राजीनामा (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Rajinama (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'
बढ़ती उम्र के साथ-साथ जिन्दगी की घटनाएँ समय की राख तले दबती जाती हैं, पर कभी-कभार ठेठ बचपन की कोई बात सारी उम्र नहीं बुझती, राख के नीचे ज्यों-की-त्यों जगमग करती मिल जाती है ! आज तो मैं एक लेखक की मर्यादा निभा रहा हूँ, पर उन दिनों कोरा मोरा एक पाठक ही था। पढ़ने लायक कोई किताब हाथ लगी नहीं कि गटागट आँखों से पी जाता! शायद, नौवीं कक्षा में पढ़ता होऊँगा, तब की बात है। मैं खुद तो घर पर ही रहता था, पर संगी-साथियों से मिलने की उमंग में दूसरे-तीसरे दिन चारण होस्टल का चक्कर काट आता। स्वभाव तो सभी लड़कों का अलग-अलग होता है, पर गढ़सूरिया गाँव का रामकरण एक बेढब स्वभाव तथा निराली सूरत का लड़का था । मतीरे की तरह गोल सफाचट खोपड़ी । लम्बी चोटी | थुलथुल शरीर । कील - मुँहासों से भरा गोल चेहरा | मिची मिची आँखें, मानो उस्तरे से चीरा देकर अन्दर बिठाई गयी हों! किसी से भी अधिक मेल-मुलाकात नहीं - एकलखोरा । बतलाने पर भी मुश्किल से बोलता । अपने ही दन्द-फन्द में उलझा हुआ । मन करता तभी एक चमचमाता काँच लेकर मुँह के सामने रख लेता और हाथों से इशारे करते हुए अपने प्रतिबिम्ब से देर तक बातें करता रहता । संगी-साथी जब-तब चिढ़ाते, पर वो किसी की कोई परवाह ही नहीं करता, मानो पत्थर से कहा गया हो । मन-ही-मन मन्द मन्द मुस्कराता रहता ।
सभी कमरों में अक्सर उसकी चर्चा चलती रहती थी । सुनते-सुनते मेरे पास काफी मजेदार मसाला इकट्ठा होता गया। वो काँच में टुकुर-टुकुर इस प्रकार अपनी सूरत देखता मानो वो कोई दूसरा ही लड़का हो और इस तरह निःशंक बातें करता गोया किसी मित्र से बातें कर रहा हो !
एक दफा फटी हुई चुनरी के चिथड़े से रंजी झाड़कर टेबल पर काँच रखा । सामने कुर्सी पर बैठकर कुछ देर अपना प्रतिबिम्ब निहारता रहा ।
फिर होठ मुलमुलाते पूछा, “बता, इस बार तिमाही में फेल कैसे हुआ ?"
मुँह उतारकर धीरे से जवाब दिया, “मैं अकेला ही तो फेल नहीं हुआ । कक्षा में आधे से ज्यादा लड़के फेल हुए हैं।" उसने आँखें तरेरकर तीखे स्वर में फटकार बतायी, “दूसरे गये भाड़ में, तुझे उनसे क्या लेना-देना! अपनी हैसियत के अनुसार चलना चाहिए। तुझे मालूम नहीं, घर में कितनी तंगी है। भर पेट खाना न खाकर घरवाले तुझे पढ़ाते हैं । और जनाब को कोई परवाह ही नहीं ! "
" परचे बहुत कठिन आये।”
“क्या तेरे अकेले के लिए ही कठिन आये? बाकी लड़के कैसे पास हुए?"
“मेहनत तो काफी करता हूँ । इम्तहान के नाम से ही जूड़ी चढ़ती है। जो जाता है, वही भूल जाता हूँ।”
“शहर में आकर बातें बनाना तो खूब सीख गया । ढंग से मन लगाकर पढ़ाई करेगा तो तू ही सुख पायेगा । कान खोलकर साफ सुन ले, आगे कोई गलती की तो तू जाने ।”
एक बार वो दो-तीन घड़ी दिन चढ़े देर से उठा तो उसे बहुत बुरा लगा । जल्दी-जल्दी बिना साफ किये ही काँच सामने रखा और दाँत पीसते पूछा, “रात को इतनी देर से क्यूँ आया? जरूर सिनेमा देखने गया होगा !”
"जरा देर से आया नहीं कि आपको झट सिनेमा का शक होता है । "
“तो सच बता, तू कहाँ गया था ?”
माथे में बल डाले कुछ देर सोचता रहा। फिर बोला, “घोड़ों के चौक मौसीजी से साँझ को मिलने गया था। मैं तो खूब इनकार करता रहा, पर उन्होंने बिना ब्यालू किये आने ही नहीं दिया। फिर मुझे थोड़ी ऊँघ आ गयी। जगते ही सीधा होस्टल की तरफ भागा। विश्वास न हो तो...!”
“तुझ पर और विश्वास ! मैंने सब पता कर लिया है। करणीदान और रामबख्श के साथ हजरत चारभुजा टॉकीज में पधारे थे । तुझे कितनी बार समझाया, इन लफंगों का साथ मत किया कर ! मेरे सामने झूठ सँवारना चाहता है? तू कहे तो उन्हें रू-ब-रू बुलाकर पूछँ !”
यह बात सुनते ही काँचवाली छाया का मुँह उतर गया। आँखें नीची करके इधर-उधर झाँकने लगा। फिर दोनों हाथों से कान पकड़कर कहने लगा, “कल भारी भूल हो गयी। अब कभी गलती नहीं होगी। आज माफ कर दो!"
"माफ करने पर तो उलटा और ज्यादा बिगड़ेगा। एक बार ठीक से मरम्मत हो जाये तो फिर कई दिनों तक निश्चिन्त । निर्लज्ज को लाज शर्म से वास्ता ही नहीं। गाँव के सगे-सम्बन्धी दुश्मनों से भी बदतर हैं। उनका बस चले तो गाँव घरवालों की सब आस तुझ पर टिकी है। ज्यों-त्यों वकालत ले तो घरवालों की तकलीफें सार्थक हों। वरना सबकी आस पर पाला पड़ेगा सो तो पड़ेगा ही, पर तेरी गत भी कम नहीं बिगड़ेगी। वो ही हँसिया, वही घास । वहीं कुल्हाड़ी, वही लकड़ी। वो ही हल, वही धूप । वो ही पसीना, वही लू और वही झोंपड़ी। ठीक मन लगाकर नहीं पढ़ा तो तेरे काँटे तेरे ही चुभेंगे !”
फिर मिची ऑंखें फाड़कर काँच के सामने देखता, “भला, इसमें मुँह फुलाने की क्या बात है ? भलाई की बात भी कड़वी लगती है । ये दिन तो कुलाँचें भरते निकल जायेंगे। फिर बेहद मुसीबतें उठानी पड़ेंगी।"
अरे! काँच में यह गधे का चेहरा कहाँ से उभर आया? कहीं पीछे कोई गधा तो नहीं खड़ा है? उसने झिझककर पीछे देखा - कुछ भी तो नहीं। फिर सामने मुँह करने पर अपना ही चेहरा साफ दिखता। जगह-जगह कीलें - ही कीलें । ओह ! कुत्ते की तरह ये कान इतने लम्बे कैसे हो गये? आँखें बन्द करके वापस खोलता तो कान फिर वैसे ही हो जाते। कान की लौ पकड़कर बार-बार जोर से खींचता । चिट्टी अँगुली से कान का मैल निकालता ।
एक बार देशी ठर्रा पीने से मीचरी आँखों में भी रंग आ गया । काँच में देखा तो शक्ल अनजानी - सी लगी । नजर गड़ाकर पूछा, “तू कौन है भाई ?”
" तू है, वो ही मैं हूँ”
"मैं हूँ, वो ही तू है ? "
“हाँ।”
“फिर मैंने पहचाना क्यूँ नहीं ? "
“वो तू जाने । । शायद दारू पीने से आँखों की रंगत बदल गयी हो !"
“क्या तूने फिर दारू पी ?"
" मैंने नहीं पी, तूने पी ! "
उसके बाद दोनों हाथों से सर पकड़े वो थोड़ी देर बैठा रहा। फिर मुश्किल से हिम्मत करके उसने काँच की तरफ देखा । सर पर ये दो सींग कैसे उग आये ? आगे देखने की हिम्मत नहीं हुई। कुर्सी पर से झट उठ खड़ा हुआ। अपने हाथ से छुपायी हुई बीड़ी-माचिस लाकर वापस कुर्सी पर बैठ गया । उलटी बीड़ी सुलगाकर लगते ही दो-तीन कश खींचे। धुएँ के छल्लों से काँच की चमक धुँधली पड़ गयी । इस बार काँच में बकरे का चेहरा नजर आया। लटकते हुए कान । सर पर दो नुकीले सींग । कहीं इस काँच की रंगत तो नहीं बदल गयी? वो झुंझलाकर खाट पर लेट गया । फिर उसने काफी दिनों तक काँच नहीं देखा ।
एक बार गुस्से में तमतमाकर उसने कमरे का ताला खोला। ठोकर से दरवाजा उघाड़, बस्ते को खाट पर पटक दिया । काँच सीधा करके सामने कुर्सी पर बैठ गया । काँच पर गर्द ही गर्द जमी थी। अकस्मात् उस गर्द के भीतर से एक चेहरा प्रकट हुआ। उस पर नजर पड़ते ही वो कहने लगा, “ आजकल साहबजादे छोकरियों के पीछे भटकने लगे हैं! अब तो पूरी बात ही बिगड़ गयी । जो भी बात हो मुझे साफ-साफ बता दे, वरना आज तेरी शामत है । "
“सरकारी सड़क मेरे अकेले के पट्टे नहीं है। बहुत से आदमी इधर-उधर चलते रहते हैं। मैं किस-किसका ध्यान रखूँ... ।”
“ तूने खास ध्यान रखकर पीछा किया, तभी मुझे इतना गुस्सा आया। पहले तो कभी मैंने ऐसा उलाहना नहीं दिया। बेशर्म, तूने यह नयी विद्या कब सीखी ? घरवालों ने कुछ भरोसा करके यहाँ भेजा और तूने ये गुल खिलाए ! हरामखोर, अब भी तू मुझे मुँह दिखाता है ?"
“ऐसी बात है तो आप मुँह देखते ही क्यूँ हैं? मैं तो डर के मारे सामने ही नहीं आना चाहता, पर आप न मानें तो मैं क्या कर सकता हूँ?"
“मुँहजोर कहीं का! मेरे सामने जबान चलाता है! खबरदार, ज्यादा बकवास की तो जबान खींच लूँगा !”
यह बात कहकर वो गुस्से से होठ चबाने लगा। फिर दो-तीन मर्तबा गमछा झटककर काँच की धूल झाड़ी । चेहरा मानो उलटा उसे ही आँखें दिखाने लगा हो । चोरी और सीनाजोरी ।
"थोड़ी-बहुत भी शर्म - हया हो तो चुल्लू भर पानी में डूब मर । घरवाले तो छाछ-दलिया खाकर जैसे-तैसे जून पूरी करते हैं । जनाब के लिए घी भेजते हैं ! गोंद के लड्डू भेजते हैं! उनके सपनों के साथ दगा करके तू छोकरियों के पीछे डोलता फिरता है? "
“मेरे भी तो कुछ सपने होंगे?"
"तेरे कैसे क्या सपने हैं?"
“सपनों जैसे सपने। मेरी उम्र के मुताबिक सपने ।”
“फिर घरवालों के सपनों का क्या होगा ? "
“घरवाले जानें।"
“तू कुछ नहीं जानता ?"
"नहीं, मैं तो अपने सपनों के अलावा दूसरी कोई बात नहीं जानता । "
"चण्डाल, तू इतनी बातें कब सीख गया ? "
"ये बातें आप ही आती हैं, कहीं सीखने की जरूरत नहीं ! ”
" बकवास बन्द करता है कि लगाऊँ दो-चार झापड़ !”
यह बात कहते ही उसे गुस्सा आ गया । तड़ातड़ पाँच-सातेक लाफे रसीद कर दिये । गाल लाल हो गये। आँखें छलछला आयीं। आगे शक्ल देखने का साहस नहीं हुआ। थोड़ी देर सर झुकाकर बैठा रहा। फिर गर्दन उठाकर मिची मिची आँखों से काँच की ओर देखा । अभी तक गाल लाल थे। तीन-चारेक कीलें फूट गयी थीं । आखिर हिम्मत हारते हुए अन्तिम धमकी दी, “अब कभी छोकरियों के पीछे डोलते देखा तो गर्दन मरोड़ दूँगा । "
कुछ उत्तर नहीं मिला।
आँखों में आँखें डालकर वो अपना प्रतिबिम्ब, तब तक देखता रहा जब तक कि शीशे वाला चेहरा धीरे-धीरे लुप्त नहीं हो गया।
कि अचानक वो झिझककर खड़ा हो गया। बड़बड़ाते कहने लगा, “यह कैसी अनहोनी बात हुई? काँच में अपना चेहरा ही नहीं दिखायी देता !”
फिर वो बावले की तरह दौड़ता हुआ होस्टल के बाहर गया । हलवाई की दुकान से एक दही- थड़ी और एक लड्डू लाया ।
वापस कुर्सी पर बैठ काँच में देखा तो चेहरा साफ दिखाई दिया । गालों की ललाई काफी कम हो गयी थी ।
“अब रिसाना छोड़ । ले, यह मिठाई खा ले ।”
“मैं कुछ नहीं खाऊँगा, मुझे मारा क्यूँ ? "
" अभी कहाँ मारा है, बदमाशी करेगा तो और मारूँगा।”
“फिर यह झूठा दुलार क्यूँ? हाथ न थके तब तक मारे जाओ ।"
“ले खा ले, ज्यादा जिद मत कर, नहीं तो और मार पड़ेगी । "
काँच वाला प्रतिबिम्ब मुँह फुलाकर बोला, “हरगिज नहीं खाऊँगा । जो करना हो सो कर लो।"
“अरे, मूरखों के बादशाह, मैं तेरे भले की खातिर ही इतनी मगजमारी कर रहा हूँ।”
"तेरा मेरा भला कौन-सा अलग है?"
“क्या, तू मुझसे अलग नहीं है?"
“नहीं, अपन दोनों एक ही हैं, फकत यह शीशा ही मुसीबत की जड़ है !” मेरा कहा मान, मैं तुझे खुश करने के लिए ही यह मिठाई लाया हूँ । ले, खा ले।”
“पहले इस काँच के टुकड़े-टुकड़े करके बाहर फेंक दीजिए, फिर मैं आपका कहा कभी नहीं टालूँगा।”
"वचन देता है?"
“हाँ, वचन देता हूँ।”
फिर राम जाने उसके सर पर क्या खब्त सवार हुई कि कपड़े धोने की मोगरी से उस काँच के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और गली में फेंककर खुशी-खुशी वह मिठाई खा ली। उसके बाद जब कभी मिठाई खाने का मौका आया, उसने कभी हील हुज्जत नहीं की ! उसी दिन से दोनों के बीच एक ऐसा ही पुख्ता राजीनामा हो गया था !
और आज उसी राजीनामे का यह करिश्मा है कि एक अकिंचन थानेदार होते हुए भी लोग-बाग उसके पास पाँच लाख रुपये की पूँजी कूतते हैं ।
मई, 1974