Nadi Ke Dweep (Hindi Novel) : Agyeya

नदी के द्वीप (उपन्यास) : अज्ञेय

नदी के द्वीप (उपन्यास) : भूमिका

'नदी के द्वीप': क्यों और किस के लिए

अपनी किसी कृति के बारे में कुछ कहने का आकर्षण कितना ख़तरनाक है, इसको वे लोग पहचानते होंगे जिन्होंने कवि सम्मेलनों आदि में कवियों को अपनी कविता की व्याख्या करते सुना है। कृतिकार को जो कहना है, जब उस ने कृति में वह कहा ही है, और मानना चाहिए कि यथाशक्य सुन्दर रूप में ही कहा होगा, तब क्यों वह उसे कम सुन्दर ढंग से कहना चाहेगा? एक जवाब यह हो सकता है कि जो कृति में सुन्दर ढंग से कहा गया है, वह व्याख्या में सुबोध ढंग से कहा जायेगा। तो इस जवाब में सुन्दर और सुबोध का जो विरोध मान लिया जाता है, उसे कम से कम मैं तो स्वीकार नहीं करता। सुबोधता भी सौन्दर्य का ही एक अंग है या होना चाहिए। ऐसा जरूर हो सकता है कि वस्तु के अनुकूल रूप-विधान में-और इस अनुकूलता में ही सौन्दर्य है-सुबोधता इसलिए कम हो कि वह वस्तु भी वैसी हो। तब इस दशा में सुबोध बनाने में हम वस्तु से कुछ दूर ही चले जावेंगे। कोई भी वस्तु, कृति में अपने सुन्दरतम और इसलिए सुबोधतम होकर भी सहज सुबोध नहीं हुई है, तो यह तभी हो सकता है कि उस स्थिति में वह वस्तु अधिक सुबोध नहीं हो सकती, और अगर ऐसा है तो व्याख्या सुबोध तभी होगी जब वह कृति के सम्पूर्ण को खण्डित कर के उसके खण्ड को ही-या अलग-अलग खण्डों को ही देखे।

'नदी के द्वीप' में भूमिका नहीं है। इसलिए नहीं है कि मैंने सीख लिया, उपन्यास में उपन्यासकार को जो कहना है, वह उपन्यास से ही प्राप्य होना चाहिए; न सिर्फ़ होना चाहिए, उपन्यास से ही हो सकता है, नहीं तो फिर उपन्यासकार ने वह कहा ही नहीं है। मैं क्यों मान लूँ कि मेरा पाठक इतना बुद्धि-सम्पन्न नहीं होगा कि मेरी बात पहचान ले? बल्कि इतना ही नहीं, यह भी तो सम्भव है कि मैंने जो कहा है, उसे मैं स्वयं दूसरे रूप में उतना ठीक न पहचानूँ, न जानूँ? स्पष्ट है कि कहानीकार भी इस बात को मानता है कि 'कहानी पर विश्वास करो, कहानीकार पर मत करो'। नहीं तो कहानी क्यों लिखता, बिना कहानी के ही निरी व्याख्या क्यों न लिख डालता? ऐसे भी लेखक हैं जिन्होंने कृति से बड़ी भूमिकाएँ लिखी हैं-कभी-कभी भूमिकाएँ ही पहले और प्रधान मान कर लिखी हैं, और फिर कृति में केवल भूमिका में प्रतिपादित सिद्धान्तों को उदाहृत कर दिया है। लेकिन ऐसी दशा में भूमिका को ही कृति मानना चाहिए, और तथा-वर्णित कृति को उसकी एक अलंकृति, एक दृष्टान्त।

'नदी के द्वीप' व्यक्ति-चरित्र का उपन्यास है। इस से इतर कुछ वह क्यों नहीं है, इसका मैं क्या उत्तर दूँ? और दूँ ही, तो वह मान्य ही होगा ऐसा कोई आश्वासन तो नहीं है। व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए। फिर वह इस दाय पर अपनी छाप भी बैठाता है, क्योंकि जिन परिस्थितियों से वह बनता है उन्ही को बनाता और बदलता भी चलता है। वह निरा पुतला, निरा जीव नहीं है, वह व्यक्ति है, बुद्धि-विवेक-सम्पन्न व्यक्ति। तो अब हम चाहें तो व्यक्ति को जैसा वह है वहीं से ले सकते हैं, उस बिन्दु से आरम्भ करके उसकी गति-विधि को देख सकते हैं, या फिर मुख्यतया इसी पर विचार कर सकते हैं कि वह जैसा है वैसा हुआ क्यों; और वैसा होकर वह क्या कर रहा है, इसे गौण मान ले सकते हैं। पहले में सामाजिक शक्तियों को निहित मान कर चलते हैं और व्यक्ति-चरित्र ही सामने होता है, दूसरे में व्यक्ति गौण होता है और सामाजिक शक्तियाँ ही प्रधान पात्र हो जाती हैं। जहाँ तक शिल्प-विधान का प्रश्न है, दोनों प्रक्रियाएँ अपना स्थान रखती हैं, दोनों की विशेषताएँ और मर्यादाएँ हैं। और दोनों के अपने-अपने जोख़िम भी। सतर्क कलाकार जोख़िम से बच कर चल सकता है। शतरंज का खेल देखें, तो राजा-वज़ीर, हाथी-घोड़े आदि मोहरों को राजा-वज़ीर, हाथी-घोड़ा ही मान कर खेल का विकास देख सकते हैं, या फिर उन सबकी प्रवृत्तियों और मर्यादाओं और चालों को गौण या 'स्थिति-जन्य' कह कर इसी अनुसन्धान में लग सकते हैं कि क्यों राजा राजा है और प्यादा प्यादा, या घोड़ा क्यों ढाई घर की चाल चलता है और हाथी तिरछी; या क्यों प्यादा बढ़ कर वज़ीर तक बनता है, राजा नहीं, और क्यों राजा प्यादा नहीं बनता। या यह भी सोचा जा सकता है कि प्यादे को वज़ीर मान लें और घोड़े को प्यादा तो खेल कैसा चले? वह भी बड़ा रोचक अनुसन्धान हो सकता है, चाहे यह प्रश्न रह ही जाये कि क्या वह शतरंज फिर भी है?

तो मेरी रुचि व्यक्ति में रही है और है; 'नदी के द्वीप' व्यक्ति-चरित्र का ही उपन्यास है। घटना उसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से काफ़ी है, पर घटना प्रधान उपन्यास वह नहीं है। 'शेखर' की तरह वह परिस्थितियों में विकसित होते हुए एक व्यक्ति का चित्र और एक चित्र के निमित्त से उन परिस्थितियों की आलोचना भी नहीं है। वह व्यक्ति-चरित्र का-चरित्र के उद्घाटन का उपन्यास है। उसमें पात्र थोड़े हैं; बल्कि कुल चार ही पात्र हैं। चारों में फिर दो, और दो में फिर एक और भी विशिष्ट प्राधान्य पाता है। 'शेखर' से अन्तर मुख्यतया इस बात में है कि 'शेखर' में व्यक्तित्व का क्रमशः विकास होता है; 'नदी के द्वीप' में व्यक्ति आरम्भ से ही सुगठित चरित्र लेकर आते हैं। हम जो देखते हैं वह अमुक स्थिति में उनका निर्माण या विकास नहीं, उनका उद्घाटन भर है। और चार पात्रों में जो दो प्रधान हैं उन पर यह बात और भी लागू होती है; बाक़ी दो पात्रों में तो कुछ क्रमिक विकास भी होता है। आप चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि 'नदी के द्वीप' चार संवेदनाओं का अध्ययन है। उसमें जो विकास है, वह चरित्र का नहीं, संवेदना का ही है।

उपन्यास क्या है या क्या नहीं है, इसको लेकर बहुत बहस हो सकती है, लेकिन उसमें लेखक का कोई सम्पूर्ण जीवन-दर्शन नहीं तो जीवन के सम्बन्ध में विचार तो प्रकट होते ही हैं। 'नदी के द्वीप' के लेखक के वे विचार क्या है? यहाँ कहना होगा कि वे स्पष्ट कम ही कहे गये हैं, लेखक की ओर से तो बिलकुल नहीं, पात्रों की उक्तियों या कर्मों में सीधे या प्रतीपभाव से ही वे प्रकट होते हैं, और वह भी सम्पूर्ण जीवन के सम्बन्ध में नहीं, उसके पहलुओं के। 'नदी के द्वीप' एक दर्द-भरी प्रेम-कहानी है। दर्द उनका भी जो उपन्यास के पात्र हैं, कुछ उनका भी जो पात्र नहीं हैं। किसी हद तक वह कहानी असाधारण भी है-जैसे कि किसी हद तक पात्र भी असाधारण हैं-सब नहीं तो चार में से तीन के अनुपात से। लेकिन इस हद तक असाधारणता दोष ही होती है, ऐसा मैं नहीं मान लूँगा। 'नदी के द्वीप' समाज के जीवन का चित्र नहीं है, एक अंग के जीवन का है; पात्र साधारण जन नहीं हैं, एक वर्ग के व्यक्ति हैं और वह वर्ग भी संख्या की दृष्टि से अप्रधान ही है; लेकिन कसौटी मेरी समझ में यह होनी चाहिए कि क्या वह जिस भी वर्ग का चित्रण है, उसका सच्चा चित्र है? क्या उस वर्ग में ऐसे लोग होते हैं, उनका जीवन ऐसा जीवन होता है, संवेदनाएँ ऐसी संवेदनाएँ होती हैं? अगर हाँ, तो उपन्यास सच्चा और प्रामाणिक है, और उसके चरित्र भी वास्तविक और सच्चे हैं; न साधारण टाइप हैं, न असाधारण प्रतीक हैं। और मेरा विश्वास है कि 'नदी के द्वीप' उस समाज का, उसके व्यक्तियों के जीवन का जिस का वह चित्र है, सच्चा चित्र है। निःसन्देह उपन्यास के मूल्यांकन में इससे आगे भी जाना होता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजना होता है कि लेखक में तटस्थता कितनी है, अमुक वर्ग के संस्कारों से वह कहाँ तक असम्पृक्त रह सका या हो सका है। पर वह बात पात्रों की या वस्तु की असाधारणता से अलग है।

वास्तविकता के इस निर्वाह के साथ 'नदी के द्वीप' में एक आदर्शपरकता भी है। वास्तव और आदर्श में कोई मौलिक विरोध नहीं होता, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है। इतना ही है कि जो आदर्श वास्तव की भूमि से नहीं उठता,वह निराधार ही रहता है, उसे पाया नहीं जा सकता, उसकी ओर बढ़ा नहीं जा सकता, वह जीवन नहीं देता। तो 'नदी के द्वीप' में क्या आदर्श है? कदाचित् यह मुझे कहने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसा मैंने आरम्भ में कहा, यही वह क्षेत्र है जहाँ कथाकार की ओर नहीं, कथा की ओर देखना चाहिए। कथा से अलग आदर्श को निकाल कर मैं कहना चाहता या कह सकता तो कथा क्यों लिखता? यों उपन्यास के आरम्भ में सूत्र-रूप से जो उद्धरण दिये गये हैं-एक शेली का, एक स्वयं लेखक की कविता से, वे अर्थ रखते हैं : दर्द से भी जीवन में आस्था, जीवन का आश्वासन-जो शेली में सन्दर्भ से ध्वनित होता है; और दर्द में मँज कर व्यक्तित्व का स्वतन्त्र विकास, ऐसा स्वतन्त्र कि दूसरों को भी स्वतन्त्र करे-जो 'अज्ञेय' के सन्दर्भ से ध्वनित होता है। आदर्श के ये दो सूत्र कथा में हैं, चरितनायक भुवन एक को ध्वनित करता है तो मुख्य स्त्री-पात्र रेखा दूसरे को। चन्द्रमाधव और गौरा स्वतन्त्र व्यक्ति भी हैं, और भुवन तथा रेखा के प्रतिचित्र भी। चारों एक ही समाज या वर्ग के प्राणी हैं। पर चन्द्रमाधव का चरित्र-विकास विकृति की ऐसी ग्रन्थियों से गुथीला हो गया है कि उसका विवेक भी उसे कुपथ पर ले जाये, और उस की सदोन्मुखता आत्म-प्रवंचना के कारण है। इसी में वह भुवन का प्रति-भू है। दूसरी ओर गौरा तथा रेखा भी प्रत्यवस्थित किये गये हैं। त्याग की स्वस्थ भावना एक को दृष्टि देती है तो दूसरी में एक प्रकार के आत्म-हनन का ही कारण बनती है-यद्यपि उस की भावना इतनी उदात्त है कि हम उसे अपनी सहानुभूति दे सकें। यानी आप दे सकें-क्योंकि मैंने तो सभी पात्रों को अपनी सहानुभूति दी है। भले ही साधारण सामाजिक जीवन में कुछ से मिलना-जुलना चाहूँ, कुछ से बचना चाहूँ, पर अपनी कृति के क्षेत्र में तो सभी मेरी समवेदना के पात्र हैं।

शिल्प के बारे में मेरा कुछ न कहना ठीक है, पर नाम के बारे में एक बात कह दूँ। इस नाम की मेरी एक कविता भी है। पर दोनों में विशेष सम्बन्ध नहीं है। उपन्यास लिखना आरम्भ करने से पहले, जब मैं उसे लिख डालने के लिए कहीं जा छिपने की बात सोच रहा था तब दो-एक मित्रों ने पूछा था कि नाम क्या होगा। मैंने तब तक निश्चय नहीं किया था। उन्हीं से पूछा-आप ही सुझाइए। कविता के कारण ही एक मित्र ने यह सुझाया; मैंने कहा, अच्छा, यही सही। फिर मेरे लिखना आरम्भ करने से पहले ही नाम का विज्ञापन भी हो गया। यों नाम का निर्वाह उपन्यास में हो गया है, ऐसा मेरा विश्वास है।

'नदी के द्वीप' मैंने किस के लिए लिखा है? अगर कहूँ कि सबसे पहले अपने लिए, तो यह न समझा जाये कि यह पाठक की अवज्ञा करना है। कदापि नहीं। बल्कि मैं मानता हूँ कि जो अपने लिए नहीं लिखा गया, वह दूसरे के सामने उपस्थित करने लायक ही नहीं है। यहाँ 'अपने लिए' की शायद कुछ व्याख्या अपेक्षित है। 'अपने लिए', अर्थात् अपने को यह बात सप्रमाण दिखाने के लिए कि मेरी आस्था, मेरी निष्ठा, मेरे संवेदनाजाल की सम्पूर्णता और सच्चाई, मेरी इंटिग्रिटी उसमें अभिव्यक्त हुई है। जब तक अपने सामने इसका जवाब स्पष्ट न हो तब तक दूसरे के सामने किसी लेखक को जाना नहीं चाहिए; उससे भूल हो यह दूसरी बात है।

फिर, अपने बाद, संवेदनशील, विचारवान्, प्रौढ़ अनुभूति के पाठक के लिए। स्पष्ट है कि ऐसा कहना, यह कहना नहीं कि जन-जनार्दन के लिए। साहित्य पाठक में कुछ तैयारी, अनुकूलता और परिपक्वता माँगता ही है। पुराने आचार्य तो इसे मानते ही आये, आज-कल भी यह मत नितान्त अमान्य तो नहीं है। जन की दुहाई देने वाले भी प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से मानते हैं कि पाठक की संवेदनाओं की व्यापकता और परिपक्वता का कुछ महत्त्व होता है। तो-क्या 'नदी के द्वीप' मैंने आपके लिए लिखी है? यदि आप यहाँ तक मेरी बात ध्यान देकर पढ़ते रहे हैं तो कहूँगा कि हाँ, आपके लिए भी, फिर आप चाहे जो हों। और यदि इससे पहले ही आप ऊब चुके हैं, या दूसरा कोई मत बना चुके हैं, तो फिर मेरी हाँ भी आप तक कैसे पहुँचेगी?

और अगर आज आप में वह परिपक्वता नहीं है तो? तो आप के शुभेच्छु के नाते मैं मनाता हूँ कि कल वह हो!

रेखा की भूमिका*

'नदी के द्वीप' में श्लील और अश्लील के सम्बन्ध में जो प्रश्नोत्तर छपे थे, उसकी बातों को नहीं दोहराऊँगा। मुझे स्मरण है कि मैंने बातचीत के सिलसिले में (पटना में) कहा था कि 'अश्लीलता की परिभाषा युग के साथ बदलती रहती है।' आप ने इसका स्पष्टीकरण चाहा है। जो जुगुप्सा उत्पन्न कर दे वह अश्लीलता है, यह अश्लील की एक परिभाषा है। जुगुप्सा का अर्थ है गोपन करने की इच्छा। और यह स्पष्ट होना चाहिए कि छिपने-छिपाने की इच्छा जिन परिस्थितियों में होती है वे निरन्तर बदलती रहती हैं। इसलिए इस अधूरी परिभाषा की दृष्टि से भी अश्लीलता का अर्थ बदलता रहता है। इसके अलावा मनोविज्ञान ने मूल प्रवृत्तियों के बारे में जो नयी दृष्टि दी है उससे जो परिपक्वता पाठक को मिली है (या मिलनी चाहिए) उसने भी अश्लीलता के क्षेत्र को संकुचित कर दिया है। जैसे बच्चे की नग्नता बड़ों में जुगुप्सा नहीं उत्पन्न करती, बल्कि बड़े बच्चों को क्रमशः यह सिखाते हैं कि अपने समाज के पहरावे के नियमों के अनुरूप संकोच का भाव उन में जागना चाहिए; उसी प्रकार साहित्यिक क्षेत्र में भी जब अपरिपक्व को परिपक्व के सम्मुख लाया जाता है तब जुगुप्सा नहीं होनी चाहिए-और ऐसे साक्षात् में अश्लीलता नहीं माननी चाहिए। अगर मेरी यह स्थापना उचित है कि मनोविश्लेषण की नयी खोजों ने हमें परिपक्वता दी है तो स्पष्ट है कि उससे अश्लीलता की परिधि भी बदली है। यह ठीक है कि बहुत से पाठकों में वह परिपक्वता नहीं होती जिस की आज हम अपेक्षा कर सकते हैं, लेकिन इस परिस्थिति में जो करना चाहिए उसका संकेत मैंने 'प्रश्नोत्तर' में दे दिया है। जो नियमन समाज को करना चाहिए, उसे लेखक अपने ऊपर ओढ़ ले या ओढ़ना चाहे तो वह निरा दम्भ ही होगा-वैसे ही जैसे जो काम राजशक्ति के क्षेत्र के होते हैं उन्हें व्यक्ति का अपने ऊपर ओढ़ना चाहना दम्भ होगा-या मूर्खता।

  • यह एक पत्र के कुछ अंश हैं जो एक अध्येता द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्नों के उत्तर में लिखा गया था। पत्र में रेखा के चरित्र के अतिरिक्त भी कुछ बातों का उल्लेख है, किन्तु सभी 'नदी के द्वीप'से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्बद्ध हैं, अतः शीर्षक में अव्याप्ति दोष होने पर भी आशा है कि वह भ्रामक न होगा।

रेखा 'नदी के द्वीप' का सबसे अधिक परिपक्व पात्र है। यह मैं पहले लिख चुका हूँ कि मेरी दृष्टि में वही उपन्यास का प्रधान पात्र भी है। वही अपनी भावनाओं के प्रति सबसे अधिक ईमानदार है और अपने प्रति सबसे अधिक निर्मम। एक दूसरी तरह की ईमानदारी चन्द्रमाधव में भी है लेकिन वह दस्यु की ईमानदारी है-जो नोच-खसोट कर पा लेना चाहता है किन्तु मूल्य चुकाने को तैयार नहीं है।

रेखा का जीवन-ध्येय और जीवन-दर्शन? इस प्रश्न का उत्तर मेरे लिए कठिन है। और शायद यह लेखक के क्षेत्र से बाहर की भी बात है। क्योंकि इस विषय पर कहानी में जो नहीं मिलता है वह प्रस्तुत किया जा कर अविश्वास्य रहेगा। इतना शायद कहानी में से निकाला जा सकता है कि रेखा अपनी भावनाओं के प्रति सच्ची रहना चाहती है, भीतर के प्रति अपने उत्तरदायित्व को उसने समर्पण की सीमा तक पहुँचा दिया है। जहाँ यह व्यक्ति की बहुत बड़ी शक्ति है, व्यक्तित्व के विकास का एक उत्कर्ष है, वहाँ यह उसकी एक पराजय भी है। क्योंकि केवल 'अपने में जो है उसके प्रति समर्पण' काफ़ी नहीं है। अपने से बाहर और बड़ा भी कुछ है जिस के प्रति भी उतना ही निःसंग समर्पण वास्तव में चरित्र की पूर्ण विकसित और परिपक्व अवस्था है। रेखा की ट्रैजेडी उसके इसी समर्पण के अधूरेपन की ट्रैजेडी है-जितना ही वह पूरा है उतना ही वह अधूरा है क्योंकि वह अधूरे के प्रति है। ट्रैजेडी तब होती है जब जो 'दण्ड' मिलता है वह भोक्ता के 'दोषों' के कारण नहीं, उसके गुणों की त्रुटियों के कारण मिलता है-फ़ार द फ़ॉल्ट्स ऑफ़ देयर वर्चूज़। टेकनीक की दृष्टि से दोनों स्त्री-पात्र-रेखा और गौरा, तथा दोनों पुरुष-पात्र-भुवन और चन्द्रमाधव, प्रत्यवस्थित (काउंटरपोज़) हो गये हैं। किन्तु वास्तव में स्थिति यह नहीं है कि दोनों स्त्री-पात्र एक-दूसरे के चरित्र को उभारते हैं, या दोनों पुरुष-पात्र एक-दूसरे को। वास्तव में उपन्यास के प्रति-चरित्र रेखा और चन्द्रमाधव हैं। रेखा भावना की सच्चाई के प्रति समर्पित है या होना चाहती है, चन्द्रमाधव सहज प्रवृत्ति की तृप्ति को ही अपना लक्ष्य बनाता है। रेखा का आदर्श है दान, चन्द्रमाधव का लब्धि। इसीलिए रेखा में ईर्ष्या नहीं है और चन्द्रमाधव में प्रेम उसके बिना मानो अभिव्यक्ति ही नहीं पा सकता।

रेखा और गौरा में ईर्ष्या न होने की आलोचना हुई है। ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ईर्ष्या के बिना प्रेम नहीं है, या ईर्ष्या के बिना नारी नहीं है। ईर्ष्या-भरा प्रेम या ईर्ष्या-भरी नारियाँ मैंने न देखी हों, ऐसा नहीं है। निःसन्देह अधिकतर ऐसा ही होता है। लेकिन जीवन का अनुभव अधिसंख्य या अधिमात्र का ही अनुभव नहीं है-जो परिपक्वता की ओर ले जाये वही अनुभव है। मैं मानता हूँ कि ईर्ष्या प्रेम का सबसे बड़ा शत्रु है और प्रेम की स्वस्थ वयस्कता के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा। मैं नहीं मानता कि ईर्ष्यामुक्त प्रेम असम्भव है। या अस्वस्थ है या अस्वाभाविक है। बल्कि यह मानता हूँ कि प्रेम में जिन को भी जितना अधिक ईर्ष्या से मुक्त मैंने पाया है उनका उतना ही अधिक सम्मान कर सका हूँ-चाहे इस देश-काल में, चाहे दूसरे देश-कालों में।

यों, यदि यह सूचना आप के किसी काम की है तो-यह भी कहूँ कि बीसियों वर्ष से ईर्ष्या की समस्या में सैद्धान्तिक दिलचस्पी रही है। एच.जी. वेल्स के दो उपन्यास इसी प्रश्न को लेकर हैं जिन में से एक मुझे विशेष प्रिय है; ये दोनों ही कॉलेज के ज़माने में पढ़े थे, जब समाज को बदलने का मेरा आग्रह तत्कालीन वेल्स के आग्रह से कुछ कम नहीं था! वेल्स के दिए हुए तर्क आज कुछ अतिसरलीकरण जान पड़ते हों वह दूसरी बात है, लेकिन मानवीय व्यक्ति के चरित्र-विकास के लिए ईर्ष्या-मुक्ति का जो सैद्धान्तिक प्रश्न उन्होंने उठाया था वह मुझे आज भी एक जीवित प्रश्न जान पड़ता है।

'नदी के द्वीप' का समाज*

'नदी के द्वीप' के पात्रों के विषय में आप के प्रश्न का क्या उत्तर हो सकता है? जो उपन्यास मूलतः चार-पाँच वैयक्तिक संवेदनाओं का अध्ययन है उसके पात्र 'समाज से कटे हुए' हैं या नहीं, यह प्रश्न मेरे लिए तो प्रासंगिक ही नहीं हुआ। एक पेड़ की शाखा-प्रशाखा की रचना देखने के लिए क्या यह पहले निश्चय कर लेना अनिवार्य (या आवश्यक भी) है कि वह पेड़ जंगल से कटा हुआ है या कि जंगल का अंग है? उपन्यास अनिवार्यतया पूरे समाज का चित्र हो, यह माँग बिलकुल ग़लत है। उपन्यास की परिभाषा के बारे में यह भ्रान्ति (जो देश में या कम से कम हिन्दी में काफ़ी फैली हुई मालूम होती है) साहित्य के सामाजिक तत्त्व को ग़लत समझने का परिणाम है। कह लीजिए कि छिछली या विकृत प्रगतिवादिता का परिणाम है।

'नदी के द्वीप' के पात्र किसी हद तक अवश्य असाधारण हैं। वैसे ही जैसे भारत में पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसी हद तक असाधारण अवश्य है, जहाँ साक्षरता का स्तर अट्ठारह प्रतिशत है, शिक्षितता का आधा प्रतिशत और सुशिक्षितता का कितना? 0.2 प्रतिशत? समाज के जिस अंग में से 'नदी के द्वीप' के पात्र आये हैं उस का वे ग़लत प्रतिनिधित्व नहीं करते। मेरे लिए उनकी इतनी सामाजिकता पर्याप्त है। इसके आगे उनमें से प्रत्येक चरित्र एक सही सुनिर्मित विश्वसनीय व्यक्ति-चरित्र हो और जीवन्त होकर सामने आ सके, यही मेरा उद्देश्य रहा और इतना मात्र मैं कलात्मक उद्देश्य मानता हूँ। यों दूसरे भी उद्देश्य हो सकते हैं, यह अलग बात है।

  • काशी के एक विद्यार्थी के प्रश्न के उत्तर में लिखे गये पत्र का अंश।

'शेखर' से 'नदी के द्वीप' का अधिक सम्बन्ध मुझे तो नहीं दीखता। पर लेखक की बात पाठक क्यों मानने लगा, खास कर जब वह ऐसा समझता हो कि वह कुछ देख सकता है जो भले ही स्वयं लेखक को भी न दीखा हो।

इतना अवश्य है कि 'शेखर' का तीसरा भाग मेरे सामने है और केवल मेरे सामने है, पाठक के सामने नहीं है। इसलिए यह असम्भव तो न होना चाहिए कि 'शेखर' के पहले दो भागों का तीसरे भाग के साथ सम्बन्ध, और 'नदी के द्वीप' से उन सब का अलगाव मैं पाठक की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह देख सकूँ-अपने सभी पूर्वग्रहों के बावज़ूद!

-अज्ञेय

*('नदी के द्वीप', प्रथम संस्करण से)

नदी के द्वीप (उपन्यास) : भुवन

गाड़ी जब तक प्रतापगढ़ से नहीं चली, तब तक भुवन ने नहीं जाना कि उसे अपने बारे में सोचने की कुछ ज़रूरत है; और गाड़ी चलने पर भी ठीक इस रूप में ही उसने यह बात जानी हो, ऐसा भी नहीं; वह केवल हक्का-बक्का-सा चलती गाड़ी का हैंडल पकड़े खड़ा रह गया-विस्मय से अपने मुक्त दूसरे हाथ की ओर देखता हुआ, मानो वह उसका नहीं, कोई पराया हाथ हो जो किसी रहस्यमय क्रिया से उसके शरीर के साथ लग गया हो और अब अपने और पराये के सन्धिस्थल उसकी कुहनी पर चुनचुनाहट हो रही हो।

वह सवार ही चलती गाड़ी पर हुआ था; उसके प्लेटफार्म पर खड़े रेखा से बातें करते-करते कब गाड़ी चल पड़ी थी यह उसे मालूम नहीं हुआ था, और अगर रेखा ही सहसा उसकी कुहनी पकड़ कर मुस्करा कर उसे ठेलती हुई न कहती-”अच्छा, जल्दी से सवार हो जाइए, आप की गाड़ी जा रही है,” तो वह ज़रूर गाड़ी से रह जाता।

और यहीं से उसके विस्मय का आरम्भ होता था। क्योंकि यद्यपि वास्तव में रेखा ने उसे ठेलकर गाड़ी पर सवार करा दिया था, तथापि उस बहुत हल्के धक्के में यही लगा था कि रेखा वास्तव में उसे कुहनी पकड़ कर खींच रही है : कि उसके शब्द और उसकी क्रिया भी उसके वास्तविक अभिप्राय को झुठला रहे हैं और वह वास्तव में उसे रोक ही लेना चाहती है। और जहाँ उसने भुवन की कुहनी को छुआ था, वहीं यह अद्भुत, अपूर्व-परिचित चुनचुनाहट हो रही थी-उसकी कुहनी में, जो सदा अपने साथियों पर हँसता आया है कि उन्हें स्त्री का सान्निध्य सहन नहीं होता, वे उसे सहज भाव से न ले पाकर उत्तेजित या अस्थिर हो उठते हैं-उसने यहाँ तक देखा है कि किसी स्त्री द्वारा चाय का प्याला दिया जाने पर लोगों के हाथ ऐसे काँपने लगें कि चाय छलक जाये!

और आज : एक स्त्री के द्वारा सहज भाव से ठेलकर गाड़ी पर सवार करा दिये जाने पर उसी की कुहनी में स्पर्शित स्थल पर चुनचुनाहट होने लगी है और वह यह रूमानी कल्पना कर रहा है कि रेखा ने वास्तव में उसे ठेला नहीं बल्कि खींचा था...भुवन बाबू, यों हक्के-बक्के अपने हाथ की ओर ताकते और अपनी कुहनी को पहचानते न खड़े रहिए, आख़िर आपको हुआ क्या है?...

पीछे किसी ने चिड़चिड़े स्वर में कहा, “अजी साहब, फुटबोर्ड पर क्यों लटके खड़े हैं, भीतर चले आइए और दरवाज़ा बन्द कर दीजिए।”

चिड़चिड़ापन वाज़िब था; क्योंकि इण्टर क्लास ही सही, रात को सोते सब हैं, और तड़के तीन बजे दरवाज़ा खोल कर खड़े हो जाना दूसरे मुसाफ़िरों को न सुहाए तो अचम्भा नहीं होना चाहिए।

भुवन ने भीतर प्रवेश करके दरवाज़ा बन्द किया और एक सीट पर सिमट कर बैठ गया। उसके विस्मय की जड़ता कुछ कम हुई तो उसकी स्मृति धीरे-धीरे पिछले कुछ घंटों की दृश्यावली के पन्ने उलटने लगी।

रेखा से उसका परिचय लम्बा नहीं था। बल्कि परिचय कहलाने लायक भी नहीं था, क्योंकि एक सप्ताह पहले ही अपने मित्र चन्द्रमाधव के घर पर एक छोटी चाय-पार्टी में इनकी पहली भेंट हुई थी। और उसके बाद दो-तीन बार हज़रतगंज़ के कोने पर या काफ़ी हाउस में, उनका कुछ वार्तालाप हुआ था। भुवन को लखनऊ से इलाहाबाद जाना था, रेखा किसी परिचित परिवार के पास कुछ दिन बिताने प्रतापगढ़ जाने वाली थी; बातचीत के सिलसिले में यह जान कर कि दोनों एक ही दिन एक ही गाड़ी से जा रहे हैं, चन्द्रमाधव की सलाह से यह निश्चय हुआ था कि तीनों साथ हज़रतगंज़ में कहीं भोजन करके स्टेशन पहुँच जावेंगे और दोनों को गाड़ी पर सवार कराकर चन्द्रमाधव लौट जायेगा-भुवन का सामान तो चन्द्रमाधव का नौकर ले जायेगा, और रेखा का सामान उनके आतिथेय का चपरासी पहुँचा आयेगा।

यह तो बिलकुल साधारण बात थी। लेकिन गाड़ी में भीड़ बहुत थी; पहले यह सोचा गया कि दोनों अलग-अलग स्थान खोजें, क्योंकि शायद ज़नाने डिब्बे में कुछ अधिक जगह हो तो रेखा क्यों अधिक कष्ट उठाए? चन्द्रमाधव उसे बिठाने ज़नाने डिब्बे की ओर गया, और भुवन अपने लिए स्थान खोजने निकला। कोई पन्द्रह मिनट में, अनेक डिब्बों का मुआइना करके आँखों-आँखों से प्रत्येक में मिल सकनेवाली जगह के घन इंच और वर्ग इंच का हिसाब लगाने के बाद जब भुवन ने एक डिब्बे में खिड़की के रास्ते अपना छोटा-सा बक्स और संक्षिप्त बिस्तर अन्दर ठेल दिया, और तय कर लिया कि किवाड़ के आगे लगे सामान के ढेर के कारण उधर से न जा सकने पर भी खिड़की के रास्ते घुस सकेगा, वह यह देखने लौटा कि रेखा पर कैसी बीत रही है। मन-ही-मन उसने यह भी सोचा, इसी गाड़ी में जाना ऐसा क्या ज़रूरी है? एक दिन देर भी हो सकती है। इलाहाबाद पहुँचना कोई ऐसा ज़रूरी तो है नहीं, मुफ़्त में तकलीफ़ का सफर क्यों? क्यों न कल पर टाल दिया जाए? यही सोचते-सोचते वह वहाँ पहुँचा जहाँ चन्द्रमाधव एक खिड़की के पास खड़ा था। रेखा डिब्बे के भीतर तो पहुँच गयी थी, पर डिब्बा अपना यह देसी नाम इतना सार्थक कर रहा था कि जहाँ वह खड़ी थी वहाँ उसे इधर-उधर मुड़ने लायक भी स्थान नहीं था; वह खड़ी थी तो बस, जैसे खड़ी थी वैसे खड़ी रह सकती थी।

भुवन ने मुस्कराते हुए पुकार कर अंग्रेजी में पूछा, “रेखा जी, कैसा चल रहा है?”

रेखा ने ज़रा गर्दन उसकी ओर मोड़ कर, हँसते हुए कहा, “स्विमिंग्ली! मैं जैसे सागर की मछली हूँ; जमीन से पैर उठा लूँ तो भी गिरूँगी नहीं, तैरती रह जाऊँगी!”

भुवन ने चन्द्रमाधव से कहा, “चन्द्र, रेखा जी का इसी गाड़ी से जाना क्या ऐसा ज़रूरी?”

चन्द्र ने फौरन शह लेते हुए आवाज दी, “रेखाजी, अब भी सोच लीजिए, आज जाना क्या ज़रूरी है? मेरा कल के शो का निमन्त्रण अभी ज्यों-का-त्यों है-अब भी लौट चलिए, कल रात चली जाइएगा।”

रेखा ने भुवन की ओर उन्मुख होने की चेष्टा करते हुए पूछा, “आप को कैसी ज़गह मिली?

“सामान तो भीतर पहुँच गया है। यों तो खिड़कियों से रास्ता है-अभी तो हवा भी मजे में आ-जा सकती है।”

“तो आप का क्या मत है?”

“मैं तो चन्द्र से बिलकुल सहमत हूँ। आप और एक दिन रुक जाइए-कल चली जाइएगा-”

रेखा के चेहरे पर विकल्प की हल्सी-सी रेखा पहचान कर चन्द्र ने जोर दिया। “हाँ, हाँ, आइये, बस! बल्कि अभी तो आज रात का शो भी देखा जा सकता है” और वह खिड़की में से भीतर झुककर रेखा का सूटकेस पकड़ने लगा।

रेखा उतर आयी। उतर कर भुवन से बोली, “और आप?” फिर चन्द्र की ओर उन्मुख होकर : “मिस्टर चन्द्र, अपने मित्र को भी रोक लीजिए न?”

चन्द्र ने कहा, “इन्हें जाने कौन देता है! आप रुक जाएँगी तो यह नहीं जा सकेंगे, इतने अनगैलेन्ट यह नहीं हो सकते-क्या हुआ प्रोफ़ेसर हैं तो! क्यों भुवन? कहाँ है तुम्हारा सामान?”

भुवन ने आनाकानी की। स्वयं उसने सफ़र एक दिन टाल जाने की बात सोची थी, पर रेखा को वैसा करते देख न जाने क्यों एक प्रतीप-भाव उसके मन में उमड़ आया-कि जो निश्चय किया सो किया, अब बदलना ढुलमुलपन है और ढुलमुलपन बुरी चीज़ है, आदमी की संकल्प-शक्ति दृढ़ होनी चाहिए, ऐसी दृढ़ कि बस फ़ौलाद!

रेखा ने कहा, “हाँ, डाक्टर भुवन, आप भी रह जाइये न? छुट्टी तो आप की अभी कई दिन और है-”

“लेकिन-”

“बस अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं”, चन्द्र ने डपट कर कहा। “चलो आगे, बताओ सामान कहाँ रखा है।” और जिस कुली ने रेखा का सामान उठाया था, उसी को आगे करके वह भुवन के डिब्बे की ओर बढ़ चला।

स्मृति के पन्ने उलटते हुए भुवन ने सोचा, यहाँ तक भी ठीक था; रुक जाना कोई असाधारण बात नहीं हुई थी, और दोनों के रुक जाने में भी कोई बात नहीं थी; अगर उसे इलाहाबाद में जरूरी काम नहीं था तो रेखा को प्रतापगढ़ में और भी कम काम था, वह घूमती हुई और एक जगह कुछ दिन बिताने जा रही थी। और चन्द्र दोनों का मित्र था, और खासा दिलचस्प आदमी, उसके आग्रह का असर होना स्वाभाविक था। और इस प्रकार दोनों रुक गये थे, और अगली शाम को उसी प्रकार उसी गाड़ी के लिए पहुँचे थे।

फिर भीड़ थी; पर उतनी नहीं; फिर अलग-अलग डिब्बों में सवार हुआ गया-रेखा को जनाने डिब्बे में बैठने लायक स्थान मिल गया यद्यपि बिल्कुल दरवाज़े के पास, और भुवन ने भी अपना बक्स जमा कर अपने बैठने लायक सीट बना ली। विदा-नमस्ते करके सीटी के साथ वह अपने डिब्बे की ओर चला और सवार हो गया।

यहाँ तक भी ठीक था। और अगर बीच में थोड़ी-थोड़ी देर बाद गाड़ी के रुकने पर वह रेखा के डिब्बे तक जाकर उससे एक-आध बात कर आता रहा, तो यह भी कोई ऐसी असाधारण बात नहीं थी; यह साधारण शिष्टाचार ही है; और अग़र रात दस बजे के बाद भी हुआ तो भी अधिक-से-अधिक कोई यह कह सकता है कि शिष्टाचार में कुछ अनावश्यक मुस्तैदी थी, या दिखावा था। वह स्वयं यही जानता था कि रेखा बड़ी मेधावी स्त्री है और उससे बातचीत विचारोत्तेजक है और मानसिक स्फूर्ति देती है, बस। बातें भी वे ऐसी ही करते आये थे; और प्रतापगढ़ में जब रेखा उतर गयी और भुवन ने कहा, “आप से भेंट कर के बहुत प्रसन्न्ता हुई-मेरा लखनऊ प्रवास बड़ा सुखद रहा”, तो उसने अपने स्वर में शिष्टाचार से-यद्यपि हार्दिक शिष्टाचार, निरी औपचारिक शिष्टता नहीं-अधिक कुछ नहीं पाया था। रेखा ने भी वैसे ही अव्यक्तिक पर सच्चे विनय से कहा था, “मैं आपकी बड़ी कृतज्ञ हूँ-और आप ने तो इस वापसी की यात्रा को भी प्रीतिकर बना दिया-”

तब?

और फिर भुवन ने अपने हाथ और कुहनी की ओर देखा, फिर उसे लगा कि वह चुनचुनाहट अभी गयी नहीं है, वह अपनी कुहनी पर अब भी रेखा के स्पर्श का दबाव अनुभव कर सकता है, और वह दबाव ढकेलने का नहीं है, खींचने का है।

तब?

स्पष्ट ही केवल यात्रा का प्रत्यवलोकन काफ़ी नहीं है; थोड़ा और पीछे देखना होगा। और पीछे देखने में-या क्रम से विश्लेषणपूर्वक देखने में-उसे झिझक क्यों है, वह अनमना क्यों है? सप्ताह-भर से कम का सामान्य सामाजिक परिचय-कौन उसमें ऐसे छायावेष्टित रहःस्थल हैं जिनमें जिज्ञासा की किरण के पहुँचने से वहाँ पलती कोई छुई-मुई अनुरागानुभूति मर जाएगी!

आग की लौ आलोक देती है : उससे हम आलोक विकीर्ण हुआ देखते हैं। और व्यक्ति की तुलना लौ से करें तो यही ध्वनित होता है कि उससे कुछ उत्सृष्ट होकर फैलता है। लेकिन रेखा मानो एक शीतल आलोक से घिरी हुई, उसके आवेष्टन में सँची हुई, अलग, दूर और अस्पृश्य खड़ी थी।

भुवन ने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा। घूरना इस बीसवीं सदी में भी अशिष्ट है, लेकिन एक ऐसी पारखी दृष्टि भी होती है जिसे घूरना नहीं कहा जा सकता और जो न केवल अशिष्ट नहीं है बल्कि सौन्दर्य का नैवेद्य मानी जाती है। तब मन-ही-मन भुवन ने कहा, यों ही नहीं रेखा देवी की इतनी चर्चा होती। उनमें कुछ है जिसका उन्मेष जीवन का उन्मेष है और जिसे जान सकना ही एक महान् अनुभूति होगी-फिर वह जानना सुखद हो, दुखद हो।

और उसने मुड़कर रेखा की सुनाई में आ सकने वाले विनय के स्वर में अपने साथी से पूछा, “क्यों मिस्टर चन्द्रमाधव, रेखाजी काफ़ी पीती हैं-हम लोग काफ़ी हाउस चलें?”

इस परोक्ष निमन्त्रण का उतना ही परोक्ष उत्तर देते हुए रेखा ने कहा, “हाँ, चन्द्र, तुम बहुत बार काफ़ी पिला चुके हो मुझे, आज मेरा निमन्त्रण रहा; और-तुम्हारा मित्र भी आवे।”

चन्द्रमाधव ने कहा, “वाह, यह नहीं हो सकता, मैं तो स्थायी मेज़बान हूँ।”

तब भुवन ने कुछ साहस बटोर कर कहा, “रेखा देवी, अगर आज मुझे ही मेज़बान होने का गौरव प्रदान करें तो-”

रेखा ने कुछ मुस्करा कर छद्म-विनय से कहा, “आप की प्रार्थना स्वीकार की जाती है।”

हज़रतगंज़ का कोना युक्तप्रान्त के नागरिक जीवन की धुरी है। यह दूसरी बात है कि जीवन वहाँ जिया नहीं जाता; वहाँ केवल जीवन से विश्रान्ति की व्यवस्था है। तथापि जो लोग उस जीवन का संचालन और नियमन करते रहे हैं उनका एक स्वाभाविक संगम वह कोना है। इसीलिए भुवन जब से लखनऊ आया है तब से रोज चन्द्र के साथ काफ़ी हाउस आता है : दिन में एक बार तो अवश्य, कभी-कभी दो-दो तीन-तीन बार-और उस रूप-रस-गन्ध-सिक्त मानव-प्रवाह को किनारे से देखकर मन-ही-मन यह समझता चला जाता है कि वह भी जीवन के प्रवाह के बीच में है, कि जीवन का तीव्र स्पन्दन जिस नाड़ी में हो रहा है, उसे वह पकड़े है, और चाहे तो दबाकर रुद्ध भी कर दे सकता है!

लखनऊ आये उसे कुल तीन दिन हुए हैं। चन्द्रमाधव उसका कालेज का सहपाठी और मित्र, स्थानीय 'पायनियर' का विशेष संवाददाता है और लखनऊ से परिचित है, यों भी बहुधन्धी आदमी है। उसके साथ रहने-घूमने से जीवन के प्रवाह को अनुशासित कर सकने का यह भ्रम सहज ही हो जा सकता है। इससे क्या कि कालेज के बाद से चन्द्रमाधव निरन्तर सनसनी की खोज़ में दौड़ा किया है-अफ्रीका, अबीसीनिया, इटली, जर्मनी, चीन, कोरिया-और वह चार-छः वर्ष वैज्ञानिक खोज़ और देशाटन में लगा कर, पहले से भी कुछ अधिक अन्तर्मुखी और तटस्थ होकर एक कस्बे के कालेज में लेक्चरर हो गया है जो कि यों ही दुनिया के प्रवाह से बहुत दूर रहता है? यह जीवन की धमनी को पकड़े रहने का भ्रम बड़ा ही लुभावना और अहं को पुष्ट करनेवाला है...

और इससे क्या कि चन्द्र का कहना है, वह जीवन के निरन्तर दबाव से बचकर दो मिनट चैन से बिताने के लिए ही काफ़ी हाउस आता है? शायद उसको वही भ्रम लुभा सकता हो...

और रेखा?

भुवन को याद आया, तीन दिन पहले चन्द्र के यहाँ उसने पहली बार रेखा को देखा था। परिचय के समय उसने लक्ष्य किया था कि रेखा के पास रूप भी है और बुद्धि भी है, किन्तु बुद्धि मानो तीव्र संवेदना के साथ गुँथी हुई है और रूप एक अदृश्य, अस्पृश्य कवच-सा पहने हुए है; पर इस आरम्भिक धारणा को उसने तूल नहीं दिया था। प्रचलित धारणा है कि बुद्धिजीवी स्त्री के आवेग शिथिल होते हैं, और अगर किसी को चट से 'फ्रिज्डि वूमन' का बिल्ला दे दिया जा सकता हो तो उसे लेकर माथा-पच्ची कौन करे? फलतः परिचय के साधारण शिष्टाचार के बाद भुवन अपने में खिंच गया था और रेखा चन्द्र के यहाँ जुटे हुए बुद्धिप्राण मानव-जीवनों के गिरोह में खो गयी थी-चन्द्र ने भुवन को मिलाने के लिए लखनऊ का साहित्यिक समाज इकट्ठा किया था...

किन्तु उपेक्षा की जिस पिटारी में भुवन ने उसे डाल दिया था, उसे हठात् झकझोर कर रेखा बाहर निकल आयी थी। बैठक के दौरान भुवन ने दो बार उड़ती नज़र से रेखा के चेहरे पर क्लान्ति और खेद के चिह्न देखे थे; जब साहित्य-चर्चा ने ज़ोर पकड़ा और वातावरण में गर्मी आयी तो भुवन की दृष्टि कौतूहलवश फिर रेखा को खोजती हुई गयी और सहसा ठिठक गयी।

रेखा कमरे की ओर शून्य के एक छोटे से वृत्त के बीचोंबीच कुरसी पर बैठी थी। उसका सिर कुरसी की पीठ पर टिका था, पलकें बन्द थी। वह बिजली के प्रकाश से कुछ बच कर बैठी थी, अतः उसका माथा और आँखें अँधेरे में थी, बाकी चेहरे पर आड़ा प्रकाश पड़ रहा था जिससे नाक, ओठ और ठोड़ी की आकार-रेखा सुनहली हो उभर आयी थी। और इसी स्वर्णाभ निश्चलता पर भुवन का कौतूहल आकर टिक गया था।

कहते हैं कि आँखें आत्मा के झरोखे हैं। झरोखे बन्द भी हो सकते हैं, पर ओठों की कोर एक ऐसा सूचक है कि कभी चूकता नहीं; और इन्हीं की ओर भुवन अपलक देखता रहा। वह कुछ क्षणों की तन्द्रा मानो रेखा को उस कमरे से दूर अलग कहीं ले गयी थी, जहाँ ओठों के कोरों का कसाव, बिना तनिक-सा काँपे भी, जैसे अनजाने कुछ नरम पड़ गया था; मुँह के आसपास की असंख्य शिराओं का अदृश्य तनाव कुछ ढीला हो गया था और जीवन का अदम्य लचकीलापन जैसे फिर उभर कर एक स्निग्ध लहर बन गया था। जहाँ तक भुवन जान पाया, किसी और ने यह परिवर्तन नहीं लक्ष्य किया था; पर उस क्षण के सहज शैथिल्य के द्वारा मानो रेखा ने अपनी सारी क्लान्त शक्तियों को विश्राम देकर पुनरुद्दीपित कर लिया था। वैसे ही जैसे नास्तिकों की भीड़ में कोई भक्त अनदेखे क्षण-भर आँख बन्द करके अपने आराध्य का ध्यान कर ले और उसके द्वारा नये विश्वास से भर कर कर्म-रत हो जाये। रेखा जैसी आधुनिका के लिए भक्त की उपमा शायद ठीक न हो पर उस तुलना के द्वारा रेखा का पार्थक्य और उभर आता था, और यह बात बार-बार भुवन के सामने आती थी कि रेखा में एक दूरी है, एक अलगाव है, कि वह जिस समाज से घिरी है और जिस का केन्द्र है उससे अछूती भी है-यद्यपि कहाँ, अस्तित्व के कौन से स्तर पर विभाजन-रेखा है जो दोनों को अलग रखती है, इसकी कल्पना वह नहीं कर सकता था...

काफ़ी पीते-पीते ये सब बातें चलचित्र-सी उसके आगे घूम गयीं। और जैसे रेखा की रहस्यमयता उसे चुनौती देने लगी। व्यक्तित्व की चुनौती की प्रतिक्रिया भुवन में प्रायः सर्वदा नकारात्मक ही होती है-वह अपने को समझा लेता है कि चुनौती के उत्तर में किसी व्यक्तित्व में पैठना चाहना अनधिकार चेष्टा है, टाँग अड़ाना है; क्योंकि व्यक्तित्वों का सम्मिलन या परिचय तो फूल के खिलने की तरह एक सहज क्रिया होना चाहिए। पर रेखा के व्यक्तित्व की चुनौती को उसने इस प्रकार नहीं टाला, टालने की बात ही उसके मन में नहीं आयी; रहस्यमयी की चुनौती स्वीकार करना तो और भी अधिक 'टाँग अड़ाना' है-क्योंकि किसी का रहस्य उद्घाटित करना चाहने वाला कोई कौन होता है?-यह भी उसने नहीं सोचा। पर अनधिकार हस्तक्षेप की भावना भी उसके मन में नहीं थी। यह जो जन-समुदाय से घिरे रह कर भी अलग जाकर, किसी अलक्षित शक्ति के स्पर्श से दीप्त हो उठने जैसी बात उसने देखी थी, रह-रह कर वही भुवन को झकझोर जाती थी; जैसे किसी बड़े चौड़े पाट वाली नदी में एक छोटे-से द्वीप का तरु-पल्लवित मुकुट किसी को अपनी अनपेक्षितता से चौंका जाय। या कि अँधेरे में किसी शीतल चमकती चीज़ को देखकर बार-बार उसे छूकर देखने को मन चाहे-कहाँ से, किस रहस्यमय रासायनिक क्रिया से यह ठंडा आलोक उत्पन्न होता है?

रेखा को देखते और इस ढंग की बात सोचते हुए भुवन कदाचित् अनमना हो गया था, क्योंकि उसने सहसा जाना, चन्द्र और रेखा में यह बहस चल रही है कि सत्य क्या है; और कब कैसे यह आरम्भ हो गयी उसने लक्ष्य नहीं किया था।

चन्द्र कह रहा था, “सत्य सभी कुछ है-सभी कुछ जो है। होना ही सत्य की एक-मात्र कसौटी है।”

रेखा ने टोका, “लेकिन होने को तो झूठ भी है, छल भी है, भ्रम भी है-क्या वह सब भी सत्य है? या कि आप होने की कुछ दूसरी परिभाषा करेंगे-पर यह कहना तो यही हुआ कि सत्य वह है जो सत्य है।”

“नहीं, सभी कुछ जो है। यानी उस में मिथ्या भी शामिल है, भ्रम भी। मुझे अगर भ्रम है, तो उसका होना भी होना है, और इसलिए वह भी सत्य है। और मुझे भूत दीखते हैं, तो भूत सत्य हैं; यों चाहे होते हों या न होते हों। यों कह लें कि भूत मेरा सत्य है, दूसरों का चाहे न हो।”

“तो सत्य बिल्कुल मुझ पर आश्रित है-व्यक्ति-सापेक्ष है? निरपेक्ष सत्य कुछ है ही नहीं?” रेखा ने आपत्ति के स्वर में कहा, “क्यों डाक्टर भुवन, आप भी ऐसा ही मानते हैं?”

भुवन कुछ कहे, इससे पहले ही चन्द्र ने कहा, “हाँ। सत्य सापेक्ष ही है। निरपेक्ष वह हो ही कैसे सकता है? निरपेक्ष तो चीज़ें हैं-पदार्थ। पदार्थ सत्य नहीं है, निरा पदार्थ। सत्य तो पदार्थ का हमारा बोध है-और बोध व्यक्तिगत है।”

भुवन ने कहा, “मुझे तो लगता है कि हम सत्य और वस्तु का भेद भूल रहे हैं। भूत हों या न हों, अगर मेरे लिए हैं तो हैं-यानी यथार्थ हैं। पर सत्य-सत्य तो दूसरी बात है। यों चन्द्र जो पदार्थ और सत्य में भेद कर रहे हैं वह मैं मानता हूँ, पर वह अधूरी बात लगती है।”

“क्यों? आगे और क्या है?”

“पदार्थ वास्तव में एक अंश है। वास्तव में और भी बहुत कुछ आता है। विचार, कल्पनाएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ-ये सब भी वास्तव के अंग हैं जिन्हें पदार्थ नहीं कहा जा सकता-”

“मैं कब कहता हूँ। लेकिन सत्य तो कहा जा सकता है?” चन्द्र ने विजय के स्वर में कहा, “यही तो मैं कह रहा था।”

“नहीं। मैं वास्तव में और सत्य में भेद करना चाहता हूँ। या कहिए कि सापेक्ष और निरपेक्ष सत्य के प्रश्न को दूसरी तरह देखना चाहता हूँ।” भुवन क्षण भर रुका। “एक उदाहरण लीजिए : दो और दो चार होते हैं, इस बात को आप क्या कहेंगे?”

“सत्य। और क्या?”

“लेकिन मैं नहीं कहूँगा। मैं कहूँगा यह तथ्य है। और इस तरह के सब 'सत्य' केवल तथ्य हैं। सत्य की संज्ञा उन्हें तब मिल सकती है जब उनके साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध हो। यानी जो तथ्य हमारे भावजगत् की यथार्थता है, वह सत्य है; जो निरे वस्तु-जगत् की है, वह तथ्य है, वास्तविकता है, यथार्थता है, जो कह लीजिए, पर सत्य से वह ऊनी पड़ती है।”

क्षण भर सब चुप रहे। फिर रेखा ने, कुछ इस बात को स्वीकार करते हुए और कुछ विषयान्तर करते हुए-से, कहा, “सत्य को कटु क्यों कहते हैं, कटु वह कैसे हो सकता है? अंग्रेजी में भी कहते हैं 'पेनफुल ट्रुथ'-अगर हम उसे सत्य मानते हैं, जानते हैं, तो वह पेनफुल क्यों होता है?

भुवन ने कहा, “मैं तो कहूँगा कि सत्य मात्र पेनफुल है, रागात्मक सम्बन्ध का यह मोल हमें चुकाना पड़ता है। सत्य, तथ्य-का रचनात्मक, सृजनात्मक रूप है, और सृजन सब पेनफुल होता है : 'अपने ताप की तपन में सब कुछ उसने रचा'-रचना के सत्य का कितना सुन्दर वर्णन है इस वाक्य में।”

रेखा ने कहा, “यह सचमुच बड़ी सुन्दर बात है। पर पेनफुल ट्रुथ की बात इससे हल नहीं हुई-मुझे तो नहीं लगता कि हल हो गयी।”

“शायद नहीं हुई। पेनफुल सत्य का एक उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि 'क' 'ख' से प्रेम करता है। उनका प्रेम एक तथ्य है : आप बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि 'क' 'ख' से प्रेम करता है-आपका अपना कोई लगाव 'क' 'ख' से नहीं है इसीलिए। अब कल्पना कीजिए उस स्थिति की जिसमें अपनी ओर से यह बात कहनी हो। 'क' 'ख' से प्रेम करता है यह कह देना कितना आसान है, और 'मैं तुम से प्रेम करता हूँ' यह कह पाना कितना कठिन-कितना पेनफुल। क्योंकि एक तथ्य है, दूसरा सत्य-और सत्य; न कहना आसान है, न सहना आसान है।” भुवन साँस लेने के लिए तनिक-सा रुका और फिर बोला, “अंग्रेजी की कविता है, 'द पेन आफ़ लविंग यू इज़ आल्मोस्ट मोर दैन आइ कैन बेयर'-तुम्हारे प्रेम की व्यथा दुस्सह है। बड़ी सच बात है, ज़रूर दुस्सह होगी, और ज़रूर व्यथा होगी-अगर सचमुच प्रेम है।”

चन्द्र ने कुछ ठट्ठे के स्वर में कहा, “तब तो सत्य भी खतरनाक चीज़ है, और प्रेम भी। लेकिन ऋषि लोग सत्य को साध्य बता गये, प्रेम को धोखा-”

रेखा ने कहा, “वे लोग कदाचित् ऋषि न रहे होंगे मिस्टर चन्द्र; प्रेम को धोखा रोमांटिकों ने बताया है, और आप कितने भी ऋषि-भक्त क्यों न हों रोमांटिक ऋषि को नहीं पसन्द करेंगे। मैं तो यही जानती थी कि ऋषियों ने प्रेम और सत्य को एक माना है क्योंकि दोनों को ईश्वर का रूप माना है।”

“क्योंकि दोनों स्रष्टा हैं,” भुवन ने जोड़ दिया। और फिर सहसा न जाने क्यों, उसे अपने बोलने पर और सारी बातचीत पर एक अज़ब-सी झिझक हो आयी : वह कैसे इतना बोल गया, और सो भी प्रेम का विषय लेकर? उसे याद आया, अंग्रेजी का जो काव्य-पद उसने सुनाया था, वह वास्तव में यों आरम्भ होता था, 'डीयरेस्ट, द पेन आफ लविंग यू', पर उद्धरण देते समय उसे यह भी ध्यान न हुआ था कि वह कोई शब्द छोड़ रहा है। सत्य की चर्चा में प्रेम की बात ले आना और ऐसे सन्दर्भ देना-रेखा क्या सोचेगी कि इन प्रोफ़ेसर साहब के दिमाग़ में प्रेम भरा हुआ है। और सृजन-क्या-क्या बक गया वह...

बातचीत का सिलसिला टूट गया। तीनों चुपचाप काफ़ी पीते रहे।

चन्द्र के साथ तो भुवन टिका ही था; रेखा से भी उसके बाद प्रतिदिन भेंट होती रही। यों तो चन्द्र के नित्यप्रति काफ़ी हाउस जाने के प्रोग्राम में शामिल हो जाना ही काफी था-वहीं भेंट हो जाती थी और चन्द्र का विश्वास था कि अच्छे पत्रकार के लिए काफ़ी हाउस में घंटों बिताना आवश्यक है-'शहर में क्या हुआ है, क्या होने वाला है, क्या हो रहा है, सब काफ़ी हाउस का वातावरण सूँघ लेने से भाँप लिया जा सकता है।” भुवन अनुभव करता था कि दूसरे पत्रकार भी ऐसा मानते हैं, क्योंकि यहाँ प्रायः उनका जमाव रहता था और सब वहाँ ऐसे कर्म-रत भाव से निठल्ले बैठ कर, ऐसे अर्थ भरे भाव से व्यर्थ की बातें किया करते थे कि वह चकित हो जाता था। लेकिन पत्रकार साहित्यकार नहीं है, यह वह समझता था; साहित्यकार जो क्षणिक है उसमें से सनातन की छाप को, या जो सनातन है उसकी तात्क्षणिक प्रासंगिकता को खोज़ता और उससे उलझता है, पर पत्रकार के लिए क्षणिक की क्षणिक प्रासंगिकता ही सनातन है; और जहाँ वह उस प्रासंगिकता को तत्काल नहीं पहचानता वहाँ उसका आरोप करता चलता है...लेकिन बीच में एक दिन वह अकेला भी गया था। चन्द्र को किसी मन्त्री से आवश्यक भेंट के लिए काउन्सिल हाउस जाना था; दिन में अपने को सूना पाकर भुवन हज़रतगंज़ की ओर चल दिया था और एक पटरी पर चलते-चलते सहसा उसने देखा था, दूसरी पटरी पर दूसरी ओर से आती हुई रेखा सड़क पार करने के लिए ठिठक कर इधर-उधर देख रही है कि मोटरें न आ रही हों। वह रुक कर उसे देखने लगा था। रेखा ने बिना किनारे की सफ़ेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी और वैसा ही ब्लाउज़, रेशम की सफ़ेदी में एक स्निग्धता होती है जैसे हाथी दाँत के रंग में, और उस पर रेखा का साँवला रंग बहुत भला लग रहा था। आभरण-अलंकार कोई नहीं था, केवल उसके एक ओर मुड़ने पर भुवन ने लक्ष्य किया था कि जुड़े में एक फूल है।

रेखा के इस पार पहुँचते ही भुवन ने बढ़कर नमस्कार करते हुए पूछा, “क्या काफ़ी हाउस चल कर बैठना अच्छा न रहेगा? आप मालूम होता है काफी देर से घूमती रही हैं-लाइए, एक-आध बण्डल मुझे दे दीजिए,” क्योंकि रेखा के हाथ में कई एक पुलिन्दे थे।

“धन्यवाद, मैं अपना बोझा ढोने की आदी हूँ।” कहते-कहते भी मुस्कराती रेखा ने दो-तीन पैकेट उसे दे दिये। “मैं उपहार देने के लिए कुछ चीज़ें खरीद रही थी; उपहार देना यों भी अच्छा लगता है और मैं तो इतना आतिथ्य पाती हूँ कि चाहिए भी। लेकिन आज काफ़ी हाउस का निमन्त्रण मेरा है-”

“निमन्त्रण तो-अगर आप न्याय करें तो-मेरा ही था।” भुवन ने हल्के प्रतिवाद के स्वर में कहा।

रेखा केवल हँस दी।

“काफ़ी हाउस का भी एक चस्का है,” रेखा ने कहा, “काफ़ी के चस्के से शायद ज्यादा गहरा वही है।”

“हाँ, चन्द्र को ही देखिए; अपने जीवन का छठा अंश वह यहाँ बिताता है या बिताना चाहता है-हालाँकि अच्छी और बुरी काफ़ी की पहचान भी शायद उसे नहीं है?”

“आपको कैसा लगता है?”

“भुवन ने सीधे उत्तर न देकर कहा, “चन्द्र का विचार है कि जीवन से तटस्थ होकर दो मिनट बैठने के लिए ऐसी अच्छी जगह दूसरी नहीं-तटस्थ भी हों और देखते भी चलें, यह यहाँ का लाभ है।”

“पर आप तो ऐसा न मानते होंगे-आप तो यों ही इतने तटस्थ जान पड़ते हैं-” रेखा थोड़ा हँस दी-”कि दो मिनट की तटस्थता का आपके लिए क्या आकर्षण होगा!”

भुवन उसकी तीखी दृष्टि पर कुछ चौंका, पर सहज भाव से ही बोला, “हाँ, मैं तो आता हूँ कि थोड़ी देर के लिए जीवन के भरपूर प्रवाह में अपने को डाल सकूँ-मुझे तो हमेशा यह डर रहता है कि कहीं तटस्थता के नाम पर मैं बिल्कुल दूर ही न जा पड़ूँ। यहाँ बैठ कर अपने को मानवता का अंग मान सकता हूँ-उसके समूचे जीवन का स्पन्दन अनुभव कर सकता हूँ-”

“लेकिन, डाक्टर भुवन, काफ़ी हाउस में मानवता का जो अंश आता है उसका जीवन मानवता का जीवन नहीं है। वह तो-वह तो-” रेखा के स्वर में थोड़ा-सा आवेश आ गया-”वह तो केवल एक भँवर है, वह भी बहुत छोटा-सा, और जीवन का प्रवाह-” वह सहसा चुप हो गयी; फिर बोली, “और मानवता क्या है? मुझे तो लगता है, जब आप मानव से हट कर मानवता की बात सोचने लगते हैं, तभी आप जीवन से दूर चले जाते हैं, क्योंकि जीवन मानव का है, मानव यथार्थ है, मानवता केवल एक उद्भावना-एक युक्ति-सत्य-”

भुवन ने कुछ संकुचित होकर कहा, “आप शायद ठीक कहती हैं। लेकिन मानवता न सही, जीवन की बात जब मैं कहता हूँ, तब अपने जीवन से बड़े एक संयुक्त, व्यापक, समष्टिगत जीवन की बात सोचता हूँ-उसी से एक होना चाहता हूँ-अगर वह बहुत बड़ा प्रवाह है, तो उसकी धारा को बाँहों से घेर लेना चाहता हूँ-या वह छोटे मुँह बड़ी बात लगे तो कहूँ कि उस पर एक पुल बाँधना चाहता हूँ चाहे क्षण-भर के लिए-” यहाँ वह रुक गया, क्योंकि उसे लगा कि वह बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है, और रेखा के चेहरे पर भी उसने एक हल्की-सी आमोद की मुस्कराहट देखी। “आप हँसती हैं? बात भी शायद हँसी की है-काफ़ी हाउस में बैठ कर जीवन की नदी पर पुल बाँधने की बात तो अफ़ीमची की पिनक की बात है।”

“नहीं, डाक्टर भुवन, सच कहूँ तो मुझे आप से थोड़ी ईर्ष्या ही हो रही थी। काफ़ी हाउस की तो बात ख़ैर छोड़िए, वह तो एक प्रतीक बन गया जिसके सहारे हम जीवन ही के प्रति अपने दृष्टिकोण व्यक्त कर रहे हैं। इसलिए यह तो मुझे नहीं लगता कि हम यों ही बड़ी बातें कर रहे हैं। पर-पर जीवन की नदी पर सेतु बाँधने की कल्पना कर सकना ही इतनी बड़ी बात है कि मुझे ईर्ष्या होती है।”

भुवन ने कहा, “हाँ, यों सेतु बनना चाहना है बड़ी मूर्खता-क्योंकि सेतु दोनों और से केवल रौंदा ही जाता है।”

“हाँ, मगर सचमुच सेतु बन सकें तो दोनों और से रौंदे जाने में भी सुख है, और रौंदे जाकर टूटकर प्रवाह में गिर पड़ने में भी सिद्धि। पर मैं तो कह रही हूँ कि मैं तो उतनी कल्पना भी नहीं कर पाती-मैं तो समझती हूँ, हम अधिक-से-अधिक इस प्रवाह में छोटे-छोटे द्वीप हैं, उस प्रवाह से घिरे हुए भी, उससे कटे हुए भी; भूमि से बँधे और स्थिर भी, पर प्रवाह में सर्वदा असहाय भी-न जाने कब प्रवाह की एक स्वैरिणी लहर आकर मिटा दे बहा ले जाये, फिर चाहे द्वीप का फूल-पत्ते का आच्छादन कितना ही सुन्दर क्यों न रहा हो!”

भुवन तनिक विस्मय से रेखा की ओर देखता रहा। उसके शब्दों में, उसकी वाणी में, चित्रों को उभार कर सामने रख देने की अद्भुत शक्ति थी। भुवन अपनी आँखों के सामने स्पष्ट देख सकता था-एक दिगन्तस्पर्शी प्रवाह, उसमें छोटे-छोटे द्वीप-मानो तैरते दीप-और एक बड़ी अँधेरी रवहीन तरंग-नहीं, नहीं! उसने अपने को सँभाल कर कहा, “रेखाजी, आप क्यों काफ़ी हाउस आती हैं?”

“मैं?” मैं!” एक ही शब्द की दो प्रकार के स्वरों में आवृत्ति-बिना कुछ कहे भी रेखा कितना कुछ कह सकती थी। थोड़ी देर बाद उसने कहा, “मैं तो-आप मानिए!-काफ़ी पीने ही आती हूँ। थक कर आती हूँ, पर विश्राम के लिए नहीं, काफ़ी पीकर फिर चल पड़ने के लिए। जैसे इंजन ईंधन झोंकने या पानी लेने रुकता है या फिर साथ के लिए आती हूँ-कुछ लोगों से मिलने, बात करने-और यहाँ इसलिए कि यहाँ वे सहज भाव से मिलते हैं। और मानव और मानव का सहज भाव से साक्षात्-वही हमारा मानव जीवन से और मानवता के जीवन से एक मात्र सम्पर्क हो सकता है। नहीं तो मानवता-यानी हमारी कल्पना-एक विशाल मरु-भूमि है!”

बात कुछ अतिरिक्त गम्भीर हो गयी थी। दोनों सहसा चुप होकर सोचते रहे। थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, “क्या हम लोग एक ही बात या दृष्टिकोण को समान्तर ढंग से नहीं कह रहे हैं? आप जिसे व्यक्तियों का सहज साक्षात् कहती हैं मैं उसे”

“नहीं, डाक्टर भुवन, आप एक और सम्पूर्ण की बात कहते हैं, मैं एक और दूसरे एक की। सम्पूर्ण मेरे लिए केवल युक्ति-सत्य है-अपने-आपमें कुछ नहीं, केवल एक और एक की अन्तहीन आवृत्ति से पाया हुआ एक काल्पनिक योग-फल। आपकी मानवता एक विशाल मरुभूमि है-और मेरे ये सहज साक्षात् छोटे-छोटे हरे ओएसिस। न एक हरियाली से सम्पूर्ण मरु की कल्पना हो सकती है, न असंख्य हरियालियों को जोड़ देने से एक मरुभूमि बनती है। ये चीज़ें ही अलग हैं-”

भुवन ने जैसे मौका पाकर कहा, “ठीक। असंख्य हरियालियों से एक मरु नहीं बनता। तो यह क्यों न मानिए कि यह मरु नहीं है, सम्पूर्ण जो है, वह जीवन का उद्यान है?”

रेखा थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से उसे देखती रही। फिर सहसा खिल कर बोली, “इसीलिए तो मैं कहती हूँ, डाक्टर भुवन, मुझे आप से ईर्ष्या है। मैं एक-एक ओएसिस से ही इतनी अभिभूत हूँ कि दो जोड़ नहीं सकती, और जोड़ना चाहती भी नहीं। कहिए कि इतनी पंगु हूँ कि अगर ओएसिस है तो मरु है ही ऐसा मानना ज़रूरी समझती हूँ-जबकि आप बिना मरु के ही, ओएसिस का अस्तित्व मानते हैं। आप भाग्यवान् हैं-”

भुवन समझ रहा था कि रेखा यों बात टाल रही है-या कि उसे फिर गम्भीरता से उतार कर साधारण के तल पर ला रही है-काफ़ी हाउस के उपयुक्त तल पर। पर वह आग्रह करके बात आगे चलाना चाहता था, यद्यपि यह उसे लग रहा था कि अगर रेखा बात आगे चलाने को राजी न होगी तो उसके किये कुछ न होगा। मगर इतने में ही कुछ दूर से चन्द्र का स्वर आया, “भाग्यवान् मैं हूँ, रेखा देवी, कि आप दोनों को यहाँ पा लिया। लेकिन भुवन को किस बात पर आप बधाई दे रही हैं-क्यों भुवन, कुछ नोबेल पुरस्कार मिलने की बात है क्या?”

रेखा ने सहसा एक और ही स्तर पर आकर कहा, “हाँ, आप तो सबसे अधिक भाग्यवान् हैं-आप तो बिना ओएसिस के मरुभूमि में ही खुश हैं!”

“अगर उसमें आप लोगों का साथ हो, और अच्छी काफ़ी मिल जाये।” चन्द्र ने बैठते हुए कहा, और पुकारा, “बेयरा!”

भुवन को विस्मय हुआ। रेखा की बात बिल्कुल चिकनी और साफ थी, और हल्की हँसी उस वातावरण के बिल्कुल अनुकूल, पर क्या उसमें कहीं गहरे में एक विद्रूप का भाव नहीं था-विद्रूप और, हाँ, एक अस्वीकार का, तिरस्कार का? रेखा और चन्द्रमाधव मित्र हैं, इतना ही वह जानता था, लेकिन-लेकिन...

“रेखा देवी, आप तो और काफ़ी लेंगी न-और भुवन, तुम?”

भुवन ने सँभल कर कहा, “हूँ-हाँ। बेयरा, तीन काफ़ी और ले आओ, एक क्रीम।” बेयरा गया तो उसने पूछा, “चन्द्रा, तुम्हारा इण्टरव्यू कैसा रहा? भेंट हुई तो?”

“बताता हूँ, जरा काफ़ी आने दो-उनकी बातचीत का जायका धो लूँ-” उस विषय की ओर फिर लौटना नहीं हुआ।

× × ×

जिस दिन पहली बार स्टेशन जाने का निश्चय हुआ था, उस दिन भोजन के लिए बाहर जाने से पहले रेखा चन्द्रमाधव के यहाँ भी आयी थी, तय हुआ था कि वहीं से साथ बाहर चला जाएगा। घर पर अधिक बातचीत नहीं हुई, क्योंकि भुवन सामान ठीक-ठाक करने में कुछ व्यस्त था, और चन्द्र को डिनर के लिए तैयारी करनी थी। डिनर उसने कार्लटन में ठीक किया था, और वहाँ जाने के लिए उसका कहना था कि वेश की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। यों उसे कपड़े की कोई परवाह नहीं है, पर प्रमुख दैनिक के विशेष संवाददाता के नाते उसे सब करना ही पड़ता है-यों लोग पत्रकार को कुछ नहीें बताते पर उसके रंग-ढंग से यह लगे कि उसकी अच्छे समाज में पहुँच है, तो बहुत से लोग इसीलिए कुछ बताने को राजी बल्कि आतुर हो जाते हैं कि किसी दूसरे ने तो बताया ही होगा! और अच्छे जर्नलिस्ट का काम यही है कि सबको यह इम्प्रेशन दे कि आप जो बता रहे हैं, वह वास्तव में दूसरों से उसे पता लग चुका है, फिर भी आप का बताना और चीज़ है। क्यों और चीज़ है, उसके अलग कारण हो सकते हैं-एक तो यह पत्रकार पर आपके विश्वास का सूचक है-और वह कृतज्ञ है कि आपने उसे विश्वास दिया, या वह प्रसन्न है कि आपने उसकी पात्रता को पहचाना। दूसरे बात जानना एक चीज़ है और प्रामाणिक ढंग से जानना दूसरी चीज़-आप के बताने में वह प्रामाणिकता है। प्रश्न सारा यही है कि किस व्यक्ति को कितना 'फ्लैटर' करना उचित है-आज उसका जो पद है उसे ध्यान में रखते हुए, या कल उससे जो काम निकालना है उसे देखते हुए। पम्प करके बात निकालने के लिए उसी अनुपात में पम्प से फूँक भरना भी तो होगा-यह पंजाबी मुहावरा कितना मौजूँ है! और आपकी चाटुकारिता को कोई कितना सीरियसली ले, यह आपकी पोशाक पर निर्भर है-अगर आप अच्छे कपड़े पहने हैं तो आपकी की हुई प्रशंसा ठीक है और स्वीकार्य है, आप पारखी पत्र-प्रतिनिधि हैं; अगर रद्दी कपड़े पहने हैं तो वह काम निकालने के लिए की गयी झूठी खुशामद है, आप टुटपुँजिये रिपोर्टर हैं और तिरस्कार का पूरा नुस्खा सुन लिया था। बल्कि इसी पैंकिग में उसे देर हुई। फिर भी वह जैसे-तैसे आकर रेखा के पास बैठ गया था।

“आप मेरी चिन्ता न कीजिए; मैं प्रतीक्षा करने की आदी हूँ और यहाँ तो बहुत-सी दिलचस्प चीज़ें बिखरी हैं-” रेखा ने एक पुस्तक उठाते हुए कहा, “पीटर चेनी मैंने पढ़ा नहीं, सुना है बड़ी दिलचस्प कहानियाँ लिखता है।”

“जी हाँ। चन्द्र से सुना होगा आपने। या कि आप फौज़दारी अदालत की रिपोर्टरी की उम्मीदवार हैं?”

रेखा ने हँस कर किताब रख दी। भीतर से चन्द्रमाधव ने पुकारा, “मेरी साहित्यिक रुचि की बुराई कर रहे हो भुवन? लेकिन पीटर चेनी क्यों बुरा है? पीटर चेनी पढ़ने वाले कम-से-कम दूसरों की नुक्ताचीनी तो नहीं करते, अपने में खुश रहते हैं। और तुम्हारे साहित्य पढ़नेवाले सुपीरियर लोग-सब को हिकारत की नजर से देखते हैं। दोनों में कौन अच्छा है, रेखा देवी? कौन-सा दृष्टिकोण स्वस्थ है?”

“ठीक है, मिस्टर चन्द्र, आपका दृष्टिकोण कलाकार का दृष्टिकोण है-सर्व-स्वीकारी। आपके मित्र आलोचक हैं-आलोचना तो रचनाशक्ति की मृत्यु का दूसरा नाम है।”

भुवन ने फिर चौंक कर रेखा की ओर देखा। क्या वह चन्द्रमाधव पर हँस रही है? क्यों? या कि दोनों पर ही हँस रही है? रेखा ने उसकी भौंचक मुद्रा को लक्ष्य किया और सहसा हँस दी। “आप ठीक सोच रहे है डाक्टर भुवन; मैं सिर्फ हँसी कर रही थी।”

भुवन ने पूछना चाहा, लेकिन किस की? या किस-किस की? पर कुछ बोला नहीं।

चन्द्रमाधव ने बाहर आकर टाई सीधी करते हुए कहा, “अब मैं सब तरह तैयार हूँ-रेडी फॉर एनीथिंग।”

रेखा ने फिर चमकती आँखों से कहा, “हाँ, पीटर चेनी के एक दृश्य के लिए भी।”

चन्द्रमाधव ने बिना झेंपते हुए कहा, “हाँ।”

“सेटिंग कार्लटन होटल का डाइनिंग रूम। भोजन करते-करते रेखा देवी औंधे-मुँह सूप प्लेट पर गिर गयी-हत्या के कारण का कोई अनुमान नहीं हो सका। लखनऊ के स्टार पत्रकार चन्द्रमाधव पड़ताल कर रहे हैं! प्रोफ़ेसर भुवन भी घटना-स्थल पर मौजूद थे'-लेकिन क्या सचमुच? या कि तटस्थता से-”

“क्या कह रही हैं आप, रेखा देवी? ऐसी मनहूस कल्पना मत कीजिए।”

“मैं कहाँ? यह तो पीटर चेनी-”

“पीटर चेनी के लायक पात्र कार्लटन में ढेरों और हैं, आपको वह कष्ट नहीं देगा।”

रेखा ने कृत्रिम निराशा का भाव दर्शाते कहा, “तो मैं पीटर चेनी के लायक भी नहीं-”

भुवन अतिरिक्त सजगता से रेखा को देखने लगा था। मन-ही-मन उसने सहमत होते हुए कहा, “पीटर चेनी के लायक तो कदापि नहीं।” पर फिर किस के? हार्डी के? हाँ, ऐसी कठपुतली पाकर भाग्य भी अपना भाग्य सराहेगा। पर रेखा उतनी भोली नहीं है; उसमें एक बुनियादी दृढ़ता है जो...दोस्तोयेव्सकी? लेकिन क्या उसकी चेतना वैसी विभाजित है-क्या उसमें वह अतिमानवी तर्क-संगति है जो वास्तव में पागलपन का ही एक रूप है?...प्राचीन ग्रीक ट्रेजेडीकार-एक बनाम समूचा देव-वर्ग...लेकिन रेखा में उतना अहं क्या है कि देवता उसे चुनें-कि वह चुनी जाकर कष्ट पावे?...तब सार्त्र-क्षण की असीमता, यातना के क्षण की असीमता...निस्सन्देह असीम सहिष्णुता उसमें है-व्यथा पाने का असीम अन्तःसामर्थ्य, लेकिन वह इसीलिए कि आनन्द की असीम क्षमता उसमें है...आनन्द की परा सीमा, यातना की परा सीमा-चुन सकते हैं उसे देवता, क्योंकि परा सीमाएँ उसमें सोती हैं; नभः कांक्षी मानव, मृत्कामी देवता-ट्रेजेडी के सहज यान-इकारस के पंख, प्रमथ्यु की आग...ग्रीक ट्रेजेडी केवल अहं की ट्रेजेडी तो नहीं है, वह मानव की सम्भावनाओं की ट्रेजेडी है...

कुछ-कुछ यह अनुभव करते हुए कि बात बहुत देर से कही जा रही है और कदाचित् नहीं कहनी चाहिए, उसने कहा ही : “रेखा जी, चेनी के या किसी भी लेखक के पात्र होना क्यों चाहा जाये? हर किसी का अपना जीवन अद्वितीय होता है-”

“सो तो है। हम कदम-कदम पर अपनी अनुभूतियों की तुलना साहित्य के पात्रों से करते चलते हैं, पर हैं वे अद्वितीय और अद्वितीयता में ही वे हमारे निकट मूल्यवान हैं। उन्हीं की अनुभूतियाँ भोगे-ऐसे छायाजीवी भी होते हैं।”

न जाने क्यों, भुवन ने एक बार फिर चन्द्र की ओर देखा; उसने सहसा जाना कि वह चन्द्र के चेहरे को ध्यान से देख रहा है मानो उसकी रेखाओं से पूछ रहा है, “जिस अनुभूति की तुम रेखाएँ हो, वह क्या सच है, मौलिक है, या कि छाया?” कोई शीशा आस-पास नहीं था, नहीं तो कदाचित् वह अपना चेहरा भी देखने लगता।

रेखा ने पूछा, “कार्लटन में आर्केस्ट्रा भी होगा?” भुवन ने लक्ष्य किया कि विषय बदल दिया गया है।

× × ×

उस रात स्टेशन से गाड़ी जान-बूझ कर छोड़ आने के बाद, भुवन को अपने पर हल्की-सी खीझ आयी थी। क्यों वह गाड़ी छोड़ कर लौट आया? कुछ काम की क्षति नहीं हुई, ठीक है, पर एक निश्चय होता है, अकारण बदलने से इच्छा-शक्ति क्षीण होती है। यों क्षण की प्रेरणाओं पर अपने को छोड़ देने से आदमी शीघ्र ही आँधी पर उड़ता तिनका बन जाता है-क्योंकि प्रत्येक बार संकल्प-शक्ति कुछ क्षीणतर हो जाती है और सहज प्रेरणा की मन्द हवा कुछ तेज होकर आँधी-सी...क्यों नहीं चला गया? रेखा न जाती तो न जाती-रेखा से उसे क्या?

और अपने कमरे में टहलते-टहलते वह सहसा निकल कर चन्द्रमाधव के कमरे में चला गया था। चन्द्र लेट गया था और सोने की तैयारी कर रहा था, पर भुवन ने बिना भूमिका के पूछा था, “चन्द्र, यह रेखा देवी कौन हैं, क्या हैं,-मुझे उसकी बात और बताओ, जो तुम्हें मालूम हो।”

चन्द्र ने एक लम्बे क्षण तक उसकी ओर देखा। फिर कुछ मुस्करा कर कहा था, “क्यों, ठेस खा गये दोस्त? रेखा तुम्हारी केमिस्ट्री की इक्वेशन नहीं जो झट हल कर लोगे-बड़ा पेचीदा मामला है।”

“बकवास मत करो। मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। सिर्फ़ एक दिलचस्प चरित्र है-मुझे बौद्धिक कौतूहल है, बस। बौद्धिकता से तुम्हारा छत्तीस का नाता है, यह जानता हूँ, पर तुम जैसा दिलफेंक स्वभाव मुझे नहीं मिला तो नहीं मिला, मैं क्या करूँ?”

“तैश में मत आओ, दोस्त,” चन्द्र ने उठकर बैठते हुए कहा था, “वह कुरसी खींच लो और बैठ जाओ।” भुवन के बैठ जाने पर, “हाँ, अब पूछो, क्या जानना चाहते हो?”

“जो बता दो : वह कौन है, क्या है, कहाँ की है, क्या करती रही है, क्या करती है, अकेली क्यों घूमती है-”

“रुको इतना पहले बता लूँ तो और पूछना; नहीं तो मेरा सिर चकरा जाएगा।”

लेकिन बता कर क्या बताया जा सकता है? स्वयं वही जब कहता है कि तथ्य और सत्य में अन्तर है, तब निरे तथ्य जान कर सत्य तक पहुँचने की व्यर्थ कोशिश वह क्यों कर रहा है? “सत्य अपने अन्तर की पीड़ा से जाना जाता है।” वही मानते हो, तो ठीक है; वही क्यों न परीक्षा करके देखो?

तथ्य कुछ अधिक थे भी नहीं।

रेखा की आयु यही सत्ताईस के लगभग होगी; वह विवाहिता है, विवाह आठ वर्ष पहले हुआ था, पर विवाह के दो-एक वर्ष बाद ही पति-पत्नी अलग हो गये थे। कारण कोई ठीक नहीं जानता, और रेखा से पूछने का साहस किसे है? कोई

कहते हैं, विवाह से पहले रेखा का किसी से प्रेम था पर उससे विवाह हो नहीं सकता था; उसने बाद में दूसरा विवाह कर लिया तो मर्माहत रेखा ने उसके माता-पिता ने जो वर ठीक किया उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया पर उसे वह दे न सकी जो पति को देना चाहिए; कोई यह कहते हैं कि पति की ही आदतें शुरू से खराब थीं वह पत्नी के प्रति अत्यन्त उदासीन था, मित्रों को लाकर घर छोड़ जाया करता था और स्वयं न जाने कहाँ-कहाँ जा रहता था-सच क्या है भगवान जाने, पर छः वर्ष से दोनों अलग हैं, और तीन-चार वर्ष हुए पति एक विदेशी रबर कम्पनी में अच्छी नौकरी स्वीकार कर के मलय चला गया है; वहाँ उसके साथ मलय या एंग्लो-मलय या यूरोपियन-मलय मिश्र रक्त की कोई स्त्री भी रहती है। रेखा नौकरी करती है; पढ़ती रहती है, फिर किसी रियासत में राजकुमारियों की गवर्नेस थी, वहाँ से हाल में इस्तीफा देकर आयी है। अभी कुछ नहीं कर रही है लेकिन नौकरी की तलाश में है।

“और घर कहाँ है? माता-पिता हैं?”

“नहीं। पिता बड़े नामी डाक्टर थे; माँ भक्त बंगालिन थी और मरी तो बहुत-सी सम्पत्ति रामकृष्ण मिशन को छोड़ गयी। वैसे शायद कश्मीरी है, पर दादा कलकत्ते में आ बसे थे और तब से तीसरी पीढ़ी बंगाली ही अधिक है-रेखा हिन्दी और बांग्ला दोनों बोलती है और बांग्ला संगीत में उसकी अच्छी पहुँच है।”

“अच्छा? और?”

चन्द्रमाधव ने कहा, “और क्या? जो तुम पूछो सो बताऊँ?”

“तुम से परिचय कब से, और कैसे हुआ?”

“मुझ से!” चन्द्र ने तकिये के पास से टटोल कर सिगरेट का पैकेट निकाला, सिगरेट सुलगा कर, उठते हुए बोला, “मुझ से? तुम तो जानते हो, पत्रकार का परिचय हर किसी से होता है। समझ लो वैसे ही।”

“बनो मत! और ये सब बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं?”

“मैं पहले से जानता था। बल्कि सुन रक्खी थीं, इसीलिए कौतूहल अधिक था, जब भेंट हुई तो सोचा, इस अद्भुत स्त्री से अवश्य परिचय करना चाहिए।”

“क्यों? और वह अद्भुत क्यों है?”

“यह मुझ से पूछते हो? देखकर ही नहीं छाप पड़ती कि यह स्त्री कुछ भिन्न है-असाधारण है? और क्यों की भली पूछी। जिस स्त्री का इतिहास होता है, उसमें किसे नहीं दिलचस्पी होती?”

“भुवन ने तनिक रुखाई से कहा, “हाँ जर्नलिस्ट को तो ज़रूर होनी चाहिए”

“जर्नलिस्ट ही क्यों, हर किसी को होती है। तुम्हीं क्यों इतना जानने को उत्सुक हो?”

“मैं तो जानने से पहले ही उत्सुक था, इतिहास जान कर तो नहीं हुआ-”

“मानते हो न? तभी तो कहता हूँ वह असाधारण स्त्री है। तुम भी मानते हो, नहीं तो पूछते क्यों? तुम्हें किसी स्त्री में दिलचस्पी हो, यह तो कभी देखा-सुना नहीं, कालेज में भी तुम गब्बू प्रसिद्ध थे।” चन्द्र जोर से हँस दिया।

भुवन ने अन्तिम बात को अनसुनी करते हुए कहा, “और क्यों दिलचस्पी है? और यह तो इतिहास वाली बात है, उसका आकर्षण क्या निरी लोलुपता नहीं होती कि अगर पहले से इतिहास है तो एक अध्याय शायद हम भी जोड़ लें, ऐसा कुछ लोभ?”

“हो सकता है। आधुनिक समाज में कोई समझदार विवाहित से नहीं उलझता, यह तो तुम जानते हो-उसमें खतरा बहुत होता है। हाँ, विवाहित मगर वियुक्ता की बात और है-उसमें दोनों ओर के लोभ हैं। और यह जो लाभ की बात-”

“छिः, चन्द्र, क्या बात तुम करते हो! यह आधुनिक समाज की नहीं, अठारहवीं सदी के यूरोप के समाज की मनोवृत्ति है-बल्कि उस समय के भी दरबारी समाज की।”

“अच्छा, अच्छा, गरम मत होओ मेरे दोस्त। और मुझे छिः-छिः कहने से क्या लाभ है-मैं तो हर किसी की बात कह रहा था, अपनी थोड़े ही?”

“क्यों, तुमने अपनी दिलचस्पी की बात नहीं कही थी अभी?”

“कही थी। पर वह बात और है। मैं तो रेखा देवी का बहुत सम्मान करता हूँ। बल्कि वैसी स्त्री-” सहसा चन्द्र बात अधूरी छोड़ कर चुप हो गया।

“कहो, कहो-वैसी स्त्री क्या?”

“कुछ नहीं!” कह कर चन्द्र ने चुप लगा ली, और फिर भुवन के बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बोला।

× × ×

अन्तिम दिन वे तीनों सिनेमा गये थे। यों शाम के शो में भी जाया जा सकता था, पर एक बजे काफ़ी हाउस में मिलने की ठहरी थी और भुवन का प्रस्ताव था कि वहीं से तीन बजे के शो में चला जाये-ताकि शाम को थोड़ा घूमने का समय मिल सके।

अंग्रेजी चित्र था, जिसमें एक दुर्घटना में नायक का स्मृतिलोप हो जाता है, और वह अपनी गृहस्थी की बात भूल कर पुनः प्रेम करने लगता है; और फिर एक वैसी ही दुर्घटना देखकर उसकी पहली स्मृति लौट आती है और नया स्मृति-संचय मिट जाता है। कहानी भी मार्मिक थी और अभिनय भी भावोद्वेलक; पर उसे ध्यान से देखते हुए भी भुवन मन-ही-मन सोचता जाता था कि इसकी रेखा पर क्या प्रतिक्रिया हो रही होगी। क्योंकि सम्पूर्ण तटस्थ भाव से तो कुछ देखा नहीं जाता; हम अनजाने कथावस्तु पर अपना आरोप करते चलते हैं; या फिर अपने पर ही कथा की घटनाएँ घटित करते चलते हैं-और मन की यह भी एक शक्ति है कि जरा-से भी साम्य के सहारे वह सहज ही सम्पूर्ण लयकारी सम्बन्ध जोड़ लेता है। क्या रेखा अपने को अमुक स्थिति मे देख रही है? क्या...बीच-बीच में वह खीझ कर अपने को झकझोर लेता कि नहीं, रेखा की बात वह नहीं सोचेगा, पर फिर थोड़ी देर में वैसा ही प्रश्न उसके मन में उठ आता-अगर रेखा का पति...

बाहर आकर तीनों टहलते हुए गोमती की ओर निकल गये थे। पुल के पास घाट की सीढ़ियों पर तीनों बैठ गये थे। चलते-चलते चित्र के विषय में कुछ बात हुई थी, पर “अच्छा है” से अधिक रेखा ने कोई मत व्यक्त नहीं किया था; वह स्पष्ट ही कुछ अनमनी थी।

सहसा भुवन ने पूछा, “रेखा जी, आप गाती नहीं?”

“गाती नहीं, यह तो नहीं कह सकती, पर गाना जानती नहीं हूँ।”

चन्द्र ने साभिप्राय भुवन की ओर देखा।

“आप की मातृभाषा तो बांग्ला है न?”

रेखा ने एक बार दृष्टि उठा कर भुवन से मिलायी। उसमें बड़ा हल्का-सा अचम्भा था, और कुछ यह भाव कि आपने पूछा है तो उत्तर देती हूँ, पर अपने बारे में प्रश्नों का उत्तर देने का मुझे अभ्यास नहीं। फिर उसने कहा, “उँ-हाँ, वही मेरी भाषा है।”

“तो बांग्ला में ही गाना गा दीजिए न-मेरा यह आग्रह गुस्ताखी तो न होगा?”

रेखा थोड़ी देर चुप रही। फिर धीरे-धीरे बोली, “नदी का किनारा है, गान यहाँ होना ही चाहिए-आप की मान्यताएँ भी इतनी रोमांटिक होंगी ऐसा नहीं समझती थी।”

भुवन ने आहत भाव से प्रतिवाद करना चाहा, पर बोला नहीं। चन्द्र मानो आँखों से कह रहा था, “तुम हो दुस्साहसी, पर देखें तुम्हारी बात सुनती है कि नहीं-मेरी तो कभी नहीं सुनी।”

सहसा दोनों निश्चल हो गये, क्योंकि रेखा कुछ गुनगुना रही थी। फिर उसने धीमे किन्तु स्पष्ट स्वर में गाना शुरू किया :

आमार रात पोहालो शारद प्राते -

आमार रात पोहालो।

बांशी तोमाय दिये जाबो काहार हाते -

आमार रात पोहालो।

तोमार बूके बाजलो धुनि , विदाय गाँथा आगमनि

कत ये फाल्गुणे श्रावणे कत प्रभाते राते -

आमार रात पोहालो।

ये कथा रय प्राणेर भीतर अगोचरे

गाने -गाने निये छिले चूरि करे

समय ये तार हल गत , निशि शेषे तारांर मत,

तारे शेष करे दाओ शिउलि फूलेर मरण साथे -

आमार रात पोहालो !

(मेरी रात चुक गयी शायद प्रातः में ; बंशी, तुम्हें, किसके हाथ सौंप जाऊँ? कितने फागुन-सावन में, कितने प्रभात-रात में तुम्हारे हृदय में विदा से गुँथी हुई आगमनी की धुन बजी है। प्राणों के भीतर जो कथा अगोचर थी, तुमने गान में चुरा ली थी। उसका समय बीत गया निशा-दोष के तारों-सा, उसे अब शेफाली के फूल के मरण के साथ समाप्त कर दो। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

अन्तिम पंक्ति गाते-गाते ही वह उठी और धीरे-धीरे, सीढ़ियाँ उतरने लगी, अन्तिम स्वर उस बढ़ती हुई दूरी में ही खो गये और ठीक पता न लगा कि गाना पहले बन्द हुआ कि सुनना। नीचे पहुँच कर रेखा पानी के निकट खड़ी हो गयी, एक बार मानो हाथ से पानी हिलाने के लिए झुकी, पर फिर इरादा बदल कर सीधी हो गयी। भुवन और चन्द्र दोनों ऊपर बैठे रहे। पुल के ऊपर दो-तीन बन्दर आकर बैठ गये और कौतूहल से दोनों की ओर देखने लगे। घिरती साँझ के आकाश के पट पर बन्दरों के आकार अजब लग रहे थे।

चन्द्र ने पुकारा, “रेखा जी, अब चला जाये?”

रेखा ने घूमते हुए आवाज़ दी, “आयी।” और धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।

भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपने हमें यह कहने का मौका ही नहीं दिया कि आप बहुत अच्छा गाती हैं-”

“तो आप को आभार मानना चाहिए कि अनावश्यक शिष्टाचार से मैंने आपको बचा लिया! जैसा गाती हूँ, वह मैं जानती हूँ, सीखना ज़रूर चाहती थी, पर-” हाथों की एक अस्पष्ट मुद्रा ने बाकी वाक्य का स्थान ले लिया।

उसके बाद स्टेशन पहुँचने तक एक अजब-सा दुराव सबके बीच में आ गया था। सभी चुप रहे थे; चलने से कुछ पहले भुवन सामान देखने का बहाना करके अलग हट गया था कि उसकी वजह से वह खिंचाव हो तो दूर हो जाये; पर जब वह बाहर घूम-घाम कर सीढ़ी पर पैर पटकता हुआ लौटा, तब भी दोनों चुपचाप ही बैठे थे, बल्कि तनाव कुछ अधिक ही जान पड़ रहा था-चन्द्र के चेहरे पर कुंठित-सा भाव था, और रेखा के चेहरे पर एक अनमनापन, आँखों में एक असीम दूरी, मानो वह बहुत, बहुत दूर कहीं पर हो...

भुवन ने कुछ ऊँचे स्वर से कहा, “और आज भी भीड़ हुई तो? मैं तो जैसे-तैसे जाऊँगा ही-चाहे फुटबोर्ड पर लटकते हुए ही-”

रेखा ने कहा, “नहीं, आज मैं आपको रोकने का आग्रह नहीं करूँगी-कल भी आप रुक गये इसके लिए बहुत कृतज्ञ हूँ।”

भुवन ने मन-ही-मन सोचा, 'कल भी आपने कौन-सा आग्रह किया था-' पर प्रत्यक्ष उसने नहीं कहा। बोला, “कृतज्ञ मुझे-हम दोनों को होना चाहिए कि आप रुक गयीं-”

चन्द्र ने प्रकृतस्थ होकर कहा, “हाँ, और नहीं तो क्या। बल्कि मुझे आप दोनों का-”

“चलिए, हम सब-के-सब कृतज्ञ हैं।” रेखा मुस्करा दी। “अब चलें-राह में मेरा सामान लेते चलेंगे-”

भुवन अपने कमरे की ओर सामान उठाने चला। पीछे उसने सुना, रेखा पूछ रही है, “आपके मित्र को इलाहाबाद में बहुत ज़रूरी काम है? या घर पहुँचने की जल्दी है-बीवी-”

वह सहसा ठिठक गया। चन्द्र ठठा कर हँसा। “अरे, भुवन तो निघरा है, उसे कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं है।” भुवन आगे बढ़ गया। रेखा ने फिर कहा, “अकेले हैं, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।”

इस वाक्य का कुछ भी अभिप्राय भुवन नहीं समझ सका-कोई भी अर्थ न उस पर लागू होता था, न रेखा या चन्द्र पर ही किसी तरह लगाया जा सकता था। चन्द्र ने फिर क्या कहा, यह उसने नहीं सुना।

दस बजे रात को गाड़ी लखनऊ से छूटी थी। रेखा के डिब्बे के सामने ही उसने चन्द्रमाधव से विदा ली थी, और उसे वहीं छोड़कर अपने डिब्बे की ओर चला गया था। रेखा का डिब्बा आगे की ओर था; गाड़ी जब चली तब प्लेटफार्म पर खड़ा चन्द्र फिर उसके सामने आ गया और उसने हाथ हिलाकर फिर विदा माँग ली।

उसके बाद अगर वह ऊँघता रहता, और प्रतापगढ़ तक फिर रेखा को देखने न जाता, तो कोई असाधारण बात न होती-वैसा कुछ उससे अपेक्षित नहीं हो सकता था। बल्कि प्रतापगढ़ में भी अगर न उतरता, तो बहुत अधिक चूक न होती; चाहे रेखा ही उसे वहाँ देखकर नमस्कार करती हुई चली जाती। रेखा की यात्रा का या उस यात्रा में उसकी सुरक्षा या सुविधा का कोई दायित्व भुवन पर कैसे था?

पर गाड़ी पैसेंजर थी, हर स्टेशन पर रुकती थी। ऊँघने की चेष्टा बेकार थी-यों भुवन ने उधर ध्यान नहीं दिया। पहले ही स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो वह रेखा के डिब्बे पर पहुँच गया; दरवाज़े के पास ही रेखा बैठी थी और उसकी आँखें बिल्कुल सजग थी और शायद बाहर अन्धकार की ओर देखती रही थी!

भुवन ने कहा, “आप काफी सफ़र करती हैं?”

“हाँ, अधिक सफ़र ही करती हूँ। इधर के बहुत कम वेटिंगरूम हैं जो मेरे अपरिचित होंगे। जब मुसाफ़िर नहीं होती तब मेहमान होती हूँ-और दोनों में कौन अधिक उखड़ा है यह कभी तय नहीं कर पायी।”

“लेकिन उखड़ापन तो भावना की बात है, रेखा जी! मानने से होता है। व्यक्ति की जड़ें घरों में नहीं होती-समाज-जीवन में होती हैं-नहीं? और यायावरों का भी अपना समाज होता है-”

“तो समझ लीजिए कि मैं ज्ञान के तरु की तरह हूँ-ऊर्ध्व-मूल-मेरी जड़ें आकाश में खोयी फिरती हैं! लेकिन यह न समझिए कि मैं शिकायत कर रही हूँ”

गाड़ी चल दी थी। अगले स्टेशन पर भुवन ने फिर कहा था, “आप जैसा व्यक्ति भटकता है तो यही मानना चाहिए कि स्वेच्छा से, पसन्द से भटकता है-लाचारी तो समझ में नहीं आती। और स्वेच्छा से भटकना तो भीतरी शक्ति का द्योतक है।”

रेखा हँस पड़ी। “भटकने से ही शक्ति आती है, डाक्टर भुवन! क्योंकि जब मिट्टी से बाँधनेवाली जड़ें नहीं रहतीं, तब हवा पर उड़ते हुए जीने के लिए कहीं-न-कहीं से और साधन जुटाने पड़ते हैं। स्वेच्छा से भटकना? हाँ, इस अर्थ में ज़रूर स्वेच्छा है कि पड़ा-पड़ा पिस क्यों नहीं जाता, अँधेरे गर्त में धँस क्यों नहीं जाता, हाथ-पैर क्यों पटकता है?”

“मैं आपको क्लेश पहुँचाना नहीं चाहता था, रेखा जी-मेरा मतलब था-व्यक्तित्व जड़ें तो फेंकने लगता है बिल्कुल बचपन से और-और-” वह कुछ झिझका, “आप का भटकना-”

“कह डालिए न, आप का भटकना पाँच-छः वर्ष का ही है; आप जानते तो होंगे कि मेरा विवाह हुए आठ वर्ष हो गये और विवाह के दो वर्ष बाद से-”

भुवन चुप रह गया।

“आपकी बात ठीक है। कुछ सम्बन्ध बने भी रह सकते थे, और उन्हें काट कर बह निकलना स्वेच्छा से ही हुआ। पर-जड़ों का ही रूपक लिए चलें तो-यह आप नहीं मानते कि कुछ जड़ें वास्तव में जीवन का आधार होती हैं, और सतही जड़ों का बहुत बड़ा जाल भी एक गहरी जड़ की बराबरी नहीं करता?”

“हाँ-”

“तब एक जड़ के कट जाने से भी पेड़ मर सकता है-और मरे नहीं तो भी निराधार तो हो ही सकता है। मैं मरी नहीं-”

गाड़ी फिर चल दी। इस समय शायद भुवन को गाड़ी के चल देने से तसल्ली ही हुई, क्योंकि ऐसे में क्या कहे वह सोच नहीं सकता था।

बात ज्यों-ज्यों आगे चलती थी, अगले स्टेशन पर फिर न जा पहुँचना उतना ही अनुचित जान पड़ता था; अनुचित ही नहीं, भुवन स्वयं भी बात आगे सुनने को उत्सुक था।

अगले स्टेशन पर रेखा ने कहा, “डाक्टर भुवन, मैं अपनी बात के लिए क्षमा चाहती हूँ। इस तरह की बात करने की मैं बिल्कुल आदी नहीं हूँ, आप मानें। पर रेल का सफ़र शायद इस तरह के आत्म-प्रकाशन को सहज बनाता है-चलती गाड़ी में हम अजनबी को भी बहुत-सी ऐसी निजी बातें कह देते हैं जो अपने ठिकाने पर घनिष्ट मित्रों से भी न कहें।” वह कुछ रुकी। फिर बोली, “यह शायद जड़ों वाली बात का एक पहलू है; चलती गाड़ी में मुझ-जैसे व्यक्ति को एक स्वच्छन्दता का बोध होता है जबकि स्थिरता की सूचक किसी जगह में मुझे अपना बेमेलपन ही अखरता रहता और मैं गूँगी हो जाती। इसलिए मेरी बात पर ध्यान न दें-यह चलती बात है।” अपने श्लेष पर वह स्वयं हँस दी। भुवन ही नहीं हँस सका।

रेखा ने फिर कहा, “यों भी शायद में एग्जैजरेट कर रही हूँ-उतना गहरा आघात शायद वह नहीं था। वैसा कहना दोतरफा अन्याय है। असल में जहाँ मैं आ पहुँची हूँ, उसका कोई एक कारण नहीं है-मेरा सारा जीवन ही कारण है। और यह कहने से कुछ बात नहीं बनती-क्योंकि 'जीवन का सारा जीवन ही कारण है' यह कहने के क्या मानी हैं?”

“मानी हैं,” भुवन इतना ही कह पाया; गाड़ी फिर चल दी। और अगले स्टेशन पर उसने देखा कि रेखा का चेहरा इतना बदला हुआ है कि बात का सूत्र फिर उठाने का साहस ही उसे नहीं हुआ।

रेखा ने कहा, “एक बात पूछूँ, डाक्टर भुवन? बुरा तो न मानेंगे? आपने शादी क्यों नहीं की?”

भुवन अचकचा गया। पैंतरा काटता हुआ बोला, “पहले तो डाक्टर कहना आवश्यक नहीं है रेखा जी; नहीं तो मुझे लगेगा कि श्रीमती रेखा देवी न कहने में मुझसे चूक होती रही है। दूसरे-कोई काम न करने के लिए क्यों कारण ढूँढा जाये? कारण तो कुछ करने के लिए होना चाहिए, न करना तो स्वयंसिद्ध है।”

“हाँ, यों तो ठीक है, पर शादी के बारे में नहीं। वह तो धर्म है न-शास्त्रोक्त भी, स्वाभाविक भी-”

“रात के दो बजे शास्त्रार्थ करने लायक ज्ञान तो मुझ में है नहीं। और कहीं अस्वाभाविकता अपने जीवन से अखरी हो, ऐसा भी नहीं है-”

“अरे हाँ, मैं भी कैसा अत्याचार कर रही हूँ यह-बस अब अगले स्टेशन पर आप नहीं आवेंगे। मैं प्रतापगढ़ स्वयं उतर जाऊँगी। आप जाकर आराम कीजिए, डाक्टर भुवन जी!”

भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपने जिसे अनावश्यक शिष्टाचार कहा था, यह बात भी क्या उसी के अन्तर्गत नहीं आती?”

अगला स्टेशन प्रतापगढ़ था। यहाँ तो दस-बारह मिनट गाड़ी ठहरेगी। भुवन लपक कर पहुँचा कि सामान उतरवा दे; पर यहाँ तक आते डिब्बे की सब सवारियों पर ऐसी शिथिलता छा गयी थी कि सब अपने-अपने स्थान पर पोटलियों-सी पड़ी थीं, और ऊपर की बर्थ से सामान उतार लेने में कोई अड़चन या झिझक नहीं हो सकती थी। भुवन के पहुँचने तक रेखा ने सामान उतार लिया था, एक कुली भी आ गया था।

रेखा ने कहा, “इस स्टेशन पर तो आपके न आने की बात थी?”

“न आता तो आप 'मिस' न करतीं, यह जानता हूँ; समझ लीजिए कि यह भी फालतू शिष्टाचार है-”

“जो आप अपने सौजन्य के साथ रंगे दे रहे हैं।” रेखा हँसी।

कुली ने सामान उठा लिया था। रेखा ने कहा, “वेटिंग-रूम में ले चलो, हम आते हैं।” कुली चला गया।

भुवन ने कहा, “रेखा जी, आप से भेंट करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरा लखनऊ का प्रवास बड़ा सुखद रहा। इस बात को आप शिष्टाचार ही न मानें-” फिर तनिक-सा रुक कर, “सुखद शायद ठीक शब्द नहीं है-किन्तु ठीक शब्द तत्काल मिल नहीं रहा है, सोच कर शायद ढूँढ निकालूँ।”

रेखा ने गम्भीर होकर कहा, “भुवनजी, मैं भी आप की कृतज्ञ हूँ। आपने इस वापसी की यात्रा को भी प्रीतिकर बना दिया। बल्कि मैं सोचती हूँ, यह यात्रा कुछ और लम्बी हो सकती थी।” फिर कुछ मुस्करा कर, “बात-चीत का यह इंटरमिटेंट तरीका कुछ बुरा नहीं है-ये बीच-बीच के ब्रेक अपने-आपमें एक तटस्थता दे देने वाले हैं, फिर चाहे बात-चीत कोई कैसी ही करे। मैं सोचती हूँ मुझे कभी ईसाइयों की तरह कनफ़ेशन करना हो तो गिरजा में जाकर नहीं, रेलगाड़ी में ही करूँ।”

भुवन ने भी हँस कर कहा, “और कनफ़ेशर मैं होऊँ-मुझे विश्वास है कि मेरा काम बहुत हल्का रहे। आपने ऐसे बहुत कर्म किये होंगे जिनका आत्मा पर बोझ हो, ऐसा नहीं लगता।”

रेखा जोर से हँस दी। अंग्रेजी में उसने एक पँक्ति कही, जिसका अर्थ था “कितना छल-रूपी होता है पापी!” फिर सहसा स्वर बदल कर गम्भीर होकर उसने पूछा, “अच्छा सच बताइए, मैंने आपके इलाहाबाद जाने में जो एक दिन देर कर दी, उसके लिए आप नाराज तो नहीं हैं न?”

अब भुवन हँसा। “वह बात अभी तक आपको याद ही है। मुझे कहीं पहुँचना नहीं था, और एक दिन जो अधिक रह गया वह और भी अच्छा बीता-नाराजी का प्रश्न ही कैसे उठता है? कृतज्ञ-”

“नहीं, मुझे बहुत डर लगा रहता है। जो रास्तेवाले हैं उन्हें रास्ते में एक इंच भी इधर-उधर नहीं ले जाना चाहिए-मेरी बात तो दूसरी है, मेरे आगे रास्ता ही नहीं है।”

भुवन ने कहा, “स्पष्ट क्यों नहीं कहतीं? आप समर्थ हैं, रास्ता बनाती चलती हैं हम दूसरों की बनायी हुई लीकें पीटते हैं-”

रेखा ने जोर देकर कहा, “नहीं, यह मेरा आशय बिल्कुल नहीं था।”

भुवन को रेखा की शाम को कही हुई बात याद आ गयी-”अकेले हैं, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।” उसने चाहा, अभी पूछ ले कि रेखा का क्या अभिप्राय था। पर वह बात उसे नहीं, चन्द्रमाधव को कही गयी थी, उसे सुननी भी नहीं चाहिए थी। उसने पूछा, “तब कुछ स्पष्ट करके कहिए न?”

“कुछ नहीं। दूसरों की बनायी हुई लीकों की बात मैं नहीं सोच रही थी। व्यक्तित्व की अपनी लीकें होती हैं-एक रुझान होता है। और उसके आगे, व्यक्ति अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में जो समझता है, जो कल्पना करता है, मनसूबे बाँधता है, उनसे भी तो एक लीक बनती है-लीक कहिए, चौखटा कहिए, ढाँचा कहिए। या कह लीजिए दुनिया में अपना एक स्थान। मेरा यही मतलब था। आपके सामने-ऐसा मेरा अनुमान है-भविष्य का एक चित्र है, कहीं मंजिल है, ठिकाना है। इसलिए रास्ता भी है-”

“रास्ते तो कई हो सकते हैं, और शार्ट-कट होते नहीं-”

“शार्ट-कट नहीं होते, पर कई रास्तों वाला तर्क बड़ा खतरनाक होता है, भुवन जी; आपके सामने एक रास्ता है, वह जिस पर आप हैं। दूसरे रास्ते हो सकते हैं पर चलता रास्ता एक ही है-जिस पर आप हैं। चलना तभी सम्भव है।”

गार्ड ने सीटी दे दी थी। गाड़ी भी सीटी दे चुकी थी। भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपके व्यक्तित्व को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि आपके सामने रास्ता नहीं है-आप का ऐसा स्पष्ट, सुनिश्चित, रूपाकार-युक्त व्यक्तित्व है कि-” वह शब्दों के लिए कुछ अटका, तो रेखा ने कहा, “आप चलकर गाड़ी पर सवार हो जाइए, फिर आगे बात होगी।”

भुवन ने कहा, “अभी चलने में बहुत देर है।” फिर कुछ शरारत से एलियट की पंक्तियाँ दुहरा दीं;

“बिट्वीन द आइडिया

एण्ड द रिएलिटी

बिट्वीन द मोशन

एण्ड द एक्ट

फाल्स द शैडो

फार दाइन इज़ द किंग्डम् -”

(कल्पना और यथार्थ के बीच, गति और कर्म के बीच आ जाती है (तेरी) छाया, क्योंकि तू ही शास्ता है-)

रेखा हँसी, कुछ बोली नहीं। भुवन ने कहा, “लेकिन मेरा सवाल बीच ही में रह जाता है-आपके पास ऐसी स्पष्ट प्रखर दृष्टि है-”

“कि मुझे सब रास्ते एक साथ दीखते हैं।” रेखा बात काटकर हँस पड़ी। “और हर रास्ते के आगे एक मंजिल भी दीखती है, जिसे मरीचिका मानना कठिन है।” वह तनिक रुकी, फिर गम्भीर होकर उसने कहा, “और इसीलिए सब मंजिलें झूठ हो जाती हैं, और कोई रास्ता नहीं रहता। मैं सचमुच कहीं भी पहुँचना नहीं चाहती-चाहना भी नहीं चाहती। मेरे लिए काल का प्रवाह भी प्रवाह नहीं, केवल क्षण और क्षण और क्षण का योग-फल है-मानवता की तरह ही काल-प्रवाह भी मेरे निकट युक्ति-सत्य है, वास्तविकता क्षण ही की है। क्षण सनातन है।”

भुवन चुपचाप रेखा का मुँह ताकता रहा। रेखा जैसे दूर कहीं से कुछ गुनगुना उठी; भुवन ने कान देकर सुना, वह लारेंस की कुछ पंक्तियाँ दुहरा रही थी।

”डार्क ग्रासेज़ अंडर माई फ़ीट

सीम टु डैब्ल् इन मी

लाइक ग्रासेज इन ए ब्रुक।

ओः, एंड इट इज स्वीट टु बी

आल दीज थिंग्स, नाट टु बी

एनीमोर माइसेल्फ़,

फार लुक -

आई एम वेयरी आफ़ माइसेल्फ़ !”

(मेरे पैरों तले की घास मानो मुझ में ऊब-डूब कर रही है जैसे झरने में किनारे की घास। कितना मधुर है ये सब वस्तुएँ हो जाना और अपना-आप न रहना , क्योंकि मैं अपने-आप से ऊब गया हूँ।)

रेखा का स्वर भुवन स्पष्ट नहीं सुन सकता था और शब्द छूट जाते थे, पर कविता उसकी पढ़ी हुई थी और वह बिना पूरा सुने भी साथ गुनगुना सका; लेकिन रेखा के पढ़ने में कितनी एकात्मता थी उन पंक्तियों के आशय के साथ-मानो सचमुच ही भुवन देख सकता, वहाँ रेखा नहीं, घास की झूमती हुई पत्तियाँ हैं-पत्तियाँ भी नहीं, पानी में पड़ी हुई पत्तियों की परछाइयाँ...उसे और किसी कवि की कविता याद आयी जिसने कहा है, “सरोवर के पानी में झाँक कर जो घास और शैवाल देखता है वह भगवान का मुँह देखता है और जो अपनी परछाईं देखता है वह एक मूर्ख का मुँह देखता है-” और उसने सोचा, इस समय निस्सन्देह रेखा मूर्ख का मुँह नहीं देख रही है, यद्यपि भगवान का साक्षात् वह कर रही है या नहीं, यह...

ठीक इसी समय रेखा ने उसकी कुहनी पकड़ कर उसे ठेलते हुए कहा था, “अरे, आप की गाड़ी तो जा रही है”-और उसने मुड़कर देखा था कि सचमुच पर उसका डिब्बा, जो पीछे था, अभी जहाँ वे खड़े थे वहाँ से गुज़रा नहीं था। उसने कहा था, “आप चिन्ता न करें-” और सवार हो गया था; कब रेखा ने उसकी कुहनी छोड़ी थी इसका उसे ठीक पता नहीं था-तत्काल ही, या जब उसने डिब्बे का हैंडल पकड़ कर तख्ते पर पैर रखा था और गाड़ी की गति ने उसे खींच लिया था तब; उसने यही देखा था कि रेखा का हाथ अभी वैसा ही ऊपर उठा हुआ है, उँगलियों की स्थिति वैसी ही अनिश्चित है जैसे किसी एक क्रिया के पूरी होने के बाद दूसरी क्रिया के आरम्भ होने से पहले होती है-संकल्प-शक्ति की उस जड़ अन्तरावस्था में।

और ठीक उसके बाद उसने सहसा जाना था कि वह भीतर कहीं विचलित है, और उसकी कुहनी चुनचुना रही है, और उसका हाथ उसका अपना अवयव नहीं है, और सब पर्याय विपर्यय हैं और आस-पास सब कुछ एक गोरखधन्धा है जिस का हल, कम-से-कम उस समय, उसे भूल गया है-और गोरखधन्धे का हल न जानने में उतनी छटपटाहट नहीं होती जितनी जानते हुए भी उस क्षण न पा सकने में...

पटरी के मोड़ पर रेखा गाड़ी की ओट हो गयी थी; भुवन अपना हाथ देखता रह गया था। तभी एक चिड़चिड़े स्वर ने उसे वापस, ठोस धरती पर ला गिराया था।

क्षितिज में फीका-सा रंग भरने लगा था; सप्ताह-भर की घटनाओं का-यदि घटना उन्हें कहा जा सकता है-पर्यवलोकन करके भुवन फिर वहीं-का-वहीं आ गया था। तथ्य और सत्य-सत्य वह तथ्य है जिससे रागात्मक लगाव-उँह, सब बातें हैं, तथ्य कि सत्य यह कि फाफामऊ स्टेशन आ रहा है, आगे गंगा है जिसका पाट इस धुँधली रोशनी में मुकुर-सा चमकता होगा-गंगा, प्रयाग की गंगा...

भुवन ने एक लम्बी साँस ली, फिर अपनी चढ़ी हुई आस्तीनें नीचे उतार ली-चाहे हल्की-सी ठंड से बचने के लिए, चाहे कुहनी पर की छाप को छिपा या मिटा देने के लिए। खड़े होकर उसने एक अंगड़ाई ली। इलाहाबाद वह नहीं ठहरेगा; वापस चला जाएगा; छुट्टी के दो-चार दिन बाकी हैं तो क्या हुआ।

या कि और कहीं हो आए-बनारस, सारनाथ-मथुरा-आगरा-दिल्ली; दिल्ली में कई मित्र हैं, गौरा के माता-पिता हैं, उसके प्रोफ़ेसर भी आज-कल हैं-

नहीं, क्या होगा कहीं जाकर, इलाहाबाद से सीधे वापस, अपनी छोटी-सी जगह अच्छी है, कुछ पढ़ना-लिखना होगा-

'अकेले हैं न, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।”

गड़गड़ाहट-यह गंगा का पुल आ गया। दूर कहीं पर अभी दीखते होंगे धुँधले-से भोर के दीप?

एक दिगन्तस्पर्शी प्रवाह, उसमें छोटे-छोटे द्वीप-मानो तैरते द्वीप-और एक बड़ी, अँधेरी, रवहीन तरंग-नहीं, नहीं, नहीं!

नदी के द्वीप (उपन्यास) : चन्द्रमाधव

स्टेशन से चन्द्रमाधव की घर जाने की इच्छा नहीं हुई। हजरतगंज़ की सड़क पर टहला जा सकता था, और रात के दस बजे यहाँ चहल-कदमी करते नजर आना बुरा नहीं है, उससे प्रतिष्ठा बढ़ती ही है-पर अकेले टहलना चन्द्र की समझ में कभी नहीं आया-कोई बात है भला! अकेले वे टहलते हैं जो किसी की ताक में रहते हैं-बल्कि वे भी अकेले नहीं टहलते, जैसे कि जिनकी ताक में वे डोलते हैं वे भी अकेली कम ही नजर आती हैं। अकेले टहलते हैं पागल-या कवि, जो असल में पागल ही होते हैं पर रेस्पेक्टेवल होने के लिए जीनियस का ढोंग रचते हैं। शब्दों पर अधिकार-रचना-हुँह; वह अधिकार तो पत्रकार का है, वही असल रचयिता है, स्रष्टा है। कुछ बात लेकर बात बनाना भी कोई बात है भला? कला वह जो न-कुछ को लेकर खड़ा कर दे, सनसनी फैला दे, दंगे-बलवे-इनक़लाब करवा दे! कभी किसी कवि ने, कलाकार ने इनक़लाब नहीं कराया, जर्नलिस्ट ही अपनी मुट्ठी में इनक़लाब लिए फिरता है। चन्द्र ने मन-ही-मन जरा सुर से कहा, “मैं मुट्ठी में इनक़लाब लिए फिरता हूँ, आँखों-आँखों में ख्वाब लिए फिरता हूँ”-और फिर अवज्ञा से अपने को ही मुँह बिचका दिया। फिर उसने सोचा, मैं बराबर ही अपने को ही मुँह बिचकाता आता हूँ-दुनिया मेरे बनाये या चाहे ढंग से नहीं चलती तो दुनिया मुझे मुँह बिचका कर चली जाती है, मैं भला क्यों अपने को मुँह बिचकाता हूँ? उसने ज़ेब टटोला, हाँ सिगरेट थे अभी; एक सिगरेट सुलगा कर लम्बा कश खींचा, मुँह गोल कर धुएँ की पिचकारी छोड़ी-यह धुआँ अगर वैसा ही जमा-का-जमा तीर-सा जाता, हवा को छेद देता, तो उसे कुछ सन्तोष होता; पर वह बिखर गया, कमबख्त उड़ कर उसी की आँखों में आ कर चुभने लगा। चन्द्र ने रिक्शावाले से कहा, “सिनेमा ले चलो।”

“कौन से सिनेमा, हुजूर? मेफेयर?”

“हाँ।” चन्द्रमाधव बिना सोचे कह गया।

फिर सहसा उसे याद आया, मेफेयर में तो वह आज ही मैटनी देख कर गया है; बोला, “नहीं, मेफेयर तो हम दिन में गये थे। और कहीं ले चलो-”

रिक्शावाले ने कहा, “एल्फिन्स्टन में 'जवानी की रीत' लगा है-वहाँ जाइएगा?”

“अच्छा वहीं चलें।”

रिक्शावाला बढ़ चला। धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाता वह पैडल फेंकता चला जा रहा था, उसकी गति कुछ तेज हो गयी थी। चन्द्र ने सोचा, सिनेमा मैं जा रहा हूँ, मस्त यह हो रहा है। इसी तरह लोग दूसरों के मजे में मस्त दिन काटते चले जाते हैं-क्या ज़िन्दगी है! जैसे दूसरे के घर से सवेरे अस्त-व्यस्त निकली अलसाती सुन्दरी को देखकर कोई खुश हो ले। उसका मुँह कड़वा हो आया-हुँह, सीला हुआ सिगरेट है! उसने सिगरेट निकाल कर फेंक दिया, एक ओर झुक कर जोर से थूका।

पुराने ज़माने में प्रतिनिधियों की मारफ़त शादी हो जाती थी-वह जहाँ खुद नहीं जा सकता था प्रतिनिधि भेज देता था। क्या बेहूदगी है। प्रातिनिधिक शादी हो सकती है तो प्रातिनिधिक सुहाग-रात-! पर यहाँ भी तो राजा लोग अपनी रानियों को नियोग के लिए भेजा करते थे ऋषियों के पास-वह भी तो प्रातिनिधिक...उसे असल में ऋषि होना चाहिए था-पुराने जमाने का; पर कमबख्त नये जमाने का महन्त भी तो न हुआ-हो गया स्पेशल रेप्रेजेंटेटिव अख़बार का! जाट की घोड़ी के बछेरे की तरह 'माँगा था नीचे, दे दिया ऊपर।' दुनिया में इतना कुछ होता है, उसी के साथ कुछ नहीं होता; वह केवल खबरें पाता और देता है, टिप्पणी करता है-टिप्पणी भी नहीं, दूसरों की टिप्पणियों का संग्रह करता है-

रिक्शा रुक गया। सामने एल्फिन्स्टन की रंगीन बत्तियाँ थीं, एक बड़े भारी पोस्टर पर वही परिचित तिरछी खड़ी कोई 'लड़की', वही परिचित कन्धे पर से झाँकता हुआ 'लड़का'-पोस्टर में नहीं आया, लेकिन दाहने को ज़रूर एक पेड़ की शाखा होगी, जिस पर बड़ा-सा मैग्नोलिया का फूल होगा शायद कागज़ का, या शाखों पर दो फूल भी हो सकते हैं और लड़की-लड़के के तुक-ताल बँधे फ्लर्टेशन में बीच-बीच में दोनों पास-पास लाए जाएँगे और फिर दूर हट जायेंगे, छुएँगे नहीं, क्योंकि सेंसर के नियम में चुम्बन अभारतीय है, चाहे मुँह से सटा और न्योतता मुँह पाँच मिनट तक स्क्रीन पर स्थिर खड़ा रहे, और चवन्नीवाले सिटकारियाँ मारते और फब्तियाँ कसते रहे।

चन्द्रमाधव ने ज़ेब में हाथ डालकर पैसे निकालते हुए बड़े रूखे स्वर में रिक्शावाले से कहा, “लो!”

उसकी रुखाई से रिक्शावाले ने समझा कि बाबू साहब थोड़े पैसे दे रहे होंगे, पर हथेली पर एक-एक रुपए के दो नोट देखकर वह चौंक गया; फिर तत्परता से हाथ उठा कर बोला, “सलाम हुजूर!” उदारता के लिए धन्यवाद देने का और तरीका ही उसे नहीं आता था।

पर चन्द्रमाधव में उदारता नहीं थी। उसने जवाब में गुर्राकर कहा, “हूँ!” मानो कह रहा हो, 'जा साले, तू भी प्रातिनिधिक फ्लर्टेशन कर ले-और क्या तेरे भाग्य में बदा है!”

× × ×

फिर वह सिनेमा के पोर्च के अन्दर घुस गया।

तथ्य और सत्य के बारे में चन्द्रमाधव और भुवन की राय नहीं मिलती। कालेज ही से इस बात को लेकर उनमें बहस होती आयी है। रागात्मक लगाव की बात तो दूर रही-तथ्य ही लोगों के अलग-अलग होते हैं। इतिहास की घटनाओं से तो हमारा रागात्मक सम्बन्ध नहीं होता-फिर क्यों दो इतिहासकार दो इतिहास लिखते हैं? इसलिए कि दोनों भिन्न-भिन्न तथ्य चुनते हैं। रागात्मक लगाववाली बात मान लें, तो जो सत्य है, वही झूठ है क्योंकि वह पूर्वग्रह-युक्त तथ्य है-और ऐतिहासिक तथ्यों पर पूर्वग्रह लादना ही सारे झूठ की जड़ है और ऐसे झूठे इतिहासों ने ही दुनिया में फूट और लड़ाई के विष-बीज बोये हैं...

चन्द्रमाधव के जीवन के ही तथ्य ले लें। भुवन को यही दीखता है कि अच्छी तरह पास करके वह विदेश चला गया था, विदेशों में बहुत घूमा है और सदा सनसनी की खोज में-भुवन के मत से उसका सारा जीवन सनसनी की लम्बी खोज है, और वह यह भी ज़रूर सोचता होगा कि निरी सनसनी की खोज से व्यक्ति की सूक्ष्मतर संवेदनाएँ भोंडी हो जाती हैं और वह सिवाय तीखी उत्तेजना के कुछ समझता ही नहीं, लिहाजा चन्द्रमाधव भी एक तरह का नशेबाज है और जीवन की महत्त्वपूर्ण चीज़ों को नहीं पहचान सकता। भुवन का दुःख-पूजा का एक सिद्धान्त है : पीड़ा से दृष्टि मिलती है। इसलिए आत्मपीड़न ही आत्म-दर्शन का माध्यम है? क्या दलील है!

भुवन अकेला है; घर-गिरस्ती की चिन्ताएँ उसने जानी नहीं, दुःख की दूर से रोमांटिक कल्पना की है, इसीलिए बातें बना सकता है। अगर सचमुच दुःख उसने जाना होता-दुःख कैसे तोड़ कर, चूर-चूरकरके रख देता है, दृष्टि देना तो क्या, आँखों को अन्धा करके, पपोटे निकालकर उनमें कीचड़ भर देता है, यह देखा होता-तो उसकी जबान ऐंठ जाती...

चन्द्रमाधव ने सनसनी खोजी है? असल में उसने जीवन खोजा है, तीव्र बहता हुआ प्लवनकारी जीवन, और वह उसे मिला कहाँ है? मिली हैं ये छोटी-छोटी टुच्ची अनुभूतियाँ, चुटकियाँ और चिकोटियाँ-और उसके किस दोष के कारण? प्यार? नहीं, बीबी-बच्चे। स्वातन्त्र्य? नहीं, तनख़्वाह। जीवनानन्द? नहीं, सहूलियत, घर, ज़ेब-खर्च, सिनेमा, पान-सिगरेट, मित्रों की हिर्स...

कालेज छोड़ने के अगले वर्ष उसकी शादी हो गयी थी। लड़की साधारण पढ़ी थी मैट्रिक और भूषण पास; साधारण सुन्दरी थी-साफ रंग, अच्छे नख-शिख; साधारण बुद्धिमती थी-घर सँभाल लेती थी, साथ घूम लेती थी, मित्रों-मेहमानों से निबाह लेती थी और पढ़े-लिखों की बातचीत में आत्म-विश्वास नहीं खोती थी। पत्नी ने उससे कुछ अधिक माँगा नहीं था, साधारण गिरस्ती की जो माँगें होती हैं बस; कुछ अधिक दिया भी नहीं था, साधारण गिरस्ती जो देती है, बस। दो बच्चे, साफ-सुथरा घर, बिना झंझट के खाना-सोना, छोटा-सा बैंक बैलेंस, दिल-बहलाव की साधारण सहूलियतें।

मध्यवर्गीय मानदंडों से उसके पास सब कुछ था-और कोई क्या चाह सकता है? पर दूसरे बच्चे के-पहली सन्तान लड़की थी, दूसरी लड़का-बाद वह गिरस्ती से टूट गया था। कोई झगड़ा हुआ हो, शिकायत हो, ऐसी बात नहीं थी; बस यों ही तबियत उचट गयी थी, और वह पत्नी और बच्चों को छोड़ आया था। खर्चा भेज देता था, कभी-कभार चिट्ठी लिख देता था, बस इससे अधिक उलझन नहीं थी, न वह चाहता था। बच्चे बड़े होंगे तब पढ़ाई-वढ़ाई का प्रश्न उठेगा, अभी तो कोई चिन्ता नहीं, और पहले दो-चार बरस तो माँ ही देख-भाल लेगी-फिर बड़ी तो लड़की है, उसकी पढ़ाई की कौन इतनी चिन्ता है, लड़के की शुरू से फिक्र होती है...

अकेले रहना बुरा नहीं था। गिरस्ती का अनुभव हो जाने के बाद तो वह प्रीतिकर भी था-उसमें एक आजादी और आत्म-निर्भरता थी जिसका मूल्य शायद बिना गिरस्ती के अनुभव के समझा ही नहीं जा सकता था। और वह जो काफ़ी हाउस का उसके जीवन में एक स्थान बन गया है, यह भी एक चीज़ है। उसे समझने के लिए भी वैसा बैकग्राउंड चाहिए। बिना भोगे कोई उस स्थिति को नहीं समझ सकता है।

बिना भोगे। लेकिन बिना क्या भोगे? क्या उसी ने कोई कष्ट भोगा है, दुःख जाना है? बराबर ही तो साधारण सहूलियत का जीवन उसने बिताया है-बड़े पैमाने पर ऐश नहीं की तो दरिद्र होकर टुकड़ों को भी तो नहीं तरसा-ऐसे में दुःख भी अगर हो तो उसी स्केल पर तो होगा, साधारण छोटा दुःख! पर यही तो असल बात है-यह साधारणपन ही तो असली खा जाने वाला घुन है; यह तो सब से बड़ा, सब से चुभने वाला, अकिंचनता की कसक से बराबर सालते रहने वाला दुःख है! 'तुम्हें साधारण से बड़ा दुःख नहीं होगा'-यही तो बड़े आनन्द की, बड़े सुख की, विराट् की अनुभूति की मौत का परवाना है।-'तुम्हें साधारण से बड़ा कुछ नहीं होगा!'

लेकिन-क्या वह द्राविड़ प्राणायाम से भुवन वाले नतीजे पर पहुँचा है? क्या वह भी बड़े दुःख की पूजा कर रहा है? नहीं, दुःख अपने आप में इष्ट है यह वह कहाँ मानता है? लेकिन बड़ा दुःख बड़ी सम्भावना का द्योतक तो है; सम्भावना हो, अनुभूति की सामर्थ्य हो, तभी तो बड़ी अनुभूति होगी...

पर क्या भुवन दुःख को इष्ट मानता है? क्या रेखा भी वैसा मानती है? विराट् अनुभूति के प्रति खुले रहने का ही क्या वे अनुमोदन नहीं करते-विराट् के प्रति समर्पित होने का?

रेखा क्षण के प्रति समर्पित होने की ही बात करती है। क्षण को ही विराट् मानती है।

लेकिन क्या सचमुच मानती है? क्या जब भी क्षण के प्रति आत्म-समर्पण का अवसर आया है, उसने इनकार नहीं किया है? वह अपने को सँजो-सँजो कर रखती है, कोई असूर्यम्पश्या भी इस तरह बचा-बचा कर कदम न रखती होगी-और बात करती है क्षण के प्रति समर्पण की। जैसे भुवन अनुभूति से बचता है, और विराट् अनभूति के प्रति समर्पण की बात करता है। असल में सब सिद्धान्त क्षतिपूरक होते हैं : आप जो हैं, जैसे हैं, उससे ठीक उल्टा सिद्धान्त गढ़ कर उसका प्रचार करते फिरते हैं। इससे एक तो आप अपने लिए एक सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं, दूसरे औरों को ग़लत लीक पर डाल देते हैं ताकि आप को ठीक-ठीक कोई पकड़ न पा सके। रेखा ही कहती है कि मैं कुछ नहीं हूँ, जीवन के प्रवाह में एक अणु हूँ-पर कितना अहं है उसमें, कि...

चन्द्रमाधव का रेखा से परिचय पुराना था। रेखा के पति को भी वह थोड़ा जानता था; विवाह के कुछ समय बाद ही दोनों से उसकी पहले-पहल भेंट हुई थी। यद्यपि कोई घनिष्टता किसी से नहीं थी, तथापि तब से वह उनमें रेखा के पति का ही परिचित गिना जाता था, और उनके विच्छेद के बाद जब वह रेखा से मिला, तब पहले रेखा ने उससे पति के मित्र के अनुकूल ही व्यवहार किया था-शिष्ट, विनीत पर बिल्कुल असम्पृक्त और दूर। उनके विच्छेद की बात सहसा नहीं फैली थी, क्योंकि दोनों के दुराव को लोगों ने धीरे-धीरे ही जाना था : पति के मलय चले जाने के बाद भी लोग यही समझते रहे थे कि वह नौकरी के लिए ही गया है, और बहुधा रेखा से उसका हाल-चाल भी पूछ लेते थे। इतना ही अचम्भा उन्हें होता था कि वह पत्नी को साथ क्यों नहीं ले गया। पीछे जब रेखा ने अलग नौकरी कर ली, और यह भी खुल गया कि मलय में उसके पति के साथ कोई और स्त्री रहती है, तभी लोगों को उनके दुराव का पूरा पता लगा। और ऐसे में जैसे होता है, लोगों को पहले इसी बात का गुस्सा आया कि वे इतने दिनों तक भुलावे में ही क्यों रहे-या रखे गये। पति तो दूर चला गया था, रेखा पर यह गुस्सा भरपूर प्रकट हुआ। एक के बाद एक कई नौकरियाँ उसे छोड़नी पड़ी और उसके साथ-साथ यह भी बात बन चली कि वह कहीं टिकती नहीं, दो-चार महीने बाद काम छोड़ देती है, जिससे आगे नौकरी मिलने में क्रमशः कठिनाई बढ़ती गयी।

इसी बीच चन्द्रमाधव फिर से मिला था। उसकी स्थिति पर सहानुभूति प्रकट करके, कुछ शिकायत भी की थी कि रेखा ने उसे क्यों न याद किया, वह ज़रूर कुछ सहायता करता। रेखा ने सहज विस्मय से कुछ झिझकते हुए कहा था, “आप तो-उनके मित्र हैं; मैं समझती थी कि आप जानते होंगे-और आपसे सहानुभूति की आशा भी कैसे कर सकती थी?” चन्द्र इस बात से कट गया था, पर उसने प्रकट नहीं होने दिया था, और सहायता करने और काम दिलाने का वचन दिया था।

वह उसने किया भी था। कई जगह उसने बात की थी; फिर एक जगह नौकरी मिल भी गयी थी। चन्द्र बीच-बीच में आकर उससे मिल भी जाता था।

लेकिन यह नौकरी भी और नौकरियों की तरह छूट गयी थी। बल्कि, रेखा चाहे न जानती हो, उसके छूट जाने में चन्द्र का भी हाथ था। उसके बार-बार मिलने आने पर स्कूल की कमेटी के एक सदस्य ने उससे पूछा था तो उसने कहा था कि रेखा के पति के मित्र के नाते वह अभिभावक है; पर रेखा, जिसे यों भी छिपाव पसन्द नहीं था और जो जानती थी कि छिपाना है भी व्यर्थ, लोग जान तो जावेंगे ही, कमेटी को पहले बता चुकी थी कि पति से उसका वर्षों से कोई सम्बन्ध नहीं है। बात समिति तक गयी थी, और उन्होंने रेखा को-यद्यपि बड़े शिष्ट ढंग से-नोटिस दे दिया था।

इसके बाद रियासत में गवर्नेस का पद दिलाने में भी चन्द्रमाधव ने सहायता की थी। पत्र-प्रतिनिधि के नाते रियासतों में उसकी वाकिफ़ियत भी काफी थी, आतंक भी कुछ था-राष्ट्रीय उत्तेजना के उस जमाने में रियासतों का पत्रकारों से डरना स्वाभाविक ही था!

यहाँ भी चन्द्र बराबर मिलने आता था। एक बार दो-एक दिन ठहर भी गया। दुबारा जब आकर ठहरने की बात उसने की तो रेखा के उत्तर से वह भाँप सका कि वह नहीं चाहती, और तड़ाक से पूछ बैठा, “रेखा देवी, अब मेरे आने पर आपको आपत्ति है?”

रेखा ने धीरे-से कहा, “मैं आपकी बहुत कृतज्ञ हूँ, मिस्टर चन्द्रमाधव! आप ज़रूर आइए-और अबकी बार अपनी पत्नी को भी साथ लाइए-उन्हें क्यों नहीं लाते आप?”

चन्द्रमाधव थोड़ी देर सन्न रह गया, मानो किसी ने उसे चपत मार दिया हो। फिर उसने कहा, “तो आपको मुझ पर विश्वास नहीं है-आप मुझसे डरती हैं।”

“विश्वास की बात नहीं है, मिस्टर चन्द्र। पर वह शोभन है। और मैं उनसे भेंट करना भी चाहती हूँ।”

चन्द्रमाधव उठ कर थोड़ी देर कमरे में टहलता रहा। टहलते-टहलते उसने एक बड़ा निश्चय किया। बोला, “रेखा जी, आप शायद मेरे बारे में बहुत कम जानती हैं। मैं अपनी जीवन-कहानी आप को सुनाना चाहता हूँ। सुनेंगी?”

रेखा ने झिझकते स्वर में कहा, “आप सुनाना चाहते हैं, तो ज़रूर सुनूँगी। पर कहानी जितनी अपने-आप कही जाये उतनी ही ठीक होती है। जो सुनायी जाती है, उस पर पीछे अनुताप भी हो सकता है और मैं नहीं चाहती कि आप ऐसा कुछ करें जिस से पीछे अनुताप हो-मेरे कारण ऐसा करेंगे तो मेरा बोझ-”

“नहीं, आप को सुनना होगा। क्योंकि आपने अभी जो बात मुझे कही, वह दुबारा कहें, ऐसा मौका मैं नहीं आने देना चाहता।”

जितनी देर चन्द्रमाधव बोलता रहा, रेखा एक शब्द नहीं बोली। न उसने चन्द्र की ओर देखा ही। बल्कि जब कहते-कहते चन्द्र का स्वर कुछ भर्रा आया, तब उसने नीरव पैरों से उठकर बड़े टेबल लैम्प का प्रकाश मन्द कर दिया, और फिर अपनी जगह आकर बैठ गयी। खिड़की के बाहर एक शेफाली का छोटा पेड़ था, उसकी ओर देखती रही।

चन्द्र चुप हो गया। रेखा तब भी नहीं बोली। देर तक दोनों चुप रहे। फिर चन्द्र ने धीरे से कहा, “रेखा जी।” उसका स्वर अभी आविष्ट था।

रेखा ने धीमे, किन्तु साफ और ठण्डे स्वर में पूछा, “यह सब आप मुझे क्यों बताते हैं?”

चन्द्र सहसा खड़ा हो गया। नये आवेश से बोला, “अब भी मुझसे यह पूछ सकती हो, रेखा! रेखा!”

रेखा सहसा खड़ी हो गयी, यद्यपि अपने स्थान से हिली नहीं, न शेफाली की ओर से उसने मुँह फेरा। केवल उसका हाथ तनिक-सा मुड़ कर ऊँचा हो गया, उँगलियों में एक हल्का-सा निषेध या वर्जना का भाव आ गया।

चन्द्र ने फिर कहा, “तुम कैसे यह पूछ सकती हो, रेखा!” एक अधूरा कदम उसने रेखा की ओर बढ़ाया, पर ठिठक गया; रेखा की विमुख निष्कम्प देह-वल्ली को उसने एक बार सिर से पैर तक देखा, फिर उसके उस मुड़े हुए हाथ को; फिर बोला, “रेखा! रेखा देवी! मुझे क्षमा कीजिए रेखा देवी-” और जल्दी से बाहर चला गया।

लौट कर उसने एक क्षमा-याचना का पत्र भी लिखा। दो-तीन दिन बाद ही रेखा का उत्तर आया, उसमें सारी घटना का कोई उल्लेख ही नहीं था-यही लिखा था कि चन्द्रमाधव को बार-बार वहाँ आने में कष्ट होता है, अब की बार वही मिलने आवेगी। उसके ठहरने के लिए चन्द्र को कष्ट नहीं करना होगा, रियासतवालों का एक गेस्ट हाउस लखनऊ में है और वहीं उसे ठहरने की अनुमति मिल गयी है। बच्चे रानी के साथ ननिहाल जा रहे हैं अतः उसे कुछ दिन की छुट्टी है।

× × ×

भुवन से जब रेखा की भेंट हुई, उससे पहले भी एकाधिक बार रेखा लखनऊ आकर रह गयी थी। अक्सर वह रियासत के गेस्ट हाउस में ही रहती थी, एक-आध बार लड़कियों के कालेज के होस्टल में भी किसी परिचिता के पास रह गयी थी। चन्द्रमाधव से वह बराबर मिलती, पर अपने ठिकाने पर उसे कभी नहीं ले गयी थी; चन्द्र पहुँचाने जाता तो फाटक पर ही उसे विदा करके भीतर चली जाती। एक बार चन्द्र ने कहा भी था, “आप अपने पास किसी को आने नहीं देती, जैसे-”

रेखा ने तुरन्त हँस कर कहा था, “मेरे आस-पास दुर्भाग्य का एक मण्डल जो रहता है, उसके भीतर किसी को नहीं आने देती कि छूत न लग जाये!”

पर अगर उसने यह कहा होता कि 'मेरे आसपास एक प्रभामण्डल है जो किसी के छूने से मैला हो जाएगा', तो चन्द्र को लगता कि उसने अपने मन के अधिक निकट की बात कही है।

अपनी जीवन-कहानी कह देने के बाद से फिर कभी चन्द्र ने घनिष्टता की कोई चेष्टा नहीं की थी। रेखा ने भी कभी उसकी याद नहीं दिलायी; उसके व्यवहार में कोई मैल या दुराव नहीं था। न कोई अधिक समीपता ही थी, पर उसका स्वर पहले से कुछ अधिक नरम रहता था और चन्द्र को कभी-कभी लगता था कि उसकी आँखों में एक करुणा भी है। कभी-कभी वह चन्द्र को 'तुम' भी कहने लगी थी; उसने भी सोचा था कि उसे 'तुम' कहे, पर उस दिन के अपने विस्फोट की बात याद करके रह जाता था-रेखा ही जब उसे कहेगी तभी कहेगा अब...

बड़े दिनों की छुट्टियों में जब रेखा आयी, तब अपनी संरक्षित कुमारियों के साथ ही आयी थी-रानी भी आयी थी, और सब गेस्ट हाउस में ही ठहरे थे। आने के तीसरे दिन तक वह चन्द्रमाधव से मिलने नहीं गयी; जा ही नहीं सकी क्योंकि रानी के अनुरोध से बच्चों को लेकर घुमाती रही। तीसरे दिन शाम के लगभग वह चन्द्रमाधव के घर गयी तो देखा, वह अंगीठी में आग जलाये उसके निकट झुका बैठा है; घुटनों पर कुहनियाँ, हथेलियों पर ठोड़ी टेके, निर्निमेष दृष्टि से आग को देख रहा है। उसकी झुकी हुई पीठ, शिथिल पैर, माथे पर लटके हुए बाल, उदासी की उस मूर्ति को देखकर रेखा में सहसा करुणा उमड़ आयी, उसने द्वार से ही पुकारा, “चन्द्र-क्या बात है चन्द्र?'

चन्द्र नहीं बोला।

रेखा ने फिर कहा, “अच्छे तो हो, चन्द्र? बोलते क्यों नहीं?”

चन्द्र फिर नहीं बोला। रेखा ने उसके कन्धे पर हल्का हाथ रख कर कहा, “अगर मैं डिस्टर्ब कर रही हूँ तो चली जाऊँ? सवेरे फिर आ जाऊँगी-”

चन्द्र ने बिना हिले कहा, “आपको मिल गयी, फुरसत इधर आने की? अभी शाम को आने की क्या जल्दी थी-कल ही आ सकती थी-

रेखा को धक्का लगा। पर साथ ही तसल्ली भी हुई, क्योंकि बात उसकी समझ में आ गयी।

“चन्द्र, मैं रानी साहिबा और बच्चों के साथ आयी हूँ, उन्होंने छोड़ा नहीं। अभी थोड़ी फुरसत मिली है-वे सब किसी पार्टी में गये हैं-”

“आप को नहीं ले गये? आप भी जातीं-”

“चन्द्र, मैं सचमुच पहले आ सकती तो आती-परसों से आयी हुई हूँ-”

“परसों से? मैंने तो कल-नहीं, मैं कौन होता हूँ, मेरी ओर से तो आप अभी आयी हैं-”

रेखा ने मुस्कराहट दबा कर पूछा, “तुमने कब जाना-देखा था?”

“और नहीं तो। बच्चों को लिए बनारसी बाग़ के फाटक पर मूँगफली खरीद रही थीं-वहाँ से यह स्थान कुछ भी दूर नहीं है-”

“अच्छा, आज सुबह! तुमने देखा था तो तुम्हीं आ जाते-”

चन्द्र ने फिर तुनुक कर कहा, “जहाँ ज़रूरत न हो, वहाँ जा घुसने की आदत मेरी नहीं है।”

रेखा ने कहा, “बहुत अच्छी आदत है तुम्हारी। अच्छा उठो, घूमने चलना है, फिर काफ़ी पियेंगे। फिर मुझे ठिकाने तक छोड़ आना। और सर्दी है, कोट पहन लो।”

चन्द्र अनमना उठ खड़ा हुआ।

बाहर घूमते हुए उसे लगा, रेखा ने न केवल उसे क्षमा कर दिया है बल्कि उसके निकट भी आ गयी है। उसे अचम्भा भी नहीं हुआ, क्योंकि स्त्रियों में यह होता ही है, जब बहुत अधिक दुत्कार देती हैं तब भीतर द्रवित भी हो जाती हैं। रेखा लाख असाधारण हो, पर स्त्री तो है! उसका बुझा हुआ मन धीरे-धीरे खिलने लगा। उसने कहा, “रेखा जी, मेरे इन मूड्स का बुरा तो नहीं मानती?”

रेखा ने मानो किसी दूसरी विचार-तरंग में उत्तर दिया-बल्कि प्रश्न पूछा, “चन्द्र, तुम्हें अपना बचपन याद है?”

“हाँ तो; क्यों?”

“यों ही। अच्छे दिन होते हैं बचपन के।”

चन्द्र उसकी बात ठीक-ठीक नहीं समझा। “मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ, फिर आ सकते तो-आप को कभी लगता है कि फिर आ सकते तो कितना अच्छा होता?”

“स्त्रियाँ बड़ी व्यावहारिक होती हैं-यह किसी तरह नहीं भूल सकतीं कि बीते दिन फिर नहीं आते और असम्भव कभी माँगती नहीं। यों भी-मुझे निरन्तर बड़े होते चलना अच्छा लगता है-”

“बड़े होना-यानी बूढ़े होना; आप ऐसी बात कैसे कह सकती हैं?”

“जो क्षण में जीता है, क्षण को स्वीकार कर लेता है, वह बूढ़ा होता ही नहीं। यों अगर मैं कहूँ कि पुरुष की तुलना में स्त्री हमेशा बूढ़ी होती है तो आप समझ लेंगे मेरी बात?”

चन्द्र ने प्रतिवाद करते हुए कहा, “रेखा जी, आप पर यह बात बिल्कुल लागू नहीं होती। आप-” पर फिर झिझक कर रुक गया-मुँह से कुछ ऐसी-वैसी बात निकल गयी तो फिर नाराज हो जाएँगी...सँभल कर बोला, “आप की बात ठीक है, क्षण को मान लेनेवाला कभी बूढ़ा नहीं होता, आप इसकी ज्वलन्त प्रमाण हैं।” इस ढंग से कह देने में तो कोई आपत्ति हो नहीं सकती...

रेखा ने कहा, “उसका मैं प्रमाण हूँ या नहीं, नहीं जानती, पर इसका आप ज़रूर हैं कि पुरुष की तुलना में स्त्री हमेशा बूढ़ी होती है-” फिर सहसा विषय बदल कर बोली, “आप शामें कैसे बिताते हैं?”

चन्द्र ने कहा, “मैं कहाँ बिताता हूँ। अपने-आप न जाने कैसे बीतती हैं। पहले काफ़ी हाउस जाता था, पर अब-अब आपके साथ जाने की आदत पड़ गयी है और अच्छा नहीं लगता। रेखा जी, आप-यू आर वेरी गुड कम्पनी-”

रेखा ने भी अंग्रेज़ी में, पर हल्के स्वर में कहा, “एण्ड दैट्स ए वेरी नाइस काम्प्लिमेंट!” फिर कुछ गम्भीर होकर, “मगर चन्द्र, तुम कभी अपने बारे में नहीं सोचते कभी खूब गम्भीर होकर नहीं सोचते कि जीवन-जीवन नहीं, तुम्हारा जीवन, एक, विशेष और अद्वितीय-क्या है, क्यों है, कहाँ जा रहा है? कि उसका क्या बनाना चाहिए, वह कहाँ जा रहा है या जा सकता है? मैं तो कभी तुम्हारी बात सोचती हूँ तो अचम्भे में रह जाती हूँ।”

“आप मेरी बात सोचती हैं?” चन्द्र को परितोष हुआ। “मैं तो समझता था कोई नहीं सोचता, इसीलिए मैं भी नहीं सोचता था। और सोचने को है भी क्या? पीछे देखता हूँ तो-लेकिन वह तो मैं आपको बता चुका हूँ। कभी सोचता हूँ कि अतीत के प्रति कोई बहुत बड़ी ग्रीवेंस होती तो वह भी कुछ बात होती-उसी की कड़वाहट एक सहारा हो जाती, एक उत्पीड़ित मसीहा की तरह मैं चल निकलता। बहुत से लोग इस उत्पीड़न के आक्रोश के सहारे ही जीते हैं-उसमें से बड़े-बड़े जीवन-सिद्धान्त भी निकालते हैं और दूसरों का उत्पीड़न करने का जस्टिफ़िकेशन भी। ग्रीवेंस मुझे क्या है-यही तो कि ग्रीवेंस के लायक भी कुछ नहीं मिला। वर्तमान जो है सो आप देख रही हैं-उसमें आप ही एक रोशनी हैं नहीं तो...और फिर भविष्य की बात मैं क्या सोचूँ? मैं तो ऐसा फेटलिस्ट हो गया हूँ कि सोचता हूँ, मेरा भविष्य और कोई बना दे तो बना दे-मेरे बस का नहीं।”

रेखा ने कहा, “मेरा वश होता, और भविष्य बने-बनाये मिलते, तो मैं आप को एक ऐसा सुन्दर भविष्य ला देती कि बस। उसके चार पाये चार इन्द्रधनुष होते, और फूलों पर पड़ी हुई चाँदनी का उसका ऊपर होता, तितलियों के पंखों से रंग लेकर उसे रंगा जाता और-”

चन्द्र ने कुछ हँस कर कहा, “और उस चाँदनी की कुरसी पर जब मैं बैठता तो चारों इन्द्रधनुषों के बीच में चित हो जाता-क्योंकि चाँदनी किसका बोझ सह सकती है? पर, जोकिंग एपार्ट, रेखा जी, आप सचमुच मेरा भविष्य बना सकती हैं”

“मैं?” रेखा ने अतिरिक्त सन्देह से कहा : उसने अनुभव किया कि बातचीत फिर एक कँटीले स्तर पर चल रही है। “अन्धे क्या रास्ता दिखाएँगे? मैंने भविष्य मानना ही छोड़ दिया है। भविष्य है ही नहीं, एक निरन्तर विकासमान वर्तमान ही सब कुछ है। आपने कभी पानी के फव्वारे पर टिकी हुई गेंद देखी है? बस जीवन वैसा ही है, क्षणों की धारा पर उछलता हुआ-जब तक धारा है तब तक बिल्कुल सुरक्षित, सुस्थापित, नहीं तो पानी पर टिके होने से अधिक बेपाया क्या चीज़ होगी!”

“रेखा जी, आपकी कल्पना बड़ी सुन्दर है। लेकिन आप उस जीवन को अरक्षित समझें, है असल में वह एक्स्टेसी का जीवन, और एक्स्टेसी क्षणिक भी हो तो ग्राह्य उस पर सौ सेक्योर जीवन निछावर है।”

रेखा चुप रही। वह बात का रुख बिलकुल बदल देना चाहती थी, पर चन्द्र को क्लेश भी नहीं पहुँचाना चाहती थी। चन्द्र ने ही फिर कहा, “रेखा जी, आपकी कभी छुट्टियाँ नहीं होती?”

“क्यों?”

“अब की हों तो चलिए न, कहीं पहाड़ चला जाये? आप भी तो बहुत दिन से न गयी होगीं?”

“गयी तो नहीं। पर अबकी बार शायद नौकरी पर ही जाना पड़ेगा-”

“कहाँ?”

“शायद मसूरी-”

“अरे नहीं। वह भी कोई जगह है, इतना भीड़-भड़क्का! यों तो खैर अच्छी भी है, रौनक रहती है, ऐसा भी क्या पहाड़ कि बिलकुल मनहूसियत छायी रहे-पर नहीं, दूर किसी पहाड़ पर चलिए-हिमालय की भीतरी किसी शृंखला में-कुल्लू चलिए या कालिम्पोंग या ऐसी किसी जगह-”

“मेरा जाना तो पराधीन है-”

“छुट्टी ले लीजिए न? नहीं तो फिर जाना ही क्या हुआ अगर अर्दली में ही रहना पड़े तो-”

रेखा हँस दी, मानो टाल रही हो कि अभी तो जाने का कोई प्रश्न नहीं, जब सम्भावना होगी तो देखा जाएगा।

चन्द्र ने आग्रह किया। “चलिए न। अच्छा, यही रहे कि अगर आप को छुट्टी हो तो चलेंगी।” फिर कुछ रुक कर, “चाहे और किसी को, जिसे आप चाहें ले चलिए-हाँ मेरा एक मित्र है, कालेज में पढ़ाता है, उसे मैं निमन्त्रित कर सकता हूँ-यों आपके टाइप तो नहीं है, किताबी जीव है, पर कम-से-कम न्यूसेंस नहीं होगा, और बात-चीत में कभी जोश में आ जाये तो दिलचस्प भी हो सकता है।”

रेखा ने कहा, “मैं भविष्य ही नहीं मानती, और आप भविष्य बाँधना चाहते हैं। देखा जाएगा-”

“तब तो आपके लिए वायदा कर देना और भी आसान होना चाहिए। न होगा तो न जाइएगा-पर जाने की बात रहे इसमें आपको क्या एतराज़ है? मैं सोच-सोच कर ही खुश हो लूँगा-”

रेखा ने कहना चाहा, “यही तो खतरा है,” पर सहसा कह नहीं सकी। बोली, “अच्छा, रहा।”

चन्द्र ने कहा, “मैं भुवन को निमन्त्रित भी कर देता हूँ-अबकी छुट्टी में आ जाये। होली-ईस्टर जो हो। आप भी आवेंगी न?”

“देखो-शायद-होली में छुट्टी तो होगी पर होली में कोई लखनऊ क्या आएगा।” चन्द्र ने उत्साह से अंग्रेजी में कहा, “इट्स ए डेट।”

लेकिन चन्द्रमाधव ने भुवन को पत्र लिखने में लगभग एक महीने की देर कर दी थी। और जब लिखा था, तब रेखा का कोई उल्लेख नहीं किया था। वह जानता था कि किसी स्त्री से भेंट कराने की बात से ही भुवन बिदक जाएगा; फिर वह परिचय कराना ठीक चाहता ही था यह कहना भी कठिन है। भुवन से उसकी पुरानी मैत्री थी; ठीक है, पर मैत्री-मैत्री में भी फ़र्क होता है, और रेखा के साथ भुवन की बात वह कभी सोच ही न सकता अगर उसे यह ध्यान न आता कि वैसे शान्त-गम्भीर 'सूफियाना' तबीयत के आदमी की उपस्थिति शायद रेखा की दृष्टि से उपयोगी हो, नहीं तो अकेले चन्द्र के साथ तो वह पहाड़ कभी नहीं जा सकती...दोनों का परिचय वह उतना ही चाहता था, जिससे रेखा की तसल्ली हो जाये, पर भुवन की मनहूसियत उस पर हावी न हो जाये!

लेकिन ईस्टर की छुट्टियों में भुवन के लखनऊ में बिताये हुए एक सप्ताह का ठीक वही असर हुआ, यह उसे नहीं लगा। बल्कि उसे अचम्भा, निराशा-और कुछ खीझ भी हुई, कि न तो भुवन उतना गब्बू ही साबित हुआ जितना वह जानता (और चाहता) था; और न उसकी उपस्थिति से चन्द्र की ब्रिलियेंस का वह प्रभाव ही रेखा पर पड़ा जिसकी उसने आशा की थी। जिस मुहावरे में सोचने का वह आदी था उसमें भुवन उससे 'बाज़ी ले गया' था; स्पष्ट ही रेखा उसकी बातों से प्रभावित हुई थी, और उसकी अप्रगल्भ गहराई के प्रति एक सम्मान का भाव उसमें आ गया था-मानो अप्रगल्भता ही गहराई हो। 'तावदेव शोभते-', पर भुवन बोला तो काफी था, प्रभाव उसकी चुप्पी का नहीं था...भुवन पढ़ता-वढ़ता रहता है, कोटेशन भी उसे बहुत याद हैं; और यह जो बारीक-बारीक भेद करने की बात है, इसका प्रभाव भी शायद स्त्रियों पर बहुत पड़ता है-वे खुद जो मोटी-मोटी व्यावहारिक बातें सोचती हैं। यों रेखा भी सोचनेवाली है, पर एक बात यह भी है कि पुरुष की उदासीनता का अपना एक आकर्षण होता है-खासकर उस स्त्री के लिए, जो बराबर पुरुषों का अटेंशन पाती रही हो...रेखा सुन्दर है-अपने यू.पी., पंजाब के स्टैंडर्ड से चाहे न हो, जहाँ गोरा-चिट्टा होना ही रूप है, यों चाहे चीनी का खिलौना हो, या कि रंगीन रोएँदार इल्ली जैसी तितली निकलने से पहले होती है-पर वैसे अत्यन्त रूपवती है, और उसका रूप एक सप्राण, तेजोमय पर्सनेलिटी के प्रकाश से भीतर से दीप्त है, भले ही एक कड़ा रिज़र्व उस प्रकाश को भी घेरे है-चन्द्र को एक बड़ी सी चन्द्रकान्त मणि का ध्यान आता, जो बाहर चिकनी सफेद होती है, अन्दर बिखरे से इन्द्रधनुष के रंग लिए, पर एकदम भीतर कहीं एक सुलगती आग का लाल आलोक-और पत्थरों का 'पानी' देखा जाता है, पर चन्द्रकान्त में 'आग' से ही उसका मोल आँका जाता है...और ऐसी मणि आज कई बरस से पारखी की खोज में भटकती फिर रही है!-तो क्या निरन्तर ही एडमायरर उसे न घेरे रहते होंगे? यही वह देखता है, उसी के यहाँ रेखा को जिसने आते-जाते देखा है, उसके बारे में पूछे बिना नहीं रह सका है; और जिसने पूछा है, उसकी मानो दीठ से ही टपकती लार का लिसलिसापन वह अनुभव कर सका है...जब से रेखा उसके यहाँ आती-जाती है, तब से उसके मित्र भी मानो बढ़ गये हैं। और काफ़ी हाउस में भी लोग 'हेलो' करने आ जाते हैं, और काफ़ी पिलाने का आग्रह करते हैं...और ऐसे में एक आदमी आये जिसके लिए स्त्री और एक रासायनिक फार्मूला एक बराबर हैं कि देखा और हल कर के एक तरफ़ रख दिया-

पर भुवन के आकर्षण का अपने लिए सन्तोषजनक कारण पा लेना तो काफी नहीं था; वह तो मानव-सम्बन्धों का अध्ययन करने नहीं बैठा है, वह ज़िन्दगी को अंगूर के गुच्छे की तरह तोड़ कर उसका रस निचोड़ लेगा, लता को झंझोड़ डालेगा, कुंज में आग लगा देगा, वह आराम से नहीं बैठेगा! एक पैनी ईर्ष्या की नोक उसे सालने लगी : भुवन को रेखा ने देख लिया है, भुवन जाएगा तो वह पहाड़ चलने को राजी हो जाएगी, पर चन्द्र को भुवन और रेखा के साथ नहीं जाना है, भुवन को चन्द्र और रेखा के साथ जाना है; क्योंकि एक ओट के रूप में उसकी उपयोगिता है। भुवन को बुलाया तो जाएगा, पर उसे ठीक जगह रखने की भी व्यवस्था करनी होगी। और जल्दी ही कुछ करना होगा-रेखा को छुट्टी की अड़चन अब न हो, यह तो पक्का हुआ; पर और भी कई 'कुछ' और बाकी हैं...

छुट्टी की अड़चन न हो, इसकी व्यवस्था से वह अपने पर खुश था। रेखा के जाने के कुछ समय बाद लखनऊ में रियासती प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई थी, बातचीत के सिलसिले में चन्द्र ने एक उच्च अधिकारी से अमुक रियासत की राजकुमारियों की गवर्नेस की कुछ चर्चा कर दी थी। फिर पूछे जाने पर उसकी नेकी, सच्चरित्रता और लगन की बड़ी प्रशंसा की थी। 'क्या वह उसे काफी देर से जानता है?' 'हाँ, उसे ही नहीं, उसके पति को भी जानता है, उसके दो-एक प्रेमिकाओं को भी-रेखा देवी बड़ी समझदार और सावधान स्त्री है, कभी अपने पर आँच नहीं आने देती, न कभी किसी को संकट में डालती है; उससे कभी किसी की बुराई नहीं सुनी गयी।'...यों आजकल ऋषि-मुनियों का जमाना थोड़े ही है; अच्छा वह जिसके नाम पर कोई धब्बा न हो, इससे आगे किसी के निजी जीवन को कुरेदना भी नहीं चाहिए। 'मैं रेखा देवी को बहुत अच्छी तरह जानता हूँ-जी हाँ, इतना कि मैं चाहूँ तो...अपनी बात कहनी नहीं चाहिए, पर वहाँ उन्हें नौकरी भी मैंने ही दिलायी थी-' और चन्द्र कुछ ऐसे ढंग से मुस्कराया था, कि रेखा को जानने में, और उसे नौकरी दिलाने की लाचारी में, कोई सम्बन्ध हो-और चन्द्रमाधव जैसा उत्तरदायी आदमी जिसे अपने निकट लेता है, उसका ध्यान रखता है-उसकी उचित व्यवस्था करता है...

चन्द्र के सामने कोई स्पष्ट योजना रही हो, ऐसा नहीं था; कुछ तो शेखी में वह बात करता था, कुछ इस प्रकार रेखा को अहसान से बाँधने की नीयत से, और कुछ शायद यह भी था कि रेखा की चर्चा से रियासत में लोगों की आँखें उसकी ओर जाएँगी, कुछ तनाव पैदा होगा और रेखा फिर उससे साहाय्य चाहेगी...यही हुआ भी, क्योंकि ये अफ़सर लौटकर रेखा से मिले, रेखा को पार्टी पर निमन्त्रित किया; रेखा नहीं गयी, पर उनके निमन्त्रण के बाद और भी निमन्त्रण उसे मिले, लोग उसके घर पर मिलने भी आये। वह जो सदा किसी की आँखों के आगे होने से बचती थी, सहसा अपने को इस हलचल का केन्द्र पाकर समझ न सकी कि मामला क्या है। रानी ने भी दो-एक बार हल्की-सी चुटकी ली, यद्यपि उसमें नापसन्दी या आलोचना की भावना बिल्कुल न थी। तब एक दिन सहसा रेखा ने इस्तीफा दे दिया-कारण उसने यही बताया कि उसका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है और वह विश्राम चाहती है। रानी ने वास्तविक अनिच्छा से उसे छोड़ दिया; यह भी कहा कि वह चाहे तो लम्बी छुट्टी ले ले और फिर लौट आये, और जब रेखा ने नहीं माना तो यह भी कहा कि भविष्य में जब भी वह पुनः आना चाहे आ सकती है, उन्हें हर्ष ही होगा। कभी उनकी सहायता की ज़रूरत हो तो वह निस्संकोच उन्हें लिखे।

इस प्रकार, सर्वथा सद्भाव के साथ, रेखा नौकरी छोड़ आयी। स्थिति-परिवर्तन का कारण उसे ज्ञात न था। चन्द्र को उसने पत्र लिख कर सूचना दे दी, कारण ठीक-ठीक लिख दिया कि रियासत के कर्मचारियों की उसमें आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी है। चन्द्र मन-ही-मन मुस्कराया; फिर उसने लिखा कि रेखा लखनऊ आ जाये; दो-एक और नौकरियाँ उसकी निगाह में हैं पर रेखा के आने से उस की सलाह से प्रबन्ध करेगा।

रेखा तत्काल नहीं आयी थी; आते-आते ईस्टर निकट आ गया था और लखनऊ से वह एक परिचित परिवार के यहाँ कुछ दिन बिताने प्रतापगढ़ जाने को वचनबद्ध हो आयी थी।

चन्द्र ने संवेदना बता कर यह भी प्रस्ताव किया था कि अब गर्मी के बाद ही रेखा नया काम करे-कुछ घूम-घाम ले और पहाड़ भी हो आये। और इस सिलसिले में जाड़ों की बात की याद भी दिला दी थी, पर आग्रह नहीं किया था। ईस्टर में भुवन आएगा, यह भी बता दिया था।

× × ×

भीड़ के साथ सिनेमाघर से बाहर निकला, तब चन्द्रमाधव की मानसिक स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। एक खीझ अब भी उसके मन में भरी थी; पर खीझ जैसे केवल विमुख करती है, वैसा भाव उसमें नहीं था। खीझ में एक अन्तर्धारा किसी गोपन आशंका की थी; मानो एक चिन्ता उसे खा रही हो कि कुछ जल्दी करना है नहीं तो न जाने क्या एक शोचनीय बात हो जायेगी। न उस शंकनीय बात को, न उस काम को जो करना होगा, वह कोई नाम दे सकता था, या देना चाहता था; पर खीझ के भीतर से जैसे इस चाबुक की प्रेरणा उसे हाँक रही थी। उसने रिक्शा नहीं लिया, पैदल ही तेज चाल से घर की ओर चल पड़ा। सिनेमा से छूटी हुई भीड़ क्रमशः फैलती और छँटती गयी। नरहीवाले मोड़ पर बचे-खुचे लोग भी मुड़ गये और वह रास्ते पर अकेला रह गया। हवा बहुत तेज चल रही थी, धूल उस इलाके में अधिक नहीं फिर भी कभी-कभी कोई नुकीला कण आकर उसके गाल पर चिनगी-सा चुभ जाता-हवा इतनी तेज न होती तो शायद इस रास्ते पर नींबू के फूलों का सौरभ पाया जा सकता, पर अब तो कोई गन्ध नहीं है, उसी के कपड़ों में से सिगरेट के सीले हुए धुएँ की महक आ रही है जो सिनेमाघरों की विशेष देन है-दूसरों की धूमिल साँसों की गन्ध...बहुत से लोग इसी से तंग आकर सिगरेट पीना शुरू कर देते होंगे-दूसरों की गन्ध से हरदम दम घुटता रहे, इससे अच्छा है कि स्वयं अपना दम घोंट लो-अपने ज़हर...नहीं, वह भुवन को निमन्त्रित करेगा ही; और इतना ही नहीं, रेखा को लिखेगा कि वह भी भुवन को निमन्त्रित करे, दोनों के निमन्त्रण से भुवन अवश्य आ जाएगा, और फिर रेखा को आना ही होगा-उसी के निमन्त्रण पर भुवन आवे और फिर वह रह जाये यह कैसे हो सकता है? भीतर से रेखा इन औपचारिक बातों को जितना ही नगण्य मानती है, बाहर से उनके निर्वाह में उतनी ही सतर्क रहती है...

घर पहुँच कर उसने सब खिड़कियाँ बन्द की; सहसा स्तब्ध हो गये वातावरण में उसने कपड़े बदले, बालों को उँगलियों से थोड़ा मसल कर, हाथों में थोड़ा कोलोन-जल डाल कर माथे पर और कनपटी पर मल लिया, फिर कंघी से बाल सँवारे और टेबल लैम्प जला कर पत्र लिखने बैठ गया।

भुवन को जो पत्र लिखा गया वह छोटा ही था। भुवन के जाने के तत्काल बाद क्यों पत्र लिखा जा रहा है, इसकी सफ़ाई देते हुए उसने लिखा कि 'यह बात वह बहुत दिनों से कहना चाह रहा था पर कुछ झिझक ही रही क्योंकि भुवन एक तो अपने वैज्ञानिक कार्यों और पढ़ाई में व्यस्त रहता है, दूसरे चन्द्र को यह भी डर रहता है कि वह कहीं ख़ाहमख़ाह भुवन के स्वायत्त, स्वतःसम्पूर्ण जीवन में टाँग न अड़ा रहा हो। उसकी बहुत दिनों से इच्छा है कि भुवन के साथ कहीं पहाड़ की यात्रा करे, पर कभी मौका नहीं बना है; क्या अब की छुट्टियों में वह सम्भव हो सकेगा? यदि भुवन चलने को राजी हो तो वह भी एक महीने की छुट्टी ले रखेगा-उसके काम में तो पहले से छुट्टी का प्रबन्ध कर रखना नितान्त आवश्यक है, इसीलिए वह इतना पहले पूछ रहा है। और जाने के लिए वह तो कुल्लू की बात सोच रहा है, पर भुवन की जहाँ इच्छा हो वहीं जाया जा सकता है; उसे भरोसा है कि भुवन अच्छी ही जगह चुनेगा क्योंकि वह तो और भी अधिक शान्त-एकान्त जगह चाहता है।'

फिर 'पुनश्चः' करके उसने जोड़ दिया था : 'रेखा देवी ने भी पहाड़ जाने की इच्छा प्रकट की थी; और कुल्लू या वैसे ही किसी एकान्त स्थल की। पर तुम जानते हो, उसके साथ अकेले मेरा जाना कैसा लगेगा, वह तो सर्वथा मुक्त विहंगम है, पर मेरी तुम समझ सकते हो कि कैसी स्थिति होगी-मेरे काम में एक विशेष प्रकार की प्रतिष्ठा की बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि जर्नलिस्ट को यों ही लफंगा समझ लिया जाता है और इसलिए उसके लिए दामन बचा कर चलने की विशेष आवश्यकता है। अगर तुम भी साथ चलो, तो आपत्ति की कोई बात न होगी; तुम्हारा उत्तर आने पर मैं रेखा देवी को सूचना दे दूँगा। आशा है कि तुम्हें उसके साथ पर आपत्ति न होगी।'

रेखा को उसने लिखा : 'आपको यह बताने को भूल गया कि इस बार भुवन ने स्वयं कहीं पहाड़ चलने की बात की थी। मेरा विचार है कि अब गर्मियों में चलने का प्रोग्राम बनाया जाये तो वह सहर्ष चलेगा। यह नहीं कह सकता कि उसका साथ आप को कैसा लगेगा। है तो वह बिलकुल किताबी दुनिया का जीव, पर यों दिल का भला है, सामाजिक पालिश उसमें नहीं है पर पहाड़-जंगल में उसके अनगढ़पन को कौन देखेगा, उसका सामीप्य कोई कठिनाई नहीं पैदा कर सकता। आपका विचार हो, तो न हो तो आप भी उसे एक पत्र लिख दीजिए-मैंने अभी तक तो नहीं कहा कि आप भी चलेंगी पर आप स्वयं लिखें तो बहुत अच्छा होगा। आप काम के विषय में चिन्तित होंगी; मैं उसके लिए दत्तचित्त हूँ। और शीघ्र ही कुछ कर सकने की आशा करता हूँ। पर मेरी राय यही है कि आप गर्मियों के बाद कार्यारम्भ करें; वही ठीक सीजन है और उस समय अच्छा काम मिलने की सम्भावना होती है, गर्मियों में तो ऐसे लोग काम देते हैं जो वेतन देकर खरीदने और खून चूसने के आदी होते हैं...'

फिर नये पैरा में उसने उसी रात देखे हुए फिल्म का वर्णन किया था। रेखा के चले जाने के बाद उसका जी नहीं लगा; मन बहलाने वह सिनेमा चला गया था। 'रेखा नहीं जानती है, पर उसके लखनऊ में बिताये हुए दिन चन्द्रमाधव के लिए एक सुनहली धूप के दिन होते हैं : उनकी मधुर गरमाई उसे देर तक अभिभूत किये रहती है पर साथ ही एक कसक भी छोड़ जाती है क्योंकि तुलना में और दिन फ़ीके और एक अजीब कुहासे से-निरालोक से जान पड़ते हैं।'

यहाँ पर पृष्ठ समाप्त करके चन्द्र कुछ देर रुक गया था। इतना भी उसने अटक-अटक कर लिखा था; इसके बाद उसने अपने सामने एक नया पन्ना रखा और थोड़ी देर लैम्प के छादन की ओर सूनी दृष्टि से ताकता हुआ बैठा रहा। आँत के बने हुए उस छादन पर एक काली छायाकृति अँकी हुई थी-दोनों हाथ ऊँचे उठाये एक नंगी स्त्री-आकृति, हाथों में कमल के आकार के फूल...अनमने से भाव से उसने लैम्प को घुमा दिया; दूसरी ओर वैसी ही एक आकृति घुटने टेके आगे को झुकी हुई थी। आगे बढ़े हुए हाथों में फूल थे; कुहनी और घुटनों के बीच में कुचों को कुछ अतिरिक्त प्रशस्तता मिल जाती थी-उनका नुकीलापन बाकी आकार की प्रवहमान गोलाई को एक नया लचकीलापन दे देता था। सहसा आगे झुककर चन्द्रमाधव ने जल्दी-जल्दी लिखना शुरू किया। बड़े डाकघर के घड़ियाल ने दो खड़काये तब वह उसे अभी लिख रहा था, कई पन्ने रंग कर उसने एक ओर को गिरा दिये थे। रुक कर उसने उन्हें सँवारा और अनुक्रम से रखा, फिर संख्या दी-3, 4, 5, 6...13, 14, 15। फिर पन्ना उलट कर उसने 16 लिखने को हाथ बढ़ाया और खींच लिया; सारे कागज़ एक साथ उठाये और दो-एक बार उलटे-पलटे, फिर सब फाड़ कर छोटी-छोटी चिन्दियाँ बना कर रद्दी की टोकरी में डाल दी और उठ कर टहलने लगा। थोड़ी देर बाद आकर उसने पहले के दो पन्ने उठाये और उन्हें शुरू से अन्त तक पढ़ डाला; बैठ कर फिर नया पन्ना लिया और दो-तीन पंक्तियाँ जोड़ कर पत्र समाप्त कर दिया। दोनों पत्र लिफ़ाफों में डाल कर बन्द किये, पते लिख कर मेज़ के एक कोने में रख दिये, ऊपर दाब के लिए आलपिनदान रख दिया। फिर वह टहलने लगा।

अनन्तर रात में उसने फिर पैड सामने खींचकर कलम हाथ में साधा; थोड़ी देर कागज़ को देखते रह कर वह उठा; मेज़ पर जितने कागज़, किताबें, पुराने पत्र, कलमदान, फूलदान, अखबार के कटिंग वग़ैरह थे, सब समेट कर उठाये और ले जाकर मैंटल पर रख दिये, दुबारा आकर ताजे॓ लिखे हुए दोनों पत्र भी उठाये और अन्य सब चीज़ों के ऊपर उसी प्रकार दाब देकर रख दिये। सूनी मेज़ पर रह गया केवल पैड, कलम, और टेबल लैम्प। उसे भी चन्द्र ने घुमा कर ऐसे रखा कि दोनों ओर की कोई आकृति उसे न दीखे, केवल बीच का अन्तराल; आँत के मैले पीले रंग में से पार का आलोक मद्धिम होकर आता था और उससे छादन में जहाँ आँत का जोड़ था वहाँ एक धुँधली-सी, कहीं आलोकित और कहीं घनी टेढ़ी-तिरछी लकीर झलक उठी थी, जैसे पहाड़ी प्रदेश के नक्शों में कोई नाला आँका गया हो। एक सन्तुष्ट दृष्टि पूरे पैड पर डाल कर उसने फिर लिखा : 'प्रिय गौरा।'

यह पत्र समाप्त करके वह जब उठा, तब भोर का आकारहीन फीकापन क्षितिज पर छा गया था। डाकघर का गजर खड़कता रहा कि नहीं, चन्द्रमाधव ने नहीं सुना।

मेंटल पर रखे हुए पत्रों में से भुवन वाला पत्र उसने फिर उठाया, और सावधानी से खोल दिया। 'पुनश्चः' के नीचे लिखा : 'दूसरी बार पुनश्च : गौरा आजकल कहाँ है? उससे तुम्हारा पत्र-व्यवहार होता है? उसे पत्र लिखो, तो मेरा नमस्कार भी लिखना, और लिखना कि उसका कुशल-समाचार पाकर मैं अपने को धन्य मानूँगा। शायद मैं भी उसे लिखूँ।”

पत्र फिर बन्द करके उसने पूर्ववत् रखा, बत्ती बुझा दी, और बिछौने पर धम्म से लेट गया। बाहर क्षितिज कुछ स्पष्ट होने लगा था; एक बार त्यौरियाँ चढ़े चेहरे से चन्द्र ने उधर ताका, फिर औंधा होकर तकिये में मुँह छिपा लिया, ज़रा हिल-डुल कर शरीर को ढीला किया, नाक के सामने से तकिये को दबाकर साँस की सुविधा की, फिर बाँह मोड़ कर चेहरे को उसकी ओट दे दी और अधखुली मुट्ठी सिर पर ऐसी लगने लगी मानो चोट से बचने को ओट की गयी हो।

दो-तीन मिनट बाद ही उसकी साँस नियमित चलने लगी-उस नियम से जो हमारी संकल्पना का नहीं, उससे निरपेक्ष प्रकृति का अनुशासित है; और उसके औंधे शरीर की सब रेखाओं में एक बेबस शिथिलता आ गयी।

नदी के द्वीप (उपन्यास) : गौरा

गौरा से भुवन का परिचय यों तो चौदह-पन्द्रह वर्ष का गिना जा सकता है, जब वह पाँच-छः वर्ष की थी और दो चोटियाँ गूँथ कर फ़्राक पहने स्कूल जाया करती थी। वह चित्र भुवन को याद है, यह भी याद है कि कभी-कभी वह भुवन को खिझाने के लिए बड़ी तीखी किलकारी मारा करती थी। बच्चों को यों भी किलकारी मारने में आनन्द मिलता है; पर भुवन तीखी आवाज़ सह नहीं सकता यह जान कर ही वह उसके पास आकर किलकारती थी और भाग जाती थी; भुवन का सारा शरीर झनझना जाता था और वह दौड़ कर हँसती हुई गौरा को पकड़ कर उठा लेता और डराने के लिए उछाल देता था। डरकर गौरा और भी किलकती थी और उसके गले से चिपट जाती थी; उसके रूखे बालों की सोंधी गन्ध भुवन के नासा-पुटों में भर जाती थी, तब वह यह कह कर कि “ठहरो, तुम्हारे बाल सुलझा दें”, उसकी दोनों चोटियाँ पकड़ कर सिर के ऊपर गाँठ बाँध देता था और हँसता था। गौरा झल्लाती थी और फिर किलकारने की धमकी देती थी, पर भुवन 'सुलह' कर लेता था और गौरा उसे 'माफ़' कर देती थी। चोटियाँ सिर बाँधे उसका नयी धूप-सा खिला बाल-मुखड़ा भुवन को इतना सुन्दर जान पड़ता था कि वह प्रायः कहता, “तुम्हारा नाम जुगनू है; गौरा भी कोई नाम होता है भला?” और गौरा कहती, 'धत्! जुगनू तो सीली-सड़ी जगह में होते हैं!” या “गौरा तो देवी पार्वती का नाम है, हिमालय की चोटी पर रहती है वह।” भुवन कहता, “नहीं, गौरा सरस्वती का नाम है; वह उजली होती है और उजले कपड़े पहनती है। तुम तो-”फिर सहसा दुष्टता से भर कर, “हाँ, हिडिम्बा हो, हिडिम्बा!”

मगर वह तो बहुत पहले की बात है, उसके बाद कई वर्षों का अन्तराल था इसलिए उसे नहीं भी गिना जा सकता है। अतः कहना चाहिए कि परिचय आरम्भ हुआ 1932 में, जब उसने मैट्रिक के लिए जमकर तैयारी करनी शुरू की। भुवन तब नया-नया एम. एस-सी. कर चुका था, रिसर्च के लिए छात्र-वृत्ति मिलेगी या नहीं यह अनिश्चित था और वह कुछ छोटे-मोटे काम की ताक में था, जिससे मन भी लगा रहे और कुछ आय भी हो। आय की दृष्टि से तो गौरा को पढ़ाने का महत्त्व नहीं था-भुवन ने ही गौरा के पिता का वह प्रस्ताव टाल दिया था-पर मन लगाने के लिए यह अच्छा था; गौरा ने स्वयं उससे पढ़ने की बात उठायी थी और उसका कालेज का रेकार्ड तो उसकी पात्रता का प्रमाण था ही। भुवन ने उसे पढ़ाना आरम्भ कर दिया था, और आय के लिए एक आई.सी.एस. अधिकारी के बिगड़े हुए और पढ़ाई के प्रति उदासीन लड़के की ट्यूशन भी स्वीकार कर ली थी जिससे उसे सवा सौ मासिक मिल जाता था।

गौरा पढ़ने में तेज़ थी। विज्ञान यद्यपि उसके लिये हुए विषयों में गौण ही स्थान रखता था-मैट्रिक का साइंस होता ही क्या है?-पर भुवन को साहित्य आदि में भी यथेष्ट रुचि रही थी और इसलिए उसकी पढ़ाई गौरा के लिए जितनी उपयोगी थी उसके लिए भी उतनी ही रुचिकर। पहले ही दिन तेरह वर्ष की इस लम्बी, कृशतनु, गम्भीर गौरा को देखकर वह थोड़ी देर देखता रहा था, फिर उसने पूछा था, “सुना है, तुमने स्वयं मुझे मास्टर चुना है-क्यों!”

गौरा ने आँखें नीची किये ही सिर हिला दिया था, “हाँ।”

“क्यों? मैं तो बड़ी कस कर पढ़ाई करूँगा-उतनी मेहनत करोगी?”

गौरा ने फिर वैसे ही सिर हिला दिया था।

गम्भीरता को तोड़ने के लिए भुवन ने पूछा था, “और अगर मेरे कान में किलकारी मारी तो?”

एक अवश मुस्कान सहसा उसके चेहरे पर बिखर गयी थी; उसका चेहरा ईषत् लाल हो आया था। उस शब्दहीन खिलखिलाहट में भुवन ने सात-आठ वर्ष पहले की बालिका को पहचान लिया था। फिर तत्काल ही गौरा ने आँचल से मुँह चाँप कर हँसी दबा ली थी, थोड़ी देर बाद पहले-सी गम्भीर मुद्रा बना कर कहा था, “आप हिडिम्बा कहेंगे?”

भुवन ने कुछ पसीज कर कहा था, “नहीं, लेकिन समझौता कर लो कि गौरा पार्वती का नहीं, सरस्वती का नाम है। तभी विद्या आएगी।”

तब से वह परिचय बना ही हुआ था। दो वर्ष बाद गौरा ने मैट्रिक कर लिया था। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर कालेज में भर्ती हो गयी थी। उसके बाद पढ़ाई तो बन्द हो गयी थी, पर परिचय बढ़ता रहा था, क्योंकि गौरा कालेज में भी जब-तब उससे न केवल विज्ञान बल्कि साहित्य के विषय में बहुत कुछ पूछती रहती थी, और भुवन जब यह कह कर अपनी अपात्रता जताता था कि, “भई, मेरा विषय तो विज्ञान है, वह भी भौतिक विज्ञान, ये बातें तो तुम्हारे प्रोफ़ेसर ही बताएँगे,” तब वह आग्रह करके कहती थी, “इसीलिए तो आप ठीक बताएँगे। उनका विज्ञान अपने अंग्रेजी के प्ऱोफेसर जो विषय है वे लोग किताबों में से बताते हैं आप रुचि से बताते हैं आपकी बात ज्यादा सच होती है और मेरी समझ में जल्दी आ जाती है।” भुवन हँसी में कहता “इसका मतलब है कि विज्ञान पढ़ने तुम उनके पास जाओगी? अच्छी बात है, अब से पूछना, खबरदार मुझसे कभी कोई प्रश्न पूछा जो!” पर साथ ही मन लगा कर उसकी जिज्ञासाओं का उत्तर भी देता। कभी-कभी इसमें स्वयं उसे काफी परिश्रम करना पड़ता; पर वह मानता था कि अध्यापन का श्रेष्ठ सम्बन्ध वही होता है जिसमें अध्यापक भी कुछ सीखता है, और इस परिश्रम में कोताही नहीं करता था। बल्कि इस तरह अपने साहित्य-ज्ञान के विकास में उसे अतिरिक्त आनन्द मिलता था।

गौरा ने विधिवत् संगीत सीखना भी आरम्भ कर दिया था, और कालेज की नाटक आदि अन्य कार्रवाइयों में हिस्सा लेना भी। इसके लिए भी वह बहुधा भुवन से परामर्श लेती; भुवन इन मामलों में बिल्कुल कोरा होने की दुहाई देता तो वह कहती, “और सब भी तो कोरे हैं-आप कुछ ढूँढ़ दीजिए न, या सोच कर बताइए न!” और उसके आग्रह की प्रेरणा से भुवन तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ता, खोज करता, अनुमान भिड़ाता और उनकी पुष्टि के लिए फिर और पढ़ता या कभी दूर-दूर के विशेषज्ञों से पत्र-व्यवहार करता। इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों के शोध में, उनके असमान सम्बन्ध में क्रमशः परिवर्तन होता गया था, 'मास्टर जी' से वह क्रमशः 'भुवन मास्टर जी' होकर 'भुवन दा' हो गया था और एक नया, समान प्रीतिकर सख्य भाव उनमें आ गया था।

जाड़ों में एक दिन गौरा ने आकर सहसा कहा, “भुवन दा, आप हमें मालविकाग्नि-मित्र का एक रूपान्तर कर देंगे। बड़े दिनों में हम नाटक खेलना चाहते हैं, और किसी ने सुझाया है।”

भुवन ने अचकचा कर कहा, “क्या?”

“जी। मालविकाग्निमित्र। शायद संस्कृत के प्रोफ़ेसर साहब की राय थी-”

“तुम्हारा दिमाग ख़राब है क्या? मैंने तो पढ़ा भी नहीं-इतना जानता हूँ कि कालिदास का नाटक है; मालविका के नृत्य का एक चित्र भी कहीं देखा है, बस”

“तो क्या हुआ, पढ़ लीजिए न? कितनी देर लगती है? कहानी तो मैं अभी बता देती हूँ-”

“यह खूब रही। अरे भई, एडैप्टेशन किसी जानकार का काम है, मैं कैसे कर सकता हूँ? और तुम क्या मालविका का पार्ट करोगी? नाचना आता है?”

गौरा कुछ सकपका गयी। फिर बोली, “सीखना तो शुरू किया है।”

“अच्छा! तब तो और मुसीबत हुई। कल को मुझ से त-त-थेई और त्राम्-त्राम् के मतलब पूछोगी-”

“नहीं भुवन दा, ये तो कथक बोल हैं, मालविका तो भरत नाट्य करेगी।”

“हाँ तो। पर उसके बोल कैसे होते हैं यह तो मुझे नहीं मालूम न! मेरे लिए तो त्राम्-त्राम् ही है। यानी त्राहि माम्।”

“आप पढ़ तो लीजिए न। मैं साथ लायी हूँ। संस्कृत भी, एक अंग्रेजी अनुवाद भी।”

“बाप रे! तुम्हारी एफ़्रिशेंसी तो वैज्ञानिक की है। काश कि बुद्धि भी वैसी होती। हो तुम निरी-”

“देखिए भुवन दा! चिढ़ाइए मत! नहीं तो मैं भी वैसा ही जवाब दूँगी-”

सहसा वह सकपका कर चुप हो गयी और उसका चेहरा तमतमा गया, क्योंकि साथ के दूसरे कमरे से एक व्यक्ति ने बाहर निकल कर कहा, “भुवन, मेरा इण्टरप्शन माफ़ करना; मैं थोड़ी देर बाहर जा रहा हूँ।” और फिर गौरा की ओर तनिक कौतुक-भरी दृष्टि से देखकर फिर भुवन की ओर मुड़ कर पलकें उठायी, मानो कहता हो, “यह कौन हैं, परिचय-”

भुवन ने कहा, “ओह, गौरा जी, यह हैं मेरे मित्र और पुराने सहपाठी चन्द्रमाधव, विलायत जाने वाले हैं, आज ही यहाँ आये हैं। चन्द्र यह हैं गौरा जी, कालेज में पढ़ती हैं-पहले कुछ दिन मैंने भी पढ़ाया था-”

“तुम्हारी पढ़ाई के लक्षण तो देख ही रहा हूँ!” चन्द्र ने दबी दुष्टता के साथ कहा, “मिस गौरा, आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई; इसलिए और भी अधिक कि भुवन के परिचितों में कोई ऐसा भी है जिसे साहित्यिक रुचि है-भुवन तो विज्ञान में ग़र्क हो गया है।”

गौरा ने कुछ दूर से कहा, “मास्टर साहब मैंने साहित्य भी पढ़ा है।”

“सो तो है, सो तो है। साहित्य ही क्यों, देखता हूँ कि मेरे साथ के बाद से उन्हें नाटक, संगीत, नृत्य बहुत-से विषयों में रुचि हो गयी है, बल्कि पहुँच भी रखते हैं अब-”

भुवन ने कहा, “रहने दो चन्द्र, गौरा जी के सामने उनके मास्टर का मज़ाक बनाना क्या उचित है?”

“आइ एम सॉरी, आइ बेग योर पार्डन, गौरा जी। मुझे इजाज़त दीजिए-ज़रा बाहर जाना है। मुझे आशा है आपका नाटक सफल होगा। मैं तो समझता हूँ, भुवन उसमें अभिनय भी करे तो-”

भुवन ने थोड़ा घुड़क कर कहा, “फिर?”

चन्द्र चला गया तो गौरा ने पूछा, “आपने बताया क्यों नहीं?”

भुवन ने हँस कर पूछा, “क्या?”

“आप बहुत बुरे हैं। मुझे क्या मालूम था कि दूसरे कमरे में वह हैं, नहीं तो मैं कभी ऐसी बात न करती! आप भी-”

“तो हुआ क्या? ऐसी कौन-सी बात थी?”

“नहीं, मेरे मास्टर जी का मज़ाक बनानेवाला कोई कौन होता है? और मैंने ही उसमें मदद दी-”

भुवन ज़ोर से हँस दिया। बोला, “अच्छा, मालविकाग्निमित्र छोड़ जाओ, पढ़ डालूँगा। कल फिर सलाह कर लेंगे।”

दूसरे दिन गौरा ने आकर बड़े अदब से नमस्कार किया। फिर चारों ओर एक नज़र दौड़ा कर कहा, “भुवन मास्टर साहब, आपने पुस्तक पढ़ ली? अब बताइए”

भुवन ने हँस कर कहा, “इतने तकल्लुफ़ की ज़रूरत नहीं, गौरा, चन्द्रमाधव बाहर गया है।”

“हाँ तो भुवन दा, आपकी क्या राय है?”

“मेरी राय तो यही है कि यह नाटक तुम न खेलो। क्यों नहीं कोई आधुनिक हिन्दी नाटक लेती?”

“जैसे?”

“प्रसाद का कोई छोटा नाटक, “राज्यश्री' या 'ध्रुवस्वामिनी'-”

“ये मैंने नहीं पढ़े-”

भुवन ने हँस कर कहा, “तो यह थी एफ़िशेंसी की पोल! खुल गयी न?”

गौरा ने थोड़ा रूठकर कहा, “सर्वज्ञ तो सिर्फ़ वैज्ञानिक होता है। फिर मैं वैसे ही अनपढ़ हूँ। क्या करूँ, आपने कुछ पढ़ाया ही नहीं-”

“ठीक है। तो लो, अब प्रायश्चित्त करता हूँ। तुम कल तक दोनों नाटक पढ़ कर आओ-”

“और अगर उनमें भी कुछ हेर-फेर करना पड़ा तो? आप करेंगे न?”

“देखा जाएगा,” भुवन हँसा, “तुम्हारी बात तो ऐसी है मानो नाटक से उसका एडैप्टेशन ही ज्यादा महत्त्व का हो।”

“हाँ, मेरे काम में आप का भाग ज़रूरी है, भुवन दा।” कहकर गौरा कुछ रुक गयी। “आपके मित्र तो कहते थे, आप अभिनय भी कर सकते हैं, तो-”

“एक वह पागल है और एक तुम!” भुवन कुछ और कहने जा रहा था पर रुक गया। “पुस्तकें तुम्हें मिल जायेंगी न?”

“ज़रूर।”

बाहर शब्द सुनाई दिया। “लो, चन्द्रमाधव भी आ गये। नाटकों के बारे में तो इनसे पूछो-यह साहित्य और कला के विद्यार्थी हैं-”

“हलो, गौरा जी। क्या बात है-आपके अभिनय की क्या बात ठहरी? भुवन तो रात सोये नहीं, आपकी दी हुई पुस्तकें पढ़ते रहे।”

गौरा जल्दी चली गयी। चन्द्र ने कहा, “यार, अपनी इस विद्यार्थिन की कुछ बात तो बताओ। लड़की तो तेज़ मालूम होती है, तुम्हारे साथ कैसे उलझ गयी?”

भुवन ने गम्भीर होकर कहा, “हाँ, मैंने दो वर्ष उसे पढ़ाया था। अच्छी पास हुई है। और उसमें जीवन है, जीवन की लालसा है-ऐसी जो उसे कई दिशाओं में अन्वेषण की प्रेरणा देती है। पढ़ने में बहुत अच्छी है, लेकिन सोचता हूँ, आगे क्या? तो खेद होता है कि हमारे देश में लड़की के लिए सिवाय मास्टरी के या इधर कुछ-कुछ डाक्टरी के और कोई कैरियर ही खुला नहीं है। और ये दोनों गौरा के लिए नहीं हैं। उसका व्यक्तित्व बहुत कोमल भी है, बहुत सम्पन्न भी, उसकी अभिव्यक्ति इनमें नहीं है। वह कोई रचनात्मक एक्सप्रेशन चाहता है, न जाने क्या।”

“क्यों? भारतीय नारी का जो सबसे पहला कैरियर है-गृहस्थी-वह तुम ठीक नहीं समझते?”

“उसे बे-ठीक कैसे समझा जा सकता है? और एक प्रकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति उसमें भी हो सकती है, मैं मानता हूँ पर-”

“पर गौरा के लिए तुम वह ठीक नहीं समझते।”

“नहीं यह नहीं, मैं समझता हूँ कि उस दृष्टि से तो वह आदमी बहुत भाग्यवान् होगा जिसे गौरा जैसी पत्नी मिलेगी। पर सोच यह भी तो सकता हूँ कि उसे पाकर गौरा भी भाग्यवती होगी या नहीं? और वैसा कौन होगा, यह सोच नहीं सकता।

चन्द्र ने चिढ़ाते हुए कहा, “यह सोच गौरा पर छोड़ देना क्या उचित न होगा?”

“आफ़ कोर्स, आफ़ कोर्स।” भुवन थोड़ा-सा झेंप गया। “हर मामले में सलाह देते-देते कुछ आदत पड़ गयी है कि सब सवालों के जवाब पहले से सोच रखूँ?” वह हँस दिया।

“तो क्या यह सवाल जल्दी उठने वाला है?”

“अभी तो कोई लक्षण नहीं है। लेकिन क्या मालूम। लड़की जब हुई परायी थाती, तब कभी भी सौंपने का सवाल उठ सकता है; सौंप देने का नहीं तो कम-से-कम बद देने का तो ज़रूर-”

“हूँ।”

भुवन ने विषय बदलने को कहा, “सुनो, चन्द्र तुम तो नाटक-वाटक खेलते रहे हो; तुम क्यों नहीं उसे कुछ सलाह देते? 'राज्यश्री' या 'ध्रुवस्वामिनी' का एडैप्टेशन कर दो न-”

“अरे, हिन्दी! राम-राम। हिन्दी नाटक मैं नहीं छूने का-”

“यही तो मुश्किल है। कोई छूता नहीं, हर साल सब कालेज-वालेज अंग्रेजी नाटक खेलते हैं; हिन्दी में भी अंग्रेजी नाटक अनुवाद कर के-”

“सो तो होगा। वे खेले जा सकते हैं, खेलने के लिए लिखे जाते हैं। हिन्दी नाटक तो पढ़ना भी टार्चर है। एक तो ज़बान ही ऐसी होती है-”

“लेकिन तुम अगर रूसी के अंग्रेजी अनुवाद के हिन्दी अनुवाद की भाषा अपने अनुकूल बनाकर उसे खेल सकते हो, तो क्या सीधे हिन्दी की भाषा नहीं ठीक कर सकते?” कालेज में चन्द्रमाधव ने चेखोव के 'चेरी आर्चड' के अभिनय में भाग लिया था, उसी की ओर भुवन का इशारा था।

“यही तो बात है। रूसी दूर है। उनके लिखे को उलट-पलट लो, कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन अपने देश के लेखक का एक वाक्य इधर-उधर कर तो लो-जान को आ जाएँगे सब। हमारे यहाँ कोई नाटक थोड़े ही लिखता है? सब शास्तर लिखा जाता है; सब लेखक ऋषि होते हैं-'आर्षवाक्यं प्रमाणम्', और तुम झख मारते रहो । शेक्सपियर भी स्टेज पर जाकर एक्टरों से सीख कर अपने डायलाग बदलता था, लेकिन यहाँ सब सीखे-सिखाये कोख से निकलते हैं।”

“तुम्हारी बात में सार है, मैं मानता हूँ। लेकिन दूसरा पक्ष भी कुछ हो सकता है। एडैप्ट करके अपने देश-काल में ले आना हमेशा ठीक नहीं होता; खुद भी दूसरे देश-काल में जा सकना चाहिए। अगर आज 'शाकुन्तल' ज्यों का त्यों स्वाभाविक नहीं, तो ज़रूरी नहीं है कि शकुन्तला को ड्राइंगरूम हिरोइन बनाया जाये; हमीं क्यों न कण्व के आश्रम में जा सकें? ग्रीक नाटक तक तो हम चले जाते हैं-”

“वह दूसरी बात है। लेकिन हमारे देश में न स्टेज हैं, न एक्टर हैं, न नाटक हैं, फिर नाटक-लेखक ऐंठे किस बात पर रहते हैं? सब कुछ हमीं को सीखना है, उन्हें कुछ नहीं सीखना है?”

“ऐंठ का जवाब ऐंठ हो भी सकता है, पर उससे स्थिति नहीं बदलती। हिन्दी नाटक लेकर कुछ करके दिखाओगे, तभी तो आगे कुछ होगा; नहीं तो आगे भी यही स्थिति रहेगी-न स्टेज, न एक्टर, न नाटक।”

“हाँ, तो मेरी ओर से रहे। खुदाई खिदमतगारी का शौक तुम्हें है, तुम करो। मैं तो दुनिया को जैसी है वैसी लेकर चलता हूँ।”

भुवन ने कहा, “तो जाने दो।” बात समाप्त हो गयी।

लेकिन शाम को चन्द्रमाधव घूमने गया, तो दोनों नाटक लेता आया। रात में पढ़ डाले, फिर पेंसिल लेकर बहुत से निशान लगाये, हाशिये में नोट लिखे, क्या अंश छोड़ा जा सकता है, क्या हेर-फेर हो सकता है, वाचिक में क्या परिवर्तन अपेक्षित है, इत्यादि। बीच-बीच में शब्दों पर वह झल्लाता, फिर रेखांकित करके हाशिये में दूसरे शब्द या पद लिख देता जिनसे वार्तालाप अधिक सहज और स्वाभाविक बन सके।

× × ×

दूसरे दिन गौरा आयी तो चन्द्रमाधव मौजूद था। दोनों को नमस्कार करके गौरा ने कहा, “मास्टर साहब, मैंने नाटक पढ़ लिये, और भी दो-एक लड़कियों से सलाह कर ली। हम 'ध्रुवस्वामिनी' खेलेंगे, लेकिन-”

“लेकिन यह कि मुझे मेहनत करनी होगी; यही न?”

“हाँ।”

यहाँ पर चन्द्रमाधव ने कहा, “मेरी बात टाँग अड़ाना न समझी जाये, तो निवेदन करूँ कि मैंने 'ध्रुवस्वामिनी' पर कुछ नोट लिए हैं अगर वे कुछ काम आ सकें”

भुवन ने कुछ विस्मय से भँवें ऊँची की, लेकिन तुरत सँभल कर बोला, “गुड फ़ेलो! लाओ देखें-”

चन्द्रमाधव उठकर भीतर गया तो गौरा ने घने उलाहने से भरी आँखें भुवन पर टिका दीं, और एकटक उसे देखती रही। वह चितवन भुवन तक पहुँची, पर उसने जान-बूझ कर उसे न देख कर सम स्वर से कहा, “लो, तुम्हारा काम आसान हो गया।”

“मेरा क्या, आपका कहिए। आपने क्यों-”

वाक्य अधूरा रह गया। चन्द्रमाधव पुस्तक ले आया, भुवन ने पन्ने उलट-पलट कर देखे और कहा, “ठीक तो है।” फिर पुस्तक गौरा को दे दी। गौरा ने अनिच्छुक भाव से उसे लिया, इधर-उधर देखा; फिर मानो कर्त्तव्य का ध्यान कर सधे शब्दों में कहा, “आपके मित्र ने बहुत परिश्रम किया है, मैं उनकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।” फिर चन्द्रमाधव की ओर मुड़कर कहा, “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। बल्कि मास्टर साहब की ओर से भी, जिनका कष्ट बचाने के लिए आपको मेहनत करनी पड़ी।” कहते-कहते उसने कनखियों से भुवन की ओर देखा, कि यह चोट ठीक बैठी है कि नहीं।

चन्द्रमाधव ने सफ़ेद झूठ बोलते हुए कहा, “नहीं मिस गौरा, मुझे धन्यवाद देने की कोई बात नहीं है-मास्टर साहब की ओर से भी नहीं, क्योंकि ये नोट तो मेरे पहले के हैं। पिछले साल एक बार हमने अभिनय करने की सोची थी, तब के। तब स्टेज की दृष्टि से भी विचार किया था-”

भुवन ने भँवें उठा कर स्थिर दृष्टि से चन्द्रमाधव को देखा, एक बहुत दबी मुस्कान उसके ओठों की कोर में ही खो गयी। फिर उसने गौरा की ओर मुड़ कर कहा, “लीजिए, मेरा एलिबाई पक्का है न? मेरे लिए चन्द्र ने वह नहीं किया, अपने ही लिए किया है।”

गौरा ने आँखें सकोच कर उसकी ओर क्षण-भर देखा, मानो कहती हो, “जाइए!” फिर चन्द्रमाधव से पूछा, “तो आपने पोशाकों की बात भी सोची होगी?”

“ज़रूर-”

“अच्छा, हमारी ड्रेस रिहर्सल तक अगर आप यहाँ ठहरें तो एक बार आइएगा।” फिर भुवन की ओर मुड़कर, “मास्टर साहब, उस दिन आप इन्हें भी साथ लाइएगा, मैं कह दूँगी-”

“यानी?”

“यानी यह कि निर्देशन आप करेंगे-आपको रोज़ आना पड़ेगा।” गौरा ने स्थिर दृष्टि से उसे देखा, फिर कहा, “हाँ-आँ!”

भुवन हँस दिया। चन्द्र ने कहा, “मैं अधिक तो ठहर नहीं रहा, अभी एक-आध दिन आ सकता हूँ, फिर पीछे मास्टर साहब निर्देशन करते ही रहेंगे।”

“अच्छा देखिए, तय हो जाये-”

गौरा चली गयी तो चन्द्र ने कहा, “अब बताओ, कास्ट्यूम का क्या होगा?”

भुवन ने कहा, “तुम जानो; तुमने तो पहले से सोच रखा है न, पिछले साल से?”

“मैंने तुम्हारी इज्ज़त बचा ली है। अब-”

“ओह, तो इज्ज़त के बदले इज्ज़त चाहिए। लेकिन मैंने तो ऐसा सौदा नहीं किया?”

“मैं नहीं जानता; मैं तुम पर टाल दूँगा।”

दो-एक दिन चन्द्रमाधव कालेज जाकर गौरा और अन्य अभिनेताओं से मिल आया। इधर-उधर की कई बातें उसने की, पोशाक का प्रश्न उठने पर उसने कहा कि उसने अपने नोट सब भुवन को दे दिये हैं, उनसे पूरा निर्देश मिल जाएगा।

चन्द्रमाधव को स्टेशन छोड़ने भुवन के साथ गौरा भी गयी थी, उसकी दो-एक और सहपाठिनियाँ भी। चन्द्र ने कहा, “गौरा जी, आप के नाटक के कोई फ़ोटो लिये जायें तो एक-आध मुझे भी भेजिएगा, मुझे बहुत दिलचस्पी रहेगी।”

गौरा ने कहा, “मास्टर साहब अगर खिंचवा देंगे तो होंगे। तब आप उन्ही से मँगा भी लीजिएगा।”

चन्द्र नहीं समझ सका इसमें केवल भुवन के प्रति सहज सम्मान है, या भुवन को ही कोई अस्पष्ट उलाहना; या कि चन्द्र के आत्मीयता-प्रकाशन की ही परोक्ष अवहेलना-'आपका परिचय मुझसे नहीं, भुवन से है, उन्हीं की मारफत मैं...'। उसने कहा, “विलायत से मैं पत्र लिखूँ तो उत्तर देंगी न?” फिर गौरा के चेहरे को देख कर उसके कुछ उत्तर देने से पहले ही उसने जोड़ दिया, “मेरे मित्र बहुत थोड़े हैं; और भुवन मास्टर साहब तो शायद पत्र लिखना ही गवारा न करें; उनकी ओर से ही आप-”

गौरा ने कहा, “अच्छा; मास्टर साहब को भी मैं कोंच दिया करूँगी-” और हँस दी।

“थैंक यू।”

लेकिन भुवन को कोंचने के अवसर गौरा को अधिक न मिले; अगले सेशन में भुवन को रिसर्च के लिए एक वृत्ति मिल गयी और वह बंगलोर चला गया। वहाँ दो वर्ष में अपना प्रायोगिक काम पूरा करके उसने फिर नौकरी कर ली : थीसिस वह वहाँ से भी लिख कर भेज सकेगा इसकी सुविधा उसे थी। छः महीने का काम उसके लिए अपेक्षित था : उसके बाद थीसिस तो अगले वर्ष ही जायेगा, इसलिए काम कर लेना ही अच्छा है...गौरा से पत्र-व्यवहार भी उसका बहुत अनियमित था; गौरा के पत्रों में भी उस हठीले उत्साह का स्थान एक गाम्भीर्य ले रहा था और भुवन तो यों ही कम लिखता था। उसकी धारणा थी कि अच्छा पत्र-व्यवहार कभी नियमित हो ही नहीं सकता; जीवन में जब-तब ही पत्र लिखे जायें तभी अच्छे होते हैं।

चन्द्रमाधव से गौरा का पत्र-व्यवहार भी अनियमित चलता रहा। चन्द्र उसे जब-तब पुस्तकें या चित्र भेज देता; पत्र में ऐसे स्थलों के वर्णन भी जिनमें गौरा को दिलचस्पी हो सके-इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के घर का, ताल-प्रदेश का जहाँ वर्डस्वर्थ और कोलरिज की काव्य-प्रतिभा मुखरित हुई, फ्रांस के ह्यूगो के स्मारक का, नोत्रदाम का, लूव्र संग्रहालय का; जर्मनी में गयटे के घर का, ओबरामरगाउ के ईसा के जीवन-नाटक का...दो-एक अपने फोटो भी उसने भेजे थे, पहले अव्यक्त आशा में कि गौरा भी उसे अपना फोटो भेजेगी, फिर इस स्पष्ट प्रार्थना के साथ। गौरा ने अपना कोई फोटो नहीं भेजा था, पर दो-तीन पत्रों के आग्रह के बाद 'ध्रुवस्वामिनी' का एक ग्रुप भेज दिया था जिसमें अभिनेतृ-समुदाय के साथ भुवन भी था। पत्रों में वह प्रायः भुवन के समाचार ही अधिक देती; अपने विषय में कम लिखती या लिखती तो कालेज की 'एक्टिविटीज़' का वर्णन कर देती। चन्द्र के पत्रों में व्यक्तिगत अधिक होता, विदेशों में मिले लोगों और विशेषकर स्त्रियों की बातें होती, और निरन्तर वहाँ की स्वाधीनता और यहाँ के बन्धनों की तुलना और उस पर एक आक्रोश का स्वर उस के पत्रों में पाया जाता। गौरा ने एक बार लिखा, “स्वाधीनता केवल सामाजिक गुण नहीं है। वह एक दृष्टिकोण है, व्यक्ति के मानस की एक प्रवृत्ति है। हम कहते हैं कि समाज हमें स्वाधीनता नहीं देता; पर समाज दे कैसे? हमीं तो अपने दृष्टिकोण से समाज बनाते हैं। मैं अपने-आपको बद्ध नहीं मानती हूँ, और स्वाधीनता के लिए अपने मन को ट्रेन करती हूँ। सफलता की बात नहीं जानती, उतनी शक्ति मेरे भीतर होगी तो क्यों नहीं होऊँगी सफल? और मैं सोचती हूँ कि सब लोग यत्नपूर्वक अपने को स्वाधीनता के लिए ट्रेन करें तो शायद हमारा समाज भी स्वाधीन हो सके।”

चन्द्र ने उत्तर में उसे बधाई देते हुए लिखा था, “आप ऐसा मान सकती हैं, और ट्रेनिंग की सुविधा पा सकती हैं, क्योंकि आपका जीवन संरक्षित है, उसे छत्रछाया मिली है। उनकी सोचिए जो जीवन के अथाह सागर पर फेंक दिये जाते हैं एक खाली टीन के डिब्बे की तरह : क्या वे भी स्वाधीन हैं, अपने को ट्रेन कर सकते हैं? जीवन वैसा ही है-और हम सब बह रहे हैं, बह रहे हैं, खाली डिब्बा ऊब-डूब करता है तो समझता है कि मैं स्वाधीन हूँ, और सागर पर सवार हूँ, पर कहाँ छोर है, कब वह जा लगेगा, या कि राह में डूब जाएगा-क्या वह जानता है? या उसके बारे में कुछ कर सकता है? नहीं गौरा जी, हमें जिसको जहाँ जितना थोड़ा-सा सुख मिलता है, उतना ही हमें आतुर और कृतज्ञ हाथों ले लेना चाहिए-उसी का नाम स्वाधीनता है, बाकी सब संघर्ष है, संघर्ष, अन्तहीन आशाहीन संघर्ष...”

और गौरा ने : “शायद हम अलग-अलग दुनिया में रहते हैं, अलग-अलग मुहावरे बोलते हैं। आपको यूरोप के समकालीन निराशावाद ने पकड़ लिया है-है न? इस यूरोप के लिए आशा नहीं है। यह तो मरेगा ही। पर क्या एक दूसरा यूरोप नहीं उठेगा? नहीं, ऊब-डूब करते डिब्बों का यूरोप नहीं, फिर एक स्वाधीन यूरोप, लेकिन जिसकी स्वाधीनता नये और दृढ़तर पायों पर टिकी हो? मैं तो समझती हूँ, हम यहाँ हिन्दुस्तान में भी न केवल अपनी वरन् यूरोप की भी स्वाधीनता का उद्योग कर सकते हैं : हर कोई हर जगह सारे विश्व की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ सकता है क्योंकि अविभाजित और अविभाज्य स्वाधीनता ही स्वाधीनता है, जब तक वह नहीं तब तक स्वाधीनता होकर भी अधूरी और अरक्षित है।”

दो-एक ऐसे पत्रों के बाद चन्द्रमाधव विषय को छोड़ देता था और फिर बिलकुल व्यक्तिगत बातों पर आ जाता था, उसमें से फिर कोई साधारण सूत्र उठाकर गौरा दूर हट जाती थी।

जो डूबने-उतराने को मानता है, वह डूबता-उतराता है, जो स्वाधीनता के लिए साधना करता है, वह-

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

   तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।

× × ×

मैत्री, सख्य, प्रेम-इनका विकास धीरे-धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं; 'प्रथम दर्शन से ही प्रेम' की सम्भावना स्वीकार कर लेने से भी इसमें कोई अन्तर नहीं आता पर धीरे-धीरे होता हुआ भी वह सम गति से बढ़ने वाला विकास नहीं होता, सीढ़ियों की तरह बढ़ने वाली उसकी गति होती है, क्रमशः नये-नये उच्चतर स्तर पर पहुँचने वाली। कली का प्रस्फुटन उसकी ठीक उपमा नहीं है, जिसका क्रम-विकास हम अनुक्षण देख सकें : धीरे-धीरे रंग भरता है, पंखुड़ियाँ खिलती हैं, सौरभ संचित होता है और डोलती हवाएँ रूप को निखार देती जाती हैं। ठीक उपमा शायद साँझ का आकाश है : एक क्षण सूना, कि सहसा हम देखते हैं, अरे, वह तारा! और जब तक हम चौंक कर सोचें कि यह हमने क्षण भर पहले क्यों न देखा-क्या तब नहीं था? तब तक इधर-उधर, आगे, ऊपर कितने ही तारे खिल आयें, तारे ही नहीं, राशि-राशि नक्षत्र-मण्डल, धूमिल उल्का-कुल, मुक्त-प्रवाहिनी नभ-पयस्विनी-अरे, आकाश सूना कहाँ है, यह तो भरा हुआ है रहस्यों से जो हमारे आगे उद्घाटित हैं...प्यार भी ऐसा ही है; एक समोन्नत ढलान नहीं, परिचिति के, आध्यात्मिक संस्पर्श के नये-नये स्तरों का उन्मेष...उसकी गति तीव्र हो या मन्द, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वांछित हो या वांछातीत। आकाश चन्दोवा नहीं है कि चाहे तो तान दें, वह है तो है, और है तो तारों-भरा है, नहीं है तो शून्य, शून्य ही है जो सब-कुछ को धारण करता हुआ रिक्त बना रहता है...

गौरा से भुवन का चौदह वर्ष का-या कि सात-आठ वर्ष का-परिचय भी ऐसा ही था। इसे लम्बे अन्तराल के बाद जो नया परिचय हुआ था, वह पहले परिचय से बिल्कुल भिन्न स्तर पर था; दूसरे स्तर पर वह सम गति से चल रहा था कि सहसा एक झोंके से वह एक स्तर और उठा-या गहरे में चला गया।

भुवन को कालेज की नौकरी करते एक वर्ष हुआ था। थीसिस भी उसने भेज दिया था, वर्ष-भर के अन्दर उसे परिणाम की सूचना मिलेगी और, जैसा कि उसे पूरा विश्वास है, अगर उसे डाक्टर की उपाधि मिल जाएगी तो कालेज में उन्नति तो होगी ही, आगे काम की सुविधा भी मिलेगी, शायद विश्वविद्यालय में भी कुछ कर सके। एक स्थिरता उसके मानसिक जीवन में आ गयी थी जो गतिहीनता नहीं थी, सधी हुई, निर्दिष्ट गति की सूचक थी।

गौरा ने बी.ए. की परीक्षा दे दी थी, साथ ही संगीत की एक परीक्षा भी दी थी। भुवन ने उसे एक उत्साह-वर्द्धक पत्र लिखा था, और लिखा था, कि वह आशा करता है कि गौरा अच्छी तरह पास होगी क्योंकि वह चाहता है कि गौरा जो कुछ करे अच्छी तरह करे; पर साथ ही उसकी यह भी धारणा है कि गौरा में जो कलात्मक संवेदना है उसकी अभिव्यक्ति और निष्पत्ति बी.ए.-एम.ए. की डिगरियों में नहीं, रचनात्मक कर्म में है, अपनी प्रतिभा का उपयोग न करना, प्रस्फुटित होने का मार्ग न देना, उसे जीवनानन्द की शोध में न लगाना निष्क्रिय आत्म-हनन है, अन्धकार को आत्म-समर्पण है जबकि वह गौरा को हमेशा एक उजली और दौड़ती हुई धूप के रूप में ही देखता है : पहाड़ पर बदली में से फूटी हुई किरण जैसे धन-खेतों पर लहराती दौड़ती चली जाती है, वैसी ही।

उसके पत्र के उत्तर में देर हुई थी। जब आया था, तब जो आया था, उसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं था। उसमें उसके पत्र की किसी बात का कोई उल्लेख नहीं था; बहुत छोटे पत्र में उतना ही लिखा था :

भुवन दा,

आप क्या दो-चार दिन के लिए भी नहीं आ सकते! मुझे आगे मार्ग नहीं दीखता है, और मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती! जल्दी आइये।

आपकी

गौरा

भुवन की समझ में कुछ भी न आया। उसे ध्यान आया, गौरा का परीक्षा-फल निकल गया होगा : गौरा ने लिखा क्यों नहीं? कहीं फेल तो नहीं हो गयी-पर असम्भव! उसने रजिस्ट्रार को जवाबी तार देकर परीक्षा-फल माँगा; उसी रात उत्तर आ गया : “प्रथम श्रेणी, दूसरा स्थान।” हाँ, यही हो सकता था, फ़ेल होने की कल्पना भी क्यों उसके मन में आयी? पर बात क्या है? गौरा को वह क्या उत्तर दे? क्या चला जाये? लेकिन क्यों- पहले जाने तो कि बात क्या है?

और तब, सहसा, आकाश में एक तारा फूट आया था। तो गौरा के विवाह का प्रश्न उठा है। आख़िर उठा ही...और वह आगे मार्ग नहीं देख पा रही है, और भुवन...हाँ, भुवन उसे जानता है, बहुत निकट से जानता है-आज अगर गौरा जीवन के इतने बड़े निर्णय के सामने उसकी राय पूछ रही है और उसी पर चल पड़ेगी, इतना बड़ा दायित्व उस पर थोप रही है तो क्यों? क्योंकि उसने पहले देखा है जो भुवन को पहले देखना चाहिए था : कि भुवन उसे, उसकी सम्भावनाओं को, उससे भी अच्छी तरह पहचानता है।

और आकाश तारों से भर गया था। भुवन तटस्थ है, पर गौरा के भविष्य में उसे गहरी दिलचस्पी है; वह क्या करती है या नहीं करती है-उसका क्या होता है-यह भुवन के लिए अत्यन्त महत्त्व रखता है...क्यों? क्योंकि वह उसकी भूतपूर्व शिष्या है? नहीं, यद्यपि हाँ, वह भी-उस नाते वह किसी हद तक उसके भविष्य का उत्तरदायी है...पर मुख्यतया इसलिए कि वह कुछ है जो जीवन से भुवन ने पाया है और जिसके सहारे उसने स्वयं अपने को अधिक पाया है...सहसा उसका अन्तर गौरा के प्रति स्नेह ही नहीं, एक अद्भुत कृतज्ञता से द्रवित हो आया। 'अच्छा अध्यापन वही है, जिसमें अध्यापक भी सीखता जाये' इतना ही नहीं, वह स्थायी सम्बन्ध है जिसका आलोक भविष्य में भी दोनों का मार्ग उज्ज्वल करता है...

भुवन ने गौरा को लिखा :

गौरा,

तुम्हारा पत्र मिला है। तुम्हारे स्नेह का दावा मुझ पर सदैव रहा है; पर इतनी दूर से तुम सहसा बिना कारण बताये बुला भेजोगी, यह नहीं सोचा था। मेरे पत्र की किसी बात का उत्तर तुमने नहीं दिया; और परीक्षा-फल तक नहीं सूचित किया-क्या मैंने कभी कल्पना की थी कि तुम्हारा परीक्षा-फल रजिस्ट्रार को तार देकर मँगाना पड़ेगा? पर तुम्हारे कारण न देने से ही शायद मैं कारण का ठीक-ठीक अनुमान लगा सका हूँ। और तुम्हारे मौन से मुझे आलोक मिला है, शक्ति मिली है-जिसके सहारे मैं दो-एक बातें लिखने बैठ गया हूँ जो कदाचित् तुम्हारे कुछ काम आवें।

गौरा, कोई किसी के जीवन का निर्देशन करे, यह मैं सदा से ग़लत मानता आया हूँ तुम जानती हो। दिशा-निर्देशन भीतर का आलोक ही कर सकता है; वही स्वाधीन नैतिक जीवन है, बाकी सब गुलामी है। दूसरे यही कर सकते हैं कि उस आलोक को अधिक द्युतिमान बनाने में भरसक सहायता दें। वही मैंने जब-तब करना चाहा है, और उस प्रयत्न में स्वयं भी आलोक पा सका हूँ, यह मैं कह ही चुका। तुम्हारे भीतर स्वयं तीव्र संवेदना के साथ मानो एक बोध भी रहा है जो नीति का मूल है; तुम्हें मैं क्या निर्देश देता?

अभी किस प्रश्न को लेकर तुम चिन्तित हो, यह शायद मैं समझ सका हूँ। पर उस प्रश्न में सहसा इतनी चिन्त्य तात्कालिकता क्यों आ गयी कि तुमने मुझे बुला भेजा, यह तुम्हारी ओर से किसी सूचना की अनुपस्थिति में कैसे जानूँ? यह प्रश्न आगे-पीछे उठता ही; मैं समझता हूँ कि परीक्षा-फल के साथ-साथ ही भविष्य-निर्णय का प्रश्न तुम्हारे माता-पिता के सामने उठा होगा। यह भी हो सकता है कि उन्होंने पहले से कुछ सोच रखा हो-चाहे कह भी रखा हो-और अब, जब उनकी समझ में तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी और वय भी हो गयी, तब तुम्हें पूछा या बताया हो। उन पर मेरी श्रद्धा है और मैं समझता हूँ कि तुम्हारा अहित उनसे नहीं होगा; इतना ही नहीं, मैं यह भी समझता हूँ कि तुम्हारे हिताहित के विषय में तुम्हारी धारणा को वे अमान्य नहीं करेंगे-उससे क्लेश होगा तब भी नहीं। एक बार तुम्हारे पिता ने मुझसे कहा था : “सन्तान को पढ़ा-लिखा कर फिर अपनी इच्छा पर चलाना चाहने का मतलब है स्वयं अपनी दी हुई शिक्षा-दीक्षा को अमान्य करना, अपने को अमान्य करना; क्योंकि बीस बरस में माँ-बाप सन्तान को स्वतन्त्र विचार करना भी न सिखा सके तो उन्होंने क्या सिखाया?” जो व्यक्ति ऐसी बात मान सकता है, उसके विचार-परिपाटी के बुनियादी मान ठीक है, और मुझे विश्वास है कि वह चाहे वचन-बद्ध भी हो चुके हों-जो मेरी समझ में न हुए होंगे-उनसे साफ़-साफ़ बात करना शुभ परिणाम देगा।

पर यह बाहर की बात है। तुम्हारे भीतर? यहाँ कुछ कहते दोहरा संकोच होता है, फिर भी कुछ कहूँगा ही : हाँ, इसे तुम मेरा मत ही समझो, वह भी पूर्वग्रह-दूषित मत, उससे अधिक कुछ नहीं। आगे-पीछे इस प्रश्न का सामना करना ही होता है; और जहाँ तक निरे सिद्धान्त का प्रश्न है, मैं मानता हूँ कि जब तक कोई स्पष्टतया मनोवैज्ञानिक 'केस' न हो विवाह सहज धर्म है और है व्यक्ति की प्रगति और उत्तम अभिव्यक्ति की एक स्वाभाविक सीढ़ी। लेकिन सिद्धान्त के प्रतिपादन से ही प्रश्न का उत्तर नहीं हो जाता; व्यक्तित्व के प्रश्न के आगे व्यक्ति का जो प्रश्न है, वह बना रहता है। उसके विषय में यह कह सकता हूँ कि व्यक्ति का स्वतन्त्र विकास जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक उसे इकाई से बाहर प्रसृत करने का प्रश्न नहीं उठता, वह प्रश्न तभी उठना चाहिए जब उसके बिना और विकास के मार्ग न हों। और प्रश्न उठने के बाद फिर व्यक्ति-विशेष की खोज होती है : उसमें जोखिम अनिवार्य है; पर आन्तरिक आलोक कुछ भी काम नहीं देता यह कैसे माना जाये? जोखिम भी कौन-सा उठाने लायक है, कौन-सा नहीं, इसके निर्णय में अन्तःकरण का साक्ष्य अवश्य सहायक होता है। राह चलना हो, तो हर मोड़, हर चौराहे पर राही को जोखिम उठाना होता है और वह उठाता है; उस समय आँखें बन्द करके दूसरे के निर्देश पर अपने को नहीं छोड़ देता। और गार्हस्थ्य एक लम्बी यात्रा है-बल्कि पथयात्रा नहीं, सागर-यात्रा, जिसमें मोड़-चौराहे पर नहीं, क्षण-क्षण पर संकल्प-पूर्वज जोखिम का वरण करना होता है और कोई लीकें आँकी हुई नहीं मिलतीं, नक्शे और कम्पास और अन्ततोगत्वा अपनी बुद्धि और अपने साहस के सहारे चलना होता है।

तुम्हें जो राह दीखती है, उस पर चलो, गौरा। धैर्य के साथ, साहस के साथ। और हाँ, जो तुमसे सहमत नहीं हैं उनके प्रति उदारता के साथ, जो बाधक हैं उनके प्रति करुणा के साथ। और राह पर जब ऐसा साथी मिलेगा जिसका साथ तुम्हें प्रीतिकर, वांछनीय, कल्याणप्रद लगे, तब किसी की बात न सुनना, जान लेना कि अब स्वतन्त्र रूप से जोखिम वरने का समय आ गया।

यही मैं मानता हूँ। स्वयं उस आदर्श को नहीं पाता, वह दूसरी बात है। पर वह ठीक है इसके बारे में मुझे ज़रा भी संशय नहीं है।

और अभी क्या लिखूँ? तुम क्या करती हो, क्या करोगी, लिखना। अब भी अगर बुलाओगी, तो आ जाऊँगा। यों छुट्टियों से तत्काल पहले छुट्टी मिलना कठिन होता है पर आना हो तो एकदम छुट्टियों में ही आने से काम न चलेगा?

तुम्हारा

भुवन दा

गौरा के दूसरे पत्र से भुवन ने जाना कि बात विवाह की ही थी। प्रस्तावित लड़का गौरा के कालेज में पढ़ता रहा था, उससे तीन-चार वर्ष आगे; उसके पिता की ओर से बात पहले उठायी गयी थी जब गौरा ने इण्टर पास किया था-लड़का तब विदेश में था। गौरा के माता-पिता ने तब इसी आधार पर टाल दिया था कि लड़का तो विदेश में है, पर माँ यही मानती थीं कि वे लगभग वचन-वद्ध हैं। लड़का जाड़ों में लौट आया था इंजीनियर बनकर, तब से बात चल रही थी और गौरा की परीक्षा के बाद ही प्रबल होकर उठी यों लड़के वाले राजी थे कि गौरा आगे भी पढ़ना चाहे तो पढ़े; पर पक्की बात वे तुरत चाहते थे, और विवाह भी इसी वर्ष नहीं तो अगले वर्ष। लड़के को गौरा ने देखा अवश्य था पर उसकी बहुत हल्की-सी स्मृति ही उसे थी, और यह कहने का कोई कारण नहीं था कि उनमें कोई विशेष अनुकूलता है। विवाह की बात लड़के की इच्छा पर ही उठी थी, पर एक बी.ए. के विद्यार्थी का एक फर्स्ट ईयर की लड़की के प्रति आकर्षण अपने-आपमें कोई महत्त्व नहीं रखता।

गौरा ने यह भी लिखा था कि भुवन के पत्र से उसे बहुत सहारा मिला और आगे का मार्ग कुछ-कुछ उसे दीखता भी है, माँ की अनशन की धमकी स्वयं एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है; पिता तो दुःखी पर चुप हैं, किन्तु माँ का कहना है कि उन दोनों के जीवन का दारोमदार इसी पर है। गौरा इसे स्पष्ट अन्याय समझती है, पर क्या माता-पिता की इच्छा पर अपने को उत्सर्ग कर देना भी एक रास्ता नहीं है? सारी परम्परा तो इसी का समर्थन करती है कि यही रास्ता है : और ऐसे आत्म-बलिदान में सुख भी होता है यदि वह कल्याण की भावना से किया जाये; खीझ कर, आत्म-दहन की भावना से नहीं। यही सब वह सोचती है, और अन्ततोगत्वा निर्णय उसके माता-पिता का नहीं, उसी का है, वह जो कुछ भी करे, परिणामों के लिए उत्तरदायी वही होगी। शीघ्र ही वह कुछ तय कर लेगी : और बिलकुल नहीं ही कर सकी, तो फिर भुवन दा को बुला भेजेगी : छुट्टी वह न लें, अवकाश आरम्भ होते ही आ जावें और तब तक वह बात टाल लेगी...

भुवन ने फिर एक छोटा-सा पत्र उसे लिखा :

गौरा,

तुम्हारे पत्र से पूरी बात मालूम हुई। नया मुझे कुछ नहीं कहना है।

ठीक है, तुम्हारे निर्णय की प्रतीक्षा करूँगा। पूरे विश्वास के साथ कि जो भी तुम करोगी, भूल नहीं करोगी।

आत्म-बलिदान की बात हमारी पीढ़ी की हर युवती सोचती है। युवती ही क्यों युवक भी। बलिदान ही हो, तो कोई दूसरा क्या कह सकता है? अपनी जिन्दगी लुटाने का हक हर किसी को है; और ऐसे मौके भी हो सकते हैं जब अन्याय को चुनौती देने का कोई दूसरा उपाय ही न रहे, यह मैं समझता हूँ। “जानते हो, मैं तुम्हारी जान ले सकता हूँ?” “हाँ, दस्यु; और तुम जानते हो, मैं जान गँवा कर तुम्हारी अवहेलना कर सकता हूँ?” यह उत्तर कायर का नहीं, साहसी का है। पर आत्म-बलिदान आत्म-प्रवंचना नहीं है, यह खूब अच्छी तरह पड़ताल करके देख लेना चाहिए। और मैं नहीं मानता कि इस मामले में हमारे सब युवक-युवतियाँ सतर्क रहती हैं। इस तरह का झुकना बलिदान नहीं, पलायन है कटु निर्णय से, स्वाधीनता के जोखिम से पलायन। स्वाधीनता साहस माँगती है; दुस्साहस भी माँग सकती है। स्वाधीनता साहसी का धर्म है।

हमारा संस्कार है, हाँ; पर श्रवणकुमार का जो आदर्श है, वही-जरा-सी चूक पर!-हमारी सारी पीढ़ी की पराजय और क्लीवता का बड़ा अच्छा प्रतीक भी है। कन्धे पर लदी हुई बहँगी पितृभक्ति का, आदर्श-परायणता का, आत्म-बलिदान का प्रतीक नहीं; जड़-पूजा का, आत्म-प्रवंचना का, स्वाधीन जीवन की अपात्रता का प्रतीक है! श्रवण के लिए वह क्या था, इसका निर्णय करना मेरे लिए आवश्यक नहीं है; मेरी पीढ़ी के लिए वह क्या है यह मैं ठीक जानता हूँ।

तुम पर मुझे आस्था है। आत्म-बलिदान करती हो, तो मेरा श्रद्धापूर्ण प्रणाम लो। सच्चा बलिदान भी स्वाधीन व्यक्ति का कर्म है।

पत्र दोगी? मैं देखो कितने तपाक से पत्र लिख रहा हूँ!

तुम्हारा

भुवन

इसका उत्तर उसे बहुत दिनों तक नहीं मिला। पहले कुछ दिन उसने प्रतीक्षा की; फिर मान लिया कि गौरा ने विवाह की स्वीकृति दे दी है; और दे दी है तो भुवन को और लिखने को अभी क्या होगा? दो-चार मास बाद-या क्या जाने, विवाह के बाद!-ही वह लिखेगी। अवकाश आरम्भ हो गया, उसने सामान तैयार किया कि अगर गौरा बुलायेगी तो वहाँ, नहीं तो कुछ दिन के लिए पहाड़-वहाड़ कहीं चला जाएगा; पर चार-छः दिन ऐसे भी बीत गये। सहसा एक दिन मद्रास में गौरा का पत्र आया :

भुवन दा,

मैंने एक साथ कई निश्चय कर लिये। वह बात समाप्त हो गयी है। माँ बहुत रोयीं-धोयीं, पर मान लेंगी ऐसा विश्वास है। पिता ने भी यही कहा; बोले, “बेटी, हम दोनों तुम्हारा कल्याण चाहते हैं, यह विश्वास न खोना। तुम्हारी माता समझ जाएगी और हमारा पूरा विश्वास तुम पर बना है, यह मैं तुम्हें कहता हूँ।” और कुछ उनसे कहते नहीं बना। कहते तो शायद मैं न सह सकती।

दूसरा निश्चय : मैं आगे पढ़ाई नहीं कर रही। संगीत के लिए आयी हूँ। एक वर्ष यहाँ और एक वर्ष मैसूर में रहूँगी, इतनी दूर स्पष्ट दीखता है, और इसमें इतना काम है कि आगे देखना अभी ज़रूरी नहीं जान पड़ता। यों यह भी लगता है कि असल चुनाव मैंने कर लिया है; आगे इतनी कड़ी परीक्षा अब न होगी।

भुवन दा, पलायन इधर भी हो सकता है, उधर भी। बिना मन के भीतर घुसे, केवल कर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता। आपने एक बार कहा था, “आत्मा के नक्शे नहीं होते कि हम चट से फैसला दे दें : इस सीमान्त के इधर स्वदेश, उधर विदेश, इधर पुण्य उधर पाप। आत्मा के प्रदेश में सीमान्त हर क्षण, हर साँस के साथ बदल सकता है क्योंकि हर क्षण एक सीमान्त है।”

वह बात आज समझ रही हूँ। जीवन एक बार का वरण नहीं है, वह अनन्त वरण है; प्रत्येक क्षण हम स्वीकार और परिहार करते चलते हैं।

भुवन दा, मैं भाग कर नहीं आयी, माँ के दुःख से भी नहीं। सामने काम है; और बड़ा अर्जेंट, बड़ा जरूरी काम। इसी झंझट में मैंने इतनी देर कर दी, पर आप ज़रूर-ज़रूर मेरी बात ठीक-ठीक समझेंगे और तब आपको यह देर भी अच्छी लगेगी।

आपकी कृतज्ञ

गौरा

पुनश्च :

अब मैं आप को नहीं बुलाऊँगी! अवकाश आप कहाँ बितायेंगे? कहीं पहाड़ चले जाइये। पिता जी मसूरी जाएँगे : वहीं आप जायें तो उनसे मिलिएगा, आपसे मिलकर उन्हें तसल्ली होगी।

गौरा

उसी डाक में बंगलौर से पत्र आया कि उसका थीसिस स्वीकृत हुआ है और डाक्टरेट प्रदान करने का अनुमोदन किया गया है : अगले कनवोकेशन में उसे डिगरी मिल जायेगी।

दक्षिण में ही गौरा ने पहले-पहल समझा कि कलाकार कैसे देश-काल के बन्धन से मुक्त हो जाता है : कोई भी लगन, कोई भी गहरी साधना व्यक्ति को इन बन्धनों से परे ले जाती है। देह का अपना धर्म है; उससे तो मुक्ति नहीं मिलती; पर आत्मा-या आत्मा की बात न करें क्योंकि उसके साथ तो अजर-अमर होने की प्रतिज्ञा ही है-मन भी जरा-मुक्त, चिर युवा रह जाता है : एक दिन साधक सहसा पाता है कि अरे, यह देह तो बूढ़ी हो गयी जबकि भीतर का जीव ज्यों-का-त्यों है, बल्कि अधिक स्फूर्तियुक्त, अधिक समर्थ...तब अगर वह मन को देह पर छोड़ देता है तभी मन भी जरा का अनुगत हो जाता है, नहीं तो अन्त तक-देह के विघटन-विलयन तक-भी वह वैसा ही अछूता चला जाएगा, ऐसा गौरा को लगता है। पढ़ाई के साथ-साथ भी वह संगीत-साधना करती रही थी, पर वहाँ वह गौण थी, अपने को उसमें बहा नहीं दिया जा सकता था, समर्पण नहीं हो सकता था : और साधना शर्तबन्द नहीं होती, वह आंशिक नहीं होती। या होती है, या नहीं होती...और अब...

यों सम्पूर्ण साधक कम ही होते हैं : अधिकतर या तो सब समय अधूरा समर्पण, या कुछ समय पूरा समर्पण दे सकते हैं-सब समय पूरा समर्पण तो पागलपन है जो देवत्व का समकक्षी है, वह तो दुर्लभ है...गौरा जानती है कि वह वैसी सम्पूर्ण साधिका-बल्कि वैसी सम्पूर्णता हो तो साधिका क्यों सिद्ध-नहीं है, और भीतर यह भी अनुभव करती है कि वैसी वह होना भी नहीं चाहती। पर जितनी साधना, या जितना शोध, जितनी तपश्चर्या उसे करनी है, वह सम्पूर्ण हो यह वह चाहती है, और इसके लिए कृतसंकल्प है। उसने पाया कि संगीत के अध्ययन के साथ संस्कृत का अध्ययन आवश्यक है, वह भी उसने आरम्भ कर दिया; फिर उसी से सम्बद्ध संस्कृत काव्यों का अध्ययन; इसमें उसने पाया कि संगीत अकेला नहीं खड़ा होता, उसे वास्तव में स्वायत्त करने के लिए थोड़ा इधर-उधर भी बढ़ना आवश्यक है; नाट्य-शास्त्र तक पहुँचते न पहुँचते उसने जान लिया कि दो वर्ष तो क्या होते हैं, उसे बीस वर्ष भी थोड़े हैं। पर व्यक्ति की कुछ सीमाएँ हैं जिन्हें वह मान ही लेना चाहती है : सम्पूर्ण साधक उन्हें अमान्य भी कर सकता, वह जानती है, और वैसी लगन के लिए जो कठोरता और एक विशेष प्रकार की आत्म-परता चाहिए उसे वह निरी स्वार्थ-परता नहीं कहेगी; पर उसे अभी वह इष्ट नहीं है, वह इन मर्यादाओं को स्वीकार ही कर लेगी...दो वर्ष पूरे करके कहीं काम करना होगा-पिता-माता पर निर्भर करना अब उचित न होगा-और काम के साथ-साथ ही संगीत-साधना आगे चलानी होगी।

बीच-बीच में वह भुवन को पत्र लिखती : उसमें अपना उत्साह, अपनी चिन्ताएँ, अपने संकल्प, सभी व्यक्त करती। पर भुवन के पत्र फिर विरले हो गये थे; एक बार उसने लिखा कि “तुम्हारी लगन से मुझे अपनी चूक का ध्यान हो आता है-साधना से समझौता मैंने भी किया है क्योंकि नौकरी मैं भी करता हूँ, पर समझौते में जितना अपनी साधना को देना चाहिए वह तो कम-से-कम निरालस, निर्बन्ध भाव से देना चाहिए...” गौरा इस पत्र से मुदित भी हुई, पर उसके बाद उसने अपने पत्र भी विरल कर दिये, महीने में एक पत्र से अधिक वह न लिखती, कभी दो महीने भी हो जाते। भुवन बंगलौर आएगा शायद तब भेंट होगी, यह आशा उसके मन थी, पर उसने व्यक्त न की; भुवन नहीं आया और निराशा भी व्यक्त करने का कोई प्रश्न न उठा।

परीक्षा-फल निकलने के तुरत बाद उसे चन्द्रमाधव का बधाई का पत्र मिला था। उसने उत्तर तत्काल नहीं दिया था-तब वह अशान्त थी; मद्रास आने पर उत्तर देने से पहले चन्द्र का एक और लम्बा पत्र उसे मिला। चन्द्र ने लखनऊ में अपने नये कार्य की बात लिखी थी, और उसके पिछले पत्र का, जो एक वर्ष से अधिक पूर्व उसके भारत लौटने से पहले गौरा ने उसे लिखा था, हवाला देते हुए कहा था कि “यूरोप का निराशावाद शीघ्र ही सारी दुनिया पर छा जाएगा; एक महान विस्फोट आ रहा है, गौरा जी, और उसकी लपटें भारत को अछूता न छोड़ जाएँगी! स्वाधीनता का आन्दोलन है, ठीक है, लेकिन उस लपट का धुआँ व्यक्ति के स्वातन्त्र्य का दम घोट जाएगा; ऊब-डूब की ही स्वाधीनता रह जाएगी, बस! देखें, आपका आशावाद क्या करता है तब...” अनन्तर और कई बातों के बाद लिखा था, “सुना था कि आप के विवाह का निश्चय हुआ था, फिर सुना कि बात टूट गयी : यह भी सुना कि “मास्टर साहब' के परामर्श से...आप इसे मेरी अनधिकार चर्चा न समझें, गौरा जी; स्वाधीनता का मैं खूब सम्मान करता हूँ और यूरोप से लौट कर मुक्त रहने का महत्त्व और भी समझने लगा हूँ-पर भुवन जैसे विज्ञान के नशेबाज़ की बात को ज़रूरत से ज्यादा अहमियत भी दे दी जा सकती है। वह तो ऊब-डूब भी नहीं है डूब ही डूब है : और उस सागर से उबरना नहीं होता! यों आपके सामने निश्चय ही, स्पष्ट कर्तव्य-पथ होगा ऐसा मेरा विश्वास है...”

इस पत्र ने गौरा के पहले पत्र का उत्तर न देने का संकोच मिटा दिया था, और उसने दो महीने तक कोई पत्र नहीं लिखा था। फिर जब लिखा था, तब क्षमा-याचना करते हुए यह भी लिख दिया था कि दूसरे पत्र से वह विरक्त हो गयी थी। “आप जो सुनते हैं, सुन सकते हैं; पर हर सुनी बात की पड़ताल आवश्यक नहीं होती। और मास्टर साहब के बारे में आपने जो लिखा है, उसमें मैं पूर्ण सहमत हूँ, पर आप उससे जो परिणाम निकालते हैं उससे नहीं। वह विज्ञान में डूबे हैं, ठीक है; उसे आप नशा भी कह लीजिए। पर इसलिए वह राय नहीं दे सकते, यह मैं नहीं मानती। यों वह राय कभी देते ही नहीं, पर जब देंगे तब वह अधिक सम्मान्य होगी क्योंकि वह अनासक्त होगी, ऐसा मैं जानती हूँ। जिसे आप नशेबाज़ कहते हैं और मैं-आप अनुमति दें-साधक कहूँगी वह अपने नशे से इतर बातों में बिल्कुल असम्पृक्त होता है यही उसकी शक्ति है। आप कहते हैं कि वह इसलिए अविश्वास्य है, मैं कहती हूँ कि इसीलिए वह विश्वास्य है, क्योंकि विश्वास-अविश्वास दोनों ही उसे नहीं छूते...पर अपने भविष्य-निर्णय के बारे में मेरा कोई मत ही नहीं था, ऐसा आपने क्यों मान लिया? क्या यूरोप के निराशावाद में यह उदासीनता भी शामिल है?”

चन्द्रमाधव ने तुरत क्षमा-याचना कर ली थी। आपको क्लेश पहुँचाना, या आपकी या भुवन जी की अवहेलना करना मुझे बिल्कुल अभीष्ट न था; आपकी शुभाशंसा से ही मैंने यह सब लिखा था...वापस लेता हूँ। आपके पत्र से स्पष्ट विदित होता है कि आपमें प्रबल संकल्प-शक्ति है और आपको आपके मनोनीत पथ से कोई नहीं हटा सकता; मैं इस पत्र से आश्वस्त ही नहीं, बहुत प्रभावित भी हुआ हूँ...” आगे चलकर उसने पूछा था कि गौरा दक्षिण में क्या कर रही है, और क्या विश्व की इस संकटापन्न अवस्थिति में उसे संगीत की साधना पर्याप्त जान पड़ती है?

गौरा ने उसकी क्षमा-याचना शिष्ट ढंग से स्वीकार कर ली। संगीत के बारे में उसने लिखा, “मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि हम लोग भिन्न-भिन्न भाषा बोलते हैं, हमारा मुहावरा अलग है। फिर भी कहूँ कि मेरी समझ में तो एक विश्व-संकट यह भी है कि साधना आज इतनी नगण्य हो गयी है; कि हमारा साध्य जीवन का आनन्द न रहकर जीवन की सुविधाएँ रह गया है यानी जीवन की हमारी परिभाषा ही बदल गयी है, वह जीवन का नहीं, जीवन की क्रियाओं का नाम हो गया है। इसलिए आज हम जीवन के शोध की नहीं, जीवन की दौड़ की बात कहने लगे हैं; जीवन का बाह्यीकरण करते-करते हमने उसका बहिष्कार ही कर दिया है। आप यह बात नहीं समझेंगे : क्योंकि आप 'दूसरी तरफ़' हैं, आप दौड़ में हैं। गणित की भाषा में कहूँ-जो शायद हमारे आपके मुहावरे के अध-बीच आ सके-तो कहूँगी कि दौड़ का अर्थ है देश ् काल, जबकि शोध का अर्थ देश × काल। आप विभाजन-फल माँगते हैं, मैं (या कह ही लेने दीजिए अपने समूचे वर्ग की ओर से, हम) गुणन-फल के अन्वेषी हैं। आपकी माँग का अन्तिम परिणाम है न-कुछ, यानी कुछ इतना स्वल्प कि नगण्य; हमारी साधना का अन्त है सब-कुछ, कुछ इतना विशाल कि आप भी उसमें समा जायें! यह अहंकारोक्ति लगती है न? पर है नहीं, मैं न-कुछ होकर ही सब-कुछ की शोध में हूँ; अहंकार इस तरफ़ नहीं हो सकता, अहंकार तो सबसे बड़ा विभाजक है...”

× × ×

सितम्बर 1939 : यूरोप में युद्ध आरम्भ हो गया, तो चन्द्रमाधव और गौरा में और दो-एक पत्रों का विनिमय हुआ। और तब भुवन का भी एक पत्र गौरा को मिला। भुवन के पत्र में गहरी वेदना थी। विज्ञान की एफ़िशेंसी स्वयं साध्य बनकर मानव को कहाँ ले जाती है, युद्ध की घोषणा में इसका भीषण परिणाम उसे दीख रहा था। पुराने जमाने में जब वैज्ञानिक और नीतिज्ञ एक ही था, तब विज्ञान नीति को पुष्ट करता था; और विज्ञान के विकास का इतिहास पहले एक पुष्ट नैतिकता का ही इतिहास रहा : नैतिकता ने किसी दैवी, अलौकिक प्रतिमान पर आधारित एक अन्ध-विश्वास या तर्कातीत श्रद्धा से हटकर एक बुद्धि-संगत, लौकिक, मानववादी नैतिक बोध का रूप लिया। यहाँ तक वैज्ञानिक सब नीतिज्ञ नहीं तो नैतिक अवश्य थे, और यहाँ तक विज्ञान का रेकार्ड वैज्ञानिकों के लिए गौरव का विषय है। मध्ययुग में बुद्धि की महानिशा में वैज्ञानिक सन्तों ने ही ज्ञान के टिमटिमाते आलोक को अपनी गुदड़ी के भीतर छिपा कर उसकी रक्षा की...पर किसलिए? कि औद्योगिक क्रान्ति के साथ वह सुविधा का गुलाम बनकर एक के बाद एक विभ्राट् उत्पन्न करता चले? क्या यही मानव का भविष्य है क्योंकि यह उसकी श्रेष्ठ उपलब्धि विज्ञान का भविष्य है? वह यह नहीं मान सकता...पर निस्सन्देह यह विज्ञान का सूक्ष्म-काल तो है ही; और उसके साथ नैतिकता का भी क्राइसिस है; संस्कृति का भी; क्योंकि विज्ञान का क्राइसिस वैज्ञानिक नैतिकता और वैज्ञानिक संस्कृति का भी क्राइसिस है। इससे यह सीखना होगा कि नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, या बिना चालक का इंजिन : वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में; और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है...और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं : मानव का नहीं, मानव-पशु का संगठन ही उनका इष्ट है। कोई भी नीति-निरपेक्ष व्यवस्था अनिवार्यतः सर्वसत्तावादी व्यवस्था होगी, क्योंकि नीति को छोड़ देने के बाद दूसरा प्रतिमान सत्ता का रह जाता है...”मेरे लिए यही इस युद्ध का सबक है। यह युद्ध किसलिए लड़ा जा रहा है, सहसा नहीं कह दिया जा सकता, ठीक स्वाधीनता के लिए ही है, यह कह देना भोलापन होगा क्योंकि 'स्वाधीनता' के साथ कितने इतर स्वार्थ भी तो मिले हुए हैं; पर यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस युद्ध से आरम्भ करके हमें संस्कृति के उन मानों के लिए संघर्ष करना है जिनको स्वयं हमारी इस संस्कृति ने ही नष्ट कर दिया या जोखिम में डाल दिया। हमें केवल युद्ध नहीं जीतना है, हमें शान्ति भी नहीं जीतनी है, हमें संस्कृति जीतनी है, विज्ञान जीतना है, नीति जीतनी है : हमें मानव की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा जीतनी है। क्या इस युद्ध का सबक हमें वैसे वैज्ञानिक देगा जो विज्ञान को नीति से नहीं, नीति के लिए मुक्त रखेंगे? हमें आशा नहीं खोनी होगी...”

चन्द्रमाधव के पत्र में निराशा भी थी, और कुछ गर्व का भाव भी कि उसकी दुर्वाणी सच निकली। “यह संस्कृति का अन्तिम युद्ध है, क्योंकि जिसे हम संस्कृति कहते हैं वह एक सड़ा हुआ चौखटा है। और उसमें जो जीव बन्द है, वह जीव इसीलिए है, कि वह पशु है; अगर पशु न होकर तथा-कथित संस्कृत मानव होता तो वह भी मर गया होता-जैसे कि सर्वत्र संस्कृत मानव मर गया है। इस युद्ध में से एक नयी बर्बरता निकलेगी और सारी दुनिया पर राज्य करेगी : मैं कहता हूँ आने दो उस बर्बरता को। जिस तल पर हम हैं उस तल से ऊँचे की व्यवस्था स्वयं एक अभिशाप है क्योंकि उससे हमारा सम्पर्क हो ही नहीं सकता। डिमोक्रेसी धोखा है, गिनतियों का राज बनिये का राज है...” आगे चलकर फिर उसने प्रश्न उठाया था, “क्या आप अब भी मानती हैं कि कलाओं का और संगीत का कोई आत्यन्तिक मूल्य है-इस जीवन में कोई स्थान है? है शायद-युद्ध के कार्यों को आगे बढ़ाने में वे सहायक हो सकती हैं...कला यानी पोस्टर; संगीत यानी फौजी बैंड...और साहित्य यानी पैम्फ़लेट, परचे, अख़बारनवीसी, रिपोर्ताज का नया माध्यम जो न पूरा तथ्य है न पूरी कल्पना-क्योंकि तथ्य और कल्पना का अन्तर उस परम्परा का अवशिष्ट है, जिसमें सनातन सत्य कुछ होता था और उसका शोध होता था; अब तथ्य ही तथ्य है, सत्य केवल तथ्य का वह रूप है जिसे आप हम देखते या जानते या भाँपते हैं-यानी तथ्य-हमारी कल्पना या हमारा पूर्वग्रह...सत्य अगर पूर्वग्रह-युक्त तथ्य है, तो रिपोर्ताज श्रेष्ठ साहित्य है, सीधी बात है...कैसी उथल-पुथल है : जो कुछ था, जैसे उसके नीचे से धरती खिसकी जा रही है : हमारे इस बेपेंदी के जगत को देखकर एक बार अट्टहास करने को जी होता है-हा-हा-हा-हा!”

गौरा ने पहले उत्तेजित होकर उत्तर लिखना चाहा, थोड़ा-सा लिखा था फिर फाड़ दिया। क्या उत्तर हो सकता है इसका?

भुवन को उसने लिखा :

भुवन दा,

आपके पत्र कभी-कभी आते हैं, पर जब भी आते हैं, तो मैं अपने को आप के समानान्तर चलता पाती हूँ। इस पत्र में जो व्यथा है उसे मैं ठीक-ठीक पकड़ सकती हूँ यह कैसे कहूँ-मैं बहुत छोटी और क्षुद्र हूँ-पर मैं चाहती हूँ कि आपके साथ-साथ चल सकूँ। 'मानव की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा' का मूल्य कुछ-कुछ मैंने भी समझा है आपकी सीख से, मेरा क्षेत्र (यद्यपि उसे 'मेरा' कहना कितनी बड़ी स्पर्धा है मेरी!) आप के क्षेत्र से दूर है, पर उसमें भी मेरी थोड़ी-सी शक्ति के लिए कुछ करने को है...इस संकट में हम हार जाएँगे मैं नहीं मानती, और मुझे लगता है कि यह न मानना भी स्वयं एक मोर्चा है क्योंकि मानव-नियति में विश्वास खोना मानव की प्रतिष्ठा की लड़ाई हार जाना है...भुवन दा, आप बड़े हैं, मैं जैसे राम जी की सेवा में गयी गिलहरी से अधिक कुछ नहीं हूँ, पर आपके आदेश से कुछ भी कर सकूँ तो अपना गौरव मानूँगी...” फिर सहसा विषय बदल कर उसने मैसूर की अपनी संगीत-शिक्षा की कुछ बातें लिखी थी, और अन्त में लिखा था कि आगामी गर्मियों में वह लौट जाएगी। यही उसने कुछ दिन बाद चन्द्रमाधव को भी लिख दिया।

26 जून 1940 को सबेरे जब गौरा दिल्ली पहुँची, तब रेडियो से घोषणा हो रही थी कि फ्रांस की लड़ाई समाप्त हो गयी; सारा फ्रांस जर्मनी का अधिकृत हो गया। गौरा ने सोचा था कि वह दिल्ली पहुँचते ही भुवन को सूचना देगी कि वह वहाँ है और भुवन आकर मिल जाये; पर आने के बाद वह पत्र नहीं लिख सकी। उसके अनेक कारण हुए; यह दूसरी बात है कि भुवन ने न पत्र लिखने की उसकी इच्छा जानी, न पत्र न लिखने के कारण।

चन्दमाधव को उसने लिखा :

प्रिय श्री चन्द्रमाधव,

आपके दोनों पत्र मिल गये। भुवन दा के दो समाचार आपने दिये, उनके लिए आभारी हूँ। आपने मुझे उन्हें पत्र लिखने को कहा है, पर मेरे पास अपनी ओर से अभी कुछ लिखने को नहीं है और आपने जो बातें लिखी हैं, उनके बारे में कुछ कहने का अधिकार अगर भुवन दा समझेंगे तो स्वयं मुझे लिख ही देंगे। तब तक मैं इसके सिवा क्या समझ सकती हूँ कि उनके जीवन में हस्तक्षेप करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है? वह बड़े हैं, और मेरे श्रद्धेय हैं, इतना मेरे लिए काफ़ी है।

आप शीघ्र यहाँ आने वाले हैं, आइये। मैं अभी यहीं हूँ, कुछ दिन तो रहूँगी ही। काम की तलाश करूँगी।

आपकी

गौरा

पत्र भेज कर वह फिर एकान्त में बैठकर चन्द्र के दोनों पत्र उलट-पलट कर देख गयी; एक-आध स्थल पर उसने कोई वाक्य पढ़ा पर वैसे लगातार पढ़ नहीं सकी; अक्षर उसकी आँखों के आगे तैर गये। उसने पत्र हटा दिये और संगीत की एक कापी उठा कर जल्दी-जल्दी उलट कर एक जगह से खोली, उसके पन्ने पर अपने हाथ की लिखावट पर आँखें जमा दी। लेकिन उसकी अपनी लिखाई भी तैर गयी : सहसा दो बड़ी-बड़ी बूँदें उस पर पड़ीं और लिखाई फैल गयी। गौरा ने आँचल से उसे पोंछा, पर उससे फैली हुई स्याही का एक लम्बा धब्बा कागज़ पर बन गया। सहसा गौरा बिल्कुल अवश हो गयी और कापी पर बाँहें और सिर टेक कर फफक कर रो उठी।

नदी के द्वीप (उपन्यास) : अन्तराल

रेखा द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला है। सोचती तो हूँ कि चलो, हो ही आऊँ कुछ दिन पहाड़ पर, मगर कुछ निश्चय नहीं कर पाती हूँ। यों अभी सोचने और निश्चय करने के लिए काफ़ी समय भी तो है।

पर तुम्हारे मित्र को मैं क्यों लिखूँ? और मेरी बात का उन पर क्या असर होगा? उनकी बातचीत और सम्पर्क से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ निस्सन्देह, और लखनऊ से प्रतापगढ़ की यात्रा तो एक 'रेवेलेशन' ही था मानो-तुम जानते हो, रेलगाड़ी में बिलकुल अज़नबी से कभी-कभी ऐसा निकट सम्पर्क हो जाता है जिसे साधारण सामाजिक जीवन में प्राप्त करते बरसों भी लग सकते हैं; समाज में आदमी अपने सब छद्य, कवच, अस्त्र-शस्त्र जो धारण किये रहता है और सब ओर से चौकस रहता है, रेल में वह उन्हें उतार कर सहज स्वाभाविक मानव प्राणी हो जाता है...लेकिन यह मैं अपनी बात कहती हूँ; डा. भुवन स्वयं असम्पृक्त और दूर हैं और वह जो तय करेंगे अपने मन से ठीक-बेठीक और सुविधा विचार कर ही करेंगे। फिर भी, तुम ने कहा है, इसलिए यह पत्र साथ में है, तुम्हीं अपने पत्र के साथ उन्हें भेज देना!

इस बार लखनऊ का प्रवास सुखद रहा। इसके लिए तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। सचमुच, चन्द्र, मेरे लिए तुम जो कुछ करते रहे हो, जब सोचती हूँ तो गड़ जाती हूँ-कितने अपात्र को तुमने अपनी करुणा दी है। यों मैं तुम से बड़ी हूँ, पर...लेकिन जो नहीं कह सकूँगी, उसे कहने का यत्न नहीं करूँगी। पर मैं सच तुम्हारी ऋणी हूँ।

आशा है तुम प्रसन्न हो, और यथावत् काफ़ी हाउस जाते हो। दो-एक प्याले काफ़ी के मेरी ओर से भी पी लेना-पर काफ़ी अधिक मत पिया करो!

तुम्हारी

रेखा ---

इसके साथ का पत्र, रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

यह पत्र लिख तो रही हूँ चन्द्र के आग्रह से, पर इससे आपको एक बार फिर सच्चे मन से धन्यवाद देने का जो अवसर मिला है उसका अभिनन्दन करती हूँ। आपका परिचय मेरे इधर के धुँधले वर्षों में एक प्रखर ज्योति-किरण-सा है; मैं तो किसी हद तक कर्मवादी हूँ और सोचती हूँ कि मेरा इस बार का लखनऊ जाना और आपसे भेंट होना और आप के साथ प्रतापगढ़ तक लौटना 'लिखा हुआ' था। यों तो मानव-जीवन एक अकारण, अनिर्दिष्ट, आकारहीन गतिमयता-सा लगता है; पर मेरा ख़याल है, बीच-बीच में विधि मानवों के जीवन में थोड़ा-सा हस्तक्षेप ज़रूर करती है-एक-एक गोट को उठा कर एक-एक दिशा दे देती है...इस सबको वैज्ञानिक थ्योरी मान कर इसका खण्डन-मण्डन न करें-मैं अपनी भावना की बात कहती हूँ।

चन्द्र का पहाड़ चलने का आग्रह है। मैंने अभी कुछ निश्चय नहीं किया; मेरी कठिनाइयाँ तो आप देखेंगे ही। चन्द्र का विचार था कि आप भी चलें, क्या ऐसा हो सकेगा? बल्कि आप भी चलें, और अपने परिचित और किसी को भी साथ लें-पुरुष, स्त्री, परिवार, जो आप चाहें और जिनका साथ आप को प्रीतिकर रहे। 'चलें' तो मैं कह गयी, पर अपने जाने का निश्चय तभी करूँगी जब आप का पक्का पता आ जाये।

मेरा पता ऊपर दिया है। आप उत्तर चाहें मुझे दें, चाहे चन्द्रमाधव को ही सीधे दे दें।

विनीत

रेखा

(यह पत्र चन्द्रमाधव के पत्र के साथ भुवन को मिला तो उसके हाशिये पर जगह-जगह चन्द्र के नोट थे। 'ज्योति-किरण' वाली बात के बराबर लिखा था : “मेरी बधाई स्वीकार करो, दोस्त!” 'विधि के हस्तक्षेप' वाली के बराबर लिखा था : “अब निस्तार नहीं है-विधि ने जो दिशा दे दी वह तो पकड़नी ही होगी!” अन्त में लिखा था : “न, तुम उत्तर सीधे ही देना-तुम्हारी गति उसी दिशा में है।”)

भुवन द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ, यद्यपि उसके साथ ही अपनी अकिंचनता का बोध बड़े ज़ोर से हो आया। आप अगर कर्मवादी हैं तो धन्यवाद देने का प्रश्न यों भी नहीं उठना चाहिए; फिर मैं तो किसी तरह अधिकारी नहीं हूँ। बल्कि मुझसे कूप-मण्डूक को जब-तब कोई बाहर का प्रकाश दिखा दे, तो मुझे कृतज्ञ होना चाहिए-भले ही उस प्रकाश से चौंध भी लगे!

पहाड़ की बात चन्द्र ने भी लिखी है। निमन्त्रण के लिए मैं आप दोनों का आभारी हूँ। और जा सकता तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती; पर अभी कुछ ठीक नहीं कह सकता। इसकी बहुत काफ़ी सम्भावना है कि ग्रीष्मावकाश में मुझे एक वैज्ञानिक मण्डल के साथ, या उसकी ओर से कहीं जाना पड़े। बहुत सम्भव है कि पहाड़ ही जाना पड़े, क्योंकि कॉस्मिक रश्मियों के सम्बन्ध का काम है और उसके लिए मापक यन्त्रों को पहाड़ी ऊँचाइयों पर या जल की गहराई में ले जाना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो सम्भव है, कुछ दिन के लिए मैं कहीं पहाड़ पर आप लोगों को मिल जाऊँ। नहीं तो फिर किसी सुअवसर की प्रतीक्षा करनी होगी। पर कुल्लू कदाचित् न हो सके-उधर जोज़ी-ला पर एक दूसरा दल जाएगा यह निश्चित है। मैं या तो भूमध्य रेखा की ओर लंका में कहीं जाऊँगा या किसी निर्जन पहाड़ी झील पर-शायद कश्मीर में। कुछ निश्चय होते ही सूचित करूँगा।

आशा है आप प्रसन्न हैं।

आप का

भुवन ---

भुवन द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र और उसके साथ रेखा देवी का पत्र और उस पर तुम्हारी बदतमीज़ियाँ सब मिलीं। रेखा जी को मैंने उत्तर तभी दे दिया था। लिख दिया था कि मेरे जा सकने का कोई ठीक नहीं है, क्योंकि मैं शायद काम से कहीं जाऊँ। तुम्हें चिट्ठी लिखने में इसीलिए देर की कि कुछ पक्का पता लग जाये। अब यह तय है कि मैं कश्मीर जाऊँगा; पहलगाँव से ऊपर तुलियन झील है, वहाँ पर। मैं कॉस्मिक रेज़ पर कुछ काम करता रहा हूँ, तुम जानते हो, उसी सिलसिले में कुछ नये मेज़रमेन्ट लेने होंगे अन्यत्र लिए गये मेज़रमेन्ट की चेकिंग के लिए। एक टोली रोहतांग के पार जोज़ी-ला जा रही है ऊँचाइयों पर माप लेने के लिए; मैं तुलियन झील में पानी की गहराई में माप लूँगा।

इसलिए कुल्लू का तो कोई सवाल नहीं है। अधिक-से-अधिक एक बात हो सकती है। अगर तुम लोग कश्मीर जाओ, तो मैं चार-छः दिन शायद कहीं मिल सकता हूँ। यहाँ से कुछ यन्त्र वग़ैरह साथ लेकर चलूँगा; दिल्ली से उन्हें बुक कर देना होगा और उनके पहुँचने में कुछ दिन लगेंगे ही। यह समय या तो दिल्ली में बिता सकता हूँ, या फिर आगे कहीं जा सकता हूँ। तुम लोग जैसा प्रोग्राम बनाओगे, मुझे सूचना देना।

रेखा जी को अलग पत्र नहीं लिख रहा हूँ। मैंने कहा था कि पक्का होते ही सूचना दूँगा, पर तुम्हीं लिख देना; फिर जैसा तय होगा मुझे बता देना।

और क्या हाल-चाल हैं? लखनऊ अभी कायम है या कि तुमने उलट दिया अपनी अखबारनवीसी से?

तुम्हारा

भुवन --

भुवन द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा,

यह बिना तुम्हारी ओर से प्रेरणा या 'कोंच' के लिखा गया पत्र पाकर तुम्हें अचम्भा होगा। होगा न? पर कोई कोयला इतना काला नहीं होता कि सुलग कर राख न हो सके! मुझे भी दैवी अनुकम्पा कभी छू जाती है और नेक काम कर बैठता हूँ।

ग्रीष्मावकाश में, शायद, तुमसे भेंट न हो सके। मैं काम से कश्मीर जा रहा हूँ। कॉस्मिक रश्मियों की तलाश में। कभी सोचता हूँ, इन रश्मियों को हम ठीक समझ सकें; विश्व में बिखरी हुई इस मुक्त शक्ति को काम में ला सकें, तो मानव का कितना बड़ा कल्याण उसके द्वारा हो सकेगा-सच ही 'शिव' सर्वत्र फैला हुआ, घट-घट व्यापी और अन्तर्यामी है, उसे पहचान सकने, उससे सम्पृक्त हो सकने की ही बात है...फिर ध्यान आता है, आज जो इतनी तत्परता कॉस्मिक रश्मियों की खोज में दिखायी जा रही है, वह क्या उनकी कल्याणकारी सम्भावनाओं के लिए? या कि ध्वंस के रथ-चक्र में एक और अरा लगा देने के लिए, जिससे उसकी गति और तीव्र हो सके? लेकिन उस डर से विज्ञान को रुकना नहीं होगा : वैज्ञानिक को तथ्य की शोध भी करनी होगी और विवेक को भी जगाना होगा...

कुछ दिन पहले लखनऊ गया था। चन्द्रमाधव अच्छी तरह है; काफ़ी और शहर का स्कैंडल-राजनैतिक-सामाजिक-उसका मुख्य खाद्य है। और वह इस पर पनप भी रहा है। उसके यहाँ एक और रिमार्केबल व्यक्ति से परिचय हुआ-एक श्रीमती रेखा देवी से। तुम उन्हें देखती तो अवश्य प्रभावित होती-एक स्वाधीन व्यक्ति जिसका व्यक्तित्व प्रतिभा के सहज तेज से नहीं, दुःख की आँच से निखरा है। दुःख तोड़ता भी है पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ पाता, तब व्यक्ति को मुक्त करता है। ऐसा ही कुछ मुझे उनमें लगा। हम लोगों की कई तरह की बहस हुई-सत्य पर, मानवता पर, काफ़ी पीने पर! एक गाना भी उनसे सुना-बांग्ला का-गला बहुत अच्छा है पर गाने की बात पर न जाने किस रागात्मक गाँठ का बोझ है। जो अच्छा गा सकता है, वह क्यों नहीं गाते समय सब राग-विराग से मुक्त हो? संगीत को तो गायक को ही नहीं, श्रोता को भी राग-मुक्त कर देना चाहिए। परिणाम यही निकलता है कि संगीत से उनका कलाकार का सम्बन्ध नहीं है, भावुक का है। पर तर्कवाद को यहाँ तक क्यों ले जाया जाये? उनकी आवाज़ बहुत अच्छी थी, और उसमें 'सोज़' था।

तुम क्या कर रही हो-कब इधर आती हो? कश्मीर से लौट कर तो शायद भेंट होगी ही। आगे क्या करने का विचार है? लिखना! और क्या जाने, दैव-कृपा फिर मुझे छू जाए और मैं फिर पत्र लिख दूँ।

तुम्हारा स्नेही

भुवन ---

चन्द्र द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

भुवन का पत्र आया है। कुल्लू तो वह नहीं जा सकेगा-कश्मीर जा रहा है कुछ रिसर्च के सिलसिले में-पर उसने लिखा है कि अगर हम लोग कश्मीर में कहीं मिल सकें तो वह कुछ दिन हमारे साथ रहना चाहेगा। क्यों न वैसा ही प्रोग्राम बनाया जाये? कश्मीर चलें; वहीं भुवन साथ हो लेगा और वहाँ से फिर उसे आगे जहाँ जाना होगा चला जाएगा। आप चाहे वहीं रह जाइएगा चाहे लौट आइएगा। यह भी हो सकता है कि हम सब दिल्ली मिलें और वहीं से साथ चलें। मैंने छुट्टी ले ली है, अब आप अगर न चलेंगी तो मुझे बहुत-बहुत सख्त सदमा पहुँचेगा।

मेरे ख़याल में सबसे अच्छा होगा कि हम लोग मिलकर कुछ पक्का प्रोग्राम बना लें, और भुवन को सूचना दे दें। उसने भी यही लिखा है। आप एक-आध दिन फिर लखनऊ आ जाइये न-या मुझे लिखें, मैं प्रतापगढ़ आ जाऊँ? दो घंटे का तो रास्ता है।

प्रतीक्षा में,

आपका

चन्द्र ---

पुनः चन्द्र द्वारा रेखा को :

रेखा,

तुम (हाँ, मैं जानता हूँ तुम इस सम्बोधन से चौंकोगी; यद्यपि तुम मुझे तुम कह सकती हो, पचासों औरत-आदमी एक दूसरे को तुम कहते हैं और कोई नहीं चौंकता; पर तुम्हारा चौंकना ठीक भी है क्योंकि मैं हज़ारों की तरह तुम्हें तुम नहीं कह रहा हूँ, वैसे कह रहा हूँ जैसे एक एक को कहता है) तुम यहाँ आओगी, दिन-भर के लिए और रात की गाड़ी से वापस चली जाओगी। ठीक है, इतना ही सही। यह भी हो सकता है कि इतना भी तुम इसलिए कर रही हो कि भुवन के पास जाने की बात है, नहीं तो न आती। वह भी सही। यह होता ही है कि स्त्रियाँ जहाँ उदासीनता देखती हैं, वहाँ आकृष्ट होती हैं। पर रेखा, तुम नहीं जानती कि मैंने कितनी बार तुम्हें बुलाना चाहा है, 'तुम' कह कर ही नहीं, 'तू' कह कर-कुछ न कह कर केवल आँखों से, मन से, हृदय की धड़कन से, अपने समूचे अस्तित्व से! के तुम अगर डेस्टिनी को मानती हो तो कहूँ कि जब से तुम्हें देखा है; तब से यह जानता रहा हूँ कि डेस्टिनी ने मुझे तुम्हारे साथ बाँधा है, और मैं चाहूँ न चाहूँ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मैं तुम्हारी ओर बढ़ता जाऊँ, तुम दूर जाओ तो तुम्हारे पीछे जाऊँ पृथ्वी के परले छोर तक भी! और आज तीन वर्षों से यह बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ, एक-आध दफ़े मैंने ठान कर प्रयत्न भी किया है पर तुम टाल गयी हो। पर आज मैंने निश्चय किया है कि मैं कहूँगा ही, किसी तरह नहीं रुकूँगा।

उस दिन जब मैंने अपने जीवन की, अपने विवाह की कहानी तुम्हें सुनायी थी, तब तुमने पूछा था कि यह सब क्यों मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उस दिन भी मैंने चाहा था कि पूरी बात तुम से कह दूँ। फिर बड़े दिनों में भी-पर तब भी तुम और-और बातें करके टाल गयी थीं। पिछली बार भुवन के कारण कोई मौका ही नहीं मिला। पर एक तरह से मैं उससे खुश ही हूँ। क्योंकि उस बार मुझे और भी स्पष्ट दीख गया कि तुम्हारे बिना मेरी गति नहीं है। यह भी तब मैंने अनुभव किया-तुम चाहे इसे न मानो-कि तुम्हारे अधूरेपन को मैं ही पूरा कर सकता हूँ, मैं ही, और कोई नहीं, कोई नहीं! तुम अधूरेपन से भी इनकार करोगी, तुम भविष्य से भी इनकार करती हो-तुमने अपने को बचाये रखने के लिए बहुत-सी बोगस थ्योरियाँ गढ़ रखी हैं जिन्हें तुम भी नहीं मानती हो, मैं जानता हूँ! और भुवन से तुम्हारे व्यवहार में यह मुझे स्पष्ट दीखा कि तुम्हारी सब थ्योरियाँ केवल एक रक्षा कवच हैं, ताबीज़ की तरह तुमने उन्हें बाँध रखा है क्योंकि तुम्हारी सारी प्रवृत्तियाँ उनके विरुद्ध हैं और तुम स्वयं अपनी प्रवृत्तियों से डरती हो। क्यों डरती हो? जो सहज प्रवृत्तियाँ हैं; वे कल्याणकारी हैं। और तुम्हारी प्रवृत्तियाँ और मेरी प्रवृत्तियाँ समानान्तर हैं, रेखा! भुवन दूसरी दुनिया का आदमी है। हो सकता है कि मुझ से ऊँचा, अच्छी दुनिया का ही हो, पर वह दूसरी दुनिया है, दूसरा स्तर है, और वह स्तर हमारे-तुम्हारे स्तर को कहीं नहीं काटता। क्यों तुम और अपनी प्रतारणा करती हो-क्या तुम्हारे जीवन में पहले ही यथेष्ट प्रतारणा नहीं रही?

रेखा, तुम बार-बार कह देती हो कि तुम मुझसे बड़ी हो, पर यह भी एक कवच है तुम्हारा। उम्र में भी तुम मुझसे दो-तीन बरस छोटी तो हो ही; वैसे भी किस बात में बड़ी हो? यों मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, सदा करूँगा, तुम्हारे पैर चूमूँगा, यह बात दूसरी है; पर कौन-सा अनुभव तुम्हें इतनी दूर ऊपर उठा ले जाता है? मैं बच्चा नहीं हूँ, रेखा, दो बच्चों का पिता हूँ : क्लेश तुम ने भोगा है अवश्य, पर मैं उससे अछूता होऊँ यह नहीं है। और विवाह के बाद मैं यूरोप घूमा हूँ-युद्ध के आसन्न संकट से निराश, नीति-हीन प्रतिमान-हीन यूरोप-और उसमें जो अनुभव मैंने पाये हैं वे-क्षमा करना-एक विवाह और एक विच्छेद से कहीं अधिक तीखे, कटु और पका देने वाले हैं...तभी तो, लौटकर फिर मैं गृहस्थी में खप न सका; घर गया, कुछ रहा; हाँ, पत्नी के साथ सोया भी और उससे एक बच्चा भी पैदा किया; पर इन सब अनुभवों ने उस गर्म कड़ाहे को और तपाया ही, उस तेल को और तपाया ही जिसमें जलकर मैं आज वह बना हूँ जो मैं हूँ। तुमने एक बार कहा था कि तुम्हारे आसपास दुर्भाग्य का एक मण्डल है, पर मैं देखता हूँ, जानता हूँ, अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी आत्मा के घावों की मरहम हो, तुम्हारा साया मेरे लिए राहत है, और-यदि तुम वह मुझे दे सको तो-तुम्हारा प्यार मेरे लिए जन्नत है...मैं बड़ा लालची रहा हूँ, जीवन से मैंने बहुत माँगा है, छोटी चीज़ कभी नहीं माँगी, बड़ी से बड़ी माँगता आया हूँ, मैं सच कहता हूँ कि इससे आगे मेरी और कोई माँग नहीं है, न होगी-यह मेरी सारी चाहनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं की अन्तिम सीमा है, मेरे अरमानों की इति, मेरी थकी प्यासी आत्मा की अन्तिम मंजिल। रेखा, तुममें असीम करुणा है-तुम तत्काल प्यार नहीं दे सकती तो करुणा ही दो, मुक्त करुणा, फिर उसी में से प्यार उपजेगा।

मैं लालची हूँ, मैं स्वार्थी भी हूँ। पर इतना स्वार्थी नहीं, रेखा, कि इस बात को मैंने तुम्हारी ओर से न सोचा हो। तुम अकेली हो, मुक्त हो, नौकरियाँ करती हो। पर कहाँ तक? किसलिए? मुक्ति आज नारी चाहती है, चलो ठीक है, यद्यपि आज मुक्त कोई नहीं है और है तो इस महायुद्ध के बाद शायद वह भी न रहेगा-पर नौकरी तो कोई नहीं चाहता? मुक्ति के लिए नौकरी, नौकरी के लिए मुक्ति, दोहरा धोखा है। सिक्योरिटी हर कोई चाहता है, और उसीमें मुक्ति है। पुरुष के लिए भी, और स्त्री के लिए और भी अधिक।

इन बातों की यहाँ क्या रेलेवेंस है? बताता हूँ। हेमेन्द्र (हम दोनों के बीच कभी उसका नाम नहीं लिया गया है, आज ले रहा हूँ, लाचारी है) मलय में जिसके साथ रहता है उसके या और किसी के साथ शीघ्र ही शादी करना चाहेगा-या न चाह कर भी करेगा क्योंकि इसके बग़ैर उसका वहाँ अधिक दिन रहना सम्भव नहीं होगा-जंग दोनों को अलग कर देगा और हेमेन्द्र को यहाँ ला फेंकेगा या जेल में डाल देगा। और इसके लिए वह तुम्हें डाइवोर्स करेगा ही। उसके लिए सबसे आसान तरीका यह होगा कि धर्म-परिवर्तन कर के डाइवोर्स माँगे-तुम न धर्म-परिवर्तन करोगी, न उसके पास जाओगी, बस। तुम डाइवोर्स माँगती तो वह न देता-और शादी के लिए माँगती तो और भी नहीं, तुम्हें वह गुलाम रखकर सताना ही चाहता-पर अपनी सुविधा के लिए वह सब करेगा।

और मैं? तुम्हारा सिविल विवाह था, तुम्हारी बात और है। मेरी स्थिति दूसरी है। पर मैं अपने विवाह को विवाह कभी नहीं मान सका हूँ-ऐसा विवाह सन्तान को जायज़ करने की रस्म से अधिक कुछ नहीं है, न हो सकता है। मैं अलग हूँ, अपने को अलग और मुक्त मानता हूँ, और मेरा परिवार भी मुझसे न कुछ चाहता है, न कुछ अपेक्षा रखता है सिवाय खर्चे के जो मैं भेजता हूँ और भेजता रहूँगा। सच रेखा, मुझे कभी उस बेचारी स्त्री पर बड़ी दया आती है। बल्कि उसका किसी से प्रेम हो, वह किसी से शादी करना चाहे, तो मैं कभी बाधा न दूँ बल्कि भरसक मदद करूँ-ख़ुद जाकर कन्यादान कर आऊँ-जो कुमारी नहीं है उसे कन्या कहना असम्मत तो नहीं है न?

रेखा भविष्य है, होता है, तुम मानो! पर तुम्हारे बिना मेरा भविष्य नहीं है, यह मैं क्षण-क्षण अनुभव करता हूँ। मैं चाहता हूँ, किसी तरह अपनी सुलगती भावना की तपी हुई सलाख से यह बात तुम्हारी चेतना पर दाग दूँ, कि तुम्हारी और मेरी गति, हमारी नियति एक है, कि तुम मेरी हो, रेखा, मेरी, मेरी जान, आत्मा, मेरी डेस्टिनी, मेरा सब कुछ-कि मुझसे मिले बिना तुम नहीं रह सकोगी, नहीं रह सकोगी; तुम्हें मेरे पास आना ही होगा, मुझसे मिलना ही होगा, एक होना ही होगा।

तुम्हारा अभिन्न और तुम से दूर

रेखा द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला है। सोचती तो हूँ कि चलो, हो ही आऊँ कुछ दिन पहाड़ पर, मगर कुछ निश्चय नहीं कर पाती हूँ। यों अभी सोचने और निश्चय करने के लिए काफ़ी समय भी तो है।

पर तुम्हारे मित्र को मैं क्यों लिखूँ? और मेरी बात का उन पर क्या असर होगा? उनकी बातचीत और सम्पर्क से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ निस्सन्देह, और लखनऊ से प्रतापगढ़ की यात्रा तो एक 'रेवेलेशन' ही था मानो-तुम जानते हो, रेलगाड़ी में बिलकुल अज़नबी से कभी-कभी ऐसा निकट सम्पर्क हो जाता है जिसे साधारण सामाजिक जीवन में प्राप्त करते बरसों भी लग सकते हैं; समाज में आदमी अपने सब छद्य, कवच, अस्त्र-शस्त्र जो धारण किये रहता है और सब ओर से चौकस रहता है, रेल में वह उन्हें उतार कर सहज स्वाभाविक मानव प्राणी हो जाता है...लेकिन यह मैं अपनी बात कहती हूँ; डा. भुवन स्वयं असम्पृक्त और दूर हैं और वह जो तय करेंगे अपने मन से ठीक-बेठीक और सुविधा विचार कर ही करेंगे। फिर भी, तुम ने कहा है, इसलिए यह पत्र साथ में है, तुम्हीं अपने पत्र के साथ उन्हें भेज देना!

इस बार लखनऊ का प्रवास सुखद रहा। इसके लिए तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। सचमुच, चन्द्र, मेरे लिए तुम जो कुछ करते रहे हो, जब सोचती हूँ तो गड़ जाती हूँ-कितने अपात्र को तुमने अपनी करुणा दी है। यों मैं तुम से बड़ी हूँ, पर...लेकिन जो नहीं कह सकूँगी, उसे कहने का यत्न नहीं करूँगी। पर मैं सच तुम्हारी ऋणी हूँ।

आशा है तुम प्रसन्न हो, और यथावत् काफ़ी हाउस जाते हो। दो-एक प्याले काफ़ी के मेरी ओर से भी पी लेना-पर काफ़ी अधिक मत पिया करो!

तुम्हारी

रेखा

इसके साथ का पत्र, रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

यह पत्र लिख तो रही हूँ चन्द्र के आग्रह से, पर इससे आपको एक बार फिर सच्चे मन से धन्यवाद देने का जो अवसर मिला है उसका अभिनन्दन करती हूँ। आपका परिचय मेरे इधर के धुँधले वर्षों में एक प्रखर ज्योति-किरण-सा है; मैं तो किसी हद तक कर्मवादी हूँ और सोचती हूँ कि मेरा इस बार का लखनऊ जाना और आपसे भेंट होना और आप के साथ प्रतापगढ़ तक लौटना 'लिखा हुआ' था। यों तो मानव-जीवन एक अकारण, अनिर्दिष्ट, आकारहीन गतिमयता-सा लगता है; पर मेरा ख़याल है, बीच-बीच में विधि मानवों के जीवन में थोड़ा-सा हस्तक्षेप ज़रूर करती है-एक-एक गोट को उठा कर एक-एक दिशा दे देती है...इस सबको वैज्ञानिक थ्योरी मान कर इसका खण्डन-मण्डन न करें-मैं अपनी भावना की बात कहती हूँ।

चन्द्र का पहाड़ चलने का आग्रह है। मैंने अभी कुछ निश्चय नहीं किया; मेरी कठिनाइयाँ तो आप देखेंगे ही। चन्द्र का विचार था कि आप भी चलें, क्या ऐसा हो सकेगा? बल्कि आप भी चलें, और अपने परिचित और किसी को भी साथ लें-पुरुष, स्त्री, परिवार, जो आप चाहें और जिनका साथ आप को प्रीतिकर रहे। 'चलें' तो मैं कह गयी, पर अपने जाने का निश्चय तभी करूँगी जब आप का पक्का पता आ जाये।

मेरा पता ऊपर दिया है। आप उत्तर चाहें मुझे दें, चाहे चन्द्रमाधव को ही सीधे दे दें।

विनीत

रेखा

(यह पत्र चन्द्रमाधव के पत्र के साथ भुवन को मिला तो उसके हाशिये पर जगह-जगह चन्द्र के नोट थे। 'ज्योति-किरण' वाली बात के बराबर लिखा था : “मेरी बधाई स्वीकार करो, दोस्त!” 'विधि के हस्तक्षेप' वाली के बराबर लिखा था : “अब निस्तार नहीं है-विधि ने जो दिशा दे दी वह तो पकड़नी ही होगी!” अन्त में लिखा था : “न, तुम उत्तर सीधे ही देना-तुम्हारी गति उसी दिशा में है।”)

भुवन द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ, यद्यपि उसके साथ ही अपनी अकिंचनता का बोध बड़े ज़ोर से हो आया। आप अगर कर्मवादी हैं तो धन्यवाद देने का प्रश्न यों भी नहीं उठना चाहिए; फिर मैं तो किसी तरह अधिकारी नहीं हूँ। बल्कि मुझसे कूप-मण्डूक को जब-तब कोई बाहर का प्रकाश दिखा दे, तो मुझे कृतज्ञ होना चाहिए-भले ही उस प्रकाश से चौंध भी लगे!

पहाड़ की बात चन्द्र ने भी लिखी है। निमन्त्रण के लिए मैं आप दोनों का आभारी हूँ। और जा सकता तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती; पर अभी कुछ ठीक नहीं कह सकता। इसकी बहुत काफ़ी सम्भावना है कि ग्रीष्मावकाश में मुझे एक वैज्ञानिक मण्डल के साथ, या उसकी ओर से कहीं जाना पड़े। बहुत सम्भव है कि पहाड़ ही जाना पड़े, क्योंकि कॉस्मिक रश्मियों के सम्बन्ध का काम है और उसके लिए मापक यन्त्रों को पहाड़ी ऊँचाइयों पर या जल की गहराई में ले जाना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो सम्भव है, कुछ दिन के लिए मैं कहीं पहाड़ पर आप लोगों को मिल जाऊँ। नहीं तो फिर किसी सुअवसर की प्रतीक्षा करनी होगी। पर कुल्लू कदाचित् न हो सके-उधर जोज़ी-ला पर एक दूसरा दल जाएगा यह निश्चित है। मैं या तो भूमध्य रेखा की ओर लंका में कहीं जाऊँगा या किसी निर्जन पहाड़ी झील पर-शायद कश्मीर में। कुछ निश्चय होते ही सूचित करूँगा।

आशा है आप प्रसन्न हैं।

आप का

भुवन

भुवन द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र और उसके साथ रेखा देवी का पत्र और उस पर तुम्हारी बदतमीज़ियाँ सब मिलीं। रेखा जी को मैंने उत्तर तभी दे दिया था। लिख दिया था कि मेरे जा सकने का कोई ठीक नहीं है, क्योंकि मैं शायद काम से कहीं जाऊँ। तुम्हें चिट्ठी लिखने में इसीलिए देर की कि कुछ पक्का पता लग जाये। अब यह तय है कि मैं कश्मीर जाऊँगा; पहलगाँव से ऊपर तुलियन झील है, वहाँ पर। मैं कॉस्मिक रेज़ पर कुछ काम करता रहा हूँ, तुम जानते हो, उसी सिलसिले में कुछ नये मेज़रमेन्ट लेने होंगे अन्यत्र लिए गये मेज़रमेन्ट की चेकिंग के लिए। एक टोली रोहतांग के पार जोज़ी-ला जा रही है ऊँचाइयों पर माप लेने के लिए; मैं तुलियन झील में पानी की गहराई में माप लूँगा।

इसलिए कुल्लू का तो कोई सवाल नहीं है। अधिक-से-अधिक एक बात हो सकती है। अगर तुम लोग कश्मीर जाओ, तो मैं चार-छः दिन शायद कहीं मिल सकता हूँ। यहाँ से कुछ यन्त्र वग़ैरह साथ लेकर चलूँगा; दिल्ली से उन्हें बुक कर देना होगा और उनके पहुँचने में कुछ दिन लगेंगे ही। यह समय या तो दिल्ली में बिता सकता हूँ, या फिर आगे कहीं जा सकता हूँ। तुम लोग जैसा प्रोग्राम बनाओगे, मुझे सूचना देना।

रेखा जी को अलग पत्र नहीं लिख रहा हूँ। मैंने कहा था कि पक्का होते ही सूचना दूँगा, पर तुम्हीं लिख देना; फिर जैसा तय होगा मुझे बता देना।

और क्या हाल-चाल हैं? लखनऊ अभी कायम है या कि तुमने उलट दिया अपनी अखबारनवीसी से?

तुम्हारा

भुवन

भुवन द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा,

यह बिना तुम्हारी ओर से प्रेरणा या 'कोंच' के लिखा गया पत्र पाकर तुम्हें अचम्भा होगा। होगा न? पर कोई कोयला इतना काला नहीं होता कि सुलग कर राख न हो सके! मुझे भी दैवी अनुकम्पा कभी छू जाती है और नेक काम कर बैठता हूँ।

ग्रीष्मावकाश में, शायद, तुमसे भेंट न हो सके। मैं काम से कश्मीर जा रहा हूँ। कॉस्मिक रश्मियों की तलाश में। कभी सोचता हूँ, इन रश्मियों को हम ठीक समझ सकें; विश्व में बिखरी हुई इस मुक्त शक्ति को काम में ला सकें, तो मानव का कितना बड़ा कल्याण उसके द्वारा हो सकेगा-सच ही 'शिव' सर्वत्र फैला हुआ, घट-घट व्यापी और अन्तर्यामी है, उसे पहचान सकने, उससे सम्पृक्त हो सकने की ही बात है...फिर ध्यान आता है, आज जो इतनी तत्परता कॉस्मिक रश्मियों की खोज में दिखायी जा रही है, वह क्या उनकी कल्याणकारी सम्भावनाओं के लिए? या कि ध्वंस के रथ-चक्र में एक और अरा लगा देने के लिए, जिससे उसकी गति और तीव्र हो सके? लेकिन उस डर से विज्ञान को रुकना नहीं होगा : वैज्ञानिक को तथ्य की शोध भी करनी होगी और विवेक को भी जगाना होगा...

कुछ दिन पहले लखनऊ गया था। चन्द्रमाधव अच्छी तरह है; काफ़ी और शहर का स्कैंडल-राजनैतिक-सामाजिक-उसका मुख्य खाद्य है। और वह इस पर पनप भी रहा है। उसके यहाँ एक और रिमार्केबल व्यक्ति से परिचय हुआ-एक श्रीमती रेखा देवी से। तुम उन्हें देखती तो अवश्य प्रभावित होती-एक स्वाधीन व्यक्ति जिसका व्यक्तित्व प्रतिभा के सहज तेज से नहीं, दुःख की आँच से निखरा है। दुःख तोड़ता भी है पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ पाता, तब व्यक्ति को मुक्त करता है। ऐसा ही कुछ मुझे उनमें लगा। हम लोगों की कई तरह की बहस हुई-सत्य पर, मानवता पर, काफ़ी पीने पर! एक गाना भी उनसे सुना-बांग्ला का-गला बहुत अच्छा है पर गाने की बात पर न जाने किस रागात्मक गाँठ का बोझ है। जो अच्छा गा सकता है, वह क्यों नहीं गाते समय सब राग-विराग से मुक्त हो? संगीत को तो गायक को ही नहीं, श्रोता को भी राग-मुक्त कर देना चाहिए। परिणाम यही निकलता है कि संगीत से उनका कलाकार का सम्बन्ध नहीं है, भावुक का है। पर तर्कवाद को यहाँ तक क्यों ले जाया जाये? उनकी आवाज़ बहुत अच्छी थी, और उसमें 'सोज़' था।

तुम क्या कर रही हो-कब इधर आती हो? कश्मीर से लौट कर तो शायद भेंट होगी ही। आगे क्या करने का विचार है? लिखना! और क्या जाने, दैव-कृपा फिर मुझे छू जाए और मैं फिर पत्र लिख दूँ।

तुम्हारा स्नेही

भुवन

चन्द्र द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

भुवन का पत्र आया है। कुल्लू तो वह नहीं जा सकेगा-कश्मीर जा रहा है कुछ रिसर्च के सिलसिले में-पर उसने लिखा है कि अगर हम लोग कश्मीर में कहीं मिल सकें तो वह कुछ दिन हमारे साथ रहना चाहेगा। क्यों न वैसा ही प्रोग्राम बनाया जाये? कश्मीर चलें; वहीं भुवन साथ हो लेगा और वहाँ से फिर उसे आगे जहाँ जाना होगा चला जाएगा। आप चाहे वहीं रह जाइएगा चाहे लौट आइएगा। यह भी हो सकता है कि हम सब दिल्ली मिलें और वहीं से साथ चलें। मैंने छुट्टी ले ली है, अब आप अगर न चलेंगी तो मुझे बहुत-बहुत सख्त सदमा पहुँचेगा।

मेरे ख़याल में सबसे अच्छा होगा कि हम लोग मिलकर कुछ पक्का प्रोग्राम बना लें, और भुवन को सूचना दे दें। उसने भी यही लिखा है। आप एक-आध दिन फिर लखनऊ आ जाइये न-या मुझे लिखें, मैं प्रतापगढ़ आ जाऊँ? दो घंटे का तो रास्ता है।

प्रतीक्षा में,

आपका

चन्द्र

पुनः चन्द्र द्वारा रेखा को :

रेखा,

तुम (हाँ, मैं जानता हूँ तुम इस सम्बोधन से चौंकोगी; यद्यपि तुम मुझे तुम कह सकती हो, पचासों औरत-आदमी एक दूसरे को तुम कहते हैं और कोई नहीं चौंकता; पर तुम्हारा चौंकना ठीक भी है क्योंकि मैं हज़ारों की तरह तुम्हें तुम नहीं कह रहा हूँ, वैसे कह रहा हूँ जैसे एक एक को कहता है) तुम यहाँ आओगी, दिन-भर के लिए और रात की गाड़ी से वापस चली जाओगी। ठीक है, इतना ही सही। यह भी हो सकता है कि इतना भी तुम इसलिए कर रही हो कि भुवन के पास जाने की बात है, नहीं तो न आती। वह भी सही। यह होता ही है कि स्त्रियाँ जहाँ उदासीनता देखती हैं, वहाँ आकृष्ट होती हैं। पर रेखा, तुम नहीं जानती कि मैंने कितनी बार तुम्हें बुलाना चाहा है, 'तुम' कह कर ही नहीं, 'तू' कह कर-कुछ न कह कर केवल आँखों से, मन से, हृदय की धड़कन से, अपने समूचे अस्तित्व से! के तुम अगर डेस्टिनी को मानती हो तो कहूँ कि जब से तुम्हें देखा है; तब से यह जानता रहा हूँ कि डेस्टिनी ने मुझे तुम्हारे साथ बाँधा है, और मैं चाहूँ न चाहूँ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मैं तुम्हारी ओर बढ़ता जाऊँ, तुम दूर जाओ तो तुम्हारे पीछे जाऊँ पृथ्वी के परले छोर तक भी! और आज तीन वर्षों से यह बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ, एक-आध दफ़े मैंने ठान कर प्रयत्न भी किया है पर तुम टाल गयी हो। पर आज मैंने निश्चय किया है कि मैं कहूँगा ही, किसी तरह नहीं रुकूँगा।

उस दिन जब मैंने अपने जीवन की, अपने विवाह की कहानी तुम्हें सुनायी थी, तब तुमने पूछा था कि यह सब क्यों मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उस दिन भी मैंने चाहा था कि पूरी बात तुम से कह दूँ। फिर बड़े दिनों में भी-पर तब भी तुम और-और बातें करके टाल गयी थीं। पिछली बार भुवन के कारण कोई मौका ही नहीं मिला। पर एक तरह से मैं उससे खुश ही हूँ। क्योंकि उस बार मुझे और भी स्पष्ट दीख गया कि तुम्हारे बिना मेरी गति नहीं है। यह भी तब मैंने अनुभव किया-तुम चाहे इसे न मानो-कि तुम्हारे अधूरेपन को मैं ही पूरा कर सकता हूँ, मैं ही, और कोई नहीं, कोई नहीं! तुम अधूरेपन से भी इनकार करोगी, तुम भविष्य से भी इनकार करती हो-तुमने अपने को बचाये रखने के लिए बहुत-सी बोगस थ्योरियाँ गढ़ रखी हैं जिन्हें तुम भी नहीं मानती हो, मैं जानता हूँ! और भुवन से तुम्हारे व्यवहार में यह मुझे स्पष्ट दीखा कि तुम्हारी सब थ्योरियाँ केवल एक रक्षा कवच हैं, ताबीज़ की तरह तुमने उन्हें बाँध रखा है क्योंकि तुम्हारी सारी प्रवृत्तियाँ उनके विरुद्ध हैं और तुम स्वयं अपनी प्रवृत्तियों से डरती हो। क्यों डरती हो? जो सहज प्रवृत्तियाँ हैं; वे कल्याणकारी हैं। और तुम्हारी प्रवृत्तियाँ और मेरी प्रवृत्तियाँ समानान्तर हैं, रेखा! भुवन दूसरी दुनिया का आदमी है। हो सकता है कि मुझ से ऊँचा, अच्छी दुनिया का ही हो, पर वह दूसरी दुनिया है, दूसरा स्तर है, और वह स्तर हमारे-तुम्हारे स्तर को कहीं नहीं काटता। क्यों तुम और अपनी प्रतारणा करती हो-क्या तुम्हारे जीवन में पहले ही यथेष्ट प्रतारणा नहीं रही?

रेखा, तुम बार-बार कह देती हो कि तुम मुझसे बड़ी हो, पर यह भी एक कवच है तुम्हारा। उम्र में भी तुम मुझसे दो-तीन बरस छोटी तो हो ही; वैसे भी किस बात में बड़ी हो? यों मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, सदा करूँगा, तुम्हारे पैर चूमूँगा, यह बात दूसरी है; पर कौन-सा अनुभव तुम्हें इतनी दूर ऊपर उठा ले जाता है? मैं बच्चा नहीं हूँ, रेखा, दो बच्चों का पिता हूँ : क्लेश तुम ने भोगा है अवश्य, पर मैं उससे अछूता होऊँ यह नहीं है। और विवाह के बाद मैं यूरोप घूमा हूँ-युद्ध के आसन्न संकट से निराश, नीति-हीन प्रतिमान-हीन यूरोप-और उसमें जो अनुभव मैंने पाये हैं वे-क्षमा करना-एक विवाह और एक विच्छेद से कहीं अधिक तीखे, कटु और पका देने वाले हैं...तभी तो, लौटकर फिर मैं गृहस्थी में खप न सका; घर गया, कुछ रहा; हाँ, पत्नी के साथ सोया भी और उससे एक बच्चा भी पैदा किया; पर इन सब अनुभवों ने उस गर्म कड़ाहे को और तपाया ही, उस तेल को और तपाया ही जिसमें जलकर मैं आज वह बना हूँ जो मैं हूँ। तुमने एक बार कहा था कि तुम्हारे आसपास दुर्भाग्य का एक मण्डल है, पर मैं देखता हूँ, जानता हूँ, अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी आत्मा के घावों की मरहम हो, तुम्हारा साया मेरे लिए राहत है, और-यदि तुम वह मुझे दे सको तो-तुम्हारा प्यार मेरे लिए जन्नत है...मैं बड़ा लालची रहा हूँ, जीवन से मैंने बहुत माँगा है, छोटी चीज़ कभी नहीं माँगी, बड़ी से बड़ी माँगता आया हूँ, मैं सच कहता हूँ कि इससे आगे मेरी और कोई माँग नहीं है, न होगी-यह मेरी सारी चाहनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं की अन्तिम सीमा है, मेरे अरमानों की इति, मेरी थकी प्यासी आत्मा की अन्तिम मंजिल। रेखा, तुममें असीम करुणा है-तुम तत्काल प्यार नहीं दे सकती तो करुणा ही दो, मुक्त करुणा, फिर उसी में से प्यार उपजेगा।

मैं लालची हूँ, मैं स्वार्थी भी हूँ। पर इतना स्वार्थी नहीं, रेखा, कि इस बात को मैंने तुम्हारी ओर से न सोचा हो। तुम अकेली हो, मुक्त हो, नौकरियाँ करती हो। पर कहाँ तक? किसलिए? मुक्ति आज नारी चाहती है, चलो ठीक है, यद्यपि आज मुक्त कोई नहीं है और है तो इस महायुद्ध के बाद शायद वह भी न रहेगा-पर नौकरी तो कोई नहीं चाहता? मुक्ति के लिए नौकरी, नौकरी के लिए मुक्ति, दोहरा धोखा है। सिक्योरिटी हर कोई चाहता है, और उसीमें मुक्ति है। पुरुष के लिए भी, और स्त्री के लिए और भी अधिक।

इन बातों की यहाँ क्या रेलेवेंस है? बताता हूँ। हेमेन्द्र (हम दोनों के बीच कभी उसका नाम नहीं लिया गया है, आज ले रहा हूँ, लाचारी है) मलय में जिसके साथ रहता है उसके या और किसी के साथ शीघ्र ही शादी करना चाहेगा-या न चाह कर भी करेगा क्योंकि इसके बग़ैर उसका वहाँ अधिक दिन रहना सम्भव नहीं होगा-जंग दोनों को अलग कर देगा और हेमेन्द्र को यहाँ ला फेंकेगा या जेल में डाल देगा। और इसके लिए वह तुम्हें डाइवोर्स करेगा ही। उसके लिए सबसे आसान तरीका यह होगा कि धर्म-परिवर्तन कर के डाइवोर्स माँगे-तुम न धर्म-परिवर्तन करोगी, न उसके पास जाओगी, बस। तुम डाइवोर्स माँगती तो वह न देता-और शादी के लिए माँगती तो और भी नहीं, तुम्हें वह गुलाम रखकर सताना ही चाहता-पर अपनी सुविधा के लिए वह सब करेगा।

और मैं? तुम्हारा सिविल विवाह था, तुम्हारी बात और है। मेरी स्थिति दूसरी है। पर मैं अपने विवाह को विवाह कभी नहीं मान सका हूँ-ऐसा विवाह सन्तान को जायज़ करने की रस्म से अधिक कुछ नहीं है, न हो सकता है। मैं अलग हूँ, अपने को अलग और मुक्त मानता हूँ, और मेरा परिवार भी मुझसे न कुछ चाहता है, न कुछ अपेक्षा रखता है सिवाय खर्चे के जो मैं भेजता हूँ और भेजता रहूँगा। सच रेखा, मुझे कभी उस बेचारी स्त्री पर बड़ी दया आती है। बल्कि उसका किसी से प्रेम हो, वह किसी से शादी करना चाहे, तो मैं कभी बाधा न दूँ बल्कि भरसक मदद करूँ-ख़ुद जाकर कन्यादान कर आऊँ-जो कुमारी नहीं है उसे कन्या कहना असम्मत तो नहीं है न?

रेखा भविष्य है, होता है, तुम मानो! पर तुम्हारे बिना मेरा भविष्य नहीं है, यह मैं क्षण-क्षण अनुभव करता हूँ। मैं चाहता हूँ, किसी तरह अपनी सुलगती भावना की तपी हुई सलाख से यह बात तुम्हारी चेतना पर दाग दूँ, कि तुम्हारी और मेरी गति, हमारी नियति एक है, कि तुम मेरी हो, रेखा, मेरी, मेरी जान, आत्मा, मेरी डेस्टिनी, मेरा सब कुछ-कि मुझसे मिले बिना तुम नहीं रह सकोगी, नहीं रह सकोगी; तुम्हें मेरे पास आना ही होगा, मुझसे मिलना ही होगा, एक होना ही होगा।

तुम्हारा अभिन्न और तुम से दूर

च.

पुनश्च :

यह पत्र शायद प्रतापगढ़ भेजना ठीक न होगा। तुम आओगी, तो यहीं तुम्हें दूँगा। तुम दोपहर को पहुँचोगी, स्टेशन से ही सीधे काफ़ी हाउस चलेंगे, वहाँ से पुरानी रेज़िडेंसी; उसके खण्डहरों में एकान्त में बैठ कर ही तुमसे बात करूँगा-वहीं यह पत्र तुम्हें दूँगा, वहीं पढ़वाऊँगा...मैं देखना चाहता हूँ इसे पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे की एक-एक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गति-क्योंकि उसमें मेरा भाग्य लिखा होगा...रेखा, अभी तक मैं भी खण्डहर हूँ। तुम भी खण्डहर हो; पर वहाँ से हम खण्डहर नहीं, एक नयी, सुन्दर, सम्पूर्ण, जगमगाती इमारत निर्माण करके निकलेंगे ऐसा मन कहता है...

चन्द्रमाधव द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा जी,

बहुत दिनों से आपने मुझे याद नहीं किया। मैंने पिछले महीने जो पत्र लिखा था, उसकी पहुँच भी आपने न दी। फिर भी संगीत के तरन्नुम में हम बेसुरे लोगों को बिलकुल भूल न गयी होंगी ऐसी आशा करता हूँ।

पर आज कोई बेसुरा तर्क भी मैं छेड़ने नहीं जा रहा हूँ; मैंने निश्चय किया है कि अब अपनी बात नहीं किया करूँगा, हर किसी से उसके प्रिय विषय की चर्चा किया करूँगा। समझ लीजिए कि यही मेरी साधना होगी-देखिए, मैं भी साधना-धर्म को मान गया, और यह आप की व्यक्तिगत विजय है।

भुवन जी यहाँ आये थे, यह मैंने आपको पिछले पत्र में लिखा था। रेखा देवी के विषय में भी लिखा था। वह वास्तव में बड़ी प्रभावशालिनी महिला हैं, नहीं तो भुवन सरीखा आदमी अपनी यात्रा का प्रोग्राम किसी के साथ के लिए बदल दे, यह क्या सम्भव है?

रेखा जी अभी हाल में फिर यहाँ आयी थीं। इधर भुवन से उनका कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था; उन्होंने भुवन को पहाड़ चलने के लिए निमन्त्रित किया था। पहले मेरे भी साथ चलने की बात थी, पर अब प्रोग्राम कुछ बदल गया है भुवन जी रिसर्च के लिए कश्मीर जा रहे हैं न, मैं तो वहाँ न जा सकूँगा, पर रेखा जी कदाचित् कश्मीर ही जाएँगी। इधर वह कोई नौकरी नहीं कर रही हैं, इसीलिए पूरी छुट्टी है।

मैं सोचता हूँ मैं भी जा सकता। डा. भुवन जैसे लगन वाले वैज्ञानिक के साथ पहाड़ में कहीं कुछ दिन रह सकता, तो कुछ सीख ही लेता। वह हैं भौतिक विज्ञान के माहिर, पर और कितना कुछ जानते हैं...एक मैं हूँ कि स्वयं अपने विषय का ऊपरी ज्ञान रखता हूँ-पर जर्नलिज़्म की यही तो मार है; कहीं गहरे नहीं जाने देता, सब कुछ का ज्ञान होना चाहिए, पर उथला ज्ञान, कहीं भी गहरे गये कि दूसरे जर्नलिस्ट सन्देह से देखने लगते हैं, यह कौन उज़बक हमारे बीच में आ गया...

भुवन के गुणों से मैं क्रमशः अधिकाधिक प्रभावित होता जाता हूँ। पर सबसे बड़ा गुण उनका यह मानता हूँ कि उनके द्वारा मेरा आपसे परिचय हुआ। है स्वार्थ-दृष्टि, पर मेरे लिए तो यही गुण सबसे अधिक सुखद सिद्ध हुआ न!

यह पत्र न मालूम आपको समय पर मिलेगा या नहीं, आप कदाचित् दक्षिण से चल देने वाली हों। पर वहाँ न भी मिला तो आशा है रिडायरेक्ट तो हो ही जाएगा। दिल्ली पहुँचें तो मुझे सूचित कीजिएगा। मैं कुछ दिन के लिए वहाँ जाने की सोच रहा हूँ। छुट्टी पहाड़ जाने के लिए ली थी, पर भुवन दा का साथ तो हुआ नहीं, अब यह सोचता हूँ कि दिल्ली होकर मसूरी ही कुछ दिन रह आऊँ। आपका क्या मसूरी जाने का विचार नहीं है! आपके पिताजी तो जाएँगे-बल्कि वहीं होंगे?

आपका स्नेही

चन्द्रमाधव

चन्द्र द्वारा भुवन को :

भाई भुवन,

रेखा जी दो-चार दिन पहले यहाँ आयी थीं। मेरा पहाड़ जाना तो न हो सकेगा। मेरा साथ उन्हें अभीष्ट भी नहीं है। वह तुम्हारे साथ ही जाना चाहती हैं। खुशकिस्मत हो, दोस्त! बुद्धू हो तो क्या हुआ।

कभी जब पहाड़ से उतरोगे, तो मुझे भी याद कर लेना। मैं वही का वही हूँ, चन्द्रमाधव, जर्नलिस्ट, तुम्हारा अनुगत और प्रशंसक, और अब तुम्हारे तेज से अभिभूत।

चन्द्र

रेखा द्वारा भुवन को :

प्रिय भुवन जी,

आपके पिछले पत्र के बाद आशा की थी कि कुछ निश्चय होने पर आप फिर लिखेंगे। आपका कोई पत्र नहीं आया। हाँ, चन्द्रमाधव जी की ओर से सूचना मिली थी कि उनको आपका पत्र आया है, जिसमें आप ने कश्मीर की बात लिखी थी। वहीं का प्रोग्राम बताने के लिए उन्होंने मुझे लखनऊ बुलाया भी था, और मैं एक दिन दुपहर को जाकर रात की उसी गाड़ी से लौट आयी थी जिससे हम लोगों ने साथ यात्रा की थी।

भुवन जी, पहाड़ जाने के सारे प्रोग्राम को रद्द समझें। वह प्रोग्राम चन्द्रमाधव जी की प्रेरणा से बना था, उन्हीं के साथ हम लोगों के जाने की बात थी और इसी के लिए मैंने भी आपसे अनुरोध किया था; पर अब मैं उनके साथ न जा सकूँगी-न अकेले, न पार्टी में-इसलिए जाने की बात छोड़ देनी चाहिए। हाँ, आप अगर और लोगों को साथ लेकर जाने वाले हों तो मैं चल सकूँगी और आपका साथ पाकर प्रसन्न हूँगी-हाँ, आप मेरा साथ चाहें तब।

आपको व्यर्थ ही इतना कष्ट देने के लिए क्षमा चाहती हूँ।

आप की

रेखा

(आगे नया पन्ना जोड़ कर :)

भुवन जी, चन्द्रमाधव जी आप के मित्र हैं और उनका आपका परिचय बहुत पुराना है। ऐसे में मैं कोई कटुता लाना नहीं चाहती, और जिस स्थिति में फँस गयी हूँ उसके कारण लज्जा और संकोच के मारे गड़ी जा रही हूँ। फिर भी मैंने जो लिखा कि चन्द्रमाधव जी के साथ कहीं न जा सकूँगी उसके स्पष्टीकरण में कुछ तो कहना ही होगा। चन्द्रमाधव जी ने मुझे लखनऊ बुलाया था, मैं दोपहर को पहुँची तो पहले हम लोग काफ़ी हाउस गये। वहाँ आपके विषय में बातें होती रही, मैंने लक्ष्य किया कि उनकी बातों में बार-बार एक छिपी ईर्ष्या व्यक्त हो उठती है जिसका कारण न समझ सकी। फिर उन्होंने कहा, “यहाँ से रेज़िडेंसी चला जाये।” बाहर आँधी के आसार थे-आजकल धूल के कैसे झक्कड़ आते हैं, आप तो जानते हैं-मैंने आपत्ति की तो बोले, “रेखा जी, तुम ज़रा-सी आँधी से डरती हो?” वह मुझे सदा आप कहते हैं, आप और तुम की खिचड़ी कुछ अद्भुत लगी पर शायद दिल्ली का मुहावरा है इसलिए मैंने ध्यान न दिया, यह भी न लक्ष्य किया कि उनका स्वर आविष्ट है-बाद में यह भी याद आया।

हम लोग रेज़िडेंसी पहुँचे तो बड़े ज़ोर की आँधी आयी। वह ज़ोर से हँसे और बोले, “ठीक है, बिल्कुल मौजूँ है।” तब मैंने सँभल कर वापस चलने को कहा, पर उन्होंने कहा, “यहाँ तक आयी हो तो मेरी बात सुनकर जाओ।”

भुवन जी, आप समझदार हैं और मैं स्त्री हूँ। पूरी बात कहने की आवश्यकता भी नहीं है और उसमें व्यर्थ सब को ग्लानि ही होगी; आपको इस कीचड़ में खींचना भी न चाहिए। संक्षेप में कहूँ कि चन्द्रमाधव ने अपना प्रेम निवेदन किया-जबानी भी और एक लिखा हुआ पत्र देकर भी। पत्र मैंने वहाँ नहीं पढ़ा, उनकी बातों से ही स्तब्ध और अवाक् हो गयी क्योंकि मैं उन्हें अपना हितैषी, मित्र और सहायक मानती थी-उस नाते उनकी बहुत कृतज्ञ भी हूँ-यह नहीं जानती थी कि उनके हृदय में कैसे भाव भरे हैं। मैं वहाँ से तत्काल एक शब्द भी कहे बिना लौट आयी; वह वहीं रहे-पीछे मैंने सुना कि रो रहे हैं पर मैं रुकी नहीं-फिर ताँगा पाकर मैं सीधी स्टेशन पहुँची, काफ़ी पीने बैठी तो ध्यान आया कि उनका पत्र मेरे हाथ में है। वह मैंने नहीं पढ़ा। फिर वेटिंग रूम में बैठी रही, रात की गाड़ी से लौट आयी।

प्लेटफ़ार्म पर चन्द्रमाधव जी थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि चिट्ठी का उत्तर क्या उन्हें दूँगी? मैंने कहा कि अपनी समझ से उत्तर तो मैं दे आयी जब चली आयी। तब उन्होंने अपना पत्र वापस माँगा। मैंने दे दिया।

भुवन जी, मैं बहुत ही लज्जित हूँ सारी घटना से, पर समझ में नहीं आता कि क्यों मेरे साथ ऐसी बात होती है-सिवा इसके कि फिर नियति की बात कहूँ! मेरे साथ दुर्भाग्य का एक मण्डल चलता है-जो छूता नहीं, ग्रसता है...क्या आप मुझे क्षमा दे सकेंगे?

रेखा

रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

परसों एक पत्र भेज चुकी हूँ। आज फिर कष्ट दे रही हूँ। साथ में चन्द्रमाधव जी का पत्र है जो मुझे अभी इसी डाक से मिला है। पत्र अपनी बात स्वयं कहता है।

आपसे अनुरोध करती हूँ कि मेरे कारण आप उनके प्रति अपने मन में मैल न आने दें। मैत्री दुर्लभ चीज़ है, और मेरी लिखी बातों की उनके जीवन में कोई अहमियत होगी ऐसा नहीं है, वह शीघ्र ही भूल जाएँगे। इसीलिए यह भी प्रार्थना करती हूँ कि आप उन्हें न जतावें कि मैंने यह सब आपको लिखा है : मैं नहीं चाहती कि यह जानकर उन्हें और ग्लानि हो और आपके उनके बीच में सदा के लिए ग्लानि की दरार पड़ जाये।

आपकी चिट्ठी की बाट देखती रहूँगी। अब बल्कि सोचती हूँ, कुछ दिन आपके निकट इसीलिए रह सकूँ कि जानूँ, आपने मुझे क्षमा कर दिया है, नहीं तो एक गहरा परिताप मुझे सालता रहेगा।

आपकी

रेखा

इसके साथ का पत्र, चन्द्रमाधव की ओर से रेखा को :

रेखा,

मैंने अपनी ही मूर्खता और अपटुता से तुम्हें खो ही दिया, तो अब तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि अब मुझसे कोई सम्पर्क न रखना; मेरा मुँह न देखना, न अपना मुँह मुझे दिखाना। लखनऊ आना बेशक; जहाँ तुम्हारी इच्छा हो आना-जाना, पर कभी मुझसे अचानक मुठभेड़ हो ही जाये तो मुझे पहचानना मत, बुलाना-बोलना मत-कहीं रहो, खुश रहो : पर मेरे जीवन से निकल जाओ, बस!

यह नहीं कि मैं तुम्हें चाहता नहीं, या कि उस पत्र में लिखी बातें सच नहीं हैं। पर-बस! और कुछ लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।

तुम्हारा अभागा

चन्द्र


पुनश्च :

यह पत्र शायद प्रतापगढ़ भेजना ठीक न होगा। तुम आओगी, तो यहीं तुम्हें दूँगा। तुम दोपहर को पहुँचोगी, स्टेशन से ही सीधे काफ़ी हाउस चलेंगे, वहाँ से पुरानी रेज़िडेंसी; उसके खण्डहरों में एकान्त में बैठ कर ही तुमसे बात करूँगा-वहीं यह पत्र तुम्हें दूँगा, वहीं पढ़वाऊँगा...मैं देखना चाहता हूँ इसे पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे की एक-एक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गति-क्योंकि उसमें मेरा भाग्य लिखा होगा...रेखा, अभी तक मैं भी खण्डहर हूँ। तुम भी खण्डहर हो; पर वहाँ से हम खण्डहर नहीं, एक नयी, सुन्दर, सम्पूर्ण, जगमगाती इमारत निर्माण करके निकलेंगे ऐसा मन कहता है...

चन्द्रमाधव द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा जी,

बहुत दिनों से आपने मुझे याद नहीं किया। मैंने पिछले महीने जो पत्र लिखा था, उसकी पहुँच भी आपने न दी। फिर भी संगीत के तरन्नुम में हम बेसुरे लोगों को बिलकुल भूल न गयी होंगी ऐसी आशा करता हूँ।

पर आज कोई बेसुरा तर्क भी मैं छेड़ने नहीं जा रहा हूँ; मैंने निश्चय किया है कि अब अपनी बात नहीं किया करूँगा, हर किसी से उसके प्रिय विषय की चर्चा किया करूँगा। समझ लीजिए कि यही मेरी साधना होगी-देखिए, मैं भी साधना-धर्म को मान गया, और यह आप की व्यक्तिगत विजय है।

भुवन जी यहाँ आये थे, यह मैंने आपको पिछले पत्र में लिखा था। रेखा देवी के विषय में भी लिखा था। वह वास्तव में बड़ी प्रभावशालिनी महिला हैं, नहीं तो भुवन सरीखा आदमी अपनी यात्रा का प्रोग्राम किसी के साथ के लिए बदल दे, यह क्या सम्भव है?

रेखा जी अभी हाल में फिर यहाँ आयी थीं। इधर भुवन से उनका कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था; उन्होंने भुवन को पहाड़ चलने के लिए निमन्त्रित किया था। पहले मेरे भी साथ चलने की बात थी, पर अब प्रोग्राम कुछ बदल गया है भुवन जी रिसर्च के लिए कश्मीर जा रहे हैं न, मैं तो वहाँ न जा सकूँगा, पर रेखा जी कदाचित् कश्मीर ही जाएँगी। इधर वह कोई नौकरी नहीं कर रही हैं, इसीलिए पूरी छुट्टी है।

मैं सोचता हूँ मैं भी जा सकता। डा. भुवन जैसे लगन वाले वैज्ञानिक के साथ पहाड़ में कहीं कुछ दिन रह सकता, तो कुछ सीख ही लेता। वह हैं भौतिक विज्ञान के माहिर, पर और कितना कुछ जानते हैं...एक मैं हूँ कि स्वयं अपने विषय का ऊपरी ज्ञान रखता हूँ-पर जर्नलिज़्म की यही तो मार है; कहीं गहरे नहीं जाने देता, सब कुछ का ज्ञान होना चाहिए, पर उथला ज्ञान, कहीं भी गहरे गये कि दूसरे जर्नलिस्ट सन्देह से देखने लगते हैं, यह कौन उज़बक हमारे बीच में आ गया...

भुवन के गुणों से मैं क्रमशः अधिकाधिक प्रभावित होता जाता हूँ। पर सबसे बड़ा गुण उनका यह मानता हूँ कि उनके द्वारा मेरा आपसे परिचय हुआ। है स्वार्थ-दृष्टि, पर मेरे लिए तो यही गुण सबसे अधिक सुखद सिद्ध हुआ न!

यह पत्र न मालूम आपको समय पर मिलेगा या नहीं, आप कदाचित् दक्षिण से चल देने वाली हों। पर वहाँ न भी मिला तो आशा है रिडायरेक्ट तो हो ही जाएगा। दिल्ली पहुँचें तो मुझे सूचित कीजिएगा। मैं कुछ दिन के लिए वहाँ जाने की सोच रहा हूँ। छुट्टी पहाड़ जाने के लिए ली थी, पर भुवन दा का साथ तो हुआ नहीं, अब यह सोचता हूँ कि दिल्ली होकर मसूरी ही कुछ दिन रह आऊँ। आपका क्या मसूरी जाने का विचार नहीं है! आपके पिताजी तो जाएँगे-बल्कि वहीं होंगे?

आपका स्नेही

चन्द्रमाधव ---


चन्द्र द्वारा भुवन को :

भाई भुवन,

रेखा जी दो-चार दिन पहले यहाँ आयी थीं। मेरा पहाड़ जाना तो न हो सकेगा। मेरा साथ उन्हें अभीष्ट भी नहीं है। वह तुम्हारे साथ ही जाना चाहती हैं। खुशकिस्मत हो, दोस्त! बुद्धू हो तो क्या हुआ।

कभी जब पहाड़ से उतरोगे, तो मुझे भी याद कर लेना। मैं वही का वही हूँ, चन्द्रमाधव, जर्नलिस्ट, तुम्हारा अनुगत और प्रशंसक, और अब तुम्हारे तेज से अभिभूत।

चन्द्र

रेखा द्वारा भुवन को :

प्रिय भुवन जी,

आपके पिछले पत्र के बाद आशा की थी कि कुछ निश्चय होने पर आप फिर लिखेंगे। आपका कोई पत्र नहीं आया। हाँ, चन्द्रमाधव जी की ओर से सूचना मिली थी कि उनको आपका पत्र आया है, जिसमें आप ने कश्मीर की बात लिखी थी। वहीं का प्रोग्राम बताने के लिए उन्होंने मुझे लखनऊ बुलाया भी था, और मैं एक दिन दुपहर को जाकर रात की उसी गाड़ी से लौट आयी थी जिससे हम लोगों ने साथ यात्रा की थी।

भुवन जी, पहाड़ जाने के सारे प्रोग्राम को रद्द समझें। वह प्रोग्राम चन्द्रमाधव जी की प्रेरणा से बना था, उन्हीं के साथ हम लोगों के जाने की बात थी और इसी के लिए मैंने भी आपसे अनुरोध किया था; पर अब मैं उनके साथ न जा सकूँगी-न अकेले, न पार्टी में-इसलिए जाने की बात छोड़ देनी चाहिए। हाँ, आप अगर और लोगों को साथ लेकर जाने वाले हों तो मैं चल सकूँगी और आपका साथ पाकर प्रसन्न हूँगी-हाँ, आप मेरा साथ चाहें तब।

आपको व्यर्थ ही इतना कष्ट देने के लिए क्षमा चाहती हूँ।

आप की

रेखा

(आगे नया पन्ना जोड़ कर :)

भुवन जी, चन्द्रमाधव जी आप के मित्र हैं और उनका आपका परिचय बहुत पुराना है। ऐसे में मैं कोई कटुता लाना नहीं चाहती, और जिस स्थिति में फँस गयी हूँ उसके कारण लज्जा और संकोच के मारे गड़ी जा रही हूँ। फिर भी मैंने जो लिखा कि चन्द्रमाधव जी के साथ कहीं न जा सकूँगी उसके स्पष्टीकरण में कुछ तो कहना ही होगा। चन्द्रमाधव जी ने मुझे लखनऊ बुलाया था, मैं दोपहर को पहुँची तो पहले हम लोग काफ़ी हाउस गये। वहाँ आपके विषय में बातें होती रही, मैंने लक्ष्य किया कि उनकी बातों में बार-बार एक छिपी ईर्ष्या व्यक्त हो उठती है जिसका कारण न समझ सकी। फिर उन्होंने कहा, “यहाँ से रेज़िडेंसी चला जाये।” बाहर आँधी के आसार थे-आजकल धूल के कैसे झक्कड़ आते हैं, आप तो जानते हैं-मैंने आपत्ति की तो बोले, “रेखा जी, तुम ज़रा-सी आँधी से डरती हो?” वह मुझे सदा आप कहते हैं, आप और तुम की खिचड़ी कुछ अद्भुत लगी पर शायद दिल्ली का मुहावरा है इसलिए मैंने ध्यान न दिया, यह भी न लक्ष्य किया कि उनका स्वर आविष्ट है-बाद में यह भी याद आया।

हम लोग रेज़िडेंसी पहुँचे तो बड़े ज़ोर की आँधी आयी। वह ज़ोर से हँसे और बोले, “ठीक है, बिल्कुल मौजूँ है।” तब मैंने सँभल कर वापस चलने को कहा, पर उन्होंने कहा, “यहाँ तक आयी हो तो मेरी बात सुनकर जाओ।”

भुवन जी, आप समझदार हैं और मैं स्त्री हूँ। पूरी बात कहने की आवश्यकता भी नहीं है और उसमें व्यर्थ सब को ग्लानि ही होगी; आपको इस कीचड़ में खींचना भी न चाहिए। संक्षेप में कहूँ कि चन्द्रमाधव ने अपना प्रेम निवेदन किया-जबानी भी और एक लिखा हुआ पत्र देकर भी। पत्र मैंने वहाँ नहीं पढ़ा, उनकी बातों से ही स्तब्ध और अवाक् हो गयी क्योंकि मैं उन्हें अपना हितैषी, मित्र और सहायक मानती थी-उस नाते उनकी बहुत कृतज्ञ भी हूँ-यह नहीं जानती थी कि उनके हृदय में कैसे भाव भरे हैं। मैं वहाँ से तत्काल एक शब्द भी कहे बिना लौट आयी; वह वहीं रहे-पीछे मैंने सुना कि रो रहे हैं पर मैं रुकी नहीं-फिर ताँगा पाकर मैं सीधी स्टेशन पहुँची, काफ़ी पीने बैठी तो ध्यान आया कि उनका पत्र मेरे हाथ में है। वह मैंने नहीं पढ़ा। फिर वेटिंग रूम में बैठी रही, रात की गाड़ी से लौट आयी।

प्लेटफ़ार्म पर चन्द्रमाधव जी थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि चिट्ठी का उत्तर क्या उन्हें दूँगी? मैंने कहा कि अपनी समझ से उत्तर तो मैं दे आयी जब चली आयी। तब उन्होंने अपना पत्र वापस माँगा। मैंने दे दिया।

भुवन जी, मैं बहुत ही लज्जित हूँ सारी घटना से, पर समझ में नहीं आता कि क्यों मेरे साथ ऐसी बात होती है-सिवा इसके कि फिर नियति की बात कहूँ! मेरे साथ दुर्भाग्य का एक मण्डल चलता है-जो छूता नहीं, ग्रसता है...क्या आप मुझे क्षमा दे सकेंगे?

रेखा ---

रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

परसों एक पत्र भेज चुकी हूँ। आज फिर कष्ट दे रही हूँ। साथ में चन्द्रमाधव जी का पत्र है जो मुझे अभी इसी डाक से मिला है। पत्र अपनी बात स्वयं कहता है।

आपसे अनुरोध करती हूँ कि मेरे कारण आप उनके प्रति अपने मन में मैल न आने दें। मैत्री दुर्लभ चीज़ है, और मेरी लिखी बातों की उनके जीवन में कोई अहमियत होगी ऐसा नहीं है, वह शीघ्र ही भूल जाएँगे। इसीलिए यह भी प्रार्थना करती हूँ कि आप उन्हें न जतावें कि मैंने यह सब आपको लिखा है : मैं नहीं चाहती कि यह जानकर उन्हें और ग्लानि हो और आपके उनके बीच में सदा के लिए ग्लानि की दरार पड़ जाये।

आपकी चिट्ठी की बाट देखती रहूँगी। अब बल्कि सोचती हूँ, कुछ दिन आपके निकट इसीलिए रह सकूँ कि जानूँ, आपने मुझे क्षमा कर दिया है, नहीं तो एक गहरा परिताप मुझे सालता रहेगा।

आपकी

रेखा ---

इसके साथ का पत्र, चन्द्रमाधव की ओर से रेखा को :

रेखा,

मैंने अपनी ही मूर्खता और अपटुता से तुम्हें खो ही दिया, तो अब तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि अब मुझसे कोई सम्पर्क न रखना; मेरा मुँह न देखना, न अपना मुँह मुझे दिखाना। लखनऊ आना बेशक; जहाँ तुम्हारी इच्छा हो आना-जाना, पर कभी मुझसे अचानक मुठभेड़ हो ही जाये तो मुझे पहचानना मत, बुलाना-बोलना मत-कहीं रहो, खुश रहो : पर मेरे जीवन से निकल जाओ, बस!

यह नहीं कि मैं तुम्हें चाहता नहीं, या कि उस पत्र में लिखी बातें सच नहीं हैं। पर-बस! और कुछ लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।

तुम्हारा अभागा

चन्द्र

नदी के द्वीप (उपन्यास) : रेखा

रेखा स्टेशन पर गाड़ी रुकते-न-रुकते उतर पड़ी, पर प्लेटफ़ार्म की पटरी से पैर छूते ही मानो उसके भीतर की स्फूर्ति सुन्न हो गयी; उसने एक बार नज़र उठाकर इधर-उधर देखा भी नहीं कि कोई उसे लेने आया है या नहीं। यन्त्रवत् उसने सामान उतरवाया, कुली के सिर-कन्धे उठवाया, कुली के प्रश्न 'बाहर, बीवी जी?' के उत्तर में अस्पष्ट 'हाँ' कहा, और फिर कुली की गति में मन्त्रबद्ध-सी खिंची चल पड़ने को थी कि पास ही भुवन के स्वर ने कहा, “नमस्कार, रेखा जी!”

तब वह चौंकी नहीं। एक धुन्ध-सी मानो कट गयी; मानो वह जानती थी कि भुवन आएगा ही; वह मुड़ी तो एक खुला आलोक उसके चेहरे पर दमक रहा था : “नमस्कार भुवन जी; मैंने तो समझा कि आप नहीं आएँगे।”

“आप बड़ी जल्दी उतर पड़ीं-मैं तो डिब्बों की ओर ही देखता रहा। अच्छी तो हैं? देखने से तो पहले से अच्छी ही मालूम होती हैं-”

रेखा ने किंचित् विनोदी दृष्टि से उसे सिर से पैर तक देखकर कहा, “और आप-पहले से भी अधिक व्यस्त और अन्तर्मुखी-”

“नहीं तो-ये तो मेरी छुट्टियाँ हैं।”

“हाँ, काम से नहीं, काम के लिए! पर अच्छा है-काम में ही मुक्ति दीख सके, कितना बड़ा सौभाग्य होता है!”

कुली ने पूछा, “जी, चलूँ?”

“हाँ चलो, बाहर ले चलो,” भुवन ने कहा। “चलिए, रेखा जी-”

“हाँ। सुनिए, मैं वाई. डब्ल्यू. में ठहरूँगी-मैंने पहले सूचना दे रखी है। आत्म-निर्भर अर्थात् नौकरी करने वाली स्त्रियाँ वहाँ रह सकती हैं-”

“ठीक है, वहीं सही। मैं तो कालेज में ठहरा हूँ, एक प्रोफ़ेसर के साथ।”

“रहेंगे?”

“यही चार-छः दिन रहूँगा। यहाँ से सामान भेजकर फिर कश्मीर जाऊँगा।”

“हाँ-चन्द्रमाधव ने लिखा था-” कहकर रेखा सहसा चुप हो गयी। एक बोझल मौन उनके बीच में आकर जम गया।

ताँगे पर सवार होकर रेखा ने फिर पूछा, “भुवन जी, एक स्वार्थ की बात कहूँ?”

“क्या-”

“मैं दो-चार दिन यहाँ रुक जाऊँ, तो आप अपना कुछ समय मुझे देंगे? दिल्ली में मेरे परिचित तो बहुत हैं, पर वह खुशी की बात अधिक है या डर की, नहीं जानती!”

“मुझे तो यहाँ कोई काम नहीं है; दो-एक व्यक्तियों से ही मिलता-जुलता हूँ; मेरे पास बहुत समय है।”

“उबाऊँगी नहीं, यह वचन देती हूँ।” रेखा हँस दी। “ऊब आने से पहले ही हट जाऊँगी-मुझे और कुछ तो नहीं आता पर ऊब के पूर्व-लक्षण खूब पहचानती हूँ। कहूँ कि मेरे जीवन का मुख्य पाठ यही रहा है-ऊब की सात सीढ़ियाँ!”

“वह खतरा मुझे नहीं है, मैं ही उबा सकता हूँ; क्योंकि मेरे पास कहने को बहुत कम है; अधिक बात जिस विषय की कर सकता हूँ वह स्वयं उबानेवाला है-विज्ञान!”

“भुवन जी, आप अपने बारे में बात करते हैं-करते रहे हैं?”

“नहीं तो-या बहुत कम। वह भी कोई विषय है?”

“तो ठीक है; कहना चाहिए कि वह नया विषय है-मेरे लिए तो है ही, आपके लिए भी है!” रेखा की आँखें हँसी से चमक उठी। “और मैं वायदा करती हूँ, इस विषय से नहीं उबूँगी-आप ही जब छोड़ें तो छोड़ें। बल्कि मैं फिर-फिर लौट आऊँ तो आप बुरा तो न मानेंगे?”

भुवन ने थोड़ा-सा सकुचाते हुए, यद्यपि कुछ तोष भी पाकर, कहा, “न-नहीं तो; पर मैं फिर आपको वार्न करता हूँ, वह विषय बड़ा नीरस है, और कहीं पहुँचाता नहीं।”

“मैं तो पहले ही बता चुकी हूँ कि कहीं पहुँचने का लोभ ही मुझे नहीं है-ऐसी यात्रा पर हूँ जो कहीं पहुँचती ही नहीं, अन्तहीन है, यही क्या कहीं पहुँच जाना नहीं है?”

“यह भी एक दृष्टिकोण हो तो सकता है-” कह कर भुवन निरुत्तर-सा कुछ सोचने लग गया।

कश्मीरी गेट में वाई. डब्ल्यू. में सामान उतार कर दुमंजिले पर पहुँचाया गया; भुवन को 'लाउंज' में बिठा कर रेखा ने कहा, “आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूँ” और सामान के साथ अपने कमरे की ओर चली गयी।

जब तक वह मुँह-हाथ धोकर लौट कर आये, तब तक मन बहलाने के लिए भुवन कुछ ढूँढ़ने लगा-इसलिए भी कि जब-तब कोई स्त्री आती और लाउंज में उसे देख कर लौट जाती; कोई कौतूहल से उसे घूर कर, कोई सकपका कर-और वह खाली बैठने के संकोच से मुक्त होना चाहता था। पर कुछ भी उसे नहीं मिला। एक ताक में कुछ पत्र रखे हुए थे, उसने निकाले। 'लेडीज़ होम जर्नल', 'वोग' 'वुमन एण्ड होम'-कहीं उसका मन रमा नहीं। वह सब पुनः वहीं रखने को था कि ताक के भीतर एक छोटे आकार का पत्र उसे दीखा, उसने खींच कर निकाला : 'मेन ओनली'। उसने मुस्करा कर उसे वहीं रखकर ऊपर सब दूसरे पत्र लाद दिये।

वह सोचने लगा, पुरुषों के लिए जो पत्र होते हैं, उनका क्षेत्र तो इतना संकुचित नहीं होता-स्त्रियों के पत्र क्यों ऐसे होते हैं? पर पुरुषों के पत्र वास्तव में केवल उनके नहीं होते, सबके होते हैं, और स्त्रियों के केवल 'स्त्रियोपयोगी'...लेकिन क्या स्त्री के लिए बस यही बातें उपयोगी हैं-'हाउ टु विन ए मैन'-'हाउ टु होल्ड ए मैन'-'फीड द ब्रूट'-'द वे टु ए मैन्स हार्ट-थ्रू हिज़ बेली'-आदमी को फाँसो कैसे, वश में कैसे रखो, रिझाओ कैसे-मानो सम्मोहन-वशीकरण के तन्त्र-मन्त्र के युग से हम अभी कुछ भी आगे नहीं गये। और स्वयं स्त्री केवल यह नहीं चाहती, इसका प्रमाण वह नीचे छिपा हुआ 'मेन ओनली' है; हो सकता है कि उसमें केवल यह कौतूहल हो कि पुरुष क्या पढ़ते हैं, कैसे मज़ाक आपस में या स्त्रियों के बारे में करते हैं-वैसा ही कौतूहल, जैसा बहुत-से पुरुषों को स्त्रियों के बारे में हुआ करता है जिसके कारण वह स्त्रियों के जमाव की बातें किवाड़-दरारों में कान लगा कर सुना करते हैं!

एक काल्पनिक समस्या उसके सामने आयी। अगर ये सब पत्र-पत्रिकाएँ बिछी हों, और कोई देखने वाला न हो तो अकेली स्त्री कौन-सा पत्र उठायेगी? क्या किसी का चेहरा देखकर तय किया जा सकता है? कौतुकवश उसने सोचा, अच्छा अब जो स्त्री लाउंज में आएगी उसे देखकर अनुमान लगाऊँगा कि वह 'बोग' पढ़ेगी कि 'लेडीज़ होम' कि 'मेन ओनली'-

धत्! पहली स्त्री जो आयी वह रेखा थी। भुवन ने तुरन्त अपना खेल बन्द कर दिया। रेखा ने पूछा, “मैंने बहुत देर कर दी न? आप इतनी देर क्या करते रहे? यहाँ आपके पढ़ने लायक भी तो कुछ नहीं है-”

भुवन ने पूछा, “रेखा जी, ये जो इतने जर्नल यहाँ हैं, इनमें आप को कौन-सा पसन्द है?”

“कौन-से? अरे ये! ये तो मैंने कभी देखे नहीं। कभी बुनाई वग़ैरह के डिज़ाइन के लिए कोई देखा हो, पर इन्हें पढूँ, ऐसी हालत तो कभी नहीं हुई।”

“यही मैं सोच रहा था-कि इन्हें कौन पढ़ता होगा। और सबके नीचे मैंने देखा, 'मेन ओनली' दबा पड़ा है।”

रेखा हँस पड़ी। “हाँ! वह तो स्वाभाविक है। स्त्रियों की दिलचस्पी किस चीज़ में है? इन 'मेन ओनली'। यह यहाँ का स्थायी मज़ाक है।”

एक कुरसी खींच कर वह बैठ गयी। “अच्छा, अब बताइये, यहाँ क्या-क्या किया जाएगा-आपका क्या प्रोग्राम है?”

“आप ही प्रोग्राम बनाइये-”

तय हुआ कि उस दिन रेखा आराम करेगी, तीसरे पहर अगर भुवन आ जाये तो वह घूमने चलेगी-अगर भुवन को अवकाश है। लेकिन अभी तत्काल चलकर काफ़ी तो पी ही जाये।

दोनों नीचे उतरे। भुवन ने देखा, रेखा ने कपड़े बदल लिए थे। गाड़ी में वह रंगीन साड़ी पहने थी, अब फिर सफ़ेद रेशम पहन लिया था-भुवन को ध्यान आया कि रेखा को उसने रंगीन साड़ी कम ही पहने देखा है, पर सफ़ेद पहने तो कभी देखा ही नहीं, सफ़ेद वह पहनती है तो रेशम, जो वास्तव में सफ़ेद नहीं होता, उसमें हाथी दाँत की-सी, या मोतिये के फूल-सी, या पिसे चन्दन-सी एक हल्की आभा होती है...यों तो शुभ्र श्वेत भी ऐसा होता है कि पहननेवाले को दूर अलग ले जाता है, पर यह रेशमी सफ़ेद तो और भी दूर ले जाता है, दूर ही नहीं, एक ऊँचाई पर भी; रेखा मानो उसके साथ चलती हुई भी एक अलग मर्यादा से घिरी हुई चल रही है।

रेखा ने कहा, “क्या सोच रहे हैं, भुवन जी?”

“ऊँ-कुछ नहीं। आपकी बात सोच रहा था-नहीं, कुछ सोच नहीं रहा था, केवल आपको देख रहा था-”

“देखिए आप को काम्प्लिमेंट देना भी नहीं आता न? कितने अच्छे हैं आप, जिसके साथ सतर्क नहीं रहना पड़ता!”

अबकी बार भुवन हँस दिया। पर क्यों, यह वह स्वयं नहीं जान पाया।

काफ़ी पीते-पीते रेखा ने पूछा, “भुवन जी, आपने पहाड़ जाने के लिए और किसी को आमन्त्रित नहीं किया?”

“नहीं तो। फिर मेरा जाना ही तो नहीं हुआ-”

“अच्छा, आप जहाँ रिसर्च के लिए जाना चाहते हैं वहाँ मैं आ जाऊँ तो आप के काम का बहुत हर्ज होगा?”

भुवन ने चौंक कर कहा, “वह तो एकदम बियाबान जंगल है रेखा जी। वहाँ”

“फिर भी-फ़र्ज कीजिए-”

“नहीं-आप ही हर्ज करना न चाहें तो-खास नहीं होगा-इतना ही कि आपकी असुविधा का ध्यान हमेशा रहेगा-”

“और काम में बाधक होगा!” रेखा हँस दी। “ठीक है, मैं तो यों ही कह रही थी।”

वापस पहुँच कर रेखा ने नीचे ही कहा, “जीना चढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है-मैं यहीं से विदा लेती हूँ। मैं यही रहूँगी-आप तीसरे पहर जब भी आयें। मैं तैयार मिलूँगी।”

× × ×

कुदसिया बाग़ में उन दिनों फूल लगभग नहीं होते-कोई फूल ही उन दिनों में नहीं होता सिवा वैजयन्ती के, जो चटक रंगीन चूनर ओढ़े बीबी शटल्लो बनी धूप में खड़ी रहती है। लेकिन खण्डहर पर चढ़ी हुई 'बेगमबैरिया' लता की छाँह सुहावनी थी-फूल इसमें भी कई तेज़ रंगों के भी होते हैं, पर इसकी लम्बी पतली बाँहों में, हवा में झूमते गुच्छा-गुच्छा फूलों में एक अल्हड़पन होता है जो वैजयन्ती के भूनिष्ठ आत्म-सन्तोष से सर्वथा भिन्न होता है...और फिर इस विशेष लता के फूल भी तेज़ रंग के नहीं थे, एक धूमिल गुलाबी रंग ही उनमें था जो पत्तियों के गहरे हरे रंग की उदासी कुछ कम कर देता था, बस।

भुवन नीचे घास पर कोहनी टेके बैठा बेंच पर बैठी रेखा को देख रहा था। रेखा पहले बेंच पर बैठ गयी थी; जब भुवन नीचे बैठा तो वह भी उतरने लगी पर भुवन ने कहा, “नहीं-नहीं, आप वहीं रहिए; इस बैकग्राउंड पर आपकी साड़ी बहुत सुन्दर दीखती है।” रेखा ने एक फीके कोकनी रंग की साड़ी पहन रखी थी, बेगमबैरिया के फूल उसका सन्तुलन कर रहे थे, मानो एक ही गीत दो स्वरों में गाया जा रहा हो, रेखा का मन्द, अन्तर्मुख और गहराई खोजता हुआ, लता का तार, बहिर्निवेदित और उड़ना चाहनेवाला...

रेखा को एक आदत थी-सहसा, मानो अनजाने, उसका हाथ उठता और कनपटी के पास मानो कुछ खोजने लगता, फिर बालों की किसी छूटी हुई लट-कभी-कभी काल्पनिक ही लट!-को कानों के पीछे डालता हुआ धीरे-धीरे लौट आता। सारी क्रिया एक बड़े कोमल और आयासहीन ढंग से दुहरायी जाती थी। चलते हुए भी दो-चार बार भुवन ने लक्ष्य किया था, बाग़ में आने से पहले वे जमुना के किनारे-किनारे थोड़ा भटके थे और थोड़ी देर घाट की सीढ़ी पर पानी के निकट बैठे थे तब भी-तब बल्कि हाथ पानी में डुला कर रेखा ने कनपटियाँ भिगो ली थी...वह मुद्रा बड़ी आकर्षक थी; रेखा की उँगलियाँ वैसी तो नहीं थी जिन्हें सुन्दरता का आदर्श माना जाता है-उनके जोड़ उभरे हुए थे और रूप-तत्त्व की अपेक्षा मनस्तत्त्व की ओर ही इंगित करते थे-पर वे थीं पतली और व्यंजना-पटु-संवेदनशील उँगलियाँ। अभी बैठे-बैठे उसका हाथ फिर उठा तो भुवन ने पूछा, “आप थक तो नहीं गयीं? हम लोग काफ़ी भटके-”

“नहीं-मुझे तो पता ही नहीं लगा-”

“और रेत में भी चले-उससे बड़ी थकान होती है।”

“नहीं, मैं अभी और चल सकती हूँ। पर यहाँ बैठना भी बहुत मधुर है।”

भुवन हँस दिया। फिर एक लम्बा मौन रहा। दोनों आकाश को देखते रहे। मई का दिल्ली का आकाश-उसकी नीलिमा सभ्यता की भाप से मुरझा कर फीक़ी पड़ जाती है, और आकाश सभ्यता की तरह अपने ही रंग का ओप अपने पर नहीं चढ़ाता! पर प्रकृति के विभिन्न भावों की झाँई उसे नाना रंग दे जाती है : इस समय उसके आगे ताँबे के रंग का एक झीना-सा जाल था, जो धीरे-धीरे धुँधला पड़ रहा था।

रेखा ने कहा, “शहरों का आकाश भी क्या चरित्रहीन आकाश होता है-फिर गर्मियों में! यों मैं साँझ को घनी होते देखते घंटों बैठी रह सकती हूँ-पर गर्मियों में शहर में लगता है सबसे अच्छी दोपहर है-साँय-साँय सन्नाटा, धूप ऐसी कि चौंधिया दे, पर उस की चिलक ही जैसे दृश्य को माँज जाती है; सभ्यता के भीतर से मानव हृदय की स्तब्ध धड़कन तब सुनी जा सकती है...”

भुवन कुछ नहीं बोला। रेखा का स्वर उसे अच्छा लग रहा था, उसकी गति मानो लययुक्त थी, एक भावाक्रान्त उतार-चढ़ाव मानो अलग से कहता था, “बात के अर्थ से अलग और भी अर्थ है मुझमें, अकथित, अकथ्य अभिप्राय, ज़रा कान देकर सुनो...”

रेखा ने ही फिर कहा, “यों तो पहाड़ पर, या सागर के किनारे ही आकाश देखना चाहिए, पर देहातों में और खास कर आख़िरी बरसात में-तब आकाश बोलता है, गाता है-कैसे-कैसे अर्थ-भरे गाने...शहर का आकाश-शहर का सूर्यास्त-जैसे ड्राइंग-रूम की बातचीत, सब कोई बोल रहे हैं लेकिन सब कोई जैसे छिपे हुए, जैसे अनुपस्थित, केवल स्वरों के रेकार्ड, केवल यन्त्र-लिखित उत्साह और आवेश!”

भुवन ने धीरे-से कहा, “रेखा जी, आपका इस वक्त का आविष्ट स्वर मुझे तो अनुपस्थित नहीं लग रहा है-”

“मैं!” रेखा कुछ रुक गयी। फिर मुस्करा कर बोली, “भुवन जी, आप चाहें तो मैं भी ड्राइंग-रूम वाली बातों का कल खोल दे सकती हूँ-आप नहीं जानते कि मेरे पास कितनी बड़ी टंकी उस बँधे पानी की जमा है! लेकिन आपका समय मैंने माँगा था, तो उसके लिए नहीं।” वह फिर गम्भीर हो गयी। “असल में मेरे भी दो पहलू हैं-एक चरित्रवान्, प्रकृत, मुक्त; एक सभ्य और चरित्रहीन-”

“रेखा जी, यों पहलू तो हर किसी के चरित्र में होते हैं, पर चरित्र को इस तरह डिब्बों में बाँटना तो बड़ा ख़तरनाक है-व्यक्ति को एक और सम्पूर्ण होना चाहिए-यह विभाजन तो ह्रास की भूमिका है।”

“है। मैं जानती हूँ। और सभ्यता जो ह्रासोन्मुख हो जाती है वह किसलिए? कि समर्थ प्रकृत चरित्र सभ्यता के पोसे हुए पालतू चरित्र के नीचे दब जाता है-व्यक्ति चरित्रहीन हो जाता है। तब वह सृजन नहीं करता, अलंकरण करता है। नये बीज की दुर्निवार शक्ति से जमीन फोड़ कर नये अंकुर नहीं फेंकता, पल्लवित नहीं होता; झरे फूल चुनता है, मालाएँ गूँथता है, मालाओं से मूर्तियाँ सजाता है। जब मूर्ति पर मालाएँ सूख जाती हैं। तब हमें ध्यान होता है कि सभ्यता तो मर चली-पर वास्तव में मरना तो वहाँ आरम्भ हुआ है जहाँ हमने झरे फूल का सौन्दर्य देखना शुरू किया-डाल से टूटे फूल का!”

रूपक को अपने सामने मूर्त करते हुए भुवन ने कहा, “उस समय भी हम वृक्ष की ओर वापस जा सकते हैं-अंकुर की ओर-”

“हाँ, अगर वह हमारी उपेक्षा से सूख न गया हो। पर आज के हम सभ्य लोग अभी उतने अभागे नहीं है : अभी हम में झरे फूल भी हैं, जो आदृत हैं और गहरी जड़ें भी हैं जो नये अंकुर फेंकेंगी लेकिन जिनकी कद्र नहीं है। यही मैं कह रही थी-दो पहलुओं की बात-”

वह चुप हो गयी। फिर एक मौन छा गया। अब तक थोड़ी-थोड़ी हवा चल रही थी, वह भी बन्द हो गयी।

भुवन ने कहा, “उमस हो रही है। थोड़ा टहला जाये?”

“चलिए।”

दोनों बाग़ में इधर-उधर टहलने लगे। खण्डहर और लता के कुंज के दूसरी ओर हरियाली में जहाँ-तहाँ बच्चों के दल खेल रहे थे; अब तक सब आयाओं द्वारा किलकते-फुदकते अज-शावकों की तरह घेरे जाकर अपने-अपने बाड़ों की ओर ले जाये जा चुके थे; एक दम तोड़ता हुआ-सा अँधेरा छा गया था।

रेखा ने सहसा कहा, “भुवनजी, मैं आपको अपने प्रकृत, स्वस्थ, मुक्त पहलू से ही जानना चाहती हूँ-उसी के सम्पर्क में आप को रखना चाहती हूँ। पर उसके लिए ईमानदारी का तकाज़ा है कि दूसरा पहलू आपसे छिपाऊँ नहीं।”

बात भुवन की संवेदना को छू गयी, पर उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे। उसका हाथ तनिक-सा रेखा की ओर बढ़ा और रह गया। वह कहने को हुआ, “थैंक यू, रेखा जी', पर बात कुछ ओछी लगी। फिर उसने कहा, “रेखा जी, मैंने अपने बारे में इतनी गहराई से कभी नहीं सोचा, पर अगर मुझमें भी ऐसा विघटन है-होगा ही-तो मैं भी यत्न करूँगा कि-”

“नहीं, आप में वैसा नहीं है। आपको-शायद विज्ञान ने बचा लिया। या-” रेखा हँस पड़ी, “कहूँ कि आप अभी उतने सभ्य नहीं हुए!”

भुवन भी हँस दिया।

“लेकिन-मैं आपको देर तो नहीं कर दे रही हूँ? आपके मेज़बान-”

“शाम के भोजन का बन्धन मैं नहीं पालता, वह प्रतीक्षा नहीं करेंगे। पर आप को भी तो लौटना होगा-आपकी तो शायद हाज़री लगेगी-”

“आज देर से आने की छूट है-सप्ताह में दो दिन होती है।”

“लेकिन कुछ खायेंगी तो?”

“मैं तो केवल काफ़ी पीती हूँ-मैंने कहा न, बहुत सभ्य हूँ! पर आप-”

“मैं भी काफ़ी ही पिऊँगा-”

“नहीं, आपको कुछ खाना होगा। चलिए-”

तय हुआ कि टहलते हुए परले फाटक से निकल कर कश्मीरी दरवाज़े के अन्दर जाकर कुछ खाया-पिया जाये, और दोनों धीरे-धीरे उधर बढ़ने लगे।

कार्लटन में सन्नाटा था। शाम को उधर खाने कौन आता है? पीने आते हैं कुछ लोग, पर उनका समय निकल गया-नौ बजे तक कौन ठहरता है...पर खाने को मामूली कुछ मिल जाएगा-सैंडविच, कटलेट, वग़ैरह।

“सभ्य जीवन बड़ा भारी वेटिंग-रूम है मानो” रेखा बोली “और होटल वग़ैरह भी सब वक्त काटने के-बीच का एक रिक्त भरने के साधन हैं। लेकिन वेटिंग किसके लिए-रिक्त किसके और किसके बीच? कोई नहीं जानता। इधर-उधर फिर रिक्त है।”

“दो रिक्तों के बीच का रिक्त भरने के लिए रिक्त-तो फिर रेखा जी, ये पार्टिशन क्यों करती हैं, सारा ही तो एक रिक्त हुआ! सभ्यता की आपकी परिभाषा बड़ी डरावनी है। और उसे भरने के लिए भी रिक्त-विज्ञान तो सिर पीट लेगा जो मानता है कि प्रकृति भरणधर्मा है-रिक्त नहीं सहती।”

“प्रकृति न? लेकिन सभ्यता नहीं। आप देखते नहीं कि सभ्यता किस दर्प से कहती है कि प्रकृति असभ्य है? क्योंकि सभ्यता अप्राकृतिक है।”

दोनों फिर कुदसिया बाग़ लौट गये। अब एक और भी गहरा मौन वहाँ पर था, और उसने जैसे दोनों को बाँध दिया। कई फेरे दोनों ने चुपचाप लगा लिए; सहसा दूर कहीं दस का गजर हुआ।

“रेखा जी, ऐसी बात कहना है तो शील के विरुद्ध शायद; लेकिन मैं कई बार सोचता हूँ आपको गृहस्थी में सुखी होना चाहिए था-या यह कहूँ कि आपके साथी को; ऐसा क्या हुआ कि-”

रेखा रुक गयी। अँधेरे में एक-दूसरे का चेहरा साफ़ नहीं दीखता था, पर रेखा के साँवले चेहरे में उसकी आँखों के कोये स्पष्ट झलक गये; उसने स्थिर दृष्टि से भुवन को देखते हुए कहा, “पर वह सब तो आप को चन्द्रमाधव ने-आपको मालूम ही होगा-”

“यह तो नहीं कह सकता कि नहीं बताया-या कि स्वयं मैंने ही नहीं पूछा,” भुवन ने चन्द्रमाधव पर दोष न मढ़ने की नीयत से कहा, “पर यों तो कोई कारण होता ही है-लेकिन उसमें आन्तरिक कारणत्व न हो तो प्रश्न उठता ही है कि क्या कोई एडजस्टमेन्ट नहीं हो सकता था? क्योंकि बाहरी सब कारणों पर व्यक्ति विजय पा सकता है-क्योंकि वह मशीन से अधिक एडैप्टेबल है, लचकीला है।”

“आप ठीक कहते हैं। हर घटना की एक आन्तरिक संगति होती है-हर दुर्घटना की भी। लेकिन क्या आप सचमुच वह सब सुनना चाहते हैं?”

“अगर आपको कहने में क्लेश या संकोच न हो तो-हाँ।” भुवन ने हिचकते कोमल स्वर में कहा।

पास की बेंच पर रेखा बैठ गयी।

“संकोच होता भी है, नहीं भी होता। कहते हैं न कि अच्छा स्वप्न कह देने से उसकी सम्भावना कम हो जाती है, उसी तरह बुरा सपना कहने से उसका भी बोझ हल्का हो जाता है। मैं जब भी अपनी बात कहती हूँ या कहने का संकल्प करती हूँ तो उसकी छाया की एक परत कम हो जाती है, सोचती हूँ कि कह-कह कर ही उसे कह डाला जा सकता है-उससे मुक्त हुआ जा सकता है-पर कहने का निश्चय करना ही बड़ा कठिन होता है क्योंकि-” रेखा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

“मैं समझता हूँ”, भुवन ने कहा, “आग्रह नहीं करूँगा। आप-”

“नहीं, आपसे शायद कह सकूँगी-कहना चाहूँगी।”

थोड़ी दूर पर पद-चाप सुनायी दी-धीमी, फिर सहसा स्पष्ट-घास पर से सड़क पर। ठेठ खड़ी बोली के स्वर ने कहा, “बाबूजी, यहाँ नहीं बैठ सकते।”

“क्यों?”

“बाबू जी, दस बजे के बाद इद्र बैट्ठणे का हुकुम नहीं है-अब तो साड्ढे दस हो लिए-”

“अच्छा, अच्छा जाते हैं।”

चौकीदार बग़ल से लाठी टेककर कुछ दूर पर खड़ा हो गया।

रेखा उठ खड़ी हुई। “चलिए।”

कुदसिया बाग़ के दो खण्ड हैं, बीच में अलीपुर रोड़ पड़ती है। दोनों निकल कर दूसरे खण्ड में चले गये। सागू के पेड़ों के चिकने सफेद तने मानो किसी बड़े मण्डप के स्तम्भ थे, जिसमें रातरानी की दिग्विमूढ़ गन्ध भटक रही थी। मुख्य वीथी से हट कर दोनों घास की छहेल पटरी पर टहलने लगे। लेकिन मूड कुछ बदल गया था।

रेखा ने पूछा, “बैठेंगे?”

“बेंचें उधर हैं-बुत के पास।” भुवन के कहा; इसमें इनकार भी नहीं था, कोई अनुकूलता भी नहीं थी।

खड़ी बोली की व्यापकता प्रमाणित करता हुआ एक स्वर यहाँ भी नेपथ्य में से बोला, “कौन है?”

“हम है-टहलने आये हैं,” भुवन ने चिकने स्वर में उत्तर दिया।

खड़ा स्वर कुछ कम खड़ा हुआ : “बाबू जी, अब बड़ी देर हो गयी; दस बजे बाग़ बन्द हो जाता है।”

रेखा ने कहा, “द हाउंड्स आफ़ हेवन आर एवरी हेयर!”

(स्वर्ग के शिकारी कुत्ते सर्वत्र हैं।)

स्त्री-स्वर सुनकर नेपथ्य की वाणी कुछ और भी नरम पड़ कर बोली, “बाबू जी, इतनी रात को इधर नहीं घूमते; ज़माना ठीक नहीं है। बड़े चोर बदमास फिरे हैं”

दूर पर चौकीदार की छायाकृति दीख गयी। भुवन ने कहा, “अच्छा भइया, जाते हैं। आजकल तो यही वक़्त होता है घूमने का-इतनी गर्मी होती है-”

चौकीदार ने कहा, “सो तो ठीक है बाबू जी, मगर-” उसके स्वर में कुछ नरमाई भी थी, कुछ दूरी भी, मानो कह रहा हो, “हाँ, आप सदाशय हैं, माना; पर बच्चे हैं, घर जाइये-”

फाटक के बाहर लैम्प के खम्भे के नीचे आकर दोनों ठिठक गये। सहसा एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्करा दिये। रेखा ने कहा, “प्लोमर की एक कविता है जिसमें पार्क में घूमने वाले दो जन खदेड़े जाते हैं-आपने पढ़ी हैं?”

“नहीं-मैंने प्लोमर का सिर्फ़ नाम पढ़ा है-”

“मुझे याद नहीं है, लेकिन उसमें सिपाही कहता है : “आउटलाज़ हू आउटरेज बाईलॉज़ आर द डेविल1!' और कविता का अन्त है : 'एण्ड दस वी कीप आवर सिटीज़ क्लीन!”

1 जो अवैध लोग उपनियमों की मर्यादा तोड़ते हैं बड़े दुष्ट हैं।

2 और इस प्रकार हम अपने शहरों को स्वच्छ रखते हैं।

“हूँ।”

दोनों कश्मीरी दरवाज़े की ओर बढ़ रहे थे। दरवाज़ा वास्तव में दो दरवाज़े हैं, एक आने का मार्ग है, एक जाने का, दोनों सड़कों के बीच में घास की एक लम्बी पटरी है, रास्ते के मोड़ के साथ मुड़ती चली गयी है।

भुवन ने हँस कर कहा, “यहीं बैठना चाहिए। यहाँ से तो कोई नहीं उठाएगा।”

रेखा ने कहा, “अजब बात है कि शहर में अगर कोई प्राइवेट स्थान है तो पब्लिक सड़क के बीचोंबीच।”

भुवन ने साभिप्राय कहा, “प्राइवेट फेसेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़,*-” रेखा बैठ गयी। भुवन ने कहा, “सचमुच?”

“और नहीं तो खदेड़े जाने की कड़वाहट मिटाने के लिए।”

  • टी. एस. एलियट की एक पंक्ति का अंश : सार्वजनिक स्थलों में निजी चेहरे (निजी स्थलों में सार्वजनिक चेहरों से कहीं अधिक अच्छे होते हैं)।

भुवन ने बैठते हुए कहा, “इसे ठीक ही कहते हैं 'सड़क का द्वीप'-दोनों ओर बहते जन-प्रवाह में निश्चलता का एक द्वीप-”

“हैं न? मेरे साथ कुछ ही दिन में आप सर्वत्र द्वीप देखने लगेंगे-हमीं द्वीप हैं, मानवता के सागर में व्यक्तित्व के छोटे-छोटे द्वीप; और प्रत्येक क्षण एक द्वीप है-खासकर व्यक्ति और व्यक्ति के सम्पर्क का, कांटैक्ट का प्रत्येक क्षण-अपरिचय के महासागर में एक छोटा किन्तु कितना मूल्यवान द्वीप!” रेखा ने आँखें भुवन की ओर उठायीं; भुवन से उसकी आँखें मिली तो उनमें कुछ प्रबल, कुछ तेजस्वी और संकल्प-भरा था जिसने भुवन की दृष्टि को कई क्षण तक बाँधे रखा। फिर उसने आँखें झुका लीं, और उसका हाथ उसी परिचित मुद्रा में उसकी कनपटी की ओर उठ गया।

न जाने क्यों भुवन के मन में विचार उठा, “हाँ; मैं तुम्हें पहचानता हूँ, रेखा; लेकिन-तुम मुझसे क्या चाहती हो?' पर तत्क्षण ही विलीन हो गया, इतनी जल्दी कि वह उसे ठीक से पकड़ भी न पाया।

“चलें?” रेखा ने कहा, और साथ ही उठ खड़ी हुई। उसके बाद कोई कुछ नहीं बोला; रेखा जब वाई. डब्ल्यू. के फाटक पर पहुँची और अन्दर प्रविष्ट हो गयी तभी उसने कहा, “नमस्कार, भुवन जी।” और उसने जल्दी से कहा, “नमस्कार!”

× × ×

पब्लिक स्थलों पर प्राइवेट चेहरा रखा जा सकता है ज़रूर, और प्रीतिकर भी होता है, पर उसे देखने के लिए पब्लिक स्थलों से खदेड़ा जाना कोई पसन्द नहीं करता।

जन्तर-मन्तर में इधर-उधर भटकते, इमारतों के बीच में से कई प्रकार की आकृतियाँ बनाते और सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते रेखा और भुवन बीच में आकर रुक गये थे, सूर्य डूब गया था और मैले लाल आकाश का रंग नीचे पानी में और भी मैला होकर प्रतिबिम्बित हो रहा था।

“ऊपर चलेंगी?”

“हाँ।”

दोनों सीढ़ियाँ चढ़ गये। ऊपर हवा थी। पास-पास खड़े होकर दोनों पश्चिमी क्षितिज को देखते रहे।

सहसा रेखा ने कहा, “चलिए अब।”

भुवन ने कुछ विस्मय से उसकी ओर देखा-इतनी जल्दी क्यों?

“यहाँ भी तो बन्द होने का समय होता होगा-यहाँ भी-”

भुवन समझ गया। उसने कहा, “नहीं, यहाँ सूचना की घंटी बजती है-”

लेकिन उससे क्या? जाने का निर्देश जाने का निर्देश है, घंटी का हो, खड़ी बोली का हो! उससे पहले ही...

रेखा ने क्षीणतर आग्रह से कहा, “चलिए।”

“अच्छा तनिक और रुक जाइये, सान्ध्य तारा देखकर चलेंगे-”

रेखा ने सहसा बड़े तीखे काँपते स्वर में कहा, “चलिए-चलिए!” भुवन ने चौंक कर देखा, उसका स्वर ही नहीं, वह स्वयं भी काँप रही है। लड़खड़ाती-सी उसने भुवन का हाथ पकड़ा और किसी तरह जल्दी-जल्दी, कुछ उस पर झुकती हुई, कुछ उसे खींचती हुई नीचे उतर गयी।

नीचे पहुँच कर भी वह काँप रही थी। भुवन ने चिन्तित, आग्रहयुक्त स्वर में पूछा, “क्या बात है, रेखा जी-तबियत तो ठीक है न-या कि सीढ़ियाँ चढ़ने से”

सहसा अपने में सिमट कर रेखा ने कहा, “नहीं, नहीं, कुछ नहीं; आप मुझे थोड़ी देर छोड़ जाइये-”

भुवन ने अनिच्छा से कहा, “लेकिन-”

“मैं ठीक हूँ।”

भुवन खड़ा रहा।

“चले जाइये!” कहकर रेखा नीचे चौंतरे पर बैठ गयी। दोनों हाथ उठाकर उसने माथा पकड़ लिया, आँखें बन्द कर ली।

भुवन कुछ परे हट कर अनिश्चित-सा खड़ा रहा।

थोड़ी देर में रेखा ने सिर उठाया, उसकी आँखें सूनी थी। भुवन को वहाँ देखकर पहले बहुत ही छोटे निमिष के लिए सूनी ही रहीं, फिर सहसा उस पर केन्द्रित हो आयीं। उसने जल्दी-जल्दी कहा, “अच्छा लीजिए, सुनिए, सुन लीजिए-हेमेन्द्र-हेमेन्द्र का नाम आप जानते हैं न, मेरा पति-अपने एक युवा बन्धु को लेकर यहाँ आया था-यहाँ तारे को देखकर दोनों ने वफ़ा की कसमें खायी थीं-हेमेन्द्र ने मुझे बताया था-”

भुवन स्तब्ध रह गया। उसकी समझ में कुछ न आया। फिर रोशनी एक बड़ी पैनी कटार-सी उसे भेद गयी : वह सब समझ गया; उसने चाहा कि रेखा को कन्धे से लगा कर धीरे-धीरे थपथपा दे...पर वह अपने स्थान से हिल भी नहीं सका, वहीं खड़े-खड़े उसने पूछा, “तो-तो आप ने विवाह क्यों किया था-” पूछना वह यह चाहता था कि 'हेमेन्द्र ने आपसे विवाह क्यों किया था?' पर प्रश्न को इस रूप में वह न रख सका।

“क्योंकि-मेरा चेहरा उस मित्र से मिलता था!” रेखा का स्वर एक अजीब पतली अवश चीख-सा हो गया था।

भुवन जहाँ था, वहीं बैठ गया। थोड़ी देर स्तब्ध बैठा रहा, निर्निमेष आँखों से, भरे हुए पानी में, बुझे हुए आकाश का प्रतिबिम्ब देखता। फिर वह धीरे-धीरे उठा, रेखा के पास जाकर उसने बिना कुछ कहे रेखा की बाँह पकड़ी, मृदु किन्तु दृढ़ हाथ से उसे उठा कर खड़ा किया, और बाँह पर सहारा देता हुआ फाटक की ओर ले चला। दो-तीन कदम चलते-चलते रेखा का शरीर सहसा कड़ा पड़ गया-उसने बाँह छुड़ा ली और कहा, “मैं ठीक हूँ, भुवन जी!” उसका स्वर भी अपने सहज स्तर पर आ गया था, यद्यपि अब भी आविष्ट था।

फाटक के पास उसके रुककर कहा, “भुवन जी, मैं क्षमा चाहती हूँ।”

भुवन ने कहा, “नहीं, रेखा जी, दोष मेरा है, मैं दुराग्रह-”

रेखा ने धीरे-से उसके हाथ पर हाथ रख कर उसे चुप करा दिया, मानो कह रही हो, “रहने दीजिए, मैं जानती हूँ कि दोष किस का था।”

फिर उसने कहा “मैं बिल्कुल ठीक हूँ। आप अब कुछ पूछना चाहें तो पूछ लीजिए। मैं अभी बता सकती हूँ। फिर शायद-न सकूँ। या सकूँ तो भी ये बातें बार-बार याद करने की नहीं हैं, आप मानेंगे-”

“नहीं रेखा जी, मुझे कुछ पूछना नहीं है।” भुवन ने गम्भीर होकर कहा। “एक बार भी याद दिलाने का कारण बना, इसी की मुझे बहुत ग्लानि है। आप और कुछ न बताइये, न याद कीजिए।”

कोई बीस मिनट बाद, दोनों कनाट प्लेस में बैठे धीरे-धीरे काफ़ी पी रहे थे। रेखा की दृष्टि अब भी खोयी हुई थी। भुवन पर एक अजीब जुगुप्सा-मिश्रित संकोच छाया हुआ था। रेखा को देखते हुए एक प्रश्न बार-बार उसके मन में उभर आता था जिससे वह लज्जित हो जाता था; जिसे दबा देने की चेष्टाओं की असफलता, गहरी आत्म-ग्लानि उसमें भर रही थी...हेमेन्द्र ने कब, कैसी स्थिति में उसे वह बात बतायी होगी?...

वह साहस करके पूछ ही डालता, तो रेखा उस समय शायद बता भी देती। क्योंकि उसकी खोयी हुई दृष्टि उसी स्थिति को देख रही थी, उसी ग्लानि को मन-ही-मन दुहरा रही थी...

देर रात को हेमेन्द्र कहीं बाहर से आया था। रेखा का शरीर अलसा गया था, आँखें थकी थी; पर वह पलंग के पास की छोटी लैम्प जलाये पढ़ रही थी। लैम्प पर हरे काँच की छतरी थी, उससे छन कर आये हुए प्रकाश में रेखा का साँवला चेहरा अतिरिक्त पीला दीख रहा था; बाकी कमरे में बहुत धुँधला प्रकाश था।

हेमेन्द्र के लौटने पर उससे किसी प्रकार का दुलार या स्नेह-सम्बोधन पाने की आशा उसने न जाने कब से छोड़ दी थी; वैसा कुछ उनके बीच में नहीं था-उनके निजी जीवन में नहीं, यों समाज में जो रूप था-पब्लिक चेहरा!-वह दूसरा था। इसलिए वह उसके लिए तैयार नहीं थी जो हुआ : हेमेन्द्र ने पीछे से आकर बड़े उतावलेपन से और बड़ी कड़ी पकड़ से उसके दोनों कन्धे पकड़े, उसे उठाते और उसके कन्धे के ऊपर से अपना मुँह उसके मुँह की ओर बढ़ाते हुए कहा, “मेरी जान-मेरी जान-”

किताब रेखा के हाथ से छूट गयी, सारा कमरा एक बार थोड़ा डोल गया। सहसा घूमकर, विमूढ़ किन्तु सायास कोमल रखे गये स्वर में उसने कहा, “हेमेन्द्र-”

हेमेन्द्र को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो, वह सहसा रेखा के कन्धे छोड़कर कर पीछे हट गया, फिर उसने कमरे की मुख्य बत्ती जला दी। थोड़ी देर अजनबी दृष्टि से रेखा को देखता रहा; रेखा की परिचित किंचित् विद्रूप-भरी मुस्कराहट उसके चेहरे पर आ गयी। बोला, “हलो, रेखा, सॉरी आइ' म सो लेट-” और पलंग के पास खूँटी की ओर बढ़ गया।

ऐसा तो रोज होता था। पर आज रेखा यह स्वीकार न कर सकी थी। अभी क्षणभर पहले की घटना मानो असंख्य तपे हुए सुओं से उसे छेद रही थी-उसे समझना होगा, समझना होगा...

रेखा ने हाथ का काफ़ी का प्याला रख दिया कि हाथों का काँपना न दीखे; फिर ज़ोर से सिर हिलाया कि यह विचार, यह दृश्य उसकी आँखों के आगे से हट जाये-पर नहीं...

उसने भी जाकर हेमेन्द्र के कन्धे पकड़ लिए थे और पूछा था, “हेमेन्द्र, तुम्हें बताना होगा, इसका अर्थ क्या है?”

“और न बताऊँ तो?” वह विद्रूप की रेखा और स्पष्ट हो आयी थी। फिर सहसा उसने बहुत रूखे पड़कर, रेखा को धक्का देकर पलंग पर बिठाते हुए कहा था, “लेकिन नहीं, बता ही दूँ-रोज़-रोज़ की झिक-झिक से पिंड छुटे-पाप कटे! तो सुनो, मैं तुमसे प्रेम नहीं करता, न करता था। न करूँगा!”

“यह तो बताने की शायद ज़रूरत नहीं है। पर तब मुझसे विवाह क्यों किया था-”

“यह भी जानना चाहती हो! अच्छा। यह भी जानोगी। अब सब जानोगी तुम!”

रेखा जैसे खड़ी होने को हो गयी-फिर बैठ गयी।

भुवन ने कहा, “रेखा जी, स्वस्थ होइये। चलिए, मैं आपको टैक्सी में पहुँचा आऊँ-”

रेखा पत्थर हो गयी। “नहीं। मैं ठीक हूँ। पर इस समय आपको यहाँ बिठाना शायद अन्याय है। आप मुझे यहीं छोड़ जाइये, मैं पीछे चली आऊँगी।”

“यह तो नहीं हो सकता रेखा जी, चाहे आप की अवज्ञा ही करनी पड़े। पर आपको एकान्त की ज़रूरत है, यह तो समझ रहा हूँ। तो चलिए, मैं आपको टैक्सी में बिठा देता हूँ, साथ नहीं जाऊँगा।”

रेखा कुछ नहीं बोली।

भुवन ने बिल चुकाया और दोनों बाहर आये। रेखा टैक्सी में बैठ गयी, तो भुवन ने मौन नमस्कार किया। तब रेखा ने बड़े आयास से एक फीकी मुस्कान चेहरे पर लाकर कहा, “लेकिन भुवन जी, दिस इज़ नाट द एण्ड, आइ होप! कल मैं फिर तीसरे पहर तैयार मिलूँगी।”

भुवन ने फिर चिन्तित स्वर में पूछा था, “आर यू श्योर यू आर आल राइट? या मैं चलूँ-”

“नहीं, भुवन जी! ड्राइवर, चलो, कश्मीरी गेट।”

गाड़ी जब सरकी तो रेखा ने फिर भुवन की ओर उन्मुख होकर कहा, “गाड ब्लेस यू।”

भुवन तनिक विस्मित हुआ, पर तुरन्त सँभल कर बोला, “एण्ड यू।”

टैक्सी चल दी। तब रेखा पीछे ऐसी गिरी मानो अब नहीं उठेगी, नहीं उठेगी; चारों ओर से अतल दूरी से असंख्य काले और उजले तारे उसकी ओर बढ़े चले आ रहे हैं, शून्य का अतल गर्त सिमट कर छोटा हुआ आ रहा है और उसे ऐसे जकड़ लेगा जैसे लोहे का सन्दूक-और उसी के अन्दर वह घुट जाएगी, नहीं रहेगी, न कुछ हो जाएगी...स्मरण के टापू...आह, विस्मृति का महामरुस्थल, आह...

× × ×

“क्यों आप ढूँढ़ रहे हैं न कि कल वाली रेखा कहाँ गयी?”

भुवन अवाक् रेखा का मुँह ताक रहा था। उस पर कहीं कोई व्यथा की, चिन्ता की रेखा नहीं थी, जागर की छाया नहीं थी। रेखा ने फिर वही सादी रेशमी साड़ी पहन रखी थी, लेकिन आज बिना किनारे की नहीं, प्योंड़ी के-से मटीले पीले रंग के चौड़े पाड़ वाली, जिसका पीलापन उसके साँवले रंग को एक सुनहली दमक दे रहा था। हाँ, माथे और कनपटियों पर आज उसने कोलोन-जल लगा रखा था, नींबू के फूलों की-सी हल्की महक उससे आ रही थी।

भुवन जैसे पकड़ा जाकर मुस्करा दिया।

“लेकिन अचम्भे की कोई बात नहीं है। मैं क्षण-से-क्षण तक जीती हूँ न, इसलिए कुछ भी अपनी छाप मुझ पर नहीं छोड़ जाता। मैं जैसे हर क्षण अपने को पुनः जिला लेती हूँ।

“तुमने एक ही बार वेदना में मुझे जना था, माँ,

   पर मैं बार -बार अपने को जनता हूँ
   और मरता हूँ
   पुनः जनता हूँ और पुनः मरता हूँ
   और फिर जनता हूँ ,
   क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ। “ *

( * अर्न्स्ट टॉलर)

भुवन ने कहा, “आप अपने को ऐसे पुनः जिला लेती हैं, यही शायद मुझे आपकी सबसे पहली स्मृति है।”

रेखा ने सचेत होकर पूछा, “कैसे?”

भुवन ने लखनऊ की पार्टीवाली बात बता दी, जब उसने रेखा को सहसा विश्राम करते हुए देखा था। फिर कहा, “लेकिन तब उसका पूरा अभिप्राय नहीं समझ सका था'; अब समझता हूँ।”

रेखा ने विषय बदलते हुए कहा, “आपके जाने का कुछ निश्चय हुआ?”

“नहीं, अभी दो-चार दिन तो और हैं ही; फिर कश्मीर जाऊँगा। फिर वहाँ भी शायद दो-चार दिन रुकना पड़े।”

“मैं सोचती हूँ, मैं कल नैनीताल चली जाऊँ?”

“क्यों?”

“यहाँ अधिक रहूँगी, तो कदाचित् आपके काम में बाधक हूँगी-अब भी नहीं हूँ, यह मानना मुश्किल है। आप पता ही नहीं लगने देते-”

“यह बात बिलकुल नहीं है रेखा जी; मैं बिलकुल खाली हूँ। मित्र भी विशेषज्ञ नहीं हैं। प्रोफ़ेसर-समाज में तो ठहरा ही हूँ; परिचित और हैं, उनसे कभी मिल लेता हूँ-”

“कौन?”

“मेरी एक छात्रा थी-गौरा, उसके पिता।”

“छात्रा थी-आपको अभी पढ़ाते कितने वर्ष हुए हैं?”

“मैंने उसे सात-आठ बरस पढ़ाया था-मैट्रिक में। अब तो वह बी.ए. भी दो बरस हुए कर चुकी-अब मद्रास में है।”

“ओह।”

थोड़ी देर मौन रहा। फिर रेखा ने कहा, “कल रातवाली गाड़ी से चली जाऊँगी।” फिर कुछ नटखट भाव से : “लेकिन वहाँ मन न लगा तो कश्मीर आ जाऊँगी, कहे देती हूँ! आप भी खदेड़ देंगे यह कह कर कि हुकुम नहीं है?”

भुवन ने हँसकर कहा, “मैं क्या करूँगा, यह बताने का भी हुकुम नहीं है! लेकिन-” वह कुछ रुका, “आपकी गाड़ी कितने बजे जाती है?”

“नौ बजे शायद।”

“ओह।” भुवन कुछ सोच रहा है, देखकर रेखा ने पूछा, “क्यों, क्या बात है?”

“कुछ नहीं, कल मैं उधर भोजन करनेवाला था। पर कोई बात नहीं-मैं छुट्टी ले लूँगा-”

“नहीं, वैसा न कीजिए। मैं स्वयं स्टेशन पहुँच जाऊँगी-”

अन्त में यह निश्चय हुआ कि भुवन पहले आकर सात ही बजे रेखा को लेकर स्टेशन के वेटिंग-रूम में बिठा देगा; फिर जाकर गाड़ी के समय आ जाएगा और रेखा को गाड़ी पर सवार करा देगा। रेखा ने मान लिया। बोली, “स्टेशन तो मैं खुद भी आ सकती हूँ। पर विदा करने आप आवेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।”

थोड़ी देर बाद भुवन ने पूछा, “यह तो कल का तय हुआ। और अब?”

“न-नहीं। हाँ, कुछ स्पेशल हो और आपकी इच्छा हो तो चलिए।”

“नहीं। तब नहीं। चलिए, नदी पर चलें-”

“पानी तो कुछ है नहीं-”

“पार बालू पर-टापू में या परले किनारे पर-काश कि दिल्ली में समुद्र होता।”

“सच, तब यहाँ इतनी क्षुद्रता का राज न होता शायद-कुछ तो सागर की महत्ता का प्रभाव पड़ता-”

“धन्य है आपका आशावाद! आप का ख़याल है बम्बई में कम क्षुद्रता है! कुछ कम होगी तो इसलिए कि शासन का केन्द्र दिल्ली है। शासन वहाँ ले जाइये तो”

“आप ठीक कहती हैं शायद। पर इस समय मैंने वैज्ञानिक बुद्धि को छुट्टी दे रखी है। अच्छी कल्पना में क्या हर्ज है?”

“तो और चलिए देखिए, मैं इसी को सागर का किनारा मान लेती हूँ; और रेत का टापू कोई सागर-द्वीप हो जाएगा जिस पर हम तूफान में बह कर आ लगे हैं-दो अजनबी जिन्हें साथ रहना है-कम-से-कम कुछ देर!”

“एक मिस राबिनसन क्रूसो, और उनका अनुगत मैन फ़्राइडे!”

“हाँ। और वहाँ पर किसी राक्षस के पदचिह्न मिले तो?”

“परवाह नहीं, मैन फ्राइडे जादू जानता है।”

नाव में उन्होंने नदी की इधर की शाखा पार की। नाव वाले ने पूछा, “यहीं ठहरूँ?”

“चाहे ठहरो चाहे डेढ़-दो घंटे में आ जाना।” भुवन ने लापरवाही से कहा।

“अच्छा, नहीं तो आप रुक्का दे देना।”

“अच्छा!”

सूखी स्वच्छ रेत पर आकर भुवन ने एक बार चारों ओर देखा, फिर ऊपर। फिर वह कहने को हुआ, “तारे कितने हैं-” पर “ता”-कह कर रुक गया; तारों की ओर रेखा का ध्यान न खींचना होगा!

रेखा ने कहा, “रुक क्यों गये?”

“कुछ नहीं, यों ही-”

“कहिए न?”

“नहीं।”

रेखा ने कहा, “आप तारों के बारे में कुछ कहने जा रहे थे-”

भुवन ने सकपका कर स्वीकार कर लिया।

“तो रुक क्यों गये?”

भुवन चुपचाप उसकी ओर देखने लगा।

“ओ-मैं समझ गयी। तारों से मैं नहीं डरती, भुवन जी, कभी नहीं डरी। और मैंने कहा था न, जो दुःस्वप्न कह लूँगी, उससे मुक्त हो जाऊँगी? अभी तक कह नहीं पायी थी, यही उसकी ताकत थी। अब-अब नहीं! आप कहिए तो तारे गिन डालूँ आकाश के?”

“न! गिनने से कम हो जाते हैं! और तारा एक भी कम करना कोई क्यों चाहेगा? न जाने कौन तारा किसका है?”

“और जो टूटते हैं सो?”

“फिर विज्ञान? टूटकर एक के दो बनते हैं। या बीस। तारे कभी कम हुए हैं आकाश में?”

रेखा इस नये भुवन को देखने लगी। फिर उसने कहा, “अच्छा, मैन फ़्राइडे, तुम्हारा तारा कौन-सा है?”

भुवन का वह मूड बहुत छोटे क्षण के लिए लड़खड़ा गया...न जाने क्यों उसे गौरा का वह पत्र याद आया जिसमें गौरा ने उसे बुलाया था-'मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती!' इण्टर के समय गौरा को उसने ब्राउनिंग की कुछ कविताएँ पढ़ायी थीं; पाठ्य कविताओं से आगे वे दोनों कुछ कविताएँ और भी पढ़ गये थे जिनमें एक का शीर्षक था “मेरा तारा”...लेकिन एक बहुत छोटे क्षण के लिए ही, फिर उसने कहा, “लो, क्या गलती हुई मुझसे-मैं तो उस पर लेबल लगाना ही भूल गया। अब क्या होगा, मिस राबिनसन? इतने बड़े आकाश में कैसे उसे ढूँढूँगा?” उसने ऐसा दयनीय चेहरा बनाया कि रेखा को हँसी आ गयी।

उसने दिलासे के स्वर में कहा, “कोई बात नहीं फ़्राइडे, तारा खुद तुम्हें ढूँढ़ लेगा।”

भुवन बालू में बैठ गया। बोला, “अच्छा, तारों की चिन्ता छोड़ें। इस टापू में ही रहना है, तो घर-वर बनाना चाहिए। रेखा जी, आपको बालू के घर बनाने आते हैं?”

रेखा ने सहसा कहा, “भुवन जी, और मैंने ज़िन्दगी-भर किया क्या है?”

भुवन ने तर्जनी से उसे धमकाते हुए कहा, “बिग्यान को माना है। बांगाली हिन्दी आप समझता हाय?”

“खूब समझती हूँ। पर सूखी रेत के घर तो मैं भी नहीं बना सकती। पानी लाऊँ?”

“कैसे? चलनी कहाँ है?”

आँचल भिगो कर-”

“कोई ज़रूरत नहीं है। मैन फ्राइडे कुआँ खोदकर पानी पीता है। देखिए, मैं यहीं से गीली रेत निकालता हूँ।”

भुवन ने दोनों हाथों से रेत हटाना शुरू किया। रेखा भी बालू में बैठ गयी, ऐसी जगह जहाँ से वह भुवन को और उसकी हरकतों को भी देख सके, और पुल तथा किनारे की बत्तियों को भी। जब-तब आती-जाती मोटरों की मुड़ती हुई आलोक-शिरा एक उछटते हुए प्रकाश में दोनों को चमका जाती, फिर अँधेरा हो जाता।

भुवन ने कहा, “यह देखो गीली रेत। और खोदूँ-कुआँ बन जाएगा; और ज़्यादा खोदूँगा तो अतलान्त सागर निकल आएगा-और ज़्यादा तो धरती के उस पार निकल आएँगे। उस पार के आकाश में क्या तारे हैं, देखोगी? पर पैरों के नीचे तारे निकालने अच्छा नहीं, रौंदे जाएँगे। ज़रूरत भी नहीं है-गीली रेत ही तो चाहिए।”

वह पैर पर बालू थोप कर घर बनाने लगा। पैर निकाल कर गुफा का मुँह काट कर सीधा किया, फिर ऊपर न जाने क्या बनाया, फिर सामने जगह समान की, चारों ओर मेंड़ बनायी, सीढ़ियाँ, फिर एक ओर को दूसरा घर, फिर सड़क...साथ-साथ धीरे-धीरे बोलता जाता : “यह घर बन गया-यह आँगन-यहाँ बगीचा लगेगा-ढूँढ़कर आर्किड लाकर लगाने होंगे-यह चार दिवारी है-यहाँ फ्राइडे रहेगा-यहाँ...”

रेखा मुग्ध दृष्टि से उसे देख रही थी। सचमुच इस भुवन को उसने देखा नहीं था, जाना नहीं था, अनुमान से भी नहीं। वैज्ञानिक डाक्टर भुवन के अन्दर एक गम्भीर संवेदनाशील और खरा मानव छिपा है, यह तो उसने जाना था, लेकिन उस निश्छल ऋजुता के नीचे इतना भोला, इतना कौतुक-प्रिय शिशु-हृदय भी है, यह उसकी सजग दृष्टि भी न देख पायी थी...उसे अपना बचपन याद आया-कलकत्ते के उस घिरे हुए हरे-भरे उद्यान में खेलते हुए उसने माता-पिता का स्नेह पाया था, अगाध-स्नेह और उस निधि के लिए वह चिर-कृतज्ञ है, लेकिन जिस तरह उस स्नेह का स्थान कुछ और नहीं ले सकता, उसी तरह वह अपार स्नेह भी एक समयवस बालक के कौतुक-भरे सख्य का स्थान नहीं ले सकता...बड़ों के स्नेह से घिरी हुई वह अकेली ही रह गयी थी-और उस अकेलेपन ने उसे पकाकर स्वयं भी 'बड़ा' बना दिया था : एक ओर वह पाती थी कि उसके कौतुक-जगत् के बीच में एक दीवार है, दूसरी ओर वह देखती थी कि स्वयं उसके स्नेह-सम्पृक्त परिपक्व रूप, और उसके कौतुक-वेष्टित शिशु-रूप के बीच में भी एक दीवार खड़ी थी...न सही अधिक कुछ, न सही प्यार; यह यन्त्रणा और ग्लानि और अपमान ही सही जो उसने पाया; पर बचपन में अगर उसे दो-एक वर्ष ही ऐसा कोई बाल-साथी मिल गया होता-तो कम-से-कम आज उसके पीछे ऐसा कुछ होता जिसमें वह सम्पूर्णता देख सकती, अपने जीवन की निष्पत्ति देख सकती...एक भाई आया था, पर तब वह आठ वर्ष की हो चुकी थी, भाई छः वर्ष का हुआ तब तक तो वह यों भी वह कौतुक-युग पार कर चुकी थी और उसके बाद के स्वप्न दूसरे थे-कितने भिन्न! और फिर तीन वर्ष बाद भाई मर गया था-माता-पिता के दिल टूट गये थे, और उसके स्वप्नों की दूसरी खेप भी नष्ट हो गयी थी...

और भुवन-वह डाक्टरेट कर चुका है, वैज्ञानिक रिसर्च में नाम पा रहा है, वय में उससे बड़ा है, और यहाँ बैठकर बालू के घर बना रहा है और मुग्ध हो सकता है...ईर्ष्या का कोई सवाल नहीं है-ईर्ष्या क्या होगी-पर क्यों उसे उस सुरक्षा और स्नेह में भी वह सम्पूर्णता, वह मुक्ति नहीं मिली-क्यों, क्यों, क्यों...

भुवन ने अपने काम में लगे-लगे ही पूछा, “मिस राबिनसन-रेखा जी, कलकत्ते में आप बचपन में जहाँ रहीं, वहाँ बालू थी? लेकिन वहाँ तो नदी के किनारे कीचड़ होता है-”

क्यों उसके विचार रेखा के विचारों के समान्तर चल रहे हैं जब वह खेल में डूबा है, क्यों वह छूता है उस दुखते स्थल को जिसे रेखा छिपा लेना चाहती है- सब की दृष्टि से, सबसे अधिक इस भुवन की दृष्टि से जो इतना भोला है, जो केवल खुली हँसी है, जाड़ों की धूप की तरह खिली हुई हँसी-नहीं, वह अपनी परछाईं नहीं पड़ने देगी यहाँ पर, वह चली जाएगी-

उसने मुँह ऊपर कर लिया कि आँखों में उमड़ते आँसू बाहर न बह आयें।

भुवन कहता गया, “नहीं, कलकत्ता अच्छा नहीं है। इस बालू के टापू के मुकाबले में कोई जगह अच्छी नहीं है। लीजिए आपका घर तैयार हो गया!”

अब की बार भी उत्तर न पाकर भुवन ने विस्मय से उधर देखा। रेखा आकाश की ओर मुँह उठाये निर्निमेष बैठी थी, खेल से बहुत दूर। अचकचा कर भुवन खड़ा हुआ; मोटर की मुड़ती रोशनी के पलातक आलोक में उसने सहसा चौंक कर और लजा कर देखा, रेखा की आँखों में आँसू हैं। उसके हाथ अनैच्छिक गति से रेखा के आँसू पोंछने को हुए, पर फिर उसे ध्यान हुआ कि बालू से सने हैं, और वे अनिश्चित से अध-बीच रुक गये। सहसा किंकर्तव्यविमूढ़ करुणा में भरा हुआ वह झुका और रेखा की गीली पलकें उसने चूम ली।

तभी वह कुछ बोल सका। “रोती हो? बालू के घरों वाले रोया नहीं करते”

“नहीं भुवन, ये दुःख के आँसू नहीं हैं-” कहती-कहती भी रेखा आँसू झटक कर खड़ी हो गयी। बोली, “आप ही से छिपाना चाहती हूँ, आप ही को-” फिर जल्दी से विषय बदलने के लिए उसने कहा, “नहीं, कलकत्ते में बालू नहीं थी। वहाँ मैं मिस राबिनसन नहीं थी, राजकुमारी थी, जादू के उद्यान में रहती थी, बड़ा हरा-भरा-बालू तो क्या, मिट्टी भी कहीं नहीं दीखती थी।”

भुवन ने भी हल्का स्तर स्वीकार करते हुए कहा, “ओ, तब तो आप इस ग़रीब बालू के घर का सौन्दर्य क्या देखेंगी!”

“उलटे अधिक समझती हूँ, भुवन जी!” रेखा हँसी, पर हँसी के नीचे गम्भीरता थी।

“तो अब चला जाये?”

“चलिए।”

भुवन चलने को हुआ तो रेखा ने पूछा, “इस बालू के घर को गिरायेंगे नहीं?”

“क्यों?”

“क्योंकि वास्तव में गिर नहीं सकता। उसकी छाप अतलान्त तक जो है। ऊपर से मिटा देना चाहिए, नहीं तो उसका जादू दूसरे जान जायेंगे।”

भुवन ने उसे परचाते हुए कहा, “हाँ, यह तो है।” और पैर की गति से घर-बग़ीचा सब मटियामेट कर दिया। फिर कुछ आगे बढ़कर उसने नाव वाले को आवाज़ दी : “नाववाले!”

किनारे पर लगकर उसने कहा, “और इस प्रकार क्रूसो सभ्यता को लौट आया।”

रेखा ने कहा, “अगर क्रूसो कभी लौटते हैं तो।”

× × ×

लेकिन भुवन ने कुछ अधिक बारीक हिसाब लगाया था। रेखा को स्टेशन तो उसने सात से पहले पहुँचा दिया; पर नयी दिल्ली जाकर लौटने में उसे अधिक देर लगी यद्यपि खाना भी उसने लगभग नहीं खाया, छूकर छोड़ दिया। स्टेशन पहुँचा तो नौ में दो मिनट थे। उसने सोचा कि रेखा शायद प्लेटफ़ार्म पर चली गयी हो; पहले सीधा उधर गया, फिर हड़बड़ा कर वेंटिंग-रूम आया-रेखा उद्विग्न-सी बाहर खड़ी राह देख रही थी। उसने कहा-”मैं पहले उधर गया था-देर हो गयी-चलिए-आप प्लेटफ़ार्म पर क्यों न-”

“मैं बाकायदा बिदा किये बिना नहीं जाऊँगी, क्या आप नहीं जानते थे? गाड़ी में बैठ जाती और आप न आते तो-”

उसकी बात में उलाहना नहीं था, केवल सच की सीधी उक्ति थी।

गाड़ी की सीटी सुनायी दी। भुवन ने कहा, “गाड़ी तो अब-”

“जाने दीजिए। नहीं मिलेगी। मैं घबड़ायी हुई नहीं दौडूँगी।” सहसा वह हँस दी, जिससे तनाव एकाएक शिथिल हो गया।

भुवन ने कहा, “अब?”

“वापस वाई. डब्ल्यू तो मैं नहीं जाऊँगी। अगली गाड़ी कब जाती है?”

“पता करें। मेरे खयाल में तो रात में और नहीं जाती, तड़के शायद-”

“वही सही, रात वेंटिग रूम में काट दूँगी। आप जाइये; पर सबेरे कैसे आएँगे-या मत आइएगा, अभी थोड़ी देर में चले जाइएगा, बस।”

भुवन ने कहा, “इस परम्परा का निर्वाह तो तब होगा जब रात-भर यहीं बातें की जायें, और तड़के गाड़ी पकड़ी जाये। एक प्रमाद जब हो जाये, तब यही उसका उपाय होता है।”

“सच?” रेखा का चेहरा खिल आया। “मैं राज़ी हूँ। पर चलिए, पहले आपको कुछ खिला दूँ। मैं खिलाऊँगी-स्टेशनों पर मेरा राज है।”

“लेकिन मैं तो खा आया।”

“ग़लत बात है। खाकर आते, तो या तो पहुँचते नहीं, या पहले आते। ठीक वक़्त पर आये तो मतलब है कि खाना सामने छोड़ आये हैं।”

“यह तर्क मेरी समझ में नहीं आया-”

“न आये। यह स्त्री-तर्क है। इसके आगे विज्ञान नहीं चलता। चलिए। रास्ते में गाड़ी का पता भी करते चलेंगे। और टिकट वापस करके नया लेना होगा।”

गाड़ी सुबह साढ़े चार बजे जाती थी। टिकट भुवन ने वापस कर दिया; नया टिकट रात बारह के बाद मिलेगा-नयी तारीख हो जाने पर, क्योंकि रेखा इण्टर का सफ़र करती थी, सेकेण्ड होता तो तभी मिल जाता।

कुछ खाकर और काफ़ी पीकर दोनों रिफ्रेशमेन्ट रूम से निकले तो रेखा ने कहा, “मुझे जनाने वेटिंग रूम में जाने को मत कहिएगा। और जहाँ कहें-प्लेटफ़ार्म पर घूमने को, बेंच कर बैठने को, आगे बजरी पर बैठने को, पुल पर चढ़कर रेलिंग से झाँकने को-जो कहेंगे सब करूँगी!”

भुवन ने कहा, “टहलेंगे।”

पुल से पार एक अपेक्षाकृत सूने प्लेटफ़ार्म पर दोनों टहलने लगे। अभी डेढ़ घंटे बाद टिकट मिलेगा; गाड़ी तीन बजे प्लेटफ़ार्म पर आ लगेगी, तब उसमें बैठा जा सकता है।

प्लेटफ़ार्मों पर भटकते, कभी बेंच पर बैठते, कभी छती हुई पटरी से आगे बढ़कर बजरी पर चलकर तारे और कभी पुल पर खड़े-खड़े सिगनलों की लाल बत्तियाँ देखते, इंजिनों का स्वर सुनते और उनके धुएँ की गुँजलकों को आँखों से सुलझाते हुए दोनों ने चार घंटे तक क्या बातें की, इसका सिलसिलेवार ब्यौरा देना कठिन है। सिलसिला उसमें अधिक था भी नहीं, भले ही उस समय उन दोनों को यही दीखा हो कि प्रत्येक बात एक से एक अनिवार्यतः निकलती और सुसंगत गति से चलती गयी है। साढ़े बारह के लगभग भुवन जाकर नया टिकट ले आया और अपने लिए नया प्लेटफ़ार्म। तीन बजे जब गाड़ी आ लगी, तब वह कुली ढूँढ़ कर लाया, रेखा से बोला, “अब तो वेटिंग-रूम में जाएँगी या अब भी मैं ही सामान उठवा कर लाऊँगा?” फिर दोनों गाड़ी पर चले गये।

जनाने डिब्बे में पहिले ही से कई सवारियाँ थी-बच्चे-कच्चे लिए औरतें। सामान उसमें एक तरफ़ रखवा रेखा बाहर निकल आयी; बोली, “चलिए कहीं और बैठें-फिर यहाँ आ जाऊँगी।”

साधारण इण्टरों में एक खाली था। दोनों उसमें जा बैठे, बातें फिर होने लगी। भुवन ने कश्मीर के अपने प्लान बताये-कब जाएगा, कहाँ रहेगा, क्या करेगा-तुलियन झील पर कैसे दिन काटेगा, वग़ैरह। रेखा ने पूछा, “वहाँ बालू होगी?”

“बालू? क्यों?”

रेखा हँस दी। “घरौंदे बनाने के लिए-”

भुवन भी हँस दिया। फिर उसने पूछा, “नैनीताल में क्या करेंगी आप दिन-भर?”

“झील की ओर ताका करूँगी। कागज़ की नावें चलाया करूँगी-नहीं, कागज़ की भी नहीं, सपनों की। काल्पनिक यात्राएँ करूँगी। आपको क्या मालूम है, मध्य-वर्ग की बेकार औरत कितनी लम्बी लड़ी गूँथ सकती है सपनों की!”

चार बजे उस डिब्बे में भी दो-चार व्यक्ति आ गये। रेखा ने कहा, “फिर थोड़ा टहला जाये?”

“चलिए-”

दोनों फिर प्लेटफ़ार्म पर टहलने लगे। लेकिन भीड़ होने लगी थी। भुवन ने कहा, “आपको एक बार अपने सामान की फ़िक्र करनी चाहिए।”

जनाने डिब्बे में भीड़ भर गयी थी। रेखा ने अपना सामान देख-देखकर, अपना अधिकार स्थापित कर देने के लिए सीट पर थोड़ी जगह करायी और वहाँ पर बैठ गयी। भुवन बाहर खिड़की पर खड़ा हो गया!

भीतर बड़ी किटकिट थी। बात करना असम्भव था। रेखा ने अपना पर्स खोलकर उसमें से छोटी-सी कापी निकाली और पेंसिल से उसमें कुछ लिखने लगी।

भुवन ने पूछा, “क्या लिख रही हैं?”

रेखा ने हँस कर सिर हिला दिया।

थोड़ी देर बाद उसने कापी भुवन की ओर बढ़ायी। उसमें लिखा था, “उस डिब्बे में बैठकर थोड़ी देर के लिए मैं अपने को यह मना सकी थी कि हम साथ ही इस गाड़ी में यात्रा कर रहे हैं। पर अब-अब लगता है कि आप मुझे विदा कर चुके और उपचार बाकी है।”

भुवन ने कुछ न कह कर कापी लौटा दी।

रेखा ने फिर लिखा : “अगले स्टेशन पर आप प्रतापगढ़ से आगे बात चलाने आवेंगे?”

अब की बार भुवन ने कहा, “ज़रा पेंसिल दीजिए।” और लिखा : “आप ही ने तो कहा था, 'अब अगले स्टेशन पर न आना।”

सहसा रेखा ने कहा, “सुनिए, आप मुझे छोड़ने क्या दो-चार स्टेशन भी न चलेंगे? हापुड़ से लौट आइएगा-”

भुवन सिर्फ हँस दिया, कुछ बोला नहीं।

रेखा के चेहरे पर एक हल्की-सी उदासी खेल गयी। कापी में उसने लिखा, “नहीं, मेरी ज़्यादती है।”

भुवन ने फिर कापी ले ली। ज़ेब से कलम निकाल कर सुस्पष्ट अक्षरों में लिखा, 'अकेले हैं न, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।' फिर तनिक रुककर उस पर दुहरे उद्धरण-चिह्न लगा दिये “-”

रेखा ने कापी देखी तो अचकचा कर बोल उठी, “यह-यह आपसे किसने कहा?”

भुवन हँसने लगा। फिर उसने लिखा, “मैंने कहा था न, मैन फ्राइडे जादू जानता है?”

रेखा ने कापी ले ली, और अपलक दृष्टि से भुवन को देखने लगी। फिर उसकी आँखें कुछ विकेन्द्रित हो गयीं, जैसे उसके विचार कहीं दूर चले गये हों।

भुवन ने कहा, “मैं अभी आया-” और ओझल हो गया।

प्लेटफ़ार्म पर चहल-पहल सहसा बढ़ गयी, जैसा गाड़ी चलने का समय हो जाने पर होता है। रेखा कापी में लिखने लगी-”ठीक गाड़ी के जाने के समय आप कहाँ चले गये? मैं गाड़ी चलने से पहले ही मानो खो गयी हूँ। इन स्त्रियों की बातें सुनती हूँ, और अनुभव करती हूँ कि मैं गृहस्थिन तो पहले ही नहीं थी, अब शायद स्त्री भी नहीं रही-कितनी दूर, कितनी दूर हैं मुझ से ये बातें। एक तीन बच्चों की माँ है, एक पाँच की। एक के 'वह' लाम पर गये हैं। वहाँ से चाँदी के लच्छे न जाने कैसे भिजवाये थे-चाँदी के मगर फ़िरोज़े जड़े। दूसरी के 'वह'...”

गार्ड ने सीटी दी। रेखा ने हड़बड़ा कर इधर-उधर देखा, फिर घसीट कर कापी में लिखा “कहाँ चले गये तुम, भुवन-गाड़ी चलने वाली है-क्या अन्त में बिना विदा के ही मुझे जाना होगा?” कापी उसने बन्द की और खड़ी होकर दरवाज़े की ओर बढ़ी, बाहर झुकी-

सामने भुवन खड़ा मुस्करा रहा था।

“बड़े नालायक हैं आप!” रेखा सहसा कह गयी। “मुझे यों डराना अच्छा लगा है?”

भुवन ने कहा, “अभी तो बहुत टाइम है। डरा मैं नहीं गार्ड रहा है। आप बेशक बाहर चली आइये-”

रेखा उतर आयी और गाड़ी से कुछ हटकर भुवन के बग़ल खड़ी हो गयी। भुवन मुस्कराता ही जा रहा था। रेखा उसकी ओर देखने लगी : हाँ, यही अच्छा है, इसी प्रकार मुस्कराते हुए ही हट जाना चाहिए, वह भी मुस्करायेगी-एक मिनट की तो बात होती है, ज़रा से धीरज की, ज़रा मज़बूत नर्ब्ज़ की-बाद में चाहे जो हो...

भुवन ने सहसा जेब में से कुछ निकाला, अंगूठे और उँगली से मसल कर उसकी गोली बनायी और ठोकर मारकर फुटबाल की तरह उछाल दी। रेखा ने कहा, “क्या था?”

गार्ड ने और गाड़ी ने एक साथ सीटी दी।

भुवन ने कहा, “मेरा प्लेटफ़ार्म टिकट।”

रेखा भौंचक उसे देखने लगी। भुवन बोला, “क्यों, यह गाड़ी भी छोड़नी है क्या? मैं चल रहा हूँ साथ-हापुड़ नहीं, मुरादाबाद।”

उसके साथ ही लपक कर रेखा अगले इण्टर की ओर बढ़ी-कितना अच्छा था उसके साथ कदम मिलाकर लपकना! उसे सवार करा कर भुवन भी उछल कर चलती गाड़ी में सवार हो गया।

रेखा बैठ गयी; जगह कम थी, भुवन खड़ा रहा। रेखा ने एक बार बेबस उसकी ओर देखा, फिर कापी निकाल कर लिखा, “भीड़ है, नहीं तो मैं इस वक़्त गाना गाकर सुना देती।”

भुवन उसकी ओर मुस्करा दिया। फिर कापी लेकर लिख दिया, “भीड़ की सजा मुझे मिलेगी?”

रेखा फिर असहाय-सी उसकी ओर देखने लगी। फिर उसने घूमकर खिड़की से मुँह बाहर निकाला और धीरे-धीरे गाने लगी। भुवन दरवाज़े पर था ही, दरवाज़ा खोल कर खड़ा हो गया। सरसराती हवा के साथ गाने के स्वर उसके कानों को छूने लगे :

महाराज , ए कि साजे एले मम हृदय-पुर माझे।

   चरण तले कोटि शशि -सूर्य मरे लाजे।
   महाराज , ए कि साजे-
   गर्व सब टूटिया
   मूर्छि पड़े लूटिया
   सकल मम देह -मन वीणा सम बाजे।
   महाराज ए कि साजे -

(महाराज , यह किस सज्जा में मेरे हृदय-पुर में आये? कोटि शशि-सूर्य लज्जित होकर पैरों में लोट रहे हैं। मेरा गर्व टूटकर मूर्छित पड़ा है, मेरा देह-मन वीणा की तरह बज रहा है। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

जमुना के पुल की गड़गड़ाहट में आगे गान खो गया। पुल जब पार हुआ, तब रेखा चुप हो गयी थी, क्षितिज में कुछ हलकापन दीखने लगा था।

× × ×

तल्ली-ताल में मोटर से उतर कर भुवन ने एक नज़र नैनीताल की झील को देखा-तीसरे पहर की धूप एक तरफ़ की पहाड़ी पर ऊँचे पर थी, झील घनी छाँह में थी और आकाश ऐसा दूर था मानो किसी गहरी तलहटी में से ऊपर देख रहे हों-तो उसने जाना कि यहाँ तक आने का निश्चय तभी हो गया था जब उसने मुरादाबाद का टिकट लिया था। मुरादाबाद में जब रेखा ने पूछा था, “सुनिए, आप सचमुच यहाँ से लौट जाएँगे?-अब मुझे पहुँचा ही आइये न?” तब जैसे यह प्रश्न उसके मन में पहले पूछा जा चुका हो, ऐसे ही बिना अचम्भे के उसने कहा था, “हो तो सकता है-”

और रेखा ने चिढ़ाया था, “तो मैन फ्राइडे अभी से सकने की बातें सोचने लगा जादू भूल कर?”

“भई, अभी दिन-दुपहर है, जादू का वक़्त अभी कहाँ हुआ है?”

मुरादाबाद से वे बरेली होकर नहीं गये थे : रामपुर गये थे और वहाँ से मोटर में काठगोदाम होते हुए नैनीताल-तीसरे पहर ही यहाँ पहुँच गये थे। रास्ते में रेखा धीरे-धीरे न जाने क्या गुनगुनाती आयी थी, बोली बहुत कम थी; एक अलौकिक दीप्ति उसके अलस शान्त चेहरे पर थी : बीच-बीच में वह आँखें बन्द कर लेती और भुवन समझता कि सो गयी है, पर सहसा उसकी पलकें उस अनायास भाव से खुल जाती जिससे स्वस्थ शिशु की आँखें खुलती हैं और वह फिर कुछ गुनगुना उठती...भुवन ने कहा था, “थोड़ा ऊँघ लीजिए, रात भर जागी हैं-” तो सहसा सजग होकर बोली थी, “अभी? ऊँघने के लिए तो सारा जीवन पड़ा है, थोड़ा-सा जाग ही ली तो क्या हुआ!” और एक कोमल मुस्कान से खिलकर उसे निहारने लगी थी। फिर भुवन ऊँघ गया था...

होटल साफ़-सुथरा था, पर लोग काफी थे। मैंनेजर से भुवन ने पूछा कि ठहरने की जगह मिल सकेगी? तो उसने तपाक से उत्तर दिया : “जी हाँ, डबल-रूम-कितने दिन के लिए?” और रजिस्टर की ओर हाथ बढ़ाते हुए, “किस नाम से”

क्षण-भर के लिए वह झिझक गया। मैनेजर के प्रश्न के साथ ही सभ्यता की जो समस्याएँ सहसा उसकी नज़र के आगे कौंध गयीं, उन पर उसने आते हुए विचार नहीं किया था। सँभलकर बोला, “अभी हमने निश्चय नहीं किया है कि यहीं ठहरेंगे या और आगे जाएँगे : ज़रा चाय-वाय पी लें तब तक सोचते हैं-”

“जी हाँ, अभी लीजिए”, कह कर मैनेजर ने आवाज़ दी, “बाय!”

'बाय' आया तो उससे कहा, “साहब का आर्डर ले लो-चाय केक-पेस्ट्री वग़ैरह जो चाहें-”

रेखा कुछ पीछे थी। भुवन ने कहा : “आप ज़रा यहीं बैठिए, मैं अभी आया-सामान-”

पर रेखा साथ बाहर की ओर चली। बोली, “क्या बात है, भुवन?”

“कुछ नहीं।” भुवन क्षण भर रुक गया। फिर बोला, “मैं यहाँ नहीं ठहरूँगा-नैनीताल में ही नहीं।”

रेखा उसे देखती रही। उसका चेहरा उतर गया। “अभी वापस जाओगे?”

“यहाँ तो नहीं रहूँगा। या तो आगे चलें-”

“चलो-”

“अच्छा, मैं आता हूँ-”

“लेकिन जा कहाँ रहे हो? बताओ तो-”

“भई, कुछ सामान-वामान तो मुझे चाहिए, आ तो गया-”

“मेरे पास सभी कुछ फ़ालतू है, बिस्तरा, कम्बल-”

भुवन ने एक मुदित-सी खीझ के साथ कहा, “अच्छा, एक टूथ-ब्रश तो ले आऊँ!”

रेखा हँस पड़ी। फिर बोली, “मैं भी साथ चलूँ?”

“नहीं, मैंने चाय का आर्डर दिया है, मैं अभी लौट कर आया।”

रेखा मान गयी। भुवन चलने लगा तो बोली, “पर हम यहाँ ठहर नहीं रहे हैं, यह उदास जगह है। आगे कहीं भी चलो-मुझे छोड़ आना होगा।”

भुवन चला गया। रेखा भीतर बैठकर कापी में कुछ लिखने लगी। उसे नहीं मालूम हुआ कि भुवन कब लौटा; सहसा उसका स्वर सुन कर चौंकी। भुवन मैंनेजर से कह रहा था : “हम लोग आगे जा रहे हैं सात-ताल, अभी चले जाएँगे चाय के बाद-आपका शुक्रिया।”

“दैट्स आल राइट, सर! चाय आ गयी है।”

दोनों ने एक साथ ही प्रश्न किये :

“ले आये टूथ-ब्रश?”

“क्या लिख रही हैं-कविता?”

रेखा ने पहले उत्तर दिया : “हाँ समझ लो।”

भुवन ने नकल लगाते हुए कहा, “और मैं भी, हाँ, समझ लो।” फिर कहा, “अच्छा, जल्दी से चाय पी लीजिए-आगे जाना है तुरन्त।”

“कहाँ?”

“आगे। इंटु द ब्लू। क्रूसोलैण्ड। चाय का मज़ा क्यों बिगाड़ती हैं-पी लीजिए और चलिए।”

रेखा मुस्करा दी। चाय से उठकर वे बाहर आये तो भुवन ने कहा, “आपके बक्स-वक्स में कहीं जगह हो तो यह पैकेट उसमें रख दीजिए-”

रेखा ने दुष्टता से कहा, “इतना बड़ा टूथ ब्रश। जरा मैं देखूँ-” और भुवन के रोकते न रोकते उसने पैकेट खोल कर झांका ही तो।

दो कमीजे॓ं, एक फ्लैनल की पैंट, एक पाजामा, एक-आध और छोटी चीजें, और, हाँ, एक टूथ-ब्रश भी।

रेखा ने कहा, “हाँ, है तो सही टूथ-ब्रश। पर यह सब रेडी-मेड क्या ले आये आप-”

“तो आप का क्या ख़याल था, आपका फ़ालतू कम्बल लपेटे घूमूँगा?” भुवन हँस पड़ा, और अपने पतले कुरते की ओर देखने लगा।

रेखा ने गम्भीर होकर माफ़ी माँगी। सहसा उसे ध्यान हुआ, भुवन को यों खींच लाने में भावुकता का कितना बड़ा प्रमाद उसने किया है।

भुवन ने उसकी बात काटकर कहा, “जल्दी कीजिए रेखा जी, सामान उठवाना है।”

रेखा सामान रख रही थी तो उसने पूछा, “दस-बारह-पन्द्रह मील चल सकती हैं? वैसे मोटर भी जाती है, पर आगे भी कुछ चलना पड़ेगा-”

“ज़रूर चल सकती हूँ। पैदल ही चलूँगी। लेकिन कहाँ जाएँगे? सात-ताल?”

“नहीं।” भुवन फिर मुस्करा दिया। “क्रूसोलैण्ड-मैंने कहा न? बताने से जादू चला जाता है।”

भुवन कुली साथ ले आया था। सामान उठवाया और बोला, “चलो, हम लोग आते हैं। डाक बंगले पर जाकर बैठना।”

कुली चल पड़े।

“कहाँ के डाक बंगले-यह बता दिया है?”

“वह सब मैं ठीक कर आया हूँ-आप किसी उपाय से पहले नहीं जानने पाएँगी!” रास्ता उतार का था। दोनों बड़ी तेज़ी से उतरने लगे।

भुवन ने कहा, “अगर तेज़ चलने की बात न होती, तो मैं आपसे गाने का अनुरोध करता।”

रेखा ने रुकते-रुकते शब्दों में कहा, “नहीं-इस वक़्त-हवा को ही गाने दीजिए।”

लेकिन दो-तीन मील जाकर जब वे एक खुली जगह सामने का दृश्य देखने के लिए रुके, तब रेखा सहसा खुले गले से किसी भटियाली पद के बीच में से ही गा उठी :

ओ ये केड़े आमाय निये जाय रे,

   जाय रे कोन चूलाय रे!
   आमार मन भूलाय रे!
   ग्राम छाड़ा ओई राङामाटीर पथ-

(रांगामाटी का गाँव से हटा हुआ पथ मुझे खींच कर ले जाता है न जाने किधर।)


बस, यही अढ़ाई पंक्ति, और फिर मुक्त भाव से आगे को दौड़ पड़ी। पीछे-पीछे भुवन भी दौड़ने लगा।

भुवाली से एक-डेढ़ मील आगे रेखा ने सहसा भुवन का हाथ पकड़ कर कहा, “वह देखो सामने-क्या वहीं हम जा रहे हैं!”

दिन ढलने लगा था। आकाश के विस्तार में एक हल्की-सी धुन्ध छाने लगी थी; अभी थोड़ी देर में इसी धुन्ध में साँझ का ताम्र-लोहित रंग बस जाएगा...आस-पास की पहाड़ियाँ नैनीताल की तरह तंग नहीं थीं, एक के बाद एक तीन-चार खुले स्तर थे मानो पुरानी सूखी झीलों के थाल हों, और आस-पास पहाड़ियाँ क्रमशः नीचे होती गयी थीं। और धुन्ध के बीच में, जैसे किसी जौहरी ने सँभाल कर रूई के गोले पर कोई मूल्यवान रत्न रखा हो, एक झील चमक रही थी...

“मुझे क्या मालूम है? हो सकता है। पर वह शायद भीमताल है। तब सात-ताल दाहिने को होगा।”

“वहाँ क्या सचमुच सात-ताल हैं?”

“ज़रूर हैं, लेकिन जादू के बग़ैर नहीं दीखते। यों शायद तीन हैं-बल्कि अढ़ाई-” रेखा ने फिर पूछना चाहा, “क्या हम वहाँ जा रहे हैं?” पर रुक गयी।

दिन छिपते-छिपते दोनों भीमताल पहुँच गये। कुली भुवाली में ही पीछे रह गये थे। झील के पास ही डाकबंगला था; भुवन ने वहाँ जाकर चौकीदार से कहा कि कुली आवें तो उन्हें कह दे कि वह आगे चला गया है और कुली जल्दी आवें, फिर कुछ और पूछताछ भी करा ली और रेखा के पास लौट आया।

“क्या यहीं रुक रहे हैं हम?”

“नहीं, बस तीन मील और जाना है। थक तो नहीं गयी?”

“इर्रेलेवेंट बातें मत कीजिए,” रेखा ने उत्तर दिया और भुवन ने देखा, उसके चेहरे पर यद्यपि श्रम के लक्षण स्पष्ट हैं, पर उसकी एड़ी की गति में सहसा नयी लचक आ गयी है...

रात हो गयी थी। सप्तमी-अष्टमी का चाँद था। पथ बराबर हल्की उतराई का ही था। एक छोटे-से गाँव के पास से वे गुज़रे। भुवन ने कहा, “अब मील-भर और होना चाहिए-”

“अब भी नाम नहीं बताओगे जगह का?”

“नाम? नाम में क्या है? हमारा ही क्या नाम है? वहाँ एक तिलिस्मी झील है, और उसके नौ अलग-अलग कक्ष हैं, सब कभी एक साथ नहीं दीखते। रोज़ एक देखना होता है-”

“ओः, पूरा नाइन डेज़ वण्डर।” रेखा ने चिढ़ाया।

“हाँ, वही सही। लेकिन चार दिन की चाँदनी कहते हैं, तो मेरे वण्डर में दो पूरी चाँदनियाँ समा गयीं और फिर भी कुछ बाकी रह गया-समझीं?”

“तुम और तुम्हारा अरिथमेटिक!”

पहाड़ी के मोड़ पर सहसा घने पेड़ों के झुरमुट की ओट में पानी की चमक। भुवन ने कहा, “थके राही, वह देखो मंजिल। इस झील का नाम है नौकुछिया-ताल।”

थके तुम-और तुम्हारा दुश्मन। लेकिन सचमुच यही नाम है?”

“हाँ।”

बड़ा साफ़-सुथरा कमरा। बड़ी टेबल लैम्प। बिजली के लैम्प में और रहस्य में वैर है, लेकिन तेल के लैम्प-आओ, रहस्य के सौन्दर्य, सौन्दर्य के रहस्य, इस छोटे से आलोक-वृत्त को घेर लो!

सामान न जाने कब आएगा। गर्म पानी से दोनों ने मुँह-हाथ-पैर धोये; एक लम्बी आराम-कुरसी भुवन ने खिड़की के पास खींच ली, जहाँ से झील और चाँद भी दीखता था, पैरों के लिए एक तिपाई रखी; फिर रेखा से कहा, “यहाँ बैठ जाओ।”

रेखा ने एक बार उसके चेहरे की ओर देखा, फिर उस आज्ञापने के स्वर का प्रतिवाद करने की उसकी इच्छा दब गयी। वह आराम से लेट गयी। भुवन खिड़की के चौखटे पर आधा बैठ गया।

“और एक कुरसी खींच लो न?”

“खींच लूँगा पीछे।”

रेखा ने कुछ अलसाये स्वर से कहा, “फ्राइडे, तुम नहीं गा सकते? वह एक जादू बाकी है अभी-फिर मैं मान लूँगी कि कामिल जादूगर हो।”

भुवन ने कहा, “अच्छा गाता हूँ।” उठकर बरामदे में गया, धीरे-धीरे टहलने लगा।

उसकी गुनगुनाहट भीतर पहुँची तो रेखा का और भी अलसाया स्वर आया : “बाहर क्या प्रैक्टिस करने गये हो?”

भुवन ने उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद भीतर गया तो देखा, रेखा वहीं कुरसी पर सो गयी है। वह दबे पाँव बाहर लौट आया। बरामदे के खम्भे के साथ पीठ टेक कर नीचे बैठ गया और चाँद देखने लगा। सहसा न जाने क्यों उदास विचार उसके मन में उमड़ने लगे-क्या थकान के कारण? वह फिर धीरे-धीरे गुनगुनाने लगा।

...मेरे मायालोक की विभूति बिखर जायगी!

   किरण मर जायगी!
   लाल हो के झलकेगा भोर का आलोक-
   उर का रहस्य ओठ सकेंगे न रोक।
   प्यार की नीहार बूँद मूक झर जायगी!
   इसी बीच किरण मर जायगी!
   ओप देगा व्योम श्लथ कुहासे का जाल,
   कड़ी-कड़ी छिन्न होगी तारकों की माल।
   मेरे मायालोक की विभूति बिखर जायगी-
   इसी बीच किरण मर जायगी!

चारों ओर पैरों की चाप और लालटेन की रोशनी से वह चौंक कर जागा। हाथ की घड़ी देखी-ग्यारह बजे थे। कुली आ गये थे। उसने कहा, “शोर मत मचाओ!” सामान उतरवा कर पैसे देकर उन्हें विदा किया। फिर भीतर जाकर देखा, रेखा गहरी नींद में सो रही थी। भुवन ने सामान बाहर ही रहने दिया, बिस्तर खोला, एक कम्बल निकाल कर, अन्दर चादर जोड़कर, दबे पाँव भीतर गया और धीरे से रेखा को उढ़ा दिया। वह नहीं जागी। तब वह बाहर आया, और जमीन पर बिछे बिस्तर पर ही स्वयं लेट गया, एक कम्बल खींच कर अपने पैरों पर उसने ढक लिया।

झील इस समय सुन्दर है-आसपास घने पेड़ों के झुरमुट हैं यद्यपि झील नैनीताल की तरह दो पहाड़ों के बीच में भिंची हुई नहीं है, खुली है-दिन में भी क्या वह उतनी ही सुन्दर होगी-जितनी उसने सुना है, जितनी अब है? दिन...'मेरे मायालोक की विभूति...!' दिन अपनी चिन्ता स्वयं करेगा। एक बार उसने चाहा, उठकर फिर रेखा को देख आये, पर शरीर ने कोई प्रोत्साहन न दिया। ठीक है, दिन की बात दिन में-अभी तारे हैं-कितने तारे-क्या सचमुच हर किसी का एक-एक अपना तारा होता है? केवल कल्पना। पर सुन्दर कल्पना। क्यों? क्या यह कल्पना और भी सुन्दर नहीं है कि सब तारे सब के होते हैं? हाँ, सदैव तो वही। पर एक क्षण होता है-एक द्वीप का क्षण-नहीं, क्षण का द्वीप-नहीं, उस क्षण में तारों का एक द्वीप-न...

× × ×

सुन्दर रंग-बिना आलोक के रंग-लेकिन बिना आलोक के रंग हो कैसे सकते हैं?-नहीं, बिना रंग का आलोक, तीक्ष्ण आलोक :

भुवन उठकर बैठ गया। सूर्य निकल आया था। लपक कर वह भीतर गया-कुरसी पर रेखा नहीं थी। तो वह पहले उठ गयी-उसने भी भुवन को न उठाया होगा-उसे पहले जागना चाहिए था।

वह बाहर आया। देखा, सूटकेस खुला है। उसकी कमीज़, पैंट, तौलिया और अन्य आवश्यक सामान बाहर एक ओर को रखा है। और वह सोता ही रहा।

भीतर जाकर मुँह-हाथ धोने की उसकी इच्छा न हुई। उसने तौलिये में सब सामान डाला और नीचे झील की ओर चला।

सामने जहाँ धूप पड़ रही थी, वहाँ पेड़ों पर जहाँ-तहाँ बड़े-बड़े लाल गुच्छे चमक रहे थे। भुवन ने पहचाना-बुरूस के फूल। मुँह-हाथ धोकर वह तोड़कर लाएगा...

बिना शीशे के हजामत बनाना ऐसा कठिन नहीं था। आँख बन्द कर लेने से अपना चेहरा देखने में मदद मिलती है। प्रक्षालन करके उसने कपड़े बदले, उतरे कपड़े तौलिये में लपेट कर वहीं रख दिये और लम्बे कदम फेंकता हुआ बुरूस के गुच्छे की ओर चला।

दो बड़े-बड़े गुच्छे उसने तोड़े। फिर दोनों को देखकर एक वापस पेड़ में अटका कर रख दिया, एक ले लिया।

जहाँ तौलिया छोड़ गया था, उधर वह लौट रहा था कि दूर, कुछ ऊपर से उसे रेखा का स्वर सुनाई पड़ा। रेखा गा रही थी। भुवन ठिठक कर सुनने लगा; कभी स्वर उस तक पहुँचते, कभी हवा उन्हें उड़ा ले जाती :

“ऊषा एशे...कल-कण्ठ-स्वरा!

   ...मिलन हबे बले आलोय आकाश भरा!
   चलछे भेसे मिलन -आशा-तरी अनादि स्रोत बये,
   कत कालेर कुसुम उठे भरि छेये ...
   तोमाय आमाय -”

(उषा आकर कलकण्ठ-स्वर से कहती है, तुम्हारा-मेरा मिलन होगा, इसीलिए आकाश आलोक से भरा है। मिलन-आशा की तरी अनादि स्रोत में बही चली जा रही है, न जाने कब के कुसुम खिल कर छा गये हैं। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

हवा उठी, गान खो गया; फिर स्वर आये मगर अस्पष्ट : भुवन जल्दी से उधर को बढ़ने लगा जिधर से गान आ रहा था।

कुछ ऊँचे पर, सूर्य को सामने किये, मुँह कुछ ऊँचा उठाये रेखा एक पत्थर पर बैठी थी। भुवन एक ओर से आ रहा था, उसने देखा कि रेखा की आँखें बन्द हैं, मानो प्रभात के सूर्य को अपना चेहरा वह सौंप रही हो। पक्के पीले रंग की साड़ी उसने पहन रखी थी, जिसे सूर्य ने और सुनहला चमका दिया था...वह कुछ हट कर पीछे हो गया और दबे-पाँव बढ़ने लगा। रेखा अब भी गा रही थी, लेकिन शब्दों के बिना, केवल स्वर; कभी गुनगुना देती और कभी ज़ोर से। बिल्कुल पास जाकर उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर रेखा की कबरी छुई; वह तनिक-सा चौंकी पर फिर पूर्ववत् हो गयी, घूमी नहीं, गाना बन्द कर दिया। भुवन ने हाथ का बुरूस का गुच्छा उसकी कबरी में खोंस दिया-वह इतना बड़ा था कि आधी कबरी को और कान तक बालों को ढक रहा था : उसे ठीक से अटकाने के लिए भुवन कुछ आगे झुका कि एक-आध काँटा खींच कर कबरी कुछ ढीली करे : सहसा रेखा ने दोनों बाहें उठा कर उसका सिर घेर लिया, कन्धे के ऊपर से उसे निकट खींच कर उसका मुँह चूम लिया-बड़े हलके स्पर्श से लेकिन ओठों पर भर-पूर।

भुवन भी कुछ चौंक गया, वह भी चौंक कर छिटक कर खड़ी हो गयी, दोनों ने स्थिर और जैसे असम्पृक्त दृष्टि से एक दूसरे को देखा, फिर एक साथ ही दोनों ने हाथ बढ़ाकर एक दूसरे को खींच लिया, प्रगाढ़ आलिंगन में ले लिया और चूम लिया-एक सुलगता हुआ, सम्मोहन, अस्तित्व-निरपेक्ष, तदाकार चुम्बन।

× × ×

“तुम फिर कुछ लिखती रही हो?”

“हाँ-”

“क्या?”

“कुछ नहीं। मेरी डायरी है।”

भुवन ने आगे नहीं पूछा। बोला, “अच्छा, अब तो गाना गाओगी?”

“न। तुम्हारी बारी है गाने की।”

“मैं। श्रेष्ठ गायक हूँ। मेरा गाना स्वरातीत है। दिन भर तो गाता रहा, तुमने सुना नहीं?”

“थोड़ा और श्रेष्ठ हो जाओ, तो मेरा सुनना भी सुन सको।”

तीसरे पहर रेखा ने कपड़े बदल लिए थे। वह फिर सफ़ेद पहनने लगी थी, लेकिन भुवन के आग्रह से उसने एक नीली साड़ी और नीला ही ब्लाउज़ पहन लिया था। अब कमरे की व्यवस्था ठीक-ठीक हो गयी थी, सामान लगाकर रख दिया था, खिड़की के पास रेखा का पलंग बिछा था और बरामदे में भुवन का-भुवन ने आग्रह कर के वहाँ लगाया था।

दिन भर वे प्रायः भटकते ही रहे थे-सुबह लौटकर नाश्ता किया था और फिर निकल गये थे, झील का एक चक्कर लगाया था; फिर लौटकर झील पर गये थे, नौ कक्षों में से जो एक सबसे खुला और शैवाल-रहित जान पड़ता था उसमें नहाये थे और फिर भोजन के लिए लौट आये थे। झील पर भुवन ने पूछा था, “तैरना जानती हो?”

“बस डूबने भर को।”

“तब तो बहुत जानती हो। इतना तो मैंने भी नहीं सीखा। कलकत्ते में क्यों नहीं सीखा?”

तब रेखा हँस कर बोली, “जानती हूँ साहब, तैर लेती हूँ। पर इन कपड़ों में नहीं-”

“ओह।” भुवन झेंप गया। “तो लायी क्यों नहीं?”

“मुझे क्या मालूम था-”

“कास्ट्यूम तो नैनीताल में भी मिल जाता-”

“मुझे बताया था? नहीं तो मैं भी टूथ-ब्रुश खरीदने चल देती।”

किनारे पर ही वे नहाये थे। भुवन तैर कर भीतर गया था, रेखा ने भी साड़ी पहने-पहने दो-चार हाथ तैरने का यत्न किया था पर लौट आयी थी।

अपराह्न में वे बुरूसों की छाया में काही-बिछी ठण्डी जगह में बैठे-लेटे रहे थे। फिर लौट कर चाय पी थी; तब रेखा ने कपड़े बदल लिए थे।

“अच्छा, चलो घूमने चलें।”

“चलो। किधर?”

“फिर पहले प्रश्न? सामने-सर्वदा सामने।”

“नहीं, मेरा मतलब था, सात-ताल के जादुई ताल खोजने हैं कि-”

“न। जादुई ताल यह है। नौ तहों का जादू है इस पर!”

वह पहाड़ पर ऊँचे चढ़ने लगे, फिर पहाड़ की उपत्यका के साथ-साथ सममार्ग पर।

दिन ढल आया था। थोड़ी देर में सूर्य पहाड़ी की ओट होकर छिप जाएगा। सहसा भुवन ने कहा, “चलो, सूर्यास्त को पकड़ें।”

दोनों हाथ पकड़े-पकड़े दौड़ने लगे। पहाड़ी के सिरे के पीछे सूर्य छिप रहा होगा-बादल नहीं थे, एक तेजोदीप्त नंगा लाल रवि-बिम्ब ही क्षितिज की ओट हो रहा होगा। अगर वे पहाड़ी के सिरे तक पहले पहुँच जायें तो देख सकेंगे।

दौड़ते-दौड़ते भुवन ने कहा, “दौड़ो, रेखा, हमारी सूरज से होड़ है।”

रेखा और तेज दौड़ने लगी। भुवन के हाथ पर उसकी पकड़ कुछ कड़ी और खींचती-सी हो गयी; भुवन ने लक्ष्य किया कि वह हाँफ रही है और सहसा धीरे हो गया, पर ऐसे नहीं कि रेखा को साफ़ मालूम हो।

पर पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचते न पहुँचते सूर्य छिप गया। एक द्रुत हाथ मानो किसी धूसर लेप से सारा आकाश पोत गया; प्रकाश अब भी था, पर मानो किसी स्रोत से उद्भूत नहीं, दिग्भ्रान्त, आकाश मंा खोया-सा।

भुवन ने सहसा रुक कर कहा “हम हार गये।” जहाँ सूर्य डूबा था, वहाँ एक छोटी-सी लाल लीक थी, जैसे किसी ने 'इति शम्' लिख कर उस पर जोर देने को पुष्पिका बना दी हो।

उसकी ओर देखते हुए रेखा ने कहा, “डूबते सूर्य को कौन पकड़ सकता है?”

क्षण भर बाद भुवन के हाथ पर उसकी पकड़ फिर दृढ़ हो आयी। “मगर यह हार नहीं है। रात का अपना सौन्दर्य है। वह समान सौन्दर्य पहचानो, भुवन।”

भुवन घूमा। रेखा का दूसरा हाथ भी उसने पकड़ लिया और संझा के प्रकाश में थोड़ी देर उसका मुँह निहारता रहा। “पहचानता हूँ। तुम्हीं वह सौन्दर्य हो, नीलाम्बरा रात का सौन्दर्य; और तुम्हारे केशों में असंख्य तारे हैं।”

“और तुम-शुक्र तारा।” रेखा ने बहुत धीरे कहा। कोमल आग्रह से उसने हाथों से भुवन को निकट खींच लिया।

जरा परे हट कर भुवन ने मान से कहा, “क्यों, चाँद नहीं?”

“वेन मैन! नहीं, चाँद घटता-बढ़ता है। उसका बहुरूपियापन मुझे नहीं चाहिए। शुक्र, केवल शुक्र!” फिर हल्की-सी उसाँस लेकर, “चाहे कितनी जल्दी अस्त हो जाये!”

भुवन ने हाथों से उसकी आँखों को पकड़ते हुए धीरे-धीरे सिर हिलाया : हुँक्, उदास नहीं होना है! फिर रेखा के माथे की ओर देखते हुए, कविता की पंक्ति उद्धृत की, “एण्ड द स्टार्स इन हर हेयर वेयर सेवन।”

वह लौटने के लिए मुड़ा। बोला, “यहाँ जुगनू होते तो मैं थोड़े से पकड़ कर तुम्हारे बालों में फँसा देता।”

× × ×

किस चीज़ ने उसकी नींद तोड़ दी-चाँद की रोशनी ने, या कि उस पर बादल की छाया ने-

भुवन ने आँखें खोली। नहीं, बादल की छाया नहीं, रेखा की छाया थी।

रेखा उसके सिरहाने बैठी थी, उस पर झुकी हुई उसका चेहरा देख रही थी।

उसने आँखें खोली हैं, यह देखकर रेखा ने अपने दोनों हाथ उसके माथे पर रख दिये।

हाथ बिलकुल ठण्डे थे।

“तुम ठिठुर रही हो, रेखा!” कह कर भुवन उठने को हुआ, पर रेखा ने उसका माथा दबा कर उसे रोक दिया। भुवन ने कुहनी से अपना कम्बल उठाकर सरका कर रेखा के घुटनों पर उढ़ा दिया, फिर उसके दोनों हाथ अपने हाथों में पकड़ कर कम्बल के अन्दर खींच लिए। पूछा “क्या बात है, रेखा?”

रेखा नहीं बोली।

भुवन ने फिर पूछा, “रेखा क्या बात है?”

“तुम-हो, तुम सचमुच हो! यू आर रीयल!” रेखा का स्वर इतना धीमा था कि ठीक सुन भी नहीं पड़ता था।

भुवन ने कहा, “आइ'म वेरी रीयल, रेखा। पर ठहरो, पहले तुम्हें कम्बल उढ़ा लूँ-”

एक हाथ में रेखा के दोनों हाथ पकड़े वह उठा, दूसरे हाथ से उसने कम्बल खींच कर रेखा की पीठ भी ढक दी। स्वयं पैर समेट कर बैठा हो गया, कुछ रेखा की ओर को उन्मुख।

रेखा सहसा हाथ छुड़ा कर उससे लिपट गयी। आँखें उसने बन्द कर ली, भुवन के माथे पर अपना माथा टेक दिया। उसके ओंठ न जाने क्या कह रहे थे; आवाज़ उनसे नहीं निकल रही थी।

भुवन कहता गया, “क्या बात है, रेखा; रेखा, क्या बात है-” उसका स्वर क्रमशः धीमा और आविष्ट होता जा रहा था।

रेखा के ओंठ उसके कान के कुछ और निकट सरक आये। पर स्वर उनमें से अब भी नहीं निकला।

पर सहसा भुवन जान गया कि वे शब्दहीन-स्वरहीन ओंठ क्या कह रहे हैं।

“मैं तुम्हारी हूँ, भुवन, मुझे लो।”

× × ×

भुवन वैसा ही स्तब्ध बैठा रहा। न उठा, न हिला; न उसने रेखा को निकट खींचा, न हटाया। रेखा के ओंठ भी निश्चल हो गये, मानो उन्होंने जान लिया कि वे जो कह नहीं सके हैं, वह सुन लिया गया है।

न जाने कितनी देर तक ऐसा रहा। फिर भुवन ने कहा, “रेखा, पैर उठा कर इधर पसार लो-ठिठुर जाएँगे।” लेकिन रेखा के अंग-प्रत्यंग जैसे शिथिल हो गये थे। भुवन ने हाथों में बलात् उसके पैर उठाकर कम्बल के अन्दर कर लिए। रेखा कुछ सीधी होकर बैठ गयी। भुवन ने दोनों बाँहों से उसे कमर से घेर लिया; सिर उठाकर धीरे से रेखा की जाँघ पर रख दिया।

फिर और न जाने कितनी देर तक ऐसा रहा।

सहसा रेखा चौंकी। भुवन का शरीर काँप रहा था। जल्दी से झुककर रेखा ने उसका मुँह देखना चाहा, पर उसने और भी जोर से उसे रेखा की जाँघ में गढ़ा कर अपनी एक बाँह से ढँक लिया।

रेखा बैठी रही, बिलकुल निश्चल। उसकी सब संवेदनाएँ जैसे अत्यन्त सजग हो आयीं, पर साथ ही भीतर कहीं कुछ जड़ होने लगा।

भुवन सिसक रहा था; अब उसकी सिसकी स्पष्ट सुनी जा सकती थी।

रेखा ने फिर उसे सीधा करना चाहा, पर न कर सकी। फिर वह वैसी ही निश्चेष्ट बैठ गयी।

थोड़ी देर बाद भुवन ही सिर उठा कर ज़रा ऊपर को सरका, सिर उसने फिर रेखा की देह पर टेक लिया लेकिन मुँह के आगे से हटा लिया। पर रेखा ने अब उसका चेहरा देखने की चेष्टा नहीं की।

भुवन कुछ असम्बद्ध-सा बड़बड़ाने लगा। पहले ओठों की बिलकुल ही स्वरहीन गति। फिर एक धीमी फुसफुसाहट, कभी कहीं टूटा हुआ स्वर। रेखा एकाग्र होकर सुन भी रही थी और मानो अर्थ तक पहुँचने का यत्न भी नहीं कर रही थी...

लेकिन अर्थ स्वयं धीरे-धीरे अवगत होने लगा।

“यह इनकार नहीं है, रेखा; प्रत्याख्यान नहीं है...यह सब बहुत सुन्दर है, बहुत सुन्दर...वह-वह सौन्दर्य की चरम अनुभूति होती है-होनी चाहिए मैं मानता हूँ...इसीलिए डर लगता है, अगर वह-अगर वैसा न हुआ-जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए...तुमने जो दिया है, उसके सौन्दर्य को मैं मिटाना नहीं चाहता, रेखा, जोखिम में नहीं डालना चाहता। वह बहुत सुन्दर है, बहुत सुन्दर...”

और फिर बड़ी-बड़ी सिसकियों ने उसका स्वर तोड़ दिया; अब की बार उसने मुँह नहीं छिपाया, और रेखा वैसे ही बैठी रही, एक हाथ भुवन के कन्धे पर रखे, दूसरा अपनी जाँघ पर उसके चेहरे के नीचे; भुवन का पहला गर्म आँसू इस हाथ पर गिरा तो वह तनिक-सा सिहर गयी, फिर हाथ को उसने अंजुली-सा बना लिया और आँसू उसमें गिरते गये।

जब भुवन का आवेश कुछ कम हुआ तो रेखा ने अपना आँसुओं से भीगा हुआ हाथ खींचा, और भुवन के आँसू अपने केशों में और फिर अपनी छाती पर पोंछ लिए। फिर आँचल खींच कर धीरे से भुवन की आँखें पोंछ दी। जो हाथ कन्धे पर पड़ा था, वह अत्यन्त धीरे-धीरे उसे थपकने लगा।

भुवन धीरे-धीरे शान्त हो गया। एक ऐसी गहरी शिथिलता उसके सारे शरीर पर छा गयी मानो हफ्तों का रोगी हो। रेखा ने उसे धीरे-धीरे और ऊपर की ओर खींचा, उसका सिर अपनी छाती पर टेका, अपने आँचल से ढँक दिया।

एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य भरी गरमी से घिरा हुआ भुवन सो गया। न जाने कब एक बार उसकी नींद की घनता कुछ कम हुई, तो उसके कन्धे पर उस थपकी की वैसी ही सम, कोमल, अभयदा, त्राणमयी, छाप पड़ रही थी। वह फिर खो गया।

× × ×

लेकिन सुबह वह अकेला था। जब उसकी नींद खुली, तो पलकों पर एक भारीपन था, मन पर कुछ ऐसा भाव कि वह नींद में उठकर चला है, और कहीं अपरिचित जगह पर जाकर जाग कर भटक गया, है...फिर सहसा रात की घटना का चित्र स्पष्ट हो गया, उसने जाना कि रेखा जहाँ थी वहाँ नहीं है और वह बहुत गहरी नींद सोया होगा। पर उठकर भीतर जाकर रेखा को देखने का भी साहस उसे न हुआ। वह वहीं से बाहर जाकर सीधे बुरूस के झुरमुट में चला गया।

अनमने-से भाव से उसने बुरूस का बड़ा-सा गुच्छा तोड़ा। फिर सहसा सचेत होकर उसे देखा। नहीं, जीवन में कोई चीज़ दोबारा नहीं होती है। कम-से-कम कोई सुन्दर चीज़ नहीं। जो दोबारा होती है वह सुन्दर नहीं होती। फूल का गुच्छा उसने फेंक दिया। झुरमुट में और गहरा घुसने लगा।

क्या वह लौट कर जाएगा-रेखा के पास जाएगा? उसके सामने होगा?

पुराणों में बहुत कहानियाँ हैं। स्त्री कभी नहीं माँगती; और जब माँगती है-प्रत्याख्याता स्त्री ने कभी पुरुष को क्षमा नहीं किया, सदैव शाप दिया है; और पुराणों में कहीं यह ध्वनि नहीं है कि वह शाप अनुचित है। कहीं बल्कि यह स्पष्ट कहा है कि स्त्री माँगे तो 'न' कहने का अधिकार पुरुष को नहीं है, शील विरुद्ध है-माँग के औचित्य-अनौचित्य से परे...सब पुराणों का रोमांटिसिज़्म है? लेकिन पुराण बिलकुल रोमांटिक नहीं थे-उनकी स्वच्छन्दता प्रकृति की स्वच्छ, स्वस्थ आत्म-निर्भरता की स्वच्छन्दता थी, जिसमें स्त्री भी उतनी ही स्वायत्त है जितना पुरुष; बल्कि अधिक, क्योंकि उस पर प्रकृति का दायित्व है। कहीं भी प्रकृति के शासन में अस्वीकार का अधिकार नर का नहीं है; सर्वत्र मादा निर्णायिका है-क्योंकि वह माँ है...

लेकिन प्रत्याख्यान की बात वह क्यों सोचता है? उसने तो कहा भी है, प्रत्याख्यान वह नहीं है। केवल सुन्दर, सुन्दर से सुन्दरतर वह चाहता है, और लोभ से सुन्दर को जोखिम में नहीं डालना चाहता। इसलिए और भी नहीं, कि रेखा उस जोखिम को समझती नहीं-या हेय मानती है। सहसा रेखा के प्रति एक गहरे कृतज्ञ भाव ने उसे द्रवित कर दिया : कैसे यह स्त्री सब-कुछ इस तरह उत्सर्ग कर दे सकती है, बिना कुछ प्रतिदान माँगे, बिना कोई सुरक्षा चाहे-बल्कि सुरक्षाओं की सब सम्भावनाओं को लात मार कर! क्यों? क्योंकि वह भुवन को प्यार करती है, उसे कुछ देना चाहती है? कुछ नहीं, सब कुछ, अपना आप। कैसी विडम्बना है यह स्त्री की शक्ति की, कि उसका श्रेष्ठ दान है स्वतः अपना लय-अपना विनाश! लेकिन लय के बिना और श्रेष्ठ दान कौन-सा हो सकता है? अहं की पुष्टि के लिए समर्पण नहीं, अहं का ही समर्पण समर्पण है...

झुरमुट में बुरूस का स्थान अब बाँज ने ले लिया था, अधिक घने, ठण्डे और पुष्पविहीन। वह और अन्दर पैठता चला जा रहा था।

और वह?

क्यों वह रेखा की ओर से ही सोच रहा है, क्यों नहीं अपनी ओर से सोचता? वह-वह क्या चाहता है, क्या देना चाहता है, क्या वह रेखा को चाहता है? प्यार करता है? नकारात्मक उत्तर उसके भीतर से नहीं उठता, लेकिन क्यों नहीं सहज स्वीकारी उत्तर आता, क्यों यह स्तब्धता है...

सुन्दर से सुन्दरतर...चरम अनुभूति...

लेकिन तुम में अगर सौन्दर्य की चरम अनुभूति है, भुवन, तो डर कैसा? डर केवल सुन्दर में अविश्वास है।

पर उसकी तसल्ली नहीं हुई। स्वयं उसके भीतर, और गहरे किसी एक स्तर पर एक संघर्ष है, इसका जैसे उसे थोड़ा-थोड़ा भान है; पर किस स्तर पर, यह वह नहीं जान पाता, और उसे कुरेद कर ऊपर भी नहीं ला पाता। मानो प्रयत्न छोड़कर उसका मन रेखा के कहे हुए वाक्यों पर उछटता-सा घूमने लगा : काल का प्रवाह नहीं, क्षण और क्षण और क्षण...क्षण सनातन है...छोटे-छोटे ओएसिस...सम्पृक्त क्षण..नदी के द्वीप...जो काल-परम्परा नहीं मानता, वह वास्तव में कार्य-कारण-परम्परा नहीं मानता, तभी वह परिणामों के प्रति इतनी उपेक्षा रख सकता है-एक तरह से अनुत्तरदायी है...पर इससे क्या? उत्तर माँगनेवाला कोई दूसरा है ही कौन? मैं ही तो मुझ से उत्तर माँग सकता हूँ और अगर मैं अपने सामने अनुत्तरदायी हूँ, तो उसका फल मैं भोगूँगा-यानी अपने अनुत्तरदायित्व का उत्तरदायी मैं हूँ...

क्या यह-परसों और कल और आज-वैसा ही एक द्वीप है-सम्पृक्त क्षणों का द्वीप-काल-प्रवाहिनी में अटका हुआ एक अलग परम्परामुक्त खण्ड-जैसे रेखा कहती है? परसों, कल, आज, फिर महाशून्य-नहीं, आज, फिर दूसरा आज, फिर आज, तब महाशून्य!

सामने एक पेड़ पर सोनगाभा के पौधे लग रहे थे। और पेड़ों पर भी पत्ते लटकते भुवन ने देखे थे, पर इसमें फूल थे। रंग उनमें अधिक नहीं था-चम्पई, भीतर कत्थई और फूल की बावड़ी के बिलकुल बीचोंबीच में गहरा पीला-फिर भी, सोनगाभा...

उसे जमुना के टापू का बालू का घरौंदा याद आ गया, जहाँ आर्किड लगाने की बात उसने कही थी। वह जैसे-जैसे पेड़ पर चढ़ा, कुछ नीचे से ही पौधे समेत फूल उसने नोच लिए और उतर आया। झाड़ पर फूल अलग करता हुआ लौट चला। रेखा बरामदे की सीढ़ियों पर बैठी थी। कुछ लिख रही थी। दूर से भुवन को देख कर कापी उसने बैग में डाल ली, और एकटक उसकी प्रतीक्षा करने लगी।

भुवन गम्भीर चेहरा लिए हुए आया। रेखा से आँखें उसने नहीं मिलायी, यह देख लिया कि उसका चेहरा भी गम्भीर नहीं तो एक बन्द चेहरा तो है ही; भीतर की कोई छाप उस पर नहीं दीख रही।

भुवन ने चुपचाप फूल उसकी गोद में रख दिये। एक लच्छा लेकर उसके बालों में अटका दिया।

“ओः, आर्किड! तब यह बिदा है।”

ऐसा कोई सम्बन्ध भुवन ने नहीं देखा था। पर बोला, “रेखा, आज तो मुझे जाना होगा न।”

“सो-मैं जानती थी।”

भुवन उसके पास सीढ़ी पर बैठ गया।

“रेखा, तुमने मुझे क्षमा कर दिया?”

रेखा का हाथ टटोलता हुआ बढ़ा; भुवन के हाथ पर आकर शिथिल रुक गया।

“किस बात के लिए, भुवन?”

“सब कुछ। तुम जानती तो हो।”

“तुम्हारे क्षमा माँगने की तो कोई बात मुझे नहीं दीखती, भुवन! मैं ही-”

भुवन ने असल बात से कुछ हटते हुए कहा, “और मैं बहुत लज्जित हूँ, रेखा! पुरुष की आँखों में आँसू तो नामर्दी हैं-मैं-तुम क्या सोचती होगी न जाने-”

रेखा के हाथ के दबाव ने उसे चुप करा दिया, पर वह स्वयं कुछ देर तक कुछ नहीं बोली। फिर उसने कहा, “भुवन, मर्द के आँसू मैंने पहले भी देखे हैं। बड़ी व्यथा के आँसू-इसलिए कि उस पुरुष ने मुझे खो दिया है। बड़ी ग्लानि के आँसू-इसलिए कि वह पुरुष मुझे पा लेना चाहता है और पा नहीं सकता। पर तुम्हारे आँसू-किसी पर छाँह करते हुए उसके लिए रोना नामर्दी नहीं है, भुवन...”

धीरे-धीरे उसने अपना हाथ खींच लिया। दोनों चुप, स्तब्ध बैठे रहे।

× × ×

कुछ खाने की इच्छा नहीं थी, पर भुवन ने खोये-से, रेखा को उसे नाश्ता करा लेने दिया। थोड़ी देर खोये-से ही दोनों बरामदे में आकर खड़े रहे, झील को देखते रहे। फिर वह क्षण आ ही गया।

रेखा ने अन्दर से एक पुलिन्दा लाकर देते हुए कहा, “यह लो अपना टूथ-ब्रश।”

भुवन ने कहा, “अच्छा रेखा; अब चलता हूँ।” वह कुछ रुका। “कहना चाहता हूँ मैं-तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ, पर शब्द ओछे हैं, नहीं कहूँगा। इतना ही कि-गॉड ब्लेस यू।”

“रुको-” कहकर रेखा भीतर गयी। थोड़ी देर में एक छोटा-सा पैकेट और ले आयी। “यह भी लो-”

“क्या है?”

“जाते हुए रास्ते में देख लेना।”

भुवन ने एक लम्बे क्षण तक रेखा को देखा, आँखों ही आँखों में बिदा माँगी और दी, और चलने को मुड़ा।

“भुवन, यह भी लेते जाओ।”

रेखा ने बालों में से आर्किड निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया। बाकी फूल उसने रख लिए थे।

“यह-यह क्यों-”

“मेरी ओर से-इसलिए कि तुम-शायद-फिर न आओ।” रेखा ने जल्दी से मुँह फेर लिया।

भुवन ने सहसा उसकी ओर बढ़कर बायें हाथ के अँगूठे-उँगली के नाखूनों की चुटकी से उसके ब्लाउज़ का गला तनिक-सा उठाया और दाहिना हाथ बढ़ाकर आर्किड के फूलों का लच्छा उसके भीतर डाल दिया। बड़े स्निग्ध स्वर से कहा, “पगली कहीं की!”

फिर बड़ी त्वरा से उसने अपनी पोटली उठायी और बिना लौट कर देखे चला गया।

दो मोड़ पार करके, जैसे कुछ याद कर के वह रुका। छोटा पैकेट उसने खोला।

उसमें रेखा की वह छोटी कापी थी, और वह नीली साड़ी जिसे पहन कर उसने भुवन के साथ सूर्यास्त का पीछा किया था।

  • नदी के द्वीप (उपन्यास) : (भाग-2)
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