नहले पर दहला (कहानी) : गोनू झा

Nehle Par Dehla (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

एक शाम गोनू झा अपने तालाब के पास टहल रहे थे। मंद-मंद बयार बह रही थी । गाँव के घरों से धुआँ उठने लगा था । पनिहारिनें कुओं से पानी लेकर अपने घरों की ओर जा रही थीं । कभी-कभी कुछ हलवाहे अपने हल और बैल के साथ खेतों से निकलकर पगडंडियों से गुजरते दिख पड़ते थे। तालाब के पास से जब वे गुजरते तो बैलों के गले में बँधी घुँघरुओं की पट्टी से मधुर ध्वनि निकलती और पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़ियों की चहचहाहट के साथ मिलकर एक संगीत मिश्रित शोर पैदा करती ।

शाम का यह मंजर बहुत मनभावन था । गोनू झा शाम के इस सौन्दर्य को निहारते हुए कुछ गुनगुना रहे थे। तभी दूर से आते युवराज को देखकर गोनू झा की तन्द्रा भंग हुई । वे चकित से देख रहे थे कि महाराज का किशोर पुत्र उनकी तरफ ही तेज-तेज चलते हुए आ रहा है ।

गोनू झा के लिए यह अप्रत्याशित था कि महाराज का बेटा गाँव की पगडंडियों से पाँव पैदल चलता हुआ इस तालाब तक आए मगर यह सच था-थोड़ी ही देर में राजा का बेटा उनके सामने खड़ा था ...। गोनू झा ने उसकी ओर देखा । युवराज हाँफ-सा रहा था । तेज चलने के कारण उसकी साँसें फूल गई थीं । युवराज ने गोनू झा के पास पहुँचकर उन्हें नमस्कार किया ।

गोनू झा ने युवराज की ओर देखकर मुस्कुराते हुए पूछा -" क्या बात है युवराज , गाँव की सैर के लिए निकले हो ?"

युवराज ने अपनी साँसों पर काबू पाते हुए कहा-“पंडित जी , मुझे कोई सच सा लगनेवाला ऐसा झूठ बताइए जिससे बड़ा कोई दूसरा झूठ नहीं हो।"

युवराज की बात सुनकर गोनू झा हत्प्रभ रह गए – “अरे !... ऐसा क्या है युवराज ? अचानक आपको यह क्या सूझी कि एक झूठ की तलाश में गाँव चले आए?" गोनू झा ने पूछा । हालाँकि गोनू झा समझ चुके थे कि जरूर कोई ऐसी घटना हो गई है जिससे युवराज परेशान हैं और खुद चलकर उनके पास आए हैं ।

युवराज ने उनकी ओर अनुनय-भरी दृष्टि से देखा और कहा-“बस , पंडित जी , मुझे आप कोई ऐसा झूठ बताइए जिसकी कोई काट नहीं हो ।"

गोनू झा ने युवराज की बेकली भाँप ली और उसका कंधा थपथपाते हुए बोले, “युवराज ! आपको झूठ सुनना है तो मैं जरूर सुनाऊँगा। लेकिन यदि आप मुझे बता दें कि आप यह झूठ क्यों सुनना चाहते हैं , तो शायद मैं आपके लिए ज्यादा अनुकूल झूठ बता पाऊँ ।... आइए , घर चलते हैं । वहीं बैठकर बातचीत करते हैं और आपकी जरूरत समझकर कोई झूठ भी आपको बता दूंगा ।"

गोनू झा अपने साथ युवराज को लेकर अपने घर आ गए। पत्नी को आवाज देकर युवराज के लिए मिठाई और लस्सी मँगवाई ।

जलपान से निवृत होकर युवराज ने फिर गोनू झा से कहा-“पंडित जी , शाम ढल रही है । महल में मेरे न होने से वहाँ सभी चिन्तित होंगे । कृपया मुझे कोई झूठ सुना दें , ऐसा झूठ , जिससे बड़ा झूठ कोई दूसरा मुझे नहीं सुना सके !"

गोनू झा ने कहा-“युवराज ! पहले आप मुझे बताएं कि आप ऐसा झूठ क्यों सुनना चाहते हैं ? मुझे पूरी बात बताइए -तभी मैं आपकी कोई सहायता कर सकूँगा ।"

युवराज ने गोनू झा को बताना शुरू किया “पंडित जी ! आज सुबह मैं दीवान और नगर सेठ के पुत्रों के साथ बाजार गया था । वे दोनों मेरे मित्र हैं और सहपाठी भी । हम तीनों बाजार में मटरगश्ती करते हुए इधर-उधर की बातचीत कर रहे थे। थोड़ी देर में ही बातें झूठ पर टिक गईं। सभी तरह-तरह की झूठी गप्पें हाँकते और हँसते । इसी तरह बात -बात में हम तीनों बहुत जोश में आ गए और हममें बाजी लग गई कि जो सबसे बड़ा झूठ बोलेगा , उसे सौ स्वर्ण -मुद्राएँ मिलेंगी।” इतना कहकर युवराज चुप हो गया ।

युवराज की मुखमुद्रा देखकर गोनू झा को यह बात समझ में आ गई कि बात यहीं खत्म नहीं हुई है । उन्होंने युवराज से कहा-“युवराज! आप चुप हो गए ! आगे क्या हुआ, बताइए , नहीं तो मैं आपकी मदद नहीं कर पाऊँगा।"

युवराज ने झिझकते हुए कहना शुरू किया “पंडित जी ! इसके बाद दीवान- पुत्र ने सबसे पहले झूठ सुनाना शुरू कर दिया । उसने कहा-आज से सौ साल पहले मेरे परदादा यहाँ के राजा थे।... और आज जो मिथिला नरेश हैं , उनके परदादा बहुत गरीब थे -निर्धन ! इधर उधर टहल -टिकोला करते उनकी जिन्दगी गुजर रही थी । एक दिन वे मेरे परदादा के पास आए जिससे कि राजकोष से उनकी परवरिश के लिए एक निश्चित रकम वेतन के रूप में मिल सके । मेरे परदादा को उन पर दया आ गई और उन्होंने उन्हें हुक्का भरने के काम पर अपनी निजी चाकरी के लिए रख लिया ..."

युवराज ने आगे बताया “क्या कहूँ पंडित जी , उसकी गप्प सुनते ही मेरी मति मारी गई और मुझे गुस्सा आ गया ।... और मैं गुस्से में बोल पड़ा-झूठ ! बिलकुल झूठ... ऐसा हो ही नहीं सकता ! मिथिला नरेश का वंश- वृक्ष ( वह दस्तावेज जिसमें वंश का उल्लेख रहता है कि वर्तमान नरेश के पिता कौन थे , उनके पिता के पिता , पितामह के पिता , परपितामह के पिता, वृद्ध परपितामह के पिता... यानी सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान तक का पूर्वजीय ब्यौरा) राज महल में उपलब्ध है। चाहो तो देख लो ... मेरा ऐसा कहना था कि दीवान के बेटे ने तपाक से कहा-मैंने कब कहा कि मैं सच कह रहा हूँ ? अरे यार! बात तो झूठ की थी । लो , मैंने सुना दी सबसे बड़ी झूठ ! अब निकालो सौ स्वर्ण- मुद्राएँ। और चूँकि मैं शर्त हार गया था , इसलिए मैंने दीवान पुत्र को सौ स्वर्ण-मुद्राएँ दे दीं ।”

गोनू झा पूरी तन्मयता से युवराज की बातें सुन रहे थे। उन्होंने युवराज की ओर देखते हुए पूछा-“फिर क्या हुआ युवराज ?"

युवराज ने फिर कहना शुरू किया-“पंडित जी ! इसके बाद नगर-सेठ के पुत्र ने कहना शुरू किया -‘ एक बार की बात है ... राज्य में भयंकर बाढ़ आई हुई थी । सारे खेत-खलिहान डूब गए थे। गाँव के लोग जीवन-रक्षा के लिए पलायन कर गए । यही हाल नगर का था । नगरवासी भी बाढ़ की विनाशलीला से बचने के लिए सुरक्षित स्थानों पर आ चुके थे। नगर में केवल मेरा परिवार बचा रह गया था या फिर महाराज का । चूंकि मेरा परिवार व्यापार से धन अर्जन करता है इसलिए हमारे पास अनाज का अकूत भंडार था , जो हमारे भवन के सबसे ऊपरी तल्ले पर रखा गया था कि यदि बाढ़ का पानी हमारे भवन में प्रवेश करे तो अनाज को कोई क्षति न पहुँचे। बाढ़ के कारण, राजभवन के छोटे कर्मचारी और खिदमतगार भाग चुके थे। एक दिन बाढ़ का पानी राजभवन में घुस ही गया और देखते देखते राजभवन का अन्न -भंडार पानी में डूब गया ...। इसके बाद राजभवन के लोग भूख से बिलबिलाने लगे तब महाराज स्वयं मेरे पिता के पास आए और अपना अंग-वस्त्रम उनके सामने फैलाकर विनती की कि सेठ जी ! दया करके हमारे महल में कुछ अनाज की बोरियाँ भिजवा दीजिए ! भगवान आपको मदद करेगा...! ठीक वैसे ही बोल रहे थे महाराज , जैसे भिखमंगे भीख माँगने के लिए बोलते हैं... गुहार लगाते हैं । बस, पंडित जी ! इतना सुनते ही मुझे क्रोध आ गया और मैं नगर सेठ के बेटे पर टूट पड़ा । उसका गला दबाते हुए मैं चीखने लगा-शर्म नहीं आती तुम्हें...महाराज के प्रति ऐसा झूठा बकवास करते हुए ! तुम्हारे पिता जैसे हजार व्यापारी मिलकर भी मिथिला नरेश की सम्पदा की बराबरी नहीं कर सकते ।

"... इसके बाद पंडित जी ! नगर-सेठ के पुत्र ने विनम्रतापूर्वक अपना गला छुड़ाते हुए कहा- क्रोधित न हो युवराज! बात तो झूठ कहने की थी ! मुझे खुशी है कि मैंने आपको सबसे बड़ा झूठ सुना दिया अब आप अंटी ढीला करें ! आप शर्त हार गए...इसलिए निकालिए सौ स्वर्ण- मुद्राएँ। “युवराज ने कहा और लम्बी साँस ली , फिर गोनू झा की ओर देखकर कहा -" बस , पंडित जी ! शर्त के अनुसार मैंने सौ स्वर्ण- मुद्राएँ दे दीं और उन्हें यह कहकर वापस आ गया कि शाम होने को है, मैं अपनी तरफ से झूठ कल सुनाऊँगा।"

...इसके बाद पंडित जी , मैं आपको खोजता हुआ तालाब के पास पहुँच गया । मैं मुश्किल में हूँ पंडित जी , क्योंकि वे दो सौ स्वर्ण-मुद्राएँ राजकोष की हैं । यदि इन्हें कोषागार में नहीं डाला गया तो मैं किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं रह पाऊँगा । पंडित जी ! बस , आप ही मेरी मदद कर सकते हैं ।” इतना कहकर युवराज सिसकने लगा ।

गोनू झा अपने स्थान से उठे और उसकी पीठ थपथपाते हुए बोले – “शान्त हो जाएँ युवराज ! अभी आप घर जाएँ । विश्राम करें । कल मैं आपके साथ वेश बदलकर चलूँगा और मैं झूठ सुनाऊँगा-उन्हें ! आपके दो सौ स्वर्ण- मुद्राओं के स्थान पर उनसे चार सौ स्वर्ण मुद्राएँ दिलवाऊँगा। आप चिन्ता न करें । हाँ , कल जब मैं आपके साथ चलूँ तो आप अपने मित्रों से मेरा परिचय यह कहते हुए कराएँ कि ये मेरे मामा हैं ... यह सब कहते हुए आप बिलकुल नहीं घबराएँ...बाकी मैं सँभाल लूँगा।"

युवराज आश्वस्त होकर गोनू झा के घर से राजमहल वापस लौट गया ।

दूसरे दिन गोनू झा के साथ युवराज बाजार पहुँचा। थोड़ी ही देर में दीवान का पुत्र और नगर-सेठ का पुत्र भी वहाँ पहुँच गए । दोनों मन ही मन प्रसन्न थे कि कल तो युवराज से सौ-सौ स्वर्ण-मुद्राएँ दोनों ने जीत ली थीं , शायद आज भी कुछ लक्ष्मी- कृपा हो जाए । युवराज अपने मित्रों के साथ बाजार के मध्य में बने चबूतरे तक आया जहाँ बाजार में आए लोग आवश्यकता पड़ने पर विश्राम करते थे। इसके बाद उसने अपने मित्रों का परिचय अपने मामा बने गोनू झा से कराया । युवराज के मित्र उतावले हो रहे थे कि युवराज सफल नहीं होगा और उन्हें फिर सौ-दो सौ स्वर्ण -मुद्राएँ बैठे -बिठाये हाथ लग जाएँगी इसलिए बिना 'मामा' पर ध्यान दिए ही दोनों ने युवराज से कहा-“युवराज ! अब सुनाओ सबसे बड़ा झूठ ।”

युवराज ने अपने मित्रों से कहा -" क्यों न हम इस झूठ- प्रतियोगिता में मामाजी को भी शामिल कर लें ?"

दीवानपुत्र और नगर-सेठ के पुत्र ने गोनू झा पर दृष्टि डाली । गोनू झा ने अपना वेश बिलकुल गँवारों की तरह बना रखा था । दोनों ने गोनू झा को देखकर सोचा-यह तो निपट गँवार लग रहा है ... यह भला क्या झूठ सुनाएगा ! शामिल होने दो ... इसकी गाँठ से भी कुछ स्वर्ण- मुद्राएँ मिल जाएँगी। फिर दोनों ने लगभग एक साथ कहा -" कोई बात नहीं युवराज , इन्हें भी शामिल कर लो मगर शर्त इन्हें बता दो कि सबसे बड़ा झूठ यदि ये नहीं बोल पाए तो इन्हें दो-दो सौ स्वर्ण -मुद्राएँ देनी पड़ेंगी।"

युवराज ने चौंककर पूछा- “दो-दो सौ स्वर्ण- मुद्राएँ? क्यों ? कल तो शर्त सौ स्वर्ण-मुद्राओं पर ही लगी थी ... ?"

युवराज के दोनों मित्र मुस्कुराए और बोले, "कल की बात कल गई, आज तो यही शर्त लगेगी ।"

युवराज कुछ कहता कि उससे पहले युवराज के मामा बने गोनू झा ने कहा-“मुझे आप लोगों की शर्त मंजूर है! अब आप लोग बताएँ , पहले कौन झूठ सुनाएगा ?"

युवराज को भरोसा हो चुका था कि अब कमान गोनू झा के हाथों में आ चुकी है इसलिए युवराज चुप रहा। उसके दोनों मित्र बोल पड़े – “लगभग एक साथ ही-आप युवराज के मामा हैं तो हमारे लिए भी आप मामा ही हैं-आप ही पहले सुनाएँ- झूठ! लेकिन याद रहे झूठ ऐसा हो जिसका तोड़ न हो , वरना आप याद रखें , दो-दो सौ स्वर्ण- मुद्राएँ..."

उनकी बात पूरी होती, उससे पहले ही गोनू झा ने अपनी जेब से एक थैली निकाली और उनके सामने थैली खोलते हुए उन्हें दिखाया-“यह देखिए ! एक सहश्र स्वर्ण- मुद्राएँ हैं थैली में मैं तो ठहरा गँवार आदमी ! थैली मैं युवराज को थमा देता हूँ । यदि मैं झूठ न सुना सकूँ तब युवराज तत्काल आप दोनों को दो-दो सौ स्वर्ण-मुद्राएँ इस थैली से निकालकर दे देंगे ठीक है न !"

दोनों मित्र प्रसन्न हो गए और स्वीकृति में अपना सिर हिलाया और बोले-“ठीक है।”

गोनू झा ने कहना शुरू किया , “मेरे दादा के पास एक घोड़ा था । दस गज ऊँचा घोड़ा! मेरे दादा के गाँव में एकमात्र ऐसी जगह थी जहाँ यह घोड़ा बाँधा जा सकता था ।” इतना कहने पर गोनू झा चुप हो गए तब दोनों मित्रों ने उत्सुकता दिखाई और पूछा-“कौन-सी जगह थी वह ?"

"वह जगह थी गाँव के तीन सौ साल पुराने वट-वृक्ष की छतनार डालियों के नीचे क्योंकि हमारे इलाके में आम घरों की ऊँचाई दो गज होती थी और पेड़ आदि भी , बहुत हुए तो तीन-चार गज ऊँचे- बस ! और घोड़ा दस गज का !"

“किस्सागोई में माहिर गोनू झा अपने चेहरे के हाव-भाव के साथ अपने कहने के अन्दाज में भी उतार- चढ़ाव लाते थे जिसके कारण सभी मुग्ध भाव से उनकी कहानी सुन रहे थे ।

"... कुछ दिनों में ही घोड़े के शरीर पर एक वट वृक्ष पैदा हो गया । घोड़े की पीठ पर उगे वट वृक्ष की डालें तीन-चार मील तक आकाश में फैल गईं। मेरे दादा जी ने उन डालों पर बाँस की चचड़ी बनवाई मजबूत चचड़ी पर दस फीट मिट्टी डलवा दी इस तरह दादाजी ने घोड़े की पीठ पर उगे वट वृक्ष को तीन मील लम्बे और तीन मील चौड़े समतल भूतल के रूप में बदल लिया और वे उस पर खेती करने लगे। सिंचाई की आकाशी व्यवस्था थी । मतलब कि जहाँ कहीं भी पानी बरसता , दादा जी घोड़े को वहाँ ले जाते घोड़े के साथ-साथ खेत भी वर्षा वाले स्थान पर पहुँच जाता और खेत में लगी फसलों की सिंचाई हो जाती ।...

इतना कहकर गोनू झा चुप हो गए और सुर्ती निकालकर अपनी हथेली पर अँगूठे से रगड़ने लगे । सभी युवक उनकी इस अजीबो -गरीब कहानी दिलचस्पी से सुन रहे थे। उन्हें चुप देखकर वे पूछने लगे -"फिर क्या हुआ मामा जी ?"

गोनू झा ने सुर्ती अपने होंठों में दबाते हुए कहा-“एक बार दादाजी के राज्य में भयानक सूखा पड़ा । खेत में बीज ठरप गए... दूर-दूर तक हरियाली झुलस गई । पेड़ ठूँठ बन गए। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे लेकिन घोड़े की पीठ पर उगे वट -वृक्ष पर बने खेत की फसलें लहलहा रही थीं । जहाँ कहीं भी बरसात होती, दादाजी घोड़े की पीठ पर सवार होकर घोड़े को वहाँ ले जाते ! सारे राज्य में अनाज-भंडार रिक्त हो गए लेकिन हमारे दादाजी का अनाज भंडार अनाज से ठसाठस भरा हुआ था ।

“... सूखे के कारण जो तबाही पैदा हुई थी उससे नगर-सेठ के दादा और दीवान जी के दादा भी प्रभावित हुए थे। एक दिन वे दोनों मेरे दादाजी के पास आकर रोने लगे... और बताने लगे कि उनका परिवार अनाज के अभाव में भूखों मर रहा है । उनका रुदन सुनकर मेरे दादाजी को दया आ गई और उन्होंने दीवान के दादा को एक हजार मन गेहूँ, एक हजार मन चावल और पाँच सौ मन दाल देकर उसका कागज बनवा लिया कि जब उनके पास इतना अनाज हो जाएगा तब वे मेरे दादाजी को वह अनाज वापस कर देंगे । मेरे दादाजी ने नगर-सेठ के दादाजी को भी इतना ही अनाज दिया और उसके दस्तावेज बनाकर उनसे अँगूठे का निशान लगवा लिया कि जब उन्हें उनका अनाज वापस मिल जाएगा तब वे दस्तावेज नष्ट कर देंगे। तब से हमारी दो पीढ़ी गुजर गई और अब वह दस्तावेज मेरे पास आया है-नगर-सेठ और दीवान ने अब तक हमारे दादा जी का अनाज वापस नहीं किया है।"

दीवान और नगर-सेठ के पुत्रों ने जब गोनू झा की कथा सुनी तो वे युवराज की तरफ देखते हुए बोले-“कसम से ! यह आदमी झूठा है । ऐसा कभी नहीं हुआ ...भला दस गज का भी घोड़ा हो सकता है ... ? कपोल- कल्पित बातें कहकर तुम्हारे मामा हमारा अपमान कर रहे हैं ...।"

गोनू झा हँस पड़े -” यदि मेरी बातें झूठ हैं तो निकालो दो-दो सौ स्वर्ण-मुद्राएँ, नहीं तो मैं निकालता हूँ तुम्हारे दादाजी के दस्तावेज !"

दोनों झेंप गए! वे शर्त हार चुके थे। दो-दो सौ स्वर्ण- मुद्राएँ देना उनके वश की बात नहीं थी इसलिए दोनों ही युवराज के सामने गिड़गिड़ाने लगे! युवराज का दिल भी अपने मित्रों की बेबसी पर पिघल गया और उसने गोनू झा से कहा-“जाने दीजिए मामा जी !"

गोनू झा ने मुस्कुराते हुए कहा “जाने तो दूंगा युवराज, यदि ये दोनों आपकी स्वर्ण- मुद्राएँ लौटा दें और यह संकल्प लें कि भविष्य में इस तरह की शर्तें वे किसी के साथ भी नहीं लगाएँगे-तब ।”

नगर-सेठ और दीवान के पुत्र ने युवराज से जीती गई रकम युवराज को लौटा दी और गोनू झा के सामने हाथ जोड़कर बोले-“मामाजी , अब कभी हम इस तरह की शर्तें नहीं लगाएँगे... हमें क्षमा करें । हम आपको वचन देते हैं कि भविष्य में धन-प्राप्ति के लिए उचित मार्ग ही तलाशेंगे । इसके लिए शर्त लगाने या जुआ खेलने की कल्पना भी नहीं करेंगे ।"

उनकी बात सुनकर गोनू झा खुश हुए और तीनों युवकों को मिठाई की दुकान में ले जाकर अपनी ओर से जी भरकर मिठाई खिलाई और खुद भी जी भर के मिठाइयाँ खाईं । फिर वे लोग अपने घर वापस आ गए ।

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