पुटिया-चाचा (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Putiya-Chacha (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'
जगत-चाचा के प्रवादों की पड़ताल करने पर इस तथ्य की स्पष्ट मीमांसा हो जातीहै कि कुल-गोत्र के अलावा भी मनुष्य—आदिम वनस्पति, पशु एवं पक्षियों के अनुरूप जन्म ग्रहण करता है। ऊपरी शक्ल-सूरत व नैसर्गिक स्वभाव की अतल गहराइयों में—आक-धतूरा, केर-खेजड़ी, कब्बू-कुमारी, सर्प-नेवला, नाहर-खरगोश, हाथी-चूहा, पत्थर-पानी, अगन-आँधी इत्यादि समस्त चराचर के अदीठ साँचे में हर मानुस के चरित्र की अगम्य परतें ढली हुई होती हैं! इस सिद्धांत के अनुसार राम जाने क्योंकर, किसी राह जगत प्रकाश दाधीच के लिए यह दृष्टांत कारगर साबित हुआ कि वे सयाने होते ही पुटिया पंछी का अनुसरण करने लगे। पुटिया पंछी की पुख्ता धारणा है कि वह अधर-आकाश अब तक उसके प्रताप से ही ऊपर टिका हुआ है, अन्यथा कब का धराशायी हो गया होता। अनगिन प्राणियों के बचाव की खातिर ही वह अपने पंजे हमेशा आसमान की ओर उठाए रखता है।
ठेठ बचपन से ही हर रोज बिना नागा अपनी पलकें उघड़ने के साथ ही जगत प्रकाश को सूरज का उजाला नजर आता और पलकें मुँदते ही समूचा संसार काले-स्याह अंधकार में डूब जाता। इस अटल संयोग के बहाने अपने चमत्कारी नाम के मुताबिक जगत प्रकाश के मन में भ्रांति का यह रेशा घुलने लगा कि उसकी पलकों के इशारे पर ही सूरज उगता है, अस्त होता है!
हाईस्कूल का हेडमास्टर बनते ही जगत प्रकाश दाधीच के मन में एक बार ऐसा इलहाम हुआ कि पूरे नाम की बजाय वे जगत-चाचा के रूप में दस्तखत माँडने लगे, सो उप-निदेशक का दुर्लभ पद-भार सँभालने के बाद भी वही ढर्रा चालू रखा।
सातों भतीजों के मुँह से हर वक्त जगत-चाचा की पुकार सुन-सुनकर, आस-पड़ोस के बच्चे भी उन्हें इसी नाम से संबोधित करने लगे। फिर तो छोटे-बड़े, बूढ़े-ठाढ़े सभी परिचितों की जबान पर जगत-चाचा का नाम चस्पाँ हो गया। माँ व पत्नी की भी यही बान पड़ गई। पति-परमेश्वर के निरंतर टोकने से आखिर घरवाली को भी मजबूर होना पड़ा। फिर तो वह भी पति को
निस्संकोच जगत-चाचा के नाम से पुकारने लगी। और जगत-चाचा की रग-रग में इस नाम की भनक से एक सुमधुर झंकार लहराने लगती। भ्रांति की अमर-बेल तो बिना पानी के ही पसरती है! फिर कैसा नियंत्रण, कैसा विराम? जगत का चाचा कायम होने पर सारे संसार की सार-सँभाल का जिम्मा मानो उन्हीं पर उलट पड़ा!
धीरे-धीरे सबके कंठ में जाने-अजाने अपने-आप ही यह नाम बस गया। राज्य के मंत्री, मुख्यमंत्री तक उन्हें जगत-चाचा के रिश्ते से समादृत करने लगे। सुनकर उन्हें भी अनहद आनंद मिलता। फकत इसी नाम से उन्हें अपने अस्तित्व का अहसास होता। काया से भी अधिक उन्हें अपने नाम का मोह था। नाम, नाम तो फकत जगत-चाचा का, बाकी सब सटर-पटर। सच पूछो तो बापू का नाम भी उन्हें फीका लगता!
बापू का रंग-ढंग तो बापू ही जानें, मगर जगत-चाचा को औरत-जात से बेहद लगाव था। गोपियों की रास-लीला में कृष्ण-कन्हाई को आनंद तो आता ही होगा, लेकिन जगत-चाचा की तो मथुरा ही न्यारी थी! बिजूका के उनमान कोरे-मोरे ठूँठ मर्दों से बतियाने में वह स्वाद ही कहाँ? मानो दाढ़ों के बीच मेंगनी फँस गई हों! लेकिन औरतों के जमघट में बोलते समय उनकी जीभ पर पाँखें उग आतीं। उनका रोम-रोम तितलियों से होड़ लेने लगता। सूरज की किरणों का परस पाते ही जिस प्रकार फूल चटखते हैं, उसी प्रकार रमणियों की आभा से उसका अंतस् चहक उठता। और जगत-चाचा के उस पक्षपाती रवैए से खुद औरतें भी मन-ही-मन काफी खुश होतीं।
सत्संग, बातचीत और नजर की मार से आगे न मालूम उनकी चाह नहीं थी, हिम्मत नहीं थी या शक्ति नहीं थी, फिर भी जगत-चाचा की यह अदम्य कामना थी कि सभी परिचित-अपरिचित औरतों को फकत उन्हीं से प्रीत करनी चाहिए। दूसरों से प्रेम-प्रणय का संदेह होते ही उन्हें इतनी तकलीफ होती जैसे उनकी नस-नस में काँटे बिंध गए हों। दृष्टि की मार से आगे बढ़ने पर तो गिनती की औरतें मुश्किल से हत्थे चढ़ती हैं, लेकिन अंतस् की अदीठ सेज पर तो अनगिनत अप्सराओं के साथ आनंद उठाया जा सकता है! उनके दर्शन की झलक पाते ही जगत-चाचा का मन देह में बदल जाता और देह मन के साँचे में ढल जाती। केवल दृष्टि के योग से ही वे शारीरिक सुख की चरम सिद्धि प्राप्त कर लेते थे। केवल मन-भोगी थे। न कोई जोखम, न बदनामी और न क्षति।
सुंदरियों की संगत से जगत-चाचा के रक्त की तासीर बदल जाती। शनैः-शनैः उनकी आँखों के सामने हवा के पट पर एक आलोक-पुंज चित्रित होने लगता; जिसमें अपने से परे एक मोहाच्छन्न प्रतिच्छवि उघड़ने लगती। भ्रांति के ये सुहाने चित्र अधिकांश व्यक्तियों की दृष्टि में—धर्म, ख्याति, प्रेम, ज्ञान, संपत्ति, हिंसा या आत्म-प्रताड़ना के परोक्ष प्रभाव से प्रतिभासित होते हैं। प्रत्यक्ष वास्तविकता से विच्छिन्न उन आदर्श प्रतिच्छवियों की प्रेरणा से उनका मन बहलता है। अपने जीवन का मानवीय अस्तित्व उन्हें वज्र के समान अटूट व अभेद्य महसूस होता है। मगर जगत-चाचा की अपूर्व दृष्टि में फकत औरतों की आला उपस्थिति से ही विभिन्न प्रतिच्छवियों का मोहिनी-रूप उजागर होता था।
आज तो चिकनी चमकती ताँबे जैसी चाँद के बिना जगत-चाचा का हुलिया जमता ही नहीं, लेकिन तैंतीस बरस की उम्र लाँघने से पहले उनके माथे पर घने घुँघराले बालों की कजरारी घटा छितरी हुई थी, जिसकी शेखी बघारने में उनकी जीभ न कभी अटकी और न अटकेगी।...फिर तो निरमोही समय की सहज मसखरी के परिणामस्वरूप सफाचट सिर के नीचे उनकी खिचड़ीनुमा झालर निरंतर सिकुड़ती गई। जंगली बिल्ले जैसी कायरी आँखें। फींडा नाक। गोल सुघड़ बत्तीसी। छोटी मूँफाड़। ओछी गरदन। मामूली झुके हुए कंधे। सीने से सवाई तोंद। पहले-पहल तो औरतों की सुरुचि-संपन्न आँखों को जगत-चाचा का यह डौल बिल्कुल ही नहीं सुहाता, किंतु धीरे-धीरे संपर्क बढ़ने पर माननीय उप-निदेशक की मूरत वैसी असंगत नहीं लगती।
एक मर्तबा दफ्तर में औरतों का शानदार मजमा जुड़ा हुआ था। चारेक अध्यापिकाओं पर जगत-चाचा की विशेष मेहर-मया थी—अनुराधा भंडारी, गुल अडवानी, प्रतिभा केलकर और सुलोचना राय। दूसरे पक्ष की इच्छा-अनिच्छा का जगत-चाचा कोई खास खयाल नहीं रखते थे। अपने ही आलम की अलमस्ती में अनुरक्त रहना उनकी आदत सी बन गई थी।
बाकी अध्यापिकाएँ उनकी अनुकंपा के दायरे में धीरे-धीरे अग्रसर होने लगी थीं। जगत-चाचा की आँखों के सामने अपने से परे आलोक के झिलमिल पुंज में एक प्रतिच्छवि उभरने लगी—मोर-मुकुट, पीतांबर...कि जोग-संजोग से अंग्रेजी का वरिष्ठ अध्यापक मुरलीधर पुरोहित एक दुःस्वप्न की तरह उस इंद्र-सभा में प्रकट हो गया। भिड़ते ही जगत-चाचा की नजर उसके माथे पर उछली। काले भँवर बालों का स्याह-मुकुट उन्हें दुगुना दिखलाई दिया। पूरमपूर कद-काठी। साँचे में ढली ओपती देह।
ओपती वेश-भूषा—बंगाली किनारी की बुर्राक धोती और बदामी चोला। जगत-चाचा के आदर्श की प्रतिच्छवि में अकस्मात् व्यवधान उपस्थित हो गया। अभिवादन का औपचारिक जवाब दिए बिना ही जगत-चाचा ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘अभी एक जरूरी मसले में उलझा हुआ हूँ, कोई खास काम न हो तो कल तशरीफ ले आएँ।’’
मुरलीधर के स्वभाव में न कोई ग्रंथि और न उसकी बोली में कोई लाग-लपेट। मन की बात होंठों पर दरसाते बोला, ‘‘खास काम न होता तो आपके पास बेकार चक्कर क्यों काटता...?’’
वह आगे भी कुछ कहने जा रहा था, किंतु जगत-चाचा धीरज खो बैठे। उसे बीच में टोकते हुए व्यंग्य के लहजे में कहने लगे, ‘‘मेरे पास आना बेकार समझते हो तो खामख्वाह तकलीफ क्यों उठाई?’’
मुरलीधर पहले तो थोड़ा चौंका, फिर मजमे की तरफ उड़ती निगाह फेंककर बोला, ‘‘एक ऐसी ही मुसीबत के कारण मजबूरी में आना पड़ा। वरना मैंने तो सात बरस इस दफ्तर की तरफ झाँका ही नहीं।’’ ऐसे रूखे बैन जगत-चाचा ने पहली बार ही सुने। कानों में झनझनाहट सी मच गई। जबरन मुसकराते बोले, ‘‘पर मैं तो बिना काम मिलने वालों की ज्यादा कद्र करता हूँ।’’
‘‘आपकी यह सदाशयता कौन नहीं जानता? पर मुझे बिना काम इधर-उधर डोलने की फुरसत ही कहाँ! यदि मेरी माँ गठिया-बाय में नहीं जकड़ती तो बदली के लिए कभी दरख्वास्त नहीं भेजता।’’
कुछेक अध्यापिकाएँ मुरलीधर के स्वभाव से परिचित थीं। सुलोचना राय से अब और धीरज रखना संभव नहीं हुआ तो उसे कहना पड़ा, ‘‘इन्हें पुस्तकें पढ़ने का गजब चस्का है, सिर ही ऊँचा नहीं होता!’’
प्रत्यक्ष शब्दों के माध्यम से तो यह एक निहायत छोटी सी जानकारी थी, किंतु बोलने के लहजे से सुलोचना की पैरोकारी उन्हें काफी अखरी। उच्चारण की तह में अजानी प्रति का पुट नजर आया! मन कसैला हो गया। बरसों से अभ्यस्त कानों को सुलोचना की बोली कैसी सुहाती थी! आज पहली दफा उसका सादा सुर भी बड़ा कर्कश लगा। सुकोमल चिकने बालों की ठौर उन्हें मटमैली कालिख नजर आई। सलोनी सूरत उन्हें टेढ़ी-मेढ़ी दिखलाई पड़ी। मगर पहले मुरलीधर से सलटना जरूरी था। उसके मुँह से गठिया-बाय और बदली की बात सुनकर उनके अंतस् में अंधड़ मचला। मेज की दरार से एक लिफाफा निकालकर मुरलीधर के सामने करते पूछा, ‘‘ये सुनहरे अक्षर आप ही के हैं...?’’
सवाल का मायना ठीक तरह समझ में नहीं आया तो वह पसोपेश में पड़ गया। थोड़ा रुककर बोला, ‘‘सुनहरे अक्षरों की बात तो आप जानें, पर यह पता मैंने ही लिखा है।’’
मजमे के सामने लिफाफा फेंककर जगत-चाचा अचरज और रोष की मुद्रा में हाथ झटकते हुए कहने लगे, ‘‘सात साल से शिक्षा-विभाग में मास्टरी की गादी खूँद रहे हैं और हजरत को यह भी पता नहीं कि मेरा नाम क्या है?’’
कई बरसों के उपरांत अपने सही नाम के उद्घाटन से जगत-चाचा की रग-रग उफनती सी जान पड़ी। उप-निदेशक शिक्षा-विभाग, जोधपुर के पद पर श्री जगत प्रकाश दाधीच का नाम बाँचकर चिर-परिचित मंडली के भी विस्मय का पार नहीं रहा। लिफाफे के अक्षरों पर दीठ गड़ाकर अनुराधा भंडारी बोली, ‘‘जगत-चाचा, हमें तो सचमुच आज ही पता चला कि आपका नाम जगत प्रकाश दाधीच है। जगत-चाचा के बेजोड़ नाम की कैसी गत बिगड़ी...!’’
वह तो छेड़ने की मंशा से उन्हें उकसाना चाहती थी, परंतु वे तो पहले ही पूरे भरे हुए थे। बौखलाए से कहने लगे, ‘‘तभी तो पता बाँचने पर कल ही से छटपटा रहा हूँ। जनाब का इंतजार कर ही रहा था...!’’
‘‘और मैं आपके सामने हाजिर हो गया। लेकिन मेरे ठोट मगज में यह बात ही नहीं बैठती कि आपको अपने असली नाम से इत्ती चिढ़ क्यों है...!’’
जगत-चाचा उत्तर देने के लिए बगलें झाँकते से दिखाई दिए तो गुल अडवानी मुरलीधर की तरफ देखते बोली, ‘‘हर किसी के मुँह से जगत-चाचा का यह संबोधन ही तो आपका असली नाम है।’’
‘‘वाह वाह!’’ वे कुरसी से थोड़ा ऊपर उठते हुए कहने लगे, ‘‘तेरे मुँह से क्या खाँटी हिंदी बरसती है। सुनते ही जाएँ। वाह गुल, वाह! सच, मैं भी ऐसी हिंदी नहीं बघार सकता।’’
वे आर-पार बींधती नजर गड़ाकर गुल अडवानी की सूरत टोहते रहे। बेचारे गुलाब इन गालों की झाँईं का क्या मुकाबला करेंगे? लंबी-लंबी मद-छकी आँखें! बाँकी भौंहें! तिरछी चितवन! पतले और कसूमल अधर, मानो चुंबन देने के लिए ही बने हों! और ठुड्डी का यह अंतरंग छिद्र तो सीधा कलेजे को छलनी करता है! काश! यह तीखी सुघड़ नासिका उनकी सूरत पर नगीने की तरह जड़ जाती तो सारा हुलिया ही सुधर जाता! लेकिन समझदार औरतों की यही खूबी है कि वे पुरुष की बनावट व उम्र का खयाल नहीं करतीं। मुद्दे की बात है स्वभाव, आलीजाह स्वभाव!
तत्पश्चात् उन्हें राम जाने क्या सनक सूझी कि दो-तीन मर्तबा मुँह बिदकाकर, ‘जगत प्रकाश दाधीच’ के नाम की घिन उगलते हुए उन्होंने लिफाफे के टुकड़े-टुकड़े करके रद्दी की टोकरी में डाल दिए।
बात और बात का नाम! कैसा अचीता कांड हुआ? लिफाफा फाड़ फेंका तो कोई हर्ज नहीं, अरजी तो सुरक्षित होगी। वह बड़ी मुश्किल से अटकता-अटकता बोला, ‘‘यदि माँ की बीमारी में भी सेवा न करूँ तो यह नौकरी किस काम की...!’’
‘‘तो छोड़ दो नौकरी! किसी पर अहसान थोड़े ही है!’’
‘‘अहसान तो किस पर करूँ, पर नौकरी छोड़ूँ, ऐसी मेरी हैसियत नहीं।’’
‘‘हैसियत नहीं या तमीज नहीं?’’
कुत्ता भौंके तब भी जगत-चाचा पुचकारकर रोकने की चेष्टा करते हैं; शायद दूर या पास खड़ी कोई महिला सुन रही हो! किंतु आज तो वे एकदम ही आपा खो बैठे। मगर मुरलीधर अपने काबू में था। शांत स्वर में बोला, ‘‘मेरी तमीज का ब्योरा ही जानना चाहें तो मोहनगढ़ क्षेत्र के बाशिंदों से पूछिए।’’
‘‘पूछूँगा, झख मारकर पूछूँगा। मुझे और काम ही क्या है, सो पाकिस्तान की सरहद पर धोरों की धूल फाँकने जाऊँ, नेताजी की तमीज का पता लगाने। यदि थोड़ा-बहुत भी शऊर हो तो श्रीमान को यह ‘ज्ञान’ जरूर होता कि बदली की पूछताछ के लिए कब आना चाहिए?’’
‘‘गलती हो गई, माफ कीजिए। सात बरस में किसी दफ्तर के पास नहीं फटका। फिर कैसे पता चले! आप शुरुआत में ही बता देते तो इतना बखेड़ा नहीं होता। कल समय पर ही आऊँगा।’’
विनम्रता की यह चाशनी देखी तो जगत-चाचा भी ढीले पड़ गए। घरेलू भाव से हिदायत देते बोले, ‘‘पर गुरुजी, कान खोलकर साफ सुन लो कि एक सौ आठ बार जगत-चाचा का जाप लिखकर नहीं लाए तो सुनवाई नहीं होगी।’’
लेकिन गुरुजी तो हामी भरे बिना ही रवाना हो गए, मानो मुट्ठी भर राख उनके गंजे सिर पर उछाल दी हो...।
कुछ समय तक तो सामने बैठी महिलाओं के चेहर गड्ड-मड्ड हुए से जान पड़े। फिर धीरे-धीरे दीठ निथरने पर उन्होंने अपने-आप में डूबते-उतराते छलाँग मारी तो अलग-अलग औरतों की अलग-अलग पहचान साफ दिखने लगी। किसी से नई तो किसी से पुरानी आत्मीयता। सबकी अपनी-अपनी विशिष्ट गरिमा, विशिष्ट रूप, विशिष्ट नजाकत। यह गुल अडवानी, यह अनुराधा भंडारी, यह प्रतिभा केलकर और यह सुलोचना राय। मामूली गलती तो ईश्वर से भी हो जाती है, फिर सुलोचना से ऐसी क्या नाराजगी! मगर अंतस् के अवचेतन पर उनका नियंत्रण नहीं था। अजाने ही उनकी गरदन दूसरी तरफ मुड़ गई। बायाँ हाथ सामने करते पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम मा...मा...माया पँवार ही है न?’’
‘‘हाँ...।’’ संकोच के मारे उसने मुश्किल से हामी भरी, जैसे उसकी जीभ तालू से चिपक गई हो।
‘‘पगली कहीं की!’’ वे उत्साह के जोशीले स्वर में कहने लगे, ‘‘जगत-चाचा से मुलाकात का यह ढंग नहीं है। यहाँ आओ तब लाज-झिझक को सात तालों के भीतर बंद करके आओ। आजादी, सतरह टका आजादी तो मेरे इर्द-गिर्द घूमर लेती है! इस सारी बात को शुरुआत में ही समझ लो तो अच्छा है।’’
इस सीख के गुमान में उनकी आजाद निगाहें अलग-अलग चेहरों को सहलाने लगीं। नई सूरत का तो नजारा ही निराला है! उसकी आभा में अथाह भेद छिपा रहता है। यही तो सर्वोपरि आनंद है। न भगवान् के भेद का पार, न औरत के रहस्य की थाह! यदि परमेश्वर भूल-चूक से मनुष्यों को औरत का यह वरदान नहीं सौंपता तो यह गलीज दुनिया जीने के काबिल ही नहीं रहती। जिसके फलस्वरूप ही तो यह कुदरत सुहानी लगती है। नहीं तो चाँदनी, वर्षा और बेचारे फूलों में धरा ही क्या है? औरतों में आस्था रखनेवाले को भगवान् में आस्था रखने की जरूरत ही नहीं! तब एक अदने मास्टर की तो उन्हें एक चींटी जितनी भी परवाह नहीं करनी चाहिए!
अकस्मात् उस मायावी सत्संग के बीच उन्हें हवा में तैरता एक आलोक-पुंज दृष्टिगोचर हुआ। और दूसरे ही क्षण उसमें एक धुँधला-धुँधला सा चित्र उभरने लगा। बालों के बीचोबीच करीने से माँग निकली हुई। तितलीनुमा मूँछें। कोट के सामने दमकता हुआ लाल स्वस्तिक! जगत-चाचा का अंतस् अविलंब उस आदर्श प्रतिच्छवि में रंग गया। उनके होंठों पर टिमटिमाती मुसकान छितर गई। कुरसी पर उछलते हुए जोर से बोले, ‘‘यदि मैं हिटलर होता...?’’
पुरानी या नई किसी महिला को तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ। बड़ी-बड़ी हस्तियों के बहाने स्वयं को चरितार्थ करनेवाली उनकी विवश दैन्यता किसी से छिपी नहीं थी। आजादी की सीख के गुरु-मंत्र से माया पँवार का संकोच काफी कुछ मिट गया। मुसकराहट में विस्मय का पुट देकर बोली, ‘‘बेचारे मुरलीधर की मौत पक्की थी। किसी गैस-चैंबर में या...।’’
अत्यधिक उमंग के प्रवाह में उसे टोकते हुए उन्होंने कहा, ‘‘एक पागलपन में तो कसर नहीं। यदि मैं हिटलर होता तो मुरली-फुरली को मुझसे संपर्क करने का संपट ही कहाँ बैठता? अच्छी तरह सोच-विचार कर बताओ, यदि मैं हिटलर होता...?’’
‘‘तो हमें यह सवाल सुनने का सौभाग्य ही नहीं मिलता?’’ प्रतिभा केलकर की शंका वाजिब थी। पर सुलोचना राय को उन्हें उकसाए बिना चैन नहीं पड़ता था। बस, कोई सुराग मिलना चाहिए। वे कुछ जवाब दें, उसके पहले ही नाक में बल डालकर बोली, ‘‘यदि आप हिटलर होते तो रूस पर हरगिज चढ़ाई नहीं करते। सारी दुनिया पर आपका आतंक छा जाता!’’
‘‘ऊँ हुँ।’’ कबूतर की गुटरगूँ के लहजे में उन्होंने भरे गले से मना करते हुए सुलोचना की ओर आधी पलकें मींचकर देखा। ज्यादा सलोनी और आकर्षक लगी। हल्की-हल्की नीली आब में रक्त की ठौर मानो मदिरा घुली हो! गले पर तीन सलवटों की नैसर्गिक कंठी, मोतियों के हार को भी मात करनेवाली! हिरनी को ईर्ष्या हो जैसी स्नेह-सिक्त आँखें। जगत-चाचा ने अपनी छोटी मूँफाड़ पर व्यापक मुसकराहट छलकाते कहा, ‘‘यदि मैं हिटलर होता तो दुनिया को युद्ध के बदले प्रेम से जीतता! फकत प्रेम से! औरतों के अलावा किसी भी मर्द को फौज में भरती नहीं करता। बात की बात में लाखों यहूदियों के प्राण बच जाते!’’
‘‘तमाम ईस्ट-यूरोप रूसियों की खूनी डाढ़ से बच जाता!’’ उफनती हँसी को जबरन दबाते सुलोचना ने मिलती मारी।
यह तो यमराज के साम्प्रत प्रतिरूप ‘हर हिटलर’ के भी बूते की बात नहीं थी, फिर जगत-चाचा की तो बिसात ही क्या? शिथिल भाव से दबी-दबी हामी भरी, ‘‘हाँ, सो तो बचता ही।’’
‘‘यदि नितांत गोपनीय न हो तो एक बात बताइए जगत-चाचा कि मुझे तो आप उस नाजी फौज की कमांडर जरूर बनाते, क्यों?’’ गुल अडवानी ने अधिकृत भाव से जानना चाहा।
‘‘और मुझे भी...।’’ अनुराधा भंडारी ने तत्काल अपना दावा प्रस्तुत किया।
‘‘ठहरो-ठहरो, इत्ती उतावली करने से गड़बड़ हो जाएगी। यदि मैं अंतरराष्ट्रीय फौज बनाता तो भारत की कम-से-कम सवा लाख औरतों को उनकी लियाकत के अनुसार जिम्मेदारी सौंपता।’’
‘‘परंतु मैं तो आपके लाख समझाने पर भी नहीं मानती, चाहे कर्नल बनाते या कमांडर। फौज तो फौज ही है।’’ सुलोचना आगे भी कुछ कहने जा रही थी कि जगत-चाचा उसे बीच में आश्वस्त करते बोले, ‘‘जैसी तुम्हारी मरजी।’’ फिर न जाने क्या सोचकर घिन दरशाते कहा, ‘‘इन उल्लू के पट्ठों को किसने मास्टर बना दिया। यदि मैं शिक्षा-मंत्री होता तो ऐसे निकम्मे बुद्धिजीवियों को एक ही झटके में बरखास्त कर देता...!’’
‘‘नहीं, जगत-चाचा नहीं, हिटलर के बाद शिक्षामंत्री का यह नाकुछ पद आपको शोभा नहीं देता। गोली मारो!’’ प्रतिभा केलकर आत्मीय उलाहना देते बोली।
‘‘धीरे, जरा धीरे बोलो। बापू की तसवीर के सुनते गोली-वोली की बात मत करो!’’ उन्होंने होंठों पर अंगुली धरकर कहा।
और उस दिन बिना हत्या-हिंसा के हिटलर वाला मजमा प्रेम से बिखर गया। किंतु जगत-चाचा तो मजमे के ही नटवर-नागर थे! उन्हें औरतों के अभाव में सबकुछ मरघट सा लगता था! मानो अकेले अपने-आप से भयभीत हों! स्वयं के साक्षात्कार से इस तरह बचते मानो किसी कनखजूरे ने मुठभेड़ की मंशा दरशाई हो! इसी कारण इतवार या दूसरी छुट्टी-छपाटी उन्हें बेहद कष्टदायक महसूस होती। यदि किसी छुट्टी के दिन मजमे का जुगाड़ नहीं बैठता तो उनके लिए दिन धकियाना पहाड़ सा दूभर हो जाता। या तो वे जहाँ मजमा जुड़ता, वहीं शामिल हो जाते या किसी बहाने अपने घर मजमा इकट्ठा कर लेते। सोते समय यदि सपनों में भी औरतों का सत्संग नहीं जमता तो उनकी नींद उचट जाती। करवट-दर-करवट बदलते बड़ी मुश्किल से रात की कालिख धुलती। भीतर-ही-भीतर सुलगती-छीजती घरवाली से उन्हें मितली सी आने लगती थी। घरवाली है तो घर सँवारे—फूस-वाईदा, बरतन-बासन, रसोई और धोना-माँजना।
दूसरे दिन उसी मंडली में एक पंजाबी निरीक्षिका का संजोग उम्दा जुड़ गया। कांता बहल। रूप जोबन का ऐसा दुर्लभ मिलन—मानो आकाश की बिजली ने बादलों का आसरा छोड़कर उसकी देह में शरण माँगी हो! झाँकी मिलते ही जगत-चाचा ने आधे उछाह और आधे रोष से पूछा, ‘‘इतने दिन किस बनवास में अंतर्धान रही? पूरे एक महीने से गैर-हाजिरी लग रही है।’’
‘‘गंगानगर माँ और भाई के पास गई थी। कई महीनों में मिलना नहीं हुआ?’’
‘‘माँ और भाई के रहते बेचारे जगत-चाचा की कौन परवाह करे? पानी की अपेक्षा खून गाढ़ा होता है!’’
‘‘मगर पानी की गरज खून से पूरी नहीं होती!’’
‘‘वाह! हाथोहाथ भुगतान किया, धेले की भी उधार नहीं रखी। वाह! जैसी गहरी समझ, वैसा ही अछूता रूप और वैसा ही माकूल जवाब।’’
‘‘अछूता! अछूता कैसे? दो-दो बच्चे होने पर भी इसका रूप अभी तक अछूता है...?’’ गुल अडवानी ने उन्हें गुदगुदाने के बहाने शंका की।
‘‘हाँ, अछूता। बिन बरसे पानी की तरह अछूता! ज्यादा ही पूछो तो बिन दुही गाय के दूध की तरह अछूता! औरत का मन या उसकी आत्मा भ्रष्ट हो तो हो, किंतु उसकी देह कभी दूषित नहीं होती...!’’
जगत-चाचा की तथ्यहीन बातों को कोई भी महिला तरजीह नहीं देती थी। फिर भी सुलोचना ने तनिक नाराजगी का दिखावा करते प्रतिवाद किया, ‘‘तब तो आपकी नजर में वेश्या की देह भी अछूती है। रुपयों के लोभ से रूप का पेशा करनेवाली भी आपके खयाल से बिन बरसे पानी की तरह अछूती है? आपने हमें इन बाजारू औरतों की श्रेणी में रखा! हम तो आपका इतना आदर करती हैं और आप...।’’
‘‘तोबा...तोबा। कान पकड़ता हूँ। दोनों कान पकड़ता हूँ। कभी-कभार जबान भी वमन करती है। वरना औरतों की देह तो दरकिनार, उनकी छाया तक का आव-आदर करनेवाला जगत-चाचा के अलावा न तो कोई जनमा और न जनमेगा। हाँ, रुपयों के लोभ से तो अगला जन्म भी बिगड़ता है, मगर प्रीत के वशीभूत कोई भी पत्नी सच्चे प्रेमी से जुड़ती है तो उसकी देह कभी दूषित नहीं होती। तुमसे अधिक कौन जानता है कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता।’’
‘‘यह बात हम नहीं जानेंगी तो और कौन जानेगा?’’ कांता बहल ने अपनी मधुर हँसी के बहाने मकड़ी का जाला बुनते कहा, ‘‘लेकिन जगत-चाचा, आज तो आपके पास एक जरूरी काम से आई हूँ।’’
‘‘तो इसमें संकोच की क्या बात, दस काम बताओ। तुम सबके लिए ही तो मैं नौकरी जैसा गलीज काम करता हूँ! यदि चुनाव में खड़ा हो जाऊँ तो मेवाड़ के महाराणा की जमानत जब्त करवा दूँ।’’ वे उदयपुर रियासत के राज-पंडित थे। पर अब तो रियासत का फकत नाम रह गया था।
‘‘इसमें क्या शक है!’’ तीन-चार महिलाओं ने एक साथ उनका समर्थन किया।
‘‘लेकिन तुम लोगों के आगे मेरी दाल नहीं गलती!’’
‘‘तो फिर जाने दीजिए...।’’ कांता बहल ने ओछी काटते हुए अपनी माँग मुकरना चाहा।
‘‘नहीं-नहीं, यह हरगिज नहीं हो सकता। बोलो, बोलो, पहले काम फिर राम!’’
‘‘एक चपरासी की जगह खाली है।’’
‘‘हाँ-हाँ, जिसे कहो उसे रख लूँ।’’
‘‘एक अभागिन बेवा को आपके भरोसे ही साथ लाई हूँ।’’
‘‘जरूर, जरूर, क्यों नहीं। कहो तो आज ही आदेश कर दूँ।’’
तब उसने पीछे मुड़कर आवाज दी, ‘‘रामू की माँ, रामू की माँ। चपरासी के रामू की माँ भीतर आई। चेहरे पर निगाह पड़ते ही जगत-चाचा के मुँह से ही ये बोल छिटक पड़े, ‘‘ऐसी जवान और बेवा? भगवान् अंधा तो नहीं हो गया...?’’
‘‘होने दीजिए, भगवान् अंधा हो तो कोई बात नहीं, फकत आपकी आँखें सलामत चाहिए! आपकी दया से बेचारी जैसे-तैसे दुःख के दिन गुजार लेगी। मैंने तो अपनी तरफ से समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर इकलौते बेटे की खातिर दूसरा ब्याह करना ही नहीं चाहती, वरना इसकी जात में सरेआम पुनर्विवाह होता है।’’
‘‘तब तो गजब की मर्द-लुगाई है! अभी हाथोहाथ आदेश करता हूँ, ढील किस बात की। बैठ, कुरसी पर बैठ।’’
जगत-चाचा का ऐसा जोश-खरोश देखकर चपरासी के खलबली मची। कुहनी तक लंबे हाथ जोड़कर बोला, ‘‘इस खाली जगह के लिए तो आपने मेरे भाई को थावस दिया था?’’
चपरासी के कहते ही उन्हें भूली हुई बात याद आ गई। मामूली झेंपते हुए बोले, ‘‘थावस दिया है तो मना थोड़े ही कर रहा हूँ। मगर सच बता, यदि तू मेरी जगह होता तो जवान-विधवा का कुछ भी खयाल नहीं रखता...?’’
चपरासी नाक पर अंगुली फिराते कहने लगा, ‘‘भला ऐसी आस मैं क्यों करने लगा? यह तो पिछले करमों का फल है। मेरी ऐसी करनी कहाँ?’’
‘‘देख, बुरा न माने तो आज तुझे लाख रुपयों की बात समझाऊँ। थोड़ा मगज तो लड़ा, तू खुद काफी समझदार है। यदि इस तरह गाँव से खेती का धंधा छोड़कर सभी किसान सरकारी नौकरियों की तलाश में भटकने लगे तो देश की बेशुमार आबादी के लिए धान की कमी कौन पूरी करेगा? जरा सोचने की बात है!’’
‘‘गरीब-परवर, मेरी ऐसी गहरी समझ कहाँ! मेरे एक भाई की नौकरी से देश में धान की कमी पड़े तो जाने दीजिए। मालिक का मालिक कौन?’’
‘‘मालिक? मैं तो तुम लोगों का अदना सेवक हूँ सेवक! मगर भैया तू कौन सा नहीं जानता कि थोड़ा-थोड़ा करते ही बंटाढार होता है। एक में ही अनेक रूप बसते हैं।’’ यह अमोघ मंत्र सुनाकर उन्होंने चारों तरफ नजर घुमाई। जवान विधवा को खड़े देखा तो फिर जोर देकर कहा, ‘‘बैठ-बैठ, कुरसी पर बैठ। आजाद भारत में सब बराबर हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं।’’
मगर रामू की माँ कुरसी पर नहीं बैठी। आजाद भारत से उसका कुछ भी सरोकार नहीं था! उसका घर भला और वह भली! झिझक दरशाते बोली, ‘‘मैं तो अब तक कुरसी पर बैठी ही नहीं, कौन सी नामवरी बढ़ती है?’’
भोलेपन के वे अजाने बोल कुरसियों पर बैठी महिलाओं को बुरे लगे। बैठने की खातिर जगत-चाचा का बनावटी आग्रह भी उन्हें अखरा। सभी औरतों में एक जैसी प्रतिक्रिया उभरी। तब मंडली की पैनी निगाहों का एहसास होते ही उनका माथा ठनका। फिर उसे कुरसी पर बैठने के लिए एक बार भी नहीं कहा। चपरासी भी मुँह चढ़ाकर बाहर बेंच पर चुपचाप बैठ गया।
आज की मंडली में दो औरतें और जुड़ गईं। एक तो कांता बहल और दूसरी रामू की माँ। औरतें तो हमेशा जुड़ती ही रहनी चाहिए! लेकिन बूढ़ी-ठाढ़ी नहीं! जवान और खूबसूरत! वरना जगत-चाचा की प्रतिभा को आँच नहीं लगती! और आँच लगे बिना प्रतिभा मुखर नहीं होती। पद और शिक्षा का पुछलग्गा न हो तो नई चपरासिन की पारदर्शी सूरत किसी से कम नहीं थी।
जात, धर्म, शिक्षा और पद में रूप-जोबन का क्या वास्ता! इसके डाबर नयनों पर तो कैसा भी पद और कैसी भी शिक्षा निछावर की जा सकती है! लगता है, उम्र के साथ-साथ यह जवानी ढलने की नहीं! आखिर बुढ़ापे को भी इसके आगे हार माननी ही पड़ेगी। जगत-चाचा ने चोर निगाहों से उसकी कमनीय विशिष्टताओं का नाप-तौल किया, जिसके लिए उनकी आँखें पर्याप्त पारंगत थीं! फिर अचानक आशंकित होकर उन्होंने सामने बैठी मंडली की मोहिनी मूरतों में दृष्टि गँवा दी। और कुछ ही देर बाद उनके सामने प्रकाश-पुंज की एक प्रतिच्छवि जगमगाने लगी—सफेद धोती, सफेद चोला और सफेद टोपी। इकलंगी धोती की सलवटों से अगले ही क्षण सबकुछ स्पष्ट हो गया। उनींदी आवाज में कहने लगे, ‘‘हिटलर के नाम से तुम्हें घबराहट होती है तो उसे मरने दो! यदि मैं राजस्थान का मुख्यमंत्री होता तो सचमुच इसी सूखी धरती के रेतीले धोरों का नजारा ही बदल देता! एक कौड़ी खर्च किए बिना ही। हाँ, एक कौड़ी खर्च किए बिना ही! बताओ कैसे?’’
कौन क्या बताती? लेकिन बार-बार आग्रह करने से प्रतिभा केलकर मुँह बिदकाकर बोली, ‘‘जब आपने सोचा है तो आप ही बताइए। मैं मुख्यमंत्री बनूँ तो अपने मन की बात बताऊँ!’’
‘‘बताओ-बताओ, जरूर बताओ! तुम्हें मेरी कसम। यह कोई बेजा बात नहीं। यदि तू मुख्यमंत्री बने तो सबसे पहले क्या मीन मारेगी?’’ जोर से ताली बजाकर उन्होंने हँसते हुए पूछा।
तब गरदन झुकाकर उसने धीरे से जवाब दिया, ‘‘येन-केन-प्रकारेण आपको निदेशक बना दूँगी!’’
सूरज के सामने बदली आने पर कमरे में उजाला काफी सिमट गया, फिर भी किसी को उसका खयाल तक नहीं आया। सभी अपने-अपने उजाले में खोए थे! लेकिन जगत-चाचा को प्रतिभा केलकर की मेहर-मया से खुशी की अपेक्षा काफी झुँझलाहट हुई। कलेजे में टीस उठी। एक मातहत मास्टरनी तो बने मुख्यमंत्री और वे केवल निदेशक! हर वक्त उसकी खुशामद करनी पड़ेगी! क्या वाकई औरत विश्वास-काबिल नहीं होती? फटी-फटी आँखों से उसकी तरफ देखा—पहले जैसी रवादार नहीं लगी। इस मटमैली पुताई में अब तक रौनक क्यों दिखाई देती थी? तो सारा रूप उनकी आँखों में ही था, प्रतिभा केलकर की देह में नहीं। सुलोचना राय तुरंत उनके मन की दुविधा भाँप गई। उसे कोहनी से धकियाते कहा, ‘‘बस, फकत निदेशक बनाकर ही तू संतुष्ट हो जाएगी? यदि मैं राजस्थान की मुख्यमंत्री बनूँ तो जगत-चाचा को दूसरे ही दिन सबसे पहले शिक्षामंत्री की शपथ दिलवाऊँ!’’
‘‘यह मुँह और मसूर की दाल! न नौ मन तेल हो और न राधा नाचे!’’ कांता बहल ने होंठों-ही-होंठों में फुसफुसाकर ताना कसा।
जगत-चाचा ने गंजा सिर हिलाते एतराज किया, ‘‘ना-ना, नौ मन तेल की क्या बात कही! आजकल तो राधा को नाचने के लिए कटोरी भर तेल ही काफी है! मुख्यमंत्री बनना कोई बड़ी बात नहीं। देखते-देखते कई मुख्यमंत्री बदल गए। बड़ी बात है, बड़ा काम करना। जिससे पहली किश्त में ही टकले-टीबों का माहौल बदल जाए। बस, थोड़ी सी नजर खुली रखने की जरूरत है।’’ दो बार जोर से चुटकी बजाकर सलोनी बेवा की तरफ देखकर वे आगे कहने लगे, ‘‘कार्तिक महीने में तीसों दिन अल्ल-सवेरे गाँव-गाँव में सभी औरतें पीपल सींचती हैं। बिना किसी हुक्म-आदेश के। पीढ़ियों से। किसी की मनाही नहीं सुनतीं—न पति की, न जेठ की, न ससुर की। क्यों सुनें? अपने साथ-साथ धरती का सिंगार करनेवाली क्यों किसी की परवाह करे? वह तो धरती को सँवारने की खातिर ही जनमी है। यदि राजस्थान की एक-एक लछमी के मन में लगातार बारह महीने गाछ-बिरछ सींचने का जोश जगाया जाए तो वे किसी की मनाही से रुकने वाली नहीं। मर भले ही जाएँ, पर अपना नेम नहीं तोड़ेंगी! खेत, गलियारे, रास्ते, सड़क और खेल के मैदान छोड़कर राजस्थान में सर्वत्र बिरछ-ही-बिरछ झूमते दिखेंगे! जहाँ नजर जाए, वहीं गाछ और बिरछ! बिरछ और गाछ! सूखी धरती के इस बेजोड़ नजारे की कल्पना तो करो!’’
अकस्मात् बिजली बंद होने पर घर्र-घर्र चलते पंखे की चाल कम होने लगी। जगत-चाचा पंखे की ओर देखकर कहने लगे, ‘‘राजस्थान की सूखी धरती पर दस-दस कदम दूर पेड़-ही-पेड़ लहराने लगे तो मेह-पानी की क्या कमी! अलंघ्य दूरी से खिंचकर बादल अपने-आप बरसेंगे—घर्र...घर्र। न राजस्थान नहर का प्रपंच, न कुएँ-तालाबों का झंझट। न बिजली का संकट और न सिंचाई की परेशानी। पेड़ों की सघन छाँह के फलस्वरूप न इतनी तेज गरमी पड़ेगी और न पंखों का मोहताज होना पड़ेगा।’’
जबरदस्ती आँसू तो नहीं थमते, परंतु हँसी तो रोकी जा सकती है। उन सभी अध्यापिकाओं को अपनी उफनती हँसी पर खाम लगानी पड़ी। मातहती की लाचारी भी बहुत बड़ी लाचारी है! मातहत होने पर ही इसका पता चलता है!
राजस्थान के कायाकल्प से आश्वस्त होकर जगत-चाचा ने मुख्यमंत्री के अलावा फिर किसी दूसरी छवि की आकांक्षा नहीं की। उनके लिए तो अकाल की विभीषिका मिटते ही गाँव-गाँव, ढाणी-ढपाणी सर्वत्र खुशहाली का आलम छा गया था! रेतीले टीबों में जनमा हर व्यक्ति धान, घी, खाँड़, दूध-दही की बहबूदी के झूले पर अतिरेक आनंद में झूल रहा था!
मुँह फुलाए चपरासी ने जब जगत-चाचा के हाथ में मुरलीधर पुरोहित के नाम की पर्ची थमाई तो ललाट में बल डालकर उन्होंने ऊपरी मन से पुकारा, ‘‘पधारिए गुरुदेव, भीतर पधारिए...!’’
सभी से नमस्कार करने के उपरांत उसने कल की मुँह-जोरी का पछतावा करते कहा, ‘‘आज तो समय पर ही आया?’’
जगत-चाचा के मन में भी कल के सूखे व्यवहार की मामूली कसक थी। अभी-अभी अपनी निराली सूझ-बूझ से समूचे राजस्थान की मनवांछित इफरात ने उनके रोम-रोम को उन्मत्त कर दिया था और वे उससे पूरमपूर संतुष्ट थे। मन-ही-मन मुरलीधर के स्वभाव की पड़ताल करने लगे—सिंधी-मुसलमानों की तरह बाल छँटे हुए। सूप की नाईं—सामने की तरफ चौड़े और पीछे से सँकरे। डाँट-फटकार, धमकी, लोभ या चालाकी से वश में आने वाला यह बंदा नहीं! यह तो जैसे अपने ही दंद-फंद में उलझा हुआ। अपने ही गोरखधंधे में खोया सा। विनम्र व्यवहार से भी काबू में आ जाए तो गनीमत है। स्वार्थी व लालची मनुष्य को पटाना कितना आसान है! गिनती के नेक इनसानों की ईमानदारी से यह दुनिया एक दिन भी नहीं चल सकती। उन्होंने अपने स्वर में कृत्रिम मिठास घोलते कहा, ‘‘कल की नाराजगी शायद अभी तक मिटी नहीं। अरे बाबा, जगत-चाचा से मिलने में क्या तो वक्त और क्या बेवक्त! जब इच्छा हो, रात को जगाकर भी मिल सकते हो। मैं तो गऊ से भी ज्यादा सीधा हूँ। विश्वास न हो तो इन सबसे पूछ लो।’’
लेकिन मुरलीधर को किसी से पूछने की कोई दरकार नहीं थी। और न यह पूछे जैसा मसला ही था। वह तो फकत अपने आप से ही सवाल-जवाब करने का आदी था। शून्य में नजर गड़ाए चुपचाप खड़ा रहा। जाने किस प्रदूषित गुफा में आ गया? तभी जगत-चाचा ने उसके सामने हाथ पसारते पूछा, ‘‘लाए, एक सौ आठ बार लिखकर वह पन्ना लाए?’’
गरदन हिलाने की मनाही के साथ ही जैसे उनकी उमंग को लकवा मार गया हो! कदम-कदम पर गाछ-बिरछों से लहलहाता राजस्थान एक ही फूँक में उजड़ गया! अचकचाकर धीरे से जानना चाहा, ‘‘इतना कहने के बावजूद भूल गए?’’
‘‘भूला तो नहीं, मगर मजाक की बात समझकर मैंने ध्यान ही नहीं दिया।’’
‘‘मजाक! इस कुरसी पर बैठकर मैं मामूली मास्टर से मजाक करूँगा?...लिखिए मेरे सामने बैठकर लिखिए। एक सौ आठ मर्तबा—जगत-चाचा, जगत-चाचा।’’
उसे तब भी विश्वास नहीं हुआ। ऐसी बचकानी हरकत पर कोई कैसे विश्वास करे? अपने हिसाब से ही वह सबको कूता करता था। ऐसी बात तो सुनना भी शर्मनाक है! संदेह व अचरज के स्वर में बोला, ‘‘बड़ी अजीब अपेक्षा है? मैं तो सात साल से बाहर काला-पानी भुगत रहा हूँ और आपको अपने नाम ही की रट लगी है?’’
आखिर जगत-चाचा को बनावटी बाना छोड़कर अपने असली रूप में आना पड़ा। तांत्रिक नाथ की तरह आँखें तरेरकर बोले, ‘‘बाहर? बाहर कहाँ? हिंदुस्तान से बाहर? सभी हिंदुस्तानियों का एक ही राष्ट्र है—भारत! जवाँ-मर्द हो, थोड़ी-बहुत तो जिम्मेवारी समझो...!’’
‘‘लेकिन यह जिम्मेवारी मुझ अकेले को ही क्यों समझनी चाहिए? चार बरस और भी चूँ नहीं करता, यदि माँ की जानलेवा बीमारी...।’’
‘‘बीमारी...माँ की जानलेवा बीमारी! यदि हर कर्मचारी माँ की बीमारी का रोना रोने लगे तो भारत-माँ का क्या हाल होगा? अपने साथ मेरा वक्त क्यों जाया करते हो? कई जरूरी काम सलटाने हैं। हजरत की माँ के लिए सिर खपाने का मेरे पास वक्त नहीं है। इन बीमारियों की असलियत मैं खूब समझता हूँ! बीस बरस शिक्षा-विभाग में यों ही भाड़ नहीं झोंका!’’
‘‘आपके खयाल से मैं झूठ बोल रहा हूँ?’’
‘‘नहीं, आप क्यों झूठ बोलने लगे! आप तो सत्यवादी हरिश्चंद्र हैं! झूठ तो मैं बोलता हूँ। मैं ही अव्वल दरजे का झूठा हूँ! क्यों...?’’
इस तरह झूठ-साँच का भला क्या निर्णय होता? मुरलीधर की माँ का दुर्भाग्य! वरना जगत-चाचा के मानिक-मुँह से ये बोल सुनने की जरूरत ही क्या थी। मगर वह कूड़-मगज तो कल की तरह आज भी नमस्कार करके चुपचाप चलता बना। ऐसा नहीं कि उसे बोलना नहीं आता। जरूरत पर खूब बोलता है। मोहनगढ़ के अधिकांश निवासी इसके गवाह हैं। लेकिन बोलने की भी अपनी वेला और अपनी मर्यादा होती है! जगत-चाचा के लिए उसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों ही असह्य थीं! अब भड़ास निकालें भी तो किस पर? फिर ललाट ठोंककर वही अचूक मंत्र सुनाया, ‘‘यह शिक्षा-विभाग भी अजीबोगरीब जंतुओं का बाड़ा है!’’
सारी मंडली को जैसै साँप सूँघ गया हो। प्राणहीन पुतलियों की तरह वे स्तब्ध अविचल बैठी थीं। जगत-चाचा के इस अप्रत्याशित रूप से तो वे सर्वथा अपरिचित थीं! लेकिन अभी-अभी आँखों के सामने जो कुछ भी अशोभनीय घटित हुआ, उस पर अविश्वास भी तो कैसे करें? मगर साथ-ही-साथ मुरलीधर को भी शालीनता से बात करने का शऊर नहीं है। अपना काम निकालने का कुछ तो हुनर होना चाहिए। कोरी-मोरी अकड़ से बात बनती नहीं। उसकी जगह कोई भी महिला अध्यापिका होती तो एक मिनट में अपनी बदली करवा लेती! किंतु उस मंडली के बीच सुलोचना राय की मनोदशा बिल्कुल ही दूसरी थी। न उसकी घृणा का कोई पार था और न मोद-गुमान का। थोड़ी देर बाद कमरे की हवा का दबाव कुछ हल्का हुआ तो वह हिम्मत करके बोली, ‘‘आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।’’
‘‘मैंने कब किस बात का बुरा माना है, जो मुझसे पूछने की जरूरत पड़ी?’’
‘‘इनकी माँ वाकई गठिया-बाय से पीड़ित हैं। कोई दूसरा देखभाल करनेवाला है ही नहीं। इकलौता बेटा सात बरस से मोहनगढ़ की धूल फाँक रहा है! पड़ोसी के नाते मैं थोड़ी-बहुत सेवा करती हूँ। लेकिन माँ का मन बेटे के बिना बहलता नहीं!’’
मनुष्य की वाणी में क्या बबूल से भी तीखे काँटे होते हैं? जगत-चाचा के कानों में कुछ वैसी ही चुभन हुई। उखड़ना चाहने पर भी वे उखड़े नहीं। अपने पर जब्त करके एक माकूल सुझाव दिया, ‘‘तो अपनी पत्नी को माँ के पास छोड़ जाए!’’
‘‘पत्नी!’’ वह सितार की तरह खिलखिलाते कहने लगी, ‘सारा रोना तो इसी बात का है! सपने में भी शादी नहीं करना चाहते! इनकी माँ का थोड़ा-बहुत खयाल रखिए...!’’
‘‘मैं तो खयाल रखूँगा ही। पर मेरा नाम लिखने में हजरत को मौत क्यों आ रही है? कुछ भी समझ नहीं पड़ता!’’
मौत का नाम सुनते ही सुलोचना के आग सी लग गई! लेकिन बाहर एक चिनगारी भी प्रकट नहीं होने दी। होंठ काटते
बोली, ‘‘मैं समझाऊँगी, मौका मिलते ही समझाऊँगी!’’
‘‘तो इसकी बदली जोधपुर पक्की!’’
‘‘आप बड़े हैं, बड़ी विचारिए।’’ कांता बहल ने उनके डगमगाते भ्रम को सहारा देने की चेष्टा की।
‘‘इससे बड़ी और क्या विचारूँ!’’ जगत-चाचा की लाचारी भी छोटी नहीं थी!
***
दूसरे और तीसरे दिन भी मुरलीधर का लिखा हुआ जाप जगत-चाचा के हाथ नहीं लगा, तब तक हर पल वही अविकल प्रतीक्षा और वही मंथन! मानो गठिया-बाय की बीमारी ने उनकी समूची देह को जकड़ लिया हो! बिना बीमारी के ही उन्हें पीड़ा होने लगी! सत्संग के आनंद में भी खलल पड़ने लगा। अप्सराओं के रूप-जोबन की झाँकी से भी न जाने क्यों पहले जैसी हरकत अपने आप बंद हो गई? वे ही आँखें थीं। वही रूप-जोबन था। अब उसका दुबारा संचार कैसे हो? मानो उनके रिसते घाव को किसी के तीखे नाखून बुरी तरह नोच रहे हों! उस असह्य टीस का एक-एक पल धकियाते-धकियाते जगत-चाचा के लिए पूरे तीन दिन सूखे निकल गए। जैसे तीन बरस का भीषण अंतराल हो! यह नागडसा दुःख भी अकेले नहीं आता! राम जाने सारी की सारी अध्यापिकाएँ किस अज्ञातवास में खो गईं? मुरलीधर वाले कांड से क्या उन्हें भी कुछ धक्का लगा? क्या ये सभी मिलकर उनकी परीक्षा लेना चाहती हैं? पर आज जमकर अचीती बारिश हुई। कांता बहल की दुमंजिली छत पर उसकी बरस-गाँठ का अपूर्व मजमा फुलझड़ियों की तरह खिल रहा था। नई चपरासिन जोश व उछाह से सारा काम सलीके से सलटा रही थी। जगत-चाचा उसकी आशातीत निपुणता से बेइंतहा खुश थे। ऊपर आकाश में सप्तमी के चाँद को अगणित सितारों ने चारों ओर से घेर रखा था। और नीचे धरती पर दुनिया की किसी एक छत पर जगत-चाचा के चारों तरफ महिलाओं की मंडली विराजमान थी! दोनों जगह आनंद की चाँदनी का वारापार नहीं था। फिर भी जगत-चाचा को चाँदनी काफी उदास और चाँद मुरझाया हुआ नजर आया। कलेजे में कहीं गहरे किसी तीखे शूल की चुभन खटक रही थी। इधर-उधर की बातचीत के बहाने जगत-चाचा ने आखिर सुलोचना राय से पूछ ही लिया, ‘‘क्या वह हठीला राजकुमार अब भी नहीं माना?’’
‘‘काफी-कुछ तो मान गया। थोड़ी कोशिश करने पर और मान जाएगा।’’
‘‘कब मान जाएगा? माँ के मरने पर मान जाएगा...?’’
सचमुच के कोड़ों की निस्बत शब्दों की मार ज्यादा मर्मांतक होती है! जगत-चाचा का इतना कहना हुआ और सुलोचना की आँखें अंगारों सी दहक उठीं! एकबारगी तो उनके दिल ने अपनी जगह छोड़ दी, मगर दूसरे ही छिन आपा सँभालकर उसे अधिक खिझाने की मंशा से कहा, ‘‘उसे मनाना ही है तो इस मामूली काम के लिए क्या मनाती है? तुझ से ब्याह करने के लिए ही क्यों नहीं मना लेती...?’’
उनके हाथ से चाहे-अनचाहे यह हथगोला तो बुरा छूटा! कौन जाने इसका धमाका किधर फट पड़े। किंतु सुलोचना का जवाब सुनने पर तो किसी की भी ईर्ष्या व जलन का पार नहीं रहा। वह तो इस कदर बेखटके बोली मानो अपने आप से ही संवाद कर रही हो! या सपने में पूछे गए प्रश्न का सपने में ही उत्तर दे रही हो! जगत-चाचा की आँखों में नजर गड़ाकर बोली, ‘‘मैंने समझाने में कोई खामी नहीं रखी, मगर वह हठीला राजकुमार माने तब! न हो तो एक बार आप भी उसे समझाकर देखें। शायद आपके समझाने से वह मान जाए...!’’
उनके सारे शरीर में झुरझुरी छूटी। मानो अनगिनत मधुमक्खियाँ उन्हें भीतर-बाहर काट रही हों! अटकते-अटकते बमुश्किल पूछा, ‘‘कौन, मैं समझाऊँ? हाँ, तू कहेगी तो समझाना ही पड़ेगा। जरूर समझाऊँगा।’’
न चाहने पर भी सुलोचना के मुँह से निकल पड़ा, जैसे बेहोशी में प्रलाप कर रही हो, ‘‘उम्र भर आपका अहसान मानूँगी...!’’
जगत-चाचा की रजामंदी के आखर-आखर में मनाही साफ गूँज रही थी। फिर भी सारी मंडली एक साथ तालियाँ बजाकर बोली, ‘‘जगत-चाचा के समझाने पर तो कैसे भी मूर्ख को समझना पड़ेगा। दस किलो मिठाई से कम में सौदा नहीं पटेगा! इस कान से सुन, चाहे उस कान से।’’
‘‘इसके लिए तो हजार कान भी कम हैं!’’
‘‘अच्छा, तो फिर मिठाई पक्की! क्यों जगत-चाचा?’’ सभी एक साथ चहक उठीं।
‘‘इसमें जगत-चाचा से क्या पूछना। जब चाहो खिला दूँगी। मगर वह मूर्ख बिल्कुल नहीं है। वैसा समझदार औलिया तो मुझे कहीं नजर नहीं आया!’’ इन शब्दों के बहाने सुलोचना ने मानो अपना समूचा अंतत् ही बाहर उँडेलकर धर दिया हो। ऐसे जवाब की किसी को भी आशा नहीं थी!
अनुराधा भंडारी ने तिक्त स्वर में कहा, ‘‘शादी के पहले ही ऐसी अंतरंग पहचान? ऐसी प्रशंसा? नजर न लगने का टोटका करवा ले!’’
‘‘प्रशंसा तो शादी के पहले ही की जाती है; फिर तो चकचक से ही फुरसत नहीं मिलती।’’ माया पँवार ने मानो सबके भीतर की सच्चाई बाहर उछाल दी हो!
सहेलियों की आपसी ठिठोली में जगत-चाचा की गत बहुत बुरी बिगड़ी! ऐसी करारी मात का तो सपना भी बुरा। एकबारगी तो उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ कि वे वही जगत-चाचा हैं और यह उनकी वही चिर आत्मीय मंडली है! कोई परिचित या अपरिचित महिला उनके सिवाय किसी दूसरे से प्रेम करे, यह त्रासदी तो उन्हें मरने के बाद भी तकलीफ देने वाली है। तिस पर सुलोचना राय से तो सपने में भी यह उम्मीद नहीं थी। न जाने क्यों उस पर उन्हें ऐसा ही अटूट विश्वास था। हो-न-हो शरत बाबू की कोई आदर्शतम नायिका उपन्यास का अतिक्रमण करके उन्हीं की खातिर यह जीवन जीने आई है! लेकिन आज तो वह वज्र-विश्वास एक ही चुटकी में नस्त हो गया! उनके रू-ब-रू कबूल करने में उसे रत्ती भर भी शर्म नहीं आई। मगर जगत-चाचा तो सुनते ही पस्त हो गए! रोम-रोम में चिनगारियाँ चटखने लगीं। मौत की पीड़ा भी इससे भयंकर तो क्या होगी...?
मोम का सिंह न पिघले तब तक ही सिंह का डर बना रहता है। यदि किसी दूसरी छवि की शरण नहीं गही तो चलती साँस भी रुक जाएगी। उन्हें जब कभी इस तरह के आलोक-पुंज की चाह होती तो न दिन को रुकावट और न रात को। सातम की चाँदनी के पटल पर यकायक उजाले का एक घेरा उभर आया। जिसमें शनैः-शनैः एक छवि अंकित होने लगी। और उसे पहचानते ही, चलते प्रसंग को भूलकर वे भारी गले से बोले, ‘‘यदि मैं नाथूराम विनायक गोडसे होता...?’’
अभ्यस्त होते हुए भी किसी के कानों में जगत-चाचा की यह बेतुकी मंशा कतई नहीं झरी। सुनते ही ऐसा लगा मानो मंद-मंद चाँदनी में ठौर-ठौर धुएँ के बादल मँडराने लगे हों! गुल अडवानी ने छाती पर हाथ धरकर बड़ी मुश्किल से पूछा, ‘‘तो क्या आपके हाथ से बापू की हत्या होती?’’
‘‘यही तो समझने की बात है। यदि मैं नाथूराम होता तो बापू की एवज में किसी दूसरे की जान लेता। बताओ किसकी?’’
धड़ाधड़ कई बड़े-बड़े नाम गुलाबी होंठों से उछले। मुरलीधर का नाम भी नहीं छूटा। लेकिन जगत-चाचा ने किसी नाम के लिए हामी नहीं भरी। बार-बार चमकती टाट हिलाते हुए मना करते रहे—ना, ना, ना। आखिर उन्हें ही पहेली सुलझाने को मजबूर होना पड़ा। ‘‘यदि मैं नाथूराम गोडसे होता तो जिन्ना का सफाया करता! न देश के टुकड़े होते और न असंख्य बेगुनाह इनसानों का खून बहता! एक का खात्मा करने से हजारों प्राण बच जाते! हजारों बहन-बेटियों...!’’
माया पँवार ने तीन-चार सिंधी-पंजाबी अध्यापिकाओं का नाम गिनाकर प्रतिरोध करते कहा, ‘‘जगत-चाचा देश का बँटवारा न होने पर इन सुंदर अप्सराओं का अवतरण यहाँ कैसे होता? न वे आपको पहचानती और न आप उन्हें जान पाते। इस घाटे की पूर्ति भला कैसी होती? बँटवारा होने से ही तो गुल बहन से दोस्ती करने का हमें मौका मिला...!’’
उन्होंने तुरंत पासा पलटा, ‘‘अरे, मैंने तो यों ही तुम्हें डराने की खातिर पटाखा छोड़ा था! जगत-चाचा के हाथ से जिन्ना तो बड़ी बात, एक मामूली चींटी को भी ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती। पर सचमुच, यदि मैं नाथूराम गोडसे होता तो बापू की मुट्ठी भर हड्डियों के बदले भ्रष्टाचार के जिन्न पर गोलियाँ दागता—धाँय, धाँय, धाँय!’’
ऐसे बेजोड़ मसखरेपन के बावजूद मनुष्य के कंठ से हँसी का ठहाका नहीं गँूजे तो वह रोने से भी अधिक कष्टदायक है। शायद इस तरह की हँसी का दमन करने से ही मनुष्य की देह के भीतर कहीं-न-कहीं कैंसर की शुरुआत होती होगी!
जगत-चाचा ने अपने अस्तित्व से बेखबर होकर नाथूराम विनायक गोडसे की छवि को पूर्णतया अंगीकार कर लिया। अपनी अद्भुत वाणी से झंकृत एक-एक अक्षर पर उन्हें पुख्ता विश्वास था। तभी तो हाथ की मुद्रा के साथ उनके मुँह से धाँय-धाँय की इतने जोर से गर्जना हुई कि ऊँघते सितारों की उसी क्षण नींद उचट गई! पर उन्हें उस प्रमुदित वेला के दौरान ऊपर देखने की फुरसत ही कहाँ थी? सितारे सोएँ तो सोएँ। जागें तो जागें। छलकते उत्साह के गुमानी स्वर में कहने लगे, ‘‘खुलेआम, मस्त दुपहरी, रामलीला के मैदान उसी पल वह जिन्न नीचे लुढ़क जाता धड़ाम! मिट्टी की परात जैसी तीन गोल-मटोल आँखें —एक जगह अटकी हुईं। पाँच हाथ लंबी गरदन। बालों से भरपूर। दो-दो हाथ लंबे दाँत।’’ अब कहीं जगत-चाचा ने आराम की एक लंबी साँस ली।
भ्रष्टाचार के जिन्न से तो पीछा छूट गया, पर नौकरशाही का भूत अब भी जिंदा है—लस्टम-पस्टम। पहाड़ का बोझ ढोना आसान है, पर नौकरशाही की बंदगी बड़ी कठिन है। कब किसके हाथों इससे छुटकारा मिलेगा? कैसे छुटकारा मिलेगा? देश के भाग्य से किसी-न-किसी परम वंदनीय जगत-चाचा का चिर-प्रतीक्षित अवतार होगा-ही-होगा...!
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सभी मनुष्य और सभी प्राणी मरने के लिए पैदा होते हैं, उसी प्रकार राजस्थान विद्युत-मंडल की बिजली जाने के लिए ही प्रकट होती है! मौत पर वश चले तो इस पर किसी का वश चले। पंखे की चंचल गति हठात् बंद होने पर जगत-चाचा दफ्तर में अकेले आहें भरते, पंखी से हवा खा रहे थे। ऐसी गरमी और ऐसी उमस की तो कल्पना करना भी दूभर है। तिस पर अपने आप से अपनी भिड़ंत! वे अपनी सत्संग के कतई आदी नहीं थे! उन्हें अपने अस्तित्व का एहसास औरतों की मंडली के बीच ही होता था! अकेले होने पर उन्हें ऐसा लगता कि जैसे अपनी थुलथुल देह को अपने नाखूनों से ही नोच-नोचकर नष्ट कर डालेंगे!
संयोग का करिश्मा कि सुहाने सपने की तरह बीसेक महिलाओं का हुजूम उनके दरीखाने आ धमका—जैसे बरसाती हवा के शीतल झोंके ने उनके झुलसते मन पर बयार की हो! सोने का सूरज किसी से पूछकर नहीं उगता! उसे उगना होता है तो अमावस की रात को भी उग जाता है! जोर से हाँक लगाते हुए उन्होंने चपरासी को कुरसियाँ लाने का हुक्म बघारा। कुरसियों की पूर्ति होते ही उन्हें तत्काल एक दूसरा उपाय सूझ गया। पसीने से तरबतर मंडली के अलग-अलग चेहरों की बिगड़ी रंगत देखी तो दूसरे ही क्षण वे दफ्तर से बाहर निकले और उनके श्रीमुख से नीम की सघन छाया में जाजम बिछाने का फरमान गूँजा।
लेकिन आज उस मंडली के सामूहिक दल में एक दूसरा ही कुतूहल फड़फड़ा रहा था। जोधपुर की सड़कों व गली-गलियारों में सर्वत्र हवा की तरह यह खबर फैल गई कि हत्यारे डकैत मंगलसिंह की तमाम गैंग का सफाया हो गया। नौ डकैतों की लाशें पुलिस लाइन के मैदान में जनता के दर्शनार्थ रखी गई हैं! एक हरामजादे डाकू ने मरते-मरते दो सिपाहियों के साथ एस.पी. अमरनाथ को भी शहीद कर दिया। सारे शहर में कुहराम मच गया। मरे हुए डकैतों को देखने के लिए निर्भय भीड़ उमड़ पड़ी। बेचारे डकैत खून में लथपथ चुपचाप पड़े हैं! डरने जैसी कोई बात नहीं! उनसे तो अब मक्खियाँ भी नहीं डरतीं!
दफ्तर की दाहिनी बाजू खड़े होते ही सामने सड़क पर भीड़ अपनी धुन में भागती नजर आई। साइकिलों के पैडल चकरी चढ़े हुए थे। पैदल भीड़ कुहनियाँ दुहरी किए इस कदर जूते फटकारती उन्मत्त हो रही थी, जैसे उसी के द्वारा सभी डकैतों का खात्मा हुआ हो!
कि अचानक फाटक में घुसते मुरलीधर के पीछे सुलोचना राय पर जगत-चाचा की निगाह पड़ी। जहाँ खड़े थे, वहीं से गरजती हाँक लगाई, ‘‘आज तो गुरुवर जुगल-जोड़ी सहित पधारे हैं! आखिर समझाने से सुमत आ ही गई न?’’
पास आए तो तकाजा करते पूछा, ‘‘जरा देखूँ, आपके हाथ की लिखावट कैसी है?’’
‘‘थोड़ा सा जाप बाकी है। यहीं बैठकर पूरा कर लेंगे।’’ सुलोचना ने मुसकान दबाने की निष्कल चेष्टा करते कहा।
उनके जी-में-जी आया। मुरलीधर की तरफ परिहास की बौछार करते कहने लगे, ‘‘महामना मुरलीधरजी अभी से प्रियतमा के कहे-कहे घुटनों के बल चलने लगे तो दिल्ली कब पहुँचोगे?’’
‘‘इन्हें दिल्ली पहुँचना ही नहीं है!’’ कांता बहल ने जाने किस आशय से यह युक्ति कही, वही जाने। पर इसके साथ ही हँसी का फव्वारा छूटा। किंतु मुरलीधर के होंठों पर न मुसकराहट, न हँसी और न खीज। इस बेहूदी मजाक से उसके स्वयंभू स्वभाव की रंचमात्र भी रौनक नहीं बदली। जैसे उसने कुछ सुना ही न हो। जगत-चाचा के कानों में उस अभेद्य मौन की दहाड़ ही सबसे अधिक गूँज रही थी! उन्होंने झुँझलाकर तिरछी आँखों से सुलोचना की तरफ देखा। हँसी की बात तो दूर, हल्की सी मुसकराहट का रेशा तक उसके थोबड़े पर मौजूद नहीं था। उल्टे घिन व तिरस्कार की झाँई उसकी सूरत पर साफ झलक रही थी। एक मामूली मजाक से इतनी जल-भुन गई। धर्म व जाति को तिलांजलि देकर विवाह से पहले पराए मर्द के साथ रंग-रलियाँ मनाते कुछ भी शर्म नहीं आती तो दो चुभते बैन सुनकर बौखलाहट क्यों होती है? पैदल पाँव रगड़ती-रगड़ती साथ
आई, जैसे उसकी छाया हो! पराए मर्द की ऐसी भूख हो तो खुलेआम ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है? चुपचाप अपना पूआ सेंक ले! इसीलिए तो कुदरत अँधेरा करती है! अँधेरे के काम तो अँधेरे में ही शोभा देते हैं! मौज-मस्ती की गफलत में थैली भर गई तो ठौर-कुठौर झींकती फिरेगी! तब जगत-चाचा के अलावा संकट की उस वेला में कोई माई का लाल साथ नहीं देगा। अपना नाक अपने चेहरे पर। समाज का नाक समाज के भाल पर। ऐसी पाशविक छूट से तो किसी का नाक नहीं बचेगा। कैसी सलोनी सूरत थी, लाखों में एक! अब कैसा हुलिया बिगड़ने लगा। डायन को भी उबकाई आ जाए! चमड़ी का आकर्षण तो भीतर के गुणों से है! तभी तो वैसा लाजवाब रूप कैसा भौंडा हो गया? जगत-चाचा को ऐसा महसूस हुआ कि उनके शरीर का जोड़-जोड़ छिटक पड़ेगा!
उधर महिलाओं की मंडली में एक दूसरी ही उत्सुकता उमड़ रही थी। पल भर की ढील भी उन्हें निरंतर कोंच रही थी। दौड़ती-भागती भीड़ की तरफ इशारा करते पाँच-सातेक महिलाओं ने एक साथ आग्रह किया, ‘‘जगत-चाचा, हम सबने मरे हुए डकैतों को देखने का कार्यक्रम बनाया है। आपके साथ चलें तो चौगुना मजा आएगा। तभी तो आपके दरबार में हाजिर हुई हैं। चलिए, चलिए, यहाँ दफ्तर में तो यों ही बड़ी उमस है।’’
संज्ञाविहीन दिशा-भ्रमित राहगीर को जैसे सही और घूम रास्ता मिल गया हो। जगत-चाचा ने राहत महसूस की, अन्यथा किसी अदीठ पहाड़ के बोझ तले वे दब रहे थे। मुरलीधर वाली असह्य दास्तान को परे ठेलकर उन्हें गंभीरतापूर्वक समझाने लगे, ‘‘ऐसी गलती भूलकर भी मत करना। सरकार ने नादानी की वही काफी है! मेरा वश चले तो बच्चों को ऐसा सड़ा-गला सपना भी नहीं देखने दूँ और तुम साथ चलने का आग्रह कर रही हो? आज पहली बार तुम्हें मना करने की छूट ले रहा हूँ।’’
नीम की सघन छाँह तले बिछी जाजम पर खड़े होकर वे चारों तरफ हाथ घुमाते कहने लगे, ‘‘तुम सभी तो दुनिया को जन्म देने वाली माँ हो, माँ! जगत-जननी! तुम्हें मौत के दर्शन शोभा नहीं देते! मैं सरकार की तरह मूर्ख नहीं हूँ! अभी पुलिस-लाइन की फाटक के सामने बालचरों की फौज खड़ी कर दूँगा। किसी भी नन्हे-मुन्ने या महिला को इधर झाँकने की छूट नहीं मिलेगी। उनके मन पर कितना बुरा असर पड़ेगा? कुछ अंदाज है?’’
माया पँवार एक बच्चे की नाईं हठ करते बोली, ‘‘नहीं साहब...।’’
‘‘फिर वही गफलत।’’ उन्होंने बीच ही में टोकते हुए फरमान सुनाया, ‘‘सात दफा बोलो—जगत-चाचा, जगत-चाचा।’’
अपनी भूल स्वीकार करने के बाद वह कहने लगी, ‘‘लेकिन जगत-चाचा, डकैतों की लाशें देखने का ऐसा सुनहरा मौका कब मिलेगा? और वे भी कोई एक-दो नहीं, पूरी नौ! जरा मुलाहिजा तो करें कि डकैत कैसे होते हैं?’’
‘‘कैसे क्या, हू-ब-हू मेरे जैसे!’’
‘‘हे राम! आप क्या डकैतों जैसे हैं?’’ अनुराधा भंडारी ने बाल-सुलभ जिज्ञासा व्यक्त की।
‘‘ना-ना, मैं डकैतों जैसा नहीं हूँ। बिल्कुल नहीं। कहने का मतलब कि सभी डकैत मनुष्यों जैसे ही मनुष्य होते हैं—वही दो हाथ, दो पाँव, दो आँखें, दो कान, एक सिर, एक पेट और दो नाक!’’
‘‘दो नाक?’’ गुल अडवानी ने अचरज के स्वर में दोहराया।
‘‘हाँ-हाँ, दो नाक। अपनी तरह एक ही नाक होता तो लाज के वशीभूत कटने के डर से वे मनुष्य होकर डकैतों जैसा नीच काम करते भला?’’
‘‘नीच, नीच कैसे? डकैतों का काम तो हिम्मत व हौसले का है!’’ प्रतिभा केलकर ने भी दृढता के साथ प्रतिवाद किया।
‘‘मनुष्य की हत्या करने में कैसी हिम्मत और कैसा हौसला? हिम्मत व हौसले का काम है—मनुष्य को जन्म देना! अपनी देह का खून पिलाकर उसका पोषण करना! हिम्मत, हिम्मत वाली तो तुम हो। केवल तुम! माँ बनने जितनी जोखिम का काम तो दुनिया में कोई दूसरा है ही नहीं! जगत-चाचा की गीता का सार तत्त्व यही है! तभी तो मैं तुम सबका इतना आदर करता हूँ। बोलो, हिम्मत का काम मनुष्य को मारना है या उसे जन्म देना। माँ बनने की जोखम उठाना! माँ बनने की पीड़ा सहन करना। बोलो, बोलो...!’’
सभी को देर-सबेर माँ बनने की जोखम उठानी है। फिर कोई क्या बोलती! सार तत्त्व का चरम मंत्र सुनाकर वे ज्यों ही टाँगें पसारकर जाजम पर बैठे तो सभी महिलाओं को भी मन मारकर उनके इर्द-गिर्द बैठना पड़ा। नीची निगाह किए इस तरह लाज से संकुचित होने लगीं, जैसे प्रसव की पीड़ा एक साथ कसक उठी हो! उस असहनीय स्तब्ध शांति में जब एक क्षण बिताना भी दूभर हो गया तो कांता बहल ने हिम्मत करके पूछा, ‘‘लेकिन जगत-चाचा, मुकाबला होने पर यह पुलिस भी तो डकैतों का सफाया करती है!’’
जगत-चाचा ने एक नजर फेंककर सुलोचना की पड़ताल की। थोबड़े की रंगत वैसी ही कायम थी। पहले तो ऐसी विरक्त कभी नहीं रही। उनकी परख में खोट तो नहीं रहनी चाहिए। फिर यह तंदुरुस्त पट्ठा देखते ही कैसे फिसल गई? समझ नहीं पड़ता कि गिरगिट ज्यादा रंग बदलता है या औरत? मगर सभी औरतें ऐसी बदचलन नहीं होतीं! कृत्रिम उल्लास के लहजे में कांता बहल की सराहना की, ‘‘शाबाश! मुझे तुमसे ऐसी ही अकाट्य शंका की आशा थी। बापू के अमोघ-मंत्र का महातम यही है—हृदय परिवर्तन!’’
उतावले चपरासी को अब तक फरियाद करने का मौका ही नहीं मिल पाया। हृदय-परिवर्तन की यह चरम स्थिति आते ही उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘साहब...।’’
साहब तो आज अपने ही भीतर डुबकियाँ लगा रहे थे! हमेशा वाले उत्फुल्ल उन्माद की आधी खुमारी भी उनके अंतस् में नहीं थी। फिर भी अपने नाम का गलत संबोधन उनके कान में कंकड़ की तरह उछला! गुस्से का स्वाँग करते हुए चपरासी के बहाने मानो मुरलीधर को सुनाने की गरज से उन्होंने कहा, ‘‘साहब नहीं, जगत-चाचा, जगत-चाचा! लगाओ सात उठक-बैठक!’’
चपरासी ने दोनों कान पकड़ते हुए कहा, ‘‘जगत-चाचा, दफ्तर के सभी बाबू और चपरासी डाकुओं को देखने के लिए आपकी इजाजत माँग रहे हैं।’’
जगत-चाचा धर्म-संकट में फँस गए। अभी-अभी तो इन छटपटाती महिलाओं को वहाँ जाने से जबरन रोका। उन्हें रोकना जरूरी था और इन्हें भेजना जरूरी है! महिलाओं के अलावा बाकी दफ्तर खाली होने पर वे ज्यादा मुक्त हो सकेंगे! उनकी बुद्धि झरने की तरह निर्बाध बहने लगी। अन्यथा शिष्टाचार की लोक-दिखावटी लीक तो पीटनी ही पड़ती है। उन सबको उदारतापूर्वक इजाजत देने के बाद चपरासी को यह जरूरी हिदायत देना भी नहीं भूले कि वह उम्दा कॉफी बनाकर लाए, फटाफट।
‘‘कितनी?’’
‘‘क्या रोज-रोज बताना पड़ेगा? पहले इन सबके लिए, फिर मेरे लिए।’’ कोई हुक्म बजाने वाला हाजरी में तैनात हो तो हुक्म देने वाले के मन में पारस्परिक विषमता के हिंसक आनंद की एक प्रच्छन्न अनुभूति होती है; जिसका उसे भी आसानी से पता नहीं चलता।
चपरासी का मन भी डकैतों के लिए लालायित हो रहा था। झुककर निवेदन किया, ‘‘हुजूर...नहीं-नहीं जगत-चाचा, मैं भी सबके साथ...।’’
‘‘क्यों, अकेले डर लगता है?’’ फिर थोड़ा रुककर बोले, ‘‘ऐसी भी क्या उतावली है। मरे हुए डकैत फिर से जिंदा तो होने से रहे! कॉफी बनाकर चले जाना। तू कहे तो ये सारी लाशें तेरे घर पहुँचा दूँ?’’
चपरासी का जोश ठंडा पड़ गया, जैसे कोई मीठा सपना भंग हो गया हो या उसे निलंबित कर दिया हो! मुँह लटकाए कॉफी बनाने के लिए रवाना हो गया।
इतना देर तक जगत-चाचा ने एक बार भी मुरलीधर की तरफ भूल-चूक से भी नहीं देखा, फिर भी उसकी सूरत उनकी आँखों से ओझल कहाँ हुई? कई बार आँखों के बिना भी दिखता है! कानों के बगैर भी सुनाई पड़ता है! सुख के समय भी और दुःख के समय भी! जगत-चाचा ने ऐसी दारुण वेदना कभी नहीं झेली। किसी खूँखार प्रतिच्छवि का सहारा लेना ही होगा। तत्काल एक अचीती आकांक्षा की वाणी में कहने लगे, जैसे इस विकट स्थिति से बचने का उन्होंने समाधान खोज लिया हो। ‘‘मैं...मैं क्या कह रहा था...हाँ, हृदय-परिवर्तन, हृदय-परिवर्तन।...यदि मैं एस.पी. होता?’’
‘‘तो इस शिक्षा विभाग की जर्जर नैया को कौन पार लगाता?’’ गुल अडवानी ने सुगंभीर स्वर में पूछा।
‘‘डरा मत, सचमुच का एस.पी. नहीं। थोड़ी देर के लिए मान लो मैं एस.पी. होता।’’
‘‘ऐसी गंदी बात हम मानें ही क्यों? यदि आप एस.पी. होते तो आपको अमरनाथजी की तरह मरना पड़ता!’’ माया पँवार की आशंका भी निर्मूल नहीं थी।
‘‘ना, ना।’’ वे सिर हिलाते हुए कहने लगे, ‘‘मैं एस.पी. अमरनाथजी की तरह गावदी नहीं हूँ। डकैतों की बंदूकों का धमाका सुनते ही जमीन पर लंबा पसर जाता।’’ और वे सचमुच सहज भाव से जाजम पर औंधे पसरते ही दिखाई दिए। फिर
थोड़ी गरदन उठाकर धीरे से पूछा, ‘‘अब तुम्हीं बताओ, इस पोजीशन में गोली कैसे लगती?’’
आलीजा अफसरों का सारा कुनबा ऐसा ही होता है या फकत शिक्षा विभाग के दिनमान ही खोटे थे...?
उमड़ती हँसी को जब होंठों से बाहर उछलने का मौका नहीं मिलता तो वह अंतःसलिला भीतर-ही-भीतर कल-कल निनाद करने लगती है! परंतु जगत-चाचा तो अपने ही प्रवाह में बहते चले जा रहे थे! उन्होंने बिजली की तरह फुरती से पोजीशन बदली, जैसे प्रत्यक्ष मुकाबले में घुटनों के बल बैठकर बंदूक का निशाना साध रहे हों। ‘‘इसी तरह, हाँ बिल्कुल इसी तरह, डाकुओं को खुली चुनौती देता, खबरदार! किसी ने गोली चलाने की हिमाकत की तो एक-एक को भून डालूँगा! मनुष्य योनि में जन्म लेकर क्यों दर-दर भटक रहे हो? हथियार फेंककर आत्म-समर्पण कर दो तो आगे की सारी जिम्मेवारी मेरी। ठाठ से घर बसाओ, अपना काम-धंधा करो, अपनी पत्नियों को आराम से बगल में लेकर सोओ और अपने बच्चों को जगत-चाचा की सीख मुजब खूब पढ़ाओ। हर बच्चे को स्कूल में भरती करवाने के साथ-साथ उसे छात्रवृत्ति दिलवाने का वादा करता हूँ। फिर तुम्हें पता चलेगा कि मनुष्य की जिंदगी का मतलब क्या है? और वे आश्वस्त होकर हथियार फेंक देते। निश्चित होकर मेरी शरण में आ जाते! एक भी डकैत को बेंत मारने की जरूरत नहीं पड़ती। हृदय-परिवर्तन के बाद कैसी हेकड़ी?’’
एस.पी. की प्रतिच्छवि के मुगालते में जगत-चाचा ऐसे भाव-विभोर हुए कि वे थोड़ी देर के लिए भूल गए कि वे शिक्षा विभाग में उप-निदेशक के पद की शोभा बढ़ा रहे हैं! यह भी भूल गए कि सुलोचना राय और मुरलीधर पुरोहित उनके अधीन पढ़ाने का काम कर रहे हैं। यमराज से कम एस.पी. का डर नहीं होता। भूल-चूक से कभी उनके हत्थे चढ़ गए तो हड्डियाँ खनक उठेंगी। एक-एक जोड़ को सौ-सौ बार ठोंक बजाने से पहले वे किसी की कोई बात नहीं सुनेंगे। पुलिस का एस.पी. न औरत का लिहाज रखेगा और न विद्वत्ता का! दस-बीस रंगरूट रगड़म-पट्टी करेंगे तब छिनाल की अक्ल ठिकाने आएगी! तभी उसे अच्छी तरह समझ में आएगा कि टूरियों के उजड्ड प्रेम और मुरलीधर की सूफियानी प्रीत में क्या भेद है? और इस घुन्ने मास्टर का उल्टे उस्तरे से सिर मुँड़वाकर अनगिनत डंडे नहीं बरसाए तो एस.पी. के नाम पर जूती!’’
उनके सामने बैठी प्रतिभा केलकर की चिंता बिल्कुल दूसरी थी। उसके दिल में हृदय-परिवर्तन की बात कतई नहीं जमी तो रू-ब-रू समाधान की इच्छा से पूछा, ‘‘लेकिन जगत-चाचा इन हत्यारे डाकुओं ने सौ-सवा सौ व्यक्तियों के नाक-कान काट डाले, जिन में ज्यादातर बच्चे व औरतें हैं। जिन दुष्टों को इतना भी शऊर नहीं, उन्हें सख्त सजा न देकर फकत हृदय बदलने से क्या नतीजा निकलेगा?’’
‘‘पर अब तो किसी के नाक-कान वापस जुड़ने से रहे! यह तो एक ऐतिहासिक घटना मात्र होकर रह गई। इतिहास की पूँछ छोड़कर हमें आगे, फकत आगे देखना है। इतिहास को रोने से इतिहास नहीं बदलता! नई चेतना जगाने से नए इतिहास का निर्माण होगा! पापी का नहीं, पाप का नाश करो, यही तो नई चेतना हर अंतस् में जगानी है!’’
किंतु अक्ल की दुश्मन पुलिस ने नई चेतना नहीं जगाकर कैसा हुड़दंग मचाया! मुर्दा लाशों को देखने के लिए जिंदा मनुष्यों में होड़ लगी है। रणबंका डकैत धूल में पड़े सड़ रहे हैं—घावों से छके हुए। क्षत-विक्षत रंगों में खून ठसा हुआ। मुँह फटे हुए। मक्खियों की भनभनाहट। हुलिया बिगड़ने पर कंचन-काया कित्ती भौंडी लगती है! किसी की जीभ बाहर निकली हुई तो किसी की पुतलियाँ। इस हैसियत के मालिक भला क्या डकैती करते होंगे? करवट बदलना तो दरकिनार, एक मक्खी तक उड़ाने का दम नहीं! उन्हें मुर्दा जानकर लोगों को अपने जिंदा रहने का अतिरेक आह्लाद हुआ! मरे हुए डाकू तो अब सपना भी क्या देख लें! उनके लिए न तो अब लूएँ चलेगी, न कोई मौसम बदलेगा, न बर्फ पिघलेगी, न सूरज उगेगा और न चाँद! न बादल बरसेंगे और न फूल खिलेंगे! न इन्हें भूख लगेगी, न प्रेम की तलब होगा! यह नासमझ कुदरत भी केवल जिंदा प्राणियों की हाजरी बजाती है। और उधर एस.पी. अमरनाथ के साथ दो सिपाहियों के दाग में कित्ती भीड़ उमड़ी। ऐसा नेकनामी, रहमदिल और हिम्मतवर एस.पी. लाखों में एक पैदा होता है! हजारों लोगों ने गहरी आहें भरीं और झार-झार रोये। यह मानुस तो अपने वश रहते किसी भी मौके पर कोई कमी नहीं रखता। न हँसने में कंजूसी और न रोने में कोताही। यह तो उत्सव-मेल और खेल-तमाशों का ही प्राणी है!
हृदयहीन डकैतों का क्रूर अंतस् पूर्णतया बदलकर जगत-चाचा पद्यासन लगाए जाजम पर ठाठ से बिराजे थे। अनुराधा भंडारी के मन में एक शंका कुलबुला रही थी। दार्शनिक भाव से पूछा, ‘‘जगत-चाचा, मरे हुए इनसान का हृदय-परिवर्तन नहीं हो सकता?’’
‘‘नहीं, हरगिज नहीं।’’ उन्होंने अडिग दृढता के लहजे में अपने ज्ञान का इजहार किया, ‘‘यह बात न बापू के वश की थी
और न जगत-चाचा के वश की है! मरे हुए इनसान के भीतर केवल आत्मा होती है, हृदय नहीं! और आत्मा का स्वरूप कभी नहीं बदलता।’’ अकस्मात् एक भूली हुई बात उन्हें याद आ गई। ‘‘हाँ, एक खास मुद्दे की बात कि शरण मैं आए उन सभी डकैतों को मैं शिक्षा विभाग की बसों का ड्राइवर बना देता!’’
‘‘ना जगत-चाचा, ना। हृदय का क्या भरोसा! वापस बदल गया और कोई हरामी डाकू लड़कियों से भरी बस उड़ाकर चंपत हो गया तो...!’’ गुल अडवानी ने अंगुली हिलाते प्रतिरोध किया।
‘‘गजब हो जाता, गजब। तूने समय पर सावधान कर दिया। कितनी बदनामी से बाहर नहीं टपका। मानो वे बोलना ही बिसर गए हों। उनकी पलकें सिकुड़ने लगीं। तब अपनी निरुद्वेग सहज रौ में सुलोचना ने जगत-चाचा के अधूरे जाप वाला पन्ना अजाने ही मसलकर उनके ऊपर फेंकते हुए कहा, ‘‘बेचारा पुटिया-चाचा...!’’
फिर...जाने किस विलक्षण परितोष की चिर आकांक्षा से सम्मोहित सुलोचना ने मुरलीधर की तरफ देखा। उसके अधरों पर एक ऐसी निरंजन मुसकान धीरे-धीरे प्रतिभासित होने लगी, जिसके निविड़ रहस्य का मर्म यदि उगता सूरज जानने के लिए लालायित हो तो अस्त होने तक बड़ी मुश्किल से जान पाएगा। मगर सुलोचना की दिव्य-दृष्टि ने निमिष-मात्र में उस रहस्य को एकात्म भाव से पूर्णतया हृदयंगम कर लिया और अगले ही क्षण उसके अधरों पर वही मधुर मुसकान स्वतः खिल उठी, मानो मुरलीधर की आधी मुसकान उड़कर सुलोचना के अधरों पर अंकित हो गई हो!
अब और अधिक झेल पाना जगत - चाचा के लिए संभव नहीं था । सहने की भी एक सीमा होती है। उस अपूर्व और कल्पनातीत सम्मिलन की झलक मिलते ही जगत - चाचा की अधमुँदी आँखें पूरी खुल गई और दोनों के निर्लज्ज होंठों पर उन्हें वासना की चिनगारियाँ उछलती सी नजर आई! पटाखे की तरह फूट पड़े, 'बेहया, लफंगे कहीं के! चले जाओ, इसी वक्त चले जाओ। मेरी आँखों से दूर, इतनी दूर कि...!'
दूरी का खुलासा करें, उसके पहले ही वे मूर्च्छित होकर जाजम पर लुढ़क पड़े। कांता बहल और गुल अडवानी नीचे झुककर जोर से चिल्लाई, "जगत-चाचा, जगत - चाचा ! बताइए जल्दी बताइए, किस लेडी डॉक्टर को बुलाएँ ?"
जगत - चाचा की राफों से दोनों ओर थूक झरने लगा। अकस्मात् वे कुछ बड़बड़ाए, “यदि मैं...मैं मुरलीधर पुरोहित होता...!”
“तो सुलोचना आपसे जरूर प्यार करती ! जबरदस्त प्यार करती ! अब तो होश में आइए, जगत-चाचा! "
“जगत-चाचा नहीं, जगत प्रकाश दाधीच ...।" फुसफुसाहट के साथ थूक के कुछ बुदबुदे उठे। उस बेहोशी में भी उन्हें इतना होश जरूर था कि वे कांता बहल की आवाज पहचान गए । मामूली सी पलकें उघाड़कर बोले, “सुलोचना को कहने दो कांता ... यदि मैं मुरलीधर पुरोहित होता...!"
"अरी, झूठ-मूठ ही कह दे, वरना बेहोशी टूटेगी नहीं! इतनी निर्मोही मत बन! " गुल अडवानी के हार्दिक आग्रह में रंचमात्र भी कृत्रिमता नहीं थी। मगर सुलोचना की घृणामय उपेक्षा वैसी ही बनी रही।
माया पँवार सुलोचना का अभिनय करते बोली, “यदि आप मुरलीधर परोहित होते तो मैं जरूर आपसे प्यार करती! "
सुलोचना का प्यार पाने की ललक इतनी बलवती होगी, किसी को भी यह अंदाज नहीं था । ऐसी शारीरिक मूर्च्छा में भी उनके गहनतम प्यार की चेतना कुछ-कुछ सजग थी। भरे गले से बोले, "यह तो किसी और की आवाज है। सुलोचना चली गई क्या?"
“हाँ, चली गई।" यदि जगत- चाचा की सामान्य स्थिति होती तो वे सबसे पहले कांता की यह धीमी आवाज भी सुन लेते, जिस तरह बाकी सबने सुनी थी। सबका अंतस् करुणा से द्रवित हो उठा! झूठ का भी ऐसा अचूक प्रभाव होता है क्या ?
"कह दो सुलोचना...!" मुरलीधर ने सहज विनम्र स्वर में कहा।
सुलोचना को कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा । उसने सहज भाव से मुरलीधर की तरफ देखा । केवल इसी मुँह से ऐसी बात निकल सकती है! उसे अपने आपसे भी ज्यादा सुलोचना पर विश्वास था! उसके अभिमान की सीमा न रही ! फिर भी स्वाभाविक लहजे में बोली, "आप तो जानते हैं कि मैं कभी झूठ बोलती नहीं! "
" तभी तो यह साहस जुटा सका ।... अब यह सच-झूठ का मसला नहीं रहा, किसी के प्राण बचाने का मसला है, चाहे वह छछूंदर या चूहा ही क्यों न हो ! यह नसीहत मैंने तुम्हीं से ग्रहण की है!"
“कुछ मनुष्य तो शैतान से भी बढ़कर होते हैं और उनकी मौत जीवन से कहीं ज़्यादा श्रेयस्कर है ! यह धारणा भी तो तुम्हारी थी !” सुलोचना के स्वर में दृढ़ता के साथ व्यंग्य का हलका पुट भी था ।
“धारणाएँ तो बदलती रहनी चाहिए, सुलोचना । मगर उनका अन्तिम निर्णय कौन करे ? शायद किसी भी अतिमानव को यह अधिकार नहीं है ।"
सुलोचना ने जवाब देने से पहले मुरलीधर की ओर से मुँह मोड़कर जगत- चाचा की ओर देखा तो उसे तुरन्त पता चल गया कि यह बहसबाजी का वक़्त नहीं है। अर्ध-विमूर्छित अवस्था में भी वे अपना धीरज खोते जा रहे थे। बड़ी मेहनत से आधी पलकें क्या उघाड़ीं, जैसे कोई बेइन्तहा बोझा परे सरकाया हो ! याचना भरी दृष्टि से उन्होंने एक बार सुलोचना की ओर देखा, धीरे से फुसफुसाये, “सुलोचना, अब मुझे कोई दूसरी चाह नहीं है! यदि मैं मुरलीधर पुरोहित होता... .।" जगत- चाचा को यकायक ऐसा महसूस हुआ जैसे वे किसी अथाह महासागर के तल से उबरकर बाहर किनारे पर आये हों !
सुलोचना के होठ फरफराये । उसका स्वर और भी सख़्त हो गया । आँखों में कुछ अजीब-सी रोशनी चमक उठी। थोड़ा झुककर बोली, “ मुरलीधर की बात तो दरकिनार, आप अपने सिवाय कुछ भी नहीं हो सकते! यह कोई आँखमिचौनी का खेल नहीं है? मेहरबानी करके आप केवल जगत प्रकाश दाधीच ही बने रहें । आपकी बीमारी का यही एकमात्र उपचार है...! "
जगत-चाचा दोनों हथेलियाँ टेककर उठने लगे तो सुलोचना ने निस्संकोच उनकी पीठ पर सहारा देकर उन्हें आराम से बिठाने का प्रयत्न किया। लेकिन भीतर ही भीतर वह इस तरह सिहर उठी मानो कीचड़ से लिथड़े किसी घायल सूअर का परस किया हो !
जगत-चाचा ने पूरी पलकें उघाड़कर तनिक मुस्कराने का अभिनय करना चाहा तो उनकी आँखें भर आईं। भीगे स्वर में बड़ी कठिनाई से बोल पाए, “तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो, सुलोचना । मुझे भी अब किंचित् बोध होने लगा है कि मैं जो हूँ, वही बना रहूँ तो ग़नीमत है ।... तुम दोनों मेरे क़रीब तो आओ, आशीर्वाद देकर अपने मन का कसैलापन थोड़ा कम कर लूँ ! और... थोड़ा और क़रीब आओ ! मेरी चेतना एवं शक्ति बुरी तरह निचुड़ गयी! दुबारा जीने की इतनी यातना तो सहनी पडेगी ! नहीं-नहीं... मै तुम्हें आशीर्वाद देने के योग्य नहीं हूँ ! उलटे मुझे तुम दोनों का आशीर्वाद चाहिए। देखो तो... कैसी भयंकर ग़लती होते-होते बच गयी! दुबारा जीने का हौसला जुटाने के लिए क्या मुझे इतना सहारा भी नहीं दोगे...?”
3 अगस्त, 1992
अदीतवार, सबेरे 8.30 बजे