मूसल : फ्रांसिस्का कुजूर
Moosal : Francisca Kujur
एयर फोर्स की नौकरी से रिटायर होने के बाद चंपा उराँव अपनी पत्नी निर्मला के साथ हमेशा के लिए झिरिया पाट गाँव आ गया। माँ की मृत्यु के समय वह टूर पर गया था, जिसके कारण माँ का अंतिम दर्शन करने गाँव नहीं आ सका। इसका मलाल उसके चेहरे पर साफ झलक रहा था। यह पहला अवसर होगा, जब घर जाने पर माँ स्वागत करने के लिए दरवाजे पर खड़ी नहीं मिलेगी। माँ लोटे में पानी और आम की टहनी पत्तों सहित लेकर बेटे को परिछाने को आतुर रहती थी। माँ का प्यार देखकर चंपा निहाल हो जाता था। निर्मला की आँखों में भी उदासी छाई थी।
घर में प्रवेश करते ही उसने अजीब तरह का सूनापन महसूस किया-न शोर, न शराबा। पड़ोसियों को मालूम ही नहीं हुआ कि चंपा और निर्मला आ गए। पहले जब कभी वे छुट्टियों में आते थे, घर में रौनक छा जाती थी। पड़ोसी भी आँगन में जमा हो जाते थे। निर्मला सबों को प्रसाद की तरह मिठाइयाँ बाँटती थी और सभी खुश हो जाते थे। दरअसल माँ चार दिन पहले से ही चंपा के आने की डुगडुगी पीट देती थी। तभी से सब कोई उनकी राह देखते थे, लेकिन इस बार माँ नहीं थी तो कैसा ताम-झाम! भाभियाँ ने परिछाया भी नहीं, सबके चेहरे में उदासी छाई थी। शायद माँ के गुजर जाने का दुःख था, लेकिन बात कुछ और थी, जिसे निर्मला और चंपा दोनों कुछ-कुछ महसूस कर रहे थे।
अन्य दिनों की तरह निर्मला बड़े ही उत्साह के साथ बक्सा खोलकर एक-एक डिब्बे को निकालने लगी, लेकिन इस बार कोई उनके पास नहीं आया, जबकि बच्चे-बड़े सयाने सभी अपनी-अपनी सौगात लेने के लिए चहकते थे। निर्मला सबों को उनके मनपसंद का सामान देकर वारी-न्यारी हो जाती थी। निर्मला ऊँची आवाज में पुकार-पुकारकर सबको बुलाने लगी, "चिंटु, चिंटु की मम्मी, पिंटु, बिंदु, कुछ लेना है या नहीं? इधर आओ तो सही।" एक-एक करके सभी आए, भारी मन से। उपहार पाकर सबों के चेहरे पर क्षणिक मुसकान तो झलकी, लेकिन पहले की तरह प्रफुल्लता न थी। उसके बाद निर्मला कुएँ पर गई, लेकिन वहाँ एक भी बच्चा नहाने के लिए नहीं आया, जबकि उसके आते ही दूसरे दिन से सभी बच्चे, यहाँ तक कि पड़ोसियों के बच्चे भी सुगंधित साबुन से नहाने के लालच में पंक्ति में खड़े हो जाते थे और वह अंजुरी से पानी छींट-छींटकर रगड़-रगड़कर मैल छुड़ाती और नहलाती थी। उसकी अपनी कोई संतान न थी, लेकिन वह इन्हीं बच्चों को अपना समझती थी। कुएँ पर किसी बच्चे को न देखकर पुकारने लगी, "चिंटु, पप्पु, चुनिया जल्दी आओ नहाने के लिए, मैं सुगंधित नीला साबुन लाई हूँ। आकाश और समुद्र की तरह नील-नीला, आओ जल्दी।"
एक सप्ताह के अंदर जेठ-जेठानियों के दिल की बात साफ हो गई। उस दिन शाम के समय निर्मला बच्चों को फौजी छावनी के किस्से-कहानी सुना रही थी। हर बार की तरह अपनी पहली हवाई यात्रा की रोमांचक दास्तान भी सुना रही थी। वह बच्चों को गुदगुदा रही थी। पढ़ोगेलिखोगे, बनोगे होशियार। पायलट बनकर जहाज चलाओगे, अपनी बन्नो को चढ़ाओगे, अपने दादू की तरह, समझे! यदि कभी दिल्ली जाओगे तो कुतुबमीनार को टोपी पहनकर मत देखना, नहीं तो मेरी तरह गिर जाएगी टोपी। सुनकर सभी बच्चे ही-ही करके हँसने लगे। वह कभी ताजमहल की कहानी बताती तो कभी चारमीनार की। बच्चे तो बच्चे, बहुएँ भी हैरत से निर्मला का मुँह टुकुर-टुकुर ताक रही थीं। निर्मला बच्चों से घिरी थी। वह कहानी बताने में मशगूल थी, तभी उसने बाहर आँगन में चंपा और भाइयों की तू-तू, मैं-मैं सुनी। वह दौड़कर बाहर निकली, कहानी का सिलसिला टूट गया, बच्चे भी बाहर निकले। बँटवारे की बात हो रही थी। निर्मला को जिसका डर था, वही हुआ। पिछली बार जब छुट्टियों में आई थी तो सास ने निर्मला को समझाया था - "बेटी! तुम्हारे ससुर के गुजरने के बाद मैं इस नाव को डूबने से बचा रही हूँ। तुम परिवार को बिखरने से बचा लेना।" मानो सास को उठते तूफान का एहसास हो चुका था।
निर्मला ने बीच-बचाव करने की पूरी कोशिश की। लेकिन बात बिगड़ती देख चुप हो गई। पानी सिर से ऊपर चढ़ चुका था। वातावरण में तल्खी पसर चुकी थी। दूसरे दिन पंचों ने बँटवारा कर दिया। घर, खेत-खलिहान सबके सात हिस्से कर दिए गए। वर्षों से चली आ रही संयुक्त परिवार की संस्कृति बिखर गई। आँसुओं से भरी आँखों के सामने निर्मला को सास-ससुर की धुंधली दिखाई देने लगी, मानो वे उससे कुछ पूछ रहे हों!
निर्मला और चंपा के हिस्से मिला माँ-बाबा का हॉलनुमा कमरा, जिसमें एक बरामदा बना हुआ था। घर में जितने भी पुरखौती मेहमान आते थे, वे इसी कमरे में ठहराए जाते थे। निर्मला और चंपा भी तो माँ-बाबा के इसी कमरे में रहते थे। अत: उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई। जेठानियों ने अपनी-अपनी पसंद का कमरा पहले से ही चुन लिया था। बाहर आँगन में चंपा का बड़ा सा पेड़ था, जिसमें नील पंछी चहचहा रहे थे। नीचे बच्चे कित-कित खेल रहे थे। निर्मला जब बहू बनकर पहली बार इस घर में आई थी, तब उसने सास से पूछा था कि इनका नाम लड़कियों की तरह चंपा क्यों रखा, मुझे तो सुनकर हँसी आती है? तब सास ने इसी चंपा पेड़ को दिखाकर कहा था, "अगस्त का महीना था, पेड़ चंपा के फूलों से लदा था। चंपा की सुगंध चारों ओर फैली हुई थी। ऐसे ही खुशनुमा मौसम में तुम्हारे पति का जन्म हुआ था। चंपा के गदराए फूलों को देखकर मैंने नाम चुना चंपा।" तब चंपा पेड़ को देखकर निर्मला के होंठों पर हँसी फूटने लगी थी।
रात को निर्मला खूब रोई। जेठानियों के साथ हँसना-बतियाना, खेतों में साथ-साथ काम करना—बीती बातों को याद करके उसकी आँखें भर आई। सुबह तक तकिया आँसुओं से भीग गया था। तब चंपा ने मुसकराते हुए सरल भाव से समझाया, “निर्मला, जीवन के हर पल को जीना सीखो, दो प्राणियों के लिए पेंशन काफी है। कमाएँगे, खाएँगे, ऐश करेंगे, चिंता क्यों? आशियाना फिर बनेगा।"
निर्मला आँसू पोंछकर बिखरे परिवार को देखती रही। आँधी से चिड़ियों का घोंसला भी जब गिरकर बिखर जाता है तो चिड़िया भी डाल-डाल, पात-पात ची-चीं करके रोती है। फिर तिनका चुन-चुनकर घोंसला बनाती है। जिस समय वह दुलहन बनकर इस संयुक्त परिवार में आई थी, तब परिवार की तीसवीं सदस्या थी। वह सबसे छोटी सातवीं बहू थी। सास उसे प्यार से निरमलिया पुकारती थी। बस तभी से सब कोई उसे निरमलिया काकी कहने लगे। जेठानियों के सभी बच्चे निरमलिया से घुल-मिल गए। पूरा गाँव ही उसे निरमलिया काकी पुकारने लगा। उसे भी सुनकर अच्छा ही लगता था, क्योंकि सभी उसकी इज्जत करते थे, और करें भी क्यों नहीं, बच्चों के बीमार होते ही गाँव की महिलाएँ दौड़ी आती थीं और निर्मला दवा बाँटती थी, क्योंकि उसके पिताजी कंपाउंडर थे, इसलिए उसे नर्सिंग की भी थोड़ी-बहुत जानकारी थी। इस बियाबान गाँव में वह बहुत बड़ा सहारा थी।
मिलिटरी क्वार्टर में रहकर वह जो भी सीखकर आती, गाँव में बहू-बेटियों को सिलाईबुनाई, कढ़ाई, अचार, मुरब्बा बनाने का हुनर सिखाती थी। हर किसी को कुछ-न-कुछ नसीहत देती। खेत, खलिहान हो या कुआँ का रास्ता, कहीं भी हो, किसी को टोकना न भूलती-दुर्गा माय बिटिया के स्कूल भेजाथिस कि नहीं, लड़कन जैसन लड़कियों के पढ़ाएक है, छउवा न खेलवाबे बुझले।" बच्चों को स्कूल जाने को प्रोत्साहित करती थी। महिलाएँ उससे अपनी हर समस्या का समाधान पूछती थीं और निरमलिया उनका समाधान बड़े ही आसान तरीके से कर देती।
निर्मला कमरे की सफाई कर रही थी। सफाई करते-करते उसकी नजर दीवार पर टँगी मछली फँसानेवाले जाल और कुमनी पर पड़ी। ससुर को मछली मारने का बहुत शौक था। निर्मला को ससुर की धुंधली छवि दिखाई दी। तब वह नई-नई दुलहन बनकर आई थी। सावन का महीना था। ससुर रात को भोजन करने के बाद कुमनी को खेत के मेड़ में डालकर आए। रात को खेतों से मछलियाँ पानी के साथ नीचे की ओर उतरती हैं। ससुर अँधेरी रात में मुरगे के बाँग देते ही खेत जाकर कुमनी लेकर आ गए, इस शंका से कि कहीं देर करने से कोई चुरा न ले। घर आते ही ससुर ने पुकारा, "निरमलिया बेटी! देख तो केतई मछरी बाइझ आहे बोझ लागाथे।"
निर्मला आँखें मलते बाहर निकली, "ठीक है बाबा, हम देखाथी तनि बिहान होवे दे।"
मुँह धोकर जैसे ही निर्मला ने कुमनी का मुँह खोला, जहरीला साँप देखकर चीखते हुए कमरे की ओर भागी। चीख सुनकर चंपा भी बाहर निकला, "डरपोक कहीं की!" लेकिन साँप देखकर सभी हैरान थे। चंपा ने डंडे से ताबड़-तोड़ मारा, साँप मर गया। बाबा ने साँप को पकाकर दवा के लिए तेल निकाला। निर्मला डर से काँप रही थी। वह इन्हीं यादों में खोई हुई थी कि चंपा ने बाँह पकड़कर झकझोरते हुए कहा, “एई! कहाँ खो गई तुम? मैं तो इस जाल और कुमनी से मछली मारूँगा नदी जाकर।" वह उत्सुकता से बोला। निर्मला तिरछी नजरों से देखकर बोली, "बाबा की तरह साँप मत लाना!'' फिर दोनों खिलखिलाकर हँसने लगे।
निर्मला एक-एक सामान को उत्सुकतावश उलट-पुलटकर देख रही थी। कोने में बाँस का बना एक पुराना हरका था, जिसे सास ने बनवाया था। अंदर दो गेंदरा और दो मोटी साड़ियाँ थीं। वह कपड़ों को प्रेम से सहलाने लगी, मानो सास के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद ले रही हो! उसकी आँखें नम हो गई। वहीं लकड़ी का एक बक्सा भी पड़ा था। सास के रहते उसने बक्से को कभी नहीं खोला था। संकोच करते-करते निर्मला ने बक्सा खोला। उसकी आँखें चौंधिया गई काँसे के बरतन चमक रहे थे, एक लोटा में जंगली जानवर शाही का काला सफेद रंग का कँटीला पंख सहेजकर रखा हुआ था। जिसे देखकर निर्मला अतीत में खो गई। वह जेठानियों के बच्चों के साथ पियार, पिठोर, केंद खाने के लिए जंगल गई थी। वहीं उसे शाही के पंख मिले थे। बड़े शौक से उठा लाई थी घर में सजाने के लिए, लेकिन जैसे ही बड़ी जेठानी ने देखा, उसके हाथों से पंखों को छीनकर बाहर फेंक दिया था, यह कहते हुए कि निरमलिया तुम्हारी माँ ने यह नहीं सिखाया कि इन पंखों को घर में रखने से हंड़िया खराब हो जाता है। तब निर्मला को बहुत बुरा लगा था। पता नहीं सास ने नजर बचाकर कब इन पंखों को चुनकर यहाँ छिपाकर रखा था, लेकिन मुझे देना भूल गई। काश! आज सास जीवित होती! मुझे कितना प्यार करती थीं वह! निर्मला ने गहरी साँस ली।
कोने में एक जाँता गड़ा था। सास उसमें मड़वा पीसती थीं। अब तो आटा चक्की गाँव में बैठ गई। पीसने का क्या काम, लेकिन भाभियाँ इसमें अरहर और उड़द फोड़कर दाल बनाती हैं। सास कितना खयाल रखती थीं हर चीज का। बुदबुदाते हुए निर्मला सामानों को सजा रही थी, तभी उसकी नजर चूल्हे के पास रखे हुक्के पर पड़ी, उसकी नजरों में चमक आ गई। उसमें अभी भी बचपना था। वह चहककर हुक्का उठाई और गुड़गुड़ाने लगी। बचकाना हरकत देख चंपा को हँसी आ गई। उसने मजाकिया लहजे में टोका, "हुक्का पीने का इरादा है क्या? तंबाकू और आग ला दूँ?" निर्मला भी ताल-से-ताल मिलाती हुई बोली, "थोड़ी और बूढ़ी हो जाने दो फिर पिऊँगी, तब तुम मना करना—निमलिया मत पियो माँ की तरह खाँसी हो जाएगी। जिस तरह माँ तुम्हारी बात मानती नहीं थी, मैं भी नहीं मानूँगी।" निर्मला की शोख अदा देख चंपा उसे निहारता रह गया।
चंपा ऊपर धरना में अटकाकर रखे गए बाँस के बने बड़े से छाते को एकटक निहार रहा था। टकटकी लगाकर देखने के कारण उसकी आँखें भर आई। छाता में जाल बुननेवाला काँटा और एक तुंबा लटक रहा था। बाबा छाता लेकर तुंबा में पानी पकड़कर भैंस चराने जाते थे, उधर ही जाल बुनते थे। वह बाबा के लिए हमेशा नायलॉन का धागा जाल बुनने के लिए ला देता था। चंपा की आँखों से अनायास ही गम के आँसू छलककर चूने लगे। "क्या हुआ?" निरमलिया ने पूछा। चंपा मुसकराते हुए बोला, "लगता है, आँख में कुछ पड़ गया।"
निर्मला भी टकटकी लगाकर चंपा को देख रही थी। उसे समझते देर न लगी, वह भावुक हो उठी। आँसू सँभालकर बोली, "चंपा, ये सभी सामान हमारे लिए विरासत में मिले हैं। हम इन्हें सँभालकर रखेंगे, ताकि आनेवाली पीढ़ी देखेगी कि हमारे माँ-बाप किन सामानों का उपयोग किस तरह करते थे। भला आजकल यह छाता कौन ओढ़ेगा, जबकि मजबूत कितना है! तुंबा के स्थान पर तो प्लास्टिक बोतल और थरमस आ गया। कौन पकड़ेगा तुंबा में पानी, पर हम रखेंगे सँभालकर।" कहते-कहते निर्मला भी आँसू पोंछते हुए आगे झाड़ने लगी। तभी कोने में उसे मूसल दिखाई पड़ा। यही मूसल, जिसे ढोकर वह सास के साथ चुंजका टंगरा धान कूटने के लिए जाती थी। वह अतीत में खो गई।
गाँव की सीमा पर पहाड़ की तराई में एक टीले के नीचे छलछलाता सरोवर है, जो 'टुकुपानी' कहलाता है। सरोवर के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे शाल के वृक्ष हैं, जहाँ सुबह-शाम चिड़ियाँ चहचहाती हैं। अँधेरा होते ही जंगली जानवर अपने इस सैरगाह के सरोवर में पानी पीने के लिए तराई से उतरते हैं। रातभर यहाँ रहते हैं, सुबह ढेंकी की आवाज सुनकर पुन: जंगलों में चले जाते हैं।
इसी टुकुपानी सरोवर से सटा चौरस चट्टान फैला है, जो 'चुंजका टंगरा' कहलाता है, क्योंकि उसमें दस-बारह प्राकृतिक तौर से ओखल की तरह गड्ढे बने हैं। जिनके घरों में ढेंकी नहीं था, वे मुरगे के बाँग देते ही यहाँ मूसल से धान कूटने के लिए आती थीं। कभी-कभी भालू, बाघ, लकड़बग्घा या हाथी से भी सामना हो जाता था, इसलिए महिलाएँ जलती लकड़ी पकड़कर घरों से निकलती थीं, ताकि जानवर आग देखकर भाग जाएँ।
जंगल इतना घना था कि रात को भय लगता था। अघनु उराँव बेचारा अपने बेटे के साथ गरमी से परेशान होकर आँगन में सोया था कि बाघ बेटे को उठा ले गया। वह बाघ मारा तो गया, लेकिन तब से कोई भी व्यक्ति आँगन में अकेले या समूह में सोने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। एक दिन निर्मला और सास को भी भालू मिला था, जो दीमक खाने के लिए आया था। वे सिर पर पैर रखकर गिरते-पड़ते भागी थीं। तब ससुर ने ढेंकी गाड़ दिया। फिर भी सास यदा-कदा उस चुंजका-टंगरा में कूटने के लिए जाती थी। अब तो मंगरू ने धान कुटाई मशीन लगाई है। तब से महिलाओं को धान कूटने से मुक्ति मिल गई है। लेकिन निर्मला को तो इसी मूसल से टंगरा से धान कूटने के लिए जाना पड़ेगा, क्योंकि ढेंकी तो जेठानी के बरामरे में गड़ा है, वहाँ कूटने कैसे जाएगी? इन्हीं बातों में खोई निर्मला मूसल को पकड़कर धान कूटने का अभिनय करने लगी। मूसल को ऊपर-नीचे करते देख, चंपा हैरानी से बोला, "इतनी भी जल्दी क्या है निर्मला, कल से धान कूटने चली जाना।" तब निर्मला का ध्यान टूटा और वह लजाते हुए बोली, “न बाबा न! कोई बाघ मुझको भी उठा ले जाएगा, तब समझना, अब एक ढेंकी गाड़ ही दी तो भला होगा मेरा।" निर्मला की बोली में आग्रह के साथ मनुहार छिपा था। मूसल को कोने में रखते हुए निर्मला ने चैन की साँस ली।
निर्मला ने धीरे-धीरे अपनी गृहस्थी जमा ली। उसका पुराना ट्रेनिंग स्कूल फिर से चलने लगा। वह बहू, बेटियों और बच्चों से घिरी रहती थी। चंपा को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। सिर्फ उसके कड़क मिजाज से गाँव के शराबी, जुआरी और निकम्मे लोग सहमे रहते थे; क्योंकि चंपा नशे में धुत्त लोगों की पिटाई कर देता था। निर्मला मना करती थी कि ये फौजी छावनी नहीं है, गाँव है, तुम्हारा रोब नहीं चलेगा। पर चंपा आव देखता न ताव, नशेड़ियों के नशे को क्षण में हवा कर देता था, सिर्फ एक हथेली जड़कर। लोग हड़िया, दारू पीकर चंपा के सामने जाने से कतराते थे। चंपा का कहना था कि गाँव के युवक शराबी बन रहे हैं, उन्हें रोकने का यही एक रास्ता है। एक दिन चंपा ने सोमरा नामक युवक को चार-पाँच थप्पड़ जड़ दिए, क्योंकि वह अपनी विधवा माँ को शराब पीकर गाली-गलौज कर रहा था। लात-घूसा भी मार रहा था, सिर्फ इसलिए कि माँ उसे खेत बेचने से मना कर रही थी। उसकी इस गंदी हरकत से चंपा का खून खौल गया। उसने सोमरा को दबोच लिया, जैसे चील अपने शिकार को पंजे में दबोचती है। सोमरा को कड़ी हिदायत दी कि आइंदा ऐसी गंदी हरकत की तो सीधे थाना पहुँचा दूंगा। गुस्से में चंपा की आँखें जल रही थीं। सोमरा सहमकर भाग तो गया, लेकिन बदले की आग में जलने लगा।
एक दिन निर्मला चुंजका अंगरा में धान कूट रही थी। सोमरा कहीं से आया और बोला, "काकी, आपसे मुझे कोई शिकायत नहीं है पर काका को समझा देना और हाँ, तुम इधर मत आना, नहीं तो जंगली जानवर कभी भी उठा ले जाएँगे।" निर्मला को बात समझ में नहीं आई, वह चावल कूटकर आ रही थी, रास्ते में सन्नो बहू ने टोका, “काकी, अब तो मूसल को आराम करने दो, मशीन में कुटवाओ। अकेले टंगरा जाने की क्या जरूरत है, कोई नहीं जाता है।"
निर्मला चौंककर बोली, "क्यों न जाऊँ, किस बात का डर है? तुम लोग बूढ़ी हो गई या मूसल कूटने का दम-खम नहीं है? मुझे तो कुटा चावल ही अच्छा लगता है।" ।
सन्नो धीरे से बोली, "काकी, सोमरा इधर-उधर आप दोनों की चुगली करता फिरता है। नशे में कब क्या कर बैठे, इसलिए सतर्क रहना चाहिए। वह जरा बदमाश है।"
निर्मला सोमरा की बातों का अर्थ ढूँढ़ ही रही थी कि सन्नो ने प्रसंग पूरा कर दिया। वह चंपा को मना करती रही कि पंगा मत लो पर सुने तब तो, चला है गाँव को सुधारने! जोखिम मोल लेने का क्या फायदा? लेकिन चंपा कहता, "फौज में मैंने जीवन भर जोखिमों का सामना किया है, अब क्यों डरना है? बिगडैल बच्चों को हम राह न दिखाएँ तो कौन...?"
उसी रात को करीब एक बजता होगा। दरवाजे पर ढक-ढक की आवाज सुनाई पड़ी। निर्मला को जरा सी आवाज से उठने की आदत थी, वह उठ बैठी। उसने चंपा को जगाया। बाहर से सोमरा पुकार रहा था, "काकी, दरवाजा खोलना, माँ की तबीयत खराब है, दवा चाहिए।" निर्मला को सारी बातें समझ में आ गई। उसकी माँ तो भली-चंगी है, दिन में भेंट हुई थी, बेचारी सोमरा की करतूतों से परेशान रो रही थी। "सँभलकर बाहर निकलना जी, जरूर दाल में कुछ काला है।" निर्मला धीरे से बोली। चंपा टॉर्च लेकर कमरे से निकला और बरामदे के दरवाजे के सामने आया। सावधानी से दरवाजा खोला। बाहर तीन नकाबपोश युवक पिस्तौल ताने खड़े थे, तीनों ने चंपा को दबोच लिया। मुँह में कपड़ा ढुसकर हाथ पीछे की ओर बाँध दिए। निर्मला भी उठकर बरामदे के कोने में रखे मूसल को पकड़कर दीवार से सटकर खड़ी हो गई। अँधेरे में कुछ साफ नहीं दिख रहा था। इतने में दो लड़के सरसराकर कमरे में घुसे, क्योंकि उन्हें सोमरा ने बंदूक तलाश करने के लिए भेजा था और स्वयं चंपा पर पिस्तौल अड़ाकर तनकर खड़ा था। वह कड़कदार आवाज में बोल रहा था, "साला, बंदूक के बल पर रोब गाँठता है, लाओ बंदूक, नहीं तो ठीक नहीं होगा। बताओ कहाँ है बंदूक?"
निर्मला माजरा समझ गई। उसने चंपा से अनेक किस्से सुन रखे थे। उसने फुरती से कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और दीवार से सटकर बरामदे के दरवाजे की ओर धीरे-धीरे सरकने लगी, वह नजारा देखकर ठिठक गई। चंपा संकट में था, उसकी जान को खतरा था। निर्मला ने आव देखा न ताव, मूसल को निशाना साधकर लड़के की ओर फेंका। मूसल ठीक लड़के की कनपटी पर जा लगा। वह फड़फड़ाकर वहीं धड़ाम से गिर गया और छटपटाकर दम तोड़ दिया। उसके मुँह से आवाज तक नहीं निकली। निर्मला ने चंपा के हाथ खोले। चंपा ने पुकार-पुकारकर गाँववालों को जगाया। गाँव में अफरा-तफरी मच गई, लोग डंडा, कुल्हाड़ी लेकर निकले। कमरे में बंद दोनों लड़के सोमरा को चीख-चीखकर बुला रहे थे, साथ ही धमकी भी दे रहे थे, "दरवाजा खोलो, नहीं तो पूरे गाँव को भून डालेंगे।"
एक ग्रामीण ने चिल्लाकर कहा, "सालों गाँव में शेर बनते हो, निकालो इनको, बाहर देखते हैं इनको।" ग्रामीणों में जोश भर गया। लोगों ने दरवाजा खोलकर दोनों लड़कों को दबोच लिया। टॉर्च की रोशनी में देखा, लोग दंग रह गए। ये तो पड़ोस गाँव के बदमाश लड़के थे। ग्रामीणों ने उन्हें बाँधकर रखा। फिर मृत लड़के के चेहरे से रूमाल हटाकर देखा तो सबके मुँह से निकला, अरे ये तो सोमरा है, बेमौत मारा गया।" सुबह पुलिस आई, बदमाशों को लेकर चली गई।
निर्मला ने चंपा की जान बचाने के लिए मूसल चलाई थी, तब उसने कभी नहीं सोचा था कि एक चोट से लड़के की मौत हो जाएगी, वह बहुत दु:खी थी। अपराध-बोध से दबी जा रही थी, उसे फूट-फूटकर रोने का मन कर रहा था। आँसू थम नहीं रहे थे। वह सोमरा की माँ से विक्षिप्त-सी बार-बार क्षमा माँग रही थी।
सोमरा की माँ ने सहज स्वर में कहा, "निरमलिया, तुम्हारा मन सचमुच निर्मल है, देखो, मेरी आँखें सूख चुकी हैं। आज इस कपूत के लिए बहाने को मेरी आँखों में आँसू नहीं हैं। मैं तो इसके कहर से रोज-रोज मरती थी। इसका मर जाना ही उचित था। मैं तो भगवान् से इसकी मृत्यु माँगती थी। ये तो अच्छा ही हुआ कि बाहर कहीं कुत्ते की मौत मरने से अच्छा आप जैसी कल्याणी के हाथों इसे मुक्ति मिल गई।" पूरा गाँव निरमलिया काकी की सराहना कर रहा था, पर निर्मला रो रही थी।
निर्मला को सांत्वाना देते हुए सन्नो बोली, “काकी, ये मूसल न रहता तो काका की जान कैसे बचा पाती? कुछ भी अनहोनी हो सकता था; क्योंकि सोमरा तो कहता फिरता था थप्पड़ का बदला जरूर लूँगा। वह बुरी नीयत से बदमाशों को लेकर आया था। आपने कितनी बहादुरी दिखाई! आप बहुत बहादुर हैं काकी। यदि मैं होती तो मेरे तो हाथ-पैर सुन्न हो जाते।"
लेकिन निर्मला थी कि किसी की बात मानने को तैयार न थी। वह स्वयं को माफ नहीं कर पा रही थी, कहती रही, "मुझे जेल होगा क्या?"
सन्नो फिर बोली, "काकी! दरोगा ने कहा था, तुमने सुना नहीं कि तुमने बदमाशों को पकड़वाकर पुलिस का काम आसान कर दिया। तुम्हें तो तमगा मिलना चाहिए।"
चंपा ने निर्मला को समझाते हुए कहा, "तुमने कुछ भी गलत नहीं किया है। शायद माँ की आत्मा ने मेरी जान बचाई, मुझे तो ऐसा ही एहसास हुआ।"
निर्मला कातर दृष्टि से देखते हुए बोली, "सच चंपा, तुम ठीक ही कहते हो, मुझमें इतनी शक्ति कहाँ से आई? जरूर माँ की कृपा से यह सबकुछ हुआ है। उसी ने आपकी जान बचाई।"
हफ्तों तक निर्मला को ठीक से नींद नहीं आई, उसकी पलकें झपकती न थीं। चंपा को डर सता रहा था कि कहीं निर्मला पागल न हो जाए! वह ताउम्र सामान्य हो पाएगी या नहीं, लेकिन माँ की आत्मा का जिक्र आते ही निर्मला धीरे-धीरे सामान्य होने लगी।
एक दिन वह बोली, "चंपा! अब तो ढेंकी गाड़ दो। इस मूसल को छिपाकर कहीं रख दो। इससे धान नहीं कूटूँगी।"
उसी दिन चंपा ने बरामदे में एक ढेंकी गाड़ दिया। निर्मला सुबह मुरगे के बाँग देते ही उठकर ढेंकी कूटने लगी। 'ढाक चुंई, ढाक चुंई' की आवाज से गाँव गूंजने लगा।
उधर टुकुपानी सरोवर के पास बिचरनेवाले जंगली जानवर भी ढेंकी का शोर सुनकर जंगल की ओर भाग गए होंगे।
आजकल चुंजका टंगरा में कोई महिला धान कूटने नहीं जाती है। टंगरा में लोग सिर्फ धान सुखाते हैं और सरोवर का मीठा जल पीते हैं।
साभार : वंदना टेटे
फ्रांसिस्का कुजूर की कहानियाँ हिन्दी में