मिथिला से चोरों का सफाया (कहानी) : गोनू झा

Mithila Se Choron Ka Safaya (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

मिथिलाँचल जिस तरह मछली और मखाने के लिए प्रसिद्ध रहा है, कभी यह चोरों के उत्पात के लिए भी उतना ही बदनाम था । मिथिला नरेश चोरों के उत्पात से तंग आ चुके थे । चोरी की घटनाओं में लगातार वृद्धि से राज्य की सुरक्षा-व्यवस्था के आगे सवालिया निशान आ खड़ा हुआ था । बाजार, गली, मुहल्ला, कोई स्थान सुरक्षित नहीं था । किसी ने बाजार में कुछ खरीदा और उस सामान को बगल में रखकर प्याऊ पर पानी पीने लगा । पानी पीकर बगल से सामान उठाने लगा तो देखा, उसका सामान गायब । रोज दरबार में महाराज के सामने कोई न कोई फरियादी अपनी ऐसी ही शिकायत के साथ उपस्थित होता । महाराज को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वे चोरी की घटनाओं पर काबू पाने के लिए आखिर कौन सा कदम उठाएँ। अपने खुफिया-तंत्र के शीर्ष अधिकारी से इस प्रसंग में कई बार बातें कर चुके थे लेकिन कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया था ।

एक दिन दरबार के समापन पर, महाराज ने गोनू झा को रोक लिया । सभी दरबारियों के चले जाने के बाद महाराज गोनू झा के साथ राजमहल की फुलवारी की ओर निकल गए । गोनू झा समझ रहे थे कि महाराज किसी गम्भीर समस्या पर विचारमग्न हैं । वे महाराज के साथ मूक बने फुलवारी में टहलते रहे । इसी तरह कुछ समय व्यतीत हुआ। एक स्थान पर महाराज रुके और गोनू झा से बोले-“पंडित जी ! मिथिलांचल में चोरों का उत्पात बढ़ता ही जा रहा है जिससे राज्य की बदनामी हो रही है। चोरों का मनोबल लगातार बढ़ रहा है । मेरे निर्देशों के बावजूद राज्य का खुफिया तंत्र पूरे मिथिलांचल में फैले चोरों के संगठित गिरोह का उद्भेदन करने में विफल रहा है । आप समझ सकते हैं कि जिस राज्य में प्रजा की जान-माल की सुरक्षा नहीं, उस राज्य के राजा के प्रति प्रजा की निष्ठा की कल्पना भी नहीं की जा सकती । आपने एक बार मिथिलांचल को ठगों की चपेट से कुशलता पूर्वक उबारा है । अब आप ही कोई ऐसा उपाय करें कि मिथिलांचल से चोरों का आतंक सदा के लिए मिट जाए।"

गोनू झा ने पूरी गम्भीरता से महाराज की बातें सुनीं। कुछ देर सोचते रहे, फिर उन्होंने महाराज से कहा-“महाराज, आपका आदेश -पालन मेरा कर्तव्य है । आपने अभी- अभी कहा है कि पूरे मिथिलंचल में चोरों का संगठित गिरोह सक्रिय है। आप इस निष्कर्ष पर कैसे पहुँचे, कृपा कर बताएँ।”

महाराज ने गोनू झा से मिथिलांचल में हो रही चोरी की घटनाओं के बारे में खुफिया जाँच के निष्कर्षों का जिक्र करते हुए कहा-“अधिकांश चोरी की घटनाएँ एक जैसी हैं । ये घटनाएँ रात के प्रथम प्रहर में या चौथे प्रहर में घटित हो रही हैं । रात के प्रथम प्रहर में आम घरों के पुरुष चौपाल आदि में व्यस्त रहते हैं और महिलाएँ बर्तन -वासन, चूल्हा- चौका में व्यस्त रहती हैं । चोर इसी व्यस्तता का लाभ उठाकर घरों से कीमती चीजें उड़ा लेते हैं । मिथिलांचल के अनेक गाँवों में रात के चौथे प्रहर में भी चोरी की घटनाएँ दर्ज की गई हैं । यह ऐसा समय है जब घरों में लोग गहरी नींद में सोए होते हैं । चोर घर के दरवाजे की कुण्डी न जाने कैसे खोल लेते हैं और घर में प्रवेश कर माल- असबाब उठाकर ले जाते हैं । ये चोरियाँ इतनी चालाकी से की जाती हैं कि किसी के हाथ कोई सुराग नहीं आता कि चोरियाँ कैसे की गईं । चोरों-उच्चकों का मन इतना बढ़ गया है कि अब राज्य के कई इलाकों से राहजनी की घटनाओं की खबर भी आ रही है। यदि अब भी हम सचेत नहीं हुए और प्रजा को चोरों के कहर से निजात दिलाने के लिए ठोस उपाय नहीं किया तो प्रजा का हम पर भरोसा उठ जाएगा ।"

महाराज की बात सुनकर गोनू झा गम्भीर हो गए और उन्होंने महाराज से कहा-“महाराज ! मुझे सोचने का कुछ मौका दीजिए।"

मगर महाराज ने गोनू झा की बात अनसुनी करते हुए कहा-“पंडित जी ! मौका -चौका का वक्त नहीं है । वक्त है कुछ करने का । क्या करेंगे-कैसे करेंगे, यह आप सोचिए । मुझसे अथवा राजकोष से आपको जैसी भी सहायता चाहिए, मिलेगी। आप अभी से चोरों के उत्पात से राज्य को बचाने का काम प्रारम्भ कर दें । मैं अभी महामंत्री से कहकर यह आदेश निर्गत करवा देता हूँ कि गोनू झा जिस किसी भी अधिकारी से किसी तरह की सहायता माँगें तो उन्हें वह सहायता अविलम्ब मिलनी चाहिए।"

गोनू झा के लिए अब कुछ भी बोलना असंगत था । वे महाराज से आज्ञा लेकर अपने गाँव की ओर चल पड़े ।

चलते- चलते गोनू झा सोच रहे थे, इतने बड़े मिथिलांचल में चोरों के संगठित गिरोह का उद्भेदन कोई साधारण बात तो है नहीं । जो काम राज्य का प्रशिक्षित और संगठित खुफिया तंत्र कर पाने में असमर्थ रहा, उस काम को मैं अकेले कैसे अंजाम दूंगा । महाराज ने कह तो दिया है कि राज्य का कोई भी अधिकारी किसी भी तरह के सहयोग के लिए हमेशा तैयार रहेगा... मगर जब कोई सूत्र हाथ लगे तब न किसी तरह के सहयोग की बात उठेगी ?

इसी गुन-धुन में गोनू झा लगे हुए थे कि एक आदमी कुछ लम्बे डग भरता हुआ उनके पास से गुजर गया । इस आदमी ने घुटने के ऊपर धोती बाँध रखी थी लेकिन उसका शरीर नंगा था । उसके शरीर पर शायद तेल लगा हुआ था जो नीम-अँधेरे में चमचमा रहा था ।

उस आदमी का यह हुलिया गोनू झा को कुछ अजीब सा लगा । अब तक वह आदमी बाजार जाने वाली राह पर मुड़ गया था । लगभग दो फर्लांग की दूरी पर बाजार था, जहाँ फल, सब्जियाँ, मछली, चावल, दाल, मसाले आदि रोजमरे की चीजों की दुकानें थीं । एक दो दुकानें सुनारों ने भी खोल रखी थीं जो सोने और चाँदी के आभूषण बेचा करते थे।

अचानक गोनू झा के दिमाग में सन्देह पैदा हुआ कि अभी- अभी जो व्यक्ति उनके पास से तेज कदमों से गुजरा है वह चोर हो सकता है । इस संदेह के पैदा होते ही उनके कदम बाजार वाली सड़क की ओर बढ़ गए ।

गोनू झा अभी बाजार में प्रवेश भी नहीं कर पाए थे कि अचानक 'पकड़ो-पकड़ो, जाने न पाए' का शोर बाजार की एक दुकान से उभरा। कई लोग बाजार की सड़क पर दौड़ लगाने लगे। एक-दो दुकानदार लाठी लेकर अपनी-अपनी दुकानों से निकल आए। गोनू झा जब उस स्थान पर पहुँचे जहाँ इस तरह का हंगामा हो रहा था । वहाँ गोनू झा को पता चला कि एक आदमी बाजार में तेज कदमों से चलता हुआ आया और एक महिला के गले से सोने की मटरमाला झटककर भागने लगा । महिला के शोर मचाने से एक राहगीर ने उस भागते हुए आदमी को पकड़ना चाहा लेकिन उस आदमी के शरीर पर इतना अधिक तेल चुपड़ा हुआ था कि वह फिसलकर निकल भागा ।

अभी गोनू झा महिला से मटरमाला छीने जाने की घटना के बारे में सुन ही रहे थे कि पूरे बाजार में सनसनी-सी फैल गई । चोरों ने कई दुकानों के गल्ले से सारे पैसे बटोर लिए थे।

गोनू झा को यह समझते देर नहीं लगी कि योजनाबद्ध तरीके से चोरों के संगठित गिरोह के सदस्यों ने बाजार के कई दुकानों में चोरी की घटना को अंजाम देकर वे वहाँ से चलते बने । यह चोरों के बढ़े मनोबल का प्रतीक था । पूरे बाजार में चहल-पहल और सैकड़ों लोगों की आवाजाही के बीच एक चोर, एक महिला के गले से, सोने का आभूषण झटक लेता है । इस अप्रत्याशित घटना से लोगों का ध्यान बँटता है। बाजार में खलबली मचती है । दुकानदारों का भी ध्यान बँटता है। सबके-सब उस महिला के साथ हुए वारदात के बारे में जानने के लिए उत्सुक होते हैं । इस मानवीय कमजोरी का अनुमान चोर-गिरोह के सदस्यों को पहले से था । जैसे ही दुकानदारों का ध्यान बँटता है, घात लगाए चोर बिना अवसर गँवाए दुकानदारों के गल्ले पर हाथ साफ करके, बाजार में मची अफरा-तफरी का लाभ उठाकर आराम से निकल जाते हैं ।

गोनू झा बाजार में घूमते हुए हर उस दुकान के पास रुकते हैं जहाँ चोरों ने 'आँख बन्द, डिब्बा गायब' का खेल खेला । उनका दिमाग स्थितियों को समझने और चोरों को सबक सिखाने के उद्देश्य से लगातार सक्रिय रहता है ... इस उम्मीद में कि कहीं कोई सुराग मिल जाए । चलते-टहलते, लोगों से बतियाते गोनू झा थक गए । बाजार की अफरा-तफरी समाप्त हुई । उस घटना के बाद से जैसे बाजार बेनूर हो गया । अन्ततः थके -हारे गोनू झा अपने घर लौट आए । हमेशा ताजा दम दिखने वाले गोनू झा को हताश और परेशान-सा देखकर पंडिताइन बेचैन हो गई मगर गोनू झा की गम्भीर मुखमुद्रा देखकर वह कुछ पूछने का साहस नहीं कर पाई । गोनू झा हाथ-मुँह धोकर पीढ़ा पर बैठ गए और पंडिताइन ने भोजन परोस दिया । दो-चार निवाला अनमने ढंग से खाकर गोनू झा उठ गए और बिस्तर पर जाकर लेट गए।

पंडिताइन ने उन्हें देखा मगर गोनू झा के चिन्तन की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । पंडिताइन को अपनी ओर ममता भरी दृष्टि से ताकते देखकर गोनू झा की तन्द्रा भंग हुई । उन्होंने पंडिताइन से कहा-दीया बुझा दो और सो जाओ थक गई होगी। मैं कुछ देर बाद सोऊँगा।" पंडिताइन ने कुछ पूछने के लिए मुँह खोला ही था कि गोनू झा ने मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत करते हुए कहा -” सो जाओ। बाद में बात करेंगे ।"

बेचारी पंडिताइन करती भी क्या ? गोनू झा के निर्देश के अनुसार दीया बुझाया और गोनू झा के बगल में आकर सो गई दिन भर की थकी-मांदी होने के कारण पंडिताइन को जल्दी ही नींद आ गई मगर गोनू झा की आँखों में नींद कहाँ ? बाजार में घटित हुई क्रमबद्ध चोरी की घटना उनकी चेतना पर आच्छादित थी और महाराज का यह अनुनय कि वे कुछ भी करें मगर राज्य में चोरों का सफाया होना चाहिए ... बार-बार उनके दिमाग में कौंध रहा था । अजीब इत्तिफाक की बात थी कि महाराज ने उनसे राज्य में चोरों के उत्पात का जिक्र किया और उसके कुछ देर बाद ही चोरों की आततायी हरकत गोनू झा की आँखों के सामने आ गई । चोरों के उत्पात की समस्या कितनी गम्भीर है, इस बात से गोनू झा काफी उद्वेलित थे लेकिन उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि चोरों पर काबू कैसे पाया जाए ।

चोरों पर काबू पाने की तरकीबें सोचते- सोचते गोनू झा ने करवटों में रात गुजार दी । सुबह में खिड़की से आती ठंडी हवा के झोंको ने उनके शरीर को सहलाना शुरू किया तब उन्हें नींद आ गई ।

चिड़ियों के कलरव के स्वरों से पंडिताइन की नींद खुली। गोनू झा को बेसुध सोया देख पंडिताइन ने समझ लिया कि गोनू झा देर रात तक जगे रहे हैं वरना इस समय तो वे प्रभात फेरी के लिए निकल जाते और शौच-मैदान करके पोखरी में डुबकी लगाकर लौट आते । पंडिताइन ने उन्हें जगाया नहीं और अपनी दिनचर्या में लग गई ।

सूरज ने पूरब का कोना छोड़ा । खुली खिड़की से आती धूप की गर्मी के कारण गोनू झा की नींद खुली । उन्होंने खिड़की के पल्लों को सटा दिया और बिस्तर पर पड़े रहे । पंडिताइन ने उन्हें जगा देखकर पूछा -" दरबार नहीं जाना क्या ?"

गोनू झा ने कहा -" अभी नहीं। मन थका- सा है। तबीयत ठीक रही तो शाम को महल चला जाऊँगा और महाराज के दर्शन करके लौट आऊँगा ।"

पंडिताइन गोनू झा के पास आई और उनके शरीर को तलहथी से स्पर्श कर जानना चाहा कि कहीं उन्हें बुखार तो नहीं है लेकिन शरीर का तापमान सामान्य देखकर वह आश्वस्त हो गई और बोली -" लगता है, हरारत है । बहुत दिन हो गए दरबार से घर करते हुए...ठीक ही है, थोड़ा आराम कर लीजिए।"

गोनू झा पत्नी की बात सुनकर मुस्कुरा दिए। कुछ बोले नहीं ।

बिस्तर पर पड़े- पड़े ही गोनू झा को याद आया कि एक बार एक चोर को उन्होंने गच्चा दिया था घर के तमाम जेवर पेड़ पर टंगे होने की बात कहकर । पेड़ पर ततैये के छत्ते को ही चोर ने जेवर की पोटली समझ लिया और पेड़ पर चढ़कर पोटली झटकने की कोशिश में ततैये के दंश का शिकार हुआ जिससे पेड़ पर वह अपना सन्तुलन बनाए नहीं रख सका और गिर पड़ा । ऊँचाई से गिरने के कारण उसके एक पैर की हड्डी टूट गई । गोनू झा ने पड़ोसियों को बुलाकर पहले तो उसकी धुनाई कराई, बाद में हवालात भिजवा दिया ।

इस घटना की याद आते ही गोनू झा बला की फुर्ती से बिस्तर से उठे । नहा- धोकर तैयार हुए और जल्दी- जल्दी जलपान करके तेज कदमों से दरबार की ओर चल दिए।

रास्ते में गोनू झा चोरों को काबू में करने के उपाय के बारे में सोचते रहे ।

दरबार में पहुँचकर गोनू झा अपने आसन पर चुपचाप बैठे रहे । सभा की कार्यवाही में उन्होंने कोई रुचि नहीं दिखाई। महाराज ने उन्हें एक-दो बार उचटती निगाहों से देखा भी मगर विचारमग्न देखकर उन्हें टोका नहीं । गोनू झा की मुद्रा देखकर महाराज भाँप गए कि पंडित जी निश्चित रूप से उनसे कुछ परामर्श करना चाहते हैं ।

सभा की कार्यवाही के समापन के बाद महाराज अपने कक्ष में चले गए और और एक प्यादे को भेजकर गोनू झा को अपने कक्ष में बुलवा लिया ।

महाराज ने गोनू झा को अपने पास बैठाया और पूछा-“क्या बात है पंडित जी, बहुत गम्भीर हैं ?"

गोन झा ने बिना किसी भूमिका के महाराज से कहा-“महाराज! तीन साल पहले मेरे घर से एक चोर पकड़ा गया था । उसे ग्रामीणों ने हवालात भिजवा दिया था । मैं जानना चाहता हूँ कि वह चोर अब कहाँ है ?"

गोनू झा के सवाल से महाराज मन-ही-मन प्रसन्न हुए । उन्हें लगा कि गोनू झा मिथिलांचल को चोरों से निजात दिलाने के काम में जुट गए हैं । मन में यह खयाल आते ही महाराज ने द्वारपाल को आज्ञा दी -”नगर कोतवाल को अविलम्ब मेरे समक्ष उपस्थित होने के लिए कहो ।"

थोड़ी ही देर में नगर कोतवाल घबराया- सा महाराज के समक्ष उपस्थित हुआ । वह भयभीत था कि बीती रात उसके क्षेत्र के बड़ा बाजार में चोरों के गिरोह ने मिलकर अभूतपूर्व उत्पात मचाया और दुकानदारों की लाखों की नगदी लेकर चम्पत हो गया ...जरूर महाराज उस घटना के बारे में उससे दरियाफ्त करेंगे ।

मगर कक्ष में उसके प्रवेश करते ही महाराज ने उससे कहा -"पंडित जी जो पूछें-बताओ। जो कहें वह करो। अभी से तुम इनके मातहत हो ।" यह कहते हुए महाराज कक्ष से बाहर चले गए ।

अब गोनू झा के सामने नगर कोतवाल हाथ जोड़े खड़ा था । उसकी भयभीत मुद्रा देखकर गोनू झा ने उससे कहा -" अभी तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है, बस जो पूछूँ, सच- सच बताना। “ इतना कहकर गोनू झा ने अपनी बात का प्रभाव देखने के लिए कोतवाल को ऊपर से नीचे तक निहारा । उनकी दृष्टि और भंगिमा से कोतवाल भीतर ही भीतर काँप गया ।

गोनू झा ने पूछा-“कल रात तुम कहाँ थे?"

थर-थर काँपते हुए कोतवाल ने कहा-“पंडित जी, मुझे माफ करें । अब ऐसी गलती नहीं होगी । कल मैं सुरक्षा प्रहरियों को काम बताकर नौटंकी देखने चला गया था कि बड़ा बाजार में वह कांड हो गया । मुझे अवसर दें । तमाम उचक्कों की नाक में नकेल डालकर आपके कदमों में ला पटकूँगा । मुझे माफ कर दें । फिर कभी काम में ऐसी लापरवाही नहीं करूँगा।"

कोतवाल की बात सुनकर गोनू झा मन-ही-मन मुस्कुराए, लेकिन प्रकट रूप में उन्होंने कहा-" काम में लापरवाही करने वाले लोग तुम्हारी तरह ही लम्बे-चौड़े वादे करते हैं ..."

वे कुछ और बोलते कि कोतवाल ने गोनू झा के पाँव पकड़ लिए और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा "पंडित जी ! एक मौका दें । मेरे बाल-बच्चों के लिए ही सही। फिर कभी कोई लापरवाही नहीं होगी । जीवन-भर आपका ऋणी रहूँगा।"

गोनू झा ऐसा प्रकट कर रहे थे कि वे 'बड़ा बाजार' में हुई श्रृंखलाबद्ध चोरी के बाबत ही कोतवाल से पूछ-ताछ कर रहे हैं ।

गोनू झा की भंगिमा से कोतवाल समझ रहा था कि गोनू झा को मालूम है कि कल वह बड़ा बाजार में सुरक्षा-व्यवस्था का काम अपने मातहतों पर छोड़कर खुद मौज-मस्ती करने के लिए निकल गया था ।

कोतवाल को भयभीत देखकर गोनू झा ने उससे कहा -"ठीक है, जो हुआ सो हुआ । अब काम के प्रति थोड़ी भी लापरवाही नहीं होनी चाहिए ।"

नगर कोतवाल की जान में जान आ गई । उसे संयत होने का अवसर देने के बाद गोनू झा ने उससे कहा -"तीन साल पहले भड़ौरा स्थित मेरे आवास से एक चोर पकड़ा गया था । उसकी टाँग की हड्डी टूट गई थी । मुझे उसके बारे में जानकारी चाहिए कि अब वह कहाँ है । बड़ा बाजार चूंकि भड़ौरा तहसील में पड़ता है और वह उस इलाके का पुराना खिलाड़ी है, इसलिए तुम्हें कल रात 'बड़ा बाजार' में हुई चोरी की घटना की तफ्तीश में भी उससे कुछ सुराग मिल जाएगा ।"

गोन झा का निर्देश मिलते ही नगर कोतवाल वहाँ से चला गया ।

इसके बाद गोनू झा महाराज के कक्ष से बाहर निकल गए लेकिन द्वार पर ही एक प्रहरी ने विनम्रता से अभिवादन करते हुए उनसे कहा-“महाराज फुलवारी में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।"

गोनू झा फुलवारी की ओर मुड़ गए । महाराज वहाँ चिन्तित मुद्रा में टहल रहे थे। गोनू झा को देखकर उन्होंने कहा-“कल रात की घटना के बारे में तो आपको जानकारी मिल ही गई होगी ?"

गोनू झा ने महाराज से कहा “संयोग की बात है कि बड़ा बाजार की घटना मेरी आँखों के सामने घटित हुई । मैंने चोरों के संगठित गिरोह की सक्रियता का पता लगाने के लिए अपने ढंग से काम करना शुरू कर दिया है । मुझे विश्वास है कि मैं इस घटना में संलिप्त चोरों को खोज निकालूँगा।”

"केवल इस घटना ?” महाराज ने पूछा ।

"महाराज, यह तो शुरुआत होगी । कहीं से तो शुरू करना ही होगा । उद्देश्य तो आपके आदेश का अनुपालन ही है।" गोनू झा ने उत्तर दिया ।

गोनू झा के इस उत्तर से महाराज आश्वस्त हुए ।

गोनू झा महाराज से विदा लेकर वापस अपने घर लौट आए ।

दूसरे दिन पौ फटते ही कोतवाल गोनू झा के घर पहुँच गया । उस समय न गोनू झा जगे थे और न उनकी पत्नी । थोड़ी देर कोतवाल गोनू झा के दरवाजे के आसपास चहल-कदमी करता रहा । फिर एक पेड़ के नीचे रखी चौकी पर बैठ गया और गोनू झा के जगने की प्रतीक्षा करता रहा ।

लगभग घंटे भर बाद गोनू झा जगे । हाथ में लोटा लिए और कंधे पर गमछा रखे गोनू झा शौच के लिए निकले तो दरवाजे पर नगर-कोतवाल को बैठा देखकर उन्होंने समझ लिया कि चोर के बारे में जानकारी कोतवाल को मिल गई है। कोतवाल ने गोनू झा को आते देखा तो चौकी से उठकर खड़ा हो गया और नमस्कार किया । गोनू झा उसे बैठे रहने का इशारा करते हुए वहाँ से शौच के लिए निकल गए ।

शौच से निवृत होकर गोनू झा घर पहुँचे। स्नान -ध्यान के बाद नगर कोतवाल को अपने कमरे में बुलवा लिया । और पूछा -" तो पता चल गया उस चोर का ?"

कोतवाल ने हर्षित होते हुए बताया “हाँ, पंडित जी । तीन महीने पहले वह चोर कारागार से मुक्त किया गया है।"

“और कुछ?" गोनू झा ने पूछा ।

“जी, बस इतना ही ।” कोतवाल ने कहा ।

कोतवाल का यह उत्तर सुनकर गोनू झा आवेश में आ गए और क्रोधित स्वर में बोले, “अरे तुम कोतवाल हो या भरभूजे ? तुम्हारे इलाके में बिलकुल सुनियोजित ढंग से श्रृंखलाबद्ध चोरी हुई । चोर आनन-फानन में बड़ा-बाजार के बड़े दुकानदारों का सारा माल-असबाब उड़ाकर ले गए । उस घटना के बारे में सुराग खोजने की कोई उत्सुकता तुममें नहीं है ?"

नगर कोतवाल गोनू झा को आवेश में पहली बार देख रहा था । अब तक उसके मन में गोनू झा की छवि एक मसखरे की थी । मगर गोनू झा का यह रूप देखकर उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या बोले ।

गोनू झा ने कहा “सुनो कोतवाल, मुझे शाम तक पूरी तफ्तीश से बताओ कि कारागार में उस चोर का आचरण कैसा था, उसके साथ और कौन-कौन लोग बन्द थे, कारागार में उसकी किस -किस कैदी से बातचीत होती थी, उसका आम कैदियों से कैसा व्यवहार था, कारागार से निकलने के बाद वह कहाँ गया, वह मूलतः कहाँ का रहने वला था, कारावास से निकलने के बाद वह क्या-क्या कर रहा है।” कोतवाल सिर झुकाए गोनू झा की बातें सुनता रहा और जब नमस्कार कर जाने लगा तभी गोनू झा ने उसे टोका – “और सुनो, सादे लिबास में कुछ सिपाहियों को आस-पास के गाँवों के बाजारों में तैनात कर दो । उन्हें यह निर्देश दो कि वे दुकानों के आस- पास की गतिविधियों पर नजर रखें क्योंकि चोरों का मनोबल बढ़ा हुआ है वे कहीं भी इस तरह की घटना को अंजाम दे सकते हैं।"

नगर कोतवाल वहाँ से चला गया ।

गोनू झा दरबार गए और महाराज से मिलकर उन्होंने उन्हें सूचना दी कि वे अब कुछ दिनों तक दरबार नहीं आएँगे । और न बताएँगे कि वे क्या कर रहे हैं । महाराज ने उन्हें स्वीकृति दे दी ।

इसके बाद गोनू झा ने उन सुरक्षा- प्रहरियों से सम्पर्क साधा जिनका उपयोग उन्होंने ठग उन्मूलन अभियान के दौरान किया था । कोषागार से उन्हें आवश्यक धन उपलब्ध कराकर गोनू झा ने उनमें से कुछ को मिथिलांचल के विभिन्न क्षेत्रों में छोटी दुकानें खोलकर बैठ जाने को कहा और कुछ को, प्याऊ बनाकर बैठ जाने का निर्देश दिया । उन्होंने उन्हें यह निर्देश भी दिया कि इन कार्यों की व्यवस्था करके दो दिनों के बाद वे उनके आवास पर आ जाएँ ।

इस पूरी प्रक्रिया से निबटकर गोनू झा अपने घर लौट आए। बिस्तर पर लेट गए । थोड़े विश्राम के बाद वे गाँव की तरफ निकल गए। अपने पुराने परिचितों से मिलते रहे । गोनू झा को अपने दरवाजे पर आया देख उनसे जलनेवाले भी प्रसन्न हो रहे थे। गाँव में गोनू झा जिससे भी मिले, उसने 'बड़ा बाजार' हादसे का जिक्र उनसे जरूर किया । गोनू झा को समझते देर नहीं लगी कि गाँववाले चोरों की सक्रियता के प्रति सतर्क हैं । वे शाम तक घर वापस आए और बाहर ही चौकी पर बैठे-बैठे नगर कोतवाल के आने की प्रतीक्षा करने लगे ।

शाम ढले नगर कोतवाल आया और गोनू झा को बताया कि उनके आवास से पकड़ा गया चोर कारावास में लंगड़ू उस्ताद के नाम से प्रसिद्ध हो गया था । उसके साथ तीन और अपराधी उसकी कोठरी में रखे गए थे-हरखू, बसावन और विसनाथ । ये तीनों राहजनी के छोटे-मोटे मामले में पकड़े गए थे। कारागार में लंगड़ू उस्ताद की पहचान दो बड़े अपराधियों से भी हुई थी । भोजन के समय ये दोनों उसके आस-पास ही बैठते थे। इनमें से एक लुटेरा ऐसा था जो लूट के दौरान घातक-पैने हथियारों का प्रयोग करता था । सीमान्त क्षेत्र में एक व्यापारी को लूटने के क्रम में वह पकड़ा गया था । तीन माह पहले जब लंगड़ू उस्ताद कारागार से छोड़ा गया, उसके दो हफ्तों के अन्तराल पर ये लोग भी छोड़े गए । चाकूबाज लूटेरा उस दिन ही छोड़ा गया जिस दिन 'बड़ा बाजार' वाली घटना घटित हुई । कोतवाल ने गोनू झा को उन सबों के नाम-पता ठिकाना आदि की सूची भी सौंप दी ।

गोनू झा ने नगर कोतवाल की पीठ थपथपाई और कहा -" अब तुमने नगर कोतवाल की तरह काम किया है । जाओ, अपने ढंग से बड़ा बाजार कांड की जाँच शुरू करो। जैसे ही कोई सुराग हाथ लगे, मुझे खबर करना।"

दो दिन शान्ति से गुजरे। कहीं कोई घटना नहीं हुई । गोनू झा इन दो दिनों में गाँव में घूमते रहे और गाँव वालों से कहते रहे कि वे एक बड़ा जलसा करने वाले हैं । महाराज के दरबार में विदूषक बनाए जाने के बाद वे सीधे दरबार के काम से जुड़ गए । गाँव के लोगों से मिल नहीं पाए । अब महाराज से छुट्टी माँगकर वे अपने-लोगों से मिलने -जुलने का काम कर रहे हैं । जल्दी ही गाँव भर को भोज कराएँगे। शुभ मुहूर्त देखने के बाद तिथि की घोषणा करेंगे ।

इसी दौरान उनके चुनिंदे सुरक्षा प्रहरी और विशेष प्रशिक्षित रूंगरूट उनके घर आते और अपने काम की जानकारी उन्हें देते । गाँव के लोगों को गोनू झा बताते कि बहुत बड़ा जलसा होगा । महाराज भी इस जलसे में आएँगे ।

फिर एक दिन गाँव में अचानक खबर फैली कि दरअसल गोनू झा को अशर्फियों से भरा गागर मिला है हजारों अशर्फियों से भरा गागर । लक्ष्मी की इसी अनुकम्पा के कारण गोनू झा जैसे निष्ठावान और सूझ-बूझवाला आदमी महाराज की नजर में कोई दूसरा नहीं है । लक्ष्मी कृपा के कारण ही गोनू झा बड़ा जलसा करने की सोच रहे हैं और महाराज इस जलसे में इसलिए शामिल होंगे कि वे गोनू झा को सिर्फ दरबारी नहीं, अपना मित्र भी मानते हैं । इसके बाद तो हर रोज नई -नई खबरें फैलतीं। गोनू झा के पास रंगरूटों का आना जाना बढ़ गया ।

एक दिन गाँववालों ने देखा, गोनू झा रेशम का कुर्ता- धोती पहने सफेद घोड़े पर सवार होकर कहीं जा रहे हैं । गोनू झा घोड़े पर सवार होकर पड़ोस के गाँव के बाजार में गए और वहाँ एक सादे लिबास में सुरक्षा प्रहरी की दुकान में काफी देर तक ग्राहक के रूप में बैठे । इसी तरह दूसरे दिन दूसरे बाजार में, तीसरे दिन तीसरे बाजार में गोनू झा दुकानदार बने सुरक्षा- प्रहरियों की दुकानों में जाते, बैठते और वापस लौट आते । अचानक ही गोनू झा के रहन-सहन में बदलाव देखा जाने लगा और हफ्ता भर में ही पूरे मिथिलांचल में चर्चा होने लगी कि गोनू झा के पास अकूत दौलत आ गई है ।

गोनू झा के दरवाजे पर सफेद, अरबी नस्ल का घोड़ा बँधा था । ऐसा घोड़ा महाराज के घुड़साल में भी नहीं था । फिर एक दिन गोनू झा के घर के सामने वाले खेत में बड़ा सा पंडाल बनने लगा। कनात लगने लगे। मिथिलांचल के विभिन्न बाजारों में तैनात उनके दुकानदारों द्वारा विभिन्न तरह की खरीददारियाँ की गईं और खूबसूरत डिब्बों और थैलियों में इन चीजों को ऐसे रखा गया मानो इनमें कोई बहुमूल्य वस्तु हो ! ये डिब्बे गोनू झा के दरवाजे पर रखी चौकी पर रखे जाते जहाँ उनकी फेहरिश्त बनती । फिर इस काम में इतना विलम्ब किया जाता कि घंटों ये चीजें चौकी पर ही पड़ी रहतीं । इस बीच गाँव के लोग उधर से गुजरते और उन चीजों को देखने के लिए गोनू झा के दरवाजे पर मजमा-सा लगा लेते । जब भीड़ बढ़ती तब गोनू झा बाहर निकलते और चीखते-“अरे मूर्खो! दरवाजे पर इन चीजों की प्रदर्शनी लगाना जरूरी है क्या ? उठाओ यह सब –मेरी कोठरी में ले जाकर रखो। वहीं हिसाब -किताब किया करो।" फिर ग्रामीणों से बोलते -" अरे भाई लोगो ! ये चकमक करते डिब्बे मँगवाए हैं । यहाँ जो जलसा होगा न, उसमें बाहर से कई महत्त्वपूर्ण, नामी -गिरामी लोग भी आएँगे। उन्हें इन डिब्बों में मिठाई दी जाएगी । भेंट के रूप में थैलियों में मिथिलाँचल का उपहार-मखाना भरा जाएगा । जाइए आप लोग, जलसे के दिन तो आप सब यहाँ आमंत्रित हैं ही । जो होगा, वह देख ही लीजिएगा । जाइए, अपने काम-धाम में लगिए।"

... और गाँव के लोग आपस में बतियाते हुए लौटते कि जड़ाऊ थैली में मखाना ? अरे उस छोटी थैली में मखाना कितना आएगा ? पाव भर भी समा जाए तो गनीमत है। गोनू झा के पास दौलत क्या आ गई कि पूरा गाँव को मूर्ख समझने लगे।

रंगरूटों का दस्ता गोनू झा के निर्देश पर लंगड़ू उस्ताद और उसके साथियों के गाँवों में मटरगश्ती करता रहता था । इन गाँवों में गोनू झा के जलसे की तैयारी, अचानक अशर्फियों का अकूत भंडार मिलने, शानदार कपड़ों में घुड़सवारी करने आदि की खबरें फैल चुकी थीं ।

चर्चा लंगड़ू उस्ताद के कानों में पड़ी । वह गोनू झा को भूला नहीं था । भूलता भी कैसे । उनके कारण उसे अपनी एक टाँग गँवानी पड़ी और तीन साल कारावास में रहना पड़ा।

लंगड़ू उस्ताद ने अपने साथियों से सम्पर्क साधा और उन सबको गोनू झा के पास जाकर जलसे की तैयारी के सिलसिले में काम माँगने के लिए कहा। गोनू झा के पास जब कुछ अजनबी काम माँगने आए तब गोनू झा ने उन्हें गौर से देखा । ऐसा पहली बार हो रहा था कि कोई उनके पास बाँस-कनात लगाने का काम माँगने आया था । मन-ही-मन गोनू झा ने कुछ विचार किया और उन लोगों को बाँस खड़ा करने के लिए मिट्टी खोदने के काम में लगा दिया । इसके थोड़ी ही देर बाद रंगरूटों ने आकर खबर दी कि कल रात से ही लंगड़ू उस्ताद के पाँच साथी अपने घरों से लापता हैं । गोनू झा इस सूचना पर मुस्कुरा दिए और उन रंगरूटों को जहाँ कनात लगाए जाने की व्यवस्था हुई थी उस ओर संकेत करते हुए कहा -" तुम लोग वहाँ मिट्टी खोदने के काम में लगे लोगों पर नजर रखो । ध्यान रहे, उनसे कोई बातचीत नहीं करोगे मगर उनकी प्रत्येक हरकत तुम लोगों की नजर में होनी चाहिए।"

सूरज अस्त हो चुका था । गोनू झा मुस्तैदी से कनात लगाने की तैयारियों का जायजा ले रहे थे । एक आदमी, माथे पर पगड़ी बाँधे लंगड़ाता हुआ गोनू झा के पास आया और नमस्कार करके बोला -”मालिक, सुना है कि आपके यहाँ कोई बड़ा भोज-भात होने वाला है । मैं हलवाई हूँ। यदि भासन-भात बनाने का काम मिल जाता..."

गोनू झा ने उसे देखा और उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यह आदमी और कोई नहीं, लंगड़ू उस्ताद ही है । उन्होंने हँसते हुए कहा-“अब मेरे दरवाजे से कोई निराश नहीं लौटेगा । यह बताओ कि दो-ढाई हजार आदमी के लिए छप्पन पकवान बनाने के लिए कितने चूल्हों की जरूरत होगी और यह कितने दिनों में तैयार हो जाएगा ?"

लंगड़ू उस्ताद गोनू झा के सवाल से सकपका गया । बोला-“मालिक, कभी इतना बड़ा जलसा के लिए काम नहीं किया है। कैसे बताएँ ? भात, दाल, भुजिया, पापड़, अचार, दही, तरकारी, लड्डू, बुनिया बनाने का काम जानते हैं ...।"

गोनू झा ने दरियादिली दिखाते हुए कहा-“कोई बात नहीं। आज से तुम पहले छप्पन चूल्हे बनाने के लिए मिट्टी खोदो । अकेले न कर सको तो बाँस के लिए मिट्टी खोदने के काम में लगे लोगों को साथ में ले लो ।" फिर उन्होंने बाँस लगाने के काम में लगे लोगों से कहा -" अरे तुम सब सुन लो, यह हलवाई तुम्हें जो कहे, वह करना । काम अच्छा होना चाहिए । मजदूरी के साथ ही भोजन और इनाम दोनों मिलेगा। समझ गए?"

सभी ने हामी भरी ।

गोनू झा मुस्कुराते हुए वहाँ से लौट आए। थोड़ी ही देर में लंगड़ू उस्ताद के गाँव में तैनात रूंगरूट भागते हुए गोनू झा के पास पहुंचे।

गोनू झा पहले ही समझ चुके थे कि क्या बताने आए हैं । उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा-“तुम्हारा 'असामी' मिट्टी खोदने के काम में लगा है। जाओ, उन पर नजर रखो।" गोनू झा बहुत खुश थे। उन्हें अपनी कामयाबी का पूरा भरोसा हो गया था । एक रंगरूट को भेजकर उन्होंने नगर कोतवाल को तलब किया । नगर कोतवाल के आने पर उन्होंने निर्देश दिया कि सादे लिबास में आज रात अपने सभी सिपाहियों के साथ वह उनके घर के आस -पास चक्कर लगाता रहे । काम मुस्तैदी से होना चाहिए, और पूरी गोपनीयता बरती जाए।

कोतवाल को निर्देश देकर वे घर में गए और पंडिताइन को सोलह श्रृंगार करने को कहा । पंडिताइन कुछ बोलती, इससे पहले ही गोनू झा ने कहा कि समय नहीं है सवाल-जवाब करने का । खुद वे कपड़ा बदलने लगे। रेशम का कुर्ता। उसमें नगीने जड़े सोने के बटन । मलमल की धोती। पाँव में जूता ।

पंडिताइन भी सज-धजकर तैयार हो गई । उसको कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि इन दिनों गोनू झा क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं । गोनू झा के तेवर और मुख-मुद्रा से यही लग रहा था कि वे कुछ सुनेंगे नहीं । इसलिए पतिव्रता नारी की तरह पंडिताइन दूसरे आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी हो गई।

गोनू झा ने कहा-"हाय ! इस रूप को देख लोग गश खा जाएँगे। जरा घूँघट निकाल लो ।" खुद हाथ बढ़ाकर उन्होंने पंडिताइन का घूँघट तैयार किया जिसमें पंडिताइन का चेहरा दिखे भी और यह भी लगे कि उन्होंने घूँघट निकाल रखा है । फिर उन्होंने पंडिताइन का हाथ थामा और घर से बाहर आए। बाहर आकर उन्होंने पंडिताइन का हाथ छोड़ा और साथ-साथ चलते हुए वहाँ पहुँचे जहाँ पंडाल बनाने की तैयारी चल रही थी । प्रायः हर मजदूर के पास रुककर गोनू झा पंडिताइन से कुछ- कुछ बताते रहे । गाँव वालों की जब उन दोनों पर नजर पड़ी तब धीरे- धीरे वहाँ भीड़ जुटने लगी । घंटे-डेढ़ घंटे के बाद पंडिताइन को लेकर गोनू झा अपने घर में चले आए।

सूरज ढलने के बाद काम बन्द हुआ । मजदूर और रंगरूट काम बंद कर हाथ-मुँह धोने के लिए तालाब की ओर निकल गए । गोनू झा अपने चुनिन्दा सुरक्षाकर्मियों के साथ अपने घर के बाहर वाले कमरे में चले गए। यह वही कमरा था जिसमें खूबसूरत डिब्बे और थैलियाँ सजाकर रखी गई थीं ।

रात को गोनू झा के दरवाजे पर छोटे भोज का दृश्य था । रंगरूट, सुरक्षा प्रहरी और मजदूर के वेश में आए लोग भोजन कर रहे थे।

जब सोने की तैयारी शुरू हुई तब गोनू झा ने लंगड़ाकर चलने वाले हलवाई से कहा -" भाई, तुम ईमानदार, मेहनती और निष्ठावान व्यक्ति लगते हो । जमाना बहुत खराब है । इधर आओ।" डिब्बे और थैलियों वाले कक्ष में ले जाकर उसे खड़ा किया और कहा -" देखो, इस कक्ष में लाखों का सामान पड़ा है। “दीवार के किनारे एक के ऊपर एक बोरे रखे हुए थे । उन्हें दिखाते हुए गोनू झा ने लंगड़ू से कहा -" भोज की तैयारी के लिए इन बोरों में चावल, दाल, आलू, प्याज आदि रखा हुआ है । इतने लोगों में तुम ही एक ऐसे आदमी हो जिसे मैं यह दिखा रहा हूँ । तुम बरामदे में सोना और इस कमरे पर नजर रखना। जमाना खराब है। क्या पता, कब किसकी नियत में खोट आ जाए!"

लंगड़ा हलवाई ने गोनू झा की बातें सुनी तो उसके मन में लड्डू फूटने लगे । उसने कहा-“मालिक, हुक्म हो तो कुछ लोगों को और साथ ले लूँ? लाखों की रखवाली की बात है । हम रात भर जगकर पहरा देंगे । क्या मजाल कि चिड़िया भी पर मार सके ! गोनू झा ने कहा-“जैसा तुम ठीक समझो । वे लोग कैसे हैं, जो तुम्हारे साथ मिट्टी खोदने का काम कर रहे थे ?"

“जी, मालिक, बहुत होशियार लोग हैं । अब तो दोस्ती भी हो गई है। कहें तो उन्हें ही बुला लूँ?" लंगड़ा हलवाई ने पूछा ।

" हाँ-हाँ, क्यों नहीं! उन्हें ही बुला लो । लेकिन ध्यान रखना, दरवाजे का ताला कमजोर है। एक झटके में खुल जाता है । काम की भीड़ में ताला मँगवाना भूल गया । कल मँगा लूँगा। आज रात की ही बात है ।... देखो, तुम पर भरोसा करके यह जिम्मेदारी तुम्हें सौंप रहा हूँ ।"

गोनू झा वहाँ से मुस्कुराते हुए अपने घर में चले गए। दो प्रहर रात बीतने तक सन्नाटा छाया रहा । रात का तीसरा प्रहर शुरू होते ही गोनू झा के दरवाजे से धप्प ! धड़ाम !! जैसी आवाजों के साथ किसी की घुटी-घुटी चीखों की आवाजें आने लगीं । पंडिताइन की नींद खुली और वे गोनू झा को जगाने के उद्देश्य से गोनू झा का कंधा पकड़कर हिलाने लगी। गोनू झा सोए नहीं थे। पंडिताइन बोली-“ बाहर सुन नहीं रहे कि कैसी आवाजें आ रही हैं ?"

गोनू झा बोलने लगे – “अरे कोई बात नहीं है जलसे की तैयारी चल रही है न, तो थोड़ी आवाजें तो आएँगी ही ।”

पंडिताइन फिर बोली-“पंडित जी, लग रहा है कि दुअरा पर मार -पीट हो रही है । आपको कुछ बुझाता नहीं है कि कब क्या करें ? बाहर धमाचौकड़ी की आवाजें आ रही हैं । ऐसा लग रहा है कि बहुत से लोग आपस में मारपीट कर रहे हैं ।"

पत्नी की झुँझलाहट का आनन्द लेते हुए गोनू झा बिस्तर से उठे । कुर्ता पहना और बोले -" हाँ, तो भाग्यवान अब तुम्हें ले ही चलूँ बाहर जलसा दिखाने । अब पौ फटने ही वाला है । गाँव के लोग तमाशा देखने पहुँच गए होंगे । सुबह तक महाराज भी आ ही जाएँगे ।”

अभी उनकी बातें खत्म भी नहीं हुई थीं कि दरवाजे पर दस्तक होने लगी। पंडिताइन ने प्रश्नवाचक दृष्टि से गोनू झा की ओर देखा तो गोनू झा मुस्कुराए और बोले-“सिर पर पल्लू रख लो । शुभ मुहूर्त की सूचना आ गई है। हम पति-पत्नी एक साथ निकलेंगे और जलसे के खास मेहमानों का स्वागत करेंगे ।"

पंडिताइन कुछ समझ पाती, उससे पहले ही गोनू झा ने उसका एक हाथ अपने हाथ में लिया और दरवाजे की तरफ बढ़ गए ।

गोनू झा के दरवाजे पर बड़ी भीड़ थी । गाँव में हल्ला हो गया था कि गोनू झा के घर डाका डालने के लिए डकैतों का गिरोह आया हुआ था जिसको मजदूरों ने पकड़ लिया है । नगर कोतवाल न जाने कहाँ से पूरे दल -बल के साथ वहाँ पहुँच गया और सारे डाकू गिरफ्तार कर लिए गए।

गोनू झा अपनी पत्नी के साथ घर से बाहर आए तो ग्रामीणों में उत्सुकता जगी । वे उनकी ओर आने लगे । गोनू झा ने ऊँची आवाज में कहा-“अरे कोई नहीं है क्या-हमारे गाँव के लोग जलसा का मजा लेने आए हैं और यहाँ रोशनी का इंतजाम तक नहीं है ?"

आनन-फानन में कुछ मशालें जला ली गईं । गोनू झा ने कोतवाल को बुलाया और पूछा -" क्यों भाई, नगर कोतवाल, जलसा का उद्घाटन भी हो गया और न हमें खबर दी, न गाँववालों को ? महाराज को खबर दी या नहीं ?"

कोतवाला बोला “जी हाँ, हुजूर ! महाराज जैसे ही जगेंगे, उन्हें सूचना मिल जाएगी ।"

गाँववालों को इशारा करते हुए गोनू झा ने कहा-“आओ भाइयो ! जब तक महाराज पहुँचें तब- तक जलसा का मजा ले लो । क्या करें, अचानक शुभ मुहूर्त निकल आया इसलिए आप लोगों के पास बुलावा भेज नहीं पाया । अब इसे ही हमारा सादर आमन्त्रण समझिए ।"

गाँववाले गोनू झा और पंडिताइन के पास पहुंच गए ।

पंडिताइन कुछ समझ नहीं पा रही थी कि माजरा क्या है? गाँववालों के साथ- साथ वह भी चकित, भरमाई-सी खड़ी रही ।

गोनू झा लंगड़ा हलवाई के पास पहुंचे और उसका कंधा थपथपाते हुए कहने लगे -" क्यों भाई, यह तुम्हारा हाथ-पाँव किसने बाँध दिया ? कोई बात नहीं, अब तुम्हारा हाथ -पाँव जब खुलेगा, तब भात, दाल, भुजिया, तरकारी बनाने का काम ही करना । मैं इन्तजाम कर दूंगा । गम न करो । जो हुआ, सो हुआ ।“ बाकी चोरों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा-“तुम चाहते थे कि ये लोग तुम्हारे साथ रहें । दोस्ती हो गई थी न ! कोई बात नहीं । ऐसा ही इन्तजाम करवा दूंगा कि तुम सब साथ- साथ रहो । रात भर जागकर बातें करते रहना। ठीक है न ? यही इच्छा जताई थी न तुमने ?"

गोनू झा ने रंगरूटों को इशारे से बुलाया और ग्रामीणों के बैठने का इन्तजाम करने को कहा । दरी-जाजिम आई। बिछाई गई । मशाल की रोशनी में गोनू झा का दरवाजा आलोकित हो रहा था, जैसे वहाँ वाकई कोई जलसा हो रहा हो ! गाँव की महिलाएँ भी वहाँ जमा हो गईं । बच्चे भी । गोनू झा बीच -बीच में कह उठते -" भाइयो, उकताना नहीं। यह ऐसा जलसा है, ऐसा तमाशा जैसा तुम लोगों ने कभी देखा न होगा ।"

इसी तरह समय बीतता रहा।

पूरब के आकाश में लालिमा छा चुकी थी । पक्षियों की चहचहाहट से दिशाएँ अनुगुंजित होने लगीं । मन्द शीतल समीर के साथ उजास फैलने लगा । मशालें बुझा दी गईं । रंगरूटों ने ग्रामीणों को शर्बत पिलाया । ग्रामीण इस आस में बैठे थे कि सच में वहाँ कोई जलसा होगा और उसके बाद गोनू झा इन 'डकैतों' की खबर लेंगे। महाराज वहाँ खुद पधारनेवाले हैं, यह सुनकर भी गाँव के लोगों की भीड़ जमी हुई थी । दरी-जाजिम बिछ जाने से उनको सुविधा हो गई थी-बैठने की । अब शर्बत भी बँट रहा था । ग्रामीण उत्सुकता से बँधे बैठे थे। गोनू झा के चुनिन्दा लोग सक्रिय थे। गोनू झा के दरवाजे पर बने चबूतरे पर एक आसन रखा गया । फिर दो छोटे आसन उस बड़े आसन के आजू-बाजू रखे गए। इन आसनों पर मखमल के खोलवाले गद्दे बिछाए गए...।

अब पूरी तरह से उजाला हो चुका था । तभी कुछ रंगरूट दौड़ते हुए आए और गोनू झा के कान में कुछ फुस- फुसाकर लौट गए । गोनू झा ने अपनी-पत्नी की कलाई पकड़ी और ग्रामीणों से कहा-“आओ भाइयो, महाराज पधारनेवाले हैं ! एक बार इस खुशी में जयकारा लगाओ।" गोनू झा जयकारा लगाने लगे -" महाराज की ..." ग्रामीणों ने ऊँचे स्वर में कहा " जय हो !"

कुछ देर में ही महाराज की सवारी गोनू झा के दरवाजे पर पहुँची और जयनाद से उनका स्वागत हुआ। मुदित मन से महाराज ने आसन -ग्रहण किया । उनके आजू-बाजू गोनू झा और पंडिताइन बैठे । ग्रामीण भी अपने स्थान पर बैठ गए।

महाराज ने धीरे से कहा-“यह क्या पंडित जी, आपने तो अच्छा मजमा लगा लिया । इतनी भीड़ तो किसी सभा में भी नहीं जुटती । लगता है, पूरा गाँव यहाँ जमा है।"

गोनू झा ने भी धीमे स्वर में कहा “महाराज ! मजमा तो अनायास लग गया है। मैंने तो मिथिलांचल को चोरों के उत्पात से छुटकारा दिलाने के प्रयोजन से अपने ढंग से अभियान चलाया था और मुझे इस अभियान की ऐसी सफलता का भरोसा भी नहीं था लेकिन संयोग कुछ ऐसे जुटते गए कि अपने आप चोरों का एक शातिर गिरोह फंदे में आ गया । जल्दी ही अन्य चोरों की गिरफ्तारी हो जाएगी ।"

महाराज ने मुदित मन से पूछा -”मुझे बताइए पंडित जी, क्या हुआ और कैसे हुआ ?" गोनू झा ने कहा-“महाराज, मैं सो रहा था । जो भी कुछ हुआ, वह इन जवानों से मुझे भी पूछना है । यदि आज्ञा दें, तो ग्रामीणों के सामने इन रंगरूटों से सारी कहानी सुनी जाए । इससे ग्रामीणों को भरोसा होगा कि आप प्रजावत्सल हैं और उनकी सुरक्षा के लिए मिथिलांचल की शासन व्यवस्था चाक-चौबन्द है ।"

एक विश्वस्त रंगरूट को गोनू झा ने बुलाया और आज्ञा दी कि वह सारी घटना का विवरण दे ।

रंगरूट ने चोरों को जाल में फंसाने के लिए किए गए सभी यत्नों का ब्यौरा दिया फिर बताया कि जिस कमरे में बहुमूल्य सामग्री और लाखों का सामान होने की बात कही गई थी उस कमरे में बोरों में घुसकर रंगरूट बैठे थे। किसी को इस बात की भनक तक नहीं थी । यह बात या तो गोनू झा जानते थे या फिर वही रंगरूट जो बोरे में बन्द थे। आधी रात के बाद चोरों ने दरवाजे का ताला झटका मारकर खोल लिया और कमरे में प्रवेश कर भीतर से कुंडी लगा ली । ये लोग उन डिब्बों को समेटने में लग गए जिनमें कीमती उपहार होने का अंदेशा था । उसी समय बोरों में बन्द सभी रंगरूट झटके से बाहर आए और उन चोरों को दबोच लिया ।

महाराज ने मुक्त कंठ से गोनू झा की प्रशंसा की ।

गोनू झा ने महाराज से कहा-“महाराज, अब इस कार्य में जिन जवानों के सहयोग से सफलता मिली है, उन्हें अपने हाथों से पुरस्कार प्रदान करें ।"

नक्शीदार डिब्बे मँगाए गए और एक-एक रंगरूट और सुरक्षा प्रहरी को वे डिब्बे दिए गए । फिर बारी आई ग्रामीणों की तो उन्हें थैलियाँ भेंट की गईं। सचमुच थैलियों में मखाना और बताशा ही थे। मगर ग्रामीण खुश थे कि महाराज के हाथों उन्हें यह उपहार मिला। महाराज वहाँ से विदा हुए । नगर कोतवाल सभी चोरों को लेकर हवालात पहुँचा जहाँ से उन्हें कारागार भेज दिया गया । उनसे पूछताछ के आधार पर मिथिलाँचल के बाजारों में सक्रिय चोरों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिलीं जिससे हफ्ते भर में ही बड़े पैमाने पर चोरों की गिरफ्तारी हुई। इस तरह चोरों की गिरफ्तारी होने से अन्य चोर या तो मिथिला से भाग गए या फिर भूमिगत हो गए।

जब महीने-दो महीने तक मिथिला में चोरी की कोई घटना नहीं हुई तब एक दिन महाराज ने दरबार में बताया कि किस तरह गोनू झा की सूझ-बूझ से मिथिला से चोरों का सफाया हो पाया ।

गोनू झा के लिए यही बहुत बड़ा पुरस्कार था ।

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