मोहरी : राजेंद्र मुंडा

Mohri : Rajendra Munda

"लो बाबू खाना खा लो," सुनते ही मोहरी दौड़कर चला आया। हाथों में एल्युमिनियम की थाली और कटोरी थी। दरवाजे पर ही थाली-कटोरी रख दिया कि लुदु मुंडा की औरत एतवारी (मुंडा की औरत) ने उसमें भात-सब्जी उड़ेल दिया।

गाँव के 'मुंडा' लुदु के तीन बच्चे थे—सुकरा, बुदनी और गुरूवा। इन सबसे बड़ा लुदु मुंडा का एक और लड़का था, उसका नाम था—'मोहरी'। कहते हैं, उसकी माँ एक नाचनेवाली (नचनी) थी। इस तरह से मोहरी, मुंडा का बड़ा लड़का होते हुए भी भाइयों में नहीं गिना जाता था। एतवारी उसकी सौतेली माँ थी और उसका चरित्र वैसा ही था, जैसाकि हम गाँव-घर की कहानियों में सुनते हैं। रिश्तेदारों के बीच भी 'नचनी का बेटा' ही उसकी पहचान थी।

खाना खाकर वह खुद ही अपने बरतनों को धोता। उसका कमरा थोड़ा अलग जगह ही था। गुतु-गुतु रे ऽ ऽ पुकारने से जैसे कुत्ता दौड़कर चला आता है और आँगन में रखी हाँड़ी में खाना डाल देने पर तुरंत खाने लगता है, वैसे ही जान पड़ता है कभी-कभी।

मोहरी पढ़ने-लिखने में भाई-बहनों में सबसे तेज था। वही केवल स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर पाया था। आगे की पढ़ाई के लिए उसने शिक्षक-प्रशिक्षण में दाखिला ले लिया। प्रशिक्षण महाविद्यालय में और अलग-अलग प्रांत के लड़के-लड़कियाँ पढ़ाई करते थे। वहाँ मोहरी के बहुत सारे दोस्त बन गए। उन्हीं में से एक लड़की थी—'एलिजाबेथ'।

एलिजाबेथ पढ़ने-लिखने में मोहरी के तरह ही तेज थी। उससे एक कदम आगे ही। दोनों अकसर अगले बेंच पर बैठते। पीरियड समाप्त होने के उपरांत साथ ही बाहर निकलते। एलिजाबेथ के छात्रावास पहुँचने तक दोनों साथ-साथ चलते। उसका छात्रावास रास्ते में ही पड़ता था। छात्रावास में उसके चले जाने के बाद मोहरी आगे अपने छात्रावास की ओर चल देता।

एक दिन एलिजाबेथ ने मोहरी से कहा, "मुझे तुम्हारा घर देखने की इच्छा है," "ठीक है, तब परीक्षा समाप्त होने के बाद चलेंगे," कहकर मोहरी राजी हो गया।

आज मोहरी का घर देखुंगी, सोचकर एलिजाबेथ बहुत खुश थी। रास्ते भर हँस-हँसकर बातें करते चले आ रहे थे। सूरज डूबते-डूबते गाँव में दोनों प्रवेश कर गए।

गाँव में मोहरी के साथ एलिजाबेथ को देखकर लोग "कौन है, कौन है?" कानाफूसी कर रहे हैं। सूरज डूब चुका था। घर में लोग बत्ती जलाने लगे थे। ठीक उसी समय मोहरी, एलिजाबेथ के साथ आँगन में पहुँच गया। उसे देखकर सभी हक्के-बक्के हो गए, थोड़ी देर के लिए सब एकदम से चुप हो गए। मोहरी ने माँ-बाप को जोहार किया तो एलिजाबेथ ने भी वैसे ही उनका अभिवादन किया। सौतेली माँ एतवारी बोली—"थके होगे, धोआ लो, खा-पी के सो जाओ, सुबह बात करते हैं," उसकी बोली में कोई मिठास नहीं थी।

मोहरी सोच में पड़ा था, किसी ने ठीक से बात नहीं की। किसके मन में क्या है? सुबह कौन क्या बोलेगा? एलिजाबेथ को कैसा लग रहा होगा? सोच-सोचकर आँख से आँसू टपक पड़े। रोते-रोते कब सो गया, पता ही नहीं चला।

सुबह नाश्ते के लिए सभी बैठ गए। एक पंक्ति में गुरूवा और सुकरा बैठ गए। कुछ दूरी पर उनसे अलग मोहरी बैठा। एलिजाबेथ उसके बगल में बैठ गई। सुकरा ने बात छेड़ी, "ये वही है न भइया, जो आपसे फोन पर बात किया करती थीं?"

मोहरी, "हाँ, वही।"

सुकरा, "ठीक है, तब इससे पूछ लिया जाए, कैसी है? क्या सोचकर आई है? आपके साथ क्या रिश्ता है?"

मोहरी, "नहीं, ये तो मेरी दोस्त है।"

बुदनी तपाक से बोली, "पढ़ाई खत्म हो गया, अब क्या दोस्ती?"

मोहरी, “पढ़ाई खत्म होने से दोस्ती खत्म हो जाती है क्या?"

"क्रिश्चियन है?" सुकरा ने पूछा।

मोहरी, "हाँ।"

खाना-पीना हो जाने के बाद मोहरी ने एलिजाबेथ से कहा, "अभी ही वापस जाएँगे।"

तैयार होने के बाद माँ से कहा, "जा रहे हैं माँ, इसको पहुँचा रखेंगे।" ऐसा बोलकर दोनों ने उसे जोहार किया और निकल गए। बस स्टैंड तक दोनों चुप-चुप ही चले गए।

बस में बैठने के बाद भी उन दोनों के मुँह से बोली नहीं निकल रही थी। मोहरी की आँखों से बार-बार आँसू निकल आ रहे थे। बस रांय-रांय-रांय-रांय चली जा रही थी और मोहरी सोच में डूबता जा रहा था।

ऐसा कहा जाएगा एलिजाबेथ के बारे में, यह तो एक बार भी नहीं सोचा था। ऐसा भला! लड़की के चक्कर में फँस गया, जैसा सोच रहे हैं। मैंने तो कभी भी...एक बार भी नहीं सोचा कि किसी लड़की के साथ फँसना है।... और एलिजाबेथ मुझे फँसाने की इच्छा रखती है, ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ। उसे तो बेकार में सुनना पड़ा। बचपन से ही माँ-बाप की लड़ाई ही देखी है उसने। भाई-बहन का प्यार कभी नहीं देखा था। यही प्यार-दुलार दिखलाने के लिए ही तो लाया था उसे! यहाँ तो शादी करके ले आए, जैसा बोल रहे हैं। ओह!

पी-पी करके गाड़ी की आवाज से मोहरी अचानक चौंक गया। दोनों गाल आँसुओं से भींग गए थे। अचानक उसने आँखें बड़ी-बड़ी कर लीं। दोनों हथेलियों को आपस में बाँध लिया और मन-ही-मन एक संकल्प कलेजे तक धंस गया। बिना वजह इतना सुन लिये, अब यही सच हो!

एक दिन मोहरी ने एलिजाबेथ से कहा, "हमारी शादी हो सकती है क्या?"

"घर में पूछने के बाद ही कहा जा सकता है।" एलिजाबेथ थोड़ा संकोच से बोली।

"ठीक है, तब पूछ के बताना।"

बाजार का दिन था। आज मोहरी सुबह से ही अकबकी महसूस कर रहा था। पता नहीं एलिजाबेथ को घर में क्या कहा गया! बातचीत कर भी पाई या नहीं, यही सब सोच-सोचकर बाजार में बेमतलब इधर-उधर टहल रहा था। एलिजाबेथ के आने पर ही कुछ पता चलेगा। तभी उसे वह आती दिखी। उसे आते देख मोहरी उधर ही चला गया। दोनों एक दुकान में जाकर चुपचाप बैठ गए। मोहरी की आँखों में सवाल था, "क्या कह रहे हैं?"

एलिजाबेथ ने कहा, "हाँ किए। लेकिन चर्च में शादी करनी पड़ेगी।"

मोहरी बहुत देर तक सोचता रहा और कोई रास्ता नहीं सोच पाया तो चर्च में शादी के लिए राजी हो गया।

शादी में मोहरी के घर से कोई सामने नहीं आया।

शादी के बाद मोहरी एक दिन घर आया, लेकिन किसी ने ठीक से बात नहीं की। सौतेली माँ एतवारी ने कहा, "अब मत आना, आज से तुम्हारे साथ उठना-बैठना खत्म हो गया।"

मोहरी मानो यही सुनने आया था। उसने माँ को देखा और घर से बाहर निकल आया। बार-बार पैर पलटना चाह रहे थे पर उसने दिल को कड़ा किया और बिना एक बार भी पीछे पलटे घर-गाँव दूर छोड़ता चला गया।

उस दिन के बाद से मोहरी एलिजाबेथ के साथ उसके घर रहता है। यहाँ पर उसका 'मोहरी' नाम किसी को पसंद नहीं। सब उसे यहाँ अलग नाम से पुकारने लगे। अब उसका नया नाम है-माइकल।

आहिस्ता-आहिस्ता मोहरी, ओ!...माइकल नए रास्ते पर चलना सीख गया। एक अलग धर्म। कुछ अलग सी संस्कृति। है तो आदिवासी परिवार ही, लेकिन वह जिस आदिवासी परिवेश, यानी 'सरना' (आदिवासियों का मूल धर्म) संस्कृति से आता है, उससे नए किस्म का समाज है एलिजाबेथ और उसके ईसाई ससुराल का। नए-नए रिवाज हैं यहाँ। हालाँकि बहुत जल्दी ही माइकल नए माहौल में ढल गया था, परंतु घर की तरफ की चिंता वह चाहकर भी नहीं भूल पाया।

दिन-महीना-साल बीतते जा रहे थे। माइकल शिक्षक बन गया।

बुदनी की शादी का दिन नजदीक आ रहा था। सभी रिश्तेदारों को निमंत्रण दिया जा चुका था। आज मोहरी उन्हें बहुत याद आ रहा था। अगर वह होता तो बड़ी मदद हो जाती। शादी का भोज अच्छी तरह से पार हो जाता। यही सब सोचकर गुरूवा को मोहरी के पास भेज दिया गया।

एक लंबे समय के बाद मोहरी शादी के दिन सपरिवार अपने गाँव पहुँचा था। दोनों पतिपत्नी और दो बेटियों के संग। इस शादी में माइकल ने बहुत खर्चा किया था। आधी रात के बाद शादी संपन्न हुई। तब सारे रिश्तेदार भोज खाने के लिए बैठ गए।

हमें भी बुलाया जाएगा, कम-से-कम बच्चे खाते रहेंगे, यही सोचकर माइकल आस-पास ही इसके-उसके साथ गप्प मार रहा है, परंतु उसे नहीं बुलाया गया। रिश्तेदारों के उठने के बाद ही उसे बुलाया गया और तब उसने सपरिवार भोज खाया। एलिजाबेथ मन मसोसकर रह गई।

सुबह-सुबह विदाई हो गई। कन्या-वर को विदा करने के बाद घर में सभी हलका महसूस कर रहे थे। उसके माँ-बाप, सुकरा, गुरूवा सबकी आँखें छलक रही थीं, गरदन तनी हुई थी। गाँव में सारे कर रहे थे कि मुंडा के घर में भोज बहुत बढ़िया था।

माइकल को सब माटी-माटी-सा लग रहा था। वह आया तो था खुश-खुश सपरिवार अपने माँ-बाप के पास, बहन की शादी में लेकिन लौटते हुए लग रहा था, वह पहले भी बेगाना था, अब भी बेगाना ही है।

धीरे-धीरे सुकरा और गुरूवा की भी शादी हो गई। दोनों खेती-बारी में लग गए। माइकल ने भी ससुराल छोड़ दिया था। अब वह अपने नए घर में रहता था, जिसे उसने अपनी और एलिजाबेथ की कमाई से शहर में बनाया है। उनके दोनों बच्चे कॉलेज में पढ़ते हैं। बड़ी वाली बी.ए. में और छोटी वाली आई.ए. में।

बड़ी बेटी के लिए विवाह के प्रस्ताव आने लगे थे। माइकल ने सोचा कि अगर अच्छा लड़का कोई नौकरी-पेशेवाला मिल जाए तो शादी कर देने में ही भलाई है। एक दिन एक लड़का आया। रेलवे में ए.एस.एम के पद पर नौकरी करता था। माइकल को वह लड़का अपनी बेटी के लिए बहुत पसंद आया। लड़का-लड़की ने भी एक-दूसरे को पसंद कर लिया तो शादी के लिए उपयुक्त दिन तय कर लिया।

आज शादी का दिन था। सुबह से ही रिश्तेदार आने शुरू हो गए। कुछ तो एक दिन पहले रात में ही पहुँच चुके थे। ना-ना कहते घर के और गाँव के सभी लोगों को निमंत्रित कर ही दिया था, किंतु सभी आएँगे ही, इसका भरोसा नहीं था।

गिरजा (चर्च) में शादी की तैयारी चल रही थी। उसी समय गिरजा के अहाते में दो गाड़ियों का प्रवेश हुआ। कौन लोग हैं, सोचकर माइकल ने देखा तो गाँव के लोग उतर रहे थे। सुकरा और गुरूवा सपरिवार आए हुए थे। जोहार-पाती होने के बाद सभी चर्च के अंदर घुस गए।

शादी संपन्न होने के बाद सभी वापस घर आ गए। नए घर में ही भोज की व्यवस्था थी। दोपहर के बाद से खान-पान शुरू हुआ तो शाम ढलने तक मेहमान खाते-पीते ही रहे।

सुकरा, गुरूवा लोग सपरिवार एवं उनके गाँव के लोग खा-पीकर उठ गए थे और आपस में बातें कर रहे थे, "खाना बहुत स्वादिष्ट था, किसी चीज की कोई कमी नहीं थी।" माइकल ने सुकरा को किसी मेहमान से कहते सुना, “ई मोहरी तो मेरा बड़ा भाई नहीं है।"

मोहरी के चेहरे पर एक अंदरूनी खुशी का चिह्न उभरकर चला गया। सभी मोहरी का नाम ले रहे थे। मेहमानों के बीच आज मोहरी 'नचनी का बेटा' की तरह नहीं याद किया जा रहा था। वह खुद को 'मोहरी मुंडा' महसूस कर रहा था, परंतु सुकरा की बातों ने मानो उसे किसी बड़ी चट्टान पर ला पटका था।...वह 'मोहरी' नहीं था, वह 'मुंडा' भी नहीं था, वह तो माइकल था !

साभार : वंदना टेटे