Nadi Ke Dweep (Hindi Novel) : Agyeya

नदी के द्वीप (उपन्यास) : अज्ञेय

नदी के द्वीप (उपन्यास) : भुवन : भाग-2

दृश्यों का द्रुत परिवर्तन स्फूर्तिप्रद होता है शायद, लेकिन जहाँ उस परिवर्तन के साथ रागावस्थाओं का भी उतना ही द्रुत परिवर्तन हो वहाँ स्फूर्ति ही आवश्यक नहीं है, व्यक्ति चकित-विमूढ़ होकर भी रह जाता है...काम के दबाव में उसका मन नौकुछिया अधिक नहीं भागा था-यों भी उसकी प्रवृत्ति पीछे देखने की नहीं थी, हठात् कभी अतीत की किरण मानस को आलोकित कर जाये वह दूसरी बात है-पर श्रीनगर की झील और नौकुछिया का अन्तर स्वयं मन पर चोट करता था। निस्सन्देह श्रीनगर में सब कुछ बड़े पैमाने पर था, बड़ी चौड़ी उपत्यका, बड़े पर्वत-शृंग, बड़ी झील-बड़े लोग!-पर नौकुछिया एक सुन्दर हरे निर्जन में जड़ा हुआ छोटा-सा नगीना था, और यह-जनाकीर्ण मग में आभूषणों से लदी बैठी पुंश्चली स्त्री...क्या हुआ अत्यन्त सुन्दरी है तो? 'पब्लिक फ्रे॓सेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़!' उसे खुशी ही थी कि श्रीनगर में अधिक समय नहीं बिताना पड़ेगा, दिल्ली में ही रुके रह जाना बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो यहाँ वह घबड़ा जाता-और नौकुछिया के बाद तो-!

डेढ़ ही दिन उसे वहाँ लगा, इतने में उसकी तैयारी हो गयी। यहाँ से घोड़ों पर सामान लद कर जायेगा, पहलगाँव और वहाँ से तुलियन-चौथे दिन पहुँच जायेगा। वह पहलगाँव में प्रतीक्षा करेगा, तम्बू पहलगाँव से ही तुलियन ले जाने होंगे-उसके लिए उसने नये खानसामा को आगे भेज दिया था।

लेकिन अपना आवश्यक सामान लेकर जब वह पहलगाँव की मोटर पर पहुँचा तब अचकचा कर रह गया। मोटर के बानेट के सहारे रेखा खड़ी थी।

मुस्करा कर बोली, “नमस्कार!”

“नमस्कार। तुम-”

“मैं आपसे एक दिन पहले यहाँ पहुँच गयी-आप दिल्ली ही रह गये, मैं सीधी इधर चली आयी।”

“लेकिन-”

“आप भूलते हैं, मैं बांग्ला बोलने वाली कश्मीरिन हूँ-यहाँ किसी को पहचानती नहीं पर मेरे रिश्तेदार और बुजुर्ग चारों ओर बिखरे पड़े हैं।”

“पर मेरे जाने का कैसे पता लगा?”

“मैं कल पूछने गयी थी। यों तो न भी जाती तो भी लग जाता-आप वैज्ञानिक यन्त्रादि ले जाने का परमिट लेने गये थे-वह अधिकारी मेरे कुछ लगते हैं मामा-वामा।”

भुवन हँसने लगा, क्योंकि इन सज्जन से बड़ी मनोरंजक भेंट हुई थी उसकी। वह मानते ही नहीं थे कि युद्ध-काल में यन्त्रादि लेकर कोई उत्तर के पहाड़ों में जा रहा है तो रूस से सम्बन्ध जोड़ने के सिवा उसका कोई उद्देश्य हो सकता है। फिर जब उसने कहा कि उसका काम कई विश्वविद्यालयों के काम से सम्बद्ध है जिन में केम्ब्रिज और अमेरिका के कुछ विश्वविद्यालय भी हैं तो उन्होंने मान लिया कि वह ब्रिटेन का चर है। परमिट तो दे दिया, लेकिन बड़ी भेद-भरी दृष्टि से उसे देखते रहे।

फिर उसने कहा, “मुझे तो किसी ने नहीं कहा-”

“मैंने कहा था कि मैं स्वयं मिल लूँगी-”

“तो तुम जा कहाँ रही हो-पहलगाँव?”

“जी-मैं काम्पिलमेंट्स रिटर्न करने आयी हूँ-पहलगाँव तक पहुँचाने आयी हूँ-तुलियन तक जाने को तैयार होकर अगर आप कहेंगे। यह मेरा प्रदेश है, आप मेहमान हैं।” फिर सहसा गम्भीर होकर कहा, “आपका हर्ज तो नहीं होगा? मैं अभी लौट सकती हूँ-रास्ते में ही कहीं उतर सकती हूँ-”

“इसका जवाब तो मैं दे चुका।”

“क्या?”

“पिछली भेंट का मेरा आखिरी वाक्य-”

विषाद की एक हल्की-सी छाया रेखा के चेहरे पर दौड़ गयी। फिर वह मुस्करा दी। “हाँ, सो तो हूँ।”

अगली सीट भुवन की थी। उसने कहा कि रेखा वहाँ बैठ जाये, पर रेखा ने आग्रह किया कि वहाँ कोई बैठेगा तो भुवन, नहीं तो दोनों साथ बैठेंगे पहली सीट पर; वहीं वे बैठे।

पामपुर-अवन्तिपुर के खुले प्रदेश के पास से मोटर बढ़ती चली। भुवन ने कहा, “यही सब केशर का प्रदेश है न?”

“हाँ। इसी से इसे काश्मीर कहते हैं-भारत में तो और कहीं होता नहीं। और पामपुर असल में पद्मपुर है।”

भुवन ने कहा, “बंगालिन, अभी कश्मीर से तुम्हारा नाता छूटा नहीं?”

रेखा हँस दी। “जो असम्पृक्त हैं, उनका सब देशों से नाता है!”

“तो, तुम्हारे लिए सब जगहें बराबर हैं?”

“उस दृष्टि से-हाँ। मेरे लिए महत्त्व है व्यक्तियों का-विशेष व्यक्तियों का।” और एक अर्थ-भरी दृष्टि से उसने भुवन की ओर देख लिया। थोड़ी देर दोनों चुप रहे। फिर रेखा ने पूछा, “पहलगाँव रुकोगे?”

“सोचा तो था। पर अब नहीं-मुझे तुलियन पहुँचाने चलोगी न?”

“आप कहें तो! और पहलगाँव में टूथ-ब्रश न मिलेगा, इसलिए मैं सब साथ लायी हूँ।”

“सामान आने में दो-तीन दिन लगेंगे ही। चल सकते हैं। पर पहलगाँव से तुलियन सामान के साथ मैं स्वयं जाना चाहता हूँ-”

“बाधा नहीं बनूँगी, भुवन। जिस दिन सामान आवेगा उसी दिन चली जाऊँगी। बल्कि-”

“यह मेरा मतलब नहीं था-”

“जानती हूँ-” कह कर रेखा ने उसे चुप करा दिया।

ज्यों-ज्यों बस आगे जाती थी, त्यों-त्यों भुवन का मन अधिकाधिक तीखे झटकों के साथ पीछे जाता था-एक लघु क्षण के लिए, बस, लेकिन प्रत्येक बार एक टीस के साथ, और प्रत्येक बार न जाने कहाँ से उखड़े-उखड़े वाक्यांश लाता हुआ...'स्वाधीनता का जोखिम'...'आन्तरिक आलोक का जोखिम'...'एण्ड द स्टार्स इन हर हेयर वेयर सेवन'...'जुगनू तो सीली-सड़ी जगह में होते हैं'...'आत्मा के नक्शे'...'क्षण सीमान्त है'...'वहाँ बालू होगी?' 'मैं शैरन का गुलाब हूँ, और उपत्यका की तितली...' 'डर, सुन्दर का डर, विराट् का डर'...'दुःख जाना है, पर डर नहीं'...देर-एक बार अशान्त भाव से वह अपनी सीट में इधर-उधर मुड़ा। 'मेरी प्रिया बोली, उसने कहा, उठो प्रिय, और मेरे साथ आओ, क्योंकि शीत ऋतु बीत गयी है, वर्षा चुक गयी है, धरती में फूल जागते हैं, पक्षियों के गाने का समय आ गया है, और कुमरी का गूँजन सुन पड़ने लगा है। अंजीर के वृक्ष में नया फल आता है, और अंगूरी के कचिया अंगूर मधुर गन्ध दे रहे हैं। उठो, प्रिय, और चले आओ।' सहसा स्पष्ट हो गया कि सालोमन के गीत के ये अंश उसे रेखा की कापी में से याद आ रहे हैं-क्यों? वह सीधा होकर बैठ गया। कापी के वाक्य और स्पष्ट होकर उसके आगे दौड़ने लगे-एक के बाद एक पंक्ति, जैसे सिनेमा की पंक्तियाँ मानो बेलन पर चढ़ी हुई घूमती जाती हैं और एक-एक पंक्ति आलोकित होती जाती है...

'तुम चले जाओगे-मैं जानती हूँ कि तुम चले जाओगे। मैं आदी हूँ कि जीवन में कुछ आये और चला जाये-मैंने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहना भी छोड़ दिया है-कौन पकड़ कर रख सकता है? बचपन में माँ एक कहानी सुनाया करती थी, कोकिल का स्वर सुनकर राजा उसे पकड़वा मँगाते थे पर वह चुप हो जाता था। माँ कहती थीं, कोकिल को पकड़ लिया जा सकता है, पर गान बन्दी नहीं होता। तब मैं सोच लेती थी, बन्दी करना मैं क्यों चाहने लगी? मैं स्वयं गाऊँगी! पर अब माँ की बात याद आ जाती है...नहीं, गान को बन्दी करना नहीं चाहूँगी। और हाँ, गाऊँगी भी, चाहे टूटे स्वर से-मेरा गान तुम सुनोगे?'...

'हम हार गये। तुम ने कहा था, हम हार गये, सूर्यास्त को नहीं पकड़ सके। फिर तुमने कहा था-कहा नहीं, उद्धृत किया था, “उसके केशों में सात तारे थे।” पर अब अपनी ओर देखती हूँ तो सोचती हूँ, मुझमें? नहीं, मुझमें केवल अन्धकार की एक बहुत बड़ी लहर-हट जाओ भुवन, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ पर मेरा संस्पर्श विषाक्त है...!

“तुमने डर की बात कही थी। वह एक चीज़ है जो मैंने पहले कभी नहीं जानी। दुःख-हाँ, वह खूब जाना है, अपमान, ग्लानि, ईर्ष्या-ये भी सहे हैं, पर डर...मगर डर को छूत होती है शायद, और तुम्हारा वह नामहीन डर मुझे भी छूता है, एक सिहरन-सा वह मेरी रीढ़ पर से उठता हुआ मेरे मन पर छा गया है-था-किसका डर? तुम से डर? तुम से!! तुम्हारे लिए डर?-? तुम्हें खो दूँगी, यह? लेकिन तुम्हें पाया है, यही तो कभी नहीं सोचा। जागने का डर? न जाने कब से मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरी देह, सब सोयी हैं, जड़ हैं, और जड़ से इतर कोई स्थिति मैं सोचती ही नहीं। आग सुलगती है, धधकती है, ईंधन चुका कर धीमी पड़ जाती है; वैसी आग फिर भड़क सकती है। लेकिन मुक्त आग को बुझा दो-तब राख, कोयले, अध-जली लकड़ी-वह मैं हूँ। उठी हुई लहर जो वहीं जम गयी है। पीछे नहीं जा सकी, पीछे गर्त है-हर तरंग के पीछे गर्त होता है। आगे नहीं जा सकती-गति जड़ हो गयी है। जम गयी हूँ, पिघलूँगी तो पछाड़ खा कर गिरूँगी-क्या वही डर है जो मुझमें जाग गया है-पिघलने का डर? लेकिन मैं तुम्हें अपने से बचाऊँगी भुवन...'

“मैं स्वप्न देख कर उठी हूँ, तुम सो रहे हो, सोओ, मैं जगाऊँगी नहीं। पहले मन हुआ था, स्वप्न तुम से कह दूँ, पर नहीं। तुम्हें देखकर न जाने क्यों एक पंक्ति मन में आयी-तुमने पूछा था एक बार, “कविता लिखती हो?” हाँ, एक कविता मैंने भी लिखी है, पर मेरी कविता उसके शब्द में नहीं है, उसकी भावना में है-तुम पहुँचोगे?

शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा-

स्नेह-शिशु, उठ जाग।

“तुम सोओ। अपने स्वप्न के लिए तुम्हें नहीं जगाऊँगी। स्वप्न में मैंने तुम्हारे प्रिय किसी को देखा था। न मालूम कौन होगी वह, लेकिन मैंने उसे देखा था, पहचाना था और वह तुम्हें बहुत प्रिय थी। उसे देखकर मेरे मन में स्नेह उमड़ आया-ईर्ष्या होनी चाहिए थी पर नहीं हुई। भुवन, मैं तुम्हारे जीवन में आऊँगी और चली जाऊँगी-मैं जानती हूँ अपने भाग्य की मर्यादाएँ!-पर तुम्हें जो प्रिय हैं उन्हें प्यार कर सकूँगी-सहज भाव से, बिना आयास के। और सोचती हूँ, तुम्हारी करुणा सदैव मुझे शान्ति दे सकेगी।”...

'तुमने मेरे जूड़े में लाल फूल खोंस कर मेरा सिर ढक दिया है; तुमने मेरी पलकें, मेरा मुँह...एक धधकते हुए प्रभा-मण्डल से मेरा शीश घिर गया है...क्या इसकी दीप्ति दुर्भाग्य के उस मण्डल को छार न कर डालेगी जो मेरे साथ रहा है?'

'मैंने तुम्हें गाना सुनाया था : शारद प्राते आमार रात पोहालो। मेरी वंशी, तुम्हें किसके हाथ सौंप जाऊँगी? अब सोचती हूँ, क्या उसमें भवितव्य की सूचना थी-क्या मैं तब जान गयी थी, देख सकी थी...मूक मेरी वंशी, अभी सहसा तुम्हारी बहकी हुई साँस से मुखर हो उठी है, और अभी मूक हो जाएगी। होने दो, चुकने दो रात-! मैंने गाया था, महाराज, यह किस साज में आप मेरे हृदय में पधारे हैं? उसमें कौतुक भी है, अचरज का चकित भाव भी है, और अपनापे की द्योतक ठिठोली भी है-कोटि शशि-सूर्य लजाकर पैरों में लोट रहे हैं; महाराज, यह किस ठाठ से आप मेरे हृदय में पधारे हैं-मेरा देह-मन वीणा-सा बज उठा है...'

“शीत में बहुत ठिठुर जायें, तो नाक के ठिठुरने के साथ घ्राण-शक्ति मर जाती है। फिर बाहर, भीतर, फूलों में, मन्दिर के धूमायित वातावरण में-कहीं कोई गन्ध नहीं मिलती...लेकिन फिर बिजली की कौंध की तरह सहसा और तीखी वह लौटती है, नासापुट गन्ध से भर जाते हैं, सौरभ की तरंग में मानो डूबने लगता है व्यक्ति, साँस बन्द हो जाता है...वैसी ही स्थिति में मैं थी-बरसों की घ्राण-शक्ति-हत, और अब सहसा तुम्हारे धाम में तुम्हारे सौरभ ने छा लिया है...मैं लड़खड़ा गयी हूँ, मूक हूँ, क्या कहूँ नहीं जानती, कैसे कहूँ नहीं सोच सकती...और तुम अभी चले जाओगे-कभी भी...फिर मिले-अगर मिले!-तो शायद कुछ कह पाऊँ-मेरी स्तब्ध आत्मा कुछ...'

'मैं जागती हूँ कि सोती हूँ? तुम हो, कि स्वप्न हो? मुझे लगता है कि मैं जागती हूँ, और आश्वस्त होकर सो जाती हूँ। लेकिन शायद सोती हूँ, सोते में देखकर जाग उठती हूँ...'

रेखा बीच-बीच में उसकी ओर देख लेती थी। जानती थी कि वह कुछ सोच रहा है। पर उसने पूछा नहीं। सहसा भुवन के विषय में एक नये संकोच ने, एक व्रीडा ने उसे जकड़ लिया था। क्षण-भर के लिए उसका मन नौकुछिया की उस घटना की ओर गया जब भुवन उसकी गोद में रोया था-कैसे वह कह सकी थी जो भी उसने कहा था? वह पछताती नहीं है, उसने जो कहा था उन्मुक्त उत्सृष्ट भाव से कहा था, पर...लाज से सिहर कर वह सिमट गयी, पल्ला खींच कर उसने मानो अपने को और लपेट लिया।

भुवन ने पूछा, “ठण्ड लगती है?”

“नहीं, नहीं।” उसकी वाणी के अतिरिक्त आवेश को लक्ष्य कर भुवन ने उसकी ओर देखा; दोनों की आँखें मिली : भुवन की आँखों में स्नेहपूर्ण कौतुक था, रेखा की आँखों में एक अन्तर्मुख लज्जा; पर सहसा उसका मन हुआ, वहीं बाँह फैलाकर भुवन को खींच ले, इस पुरुष को, इस शिशु को, इस-'शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा...'

× × ×

मानो पहाड़ की छत पर एक हवा-धुली, धूप-मँजी झील; ओट को अधिक कुछ नहीं था, एक ओर खुला घास का पहाड़, जिसके नीचे एक झुरमुट; कुछ दूर पर झील से निकल कर बहता हुआ मुखर पहाड़ी नाला। तेज सनसनाती ठण्डी हवा; आकाश में अत्यन्त शुभ्र उड़ते मेघ-खण्ड, मानो पवन अप्सराओं के नये धुले कंचुक-उत्तरीय उड़ाये लिए जा रहा हो। तुलियन।

घास में से उभरी हुई एक चट्टान पर धूप में दोनों बैठ गये : सामान और तम्बू आने में थोड़ी देर लगेगी-कुलियों को पहले रवाना किया गया था पर राह में वे उन्हें पीछे छोड़ आये थे।

“रेखा, उनके आने से पहले गाना गा दो।”

“कैसा?”

“गाने को कैसा भी होता है? जो चाहो-तुलियन के सम्मान में-झील, धूप, हवा, बादल, सबके-”

रेखा खड़ी हो गयी। सामने आकर उसने उँगलियों से ठोड़ी पकड़ कर भुवन का मुँह उठाया कि उस पर पूरी धूप पड़े, क्षण-भर उसे निहार कर झुककर चूम लिया। हँसकर कहा, “यानी भुवन के सम्मान में-सारे भुवन के।”

थोड़ी देर बाद फिर वह बैठ गयी :

यदि दो घड़ियों का जीवन कोमल वृन्तों में बीते कुछ हानि तुम्हारी है क्या? चुपचाप चू पड़ें जीते। निश्वास मलय में मिलकर ग्रह-पथ में टकराएगा, अन्तिम किरणें बिखरा कर हिमकर भी छिप जाएगा।*


(* जयशंकर 'प्रसाद ' )

आरम्भ उत्साह से हुआ था, पर फिर मानो स्वर अनमने हो गये। फिर भी वह गाती रही, फिर गान रुक गया। रेखा ने कहा, “भुवन, क्षमा करो, वह उदासी मेरी अपनी है, गान की नहीं। पर और एक सुनाऊँगी थोड़ी देर बाद-”

भुवन उठा। “चलो, धूप में टहलें।”

रेखा भी खड़ी हो गयी। “लेकिन सूर्यास्त के पीछे नहीं दौडूँगी। वैसे इस ऊँचाई पर दौड़ भी नहीं सकती-”

भुवन ने कहा, “तुम्हें तकलीफ़ तो न होगी रेखा? इतनी ऊँचाई पर काफ़ी कष्ट भी हो सकता है-”

“नहीं, नहीं-नहीं!” रेखा ने दृढ़ता से प्रतिवाद किया, मानो दृढ़ता से हृद्गति का भी नियन्त्रण हो जाता हो।

दोनों झील से कुछ ऊँचाई पर, सम-तल आगे-पीछे टहलने लगे।

दूर कुलियों का स्वर सुनायी दिया।

रेखा ने कहा, “अच्छा भुवन, फिर सही-रात को-आज तो पूर्णिमा होगी न?”

“सच? हाँ, आज-कल में ही होनी चाहिए। अच्छा आओ तम्बू की जगह ठीक करें पहले-”

तम्बू भी लग गये घासवाली पहाड़ी पर, झुरमुट से आगे बड़ा तम्बू रहने के लिए, झुरमुट से इधर जहाँ से नाला फूटता था उसके निकट एक छोलदारी सामान और खानसामा के लिए, दूसरी रसोईघर की। दिन छिपते खानसामा ने चाय भी तैयार कर दी। भुवन ने कहा, “इसी समय कुछ डिब्बे-बिब्बे खोलकर खा लिया जाये, रात को और बनाने की ज़रूरत है क्या?”

रेखा ने सहमति प्रकट की। खानसामा को कह दिया गया। वह प्रबन्ध में लग गया। भोजन समाप्त होते न होते उसने कहा, “हूज़ूर हुकुम करें तो चाय फिर दे सकता हूँ-”

भुवन ने कहा, “अच्छा शुक्रिया-ठीक नौ बजे चाय दे देना।”

रेखा ने एक शाल कन्धे पर डाल ली और कहा, “मैं उस समय तक तम्बू के भीतर नहीं आऊँगी।”

“तो मैं ही कौन बैठ रहा हूँ।”

दोनों फिर बाहर टहलने लगे।

दिन छिप रहा था, लेकिन छिपा ठीक नहीं, क्योंकि द्वाभा में एक आलोक के क्षीण होते न होते दूसरा उज्ज्वल हो गया : बड़े-से चाँद की चन्द्रिका सारे वातावरण में फैल गयी।

दोनों किनारे-किनारे बढ़ते हुए काफ़ी आगे निकल गये। यहाँ पानी के बिलकुल पास एक चट्टान पर बैठकर रेखा झुककर हाथ से पानी उछालने लगी। भुवन भी बैठ गया, पानी में हाथ उसने भी डाल दिये। पानी बहुत ठण्डा था। लेकिन उसकी छलछलाहट बड़ी मधुर थी; ठण्ड, ऊँचाई और चाँदनी से स्फटिक से निखरे हुए वातावरण में उसमें छोटे घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट थी।

“अंग्रेज़ी हो तो माइंड करोगे?”

भुवन ने प्रश्न समझते हुए कहा, “बिलकुल नहीं।”

रेखा गाने लगी :

लव मेड ए जिप्सी आउट आफ़ मी!

(प्यार ने मुझे खानाबदोश बना दिया।)

भुवन ने आगे झुककर पानी में खेलता हुआ उसका ठिठुरा हुआ हाथ बाहर निकाल लिया, फिर छोड़ा नहीं।

लव मेड ए जिप्सी आउट आफ़ मी!

बाहर चाँदनी थी, सुन्दर शीतल; ठण्ड से जड़ित वातावरण ऐसा लगता था, मानो सारा दृश्य एक विशाल हिम-शिला के अन्दर बँधा हो, और बाहर का प्रकाश उस शिला को जगमगा दे...परन्तु फिर भी तम्बू के भीतर की पीली रोशनी सुन्दर और आकर्षक थी। साढ़े नौ बजे थे, तम्बू के निकट आते हुए दोनों ने देखा, भीतर सब सामान ठीक-ठाक सज गया है; मेज़ पर लैम्प के प्रभा-मण्डल के छोर पर दो प्याले रखे हैं, और हरे रंग के तौलिये में लिपटी हुई चायदानी-'चा-पोची' तो थी नहीं, और चाय गर्म रखने के लिए यह व्यवस्था की गयी होगी...

आगे एक ओर सफ़री पलंग पर रेखा का बिस्तर बिछा था, चारखाने नीले पलंगपोश से ढँका हुआ; दूसरी ओर नीचे लकड़ी के बड़े पटरों पर भुवन का। ये पटरे उसने इसलिए मँगा लिए थे कि वर्षा में कदाचित् यन्त्रादि को फ़र्श से ऊँचा रखना पड़े।

रेखा ने कहा, “यह क्या बात है-किफ़ायत, या कि मेरा अतिरिक्त सम्मान”

“रेखा, खानसामा को तो एक ही खाट का पता था न? और ये पटरे कम नहीं हैं-फिर मेरा हवाई गद्दा है-” कहकर भुवन ने बिछौने का कोना उठा कर दिखा दिया। “बल्कि, मेरा किसी तरह कम सम्मान नहीं किया गया है, इसका प्रमाण यह है कि चाहो तो मैं बदल लेता हूँ।”

दोनों चाय पीने लगे। कुछ बिस्कुट भी ढँके रखे थे।

थोड़ी देर बाद भुवन बिना कुछ कहे उठ कर बाहर चला गया। जाते हुए तम्बू का पल्ला गिरा गया। रेखा ने इसका अभिप्राय समझ लिया, उसने कपड़े बदल लिए, भीतर जाकर मुँह-हाथ धोया, फिर शाल लपेट ली और पल्ला उठा कर बाहर चली आयी। भुवन कुछ दूर पर टहल रहा था, वहीं चली गयी।

थोड़ी देर साथ टहलता रहकर भुवन तम्बू की ओर लौट गया।

रेखा कुछ और आगे बढ़ गयी। एक चट्टान पर बैठ गयी। थोड़ी देर बाद उसने एक-एक काँटा निकाल कर जूड़ा खोला, बाल खोल डाले, फिर सिर को एक बार झटककर उन्हें कन्धों पर फैला लिया। फिर उसने चाँद की ओर मुँह उठाकर आँखें बन्द कर लीं, उसका सारा शरीर शिथिल हो आया।

ऐसा ही भुवन ने उसे लगभग घण्टे-भर बाद पाया। वह कपड़े बदल कर फिर लौटा नहीं था, यह सोच कर कि रेखा उसी के कारण बाहर रुकी है तो थोड़ी देर में स्वयं आ जाएगी, पर जब वह बहुत देर तक न आयी तब वह देखने निकला। पहले एक बार यों ही चारों ओर नज़र दौड़ायी, पर कहीं गति का कोई लक्षण नहीं देखा, सर्वत्र निश्चलता; तब वह आगे बढ़ा।

जब उसकी आँखों ने सहसा रेखा का आकार पहचाना, तो वह वहीं ठिठक गया। रेखा ठीक वैसे बैठी थी जैसे लखनऊ में उसने देखा था, शिथिल, शान्त, दूर।

और वह वैसा ही ठिठका रहता, अगर यह न देखता कि रेखा की शाल उसके कन्धों से गिर गयी है, और उसे होश नहीं है। कन्धों पर का सफ़ेद रेशम चाँदनी में ऐसा चमक रहा है, जैसे छोटे-छोटे पंख।

उसने शाल उठाते हुए कहा, “पगली, चाँदनी है, सब पी न सकोगी। चलो, जमी जा रही हो ठण्ड से-ऐसे तो तुम्हीं चाँदनी हो जाओगी।”

× × ×

“हाँ, बत्ती बुझा दो, पर पल्ला आधा खोल दो कि चाँदनी दीखती रहे।”

भुवन ने एक ओर का पल्ला ऊँचा करके ऐसे बाँध दिया कि ऊपर से खुला रहे, उससे चाँदनी का एक वृत्त रेखा के पास फ़र्श पर पड़ने लगा।

“अभी थोड़ी देर में यह बढ़कर तुम्हारे ऊपर आ जाएगा, न?” रेखा ने कहा।

“अँ-हाँ।”

भुवन लेट गया और उस खुली जगह में से बाहर आकाश देखने लगा। बहुत देर तक वह मुग्ध भाव से देखता रहा, कुछ बोला नहीं। न रेखा कुछ बोली।

सहसा उसे ध्यान आया कि चाँदनी का वह वृत्त उसके ऊपर आ गया है। तब यह देखने को कि रेखा जग रही है या नहीं, उसने उधर देखा।

रेखा ज्यों-की-त्यों बैठी थी, चाँदनी के प्रतिबिम्बित प्रकाश में उसे देखती हुई।

भुवन ने हड़बड़ा कर कहा, “रेखा, ठिठुर जाओगी-”

रेखा ने जैसे सुना नहीं।

भुवन ने उठकर उसके कन्धे पकड़े-ठण्डे, जैसे बर्फ। बलात् उसे लिटा दिया, कम्बल उढ़ा दिये। धीरे-धीरे उसके चेहरे पर हाथ फेरने लगा; चेहरा भी बिल्कुल ठण्डा था। उसने खाट के पास घुटने टेककर नीचे बैठते हुए रेखा के माथे पर अपना गर्म गाल रखा, उसका हाथ धीरे-धीरे रेखा के कन्धे सहलाने लगा। भुवन ने कम्बल खींचकर कन्धे ढँक दिये। कम्बल के भीतर उसका हाथ रेखा का वक्ष सहलाने लगा-

सहसा वह चौंका। झीने रेशम के भीतर रेखा के कुचाग्र ऐसे थे, जैसे छोटे-छोटे हिम-पिण्ड...और अब तक जड़ रेखा के सहसा दाँत बजने लगे थे।

“पगली-पगली!”

भुवन ने एकदम खड़े होकर एक हाथ रेखा के कन्धे के नीचे डाला, एक घुटनों के; उसे कम्बल समेत खाट से उठाया और अपने बिछौने पर जा लिटाया। अपने कम्बल भी उसे उढ़ाये, और उसके पास लेटकर उसे जकड़ लिया।

सहसा रेखा ने बाँहे बढ़ाकर उसे खींच कर छाती से लगा लिया; उसके दाँतों का बजना बन्द हो गया। क्योंकि दाँत उसने भींच लिए थे; भुवन को उसने इतनी जोर से भींच लिया कि उन छोटे-छोटे हिम-पिण्डों की शीतलता भुवन की छाती में चुभने लगी...

फिर स्निग्ध गरमाई आयी। भुवन ने धीरे-धीरे उसकी बाहु-लता की जकड़ ढीली कर के उसे ठीक से तकिये पर लिटा दिया; और हाथ से उसकी छाती सहलाने लगा। चाँदनी कुछ और ऊपर उठ आयी थी; रेखा की बन्द पलकें नये ताँबे-सी चमक रही थीं।

दिस दाइ स्टेचर इज लाइक अंटु ए पाम ट्री, एण्ड दाइ ब्रेस्ट्स टू क्लस्टर्स आफ ग्रेप्स।

आइ सेड, आइ विल गो अप टू द पाम ट्री, आइ विल टेक होल्ड आफ़ द बाउज़ देयराफ : नाउ आल्सो दाइ ब्रेस्ट्स शैल बी एज़ क्लस्टर्स आफ़ द वाइन, एण्ड द स्मेल आफ़ दाइ नोज़ लाइक एपल्स।

(यह तुम्हारा कलेवर खजूर के तरु की भाँति है, और तुम्हारे उरोज दो अंगूर-गुच्छों से। मैंने कहा, मैं खजूर के तरु के समीप जाऊँगा और उसकी शाखाएँ गहूँगा, तेरे उरोज अँगूर-गुच्छों से होंगे और तेरे नासापुटों की गन्ध सेबों-सी।)

सहसा भुवन ने कम्बल हटाया, मृदु किन्तु निष्कम्प हाथों से रेखा के गले से बटन खोले, और चाँदनी में उभर आये उसके कुचों के बीच की छाया-भरी जगह को चूम लिया। फिर अवश भाव से उसकी ग्रीवा को, कन्धों को, कर्णमूल को, पलकों को, ओठों को, कुचों को...और फिर उसे अपने निकट खींच कर ढँक लिया-सालोमन का गीत उस घिरे वातावरण में गूँजता रहा।

आई स्लीप, बट माइ हार्ट वेकेथ; इट इज़ द वॉयस आफ़ माइ बिलवेड दैट नाकेथ, सेइंग : ओपन टु मी, माइ सिस्टर, माइ लव, माइ डव, माइ अनडिफ़ाइल्ड, फ़ार माइ हेउ इज़ फिल्ड विथ ड्यू, एण्ड लाक्स विथ द ड्राप्स आफ़ द नाइट...

. (मैं सोती हूँ, पर मेरा हृदय जागता है; मेरे प्रियतम का स्वर दस्तक देकर कहता है : खोलो, मेरी सगी, मेरी प्रिया, मेरी पंडुकी, मेरी अक्षता; मेरे बाल रात के ओस-बिन्दुओं से भींग गये है...)

भुवन ने अपना माथा रेखा के उरोजों के बीच में छिपा लिया : उनकी गरमाई उस के कानों में चुनचुनाने लगी : फिर उसके ओठ बढ़कर रेखा के ओठों तक पहुँचे, उन्हें चूमकर प्रतिचुम्बित हुए।

माइ बिलवेड इज़ माइन, एण्ड आइ एम हिज़, ही फीडेथ एमंग द लिलीज़...

(प्रियतम मेरा है, मैं उसकी हूँ, पद्मवन में वह विहार करता है।)

क्यों भुवन के ओठ शब्दहीन हो गये हैं, स्वरहीन हो गये हैं, क्या वह गीत के ही बोल स्वरहीन हिलते ओठों से कह रहा है या कुछ और कह रहा है?

“रेखा, आओ...”

आइ रोज़ अप टु ओपन टु माइ बिलवेड, एण्ड माइ हैंड्स ड्राप्स विथ मर्ह, एण्ड माइ फिंगर्स-...

(मैं प्रिय की ओर उमंग कर खिल गयी, मेरे हाथों से अगुरु झरने लगा...)

“चाँदनी बहुत है, सब पी न सकोगी...ऐसे में तुम्हीं चाँदनी हो जाओगी।”

"और तुम, भुवन, तुम? तुम भी, लेकिन जम कर नहीं, द्रवित होकर!”

× × ×

कभी रेखा जागी। तब चाँदनी शायद दोनों के सटे हुए चेहरों को लाँघ कर ऊपर उठती हुई फिर खो गयी थी; रात का एक ठण्डा स्पर्श उस खुली जगह से अन्दर आता हुआ दोनों के तपे माथे और गालों को सहला रहा था; रेखा ने एक लम्बी साँस खींच कर उसे पी लिया; उसके जिस हाथ पर भुवन सोया था उसकी उँगलियाँ उसके माथे के उलझे बालों से बड़े कोमल स्पर्श से खेलने लगी, कि वह जागे नहीं; फिर वह दुबारा सो गयी।

कभी भुवन जागा। उसकी चेतना पहले केन्द्रित हुई उस हाथ में जो रेखा के वक्ष पर पड़ा उसकी साँस के साथ उठता-गिरता-उफ़, कितने कोमल आलोड़न से, जिससे भुवन को लगता था कि उसकी समूची देह ही मानो धीरे-धीरे आलोड़ित हो रही है, मानो बहती नाव में वह सोया हो...अवश हाथ, जिन्हें वह हिला भी नहीं सकता, अवश देह, लेकिन एक स्निग्ध गरमाई की गोद में अवश-चाँदनी वह अधिक

पी गया है-'चाँदनी, मदमाती, उन्मादिनी'!...और उस मीठी अवशता को समर्पित वह भी फिर सो गया...

× × ×

फिर भुवन जागा, इस बार सहसा सजग; कुहनी पर जरा उठकर उसने देखा, रेखा सीधी सोयी है। उसने झुककर धीरे से उसके ओठ चूम लिए; रेखा जागी नहीं पर उसके ओठ ऐसे हिले मानो स्वप्न में कुछ कह रही है। फिर सालोमन का गीत गूँज गया :

एण्ड द रूफ़ आफ़ दाइ माउथ लाइक द बेस्ट वाइन फ़ार द बिलवेड, दैट गोएथ

डाउन स्वीटली, काजिंग द लिप्स आफ़ दोज़ दैट आर एस्लीप टु स्पीक...

(और तेरा मुख प्रियतम के लिए उत्तम मदिरा की भाँति है जिसका स्वाद मधुर है और जिस से सोये हुओं के ओठ भी मुखर हो उठते हैं।)

और उसने बड़े जोर से रेखा के ओठ चूम लिए, वह जागी और उसकी ओर उमड़ आयी :

लेट अस गेट अप अर्ली टु द विनयार्ड्स, लेट अस सी इफ़ द वाइन फ्लरिश, ह्वेदर द टेंडर ग्रेप्स एपीयर, एण्ड द पोमेग्रेनेट्स बड फ़ोर्थ : देयर विल आइ गिव दी आफ़ माइ लब्ज़।

(भोर होते ही अंगूरों के कुंज की ओर चलें; देखें कि लता कैसी है, कि नये अंगूर आये या नहीं, अनार की कलियाँ फूटीं या नहीं; और वहीं मैं तुम पर अपना प्रेम निछावर करूँगी।)

और वह उमड़ना फिर एक आप्लवनकारी लहर हो गया।

आइ एम ए वाल, एण्ड माई ब्रेस्ट्स लाइक टावर्स; देन वाज़ आइ इन हिज़ आइज़ एज़ वन दैट फाउंड फेवर...

(मैं एक प्राचीर हूँ, और मेरे उरोज मानो दुर्ग; मुझे तुम ने अपनी अनुकम्पा का पात्र पाया है।)

ऐसा ही भोर के चोर-पैर आलोक ने उन्हें पाया। पर जगाया नहीं, चुपके से एक ओर हो गया। फिर धूप की एक किरण तम्बू के पल्ले से झाँकती हुई आयी-पर आगे नहीं बढ़ी।

रेखा उठी। पल्ले को खोल कर उसने गिरा दिया, एक क्षण-भर भुवन की ओर निहारा, फिर बाहर चली गयी।

अनन्तर भुवन उठा। अचंचल हाथों से उसने रेखा के कम्बल उठाकर उसके बिस्तर पर डाले, अपने बिस्तर की सलवटों को ठीक-ठाक किया, पल्ले की ओर बढ़ा पर लौट गया, भीतर जाकर मुँह धोया और पोंछता हुआ बाहर निकला; एक बार चारों ओर नज़र दौड़ायी; रेखा के तकिये में जो गड्ढा था जहाँ उसका सिर रहा होग।

सहसा झुककर उसे चूमा, फिर तम्बू के दोनों पल्ले उलट दिये और बाहर निकल दोनों बाँहें फैला कर सूर्य की धूप को गले से लगाते हुए मानो नये दिन का अभिनन्दन किया।

× × ×

धूप चढ़ आयी। नाश्ते के बाद भुवन ने पूछा, “तैरने चलोगी?”

“हाँ। मैं कास्ट्यूम लायी हूँ!”

“पानी बहुत ठण्डा है-जम जाओगी।”

यह वाक्य प्रतिध्वनि-सा लगा। सहसा स्मृति की बाढ़ आयी। “तुम तो-चाँदनी में ही जम गयी थी!” भुवन की आँखें मिलीं, उनमें कौतुक था। रेखा ने आँखें नीचे करते और मुँह दूसरी ओर फेरते हुए कहा, “और तुम-तुम पिघल गये थे?”

फिर सहसा लज्जित होकर सिमटती-सी दूसरी ओर चल दी।

भुवन ने पास जाकर कहा, “लजाती हो-मुझ से-अब?”

“हटो-तुम से नहीं तो और किस से लजाऊँगी? और कौन-” और रेखा तम्बू के अन्दर भाग गयी।

भुवन ने नीचे जाकर खानसामा से कहा कि दोपहर का कुछ हल्का भोजन तैयार करके रख दे, और फिर पहलगाँव जाकर और जो-कुछ ताज़ा सामान लाना हो ले आवे-दो दिन के लायक, क्योंकि परसों फिर नीचे जाना होगा बाकी सामान के लिए। अभी वे लोग तैरने जाएँगे, लौट कर स्वयं कुछ खा लेंगे। खानसामा ने केवल कहा, “हुजूर, पानी बहुत ठण्डा है,” और अपने काम में लग गया।

भुवन तम्बू में गया। रेखा मेज़ के पास खाट के सिरे पर बैठी कुछ सोच रही थी।

“फिर कुछ लिखना चाहती हो? तुम पहले जीती हो और फिर लिखती हो, कि पहले लिखती हो फिर जीती?”

“यही भेद नहीं पहचान पा रही हूँ-यह मेरा सौभाग्य है। और तुम्हारा वरदान।” कुछ रुककर वह बोली, “मैं कहानी लिखने जा रही थी-तुम्हारे पढ़ने के लिए। पर तुम्हें सुना ही देती हूँ।”

भुवन ने घुटने टेककर कुहनियाँ मेज़ पर रखी, ठोड़ी हथेली पर जमायी, बिलकुल बच्चों की-सी मुद्रा बनाता हुआ बोला-”सुनाओ।”

“हँसना मत! तुम ने पंडितराज कोक का नाम सुना है?”

“हाँ, पर यह भी सुना है कि सभ्य लड़कियाँ उसका नाम नहीं लेतीं।”

“नहीं लेती होंगी। उनको हक ही नहीं होगा। पर बीच में मत बोलो, नहीं तो नहीं कह पाऊँगी। कोक कश्मीर-राज के मन्त्री थे, पर कैसे हुए इसी की कहानी है। राजा की एक कन्या थी। राज-भर में नंगी फिरा करती थी। टोकने पर कहती थी, 'मुझे काहे की शरम? राज्य में मैं किसी को पुरुष मान कर देखूँ तब तो लजाऊँ? मैं किसी को देखती ही नहीं।”

“एक दिन कोक वहाँ आये, उन्होंने राजकुमारी को देखा। उससे आँखें चार होते ही सहसा वह लजा गयी; उसे लगा वह नंगी है; भाग गयी और जाकर कपड़े पहन लिए।”

वह बहुत देर तक रुकी रही। फिर भुवन ने कहा, “ 'फिर' पूछने की इजाज़त है?”

“बस। इतनी ही कहानी मैं सुनाना चाहती थी। वैसे बाद में कोक से उसका विवाह हुआ, और उसी को अपने सब रहस्य सिखाने के लिए कोक ने अपना ग्रन्थ लिखा। पर वह अलग कहानी है।”

“ओः!” कहकर भुवन चुप हो गया।

रेखा ने सहसा फिर कहा, “यह कहानी मुझे जानते हो किसने सुनायी थी? देखो, मेरा शाप छूट गया है, मैं नाम ले सकती हूँ-हेमेन्द्र ने। क्यों, कब, यह नहीं बताना होगा। पर-उसे भी पुरुष करके मैंने जाना नहीं था।”

भुवन उसे चुपचाप देखता रहा। फिर एक लम्बी साँस उसने ली। उठकर आया, धीरे-धीरे रेखा के केश सहलाता रहा।

थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा चलो तैरने-”

“चलो, मैं आती हूँ।”

× × ×

तीसरे पहर दोनों पहाड़ की चोटी पर थे, खुली धूप में। हाथ पकड़े-पकड़े एक बार उन्होंने चारों ओर देखा। निर्जन-कहीं कोई नहीं दीख रहा था। एक ओर झील का विशाल मुकुर, और सब ओर आकाश, नीला, मुक्त-अतल...

रेखा ने कहा, “देखो, हम दुनिया की छत पर हैं।”

तैरने के बाद बदन सुखा कर वह धूप में लेटे रहे थे। फिर लौट कर खाना खाया था, और थोड़ी देर के लिए फिर धूप में आये थे, उससे शरीर अलसा गया तो जाकर थोड़ी देर सो गये थे। फिर रेखा ने उठकर उसे उठाया था, दोनों बिस्तर ठीक कर दिये थे, “घूमने नहीं चलोगे-फिर धूप चली जाएगी?” और उसी तरह भटकते हुए नंगे पैर ही दोनों यहाँ तक चढ़ आये थे...

भुवन एक चपटी चट्टान पर पाँव फैलाकर बैठ गया।

रेखा ने खड़े-खड़े पूछा, “भुवन, मेरी मोहलत कब तक की है?”

भुवन अचकचा गया। कुछ उत्तर न दे सका।

“बोलो?”

भुवन ने धीरे-धीरे कहा, “परसों पहलगाँव जाना होगा, सामान लिवाने...”

रेखा ने शान्त स्वर से कहा, “अच्छा।” उसमें कोई आक्रोश, प्रतिवाद, आवेश, कुछ नहीं था, केवल एक स्थिर स्वीकार। उसने दोनों हाथ उठाकर एक बड़ा वृत्त बनाते हुए फैलाये और फिर नीचे गिरा लिए-न मालूम अँगड़ाई लेते हुए, या उस विस्तीर्ण आकाश को बाँहों में समेटते हुए।

सहसा भुवन ने भर्राये कण्ठ से कहा, “आओ!” रेखा ने मुड़कर देखा, उसका हाथ रेखा की ओर बढ़ा है एक आह्वान में; उसी पुकार को उसने समझा, भुवन के पास घुटने टेकते और झुकते हुए उसने फुसफुसाते स्वर में उत्तर दिया, “आयी, लो”

साक्षी हों सूर्य, और आकाश, और पवन, और तले बिछी घास और चट्टानें, साक्षी हों अन्तरिक्ष के अगणित देवता और अकिंचन वनस्पतियाँ-

लेकिन यह एक सत्य है जो कोई साक्षी नहीं माँगता, सिवाय अपने ही भीतर की निविड़ समर्पण की पीड़ा के, अपने ही में निहित, स्पन्दित और क्रियाशील असंख्य सम्भावनाओं के...

× × ×

साँझ, रात, दूर टुनटुनाती गोधूली की घंटियाँ, शुक्र तारा, तारे, चाँद, लहरियों पर चाँदनी की बिछलन, छोटे-छोटे अभ्र-खण्ड, ठण्डी हवा, सिहरन, ऊँचाई, ऊँचाई के ऊपर आकाश में चुभता-सा पहाड़ का सींग, आकाश...सबका अर्थ है, सब-कुछ का अर्थ है, अभिप्राय है; ठिठुरे हाथ, अवश गरमाई, रोमांच, सिकुड़ते कुचाग्र, कनपटियों का स्पन्दन, उलझी हुई देहों का घाम, कानों में चुनचुनाते रक्त-प्रवाह का संगीत-इन सबका भी अर्थ है, अभिप्राय है, प्रेष्य सन्देश है; नहीं है तो इन सबके योगफल और समन्वय प्रकृति का ही अर्थ नहीं है, अभिप्राय नहीं है, केवल उद्देश्य...

× × ×

क्यों सब-कुछ का अर्थ है-दूसरा, गहरा अर्थ? ऐसा ही रहा, तो और एक-आध दिन में हर स्थान का, हर दृश्य का, हर बात का एक गहनतर, गोपनतम अर्थ हो जाएगा, एक रागात्मक ऐश्वर्य-तब रेखा किसी ओर मुड़ नहीं सकेगी बिना उस अर्थ से अभिसिंचित हुए...भुवन पूछता है, “पहाड़ पर चलोगी?” तो वह सिहर उठती है, “ठण्ड तो नहीं लगती?” तो लजा जाती है, “आओ, बैठें” तो मानो उसके घुटने मोम हो जाते हैं...लेकिन ऐसा रहेगा नहीं, और एक दिन भी नहीं, यह दोपहर ढलेगी तो जो रात होगी, उसके बाद जो सवेरा होगा...

तीसरे पहर फिर घूमने पहाड़ पर जाने की बात थी, शायद उस पार तक, पर दो-पहर की संक्षिप्त नींद से उठकर उन्होंने देखा, बादल का एक बड़ा-सा सफेद साँप झील के एक किनारे से उमड़ कर आ रहा है, और उसकी बेडौल गुँजलक धीरे-धीरे सारी झील पर फैली जा रही है, थोड़ी देर में वह सारी झील पर छाकर बैठ जाएगा, और फिर शायद उसका फन ऊपर पहाड़ की ओर बढ़ेगा-

भुवन ने कहा, “शायद बारिश हो, नहीं जाएँगे।”

तम्बू के सामने के चँदोवे में, नीचे पटरे डालकर उन पर कुछ बिछा कर दोनों बैठ रहे, देखते रहे बादल को धीरे-धीरे झील पर छाते हुए। जब वह घाटी में उमड़ कर आया, तब उसका बड़ा स्पष्ट आकार था, पर झील की सतह को दुलराता हुआ...

“देखते हो, बादल कैसे झील को दुलराता है-”

ओफ़, ये गहनतर अर्थ...रेखा की छाती में गुदगुदी होने लगती है, वह चाहती है कि भुवन का सिर खींच कर वहाँ छिपा ले, भुवन के ओठों को भींच ले कुचों के बीच जहाँ उसने दो दिन पहले पहली बार चूमा था...लेकिन वह निश्चल बैठी है, बिल्कुल निश्चल, भुवन का ही हाथ उसका हाथ खोजता आता है और उस पर टिक जाता है, बहुत धीरे-धीरे उसे दुलराता हुआ...

उसमें अर्थ है, गहनतर अर्थ, उस धीरे-धीरे दुलराते हाथ में...

झील बिल्कुल छिप गयी। केवल एक सफेद धुन्ध की दीवार : कहीं कोई दिशा नहीं, क्षितिज नहीं; दोनों धुन्ध में खो गये, केवल वे दोनों, तम्बू का चँदोवा, और धुन्ध, धुन्ध, व्यापक धुन्ध...

भुवन ने सहसा उदास होकर कहा, “कल-”

रेखा ने सहसा उसे रोक दिया। कल कल, आज क्यों? वह नहीं कहने देगी भुवन को कुछ भी-पर भुवन ने जब फिर कहना चाहा, “कल इस समय-” तो रेखा ने बढ़कर अपने ओठ उसके ओठों पर रख दिये और उसे चुप करा दिया।

बस इतना ही, चँदोवा भी नहीं, धुन्ध में केवल चेहरे, केवल मिली हुई आँखें, ओठ-

× × ×

लेकिन रात को जब भुवन ने बड़े आदर से उसे अपने पास लिटा कर अच्छी तरह उढ़ा दिया, और एक कुहनी पर टिके-टिके धीरे-धीरे उसे थपकने लगा, तब एक बड़ी गहरी उदासी ने उसे पकड़ लिया। भुवन की किसी बात का कोई उत्तर उसने न दिया, उसके पास लेटी, एक शिथिल हाथ उसकी कमर पर डाले, अपलक, शून्य, न देखती हुई दृष्टि से उसकी छाती की ओर देखती रही। भुवन जब बहुत आग्रहपूर्वक पूछता, तो कभी अंग्रेज़ी में, कभी बांग्ला में, कभी हिन्दी में कुछ गुनगुना देती-कभी पद्य, कभी गद्य-अपनी ओर से कुछ न कहती। एक बार भुवन ने कुछ शिकायत के-से स्वर में कहा, “तुम सिर्फ कोटेशन बोल रही हो-अपना कुछ नहीं कहोगी?”

तब उसने खोये-से स्वर में कहा, “अपना? अपना क्या? मैं सिर्फ कोटेशन बोलती हूँ, भुवन, क्योंकि मैं स्मृति में जी रही हूँ।”

भुवन चुप हो गया। धीरे-धीरे रेखा की आविष्ट उदासी उस पर छा गयी, उसने धीरे-धीरे अपना सिर रेखा के माथे पर टेक दिया और निश्चल हो गया। बीच-बीच में वह अनमने हाथ से उसे दो-एक बार थपक देता, या अनमने ओठों से उसकी पलकें छू लेता, बस।

बहुत हल्की-सी बारिश होने लगी। तम्बू पर बूँदों की थाप पहले तीखी पड़ी, पर वह जैसे-जैसे भीगता गया वह थाप भारी होती गयी; थोड़ी देर में एक मन्द्र एक स्वर उनके उदास राग में तानपूरे की संगत करने लगा...

न जाने कब धीरे-धीरे दोनों सो गये। प्रकृति का कोई अर्थ नहीं है, अभिप्राय नहीं है, केवल उद्देश्य; प्राणिमात्र उनके अनुगत हैं।

× × ×

वापसी का रास्ता सदैव बहुत छोटा होता है; विशेषकर जब दुनिया की छत पर से नीचे उतरें : वह उतराई वैसी नहीं होती कि पैर पसार कर, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मानो मुक्त, हवा पर तिर जायें और जाकर उतरें न जाने कहाँ दूर, दूर वायुमण्डल के पार एक श्वासरुद्ध, निरे आलोक की दूसरी दुनिया में; यह उतराई होती है नीचे-मिट्टी की, लोगों के पैरों से रौंदी हुई, धरती पर...

पहलगाँव दीखने लगा, तो रेखा ने धीरे-धीरे, बिना आग्रह के, मानो उसकी बात न भी मानी जाये तो कोई बात नहीं ऐसे कहा, “अभी तो नहीं पहुँचे होंगे-उधर से ऊपर से चलें-”

भुवन तुरत मुड़ गया।

चलने से पहले भुवन ने कहा था, “रेखा, अभी क्या जल्दी है; और दो दिन रह जाओ-मैं कल जाकर सामान लिवा लाऊँ-”

रेखा ने उसकी आँखों में देखा था। नहीं, औपचारिक बात नहीं थी; भुवन सचमुच उसे ठहरने को कह रहा था।

यही ठीक है, यही ठीक है। यहाँ वह विदा लेने नहीं आयी, विदा देने आयी है। भुवन उसे रहने को कहता रहे, सुनते-सुनते ही वह चली जाये। यही ठीक है...उसने सहसा कड़े पड़ कर कहा था, “नहीं भुवन, जाऊँगी। मैंने वचन दिया था।”

चलते हुए वे सीधे रास्ते से नीचे नहीं उतरे थे, पहले ऊपर चढ़े थे-पहाड़ की छत पर-रेखा आगे-आगे। ऊपर पहुँच कर रेखा ने एक बार चारों ओर देखा था, रुक-रुक कर, मानो एक-एक स्थल को दृष्टि में बसाते हुए, स्मृति की गाँठ बाँधते हुए; फिर कहा था, “भुवन, जाने से पहले मैं एक बात कहना चाहती हूँ। आइ एम फुलफ़िल्ड। अब अगर मैं मर जाऊँ तो परमात्मा के-प्रकृति के प्रति यह आक्रोश लेकर नहीं जाऊँगी कि मैंने कोई भी फुलफ़िल्मेन्ट नहीं जाना-कृतज्ञ भाव ही लेकर जाऊँगी-परमात्मा के प्रति और-भुवन, तुम्हारे प्रति।” और हठात् वह भुवन के पैरों की ओर झुक गयी थी और भुवन के चौंकते-चौंकते उसने भुवन के पैरों की धूल ले ली थी।

चुपचाप वे उतरते गये थे। रुद्ध-कण्ठ, स्तब्ध-प्राण, आविष्ट।

फिर सहसा पहलगाँव दीख गया था। रेखा रुक गयी थी; पहलगाँव की ओर ताकते-ताकते ही उसने भुवन का हाथ पकड़ा था और दबा कर छोड़ दिया था।

जिस रास्ते से वे चले, उससे नदी या कि बड़ा पहाड़ी नाला पड़ता था। पुल था, वे पार हो गये। पर पहलगाँव इसी पार था, इस नदी और शेषनाग नदी के संगम पर। फिर भी दोनों उसी पार से धीरे-धीरे नाले के साथ उतरने लगे।

आधा मील आगे जाकर भुवन ने देखा; एक पेड़ का तना नदी के आर-पार पड़ा है। स्पष्ट ही वह पुल का काम देने के लिए डाला गया है, पैदल इस पर आ-जा सकते हैं। भुवन ने पूछा, “इससे पार चलें-सकोगी?”

“अब सब-कुछ सकूँगी, भुवन!” रेखा बोली। भुवन ठीक समझ नहीं सका कि इस का अभिप्राय क्या है : आगे बढ़कर तेज पैरों से तने पर चल चली। मँझधार में जाकर रुकी, नीचे पानी की ओर देखा, और फिर बैठ गयी। भुवन भी कुछ दूर आगे बढ़ कर बैठ गया।

रेखा गाने लगी। उसका गला भर्रा रहा था, स्वर मानो अब टूटा, पर वह चेहरे पर एक मुस्कान लिए गाये जा रही थी, किसी बात का उसे होश नही था, यहाँ तक कि भुवन को लगा, उसकी उपस्थिति की खबर भी रेखा को नहीं है :

तोमा सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे

देवे कि गो वासा आमाय देवे कि एकटिधारे :

तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे।

आमि शुनबो ध्वनि काने आमि भरबो ध्वनि प्राणे

आमि शुनबो ध्वनि

सेइ ध्वनि ते चित्त वीणाय तार बाँधिबो बारे -बारे।

देबे कि गो वासा आमाय देबे कि ...

तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे।

देबे कि गो वासा आमाय देबे कि ...

(तुम्हारे स्वर की धारा झरती है जहाँ, वहीं एक किनारे क्या मुझे स्थान दोगे? मैं कान से ध्वनि सुनूँगी, प्राणों में ध्वनि भर लूँगी; उसी ध्वनि से चित्त-वीणा के तार बार-बार बाँधूँगी। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

मानो दूर, अलग हटाया हुआ, भुवन सोचने लगा। एक अद्भुत भाव उसके मन में उठा। अभी पीछे देखने, सोचने, परखने का सामर्थ्य उसमें नहीं था, इतना ही उसके मन में उठा कि यह उसके जीवन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सन्धि-स्थल है...क्या वह भी रेखा की तरह कह सकता है कि, कि अब वह फुलफिल्ड है, कि अब वह मर सकता है? पर फुलफ़िल होना क्या है? एक तन्मयता उसने जानी है, एक अभूतपूर्व तन्मयता; लेकिन स्वयं वह जो जान पाया है उससे कुछ अधिक और कुछ अधिक गहरा रेखा उसके निमित्त से जान सकी है-अधिक गहरा क्योंकि वह स्त्री है, और स्त्री होते हुए भी उसने वह साहस किया है जो शायद भुवन में भी नहीं है; अधिक गहरा इसलिए कि उसे जानने के लिए पहले जाना कितना कुछ भुलाना भी पड़ा है...तो क्या यही फुलफ़िल्मेन्ट नहीं है कि कोई किसी को वह चरम अनुभूति दे सके-देने का निमित्त बन सके-जो जीवन की निरर्थकता को सहसा सार्थक बना देती है? सचमुच, ऐसे सन्धिस्थल पर ही मरना चाहिए, यह कहते हुए कि मैं कुछ दे सका जो मुझ से बड़ा है, मुझ से अच्छा है...अगर वह यहीं से नीचे कूद पड़े-रेखा गाना समाप्त करके मुड़ कर देखे कि वह नहीं है, गुम हो गया है, तो-

लेकिन रेखा ने सहसा गाना बन्द कर दिया। पुकारा “भुवन! भुवन!”

“हाँ।”

“यहाँ आओ।”

भुवन पास सरक आया।

“मेरा हाथ पकड़ो।”

“भुवन ने पकड़ लिया।

“भुवन, तुम वैज्ञानिक हो। लेकिन तुम्हारी आकांक्षा क्या थी-वैज्ञानिक होने की ही, या और कुछ?”

“क्यों?” कहकर भुवन तनिक रुका, फिर जैसे सच बता देने को बाध्य हो, ऐसे बोला, “मेरा स्वप्न था डाक्टर होने का-बहुत बड़ा सर्जन-”

“और मेरा था बीनकार होने का-बहुत बड़ी बीनकार।”

दोनों थोड़ी देर चुप रहे। फिर रेखा ने धीरे-धीरे कहा : “उसे मैं वीणा भी सिखाऊँगी-और वह बड़ा सर्जन भी होगा।”

एक सन्नाटा-नदी के स्वर से स्पन्दित।

थोड़ी देर बाद वह खड़ी हो गयी। भुवन का हाथ पकड़े-पकड़े उसे उठाया, और हाथ पकड़े ही पार हो गयी।

बस्ती के पास भुवन ने पूछा, “पहलगाँव ठहरोगी? मैं चौथे-पाँचवें दिन आऊँगा डाक-वाक देखने-”

“शायद, अभी कुछ सोचा नहीं-”

लेकिन भुवन के कुली जब आ गये, और वह उन्हें आगे चलाकर थोड़ी देर होटल के बरामदे में रेखा के पास खड़ा रहा, और फिर सहसा कुछ भी कहना असम्भव पाकर रेखा के हाथ को जोर से भींचकर, एक कन्धे से उसका आधा आलिंगन करके जल्दी से उससे टूटकर, अलग होकर बिना लौट कर देखे चला गया-रेखा भी बोली नहीं, केवल बेबस हाथ बढ़ाये खड़ी रह गयी-उसके घंटा-भर बाद जब कुली ऊपर से रेखा का सामान लेकर आ पहुँचा, तो वह रुकी नहीं, तत्काल बस में जा बैठी और श्रीनगर के लिए रवाना हो गयी।

× × ×

चौथे-पाँचवें दिन भुवन पहलगाँव आया। सीधा होटल गया। मालूम हुआ कि रेखा वहाँ ठहरी नहीं, उसी दिन चली गयी। फिर वह डाकघर डाक पूछने गया। हाँ, तीन-चार चिट्ठियाँ थीं। उसने ले ली। हाँ, एक बड़े लिफाफे पर रेखा के अक्षर थे। उसने लिफाफा खोला। एक पत्र नहीं था, अलग-अलग कागज़ के कई टुकड़े थे। भुवन ने जहाँ-तहाँ पढ़ा-एक-आध जगह कविता की पंक्तियाँ थीं-

आई सेड टु माइ सोल : बी स्टिल, एण्ड वेट विदाउट होप

फ़ार होप वुड बी होप आफ़ द रांग थिंग , वेट विदाउट लव

फार लव वुड बी लव आफ़ द रांग थिंग , देयर इज़ येट फेथ;

बट द फेथ एण्ड द लव एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग। ...


(मैंने अपनी आत्मा से कहा : स्थिर हो और बिना आशा के प्रतीक्षा कर क्योंकि आशा सत् की आशा होगी ; बिना प्रेम के प्रतीक्षा कर, क्योंकि प्रेम असत् का प्रेम होगा। श्रद्धा फिर भी रह जाती है, किन्तु श्रद्धा और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में ही हैं।-टी. एस. एलियट)

फिर भुवन ने सब कागज़ जेब में डाल लिए कि तुलियन जाकर एकान्त में पढ़ेगा...”मैं सोचना चाहती हूँ, पर सोच नहीं सकती। ठीक सोचना ही चाहती हूँ, इसमें भी सन्देह हो आता है।

“कुछ महान्, कुछ विराट् घटित हुआ है, ऐसा थोड़ा-सा आभास होता है। लेकिन कहाँ? मुझ में? मैं उस विराट् का वाहन हूँ, माध्यम हूँ-मैं अकिंचन, नगण्य, मैं जो अगर कभी थी भी अब नहीं हूँ! मुझ को? मेरे साथ?

“कुछ स्तब्ध, कहीं निश्चलता, कहीं न जाने, कैसी एक शान्ति”...

“मैं एक खड़ा हुआ पानी थी : एक झील, एक पोखर, एक छोटा ताल, शैवालों से ढँका हुआ। तुम ने आँधी की तरह आकर मुझ को आलोड़ित कर दिया, मुझ में अनन्त आकाश को प्रतिबिम्बित कर दिया। मुझे कहने दो, भुवन, मेरी यह देह जैसे तुम्हारी ओर उमड़ी थी, वैसे कभी नहीं उमड़ी, शिरा-शिरा ने तुम्हारा स्पर्श माँगा, तुम्हारे हाथों का स्पर्श, तुम्हारी बाँहों की जकड़, तुम्हारी देह की उत्तेजित गरमाई...लेकिन-तुम में डर था-डर नहीं, एक दूर का कोई अनुशासन, कोई एक मर्यादा, जिसके स्रोत तक मेरी पहुँच नहीं थी। और जिससे छुआ जाकर मेरा तूफ़ान सहसा शान्त हो गया, मैं फिर उसी तल पर पहुँच गयी जिस तल पर ताल सदा से था-ढँका हुआ निश्चल, खड़े पानी का एक उद्देश्यहीन जमाव-

“लेकिन नहीं। यह ढँका नहीं, आकाश का प्रतिबिम्ब उसमें रहा; फिर तुम ने फिर मुझे जगा दिया-क्षण-भर के लिए, लेकिन पहचान के क्षण के लिए, अनन्य-सम्पृक्त एक क्षण के लिए-भुवन, मैं तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ...”

“न, मैं कुछ माँगूँगी नहीं। तुम्हारे जीवन की बाधा नहीं बनूँगी, भुवन, उलझन भी नहीं बनूँगी। सुन्दर से डरो मत-कभी मत डरना-न डरकर ही सुन्दर से सुन्दरतर की ओर बढ़ते हैं।

“लेकिन भुवन, मुझे अगर तुम ने प्यार किया है, तो प्यार करते रहना-मेरी यह कुंठित, बुझी हुई आत्मा स्नेह की गरमाई चाहती है कि फिर अपना आकार पा सके, सुन्दर मुक्त, ऊर्ध्वाकांक्षी...”

“सोचती हूँ, जीवन के हर मोड़ पर मुझे स्नेह मिला है, करुणा मिली है, साहाय्य मिला है। इतनी करुणा, इतनी अनुकम्पा, इतनी भलाई-कभी मैं अपने ऊपर खीझ उठती हूँ कि मुझ में क्यों नहीं एक प्रतिस्फूर्ति जागती-क्यों मैं ऐसी अचल अचेतन हूँ? कृतज्ञता-हाँ, कृतज्ञता बहुत है, पर कृतज्ञता जीवन को सच नहीं बनाती, प्यार सच बनाता है; क्योंकि कृतज्ञता में व्यथा नहीं है, और बिना व्यथा के सत्य नहीं है, कितनी सच बात कही थी तुमने हमारे पहले विवादों में-आज व्यथा में मैं उस सच को जानती हूँ, भुवन! पर क्यों सब कुछ अयथार्थ है, क्यों कुछ भी मुझे नहीं छूता? तुम भी, भुवन,-तुमसे मैंने पूछा था कि तुम यथार्थ हो? क्योंकि मैं जागी थी और एक बड़ी विमूढ़ता मुझ पर थी-एक समर्पण मेरे भीतर रो रहा था पर अयथार्थ को मैं समर्पण करना नहीं चाहती थी...वह डर...अयथार्थ को समर्पण करने का डर क्या होता है भुवन, तुम जानते हो? न, तुम कभी न जानो वह डर...

“लेकिन उस शाप से मैं मुक्ति पा सकी, भुवन, थोड़ी देर के लिए ही, चाहे बीच-बीच में कुछ क्षणों के लिए ही, मैंने पहचाना कि तुम हो, सचमुच हो, कि तुम्हीं को मैंने समर्पण किया है।”

“मेरी यह सोयी अवस्था फिर से लौट आयी है, पर वैसी जड़ नहीं-मैं मानो स्वप्नाविष्ट हूँ। स्वप्न में चलती हूँ, खाती-पीती हूँ, काम करती हूँ, और करूँगी।”

“भविष्य मैं अब भी नहीं मानती। तुम्हारे मन, हृदय, आत्मा की बात मैं नहीं जानती; नहीं जानती कि मेरे तुम्हारे जीवन में आने का क्या अर्थ या महत्त्व है। यह भी नहीं जानती कि तुम्हारे जीवन में आयी हूँ कि नहीं। लेकिन पूछूँगी भी नहीं। साल-भर पहले-अभी कुछ महीने पहले तक भी-हम राह पर इस तरह मिलते-मिलने की सम्भावना भी होती-तो मैं उस मिलने का भविष्य जानना चाहती। जानना चाहना ही स्वाभाविक होता। पर अब मैं अपने को अंकुश देती हूँ कि पूछूँ, पर प्रश्न मेरी जीभ पर नहीं आता-मेरे मन में ही ठीक आकार नहीं लेता, कि स्वयं अपने से भी पूछ सकूँ। फुलफ़िल्ड : शान्त स्तब्ध, निर्वाक, मैं बस हूँ; कोई प्रश्न मेरे भीतर नहीं उठते और भविष्य से मैं कुछ पूछना नहीं चाहती।

“मैंने बार-बार कहा है कि भविष्य नहीं है, केवल वर्तमान का प्रस्फुटन है, उसी की अनिवार्य अन्तःसम्भावनाओं का स्फुरण : अब मैं यह अनुभव करती हूँ। पहले मानती थी, अब उसकी तीखी अनुभूति टीस-सी मेरे अन्तर में स्पन्दित हो रही है। वह सच है, और मैं उसके आगे झुकती हूँ...

“जब तक जो है, उसे सुन्दर होने दो भुवन; जब वह न हो, तो उसका न होना भी सुन्दर है...”

“एक कविता तुम्हारे लिए रख रही हूँ, नाम है, 'छतरी' :

वर्स दैन दोज़ ड्रीम्स इन ह्विच द अर्थ गिव्ज़ वे

आइ एम अवेक एण्ड वाक आन सालिड स्टोन ,

विदाउट यू डिसेम्बाडीड , एवरी डे

अगेंस्ट द ईस्ट विंड गोइंग होम एलोन।

इन ड्रीम्स आफ़ फ़ालिंग देयर इज़ ओनली ड्रेड ;

फ़ाल्स एण्ड , ड्रीम्स फ़ेल, नाइट फ़ाल्स, नाइटमेयर रिमेन्स;

ए गोस्ट आफ़ फ्लेश एण्ड ब्लड , आइ मस्ट बी फ़ेड

मस्ट ओपेन एन अम्ब्रेला ह्वेर इट रेन्स।

ह्वेर विल इट आल एण्ड ? विल इट एण्ड एट आल?

हाइ द विंड राइजेज़ , कोल्ड द रेन विल फ़ाल,

बट इफ़ द सन शोन इट वुड ओनली शाइन

आन अनरीएल सीन्स एण्ड ग्रीफ़ ऐज़ रीएल ऐज़ माइन :

अगेंस्ट द नाइट विंड गोज़ ए लिविंग गोस्ट ,

रीअल , फार इट लब्ज़, एण्ड लैक्स ह्वट इट लब्ज़ मोस्ट।

(उन स्वप्नों से भी भयानक जिनमें पैरों के नीचे धरती खिसक जाती है, मैं जागती हूँ, ठोस पत्थर पर चलती हूँ; तुम्हारे बिना विदेह, प्रतिदिन ठण्डी पूर्वी हवा के सम्मुख अकेली घर की ओर जाती हुई। गिरने के स्वप्नों में केवल डर होता है, गिरना समाप्त हो जाता है, स्वप्न चुक जाते हैं, रात आती है और रात का डर उभर आता है। मैं रक्त-माँस युक्त प्रेत हूँ जिसे भोजन भी करना होता है और वर्षा में छाता भी खोलना होता है।

इसका अन्त कहाँ है? अन्त है भी? हवा तीखी होती जाती है, वर्षा और ठण्डी हो जाएगी, किन्तु सूर्य निकलता भी तो उसकी धूप पड़ती केवल अयथार्थ दृश्यों पर और मेरे यथार्थ दुःख पर।

रात की सनसनाती हवा के सम्मुख जा रहा है एक जीवित प्रेत-यथार्थ, क्योंकि वह प्रेम करता है, और जिसे प्रेम करता है उसे पा नहीं सकता!)

“तुमने मुझे एक बार भी नहीं बताया कि मेरे लिए तुम्हारे हृदय में क्या भाव है। प्रेम, स्नेह, दया, समवेदना, करुणा, क्या? या कि केवल मेरे दुःख ने एक प्रतिध्वनि तुममें जगा दी, बस? क्यों तुमने मुझे अपने इतने निकट लिया?

“या कि मैं केवल एक धृष्णु साहसिका हूँ, जो अनधिकार तुम्हारे जीवन में घुस आयी? या...

“यही एक ही प्रश्न मैं तुमसे पूछना चाहती थी, भुवन, आगे-पीछे कुछ नहीं, केवल यही एक बात : और इसके लिए साहस नहीं बटोर पायी। तुम्हारे सामने न जाने क्यों एक संकोच जकड़ लेता है...”

“मैं उदास हो गयी थी, तुम भी उदास हो गये थे। तुम्हें उदास करना मैं नहीं चाहती थी। तुम्हें उदास देखना कभी नहीं चाहती...स्वभाव में मैं वैसी नहीं हूँ; तुम ने मुझे उदास, दुःखी, प्रतिमुखी, अवरुद्ध ही जाना है-सहा है, मेरे भुवन, बड़ी करुणा और स्नेह के साथ सहा है-पर मैं वैसी नहीं हूँ। मैं हँसती थी। पथ-तट के एक उपेक्षित फूल को देख मैं विभोर हो सकती थी, लहरों के साथ दौड़ सकती थी, और नदी की हवा के साथ मेरा मन उड़ जाता था हँसते सुनहले पंख फैलाकर, अन्तरिक्ष को मेरी हँसी से गुँजाता हुआ...

“लेकिन भुवन, धीरे-धीरे वह हँसी मरती गयी। मैं कहते लज्जित हूँ; पर वर्षों से वह मरती रही है, धीरे-धीरे।

ड्राप बाइ ड्राप स्लोली , ड्राप बाइ ड्राप आफ़ फ़ायर : एलास माइ रोज़ आफ़ लाइफ़ गान आल टु प्रिक्ल्स ...

(बूँद-बूँद धीरे-धीरे आग-सा-मेरे जीवन का गुलाब काँटा-ही-काँटा रह गया।-क्रिस्टिना रोजे॓टी)

“तुमने मुझे फिर वह हँसी दी। थोड़ी देर के लिए : लेकिन वही, सच्ची, मुक्त।”

“अब लगता है, क्या हुआ उसका? अकारण, निराधार हँसी, निष्परिणाम हँसी...

“लेकिन सच्ची हँसी तो स्वतःप्रमाण है, स्वयम्भू, निष्परिणाम...”

नदी के द्वीप (उपन्यास) : चन्द्रमाधव : भाग-2

चंद्रमाधव को पहचानते ही रेखा के चेहरे पर विस्मय की दौड़ती लहर के साथ...स्थान है, न झगड़ा करके फ़ायदा है। रेखा को झुकना पड़े, वह समय आएगा अपने-आप आएगा, ज़रूर आएगा।

“नहीं रेखा जी, मैं केवल अपने दोषों की बात कह रहा था-उन्हें भूलकर फिर आप मुझे फ्रेंड का गौरव दे सकें तो-”

“फ्रेंडशिप बाहर की स्थिति नहीं है, चन्द्र जी, वह अपनी प्रवृत्ति का नाम है। मैं तो फ्रेंड के सिवा कुछ हो ही नहीं सकती अब-”

चन्द्र ने आँखें सकोच कर उसकी ओर देखा। मन-ही-मन कहा, “तो ऐसी बात है-फ्रेंड के सिवा कुछ हो नहीं सकतीं आप हम सबके लिए-सारी दुनिया के लिए-केवल एक ही व्यक्ति है जो-” और वह उसके चेहरे में खोजने लगा उस एकमात्र व्यक्ति के प्रभाव की कोई छाप-क्या यह जो दीवार की-सी दूरी है, वह आवरण, यह केवल गहरी अनुभूति का परदा नहीं है जो भोक्ता को बाकी जगत से अलग कर देता है? जो भी किसी ऐसी अनुभूति से गुजरता है, उसकी छाप को एक कवच की तरह पहन लेता है, और वह उसे औरों से अलग कर देती है, वैसे लोगों की एक अलग बिरादरी हो जाती है-रेखा कहेगी 'जीवन की नदी में अनुभूति के द्वीप'...अगर वह थोड़ा-सा कोंच कर, कुरेद कर, नीचे उस सतह पर पहुँच सके जहाँ जीव को दर्द होता है, वह तिलमिलाता है...

प्रत्यक्ष उसने कहा, “थैंक यू, रेखा जी; मैं भी शायद अब फ्रेंड के सिवा कुछ नहीं हो सकता।” वाक्य का दोहरा अर्थ है, यह उसने लक्ष्य किया पर उसमें दोष क्या है, कलाकार तो हमेशा दोहरे अर्थों से खेलता ही रहता है। “पर क्या हम लोग बाहर कहीं नहीं चल सकते-वाई. डब्ल्यू. लाउंज तो बात करने के लिए नहीं है।”

“चलिए।”

ज़ीने से नीचे उतर कर चन्द्र ने कहा, “कश्मीरी गेट में हज़रतगंज वाली बात नहीं है-यहाँ टहला नहीं जा सकता। टहलना चाहें तो आगे कुदसिया बाग़ की तरफ़”

रेखा ने निश्चयात्मक स्वर से कहा, “नहीं।” फिर कहा, “चलिए नयी दिल्ली की तरफ़ चलें-”

चन्द्र ने ताँगा ठहराया, दोनों सवार हो गये। काफ़ी देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर चन्द्र ने पूछा, “भुवन जी की कोई खबर है? मुझे तो बहुत दिनों से पत्र नहीं आया-”

“पत्र तो मुझे भी नहीं आया। पर कश्मीर में ही हैं; रिसर्च कर रहे हैं।”

चन्द्र ने प्रतीक्षा की कि रेखा कुछ और कहे। फिर बोला, “आप से तो भेंट हुई होगी?”

“हाँ।” इस बार और भी संक्षिप्त उत्तर था।

चन्द्र थोड़ी देर सोचता रहा, दाँव तोलता रहा। फिर उसने कहा, “गौरा जी-गौरा को आप जानती हैं न? भुवन की शिष्या और अन्तरंग मित्र-कह रही थीं कि आप भी भुवन जी के साथ गयी हैं; मुझसे आप के बारे में पूछ रही थीं।” तनिक रुककर, “अपने मास्टर साहब के लिए बहुत चिन्तित थी।”

चन्द्र के प्रश्न पर रेखा का मन कुछ भटक गया था। पर अन्तिम बात से फिर एकाग्र हो आया। “क्यों?”

चन्द्रमाधव एक उड़ती-सी हँसी हँसा। मानो कहता हो, 'उसका चिन्तित होना स्वाभाविक ही है; और ऐसी मामूली बात में मेरी कोई दिलचस्पी भी नहीं है।' फिर साभिप्राय बोला, “गौरा भुवन की सबसे प्रिय शिष्या है-और अब शिष्या नहीं, मित्र है।”

“मैं जानती हूँ।” भुवन के प्रति भक्ति की अभिव्यक्ति आवश्यक है, कुछ ऐसी भावना से रेखा ने कहा, “भुवन जी ने स्वयं मुझे बताया था।”

“अच्छा!” चन्द्र ने किंचित् आश्चर्य दिखाते हुए कहा, “तब तो आप को उनसे ज़रूर मिलना भी चाहिए।”

“पर वह तो मद्रास में हैं न?”

“थीं। आजकल यहीं हैं। उनकी शादी की बात चली थी दो बरस पहले, तब भुवन की सलाह से मद्रास चली गयी थीं संगीत सीखने। वहाँ से लौट आयी हैं।”

“ओः।”

फिर थोड़ी देर मौन रहा। नयी दिल्ली में डेविको के नीचे ताँगा रुका; चन्द्र ने कहा, “यहाँ चाय पिएँगे, काफ़ी तो दिल्ली की अच्छी नहीं होती-”

“जो आप चाहें।”

बैठकर चन्द्र को सहसा याद आया, गौरा की बात से असली बातचीत बीच ही में रह गयी थी। यों गौरा की बात रेखा को बताना भी कम ज़रूरी नहीं था, पर सबसे ज़रूरी था यह जानना कि रेखा और भुवन के बीच स्थिति क्या है-दोनों कितने गहरे में हैं...

“मैंने तो सुना था आप नैनीताल गयी हैं और भुवन, कश्मीर, पर गौरा कह रही थी कि आप भी कश्मीर गयी थीं-मुझे तो अचम्भा हुआ-”

“हाँ, मैं कश्मीर भी गयी थी। नैनीताल पहले गयी थी, लौटकर फिर कश्मीर।” रेखा ने स्थिर भाव से कहा। फिर सहसा एक ऊब की लहर-सी उसके भीतर उमड़ी : जानना चाहता है तो जान ले न, यह भी अधूरी बात है, एक बार कह ही दी जाये पूरी बात तो यह पैंतरेबाजी खत्म हो। उसने अनमने से ढंग से जोड़ दिया, “डाक्टर भुवन भी नैनीताल गये थे; वह पहले लौटकर कश्मीर गये; मैं सीधी चली गयी थी।”

उसके अनमनेपन की ओर लक्ष्यकर के चन्द्र सोचने लगा, यह बात क्या है? क्या सारी बात ऐसी है कि इस अनमने ढंग से कह डाली जाये-या कि बात इतनी बड़ी है कि अब छिपाव को भी छोड़ दिया गया? ऐसा है तो-अगर भुवन न होता, वह होता, तो वह भी छिपौवल छोड़ दिया-बल्कि इतना भी नहीं, वह ऐलानिया कहता; वह काम छोड़कर रेखा को लेकर कहीं चला जाता बर्मा-वर्मा; वह प्रेम क्या जिसके लिए सब कुछ वारा-न्यारा न कर दिया जाये? आशिक वह जो सर पै कफन बाँधे फिरे, यह क्या कि आशिकी भी हो रही है, रिसर्च भी, और नौकरी भी चल रही है...

“कैसा है पहाड़ों का मौसम? सुना है बड़ी भीड़ है इस साल, ठहरने को भी कहीं जगह नहीं मिलती-”

हाँ, तो यह भी आप पूछना चाहते हैं...थके भाव से रेखा ने कहा, “नैनीताल में तो जगह थी होटलों में, पर हम लोग नीचे चले गये थे; होटल में नहीं ठहरे। और कश्मीर तो मेरा घर ही है।”

“हाँ, ऑफ़ कोर्स।” कहकर चन्द्र ने कुछ ऐसे भाव से रेखा की ओर देखा, मानो कह रहा हो, देखिए, इससे आगे मैं कुछ नहीं पूछ रहा हूँ, टैक्ट का तकाज़ा है; यों जानना चाहना स्वाभाविक होगा आप मानेंगी...

रेखा की विरक्ति सहसा एक शारीरिक थकान बनकर उसकी देह पर छा गयी। एक धूमिल उछटती नज़र से उसने डेविको के चायघर के फैलाव को, विशाल गलीचे और भारी परदों को देखा; उफ़ कैसी है यह घुटन-कहाँ है इसमें कोई रन्ध्र जिसमें से धुन्ध का अजगर आकर सारी झील को छा ले और क्षितिजों को मिला दे! उसने क्षण भर आँखें बन्द कर लीं, उसका हाथ कनपटी तक उठा और उस काल्पनिक लट को सँवारता हुआ कान के पीछे से ग्रीवा के मोड़ के साथ लौट आया। सहसा उसने पूछा, “चन्द्र जी, आप का परिवार कहाँ है?”

चन्द्र के ओठ पतले हो आये, लेकिन निमिष-भर के लिए ही; फिर उसने तपाक से कहा, “ओ, हाँ, रेखा जी, आप को ख़बर देना तो भूल ही गया। वे लोग लखनऊ आ रहे हैं। मेरे पास ही रहेंगे।”

“सच?” रेखा ने सहसा गम्भीर होकर कहा, “यह बहुत अच्छी बात है चन्द्र जी। आइ होप यू आर हैपी।”

“ह्वट इज़ हैपिनेस, रेखा जी; कुछ और बात करिए, हैपिनेस तो एक कल्पना है-या उस अवस्था का नाम है जिसमें हम अपनी ज़रूरत को अभी जानते नहीं हैं। इनसान के लिए हैपिनेस नहीं है-क्योंकि वह लाइलाज जिज्ञासु है। वह जान के रहेगा-और जानेगा तो भोगेगा!”

खण्डन में रेखा की रुचि नहीं थी। फिर भी इतना कहे बिना वह न रह सकी : “जिज्ञासु ही हैपिनेस जान सकता है; नहीं तो जिसने उसे जाना नहीं वह भोगेगा क्या? कोई चीज़ स्थायी नहीं है, इसी से वह कल्पना-मात्र तो नहीं हो जाती?”

“पर स्थायी नहीं है तो हैपिनेस कैसे है? जिसके साथ छिन जाने का डर बराबर लगा है, वह प्राप्ति कैसी है?”

रेखा के भीतर कुछ पुकार उठा, “वही प्राप्ति है, वही प्राप्ति है।” उसने धीरे-से कहा, “जो छिन जा सकता है पर जब है तब सर्वोपरि है, वही आनन्द है।” फिर विषय बदलने के लिए, बिना उत्तर का मौका दिये कहा, “लेकिन गृहस्थ-जीवन में दूसरे स्तर की बात सोचनी चाहिए न-उसका आधार है स्थायित्व, उड़ान नहीं; गृहस्थी की आधार-भूमि पर पैर टेककर आप घूम भी सकते हैं-”

“रेखा जी, इस बात को गुस्ताखी न समझा जाये तो कहूँ कि गृहस्थी के मामले में आपको ऑथारिटी मानने में संकोच भी हो सकता है।”

“सो तो है।” रेखा ने कहा; फिर मानो उसे तभी ध्यान आया हो कि बात हँसी की है, वह हँस दी।

चन्द्र ने चाय के प्याले की तलछट राखदान में उड़ेल कर चायदानी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, “आप गौरा जी से मिलने चलेंगी?”

रेखा ने चायदानी सँभालते हुए कहा, “लाइये, मैं बना दूँ।” फिर प्रश्न का उत्तर देते हुए, “हाँ, अगर उन्हें बुरा न लगे-”

“वाह, उन्हें क्यों बुरा लगने लगा? भुवन जिस पर-जिसकी इतनी प्रशंसा करते रहे हैं उसे उनकी प्रिय शिष्या न देखना चाहे, यह हो ही नहीं सकता। वैसे बड़ी अच्छी लड़की है-और बड़ी सुन्दर। संगीत में भी रुचि रखती है यह तो आपको मालूम ही है। इण्टेलिजेण्ट भी है, पर ज़रा मुँहज़ोर-”

रेखा ने अनमने-से कहा, “हाँ?”

× × ×

गौरा ने कहा, “आइये, बैठिए, पिता जी अभी आते हैं-”

यह स्वागत इतना असाधारण था कि चन्द्र सहसा यह भी पूछना भूल गया कि वह मसूरी से कब लौटे। वह बैठा ही था कि गौरा ने भीतर के किवाड़ तक जाकर पुकारा, “पिता जी, चन्द्रमाधव जी आये हैं।”

फिर वह आकर कर्तव्यनिष्ठ लड़की की तरह बैठ गयी और अतिथि का मनोरंजन करने लगी।

“आप पहाड़ नहीं गये? दिल्ली में तो ऐसी गर्मी पड़ रही है कि बस-”

चन्द्र ने सहसा कहा, “गौरा, मैं तुमसे मौसम की बात करने नहीं आया।”

गौरा ने अज्ञान बनकर कहा, “जी?”

चन्द्र एक बार साहस करके 'तुम' कह गया था, पर इस 'जी'? के आगे उसका साहस जवाब दे गया। फिर भी, जैसे कोई ठण्डे पानी में गोता लगा ही तो डाले, उसने कहा, “रेखा जी यहाँ हैं, आप से मिलने को इच्छुक हैं।”

गौरा को थोड़ी देर अचकचाते देखकर उसे बड़ा सन्तोष हुआ।

गौरा ने खड़ी होते हुए कहा, “आपके लिए चाय लाऊँ-चाय तो पियेंगे न?” फिर तनिक रुककर, “वह जब चाहें आवें-मैं तो यहीं रहती हूँ-”

अब जाकर चन्द्र ने पूछा, “पिता जी कब आये? बड़ी जल्दी लौट आये”

“नहीं, फिर जाएँगे, मेरी वजह से आ गये।”

“आप भी जाएँगी?”

“शायद-”

“कब?”

“इसी हफ़्ते जाने की सोच रहे हैं-” भीतर से उत्तर आया, और साथ-साथ गौरा के पिता ने दरवाज़े पर प्रकट होते हुए कहा, “कहो भई, कब आना हुआ?”

गौरा ने फुर्ती से कहा, “मैं चाय लाती हूँ,” और भीतर चली गयी।

× × ×

तीन दिन बाद जब रेखा को लेकर चन्द्रमाधव फिर वहाँ गया तब भी गौरा का बर्ताव कुछ ऐसा ही था-चिकना, विनीत, शिकायत से परे, मगर दूर...परस्पर नमस्कार और परिचय के बाद जब तीनों बैठ गये तो एक क्षण का मौन उन पर छा गया। चन्द्र चाहता था कि इन दोनों को मिला देने की अपनी सफलता पर प्रसन्न हो, पर एक अजब संकोच का भाव उसके भीतर भर रहा था-एक अनिश्चय, एक आशंका-सी...वह चुप-चाप चोर आँखों से कभी रेखा को, कभी गौरा को देख रहा था; ये दोनों बात करने लगें तो कुछ ठीक हो...

पर वे दोनों भी चुप थीं। रेखा को गौरा ने चन्द्र के पास ही सोफे पर बिठाया था, स्वयं दूसरी ओर तख़्त के कोने पर सीधी बैठी थी-एक हाथ हल्का-सा तख़्त पर टिका हुआ, आँखें नीचे झुकी हुई। उसने बिल्कुल सफेद धोती पहन रख थी-बहुत छोटी छोटी सफेद बूटी वाली चिकन की-गहने वह यों भी नहीं पहनती थी और आज चन्द्र ने लक्ष्य किया कि उसके हाथों पर साधारण एक-एक चूड़ी और एक अँगूठी भी नहीं, स्फटिक से घिरी हुई निष्कम्प लौ की तरह वह अपने में सिमटी बैठी थी। रेखा ने भी सफेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी, जिस अनुपात में रेशम की सफेदी चिकन की अपेक्षा कोमल थी, उसी अनुपात में उसका साँवला वर्ण भी मानो गौरा का धूमिल प्रतिबिम्ब था। गौरा सिमटी हुई और दूर थी, रेखा की आँखों में वह अस्पृश्य खुली दूरी नहीं थी पर मानो एक मेघ घिरे आकाश का-सा भाव था...

रेखा ने कहा, “गौरा जी, चन्द्र जी बता रहे थे कि आप दक्षिण से संगीत की विशेष शिक्षा पूरी करके आयी हैं?”

गौरा ने सायास कहा, “जी, दक्षिण से तो अभी आयी हूँ। गयी थी संगीत सीखने ही, पर दो वर्ष में क्या आता है!”

रेखा ने पूछा, “दक्षिण का संगीत तो बिल्कुल अलग है न-मैं कुछ जानती तो नहीं पर सुना है-”

“हाँ-पर मैंने तो सुना है आप बहुत अच्छा गाती हैं-”

“नहीं गौरा जी, वह तो-”

चन्द्र ने बात काटते हुए कहा, “हाँ गौरा जी, हमने बहुत दिन से सुन रखा था, पर उस दिन भुवन के आग्रह से सुनने को न मिल गया होता तो रेखा जी कबूलती थोड़े ही कि-”

रेखा सहसा उठकर गौरा के पास चली आयी। “यहाँ बैठ जाऊँ-यह बीच में शून्य का एक चौखट रख के आर-पार बात करने का अंग्रेज़ी तरीका मुझे पसन्द नहीं है।”

“बैठिए।”

चन्द्र बोला, “इस समय भुवन को भी यहाँ होना चाहिए था-कितना अच्छा होता।” फिर दोनों की ओर देखकर, “गौरा जी, भुवन का कोई पत्र-वत्र आया है इधर? मुझे तो बहुत दिनों से कोई खबर नहीं है।”

“नहीं तो।” गौरा ने बिना किसी की ओर देखे उत्तर दिया। फिर सहसा बोली, “वह लगनवाले आदमी हैं-खोज में लगे हैं तो और किसी बात की खबर उन्हें थोड़े होगी! उन्हें खाने-पीने का भी होश नहीं रहता जब काम कर रहे हों-”

रेखा ने कहा, “आप तो उन्हें बचपन से जानती हैं न?”

“जी, उन्होंने मुझे पढ़ाया है-”

चन्द्र ने हँसते हुए कहा, “गुरु वैज्ञानिक, शिष्य संगीतज्ञ-यह अच्छा विरोधाभास है न, रेखा जी?”

रेखा ने सीधा उत्तर देकर कहा, “अच्छा गुरु उदार होता है, चन्द्र जी, और उदार बनाता है।”

गौरा खड़ी हुई। “आप लोगों के लिए चाय लाऊँ-”

रेखा ने कहा, “नहीं गौरा जी, आप बैठिए-”

“सब तैयार है-”

“तो चलिए, मैं मदद करूँ,” कहकर रेखा भी उठ खड़ी हुई, “मैं आप की रसोई में आऊँ तो कोई-”

“आप कैसी बात करती हैं, रेखा देवी?” कहकर गौरा आगे चल पड़ी, रेखा पीछे-पीछे।

गौरा ने चलते-चलते कहा, “काम वास्तव में कुछ नहीं है रेखा देवी; सिर्फ़ पानी डालकर ले आना है, मेज़ लगी है।”

दोनों उस समय चाय का कमरा पार कर रही थी। रेखा ने कहा, “सो तो देख रही हूँ।”

“या-आप पसन्द करें तो बैठक में ही ले चलूँ-”

“नहीं, यहीं ठीक है, गौरा जी-”

“आप चाय पसन्द करेंगी या काफ़ी?”

रेखा ने हँसकर कहा, “आपने ज़रूर यह भी सुना होगा कि मैं काफ़ी की पियक्कड़ हूँ; पर चाय पिऊँगी।”

गौरा ने तनिक-सा खिंचकर कहा, “भुवन दा ने ही लिखा था कि वह लखनऊ में बराबर काफ़ी हाउस जाते रहे”-मानो कहना चाहती हो, मैंने आपके बारे में कुछ पूछताछ की हो ऐसा न समझें।

रेखा ने वह खिंचाव भाँप लिया। सहसा गौरा के कन्धे पर हाथ रखकर बोली, “बुरा नहीं मानिएगा, गौरा जी; चन्द्र जी तो जर्नलिस्ट हैं न, हर बात का प्रचार करना उनका काम है-मेरे काफ़ी पीने का भी-”

गौरा ने कोई उत्तर नहीं दिया।

चाय रख कर गौरा ने कहा, “आप बैठिए, मैं चन्द्रमाधव जी को बुला लाऊँ”

रेखा ने कहा, “ऐसी क्या जल्दी है, दो मिनट अकेले बैठे रहेंगे तो कोई हर्ज नहीं होगा-बल्कि अकेले रहना तनिक भी सीख सकें तो फ़ायदा ही हो।”

गौरा ने कुछ विस्मय से उसकी ओर देखा, फिर बैठ गयी। रेखा कुछ कहना चाहती है शायद, और चन्द्रमाधव की उपस्थिति में बात कर सकना किसी को कठिन मालूम हो, यह ज़रा भी अस्वाभाविक नहीं है।

पर रेखा चुप रही। बल्कि उसने आँखें बन्द करके क्षण-भर हथेलियों से चेहरा ढँक लिया। गौरा स्थिर दृष्टि से उसे देखती रही, और इस समय सुविधा पाकर सिर से पैर तक देख गयी। फिर उसकी आँखें रेखा के हाथों पर टिक गयीं।

रेखा के हाथ सुन्दर नहीं कहे जा सकते, पर उसकी उँगलियों में एक संवेदन-क्षमता थी; और उँगलियों के जोड़ स्पष्ट ही एक चिन्तनशील स्वभाव के सूचक थे। छिगुनियों की सिरेवाली पोर थोड़ी-सी भीतर की ओर मुड़ी हुई थी। एक हाथ की अनामिका पर अँगूठी थी-सफेद धातु, चाँदी या प्लेटिनम?-जिसमें एक बड़ा-सा कटहला जड़ा हुआ था, रेखा के साँवले रंग पर वह फबता था। अँगूठी उँगली में ढीली थी, नगीना एक ओर को खिसक गया था। चिन्तनशील उँगलियों की यही मुश्किल होती है-जोड़ बड़े होते हैं, अँगूठी चढ़ाने में दिक्कत होती है और इसलिए ढीली अँगूठी पहननी पड़ती है...

सहसा रेखा ने हाथ हटा लिए, आँखें खोली, और पूछा, “गौरा जी, हमारे जर्नलिस्ट साहब हम दोनों को मिलाने को बहुत उत्सुक थे। और अब निस्सन्देह आप सोच रही होंगी कि हम लोग जो मिलीं, सो आखिर क्यों?”

गौरा ने अपने को सँभालते हुए कहा, “नहीं, मिलना तो मैं भी चाहती थी”

“और मैं भी चाहती थी। और मिलना हुआ, यह बड़ी खुशी की बात है। पर स्त्रियाँ जो चाहती हैं उसके होने के लिए प्रतीक्षा करती हैं। और-”रेखा रुक गयी, मानो अपने शब्द तौल रही हो, और तय कर रही हो कि बात कही जाये या नहीं, “और यह भी है कि आप मुझसे-आपका मेरे बारे में कौतूहल भुवन जी की मारफ़त ही रहा होगा-हम दोनों के बीच भी कड़ी वही हैं, चन्द्र तो नहीं।”

गौरा चुप रह गयी।

रेखा ने फिर कहा, “डा. भुवन, ही'ज़ ए वेरी फाइन मैन।”

गौरा ने कहा, “चाय ठण्डी हो जाएगी। चन्द्र जी को बुला लूँ-”

रेखा ने मुस्करा कर कहा, “आइ'ल टेक द हिंट। लेकिन एक बात कह ही डालूँ-क्योंकि फिर शायद न कह सकूँ-या मौका न मिले। चन्द्र ने आपसे क्या मेरे बारे में कुछ कहा है, यह नहीं पूछूँगी-कहा ही होगा। क्या, वह भी नहीं पूछूँगी। अपनी ही ओर से कहूँ-मेरे कारण डा. भुवन का अहित, जहाँ तक हो सकेगा, मैं नहीं होने दूँगी। चाहती हूँ कि विश्वास के साथ कह सकूँ कि बिल्कुल नहीं होने दूँगी, पर भीतर वह निश्चय नहीं पाती, और झूठा आश्वासन नहीं देना चाहती-खासकर आपको-”

गौरा ने तनिक उदासीनता चेहरे पर लाते हुए कहा, “यह सब आप मुझे क्यों कहती हैं, रेखा जी?”

“क्यों, यह तो नहीं जानती। पर कह देना चाहती हूँ-भविष्य में शायद-कभी आपको यह याद करने की ज़रूरत पड़े। किसी के निजी जीवन में-भावना-जगत् में हस्तक्षेप करना मैं कभी नहीं चाहती, गौरा; मैंने जो-कुछ कहा है, कुछ जानने के लिए नहीं, केवल अपनी बात कहने के लिए। फिर भी अगर कोई ऐसा स्थल छू गयी हूँ जिससे मुझे दूर रहना चाहिए था, तो-क्षमा चाहती हूँ।”

सहसा खड़ी होकर रेखा गौरा के पास चली आयी; दोनों हाथ उसके कन्धे पर रखकर उसने धीरे से पुकारा, “गौरा!” गौरा ने आँख उठायी; दोनों की आँखें मिलीं और देर तक मिली रहीं। फिर रेखा ने धीमे स्वर में कहा, “कभी हम किसी से मिलते हैं और तय कर लेते हैं कि हम अजनबी नहीं हैं; पर उससे ज़रूरी नहीं है कि बात करना सहज ही हो जाये-” वह कुछ रुकी, कुछ अनिश्चित स्वर में उसने कहा, “है न?” फिर उसके हाथ धीरे-धीरे खिसकते हुए हट चले; गौरा ने दाहिना हाथ उठाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे थामे उठ खड़ी हुई। आमने-सामने खड़े दोनों की आँखें एक बार फिर मिलीं। फिर रेखा सहसा मुड़कर बाहर के कमरे की ओर चली गयी। क्षण-भर बाद एक नज़र मेज़ पर लगी हुई चीज़ों पर दौड़ाते हुए और उसके द्वारा मानो साधारण के स्तर पर उतरते हुए गौरा ने दो-तीन कदम आगे बढ़कर आवाज़ दी, “आइये, चाय तैयार है।”

चाय पीते-पीते चन्द्र को लगा कि वातावरण में कहीं कुछ परिवर्तन है। लेकिन क्या, यह वह नहीं जान सका। उसे केवल यह अनुभव हुआ कि कहीं किसी तरह वह असफल हुआ है, लेकिन इस असफलता की कुढ़न ऐसी थी कि वह यह भी नहीं सोच पा रहा था कि किस बात में वह असफल हुआ है...

गौरा ने कहा, “रेखा जी, चाय के बाद एक गाना सुनाएँगी?” चन्द्र ने कहा, गौरा जी, पहली ही भेंट में फर्माइश! मुझे तो हिम्मत न होती; और फिर रेखा जी-रेखा जी इज ए डिफिकल्ट वुमन टु नो! लेकिन-”और वह रुक कर स्थिर दृष्टि से रेखा की ओर देखता रहा, लेकिन डिफिकल्ट हैं इसीलिए शायद पहली बार ही कह देना चाहिए क्योंकि दूसरी बार ही कौन अधिक परिचित हो जाएँगी।”

गौरा ने कहा, “रेखा जी, मेरे कहने का बुरा तो नहीं मानेंगी?”

“गौरा, तुम चन्द्र को अभी नहीं जानती-वह जब नाराज़ होता है तभी कुछ क्लेवर बात कह कर दुनिया से बदला ले लेता है!”

“यानी? यानी आप यह कहना चाहती हैं कि असल में मुझे जानना ही डिफ़िकल्ट है? गौरा जी से मेरा-गौरा जी, आप इनकी बात न मानिएगा-मैं तो जो कुछ हूँ एकदम सतह पर हूँ-”

रेखा ने साभिप्राय कहा, “ओ हो, आज तो आप बहुत बड़ा कनफ़ेशन किये दे रहे हैं, चन्द्र जी-”

चन्द्र ज़रा-सा अप्रतिभ हुआ, पर तुरन्त पैंतरा बदलकर बोला, “हाँ, जो सतह पर है वही सच है; सतह के नीचे कुछ नहीं है, सिर्फ़ धोखा। जो कहते हैं कि यथार्थ कुछ नहीं है, जो गोचर है सब माया है, वे ही तो साबित करते हैं कि माया ही यथार्थ है, सतह ही वास्तविकता है-क्योंकि वह कम-से-कम गोचर तो है, उसके पीछे तो कुछ है ही नहीं!”

“ओफ़, चन्द्र जी, जिनके तर्क को आप इस रूप में पेश कर रहे हैं वे सुन लें तो-”

“तो आत्म-हत्या कर लें, यही न? लेकिन उसमें क्या बुराई है? आखिर एक भ्रम ही तो नष्ट होगा-माया का एक पुंज? और आत्मा तो अनश्वर है-तब आत्म-हत्या के माने क्या? लेकिन रेखा जी, आप गाना सुनायें ही, तो वही सुनायें जो लखनऊ में-”

“कौन-सा?”

“वही शरद की रात के बारे में कुछ; उस समय पूरा सुन नहीं पाये थे-”

रेखा ने गौरा की ओर उन्मुख होकर पूछा, “तुम बाँग्ला समझ लेती हो?”

गौरा ने कहा, “थोड़ी बहुत। पढ़कर समझ लेती हूँ, सुनकर थोड़ी अड़चन होती है।”

“तुम नहीं गाती?”

“मैं! मेरी आवाज़ तो-”

“बहुत मीठी है। अच्छा, संगत करोगी तो गा दूँगी-”

“वाह वा!” चन्द्र ने समर्थन किया, “बहुत अच्छा आइडिया है। आपका संगीत भी कभी नहीं सुना गौरा जी!” कह चुकने के बाद सहसा उसे ध्यान आया, गौरा को रेखा तुम कहकर सम्बोधन कर रही है, और गौरा इस पर चौंकी नहीं, मानो यह स्वाभाविक है; उसने सहसा चौकन्ने होकर दोनों की ओर देखा-यह कब, कैसे हो गया? क्या दोनों ने सहज मान लिया कि रेखा बड़ी और गौरा छोटी है और इसलिए-या कि दोनों ने वैसा परिचय बना लिया-लेकिन कब? कब? मिस्टरी, दाई नेम इज़ वुमन...मध्ययुग के सन्त ठीक मानते थे-हर औरत चुड़ैल होती है, झाड़ू पर सवार जादूगरनी, जो आदमी के किये-कराये पर झाड़ू फेर देती है...उसने फिर कहा, “हाँ, आप दोनों गाइये-बजाइये, मैं अकेला सुनूँगा, एक दोहरे मिरेकल का एकमात्र साक्षी-”

गौरा ने कहा, “नहीं रेखा जी, संगत नहीं करूँगी, आपका गान एकाग्र होकर सुनना चाहूँगी; संगत करने बैठूँगी तो ध्यान बँट जाएगा। आपका आग्रह हो तो पीछे सुना दूँगी। पर मुझे कुछ आता नहीं।”

रेखा ने कहा, “ऐसे ही सही।” फिर चन्द्र से, “लेकिन तुम साक्षी क्यों होंगे-तुम्हें भी तो मिरेकल में भाग लेना चाहिए?”

“मैं? लेकिन मुझे न गाना आता है, न बजाना-”

“तो तुम नाचना-”

“क्यों, वह आना ज़रूरी नहीं है शायद?” कुछ रुक फिर चन्द्र स्वयं ही बोला, “ठीक है, पुरुष हमेशा से नाचता आया है, स्त्रियाँ नचाती आयी हैं।”

“और बिना सीखे नाचता आया है, है न?” रेखा ने और चिढ़ाया।

गौरा ने भी उसी स्पिरिट में कहा, “हमेशा से नाचता आया है, तब यह हाल है, रेखा जी; बन्दर भी शायद तीन महीने में सीख जाता है-”

चन्द्र ने तीखी दृष्टि से गौरा की ओर देखा, मानो कह रहा हो “अच्छा, तुम्हें भी पंख लगे?' फिर बोला, “जी हाँ, पर फ़र्क जानवर-जानवर का नहीं, मदारी-मदारी का है। बन्दर का मदारी और उसका बन्दर जो खेल खेलते हैं, उसके नियम सीधे होते हैं; दोनों पक्षों का एक ही नियम होता है और दोनों उसे जानते हैं। पर हम...भला सोचिए, हम ब्रिज के डमी बन कर अपने सब पत्ते बिछा दें और आप तिपत्ती खेलने लगें तो-”

अब की रेखा ने टोका, “लेकिन है आप की कल्पना में पुरुष भी जुआरी, स्त्री भी; क्यों, नहीं?

“और नहीं तो क्या। जीवन जुआ तो है ही, बड़ा भारी जुआ, एण्डलेस गैम्बलिंग मैच?”

गौरा के मुँह पर कोई तीखा जवाब मचल रहा है यह दीख रहा था। रेखा ने कहा, “तुम्हारी बात में कुछ तत्त्व हो सकता है, चन्द्र; लेकिन क्या, इससे शायद तुम्हीं को अचम्भा हो।”

“क्या?”

“यह कि दाँव दोनों खेलते हैं; लेकिन हम अपना जीवन लगाती हैं और आप-हमारा।”

गौरा कुछ शान्त दीखी, वह जो कहना चाहती थी वह भी मानो इस उत्तर में कह दिया गया।

× × ×

चाय से उठकर तीनों फिर बैठक में आ गये। कमरे में कुछ-कुछ अँधेरा था, क्योंकि बाहर बदली घिरने लगी थी; बड़ी हुई उमस से आशा हो रही थी कि शायद वर्षा हो-उस मौसम की पहली वर्षा...कभी-कभी बादल गरज जाते थे।

चन्द्र ने कहा, “अच्छा रेखा जी, अब गाना हो जाये।”

गौरा ने उठ कर छोटी मेज़ पर एक चाँदी का डिब्बा रेखा की ओर बढ़ाते हुए कहा, “लीजिए-”

गौरा के बढ़े हुए हाथों में एक में डिब्बा, दूसरे में उसका ढक्कन था; लौंग-इलायची उठाते हुए रेखा की दृष्टि उन हाथों पर टिकी थी। सहसा उसने कहा, “बहुत सुन्दर हैं तुम्हारे हाथ-तुम चूड़ी-ऊड़ी नहीं पहनती?”

गौरा ने कुछ झिझकते हुए हाथ थोड़े-से पीछे खींच लिए, कुछ बोली नहीं।

“अच्छा मैं चूड़ियाँ लाऊँगी-गौरा, मे आइ?”

गौरा और भी संकुचित हो गयी, थोड़ा रुककर बोली, “थैंक यू, मगर काँच की हो, और नहीं-”

रेखा ने तनिक मुस्करा कर कहा, “तुम वर्किग वुमन की सीमाओं की बात सोच रही हो! खैर, तुम्हारी शर्त मान लेती हूँ, पर इन हाथों पर-सचमुच बहुत सुन्दर हाथ हैं, गौरा, ये दूसरे आभूषण माँगते हैं।”

गौरा ने सकुचाते हुए डिब्बा चन्द्रमाधव के आगे रख दिया, हाथ पीछे खींच लिए मानो छिपा लेगी।

बादल की गड़गड़ाहट ज़ोर से हुई। चन्द्रमाधव ने कहा, “सुनाइये, बादल का ही कोई गीत सुनाइये। आपकी बाँग्ला में तो सुना है वर्षा के गीत लाखों हैं।”

पहले रेखा ने यही सोचा था। पर गौरा के हाथों की बात से उसका मन मानो किसी दूसरी तरफ चला गया था। वह अनमनी-सी उन्हीं की ओर देखती जा रही थी।

गौरा ने कहा, “रेखा जी, जो आप की इच्छा हो गाइये-”

रेखा ने जैसे कुछ चौंक कर कहा, “ऊ-हाँ”, और गुनगुनाने लगी। गुनगुनाना अनिश्चित-सा था, पर सहसा मानो निश्चय करके उसने स्पष्ट स्वर में गाया :

तोमाय

   साजाबो यतने कुसुमे रतने
   केयूरे कंकणे कुंकुमे चन्दने
                साजाबो
   किंशके रंगणे।
   तोमाय...

गान दोनों श्रोताओं के लिए कुछ अप्रत्याशित था; चन्द्र ने भवें हल्की-सी उठायी, गौरा सीधी होकर बैठ गयी। रेखा गाती रही :

कुन्तले बेष्टिबो स्वर्ण -जालिका

   कण्ठे दुलाइबो मुक्ता -मालिका
   सीमान्ते सिन्दूर अरुण बिन्दुर
   चरण रंजिबो अलक्त -अंकणे
   किंशुके रंगणे तोमाये।
   साजाबो

(तुम्हें यत्नपूर्व सजाऊँगा कुसुमों-रत्नों से, केयूर-कंकण से, कुंकुम-चन्दन से, किंशुक और रंगन के फूलों से। कुन्तलों में स्वर्ण-जालिका पहनाऊँगा, कण्ठ में मुक्ता-मालिका झुलाऊँगा; सीमन्त में अरुण सिन्दुर-बिन्दु, चरणों में अलक्तक-तुम्हें सजाऊँगा... -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

गान समाप्त होने पर थोड़ी देर मौन रहा। फिर गौरा ने पूछा, “बहुत अच्छा गाती हैं आप। यह रवीन्द्र-संगीत है न?”

“हाँ।”

फिर एक विकल्प के बाद चन्द्र ने कहा, “गौरा जी, आप-?”

गौरा ने रेखा की ओर उन्मुख होकर पूछा, “मैं सिर्फ तबला सुनाऊँ आपको-अच्छा लगेगा?” फिर चन्द्र की ओर मुड़कर, “और कोशिश करूँगी बादल से सुर मिलाने की-”

“हाँ, हाँ, ज़रूर।” चन्द्र ने उत्साह से कहा।

गौरा भीतर जाकर जोड़ी उठा लायी, फ़र्श पर बैठ गयी। तबलों को ठोकने-खींचने लगी तो चन्द्र ने रेखा से पूछा, “आपने वर्षा का गीत क्यों न सुनाया?”

रेखा ने उत्तर न दिया। कमरे में प्रकाश और भी धुँधला हो गया था; चन्द्र उसके चेहरे के भाव को ठीक-ठीक देख भी न सकता था।

गौरा ने कहा, “मैं धम्मार में एक परण सुनाती हूँ।”

ताल वाद्य सबसे प्राचीन वाद्य है; नृतत्वविद् इसका कारण यह बताएँगे कि मानव बुद्धि ने पहले धमाके की ही संगीतात्मक सम्भावनाओं को पहचाना-या कि ताली से आगे बढ़ने पर किसी न किसी चीज़ को पीटना ही ताल देने का सरल माध्यम है। ऐतिहासिक दृष्टि से वह ठीक ही होगा। पर संगीतात्मक दृष्टि से ऐसे वाद्यों का महत्त्व यह है कि मौलिक प्राकृतिक शक्तियों की, प्रकृति के क्रीड़ा-कल्लोल की, सम-स्वरता वे ही सबसे अच्छी तरह कर सकते हैं-हवा, बादल, आँधी, पानी, बिजली, लहर, दावानल, जलप्रताप...ढोल-मादल-मृदंग-तबले की थाप मानव को जिस सहज भाव से इनके निकट ले जा सकती है, इनके साथ एकतानता स्थापित कर सकती है, दूसरे वाद्य नहीं कर सकते...

बादल की गड़गड़ाहट में वर्षा का सरसराता स्वर भी मिल गया था। पर किसी को उसका ध्यान नहीं था। तबले का स्वर कभी धीमा और तरल, कभी चौड़ा और परुष, कभी हलका और दौड़ता हुआ, धुँधलके में भर गया था। रेखा एकटक गौरा के हाथों को देख रही थी; पर हाथों की आकृति अब स्पष्ट नहीं दीखती थी, तबले के पड्डे और स्याही के वृत्तों पर उनकी छाया-सी ही पहचानी जाती थी। रेखा दबे-पाँव उठी, मैंटल पर से लैम्प उठाकर उसने गौरा के पास ज़मीन पर रखा, फिर उसका छादन तिरछा करके बटन दबाकर उसे जला दिया-ऐसे कि प्रकाश तबलों पर और कलाई तक गौरा के हाथों पर पड़े। आलोक के लम्बोतरे घेरे में गलीचे का नीला-भूरा पैटर्न दीखने लगा।

रेखा फिर मुग्ध-सी गौरा की थिरकती उँगलियों को देखती रही; चन्द्र छत के पंखे की ओर टकटकी लगाये सुन रहा था।

सहसा एक थाप के साथ सन्नाटा हो गया जिसमें तबले का स्वर ही थोड़ी देर गूँजता रहा, फिर वह बारिश के स्वर में लय हो गया। गौरा ने एक लम्बी साँस ली।

रेखा बढ़कर नीचे गौरा के पास बैठ गयी, अपने दोनों हाथ उसने तबलों पर टिके हुए गौरा के हाथों पर रख दिए। कुछ बोली नहीं। फिर सहसा उसने हाथ उठाकर अपनी अनामिका से अँगूठी उतारी और नरम हाथ से गौरा का हाथ अपनी ओर खींचते हुए उसकी उँगली में पहना दी।

गौरा ने अचकचा कर कहा, “रेखा जी-यह क्या-नहीं रेखा जी, यह नहीं-” और घबड़ाये-से हाथों से अँगूठी उतारने लगी।

“रहने दो, गौरा; कटहला शायद तुम्हारे हाथ के लायक नहीं है, पर यह मेरी माँ की अँगूठी है-”

“तब तो और भी नहीं रेखा जी; मैं आप की दी हुई चीज़ वापस नहीं कर रही-अवज्ञा न समझें-पर आपकी माँ की अँगूठी मैं कैसे ले सकती हू्रँ?” अँगूठी उतारकर वह रेखा का हाथ खोजने लगी।

रेखा ने कहा-”गौरा मैं-”

“नहीं, नहीं, नहीं!” गौरा अँगूठी फिर रेखा को पहनाने का यत्न करती हुई बोली, “आप मुझे चूड़ियाँ दे दीजिएगा, मैं पहनूँगी; पर यह-”

“चूड़ियों की बात तो अलग है। वह तो मेरी बंगालिन आँखों का खटका था कि तुम्हारी कलाइयाँ सूनी हैं, पर यह तो मेरा ट्रिब्यूट-”

“मुझे शर्मिन्दा मत कीजिए रेखा जी! अच्छा, आप मेरी ओर से ही रख छोड़िए-फिर कभी दे दीजिएगा-या मैं माँग लूँगी-”

“फिर कब? यह टालने की बात है-”

“नहीं सच; कभी जब-आपकी माँ ने आपको यह कब दी थी?”

रेखा का हाथ सहसा शिथिल पड़ गया। अँगूठी उसकी माँ ने उसे सगाई पर दी थी। वह कुछ बोल न सकी; गौरा ने अँगूठी उसे पहना दी, और क्षण भर उसका हाथ अपने हाथ में लिए रही। फिर सहसा उसकी शिथिलता और उसके चेहरे का अनुपस्थित भाव देखकर बोली, “आप नाराज़ तो नहीं हो गयीं रेखा जी? यू आर वेरी काइंड-लेकिन यह तो-”

रेखा ने सँभल कर कहा, “ठीक कहती हो, गौरा।” धीरे-धीरे हाथ खींच कर वह फिर अपनी जगह जा बैठी। गौरा भी उठी, पहले दीवार की ओर बढ़ी कि स्विच दबाकर कमरे की बत्तियाँ जला दे, पर अध-बीच में रुककर उसने हाथ खींच लिया; झुककर तबले उठाये और अन्दर चली गयी।

रेखा ने उसकी प्रत्येक भंगिमा को लक्ष्य किया था। उसी का लिहाज करके गौरा बत्तियाँ नहीं जला गयी। उसने ज़ोर से अपने को हिलाया; चन्द्र की ओर देखा, सायास मुस्करायी और बोली, “अब मेघ-संगीत सुनाऊँ?”

चन्द्र उसकी ओर ताकता रहा। सारी घटना उसकी कुछ समझ में नहीं आयी थी, वह बैठा-बैठा सोच रहा था कि औरत नाम का जन्तु भी न जाने किस ढब का है; सहसा उत्तर भी न दे सका। रेखा ने आगे बढ़कर स्वयं बत्तियाँ जला दीं, फ़र्श पर रखा लैम्प बुझा दिया, और गा उठी :

मन मोर मेघेर संगीते ,

   उड़े चल दिग्दिगन्तेर पाने श्रावण वर्षण संगीते
   उड़े चल , उड़े चल, उड़े चल!

(मेरे मन , मेघ के संगीत के साथ उड़ चल दिग्दिगन्त की खोज में, श्रावण की वर्षा के संगीत के साथ उड़ चल, उड़ चल!)

गौरा लौटकर आयी, तो रेखा को कमरे के मध्य में खड़ी गाती देखकर किवाड़ के सहारे ही ठिठकी खड़ी रही।

× × ×

रेखा को उसके ठिकाने पर पहुँचाकर चन्द्रमाधव जब वापस मुड़ा, तब उसके चेहरे पर जो परिवर्तन हुआ वह इतना द्रुत था कि उसकी रेखाओं को मानो चलते देखा जा सकता था-सलवटों का चलकर नयी जगह बैठना, नयी झुर्रियों का उभरना, आँखों पर एक झिल्ली-सी का छा जाना...रेखा ने कहा कि पहुँचाने की ज़रूरत नहीं है, वह चली जाएगी, पर उसने कहा था कि उसे भी कश्मीरी गेट ही जाना है-और बिलकुल झूठ भी नहीं कहा था, क्योंकि जिस काम से उसे जाना था वह कश्मीरी गेट में भी हो सकता था...सीढ़ियों के नीचे ही रेखा ने कहा, “चन्द्र, तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद-गौरा से मिल कर मुझे बड़ी खुशी हुई-” फिर वह तनिक रुकी, मानो और कुछ भी कहने वाली हो, पर फिर सहसा, “अच्छा नमस्कार!” कहकर मुड़ी और सीढ़ियाँ चढ़ गयी। चन्द्र बाहर की ओर को मुड़ गया। हल्की-सी बारिश अब भी हो रही थी, पर चन्द्र ने उसकी परवाह न की।

सड़क के पार, कालेज की बगल में एक होटल का बोर्ड था 'होटल एण्ड बार'। क्या वहीं? चन्द्र थकी चाल से उधर बढ़ा, पर अध-बीच में तिकोने पार्क के सिरे पर रुक गया, फिर दाहिने मुड़कर कुछ आगे बढ़ा और फिर निकलसन रोड की ओर मुड़ गया। कोई दो फ़र्लांग जाकर एक और जगह थी। यहाँ वह बहुत दिनों से नहीं आया था, पर पहले अक्सर आया करता था...

पहले...अन्दर कुरसी पर बैठते हुए उसे याद आया, पीते लोग उन दिनों भी थे ही, पर उसका पीने आना मानो उसके लिए बड़ी असाधारण घटना थी, उसके लिए

ही नहीं, यों भी...और जब एक बार वह हेमेन्द्र के साथ आया था-हेमेन्द्र और उसके मित्र के साथ, और मित्र अनभ्यस्त मात्रा में पी जाने के कारण धुत्त हो गया था और दोनों उसे उठा कर ले गये थे...हेमेन्द्र था सो था, पर था ज़िन्दादिल आदमी; वैसे हमप्याला कहाँ मिलते हैं...उसने पुकारा, “बेयरा?”

बेयरा ने आकर सलाम किया। फिर ज़रा ध्यान से देखकर सहसा दुबारा सलाम किया, किंचित् मुस्कराहट के साथ। तो यह उसे पहचानता है...चन्द्र को अच्छा लगा। उसने पूछा, “बियर है? कौन-सी?” पर बेयरा उत्तर दे इससे पहले ही फिर कहा, “अच्छा नहीं, ह्विस्की ले आओ।”

“कौन-सी, सा'ब-”

“अच्छा, सोलन ले आओ। बड़ा पेग-डबल।”

बेयरा चला गया। चन्द्रमाधव ने सिगरेट जलायी और कुरसी में आराम से पीठ टेक कर धुआँ उड़ाने लगा।

हेमेन्द्र...कहाँ होगा हेमेन्द्र अब? चन्द्र ने कोशिश की, रेखा और हेमेन्द्र की साथ कल्पना करे, पर उसमें किसी तरह सफलता नहीं मिली, हेमेन्द्र की शबीह वह किसी तरह सामने लाता तो रेखा की बजाय गौरा आ जाती; फिर वह संकल्प-पूर्वक उसे हटा कर रेखा को सामने लाता और हेमेन्द्र की बजाय भुवन सामने आ जाता...हार कर उसने सिगरेट मुँह से निकाल कर उठकर एक ओर को थूका; फिर बैठ गया। बेयरा ह्विस्की ले आया; ट्रे में सोडा भी था पर चन्द्र ने ग्लास उठाकर इशारे से सोडा-पानी सब मना किया और उठा कर दो-तीन घूँट ह्विस्की के ही पी डाले। फिर उसने ज़ोर लगाना छोड़ दिया : न सही हेमेन्द्र, वह जो आवेगा उसी को देखेगा-गौरा सही, रेखा सही; उसकी अपनी पत्नी सही...

और यह मानव मन की प्रतिकूलता ही है कि उसके मानस-पटल पर रह-रहकर दो आकृतियाँ खिंचने लगीं-कभी उसकी पत्नी की, कभी हेमेन्द्र की...

उसने एकदम से उठाकर गिलास खाली कर दिया। आकृतियाँ कुछ फीकी हो गयीं, मिट गयीं। हाँ, यह ठीक है। आकृतियों की कोई ज़रूरत नहीं है। वह सोच रहा है, उतना ही काफ़ी है। देखना तो वह नहीं चाहता किसी को...पर क्या सोच रहा है? हाँ, वह कुछ ज़रूरी बात सोच रहा था, कुछ काम उसे करना है...

उसने फिर पुकारा, “बेयरा।”

दूसरे डबल के साथ उसने सोडा भी लिया। फिर बेयरा से लिखने का कागज़ सामने रखकर वह उसकी चिकनी सफ़ेद सतह को देखता हुआ घूँट-घूँट ह्विस्की पीता रहा, थोड़ी देर बाद उसने जेब से कलम निकाल कर पत्र लिखना शुरू किया-हेमेन्द्र को।

लेकिन सम्बोधन लिखकर ही वह रुक गया। क्या लिखे, कैसे लिखे? इतने वर्षों में कभी तो उसने हेमेन्द्र को कुछ लिखा नहीं...उसने सिगरेट सुलगा कर लम्बा कश लिया, धुएँ के छल्ले बनाने के लिए ठोड़ी ऊँची उठाकर मुँह गोल करना चाहा पर ओठ जैसे अवश हो रहे थे, मुँह के आसपास की पेशियाँ उसका आदेश नहीं मान रही थीं और ऊपर के ओठ के सिरे पर एक अजीब फड़कन होने लगी थी जिसे वह किसी तरह नहीं रोक पा रहा था।

हेमेन्द्र को क्या उसकी याद होगी? उस मलय स्त्री के आलिंगनों में वह सब भूल गया होगा...पर स्त्रियाँ तो हेमेन्द्र को अच्छी नहीं लगती थीं-वह स्त्री क्या उसे छोड़ न गयी होगी? वह तो एंग्लो-मलय थी न-उसके और भी प्रेमी ज़रूर रहे होंगे...

न, हेमेन्द्र को उसकी याद बिलकुल न होगी। क्या चन्द्रमाधव और क्या-कोई भी...

पर चन्द्रमाधव ही क्यों? नाम से लिखना क्या ज़रूरी है? बल्कि बगैर नाम के पत्र लिखने से शायद उसका महत्त्व बढ़ जाये-क्योंकि किसी नाम के साथ हेमेन्द्र के जो पूर्वग्रह होंगे उनसे बचाव हो जाएगा...

वह जल्दी-जल्दी लिखने लगा। समाप्त करके उसने मानो अपने को ही सम्बोधन करके कहा, “वाह, मेरे दोस्त, जर्नलिस्ट चन्द्र, यू' र ए ग्रेट मैन।...”

सहसा उसने जाना, बारिश बड़े जोर से होने लगी। उसने पैड में से चिट्ठी के पन्ने अलग करके सफ़ाई से तह किये और भीतर की जेब में रख लिए; फिर बेयरे को बुलाकर खाने का आर्डर दे दिया।

डैम ऑल विमेन...नहीं, सबको नहीं, केवल उन्हें जिन्हें तबीयत माँगती है; तबीयत यानी वांछा की एक गरम लपलपाती जीभ...रॉटन मिडल क्लास विमेन-दबी वासनाओं की पुतली, मक्कार, बीमार, मर्दखोर औरतें-मर्द के खिलाफ़ सब एक, जैसे फन्दे फैलाये ठगों का गिरोह...ठीक कहते हैं कम्युनिस्ट, इस भद्रवर्ग को मटियामेट किये बिना स्वस्थ सामाजिक सम्बन्ध हो ही नहीं सकते...

× × ×

अपने जीवन में पहली बार गौरा ने एक पत्र लिखकर फाड़ा; लगभग वही दुबारा लिखा और दुबारा फाड़ दिया। तीसरी बार उसने केवल तीन पंक्तियों का पत्र लिखा; उसे सामने रखकर बहुत देर तक देखती रही। फिर उसने धीरे-धीरे उसे भी चार टुकड़े करके नीचे गिरा दिया। मेज़ पर से लिखाई का सामान इधर-उधर ठेलकर उस पर बाँहें रख उन पर सिर टेक कर बैठ गयी।

काफ़ी देर बाद उसने सिर उठा कर नीचे पड़े कागज़ के टुकड़ों की ओर देखा; पंखे की हवा में दो-एक टुकड़े फड़फड़ा रहे थे, एक पर लिखे हुए दो शब्द कभी दीख जाते, कभी छिप जातेः “मेरे भुवन दा”...गौरा शिथिल भाव से उठी, टुकड़ों को समेट कर छोटी-छोटी चिन्दियाँ कर उसने टोकरी में डाल दी, फिर कमरे में टहलने लगी।

कुछ देर बाद किसी ने दरवाजे पर हलके हाथ से दस्तक दी। गौरा ने किवाड़ खोले; एक चपरासी ने एक पैकेट उसे दिया और कहा, “मेम सा'ब ने भेजा है वाई. डब्लू. से-”

गौरा ने ले लिया, कहा, “अच्छा। हमारा सलाम कह देना।” दरवाज़ा फिर बन्दकर के उसने पैकेट खोला : हलके रंगों की काँच की दो दर्जन चूड़ियाँ थी।

गौरा स्थिर दृष्टि से उन्हें देखती रही। सुन्दर चूड़ियाँ थी। थोड़ी देर बाद गौरा ने उन्हें मेज़ पर रख दिया और फिर टहलने लगी। टहलते-टहलते वह रुकी, दो चूड़ियाँ उठाकर उसने बायें हाथ में पहन ली, बाकी फिर पैकेट में लपेट दी।

थोड़ी देर में पिता बाहर से आये तो गौरा ने कहा, “पापा, मसूरी वापस कब चलेंगे?”

“अब तो एक बारिश हो गयी-अब-”

“नहीं, चलिए-आज ही चलिए-”

“अच्छा, तुम्हारी माँ तो खुश ही होंगी-सामान ठीक कर लो-मेरा तो ठीक ही है, तुम्हारे ही सामान की बात है।”

× × ×

रेखा ने भी भुवन को एक पत्र लिखा पर उसे फाड़ फेंकने की बजाय अधूरा छोड़ दिया, और निश्चय किया कि वह उसे भेजेगी नहीं। उसे सहसा लगा कि पत्र में लिखने को कुछ नहीं है क्योंकि बहुत अधिक कुछ है; अगर वह सब कहने बैठ ही जाएगी, तो फिर रुक नहीं सकेगी, और उधर भुवन का काम असम्भव हो जाएगा...पत्र में जान-बूझकर उसने अपनी बातें न कहकर इधर-उधर की कहना आरम्भ किया था, गौरा से भेंट की बात लिखने लगी थी पर उसी के अध-बीच में रुक गयी थी। नहीं, गौरा की बात वह भुवन को नहीं लिखेगी। भुवन का मन वह नहीं जानती, लेकिन गौरा का...भुवन गौरा का मन जानता है कि नहीं, यह भी वह नहीं जानती पर जहाँ भी गहरा कुछ, मूल्यवान् कुछ, आलोकमय कुछ हो, वहाँ दबे-पाँव ही जाना चाहिए, वह कहीं हस्तक्षेप नहीं करना चाहती, कुछ बिगाड़ना नहीं चाहती...नदी में द्वीप तिरते हैं टिमटिमाते हुए, उन्हें बहने दो अपनी नियति की ओर, अपनी निष्पत्ति की ओर, नदी के पानी को वह आलोड़ित नहीं करेगी। वह केवल अपना मन जानती है, अपना समर्पित विह्वल, एकोन्मुख, आहत मन : उसे वह भुवन तक प्रेषित भी कर सकती है, पर नहीं-भुवन से उसने कहा था, वह अपने स्वस्थ और स्वाधीन पहलू से ही उसे प्यार करेगी, और गौरा से उसने कहा है...पर यह कैसे सम्भव है कि एक साथ ही समूचे व्यक्तित्व से भी प्यार किया जाए और उसके केवल एक अंग से भी? वह सबकी सब समर्पित है, स्वस्थ भी और आहत भी-बल्कि समर्पण में ही तो वह स्वस्थ है, अविकल, है, बन्धन-मुक्त है...भुवन, भुवन, मेरे भुवन, मेरे मालिक...

वह घूमने जाएगी। जमना की रेती में-जहाँ बैठकर भुवन ने उसका बालू का घर बनाया था, बारिश से रेत जम गयी होगी, वहाँ बैठ कर वह साँझ घिरती देखेगी : दिल्ली की साँझ तुलियन की नहीं है, पर तारे वही होंगे; उन्हें देखते वह अपने को मिटा दे सकेगी, उनकी टिमटिमाहट में वह सिहरन पा सकेगी जो भुवन का आत्म-विस्मृत स्पर्श...रेखा सहसा सिहर गयी, कुरसी पर उसने सिर पीछे टेक दिया, आँखें बन्द कर लीं, शरीर को छोड़ दिया। ऐसे ही भुवन ने उसे पहले देखा था लखनऊ में; क्यों नहीं वह आगे बढ़कर उसकी पलकों और उठे हुए ओठों को छू सकता-क्यों वह दिल्ली में है, छिपकर 'मेन ओनली' पढ़ने वाली स्त्रियों के इस बोर्डिंग में, भीड़-भड़क्के की इस दिल्ली में, चन्द्रमाधव की दिल्ली में और-और हेमेन्द्र की दिल्ली में...

रेखा उठ गयी-उठकर लाउंज में जा बैठी, दैनिक अखबार उठाये और 'वांटेड' के कालम देखने लगी।

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चन्द्रमाधव अगर देख सकता कि मलय में उस समय क्या स्थिति है, और हेमेन्द्र क्या सोच रहा है या कर रहा है, तो कदाचित् पत्र लिखने की बात उसके मन में न उठती। या क्या जाने फिर भी उठती बल्कि उसमें लिखने के लिए और भी बातें उसे सूझती, क्योंकि रेखा के प्रति एक सर्बुथा निर्बद्धि आक्रोश उसके भीतर उमड़ता आ रहा था। यों इसे वह स्वयं देख रहा हो या स्वीकार कर रहा हो, ऐसा नहीं था, उसके सामने वह स्त्री जाति के प्रति एक घृणा या प्रतिहिंसा के रूप में ही आया था, पर भीतर-ही-भीतर था वह केन्द्रित और एकोन्मुख : या अधिक-से-अधिक यह कहा जा सकता है कि उसके बिखरे हुए झाग भुवन पर भी आ पड़ते थे-पर भुवन पर उसके द्वेष का उसे बोध था, इसलिए उसे इसी का प्रक्षेपण नहीं माना जा सकता...

मलय में तनाव क्रमशः बढ़ रहा था; और हेमेन्द्र की अंग्रेज कम्पनी ने उधर अपना काम समेटना आरम्भ कर दिया था, हेमेन्द्र बदली पर उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका में कहीं जा रहा था, जहाँ कम्पनी का कारोबार फैला था; मलय की बात और थी, पर वहाँ के सर्वथा गोरे समाज में रह सकने के लिए स्थिति में परिवर्तन आवश्यक था-जिस समय चन्द्र ने हेमेन्द्र को पत्र लिखा उस समय हेमेन्द्र दिल्ली में किसी वकील को लिखे हुए अपने पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था, जिस में तलाक की व्यवस्था के सम्बन्ध में पूछा गया था, ताकि वह अफ्रीका जाये तो अपनी विवाहिता पत्नी को साथ ले जा सके। हेमेन्द्र ने यह भी लिखा था कि आवश्यक होने पर वह भारत भी आ सकता है-यदि उससे जल्दी निपटारे की कोई सूरत न निकल आये।

जिस दिन उसने रेखा और गौरा की भेंट करायी थी, उसके दूसरे दिन सवेरे चन्द्र फीका मुँह और झल्लायी हुई तबीयत लेकर उठा; बड़ी अनिच्छापूर्वक मुँह-हाथ धोकर चाय पीने बैठा तो उबकाई आने लगी; थोड़ा लिवर साल्ट खाकर वह फिर सो गया। तीसरे पहर उठकर उसने हजामत बनायी, नहाया; उससे तबीयत कुछ सुधरी पर 'मूड' वैसा ही चिड़चिड़ा और हिंस्र बना रहा। शाम को सिनेमा देखने से भी कोई फर्क नहीं हुआ; दूसरे दिन वही हालत रही। तीसरे दिन शाम को उसने तय किया कि गौरा से मिलने जाएगा, शायद उसे घूमने ले जाएगा या उससे संगीत सुनेगा-तबला नहीं, सितार या बेला या कुछ और। पर वहाँ पहुँचकर देखा ताला बन्द है; नौकर ने बताया कि गौरा पिता के साथ मसूरी चली गयी है। चन्द्र का वह जिघाँसु मूड फिर लौट आया; कुछ बियर पीने का संकल्प करके वह कनाट प्लेस की ओर चल पड़ा...साँझ को वह आधे मन से रेखा को देखने पहुँचा; वहाँ भी जब मालूम हुआ कि रेखा नहीं है तब उसे तसल्ली ही हुई। रात को फिर वह कनाट प्लेस पहुँच गया; भटकते हुए उसे दो-तीन पत्रकार बन्धु मिल गये और उनके साथ वह फिर पीने बैठ गया। तीन दिन बाद रेखा से मिले बिना ही वह लखनऊ लौट गया। स्टेशन पर उसे छोड़ने पत्रकार बिरादरी के चार-छः आदमी गये थे, एक ने फ़ोटो भी ले लिया, उसे यह सब अच्छा लगा; गाड़ी में बैठा तो दिल्ली के अनुभवों का कसैला स्वाद उसके मुँह में नहीं था, और यह भी वह भूल गया था कि लखनऊ में, जहाँ वह जा रहा है, वहाँ उसकी पत्नी और बच्चे या तो आ गये होंगे या आनेवाले होंगे।

अवध की शामें मशहूर हैं, लेकिन हज़रतगंज में शाम मानो होती नहीं, दिन ढलता है तो रात होती है। या शाम अगर होती है तो अवध की नहीं होती-कहीं की भी नहीं होती, क्योंकि उसमें देश का, प्रकृति का, कोई स्थान नहीं होता, वह इनसान की बनायी हुई होती है : रंगीन बत्तियाँ, चमकीले झीने कपड़े, प्लास्टिक के थैली-बटुए, किरमिची ओठ, कमान-सी मूछों पर तिरछे टिके हुए और ऊपर से रिकाबी की तरह चपटे फेल्ट हैट...और राह चलते आदमी जिनके सामने बौने लगने लगें, ऐसे बड़े-बड़े सिनेमाई पोस्टरों वाले चेहरे-कितना छोटा यथार्थ मानव, कितने बड़े-बड़े सिनेमाई हीरो-अगर लोग सिनेमा के छाया-रूपों के सुख-दुःख के सामने अपना सुख-दुःख भूल जाते हैं तो क्या अचम्भा, उन छाया-रूपों के स्रष्टा एक्टर-एक्ट्रेसों के सच्चे या कल्पित रूमानी प्रेम-वृत्तान्तों में अपनी यथार्थ परिधि के स्नेह-वात्सल्य की अनदेखी कर जाते हैं तो क्या दोष...यथार्थ है ही छोटा और फीका, और छाया कितनी बड़ी है, कितनी रंगीन, कितनी रसीली...

काफ़ी हाउस की काफ़ी न मालूम गोमती के कीचड़ से बनने लगी है-उसमें कोई जायका नहीं है। है तो कुछ मिट्टी का, पर नहीं, जली हुई मिट्टी का है। अधिक तपे हुए आँवे में जो ईंटें जलकर काली हो जाती हैं, उन्हें पीस कर कहवा बनायें तो शायद...चन्द्र का जी होता, काफ़ी फ़र्श पर थूक दे, पर जैसे-तैसे वह उसे गील लेता; फिर उस घूँट का उत्तर-स्वाद धोने के लिए दूसरा घूँट भरता और उसे भी गील लेता...

अब वह काफ़ी हाउस दो बार नहीं आता था, एक ही बार शाम को आता था, पर अब बैठता था बहुत देर तक; खाने के वक़्त ही घर पहुँचता था-कभी और भी देर से-और सीधा सोने चला जाता था। स्त्री साहस करके खाने को पूछती थी तो वह अनमना-सा इनकार कर देता था; उसके स्वर में जो प्राणहीन विनय होता था उसे लक्ष्य करके पत्नी मानो बुझ जाती थी और आग्रह नहीं करती थी। हाँ, जब वह खाट पर लेट जाता, तब कभी-कभी वह जाकर उसके जूते-मोजे खोल देती, कभी हिम्मत करके गले से टाई भी उतार लेती, पाजामा उसके पास लाकर रख देती और धीरे से कहती, “कपड़े तो बदल लेते-”

पहले दो-एक बार उसने बेटी को भेजा था कि बाबू जी के जूते खोल दे। पर फिर उसकी समझ में आ गया था कि बच्चों को देखकर उसे और भी झल्लाहट होती है; तब से वह शाम को जहाँ तक हो सके बच्चों को उसकी नज़र से दूर रखती थी, स्वयं आती थी। चन्द्र उसकी उन सेवाओं को बिलकुल उदासीन भाव से स्वीकार कर लेता था। कभी जब वह टाई खोल कर उसे कालर से निकालने के लिए उसके ऊपर झुकती तो उसकी कमीज़ के गले के भीतर से उसके उरोजों का जो थोड़ा-सा हिस्सा उसे दीख जाता उसे वह स्थिर दृष्टि से देखता रहता, कभी-कभी उस दृष्टि को लक्ष्य करके वह लजा जाती; कौतूहल से चन्द्र सोचता कि अगर वह नौकरानी होती, या कोई और स्त्री होती, तो चन्द्र उससे छेड़-छाड़ करना चाहता और शायद कमीज़ का गला पकड़ कर अपनी ओर खींच लेता, पर वह तो उसकी स्त्री थी जो उसके खींचने पर झुक जाएगी, हाथ बढ़ाने पर सहलेगी, चौंकेगी नहीं, विरोध नहीं करेगी, निषिद्ध के रोमांचकारी रस से उमड़े-सिमटेगी नहीं...वह वैसा ही स्थिर देखता रह जाता, पर उसकी आँखों का केन्द्रित भाव बिखर जाता, फिर वह एक करवट हो जाता, पत्नी चली जाती तो उठकर कपड़े बदल लेता...

बरसात जमकर शुरू हो गयी थी। पार्कों की स्वैरिणी हरियाली बढ़कर सड़क की पटरियों पर भी अधिकार जमाने लगी थी; संकर स्थापत्य की नवाबी इमारतों की छोटी-छोटी अलंकृतियाँ उसमें ऐसे खो गयी थीं जैसे किसी बग़िया में छोटी-छोटी फुलवाड़ियाँ। चन्द्र काफ़ी हाउस में बैठकर बारिश का शब्द सुना करता; पक्की सड़क पर बड़ी-बड़ी बूँदों की कोड़ें जैसी मार का स्वर न जाने क्यों उसकी पहले से तनी हुई शिराओं में एक नयी उत्तेजना भर देता : वह लगातार एक के बाद एक कई सिगरेट फूँक डालता, फिर कभी-कभी अपनी मेज़ से उठकर दूसरी मेज़ पर चला जाता जहाँ दो-चार लेखक-पत्रकार मिश्र जाति के लोग प्रायः सिगार पीते और बहस करते बैठे रहते थे : एक अंग्रेजी के लेक्चरर जिन्होंने कभी कुछ लिखा नहीं था पर अपनी सर्वसंहारी मौखिक आलोचनाओं के कारण प्रगतिशील लेखक समुदाय के अगुआ माने जाते थे; एक उर्दू के शायर, जो प्रायः नौ-साढ़े नौ बजे तक वहीं जमे रहते थे क्योंकि उस समय कुछ गोरी लड़कियाँ डिनर के या सिनेमा के बाद काफ़ी पीने वहाँ आया करती थीं, उनके जाते ही शायर साहब भी माँगा हुआ सिगार चुक जाने के कारण जेब से बीड़ी निकाल कर सुलगाते और उठकर चल देते; स्थानीय हिन्दी दैनिक के एक सहायक सम्पादक, जो बराबर इस मत का प्रचार करते थे कि युद्ध में इंग्लैण्ड हार जाएगा और उसके बाद लड़ाई में कमजोर हुए जर्मनी को भी हरा कर रूस भारत को आजाद करेगा; दो-एक और ऐसे व्यक्ति, जिनके बारे में चन्द्र यही जानता था कि वे 'प्रमुख लिटरेरी आदमी' हैं, पर किस लिटरेरी क्षेत्र में प्रमुख हैं यह नहीं, न किसी की किसी प्रकाशित रचना का जिक्र कभी हुआ था...यों शीघ्र ही एक विराट् विश्व-लेखक-सम्मेलन करने की बात प्रायः हुआ करती थी जिसमें भारत के लेखक तो ख़ैर होंगे ही, रूस से भी डेलीगेशन बुलाया जाएगा...इस दल में बैठकर चन्द्र कई एक नये शब्द और पद सीख गया था, और कई परिचित शब्दों का अर्थ-विपर्यय भी उसने अपनी बोलचाल में लक्ष्य किया था। और यह भी वह देख रहा था कि वह अब व्यक्तियों की बात सोचता है तो विशिष्ट इकाइयों के रूप में कदाचित् ही; सदैव कोई जातिवाचक विशेषण उसके साथ आता ही है-यहाँ तक कि उसे लगता, स्वयं अपने को वह 'मैं, चन्द्र' न कह कर कहीं 'वह बुर्जुआ पत्रकार चन्द्रमाधव' न कहने लग जाये! कभी वह उसे अच्छा भी लगता-इस प्रकार वह वैयक्तिकता से परे जा सकता है जो सिद्धि है; निर्वैयक्तिक हो सकना, निवैयक्तिक रूप से घृणा कर सकना, बिना दर्द के सब कुछ का तिरस्कार कर सकना-कितना अच्छा होगा वह! तटस्थता-संन्यास-केवल अलग, उदासीन हो जाना-उहुँक, वह गलत है, संन्यास और निवृत्ति-मार्ग केवल सामन्तवादी परम्परा की एक विकृति है, कर्मच्युति का एक बहाना, एक प्रकार का नशा; इनसान एक्टिविस्ट हो, पर निर्वैयक्तिक; घृणा करे, तिरस्कार करे, एक निर्वैयक्तिक रेवोल्यूशनरी घृणा के साथ-वर्ग-मुक्त हो, पीड़ा-मुक्त हो, इस डिकेंडेंट, रुग्ण, ह्रासशील समाज से और स्वयं अपने-आप से बाहर होकर इसके सब मानों-प्रमाणों को तोड़ गिराये, इसकी मान्यताओं को अमान्य कर दे...हो, किन्तु व्यक्ति न हो, मनुष्य न हो, एक शक्ति हो, एक नीति मुक्त, स्वैर-तन्त्र, सहस्र-शीश, कोटि-बाहु, अजस्र-वीर्य जैविक प्रक्रिया का एक स्फुरण...

कभी वह उठकर बाहर निकल आता, क्षण-भर बारिश को देखता जिसकी बूँदें आलोक के वृत्तों में आकर थोड़ी देर के लिए चमक जातीं और फिर अँधेरे में खो जातीं, मानो वह बारिश उसी वृत्त के एक सिरे पर न-कुछ से पैदा होती हो और दूसरे सिरे पर न-कुछ में विलीन हो जाती हो-न ऊपर बादल से उसका कोई सम्बन्ध हो, न नीचे पृथ्वी से...फिर वह फेल्ट उतार कर कोट में छिपा लेता; मुँह को बूँदों की सूक्ष्म बरछियों के प्रति समर्पित कर देता, और बारिश में ही घर की ओर चल पड़ता।

× × ×

रात के दस बजे थे। दिन-भर वह घर नहीं गया था। भीगता हुआ वह घर पहुँचा, बच्चे तो सो चुके थे, सोने के कमरे में प्रकाश था और वहाँ उसकी पत्नी सिलाई लिये बैठी थी। उसे आता देखकर वह उठी; धीरे से बोली, “हाय, सारे कपड़े भीग गये”, और लपक कर तौलिया, एक धोती, कमीज़, पाजामा ले आयी। दबे स्वर में, यथासम्भव उलाहने का भाव उसमें न आने देने का यत्न करते हुए, उसने कहा, “रोज भीग आते हैं। कहीं सर्दी-वर्दी लग गयी तो?”

चन्द्र कपड़ों-वपड़ों से परे हट कर तिपाई पर हाथ और कमर टेकता हुआ बोला, “तो क्या, घर रहूँगा तो तुम्हें सेवा का मौका मिलेगा।”

पत्नी ने अनिश्चय से उसके चेहरे की ओर देखा; क्या वह व्यंग्य है या हँसी? पर चन्द्र का चेहरा सूना था, दोनों में से कोई भाव उस पर नहीं था। वह साहस करके थोड़ा मुस्करायी और बोली, “न, सेवा ऐसे भी जितनी चाहिए कराइये।” फिर रुककर बोली, “अच्छा कपड़े तो बदल लीजिए, फिर मैं खाना लाऊँ।”

“नहीं कौशल्या, भूख नहीं है। और मैं थक भी गया हूँ।” कहते-कहते उसने हलकी-सी जँभाई ली।

कौशल्या बढ़कर उसके जूते खोलने लगी। मोजे गीले थे, आसानी से न उतरे, उस ने कहा, “ठीक से बैठ जाइये तो उतार लूँ।” चन्द्र ने बैठ कर पैर उठाये तो उसने उकडूँ बैठ कर पैर गोदी में लिया और मोज़ा उतार कर पंजे हाथों से मल दिये। जूते-मोजे॓ एक ओर रखकर वह तौलिया लेकर आयी; चन्द्र को निश्चल देखकर उसने तौलिया अपने कन्धे पर डाला और चन्द्र की टाई खोल डाली। क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रह कर मानो साहस बटोर कर उसने पैंट की पेटी का बकसुआ खोल दिया, फिर कमीज़ खींच कर बाहर निकाल दी। फिर बोली, “अच्छा लीजिए, अब जल्दी बदल डालिए।” और जाने को मुड़ी।

चन्द्र उसे स्थिर दृष्टि से देख रहा था। कौशल्या थोड़ी-सी सिमट गयी। चन्द्र ने कहा, “तुम जा कहाँ रही हो?” वह कहने को हुई, “आप कपड़े-” पर बीच में ही रुक गयी, बोली, “आप की डाक ले आऊँ।”

चन्द्र तनिक-सा मुस्कराया, फिर कपड़े बदलने लगा। धोती की तहमद लपेट ली, बदन रगड़ कर सूखी कमीज़ पहन ली; फिर खाट पर बैठ गया। कौशल्या ने आकर कहा, “यह लीजिए।”

दो चिट्ठियाँ थीं। एक पर टाइप किया पता था-उसे सवेरे भी देखा जा सकता है। दूसरी-पर यह क्या? उस पर चन्द्र की ही लिखावट थी। सात-आठ दिन पहले उसने दिल्ली रेखा को पत्र लिखा था वही लौटकर आया था। 'एड्रेसी लेफ्ट'...तो रेखा वहाँ नहीं है, और डाक आगे भेजने के लिए पता भी नहीं छोड़ गयी है, न उसे सूचना दे गयी है...क्षण-भर वह सूना-सा ताकता रहा।

कौशल्या ने पूछा, “किस की चिट्ठी है?”

चन्द्र अनजाने ही कहने को था, “मेरी” पर रुक गया; स्वर में लापरवाही लाता हुआ बोला, “ऊँह, यों ही।” दोनों पत्रों को उसने तकिये के नीचे ठेल दिया; आँखें कौशल्या पर जमायी और पूछा, “तुम नहीं खाओगी?”

कौशल्या क्षण-भर अनिश्चित रही; उत्तर देने को थी कि चन्द्र ने हाथ बढ़ा, उसकी कमीज़ का गला पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। खींचने से दो-तीन टीप-बटन खुल गये, पर चन्द्र की पकड़ नहीं छूटी; कौशल्या खिंच आयी; चन्द्र ने सहसा खड़े होते-होते दूसरी बाँह उसके सिर के पीछे ले जाते हुए उसे और निकट खींच लिया; पास आते चेहरे पर उसने देखा, कुछ विस्मय, कुछ अचकचाहट, कुछ प्रतीक्षा, ओठों के अधखुलेपन में इन सब के मिश्रण से ऊपर भी एक अकथ्य भाव; इससे आगे वह नहीं देख सका क्योंकि ओठों के छूते-न-छूते कौशल्या ने हाथ बढ़ा कर बत्ती बुझा दी थी, चन्द्र ने उसकी काँपती-सी देह को खींचकर चारपाई पर गिरा लिया और एक क्रूर चुम्बन से उसके ओठ कुचल दिये-अँधेरे में कौशल्या की देह का कम्पन सहसा स्थिर हो आया-उन ओठों में वासना थी, सूखे गर्म ओठ, पुरुष के ओठ पर प्रेमी के नहीं; प्यार नहीं, बीते हुए स्मरणाश्रित चुम्बनों की गरम-गरम राख...

उसकी शिथिल देह पर भार दिये-दिये ही चन्द्र जब सो गया, तब भी वह निश्चल पड़ी रही, थोड़ी देर बाद जब वह करवट लेकर उससे अलग हो गया तब वह धीरे-से उठी, अपने कपड़े उसने ठीक किये, फिर दबे पाँव निकल कर दूसरे कमरे में चली गयी। साधारणतया वह उसी कमरे में दूसरी चारपाई पर सोती थी; पर सुबह जब चन्द्र उठेगा तब उसके द्वारा देखा जाना वह नहीं चाहती; वह जानती है कि उस समय उसे वहाँ पाकर चन्द्र सहसा अजनबी आँखों से उसे देखेगा और फिर उनमें घृणा घनी हो आएगी...यह-यह अपने-आप में कुछ भी है या नहीं वह नहीं जानती; प्यार होता तो अवश्य होता, पर जब नहीं है तो यही बहुत है; उस घृणा के साथ तो यह भी ज़हर हो जाएगा...ऐसे ही सही, सवेरे चन्द्र उठे तो उसे न देखे, न घृणा करे। राख ही सही, पर घृणा की साँस उसे भी उड़ा न दे...

नदी के द्वीप (उपन्यास) : रेखा : भाग-2

पत्र को बन्द कर देने से पहले बहुत देर तक रेखा देखती रही, यद्यपि था वह मुश्किल से आधे पृष्ठ का। लेकिन उसकी आँखें पत्र के शब्दों पर नहीं टिकी थी, वरन् उसके आशय पर; और पत्र का आशय उसके शब्दों के आशय से भिन्न कुछ गहरा कुछ था, जिसके कारण उसकी दृष्टि दूर कहीं खो गयी थी। जहाँ वह बैठी थी, वहाँ उसके आगे कुछ बादाम के पेड़ थे, उससे आगे मौसमी विलायती फूलों की क्यारी, उसके बाद फिर पेड़, दूर पर पहाड़ों की कतार जो घनी बदली के कारण डरावनी हो आयी थी। पत्र पर टिकी हुई आँखें मानो इस सारे दृश्य को भी अपने में समा ले रही थीं और कुछ नहीं देख रही थीं। यह कश्मीर था-उसके पूर्वजों का कश्मीर, इसलिए उसका कश्मीर, जिसका सब-कुछ उसका ग़ैर था। जलवायु, वनस्पति, आकाश, लोग, यहाँ तक कि सर्वत्र बिखरे हुए उसके नाते-रिश्तेदार भी, जिनके नाम भी वह नहीं जानती थी, चेहरे तो दूर, और जिनमें से अधिकांश को उसके अस्तित्व का भी पता नहीं था...कितना अजनबी, अकेला और ग़ैर हो सकता है व्यक्ति, जब यह अपने घर में अजनबी होता है...लेकिन यही अच्छा है : क्योंकि इस अजनबीपन में कोई भी वास्तव में ग़ैर नहीं है; वह एक द्वीप है जिसके चारों ओर नदी का प्रवाह है; उसमें और द्वीप हैं; कहीं कोई साझा सीमान्त नहीं है, किसी से कोई सीधा सम्पर्क नहीं, केवल नदी के माध्यम से, नदी जो माँ है, धारयित्री है, तारयित्री है, जो अन्त में एक दिन आप्लवन में सबको समा लेगी...

नीचे कहीं वह रास्ता है, जिससे दो-ढाई महीने पहले वह पहलगाँव गयी थी, तुलियन गयी थी। क्या सचमुच गयी थी? लेकिन नहीं, यह सन्देह फिर कभी उसके मन में नहीं उठा है। अयथार्थ को आत्म-समर्पण करने का जो डर कभी उसने जाना था, जो कभी उसने जीत लिया था, वह फिर कभी नहीं जागा है; वह समर्पित है और जिसके प्रति समर्पित है वह उसकी धमनियों में स्पन्दित...”मैं फुलफ़िल्ड हूँ”, इस अनुभूति की दीप्ति अब भी उसके अन्तःकरण को आलोकित किये है, और कभी बात करते-करते या बैठे-बैठे इसकी कान्ति सहसा उसके चेहरे पर फैल जाती है तो बूढ़ी मिसेज़ ग्रीव्ज़ चकित होकर देखने लगती है, और ख़ुश होती है कि उसकी संगिनी, सहायिका और प्रबन्धकर्त्री में ऐसी आध्यात्मिक कान्ति है...।

एंजेला ग्रीव्ज़ एक पादरी की विधवा है; पर पादरी कहने से जैसे स्वल्प-साधन, बहुधन्धी, सेवा-रत व्यक्ति का चित्र सामने आता है, वैसे मिस्टर ग्रीव्ज़ भी नहीं थे, और उनकी विधवा तो नहीं ही है। ग्रीव्ज़ ने सेवा बहुत की, पर साधन भी काफ़ी जुटाये और जायदाद तो बहुत जुटा ली। फल उपजाने वाले कुल से आकर यहाँ बाग़वानी के लिए उत्तम ज़मीन देखकर जितना ध्यान उसने 'आत्माओं की खेती' में लगाया उतना ही फलों की खेती में भी, और अब श्रीनगर में बँगले के अलावा आस-पास कई बग़ीचों और बंगलों की देख-भाल निस्सन्तान विधवा एंजेला के जिम्मे है। उसी के विज्ञापन के जवाब में रेखा यहाँ आयी है और यद्यपि उसका पद है 'कम्पैनियन' अर्थात् संगिनी का, तथापि काम उसके नाना प्रकार के हैं और संग उसका कम ही होता है, क्योंकि एंजेला जब बाहर के बग़ीचों में जा रहती है तब उसे श्रीनगर छोड़ जाती है, और जब श्रीनगर जाती है तब उसे यहाँ पहुँचा कर एक-आध दिन काम समझा कर फिर छोड़ जाती है। एंजेला की उम्र साठ से ऊपर है पर उसका शरीर सीधा और फुर्तीला है, और बुद्धि बड़ी सजग; काम उसके लिए बहुत हैं पर वह हारती नहीं और कभी मानती नहीं कि वह थक गयी है-यद्यपि संगिनी की खोज मूलतः थकान का ही एक पर्याय है...।

सेब कच्चे ही तोड़ कर पेटियों में भर लिए गये हैं। पेड़ों पर बहुत थोड़ा फल है। कुछ को पकने पर तोड़ा जाएगा और श्रीनगर में ही बिकेगा क्योंकि बाहर भेजने लायक वह नहीं होता, कुछ जो अनन्तर उतारा जाएगा और जाड़ों तक बिकता रहेगा रेखा को काम विशेष नहीं है, एंजेला श्रीनगर में काम देखती है और वह यहाँ सवेरे बग़ीचे का एक चक्कर लगा लेती है, पैकिंग वग़ैरह के काम पर नज़र दौड़ा लेती है...और बाकी घर की ही देख-भाल करती है। काम विशेष नहीं है, उपस्थिति ही प्रयोजनीय है...।

वर्षा लगभग हो ली; पर बादल कभी-कभी घिर आते हैं और ठण्ड हो जाती है और यहाँ की वर्षा का कोई भरोसा भी नहीं, अगस्त के उत्तरार्द्ध में प्रायः बड़े जोरों का एक दौर आता है और कभी सितम्बर तक चला जाता है...काले बादलों के नीचे सारा दृश्य घुँट कर बन्द हो जाता है, पेड़ छोटे हो आते हैं, बँगला खिलौना-सा बन जाता है। मानो पूरा दृश्य अजायबघर के काँच के शो-केस में रखा हुआ एक मॉडल हो...केवल पहाड़ उभर कर बड़े भारी और तीखे हो आते हैं, जैसे आकाश के तेवर चढ़ गये हों, घनी काली भौंहें उभर-सिकुड़कर और भी काली हो गयी हों...फिर धूप कभी निकल आती है और सारा दृश्य खिल आता है, मधु-मक्खियाँ गुंजार करने लगती हैं, धूप के उजलेपन में अन्तर्हित एक ललाई उस तेज को मीठा कर देती है; उसकी चुनचुनाहट त्वचा को सुहानी लगती है और नाड़ियों में अलस तन्द्राभर जाती है...यह अलसाना भाव ही पहाड़ के शरदारम्भ का पहला और सबसे प्रीतिकर चिह्र होता है-सबसे प्रीतिकर भी, लेकिन साथ ही एक विशेष प्रकार की व्याकुलता लिये हुए...उस व्याकुलता को रेखा नाम देना नहीं चाहती; नाम देना आवश्यक भी नहीं है, क्योंकि धमनियों में उसकी अकुलाहट के साथ ही मन में जो विचार या वांछा-चित्र उठते हैं वे अपने-आप में सम्पूर्ण होते हैं। इस अर्थ में सम्पूर्ण कि समूचे अस्तित्व की माँगें उनमें अभिव्यक्ति पा लेती हैं...पहाड़ की पहली शरद का यह मदालस भाव अकेले अनुभव करने का नहीं है, क्योंकि वह मूलतः एक प्रतिकर्षित भाव नहीं है जैसी जाड़ों की ठिठुरन-सिकुड़न, न वैसा मुक्त विस्फूर्जित भाव है जैसा बरसात का उल्लास; वह मूलतः एक उन्मुख भाव है, अन्यापेक्षी भाव, जो दूसरे की उपस्थिति से ही रसावस्था तक पहुँचता है...

रेखा ने एक लम्बी साँस ली। दूसरे की उपस्थिति...तुलियन की चाँदनी झील के वक्ष को दुलराती हुई धुन्ध की बाँह, उसकी छाती को बहुत हलके गुदगुदाते सोनगाभा के फूल और वह स्निग्ध गरमाई जिसे वह नाम नहीं देगी, जिसका चित्र वह अपने आगे मूर्त्त नहीं करेगी...एक सिहरन-सी उसकी देह में दौड़ गयी, वह उठकर खड़ी हो गयी और पत्र को पढ़ती हुई चलने लगी; पर उठते ही उसे चक्कर-सा आने लगा, मतली होने लगी, आँखों के आगे अँधेरा-सा छा गया, चिट्ठी का सफेद कागज़ नीला हो गया और स्याह अक्षर हरे-सुनहले होकर मानो एक दूसरे से उलझते-लड़खड़ाते कभी पास कभी दूर होने लगे...वह उलटे पाँव चलकर हाथ से कुरसी टटोल कर फिर बैठ गयी; कड़े संकल्प से अपने को सँभाल कर उसने एक बार पत्र पूरा पढ़ डाला और फिर सफ़ाई से तीन तह कर के लिफ़ाफे में डाल कर बन्द कर दिया जिस पर पता पहले से लिखा था। फिर उसने पीठ और सिर पीछे टेक कर आँखें बन्द कर लीं, लिफ़ाफ़ा उसके हाथ से गोदी में झूल गया।

मेरे भुवन,

तुम्हें जब-तब पत्र लिखती रही हूँ-जान-बूझ कर देर-देर से; पर एक महत्त्व की बात फिर भी नहीं लिखी, क्योंकि ठीक जानती नहीं थी...अब लिखती हूँ-अब जानती हूँ, पर लिखने से पहले बहुत सोचा है कि लिखूँ या नहीं।

वह बीनकार-सर्जन वाली बात सच है, भुवन। मैं भगवान् का आशीर्वाद तुम्हारे लिए माँगती हूँ, और तुम्हारे चरण गोद में लेकर माथे से लगाती हूँ-उन्हीं के स्पर्श से वह आशीर्वाद मुझे भी घेर ले।

मुझे कुछ चाहिए नहीं भुवन, तुम्हें बताया इसलिए कि-वह भविष्य में मेरी आस्था है भुवन, और उसे तुम ने मुझे दिया है! अगर अब हम न मिले, तो भी वह भूलना मत।

रे.

थोड़ी देर बाद वह फिर उठी; धीरे-धीरे खड़ी हुई, दो-चार कदम चली, और फिर बग़ीचे के पार चल पड़ी। चिट्ठी किसी और को भी दी जा सकती थी, पर वह स्वयं ही जाएगी, स्वयं ही उसे बक्स में छोड़ेगी और इस निमित्त से थोड़ा टहलना भी हो जाएगा-बगीचे से निकल कर टेढ़ी-मेढ़ी सड़क से नीचे बड़ी सड़क तक, कुछ आगे गाँव के सिरे तक जहाँ लेटर-बक्स लगा है, फिर दूसरी ओर सड़क के मोड़ तक जहाँ से उपत्यका की चितकबरी ओढ़नी पर लगा हुआ नदी का बल खाता हुआ गोटा चमक जाता है-यद्यपि इस बदली में वह चमकेगा नहीं, सीसे-सा झलकेगा-जैसे बहुत-बहुत पुरानी सफ़ेद जरी हो...पुरानी तो है ही-न मालूम कितना पुराना गोटा है, और न मालूम उससे भी कितनी पुरानी यह धूसर ओढ़नी...रेखा को एक पंजाबी टप्पा याद आ गया, जो उसने घूमते हुए एक दिन किसी राह चलते बूढ़े सिख को गाते सुना था :

मेरा चोला लीराँ दा

   इक वारी पा फेरा तक्क हाल फकीराँ दा !

(मेरा चोला चिथड़ों का है : एक बार इधर फेरा लगाकर इन फकीरों का हाल देख जाओ!)

चलते-चलते वह स्वयं भी धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी; कुछ तो उसके सुर की, और कुछ अर्थ की करुणा ने सहसा उसे छा लिया कि वह मानो उसकी अपनी करुणा हो गयी, मानो अभी लम्बी तान के साथ उसके आँसू उमड़ आएँगे...लेकिन उमड़े नहीं, रेखा बीच-बीच में रुक-रुक कर गुनगुनाती रही “तक्क हाल फकीराँ दा...तक्क हाल फकीराँ दा...” और बढ़ती रही गन्तव्य की ओर।

× × ×

वकील से भेंट में ज्यादा समय नहीं लगा था; पर हेमेन्द्र के चेहरे पर जो कुटिल सन्तोष का भाव था, उसमें से एक झल्लाहट भी प्रकट हो रही थी। उसे क्या कहना था, वह अच्छी तरह जानता था, आने से पहले मलय में भी उसने कानूनी सलाह ले ली थी और दिल्ली के इस वकील से भी पत्र-व्यवहार कर लिया था; दूसरी ओर वकील भी तलाक़ के कानून का पारंगत था और उसे जो कहना था वह न केवल अच्छी तरह जानता था बल्कि साफ़ सुलझे, सान पर चढ़े हुए चाकू की तरह बेलाग फ़िकरों में कह भी सकता था। ऐसी भेंट का अपना एक रस होना चाहिए था, पर हेमेन्द्र की झल्लाहट की वजह दूसरी थी। वकील ने कहा था कि जहाँ तक तलाक़ की दरख़ास्त के कारणों की बात है, उचित कारण सब दूसरी तरफ़ हैं : न्यायतः रेखा ही दरख़ास्त दे सकती है क्योंकि उत्पीड़ित पक्ष वही है, और अगर वह नहीं देती तो उसकी मर्ज़ी है। पर हेमेन्द्र किसी तरह छुटकारा चाहता है, तो यही तरकीब हो सकती है कि वह धर्म-परिवर्तन कर ले और फिर रेखा से भी कहे, उसके इनकार करने पर तलाक की दरखास्त दे...यह बताकर उसने कहा था, “मैं मानकर चल रहा हूँ कि आप दोनों छुटकारा चाहते हैं, नहीं तो अगर वह न चाहती हों और धर्म-परिवर्तन करने को तैयार हों तो आप कुछ नहीं कर सकते-यानी ऐसे स्मूथली नहीं हो सकता-फिर तो आपको ऐसे आरोप उन पर लगाने पड़ेंगे जो सच होने पर भी कोई स्त्री आसानी से न मानेगी-और झूठ हो तब तो...और यह तो सवाल ही दूसरा है कि वह कितनी क्रूरता होगी-”

हाँ, वकील ने कोई मुरव्वत नहीं की थी-एकदम बेलाग बात की थी...वह ठीक ही था, पर यह पराधीनता उसे अखर रही थी। वह मनमानी का आदी है; इतनी छोटी-सी बात के लिए उसे रेखा का मुँह जोहना पड़ेगा-वह चाहेगी तो तलाक़ होगा, न चाहेगी तो नहीं-यह स्थिति उससे सही नहीं जा रही थी...रेखा बाधा नहीं देगी, वह जानता है; फिर उस सूरत में जब मुक्ति देने में उसे स्वयं भी तो मुक्ति मिलेगी-यद्यपि यह भी वह जानता है, रेखा को कानूनी मुक्ति की परवाह नहीं है, वह किसी भीतरी बन्धन से बद्ध या मुक्ति से मुक्त होगी; और वह अब भी अपने को इतना मुक्त समझती होगी कि कानून की बन्दिशों का बोझ उस पर न हो। यह सब ठीक है, पर क्यों वह रेखा पर निर्भर करने को लाचार है? इससे तो अच्छा होता कि वह यही कह कर तलाक़ माँगता कि रेखा दुराचारिणी है-वह उस हालत में भी सफ़ाई देने न आती अहंकारिणी, पर उसमें उसकी मुँहजोही तो न होती!

वह तो सचमुच वही करता। कुछ जब तोड़ना ही है, तो सीधे स्मैश करना चाहिए। यह क्या कि तोड़ना भी चाहो, और ढेला मारते भी डरो, गिराओ भी तो धीरे-धीरे कि चोट न आये? तोड़ना है, दो हथोड़ा-स्मैश! वकील ने कहा है कि रेखा को पत्र वही लिखेगा, और हेमेन्द्र से वायदा लिया है कि वह स्वयं कोई पत्र-व्यवहार नहीं करेगा, पर क्यों न वह रेखा को एक पत्र लिखे, साफ-साफ पता लगाते क्या देर लगेगी-लिख दे कि वकील ने ऐसा कहा है पर वह सोचता है कि सीधी साफ़ बात-पूछ ले कि क्या तुम सफ़ाई देने आओगी? वकील ने कहा था, क्रूरता होगी। सभी पुरुष-स्त्री क्रूर होते हैं-और सबसे क्रूर वे जो एक-दूसरे से शादी कर लेते हैं।

क्या जाने, रेखा भी शादी करना चाहे; पर यह विचार आते ही हेमेन्द्र ठिठक-सा गया-रेखा और शादी! एक विकृत मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गयी। एक शादी का ही अनुभव उसके लिए काफ़ी होगा...प्यार? लेकिन रेखा के लिए पुरुष-मात्र ऐसा जहरीला जीव हो गया होगा-औरतों की बनावट ही ऐसी होती है, कि पुरुष से चोट खाकर वे सारी पुरुष जाति को बुरा समझ लेती हैं-उदार दृष्टि से तो सोच ही नहीं सकतीं, कि मर्द-मर्द में भेद भी हो सकता है, कि-

यहाँ आकर उसकी विचार-परम्परा टूट गयी। क्यों नहीं वह रेखा पर तरस खा सकता, करुणा कर सकता, क्यों नहीं उसे अपनी दया दे सकता? रेखा-उसके प्रेम-शरीर का एक मरा हुआ अवयव जिसे उसने काट दिया है-काट देने के बाद अवयव पर आक्रोश कैसा?

ख़ैर, वह रेखा को एक चिट्ठी तो लिखेगा ही, देखा जाएगा-करुणा करने के लिए सारा भविष्य पड़ा है!

× × ×

तुलियन से लौटकर भुवन फिर प्रयोगशाला में डूब गया था। यद्यपि यह डूबना पहले से कुछ भिन्न था; क्योंकि तुलियन के प्रयोगों को लेकर वह जब भी गणना करने बैठता, तो उन प्रयोगों से मिलने वाली बौद्धिक प्रेरणा ही नहीं, उनकी ओट में तुलियन का वह भावोन्माद भी झलक आता जिसे ओट से खींच कर सामने लाने का प्रयत्न उसने नहीं किया था; वह अनुभूतियों का एक संघट्ट, संवेदनाओं का एक घना सम्पुंजन था जिसे विश्लिष्ट करके देखना चाहना ही मानो बर्बरता थी-जिस तरह किसी हलकी गैस से भरे हुए गुब्बारे से लटक जाने पर गुरुत्वाकर्षण को काट कर मानव मानो भार-मुक्त हो जाता है-पृथ्वी पर पैर रख कर चलता भी है तो भार देकर नहीं चलता, वैसी ही उसकी अवस्था थी; वह अपनी सब चर्या पूरी करता था, पर मानो धरती पर पैरों की छाप डाले बिना : जैसे मानवी काया-पिंजर में बँधा कोई आकाशचारी देव-गन्धर्व...रेखा के दो-एक पत्र उसे आये थे, छोटे-छोटे, सूचनात्मक, जिनमें कभी एक-आध वाक्य अन्तरंग सम्बोधन का आ जाता तो आ जाता : उनसे वह भावोन्माद फिर भीतर ही भीतर पुष्ट हो जाता था, उभर कर सतह पर नहीं आता था। भुवन ने अधिक पत्र नहीं माँगे, बल्कि अपनी ओर से भी विशेष कुछ नहीं लिखा, वैसे ही सूचनात्मक पत्र...हाँ, रेखा की तरह उसने भी जब-तब कागज़ पर अपने विचार लिख कर रख छोड़ना आरम्भ कर दिया था-वह भी वैसा इरादा करके नहीं, रेखा के उदाहरण का ध्यान करके भी नहीं, लगभग अनजाने ही; उसकी वैज्ञानिक दीक्षा के कारण अन्तर इतना था कि अलग-अलग परचों की बजाय उसने एक कापी रख ली थी। यह जिज्ञासा भी उसके मन में कभी नहीं हुई कि क्या रेखा भी अभी वैसे कुछ लिखकर रखती होगी, या कि क्या वे विचार और भावनाएँ कभी वह देख-पढ़ सकेगा...लेकिन ऐसा वह क्यों, कैसे हो गया वह स्वयं नहीं समझ पाता था-जीवन के प्रति ऐसा स्वीकार भाव उसमें कहाँ से आया? चन्द्रमाधव की भाँति वह जीवन को नोचने-झँझोड़ने का आदी तो नहीं था; बछड़े की देखा-देखी नृशंस ग्वाले जैसे गाय के थनों में हुचका मार कर दूध की अन्तिम बूँद निकाल लेना चाहते हैं, जीवन की कामधेनु को वैसे दुह लेने की प्रवृति उसकी नहीं थी; पर ऐसा प्रश्न-विहीन भाव भी तो उसका नहीं रहा था : यह क्या रेखा की छाप थी कि वह भी मानो धीरप्रवाहिनी जीवन की नदी का एक द्वीप-सा हो गया है? रेखा...उसकी आकृति का, विशेष घटनाओं या स्थितियों का चित्र भुवन के सामने कदाचित् ही आता; स्मृत संस्पर्शों या दुलारों का राग कदाचित् ही उसे द्रवित करता; पर रेखा के अस्तित्व का एक बोध मानो हर समय उसकी चेतना के किसी गहरे स्तर को आलोकित किये रहता और उसके प्रतिबिम्बित प्रकाश के अन्तःकरण को रंजित कर जाता-जैसे किसी पहाड़ी झील पर पड़ा हुआ प्रकाश प्रतिबिम्बित होकर आस-पास की घाटियों को उभार देता है...केवल कभी-कभी वह साँझ को बाइबल उठाकर उसमें सालोमन का गीत पढ़ने बैठ जाता, पढ़ते-पढ़ते ऐसा विभोर हो जाता कि जोर-जोर से पढ़ने लगता; फिर अपना स्वर उसे चौंका देता-मानो जाग कर वह जानता कि वह रेखा के कारण उसे पढ़ रहा है-प्रकारान्तर से रेखा के साथ है...

केवल एक बार पिछले कुछ महीने की घटनाएँ-और विशेष कर दो-तीन मास पहले के नौकुछिया-ताल और तुलियन के थोड़े से दिन-एक तीखे मर्मान्तक दर्द की तरह उसे साल गयी थीं। थोड़ी देर वह तिलमिला गया था, फिर लज्जा से भर गया था-इसलिए और भी अधिक कि वह तिलमिलाना भी और सिमटना भी एक और व्यक्ति ने भी देख लिया था। फिर उसने प्रकृतस्थ होकर बात सँभाल ली थी-या सँभालनी चाही थी, क्योंकि कहाँ तक वह सँभल सकी है वह नहीं जानता था...

गौरा कुछ घण्टों के लिए आयी थी। दिल्ली से बनारस जा रही थी जहाँ उसने कालेज में संगीत-शिक्षिका की नौकरी स्वीकार कर ली थी; सीधी न जाकर उसने भुवन से मिलते हुए जाने का निश्चय किया था। अपनी ओर से तो वह चाहती ही, पर भुवन ने भी बुलाया था : उसने केवल यह सूचना दी थी कि वह बनारस जाएगी और उत्तर में भुवन ने पूछा था कि क्या वह उधर से होकर न जा सकेगी-उसने निस्सन्देह बहुत प्रमाद किया है और गौरा का रोष स्वाभाविक ही होगा, पर रोष न करके उसे देखते जाना भी कम स्वाभाविक न होगा और वह कृतज्ञ भी होगा-गौरा का वह सदैव कृतज्ञ है...

वह स्टेशन लिवाने गया था। स्टेशन से वे दोनों पहले उसकी प्रयोगशाला में गये थे, वहाँ से होते हुए घर आने की बात तय हुई थी। प्रयोगशाला से लगे हुए भुवन के कमरे में वैज्ञानिक यन्त्रों से घिरे हुए बैठकर गौरा ने बताया था कि वह बनारस नौकरी करने जा रही है; फिर भुवन से यन्त्रों के बारे में पूछने लगी थी। यन्त्रों से कॉस्मिक रश्मियों, और उनसे तुलियन की बात उठना स्वाभाविक थी; गौरा ने सहसा पूछा था, “तुलियन झील सुन्दर है?” और साथ ही जोड़ दिया था, “वहाँ भी आप यन्त्रों से ऐसे ही घिरे बैठे रहते होंगे-प्रकृति के लिए आप को फुरसत ही कहाँ होगी?”

तब, पहली बार वह दर्द उसे साल गया था। “प्रकृति के लिए फुरसत”-एक प्रकृति बाहर की जड़ प्रकृति है, एक उसकी धमनियों में गरम-गरम प्रवाहित होने वाली उसकी प्रकृति-और क्या सचमुच उसे फुरसत नहीं हुई थी? झूठ वह नहीं बोलेगा, गौरा से बिलकुल नहीं, पर कहे क्या वह? जो-कुछ भी वह कहेगा, क्या वह झूठ नहीं होगा?

उसने कहा था, “कितने भी यन्त्र हों, पहाड़ को और प्रकृति को नहीं छिपाते”, फिर कुछ रुक कर अपने को बाध्य करते हुए, “तीन-चार दिन के लिए रेखा देवी भी वहाँ आयी थी-बल्कि यन्त्रों के आने से पहले-”

एक भारी-सा मौन उनके बीच में पड़ गया था। वह दर्द भुवन को फिर सालने लगा था, पर इस मौन को ठेल कर हटा देने की प्रेरणा उसमें नहीं थी। गौरा भी कुछ कहने को हुई थी-फिर सहसा चुप लगा गयी थी; भुवन देख सका था कि वह कुछ कहती रुक गयी है, पर क्या, वह नहीं सोच सका था। अन्त में गौरा ने ही कहा था, “अब कहाँ हैं रेखा देवी?”

“कश्मीर में-वहाँ उन्होंने नौकरी कर ली है। पीछे दिल्ली में थी-दिल्ली से वहाँ चली गयीं।”

गौरा ने फिर कुछ रुककर, सकुचाते हुए कहा था, “हाँ।” फिर वह कुछ कहने को हुई थी, और फिर रुक गयी थी।

मौन और भी भारी हो गया था। अब की बार उसे कोई नहीं तोड़ सका था। अन्त में जब भुवन ने कहा था, “चलो, घर चलेंगे-यहाँ कुछ और नहीं करना है”, तब भी उसे यह नहीं लगा कि उस भारी मौन को वह तोड़ सका है; बात उसने की है ज़रूर, पर यह दूसरे स्तर पर है, जिस स्तर पर मौन है उस पर यह पहुँची ही नहीं...

और न गौरा ही उसे तोड़ पायी थी जब उसने घर पहुँच कर कहा था, “लाइये, मैं आयी हूँ तो थोड़ी सँभाल मैं कर जाऊँ-पर पहले चाय बना लाऊँ।” स्वयं यह अनुभव करती हुई वह बिना भुवन के रास्ता दिखाने की प्रतीक्षा किये भीतर चली गयी थी-वह इस घर का भूगोल नहीं जानती, पर एक अकेले बैचलर साइंटिस्ट के घर का भौगोलिक रहस्य हो ही कितना सकता है...

भुवन तिलमिलाया हुआ टहलता रहा था। दर्द उसे सालता हुआ सारी देह में छा गया था, एक भीतरी दबाव-सा उसकी आँखों के पपोटों में स्पन्दित होने लगा था; भवों के ऊपर उसका माथा सीसे-सा भारी हो आया था...

गौरा चाय बनाकर ले आयी थी। एक बार भुवन के चेहरे को देखकर चुपचाप ढालने लगी थी। बढ़ा हुआ प्याला लेकर भुवन बैठ गया था।

उसी प्रकार, मौन की दीवार को तोड़ने में, भुवन ने पूछा था, “गौरा, तुम ने नौकरी जो कर ली-तो क्या जीवन का मार्ग अन्तिम रूप से चुन लिया? माता-पिता की क्या राय है?”

“हाँ, भुवन दा। नौकरी मैंने नहीं चुनी, संगीत ही चुना है; पर आगे सीखने के लिए यह सहारा ज़रूरी है-माता-पिता पर बोझ बने रहना कहाँ तक ठीक होता?”

भुवन उसे देखता रहा था। माथे का नाड़ी-स्पन्दन वैसा ही था, उसे मानो वह सुन सकता था। फिर उसने पूछा था, “गौरा, विवाह क्या कभी नहीं करोगी?”

तब यह मौन थरथरा कर टूट गया था। गौरा खड़ी हो गयी थी। उसका मुँह तमतमा आया था। मुद्रा तनिक भी नहीं बदली थी, इससे यह स्पष्ट नहीं था कि वह तमतमाहट कैसी है; उत्तर देने से पहले भी वह क्षण-भर रुकी रही थी और जब बोली थी तो बिलकुल सम स्वर से : “भुवन दा, मुझसे तो आप पूछते हैं, पर नौकरी तो आप भी करते हैं, आपने क्या सोचा है यह सब-सोच चुके हैं?”

भुवन ने कहना चाहा था, “मेरी बात दूसरी है-पुरुष के लिए विवाह और नौकरी विरोधी कैरियर नहीं है और स्त्री के लिए साधारणतया तो होते ही हैं-साथ नहीं चलते-” पर कह नहीं पाया था; गौरा के मुँह की ओर देखते-देखते अचानक कह गया था, “गौरा, आज देखता हूँ तुम मुझसे छोटी अब नहीं हो-और अब से बराबर-बराबर बात करूँगा; यों पहले भी बिलकुल छोटी तो नहीं मानता था”

गौरा एकदम बैठ गयी। उसका चेहरा शान्त हो आया। बोली, “माफ़ी चाहती हूँ, भुवन दा-आप सदैव बड़े हैं।”

भुवन ने निश्चयात्मक स्वर से कहा, “नहीं।” फिर मानो असली विषय पर लौटते हुए, “पर मेरे लिए एक चुन लेना आवश्यक नहीं है। इस मामले में पुरुष दिग्भ्रान्त भी रहे तो चल सकता है-स्त्री को बिलकुल सुलझे ढंग से सोचना पड़ता है-निर्मम होकर।”

गौरा ने ज़िद की, “अच्छा ज़रूरी न सही, आपने सोचा तो होगा?” फिर सहसा अपनी ज़िद पर थोड़ा-सा शरमा कर वह मुस्करा दी।

उस मुस्कराहट से भुवन सँभल गया। स्वयं भी मुस्करा कर बोला, “ठीक सोचा तो नहीं-सोचना तो एक वैज्ञानिक क्रमागत क्रिया है-पर हाँ, यों ही कुछ धारणाएँ तो हैं-”

“क्या?”

“यही कि उसके विरुद्ध मैंने कोई प्रतिज्ञा तो नहीं की। राह चलते यदि कोई उपयुक्त साथी मिला, तो-”

“लेकिन इस देश में राह चलते कुछ नहीं होता, भुवन दा, बड़ी खोज करनी पड़ती है।” गौरा स्पष्ट ही उसे चिढ़ा रही थी।

भुवन ने उसी ढंग से कहना चाहा, “न, मिरेकल इस देश में भी होते हैं-” पर यह मानो उसे अनुगूँज लगी दूर कहीं की घंटियों की-ज़बान पर आयी बात रुक गयी और वह फिर चुप हो गया। थोड़ी देर बाद उसने फिर हँसने का यत्न करते हुए कहा, “खोज तो दूसरे करते हैं-विज्ञान के विद्यार्थी का तो सारा जीवन ही खोज है।”

“ओ हो! तब जब कुछ मिल जाएगा तो भौंचक-से देखते रह जाएँगे। सब-कुछ कॉस्मिक रश्मियों की तरह थोड़े ही यन्त्र से नाप लिया जाता है।”

“खास कर स्त्री-यही न? पर यह क्यों मान लेती हो कि मैं ही खोजूँगा-वह भी तो खोजेगी-बल्कि वही खोज लेगी-स्त्रियों की बुद्धि तो अचूक होती है न ऐसे मामलों में? मैं-यन्त्र-केवल इतना जान लूँगा कि खोज पूरी हो गयी।”

भुवन को थोड़ा-थोड़ा लग रहा था कि वह उसके लिए अस्वाभाविक ढंग से बात कर रहा है, कुछ-कुछ बेवकूफ़ी की भी बात कर रहा है। पर इस तरह की गैर-ज़िम्मेदार बातें मानो एक छद्म थी जिस की ओट में उसकी भीतरी आकुलता और असमंजस छिप जाता था। वह कहता गया, “राह चलते जिस दिन बैठे-बैठे जानूँगा, मेरे पीछे कोई है और मुड़ कर नहीं देखूँगा और वह झुककर अपने खुले बाल मेरी आँखों के आगे डाल देगी-उस दिन में जान लूँगा कि मेरी खोज-कि मेरे लिए खोज समाप्त हो गयी, और पड़ाव आ गया।”

गौरा अनिश्चित-सी हँसी, “क्या बच्चों की-सी बात करते हैं आप। या रोमांटिकों जैसी।”

“क्यों?”

“और नहीं तो क्या। कौन वह सुन्दरी होगी जो ऐसे अपने केशों में आप को बाँध लेगी-ऐसी तो रोमांटिकों की वह सनातन चुड़ैल थी-लिलिथ-जो अपने सुनहले बालों से लोगों के दिल बाँध लिया करती थी और वे सूख जाते थे। क्यों नहीं आप उन नाइटों की बात सोचते जिनके माथे पर तारा चमका करता था?”

“तारों की खोज क्या कम पागलपन है, गौरा? इतने बड़े आकाश में कोई एक तारा चुन लीजिए, अच्छा चुन ही लीजिए, अंग्रेजी में कहते तो हैं कि 'अपना छकड़ा तारे के पीछे जीत लो' पर तारे तक पहुँचे तब तो-”

“या तारा ही आप तक पहुँचे-”

नहीं, यह भी प्रतिध्वनि है-कहाँ किस की प्रतिध्वनि? 'कोई बात नहीं, मैन फ्राइडे, तारा ख़ुद तुम्हें ढूँढ़ लेगा।'-'मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती!'-'अच्छा मैन फ्राइडे, तुम्हारा तारा कौन-सा है?'-'और तुम-शुक्रतारा।' 'क्यों, चाँद नहीं?' 'वेन मैन! नहीं, शुक्र, केवल शुक्र!'-'मेरा तारा।'

भुवन खड़ा हो गया। प्याला उसने रख दिया, टहलने लगा।

“क्या बात है भुवन दा?”

भुवन ने पैंतरा करते हुए कहा, “हमारे प्रोफ़ेसर कहते थे, विज्ञान से जिसकी शादी हो जाती है, उसे फिर और कुछ नहीं सोचना चाहिए। वह बड़ी कठोर स्वामिनी है।”

गौरा ने कहा, “हूँ। यों तो संगीत-कोई भी कला-और भी कठोर स्वामिनी है; और विज्ञान का मनचलापन तो सन्दिग्ध भी हो सकता है, कला के बारे में तो सन्देह की गुंजाइश नहीं।” फिर वह रुक कर क्षण-भर स्थिर दृष्टि से भुवन को देखती रही। “मगर भुवन दा, हम लोग क्या बे-बात की बात कर रहे हैं; आप-आप हैं कहाँ?”

“गौरा-” भुवन ने पास आकर एक हाथ गौरा के कन्धे पर रखा और चुप हो गया। धीरे-धीरे उसका हाथ हटने लगा पर गौरा ने उस पर अपना हाथ रखकर उसे रोक लिया और बड़े अनुरोध से कहा, “बताइये न, भुवन दा-”

भुवन ने धीरे-धीरे हाथ खींच लिया। “कुछ नहीं गौरा; अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचा करता, तुम्हारे ही भविष्य की बात सोचा करता हूँ।” कुछ रुककर, पर गौरा को बोलने का मौका दिये बिना, “यों तो भविष्य की बात ही नहीं सोचनी चाहिए-वर्तमान ही सब-कुछ है, भविष्य केवल उसका एक प्रस्फुटन-”

यह क्या हो गया है उसको? यह भी प्रतिध्वनि है...”

गौरा ने उलहने के स्वर में कहा, “यह आप कहते हैं, भुवन दा, आप?”

ठीक है गौरा का उलहना, भुवन के भीतर कुछ उमड़ कर बोला था, तुम कैसे ऐसी बात कह सकते हो, और गौरा को...

ठीक इस समय, बड़े मौके से, भुवन का नौकर आ गया था। साधारणतया उसी को आकर चाय देनी चाहिए थी, पर रसोई में आकर उसमें उथल-पुथल के लक्षण देखे तो भीतर देखने चला आया, भीतर गौरा को चाय लिए बैठे देखकर वह मुड़ गया एक हलकी-सी मुस्कराहट को छिपाने के लिए-तो डाक्टर साहब के लिए अभी कहीं कुछ उम्मीद है...'

भुवन अपनी ही बात को लेकर हँस दिया। “और नहीं तो क्या? सोचने को तो हम बहुत सोचते हैं, पर जब जाँच कर देखते हैं तो यही मानना पड़ता है कि हाँ, वर्तमान ही सब-कुछ है।”

गौरा थोड़ी देर वैसे उलहने से देखती रही। फिर उसने कहा, “हो सकता है। यों मेरे लिए भी यही बात है-अभी जहाँ तक मुझे दीखता है, उसी के अनुसार मैंने भी सोच लिया है; आगे जब-नया वर्तमान खुलेगा तब उसके अनुसार और सोच लूँगी। नहीं तो आप ही बताइये-”

भुवन ने कुछ सोचते हुए कहा, “हाँ, यों तो ठीक है।”

अगली गाड़ी से गौरा चली गयी थी। जाने के समय वातावरण कुछ स्वच्छ हो गया था; भुवन ने यह भी कहा था कि अगले दशहरे की छुट्टियों में वह शायद बनारस आएगा-दो-एक दिन, फिर गौरा के साथ दिल्ली लौटेगा अगर उसके पिता वहाँ होंगे, या अगर मसूरी होंगे तो वहीं जाएगा। गौरा ने कहा था, “ज़रूर चलिएगा-आप पिता जी को बहुत नेग्लेक्ट करते रहे हैं-रहे हैं न?” फिर चारों ओर नज़र डालकर कहा था, “घर को भी आपने नेग्लेक्ट कर रखा है। मैं एक-दो दिन रह जाती तो सब सँभाल देती-पर आप रहने ही कहाँ देते हैं?” भुवन ने हँस कर उत्तर दिया था, “घर की सँभाल एक-दो दिन का काम थोड़े ही है, गौरा? एक बार सँभालोगी, फिर वैसा ही हो जाएगा-पर वैसे नुक्स क्या है, मुझे जबानी ही बता दो, मैं सँभालूँगा-”

“ऐसे काम जबानी ही हो सकते तो...”

“तो क्या?”

लेकिन गौरा ने अपना वाक्य पूरा नहीं किया था।

× × ×

गौरा के जाने के बाद वापस लौटकर बहुत देर तक भुवन कमरे में और छत पर चक्कर काटता रहा। गौरा के आने ने उसके भीतर जो उद्वेलन उत्पन्न कर दिया था, उसका कारण वह नहीं जानता था, न कोई स्पष्ट विचार ही उसके मन में उठ रहे थे, केवल एक आकारहीन, केन्द्रविहीन आकुलता...फिर वह अपनी कापी लेकर बैठा, लेकिन उसमें भी कुछ न लिख सका : कापी सामने रख कर बैठा रहा, साँझ घिर आयी, बादल छा गये और गरजने लगे...उसने कापी रख दी और टहलने निकल गया

दूसरे दिन फिर वह पूर्ववत् अपने काम में जुट गया; उद्वेलन भीतर-ही-भीतर कहीं दब गया और पहले की स्थिति फिर हो गयी-काम, काम, काम केवल चेतना के भीतरी किसी स्तर पर एक आलोकमय छाप, और उसके साथ गुँथा हुआ रेखा का ध्यान जो सतह पर नहीं आता...

इस अवस्था से रेखा के पत्र ने उसे झकझोर कर जगा दिया-और ऐसा जगाया कि फिर वह कभी उस अवस्था को नहीं लौटा; फिर जब आयी तो एक प्रकार की जड़ता आयी, और उसके भीतर एक आलोक नहीं, एक गुथीला अन्धकार...

पत्र पाकर उसने पढ़ा, तो पहले शान्त भाव से ही पढ़ गया; कोई आश्चर्य की बात उसमें नहीं थी। रेखा से जब वह विदा हुआ था, तब तो बात हुई थी उससे यह परिणाम निकलता ही था-रेखा ने सूचित कर दिया था और यह भी कह दिया था कि वैसा ही वह चाहती है...पर क्या तब सच-मुच वह समझ सका था? उसने मन-ही-मन स्थिति को मूर्त किया-नदी के आर-पार पड़े शहतीर पर वे दोनों, दोनों स्तब्ध, नीचे दौड़ता उफनता पहाड़ी नदी का जल; और दोनों की अपूर्ण आकांक्षाओं का आरोप उस भविष्यत् जीव पर जिसे-शायद!-उन्होंने अनजाने और एक आविष्ट मोहावस्था में रचा है...क्या तब वह उस बात का पूरा अभिप्राय समझा था जो रेखा ने कही थी-क्या वह अब भी समझ रहा है? धीरे-धीरे एक-एक स्मृति उसके मन में उभरने लगी, और मानो तेजाब से एक-एक गहरी रेखा उसके चेतन-पट पर कोरने लगी...”आर यू रीएल-तुम हो, सचमुच हो, भुवन?...मैं तुम्हारी हूँ, भुवन, मुझे लो...रेखा, आओ...लेट अस गेट अप अर्ली टु द विनयार्डूस : देयर विल आइ गिव दी आफ़ माई लव्ज...महाराज ए कि साजे एले मम हृदयपुर माझे...भुवन, मेरी मोहलत कब तक की है? शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा...पगली, पगली, तुम तो चाँदनी में ही जम गयी थी। और तुम? तुम पिघल गये थे?...लव मेड ए जिप्सी आउट आफ मी...लजाती हो-मुझ से-अब? तुम से नहीं तो और किस से लजाऊँगी?...वेट विदाउट होप, फ़ार होप वुड बी होप आफ़ द रांग थिंग...देबे कि गो वासा आमाय देबे कि एकटि धारे?...” एक अद्भुत भाव उसके मन में भर गया, जिसमें वात्सल्य भी था, करुणा भी, एक आतुर उत्कंठा भी और एक बहुत हलकी-सी जुगुप्सा भी। “न, मैं कुछ मागूँगी नहीं, तुम्हारे जीवन की बाधा नहीं बनूँगी, उलझन भी नहीं बनूँगी। सुन्दर से डरो मत...लेकिन भुवन, मुझे अगर तुमने प्यार किया है, तो प्यार करते रहना-मेरी यह कुंठित बुझी हुई आत्मा स्नेह की गरमाई चाहती है कि फिर अपना आकार पा सके, सुन्दर, मुक्त, ऊर्ध्वाकांक्षी...” क्यों नहीं माँगेगी रेखा कुछ भी? यों सब कुछ दे देगी, और फिर चुपचाप चली जाएगी-अपनी सबसे अधिक आवश्यकता के समय मूक? नहीं, इतना बड़ा दान वह नहीं ले सकेगा। उदार होकर देना कठिन है, होगा, पर उदार होकर ले लेना और भी कठिन है...”तुम ने मुझे एक बार भी नहीं बताया कि मेरे लिए तुम्हारे हृदय में क्या भाव हैं...” ठीक कहा था रेखा ने, उसने सचमुच कभी कुछ नहीं बताया, शायद स्वयं ही नहीं सोचा-और बिना एक प्रश्न तक भी पूछे रेखा ने-नहीं, यह एक-पक्षीय व्यापार वह नहीं सह सकेगा-घुट जाएगा इसके बोझ से...ऐसा दान वह नहीं लेगा जो पाने वाले का दम घोट दे, और देने वाले को-देने वाले को भी संकट में डाल दे...

लेकिन दान वह नहीं लेगा, यह कहने के अब क्या मानी हैं जब वह दान ले चुका है? अब वह क्या करेगा, अब, यही उसे सोचना है, और स्पष्ट सोचना है, परिणाम तक ले जाकर सोचना है...

पत्र उसे कालेज में मिला था। कालेज से लौटने से पहले उसने रेखा को तार दे दिया कि वह आ रहा है, और छुट्टी का आवेदन भी दे दिया, बल्कि थोड़ी देर बाद स्वयं पि्रंसिपल के पास जाकर स्वीकृति भी ले ली। शाम को रवाना हो गया।

× × ×

मोटर के अड्डे पर रेखा हो भी नहीं सकती थी, पर भुवन ने उतर कर चारों ओर नज़र दौड़ाकर देख लिया मानो उसे खोज रहा हो, फिर जब वह कहीं न दीखी तो उसे सन्तोष हुआ। बाहर निकल कर ताँगा लिया, पर पते के लिए दो-एक जगह पूछना पड़ा। अन्त में जब ठीक पता पाकर ताँगा मिसेज़ ग्रीव्ज़ के बग़ीचे की ओर बढ़ चला, फाटक पर पहुँच कर रुका और भुवन ने उतर कर उस पर लगा हुआ ग्रीव्ज़ नाम का बोर्ड भी देख लिया, तब ताँगे को जल्दी बढ़ने के लिए न कहकर उसने वहीं रोक दिया। “हम अभी पूछ कर आते हैं ठीक होने से भीतर बुला लेंगे-” कहकर वह गेट खोल कर भीतर बढ़ा, ताँगे वाले की पुकार उसने अनसुनी कर दी कि “सा', ब, ताँगा भीतर ले चलूँ, सा'ब!”

एक डर-सा उसके मन पर छा गया, पर उसने उसे साफ़ सामने लाकर नहीं देखा। प्रार्थना-सी यही बात बार-बार उसके ओठों पर आने लगी कि जब वे मिलें तो रेखा अकेली हो-चाहे कितनी थोड़ी देर के लिए, औरों के बीच में न उसे रेखा से साक्षात् करना पड़े...मन में यह भी प्रश्न उठता कि क्या रेखा ठीक वैसी ही होगी, या उसका रूप कुछ बदल गया होगा-पर इस प्रश्न को भी वह दबा देता : कुछ नहीं सोचेगा वह रेखा को देखने तक-और देखे तो वह अकेले में ही देखे...

दूर से ही उसने उसे देख लिया। बरामदे में आराम-कुरसी पर वह बैठी थी; सारा शरीर ढलती धूप में, केवल चेहरा छाँह में था और स्पष्ट दीखता नहीं था। रेखा ने वही परिचित मक्खनी सफ़ेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी, पहनने का ढंग कुछ अनोखा था और मानो उसे और भी दूर अलग ले जाता था। उसने भुवन को अभी नहीं देखा था, भुवन कुछ और भी ओट होकर दबे-पाँव चलने लगा; बिलकुल बरामदे के पास आकर जब उसने बरामदे की काठ की सीढ़ी पर पैर रखा, तभी आहट से वह चौंकी, मुड़कर उसने देखकर पहचाना और कहा, “भुवन! अरे, भुवन, तुम-” और उठ बैठी पर उठी नहीं, वहीं से उसने बाँहें बढ़ायीं कि भुवन लपक कर पहुँच गया, एक बाँह से उसने रेखा को घेर लिया और कुरसी की बाँह पर अध-बैठा होते-होते उसे खींच कर अपने से लगा लिया, उसके माथे पर गाल टेककर स्तब्ध रह गया, रेखा के दिल की धड़कन उसकी जाँघ पर बहुत हलका ताल देने लगी...थोड़ी देर बाद उसने बहुत धीमे भर्राये स्वर में कहा, “रेखा, तुम-रेखा...” रेखा ने चेहरा थोड़ा ऊँचा उठाया, उसकी नाक भुवन के गाल में धँस गयी, अब-खुले ओठों से साँस का हलका स्पर्श भुवन के नासा-मूल को गुदगुदाने लगा, तब सहसा भुवन के ओठों ने उसके ओठ ढूँढ लिए...फिर उसने खड़े होते हुए कहा, “रेखा, मैं अभी आया-बाहर ताँगा है-”

रेखा ने कहा, “तुम नहीं जाओ, यहीं से पुकारो 'सलामा'-वह बुला लाएगा।”

भुवन क्षण-भर उसे ताकता रहा। “कितना अच्छा हुआ कि तुम अकेली थी जब मैं पहुँचा, रेखा-”

रेखा ने समझ कर धीरे से हाथ उसकी ओर उठा दिया, कुछ कहा नहीं, उसकी आँखों की गहरी मुस्कराहट ही उसे दुलरा गयी।

भुवन ने बरामदे की ओर बढ़ कर पुकारा, “सलामा!” फिर मुड़ कर रेखा ने पूछा, “मिसेज ग्रीव्ज़ कहाँ रहती हैं-तुम अकेली हो?”

“हाँ, वह श्रीनगर में हैं-मैं निगरानी के लिए यहाँ बैठी हूँ। जब वह आएँगी तो मैं उधर चली जाऊँगी। पर अभी दो महीने शायद यही व्यवस्था रहे। फिर जब बर्फ पड़ने लगेगी तो यहाँ खाली हो जाएगा-मैं भी श्रीनगर उनके साथ रहूँगी।”

“कैसा लगता है, रेखा?”

रेखा ने गहरी दृष्टि से स्थिर भाव से उसे देखा, कुछ बोली नहीं।

सलामा ताँगेवाले को बुला लाया। भुवन ने कुछ झिझकते हुए पूछा, “एम आइ-स्टइंग विथ यू?-वैसे मैं-”

रेखा ने आँखों से ही उसे घुड़क दिया। सलामा ने कहा, “साहब का सामान मेहमान कमरे में लगा दो-”

भुवन ताँगेवाले को विदा करने लगा, सलामा ने सेवा-पटु कश्मीरी लहजे में पूछा, “चाय लाऊँ मेम साब?”

भुवन को रेखा का बोलने का ढंग अतिरिक्त मधुर लगा। यों वह सदा विनय से बात करती थी, पर भुवन ने सोचा, उसके स्वर में न बंगालियों की आदर्श-प्रियता है, न कश्मीरियों की बनावट; एक सहज शालीनता उसमें है जिसे न अकड़ना पड़ता है, न झुकना पड़ता है, जिससे प्रकृतस्थ रहकर ही वह बड़े-छोटे सबके बराबर हो जाती है...व्यक्ति का अभिजात्य क्या है, उसकी सर्वोपरि सत्ता, उसका अखण्ड चक्रवर्तित्व, यह रेखा के निकट रहकर और उसका लोक-व्यवहार देखकर समझ में आ जाता है...

चाय के बाद दोनों बरामदे से उतर कर टहलने लगे। रेखा ने कहा, “बग़ीचा देखोगे? घूम आयें-”

भुवन ने उसकी ओर देखते हुए कहा, “तुम्हें-कष्ट तो नहीं होगा?”

“न। मुझे तो अच्छा लगता है-”

“तो चलो।” फिर कुछ रुककर, “लेकिन-तुम्हारी शाल ले आऊँ-पर तुम्हारा कमरा भी तो नहीं जानता?”

“तो पहले वही देखोगे?” रेखा मधुर मुस्करायी, “नहीं वह फिर दिखाऊँगी। पर शाल तो अन्दर जाते दाहिने को टँगी है-मैंने दिन में रखी थी-”

भुवन उठा लाया।

रेखा ने कहा, “फल तो लगभग सब उतार लिए गये हैं, जिधर हैं उधर ही चलें-उधर तो कुछ धूप भी होगी-”

भुवन को याद आया। डूबते सूर्य का उन्होंने पीछा किया था, और हार गये थे। नहीं, आज वह डूबते सूर्य का पीछा नहीं करेगा; सूर्य को डूब जाने दो, पकते सेब पर उसकी धूप की चमक ही इष्ट है-उसी को वह देखेगा, उसकी लालिम कान्ति में सूर्य की धूप पकेगी, सुफला होगी...शारदीया साँझ की धूप में फलों-लदा सेब का पेड़-जीवन के आशीर्वाद का, जीवन-रूप आशीर्वाद का इससे बढ़ कर और कौन-सा प्रतीक है? शरदारम्भ अभी नहीं हुआ, अभी बरसात का अन्त ही है, फलों पर भी अभी वह सूर्यास्त की लाल-सुनहली कान्ति नहीं आयी, पर उस फले हुए जीवन-तरु को वह देख सकता है-

...देयर इज़ येट फेथ

   एण्ड द फेथ एण्ड द लव एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग ...

(...फिर भी विश्वास है-किन्तु विश्वास और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में ही हैं... -टी. एस. एलियट)

उसने बढ़ कर रेखा का हाथ थाम लिया, और मानो राह दिखाता हुआ साथ ले चला। सामने पेड़ के ऊर्ध्व भाग पर धूप पड़ रही थी, उसमें जगमग एक फलों-लदी डाली को दिखा कर भुवन ने कहा, “इस जाति का नाम बता सकती हो?”

रेखा कहने को थी, “क्विंस-” पर भुवन ने इशारे से टोकते हुए कहा, “ये हैं “सन-सेट ग्लोरी'।”

“सो तो जानती हूँ।” रेखा ने मुग्ध भाव से उसके कोट की आस्तीन से सिर छुआते हुए कहा, “मेरा सारा बग़ीचा 'सनसेट ग्लोरी' है।”

“देखो हम हारे नहीं रेखा; ढलते सूर्य को हमने पकड़ा ही नहीं, उसके बीच में खड़े हैं।”

रेखा ने फिर वह गहरा अपांग उसे दिया : “क्या जाने, भुवन; पर तुम कहते हो तो-ऐसा ही हो, ओ मेरे मालिक, ऐसा ही हो...” दोनों खड़े देखते रहे। सूर्य की कान्ति फीकी पड़ी, फिर डाली के फल स्याह हो गये, आलोक का धान्य मानो बादल के एक बहुत बड़े तामलोट में बन्द हो गया, तामलोट भी काला पड़ गया, हवा चलने लगी, रेखा सिहर गयी। भुवन ने अपनी बाँह पर पड़ी शाल रेखा को ठीक से ओढ़ा दी। रेखा ने कहा, “चलो अब चले-”

“हाँ, चलें-बैठकर बात करेंगे-मुझे बहुत-कुछ कहना है-”

“कहना है, भुवन-क्या कहना है?” रेखा उसकी ओर घूम गयी। दोनों की आँखें मिलीं। देर तक मिली रहीं। फिर दोनों चुप-चाप चलने लगे। भुवन ने धीरे से कहा, “नहीं, ठीक कहना नहीं है-कहना कुछ नहीं है। लेकिन-” वह सहसा चुप हो गया। पर मन-ही-मन वह कहता रहा, “रेखा, रेखा, रेखा...”

× × ×

पहले दृग्मिलन के क्षण से कभी भी दोनों में किसी को यह नहीं लगा था कि उनका सम्पर्क कहीं टूट गया है और उसे फिर स्थापित करना होगा; बराबर ही वे सम्पृक्त थे। पर फिर भी, यद्यपि उन की बातों में घनिष्ट सौहार्द था, प्रणय था-मानो बात करने में दोनों यह भी अनुभव करते जा रहे थे कि वे बात नहीं कर रहे हैं, केवल पैंतरे कर रहे हैं...

रात को भोजन के बाद-जिसमें रेखा ने लगभग कुछ नहीं खाया-रेखा उठकर अपने कमरे में चली गयी तो भुवन भी अपने कमरे में गया, कपड़े बदलकर उसने दो-एक चीज़ों को इधर-उधर करके अपनी सुविधा के अनुकूल रख लिया; फिर टेबल लैम्प को बहुत नीची मेज़ पर रख कर कि प्रकाश कमरे में बहुत मन्दा हो जाये, एक कुरसी उसने खींच कर लैम्प के पास कर दी। पलंग के सिरहाने की ओर खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया और एकटक बाहर देखने लगा। बादल घिर आये थे, दूर की बिजली की प्रतिबिम्बित चमक से बादल की चादर रह-रह कर सफ़ेद हो आती थी।

रेखा का स्वर आया-”मैं आ सकती हूँ? तुम्हारे कमरे में बैठ सकती हूँ?”

भुवन ने घूमकर कहा, “यह मैं पूछनेवाला था। आओ-पर तुम तो मुझे अपना कमरा दिखानेवाली थी-”

“चलो, अब चलो।”

साफ़-सुथरा और करीने से सजा तो था ही रेखा का कमरा, पर भुवन को लगा कि उसमें कुछ और भी विशेषता है। क्या, यह सहसा वह नहीं जान सका, पर थोड़ी देर में वह स्पष्ट हो गयी-कमरे में कोई चीज़ फ़ालतू नहीं थी : सब-कुछ मित, मानो आवश्यक होने के कारण अनिच्छा रहते भी रखा गया था। अपने कमरे से उसने तुलना की-वहाँ सब-कुछ अधिक था-अधिकतम आराम के लिए वह सजाया गया था; और यहाँ-अल्पतम आवश्यक सुविधा की ही कसौटी रखी गयी थी...उसने कहा, “रेखा, तुम तपश्चारिणी होने जा रही हो?”

“क्यों? ओ-यह! नहीं भुवन, अधिक कुछ भी हो तो मुझे चुभता है-मैं अपने साथ ही जीना चाहती हूँ-बाहर का अनावश्यक लटा-पटा मुझसे सहा नहीं जाता।”

“और मैं मुगल बादशाह हूँ-क्यों?”

“वह तो मेहमान का कमरा है, डाक्टर साहब-आप हमारे मेहमान हैं।”

भुवन ने हाथ बढ़ाकर बिस्तर टटोला-तख्तों का पलंग, उस पर गद्दा नहीं था-दरी, नमदा, चादर; अचानक उसने तकिया एक ओर को खींचा, उसके नीचे एक कापी थी। उसने चुप-चाप तकिया वैसे ही रख दिया, मानो कापी न देखी हो।

“यहाँ बैठोगे, भुवन, या उधर चलें?'

“कहना तो यह चाहता हूँ कि मैं इधर रहूँगा, तुम उधर जाओ; पर-चलो, उधर बैठेंगे; क्योंकि मैं मेहमान हूँ!”

“हाँ!”

× × ×

रेखा को उसने टेबल पर लैम्प के पासवाली कुरसी पर बिठाया, स्वयं पलंग पर बैठ गयी। दोनों थोड़ी देर एक-दूसरे को देखते रहे।

“तुम-फिर आ गये, भुवन; मैंने नहीं सोचा था-”

“यह सोच लिया था कि अब नहीं आऊँगा?”

“नहीं भुवन, यह नहीं; पर आओगे, यह कभी नहीं सोचती थी।”

दोनों फिर थोड़ी देर चुप रहे।

सहसा भुवन ने कहा, “अच्छा, रेखा, अब क्या?”

“अब क्या, भुवन?” रेखा ने सहज भाव से कहा, “जीवन अपनी गति से चलता है। उससे बहुत अधिक तो मैं पहले भी नहीं माँगती थी-”

अगर रेखा बात को ऐसे टाल दे तो वह कैसे पूछे? उसने फिर यत्न किया, “रेखा, तुम अब भी-अब भी क्या-”

“हाँ, भुवन, मैं अब भी वैसी फुलफ़िल्ड हूँ-और तुम्हारी कृतज्ञ-”

“वह नहीं रेखा-तुम-तुम क्या नौकरी ही-तुम यहाँ से मेरे साथ चलो”

बिजली चमकी-पहले दूर से प्रतिबिम्बित, फिर कड़कती हुई; कड़क के धीमी पड़ते-न-पड़ते वर्षा होने लगी। उसकी पटपटाहट के ऊपर स्वर उठाते हुए भुवन ने कहा, “रेखा, यह क्या सम्भव होगा कि-तुम मुझसे विवाह कर लो?”

रेखा सिहर गयी, उठने को हुई और बैठी रही। बोली नहीं।

वर्षा की पटपटाहट बढ़ती गयी, हवा के साथ जोर की बौछार आयी और खिड़कियाँ खटखटाने लगीं, भुवन ने उठकर खिड़की बन्द कर दी, बाहर का शब्द सहसा कम हो गया, मानो सन्नाटा छा गया हो।

उस भ्रमात्मक सन्नाटे को तोड़ते हुए रेखा ने स्पष्ट स्वर में कहा, “नहीं भुवन; नहीं।”

फिर एक लम्बा मौन रहा। फिर भुवन बोला, “मुझे यही डर था, रेखा। बात भी बहुत जटिल हो गयी है। पर-इतना तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि-यह करुणा नहीं है, रेखा; न निरी एक नोबल जेसचर-मैं सचमुच कहता हूँ।” उसके स्वर में व्यथा थी।

रेखा ने उठते हुए पास आकर कहा, “हाँ भुवन। तुम्हें क्लेश पहुँचाना नहीं चाहती थी-अविश्वास मैंने नहीं किया। पर-वह असम्भव है। मैंने-तुम से प्यार माँगा था; तुम्हारा भविष्य नहीं माँगा था, न मैं वह लूँगी।”

भुवन भी खड़ा हो गया। “तुमने नहीं माँगा, नहीं माँगोगी। तुम्हारे माँगने न माँगने का सवाल भी नहीं है। मैं माँग रहा हूँ रेखा।”

“न भुवन! बात वही है।” “तुम कुछ कहो, मैं नहीं भूल सकती कि-जो हुआ है वह न हुआ होता तो-तुम न माँगते-न कहते; इसलिए तुम्हारा कहना-परिणाम है। और यह कहना परिणाम नहीं, कारण होना चाहिए, तभी मान्य-तभी उस पर विचार हो सकता है।”

“रेखा!” भुवन ने अपने दोनों हाथ उसके कन्धों पर रख दिये। धीरे-धीरे उसे फिर कुरसी पर बिठा दिया, फिर दो कदम पीछे हटकर मैंटल के सहारे खड़ा हो गया।

“रेखा, और भी बातें सोचने की हैं-”

रेखा ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा, “हैं न?” इसीलिए यह बात सोचने की नहीं रही-यह तभी सोची जा सकती है जब एक और अद्वितीय हो, दूसरी किसी बात से असम्बद्ध हो।”

भुवन ने चाहा कि झल्ला उठे। क्यों रेखा उसकी बात ठीक नहीं समझती-क्यों उलटे अर्थ लेती है? पर वह जो कहती है, उसमें भी तो तथ्य है...तथ्य है, यही तो झल्लाहट का कारण है-यह ऐसी गुत्थी है कि बँधी उनके चाहने से, पर खुलेगी नहीं, जितना वे चाहेंगे और उलझती जाएगी...

“रेखा, उस-उस बीनकार की बात भी तो सोचो-”

रेखा ने दर्द से आँखें बन्द कर लीं, जैसे कोड़ा पड़ा हो। फिर उसने पीठ पीछे टेक दी, बड़ी थकी हुई आँखें भुवन की ओर उठायीं, और कहा, “उसकी बात सोचने के लिए तुम्हें मुझे नहीं कहना होगा भुवन! नहीं, बुरा मत मानो, मैं ताना नहीं दे रही।” वह थोड़ी देर रुक गयी। “पर भुवन, तुम समाज की दृष्टि से देखते हो : वह दृष्टि गलत नहीं है, अप्रासंगिक भी नहीं है; निर्णायक भी वह नहीं है। व्यक्ति को दबाकर इस मामले का जो भी निर्णय होगा-गलत होगा-घृण्य होगा, असह्य होगा!”

फिर थोड़ी देर वह चुप रही। फिर आँखें गिराते हुए कहा, “हो सकता है कि मेरा सोचना शुरू से ही गलत रहा हो-पर शुरू से वह यही रहा है। मेरे कर्म का-सामाजिक व्यवहार का नियमन समाज करे, ठीक है; मेरे अन्तरंग जीवन का-नहीं। वह मेरा है। मेरा यानी हर व्यक्ति का निजी।”

“हाँ, मगर दोनों में क्योंकि विरोध है, और अपरिहार्य विरोध है-”

“तो यह भी जीवन की एक न सुलझने वाली गुत्थी रह जाएगी। यह तो नहीं है कि ऐसी गुत्थी कभी हुई न हो-बीसियों पड़ी रहती हैं चारों ओर-एक और सही-”

“लेकिन-लेकिन ऐसा मान लेने से तो कोई रास्ता नहीं निकलता-” कहकर वह झल्लाया-सा मुस्करा दिया क्योंकि वास्तव में यही तो रेखा कह रही थी। फिर वह चुपचाप टहलने लगा। रेखा बैठी रही। वर्षा की टपाटप ही एकमात्र शब्द रह गया।

“तुम थके हो, भुवन?-सोओगे?”

“ऊँ, नहीं।” भुवन ने रुककर रेखा की ओर देखा। “पर तुम-तुम्हें शायद आराम करना चाहिए-”

“मैं ठीक हूँ। अपने-आप चली जाऊँगी।”

थोड़ी देर फिर वर्षा की टपाटप। भुवन ने कहा, “यह वर्षा असमय नहीं है?”

“पता नहीं। हर साल ही असमय हो तो असमय कैसे कहा जाये? प्रायः ही शुरू सितम्बर में जोर का दौर आता है-और बाढ़ भी जब आती है इन्हीें दिनों”

फिर केवल वर्षा का स्वर रह गया।

“काफ़ी पियोगे?”

भुवन ने अचकचा कर कहा, “अब?”

“हाँ, मेरे कमरे में स्टोव है-मैं कभी-कभी रात को बनाती हूँ-”

“अब नहीं, रेखा। पर-तुम पियो तो मैं बना लाऊँ-”

रेखा ने सिर हिला दिया।

थोड़ी देर बाद बोली, “कैसे हम लोग मानो सात बरस से ब्याहे पति-पत्नी की तरह हो गये हैं-बातचीत के लिए कोई विषय नहीं मिलता, तकल्लुफ की बातें कर रहे हैं-”

भुवन ने हँसकर कहा, “तकल्लुफ बाकी है, यही क्या कम है? सात बरस बाद तो रुखाई का वक़्त आ जाता है-या बिलकुल मौन उपेक्षा का!”

रेखा ने कहा, “इसीलिए क्या तुम मुझे कह रहे हो-”

भुवन ने एकाएक पास आकर उसके दोनों कान पकड़ लिए, धीरे-धीरे उसका मुँह ऊपर को उठाते हुए कहा, “पगली, एक तो बात नहीं सुनती, फिर चिढ़ाती है?” और ओठों के कोमल स्पर्श से उसका सीमान्त छू लिया।

रेखा ने अस्पष्ट स्वर में कहा, “गाड ब्लेस यू...”

भुवन फिर मैण्टल के पास चला गया। थोड़ी देर बाद बोला, “रेखा, तुम्हें गाना सुनाने को आज नहीं कहूँगा-मैं कुछ पढ़ कर सुनाऊँ?”

“सुनाओ-पर बत्ती वहाँ रख दूँ?”

“नहीं, मैं वहीं आता हूँ”, कहकर भुवन ने दूसरी दीवार से लगी मेज़ पर से दो-एक पुस्तकों में से एक उठायी, अभ्यस्त हाथों से पन्ने उलटकर मनचाहा स्थल निकाला और रेखा के पैरों के पास फ़र्श पर बैठ गया, जहाँ रोशनी पुस्तक पर पड़ रही थी। रेखा ने झुककर देखा-ब्राउनिंग।

“साथ लाये हो?”

उत्तर दिये बिना ही भुवन पढ़ने लगा :

हाउ वेल आई नो ह्वाट आई मीन टु डू

   ह्वेन द लांग डार्क ऑटम ईवनिंग्स कम ,
   एंड ह्वेयर , माइ सोल, इज दाइ प्लैंजेंट ह्यू?
   विद द म्यूज़िक आफ ऑल दाइ वायसेज़ , डम्ब
   इन लाइफ़्स नवैम्बर , टू!
   आइ शैल बी फ़ाउण्ड बाइ द फ़ायर , सपोज़,
   ओवर ए ग्रेव वाइज बुक एज बेसीमेथ एज ,
   ह्वाइल द शर्ट्स फ़्लैप ऐज़ द क्रासविंड ब्लोज़ ,
   एण्ड आइ टर्न द पेज़ , एण्ड आइ टर्न द पेज़,
   नॉट वर्स नाउ , ओनली प्रोज़!...

(कितनी अच्छी तरह मैं जानता हूँ कि शरद की लम्बी अँधेरी सन्ध्याओं में मैं क्या करना चाहूँगा-जीवन के नवम्बर में , मेरी आत्मा की दीप्ति फीकी पड़ रही होगी और उसके अनेक स्वरों का संगीत मूक हो रहा होगा! मैं अपनी वय के अनुकूल कोई बड़ी ज्ञान-पोथी लिए आग के निकट बैठा करूँगा, और जाड़ों की हवा कपड़ों को फड़फड़ाया करेगी; और मैं पन्ने पर पन्ना उलटता जाऊँगा-अब काव्य नहीं, केवल गद्य... -ब्राउनिंग

× × ×

रेखा ने कहा, “सारी बात फिर से दुहराओगे, भुवन? मैं कहती हूँ, यह व्यर्थ की बहस है, निष्परिणाम!” थोड़ी देर चुप होकर उसने एक लम्बी साँस ली, फिर बोली-”मैं कहना नहीं चाहती थी, तुम कहला कर छोड़ोगे : तुम्हारे साथ-जीवन का जो-कुछ सुन्दर मैंने जाना है, तुम्हारे साथ; जो-कुछ असुन्दर जाना है विवाह में; और तुम कहते हो-”

उसके स्वर में जो थरथराती तीव्रता थी, उसके धक्के से भुवन क्षण-भर स्तब्ध रह गया; फिर समझाता हुआ बोला, “लेकिन रेखा, विवाह में जो हुआ वह विवाह के कारण ही हुआ, ऐसा तो नहीं है-एक व्यक्ति का दोष-”

“वह सब मैं जानती हूँ, भुवन-सारी दलीलें मैं अपने को दे चुकी हूँ। अब जो कहती हूँ, वह उस सबके बाद है।” भुवन के चेहरे का विमूढ़ भाव देखकर वह कहती गयी, “समझ लो कि यह निचोड़ है मेरी संचित की हुई तर्कातीत हठ-धर्मी का।”

भुवन फिर चुपचाप टहलने लगा। दिन में रेखा से बहुत कम बात हुई थी-जो हुई थी वह वैसी ही, जैसी आतिथेय-अतिथि में परिजनों के सामने होती है; फिर दिन में वह शहर चला गया था। रेखा ने पूछा था कि क्या कुछ काम है जो बारिश में जाएगा? तो कहा था कि नहीं सैर करेगा; तब रेखा ने भी कहा था कि अच्छा मैं भी लेटी रहूँगी। लेकिन भुवन छाता-बरसाती लेकर निकला था और शहर की बहुत-सी बातें जान आया था; बाज़ार, तार, डाकघर, अस्पताल, अच्छे डाक्टरों-सर्जनों के जगह-ठिकाने...निरुद्देश्य भाव से ही उसने यह पड़ताल शुरू की थी, पर निरुद्देश्यता में भी व्यवस्थितता थी और जब वह लौटा तो श्रीनगर के बारे में खासा जानकार होकर-यद्यपि सैलानियों के जानने की एक भी बात उसने नहीं जानी थी। उधर रेखा भी निगरानी का आवश्यक काम करके, सबको आवश्यक आदेश देकर भुवन के कमरे में गयी थी, चीज़ों की झाड़-पोंछ स्वयं करके उसने फूलदानों में नये फूल सजाये थे, उसकी इनी-गिनी किताबें देख उनके साथ अपने कमरे से तीन-चार और किताबें ला रखी थी; बिस्तर ठीक से लगाया था। फिर अपने कमरे में जाकर थोड़ी देर सुस्ता कर वह अपनी कापी लेकर भुवन के कमरे में लौट आयी थी और बैठकर रुक-रुककर थोड़ा-थोड़ा लिखती रही थी। लगभग दो घंटे बाद वह अचकचा कर उठी थी, अपने कमरे में जाकर घड़ी देख आयी थी और फिर वहीं आ बैठी थी। थोड़ी देर बाद उसने भीतर से लकड़ियाँ लाकर अँगीठी में ऐसे सँवार कर चुन दी थी कि झट से आग जलायी जा सके-बारिश अभी हो ही रही थी और काफ़ी सर्दी हो गयी थी। फिर अबेर होती जान वह उठी थी, थोड़ी देर अनिश्चित पलंग के पास खड़ी रही थी; तब उसने अपनी कापी भुवन के सिरहाने तकिये के नीचे दबाकर रख दी थी, ऊपर से सलवटें ठीककर के दरवाज़ा उढ़का कर बाहर चली गयी थी। बाहर आराम-कुरसी पर दो-तीन गद्दियाँ डालकर, पैरों के लिए चौकी और कम्बल रखकर, वह आराम से बैठ गयी थी; आँखें उसने बन्द कर ली थी। ऐसा ही भुवन ने थोड़ी देर बाद उसे पाया था। आते ही बरामदे में बरसाती-छाता टाँगते हुए उसने पूछा था-”आराम किया?” और रेखा ने कहा था, “देख लो।” और फिर, “एक कुरसी और ले लो-बैठो-या कि पहले कपड़े बदलोगे-भीग आये हो।” भुवन कपड़े बदलने चला गया था।

चाय पी गयी थी। शाम फिर वैसी ही मेहमान-मेजबान के ढंग से बीती थी, खाना भी वैसे ही खाया गया था। भुवन ने बताया था कि वह सारा शहर घूम गया; बन्ध, लाल-मण्डी, अमीरा कदल, वजीर बाग़-दो-चार नाम भी उसने अपनी जानकारी बताने के लिए ले दिये थे। रेखा ने बताया था कि वह थोड़ा पढ़ती-लिखती रही, बाकी उसने ख़ूब आराम किया...उसके बाद पूर्ववत् भुवन के कमरे में बात हो रही थी।

“एक बात और है भुवन-और यह बुनियादी बात है : विवाह हो ही कैसे सकता है-मैं तो बँधी हूँ-” सहसा कटु मुस्कान के साथ, “केवल दुराचार-”

“चुप!” भुवन ने डपट कर कहा : रेखा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। “रेखा, और जो है, अपने को यों सताने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

“आई'म सॉरी, भुवन!” रेखा ने सच्चाई से कहा-”पर-बँधी तो हूँ-”

“तो मैं प्रतीक्षा करूँगा-”

रेखा हँस पड़ी। “क्या बच्चों की तरह प्यारा मुँह बनाकर कहते हो, प्रतीक्षा करूँगा।” रेखा ने पास जाकर अँगुलियों से उसके ओठ पकड़कर भींच दिये, जैसे बच्चों के ओठ भीच देते हैं। “कब तक आख़िर-और किसलिए?” वह थोड़ा रुक गयी। “जिसके लिए-जिसके लिए सोचते हो वह तो...” सकपका कर वह फिर बैठ गयी।

भुवन फिर निरुत्तर होकर टहलने लगा। रेखा चुपचाप उसका मुँह निहारने लगी। उसकी चाल में निश्चय और विमूढ़ता का अजब मिश्रण था; हाथ पीछे गुँथे हुए, सिर कुछ झुका लेकिन ठोढ़ी सामने बढ़ी हुई, और भँवों के बीच में दो रेखाएँ, जिनसे बीच का हिस्सा कुछ लाल-लाल जान पड़ता था...।

रेखा ने पूछा, “आज तो काफ़ी पिओगे : ठण्ड है। मैं लाती हूँ।” भुवन कुछ कहे, इससे पहले ही उसने साथ जोड़ दिया, “मैं भी पियूँगी।”

“तब अच्छा। पर मैं बनाकर लाता हूँ। मेरी ज़िद।”

“अच्छा, यही सही। स्टोव ड्रेसिंग रूम में लगा है; और सब समान उसके पास के ताक में रखा है। हमेशा तैयार लगा ही रहता है।”

भुवन चला गया। तब रेखा भी उठी। अँगीठी में आग सुलगायी-अनुभवी हाथों की लगायी हुई लकड़ियों ने तुरन्त आग पकड़ ली; आठ-दस मिनट बाद जब भुवन ट्रे में लगी हुई काफ़ी लेकर आया, तब चटचटाती लाल शिखाओं का असम प्रकाश कमरे में नाचने लगा था। उसने कहा, “अरे-जादूगरनी!”

रेखा ने कहा, “हाँ, तुम्हारा जादू मेरे हाथ में भी चला आया है।”

आग के पास तिपाई उसने पहले ही रख दी थी। भुवन ने दो कुरसियाँ खींच कर ठीक जगह रखीं, रेखा को आदर से हाथ पकड़कर उठाया और तिपाई के पास वाली कुरसी पर बिठा दिया; फिर एक प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखकर टेबल लैम्प बुझा दिया। आग के प्रकाश में उनकी और काफ़ी के बर्तनों की छायाएँ दीवार पर नाचने लगीं।

काफ़ी पीकर भुवन ने तिपाई हटा दी, अपनी कुरसी खींच कर रेखा की कुरसी के निकट कर ली। फिर मेज़ तक जाकर किताब उठाने लगा तो बोला, “मेरी किताबें बढ़ कैसे गयीं?”

चार-पाँच किताबें लिए वह लौट आया; किताबें ज़मीन पर रखकर कुछ आगे झुक कर उनके नाम देखने लगा। चार्ल्स मार्गन का 'द फाउंटेन',' आन्द्रे जीद का 'स्ट्रेट इज़ द गेट', ठाकुर की 'गीतांजलि', लुई एमो का 'मारिया शादलेन', सानुवाद 'कुमार-सम्भव', दो-एक कविता-संकलन, एक-आध और पुस्तक।

“ओह, यह मेरे मेज़बान की कृपा है।”

एक किताब निकालकर उसने खोली, नीचे झुकाकर ऐसे रखी कि रेखा भी देख सके, और स्वर-हीन ढंग से पढ़ने लगा। रेखा भी साथ-साथ पढ़ती रही। कभी बीच में एक-आध पंक्ति वह गुनगुना देती, भुवन जानता था कि दोनों लगभग साथ-ही-साथ पढ़ रहे हैं। पन्ना पलटने से पूर्व क्षण-भर रुकता और फिर धीरे-धीरे उलट देता।

सो लेट मी बी दाइ क्वायर , एण्ड मेक ए मोन

   अपान द मिडनाइट आवर्स ;
   दाइ वाएस , दाइ ल्यूट, दाइ पाइप, दाइ इन्सेन्स स्वीट
   फ्राम संस्विगेड सेंसर टीमिंग ,
   दाइ श्राइन , दाइ ग्रोव, दाइ आरैकल, दाइ हीट
   आफ़ पेल -माउथ्ड प्राफेट ड्रीमिंग।

(मुझे होने दो तुम्हारा गायक , जो मध्य रात्रि की घड़ियों को अपनी व्यथा से भरे; तुम्हारा स्वर, तुम्हारी वीणा, तुम्हारी वंशी, तुम्हारा झूलते हुए धूपदान से उठता हुआ गन्ध-धूम; तुम्हारा मन्दिर, तुम्हारा कुंज, तुम्हारी देववाणी, तुम्हारे विवर्ण स्वप्नदर्शी सन्देशवाहक की उत्तेजना! -जॉन कीट्स)

× × ×

जलती हुई एक लकड़ी एक ओर गिरी; प्रकाश कुछ मन्दा पड़ गया। आग ठीक करने के लिए रेखा खड़ी हुई तो भुवन ने कहा, “रेखा, तुम्हारे कमरे में तो आग नहीं है।”

“बनी हुई रखी है। जाऊँगी तो जला लूँगी।”

“पर कमरा गरम होते तो देर लगेगी, मैं अभी जला आऊँ।”

उसकी कलाई पर हाथ रखकर उसे रोकते हुए रेखा ने आग्रहपूर्वक कहा, “नहीं, तुम बैठो।”

दोनों फिर बैठ गये। किताबें हटा दी गयी, दोनों चुप-से हो गये।

थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, “रेखा, तुम्हें क्या ज़रूर अभी कमरे में चले जाना है?”

रेखा कुछ बोली नहीं, उसकी ओर देखकर रह गयी।

भुवन ने धीरे-धीरे हाथ पकड़ कर उसे उठाया, और पलंग पर जा लिटाया। स्वयं एक बाहीं पर बैठ गया, धीरे-धीरे रेखा का कन्धा थपकने लगा।

आग मन्दी पड़ गयी, अंगारे ही लाल-लाल चमकते रहे गये। छायाओं का नाच समाप्त हो गया, एक धुँधली लाल झलक छत पर रह गयी। रेखा का चेहरा मँजे ताँबे-सा दीखने लगा।

वह बोली, “तुम्हें-नौकुछिया याद है?”

भुवन ने सिर हिलाया।

“मैंने-माँगा था-और तुम रोये थे।”

भुवन ने हाथ झुका कर उसके ओठ ढँक दिये। रेखा ने उसका हाथ हटाकर कहा, “तब तुमने क्या कहा था-याद है?”

भुवन ने फिर सिर हिला दिया।

“तुमने कहा था, “यह इनकार नहीं है'...तुम ने कहा था, “जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए-जोखिम में नहीं डालना चाहिए'...कहा था न?”

भुवन ने फिर सिर हिला दिया।

रेखा थोड़ी देर चुप रही। फिर उसने कहा, “तो वह सब मैं तुमसे कहती हूँ। यह भी प्रत्याख्यान नहीं है भुवन-मैं सचमुच तुम्हारे पैर चूम सकती हूँ-”

वह जैसे उठने को हुई; भुवन ने उसे रोक दिया। वैसे ही थपकता रहा।

थोड़ी देर बाद रेखा ने फिर कहा, “भुवन, इस विषय को समाप्त मान लिया जाये-क्या इसे फिर उठाना होगा?”

भुवन ने कहना चाहा, “पर मैंने तो फिर जोखिम उठाया था-और उससे सुन्दर पुष्ट ही हुआ, नष्ट तो नहीं हुआ-” पर कह नहीं सका, स्वयं उसे ही लगा कि दोनों बातों में कुछ अन्तर है। फिर उसने कहना चाहा, “जोखिम तो हर सुन्दर चीज़ में है-बल्कि आनुपातिक होता है,” पर यह बात भी उससे कहते नहीं बनी। वह केवल रेखा का कन्धा थपकता रहा।

थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा रेखा, तुम्हारी यही इच्छा है तो-यही सही। पर उससे पहले कुछ और कह लेने दो-और उसे याद रखना-भूलना मत कभी।”

रेखा ने उसका थपकता हाथ पकड़ कर निश्चल कर दिया, और प्रतीक्षा में चुप पड़ी रही।

“रेखा, जो कुछ हुआ है, मुझे उसका दुःख नहीं है, परिताप नहीं है। और जो हुआ है उससे मेरा मतलब केवल अतीत नहीं है, भविष्य भी है-कारण भी, परिणाम भी। और यह नकारात्मक बात लगती है-मैं कहूँ कि मैं प्रसन्न हूँ : एक आनन्द है मेरे भीतर-एक शान्ति-भविष्य के प्रति एक स्वागत-भाव...यही मैं तुमसे कहना चाहता हूँ-वह जो आएगा-आएगा या आएगी, वह तो मुहावरा है-वह मेरा है, मेरा वांछित है-उससे मैं लजाऊँगा नहीं, वह तुम मुझे दोगी। भूलना मत-तुम्हें और तुम्हारी देन को मैं वरदान करके लेता हूँ।...” भुवन का स्वर भर आया, वह चुप हो गया।

रेखा ने बड़ी गहरी साँस ली। भुवन का हाथ खींचकर अपनी पलकों पर कर लिया, वहीं पकड़े रही। उँगलियों की अतिरिक्त स्पर्श-संवेदना ने जाना, पलकों के भीतर आँखें हिल रही हैं। थोड़ी देर बाद अपनी मध्यमा भुवन को कुछ ठण्डी लगी-आँख की कोर पर होने से वह भीग गयी थी। उसने दूसरा हाथ बढ़ा कर कर्णमूल छुआ, गीला था। हथेली से उसने उसे पोंछ दिया, कुछ समीप सरक कर बैठ गया।

छत की वह लाल झलक भी बुझ गयी। वर्षा फिर होने लगी थी। भुवन ने रेखा को और अच्छी तरह ओढ़ा दिया, कुछ झुककर कोहनी टेककर बहुत हलकी थपकी से रेखा को थपकने लगा।

रेखा सो गयी। थोड़ी देर बाद जागी और कम्बल का आधा हिस्सा खींच कर भुवन पर कर दिया, उसका हाथ पकड़ लिया और फिर सो गयी...

भोर के फीकेपन के साथ बारिश का जोर का एक झोंका आया, तो भुवन जाग गया; उसने देखा, वह पलंग के एक सिरे पर तीन-चौथाई ओढ़े सोया है, रेखा न मालूम कब उठकर चली गयी है। उसने बदन ठीक से ढँक लिया, पर एक अजब सूनापन उसमें भरने लगा...उसने औंधे होकर तकिया खींच कर आधा छाती के नीचे कर लिया कि उसके सिरे में मुँह छिपा लेगा-कि सहसा हड़बड़ा कर कोहनी के सहारे उठ बैठा। तकिये के नीचे कुछ था। टटोल कर देखा-किताब-सी, आँखों के पास लाकर देखा, पहचान गया-रेखा की कापी।

आशंका की एक लहर उसके मन में दौड़ गयी। रेखा क्यों यह वहाँ छोड़ गयी है-कब? कहीं...

वह हड़बड़ा कर उठा, दबे पाँव कमरे से बाहर निकला, बरामदे से गैलरी में होता हुआ रेखा के कमरे में दरवाज़े पर पहुँच गया। झाँक कर देखा, परदे के पार कुछ दिखता नहीं था पर भीतर के असम प्रकाश की झलक मिलती थी-तो लकड़ियाँ जल रही हैं यानी अभी जलायी गयी हैं; रेखा थोड़ी देर पहले ही आयी होगी। पहले उसने चाहा, किवाड़ खोल कर भीतर जाये या कम-से-कम झाँक कर तसल्ली कर ले, फिर न जाने क्यों उसे विश्वास हो गया कि रेखा कमरे में है और सोयी है या कम-से-कम बिस्तर में तो है, और वह वैसे ही दबे-पाँव लौट गया। पलंग पर लेट कर कापी को एक हाथ में पकड़े हुए वह प्रकाश की प्रतीक्षा करने लगा-बत्ती जलायी जा सकती थी पर उसने नहीं जलायी, उतावली उसमें नहीं थी, कोई उत्कण्ठा नहीं, केवल एक स्थिर विश्वास-भरी प्रतीक्षा-हर बात का समय है, समय आने दो, वह होगी; कापी में जो-कुछ है वह भी वह जानेगा समय पर-ठीक समय पर...

× × ×

जो जानने का कारण है, उसे लोग कितना कम, और जो जानने का कोई कारण नहीं है उसे कितना अधिक जानते हैं, इसकी पड़ताल की जाये तो कदाचित् यही मान लेना पड़ेगा कि जानने का कारण न होना ही जानने के लिए पर्याप्त और वास्तविक कारण है! वकील से विदा लेकर हेमेन्द्र ने रेखा के बारे में इधर-उधर जो पूछ-ताछ करनी शुरू की, तो उसे बहुत-सी आश्चर्यजनक बातें मालूम हुईं। 'रेखा'? मुस्कराहट। रहस्य। 'जाने दीजिए-किसी स्त्री की बुराई नहीं करनी चाहिए।' चेहरे पर दर्द का भाव। 'लेकिन आजकल की औरतें भी-कुछ पूछिए मत-हिन्दुस्तान को यूरोप बना दिया है-बल्कि यूरोप में भी ऐसा न होता होगा।' 'कहें कैसे, कहने की बात भी हो? पर आप उसके हितैषी मालूम होते हैं'...'वह तो-अपने यारों को लेकर पहाड़ों की सैरें करती-फिरती है-कभी इसको, कभी उसको-नौकरी का तो सिर्फ बहाना है, कभी किसी के साथ रहती है कभी किसी के'...इसके बाद एक कटु कर्तव्य को साहसपूर्वक कर चुकने का क्लान्त पर आत्म-तुष्ट भाव।

हेमेन्द्र ने सहसा नहीं माना। उसे इस बात का गर्व था कि वह लोगों को पहचानता है। और रेखा? रेखा तो बरसों तक उसकी ब्याहता रही है-साथ सोया नहीं तो क्या, उसे पहचानता तो है...पर कई जगह से एक-सी बात सुनकर उसका निश्चय कच्चा पड़ गया, और जब यह मालूम हुआ कि रेखा अपने शिकार प्रायः लखनऊ से चुनती रही है और उनमें से एक का नाम भी लिया गया-चन्द्रमाधव-तब उसने लखनऊ जाकर पता लगाने की ठानी। यों रेखा क्यों करती है, उसे क्या-उसे रेखा से कुछ लेना-देना नहीं है, केवल तलाक़!-पर जिसके साथ बरसों का सम्बन्ध रहा है (क्या खूब शब्द है सम्बन्ध-साथ बँधना!) उसके बारे में कौतूहल स्वाभाविक ही है न...

चन्द्रमाधव उसे देखकर आश्चर्य-चकित रह गया। “मिस्टर हेमेन्द्र-आप यहाँ-ह्वट ए सरप्राइज़! मैंने तो आपको पत्र लिखा था-मिला?”

हेमेन्द्र ने भी आश्चर्य से कहा, “मुझे-पत्र? मुझे तो नहीं मिला-कब लिखा था?”

“अभी कुछ दिन पहले-डेढ़-दो महीने-”

“तब हो सकता है पीछे आये-मैं भटकता रहा, सिंगापुर था, फिर बर्मा होता आया हूँ। कोई खास बात थी?”

“नहीं, यों ही। पर चलिए-शैल वी गो एण्ड हैव ए ड्रिंक?”

साथ बैठकर शराब पीने की एक कला है। हेमेन्द्र बहुत अच्छा साथी था। अवश नहीं होता, लेकिन बातों में गैर-ज़िम्मेदारी की वह ठीक मात्रा होती है जिससे रस आता है : गैर-जिम्मेदारी की भी, और-अश्लीलता की भी, यद्यपि जो रस देती है, जीवन को उभारती है उसे अश्लीलता नहीं कहना चाहिए...

हेमेन्द्र को चन्द्रमाधव ने पत्र तो लिखा था, पर रेखा के बारे में बातचीत शायद इस रासायनिक सहायता के बिना न कर पाता। पर प्यालों में वह सहज भाव से बात कर सका; हेमेन्द्र की सुनी बातें उससे खण्डित भी हुईं, पुष्ट भी; निस्सन्देह अगर हेमेन्द्र उसे मुक्त कर दे तो वह शादी करना चाहेगी; क्योंकि अब शादी के सिवा और चारा क्या हो सकता है, और शादी भी जल्दी। इस पर उसने एक भद्दी कहानी भी सुना दी थी जो किसी मध्य-कालीन फ्रांसीसी किस्से में उसने पढ़ी थी-एक औरत शादी के लिए जल्दी मचा रही थी क्योंकि सवाल यह था कि शादी पहले होती है कि बच्चा; किसी तरह शादी हो गयी थी, दूसरे दिन सवेरे बच्चा हुआ था, और लोग नये बाप को बधाई देने आये थे उसके पुरुषार्थ पर-सुहाग-रात भर में यह जादू!...

दोनों ज़ोर से हँसे थे, फिर बात रेखा के विषय से कुछ दूर हट गयी थी, चन्द्र अपनी घरवाली की बात करने लगा था, हेमेन्द्र ने उस मलय मेम की कुछ बात बतायी थी; इस पर दोनों सहमत हुए थे कि औरत दुनिया की सब मुसीबतों की जड़ है, लेकिन उसके बग़ैर रहा भी नहीं जाता-इसीलिए तो वह मुसीबतों की जड़ है। चन्द्र ने आँख मार कर कहा था, “दोस्त, सुना है तुम्हारा काम तो उसके बग़ैर चल जाता है-” और हेमेन्द्र ने उसी सुर में जवाब दिया था, “चल जाता था, पर अब यह लत लग गयी!” और दोनों ठहाका मार कर हँसे थे। “तो दोस्त, रेखा को वापस ही क्यों नहीं बुलाते-मज़ा आ जाये एक बार बुलालो तो!” हेमेन्द्र क्षण-भर तक सोचता रहा था, फिर उसे बात बड़ी मनोरंजक जान पड़ी थी और वह हँसने लगा था। “पति के अधिकार...हाँ, इतने बरसों बाद पति के अधिकारों का दावा करूँ तो-” नहीं, यह बहुत ज्यादा मजे॓ की बात थी, इतनी कि हँसा भी न जाये, इस पर तो एक दौर और होना चाहिए...”लेकिन वैसे मैं मजे॓ में हूँ-उसके जो जी में आवे करे-कुतिया! फिरने दो आवारा...”

चन्द्रमाधव ने तय किया कि 'हेमेन्द्र इज़ आल राइट।' हेमेन्द्र ने भी उस समय तय किया कि 'चन्द्र इज़ ए नाइस फ़ेलो।' दूसरे दिन सवेरे अवश्य इस पर उसका निश्चय कुछ दुर्बल हो आया, पर हेमेन्द्र उन लोगों में से नहीं था जो रात के निश्चयों पर सवेरे कोई गहरी अनुशोचना करते हैं। रात रात है, दिन दिन; मलय में रहकर तो वह और भी अच्छी तरह जान पाया है कि दोनों के विचार, दोनों के दर्शन, दोनों का जीवन ही अलग-अलग है...

लेकिन, वाकई, रेखा को चिट्ठी तो लिखी जाये, और कुछ नहीं तो शुगल रहेगा! वह उसके साथ रहकर उससे बात कर सकता, तो अच्छा होता; पर अब तो वह नहीं हो सकता-न वह उसके पास जा सकता है, न रेखा उसके पास आएगी-अब तो चिट्ठी ही है। सहसा जीवन के खोये हुए अवसरों का तीखा बोध उसे हो आया : रेखा भी एक खोया हुआ अवसर था-कितना बड़ा अवसर-कैसे विदग्ध विलास का अवसर...

किसी बेहया ने ठीक कहा है-अन्तिम समय में मानव को अनुताप होता है, तो अपने किये हुए पाप पर नहीं, पुण्य करने के अवसरों की चूक पर नहीं; अनुताप होता है किये हुए नीरस पुण्यों पर, रसीले पाप कर सकने के खोये हुए अवसरों पर...

× × ×

कमरे से रेखा बहुत देर तक नहीं निकली, नाश्ता भुवन ने अकेले ही किया। उसके बाद ही रेखा ने उसे बुला भेजा।

वह पलंग पर तकियों के सहारे लेटी हुई थी, कन्धों पर शाल ओढ़े और पैरों पर कम्बल; बीच में उसने बारीक काली धारियों वाली उन्नाबी रंग की साड़ी पहन रखी थी जिससे उसके चेहरे का पीलापन कुछ कम खटकने वाला हो गया था।

“मेरी तबीयत ठीक नहीं है भुवन-यहीं बैठो-”

“क्या बात है, रेखा?”

“कुछ नहीं, चक्कर आते हैं-और मतली होती है-वही सब-” कहती हुई वह थोड़ा लजा कर मुस्करा दी।

भुवन ने कहा, “डाक्टर को नहीं बुलाना चाहिए, रेखा?”

“बुलाऊँगी, बुलाऊँगी : अभी मुझे सोच तो लेने दो-”

“इसमें सोचना क्या है, रेखा? कामन सेंस की बात है-”

“सो तो है। पर-सोचना भी तो है। आजकल में ही बुला लूँगी डाक्टर को भी एक बार-”

“मुझे आज श्रीनगर जाना है-मैं बुला लाऊँ?”

“आज फिर?”

भुवन ने बताया कि उसे लौटना है; शीघ्र ही वह फिर छुट्टी लेकर आ जाएगा। थोड़े दिन बाद ही दशहरे की छुट्टियाँ भी पड़ती हैं, उनसे लगी हुई छुट्टियाँ लेगा ताकि लगातार काफ़ी दिन तक रह सके। आठ-दस दिन में ही वापस पहुँच जाएगा-हो सका तो और भी जल्दी।

रेखा चुपचाप उसे देखती रही।

“क्या सोच रही हो, रेखा?”

“कुछ नहीं। ठीक कहते हो तुम...”

भुवन को डाक्टर की बात फिर याद आ गयी। उसके बहुत आग्रह करने पर रेखा ने वचन दिया कि दो-तीन दिन के अन्दर ही वह स्वयं डाक्टर के पास जाएगी और उस के आदेशों का पालन भी कड़ाई के साथ करेगी। फिर उसने कहा, “श्रीनगर जाओगे तो वक़्त हो तो मिसेज़ ग्रीव्ज़ से भी मिल जाना-तुम्हें अच्छी लगेगी बुढ़िया। और उसे यह भी कह आना कि तुम फिर आओगे।”

भुवन ने स्वीकार कर लिया।

दोपहर तक वह रेखा के पास ही बैठा रहा, कभी बातें करता और कभी किसी पुस्तक से कुछ पढ़कर सुनाता; बारिश थमी थी पर बादल वैसे ही थे और निश्चय था कि फिर बरसेंगे; भुवन ने फिर आग जलवा दी थी और ढेर-सी लकड़ियाँ भी चुनवा कर रख दी थी कि आग बराबर जलती रखी जा सके। दोपहर के भोजन के बाद, रेखा को भी स्वल्प कुछ खिलाकर वह चला गया। शाम को अपना सब प्रबन्ध करके लौटा; दूसरे दिन तड़के ही ताँगा उसे लेने आएगा ताकि वह सवेरे की पहली बस पकड़ सके जो शाम को उसे जम्मू पहुँचा दे; मिसेज ग्रीव्ज़ से भी वह मिल आया, चाय भी उसी के साथ पी।

जब वह वापस आया तब रेखा सो रही थी। भुवन चुपचाप उसके कमरे में जाकर बैठ गया; उसमें एक सुखद गरमाई थी, और दयार की लकड़ी की प्रीतिकर गन्ध कमरे की हवा को एक ताज़गी दे रही थी। लकड़ी का कभी-कभी चटकना, गाँठों के गन्ध-रसों का फुरफुरा कर जलना, रन्ध्रों से रुद्ध गैस का सीत्कार के साथ मुक्त होना और शिखाओं की हलकी सुरसुराहट-ये सब एक बड़े मधुर और धीमे संलाप की तरह थे, जो रेखा के साथ उसके मौन संलाप की मानो पीठिका था...एक तन्द्रा-सी उस पर भी छा गयी।

रेखा ने जाग कर कहा, “तुम आ गये, भुवन?” और उसके कुछ पूछने से पहले ही कहा, “मैं बहुत अच्छी हूँ। सो चुकी, अब चाय पी जाये-पिओगे?”

भुवन ने उठकर सलामा को आवाज़ दे दी।

रात में फिर हल्की बारिश होने लगी। भुवन के कमरे में भी आग जलायी गयी, पर वह रेखा के पास ही आराम-कुरसी लिए बैठा रहा, रेखा लेटी रही। एक मौन-सा उन पर छा गया; रेखा ने कहा, “जाओ सोओ, भुवन, तुम्हें सवेरे जाना है।”

भुवन बोला, “बहुत सवेरे जाना हो तो रात को जागने में ही सुविधा होती है। यह तो आजमाया नुस्खा है।”

रेखा मुस्करा दी। “मैं तो तैयार हूँ-रात को तो ठीक रहती हूँ। काफ़ी भी पिलाऊँगी।” फिर सहसा गम्भीर होकर, “नहीं, भुवन, सोओ तुम। अच्छा, ठीक बारह बजे तुम चले जाओगे-हाँ?”

भुवन ने आकर उसके माथे पर अपने ओठ रख दिये, बहुत देर तक उसके बाल सूँघता रहा। फिर पहले-सा बैठ गया; केवल दोनों के हाथ बराबर उलझते-सुलझते, एक दूसरे को सहलाते खेलते रहे, मानो उनकी बातचीत से अलग, अपने ही किसी रहःसंलाप में व्यस्त, तल्लीन...

ठीक बारह बजे भुवन ने उठकर रेखा का माथा चूमा-फिर क्षण-भर उसकी आँखों में देखकर उसकी पलकें, गाल, कर्णमूल; फिर नासापुट, ओठ; फिर उसके कण्ठ-मूल को चूम कर धीरे से कहा, “गॉड ब्लेस यू” और धीरे-धीरे उसके कन्धे से अँगुलियों तक उसकी बाँह सहलाता हुआ चला गया।

सवेरे फिर मिलने की बात नहीं थी; पर जब तैयार हुआ तो एक ड्रेसिंग गाउन पहने और सिर पर शाल लपेटे, मधुर उनींदी आँखोंवाली रेखा दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गयी। भुवन ने उसे अन्दर खींच कर किवाड़ उढ़का दिये। और कहा, “तुम क्यों उठी रेखा? तुम्हारे उठने की तो बात नहीं थी-”

“तुम चुपके से चोर की तरह चले जाते?”

“नहीं, वह तो नहीं सोचा था-मैं आता और मिल जाता। अब तुम खड़ी रहोगी और मैं जाऊँगा तो-अधिक चुभेगा...।”

“नहीं भुवन, ठीक है; टेक ए गुड लुक एट मी ह्वेन यू गो*-मैं भी देखूँगी-”

(*जाते हुए एक बार मुझे अच्छी तरह देख लो।)

भुवन ने कुछ सहम कर कहा, “मैं हफ़्ते-भर में वापस आ रहा हूँ, रेखा।”

“जानती हूँ। विदा को थियेटर नहीं बना रही, भुवन! लेकिन सब विदाएँ अन्तिम होती हैं-चरम कोटि का जोखिम...।”

“मैं छोटा था, तब एक डरावना स्वप्न देखा करता था। दोनों हाथों को अलग करता हूँ, फिर ताली बजाने लगता हूँ तो न जाने क्यों, हाथ टकराते ही नहीं, एक-दूसरे से छूते नहीं, न मालूम कैसे एक-दूसरे के पार निकल जाते हैं। और स्वप्न देखकर न जाने क्यों डर लगा करता था, हालाँकि है हँसी की बात, डरने की नहीं।”

“हाँ। जब भी सम्पर्क टूटता है तो फिर कभी होगा कि नहीं, नहीं कहा जा सकता। आशा ही होती है।”

“पर सम्पर्क तो नहीं टूटता, अलग होना और बात है, सम्पर्क-”

“वह तो दूसरे स्तर की बात है भुवन; उस पर मैंने तुम्हें विदा कब किया है? उस पर 'तू ही है, मैं नहीं हूँ'-हमारा प्रत्येक क्षण हमारे सारे अनुभव का पुंज है उस स्तर पर...”

ताँगा आ गया था। भुवन ने रेखा के दोनों हाथ अपने हाथों में लिए, फिर सहसा मुड़कर बाहर चला गया। रेखा बरामदे में आकर खड़ी रही; ताँगा चला तो दोनों एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कराते रहे जब तक कि चेहरे ओझल न हो गये...

× × ×

सातवें दिन ही भुवन लौट आया। उसने सोचा था कि शाम तक वह पहुँचेगा, पर पहुँचा देर रात को। बारिश हो रही थी और नदी बहुत चढ़ आयी थी। दोपहर को उसने तार दे दिया था : 'शाम को पहुँच रहा हूँ' पर रात को बँगले पर पहुँच कर उसे बाहर से ही न जाने क्यों लगा मानो अब उसके पहुँचने की बात न थी-क्या तार नहीं पहुँचा?

वह ताँगे से उतरा तो सलामा आ गया। सलाम करके बोला, “मेम सा'ब की तबीयत ठीक नहीं है-”

“कहाँ हैं-कमरे में जा सकते हैं?” कहकर भुवन उत्तर की प्रतीक्षा न करके रेखा के कमरे की ओर बढ़ गया, धीरे-से दस्तक देकर क्षण-भर बाद किवाड़ खोलकर भीतर चला गया।

नीचे टेबल लैम्प का प्रकाश कम था, क्षण-भर वह ठिठक रहा। फिर सहसा उसके मुँह से निकला, “रेखा।”

रेखा पलंग पर सीधी लेटी थी, चेहरा बिल्कुल पीला, निश्चल, माथे पर बल लेकिन वे भी निश्चल, मानो देर से दर्द सहते-सहते जड़ हो गये हों...भुवन ने छादन उठाकर प्रकाश कुछ बढ़ा दिया, रेखा ने ज़रा भी हिले बिना क्षीण स्वर में पूछा, “कौन है?” और भुवन का स्वर सुनकर वैसे ही निश्चेष्ट भाव से कहा, “तुम आ गये भुवन...क्यों आ गये तुम!”

भुवन सन्न रह गया। जल्दी से रेखा के पास घुटने टेक कर उसके माथे पर हाथ रखकर बोला, “क्या हुआ रेखा?”

रेखा कुछ नहीं बोली। उसका शरीर काँपने लगा, पहले थोड़ा-थोड़ा, फिर जोर से; ओठों की रेखा खिंच कर पतली हो आयी; बन्द आँखों की कोरों से आँसू झरने लगे, टप, टप, टप-टप...

भुवन भी जड़ बैठा रहा, न हिल-डुल सका, न बोल सका।

कई मिनट बाद उसे ध्यान आया कि वह भीगा हुआ है, वह उठकर अपने कमरे में कपड़े बदलने चला गया। जल्दी से सामान ठीक-ठाक कर, कपड़े बदल कर फिर रेखा के पास कुरसी खींच कर बैठ गया। उसकी दर्द से सिकुड़ी भौहों को देखता; फिर मानो साहस जुटा कर धीरे-धीरे उन सलवटों को सहलाने लगा।

उससे भौंहें कुछ सीधी हो गयीं, जैसे दर्द की खींच कुछ कम हुई। भुवन ने फिर पूछा, “रेखा, क्या हुआ है, क्या तकलीफ़ है?”

रेखा के आसूँ फिर टप-टप ढरने लगे-अब की बार शरीर को कँपाते हुए नहीं, यों ही, मानो अवश शरीर से स्वयं झर रहे हों। भुवन-बार-बार उन्हें पोंछने लगा।

थोड़ी देर बाद रेखा के ओठ हिले। वह कुछ कह रही थी। भुवन आगे झुक गया। रेखा ने आँखें खोल कर उसे देखा, फिर आँखें बन्द करते हुए कहा, “भुवन, मेरे भुवन, मुझे माफ़ कर दो-”

भुवन ने और भी व्याकुल होकर पूछा, “बात क्या है, रेखा?”

सहसा उसकी ओर करवट फेरकर रेखा बिलख-बिलख कर रो उठी।

भुवन सुन्न बैठ रहा।

दरवाज़े पर दस्तक हुई।

भुवन उठकर गया, सलामा था। बोला, “खाना तैयार है हजूर।” भुवन कहने को था कि नहीं खाऊँगा, पर रुक गया और बोला, “अच्छा, हम अभी आते हैं।”

द्वार बन्द कर के फिर वह रेखा के पास लौट आया। धीरे-धीरे रेखा शान्त होने लगी। थोड़ी देर बाद वह कोहनी के सहारे उठ बैठी, फिर पलंग से पैर नीचे लटका कर उसने स्लीपर टटोले और खड़ी हो गयी; ड्रेसिंग रूम की ओर जाने लगी। उसकी अटपटी चाल देख कर भुवन सहारा देने लगा, पर उसने सिर हिला दिया।

दो-तीन मिनट बाद वह मुँह-हाथ धोकर लौटी। चेहरा बिलकुल पीला, लेकिन स्निग्ध; सलवटें हट गयी थीं। चाल वैसी ही निर्बल, मगर संकल्प-शक्ति के सहारे सीधी। पलंग पर बैठ कर उसने पैर ऊपर समेट लिए, क्षण-भर आँखें बन्द की मानो इस आने-जाने के श्रम से टूट गयी हो, फिर सहसा उसके चेहरे पर ऐसी दिव्य मुस्कान खिल आयी कि भुवन विमूढ़ देखता ही रह गया-इतना दुर्बल पीला चेहरा, इतनी दुर्बल, वेदना-जर्जर देह, अभी पहले की वह अवश रुलाई, और-यह मुस्कान!

उसकी विमूढ़ता देखकर रेखा ने कहा, “पगले, ऐसे स्टेयर नहीं करते। इस मुस्कान का सम्मान मुस्कान से होता है-समझे?”

भुवन जैसे-तैसे मुस्करा दिया।

“मैं ठीक हूँ अब। तुम जाओ, खाना खाकर जल्दी से आ जाना मेरे पास”

“पर रेखा, तुम्हें-”

“जाओ न, खाना खा खाओ, अच्छे भुवन, राजा भुवन-त्रिभुवन के महाराज-'महाराज ए कि साजे एले मम हृदयपुर माँझे'-जाओ खाना खा आओ!”

भुवन वैसा ही विमुग्ध खड़ा हो गया। “अच्छा, अभी आया।”

उसने बाहर निकल कर किवाड़ बन्द किये कि रेखा एक हल्की-सी कराह के साथ मानो टूट कर पीछे गिरी, क्षण-भर के लिए अँधेरा हो गया; फिर उसने ओठ काट लिए और निश्चल पड़ी रही, दर्द के स्पन्दनों के साथ क्षण गिनती हुई...

× × ×

बाधा की सब सम्भावनाओं को काट कर भुवन फिर दबे-पाँव कमरे में आया-कपड़े बदल कर, गर्म चादर ओढ़ कर, पैरों में मोज़े पहन कर।

रेखा सो रही थी।

परली दीवार से सटी तिपाई पर दवा की दो-एक शीशियाँ रखी थीं। भुवन दबे-पाँव जाकर देखने लगा। दवाएँ पेटेंट थीं, डाक्टर की दी हुई भी हो सकती थी और स्वयं लायी हुई भी, ऐसी कोई दवा न थी जिस से कुछ पता लगे कि रेखा को तकलीफ़ क्या है। फिर उसने देखा, एक खाली डिब्बा पड़ा है जिसके अन्दर शीशी नहीं है। यह दर्द को दबाने और नींद लाने की दवा थी। शीशी क्या हुई? भुवन ने लौटकर रेखा के पलंग के पास की छोटी मेज़ देखी; ऊपर तो नहीं, पर एक तरफ़ के खाने में शीशी खुली रखी थी, गोलियों को ढँकने वाली रुई का गाला भी बाहर रखा था, उसके पास छोटे गिलास में ज़रा-सा पानी। तो रेखा ने दवा खायी होगी...भुवन फिर उसे देखता रहा; उसकी साँस नियमित चल रही थी-बल्कि कुछ भारी, थोड़ी खरखराहट के साथ जैसी दवा की नींद से उन लोगों में भी होती है जिनकी नींद का निश्वास-प्रश्वास साधारणतया बिलकुल अश्रव्य होता है...भुवन ने लैम्प का छादन झुकाया और धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गया।

अपने कमरे में जाकर वह टहलने लगा। रेखा सो रही है, इस ज्ञान से उसे कुछ तसल्ली थी; पर उसे हुआ क्या है? कमरे के चक्कर काटते-काटते उसे सहसा लगा, वह बन्दी है-इस कमरे का, इस बेपनाह बारिश का, और अपनी अज्ञता का...ऐसे ही जेल के कैदी अपनी बेबसी में चक्कर काटते होंगे कदम नाप-नाप कर-उसकी बेबसी बदतर है क्योंकि उस पर कोई बन्धन नहीं है, कोई उसे रोकता नहीं है...

थोड़ी देर बाद वह लेट गया और बारिश की टपाटप सुनने लगा। सोचना-अनुक्रमिक चिन्तन-उसने छोड़ दिया; जो विचार उठता, उठता, फिर स्वयं लीन हो जाता; फिर कोई सर्वथा असंगत दूसरा उठता और विलीन हो जाता-मानो बुलबुले, प्रत्येक गोलायित, सम्पूर्ण, अनन्य-सम्बद्ध, नश्वर...

न मालूम कितना समय ऐसे बीत गया। फिर बारिश की टपाटप की सम्मोहनी ने उसे भी तन्द्रालस कर दिया। वह भी न मालूम कितनी देर।

सहसा वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। क्या हुआ? क्या उसने कोई पुकार सुनी थी-कोई कराह? वह कान लगा कर सुनने लगा कि बारिश के शब्द के ऊपर कुछ सुन सके। पर नहीं...

उठकर उसने किवाड़ खोला और बरामदे से होकर रेखा के कमरे की खिड़की के पास गया। हाँ, थोड़ी देर बाद भीतर से स्पष्ट शब्द आया-निस्सन्देह कराह का स्वर। वह लपक कर भीतर गया।

रेखा कराह रही थी। पर वह कुछ अस्पष्ट कह भी रही थी : भुवन ने सुना : “जीवन...जान...प्राण...”

भुवन ने उसे सँभाला। उसने आँखों से ड्रेसिंग रूम की ओर इशारा किया; भुवन उसकी बाँह कन्धे पर डालकर सहारा देने से अधिक उसे उठाये हुए बाथ-रूम के दरवाज़े तक ले गया, एक हाथ से दरवाज़ा उसने खोला और पूछा, “जा सकोगी?”

रेखा ने सिर हिला दिया, बाँह छुड़ा कर किवाड़ के सहारे खड़ी हुई और भीतर जाने लगी। जाते-जाते ड्रेसिंग की अलमारी की ओर उसने इशारा किया : “रुई”

भुवन ने वहाँ से डाक्टरी रुई का बण्डल निकाल कर दे दिया। रेखा ने किवाड़ बन्द कर दिया, भुवन खड़ा रहा।

रेखा लौटी तो किवाड़ के सहारे भी नहीं खड़ी हो पा रही थी। भुवन ने सँभाल लिया और ले जाकर पलंग पर लिटा दिया।

थोड़ी देर रेखा मूर्च्छित-सी रही, फिर उसने आँखें खोली और कहा, “मेरे जीवन...” और फिर ओठ काट लिए, दर्द से उठ बैठी। फिर उसने पहले की भाँति इशारा किया; भुवन अब की बार उसे सीधे उठा कर ही ले गया; एक हाथ से कुरसी खींच कर बाथ-रूम के दरवाज़े के आगे रख दी, और रेखा को बिठा दिया। रेखा अन्दर गयी, लड़खड़ाती लौटकर कुरसी पर बैठी, वहाँ से भुवन फिर उठाकर पलंग पर ले गया। लेटकर फिर वह अस्पष्ट पुकारने लगी-”जान, प्राण-” लेकिन भुवन उसके ऊपर झुका है इसका उसे होश नहीं था, और उसके शब्द भी मानो शब्द नहीं थे, केवल कराह को छिपाने का एक तरीका।

भुवन एकाएक उठकर ड्रेंसिंग-रूम में गया, कुरसी उठाकर बाथ-रूम में रखने चला, पर एक कदम अन्दर रखकर ठिठक गया।

कटार की कौंध-से तीखे क्षण में वह सब समझ गया। और एक उन्मत्त फुर्ती से वह काम करने लगा।

रेखा के पलंग के पास एक कुरसी उसने रखी, उस पर एक चिलमिची, तिपाई पर से सामान उठाकर उस पर पानी का भरा जग, रुई और साबुन-तौलिया, दूसरे जग में पानी भर कर आग के पास गर्म होने के लिए रख दिया, स्टोव पर केतली में भी; फिर बाथ-रूम में जाकर उसने चिलमिची खाली की, उसे धोकर पलंग के पास फ़र्श पर रख दिया। रेखा इतनी देर अर्द्ध-मूर्च्छित थी, अब फिर सचेत हुई और उठने का यत्न करने लगी; भुवन ने कहा, “रेखा, मैंने सामान यहीं रख दिया है-मैं बाहर जाता हूँ-”

रेखा ने किसी तरह अपने सारे बल को समेट कर कहा, “मुझे माफ़ कर दो, प्राण मेरे-” और एक दुर्बल हाथ उसकी ओर को बढ़ाया। भुवन ने उसे पकड़ते हुए कहा, “रेखा, यह हुआ क्या-तुम डाक्टर के पास नहीं गयी थी-”

“गयी थी-गयी थी मैं-” रेखा का उत्तर मानो एक चीख थी, “तभी तो-भुवन मुझे माफ़-”

“क्या?” आश्चर्य के थप्पड़ से भुवन का स्वर खुरदरा हो आया था; उसे फिर संयत करके किसी तरह उसने कहा, “क्या, रेखा-तुम ने-”

रेखा ने सिर हिलाया। साथ ही कहा, “तुम-जरा बाहर जाओ भुवन-”

वह जल्दी से जाने लगा तो रेखा ने कहा, “मेज पर दो चिट्ठियाँ हैं, ले जाओ-” बाहर निकल कर उसने देखा, एक चिट्ठी अपरिचित अक्षरों में, दूसरी परिचित-चन्द्रमाधव की; अपरिचित हाथ की चिट्ठी उलट कर उसने हस्ताक्षर देखे-हेमेन्द्र। चिट्ठियाँ उसने पूरी नहीं पढ़ी, यद्यपि छोटी थी, जल्दी से नजर उन पर दौड़ा गया; फिर भी जो-जो पद या पदांश उसने पढ़ा वह नोक-सा धँसता चला गया। वह जल्दी से कमरे की ओर लौटा, रेखा फिर कराह रही थी-चिट्ठयाँ जैसे-तैसे ज़ेब में ठूँस कर वह अन्दर चला गया। चिलमिची ले जाकर धो कर उसने फिर स्थान पर रख दी।

रेखा ने कहा, “तुम्हें कितना सता रही हूँ-मैं बहुत लज्जित हूँ भुवन-”

“किस डाक्टर के पास गयी थी तुम?”

भुवन के स्वर में अविश्वास था; रेखा ने कहा, “झूठ नहीं बोलती, भुवन, अच्छे डाक्टर के पास गयी थी-सर्जन के-”

“अच्छा डाक्टर! यह अच्छे डाक्टर के काम हैं?” भुवन की वाणी में अवश रोष उभर आया।

रेखा ने कहा, “भुवन, तुम अभी मुझे छोड़कर चले जाओगे तो मुझे शिकायत नहीं होगी। जाओ, मैं कहती हूँ-गाड ब्लेस यू, प्राण।”

भुवन चुप हो गया। रेखा थक कर लेट गयी, थोड़ी देर बाद फिर उठी और भुवन कमरे से बाहर चला गया।

फिर लौटा तो रेखा का चेहरा सफेद हो रहा था। थोड़ी देर बाद रेखा ने आँखें खोलीं तो भुवन बोला, “मैं डाक्टर बुलाकर लाता हूँ-ऐसे नहीं-”

रेखा ने सहसा चीख कर कहा, “नहीं भुवन, तुम मेरे पास से नहीं जाओगे।” फिर कुछ संयत होकर “या-जाते हो तो-अच्छा।”

वह फिर मूर्च्छित-सी हो गयी।

थोड़ी देर बाद फिर जागी, उसकी मुद्रा देखकर भुवन बाहर जाने लगा, पर किवाड़ पर न जाने क्यों रुक गया। मुड़कर देखा तो रेखा फिर पीछे गिर गयी थी। वह लौट आया। “नहीं सकती, भुवन-और नहीं सकती-”

भुवन थोड़ी देर सकुचाया खड़ा रहा। फिर उसने लैम्प और परे की ओर मोड़ दी, रुई का बड़ा-सा टुकड़ा लेकर तह जमायी, और रेखा की ओर झुक गया। रेखा ने हाथ रुई की ओर बढ़ाया। पर वह निर्जीव-सा रह गया, रुई को ठीक से पकड़ भी नहीं सका-

हाथ धोकर भुवन फिर लौटा तो उसे लगा, रेखा अभी फिर उठना चाहेगी। उसने घड़ी देखी; रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। ऐसे तो रात नहीं कट सकती। वह...वह सहसा निश्चित कदमों से बाहर निकल गया। क्वार्टर तक जाकर उसने सलामा को बुलाया, अपने कमरे में लाकर एक चिट्ठी लिखकर दी, और उसे कहा, “मेम साहब की हालत नाजुक है-दौड़े हुए मिशन जाओ और उनको बोलना कि एम्बुलेंस गाड़ी लेकर आएँ-डाक्टर भी साथ में, फौरन-जाओ, शाबाश-”

सलामा गया। भुवन फिर रेखा के कमरे में लौटा।

रेखा ने वह इशारा करना भी छोड़ दिया। वह अर्द्ध-चेतन अवस्था ही स्थायी हो गयी। भुवन ही थोड़ी देर बाद उठता, एक पट्टी उठाकर दूसरी लगा देता, हाथ धोकर फिर आ जाता...

रेखा का कराहना भी बन्द हो गया था। कभी वह हल्का-सा 'हूँ-हूँ' करती, नहीं तो मौन : एक अजब डरावना सन्नाटा छा गया था। भुवन वर्षा का स्वर सुन रहा था। बीच-बीच में कभी अचानक कुछ गिरने का 'धप्' का स्वर सुनाई देता था-पहले वह समझ न सका कि यह क्या है, फिर सहसा जान गया : पके फल...रात के सन्नाटे में फल का यह चू पड़ना हैबतनाक था-मानो एक द्रुत कारणहीन मृत्यु आकर किसी को ग्रस ले...

अगर सलामा असफल रहा, अगर रात को डाक्टरों ने उसकी न सुनी-वह स्वयं जाता तो और बात थी-अगर अस्पताल में एम्बुलेंस न हुई-उसने लिख तो दिया था, डाक्टर तो आएगा पर अगर पैदल आना हुआ तो-ओह रेखा, यह तुम ने क्या किया-

वह फिर उठा। बाथ-रूम की ओर जाते हुए उसने अपने हाथों की ओर देखा-सहसा ऐसा सिकुड़ गया मानो आसन्न वार के आगे कोई सिकुड़ जाये : सर्जन-हुँह, हत्यारा! सर्जन-सर्जन-बीनकार सर्जन...हत्यारा कौन? हत्यारा वह है, वह स्वयं-पर रेखा, रेखा, यह तुम ने किया क्या-क्यों...

हाथ धोकर वह फिर लौट आया।

रेखा ने आँखें खोल दीं। स्थिर भाव से, मानो दर्द उसे नहीं है। भुवन अचम्भे में देखने लगा, तो वह बोली, “अब दर्द नहीं है, भुवन। मैं सुन्न हो गयी हूँ। तुम चले नहीं गये, भुवन, थैंक यू।”

उसका स्वर बहुत धीमा और दुर्बल था, पर टूटा नहीं, स्पष्ट। भुवन के मन के निचले किसी स्तर में प्रश्न उठा-क्या यह अन्त तो नहीं है। दिये की आख़िरी दीप्ति? पर इस से वह मानो और केन्द्रित हो आया रेखा की बातों पर, अस्पष्ट कही बात भी मानो किसी अपर इन्द्रिय से स्पष्ट सुनने लगा।

“तुम मेरे लिए यह भी करोगे नहीं सोचा था। मैं तुम्हें केवल एक्स्टेसी देना चाहती थी। यह नहीं...यह गलीज़ काम-मेरे भुवन...।”

भुवन ने घने उलाहने स्वर में कहा, “मुझसे पूछ ही लिया होता, रेखा? मैं तुम्हें कह गया था कि-”

“भूली नहीं, भुवन! पर-तुम्हें-उसे-लज्जा नहीं देना चाहती थी; तुम्हारा सिर झुके, यह नहीं चाहती थी-किसी के आगे नहीं, और उस-उस राक्षस के आगे...”

हेमेन्द्र की चिट्ठी के फ़िकरे उसकी स्मृति के आगे दौड़ गये। क्या इसी से? हेमेन्द्र तो स्वयं मुक्ति चाहता है-हाँ, ऐसे भी मिल सकती शायद-और बदला भी-काहे का बदला, वह नहीं जानता...

भुवन ने तौलिया उठाकर पट्टी फिर बदली।

“भुवन-एक बात पूछूँ-न चाहो तो उत्तर न देना, क्या तुम-मुझे-घृणा-मुझे अब भी प्यार कर सकते हो?”

“अब-ज्यादा, रेखा; जितना कभी नहीं किया उतना-”

रेखा ने आँखें बन्द कर लीं। मुस्कराना चाहा। ओठ खुले और ज़रा-सा खिंच कर रह गये। भुवन ने देखा, ओठ भी सफेद हैं-बल्कि धूमिल; ज़रा-सा गीलापन लिए; और रेखा ने फिर आँखें खोली तो उसने लक्ष्य किया, कोये भी पीले हैं-पीले और मैले, और पुतलियाँ कान्तिहीन यद्यपि बढ़ी हुई...वह प्रार्थना करता हुआ झुका, “ईश्वर, रेखा इस स्पर्श को अनुभव कर सके-शरीर से भी, मन से भी-ईश्वर, यह एक सन्देश उसकी चेतना तक पहुँच जाये-” और रेखा का नम माथा उसने चूमा, फिर ओठों से ही उसकी पलकें बन्द करते हुए पलकें।

रेखा निश्चल हो गयी। भुवन ने घड़ी फिर देखी। एक। अब तक तो एम्बुलेंस आ जानी चाहिए थी अगर अस्पताल में होती-क्या होगा?

भुवन ने रेखा पर झुककर कहा, “अब तुम मुझे माफ़ कर दो, रेखा; अब जो मेरी बुद्धि में समाता है करूँगा।”

उसने बहुत-सी रुई लेकर पट्टी लगायी, नया तौलिया लेकर कमर पर लपेट दिया, फिर कम्बल अच्छी तरह उढ़ाकर रेखा को करवट घुमाकर नीचे भी दबा दिया। बाहर से एक बरसाती लाकर रेखा के बगल में बिछायी, उसे उठाकर बरसाती पर लिटाया और बरसाती को लपेट दिया। कमरे और बरामदे के किवाड़ खोल दिये; अपने कमरे में जाकर उन्ही कपड़ों पर ओवरकोट पहना। दूसरी बरसाती सिर पर ओढ़ी और भीतर आकर रेखा के नीचे दोनों बाँहें ऐसे डाली कि उसकी ओढ़ी हुई बरसाती रेखा के सिर और पैरों पर आ जाय। फिर उसने रेखा को उठा लिया और बाहर चल पड़ा। ऐसे उठाये कितनी दूर जा सकेगा, उसने नहीं सोचा। कन्धे पर उठाकर जरूर अस्पताल तक के तीन मील जा सकता, पर उससे शायद रक्त-स्राव अधिक हो इसलिए गोदी में ही उठाना ठीक था।

अगर एम्बुलेंस आयी? तो हर्ज नहीं, रास्ते में मिलेगी ही। और अगर नहीं आयी? तो ऐसे भी वह तीन बजे तक अस्पताल पहुँच ही जाएगा...

वह तो पहुँच जाएगा, पर रेखा भी पहुँचेगी कि नहीं...

पौने दो...वह बड़ी सड़क पर आ गया था, कुछ आगे भी चल सका था। एक बार एक पेड़ के नीचे उसने तीन-चार मिनट रेखा को लिटा कर बाँहें सीधी की थी। बाकी चलता रहा था। हाँ, तीन नहीं तो सवा तीन तक वह अवश्य अस्पताल पहुँच सकेगा...

तभी दूर पर रोशनी दीखी-मोटर की ही है-फिर मोटर की घर्र-घर्र सुनायी पड़ी-क्या एम्बुलेंस है? न भी हो तो क्या? भुवन ने रुककर, सड़क के किनारे की ढाल पर एक पैर टेक कर रेखा का भार एक घुटने और बाँह पर लिया, दूसरी बाँह मुक्त कर ली कि हिलाकर गाड़ी रोकेगा।

× × ×

एम्बुलेंस ही थी। उसके पास आकर रुक गयी, सेवक कूद कर उतरा; भुवन ने चाहा कि रेखा को उठाकर स्ट्रेचर पर लिटा दे, पर बाँहें उठी नहीं। सेवक ने खींचकर स्ट्रेचर निकाला और हाथ देकर रेखा को लिटा दिया, ऊपर से डाक्टर ने स्ट्रेचर को अन्दर खींचा, सेवक सवार होकर भुवन को भी खींचने लगा तो डाक्टर ने कहा, “आप आगे-मरीज़ को देखना होगा।” आगे से सलामा उतर रहा था, भुवन ने उसे सवेरे ही अस्पताल पहुँचने को कहा और सवार हो गया। गाड़ी मुड़ने लगी तो डाक्टर ने भीतर से आवाज़ दी, “ठहरो अभी-इंजेक्शन लगा लें!” इंज़न बन्द हो गया।

फिर वही टपाटप-अब और भी जोर से क्योंकि बूँदें एम्बुलेंस की लकड़ी और कैनवस की छत पर पड़ रही थीं। भुवन के कान गाड़ी के भीतर से आने वाले शब्दों पर लगे थे, पर शब्द बहुत कम थे, और जो थे उनसे कुछ नहीं जाना जा सकता था कि क्या हो रहा है।

एकाएक भुवन को लगा कि रेखा कराही है। भीतर से डाक्टर का स्वर आया, 'विल यू कम ओवर, प्लीज़?”

भुवन उतर कर पीछे गया। पहले कपड़े हटाकर रेखा को अस्पताल के चार कम्बल ओढ़ा दिये गये थे, वह सचेत थी और धीरे-धीरे कुछ कह रही थी। “भुवन...जान...भुवन...” भुवन ने पास झुककर कहा, “मैं हूँ, रेखा, अब कोई चिन्ता नहीं-”

रेखा ने कहा, “कहाँ-”

“एम्बुलेंस में-अभी अस्पताल पहुँच जाएँगे-”

उसने आँखें बन्द कर ली, पर कुछ गुनगुनाती रही। भुवन ने और पास झुककर सुना : “क्लान्ति-आमार-क्लान्ति-”

वह समझ गया। रेखा ने उसके जाने से पहले जो कापी उसे दी थी, उसमें कहीं यह गीत लिखा था :

क्लान्ति आमार क्षमा करो हे प्रभु

   पथे यदि पिछिये -पिछिये पड़ि कभु।

(- रवीन्द्रनाथ ठाकुर)


भुवन ने एक बार डाक्टर की ओर देखा, फिर उतर गया। डाक्टर ने कहा, “मैं भी सामने आता हूँ।” पीछे नर्स और सेवक रह गये। इंज़न स्टार्ट हुआ, गाड़ी घूमी और चल पड़ी। डाक्टर ने कहा, “रक्त रोकने के लिए इंजेक्शन दिया है-”

भुवन ने पूछा, “ख़तरा है?”

“हाँ। बहुत टाइम लूज़ हुआ। लेकिन-आई थिंक शी विल पुल थ्रू। अभी आपरेट करना होगा। शायद ब्लड ट्रांसफ्यूज़न भी-”

भुवन ने कहना चाहा, “मेरा रक्त अगर ठीक हो तो दे सकता हूँ,” पर न जाने कैसी झिझक ने उसे रोक दिया-ऐसी बातें उपन्यासों में होती हैं-पर डाक्टर ने कहा, “ब्लड प्लाज्मा है अस्पताल में-फॉर्चुनेटली।”

फिर अस्पताल में रुकने तक कोई नहीं बोला। उतरते ही डाक्टर ने कहा, “नर्स टॉमस, आरपरेशन-रूम तैयार कराओ। डाक्टर रेबर्न को ख़बर करो। इम्मीजिएट आपरेशन।”

स्ट्रेचर उतार कर अन्दर ले जाया गया। भुवन को खोया-सा खड़ा देखकर डाक्टर ने कहा, “आप घर जाएँगे या-” फिर सहसा याद करके कि वह कैसे आ रहा था, “आप आ कर वेटिंग-रूम में बैठिए-आइ विल ट्राइ एण्ड सेंड यू सम टी। आइ एम सारी देयर्स नथिंग एल्स आइ कैन।”

भुवन ने कहा, “नौ थैंक यू, डाक्टर, बट आइ'म मोस्ट ग्रेटफूल-फ़र्स्ट थिंग्स फ़र्स्ट।”

डाक्टर ने स्वीकृति-सूचक सिर हिलाया और फुर्ती से भीतर चला गया।

भुवन ने घड़ी देखी। ढाई। उसने कुरसी पर बैठते हुए तक लम्बी साँस ली। अगर उसका बचाया हुआ यह आधा-पौन घंटा...विचार उसने वहीं छोड़ दिया। सहसा कहा, “अब भी, रेखा, अब और ज्यादा-जितना कभी नहीं किया।”

मानो जवाब में रेखा के अन्तिम शब्द उसके मन में गूँज गये, और उसे जान कर अचम्भा हुआ कि कापी का गीत उसे याद है; वह गुनगुनाने लगा :

क्लान्ति आमार क्षमा करो , क्षमा करो प्रभु...

× × ×

वह थक गया था। लेकिन थकान उसकी पेशियों में नहीं थी, एक जड़ता उसके मन पर छा गयी थी। कारण बँगले से रेखा को उठाकर आने का श्रम नहीं था, कारण यह था कि बहुत-कुछ समझ चुकने पर भी इस विलायती गोरख-धन्धे के अलग-अलग टुकड़े जुड़ नहीं रहे थे, पूरा चित्राकार नहीं बन रहा था।

वेटिंग-रूम ठण्डा था। निश्चल बैठे रहने से ठण्ड उसके पैर के पंजों से चढ़ती हुई सारे शरीर में छा गयी थी, वह धीरे-धीरे ठिठुर रहा था।

रेखा की कापी से उड़ते हुए वाक्य सामने आते और विलीन हो जाते, फिर दूसरे आते और वे भी विलीन हो जाते, वेदना और अभिप्राय का एक अवदान उसे देकर : लेकिन ये ही वाक्य कभी दुबारा आ जाते तो नयी वेदना लेकर, और शायद कुछ नया अर्थ भी लेकर...

एक तन्द्रा उस पर छा गयी। अगर उसके पैर गीले, ठिठुरे हुए न होते तो वह ऊँघ जाता; यों वह एक तन्द्रिल अवस्था में बैठा था।

हठात् एक निश्चलता के बोध ने उसे जगाया। बारिश थम गयी थी। उसने खड़े होकर अँगड़ाई ली। स्निग्ध अलसाये शरीर की अँगड़ाई सुखद और स्फूर्तिदायक होती है पर ठिठुरे शरीर की अँगड़ाई मानो और भी जड़ बना देती है। वह बाहर के मण्डप में गया : बादलों की चादर अब भी समान रूप से आकाश में फैली थी, पर अब उनमें एक फीकापन था-भोर होने वाला है...भुवन ने फिर घड़ी देखी-छः बजने को थे। वह फिर वेटिंग-रूम की ओर मुड़ा।

प्रवेश कर के वह बैठने ही लगा था कि भीतर की ओर से एक नर्स निकली। उसने कुछ अचम्भे से पूछा, “आप कैसे?” फिर सहसा समझ कर कहा, “वह एमर्जेन्सी केस-”

भुवन ने कहा, “हाँ, हाउ इज़ शी?”

“आपरेशन तो ठीक हो गया। सो गयी हैं। मैं और पूछ आऊँ?” भुवन ने निहोरे से कहा, “प्लीज़-”

नर्स चली गयी। थोड़ी देर बाद डाक्टर भी साथ आ गया। डाक्टर बोला, “शी इज़ आल राइट नाउ। थैंक गाड। लेकिन-मिनटों की बात थी-शी इज ए वेरी ब्रेव वुमन...” सहसा रुककर उसने पूछा, “लेकिन-हाउ डिड इट हैपन-कोई चोट-ओट-”

भुवन क्या कहे? संक्षिप्त हाँ कह देने से तो नहीं चलेगा; और चोट के बारे में इतनी जल्दी कहानी भी वह नहीं गढ़ सकेगा! बोला, “आई डोंट नो-इट हैपंड सडनली-”

डाक्टर ने सिर हिलाया। ऐसा भी होता है...फिर पूछा, “आप उनके-”

भुवन ने कहा, “नहीं-ओनली ए-रिलेशन।” फिर परिचय देना उचित समझकर बोला, “भुवन इज़ माई नेम-डाक्टर भुवन।”

डाक्टर ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “माइन'ज़ पिनकॉट।” हाथ मिलाते हुए पूछा, “मेडिकल?”

भुवन ने कहा, “नो फ़िज़िक्स। कास्मिक रेज़ एण्ड थिंग्स।”

डाक्टर ने कहा, “मिल कर ख़ुशी हुई-पर अब मुझे जाना चाहिए। मस्ट गेट सम स्लीप-”

“थैंक यू, डाक्टर-”

सहसा कुछ याद करके डाक्टर ने कहा, “आपरेशन के बाद होश आते ही-शी आस्क्ड़ फ़ार यू। लेकिन-” कन्धे सिकोड़ कर उसने यह आशय व्यक्त किया कि भेंट तो, आप समझ सकते हैं, असम्भव थी। फिर कहा, “आप शाम को आइये-आई थिंक शी विल बी एबल टु सी यू।”

डाक्टर चला गया। भुवन चलने लगा, तो नर्स उसकी ओर देखकर मुस्करा दी। मुस्कराहट औपचारिक थी, पर उसने मुस्करा कर उसे स्वीकार किया, कहा,

“गुड मार्निंग-” और बाहर निकल आया। सड़क पर जगह-जगह पानी पड़ा था, लेकिन वह तेज़ चलने लगा। नदी की ओर-नदी बहुत चढ़ आयी थी और यद्यपि लोग उठे नहीं थे, वह मानो वहीं से उनके सहमे हुए भाव देख सकता था...उदास, मलिन, गन्दा, बदबूदार श्रीनगर, गँदली मैला ढोने वाली नदी, उदास मैला आकाश, जैसे म्रियमाण आबादी पर पहले से छाया हुआ कफ़न-भुवन ने ऊपर बायें को देखा, शंकराचार्य की पहाड़ी भी उतनी ही उदास, केवल उस धुँधले, तोते के पिंजरे जैसे मन्दिर के ऊपर की बत्ती टिमटिमा रही थी भोर के तारे की तरह धैर्यपूर्वक...

उसकी चाल और तेज़ हो गयी। डाक्टर का कहा हुआ वाक्य उसकी स्मृति में गूँज गया-”शी इज़ ए वेरी ब्रेव वुमन।” एक स्निग्धता उसके भीतर फैल गयी, उसने निःशब्द भाव से भीतर ही भीतर कहा, “रेखा...”

ताँगा लेकर वह वापस पहुँचा तो सलामा दौड़ा हुआ आया। “मेम साहेब”

भुवन ने कहा, “ठीक है, सलामा : अब कोई फ़िक्र नहीं है।

“बहुत तकलीफ़ हो गया-”

“हाँ, सलामा। ख़ुदा ने रहमत की-”

भीतर जाकर वह कपड़े बदलने लगा। सलामा ने आकर आग जलाने का उपक्रम किया। सहसा ज़ेब में कागज़ की खड़खड़ाहट से भुवन को याद आया-वे चिट्ठियाँ। उन्हें निकाल कर वह रेखा के कमरे में रखने चला। जहाँ से उठायी थीं, वहीं रखने लगा तो देखा, वहाँ रेखा के हाथ के लिखे और भी दो-एक कागज़ हैं। थोड़ी देर वह झिझका, फिर उसने मान लिया कि वे भी उसी के लिए हैं, और खड़ा-खड़ा पढ़ने लगा।

“नहीं जानती कि क्या कहूँ-मेरी सब इन्द्रियाँ जड़ हो गयी हैं। कहना चाहती हूँ बहुत, लिखना नहीं; पर कह सकूँगी नहीं, वह मुझी में रह जाएगा-जैसे कितना कुछ अनभिव्यक्त रह जाएगा!”

“तुम जब आओगे, तब क्या मेरी आँखों में नहीं पढ़ सकोगे कि मेरा यह आहत, चिथड़े-चिथड़े हो गया जीवन क्या कहना चाहता है?”

“मैं मानती हूँ कि अगर प्यार यह भी परीक्षा नहीं सह सकता तो वह प्यार नाम का पात्र नहीं है। मैं-मैंने तुम्हारे साथ आकाश छुआ है, उसका व्यास नापा है : उस सेटिंग में यह छोटी-सी बात लगती है-फिर लगता है कि हमें जोड़ने वाल सूक्ष्म सजीव तन्तु ही काट दिये जा रहे हैं...क्या हम टूटकर अलग हो जाएँगे? टूटकर नहीं, बहकर सही, अनजाने बहते रहकर इतनी दूर भी तो हट जा सकते हैं कि एक-दूसरे को छोड़ दें-मुक्त कर दें...मैं नहीं जानती क्या होगा-जो हो, अब हो...वही है तो वही हो-जिस सौन्दर्य को लिए हम पास आये थे, उसी को लिए दूर हट जायें-अगर हम और निकट आयें तो विधि को धन्यवाद दें, और अपनी आत्मा के सामर्थ्य भर ऊँचे उठें-सुन्दर के आकाश में। इतना छोटा-सा है मानव-जीवन...”

“काश कि मैं कह सकती-एक ही बात जो कहना चाहती हूँ वही कह सकती, पर सिर्फ़ आँसू ही कह सकते हैं। मैं टूट गयी हूँ, भुवन, मेरे जीवन, जैसी पहले कभी नहीं टूटी थी। लेकिन इतना कह दूँ-मुझे किसी बात का पछतावा नहीं है, और इससे भी दस-गुनी बुरी तरह टूट जाऊँ तब भी तुम्हारे साथ के एक क्षण को, हमारी साझी अनुभूति के एक स्पन्दन को भी छोड़ देने को मैं राज़ी नहीं हूँ...मेरे महाराज, यह याद रखना, और मुझे क्षमा कर देना...”

“लेकिन प्यार क्या है? तुम सचमुच प्यार करते हो, करते थे? यह दर्द क्यों है-किसलिए है? जो कुछ हुआ है, हो रहा है, क्यों-किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए?”

“जो अब तक है, सुन्दर हो और हमारे व्यक्तित्वों का प्रस्फुटन हो : एक तुम्हारे और एक मेरे व्यक्तित्व का नहीं, तुम्हारे अनेक व्यक्तित्वों का, मेरे भी अनेक व्यक्तित्वों का सम्मिलन और विकसन-केवल मेरे उस एक पहलू का नहीं, जिसे मैं तुम्हें नहीं छूने दूँगी-जिससे मैं तुम्हें असम्पृक्त रखूँगी भुवन, तुम्हीं को नहीं, उस अपने को भी जिसे तुमने प्यार किया है-अगर तुम ने किया है; जिसने तुम्हें प्यार किया है जैसा और किसी को नहीं-प्राणी, वस्तु, विचार, भावना, किसी को नहीं...”

“शिथिल मत होना, महाराज; आत्मा का शैथिल्य ही प्यार की पराजय है, हम दोनों को बराबर सतर्क, सजग रहना है-क्योंकि हम दोनों ऐसे आत्म-निर्भर स्वतः-सम्पूर्ण हैं कि सहज ही बहकर, सिमटकर अलग हो जा सकते हैं-अपनी-अपनी सीपियों में बन्द, अन्तरंग अनुभूति के छोटे-छोटे द्वीप-और इस प्रकार बरसों जीते रह सकते हैं, मौन, शान्त, लेकिन एकाकी...”

“मैं सोचती हूँ और अवाक् रह जाती हूँ : मेरे साथ यह कैसे घटित हुआ-मेरे, जिस में सब वासना, सब आकांक्षा मर गयी थी-जो स्त्री होना भी नहीं चाहती थी, माँ होना तो दूर...

ह्वेन आइ एम डेड , माई डीयरेस्ट

   सिंग नो सैड सांग्स फार मी -

(प्रियतम , मेरे मरने पर मेरे लिए कोई शोकगीत मत गाना -क्रिस्टिना रोजे॓टी)

यह तुम ने पढ़ी है? मुझे पूरी याद नहीं है, पर तुम्हें होगी-”

“मैं नहीं जानती कि यह भूल है या ठीक, भुवन, कर्म को जज करना मैंने छोड़ दिया है, क्योंकि जब जज करने बैठती हूँ, तो मानना पड़ता है कि न्याय करने वाला विधाता ही गलतियाँ करता है! अब-इतना ही मानती हूँ कि भीतर से जो प्रेरणा है-अगर उसके साथ ही पाप का, अपराध का बोध नहीं जुड़ा हुआ है तो-वही ठीक है, वही नैतिक है। यह नैतिकता अधूरी हो सकती है-पर इसलिए कि उसे देने वाला व्यक्तित्व अधूरा है। उस व्यक्तित्व की तो वह सर्वोच्च रचना है-उसी की कल्याण-कामी, कल्याण-प्रद सम्भावनाओं की सर्व-श्रेष्ठ अभिव्यक्ति...”

“भुवन, बड़ा कष्ट है भुवन...यहाँ सब-कुछ बदल गया है-कमरे में अँधेरा है-कैसा गाढ़ा द्रव अँधेरा जिसमें मैं हाथ-पैर मारती हूँ...फिर कभी हवा इतनी हलकी हो जाती है कि मैं हाँफने लगती हूँ, साँस लेती हूँ, पर हवा नहीं मिलती-ऊपर लगता है मृत्यु मँडराती है, उसके पंखों की फड़फड़ाहट सुन पड़ती है-मुझे माफ़ कर दो, भुवन, मुझे...”

“जो सुन्दर है, निरन्तर विकास करता है, रुक नहीं सकता : दूसरों को आनन्द देता है। तो क्या-मैं भूल करती आयी हूँ, क्या मैं बहते पानी को बाँधना चाहती आयी हूँ, क्या मैंने दूसरों के लिए दुःख ही की सृष्टि की है? अगर ऐसा है तो उसका भरपूर दण्ड मुझे मिले-विधि से, और तुम से भी, भुवन! लेकिन मुझसे कुछ कहता है कि नहीं, अपने लिए मैंने जो किया हो-और, हाँ, तुम्हारे लिए भी, मेरे दुःख के साथी और सहभोक्ता, सहस्रष्टा-दूसरों के लिए मैंने दुःख नहीं बोया, भुवन-कह दो कि नहीं बोया और ये सब झूठ बोलते हैं-ये खुद असुन्दर को लेकर मुझे भी उसकी सड़ाँध में पचा देना चाहते हैं! पर नहीं, मैं नहीं छूने दूँगी उन्हें कुछ जो मूल्यवान् है-इसी में मैं मर जाऊँ तो वह मेरा 'ऐक्ट आफ़ फ़ेथ'* हो-अभी जो हो भुवन, मैं धारे बैठी हूँ कि यह दर्द भी आगे आनन्द देगा क्योंकि वह विश्वास के साथ अपनाया गया है, मैं अपने को समर्पित करके उसे ले रही हूँ...”

(* धर्म-परीक्षा)

“तुम अब जब मुझे देखोगे, पहचानोगे? अपनाओगे?”

“नहीं तुम चले जाना भुवन, मुझे अकेली छोड़कर चले जाना। जीवन के सारे महत्त्वपूर्ण निर्णय व्यक्ति अकेले में करता है, सारे दर्द अकेले में भोगता है-और तो और, प्यार के चरम आत्म-समर्पण का सबसे बड़ा दर्द भी...मिलने में जो विरह का परम रस होता है-तुम जानते हो उसे? समर्पण के धधकते क्षण में जब ज्ञान चीत्कार कर उठता है कि हम अलग ही हैं, देना सम्पूर्ण नहीं हुआ, कि मिटने में भी मैं-मैं हूँ, तू-तू है, मैं तू नहीं हूँ और हमारी माँग बाकी है...इतना अभिन्न मिलन क्या हो सकता है कि माँग बाकी न रहे? सारी सृष्टि में रमा हुआ ईश्वर भी तो अकेला है, अपनी सर्व-व्याप्ति में अकेला, अपनी अद्वितीयता में अयुत, विरही...

“इसलिए तुम, भुवन, चले जाना। मैं शिकायत नहीं करूँगी, मन में भी नहीं। मान लूँगी कि मेरा व्रत पूरा हुआ-कि मैंने तुम्हें वही दिया जो देय था, स्वच्छ था और उससे बचा लिया जिससे तुम्हें रखना चाहती थी...”

“ठीकरे ने स्वप्न देखा, वह सोने का अमृत-पात्र है। स्वप्न था, अन्ततः चुक गया। जाग कर उसने जाना कि वह केवल ठीकरा है। कहने लगा, “मैं देवता के अमृत-पात्र का ठीकरा हूँ।” पर इसलिए क्या वह कम ठीकरा है? या कि अधिक-क्योंकि वह बृहत्तर सम्भावनाओं का ठीकरा है?”

“अनाथ, लावारिस धूल...”

“तुम्हीं में मेरी आशा है, तुम्हीं में मेरे सकल द्वन्द्वों का शमन।”

“वेदों की विवाह की ऋचाएँ हैं-सुन्दर जानो तो सुन्दर, अश्लील मानो तो अश्लील। मुझे याद आता है-'अस्थि से अस्थियाँ, मज्जा से मज्जा, त्वचा से त्वचा को युक्त करता हूँ...' ठीक कहती हैं वे, हमने आँखों से आँखों को वरा था, ओठ से ओठ को, वक्ष से वक्ष को, प्राण से प्राण को; प्यार से प्यार को, और हाँ, वासना से वासना को...

“और यह एक मैला नाखून, एक पार से दूसरे पार तक उस संयुति को फाड़ता हुआ चला जा रहा है...

“और मैं नहीं जानती कि उत्तरदायी मैं नहीं हूँ...

“मुझे कभी भी माफ़ करोगे, भुवन?”

“नहीं सहा जाता, भुवन! इसलिए नहीं कि कष्ट बहुत है, इसलिए कि मैं ऐसी लड़ाई लड़ते थक गयी हूँ जो व्यर्थ है, और जो अनिवार्यतः व्यर्थता ही में समाप्त हो सकती है...मान ही लो कि हम रह सकते-घर होता, संयुक्त जीवन होता, वह सर्जन-बीनकार भी आता-फिर क्या? मान लो कि मैं दस वर्ष बाद मरती हूँ-क्या

उससे अच्छा नहीं है कि अभी मर जाऊँ? या कि दस वर्ष बाद हम उदासीन, अलग हो जायें-उससे हज़ार गुना अच्छा है आज मर जाना!

“मैं विमूढ़ हो गयी हूँ! भुवन, मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या हुआ है और हो रहा है। ऐसी ही विमूढ़ सुन्न अवस्था में मेरे बरसों बीते हैं, इतना ही जानती हूँ कि तुम-इसीलिए और भी मर जाना चाहती हूँ, क्योंकि समझती हूँ, मेरी आकस्मिक अचिन्तित हरकतों से तुम्हें अपार क्लेश होगा। मुझ में डंक नहीं है, फिर भी चोट पहुँचाती हूँ-और तुम चुपचाप सह लेते हो-क्यों इतने चुपचाप सहते हो, भुवन; तुम्हारी चुप्पी तो मुझे और सालती है, मैं चाहती हूँ कि इसी क्षण धरती में समा जाऊँ...

“हजारों हैं, जिनमें प्यार मर जाता है लेकिन जो फिर भी जीते हैं, हँसते हैं...लेकिन यह मैं क्या लिख रही हूँ-क्या कह रही हूँ? यही कि मैं जीती हूँ भुवन, और तुम्हें प्यार करती हूँ : और सब भाव्य और सम्भाव्य अभी पड़े रहे जब तक मेरी शक्ति फिर लौट आये-”

× × ×

उस शाम को तो नहीं, अगली शाम को भुवन की रेखा से भेंट हुई। दोनों ही कुछ बोल नहीं सके, रेखा ने एक दुर्बल मुस्कान से उसका स्वागत कर दिया और पड़ी रही : भुवन पास बैठ गया और स्थिर दृष्टि से उसे देखता रहा। दोनों को लग रहा था कि जिस अनुभूति में से वे गुज़रे हैं, उसके बाद शब्दों में कुछ कहा नहीं जा सकता-शब्द मानो एक ख़तरनाक औज़ार हो गये हैं जिसकी चोट से जो कुछ बचा है वह सबका सब हरहरा कर गिर पड़ेगा-पहले ही उच्चारित शब्द पर सारा भविष्य टँगा हुआ है...

फिर रेखा ने एक साथ ही भँवें सिकोड़ते और मुस्कराते हुए पूछा, “भुवन-अब भी?”

और भुवन ने कहा, “हाँ, रेखा, ज्यादा-”

मानो हवा में तनाव कम हो गया। रेखा ने तकिया गले की ओर खींच कर जरा-सा ऊँचा कर लिया, भुवन खिड़की से बाहर का दृश्य देखता रहा।

“कैसी हो, रेखा?”

“ठीक हूँ। और तुम? क्या करते हो वहाँ?”

भुवन ने उत्तर नहीं दिया। “तुम्हारे लिए कुछ लाऊँ-किसी चीज़ की ज़रूरत”

“नहीं। अच्छा, दो-एक किताबें ले आना, और-एक छोटी कापी और पेंसिल”

भुवन मुस्करा दिया। “क्या कहना चाहती हो, रेखा?”

“जो कह नहीं पाती-”

“अब भी?”

रेखा ने भी मुस्करा कर कहा, “अब और भी ज़्यादा, भुवन!”

थोड़ी देर फिर दोनों चुप रहे। फिर रेखा ने कहा, “वहाँ मेरी कोई-चिट्ठियाँ आवें तो-तुम पढ़ लेना। जो ठीक समझो कर देना-चाहे उत्तर दे देना। और-चाहो तो-चिट्ठियाँ फाड़ कर फेंक देना।”

“तुम्हारी चिट्ठियाँ!”

“हाँ भुवन-मैं स्वयं तो कह रही हूँ! और ज़्यादा दिन तो यह बोझ तुम पर नहीं डालूँगी-यही पाँच-सात दिन। यहाँ कोई डाक मत लाना-अगर तुम ही ज़रूरी न समझो।”

भुवन ने विरोध करना चाहा कि यह बड़ा दायित्व है : फिर चुप रह गया-शायद ऐसी कोई चिट्ठी आये ही नहीं कि उसे सोचना पड़े...

दूसरे दिन वह रेखा की माँगी हुई चीज़ें और कुछ फूल लेकर पहुँचा। फूल सजाने लगा तो रेखा मुस्कराती देखती रही। फूलदान सजाकर वह उसे घुमा-फिरा कर रेखा की दृष्टि से ठीक कोण पर रखने लगा तो वह हँस पड़ी। “हाँ, तुम भी इसी एंगल पर खड़े रहो-तुम्हें भी देखती रहूँगी!”

लेकिन भुवन के आशावाद ने काम नहीं दिया : दो-तीन दिन बाद ही एक बड़े लिफ़ाफे में वकील की चिट्ठी आयी। हेमेन्द्र धर्म-परिवर्तन की दलील देकर तलाक़ की माँग कर रहा था, वकील ने राय दी थी कि रेखा भी दोस्ताना तौर पर मामला तय हो जाने दे, और अच्छा हो कि अपनी ओर से मामला किसी वकील को सौंप दे, दोनों वकील आपस में बात सुलझा कर ऐसा यत्न करेंगे कि सब काम स्मूथली हो जाये। “मेरे मवक्किल का कहना है कि आप भी तलाक़ चाहती हैं, और किसी तरह के साहाय्य से आपको कोई दिलचस्पी नहीं है-ऐसी सूरत में यही सबसे अच्छा होगा; यों आपको विशेष कुछ कहना हो तो मैं भरसक आपकी सुविधा प्राप्त करने की कोशिश करूँगा...अपने मवक्किल के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी तो निबाहूँगा ही, पर तलाक़ के मामले बहुत डेलिकेट होते हैं और उसमें सिर्फ़ पक्ष ले लेना उचित नहीं होता। कानून है, लेकिन जीते-जागते मानव प्राणी से बड़ा नहीं है...एक वकील के मुँह से ऐसी बात सुनकर आप को अचरज होगा; पर मेरे इस ग़ैर-रस्मी एप्रोच को आप गुस्ताख़ी न समझेंगी...”

शाम को भुवन ने और फूल, कुछ फल, बिस्कुट और रेखा के माँगे हुए दो-चार कपड़े आदि सब यथा-स्थान रखते हुए कहा, “रेखा, एक चिट्ठी है-”

रेखा बोली, “मैंने तो कहा था-किसकी है, हेमेन्द्र की?”

“नहीं। पर-”

“अच्छा, लाओ दे दो!”

भुवन से लेकर रेखा ने चिट्ठी आद्यन्त पढ़ ली। थोड़ी देर चुप रही, आँखें बन्द कर ली। एक आँसू कोर से ढरक गया। व्यथित स्वर से उसने कहा, “यह चिट्ठी-तो...वह चिट्ठी...” और वाक्य अधूरा छोड़ कर चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद सँभल कर उसने कहा, “मेरी ओर से पहुँच और धन्यवाद लिख दोगे-यह भी कि मैं वकील-” और सहसा रुक गयी। एक काली छाया चेहरे पर आ गयी। “नहीं भुवन-मुझसे गलती हुई-यह ज़िम्मेदारी तुम पर नहीं डालनी चाहिए थी। लाओ मुझे कागज़ दो-अच्छा रहने दो-मैं कल लिख रखूँगी, तुम शाम को पोस्ट कर देना।”

अगले दिन उसने भुवन को तीन चिट्ठियाँ दी। एक वकील के नाम, एक दूसरे वकील के नाम, एक कलकत्ते के किसी पते पर। देते हुए बोली : “यह कलकत्ते में मेरी एक मौसी हैं-यहाँ से उनके पास जाऊँगी।”

भुवन ने चौंक कर कहा “हूँ? क्यों? कब-”

“हाँ, भुवन। लगता है, अब जीवन फिर सिफ़र से शुरू करना होगा। माता-पिता तो लौट नहीं सकते-पर घर की भावना ही सही-”

थोड़ी देर मौन रहा।

“और तुम भी तो लौटोगे अब-”

“अभी तो मेरी छुट्टियाँ हैं...”

“तो पाँच-सात दिन तो अभी मैं भी यहाँ हूँ-”

“तब तक तो मौसम बहुत अच्छा हो जाएगा-और कलकत्ता तो इन दिनों”

“बेगर्स कांट बी चूज़र्स,* भुवन! और कलकत्ते नहीं, शहर से तो बाहर नदी पर रहूँगी-”

(* भिखारी की पसन्द का सवाल नहीं होता।)

“फिर भी-”

सहसा रेखा ने पूछा, “यहाँ बाढ़ का क्या हाल है?”

“उतर रही है। कीचड़ सूख रहा है-”

“यहाँ ऐसी धूप है कि सोच भी नहीं सकते बाढ़ की बात; जिस दिन आयी थी-जिस दिन तुम लाये थे उठाकर-” सहसा उसका गला भारी हो आया। “भुवन?” और उसने भुवन की ओर दोनों हाथ बढ़ा दिये। भुवन, फुर्ती से आगे बढ़ा, दोनों हाथों की उँगलियाँ उसने अपने हाथों में लीं और बारी-बारी से उठाकर ओठों से लगा ली। फिर वह उँगलियों को देखने लगा-ठण्डी, पीली, नाख़ून लगभग सफ़ेद और नीचे किंचित् नीलाभ-फिर उसने धीरे-धीरे हाथ रेखा की बग़ल में रखकर ढँक दिये।

रेखा के कहने से भुवन फिर मिसेज़ ग्रीव्ज़ से मिल आया था, और वह आकर रेखा को देख गयी थी। तब से रोज़ ही आती, प्रायः ही खाने का कुछ सामान लाती केक, मधु, जैम, चॉकलेट...रेखा अस्पताल छोड़कर घर जाएगी, इस सूचना से वह बहुत खिन्न थी-”मैंने तो सोचा था, और मुझे कभी ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।” वह प्रायः जल्दी ही आती, भुवन देर से आता; कभी उनकी भेंट हो जाती, कभी उसके जाने पर ही भुवन पहुँचता।

भुवन ने कुछ डरते-डरते पूछा, “रेखा, अब-यह तो बता दो कि तुमने किया क्या था-यह कैसे हुआ?”

रेखा थोड़ी देर चुप पड़ी रही। फिर उसने कहा, “मैं डाक्टर के पास गयी थी। फिर वापस आयी तो-वह चिट्ठी-” उसने फिर आँखें बन्द कर ली, थोड़ी देर बाद फिर कहने लगी, “उससे सब बदल गया। फिर एक दूसरे डाक्टर के पास गयी जो सर्जन भी था-उसे जो कहा सो तो अब छोड़ो, पर बहुत अनुनय पर वह मान गया। आपरेशन के लिए उसी के क्लिनिक में गयी थी।”

“तो-यह-कैसे-”

उसका प्रश्न समझ कर रेखा ने कहा, “उसने कहा था कि दो-एक दिन बाद हेमरेज होगा। पर ऐसा, यह अनुमान तो नहीं था-”

“वह है कौन सर्जन, रेखा?”

“वह अब जाने दो, भुवन! मैंने उसे बहुत पर्सुएड किया था-बल्कि धर्म-संकट में डाला था। और लापरवाही उसने नहीं की। यह मत कहना कि वह प्रोफेशन का कलंक है-मैं नहीं मानूँगी।”

भुवन चुप रह गया, केवल एक लम्बी साँस उसने ली। थोड़ी देर बाद उसने कहा, “लेकिन रेखा, वह चिट्ठी तो-”

रेखा ने एक हाथ उठाकर उसे चुप कर दिया। पीड़ित स्वर में बोली, “अब वह जो हो, भुवन; इट इज़ टू लेट-”

जिस दिन रेखा अस्पताल से छूटने को थी, उस दिन भुवन दोपहर को टैक्सी लेकर आ गया। डाक्टर-मेट्रन-नर्स को धन्यवाद देकर वह रेखा को लेने पहुँचा तो वह धूप में आराम-कुर्सी पर बैठी थी। भुवन ने हाथ बढ़ाते हुए पूछा, “चल सकोगी?”

“हाँ सकूँगी-पर फिर भी सहारा लूँगी-मे आइ?” भुवन की बाँह में उसने बाँह डाल दी और उस पर झुकती हुई चलने लगी।

भुवन ने उसे कार में बिठाया, फिर लौटकर सामान वग़ैरह लेकर रखा। बख़शीशें दीं, और आ गया। गाड़ी चल पड़ी। रेखा ने कहा, “कितनी सुन्दर है धूप-और रोशनी-मैं मानो फिर से दुनिया को विज़िट करने आ रही हूँ-”

अपनी ही बात पर वह उदास हो गयी। “वापस लेकिन कोई कहीं नहीं आता।”

“न सही वापस-वापस आना कोई चाहे क्यों? दुनिया अनवरत अपने को नया करती जाती है-वह नयापन-”

टैक्सी नीची सड़क पर नदी के पास गुज़र रही थी। बेत के वृक्षों के नीचे कीचड़ की पपड़ियाँ जमी थीं और सूखने से चटक गयी थीं, दरारों के कई पैटर्न उनमें बने हुए थे।

“यही है वह नयापन-देखो न, दुनिया को नया होते हुए! ठीक है...पर उसका तो सोचो, जो नदी की इस धुलाई में बह गया-नदी के वे द्वीप जो मिट्टी के ही सही, कितने सुन्दर थे, पर अब हो गये ये सूखती पपड़ियाँ!”

भुवन रेखा की ओर देखने लगा।

“हाँ, मैं जानती हूँ, तुम सोच रहे हो, व्यक्ति की भावनाओं-अनुभूतियों का आरोप प्रकृति पर करना बचपन है। मैं भी जानती हूँ। फिर भी भुवन-आख़िर में फिर से मिट्टी से ही तो शुरू कर रही हूँ। बाढ़ के बाद की सूखती पपड़ी से!”

भुवन धीरे-धीरे उसका हाथ थपथपाने लगा। बोला नहीं। गाड़ी बड़ी सड़क छोड़ कर बँगले की ओर चढ़ने लगी।

“लेकिन यह सेल्फ-पिटी नहीं है भुवन; मैं दीन नहीं हो रही। जो हमें मिला है, वह बहुमूल्य है-अब भी, बल्कि अब और ज्यादा-” और एक मधुर चितवन से उसने भुवन को देखा और मुस्करा दी।

गाड़ी फाटक के अन्दर मुड़ी। दूर से सेबों से लदी हुई शाखें दीखने लगीं।

रेखा ने कहा, “अब तो सेब पक गये होंगे।”

भुवन ने कहा, “हाँ।” फलों पर और पेड़ों के नीचे की हरियाली पर खेलती धूप अत्यन्त सुन्दर थी; उसे किसी कविता की एक पंक्ति याद आयी-'द एपल ट्री, द सिंगिंग, एण्ड द गोल्ड'...सुन्दर, व्यंजना-भरी पंक्ति है-गाल्सवर्दी ने इसी पंक्ति को लेकर एक कहानी लिखी है जो उसे कभी बहुत अच्छी लगी थी...'शरद्, धुन्ध और स्निग्ध सुफलता की ऋतु'-लेकिन सहसा उसे याद आयी रात में चुपचाप टपक पड़नेवाले पके फल की वह लोमहर्षक आवाज़, और एक अनिर्वचनीय गहरी उदासी उस पर छा गयी। पका फल चुपचाप टपक पड़ना-उसके बाद फिर? हाँ, है शरद् की धूप का सोना, पकती दूब का सोना, है वह गिरा हुआ फल भी, पर-क्या वह अन्त है?

× × ×

भुवन दिल्ली तक रेखा के साथ गया।

कलकत्ते की गाड़ी में बैठ कर रेखा प्लेटफ़ार्म पर खड़े भुवन को देखने लगी। क्षण-भर के लिए जैसे सिनेमा में होता है, एक चित्र घुलकर दूसरे में पलट गया : भुवन हाथ से कुछ मसल कर उसकी गोली ठोकर से उछाल रहा है-उसका प्लेटफ़ार्म टिकट; फिर पहला दृश्य लौट आया। न, अब वह भुवन से नहीं कहेगी; किसी अनुभव को दुबारा चाहना भूल है...और अभी वह वैसी यात्रा पर जा भी नहीं रही : वह चुपचाप पड़ी रहना चाहती है, और-भुवन को भी अकेला छोड़ देना चाहती है। उस अकेले चिन्तन में जो निकले, निकले। वह बुद्धिमती होती, तो भुवन को पास रखना चाहती, उसके पास रहना चाहती, उससे बराबर सम्पर्क रखती कि जानती रहे, उसके मन से क्या गुज़र रहा है, पर वह बुद्धिमती नहीं है, न होना चाहती है। उसे कुछ चाहिए नहीं, उसे कुछ सँभालना नहीं है-'हाउ टु होल्ड ए मैन'...

भुवन ने थोड़े फल लेकर उसके पास रख दिये। फिर भीतर आकर एक नज़र इधर-उधर डाली, फिर बिस्तर खोलकर कुछ बिछा दिया, कुछ लपेट कर ऊपर रख दिया। रेखा ने कहा, “यहीं बैठो न?”

भुवन कुछ झिझका। ज़नाना डिब्बा था, और भी दो-एक स्त्रियाँ बैठी थीं। उसने कहा, “नहीं, मैं खिड़की पर खड़ा होता हूँ-”

“टहलें-”

“नहीं रेखा, तुम बैठो। थक जाओगी-और अभी कितना सफ़र बाकी है।”

रेखा ने हाथ खिड़की पर रखा था : भुवन ने बाहर से उस पर अपना हाथ रख दिया। धीरे से पूछा, “ठीक हो न, रेखा?”

“हाँ, बिलकुल : तुम?”

“हाँ-”

थोड़ी देर बाद भुवन ने पूछा, “रास्ते भर क्या करोगी-कुछ पढ़ने को ले दूँ?”

“क्या? ये स्टेशनवाली किताबें-मैगज़ीन! न-इससे तो सोऊँगी।”

“तो मैं कुछ दूँ? कविता है-ब्राउनिंग-” फिर सहसा रुककर, “नहीं और एक चीज़ देता हूँ-मेरी एक कापी-”

रेखा ने खिलकर कहा, “तुम्हारी कापी, भुवन?”

भुवन जल्दी से बोला, “नहीं, वैसी नहीं; यह दूसरे ढंग की कापी है-एकदम भानमती का पिटारा। जो पढ़ता हूँ उसमें जो अच्छा लगता है लिख लेता हूँ-बरसों की पढ़ाई का मुरब्बा है।”

भुवन का सामान प्लेटफ़ार्म पर रखा था : खोलकर उसने कापी निकाली और रेखा को दे दी। रेखा ने सब पन्ने चुटकी में लेकर फड़फड़ा कर देखे, फिर सहसा कापी उलटती हुई बोली, “दोनों तरफ़ से लिखी हुई है?”

भुवन कुछ सकपकाता-सा बोला, “उधर कुछ नहीं है।”

स्त्री-स्वभाव से रेखा ने पहले 'कुछ नहीं' वाला पक्ष देखना शुरू किया।

“वह रहने दो, रेखा, अच्छा रेल में पढ़ती रहना-वह जो मेरे अपने दिमाग में आया लिखता रहा हूँ-”

“ओ-उधर मुरब्बा है, इधर रसायन है,” रेखा ने चिढ़ाया। “तो ठीक तो है-पहले रसायन का सेवन, फिर मुरब्बे का-”

“नॉटी वुमन!” कहकर भुवन हँसने लगा।

दूसरी तरफ़ भुवन की गाड़ी भी लग गयी। कुली ने कहा, “साहब, सामान रख लीजिए नहीं तो भीड़ हो जाएगी।”

“होने दो।” कहकर भुवन कुछ रुका, फिर उसने कहा, “अच्छा ले चलो।” फिर रेखा की ओर मुड़कर, “मैं अभी आया।” रेखा के हाथ को उसने थपथपा दिया।

चार-पाँच मिनट में वह लौट आया। रेखा अपनी कापी में कुछ लिख रही थी, थोड़ा मुस्करा रही थी। भुवन खिड़की पर खड़ा हुआ, तो लिखा हुआ परचा फाड़कर रेखा ने उसे दिया।

उसने पढ़ा, “यह जो पड़ोसिन बैठी है, मुझसे पूछ रही थी, ये आपके हज़बैंड हैं? मैंने कहा, हाँ। शादी को कितने बरस हुए हैं? मैंने कहा, सात। बोली, बड़ी भाग्यवती हैं आप! क्यों? कि सात बरस बाद भी आप के हज़बैंड आपको इतना प्यार करते हैं! भुवन, आकारों में हम क्यों इतना बँध जाते हैं कि आत्मा मर जाये?”

रेखा की ओर देखकर वह मुस्करा दिया।

थोड़ी देर बाद गाड़ी ने सीटी दी। भुवन ने कहा, “पहुँचते ही लिखना, रेखा! और नियम से लिखती रहना कि कैसी हो-जल्दी से ठीक हो जाओ!”

“लिखूँगी, भुवन! रेल ही में से नहीं लिखूँगी, यह कैसे जानते हो?” वह मुस्करा दी।

गाड़ी चल दी। भुवन ने उसके दूर हटती खिड़की पर रखे हाथ को दबाकर कहा, “गाड ब्लेस यू।”

रेखा के ओठों की गति से उसने समझ लिया, वह कह रही है, “एण्ड यू।”

गाड़ी दूर हट गयी। जब उसकी गति तेज हुई, तो रेखा के ओझल होते हुए आकार को एक-टक देखते भुवन को एक अजीब अनुभूति हुई; उसे लगा कि गाड़ी उसके सामने से दूर नहीं, उसे भेदती हुई चली जा रही है आर-पार, जहाँ से गुज़र रही है वहाँ एक बहुत बड़ा रिक्त छोड़ती हुई, उस रिक्त को एक असह्य गड़गड़ाहट और गर्म फुफकारती भाप से भरती हुई...

एकाएक उसने अपने हाथ की ओर देखा-उसमें एक कागज़ था। ओ-हाँ...”भुवन, हम क्यों आकारों से इतना बँध जाते हैं कि आत्मा मर जाये?”

दूसरे प्लेटफ़ार्म पर दूसरी गाड़ी है। उसमें भुवन का सामान है। वह उसमें सवार होगा, फिर वह भी चल देगी; उसे आर-पार भेदती हुई, एक बड़ा रिक्त बनाकर उसमें असह्य गड़गड़ाहट और गर्म भाप भरती हुई। और रेखा...

नदी के द्वीप (उपन्यास) : अन्तराल : भाग-2

रेखा द्वारा भुवन को :

वहाँ फूल थे, सुहानी शारदीया धूप थी, और तुम थे! और मेरा दर्द था! यहाँ गरम, उद्गन्ध, बौखलायी हुई हरियाली है, धूप से देह चुनचुना उठती है : और तुम नहीं हो। और दर्द की बजाय एक सूनापन है जिसे मैं शान्ति मान लेती हूँ...

नदी यहाँ भी है, किनारे बनी हुई पक्की रौंस पर दो-तीन सरुओं की ओट में-जो ऐसे बने-ठने रहते हैं कि नकली मालूम हों (और क्या यह समूचा बगीचा ही नकली नहीं है-नकली इटालियन बगीचे की नकल!)-मैं बैठकर दिन बिता देती हूँ। सामने दक्षिणेश्वर का मन्दिर दीखता है, और घास; उस पार और मेरी रौंस के बीच में गहरी लाल या कभी काली धारीदार सफ़ेद धोतियाँ पहने बंगालिनें आती हैं, नहाने, पानी भरने, कभी झगड़ने; उनके दुबले कमज़ोर शरीर ऐसे लचकते हुए चलते हैं कि जान पड़ता है उन्हें आधार के बिना चलने का अभ्यास नहीं है, मालंच पर पली हुई लता जैसे उससे गिरकर डोल भी नहीं सकती, वैसे ही-और सोचती हूँ कि सारा कलकत्ता ऐसी मालंचविहीन लताओं से भरा पड़ा है-क्यों ऐसा है कि जो केवल एक सामाजिक स्तर पर हमें स्वाभाविक लगता या लग सकता है, वह वहाँ पर ऊपर से नीचे तक सर्वत्र लक्ष्य होता है?

मैं क्या लिख रही हूँ, इससे तुम समझ लो कि ठीक हूँ, ठीक बल्कि बहुत अधिक शुश्रूषा पा रही हूँ, और सोच करने का अवसर मुझे बिलकुल नहीं मिलता है। यों बैठी रहती हूँ, और बादलों की तरह विचार तिरते हुए आते और चले जाते हैं; पर जिसे सोचना कहते हैं, वह नहीं हो पाता; कभी विचार की छाया भी चेहरे पर पड़ जाये तो मौसी 'बच्ची' को लेकर इतना 'फ़स' करती है कि बच्ची घबरा जाती है, और कान छू लेती है कि फिर कभी नहीं सोचेगी...

यों, बच्चों की तरह जीती हूँ! कितना आसान होता है वयस्क परिपक्व मनोवृत्तियों से फिसल कर बच्चों के दृष्टिकोण अपना लेना! लोग जब बूढ़े होते हैं, तो ऐसे ही अनजाने फ़िसल कर बच्चों की मानसिक प्रवृत्तियाँ अख्तियार कर लेते हैं, उन्हें पता भी नहीं लगता कि कब दूसरे बचपन में प्रवेश कर गये। क्या मैं भी बूढ़ी हो रही हूँ?

लेकिन मैं ठीक हो जाऊँगी-जागूँगी-भुवन, तुम कैसे हो? पत्र जल्दी लिखना...

रे.

रेखा द्वारा भुवन को :

भुवन मेरे,

क्यों नहीं तुम पत्र लिखते? इतने दिन बाट देखते हो गये, और अब नदी को देखना और अच्छा नहीं लगता, न अब मन बच्चों की तरह मुकुर बना बैठा रहता है। मेरे विचार उमड़ते हैं, तुम तक जाते हैं, तुम्हारी ओर से कोई संकेत नहीं मिलता तो एक भयानक उदासी मन पर छा जाती है, जिससे लगता है कि कभी उबर नहीं सकूँगी। कोई इशारा, कोई संकेत तो दो, भुवन-यों क्यों मुझे छोड़ दिया है तुम ने?

तुम्हारी ही

रेखा

रेखा द्वारा भुवन को :

भुवन, मैं क्या समझूँ? तुम क्यों नहीं लिखते? क्या तुमने मुझे छोड़ दिया, भुवन? उस दिन तुमने कहा था, “अब भी-अब और ज़्यादा”-क्या वह उसी दिन तक था? ऐसा है भुवन, तो ऐसा ही लिख दो-जो भी है स्पष्ट लिख दो! मैं सब सह लूँगी। मैं सह ही नहीं, समझ भी लूँगी : वैसा ही है, तो शिकायत नहीं करूँगी; फिर भी कृतज्ञ रहूँगी...कुछ तो लिखो, मेरे भुवन!

रेखा द्वारा भुवन को :

भुवन,

तो 'इस तरह अन्त होता है सब-कुछ, धड़ाके के साथ नहीं, रिरियाहट के साथ!' क्या हो गया है, भुवन? कार्य-व्यस्त तुम हो सकते हो? पर क्या मुझे एक पंक्ति लिखने की फ़ुरसत भी तुम नहीं निकाल सकते? मैं नहीं मानती...या कि क्या तुम अस्वस्थ हो? सोचती हूँ, तुम्हारे प्रिंसिपल को तार देकर तुम्हारा पता पूछूँ, पर उसमें भी संकोच होता है। क्या करूँ?

कभी सोचती हूँ, हर वक़्त इस तरह तुम्हारा ध्यान नहीं करती रहूँगी...इसीलिए इधर कुछ काम भी शुरू किया है!...पर अगर सारा दिन भी अपने को उलझाये रखूँ, तो रात को जब सोने जाती हूँ-और फिर नींद में-मैं बिलकुल बेबस हो जाती हूँ, और तुम्हारी सुधि न जाने कहाँ-कहाँ खींच ले जाती है...कभी सवेरे सपना देख कर उठती हूँ, तो फिर वह दिन भर छाया रहता है, मुझसे कोई काम नहीं होता, नशे-से मैं बाहर आकर बैठ जाती हूँ, और नदी को देखती रहती हूँ, पर नदी भी नदी नहीं रहती, उसका प्रवाह मेरा तुम्हारी ओर प्रवाह बन जाता है...

भुवन, क्या मेरी सुध नहीं लोगे?

रेखा

रेखा द्वारा भुवन को :

मेरे भुवन,

आज मैं अकेली सैर के लिए गयी थी नदी के साथ-साथ! बादल घने होकर झुक आये थे, लग रहा था कि बारिश अब हुई, अब हुई; पर उनके नीचे छोटे-छोटे टुकड़े अलग भटक रहे थे और उनको सूर्य का प्रकाश एक नारंगी सुनहला रंग दे रहा था। भटकते हुए मुझ पर वही गहरी उदासी छा गयी और मैं तुम्हारे लिए छटपटा उठी; यों तो तुम्हारी इस उपेक्षा में सदैव उदास रहती हूँ और छटपटाती रहती हूँ...फिर मन में विचार उठा, तुम्हारे मौन से मुझे जो इतना कष्ट होता है, मैं जो तुम्हारे इस व्यवहार से मर्माहत हो रही हूँ उसका कारण यही है कि जो मुझे मिल चुका है उसी को और पाना चाहती हूँ। और यह लालच कितना अनुचित है...मैं क्यों उदास होऊँ? मान ही लो कि तुम उदासीन हो रहे हो, कि तुम मुझसे दूर चले जाओगे, तो भी विषाद क्यों-अवसाद क्यों! जो कुछ भी मैं चाह सकती, वह मैंने तुम्हारे साथ में पाया है-प्यार भी, वासना भी, दोनों का चरम सुन्दर रूप-तब और लालच क्यों? तुम्हारा मौन मुझे खलता है क्योंकि मैं अधिकाधिक माँगती हूँ और वह सम्भव नहीं है, वह उचित भी नहीं है, अतीत को कोई भविष्य नहीं बना सकता...

इसलिए भुवन, मैं पिछले पत्रों में कुछ उलटा-सीधा लिख गयी होऊँ तो मुझे माफ़ कर देना। तुम्हारे मौन पर क्लेश मुझे हुआ है, होता है; मेरा स्नायु-तन्त्र ऐसा जर्जर हो गया है कि ज़रा-सी बात से झनझना उठता है और मैं झल्ला उठती हूँ-पर इस समय मैं शान्त हूँ, और मैं अपनी आकुलता के लिए क्षमा माँगती हूँ। तुम मुक्त हो भुवन, बिलकुल मुक्त, मैं चाहती हूँ कि सर्वदा सगर्व कहती रह सकूँ कि तुम मुक्त हो मेरे भुवन, मुझे भूल जाने के लिए उतने ही मुक्त जितने मुझे प्यार करने के लिए थे और हो...तो भुवन, मेरे प्रिय, मेरे क्लेश की परवाह न करो, अगर चिट्ठी लिखने का मन नहीं है तो मत लिखना; या जब वैसा जानोगे तो मुझे एक पंक्ति लिखकर सूचित कर देना कि तुम्हारी भावनाएँ बदल गयी हैं। सह लूँगी...

इधर तीन-चार दिन से मैं सोचती रही हूँ कि क्या हमारा भविष्य एक हो सकता है-क्या उसकी कोई सम्भावना है? क्या हम फिर कभी मिलेंगे?...मैंने बहुत ठण्डे दिल से सोचा है, भुवन; और अब कभी यह भी सोचती हूँ कि क्या मुझे जैसे-तैसे वापस हेमेन्द्र के पास ही नहीं चला जाना चाहिए अगर वह राजी हो? मैं भीतर मर गयी हूँ, भुवन; तुमसे कटकर फिर मैं कहीं भी बह जा सकती हूँ-किसी भी बुरे से बुरे नर-पशु के साथ भी रह सकती हूँ...एक तुम्हीं ने मेरी जड़ित आत्मा को जगाया था-था!-और उसके बाद उसके फिर जड़ हो जाने पर मैं पहले से बदतर मृत्यु में सहज ही जा सकती हूँ। इसीलिए सोचती हूँ, क्या वही न ठीक होगा : टूटी हुई रीढ़ वाली इस देह के लिए एक सहारा-एक छत-आत्मा की बात तो अब कौन करे!

यह बात मैं कैसे लिख गयी-मैं-यह नहीं जानती। पर यह आत्मा की जड़ता की ही एक निशानी है, भुवन! आशा करती हूँ कि यह अधिक नहीं रहेगी-यह आहत पक्षी फिर वैसे ही उड़ सके यह तो असम्भव है, पर-वह अभी नहीं, वह कभी नहीं...

मेरी सब शुभाशंसाएँ तुम्हारे साथ हैं, भुवन!

तुम्हारी

रेखा

रेखा द्वारा भुवन को :

एक ज़माना था जब मैं स्त्रियों को ऐसे समय का हिसाब रखते देखकर हँसती कि अमुक घटना 'अमुक बेटे या बेटी के जन्म से तीन मास पहले' हुई थी, या कि 'जब अमुक एक वर्ष का था' या 'जिस साल अमुक की लड़की की शादी हुई...और आज मैं स्वयं हिसाब लगा रही हूँ, तुमसे पहली भेंट से दस महीने बाद, तुलियन से आठ महीने बाद, और तुम्हें अन्तिम बार देखा तब से चार महीने...कैसे मानव अपने सारे जगत् को अपने छोटे-से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के आस-पास जमा लेता है, और विराट् का समूचा सत्य उस निजी छोटे-से सत्य का सापेक्ष्य हो जाता है! लेकिन वह निजी छोटा सत्य छोटा क्यों है? विराट् असीम को दिखाने वाली मेरी खिड़की-वह लाख छोटी हो, एक तो मेरी है, दूसरे मेरे लिए विराट् को बाँधे हुए है, विराट् का चौखटा है...सोचते-सोचते यह ध्यान आता है, यह झरोखे से देखना गलत है, यह अपने को विराट् से अलग रखकर देखना है, उसे बाहर मान लेना; मुझे चाहिए कि उसमें लय हो जाऊँ...घर से बाहर निकलूँ, अपनी अनुभूति के पिंजरे से बाहर निकलूँ और विराट् के प्रति अपने को सौंप दूँ, उसी की हो जाऊँ-उसको झरोखे से न देखकर स्वयं उसका झरोखा हो जाऊँ...पर क्या यह भी निरा शब्द-जाल नहीं है, घूम-फिर कर अपने तक लौट आना नहीं है?

तुम्हें देखे हुए चार महीने-तुमसे बिछुड़े हुए चार महीने-तुम्हारी ओर से कोई पत्र, सूचना, संकेत पाये हुए चार महीने...विश्वास नहीं होता। लेकिन फिर सोचती हूँ, शायद अवचेतन मन में मैंने इसे स्वीकार ही कर लिया है, तभी तो मैं काल-गणना इस ढंग से करने लगी हूँ। क्योंकि हम केवल निजी के सहारे नहीं देखते, उस निजी को अपेक्षा में देखते हैं जो हमारे जीवन में महत्त्व का था लेकिन जो था, यानी अब नहीं है, यानी जिसका बीत जाना, बीत गया होना हमने स्वीकार कर लिया है...”जिस साल मेरा ब्याह हुआ', इस गणना का कारण एक तो वह सुख है जिसे प्रकारान्तर से याद किया जा रहा है; दूसरा यह है कि वह सुख आज दूर चला गया है क्योंकि अगर आज भी निकट और सजीव होता तो उसकी बात हम न कर सकते...

भुवन, तुम्हें एक ख़बर देनी है, तीन सुनाइयों के बाद अदालत ने फैसला दे दिया है : हमारा विवाह रद्द हो गया है; हेमेन्द्र तो अफ्रीका चला ही गया है और अब मैं भी मुक्त हूँ। मुक्त-किससे मुक्त-किसलिए मुक्त? मुक्त स्मृतियों को सेने के लिए, मरने के लिए-मुक्त अतीत के बन्धन में जकड़ी रहने के लिए...तलाक़ का विधान अच्छा नहीं है यह कौन कह सकता है, पर कितने अपर्याप्त हैं मानवीय विधान प्रकृति की समस्याओं के सामने-बल्कि मानव की ही समस्याओं के सामने...यों तो शायद यह विच्छेद अभी वैकल्पिक है; पक्का होने के लिए छः मास का अन्तराल होता है न? पर वह तो कम-से-कम इस मामले में कोरी फ़ार्मेलिटी है। आज न सही, पाँच-एक महीने बाद सही...रद्द तो वह हो ही गया। लेकिन क्या रद्द हो गया? वह दर्द? वह ग्लानि, वह आत्मावसाद, वे मर्माघात-क्या वे रद्द हो सकते हैं? कानून मान ले कि उसने मुक्ति दे दी है, कि एक अन्याय का निराकरण कर दिया है...

अब आगे, भुवन? मेरा जी नहीं लगता, और अब कलकत्ते नहीं रहूँगी। सोचा है कि मौसी को साथ लेकर तीर्थ-यात्रा को निकल जाऊँ। तुम शायद हँसो, क्योंकि तीर्थयात्रा के लिए जो श्रद्धा चाहिए वह तुमने मुझमें न देखी होगी; मौसी भी तितीषु हों, तीर्थों के भरोसे नहीं हैं। फिर भी, एक तो घूमने में, निरन्तर दृश्य-परिवर्तन में कुछ शान्ति मिलेगी; दूसरे अपनी श्रद्धा न हो तो श्रद्धावानों की श्रद्धा देखकर ही कुछ सान्त्वना मिलती है या मिल सकती है...दो-तीन दिन में ही हम लोग चल देंगे : पुरी से आरम्भ करके क्रमशः दक्षिण जहाँ तक जाना हो सके। यह फरवरी है, सोचती हूँ कि गर्मियाँ उधर कट जाएँगी और बरसात लगते इधर लौट आएँगे।

तुम पत्र तो लिखोगे नहीं, फिर भी कह दूँ कि पता यही काम देगा, यहाँ से चिट्ठियाँ जहाँ भी हम होंगे चली जाया करेंगी।

अच्छा, भुवन विदा दो। चाहती हूँ, झुककर एक बार तुम्हारे चरणों की धूल ले लूँ।

सदैव तुम्हारी

रेखा

चन्द्रमाधव द्वारा भुवन को :

माई डियर भुवन,

तुम्हें चिट्ठी लिखे, तुमसे चिट्ठी पाये या तुम्हारे बारे में भी कोई चिट्ठी पाये बहुत दिन हो गये। लेकिन जानता हूँ, तुम उन लोगों में से नहीं हो जो सम्पर्क छूट जाने पर खो जाते हैं, या जिनका कुछ अनिष्ट हो जाता है...जिस बोतल में कार्क का बड़ा-सा डाट लगा हो, वह पानी के भीतर छिपी रहकर भी डाट के सहारे डूबती-उतराती रहती है, डूब नहीं जाती। उसी तरह तुम्हारी जाति के लोग होते हैं-स्पिरिट के एक लचकीलेपन का डाट बाहर के बोझ को सँभाले और भीतर के खोखल को छिपाये रहता है और तुम लोग तिर जाते हो, जबकि मुझ जैसे डूब जाते हैं...मैं जानता था कि मैं हलका सफ़र करनेवालों में हूँ; बाहर का बोझ मुझ पर नहीं है, पर मैं पुरानी लकड़ी की तरह उतराता हूँ और पानी धीरे-धीरे मुझमें बस जाता है; लकड़ी सड़ जाती है और भारी हो कर डूब जाती है।

तुम कहोगे, यह चन्द्र को क्या हुआ कि ऐसा दर्शन बघारने लगा-और वह भी पराजय का दर्शन! न, पराजय का दर्शन वह नहीं है, थोड़ा आत्मावसाद है, ठीक है; पर चन्द्र हारनेवाला नहीं; मैं अब समझ रहा हूँ कि यह दृष्टान्तों के सहारे जीवन को समझना चाहना ही गलत है, ऊपरी साम्य भीतर के वैषम्य को ओझल कर देता है। लकड़ी गीली होकर डूबती है, ठीक है, पर वह क्या मैं हूँ? न, मेरी समझ में आ गया कि वह भी एक साँचा है, केवल क्लास-भावनाओं का एक पुंज; मैं नहीं सड़ता, केवल एक भद्रवर्गीय खोल सड़ गया है-सड़ जाने दो, सड़कर वह झर जाएगा और मुक्त मैं बाहर निकल आऊँगा! फिर मैं ही उस गली लकड़ी को पैरों से ठुकराऊँगा, उसे स्वयं अपनी ठोकर से अतल गर्त में डूबा दूँगा! मुझे उसका मोह नहीं है-मुझे किसी चीज़ का मोह नहीं है।

अवसाद का कारण रहा। लखनऊ मैं अकेला नहीं रहता रहा। बीवी-बच्चे आये थे, साथ रहते थे। वह अपने जीवन के साथ समझौता करने की मेरी आख़िरी कोशिश थी। कामयाबी नहीं हुई और अब जानता हूँ कि कोशिश ही गलत थी क्योंकि यह जीवन ही मेरा जीवन नहीं है। मैं क्यों इस बुर्जुआ ढाँचे के साथ समझौता करना चाहूँ, क्यों उन मान्यताओं से अपना जीवन बाँधने को राज़ी होऊँ जिन मान्यताओं को पैदा करनेवाले समाज को ही मैं नहीं मानता? उन सब को मैंने घर भेज दिया है। मैं भी लखनऊ छोड़कर बम्बई जा रहा हूँ दो-तीन विदेशी एजेंसियों का प्रतिनिधि बनकर। यहाँ से सम्बन्ध तो रहेगा पर ऐसा नियमित नहीं; संवाद भेजा करूँगा। बम्बई में ज़िन्दगी है-तेज़ बहती हुई आज़ाद ज़िन्दगी; वहाँ काम भी कर सकूँगा, और इस मनहूस ढाँचे को तोड़ गिराने में भी योग दे सकूँगा-उस नयी दुनिया को बनाने में, जिसमें मुझ जैसे मेहनतकशों का राज होगा, दूसरों के राज के निरीह साधन हम न बनेंगे...क्या इस बात को तुम समझोगे? तुम अपने विज्ञान को लेकर ही डूबे हो-लेकिन मैं कहता हूँ, यह विज्ञान ही तुम्हें लेकर डूबेगा : क्योंकि विज्ञान भी वर्ग-स्वार्थों का गुलाम है-तुम सत्य का शोध नहीं कर रहे, सत्य कुछ है ही नहीं, वह केवल एक वर्ग के उपयोगी ज्ञान का नाम है, दूसरे वर्ग का विज्ञान भी दूसरा होगा क्योंकि उसकी उपयोगिताएँ दूसरी होंगी। यह तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारा सारा विज्ञान किस काम का है, किसके काम का है, किस के काम आएगा?

जाने दो। ये सब बातें केवल तुम्हें थोड़ा प्रोवोक करने को लिख गया कि तुम जवाब जल्दी दो। असल में पत्र तुम्हें खुशख़बरी देने को लिख रहा हूँ। अभी मालूम हुआ कि रेखा देवी का डाइवोर्स हो गया है-जज ने फैसला दे दिया है। हेमेन्द्र यहाँ आया हुआ था, वह अफ़्रीका गया-वह तो अपनी मलय मेम से शादी करेगा ही; पर रेखा जी भी अब आज़ाद हैं। औरत के लिए आज़ादी सिर्फ एक ख़तरा है, इसलिए-रेखा जी में तुम्हारी दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए-तुम्हें दोस्ताना सलाह दे रहा हूँ कि अभी उपयुक्त समय है उनकी सेवा का। डिग्री पक्की तो छः महीने बाद होगी, पूरी आज़ादी तो तभी होगी, पर तब तक बैठे रहना तो हिमाकत है। जो मौसम में फूल चाहता है, वह वक़्त पर क्यारी तैयार करता है न! तुम मेरे पुराने दोस्त हो, इसलिए दुस्साहस करके यह परामर्श तुम्हें दे रहा हूँ और अपने स्वार्थ-त्याग की दुहाई नहीं दूँगा। नहीं तो मैं ही एक बार-पर जाने दो; आइ नो ह्वेन आइ'म लिक्ड! बेस्ट आफ़ लक टु यू!

तुम्हारा

चन्द्रमाधव

पुनश्च :

बम्बई का पता वहाँ पहुँचते ही लिखूँगा; तब तक दादर के पोस्ट मास्टर की मारफ़त लिख सकते हो।

चन्द्रमाधव द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

उस बार आप दिल्ली से अचानक गायब हो गयीं, तब से बहुत दिनों तक कोई पता ही नहीं मिला; फिर मालूम हुआ कि आप कश्मीर में हैं और बहुत बीमार रही हैं, कुछ आपरेशन की भी बात सुनी पर ठीक पता न लगा कि क्या हुआ, कैसी हैं? पता लगा तो यही कि कलकत्ते चली गयी हैं जिससे मैंने मान लिया कि स्वस्थ ही होंगी। यह भी पता लगा था कि भुवन भी शुश्रूषा के लिए गये थे; सोचा था कि उनसे ही पूरे हालात पूछूँ पर फिर उन्हें कष्ट देने का साहस नहीं हुआ। सुना है कि वह आज-कल अपनी ख़ोज में ऐसे डूबे हैं कि किसी को पत्र-वत्र नहीं लिखते; बल्कि शायद आयी हुई डाक भी नहीं पढ़ते-किसी से कोई मतलब उन्हें नहीं है, बस वह हैं और कास्मिक रश्मियाँ हैं। वैज्ञानिक में अनासक्ति की यही तो खूबी होती है : न जाने कहाँ से वे कास्मिक रश्मियाँ आती हैं, पृथ्वी के वायुमण्डल की परिसीमा से या सूर्य से, या तारा-लोक से या सर्वत्र फैले शून्य में पदार्थ मात्र के बनने-मिटने से-पर वैज्ञानिक का सारा लगाव उनसे है, और अपने आसपास की किसी चीज़ का होश नहीं, उनका भी नहीं जिन्हें वह प्रिय बताना चाहता है...ठीक कहते हैं लोग, कि वैज्ञानिक प्रेम कर ही नहीं सकता; क्योंकि उसके लिए स्थूल यथार्थ है ही नहीं, सब-कुछ एक एब्स्ट्रैक्शन है, एक उद्भावना...और जहाँ एब्स्ट्रैक्शन है, वहाँ प्यार कहाँ? हम लाल को चाह सकते हैं, हरे को चाह सकते हैं पर लाल-पन या हरे-पन की भावना को कैसे? प्रकाश को चाह सकते हैं, प्रकाशित होने के गुण को कैसे?

अभी-अभी दिल्ली की एक चिट्ठी से पता लगा कि आप आज़ाद हो गयी हैं। कुछ दिन पहले हेमेन्द्र से भेंट हुई थी-वह लखनऊ आये थे-तब ज्ञात हुआ था कि तलाक़ की कार्रवाई हो रही है; अभी पता चला कि इसी हफ्ते डिग्री हो गयी है और आप मुक्त हैं। रेखा जी, इस काम के इस प्रकार शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो जाने पर मैं आपको सच्चे दिल से बधाई देना चाहता हूँ, बधाई ही नहीं, आप अनुमति दें तो अपनी पूरी सहानुभूति प्रकट करना चाहता हूँ। और कोई होता तो आपको यह याद दिला कर गर्व या सन्तोष महसूस करता कि मैंने पहले से अनुमान कर लिया था कि ठीक यही होगा और इसी प्रकार होगा; पर वैसे आत्म-सन्तोष के भाव मेरे मन में नहीं हैं, मैं केवल आपकी उस शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ जो इस समाचार से आपको मिलेगी-उस शान्ति का, और साथ ही मुक्ति की बात सुनकर उभर आने वाली अनेक स्मृतियों के दुःख का भी...आप ने बहुत दुःख पाया है, रेखा जी; पर उसकी ग्लानि को अब मन में न आने दें-पुराने दुःखों की भी नहीं, उस नये दुःख और निराशा की भी नहीं जिससे इधर निस्सन्देह आप गुज़री हैं...अधिक कुछ कहना नहीं चाहूँगा-कह कर आपके रिज़र्व को कुरेदना या आप की संवेदना को चोट पहुँचाना बिलकुल नहीं चाहता...

आप स्वस्थ तो हैं? आशा है कि इस लम्बे विश्राम से आपका स्वास्थ्य सुधर गया होगा। कहता कि और दो-एक महीने विश्राम कर लीजिए पर जानता हूँ कि अनिश्चित अवधि तक निठल्ले बैठ रहना आपके स्वभाव के विरुद्ध है, और आप कहीं बाहर जाना चाहेंगी ही। आप लखनऊ आवें यह सुझाने की धृष्टता तो नहीं कर सकता : मेरी अपात्रता के अलावा लखनऊ की घटनाओं का भी स्मरण कराया जाना आप नापसन्द करेंगी। पर क्या बम्बई का निमन्त्रण दे सकता हूँ? मेरी अपात्रता तो वहाँ भी उतनी ही रहेगी, पर बम्बई बड़ा शहर है, और वहाँ जीवन है, जागृति है, वह प्राणोद्रेक है जो संघर्षों में पड़ने पर होता है-बम्बई निस्सन्देह आपको अच्छा लगेगा और-मुक्त करेगा अवसादों से, अतीत के बन्धनों से, जर्जर मान्यताओं से, और-आप यह कहने की धृष्टता मुझे करने दें तो कहूँ-स्वयं अपने-आपसे, क्योंकि जिसे हम अपना-आप कहते हैं वह वास्तव में है क्या? अपने भीतर की घुटन, जिसे हम अपनी पीड़ा के मोह में एक मूल्यवान् तत्त्व समझ लेते हैं! अपना-आप कुछ नहीं है, वह घुटना अयथार्थ है, उसके प्रति हमारा मोह एक धोखा है; सच तो सामाजिक शक्तियों का खेल और खींचातानी और संघर्ष है, जिसमें हम या तो सहायक हो सकते हैं, या बाधक...आइये, हम सहायक हों; अतीत के बन्धन न मानें बल्कि वर्तमान का, नये भविष्य का निर्माण करें...

लेकिन यह तो मैंने बताया नहीं कि बम्बई मैं कैसे बुला रहा हूँ। लखनऊ मैं छोड़ रहा हूँ। और लखनऊ कहता हूँ, तो मेरा मतलब है वह सारा ढाँचा जिसे मैं मानता रहा। कौशल्या घर चली गयी है, दोनों बच्चों को लेकर-बल्कि कहूँ कि दोनों को और तीसरे की प्रतीक्षा लेकर; मैं जब उसे वापस घर लाया था तो किसी शर्त या बन्धन के साथ नहीं, वापस लाने और गिरस्ती चलाने के सब दायित्वों को स्वीकार करके ही...पर वह चली नहीं, मेरी पूरी कोशिश के बावजूद भी नहीं। और अब मैं खुश ही हूँ कि वह चली नहीं, क्योंकि वह झूठ थी। गिरस्ती का आइडिया ही असल में झूठ है; एक काल-विपर्यय है; उस वर्ग-जीवन का प्रतीक है जो वर्ग ही आज मर रहा है। क्यों हम उसके द्वारा स्वीकृत एक परिपाटी को मानते चलें, जबकि स्वयं उसमें ही हमारी आस्था नहीं है?

तो मैं बम्बई जा रहा हूँ। अतीत से नाता तोड़ कर जा रहा हूँ और उसके कोई बन्धन, कोई दायित्व आगे मानने का मेरा इरादा नहीं है। अपने वर्ग को मैं छोड़ता हूँ; उससे कुछ और मागूँगा नहीं और इसलिए आगे उसे कुछ देने को, उससे निबाहने को भी बाध्य नहीं हूँ।

आशा है यह पत्र आपको समय पर मिल जाएगा, और आप उत्तर देने का कष्ट करेंगी। मैं बराबर प्रतीक्षा करूँगा। आपको सर्वदा एक मुक्त व्यक्ति के रूप में ही मैंने देखा है, आपके पत्र मेरे लिए बड़ा सहारा होंगे।

आपका कृपाकांक्षी

चन्द्रमाधव

चन्द्र द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा जी,

इन दिनों में यह पहली बार नहीं है कि आप को पत्र लिखने बैठा हूँ; और कोई निश्चय करके ढुलमुल करते रहनेवाला स्वभाव भी मेरा नहीं है आप जानती हैं; फिर भी पत्र नहीं लिखा गया इसका कारण यही है कि मैं पाता हूँ, मुझमें और मेरे परिचितों में एक अजीब व्यवधान आ गया है-एक दूरी जिसका कारण समझ में नहीं आता...लखनऊ से बनारस कुछ भी दूर नहीं है, लेकिन मैं जब यूरोप में था और आप मद्रास में, तब अपने को इतना दूर नहीं महसूस करता था जितना अब, और कभी जब सोचता हूँ कि स्वयं जाकर मिल आया जा सकता है तब सहसा लगता है कि मैं मानो मंगल तारे तक हो आने के मनसूबे बाँध रहा होऊँ!

ऐसा क्यों, सोचता हूँ तो कोई कारण नहीं पाता। बाह्य कारण तो हो ही क्या सकता है-आख़िर लखनऊ से बनारस जितना है सो तो हुई है, न अधिक न कम; सब्जेक्टिव ही कारण हो सकता है-पर क्या? आप तो सदा से ही दूर रहती हैं, मुझे अधिक-से-अधिक एक अवहेलना-भरी अनुकम्पा ही मिलती है; उसमें कोई परिवर्तन आने का कारण तो हुआ नहीं। तब क्या मुझी में कोई बड़ा परिवर्तन आया है? शायद यही हो। आप मुस्कराएँगी कि चन्द्रमाधव भी इंट्रोस्पेक्शन करने चला-हाँ, यह भीतर देखने की बात मुझे हमेशा नकारेपन की दलील लगती रही है-पर यह देखता हूँ कि मेरे ही अनुभव मुझे अलग ले जा रहे हैं। एक तो इधर का जैसा जीवन रहा-आप कल्पना नहीं कर सकतीं, गौरा जी, कि साधारण जीवन की साधारण मर्यादाओं को निबाहने के लिए मैंने कितना बड़ा तप किया है, कितना क्लेश भोगा है, और अब मैं भी रेखा देवी की कही हुई बात मानने लगा हूँ कि गहरा क्लेश एक व्यक्ति को और सबसे पृथक् कर देता है...दूसरे इस क्लेश ने मुझे यह सिखा दिया है कि हमारी अधिकतर मान्यताएँ केवल एक ढकोसला हैं-हमारे जीवन को, हमारे वर्ग-स्वार्थों को, वर्ग से मिलनेवाली सुविधाओं को बनाये रखने के लिए रचा गया भारी प्रपंच; और यह देख लेने के बाद उसी प्रपंच में फँसे रहना कैसे सम्भव है? यह दूसरा कारण है जिसने मुझे औरों से अलग कर दिया है-अपने वर्ग से मैं उच्छिन्न हो गया हूँ। और देख रहा हूँ कि वह कितना सड़ा है; अब उसे भस्म कर देने में ही अपनी शक्ति लगाऊँगा...इसीलिए कहूँ कि मैं वास्तव में इंट्रोस्पेक्शन नहीं कर रहा हूँ-इंट्रोस्पेक्शन तो आदमी को निकम्मा बनाता है, कर्म-विमुख करता है, कर्म की प्रेरणा नहीं देता।

लेकिन क्या सचमुच उतना दूर चला गया हूँ? उस दिन दिल्ली में आपसे तबला सुना था; वह मानो कल की बात लगती है और उसके बोल अभी तक कानों में गूँज जाते हैं-संगीत में मेरी पहुँच नहीं है लेकिन उस दिन का अनुभव मानो एक लैण्डमार्क बन गया है और उसके सहारे मैं कई चीज़ों से सम्बन्ध जोड़ लेता हूँ जिन तक पहुँचने का और कोई सूत्र नहीं रहता...सेंटिमेन्टल बातें मुझे कहनी ही नहीं आतीं, गौरा जी; सच कहता हूँ कि उस दिन की वह भेंट मेरे लिए एक अकथनीय अनुभव था, और कदाचित् वहीं से मेरे जीवन में वह परिवर्तन शुरू हुआ जो आज देख रहा हूँ। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि आप इस प्रकार मेरी डेस्टिनी बन जाएँगी-आप! और आपने तो की ही क्या होगी, आपने तो कभी मुझे इस लायक ही न समझा होगा कि मेरी डेस्टिनी भी कुछ हो!

डॉ. भुवन से भी बहुत दिन से पत्र-व्यवहार नहीं हुआ। आपसे परिचय उनके द्वारा हुआ था, पर अजब बात है कि उन तक पहुँच आप ही के द्वारा हो। आशा है आप उनके पूरे समाचार देंगी। यों मैंने उन्हें पत्र लिखा है, पर आप से जो जान सकूँगा, वह उनसे थोड़े ही : वह तो पहले भी एक सीपी में रहते थे, और पिछले कुछ महीनों के अपने अनुभवों के बाद तो बिलकुल ही पहुँच से परे चले गये हैं। मैं समझता हूँ, कोई भी गहरी अनुभूति जब गोपन रहती है, तब धीरे-धीरे गोप्ता को भी ऐसे बाँध लेती है कि फिर वही अज्ञेय हो जाता है, फिर वह चाह कर भी अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाता; उसका रहस्य एक ऐसी दीवार बन जाता है जो कि स्वयं उसी को छिपा लेता है। कभी सोचता हूँ, क्या डा. भुवन फिर कभी हमसे, आपसे, हमारे आपके साधारण जगत् से साधारण सम्पर्क जोड़ सकेंगे? इधर आपकी उनसे भेंट हुई क्या?

रेखा जी की ख़बर जब-तब मिल जाती है। डाइवोर्स उनका हो गया है। यह जान कर आपको भी निश्चय ही सन्तोष होगा। विवाहित जीवन उनका अत्यन्त यातनामय रहा, फिर जब उन्हें जीवन में कुछ ऐसा मिला जो मूल्यवान् हो, जो जीवन को अर्थ दे, तो फिर विवाह का बन्धन ही बाधा बना...अब कदाचित् वह जीवन के बिखरे सूत्र फिर समेट सकें, उसके अर्थ को फिर पा सकें...मैं जब भी सोचता हूँ तो इसी परिणाम पर पहुँचता हूँ कि स्त्री-पुरुष का मिलन सबसे बड़ा सुख नहीं हो सकता क्योंकि उसमें प्रत्येक को साझीदार की, दूसरे की ज़रूरत है, वह परापेक्षी सुख है; सच्चा सुख निरपेक्ष और स्वतः सम्पूर्ण होना चाहिए। पर युक्ति एक बात है, और व्यवहार दूसरी; और वासना दोनों से ऊपर : हम सभी उस अनुत्तम सुख को ही चाहते हैं और पुरुष से अधिक नारी वह चाहती है...रेखा जी को मैं असाधारण स्त्री मानता था, पर अब देखता हूँ, उनका असाधारणत्व इसी में है कि वह साधारणत्व का चरमोत्कर्ष है, साधारण स्त्री की साधारण वासना अपने चरम रूप में उनमें विद्यमान है। और इसीलिए आज उनकी मुक्ति की सूचना से सन्तोष है : प्रार्थना करना चाहता हूँ कि उन्हें उनका वांछित मिले, तृप्ति मिले, शान्ति मिले...

आपकी संगीत-साधना कैसी चल रही है? संसार की जो गति है, उसमें नहीं दीखता है कि संगीत का भविष्य क्या है, विशेषकर भारतीय संगीत का जो इतनी साधना माँगता है, इतनी सूक्ष्मता, जिसका उदय भी रहस्य से होता है और जिसकी निष्पत्ति भी रहस्य में है-भविष्य में संगीत होगा तो जन का वह प्रकृत, पुरुष, सहज तेजस्वी स्वर सब बारीक़ियों को अपने विवाद में डुबा लेगा...फिर भी, आपकी साधना का कायल हूँ, और, और नहीं तो आपकी आनन्द-कामना से ही प्रार्थना करता हूँ कि आप को उसकी सुविधा और साधन मिले...

मैं लखनऊ छोड़कर बम्बई जा रहा हूँ। वहीं रहूँगा। पत्र वहीं दें-देंगी न? पता रहेगा : केयर पोस्टमाटर, दादर, बम्बई।

आपका ही

चन्द्रमाधव

भुवन द्वारा चन्द्रमाधव को :

चन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला। दूसरे दिन तुम्हारा रेखा देवी के नाम लिखा हुआ पत्र भी उनके द्वारा भेजा हुआ, मिला, इस उलाहने के साथ कि मैं तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखता?

उन्होंने कहा है, इसलिए यह पत्र लिखे दे रहा हूँ। पर चन्द्र, कैसा रहे अगर आज से हम मान लें कि हम दोनों अजनबी हैं? क्योंकि हम मानें न माने, बात यही है; हम दो विभिन्न दुनियाओं में रहते हैं जिनमें सम्पर्क के कोई साधन नहीं हैं। विज्ञान को तुम मानते नहीं, नहीं तो उसकी भाषा में कहता कि हमारे जीवनों के डाइमेंशन अलग-अलग हैं, और इसलिए वे एक-दूसरे को काट कर भी छू नहीं सकते।

और जब हम अज़नबी ही हैं, चन्द्र, तो मेरे प्रति किसी मिथ्या लायल्टी का बन्धन तुम न मानो; जिस भी चीज़ पर तुम्हारा लोभ है, उसके लिए निर्बाध होकर जुगत करो। और मैं तुम से ज़्यादा ईमानदारी से कहता हूँ, बेस्ट आफ़ लक टु यू।

-भुवन

भुवन द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा,

एक बार फिर तुम्हारी ओर से कोंच के बिना पत्र लिख रहा हूँ बल्कि अब कभी सोचता हूँ तो ख्याल आता है क्या यह तुम्हारा न कोंचना ही कोंच का एक नया प्रकार नहीं है? पर इस लिखने में न जाने क्यों, पहले-सा पुण्य-सुख नहीं है। लिखने की बात मैंने कई बार सोची है, पर न जाने क्यों लिखे बिना रह गया हूँ; आज लिखने बैठा हूँ तो अपने को कारण यह बता रहा हूँ कि बार-बार वचन-भ्रष्ट होने के लिए कम-से-कम माँफ़ी तो माँग लेना आवश्यक है-यद्यपि तुम्हें पत्र लिखने के लिए क्यों कारण ढूँढ़ निकालना ज़रूरी है, यह नहीं जानता, न पहले कभी ऐसा प्रश्न मन में उठा था।

मैंने कहा था, दशहरे में बनारस आऊँगा। कहा था कि शायद, पर तुम्हें शायद कहता हूँ तो उसमें अपने लिए छूट नहीं रखता, शायद इसीलिए होता है कि अगर किसी कारण न हो पाये तो तुम्हें निराशा न हो। पर वह नहीं हो सका-रेखा जी की बीमारी के कारण मुझे श्रीनगर जाना पड़ा और छुट्टियाँ उसी में बीत गयीं; फिर सोचा था कि अगली छुट्टियों में चला जाऊँगा, पर अगली छुट्टियाँ भी आ गयीं बड़े दिनों की, और मैं यहीं बैठा हूँ। अब की बार कोई बहाना नहीं है, पर जैसे वही सबसे बड़ा कारण है; मैं यहीं बैठा हूँ, यहीं पड़ा रहूँगा; न जाने का कोई बहाना नहीं है; इसलिए नहीं जाऊँगा; बिना कोई बहाना बनाये मान लूँगा कि मैं नहीं जाता, नहीं जाता; और इस अपराध को ओढ़कर बैठा रहूँगा। अपराध करने की कोई चाहना मन में नहीं है, पर यों अपराध ओढ़कर बैठ जाने में न जाने क्यों सान्त्वना का बोध होता है।

देखता हूँ कि यह माफ़ी माँगने का तो ढंग नहीं है। पर गौरा, तुम मुझे क्षमाकर ही देना, और मेरे बारे में कोई चिन्ता न करना। मैं बिलकुल ठीक हूँ, चिन्ता की कोई बात नहीं है, केवल चित्त अव्यवस्थित है, और ऐसी दशा में कहीं किसी के पास नहीं जाना चाहिए, अपने अस्तित्व का ही पता न देना चाहिए। मैं बिलकुल वैसा करता, पर माफ़ी माँगना तो आवश्यक था, इसलिए सम्पूर्ण लोप तो नहीं हुआ; फिर भी वहाँ आकर तुम्हें क्लेश न दूँगा। कभी आऊँगा, पर कब इसका अब वायदा नहीं करता।

आशा है तुम स्वस्थ और प्रसन्न हो; आशा ही नहीं, विश्वास भी है कि तुम उन्नति कर रही होगी। कभी लगातार बैठकर तुमसे संगीत सुन सकता, तो शायद चित्त को सान्त्वना मिलती-या कौन जाने तब भी न मिलती, अभी यह सोच लेता हूँ और जैसे उसकी दूर सम्भावना भी एक सहारा हो जाता है।

पिता जी को मेरा प्रणाम लिखना। आशा है माता-पिता स्वस्थ हैं। कहाँ हैं आज-कल?

तुम्हारा

भुवन

भुवन द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा,

जो पत्र लिखने की मैं निरन्तर कोशिश करता रहा हूँ, वह मुझसे लिखा नहीं जा रहा है। न जाने कितनी बार मैं लिखने बैठा हूँ, कभी एक-आध पन्ना लिख भी सका हूँ, लेकिन लिखकर फिर उसे फाड़ दिया है, फिर दुबारा नहीं लिख सका हूँ...रेखा, क्या कहूँ और कैसे कहूँ? मैं मानता हूँ कि जो कहना नहीं आता वह इसीलिए नहीं आता कि वह मन के सामने ही स्पष्ट नहीं है-हो सकता है कि मैं स्वयं ठीक नहीं जानता कि क्या कहना चाहता हूँ-फिर भी भीतर जो घुमड़न है, उसके सामने जैसे कुछ स्पष्ट है, यद्यपि मैं उसे नहीं जान पाया, और वही मानो मेरे और विचारों और कामों को निर्दिष्ट करती है भले ही वे निर्देश मैं नहीं समझता...

रेखा, तुम अब भी वही दिव्य स्वप्न हो, जो दीखने की तीव्रता से ही मूर्त्त हो आया था और यथार्थ हो गया था, लेकिन जब कभी मैं अपने साझे जीवन के अंशों को सामने मूर्त्त करता हूँ, तो वे जैसे मिलकर एक रूपाकार नहीं बनते, मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े अलग रहते हैं और फिर मेरे हाथों में ही मिट्टी हो जाते हैं। जीवन का एक चित्र, एक मूर्ति नहीं बनती, यद्यपि प्रत्येक खण्ड यथार्थ है-और अत्यन्त यथार्थ है वह व्यथा की टीस जो किसी-किसी खण्ड की कल्पना-मात्र से देह-मन को झनझना जाती है...

मैंने कहा कि 'जब कभी'। यह नहीं कि वैसा कभी-कभी होता है। मैं बराबर ही वैसे खण्डित स्वप्न देखता रहता हूँ; जागते हुए, काम के बीच में, क्लास में पढ़ाते हुए, लैबोरेटरी में काम करते हुए, राह चलते सड़क के बीच में बराबर ही ये स्वप्न-चित्र कौंध कर सामने आते रहते हैं। मानो आँखों के आगे हर वक़्त एक काल्पनिक चौखटा बना रहता है, जिसके भीतर का चित्र बराबर बदलता रहता है। बल्कि अधिक बदलता भी नहीं, क्योंकि बार-बार एक ही दारुण दृश्य सामने आता है, और मैं सुनता हूँ तुम्हारी दर्द-भरी आवाज़ मुझे पुकारती हुई, 'प्राण, जान, जान', अन्तहीन आवृत्ति करती हुई एक कराह, जिसे वर्षा की वह अनवरत टपटपाहट भी नहीं डुबा पाती जो कि उस स्मृति का एक अभिन्न अंग है। मैंने तब तुम्हें कहा था 'हाँ अब भी, अब और भी अधिक' वह ग़लत नहीं कहा था और आज भी अनुभव करता हूँ कि वे क्षण आत्म-दान के-अपने से मुक्त होकर अर्पित हो जाने के तीव्रतम क्षण थे; पर आज यह भी देखता हूँ कि ठीक उन्हीं क्षणों में मेरे भीतर कुछ टूट गया। टूट गया, मर गया। क्या, यह नहीं जानता। प्यार तो नहीं, प्यार कदापि नहीं, उससे सम्बद्ध कोई जादू, कोई आवेश, जिससे आविष्ट होकर मैं प्यार की मर्यादा भूल गया था, जो प्रेय है उसे स्वायत्त करना चाहने लगा था ऐसे जैसे वह स्वायत्त नहीं हो सकता...और मानसिक यन्त्रणा के उस चरम क्षण में यद्यपि प्यार-प्यार, रेखा, करुणा नहीं-अपने उत्कर्ष पर था, पर उसी क्षण में जैसे मैंने तुम्हें दोषी भी मान लिया था एक मूल्यवान् वस्तु को नष्ट हो जाने देने का। तुमने लिखा था कि यदि वैसा न हुआ होता और प्रेम ही मर गया होता या मैंने तुम्हें छोड़ दिया होता तब क्या होता, और इस प्रश्न का मेरे पास कोई जवाब नहीं है-ऐसा हुआ होता तो निस्सन्देह वह भी घोर दुर्घटना हुई होती-और जो बार-बार मेरे आस-पास होता रहा है, होता है, इसे मैं किस दर्प से असम्भव करार दे दूँ? वह ख़तरा तो था ही...भविष्य के बारे में कोई दावा करना बेमानी है, फिर उस भविष्य के जिसकी अब कोई सम्भावना नहीं रही। लेकिन आज भी मैं कितना भी कठोर होकर सोचूँ तो मानता हूँ कि उस अजात के कारण जो भी ज़िम्मेदारी मुझ पर आती उससे मैं भाग नहीं रहा था, भागने का विचार भी मुझमें नहीं था, और उसे स्वीकार करने में मुझे खुशी ही होती...मैंने तुमसे कहा था कि मैं सुखी होता, आज भी मानता हूँ कि सुखी होता। प्यार मर तो सकता ही है-एक अर्थ में चिरन्तन होकर भी वह मर सकता है, पर अगर भविष्य में कभी ऐसा होता ही, तो वह कम-से-कम उस शिशु के कारण न होता-उसके कारण हमीं में होते।

इस सबसे ध्वनि होती है कि मैं तुम्हें उलाहना दे रहा हूँ-वैसा नहीं है। वैसी भावना मन में कभी आयी भी होती, तो मानना होता कि तुम ने अगर भूल की भी तो उसका भरपूर शोध भी किया-नहीं रेखा, मैंने जो पहले कहा कि तुम्हें दोषी माना था वह ठीक नहीं है, दोषी तुम मुझसे अलग या अधिक कैसे हो?-अपने एक अंश को नष्ट होने देने के लिए स्वयं अपने को मर जाने दिया, रेखा; उस अंश को, जो स्वयं भी मूल्यवान् था, और उससे बढ़कर जो एक और मूल्यवान् अनुभूति का फल था-इस सब का अनुभव करते हुए मैं तुम्हारे आगे झुक ही सकता हूँ, समवेदना से भरकर तुम्हारे पास खड़ा हो सकता हूँ, दोष नहीं दे सकता। और जब यह सोचता हूँ कि यह बहुत बड़ा आत्म-बलिदान भी मुझ पर तुम्हारे स्नेह की अभिव्यक्ति थी-तब तो गड़ जाने को जी चाहता है।

रेखा, एक बात को तुम समझोगी-तुम नहीं समझोगी तो कोई नहीं समझ सकेगा-प्यार मिलाता है; व्यथा भी मिलाती है; साथ भोगा हुआ क्लेश भी मिलाता है; लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि सीमा पार कर लेने पर ये अनुभूतियाँ मिलाती नहीं, अलग कर देती हैं, सदा के लिए और अन्तिम रूप में? अनुभूतियाँ गतिशील हैं, अतीत होकर भी निरन्तर बदलती रहती हैं और व्यक्तित्व को विकसाती हुई उसमें घुलती रहती हैं, लेकिन यह सीमा लाँघ जाने पर जैसे वे गतिशील नहीं रहतीं; स्थिर, जड़ हो जाती हैं; एक न घुल सकनेवाला लोंदा, एक वज्र धातु-पिण्ड। फिर व्यक्ति मानो इन अनुभूतियों को चौखटे में जड़कर रख लेता है; जीवन एक चलचित्र न रहकर स्थिर चित्रों का संग्रह हो जाता है, और हर नयी सम्भाव्य अनुभूति के आगे व्यक्ति किसी एक चित्र को प्रतिरोधक दीवार की तरह खड़ा कर लेता है। मेरे पास अधिक चित्र नहीं हैं, कह लो कि एक ही है, पर वही-हमारे साझे अनुभवों का सम्पुंजन ही, रेखा!-हमारे बीच में दीवार-सा खड़ा हो जाता है। हम मिलेंगे, लेकिन मानो इस दीवार के आर-पार; हाथ मिलाएँगे, लेकिन मानो इस चौखटे के भीतर से; एक-दूसरे को देखेंगे, लेकिन मानो इस चौखटे में जड़े हुए-तुम उधर से, मैं इधर से...रेखा, मैं अब भी तुम्हें प्यार करता हूँ, उतना ही, पर...

भुवन द्वारा रेखा को :

रेखा,

तुम्हें पत्र लिखने की कई कोशिशें की पर अभी तक पत्र न लिखा गया, और अब मैंने मान लिया है कि जो पत्र लिखना चाहता हूँ, वह कभी नहीं लिखा जाएगा। इसलिए लिखने की पिछली अधूरी कोशिश ही अन्तिम कोशिश मान कर वह अधूरा पत्र ही तुम्हें भेज रहा हूँ। और उसे भी फिर पढ़ूँगा नहीं, नहीं तो शायद भेजूँगा नहीं। तुम्हारे सब पत्र मुझे मिल रहे हैं; प्रत्येक पर अपने को और अधिक कोसता रहा हूँ कि तुम्हें क्यों इतना क्लेश पहुँचा रहा हूँ, फिर भी इससे पहले नहीं लिख पाया हूँ, नहीं पाया हूँ। अब भी पाया ही हूँ, यह तो नहीं है, और कदाचित् यह पत्र भेजना भी उतना ही क्रूरता है जितना पत्र न लिखना-मैं नहीं जानता, रेखा। तुम मुझे क्षमा कर देना यह सोचकर कि मैं इस समय भ्रान्त हूँ।

तुम्हारा

भुवन

भुवन द्वारा रेखा को :

रेखा,

तुम्हारा पत्र पाकर थोड़ी देर विमूढ़-सा सोचता रह गया-क्या सचमुच चार महीने हो गये दिल्ली स्टेशन पर तुम्हें ट्रेन में बिठाये हुए और उसके बाद तुम्हें पत्र लिखे हुए? पर तुम्हारी गणना ठीक है...यों अभी दो-एक दिन पहले मैंने तुम्हें चिट्ठी डाली है-अब तक तुम्हें मिल गयी होगी।

तो विवाह रद्द हो गया या हो जाएगा। यह बात अपने को कहता हूँ, तो सहसा कुछ स्पष्ट नहीं होता है कि क्या हो गया। क्योंकि किसी चीज़ के होने में, और उस होने के हमारे बोध में, हमेशा ही एक अन्तराल रहता है; यह इतनी बार लक्ष्य करता हूँ कि किसे वास्तव में होना माना जाये यही सन्देह हो आता है। फिर तलाक तो एक कानूनी कार्रवाई है और कानून हमारे जीवन की जीवित यथार्थता कभी होता है तो तभी जब हम उसे तोड़ते हैं या तोड़ने की सज़ा पाते हैं, नहीं तो उससे हमें कोई सरोकार ही नहीं होता। फिर यह भी ध्यान आता है कि यही अगर पहले हुआ होता-समय पर हुआ होता-तो तुम्हारा जीवन कितना भिन्न होता। सहसा हार्डी की बात याद आती है, कि 'जब पुकार होती है तब आगन्तुक नहीं आता', और एक तीखा आक्रोश मन में उमड़ आता है...

फिर भी, यह मान लेना होगा कि इस प्रकार एक अन्यायपूर्ण, असत्य, अयथार्थ परिस्थिति का अन्त हो गया है-जो तुम हो (या नहीं हो) और जो तुम कानूनन हो, उसका विपर्यय अब मिट गया है। और इस पर सन्तोष होना ही चाहिए।

तुम यात्रा पर निकल रही हो, दक्षिण जा रही हो। अच्छा ही है। शान्ति की बातें कहने वाला मैं कौन होता हूँ, पर इससे तुम्हें सान्त्वना तो मिलेगी ही। क्षण-भर के लिए मन में उठा था, सागर-तट पर तुम्हारे साथ मैं भी खड़ा हो सकता-पर नहीं, उससे व्यथा ही जागेगी शायद; रेखा, उस विशाल एकाकी को, जो न प्रेम करता है न प्रेम है, तुम अकेली ही देखो-तुम्हें अकेले में ही वह सान्त्वना मिले जो मेरा साथ तुम्हें न दे सका-मैंने चाहा था देना, पर दे सका केवल नयी व्यथा...'सी, यू शैडो आफ़ आल थिंग्स, माँक अस टु डेथ विद योर शैडोइंग...

(अरी सागर, तू जो सब कुछ की परछाई है, अपनी छाया के व्यंग्य से हमारे प्राण हर ले!

-डी.एच. लारेंस)

कभी सोचता हूँ, इसी तरह मैं भी अकेला सागर पर चला जाऊँ-दर्द तभी तक क्लेशकर होता है जब तक हम उससे लड़ते हैं, जब तक हम अपने अपनेपन को बनाये रखना चाहते हैं। विशाल के आगे अपने को समर्पित कर देने के बाद सब क्लेश मानो झर जाते हैं या डँसते भी हैं तो उनका डंक निर्विष होता है...शायद मैं भी जाऊँगा कहीं-और सागर के पास ही जाऊँगा।

गॉड ब्लेस यू, रेखा।

तुम्हारा

भुवन

गौरा द्वारा भुवन को :

मेरे भुवन दा,

आप चिट्ठी-चाहे यही चिट्ठी-दो चार-दिन पहले लिख देते, तो मैं ही वहाँ न आ जाती? पर अब छुट्टियाँ खत्म हो चुकीं : अब छुट्टी लेकर आ तो सकती हूँ

पर उसमें कुछ दिन तो लगेंगे और फिर आपके काम के दिनों में मैं आ धमकूँगी तो आप नाराज़ होंगे-न भी होंगे तो मुझे अनुमति तो लेनी चाहिए।

भुवन दा, मैंने आपको न आने पर या चिट्ठी न लिखने पर कोई उलाहना दिया है कि आप मुझे ऐसी चिट्ठी लिखें? आप बड़े हैं, यही नहीं, मैं यह भी नहीं भूलती कि स्नेह करते हैं; माफ़ी माँगने का कोई प्रश्न नहीं उठता। मैं अबोध हूँ सही, पर मूर्ख नहीं हूँ; यह भी समझती हूँ कि आप कोई बड़ा क्लेश मन-ही मन सह रहे हैं; मेरा कोई दावा होता तो आग्रह करके पूछती, और जानकर कुछ मदद न कर पाती तो कम-से-कम कुछ बहला तो सकती ही; पर आप बताएँगे तो स्वयं बताएँगे, मेरे पूछने से कुछ न होगा यह मुझे मालूम है। इसलिए अगर मैं कहूँ कि मैं आपके किसी भी काम आ सकूँ तो आप इंगित-भर कर दीजिए, तो मेरी बात रामजी की गिलहरी की बात से अधिक कुछ नहीं हो सकती।

भुवन दा, आपके पत्र से मुझे बेहद क्लेश पहुँचता; पर नहीं पहुँचा तो केवल एक बात के कारण-आप ने लिखा है कि 'अपराध ओढ़कर बैठे रहेंगे, और उसमें आपको सान्त्वना मिलती है।' मुझे शायद इसकी ओर इशारा नहीं करना चाहिए, चुपचाप वरदान मान कर इसे ले लेना चाहिए-पर इसमें जो वात्सल्य बोल रहा है, उसके सहारे शायद मैं आप तक पहुँच सकूँगी, और-गर्व नहीं करती-आपकी कुछ सहायता भी कर सकूँगी। भुवन दा, मुझे अनुमति दे दीजिए न-मैं थोड़े दिन वहाँ आऊँगी-जल्दी ही, जितनी जल्दी छुट्टी मिल सकी क्योंकि इस महीने के अन्त में परीक्षाएँ भी हैं-तब तक आप चाहे जो ओढ़े रहिए, पर मेरे आने के बाद आप कम-से-कम अपराध ओढ़े तो नहीं बैठे रह सकेंगे। मैं क्या ओढ़ाना चाहूँगी वह तो नहीं बताती; आप अपने ही मन से ओढ़ेंगे तो बुजुर्गी चाहे ओढ़े बैठे रहिएगा, मैं घर-भर में किलकती रहूँगी।

पर नहीं भुवन दा, आपकी शान्ति भंग नहीं करूँगी; सच कहती हूँ। आप मुझे कुछ दिन के लिए आ जाने दीजिए। कहती कि आप बुलाइये, पर उतना मान मेरा नहीं है।

आप ही की

गौरा

गौरा द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा दीदी,

मेरा पत्र पाकर आपको विस्मय हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है; मैं शायद न लिखती। लिख रही हूँ तो इसलिए कि और एक चिट्ठी लिखने से बच जाऊँ।

चन्द्रमाधव जी का एक पत्र मिला है। उसमें उन्होंने अपने बम्बई जाने की बात लिखी है, और साथ ही आपके बारे में कुछ सूचना दी है। यों किसी की निजी बातों में हस्तक्षेप करते बड़ी झिझक होती है और विशेष कर आपकी, क्योंकि आपके जीवन के बारे में कुछ न जानकर भी मैं इतना जानती हूँ कि आपने बहुत सहा है और आपकी कोई भी निजी बात निजी कष्ट की ही बात होगी-फिर भी यह कहने की अनुमति चाहती हूँ कि चन्द्रमाधव जी की सूचना से शान्ति मिली, और मैं आशा करती हूँ कि आपको भी मिलेगी-अभी भी और भविष्य में भी छोटे आशीर्वाद नहीं देते, इसे मेरी प्रार्थना समझ लीजिए कि आपका जीवन शान्तिमय हो, कल्याणमय हो।

आपको यह पत्र लिखकर मैं मान लूँगी कि चन्द्रमाधव जी के पत्र का डिस्पोज़ल हो गया, उन्हें अब उत्तर न दूँगी।

दो महीने हुए, भुवन दा के एक पत्र से ज्ञात हुआ था कि आप पहले बहुत अस्वस्थ रही; आशा है अब आप पूर्ण स्वस्थ हैं। उसके बाद भुवन दा का पत्र नहीं आया, पर मुझे वह पत्र शायद ही कभी लिखते हैं। यों वह ठीक ही हैं, यद्यपि उद्विग्न रहते हैं।

रेखा दीदी, मेरे पत्र से नाराज़ तो नहीं होंगी न?

स्नेहाकांक्षिणी

गौरा

भुवन द्वारा गौरा को :

नहीं गौरा; नहीं, अभी नहीं-आइ फ़ारबिड यू! लेट मी स्ट्यू इन माइ ओन जूस*। थोड़े दिन बाद-शायद; तब मैं आऊँगा या मैं न आया तो तुम्हें बुलाऊँगा-आने की अनुमति नहीं दूँगा। बुजुर्गी मुझ से झड़ गयी है, यह मैंने पिछली बार ही कहा था; और जो तुम ओढ़ाओ सिर आँखों पर, मगर पहले यह अपराध की कँबली झाड़ लूँ तब न!

पर मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ, गौरा; वह कहने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास।

तुम्हारा

भुवन

(* मैं मना करता हूँ। मुझे अपनी आँच में पकने दो।)

भुवन द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा,

तुम इस समय न मालूम कहाँ हो, क्या कर रही हो-शायद रामेश्वर के मन्दिर में बैठी होगी, या कन्याकुमारी में सागर-तट पर-सहसा मुझे जमुना की रेती की याद आती है और ख्याल होता है, उस समय जब मैं बालू का घर बना रहा था तो विधि निस्सन्देह हँसती रही होगी...कहाँ चले आये वहाँ से इन थोड़े से दिनों में हम-अब मैं सोचना चाहूँ कि वहाँ तुम ने मुझे मैन फ्राइडे कहा था और मैंने तुम्हें मिस राबिनसन तो विश्वास नहीं होता। लेकिन क्या अब भी हम कम खोये हुए हैं किसी अज्ञात द्वीप पर-कम असहाय हैं? इससे क्या कि आस-पास जो जलराशि है वह स्थिर सागर नहीं है, वह एक ओर-छोर भीम-प्रवाहिनी महानदी है-द्वीप तो फिर भी द्वीप है, और सब से सम्पर्क छूट जाने पर उत्पन्न होनेवाला करुण आत्म-विश्वास फिर भी करुण।

रेखा, मैं देश छोड़ कर जा रहा हूँ। एक और एक्सपेडीशन डच इंडीज़ में जा रहा है, उसी में जा रहा हूँ। एक वैज्ञानिक अमेरिका से जावा पहुँच रहे हैं-वह भी भारतवासी ही हैं वैसे-और मैं यहाँ से जावा जाऊँगा। वह तो अप्रैल में पहुँचेंगे, पर मैं पहले ही जा रहा हूँ कि वहाँ कुछ आरम्भिक प्रबन्ध कर रखूँ। कालेज से अभी एक वर्ष की छुट्टी ले ली है और होली की छुट्टी लगते ही चल दूँगा-सात-आठ दिन तैयारी के लिए काफ़ी हैं। परीक्षार्थियों की पढ़ाई तो अब तक लगभग पूरी हो ही जाती है इसलिए कालेज के काम में कोई व्यतिक्रम नहीं होगा।

जहाज कलकत्ते से पकडूँगा। पहले सोचा था कोलम्बो जाऊँ-रामेश्वरम् होते हुए जाने का मोह था-पर क्या होगा उससे रेखा...

तुम्हें क्या कहूँ, रेखा? तुम्हारे जीवन की खोज पूरी हो-उसे सार्थकता मिले...

भुवन

पुनश्च : फागुन की अष्टमी का धूमिल चाँद देखकर न जाने क्यों लारेंस की कविताएँ निकाल लाया; उसमें से एक कविता यह भेज रहा हूँ :

हाइ एण्ड स्मालर ग्रोज़ द मून : शी इज़ स्माल एण्ड वेरी फ़ार फ्राम मी, विस्टफुल एण्ड कैडिड , वाचिंग मी विस्टफुली फ्राम हर डिस्टैंस, एण्ड आइ सी टेंब्लिंग ब्लू इन हर पैलर ए टीयर दैट शोरली आइ हैव सीन बिफ़ोर , ए टीयर ह्विवच आइ हैड होप्ड ईवन हेल हेल्ड नाट अगेन इन स्टोर।

(चाँद ऊँचा और छोटा होता जाता है : ऊँचा और मुझसे बहुत दूर , उदास और स्पष्टवादी, अपनी दूरी से उदास-भाव से मुझे देखता हुआ। और उसके पीलेपन में नीला काँपता हुआ मैं देखता हूँ एक आँसू जिसे मैंने निश्चय ही पहले देखा है और जो मैंने आशा की थी कि नरक में भी फिर देखने को न मिलेगा! -डी. एच. लारेंस)

गौरा द्वारा भुवन को :

भुवन दा, यह क्या सुनती हूँ-आप जावा जा रहे हैं-और आपने मुझे ख़बर भी नहीं दी? आज स्टाफ़ रूम में ही सहसा सुना-बात आपकी नहीं थी, यही थी कि एक दल जावा जा रहा है कास्मिक रश्मियों की खोज के सिलसिले में जिसमें दो भारतीय वैज्ञानिक होंगे : इससे सहसा कान खड़े हुए तो सुना कि एक आप हैं और एक कोई और...कब जा रहे हैं भुवन दा? मुझ से मिले बिना आप नहीं जा सकेंगे-मुझे फ़ौरन पता दीजिए-या तो आप बनारस होते हुए जाएँगे या मैं आऊँगी जहाँ आप कहें। चिट्ठी फ़ौरन लिखिएगा, फ़ौरन।

आपकी ही

गौरा

गौरा द्वारा भुवन को :

आपको चिट्ठी भेज चुकी तब आपकी यह सूचना मिली। आप मुझसे मिलकर नहीं जाएँगे, मुझे भी नहीं आने देंगे...आपकी इच्छा, भुवन दा, मैं क्या कहूँ? आप बनारस के पास से गुजरते हुए चले जाएँगे-बल्कि अब तक तो चले गये होंगे और मैं न मिल सकूँगी...फिर भी, मेरे भुवन दा, इसे मैं आपका अतिरिक्त स्नेह ही मानती हूँ कि आप ने मुझे इस अन्याय के लिए चुना-लेकिन क्यों, भुवन दा, क्यों, क्यों, मेरी कुछ समझ में नहीं आता, क्यों आप मुझ से दूर भागे जा रहे हैं जो आप को अपने पथ का प्रकाश मान कर जी रही है-क्यों?...

गौरा द्वारा भुवन को :

भुवन दा,

अभी एक चिट्ठी आपको डाल आयी हूँ। उसे वापस तो नहीं लेती, पर उसमें एक बात कहना आवेश में भूल गयी थी। आपकी यात्रा निर्विघ्न और सफल हो; आप शीघ्र ही स्वदेश लौटें...और इससे आगे अपनी प्रार्थना में यह भी जोड़ दूँ, भुवन दा, कि आप स्वदेश ही नहीं, मेरे पास लौटें तो क्या मेरी प्रार्थना आपकी किसी इच्छा से प्रतिकूल चली जाएगी? वैसा हो, तो कहूँगी, तो आपकी इच्छा ही जयी हो, वही पूर्ण हो-मेरी प्रार्थना यही हो कि मेरी प्रार्थना भी आपकी इच्छा के अनुकूल हो, उसकी अनुगता हो।

प्रणत

गौरा

पुनश्च : यह चिट्ठी कलकत्ते भेज रही हूँ कि चलने तक मिल जाये।

रेखा द्वारा भुवन को, कुछ पत्र और पत्र-खण्ड :

भुवन,

मेरा प्याला भरने में शायद यही कसर थी-तुम भी मुझे दोषी ठहराओगे। यही सही, भुवन, यह भी सही। मैं टूट चुकी हूँ, मुझमें न शक्ति बाकी है, न धैर्य, न युयुत्सा; शायद और व्यथा पाने का भी सामर्थ्य अब नहीं है; तुम जो चाहे कह लो, मुझे कुछ नहीं होगा। और क्यों हो, किसलिए हो-कौन-सी वह आशा है जिसके कारण कोई निराशा, कोई चोट मुझे खले? लेकिन भुवन, तुम क्या नहीं समझते कि मेरे लिए मानवी प्यार की आख़िरी अभिव्यक्ति तुम थे-थे नहीं, हो, रहोगे-और इसीलिए मैं मर गयी और अब नहीं जियूँगी? अगर मैं रो सकती, तो रोती-अतीत के लिए नहीं, अपने लिए नहीं, उस सबके लिए नहीं, जो अब नहीं रहा, रोती इस तुम्हारे अभियोग-क्योंकि यदि यह अभियोग है तो फिर मुक्ति न मेरे लिए है, न तुम्हारे लिए-मैं जो सोचती थी कि जो भी हुआ, मैं जो टूट गयी, उसकी बड़ी व्यथा हमारे चरित्र में फैलेगी, मेरे से अधिक तुम्हारे में, वह सब झूठ होगा; वह व्यथा एक अर्थहीन ट्रेजेडी हो जाएगी क्योंकि उसमें अभियोग होगा, और उसकी अर्थहीनता हम दोनों को ले डूबेगी। मेरा तो कुछ नहीं, मैं तो डूबी ही हूँ-पर तुम, भुवन, तुम! मेरी सारी आशाओं का केन्द्र तुम हो-मेरे अन्तर तम की सारी व्यथा को इस तरह व्यर्थ न कर दो, भुवन! व्यथा सृजन करती है, मेरी व्यथा बाँझ रह गयी, मुझे भी झुलसा गयी, पर मैंने मानना चाहा था कि वह तुम्हीं को बनाएगी, और मैं अपनी व्यर्थता तुम्हें अर्पित करके सार्थक हो जाऊँगी। वह सान्त्वना भी मुझे नहीं मिलेगी...

जाने दो। न मिले। अब और कोई सान्त्वना मुझे नहीं चाहिए, मुझे मर जाने दो, भुवन!

भुवन,

तुम्हारी अधूरी चिट्ठी का जवाब मैं तुरत लिख गयी थी, वह तुम्हें अब तक न मिला हो तो फिर उसे मत पढ़ना-पढ़ चुके हो तो क्षमा कर देना। तुम्हारी चिट्ठी मैंने फिर पढ़ी है, कई बार फिर, शायद दोष तुम ने नहीं दिया-तुम्हारे पत्र में परिताप ही है जिसे मैंने अभियोग माना। पर नहीं, मेरे सहभोक्ता, अभियोग वह नहीं है, मैं समझती हूँ; और जो आघात मैंने पाया था उसका घाव भर गया है-अपना आक्रोश मैं वापस लेती हूँ और क्षमा माँगती हूँ। तुम्हारी चिट्ठी पाकर जानूँगी कि तुमने माफ़ कर दिया-यद्यपि मेरे आग्रह से तुम लिखोगे नहीं यह जानती हूँ।

तुम्हारी

रेखा

...आज एक वर्ष होता है जब पहले-पहल लखनऊ में मिले थे-चन्द्रमाधव के यहाँ तुमने मुझे बाद में बताया था, तुमने मुझे क्लान्त और अपनी शक्तियों को समेटती हुई देखा था-वह क्लान्ति आज और बढ़ गयी है और समेटने की शक्ति ही अब मुझमें नहीं रही। मैं केवल स्मरण करती हूँ, और बिखर जाती हूँ-मुझे याद आती है काफ़ी हाउस की हमारी पहली ही बहस-और यह भी आज जैसे विधि का संकेत लगता है कि उस बहस में हम सत्य की वेदनामयता की बात करने लगे थे, और तुमने एक सन्दर्भ दिया था 'द पेन आफ लविंग यू इज़ आल्मोस्ट मोर दैन आइ कैन बेयर'...उस दिन पहली पंक्ति में से तुम 'डीयरेस्ट' शब्द छोड़ गये थे, चाहूँ तो मान सकती हूँ कि वह छूट जाना भी विधि का संकेत था, पर नहीं, वह नहीं, इतना ज़रूर है कि आज मैं एक शब्द और छोड़ जाऊँ 'आल्मोस्ट'-क्योंकि सचमुच यह दर्द मेरी सहन-शक्ति से परे है, मैं उसे नहीं सँभाल सकती...कोई भी नहीं सँभाल सकता शायद प्यार का दर्द, इसीलिए शायद प्यार रहता नहीं, दर्द रह जाता है-केवल ईश्वर सँभाल सकता है अगर वह-या कहूँ कि जो सँभाल सकता है वही ईश्वर है...”प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्' कितनी सार्थक वन्दना है यह ईश्वर की, वही सह सकता है, वही एक, और कोई नहीं...

भुवन,

तुम्हारी दो चिट्ठियाँ एक साथ मिली हैं-बहुत भटकती हुई कोई छः सप्ताह बाद। तो तुम जावा जा रहे हो-जा क्या रहे हो, अब तक तो पहुँच भी गये होंगे। ठीक है भुवन, जाओ, तुम्हारा मार्ग प्रशस्त हो।

हाँ, मैं हूँ सागर के ही किनारे-कदाचित् तुम भी सागर के किनारे होगे, पर ये किनारे दूसरे-दूसरे हैं-और क्या सागर भी दूसरे-दूसरे हैं भुवन? मैं दिन-भर बैठी लहरें देखती हूँ लेकिन उनकी दौड़ मानो गति-हीन, प्रेत-दौड़ हैं; उनका टकराना सुनती हूँ पर वह भी मानो शब्द-हीन, प्रेत-टकराहट है-केवल दौड़ की, टकराहट की अन्तहीनता ही सजीव है, प्रेत नहीं है।...

एक और वर्ष-गाँठ-आज हम तुलियन पहुँचे थे, और मैंने गाया था 'लव मेड ए जिप्सी आउट आफ़ मी', और...इस प्रेत कैलेण्डर की वर्ष-गाँठ गिनते-गिनते मैं भी प्रेतिनी हो गयी शायद-जी चाहता है कि ठठा कर हँसूँ-कैसी जिप्सी बनाया प्रेम ने। पिछले वर्ष आज उत्तर मेरु पर थी, आज दक्षिण मेरु पर हूँ, उस दिन दुनिया की छत पर थी, आज-इससे गहरा और कौन-सा पाताल होगा जिसमें मैं आज हूँ! और आगे सागर हहराता है आदिहीन और अन्तहीन; और सहसा स्वयं अपनी अन्तहीनता एक भयावना स्वप्न बनकर मेरे सामने आ जाती है-भुवन, यह अन्तहीन जिप्सी प्रेतिनी जाएगी कहाँ!

तुमने एक बार मुझे लारेंस की कविता भेजी थी। लो, आज मैं तुम्हें एक का अंश भेजती हूँ। कोई सिर-पैर इसका नहीं है, फिर भी कुछ प्रासंगिकता मानो उसमें है।

समथिंग इन मी रिमेम्बर्स एण्ड विल नाट फ़ार्गेट ; द स्ट्रीम आफ़ माइ लाइफ़ इन द डार्कनेस डेथवार्ड सेट। एण्ड समथिंग इन मी हैज़ फ़ार्गाटिन , हैज़ सीज्ड टु केयर , डिज़ायर कम्स अप एण्ड कटेंटमेन्ट इज़ डिबानेयर। आइ हू एम वोर्न एण्ड केयरफ़ुल हाउ मच डू आइ केयर ? हाउ इज़ इट आइ ग्रिन देन , एण्ड चक्ल् ओवर डिस्पेयर ? ग्रीफ़ , ग्रीफ़ आइ सपोज़ एण्ड सफ़ीशेंट ग्रीफ़ मेक्स अस फ्री टु बी फ़ेथलेस एण्ड फ़ेथफुल टुगेदर एज वी आल हैव टु बी।

(कुछ मुझमें है जो स्मरण करता है और भूल नहीं सकता ; अन्धकार में मृत्यु की ओर उन्मुख मेरी जीवन धारा।

और कुछ मुझमें भूल गया है और परवाह नहीं करता ; वासना फिर जागती है और सन्तोष मौज़ में आता है।

मैं जो क्लान्त और चिन्ता-ग्रस्त हूँ-मुझे कितनी परवाह है ? कैसे मैं हँसता हूँ और निराशा पर खिलखिलाता हूँ?

दुःख , दुःख-मेरी समझ में पर्याप्त दुःख ही हमें स्वतन्त्र करता है एक साथ ही वफादार और बेवफा होने के लिए, जैसा कि हम सभी को होना पड़ता है। - डी. एच. लारेंस)


प्रिय भुवन;

मौसी अब यात्रा से ऊबने लगी है; मैं भी ऊब गयी होती अगर पहले अपने से ही न ऊबी हुई होती, और हम लोग लौट रहे हैं। इस बीच में दो-तीन सप्ताह बीमार भी रही, उसने मौसी को और उबा दिया। लौटते हुए हम लोग श्री अरविन्द आश्रम भी और श्री रमण महर्षि के आश्रम भी होते आये। कोई आध्यात्मिक अनुभव मुझे हुआ हो, ऐसा तो नहीं, पर आश्रमों का वातावरण अच्छा लगा-यद्यपि था दोनों में कितना अन्तर! रमण महर्षि के दर्शन भी हुए, मौसी ने उनसे कई प्रश्न भी पूछे। उन्होंने क्या-क्या कहा यह न तो याद है न लिखने में कोई तुक, पर चलते समय मुझसे जो दो-एक बात उन्होंने कहीं उससे उनकी मानवी संवेदना का गहरा प्रभाव मुझ पर पड़ा।

अध्यात्म की ओर मेरी रुचि नहीं है, भुवन, उधर सान्त्वना खोजने की कोई प्रेरणा भीतर से नहीं है। पर सोचा है कि लौट कर फिर कुछ काम करूँगी-और अब आर्थिक आज़ादी की प्रेरणा से नहीं, आत्म-निर्भरता की प्रेरणा से नहीं, एक डिसिप्लिन के रूप में...दर्द है तो है; अपना जीवन मैंने उसे दे दिया, अब कहाँ तक उसे सँजोये फिरूँगी? इस कथन में कुछ विद्रोह का-सा स्वर है; विद्रोह मुझमें नहीं है, सम्पूर्ण नैराश्य ही है; इतना सम्पूर्ण कि अब उसकी दुहाई कभी नहीं दूँगी...

तुम अब पत्र लिखोगे, भुवन? तुम्हें गये चार महीने हो चले, तुमने अभी पहुँच की भी खबर नहीं दी! वैसे अखबार में मैंने पढ़ा था; तुम्हें नौ-सेना और वायु-सेना से भी मदद मिली है-गनबोट में तुम लोग माप लेने गये थे...भुवन, तुम्हारे समाचार

अखबारों से मिला करेंगे, यह नहीं सोचा था। अखबारों में भी निकलेंगे, यह तो विश्वास था, पर मैं भी उन्हीं पर निर्भर करूँगी, यह नहीं!

गाड ब्लैस यू

तुम्हारी

रेखा

भुवन,

अभी वकील की चिट्ठी आयी है कि तलाक़ की कार्रवाई सम्पूर्ण हो गयी-डिग्री को छः महीने हो गये और अब मैं मुक्त हूँ, सर्वथा मुक्त-और उन्होंने मुझे बधाई दी है। और हेमेन्द्र के वकील की भी इसी आशय की चिट्ठी आयी है। उन्होंने यह भी सूचना दी है कि हेमेन्द्र का विवाह अगले महीने हो रहा है और मुझे सलाह दी है कि मैं उसे अपनी शुभ-कामनाएँ भेजूँ, कड़ुवाहट बनाये रखने से कोई लाभ नहीं होता। इस सलाह की मुझे आवश्यकता नहीं थी-मुझे हेमेन्द्र से अब कोई शिकायत नहीं है, और उसके विवाह पर मैं बिना मन में कुछ रखे उसकी कल्याण-कामना करूँगी-पर वकील ने अनिवार्य कर्त्तव्य से आगे जाकर यह सब मुझे लिखा है इसके लिए मैं उसकी कृतज्ञ ही हूँ। उन्होंने मेरे लिए भी आशा प्र्रकट की है कि मैं पुराने आघातों को ही न सहलाती रहकर भविष्य का निर्माण करूँगी-उन्हें मेरे भविष्य में विश्वास है, और उनका अनुरोध है कि जब भी कुछ महत्त्वपूर्ण मेरे जीवन में घटे तो उन्हें सूचित करूँ। इसका क्या उत्तर दूँ; भुवन? हँस दूँ? लिख दूँ कि आपका आवेदन देर से आया-महत्त्वपूर्ण तो सब घट चुका?

वह सब मैं सोच लूँगी, भुवन! अभी मेरे मन में तुम्हारे भविष्य का विश्वास उमड़ आया है, और मैं तुम्हें आशीर्वाद दे रही हूँ। तुम्हारे पिछले पत्रों में जो गहरी निराशा थी, उसे मैं नहीं स्वीकार करती; तुम उसमें से निकल आओगे। जिस चौखटे की, जिस दीवार की बात तुमने कही है, उससे भी तुम ऊँचे उठोगे। मुझे छूने के लिए नहीं-मैं गिनती में नहीं हूँ-अपनी बाँहों में दुनिया को घेरने के लिए! निराश मत होओ, भुवन, अपने जीवन को परास्त-भाव से नहीं, स्रष्टा-भाव से ग्रहण करो; एक विशाल पैटर्न है जो तुम्हें बुनना है; तुम्हारी प्रत्येक अनुभूति उसका एक अंग है, प्रत्येक व्यथा एक-एक तार-लाल, सुनहला नीला...मैं-मैं भी उसी ताने-बाने के तारों का एक पुंज हूँ-तुम्हारे जीवन-तट का एक छोटा-सा फूल। मेरे बिना वह पैटर्न पूरा न होता, लेकिन मैं उस पैटर्न का अन्त नहीं हूँ-मैं इसमें सुखी हूँ कि मैंने भी उसमें थोड़ा-सा रंग दिया है-शायद थोड़े-थोड़े कई रंग...सब उज्ज्वल नहीं हैं, लेकिन कुल मिला कर यह फूल कभी अप्रीतिकर या तुम्हारे पैटर्न में बेमेल नहीं होगा यही मानती हूँ। मेरा आशीर्वाद लो, भुवन, और आगे बढ़ो, जहाँ भी तुम जाओ, जो भी करो, मेरा प्यार और आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। मेरा विश्वास तुम में अडिग है।

और मैं? मेरी चिन्ता मत करो। काल के पास एक अमोघ मरहम है। मैं भी काम कर रही हूँ। दो महीने से स्वयंसेविका नर्स का काम मैंने लिया है, साथ काम सीख भी रही हूँ; पूरा नर्सिंग सीखने में तो अधिक समय लगता पर प्रबन्ध का काम भी मैं करती हूँ; मेरे लिए वह आसान है पर नर्सों में प्रबन्ध-कुशल कम मिलती हैं और इसलिए वह काम मुश्किल समझा जाता है-या उस काम के लिए कार्यकर्ता पाना मुश्किल समझा जाता है। फलतः मेरा काम बराबर बढ़ता जाता है, और सोचने के लिए मुझे कम अवकाश मिलता है...कुछ सोचती हूँ तो कभी जब बीमार होती हूँ-और बीमार बीच-बीच में हो जाती हूँ-मेरी वाइटैलिटी बहुत कम हो गयी है। और भुवन, श्रीनगर में मैं मरकर भी नहीं मरी, पर तब से अधूरी मृत्यु कई बार हो चुकी है; अब डाक्टर ने कहा है कि एक आपरेशन फिर करना पड़ेगा नहीं तो इस तरह घुलकर मर जाऊँगी। मरने में और नया कुछ होगा यह तो नहीं लगता, पर घुलकर घिसट कर मरना नहीं चाहती...लेकिन आवृत्ति भी नहीं चाहती-नहीं, आवृत्ति तो नहीं हो सकती पर आजकल बड़े जोरों की बारिश होती रहती है यह ज़रा थम ले तो...वैसे भी बारिश का मौसम अच्छा नहीं होता। डाक्टर का कहना है, अगले महीने या अक्टूबर में आपरेशन हो जाये-और अगर दार्जिलिंग जा सकूँ तो और अच्छा, या कहीं पहाड़ पर। देखें...

भुवन द्वारा गौरा को :

गौरा,

आज छः महीने बाद तुम्हें फिर पत्र लिखने बैठा हूँ। इन छः महीनों में तुम्हारा भी कोई पत्र नहीं आया है। तुम्हारा पत्र क्यों नहीं आया, इसका कारण तो यही है कि मैंने पता नहीं दिया। न देने पर भी तुम पता लगाकर चिट्ठी भेज सकती थी यह मैं जानता हूँ, पर यह भी जानता हूँ कि फिर भी तुम चुप रही तो यह मानकर ही चुप रही होगी कि मैंने वैसा चाहा है-या कि उसमें मेरा हित है। तुम्हारा जो पिछला पत्र मुझे मिला था-कलकत्ते नहीं, सिंगापुर मिला वह-उससे भी यह स्पष्ट होता है। यह सब जानकर भी, मैं अपने को समझा लेना चाहता हूँ कि तुम मुझे भूल गयी क्योंकि, क्यों कोई मेरे हित को लेकर इतना चिन्तित हो, क्यों कोई मेरे अन्याय, मेरे आघात सहे? यह सब स्नेह, करुणा, वात्सल्य-सब मानो एक बोझ-सा मुझे दबाये डालता है...एक नये बोझ-सा, क्योंकि एक बोझ पहले ही मेरे कन्धों पर है-मानो एक सजीव बोझ, एक सजीव शाप का बोझ, सिन्दबाद के कन्धों पर सवार सागर के बूढ़े-सा, जो विवश न मालूम किधर ले जा रहा है। कई महीनों से जानता हूँ कि मेरा जीवन किसी नयी अज्ञात, अकल्पित दिशा में बहा जा रहा है, और शायद एक ट्रैजेडी की ओर। ठीक क्या है नहीं सोच पाता; और न काम में अपने को सोचने का मौका ही देता हूँ। पर कभी-कभी बहुत वृष्टि में काम बन्द हो जाता है, अपने बाँस और लकड़ी के घर में बन्दी होकर केवल वर्षा की टपाटप सुनता रहता हूँ जैसे आज तीन दिन से सुन रहा हूँ, सब कपड़े, कागज़, खुली हुई कोई भी चीज़ सील जाती है; तब खाली बैठकर सोचने को बाध्य हो जाता हूँ...तब लगता है, इस सागर-यात्रा के साथ जिस जीवन से निकला, उसमें अब लौटना नहीं है, कुछ मेरे भीतर बराबर मरता जा रहा है और कुछ नया उसके स्थान पर भरता जाता है जो स्वयं भी मरा है या जीता है नहीं मालूम...यहाँ काम समाप्त होगा तो शायद लौटना ही होगा, पर मानो लौटने का, लौटकर किसी से भी मिलने का मुझे डर है, जैसे मैं स्वयं अपना प्रेत हो गया हूँ, और डरता हूँ कि लौटकर जब लोगों से मिलूँगा तो पाऊँगा कि मैं तो अब सच नहीं हूँ, केवल प्रेत हूँ-और वैसा पाना मैं नहीं चाहता, नहीं चाहता!

लेकिन न जाने क्यों तुम से मिलने को, तुम से बात करने को, तुम्हें न जाने क्या कुछ बताने को मन होता है...मुझे लगता है कि मैं खड़े-खड़े बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट होते, मरते देखा किया हूँ, अकेले देखा किया हूँ और इसलिए साथ ही स्वयं भी मरता रहा हूँ; अगर उस अकेलेपन से निकल सकता, तो देखा है वह कर सकता, तो शायद उस मृत्यु से भी उबर सकता...

नहीं, गौरा! ये सब बातें लिखने की नहीं है। मैं अच्छी तरह हूँ, काम रुचिकर है और शायद कुछ उपयोगी भी। कास्मिक रश्मियों के साथ-साथ रेडियो का भी काम हम लोग कर रहे हैं। वैसे यहाँ अशान्ति है और बढ़ रही है, पर हमारा काम ऐसा है कि हमें सब कुछ से अलग ले जाता है। तुम क्या कर रही हो? आशा है कि अपने लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बना सकी हो, और अपने काम में तृप्ति पा रही हो-काम से अभिप्राय सिर्फ़ सिखाने का नहीं है, उसकी बात कह रहा हूँ तुम जिसे अपना काम जानती हो, जिसमें तुम्हारी अभिव्यक्ति है। लिखना ज़रूर। माता-पिता का भी हाल लिखना।

तुम्हारा

भुवन

गौरा,

नहीं, मेरा मन यहाँ से उचट चला-चला नहीं, एकदम असह्य रूप से उचाट हो गया...जगह बहुत सुन्दर है, लोग बड़े हँस-मुख, स्त्रियाँ रूपवती-उनके खुले कन्धों और बाँहों में ऐसी एक कान्ति है कि कही नहीं जाती, जैसे अखरोट की लकड़ी की पुरानी और पालिशदार मूर्ति पर कोई पारदर्शी ओप चढ़ा हो-पर नहीं, लकड़ी कैसे उस जीवित त्वचा की बराबरी कर सकती है? नृत्य भी मैंने देखे हैं, मन्दिरों में चर्मवाद्यों का संगीत भी-पर नहीं, नहीं, नहीं! सहसा भीतर कुछ उभर आया है कि नहीं, यह तुम्हारा स्थान नहीं है, चलो! और यह निरी 'होम सिकनेस' नहीं है-यहाँ का न होने में देश की भावना बिलकुल नहीं है, सारी परिस्थिति से असन्तोष है। मैं जैसे किसी सुदूर पोत-भंग का एक टूटा, बह कर आया हुआ विपन्न तख़्ता हूँ-फ्लाट्सम-लहरों के थपेड़े खाता लुढ़कता-पुढ़कता कहीं लगा हूँ और जानता हूँ कि नहीं, वह ठिकाना नहीं है, और वह पोत तो अब हुई नहीं जिसका मैं अंश हूँ-था! अपने को ऐसे बहते देखा जा सकता है एक प्रकार की तटस्थता से और निरन्तर देखते रहने से एक मोहावस्था भी हो जाती है, पर सहसा वह टूटती है तो...

तुम सोचोगी कि इस उच्चाटन की सूचना देने का क्या अर्थ हुआ अगर साथ यह नहीं कह रहा हूँ कि मैं वापस आ रहा हूँ। पर नहीं। वापस तो नहीं आ रहा। और 'वापस' शब्द ही समझ में नहीं आता-वापस कोई कभी गया है? फिर भी मन हुआ कि इस मनःस्थिति की सूचना तुम्हें देनी चाहिए, वह दे दी...अगर इसे तुम उद्भ्रान्ति समझो, तो ठीक है, उदभ्रान्त तो मैं हूँ...

तुम्हारा स्नेही

भुवन

मेरी प्रिय गौरा,

इस स्थान के तीन ओर पानी है-समुद्र तो नहीं, पर समुद्र से लगी हुई खारी झील का-मैं चार महाकाय सागौन वृक्षों और छः-सात ताल वृक्षों की ओट में से उसे देखता हूँ, और यह ओट उसे और भी विस्तार दे देती है। पीछे एक छोटी हरी पहाड़ी है। पेड़ों की आड़ में पानी के दूसरी पार की नीची पहाड़ियों की शृंखला है, और सागौन के बड़े-बड़े पत्तों के गवाक्ष में से दीख जाती हैं थिरकती हुई पालदार नौकाएँ। और मैं 'होम-सिक' हूँ-मान लेता हूँ कि होम-सिक हूँ-यद्यपि यह मेरे लिए एक शब्द ही है, मैं तो निर्गृह ही हूँ और यह केवल ऊब का दूसरा नाम है! पर नहीं, सच कहूँ तो तुम्हारी स्मृति से भर गया हूँ। मेरा शरीर आज ठीक नहीं है; मैं दोपहर से ही आराम-कुर्सी पर बैठा हूँ, अब रात हो गयी है; इन छः-सात घंटों में मैंने कुछ नहीं किया है सिवा तुम्हारी बात सोचने के, एक-टक तुम्हें देखते रहने के। तुम्हारी पलकों की एक-एक झपक देखता रहा हूँ; और वेणी को किरीटाकार पहने हुए तुम्हारे सिर के-क्योंकि जिसे देखता रहा हूँ, वह आज की संगीत-शिक्षिका नहीं, कई बरस पहले की विद्यार्थिनी है!-एक-एक उड़ते ढीठ बाल को मेरी आशीर्वाद-भरी दृष्टि ने गिन डाला है। तुमने नहीं जाना-मेरा यह अवलोकन बिलकुल नीरव, निराग्रह, निःसम्पर्क है-मैं दूर, बहुत दूर वन की साँस हूँ, स्पर्शातीत...

पश्चिम धीरे-धीरे रंजित हुआ, फिर लाल, फिर और लाल, फिर उस लाली में उदासी आने लगी...मैंने कहा, गौरा, एक दिन तुम्हें मैं अपनी कहानी सुनाऊँगा, लाल और उदास...फिर धीरे-धीरे अँधेरा हो चला, आकार ओझल होने लगे और एक हलकी-सी हवा झील की ओर ले बह निकली। मैंने कहा, नहीं गौरा, कुछ नहीं सुनाऊँगा, सुनाने को है ही क्या, चुपचाप सिर झुका लूँगा और प्रतीक्षा करूँगा कि तुम्हारे क्षमा-भरे, करुणा-भरे हाथ मेरे माथे को छू दें...क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हवा के झोंके से तरंगायित यह झील एकाएक सूख जाये, लुप्त हो जाये, कि उसे निरन्तर भागते हुए वाष्पयानों के धक्के न सहने पड़ें, समुद्र में मिलकर ख़ारा न होना पड़े-ख़ारेपन में अपने को खो देते हुए भी समुद्र के बेदर्द थपेड़े न खाने पड़ें-इस दुर्गति को आत्म-समर्पण न करना पड़े! फिर ध्यान आया, ये सब रूपक व्यर्थ हैं, यह सब सुनने-समझने की फुरसत किसे है...कोई भविष्य नहीं है, कोई अतीत नहीं है, अतीत से अपने को उच्छिन्न कर लिया है इसलिए और भी कोई भविष्य नहीं है, क्योंकि भविष्य होता क्या है? अतीत का स्फुरण...केवल वर्तमान जीता है और उस वर्तमान को चाहे समझ लो-तीन ओर पानी, सामने सागौन के पेड़, दूर पहाड़ियाँ, तिरती पालदार नावें, सान्ध्य आकाश, अर्थात् सौन्दर्य और शान्ति-बाह्य वर्तमान; चाहे समझ लो एकाकीपन, ऊब, सूना, उच्चाटन, उत्कंठा अर्थात् आन्तरिक वर्तमान; दोनों एक ही हैं, एक ही वर्तमान, आगे अपनी-अपनी पसन्द है...

सवेरे। रात में दो-तीन बजे वर्षा शुरू हो गयी बड़े जोरों से; अब कुछ ठण्ड है। मेरा शरीर भी कुछ ठीक है। कल से शायद काम करने लायक हो जाऊँ, आज अभी और आलस करने का जी है। पत्र भी लिखता रह सकता हूँ-पर सोचता हूँ, इसे इतना ही छोड़ दूँ। और लिखा तो अलग भेज दूँगा।

तुम्हारा

भुवन

गौरा द्वारा भुवन को :

भुवन दा, मेरे भुवन दा! आज मेरी साधना फली है, और जी होता है, आपकी चिट्ठी सामने रखकर गा उठूँ, कोई वाद्य लेकर-सितार, नहीं वीणा लेकर बजाने बैठूँ मोहन रागिनी, और घंटों बजाती रहूँ, जब तक कि हाथ सन्न न हो जायें-हाथ ही, मेरा उत्साह नहीं, मेरे प्राणों की वह हँसी नहीं जो किसी तरह आप तक पहुँचकर आपके पैरों से लिपट जाना चाहती है!

लेकिन फिर दुबारा आपकी चिट्ठी पढ़ती हूँ, और मेरी मोहन रागिनी सहसा धीमी पड़कर नीलाम्बरी में बदल जाती है। भुवन दा, यह सब क्या है, आप क्या सोचते हैं, क्या वह कष्ट है जो आप इस तरह छिपाये बैठे हैं? छिपाये भी नहीं, कष्ट है यह तो दीखता ही है, और कष्ट के कारण आप अन्याय भी कर जाते हैं कि अगर कष्ट दीखता न होता तो आपका पत्र पानेवाला मर्माहत होकर बैठ जाता-क्या है यह कष्ट कि आप उससे ऐसे हो गये? मैं बार-बार पत्र पढ़ती हूँ, और सोचती रह जाती हूँ कि क्या यह भुवन दा का ही पत्र है, मेरे भुवन दा का...आप मुझे लिखिए-बताइये कि क्या बात है-क्या मैं किसी काम नहीं आ सकती? एक बार आपने कहा था, 'गौरा, अब से तुम से बराबर-बराबर बात करूँगा', बराबर तो मैं कभी नहीं हो सकती पर अगर आप बिलकुल छोटी ही नहीं मानते तो क्या मुझे अपना पूरा विश्वास देंगे?

ऐसी बुरी-बुरी बातें मत सोचिए, भुवन दा! मैं तो कहती हूँ, आप आइये, आकर आप पाएँगे कि आपका डर बिलकुल निर्मूल है। यह नहीं कि आप सच नहीं हैं, जैसा आप ने लिखा है, बल्कि आप ही सच हैं-क्योंकि आप दूसरों को भी जीवन देते हैं। सच भुवन दा, आप कब तक जावा में बैठे रहेंगे? अब आ जाइये न।

पिता जी मसूरी ही हैं, माँ भी। अब वहीं रहेंगे-वहाँ अपना मकान ले लिया है। अब की बार मैं जाऊँगी तो उसको ठीक-ठाक सजा दूँगी। और आप जब आवेंगे तो आप को पहले सीधे वहीं आना होगा-मैं हुई तो भी, और न हुई तो भी क्योंकि तब ख़बर मिलते ही आ जाऊँगी-फिर चाहे जहाँ आप जावें! पिताजी आप को बहुत याद करते हैं। आप जो ऐसे चुपके से चले गये, उसका उन्हें खेद भी है-यद्यपि कभी कहेंगे नहीं।

मैं बहुत परिश्रम कर रही हूँ, सोचती हूँ, अगले साल फिर दक्षिण चली जाऊँ; कम-से-कम एक वर्ष के लिए और हो सका तो दो के; पर अभी कुछ स्पष्ट नहीं सोच पायी हूँ। आपका परामर्श चाहती-पर आप आवेंगे तभी पूछूँगी। कब आवेंगे आप? मैं दिन गिनती रहूँगी।

आपकी ही

गौरा

भुवन दा,

बस अब आप आ जाइये वापस-मैं पापा को लिख रही हूँ कि आप आकर मसूरी रहेंगे, और एक कमरा आपके लिए तैयार कर दिया जाये-वह आपके लिए तैयार ही रहेगा, आप जब भी आवें। वह आपका ही कमरा रहेगा, भूलिएगा नहीं।

गौरा

भुवन दा,

आप फिर चुप लगा जाएँगे? जब से आप को जाना, तब से कभी नहीं सोचा कि ऐसा होगा-यों आप चिट्ठी नहीं लिखते थे पर वह इसलिए नहीं होता था कि आप कुछ नहीं बताना चाहते, वह इसीलिए होता था कि बताने की ज़रूरत नहीं, मुझे मालूम है...पर अब? आहत होकर मैंने सीख लिया कि नहीं, ऐसा भी हो सकता है कि आप मुझे बहुत-सी बातों से दूर रखना चाहें-कुछ सीखकर फिर मैंने उसे भी स्वीकार कर लिया; आप ही ने दूर हटा दिया तो मैं कौन-सा मुँह लेकर पास आने या बुलाये जाने का आग्रह करूँ? अब फिर-आप ने मुझे माफ कर दिया है, मुर्च्छा से जगा दिया है-अब फिर आप दूर ठेल कर डूब दे जाएँगे? जैसे कोई दुःस्वप्न देखकर जब जागता है तो आँख खोलते डरता है-कि न जाने क्या दीख जाये, न जाने कहीं सपने के भयावने आकार सचमुच न सामने आ जायें यद्यपि आँख खोलने में ही उनसे निस्तार है-स्वप्न की मोहावस्था से छुटकारा है-वैसी ही मैं हो रही हूँ; दुःस्वप्न से डर गयी हूँ पर प्रकाश में आँखें खोलते डर रही हूँ; धीरे-धीरे आँख खोल रही हूँ, कि प्रकाश की अभ्यस्त हो जाऊँ, फिर चारों ओर नज़र डालूँ-भुवन दा, मुझे फिर डरा न दीजिएगा, प्रकाश में मैं फिर वे भयावने आकार न देखूँ...मैं तो यह भी कर सकती हूँ कि अब आँखें मीचे ही पड़ी रहूँ, जब तक आप ही आकर न जगायें और कहें कि उठो, कहीं कोई डर नहीं है, देखो मैं हूँ...आप कहेंगे कि यह वयस्क दृष्टि नहीं है, बच्चों की-सी बात है-कह लीजिए; आपके सामने बच्चा बनते भी मुझे डर नहीं है। आपने कन्धों चढ़ाया था, सिर चढ़ाया था; मैं उसी की आदी हो गयी हूँ। आप पटक दीजिए; तब बिना रोये चल भी लूँगी, तब तक अपने-आप तो अपनी जगह से हटती नहीं।

आप कहेंगे इतरा रही है-रही हूँ न? नहीं भुवन दा, आप कहेंगे तो तुरत हट जाऊँगी, नहीं भी कहेंगे, तो जभी जानूँगी कि आप वैसा चाहते हैं, चाह सकते हैं, या उसमें आपका हित या सुख या शान्ति है, तो भी हट जाऊँगी।

आप बिलकुल स्वस्थ हैं न? मुझे शीघ्र पता दीजिए।

आपकी

गौरा

भुवन दा, आप बड़े अच्छे हैं। पिताजी का पत्र आया है कि आपकी चिट्ठी उन्हें मिली है; चलिए आपने मुझे न लिखकर उन्हें तो लिखा, अच्छा ही किया। पर उन्होंने यह भी लिखा है कि आप फिर और कहीं दूर जाने की सोच रहे हैं-यह क्या मामला है? क्या इसीलिए मुझे पत्र नहीं लिखा-कि मैं दुःखी हूँगी? पर भुवन दा, मेरे लिए कितनी भी दुःखद खबर क्यों न हो, आप सीधे मुझे लिखिए। ख़बर कैसी भी हो, उससे मुझे जितना क्लेश होगा उससे ज्यादा इस बात से कि वह मुझे सीधे आपसे नहीं मिली, औरों के जरिये मिली...मैंने तो सोचा था-पर जाने दीजिए जो सोचा था!

आज तक किस का हुआ सच स्वप्न जिसने स्वप्न देखा ? कल्पना के मृदुल कर से मिटा किस की भाग्य -रेखा?

(- नरेन्द्र शर्मा)

भुवन दा, मुझे आशीर्वाद दीजिए, बल दीजिए कि आप दूर हों चाहे पास, आपके स्नेह से मँजकर शुद्ध होकर मैं चमकती रहूँ; असफलता और निराशा मुझे कड़वा न बना सकें...

आप की ही

गौरा

रेखा द्वारा भुवन को :

भुवन,

यह पत्र तुम्हें अस्पताल से लिख रही हूँ-नहीं, तुम घबराना नहीं, यह नर्सिंग होम है, और मैं अब बिलकुल ठीक हूँ। और शुश्रूषा पा रही हूँ। मौसी भी साथ हैं, और कलकत्ते से डाक्टर भी साथ आये थे, वह भी यहीं है। बीच में चले गये थे, अब मुझे लिवाने फिर आये हैं-दीवाली के दिन में कलकत्ते पहुँच जाऊँगी और दीवाली घर पर ही होगी। तुम उस समय कहाँ होगे? दिया जलाओगे? और नहीं तो एक आकाश-दीप जला देना-मैं प्रेतात्मा तो नहीं हूँ-या कि हूँ भुवन?-पर मेरी शुभाशंसा तुम्हारे चारों ओर मंडराएगी और तुम पथ दिखा दोगे तो तुम्हें छू जाएगी...

हेमरेज फिर हुआ था-बहुत-उसका तात्कालिक उपचार करके डाक्टर रमेशचन्द्र मुझे यहाँ ले आये थे। कुछ ग्रोथ थी भीतर। यहाँ आपरेशन हो गया; अधिक कष्ट नहीं हुआ और तब से मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ। दार्जिलिंग का जलवायु और यह शरद ऋतु की धूप-एक अलस, ताप-स्निग्ध तन्द्रा देह पर छायी रहती है, पर उस अलसानेपन में भी शरीर का पुनर्निर्माण हो रहा है, और बहुत दिनों के बाद उसे स्वस्थता का बोध हो रहा है-जैसे अब जब वह हिले-डुलेगा, कर्म-रत होगा, तो कर्तव्य भावना के कारण नहीं, शून्यता के भय के कारण नहीं, कुछ करने की माँग के कारण, स्फूर्ति के कारण, प्रवृत्ति के कारण...कैसी अद्भुत लगती है यह भूल गयी-सी भावना! और इसका श्रेय बहुत-कुछ डाक्टर रमेशचन्द्र को है। आपरेशन उन्होंने नहीं किया-मैंने ही उन्हें नहीं करने दिया-पर शुश्रूषा-चिकित्सा सब उनकी रही; चिकित्सा से भी बढ़कर उन्होंने एक गहरी संवेदना मुझे दी जिसमें मेरी गाँठ बँधी हुई कचोट मानो द्रव होकर धीरे-धीरे बह गयी...वह भी तुम्हारी तरह धुनी और कार्य-व्यस्त जीव हैं, तुम्हारी तरह कम बोलते हैं, पर जिससे भी मिलते हैं, उस पर उनका गहरा असर होता है-थकी, झुकी, अवसन्न चेतना को जैसे उनकी संवेदना तुरत सहारा देकर सीधा कर देती है। 'राइज़ अप एण्ड वाक' (उठ और चल) और 'वेरिली ही थ्रू अवे हिज़ क्रचेज़ एण्ड वाक्ड, एण्ड द पीप्ल मार्वेल्ड' (सचमुच उसने अपनी बैसाखियाँ फेंक दी और चलने लगा और लोग चकित हो गये। -बाइबिल)...तुम न मालूम स्वदेश कब लौटोगे, नहीं तो तुमसे कहती, उनसे मिलना-तुम्हें उनसे मिलकर खुशी होती, मुझे पूरा विश्वास है।

तुम कैसे हो भुवन? तुमने पिछले पत्र में मुझे लारेंस की जो कविता भेजी थी उसी से अनुमान लगाऊँ तुम्हारी मनःस्थिति का तो वह स्वीकार नहीं होता-नहीं भुवन, दर्द को, परिताप को जी से चिपटा कर मत बैठो-देखो, यह तुमसे मैं कहती हूँ, मैं! एक निग्रो कविता है :

आइ रिटर्न द बिटरनेस

ह्विच यू गेव टू मी ;

ह्वेन आइ वांटेड लव्लिनेस

टैंटेलैंट एण्ड फ़्री।

आइ रिटर्न द बिटरनेस

इट इज वाश्ड बाइ टीअर्स

नाउ इट इज़ लव्लिनेस।

गार्निश्ड थ्रू द यीअर्स।

आइ रिटर्न इट विद लव्लिनेस

हैविंग मेड इट सो :

फ़ार आइ वोर द बिटरनेस

फ्राम इट लांग ऐगो।

(मैं लौटाती हूँ वह कटुता जो तुमने मुझे दी थी, जबकि मैं चाहती थी सौन्दर्य, मुक्त और दोलायमान।

मैं लौटाती हूँ वह कटुता ; अब वह आँसुओं से धुल गयी है-अब वह वर्षों बीन-बीन कर संग्रह किया हुआ सौन्दर्य है।

मैं उसे लौटाती हूँ सौन्दर्य के रूप में , जो मैंने बनाया है, क्योंकि कटुता तो उसमें से मैंने कब की धो डाली।)

इसके पहले पद को उलहना न समझना, सार की बात अन्तिम पद में है : हम अपने भीतर पका कर व्यथा को सौन्दर्य बनाते हैं-यही सृष्टि का रहस्य है, बल्कि यह तुमने मुझे बताया था! पकाने में समय बीत जाता है, हम बूढ़े भी हो जा सकते हैं, परास्त भी हो सकते हैं, हमारी आकांक्षाएँ अधूरी भी रह जा सकती हैं-पर उस सबका कोई महत्त्व नहीं है, बूढ़े होने का नहीं, हारने का नहीं-महत्त्व है उस आन्तरिक शान्ति का जो पकने में मिलती है, उस तन्मयता का...मैं तो यही अनुभव करती हूँ, तुम मालूम नहीं ऐसा करते हो कि नहीं, पर उस गम्भीर शान्ति का बीज मुझमें तुम्हीं ने बोया था, और उसकी जड़ें निरन्तर गहरी होती जा रही हैं। मैं शान्त हूँ; जो भावनाएँ मुझे तोड़ती-मरोड़ती, चिथड़े करके रख देती थी, अब मुझे छूती भी नहीं। और यह नहीं कि मैं हृदय-हीन हो गयी हूँ, संवेदनशून्य हो गयी हूँ-नहीं, मैं अधिक संवेदनशील भी हूँ, पर अधिक अनासक्त भी...

लेकिन मैं बहुत बक रही हूँ-अपने बारे में बहुत बातें कर रही हूँ! भुवन, एक बार जड़ता की सीमा को छू आकर ही जीवन वास्तव में शुरू होता है; मुझे लगता है कि तुम भी उस अवस्था में से गुज़र रहे हो...एक बार अपने को मर जाने दो-अपनी ही राख में से फिर तुम उदित होगे-परिशुद्ध होकर, कान्तिवान्...

यह सब तुम्हें दम्भोक्ति या प्रलाप लगे तो ध्यान कर लेना कि मैं नर्सिंग होम की आराम-कुर्सी से लिख रही हूँ-ए जैबरिंग ओल्ड सिक हैग!*

मेरा हार्दिक स्नेह लो।

तुम्हारी

रेखा

(* एक बड़बड़ाती हुई बीमार बुढ़िया!)

भुवन,

तुम्हारी चिट्ठी मिली है। मैं कृतज्ञ हूँ। शायद सात महीने बाद तुम्हारी यह चिट्ठी है, लेकिन इसे पढ़कर मुझे लगा कि हम दोनों की मानसिक प्रगति लगभग समान्तर होती रही है। फिर मैंने तुम्हारे पिछले दो-चार पत्र भी निकाल कर पढ़े, और उससे यह भावना और भी पुष्ट हो गयी। समान सोचते हैं तो दूर नहीं हैं; इतना ही नहीं, मुझमें जो परिवर्तन-ठीक परिवर्तन वह नहीं है, विकास, प्रस्फुटन, भीतरी और घटना-जन्य सम्भावनाओं का स्फुरण-हो रहा है उसे लक्ष्य करके तुम्हारे बारे में आश्वस्त भी हो सकती हूँ...मैंने एक बार प्रतिज्ञा करनी चाही थी कि अपने कारण तुम्हारा कोई अहित नहीं होने दूँगी; फिर सहसा इस डर से रुक गयी थी कि क्या जाने, चाह कर भी इसे निभा पाऊँगी कि नहीं; इसलिए यही शपथ ली थी कि जहाँ तक हो सकेगा नहीं होने दूँगी...अब जानती हूँ कि वह प्रतिज्ञा शायद टूटी नहीं-अहित बिलकुल नहीं हुआ यह तो नहीं कह सकती, पर जहाँ तक सकी-नहीं, जितना हुआ, उसे घातक होने से शायद बचा सकी हूँ और मेरी आशाएँ तुममें जी सकेंगी, सुफल हो सकेंगी...

तुम भटक रहे हो, भटकोगे, और भटकना चाहते हो, यायावार हो जाना चाहते हो। चाहते हो तो क्यों नहीं हो जाते? भुवन, मैं तो स्त्री हूँ, और मेरा स्वास्थ्य भी चौपट ही है, लेकिन मैंने भी कई बार चाहा है यायावार होकर बन्धन-हीन विचरना। पर जहाँ, जैसे, जैसी हूँ, मैं जान गयी हूँ कि वह नहीं है मेरे लिए, कि कभी-न-कभी-और शायद जल्दी ही-मुझे कहीं टिक जाना होगा; स्थिर हो जाना होगा, मान लेना होगा कि पड़ाव आ गया-इसलिए नहीं कि मेरी आकांक्षा की दौड़ वहीं तक थी, इसलिए कि मेरी सकत की दौड़ आगे नहीं है...पर तुम, तुम घूमो, महाराज, मुक्त विचरण करो, प्यार दो और पाओ, सौन्दर्य का सर्जन करो, सुखी होओ, तुम्हारा कल्याण हो...

मैं बिलकुल ठीक हूँ; काम मैंने फिर आरम्भ कर दिया है। डा. रमेशचन्द्र के आग्रह और प्रयत्न से मैं अस्पताल से हटकर केवल व्यवस्था के काम में लग गयी हूँ : उनका आग्रह था कि मैं रोग और रोगियों के वातावरण में न रहूँ। और मैं अब अनुभव कर रही हूँ कि ठीक ही था-उसका मेरे मन पर निरन्तर बोझ रहता था; और इस व्यवस्था के काम में बढ़ते हुए उत्तरदायित्व से कुछ प्रेरणा भी मिलती है, कुछ सान्त्वना भी।

उधर युद्ध के बादल घिर रहे हैं। तुम कब तक उधर रहोगे, भुवन? अब तो फिर जाड़े आने लगे! कभी पढ़ा था, जाड़े आते हैं तो वसन्त भी दूर नहीं है-पर अब मालूम होता है कि यह बात भी किसी 'इनफ़ीरियर फिलासफ़र' की कही हुई है, जिससे बचना चाहिए।

तुम्हारी

रेखा


भुवन द्वारा गौरा को :

गौरा,

खबर तुमने सुनी? ज़रूर सुनी होगी! बड़े धड़ल्ले के साथ जापान युद्ध में कूद आया। और एक ही चोट में उसने अमेरिका को कितना बड़ा आघात पहुँचाया है। देश में बहुत होंगे जो इस पर खुश हो रहे होंगे-चालीस-एक बरस पहले जब जापान ने रूस को हरा दिया था और यूरोप चकित होकर देखता रह गया था कि एक छोटे-से एशियाई द्वीप-राज्य ने एक यूरोपीय साम्राज्य-शक्ति को पछाड़ दिया, तब जो एशियाई गर्व जागा था, उसे आज नया प्रोत्साहन मिलेगा। पर उसमें और इस में जो अन्तर है, उसकी लोग उपेक्षा कर पाएँगे : तब गर्व करना उचित था, क्योंकि एक दबी हुई जाति ने सिर उठाया था और उसमें दूसरी उत्पीड़ित जातियों के लिए आशा का संकेत था; पर अब? अब जापान भी एक उत्पीड़क शक्ति है, साम्राज्य भी और साम्राज्यवादी भी-और आज उसको बढ़ावा देना, एक नयी दासता का अभिनन्दन इस आधार पर करना है कि वह दासता यूरोपीय की नहीं, एशियाई प्रभु की होगी। कितना घातक हो सकता है यह तर्क! परदेशी गुलामी से स्वदेशी अत्याचार अच्छा है, यह एक बात है, यह मानी जा सकती है; पर क्या एशियाई नाम जापान को यूरोप की अपेक्षा भारत के अधिक निकट ले आता है, जापानी को यूरोपीय की अपेक्षा अधिक अपना बना देता है? जाति की भावना गलत है, श्रेष्ठत्व-भावना हो तो और भी गलत-हिटलर का आर्यत्व का दावा दम्भ ही नहीं, मानवता के साथ विश्वासघात है; पर अपनापे या सम्पर्क की बात कहनी हो तो मानना होगा कि यूरोप ही हमारे अधिक निकट है, आर्यत्व के नाते नहीं, सांस्कृतिक परम्परा और विनिमय के कारण, आचार-विचार, आदर्श-साधना और जीवन-परिपाटी की आधारभूत एकता के कारण...यह हमारे भारत के एक स्थानीय प्रश्न (विश्व की भूमिका में हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न को स्थानीय ही मानना होगा) से उत्पन्न कटुता के कारण है कि हम नहीं देख सकते कि न केवल यूरोप के बल्कि निकटतर मुस्लिम देशों के-'मध्यपूर्व' के-साथ हमारा कितना घनिष्ट सांस्कृतिक सम्बन्ध न केवल रहा है बल्कि आज भी है, और हम चीन से, और चीन की मारफ़त जापान से सांस्कृतिक आदान-प्रदान का नाता जोड़ते हैं। फ़ाह्यान और यूवान च्वांग थे, ठीक है; पर अतीत का ऐतिहासिक सम्बन्ध आज का सजीव सम्बन्ध नहीं भी हो सकता है; और केवल मूर्ति-कला को लेकर हम कहाँ तक दौड़े जाएँगे, धर्म और दर्शन, गणित और विज्ञान, आचार और विचार के सम्बन्धों की अनदेखी करके? और हाँ, अत्याचार और उत्पीड़न, दास-दासियों के क्रय-विक्रय, लूट और व्यापार और धर्षण और विवाह के सम्बन्धों की, रक्त के, रीति-रस्म के, कला और साहित्य के, भोजन-वसन के, भाषा के, नामों के मिश्रण की अनदेखी करके? हम किसी देश का, किसी देश की जनता का, अहित नहीं चाहते, पर एशियाई नाम को लेकर जापानी साम्राज्य-सत्ता का अनुमोदन करना या उसके प्रसार को उदासीन भाव से देखना, खण्ड के नाम पर सम्पूर्ण को डुबा देना है, अंग्रेजी कहावत के अनुसार अपने मुँह से लड़ कर अपनी नाक काट लेना है; मानवता के साथ उतना ही बड़ा विश्वासघात करना है जितना उन्होंने किया था जो मुसोलीनी द्वारा अबीसीनिया या हिटलर द्वारा चेकोस्लोवाकिया के ग्रास के प्रति उदासीन थे...

पर यह सब मैं क्या लिख रहा हूँ? कहना यह चाहता हूँ कि इस खबर ने मुझे झकझोर दिया है। यहाँ काम भी अब आगे नहीं हो सकता-बड़ी तेज़ी से फ़ौजी संगठन हो रहा है और और सब काम रुक गया है। हम तुरत यहाँ से जा रहे हैं-आजकल में शायद वायुयान से सब सामान समेत सिंगापुर ले जायें जाएँगे, वहाँ से आगे जैसा हो। मैं भारतवर्ष लौट रहा हूँ। क्रिसमस से पहले नहीं तो मासान्त तक अवश्य पहुँच जाऊँगा। यह नहीं कह सकता अभी कि कलकत्ते पहुँचूँगा, या कोलम्बो, या कहाँ-जैसा प्रबन्ध हो जाए। पक्का पता लगते ही तार से तुम्हें सूचित करुँगा। मेरे मन में अनेक विचार उठ रहे हैं-अनेक प्रकार के इरादे-पर अभी कुछ स्पष्ट नहीं है, उस बारे में अभी नहीं लिखूँगा; पर सोचता हूँ, तुमसे मिलकर बात-चीत करूँ, तो विचार भी कुछ स्पष्ट हों, और आगे का मार्ग भी कुछ दीखे। गौरा, अगर मैं सीधा तुम्हारे पास न आ सका, और तुम्हें मैंने मिलने के लिए बुलाया, तो आ सकोगी न-आओगी न? या कि रूठ जाओगी? तुमने एक पत्र में लिखा था, “आप बुलावें, उतना मान मेरा नहीं है”,-तुम क्या जानो कि कितना है! पर वह जो हो, उसकी बात मिलने पर; अभी इतना ही कि शायद बुलाऊँ ही-तो आना, क्षमामयी गौरा!

जल्दी में-सहसा बहुत-सा काम करने को हो गया है!

तुम्हारा

भुवन ---

गौरा के नाम भुवन का केबल :

सुरक्षित हूँ लौट रहा हूँ सबको सूचित कर दो निश्चित स्थान तारीख अनन्तर सूचित करूँगा।

भुवन

गौरा के नाम भुवन का केबल :

सिंगापुर सकुशल पहुँचा। आशा है कल कलकत्ता प्रस्थान पहुँचने की अनुमानित तिथि 23 दिसम्बर सको तो मिलो पता मारफत कुक़ या डच् एयरलाइन।

भुवन ---

गौरा का जवाबी तार, एक प्रति टामस कुक, नकल के. एल. एम. डच लाइन कलकत्ता :

सन्देश डा. भुवन के लिए अनुमानित पहुँच 23 दिसम्बर कृपया पहुँचा दीजिए सन्देश आरम्भ मसूरी प्रतीक्षा करती हूँ सीधे आइये असम्भव हो तो तार दें कहाँ मिलूँ आऊँगी मिलना आवश्यकीय स्नेह पिताजी के आशीर्वाद गौरा सन्देश समाप्त पहुँचने पर या देरी होने पर तार से सूचित कीजिए।

मिस नाथ सुकेत मसूरी

गौरा का पत्र, भुवन के नाम, उपर्युक्त दोनों पतों पर :

तो आप आ रहे हैं, भुवन दा! मैंने तार दिया है कि आप मसूरी आ जाइये। पापा का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं है और मैं उनके पास हूँ। फिर भी आती ही-चिन्ता की कोई बात नहीं है-पर आप 23 दिसम्बर को पहुँचते हैं तो कालेज तो तुरत जाना नहीं होगा, इसलिए यहाँ आ सकेंगे यह मैंने मान लिया है। यहाँ आप को भी अच्छा लगेगा, पापा को भी; और मैं भी आपकी सेवा कर सकूँगी-कलकत्ता तो कैसी जगह है...न जाने। पर अगर कोई कठिनाई हुई तो मैं तुरत आऊँगी-कलकत्ते या और जहाँ आप कहें। मैं तैयार बैठूँगी-आप का तार आते ही चल दूँगी। भुवन दा, आप आ रहे हैं, सोच कर मैं पागल हुई जा रही हूँ-इतनी कि उस दुर्घटना को ही धन्य कह देती जिसके कारण आप को जावा छोड़ना पड़ा-पर नहीं, इतना अविवेक नहीं!

ओ मेरे सुख धीरे -धीरे गा अपना मधु-राग

ऊँचे स्वर से सोयी पीड़ा जावे कहीं न जाग ...'

आपकी, आप ही की

गौरा

नदी के द्वीप (उपन्यास) : गौरा : भाग-2

गौरा को कमरे में प्रवेश करते हुए भुवन ने न देखा था, न सुना था; उसकी उपस्थिति को उसने सहसा चौंक कर जाना तो बैठा-का-बैठा रह गया, गौरा ने उसके कोट के बटन-होल में नरगिस का एक डाँठा लगा दिया और उँगलियों के हलके स्पर्श से पल्ला सहलाती हट गयी तो भुवन ने पूछा, “ये कहाँ से-इस वक़्त?”

रात का भोजन करके भुवन अपने कमरे में आकर बैठा था। सहसा लम्बी यात्रा का अवसाद और दिन-भर के अनुभवों की थकान उस पर छा गयी थी तो कुरसी खिड़की की ओर खींचकर, बदली से घने हो रहे आकाश की पृष्ठिका पर खिंचे हुए पत्रहीन गुड़हल के आकार पर एक नज़र डाल कर उसने हथेलियों से आँखें ढँक ली थीं और स्पष्ट आकार-विहीन किसी विचार में डूब गया था। तनी हुई थकान ढीली पड़ कर मीठी-मीठी फैलने लगी थी।

सुकेत छोटा-सा अच्छा बँगला था; ढाल पर बना हुआ, दुमंजिला; निचली मंज़िल सामने को खुली थी, ऊपर की मंज़िल से सामने से सीढ़ी उतरती थी, पर पिछवाड़े भी उतरने का रास्ता था-ढाल के कारण पिछवाड़े दो-तीन सीढ़ियाँ ही उतरनी पड़ती थीं, फिर एक रास्ता धीरे-धीरे उतरता हुआ सामने की सड़क में आ मिलता था। ड्राइंग रूम और एक बड़ा बरामदा ऊपर था, उसके साथ गौरा के पिता का अध्ययन-कक्ष और फिर सोने का कमरा और एक छोटा कमरा; निचली मंज़िल में भी एक ड्राइंग-डाइनिंग रूम था और तीन सोने के कमरे, पर निचला ड्राइंग-रूम प्रायः काम में नहीं आता था-या किसी बहुत ही औपचारिक ढंग की भेंट के लिए ही सुरक्षित था; और भोजन भी प्रायः ऊपर के बरामदे में होता था। गौरा के माता-पिता ऊपर की ही मंज़िल में रहते थे और पिछवाड़े के रास्ते ही उतर कर टहलने जाते थे; सामने की सीढ़ी शायद ही कभी काम में आती थी-गौरा ही उससे आती-जाती थी। नीचे वाला एक शयनकक्ष उसका था, दूसरा प्रायः खाली रहता था और उसमें गौरा ने पुस्तकालय और वाद्य-यन्त्र रखने का स्थान बना रखा था, वहीं वह संगीत का अभ्यास करती थी। तीसरा कुछ अलग था और उसके बाहर एक बहुत छोटा-सा अलग बाड़ा भी था-यह मेहमान कमरा था और इसी में भुवन को ठहराया गया था।

“मैं अपने कमरे से लायी हूँ।”

भुवन ने लक्ष्य किया कि उसके पल्ले पर लगी हुई चार फूलों वाली एक डाँठी ही नहीं, गौरा एक गहरे ऊदे रंग का फूलदान लेकर आयी है जिसमें नरगिस भरे हैं। उसने ग्रीवा एक ओर को झुकाकर गहरी साँस से कोट में लगे वृन्त की सुवास लेते हुए कहा, “सारे ले आयीं-वहाँ नहीं रखे?”

गौरा ने उत्तर नहीं दिया। चुपचाप थोड़ी देर उसे देखती रही। एक बहुत हलकी मुस्कान-मुस्कान भी नहीं, एक खिलापन-उसके चेहरे पर था। फिर बोली, “आप को सर्दी तो नहीं लगेगी? रात को बारिश हुई थी-आज फिर हो सकती है।”

“नहीं, गौरा, इतनी ठण्ड तो नहीं है।”

गौरा ने चारों ओर नज़र डाली। “मैंने दो कम्बल और भी रख दिये हैं-और अँगीठी में लकड़ियाँ भी चिनी रखी हैं-कहिए तो आग जला दूँ-”

यह भुवन ने नहीं लक्ष्य किया था-क्योंकि कोर्निस के आगे लकड़ी की एक छोटी तिरस्करणी रखी थी जिससे अँगीठी छिपी हुई थी।

“और डोल में चीड़ की कुकड़ियाँ भी रखी हैं-जलती भी अच्छी हैं और सुगन्ध भी देती हैं-”

भुवन ने कुछ अधिक तत्परता से कहा, “नहीं गौरा, नहीं-मुझे आग जलाकर सोने की आदत नहीं-”

एक सन्नाटा-सा छा गया। गौरा कोर्निस के सहारे खड़ी हो गयी। दोनों अनमने से एक-दूसरे की ओर देखते रहे। फिर सहसा गौरा ने कहा, “आप थके हैं-मैं जानती हूँ-किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आवाज़ दे दीजिएगा-”

भुवन ने भी मानो अपने को समेटते-से कहा, “नहीं, गौरा, तुमने किसी जरूरत की गुंजाइश कहाँ छोड़ी-”, फिर गौरा की पीठ को देखते हुए उसे मानो ध्यान आया कि वह उसकी कुछ अवज्ञा कर गया है-गौरा बात करने आयी थी-उसने कहा, “बैठो-अभी क्या वक़्त हुआ है?”

गौरा क्षण-भर ठिठकी। फिर मुड़े बिना ही उसने कहा, “नहीं, आप सो जाइये। सुबह-अगर आप बुलाएँगे तो घूमने चल सकती हूँ।”

भुवन ने कहा, “सुबह?” कुछ ऐसे ढंग से जो न प्रश्न था न उत्तर, न इनकार और न स्वीकृति; गौरा भी बात को वहीं छोड़ कर पीछे आहिस्ता से किवाड़ बन्द करती हुई चली गयी।

भुवन ने उठकर बत्ती बुझा दी, और फिर पूर्ववत् बैठ गया। उसका शिथिल हुआ मन धीरे-धीरे मानो एक-एक कदम बढ़ता हुआ प्रत्यवलोकन करने लगा।

गौरा के पिता ने सरल और खुले आनन्द से उस का स्वागत किया था; वह प्रणाम करके झुका था तो हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाया था, दूसरे हाथ से भी कलाई पकड़ते हुए, फिर खींच कर गले-सा लगा लिया था। “तुम आ गये भुवन-गौरा तो चिन्ता करके सूख गयी थी!”

भुवन को पहुँच जाना चाहिए था बारह बजे, वह साढ़े चार बजे पहुँचा था; पर किसी ने उससे पूछा नहीं कि इतनी देर कहाँ लगी। बात यह हुई थी कि कलकत्ते से उसने दूसरा तार दिया था अपने पहुँचने के दिन का; देहरादून स्टेशन पर वह उतरा तो गौरा प्लेटफ़ार्म पर खड़ी थी-वह सुबह की सर्विस से चली आयी थी। भुवन को देखते ही वह लपकी हुई दोनों हाथ बढ़ा कर उसकी ओर दौड़ी थी, भुवन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में पकड़ लिए थे और कुछ बोल नहीं सका था; थोड़ी देर बाद गौरा ने धीमे से कहा था, “आप आ गये...” और फिर धीरे-धीरे उसके हाथ छोड़ दिये थे। लेकिन जब सामान वग़ैरह सँभाल कर भुवन ने पूछा था, “अभी अड्डे पर चलना होगा-या मैं मुँह-हाथ धो लूँ वेटिंग रूम में?” तो गौरा स्वयं अपने को विस्मित करती कह गयी थी, “धो लीजिए-इस सर्विस से नहीं जाएँगे मसूरी!”

भुवन ने बिना कुछ कहे मान लिया था। मान ही नहीं लिया था, मानो उस क्षण से बागडोर गौरा को सौंप दी थी कि जैसा वह कहेगी वैसा ही चलता जाएगा। केवल जब मुँह-हाथ धोकर वह निकला था और गौरा ने पूछा था, “नाश्ता करेंगे?” तो उसने पहले पूछा था, “तुम्हारा क्या हुक्म है?” लेकिन फिर गौरा के कुछ कहने से पहले ही कहा था, “नहीं, चलो स्टेशन से बाहर निकलें।”

ताँगा लेकर वे मैदान तक गये थे, वहाँ से पैदल टहलते हुए डालनवाला की ओर निकलकर रिसपना के किनारे पहुँच गये थे; नीचे सूखी नदी के पाट में उतर कर पत्थरों में वे चलते रहे थे; फिर एक ऊँचे कगारे पर एक पेड़ देखकर उसके नीचे बैठ गये थे। चलते हुए दोनों बहुत थोड़ा बोले थे; गौरा ने छोटे-छोटे प्रश्न पूछे थे-कब चले, कैसे आये, कहाँ कितना ठहरे, यात्रा कैसे हुई, इत्यादि-और भुवन ने वैसे ही छोटे-छोटे जवाब दे दिये थे; पर बैठकर दोनों बिलकुल ही चुप हो गये। भुवन सामने पड़े हुए कंकड़ों में से एक-एक उठाकर निरुद्देश्य-सा नीचे फेंकने लगा; गौरा देखती रही। थोड़ी देर बाद वह भी यन्त्रवत् एक-एक कंकड़ उठाकर भुवन को देने लगी; भुवन अन्यमनस्क-सा कंकड़ ले लेता और मानो पहले फेंके हुए पत्थर का निशाना बाँधता हुआ-सा फेंक देता। इस प्रकार एक-एक कंकड़ से समय का एक-एक अन्तराल लाँघते हुए वे काल की या अस्तित्व की ही किसी अज्ञात दिशा में बढ़ते रहे।

सहसा गौरा ने कहा, “चलें अब।”

इतनी देर तक नीरवता अलक्षित थी, अब इन शब्दों से वह मानो दोनों की चेतना में घनी उभर आयी। भुवन ने कहा, “गौरा, तुम्हें कुछ कहना नहीं है?”

“और तुम्हें?” सहसा गौरा कह गयी। फिर कुछ सकपका कर सँभलती हुई, “आप ने तो लिखा था बहुत कुछ बताना है-सलाह करनी है-” वह खड़ी हो गयी।

भुवन ने हाथ बढ़ा कर उसका हाथ सहारे के लिए पकड़ कर उठते हुए कहा, “और तुम्हें तो और भी अधिक सलाह करनी थी।”

गौरा हँस पड़ी। “चलिए, मसूरी चलकर सलाह ही सलाह होगी-अभी थोड़ी देर में आप तो बुज़ुर्ग हो जाएँगे-बुज़ुर्गी आने से पहले-मैं-थोड़ी देर चुप-चाप आपके पास बैठना चाहती थी।”

भुवन ने मुस्करा कर कहा, “बुज़ुर्गी तो गयी गौरा, सदा के लिए।” फिर सहसा गम्भीर होकर, “लेकिन हम सीधे तुरत मसूरी नहीं गये-इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझे डर था-”

“क्या डर था?”

“कि कहीं-कहीं हम अजनबी न हों-कहीं मुझे बेयरिंग्स न खोजनी पड़ें”

गौरा ने उमड़ कर हाथ उसकी ओर बढ़ाया और कुछ घनी आवाज़ में कहा, “भुवन दा?” फिर तुरत संयत होती हुई बोली, “तो आप साल-भर से कम में इतने साहब हो गये कि देश की बेयरिंग्स भूल गये? और जावा तो ऐसा साहब भी नहीं है-”

भुवन हँस दिया।

धीरे-धीरे वे लौटे थे और अगली सर्विस उन्होंने पकड़ ली थी। रास्ते में फिर बहुत कम बात हुई थी, गौरा सुकेत का नक्शा उसे समझाती रही थी, बस। बीच-बीच में भुवन उसकी ओर देखता था; वह मुस्करा देती थी और वह भी मुस्करा देता था। किनक्रेग उतर कर वे पैदल चढ़ाई चढ़ने लगे तो बात हो ही नहीं सकती थी; बँगले पर पहुँचकर गेट के भीतर घुसकर गौरा दौड़ती हुई छोटे रास्ते से ऊपर चढ़ गयी थी पुकारती हुई कि “पापा, पापा, भुवन दा आ गये!” भुवन जब तक गेट से प्रविष्ट होकर भीतर पहुँचे, तब तक पापा बाहर आकर सामने की सीढ़ी से उतरने लगे थे, सीढ़ी के नीचे ही दोनों की भेंट हुई थी। गौरा कहीं अदृश्य हो गयी थी, और फिर लगभग घंटे भर बाद तक नज़र नहीं आयी थी; आयी थी तो सूचना देने कि चाय तैयार है। पिता ने पूछा था, “बेटी, चाय ही है कि कुछ खाने को भी?” और मुड़कर भुवन से, “खाना खाकर चले थे?”

भुवन ने कहा था, “जी, मोटर-यात्रा से पहले कम ही खाता हूँ-” और गौरा ने साथ ही उत्तर दिया था, “जी खाने को भी रखा है पर ये तो कुछ खाते ही नहीं, और अब तो जावा से पूरे साहब होकर आये होंगे-”

भुवन ने आँख बचाकर इशारे से ही उसे घुड़क दिया था।

तीसरे पहर थोड़ी देर उसने आराम किया था, फिर चाय पी थी और फिर गौरा के पिता के साथ घूमने गया था; इस बीच गौरा ने उसका कमरा सजा दिया था। लेकिन शाम को भी गौरा से विशेष बात नहीं हुई थी, खाने पर तो होती ही क्या।

और अब...भुवन ने फिर अपने को हिलाया। इस समय निस्सन्देह गौरा बात करने आयी थी-और फूल लेकर...और उसने पूछा ही नहीं...कदाचित् वह आहत होकर चली गयी। क्यों नहीं उसे ध्यान आया? बाद में उसने कहा था, अवश्य; पर बाद में कहने से क्या फ़ायदा।

सवेरे? शायद। गौरा ने तो स्पष्ट घूमने का निमन्त्रण दिया था। शायद वही अच्छा है; सवेरे टहलते हुए बात होगी तो और ढंग की होगी, रात को कमरे में बैठे-बैठे शायद बहुत उदास हो जाती...यह नहीं कि वह वैसा चाहता...पर मन जैसा है सो तो है ही, फिर रात का अपना असर होता है...और सवेरे का अपना, टहलने का अपना...

भुवन उठकर अँधेरे में ही कपड़े बदलने लगा। बदल चुका, तो क्षण भर जाकर खिड़की पर खड़ा रहा; बदली अभी थी, कहीं-कहीं एक-आध तारा दीखता था; यहाँ की रात, यहाँ की हवा, यहाँ की नीरवता में जावा की रात और हवा और नीरवता से कितनी भिन्नता थी-मात्रा की नहीं, प्रकार की, स्वभाव की...

वह धीरे-धीरे जाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद सहसा उठा, कोट टटोलकर उसने उसमें लगा हुआ नरगिस का डाँठा निकाला और सिरहाने रखकर फिर लेट गया। फूलदान के नरगिसों की भारी, सालस, स्तब्ध गन्ध सारे कमरे में फैल गयी थी, सिरहाने रखे एक वृन्त की गन्ध अलग नहीं पहचानी जाती-पर वह एक वृन्त उपयोगिता के विचार से थोड़े ही वहाँ रखा गया है...क्या यह वृन्त भी बात करना चाहता है? अच्छा तो अब की उससे चूक नहीं होगी, वह सुनेगा, और वृन्त को कान के पास रखकर सुनेगा निहोरे करके-उसके तन्द्रिल मन में एक अधूरा पद तैर आया : 'लपिंतु किमपि श्रुतिमूले'-श्रुतिमूल में कुछ धीरे से कहने को-कौन? क्या वह ऊँघ गया...

× × ×

गौरा जाग कर उठ बैठी। किसी अनवरत शब्द ने उसे जगाया था। उसने सुना : पैरों की चाप, पाँच-सात पगों के बाद एक अन्तराल, फिर पाँच-सात पद। भुवन के कमरे से आ रही है आवाज़, तो भुवन कमरे में चक्कर काट रहा है-लेकिन चाल भी समान नहीं है; क्या गौरा कल्पना कर रही है, कि सचमुच वह पद-चाप उद्वेग की सूचक है? उसने घड़ी देखी : साढ़े-बारह; फिर उसने एक चादर कन्धों पर और अपने खुले बालों पर डाली और दबे पाँव कमरे से बाहर हो गयी।

भुवन के द्वार पर वह ठिठकी। पैरों की चाप और भी असम हुई, फिर सहसा रुक गयी।

गौरा ने सावधानी से किवाड़ खोला; वह ज़रा-सा चरमराया और फिर चुपचाप खुल गया। भीतर होकर किवाड़ फिर धीरे से उढ़का कर गौरा वहीं खड़ी रही, आगे नहीं बढ़ी; इधर-उधर सटे हुए पर्दों में से एक को हाथ से पकड़े हुए, आधी पर्तों की ओट। कमरे के फीके अन्धकार में खोजती हुई उसकी आँखों ने देखा, भुवन खिड़की के पास फ़र्श पर बिछे गलीचे पर बैठ गया है, कुछ वैसी मुद्रा में जैसी चित्रों पर धनुष पर चिल्ला चढ़ाते हुए कुमार राम की होती है-लेकिन वैसी कसी हुई नहीं, परास्त; एक घुटना भूमि पर, दूसरे पर कोहनी टिकी हुई; उठा हुआ हाथ धीरे-धीरे माथे पर आ टिका और माथे को पकड़े रहा...

कहाँ है भुवन? किस चिन्ता में है-नहीं, चिन्ता तो निरी विचार की अवस्था होती है, किस गहरी अनुभूति में है?

लेकिन-यह भुवन का निजी क्षण है, निजी अनुभूति है; ऐसे उसे देखते रहना चोरी है। बड़े कोमल स्वर में गौरा ने कहा, “भुवन दा, क्या बात है, नींद नहीं आती? बत्ती जला दूँ?”

भुवन बड़े जोर से चौंका। खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद हक्का-बक्का-सा उसे देखता रहा। “गौरा, तुम-तुम!”

गौरा ने फिर कहा, “थोड़ी देर आपके पास बैठूँ? आप कुरसी पर बैठिए।” और वह स्वयं अँगीठी के आगे से तिरस्करिणी हटाकर, अँगीठी के लकड़ी के चौखट पर बैठ गयी, कुरसी के सामने।

भुवन कुछ अतत्पर भाव से बैठ गया। फिर जैसे शून्य को भरने के लिए कुछ कहना ही है, ऐसे बोला, “मैं सो गया था, फिर-चौंक गया।”

“क्यों-कोई सपना देखा था?”

“शायद। नहीं-कोई रोया था!”

“रोया था? नहीं भुवन दा-रोने की आवाज़ कहाँ से आ सकती है-”

“हाँ,” भुवन ने साग्रह कहा, “चिड़िया का बच्चा रोया था।”

गौरा ने विस्मय को दबाकर क्षण-भर बाद फिर कहा, “बत्ती जला दूँ?”

“न। अच्छा, जला दो।”

गौरा ने टेबल लैम्प जला दी। लचकीले तार के स्टैण्ड वाली लैम्प थी, उसे दबाकर उसने नीचा कर दिया, प्रकाश दीवार पर पड़ने लगा और वहाँ से प्रतिबिम्बित होकर कमरे में फैला।

भुवन ने हाथों से आँखें ढँक ली, जैसे चौंध लगती हो। उसका शरीर एक बार सिहर गया।

गौरा ने कहा, “मैं आग जला देती हूँ, सर्दी बहुत है! और आप कुछ ओढ़ लीजिए।”

भुवन ने तड़प कर कहा, “नहीं गौरा, आग नहीं!”

गौरा बिस्तर पर से कम्बल उठाने मुड़ी थी, ठिठक गयी। फिर उसने कम्बल उठाकर धीरे से भुवन के कन्धों पर डालते हुए कहा, “क्या बात है भुवन दा-चीड़ की आग तो बड़ी स्निग्ध होती है-आप को अच्छी लगेगी-”

“नहीं, नहीं, मुझे आग में चेहरे दीखते हैं!”

गौरा ने पीछे खड़े-खड़े ही दोनों हाथ भुवन के कन्धों पर रखते हुए कोमल स्वर से पूछा, “किसके चेहरे, भुवन दा?”

“चेहरे-मृत चेहरे-बच्चों के चेहरे।” गौरा के हाथों के नीचे उसका शरीर एक बार फिर सिहर गया।

गौरा क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रही। फिर उसने सहसा भुवन के सामने जाकर कहा, “भुवन दा, अब और नहीं मानूँगी। बताइये क्या बात है।” जैसे साहस बटोर कर उसने दोनों हाथ-भुवन के कानों पर रखे, उनके हलके दबाव से भुवन का मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, “देखिए मेरी तरफ़ देखिए-आपको बताना होगा!”

उनकी आँखें मिलीं, दोनों स्थिर एक-दूसरे को देखते रहे। गौरा ने लगभग अश्रव्य स्वर में कहा, “मैं पूछती हूँ, भुवन, नहीं बताओगे तुम?”

भुवन ने उत्तर नहीं दिया; दोनों वैसे ही देखते रहे। फिर गौरा के हाथ धीरे-धीरे शिथिल होने लगे-वह हार गयी है-और भुवन नहीं बोलेगा, कि भुवन ने कहा, “अच्छा गौरा, बताता हूँ। अच्छा, तुम बैठ जाओ।”

गौरा उसके सामने की ओर, अँगीठी के सामने बिछे गलीचे पर बैठने लगी। अधबैठी ही थी कि भुवन ने जल्दी से और एक अजब रुखाई के साथ कहा, “रेखा को तुम जानती हो-आइ लव्ड हर।”1

गौरा बैठती-बैठती रुक गयी। धीरे से बोली, “जानती हूँ।” थोड़ा-सा रुककर, “आइ लव हर टू।”2

भुवन ने चकित भाव से कहा, “गौरा!” फिर रुकते-से, “लेकिन तुमने तो उसे देखा ही नहीं-”

“मैं-मिली थी। लेकिन-यह-मिलने से अलग बात भी है।”

भुवन ने बात काटते हुए पूछा था, “कब?” पर वह प्रश्न बीच ही में डूब गया, दोनों चुप बैठे रह गये।

कई मिनट बाद भुवन ने कहा, “कहानी लम्बी है गौरा। पर-बहुत छोटी भी है।” सहसा एक कठोर, निष्करुण भाव से, “आइ लव्ड हर। वी वेयर टु हैव ए चाइल्ड। आइ किल्ड हिम।”3

1. मैं उसे प्रेम करता था।

2. मैं भी उसे प्रेम करती हूँ।

3. मैं उसे प्रेम करता था। हमारी सन्तान होने वाली थी। मैंने उसे मार दिया।

“अ-” गौरा के मुँह से निकला; दोनों की आँखें मिलीं तो भुवन ने देखा, गौरा की आँखों में व्यथा है, विमूढ़ता है, और-अविश्वास है। गौरा धीरे-धीरे बोली, “झूठ मत बोलिए, भुवन दा; अपने को ऐसे क्यों कोस रहे हैं?”

भुवन ने सहसा उबलकर कहा, “कोसूँ भी नहीं गौरा-तुम नहीं जानती कि मैंने क्या किया है!”

“एक रूखी बात कहूँ, भुवन दा? आप कहना चाहते हों तो-बात कहें, जजमेण्ट आप मुझे न दें-वह करना होगा तो मैं स्वयं करूँगी।” सायास मुस्करा कर गौरा बोली, “उतनी कठोर भी हो सकती हूँ-आप की शिष्या हूँ आख़िर!”

फिर एक लम्बा सन्नाटा रहा। फिर भुवन ने कहा, “अच्छा गौरा, आग जला दो। मैं कहता हूँ।”

गौरा ने कहा, “सच, भुवन दा? आप नहीं चाहते तो कोई जरूरत तो नहीं है”

“नहीं, जला दो। अगर दीखेगा ही तो देखता जाऊँगा और कहता जाऊँगा।”

गौरा ने आग जला दी। क्षण ही भर में चीड़ की कुकड़ियों ने आग पकड़ ली, प्रकाश जहाँ-तहाँ नाचने लगा, चीड़ के सोंधे, उदार, हृद्य गन्ध-धूम ने वातावरण को छा लिया, जैसे खुले वनाकाश की साँस वहाँ आकर बस गयी हो।

“गौरा, मैं भाग गया था-तुम से भागा था-पर तुमसे भागने के लिए ही नहीं-एक बोझ मुझे दबाता लिए जा रहा था-मेरे कन्धों पर सवार सागर का बूढ़ा-” भुवन कुरसी से उतर कर नीचे गलीचे पर बैठ गया, आग के निकट आकर आगे झुका हुआ बड़ी-बड़ी अपलक आँखों से आग की लपटों को देखता हुआ। गौरा भी अपलक उसे देखने लगी; भुवन की आँखों में ऐसा आविष्ट, मन्त्र-मुग्ध भाव उसने कभी देखा नहीं था-मानो भुवन उसे भूल गया है, देश-काल-परिस्थिति सब भूल गया है, केवल लपटों में ही उसका अस्तित्व केन्द्रित हो गया है, उसी में से वह प्राण खींच रहा है...

एक अद्भुत भाव गौरा के भीतर उमड़ आया : कुछ डर, कुछ आशंका, कुछ जुगुप्सा, कुछ श्रद्धा, और सबके ऊपर एक आप्लवनकारी स्नेह...कुछ बहुत निजी, बहुत पवित्र, जिसे उघड़ा नहीं देखते, बहुत निकट से नहीं देखते-ऐसे भाव भर कर वह उठी और भुवन के पीछे जाकर कुरसी पर बैठ गयी। भुवन मानो अकेला होकर, कुछ और भी आगे झुककर, धीरे-धीरे बोलने लगा।

“तुम उसके बारे में बुरा नहीं सोचोगी, गौरा; वह-वैसे लोग दुर्लभ होते हैं दुनिया में-और-उसने मुझे बहुत प्यार किया था, जितना-” वह तनिक रुका और फिर कह गया, “जितना किसी ने नहीं किया। और अब भी करती है। और...”

गौरा सुनती रही। भुवन का स्वर पहले असम था, धीरे-धीरे सम, सधा हुआ होने लगा; और उसी अनुपात में दूर, निर्वैयिक्तक, रागमुक्त, असम्पृक्त; मानो गौरा के आगे एक सजीव व्यक्ति नहीं, शब्द का एक झरना हो, जो अजस्र भाव से बहता जा रहा हो; कौन पास है, कौन उसके झरझर बहते हुए अभिप्रायों को सुनता है या नहीं सुनता, उसकी संवेदना की झिलमिल छायित-द्योतित पन-चादर को देखता है या नहीं देखता, इस से सर्वथा असंलग्न...

और कमरे में चीड़ की आग के आलोक की शिखाएँ नाचती रहीं, लकड़ी की और चीड़ की कुकड़ियों की हलकी चटपट और विस्फूर्जित वाष्पों की फुरफुराहट जैसे स्वर-पृष्ठिका बनकर भुवन की बात को अतिरिक्त बल देती रही...

“...मैं उसे वहीं छोड़ कर चला आया; चलते वक़्त उसने एक कापी और अपनी नीली साड़ी पैकेट बना कर मुझे दी थी जो मैंने बाद में देखी; कापी में बहुत-सी बातें थीं बाइबल के 'सांग आफ़ सांग्स' के बहुत-से अंश-'माइ बिलवेड स्पेक एण्ड सेड अंटु मी, राइज़ अप, माइ लव, माइ फेयर वन, एण्ड कम अवे; फ़ार लो,द विंटर इज़ पास्ट, द रेन इज़ ओवर एण्ड गान, द फ्लावर्स एपीयर,' वग़ैरह, फिर मैं श्रीनगर चला गया-”

गौरा ने दबे-पाँव उठकर आग में चीड़ की कुकड़ियाँ और डाल दी, भुवन की और एक बार भी नहीं देखा; फिर पूर्ववत् उसके पीछे आकर बैठ गयी।

“...तुलियन में हम चार दिन रहे; फिर मैं उसे पहुँचाने पहलगाँव आया; रास्ते में नदी के आर-पार पड़े एक तख्ते के बीच में खड़े होकर उसने कहा-उसने मुझे कहा-मुझ से पूछा कि जीवन में मेरी आकांक्षा क्या थी? मैंने बताया, सर्जन होने की; वह स्वयं बीनकार होना चाहती थी-फिर उसने कहा, 'उसे मैं वीणा भी सिखाऊँगी, और सर्जन भी बनाऊँगी'-फिर वह चली गयी मैं तुलियन लौट गया काम करने...”

आग लपकती और गिरती; कभी एक अध-जली लकड़ी बीच में से टूटकर गिरती और आग का एक भाग दबकर अँधेरा या नीलाभ हो जाता, फिर फुरफुराकर एक छोटी-सी शिखा उसमें से उमग आती और बढ़ जाती। उसी प्रकार भुवन का स्वर कभी मद्धिम पड़ जाता, कभी धीरे-धीरे ऊँचा उठ जाता, कभी उसकी वाणी क्षणभर अटक कर फिर कई-एक द्रुत चिनगारियाँ फेंक देती-यद्यपि साधारण रूप से उसकी बात फुलझड़ी-सी नहीं थी, न उसमें तारा-फूलों की लड़ियाँ थीं, न घटती-बढ़ती कलाओं का आकर्षण, न वह चटचटाहट जो स्फूर्ति देती है, न वह रंग-बिरंग चमक जो लुभा लेती है...वह थी महताबी की तरह, जिसके भीतर के अंगारे बूँद-बूँद टपकते हैं, पिघली हुई आग के आँसुओं की तरह, जो हवा में भी झरते हैं, पानी के नीचे भी झरते हैं, चुप-चाप, बेरोक झरते जाते हैं, जलते जाते हैं...

“...लेकिन दुबारा जब मैं गया तब-वह बदल गयी थी-मेरी सात-आठ दिन की अनुपस्थिति में उसे ऐसी चिट्ठियाँ आयी थीं कि-मेरी बात उसे आश्वस्त नहीं रख सकी थी और उसने-उसने आपरेशन करा लिया था। यह बात मेरे ध्यान में भी न आयी थी-पर मुझे उसे छोड़कर नहीं जाना चाहिए था क्योंकि तब शायद उसका विश्वास न टूट जाता-मैं...”

भुवन का स्वर धीरे-धीरे बदलने लगा। गला भर्रा आया; क्रमशः वाक्तन्त्रों की झंकृति कम, और केवल वायु का स्वर बढ़ता चला, यहाँ तक कि बात केवल एक तीखी फुसफुसाहट हो गयी जो कभी-कभी टूट कर स्वनित हो जाती थी, बस...गौरा के रोंगटे खड़े हो गये-वह आवाज़ मानो मानवीय ही नहीं थी, मानो वातावरण में भटकती हुई कोई प्रेत-व्यथा वहाँ पूँजीभूत होकर स्वरित हो रही हो। वह निश्चल सुनती न रह सकी, पर भुवन को रोक भी न सकी; दबे-पाँव उठकर उसने टेबल लैम्प बुझा दी और फिर वहीं आकर बैठ गयी; भुवन आग को देख रहा था, उसे मालूम ही नहीं हुआ कि पीछे प्रकाश कम हो गया है, वह वैसे ही अमानुषी ढंग से बोलता रहा...

“वह कलकत्ते चली गयी। दिल्ली तक मैं साथ आया था, यहाँ रेल में बिठाया था। रेल में एक और सवारी ने उससे पूछा था, ये कौन है? तो उसने कह दिया मेरे-हज़बैंड, सात साल हुए शादी हुई थी। पड़ोसिन उसे बधाई देने लगी-”

सहसा स्वर बन्द हो गया।

निस्तब्ध निश्चलता-आग की जीभें भी उठ रही थीं तो मानो इसीलिए कि पहले से उठ गयी हैं और अब रुकना ही गति होना, उठते रहना तो अगति है; वैसी हो साँसें-उठतीं और गिरतीं क्योंकि सदा से गिरती आयी हैं, वैसी ही क्षणों की धारा बहती क्योंकि अजस्र बहती आयी है...

न जाने कितनी देर बाद, भुवन की एक शब्द-हीन विरस हँसी-”यह सब मैं क्या कह रहा हूँ।” फिर एक लम्बा मौन; फिर भुवन का रुकता-सा, सोचता-सा स्वर : “यही है मेरी कहानी गौरा-और तब से मैं आग में देखता हूँ चेहरे-मृत बच्चों के चेहरे-स्वयं अपना चेहरा क्योंकि मैं भी तो मर गया हूँ उसके साथ।”

फिर मौन। फिर भुवन सहसा सिहरता है, एक काला बादल-सा उसके सिर-माथे पर छा गया है और चारों ओर से बहता हुआ-सा उसे डुबाये जा रहा है-वह लड़खड़ा जाएगा और धँस जाएगा-आँखों के आगे अँधेरा हो रहा है-टटोलते से हाथ वह अपने सिर की ओर, सिर के ऊपर उठाता है-

ऊपर गौरा का झुका हुआ सिर है; उसके खुले बाल आगे ढरक आये हैं और भुवन के चेहरे पर छा गये हैं-भुवन का हाथ स्तब्ध रुका रह जाता है, वह बादल भी स्थिर रुका रह जाता है-फिर टप से एक बूँद उसके माथे पर बरस जाती है-

भुवन के दोनों हाथों की उँगलियों ने ढरके हुए बालों की एक-एक लट पकड़ ली। फिर एक हाथ उसने छोड़ दिया, हाथ बढ़ाकर गौरा के माथे को धीरे-धीरे थपकने लगा।...

“राह चलते जिस दिन बैठे-बैठे जानूँगा कि मेरे पीछे कोई है और मुड़कर नहीं देखूँगा, और वह झुककर अपने खुले बाल मेरी आँखों के आगे डाल देगी, उस दिन मैं जान लूँगा कि मेरी खोज-मेरे लिए खोज समाप्त हो गयी और पड़ाव आ गया।”

यह किसने कहा था? मानो किसी पुस्तक में पढ़ी हुई भविष्यवाणी है यह-

सहसा भुवन ने कहा, “गौरा, अब तुम इस सारी बात को भूल जाओ-शायद मुझे तुम्हें कहनी ही न चाहिए थी, व्यर्थ...”

गौरा ने दोनों हाथ भुवन के कन्धों पर रख दिये, और धीरे-धीरे सीधी खड़ी हो गयी। पीछे खड़ी-खड़ी ही बहुत धीमे, खोये-से स्वर में बोली, “तुम-तुम कभी पछताओगे तो नहीं मुझे यह सब बता देने पर? मैं-”

भुवन ने कहा, “नहीं गौरा, यह तो नहीं लगता। मुझे तो लगता है, कि वह जो बोझ मुझ पर था-वह सागर का बूढ़ा जो मेरे कन्धों पर सवार था, वह उतर गया। सोचता हूँ, पहले ही तुम से कहा होता...पर-शायद कहने का समय नहीं आया था”

“अब-तुम भागोगे तो नहीं? बोझ उतर गया तो-बताओ, फिर चले तो नहीं जाओगे?”

भुवन थोड़ी देर नहीं बोला। फिर उसने एकाएक कहा, “गौरा, बत्ती कैसे बुझ गयी?”

गौरा ने हटते हुए सिर जोर से झटक कर बाल पीछे कर लिए; मेज़ की ओर बढ़कर टेबल लैम्प उसने जला दी, कुछ बोली नहीं। भुवन भी नीचे से उठकर अँगीठी के जंगले पर बैठ गया, ढेर-सी कुकड़ियाँ उसने आग में डाल दीं। आग भड़क उठी तो उसने पूछा, “गौरा, कुछ कहोगी नहीं?”

गौरा चुपचाप उसके पास नीचे बैठ गयी। भुवन का एक हाथ नीचे लटक रहा था, उसे अपने हाथों में लेकर धीरे-धीरे सहलाने लगी।

भुवन ने फिर कहा, “गौरा, तुम्हें कुछ कहना नहीं?”

गौरा फिर भी चुप रही।

भुवन ने अपना हाथ खींचते हुए धीमे, कुछ हताश स्वर से कहा, “समझ गया, गौरा। लेकिन एक बार मुँह उठाकर वैसा ही कह दो-”

गौरा ने मुँह उठाकर थरथराते मर्माहत स्वर में कहा, “आप इतने-तुम इतने अबूझ कैसे हो सकते हो? फिर तत्काल संयत, “आप-रेखा दीदी से नहीं मिलेंगे?”

भुवन ने कुछ विस्मित स्वर से कहा, “मैं कलकत्ते मिलता आया हूँ।”

तीन बजे के लगभग गौरा अपने कमरे में चली गयी।

रेखा से भेंट की बात बताते हुए भुवन खड़ा हो गया था, फिर धीरे-धीरे न जाने कैसे दोनों खिड़की के पास जा खड़े हुए थे। भुवन रेखा की बात कहकर चुप हो गया; फिर थोड़ी देर बाद उसने हठात् पूछा, “गौरा, तुम रेखा से कब मिली थी, यह तो तुमने बताया नहीं?”

“वह मिलने आयी थीं-पिछली गर्मियों में।” कुछ रुककर, “तुलियन से लौटने के बाद। चन्द्रमाधव जी मिलाने लाये थे।”

“ओह।” कहकर भुवन चुप हो गया। आगे कुछ पूछने का उसका मन नहीं हुआ।

“आप चन्द्रमाधव जी से नाराज़ हैं, भुवन दा?”

भुवन सहसा कुछ नहीं बोला, बाहर रात की ओर देखता रहा।

“क्यों नाराज़ हैं, भुवन दा? वह आपके मित्र रहे-”

“मित्र!” भुवन ने कड़ुवे स्वर से कहा। फिर, जैसे इस प्रसंग को यहीं छोड़ देना चाहिए, वह चुप लगा गया।

गौरा ने उसके बात काटने की उपेक्षा करते हुए अपना वाक्य पूरा किया, “और-इतने बड़े भी नहीं हैं कि आप उनके ऊपर गुस्से का भार ढोते चलें-छोड़िए गुस्सा!”

भुवन थोड़ा-सा मुस्करा दिया। फिर धीरे-धीरे बोला, “तुम ठीक कहती हो-उस पर गुस्सा व्यर्थ है। और अब है भी नहीं। पर मैंने चिट्ठी-पत्री बन्द कर दी थी”- फिर सहसा नये विचार से, “तुम्हें उसकी चिट्ठी-विट्ठी आती है? कहाँ है?”

“नियमित आती हो, ऐसा तो नहीं, हाँ, बन्द नहीं हुई। पिछले महीने आयी थी। एक बम्बई से। आप क्यों नहीं उन्हें एक चिट्ठी लिख देते-यहीं से?” तनिक रुककर वह फिर बोली, “सुना है, वह फिर शादी कर रहे हैं-”

“अच्छा?”

फिर थोड़ी देर मौन रहा, दोनों सूनी रात को देखते रहे। लोग एक ही आकाश को, एक ही बादल को, एक ही टिमकते तारे को देखते हैं, और उनके विचार बिलकुल अलग लीकों पर चलते जाते हैं, पर ऐसा भी होता है कि वे लीकें समान्तर हों, और कभी ऐसा भी होता है कि थोड़ी देर के लिए वे मिलकर एक हो जायें; एक विचार, एक स्पन्दन जिस में साझेपन की अनुभूति भी मिली हो। असम्भव यह नहीं है, और यह भी आवश्यक नहीं है कि जब ऐसा हो तो उसे अचरज मान कर स्पष्ट किया ही जाये, प्रचारित किया ही जाये-यह भी हो सकता हैं कि वह स्पन्दन फिर द्विभाजित हो जाये, विचार फिर समान्तर लीकें पकड़ लें...

गौरा ने कहा, “यह बड़ा दिन है, भुवन दा। 'आल पीस आन अर्थ, गुडविल टु मेन।' सोचती हूँ, तो ख्याल आता है कि कितनी सुन्दर भावना है यह-और लगता है कि सचमुच इसे कोई सम्पूर्णतया अनुभव कर सके तो-शिशु ईशा के साथ उसका भी नया जन्म हो जाता होगा।”

भुवन ने सोचते हुए-से कहा, “बिना पीड़ा के जन्म नहीं होता, गौरा-देव-शिशु का भी नहीं। शान्ति की भावना से शान्ति नहीं मिलती-”

“मैं कब कहती हूँ? बल्कि बिना पीड़ा के यह व्यापक कल्याण-भावना भी तो नहीं जागती-'आल पीस आन अर्थ' कह ही वह सकता है जो पीड़ा से गुज़रा है, नहीं तो इस भावना के ही कोई अर्थ नहीं होते।”

फिर एक मौन हो गया। भुवन ने पूछा, “क्या सोच रही हो, गौरा?”

“बहुत कुछ।”

“क्या?”

“पर कह नहीं सकती।”

“नहीं सकती, या नहीं चाहती?”

“ठीक चाहती ही नहीं, ऐसा तो नहीं कह सकती-पर-सकती नहीं।”

“मेरे गुरु कहा करते थे, 'जो विचार स्पष्ट कहना नहीं आता, वह असल में मन में ही स्पष्ट नहीं है। स्पष्ट चिन्तन हो तो स्पष्ट कथन अनिवार्य है'।” भुवन ने कुछ गम्भीरता से, कुछ चिढ़ाते हुए कहा।

“चिढ़ा लीजिए। पर मैं जो सोच रही हूँ, वह मेरे आगे बिलकुल स्पष्ट है। कह नहीं सकती तो-इसलिए कि सोचना चित्रों से, प्रतीकों से होता है, कहना शब्दों से; और-शब्द-अधूरे हैं।”

“ऊँहुक्! विचार शब्दों के साथ हैं-शब्द अधूरे हैं तो विचार ही अधूरा है!” भुवन ने ज़िद की।

गौरा ने सहसा घूमकर, दोनों कोहनियाँ खिड़की पर टेककर उसकी ओर मुँह करके कहा, “आप-मुझे चैलेंज कर रहे हैं?”

“वैसा समझो तो-” गौरा एकदम गम्भीर हो गयी है, यह उसने लक्ष्य किया, वह खिलवाड़ कर रहा है ऐसा उसे नहीं लगा, उसका ढंग चिढ़ाने का था पर नीचे गम्भीरता थी। “तो-अच्छा, वही सही।”

“तो सुनिए। शब्द अधूरे हैं-क्योंकि उच्चारण माँगते हैं। मैं कह नहीं सकती थी, पर लिख सकती थी चाहती तो। लेकिन आप कहलाना चाहते हैं-लीजिए : मैं सोच रही थी-किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती-तो अपने जीवन को सफल मानती-”

भुवन ने स्तब्ध भाव से कहा, “यह मत कहो गौरा-मैं और नहीं सुन सकता, और अब आगे-हल्का ही चलना चाहता हूँ”-

“मैं-तुम्हें कुछ दे नहीं रही; वह मेरी ही साधना होती, मैंने इससे बढ़कर कभी कुछ नहीं माँगा कि तुम्हारे काम आ सकूँ और आज भी नहीं माँगती।”

भुवन उसके और पास आ गया। क्षण-भर उसकी उठी हुई ठोड़ी के नीचे कण्ठ की नाड़ी का स्पन्दन देखता रहा, फिर उसकी ओर सिर झुकाता हुआ बोला, “तुम मेरी कृतज्ञता लो, गौरा; तुम जो कह रही हो-जो मैंने कहला लिया वही बहुत है-और-आइ एम आल्रेडी हील्ड, नहीं तो तुमसे कह पाता?”

गौरा ने एक हाथ से उसके बाल उलझाते हुए कहा, “न-भुवन-मुझे कृतज्ञता से डर लगता है-उसकी ओट में तुम-फिर दूर चले जाओगे न?”

भुवन सीधा हो गया। “क्या करूँगा, गौरा, यह तो नहीं जानता; यह जानता हूँ कि विधि ने मुझे मेरी पात्रता से अधिक दिया है। और यह अच्छा नहीं लगता। लोगों से-अपने स्नेहियों से-अधिक ले सकता हूँ, उनका कृतज्ञ हो सकता हूँ; विधि से नहीं, क्योंकि उसके प्रति कृतज्ञता का कोई मतलब नहीं होता।”

गौरा के सामने से हटकर वह कमरे में टहलने लगा। गौरा वहीं खड़ी उसे देखती रही।

“गौरा, रात बहुत हो गयी-बल्कि यह तो भोर है-जाओ, सोओ अब। सबेरे उठोगी?”

“हाँ-घूमने चलोगे? पर अभी जाने को जी नहीं है। आग बड़ी सुन्दर जल रही है।”

“तुम तो इतनी दूर खड़ी हो आग से-” भुवन ने सहसा कोर्निस को देखकर कहा, “और ये तुम्हारे नरगिस तो इस गर्मी में मुरझा गये-मैंने पहले ध्यान नहीं दिया-” उसने बढ़कर कोर्निस से फूलदान उठाया और कमरे के पार मेज की ओर ले चला। गौरा ने रास्ते में आगे बढ़ कर उससे फूलदान ले लिया, बोली, “सूँघिए इनको।” भुवन ने फूलों में मुँह छिपा कर लम्बी साँस खींची।

“बस, अब मुरझा जायें!” कहती हुई गौरा ने फूलदान मेज पर रख दिया। “और बहुत हैं-रोज लाऊँगी।”

भुवन ने स्नेहपूर्ण आग्रह से कहा, “अच्छा, अब सोने जाओ।”

“मैं तो सोयी ही थी। तुम्हीं तो नहीं सो पाये-अकेले डर लगता है!” गौरा ने चिढ़ाया।

भुवन ने मुस्करा कर स्वीकार किया कि वह दोषी है।

“अच्छा, अब तो नहीं डरोगे?” कुछ रुककर, कोमलतर स्वर से, “आग से तो नहीं डरोगे अब-”

“नहीं। अब नहीं। यह आग तो तुम्हारी आग है।”

गौरा ने एक क्षण चारों ओर देखा। फिर आगे जाकर बहुत-सी कुकड़ियाँ आग में डाल दी। बोली, “हाँ, यह मामूली आग थोड़े ही है-आपकी नींद के लिए खास सुगन्धित आग जलायी गयी है-हाँ।”

भुवन खड़ा मुस्कराता रहा। गौरा ने पास आकर आँख भरकर उसे देखा, फिर बोली, “अच्छा मैं जाती हूँ-तुम सो जाना अभी, हाँ?”

भुवन ने धीरे से सिर हिलाया, “हाँ।”

गौरा ने सहसा खिलकर कहा, “बच्चे हो तुम भी-बिलकुल शिशु! अच्छा, अब से तुम्हें यही कहूँगी-बड़े-बड़े वैज्ञानिक नामों से डर लगता है।”

वह चल पड़ी। किवाड़ खोलकर आधी बाहर जाते-जाते मुड़कर शरारत से बोली, “शिशु?” और चली गयी, पीछे उसने भुवन का स्वर सुना, “जुगनू।”

भुवन सोकर देर से उठा, नींद खुलने के साथ ही एक वाक्य उसके मन में गूँज गया : “शब्द अधूरे हैं-क्योंकि उच्चारण माँगते हैं, मैं कह नहीं सकती थी, पर लिख सकती थी चाहती तो।” और सहसा उसकी सब इन्द्रियों की चेतना सजग हो आयी, सबसे दीर्घ-सूची घ्राणेन्द्रिय की भी, उसके नासा-पुटों में चीड़ के धुएँ और नरगिस के फूलों की मिश्रित गन्ध भर गयी और उसने जैसे उसमें दोनों गन्धों को अलग-अलग पहचान लिया।

“यह आग तो तुम्हारी आग है।” और यह गन्ध? यह गन्ध? भुवन अकुलाया-सा उठा, जल्दी से उसने मुँह-हाथ धोया और ड्रेसिंग गाउन लपेटकर फिर पलंग के सिरे पर बैठ गया।

क्यों उसने गौरा को बाध्य किया था बोलने को? अपनी बात वह कहना चाहता था, उसे कहनी चाहिए थी, उससे वह भार-मुक्त भी हुआ, वह ठीक था-पर गौरा से क्यों उसने कहलवाया जो कहला कर छोड़ नहीं दिया जा सकता-कुछ कर्म माँगता है?

यह नहीं कि गौरा ने कहा नहीं था। जब वह अपनी कहानी कह रहा था तब गौरा जिस प्रकार से अदृश्यप्राय हो गयी थी-फिर सहसा उसने अपने केशों से उसे छा लिया था-उसे जिसने गौरा को कहा था कि जब वैसा होगा तब वह जान लेगा कि खोज पूरी हो गयी-फिर उसका अधिकार-पूर्वक चन्द्रमाधव की ओर से पैरवी करना; ये सब क्या हैं अगर नहीं हैं एक आत्म-विश्वास के सूचक, ऐसे आत्म-विश्वास के, जो किसी गहरे भावैक्य से, सम्पर्क से पैदा होता है? शब्द अधूरे हैं-उच्चारण माँगते हैं; गौरा अनुच्चारित सम्पूर्ण बात कह गयी है।

भुवन खड़ा होकर इधर-उधर टहलने लगा। नहीं यह असम्भव स्थिति है, ऐसा नहीं चल सकता! वह भी अधूरा है, बल्कि पंगु है, क्या हुआ वह पंगुता घाव नहीं है तो-सम्पूर्ण को वह कैसे स्वीकार कर सकता है? कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकता है जो केवल स्वीकार है, दान नहीं है? 'दो, दो, दो, जब तक कि तुम्हारा हृदय मुक्त न हो जाये!'-देने में ही मुक्ति है-स्वास्थ्य है-यह तो किसी ने नहीं कहा कि ले लो, सब स्वीकार करते चलो-दुर्भाग्य हो, व्यथा हो, हाँ, तब स्वीकार है : 'आमार भार लाघव करि नाई वा दिले सान्त्वना, वहन जेन करिते पारि';*-पर यह...यहाँ स्वीकार से पहले बहुत सोचने की ज़रूरत है...उसे याद आयी रेखा की बात, “और भी बातें सोचने की हैं न, इसीलिए यह बात सोचने की नहीं रही-यह तभी सोची जा सकती है जब एक और अद्वितीय हो, दूसरी किसी बात से असम्बद्ध हो।...” वह प्रसंग दूसरा था, और तब वह झल्लाया था, पर रेखा की बात ठीक थी-रेखा की सब बातें ठीक थीं, क्या हुआ वह फिर भी हारी तो-बल्कि इसीलिए तो हारी वह; मानव का विवेक सम्पूर्ण नहीं है, पर या तो वह बिलकुल अमान्य है, या वह अनिवार्यतः सर्वदा मान्य है...नहीं, वह गौरा से कह देगा, आज ही कह देगा।

वह उद्विग्न-सा बाहर जाने लगा। किवाड़ उसने खोले, फिर क्षण-भर वहीं ठिठका रहा; दिन तो बहुत चढ़ गया है, क्या इसी रूप में बाहर घूमना उचित होगा, या वह कपड़े पहन ले?

दूसरी ओर किवाड़ खुला। उनींदी आँखों को झपकती हुई गौरा निकली। उसे किवाड़ में खड़ा देखकर बोली, “अरे, तो आप अभी उठे हैं-मैं समझी अकेले घूमने चले गये होंगे-मैं तो घबरा गयी थी-मैं अभी मुँह-हाथ धोकर आयी, आज तो बड़ा दिन है-मेरा बड़ा दिन-” सहसा रुककर उसने आँखें बड़ी करके देखा, क्योंकि भुवन तब तक कुछ बोला ही नहीं था; भुवन के चेहरे का गूढ़ भाव देखकर फिर बोली, “क्या सोच रहे हो सबेरे-सबेरे, शिशु?” उसकी मुस्कराहट के उत्तर में भुवन भी सायास मुस्कराया; वह लौटकर फिर कमरे में चली गयी।

भुवन भी किवाड़ खुला छोड़कर कमरे में लौट गया, और मेज़ के पास लगी कुरसी पर बैठ गया, एकाएक असहाय। वह कहेगा-कह देगा; पर अभी नहीं, आज के बड़े दिन नहीं...

सामने मेज़ पर पड़े नरगिस अपनी आँखों से उसकी ओर देखते हुए फीके-से मुस्करा दिये।

हाँ, यह गन्ध भी तुम्हारी गन्ध है-आग की भी, फूल की भी...

(* मेरा भार हलका करके सान्त्वना चाहे न भी देना, उस भार को वहन कर सकूँ (ऐसा ही हो)।

-रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

× × ×

गौरा अपने कमरे में जाकर तुरन्त सोयी नहीं।

उसके कमरे की दो खिड़कियों में से छोटी खुली थी, बड़ी नहीं, क्योंकि उस ओर हवा का रुख था; अब उसने बड़ी खिड़की भी खोल दी। हवा के झोंके ने एक हल्की सिहरन उसकी देह में दौड़ा दी; वह उसे अच्छा लगा। वह खिड़की में जाकर खड़ी हो गयी। इस खिड़की के नीचे गेंदे के चार-पाँच बड़े-बड़े पौधे थे; बिजली की रोशनी में उनके बड़े-बड़े पीले और कत्थई फूल चमक गये। क्या बेतुका फूल है गेंदे का भी; यूरोपियन मेमों को जब भारत आते ही एकाएक साड़ी पहनने का शौक सवार होता है तब वे जो, जैसी, जिन चटक रंगों की साड़ियाँ-और जैसे!-पहनती हैं, उस पर मानो नीरव अन्योक्ति है गेंदे का फूल! इस तुलना पर गौरा तनिक-सी मुस्करा दी, फिर वह बत्ती बुझाने को मुड़ी कि इन फूहड़ मेम साहबों की उपस्थिति से छुट्टी पा जाये पर इरादा बदल कर वहीं लौट आयी। गेंदों की ओर उसने फिर देखा, स्थिर दृष्टि से; कल्पना की जा सकती है कि ये झाड़ियाँ जल रही हैं-झाड़ियों के भीतर छिपायी गयी आग फूट कर बाहर निकल रही है...भुवन के कमरे से बड़ी स्निग्ध गरमाई थी-भुवन शीघ्र सो जाये शायद, उसे अभी नींद नहीं आ रही है और इस कमरे में आकर तो और भी नहीं, यह ठण्ड शरीर को नयी स्फूर्ति दे रही है।

उसने कल्पना की भुवन की उस मुद्रा की, जिसमें वह उसे छोड़ आयी थी कमरे के बीच में खड़ा हुआ; और भुवन की आवाज़ उसके कानों में गूँज गयी, “जुगनू!” न जाने बचपन में वह इस नाम से इतना क्यों चिढ़ती थी; अब भी भुवन ने उसे चिढ़ाने या पुरानी चिढ़ की याद दिलाने के लिए ही इस नाम से पुकारा था, पर वह उसे अच्छा लगा था, और लग रहा था : वह नाम मानो एक सेतु था इतने दिनों के व्यवधान और दुराव के पार उसके बचपन के सुखमय दिनों तक, जब वे एक-दूसरे की बात नहीं सोचते थे पर एक-दूसरे को जानते थे, सहज भाव से...सहज भाव अब नहीं है, अब वे सोचते हैं, कहते हैं, दूर हटते हैं और फिर दूरी को उलाँघते हैं : बचपन के साथी पास होते हैं, यौवन के साथी पास आते हैं-लेकिन आने की अवस्था ही क्या होने की श्रेष्ठ अनुभूति नहीं है?

वह भुवन से क्या कह आयी है-कितना कह आयी है? कुछ भी कह आयी है, वह कुछ भी कह नहीं पायी है यह वह जानती है, और भुवन सुनकर भी क्या सुनता है वह नहीं जानती।

“आप मुझे चैलेंज कर रहे हैं! तो सुनिये-” किस दुस्साहस से वह कह गयी थी...लेकिन उसे अच्छा लगा कि वहाँ वह साहस कर आयी-सचमुच वह भुवन का दर्द धो देने के लिए कुछ भी कर सके तो सहर्ष तैयार है। भुवन के लिए नहीं, अपने लिए, क्योंकि सुखी भुवन उसके जीवन के लिए आवश्यक है-उसके आधार पर उसने अपने जीवन का दर्शन खड़ा किया है...”मैं कह नहीं सकती थी अगर चाहती तो,”-अगर भुवन उसे फिर चुनौती देता कि अच्छा देखूँ, लिखो-तो...क्या वह लिखती? शब्द अधूरे हैं, उच्चारण माँगते हैं; लेकिन शब्दों के अन्तराल, पदों-वाक्यांशों की यति में, उस यति के मौन में एक शक्ति है जो उच्चारण के अधूरेपन को ढँक देती है, सम्पूर्णता देती है; और लिखने में वह नहीं है, लिखना बहुत पड़ता है...जैसे स्पर्श में-हलके-से-हलके स्पर्श में-कहने की जो शक्ति है वह किसी दूसरी इन्द्रिय में नहीं है-स्पर्श-संवेदना सबसे पुरानी संवेदना जो है, और बाकी सब उसके विस्तार...

गौरा धीरे-धीरे खिड़की से हटकर बिछौने पर बैठ गयी, पास की छोटी मेज़ के निचले ताक से उसने पैड और कलम उठाया और गोद में रख लिया। नहीं, वह कुछ लिखना नहीं चाहती है, लिखकर कहना तो और भी नहीं; पर केवल एक आत्मानुशासन के रूप में-केवल अपने को स्थिर-चित्त करने के लिए वह दो-चार वाक्य लिखेगी-और नहीं तो इस प्रकार अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिए-उसके भीतर जो है वह कितना खरा है? कितना अच्छा? कितना गहरा, सच्चा, अर्थाविष्ट है? या नहीं है...

वह रुक-रुक कर बारीक अक्षरों में एक-एक दो-दो पंक्ति लिखने लगी।

“सचमुच मेरे जीवन का सबसे बड़ा इष्ट यही है कि तुम्हें सुखी देख सकूँ-तुम्हारा व्रण ठीक कर सकूँ। मेरे स्नेह-शिशु, मैं तुम्हारे ही लिए जीती हूँ, क्योंकि तुम में जीती हूँ...

“मेरा सहज बोध मुझे बताता था-पर तुम दूर थे, तुम और दूर भागते रहे; और मैं विश्वास नहीं जुटा पाती थी-मैं अन्तर्यामी तो नहीं हूँ। मैंने मान लिया, भक्त कवि ही ठीक कहते हैं, प्रिय को पाना ही निष्पत्ति नहीं है, विरह का भी रस है, और वह रस भी एक मार्ग है...

“मेरे शिशु, स्नेह-शिशु। भक्तों ने जो कृष्ण के बाल-रूप की कल्पना की है, वह बहुत बड़ी कल्पना है...जिसे मैं गोद खिलाती हूँ, वह अवतार भी है, भगवान् भी है-यशोदा जिसे पालने डुलाती है, वात्सल्य देती है, उसी को अपार श्रद्धा भी देती हैं, राधा जिस दही-चोर को धमकती है, उसी के पैर भी पूजती है-कोई भी प्यार नहीं है जो वत्सल नहीं है; कोई भी दान नहीं है जो विनीत नहीं है...

“तुम मेरा भविष्य हो, इसलिए मैं तुम्हें बनाती हूँ।

“तुमने मुझे विश्वास दिया है; मैं तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। मुझे लगता है, मैंने बहुत बड़ी निधि पायी है, ऐश्वर्य पाया है। और तुमसे। मेरे जीवन के सारे तन्तु तुम्हारे चारों ओर लिपट गये हैं। वे बहुत सूक्ष्म हैं, तुम्हें बाँधेंगे नहीं, पर तुम उन्हें छुड़ा नहीं सकोगे, तोड़ ही सकोगे-और सब नष्ट करके ही। उनका कोई बोझ तुम पर नहीं होगा...

“आग से तुम नहीं डरोगे अब-किसी चीज़ से नहीं डरोगे! आग को मैं सुगन्धित कर दूँगी, शिशु; ज़रूरत होगी तो स्वयं उसमें होम हो जाऊँगी पर तुम नहीं डरोगे, मुझे वचन दो; अपने को नहीं सताओगे-डर से नहीं, परिताप से नहीं...और हाँ, प्यार से भी नहीं-वह तुम्हें क्लेश दे तो उसे भी हटा देना! तुम देवत्व की साँस हो, देवत्व की शिखा हो जिसे मैं अन्तःकरण में पालूँगी...”

पन्ना उलट कर गौरा रुक गयी। पिछले तीन घंटों का दृश्य उसके मन में फिर उभर आया। उसे ध्यान आया, उसने जब-जब पूछा था कि तुम भाग तो नहीं जाओगे, तब-तब भुवन ने बात पलट दी थी, उत्तर नहीं दिया था। तो क्या वह उसे छोड़कर चला जाएगा-क्या वैसा इरादा उसने कर रखा है?

गौरा...अभी नहीं सोचेगी। वैसा ही है, तो वैसा ही हो। वह साँस, वह शिखा, छोड़कर चली जाये तो चली जाये। उस साँस से वंशी वंशी है, जिसमें समूचे वन-प्रान्तर की आकांक्षा बोलती है, नहीं तो केवल बाँस की एक पोर; फिर भी...

फिर उसने लिखना आरम्भ किया :

“वचन दो कि तुम अपने को अनावश्यक संकट में नहीं डालोगे...जो आवश्यक है, उससे मेरी होड़ नहीं, वह तुम्हें पुकारे, उसे तुम वरो; पर जो अनावश्यक है, उसे तुम नहीं पुकारोगे!”

पैड को थोड़ा परे सरका कर, उसने निस्वन ओठों से पुकारा, “भुवन...” फिर वैसे ही दुबारा, “भुवन...”

“मैं तुम्हें पुकारती हूँ। बार-बार पुकारती हूँ, यहाँ तक कि मेरी पुकार ही सम्मोहिनी बनकर मुझे शान्त कर देती है, मेरी माँग को सुला देती है।”

उठकर उस ने दो-तीन चक्कर लगाये। फिर धीरे से बाहर निकल कर वह भुवन के कमरे तक गयी; किवाड़ से कान लगा कर उसने सुना, कोई शब्द नहीं था। किवाड़ों के बीच की दरार से झाँका, भीतर अँधेरा था; आग की बहुत हलकी-सी लोहित आभा थी, बस। लौटती हुई क्षण-भर वह बीच के कमरे के आगे ठिठकी, उसका मन हुआ कि भीतर से सितार निकालकर बजाने बैठे; पर फिर आगे बढ़कर अपने कमरे में चली गयी। किवाड़ बन्दकर के बत्ती बुझाकर लेट गयी।

दूर बहुत हलके चार खड़के, पर गौरा ने नहीं सुना।

बड़ा दिन...गौरा भुवन को नाश्ते के लिए ऊपर ले गयी; नाश्ते के बाद सब लोग टहलने निकले। अधिक नहीं घूमे, शाम को दुबारा घूमने जाने की ठहरी। लौटकर गौरा के पिता बरामदे में आराम-कुरसी पर लेट गये और भुवन उनके पास बैठा बातें करता रहा। दोपहर का भोजन हुआ, उसके बाद पिता फिर उसी कुरसी पर बैठकर तिपाई पर पैर फैला कर ऊँघते रहे; गौरा से यह संकेत पाकर कि 'लंच के बाद पापा आराम करेंगे', भुवन अपने कमरे में चला गया। बड़े दिन को कभी विशेष महत्त्व उसने नहीं दिया था, पर गौरा की बात का असर उस पर था, बैठकर उसने चन्द्रमाधव को एक छोटी-सी चिट्ठी लिख डाली; फिर रेखा को भी एक, और अपने कालेज को भी दो-एक; फिर रात के जागरण के कारण उसे भी ऊँघ आने लगी और वह सो गया। दो-ढाई घंटे की नींद के बाद कोई पाँच बजे जब वह उठा, तो गौरा के कमरे से सितार के बहुत हलके स्वर आ रहे थे। उसका मन हुआ, अगर वह गा सकता...पर नहीं, गाता तो शायद कुछ उदास गान ही गाता, और गान को उदास होना हो तो मौन ही क्या बुरा है? वह अलसाया-सा लेटा सुनता रहा; सितार के तार झनझना भी देते हैं, पर विचलित भी नहीं करते, जैसे किसी सोये को कोई थपकी दे-देकर उद्बोधन करे...

सितार बन्द हो गया, उसके दो-चार मिनट बाद गौरा चाय का ट्रे लिए उसके कमरे में प्रविष्ट हुई। ट्रे रखते हुए बोली, “सोये?”

“हाँ, खूब। तुम?”

“थोड़ा। दिन में सो नहीं पाती-जाड़ों में।”

“रात तो सोयी थीं-जाकर क्या करती रहीं?”

“और रतजगा थोड़े ही करती?” गौरा ने टाला।

भुवन ने ताड़ते हुए पूछा, “क्या करती रही?”

“आवृत्ति।”

“क्या-काहे की?”

गौरा ने एक बार नकली झल्लाहट की अर्थ-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा, और मुस्करा कर बोली, “शिशु, शिशु, शिशु।”

भुवन ने भी मुस्करा कर उसकी नकल करते हुए कहा, “जुगनू, जुगनू,” और क्षण-भर की अविध देकर, खिलकर, “हिडिम्बा!”

चाय पीते-पीते भुवन ने पूछा, “घूमने की पक्की है न-मैं तैयार हो जाऊँ”

“आप को शर्म नहीं आएगी माल पर एक हिडिम्बा के साथ घूमते?”

भुवन ने अप्रस्तुत भाव से कहा, “धत्!” फिर सँभलकर, “पर मैं तो पिताजी के साथ जाऊँगा न-”

“वह तो चले गये पहले-आप सो रहे थे तब। ज्यादा ठण्ड में वह नहीं रहना चाहते न!”

गौरा जब तैयार होकर आयी तो भुवन ने कहा, “ओ, यह हिडिम्बा का माया-रूप है न, इतना सुन्दर!”

गौरा तनिक-सी झेंप गयी, पर उसके चेहरे की कान्ति ढलती धूप में और भी दमक उठी। भुवन अचम्भे में भरा देखता रहा, जैसे पहले-पहल उसे देखा हो।

× × ×

सप्ताह बहुत छोटा होता है-बहुत जल्दी बीत गया। उसमें कुछ लम्बा था तो उनकी बहसें, लेकिन वे भी किसी परिणाम पर नहीं पहुँचीं; प्रायः ही बात-चीत के बाद परिणाम निकलता कि घूम आया जाये-या कभी-कभी गौरा सितार बजाने बैठ जाती, कभी भुवन अकेला सुनता, कभी गौरा के माता-पिता भी रहते।

नये साल के दिन भुवन भी सवेरे जाकर बहुत से फूल खरीद कर लाया, गौरा भी। गौरा पहले लौटी थी और फूल सजा रही थी जब भुवन पहुँचा; भुवन की 'अरे!' सुनकर वह उठी, भुवन के हाथों में वही-वही फूल देखकर 'अरे' का अर्थ तुरत समझती हुई उसने भुवन के हाथ से सारे फूल ले लिए और बोली, “ये सब मैं अपने कमरे में रखूँगी। आप चलकर सजा दीजिए न-”

भुवन ने कहा, “गौरा, नया वर्ष शुभ हो तुम्हारे लिए-”

“और आपके-”

गौरा के कमरे में पहुँच कर भुवन ने एक नज़र चारों तरफ डाली; गौरा ने फूल उसे पकड़ाते हुए कहा, “ज़रा इन्हें लीजिए, मैं फूलदान ले आऊँ।” पानी-भरे फूलदान लाकर उसने खिड़की में रख दिये और बोली, “लीजिए, अब अपने मन से इन्हें सजा दीजिए।”

भुवन सजाने लगा। गौरा ने कहा, “मैं अभी आयी,” और बाहर चली गयी; भुवन के कमरे में फूल रखकर वह लौटी तो वह एकाग्रचित्त से फूल सजा रहा था, एक फूलदान उसने पलंग के सिरहाने रख दिया था, दो और सजा रहा था। गौरा का आना उसने लक्ष्य नहीं किया। वह क्षण-भर उसे निहारती रही, फिर एकाएक आगे बढ़कर उसने भुवन के पैरों में झुकते हुए धीरे-से कहा “मेरा प्रणाम लो, शिशु-”

भुवन ने बिलकुल अचकचा कर कहा, “यह क्या गौरा-शिशुओं को प्रणाम करते हैं?” उसके हाथ का फूल छूटकर गौरा की पीठ पर गिरा।

“हाँ-देव-शिशु को प्रणाम ही करते हैं।” गौरा धीरे-धीरे उठी, उठते-उठते उसने एक हाथ पीछे मोड़कर पीठ पर गिरा फूल पकड़ लिया कि नीचे न गिरे, फिर उसे बालों में खोंस लिया।

तीसरे पहर की सर्विस से, पूर्व-निश्चय के अनुसार, भुवन नीचे चला गया, दूसरी तारीख को उसे कालेज पहुँचना था।

× × ×

संगीत-शिक्षित गौरा अपने कालेज में सर्वप्रिय थी; पर मसूरी से लौटकर कालेज जाने पर मानो लोगों ने उसे नयी दृष्टि से देखा। “मसूरी आपको बहुत माफ़िक आयी है।” “मिस नाथ, आप कोई कम्प्लेक्शन क्रीम लगाती हैं-हमें भी बता दीजिए!” “मसूरी की हवा में कुछ जादू मालूम होता है।” इस प्रकार के बीसियों वाक्य उसे रोज़ सुनने पड़ते-अन्य अध्यापिकाओं से भी, छात्राओं से भी; कभी वह मन-ही-मन झल्ला उठती पर चेहरे पर एक सूक्ष्म अन्तर्मुखीन मुस्कराहट लिए वह अपने काम में लीन घूमती रहती, कुछ कहती नहीं; कभी इन बातों से वह थोड़ा-सा झेंप जाती और धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाने लगती; कभी एकान्त में बैठकर देर तक सितार या तबला भी बजाती रहती, उसकी यों ही ढीली रहने वाली कबरी खुल जाती और बाल कन्धे पर झूल जाते, एक-आध उड़कर माथे पर आ जाता या आँखों के नीचे कुण्डल बना देता और उसकी छवि और भी मनोहारिणी हो आती...अध्यापिकाओं में गौरा का कबरी-बन्धन पहले ही एक मज़ाक था : अध्यापिका, फिर युक्त प्रान्त की-बालों को कसकर, चिपका कर बाँधने का उनके निकट बहुत महत्त्व था और गौरा की इस महत्त्वपूर्ण विषय में इतनी उपेक्षा को वे सहज भाव से न ले पाती थीं। दो-एक मलाबारिनें भी ढीले बाल बाँधती थीं, पर वह दूर द्राविड़ देश है, और रामायण पढ़ने वाली महिलाओं के मन में अब चेतन रूप से यह बात तो रहती ही है कि विन्ध्य के पार सब जंगल है-और दूर दक्षिण में तो वनौकस रहते हैं, जानी बात है। लेकिन गौरा दक्षिणी नहीं है...पर छात्राओं को यह प्रकृत रूप अच्छा लगता, वे कभी मज़ाक भी करतीं तो प्रीति-भाव से।

महीने के अन्त में-जनवरी 1942-गौरा और भुवन के एक-दूसरे को लिखे गये पत्र दोनों को लगभग साथ-साथ मिले। भुवन ने गौरा को वसन्त की शुभकामनाएँ भेजी थीं और यह सूचना दी थी कि वह फिर बाहर जा रहा है-ठीक विदेश नहीं, पर सागर-पार; हिन्द महासागर में कहीं-कदाचित् अण्डमान में-रेडियो के नये प्रयोग के लिए एक छोटा-सा केन्द्र बन रहा है, उसी में। केन्द्र सैनिक नियन्त्रण में होगा और इस अन्वेषण का इस समय सामरिक महत्त्व ही अधिक है यद्यपि आगे वह अत्यन्त उपयोग होनेवाला है। अधिक दिन के लिए नहीं जा रहा है; नये सेशन से पहले ही लौट आएगा शायद। गर्मियों की छुट्टियों में गौरा तो दक्षिण होगी शायद, हो सकता है कि लौटकर वह उधर आये...अन्त में एक वाक्य और था, “मैं असुखी नहीं हूँ गौरा, न-उन पिछली बातों से तप रहा हूँ; तुम चिन्ता न करना, और अपनी देख-भाल करना।”

गौरा की चिट्ठी भी मुख्यतया सूचना के लिए थी। गर्मियों का अवकाश वह दक्षिण में ही बिताएगी-मद्रास या बंगलौर में किसी संगीताचार्य के पास-और तभी वहीं निश्चय कर लेगी कि और एक वर्ष भी उधर ही रह जाये या वापस बनारस आवे। पत्र के साथ उसने बम्बई के अख़बार की कतरन भेजी थी : “इस कटिंग में अवश्य तुम्हें दिलचस्पी होगी : मैं तो अवाक् होकर सोचती हूँ कि चन्द्रमाधव कैसे कम्युनिस्ट हो सकते हैं-मनसा भी, और उनके इधर के काम तो बिल्कुल इसके विरुद्ध जाते हैं, और यह विवाह...फिर भी आशा है तुम उन्हें शुभ कामनाओं का एक पत्र लिख दोगे। मैं भी लिख रही हूँ। बधाई का भाव तो मन में नहीें उठता-झूठ क्यों बोलूँगी-पर सत्कामनाएँ भेजूँगी।” अन्त में उसने भी अधिक निजीपन से लिखा था, “मैं 'तुम' लिख गयी हूँ-बिना इजाजत लिए ही-बुरा तो न मानोगे? बोलने में, लगता है अब भी मिलूँगी तो 'आप' ही कहूँगी, पर चिट्ठी में 'तुम' लिखना ही आसान और ठीक भी जान पड़ रहा है, बल्कि सोचती हूँ, 'आप' अब कैसे लिखूँ? आप नाराज़ तो न हो जाइयेगा, देव-शिशु?”

इसके साथ जो कतरन थी उसमें चन्द्रमाधव के विवाह का समाचार और विवरण था। उसका सारांश यह था कि बम्बई में 27 जनवरी सन् 1942 को सुप्रसिद्ध जर्नलिस्ट कामरेड चन्द्रमाधव का विवाह आर्य-समाजी पद्धति से मिस चन्द्रलेखा से हुआ। मिस चन्द्रलेखा प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। विवाह के पूर्व शुद्धि-संस्कार का उल्लेख था जिससे विदित होता था कि मिस चन्द्रलेखा अहिन्दू रहीं। विवाह के बाद पार्टी हुई जिसमें सिनेमा जगत् के अनेक सितारे उपस्थित थे, और बम्बई के भद्र-समाज के कई अग्रणी व्यक्ति-इनकी सूची भी थी। कामरेड चन्द्रमाधव स्थानीय 'प्रोग्रेसिव जर्नलिस्ट बिरादरी' के उप-प्रधान और प्रमुख प्रोग्रेसिव बौद्धिक और लेखक थे; अनेक जर्नलिस्ट और प्रोग्रेसिव लेखकों तथा कम्युनिस्ट केन्द्रीय समिति के कुछ सदस्यों ने भी उत्सव में भाग लिया था और कामरेड चन्द्रमाधव को बधाई दी थी।

भुवन का उत्तर गौरा को एक महीने बाद मिला। किसी सैनिक डाकघर की उस पर मुहर थी; गौरा ने अनुमान से जान लिया कि अण्डमान से आया होगा। चन्द्रमाधव को भुवन ने शुभ कामनाएँ भेज दी थीं; गौरा के दक्षिण जाने का निश्चय पक्का हो गया यह जान कर उसे प्रसन्नता हुई थी और आशा थी कि वह उसे शीघ्र मिलेगा-जहाँ वह था वहाँ काम तो बहुत था पर इसकी सम्भावना कम थी कि अधिक दिन रहना पड़े। (इससे गौरा ने अनुमान लगाया कि कदाचित् वहाँ संकट आने की सम्भावना है।) और चन्द्रमाधव के विषय में गौरा ने पूछा था, उसका उत्तर देते हुए लिखा था : “राजनीति के बारे में मेरा कुछ कहना अनधिकार है-मेरा वह क्षेत्र बिलकुल नहीं है। पर जैसा मैं देखता हूँ, हमारे देश में कम्युनिस्ट दो प्रकार के हैं-एक तो जो वास्तव में मज़दूर हैं, दूसरे मध्य या उच्च वर्ग के कुछ लोग जो अपनी परिस्थितियों के उत्तरदायित्व से भागते हैं-या भाग गये हैं। यह तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि ऐसे आदमी कैसे कम्युनिस्ट हो सकते हैं; मेरा ख्याल है कि ऐसे सम्पन्न साम्यवादी, साम्यवादी क्षेत्र में भी उतने ही अविश्वसनीय होते हैं जितने उस क्षेत्र में जिससे वे भागते हैं-यानी जिसके उत्तरदायित्व से भागते हैं पर जिसकी सहूलियतों और विशेषाधिकार को नहीं छोड़ना चाहते। और मैं समझता हूँ कि वे तब तक अविश्वसनीय रहते हैं, जब तक कि कोई बड़ी कुण्ठा उन्हें सदा के लिए पंगु नहीं बना देती-कुण्ठित व्यक्ति ही विश्वास्य वर्गवादी बन सकता है...मज़दूर वर्ग के जो हैं, उन्हें तो सामाजिक वर्गीकरण का और वर्ग-स्वार्थों का उत्पीड़न कुण्ठित किये ही रहता है, जो वर्ग-समाज में ऊँचे पर होते हैं वे किसी दूसरे प्रकार से कुण्ठित होकर पक्के हो जाते हैं। चन्द्रमाधव भी अत्यन्त कुण्ठित व्यक्ति है-जब तक नहीं था, तब तक उसमें असन्तोष बहुत था पर यह रूप उसने नहीं लिया था : अब वह कुण्ठित हो चुका है और उसका असन्तोष युक्ति से परे हो गया है-कुण्ठित होना अब उसके जीवन की एक आवश्यकता बन गया है, उसकी कुण्ठा और उसका वाद परस्पर-पोषी हैं, और एक-दूसरे को और गहरा पहुँचाते हैं। किसी पर दया करना पाप है, नहीं तो मैं चन्द्र को दया का पात्र मान लेता। अब इतना ही कहूँ कि वह भी 'वन मोर ट्रायम्फ़ फ़ार डेविल्स एण्ड सारो फ़ार एंजेल्स* है...”

(* शैतान की एक और विजय, देवताओं का एक और दुःख -ब्राउनिंग)

पत्र में अन्तरंग बात कुछ नहीं थी। गौरा को कुछ निराशा तो हुई, पर अधिक नहीं; उसे इसी में स्वाभाविकता दीखी, कुछ यह भी लगा कि यही उसकी वर्तमान स्थिति को सहनीय बनाता है, नहीं तो वह व्याकुल हो उठती। पत्र में कुछ औपचारिक आत्मीयता की बात होती तो अधिक क्लेशकर होती, आत्मीयता की कोई बात ही न होना उदासीनता का नहीं, अनुशासन का द्योतक था; और आत्मानुशासन अगर भुवन के लिए सहज है तो उसके लिए और भी सहज होना चाहिए-सहज और हाँ, उपयोगी भी क्योंकि वह जीवन को माँजेगा और एक नयी कान्ति, नयी गहराई भी देगा...

गौरा के जीवन की एक लीक बनने लगी-न बहुत गहरी कि उससे उबरा न जा सके, न बहुत कड़ी कि उसे मिटा कर नयी लीक न डाली जा सके, फिर भी एक लीक। प्राणी जब शरीर को बाँधकर रखता है, तब उसका विद्रोह मिट्टी को खूँदने के रूप में प्रकट होता है, जब मन को बाँधता है, तब वह विद्रोह एक पटरी पर निरन्तर आती-जाती गति के रूप में प्रकट होता है-जब तक कि वह विद्रोह है; यह दूसरी बात है कि धीरे-धीरे भीतर वह विद्रोह मर जाये, पटरी क्रमशः फ़ौलादी लीक बन जाय जिससे इधर-उधर हटना मुक्ति नहीं, पटरी से गिर जाना हो, उलट जाना हो...

रेखा को भी उसने एक-आध पत्र लिखा; रेखा का उत्तर भी आया। उत्तर में अपनापा भी था, पर एक तटस्थता भी; कुछ यह भाव कि मेरी तरफ़ से कोई यन्त्र या सीमा नहीं बनायी गयी है, पर मैं स्वयं अपने भीतर अन्वेषण में खोयी हुई हूँ और बाहर से मेरा सम्बन्ध उदार दृष्टि का ही है, बाहर की ओर बहने का नहीं...इतना उसे ज्ञात हुआ कि रेखा फिर अस्वस्थ है, अस्वस्थ ही रहती है, और यत्न कर रही है कि उसका काम उसे विदेश ले जाये-कदाचित् पश्चिम की ओर वह चली भी जाएगी।

होली पर उसने भुवन को एक लिफ़ाफे में भरकर थोड़ा अबीर और अभ्रक का चूर भेजा; साथ यह आग्रह करके कि इसे वह गौरा की ओर से अपने मुँह पर मल ले; कुछ दिन बाद उत्तर आ गया, और अगली डाक से एक पैकेट में कुछ सूखे फूल। पत्र में भुवन ने लिखा था कि होली उसने खेल ली, दो-एक फ़ोटो भी रंगे मुँह के लिए गये थे जो वह शायद बाद में भेज सके; अलग डाक से वह कुछ फूल भेज रहा है जो स्थानीय श्रेष्ठ उपहार है-एक केवड़े का, और कुछ नाग-केशर के : केवड़ा तो खैर परिचित है, पर नाग-केशर उसने पहले नहीं देखा था और गौरा ने भी कदाचित् न देखा होगा-इसका भव्य वृक्ष और इकहरे सफ़ेद जंगली गुलाब-सा फूल दोनों ही दर्शनीय हैं। और गन्ध-गन्धमादन पर्वत जहाँ भी रहा हो, उसका नाम ज़रूर नाग-केशर की गन्ध के कारण ही पड़ा होगा...

फिर उसने लिखना आरम्भ किया था कि “ये फूल तुम पहन लेना”-लेकिन इस वाक्य को काट कर लिखा था “तुम तक पहुँचते फूल तो सूख जाएँगे-पर गन्ध शायद बनी रहे; उसे सूँघो तो स्मरण कर लेना कि मेरे स्नेह की साँसें भी तुम्हारी स्मृति को घेरे हैं।”

लेकिन जो सूखे फूल गौरा तक पहुँचे उनमें गन्ध भी नहीं थी। यह सूचना उसने भुवन को दे दी-”तुम्हारे भेजे हुए फूल मिले-पर उनकी गन्ध तो उड़ गयी। काश! मैं भी ऐसे ही उड़ जा सकती-उड़कर शून्य में विलीन होने नहीं, उन पेड़ों तक पहुँचने को, जिनके नीचे बैठकर तुम उनकी सुगन्ध नासा-पुटों में भरते होगे, जिनके नीचे तुम्हें मेरी याद आयी। तुम्हारी साँसें मेरी स्मृति को घेरती हैं-(?)-पर मुझे भुवन, मुझे? मुझ से तुम दूर-ही-दूर जाते हो और जाते रहे हो। अच्छा, जाओ, जहाँ भी जाओ, मुक्त रहो; जो दूर रहना चाहता है, उसके पास जाने की कोशिश क्यों-और तुम्हारी वैसी साधना है तो उसे मैं क्यों विफल करने लगी! मैंने सोचना चाहा था कि तुम जा नहीं सकोगे, पर नहीं सकी, और अब यत्न भी नहीं करती। तुम पहले भी चले गये थे; 'धागा-मनका तोड़कर' चले गये थे, फिर तुम वापस आये-पर कहाँ आये, मैंने ही समझ लिया क्योंकि वैसा ही मैं मानना चाहती थी! पर उन बातों को छोड़ो; प्रतीक्षा करना भी अच्छा है-आशापूर्वक भी, निराशापूर्वक भी क्योंकि आशा और निराशा दोनों प्रतीक्षा में ही सार्थक हैं।”

जिन अध्यापिकाओं और मुँह-लगी छात्राओं ने मिस नाथ के कम्प्लेक्शन और मसूरी के जलवायु के प्रताप की चर्चा की थी, वे अब जब-तब कहने लगी, “मिस नाथ, आपको यहाँ अच्छा नहीं लगता? आप फिर मसूरी हो आइये न-आपका चेहरा न जाने कैसा हो रहा है? नहीं, अस्वस्थ नहीं, पर न जाने कैसा एक कठोर भाव उस पर आता जाता है।” ऐसी बात सुनकर गौरा को सहसा स्वयं बोध हो आता, हाँ, उसके चेहरे पर एक तनाव है जो नहीं होना चाहिए, क्षण-भर आयासपूर्वक वह चेहरे के स्नायु-तन्तुओं को ढीलाकर के हँस कर कहती, “कुछ नहीं, शायद मास्टरनियों वाला चेहरा हुआ जा रहा होगा-मास्टरनी का चेहरा एक अलग किस्म का होता है-जिस तरह आदमी और सिख दो अलग-अलग जातियाँ होती हैं उस तरह औरत और मास्टरनी भी दो अलग जातियाँ होती हैं।” बात हँसी में उड़ जाती'; पर पीछे गौरा सोचने लगती, क्या सचमुच ऐसे उसका चेहरा कठोर हो जाएगा-क्यों? अनुशासन बाहर से आरोपित किया गया हो; जो भीतरी है, जो साधना है, और जो आनन्ददायिनी भी है, वह क्यों कठोर रेखाएँ लावे-उसकी रेखाएँ तो मृदु होनी चाहिए-पुस्तकों में तो यही लिखा है कि साधना से चेहरे पर एक कान्ति आती है, शरीर भले ही कृश हो जाये। उसे 'कुमार-सम्भव' की तपस्या-रत हिमालय-सुता की याद आ जाती, कालिदास की पंक्तियाँ वह धीरे-धीरे दुहरा जाती :

मुखेन सा पद्मसुगन्धिना निशि

प्रवेयमानाधरपत्रशोभिता।

तुषारवृष्टिक्षतपद्म सम्पदां

सरोजसन्धानमिवा करोदपाम्।।

फिर सहसा इसमें निहित तुलना की अहम्मन्यता पर वह लज्जित हो जाती और कोई वाद्य लेकर बजाने बैठ जाती कि उसमें लज्जा और उस समूची विचार-परम्परा को डुबा दे...और वास्तव में वह बजाते-बजाते विभोर हो उठती, तब वे सब रेखाएँ मिट जाती और सचमुच एक अद्भुत कान्ति उसके चेहरे पर छा जाती-मसूरी के जल-वायु से पायी कान्ति से भी अधिक आभायुत-लेकिन वह स्वयं उसे न जान पाती; वादन समाप्त करके वह उठती, तो उसके चेहरे पर एक मृदुल स्थिरता का भाव होता जैसा सद्यः सोकर उठे स्वस्थ शिशु के चेहरे पर होता है।

इसी प्रकार सेशन पूरा हो गया, छुट्टियाँ लगीं; गौरा तीन-चार दिन के लिए मसूरी होकर, भुवन को अपने दक्षिण जाने की सूचना देकर मद्रास चली गयी।

× × ×

6 अप्रैल सन् 1942 को भारत में पहला जापानी बम गिरा। गौरा उस दिन मसूरी में थी; समाचार मिलते ही उसने रेखा को पत्र लिखा; उसका कुशल-समाचार पूछा और यह सम्भावना प्रकट की कि रेखा का काम अब बहुत बढ़ जाएगा-क्या वह इतना परिश्रम कर सकेगी, और क्या उसका विदेश जाने का विचार अभी है कि बदल जाएगा? भुवन के बारे में भी उसने चिन्ता प्रकट की-भुवन न जाने कहाँ है, कैसी स्थिति में और कब लौटेगा या आगे क्या करेगा...पत्र उसने डाल दिया, फिर भुवन के बारे में चिन्ता ने सहसा उसे जकड़ लिया, उसने कुशल पूछने का तार लिखा और भेजने चली पर न जाने क्या सोचकर उसने तार नहीं दिया, एक-दो लाइन का पत्र ही लिखकर डाल दिया।

मद्रास पहुँच कर उसे मसूरी से लौटा हुआ भुवन का पत्र मिला। पत्र बहुत छोटा था, पर अभिप्राय-भरा, उसे पढ़कर गौरा बहुत देर तक सन्न बैठी रही, फिर उसने पत्र से ही आँखें ढँक कर दोनों हथेलियों से उसे आँखों और माथे पर दबा लिया।

भुवन ने सूचित किया था कि भारतीय भूमि पर जापानी बम पड़ने के बाद वह अपना कर्तव्य स्पष्ट देख रहा है : उसी दिन वह सेना में भरती हो रहा है। युद्ध घृण्य है, और कोरी देश-भक्ति भी उसके निकट कोई माने नहीं रखती बल्कि घृणा और युद्ध की जननी है, पर इस संकट से भारत की रक्षा करना देश-भक्ति से बड़े कर्तव्य की माँग है-वह मानव की बर्बरता से मानव के विवेक की रक्षा की माँग है; बर्बरता के सब साधन विज्ञान ने ही जुटाये हैं; अतः विज्ञान को यह सब बड़ी ललकार है : या तो वह अपनी शिवता, कल्याणमयता को प्रमाणित करे-या सदा के लिए नष्ट हो जाये। विज्ञान एक ओर ज्ञान-दर्शन है, दूसरी और यन्त्र-कौशल; बर्बरता ने दूसरे पक्ष को लिया है पहले का खण्डन करते हुए; सभ्यता अगर कुछ है तो वह पहले का उद्धार करने को बाध्य है-उद्धार करके उसी के द्वारा दूसरे को अनुशासित रखने को। “मैं नहीं सोच सकता कि मैं कैसे किसी भी प्रकार की हिंसा कर सकता हूँ, या उसमें योग दे सकता हूँ-पर अगर कोई काम मैं आवश्यक मानता हूँ, तो कैसे उसे इसलिए दूसरों पर छोड़ दूँ कि मेरे लिए वह घृण्य है? मुझे मानना चाहिए कि वह सभी के लिए-सभी सभ्य लोगों के लिए-एक-सा घृण्य है, और इसलिए सभी का समान कर्तव्य है...”

पत्र के अन्त में 'पुनश्च' करके दूसरे दिन जोड़ी हुई सूचना थी कि वह बर्मा भेजा जा रहा है।

इसके बाद तीन महीने तक गौरा को भुवन का कोई समाचार नहीं मिला। कालेज से उसने अवेतन छुट्टी ले ली और संगीत के अभ्यास में ही अपने को डुबा दिया। उसके चेहरे की रेखाएँ फिर कभी कठोर, कभी मृदु होने लगीं, और कभी संगीत के आप्लवन में बिल्कुल लुप्त; कभी उसके चेहरे की आत्म-विस्मृत मुग्ध स्थिरता को कँपाते हुए-से दो आँसू उसकी आँखों में चमक आते-आँसू वैसे ही अकारण, बेमेल, अपदस्थ, जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूँदें...फिर जब समाचार उसे मिला, तो भुवन के पत्र से नहीं, रेखा द्वारा भेजे एक तार से।

और अनन्तर भुवन की एक कापी से।

× × ×

रेखा को भुवन के सेना में भरती हो जाने की सूचना समाचार पत्र से ही मिली थी। फिर यह पता उसने स्वयं पूछ-ताछ करके लगाया था कि वह बर्मा में कहीं भेजा गया है। इस समाचार के बाद कुछ दिन तक तो उसने कुछ नहीं किया, फिर भुवन को एक पत्र लिखा :

भुवन,

मुझे पता लगा कि तुम सेना में भरती होकर बर्मा गये हो; यह भी पता लगा कि वहाँ भेजा जाना तुमने स्वयं चाहा था-नहीं तो तुम-से वैज्ञानिक को शायद पश्चिम भेजा जाता-या लंका में। कई दिन तक मैं इस समाचार को ग्रहण न कर सकी, पर अब मैंने उसे स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे भीतर की अनिवार्य प्रेरणा को कुछ-कुछ समझ भी लिया है; और जैसे पाती हूँ कि इसमें मेरे लिए मार्ग का भी संकेत है। बीच में एक दिन तुम्हारी निकट उपस्थिति की एक तीव्र व्यथा मन में उठी थी; सम्भव है तुम उस दिन कलकत्ते रहे होगे या कलकत्ते से गुज़रे होओ-यद्यपि आये होते तो मुझे सूचना दी होती ऐसा मैं अब भी मानती रहना चाहती हूँ...फिर एक दिन स्वप्न में तुम्हें देखा था-देखा कि तुम हमारे घर आये हो-हमारे घर, मेरे माता-पिता और छोटे भाई सब की उपस्थिति में, और सबसे मिले हो, पिता तुम्हें बाहर नदी के किनारे की रौंस पर मेरे पास बिठा गये हैं; फिर हम लोग कागज़ की नावें बना कर नदी में डालते हैं और उनका बह जाना देखते हैं। नावें कभी दूर-दूर तक चली जाती हैं, कभी पास आ जाती हैं, कभी टकरा भी जाती हैं; कभी नदी में बहते हुए शैवाल से उलझ जाती हैं। सहसा देखती हूँ कि उन्हीं हमारी कागज़ की नावों में हम भी बैठे हैं-रौंस पर बैठे देख भी रहे हैं, पर नावों में भी हैं; फिर नावें एक बालू के द्वीप में जा लगती हैं जहाँ हम उतर कर नावों को खींचने लगते हैं-पर नावों में बैठे भी रहते हैं। अब हम रौंस पर से देखते भी हैं, नावों में बैठे भी हैं, नावों को खींच भी रहे हैं! फिर देखती हूँ, बहुत से द्वीप हैं, हर एक पर हम नाव में भी बैठे, नाव को खींच भी रहे हैं-और रौंस पर बैठे देख तो रहे ही हैं। सहसा नदी का पानी बहती हुई सूखी बालू हो जाती है, और तुम्हारा चेहरा तुम्हारा नहीं, कोई और चेहरा है; तुम मुस्कराते हो तो वह चेहरा तुम्हारा भी है, पर नहीं भी है; मैं कहती हूँ, यह सपना है, जागेंगे तो तुम्हारा चेहरा दूसरा हो जाएगा, तुम कहते हो, सपना थोड़ी देर और देखो न, फिर चेहरा बदल नहीं सकेगा। फिर मैं तुम्हारी मुस्कान देखती रही; थोड़ी देर में जाग गयी। सपनों के सिर-पैर नहीं होते-होते हों जैसा मनोविश्लेषक जताते हैं तो उनका अर्थ जानने की ज़रूरत नहीं होती-पर मैं जागी एक मधुर भाव लेकर, फिर ध्यान आया कि तुम तो बर्मा में कहीं होगे...

भुवन, तुम्हें एक समाचार देना चाहती हूँ। नहीं जानती कि तुम्हें कैसा लगेगा, पर-जानती हूँ तुम प्रसन्न ही होगे। मुझे आशीर्वाद दो, भुवन। डाक्टर रमेशचन्द्र ने मुझसे विवाह का प्रस्ताव किया था; मैंने उन्हें स्वीकृति दे दी है। इसी महीने के अन्तिम सप्ताह में विवाह हो जाएगा। सम्भव है कि विवाह के दो-एक महीने बाद वह 'मिडल ईस्ट' की तरफ़ कहीं जावें-मैं भी साथ ही जाऊँगी शायद। काम मैंने अभी नहीं छोड़ा है, पर आठ-दस दिन बाद छोड़ दूँगी।

विवाह के लिए हम दार्जिलिंग जावेंगे-रमेश का आग्रह है। कोई समारोह नहीं होगा-लेकिन क्योंकि 'कानूनी आधार' आवश्यक है-यह लीगैलिटी, भुवन!-इसलिए रजिस्ट्रेशन तो होगा ही।

यह क्या है, भुवन? बरसों मैं श्रीमती हेमेन्द्र कहलायी, उसके क्या अर्थ थे? अब अगले महीने से श्रीमती रमेशचन्द्र कहलाऊँगी-उसके भी क्या अर्थ हैं? कुछ अर्थ तो होंगे, अपने से कहती हूँ; पर क्या, यह नहीं सोच पाती...मैं इतना ही सोच पाती हूँ कि मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मैं तुम्हारी हूँ, केवल तुम्हारी; तुम्हारी ही हुई हूँ, और किसी की कभी नहीं, न कभी हो सकूँगी...ये पार्थिवता के बन्धन, ये आकार, ये सूने कंकाल...महाराज, मेरे त्रिभुवन के महाराज, किस साज में तुम आये मेरे हृदय-पुर में-और कैसे तुम चले गये, मेरा गर्व तोड़कर, भूमि में लुटाकर-पर नहीं भुवन, तोड़कर नहीं, तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्श से 'सकल मम देह-मन वीणा सम बाजे...

रमेश को मैं धोखा नहीं दे रही। मैंने उन्हें बताया है। पर क्या बताया है, क्या मैं बता सकती हूँ, भुवन? उनमें बड़ी उदारता है, गहरी संवेदना है, वह समझते हैं। तुम उन्हें जानते, तो बहुत अच्छा होता-तुम्हें निश्चय ही वह अच्छे लगते। मैं कल्पना करती हूँ, मैं तुम दोनों को समीप ला सकती-मिला सकती-दोनों को जिन से मैंने बहुत कुछ पाया है, जिन्हें मैंने बहुत कुछ दिया है...शायद भविष्य में वह कभी हो सके, मैं नहीं मानना चाहती कि यह सम्भव नहीं है क्योंकि वैसा मानना, मुझे लगता है, दोनों के प्रति विश्वासघात होगा...

भुवन, अपनी बात तो मैं कह चुकी। तुम्हारी बात जानना चाहती हूँ। तुम भटक रहे हो, भटक ही नहीं रहे, मुझे लगता है कि भाग रहे हो। पहले अपने को कोसती थी कि मुझसे-यद्यपि मेरे कारण तुम्हारे मन पर बोझ न आये इसकी पूरी कोशिश करती रही हूँ, देवता साक्षी हैं; सफल कहाँ तक हुई वह दूसरी बात है...पर अब नहीं कोसती; वह कोसना भी अहंकार ही था क्योंकि अब लगता है, नहीं मुझसे नहीं, कुछ और है जिससे तुम भागते हो, क्योंकि उससे तुम बँधे हो; जिससे तुम्हारी नियति गुँथी है, और यह भागना केवल अन्तःशक्तियों का वह कर्ष-विकर्ष है जो अन्ततोगत्वा अनुकूल स्थिति लाएगा...मैंने एक बार तुम से कहा था, हम जीवन की नदी के अलग-अलग द्वीप हैं-ऐसे द्वीप स्थिर नहीं होते, नदी निरन्तर उनका भाग्य गढ़ती चलती है; द्वीप अलग-अलग होकर भी निरन्तर घुलते और पुनः बनते रहते हैं-नया घोल, नये अणुओं का मिश्रण, नयी तल-छट, एक स्थान से मिटकर दूसरे स्थान पर जमते हुए नये द्वीप...

मेरी इन बातों को अनधिकार प्रवेश न समझना, भुवन, मुझसे पृथक् जो भी तुम्हारा निजी है, निज के लिए अर्थवान् है, उससे मुझे ईर्ष्या नहीं, न कोई अनुचित कौतूहल उसके विषय में है : वह अर्थवान् है तो और अधिक अर्थवान् हो, यही मेरी प्रार्थना है।

भुवन, तुम्हारे पत्र की, तुम्हारे आशीर्वाद की, तुम्हारे समाचार की उत्कट प्रतीक्षा करूँगी। तुम्हारी शुभ-कामनाएँ पाकर रमेश भी प्रसन्न होंगे।

तुम्हारी ही

रेखा

भुवन का उत्तर तार से आया : हार्दिक शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद, और पत्र वह लिख रहा है। एक सप्ताह बाद भी आया-एक पार्सल में बन्द, पार्सल में किसी प्राचीन बर्मी ग्रन्थ का चित्र-लिखित वेष्टन, और ताल-पत्र पर खिंचे हुए चित्र थे; ग्रन्थ पूरा नहीं था। “यह ग्रन्थ क्या है मैं नहीं जानता, लिपि भी मैं नहीं पढ़ सकता न तुम पढ़ सकोगी; पर चित्र सुन्दर हैं और वेष्टन भी मुझे सुन्दर लगा-मैंन सोचा कि ऐसे अवसर पर जो उपहार भेजूँ उसका सुन्दर होना ही आवश्यक है, बोधगम्य होना उतना नहीं-वैसे आज मेरी प्रार्थना है कि विधि का विधान सुन्दर हो, आज हम उसे जानें भले ही न, उसका क्रमिक प्रस्फुटन सुन्दर से सुन्दरतर दीखता चले...”

दार्जिलिंग से एक पत्र रेखा ने भुवन को और लिखा :

भुवन,

आज अभी थोड़ी देर पहले मैं रजिस्टर में पहले-पहल 'रेखा रमेशचन्द्र' नाम से हस्ताक्षर करके आयी हूँ। उसके बाद न जाने क्यों भीतर कुछ कहता है कि मेरा पहला काम होना चाहिए तुम्हें सूचना देना, तुम्हें पत्र लिखना। भुवन, कभी सौ वर्षों में भी मेरी कल्पना में यह बात न आती कि अन्त में मेरा ठिकाना यह होगा-इस घाट आकर मैं किनारे लगूँगी...जीवन की अजस्र तीव्र धारा कैसे सबको खींचती ठेलती बहाती लिए जाती है, कैसा भौंचक कर देने वाला है उसका प्रवाह-जिसमें तसल्ली के लिए यही है कि हमीें नहीं, दूसरे भी उतने ही भौंचक बहे जा रहे हैं। यह उद्यम की अवहेलना नहीं, उद्यम तो अपने स्थान पर है ही, पर कैसा दुर्निवार, बेरोक, विवशकारी है यह प्रवाह...

तुम्हारा पत्र मिला था, भुवन, तम्हारा वह दर्द-भरा, पर मधुर, सुन्दर आशीर्वाद; और तुम्हारा उपहार भी। उस आशीर्वाद के लिए मैं कितनी कृतज्ञ हूँ, भुवन, क्या मैं कह सकती हूँ कभी? और तुम्हारा उपहार भी सुन्दर है-हाँ, दुबोध तो है ही विधि, और शायद उसे जान लेना चाहना मानव की भी दुःस्पर्द्धा है, वह स्वतः स्फुट होती चले...लेकिन तुम्हें मैं जानती हूँ, भुवन, तुम्हें मैंने जाना है और तुम में जो जाना है वह जीवन-मरण से परे है-पाने और खोने से परे है।

इसके बाद दो महीने तक रेखा को भी भुवन की ओर से कोई समाचार नहीं मिला; जब मिला तो भुवन का पत्र नहीं, फौजी अस्पताल से एक नर्स का टेलीफ़ोन मिला कि वह अस्पताल आकर मेजर भुवन को देख जावे।

× × ×

क्षण-भर के लिए रेखा को लगा कि सारी स्थिति में कहीं कुछ विपर्यय है, कोई विरोधाभास-कि अस्पताल के लोहे के पलंग पर उस बरसाती दिन में लाल कम्बल ओढ़े भुवन नहीं, वही पड़ी है, और भुवन उसे देख रहा है, और वह असहाय भाव से धीरे-धीरे कह रही है, 'जान, प्राण, जान...' एक ज्वार-सा उसके भीतर उमड़ आया; इतनी व्यथा, इतने गहरे में पर इतनी सहज आह्वेय, उसमें संचित है, इसके तात्कालिक अनुभव से वह लड़खड़ा-सी गयी। फिर तुरन्त सँभलकर उसने धीरे से पुकारा, “भुवन।” लेकिन भुवन ने पहले ही उसे पहचान लिया था, उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी और वह कोशिश कर रहा था कि कम्बल के भीतर से एक हाथ निकाल कर रेखा की ओर बढ़ाये।

रेखा ने दोनों हाथ उसके गालों पर रखकर आग्रह से पूछा, “यह क्या कर आये भुवन? तुम्हें मैं ऐसे देखूँगी, ऐसी सम्भावना ही कभी मन में न आयी थी।”

“कुछ नहीं, रेखा!” और भुवन के दुर्बल स्वर में एक नयी गहराई थी जो रेखा को दहला गयी-मानो कोई व्यक्ति नहीं, कोई दूर पहाड़ी जगह बोल रही हो-कोई कन्दरा, या किसी बड़ी-सी चट्टान के नीचे की छाया, “मलेरिया है। अण्डमान से शुरू हुआ था शायद-शायद बर्मा के जंगलों ने बढ़ा दिया, और पेचिश साथ जोड़ दी। वैसे मैं ठीक हूँ-बिलकुल ठीक।”

“जी हाँ, ठीक हैं, सो तो शक्ल ही बता रही है। दुष्ट मलेरिया और पेचिश, वैसे ठीक हैं-और क्या लाते वहाँ से?”

“क्यों-”

“रहने दीजिए, लगेंगे सम्भाव्य बीमारियों के नाम गिनाने, यही न! बताया भी नहीं।”

“जब बताने से कुछ फ़ायदा होता, तब बता तो दिया-”

रेखा बात करते-करते पलंग की बाहीं पर बैठ गयी थी। अब उठकर एक स्टूल पर बैठती हुई बोली, “लो अब बाक़ायदा विज़िट करूँगी। पहले तुम्हारे हाल पूछूँ।”

“फिर शुरू से बीमारी का इतिहास, फिर पथ्य, फिर-” भुवन मुस्कराया, फिर सहसा बात बदल कर बोला, “तुम अकेली आयी हो रेखा?”

प्रश्न समझ कर रेखा ने कहा, “हाँ, भुवन। रमेश यहाँ नहीं हैं। बम्बई गये हैं। हफ़्ते-भर में लौट आयेंगे, तब लाऊँगी। हम लोग जा रहे हैं विदेश-”

“अच्छा-कब? मैं हफ़्ता-भर यही रहूँगा शायद-हम सब दक्षिण भेजे जा रहे हैं-बंगलौर-स्वास्थ्य-लाभ के लिए। यहाँ तो प्रबन्ध के लिए रुके हैं-जहाज़ से आये थे, अब रेल से जाना होगा-”

रेखा ने कुछ उदास होकर कहा, “ओ।” फिर कुछ देर बाद, “बंगलौर-गौरा तो मद्रास में है, उसे ख़बर दे दूँ, वह बंगलौर ज़रूर जा सकेगी-”

भुवन ने संक्षिप्त भाव से कहा, “हाँ।” फिर काफ़ी देर बाद, “तुमसे उसका पत्र-व्यवहार रहा है?”

“हाँ-तुम जो नहीं लिखते; तो मैं गौरा से ही पत्र-व्यवहार कर लेती हूँ।”

भुवन ने फिर संक्षिप्त ढंग से ही कहा, “हूँ।” थोड़ी देर बाद बात को निश्चित रूप से नयी दिशा देने के लिए उसने कहा, “रेखा, विवाह करके-कैसा लगता है-हाउ डू यू फ़ील? या कि-न पूछूँ?”

“नहीं, पूछो! आइ डोंट फ़ील एट आल। वन डज़ंट फ़ील, वन जस्ट इज़। मैं भी हूँ, होना भी काफ़ी है, अनुभूति क्यों ज़रूरी है?” रेखा थोड़ी रुकी। “लेकिन-भुवन, रमेश में यथेष्ट अण्डरस्टैडिंग है, नहीं तो...”

भुवन ने कहा, “आइ एम सो ग्लैड, रेखा।' उसने हाथ रेखा की ओर बढ़ाया। रेखा ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया और धीरे-धीरे सहलाने लगी।

“भुवन, मेरा तो हुआ, पर तुम? तुम भविष्य की ओर नहीं देखते? ज़रूर देखते होगे-बल्कि मैं चाहे न देखूँ, तुम तो रह नहीं सकते, तुम्हारे मन का संगठन ही ऐसा है-”

भुवन हँसा। अब की बार रेखा ने लक्ष्य किया, उसके स्वर में जो गहराई है, वह एक हद तक शायद इसलिए भी है कि कहीं कुछ खोखला है, शून्य है-ऐसी सूनी थी वह हँसी, जैसे उसके नीचे अनुभूति या आनन्द की कोई पेंदी न हो, अधर में ही वह फूट पड़ी हो। “मैं! शायद सोचता भी-पर अभी तो ज़रूरत ही नहीं मालूम होती। वहाँ-भविष्य का भरोसा लेकर कौन बैठता है जहाँ जीवन का ही भरोसा नहीं-”

“वह तो कहीं भी नहीं है-यहीं क्या भरोसा है? रोज़ सुबह होती है, सूरज निकलता है; हम आदी हो जाते हैं और मान लेते हैं कि न केवल सूरज कल निकलेगा बल्कि हम भी उसे कल देखेंगे। प्रकृति का स्थायित्व देखकर ही मानव अपने लिए स्थायित्व माँगता है, प्रकृति के रूपान्तर देखकर ही वह अपने रूपान्तर की कल्पना करता है या उनके द्वारा अमरत्व की आशा-”

“हाँ, लेकिन वह सब यहाँ होता है। वहाँ-वहाँ चीजें॓ उलट जाती हैं, आदमी अपने को देखकर ही प्रकृति के बारे में निर्णय करता है। और-मेरा क्या भरोसा, कल रहूँ या न रहूँ : यह सोचकर वह सब विचार स्थगित कर देता है। बल्कि इस विचार का सहारा आवश्यक भी हो जाता है।”

रेखा ने विरोध करते हुए कहा, “लेकिन यह तो पलायन है, भुवन!”

“पलायन!” भुवन वही खोखली हँसी हँसा, “तो फिर?”

रेखा अचकचायी-सी उसे देखती रही। भुवन कहता है कि “तो फिर?” पलायन है, तो फिर?...

भुवन ही फिर बोला, “सुनो रेखा; बात यह है कि युद्ध बुरी चीज़ है, घृण्य है, व्यक्तित्व के लिए घातक है-सब कुछ है। पर जब लड़ें ही, तब जो कुछ रक्षणीय है उसे बचाने के लिए आवश्यक है कि युद्ध की मशीन ठीक से चले, सब कल-पुर्जे ठीक काम करते रहें, हर व्यक्ति-हर पुर्ज़ा या जुज़ एक काम लेता है और आवश्यक है कि उसे वह ठीक से करे। और ठीक से काम करने के लिए आवश्यक होता है कि विचारों को स्थगित कर दिया जाये-चाहे जैसे भी। कोई शराब पीकर करते हैं, कोई और भी भयानक तरीकों से-कोई इतना ही मानकर कि जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है और उसके बारे में सोचना व्यर्थ है-कम-से-कम अभी व्यर्थ है, अभी जो अनुभव-संचय हो जाये, उसके आधार पर बाद में भी सोचा जा सकता है।”

“पर भुवन, तुम-तुम? तुम्हारा तो सारा काम ही सोचने का है, तुम्हें तो मारकाट नहीं करनी-तुम कैसे सोच स्थगित कर सकते हो?”

“वह तो है, सोच तो नहीं स्थगित करता, पर सोचने की शक्ति की लीकें बाँधता हूँ-सिर्फ़ काम के बारे में सोचता हूँ-मशीन को चलाने के बारे में सोचता हूँ, मशीन के बाहर जो जीवन है, वह-वह तो जीवन है, इसलिए उसका भरोसा क्या? मेरी बात समझीं-?”

रेखा चुपचाप देखती रही। भुवन की युक्ति ठीक थी, पर कुछ था जो उसे स्वीकार्य नहीं हो रहा था, वह कुछ क्या है इसे वह पकड़ नहीं पा रही थी...

रात-भर यह असमंजस उसे कोंचता रहा। रात को उसने गौरा को एक छोटा-सा पत्र लिखकर भुवन के वहाँ होने की सूचना दी और यह भी लिखा कि उसके मन की दशा अजब है, रेखा की समझ में नहीं आ रही। वह और कुछ लिखने जा रही थी पर रुक गयी; फिर उसने लिखा कि भुवन कदाचित् बंगलौर जाएगा, गौरा उसे मिले और हो सके तो उसके पास रहे-उसका मनःस्वास्थ्य यह माँगता है कि गौरा उसकी देख-भाल करे। दूसरे दिन वह रजनीगन्धा के बीस-एक डाँठों का गुच्छा लेकर फिर अस्पताल पहुँची। फूल सजाकर वह थोड़ी देर भुवन की ओर देखती रही। फिर जैसे एक बड़ा दुस्साहस कर ही डालने का निश्चय करके बोली, “भुवन, मैंने एक डिस्कवरी की है। यू आर इन लव। और मैं जानती हूँ कि किससे।”

भुवन अपने चेहरे पर हँसी फैलाता हुआ बोला, “सच? हाउ इण्टरेस्ंिटग, लेकिन तुम्हें बड़ी निराशा होगी, रेखा मेरी कोई भी नर्स ऐसी रूपवती नहीं है।”

और भी दुस्साहस भर कर, लेकिन मुस्कराते हुए ही रेखा ने कहा, “टालो मत भुवन, मैं नर्सों की बात नहीं कर रही हालाँकि नर्सें सब रूपवती हैं या होंगी।” सहसा उसे बोध हुआ कि उसका दिल धक्-धक् कर रहा है, पर वह रुकी नहीं, “मेरा मतलब है गौरा।”

भुवन चमक गया। उसका चेहरा तमतमा आया, ओठों का धनु एक तीखी रेखा बन गया, वह बोला नहीं।

रेखा ने भी थोड़ी देर बाद कुछ सँभल कर कहा, “मैं माफ़ी चाहती हूँ, भुवन-है यह मेरा दुस्साहस, पर अगर उससे मेरा अपराध कुछ कम होता हो तो कहूँ, मैंने मज़ाक नहीं किया, बहुत सीरियसली कह रही हूँ, क्योंकि मुझे लगा कि तुम इसी बात से पलायन कर रहे हो और वह पलायन ग़लत है।”

भुवन ने सतर्क स्वर से, किसी तरफ़ से भी रेखा की बात को न मानते हुए, न काटते हुए, पूछा, “तुम क्या कहना चाहती हो?”

“गौरा से मैं मिली थी, भुवन; उससे मैंने एक वायदा भी किया था जो-पूरा न निभा सकी। गौरा के मन को मैं जानती हूँ।”

भुवन ने न कुछ कहा न कुछ पूछा, चुपचाप उसकी ओर देखता रहा मानो कहता हो, तुम कहती चलो, मैं सुन रहा हूँ।

रेखा ने फिर कहा, “और मैं कहती हूँ, वह पलायन ग़लत है, भुवन!” सहसा नये निश्चय के साथ, “ग़लत है, अकरुण है और व्यर्थ है।”

भुवन ने वैसे ही दूर, पकड़ाई न देते हुए कहा, “तुम मुझे क्या करने को कह रही हो?”

“मैं? करने को?” रेखा क्षण-भर सोचती रही। “कुछ नहीं। केवल यही : तुम में जो सत्य है, उसके प्रति अपने को बन्द मत करो-उसके प्रति खुलो। तुमने मुझे सुनाया था-भुवन, तुमने! 'द पेन आफ़ लविंग यू'-उस व्यथा के प्रति अपने को खोल दो-और मुझमें कुछ कहता है कि वह तुम्हारे लिए कल्याणप्रद होगा, भुवन! गौरा के मन को मैं जानती हूँ क्योंकि स्त्री हूँ; और तुम्हारे मन को बिलकुल न जानती होऊँ, ऐसा तो तुम नहीं मानोगे; आख़िर स्त्री हूँ।”

रेखा जैसे हाँफ गयी थी। चुप हो गयी, लम्बे-लम्बे साँस लेने लगी। थोड़ी देर बाद जैसे पहले के किसी अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए, उसने फिर कहा, “वह वरदान है, भुवन; उसे स्वीकार करो, चाहे कल-चाहे कल जीवन न रहे, तुम न रहो, भुवन, फिर भी!”

भुवन भी चुप पड़ा रहा। काफ़ी देर बाद बोला, “रेखा, मैं तो समझता था तुम्हारा औचित्य का ज्ञान बहुत बड़ा है, पर देखता हूँ तुम्हें इतना भी नहीं आता है कि बीमार से कैसी बातें करनी चाहिए। तुम स्वयं हाँफ गयी-और एक्साइटमेंट से रोगी का क्या होगा-और तुम तो नर्सिंग-”

“हाँ, एक श्लथ रोग होता है-रोगी का दिमाग नहीं चलता। उसका यही इलाज है, मैं जानती हूँ।”

फिर एक मौन रहा, उसमें न जाने क्यों अपने दुस्साहस पर रेखा स्वयं आतंकित हो आयी, क्या कह गयी वह, कैसे कह गयी वह; ऐसा हस्तक्षेप कैसे कर सकी वह...उसका मन हुआ, भुवन के पास से उठकर भाग जाये, और फिर कभी उसे मुँह न दिखाये-कैसे अब वह मुँह दिखा सकेगी...लेकिन वह उठ भी न सकी; उठना मानो फिर अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करना है और वह वहीं धँस जाना चाहती है, लुप्त हो जाना चाहती है...एक झेंपी-सी हँसी हँस कर उसने कहा, “देखा, भुवन!-दिस इज़ ह्वट मैरेज़ डज़ टु ए वुमन-आज अपनी शादी हो, कल से सारी दुनिया के नर-नारियों की जीवन-व्यवस्था करने में लग जावें; यह स्त्री-स्वभाव ही है कि पुरुष के जीवन के लिए वह निरन्तर साँचे बनाती चले।”

भुवन का मन भटक रहा था। उसने खोये-से भाव से कहा, “हूँ।”

रेखा ने क्षण-भर उसकी ओर देखा फिर वह उठी, “अच्छा मैं जाती हूँ, भुवन, कल फिर आऊँगी। कुछ लाऊँ-कुछ मँगाना तो नहीं?”

“न,” भुवन ने रेखा का एक हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोला, “नहीं रेखा, तुमने कह दिया, अच्छा ही किया। और यह भी समझता हूँ कि इसीलिए कह सकी कि-मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ, रेखा; तुम्हारी बात ठीक है या ग़लत है, वह प्रश्न दूसरा है।”

रेखा ने कहा, “स्त्री की बात हमेशा ग़लत होती है भुवन, सिवा एक मामले के, और वहाँ वह हमेशा ठीक होती है।” वह हँस दी। सहसा उसने झुककर ओठों से भुवन का माथा छुआ। “जल्दी अच्छे हो जाओ-दक्खिन जाना है।” और मुस्कराती हुई ही वह बाहर चली गयी। ओट होने तक भुवन उसे देखता रहा, फिर उसने करवट ली और आँखें बन्द कर लीं।

पर अगले दिन जब रेखा उसे देखने गयी तब वह दक्खिन जा चुका था। मालूम हुआ कि वह अच्छा हो रहा था, और उसे कन्वेलेसेंट छुट्टी पर करके आगे भेज दिया गया था : दो दिन में अस्पताली गाड़ी बंगलौर पहुँच जाएगी।

लौट कर रेखा ने गौरा को तार दे दिया।

× × ×

कतार में लगी कैनवस की आराम-कुरसियों पर अस्पताली पाजामे और जाकेट पहने कई एक व्यक्ति लान में बैठे थे, पर गौरा को ढूँढ़ना नहीं पड़ा, बिना इधर-उधर देखे वह सीधे एक कुरसी की ओर बढ़ी चली गयी। पास पहुँचकर उसने धीमे, बहुत शान्त स्वर में कहा, “भुवन।”

भुवन पढ़ रहा था। सहसा चौंका और सिर उठाता हुआ पीछे मुड़ा।

“गौरा।”

गौरा ने धीरे-धीरे फिर कहा, “भुवन!” उसका स्वर भर्राया था। वह डेढ़ कदम आगे बढ़कर भुवन के पैरों के पास घास में बैठ गयी।

देर तक दोनों चुप रहे। फिर गौरा ने वैसे ही भर्राये, काँपते हुए स्वर में पूछा, “क्या पढ़ रहे हो?”

“कविता-लारेंस,” कहकर भुवन ने सहसा गोद में पड़ी खुली पुस्तक बन्द कर दी।

“क्यों-पढ़ो-”

भुवन के दोनों हाथ खोजते से बढ़े, गौरा ने यन्त्रवत् अपने दोनों हाथ उठाकर उनमें रख दिये। भुवन की मुट्ठियाँ उन पर कस गयीं; उनकी जकड़ मज़बूत थी पर एक कम्पन लिए हुए; गौरा थोड़ी देर वैसे बैठी रही, फिर उसने आगे झुककर अपनी आँखें मुट्ठियों पर रख दी। भुवन ने एक हाथ छोड़कर उसका सिर धीरे-धीरे थपक दिया; उसमें कुछ निर्देश था मानो-गौरा सीधी होकर बैठ गयी। भुवन ने पूछा, “तुम्हें कब पता लगा? तुम-”

और गौरा ने कहा, “तुम कब पहुँचे?”

भुवन भी यही कहने जा रहा था कि 'तुम कब पहुँची?' गौरा बात काट कर बीच में बोल उठी थी पर दोनों के वाक्य समाप्त एक साथ ही हुए। भुवन मुस्करा दिया, उसकी ओर देखकर गौरा मुस्करा दी, फिर सहसा हँस पड़ी, मानो कोई अवरोध हट गया, उमड़ती हुई बोली, “भुवन, मेरे भुवन दा-आप...भुवन, तुम आ गये, कहाँ खो गये थे तुम, मेरे शिशु...”

और भुवन के मन में भी एक साथ कई प्रश्न, कई वाक्य घूम गये जो उक्ति माँगते थे, पर जो कहा उसने गौरा का ही वाक्य था, “शब्द अधूरे हैं क्योंकि उच्चारण माँगते हैं...लेकिन अब भागूँगा नहीं, इतना कह दूँ...”

थोड़ी देर बाद गौरा ने सहसा उलाहने से कहा, “तुमने मुझे खबर भी नहीं दी-यहाँ आते और चले जाते?”

“नहीं गौरा, इतना बुरा तो नहीं हूँ। मैंने आज तुम्हें पत्र लिखा है-अभी चाहे गया न हो-मैंने सोचा था, खाट पर पड़े देखने न बुलाऊँगा, जिस दिन उठूँगा उसी दिन-”

“इतने बुरे हो तुम।” कहकर गौरा रुक गयी। “हो तुम-हैं आप निरे मास्टर साहब ही-जो सिखाते हैं, स्वयं नहीं सीखते-दूसरों की बात आप कभी नहीं सोचते”

भुवन ने सोचते-से कहा, “दूसरों की!” और धीरे-धीरे आवृत्ति की, “दूसरों की...” थोड़ी देर बाद बोला, “गौरा, अब तक दूसरा मैं अपने को ही मानता आया, तुम्हारी शिकायत असल में यही है कि तुम्हें पहला और अपने को दूसरा क्यों माना मैंने; और मेरी मुश्किल यह है कि मैं वैसा मानने को ग़लत नहीं समझ पाता-अब भी नहीं!”

गौरा ने कहा, “ऐसा नहीं हो सकता कि कोई बात-ग़लत न हो, लेकिन-” तनिक रुककर, “बुरा न मानना-लेकिन अहंकार हो? मैं जज़मेण्ट नहीं दे रही, पर बात कहने का साहस कर रही हूँ क्योंकि तुमने सिखाया है; यह भी तो एक पक्ष हो सकता है?”

भुवन सोचता-सा काफ़ी देर तक चुप रहा, फिर खोया-सा बोला, “शायद तुम ठीक कहती हो, गौरा : ग़लत नहीं है, पर अहंकार हो सकता है। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया है न, गौरा?”

गौरा बोली नहीं, भुवन के स्वर में सहसा जो कोमलता आ गयी थी उससे उसकी आँखों में कुछ चमका; उसने चेहरा भुवन की ओर उठाया और उसकी दृष्टि भुवन के चेहरे को दुलरा गयी।

× × ×

दिन छिप गया था, पर गौरा ज्यों-की-त्यों बैठी थी, बत्ती जलाने का उसे ध्यान नहीं आया। वह भी वैसी ही कैनवस की आराम-कुरसी पर बैठी थी जैसी पर भुवन को उसने देखा था, उसकी गोद में पुस्तक नहीं तो कापी पड़ी थी-भुवन की कापी। कैसा अद्भुत था यों बैठ कर दोहरा जीवन जीना : वह गौरा भी थी, जो अपने को भुवन के प्रतिबिम्ब के रूप में देख रही थी, भुवन की बातों को समझ रही थी, उन पर होने वाली अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओं की सूक्ष्मतम छाप ले रही थी और लेकर मानो एक निधि में जमा करती जा रही थी, जो मसूरी में लिखे गये अपने उन विचारों को याद कर रही थी जो भुवन के प्रति निवेदित होकर भी भुवन को दिये नहीं गये; और वह भुवन भी थी-आराम-कुरसी पर बैठा हुआ भुवन, गोद में पुस्तक या कापी में एक-एक दो-दो वाक्य लिखता और लिखकर उन पर और उनके हेतु गौरा या विचार करता हुआ भुवन...

“स्नेह-शिशु, तुम्हें छोड़कर नहीं भागा। भागा ज़रूर, पर सच कहूँ कि जब भागा तो कुछ अगर साथ लिया तो तुम्हारी प्रतिच्छवि-और मेरे विक्षत मन के कसैले विराग को एकदम कटु हो जाने से बचाया तो उसी ने...अब पीछे देखता हूँ तो लगता है, मुझे यह पहले देखना चाहिए था-जिस उथल-पुथल ने मुझे पकड़ लिया, (जिसकी बात तुम से कर चुका) उससे पहले देखना चाहिए था...वह मुझे छोड़ कर चली गयी 'ए वाइज़र बट ए सैडर मैन'-उस दुःखमय विवेक ने मुझे बताया कि क्या चीज़ है जो अब भी जीवन में आस्था नहीं मिटने देती...फिर भी तुम से दूर क्यों गया-क्यों जाना चाहा? इसलिए कि सीखा, स्नेह में जब मोह भी होता है तब आघात मिलता है-मिलता ही नहीं, तब व्यक्ति स्वयं उसी को आहत करता है जिसके प्रति स्नेह है। इसीलिए सोचा, तुम जानो, उससे पहले ही दूर चला जाऊँ। स्नेह से दूर नहीं, स्नेह के लिए दूर...

“तुम ने मेरी बात नहीं समझी थी। तुम आहत हुईं। शायद अब भी न समझो। और शायद न समझना ही अच्छा है, समझना सब मानो मेघाच्छन्न होना है, और वह मुझ जैसों के लिए ही अच्छा है जो बीत गये हैं, जिनका जीवन आन्तरिक हो गया है, जो अपनी समझ की मेघ-छाया में रहने के आदी हो गये हैं। तुम्हारे लिए नहीं, जिसका भविष्य आगे है, भविष्य जो सुनहला हो, जिसमें हँसी हो, बालारुण की आभा हो, आलोक हो...मैं जैसे तमिस्रा का पोष्य पुत्र हूँ-इसीलिए आलोक को पूजता आया हूँ, कभी दूर से, जैसा कि ठीक है, कभी निकट से, जैसा कि विपज्जनक है; कभी छूने को ललचाया हूँ, जो महान् मूर्खता है, क्योंकि छूने से आलोक बुझ जाता है!”

“रवि ठाकुर ने कहीं लिखा है : “मैं उस विशाल मरु की तरह हूँ जो घास की एक हरी पत्ती को पकड़ लेने के लिए हाथ बढ़ाता है'-मैं कहूँ कि मैंने इसकी विडम्बना जान ली है, घास की पत्ती को निकट लाने के लिए मरु फैलता नहीं, सिमटता है; सिमट कर अकिंचन होकर ही वह पत्ती को पकड़ तो नहीं, लगभग छू सकता है।”

“स्नेह-शिशु तुम ने मुझे कहा था : मैं किसी तरह नहीं सोच पाता कि यह नाम मैंने नहीं ढूँढ़ा था, कि मैंने नहीं तुम्हें दिया था। तुम्हारी ही चीज तुम्हें लौटाता हूँ, लेकिन शतगुण स्नेह से, गौरा!”

“तुमने मुझसे वचन माँगा था, अपने को अनावश्यक संकट में न डालूँगा। क्या यह अनावश्यक संकट है? संकट भी है? या कि यहाँ न आना ही संकट होता-वहाँ रहना ही संकट होता है?”

“जंगल, घने बादल, तीन बजे दिन में अँधेरा-सा; हाथियों के झुण्ड-से बादल-गड्ड-मड्ड होते हुए हज़ारों हाथियों के महायूथ-से...एक आकृति दूसरी में घुल जाती है, लेकिन कलौंस ज़रा भी कम नहीं होती; भीतर न जाने क्या-क्या माँगें उठती हैं और उतनी ही नीरवता में, उतनी ही निष्पत्तिहीन विलीन हो जाती हैं...मैं सोच नहीं सकता, ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकता; एक ही स्पन्दन जैसे हर बात में गूँज जाता है और उसको सुनने के सिवा चारा नहीं है...पर साथ ही उसे सुनकर भी काम नहीं चलता-उधर ध्यान दूँ तो वह ऐसा अभिभूत कर लेगा कि बस...”

“आज से छः महीने पहले तुम्हारे साथ आग के पास बैठा था-आग के डर से मुक्त होकर...और आज-! वह बड़ा दिन था। यों आज वास्तव में बड़ा दिन है-उत्तरायण के एक-आध दिन ही इधर-उधर-और वह दिन के हिसाब से तो छोटा ही दिन था! मैं देखता हूँ वह आग : हम दोनों से एक-दूसरे की ओर झरती हुई सान्त्वना और आश्वासन की धारा-यह मेरा अहंकार तो नहीं है कि 'एक-दूसरे की ओर' कह रहा हूँ?

“मैंने कहा था, यह तुम्हारी आग है। तुमने कहा था, आग से डरना मत। तब से मैं मानो उसे लिये-लिये कहाँ-कहाँ फिर रहा हूँ...”

“मैं लेटा था, किसी ने आकर पूछा, रेडियो सुनोगे? और लगाया : सहसा शून्य में से क्या आवाज़ आयी जानती हो? 'मोर वीणा उठे कौन सुरे बाजि-कौन नव चंचल छन्दे। ए अम्बर प्रांगण माझे निःस्वर मंजीर गुंजे'*-आकाश ही मेरा घर है, जिसमें वह छन्द गूँजता है...”

“मैंने तुम्हें ख़बर नहीं दी। अब कभी-कभी विचार उठता है-क्या भूल की? क्योंकि अब यह ज़रा-ज़रा-सा लिखना भी कठिन होता जाता है-मेजर भुवन मास्टर साहब का एक काला धुँधला खोल भर है, शक्ति-हीन, लगभग निर्जीव...लेकिन यही ठीक है गौरा-यही ठीक है जब तक मुझे होश रहेगा, तुम्हें आशीर्वाद देता रहूँगा-अगर न रहेगा-तो भी वह आशीर्वाद रह जाएगा! इस जीवन से आगे कुछ नहीं है गौरा, यही सम्पूर्ण है, यही अन्त है। लोग ऐसा मानने से डरते हैं, मुझे लगता है, यही तो जीवन को अर्थ देता है। इस जीवन का दर्द इसलिए मूल्यवान् नहीं है कि किसी दूसरे जीवन में उसका पुरस्कार मिलेगा; इसलिए मूल्यवान् है कि जीवन से आगे और कुछ नहीं है। क्योंकि मूल्य किसी पड़तालिये के लिए नहीं होता जो रोकड़ मिला कर तय करे कि क्या हाथ आया, मूल्य है तो उस व्यक्तित्व के लिए जो उस दर्द में से गुज़र रहा है और मूल्य उसी अवस्था में है...”

“भुवन केजुएल्टी हो गया। उसे देश वापस भेजा जा रहा है ठीक होने के लिए। क्यों जी, ठीक होगे तुम?

“अपने से ही मध्यम पुरुष में बात करने लगे कोई...सुना है, ज़ेलों में फाँसी के क़ैदी ऐसा करने लगते हैं। लेकिन अपने से उबरने के दूसरे भी तरीके हो सकने चाहिए।

“अपने से उबरने के। अपना क्या? क्या कोई अपनी भावनाओं से, अपने रागों से उबरना चाहता है? या कि केवल एकातिरिक्त सब रागों से ही? क्यों जी, तुम्हारी क्या राय है?”

“न, गौरा, लगता है यह तुम से विश्वासघात होगा-यद्यपि वचन मैंने नहीं दिया था। मैं ठीक हो जाऊँगा। ज़रूर हो जाऊँगा-और तुम से मिलूँगा भी...”

(* रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

“देश का आकाश...तुम कहाँ हो, गौरा? मैं लिखना चाहता हूँ-”

“नहीं। मैं वापस ही जाऊँगा! आगे नहीं देखूँगा। भविष्य नहीं सोचूँगा, क्योंकि वह नहीं है, वह वर्तमान का ही स्फुरण है। सोचता हूँ, बीच में विचार क्यों बदल गये थे, तो रैबेल की बात याद आती है : शैतान बीमार हुआ तो उसने साधु होना चाहा :

द डेविल वाज़ सिक , द डेविल ए मंक वुड बी :

   द डेविल ग्रू वेल , द डेविल ए मंक वाज़ ही!

पर यहाँ शायद साधु ही बीमार होकर शैतान होना चाह रहा है!”

“बहुत सुन्दर है लताओं-पत्तियों की झाँझरी यह

   पर मुझे आकाश प्यारा है ...”

कापी गौरा पढ़ चुकी थी। उसके वाक्य आगे-पीछे उसके अन्तःक्षितिज से उठते और विलीन होते जाते थे। क्या भुवन का यह कहना ठीक है कि जो है, यही जीवन है, आगे कुछ नहीं है, परलोक नहीं है, पुनर्जन्म नहीं है? वह मान सकती है कि पुनर्जन्म नहीं है, परलोक भी नहीं है-इस जीवन का कर्म-फल भोगने के लिए पुनः जन्म लेने की कोई आवश्यकता उसे नहीं दीखती क्योंकि भोग सब इसी जीवन में भुगता दिये जाते हैं, देना-पावना सब राई-रत्ती यहीं चुक जाता है ऐसा वह मान ले सकती है। पर क्या यह जीवन ही सब कुछ है-यह हमारा हमारी चेतना की मर्यादाओं से मर्यादित देशकाल से बँधा जीवन? क्या हम एक के बाद एक नहीं, एक साथ ही एकाधिक जीवन नहीं जीते, एकाधिक लोकों में नहीं रहते-हाँ, एकाधिक चेतना द्वारा उसके या उनके प्रभावों को ग्रहण नहीं करते? सदा न करते रहते सही, जीवन-शक्ति की उत्तेजना के क्षणों में ही सही; पर कभी भी अगर हम दूसरे स्तर पर, दूसरे लोक में दूसरे जीवन में प्रविष्ट हो सकते हैं, तो वह है...वही अभी गौरा भी है, भुवन भी है, आज की गौरा भी है, पुरानी भी, आज का भुवन भी है, पुराना भी कापी पढ़नेवाली भी है, लिखनेवाला भी, लिखने वाले की अनुभूति के कई स्तर भी, कई काल भी-और सब परात्पर नहीं, सब एक साथ, एक क्षण में...

और नहीं, वह कहीं-वह कहीं पृष्ठभूमि में रेखा भी है, रेखा की व्यथा भी और विशालता भी, अकिंचनता भी और दानशीलता भी-वह व्यक्ति का जीवन नहीं, निरपेक्ष जीवन है, सर्वस्पर्शी, सर्वत्र स्पन्दित...

वह उत्तेजित होकर खड़ी हो गयी। कापी उसकी गोद से फिसल कर गिरी, उसके शब्द ने उसे चौंका दिया। गौरा ने आगे बढ़कर बत्ती जलायी, और रेखा को तार लिखने लगी कि भुवन वहाँ है, ठीक है, कि उसे बाहर निकलने की इजाज़त भी मिल रही है कल से।

× × ×

“गौरा, आज फिर मैं तुम्हारा अतिथि होकर तुम्हारे कमरे में बैठा हूँ।”

“ऐसा क्यों कहते हो, भुवन?” गौरा ने उसकी बात का अभिप्राय न समझते हुए कुछ आहत स्वर में कहा।

“मुझे याद आता है मसूरी का वह पहला दिन-वह रात जो चलते-चलते बड़ा दिन हो गयी थी-तब भी तो तुम्हारा मेहमान होकर बैठा था।”

“वह तो तुम्हारा कमरा था-मेहमान-कमरा ही था वह। मेरे कमरे में तो-मेरे कमरे में तुम कब आये थे तुम्हें याद है?”

भुवन ने उठकर एक कोने की ओर बढ़ते हुए कहा, “ख़ूब याद है-नये वर्ष के दिन मैं तुम्हारा कमरा सजाने लगा था-” उसने तिपाई पर रखे फूलदान से एक फूल निकाल लिया था, उसे लिए हुए गौरा की ओर मुड़ते हुए बोला, “और मेरे हाथ से एक फूल तुम्हारे ऊपर गिर गया था।” कहते-कहते उसने वह फूल गौरा के कबरी-बन्ध में अटका दिया।

“ऐसे नहीं गिरा था, ऐसे गिरा था-” कहते-कहते गौरा उसके पैरों की ओर झुक गयी। “मेरा प्रणाम लो, शिशु!”

भुवन ने जल्दी से झुककर उसके दोनों हाथ पकड़े और उसे खींचकर उठा लिया, हाथ छोड़े नहीं और एक-टक उसे देखता रहा।

देर बाद उसने धीरे-धीरे कहा, “गौरा, अब मैं फिर जल्दी ही चला जाऊँगा-पर अब भागूँगा नहीं। और-” कहते-कहते वह एक घुटने पर झुका, “प्रणाम मुझे करना चाहिए, क्योंकि तुम-”

हड़बड़ा कर गौरा ने कहा, “नहीं, नहीं भुवन, नहीं।” और उसके हाथ खींचने लगी, भुवन रुक गया पर उठा नहीं। उसे खींचने के लिए गौरा तनिक निकट बढ़ आयी थी, भुवन ने धीरे-से अपना सिर उसके पार्श्व में टेक दिया, गौरा ने एक-एक हाथ छुड़ा कर उसके सिर पर रखा और धीरे-धीरे बाल सहलाने लगी।

दो-चार दिन भुवन अस्पताल के अहाते में टहला था, फिर उसे बाहर जाने की अनुमति मिली तो गौरा उसे टैक्सी में घुमा लायी थी। दूसरे-तीसरे दिन एक संगीत-गोष्ठी में भी ले गयी थी। पर अपने यहाँ ले जाने की बात उसने तब तक नहीं की जब तक भुवन को अनुमति नहीं मिल गयी कि वह चाहे जहाँ जा सकता है, केवल अपने को थकाएगा नहीं, सावधानी से खाएगा, और रात के भोजन के समय वापस लौट जाएगा। तब गौरा फिर उसे लिवाने आयी, अस्पताल से वे टहलते हुए निकले; कुछ देर बाद गौरा ने पूछा, “भुवन, मेरे यहाँ चलोगे?”

भुवन ने एक बार उसकी ओर देखा और बिना उत्तर दिये ही उसके साथ मुड़ गया।

“मुड़ तो गये, यह भी जानते हो कि किधर जाना है?

भुवन ने भोलेपन से कहा, “न, तुम ले जा रही हो, मैं जा रहा हूँ। दैट इज़ आल आइ नो एंड आल आई नीड टु नो।” (इतना ही मैं जानता हूँ और इतना ही जानने की ज़रूरत है।)

“मेरा यहाँ तो क्या है, होटल का कमरा है एक। पहले भी वहाँ रह चुकी हूँ। पर थक तो नहीं जाओगे-टैक्सी लें?”

“बहुत दूर है? नहीं तो पैदल ही चलें-लौटते समय चाहे टैक्सी ले लूँगा। चलना अच्छा लगता है-नये सिरे से सीख रहा हूँ।”

कमरा साफ़-सुथरा था; होटल के कमरों से उसमें अन्तर इतना था कि फर्नीचर कम था, एक तरफ़ एक तख्त पड़ा था जिसे गौरा ने अपने ढंग से सजा रखा था। इसी पर गौरा ने भुवन को बिठाया था।

गौरा की उँगलियाँ भुवन के बालों में से तिरती हुई पार निकल जातीं और फिर लौट आतीं; फिर उसने सहसा बाल हिलाकर उलझा दिये और मधुर स्वर में पूछा, “भुवन, अब वचन दोगे?”

“हाँ, गौरा। अब वचन देता हूँ।”

गौरा फिर धीरे-धीरे बाल सहलाने लगी।

“अब नहीं भागूँगा। पहले बहुत भागा। पहले जानने से भागा; पिछली बार-मसूरी में जब वह सम्भव न रहा तो स्वीकृति से भागा। मसूरी में-मैंने सहसा देखा कि मेरे आगे एक मेघ है और वह तुम्हारे बालों का है-तो जान लिया-जान क्या लिया, तुम ने कह दिया और मुझे लगा कि जान कर ही तुम ने कहा है, नहीं तो तुम भी कैसे कह पाती? मैंने तुम्हें कहा था-कुछ हँसी में ही सही, कहा तो था-कि जिस दिन ऐसा होगा जान लूँगा कि कि मेरी खोज-मेरे लिए खोज-समाप्त हो गयी और पड़ाव आ गया। पर-” वह चुप हो गया। फिर सहसा उठकर उसने पूछा, “गौरा, तुम सोचा करोगी न कि मैं कितना बुद्धू हूँ?”

गौरा खोयी-सी मुस्करा दी। “सोचा करूँगी! क्यों, भविष्य की क्यों-शिशु तो तुम हो ही, अब भी हो, हमेशा ही थे-”

“और तू बड़ी सयानी आयी है कहीं से चल के!” भुवन ने हलका-सा चपत उसके गाल पर लगा दिया। फिर तख्त पर बैठते हुए, बदले स्वर में बोला, “गौरा, तुम्हारा संगीत तो मैंने सुना ही नहीं कभी-मसूरी में चोरी से ही सुना था सितार”

“सुनाऊँगी-”

“कब? अभी नहीं?”

“न! अभी गा सकती, पर तुम्हारे सामने गाऊँगी नहीं, और यहाँ पर तो नहीं ही। फिर एक दिन-”

“फिर एक दिन!” भुवन का स्वर थोड़ा उदास हो आया। “थोड़े-से तो दिन और हैं, फिर मैं वापस जो चला जाऊँगा-”

“थोड़े-से? ऐसा मत कहो, शिशु, देखो, मैं भी नहीं कहती-बहुत दिन आएँगे आगे। नहीं तो मैं यहीं बैठी रहूँगी, फ्रंट पर तुम जाओगे; दिनों की लघुता मैं जानती हूँ कि तुम!”

भुवन अचम्भे में उसे देखने लगा। देखता रहा। गौरा ने पूछा, “क्या ताक रहे हो?”

“मसूरी में तुम्हारे चेहरे पर एक कान्ति देखी थी, जो पहले नहीं देखी थी। वही देख रहा था। चाहता हूँ, हमेशा उसे देख सकूँ-”

गौरा ने रुकते-रुकते कहा, “मेरी कान्ति तो तुम हो, पगले!”

× × ×

बंगलौर से भुवन मद्रास गया; छुट्टी से लौटकर वहीं रिपोर्ट करने का आदेश उसे मिला था, वहीं से जहाज़ में वह फिर फ्रंट पर जाएगा। तीसरे पहर उसे बन्दर पर हाज़िर होना था; दोपहर को वह गौरा के साथ समुद्र की ओर गया-वहीं विदा लेकर वह चला जाएगा, गौरा बन्दर पर नहीं जाएगी...ऐसा ही उसने चाहा था, और गौरा ने उसकी बात समझ कर मान ली थी।

भुवन ने कहा, “गौरा, कुछ आदिम जातियों का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग रखी जा सकती है-उनके वीर जब युद्ध करने जाते हैं तो आत्मा किसी चीज़ में घर रख जाते हैं-पोटली बाँधकर खूँटी पर भी टाँग जाते हैं।”

गौरा ने अविश्वास से कहा, “नहीं!”

“हाँ, सच! और अब की-मैं अपनी आत्मा तुम्हारे पास रखे जा रहा हूँ-उसे सँभाल रखोगी न?”

गौरा ने उसकी ओर देख-भर दिया। उसकी साँस जल्दी चलने लगी, वह बोल नहीं सकी।

“और पोटली बाँधकर नहीं रखूँगा-तुम्हीं में है वह-”

“मैं जानती हूँ भुवन, मेरी साँस है वह-”

“मैं लौटूँगा, गौरा। काम वहाँ बहुत है, बहुत कड़ा है; तुम्हारा भी काम है-पर-काम अपने-आप से टूट कर नहीं है-” वाक्य उसने अधूरा छोड़ दिया, मानो भूल गया कि वह क्या कह रहा है।

वर्दी की ज़ेब से एक पुस्तक उसने निकाल कर गौरा को दी।

“यह लो गौरा, कुछ कविताएँ हैं, लारेंस की। अस्पताल में तुम आयी थी तब यही पढ़ रहा था। एक कविता है-” कहते-कहते उसने पुस्तक खोली, 'ए मैनिफ़ेस्टो'। वही तब पढ़ रहा था। आज बता देता हूँ। तुम पढ़ना-तुम्हें अचम्भा होगा। पढ़ इसलिए रहा था कि उसके अंश मैं अपनी कापी में लिखना चाहता था, पर मेरे शब्द अधूरे थे, लारेंस कह गया था...” वह रुक गया। फिर बोला, “वह तो तुम अपने-आप पढ़ना; एक दूसरी है जिसकी तीन-चार पंक्तियाँ तुम्हें सुना देता हूँ-मुझे याद हैं।”

क्षण-भर वह सोचने को रुका, गौरा प्रतीक्षा में नीचे बालू की ओर देखने लगी।

“आइ एम नाट एट आल, एक्सेप्ट ए फ़्लेम-” भुवन ने सहसा रुककर कहा, “नहीं गौरा, मेरी ओर देखो-” और आँखों से उसकी आँखें पकड़े हुए वह बोलने लगा :

“आइ एम नाट एट आल, एक्सेप्ट ए फ़्लेम देट माउंट्स आफ़ यू-

ह्वेयर आइ टच यू , आइ फ्लेम इंटु बीइंग; बट इज़ इट मी, आर यू?

हाउ फुल एण्ड बिग लाइक ए रोबस्ट फ़्लेम

ह्वेन आइ एनफ़ोल्ड यू , एण्ड यू क्रीप इंटु मी,

एण्ड माइ लाइफ़ इज़ फ़ियर्स ऐट इट्स क्विक

ह्वेयर इट कम्स आफ़ यू !”


(मैं कुछ नहीं हूँ सिवा एक शिखा के जो तुम से उठती है ; जहाँ मैं तुम्हें छूता हूँ वहीं दीप्त हो उठता हूँ-किन्तु वह होना मैं हूँ या तुम?

पुष्ट अग्निशिखा-सा विशाल और सम्पूर्ण मैं तुम्हें घेरता हूँ और तुम मुझमें छिप जाती हो ; मैं और मेरे जीवन की प्रचण्डतम दीप्ति है उस जीवन्त बिन्दु पर जहाँ वह तुमसे उद्भूत होती है।)

सहसा आगे झुककर उसने गौरा का माथा सूँघा और बोला, “अच्छा, गौरा”

तीन-चार पग की दूरी से उसने मुड़कर देखा और कहा, “वह कान्ति, गौरा-मेरी जुगनू-”

और गौरा कोहनी से दोनों हाथ उठाये निःस्वर शब्दों में इतना कह पायी, “हाँ मेरे शिशु, हाँ, शिशु-”

× × ×

गौरा को एक पार्सल मिला।

उसमें रेखा का एक पत्र था, और एक छोटी-सी डिबिया; डिबिया उसने खोली, उसमें एक अँगूठी थी। गौरा ने अँगूठी पहचान ली, कुछ चकित-सी वह पत्र पढ़ने लगी :

गौरा,

यह मैं उसी दिन तुम्हें दे ही देती, पर तुमने कहा था कि मैं इसे तुम्हारी ओर से रख छोड़ूँ, तुम फिर कभी माँग लोगी। मैं अधिक आग्रह नहीं कर सकी थी-तुम ने पूछा था कि माँ ने यह मुझे कब दी थी, और उससे मुझे बहुत-सी बातें याद आ गयी थीं जिन्हें मैं याद नहीं करती और जिन की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ मन लेकर नहीं देना चाहती थी...

गौरा, तुम तो कभी माँगोगी नहीं, पर अब मैं स्वयं भेज रही हूँ; मुझे बार-बार तुम्हारी याद आती है और भीतर कुछ कहता है कि यह जो तुमने मेरे पास रखी कि फिर कभी भेज दूँ, वह इसी समय के लिए था। मेरा आशीर्वाद लो, गौरा, और मेरा स्नेह; माँ ने आशीर्वाद के साथ वह अँगूठी मुझे दी थी, मुझे आशीर्वाद नहीं फला अपनी अपात्रता के कारण (पर जीवन के प्रति अकृतज्ञ मैं नहीं हूँ, न कभी हूँगी, गौरा; और इसके लिए ऋणी हूँ तुम्हारे 'मास्टर साहब' की); पर तुम पात्र हो, और मैं गर्व करके यह भी कह जाऊँ कि मेरा आशीर्वाद भी अधिक सार्थक है, क्योंकि उसके पीछे वह है जो माँ ने नहीं जाना था...

गौरा, जीवन में आनन्द सब कुछ नहीं है, पर बहुत बड़ी चीज़ है; और है वह सुखों में नहीं; है वह मन की एक प्रवृत्ति। मैं बहुत लालची थी, मैंने एक साथ ही सारे तारों-भरे आकाश को बाँहों में घेर लेना चाहा था। तुम में अधिक धैर्य है। तुम आकाश की छत को छू सकोगी। और एक-एक तारा तुम्हारी एक-एक सीढ़ी होगी...जीवन की चरम एक्स्टैसी तुम जानो, गौरा; उसे जाने बिना व्यक्ति अधूरा है; पर यह फिर कहूँ : आनन्द अनुभूति में नहीं है, किसी अनुभूति में नहीं, आनन्द मन की एक प्रवृत्ति है, जो सभी अनुभूतियों के बीच में भी बनी रह सकती है।

तुम्हें सीख नहीं दे रही, गौरा; हर व्यक्ति एक अद्वितीय इकाई है, और हर कोई जीवन का अन्तिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, किसी की सीख में नहीं। पर दूसरों के अनुभव वह खाद हो सकते हैं, जिससे अपने अनुभव की भूमि उर्वरा हो...

उस समान आनन्द की कामना तुम्हारे लिए करती हूँ, गौरा-तुम्हारे लिए, और भुवन के लिए।

तुम्हारी

रेखा दीदी

गौरा ने अँगूठी हाथ में लेकर पत्र और डिबिया सँभाल कर रख दी, फिर अँगूठी को देखती हुई टहलने लगी। कटहला उसने कभी पहना नहीं था-और यही मानती आयी थी कि वह कुछ साँवले रंग पर सुहाता है। रेखा के हाथ पर वह अच्छा लगता था...एकाएक वह देख सकी : रेखा के दोनों हाथ वैसे बढ़े हुए जैसे उसे अँगूठी पहनाने के लिए दिल्ली में बढ़े थे-विशेष सुन्दर नहीं थे वे हाथ, पर अत्यन्त संवेदना-प्रवण, और अँगूठी बढ़ाये हुए उनकी वह मुद्रा स्वयं एक इतिहास थी...गौरा ने अँगूठी पहन ली, और एक विचित्र भाव उसके मन में उमड़ आया। आलमारी तक जाकर उसने एक पुस्तक निकाली-वही पुस्तक जो भुवन उसे जाते वक़्त दे गया था-और वह कविता पढ़ने लगी जो भुवन अस्पताल की पहली भेंट के समय पढ़ रहा था-'ए मैनिफ़ेस्टो'।

'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एण्ड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!'

दो-चार पंक्तियाँ उसने और पढ़ीं, लेकिन फिर पहली पंक्ति की ओर लौट आयी-'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एण्ड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!'-एक नारी ने मुझे शक्ति और ऋद्धि दी है...मैं स्वीकार करता हूँ!

गौरा ठिठक गयी। भुवन चाहे जैसे वह पुस्तक पढ़ता रहा हो, अस्पताल में बैठे-बैठे उसका चाहे जो अर्थ लगाता रहा हो, लेकिन वह पंक्ति ठीक कहती है : एक नारी ने-नारी ने ही...सहसा वह कागज़ लेने के लिए बढ़ी : वह रेखा को पत्र लिखेगी और यह पुस्तक रेखा को भेज देगी। पत्र में क्या लिखेगी, उसके वाक्य अभी भी उसके मन में स्पष्ट तिरने लगे थे...”तुम्हारी वह मूल्यवान भेंट लौटाऊँगी नहीं, रेखा दीदी; लौटायी तब भी नहीं थी। अँगूठी मैंने पहन ली है, तुम्हारे आशीर्वाद के आगे नत-मस्तक हूँ,-पात्रता की बात मैं नहीं जानती, पर आशीर्वाद के लिए पात्रता क्या, वह तो पात्रता के प्रश्न के परे जो स्नेह दिया जाता है वह है।...रेखा दीदी, भेंट के बदले में नहीं, अपने ट्रिब्यूट के रूप में एक चीज़ भेज रही हूँ। यह भुवन की पुस्तक है जो वह जाते समय मुझे दे गये हैं। मैंने उनसे पूछा नहीं, न पूछूँगी; वह अवश्य समझ सकेंगे।...इस पुस्तक में एक कविता है, 'ए मैनिफ़ेस्टो'-इसी कविता के लिए यह पुस्तक उन्होंने मुझे दी थी-उसकी पहली पंक्ति है : 'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एंड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!' मेरा विश्वास है कि इस पंक्ति को वह आप से छिपाना न चाहेंगे, न मैं ही चाहूँगी; वह आप ही की है और इसीलिए यह पुस्तक भी।...रेखा दीदी, मेरे पास दर्शन अभी कुछ नहीं है, एक आस्था है, और कुछ श्रद्धा, और सीखने की, सहने की, और यत्किंचित् दे सकने की लगन है; इनके और आपके स्नेह के सहारे मुझे लगता है कि मैं चारों ओर बहते अजस्र प्रवाह में खड़ी रह सकूँगी; एक नगण्य व्यक्तिपुंज, अस्तित्व का एक छोटा-सा द्वीप, लेकिन जो फूलना चाहता है, फूल झरा कर नदी के बहते जल को सुवासित कर देना चाहता है-फिर नदी चाहे जो करे, उन फूलों की गन्ध ही पहुँच जाय दूर, दूर, दूर...”

नदी के द्वीप (उपन्यास) : उपसंहार : भाग-2

'वहाँ', 'बर्मा फ्रंट में कहीं पर', भौगोलिक अनिश्चितता की धुन्ध में खोकर भुवन जब-तब गौरा को छोटे-छोटे पत्र लिखता रहा था। लेकिन क्रमशः भौगोलिक अनिश्चितता के कृत्रिम वातावरण ने उसे छा लिया था, यह जानते हुए भी कि वह कहाँ है, वह मानो कहीं नहीं रहा था। फिर दो महीने तक उसने कोई पत्र नहीं लिखा।

लेकिन अक्टूबर 1942 में सहसा उसने पाया कि अपने बाँस के घर में वह बिलकुल अकेला है। बाँस के उन घरों का वह आदी था-कीचड़ में खड़ी बाँस की चटाई की दीवारें कीचड़ पर बिछी बाँस की चटाई का फ़र्श, बाँस की चटाई की टट्टियों से ढँकी खिड़कियाँ, बाँस की खाट पर बाँस की चटाइयों के पलंग, बाँस की चटाई से ढँके चौखटे की मेजें...और जंगल में अकेलापन भी कोई नया अनुभव नहीं था-यों तो उस भीड़ में रहकर सभी अपने भीतर के अकेलेपन में खिंच जाने के आदी थे, पर उसके अलावा शारीरिक अकेलापन भी बहुधा हो जाता था। पर इस अकेलेपन में कुछ विशेष था। उसका घर जो उसका दफ़्तर भी था, वास्तव में तीन अफ़सरों का संयुक्त घर-दफ़्तर था, जंगल में औरों से अलग और कँटीले तारों से घिरा हुआ : वहाँ पर नाना प्रकार के रेडियो और विद्युत् यन्त्रों से घिरे हुए वे तीनों निरन्तर प्रयोग करते थे, अनुलेखों का संग्रह करते थे, और केन्द्रित रेडियो-रश्मियों द्वारा अदृश्य चीज़ों को पहचानने के नये आविष्कार को सम्पूर्ण सफल और व्यावहारिक बनाने के काम में योग देते थे। पर उस दिन सवेरे उसके दोनों साथी शिविर में गये थे और अब तक लौटे नहीं थे; उधर लड़ाई की आवाज़ भी उसने सुनी थी; निकट ही कहीं जापानी हैं यह ज्ञात था और आक्रमण की सम्भावना भी की जा रही थी। क्या हुआ? वह नहीं जानता था। क्या होगा, यह भी नहीं। सम्भव है, रात में उठकर उसे और कुछ दूर पर बने दूसरे वासे में रहने वाले आर्डरली-अफ़सर को एकाएक सब यन्त्र वगैरह विस्फोटक से उड़ाकर जंगल में निकल जाना पड़े, अकेले-अकेले; सम्भव है वह भी अवसर न मिले, पकड़े ही जायें; और-यह भी सम्भव है कि शाम को उसके साथी कुछ अच्छा समाचार लेकर लौट आवें, अख़बार और डाक ले आवें-अज़ब होता है युद्ध-मुख का भाई-चारा, जिसमें अज़नबी भी एक-दूसरे को अपने अन्तरंग पत्र सुनाते हैं...

भुवन की इच्छा हुई कि पत्र लिखे। पर वह बैठा नहीं, उसे टालने के लिए इधर-उधर यन्त्रों को देखता हुआ घूमने लगा। पर नहीं, कहीं कुछ करने को नहीं था। सहसा उसने एक यन्त्र के सामने पड़ी हुई कापी निकाली, क्षण-भर उसके चार-खाने पन्नों को देखता रहा, फिर पेन्सिल से द्रुत गति से उन्हें रंगने लगा।

गौरा,

फिर दो महीने से मैंने तुम्हें पत्र नहीं लिखा। जहाँ हूँ, वहाँ पत्र भी अवास्तव लगते हैं-केवल मन के भीतर जो है वही वास्तव लगता है। तुम ने एक बार शब्द को अधूरा बताया था उच्चारण की मर्यादा के कारण; पर सभी कुछ अधूरा है जिसके साथ गोचर होने की शर्त है-सम्पूर्ण वही है जो बिना इन्द्रियों के माध्यम के ज्ञात है...

आज भी पत्र लिखने लगा हूँ तो यथार्थता कुछ अधिक नहीं है, कदाचित् और भी कम है, क्योंकि आज बिलकुल भरोसा नहीं है कि यह चिट्ठी डाक में पड़ेगी या नहीं, कभी जाएगी या नहीं। फिर भी लिख रहा हूँ, यह एक तो मानव की सहज प्रतिकूलता है; दूसरे इसका एक तात्कालिक कारण है। मुझे कुछ कहना है-कुछ पूछना है। और जब पूछ लूँगा तब तुम यह भी जान लोगी कि दो महीने मैं चुप क्यों रहा।

गौरा, मैं लौटकर आऊँगा या नहीं, क्या पता; कब आऊँगा यह भी कौन जाने। पर अगर आया-आने के साथ यह 'अगर' न होता तो शायद अब भी मैं यह पत्र न लिख पाता!-अगर आया तो क्या तुम मुझसे विवाह करोगी? तुम्हें जानते हुए मैं जानता हूँ कि तुम स्वतन्त्र निर्णय करने के योग्य होते हुए भी चाहोगी कि मैं तुम्हारे पिता से पूछूँ; वह मैं पूछूँगा जब पूछने का समय होगा, अभी तुम्हीं से जानना चाहता हूँ कि उनसे पूछूँ भी या नहीं...

लिखते-लिखते भुवन रुक गया। गौरा के पिता का चित्र उसके सामने आ गया, फिर मसूरी के घर का, फिर गौरा के साथ बिताये हुए उस एक सप्ताह का, अपनी आत्मस्वीकृति का; क्षण-भर के लिए वह केशों का मेघ उसकी आँखों के आगे छा गया, फिर उसमें झलकती हुई चीड़ की सुगन्धित आग : “गौरा, यह आग तो तुम्हारी है”...वह फिर लिखने लग गया और भी द्रुत गति से; चार-पाँच पृष्ठ लिखकर वह फिर रुका, पेंसिल घिसकर उसकी नोक निकाली, और उसे हाथ में साधे हुए फिर चित्र देखने लगा।

व्यक्ति के सभी कर्मों का बीज सभी दूसरे कर्मों में निहित है; कार्य-कारण-सम्बन्धों की खोज और उनका निरूपण एक वैज्ञानिक समय है, नहीं तो सभी कार्य कारण हैं और उनकी यह परस्परता व्यक्ति के जीवन-वृत्त में ही बँधी नहीं है, बाहर तक फैली है। सब कुछ है, क्योंकि और सब कुछ है...फिर भी, हम लोग काल के बिन्दु चुनते हैं जहाँ से घटनाओं का आरम्भ मानते हैं-वह भी एक ऐतिहासिक समय है...गौरा के प्रति उसके जो भाव हैं, जो भाव थे-क्या वे अलग हैं?

“समर्पण है तो वह न बाँधता है, न अपने को बद्ध अनुभव करता है; केवल एक व्यापक कृतज्ञता मन में भर जाती है कि तुम हो, कि मैं हूँ। एक-दूसरे को पहचानने के बाद आश्चर्य यह नहीं है कि प्रेम है, कि हम प्यार करते हैं; आश्चर्य यही है कि हम हैं; होना ही एक नये प्रकार का संयुक्त होना है। मैं पहले भी था, अब भी हूँ; पर क्या दोनों 'होने' एक हैं? हाँ, पर नहीं...सोचता हूँ, यह परिवर्तन कब से हुआ, तो नहीं जानता; लगता है कि जो हुआ, वह पहले भी था, नहीं तो हुआ कैसे? पर वह परिवर्तन चेतना में कब आया, यह जानता हूँ...तुम कह सकती हो कब? तुम्हें अचम्भा होगा। एक वर्ष पहले, जब लम्बी चुप्पी के बाद मैंने जावा से तुम्हें दो-तीन पत्र लिखे थे, तब जब मैं अस्वस्थ था और तुम्हें 'होम-सिक' होने की बात लिखी थी...तभी मैंने जाना था कि मैं तुम से भाग कर वहाँ गया था, तुम्हीं से; और यह जानकर आसपास फैली विशालता में खो गया था और फिर मैंने जाना था कि वह विशालता भी तुम हो। तुमने मुझे घेर लिया था, छिपा लिया था; और उसमें एक सान्त्वना थी, एक मरहम था...सहसा मुझे लगा कि उसी विशालता के आगे हथियार डालकर-अपने सब कवच-बन्धन-रक्षण छोड़कर मैं स्वस्थ हो जाऊँगा, मेरे क्षत भर जाएँगे...मैं कहता हूँ तभी, पर 'तभी' का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अगर मैं पहले नहीं जानता था, तो भागा क्यों था? 'शब्द, शब्द, शब्द'-शब्द अधूरे हैं, सभी कुछ अधूरा है...और इतिहास तो बिलकुल ही अधूरा है...”

भुवन उठकर टहलने लगा। सब कुछ अधूरा है, और ज्यों-ज्यों वह आगे पूरेपन की ओर बढ़ता है, नयी अपूर्णताएँ भी उसके आगे स्पष्ट हो जाती हैं...कितना बड़ा है जीवन, कितना विस्तृत, कितना गहरा, कितना प्रवहमान; और उसमें व्यक्ति की ये छोटी-छोटी इकाइयाँ-प्रवाह से अलग जो कोई अस्तित्व नहीं रखतीं, कोई अर्थ नहीं रखतीं, फिर भी सम्पूर्ण हैं, स्वायत्त हैं, अद्वितीय हैं, और स्वतःप्रमाण हैं, क्योंकि अन्ततोगत्वा आत्मानुशासित हैं, अपने आगे उत्तरदायी हैं; स्वर्ग और नरक, पुण्य और पाप, दण्ड और पुरस्कार, शान्ति और तुष्टि, ये सब बाहर हैं तो केवल समय हैं, सत्य तभी हैं जब भीतर से उद्भूत हों...

वह फिर लिखने बैठ गया :

“वह रूपक मेरा नहीं है, पर बार-बार मुझे याद आता है और मैं पाता हूँ कि उस में नया अभिप्राय है : हम सब नदी के द्वीप हैं, द्वीप से द्वीप तक सेतु हैं। सेतु दोनों ओर से पैरों के नीचे रौंदा जाता है, फिर भी वह दोनों को मिलाता है, एक करता है...गौरा, मैं तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाता हूँ-अनुरोध के हाथ; क्या तुम भी अपने हाथ मेरी ओर बढ़ाओगी-वरद हाथ; कि इस प्रकार हम एक सेतु बन सकें जिस पर ईश्वर अगर है तो उसका आसन है?”

वह फिर उठकर टहलने लगा। उस बँगला गीत के बोल उसके मन में गूँज गये जो उसने कुछ दिन पहले वहीं सुना-'तोमार-आमार एइ विरहेर अन्तराल कत आर सेतु बांधि सुरे-सुरे ताल-ताल?' पहले वह पत्र की ओर बढ़ा कि यह भी गौरा को लिख दे, लेकिन पत्र पर झुककर उसे लगा कि नहीं, पत्र इसके बिना ही सम्पूर्ण है; और वह फिर चक्कर काटने लगा। फिर एक चक्कर उसने यन्त्रों की ओर लगाया। सहसा उसका ध्यान केन्द्रित हो आया; थोड़ी देर बाद उसने दूर विमानों की घरघराहट सुनी-एक-साथ कई विमानों की-और विमान-भंजकों की पटापट...यह क्या है? आक्रमण कि प्रत्याक्रमण? अभी थोड़ी देर में वह क्या कर रहा होगा-यन्त्रों की सँभाल या कि विस्फोटकों की-? अभी उसे खबर मिलेगी-फ़ोन से या रेडियो से-

खिड़की के आगे खड़े होकर बाँस की टट्टी को उसने पूरा हटा दिया। ढलती रोशनी में उसने देखा, उसके सहयोगी आ रहे हैं। उनकी चाल देख कर अपने प्रश्न का उत्तर उसने जान लिया : कोई चिन्ता की बात नहीं है।

फिर वह पूर्ववत् टहलने लगा।

थोड़ी देर में उसके साथी वहाँ पहुँच जाएँगे; यह जो अप्रत्याशित एकान्त उसे मिला, उसका अन्त हो जाएगा। और कल के-कल क्यों, अभी थोड़ी देर बाद के बारे में अनिश्चय ने जो मुक्ति उसे दे दी थी, उसका भी अन्त हो जाएगा। यों जीवन में किस बात का भरोसा है, पर तत्काल यह मानने का कोई कारण नहीं रहेगा कि कल का भरोसा नहीं है-कि कल का सूर्योदय देखने की आशा रखना मूर्खता है।

भुवन ने अनुद्विग्न भाव से चिट्ठी के पन्ने समेटे, उनके कोने और सिरे बराबर-बराबर मिलाये, और फिर सहसा उन्हें फाड़ डाला। फाड़ कर स्टोव के पास की एक काली ट्रे में रख दिया जहाँ प्रायः ही वह और उसके साथी जलाने से पहले अपने कागज़ रखा करते हैं-अभी वह उन्हें जला देगा।

कल-अब तो यह मान लिया जा सकता है कि कल होगा!-वह गौरा को अपने कुशल-समाचार का और पत्र लिख देगा। उससे अधिक कुछ लिखना क्यों आवश्यक है? दो महीने के अन्दर उसने अगर जान लिया है कि हाँ, वह गौरा से यह प्रश्न पूछेगा, प्रश्न पूछने के और उसका उत्तर पाने के लिए अपने को तैयार कर लिया है, तो उतना ही यथेष्ट है। उससे आगे-जब समय आएगा तो प्रश्न का पूछा जाना भी अपने आप हो जाएगा-उत्तर भी अपने आप मिल जाएगा! तब तक-गहरी अनुभूतियाँ संचयधर्मा ही होती हैं; उनके आन्तरिक दबाव का संचय इतिहासों को बदल देता है, इतिहास के मलबे को साफ कर देता है-नयी नींवें खोद देता, ईंटें पका देता है...

एक बार फिर भुवन खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया। अब शायद दो-तीन मिनट ही उसके पास हैं : और फिर साँझ हो जाएगी, मच्छरों से रक्षा की कार्रवाई शुरू हो जाएगी-यन्त्र फिर उसे जकड़ लेगा। मानो चक्की के पाटों के बीच दाने को क्षण-भर की स्वतन्त्रता मिल गयी थी-किन्तु कितना मूल्यवान् हो सकता है ऐसा क्षण-सम्पर्क का क्षण-

मूल्यवान् क्षण? मूल्यवान् किसके लिए? सम्पर्क का क्षण? किसके साथ सम्पर्क? हाँ, मूल्यवान्-नश्वर किन्तु मूल्यवान् जिनका सम्पर्क है सभी के लिए चिरन्तन और मूल्यवान्; सम्पृक्त-जो प्रतीक्षा करते हैं उनसे सम्पृक्त, वे चाहे बोलें या न बोलें; प्रश्न से सम्पृक्त और उसके उत्तर से सम्पृक्त-प्रश्न चाहे न भी पूछा जाये, उत्तर चाहे न भी दिया जाये। मूल्यवान् और सम्पृक्त क्षण क्यों कि प्रतीक्षा के क्षण-वह प्रतीक्षा चाहे कितनी लम्बी हो, कर्म की इस अजस्र-प्रवाहिनी नदी से भी लम्बी; भुवन प्रतीक्षा करेगा, जैसे कि, निस्सन्देह, गौरा भी प्रतीक्षा करेगी...क्योंकि प्रतीक्षाएँ भी अजस्र, अनाद्यन्त काल की नदी में स्थिर, शिलित समय के द्वीप हैं।

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