पेड़ पर जेवर (कहानी) : गोनू झा

Ped Par Zevar (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

गोनू झा अपनी तीव्र बुद्धि के कारण न केवल मिथिला में प्रसिद्ध थे बल्कि उनकी प्रसिद्धि दूर-दराज तक पहुँच गई थी । उनके वाणी-चातुर्य की सराहना मिथिला नरेश कई बार भरे दरबार में कर चुके थे। गोनू झा के कारनामों की चर्चा नमक-मिर्च लगाकर, उनसे जलने वाले भी लोगों से करते रहते थे। गोनू झा ने अपनी अक्लमन्दी के नए कीर्तिमान स्थापित किए थे। उन कीर्तिमानों में एक था गाँव में चोरी की घटनाओं पर अंकुश लगाना । अपनी बुद्धि के बूते गोनू झा ने गाँव में सक्रिय चोर -गिरोह को न केवल पकड़वाया था बल्कि उन्हें सजा भी दिलाई थी ।

सजा काट रहे चोर संकल्प ले चुके थे कि सजा की अवधि पूरी होने के बाद जैसे ही वे कारागार से बाहर आएंगे, वैसे ही गोनू झा को मजा चखा देंगे । चोरों की सजा की अवधि भी पूरी हुई और वे कारागार से बाहर भी आ गए । अपने संकल्प के अनुरूप कारागार से निकलकर वे सीधे गोनू झा के आवास की ओर गए और गोनू झा के मकान के आस-पास मँडराने लगे।

सूरज डूब चुका था । नीम अँधेरा फैला हुआ था । चोरों के सरदार ने अपने साथियों को बुलाकर कहा-“तुम लोग घर जाओ। आज मैं अकेले ही गोनू झा के घर में चोरी करूँगा। जो कुछ भी हाथ लगेगा, उसमें तुम सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा।"

चोरों में से एक ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि चोरों के सरदार ने कहा-“कोई अगर-मगर करने की जरूरत नहीं। गोनू झा मेरा शिकार है, उससे मुझे अकेले निपटने दो । तुम लोग अपने-अपने घर जाओ। अपने बाल- बच्चों से मिलो । मुझे अकेला छोड़ दो ताकि मैं गोनू झा से निपटने के लिए कोई तरकीब सोच सकूँ। गोनू झा को अपने तिकड़मी दिमाग का बड़ा गुरूर हो गया है, मैं उसे ऐसा सबक सिखाना चाहता हूँ कि वह जिन्दगी भर याद रखे और अपने दिमाग पर इतराना भूल जाए।"

बात सरदार की थी । किसी दूसरे चोर को कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं हुई । सरदार को अकेला छोड़कर शेष सभी चोर अपने-अपने घर की ओर चल दिए ।

चोरों का सरदार गोनू झा के घर की चहारदीवारी के पास चहलकदमी करने लगा। उसने अपने कंधे पर लटक रहा गमछा हाथ में ले लिया और अपने माथे पर लपेट लिया – पगड़ी की तरह । और फिर वहीं टहलने लगा ।

गोनू झा दरबार से निकलकर बाजार होते हुए लौट रहे थे। हाथ में एक झोला था जिसमें उन्होंने कुछ सब्जी-भाजी खरीदकर रख ली थी । उनकी पत्नी ने सुबह ही कहा था -" शाम को सब्जी लेते आइएगा। नहीं तो रात को खाने में सब्जी नहीं मिलेगी। अचार-मुरब्बा से ही काम चलाना पड़ेगा...फिर मुझसे कुछ मत कहिएगा ।"

गोनू झा जब अपने अहाते की तरफ मुड़ने लगे तो चोरों का सरदार निश्चिन्त भाव से चलता हुआ उनके पास आ गया और बोला -" राम-राम पंडित जी !”

गोनू झा ने उसकी तरफ देखा तो पहचान नहीं पाए कि यह आदमी कौन है, फिर भी औपचारिकतावश उन्होंने जवाब दिया -" राम राम !"

चोरों के सरदार ने कहा-“पंडित जी ! आप तो मुझे नहीं पहचानते होंगे लेकिन मैं आपको अच्छी तरह जानता हूँ । आपके पड़ोस के गाँव से आपकी कीर्ति सुनकर आया हूँ । मेरे गाँव में चोरों ने उत्पात मचा रखा है । मैंने सुना है कि आपने अपने गाँव से चोरों का सफाया करा दिया । मुझे कोई तरकीब सुझाइए कि अपने घर में चोरी नहीं होने दूं और अपने गाँव वालों को भी चोरों के प्रकोप से बचने की तरकीबें सुझा सकूँ।"

गोनू झा ने जैसे ही चोर की बातें सुनीं तो उनका दिमाग तेज गति से काम करने लगा । आज ही दरबार में उन्होंने चर्चा सुनी थी कि उन्होंने जिन चोरों को पकड़वाया था, आज वे सभी कारागार से रिहा हो गए । इस अजनबी का इस तरह अचानक मिलना और चोरों से बचने की तरकीब पूछना उन्हें सामान्य नहीं लगा । मन में उमड़ रहे सन्देह पर काबू पाने की कोशिश करते हुए गोनू झा ने कहा-“अरे भाई! पड़ोस के गाँव से आए हो तो पड़ोसी हुए । आयँ! हुए कि नहीं ? तब बताओ, क्या यह पड़ोसी का व्यवहार है कि दरवाजे पर खड़ा होकर बात करे ? आयँ, बोलो! ... तरकीब भी बताएँगे और चोर का इलाज भी । लेकिन पहले तुम चलो। एक आध गिलास दूध-मठ्ठा जो भी घर में होगा, उससे तुम्हारा अतिथि-सत्कार करने दो ।"

चोरों का सरदार बहुत खुश हुआ । उसे लगा कि मनमाँगी मुराद मिल गई है। उसने गोनू झा से कहा -" जैसी आपकी आज्ञा पंडित जी ! मेरे जैसा आदमी आपकी बात टालने की हिम्मत भी नहीं कर सकता।"

बात यह थी कि अँधेरा फैल चुका था-गोनू झा उस व्यक्ति को अपने घर ले जाना चाहते थे कि वहाँ लालटेन की रोशनी में उसे अच्छी तरह देख सकें । उनको लग रहा था कि यह व्यक्ति उनके साथ जितने सीधे- सच्चे व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहा है वैसा वस्तुतः वह है नहीं । दाल में जरूर कुछ काला है ।

दूसरी तरफ चोरों के सरदार को लग रहा था कि गोनू झा उसके झाँसे में आ चुके हैं । अब जब वह उनके घर जा ही रहा है तो इससे यह फायदा अवश्य मिल जाएगा कि घर में कहाँ क्या सामान रखा हुआ है, उसका अन्दाज तो निश्चय ही आसानी से लग जाएगा ।

गोनू झा अपने बैठक में चोरों के सरदार के साथ पहुंचे और उसे आसन पर बैठाया तथा पंडिताइन को आवाज देकर लस्सी बनाने को कहा। लस्सी आ गई तब गोनू झा ने लस्सी का लोटा थमाते हुए कहा, “लो भाई, लस्सी पियो और अब बताओ कि मुझसे क्या चाहते हो ?"

ऐसा कहते हए गोनू झा ने लालटेन की बत्ती तेज की और चोरों के सरदार की ओर देखने लगे । गोनू झा को ऐसा लगा कि इस व्यक्ति को उन्होंने कहीं देखा है। मगर उन्हें याद नहीं आ रहा था कि कहाँ और कब ।

चोरों के सरदार ने पुनः अपनी वही बात दुहराई और घर में इधर-उधर देखते हुए लस्सी पीने लगा ।

अचानक गोनू झा को याद आया अरे ! यह तो वही आदमी है जिसको उन्होंने अपने घर में पलंग के नीचे चोरी की मंशा से छुपे रहने पर, एक रात पड़ोसियों को बहुत चालाकी से पुकारकर पकड़वाया था । बस, फिर क्या था ! उन्होंने क्षण भर में समझ लिया कि यह चोर उनसे बदला लेने के इरादे से ही आया है। उन्होंने इस बात को प्रकट नहीं होने दिया और कहा-“अच्छा हुआ भाई-तुम यहाँ आ गए! मुझे लगता है कि भगवान ने ही तुम्हें मेरी मदद के लिए भेजा है। तुम्हारी मदद तो बाद में होगी, मेरी तो समझो कि हो गई ।"

चोरों का सरदार गोनू झा की बात सुनकर चकरा गया-“अरे! यह क्या कह रहे हैं पंडित जी आप? मैंने क्या मदद कर दी आपकी?"

गोनू झा मुस्कुराते हुए बोले – “अरे भाई! इतनी- सी बात भी नहीं समझे ? सचमुच तुम बड़े भोले हो ! अरे, जब चोरों का उत्पात पड़ोस के गाँव में हो रहा है तो क्या चोर जिन्दगी भर उसी गाँव में चोरी करेंगे ? एक-दो दिन में किसी दूसरे गाँव में जाएँगे कि नहीं ? पड़ोस के गाँव से निकलकर वे इस गाँव में भी तो आ सकते हैं ! बोलो-है कि नहीं ?"

चोरों के सरदार ने हामी भर दी । वह मन ही मन इस बात पर प्रसन्न हो रहा था कि गोनू झा उसे भोला समझ रहे हैं ।

गोनू झा ने कहा-“चोरों से बचाव का सबसे सीधा और सरल तरीका है कि घर की कीमती चीजों को एक जगह एकत्रित करके उसकी थैली बना लो और उसे ऐसी जगह रखो जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सके कि ऐसी जगह पर कोई कीमती वस्तु, नकदी और जेवरात आदि भी रख सकता है । मैं तो आज ही अपने घर की तमाम चीजें एकत्रित कर ऐसे ही किसी सुरक्षित स्थान पर रख आऊँगा । न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी !...

"थोड़ी देर की चपी के बाद उन्होंने कहा -" तुम्हारे घर के आस- पास कोई पेड़ तो होगा ? अपने घर की कीमती वस्तुएँ एक थैली में रखकर पेड़ की किसी डाल में अच्छी तरह बाँध दो और पेड़ की कुछ पतली टहनियाँ खींच- मचोड़कर उस पर इस तरह झुका दो कि किसी की नजर भी वहाँ पड़े तो थैली उसे दिखाई न पड़े।"

चोरों का सरदार बहुत खुश हुआ ।

गोनू झा ने कहा-“चलो भइया ! अब तुम भी अपने गाँव का रास्ता लो । रात गहरा रही है । अँधेरे में रास्ता सूझता नहीं है। जितनी जल्दी हो अपने घर पहुँचो। ऐसा न हो कि तुम यहाँ चोरी से बचने की तरकीब सीखते रहो और उधर चोर तुम्हारे घर पर हाथ की सफाई दिखा दें ।”

चोरों का सरदार आसन से उठा और गोनू झा को नमस्कार कर वहाँ से चल दिया । गोनू झा की आँखें उसकी पीठ से चिपकी रहीं। वे समझ रहे थे कि चोर कहीं जाएगा नहीं । और हुआ भी ऐसा ही । गोनू झा के मकान से सटे जो गली थी, चोर उसमें मुड़ गया । यह गली गोनू झा के मकान के पिछवाड़े तक जाती थी । गोनू झा के मकान के पिछवाड़े में आम लीची का बगान था । इस बगान में अमरूद, करौंदा, नीबू आदि के पेड़ थे। गली मकान से इतनी सटी हुई थी कि घर में होनेवाली बातें कोई भी गली से गुजरने वाला व्यक्ति सुन सकता था । दरअसल यह गोनू झा की निजी गली थी जो बगान में पहुँचने के लिए बनाई गई थी । स्थिति को भाँप चुकने के बाद गोनू झा ने ऊँची आवाज में अपनी पत्नी से कहा-“जानती हो पंडिताइन ! यह जो भला आदमी आया था वह बता रहा था कि पड़ोस के गाँव में चोरों का उत्पात शुरू हो गया है। निकालो अपने जेवर, सारे के सारे और देखो मेरे बक्से में जितनी भी नकदी है, उसे भी । सब लाओ, जल्दी से । अभी मैं उन्हें बगीचे में ले जाऊँगा और सुरक्षित स्थान देखकर छुपा आऊँगा। चोरों का क्या भरोसा ! आज उस गाँव में तो कल इस गाँव का रुख करेंगे ही ।"

पंडिताइन चकित होकर बाहर आई और कुछ पूछने को उद्यत हुई तो गोनू झा ने उसे चुप रहने का इशारा किया ।

चोर कहीं गया नहीं था । गली में गोनू झा के कमरे की खिड़की के पास दुबककर कमरे में होने वाली बातें सुन रहा था । इस बात का अहसास गोनू झा को भी था । गोनू झा अपनी जगह से उठे और चीखकर पूछा -"पंडिताइन वह बड़का चद्दर कहाँ है ? खोज रहे हैं तो मिलबे नहीं करता है ? अरे भगवान, सामान तो ठीक से रखा करो कि जरूरत पड़ने पर तुरन्त मिल जाए ।"

पंडिताइन उनकी बात सुनकर खीझ उठी और तड़ककर बोली-“यह अचानक आपको क्या हो गया ? इतना काहे गरज रहे हैं ? कौन चद्दर चाहिए ?"

गोनू झा उसी तरह गुस्से में झल्लाते हुए ऊँची आवाज में बोले-“सारी रामायण पढ़ गए और सीता किसकी जोरू ? अब हम तुमसे कुछ नहीं बताएँगे । मुझे करने दो, जो कर रहा हूँ। बस, अब कुछ बोलना नहीं !"

चोरों के सरदार ने घर में खट-पट की आवाजें सुनीं । तकरीबन एक घंटे तक यह खटाक पटाक रुक-रुककर होता रहा । फिर गोनू झा एक बड़ी-सी पोटली सिर पर उठाए आते दिखे। चोरों का सरदार दीवार से चिपककर साँस रोके खड़ा रहा। गोनू झा सीधे बगीचे में गए। चोरों का सरदार वहीं से बगीचे की आहट लेने लगा। उसने डाल टूटने की आवाज सुनी । पत्ते निचोड़े जाने की आवाजें सुनीं । फिर ऐसी आवाज भी सुनी जैसे कोई किसी ऊँची जगह से छलाँग लगाने से पैदा होती है । उसने मन ही मन अनुमान लगाया कि गोनू झा के सिर पर जो बड़ी-सी पोटली थी, उसमें गोनू झा के घर के कीमती सामान, जेवर व नकदी रहे होंगे जिसे लेकर गोनू झा बगीचे के किसी पेड़ पर चढ़े और किसी डाल पर बाँधकर पेड़ से नीचे उतरने के लिए पेड़ की किसी निचली डाल से उन्होंने छलाँग लगा दी । और अब वे गली की ओर आ रहे होंगे । चोर तेजी से गली के बाहर निकल आया । चोर का अनुमान सही था । थोड़ी ही देर में गोनू झा बगीचे से गली में आए और उससे गुजरकर अपने घर में घुसे और दरवाजा बंद कर लिया ।

गोनू झा के बगीचे में एक आम के पेड़ पर मधुमक्खियों का एक बड़ा- सा छत्ता था जिसके बारे में गोनू झा को पहले से पता था । उन्होंने अपने सिर पर जो पोटली रखी थी उसमें घर का कचड़ा भरा था जिसे गोनू झा बगीचे के एक कोने पर बने गड्ढे में फेंक आए थे। अपने कमरे में आकर वे जोर से बोले-“अरे पंडिताइन, अब काहे को मुँह फुलाए बैठी हो ? अरे तुम्हें तो इस गोनू झा को धन्यवाद देना चाहिए जो तुम्हारे जेवर को सुरक्षित स्थान पर रख आया है।” आवाज इतनी ऊँची थी कि चोरों के सरदार के कान तक आसानी से पहुँच गई । निस्तब्ध रात थी । अगर कोई आवाज थी तो झींगुरों की झन झन झन झन ! बस ! गोनू जानते थे कि अब क्या होनेवाला है । वे मुस्कुराते हुए अपने बिस्तर पर आए और लालटेन की बत्ती धीमी की और लेट गए।

तीन पहर रात गुजर चुकी थी कि बगीचे से बहुत जोरों से आवाज हुई-'धप्प !' और इसके साथ ही कोई जोर से चीखा -" बाप रे! बचाओ।"

गोनू झा समझ गए कि क्या हुआ है। उन्होंने पंडिताइन को जगाया । हाथ में लाठी और रस्सी ली । पंडिताइन से कहा कि वे लालटेन लेकर साथ चलें । पंडिताइन के साथ जब गोनू झा बगीचे में पहुँचे तो माजरा देखकर मुस्कुराए बिना नहीं रह पाए । चोर जमीन पर सरकने की कोशिश करता जा रहा था और बेचैनी से बिलबिला रहा था । गोनू झा को समझते देर न लगी कि यह चोर पेड़ पर चढ़ा और मधुमक्खियों के छत्ते को जेवर की पोटली समझकर उसे नोंचने लगा । जाहिर है कि मधुमक्खियों ने उस पर हमला बोल दिया । मधुमक्खियों के डंक के कारण चोर पेड़ से गिर पड़ा और शायद पेड़ से गिरने के कारण उसका पैर टूट गया है जिसके कारण वह घिसट रहा है । मघुमक्खियों का क्रोध भी शान्त नहीं हुआ है और चोर उनके डंक से अब भी आहत हो रहा है ।

गोनू झा ने बगीचे की जमीन पर पड़े सूखे पत्तों को समेटकर एकत्रित किया और उसमें आग लगा दी जिससे धुआँ उठने लगा और थोड़ी ही देर में मधुमक्खियाँ वहाँ से गायब हो गईं । फिर गोनू झा ने पड़ोसियों को आवाज दी । लोग जगे और बगीचे में पहुँचे। गोनू झा ने उन्हें सारा वाकया बताया । फिर क्या था . लोगों ने चोर को कब्जे में ले लिया । चोर के एक पैर की हड्डी टूट गई थी इसलिए लोगों ने उसकी पिटाई नहीं की । चोर को हवालात भेजने से पहले गोनू झा ने चोरों के सरदार से कहा -" क्यों भाई? मैंने तुमसे कहा था न कि चोर का इलाज भी बताऊँगा। कैसा रहा इलाज ? ... जय राम जी की !"

  • मुख्य पृष्ठ : गोनू झा की कहानियाँ : मैथिली कहानियां हिंदी में
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां