उठा तब स्वप्न की बात सोच कर मेरी तबीयत बहुत ख़राब हो गई। जो हो, इस प्रकार एक भृत्य मिल जाने की चिन्ता ने मेरे मन में घर कर लिया। मैंने सोचा, यदि एक असभ्य भृत्य-रूप में मिल जाय तो उसकी सहायता से मैं महादेश को जा सकता हूँ और उन राक्षसों के साथ सद्भाव रखने से मेरा उद्धार भी हो सकता है।

इस स्वप्न ने मेरे मन पर ऐसा प्रभाव डाला कि मैं प्रति दिन समुद्र की ओर देख देख कर डोगी पाने की प्रतीक्षा करने लगा। में व्यर्थ की प्रतीक्षा में एक तरह थक सा गया। इसी तरह डेढ़ वर्ष बीत गया।

डेढ़ वर्ष बाद एक दिन मैं सबेरे घर के बाहर आकर अवाक हो गया। द्वीप के जिस भाग में मेरा घर था उसी ओर देखा कि समुद्र के किनारे पाँच डोंगियाँ बँधी हैं। उस पर एक भी सवार नहीं, सभी उतर कर कहीं चले गये हैं। अरे बाप! एक दम पाँच पाँच डोंगियाँ! न मालूम, इस पर कितने लोग आये होंगे? मुझे बाहर ठहरने का साहस न हुआ। मैं किले के भीतर आकर उनका हाल जानने के लिए छटपटाने लगा। उन लोगों के ऊपर आक्रमण करने का सभी सामान ठीक कर मैं अवसर की अपेक्षा करने लगा। अपेक्षा करते करते मैं अकुला उठा। तब बन्दूको को ज़मीन में रख, कर सीढ़ी लगा पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया मैंने दूरबीन लगा कर देखा, कि उन लोगों ने अग्निकुण्ड प्रज्वलित किया है और उसके चारों ओर घूम घूम कर वे विचित्र अङ्ग-भङ्गी के साथ नाच रहे हैं।

मैं यह देख ही रहा था कि इतने में वे लोग नाव के पास से दो हतभागों को खींच कर ले गये। उन दोनों को मार कर वे राक्षस अभी खा डालेंगे। एक को लाठी मार कर उसी समय गिरा दिया और उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गी को काट कर टुकड़े टुकड़े कर डाले। दूसरा अदमी, अपनी मृत्यु की अपेक्षा कर के, आँखों के सामने अपने साथी की दुर्दशा देखने लगा। हा! कैसा हृदयविदारक भीषण दृश्य था!

सब अपने अपने काम में लगे थे, यह सुयोग पा कर वह, अपने को बन्धन-रहति देख कर, तीर की तरह मेरे घर की ओर वहाँ से निकल भागा। उसको अपने घर की ओर आते देख मैं बहुत हो डरा। शायद उसको पकड़ने के लिए उसके पीछे वे लोग भी दौड़े आवें। मैं हृदय को मज़बूत करके, साहस-पूर्वक देखने लगा कि क्या होता है, देखा, सिर्फ तीन आदमी उसके पीछे पीछे दौड़े आ रहे हैं। वह भागने वाला इस तरह बेतहाशा दौड़ा पा रहा है कि उसका पीछा करने वाले बहुत पीछे पड़ गये हैं।

मेरे किले की ओर आने में, उन लोगों के मार्ग में, समुद्र की वही खाड़ी पड़ती थी। समय ज्वार का था। किन्तु वह भागने वाला वहाँ पा कर ज़रा भी न रुका। उसने उस अगाध खाड़ी की कुछ परवा न की। वह एकाएक उसमें धँस पड़ा और तीस बत्तीस बार हाथ चलाने में ही तैर कर पार हो गया। स्थल में आकर उसने फिर दौड़ लगाई। उसका पीछा करनेवाले भी खाड़ी के पास आये। दो आदमी पानी में घुस कर के तैरने लगे। किन्तु तीसरा आदमी शायद तैरना नहीं जानता था। वह कुछ देर वहीं खड़ा हो कर देखता रहा, इसके बाद लौट कर चला गया। उसने लौट कर मेरे और अपने हक़ में भी अच्छा ही किया। उसके आने से मेरे दुश्मनों की संख्या में एक की और वृद्धि होती। यह मेरे लिए हानिकारक होती, और वह आता तो मेरे हाथ से ज़रूर मारा जाता, सो यह उसके लिए भी कभी अच्छा न होता। मैंने देखा कि भागने वाले की अपेक्षा पीछा करने वालों को उस खाड़ी के पार करने में दुगुना समय लगा।

मैं झठपट पहाड़ से उतर पड़ा और दो बन्दूकें लेकर फिर पहाड़ पर चढ़ गया। पहाड़ पर से धीरे धीरे समुद्र की ओर उतर कर शीघ्र ही उन दोनों भागने और पीछा करने वालों के बीच जा पहुँचा। तब मैंने भागने वाले को पुकारा। वह पीछे मुड़ कर और मुझे देख कर और भी भयभीत हुआ। मैं उसको हाथ का इशारा देकर और अपनी ओर आने का संकेत कर के धीरे धीरे पीछा करने वालों की ओर अग्रसर होने लगा। उन दोनों में जो आगे था उस पर एकाएक आक्रमण करके मैंने बन्दुक के कुन्दे के धक्के से उसे धरती पर गिरा दिया। मैं बन्दूक की आवाज़ न करना चाहता था, क्योंकि आवाज़ होने से उसके और साथी सुन लेते। उसको गिरते देख उसका साथी ठिठक कर खड़ा हो रहा। मैं उसकी ओर झपटा। देखा तो उसके पास धनुष बाण है और वह धनुष पर तीर चढ़ा रहा है। तब मैं उसे गोली मारने को बाध्य हुआ। मैंने एक ही गोली में उसका काम तमाम कर दिया।

दोनों दुश्मनों को गिरते देख भागने वाला साहस पाकर ठहर गया। किन्तु मेरी बन्दूक की आवाज़ से वह एक दम स्तम्भित और चकित हो गया। उससे न अब भागते ही बनता था और न मेरी ओर आते ही। वह कुछ देर जड़वत् खड़ा रह कर फिर भागने का मौका देखने लगा। मैंने फिर उसे पुकारा। वह कुछ आगे की ओर बढ़ा। इसके बाद वह दो एक डग मेरी ओर आता और फिर खड़ा हो रहता। यों ही रुक रुक कर वह आता था और भय से थरथर काँपता था। शायद वह मन ही मन सोच रहा था कि जो दशा मेरा पीछा करनेवालों की हुई है वही अब की बार मेरी होगी। मैंने उसको इशारे से यथासंभव आश्वासन देकर फिर पुकारा। तब वह साहस कर के दस बारह कदम मेरी ओर पाता और झुक झुक कर प्रणाम करता था। मैंने फिर मुसकुरा कर इशारे के द्वारा उसको अपनी ओर बुलाया। आखिर डरते डरते वह मेरे पास आया। उसने धरती छकर बड़े विनीतभाव से प्रणाम किया और मेरा पैर उठा कर अपने सिर पर रक्खा। मैंने धरती से उठा कर इशारे से, जहाँ तक संभव था, उसे आश्वासन दिया। जिसको मैंने धक्का मार कर गिरा दिया था वह मरा नहीं था, सिर्फ मूच्छित हो गया था। अब वह धीरे धीरे सचेत हो कर उठ रहा था। यह देख कर उस विद्रावित ने मुझ से क्या कहा, उसका एक अक्षर भी मेरी समझ में न आया। फिर भी उसने मेरे कानों में मानो अमृत बरसाया। कारण यह कि पच्चीस छब्बीस वर्ष बाद आज ही पहले पहल मनुष्य का कण्ठस्वर सुन पड़ा। वह गिरा हुआ आदमी होश होने पर उठ बैठा। तब मेरा वह आनन्द जाता रहा। मैंने झट उसकी ओर बन्दूक उठाई। यह देख कर उस पलायित व्यक्ति ने मुझ से तलवार माँगी। मेरी कमर में नङ्गी तलवार लटक रही थी। मैंने उसको तलवार दे दी। तलवार लेकर वह एक ही दौड़ में अपने शत्र के पास गया और एक ही वार में उसका सिर धड़ से उड़ा डाला। वे लोग काठ की तलवार का इस्तेमाल कर के ही ऐसे सिद्धहस्त होते हैं। उनकी तलवार काठ की होती है सही, किन्तु वह ऐसी पैनी होती है कि एक ही हाथ में बेखटके गला काट सकती है।

दुश्मन का सिर काट कर वह मारे खुशी के उछलने लगा। विचित्र ढंग से अङ्ग विक्षेप करते, नाचते हुए उसने तलवार और कटे सिर को मेरे सामने लाकर रख दिया। फिर उसने उस निहत मनुष्य के पास जाने की अनुमति चाही। मैंने कह दिया, जाओ। वह उसके पास जाकर चुपचाप खड़ा हो रहा, तदनन्तर उसे उल्टा पलटा कर देखने लगा। उसके हृदय के पास जहाँ गोली लगी थी उस जगह को उसने बड़े ध्यान से देखा। किन्तु मैंने उसे किस तरह मारा, यह कुछ भी उसकी समझ में न आया। तब वह उसका धनुष-बाण उठा कर मेरे पास ले आया। अब मैंने उसको अपने साथ चलने का इशारा किया; और उसको समझा दिया कि इन दोनों की तलाश में और लोग भी पा सकते हैं। तब उसने भी संकेत के द्वारा अपने मन का भाव व्यञ्जित किया कि इन मुर्दी को बालू में गाड़ देना अच्छा होगा इससे कोई देख न सकेगा। मैंने गाड़ने की अनुमति दी। उसने तुरन्त हाथ से बालू हटा कर पन्द्रह मिनट के भीतर दोनों मुर्दों को बालू के नीचे छिपा दिया। तब उसको मैं अपनी नई गुफा में ले गया। वहाँ जाकर मैंने उसको रोटी, किसमिस और पानी पीने को दिया। उसको बड़ी भूख और प्यास लगी थी। दौड़ने से थक भी गया था। मैंने एक जगह धान का पयाल बिछा कर बिछौना बना लिया था, वही दिखा कर उसको लेटने के लिए कहा। वहाँ जाकर वह लेट रहा और सो गया।

वह अच्छा हट्टा कट्टा तन्दुरुस्त और लम्बा था। उसकी उम्र पच्चीस छब्बीस वर्ष के लगभग होगी। चेहरे पर कोमलता का चिह्न झलकता था, स्वरूप कुछ भयानक न था। पुरुषोचित सौन्दर्य के साथ साथ स्निग्धता का मेल उसकी शारीरिक शोभा को बढ़ा रहा था, जो देखने में बड़ा ही अच्छा मालूम होता था। खास कर उसका हँसना बड़ा ही सरल और मीठा था। उसके सिर के बाल काले और लम्बे थे। आफ़्रिका-वासियों की भाँति टेढ़े और रुक्ष न थे। ललाट चौड़ा था, बड़े बड़े नेत्र आनन्द और उत्साह से भरे हुए थे। शरीर का रङ्ग बिलकुल काला न था। साँवला सा था, जो देखने में बुरा नहीं बल्कि दृष्टिरोचक था। मुँह गोल था, नाक छोटी सी पर चिपटी न थी। गला पतला और दाँत हाथी-दाँत की तरह खब सफ़ेद थे। सारांश यह कि बह देखने में कुरूप न था।

फ़्राइडे की शिक्षा

आध घंटे तक उस पलायित व्यक्ति की आँखें झपी रहीं। इसके बाद वह जाग उठा और गुफा से निकल कर मेरे पास पाया। मैं बाहर बकरी दुह रहा था। वह मुझको देखते ही दौड़कर मेरे पास आया और मेरे प्रति दासत्व और कृतज्ञता का भाव प्रकट करने लगा। वह मेरे पैर को अपने माथे पर रखकर अपनी इच्छा से दासत्व स्वीकार करने लगा। मैं उसके संकेत से उसका मानसिक भाव अच्छी तरह समझ जाता था। मैंने भी उसको अच्छी तरह समझा दिया कि मैं तुम्हारे आचरण से सन्तुष्ट हूँ। थोड़ेही दिनों में मैं उसके साथ बात चीत करने लगा। मैंने उसे बोलना सिखला दिया।

पहले मैंने उसे यह समझा दिया कि तुम्हारा नाम मैंने फ़्राइडे (शुक्रवार) रक्खा है, क्योंकि शुक्रवार को ही वह मुझे मिला था। यह भी सिखला दिया कि तुम मुझको प्रभु कहा करो । उसको हाँ, नहीं, आदि अँगरेज़ी के छोटे छोटे शब्द भी सिखला दिये।

एक मिट्टी के बर्तन में मैंने उसको थोड़ा सा दूध और रोटी खाने को दी और स्वयं दूध में रोटी मिला कर खाकर दिखला दिया कि दूध-रोटी इस तरह खाई जाती है। उसने खाकर इशारे से बतलाया कि दूध-रोटी खाने में बहुत बढ़िया है। उसी के साथ मैंने गुफा के भीतर रात बिताई।

सवेरे उठ कर मैंने उससे कहा-"चलो तुमको कुछ कपड़े हूँ।" यह सुनकर वह बहुत खुश हुआ और मेरे साथ चला। अभी तक वह एक प्रकार से नंगा ही था।

गुफा से चलकर हम दोनों वहाँ पाये जहाँ फ्राइडे ने दोनों असभ्यों की लाश को बालू में गाड़ रक्खा था। फ्राइडे ने ठीक जगह दिखला कर इशारा किया "आओ, हम लोग इन्हें उखाड़ कर खा लें।" इससे मैंने अत्यन्त क्रोध प्रकट करके अपनी घृणा सूचित की। मैंने इशारे से दिखाया कि ऐसी बात कहने से मुझे उबकाई आती है। ऐसी बात फिर कभी मुँह से न निकालना। मैंने उसको वहाँ से चले आने का इशारा किया। उसने बड़े बिनीत भाव से मेरी आज्ञा का पालन किया।

इसके बाद मैं उसको साथ लेकर पहाड़ पर चढ़ा। दूरबीन लगा कर देखा तो अग्निकुण्ड के पास एक भी असभ्य न था। उन लोगों की डोंगियाँ भी न थीं। वे अपने साथियों की कोई खोज ख़बर न लेकर उधर के उधर ही चले गये। तब मैंने वहाँ जा कर देखना चाहा कि वे लोग वहाँ क्या कर रहे थे। मैंने दो बन्दूक़े आप ली और फ्राइडे तीर-कमान को कन्धे पर लटका कर एक हाथ में मेरी तलवार और दूसरे हाथ में मेरी बन्दूक़ ले कर मेरे साथ साथ चला। फ़्राइडे तीर चलाने में बड़ा ही दक्ष था। वहाँ पहुँच कर मैं हक्काबका सा हो रहा। मेरा जी भिन्ना उठा, किन्तु फ़्राइडे के मन में ज़रा भी घृणा उत्पन्न न हुई, वह निर्विकार था। वहाँ के भीषणदृश्य का वर्णन करते मेरा हृदय काँपता है। मैंने देखा कि चारों ओर मुर्दे की ठठरी पड़ी है, इधर उधर अधजला, आधा खाया हुआ नर-मांस बिखरा पड़ा है; कहीं हड्डियाँ लहू मास से भरी पड़ी हैं, कहीं सूखी हड्डियों का ढेर लगा है। मनुष्य के रक्त से भूमि लाल हो गई है। तीन मुण्ड और पाँच हाथ कटे पड़े हैं। फ़्राइडे ने संकेत द्वारा मुझ से कहा-वे लोग चार कैदियों को लाये थे। जिनमें तीन आदमियों को मार कर खा गये, चौथा मैं ही था। दोनों दलों में खूब युद्ध हुआ था। युद्ध में जो बन्दी होते हैं उनकी प्रायः यही दशा होती है।

मैंने फ़्राइडे से कहा कि उन ठठरियों और अधजले मांस-हड्डियों को एकत्र कर के उनमें आग लगा दे। वह नरमांस खाने के लिए फ्राइडे की लार टपक रही थी। उसकी राक्षसी-प्रकृति जाग उठी थी। उसको खाने के लिए उद्यत देख कर मैं उस पर बहुत बिगड़ा। मेरी अत्यन्त घृणा और चिढ़ने का भाव देख कर वह रुक गया। मैंने उसे अच्छी तरह समझा दिया कि अब यदि तू कभी नरमांस खायगा तो मैं तुझे भी मार डालूँगा।

उन नर-कङ्कालों को अच्छी तरह जला कर मैं अपने घर लौट आया। फ़्राइडे को एक जोड़ी सूती पाजामा दिया और चमड़े का कुरता और टोपी सी कर दी। फ़्राइडे अपने प्रभु की ऐसी पोशाक पहनने को पा कर बहुत प्रसन्न हुआ। किन्तु पहले पहल कपड़ा पहनने में उसे बड़ा ही कष्ट होता था। उसे ऐसा जान पड़ता था जैसे पोशाक पहनने का उसे अभ्यास हो गया।

अब मुझे इस बात की फ़िक्र हुई कि इसको रहने के लिए कहाँ जगह देनी चाहिए। इसको ऐसी जगह रखना चाहिए जहाँ यह आराम से रह सके और मैं भी निर्भय हो कर रहूँ। कारण यह कि राक्षसी प्रकृति के मनुष्य का विश्वास ही क्या? क्या मालूम किस दिन उसकी चित्त-वृत्ति कैसी हो। उसका राक्षसी स्वभाव जिस घड़ी प्रबल हो उठेगा उस घड़ी सर्वनाश होना ही सम्भव है।

मैंने सोच-विचार कर निश्चय किया कि बाहर और भोतर के घेरों के बीच की जगह में उसके लिए एक तम्बू खड़ा कर देना चाहिए। मैंने एक छोटा सा तम्बू खड़ा कर दिया। यहाँ से गुफा के पास वाले दर्वाज़े से मेरे तम्बू में जाने का एक रास्ता था। उसमें मैंने एक फाटक लगा दिया। उसका द्वार अपने तम्बू की ओर रहने दिया और उसमें जञ्जीर भी लगा दो। जञ्जीर लगा देने और बाहर से सीढ़ी खींच कर भीतर रख देने पर सोने की अवस्था में भय की कोई सम्भावना न थी। फ़्राइडे अब सहज ही मेरे घेरे के भीतर आ कर मुझ पर आक्रमण न कर सकेगा। यदि किसी दिन घेरे को लाँघ कर मुझ पर आक्रमण करने का संकल्प करेगा भी तो वह बिना खड़खड़ाहट के न पा सकेगा, कारण यह कि मैंने खम्भों पर एक छप्पर खड़ा कर के उसे पेड़ के डालपातों से छा कर उस पर धान का पयाल बिछा दिया था। उस छप्पर के नीचे मेरा तम्बू था। जहाँ सीढ़ी लगा कर मैं बाहर निकलता था वहाँ की जगह खाली थी। उसमें भी मैने किवाड़ लगा दिये। रात को मैं सब अस्त्र-शस्त्र अपने पास रख कर सोता था।

किन्तु इतना सावधान हो कर रहने की कोई ज़रूरत न थी। क्योंकि फ्राइडे को अपेक्षा विशेष विश्वासपात्र, विनीत और निश्छल मृत्य हो सकता है, यह मैं नहीं जानता। न वह कभी क्रोध करता था, न उसके चेहरे पर कभी विरक्ति का भाव झलकता था। वह सदा प्रसन्न और सभी कामों में अग्रसर रहता था। वह मुझको अपने बाप के बराबर मानने लग गया था। प्रयोजन होने पर वह मेरे लिए प्राण तक दे सकता था।

यह देख कर मैंने समझा कि विधाता ने मानव जाति को सर्वत्र एक ही प्रकार के गुणों से भूषित किया है। मैं फ्राइडे के आचरण से अत्यन्त प्रसन्न हो कर उसको अपना कामधन्धा और भाषा सिखलाने लगा। वह अच्छा ध्यानी शिष्य था। कोई बात जब मैं उसे समझाता था या वह समझता तो वह ऐसा खुश होता था कि उसको शिक्षा देने में बड़ा ही आनन्द मिलता था। अभी मेरे दिन बड़ी खुशी से कटते थे।

दो तीन दिन बाद मैंने सोचा कि फ़्राइडे को नरमांस खाने का स्वाद भुलाने के लिए अन्य जन्तुओं का मांस खिलाना आवश्यक है। एक दिन सवेरे उसको साथ ले कर मैं जङ्गल की ओर चला। मैं अपना पालतू बकरा काटने को जा रहा था, किन्तु मार्ग में मैंने देखा कि एक वृक्ष की छाया में एक बकरी सोरही है और उसके पास दो बच्चे बैठे हैं। मैंने फ़्राइडे को पकड़ कर चुपचाप खड़ा रहने का इशारा किया। इसके बाद गोली चलाई जिससे एक बच्चा मर गया।

कई दिन हुए, फ़्राइडे ने इसी तरह दूर से अपने शत्रु को मारते देखा था। वह मारे डर के थर थर काँपने लगा। ऐसा जान पड़ा कि अब वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ेगा। वह कुर्ता उतार कर अपने शरीर को चकित-दृष्टि से देखने लगा कि कहीं आहत तो नहीं हुआ है। मैंने उसको धमकाया कि अब की बार मैं तुम्हें मारूँगा। तब वह दौड़ कर मेरे पास आया और मेरे पैरों से लिपट कर न मालूम क्या क्या विनय करने लगा। उसकी बातें तो मेरी समझ में आईं नहीं, हाँ इतना मैंने ज़रूर समझा कि वह मुझसे प्राण-भिक्षा चाहता है।

मैंने उसे अच्छी तरह समझा दिया कि मैं तुझे न मारूँगा। उसको मैंने बकरी का मरा हुआ बच्चा दिखला दिया। वह अवाक् होकर बड़े गौर के साथ उसको देखने लगा। मैंने फ़्राइडे की आँख बचा कर उसी समय फिर बन्दूक में गोली भर ली। मैंने देखा कि एक पेड़ पर एक सुग्गा बैठा है। फ़्राइडे को वह पक्षी और अपनी बन्दूक दिखा कर समझा दिया कि इस दफ़े मैं उस पक्षी को मारूँगा और इसके बाद इशारे से पेड़ के नीचे की जगह बतला कर यह भी कह दिया कि वह मर कर यहीं गिरेगा। मैंने बन्दूक की आवाज़ की। सुग्गा मर कर पेड़ के नीचे गिर पड़ा। फ़्राइडे फिर मेरी ओर देख कर चुप हो रहा। उसने मुझको बन्दूक़ भरते नहीं देखा था। उसने अपने मन में समझा कि बन्दूक़ के भीतर मृत्यु विचित्र ढङ्ग से ढेर की ढेर घुसी है। उसका विस्मय और भय दूर होने में बहुत दिन लगे। यदि मैं उसे न रोकता तो वह शायद मेरा और बन्दूक का पूजन करता। वह बहुत दिनों तक साहस कर के भी बन्दूक को छूता न था। जब वह अकेला रहता था तब चुपचाप बन्दूक के पास जाकर अपनी दीनता दिखलाता था। और हाथ जोड़ कर बन्दूक से विनती कर के कहता था-हे देव! मेरे प्राण बचाओ।

मैं बकरी के मरे बच्चे को उठा कर अपने घर ले आया और उसका बहुत बढ़िया झोल बनाया। मांस के साथ मुझको नमक खाते देख कर फ़्राइडे को बड़ा आश्चर्य हुआ। इशारे के द्वारा उसने मुझ से कहा-"छिः, नमक खाते हो? उसका कैसा बुरा स्वाद होता है।" उसने मेरी देखादेखी थोड़ा सा नमक मुँह में डाल कर थूक दिया और कुल्ला करके फिर भोजन करने बैठा। मैंने भी उसको दिखला कर बे नमक का मांस मुँह में रखकर उसी की तरह थूक दिया। किन्तु इससे कोई फल न हुआ। वह किसी तरह नमक खाने को राज़ी न हुआ।

दूसरे दिन मैंने उसको कबाब खिलाया। उसके आनन्द का क्या पूछना है! उसने बार बार उमँग कर मुझे समझाया कि यह बड़ा ही अच्छा है, खाने में खूब स्वादिष्ट है। उसने कहा, "अब मैं कभी नर-मांस न खाऊँगा"। यह सुन कर मैं प्रसन्न हुआ।

तब मैंने उसको धान कूटना और आटा पीसना आदि सिखलाया। उसने बात की बात में ये सब काम सीख लिये। इसके बाद मैंने उसको रोटी बनाना सिखलाया। थोड़े ही दिनों में वह मेरे ही ऐसा घर के काम-धन्धों में प्रवीण हो गया।

अब मुझे दो व्यक्तियों के आहार की चिन्ता हुई। मैंने खेती का कारबार बढ़ाया। ज़्यादा ज़मीन तैयार की। फ्राइडे बड़ी खुशी के साथ अपने मन से खेती में परिश्रम करने लगा। वह मेरी प्राज्ञा पालने के लिए सदा तत्पर रहता था।

क्रूसो और फ़्राइडे

जितने दिनों से मैं इस द्वीप में हूँ उनमें यही साल मेरे बड़े सुख का था। फ्राइडे अब मेरी सब मोटी मोटी बातें समझ लेता था। अब वह मेरे साथ खूब बात-चीत करता था। इन बातों से भी बढ़ कर फ्राइडे की निश्छल भक्ति और विश्वास ने मुझे मुग्ध कर रक्खा था।

फ़्राइडे मुझको बहुत चाहता है सही, किन्तु मैंने जानना चाहा कि उसे अब अपने देशको लौट जाने की इच्छा है कि नहीं। एक दिन मैंने उससे पूछा-अच्छा फ़्राइडे, बतलायो तो, तुम्हारे दल के लोग भी युद्ध में कभी विजयी हुए हैं?

फ्राइडे-कभी कभी हो जाते हैं!

मैं-युद्ध में विजयी होकर बन्दियों को क्या करते हैं?

फ़्राइडे-करेंगे क्या? उन्हें मार कर खा डालते हैं।

मैं-तुम इसके पहले कभी इस द्वीप में आये थे?

फ़्राइडे-हाँ, कई बार।

मैं-यहाँ से महासमुद्र का उपकूल कितनी दूर होगा? इतनी दूर आने-जाने में डोंगी डूबती नहीं है?

फ़्राइडे-नहीं, डोंगी कभी भारी नहीं जाती। प्रातःकाल समुद्र में हवा और जल का स्रोत एक ओर बहता है; साँझ को विपरीत दिशा में यह समझ लेने से समुद्रयात्रा में विपत्ति की आशङ्का नहीं रहती।

फ़्राइडे की इस बात से मैं समझ गया कि वह ज्वार-भाटे की बात कह रहा है। आखिर मैंने फ़्राइडे के कथन से समझा कि मेरा यह द्वीप अरुणक नदी के मुहाने पर है। उसी नदी के स्रोत की बात फ्राइडे कह रहा है। आग्नेय (पूरब और दक्खिन) कोण में जो द्वीप देख पड़ता है वह त्रिनिडाद टापू है। मैंने फ़्राइडे से उसके देश के सम्बन्ध में हज़ारों प्रश्न किये। उसे जहाँ तक मालूम था, सब का उत्तर दिया। उसकी जाति का नाम कारिब था। इससे मुझे मालूम हुआ कि नक़्शे में जो क्यारिबी द्वीप है वहीं के अधिवासी ये लोग हैं। फ़्राइडे ने कहा-मेरे देश में जहाँ चन्द्रमा डूबते हैं उसके आगे अर्थात् पश्चिम दिशा में बहुत दूर आपके ऐसे गोरे लोग हैं। वे लोग भी मनुष्य-हत्या करने में नहीं चूकते।" इससे मैंने समझा कि वे लोग स्पेनवाले हैं। उन्हीं के बारे में यह कह रहा है। उन की अकारण निष्ठुर हत्या का प्रवाद प्रायः देश-देशान्तर में फैला हुआ था।

मैंने पूछा-फ़्राइडे, तुम ऐसा कोई उपाय बता सकते हो जिससे मैं उन गोरे लोगों के पास तक पहुँच सकूँ।

फ़्राइडे-क्यों नहीं, ज़रूर पहुँच सकते हैं। दो डोगियों पर जाना होगा।

दो डोगियों पर जाना होगा, इसका मतलब मेरी समझ में न आया। बहुत पूछने पर मैंने समझा, कि दो डोंगियों से उसका मतलब दो डोगियों के बराबर एक बड़ी नाव से है। अब से मैं अपने उद्धार की कुछ कुछ आशा करने लगा। मेरे जी में इस बात की आशा ने जड़ बाँधी कि इस असभ्य की सहायता से मेरा छुटकारा होना असम्भव नहीं है। मैं जब तब फ़्राइडे के साथ इस बात की आलोचना करके बहुत सुख पाता था।

जब फ़्राइडे मेरी भाषा अच्छी तरह सीख गया तब मैंने उसको कुछ धर्म की शिक्षा देना उचित समझा। कारण यह कि धर्म-हीन जीवन भार मात्र है। धर्म-ज्ञान के बिना जीना वृथा है। मैंने एक दिन उससे पूछा-अच्छा, कहो तो फ़्राइडे, तुमको किसने सिरजा है?

यह अद्भुत प्रश्न सुन कर फ़्राइडे कुछ चकित सा होकर बोला,-"क्यों, मेरे पिता ने।" मैंने फिर हँस कर पूछा-अच्छा, ये सब समुद्र, धरती, पहाड़ और जङ्गल किसने बनाये हैं?

फ़्राइडे-"वीणामुख ने! वे सबसे रहित हैं। वे भूमि, समुद्र, चन्द्र, सूर्य और तारागणों की अपेक्षा भी पुरातन हैं। वही सम्पूर्ण संसार के सृष्टिकर्ता हैं। उन्हें सब लोग जगत्पिता कहते हैं। मृत्यु होने के अनन्तर सभी प्राणी उन्हीं वीणामुख के साथ जा मिलते हैं।" ईश्वर के सम्बन्ध में मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान देख कर मैं पुलकित हो उठा। मैं फ़्राइडे के इस अस्फुट भगवद्ज्ञान को और विशद करने के लिए उसको सर्वशक्तिमान् विधाता के सम्बन्ध में अनेक बातें सुनाने लगा। यद्यपि मैं स्वयं खूब ज्ञानी या धार्मिक न था तथापि मैं भगवान् से ज्ञान की प्रार्थना करता था और फ़्राइडे को शिक्षा देता था। थोड़े ही दिनों में वह मुझसे भी विशेष धार्मिक हो गया। उसकी संगति से मेरा दिन बड़े ही आनन्द के साथ कटने लगा। यहाँ हम लोगों का आपस में मत-विरोध नहीं, संस्कार की संकीर्णता नहीं, और शास्त्र की भी दुहाई नहीं। हम दोनों व्यक्ति साक्षात् ईश्वर से ज्ञान प्राप्त करके उनको पहचानने की चेष्टा कर रहे हैं।

मैंने फ़्राइडे को अपना सारा जीवन-वृत्त सुनाया और उसको एक छुरी और एक कुल्हाड़ी पुरस्कार में दी। बेहद खुश हुआ। फिर उसको मैंने बन्दूक का सारा तत्त्व सिखला दिया।

मैंने उसको यूरप का, विशेष करके इँगलैन्ड का, वर्णन करके सुनाया। अपने जातीय इतिहास, समाज, धर्म, वाणिज्य, शिक्षा आदि के विषय में बहुत सी बातें कहीं। एक दिन बात ही बात में मेरे जहाज़ डूबने की बात निकल आई। मैंने उसको अपने साथ ले जाकर टूटा हुआ जहाज़ दिखलाया। उसे देख कर फ़्राइडे ने कहा-"ऐसा ही एक जहाज़ मेरे देश में भी एक बार आया था। उस पर सत्रह गौराङ्ग थे। हम लोगों ने उन्हें डूबने से बचाया था।" मैंने पूछा-फिर उन लोगों का क्या हुआ? तुम लोगों ने मार कर उनका कलेवा तो नहीं कर लिया?

फ्राइडे-"नहीं, वे लोग अभी तक मेरे ही देश में हैं।" मैंने पूछा-यह क्यों? क्या तुम्हारे देशवासियों को मन्दाग्नि का रोग हो गया है? तुम लोगों की नरमांस-भक्षण में ऐसी अरुचि क्यों हो गई?

फ़्राइडे-हम लोग मनुष्य मात्र को नहीं खाते। केवल बन्दी-गणों को ही खाते हैं।

इसके कुछ दिन बाद एक दिन द्वीप के पूरब ओर पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर फ़्राइडे एकाएक मारे खुशी के नाचने लगा। मैंने पूछा-क्यों फ्राइडे, क्या है? कुछ कहो भी तो।

फ़्राइडे-"अहा, बड़ा आनन्द है, बड़ा महोत्सव है! प्रभो देखिए, देखिए, यहाँ से मेरा देश देख पड़ता है।" उसका चेहरा हर्ष से प्रफुल्लित था, दोनों आँखों में प्रेमाश्रु भरे थे, सर्वाङ्ग पुलकित था। धन्य मातृ-भूमि! एक असभ्य सन्तान के हृदय में भी तुमने कैसा पवित्र प्रीति का संचार कर रक्खा है! किन्तु उसका यह आनन्द मुझे अच्छा न लगा। मेरे मन में यह खटका हुआ कि यदि फ़्राइडे किसी तरह अपने देश को चला गया तो संभव है वह धर्म की शिक्षा और कृतज्ञता भूल कर फिर अपनी पूर्व वृत्ति में प्रवृत्त हो जाय। इसके सिवा यदि वह अपने देश में जाकर मेरी चर्चा चलावे तो आश्चर्य नहीं कि दो तीन सौ आदमी यहाँ आकर भोज में मुझी को स्वाहा कर डालें। मैं उस बेचारे निर्दोषी को दोषी मान कर अविश्वास और उदासीनता की दृष्टि से उसकी ओर देखने लगा। हा, स्वार्थ ऐसा निन्द्य है। स्वदेश के प्रति प्रीति प्रकट करना स्वाभाविक है। अपने देश को दूर से देख कर उसका प्रसन्न होना अयुक्त न था, किन्तु उससे कहीं मेरे स्वार्थ में आघात न लगे, इस आशङ्का से मैं उसको विषभरी दृष्टि से देखने लगा। उसकी यह स्वदेश-प्रीति मेरी आँखों में काँटे की तरह गड़ने लगी। उसका स्वदेशाभिलाष मेरी दृष्टि में घोर अन्याय जँचने लगा। मैंने अब उसके साथ पहले की तरह बातचीत करना छोड़ दिया। मैं पहले उसे जिस दृष्टि से देखता था उस दृष्टि से अब नहीं देखता। उसके साथ अब मैं उस तरह मिलता-जुलता भी न था। इसके अलावा उसका असली मतलब जानने के लिए मैं रोज़ रोज़ उससे अनेक प्रकार की जिरह करने लगा। मेरे प्रश्न का उत्तर वह ऐसा सरल और प्रेमपूर्ण देता था जिससे मेरे मन का भ्रम शीघ्र ही दूर हो जाता था। एक दिन मैं उससे यों प्रश्न करने लगा:-

मैं-फ़्राइडे, क्या तुमको अपने देश जाने की बड़ी अभिलाषा होती है?

फ़्राइडे-हाँ, होती क्यों नहीं, अपने देश जाने की इच्छा किसे नहीं होती?

मैं-तुम वहाँ जाकर फिर उसी तरह नंगे, नरमांसभोजी, और अधार्मिक बनोगे?

फ़्राइडे-नहीं, नहीं, यह क्यों? मैं अपने देश के लोगों को प्रेम और धर्म की शिक्षा दूँगा और नर-हत्या करने से उन्हें रोकूँगा।

मैं-तब तो वे लोग तुम्हें मार ही डालेंगे?

फ़्राइडे-नहीं, वे लोग धर्म-कर्म की बात सीखना बहुत पसन्द करते हैं। उन बृहत्-नौकारोही गौराङ्ग लोगों से वे लोग कितने ही विषय सीख चुके हैं, और भी सीखते होंगे।

मैं-तो क्या तुम देश लौट जाओगे?

फ़्राइडे हँस कर बोला-जाऊँगा कैसे? इतनी दूर तैर कर कोई कैसे जा सकता है?

मैं-जाने के लिए तुमको एक नाव तैयार कर दूँगा।

फ़्राइडे-यदि आप चलें तो मैं भी आपके साथ साथ जाऊँगा।

मैं-अरे! मैं चलूँ? ऐसा होने से तो वे लोग मिल कर मुझे खा ही डालेंगे।

फ़्राइडे-नहीं, नहीं, आप ऐसा न समझें। मैं उन लोगों से आप की दया और अपने ऊपर उपकार की बात कहूँगा। उन लोगों को श्रद्धा-भक्ति करना सिखलाऊँगा। मेरे देश में जो अभी सत्रह गौराङ्ग विद्यमान हैं उनसे तो कोई किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं करता।

अब मेरे मन में यह धुन समाई कि समुद्रपार होकर उन सत्रह यूरोपवासियों के साथ किसी तरह भेंट करनी चाहिए। उन लोगों के साथ सम्मिलित होने की वासना प्रबल हो उठी। मैंने फ़्राइडे को ले जाकर अपनी डोंगी दिखलाई। हम दोनों उस पर सवार हुए। देखा, फ़्राइडे नाव खेने में पूरा उस्ताद है। मैंने कहा है-"फ़्राइडे, चलो तुम्हारे देश को चलूँ।" फ़्राइडे गम्भीर भाव धारण कर चुप हो रहा। उसका अर्थ मैंने यही समझा कि इतनी छोटी डोंगी से समुद्रयात्रा करने का उसे साहस नहीं होता। मैंने कहा,-"मेरे पास एक और बड़ी नाव है।" दूसरे दिन उसको वह नाव दिखाने के लिए ले गया। देख कर उसने कहा-हाँ, यह नाव बेशक बड़ी है। किन्तु बाईस-तेईस वर्ष से बे हिफ़ाज़त यों ही पड़ी रहने से सड़ गल गई है।

तब मैंने एक और बड़ी डोंगी बनाने का संकल्प किया। मैंने कहा, "आओ, फ़्राइडे, मैं तुम्हारे देश जाने का प्रबन्ध कर दूँ।" फ़्राइडे बड़ी अप्रसन्नता और अनुत्साह के साथ बोला-

मैंने आपका क्या अपराध किया है? आप इस दास पर क्यों इतने नाराज़ हैं?

मैं-असन्तुष्ट क्यों हूँगा? तुम देश जाना चाहते हो, उसी का प्रबन्ध करता हूँ।

फ़्राइडे-मैं आपको छोड़ कर अकेला जाना नहीं चाहता।

मैं-वहाँ जाकर मैं क्या करूँगा?

फ़्राइडे-आप क्या नहीं करेंगे? आप मेरे देश का बहुत कुछ उपकार कर सकेंगे। धर्म कर्म और ज्ञान का उपदेश दे कर मेरे देश के मनुष्यों को वास्तविक मनुष्य कहलाने योग्य बनावेंगे।

मैं-हाँ! तुम नहीं जानते कि मैं कितना बड़ा नीच, अयोग्य और अधार्मिक हूँ। मैं न जाऊँगा, तुम अकेले जाओ।

फ़्राइडे ने झट एक कुल्हाड़ी उठा कर मेरे हाथ में दी और कहा-"लो साहब, मुझे निर्वासित करने के बदले एकदम मार ही डालो। इसमें तुम्हारी बड़ी दया होगी।" आँसू भरी आँखों से मेरी ओर देख कर ऐसे दीनभाव से उसने कोमल वचन कहे कि मैं मुग्ध हो गया।

द्वीप में डोंगियों की तो कुछ बात ही नहीं, बड़े बड़े जहाज़ बनने के उपयुक्त बहुत से दरख्त थे, किन्तु हमें तो डोंगी के योग्य एक ऐसा पेड़ चाहिए जो पानी के समीप हो।

इतना सुभीता मिलना कठिन था। फ़्राइडे ने बहुत खोज कर एक ऐसा पेड़ ढूँढ़ लिया। उसने पेड़ की जड़ को आग से जला कर खोखली करने का प्रस्ताव किया तो मैंने उसको लोहे के हथियार की उपयोगिता दिखला दी। उसने शीघ्र ही वह काम सीख लिया और बसूला तथा रुखानी के द्वारा एक ही महीने में डोंगी तैयार कर ली। इसके बाद छोटी छोटी चिकनी डालों को बिछा कर उनके ऊपर से थोड़ा थोड़ा लुढ़का कर नाव को पानी पर ले जाने में और पन्द्रह दिन लगे। इस नाव में बीस आदमी मज़े में बैठ सकते थे।

यद्यपि नाव इतनी बड़ी थी तो भी फ़्राइडे का इस तेज़ी से खेना देख कर मैं विस्मित हुआ। वह अब नाव खे कर मुझको समुद्र पार कर देने को राजी है। किन्तु नाव का कुछ और काम करना बाकी रह गया था; मस्तूल और पाल लगाना था। मस्तूल की कमी न थी, फ़्राइडे को एक सीधा सा पेड़ दिखला कर मस्तूल बनाने की रीति बता दी। अब पाल का प्रबन्ध करना बाक़ी रहा। मेरे पास पुराने पाल के बहुत टुकड़े थे, किन्तु इतने दिनों से वे यों ही पड़े थे। उन्हें उलट पलट कर देखा तो उनमें दो टुकड़े अच्छे निकले। उन्हीं दोनों टुकड़ों को जोड़ कर पाल बनाया। यह सब करते धरते दो महीने लगे। इसके बाद पतवार बनाई। पतवार बनाने में मुझे उतना ही परिश्रम करना पड़ा जितना एक छोटी सी नाव बनाने में करना पड़ता।

अब फ़्राइडे को नौका-परिचालन की शिक्षा देने का अवसर आया। फ़्राइडे नाव चलाना जानता था, किन्तु वह पतवार और पाल आदि के विषय में कुछ न जानता था। कब, कैसे, इनसे काम लेना चाहिए यह फ्राइडे को बता देना ज़रूरी था। मैं स्वयं नाव खे कर फ़्राइडे को सिखलाने लगा। पतवार को जिधर घुमाओ उधर ही नाव घूमेगी। लग्गी से नाव न खेने पर भी पाल के ज़ोर से नाव मजे में चलती है-यह देख सुन कर फ़्राइडे चकित हो मेरे मुँह की ओर देखने लगा। आखिर थोड़े ही दिनों में वह खासा नाविक हो गया। किन्तु मैं कम्पास का रहस्य उसे किसी तरह भी न समझा सका।

क्रूसो के घर में नवीन अभ्यागत

मेरे इस द्वीपान्तर-निवास का सत्ताइसवाँ साल शुरू हुआ। मैंने यथाशक्ति परमेश्वर की अर्चा पूजा कर के इस स्मरणीय दिन का उत्सव किया। इतने दिनों से जो उनकी अप्रमेय दया का परिचय पाया है तदर्थ उनके चरण-कमलों में अपनी हार्दिक कृतज्ञता निवेदन की। मेरे मन में न मालूम क्यों एक ऐसी धारणा जम गई थी कि मेरे उद्धार का दिन सन्निकट है। अब मुझे एक वर्ष भी बन्दी की अवस्था में रहना न होगा।

छुटकारे की आशा होने पर भी मैं पहले ही की तरह खेती और गृहकार्य में समय व्यतीत करता था। वर्षा ऋतु आई। अब बाहर जाने आने का अधिक सुयोग नहीं मिलता। मैंने अपनी नाव को समुद्र के किनारे रख दिया था। ज्वार आने पर हम दोनों नाव को खींच कर बहुत ऊपर ले गये और उसके नीचे एक बहुत बड़ा गढ़ा खोदा। ज्वार घट जाने पर गढ़े के मुँह को बाँध से बन्द कर दिया। इससे नाव गढ़े के भीतर ही पानी पर तैरती रही। अब समुद्र में उसके बह जाने का भय न रहा। वृष्टि का पानी रोकने के लिए उसके ऊपर डाल-पत्तों का एक छप्पर बना कर के रख दिया। यात्रा के लिए उपयोगी सब सामान ठीक ठाक कर के निर्दिष्ट यात्रा के लिए नवम्बर दिसम्बर मास की अपेक्षा करने लगा।

"वर्षा विगत शरद ऋतु आई", वर्षा बीत चली। अब आकाश में कहीं बादल दिखाई नहीं देते। बिजली की वह चमक दमक अब कहीं देखने में नहीं आती। बादल ही के साथ वह भी अन्तर्हित हो गई। इन्द्रधनुष का कहीं नाम निशान नहीं रहा। सारा आकाशमण्डल निर्मल हो गया। रात में पूर्ण चन्द्र की छटा लोगों के हृदय को आकृष्ट करने लगी। पथिकगण स्वच्छन्दतापूर्वक स्वदेश यात्रा करने लगे। हम भी यात्रा के लिए धीरे धीरे आयोजना करने लगे। एक दिन मैंने फ़्राइडे को एक कछुवा पकड़ लाने का आदेश किया। फ़्राइडे जाने के बाद तुरन्त ही दौड़ता हुआ आया और घेरा लाँघ कर मेरे पास पहुँचा। उसने हाँफते हाँफते कहा-प्रभो, प्रभो, सर्वनाश हुआ! बड़ी विपत्ति है।

मैंने विस्मित हो कर पूछा-"क्या हुआ? कुछ कहो भी तो। क्या मामला है?" फ़्राइडे ने आँखे फाड़ कर के कहा-"अरे बाबा! एक! दो!! तीन! मैंने अपनी आँखों देखा है एक-दो-तीन।" यह सुन कर में अवाक् हो रहा! एक, दो, तीन क्या? बहुत सोचने पर समझा कि असभ्यों की तीन नावें किनारे आ लगी हैं। मैं फ़्राइडे को धैर्य्य बँधाने की चेष्टा करने लगा। भाँति भाँति से उसे ढाढ़स देने लगा। वह भय से काँप रहा था। उसकी यह धारणा थी कि वे लोग उसीको खोजने आये हैं और उसको पकड़ते ही मार कर खा जायँगे। मैंने उसको ढाढ़स दे कर कहा-घबराओ मत, देखो जो विपत्ति तुम पर है वही मुझ पर भी है। तब तुम इतना डरते क्यों हो? मैं उन सबों के साथ युद्ध करूँगा। क्या तुम मेरा साथ न दे सकोगे?

फ़्राइडे-हाँ, मैं बराबर साथ दूँगा और उन लोगों के साथ युद्ध करूँगा। परन्तु वे लोग गिनती में अधिक है।

मैं-इससे क्या? जो न भी मरेगा वह भय से अधमरा हो जायगा। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा, तुम मेरी रक्षा करोगे न?

फ़्राइडे-आपके लिए मैं अपने प्राण तक देने को तैयार हूँ। केवल आपकी आज्ञा चाहिए।

तब मैंने उससे बन्दूक़ और पिस्तौल लाने को कहा। उनमें जो जो शस्त्र अच्छे थे उनमें गोली और छर्रे भरे। अपनी कमर में नङ्गी तलवार बाँधी और फ़्राइडे की कमर में खञ्जर लटका दिया। जब हम दोनों हरवे-हथियार से लैस हो कर युद्ध करने को तैयार हुए तब मैंने पहाड़ के ऊपर चढ़ कर दूरबीन के द्वारा देखा कि वे लोग गिनती में इक्कीस थे, तीन आदमी बन्दी थे और तीन ही डोंगियाँ थीं। वे लोग कैदियों को खाने के आनन्द में मग्न हैं। हा! कैसा जघन्य आनन्द है! कैसी राक्षसी वृत्ति है! इस दफ़े वे लोग खाड़ी के पास एक दम जङ्गल के नज़दीक उतरे हैं।

मैं पहाड़ से उतर आया। कुछ अस्त्रशस्त्र फ़्राइडे को दिये, और कुछ मैंने अपने साथ ले लिये। मैं जैसा कहूँ वैसाही करना-यह उपदेश फ़्राइडे को देकर उससे चुपचाप साथ आने को कहा। इस वीरवेष में जाते जाते मेरे मन में फिर पुराना धर्मभाव जाग्रत हो उठा। मेरे हृदय में यह विवेक-बाणी बार बार गूँजने लगी कि उन लोगों ने मेरा क्या बिगाड़ा है! हम लोगों की आँखों में जो बड़ा ही नीच समझा जाता है वही उन लोगों के समाज का अगुवा होगा। तब उन लोगों के गुण-दोष का विचारक मैं कौन हूँ? मैंने इन बातों को सोच विचार कर तय किया कि जाऊँगा तो ज़रूर, तब शर्त यह है कि जैसा देखूँगा वैसा करूँगा।

चुपचाप वन के भीतर घुस करके हम दोनों आदमी उन असभ्य लोगों के पीछे एक पेड़ की आड़ में जा पहुँचे। फ़्राइडे ने झाँक कर देखा और मुझसे कहा,-"वे लोग एक बन्दी को मार कर खा रहे हैं। अब फिर दूसरे को मारेंगे। दूसरा व्यक्ति वही जलमग्न सत्रह गौरागों में का एक है।" अपने देशवासी की ऐसी दुर्दशा की बात सुनकर मेरा अन्तःकरण एकदम विद्रोह से भर उठा। मैंने दूरबीन लगाकर देखा। बन्दी की पोशाक आदि से अनुमान किया कि वह यूरोप देशवासी है। एक मज़बूत लता से उसके हाथ-पैर बँधे हैं। वह किनारे पर एक तरफ़ बालू पर पड़ा है। यह देख कर मैं बीस पच्चीस डग और आगे बढ़ एक झुरमुट की ओट में छिप रहा। तब मेरे और उन असभ्यों के बीच करीब अस्सी गज़ का फासला रहा होगा।

मैंने देखा, उन्नीस आदमी एक जगह बैठे हैं और दो आदमी उस यूरोपियन को मारने गये हैं। वे दोनों निहुर कर उसका बन्धन खोल रहे हैं। अब विलम्ब करना ठीक नहीं, यह सोच कर मैंने फ़्राइडे से कहा-"देखो मैं जैसा जैसा करता हूँ तुम भी वैसा ही करो।" यह कह कर मैंने एक बन्दूक़ पास रख ली और दूसरी उठाकर निशाना ठीक किया। फ़्राइडे ने भी वैसा ही किया। मैंने कहा-"फ़ायर!" दोनों बन्दूक़ें एक साथ गरज उठीं।

मेरी अपेक्षा फ़्राइडे का लक्ष्य अच्छा हुआ था। उसकी गोली से दो हत और तीन घायल हुए। मेरी गोली से एक हत और दो आहत हुए थे, बाकी सब भयभीत होकर चौंक उठे। किन्तु यह अलक्षित मृत्यु किस तरफ़ से आती है इसका कुछ निश्चय न कर वे लोग खड़े हो चकित दृष्टि से चारों ओर ताकने लगे। किस ओर भागने से बचेंगे, इसका भी कुछ अन्दाज़ उन्हें नहीं था। हम दोनों ने फिर बन्दूक़ें मारीं। इन बन्दूक़ों में छर्रे भरे थे। इस कारण अब की बार दो ही मरे। किन्तु छर्रे लगने से इतने अधिक लोग घायल हुए कि वे लोहू लुहान होकर, पागलों की भाँति चीत्कार करते हुए, इधर उधर दौड़ने लगे। थोड़ी ही देर के बाद उन घायलों में तीन मनुष्य धरती पर मूर्च्छित हो कर गिर पड़े।

इसके बाद हम दोनों भरी हुई एक एक बन्दूक़ लेकर झुरमुट की ओट से निकल कर बाहर आये। उन लोगों ने ज्यों ही हमारी ओर देखा त्यों ही हम खूब ज़ोर से गरज उठे। हम भारी भारी बन्दूकों को कन्धे पर रक्खे फुर्ती से दौड़ नहीं सकते थे, तथापि जहाँ तक हो सका तेज़ी से जाकर बन्दियों के पास पहुँचे। जो बन्दियों को लाने गये थे वे दोनों आदमी तथा तीन व्यक्ति और डर कर नाव की शरण लेने जाते थे। मैंने फ़्राइडे से कहा-"मारो उन लोगों को।" फ़्राइडे पूर्ण साहस कर के उन लोगों की ओर कुछ दूर तक और दौड़ गया; तब तक असभ्यगण नाव पर सवार हो चुके थे और भागने का उद्योग कर रहे थे। इसी बीच फ़्राइडे ने दो ही गोलियों में उन लोगों का काम तमाम कर दिया।

इस अरसे में मैंने अपनी छुरी निकाल कर बन्दी के हाथों-पैरों का बन्धन काट डाला और पोर्चुगीज़ भाषा में पूछा,-

"आप कौन हैं?" उन्होंने लैटिन भाषा में उत्तर दिया,-"मैं किरिस्तान हूँ।" उत्तर तो उन्होंने दे दिया पर भूख-प्यास से वे ऐसे व्याकुल थे कि भली भाँति बोल नहीं सकते थे। मैंने झट अपनी जेब से दूध-रोटी निकाल कर उनको खाने के लिए दी। तब फिर मैंने पूछा-"आप किस देश के रहने वाले हैं?" उन्होंने कहा-"स्पेन के।" फिर उन्होंने अपने आकार इङ्गित और चेष्टा से मुझे कृतज्ञता सहित अनेक धन्यवाद दिये। मैंने टूटी-फूटी स्पेनिश भाषा में कहा,-"महाशय, परिचय पीछे होगा, अभी युद्ध जारी है। यदि आपसे हो सके तो यह पिस्तौल और तलवार लीजिए, तथा शत्रुओं का विनाश कीजिए।" हथियार पाते ही मानो उन्हें नवजीवन मिल गया। उनका उत्साह और साहस सौगुना बढ़ गया। उन्होंने बड़े वेग से जाकर दो दुश्मनों को तलवार से दो टुकड़े कर डाला। असभ्यगण अतर्कित भाव से आक्रान्त होकर भय और आश्चर्य से किंकर्तव्य-विमूढ़ हो रहे थे। कितने ही मर कर गिरने लगे और कितने ही भय से मूर्च्छित होकर गिरने लगे।

मैंने अपनी तलवार और पिस्तौल स्पेनियर्ड को दी थी। इससे मैंने अपनी भरी हुई बन्दूक़ को विशेष आवश्यकता के लिए रख छोड़ा था। मैंने फ़्राइडे को पुकार कर कहा-झुरमुट की आड़ से और दो बन्दूक़ें ले आओ। वह वायु-वेग से दौड़ कर ले आया। मैं उसको अपनी बन्दूक़ देकर दूसरी भरने लगा। फ़्राइडे से कह दिया कि बन्दूक़ खाली हो जाने पर मुझको दे देना और भरी हुई ले लेना। मैं बन्दूक़ भर ही रहा था कि एक असभ्य वीर ने हाथ में काठ की तलवार लेकर स्पेनियर्ड पर आक्रमण किया। स्पेनियर्ड दुर्बल होने पर भी खूब साहसी था। वह उसके साथ बड़ी बहादुरी से युद्ध करने लगा और दो बार उस असभ्य के सिर पर अस्त्र प्रहार किया। असभ्य दीर्घकाय और बलिष्ठ था। उसने उन आघातों की कुछ परवा न कर के स्पेनियर्ड को धक्का मार कर गिरा दिया और उनके हाथ से तलवार छीनने लगा। तब स्पेनियर्ड ने तलवार को दूर फेंक कर पिस्तौल ली। मैं उनको धरती पर गिरा देख सहायता के लिए दौड़ा जा रहा था कि मेरे पहुँचने के पहले ही उन्होंने पिस्तौल की एक ही गोली से उस नीच को मार डाला। फ़्राइडे ने अपना खंजर हाथ में लेकर पराजित शत्रुओं का पीछा किया और जिनको पकड़ पाया उन्हें मार डाला। स्पेनियर्ड ने मेरे पास आकर एक बन्दूक़ मुझसे माँग ली और उससे दो असभ्यों को घायल किया। इक्कीस मनुष्यों में केवल चार आहत और अनाहत व्यक्ति डोंगी पर सवार होकर भाग चले। फ़्राइडे ने उन पर लक्ष्य कर के दो गोलियाँ मारीं, पर ऐसा जान न पड़ा कि किसी को लगी हो।

फ़्राइडे उन लोगों का पीछा करने को प्रस्तुत हुआ। उन का भागना मुझे भी पसन्द न था। कारण यह कि वे लोग अपने देश जाकर शायद अपनी मण्डली को खबर दें और वहाँ से दो तीन सौ आदमी पाकर हम लोगों को मार कर खा डालें। इस लिए फ्राइडे के प्रस्ताव पर स्वीकृत होकर मैं झट कूद कर नाव पर सवार हुआ। वहाँ देखा कि एक आदमी, जिसके हाथ-पाँव बँधे हैं, डोंगी के भीतर पड़ा है और मारे डर के अधमरा सा हो रहा है। उसने सिर्फ शोरगुल सुना है, देखने तो कुछ आया ही नहीं। अतएव उसका भयभीत होना स्वाभाविक ही था। मैंने तुरन्त उसका बन्धन काट दिया। फिर उसको उठाने की चेष्टा की। किन्तु वह उठे बिना ही गोंगाँ करने लगा। शायद उसने यह समझा हो कि मैं उसको मारने के लिए उठा रहा हूँ। तब मैंने फ़्राइडे से कहा कि इसको समझा दो कि यह डरे नहीं, और इसे कुछ खाने को भी दो। फ़्राइडे के समझाने पर वह उठ बैठा। फ़्राइडे ने जैसे ही उस व्यक्ति का मुँह देखा वैसे ही उसको अपने गले से लगा कर बड़ा ही स्नेह जनाया। वह हँसकर, रोकर और नाच-गाकर खुशी से पागल हो उठा। बड़ी कठिनाई से मैंने समझा कि वह फ़्राइडे का बाप था। उसका पितृस्नेह देख कर मेरी आँखों में आनन्दाश्रु उमड़ आये।

फ़्राइडे कभी बाप का मस्तक अपनी छाती में लगाता, कभी अपना मस्तक उसकी छाती में छिपाता था; कभी नाचता, कभी हर्ष से चीत्कार कर के नाव से नीचे उछल पड़ता था। उस बूढ़े के हाथ-पैर बन्धन से जकड़ गये थे। फ्राइडे ने बैठ कर धीरे धीरे उसके हाथ-पैर दबा दिये। उसने बाप को पा कर जितना आह्लाद प्रकट किया, वह समझाने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ।

इस अघटित घटना से हम उन असभ्य भगोड़ों का पीछा न कर सके। कुछ देर के बाद जब मैंने समझा कि अब फ़्राइडे का आनन्दोच्छवास कुछ कम हो चला है तब मैंने उसको पुकारा। वह छलाँग मार कर हँसी-भरे मुख से मेरे सामने आ गया। मैंने पूछा, क्यों रे! तू ने अपने बूढ़े बाप को कुछ खाने को दिया है या केवल आदर ही कर रहा है? फ़्राइडे ने कहा-"नहीं, खाने को तो कुछ भी नहीं दिया। मेरे पेट में आप ही आग लगी थी। मेरे पास जो कुछ था उसे मैंने हो खा डाला।" तब मैंने अपने बैग से रोटी और मुट्ठी भर किसमिस निकाल कर उसे दी। कुछ तो उसके बाप के लिए और कुछ ख़ास कर उसके लिए। किन्तु उसने सब ले जाकर बाप को दे दिया। इसके बाद वह पलक मारते ही वहाँ से गायब हो गया। मैने उसे कितना ही पुकारा, पर उसने मेरी एक न सुनी। थोड़ी ही देर में वह घड़े भर जल और दो रोटियाँ लेकर हाज़िर हो गया। तब मैंने समझा कि वह सीधा घर जाकर यह चीज़े ले आया है। दोनों रोटियाँ मुझको दीं और जल अपने बाप को दिया। वह पानी पीकर स्वस्थ हो गया। मुझे भी बड़ी प्यास लगी थी। मैंने भी थोड़ा सा जलपान किया।

मैंने थोड़ा सा जल स्पेनियर्ड को भी देने के लिए कहा। वह बेचारा एक पेड़ के नीचे घास पर लेटा हुआ विश्राम कर रहा था। वह बहुत थका-माँदा था। उसके हाथ-पैर सख्ती से बाँधे जाने के कारण सूज गये थे। फ़्राइडे ने रोटी और पानी लेकर उसको दिया। वह उठ कर बैठा और खाने लगा। मैंने भी उसे, पास जाकर, एक मुट्टी किसमिस दी। उसने मेरे मुँह की ओर जिस दृष्टि से देखा, वह दृष्टि कृतज्ञता के भाव से भरी थी। यद्यपि युद्ध के समय उसने खूब बहादुरी दिखाई थी किन्तु इस समय वह एक दम बेसुध हो गया था। दो तीन बार उठने की चेष्टा की पर उठ न सका। उसके सूजे हुए दोनों पैरों में बड़ी पीड़ा हो रही थी। मैंने फ़्राइडे से उसके पैर दाब देने तथा शराब की मालिश कर देने को कहा।

फ्राइडे जब तक वहाँ था तब तक मिनट मिनट पर दृष्टि फेर कर अपने पिता को देख लेता था। एक बार उसने पीछे की ओर घूमकर देखा, उसको पिता देख न पड़े। वह फ़ौरन उठकर खड़ा हुआ और किसी से कुछ कहे बिना ही एक ही दौड़ में बूढ़े के पास जा पहुँचा। वह ऐसे ज़ोर से दौड़ कर गया था कि उसके पैर मानो धरती पर पड़ते ही न थे। उसने जाकर देखा, उसके वृद्ध पिता आराम करने की इच्छा से सो रहे हैं। तब फिर वह हमारे पास लौट आया। मैंने उससे कहा-"स्पेनियर्ड को उठा कर नाव पर रख आओ। इसको घर ले जाना होगा।" फ़्राइडे खूब बलिष्ठ था, वह स्पेनियर्ड को पीठ पर लादकर नाव पर रख आया। इसके बाद वह ऐसी शीघ्रता से नाव को खेकर ले चला कि मैं किनारे किनारे उसके साथ बराबर नहीं जा सकता था। उसने बिना किसी विघ्न-बाधा के नाव को खाड़ी में ले जाकर झट उस पर से उतर कर फिर वायुवेग से दौड़ लगाई। वह मेरे पास से दौड़ा हुआ जा रहा था। मैंने पूछा-"कहाँ जा रहे हो?" उसने कहा-"दूसरी डोंगी भी लाता हूँ।" प्रश्न-उत्तर समाप्त होते न होते वह दृष्टि-पथ से निकल गया। ऐसा विचित्र दौड़ना मनुष्यों की तो कुछ बात ही नहीं, मैंने घोड़ों में भी प्रायः कम देखा होगा। मैं पैदल चल कर अभी खाड़ी तक पहुँचा भी नहीं कि उसने दूसरी डोंगी भी लाकर हाज़िर कर दी। उसने मुझे पार उतार कर उन दोनों अभ्यागतों को भी पार उतारा। वे दोनों अतिथि चलने में असमर्थ थे। मैं इन दोनों को घर तक ले चलने का उपाय सोचने लगा। झटपट एक खटोली सी तैयार करके उस पर उन दोनों को लिटा कर फ़्राइडे और मैं उठा कर घर ले आया।

अतिथि-सेवा

स्पेनियर्ड और फ़्राइडे के पिता को उठा कर हम लोग अपने पहले घेरे के भीतर तो ले आये। अब देखा कि दूसरे घेरे को लाँघ कर उनको भीतर ले जाना कठिन है। घेरा काट डालने को भी जी नहीं चाहता था। तब मैंने फ़्राइडे की सहायता से शीघ्र ही एक झोपड़ा तैयार किया। उसके ऊपर डाल-पात का छप्पर कर दिया। भीतर पयाल पर कम्बल बिछा कर दो बिछौने कर दिये।

फिर आसन्न मृत्यु के मुख से रक्षा प्राप्त इन दोनों दुर्बल व्यक्तियों के आश्रय और आराम की व्यवस्था कर के मैं उनके खान-पान का प्रबन्ध करने लगा। फ़्राइडे को एक बकरा काटने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही उसने बकरे को काट-बना कर उसका माँस पका दिया। फ़्राइडे के हाथ का बना खाना बहुत साफ़ सुथरा और स्वादिष्ट होता था। मैंने नये तम्बू में टेबल पर खाने की सामग्री को भली भाँति सजा कर सब के साथ बैठ कर भोजन किया और भोजन करते करते उन दोनों अतिथियों को आश्वासन दिया। फ़्राइडे दुभाषिया बन कर मेरी बातें अपने बाप तथा स्पेनियर्ड को समझा देता था। स्पेनियर्ड उस असभ्य भाषा में भली भाँति बातें कर सकता था।

खाने-पीने के बाद मैंने फ़्राइडे से कहा कि युद्ध-क्षेत्र में मेरी बन्दूक़ें आदि जो चीजें पड़ी हों उन्हें तुम एक नाव ले जाकर उठा लाओ।" उसके दूसरे दिन उसी के द्वारा कुल मुर्दोंको मिट्टी में गड़वा दिया। कारण यह कि बाहर उन्हें यों हीं छोड़ देने से इस द्वीप में रहना कठिन हो जाता। उसने सब काम अच्छी तरह कर दिया। युद्ध का या असभ्यों का एक भी चिह्न न रहने दिया।

अब मेरे टापू में प्रजा की संख्या तीन हुई। पहले था मैं राजा, अब मानो हुआ सम्राट! यह भावना मेरे मन में बड़ा ही हर्ष उपजाती थी। मैं ही समग्र द्वीप का अधीश्वर हूँ। मेरी प्रजा का जीवन-मरण मेरे ही हाथ में है। मैंने उनके जीवन की रक्षा की है, वे मेरी आज्ञा से प्राण देने को प्रस्तुत हैं। किन्तु प्रजा के तीनों आदमियोंका धर्म और मत तीन तरह का था। फ़्राइडे प्रोटेस्टेन्ट (protestant) किरिस्तान था, उसका पिता नास्तिक था, और स्पेनियर्ड कैथलिक किरिस्तान था। किन्तु मैं इससे क्षुण्ण न था। मेरे राज्य में मज़हब की स्वाधीनता है। इसमें मैं अपना गौरव समझता था।

मैं फ़्राइडे को मध्यस्थ कर के अपने नवीन अतिथियों के साथ वार्तालाप करने में प्रवृत्त हुआ। मैंने फ़्राइडे के बाप से पूछा-"तुम क्या सोचते हो, इन चार भगोड़ों के मुँह से खबर पाकर क्या असभ्य गण दल बाँध कर यहाँ आवेंगे और मुझ पर आक्रमण करेंगे?" उसने कहा, "मेरा ख़याल तो ऐसा नहीं है। जैसी तेज़ हवा बह रही थी उससे यही मालूम होता है कि नाव डूब जाने से वे लोग मर गये होंगे या दूसरे देश में पहुँच गये होंगे। दूसरे देश के लोग उन्हें जीते जी कब जाने देंगे। कदाचित् वे बच कर अपने देश को लौट भी गये होंगे तो भी अब इस देश में न आवेंगे क्योंकि वे आपस में कह रहे थे कि 'दो स्वर्गीय देवों ने आकर वज्राघात से उन सब को मार डाला है,।' उन असभ्यों ने मुझको और फ़्राइडे को देव समझ रक्खा और बन्दूक़ की आवाज़ को वज्रनाद मान लिया था। वे असभ्य लोग आवे चाहे न आवें पर हम लोग सर्वदा चौकन्ने रहने लगे। अब हम लोग चार आदमी हुए। सौ आदमियों का सामना कर सकेंगे-ऐसा जी में भरोसा हुआ।

अब फिर छुटकारे की चिन्ता होने लगी। फ़्राइडे के पिता ने भी मुझको भरोसा दिया कि उनके देश में जाने पर सब लोग मेरे साथ सद्व्यवहार करेंगे। स्पेनियर्ड ने भी कहा कि उस देश में जो और पोर्चुगीज़ और स्पेनियर्ड लोग हैं उन लोगों के साथ कोई बुरे तौर से पेश नहीं आता। सभी लोग उनका सम्मान करते हैं। वहाँ जाने पर वे लोग भी मेरा सम्मान करेंगे। मैंने कहा, "यदि मैं वहाँ न जाऊँ और उन यूरोपियनों के यहीं बुला लूँ तो हम लोग मिल कर एक बहुत बड़ा जहाज़ बना सकेंगे। किन्तु सच तो यह है कि मनुष्य एक विचित्र जीव होता है। जब तक उन लोगों को अपना मतलब निकालना होगा तब तक तो वे मेरा उपकार मानेंगे पीछे से चाहे मेरा ही सर्वनाश करेंगे। जानते तो हो, स्पेन और इंगलैन्ड की चिरशत्रुता है"। स्पेनियर्ड ने इस बात का प्रतिवाद कर के कहा-यह बात अब नहीं है, उसका आप भय न करे। वे लोग वहाँ बेकार पड़े हैं, इससे किसी तरह का साहाय्य पाने ही से वे कृतार्थ होंगे। आप कहें तो मैं वहाँ जाकर और उन लोगों का अभिप्राय जान कर फिर यहाँ आ सकता हूँ। उन लोगों के पास अस्त्र-शस्त्र, कपड़े-लत्ते आदि कुछ नहीं हैं। असभ्यों की दया के भरोसे बैठे हैं। वे लोग आपसे सहायता पाने पर आपकी आज्ञा के अनुसार चलेंगे, क्योंकि वे सभी भद्र और सहृदय हैं। आपके स्वामी समझ कर चिरकाल तक आपकी सेवा करेंगे और आपही की आज्ञा पर अपने जीवन-मरण को निर्भर करेंगे।

स्पेनियर्ड की बात सुन कर मैं उन लोगों की सहायता करने के राज़ी हुआ और उसे वहाँ भेजने का प्रबन्ध भी करने लगा। किन्तु उसने एक आपत्ति की। उस आपत्ति में दीर्घदर्शिता और सत्यता दोनों का परिचय मिला। स्पेनियर्ड मेरे पास एक महीने से है। मेरा जीवन-निर्वाह किस तरह होता है, इसे वह अच्छी तरह समझ गया है। सब अपनी आँखों देख चुका है। मेरे पास जो संचित अनाज था वह एक आदमी के लिए यथेष्ट था किन्तु अभी तो वह चार मुँह में जाता है। उस पर यदि और यूरोपियन आई आ जायँ तो उतने अनाज से कै दिन गुज़र होगी। इसलिए एक फ़सल अन्न खूब अधिकता से उपजा कर तब उन लोगों को बुलाना ठीक होगा। नहीं तो वे लोग एक विपत्ति से निकल दूसरी विपत्ति में आकर अप्रसन्न हो सकते हैं।

उसकी इस सलाह से प्रसन्न हो कर हम चारों आदमी खेती के काम में प्रवृत्त हुए। एक महीने बाद ज़मीन के अच्छी। तरह जोत गोड़ कर बीज बो दिया।

साथी मिल जाने से मैं अब निर्भय होकर टापू में जहाँ जी चाहता, जाता था। मैं चुन चुन कर पेड़ दिखलाने लगा और फ़्राइडे तथा उसका बाप देने उन्हें काटने लगे। स्पेनियर्ड को मैंने उनकी देखभाल पर नियुक्त किया। मैंने जिस तरह एक एक पेड़ से एक एक तख्ता निकाला था उसी तरह निकालना उन्हें भी बता दिया। क्रमशः उन्होंने एक दर्जन बड़े बड़े तख्ते तैयार किये। भावुक व्यक्ति सोच कर स्वयं समझ सकते हैं कि उस तरह तख़्ता निकालना कैसे कठिन परिश्रम का फल है।

इसके बाद पारी बाँध कर हम और फ्राइडे एक दिन और स्पेनियर्ड और फ़्राइडे का पिता दूसरे दिन बकरे पकड़ने के लिए जाने लगे। थोड़े ही दिनों में हम लोगों ने बीस पचीस बकरे और बढ़ा लिये। इसके अनन्तर हम लोगों ने पचास-साठ मन सूखे अंगूर इकट्ठे कर लिये। फसल तैयार होने पर धान और जौ भी बहुत हुए। अनाज रखने के लिए और कितनी ही टोकरियाँ बुननी पड़ीं। स्पेनियर्ड इस काम में बड़ा दक्ष निकला। खाद्य-सामग्री पूर्णरूप से सञ्चित हो जाने पर मैंने स्पेनियर्ड से उनके साथियों को बुला लाने को कहा। उससे मैंने अच्छी तरह समझा कर कह दिया कि जो व्यक्ति शपथपूर्वक मेरा अनुगत होना स्वीकार न करें उन्हें न लाना। जो लोग मेरी अधीनता स्वीकार करें उन के स्वीकृति-पत्र पर मेरी अनुगामिता के विषय में हस्ताक्षर करना होगा। उस समय मुझे इसका खयाल न रहा कि उन लोगों के पास स्याही, कलम और कागज़ भी तो कुछ न होगा। जो हो, स्पेनियर्ड और फ़्राइडे के पिता डोंगी पर सवार हो कर चले गये। मैंने उनके साथ दो बन्दूक़ें, कुछ गोली-बारूद और आठ दिन का भोजन रख दिया।

आज सत्ताइस वर्ष के अनन्तर अपने उद्धार की इस प्रकृत आयोजना से मेरा हृदय आनन्द से आप्लावित हो रहा था। कुँवार की पूर्णिमा की रात में अनुकूल वायु देख कर वे दोनों रवाना हुए।

क्रूसो के उद्धार की पूर्व सूचना

स्पेनियर्ड और फ़्राइडे के पिता को रवाना करके हम नित्य ही उनके आने की प्रतीक्षा करने लगे। देखते देखते आठ रोज़ बीत गये तो भी उनके दर्शन न हुए। एक दिन सबेरा हो जाने पर भी मैं बिछौने पर पड़ा रहा। फ़्राइडे दौड़ कर आया और बोला-"वे आ रहे हैं। मैं बिछौने से उछल कर उठ खड़ा हुआ और झट कपड़े पहन कर दौड़ता हुआ बाहर आया। हड़बड़ी में बन्दूक़ लेना भूल गया। बाहर आकर देखा कि एक नाव द्वीप के दक्षिण ओर समुद्र के किनारे लगने का उपक्रम कर रही है। उस तरफ से स्पेनियर्ड के आने की संभावना न थी। मैंने फ़्राइडे के पुकार कर कहा-"अभी सावधानी से छिपे रहा। ये लोग वे नहीं हैं। ये शत्रु हैं या मित्र, यह पहले जान लेना चाहिए। मैंने दूरबीन लेकर सीढ़ी के सहारे पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर देखा। यहाँ से करीब ढाई मील पर दक्खिन-पूरब के कोने में एक जहाज़ है जो किनारे से डेढ़ मील के भीतर ही होगा। दूरबीन से साफ़ दिखाई दिया। वह अँगरेज़ी जहाज़ था। उसके साथ जो नाव थी वह अँगरेज़ी ढंग की थी।

जहाज़ तो मेरे देश का मालूम होता है। संभव है उस पर देशवासी हों, और वह बन्धु के द्वारा परिचालित हो। यह सच कर मेरा मन आनन्द और आश्चर्य से डावाँडोल होने लगा। तो भी पूरा विश्वास न होता था। मैंने फिर सोचा, अँगरेजी जहाज़ का मार्ग छोड़ कर इधर आने की क्या जरूरत थी? इसलिए चोर-डकैतों के हाथ में पड़ने की अपेक्षा छिप रहना अच्छा है। हम लोगों के अन्तःकरण से जो इस प्रकार बीच बीच में सावधानी का संकेत होता है, उसे अग्राह्य न करना चाहिए। यह एक अदृश्य शक्ति की सावधान वाणी है जो हम लोगों के भले के लिए उद्भत होती है। उस अदृश्य वाणी का पालन करने से ही मेरी रक्षा हुई है, नहीं तो न मालूम मुझे कैसे कैसे सङ्कट झेलने पड़ते। नौका धीरे धीरे आकर ठहरने के लिए घाट खोज रही है। नाविकगण खाड़ी तक जहाज़ को नहीं लाये, उन्होंने समुद्र के किनारे ही जहाज़ लगाया। खाड़ी की ओर न कर उन लोगों ने हमारे हक में अच्छा ही किया। नहीं तो हमारा पता पाकर वे लोग हमारा सर्वस्व लूट ले जाते। जब वे नाव से उतर कर किनारे आये तब स्पष्ट देख पड़ा कि वे अँगरेज़ हैं। कुल ग्यारह आदमी थे। उनमें तीन मनुष्य अस्त्र-रहित थे। ऐसा मालूम हुआ, जैसे वे बन्दी हो। उन तीनों में एक व्यक्ति को अनेक प्रकार से विनय की मुद्रा करते देखा; अन्य दो व्यक्ति भी विनती करते थे, किन्तु वे दोनों प्रथम व्यक्ति की भाँति अधीर न थे। इन लोगों को देख कर मैं कुछ निश्चय न कर सका। फ्राइडे ने कहा-"साहब, देखिए देखिए, अँगरेज़ लोग भी असभ्यों की भाँति नर-मांस खाते हैं।" मैंने कहा—नहीं फ़्राइडे, तुम कभी ऐसा खयाल न करो।

फ़्राइडे–"नहीं, वे उन क़ैदियों के ज़रूर खायँगे!" मैं-नहीं, नहीं, तुम क्या समझो। यह हो सकता है कि वे इन तीनों के मार डालें पर खायँगे नहीं, यह सच जानो।

असल मामले को समझ न सकने पर भी किसी क्षण में उन तीनों की मृत्यु देखने के भय से मेरा दिल धड़क रहा। था। एक बार एक व्यक्ति के ऊपर की ओर तलवार उठाते देख मेरा लोहू सर्द हो गया। मैं सोचने लगा कि इस समय यदि स्पेनियर्ड और फ्राइडे के बाप यहाँ रहते तो अच्छा होता। फिर देखा कि वे लोग तीनों बन्दियों को छोड़ कर टापू देखने के लिए भिन्न भिन्न दिशा में चले गये। तीनों बन्दी हताश हो कर वहीं बैठ गये। इन लोगों की दशा देख कर मुझे इस द्वीप में आने के प्रथम दिन की अवस्था का स्मरण हो गया। जैसे मैं नहीं जानता था कि मुझ पर बिना कुछ प्रकट किये विधाता मेरे लिए कैसा क्या इन्तजाम करते हैं वैसे ही दुख के सारे ये बेचारे भी नहीं जानते कि उन लोगों के लिए अचिन्तित भाव से ईश्वर मेरे द्वारा रक्षा का उपाय कर रहे हैं। हम लोग इसी तरह भविष्य के अन्धकार-मय पथ में बिना देखे-सुने विधाता के मङ्गल-विधान में सन्देह करते हैं और अविश्वास के कारण हताश बने रहते हैं।

ठीक ज्वार आने पर वे लोग किनारे आये और बेखबर हो कर टापू देखने की इच्छा से इधर उधर घूमने लगे। अभी घुम ही रहे थे कि इतने में पानी घट जाने से उनकी किश्ती सूखे में पड़ी रह गई। उसमें दो आदमी थे किन्तु वे दोनों से गये थे। एक आदमी एकाएक जाग उठा और नाव के सूखे में देख भैचक सा हो रहा। फिर सँभल कर उसने भ्रमणकारियेां को खुब जोर से चिल्ला कर पुकारा। थोड़ी ही देर में सभी लौट पड़े। किन्तु वहाँ दल-दल थी और किश्ती खुब भारी थी इससे वे लोग उसे ठेल कर पानी में न ले जा सके। तब हार कर वे लोग फिर घूमने चले गये। मैंने समझा कि अब दस घंटे के पहिले यह किश्ती हिल डोल न सकेगी। तब तक अँधेरा हो आवेगा। इतना समय पाकर मैं युद्ध का सामान ठीक करने लगा।

दोपहर के समय सभी धूप से घबरा कर वृक्ष की छाया में लेट कर ऊँघने लगे। केवल वे तीनों बन्दी पेड़ की छाँह में जागते हुए बैठे थे। मैं उनके साथ भेट करने का निश्चय कर के हरवे-हथियारों से लैस हो और फ़्राइडे के साथ ले किले से निकला। विचित्र पोशाक के कारण हम लोगों का चेहरा देखने में बिलकुल भूत का सा था। हम लोगों ने पैरों की आहट बचा कर धीरे धीरे, छिपे तौर से, उनके पास जा कर स्पेनिश भाषा में पूछा-"महाशय, आप लोग कौन हैं?" यह सुन कर वे लेाग चकित हुए और चुपचाप हमारे मुँह की ओर देखने लगे। मैंने देखा कि वे भागने का उपक्रम कर रहे हैं, तब मैंने अँगरेज़ी में कहा-"महाशय, मुझको देख कर आप लोग डरे नहीं, बल्कि आप लोग यह समझे कि एक अप्रार्थित मित्र आप के निकट आया है। उनमें से एक व्यक्ति सम्मान दिखाने के लिए टोपी उतार कर बोला-ज़रूर ही आप ईश्वर-प्रेरित हैं, क्योंकि हम लोगों का साहाय्य करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर की बात है। मैंने कहा-"आपका कहना ठीक है, सभी मङ्गल कार्य ईश्वर की प्रेरणा से होते हैं। अभी आप यह तो बतावें कि मामला क्या है। यह सुन कर उसकी आँखों से झरझर आँसू गिरने लगे। वह भय से काँपता हुआ बोला—मैं नहीं जानता कि मैं देवता, गन्धर्व या मनुष्य किसके साथ बातें कर रहा हूँ।

मैं-आप भय न करें। भगवान् देवता या गन्धर्व किसी को भेजते ते उनका लिवास और रूप-रङ्ग हम से कहीं अच्छा दिखाई देता। मैं आदमी हूँ, अँगरेज़ हूँ और आप लोगों की सहायता करने की इच्छा से आया हूँ। कहिए, क्या समाचार है?

वह–हम लोगों का मुख़्तसर हाल यही है कि मैं जहाज़ का कप्तान हूँ। नाविक गण विद्रोही होकर मुझको मारने पर उद्यत हुए थे। बहुत कहने-सुनने और विनती करने पर उन लोगों ने इस निर्जन द्वीप में हम लोगों को छोड़कर चले जाने का विचार किया है। इनमें एक मेरा मेट है और एक नोकारोही है।

मैं-उन अत्याचारियों के पास बन्दूक़ें हैं?

कप्तान-हाँ, दो बन्दूक़ें हैं। वे जहाज़ में रक्खी हैं।

मैं–तो आप लेाग निश्चिन्त रहिए। मैं अभी उनका नाश करूँगा या हो सकेगा तो उन्हें बन्दी करूँगा।

कप्तान–"उनमें दो मनुष्य उस मण्डली के मुखिया हैं, उन को पकड़ लेने से और लोग आप ही वशीभूत होंगे।" वे लोग कहीं हम को देख न लें, इसलिए कप्तान आदि तीनों को साथ ले मैं अपने किले के सामने वाले उपवन में जा छिपा। तब मैंने फिर कप्तान से कहा-देखिए महाशय, यदि आप लोग दो शर्ते मंजूर करें तो मैं आप लोगों के बचाने का उपाय कर सकता हूँ।

कप्तान ने मेरा मतलब समझ कर कहा–यदि आप जहाज़ पर क़ब्ज़ा करलें तो वह आप अपना ही समझिए। यदि यह नहीं तो हम लोगों को आप अपनी आज्ञा के वशवर्ती समझें। अन्य दो व्यक्तियों ने भी कप्तान की इस बात पर ज़ोर दिया।

मैंने कहा-मेरी दो शर्तें यही हैं कि जब तक आप लोग मेरे इस टापू में रहें, मेरे अधीन होकर रहें और मेरी आज्ञा के अनुसार चलें। कभी विरुद्धाचारण न करें। कोई काम आ पड़ने पर मैं अस्त्र दूँ तो काम हो जाने पर फिर वह मुझे लौटा दें और जहाज़ अधिकार में आ जाने पर मुझको तथा मेरे भृत्य को बिना कुछ भाड़ा लिये इंगलैंड पहुँचा दें।

कप्तान बोला-मैं जितने दिन जीवित रहूँगा आपकी आज्ञा के अधीन रहूँगा।

तब मैंने कहा-"अच्छा, यह लीजिए तीन बन्दूक़ें और गोली-बारूद। अच्छा यह बतलाइए कि अब क्या करना होगा?" उन्होंने कृतज्ञता प्रकट कर मेरे ही ऊपर सम्पूर्ण भार सौंपा। मैंने कहा, वे लोग सोये हैं, चलो अभी गोली से उन को महानिद्रा के अधिकारी बना दें। किन्तु कप्तान ने इसमें अपना उत्साह नहीं दिखाया। बिना मारे ही यदि काम निकल जाय तो वैसा ही करना ठीक होगा। यही उनकी राय थी। तब मैंने उन्हीं को आगे जाने की आज्ञा दी और उनसे कह दिया कि जो आप अच्छा समझें, करें।

इस तरह की बात-चीत होही रही थी कि इतने में उन सबों में कई मनुष्य जाग उठे और हम लोगों ने दूर से देखा कि दो आदमी उठ खड़े हुए। मैंने कप्तान से पूछा, "उनमें विद्रोहियों का सार है कि नहीं।" उसने कहा-नहीं।

मैं-"अच्छा, तो उन्हें जाने दो। ईश्वर ने उन्हें बचाने के लिए पहले ही जगा दिया है। किन्तु असल अपराधी बच जाय तो यह तुम्हारा दोष है।" इस बात से उत्तेजित हो कर वे तीनों मनुष्य बन्दूक़, तलवार और पिस्तौल ले कर बाहर निकले। कप्तान के दोनों साथी आगे बढ़ कर चिल्लाने लगे। नाविकों में एक व्यक्ति जागता था, वह पीछे की ओर देख कर साथियों को चिल्ला कर पुकारने लगा। किन्तु जिस घड़ी उसने पुकारा उसी घड़ी कप्तान के दोनों साथियों ने बन्दूक़ें दाग दीं। एक तो तत्काल मर गया, और दूसरा अत्यन्त आहत हो गया। वह खुब ज़ोर से चिल्ला कर साथियों को पुकारने लगा। कप्तान ने आगे बढ़ कर कहा, "अब साथियों को न पुकार कर भगवान् को पुकार जिससे तेरा कल्याण हो। अब तुझे समय नहीं है।" यह कह कर उन्होंने बन्दूक़ के कुन्दे से उसे ऐसा मारा कि वह गिर पड़ा और कुछ न बोला। वहाँ तीन आदमी और थे, उनमें एक आदमी कुछ घायल हो गया था। मेरे वहाँ पहुँच जाने पर वे लोग अपने के निरुपाय देख दयाभिक्षा माँगने लगे। कप्तान ने कहा–यदि तुम लोग मेरे विश्वासी और अनुगत होकर रहने की प्रतिज्ञा करो ते मैं तुम लोगों का अपराध क्षमा कर सकता हूँ। उन लोगों ने अपने किये अनुचित कर्म के लिए अनुताप कर के भविष्य में भलमनसाहत के साथ रहने की शपथ की। तब हम लोगों ने उनकी जान बख्श दी। पर अभी उन के हाथ-पैर बाँध रखने का मैंने आदेश किया।

हम लोग जब इधर ये काम कर रहे थे तब फ़्राइडे और कप्तान का मेट जा कर डोंगी का पाल, पतवार आदि सभी वस्तुएँ उठा कर ले आये। प्रतिपक्षियों के तीन मनुष्य बन्दूकों की आवाज़ सुन कर धीरे धीरे हम लोगों के पास आये। यहाँ कप्तान को जयी देख कर उन लोगों ने आप ही बन्दी होना स्वीकार किया।

अब मुझ से कप्तान का परिचय होने लगा। पहले मैंने अपने जीवन का समस्त इतिहास सुनाया। उसने विस्मित हो कर आदि से अन्त तक मनोयोगपूर्वक सुना और मेरा इतिहास उत्तरोत्तर अद्भुत घटना से भरा हुआ जान कर उसका हृदय द्रवित हो उठा। उसकी आँखों से आँसू बह चले। वह कुछ बोल न सका। तब मैं उन सबों को अपने घर ले आया और जो कुछ मेरे पास था उससे उन लोगों का आतिथ्य-सत्कार किया। फिर अपना घर-द्वार खेती बारी आदि उन्हें दिखलाया।

कप्तान मेरे किले और किले के सामने की कृत्रिम उपवाटिका की प्रशंसा करने लगा। मैंने उससे कहा, मेरा एक और विनोद-अस्थान है जो पीछे दिखलाऊँगा। अभी जहाज़ के दखल करने का उपाय ठीक करना चाहिए। कप्तान ने इसे स्वीकार किया। परन्तु उपाय क्या है? जहाज़ पर अब भी छब्बीस विद्रोही हैं। इँगलैंड के कानून के अनुसार विद्रोहियों के लिए प्राणदण्ड निर्धारित था। वे विद्रोही हैं, एक तो इसलिये दूसरे प्राणों के भय से वे लोग प्राणपण से युद्ध करेंगे। कारण यह कि हम लोगों की विजय होने पर अवश्य ही उनकी मृत्यु होगी। हम लोग थोड़े से आदमी उन लोगों के साथ युद्ध कर के कैसे विजय प्राप्त कर सकते हैं?

कप्तान की यह बात सुन कर मैंने यह उपाय सोचा कि किसी तरह जहाज़ के लोगों को भुला कर टापू में ले आवे और उन्हें गिरफ़्तार करें। शायद वे लोग अपने साथियों के पाने में विलम्ब देख कर उन्हें ढूँढ़ने आवेंगे, पर अब वे अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर ही आवेंगे। जो हो, इस समय सूखे में जो नाव पड़ी है उसे बेकार कर देना चाहिए। यह स्थिर करके हम लोगों ने नाव में अस्त्र शस्त्र, गोली-बारूद आदि जो कुछ पाया निकाल लिया और उस के पेंदे में छेद कर दिये। आशा न थी कि हम लोग जहाज़ पर दख़ल कर सकेंगे किन्तु उन लोगों के जहाज़ ले कर चले जाने पर हम लोग इस बोट की मरम्मत करके स्पेनियर्ड लोगों से जाकर मिल तो सकेंगे। यही बहुत है।

हम लोग जब सारी बातें सोच रहे थे तब जहाज़ के लोग बन्दूक की आवाज़ करके और पताका हिला कर नाव को बुलाने लगे। बार बार बन्दूक की आवाज़ करने पर भी जब उन्होंने देखा कि नाव नहीं हिली तब जहाज़ से एक और डोंगी उतार कर उस पर कई एक नाविक सवार हो किनारे की ओर आने लगे। मैंने दूरबीन लगा कर देखा, दस ग्यारह आदमी बन्दूक़ें लिये चले आ रहे हैं।

कप्तान कहने लगा कि इतने आदमियों के साथ हम लोग कैसे भिड़ सकेंगे। मैंने हँस कर कहा-"हम लोगों के सदृश अवस्थापन्न लोगों को फिर भय क्या? जीना-मरना दोनों बराबर। युद्ध का भार मुझे सौंप कर तुम निश्चिन्त रहो, वे लोग अभी तो मेरे बन्दी हुए ही जा रहे हैं। मेरे इस उत्साह-वाक्य से कप्तान प्रसन्न और साहसी हो उठा।

नाव को समुद्र-तट के समीप आते देख मैंने बन्दियों को अपनी गुफा में भेज दिया। फ़्राइडे ने उन लोगों को खाद्य और रोशनी देकर समझा दिया कि यदि तुम लोग भागने की चेष्टा न करके चुपचाप रहोगे तो दो-तीन दिन के बाद छोड़ दिये जाओगे; नहीं तो प्राणदण्ड होगा। इस आशातीत सदय व्यवहार से वे लोग सन्तुष्ट होगये। किन्तु उन लोगों ने यह न जाना कि गुफा के द्वार पर फ़्राइडे निगरानी के लिए नहीं रहा।

कप्तान की सिफ़ारिश और उनकी प्रतिज्ञा पर विश्वास करके देश बन्दियों को स्वाधीनता देकर हम लोगों ने अपने दल में ले लिया। अब हम सात आदमी हथियारबन्द हुए (मैं, फ़्राइडे, तीन आदमियों सहित कप्तान, और दो बन्धन-मुक्त बन्दी)। इससे पूरा भरोसा हुआ कि हम लोग अब दस आदमियों का सामना कर सकते हैं। यदि कप्तान का यह कहना ठीक हुआ कि उन दस नाविकों में तीन चार बिलकुल निर्बल हैं तब तो कोई बात ही नहीं।

नाव किनारे लगते ही वे लोग नाव को ऊपर खींच लाये। यह देख कर मैं खुश हुआ। वे लोग उतरते ही दौड़ कर पहली नाव के पास गये। नाव की समस्त वस्तुओं को अपसारित और उसके पेंदे में एक बड़ा सा छेद देख कर वे अवाक् हो रहे। कुछ देर खड़े हो कर उन लोगों ने बहुत कुछ तर्क-वितर्क किया। इसके बाद उन लोगों ने दो-तीन बार खूब उच्चस्वर से अपने साथियों को पुकारा किन्तु उससे कुछ फल न हुआ। तब उन लोगों ने एक साथ बन्दूकों की आवाज़ की जिनके शब्द से सारा वन प्रतिध्वनित हो उठा। पर इससे भी किसी का कुछ पता न लगा। तब उन लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। सभी ने निश्चय किया कि साथी मारे गये। तब उन लोगों ने जहाज़ पर लौट जाने का उपक्रम किया। नाव को पानी में ले जाकर सभी सवार हुए। यह देख कर हम लोग हताश हो गये। मैंने सोचा कि इस दफझे ये लोग जहाज़ पर जाते ही जहाज़ खोल कर चल देंगे। किन्तु वे लोग थोड़ी दूर जाकर न मालूम फिर क्या सोच कर लौट आये। इस दफ़े सात आदमी नाव से उतर कर ऊपर आये और तीन आदमी नाव की हिफ़ाज़त के लिए नाव में रहे। यह देख कर भी हम लोग निराश हुए। क्योंकि नाव को अधिकार में न कर सकने पर सभी प्रयत्न व्यर्थ होगा। वे लोग जहाज़ पर जाकर खबर देंगे और खबर पाते ही जहाज़ चल देगा। तो भी हम लोग सुयोग की अपेक्षा करते रहे । सात आदमियों के किनारे पर उतार कर नाव के माँझियो ने पानी में नाव ले जाकर लंगर डाल दिया। हम लोग एकाएक नाव पर आक्रमण करें इसकी भी अब संभावना न रही। जो लोग किनारे उतरे थे वे एक साथ आगे-पीछे होकर आने लगे। क्रमशः वे लोग उसी पहाड़ पर चढ़ने लगे जिसके नीचे मेरा घर था। के हम लोगों को नहीं देखते थे किन्तु हम लोग उन्हें अच्छी तरह देख रहे थे। वे लोग ज़रा और हमारे नज़दीक आ जाते तो बड़ा अच्छा होता। हम लोग उन पर गोली चला सकते या दूर जाते तो भी अच्छा होता। हम लोग वहाँ से बाहर निकल जाते।

धीरे धीरे वे लोग पर्वत की चोटी पर चढ़ गये। वहाँ से वन और उपत्यका बहुत दूर तक देख पड़ती थी। वे लोग उच्चस्वर से पुकारते पुकारते थक कर चुप हो रहे, पर किसी तरफ़ से कुछ उत्तर न आया। वे लोग और ऊपर जाने का साहस न करके एक दरख्त के नीचे बैठ कर आपस में सलाह करने लगे। वे लोग यदि से रहते तो हम, उनके संगियों की भाँति, उन्हें भी सहज ही में वश में कर लेते किन्तु वे लोग विपत्ति के भय से जागते ही रहे। क्या करना चाहिए? कुछ स्थिर न करके हम लोग चुपचाप देखने लगे।

आख़िर वे लोग एकाएक उठ खड़े हुए और नाव की ओर चले। उन लोगों ने साथियेां का अन्वेषण छोड़कर अब जहाज़ पर जाना ही स्थिर किया। यह देखकर मेरा जो सूख गया। हठात् उन लोगों को लौटाने का एक उपाय सूझा। खाड़ी के पास जाकर खूब जोर से चिल्लाने के लिए मैंने फ़्राइडे और मेट को कहा। इसके बाद नाविकगण यदि उस शब्द की टोह में इस तरफ़ आवें तो उसी तरह चिल्लाते हुए दूर निकल जायँगे और उन लोगों के चक्कर में डालकर फिर मेरे पास लौट आवेंगे।

नाविक लोग नाव पर चढ़ने जा रहे हैं, ऐसे समय फ़्राइडे और मेट ने चिल्ला कर उन लोगों को पुकारा। उन लोगों ने सुन कर उत्तर दिया और शब्द की ओर लक्ष्य करके दौड़े। कुछ देर में खाड़ी के पास पहुँचे। पानी में तैर कर पार होने का साहस न कर के उन लोगों ने पार उतार देने के लिए माँझियों को पुकार कर नाव मँगाई। माँझियों ने खाड़ी में नाव लाकर उन लोगों को पार उतार दिया और नाव को एक पेड़ के तने से बाँध रक्खा। इस दफ़े नाव में सिर्फ दो आदमी रहे। मैं तो ऐसा चाहता ही था। मैंने कप्तान आदि सब को साथ ले चुपके से जाकर नाव के दोनों मनुष्यों को गिरफ़्तार कर लिया। ये उन्हीं जाहिलों के दल के थे। इन्होंने सहज ही में मेरी अधीनता स्वीकार की और हम लोगों के साथ मिल गये।

इधर फ़्राइडे और मेट नाविकों को पुकार कर एक वन से दूसरे वन में घुमा-फिराकर ले जाने लगे। आखिर उन लोगों को हैरान कर के ऐसे घने जंगल में ले जा कर छोड़ दिया कि सन्ध्या होने के पहले नाव पर उन लोगों के लौट आने की संभावना न रही।

अब हम लोग उन के आने की प्रतीक्षा करने लगे। फ़्राइडे लौट कर हम लोगों के साथ आ मिला। कई घंटों के बाद वे नाविक भी थके-माँदे परस्पर बकझक करते शेरगुल मचाते नाव के पास लौट आये। जब उन्हों ने देखा कि नाव सूखे में लगी है और नाव के देने रक्षक ग़ायब हैं तब तो उन के भय और विस्मय की सीमा न रही। वे परस्पर तर्क वितर्क करने लगे-हम लोग न मालूम कैसे मायामय जादूगर के द्वीप में आ गये हैं? क्या हम लोग भी एक एक कर भूत-प्रेतों के हाथ में पड़ कर मारे जायँगे? इस प्रकार विलाप कर सभी आर्तनाद करने लगे। फिर उन्होंने नौकारक्षक देानों साथियों का नाम ले ले कर बार बार पुकारा, किन्तु कहीं से कुछ उत्तर न मिला। तब वे लोग पागल की तरह कभी दौड़ने, कभी बैठने और कभी हाथ मलने लगे; कभी क्रोध से अपने सिर के बाल नोचने लगे। मेरे अनुयायी इसी समय उन लोगों पर आक्रमण करने के लिए व्यग्र हो उठे किन्तु मैं इसकी अपेक्षा भी विशेष सुविधा खोज रहा था। मैं चाहता था जिसमें मेरे दल का कोई न मरे और उन के तरफ़ भी कम आदमी मरें। हम लोग सर्वाङ्ग ढक कर धीरे धीरे कुछ दूर और आगे बढ़े, किन्तु फ़्राइडे और कप्तान घुटनों के बल से एक दम उनके पास चले गये।

जहाज़ के जो कर्मचारी मुसाफिरों को जहाज़ पर चढ़ाते और पार उतारते हैं वे सब से बढ़ कर बदमाश और सब फ़सादों की जड़ होते हैं तथा अपने को जहाज़ का मालिक समझ बैठते हैं। किन्तु इस समय सब की अपेक्षा वही अधिक कातर और भयभीत हो गये थे। उनके कुछ कहते ही कप्तान उन पर गोली चलाने के लिए व्यग्र होने लगा। वे लोग ज्योंही कुछ समीप आये त्योंही कप्तान और फ़्राइडे कूद कर आगे जा खड़े हुए और उन पर गोली चला दी। गोली लगते ही जहाज़ का नायब कप्तान धरती पर लोट गया। दूसरा भी गिरा, पर तत्काल मरा नहीं। प्रायः दो घंटे तक जीता रहा। तीसरा आदमी भाग गया। तब मैं अपने दल-बल के साथ आगे बढ़ा। मैं सेनापति, फ़्राइडे मेरा सहकारी सेनाध्यक्ष और कप्तान आदि मेरे सैनिक थे। हम लोगों ने अँधेरे में नाव के पास जाकर उन लोगों से आत्मसमर्पण करने को कहा। उन लोगों ने भी झट अस्त्र त्याग कर के प्राण-भिक्षा चाही। कप्तान ने कहा-"तुम लोगों का प्राण लेना या न लेना हमारे सेना गति की इच्छा के अधीन है।" हम लोगों ने उनके हाथ-पैर बाँध कर अपने क़ब्ज़े में कर लिया।

अब हम लोगों को नाव की मरम्मत करके जहाज़ पर आक्रमण करना बाक़ी रहा। मेरे मन में आशा होने लगी कि अब मेरे उद्धार का समय समीप है। मैंने दूर से कप्तान को पुकारा। एक आदमी ने जाकर कहा, "कप्तान साहब, सर्कार आप को बुलाते हैं।" कप्तान ने झट उत्तर दिया, "तुम हुज़ूर से जा का कह दो कि वह अभी हाज़िर होता है।" यह सुनकर सभी नाविक चुप हो रहे; किसी को ज़ोर से बोलने का साहस नहीं हुआ। उन लोगों ने समझा कि इस द्वीप के स्वामी अपना दलबल ले कर समीप ही कहीं ठहरे हैं। कप्तान को मेरे पास आने का उपक्रम करते देख कर उन लोगों ने कहा-"हम लोगों से बड़ी ग़लती हुई, अब ऐसा काम कभी न करेंगे। आप अपने सेनापति से हम लोगों पर दया करने को कहिये।" कप्तान ने कहा-'मेरे सेनापति बड़े दयालु हैं, इसी से उन्होंने अब तक तुम लोगों को पेड़ से लटका कर फाँसी नहीं दी। वे तुम लोगों को किसी प्रकार का क्लश न देंगे। तुम लोगों को इँगलैंड ले जायँगे, वहाँ क़ानून के अनुसार जो उचित दण्ड होगा दिया जायगा।" वे लोग जानते थे कि आईन के अनुसार इस अपराध का दण्ड फाँसी है। इसलिए उन लोगों ने बिनती कर के कहा-"तो हम लोगों को इसी द्वीप में छोड़ दीजिए, इँगलैंड न ले जाइए।" कप्तान ने कहा-ये बातें सेनापति की इच्छा पर निर्भर हैं।

उन लोगों से इस प्रकार बात-चीत कर के कप्तान मेरे पास आया। मैंने उससे जहाज़ दखल करने की बात कही। बन्दियों को दो भागों में बाँट कर जो बदमाश थे उन्हें गुफा के भीतर और जो अल्प-अपराधी थे उन्हें कुञ्जभवन में बन्द कर दिया।

इस विचित्र स्थान में सारी रात कैद रह कर उन लोगों ने यथेष्ट शिक्षा पाई। सबेरे जब कप्तान उन लोगों के पास गया तब वे धरती में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगे और सेनापति से सिफारिश करने के लिए हाथ जोड़ने लगे। कप्तान ने कहा, "यदि तुम लोग जहाज़ पर दख़ल करने में मदद दोगे तो सेनापति तुम्हारा अपराध क्षमा कर सकते हैं"। इस प्रस्ताव पर वे लोग बड़े आग्रह के साथ सम्मत हुए। तब उनमें जो पाँच व्यक्ति अच्छे थे वे चुन लिये गये और अवशिष्ट व्यक्ति उन लोगों के जामिन-स्वरूप कैदी बना कर रख लिये गये। यदि वे लोग जहाज पर दखल होने में सहायता देंगे तो कैदी छोड़ दिये जायँगे, नहीं तो फाँसी दी जायगी। तब उन लोगों ने समझा कि सेनापति कोई साधारण व्यक्ति नहीं है; वे लोग डरते डरते इस प्रस्ताव पर राजी हो गये।

मैंने कप्तान से कहा, "हम और फ्राइडे जहाज़ पर दखल करने न जायँगे; हम लोग कैदियों के पहरे पर रहेंगे। क्या तुम और सब लोगों को साथ ले जहाज पर आक्रमण करने का साहस कर सकते हो?" कप्तान राजी हो कर युद्धयात्रा की तैयारी करने लगा। फूटी हुई नाव की मरम्मत कर के दो नावें जाने के लिए ठीक की गईं। एक में जहाज के यात्री और चार मनुष्य, दूसरी नाव में कप्तान, मेट और पाँच नाविक सवार हुए। वे लोग आधी रात के समय जहाज़ पर जा पहुँचे। जहाज़ के लोगों ने अन्धकार में समझा कि उनके पक्ष के आदमी लौट आये हैं। कप्तान और मेट ने जहाज पर चढ़ते ही बन्दूक़ के कुन्दे से दूसरे मेट और मिस्त्री को मार कर अपने काबू में कर लिया। इधर कप्तान के साथी नाविकों ने जहाज के डेक के लोगों को बाँध लिया। जो लोग कोठरी में थे वे वहीं बन्दी कर लिये गये। कोठरी के द्वार में बाहर से जंजीर लगा दी गई। इसके बाद वे लोग नीचे उतर गये। नीचे के कमरे में विद्रोही दल का नया कप्तान था। वह शोरगुल सुन कर जाग उठा था और सावधान हो कर दो-तीन आदमियों को साथ ले बन्दूक द्वारा युद्ध करने को तैयार था। मेट को सामने पाते ही गोली मारी। इससे मेट का हाथ टूट गया, और भी दो आदमी घायल हुए, पर कोई मरा नहीं। और लोगों को पुकार कर मेट एकदम नये कप्तान के ऊपर टूट पड़ा और उसके सिर में पिस्तौल दाग दिया। पिस्तौल की गोली उसकी कनपटी छेद कर बाहर निकल गई। वह फिर हिला तक नहीं। तब जहाज के और लोगों ने आप ही वश्यता स्वीकर की। बिना ज़्यादा ख़ून-ख़राबी के जहाज़ पर दख़ल हो गया।

क्रूसो का द्वीप से उद्धार

मैं समुद्र तट पर दो बजे रात तक बैठा रहा। आशा और सन्देह के हिंडोले पर चढ़ कर मन कभी ऊपर और कभी नीचे का झोंका खा रहा था। कभी आनन्द से रोमाञ्च हो उठता और कभी भय से हृदय काँप उठता था। ऐसे समय जहाज़ पर सात बार तोप की आवाज़ हुई। सुन कर कहीं से जी में जी आया। फक से निश्वास त्याग कर सँभल बैठा, और यह जान कर आनन्द की सीमा न रही कि कप्तान ने जहाज को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया। तब मैं निश्चिन्त हो कर घर आया और सो रहा। मैं दिन भर के कठिन परिश्रम और घोर उद्वेग से इतना क्लान्त था कि लेटते ही गहरी नींद आगई।

अचानक तोप का शब्द सुन कर मेरी नींद टूट गई। सुना, कोई मुझको पुकार रहा है "सेनापति, सेनापति"। अच्छी तरह नींद टूट जाने पर पहचाना कि यह कप्तान का कण्ठ-स्वर है। मैं सीढ़ी लगा कर पहाड़ पर चढ़ा। कप्तान वहीं पा कर मुझे पुकार रहा था। मैं उस के पास ज्योंही गया त्योंहीं वह मेरे गले से लिपट गया और उँगली उठा कर जहाज की ओर दिखलाया। कुछ देर आनन्द के आवेग में पड़ कर वह कुछ बोल न सका। फिर आनन्दोच्छवास को रोक कर गद्गगद कण्ठ से बोला-आप मेरे प्राणदाता हैं, हितैषी हैं! यह आप ही का जहाज़ है। हम लोग भी आप ही के हैं! हम लोगों के जीवन, धन सभी आपके हैं।

मैंने जहाज़ की ओर तजवीज़ कर के देखा, वह तट से आध मील पर था। तब मैंने जाना कि जहाज़ दख़ल हो जाने पर कप्तान उसे आगे बढ़ा लाया है।

मैं आनन्द से एकदम विदेह हो गया। कप्तान मुझको छाती से लगाये खड़ा था नहीं तो मैं जमीन पर गिर पड़ता। वह भी मेरे ही ऐसा आनन्द-विमुग्ध था, तथापि वह मुझको प्रकृतिस्थ करने के लिए कितनी ही मीठी मीठी बातें कहने लगा। आनन्द और उल्लास ने मेरे सभी भावों को उथल पुथल कर दिया था जिससे मैं कुछ बोल न सकता था। जब हृदय में आनन्द को रहने की जगह न मिली तो वह उमड़ कर आँसुओं के रूप में आँखों की राह बाहर निकल आया। आनन्द का कुछ अंश बाहर निकल जाने से मुझे कुछ बोलने का अवसर मिला। मैंने भी कप्तान को दृढ़-आलिङ्गन करके उसे अपना बन्धु और उद्धार-कर्ता कह कर अभिनन्दन किया। सारी घटना एक से एक बढ़ कर विस्मय बढ़ा रही थी। यह सब ईश्वर की अतयं महिमा और अपार दया के विधान का निदर्शन है। मैंने हृदय से ईश्वर को धन्यवाद दिया।

कुछ देर योंही वार्तालाप होने के बाद कप्तान ने कहा कि "मैं आपके लिए जहाज़ में से कुछ खाने-पीने की चीज़ लाया हूँ।" उसने नाव के माँझियों को पुकार कर वे खाद्य वस्तुएँ लाने को कहा। वे लोग तुरन्त सब चाजे ले आये। कई तरह की वस्तुएँ थीं। बिस्कुट, मांस, तरकारी, चीनी, नीबू, शरबत, तम्बाकू और भी कितनी ही चीज़ थीं। इन सब वस्तुओं के अतिरिक्त आधे दर्जन धुले पैजामे, गुलूबन्द, दस्ताने, जूता, टोपी, मोज़े और एक सेट खूब बढ़िया पोशाक थी। यह कहना वृथा है कि उपहार की ये सामग्रियाँ मेरे लिए अत्यन्त दुर्लभ और आदरणीय थीं। मेरे सर्वाङ्ग की पोशाक से सजने के लिए कप्तान यह सामान जहाज़ से उठा लाया था। अतएव इससे सुन्दर और चमत्कारी उपहार मेरे लिए और क्या हो सकता था। किन्तु मेरे लिए यह असुखदायी पदार्थ था। बहुत दिनों से पोशाक पहनने की आदत छुट जाने से बाज़ पोशाक पहनते अत्यन्त कष्ट होता था।

यह सब कार्य होने के बाद हम लोग सोचने लगे कि अब बन्दियों का क्या करना चाहिए। जो लोग शातिर बदमाश हैं उन को साथ रखना हम लोगों के हक में हानिकारक है या नहीं, यह बिचारने का विषय है। कप्तान ने कहा, "उन बन्दियों में दो व्यक्ति पहले नम्बर के बदमाश हैं। वे लोग किसी तरह काबू में नहीं आ सकते। यदि उन लोगों को संग ले चलना हो तो उनको हथकड़ी-बेड़ी डाल कर ले चलिए। वहाँ जाकर उन्हें पुलिस के सिपुर्द करने के सिवा और कोई उपाय नहीं।" तब मैंने कहा-अच्छा, यदि उन्हें इसी टापू में रहने को राजी कर सकूँ तो?

कप्तान-तब तो बड़ा ही अच्छा हो। मैं इसे हृदय से पसन्द कर सकता हूँ।

मैं-अच्छा, उन लोगों को बुना कर तुम्हारे सामने उनसे यह प्रस्ताव करता हूँ।

फ़्राइडे और दो बन्धन-मुक्त नाविकों को कुञ्जभवन से पाँचौ कैदियों को बुला लाने के लिए भेजा। उन बन्दियों के आने पर मैं नई पोशाक पहन कर सेनापति के वेष में उनके पास गया। मैंने अपराधियों से कहा-तुम लोगों के विरुद्ध आचरण करने की बात मैंने सुनी है। यह ईश्वर की कृपा ही समझनी चाहिए कि तुम लोग अधिक पाप करने के पहले ही मेरे हाथ बन्दी हुए हो। जहाज़ भी मैंने अपने कब्जे में कर लिया है। तुम लोग अपने नये कप्तान की मृत्यु भी अपनी ही आँखों देखोगे। अच्छा, अब तुम लोगों को क्यों न प्राण-दण्ड दिया जाय?

उन में एक व्यक्ति सब का अगुवा होकर बोला-"इस सम्बन्ध में हम लोगों को कुछ कहने की गुञ्जाइश नहीं। किन्तु जब हम लोग गिरफ़तार किये गये थे तब कप्तान ने कहा था कि तुम लोगों को प्राणभय न होगा। इस समय हम लोग उसी का स्मरण दिलाते हैं।" मैंने कहा-"मैं तुम लोगों के साथ कौन सा दया का व्यवहार करूँ, मेरी समझ में नहीं आता। मैंने इस टापू को छोड़ कर कप्तान के जहाज़ पर सवार हो इँगलैंड जाने का निश्चय किया है। तुम लोगों को इँगलैंड ले जाता हूँ तो वहाँ विद्रोह के अपराध में तुम लोगों का प्राणवध अनिवार्य होगा। इस लिए इस टापू में रहने के सिवा तुम लोगों की प्राण रक्षा का अन्य उपाय नहीं। यदि तुम लोग पसन्द करो तो मैं तुम लोगों को इस टापू में छोड़ सकता हूँ।" मेरी इतनी बड़ी दया देख वे लोग कृतज्ञतापूर्वक मेरे प्रस्ताव पर सम्मत हुए। तब मैंने उन लोगों को बन्धनमुक्त कर दिया।

मैंने कप्तान को यह कह कर जहाज़ पर भेज दिया कि जाओ, जहाज़ पर सब इन्तज़ाम ठीक करो। इधर मैं अपने साथ जहाज़ पर ले जाने योग्य वस्तुओं की व्यवस्था करने लगा। कल सबेरे जहाज़ पर सवार हो कर रवाना हूँगा।

कप्तान के चले जाने पर मैंने बन्दियों से कहा,-"तुम लोगों ने जो यहाँ रहना पसन्द किया यह बड़ा अच्छा किया। इँगलैंड जाने से तुम लोगों को ज़रूर फाँसी होती। यहाँ जीते-जागते तो रहोगे। विशेषतः पाँच आदमी एक साथ मिल कर बड़े सुख-चैन से रह सकोगे। मैं तो अकेला ही यहाँ इतने दिन बना रहा।" यह कह कर मैंने अपना सब इतिहास उनको कह सुनाया। द्वोप का और जीवन-निर्वाह का तत्व उन लोगों को समझा दिया। मैंने उन लोगों को अपना किला, घर-द्वार, खेत-खलिहान, और बकरों का गिरोह आदि सभी स्थान दिखा दिये। जिस तरह मैं रोटी बनाता, और किस-मिस तैयार करता था यह भी सिखा दिया। उन लोगों को मैंने बन्दूक, तलवार, और गोली-बारूद भी दी। मैं बकरों का शिकार कैसे करता था, कैसे उन्हें पकड़ता था, किस तरह बकरी को दुहता था और कैसे दूध से मक्खन निकालता था यह भी सिखा दिया। कप्तान के यहाँ से मँगा कर उन लोगों को और थोड़ी बारूद, तरकारी के बीज तथा स्याही दी। स्याही के बिना मुझे बड़ा कष्ट हुआ था। किन्तु इस समय कप्तान की बात से मुझे पछतावा हुआ कि मैंने अपनी बुद्धि से कितनी ही प्रयोजनीय वस्तुओं का आविष्कार तो कर लिया था किन्तु कोयले से स्याही बनाने की बात मेरे ख़याल में न आई। बड़ी विचित्रता है! उन निर्वासित व्यक्तियों को घर द्वार सौंप कर मैंने कह दिया कि यहाँ सत्रह स्पेनियर्ड व्यक्तियों के आने की संभावना है। तुम लोग उनके साथ बन्धुभाव का व्यवहार करना। इन लोगों से मैंने इस बात की शपथ करा लो। स्पेनियर्ड के नाम से मैं एक चिट्ठी भी लिखकर इन्हें दे गया।

सब प्रबन्ध करके मैं दूसरे दिन जहाज़ पर सवार हुआ। उस रात को यात्रा न हो सकी। दूसरे दिन सबेरे उन निर्वासित पाँच व्यक्तियों में से दो आदमी तैर कर जहाज़ के पास आ गये। वे अपने साथियों के दुःस्वभाव की निन्दा करके घिघिया कर कहने लगे-"दुहाई कप्तान साहब, हमको जहाज़ पर चढ़ा लीजिये फिर चाहे हमें फाँसी दे दीजिएगा, यह भी हमें मंजूर है पर हम इन लोगों के साथ टापू में न रहेंगे। वे हमारा बुरी तरह से खून कर डालेंगे।" उनकी इस प्रार्थना को बारंबार अस्वीकार कर अन्त में उनके शपथ करने पर कप्तान ने उन दोनों को जहाज़ पर चढ़ा लिया। जहाज़ पर चढ़ा कर उन्हें अच्छी तरह डाँटडपट बता दी। तब से ये दोनों बड़ी भलमनसाहत के साथ रहने लगे।

मैं अपनी चमड़े की टोपी, छत्ता, और तोता अपने साथ जहाज़ में लाया था। मेरे पास जो कुछ रुपये थे उनका लाना भी मैं न भूला। इतने दिन यों ही बेकार पड़े रहने के कारण रुपयों में मोर्चा लग गया था। देखने से कोई यह न कहता कि यह चाँदी का रुपया है । मैंने उनको अच्छी तरह मल कर झलका लिया।

इस प्रकार अनेक सुख-दुःख भोग कर १६८६ ईसवी की १९वीं दिसम्बर को मैंने द्वीप छोड़ा। ठीक इसी तारीख़ को मैं शैली के मूर का दासत्व छोड़ कर बजरे के सहारे भागा था। इस द्वीप में अट्ठाईस वर्ष दो महीने उन्नीस दिन एकान्तवास करने पर आज मेरा उद्धार हुआ। आज मैं अपने देश को जा रहा हूँ, आज मेरे आनन्द का वारापार नहीं। धन्य जगदीश्वर! तुम्हारी कृपा से आज इस आशातीत सुख का भागी बना हूँ।

क्रूसो का स्वदेश-प्रत्यागमन और धनलाभ

मुद्दत के बाद १६८७ ईसवी की ग्यारहवीं जून को मैं इँगलैंड लौट आया। आज पैंतीस वर्ष के बाद मुझे स्वदेशदर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

देश लौट कर देखा, मैं यहाँ सम्पूर्ण रूप से अपरिचित हो गया हूँ। मेरे उपकारी मित्र कप्तान की स्त्री, जिसके पास मेरा कुछ रुपया जमा था वह, अब तक जीती थी, किन्तु विधवा हो जाने के कारण वह बड़ी दरिद्रा हो गई थी। मैंने अपना धन उससे नहीं माँगा बल्कि उस समय मेरे पास जो कुछ पूँजी थी उसमें से भी उसे कुछ देकर उसकी सहायता की। मैं कप्तान का उपकार और सदय व्यवहार न कभी भूला और न कभी भूलूँगा। मैं लन्दन से यार्क शहर को गया। वहाँ जाकर क्या देखा-मेरे पिता, माता, और भाई सब मर गये, केवल मेरी दो बहने और दो भतीजे बच रहे थे। घरवालों ने समझ लिया कि मैं विदेश में जाकर मर गया, इस से मेरे पिता मुझको पैतृक धन का कुछ भी अंश न दे गये। पैतृक धन से हाथ धोकर मुझे अब स्वावलम्बन से जीवन-निर्वाह करना होगा। परन्तु मेरे पास जो कुछ पूँजी थी उससे आश्रम का ख़र्च चलना कठिन था।

जहाँ से कुछ मिलने की आशा न थी वहीं से मुझे कुछ साहाय्य मिला। विद्रोही नाविकगण जिस कप्तान को मारने के लिए मेरे टापू में ले गये थे उसने देश में आकर मेरी बात लोगों से कही, और मैंने जिस युक्ति से विद्रोहियों के हाथ से जहाज़ ले लिया था वह हाल भी उसने जहाज़ के मालिक से कहा। मैंने जिन महाजनों के जहाज़ और माल की रक्षा की थी उन्होंने मिलकर मुझे लगभग तीन हज़ार रुपया पुरस्कार दिया। यह रुपया भी मुझे निश्चिन्त होकर बैठने और अन्य कोई व्यवसाय न करके जीवन-निर्वाह के लिए यथेष्ट न था। इसलिए मैंने सोचा कि लिसबन जाकर ब्रेज़िल में जो मेरी खेती आदि हाती थी उसकी हालत का पता लगाऊँ। मैं अगले साल के एप्रिल महीने में जहाज़ पर सवार होकर लिसबन जा पहुँचा। मेरा परम भक्त फ़्राइडे बराबर मेरे साथ रहा। लिसबन पहुँच कर मैंने, बहुत ढूँढ़ने पर, अपने कप्तान का पता पाया। इन्हींने मुझको आफ़्रिका के उपकूल में जहाज़ पर चढ़ाकर ब्रेज़िल पहुँचा दिया था। वे अब बूढ़े हो गये थे। उनका सयाना बेटा ब्रेज़िल जाने-आने वाले जहाज़ का कप्तान था। वृद्ध मुझको पहचान न सके। मैं भी पहले उनका परिचय न मिलने से उन्हें पहचान न सका। मैंने अपना परिचय देकर उन्हें मुद्दत की बात का स्मरण करा दिया।

प्रथम मिलन के प्रणय-सूचक कुशल-प्रश्न होने के बाद मैंने उनसे अपनी खेती-बारी का हाल पूछा। उन्होंने कहा-"नौ वर्ष से हम ब्रेज़िल नहीं गये। जब गये थे तब तुम्हारे कारपरदाज़ को जीवित देख आये थे। किन्तु जिन दो व्यक्तियों को तुम अपनी सम्पत्ति सौंप आये थे वे मर गये हैं।" मेरा धन इस समय करीब करीब गवर्नमेन्ट ने अपने हाथ में कर लिया है। मैं या मेरा कोई वारिस यदि उस धन का दावेदार खड़ा न होगा तो कितना ही अंश सरकार ज़ब्त कर लेगी और कुछ धर्मकार्य में खर्च कर देगी। अभी मैं या मेरी ओर से और कोई वहाँ जाय तो मुझे अपनी सारी सम्पत्ति मिल जायगी। इस समय मेरे अंश की सालाना आय तीन-चार हज़ार रुपये हो सकती है। मैंने वसीयतनाम में इन्हीं कप्तान को अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी नियत किया था। किन्तु मेरे मरने की सच्ची खबर न पाने के कारण कप्तान को अब तक मेरी सम्पत्ति नहीं मिली। केवल उन्हें पिछले कई सालों का मुनाफ़ा मिला है। उन्होंने मुझको सब हिसाब दिखला दिया और यह भी कहा कि तुम्हारे रुपयों से हमने जहाज़ का अंश ख़रीद लिया है। इस समय उनकी अवस्था ऐसी न थी कि वे मेरा वह रुपया लौटा सके। इसलिए उन्होंने अपना उस जहाज़ का अंश मेरे नाम लिख-पढ़ दिया और एक तोड़ा रुपया दिया। मैं अपने इस परम उपकारी मित्र की ऐसी शिष्टता, निश्छलता और उदारता देख कर मुग्ध हो गया। मेरी आँखों में आँसू भर आये। मैंने उनसे पूछा, इस समय मुझको इतना रुपया वापस देने से आपको कोई कष्ट या असुविधा तो न होगी? उन्होंने कहा, "असुविधा न होगी यह कैसे कहूँ; तथापि यह रुपया आपका है, यह मुझको देना ही होगा।" यह सुन कर मैंने उस तोड़े में से सिर्फ पाँच सौ रुपये लेकर बाक़ी उनको लौटा दिये और रुपया पाने की रसीद लिख दी। फिर यह रुपया भी उन्हें दे दिया और जहाज़ का अंश भी उनके पुत्र से न लिया। वे मुझे मेरा अंश देने को तैयार हैं, यही सन्तोष मुझे सब अभावों का निवारक हुआ। मैं उनसे एक पैसा भी लेना न चाहता था। जिन्होंने विपत्ति के समय दया करके मेरी रक्षा की थी, जो मुझे स्वाधीनता दिलाने में सहायक हुए थे, उनको कष्ट देकर मैं सुख भोगूँ-ऐसा नृशंस मैं न था। मैंने वृद्ध की दी हुई एक भी वस्तु न ली। यह देख कर उन्होंने मेरो खेती का अंश मुझको दिला देने का प्रस्ताव किया। मैंने कहा कि मैं स्वयं ब्रेज़िल जाकर अपना अंश ले लूँगा। उन्होंने कहा, "तुम्हारी इच्छा हो तो तुम जा सकते हो, किन्तु तुम वहाँ न जाओ तो भी मैं यहीं से वहाँ का सब प्रबन्ध कर दे सकता हूँ।" मैं इसी में राज़ी हो गया। उन्होंने अदालत में जाकर शपथ-पूर्वक निवेदन किया कि "राबिन्सन अभी तक जीवित हैं। इन्हें अपने कृषि कारखाने का अंश मिलना चाहिए।" उन्होंने अदालत से मेरा दावा मंजूर कराकर एक परवाना जारी करा दिया और वह एक ब्रेज़िल-गामी परिचित महाजन के हाथ वहाँ को भेज दिया।

सात महीने के भीतर ही मैंने ब्रेजिल से अपने कार परदाज का प्रेम-सूचक पत्र और अपनी सम्पत्ति का हिसाब पाया। मैं अब तक जीता हूँ, यह सुन कर सभी ने खूब आनन्द प्रकट करके चिट्ठी लिखी थी। मेरी सम्पत्ति का मोटा हिसाब यही था कि मेरे अंश का कुल पचहत्तर हजार रुपया जमा है। उन लोगों ने बड़े आदर से एक बार मुझे ब्रेज़िल आने को लिखा था। उन लोगों ने बाघ का चमड़ा पाँच अदद, एक सन्दूक भर मिठाई और एक सौ अशर्फियाँ उपहार में भेजी थीं। एक हजार दो सौ बक्स चीनी, पाठ सौ बोझे तम्बाकू और बाकी नक़द रुपया भेज कर उन्होंने मेरा हिसाब चुकता कर दिया।

एक साथ जब मुझे इतना धन मिला तब मेरा हृदय आनन्द के आवेग से हाथों उछलने लगा। मैं इस आशातीत आनन्दोच्छ्वास से विह्वल हो गया। यदि मेरे परमबन्धु वृद्ध कप्तान मेरी हिफाजत न करते तो आनन्द से मेरा हृदय फट जाता। तब भी मैं बहुत दिनों तक अस्वस्थ रहा; यहाँ तक कि मुझको देखने के लिए डाकृर बुलाये गये थे।

एकाएक मैं पचहत्तर हजार रुपये का मालिक बन बैठा। इसके अलावा ब्रेजिल में सालाना पन्द्रह हजार रुपये मुनाफ़े की जमीदारी! मैं इतना रुपया लेकर क्या करूँगा, इसका कुछ निर्णय नहीं कर सकता था। सब से पहले मैंने अपने परम बन्धु वृद्ध कप्तान की अभ्यर्चना की जिन्होंने पहले मेरे प्राण बचाये और खीर तक मेरे साथ सद्व्यवहार किया। पहले उनका सत्कार करना चाहिए था। मैंने उनके आगे अपना सर्वस्व रख कर कहा-"मित्रवर, इन सब घटनाओं का आदिकारण यद्यपि ईश्वर है तथापि आप ही के आशीर्वाद और कृपा से मुझे इतनी समृद्धि प्राप्त हुई है, इसलिए मैं पहले आपकी पूजा करना आवश्यक समझता हूँ।" यह कह कर मैंने जो उनसे पाँच सौ रुपया लिया था वह लौटा दिया और उनके जिम्मे जो कुछ मेरा पावना था सब छोड़ दिया। इसके बाद उनको अपनी ज़मीदारी का मैनेजर और प्रतिनिधि नियुक्त किया।

इस प्रकार उनका प्रत्युपकार करके में सोचने लगा कि इतना रुपया लेकर मैं क्या करूँ। जितना धन मुझे दरकार था उससे कहीं अधिक मिला। इसकी रक्षा की चिन्ता ने मेरे चित्त को चञ्चल कर दिया। इस अवस्था की अपेक्षा मेरा एकान्तवास कहीं अच्छा था। वहाँ अपनी आवश्यकता के अनुसार सब चीज़ थीं। वहाँ जो कुछ था उससे मज़े में काम निकल जाता था। अब आवश्यकता से बढ़ कर जो इतनी चीज़ मेरे हाथ भाई हैं उन्हें लेकर क्या करूँ। इन प्रयोजनाधिक वस्तुओं की रक्षा करना मेरे लिए भारी जंजाल होगया। यहाँ तो अब वैसी गुफा न थी जिसमें इन वस्तुओं को छिपा रक्खूँगा। अब इन्हें कहाँ किसके पास रक्खूँगा? मेरे परमबन्धु वृद्ध कप्तान बड़े ही सज्जन थे। उन्हीं का एक भरोसा था, पर वे भी तो बहुत वृद्ध हो गये थे। फिर मुझे कभी कभी ब्रेज़िल भी जाना पड़ेगा।

वृद्ध कप्तान के साहाय्य के अनन्तर इँगलैंड-वासिनी कप्तान की पत्नी का स्मरण हो आया। उसीके स्वामी ने पहले पहल मेरी बन्धुहीन जीवनावस्था में मुझे सहायता दी थी। मैंने उस उपकार के बदले उनकी विधवा-पत्नी को डेढ़ हज़ार रुपया भेज दिया और पत्र लिखा कि फिर कुछ सहायतार्थ भेजूँगा। अपनी दोनों बहनों को भी डेढ़ डेढ़ हज़ार रुपया अर्थात् दोनों के बीच तीन हज़ार रुपया भेज दिया। उपकारी, सम्बन्धी तथा अनाथ असहायों को-जो कुछ मुझसे बन पड़ा सब को-मैंने यथायोग्य दिया, किन्तु ऐसी कोई जगह ढूँढ़ने से भी न मिली जहाँ मैं अपने सब रुपयों को निःशङ्क होकर रख सकता। कई परिचित व्यक्ति ऐसा न मिला जिसके हाथ इन रुपयों को सौंप कर निश्चिन्त हो जाता। वृद्ध पोर्चुगीज़ कप्तान और विधवा कप्तान-पत्नी यही दोनों व्यक्ति मेरे प्रति अत्यन्त दयालु थे और इन पर मेरा पूर्ण विश्वास था। किन्तु वे दोनों बहुत वृद्ध हो गये थे, इसलिए उनके पास जमा करने का साहस न होता था। आखिर मैंने आपना रुपया-पैसा बाँध कर इँगलेंड जाने ही का निश्चय किया। तत्काल ब्रेज़िल जाने की बात मुल्तवी रख कर ब्रेज़िलवासी मित्रों के कुशल-पत्र और उपहार भेज कर सब वस्तुओं के पाने की सूचना दे दी। इधर सुयोग पाकर चीनी और तम्बाक को बेंच डाला।

जीवन-वृतान्त के प्रथम अध्याय का उपसंहार

मैं अब किस मार्ग से इँगलैंड जाऊँ, यही सोचने लगा। यद्यपि जलपथ मेरे भाग्य में वैसा सुखदायी न था फिर भी विशेष रूप से परिचित और सह्य हो गया था। यह सब होने पर भी न मालूम इस दफ़े जल-पथ से जाने को जी क्यों नहीं चाहता था। मैं बार बार जल-थल के सुभीते की बात सोचने लगा। पर किसी तरह जलपथ से जाने को मैं राज़ी न हुआ। अन्तःकरण के इङ्गित को सदा मानना चाहिए। मैंने जिन दो जहाज़ों पर जाने की बात ठीक की थी उनमें एक को तो रास्ते ही में किसी लुटेरे जहाज़ ने गिरफ़्तार कर लिया और दूसरा कुछ दूर जाकर टूट गया। यदि मैं इन दोनों में से किसी पर सवार होता तो फिर भारी संकट में पड़ता।

मैंने स्थलमार्ग से ही जाना स्थिर किया। वृद्ध पोर्चुगीज़ कप्तान ने मुझे एक साथी ढूँढ़ दिया। वह लिसबन के एक अँगरेज व्यवसायी का बेटा था। वह भी इँगलैंड जायगा। इसके बाद दो अँगरेज़ और दो पोर्चुगीज़ भी आ मिले। अब हम लोग छः यात्री हुए। साथ में पाँच नौकर थे। सब मिलाकर ग्यारह आदमी हुए। हम लोगों ने अस्त्र-शस्त्रों से लैस हो घोड़े पर सवार हो लिसबन से यात्रा की। एक तो मैं सब से उम्र में बड़ा था, दूसरे साथ दो नौकर थे। इसके सिवा मैं ही मूलयात्री था, इससे सभी मुझ को कप्तान और सर्दार कहने लगे।

हम लोगों ने मेड्रिड में कई दिन ठहर कर शहर देखा। परन्तु ग्रीष्म बीतने ही पर था यह जान कर हम लोग झट पट वहाँ से रवाना हुए। अक्तूबर के मध्य ही में कहीं कहीं बर्फ़ पड़ने लगी है, यह सुन कर भय से प्राण सूखने लगे। फ्रांस की सीमा तक आते आते हम लोगों ने देखा कि यथार्थ ही पाला पड़ रहा है। मैं उत्कट गरमी के मुल्क में बहुत दिनों तक रह चुका था इससे अब यह जाड़ा असह्य मालूम होने लगा। उँगलियाँ पाले से ठिठुर कर गलने लगीं। फ्राइडे ने बर्फ़ से ढका पहाड़ और ऐसा उत्कट जाड़ा जन्म भर में कभी नहीं देखा था। वह भय से काँपने लगा। एक तो मार्ग चलने की थकावट, उस पर जाड़े की शिद्दत! फफोले पर मानो नमक छिड़का गया। रास्ते में अधिक बर्फ पड़ने लगी। जो मार्ग पहले दुर्गम्य था वह अब अगम्य हो गया। ठण्ड कम होने की आशा से हम लोग बीस दिन रास्ते में ठहर गये, किन्तु शीत घटने की कोई सम्भावना न देख कर फिर अग्रसर हुए। सभी कहने लगे कि इस मौसम में इतना जाड़ा कभी नहीं होता था। मैंने समझा, यह सब मेरे ही दुर्भाग्य का फल है। रास्ते में एक पथ-प्रदर्शक से हमारी भेंट हुई। उसने हम लोगों को ऐसे मार्ग से ले जाना स्वीकार किया कि जिस रास्ते में बर्फ न मिलेगी। यदि मिले भी तो वह जम कर ऐसी कठोर हो गई होगी कि उसके ऊपर घोड़े सुख से चल सकेंगे। किन्तु इस रास्ते में बनैले जन्तुओं का भय अधिक है। मैंने उससे कहा-"चौपाये जन्तुओं का उतना भय नहीं, जितना अधिक दुपाये नृशंस मनुष्यों का होता है।" उसने कहा-"रास्ते में चोर-डाकुओं का भय नहीं है। भय केवल हिंस्र जन्तुओं का है। जहाँ तहाँ रास्ते में भेड़िये ज़रूर हैं। इस समय सारा जङ्गल और मैदान बर्फ़ से ढँक जाने के कारण, खाद्य-वस्तु के अभाव से, वे बड़े ख़ूँखार हो रहे हैं।" मैंने कहा,-वे भले ही रास्ते में रहे, हम लोग उनकी परवा नहीं करते। उनको शान्त करने के लिए हम लोगों के पास यथेष्ट अस्त्र-शस्त्र हैं।

१५ वीं नवम्बर को हम लोग उस व्यक्ति के प्रदर्शित पथ से रवाना हुए। रास्ते में बारह मनुष्य और मिले। उनमें कोई फ़्रांसीसी था और कोई स्पेनिश। वे अपने नौकरों सहित हम लोगों के दल में आ मिले। पथ-प्रदर्शक हम लोगों को घुमा फिरा कर ऐसे मार्ग से ले चला कि पहाड़ को चोटी पर चढ़ने से भी अधिक बर्फ़ न मिली। हम लोग जब पहाड़ की चोटी पर चढ़े तब एक दिन और एक रात बराबर पाला गिरता ही रहा। इससे हम लोग डर गये; किन्तु पथ-प्रदर्शक ने कहा, "डरने की कोई बात नहीं है।" यह सुन कर हम लोगों को कुछ साहस हुआ और तब से बराबर हम लोग पहाड़ के नीचे उतरने लगे। हम लोग उस व्यक्ति के पीछे पीछे उसीके ऊपर भरोसा करके जाने लगे।

एक दिन साँझ होने के कुछ पहले एकाएक तीन बड़े बड़े भेड़िये और उनके पीछे पीछे एक भालू जङ्गल से निकल कर हम लोगों के पीछे पड़ गये। ज़रा सी कसर रह गई थी, नहीं तो वह हिंस्र जन्तु पथ-प्रदर्शक को वहीं खतम कर देता। वह घबरा कर हम लोगों को पुकारने लगा। पिस्तौल निकाल कर उन पर गोली चलाने की भी सुध उसको न रही। पथ प्रदर्शक के पास ही फ़्राइडे था। उसने खूब साहस कर घोड़ा दौड़ा कर भेड़िये को गोली से मार गिराया। भाग्य से ही उस व्यक्ति के समीप फ़्राइडे था इसीसे वह बच गया; दूसरा कोई रहता तो इस तरह साहस कर के भेड़िये का मुकाबला नहीं कर सकता। दूर से गोली मारने में यह भय था कि क्या जाने भेड़िये को लगे या न लगे। जो पथ-प्रदर्शक को ही गोली लग जाती तो मामला चौपट था।

जो हो, हम लोग भेड़िये को देख कर बहुत ही डरे। फ़्राइडे के तमंचे की आवाज़ होते ही जङ्गल के दोनों ओर भेड़ियों का घोर गर्जन और हुंकार होने लगा। वह कठोर शब्द पर्वत की कन्दरा में प्रतिध्वनित हो कर दूना भयङ्कर हो उठा। फ़्राइडे की गोली की चोट खा कर एक भेड़िया वहीं ठंडा हो गया और दो भेड़िये भाग कर जङ्गल में जा घुसे। उन के आक्रमण से घोड़े को तो कुछ नुकसान न हुआ किन्तु पथप्रदर्शक के हाथ और घुटनों में ज़ख्म होगया। भेड़िये ने उसको नोच लिया था।

भेड़िये को मार कर फ़्राइडे ने भालू पर आक्रमण किया। हम लोग फ़्राइडे का यह दुःसाहस देख कर डर गये किन्तु उसका विचित्र कौतुक देख कर हम लोग बहुत खुश हुए। भालू बहुत स्थूल और भारी होते हैं, इससे वे सहज ही मनुष्य पर हमला करने का साहस नहीं कर सकते। वह बहुत भूखा न हो तो मनुष्य पर हमला नहीं करता। यदि उसके साथ कुछ छेड़-छाड़ न की जाय और उसकी राह न रोकी जाय तो वह बुरे तौर से पेश न पा कर चुपचाप चला जाता है। किन्तु वह ऐसा हठीला होता है कि जङ्गल के महाराज के लिए भी राह छोड़ कर अलग खड़ा नहीं हो सकता। यदि भालू को देख कर डर लगे तो उसकी ओर न देख कर दबे पाँव दूसरी ओर चला जाना अच्छा है। किन्तु एक जगह खड़े हो कर उसकी ओर ताकने से वह अपने मन में शायद यही समझता है कि यह मेरे साथ गुस्ताख़ी की जाती है तब वह अपनी मर्यादा को बचाने के लिए क्रुद्ध हो कर दुश्मन का पीछा करता है। एक बार किसी तरह चिढ़ जाने पर जब तक वह दुश्मन से बदला नहीं ले लेता तब तक दिन-रात उसके पीछे पीछे घूमता रहता है। हम लोग भालू को देख कर भयभीत हुए। इतना बड़ा भालू कभी नहीं देखा था। किन्तु फ़्राइडे भालू से ज़रा भी न डरा। साहस और उत्साह से उसका चेहरा प्रफुल्लित हो उठा। उसने कहा, "ओ भालू! आओ, आओ, एक बार तुमसे हाथ मिला लूँ।" मैंने उसका यह कुव्यवहार देख विस्मित हो कर कहा-"अरे गधे! यह क्या कर रहा है? वह तुझे खा डालेगा।" फ़्राइडे ने कहा-"मुझे न खायगा, मैं ही उसे खाऊँगा। आप लोग ठहर कर तमाशा देखें और हँसें।" फ़्राइडे ने ज़मीन में बैठ कर झटपट बूट उतार कर हलका जूता पहना और अपना घोड़ा मेरे दूसरे नौकर को थमा कर वह एक ही दौड़ में भालू के सामने जा खड़ा हुआ। भालू किसी पर कुछ लक्ष्य न कर के झूमता हुआ चला जा रहा था। फ़्राइडे ने उस को पुकार कर कहा-"ओ सज्जन! कुछ सुनते हो?" यह कह कर उसने पत्थर का टुकड़ा उठा कर भालू के सिर में मारा, किन्तु ढेला मारने से जैसे पत्थर को कुछ नहीं होता वैसे ही पत्थर का टुकड़ा लगने से भालू को भी कुछ न हुआ पर इस आघात स क्रुद्ध हो कर उसने फ़्राइडे का पीछा किया। फ़्राइडे भागा। हम लोग भालू को गोली मारने के लिए तैयार हुए। मैं मन ही मन फ़्राइडे पर बहुत कुढ़ने लगा। भालू अपने मन से चला जा रहा था, यह अभागा उसे छेड़ कर यह क्या अनर्थ बुला लाया। मैंने क्रोध कर के फ़्राइडे से कहा-"अरे गधे! यही तेरे हास्य का अभिनय है? तू वहाँ से हट जा, भालू को गोली से मारने दे।" फ़्राइडे ने कहा, "नहीं, नहीं, अभी इस पर गोली मत चलाइए, मैं आप लोगों को ख़ूब हँसाऊँगा।" भालू एक पग आगे बढ़ता तो फ़्राइडे दो डग पीछे हटता। यो ही हटते हटते वह एक पेड़ के पास आ कर बन्दूक़ को नीचे रख कर पेड़ पर चढ़ गया। भालू भी घोड़े की तरह बड़े वेग से दौड़ कर पेड़ के नीचे पहुँच गया। उसने एक बार बन्दूक को सूँघ कर देखा। इसके बाद वह उतना मोटा ताज़ा बड़ी आसानी से उछल कर पेड़ पर चढ़ गया। यह देख कर मैं यह न समझ सका कि फ़्राइडे ने इसमें हँसाने की कौन सी बात सोच रक्खी है, बल्कि यह उसने मूर्खता का काम किया है जो पेड़ पर चढ़ कर अपने भागने का रास्ता भी बन्द कर लिया।

हम लोग घोड़े पर चढ़े हुए पेड़ के नीचे जाकर देखने लगे। फ्राइडे एक डाल की फुनगी पर जा बैठा और भालू डाल के बीच में पहुँच गया। भालू को धीरे धीरे पतली डाल पर आते देख फ़्राइडे ने कहा-'हाँ, चले आओ, इस बार तुम्हें नाच करना सिखलाता हूँ।" यह कह कर वह खूब ज़ोर से डाल हिलाने लगा। तब भालू भी उसके साथ झूलने लगा और थर थर काँपता हुआ पीछे की ओर भागने का उपाय ढूँढने लगा। यह देख कर हम लोग खूब हँसे। भालू को अब अग्रसर होते न देख फ़्राइडे ने शाखा का झकझोरना बन्द किया। फिर वह भालू से कहने लगा, "आओ, आओ, रुक क्यों रहे?" इस प्रकार उसे पुकारने लगा, जैसे वह उसको बात समझता हो। भालू ने उसकी बात सुनी। फ़्राइडे को स्थिर होकर बैठते देख भालू फिर आगे बढ़ चला। तब फ़्राइडे फिर ज़ोर से डाल हिलाने लगा। डाल हिलते ही फिर भालू ठहर गया। पतली डाल पर खड़ा होकर वह काँपने लगा। हम लोग उसकी दशा देख कर हँसने लगे। फ्राइडे ने कहा, "अच्छा, यदि तुम नहीं आते तो मैं ही आता हूँ।" यह कह कर वह शाखा के अग्र-भाग को नवा कर नीचे कूद पड़ा। अपने शत्रु को जाते देख भालू एक बार पीछे की ओर देखता और एक पग पीछे हटता था। इस प्रकार धीरे धीरे नीचे की ओर हटते हटते वह तने के पास आ पहुँचा।। अब वह धरती की ओर देख कर नीचे उतरना ही चाहता था कि फ़्राइडे ने उसे, धरती पर पाँव रखने के पहले ही, बन्दूक़ की गोली से मार डाला।

साँझ हो आई। हमारा पथ-प्रदर्शक भेड़िये से अभिभूत होने के कारण कुछ घायल हो गया था। अभी तीन मील रास्ता हम लोगों को और जाना होगा। पर अब भी हम लोग जंगल के भीतर ही हैं। भेड़ियों का गरजना अब भी हृदय को कँपा रहा है। एक भयङ्कर स्थान अब भी हम लोगों को पार करना है। इस अँधेरी रात में उस मार्ग से होकर जाना होगा। वह मार्ग वन के भीतर होकर गया है। उस वन में असंख्य भेड़िये हैं। हम लोग उस वन को पार कर एक बस्ती में पहुँचेंगे और वहीं रह कर रात बितावेगे। हम लोग सूर्यास्त होने के आध घंटा पहले इस जंगल से निकल कर एक मैदान में पहुँचे। किसी वन्य जन्तु ने हम लोगों पर आक्रमण नहीं किया। केवल इतना ही देखा कि बड़े बड़े पाँच भेड़िये छलाँगें मारते हाँफते हुए रास्ते में एक ओर से निकल कर, बाट काट कर, दूसरी ओर चले गये। यह देख कर पथ-प्रदर्शक ने हम लोगों को सावधान होने के लिए कहा। भेड़ियों का झुण्ड बारहा है, ये उन्हीं के अग्र-सूचक हैं। हम लोग अपने अस्त्र-शस्त्रों को ठीक करके चौकन्नी दृष्टि से चारों ओर देखने लगे। कुछ देर तक एक भी जानवर दिखाई न दिया। कुछ और आगे बढ़ कर हम लोगों ने मैदान में जो दृश्य देखा, वह न कभी देखा और न देखेंगे। बारह भेड़िये एक घोड़े को मार कर खा रहे हैं। वे उसके मांस को तो खा चुके हैं, अब हड्डियाँ चाट रहे हैं। हम लोग दूसरी ओर देखते हुए इस तरह जाने लगे मानो उनको देखा ही नहीं। उन्होंने भी हम लोगों पर लक्ष्य न किया। फ़्राइडे उनको गोली मारने के लिए उद्यत हुआ परन्तु मैंने उसे ऐसा करने से रोका। बीच मैदान में जाते न जाते हम लोगों ने भेड़ियों का गर्जना सुना और कुछ ही देर बाद देखा कि डेढ़ सौ भेड़िये का झुण्ड हम लोगों की ओर आ रहा है। हम लोग इसका क्या प्रतीकार करेंगे―यह सोच कर भी कुछ ठीक न कर सकते थे। आख़िर हम लोग क़तार बाँध एक दूसरे से सट कर खड़े हो गये। मैंने सबसे कह दिया कि एक साथ सब बन्दूकें न चला कर एक के बाद दूसरी बन्दूक़ चलाई जाय। इससे यह फ़ायदा होगा कि जब तक और लोग गोली चलावेंगे तब तक दूसरों को बन्दूक़ भरने का अवकाश मिलेगा। इससे बन्दूक़ की आवाज़ लगा- तार जारी रहेगी जिससे संभव है कि भेड़ियों को गतिरुक जाय। हम लोगों की पहली बार की बन्दूक़ें छूटते ही बन्दूक़ों का शब्द और आग की झलक देख कर सभी भेड़िये डर कर खड़े हो रहे। चार मरे और कई एक घायल होकर भागे। मैंने कभी सुना था कि मनुष्यों की चिल्लाहट सुन कर भेड़िया डरता है। इसलिए मैंने सभी को एक साथ ख़ूब ज़ोर से चिल्लाने का परामर्श दिया। यह उपचार एकदम व्यर्थ न हुआ। हम लोगों के चिल्लाते ही भेड़िये मुँँह फेर कर भागने को उद्यत हुए। तब मैंने अपने साथियों के उन पर पीछे से गोली चलाने की आज्ञा दी। पीछे से गोली की चोट खाकर मरते गिरते लड़खड़ाते हुए वे सब जंगल के भीतर जा घुसे। यह अवसर पाकर हम लोग बन्दूक़ें भर कर बड़ी शीघ्र गति से जाने लगे। किन्तु दो चार डग आगे जाते न जाते हम लोगों ने अपनी बाईं ओर के जंगल में वन्य जन्तुओं का भय- ङ्गर चीत्कार सुना। किन्तु वह शब्द हम लोगों के सामने की ओ ओर होता था। हमें लोगों को उधर ही ले जाता था।

अब दिन नाममात्र को भी न रहा। सूर्यास्त होने पर अन्धकार का साम्राज्य क्रमशः बढ़ चला। यह हम लोगों के पक्ष में कुछ भी सुखकर न था। जितना ही अन्धकार बढ़ने लगा उतना ही अधिक भेड़ियों का कोलाहल होने लगा। इतने में क्या देखता हूँ कि भेड़ियों का एक झुण्ड हम लोगों की बाँई ओर, एक झुण्ड सामने और एक झुण्ड पीछे आकर हम लोगों को घेर कर खड़ा हुआ। किन्तु उन सब को आक्रमण की चेष्टा करते न देख, हम लोगों से जहाँ तक हो सका, हम जल्दी जल्दी आगे बढ़ चले। किन्तु रास्ता नीचा ऊँचा होने के कारण शीघ्रता करने पर भी रास्ता बहुत कम कटता था। इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ते बढ़ते हम लोग एक जंगल के प्रवेश-पथ में पहुँचे। इस वन से पार होने पर हम लोगों का आज का सफ़र पूरा होगा और हम लोग एक निर्दिष्ट स्थान में पहुँच जायँगे। यह देख कर हम लोगों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि वन के भीतर प्रवेश करने के पथ में कितने ही भेड़िये पहले ही से खड़े हो आगन्तुकों की राह देख रहे हैं। वन के अन्य भाग में अकस्मात् बन्दूक की आवाज़ हुई। आवाज़ होने के कुछ ही देर पीछे हम लोग देखते हैं कि एक ज़ीन-कसा घोड़ा वायु-वेग से दौड़ा चला आ रहा है और जंगल से बाहर निकल गया। पन्द्रह-सोलह भेड़िये उसका पीछा किये चले आरहे हैं। घोड़ा यद्यपि भेड़ियों से बहुत आगे था तथापि उन के पंजे से निकल भागना उसके लिए असंभव था। भेड़िये के साथ घोड़ा कब तक दौड़ सकता है। बात की बात में भेड़ियों के झुण्ड ने घोड़े को धर दबाया और उसे मार खाया। हम लोगों ने जंगल के भीतर प्रवेश करके और भी भयङ्कर दृश्य देखा। रास्ते में एक घोड़ा और दो मनुष्य मरे पड़े हैं और भेड़िये उन्हें फाड़ फाड़ कर खा रहे हैं। एक मनुष्य को सिर से आधे धड़ तक खा चुके हैं! उसके पास एक बन्दूक पड़ी है। कुछ देर पहले शायद इसी शख्स के बन्दूक चलाने की आवाज़ सुन पड़ी थी। यह देख कर भय से हम लोगों के प्राण सूख गये। क्या करना चाहिए, कुछ समझ में न आता था। किन्तु उन हिंस्र-पशुओं ने हम लोगों के कर्तव्य को शीघ्र ही स्थिर कर दिया। उन्होंने शिकार के लोभ से हम लोगों को घेर लिया। उनकी संख्या तीन सौ से कम न होगी। हम लोगों के भाग्य से प्रवेश-मार्ग के पास ही, जंगल के भीतर, एक पेड़ का तना कटा पड़ा था। में अपने छोटे से दल को शीघ्र ही उस विशाल पेड़ की आड़ में ले गया। हम लोगों ने घोड़े से उतर कर एक त्रिभुजाकार व्यूह की रचना की और उसके बीच में घोड़ों को कर लिया। भेड़िये गर्रा गुर्रा कर हम लोगों की ओर दौड़े और जिस पेड़ की आड़ में हम लोग छिपे थे उस पर कूद कूद कर चढ़ने लगे। मैंने अपने साथियों से कह दिया की पूर्ववत् एक के बाद एक बन्दूक़ छोड़ी जाय। पहली ही बेर हम लोगों ने बहुत भेड़िये मार डाले। किन्तु इतने पर भी वे हम लोगों पर भयङ्कर भाव से आक्रमण कर रहे थे। सामने के झुण्ड को जब तक हम मार भगाते थे तब तक पीछे वाला झुण्ड हम लोगों पर हमला करता था। इसलिए हम को आगे-पीछे दोनों ओर लगातार बन्दूक़ों की आवाज़ करनी पड़ी। चार-पाँच बेर की आवाज़ में हम लोगों के हाथ से सत्रह अठारह भेड़िये मरे और इससे दुगुने घायल हुए तो भी वे ऐसे निर्भीक थे कि पीछे न हटे। एक एक बार गोली खा कर क्षण भर खड़े रहते और फिर एकाएक आगे आते थे। तब मैंने अपने दूसरे नौकर से कहा, "तुम इस कटे हुए पेड़ के तने पर बहुत सी बारूद बिछा दो"। वह बारूद बिछाकर ज्यों ही वहाँ से हट आया त्यों ही भेड़ियों का झुंड उस बारूद पर आ गया। जिस काठ पर बारूद रक्खी गई थी उस पर मैंने तुरन्त तमंचे की आवाज़ की। तमंचे की आग का स्पर्श होते ही वह लम्बी बारूद की राशि एक साथ बल उठी। इससे कितने ही भेड़िये झुलस गये, कितने ही भय से उछल कर हम लोगों के व्यूह के भीतर आ पड़े, उन को एक ही पल में हम लोगों ने तितर बितर कर दिया। बाक़ी एकाएक प्रकाश होते देख पीछे की ओर मुड़े। तब मैंने फिर सब को बन्दूक़ मारने का आदेश किया। बन्दूक़ मार कर हम लोग खुब ज़ोर से चीत्कार कर उठे। जितने भेड़िये बच रहे थे सब पूँछ उठा कर भागे। हम लोगों ने साहस करके कुछ दूर तक उनका पीछा किया और कितनों ही को तलवार से दो टुकड़े कर डाला। उन भेड़ियों का आर्तनाद सुन कर और सब अपनी जान ले ले कर भागे।

हम लोगों ने अब की बार कोई पचास साठ भेड़िये मारे। दिन होता तो और मारते। मार्ग निष्कण्टक होते ही हम लोग वहाँ से रवाना हुए। हम लोगों को करीब एक मील रास्ता और तय करना था। जाते जाते हम लोगों ने कई बार भेड़ियों का गरजना सुना। रास्ते में कितनी ही विभीषिकायें देखीं। एक घंटे के बाद हम लोग एक शहर में पहुँचे। वहाँ के लोग भी भेड़ियों और भालुओं के भय से त्रस्त होकर अस्त्र-शस्त्र ले दिन-रात चिल्ला चिल्ला कर शहर का पहरा देते थे। वहाँ भी कल्याण नहीं, निश्चिन्त होकर रहने का सुभीता नहीं।

दूसरे दिन सबेरे हम लोगों के पथ-प्रदर्शक को जख्मी हाथ के सूजने से ज्वर हो पाया। वह वहाँ से आगे न जा सका। तब हम लोग एक नये पथ-प्रदर्शक को साथ ले टुलुज शहर को गये। मैंने अपने दोनों कान मल कर सौगन्द खाई कि फिर कभी इस रास्ते कहीं न जायँगे। इस मार्ग की अपेक्षा जल-थल में नाव डूब जाने से पानी में डूब जाना कहीं अच्छा है।

टुलुज से पैरिस, वहाँ से कैले, और कैले से १४ वीं जनवरी को हम लोग निर्विघ्न डोवर पहुँचे। मैंने अपनी पूर्वपरिचित कप्तान की विधवा स्त्री के पास अपनी सब धनसम्पत्ति रख दी। वह विश्वास-पूर्वक मेरे साथ उत्तम व्यवहार करने लगी।

मैंने अपने मित्र वृद्ध कप्तान के ज़रिये ब्रेज़िल की ज़मीदारी बेच कर ढाई लाख रुपये प्राप्त किये। इस प्रकार मेरे अति-विचित्र जटिल जीवन-नाट्य के प्रथम अङ्क का यवनिका-पात हुआ। प्रारम्भ में तो मैंने बहुत कष्ट उठाये, पर अन्त में मुझे बहुत ही सुख मिला।

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