मेरा दाग़िस्तान : खंड-दो (रूसी उपन्यास) : रसूल हमज़ातोव - अनुवाद : डॉ. मदनलाल मधु
Mera Daghistan : Khand-2 (Russian Novel in Hindi): Rasul Gamzatov
दो पुस्तकों के बीच का विराम : मेरा दाग़िस्तान
छोटी-सी चाबी से बड़ा संदूक खोला जा सकता है - मेरे पिता जी कभी-कभी ऐसा कहा करते थे। अम्माँ तरह-तरह के किस्से-कहानियाँ सुनाया करती थीं - 'सागर बड़ा है न? हाँ, बड़ा है। कैसे बना सागर? छोटी-सी चिड़िया ने अपनी और भी छोटी चोंच जमीन पर मारी - चश्मा फूट पड़ा। चश्मे से बहुत बड़ा सागर बह निकला।'
अम्माँ मुझसे यह भी कहा करती थीं कि जब काफी देर तक दौड़ लो - तो दम लेना चाहिए, बेशक तब तक, जब तक कि हवा में ऊपर को फेंकी गई टोपी नीचे गिरती है। बैठ जाओ, साँस ले लो।
आम किसान भी यह जानते हैं कि अगर एक खेत में, वह चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, जुताई पूरी कर दी गई है और दूसरे खेत में जुताई शुरू करनी है तो जरूरी है कि इसके पहले मेंड़ पर बैठकर अच्छी तरह से सुस्ता लिया जाए।
दो पुस्तकों के बीच का विराम - क्या ऐसी ही मेंड़ नहीं है? मैं उस पर लेट गया, लोग करीब से गुजरते थे, मेरी ओर देखते और कहते थे - हलवाहा हल चलाते-चलाते थक गया, सो गया।
मेरी यह मेंड़ दो गाँवों के बीच की घाटी या दो घाटियों के बीच टीले पर बसे गाँव के समान थी।
मेरी मेंड़ दागिस्तान और बाकी सारी दुनिया के बीच एक हद की तरह थी। मैं अपनी मेंड़ पर लेटा हुआ था, मगर सो नहीं रहा था।
मैं ऐसे लेटा हुआ था, जैसे पके बालोंवाली बूढ़ी लोमड़ी उस समय लेटी रहती है, जब थोड़ी ही दूरी पर तीतर के बच्चे दाना-दुनका चुग रहे होते हैं। मेरी एक आँख आधी खुली हुई थी और दूसरी आधी बंद थी। मेरा एक कान पंजे पर टिका हुआ था और दूसरे पर मैंने पंजा रख लिया था। इस पंजे को मैं जब-तब जरा ऊपर उठा लेता था और कान लगाकर सुनता था। मेरी पहली पुस्तक लोगों तक पहुँच गई या नहीं? उन्होंने उसे पढ़ लिया या नहीं? वे उसकी चर्चा करते हैं या नहीं? क्या कहते हैं वे उसके बारे में?
गाँव का मुनादी करनेवाला, जो ऊँची छत पर चढ़कर तरह-तरह की घोषणाएँ करता है, उस वक्त तक कोई नई घोषणा नहीं करता, जब तक उसे यह यकीन नहीं हो जाता कि लोगों ने उससे पहलेवाली घोषणा सुन ली है।
गली में से जाता हुआ कोई पहाड़ी आदमी अगर यह देखता है कि किसी घर में से कोई मेहमान नाक-भौंह सिकोड़े, नाराज और झल्लाया हुआ बाहर आता है तो क्या वह उस घर में जाएगा?
मैं पुस्तकों के बीच की मेंड़ पर लेटा हुआ था और यह सुन रहा था कि मेरी पहली पुस्तक के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हुई है।
यह बात समझ में भी आती है - किसी को सेब अच्छे लगते हैं और किसी को अखरोट। सेब खाते वक्त उसका छिलका उतारा जाता है और अखरोट की गिरियाँ निकालने के लिए उसे तोड़ना पड़ता है। तरबूज और खरबूजे या सरदे में से उनके बीज निकालने पड़ते हैं। इसी तरह विभिन्न पुस्तकों के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण होना चाहिए। अखरोट तोड़ने के लिए खाने की मेज पर काम आनेवाली छुरी नहीं, मुंगरी की जरूरत होती है। इसी तरह कोमल और महकते सेब को छीलने के लिए मुंगरी से काम नहीं लिया जा सकता।
किताब पढ़ते हुए हर पाठक को उसमें कोई न कोई खामी, कोई त्रुटि मिल जाती है। कहते हैं कि खामियाँ-कमियाँ तो मुल्ला की बेटी में भी होती हैं, फिर मेरी किताब की तो बात ही क्या की जाए।
खैर, मैंने थोड़ा-सा दम ले लिया और अब मैं अपनी दूसरी किताब लिखना शुरू करता हूँ। कितने पाठकों के लिए मैं इसे लिखने जा रहा हूँ, मुझे मालूम नहीं। इसकी कितनी प्रतियाँ छपेंगी, इससे तो कोई भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। ऐसी पुस्तकें हैं जिनकी एक-एक लाख प्रतियाँ छपी हैं, मगर उन्हें कोई नहीं पढ़ता, वे किताबों की दुकानों और पुस्तकालयों के ताकों पर या अलमारियों में पड़ी रहती हैं। लेकिन किसी दूसरी किताब की केवल एक ही प्रति होती है और वह लगातार एक पाठक से दूसरे पाठक के हाथ में जाती रहती है और उसे अनेक लोग पढ़ते हैं। मुझे तो न पहली चीज की जरूरत है और न दूसरी की। अगर एक पाठक भी मेरी पुस्तक को पढ़ लेगा तो मुझे खुशी होगी। मैं इस पाठक को अपने छोटे-से, साधारण और गर्वीले देश के बारे में बताना चाहता हूँ। यह बताना चाहता हूँ कि यह देश कहाँ है, इसके निवासी कौन-सी भाषा बोलते हैं, किन बातों की चर्चा करते हैं और कैसे गीत गाते हैं।
मैं सब कुछ तो नहीं बता सकता। बड़े-बूढ़ों ने हमें यह सीख दी थी - 'सभी कुछ तो केवल सभी बता सकते हैं। लेकिन तुम वह बताओ, जो बता सकते हो और तब सभी कुछ बता दिया जाएगा। हर किसी ने अपना घर बनाया और नतीजा यह हुआ कि गाँव बन गया। हर किसी ने अपना खेत जोता और नतीजे के तौर पर सारी पृथ्वी ही जोती गई।'
तो मैं तड़के ही उठ गया। आज मैं पहली हल-रेखा बनाऊँगा। नए खेत में नई हल-रेखा। प्राचीन परंपरा के अनुसार एक ही अक्षर से शुरू होनेवाली सात चीजें मेज पर होनी चाहिए। मैं अपनी मेज पर नजर दौड़ाता हूँ और मुझे सातों चीजें वहाँ दिखाई देती हैं। ये हैं वे चीजें -
1. कोरा कागज।
2. अच्छे ढंग से गढ़ी हुई पेंसिल।
3. माँ का फोटो।
4. देश का नक्शा।
5. दूध के बिना तेज कॉफी।
6. उच्चतम कोटि की दागिस्तानी ब्रांडी।
7. सिगरेटों का पैकेट।
अगर अब भी मैं अपनी किताब नहीं लिख सकूँगा तो कब लिखूँगा?
चूल्हा गर्म हो गया है। उस पर रखी हुई देगची में से भाप निकलने लगी है। बाहर हल्की-हल्की और विरली बूँदा-बाँदी में से सूरज की किरणें छन रही हैं। कहते हैं कि ऐसे दिन पहाड़ों में सभी जानवर रज्जुनटों की तरह सतरंगे इंद्रधनुष पर नाचते हैं। जब कभी ऐसे दिन आते थे तो अम्माँ कहा करती थीं कि आसमान बारिश के धागों से कढ़ा हुआ है और सूरज की किरणें सुइयाँ हैं।
आज पहाड़ों में वसंत है, वसंत का पहला दिन है। मेरी तरह वह भी आज पहली हल-रेखा बनाना शुरू कर रहा है।
'दागिस्तान के वसंत, यह बताओ कि तुम्हारे पास ऐसे कौन से सात उपहार हैं जो एक ही अक्षर से शुरू होते हों?'
'मेरे पास ऐसे उपहार हैं,' वसंत ने उत्तर दिया, 'दागिस्तान ने ही उन्हें मुझे भेंट किया है। मैं अपनी भाषा में इन उपहारों के नाम लूँगा और तुम उँगलियों पर उन्हें गिनते जाना।
1. त्सा - आग। जिंदगी के लिए। प्यार और नफरत के लिए।
2. त्सार - नाम। इज्जत के लिए। बहादुरी के लिए। किसी को नाम से पुकारने के लिए।
3. त्साम - नमक। जिंदगी के जायके के लिए, जीवन की मर्यादा के लिए।
4. त्स्वा - सितारा। उच्चादर्शों और आशाओं के लिए। उज्ज्वल लक्ष्यों तथा सीधे मार्ग के लिए।
5. त्सूम - उकाब। उदाहरण और आदर्श के लिए।
6. त्स्मूर - घंटी, बड़ा घंटा, ताकि सभी को एक जगह पर एकत्रित किया जा सके।
7. त्सल्कू - छाज, छलनी, ताकि अनाज के अच्छे दानों को निकम्मी और हल्की भूसी-करकट से अलग किया जा सके।'
दागिस्तान! ये सात चीजें - तुम्हारे मजबूत जड़ोंवाले वृक्ष की सात शाखाएँ हैं। इन्हें अपने सभी बेटों को बाँट दो, मुझे भी दे दो। मैं आग और नमक, उकाब और सितारा, घंटा और छाज-छलनी बनना चाहता हूँ। मैं ईमानदार आदमी का नाम पाना चाहता हूँ।
मैं नजर ऊपर उठाकर देखता हूँ और वहाँ मुझे सूरज और बारिश, आग और पानी से बुना हुआ आसमान दिखाई देता है। अम्माँ हमेशा कहा करती थीं कि सपने के समय ही आग और पानी से दागिस्तान बनाया गया था।
आग पिता, पानी माँ : मेरा दाग़िस्तान
आग के साथ खिलवाड़ नहीं करो
मेरे पिता जी कहा करते थे।
पानी में कंकड़-पत्थर नहीं फेंको
अम्माँ अनुरोध किया करती थीं।
विभिन्न लोगों को उनकी माँ विभिन्न रूपों में याद आती है। मैं अपनी माँ को सुबह, दुपहर और शाम को याद करता हूँ।
सुबह को वह पानी से भरा हुआ घड़ा लेकर चश्मे से लौटती थीं। वह बहुत ही कीमती चीज की तरह उसे लेकर आती थीं। वह पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़तीं, घड़े को जमीन पर रख देतीं और चूल्हे में आग जलाने लगतीं। आग भी वह बहुत ही कीमती चीज की तरह जलातीं। वह कभी चिंता तो कभी मुग्ध भाव से उसकी ओर देखतीं। आग के अच्छी तरह से जल जाने तक अम्माँ पालना झुलाती रहतीं। उसे भी किसी बहुत ही कीमती चीज की तरह झुलातीं। दुपहर के वक्त अम्माँ खाली घड़ा लेकर पानी लाने को चश्मे पर जातीं। इसके बाद आग जलातीं, इसके बाद पालना झुलातीं। शाम को अम्माँ घड़े में पानी लातीं, पालना झुलातीं, आग जलातीं।
वह वसंत, गर्मी, पतझर और जाड़े में हर दिन ऐसा ही करतीं। वह धीरे-धीरे, बड़ी गंभीरता से ऐसा करतीं जैसे कि कोई अत्यधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण काम कर रही हों। वह पानी लाने जातीं, पालना झुलातीं, आग जलातीं। आग जलातीं, पानी लाने जातीं, और पालना झुलातीं। पालना झुलातीं, आग जलातीं, पानी लाने जातीं। मेरे मन में मेरी माँ की स्मृति इसी रूप में अंकित है। पानी लाने के लिए जाते वक्त वह हमेशा मुझसे कहती थीं - 'आग का ध्यान रखना।'
आग की चिंता करते हुए मुझे नसीहत देती थीं - 'इसे बुझने नहीं देना, पानी नहीं गिराना।' मुझे लोरी देते हुए वह यह भी कहा करती थीं - 'दागिस्तान के लिए आग पिता है, पानी माँ है।'
हमारे पर्वत तो सचमुच अश्मीभूत आग जैसे लगते हैं। तो आइए आग की चर्चा करें।
पत्थर से पत्थर टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
दो चट्टानों को टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
करतल से करतल टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
शब्द-शब्द को यदि टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
जुरने के तारों को छेड़ो - निकलेगी उससे चिनगारी।
वादक, गायक की आँखों में झाँको, पाओगे चिनगारी।
मेमने की खाल से सिली हुई पहाड़ी आदमी की टोपी से भी चिनगारियाँ निकलती हैं, खास तौर पर जब उसे हाथ से सहलाया जाता है।
पहाड़ी आदमी समूर की ऐसी टोपी पहने हुए जब अपने घर की छत पर आता है तो पड़ोस के पहाड़ पर बर्फ पिघलने लगती है।
खुद बर्फ में से भी आग की चिनगारियाँ निकलती रहती हैं। पौ फटने के वक्त पहाड़ की चोटी पर खड़े पहाड़ी बकरे के सींग पर भी आग चमकती होती है। सूर्यास्त के समय पहाड़ी चट्टानें भी लाल-लाल आग में पिघलती होती हैं।
पहाड़ी कहावत और पहाड़ी औरत के आँसू में भी आग होती है। बंदूक की नली के सिरे और म्यान से निकाले गए खंजर की धार में भी आग होती है। किंतु सबसे अधिक दयालु और स्नेहपूर्ण आग माँ के हृदय और हर घर के चूल्हे में होती है।
पहाड़ी आदमी जब अपने बारे में कुछ अच्छे शब्द कहना चाहता है या केवल अपनी डींग हाँकना चाहता है तो कहता है - 'मुझे किसी से आग माँगने के लिए तो अब तक जाना नहीं पड़ा।'
पहाड़ी आदमी जब किसी बुरे, किसी अप्रिय व्यक्ति के बारे में कुछ कहना चाहता है तो कहता है - 'उसकी चिमनी से निकलनेवाला धुआँ चूहे की पूँछ से बड़ा नहीं है।'
जब दो पहाड़ी बूढ़ियाँ एक-दूसरे से झगड़ती हैं तो उनमें से एक चिल्लाकर कहती है - 'तुम्हारे चूल्हे में कभी आग न जले।' - 'तुम्हारे चूल्हे में वह आग बुझ जाए जो जल रही है,' दूसरी जवाब देती है।
किसी बहादुर-दिलेर आदमी की चर्चा करते हुए पहाड़ी लोग कहते हैं - 'वह तो आदमी नहीं, आग है।'
एक नौजवान की नीरस और ऊबभरी कविताएँ सुनने के बाद मेरे पिता जी बोले -'इन कविताओं में एक तरह से सब कुछ है। लेकिन ऐसा भी होता है कि घर है, चूल्हा है, लकड़ी है, देगची है और देगची में गोश्त भी है, मगर आग नहीं। घर में ठंडक है, देगची में कुछ उबलता नहीं, गोश्त जायकेदार नहीं। आग नहीं - जिंदगी नहीं! इसलिए तुम्हारी कविताओं को आग की जरूरत हैं!'
शामिल से एक बार पूछा गया - 'इमाम, यह बताओ, भला यह कैसे हुआ कि छोटा-सा और अधभूखा दागिस्तान सदियों तक बड़े-बड़े शक्तिशाली राज्यों के विरुद्ध जूझता और उनका मुकाबला करता रहा? कैसे वह पूरे तीस सालों तक बहुत ही शक्तिशाली गोरे जार के विरुद्ध संघर्ष करता रहा?'
शामिल ने जवाब दिया - 'अगर दागिस्तान की छाती में प्यार और नफरत की आग न जलती होती तो वह कभी भी ऐसा संघर्ष न कर पाता। इसी आग ने चमत्कार किए और बहादुरी के कारनामे कर दिखाए। यह आग ही दागिस्तान की आत्मा यानी खुद दागिस्तान है।'
'मैं स्वयं भी कौन हूँ,' शामिल कहता गया, 'गीमरी नाम के एक दूरस्थ गाँव के माली का बेटा। दूसरे लोगों के मुकाबले में मैं न तो लंबा और न चौड़ी छातीवाला हूँ। बचपन में मैं तो बहुत कमजोर और दुबला-पतला लड़का था। मुझे देखकर वयस्क लोग अफसोस से सिर हिलाते थे और कहते थे - बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रहेगा यह। शुरू में मेरा नाम आली था। जब मैं बीमार रहता तो यह उम्मीद करते हुए कि पुराने नाम के साथ मेरी बीमारी भी खत्म हो जाएगी, मेरा नाम दिलकर शामिल रख दिया गया। मैंने बड़ी दुनिया नहीं देखी थी, बड़े शहरों में मेरा लालन-पालन नहीं हुआ था। मेरे पास ज्यादा धन-दौलत नहीं थी। अपने गाँव के मदरसे में मैंने तालीम हासिल की। मेरे माता-पिता गधे पर गीमरी के आड़ू लादकर मुझे तेमीरखान-शूरा मंडी में बेचने के लिए भेजते थे। बहुत समय तक मैं गधे को हाँकते हुए पहाड़ी पगडंडियों पर आता-जाता रहा। एक दिन मेरे साथ एक घटना हुई। यह बहुत पुरानी बात है, मगर मैं इसे भूल नहीं सकता और भूलना भी नहीं चाहता। वह इस कारण कि उसी वक्त मेरी हिम्मत, मेरे अंदर आग जागी। उसी वक्त मैं शामिल बना।
'तेमीरखान-शूरा मंडी के नजदीक, एक गाँव के छोर पर मुझे कुछ शरारती लड़के मिले जिन्होंने मेरा मजाक उड़ाना चाहा। एक छोकरे ने मेरे सिर से समूरी टोपी उतारी और उसे लेकर भाग गया। जब तक मैं इस शैतान को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागता रहा, इसी बीच दूसरे लड़के मेरे गधे पर से फलों की टोकरियाँ उतारने लगे। मेरी असहाय और रोनी-सी सूरत देखकर वे सभी ठहाके लगाते थे, खूब मजे लेते थे। उनके ये मजाक मुझे अच्छे नहीं लगे और मेरे भीतर वह आग जल उठी जिससे मे अभी तक अनजान था। मैंने हड्डी के सफेद हत्थेवाला खंजर म्यान से बाहर निकाल लिया। उस लड़के को, जो मेरी समूरी टोपी लेकर भागा था, मैंने गाँव के फाटक पर जा पकड़ा। उसे गंदी नाली में गिराकर मैंने उसके गले पर तेज खंजर रख दिया। उसने माफी माँगी।
'तुम आग के साथ खिलवाड़ नहीं करो।'
'इस शरारती छोकरे को गंदी नाली में ही छोड़कर मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई। मेरे आड़ुओं को जहाँ-तहाँ बिखरानेवाले विभिन्न दिशाओं में भाग गए। तब मैं एक घर की छत पर चढ़कर चिल्लाया -
'अरे, कान खोलकर सुनो! अगर मेरे खंजर की आग से अपने पेट नहीं जलाना चाहते तो सब कुछ वैसे ही कर दो, जैसे था।'
'मजाक करनेवाले इन छोकरों ने मुझे दूसरी बार अपने शब्द दोहराने को मजबूर नहीं किया।
'उसी दिन मैंने बड़े-बूढ़ों को मंडी में यह कहते सुना - 'यह लड़का अभी बहुत कुछ करके दिखाएगा।'
'मैंने अपनी समूरी टोपी को भौहों तक नीचे खींच लिया और अपने अच्छे गधे को हाँकते हुए आगे चल दिया। क्या मैंने शोर-शराबा और लड़ाई-झगड़ा चाहा था? उन्होंने ही मेरे सब्र का प्याला छलका दिया था, मेरे दिल की आग को बाहर आने के लिए मजबूर कर दिया था।
'इसके बाद कई साल बीत गए। एक सुबह को मैं बाग में काम कर रहा था। आस्तीनें चढ़ाकर मैं उपजाऊ मिट्टी को नीचे से ऊपर ले जा रहा था और उसे हर पेड़ के इर्द-गिर्द डाल रहा था। मैं पुरानी समूरी टोपी में मिट्टी भर-भरकर ले जाता था। इस वक्त तक मेरे बदन पर कई घाव हो चुके थे। ये घाव विभिन्न मुठभेड़ों में मेरे जिस्म पर हुए थे। तो दूसरे गाँवों के, बहुत दूर के गाँवों के हमारे पहाड़ी लोग मेरे पास आए और बोले कि मैं अपने घोड़े पर जीन कस लूँ तथा हथियार बाँध लूँ। मैं हथियार बाँधना नहीं चाहता था, मैंने इनकार कर दिया, क्योंकि लड़ाई के मुकाबले में मुझे बागवानी कहीं ज्यादा पसंद थी।
'तब विभिन्न गाँवों से आनेवाले ये पहाड़िये मुझसे बोले -
'शामिल! पराये घोड़े हमारे चश्मों से पानी पीते हैं, पराये लोग हमारे चिराग बुझाते हैं। तुम खुद घोड़े पर सवार होते हो या हम तुम्हारी मदद करें?'
'और मेरे दिल में उसी तरह से आग भड़क उठी, जैसे उस वक्त भड़की थी। जब लड़कों ने मेरे सिर पर से समूरी टोपी उतारकर और आड़ू बिखराकर मेरे दिल को ठेस लगाई थी। उसी तरह, बल्कि उससे भी ज्यादा जोर से मेरे दिल में आग भड़क उठी। मुझे अपने बाग और दुनिया की किसी चीज की सुध-बुध न रही। वह आग, जो पच्चीस सालों से मुझे पहाड़ों में जहाँ-तहाँ ले जा रही है, उसे न तो बारिश, न हवा और न ठंड ही बुझा सकती है। गाँव धू-धू जल रहे हैं, जंगलों से धुआँ उठ रहा है, लड़ाई के वक्त धुएँ में से आग की लपटें चमकती हैं, पूरा काकेशिया ही जल रहा है। तो ऐसी चीज है आग!'
हमारे लोग सुनाते हैं कि पुराने वक्तों में अगर दुश्मन दागिस्तान की सीमा में घुस आते थे तो सबसे ऊँचे पहाड़ पर मीनार जितनी ऊँची आग जला दी जाती थी। इसे देखते ही सभी गाँव अपने अलाव जला लेते थे। यही वह जोरदार पुकार होती थी जो पहाड़ी लोगों को अपने जंगी घोड़ों पर सवार होने को प्रेरित करती थी। हर घर से घुड़सवार रवाना होते थे, हर गाँव से तैयार दस्ते रवाना होते थे। आग के आह्वान पर घुड़सवार और पैदल लोग दुश्मन से लोहा लेने को चल पड़ते थे। जब तक पहाड़ों पर अलाव जलते रहते थे, गाँवों में पीछे रह जानेवाले बूढ़ों, औरतों और बच्चों को यह मालूम होता था कि दुश्मन अभी दागिस्तान की सीमाओं में ही है। अलाव बुझ जाते तो इसका मतलब होता कि खतरा टल गया है और पूर्वजों की धरती पर फिर से शांति का समय आ गया है। सदियों के लंबे इतिहास में पहाड़ी लोगों को बहुत बार पहाड़ों की चोटियों पर लड़ाई का संकेत देनेवाली इस तरह की आग जलानी पड़ी है।
इस तरह की आग लड़ाई का झंडा भी होती थी और उसका आदेश भी। पहाड़ी लोगों के लिए यह आधुनिक तकनीकी साधनों-रडियो, तार और टेलीफोन-का काम देती थी। पहाड़ी ढालों पर अभी भी ऐसी वनहीन जगहें देखी जा सकती हैं, जहाँ ऐसा लगता है मानो विराटकाय भैंसे लेटे हुए हों।
पहाड़ी लोगों का कहना है कि खंजर के लिए सबसे ज्यादा भरोसे की जगह म्यान है, आग के लिए - चूल्हा और मर्द के लिए - घर। लेकिन अगर आग चूल्हे से बाहर आकर पहाड़ों की चोटियों पर भड़कने लगती है तो म्यान में चैन से पड़ा रहनेवाला खंजर खंजर नहीं और घर के चूल्हे के करीब बैठा रहनेवाला मर्द-मर्द नहीं।
दागिस्तान के चरवाहों के कर्तव्य बड़ी कड़ाई से विभाजित होते हैं। कुछ चरवाहे दिन को भेड़ें चराते हैं, दूसरे रात के वक्त उनकी जगह ड्यूटी ले लेते हैं और भेड़ों के रेवड़ों की भेड़ियों से रक्षा करते हैं। किंतु उनके बीच एक ऐसा भी आदमी होता है जो न तो भेड़ों और न भेड़ियों से उन्हें बचाने की ही चिंता करता है। उसका काम आग की रक्षा करना, उसे जलाए रखना, उसे बुझने न देना होता है। उसे अग्नि-रक्षक, आग को जलाए रखनेवाला कहा जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं होगा कि किसी एक आदमी को विशेष रूप से यही काम सौंप दिया जाता है, कि यह आदमी सिर्फ आग की ही रक्षा करता है। किंतु रात होने से पहले चरवाहे अवश्य ही एक ऐसे आदमी को चुन लेते हैं और उसे आग की चिंता करने का काम सौंप देते हैं।
यह बहुत जरूरी और मुश्किल काम है! खाना पकाना, गर्माहट पाना, गीले कपड़ों को सुखाना, प्रकाश, अच्छी बातचीत तथा पुरुषों की गंभीर बातचीत के समय अत्यधिक आवश्यक धूम्रपान को जारी रख सकना - यह सभी कुछ आग पर निर्भर करता है।
चरवाहों के झोपड़ों में चूल्हे नहीं होते। आग बाहर जलती रहती है और उसके लिए खास दौड़-धूप तथा चिंता की आवश्यकता होती है। हथेलियों, समूरी टोपी, लबादे के पल्ले से आग को बुरे मौसम-बारिश, बर्फ और बर्फ के तूफान से बचाना पड़ता है।
क्या बहादुरों, कवियों, गीतकारों, कथाकारों, नर्तकों और संगीतज्ञों-स्वरकारों को अग्नि-रक्षक कहना ठीक नहीं होगा? हमारे यहाँ बहुत-से ऐसे लोग हैं, जिनके दिलों में कविता, समर्पण और मातृभूमि के प्रति प्यार की शाश्वत आग जलती है, जो उसे सहेजते हैं और दूसरे लोगों तक पहुँचाते हैं।
मैं भी अपने हृदय में इस शाश्वत आग को अनुभव करता हूँ। मैं भी इसे अपना कर्तव्य मानता हूँ कि इस चिनगारी को बुझने न दूँ। इसे और अधिक तेज होने और ज्यादा रोशनी और गर्माहट देने के लिए मजबूर करना मेरा फर्ज है ताकि मेरे पीछे-पीछे आनेवाला व्यक्ति इस मशाल को मेरे हाथ से लेकर इसे आगे ले जाए।
अपने दिल में आग को उसी तरह से सहेजना चाहिए, जैसे हम बाहर की आम आग से अपने को सहेजते और बचाते हैं।
किसी जश्न के मौके पर गाँव में गानेके बाद हमेशा हँसी-मजाक होता है, संगीत और नाच के बाद-बातचीत होती है। समारोही शब्दों में अग्नि का गुणगान करने के बाद लोग यह सुनाते हैं कि कैसे हमारे दागिस्तान में हिम-मानव की खोज की गई।
मैं खुद उस बहुत बड़े तमाशे का साक्षी रहा हूँ, जो हिम-मानव की खोज करने के लिए हमारे यहाँ आनेवाले कुछ वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं के समय पहाड़ी लोगों ने देखा था।
अवार जाति के लोगों ने उनसे कहा - 'आप दारगीनों के यहाँ जाएँ, शायद वह, जिसे आप खोज रहे हैं, उनके यहाँ रहता हो।'
दारगीनों ने उन्हें लाक्तियों के यहाँ भेज दिया, लाक्तियों ने लेज्गीनों के यहाँ, लेज्गीनों ने कुमिकों के यहाँ, कुमिकों ने स्तेपी में रहनेवाले नोगाइयों के यहाँ, नोगाइयों ने ताबासारान्त्सियों के यहाँ। ये वैज्ञानिक कार्यकर्ता सारे दागिस्तान में भटकते रहे। बुरी तरह से थक-हारकर वे किकूनी गाँव में आकर ठहरे, जहाँ हमारा महाबली ओसमान अब्दुर्रहमानोव रहता है। मुमकिन है कि इन पंक्तियों को पढ़नेवाले कुछ लोगों ने ओसमान को 'खजानों का द्वीप' फिल्म में देखा हो। वहाँ वह तीन आदमियों को एक साथ ही पकड़कर जहाज के डेक से सागर में फेंक देता है।
कुछ ऐसा हुआ कि इन वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं की कार किकूरी गाँव के नजदीक एक छोटी-सी नदी में फँस गई। वैज्ञानिक उसे आगे-पीछे धकेलते रहे, मगर कार को नदी से निकाल नहीं पाए।
इस वक्त ओसमान अपने घर की छत पर बैठा था। उसने देखा कि कैसे असहाय लोग परेशान होते हुए कार के आस-पास कुछ कर रहे हैं। वह नीचे उतरा और महाबली की धीमी-धीमी चाल से उनके करीब गया। उसने उस तिलचट्टे की तरह, जो चर्बी पुते मिट्टी के प्याले से बाहर निकलने में असमर्थ हो, कार को ऊपर उठाया और तट पर ले जाकर रख दिया।
वैज्ञानिक आपस में खुसर-फुसर और कानाफूसी करने लगे कि कहीं हिम-मानव ही तो उनकी मदद को नहीं आया है? लेकिन ओसमान उनकी बातचीत समझ गया और बोला -
'व्यर्थ ही आप लोग उसे यहाँ ढूँढ़ते फिर रहे हैं। हम पहाड़ी लोग हिम के नहीं, बल्कि आग के बने हुए हैं। अगर मेरे भीतर आग न होती तो आपकी कार को मैं कीचड़ में से कैसे बाहर निकाल ले जाता?'
इसके बाद उसने बड़े इतमीनान से सिगरेट लपेटी, चैन से चकमक निकाला, उससे चिनगारी पैदा करके सिगरेट जलाई और मुँह से धुएँ का बादल निकाला। तब धुएँ के साथ ओसमान की चौड़ी छाती से बादल की गड़गड़ाहट जैसा ठहाका गूँज उठा। पहाड़ों में चट्टान के टूटकर गिरने पर ऐसी आवाज होती है, पत्थरों को लुढ़काता हुआ पानी ऐसा शोर पैदा करता है, पहाड़ों को झकझोरता हुआ भूकंप ऐसी गरज उत्पन्न करता है।
इस किस्से को सुनकर अबूतालिब ने इतना और कह दिया - 'व्यर्थ के ऐसे कामों में उलझनेवाले लोगों की कारें कीचड़ में फँसे बिना नहीं रह सकतीं।'
मैं रोशनियों के त्योहार (दीवाली) के अवसर पर भारत गया था। कितनी अच्छी बात है कि लोगों के यहाँ ऐसे पर्व-त्योहार भी हैं! मुझे वहाँ जलता हुआ दीपक भेंट किया गया और मैं उसे अपने पहाड़ी क्षेत्र के प्रति दूरस्थ देश के अभिवादन के रूप में अपने साथ ले आया। रूसी तथा हमारी कई अन्य भाषाओं में हम अक्सर कहते हैं - 'दहकता अभिवादन! उनका दहकता हुआ अभिवादन करें!' शायद कभी ऐसा भी वक्त रहा हो जब अभिवादन को शब्द के रूप में अभिव्यक्त करने के बजाय अग्नि, ज्वाला या मशाल भेजी जाती हो। शांतिपूर्ण ज्वाला। भस्म करनेवाली आग और लड़ाई की ज्वाला नहीं, बल्कि चूल्हे की आग, गर्माहट और प्रकाश की आग।
हमारे यहाँ एक परंपरा है - जाड़े के पहले दिन की शाम को (कभी-कभी वसंत के पहले दिन की शाम को भी) पहाड़ी गाँवों में चट्टानों पर अभिवादन करनेवाले अलाव जलाए जाते हैं। हर गाँव एक अलाव जलाता है। ये अलाव दूर तक दिखाई देते हैं। खड्डों, खाइयों और चट्टानों के बीच से गाँव एक-दूसरे को जाड़े या वसंत के आगमन की बधाई देते हैं। अग्निरूपी अभिवादन, अग्निरूपी शुभकामनाएँ भेजते हैं! खुद मैंने भी हमारे त्सादा गाँव के ऊपर खड़ी खामीरखो चट्टान पर अनेक बार ऐसा अलाव जलाया है।
यह संयोग की बात नहीं कि दागिस्तान के पहले कारखाने को 'दागिस्तान के दीपक' नाम दिया गया था। अब अलावों के अतिरिक्त अनेक अन्य नए प्रकाश-स्रोत सामने आ गए हैं। बिजली के खंभों पर पक्षी वैसे ही साधारण ढंग से बैठते हैं, जैसे वृक्षों पर। चट्टानों के ऊपर जलती बिजली की रोशनियों से कबूतर जरा नहीं डरते हैं।
एक बार मैंने कास्पी सागर को जलते देखा। पूरे एक हफ्ते तक लहरें उसे बुझा नहीं पाई। यह इज्बेरबाश नगर के करीब की बात है। आखिर जब आग बुझने लगी और धीरे-धीरे बुझ गई तो उसने डूबते हुए जहाज की याद ताजा कर दी।
सागर की आग बुझ सकती है, मगर दागिस्तान के दिल में दहकती आग कभी नहीं बुझ सकती। क्या आदमी के दिल में दहकती आग पानी से डरती है? वह तो पानी को ढूँढ़ती है, पानी माँगती है। भीतर की आग से सूखने, फटने, दहकने और जलनेवाले होंठ क्या यह नहीं फुसफुसाते - 'पानी, पानी!'
इसका मतलब यह है कि पानी और आग के बीच चोली और दामन का साथ है।
मेरी माँ कहा करती थीं कि चूल्हा घर का दिल है और चश्मा गाँव का दिल है।
पहाड़ों को आग चाहिए और घाटियों को पानी। दागिस्तान - वहाँ तो पहाड़ भी हैं और घाटियाँ भी, उसे आग भी चाहिए और पानी भी।
अगर कोई आदमी सफर के लिए रवाना होते वक्त या लौटते समय गाँव के छोर पर एक दर्पण की तरह चश्मे में झाँक लेता है तो इसका अर्थ होता है कि इस व्यक्ति के हृदय में प्यार है, आग है। पहाड़ी लोग ऐसा मानते हैं।
किंतु क्या सारा दागिस्तान ही कास्पी सागर के उजले दर्पण में अपने आपको नहीं देखता है? क्या वह अभी-अभी पानी में से बाहर आनेवाले सुघड़-सुडौल और उत्साही तरुण जैसा नहीं है?
मेरा दागिस्तान कास्पी सागर के ऊपर ऐसे झुका हुआ है जैसे पहाड़ी आदमी चश्मे के ऊपर। वह अपनी पोशाक ठीक-ठाक करता है, मूँछों पर ताव देता है।
पहाड़ी लोग एक बद्दुआ यह देते हैं - 'जो आदमी चश्मे को गंदा करता है, उसका घोड़ा मर जाए।' एक अन्य शाप यह है - 'तुम्हारे घर के आस-पास सारे चश्मे सूख जाएँ।' प्रशंसा करते हुए पहाड़िए कहते हैं, - 'शायद इस गाँव के वासी अच्छे हैं - यहाँ चश्मा और कब्रिस्तान अच्छी हालत में हैं, साफ-सुथरे हैं।'
हमारे यहाँ वीरगति को प्राप्त हुए लोगों के सम्मान में अनेक चश्मे और कुएँ खोदे गए हैं, उन्हें तो उनके नाम भी दिए गए हैं - अली का चश्मा, ओमार का चश्मा, हाजी-मुरात का कुआँ, महमूद का चश्मा।
युवतियाँ जब कंधों पर घड़े रखकर चश्मों की ओर जाती हैं तो युवक भी उन्हें देखने और अपने लिए दुलहन चुनने की खातिर यहाँ आते हैं। न जाने कितनी प्रेम-भावनाएँ जागी हैं इन चश्मों के पास, न जाने कितने भावी परिवारों के प्रणय और संबंध-सूत्र यहाँ बने हैं।
नहीं तुम्हें मालूम कि किसके बारे में यह गीत रचा?
चश्मे पर आकर खुद देखो, कौन गीत में छिपा हुआ।
हमारे शायर महमूद ने ऐसा लिखा है।
एक बार पर्वत की ओर जाते हुए मैं गोत्सात्ल गाँव के चश्मे के करीब रुका। मैंने क्या देखा कि एक राहगीर चश्मे पर झुका हुआ चुल्लू भर-भरकर निर्मल जल पी रहा है और कहता जा रहा है -
'ओह, मजा आ गया!'
'मग ले लीजिए,' मैंने प्रस्ताव किया।
'मैं दस्ताने पहनकर खाना नहीं खाता हूँ,' राहगीर ने जवाब दिया।
पिता जी को यह कहना अच्छा लगता था - बारिश तथा नदी के शोर से अधिक मधुर और कोई संगीत नहीं होता। बहते पानी की कल-छल सुनते और उसे देखते हुए कभी मन नहीं भरता।
वसंत में जब पहाड़ों में बर्फ पिघलने लगती थी तो मेरी अम्माँ घाटी में तेजी से बहती आनेवाली जल-धाराओं को घंटों तक देखती रह सकती थीं। वह तो जाड़े में ही लकड़ी के पीपे तैयार करने लगती थीं, ताकि गर्मियों में उन्हें परनालों के नीचे रखकर बारिश का पानी जमा कर सकें।
मेरा सबसे प्यारा शौक तो बारिश के पानी से भरे डबरों में नंगे पाँव छपछप करते फिरना था। बारिश से जरा भी डरे बिना हम जल-धाराओं को रोकनेवाले बाँध खड़े करते थे और इस तरह छोटे-छोटे ताल बनाते थे।
मैं कल्पना कर सकता हूँ कि परिंदे जब पथरीले प्यालों से बारिश का पानी पीते हैं तो उन्हें कैसा आनंद प्राप्त होता होगा!
शामिल अपने सूरमाओं से कहा करता था - 'कोई बात नहीं कि दुश्मन ने हमारे सारे गाँव, हमारे सारे खेतों पर कब्जा कर लिया। लेकिन चश्मा तो अभी हमारे पास है, हम जीतेंगे।'
दुश्मनों का हमला होने पर कठोर इमाम शामिल सबसे पहले तो गाँव के चश्मे की रखवाली करने का हुक्म देता था। जब खुद दुश्मनों पर हमला करता था तो सबसे पहले गाँव के चश्मे पर कब्जा करने का आदेश देता था।
पुराने वक्तों में अगर कोई आदमी अपने जानी दुश्मन को नदी में नहाते देखता था तो उसके पानी से बाहर आ जाने और अपने हथियार बाँध लेने से पहले वह कभी उस पर वार नहीं करता था।
किंतु अक्सर ही मुझे एक अत्यधिक शांतिपूर्ण प्रथा की याद आती है और वह भी पानी से ही संबंध रखती है। इसे 'नन्हा बारिशी गधा' कहा जाता था।
'दागिस्तानी घाटी की जलती दोपहरी में'(लेर्मोंतोव की एक कविता की पहली पंक्ति) - यह यों ही नहीं लिखा गया है। दुपहर की गर्मी हमारे यहाँ बड़ी भयानक और सब कुछ सुखा देनेवाली होती है। गर्मी से धरती फट जाती है, चट्टानों से धधकती हुई भट्ठी की तरह गर्म हवा के लहरे आते हैं। वृक्षों की शाखाएँ झुक जाती हैं, खेत सूख जाते हैं, सभी कुछ - पेड़-पौधे, पक्षी, भेड़ें और निश्चय ही लोग भी आसमान के पानी यानी बारिश के लिए तरसते हैं। उस समय गाँव के किसी छोकरे को पकड़कर धूप में मुरझाई तरह-तरह की घासों की पोशाक पहनाकर रेड इंडियन-सा बना देते हैं। यही है 'नन्हा बारिशी गधा'। उस बालक के समान दूसरे बालक उसे रस्सी बाँधकर गाँव में घुमाते हैं और यह भजन या प्रार्थना-गीत गाते हैं -
'अल्ला, अल्ला, जल्दी से बारिश भेजो
आसमान से धरती तक पानी कर दो!
परनालों में बारिश, जल का शोर मचे
पानी बरसाओ, हर कोई यही कहे।
बादल और घटाओ, नभ में छा जाओ
पानी की नदियाँ बन धरती पर आओ!
प्यारी, प्यारी सारी धरती धुल जाए
खेतों में फिर से हरियाली छा जाए!'
गाँव के बालिग लोग बाहर गली में आ जाते हैं, 'नन्हे बारिशी गधे' पर घड़े या चिलमची से पानी डालते हैं और बच्चों के उक्त गीत को दोहराते हुए 'आमीन! आमीन!' कहते हैं।
एक बार मैं भी 'नन्हा बारिशी गधा' बना। मुझ पर इतना पानी उड़ेला गया जो सचमुच आधी बारिश के लिए काफी होता।
किंतु अल्ला या आसमान हमारे ऐसे गानों को बहुत कम ही सुनते थे। सूरज आग बरसाता रहता था। वह मारे दागिस्तान पर मानो गर्म इस्तरी फेरता रहता था। वह दुख-कष्ट देता था। हम उसे दुखदायी सूरज ही कहते थे। सैकड़ों, हजारों सालों तक धरती दुखदायी सूरज की आग के नीचे झुलसती रही। अगर यूरोप को ध्यान में रखा जाए तो सबसे ज्यादा धूपवाले दिन दागिस्तान के गुनीब गाँव के ही हिस्से आते हैं। मेरा त्सादा गाँव भी उससे कुछ पीछे नहीं है। बाकी गाँवों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। व्यर्थ ही तो इन्हें 'पानी के प्यासे' नहीं कहा जाता।
मुझे अम्माँ का थका हुआ चेहरा याद आता है, जब वह पानी से भरा घड़ा पीठ पर लादे और गागर हाथ में लिये हुए लौटती थीं। पानी हमारे गाँव से तीन किलोमीटर दूर था।
मुझे अम्माँ का खुशी से खिला हुआ चेहरा याद आता है, जब बारिश होती थी, धरती भीग जाती थी और परनालों के नीचे रखे पीपों में पानी गिरता था, वे पानी से भर जाते थे और उनके किनारों से पानी छलककर नीचे गिरने लगता था।
मुझे याद आती है अपने गाँव की बूढ़ी, झुकी पीठवाली हबीबात की। हर सुबह को कंधे पर फावड़ा रखकर वह गाँव की सीमा से परे जाती और जहाँ-तहाँ जमीन खोदने लगती। उसके दिमाग में पानी ढूँढ़ने की सनक थी और वह लगातार उसे खोजती रहती थी।
सभी यह जानते थे कि वह व्यर्थ ही कोशिश करती है, लेकिन कोई भी उससे कभी कुछ नहीं कहता था। सिर्फ मैंने, नादान छोकरे ने ही एक बार उससे कहा -
'मौसी हबीबात, आप बेकार ही मेहनत करती रहती हैं, यहाँ पानी नहीं है।'
इस बात को लेकर मेरे पिता जी मुझ पर बहुत बिगड़ उठे।
'लेकिन वहाँ तो पानी है ही नहीं।'
'ऐसा भी होता है कि लोगों के पास रोटी नहीं होती। लेकिन क्या उन पर हँसा जाए? मेरे बेटे, इस बात को याद कर लो कि गरीबी और उन लोगों की कभी खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए जो पानी खोजते हैं।'
'किंतु आपने तो स्वयं ही इस बारे में एक विनोदपूर्ण कविता रखी थी कि कैसे इन्क्वाचूलीनियों ने इस उद्देश्य से पुल को लंबा करने की कोशिश की थी कि उन्हें ज्यादा पानी मिल सके।'
'इस मजाक में तो आँसू मिले हुए हैं। जवान लोग इसे नहीं समझ सकते। तुम अभी यह नहीं जानते कि दागिस्तान के लिए पानी का क्या महत्व है। तुम सोचो कि मौसी हबीबात के मन में कितनी तीव्र इच्छा होगी कि वह उस जगह पानी ढूँढ़ रही है जहाँ वह नहीं है। लेकिन खैर, अब यही अच्छा होगा कि तुम चुप रहो - बारिश आ रही है।'
इस समय वास्तव में ही हल्की-हल्की, सरसराती फुहार पड़ने लगी थी।
- किसलिए खामोश हो तुम भोर से ही पक्षियो?
- हो रही बारिश, उसे हम सुन रहे!
- किसलिए खामोश हो तुम शायरो, कवियो सभी?
- हो रही बारिश, उसे हम सुन रहे!
पिता जी हमेशा यह कहा करते थे कि उनके जीवन में सबसे अधिक खुशी का दिन वह था, जब दूरस्थ पर्वत से पाइपों में बहता पानी उनके गाँव में आया। इसके पहले पिता जी हर दिन कुदाल लेकर अन्य सभी लोगों के साथ पानी का नल बनाने के लिए काम करते रहते थे। हमारे गाँव में पानी आने का यह दिन मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है। जब पानी बहने लगा तो पिता जी ने उसमें फूल तक डालने से मना कर दिया।
गाँववालों ने सौ वर्षीया एक बुढ़िया को पानी का पहला घड़ा भरने के लिए चुना। बुढ़िया ने घड़ा भर लिया और उसमें से पानी का पहला मग भरकर वह उसे मेरे पिता जी के पास ले गई।
तमगों और पदकों से सम्मानित पिता जी ने कहा कि इतना कीमती पुरस्कार उनहें पहले कभी नहीं मिला था। उसी दिन उन्होंने पानी के बारे में एक कविता रची। इस कविता में उन्होंने पक्षियों को संबोधित करते हुए कहा कि वे अब अपनी डींग नहीं हाँकें, कि उनकी तुलना में अब हम भी कुछ बुरा पानी नहीं पीते हैं। उन्होंने कहा कि किसी शादी और किसी भी जश्न के मौके पर उन्होंने पानी की कल-कल से ज्यादा मधुर और प्यारा संगीत नहीं सुना। उन्होंने विश्वास दिलाया कि कदम-कदम चलनेवाला कोई घोड़ा या कोई जवान घोड़ी अब पानी लाने के लिए जानेवाली औरत की चाल से मुकाबला नहीं कर सकती। उन्होंने कुदाल और फावड़े तथा नल को धन्यवाद दिया। उन्होंने उस समय की याद दिलाई, जब पानी जमा करने के लिए चूल्हों के करीब बर्फ पिघलाई जाती थी। तब हर दिन पानी से भरे भारी घड़े लाने के कारण हमारी पहाड़ी औरतों की वक्त से पहले ही कमर झुक जाती थी। हाँ, पिता जी के लिए यह महान दिन था!
मुझे मखाचकला में जुलाई की भयानक गर्मी भी याद आ रही है। पिता जी सख्त बीमार थे, डाक्टरों और दवाइयों से घिरे रहते थे। वह बोले - 'मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। दसियों चिमटियाँ और संडसियाँ मेरे बदन को विभिन्न दिशाओं में खींच रही हैं।'
वह यह मानते हुए कि दवाइयाँ पीने के मामले में बहुत देर हो चुकी है और उनसे कोई फायदा नहीं होगा, अब उन्हें नहीं पीते थे। वह तो तकिया ठीक करने में भी कोई तुक न देखते हुए उसे भी ठीक नहीं करने देते थे। जब उनकी तबीयत बहुत ही ज्यादा खराब हो गई तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा -
'एक ऐसी दवाई है जिसे पीने से मेरी तबीयत बेहतर हो जाएगी।'
'कौन-सी?'
'बुत्सराब खड्ड में एक छोटा-सा कुआँ है... एक चश्मा है... मैंने ही उसे ढूँढ़ा था... वहाँ से एक घूँट पानी मँगवा दो...'
अगले दिन एक पहाड़ी औरत उस चश्मे से पानी ले आई। पिजा जी ने आँखें मूँदकर उसे छककर पिया।
'शुक्रिया, मेरे डाक्टर।'
हमने उनसे यह नहीं पूछा कि उन्होंने किसे डाक्टर कहा था - पानी को, पानी लानेवाली पहाड़ी औरत को, दूर खड्ड के चश्मे या उस चश्मे को जन्म देनेवाली अपनी सारी मातृभूमि को।
अम्माँ मुझसे कहा करती थीं - हर किसी का वांछित स्रोत होना चाहिए। वह यह भी कहा करती थीं कि अगर खेत के करीब ठंडे पानी का चश्मा बहता हो तो फसल काटनेवाली औरत कभी नहीं थकेगी।
एक किस्सा आज तक सुनने को मिलता है कि जवानी के दिनों में ही शामिल और उसके उस्ताद काजी - मुहम्मद गीमरी खड्ड की एक बुर्जी में दुश्मनों से घिर गए थे। शामिल दुश्मनों की संगीनों के बीच बुर्जी से नीचे कूद गया और उसने खंजर चलाते हुए अपने निकल जाने का रास्ता बना लिया। तब उसके बदन पर उन्नीस घाव हुए थे, फिर भी वह बच निकला था, पहाड़ों में भाग गया था। पहाड़ी लोगों का ख्याल था कि वह मर गया। जब वह गाँव में लौटा तो उसकी माँ ने, जो मातमी पोशाक पहन चुकी थी, हैरान और खुश होते हुए पूछा -
'शामिल, मेरे बेटे, तुम जिंदा कैसे बच गए?'
'ऊपर पहाड़ों में मुझे एक चश्मा मिला था,' शामिल ने जवाब दिया।
और जब पहाड़ी लोगों ने यह सुना कि उनका इमाम, उनका बूढ़ा शामिल अरबी रेगिस्तान में ऊँट से गिरकर मर गया तो अपने गाँवों में घरों की दहलीजों पर बैठे हुए उन्होंने कहा -
'अफसोस, पास में कोई दागिस्तानी चश्मा नहीं था।'
नूहा में मैं हाजी-मुरात की कब्र पर हो आया हूँ, मैंने कब्र पर लगे पत्थर और उस पर लिखे हुए ये शब्द भी पढ़े हैं - 'यहाँ दागिस्तान का शेर बबर दफन है।' मैंने इस शेर बबर का कटा हुआ सिर भी देखा है।
'अरे सिर, तुम बदन से अलग कैसे हो गए?'
'दागिस्तान, अपनी मातृभूमि, अपने चश्मे का रास्ता भूल गया था, भटक गया था।'
मेरा गाँव पहाड़ के दामन में बसा हुआ है। उसके सामने समतल पठार है, जहाँ काफी दूरी पर खूँजह दुर्ग नजर आता है। दुर्ग के सभी ओर खासी दूरी पर बसे गाँव उसे घेरे हुए हैं। सभी दिशाओं में दुर्ग से गोलियाँ चलाने के लिए उसमें बनाए गए छेद नजर आते हैं - दुर्ग धमकाता-डराता, आगे बढ़ने से रोकता और सब कुछ देखता प्रतीत होता है। दुर्ग के छेदों में से चैन न जानने और किसी के सामने न झुकनेवाले पहाड़ी लोगों पर अक्सर गोलियाँ चली हैं। मेरे त्सादा गाँव के कबूतर इस दुर्ग की गोलियों की आवाज के कारण बहुत बार डरकर उड़े हैं और गाँव के ऊपर चक्कर काटते रहे हैं। 'किसकी सबसे खतरनाक नजर और ऊँची आवाज है?' पहाड़ी लोग पूछा करते थे। 'खूँजह दुर्ग की।'
किंतु मेरे जमाने में खूँजह दुर्ग की रौद्रता केवल किस्से-कहानियों में रह गई है। गोलियाँ चलाने के लिए बनाए गए उसके छेदों में से हम स्कूल के छात्र एक-दूसरे पर सेबों के टुकड़े या बर्फ के गोले फेंका करते थे अथवा बिगुल बजाया करते थे और ऐसा करते हुए हम भी इर्द-गिर्द की चट्टानों से कबूतरों को उड़ने के लिए विवश कर दिया करते थे। हाँ, खूँजह दुर्ग को स्कूल बना दिया गया था जहाँ मैंने सात साल तक तालीम हासिल की।
अब मैं कहीं भी क्यों न जाऊँ, किसी भी जगह पर क्यों न होऊँ, सिंफोनी की जोरदार गूँज और नाच की धुनों में मुझे अपने बचपन का मधुर संगीत सुनाई देता है, स्कूल की घंटी की प्यारी टनटन सुनाई देती है, खास तौर पर उस घंटी की सुखद आवाज जो पाठों की समाप्ति की सूचना देती थी। मैं अब भी उसे सुन रहा हूँ और वह मुझे दालान या गली की ओर नहीं, बल्कि, इसके विपरीत, स्कूल की ओर, कक्षा और छात्रावास की ओर बुलाती है।
हमारी कक्षा में हम तीस छात्र थे। महीने में एक बार हममें से हर किसी को पढ़ाई से मुक्त कर दिया जाता था और उसे पानी लाने का काम करना पड़ता था। सजा के रूप में दो दिन तक भी यह ड्यूटी बजारी पड़ सकती थी। वैसे मैं तो किसी अपराध के दंड के बिना भी हमेशा लगातार दो दिन तक पानी लाता था। वह इसलिए कि मेरा एवजी अब्दुलगफूर युसूपोव उसकी बारी आने पर हमेशा ही बीमार हो जाता था। मुझे याद आ रहा है कि हमेशा हर महीने की सातवीं-आठवीं तारीखों को ही मेरी बारी आती थी।
पानी का चश्मा दुर्ग से बाहर था। वहाँ जाना तो आसान होता था - सबसे पहले तो इसलिए कि बाल्टी खाली होती थी, दूसरे इसलिए कि पगडंडी सीधी नीचे जाती थी। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि लौटते वक्त सब कुछ बेहद बदल जाता था। इसके अलावा एक तंग-सी गली में एल्युमीनियम के मग हाथों में लिए छात्रों की भीड़ मेरा इंतजार करती होती थी। वे पानी पीना चाहते थे। वे मेरी बाल्टी पर टूट पड़ते थे, आधा पानी पी जाते थे, आधा छलका देते थे - उनसे बचना आसान नहीं होता था। लेकिन मेरे लिए स्कूल तक पानी पहुँचाना जरूरी होता था।
इस चश्मे के बारे में बहुत से किस्से-कहानियाँ हैं। उनमें से एक हिस्सा मैं यहाँ उस रूप में दे रहा हूँ जिस रूप में मेरे पिता जी ने सुनाया था।
इस दुर्ग की दीवारें गोलियों के निशानों से छलनी हुई पड़ी हैं। इसकी बुर्जियों पर कई बार झंडे बदले हैं। गृहयुद्ध के दिनों में इस दुर्ग पर रह-रहकर कब्जा बदलता रहा था - कभी सफेद गार्ड तो कभी लाल सैनिक इस पर अधिकार कर लेते थे। छापेमारों ने छह महीनों तक इस दुर्ग की शत्रुओं से रक्षा की। किंतु हर दिन दो घंटों के लिए गोलाबारी बंद कर दी जाती थी। इन दो घंटों के दौरान दुर्ग-रक्षकों की पत्नियाँ पानी लाने के लिए दुर्ग से बाहर जाती थीं। एक दिन कर्नल अलीखानोव ने कर्नल जफारोव से कहा -
'आओ, हम औरतों को चश्मे पर जाने से रोक दें। अतायेव के दस्ते को प्यास से मरने दिया जाए।'
कर्नल जफारोव ने जवाब दिया -
'अगर हम पानी लाने के लिए जानेवाली औरतों पर गोलियाँ चलाएँगे तो सारा दागिस्तान हमसे मुँह फेर लेगा।'
तो इस तरह जब तक औरतें चश्मे से पानी लेकर वापस नहीं चली जाती थीं, दोनों पक्ष किसी समझौते के बिना शांति बनाए रहते थे।
जब मेरी अम्माँ को, जो उस वक्त बीमार थीं, यह बताया गया कि उनके बेटे को लेनिन पुरस्कार दिया गया है तो उन्होंने आह भरी और बोलीं - 'अच्छी खबर है। किंतु मुझे यह सुनकर ज्यादा खुशी होती कि मेरे बेटे ने किसी गरीब आदमी या यतीम की मदद की है। मैं तो यही चाहती हूँ कि वह पानी के लिए तरस रहे किसी गाँव में पानी पहुँचाने की खातिर यह रकम दे दे। लोग उसकी तारीफ करेंगे। उसके पिता जी को जब पुरस्कार मिला था तो उन्होंने उसकी सारी रकम नए चश्मों की तलाश के लिए दे दी थी। जहाँ चश्मा है, वहाँ पगडंडी है, जहाँ पगडंडी है, वहाँ रास्ता है। और रास्ते की सभी लोगों को, हर किसी को जरूरत है। रास्ते के बिना आदमी अपना घर नहीं ढूँढ़ पाएगा, किसी खड्ड-खाईं में लुढ़क जाएगा।'
मेरे पिता जी हमेशा दोहराया करते थे कि मेरा उस साल में जन्म हुआ था, जब दागिस्तान में पहली नहर खोदी गई थी। उसे सुलाक से मखाचकला तक बनाया गया था। 'पानी नहीं, जिंदगी नहीं' - प्लाईवुड की तख्ती पर लिखा हुआ यह नारा नहर खोदनेवाले अपने साथ लेकर आए थे।
पानी! लीजिए, अब चट्टानों से पानी बहता है मानो किसी का शक्तिशाली हाथ उन्हें निचोड़ रहा हो। लीजिए, जल-धाराएँ बड़ी तेजी से पर्वत से नीचे बहती हैं, पत्थरों के बीच से छलाँगें लगाती हैं, चट्टानों से नीचे कूदती हैं, जख्मी दरिंदे की तरह दर्रों में गरजती-दहाड़ती हैं और हरी-भरी घाटियों में मेमने की तरह उछलती-कूदती हैं।
मेरे दागिस्तान के गिर्द चार रुपहली पेटियाँ बँधी हुई हैं, चार कोइसू नदियाँ उसके गिर्द बहती हैं। सुलाक और सामूर नगर सगी बहनों की तरह उनका स्वागत करते हैं। इसके बाद ये सभी - दागिस्तान की नदियाँ - सागर की गोद में चली जाती हैं।
आग और पानी - जनगण का भाग्य हैं, आग और पानी - दागिस्तान के माता-पिता हैं, आग और पानी - वे खुरजियाँ हैं जिनमें हमारी सारी दौलत जमा है।
हमारे दागिस्तान में बुजु्र्ग और एकाकी लोगों के पास युवक-युवतियाँ आते हैं, ताकि घर-गिरस्ती के काम-काज में उनकी कुछ मदद कर दें। सबसे पहले वे क्या करते हैं? आग जलाने के लिए लकड़ी चीरते हैं और घड़ों में पानी लाते हैं। काले कौवे न जाने यह कैसे अनुभव कर लेते हैं कि किस पहाड़ी घर में आग बुझ गई है। वे फौरन उड़कर वहाँ जा बैठते हैं और काँय-काँय करने लगते हैं।
आग और पानी - ये दो हस्ताक्षर, दो प्रतीक हैं जो दागिस्तान की रचना के समझौते के नीचे अंकित हैं।
दागिस्तान की आधी लोक-कथाएँ उस दिलेर नौजवान के बारे में हैं जो अजगर की हत्या करके आग लाता है ताकि गाँव में गर्माहट और रोशनी हो।
दागिस्तान की लोक-कथाओं का दूसरा भाग - उस समझदार लड़की के संबंध में है जो चालाकी से अजगर को सुलाकर पानी लाती है ताकि गाँव के लोग जी भरकर पानी पी सकें और खेत सींचे जा सकें।
साहसी नौजवान और समझदार युवती द्वारा मारा गया अजगर पर्वत और कत्थई रंग के पर्वत-श्रृंगों में बदल गया।
दाग का अर्थ है पर्वत और स्तान का अर्थ है देश। दागिस्तान का मतलब है पर्वत का देश, पर्वत-देश, पहाड़ी मुल्क, गर्वीला देश - दागिस्तान।
हिज्जे जोड़-जोड़कर जैसे
पढ़ता है बालक,
उसी तरह से मैं दोहराऊँ
कभी न कहता थक पाऊँ -
दागिस्तान, दागिस्तान!
कौन और क्या? दागिस्तान।
किसके बारे में मैं गाऊँ, केवल उसके बारे में।
और सुनाऊँ यह मैं किसको? उसको, दागिस्तान को।
हमारे छोटे-से जनगण को इस हेतु कि उसके पास हमेशा आग और पानी हो, अनेक अजगरों को जीतना पड़ा। नदियाँ अब प्रकाश देती हैं, पानी आग का रूप लेता है। अनादिकाल के ये दो प्रतीक अब एक में बदल गए हैं।
चूल्हा और चश्मा - पहाड़ी लोगों के लिए ये दो शब्द सबसे प्यारे हैं। दिलेर आदमी के बारे में कहा जाता है - 'वह आदमी नहीं, आग है।' गुणहीन, नालायक आदमी के बारे में कहा जाता है - 'बुझा हुआ दीपक है।' बुरे आदमी के संबंध में कहा जाता है - 'वह उनमें से है जो चश्मे या स्रोत में थूक सकते हैं।'
मदिरा से भरा हुआ जाम हाथ में लेकर हम भी यही कहेंगे -
चूल्हा, चश्मा - दो अनादि आधारों का
जो गुणगान करें, हो उनकी कीर्ति अमर
अधिक बढ़े यश उनका, चैली एक जला दें जो केवल
और फावड़ा खोद सके जिनका निर्झर।
एक बुजुर्ग पहाड़ी आदमी ने जवान पहाड़िये से पूछा -
'तुमने अपनी जिंदगी में आग देखी है, कभी उसमें से गुजरे हो?'
'मैं उसमें ऐसे कूदा था जैसे पानी में।'
'बर्फ जैसे ठंडे पानी से कभी तुम्हारा वास्ता पड़ा है, कभी उसमें कूदे हो?'
'जैसे आग में।'
'तब तुम बालिग हो चुके पहाड़ी आदमी हो। अपने घोड़े पर जीन कसो, मैं तुम्हें पहाड़ों में ले चलता हूँ।'
दो पहाड़ी आदमियों के बीच झगड़ा हो जाने पर एक ने दूसरे से कहा -
'क्या मेरे घर की छत के ऊपर तुम्हारे घर की छत की तुलना में कम घना धुआँ है? क्या मैं कभी किसी से पानी माँगने गया हूँ? अगर तुम ऐसा समझते हो तो आओ, उस पहाड़ी के पीछे चलें और मामला तय कर लें।'
दरवाजों पर मैंने यह लिखा देखा है - 'चूल्हे में आग जल रही है, मेहमान भीतर आने की मेहरबानी करें।' बड़े अफसोस की बात है कि दागिस्तान में ऐसे फाटक नहीं हैं जिन पर ये शब्द लिखे जा सकें - 'चूल्हे में आग जल रही है, मेहमान भीतर आने की मेहरबानी करें।'
आग तो सचमुच जल रही है। केवल कहने के लिए, सुंदर शब्दाडंबर के रूप में ही आपको आने की दावत नहीं दी जा रही है - शरमाइए नहीं, भीतर आइए, चूल्हे में आग जल रही है और चश्मों में निर्मल जल है, स्वागत है आपका!
घर : मेरा दाग़िस्तान
अवार भाषा के 'रीग' शब्द के दो भिन्न अर्थ हैं - 'उम्र' और 'घर'। मेरे लिए ये दोनों अर्थ एक में ही घुल-मिल जाते हैं। उम्र - घर। उम्र हो गई तो अपना घर भी होना चाहिए। अगर अवार भाषा की इस कहावत का उच्चारण किया जाए (हमारे यहाँ एक ऐसी कहावत है) तो ऐसा शब्द-खिलवाड़ सामने आता है जिसका अनुवाद संभव नहीं - 'रीग - रीग', उम्र - घर।
तो ऐसा माना जा सकता है कि दागिस्तान बहुत पहले ही बालिग हो चुका है और इसलिए इस दुनिया में उसका यथोचित और ठोस स्थान है।
मैं अक्सर अम्माँ से पूछा करता था -
'दागिस्तान कहाँ है?'
'तुम्हारे पालने में,' मेरी समझदार अम्माँ जवाब देतीं।
'तुम्हारा दागिस्तान कहाँ है?' आंदी गाँव के एक व्यक्ति से किसी ने पूछा।
उसने चकराते हुए अपने इर्द-गिर्द देखा।
यह टीला - दागिस्तान है, यह घास - दागिस्तान है, यह नदी - दागिस्तान है, पर्वत पर पड़ी हुई बर्फ - दागिस्तान है, सिर के ऊपर बादल, क्या यह दागिस्तान नहीं है? तब सिर के ऊपर सूरज भी क्या दागिस्तान नहीं है?
'मेरा दागिस्तान हर जगह है!' आंदी गाँव के वासी ने उत्तर दिया।
गृह-युद्ध के बाद, 1921 में हमारे गाँव तबाहहाल थे, लोग भूखे रहते थे और नहीं जानते थे कि आगे क्या होगा। उसी वक्त तो पहाड़ी लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल लेनिन से मिलने गया। लेनिन के कमरे में जाकर दागिस्तान के ये प्रतिनिधि कुछ भी कहे बिना दुनिया का एक बहुत बड़ा नक्शा खोलने लगे।
'यह नक्शा आप किसलिए लाए हैं?' लेनिन ने हैरान होते हुए पूछा।
'आपको अनेक जनगण की बहुत-सी चिंताएँ हैं, आप यह याद नहीं रख सकते कि कौन लोग कहाँ रहते हैं। इसलिए हम आपको यह दिखाना चाहते हैं कि दागिस्तान कहाँ पर है।'
लेकिन हमारे पहाड़ी लोग चाहे कितना ही क्यों न खोजते रहे, अपने क्षेत्र को ढूँढ़ नहीं पाए, बड़े नक्शे के गड़बड़-झाले में फँस गए, अपने छोटे से देश को खो बैठे। तब लेनिन ने किसी तरह की खोज-तलाश किए बिना फौरन ही पहाड़ी लोगों को वह दिखा दिया जो वह ढूँढ़ रहे थे।
'यही तो है आपका दागिस्तान,' और वह चहकते हुए हँस पड़े।
'इसे कहते हैं दिमाग,' हमारे पहाड़ियों ने सोचा और लेनिन को बताया कि उनके पास आने के पहले वे जन-कमिसार के यहाँ गए थे और वह लगातार उनसे यही बताने को कहता रहा था कि दागिस्तान कहाँ है। जन-कमिसार के सहकर्मी तरह-तरह के अनुमान-अटकलें लगाते रहे थे। एक ने कहा कि वह कहीं जार्जिया में है, दूसरे ने कहा कि तुर्किस्तान में। एक सहकर्मी ने तो यह दावा भी किया कि वह दागिस्तान में ही बसमाचियों से लोहा लेता रहा है।
लेनिन तो और भी ज्यादा जोर से हँस पड़े -
'कहाँ, कहाँ, तुर्किस्तान में? बहुत खूब। यह तो कमाल ही हो गया।'
लेनिन ने उसी वक्त टेलीफोन का रिसीवर हाथ में लिया और उस जन-कमिसार को यह स्पष्ट किया कि तुर्किस्तान कहाँ है, दागिस्तान कहाँ है, बसमाची और म्युरीद कहाँ हैं।
क्रेमलिन में लेनिन के कमरे में अभी तक काकेशिया का बहुत बड़ा नक्शा लटका हुआ है।
अब दागिस्तान - एक जनतंत्र है। वह छोटा है या बड़ा, इस चीज का कोई महत्व नहीं। वह वैसा ही है, जैसा होना चाहिए। हमारे सोवियत देश में तो शायद अब कोई यह नहीं कहेगा कि दागिस्तान तुर्किस्तान में है, लेकिन दूर-दराज के किसी देश में तो मुझे स्पष्टीकरण देनेवाली इस तरह की बातचीत अवश्य करनी पड़ती है -
'आप कहाँ से हमारे यहाँ आए हैं?'
'दागिस्तान से।'
'दागिस्तान... दागिस्तान... यह कहाँ है?'
'काकेशिया में।'
'पूरब में या पश्चिम में?'
'कास्पी सागर के तट पर।'
'अच्छा, बाकू?'
'अजी बाकू नहीं। कुछ उत्तर की तरफ।'
'आपकी सीमाएँ किससे मिलती हैं?'
'रूस, जार्जिया और आजरबाइजान से...'
'लेकिन क्या वहाँ पर चेर्केस नहीं रहते? हमने तो सोचा था कि वहाँ चेर्केस रहते हैं।'
'चेर्केस तो चेर्केसिया में रहते हैं और दागिस्तान में दागिस्तानी रहते हैं। तोलस्तोय... हाजी-मुरात... तोलस्तोय की यह रचना पढ़ी है? बेस्तूजेव-मारलीन्स्की ...या फिर लेर्मोंतोव : 'दागिस्तानी घाटी की जलती दोपहरी में' पढ़ी है?'
'क्या यह वहीं है जहाँ एलब्रूस है?'
'एलब्रूस तो काबारदीनो-बल्कारिया में है, कज्बेक - जार्जिया में और हमारे यहाँ ...गुनीब गाँव है, त्सादा गाँव है।'
दूर-दराज के किसी देश में मुझे कभी-कभी यह सब कहना पड़ता है। यह तो सभी जानते हैं कि पुत्र-वधू को इशारे से कोई बात समझाने के लिए बिल्ली को डाँटा-डपटा जाता है। शायद हमारे देश में भी कोई ऐसा छिछला आदमी मिल जाए जो अभी तक ऐसा सोचता है कि दागिस्तान में चेर्केस रहते हैं या शायद ऐसा कहना और ज्यादा सही होगा कि वह कुछ भी न सोचता हो।
मुझे बहुत दूर के देशों में जाने का मौका मिला है, मैंने विभिन्न सम्मेलनों, कांग्रेसों और परिगोष्ठियों में भाग लिया है।
विभिन्न महाद्वीपों - एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका और आस्ट्रेलिया से लोग जमा होते हैं। वहाँ, जहाँ सभी चीजों की महाद्वीपों के स्तर पर चर्चा की जाती है, मैं तो वहाँ भी यही कहता हूँ कि मैं दागिस्तान से आया हूँ।
'आप एशिया या यूरोप के प्रतिनिधि हैं, यह स्पष्ट करने की कृपा कीजिए,' मुझसे अनुरोध किया जाता है। 'आपका दागिस्तान किस महाद्वीप में है?'
'मेरा एक पाँव एशिया में है और दूसरा यूरोप में। कभी-कभी ऐसा होता है कि दो मर्द एक साथ घोड़े की गर्दन पर अपने हाथ रख देते हैं - एक मर्द एक तरफ से और दूसरा दूसरी तरफ से। ठीक इसी तरह से दागिस्तान के पहाड़ों की चोटी पर दो महाद्वीपों ने एक साथ अपने हाथ रख दिए हैं। मेरी धरती पर उनके हाथ मिल गए हैं और मुझे इस बात की बड़ी खुशी है।'
परिंदे और नदियाँ, पहाड़ी बकरे और लोमड़ियाँ तथा बाकी सब जानवर भी एक साथ यूरोप और एशिया के हैं। मुझे ऐसा लगता है कि उन्होंने यूरोप और एशिया की एकता की समिति बनाई है। अपनी कविताओं के साथ मैं बड़ी खुशी से ऐसी समिति का सदस्य बनने को तैयार हूँ।
फिर भी कुछ लोग मानो मेरा मुँह चिढ़ाते हुए जान-बूझकर ही मुझसे यह कहते हैं - 'तुमसे कोई कहे भी तो क्या - तुम एशियाई ठहरे।' या इसके विपरीत, एशिया के किसी दूरस्थ स्थान पर मुझसे ऐसा कहा जाता है - 'तुमसे कोई दूसरी उम्मीद ही क्या की जा सकती है - तुम यूरोपीय आदमी जो हो।' मैं न तो पहले और न दूसरे लोगों की बात का खंडन करता हूँ। दोनों ही सही हैं।
जब कभी मैं किसी औरत के प्रति अपनी प्रेम-भावना प्रकट करने लगता हूँ तो वह संदेहपूर्वक अपना सिर हिलाकर कहती है -
'ओह, यह चालाकी और मक्कारी से भरा पूरब!'
जब कभी मेरे यहाँ दागिस्तानी मेहमान आते हैं, मेरी गतिविधि में उन्हें कोई अजीब बात दिखाई देती है तो वे अपने सिर हिलाते हैं और कह उठते हैं -
'ओह, ये यूरोपीय अंदाज!'
हाँ, दागिस्तान पूरब को प्यार करता है, मगर पश्चिम भी उसके लिए पराया नहीं है। वह तो उस पेड़ की तरह है जिसकी जड़ें एक साथ दो महाद्वीपों की धरती में हैं।
क्यूबा में मैंने फिडेल कास्त्रो को दागिस्तानी लबादा भेंट किया।
'इसमें बटन क्यों नहीं है?' फिडेल कास्त्रो ने हैरान होते हुए पूछा।
'इसलिए कि जरूरत होने पर इसे झटपट कंधे से उतार फेंका जाए और हाथ में तलवार ली जा सके।'
'असली छापेमारों की पोशाक है,' छापेमार फिडेल कास्त्रो ने सहमति प्रकट की।
दूसरे देशों के साथ दागिस्तान की तुलना करने में कोई तुक नहीं है। वह जैसा है, वैसा ही अच्छा है। उसकी छत से पानी नहीं चूता है, उसकी दीवारें टेढ़ी-मेढ़ी नहीं हैं, दरवाजे चरमर नहीं करते हैं, खिड़कियों से तेज हवा नहीं आती है। पहाड़ों में जगह तंग है, मगर दिल बड़े हैं।
'तुम्हारा कहना है कि मेरी धरती छोटी और तुम्हारी बड़ी है?' आंडी गाँव के एक वासी ने किसी आदमी से चुनौती के अंदाज में कहा। 'तो आओ, इस चीज का मुकाबला करें कि हम किसकी धरती का जल्दी से पैदल चक्कर लगाते हैं, तुम मेरी धरती का और मैं तुम्हारी का? मैं भी देखूँगा कि कैसे तुम हमारी पहाड़ी चोटियों पर चढ़ोगे, चौपायों की तरह हाथों-पैरों के बल कैसे चट्टानों पर ऊपर जाओगे, हमारे खड्डों में कैसे रेंगोगे, हमारी खोहो-खाइयों में कैसे कलाबाजियाँ करोगे।'
मैं दागिस्तान की सबसे ऊँची पहाड़ी चोटी पर चढ़ जाता हूँ और वहाँ से सभी ओर नजर दौड़ाता हूँ। दूर-दूर तक रास्ते दिखाई देते हैं, दूर-दूर तक रोशनियाँ झिलमिलाती नजर आती हैं और अधिक दूरी पर कहीं घंटियाँ बजती सुनाई देती हैं, धरती नीले-नीले धुएँ की चादर में लिपटी हुई है। अपने पैरों के नीचे अपनी मातृभूमि को अनुभव करते हुए मेरे लिए दुनिया पर नजर दौड़ाना अच्छा है।
आदमी जब इस दुनिया में जन्म लेता है तो वह अपनी मातृभूमि चुनता नहीं - जो भी मिल जाती है, सो मिल जाती है। मुझसे भी किसी ने यह नहीं पूछा कि मैं दागिस्तानी बनना चाहता हूँ या नहीं। बहुत संभव है कि अगर मैं दुनिया के किसी दूसरे भाग में जनम लेता, मेरे दूसरे ही माता-पिता होते तो मेरे लिए उस धरती से ज्यादा प्यारी और कोई धरती न होती, जहाँ मैं पैदा हुआ होता। मुझसे इसके बारे में पूछा नहीं गया। लेकिन अगर अब पूछा जाता है तो मैं क्या उत्तर दूँ?
दूरी पर मुझे पंदूरा बजता सुनाई दे रहा है। धुन जानी-पहचानी है, शब्द भी जाने-पहचाने हैं।
नद-नाले तो सदा तड़पते, सागर से मिल जाएँ
नद-नालों के बिना चैन पर, सागर भी कब पाएँ?
दो हाथों में दिल को ले लें, ऐसा तो है मुमकिन
किंतु समा लें दिल में दुनिया, यह तो है नामुमकिन।
और देश दुनिया के अच्छे, सभी देश हैं सुंदर
प्यारा दागिस्तान मुझे है, वह ही अंकित दिल पर।
पंदूरा बजाकर गानेवाला नहीं, बल्कि अपने मुँह से खुद दागिस्तान यह कहता है -
मुझे देखकर जो भी नाक चढ़ाए
अच्छा है, वह वापस घर जाए।
हमारे यहाँ एक पुरानी परंपरा है - जाड़े की लंबी रातों में नौजवान लोग किसी बड़े घर में जमा होते हैं और तरह-तरह के खेल खेलते हैं। मिसाल के तौर पर किसी लड़के को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है। उसके गिर्द एक लड़की चक्कर काटती हुई कुछ गाती है। लड़के को भी गाने में ही उसके सवालों का जवाब देना होता है। इसके बाद लड़की को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है और लड़का उसके गिर्द चक्कर काटता हुआ गाता है। ये गाने पूरी तरह से रूसी भाषा में प्रचलित चतुष्पदियों जैसे तो नहीं होते, लेकिन उनमें कुछ समानता जरूर होती है। इस तरह जवान लोगों के बीच एक प्रकार का वार्तालाप होने लगता है। तीखे-चुभते शब्द के जवाब में और भी अधिक तीखा-चुभता शब्द कहा जाना चाहिए, नपे-तुले सवाल का नपा-तुला जवाब होना चाहिए। इस प्रतियोगिता में जो भी जीत जाता है, उसे सींग से बनाया गया जाम शराब से भरकर दिया जाता है।
इस तरह के खेल हमारे घर की पहली मंजिल पर भी खेले जाते थे। मैं तब छोटा था, खेलों में हिस्सा नहीं लेता था, इन बेंतबाजी को सिर्फ सुना करता था। मुझे याद है कि चूल्हे के करीब फेनिल सुरा और घर में बनाई गई तली हुई सासेजें रखी रहती थीं। कमरे के बीचोंबीच तीन टाँगोंवाली कुर्सी रख दी जाती थी। लड़के और लड़कियाँ बारी-बारी से इस कुर्सी पर बैठते रहते थे। गानों के वार्तालापों में उनके बीच तरह-तरह की बातें होती रहती थीं, किंतु वार्तालाप का अंतिम भाग दागिस्तान को समर्पित होता था। ऐसे प्रश्नों का कमरे में उपस्थित सभी लोग मिलकर जवाब देते थे।
'तुम कहाँ हो, दागिस्तान?'
'ऊँची चट्टान पर, कोइसू नदी के तट पर।'
'तुम क्या कर रहे हो, दागिस्तान?'
'मूँछों पर ताव दे रहा हूँ।'
'तुम कहाँ हो दागिस्तान?'
'घाटी में मुझको ढूँढ़ो।'
'तुम क्या कर रहे हो, दागिस्तान?'
'जौ की बालों का पूला बनकर खड़ा हूँ।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'मैं - खंजर पर चढ़ाया गया गोश्त हूँ।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'खंजर, जो अपने फल पर गोश्त को चढ़ाए है।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'नदी से पानी पीनेवाला हिरन।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'हिरन को पानी पिलानेवाली नदी।'
'तुम कैसे हो, दागिस्तान?'
'मैं छोटा-सा हूँ, मुट्ठी में समा सकता हूँ।'
'तुम किधर चल दिए, दागिस्तान?'
'अपने लिए कुछ बड़ा ढूँढ़ने को।'
तो युवक-युवतियाँ एक-दूसरे को जवाब देते हुए ऐसे गाते थे। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरी सारी किताबों में इसी तरह के सवाल-जवाब हैं। सिर्फ कुर्सी पर बैठी हुई वह लड़की नहीं है जिसके गिर्द मैं चक्कर काटता रहता। खुद ही सवाल करता हूँ, खुद ही जवाब देता हूँ। अगर कोई बढ़िया जवाब सूझ जाता है तो कोई भी मुझे शराब से भरा हुआ सींग पेश नहीं करता है।
'तुम कहाँ हो, दागिस्तान?'
वहाँ जहाँ मेरे सभी पहाड़ी लोग हैं।'
'तुम्हारे पहाड़ी लोग कहाँ हैं?'
'ओह, अब वे कहाँ नहीं हैं!'
'दुनिया - बहुत बड़ी तश्तरी है और तुम छोटा-सा चम्मच। क्या इतनी बड़ी तश्तरी के लिए वह बहुत ही छोटा नहीं है?'
मेरी अम्माँ कहा करती थीं कि छोटा मुँह भी बड़ा शब्द कह सकता है।
मेरे पिता जी कहा करते थे कि छोटा-सा पेड़ भी बड़े बाग की शोभा बढ़ाता है।
शामिल भी कहा करता था कि छोटी-सी गोली बड़े जहाज में छेद कर देती है। अपनी कविताओं में तुमने तो खुद ही यह कहा है कि छोटे से दिल में विराट संसार और बहुत बड़ा प्यार समा जाता है।
'जाम उठाते हुए तुम हमेशा यह क्यों कहते हो - 'नेकी के लिए!'
'क्योंकि खुद नेकी की तलाश में हूँ।'
'तुम पत्थरों और चट्टानों पर क्यों घर बनाते हो?'
'इसलिए कि नर्म धरती पर तरस आता है। वहाँ मैं थोड़ा-सा अनाज उगाता हूँ। मैं तो समतल छतों पर भी अनाज उगाता हूँ। चट्टानों पर मिट्टी ले जाता हूँ और वहाँ अपना अनाज उगाता हूँ। ऐसा ही है मेरा अनाज।'
दागिस्तान के तीन खजाने : मेरा दाग़िस्तान
हमारे पहाड़ी लोग - चिर पथिक हैं। उनमें से कुछ धन-दौलत के लिए यात्रा पर जाते हैं, दूसरे नाम कमाने के लिए और तीसरे सचाई की खोज में।
और लीजिए, वे, जो धन-दौलत कमाने के लिए गए थे, उसे प्राप्त करके वापस आ गए और अब अपनी यात्रा के फलों से आनंदित हो रहे हैं।
और ये रहे वे, जो नाम कमाने के लिए गए थे, उन्होंने मशहूरी हासिल कर ली और अब यह समझते हुए जिंदगी बिता रहे हैं कि इसकी दो कौड़ी भी कीमत नहीं और व्यर्थ ही इसके लिए इतनी दौड़-धूप की।
किंतु जो सचाई की खोज में निकले थे, उनका रास्ता सबसे लंबा और अंतहीन रहा। सचाई की खोज करनेवाले ने अपने भाग्य को शाश्वत मार्ग को समर्पित कर दिया।
कोई पहाड़ी आदमी जब कहीं जाता है तो वह अपने गधे को अवश्य ही अपने साथ ले जाता है। इस दयालु जानवर की पीठ पर हमेशा तीन चीजें लदी दिखाई देती हैं - किसी चीज से भरी हुई बड़ी बोरी, उसके करीब ही खाल का बना शराब का छोटा-सा थैला और उसके पास ही गगरी।
सैकड़ों साल से पहाड़ी आदमी यात्रा कर रहा है, एक गाँव से दूसरे गाँव और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाता है। उसके आगे-आगे अनिवार्य रूप से उसका गधा चलता है और गधे की पीठ पर बोरी, खल का बना शराब का छोटा-सा थैला और गगरी होती है।
एक समृद्ध प्रदेश में पहाड़ी आदमी के गधे से कहीं दूर हट जाने पर अच्छे खाते-पीते निकम्मे लोगों ने बेचारे जानवर को तंग करना शुरू कर दिया। वह उसके बदन पर नुकीले डंडे और काँटे चुभोने लगे तथा उसे दुलत्ती चलाने को मजबूर करने लगे। इन बेहूदा लोगों को ऐसा प्रतीत हुआ कि गधा उनके द्वारा चुभोए जानेवाले इन काँटों के कारण उछलता-कूदता है।
पहाड़ी आदमी ने देखा कि उसके वफादार दोस्त यानी गधे की खिल्ली उड़ाई जा रही है और उसने खंजर निकाल लिया।
'पहाड़ी आदमी को चिढ़ाने के बजाय तुम किसी भालू को चिढ़ाते तो तुम्हारे लिए यह ज्यादा अच्छा होता,' उसने कहा।
लेकिन ये जवान काहिल लोग डर गए, उन्होंने माफी माँगी, तरह-तरह के मीठे शब्द कहे और इस प्रकार पहाड़ी आदमी को खंजर म्यान में रखने को राजी कर लिया। जब शांतिपूर्ण बातचीत शुरू हुई तो जवान लोगों ने पूछा -
'तुम्हारे गधे पर यह क्या बँधा हुआ है? तुम इसे हमें बेच दो।'
'तुम लोगों के पास इसे खरीदने के लिए न तो सोना और न चाँदी ही काफी होगी।'
'तुम अपनी कीमत बताओ और फिर देखा जाएगा।'
'इसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।'
'तुम्हारी बोरियों में ऐसा क्या है जिसकी कोई कीमत ही नहीं हो सकती?'
'मेरा वतन, मेरा दागिस्तान।'
'गधे की पीठ पर वतन लदा हुआ है!' जवान लोग ठठाकर हँस पड़े। 'तो जरा दिखाओ तो अपना वतन!'
पहाड़ी आदमी ने बोरी खोली और लोगों को उसमें आम मिट्टी दिखाई दी।
लेकिन यह आम मिट्टी नहीं थी। उसमें तीन-चौथाई कंकड़-पत्थर थे।
'बस, यही है इसमें? यही तुम्हारा खजाना है?'
'हाँ, यह मेरे पहाड़ों की मिट्टी है। यह मेरे पिता जी की पहली प्रार्थना है, मेरी माँ का पहला आँसू है, मेरी पहली कसम है, मेरे दादा द्वारा छोड़ी गई अंतिम चीज है, वह आखिरी चीज है जो मैं अपने पोते के लिए छोड़ दूँगा।'
'और यह दूसरी क्या चीज है?'
'पहले तो मुझे अपनी बोरी बाँध लेने दो।'
बोरी बाँधकर और उसे गधे की पीठ पर टिकाकर पहाड़ी आदमी ने गगरी का ढक्कन उतारा। सभी लोगों ने देखा कि उसमें मामूली पानी है। इतना ही नहीं, यह पानी तो कुछ-कुछ नमकीन भी था।
'तुम ऐसा पानी अपने साथ लिए घूमते हो जिसे पीना भी संभव नहीं!'
'यह कास्पी सागर का पानी है। कास्पी सागर में एक दर्पण की तरह दागिस्तान प्रतिबिंबित होता है।'
'और खाल के इस थैले में क्या है?'
'दागिस्तान के तीन हिस्से हैं : पहला - धरती, दूसरा - सागर और तीसरा - बाकी सब कुछ।'
'मतलब यह कि खाल के इस थैले में बाकी सब कुछ है?'
'हाँ, सब कुछ है।'
'किसलिए तुम यह बोझ अपने साथ लिए फिरते हो?'
'इसलिए कि मेरी मातृभूमि, मेरा वतन हमेशा मेरे साथ रहे। अगर कहीं रास्ते में ही मुझे मौत आ जाए तो मेरी कब्र पर यह मिट्टी डाल दी जाए और कब्र के ऊपर लगाए जानेवाले पत्थर को सागर के पानी से धो दिया जाए।'
पहाड़ी आदमी ने अपने वतन की चुटकी भर मिट्टी ली, उसे उँगलियों से मला और फिर उँगलियों को सागर के पानी से धो दिया।
'किसलिए तुमने ऐसा किया है?'
'इसलिए कि जिन हाथों का निकम्मे और काहिल लोगों के हाथों से स्पर्श हुआ हो, उन्हें इसी तरह से धोना चाहिए।'
पहाड़ी आदमी आगे चल दिया। उसका सफर अभी भी जारी है।
इस तरह दागिस्तान के तीन खजाने हैं - पर्वत, सागर और बाकी सब कुछ।
पहाड़ी लोगों के तीन ही गीत हैं। प्रार्थना करनेवालों की तीन ही प्रार्थनाएँ हैं। पथिक के तीन ही उद्देश्य हैं - धन-दौलत, मशहूरी और सचाई।
बचपन में अम्माँ मुझसे कहा करती थीं - दागिस्तान - यह एक पक्षी है और उसके पंखों में तीन बहुमूल्य रोएँ हैं।
पिता जी कहा करते थे - तीन कारीगरों ने तीन मूल्यवान वस्तुओं से हमारा दागिस्तान बनाया है।
किंतु वास्तव में तो जिन चीजों और पदार्थों से दागिस्तान की रचना हुई है, उनकी संख्या कहीं अधिक है। एक कटु अनुभव के आधार पर मुझे इसका विश्वास हुआ।
कोई पच्चीस साल पहले मुझे दागिस्तान के बारे में एक पटकथा लिखने को कहा गया और मैंने उसे लिखा। उसपर विचार-विमर्श होने लगा। उस वक्त बहुत-से लोगों ने अपने विचार प्रकट किए।
कुछ ने कहा कि फूलों की चर्चा नहीं की गई है, दूसरों ने आपत्ति की कि मधुमक्खियों का उल्लेख नहीं हुआ, कुछ अन्य ने मत प्रकट किया कि पेड़ों का जिक्र नहीं है। हर वक्ता ने किसी न किसी चीज की कमी का जिक्र किया। यह कहा गया कि अतीत पर कम रोशनी डाली गई है तो यह भी कहा गया कि वर्तमान पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डाला गया। आखिर बात यहाँ आकर खत्म हुई कि पटकथा में गधे तथा गधी को जगह नहीं दी गई और इनके बिना दागिस्तान की कल्पना ही कैसे की जा सकती है।
अगर फिल्म में वह सब कुछ दिखाया जाता जिसकी उस वक्त चर्चा की गई थी तो फिल्म की शूटिंग अब तक जारी रही होती।
फिर भी दागिस्तान के तीन ही भाग हैं - पर्वत (धरती), सागर (कास्पी) और अन्य सभी कुछ।
हाँ, धरती का मतलब है - पर्वत, खड्ड, पहाड़ी पगडंडियाँ और चट्टानें। फिर भी यह हमारी मातृभूमि है, हमारे पूर्वजों के खून-पसीने से सींची हुई। यह कहना कठिन है कि यहाँ पसीना ज्यादा बहा है या खून। लंबे युद्ध, छोटी-छोटी लड़ाइयाँ-मुठभेड़ें और खून का खून से बदला लेने की प्रथा... पहाड़ी लोगों की बगल में केवल सुंदरता के लिए ही सदियों तक खंजर नहीं लटकता रहा है।
एक लोक-गीत में ऐसा कहा गया है -
अन्न जहाँ पर तीन किलो पैदा होता
दसियों वीरों का उस भू पर खून बहा,
पंद्रह किलो उगाया जाए अन्य जहाँ
वहाँ सैकड़ों ही वीरों का अंत हुआ।
मेरे पिता जी ने हमारी धरती के बारे में यह लिखा था -
बहुत बड़ी संख्या में मुर्दे दफन यहाँ
मरे हुओं से मारे गए कही ज्यादा।
भूगोल की पाठ्यपुस्तक में सूचना देनेवाला यह आँकड़ा छपा हुआ है कि हमारी धरती का एक-तिहाई भाग बंजर चट्टानों का है।
मैंने भी इसके बारे में यह लिखा है -
धूमिल-धुँधली वहाँ घाटियाँ
पेड़ सींग से फलों बिना,
उँट पीठ से ऊँचे पर्वत
झरझर झरने बहें जहाँ,
मानो शेर दहाड़ रहे हों
गरजें यों पर्वत-नदियाँ,
जल-प्रपात मानो अयाल-से
विहग-नयन-से स्रोत वहाँ,
खड़ी हुई चट्टानों से ज्यों
पथ निकले पाषाणों से
और गीत गूँजे टीले से
छू ले दिल इनसानों के।
सुबह को रेडियो पर मौसम का हाल सुनते हुए यह पता चलता है कि खूँजह में बर्फ गिर रही है, आख्ता में बारिश हो रही है, देर्बेंत में खूबानियों के पेड़ों पर बौर आ रहा है और कुमुख में सख्त गर्मी है।
छोटे-से दागिस्तान में एक ही वक्त में जाड़ा, पतझर, वसंत और गर्मी होती है। पथरीले, शांत, गड़गड़ाते और ऊँचे-ऊँचे पर्वत साल के इन मौसमों को एक-दूसरे से अलग करते हैं।
अवार भाषा के 'मेएर' शब्द के दो अर्थ हैं - पर्वत और नाक।
मेरे पिता जी ने इन दोनों अर्थों के बीच इस तरह मेल बिठाया - पर्वत विश्व की हर घटना और मौसम के हर परिवर्तन की गंध लेते हैं।
मैदान यह देखने के लिए अपने पिछले पैरों पर खड़े हो गए कि कौन उनकी ओर आ रहा है। ऐसे पर्वतों का जन्म हुआ। हाजी-मुरात ऐसा कहा करता था।
अम्माँ मेरे पालने के ऊपर फुसफुसाकर कहा करती थीं कि मैं पर्वत की तरह बड़ा हो जाऊँ।
कैसे बुद्धू पर्वत-नदिया के पानी
नमी बिना चट्टानें यहाँ चटकती हैं,
क्यों तुम जल्दी-जल्दी उधर बहे जाते
लहरें बिना तुम्हारे जहाँ मचलती हैं?
बड़ी मुसीबत हो तुम मेरे दिल पागल
जो प्यारे हैं, उनको प्यार नहीं करते
खिंचे चले जाते हो तुम उस ओर सदा
जहाँ न नयन तुम्हारी राह कभी तकते।
मेरी अम्माँ जब कभी बल्हार जाति के लोगों को घड़े, मिट्टी के बर्तन और रकाबियाँ बेचते हुए देखतीं तो हमेशा यह कहतीं - 'इतनी मिट्टी बरबाद करते हुए क्या इन्हें अफसोस नहीं हुआ? मिट्टी बेचनेवाले तो मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते!'
इसमें तो जरा भी शक नहीं कि बल्हार लोग अपने फन के बड़े माहिर हैं। किंतु पहाड़ों में, जहाँ इतनी कम मिट्टी है, हमेशा यह माना जाता रहा है कि बल्हारों के घड़ों के मुकाबले में मिट्टी ज्यादा कीमती है।
पुराने जमाने की बात है कि एक हरकारा सरपट घोड़ा दौड़ाता हुआ गाँव में आया। उस वक्त सभी मर्द मसजिद में नमाज पढ़ रहे थे। घुड़सवार, जो चरवाहा था, जूते पहने हुए ही मसजिद में घुस गया।
'अरे बुद्धू, ओ काफिर,' मुल्ला ने चिल्लाकर कहा, 'क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि मसजिद में दाखिल होने से पहले जूते उतारने चाहिए?'
'मेरे जूतों पर लगी मिट्टी मेरी प्यारी घाटी की धूल है। वह इन कालीनों से ज्यादा कीमती है, क्योंकि इस मिट्टी पर दुश्मन टूट पड़ा है।'
पहाड़ी लोग भागकर मसजिद से बाहर आए और अपने घोड़ों को सरपट दौड़ाने लगे।
'दूर से आनेवाला मेहमान ज्यादा प्यारा होता है,' अबूतालिब को ऐसा कहना अच्छा लगता है। दूर-दराज से आनेवाला मेहमान बड़ी खुशी, बड़ा प्यार या बड़ा दुख-गम लेकर आता है। कोई उदासीन व्यक्ति दूर से नहीं आएगा।
ऐसी परंपरा भी है - अगर मेहमान को तुम्हारे घर में कोई चीज पसंद आ जाती है और वह उसकी प्रशंसा करता है तो बेशक तुम्हें आँसू बहाने पड़ें, लेकिन तुम वह चीज उसे भेंट कर दो। कहते हैं कि एक नौजवान ने अपनी मंगेतर तक, जिस पर गाँव के चश्मे के करीब उसके दोस्त की नजर टिक गई थी, उसे भेंट कर दी। किंतु यही मानना चाहिए कि वह नौजवान दो सौ प्रतिशत, उच्चतर पहाड़ी था।
बेहया किस्म का मेहमान हमेशा ही हमारे पुराने रीति-रिवाजों से फायदा उठा सकता है। लेकिन पहाड़ी लोग भी अब ज्यादा समझदार हो गए हैं - सुंदर चीजों को मेहमानों की नजरों से दूर हटा देते हैं।
तो बहुत पहले एक बार ऐसा हुआ कि कुमुख से एक मेहमान आया और सभी चीजों की तारीफ करने लगा। वे सारी चीजें ही, जिन्हें उसने ललचाई नजरों से देखा, उसे भेंट कर दी गईं। किंतु विदा करने के पहले उसे अपने बूटों पर से मिट्टी झाड़ने को मजबूर किया गया।
'मिट्टी भेंट नहीं की जाती,' पहाड़ी लोगों ने उससे यह भी कह दिया, 'मिट्टी की तो खुद हमारे यहाँ भी कमी है। लोग बूटों पर सारी मिट्टी ले जाएँगे तो हम अनाज कहाँ बोएँगे।'
एक विदेशी ने हमारी धरती को पथरीले बोरे की संज्ञा दी।
हाँ, हमारी धरती में कोमलता की कमी है। पहाड़ों पर पेड़ भी अक्सर नजर नहीं आते। हमारे पहाड़ मुरीदों के मुँड़े सिरों, हाथियों के सपाट, चिकने कंधों जैसे हैं। बुवाई के लिए जमीन थोड़ी है, उससे हासिल होनेवाली फसल भी बहुत कम होती है।
कभी हमारे यहाँ कहा जाता था - 'इस बेचारे की फसल तो पड़ोसी के नथुनों में ठोंसने के लिए भी काफी नहीं होगी।'
हाँ, हमारे पहाड़ी लोगों की नाकें भी खूब बड़ी-बडी़ बहुत गजब की हैं। दुश्मन खर्राटों की आवाज सुनकर ही बहुत दूर से यह जान जाते थे कि पहाड़ी लोग सो रहे हैं और इसी निशानी से कभी-कभी अचानक हमला कर देते थे।
किसी के चेहरे पर चेचक के ढेर सारे निशान देखकर अबूतालिब ने कहा - मेरे पिता जी के खेत में उगे अनाज के सारे दाने इस बेचारे के चेहरे पर जा चिपके ताकि उस पर अपने निशान छोड़ दें।
पहाड़ी लोगों के पास जमीन कम और कम उपजाऊ भी है। इसके बारे में एक किस्सा है जिसे शायद कई बार सुना गया हो, क्योंकि वह बहुत अरसे से एक भाषा से दूसरी भाषा में और एक सपाट छत से दूसरी सपाट छत तक सुनाया जाता रहा है। बेशक वे लोग मुझे कोसें जो इसे पहले सुन चुके हैं, फिर भी मैं उसे सुनाए बिना नहीं रह सकता।
किसी पहाड़िये ने अपना खेत जोतने का इरादा बनाया। उसका खेत गाँव से दूर था। वह शाम को ही वहाँ चला गया ताकि तड़के काम में जुट जाए। यह पहाड़ी आदमी वहाँ पहुँचा, उसने अपना लबादा वहाँ बिछाया और सो गया। वह सुबह ही जाग गया, ताकि खेत जोतना शुरू करे, लेकिन खेत तो कहीं था ही नहीं। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई, मगर खेत कहीं दिखाई नहीं दिया। गुनाहों की सजा देने के लिए क्या अल्लाह ने उसे छीन लिया या ईमानदार आदमी की खिल्ली उड़ाने के लिए शैतान ने उसे कहीं छिपा दिया।
कोई चारा नहीं था। पहाड़ी आदमी मन ही मन दुखी होता रहा और आखिर उसने घर लौटने का फैसला किया। उसने जमीन पर से लबादा उठाया और - हे भगवान! - यह रहा लबादे के नीचे उसका खेत!
पहाड़ी लोगों के लिए ऊँची पहाड़ी जमीन बहुत मूल्यवान है, यद्यपि वहाँ उनकी जिंदगी खासी मुश्किल है। राहगीर पर्वतों की ढालों और कभी-कभी तो चट्टानों पर खेतों के इन टुकड़ों, पत्थरों के बीच उगाए गए बाग-बगीचों और खड्ड के ऊपर पगडंडी पर जाती हुई भेड़ों को देखकर हैरान रह जाते हैं, जो रज्जुनटों की कुशलता-फुर्ती से खड़े गड्ढों-खड्डों को लाँघती हैं।
यह सब देखने में तो असाधारण रूप से सुंदर है, इसलिए बनाया गया है कि कविताओं में इसका गुणगान किया जाए, किंतु यहाँ काम करना और जीना कठिन है।
इसके बावजूद अगर किसी पहाड़ी आदमी को मैदानों में जाकर बसने को कहा जाए तो वह ऐसे प्रस्ताव को अपना अपमान मानेगा। लोग बताते हैं कि एक पहाड़ी आदमी का बेटा शहर से आया और अपने बूढ़े बाप को शहर चलने के लिए मनाने लगा।
'ऐसे शब्दों से मेरा दिल दुखाने के बजाय यही बेहतर होता कि तुम खंजर मारकर मेरा पेट चीर डालते,' बूढ़े पहाड़िये ने जवाब दिया।
यह समस्या विद्यमान है और काफी जटिल है। बहुत साल पहले ही पहाड़ी गाँवों में बहुत प्रभावपूर्ण यह नारा लगाया गया था - 'हम पथरीले बोरों से निकलकर फूलोंवाले मैदानों में जा बसेंगे।'
'पहाड़ों में धुएँवाले चूल्हे के करीब मैदान की बढ़िया भट्ठी से कहीं ज्यादा मजा है।' 'जिसे पेट की चिंता है, वह बेशक वहाँ चला जाए और जिसे दिल की चिंता है, वह यहाँ रहेगा।' 'हमने किसी की हत्या नहीं की, किसी के घर नहीं जलाए तो फिर किसलिए हमें जलावतन किया जा रहा है।' 'मशीनें तो यहाँ भी काम कर सकती हैं।' 'खंभों पर बत्तियाँ तो यहाँ भी लटक सकती हैं।' 'तार तो यहाँ से भी चला जाएगा।' 'मच्छरों और मक्खियों का पेट भरने के लिए हमने जन्म नहीं लिया है।' 'पेट्रोल की गंध से उपले का धुआँ कहीं बेहतर है।' 'पहाड़ी फूल ज्यादा चटकीले हैं।' 'नल के पानी से चश्मे का पानी कहीं ज्यादा मीठा है।' 'हम यहाँ से कहीं नहीं जाएँगे!'
'हम पथरीले बोरों से निकलकर फूलोंवाले मैदानों में जा बसेंगे,' इस नारे का हर पहाड़ी आदमी ने अपने ढंग से ऐसे जवाब दिया।
पहाड़ी लोग इसी सिलसिले में सलाह लेने के लिए मेरे पिता जी के पास भी आए कि वे कहीं दूसरी जगह जा बसें या यहीं रहें। कोई निश्चित जवाब देते हुए पिता जी ने झिझक महसूस की।
'अगर यहीं रहने की सलाह दे दूँगा और बाद में इन्हें पता चलेगा कि मैदानों में जिंदगी बेहतर है तो मुझे भला-बुरा कहेंगे। अगर यह सलाह देता हूँ कि नीचे जा बसें और वहाँ जिंदगी किसी काम की नहीं होगी तो भी मुझे कोसेंगे।'
'खुद ही तय कीजिए,' मेरे पिता हम्जात त्सादासा ने तब उन्हें जवाब दिया।
वक्त बदलता है और उसके साथ जिंदगी भी। सिर की टोपियाँ ही नहीं बदलीं, (फर की टोपियों की जगह छज्जेदार हल्की टोपियाँ) बल्कि टोपियों के नीचे जवान लोगों के दिमागों में विचार भी बदल गए हैं। तरह-तरह की जातियों, कबीलों और जनगण का आपस में मेल हो रहा है। हमारे बेटों की कब्रें पिताओं के गाँवों से अधिकाधिक दूर होती जा रही हैं... पत्थर, सिलें, बड़े-बड़े पत्थर, छोटे-छोटे कंकड़, गोल पत्थर, नुकीले पत्थर। इन पत्थरों पर कुछ उगाने के लिए पहाड़ के दामन से टोकरियाँ भर-भरकर मिट्टी ऊपर ढोई जाती है। पतझर और जाड़े में घास से ढँकी ढालों को जलाया जाता था ताकि ज्यादा अच्छी घास उगे। पहाड़ों में इन अनेक ज्वालाओं की मुझे याद है। पहली हल-रेखा के पर्व की भी मुझे याद है। वसंत। तब बूढ़े एक-दूसरे पर मिट्टी के गोले फेंकते थे।
काम-काजी आदमी के बारे में हमारे यहाँ कहा जाता है - 'बहुत-से पर्वत और चोटियाँ लाँघी हैं उसने।'
निकम्मे आदमी के बारे में कहा जाता है - 'उसने तो पत्थर पर एक बार भी कुदाल नहीं चलाई।'
'आपके खेत में फसलों की इतनी अधिक बालें हों कि उनके लिए जगह काफी न रहे,' पहाड़ी लोगों की यह सबसे अच्छी शुभकामना होती है।
'तुम्हारी जमीन सूख जाए, बंजर हो जाए,' सबसे बड़ा शाप होता है।
'इस धरती की कसम,' सबसे पक्की कसम यही होती है।
किसी पराये खेत में आ जानेवाले गधे की हत्या की जा सकती थी और इसके लिए कोई सजा नहीं होती थीं। एक पहाड़ी आदमी चिल्लाकर कहता रहा था - 'अगर हाजी-मुरात का गधा भी मेरी धरती पर आ जाएगा - तो उसकी भी खैर नहीं!'
हर गाँव के अपने नियम थे। किंतु सभी जगहों पर खेत या धरती को हानि पहुँचाने के लिए सबसे बड़ा जुर्माना वसूल किया जाता था।
सन 1859 के अगस्त महीन में गुनीब पर्वत पर इमाम शामिल अपने जंगी घोड़े से नीचे उतरा और उसने एक महान बंदी के रूप में खुद को प्रिन्स बर्यातीन्स्की के सामने पेश किया। बाएँ पाँव को थोड़ा आगे बढ़ाकर और उसे एक पत्थर पर टिकाकर तथा दाएँ हाथ को तलवार की मूठ पर रखकर और इर्द-गिर्द के पहाड़ों पर धुँधली-सी नजर डालकर शामिल ने कहा -
'हुजूर! इन पहाड़ों और इन पहाड़ी लोगों की इज्जत बचाते हुए मैं पच्चीस साल तक लड़ता रहा। मेरे उन्नीस घाव टीसते हैं और वे कभी नहीं भरेंगे। अब मैं कैदी के तौर पर अपने को पेश करता हूँ और अपनी धरती को आपके हवाले करता हूँ।'
'इसके लिए बहुत दुखी होने की क्या जरूरत है। खूब है तुम्हारी यह धरती भी - सिर्फ चट्टानें और पत्थर ही तो हैं!'
'हुजूर, यह बताएँ कि हमारी इस जंग में कौन ज्यादा सही था - हम, जो इस धरती को शानदार मानते हुए इसके लिए अपनी जानें कुर्बान करते रहे या आप लोग, जो इसे बुरी मानते हुए इसकी खातिर मरते रहे?'
कैदी शामिल को एक महीने तक का रास्ता तय करके पीटर्सबर्ग ले जाया गया।
पीटर्सबर्ग में सम्राट ने उससे पूछा -
'तुम्हें रास्ता कैसा लगा?'
'बड़ा मुल्क है। बहुत बड़ा मुल्क है।'
'इमाम, यह बताओ कि अगर तुम्हें यह पता चल जाता कि मेरा राज्य इतना बड़ा और इतना शक्तिशाली है तो क्या तुम इसके विरुद्ध इतनी देर तक लड़ते रहते या समझदारी दिखाते हुए ठीक वक्त पर ही हथियार डाल देत?'
'लेकिन आप भी तो यह जानते हुए कि हमारा देश इतना छोटा और कमजोर है, इतनी देर तक हमारे खिलाफ लड़ते रहे!'
मेरे पिता जी के पास शामिल का एक पत्र, अधिक सही तौर पर उसका विदा-पत्र सुरक्षित रहा है। यह है वह पत्र -
'मेरे पहाड़ी लोगो! अपनी नंगी और वीरान चट्टानों को प्यार करो! वे बहुत कम दौलत लाई हैं तुम्हारे लिए, लेकिन इन चट्टानों के बिना तुम्हारी धरती तुम्हारी धरती जैसी नहीं होगी और धरती के बिना बेचारे पहाड़ी लोगों के लिए आजादी नहीं होगी। इन चट्टानों के लिए जूझो, इनकी रक्षा करो। यही कामना है कि तुम्हारी तलवारों की टंकार मेरी कब्र की नींद को मधुर बना दे।'
शामिल ने पहाड़ी लोगों की तलवारों की टंकार और आवाज अनेक बार सुनी, यद्यपि पहाड़ी लोग अब एक अन्य ध्येय के लिए जूझते थे। दागिस्तानियों की मातृभूमि अब बड़ी हो गई है। उनकी कब्रें उक्रइना, बेलारूस, मास्को के उपांत, हंगरी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, कार्पेथिया तथा बाल्कान और बर्लिन के निकट तक बिखरी हुई हैं।
'एक गाँव के लोग पहले किस चीज के लिए लड़ते-भिड़ते थे?'
'दो पहाड़ी लोगों के खेतों के बीच की बालिश्त भर जमीन, छोटी-सी ढाल और पत्थर के लिए।'
'दो पड़ोसी गाँवों के लोग पहले किसलिए लड़ते-भिड़ते थे?'
'गाँवों के खेतों के बीच बालिश्त भर जमीन के लिए।'
'दागिस्तान किसलिए दूसरे जनगण से लड़ता-जूझता था?'
'दागिस्तान की हदों पर बालिश्त भर जमीन के लिए।'
'बाद में दागिस्तान किस चीज के लिए लड़ता-भिड़ता रहा?'
'महान सोवियत देश की हदों पर बालिश्त भर जमीन के लिए।'
'दागिस्तान अब किस चीज के लिए जूझ रहा है?'
'सारी दुनिया में शांति के लिए।'
शामिल के साथ उसके दो बेटे भी बंदी बनाए गए थे। उनके भाग्य अलग-अलग रहे। छोटा बेआ, मुहम्मद शफी जार का जनरल बन गया, जबकि बड़ा बेटा गाजी मुहम्मद तुर्की चला गया।
एक बार तुर्की पोशाक पहने एक बुजुर्ग औरत मेरे पास आई। जार्जियाई जाति की इस औरत ने जवानी के दिनों में ही एक तुर्क से शादी कर ली थी, चालीस साल तक इस्तंबूल में रह चुकी थी। बाद में पति की मृत्यु होने और अकेली रह जाने पर वह जार्जिया लौट आई थी। तो वह मेरे पास आई। उसके आने का कारण यह था - इस्तंबूल में रहते हुए शामिल के सबसे छोटे बेटे के वंशजों के साथ उसकी दोस्ती रही थी।
'कैसा हाल-चाल है उनका?' मैंने पूछा।
'बुरा हाल-चाल है।'
'किस कारण?'
'इस कारण कि उनका दागिस्तान नहीं है। काश! आपको मालूम होता कि कैसे वे वहाँ उदासी महसूस करते हैं! कभी-कभी सरकारी कर्मचारी यह धमकी देते हुए कि उनके पास जो जमीन है, वे उसे छीन लेंगे, उनका अपमान करते हैं। 'छीन लीजिए,' इमाम के वंशज जवाब देते हैं। 'दागिस्तान' तो हमारे पास है नहीं, दूसरी जमीन हमें प्यारी नहीं।' यह मालूम होने पर कि मैं मातृभूमि लौट रही हूँ,' जार्जियाई महिला कहती गई, 'उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मैं दागिस्तान जाऊँ, शामिल के जन्म-गाँव और उन पहाड़ों में भी जाऊँ, जहाँ वह लड़ता रहा था और आपसे भी मिलूँ। उन्होंने मुझे यह रूमाल दिया है कि आप इसमें दागिस्तान की थोड़ी-सी मिट्टी बाँधकर उन्हें भेज दें।'
मैंने रूमाल खोला। उस पर अरबी भाषा में 'शामिल' कढ़ा हुआ था।
जार्जियाई महिला ने जो कुछ बताया, उसने मेरे मर्म को छू लिया। मैंने मिट्टी भेजने का वचन दिया। इस संबंध में मैंने अनेक बुजुर्गों से सलाह-मशविरा किया।
'विदेश में रहनेवाले लोगों को हमारी मिट्टी भेजने में कोई तुक है?'
'दूसरों को भेजने की तो जरूरत नहीं थी, किंतु शामिल के वंशजों को भेज दो,' बुजुर्गों ने जवाब दिया।
एक बुजुर्ग ने शामिल के गाँव से मुट्ठी भर मिट्टी ला दी और हमने इस रूमाल में, जिस पर शामिल का नाम कढ़ा हुआ था, उसे लपेट दिया। बुजुर्ग ने कहा -
'उन्हें हमारी मिट्टी भेज दो, किंतु यह भी बता देना कि उसका प्रत्येक कण बहुत मूल्यवान है। उन्हें यह भी लिख देना कि हमारी इस धरती पर अब जिंदगी बदल गई है, यहाँ अब नया वक्त आ गया है। सभी कुछ के बारे में लिख देना ताकि उन्हें मालूम हो जाए।'
किंतु मुझे लिखना नहीं पड़ा। जल्दी ही मैं खुद तुर्की गया। मूल्यवान भेंट भी मैं अपने साथ ले गया।
मैंने शामिल के वंशजों को ढूँढ़ा, लेकिन उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई। मुझे बताया गया कि इमाम शामिल का परपोता शायद मक्का चला गया है। परपोतियाँ नजावत और नाजियात भी मुझसे मिलने नहीं आई। मुझे बताया गया कि एक के सिर में दर्द है और दूसरी को दिल का दौरा पड़ गया है। किसे मैं अपने वतन की मिट्टी दूँ? वहाँ अवार जाति के अन्य लोग भी थे, मगर वे अपनी इच्छा से दागिस्तान छोड़कर गए थे।
तब मैं समझ गया कि उनका शामिल और मेरा शामिल अलग-अलग शामिल हैं।
दूरस्थ तुर्की में मैं अपने प्यारे दागिस्तान की मुट्ठी भर मिट्टी हाथ में लिए था। इस थोड़ी-सी मिट्टी में मैं अपने गाँवों-गुनीब, चिरकोई, आख्ता, कुमुख, खूँजह, त्सादा त्सूंता और चारोदा की झलक पाता हूँ... यह सब मेरी धरती है। मैंने इसके बारे में बहुत कुछ लिखा है और लिखूँगा। इसे अब लबादे से नहीं ढका जा सकता, जैसा कि उस बदकिस्मत पहाड़ी आदमी के साथ हुआ था, जिसके बारे में मजाकिया किस्सा सुनाया जाता है।
दागिस्तान का दूसरा खजाना - सागर है।
मास्को और गुनीब गाँव के बीच टेलीफोन पर इस तरह की बातचीत होती है।
'हैलो, हैलो, गुनीब? ओमार, तुम बोल रहे हो? तुम मेरी आवाज सुन रहे हो? दिन कैसा है, मूड कैसा है?'
'सुन रहा हूँ। हमारे यहाँ सब कुछ ठीक-ठाक है। आज सुबह से सागर दिखाई दे रहा है...!'
या -
'हैलो, गुनीब? यह तुम बोल रही हो, फतिमा? क्या हाल-चाल हैं, मूड कैसा है?'
'मूड तो ऐसा-वैसा ही है। धुंध है। सागर दिखाई नहीं दे रहा।'
'अब्बा जान, समुंदर नजर नहीं आ रहा,' शामिल के बेटे जमालुद्दीन ने कहा।
वह जार का बंधक था - जार के फौजी कालेज में अफसर के तौर पर शिक्षा पा रहा था तथा मातृभूमि लौटने पर गोरे जार के विरुद्ध पिता और पहाड़ी लोगों के संघर्ष को बेकार मानता था।
'तुम समुंदर को देख सकोगे, मेरे बेटे,' शामिल ने जवाब दिया। 'लेकिन उसे मेरी आँखों से देखो।'
गुनीब पर्वत से सागर एक सौ पचास किलोमीटर दूर है। दिन कितना उजला, सागर कितना नीला और चमकता हुआ तथा नजरें कितनी तेज होनी चाहिए, पर्वत कितना ऊँचा होना चाहिए कि सहज भाव से यह कहा जा सके - 'सागर दिखाई दे रहा है।'
यहाँ तक कि उन गाँवों में, जहाँ से सागर देखना संभव नहीं, जब यह पूछा जाता है कि मूड कैसा है, तो कभी-कभी यह जवाब मिलता है - बहुत बढ़िया मूड है मानो सागर आँखों के सामने हो।
कौन किसकी शोभा बढ़ाता है - कास्पी सागर दागिस्तान की या दागिस्तान कास्पी सागर की? कौन किस पर गर्व करता है - पहाड़ी लोग सागर पर या सागर पहाड़ी लोगों पर?
जब मैं सागर को देखता हूँ तो सारे संसार को देखता हूँ। जब सागर में उथल-पुथल होती है तो लगता है कि सारी दुनिया में बेचैनी है, तूफानी मौसम है। जब वह शांत होता है तो लगता है कि सभी जगह शांति छाई है।
मैं लड़का ही था कि सागर से मेरा नाता जुड़ गया था। मैं खड़ी और टेढ़ी-मेढ़ी पहाड़ी पगडंडियों से नीचे उतरकर सागर के पास पहुँचा था। उस वक्त से मेरे घर की खिड़कियाँ सागर की ओर खुली हुई हैं। खुद दागिस्तान की खिड़कियाँ भी उधर ही देखती हैं।
मैं जब समुद्र-गर्जन नहीं सुनता हूँ तो मुझे कठिनाई से नींद आती है।
'लेकिन तुम क्यों नहीं सोते हो, दागिस्तान?'
'सागर शोर नहीं मचा रहा है, नींद नहीं आती है।'
बहुत चटक रंग के बारे में हम कहते हैं - सागर की रतह। बहुत तेज शोर के बारे में कहते हैं - सागर की तरह। कूटू के ऊँचे-ऊँचे और लहराते खेतों के बारे में कहते हैं - सागर की तरह।
बुद्धिमत्ता और आत्मा की गहराई के बारे में कहते हैं - सागर की तरह।
निर्मल आकाश तक के बारे में भी हम यही कहते हैं - सागर की तरह।
जब हमारी गाय बहुत दूध देती थी तो अम्माँ उसे 'मेरा सागर' कहा करती थीं।
मुझे खट्टी क्रीम का मटका हाथों में लिए छज्जे में खड़ी अपनी अम्माँ की याद आती है। वह अपने इर्द-गिर्द खेलते हम बच्चों को खिलाने के लिए उसमें से मक्खन निकाला करती थीं। उस मटके की गर्दन सागर की सीपियों की माला से सजी हुई थी।
'ताकि ज्यादा मक्खन निकले,' अम्माँ हमें माला का महत्व समझाती थीं। इसके अलावा वह यह भी कहा करती थीं कि सीपियाँ बुरी नजर से बचाती हैं।
दागिस्तान का पाषाणी वक्ष भी सीपियों की माला, तटवर्ती पत्थरों की माला, सागर-तरंगों की माला से सुसज्जित है।
दागिस्तान कास्पी सागर की लहरों के शोर का अभ्यस्त है, नीरवता-निस्तब्धता में उसे अचछी तरह से नींद नहीं आती और अगर वह सागर से वंचित हो जाता तो उसे बिल्कुल ही नींद न आती।
हिम-सी श्वेत-श्वेत सागर की लहरो, मुझे बताओ।
किस भाषा में बतियाती हो, मुझको यह समझाओ।
चट्टानों से टकराकर तुम शोर मचातीं ऐसे
गाँव-पैंठ में कोलाहल होता रहता है जैसे।
वहाँ दर्जनों भाषाओं की ऐसी खिचड़ी पकती
अल्ला भी चाहे तो उसके बात न पल्ले पड़ती।
जरा न गर्जन होता ऐसा कभी-कभी दिन आए
लहरें धीमे बहें कि मानो घास कहीं लहराए।
कभी-कभी लेने लगते हो ऐसी तेज उसाँसें
पुत्र-शोक में ज्यों माँ सिसके, ले ले भारी साँसें।
वारिस मर जाने पर बूढ़ा बाप भरे ज्यों आहें
जल में जैसे घोड़ा डोले, लहरें जिसे बहाएँ।
छलछल करते कभी, कभी तुम, ऊँचा शोर मचाते
अपनी भाषा में तुम सागर, मन की बात बताते।
तेरे-मेरे दिल की गहराई में है कुछ बंधन
और समझ सकता मैं तेरे सभी रूप-परिवर्तन।
क्या न कभी मेरे दिल में भी खून उबलने लगता
टकरा कटु जीवन-लहरों से वह अपना सिर धुनता?
किंतु बाद में धीरे-धीरे, शांत तुम्हीं हो जाते
शक्तिहीन हो ढालू तट को, क्या न तुम्हीं सहलाते?
गहराई में राज न तेरे, सागर छिपे हुए क्या?
क्या न एक सा रूप, हमारे दोनों के सुख-दुख का?
किंतु अलग है, खास दर्द, जो मेरा मैं बतलाऊँ,
पीना चाहूँ सागर, खारी, मगर नहीं पी पाऊँ।
मास्को से मखाचकला जानेवाली गाड़ी वहाँ तड़के पहुँचती है। रास्ते में बीतनेवाली यह रात मेरे लिए सर्वाधिक बेचैनी की रात होती है। मैं आधी रात को उठकर अँधेरे में लिपटी खिड़की से बाहर झाँकता हूँ। खिड़की के बाहर अभी स्तेपी-मैदान होता है। गाड़ी शोर मचाती होती है, गाड़ी के डिब्बे के बाहर बहुत जोर से हवा सरसराती होती है, मैं दूसरी बार उठकर खिड़की से बाहर देखता हूँ - फिर वही स्तेपी-मैदान। आखिर तीसरी बार उठकर बाहर नजर दौड़ाता हूँ - सागर दिखाई देता है। इसका मतलब है कि यह मेरा दागिस्तान है।
शुक्रिया तुम्हारा, नीले सागर, विराट जल-विस्तार! तुम ही मुझे सबसे पहले यह सूचना देते हो कि मैं अपने घर पहुँच गया हूँ।
मेरे पिता जी को यह कहना अचछा लगता था - 'जिसके यहाँ समुंदर है, उसका घर मेहमानों का घर है।'
जवाब में अबूतालिब कहा करता था - 'जिसके यहाँ समुंदर है, उसका जीवन सुंदर और समृद्ध है। पहाड़ ही समुंदर से ज्यादा खूबसूरत हो सकते हैं, लेकिन हमारे यहाँ तो वे भी हैं।'
ये दो बुजुर्ग - मेरे पिता जी और अबूतालिब पहले से ही कुछ तय किए बिना जब कभी मिलते तो अक्सर सागर की ओर चले जाते। ये उस टीले पर चढ़ जाते, जहाँ से बंदरगाह में आनेवाले सभी जहाज नजर आते। मछलियों और नमक की गंध इन दोनों बुजुर्गों तक पहुँचती रहती। ये दोनों केवल सागर को अपनी बात कहने की संभावना देते हुए घंटों तक यहाँ चुपचाप बैठे रहते।
सागर अपनी बात कहे, तुम साधे मौन रहो
अपनी खुशियाँ और न अपने मन का दर्द कहो।
वह महान कवि दांते भी उस रात मूक था रहता
कहीं पास में जब उसके नीला सागर था बहता।
भीड़ लगी हो सागर-तट पर या सुनसान वहाँ हो
मुँह से शब्द न एक निकालो, सागर को गाने दो।
वह बातों के फन का माहिर, पुश्किन भी चुप रहता
जब-जब सागर अपने दिल की, अपने मन की कहता।
मेरे पिता जी कहा करते थे कि सागर को सुनते हुए उसकी बात समझना सीखो। सागर ने बहुत कुछ देखा है, वह बहुत कुछ जानता है।
- सागर मुझको यह बतलाओ, क्यों है तेरा जल खारी?
- क्योंकि मिले हैं इसमें अक्सर, लोगों के आँसू खारी!
- सागर मुझे बताओ, किसने तेरा रूप सँवारा है?
- मूँगों और मोतियों ने ही मेरा रूप निखारा है!
- सागर मुझको यह बतलाओ, क्यों हो तुम इतने विह्वल?
- क्योंकि भँवर में डूब गए हैं कितने ही तो वीर प्रबल -
कुछ ने चाहा, सपना देखा, मीठा कर दें जल खारी
और दूसरों को मूँगों की खोज, चाह दिल में प्यारी!
पके बालोंवाले दो पहाड़ी बुजुर्ग, दो कवि, दो बूढ़े उकाबों की तरह टीले पर बैठे हैं। चुपचार और निश्चल बैठकर सागर को सुन रहे हैं। सागर शोर मचा रहा है, जीवन के बारे में, जो उसके समान ही है, सोचने को विवश करता है और उसके खुले तथा भयानक विस्तार में बेशक किसी भी तरह के मौसम का सामना न करना पड़े, उसके एक तट से दूसरे तट तक तो जाना ही होगा। किंतु सागर से भिन्न, जीवन में शांत बंदरशाह, शांत घाट नहीं हैं। कोई चाहे या न चाहे, जीवन-सागर के पार तो जाना ही होगा। सिर्फ एक, आखिरी बंदरशाह, केवल एक, अंतिम घाट ही होगा।
कास्पी सागर शोर मचाता रहता है, ख्वालीन्स्क सागर शोर मचाता रहता है। उसमें नदियाँ आकर गिरती हैं - एक ओर से वोल्गा, उराल और दूसरी ओर से कूरा, तेरेक, सुलाक। ये सभी आपस में घुल-मिल गई हैं और इन्हें एक-दूसरी से अलग नहीं किया जा सकता। उनके लिए सागर भी एक तरह से आखिरी घाट है। हाँ, यह सही है कि इनका पानी लुप्त नहीं होगा, जीवनहीन नहीं होगा, गतिहीन नहीं होगा, बहता रहेगा, नीली-नीली लहरों के रूप में ऊपर उठता रहेगा। इन लहरों पर दुनिया के विभिन्न कोनों तक बड़े-बड़े जहाज जाते रहेंगे।
पहाड़ी लोगो, दागिस्तान के बेटे-बेटियो, क्या आपका भाग्य भी इन नदियों के समान नहीं है? आप भी तो हमारे महान भ्रातृत्व के संयुक्त सागर में सम्मिलित होकर घुल-मिल गए हैं।
कास्पी सागर शोर मचा रहा है। पके बालोंवाले दो बुजुर्ग चुपचाप खड़े हैं और उनके साथ मैं, एक किशोर भी खड़ा हूँ। बाद में, जब हम घर की ओर रवाना हुए तो अबूतालिब ने मेरे पिता जी से कहा -
'तुम्हारा बेटा बड़ा होता जा रहा है। आज उसे उच्च भावना की अनुभूति हुई है।'
'जिस जगह पर हम खड़े थे, वहाँ किसी को भी छोटा नहीं होना चाहिए,' मेरे पिता जी ने अबूतालिब को जवाब दिया।
अब, जब कभी भी मैं सागर-तट पर जाता हूँ तो मुझे लगातार ऐसा लगता है कि पिता जी की बगल में खड़ा हूँ।
कहते हैं कि कास्पी साल-द-साल कम गहरा होता जा रहा है। जहाँ कभी पानी कल-छल करता था, वहाँ अब शहरी मकान खड़े हैं। शायद यह ठीक ही है कि सागर छिछला होता जा रहा है। किंतु मैं यह विश्वास नहीं करता कि सागर सागर नहीं रहेगा। संभव है कि वह कम गहरा होता जा रहा है, फिर भी उसमें तुच्छता नहीं आ रही है।
मैं तो लोगों से भी सदा यही कहता हूँ कि कम संख्यावाले होने पर भी तुममें तुच्छता नहीं आनी चाहिए।
पति विद्वान हिलाता है सिर दुख से व्याकुल होकर
कवि, लेखक भी व्यथित हो रहे दिल में दर्द सँजोकर,
इनकी पीड़ा यही कि कास्पी तट से हटता जाए
इसकी कम होती गहराई, उथला हो छिछलाए।
यह सब है बकवास मुझे तो कभी-कभी यह लगता
बूढ़ा कास्पी छिछला हो यह कभी नहीं हो सकता,
तुच्छ हो रहे कुछ लोगों के, दिल यह डर ही मुझको
और सभी चीजों से ज्यादा, चिंतित व्याकुल करता।
मखाच ने भी सागर की चर्चा की है। वह दागिस्तान की क्रांतिकारी कमेटी का पहला कमिसार था और हमारी राजधानी उसी के नाम पर मखाचकला कहलाती है। इसके पहले इसे पोर्ट-पेत्रोव्स्क कहा जाता था। गृह-युद्ध के समय में मखाच ने इसे अभेद्य दुर्ग बना दिया था।
तो सागर के बारे में मखाच ने कहा था - 'दुश्मन चाहे कितने ही क्यों न हों, हम उन सभी को सागर में फेंक देंगे। सागर गहरा है, उसके तल में सभी के लिए काफी जगह रहेगी।'
पहाड़ी लोग जब जिंदगी के मसलों पर सोच-विचार करने के लिए मसजिद के करीब या किसी पेड़ के नीचे जमा होते हैं तो ऐसी मजलिस को हमारे यहाँ गोदेकान का नाम दिया जाता है। ऐसी एक मजलिस में पहाड़ी लोगों से एक बार यह पूछा गया - कौन-सी आवाज आत्मा को सबसे ज्यादा प्यारी लगती है? पहाड़ी लोगों ने सोच-विचारकर जवाब देना शुरू किया -
'चाँदी की खनक।'
'घोड़े की हिनहिनाहट।'
'प्रेयसी का स्वर।'
'पहाड़ी दर्रे में घोड़े के नालों की गूँज।'
'बच्चे की हँसी।'
'माँ की लोरी।'
'पानी की कल-छल।'
लेकिन एक पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया -
'सागर की आवाज। कारण कि सागर में वे सब ध्वनियाँ सम्मिलित हैं जिनकी आपने गणना की है।'
किसी दूसरे मौके पर ऐसी ही एक मजलिस में पहाड़ी लोगों से यह पूछा गया -किस चीज का रंग आत्मा को सबसे अधिक प्यारा लगता है? पहाड़ी लोग कुछ देर सोचने के बाद जवाब देने लगे -
'निर्मल आकाश का।'
'श्वेत हिम से मढ़ित पर्वत-शिखरों का।'
'माँ की आँखों का।'
'बेटे के बालों का।'
'आड़ू के बौराए पेड़ का।'
'पतझर में सरपत का।'
'चश्मे के पानी का।'
लेकिन एक पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया -
'सागर का। कारण कि उसमें वे सभी रंग सम्मिलित हैं जिनकी आपने गणना की है।'
ऐसी ही मजलिसों में जब गंधों, पेयों या किसी अन्य चीज के बारे में पूछा गया तो हमेशा सागर पर आकर ही बात खत्म हुई।
सागर से प्रभावित होकर जनसाधारण ने नौजवान और समुद्री राजकुमारी और आसमानी रंग के उस पक्षी के बारे में किस्से गढ़ रखे हैं जो जहाँ भी चोंच मारता है, वहीं चश्मा फूट पड़ता है।
निश्चय ही मजलिस में हर कोई अपने घोड़े की तारीफों के पुल बाँधता है। अपने कास्पी सागर की तारीफ करते हुए क्या मैं भी यही नहीं कर रहा हूँ? कभी-कभी मुझसे कहा जाता है - कास्पी की क्या डींग मार रहे हो। यह तो सागर भी नहीं, बड़ी झील है। असली सागर तो काला सागर है।
हाँ, यह सही है कि कास्पी सागर काले सागर जैसा मखमली और कोमल नहीं है। अडरियाटिक या ईओनीचेस्की सागर जैसा भी नहीं है। किंतु वहाँ तो लोग मुख्यतः आराम करने या नहाने जाते हैं, जबकि कास्पी सागर पर मुख्यतः काम करने के लिए। कास्पी सागर-मछुओं, खनिज तेल निकालने वालों और मेहनतकशों का सागर है। इसलिए उसका मिजाज भी कुछ ज्यादा कठोर है। कोई कर ही क्या सकता है, हर साँड़ का अपना मिजाज, हर मर्द का अपना स्वभाव और हर सागर का अपना रवैया होता है... क्या दागिस्तान के पर्वत स्वभाव की दृष्टि से जार्जिया, अबखाजिया और अन्य स्थानों के पर्वतों से भिन्न नहीं हैं?
लेकिन सच कहूँ तो मुझे सभी सागर समान लगते हैं। जब जहाज पर काले सागर में यात्रा करता होता हूँ तो मुझे कास्पी की याद आती है, जब कास्पी में यात्रा करता होता हूँ तो महासागर को भी याद कर सकता हूँ। हमारा सागर दूसरे सागरों से किसी प्रकार भी उन्नीस नहीं है। अन्य सागरों की भाँति सभी लोग इस मान्यता के अनुसार उसमें भी इसीलिए कोई सिक्का फेंकते हैं कि फिर से इसी सागर पर आ सकेंगे।
पिता जी कहा करते थे कि अगर किसी व्यक्ति को सागर सुंदर नहीं लगता तो इसका यही मतलब है कि वह आदमी खुद सुंदर नहीं है।
किसी ने एक बार अबूतालिब से कहा -
'सागर आज बहुत बुरे ढंग से शोर मचा रहा है।'
'तुम मेरे कानों से सुनो।'
तो आप कास्पी सागर को दागिस्तान की नजरों से देखिए और तब वह आपको बहुत सुंदर दिखाई देगा।
दागिस्तान के मेगेब गाँव के रहनेवाले पनडुब्बी के दूसरी श्रेणी के विख्यात कप्तान मुहम्मद गाजीयेव के बहादुरी के कारनामों से सारा जंगी जहाजी बेड़ा परिचित है। उसने बाल्टिक, उत्तरी और बारेंत्सेव सागर में भी दुश्मन के खिलाफ लोहा लिया। मुहम्मद गाजीयेव के टारपीड़ों से अनेक फासिस्ट जंगी जहाजों की ठंडे पानी में कब्रें बनीं। महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के इतिहास में उसकी पनडुब्बी ने पहली बार फासिस्ट जंगी समुद्री बेड़े से आमने-सामने लड़ाई लड़ी थी। उसका एक नियम था - जब तक दुश्मन का कोई जंगी जहाज नहीं डुबो लो, तब तक मूँछें साफ नहीं करो।
मुहम्मद गाजीयेव से मेरी एक बार मुलाकात हुई। उस वक्त मैं बुईनाक्स्क शहर के अबाशीलोव नामक अध्यापक-प्रशिक्षण कालेज में पढ़ता था। मुहम्मद गाजीयेव छुट्टी पर था और हमने उसे अपने कालेज में निमंत्रित किया। हमने उससे पूछा -
'भला यह कैसे हुआ कि पहाड़ों-चट्टानों में जन्म लेनेवाले आप जहाजी बन गए?'
'बचपन में एक पर्वत के शिखर से मैंने कास्पी सागर देखा और हैरानी के कारण मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने मुझे पुकारा और मैं उसकी तरफ चल दिया। मैं सागर की पुकार की अवहेलना नहीं कर सकता था।'
पहाड़ों का रहनेवाला, सोवियत संघ का वीर, मुहम्मद गाजीयेव बारेंत्सेव सागर में वीरगति को प्राप्त हुआ। उसी का नाम धारण करनेवाले कारखाने के सामने मखाचकला में बना हुआ उसका स्मारक कास्पी के विस्तार पर ही नजर टिकाए है। सेवेरोमोर्स्क नगर में उसके नाम का एक स्कूल भी है।
दिलेर लोग ही सागर में काम करने जाते हैं, मगर सभी वहाँ से वापस नहीं आते। इसलिए पहाड़ी लोग वसंत के पहले फूल सागर को भेंट करते हैं और इस तरह सदा को सागर में ही रह जानेवाले सभी वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मेरे फूल भी लहरों में अनेक बार तैरते थे।
बारेंत्सेव सागर में, उस जगह, जहाँ गाजीयेव और उसके साथी शहीद हुए, गाजीयेव की स्मृति को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जहाज रुक जाते हैं।
कास्पी सागर में भी ऐसी ही परंपरा है। जहाज वहाँ रुकते हैं, वीरगति को प्राप्त होने वालों की स्मृति में जहाजी तीन मिनट तक मौन धारण किए रहते हैं।
हमारा शहर मखाचकला एक जहाज की तरह घाट पर खड़ा है। तटबंध के पार्क से पुश्किन की मूर्ति और उसके करीब ही सुलेमान स्ताल्स्की की मूर्ति सागर की ओर देख रही है, तरुपथ से मेरे पिता जी का बुत कास्पी पर नजर टिकाए है।
कहते हैं कि सागर की जगह कभी उदास और वनस्पतिहीन मरुस्थल था। बाद में उसने पर्वतों को देखा और हर्षोल्लास से ओत-प्रोत होकर उनके दामन में अपना नीला विस्तार फैला दिया।
कहते हैं कि पर्वत कभी आपस में लड़नेवाले अजगर थे। बाद में उन्होंने सागर को देखा और चकित होकर बुत बने रह गए तथा पाषाणों में बदल गए।
अम्माँ मेरे पालने के ऊपर गाया करती थीं -
बेटे, बनो बड़े, कि पाओ
पर्वत की ऊँचाई,
बेटे, बनो बड़े, कि पाओ
सागर की चौड़ाई।
युवती ने अपने जवान प्रियतम के लिए यह गाया -
जन्म हुआ ऊँचे पर्वत पर
साफ नजर यह आता है,
टेढ़ी टोपी पहन घमंडी
अपनी अकड़ दिखाता है।
जवान जिगीत यानी सूरमा ने सुंदर पहाड़ी युवती के लिए यह गाया -
सागर-तल से क्या तुम आई
अरी, रूप लेखा?
कभी न पहले ऐसा यौवन
जीवन में देखा।
एक सभा में मैंने निम्न बातचीत सुनी -
'हम लोग हर वक्त सागर और पहाड़ों, पहाड़ों और सागर का ही क्यों राग अलापते रहते हैं? हमारे यहाँ कुछ दूसरे प्रकार के पहाड़ और सागर भी हैं जिनकी हमें चर्चा करनी चाहिए। हमारे यहाँ लेज्गीनी उपवनों का सागर है, मवेशियों का सागर है, ऊन के पहाड़ हैं।'
लेकिन ठीक ही कहा जाता है - 'तीनों गाने खुद ही नहीं गाओ, एक हमारे लिए भी रहने दो। तीनों नमाजें खुद नहीं अदा करो, एक हमारे लिए भी रहने दो।'
दागिस्तान जिन भागों का बना हुआ है, मैंने उनमें से दो मुख्य भागों का वर्णन किया है। बाकी सब कुछ - उसका तीसरा भाग है। क्या उसके रास्तों और नदियों, पेड़ों और घास-पौधों की कम चर्चा की जा सकती है! सभी कुछ का वर्णन करने के लिए तो पूरी जिंदगी भी काफी नहीं होगी।
गीतों-गानों के बारे में भी यही सही है। दुनिया में सिर्फ तीन गीत हैं - पहला - माँ का गीत, दूसरा - माँ का गीत और तीसरा गीत - बाकी सभी गीत।
पहाड़ी लोग यह कहते हुए किसी को अपने यहाँ आमंत्रित करते हैं - 'हमारे यहाँ पधारिए। हमारे पर्वत, हमारा सागर और हमारे दिल आपकी सेवा में उपस्थित हैं। हमारी धरती-धरती है, घर-घर है, घोड़ा-घोड़ा है, आदमी-आदमी है। उनके बीच तीसरा कुछ नहीं।'
इनसान : मेरा दाग़िस्तान
अवार भाषा में इनसान और आजादी के लिए एक ही शब्द का उपयोग होता है। 'उज्देन' - इनसान, 'उज्देनली' - आजादी। इसलिए जब इनसान का उल्लेख किया जाता है तो यह अभिप्राय भी होता है कि वह आजाद है।
एक कब्र के पत्थर पर आलेख -
बुद्धिमान होने का उसने कभी न नाम कमाया,
बाँका वीर-सूरमा वह तो कभी नहीं कहलाया,
लेकिन उसके सम्मुख तुम सब अपना शीश झुकाओ
क्योंकि सही मानी में वह इनसान भला बन पाया।
खंजर पर आलेख -
शत्रु-भाव या मित्र-भाव से
कोई मिले कि जीवन में,
'वह इनसान', याद यह रखो
खंजरवाले, तुम मन में।
बहुत समय तक अनुपस्थित रहने के बाद एक पहाड़िया जब मातृभूमि लौटा तो उससे पूछा गया -
'यह बताओ कि वहाँ कैसा हाल-चाल है, वहाँ की जमीन कैसी है, वहाँ के तौर-तरीके कैसे हैं?'
'वहाँ इनसान रहते हैं,' पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया।
जब हाजी-मुरात और शामिल के बीच झगड़ा हो गया तो कुछ लोगों ने नायब (सहायक) यानी हाजी-मुरात को खुश करने के लिए शामिल को भला-बुरा कहना शुरू किया। कठोर संकेत से उन्हें चुप कराते हुए हाजी-मुरात ने कहा -
'खबरदार, जो ऐसे कुशब्द मुँह से निकाले। वह इनसान है और अपने झगड़े को हम खुद निपटा सकते हैं।'
हाजी-मुरात बेशक शामिल को छोड़कर चला गया, फिर भी गुनीब पहाड़ पर आखिरी लड़ाई के वक्त अपने नायब की बहादुरी और दिलेरी को याद करते हुए शामिल ने कहा -
'अब वैसे लोग नहीं रहे। वह इनसान था।'
अनेक सदियों से पहाड़ी लोग पहाड़ों में रह रहे हैं और हमेशा ही उन्हें इनसान की जरूरत महसूस होती रही है। इनसान की जरूरत है। इनसान के बिना किसी तरह भी काम नहीं चल सकता।
पहाड़ी आदमी विश्वास दिलाता है - इनसान के रूप में पैदा हुआ हूँ - इनसान के रूप में ही मरूँगा!
पहाड़ियों का यह नियम है - खेत और घर बेच दो, सारी संपत्ति खो दो, किंतु अपने भीतर के इनसान को न बेचो और न गँवाओ।
पहाड़ी लोग अपने को यों शाप देते हैं - हमारे वंश में न इनसान हो, न घोड़ा। तो पहाड़ी लोग उसे बीच में ही टोककर कहते हैं -
'उसके बारे में अपने शब्द बरबाद नहीं करें। वह तो इनसान ही नहीं है।'
जब कभी किसी आदमी की भूल, दोष-अपराध, त्रुटि-कमजोरी का जिक्र शुरू किया जाता है तो पहाड़ी लोग बीच में ही टोककर कहते हैं -
'वह इनसान है और उसके इस अपराध को माफ किया जा सकता है।'
जिस गाँव में कोई व्यवस्था नहीं होती, जो तंग और गंदा होता है, जहाँ लड़ाई-झगड़ा होता रहता है तथा जो किसी काम का नहीं होता, उसके बारे में पहाड़ी लोग कहते हैं -
'वहाँ इनसान नहीं है।'
जिस गाँव में व्यवस्था और शांति होती है, उसके बारे में कहा जाता है -
'वहाँ इनसान है।'
इनसान - यह मुख्य लक्षण, अमूल्य आभूषण और महान चमत्कार है। दागिस्तान में इनसान कहाँ से प्रकट हुआ, पहाड़ी लोगों के अनूठे कबीले की कैसे शुरुआत हुई, उसकी जड़ें कहाँ हैं? इसके बारे में बहुत-से किस्से-कहानियाँ और दंत-कथाएँ हैं। इनमें से एक मैंने बचपन में सुनी थी।
धरती पर तरह-तरह के जानवरों और परिंदों का जन्म हो चुका था तथा उनके निशान देखने को मिलते थे, मगर इनसान के पाँवों के चिह्न ही कहीं नहीं थे। तरह-तरह की आवाजें सुनाई देती थीं, लेकिन सिर्फ इनसान की आवाज सुनने को नहीं मिलती थी। इनसान के बिना धरती जबान के बिना मुँह और दिल के बिना छाती के समान थी।
इस धरती के ऊपर बड़े शक्तिशाली और बहादुर उकाब पक्षी आसमान में उड़ते रहते थे। जिस दिन की चर्चा चल रही है, उस दिन ऐसे जोर का हिमपात हो रहा था। मानो पृथ्वी के सारे पक्षियों के पंख नोचे जा रहे हों और वे हवा में उड़ रहे हों। काले बादलों ने आकाश को ढक दिया, धरती हिम से पट गई, सब कुछ गड्डमड्ड हो गया और यह समझ पाना कठिन था कि धरती कहाँ है तथा आकाश कहाँ। इस वक्त एक उकाब, जिसके पंख तलवारों जैसे और चोंच खंजर जैसी थी, अपने घोंसले की तरफ लौट रहा था।
या तो उकाब ऊँचाई के बारे में भूल गया या ऊँचाई उसके बारे में भूल गई, लेकिन उड़ते-उड़ते ही वह कठोर चट्टान से जा टकराया। अवार जाति के लोगों का कहना है कि गुनीब पर्वत पर ऐसा हुआ, लाक जातिवाले कहते हैं कि यह घटना तुर्चीदाग पर्वत पर घटी, लेज्गीन जाति के लोग विश्वास दिलाते हैं कि यह तो शाहदाग पर्वत पर हुआ था। किंतु यह घटना चाहे कहीं भी क्यों न घटी हो, चट्टान तो चट्टान है और उकाब उकाब है। व्यर्थ ही तो यह नहीं कहा जाता - 'परिंदे को पत्थर मारो - परिंदा मर जाएगा, परिंदे को पत्थर पर मारो - परिंदा मर जाएगा।'
संभवतः चट्टान पर गिरकर मरनेवाला यह पहला उकाब नहीं था। किंतु यह उकाब, जिसके पंख तलवारों जैसे थे और चोंच खंजर जैसी, चट्टान से टकराकर मरा नहीं। इसके पंख टूट गए, मगर दिल धड़कता रहा, तीखी चोंच और लोहे की तरह मजबूत पंजे ज्यों के त्यों बने रहे। इसे अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष करना पड़ा। पंखों के बिना खुराक हासिल करना मुश्किल है, पंखों के बिना दुश्मन से जूझना कठिन है। यह उकाब हर दिन एक पत्थर से दूसरे पत्थर और एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर अधिकाधिक ऊपर चढ़ता हुआ उसी चट्टान तक पहुँच गया जिसपर बैठकर इसे इर्द-गिर्द के पर्वतों पर नजर दौड़ाना अच्छा लगता था।
पंखों के बिना खुराक हासिल करना मुश्किल था, दुश्मन से अपने को बचाना कठिन था, ऊँचाई पर जाना और घोंसला बनाना आसान नहीं था। इन सभी कठिन कामों के दौरान उकाब की मांस-पेशियाँ बदल गईं और उसकी बाहरी शक्ल-सूरत भी बदलने लगी। जब घोंसला बन गया तो वह वास्तव में पहाड़ी घर ही था और पंखों के बिना उकाब पहाड़ी आदमी।
वह पाँवों पर खड़ा हो गया और टूटे हुए पंखों की जगह उसकी बाँहें निकल आईं। उसकी आधी चोंच सामान्य, लेकिन बड़ी नाक में बदल गई और बाकी आधी चोंच पहाड़ी आदमी की पेटी से लटकनेवाला खंजर बन गई। सिर्फ उसका दिल उसका दिल नहीं बदला, वह पहले की तरह उकाब का दिल ही बना रहा।
'तो देखा तुमने बेटे,' अम्माँ ने यह किस्सा खत्म करते हुए कहा - 'पहाड़ी आदमी बनने से पहले उकाब को कितनी अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। तुम्हें इस चीज के महत्व को समझना चाहिए।'
मैं नहीं जानता कि यह सब ऐसे ही हुआ था या नहीं, लेकिन एक बात निर्विवाद है कि परिंदों में पहाड़ी लोगों को उकाब ही सबसे ज्यादा प्यारा है। नेक और बहादुर आदमी को उकाब कहा जाता है। बेटे का जन्म होता है तो पिता यह घोषणा करता है - मेरे यहाँ उकाब का जन्म हुआ है। बेटी जब जल्दी-जल्दी और बड़ी फुर्ती से घर लौटती है तो माँ कहती है - मेरी उकाब बिटिया उड़ आई है।
महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के समय दागिस्तान के वीरों के बारे में एक किताब लिखी गई थी जिसका शीर्षक 'पहाड़ी उकाब' था।
पुराने घरों के दरवाजों, पालनों और खंजरों पर अक्सर पच्चीकारी के रूप में या किसी अन्य रूप में उकाब की आकृति बनी दिखाई देती है।
यह सही है कि इस सिलसिले में दूसरे किस्से-कहानियाँ भी हैं।
जब इस दुनिया में भाग्य के उलट-फेर के बारे में सोचा जाता है, जब पिता मातृभूमि से दूर दूसरी दुनिया को कूच करनेवाले बेटों को याद करते हैं या जब बेटे परलोक सिधार गए पिताओं को स्मरण करते हैं तो ऐसा मानते हैं कि पहाड़ी आदमी उकाब से नहीं, बल्कि उकाब पहाड़ी आदमियों से बने हैं।
- नदियों-चट्टानों के ऊपर तुम ऊँचे उड़नेवाले
कौन तुम्हारा वंश उकाबो, अरे, कहाँ से तुम आए?
- बहुत तुम्हारे बेटे-पोते, मातृभूमि के लिए मिटे
हम उनके दिल, पंख लगाकर इस धरती पर जो आए!
- दूर गगन के अँधियारे में तुम झिलमिल करते तारो।
कौन तुम्हारा वंश बताओ और कहाँ से तुम आए?
- खेत रहे हैं रण-आँगन में, युवक तुम्हारे वीर बहुत
उनकी ही आँखों की हम तो चमक, रोशनी बन आए।
तो यही कारण है कि दागिस्तान के लोग प्यार और आशा से आकाश को ताकते हैं। उड़कर आने और उड़कर जानेवाले पक्षियों को भी वे ऐसे ही देखते हैं। पहाड़ी लोग नीलाकाश को बहुत चाहते हैं!
1942 का साल याद आ रहा है। फील्ड-मार्शल क्लेइस्ट की सेनाओं ने काकेशिया के ऊँचे स्थलों पर अधिकार कर लिया था। फासिस्टों के हवाई जहाज ग्रोज्नी शहर के खनिज-तेल के ठिकानों पर बमबारी करते थे। हमारे दागिस्तान की ऊँचाइयों से आग का धुआँ नजर आता था।
उन दिनों काकेशिया के सभी जनगण के युवजन के प्रतिनिधि ग्रोज्नी में जमा हुए। दागिस्तान के प्रतिनिधिमण्डल में मैं भी शामिल था। हमारी मीटिंग में सोवियत संघ के वीर, लेज्गीन जाति के मशहूर हवाबाजवालेन्तीन अमीरोव ने भाषण दिया। मैं न तो मंच पर से दिया गया उसका भाषण और न मीटिंग के बाद उसके साथ हुई अपनी थोड़ी-सी बातचीत ही कभी भूल सकूँगा। वहाँ से जाते वक्त उसने आँखों से आकाश की तरफ इशारा करते हुए कहा -
'वहाँ जाने की उतावली में हूँ। धरती की तुलना में मेरी वहाँ ज्यादा जरूरत है।'
दो हफ्ते बाद उसकी मौत की खबर आ गई। दागिस्तान का प्रसिद्ध सुपुत्र मौत के मुँह में चला गया, जल गया। किंतु हर बार ही, जब मैं चीख के साथ अपने सिर के ऊपर से उकाब को उड़ते हुए जाते देखता हूँ तो यह विश्वास करता हूँ कि उसके सीने मेंवालेंतीन का दहकता हुआ दिल है।
सन 1945। मास्को। हम विद्यार्थी पहाड़ी इलाके, मखाचकला की खबरें जानने के लिए मास्को में दागिस्तान के प्रतिनिधि-भवन में जाते थे। हमारा जनतंत्र उस समय अपनी रजत-जयंती मनाने की तैयारी कर रहा था। एक बार वहाँ नबी अमीनतायेव से मेरी मुलाकात हो गई। दागिस्तान में उस समय शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो लाक ताति के नबी अमीनतायेव को न जानता हो। आकाश का छतरीबाज सूरमा, यह विनम्र व्यक्ति पैराशूट के सहारे अनेक बार शत्रु के क्षेत्र में उतरा था और हर बार ही सही-सलामात वापस आ गया था।
'अब तो जंग नहीं है, तुम दागिस्तान लौट आओ,' मैंने उससे कहा।
'आकाश तो है।'
कुछ दिनों के बाद 'प्राव्दा' समाचारपत्र ने उसका फोटो छापा। उसके नीचे यह लिखा था - 'नबी अमीनतायेव ने पैराशूट से छलाँगों का विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है। नबी अमीनतायेव ने अपना रिकार्ड दागिस्तान को समर्पित किया है।'
कुछ दिनों के बाद मेरी फिर नबी से मुलाकात हुई।
'आओ, दागिस्तान चलें।'
'आकाश इतंजार कर रहा है। मैं आकाश के बिना नहीं रह सकता।'
लेकिन जिंदगी छोटी-सी है। एक बार पैराशूट ने दगा दे दिया और हमारा नबी मानो टूटे हुए पंखोंवाले उकाब की भाँति नीचे गिरकर मर गया। तब से अब तक अनेक वर्ष बीत चुके हैं, किंतु जब भी मैं आकाश में उकाब की चीख सुनता हूँ तो यही सोचता हूँ कि उसके सीने में नबी का दहकता हुआ दिल है।
सुंदर रेजेदा की भी मुझे याद आ रही है। दागिस्तान के आसमान से वह गुनीब पर्वत पर कूदी थी। उसकी खिड़की के नीचे तब कितने पंदूरा बाजे गूँज उठे थे। एक भी तो ऐसा जवान कवि नहीं था जिसने अपनी कविता उसे समर्पित न की हो। बुईनाक्स्क नगर में ईंटों का छोटा-सा पक्का घर है। उन दिनों कितनी नजरें उसकी खिड़की पर टिकी रही थीं! खूंजह, गुनीब और कुमुख गाँवों में घोड़ों पर जीन कसे गए ताकि लंबी चोटियोंवाली हसीना को अगवा कर लिया जाए। लेकिन एक लेनिनग्रादवासी आया और हमारी रेजेदा को हवाई जहाज में बिठाकर अपने साथ ले गया। उसने हवा में उड़ते हवाई जहाज से हाथ हिलाकर धरती पर रह जानेवाले अपने सभी प्रेम-दीवानों को अलविदा कह दिया। हमारे कवि मुँह बाए हुए उसे जाते देखते रहे और बाद में उस कबूतरी के बारे में कविताएँ रचने लगे जिसे उकाब अपने साथ उड़ा ले गया था...
दूसरे विश्व-युद्ध के समय रेजेदा लेनिनग्राद में थी। उसने लिखा - 'इस नगर में न केवल अब दूधिया रजत-रातें ही नहीं रहीं, बल्कि दिन भी काले हो गए। लेनिनग्राद आग की लपटों में है। मैं भी लपटों से घिरी हुई हूँ। धुएँ और आग में से आकाश को देखती हूँ। किंतु आकाश में भी लड़ाई चल रही है। मेरे पति सेईद अनेक बार दुश्मन के चंडावल में जा चुके हैं। अब मैं इस सूचना के तीन पत्र पा चुकी हूँ कि वह वीरगति को प्राप्त हो गए हैं। वह शत्रु के चंडावल में उतरने डाक्टर थे। मेरे पास वे लोग आते रहते हैं जिनकी उन्होंने जानें बचाईं।'
रेजेदा दागिस्तान लौट आई। अपने दागिस्तान के आकाश में जब वह उकाब की चीख सुनती है तो यही सोचती है कि उसके सीने में सेईद का दहकता हुआ दिल है।
मेरे भाई अखील्ची... तुम तो एकदम धरती से संबंधित, कृषि-संस्थान में शिक्षा पा रहे थे... किंतु युद्ध के समय तुमने आकाश को चुना, हवाबाज बन गए। काले सागर के ऊपर तुमने वीरगति पाई। उस वक्त तुम्हारी उम्र बाईस साल थी। मैं यह जानता हूँ कि तुम अपने जन्मस्थान के प्यारे पहाड़ी घर में अब कभी नहीं लौटोगे। किंतु हर बार ही जब मेरे ऊपर कहीं उकाब की चीख सुनाई देती है तो मैं यह मानता हूँ कि यह अखील्ची का दिल है जो मुझसे, अपने भाई से कुछ कह रहा है।
दागिस्तान के आकाश में उकाब उड़ते रहते हैं। बड़ी संख्या है उनकी। किंतु ऐसे वीरों की संख्या भी कुछ कम नहीं है जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपनी जानें कुर्बान की हैं। उकाब की हर चीख में बहादुरी और दिलेरी की ललकार होती है। हर चीख - यह लड़ाई में कूदने का आह्वान होती है।
मैं जानता हूँ कि यह सुंदर किस्सा, मनगढ़ंत कहानी है। लोग चाहते हैं कि ऐसा ही हो। किंतु एक व्यक्ति को, जो बहुत ऊँचाई पर चढ़ गया था, आंदी जाति के एक आदमी ने कहा -
'इनसान बनने के लिए उकाब तक धरती पर उतर आते हैं। तुम भी अपनी ऊँचाइयों से नीचे आओ। सभी लोगों का यहाँ, धरती पर जन्म हुआ है। पहाड़िया इसीलिए पहाड़िया कहलाता है कि वह पहाड़ों का, धरती का आदमी है। हमारे यहाँ 'उड़ना' शब्द बहुत पसंद किया जाता है। घुड़सवार सरपट घोड़ा दौड़ाता है तो हम कहते हैं - उड़ा आ रहा है। गीत या गाना उड़ रहा है। हमारे अधिकतर गीत-गाने उकाबों के बारे में हैं।'
अनेक बार मेरी इस बात के लिए आलोचना की गई है कि अपनी कविताओं में मैं अक्सर उकाबों का जिक्र करता हूँ। लेकिन अगर दूसरे पक्षियों की तुलना में मुझे उकाब ज्यादा अच्छे लगते हैं तो मैं क्या करूँ? वे दूर-दूर तक और ऊँची उड़ान भरते हैं, जबकि दूसरे पक्षी जुआर-बाजरे के दानों के पास ही दौड़-धूप करते और चहकते रहते हैं। उकाबों की आवाज भी ऊँची और साफ है। जैसे ही ठंड शुरू होती है, वैसे ही दूसरे पक्षी दागिस्तान के साथ गद्दारी करके पराये क्षेत्रों को उड़ जाते हैं। लेकिन उकाब तो कभी अपनी मातृभूमि को नहीं छोड़ते, चाहे कैसा भी मौसम क्यों न हो, गोलियों की कितनी ही ठाँय-ठाँय चाहे कैसी भी दहशत क्यों न पैदा करे। उकाबों के लिए गर्म, स्वास्थ्यप्रद स्थानों का अस्तित्व नहीं है। दूसरे पक्षी हर समय जमीन के साथ चिपके रहते हैं, एक छत से दूसरी छत और धुएँ की एक चिमनी से दूसरी पर, एक खेत से दूसरे में उड़ते रहते हैं। किसी छोटे-से दर्रे को हमारे यहाँ पक्षी का दर्रा कहते हैं।
किसी बहुत बड़ी चट्टान को हमारे यहाँ उकाब की चट्टान कहा जाता है।
इस धरती पर जन्म लेनेवाला हर आदमी इनसान नहीं होता। उड़नेवाला हर परिंदा उकाब नहीं होता।
पहाड़ी उकाब : मेरा दाग़िस्तान
...शक्ति और गरिमा से मेरी धरती ओत-प्रोत है
तरह-तरह के विहग कि जिनके प्यारे, मधुर तराने हैं,
उनके ऊपर उड़ते रहते, विहग देवताओं जैसे
वे उकाब, जिनके बारे में बहुत गीत हैं, गाने हैं।
इसी हेतु कि उनकी ऊँचे नभ में झलक मिले
बने संतरी रहें, भयानक, दुर्दिन जब आएँ;
दूर, पहुँच के बाहर जो ऊँची-ऊँची चट्टानें हैं
वे रहते हैं वहीं, नीड़ उनके नभ छू जाएँ।
कभी अकेला, बड़े गर्व से वह उड़ान जब भरता है,
धुंध-कुहासे को पंखों से चीर-चीर तब बढ़ता है,
और कभी खतरे में मानो झुंड, बड़ा-सा दल उनका
नीले सागर और महासागर के ऊपर उड़ता है।
बहुत दूर, ऊँचाई पर वे धरती के ऊपर उड़ते
अपनी तेज नजर से जैसे रक्षक वन भू को तकते
भारी, गहरे स्वर में उनकी चीख, किलक सुनकर कौवे
दूर भाग जाते हैं डरकर, दिल उनके धक-धक करते।
उसी तरह से मैं घंटों तक, जैसे अपने बचपन में
हिम से मढ़े हुए शिखरों को, देख अभी भी सकता हूँ,
कैसे उड़ते हैं उकाब, फैलाकर अपने पंख वहाँ
किसी प्रेम-दीवाने-सा मैं, मुग्ध अभी हो सकता हूँ।
कभी पहाड़ों पर से अपनी नजर दूर दौड़ाते हैं
और कभी स्तेपी-मैदानों में वे उड़ते जाते हैं
सबसे अधिक दिलेर, साहसी पर्वतवासी जो होते
ये उकाब मेरी धरती के, सभी जगह कहलाते हैं।
जापानी लोग सारसों को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्षी मानते हैं। उनमें ऐसा माना जाता है कि अगर कोई बीमार आदमी कागज के एक हजार सारस बना लेता है तो वह स्वस्थ हो जाएगा। उड़ते हुए सारसों, खास तौर पर फूजीयामा पर्वत के ऊपर से उड़े जा रहे सारसों के साथ जापानी लोग अपनी खुशियों और गमों, मिलन और जुदाई, सपनों और प्यारी स्मृतियों के सूत्र-संबंध जोड़ते हैं।
सारस मुझे भी अच्छे लगते हैं। फिर भी जब जापानियों ने मुझसे यह पूछा कि कौन-सा पक्षी मुझे सबसे ज्यादा प्यारा लगता है तो मैंने जवाब दिया - उकाब। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा।
लेकिन कुछ ही समय बाद टोकियो में आयोजित प्रतियोगिता में जब हमारा पहलवान अली अलीयेव विश्व-चैंपियन बन गया तो मेरे एक जापानी दोस्त ने मुझसे कहा -
'आपके उकाब कुछ बुरे परिंदे नहीं हैं।'
अपने पहाड़ी लोगों से मैंने तुर्की के आकाश में उकाबों और सारसों के बीच हुई लड़ाई की चर्चा की। जब मैंने उन्हें यह बताया कि इस लड़ाई में उकाब हार गए तो पहाड़ी लोग हैरान रह गए और कुछ तो बुरा भी मान गए। उन्होंने मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं करना चाहा। मगर जो सचाई थी, वह तो सचाई ही थी।
'तुम ठीक नहीं कह रहे हो, रसूल,' आखिर एक पहाड़िये ने कहा। 'शायद उकाब लड़ाई में हारे नहीं, बल्कि सभी मारे गए। मगर यह तो बिल्कुल दूसरी बात है।'
दो बार सोवियत संघ के वीर की उपाधि से सम्मानित मेरा एक मशहूर दोस्त था - अहमदखान सुलतान। उसके पिता दागिस्तानी और माँ तातार थी। वह मास्को में रहता था। दागिस्तानी उसे अपना और तातार उसे अपना वीर मानते थे।
'तुम किसके वीर हो?' मैंने एक बार उससे पूछा।
'मैं न तो तातारों और न दागिस्तान की लाक जाति के लोगों का ही वीर हूँ। मैं तो सोवियत संघ का वीर हूँ। किसका बेटा हूँ? अपने माता-पिता का। क्या उन्हें एक-दूसरे से अलग किया जा सकता है? मैं - इनसान हूँ।'
शामिल ने अपने सेक्रेटरी मुहम्मद ताहिर अल-काराही से एक बार पूछा -
'दागिस्तान में कितने लोग रहते हैं?'
मुहम्मद ताहिर ने आबादी के आँकड़ों की किताब लेकर उनकी संख्या बता दी।
'मैं असली इनसानों के बारे में पूछ रहा हूँ,' शामिल ने झुँझलाकर कहा।
'लेकिन मेरे पास ऐसे आँकड़े तो नहीं हैं।'
'अगली लड़ाई में उनकी गिनती करना नहीं भूलना,' इमाम ने हुक्म दिया।
पहाड़ी लोगों में कहा जाता है - 'किसी इनसान की असली कीमत जानने के लिए निम्नांकित सात से उसके बारे में पूछना चाहिए -
1. मुसीबत से।
2. खुशी से।
3. औरत से।
4. तलवार से।
5. चाँदी से।
6. बोतल से।
7. खुद उससे।
हाँ, इनसान और आजादी, इनसान और इज्जत, इनसान और बहादुरी - इन सबका एक ही अर्थ है। पहाड़ी लोग इस बात की कल्पना नहीं कर सकते कि उकाब दुरंगी चाल चलनेवाला भी हो सकता है। वे कौवे को दुरंगा मानते हैं। इनसान - यह तो केवल नाम नहीं, उपाधि है, सो भी बहुत ऊँची और इसे हासिल करना कुछ आसान नहीं।
कुछ ही समय पहले मैंने बोत्लीख में एक औरत को ऐसे मर्द के बारे में, जो किसी लायक न हो, यह गीत गाते सुना -
तुममें कुछ तो घोड़े जैसा
कुछ है भेड़ समान,
अंश चील का, और लोमड़ी
की होती पहचान।
कुछ मछली-सा, किंतु वीरता
उसका नहीं निशान,
कहाँ मान-सम्मान?
एक अन्य नारी के मुँह से मैंने झूठे और कपटी पुरुष के बारे में यह गीत सुना -
तुम हो मानव, मैंने सोचा
राज कहा तुमसे खुलकर,
तुम अखरोट, गिरी बिन निकले
खड़ी अकेली मैं पथ पर।
बहुत देर से तुमको समझी
मेरा ही यह दोष, मगर
तन के बिना लबादा हो तुम
टोपीवाले, किंतु न सिर।
अपने लिए वर की तलाश करनेवाली युवती ने शिकवा करते हुए कहा -
'अगर मुझे समूर की टोपी पहननेवाले वर की तलाश होती तो मैंने उसे कभी का खोज लिया होता। अगर मूँछोंवाले वर की तलाश होती तो वह भी कभी का मिल गया होता। मैं इनसान की तलाश में हूँ।'
पहाड़ी लोग जब भेड़ खरीदते हैं तो उसकी दुम, ऊन और मोटापे या चर्बी की तरफ ध्यान देते हैं। जब वे घोड़ा खरीदते हैं तो उसके थूथन, टाँगों और पूरी बाहरी आकृति को जाँचते-परखते हैं। लेकिन इनसान का कैसे मूल्यांकन किया जाए? उसके किन लक्षणों की ओर ध्यान दिया जाए? उसके नाम और काम की ओर... प्रसंगवश यह बताना भी उचित होगा कि अवार भाषा में 'नाम' शब्द के दो अर्थ हैं। पहला अर्थ तो नाम ही है और दूसरा अर्थ है किसी आदमी का काम, उसकी योग्यता-सेवा, उसके वीर-कृत्य। जब हमारे यहाँ बेटे का जन्म होता है तो यही कामना की जाती है - 'उसका काम उसका नाम पैदा करे।' किसी बड़े काम या उपलब्धि के बिना नाम तो निरर्थक ध्वनि है।
अम्माँ मुझे सीख दिया करती थीं - नाम से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं, जिंदगी से बड़ा कोई खजाना नहीं। इसे सहेजकर रखो।
सींगी पर आलेख :
साल हजारों-लाखों बीते
धीरे-धीरे तब बंदर
मानव बना, पियक्कड़ फिर से
बना जानवर, हाय, मगर!
शामिल ने जब गुनीब पहाड़ पर मजबूत किलेबंदी कर ली तो उसे पराजित करना किसी तरह भी संभव नहीं रहा। किंतु एक ऐसा गद्दार निकल आया जिसने दुश्मन को गुप्त पगडंडी दिखा दी। फील्ड-मार्शल प्रिंस बर्यातीन्स्की ने इस पहाड़िये को बहुत-सा सोना इनाम दिया।
बाद में जब बंदी शामिल कालूगा पहुँच चुका था तो यह गद्दार अपने घर लौटा। लेकिन उसके पिता ने कहा -
'तू गद्दार है, पहाड़िया नहीं, इनसान नहीं। तू मेरा बेटा नहीं।'
इतना कहकर उसने उसकी हत्या कर दी, गला काट दिया और सोने के साथ उसे चट्टान से नदी में फेंक दिया। देशद्रोही का पिता भी अब अपने इस गाँव में नहीं रह सकता था और लोगों से नजरें नहीं मिला सकता था। बेटे के कारण उसका सिर भी शर्म से झुक जाता था। वह कहीं चला गया और तब से उसका कोई अता-पता नहीं।
उस जगह के करीब से गुजरते हुए, जहाँ गद्दार का सिर फेंका गया था, पहाड़ी लोग आज तक पत्थर फेंकते हैं। कहा जाता है कि इस चट्टान के ऊपर से उड़ते हुए परिंदे भी 'गद्दार, गद्दार!' चिल्लाते हैं।
एक बार मखाच दाखादायेव अपनी सेना में सैनिक भर्ती करने के लिए गाँव में आया। गोदेकान में उसने दो पहाड़ी लोगों को ताश खेलते देखा।
'अससलामालेकुम। आपके मर्द लोग कहाँ हैं, उन्हें जरा इकट्ठा करो।'
'हमारे सिवा गाँव में और कोई मर्द नहीं है।'
'भई वाह! मर्दों के बिना भी क्या गाँव! कहाँ हैं वे?'
'लड़ रहे हैं।'
'तो यह बात है! इसका यह मतलब हुआ कि आप दोनों के सिवा आपके गाँव में बाकी सब मर्द हैं।'
अबूतालिब के साथ एक बार यह किस्सा हुआ। एक घड़ीसाज के यहाँ वह घड़ी ठीक करवाने गया। इस वक्त घड़ीसाज करीब बैठे हुए एक नौजवान की घड़ी की मरम्मत करने में व्यस्त था।
'बैठो,' घड़ीसाज ने अबूतालिब से कहा।
'देख रहा हूँ कि तुम्हारे पास लोग बैठे हैं। मैं फिर कभी आ जाऊँगा।'
'तुम्हें लोग कहाँ दिखाई दे गए?' घड़ीसाज ने हैरान होकर पूछा।
'यह नौजवान?'
'अकर यह सही मानी में इनसान होता तो तुम्हारे यहाँ आते ही उठकर खड़ा हो जाता और अपनी जगह पर तुम्हें बिठा देता... दागिस्तान को इस बात से क्या लेना-देना है कि इस निकम्मे की घड़ी ठीक वक्त बताती है या नहीं, लेकिन तुम्हारी घड़ी ठीक ढंग से चलनी चाहिए।' अबूतालिब ने बाद में बताया कि जब उसे दागिस्तान के जन-कवि की उपाधि दी गई तो उस वक्त उसे इतनी खुशी नहीं हुई थी जितनी इस घड़ीसाज की दुकान पर।
दागिस्तान में तीस जातियों के लोग रहते हैं, किंतु कुछ बुद्धिमान यह दावा करते हैं कि दागिस्तान में सिर्फ दो आदमी रहते हैं।
'यह कैसे मुमकिन है?'
'बिल्कुल मुमकिन है। एक अच्छा आदमी और एक बुरा आदमी।'
'अगर इसी दृष्टिकोण से देखा जाए,' दूसरे ने उसकी भूल सुधारी, 'तो दागिस्तान में सिर्फ एक आदमी रहता है, क्योंकि बुरे आदमी तो आदमी नहीं होते।'
कुशीन के कारीगर समूर की टोपियाँ बनाते हैं। किंतु कुछ लोग तो उन्हें सिरों पर पहनते हैं, जबकि दूसरे खूँटियों पर टाँगते हैं।
अमगूजिन के लुहार खंजर बनाते हैं। लेकिन कुछ तो उन्हें अपनी पेटियों में लटकाते हैं और कुछ कीलों पर।
आंदी के कारीगर लबादे बनाते हैं। मगर कुछ तो उसे बुरे मौसम में पहनते हैं, जबकि दूसरे संदूकों में छिपाते हैं।
लोगों के बारे में भी यही सही है। कुछ तो हमेशा काम-काज में जुटे रहते हैं, धूप और हवा का सामना करते हैं, जबकि दूसरे संदूक में बंद लबादे, खूँटी पर लटकी समूर की टोपी और कील पर लटके खंजर के समान हैं।
एक प्रकार से यों कहा जा सकता है मानो तीन प्रकार के बुद्धिमान बुजुर्ग दागिस्तान पर नजर टिकाए हुए हैं। वे मानो कई सदियों तक जी चुके हैं, उन्होंने सब कुछ देखा है और वे सब कुछ जानते हैं। उनमें से एक इतिहास की गहराई में जाकर, प्राचीन कब्रों पर नजर डालकर और आकाश में उड़ते पक्षियों के बारे में सोचते हुए कहता है - 'दागिस्तान में कभी असली इनसान थे।' दूसरे बुजुर्ग आज की दुनिया पर नजर डालते, दागिस्तान में जगमगाती बत्तियों की ओर इशारा करते और दिलेरों-बहादुरों के नाम लेते हुए कहता है - 'हाँ, दागिस्तान में इनसान हैं।' तीसरे ढंग का बुजुर्ग मन ही मन भविष्य पर नजर डालते, उस नींच का मूल्यांकन करते हुए जो हमने भविष्य के लिए आज रखी है, यह कहता है - 'दागिस्तान में कभी इनसान होंगे।'
संभवतः तीनों प्रकार के बुजुर्ग सही हैं।
कुछ समय पहले विख्यात अंतरिक्ष-नाविक आंद्रियान निकोलायेव दागिस्तान में पधारा। वह मेरे घर भी आया। मेरी छोटी बिटिया ने पूछा -
'क्या दागिस्तान का अपना अंतरिक्ष-नाविक नहीं है?'
'नहीं है,' मैंने जवाब दिया।
'होगा?'
'हाँ, होगा!'
इसलिए होगा कि बच्चे जन्म लेते हैं, कि हम उन्हें नाम देते हैं, कि वे बड़े होते हैं और हमारे देश के साथ कदम मिलाकर चलते हैं। हर कदम के बढ़ने पर वे अपने वांछित लक्ष्य के करीब पहुँचते जाते हैं। हमारी तो यही कामना है कि दूसरी जगहों पर दागिस्तान के बारे में वैसा ही कहा जाए, जैसा हम उस गाँव के संबंध में कहते हैं जिसमें व्यवस्था और शांति है - वहाँ इनसान है।
जनगण : मेरा दाग़िस्तान
'यह बताओ कि क्या अमरीका हमारे देश जितना ही बड़ा है? वहाँ ज्यादा आबादी है या हमारे यहाँ?' 1959 में अमरीका से लौटने पर मेरी माँ ने मुझसे पूछा।
शोर किए बिन बहलाए जो मन अपना
बिना आँसुओं के ही जो रो सकता है,
आह भरे बिन जो चुपके से मर जाए
ऐसा व्यक्ति पहाड़ी, ऐसी जनता है।
रात के सन्नाटे और सो रहे गाँव में चाहे पानी बरस रहा हो या अच्छा मौसम हो, खिड़की पर हल्की-सी दस्तक होती है।
'अरे, यहाँ कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो!'
'तुम कौन हो?'
'अगर यह पूछ रहे हो कि 'कौन' हूँ तो घर पर ही रहो। तुमसे कोई फायदा नहीं होगा।'
फिर दूसरी खिड़की पर दस्तक होती है - ठक, ठक।
'अरे, इस घर में क्या कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो!'
'कहाँ जाने को? किसलिए?'
'अगर 'कहाँ' और 'किसलिए' पूछते हो तो घर पर ही रहो। तुमसे कोई फायदा नहीं होगा।'
तीसरी खिड़की पर दस्तक होती है।
'अरे, इस घर में क्या कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो!'
'अभी। मैं तैयार हूँ।'
तो यह मर्द है, यह पहाड़ी आदमी है! और ये दोनों चल देते हैं। फिर ठक, ठक। 'यहाँ कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो।' और अब वे दो नहीं, तीन नहीं, दस नहीं, बल्कि सैकड़ों और हजारों हैं। उकाब के पास उकाब उड़ आया, एक व्यक्ति के पीछे दूसरा व्यक्ति चल दिया। ऐसे दागिस्तान के जनगण, इसकी जनता ने रूप ग्रहण किया। घाटी से आनेवाली हवाएँ पालने झुलाती हैं, पहाड़ी नदियाँ लोरियाँ गाती हैं -
तुम कहाँ गए थे, डिंगीर-डांगारचू?
वन में गया था डिंगीर-डांगारचू।
बेटे का जन्म हुआ - उसके तकिये के नीचे खंजर रख दिया गया। खंजर पर यह लिखा था - 'तुम्हारे पिता का ऐसा हाथ था कि जिसमें तुम नहीं काँपते थे। क्या तुम्हारा हाथ भी ऐसा ही होगा?'
बिटिया का जन्म हुआ, पालने के ऊपर एक घंटी लटका दी गई जिस पर लिखा था - 'सात भाइयों की बहन होगी।'
एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर फैलाई गई रस्सियों के सहारे घाटी में पालने झूलते हैं। बेटे बड़े हो रहे हैं, बेटियाँ भी बड़ी हो रही हैं। दागिस्तान के जनगण बड़े हो गए, उनकी मूँछें भी बड़ी हो गईं, अब उन पर ताव दिया जा सकता है।
दागिस्तान में सोलह लाख 72 हजार लोग हो गए। दूर-दूर के पहाड़ों तक उनकी ख्याति फैल गई, इस ख्याति से कभी न तृप्त होनेवाले विजेताओं के मुँह में पानी भर आया और उन्होंने दागिस्तान की तरफ अपने लालची हाथ बढ़ाए।
दागिस्तानियों ने कहा - 'हमें हमारे घरों में माता-पिताओं और पत्नियों के साथ चैन से रहने दो। हमारी संख्या तो यों ही कम है।'
लेकिन दुश्मनों ने जवाब दिया - 'अगर तुम्हारी संख्या कम है तो हम तुम्हारे दो-दो टुकड़े कर देंगे और तुम्हारी संख्या दुगुनी हो जाएगी।'
लड़ाइयाँ शुरू हो गईं।
दागिस्तान में ज्वालाएँ भड़कने लगीं, दागिस्तान धू-धू करके जलने लगा। पहाड़ी ढालों, घाटियों-दर्रों में और चट्टानों पर दागिस्तान के सबसे अच्छे एक लाख सपूत, एकदम जवान, मजबूत और दिलेर बेटे खेत रहे।
लेकिन दस लाख दागिस्तानी जिंदा बच गए। हवाएँ पहले की तरह ही पालनों को झुलाती रहीं, लोरियाँ गाई जाती रहीं। एक लाख नए दागिस्तानी बेटे बड़े हो गए। उन्हें खेत रहे वीरों के नाम दे दिए गए। तभी दागिस्तान पर हमला कर दिया गया।
बहुत बड़ी लड़ाई हुई, लड़ाई का बहुत बड़ा शोर-गुल रहा। कटे हुए सिर पत्थरों की भाँति दर्रों-घाटियों में लुढ़कते रहे। दागिस्तान के सबसे अच्छे एक लाख सपूत शहीद हो गए। एक लाख सैनिक, एक लाख हलवाहे, एक लाख वर, एक लाख पिता।
किंतु दस लाख जिंदा रह गए। पालने झूलते रहे, गाने गाए जाते रहे, जवान सूरमा अपनी प्रेयसियों को भगाकर ले जाते रहे, एक ही लबादे के नीचे तन गर्माते और आलिंगन करते रहे, दागिस्तान की वंश-वृद्धि करते रहे। एक लाख नए बेटे-बेटियों का जन्म हुआ, एक लाख हँसिए, खंजर, पंदूरे और खंजड़ियाँ सामने आ गईं।
तब एक नया युद्ध आरंभ हुआ। घाटियों में और पहाड़ी रास्तों पर तोपें दनदना उठीं। पहाड़ी वनों की ढालों पर कुल्हाड़े चलने की आवाजें होने लगीं। संगीनें चमक उठीं, गोलियाँ ठाँय-ठाँय करने लगीं।
तब उराल से, रे डेन्यूब तक
चौड़े-चौड़े नदी-पाट तक
बढ़ती जाती थीं सेनाएँ
संगीनों की चमक दिखाएँ।
श्वेत टोपियाँ लहराती थीं
हरी घास-सी बल खाती थीं।
घोड़े जिनके धूल उड़ाते
वे उलान भी बढ़ते जाते
सजी-धजी वे, सटी-सटी वे
कदम मिला चलतीं सेनाएँ,
झंडे उनके आगे फहरें
और ढोलची ढोल बजाएँ।
तोपें उनकी शोर मचाएँ
वे दनदन गोले बरसाएँ।
वहाँ पलीते भी जलते हैं
धाँय-धाँय गोले चलते हैं
पके हुए बालोंवाला वह
जनरल करता है अगुआई
उसकी आँखों में शोले हैं
आग नजर में पड़े दिखाई।
बढ़ती जाती हैं सेनाएँ
जैसे तेज, प्रबल धाराएँ,
वे मेघों-सी उमड़ रही हैं
घोर घटा-सी घुमड़ रही हैं,
वे पूरब को बढ़ती जाएँ
वे मंसूबे बुरे बनाएँ।
कज्बेक दुख, चिंता में डूबा
दुश्मन को देखे, घबराए,
गिनती करना चाहे इनकी
किंतु नहीं इनको गिन पाए।
हाँ, उनकी गिनती करना कठिन था। हमारे गीतों में यह गाया जाता है कि हमारे एक व्यक्ति को एक सौ शत्रुओं का सामना करना पड़ा। 'एक हाथ कट जाता तो वह दूसरे हाथ से लड़ता, सिर कट जाता तो उसका धड़ लड़ता रहता,' बूढ़े उस युद्ध के बारे में ऐसा बताते थे। मरे हुए घोड़ों से रास्ते और दर्रे रोक दिए जाते थे, सैनिक ऊँची-ऊँची चट्टानों से संगीनों पर कूदते थे। हमसे यह कहा जाता था कि खून बहाना बंद करो। विरोध करने में काई तुक नहीं। कहाँ जाओगे तुम? तुम्हारे पंख नहीं हैं कि आसमान में उड़ जाओ। तुम्हारे ऐसे नाखून नहीं हैं कि धरती को खोदकर उसमें समा जाओ।
लेकिन शामिल जवाब देता था।
'मेरी तलवार-पंख है। हमारे खंजर और तीर - हमारे नाखून हैं।'
पचीस साल तक पहाड़ी लोग शामिल के नेतृत्व में लड़ते रहे। इन सालों के दौरान न केवल दागिस्तान का बाहरी रंग-रूप बदला, बल्कि स्थानों और नदियों के नाम भी बदल गए। अवार-कोइसू का नाम कारा-कोइसू यानी काली नदी हो गया। 'घायल चट्टानें' और 'मौत का दर्रा' प्रकट हो गया, वालेरिक नदी विख्यात हो गई, शामिल की पगडंडी, शामिल का मार्ग और शामिल का नाच लोगों की स्मृति में अंकित होकर रह गए।
गुनीब पर्वत उस युद्ध के अपार दुख का चरमबिंदु बनकर रह गया है। इमाम ने इसी की चोटी पर आखिरी बार इबादत की। इबादत के वक्त ऊपर उठे हुए हाथ में गोली लग गई। शामिल सिहरा नहीं और उसने अपनी नमाज जारी रखी। इमाम शामिल के घुटनों और उस शिला पर, जिस पर वह खड़ा था, खून गिरता रहा। घायल इमाम ने अपनी नमाज पूरी की। जब वह उठकर खड़ा हुआ तो लोगों ने कहा -
'तुम घायल हो, इमाम।'
'यह घाव तो मामूली-सा है। ठीक हो जाएगा।' शामिल ने मुट्ठी भर घास तोड़ी और हाथ से बह रहा खून पोंछने लगा। 'दागिस्तान लहूलुहान हो रहा है। इस घाव का इलाज कहीं ज्यादा मुश्किल है।'
इसी कठिन घड़ी में इमाम ने सहायता के लिए अपने उन वीरों का आह्वान किया जो बहुत पहले ही कब्रों में जा चुके थे। उसने उनसे अपील की जिन्होंने अखूल्गो में अपने प्राण दिए, उनसे जो खूँजह में अपने प्राण दे चुके थे, उनसे जो साल्टी गाँव के करीब पथरीली धरती पर मृत पड़े रहे, उनसे जो गेर्गोबिल में दफन हैं, उनसे जो दार्गो में वीरगति को प्राप्त हुए।
इमाम शामिल ने अपने ही गाँववासी और अग्रज, पहले इमाम काजी-मुहम्मद, लंगड़े हाजी-मुरात, अलीबेकीलाव, अखबेर्दीलाव और अनेक अन्य वीरों को याद किया। इनमें से कोई सिर के बिना, कोई हाथ के बिना और कोई गोलियों से छलनी हुए दिल के साथ दागिस्तान की धरती में दफन पड़ा है। युद्ध का मतलब है मौत। दागिस्तान के एक लाख सबसे अच्छे सपूत।
लेकिन शामिल विशाल रूस की धरती से गुजरते हुए लगातार यही दोहराता रहा -
'दागिस्तान छोटा है, हमारे लोगों की संख्या कम है। काश, मेरे पास एक हजार सूरमा और होते।'
वेर्खनी (ऊपरवाले) गुनीब में वह पत्थर अभी तक सुरखित है जिस पर लिखा है - 'प्रिंस बर्यातीन्स्की ने इसी पर बैठकर बंदी शामिल से बातचीत की थी।'
'तुम्हारी सारी कोशिशें, तुम्हारा सारा संघर्ष बेकार रहा,' प्रिंस बर्यातीन्स्की ने अपने कैदी से कहा।
'नहीं, बेकार नहीं रहा,' शामिल ने जवाब दिया। 'लोगों के दिलों में उसकी याद बनी रहेगी। मेरे संघर्ष ने अनेक जानी दुश्मनों को भाई बना दिया, आपस में शत्रुता रखनेवाले अनेक गाँवों में मित्रता पैदा कर दी, एक-दूसरे से बैर रखने और 'मेरे लोग' 'मेरी जाति' की रट लगानेवाले बहुत-से जनगण को एकजुट कर दिया। मैंने मातृभूमि, अखंड दागिस्तान की भावना पैदा कर दी और उसे अपने वंशजों के लिए छोड़े जा रहा हूँ। क्या यह कम है?'
मैंने पिता जी से पूछा -
'किसलिए दुश्मनों ने हमारे देश पर हमला किया, खून बहाया, द्वेष और घृणा के बीज बोए? किसलिए उन्हें दागिस्तान की जरूरत थी जो प्यार-मुहब्बत से अनजान भेड़िए के बच्चे जैसा है?'
'मैं तुम्हें एक बहुत ही अमीर आदमी का किस्सा सुनाता हूँ। हाँ, वह आदमी बेहद अमीर था। एक टीले पर चढ़कर उसने जब सभी तरफ नजर दौड़ाई तो देखा कि पहाड़ के दामन से सागर-तट तक सारी घाटी में उसी के भेड़ों के रेवड़ चर रहे हैं। उसके मवेशियों और तेज घोड़ों के झुंडों का भी कोई अंत नहीं था। हवा में उसी के मेमनों की आवाजें गूँज रही थीं। इस अमीर आदमी का दिल खुशी से नाच उठा कि सारी जमीन उसकी है और उस जमीन पर सारे पशु भी उसी के हैं।
'लेकिन इस अमीर आदमी को तभी अचानक जमीन का एक ऐसा टुकड़ा दिखाई दिया जो खाली पड़ा था और जिस पर उसके पशुओं का झुंड नहीं था। यह देखकर उसका दिल ऐसे टीस उठा मानो किसी ने उसके दिल में गहरा घाव कर दिया हो। अमीर आदमी गुस्से में आकर भयानक आवाज में चिल्ला उठा - 'अरे! वह बालों से वंचित होनेवाली खाल के समान जमीन का टुकड़ा खाली क्यों पड़ा है? क्या उसे भरने के लिए मेरे यहाँ काफी भेड़ें नहीं हैं? मेरे रेवड़ उधर भेज दो, मेरे पशुओं-घोड़ों के झुंड उधर हाँक दो!'
मगर मेरे पिता जी को खुद शामिल के बारे में बातें सुनाना कहीं ज्यादा पसंद था।
मिसाल के तौर पर यह कि शामिल ने एक दिलेर डाकू पर कैसे जीत हासिल की।
एक बार अपने मुरीदों के साथ इमाम एक गाँव में गया। गाँव के बुजुर्ग-मुखिया लोग उसके साथ कटुता से मिले। वे बोले -
'हम जंग से तंग आ गए हैं। हम अमन-चैन से रहना चाहते हैं। अगर तुम न होते तो हमने बहुत पहले ही जार से सुलह कर ली होती।'
'अरे तुम लोग, जो कभी पहाड़ी होते थे! तुम लोग क्या दागिस्तान की रोटी खाना और उसके दुश्मनों की खिदमत करना चाहते हो? क्या मैंने तुम्हारे अमन-चैन में खलल डाला है? मैं तो उसकी रक्षा कर रहा हूँ।'
'इमाम, हम भी दागिस्तानी हैं, लेकिन देख रहे हैं कि इस लड़ाई से दागिस्तान का कोई भला नहीं हो रहा और आगे भी नहीं होगा। केवल हठधर्मी से तो कुछ हासिल नहीं हो सकेगा।'
'तुम दागिस्तानी हो? रहने की जगह की दृष्टि से तो तुम दागिस्तानी हो, लेकिन तुम्हारे दिल खरगोशों जैसे हैं। तुम्हें अपने चूल्हों में उस वक्त कोयले हिलाना अच्छा लगता है, जब दागिस्तान खून से लथपथ हो रहा है। अपने गाँव का फाटक खोल दो वरना हम अपनी तलवारों से उसे खोल लेंगे!'
गाँव के बुजुर्ग-मुखिया बहुत देर तक इमाम से बातचीत करते रहे और आखिर उन्होंने उसे अपने गाँव में आने की अनुमति देने और एक सम्मानित मेहमान के रूप में उसका स्वागत-सत्कार करने का निर्णय किया। इसके बदले में शामिल ने उन्हें वचन दिया कि वह इस गाँव के एक भी व्यक्ति की हत्या नहीं करेगा और पुराने मनमुटावों-झगड़ों को अपनी जबान पर नहीं लाएगा। इमाम शामिल अपने एक वफादार दोस्त के पहाड़ी घर में ठहरा और गाँव के बुजुर्ग-मुखियों के साथ बातचीत करते हुए उसने यहाँ कुछ दिन बिताए।
इसी वक्त इस गाँव और इसके आस-पास के क्षेत्रों में दो मीटर से भी अधिक लंबे कद का एक महाबली, एक भयानक डाकू लूट-मार करता था। वह किसी भेद-भाव के बिना सभी को लूटता था, लोगों से उनका अनाज, ढोर-डंगर और घोड़े छीन लेता था, गाँववालों की हत्याएँ करता था और उन्हें डराता-धमकाता था। उसके लिए कुछ भी पावन-पवित्र नहीं था। अल्लाह, जार और इमाम - इन शब्दों का उसके लिए कोई अर्थ नहीं था।
चुनांचे गाँव के बुजुर्ग-मुखियों ने शामिल से अनुरोध किया -
'इमाम, किसी तरह हमें इस लुटेरे से मुक्ति दिला दो।'
'किस तरह मुक्ति दिलाऊँ मैं तुम्हें इससे?'
'इसे मार डालो, इमाम, मार डालो। इसने तो खुद बहुत-से लोगों की हत्या की है।'
'मैंने तो तुम्हारी पंचायत को इस गाँव में एक भी व्यक्ति की हत्या न करने का वचन दिया है। मुझे अपना वचन निभाना चाहिए।'
'इमाम, हमें इस दुष्ट से मुक्ति दिलाने का कोई उपाय सोच निकालिए!'
कुछ दिनों के बाद शामिल के मुरीदों ने इस लुटेरे को घेर लिया, पकड़कर उसकी मुश्कें बाँध दीं और गाँव में लाकर तहखाने में बंद कर दिया। इस अपराधी को इसके भयानक अपराधों के अनुरूप दंड देने के लिए एक खास अदालत-दीवान-बैठी। यह तय किया गया कि इस शैतान को फिर से तहखाने में बिठा दिया गया और दरवाजे पर ताला लगा दिया गया।
कुछ दिन बीत गए। एक रात को जब पौ फटनेवाली थी और शामिल गहरी नींद सो रहा था, उसके कमरे में शोर और खट-पट सुनाई दी। इमाम उछलकर बिस्तर से उठा और उसने अपने इर्द-गिर्द नजर डाली। उसने देखा कि कुल्हाड़े से दरवाजे के छोटे-छोटे टुकड़े करके एक पर्वत जैसा, जंगली दरिंदे और राक्षस जैसा व्यक्ति चीखता-चिल्लाता तथा कोसता हुआ उसकी तरफ बढ़ रहा है। इमाम समझ गया कि यह लुटेरा किसी तरह तहखाने का ताला तोड़कर निकलने में सफल हो गया है और अब बदला लेने को यहाँ आया है।
दाँत पीसता हुआ यह दानव बढ़ता आ रहा था। उसके एक हाथ में बहुत बड़ा खंजर और दूसरे में कुल्हाड़ा था। इमाम ने भी अपना खंजर ले लिया। उसने मुरीदों को पुकारा, मगर इस बदमाश ने उन्हें तो पहले ही दूसरी दुनिया में पहुँचा दिया था। गाँव के लोग सो रहे थे। किसी ने भी इमाम की पुकार नहीं सुनी।
शामिल पीछे हटते हुए शत्रु पर वार करने का अचछा मौका ढूँढ़ रहा था। अंधा बदमाश इधर-उधर उछल-कूद रहा था और कुल्हाड़ा चला रहा था। कमरे में जो कुछ भी था, उसने वह सब तोड़-फोड़ डाला।
'कहाँ हो तुम सूरमा, जिसकी किताबों में चर्चा की जाती है?' वह लंबा-तड़ंगा लुटेरा चिल्ला रहा था। 'कहाँ छिपे हुए हो तुम? इधर आओ, मेरे हाथ बाँधो, मुझे पकड़ो, मेरी आँखें निकालो!'
'मैं यहाँ हूँ!' इमाम ने जोर से चिल्लाकर जवाब दिया और उसी क्षण उछलकर एक तरफ को हट गया। कुल्हाड़ा उसी जगह पर दीवार में गहरा जा घुसा, जहाँ एक क्षण पहले शामिल खड़ा था। तब इमाम इसी क्षण का लाभ उठाते हुए अपने दुश्मन पर झपटा। लुटेरा ज्यादा ताकतवर और प्रचंड था। वह शामिल को इधर-उधर फेंकने और उछालने-पटकने लगा और उसे कई बार घायल करने में भी सफल हो गया। लेकिन शामिल की चुस्ती-फुरती ने हर बार ही उसकी मदद की और वह घातक रूप से घायल होने से बच गया। यह संघर्ष कोई दो घंटे तक चलता रहा। आखिर उस बदमाश ने शामिल को पकड़ लिया, सिर के ऊपर पठा लिया, उसे जोर से फर्श पर पटकना और फिर उसका सिर काट डालना चाहा। किंतु हवा में ऊपर उठा हुआ शामिल फुरती से काम लेते हुए इस लुटेरे के सिर पर कई बार खंजर से वार करने में सफल हो गया। बदमाश डाकू अचानक झुक गया, उसका शरीर ढीला पड़ गया, लड़खड़ाया और वह ईंटों की मीनार की तरह नीचे गिर गया। उसके हाथों से खंजर छूट गया। सुबह होने पर लोगों ने उन दोनों को खून के डबरे में पड़ा पाया। शामिल के बदन पर नौ घाव लगे थे और उसे एक महीने तक इसी गाँव में इलाज करवाना पड़ा।
शक्तिशाली बाहरी दुश्मन के विरुद्ध शामिल का संघर्ष इस भिड़ंत के समान ही था। बाहर से आनेवाला दुश्मन उसके लिए अपरिचित पहाड़ों में अंधे जैसी हरकतें करता था। शामिल बड़ी फुरती से उसके हमलों से बच निकलता था और फिर अचानक कभी बगल तथा कभी पीछे से उस पर हमला करता था।
हर पहाड़ी आदमी के दिल में संभवतः शामिल का अपना एक बिंब है। मैं भी उसे अपने ही ढंग से देखता हूँ।
वह अभी जवान है। अखूल्गो नामक समतल चट्टान पर घुटनों के बल होकर वह अवार जाति के क्षेत्र में बहनेवाली कोइसू नदी की लहर में अभी-अभी धोए गए अपने हाथ ऊपर उठाता है। उसके चेर्केस्का की आस्तीनें ऊपर चढ़ी हुई हैं। उसके होंठ कोई शब्द फुसफुसा रहे हैं - कुछ लोगों का कहना है कि इबादत के वक्त जब वह 'अल्लाह' शब्द फुसफुसाता था तो लोगों को 'आजादी' सुनाई देता था और जब 'आजादी' फुसफसाता था तो 'अल्लाह' सुनाई देता था।
वह बूढ़ा हो गया है। कास्पी सागर के तट पर वह हमेशा के लिए दागिस्तान से विदा लेता है। वह गोरे जार का बंदी है। एक पत्थर पर चढ़कर उसने कास्पी की फेन उगलती लहरों पर नजर डाली। उसके होंठ 'अल्लाह' और 'आजादी' की जगह 'विदा' फुसफसा रहे हैं। लोगों का कहना है कि इस क्षण उसके गालों पर नमी की बूँदें दिखाई दी थीं। लेकिन शामिल तो कभी भी रोता नहीं था। शायद ये बूँदें सागर की फुहारें थीं।
किंतु सबसे अधिक प्रखर रूप में मैं पिता जी द्वारा सुनाए गए किस्से के अनुरूप ही उसकी कल्पना करता हूँ - एक तंग पहाड़ी घर में गुस्से से पागल हुए डाकू के साथ अकेले ही हाथापाई करते, लंबे और खूनी संघर्ष में उलझे हुए।
हाजी-मुरात के साथ शामिल की कभी तो शांति से निभी और कभी उनके बीच झगड़ा होता रहा। इन दोनों के बारे में बहुत-सी दंत-कथाएँ और किस्से-कहानियाँ हैं।
हाजी-मुरात को अपना नायब बनाकर शामिल ने उसे हाइदाक और ताबासारान गाँवों में भेजा ताकि वहाँ के लोगों को अपने पक्ष में कर ले या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि उन्हें युद्ध में खींच ले। उसे आशा थी कि हाजी-मुरात लोगों को समझा-बुझाकर अपने पक्ष में करेगा, लेकिन नए नायब ने ऐसा करने के बजाय हाइदाक तथा ताबासारान में कोड़े और बंदूक से काम लिया। अगर कोई कानून के बारे में मुँह से शब्द निकालने की हिम्मत करता तो हाजी-मुरात उसे घूँसा दिखाकर कहता - 'यह है तुम्हारा कानून। मैं खूँजह का रहनेवाला हाजी-मुरात हूँ। तुम्हारे लिए मैं ही सबसे बड़ा कानून हूँ।'
हाजी-मुरात की क्रूरता की खबरें शामिल तक पहुँचीं। उसने हरकारे को भेजकर नायब को अपने पास बुलवाया। हाजी-मुरात लूट का काफी बड़ा माल लिए हुए लौटा। उसका फौजी दस्ता मवेशियों का झुंड, भेड़ों के रेवड़ और घोड़ों के झुंड अपने आगे-आगे हाँकता ला रहा था। खुद हाजी-मुरात अगवा की गई एक हसीना को अपने घोड़े पर बिठाए ला रहा था।
'अससलामालेकुम, इमाम!' हाजी-मुरात ने घोड़े से नीचे उतरते हुए अपने सेनापति का अभिवादन किया।
'वालेकुम सलाम, नायब। खुश आमदीद क्या खुशखबरी लाए हो?'
'खाली हाथ नहीं लौटा हूँ। चाँदी लाया हूँ, भेड़ों के रेवड़, घोड़े और कालीन भी। ताबासारान में बढ़िया कालीन बुने जाते हैं।'
'क्या कोई हसीना नहीं लाए?'
'हसीना भी लाया हूँ। और वह भी बहुत गजब की! तुम्हारे लिए ही लाया हूँ, इमाम।'
दोनों योद्धा कुछ देर तक एक-दूसरे को घूरते रहे। इसके बाद शामिल ने कहा -
'तुम यह बताओ कि क्या मैं इस हसीना को अपने साथ लेकर लड़ने जाऊँगा? मुझे भेड़ों की नहीं, लोगों की जरूरत है। मुझे घोड़े नहीं, घुड़सवार चाहिए। तुम उनके पशु भगा लाए। ऐसा करके तुमने उनके दिलों को ठेस लगाई है और उन्हें हमारे खिलाफ कर दिया है। उन्हें हमारे सैनिक बनकर वीरगति को प्राप्त और घायल होनेवाले हमारे सैनिकों की जगह लेनी चाहिए थी। अब कौन उनकी जगह लेगा? अगर हाइदाक और ताबासारान के लोग हमारे साथ होते तो क्या हमारे साथ वैसी ही बीत सकती थी, जैसी साल्टी और गेर्गेबिल गाँव के साथ बीती? क्या यह अच्छी बात है कि कुछ दागिस्तानी दूसरे दागिस्तानियों को लूटें?'
'लेकिन इमाम, वे लोग तो दूसरी जबान समझते ही नहीं!'
'क्या तुमने खुद उनकी जबान समझने की कोशिश की? अगर समझ जाते तो कोड़े और बंदूक से काम न लेते। क्या मेरे नायब लुटेरे हैं?'
'इमाम, मैं खूँजह का रहनेवाला हाजी-मुरात हूँ!'
'मैं भी गीमरी का रहनेवाला शामिल हूँ। केबेद-मुहम्मद तेलेतल और हुसैन चिरकेई का रहनेवाला है। इससे क्या फर्क पड़ता है? अवार, हिंदाल्याल, कुमिक, लेज्गीन, लाक और तुम्हारे द्वारा लूटे गए हाइदाक तथा ताबासारान के लोग - हम सब एक ही दागिस्तान के बेटे हैं। हमें एक-दूसरे को समझना चाहिए। हम तो एक ही हाथ की उँगलियाँ हैं। घूँसा बनने के लिए सभी उँगलियों को बड़ी। मजबूती से एक-दूसरी के साथ जुड़ जाना चाहिए। बहादुरी के लिए तुम्हारा शुक्रिया। बहादुरी के लिए तुम किसी भी इनाम के हकदार हो। पगड़ी तुम्हारे सिर की शोभा बढ़ा रही है। लेकिन इस बार तुमने जो कुछ किया है, मैं इसका समर्थन नहीं कर सकता।'
'जब ऐसी ही पगड़ियाँ बाँधे दूसरे लोगों ने लूट मचाई तब उनसे तो तुमने कुछ नहीं कहा, इमाम। लेकिन अब सभी का दोष मेरे मत्थे जा रहा है।'
'मैं जानता हूँ तुम किसकी तरफ इशारा कर रहे हो, हाजी-मुरात, तुम्हारा अभिप्राय अखबेर्दीलाव से है, मेरे बेटे काजी-मुहम्मद या खुद मुझसे है। लेकिन अखबेर्दीलाव ने मोज्दोक में हमारे दुश्मन को लूटा था। मैंने उन खानों की दौलत लूटी थी जो हमारा साथ नहीं देना चाहते थे और जिन्होंने हमारा विरोध तक करने की कोशिश की। नहीं, हाजी-मुरात। नायब बनने के लिए दिलेर दिल और तेज खंजर ही काफी नहीं। इसके लिए अच्छा दिमाग भी होना चाहिए।'
शामिल और हाजी-मुरात के बीच इस तरह की बहसें अक्सर होती रहती थीं। अफवाहों के कारण ये झगड़े बढ़ते और अधिक उग्र रूप लेते गए और आखिर द्वेषपूर्ण शत्रुता ने उन्हें अलग कर दिया। हाजी-मुरात शामिल को छोड़कर शत्रु-पक्ष में चला गया और उसका सिर काट दिया गया। उसका शरीर नूखा में दफन है। उसके शरीर का यह बँटवारा भी बड़ा अर्थपूर्ण है - उसका सिर दुश्मन के पास चला गया और दिल दागिस्तान में रह गया। कैसा भाग्य था उसका।
हाजी-मुरात का सिर : मेरा दाग़िस्तान
कटा हुआ सिर देख रहा हूँ
बहें खून की धाराएँ,
मार-काट का शोर मचा है
लोग चैन कैसे पाएँ।
तेज धारवाली तलवारें
ऊँची-ऊँची लहराएँ,
टेढ़ी और कठिन राहों पर
अब मुरीद बढ़ते जाएँ।
रक्त-सने सिर से यह पूछा -
'मुझे कृपा कर बतलाओ,
कीर्तिवान, तुम गए किस तरह
बेगानो में, समझाओ?'
'मैं तो सिर हाजी-मुरात का
भेद न मुझे छिपाना है
भटका कभी, कटा सिर मेरा
यही मुझे बतलाना है।
गलत राह पर चला कभी मैं
मैं घमंड का था मारा...'
देख रहा था यह भटका सिर
कटा पड़ा जो बेचारा।
पुरुष पर्वतों में जो जन्मे
बेशक दूर-दूर जाएँ,
हम जिंदा या बेशक मुर्दा
आखिर लौट यही आएँ।
इमाम शामिल को दागिस्तान से ले जाया गया। सभी ओर तोपें और बंदूकें चलाने के झरोखोंवाले दुर्ग बना दिए गए। इन झरोखों में से तोपों और बंदूकों के मुँह बाहर निकले रहते थे। यद्यपि वे गोले-गोलियाँ नहीं चलाती थीं, तथापि यह कहती प्रतीत होती थीं - 'शांति से बैठे रहो, पहाड़ी लोगो, ढंग से बर्ताव करो, किसी तरह का ऊधम नहीं मचाओ।'
दुख में डूबे हुए यहाँ के पर्वतवासी
दुख में डूबी नदियाँ, पक्षी, सभी जानवर
ऐसे लगता नहीं कहीं विस्तार यहाँ पर
सिर्फ मौत ही काल-कोठरी से है बाहर।
'जंगलियों की धरती,' एक गवर्नर ने दागिस्तान से जाते हुए कहा। 'ये धरती पर नहीं, खड्ड में रहते हैं,' दूसरे ने लिखा।
'इन असभ्य आदिवासियों के पास जो धरती है, वह भी फालतू है,' तीसरे ने पुष्टि की।
किंतु उस बुरे वक्त में भी दागिस्तान के पक्ष में लेर्मोंतोव, दोब्रोल्यूबोव, चेर्नीशेव्स्की, बेस्तूजेव-मारलीन्स्की और पिरोगोव की आवाजें सुनाई दीं... हाँ, जारकालीन रूस में भी ऐसे लोग थे जो पहाड़ी लोगों की आत्मा को समझते थे, जिन्होंने दागिस्तान के जनगण के बारे में कुछ अच्छे शब्द कहे। काश, पहाड़ी लोग उस वक्त उनकी भाषा समझ सकते!
शाश्वत हिम की चादर पर्वतमाला पर
शाश्वत रात, अँधेरा है उनके ऊपर, -
अपनी मातृभूमि को देखते हुए सुलेमान स्ताल्स्की ने कभी कहा था।
'दागिस्तान को जबसे काल-कोठरी में बंद कर दिया गया है, साल के हर महीने के इकतीस दिन होते हैं,' मेरे पिता जी ने कभी लिखा था।
'पर्वतो, हम तुम्हारे साथ तहखाने में बंद हैं,' अबूतालिब ने कभी कहा था।
'ऐसे दुख से तो पहाड़ों में पहाड़ी बकरा भी उदास हो रहा है,' अनखील मारीन ने कभी गाया था।
'इस दुनिया के बारे में तो सोचना ही व्यर्थ है। जिसका भोजन ज्यादा घीवाला है, उसी की अधिक ख्याति है,' महमूद ने निराशा से कहा था।
'सुख कहीं नहीं है,' कुबाची के रहनेवाले अहमद मुंगी ने सारी दुनिया का चक्कर लगाने के बाद यह निष्कर्ष निकाला।
किंतु इसी समय इरची कजाक ने लिखा - 'दागिस्तान के मर्द को तो हर जगह दागिस्तान का मर्द होना चाहिए।'
मरने से पहले बातिराय ने यह लिखा - 'बहादुरों के यहाँ बुजदिल बेटे न पैदा हों।'
उसी महमूद ने यह गाया -
अगर पहाड़ी बकरा तम में और पहाड़ों में खो जाए
वह या तो पगडंडी ढूँढ़े या फिर मृत्यु को गले लगाए।
उसी अबूतालिब ने यह भी कहा था - 'इस दुनिया में अब धमाका हुआ कि हुआ। यही अच्छा है कि यह धमाका ज्यादा जोर से हो।'
और वह वक्त आया - जोर का धमाका हुआ। धमाका तो दूर हुआ, उसी समय दागिस्तान तक उसकी गूँज नहीं पहुँची, फिर भी सब कुछ स्पष्ट दिखाई देनेवाले लाल निशान से वह दो हिस्सों में बँट गया था - उसका इतिहास, भाग्य, हर व्यक्ति का जीवन, पूरी मानवजाति! क्रोध और प्यार, विचार और सपने - सभी कुछ दो भागों में बँट गया।
'धमाका हो गया!...'
'कहाँ हुआ धमाका?'
'पूरे रूस में।'
'किस चीज का धमाका हुआ?'
'क्रांति का।'
'किसकी क्रांति का?'
'मेहनतकशों की क्रांति का।'
'उसका लक्ष्य?'
'जो थे खाली हाथ, अब सब चीजों के नाथ।'
'उसका रंग कौन-सा है?'
'लाल।'
'उसका गाना क्या है?'
'यह जंग आखिरी और निर्णायक जंग है।'
'उसकी सेना?'
'सभी भूखे और दीन-दुखिया। श्रम की महान सेना।'
'उसकी भाषा, उसकी जाति? '
'सभी भाषाएँ, सभी जातियाँ।'
'उसका नेता?'
'लेनिन।'
'दागिस्तान के पहाड़ी लोगों से क्रांति क्या कहती है? अनुवाद करके हमें बताइए।'
नायकों और गायकों ने दागिस्तान की सभी भाषाओं-बोलियों में अनुवाद कर दिया -
'सदियों से उत्पीड़ित दागिस्तान के जनगण! टेढ़ी-मेढ़ी पहाड़ी पगडंडियों से हमारे घरों, हमारे खेतों में क्रांति आई है। उसे सुनिए और अपने को उसकी सेवा में अर्पित कीजिए। वह आपसे ऐसे शब्द कहती है जो आपने कभी नहीं सुने। वह कहती है -
'भाइयो! नया रूस आपकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाता है। उस हाथ को थाम लीजिए, बड़े तपाक से अपना हाथ उसके हाथ से मिलाइए, उसी में आपकी शक्ति और विश्वास निहित है।
'घाटियों और पर्ततों के बेटे-बेटियो! बड़ी दुनिया की ओर खिड़कियाँ खोलिए। नया दिन नहीं, बल्कि नए भाग्य का श्रीगणेश हो रहा है। इस भाग्य का स्वागत कीजिए।
'अब आपको शक्तिशालियों के लिए अपनी कमर नहीं तोड़नी होगी। अब से पराये लोग आपके घोड़ों पर सवारी नहीं करेंगे। अब आपके घोड़े-आपके घोड़े होंगे, आपके खंजर - आपके खंजर होंगे, आपके खेत - आपके खेत होंगे, आपकी आजादी - आपकी आजादी होगी।'
'अव्रोरा' जहाज पर अक्तूबर क्रांति के आरंभ का संकेत देनेवाली तोप की गरज का दागिस्तान के जनगण की भाषाओं में उपर्युक्त अनुवाद किया गया। इसे अनूदित किया मखाच, उल्लूबी, ओस्कार, जलाल, काजी-मुहम्मद, मुहम्मद-मिर्जा, हारूँ और क्रांति के अन्य मुरीदों ने जो दागिस्तान के दुख-दर्दों से भली-भाँति परिचित थे।
और दागिस्तान अपने भाग्य के स्वागत के लिए बढ़ा। पहाड़ी लोगों ने क्रांति के रंग और उसके गीतों को अपना लिया। किंतु क्रांति के शत्रु भयभीत हो उठे। यह तो उन्हीं के सिरों के ऊपर बिजली कड़क उठी थी, उन्हें के पाँवों तले धरती हिल गई थी, उन्हीं के सामने सागर में भयानक तूफान आ गया था, उन्हीं की पीठों के पीछे चट्टानें टूट पड़ी थीं। पुरानी दुनिया जोर से काँपी और ढह गई। एक बहुत गहरी खाई बन गई।
'अपना हाथ हमारी ओर बढ़ाओ।' क्रांति के दुश्मनों ने अपने को दागिस्तान के दोस्त बताते हुए कहा।
'आपके हाथ खून से सने हुए हैं।'
'जरा रुको, तुम उधर नहीं जाओ, पीछे मुड़कर देखो, दागिस्तान।'
'जिस चीज को पीछे मुड़कर देखा जाए, क्या है पीछे देखने को? गरीबी, झूठ, अँधेरा और खून।'
'छोटे-से दागिस्तान। किधर चल दिए तुम?'
'कुछ बड़ा खोजने को।'
'महासागर में तुम एक छोटी-सी नाव जैसे होगे। तुम कहीं के नहीं रहोगे। तुम्हारी भाषा, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा रंग-ढंग, तुम्हारी समूरी टोपी, तुम्हारा सिर - इनमें से कुछ भी तो बाकी नहीं रहेगा।' इन लोगों ने धमकी दी।
'मैं तंग पगडंडियों पर चलने का आदी हूँ। क्या अब चौड़े रास्ते पर अपना पाँव तोड़ लूँगा? बहुत अरसे से मैं इस रास्ते की खोज कर रहा था। मेरा एक बाल भी बाँका नहीं होगा।'
'दागिस्तान धर्मभ्रष्ट हो गया। वह नष्ट हो रहा है। दागिस्तान को बचाइए।' कौवों ने काँय-काँय की, भेड़िये चीखे-चिल्लाए। खूब शोर मचाया गया, धमकियाँ दी गईं, मिन्नतें और हत्याएँ की गई, छल-कपट किया गया। क्रांति का जो दीप जल उठा था, उसे बुझाने की कितनी कोशिशें नहीं की गईं। इस महान पुल को जला डालने के कितने प्रयास नहीं किए गए। एक के बाद एक झंडा बदला, एक के बाद एक लुटेरा आया। जाड़े की बेहद ठंडी रात में समूर के कोट की भाँति उन्होंने छोटे-से दागिस्तान को अपनी-अपनी तरफ खींचा, उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। और वह जंजीर से मुक्त होनेवाले पहाड़ी बकरे की तरह कभी एक तो कभी दूसरी दिशा में भागता रहा। हर कोई हिंसक जैसी हिंसक जैसी तीव्र चाह से उसे पकड़ने के लिए उस पर झपट रहा था। कैसे-कैसे शिकारियों ने उस पर अपनी गोलियाँ नहीं चलाईं।
'मैं दागिस्तान का इमाम नज्मुद्दीन मोत्सीन्स्की हूँ जिसे आंदी की झील के तट पर लोगों ने चुना है। मेरी तलवार ऐसी समूरी टोपियों की तलाश में है जिन पर लाल कपड़े के टुकड़े लगे हुए हें।' 'एक ही धर्म के माननेवालो, मुसलमान भाइयो। मेरे पीछे-पीछे आइए। मैंने ही इस्लाम का हरा झंडा ऊपर उठाया है।' एक अन्य व्यक्ति बड़े जोर से चिल्लाकर ऐसा कहता था। उसका नाम था उजून-हाजी।
'जब तक मैं आखिरी बोल्शेविक का सिर बाँस पर लटकाकर दागिस्तान के सबसे ऊँचे पर्वत पर उसे प्रदर्शित नहीं कर दूँगा, तब तक अपनी बंदूक को खूँटी पर नहीं लटकाऊँगा। प्रिंस नूहबेक तारकोव्स्की यह शोर मचाया करता था।
इसी साल जार की फौज के कर्नल काइतमाज अलीखानोव ने खूँजह में अपने लिए एक महल बनवाया। उसने एक पहाड़िये को अपना घर दिखाने के लिए अपने यहाँ बुलाया। खुद अपने पर और महल पर मुग्ध होते हुए काइतमाज ने पूछा -
'कहो, बढ़िया है न मेरा महल?'
'मरते आदमी के लिए तो बहुत ही बढ़िया है,' पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया।
'मेरे मरने का भला क्या सवाल पैदा होता है?'
'क्रांति....'
'मैं उसे खूँजह में नहीं आने दूँगा।' कर्नल अलीखानोव ने जवाब दिया और उछलकर तेज, सफेद घोड़े पर सवार हो गया।
'मैं सईदबेई हूँ - इमाम शामिल का सगा पोता। मैं तुर्की के सुलतान की तरफ से यहाँ आया हूँ ताकि उसके बहादुरों की मदद से दागिस्तान को आजाद कराउँ,' बाहर से आनेवाले इस एक अन्य व्यक्ति ने ऐसी घोषणा की और उसके साथ सभी तरह के तुर्क पाशा तथा बेई थे।
'हम दागिस्तान के दोस्त हैं,' हस्तक्षेपकारियों ने चिल्लाकर कहा और दागिस्तान की धरती पर तोड़-फोड़ की कार्रवाइयाँ करनेवाले बर्तानवी फौजी आ धमके।
'दागिस्तान - यह बाकू का फाटक है। इस फाटक पर मैं मजबूत ताला लगा दूँगा।' जार की सेना के कर्नल बिचेराखोव ने डींग हाँकी और पोर्ट-पेत्रोव्स्क को तबाह कर डाला।
बहुत-से बिन बुलाए मेहमान आए। किसके-किसके गंदे हाथ ने दागिस्तान की छाती पर कमीज को नहीं फाड़ा। कैसे-कैसे झंडों की यहाँ झलक नहीं मिली। कैसी-कैसी हवाएँ नहीं चलीं। कैसी-कैसी लहरें पत्थरों से नहीं टकराईं।
'दागिस्तान, अगर तुम हमारी बात नहीं मानोगे, तो हम तुम्हें धकियाकर समुद्र में डुबो देंगे।' बाहर से आने वालों ने धमकी दी।
मेरे पिता जी ने उस वक्त लिखा था - 'दागिस्तान ऐसे जानवर के समान है जिसे सभी ओर से परिंदे नोचते हैं।'
गोलाबारी हुई, आग की लपटें उठीं, खून बहा, चट्टानों से धुआँ उठा, फसलें जलीं, गाँव तबाह हुए, बीमारियों ने लोगों की जानें लीं, दुर्ग कभी एक के हाथ में और कभी दूसरे के हाथ में जाते रहे। यह सब कुछ चार साल तक चलता रहा।
'खेत बेचकर घोड़ा खरीदा, गाय बेचकर तलवार खरीदी,' पहाड़ी लोग उन दिनों ऐसा कहते थे।
सवारों को खोकर घोड़े हिनहिनाते थे। कौवे मुर्दों की आँखें निकालते थे।
मेरे पिता जी ने उस समय के दागिस्तान की ऐसे पत्थर से तुलना की थी जिसके करीब से अनेक नदियाँ शोर मचाती हुई गुजरी हों। मेरी माँ ने अनेक तूफानी धाराओं के प्रतिकूल जानेवाली मछली के साथ उसकी तुलना की थी।
अबूतालिब ने याद करते हुए लिखा था - 'हमारे देश ने कैसे-कैसे जुरनावादकों को नहीं देखा!' खुद अबूतालिब छापामार दस्ते का जुरनावादक था।
अब लेखनियों से उस किस्से, उस कहानी को लिखा जाता है जो तलवारों से लिखी गई थी। अब उन दिनों का अध्ययन करते हुए ख्याति और बहादुरी के कारनामों को तुला पर तौला जाता है। वीरों-नायकों का मूल्यांकन करते हुए विद्वान आपास में बहस करते हैं, हम कह सकते हैं कि वे आपस में जूझते हैं।
पर खैर, वीरों ने लड़ाई लड़ ली। मेरे लिए सचमुच इस बात का कोई महत्व नहीं है कि इनमें से किसको पहला, दूसरा या तीसरा स्थान दिया जाए। अधिक महत्वपूर्ण तो यह चीज है कि क्रांति ने चेर्केस्का के पल्लू से मौत के घाट उतारे गए अपने अंतिम शत्रु का खून पोंछकर खंजर को म्यान में रख लिया। पहाड़ी आदमी ने इससे हँसिया बना लिया। अपनी नुकीली संगीन को उसने पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के बीच खोंस दिया। हल में अपनी ताकत लगाते हुए वह अपनी धरती को जोतने लगा, बैलों को हाँकते हुए अपने खेत से घास को बैल-गाड़ी पर लादकर ले जाने लगा।
पहाड़ की चोटी पर लाल झंडा फहराकर दागिस्तान ने अपनी मूँछों पर ताव दिया। नकली इमाम गोत्सीन्स्की की पगड़ी से उसने कौवों-चिड़ियों को डरानेवाला पुतला बनाकर खेत में खड़ा कर दिया और खुद इमाम को तो इन्कलाब ने सजा दी। गोत्सीन्स्की अदालत में गिड़गिड़ाता रहा था - 'गोरे जार ने शामिल को जिंदा छोड़ दिया था। उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा था। आप लोग मुझे क्यों मौत की सजा दे रहे हैं?'
दागिस्तान और क्रांति ने उसे जवाब दिया - तुम्हारे जैसे का तो शामिल ने भी सिर काट डाला होता। वह कहा करता था - 'गद्दार का तो धरती के ऊपर रहने के बजाय उसके नीचे होना कहीं ज्यादा अच्छा है।' हाँ, उसे सजा दी गई, एक भी पहाड़ी नहीं काँपी, किसी ने भी आँसू नहीं बहाए, किसी ने भी उसकी कब्र पर याद का पत्थर नहीं लगाया।
काइतमाज अलीखानोव अपने सफेद घोड़े पर सवार होकर त्सूनती इलाके के वनों में से भाग चला। उसके दो बेटे भी उसके साथ भाग रहे थे। किंतु वे लाल छापेमारों की गोलियों के शिकार हो गए। कर्नल का सफेद घोड़ा उदास होता और एक टाँग से लँगड़ाता हुआ खूँजह के दुर्ग में वापस लौट गया।
'तुम्हें गलत रास्ते पर छोड़ दिया था उन्होंने,' मुसलिम अतायेव ने बेचारे घोड़े से कहा। 'वे तो दागिस्तान को भी उसी रास्ते पर ले जाना चाहते थे।'
बिचेराखोव को भी भगा दिया गया। उसके जहाँ-तहाँ बिखरे हुए सैनिक दस्ते कास्पी की लहरों में डूब गए। 'अमीन,' उन्हें अपने नीचे छिपाते हुए लहरों ने कहा। 'अमीन,' पहाड़ कह उठे, 'अल्लाह करे कि वे जहन्नुम में चले जाएँ जो इस धरती पर जहन्नुम बना रहे थे।'
इस्तंबूल में मैं बाजार में गया। मेरे इर्द-गिर्द जमा भूतपूर्व अवार लोगों ने मुझे भीड़ में से जाता हुआ एक बूढ़ा दिखाया। वह ऐसी बोरी जैसा लगता था जिसमें से अनाज के दाने निकलकर बाहर गिर गए हों।
'यह काजिमबेई है।'
'कौन-सा काजिमबेई?'
'वह, जो तुर्की के सुलतान की सेनाएँ लेकर दागिस्तान गया था।'
'क्या वह अभी तक जिंदा है?'
'जैसा कि देख रहे हैं, उसका जिस्म तो अभी तक जिंदा है।'
हमारा परिचय करवाया गया।
'दागिस्तान... मैं जानता हूँ उस देश को,' बूढ़े खूसट ने कहा।
'आपको भी दागिस्तान में जानते हैं,' मैंने जवाब दिया।
'हाँ, मैं वहाँ गया था।'
'फिर जाएँगे?' मैंने जान-बूझकर पूछा।
'अब कभी नहीं जाऊँगा,' उसने जवाब दिया और जल्दी से अपनी दुकान की तरफ चला गया।
इस्तंबूल के बाजार का यह छोटा-सा दुकानदार क्या यह भूल गया है कि कासूमकेंट में कैसे उसने खेत में ही तीन शांतिप्रिय हलवाहों को मार डाला था? क्या इसे पहाड़ों में वह चट्टान याद नहीं है जहाँ से एक पहाड़ी युवती इसलिए खड्ड में कूद गई थी कि तुर्क सिपाहियों के हाथों में न पड़े? क्या इस दुकानदार को यह याद नहीं कि कैसे बाग में से एक छोकरे को उसके सामने लाया गया था, कैसे उसने उसकी चेरियाँ छीन ली थीं और गुठली को उसकी आँख में थूक दिया था? लेकिन खैर, वह यह तो नहीं भूला होगा कि कैसे अंडरवियर पहने हुए भागा था और एक पहाड़ी औरत ने पीछे से पुकारकर कहा था - 'अरे, आप अपनी समूर की टोपी तो भूल ही गए।'
तोड़-फोड़ की कार्रवाइयाँ करनेवाले दागिस्तान से भाग गए। काजिमबेई भी भाग गया, शामिल का पोता सईदबेई भी भाग गया।
'सईदबेई अब कहाँ है?' मैंने इस्तंबूल में पूछा।
'साउदी अरब चला गया।'
'किसलिए?'
'व्यापार करने के लिए वहाँ उसकी थोड़ी-सी जमीन है।'
व्यापारियो! आपको दागिस्तान में व्यापार करने का मौका नहीं मिला। क्रांति ने कहा - 'बाजार बंद है।' खून में भीगी झाड़ू से उसने पहाड़ी धरती से सारा कूड़ा करकट साफ कर दिया। अब तो दागिस्तान के तथाकथित रक्षकों और बचानेवालो के पंजर ही पराये देशों में भटकते फिरते हैं।
कुछ साल पहले बेरूत में एशिया और अफ्रीका के लेखकों का सम्मेलन हुआ। मुझे भी इस सम्मेलन में भेजा गया। मुझे सम्मेलन में ही नहीं, कभी-कभी उन दूसरी जगहों पर भी बोलना पड़ा, जहाँ हमें बुलाया गया। ऐसी ही एक सभा में मैंने अपने दागिस्तान, अपने यहाँ के लोगों और रीति-रिवाजों की चर्चा की, दागिस्तान के विभिन्न कवियों की और अपनी कविताएँ भी सुनाईं।
इस सभा की समाप्ति पर एक सुंदर और जवान औरत ने मुझे सीढ़ियों के करीब रोक लिया।
'जनाब हमजातोव, मैं आपके साथ कुछ बातचीत कर सकती हूँ, आप अपना कुछ वक्त मुझे दे सकते हैं?'
हम शाम की चादर में लिपटी बेरूत की सड़कों पर चल पड़े।
'दागिस्तान के बार में बताइए। कृपया सभी कुछ,' अचानक ही मेरे साथ चलनेवाली इस औरत ने अनुरोध किया।
'मैं तो अभी पूरे एक घंटे तक यही बताता रहा हूँ।'
'और बताइए, और बताइए।'
'किस चीज में आपकी ज्यादा दिलचस्पी है?'
'हर चीज में! दागिस्तान से संबंधित सभी चीजों में।'
मैंने बताना शुरू किया। हम इधर-उधर घूमते रहे। मेरा वर्णन समाप्त होने के पहले ही वह फिर से अनुरोध करने लगती -
'और बताइए, और बताइए।'
मैं बताता रहा।
'अवार भाषा में अपनी कविताएँ सुनाइए।'
'लेकिन आप तो उन्हें नहीं समझेंगी।'
'फिर भी सुनाइए।'
मैंने कविताएँ सुनाईं। जब सुंदर और जवान औरत किसी बात के लिए अनुरोध करे तो हम क्या कुछ नहीं करते। फिर उसकी आवाज में दागिस्तान के प्रति ऐसी सच्ची दिलचस्पी की अनुभूति हो रही थी कि इनकार करना संभव नहीं था।
'आप कोई अवार गाना नहीं गाएँगे?'
'अजी नहीं। मुझे गाना नहीं आता।'
'अभी यह मुझे नाचने को भी मजबूर करेगी,' मैंने सोचा।
'आप चाहें तो मैं गाऊँ?'
'बड़ी मेहरबानी होगी।'
इसी समय हम सागर-तट पर पहुँच गए थे। उजली चाँदनी में सागर हरी-सी झलक दिखाता हुआ चमक रहा था।
तो सुदूर बेरूत में एक अपरिचित सुंदरी समझ में न आनेवाली भाषा में मुझे दागिस्तानी 'दालालाई' माना सुनाने लगी। किंतु जब वह दूसरा गाना गाने लगी तो मैं समझ गया कि वह कुमिक भाषा में गा रही है।
'आप कुमिक भाषा कैसे जानती हैं?' मैंने हैरान होते हुए पूछा।
'बदकिस्मती से मैं उसे नहीं जानती।'
'लेकिन गाना...'
'यह गाना तो मुझे मेरे दादा ने सिखाया था।'
'वह क्या दागिस्तान गए थे?'
'हाँ, एक तरह से गए थे।'
'बहुत पहले?'
'बात यह है कि नूहबेक तारकोव्सकी मेरे दादा थे।'
'कर्नल? अब कहाँ हैं वह?'
'वह तेहरान में रहते थे। इस साल चल बसे। मरते वक्त वह लगातार मुझसे यही गाना गाने को कहते रहे।'
'किस बारे में है यह गाना?'
'मौसमी परिंदों के बारे में... उन्होंने मुझे एक दागिस्तानी नाच भी सिखाया था। देखिए!'
यह औरत नए चाँद की तरह चमक उठी, उसने बड़ी लोच से हाथ फैलाए और झील में तैरनेवाली हंसिनी की तरह चक्कर काटने लगी।
कुछ देर बाद मैंने उससे मौसमी परिंदों के बार में फिर से गाना सुनाने की प्रार्थना की। उसने मुझे गाने के शब्दों का अर्थ भी बताया। होटल में लौटकर मैंने याददाश्त के आधार पर अवार भाषा में अनुवाद करके इस गाने को लिख लिया।
हाँ, दागिस्तान में बसंत आ गया है। लेकिन मैं लगातार यह सोचता रहता हूँ कि प्रिंस नूहबेक तारकोव्स्की का मौसमी परिंदों के बारे में इस गाने से क्या संबंध हो सकता है? तेहरान में रहनेवाले उस कर्नल को, जो क्रांतिकारी क्षेत्र और दागिस्तान के प्रतिशोध से बचकर भागा था, किसलिए पहाड़ों के क्रांतिकारी लाल सूरज की याद आती थी? उसे कैसे मातृभूमि से जुदाई की तड़प महसूस हो सकती थी?
ईरान में रहते हुए शुरू में तो तारकोव्स्की यह कहता रहा - 'मेरे और दागिस्तान के साथ जो कुछ हुआ है, वह भाग्य की भूल है और इस भूल को सुधारने के लिए मैं वहाँ वापस जाऊँगा।' तारकोव्स्की और उसके साथ अन्य प्रवासी भी हर दिन कास्पी सागर के तट पर जाते थे ताकि दागिस्तान से आनेवाली कोई खबर जान सकें। लेकिन उन्हें हर बार ही यह देखने को मिलता कि कास्पी सागर से आनेवाले जहाजों के मस्तूलों पर लाल झंडे लहरा रहे हैं। पतझर में उत्तर से उड़कर आनेवाले पक्षियों को देखकर मातृभूमि की याद में हूक महसूस करतेहुए उसकी पत्नी गाने गाती। वह मौसमी पक्षियों के बारे में उपर्युक्त गाना भी गाती। शुरू में तो प्रिंस तारकोव्स्की को यह गाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।
साल बीतते गए। बच्चे बड़े हो गए। कर्नल तोरकोव्स्की बूढ़ा हो गया। वह समझ गया कि अब कभी भी दागिस्तान नहीं लौट सकेगा। उसकी समझ में यह बात आ गई कि दागिस्तान का दूसरा ही भाग्य है, कि दागिस्तान ने खुद ही अपने लिए यह एकमात्र और सही रास्ता चुना है। तब बूढ़ा प्रिंस भी मौसमी परिंदों के बारे में यह गाना गाने लगा।
पिता जी कहा करते थे -
'दागिस्तान उनका साथ नहीं देगा जिन्होंने दागिस्तान का साथ नहीं दिया।'
अबूतालिब इसमें जोड़ा करता था -
'जो पराये घोड़े पर सवार होता है, वह जल्द ही नीचे गिर जाता है। हमारा खंजर किसी दूसरे की पोशाक के साथ शोभा नहीं देता।'
सुलेमान स्ताल्स्की ने लिखा था -
'मैं जमीन में दबे हुए खंजर के समान था। सोवियत सत्ता ने मुझे बाहर निकाला, मेरा जंग साफ कर दिया और मैं चमक उठा।'
पिता जी यह भी कहा करते थे -
'हम बेशक हमेशा ही पहाड़ी लोग थे, मगर पहाड़ की चोटी पर केवल अभी चढ़े हैं।'
अबूतालिब कहा करता था -
'दागिस्तान, तहखाने से बाहर निकल आ!'
पालना झुलाते हुए मेरी अम्माँ गाया करती थीं -
बड़े चैन से सोओ बेटा, शांति पहाड़ों में आई
कहीं गोलियों की आवाजें देतीं नहीं सुनाई।
'फरवरी का महीना सबसे छोटा, मगर कितना महत्वपूर्ण है,' अबूतालिब का ही कहना था, 'फरवरी में जार का तख्ता उलटा गया, फरवरी में लाल सेना बनी और फरवरी में ही लेनिन पहाड़ी लोगों के प्रतिनिधिमंडल से मिले।'
इसी समय दूरस्थ रूगूजा गाँव में नारियों ने लेनिन के बारे में एक गाना रचा -
तुमने ही तो सबसे पहले आ, इनसान कहा हमको
अस्त्र विजय का तुमने ही तो पहले पहल दिया हमको,
सुन उकाब की चीख जिस तरह उड़ जाते कलहंस कहीं
उदय लेनिनी सूर्य हुआ तो रातें काली नहीं रहीं।
हमारे छोटे-से जनगण का बड़ा भाग्य है। दागिस्तान के पक्षी गाते हैं। क्रांति के सपूतों के शब्द गूँजते हैं। बच्चे उनकी चर्चा करते हैं। उनकी कब्रों के पत्थरों पर उनके नाम खुदे हुए हैं। लेकिन कुछ वीरों की कब्रें अज्ञात हैं।
शांत रात में मुझे दागिस्तान की सड़कों पर घूमना अच्छा लगता है। जब मैं सड़कों के नाम पढ़ता हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि फिर से हमारे जनतंत्र की क्रांतिकारी समिति की बैठक हो रही है। मखाच दाखादायेव। मुझे उसकी आवाज सुनाई देती है - 'हम क्रांति के संघर्षकर्ता हैं। हमारी भाषाएँ, हमारे नाम और मिजाज - अलग-अलग हैं। मगर एक चीज हम सबमें सामान्य है - क्रांति और दागिस्तान के प्रति निष्ठा। क्रांति और दागिस्तान के लिए हममें से कोई भी न तो अपना खून और न जिंदगी कुर्बान करने से ही हिचकेगा।'
प्रिंस तारकोव्स्की के दस्ते के बदमाशों ने मखाच की हत्या कर डाली थी।
उल्लूबी बुइनाकस्की - मुझे उसकी आवाज सुनाई दे रही है - 'दुश्मन मुझे मार डालेंगे। वे मेरे दोस्तों की भी हत्याएँ कर देंगे। किंतु एक घूँसे के रूप में बँधी हुई हमारी उँगलियों को कोई भी अलग नहीं कर सकेगा। यह घूँसा भारी और भरोसे का है, क्योंकि दागिस्तान के दुख-दर्दों और क्रांति के विचारों ने उसे घूँसे का रूप दिया है। वह उत्पीड़कों की शामत ला देगा। यह जान लीजिए।'
देनीकिन के सैनिकों ने दागिस्तान के जवान कम्युनिस्ट, अट्ठाईस वर्ष के उल्लूबी की हत्या कर डाली। उन्होंने उसे दागिस्तान में मारा था। अब वहाँ पोस्त के फूल खिलते हैं।
मुझे ओस्कार लेश्चीन्स्की, काजी-मुहम्मद, अगासीयेव, हारूँ सईदोव, अलीबेक बगातीरोव, साफार दुदारोव, सोल्तन - सईद कज्बेकोव, पिता-पुत्र बातिरमुर्जायेव, ओमारोव-चोखस्की की आवाजें भी सुनाई देती हैं। बहुत बड़ी संख्या है उनकी, जिनकी हत्या की गई। किंतु हर नाम ज्वाला है, चमकता सितारा और गीत है। वे सभी वीर हैं जो चिर युवा बने रहेंगे। वे हमारे दागिस्तान के चापायेव, शोर्सऔर शाउम्यान हैं। आख्ती, आया-काका के दर्रे, कासूमेंट के जलप्रपात, खूँजह दुर्ग की दीवार के पीछे, जला दिए गए हासाव्यूर्त और प्राचीन देर्बेंत में उनकी जानें गईं। अराकान दर्रे में एक भी ऐसा पत्थर नहीं है जो दागिस्तान के कमिसारों के खून से लथ-पथ न हुआ हो। मोचोख पर्वतमाला में ही बगातीरोव को फाँसने के लिए फौजी फंदे की व्यवस्था की गई थी। तेमीरखान-शूरा, पोर्ट-पेत्रोव्स्क और चारों कोइसू नदियों ने भी, जहाँ अब शहीदों की याद में फूल फेंके जाते हैं, खून बहता देखा था। एक लाख दागिस्तानी-कम्युनिस्ट और पार्टीजान या छापामार खेत रहे। किंतु दूसरे जनगण दागिस्तान के बारे में जान गए। लाखों-लाख लोगों ने लाल दागिस्तान की ओर दोस्ती के हाथ बढ़ाए। इन मैत्रीपूर्ण हाथों की गर्मी अनुभव करके दागिस्तान के लोगों ने कहा - 'अब हमारी संख्या कम नहीं है।'
युद्ध से लोगों का जन्म नहीं होता। किंतु क्रांतिकारी लड़ाइयों की आग में नए दागिस्तान का जन्म हुआ।
13 नवंबर, 1920 को दागिस्तान के जनगण की पहली असाधारण कांग्रेस हुई। इस कांग्रेस में रूसी संघ की सरकार की ओर से स्तालिन ने भाषण दिया। उन्होंने पर्वतीय देश-दागिसतान - को स्वायत्त घोषित किया। नया नाम, नया मार्ग, नया भाग्य।
जल्द ही दागिस्तान के जनगण को एक उपहार मिला। लेनिन ने 'लाल दागिस्तान के लिए' ये शब्द लिखकर अपना फोटो भेजा। कुबाची के सुनारों और उंत्सूकूल के लकड़ी पर नक्काशी करने वालों ने इस छविचित्र के लिए अद्भुत चौखटा बनाया। इसी साल मखाचकला के बंदरगाह से 'लाल दागिस्तान' नाम का नया जहाज पानी में उतरा। किंतु स्वयं दागिस्तान ही अब एक ऐसे शक्तिशाली जहाज जैसा था जो बहुत बड़े और नए सफर पर रवाना हुआ था।
'भारे का तारा' - दागिस्तान की पहली पत्रिका को यही नाम दिया गया था। दागिस्तान में सुबह हो गई थी। विस्तृत संसार की ओर खिड़की खुल गई थी।
गृह-युद्ध के कठिन दिनों में, जब पहाड़ों में गोत्सीन्स्की के फौजी दस्तों का बोलबाला था, मेरे पिताजी को मदरसे के अपने एक सहपाठी का पत्र मिला।
इस पत्र में भूतपूर्व सहपाठी ने नज्मुद्दीन गोत्सीन्स्की और उसकी फौजों की चर्चा की थी। पत्र के अंत में लिखा था - 'इमाम नज्मुद्दीन तुमसे नाखुश है। मुझे लगा कि उसकी बड़ी इच्छा है कि तुम पहाड़ी गरीबों को संबोधित करते हुए कविताएँ लिखो जिनमें इमाम के बारे में सचाई बताओ। मैंने तुम्हारे साथ संपर्क स्थापित करने की जिम्मेदारी ली है और उसे यह वचन दिया है कि तुम ऐसा कर दोगे। तुमसे अपना अनुरोध और इमाम की इच्छा पूरी करने का आग्रह करता हूँ। नज्मुद्दीन तुम्हारे जवाब के इंतजार में है।'
पिता जी ने उत्तर दिया - 'अगर तुमने अपने ऊपर ऐसी जिम्मेदारी ली है तो तुम ही नज्मुद्दीन के बारे में कविता लिखो। जहाँ तक मेरा संबंध है तो मैं उसकी पनचक्की को चलाने के लिए पानी पहुँचाने का इरादा नहीं रखता हूँ। वाससलाम, वाकलाम...'
इसी वक्त बोल्शेविक मुहम्मद-मिर्जा खिजरोयेव ने पिता जी को तेमीरखान-शूरा से निकलनेवाले 'लाल पर्वत' समाचार पत्र के साथ सहयोग करने को बुलाया। इसी समाचार पत्र में पिता जी की कविता 'पहाड़ी गरीबों से अपील' प्रकाशित हुई।
पिता जी नए दागिस्तान के बारे में लिखते रहे, 'लाल पर्वत' समाचार पत्र में काम करते रहे। वक्त बीता। मुहम्मद-मिर्जा खिजरोयेव के यहाँ बेटी का जन्म हुआ। पिताजी को बच्ची का नाम रखने के लिए बुलाया गया। बच्ची को हाथ में ऊँचा उठाकर पिताजी ने उसका नाम घोषित किया -
'जागरा!'
जागरा का अर्थ है - सितारा।
नए सितारों का जन्म हुआ। खेत रहनेवाले वीरों के नामोंवाले बच्चे बड़े हो रहे थे। पूरा दागिस्तान एक बहुत बड़े पालने जैसा बन गया।
कास्पी सागर की लहरें उसके लिए लोरी गाती थीं। विराट सोवियत देश मानो बच्चे जैसे दागिस्तान की चिंता करने के लिए उसके ऊपर झुक गया।
मेरी अम्माँ उस समय अबाबीलों, पत्थरों के नीचे से उगनेवाली घासों, समृद्ध पतझर के बारे में गाने गाती थीं। इन लोरियों की छाया में हमारे घर में तीन बेटे और एक बेटी बड़ी हो रही थी।
दागिस्तान में फिर से एक लाख बेटे-बेटियाँ बड़े हो गए। हलवाहे, पशु-पालक, बागबान, मछुए, संगतराश, पच्चीकार, कृषिशास्त्री, डाक्टर, अध्यापक, इंजीनियर कवि और कलाकार जवान हो गए। जहाज तैर चले, हवाई जहाज उड़ानें भरने लगे तथा अब तक अनदेखी-जनजानी बत्तियाँ जगमगा उठीं।
'अब मैं बहुत बड़ी दौलत का मालिक हो गया हूँ,' सुलेमान स्ताल्स्की ने कहा।
'अब मैं केवल अपने गाँव के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए जवाबदेह हूँ,' मेरे पिता जी कह उठे।
'मेरे गीतो, क्रेमलिन को उड़ जाओ।' अबूतालिब ने उत्साहपूर्वक कहा।
नई पीढ़ियों ने हमारी जनता को नए लक्षण प्रदान किए।
सोवियतों का महान देश - एक बहुत शक्तिशाली पेड़ है। दागिस्तान उसकी एक शाखा है।
इस पेड़ की जड़ खोदने, इसके तने और शाखाओं को जला डालने के लिए फासिस्टों ने हम पर हमला कर दिया।
उस दिन जीवन अपने सामान्य ढंग से चलनेवाला था। खूँजह में इतवार के दिन की पैंठ लगी हुई थी। दुर्ग में कृषि-क्षेत्र की उपलब्धियों की प्रदर्शनी आयोजित थी। युवजन का दल सेद्लो पहाड़ की चोटी पर विजय पाने गया था। अवार थियेटर मेरे पिता जी का नाटक 'मुसीबतों से भरा संदूक' प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहा था। उस शाम को उसका प्रथम प्रदर्शन होनेवाला था।
किंतु सुबह को मुसीबतों का ऐसा संदूक खुला कि बाकी सभी मुसीबतें भूल जानी पड़ीं। सुबह को युद्ध आरंभ हो गया।
उसी वक्त विभिन्न गाँवों से मर्दों और नौजवानों का ताँता लग गया। एक दिन पहले तक ये लोग शांतिपूर्ण जीवन बितानेवाले चरवाहे और हलवाहे थे और अब मातृभूमि के रक्षक। दागिस्तान के सभी गाँवों के घरों की छतों पर बुढ़ियाँ, बच्चे और औरतें खड़ी हुई देर तक मोरचे पर जानेवाले इन लोगों को देखती रहीं। ये बहुत समय के लिए और कुछ तो हमेशा के लिए अपने घरों से चले गए। बस, यही सुनने को मिलता था -
'अलविदा, अम्माँ।'
'सुखी रहिए, पिताजी।'
'अलविदा, दागिस्तान।'
'तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, बच्चो, विजयी होकर घर लौटो।'
सागर से पर्वतों को मानो अलग करती हुई गाड़ियों पर गाडियाँ मखाचकला से चली जा रही थीं। वे दागिस्तान की जवानी, शक्ति और खूबसूरती को अपने साथ लिए जा रही थीं। सारे देश को इस शक्ति की आवश्यकता थी। रह-रहकर यही सुनने को मिलता था -
'अलविदा, मेरी मंगेतर।'
'नमस्ते, प्यारी पत्नी।'
'मुझे छोड़कर नहीं जाओ, मैं तुम्हारे साथ जाना चाहती हूँ।'
'विजयी होकर लौटेंगे।'
गाड़ियाँ जा रही थीं। लगातार गाड़ियाँ जा रही थीं।
मुझे अपने प्यारे अध्यापक प्रशिक्षण कालेज की याद आती है। क्रांति शहीदों के बंधु-कब्रिस्तान के करीब दागिस्तान की घुड़-रेजिमेंट तैयार खड़ी थी। लाल छापामार, प्रसिद्ध कारा कारायेव उसकी कमान सँभाले था। घुड़सैनिकों के चेहरे बड़े कठोर और गंभीर थे। रेजिमेंट वफादारी की कसम खा रही थी।
नब्बे साल के पहाड़ी बुजुर्ग ने रेजिमेंट को विदा करते हुए ये शब्द कहे -
'अफसोस की बात है कि मेरी उम्र आज तीस साल नहीं है। फिर भी मैं अपने तीन बेटों के साथ जा सकता हूँ।'
बाद में 'दागिस्तान' नामक लड़ाकू हवाई जहाजों का दस्ता बना, 'शामिल' नाम का टैंक-दल और 'दागिस्तानी कोम्सोमोल' नामक बख्तरबंद मोटरगाड़ी। पिता और पुत्र एक ही कतार में दुश्मन के खिलाफ लड़ रहे थे। पहाड़ों के ऊपर फिर से फौजी शान चमक दिखाने लगी। हमारी औरतों ने अपने कंगन और झुमके, पेटियाँ और और अँगूठियाँ, अपने चुने हुए वरों, पतियों तथा पिताओं के उपहार, सोना-चाँदी, रत्न-हीरे तथा दागिस्तान की प्राचीन कलाकृतियाँ बड़े सोवियत देश को भेंट कर दीं, ताकि वह विजय हासिल कर सके।
हाँ, दागिस्तान मोरचे पर चला गया। उसने पूरे देश के साथ मिलकर युद्ध में भाग लिया। सेना के हर भाग-जहाजियों, प्यादा फौजियों, टेंकचियों, हवाबाजों, और तोपचियों में किसीन किसी दागिस्तानी-निशानेबाज, हवाबाज, कमांडर या छापेमार - को देखा जा सकता था। बहुत दूर-दूर तक फैले मोरचों से छोटे दागिस्तान में शोकपूर्ण पत्र आते थे।
हमारे त्सादा गाँव में सत्तर पहाड़ी घर हैं। लगभग इतने ही नौजवान लड़ाई में गए। युद्ध के वर्षों में अम्माँ कहा करती थीं - 'मैं सपने में अक्सर यह देखती हूँ मानो हमारे त्सादा गाँव के सभी जवान नीज्नी वन-प्रांगण में जमा हो रहे हैं।' कभी-कभी आकाश में तारा देखकर वह कहतीं - 'शायद इस वक्त हमारे गाँव के नौजवान भी लेनिनग्राद के करीब ही कहीं इस तारे को देख रहे हैं।' जब मौसमी पक्षी उत्तर से उड़कर हमारे यहाँ आते तो मेरी माँ उनसे पूछतीं - 'तुमने हमारे त्सादा के नौजवानों को तो नहीं देखा?'
पहाड़ी औरतें पत्र पढ़ते और रेडियो सुनते हुए अपने लिए कठिन तथा समझ में न आनेवाले - केर्च, ब्रेस्त, कोरसून-शेव्चेन्कोव्स्की, प्लोयेष्टी, कोन्स्तान्त्सा, फ्रेंकफोर्ट ओन माइन, ब्रांडेनबर्ग - आदि शब्दों को मुँहजबानी याद करने की कोशिश करतीं। पहाड़ी औरतें खास तौर पर तो दो शहरों के मामले में गड़बड़ करतीं। ये शहर थे - बुखारेस्ट और बुडापेस्ट - तथा हैरान होतीं कि ये दो भिन्न शहर हैं।
हाँ, कहाँ-कहाँ नहीं गए हमारे त्सादा गाँव के नौजवान।
सन 1943 में अपने पिता जी के साथ मैं बालाशोव शहर गया। वहाँ मेरे बड़े भाई का अस्पताल में देहांत हो गया था। छोटी-सी नदी के किनारे हमने उसकी कब्र ढूँढ़ ली और उस पर ये शब्द पढ़े - 'मुहम्मद हमजातोव'।
पिता जी ने इस कब्र पर रूसी बेर्योजा यानी भूर्ज वृक्ष लगाया। पिता जी ने कहा - 'हमारे त्सादा का कब्रिस्तान अब बहुत फैल गया है। हमारा गाँव अब बड़ा हो गया है।'
मातृभाषा : मेरा दाग़िस्तान
त्सादा का कब्रिस्तान...
श्वेत कफन से, अंधकार-से ढके हुए
प्रिय पड़ोसियो, तुम कब्रों में दफन यहाँ
तुम हो निकट, न फिर भी घर को लौटोगे
लौटा मैं घर, दूर बहुत जा, कहाँ-कहाँ
यहाँ गाँव में दोस्त बहुत कम अब मेरे
रिश्तेदार न अब तो मेरे बहुत रहे,
बड़े बंधु की बेटी, अरे, भतीजी भी
स्वागत मेरा करे न चाचा मुझे कहे।
हँसमुख, अल्हड़ बच्ची, तुम पर क्या बीती?
साल गुजरते जाएँ, ज्यों जलधार बहे,
खत्म पढ़ाई की स्कूल की सखियों ने
किंतु जहाँ तुम, वहाँ न कुछ भी शेष रहे।
मुझे बड़ा ही अजब, बेतुका यहाँ लगा
जहाँ न कोई प्राणी, सब सुनसान पड़ा,
वहीं, गाँव के साथी की है कब्र जहाँ
सहसा उसका जुरना बाजा, झनक उठा।
जैसे कभी पुराने वक्तों में, अब भी
उसके साथी की खंजड़ी भी गूँज उठी,
मुझको लगा कि अपने किसी पड़ोसी की
खुशी मनाते हैं वे, उसकी शादी की।
नहीं... यहाँ जो रहते, शोर नहीं करते
कोई भी तो यहाँ नहीं देता उत्तर...
कब्रिस्तान त्सादा का, नीरव, गुपचुप
मेरे गाँववासियों का यह अंतिम घर।
तुम बढ़ते जाते, सीमाएँ फैल रहीं
तंग तुम्हारा होता जाता हर कोना,
है मुझको मालूम एक दिन आएगा
मुझे यहीं पर जब आखिर होगा सोना।
राहें हमें कहीं ले जाएँ, वे मिलतीं
अंत सभी का एक, सभी आ मिलें यहीं
किंतु त्सादा के कुछ लोगों की कब्रें
नजर नहीं आती हैं मुझको यहाँ कहीं
नौजवान भी, बूढ़े कर्मठ सैनिक भी
घर से दूर, अँधेरी कब्रों में सोते,
जाने कहाँ हसन है, कहाँ मुहम्मद है?
घर से कितनी दूर मरे बेटे-पोते?
अरे बंधुओ, तुम शहीद हो गए कहाँ?
कभी हमारा मिलन न होगा, ज्ञात मुझे
किंतु तुम्हारी कब्रें यहाँ त्सादा में
नहीं मिली, दुख देती है यह बात मुझे।
दूर कहीं पर गोली दिल में तुम्हें लगी
घायल होकर, दूर गाँव से मरे कहीं,
कब्रिस्तान त्सादा के कब्रें तेरी
जाने, कितनी दूर-दूर तक फैल गई।
ठंडे क्षेत्रों में, अब गर्म प्रदेशों में
बरसे आग, जहाँ हिम के तूफान चलें,
बड़े प्यार से लोग फूल लेकर आएँ
शीश झुकाकर अपनी श्रद्धा प्रकट करें।
युद्ध के समय हमारे गाँव की ग्राम-सोवियत में एक बहुत बड़ा नक्शा लटका हुआ था। उस वक्त सारे देश में इस तरह के बहुत-से नक्शे लटके हुए थे। आम तौर पर वहाँ लाल झंडियों के रूप में मोरचे की रेखा अंकित की जाती थी। हमारे नक्शे पर भी झंडियाँ बनी हुई थीं, मगर उनका अभिप्राय दूसरा था। ये झंडियाँ उन जगहों पर गाड़ी गई थीं, जहाँ हमारे त्सादावासी खेत रहे थे। अनेक झंडियाँ थीं नक्शे पर। उतनी ही, जितने मातृ-हृदय इन तीखे बकसुओं से घायल हुए थे।
हाँ, त्सादा का कब्रिस्तान कुछ छोटा नहीं था, यह पता चला कि हमारा गाँव भी कुछ छोटा नहीं था।
बेटों की याद में तड़पनेवाली माताएँ नजूम लगानेवालियों के पास जातीं, नजूम लगानेवालियाँ पहाड़ियों को तसल्ली देतीं - 'देखो, यह है रास्ता। यह है मोरचा। यह है विजय। तुम्हारा बेटा तुम्हारे पास लौट आएगा। शांति और अमन-चैन हो जाएगा।'
नजूम लगानेवालियाँ चालाकी से काम लेती थीं। लेकिन विजय के बारे में उन्होंने गलती नहीं की थी। रेइखस्ताग की दीवार पर अन्य आलेखों के साथ-साथ संगीन से खुदा हुआ यह आलेख भी अंकित है - 'हम दागिस्तानी हैं।'
फिर से बूढ़े, औरतें और बच्चे अपने घरों की छतों पर खड़े होकर दूर तक नजर दौड़ाते थे। किंतु अब वे अपने सूरमाओं को विदा नहीं देते थे, बल्कि उनका स्वागत करते थे। पहाड़ी मार्गों पर लोगों की कतारें नहीं थीं। वे गए तो एक साथ थे, मगर लौट रहे थे एक-एक ही। कुछ औरतें अपने सिरों पर चटकीले और अन्य काले रूमाल बाँधे थीं। लौटनेवाले जवानों से दूसरों की माँएँ पूछती थीं -
'मेरा ओमार कहाँ है?'
'तुमने मेरे अली को तो नहीं देखा?'
'मेरा मुहम्मद जल्द ही वापस आ जाएगा?'
मेरी अम्माँ ने भी अपने सिर पर काला रूमाल बाँध रखा था। उनके दो बेटे, मेरे दो भाई - मुहम्मद और अखील्वी मोरचे से नहीं लौटे थे। उनमें से अनेक वापस नहीं आए थे जिन्हें अम्माँ अपनी खिड़कियों से नीज्नी वन-प्रांगण में खेलते देखती रही थीं। वे नहीं लौटे जिनके बारे में नजूम लगानेवालियों ने जल्द ही लौटने की भविष्यवाणी की थी। हमारे छोटे से गाँव में एक सौ व्यक्ति वापस नहीं आए। पूरे दागिस्तान में एक लाख लोग नहीं लौटे।
मैं नक्शे पर लगी झंडियों को देखता हूँ, जगहों के नाम पढ़ता हूँ और हमवतनों के नाम याद करता हूँ। मुहम्मद गाजीयेव बारेंत्सेव सागर में ही रह गया। टेंकची मुहम्मद जागीद अब्दुलमानापोव सिंफरोपोल में शहीद हुआ। मशीनगन चालक खानपाशा नूरादीलोव, जो चेचेन जाति का, मगर दागिस्तान का बेटा था, स्तालिनग्राद में खेत रहा। बहादुर कामालोव ने इटली में छापेमारों का नेतृत्व करते हुए वीरगति पाई।
हर पहाड़ी गाँव में पिरामिडी स्मारक खड़े हैं और उन पर नाम ही नाम लिखे हैं। उनके करीब पहुँचने पर पहाड़ी लोग घोड़ों से नीचे उतर आते हैं और पैदल चलनेवाले अपने सिरों पर से समूर की टोपी उतार लेते हैं।
पहाड़ों में शहीदों के नामवाले चश्मे बहते हैं। बुजुर्ग लोग चश्मों के करीब बैठते हैं, क्योंकि वे पानी की भाषा समझते हैं। हर घर में बहुत ही आदर के स्थान पर उनके छविचित्र लटके हुए हैं जो चिर युवा और चरि सुंदर बने रहेंगे।
जब कभी मैं दूर-दराज की किसी यात्रा से लौटता हूँ तो कुछ माताएँ दिल में छिपी आशा लिए हुए मुझसे पूछती हैं - 'संयोगवश मेरे बेटे से तुम्हारी कहीं मुलाकात तो नहीं हुई?' इसी तरह मन में आशा और कसक लिए हुए वे सारसों के लंबे-लंबे काफिलों को जाते हुए देखती रहती हैं। मैं भी अपने करीब से उड़े जाते सारसों पर से अपनी नजर नहीं हटा पाता हूँ।
सारस : मेरा दाग़िस्तान
कभी-कभी लगता है मुझको वे सैनिक
रक्तिम युद्ध-भूमि से लौट न जो आए
नहीं मरे वे वहाँ बने मानो सारस
उड़े गगन में, श्वेत पंख सब फैलाए।
उन्हीं दिनों से, बीते हुए जमाने से
उड़े गगन में, गूँजे उनकी आवाजें
क्या न इसी कारण ही अक्सर चुप रहकर
भारी मन से हम नीले नभ को ताकें?
आज, शाम के घिरते हुए अँधेरे में
देखूँ, धुंध-कुहासे में सारस उड़ते,
अपना दल-सा एक बनाए उसी तरह
जैसे जब थे मानव, भू पर डग भरते।
वे उड़ते हैं, लंबी मंजिल तय करते
और पुकारें जैसे नाम किसी के वे,
शायद इनकी ही पुकार से इसीलिए
शब्द हमारी भाषा के मिलते-जुलते?
उड़ते जाते हैं सारस-दल थके-थके
धुंध-कुहासे में भी, जब दिन ढलता है,
उस तिकोण में उनके जरा जगह खाली
वह तो मेरे लिए, मुझे यह लगता है।
वह दिन आएगा, मैं सारस-दल के संग
हल्के नील अँधेरे में उड़ जाऊँगा,
उन्हें सारसों की ही भाँति पुकारूँगा
छोड़ जिन्हें मैं इस धरती पर जाऊँगा।
सारस उड़ते हैं, घास ऊँची होती है, पालने झुलाए जाते हैं। मेरे घर में भी तीन को पालने में झुलाया गया, मेरे यहाँ तीन बेटियों का जन्म हुआ। किसी अन्य के यहाँ चार, किसी और के दस तथा किसी अन्य के पंद्रह बच्चों ने जन्म लिया। त्सादा गाँव में एक सौ झूले झुलाए जाते हैं, दागिस्तान में एक लाख झूले झुलाए जाते हैं। जन्म-दर की दृष्टि से दागिस्तान का रूसी संघ में पहला स्थान है। हम पंद्रह लाख हो गए। जितने अधिक लोग होते हैं,
पहाड़ी लोगों में कहा जाता है कि तीन मामलों में कभी देर नहीं करनी चाहिए - जब मुर्दे को दफनाना हो, जब मेहमान को खाना खिलाना हो और जब जवान बेटी की शादी करनी हो।
इन तीनों मामलों में दागिस्तान में कभी देर नहीं होने देते। लीजिए, ढोल ढमढम करने लगा, जुरना झनझना उठा और शादियाँ शुरू हो गई। शराब का पहला जाम उठाकर यह कामना की जाती है - 'बहू बेटे को जन्म दे।'
तीन और चीजें भी हैं जो पहाड़ी लोगों को अवश्य ही पूरी करनी चाहिए - शराब से भरे हुए सींग को पीना चाहिए, अपने नाम को बट्टा नहीं लगने देना चाहिए और कठिन परीक्षा के समय अपना साहस नहीं छोड़ना चाहिए।
पहाड़ी लोगों को काफी परीक्षाओं-आजमाइशों का सामना करना पड़ा है। किस्मत के हथौड़े ने दागिस्तान के घरों को तोड़ने के लिए कुछ कम चोटें नहीं कीं, मगर उन्होंने उन्हें सहन कर लिया।
वैसे संसार में आज भी शांति नहीं है। हमारी पृथ्वी पर कभी यहाँ तो कभी वहाँ गोलाबारी होने लगती है, बम फटते हैं और हमेशा की तरह आज भी माताएँ अपने बच्चों को छातियों से चिपका लेती हैं।
जब आकाश में बारिश लानेवाली घटाएँ घिर आती हैं तो किसान कटी हुई फसल को समेटने के लिए खेतों की ओर भागते हैं। जब हमारी पृथ्वी के ऊपर खतरे के बादल मँडराने लगते हैं तो लोग शांति की रक्षा करने, उसे युद्ध के खतरे से बचाने की कोशिश करते हैं।
दागिस्तान में ऐसा कहा जाता है - लड़के साँड़ के सींग काट दिए जाते हैं और काटनेवाले कुत्ते को जंजीर से बाँधकर रखा जाता है। अगर हमारी दुनिया में भी ऐसी ही रीति-परंपरा होती तो जीना आसान होता। अब छोटा-सा दागिस्तान बड़ी दुनिया के बारे में चिंता करता हुआ जीता है।
पहले वक्तों में पहाड़ी लोग जब कभी कहीं धावा बोलने को जाते थे तो बहुत ही जवान सूरमाओं को अपने साथ नहीं लेते थे। लेकिन शामिल ने कहा कि ऐसा करना चाहिए। कानी उँगली बहुत छोटी होती है, मगर उसके बिना मजबूत घूँसा नहीं बनता।
हमारे देश के बड़े और भारी घूँसे में दागिस्तान बेशक कानी उँगली के समान ही हो। तब हमारे दुश्मन अपना एड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी इस घूँसे को कमजोर नहीं कर सकेंगे।
यह घूँसा तो दुश्मनों के लिए है, लेकिन दोस्त के कंधे पर तो चौड़ी हथेली ही टिकी रहती है। उस हथेली में भी कानी उँगली होती है।
जब में विदेशों में जाता हूँ तो सबसे पहले कवियों-शायरों से जान-पहचान करता हूँ। गीत गीत को अच्छी तरह से समझता है। इसके अलावा मैं हमवतनों से मिलने की कोशिश करता हूँ, अगर वे वहाँ होते हैं। बेशक यह सही है कि विदेशों में हमवतन भी भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन हमवतनों के प्रति घमंड को मैं इस कारण बर्दाश्त नहीं कर सकता कि वे भिन्न-भिन्न हैं। मेरी उनसे तुर्की, सीरिया और पश्चिमी जर्मनी में तथा कितनी ही दूसरी जगहों पर मुलाकात हुई।
कुछ दागिस्तानी तो शामिल के वक्त में ही अपनी मातृभूमि से दूर चले गए थे। वे अपने घर-बार छोड़कर उस सुख की तलाश में चले गए थे जो उन्हें अपने वतन में नहीं मिला था।
दूसरे इसलिए चले गए कि उन्होंने क्रांति को नहीं समझा या समझ गए, लेकिन डर गए। कुछ ऐसे थे जिन्हें खुद क्रांति ने ही बाहर निकाल दिया। चौथी किस्म के लोग भी हैं जो एकदम तुच्छ, दयनीय और पथ-भ्रष्ट हैं। इन्होंने महान देशभक्ति के युद्ध में मातृभूमि के साथ गद्दारी की।
भिन्न-भिन्न दागिस्तानियों से मिला हूँ मैं। तुर्की में तो दागिस्तानी गाँव में भी गया था।
'हमारे यहाँ भी एक छोटा-सा दागिस्तान है,' इस गाँव के वासियों ने मुझसे कहा।
'नही, आप ठीक नहीं कह रहे हैं। दागिस्तान तो सिर्फ एक ही है। दो दागिस्तान नहीं हो सकते।'
'तो तुम्हारे ख्याल में हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं?'
'हाँ, आप कौन हैं और कहाँ से आए हैं?'
'हम कारात, बतलूख, खूँजह, आकूश, कुमुख, चोख और सोगरात्ल के रहनेवाले हैं। हम दागिस्तान के भिन्न गाँवों के हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह वे जो हमारे गाँव के कब्रिस्तान में हमेशा के लिए सोए हुए हैं। हम भी एक छोटा-सा दागिस्तान हैं!'
'आप - कभी थे। कुछ अभी भी दागिस्तानी बने रहना चाहते हैं। शायद ये भी दागिस्तानी हैं?' मैंने गोत्सीत्स्की अलीखानोव और उजून-हाजी की तस्वीरों की तरफ इशारा करते हुए पूछा।
'अगर दागिस्तानी नहीं तो कौन हैं ये? ये हमारे ही लोगों में से हैं, हमारी ही भाषा बोलते हैं।'
'दागिस्तान इनकी भाषा नहीं समझ पाया और ये दागिस्तान की भाषा।'
'हर कोई अपने ही ढंग से दागिस्तान को समझाता है। हर किसी के दिल में अपना दागिस्तान है।'
'लेकिन दागिस्तान हर किसी को अपना बेटा नहीं मानता।'
'किसे मानता है?'
'वहाँ हमारे बारे में क्या कहा जाता है?'
'ऐसे पत्थर, जो दागिस्तान के निर्माण के वक्त उसकी इमारत की दीवार में नहीं चुने जो सके और फालतू पड़े रहे। ऐसे पत्ते जिन्हें पतझर की हवा उड़ा ले गई, ऐसे तार, जो पंदूरा के मुख्य तारों के साथ एक ही सुर में नही बज सके।'
तो ऐसे बातें कीं मैंने विदेशों में रहनेवाले हमवतनों से। उनमें अमीर भी हैं, गरीब भी, दयालु भी, क्रोधी भी, ईमानदार और बेईमान भी, धोखे में आनेवाले और धोखा देनेवाले भी। उन्होंने मेरे सामने लेज्गीन्का नाच नाचा, मगर खंजड़ी पराई थी।
जब हम यह कहते हैं कि दागिस्तान में हम पंद्रह लाख हैं तो उन लोगों को नहीं गिनते हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है।
जब मैं सीरिया से रवाना हो रहा था तो एक अवार औरत मुझसे लगातार यह अनुरोध करती रही कि मैं गेर्गेबिल गाँव में खूबानियों के पेड़ को हाथों से छूकर उसे नमस्ते कहूँ।
संगमरमर सागर के तट पर अवार जाति के कुछ बच्चों ने, जिनका बाप हज करने मक्का गया था, मुझसे कहा -
'हमारे लिए तो दागिस्तान ही मक्का है। मक्का हो आनेवाले को हाजी कहा जाता है। लेकिन हमारे लिए तो अब वही हाजी है जिसे दागिस्तान हो आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।'
मखाचकला में मेरे पास एक ऐसा ही हाजी आया था जो चालीस साल तक अपनी मातृभूमि से दूर रहा था।
'कहो, कैसा लगा तुम्हें यहाँ?' मैंने उससे पूछा। 'दागिस्तान बदल गया न?'
'अगर मैं वहाँ यह सब कुछ बताऊँगा तो लोग यकीन नहीं करेंगे। लेकिन मैं उनसे एक ही बात कहूँगा - दागिस्तान कायम है।'
मेरा दागिस्तान कायम है। वह जनतंत्र है। उसमें जनगण हैं, भाषा है, नाम हैं, रीति-रिवाज हैं। ऐसा है दागिस्तान का भाग्य। शादियाँ होती हैं, पालने झुलाए जाते हैं, जाम उठाए जाते हैं, गाने गाए जाते हैं।
शब्द : मेरा दाग़िस्तान
अवार भाषा में 'मिल्लत' शब्द के दो अर्थ हैं - जाति और चिंता। 'जो अपनी जाति की चिंता नहीं करता, वह सारी दुनिया की चिंता नहीं कर सकता,' मेरे पिता जी कहा करते थे।
'क्या जाति को उसकी चिंता करनी चाहिए जो जाति की चिंता नहीं करता?' अबूतालिब ने प्रश्न किया था।
'लगता है कि मुर्गे-मुर्गियों, कलहंसों और चूहों की जाति नहीं होती, किंतु लोगों की जाति होनी चाहिए।' मेरी अम्माँ कहा करती थीं।
एक जाति और दो जनतंत्र होते हैं, जैसे कि हमारे ओसेती पड़ोसियों के यहाँ एक जनतंत्र और उसमें चालीस जातियाँ भी होती हैं।
'भाषाओं और जातियों का पूरा ढेर ही है,' किसी राहगीर ने दागिस्तान के बारे में कहा था।
'एक हजार सिरोंवाला अजगर,' शत्रु दागिस्तान के संबंध में कहते थे।
'अनेक शाखाओंवाला पेड़,' दागिस्तान के बारे में मित्र कहते हैं।
'बेशक दिन के वक्त चिराग लेकर सारी दुनिया में ढूँढ़ आओ, कहीं भी ऐसी जगह नहीं मिलेगी जहाँ इतने कम लोग और इतनी अधिक जातियाँ हो,' पर्यटकों ने यह मत प्रकट किया।
अबूतालिब को यह मजाक करना पसंद था -
'हमने जार्जियाई संस्कृति के विकास में बड़ा योग दिया है।'
'यह तुम क्या कह रहे हो? उनकी संस्कृति हजारों साल पुरानी है। प्रसिद्ध जार्जियाई कवि शोता रूस्तावेली तो आठ सौ साल पहले हुए थे, जबकि हमने तो कुछ ही साल पहले लिखना सीखा है। भला हमने उनकी कैसे मदद की?'
'हमने ऐसे मदद की। हमारे हर गाँव की अपनी भाषा है। हमारे जार्जियाई पड़ोसियों ने इन भाषाओं का अध्ययन और उनकी तुलना करने का निर्णय किया। अनुसंधानकर्ताओं ने इनके बारे में लेख और वैज्ञानिक पुस्तकें लिखीं। वे विद्वान बन गए, उन्होंने पी-एच.डी. और डी.लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कर लीं। अगर पूरी दागिस्तान में एक ही भाषा होती तो क्या उनके यहाँ भाषाशास्त्र के इतने डाक्टर हो सकते थे? तो ऐसे हमने उनकी मदद की।'
हाँ, दागिस्तान की भाषाओं के व्याकरण, वाक्य-विन्यास, उच्चारण और शब्द-कोश के बारे में सभी तरह की पुस्तकें लिखी जाती हैं। यहाँ काम करने के लिए बड़ी सामग्री है। विद्वानो, पधारिये, आपके तथा आपके बच्चों के लिए भी काफी काम है।
विद्वान आपस में बहस करते हैं। कुछ कहते हैं कि दागिस्तान में इतनी भाषाएँ हैं, दूसरों का कहना कि इतनी। कुछ कहते हैं कि इन भाषाओं का जन्म इस तरह से हुआ और दूसरों का मत है कि इस तरह से। इनके मतभेदों और प्रमाणों में बहुत-से विरोधाभास हैं।
लेकिन मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि हमारे यहाँ एक बैलगाड़ी में पाँच भाषाएँ बोलनेवाले लोग यात्रा करते देखे जा सकते हैं। अगर किसी चौराहे पर पाँच बैलगाड़ियाँ रुक जाती हैं तो वहाँ तीस भाषाएँ भी सुनी जा सकती हैं।
जब उल्लूबी बुइनाकस्की के नेतृत्व में पार्टी के गुप्त संगठन के सदस्यों को, जिनकी संख्या छह थी, गोलियाँ चलाकर मौत के घाट उतारा गया तो उन्होंने पाँच विभिन्न भाषाओं में दुश्मन को अभिशाप दिया -
उल्लूबी बुइनाकस्की ने कुमिक भाषा में।
सईद अब्दुलगालीमोव ने अवार भाषा में।
अब्दुल-वागाब गाजीयेव ने दारगीन भाषा में।
मजीद अली-ओगली ने कुमिक भाषा में।
अब्दुर्रहमान इसमाईलोव ने लेज्गीन भाषा में।
ओस्कार लेश्चीन्स्की ने रूसी भाषा में।
दागिस्तानी लेखक मुहम्मद सुलीमानोव ने दागिस्तान की पंद्रह विभिन्न जातियों के पंद्रह मुहम्मदों के बारे में पंद्रह दिलचस्प कहानियाँ लिखी हैं। इन कहानियों के संकलन का यही शीर्षक है - 'पंद्रह मुहम्मद'।
रूसी लेखक द्मीत्री त्रूनोव ने एक ऐसे सामूहिक फार्म के बारे में शब्दचित्र लिखा है, जहाँ बत्तीस जातियों-उपजातियों के लोग काम करते हैं।
एफ्फंदी कापीयेव की नोटबुक में यह लिखा हुआ है कि कैसे वह और तीन अन्य दागिस्तानी लेखक-सुलेमान स्ताल्स्की हमजात त्सादासा और अब्दुला मुहम्मदोव रेलगाड़ी के एक ही केबिन में सोवियत संघ के लेखकों की पहली कांग्रेस में भाग लेने के लिए मास्को गए। दागिस्तान के ये सभी जन-कवि तीन दिन-रातों तक गाड़ी में यात्रा करते रहे, मगर एक-दूसरे के साथ बातचीत नहीं कर पाए। हर किसी की अपनी भाषा थी। इशारों से एक-दूसरे को अपनी बात समझाते थे और बड़ी मुश्किल से एक-दूसरे को समझ पाते थे।
छापेमारों के साथ अपने जीवन की चर्चा करते हुए अबूतालिब ने लिखा है - 'दलिये के एक देग के गिर्द बीस भाषाएँ बोली जाती थीं। आटे की एक बोरी बीस जन-जातियों में बाँटी जाती थी।'
हमारे यहाँ नीज्नी जेनगुताई और वेर्खनी जेनगुताई नाम के गाँव हैं। उनके बीच तीन किलोमीटर का फासला है। नीज्नी जेनगुताई में कुमिक भाषा बोली जाती है और वेर्खनी जेनगुताई में अवार।
दारगीन जाति के लोगों का कहना है कि मेगेब में दारगीन रहते हैं और अवार जातिवाले कहते हैं कि वहाँ अवार रहते हैं। लेकिन खुद मेगेबवासियों का क्या कहना है? उनका कहना है कि हम न तो दारगीन हैं और न अवार। हम तो मेगेबी हैं। हमारी अपनी मेगेबी भाषा है। मेगेब से सात किलोमीटर दूर जाने पर हम चोख गाँव में पहुँच जाते हैं। मेगेबी भाषा के साथ वहाँ नहीं जाओ, क्योंकि चोख की अपनी विशेष भाषा है।
लोगों का कहना है कि कुबाची के सुनारों की कला इस कारण बहुत अरसे तक विश्वसनीय ढंग से गुप्त बनी रही कि कोई भी उनकी भाषा नहीं समझ सकता था। अगर कोई राज को खोलना भी चाहता तो किसके सामने ऐसा करता?
यह भी कहा जाता है कि खूँजह के खान ने इस उद्देश्य से गीदात्ली में अपना जासूस भेजा कि वह वहाँ की सभाओं और बाजारों में जाकर लोगों की सारी बातें सुने ताकि यह पता लगा सके कि गीदात्ली के लोग क्या सोचते हैं।
जासूस बहुत ही जल्दी वापस आ गया।
'सब कुछ मालूम कर आए?'
'कुछ भी मालूम नहीं कर सका।'
'क्यों?'
'वहाँ हर कोई अपनी भाषा में बोलता है। उनकी भाषाएँ हमारी समझ में नहीं आतीं।'
एक पहाड़िया अपने लिए लबादा खरीदने के विचार से आंदी गाँव में गया। उसने लबादा पसंद किया, कीमत पूछी और मोल-भाव करने लगा। मोल-भाव होता रहा, होता रहा और अचानक आंदी गाँव के दुकानदार अपनी भाषा में बोलने लगे। गाहक पहाड़िये ने एतराज करते हुए कहा -
'चूँकि मैं गाहक हूँ, इसलिए तुम्हें ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जो मेरी समझ में आ सके।'
'हम तुम्हारी समझ में आनेवाली भाषा में तब बात करेंगे, जब तुम हमारी कीमत मंजूर कर लोगे।'
हाँ, यह सच है कि आंदी गाँव के लोगों ने व्यापार में अभी तक कभी मार नहीं खाई।
किसी पहाड़िये को एक हसीना से मुहब्बत हो गई। उसने इस सुंदरी को ये पावन शब्द 'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ' लिखने का निर्णय किया, किंतु पत्र के रूप में नहीं, बल्कि उस जगह, जहाँ वह युवती आती-जाती थी और जहाँ वह उसकी प्रणय-स्वीकृति को देख सकती थी। उसने उक्त शब्दों को किसी चट्टान, चश्मे की ओर जानेवाली पगडंडी, उसके घर की दीवार, अपने पंदूरा बाजे पर लिखने का निर्णय किया। इसमें भी कोई बुरी बात नहीं थी। किंतु इस प्रेमी के दिमाग में यह सनक आ गई कि इन शब्दों को वह दागिस्तान की सभी भाषाओं में लिखे। इसी उद्देश्य से वह अपनी राह पर चल पड़ा। उसका ख्याल था कि उसकी यह यात्रा बहुत लंबी नहीं रहेगी। मगर वास्तव में उसने यह पाया कि हर गाँव में इन शब्दों को अपने ही ढंग से कहा जाता है... अवार भाषा में एक ढंग से, लेज्गीनी में दूसरे ढंग से, लाकस्की में तीसरे ढंग से, दारगीन्स्की में चौथे ढंग से, कुमिकस्की में पाँचवें ढंग से, ताबासारन्स्की में छठे ढंग से, तात्स्की में सातवें ढंग से, आदि, आदि।
लोगों का कहना है कि यह प्रेमी अभी तक पहाड़ों में भटकता फिर रहा है, उसकी प्रेमिका की शादी हुए एक जमाना बीत गया, वह बूढ़ी भी हो गई, लेकिन हमारा यह आशिक सूरमा अभी तक अपने प्रेम के शब्द लिखता जा रहा है।
'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, इन शब्दों को तुम्हारी भाषा में कैसे कहा जाता है, तुम्हें यह मालूम है या नहीं?' एक बुजुर्ग ने किसी नौजवान से पूछा।
नौजवान ने अपने करीब खड़ी युवती का आलिंगन करते हुए जवाब दिया -
'मेरी भाषा में ये शब्द इस तरह कहे जाते हैं।'
दागिस्तान में हर छोटे-से परिंदे, हर फूल, हर नद-नाले के दसियों नाम हैं।
संविधान के अनुसार हमारे यहाँ आठ मुख्य जातियाँ हैं - अवार, दारगीन, कुमिक, लेज्गीन, लाक, तात, ताबासारान और नोगाई।
हम पाँच भाषाओं में पाँच साहित्यिक संकलन निकालते हैं। उनके नाम हैं - 'दुस्तवाल,' 'दोसलूक', 'गालमागदेश', 'गुदूल्ली', 'दूसशीवू'। वैसे इन सबका एक साझा नाम है 'द्रूज्बा' यानी दोस्ती।
दागिस्तान में नौ भाषाओं में किताबें छपती हैं। लेकिन कितनी भाषाओं में गाने गाए जाते हैं? हर कालीन पर अपने अलग बेल-बूटे होते हैं। हर तलवार पर अपना आलेख होता है।
लेकिन यह कैसे हुआ कि एक हाथ पर इतनी अधिक उँगलियाँ हो गईं? यह कैसे हुआ कि एक दागिस्तान में इतनी अधिक भाषाएँ हो गईं?
विद्वान लोग अपने ढंग से इसे स्पष्ट करते हरें। लेकिन इस संबंध में मेरे पिता जी यह कहा करते थे -
'अल्लाह का भेजा हुआ एक दूत खच्चर पर सवार होकर इस पृथ्वी पर जा रहा था और बहुत बड़ी खुरजी में से भाषाएँ निकाल-निकालकर जनगण और राष्ट्रों को देता जाता था। चीनियों को उसने चीनी भाषा दे दी। अरबों के यहाँ गया और उन्हें अरबी भाषा दे दी। यूनानियों को उसने यूनानी, रूसियों को रूसी और फ्रांसीसियों को फ्रांसीसी भाषा दे दी। भाषाएँ भिन्न-भिन्न थीं - कुछ मधुर थीं तो कुछ कठोर, कुछ लच्छेदार, कुछ कोमल। जनगण ऐसे उपहार से बहुत खुश हुए और उसी वक्त सभी अपनी-अपनी भाषा में बोलने लगे। अपनी भाषाओं की बदौलत लोग एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह जानने-समझने लगे और जनगण दूसरे जनगण, पड़ोसी जनगण को ज्यादा अच्छी तरह जानने-पहचानने लगे।
'अपने खच्चर पर सवारी करते हुए यह आदमी हमारे दागिस्तान तक पहुँच गया। कुछ ही समय पहले उसने जार्जियाई लोगों को उनकी भाषा दी थी जिस भाषा में बाद में शोता रूस्तावेली ने अपना महाकाव्य रचा, कुछ ही समय पहले ओसेतियों पर कृपा करते हुए उन्हें उनकी भाषा दी थी जिस भाषा में बाद में कोस्ता हेतागूरोव ने साहित्य-सृजन किया। आखिर हमारी बारी भी आ गई।
'लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि दागिस्तान के पहाड़ों में उस दिन बर्फ का तूफान आ रहा था। दर्रों में बर्फ जोर से चक्कर काट रही थी और आकाश तक ऊपर उठ रही थी। कुछ भी नजर नहीं आ रहा था - न रास्ते और न घर-मकान। सिर्फ अँधेरे में हवा जोर से सीटियाँ बजाती सुनाई दे रही थी, कभी-कभी शिला-खंड टूटकर गिरते थे और हमारी चार नदियाँ, हमारी चार कोइसू शोर मचा रही थीं।
'नहीं', भाषाएँ बाँटनेवाले ने कहा, जिसकी मूँछों पर बर्फ जमने लगी थी, 'मैं इन चट्टानों पर नहीं चढ़ूँगा और सो भी ऐसे बुरे मौसम में।'
'उसने अपनी खुरजी ली जिसके तल में दो मुट्ठी भर वे भाषाएँ पड़ी हुई थीं जिन्हें अभी तक बाँटा नहीं गया था और इन सारी भाषाओं को उसने हमारे पहाड़ों पर बिखेर दिया।
'जिसे जो अच्छी लगे, वही भाषा ले ले,' उसने कहा और अल्लाह के पास वापस चला गया।
'इस तरह बिखरा दी गई भाषाओं को बर्फ के तूफान ने झपट लिया और उन्हें दर्रों तथा चट्टानों पर ले जाने और इधर-उधर फेंकने लगा। किंतु इसी समय सारे दागिस्तानी लपककर अपने घरों से बाहर आ गए। हड़बड़ी करते और एक-दूसरे को धकेलते हुए वे भाषाओं की इस सुखद तथा प्यारी सुनहरी वर्षा की ओर भागने लगे जिसका उन्हें एक मुद्दत से इंतजार था। वे अनाज के कीमती दानों को, जिन्हें जो भी मिल गए, बटोरने लगे। हर किसी ने तब अपनी मातृभाषा ले ली। अपनी-अपनी भाषा लेकर पहाड़ी लोग घरों में जाकर बर्फ के तूफान का अंत होने की प्रतीक्षा करने लगे।
'सुबह जब वे जागे तो धूप खिली हुई थी - हिमपात तो जैसे हुआ ही नहीं था। लोगों ने देखा - सामने पहाड़ है! यह तो अब 'पहाड़' था। उसे पहाड़ कहकर पुकारा जा सकता था। लोगों ने देखा - सामने समुद्र है! यह तो अब 'समुद्र' था। उसे समुद्र कहकर पुकारा जा सकता था। सामने आनेवाली हर चीज को ही अब कोई नाम दिया जा सकता था। कितनी खुशी की बात थी! यह रही रोटी, यह - माँ है, यह - पहाड़ी घर है, यह - चूल्हा है, यह - बेटा है, यह - पड़ोसी है, ये - लोग हैं।
'सभी लोग सड़क पर जमा हो गए, सभी मिलकर चिल्लाए - 'पहाड़।' उन्होंने कान लगाकर प्रतिध्वनि सुनी - सभी ने इस शब्द को अलग-अलग ढंग से कहा था। सभी मिलकर चिल्लाए - 'समुद्र!' सभी ने इस शब्द को अलग-अलग ढंग से कहा था। इसी वक्त से अवार, लेज्गीन, दारगीन, कुमिक, तात और लाक जातियाँ तथा भाषाएँ बन गईं... और उसी समय से यह सब कुछ दागिस्तान कहलाता है। लोग भेड़ों, भेड़ियों, घोड़ों और टिड्डों से अलग हो गए... कहते हैं कि 'घोड़े' के इनसान बनने में जरा-सी ही कसर है।'
लेकिन अल्लाह के भेजे हुए दूत! तुम उस वक्त बर्फ के तूफान और खड़े पर्वतों से क्यों घबरा गए? किसलिए तुमने सोचे-समझे बिना हमारे सामने भाषाएँ बिखरा दीं? यह तुमने क्या किया? जो लोग अपनी भावना, अपने दिल, आचार-व्यवहार, रस्म-रिवाज और जीवन के रंग-ढंग की दृष्टि से एक-दूसरे के इतने ज्यादा करीब हैं, तुमने उन्हें बाँट दिया, भाषाओं के कारण एक-दूसरे से अलग कर दिया।
खैर, इसके लिए भी शुक्रिया। बुरी भाषाएँ नहीं होतीं। बाकी चीजों के मामले में हम खुद ही सोच-समझ लेंगे। एक-दूसरे के निकट होने की राह ढूँढ़ लेंगे, ऐसा करेंगे कि विभिन्न भाषाएँ हमें अलग करने के बजाय सूत्रबद्ध करें।
बाद में लंगड़े तैमूर, अरबों और ईरान के शाह ने हमपर चढ़ाई की तथा हर किसी ने हम पर अपनी भाषा लादने की कोशिश की। लेकिन हमारे हाथ के झकझोरे जाने से हमारी उँगलियाँ टूटकर नहीं गिरीं, हमारे पेड़ के झकझोरे जाने से हमारी शाखाएँ नहीं टूटीं।
'भाषा की मातृभूमि की तरह रक्षा करनी चाहिए,' शामिल ने कहा था।
'शब्द-वे तो गोलियाँ हैं, उन्हें व्यर्थ बरबाद नहीं करो,' हाजी-मुरात ने जोड़ा था।
'जब बाप मरता है तो वह विरासत के रूप में बेटों के लिए घर, खेत, तलवार और पंदूरा छोड़ता है। लेकिन मरनेवाली पीढ़ियाँ आनेवाली पीढ़ियों के लिए विरासत के रूप में भाषा छोड़ती हैं। जिसके पास भाषा है, वह अपने लिए घर बना लेगा, खेत जोत लेगा, तलवार बना लेगा, पंदूरा को सुर में कर लेगा और उसे बजा लेगा,' मेरे पिता जी कहा करते थे।
मेरी प्यारी मातृभाषा। मैं नहीं जानता कि तुम मुझसे खुश हो या नहीं, लेकिन तुम मेरी हर साँस में बसी हुई हो और मैं तुम पर गर्व करता हूँ। जैसे चश्मे का निर्मल जल अँधेरी गहराइयों में से धूप-नहाए स्थान की ओर, जहाँ हरियाली है, जाने की कोशिश करता है, वैसे ही मातृभाषा के शब्द बड़ी तेजी से मेरे दिल की गहराई से मेरे कण्ठ की ओर बढ़ते हैं। होंठ फुसफसाते हैं। मैं अपनी फुसफुसाहट को बहुत ध्यान से सुनता हूँ, मेरी भाषा, मैं तुम पर कान लगा देता हूँ और मुझे लगता है कि कोई बहुत ही प्रबल पहाड़ी नदी अपने लिए रास्ता बनाने को दर्रे में दहाड़ रही है। मुझे पानी का शोर अच्छा लगता है। जब म्यान से निकले हुए दो खंजर आपस में टकराते हैं तो इस्पात की खनक भी मुझे अच्छी लगती है। मेरी भाषा में यह सब कुछ है। मुझे प्यार की फुसफसाहट भी बहुत अच्छी लगती है।
मेरी मातृभाषा, मेरे लिए यह कर पाना बहुत कठिन है कि सभी तुझे जान जाएँ। कितनी समृद्ध हो तुम ध्वनियों की दृष्टि से, कितनी अधिक ध्वनियाँ हैं तुममें, जो अवार जाति का व्यक्ति नहीं हैं, कितना कठिन है उसके लिए इन ध्वनियों का उच्चारण करना। किंतु जो इनका उच्चारण कर सकता है, उसके लिए वे कितनी मधुर हैं। मिसाल के तौर पर दस तक की मामूली गिनती - त्सो (एक), कीगो (दो), लाबग्गो (तीन), उन्क्गो (चार), श्चूगो (पाँच), अनल्गो (छह), मीक्गो (सात), इच्गो (आठ), अंत्स्गो (नौ)। जब कभी अवार भाषा में दस तक सही उच्चारण करनेवाले किसी व्यक्ति से मेरी भेंट होती है तो मैं उसके बहादुरी से इस कारनामे की उस व्यक्ति की वीरता से तुलना करता हूँ जो कंधे पर भारी पत्थर रखे हुए बाढ़ से उमड़ती नदी को एक तट से दूसरे तट तक पार कर ले। अगर कोई व्यक्ति दस तक सही गिनती कर सकता है तो वह आगे भी बढ़ता जा सकता है। वह तैरना भी जानता है। साहस से आगे बढ़ता जाए।
दूसरी जातियों के लोगों की तो बात ही क्या की जाए। हमारी अवार जाति के बालकों से भी बुजुर्ग लोग कहा करते थे - इस वाक्य को अटके बिना तीन बार दोहराओ तो - 'क्योदा ग्योर्क क्वेर्क क्वाक्वादाना' (पुल के नीचे मेढकी टरटरा रही थी)। अवार भाषा के इस वाक्य में केवल चार शब्द हैं, लेकिन बहुत बार ऐसा होता था कि गाँव के हम बालक इस वाक्य को सही ढंग से और जल्दी-जल्दी कह पाने के लिए सारा-सारा दिन अभ्यास करते रहते थे।
अबूतालिब अवार भाषा बोल लेता था। उसने अपने बेटे को त्सादा गाँव में हमारे यहाँ इसलिए भेजा कि वह भी अवार भाषा सीख ले। बेटे के घर लौटने पर अबूतालिब ने उससे पूछा -
'गधे पर सवारी की?'
'हाँ, की।'
'दस तक गिनती कर सकते हो?'
'कर सकता हूँ।'
'यह वाक्य तीन बार लगातार दोहराओ - क्योदा ग्योर्क क्वेर्क क्वाक्वादाना।'
बेटे ने दोहराया -
'ओह, यह माना जा सकता है कि तुमने असंभव को संभव कर दिखाया है।'
तो ऐसी हैं चट्टानों के बीच दबे हुए हमारे गाँवों की भाषाएँ-बोलियाँ। हमारे उच्चारण, हमारी कंठ्य और श्वास ध्वनियों को लिखने के लिए अर्थात् विद्वानों की भाषा में उनका लिप्यंतरण करने के लिए किसी भी वर्णमाला में अक्षर नहीं मिले। इसीलिए जब हमारी लिपि बनाई गई तो रूसी भाषा की वर्णमाला में विशेष अक्षर और अक्षर-संयोग जोड़ने पड़े। व्यंजनों के मामले में तो खास तौर पर ऐसे ही करना पड़ा।
शायद इन फालतू अक्षरों के कारण अवार भाषा की रूसी में अनूदित हर पुस्तक कहीं अधिक पतली लगती है। उसकी ऐसे पहाड़ी आदमी से तुलना की जा सकती है जिसने लगातार तीन महीनों तक रोजे (व्रत) रखे हों।
शामिल से किसी ने पूछा -
'दागिस्तान को इतनी अधिक जातियों की क्या जरूरत है?'
'इसलिए कि एक के मुसीबत में पड़ जाने पर दूसरी उसकी मदद कर सके। इसलिए कि अगर एक जाति कोई गाना शुरू कर दे तो दूसरी उसका साथ दे सके।'
'तो क्या सभी जातियाँ किसी एक की मदद को सामने आई?' अब मुझसे पूछा जाता है।
हाँ, आईं। हर जाति ने मदद की।'
'क्या एक ही सुर में गाना गाया गया?'
'हाँ, गाया गया। आखिर हमारी मातृभूमि तो एक ही है।'
अनेक धुनें हैं, किंतु वे मिलकर एक ही गाने का रूप लेती हैं। भाषाओं के बीच सीमाएँ हैं, लेकिन दिलों के बीच सीमाएँ नहीं हैं। विभिन्न लोगों के वीर-कृत्य अंत में एक ही वीर-कृत्य में घुल-मिल गए हैं।
'फिर भी विभिन्न जातियों में कुछ फर्क तो है? क्या फर्क है वह?'
'इस प्रश्न का जवाब देना बड़ा मुश्किल है।'
हमारी जातियों के बारे में कहा जाता है - कुछ लड़ने के लिए बनी हैं, कुछ हथियार बनाने के लिए, कुछ भेड़ें चराने के लिए, कुछ जमीन पर हल चलाने के लिए और कुछ बाग-बगीचे लगाने के लिए... मगर यह बेतुकी बात है। हर जाति के अपने सैनिक-सूरमा, चरवाहे, लुहार और बागवान हैं। हर किसी के अपने हीरो, गायक और कुशल कारीगर हैं।
अवारों के - शामिल हाजी-मुरात, हमजात, महमूद, मखाच।
दारगीनों के - बातीराय, बगातीरोव, अहमद मुंगी, राबादान नूरोव, कारा कारायेव।
लेज्गीनों के - सुलेमान, एमीन, ताहिर, अगासीयेव, अमीरोव।
कुमिकों के - इरची कजाक, अलीम-पाशा, उल्लूबी, सोल्तन-सईद, जाइनुलाबीद बातिरमुर्जायेव, नुखाई।
लाकों के - हारूँ सईदोव, सईद हाबीयेव, सफ्फदी कापीयेव, सुरखाई और मेरा दोस्त अबूतालिब।
अनेक जातियों में से मैंने केवल उन्हीं का उल्लेख किया है जो सबसे पहले मेरे दिमाग में आ गईं। प्रत्येक जाति में से मैंने केवल उन नामों का उल्लेख किया है जो सबसे पहले मुझे याद आ गए। लेकिन वैसे तो हमारे यहाँ अनेक जातियाँ हैं और अनेक जाने-माने नाम हैं।
कुछ जातियों के लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे चंचल स्वभाव के हैं, कुछ के बारे में यह कि बुद्धू-से हैं, कुछ के बारे में यह कि चोरटे हैं, कुछ के बारे में यह कि धोखेबाज हैं। संभवतः यह सब निंदा-चुगली है।
हर जाति में बढ़िया और घटिया, सुंदर और कुरूप लोग होते हैं। उसमें चोर और चुगलखोर भी मिल जाएँगे। लेकिन यह तो जाति नहीं, उसका कूड़ा-करकट होंगे।
मेरा एक अन्य मित्र ऐसे कहा करता था -
'मैं तो हमेशा पहले से ही यह जान लेता हूँ कि कोई व्यक्ति किस जाति का है।'
'यह कैसे?'
'बहुत ही आसानी से। दागिस्तान की एक जाति (हम उसका नाम नहीं लेंगे) के लोग मखाचकला में आते ही सबसे पहले यह ढूँढ़ते हैं कि यहाँ रेस्तराँ कहाँ हैं और किसी खूबसूरत लड़की से कहाँ जान-पहचान हो सकती है। इनके तीन आदमी शोर-गुल मचानेवाली पूरी मंडली या दावत की बड़ी मेज पर जमा होनेवाले लोगों का स्थान ले सकते हैं। दूसरी जाति (हम उसका नाम भी नहीं लेंगे) के लोग सिनेमाघर, थियेटर या कन्सर्ट हॉल की तरफ जाने की उतावली करते हैं। इनके तीन आदमी जहाँ होते हैं, वहाँ आर्केस्ट्रा बन जाता है, जहाँ पाँच होते हैं, वहाँ नाच-गानों की मंडली। तीसरी जाति के लोग पुस्तकालय की ओर दौड़ते हैं, इन्स्टीट्यूट में दाखिला लेने और शोध-प्रबंध का मंडन करने की कोशिश करते हैं। इस जाति के तीन आदमी जहाँ इकट्ठे हो जाते हैं, वहाँ विद्वान-परिषद बन जाती है और जहाँ पाँच जमा हो जाते हैं, वहाँ विज्ञान-अकादमी की शाखा बन जाती है। चौथी जाति (हम उसका नाम भी नहीं लेंगे) के लोग सिर्फ यही सोचते हैं कि किस तरह से कार खरीदी जाए या वे टैक्सी के ड्राइवर बन जाएँ और अगर और कुछ नहीं तो ट्रैफिक-कंट्रोल करनेवाले पुलिसमैन ही बन जाएँ। इस जाति के तीन आदमी जहाँ होते हैं, वहाँ मोटरों का अड्डा और जहाँ पाँच होते हैं, वहाँ टैक्सियों का बड़ा स्टैंड बन जाता है। पाँचवीं जाति के लोग सहकारी संघ, किसी दुकान, व्यापार-केंद्र, भोजनालय या कम से कम स्टाल को तरजीह देते हैं। इस जाति के तीन लोग जहाँ जमा हो जाते हैं, वहाँ डिपार्टमेंट स्टोर बन जाता है और जहाँ पाँच जमा हो जाते हैं, वहाँ कारखाना बन जाता है।
लेकिन यह सब तो मजाक के रूप में कहा जाता है। भला क्या कोई ऐसे जाति भी है जिसके मर्द लोग सुंदर युवतियों को न चाहते हों या रेस्तराँ में बैठने की इच्छा न रखते हों?
सभी जातियों के अपने थियेटर, अपने नाच, अपने गाने हैं। हमारे यहाँ तो सभी जातियों की एक साझी कला-मंडली 'जेज्गीन्का' भी है। सभी जातियों में 'वोल्गा' कार खरीदने या किसी दुकान पर काम करने के इच्छुक लोग भी मिल जाएँगे। किंतु क्या यह कोई जातीय लक्षण है? अबूतालिब ने एक बार एक ऐसी बीमारी का नाम लिया जिसके बारे में दागिस्तान में पहले किसी ने कभी सुना ही नहीं था। यह बीमारी थी - शराबनोशी।
अबूतालिब ने इस तरह से अपनी बात कही - 'पहले हमारे गाँव में एक शराबी था और वह इसी वजह से मशहूर था कि सारे इलाके में लोग उसे जानते थे। अब हमारे गाँव में शराब न पीनेवाला सिर्फ एक आदमी है। एक अजूबे के तौर पर उसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।'
इस सिलसिले में अबूतालिब को बहुत-से किस्से-कहानियाँ याद हैं। किंतु यदि हम उसके किस्से-कहानियों के फेर में पड़ेंगे तो मुझे डर है कि पूरी तरह से यह भूल जाएँगे कि किस बात की चर्चा कर रहे थे। हम इस चीज पर विचार कर रहे थे कि किन लक्षणों के आधार पर दागिस्तान की एक जाति के व्यक्ति को दूसरी जाति के व्यक्ति से अलग किया जा सकता है। शायद पोशाक के आधार पर? समूरी टोपी की बनावट और उसे पहनने के ढंग के आधार पर? लेकिन अब तो सभी एक जैसे कोट, एक जैसे पतलून, एक जैसे बूट और एक जैसी छज्जेदार टोपी या टोप पहनते हैं। अगर कोई ऐसी चीज रह गई है जो निर्णायक रूप से किसी जाति का विशेष लक्षण प्रस्तुत करती है और उसे दूसरी जाति से भिन्न बनाती है तो वह भाषा है। इस संबंध में यह बात भी बहुत दिलचस्प है कि जब लेज्गीन या तात, अवार या दारगीन जाति का कोई व्यक्ति रूसी भाषा बोलता है तो उसके लहजे से ही यानी रूसी भाषा के विकृत उच्चारण से ही कुमिक को लाक और लेज्गीन को कुमिक से फौरन अलग रूप में पहचाना जा सकता है।
मिसाल के तौर पर रूसी भाषा का हर शब्द जो 'स' अक्षर से शुरू होता है, अवार जाति के लोग उसका उच्चारण करते वक्त उसमें 'इ' जोड़ देते हैं। वे 'स्तंबूल' को 'इस्तंबूल', 'स्ताकान' (गिलास) को 'इस्ताकान', 'स्ताल्स्की' को 'इस्ताल्स्की', 'सोन' (स्वप्न) को 'इसोन' कहते हैं।
अगर किसी शब्द के मध्य में 'इ' की ध्वनि आ जाती है तो अवार जाति के लोग उसका उच्चारण नहीं करते हैं। इसलिए वे 'सीबीर' (साइबोरिया) की जगह 'स्बीर', 'बेलीबेर्दा' (बकवास) की जगह 'बेलबेर्दा' कहते हैं। 'त' की ध्वनि के बाद हम थोड़ा रुकते हैं मानो जरा ठोकर खाते हैं।
दारगीन जाति के लोगों के उच्चारण में 'ओ' की जगह अक्सर 'ऊ' और 'यू' की जगह भी अक्सर 'ऊ' की ध्वनि सुनाई देती है। वे 'पोचता' (डाकखाना) की जगह 'पूचता' और 'कोश्का' (बिल्ली) की जगह 'कूश्का' तथा ल्युबोव' (प्रेम) की जगह 'लुबोव' कहते हैं। किसी शब्द के अंत में वे 'इ' का तो उच्चारण ही नहीं करते।
इसी प्रकार लाक जाति के लोग 'ख' ध्वनि का कोमल उच्चारण करते हैं।
संक्षेप में यह कि कुछ जातियों के लोग व्यंजनों को लंबा खींचते हैं, दूसरे उन्हें छोटा करते हैं और कुछ छोड़ भी देते हैं, कुछ कठोर तथा कुछ कोमल उच्चारण करते हैं। कुछ कुछ 'फ' की जगह 'प' कहते हैं।
एक बार हम अबूतालिब की उपस्थिति में अपनी भाषाओं की चर्चा कर रहे थे और मेरा सहभाषी हमारे उच्चारणों की नकल करते हुए उनके अंतर को स्पष्ट कर रहा था। अबूतालिब शुरू में तो सुनता रहा, मगर बाद में उसने उसे टोक दिया और कहा -
'चुप होकर बैठ जाओ। तुम बहुत बोल चुके और अब मैं अपनी बात कहता हूँ। किसी एक व्यक्ति के दोषों-त्रुटियों को सारी जाति पर नहीं थोपना चाहिए। एक पेड़ से वन नहीं बनता, तीन पेड़ों से भी ऐसा नहीं होता। एक सौ पेड़ हो जाने पर भी वन नहीं बन जाता। हमारी भाषाओं का सवाल बड़ा पेचीदा सवाल है। यह तीन गाँठोंवाली गाँठ है जो उस वक्त बनती है, जब गीली रस्सी की बाँधा जाता है। एक वक्त ऐसा माना जाता था कि इस सवाल का बहुत सीधा-सादा हल यह दिखावा करना है कि इसका अस्तित्व ही नहीं है। इसकी चर्चा नहीं करो, इसे छुओ ही नहीं - मसला हल हो गया। लेकिन यह मसला कायम तो है। पुराने वक्तों में लोग सबसे ज्यादा तो जातीय या राष्ट्रीय मतभेदों के कारण ही तलवारें निकालकर एक-दूसरे के सामने आ जाते थे।'
मुझे मखाचकला में हुए एक पत्रकार-सम्मेलन की याद आ रही है। मास्को से उनतीस राज्यों का प्रतिनिधित्व करनेवाले अड़तीस प्रत्यावित संवाददाता दागिस्तान आए। शुरू में उन्होंने हमारे गाँवों का दौरा किया, हमारे पहाड़ी मर्दों-औरतों से बातचीत की और इसके बाद पत्रकार-सम्मेलन हुआ। फोटो-कैमरों की खट-खट और सिने-कैमरों की खरखर हुई। संवाददाताओं ने अपनी पेंसिलों की नोकें सँवारीं और कोरे कागज अपने सामने रख लिए।
एक बहुत बड़ी मेज के गिर्द हम सब बैठ गए। अबूतालिब हममें सबसे बुजुर्ग था। उससे ही इस सम्मेलन का उद्घाटन करने को कहा गया। अबूतालिब ने कहना शुरू किया -
'देवियो और सज्जनो, साथियो!... (हमने उसे यह सिखा दिया था कि इन शब्दों के साथ सम्मेलन का उद्घाटन करना चाहिए। इसके बाद उसने जो कुछ कहा, वह खुद ही कहा)। आइए, परिचय कर लें। यह हमारा घर है। ये हम हैं। ये हमारे मशहूर शायर हैं।' अबूतालिब ने दीवार पर लटके हुए छविचित्रों की ओर संकेत किया। दीवार पर बातीराय, कजाक, महमूद, सुलेमान, हमजात और एफ्फंदी के छविचित्र लटके हुए थे।
इन शायरों में से प्रत्येक के बारे में अबूतालिब ने कुछ शब्द कहे - कौन किस जाति का है, किसने किस भाषा में सृजन किया, किन भावनाओं से प्रेरित हुआ और कैसी ख्याति अर्जित की। जब खुद अबूतालिब के छविचित्र की बारी आई तो किसी तरह की झेंप महसूस किए बिना उसने कहा -
'यह मैं हूँ। कृपया यह नहीं सोचिए कि मैं दीवार से उतरकर मेज पर आ गया हूँ। मैं तो यहाँ से, मेज के पीछे से दीवार पर पहुँच गया हूँ।'
इसके बाद अबूतालिब ने अतिथियों को मेज के गिर्द बैठे कवियों का परिचय दिया और साथ ही यह भी कह दिया -
'मुमकिन है कि इनमें से कुछ को इस दीवार पर जगह मिल जाए। लीजिए, परिचय पाइए - अजमद खान अबुबकार, कुबाची के सुनार और दागिस्तान का जन-लेखक।
फाजू और मूसा। पत्नी और पति। एक परिवार में दो लेखक, दो उपन्यासकार, दो कवि, दो नाटककार। कभी-कभी एक साथ और कभी-कभी अलग-अलग लिखते हैं।
मुतालिब मितारोव - अवार जाति का दामाद, ताबासारान जाति का कवि।
शाह-एमीर मुरादोव - 'शांति-कपोत।' लेज्गीन जाति का कवि। हमेशा कपोतों या कबूतरों के बारे में लिखता है।
जामीदीन - हमारा व्यंग्कार, हमारा मार्क ट्वेन।
अनवर - दागिस्तान का जन-कवि, हमारे पाँच साहित्यिक संकलनों का प्रधान संपादक।
त्रूनोव - दागिस्तान में रहनेवाला रूसी लेखक।
हिजगिल अवशालूमोव - तात जाति का लेखक, अपनी मातृभाषा और रूसी में लिखता है।'
अतिथि-पत्रकारों को दागिस्तान के लेखकों का परिचय देना जारी रखते हुए अबूतालिब ने बादावी, सुलेमान, साशा ग्राच, इब्राहिम, अलीरजा, मेदजीद अशुगा रूतूल्स्की को उनके सामने पेश किया। उसने साहित्यिक संकलनों के संपादकों से मेहमानों को परिचित कराया और इसके बाद कहा -
'मेहमाननवाजी के उसूल हमें इस बात की इजाजत नहीं देते कि हम मेहमानों के नाम पूछें...'
मगर अबूतालिब के ऐसा कहने पर सभी मेहमान बारी-बारी से उठकर अपना परिचय देने और यह बताने लगे कि वे किस देश और किस पत्र या पत्रिका का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसके बाद, जैसा कि पत्रकार-सम्मेलन में होना चाहिए। प्रश्नोत्तर आरंभ हो गए।
प्रश्न - 'आपके यहाँ इतनी अधिक भाषाएँ, इतनी अधिक जातियाँ हैं कि उनका पूरा गड़बड़झाला है। आप एक-दूसरे को किस तरह से समझ पाते हैं?'
अबूतालिब का जवाब - 'जो भाषाएँ हम बोलते हैं - भिन्न हैं, किंतु हमारे मुँहों में जो जबानें हैं, वे एक जैसी हैं। (दिल पर हाथ रखकर) यह सब कुछ अच्छी तरह से समझता है। (अपने कानों को खींचते हुए) लेकिन ये बुरी तरह।'
प्रश्न - 'मैं बल्गारिया के अखबार का संवाददाता हूँ। यह बताइए कि दागिस्तान की विभिन्न भाषाओं में उसी तरह की निकटता है जैसे, उदाहरण के लिए बल्गारियायी और रूसी भाषा में?'
अबूतालिब का जवाब - 'बल्गारियायी और रूसी भाषा - सगी बहनों जैसी हैं। लेकिन हमारी भाषाएँ तो बहुत दूर के रिश्ते की चचेरी-ममेरी बहनों जैसी भी नहीं हैं। इनमें समान शब्द तो हैं ही नहीं। हमारे लेखकों में तो कुछ दलबंदी है, मगर हमारी भाषाओं में किसी तरह की दलबंदी नहीं। हर भाषा का अपना अलग रूप है।'
प्रश्न - 'आपकी भाषाएँ किन अन्य भाषाओं के साथ घनिष्ठता और किन भाषा-दलों से संबंध रखती हैं?'
अबूतालिब का जवाब - 'तात जाति के लोगों का कहना है कि वे ताजिक भाषा समझते हैं और हफीज का साहित्य पढ़ सकते हैं। लेकिन मैं उनसे पूछता हूँ कि अगर आप शेख सादी और उमर खय्याम की जबान समझते हैं तो उनके समान ही सृजन क्यों नहीं करते?
'पुराने वक्तों में सगाई करने के समय वर की प्रशंसा करते हुए कहा जाता था - 'वह कुमिक भाषा जानता है' - इसका मतलब यह होता था कि वर बहुत ही जानने-समझनेवाला व्यक्ति है, ऐसे व्यक्ति की पत्नी बड़ी सुखी रहेगी।
'वास्तव में ही कुमिक भाषा जाननेवाला आदमी तुर्की, आजरबाइजानी, तातारी, बल्कार, कजाख, उज्बेक, किर्गिज, बश्कीरी और आपस में मिलती-जुलती बहुत-सी ऐसी अन्य भाषाएँ भी समझ सकता है। अनुवाद के बिना हिकमत, काइसीन कुलीयेव और मुस्ताइ करीम की रचनाएँ पढ़ सकता है... लेकिन मेरी भाषा! हम लाकों के सिवा इसे वे विद्वान ही समझते होंगे जिन्होंने डी.लिट्. की उपाधि पाने के लिए इसके अध्ययन में अनेक साल लगाए होंगे।
'लाक जाति का एक प्रसिद्ध व्यक्ति सारी दुनिया में घूमकर इथोपिया पहुँच गया और वहाँ मंत्री बन गया। उसने इस बात पर जोर दिया कि अपनी इतनी लंबी यात्रा के दौरान उसका हमारी लाक भाषा से मिलती-जुलती एक भी भाषा से परिचय नहीं हुआ।'
ओमार-हाजी - 'हमारी अवार भाषा भी किसी अन्य भाषा के समान नहीं है।'
अबूतालिब - 'दारगीन, लेज्गीन और ताबासारान भाषाओं से मिलती-जुलती भाषाएँ भी नहीं हैं।'
प्रश्न - 'एक-दूसरी से कोई समानता न रखनेवाली ये सारी भाषाएँ आपने कैसे सीख लीं?'
अबूतालिब - 'किसी वक्त मैं दागिस्तान में बहुत घूमता रहा था। लोगों को गीतों-गानों और मुझे रोटी की जरूरत थी। जब कोई आदमी पराये गाँव में जाता है और वहाँ की भाषा नहीं जानता तो कुत्ते भी उस पर ज्यादा गुस्से से भूँकते हैं। जरूरत ने मुझे सारे दागिस्तान की भाषाएँ सीखने को मजबूर किया।'
प्रश्न - 'फिर भी क्या दागिस्तान की भाषाओं की समानता और असमानता के लक्षणों की अधिक विस्तार से चर्चा करना संभव नहीं? भला यह कैसे हुआ कि इतने छोटे-से देश में इतनी भिन्न भाषाएँ हैं?'
अबूतालिब - 'हमारी भाषाओं की समानता और असमानता के बारे में अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। मैं विद्वान या भाषाशास्त्री नहीं हूँ, किंतु जिस रूप में मैं इस समस्या की कल्पना करता हूँ, उसे आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ। हम यहाँ बैठे हुए हैं। हममें से कुछ का पहाड़ों में और कुछ का मैदानों में जन्म हुआ तथा हम वहीं बड़े हुए। कुछ गर्म क्षेत्रों और कुछ ठंडे क्षेत्रों में, कुछ नदी के तट और कुछ सागर के तट पर जन्मे और बड़े हुए। कुछ ने वहाँ जन्म लिया, जहाँ खेत है, मगर बैल नहीं, कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ बैल है, मगर खेत नहीं। कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ आग है, मगर पानी नहीं और कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ पानी है, किंतु आग नहीं। एक जगह मांस है, दूसरी जगह अनाज और तीसरी जगह फल। जहाँ पनीर रखा जाता है, वहाँ चूहे हो जाते हैं, जहाँ भेड़ें चराई जाती हैं, वहाँ भेड़ियों की भरमार हो जाती है। इसके अलावा-इतिहास, युद्ध, भूगोल, विभिन्न पड़ोसियों और प्रकृति को भी ध्यान में रखना चाहिए।
'हमारे यहाँ 'प्रकृति शब्द के दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो है - भूमि, घास, पेड़, पर्वत और दूसरा अर्थ है - मानव का स्वभाव। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकृति ने विभिन्न नामों, नियमों और रीति-रिवाजों के प्रकट होने में योग दिया।
'अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग ढंग से समूरी टोपी पहनी जाती है, अलग-अलग ढंग से कपड़े पहने जाते हैं और मकान बनाए जाते हैं। पालने के करीब अलग-अलग लोरियाँ गाई जाती हैं। महमूद ने दो तारोंवाले पंदूरे पर अपने गाने गाए, इरची कजाक के पंदूरे में तीन तार थे। लेज्गीन जाति का सुलेमान स्ताल्स्की तारा नामक बाजा बजाता था। कुछ बाजों के लिए बकरी की अँतड़ियों और कुछ के लिए लोहे के तार बनाए जाते हैं।
'जातियाँ या जनगण अनेक हैं और हरेक के अपने रस्म-रिवाज हैं। सभी जगह पर ऐसा ही है। बच्चे का जन्म होता है। एक जाति में बच्चे को बपतिस्मा दिया जाता है, दूसरी में उसकी सुन्नत की जाती है और तीसरी में उसके जन्म का प्रमाणपत्र तैयार किया जाता है। लड़का जब बालिग होता है तो दूसरे रीति-रिवाज सामने आते हैं। किसी लड़की से उसकी सगाई की जाती है... वैसे, सगाई करना - यह भी एक रीति-रस्म ही है। मैं यह कहना चाहता था कि कोई नौजवान शादी करता है तो तीसरे ढंग के रीति-रिवाजों से वास्ता पड़ता है। दागिस्तान में विवाह के रीति-रिवाजों की चर्चा करने के लिए तो पूरा एक दिन भी नाकाफी रहेगा। अगर आपमें से कोई उनके बारे में जानना चाहेगा तो उसे हम 'दागिस्तान के जनगण के रीति-रिवाज' पुस्तक भेंट कर देंगे। आप घर लौटकर उसे पढ़ लीजिएगा।'
प्रश्न - 'रीति-रिवाज भी भिन्न-भिन्न हैं। ऐसी स्थिति में कौन-सी चीज आपके लोगों को निकट लाती है, सूत्रबद्ध करती है?'
अबूतालिब - 'दागिस्तान।'
प्रश्न - 'दागिस्तान... हमें यह बताया गया है कि दागिस्तान का अर्थ 'पर्वतों का देश' है। इसका मतलब तो यह हुआ कि दागिस्तान एक जगह का नाम है?'
अबूतालिब - 'जगह का नाम नहीं, बल्कि मातृभूमि, जनतंत्र का नाम है। जो पहाड़ों में रहते हैं और जो घाटियों में - सभी के लिए यह शब्द समान अर्थ रखता है। नहीं, दागिस्तान - यह केवल भौगोलिक धारणा नहीं है। दागिस्तान का अपना रंग-रूप है, उसकी अपनी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ और सपने हैं। उसका साझा इतिहास, साझा भाग्य, साझे सुख-दुख हैं। क्या एक उँगली का दर्द दूसरी उँगली महसूस नहीं करती? हमारे यहाँ 'अक्तूबर क्रांति', 'लेनिन' और 'रूस' जैसे साझे शब्द भी हैं। इन शब्दों का हर भाषा में अनुवाद करने की भी जरूरत नहीं। अनुवाद के बिना ही वे तो समझ में आ जाते हैं। हम लेखकों के बीच बहुत-से वाद-विवाद होते हैं। किंतु इन तीन शब्दों के बारे में हमारे बीच कोई मतभेद नहीं। आप समझ गए?'
प्रश्न - 'यह तो हम समझ गए। लेकिन मैं एक और बात पूछना चाहता हूँ। एक समाचारपत्र में मैंने आज अदाल्लो अलीयेव की कविता पढ़ी। अनातोली जायत्स ने उसका रूसी में अनुवाद किया है। वहाँ कहा गया है कि अनुवाद दागिस्तानी भाषा से किया गया है। यह कौन-सी भाषा है?'
अबूतालिब - 'यह भाषा तो मैं भी नहीं जानता। अदाल्लो अलीयेव से मेरी कल मुलाकात हुई थी और मैंने उससे बातचीत की थी। कल तक तो वह अवार था। मालूम नहीं कि उसमें ऐसा क्या परिवर्तन हो गया है। लेकिन आप इस मामले की तरफ कोई खास ध्यान नहीं दें, यह तो महज गलती है।'
प्रश्न - 'हमारे संयुक्त राज्य अमरीका में भी अनेक जातियाँ और भाषाएँ हैं। किंतु मूलभूत, राजकीय भाषा अंग्रेजी है। सारे काम-काज, उत्पादन के सभी मामलों और दस्तावेजों में इसी भाषा का उपयोग होता है। लेकिन आपके यहाँ? आपके यहाँ कौन-सी मूलभूत भाषा है?'
अबूतालिब - 'हर व्यक्ति के लिए उसकी मूलभूत भाषा उसकी माँ की भाषा है। जो आदमी अपने पहाड़ों को प्यार नहीं करता, वह पराये मैदानों को भी प्यार नहीं कर सकता। जो सुख घर पर नहीं मिला, वह बाहर सड़क पर भी नहीं मिलेगा। जो अपनी माँ की चिंता नहीं करता, वह परायी औरत की भी चिंता नहीं करेगा। जब हाथ में मजबूती से तलवार पकड़नी हो या किसी दोस्त के साथ तपाक से हाथ मिलाना हो तो हाथ की सभी उँगलियाँ मूलभूत होती हैं।'
प्रश्न - 'मैंने मुतालिब मितारोव की लंबी कविता पढ़ी है। उसमें उसने इस बात पर जोर दिया है कि वह न तो अवार, न तात, न ताबासारान और न दागिस्तानी ही है। आप इसके बारे में क्या कह सकते हैं?'
अबूतालिब (मितारोव को नजरों से ढूँढ़ते हुए) - 'सुनो मितारोव, तुम अवार, कुमिक, तात, नोगाई, लेज्गीन नहीं हो, यह तो मैं बहुत अरसे से जानता हूँ। लेकिन तुम ताबासारान भी नहीं हो, यह मैं पहली बार सुन रहा हूँ। आखिर तुम कौन हो? कल तुम शायद यह लिख दो कि मुतालिब भी नहीं हो और मितारोव भी नहीं। मिसाल के तौर पर मैं अबूतालिब गफूरोव हूँ। मैं सबसे पहले तो लाक जाति का हूँ, दूसरे दागिस्तानी हूँ, तीसरे सोवियत देश का शायर हूँ। या इसके उलट इस तरह कहा जा सकता है - सबसे पहले मैं सोवियत शायर हूँ, दूसरे यह कि मैं दागिस्तान-जनतंत्र में रहता हूँ और तीसरे यह कि लाक जाति का हूँ और लाक भाषा में लिखता हूँ। यह सब कुछ मेरे साथ अविछिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह मेरा सबसे कीमती खजाना है। मैं इनमें से किसी भी चीज से इनकार नहीं करना चाहता। इनके लिए मैं अपनी जान की बाजी भी लगा दूँगा।'
प्रश्न (जर्मन जनवादी जनतंत्र का संवाददाता) - 'मेरे हाथों में चिकित्साशास्त्र के पी-एच.डी. साथी अलीकिशीयेव की पुस्तक है। इसका शीर्षक है - 'दागिस्तान में लंबी उम्र'। इसमें लेखक ने एक सौ साल से ज्यादा उम्र के लोगों के बार में लिखा है और यह साबित किया है कि लंबी उम्र की दृष्टि से दागिस्तान का सोवियत संघ में पहला स्थान है। किंतु आगे उसने इस बात की भी पुष्टि की है कि यहाँ की जातियों में धीरे-धीरे एक-दूसरी के निकट होने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है और अंततः दागिस्तान में एक ही जाति हो जाने की भी संभावना है। कुछ सालों के बाद अवार, दारगीन और नोगाई जाति के लोग अपने को दागिस्तानी मानने लगेंगे और पासपोर्ट में भी ऐसा ही लिखेंगे। मैंने आपके एक अन्य विद्वान के लेख भी पढ़े हैं जो इस बात की पुष्टि करता है कि आपका साहित्य जातियों की सीमाएँ तोड़कर पूरे दागिस्तान का साहित्य बनता जा रहा है। अगर विज्ञान के पी-एच.डी. और डी.लिट्. अपनी पुस्तकों और लेखों में ऐसे प्रश्न उठाते हैं तो इसका मतलब है कि ये प्रश्न महत्वपूर्ण और गहन हैं?'
अबूतालिब - 'साथी अलीकिशीयेव से भी मैं परिचित हूँ। वह हमारे ही इलाके का रहनेवाला है। यह विद्वान अनेक बुजुर्गों से इसलिए मिला कि वे उसे अपने जीवन के बारे में बताएँ। लेकिन सभी जातियों की एक जाति बनाने का विचार शायद ही किसी सम्मानित बुजुर्ग ने प्रकट किया हो। यह उसके अपने ही दिमाग की उपज है। मैं बहुत-से ऐसे 'मिचूरिनों' को जानता हूँ जिन्होंने अपनी 'प्रयोगशालाओं' में विभिन्न भाषाओं को मिलाकर तथा उन पर खरगोशों की भाँति तरह-तरह के प्रयोग करके एक संकरण भाषा बनाने की कोशिश की है। दागिस्तान के सात जातीय थियेटरों को मिलाकर एक थियेटर बनाने की कोशिश की गई। दागिस्तान के पाँच जातीय समाचार-पत्रों को मिलाकर एक पत्र बनाने का प्रयास किया गया। हमारे लेखक-संघ के अनेक विभागों को एक विभाग में मिलाने का यत्न किया गया, लेकिन ये सारी कोशिशें तो वैसी ही हैं जैसे कि अनेक शाखाओंवाले पेड़ को एक सीधे तने में बदलने की कोशिशें।'
प्रश्न - 'मैं भारतीय समाचार-पत्र का संवाददाता हूँ। हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ हैं - हिंदी, उर्दू, बंगाली... कुछ राष्ट्रवादियों ने यह चाहा कि उनकी भाषा ही सारे भारत की राजकीय भाषा बन जाए। इसके कारण वाद-विवाद और खूनी दंगे-फसाद भी हुए। आपके यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ?'
अबूतालिब - 'एक बार दो लड़कों के बीच इस तरह का झगड़ा हुआ था। अवार और कुमिक जाति के दो लड़के एक गधे पर जा रहे थे। अवार जाति का लड़का चिल्ला रहा था - 'ख्आ! ख्आ! ख्आमा!' और कुमिक लड़का चिल्ला रहा था - 'एश! एश! एशेक!' इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ था - गधा। लेकिन लड़कों का झगड़ा इतना ज्यादा बढ़ गया कि दोनों ही गधे से नीचे गिर गए और 'ख्आमा' तथा 'एशेक' के बिना रह गए। संभवतः यह तो बच्चों का वाद-विवाद है। हम अपनी भाषाओं को भेड़िये नहीं बनाते हैं। वे हमें चीरते-फाड़ते नहीं हैं। हमारे यहाँ तो यह भी कहा जाता है - 'घरेलू मूर्ख अपने पड़ोसियों की निंदा करता है, गाँव का मूर्ख पड़ोस के गाँवों की निंदा करता है और राष्ट्रीय मूर्ख दूसरे देशों की निंदा करता है।' जो आदमी किसी दूसरी भाषा के बारे में कुछ बुरा कहता है, उसे हमारे यहाँ आदमी ही नहीं माना जाता।'
प्रश्न - 'तो आप यह कहना चाहते हैं कि इस सवाल को लेकर आपके यहाँ वाद-विवाद और किसी तरह की गलतफहमियाँ नहीं हुईं?'
अबूतालिब - 'वाद-विवाद तो हुए। किंतु हमारी भाषाओं के मामले में कभी और किसी ने भी गंभीर हस्तक्षेप नहीं किया। हमारे नामों के मामले में भी। हर कोई उस भाषा में लिख, पढ़, गा और बातचीत कर सकता है जिसमें चाहता है। यह साबित करते हुए बहस तो की जा सकती है कि फलाँ चीज अच्छी या बुरी, सही या गलत और सुंदर या कुरूप है। किंतु क्या पूरी की पूरी जातियाँ अथवा अल्प जातियाँ गलत, बुरी या कुरूप हो सकती हैं? इस विषय पर यदि वाद-विवाद हुए भी तो उनमें न तो किसी की जीत और न किसी की हार ही हुई।'
प्रश्न - 'फिर भी क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि दागिस्तान में एक ही जाति और एक ही भाषा हो?'
अबूतालिब - 'अनेक लोग ऐसे कहते हैं - 'काश, हमारी एक ही भाषा होती!' लंगड़े राजबादिन ने जार्जिया पर अपनी एक चढ़ाई के वक्त जार इराकली से यह कहा - 'इस सारी मुसीबत की जड़ यह है कि हम एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते।' हाजी-मुरात ने हाइदाक-ताबासारान से अपने इमाम को यह लिखा - 'हम एक-दूसरे को नहीं समझे।'
'बेशक यह ज्यादा अच्छा रहता है, जब लोग आसानी और पहले ही शब्द से एक-दूसरे को समझ जाते हैं। तब बहुत कुछ अधिक आसान हो जाता, कहीं कम श्रम से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता। लेकिन अगर परिवार में बहुत बच्चे हों तो इसमें भी कुछ बुराई नहीं। परिवार को हर बच्चे की चिंता करनी चाहिए। बहुत कम माता-पिता ही बाद में इस चीज के लिए पछताते हैं कि उनके बहुत बच्चे हैं।
'कुछ लोग कहते हैं - 'देर्बेंत की सीमाओं से परे हमारी भाषा की किसे जरूरत है? हमें तो वहाँ कोई भी नहीं समझ पाएगा।'
'दूसरे कहते हैं - 'अराकान दर्रे के आगे हमारी भाषा किस काम की है?'
'कुछ अन्य शिकायत करते हैं - 'हमारे गीत तो सागर तक भी नहीं पहुँच सकेंगे।'
'लेकिन ऐसे लोग अपनी भाषाओं को अभिलेखागारों में भेजने की बहुत ही जल्दी कर रहे हैं।'
प्रश्न - 'समेकन या एकजुटता के बारे में आपकी क्या राय है?'
अबूतालिब - 'समेकन की पराये और बेगाने लोगों को जरूरत होती है। भाइयों को समेकन से क्या लेना-देना है।'
प्रश्न - 'फिर भी इसलिए कि भाई से बात कर सके, उनकी एक ही भाषा होनी चाहिए।'
अबूतालिब - 'हमारे यहाँ ऐसी एक भाषा है।'
प्रश्न - 'कौन-सी?'
अबूतालिब - 'वह भाषा जिसमें हम इस समय आपसे बातचीत कर रहे हैं। वह रूसी भाषा है। उसे अवार, दारगीन, लेज्गीन, कुमिक, लाक और तात, सभी जातियों के लोग समझते हैं। (अबूतालिब ने लेर्मोंतोव, पुश्किन और लेनिन के चित्रों की ओर संकेत किया।) इनके साथ तो हम एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं।'
प्रश्न - 'मैंने रसूल हमजातोव की दो खंडों में प्रकाशित रचनाएँ पढ़ी हैं। पहले खंड में 'मातृभाषा' नामक कविता में उन्होंने अवार भाषा का गुणगान किया है, लेकिन दूसरे खंड में इसी शीर्षक की कविता में उन्होंने रूसी भाषा की स्तुति की है। क्या एक साथ दो घोड़ों पर सवार हुआ जा सकता है? हम किस हमजातोव पर विश्वास करें - पहले या दूसरे खंडवाले हमजातोव पर?'
अबूतालिब - 'इस प्रश्न का स्वयं रसूल हमजातोव ही उत्तर दें।'
रसूल - 'में भी यही समझता हूँ कि एक साथ दो घोड़ों पर सवार नहीं हुआ जा सकता। लेकिन दो घोड़ों को एक ही गाड़ी या बग्घी में जरूर जोता जा सकता है। दोनों बग्घी को खींचें। दो घोड़े - दो भाषाएँ दागिस्तान को आगे ले जाती हैं। उनमें से एक रूसी है और दूसरी हमारी - अवार जातिवालों के लिए अवार, लाकों के लिए लाक। मुझे अपनी मातृभाषा प्यारी है। मुझे अपनी दूसरी मातृभाषा भी प्यारी है जो मुझे इन पर्वतों, इन पहाड़ी पगडंडियों से पृथ्वी के विस्तार, बहुत बड़ी और समृद्ध दुनिया में ले गई। सगे को ही मैं सगा कहता हूँ। मैं दूसरा कुछ कर ही नहीं सकता।'
प्रश्न - 'इस संबंध में मैं रसूल हमजातोव से कुछ और भी पूछना चाहता हूँ। अपनी कविता में उन्होंने लिखा है - 'अगर अवार भाषा के भाग्य में कल मरना बदा है तो मैं दिल के दौरे से आज ही मर जाऊँ।' लेकिन आपके यहाँ तो यह भी कहा जाता है कि 'जब बड़ा आए तो छोटे को उठकर खड़ा हो जाना चाहिए।' रूसी भाषा आ गई। क्या छोटी, स्थानीय भाषा को उसके लिए अपनी जगह नहीं छोड़नी चाहिए? आप लोगों के शब्दों में ही सिर पर दो टोपियाँ एक साथ नहीं ओढ़नी चाहिए। या किसलिए एक साथ ही दो सिगरेटें मुँह में ली जाएँ?'
रसूल - 'भाषाएँ न तो टोपियाँ हैं और न सिगरेटें। भाषा की भाषा से दुश्मनी नहीं होती। एक गीत दूसरे गीत की हत्या नहीं करता। पुश्किन के दागिस्तान में आ जाने पर महमूद को अपनी मातृभूमि नहीं छोड़नी चाहिए। लेर्मोंतोव किसलिए बातीराय की जगह ले। अगर कोई अच्छा दोस्त हमसे हाथ मिलाता है तो हमारा हाथ उसके हाथ में गायब नहीं हो जाता। वह अधिक गर्म और मजबूत ही हो जाता है। भाषाएँ सिगरेटें नहीं, जीवन के दीपक हैं। मेरे दो दीपक हैं। एक ने पैतृक घर की खिड़की से मेरा मार्ग रोशन किया। उसे मेरी माँ ने जलाया था ताकि मैं रास्ते से भटक न जाऊँ। अगर यह दीपक बुझ जाएगा तो सचमुच मेरा जीवन-दीप भी बुझ जाएगा। अगर मैं शारीरिक रूप से नहीं मरूँगा तो भी मेरा जीवन गहरे अँधेरे में डूब जाएगा। दूसरा दीपक मेरे महान देश, मेरी बड़ी मातृभूमि रूस ने जलाया है, ताकि मैं बड़ी दुनिया में अपनी राह न भूल जाऊँ। उसके बिना मेरा जीवन अंधकारमय और तुच्छ हो जाएगा।'
अबूतालिब - 'पत्थर को उठाना कैसे ज्यादा आसान है - एक हाथ से कंधे पर से या दो हाथों से छाती पर से?'
प्रश्न - 'फिर भी पहाड़ी लोग अपने उन घरों को छोड़कर जा रहे हैं जहाँ उनकी माताओं ने दीपक जलाए और जाकर मैदानों में बस रहे हैं?'
अबूतालिब - 'किंतु दूसरी जगहों पर जाकर बसने के समय वे अपनी भाषा और अपने नाम भी अपने साथ ले जाते हैं। वे अपनी समूरी टोपी ले जाना भी नहीं भूलते। उनकी खिड़कियों में रोशनी भी वही जगमगाती है।'
प्रश्न - 'लेकिन नई जगहों पर नौजवान लोग अक्सर दूसरी जातियों की युवतियों से शादियाँ कर लेते हैं। वे किस भाषा में बात करते हैं? और बाद में उनके बच्चे किस भाषा में बात करते हैं?'
अबूतालिब - 'हमारे यहाँ एक पुराना किस्सा है। एक नौजवान को किसी दूसरी जाति की युवती से मुहब्बत हो गई और उसने उससे शादी करने का फैसला किया। युवती ने कहा - 'मैं तुम्हारे साथ तब शादी करूँगी, जब तुम मेरी सौ इच्छाएँ पूरी कर दोगे।' नौजवान उसकी सनकें पूरी करने लगा। सबसे पहले तो उसने नौजवान को ऐसी चट्टान पर चढ़ने को मजबूर किया जिसमें पाँव टिकाने के लिए आगे को बढ़ा हुआ एक भी हिस्सा नहीं था। इसके बाद इस चट्टान से नीचे कूदने को कहा। नौजवान कूदा और उसकी टाँग में चोट आ गई। युवती ने तीसरी इच्छा यह प्रकट की कि वह लँगड़ाए बिना चले। खैर, नौजवान ने लँगड़ाना बंद कर दिया। युवती ने उसे तरह-तरह के कार्य भार सौंपे, जैसे कि खुरजी को भीगने न देकर तैरते हुए नदी को पार करे, सरपट दौड़े आते घोड़े को रोक दे, घोड़े को घुटने टेकने को मजबूर करे, यहाँ तक कि उस सेब को भी काट डाले जिसे युवती ने अपनी छाती पर रख लिया था... नौजवान ने युवती के निन्यानवे आदेश पूरे कर दिए। सिर्फ एक ही बाकी रह गया। तब युवती ने कहा - 'अब तुम अपनी माँ, पिता और भाषा को भूल जाओ।' यह सुनते ही नौजवान उछलकर घोड़े पर सवार हो गया और हमेशा के लिए उससे नाता तोड़कर चला गया।'
प्रश्न - 'यह सुंदर किस्सा है। मगर हकीकत क्या है?'
अबूतालिब - 'हकीकत तो यह है कि कोई नौजवान और युवती जब दांपत्य जीवन आरंभ करते हैं तो अपने ऊपर बहुत-सी जिम्मेदारियाँ लेते हैं। लेकिन कोई भी दूसरे से अपनी भाषा भूल जाने को नहीं कहता। इसके विपरीत, हर कोई दूसरे की भाषा जानने की कोशिश करता है।
'हकीकत तो यह है कि हम बड़ी उदासी से और भर्त्सना करते हुए ऐसे बच्चों की तरफ देखते हैं जो अपनी माता-पिता की भाषा नहीं जानते। खुद बच्चे ही माता-पिता की इसलिए भर्त्सना करने लगते हैं कि उन्होंने उन्हें अपनी भाषा नहीं सिखाई। ऐसे लोगों पर तरस आता है।
'हकीकत यह है कि हम आपके सामने बैठे हैं। ये रहीं हमारी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यासिकाएँ और पुस्तकें। ये हैं हमारी पत्र-पत्रिकाएँ। ये विभिन्न भाषाओं में छपती हैं और हर साल अधिकाधिक संख्या में छापी जाती हैं। विराट देश ने हमारी भाषाओं को पीछे नहीं धकेल दिया है। उसने उन्हें कानूनी मान्यता दी है, उनकी पुष्टि की है और वे सितारों की तरह जगमगा उठी हैं। 'और तारक तारिका से बात करता।' हम दूसरों को देखते हैं और दूसरे हमें देखते हैं। अगर ऐसा ने होता तो आपने भी हमारे बारे में कुछ न सुना होता, हममें कोई दिलचस्पी न ली होती। हमारी यह मुलाकात भी न हुई होती। तो हकीकत ऐसी है...'
प्रश्न - उत्तर, प्रश्न - उत्तर। अगर वक्त होता तो लगता है कि हमारा यह सम्मेलन कभी समाप्त न होता। सभी जनगण में लगातार भाषा के बारे में बातचीत होती रही है और हो रही है, किंतु इस बातचीत का कभी अंत होता नजर नहीं आता।
'हमारा यह पत्रकार-सम्मेलन झूमर नृत्य-गान के खेल के समान है जिसमें कुछ लोग प्रश्न पूछते हैं और दूसरे उत्तर देते हैं,' इस तरह के सम्मेलन के आदी न होने के कारण बुरी तरह से थके-हारे अबूतालिब ने अंत में कहा।
प्रश्न - वह तो कमान से छोड़ा हुआ तीर है जो कहीं भी जा गिरे। जवाब - वह तो निशाने पर जा लगनेवाला तीर है। प्रश्न - उत्तर। प्रश्नसूचक चिह्न - विस्मयबोधक चिह्न। अतीत - प्रश्न है, वर्तमान - उत्तर है।
पुराना दागिस्तान पत्थर पर बैठी हुई बुढ़िया के समान था। वह प्रश्नसूचक चिह्न था। आज का दागिस्तान - विस्मयबोधक चिह्न है। वह म्यान से बाहर निकली और तनी हुई तलवार है।
जब दागिस्तान में क्रांति पहुँची तो उससे आतंकित लोगों ने कहा कि जल्दी ही जातियाँ, भाषाएँ, नाम और रंग लुप्त हो जाएँगे। हमारी औरतों का मेसेदा नाम मारूस्या बन जाएगा और मर्दों का मूसा नाम वास्या हो जाएगा। यह भी कहा गया कि आदमी को यह तक सोचने की फुरसत नहीं होगी कि वह किस जाति और किस जगह का है। सभी को एक साझे कंबल के नीचे लिटा दिया जाएगा। बाद में अधिक शक्तिशाली लोग कंबल को अपनी ओर खींच लेंगे और अधिक दुर्बल लोग ठिठुरते रह जाएँगे।
दागिस्तान ने ऐसे लोगों की बातों पर कान नहीं दिया। पर्वतीय सरकार के सदस्य, गाइदार बामातोव ने उसे विदेश ले जानेवाले जहाज पर चढ़ते हुए कहा था - 'उनकी आत्माओं ने मेरे शब्दों को स्वीकार नहीं किया। देखेंगे कि आगे क्या होता है।'
आगे क्या हुआ, यह सभी देख रहे हैं। इसे पुस्तक में लिखा जा चुका है, गीतों में गाया जा चुका है। जिनके कान हैं - वे सुन लेंगे, जिनकी आँखें हैं - वे देख लेंगे।
एक पहाड़िये ने साझे कंबल से डरकर दागिस्तान छोड़ दिया और तुर्की चला गया। पचास साल बात वह दागिस्तान में यह देखने आया कि हमारे यहाँ जिंदगी का रंग-ढंग कैसा है। मैंने उसे मखाचकला में, जो पहले पोर्ट-पेत्रोव्स्क कहलाता था, घूमने के लिए आमंत्रित किया। रूसी जार का नामवाला शहर अब दागिस्तान के क्रांतिकारी मखाच का नाम धारण किए हुए है। मैंने मेहमान को दागिस्तान के सपूतों - बातीराय, उल्लूबी, कापीयेव - के सम्मान में उनके नामोंवाली सड़कें दिखाई। मेहमान सागर तटवर्ती चौक में सुलेमान स्ताल्स्की के स्मारक को देर तक देखता रहा। लेनिन सड़क पर उसने मेरे पिता-हमजात त्सादासा का स्मारक देखा। पता चला कि दागिस्तान छोड़कर जाने से पहले वह मेरे पिता जी से परिचित था।
विज्ञान अकादमी की शाखा के विद्वानों ने उससे भेंट की। उसने इतिहास, भाषा तथा साहित्य के वैज्ञानिक-अनुसंधान इन्स्टीट्यूट के सहकर्मियों से बातचीत की। उसने दागिस्तान के इतिहास और कला-संग्रहालय के हॉलों को देखा। वह विश्वविद्यालय में भी गया जहाँ पहाड़ी युवक-युवतियाँ पंद्रह विभागों में शिक्षा पाते हैं। शाम को हम राजकीय अवार थियेटर में गए। अवार जाति के नामवाले थियेटर में अवार लोग अवार लेखक का अवार युवती के बारे में लिखा हुआ नाटक देख रहे थे। यह हाजी जालोव द्वारा लिखा गया 'अनखील मारीन' नाटक था। जब रूसी संघ की जन-कलाकार पातीमात हिजरोयेवा ने, जो मारीन की भूमिका निभा रही थी, एक पुराना अवार गाना गाया तो हमारा मेहमान अपनी भावनाओं को वश में नहीं रख सका और उसकी आँखें छलछला आईं।
चौक में वह देर तक लेनिन के स्मारक के सामने खड़ा रहा। इसके बाद बोला -
'मैं यह सपना तो नहीं देख रहा हूँ?'
'इस सपने के बारे में आप तुर्की में रहनेवाले अवार जाति के लोगों को बताइए।'
'वे यकीन नहीं करेंगे। अगर मैंने अपनी आँखों से यह सब न देखा होता तो खुद भी यकीन न करता।'
अबूतालिब ने ऐसे कहा था - 'पहली बार मैंने नरकट काटा, उसकी मुरली बनाई और उसे बजाया। मेरे गाँव ने मेरी मुरली की आवाज सुनी। इसके बाद मैंने पेड़ की मोटी टहनी काटी, उसकी तुरही बनाई और उस पर दूसरा गाना बजाया। मेरी आवाज दूर पहाड़ों तक सुनी गई। इसके बाद मैंने पेड़ काटकर उसका जुरना बनाया और उसकी आवाज सारे दागिस्तान में गूँज गई। इसके बाद मैंने छोटी-सी पेंसिल लेकर कागज पर कविता लिख दी। वह दागिस्तान की सीमाओं से कहीं दूर उड़ गई।'
तो भाषाएँ बाँटनेवाले भगवान के दूत, तुम्हारा एक बार फिर से शुक्रिया, इस चीज के लिए शुक्रिया कि तुमने हमारे पर्वतों, हमारे गाँवों और हमारे दिलों की अवहेलना नहीं की।
उन सबका भी शुक्रिया जो अपनी मातृभाषाओं में गाते और सोचते हैं।
गीत : मेरा दाग़िस्तान
'बाक्अन।' अवार भाषा के इस शब्द के दो अर्थ हैं - धुन, लय-सुर और तबीयत, किसी व्यक्ति का हालचाल, संसार का कुशल-मंगल। जब कोई व्यक्ति यह अनुरोध करना चाहता है - 'मेरे लिए एक धुन बजा दो', तो 'बाक्अन' शब्द कहा जाता है। जब यह पूछा जाता है - 'तुम्हारी तबीयत कैसी है या तुम्हारा कैसा हालचाल है?' - तब भी 'बाक्अन' शब्द कहा जाता है। तो इस तरह हालचाल और गीत - एक ही शब्द में घुल-मिल जाते हैं।
पंदूरे पर आलेख -
मृत्यु-सेज पर खंजर हँसता-गाता व्यक्ति सुलाए
पंदूरा तो मरे हुए को, जीवित करे, उठाए।
शब्दों, बातचीत को छलनी में से छान लो - गीत बन जाएगा। घृणा, क्रोध और प्यार को छलनी में से छान लो - गीत बन जाएगा। घटनाओं, लोगों के काम-काज, पूरे जीवन को छलनी में से छान लो - गीत बन जाएगा।
पहाड़ी लोगों का एक गाना तो विशेष रूप से अबूतालिब का मन छूता था। उसमें शब्द तो इने-गिने थे और उसका सारा सौंदर्य उसकी कारुणिक टेक 'आई! दाई, दालालाई!' में ही निहित था। येरोश्का ने गाने के शब्दों का अनुवाद किया - 'एक नौजवान भेड़ों को चराने के लिए उन्हें गाँव से पहाड़ पर ले गया, रूसी आ गए, उन्होंने गाँव जला दिया, सारे मर्दों को मौत के घाट उतार दिया और सारी औरतों को बंदी बना लिया। नौजवान पहाड़ से लौटा - जहाँ गाँव था, वहाँ अब वीराना था, माँ नहीं थी, भाई नहीं थे, घर नहीं था, सिर्फ एक पेड़ रह गया था। नौजवान पेड़ के नीचे बैठ गया और फूट-फूटकर रोने गला। वह अकेला, अकेला रह गया और दुखी होते हुए गाने लगा - 'आई, दाई! दालालाई!' (लेव तोलस्तोय, 'कज्जाक')।
...आई, दाई, दाल्ला-लाई, दाल्ला, दाल्ला, दुल्ला-लाई-दुल्लालाई! पहाड़ों के प्यारे और दर्द भरे गीतो, तुम्हारा कब, कहाँ तथा कैसे जन्म हुआ? कहाँ से आ गए तुम इतने अद्भुत और इतने प्यारे?
पंदूरे पर आलेख -
तुम्हें लगता है कि ये धुनें तारों का ही कमाल हैं
किंतु ध्वनियों में गूँजता हमारे दिल का हाल है।
खंजर पर आलेख -
दो गीत, दो तेज फल, दो पक्ष, दिशाएँ हैं
उनमें शत्रु की मृत्यु, आजादी की सदाएँ हैं।
पालने पर आलेख -
व्यक्ति न कोई इस दुनिया में
अरे, पालने पर जिसके
प्यारी, प्यारी, मधुर लोरियाँ
गीत न माँ के हों गूँजें।
सड़क-किनारे के पत्थर पर आलेख -
मार्ग और गाना, बस, ये ही बनते भाग्य जवान के
साथ सदा ही दोनों रहते, उसके जीवन-प्राण के।
कब्र के पत्थर पर आलेख -
वह गाता था, लोग उसे तब सुनते थे
अब वह सुनता, लोग यहाँ जब गाते हैं।
पुराने गीत, गए गीत... लोरियाँ, शादी के गीत, जुझारू गीत। लंबे और छोटे गीत। कारुणिक और विनोदपूर्ण गीत। सारी पृथ्वी पर तुम्हें गाया जाता है। शब्द तो माला की तरह रुपहले धागे में पिरोए जाते हैं। शब्द तो कील की तरह मजबूती से गड़ जाते हैं। शब्द तो मानो किसी सुंदरी के आँसुओं की तरह सहजता से जन्म लेते और उभरते आते हैं। शब्द किसी सधे, अनुभवी हाथ द्वारा छोड़े गए तीर की तरह ठीक निशाने पर जाकर लगते हैं। शब्द तेजी से उड़ते हैं और पहाड़ी पगडंडियों की तरह, जिनपर आखिर तो पृथ्वी के छोर तक जाया जा सकता है, दूर ले जाते हैं।
पंक्तियों के बीच का स्थान मानो सड़क है जिस पर तुम्हारी प्रियतमा का घर खड़ा है। यह स्थान तो पिता के खेत की मेंड़ है। यह तो दिन को रात से अलग करनेवाली उषा और सन्ध्या है।
कागज पर लिखे और कागज पर न लिखे हुए गीत। किंतु चाहे कोई भी गीत क्यों न हो, उसे गाया जाना चाहिए। गाया न जानेवाला गीत तो मानो उड़ न सकनेवाला परिंदा है, मानो स्पंदित न होनेवाला, न धड़कनेवाला दिल है।
हमारे पहाड़ी इलाकों में कहा जाता है कि चरवाहे जब गीत नहीं गाते हैं तो भेड़ें घास चरना बंद कर देती हैं। किंतु जब पहाड़ की हरी-भरी ढलान के ऊपर गीत गूँजता है तो कुछ ही समय पहले जन्मे और घास चरना न जाननेवाले मेमने भी घास चरने लगते हैं।
एक पहाड़िये ने अपने पहाड़ी दोस्त से कहा कि वह अपनी मातृभाषा में कोई गीत गाए। या तो मेहमान एक भी गाना नहीं जानता था, या उसे गाना नहीं आता था, लेकिन उसने यह जवाब दिया कि उसके जनगण में एक भी गाना नहीं है।
'तब तो यह देखना होगा कि आप स्वयं तो हैं या नहीं? गीत-गाने के बिना जनगण का अस्तित्व नहीं हो सकता!'
आई, दाई, दाल्लालाई! दाला-दाला, दुल्ला-लाई! गीत-ये तो वे चाबियाँ हैं जिनसे भाषाओं के निषिध संदूक खोले जाते हैं। आई, दाई, दाल्ला-लाई! दाला-दालादुल्ला-लाई!
मैं यह बताता हूँ कि गीत का जन्म कैसे हुआ। इसके बारे में मैंने बहुत पहले ही एक कविता रची थी। यहाँ प्रस्तुत है।
खंजर और कुमुज
युवक एक दर्रे के पीछे
रहता था जो पर्वत पर,
अंजीरों का पेड़, और था
उसकी दौलत, बस, खंजर।
एक अकेली बकरी जिसे
चराता था वन-प्रांगण में
किसी खान की बेटी सहसा
समा गई उसके मन में।
युवक साहसी, समझदार भी
शादी का प्रस्ताव किया,
खान हँसा सुन बात युवक की
रूखा उसे जवाब दिया -
'एक पेड़, खंजर के मालिक
तुम अपना मुँह धो रखो,
जाओ, अपने घर जाकर तुम
बकरी अपनी रोज दुहो।'
बेटी की शादी की उससे
सोने की जिसके मुहरें,
ढेरों भेड़-बकरियाँ जिसकी
चरागाह में वहाँ चरें।
युवक निराशा-दुख में डूबा
राख हुआ दिल भी जलकर,
विरह-वेदना में ही उसने
लिया हाथ में तब खंजर।
बलि बकरी की उसने दे दी
और पेड़ भी काट दिया,
बड़े प्यार से जिसको रोपा
और खींचकर बड़ा किया।
पेड़-तने से कुमुज बनाया
बाजा यों तैयार किया,
अँतड़ियाँ लेंकर बकरी की
उस पर उनको तान दिया।
तार छेड़ते ही बाजे के
उनसे ऐसा स्वर निकला,
पावन-पुस्तक शब्द कि जैसे
जैसे कोई स्वर्ग-कला।
तब से कभी न बूढ़ी होकर
पास प्रेयसी है उसके,
कुमुज और खंजर - ये दो ही
सिर्फ खजाने हैं जिसके।
घिरा धुंध में, चट्टानों से
सदा गाँव ऊँचाई पर,
वहीं सामने लटक रहे हैं
कुमुज साथ में ही खंजर।
कुमुज और खंजर। लड़ाई और गीत। प्यार और वीरता। मेरी जनता का इतिहास। इन दो चीजों को हमारे पहाड़ी लोग सर्वाधिक सम्मानित स्थान देते हैं।
पहाड़ी घरों में दीवारी कालीनों पर ये दोनों निधियाँ एक-दूसरी के सामने ऐसे टँगी रहती हैं जैसे कुल चिह्न। पहाड़ी लोग बड़ी सावधानी, आदर और प्यार से इन्हें हाथों में लेते हैं। आवश्यकता के बिना तो बिल्कुल हाथ में नहीं लेते। जब कोई व्यक्ति खंजर को कालीन पर से उतारने लगता है तो पीछे से कोई बुजुर्ग जरूर यह कह उठता है - 'सावधानी से, कहीं पंदूरे के तार नहीं तोड़ देना।' जब कोई पहाड़िया पंदूरे को दीवार पर से उतारता है तो पीछे से कोई बुजुर्ग जरूर यह कह उठता है - 'सावधानी से, उँगलियाँ न काट लेना।' खंजर पर पंदूरे और पंदूरे पर खंजर की पच्चीकारी की जाती है। युवती की चाँदी की पेटी और वक्ष के चाँदी के गहनों पर कुमुज और खंजर को उसी तरह से साथ-साथ चित्रित किया जाता है, जैसे वे दीवारी कालीन पर साथ-साथ लटकते रहते हैं। पहाड़ी लोग युद्ध-क्षेत्र में जाते वक्त खंजर और कुमुज को अपने साथ ले जाते थे। पहाड़ी घर की सम्मानित दीवार सूनी और नंगी-बुच्ची हो जाती थी।
'किंतु युद्ध-क्षेत्र में पंदूरा किसलिए ले जाया जाए?'
'अरे वाह! जैसे ही तारों को झनझनाया जाता है, जैसे ही उन्हें छुआ जाता है, वैसे ही बाप-दादों का क्षेत्र, प्यारा गाँव और माँ की स्मृतियोंवाला पहाड़ी घर - वह सभी कुछ हमारे पास आ जाता है। इसी के लिए तो लड़ने और मरने में कोई तुक है।'
'जब तलवारों की टनकार होती है तो गाँव नजदीक आ जाते हैं,' हमारे सूरमा कभी कहा करते थे। किंतु प्यारे गाँवों की राहें पंदूरे की झनक से अधिक तो कोई कम नहीं करता।
'आई, दाई, दाल्ला-लाई। दाल्ला-दाल्ला-दुल्ला-लाई!'
महमूद कार्पेथिया के पहाड़ों में गाता था और अपने गाँव, अपने प्यारे पर्वतों को अपने नजदीक महसूस करता था। उसकी मरियम भी मानो उसके निकट होती थी। बाद में महमूद ने वसीयत की -
मेरी कब्र जहाँ हो उस पर, मिट्टी तुम कम डालना
ताकि न ढेले मिट्टी के, सुनने में बाधा बन पाएँ
ताकि हृदय औ कान सुन सकें
गीत गाँव में जा गाएँ।
मेरे प्यारे पंदूरे को, तुम दफनाना मेरे साथ
ताकि न मेरे गीतों से, वे गहरी निद्रा सो जाएँ,
ताकि दर्द से भरी हुई आवाज गाँव की सुंदरियाँ
सब ही मेरी सुन पाएँ।
महमूद ने मानो ऐसे भी कहा था -
पर्वत तक भी झुक जाते हैं, मेरे पंदूरे को सुनकर
किंतु तुम्हारे दिल को कैसे द्रवित करूँ, मरियम प्यारी?
साँप-नाग तक लगें नाचने, मेरे पंदूरे की धुन पर
किंतु तुम्हारे दिल को कैसे द्रवित करूँ, मरियम प्यारी?
आप यह जानना चाहते हैं कि पहाड़ी गीत का कैसे जन्म हुआ?
जनता के सपनों में इसने जन्म लिया
नहीं किसी को ज्ञात कि कब था यह जन्मा,
यह तो चौड़ी छाती में मानो पिघला
गर्म रक्त की धाराओं में यह उबला।
यह तो तारों की ऊँचाई से आया
दागिस्तानी गाँवों ने इसको गाया,
सुना सैकड़ों, बहुत पीढ़ियों ने इसको
उससे पहले, जब तुम सुन पाए इसको।
गीत - ये तो पहाड़ी जल-धाराएँ हैं। गीत - ये तो लड़ाई के मैदान से सरपट घोड़े दौड़ाते हुए समाचार लेकर आनेवाले हरकारे हैं। गीत - ये तो अचानक मेहमान के रूप में आ जानेवाले दोस्त हैं, मित्र हैं। आप अपने तरह-तरह के बाजे-पंदूरा, चोंगूर, चागान, तुरही, केमांचू, जुरना, खंजड़ी, हार्मोनियम, ढोल हाथों में ले लें या चिलमची अथवा ताँबे-काँसे की थाली ही ले लें। ताली से ही ताल दें। फर्श पर एड़ियाँ ही बजाएँ। सुनिए, तलवारें कैसे तलवारों से टकराती हैं। सुनिए, प्रेयसी की खिड़की में फेंका हुआ कंकड़ कैसे तलवारों से टकराता है। हमारे गीतों को गाइए और सुनिए। ये गम और खुशी के दूत हैं। ये इज्जत-आबरू और बहादुरी के पासपोर्ट हैं, विचारों और कार्यों के प्रमाणपत्र हैं। ये जवानों को साहसी और बुद्धिमान तथा बूढ़ों और बुद्धिमानों को जवान बनाते हैं। ये घुड़सवार को घोड़े से उतरने और इन्हें सुनने को विवश करते हैं। ये पैदल जानेवाले को उछलकर घोड़े पर सवार होने और पक्षी की तरह उड़ने को मजबूर करते हैं। नशे में धुत को ये नशा दूर करके गंभीर बनाते हैं और अपने भाग्य के बारे में सोचने को विवश करते हैं और नशे में न होनेवाले को जाँबाज दिलेर तथा मानो नशे में धुत्त करते हैं। इस दुनिया में किस-किस चीज के बारे में गीत नहीं हैं! पहाड़ी आदमी को अपने गर्म चूल्हे के पास बैठाइए, उसके लिए घरेलू, फेनवाली बियर से भरा सींग लाइए और उससे गाने का अनुरोध कीजिए। वह गाने लगेगा। अगर आप चाहेंगे तो वह सुबह तक गाता रहेगा, सिर्फ आप उससे जोरदार अनुरोध करें और यह भी बता दें कि वह किस बारे में गाए। प्यार के बारे में? आप प्यार के बारे में भी गीत सुन सकेंगे।
आई, दाई, दालालाई!
प्यार रक्त-सा लाल, लाल गुललाला-सा
प्यार रात-सा, छल-फरेब-सा, काला-सा।
वह सफेद है, रिबन कि जैसे हो सिर का
वह सफेद है, कफन कि जैसे चादर का।
आसमान के जैसा, वह नीला हिम-सा
वह तो प्यारा तारों जैसी झिल-मिल-सा।
हिम गिर जाता और सूखती जल-धारा
प्रेम-पुष्प का रंग सदा रहता प्यारा।
- इस दुनिया में सबसे सुंदर क्या है?
- पहाड़ों में बनफशा का फूल।
- पहाड़ों में बनफशा के फूल से अधिक सुंदर क्या है?
- प्रेम।
- दुनिया में सबसे ज्यादा उज्ज्वल क्या है?
- प्रेम।
- आई, दाई, दालालाई! आपको और किस चीज के बारे में गीत सुनाएँ?
- प्रेम के कारण मरनेवाले प्रेमियों के बारे में।
- रोमियो और जूलियट, ताहिर और जुहरा, त्रीस्तान और इजोल्डा....
क्या कुछ कम संख्या थी उनकी हमारे दागिस्तान में! कितने थे हमारे यहाँ ऐसे प्रेमी जो एक-दूसरे के नहीं बन सके! उनके सपने साकार नहीं हुए, उनके होंठ और हाथ नहीं मिल सके। अनेक जवानों को जंग निगल गई और अनेक प्रेम के कारण मौत के मुँह में चले गए। वे उसकी आग में जल गए, ऊँची चट्टानों से नीचे कूद गए, तूफानी नदियों की लहरों में समा गए। अजाइनी गाँव की युवती और कुमुख गाँव का युवक। तो यह है उनका किस्सा, उनके प्यार का किस्सा। मैं आपको उनके प्यार का अंत बताता हूँ जिसे दागिस्तान में सभी जानते हैं।
कुमुख गाँव का युवक अपनी प्रेमिका को एक नजर देख लेने के लिए अजाइनी गाँव में गया। किंतु वह नजर नहीं आई। युवक ने चार दिन और चार रातों तक राह देखी। पाँचवें दिन वह अपने घर लौटने के लिए घोड़े पर सवार हो गया।
उसने नीचे देखा - सूखी धरती पड़ी नजर
था नीला आकाश कि उसने जब देखा ऊपर।
अरे, कहाँ से बारिश आई, यह पानी बरसा
नौजवान का अरे, लबादा, जिसने भिगो दिया?
वहाँ प्रेयसी मेसेदा थी खड़ी हुई छत पर
आँसू बहते यों आँखों से ज्यों निर्झर झरझर।
- 'चार दिनों-रातों तक मैंने तेरी राह तकी।
किस कारण तुम रहीं कि मुझसे ऐसे छिपी-छिपी?'
- 'बहुत दूर से ही घोड़े की टापों को सुनकर
चार द्वार, तालों का पहरा बिठा दिया मुझ पर,
मेरे भाइयों ने ही मुझ पर ऐसा जुल्म किया,
चार दिनों तक मैंने अपने मन को मार लिया।
किंतु पाँचवें दिन घोड़े पर जब तुम बैठ गए
मेरे धीरज और सब्र के बंधन टूट गए,
मैंने चारों दरवाजे भी, ताले तोड़ दिए
ऐसा प्यार प्रबल है मेरा, वह तूफान लिए!
मुझे माल की तरह, यहाँ पर बेचा जाता है
सब सौदागर, नहीं किसी से मेरा नाता है।
उससे शादी करना चाहें, जिसे न प्यार करूँ
तुम मत जाओ, रुको यहीं पर, तुमसे यही कहूँ।'
...लेकिन कुमुख से आनेवाला नौजवान अब रूकना नहीं चाहता था।
- 'जीन कसा मैंने घोड़े पर, क्या उतार सकता?
क्या कुछ कहें पड़ोसी, साथी, यह भी जरा बता?
मंगलमय पथ कहा मित्र ने मुझको विदा किया
फिर से लौटूँ उसके घर को, यह संभव है क्या?
मैं जाता हूँ हृदय तुम्हारे पास छोड़ जाता।'
- 'भाई उसको यों नोचें ज्यों कौवा, नोच खाता।'
- 'बड़ी खुशी से अपनी आँखें छोड़ यहाँ जाऊँ।'
- 'भाई चूसें उन्हें दाख सम, मैं यह बतलाऊँ।
हर हालत में मुझे छोड़ना ही यदि चाह रहे
गाँव-छोर तक घोड़ा ले जाओ धीरे-धीरे,
तुम लगाम को थाम, गाँव के बाहर तक जाओ
घूम वहाँ तुम, नजर जरा फिर मुझ पर दौड़ाओ।
घाटी में अपने घोड़े को, घास खिलाना तुम
और नदी पर ठंडा पानी, उसे पिलाना तुम,
जब हो जाए रात, लबादा ढककर सो जाना
जब जागो तो याद हृदय में मेरी तुम लाना,
जब बारिश हो यही समझना, आँसू जल बरसे
बर्फ गिरे तो समझो, मेरा दिल तड़पे, तरसे।'
गर्वीले नौजवान ने घोड़े पर तीन बार चाबुक बरसाया, तीन बार पीछे मुड़कर देखा और गाँव से चला गया। तीन सप्ताह बीत गए। हिम ने पर्वतों को ढक दिया। किस्मत की मारी मेसेदा ने उस व्यक्ति से शादी नहीं करनी चाही जिसे प्यार नहीं करती थी और इसलिए चट्टान से गिरकर आत्महत्या कर ली। उसी शाम को पिता और भाइयों ने आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली मेसेदा को बर्फ के तूफान में बाहर सड़कर पर निकाल दिया था।
उस रात को वह यह गाती रही थी -
यही चाहती, सौ दुहिताएँ जन्म पिता के घर में लें
पिता उन्हें जल्दी से बेचें, धन लेकर शादी कर दें।
ताकि शादियों में वह उनकी, जी भर मौज करें
वह इतनी दौलत, सोना लें, लेकर उसे मरें।
यही कामना, धनी दुलहनें भाई भी ढूँढ़ें
उनके साथ बिताएँ जीवन, प्यार न जिन्हें करें।
वे होंठों को नहीं कि अपनी दौलत को चूमें
हिमकण जो तन मेरा काटें, चाँदी में बदलें
पाँव छू रही नद-धाराएँ, रूपा रूप धरें,
पिता, भाइयों के लालच को, वे कुछ तृप्त करें।
मेरे प्रियतम, हिम का अंधड़, उसका शोर सुनो
रात बिताने को तुम कोई अच्छी जगह चुनो।
प्रियतम, पाँव-तले हिम-परतें, पाँव संभल, रखो
तुम मत पीछे नजर घुमाओ, आगे को देखो।
या तो नौजवान को मौत के मुँह में जाती अपनी मेसेदा की आहें सुनाई दे गई या उसके दिल ने उसे सब कुछ बता दिया, लेकिन वह पसीने से तर-ब-तर अपने घोड़े को सरपट दौड़ाता हुआ कुमुख से यहाँ पहुँच गया। उसे शोकपूर्ण घटना का पता चला। उसने लगामें फेंक दीं, घोड़े को छोड़ दिया। उसने पेटी खोली और बंदूक उतारकर फेंक दी। बंदूक पत्थर से टकराकर टूट गई। इस दुनिया से कूच कर चुकी अपनी प्रेयसी के पिता और भाइयों को संबोधित करते हुए नौजवान ने कहा -
- 'नहीं चाहता भंग करूँ मैं चैन आपके घर का
और यहीं पर तेज करूँ मैं फल अपने खंजर का।
नहीं चलाना गोली चाहूँ और न मैं तो खंजर
सिर्फ चाहता, देखूँ उसका प्यारा मुखड़ा पल भर।
यौवन से मदमाती गोरी छाती मुझे दिखाएँ
मेरी आँखें, झलक एक बस, अंतिम उसकी पाएँ।'
यह सुन वृद्ध पिता ने उसके मुँह से कफन हटाया
चेहरा पीला हुआ युवक का, घिरी मौत की छाया।
गोरी छाती देखी उसने, सिर उसका चकराया
गिरा लड़खड़ा धरती पर वह, यों अंतिम क्षण आया।
भाग्य ने उन्हें मिलाकर एक कर दिया था, सिर्फ उनके जिस्म ही अलग-अलग पड़े हुए थे। इन दोनों का कैसे अंतिम संस्कार किया जाए, इन्हें कैसे दफनाया जाए? तब एक बहुत बड़ी सभी हुई। पूरे दागिस्तान से बुद्धिमान लोग आए, सब मिलकर सोच-विचार करने लगे।
प्रेम के जाने-माने पैगंबरों ने कहा -
जीवन-दीप बुझ गया इनका, रुका रक्त-संचार
किंतु बहुत ही सच्चा, असली था दोनों का प्यार।
बेशक तन थे दो, लेकिन थी प्रीत एक ही पाई
दो जीवन थे, किंतु इन्हें तो मौत एक ही आई।
इन दोनों के लिए बड़ी-सी कब्र एक ही खोदें
ताकि वहाँ पर किसी तरह भी, जगह न कम हो जाए,
जीवन ने कुछ क्षण को बेशक इनको अलग किया है
लेकिन इनकी मौत, इन्हीं दोनों को पुनः मिलाए।
एक लबादे में दोनों को, हम तो साथ लपेटें
एक ढेर से इन दोनों पर मिट्टी हम बिखराएँ,
सोएँगे जिस एक कब्र में ये दोनों ही प्रेमी
उसके ऊपर हम दोनों का पत्थर एक लगाएँ।
जैसा कहा गया, सब कुछ वैसे ही किया गया। इन दोनों प्रेमियों की कब्र पर लगे पत्थर के करीब एक लाल फूल खिल उठा। उसकी पंखुड़ियाँ तो बर्फ के नीचे भी नहीं मुरझाती थीं। बर्फ इस फूल को छूते ही पिघल जाती थी मानो यह लाल फूल आग हो। कब्र के नीचे एक चश्मा फूट निकला। लोग उसका पानी पीते हैं। कब्र के दोनों तरफ दो पेड़ उग आए। ऐसे सुंदर पेड़ तो किस्से-कहानियों में भी नहीं होते। जब ठंडी हवा चलती तो वे अपनी शाखाओं को इधर-उधर हिलाते-डुलाते हुए अलग हो जाते और जब गर्म हवा चलती तो फिर से मिल जाते मानो दो प्रेमी - कुमुख का नौजवान और अजाइनी की युवती एक-दूसरे का आलिंगन कर रहे हों।
मैंने अली के बारे में भी एक गीत गा दिया होता, लेकिन वह बहुत ही लंबा है। इसलिए मुझे इस बात की अनुमति दीजिए कि पहले गीत की भाँति उसे कहीं तो गा दूँ और कहीं अपने शब्दों में बयान कर दूँ।
किसी गाँव में अली रहता था। उसकी खूबसूरत और जवान बीवी तथा बूढ़ी माँ थी। अली भेड़ें चराने के लिए लंबे अरसे तक पहाड़ों में चला गया।
एक दिन कोई आदमी माँ का यह हुक्म लेकर अली के पास आया कि वह अपनी भेड़ें छोड़-छाड़कर जल्दी से घर पहुँच जाए।
अली के दिल में बुरे-बुरे ख्याल आने लगे। कोई बड़ी मुसीबत तो नहीं आ गई? घर पर उसकी क्या जरूरत हो सकती थी? लेकिन अगर कोई बड़ी मुसीबत आ गई है तो जवान बीवी के सिवा किससे इसकी उम्मीद की जा सकती है।
अली ने संदेशवाहक से पूछा, मगर वह चुप रहा। अली बहुत जोर देने, उस पर बिगड़ने और खंजर दिखाकर धमकाने लगा। तब इस संदेशवाहक ने उससे यह कहा -
- 'अली, तुम्हारी बीवी बेहद सुंदर है
रात मौन, जब घर में सब सो जाते हैं,
मुझे बताओ मित्र, अँधेरे में धीरे
खिड़की के दरवाजे क्यों खुल जाते हैं?
अली, तुम्हारी बीवी यौवन-मदमाती
हिम से ढकी हुई लेकिन उस धरती पर,
मुझे बताओ, मीत भला क्यों पाँवों के
चिह्न किसी के आते हैं यों वहाँ उभर?
नहीं हवा से खिड़की के पट खुलते हैं
उन्हें खोलती बीवी, जब हो प्रेम-मिलन,
नहीं अँगूठी पहने, जो थी तुमने दी
और न पहने मीत तुम्हारा यह कंगन।'
जाहिर है कि अली जल्दी-जल्दी गाँव की तरफ चल दिया। फौरन माँ के पास न जाकर वह सुंदर जवान बीवी के पास गया। बीवी ने पति का लबादा और समूर की टोपी उतारकर नीचे रखनी चाहि, घर की बनी बियर पिलानी चाही, यह चाहा कि वह सफर की थकान मिटा ले।
- 'अपना कोट उतारो कपड़े
अभी बियर मैं ले आती,'
- 'जब मैं यहाँ नहीं था किसको
रही लबादा पहनाती?'
- 'मेरे स्वामी, फर की टोपी
अब उतार लो तुम, प्यारे,'
- 'किसे पिलाती रही बियर,
जब रहा दूर मैं मन मारे?'
अली ने खंजर निकाला और दो बार बीवी पर वार किया।
- 'अरे सुरमा अली, रहो किस्मतवाले
बरस तीन सौ जियो हमारी धरती पर,
मगर सूरमा अली, कि देखो जरा इधर
पड़ी खून में मैं अपने लथपथ होकर।
तुम पर अल्लाह अपनी रहमत बरसाए
दुनिया भर की खुशियाँ प्रियतम तुम पाओ,
केवल यह अनुरोध, उठाकर बाँहों में
मुझे पलंग पर साजन मेरे ले जाओ।'
- 'यह अनुरोध करूँ पूरा, यदि बतलाओ
नहीं छिपाओ कुछ भी, कह दो सब खुलकर,
नहीं पहनती हो तुम कहो अँगूठी क्यों?
और कीमती कंगन आता नहीं नजर।'
- 'तुम खोलो संदूक, सूरमा अली जरा
उसके तल में मिलें अँगूठी औ' कंगन,
पास नहीं थे जब तुम ही मेरे साजन
साज-सिंगार दिखाऊँ किसे रूप, चितवन?'
अली भागकर माँ के पास गया -
'किसलिए तुमने मुझे बुलवाया है, क्या बात हो गई है?'
'तुम्हारे बिना तुम्हारी बीवी बहुत उदास हो गई थी, बच्चे भी उदास हो रहे थे। फिर मैंने यह भी सोचा कि तुम भेड़ का ताजा-ताजा गोश्त अपने साथ ले आओगे। बहुत दिनों से नहीं खाया।'
अली ने अपना सिर थाम लिया और वह भागकर पत्नी के पास गया।
ज्योति बुझी जाती थी उसके नयनों की
ठंडे हाथ हुए पत्नी के, साँस नहीं आए,
आँसू-धारा बहे अली की आँखों से
पर पत्नी परलोक-धाम बढ़ती जाए।
खंजर लिया निकाल अली ने तब अपना
तेज धार का, और खून से सना हुआ,
अपने ऊपर खूब जोर से वार किया
और निकट पत्नी के, वह भी वहीं गिरा।
तो ऐसे अंत हुआ इस घटना का। इन दोनों को एक-दूसरे की बगल में दफनाया गया। इनकी कब्र के नजदीक दो पेड़ उग आए।
तो मैं और किसकी दास्तान गाऊँ? शायद कामालील बाशीर की? कौन था यह कामालील बाशीर? वह हमारे दागिस्तान का, यों कहा जा सकता है, डॉन-जुआन था। लोगों का कहना है कि जब वह पानी पीता था तो उसके गले से निर्मल जल साफ तौर पर नीचे उतरता दिखाई देता था। इतनी कोमल थी उसकी त्वचा। उसकी इसी गर्दन को तो उसके पिता ने काट डाला था। किस कारण? इस कारण कि बेटा बहुत ही ज्यादा खूबसूरत था।
कामालील बाशीर तो मर गया, लेकिन प्यार के बारे में तो उसी तरह गाया जाता है, जैसे पहले गाया जाता था।
बच्चा तो पालने में ही होता है, लेकिन प्रेम का गीत उसके ऊपर गूँजने लगता है।
फिर से मैं हमारे एक सीधे-सादे लोक-खेल की याद दिलाना चाहता हूँ।
यह खेल गीतिमयता, हाजिरजवाबी, आवश्यक और जल्दी से ठीक शब्द ढूँढ़ पाने की क्षमता का मुकाबला होता है। ऐसा खेल है यह। दागिस्तान के हर गाँव में लोग इसे जानते हैं। जाड़ों की लंबी रातों में गाँव के किशोर-किशोरियाँ किसी पहाड़ी घर में जमा हो जाते हैं। वे न तो वोदका पीते है, न ताश खेलते हैं, न बीज छीलकर खाते हैं और न बेहूदा हरकतें करते हैं, बल्कि कविता का खेल खेलते हैं यानी बेंतबाजी करते हैं। यह बहुत बढ़िया बात है न!
एक छोटी-सी छड़ी लाई जाती है। कोई किशोरी उसे हाथ में ले लेती है। किशोरी इस छड़ी से किसी किशोर को छूती है और गाती है -
ले लो तुम यह छड़ी, सभी से जो सुंदर
चुनो सुंदरी, जो सबसे हो बढ़-चढ़कर।
किशोर किसी किशोरी को चुन लेता है और वह स्टूल पर बैठ जाती है। इन दोनों के बीच कविता में बातचीत शुरू होती है -
अरी हसीना, अरी हसीना
नाम तुम्हारा क्या है? यह तो बतलाओ,
अरी हसीना, अरी हसीना
किस कुल की, किस मात-पिता की, समझाओ।
बाकी सभी किशोर तालियाँ बजाते हुए गाते हैं - 'आई, दाई, दालालाई!'
अपना नाम बताया मैंने
किसी और को, नहीं तुम्हें,
वचन प्यार का दे बैठी हूँ
किसी और को, नहीं तुम्हें।
बाकी सभी तालियाँ बजाते हुए गाते हैं - 'आई, दाई, दालालाई!'
किशोरी स्टूल से उठती है, छड़ी से किसी किशोर को चुनती है जो उसकी जगह बैठ जाता है। यह नया जोड़ा नया काव्य-वार्तालाप आरंभ करता है -
किशोरी -
हिम से पर्वत ढके जा रहे
राह न कहीं नजर आए,
ढूँढ़े, घास मेमना प्यारा
कहाँ उसे, पर, वह पाए?
किशोर -
हिम तो हर क्षण पिघला जाता
बहे रुपहली हिम-धारा,
घास वक्ष पर तेरे पाए
अरे, मेमना वह प्यारा।
'आई, दाई, दालालाई!' नया जोड़ा सामने आता है।
किशोरी -
शीतल जल का कुआँ जहाँ पर
निकट वहीं रहता अजगर,
बकरे का पानी पी लेना
वह कर देता है दूभर।
किशोर -
बेशक रहे वहाँ पर अजगर
नहीं किसी को उसका डर,
तेरी आँखों के प्यालों से
वह जल पी लेगा जी भर।
'आई, दाई, दालालाई!' नया जोड़ा सामने आता है।
किशोर -
दर्रे में तूफान गरजता
बिछी नदी पर हिम-चादर,
तुमसे शादी करना चाहूँ
और बसाना अपना घर।
किशोरी -
किसी दूसरी गली, गाँव में
ढूँढ़ो तुम अपनी दुलहन,
नहीं तीतरी अपना सकती
मुर्गीखाने का बंधन।
'आई, दाई, दालालाई!' सभी तालियाँ बजाते और हँसते हैं। ऐसे बीतती हैं जाड़े की लंबी रातें।
प्यार के बारे में दागिस्तानी गीत-गाने! जब तक इस किशोर ने इस चीज के लिए मिन्नत की कि यह किशोरी उससे शादी कर ले, दूसरे किशोर किसी तरह की औपचारिकता के बिना उसे चुरा ले जाते हैं।
जब तक इस किशोरी के दरवाजे पर शिष्टतापूर्वक दस्तक दी जाती रही, दूसरे किशोर खिड़की में से कूदकर उसके पास जा पहुँचे।
सदियाँ बीतती रहती हैं, लेकिन गाने ऐसे ही जीते रहते हैं, जिंदा रहते हैं। गायक उन्हें रचते हैं, लेकिन गीत सभी गायकों को जन्म देते हैं।
क्या गीत-गाने के बिना शादी हो सकती है, क्या गाने के बिना एक दिन भी बीत सकता है, क्या कोई आदमी गाने के बिना जिंदगी बिता सकता है?
हमारे यहाँ यह कहा जाता है कि जो गाना नहीं जानता, उसे पशुओं के बाड़े में रहना चाहिए।
यह भी कहा जाता है कि प्यार से अपरिचित महाबली किसी प्रेम-दीवाने की कमर तक भी नहीं पहुँचता।
महमूद के बारे में यह किस्सा सुनाया जाता है। प्रथम विश्व-युद्ध के वक्त वह दागिस्तानी घुड़सवार रेजिमेंट के साथ कार्पेथिया के मोरचे पर था। उसने अपना प्रसिद्ध गीत 'मरियम' वहीं रचा और महमूद के फौजी साथी उसे पड़ावों पर गाने लगे। इस गाने की कहानी यह है।
एक घमासान लड़ाई में रूसी फौजों ने आस्ट्रियाई फौजों को खदेड़कर एक गाँव पर कब्जा कर लिया। भागते दुश्मनों का पीछा करते हुए महमूद एक गिरजे के करीब पहुँच गया। एक डरा-सहमा हुआ आस्ट्रियाई गिरजे के दरवाजे से लपककर बाहर आया, लेकिन गुस्से से धधकते एक पहाड़ी घुड़सवार को अपने सामने देखकर फिर से गिरजे में भाग गया।
इस घटना के कुछ दिन पहले महमूद का भाई लड़ाई में मारा गया था और वह बदला लेने को बेकरार था। अधिक सोच-विचार किए बिना वह घोड़े से कूदा, खंजर निकालते हुए यह इरादा बना लिया कि अंदर जाकर फौरन इस आस्ट्रियाई की जान ले लेगा। लेकिन भागते हुए गिरजे में जाने पर महमूद स्तंभित रह गया।
उसने आस्ट्रियाई को घुटने टेके हुए ईसा की माँ मरियम की प्रतिमा के सामने प्रार्थना करते पाया।
दागिस्तान में तो घुटने टेक देनेवाले पर यों भी हाथ नहीं उठाया जाता और प्रभु ईसा की माँ की प्रतिमा के सामने प्रार्थना करनेवाले पर हाथ उठाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। इसके अलावा महमूद उस औरत के सौंदर्य से भी स्तंभित रह गया था जिसकी आस्ट्रियाई पूजा कर रहा था।
महमूद ने अचानक यह देखा कि उसके सामने उसकी प्रेयसी मूई है, उसी की आँखें हैं, आँखों में उसी की पीड़ा है, उसी का चेहरा-मोहरा, उसी की पोशाक है। महमूद के हाथ से खंजर गिर गया। यह तो मालूम नहीं कि इस घटना के बारे में आस्ट्रियाई ने बाद में क्या कहा, लेकिन गुस्से से उबलता महमूद भी उसके करीब ही घुटने टेककर ईसाइयों के ढंग से प्रार्थना करने, अटपटे ढंग से माथे, कंधों और छाती से अपनी उँगलियाँ छुआने लगा। आस्ट्रियाई कब वहाँ से खिसक गया, महमूद ने यह नहीं देखा। होश-हवास ठिकाने होने पर उसने अपनी प्रसिद्ध कविता 'मरियम' यानी मरीया के बारे में कविता रची। महमूद के लिए मूई और मरीया एक ही बिंब में घुल-मिल गईं। उसने मरीया के बारे में कविता रची, लेकिन सोचता रहा मूई के बारे में, सृजन किया मूई के संबंध में, किंतु सोचता रहा मरीया के संबंध में।
इसके बाद तो महमूद प्रेम के सिवा किसी दूसरी चीज को इस दुनिया में मान्यता ही नहीं देता था। उसकी आत्मा दूसरे गीतों को ग्रहण ही नहीं करती थी। दागिस्तान के कवियों में अन्य कोई भी ऐसा नहीं था जो उसकी भावनाओं के आवेग की ऊँचाई को छू सकता, उसके गीतों की गहराई तक जा सकता। उसे तो इस बात की चेतना ही नहीं रही थी कि वह कविता रच रहा है, कि कविता में बात कर रहा है, कि बोल नहीं रहा है, बल्कि गा रहा है। मानो कोई दूसरा ही उसकी जगह बोल और गा रहा हो। वह मूई और उसके प्रति अपनी भावनाओं को ही अपनी सारी सफलताओं का श्रेय देता था। अगर उसका कोई दोस्त उससे मूई की बात नहीं करता था तो वह उसकी बात ही सुनना बंद कर देता था।
महमूद के बारे में मेरे पिता जी ने मुझे यह बताया था।
महमूद के पास बहुत से लोग आने लगे, लेकिन केवल प्रेम-दीवाने ही आते थे। वे महमूद के शब्दों की शक्ति को समझते थे और उससे अपने लिए कविता रचने का अनुरोध करते थे। ऐसा प्रेमी भी आता जिसे पहली बार किसी लड़की से प्रेम होता था और वह नहीं जानता था कि उससे इस बात की चर्चा कैसे करे। ऐसा प्रेमी भी आता था जिसकी प्रेयसी ने किसी दूसरे से शादी कर ली थी और यह बेचारा यह नहीं जानता था कि अपने विरह-व्यथित हृदय का क्या करे। ऐसा व्यक्ति भी आता जिसे किसी विधवा से प्रेम हो जाता जो अपने दिवंगत पति के प्रति ही निष्ठावान बनी रहती और प्रेमी यह नहीं जानता था कि उस विधवा के दिल को कैसे मोम करे।
महमूद के पास ऐसे प्रेमी भी आते जिनकी प्रेयसियों ने उनके साथ बेवफाई की थी। ऐसे भी आते जिनके दिल प्रेम का प्रतिदान न मिलने के कारण तड़पते थे। ऐसे भी आते जिनका अपनी प्रेयसियों से झगड़ा हो जाता था। ऐसे भी आते जो बिछुड़ जाते थे।
जितने लोग हैं, उतने ही प्रेम-दीवाने हैं। जितने प्रेम-दीवाने हैं, उनके प्रेम के रूप भी उतने ही भिन्न हैं। दो प्रेमी एक जैसे नहीं होते।
महमूद प्रत्येक विशेष प्रेम-समस्या के अनुरूप कविता रचता। प्रेमी आपस में मिल जाते, जिनके बीच झगड़ा हो गया था, उनमें सुलह हो जाती, कठोर और दुख में डूबी विधवा का दिल मोम हो जाता, झिझकते-घबराते युवक के दिल में साहस का संचार हो जाता, बेवफाई करनेवाले शर्म से पानी-पानी हो जाते, धोखा खानेवाले क्षमा कर देते।
एक बार महमूद से पूछा गया -
'तुम बहुत ही अलग-अलग लोगों की मनःस्थिति के अनुरूप कविताएँ कैसे रच लेते हो?'
'सब लोगों का भाग्य एक मानव के हृदय में ही समा सकता है। क्या मैं उनके बारे में कविता रचता हूँ? उनके प्यार? उनकी वेदनाओं के बारे में? नहीं, मैं तो अपने बारे में कविता रचता हूँ। लकड़ी का कोयला बनानेवाले एक गरीब आदमी के बेटे को यानी मुझे चढ़ती जवानी के दिनों में ही बेलता गाँव की रहनेवाली मूई से प्रेम हो गया था। बाद में मूई की किसी दूसरे से शादी हो गई। मेरा दिल खून के आँसू रो दिया। साल बीते और मूई के पति का देहांत हो गया। मेरी आत्मा को पहले की तरह ही चैन नहीं मिला... नहीं, मैं प्रेम के बारे में सभी कुछ जानता हूँ और मुझे दूसरों के संबंध में कविता रचने की कोई जरूरत नहीं।'
कहते हैं कि महमूद के पास युद्ध में खेत रहे या वीरगति पाने वालों के बारे में कविता रचने का अनुरोध लेकर भी लोग आते थे। बेटों की माताएँ, भाइयों की बहनें, पतियों की पत्नियाँ और वरों की मंगेतरें ऐसी प्रार्थनाएँ लेकर आतीं। किंतु महमूद एक भी ऐसी कविता न रच पाता। वह उत्तर देता -
'अगर युद्ध में भी मैंने प्रेम की कविताएँ रचीं तो मैं शांतिपूर्ण गाँव में युद्ध के बारे में कैसे लिख सकता हूँ?'
लेकिन पहाड़ी लोग इस सिलसिले में यह भी कहते हैं - 'शांति के गीत का असली महत्व तभी समझ में आता है जब लड़ाई होती है।' वे यह भी कहते हैं - 'अपने प्रेम की परीक्षा लेनी हो तो युद्ध-क्षेत्र में जाइए।'
खंजर दुधारी होता है - उसकी एक धार है - मातृभूमि के प्रति प्यार, दूसरी - शत्रु के प्रति घृणा। पंदूरे के दो तार होते हैं - एक तार घृणा का गीत गाता है, दूसरा प्यार का।
हमारे पहाड़ी लोगों के बारे में कहा जाता है कि जब वे एक हाथ से प्रेयसी का आलिंगन किए हुए लेटे होते हैं तो उनका दूसरा हाथ खंजर को थामे रहता है। अकारण ही तो हमारे बहुत-से गीत और पुराने किस्से-कहानियाँ खंजर के वार के साथ समाप्त नहीं होते हैं। लेकिन बहुत-से किस्से-कहानियाँ इस तरह भी खत्म होते हैं कि पहाड़ी आदमी अपनी प्रेमिका को जीन पर अपने आगे बिठाए हुए गाँव लौटता है।
पहाड़ों में जब पुरानी कब्रों को खोदा जाता है तो उनमें खंजर और तलवारें मिलती हैं।
'वहाँ पंदूरा क्यों नहीं मिलता?'
'पंदूरे जीवितों के लिए रह जाते हैं, ताकि जीवित दिवंगत वीरों के बारे में गाने गाएँ। इसलिए अगर हमारी पृथ्वी पर सारे शस्त्रास्त्र लुप्त हो जाएँगे, एक भी खंजर बाकी नहीं रहेगा, तो गीत तो तब भी लुप्त नहीं होगा।'
मेरे पिता जी कहा करते थे कि साधारण मेहमान तो तुम्हारे घर का मेहमान होता है। लेकिन गायक-अतिथि, संगीतज्ञ-अतिथि - यह सारे गाँव का अतिथि होता है। सारा गाँव उसका स्वागत और उसे विदा करता है। मिसाल के तौर पर, महमूद का हर जगह पर गवर्नर से भी बढ़कर स्वागत-सत्कार किया जाता था। शायद इसीलिए गवर्नरों को स्वतंत्र कवि-गायक अच्छे नहीं लगते थे?
पिता जी ने यह किस्सा दुनिया कि कैसे दो मुसाफिर दागिस्तान में से जा रहे थे। जब शाम का झुटपुटा हो गया तो एक मुसाफिर ने दूसरे से कहा -
'क्या हमारे लिए, आराम करने का वक्त नहीं हो गया? जल्द ही रात हो जाएगी। में देख रहा हूँ कि तुम थक और ठिठुर गए हो। देखो, वह सामने गाँव नजर आ रहा है। हम उधर ही चले जाते हैं और वहाँ रात बिताने की कोई जगह ढूँढ़ लेते हैं।'
'मैं तो सचमुच ही थक और ठिठुर गया हूँ। शायद मैं तो बीमार भी हो गया हूँ। लेकिन इस गाँव में मैं नहीं ठहरूँगा।'
'क्यों?'
'क्योंकि यह गाँव उदासी भरा है। यहाँ आज तक किसी ने किसी को गाते नहीं सुना।'
बहुत मुमकिन है कि मुमकिन है कि मुसाफिरों के रास्ते में ऐसा गाँव आ गया हो। लेकिन पूरे दागिस्तान के बारे में तो कोई भी यह नहीं कह सकता कि यह ऐसा देश है, जहाँ गाने सुनाई नहीं देते और इसलिए वह इससे बचकर निकल जाएँ।
बेस्तूजेव-मारलीन्स्की ने अपनी पुस्तक में दागिस्तानी गीतों को स्थान दिया है और बेलीन्स्की ने इनके बारे में यह कहा था कि वे स्वयं पुस्तक से अधिक मूल्यवान हैं। उन्होंने कहा था कि पुश्किन को भी उन्हें अपना कहते हुए शर्म महसूस न होती।
तरुण लेर्मोंतोव भी तेमीरखान - शूरा में पहाड़ी गीत-गाने सुनते रहे थे। बेशक वह हमारी भाषा नहीं समझते थे, फिर भी उनसे आनंद-विभोर होते थे।
प्रोफेसर उस्लार ने कहा था कि गुनीब गाँव की धुनें - मानवजाति के लिए अद्भुत उपहार हैं।
किसने हमें ये धुनें और ये गीत-गाने दिए? पहाड़ी लोगों में किसने ऐसी भावनाएँ पैदा कीं? उकाबों और घोड़ों ने, तलवारों और घास ने, पालने तथा चार कोइसू नदियों ने, कास्पी सागर की लहरों और महमूद की प्रेमिका मरियम ने, दागिस्तान के पूरे इतिहास और उसमें विद्यमान सभी भाषाओं ने, पूरे दागिस्तान ने।
अबूतालिब से एक बार पूछा गया -
'दागिस्तान में कितने कवि हैं?'
'कोई तीस-चालीस लाख होंगे।'
'यह कैसे? हमारी कुल आबादी ही दस लाख है!'
'हर आदमी की आत्मा में तीन-चार गीत-गाने होते हैं। हाँ, यह सही है कि न तो सभी और न हमेशा ही लोग उन्हें गाते हैं। सभी को यह मालूम भी नहीं होता।'
'फिर भी सबसे अच्छे गायक-कवि कौन-से हैं?'
'हमेशा ही अच्छे से भी अच्छा गायक-कवि मिल जाएगा। लेकिन एक का मैं उल्लेख कर सकता हूँ।'
'कौन है वह?'
'दागिस्तानी माँ। कुल मिलकार पहाड़ी लोगों के यहाँ तीन गाने माने जाते हैं।'
'कौन-से?'
'पहला गाना तो पहाड़िन-माँ तब गाती है, जब उसके यहाँ बेटे का जन्म होता है और वह उसके पालने के करीब बैठती है।'
'और दूसरा?'
'दूसरा गाना पहाड़िन-माँ तब गाती है, जब बेटे से वंचित हो जाती है।'
'और तीसरा?'
'तीसरा गाना - बाकी सभी गाने हैं।'
हाँ, माँ... वही खिलने और मुरझाने, जन्म लेने और मरने, इस दुनिया में आने तथा यहाँ से जानेवाले की सच्ची और अनुरागमयी साक्षी होती है। माँ, जो पालना झुलाती है, बच्चे को गोद में लिए रहती है और जो हमेशा के लिए छोड़कर जानेवाले बेटे को गले लगाती है।
यही है सौंदर्य, सत्य और गौरव।
अच्छे-बुरे लोग होते हैं, यहाँ तक कि अच्छे-बुरे गीत-गाने भी होते हैं। किंतु माँ तो हमेशा अद्भुत होती है और माँ का गाना भी अद्भुत होता है।
मेरे पालने के ऊपर जो गाने गाए गए, जाहिर है, मुझे वे याद नहीं। लेकिन बाद में मैंने विभिन्न गाँवों में बहुत-से अच्छे गाने, अच्छी लोरियाँ सुनीं। उदाहरण के लिए उनमें से एक प्रस्तुत है -
शक्ति बटोरोगे तुम बेटे और बड़े हो जाओगे
विकट भेड़िये के दाँतों से, मांस छीन तुम लाओगे।
मेरे लाल, बड़े तुम होगे, फुरती ऐसी आएगी
चीते के पंजों से वह तो, झपट परिंदा लाएगी।
मेरे लाल, बड़े तुम होगे, तुमको सब फन आएँगे
बात बड़ों की तुम मानोगे, मीत बहुत बन जाएँगे।
मेरे लाल, बड़े तुम होगे, समझदार बन जाओगे
तंग पालना हो जाने पर, पंख लगा उड़ जाओगे।
जन्म दिया है मेंने तुमको, मेरे पूत रहोगे तुम
जो दामाद बनाए तुमको, उसको सास कहोगे तुम।
मेरे बेटे, तुम जवान हो पत्नी प्यारी लाओगे
प्यारे देश, वतन की खातिर, गीत मधुरतम गाओगे।
कितना विश्वास है इस लोरी में! पिता जी कहा करते थे कि एक भी ऐसी माँ नहीं है जो गा न सकती हो। ऐसी माँ नहीं है जिसकी आत्मा में कवि न बसा हो।
खुश्क, गर्म मौसम में बारिश - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
बरसाती गर्मी में सूरज - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
होंठ शहद से मीठे-मीठे - मेरे बच्चे, वे तुम हो।
काले अंगूरों-सी आँखें - मेरे बच्चे, वे तुम हो।
नाम शहद से बढ़कर मीठा - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
चैन नयन को जो मुख देता - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
धड़क रहा है जो सजीव दिल - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
स्पंदित दिल की चाबी जैसे - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
जो संदूक मढ़ा चाँदी से - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
जो संदूक भरा सोने से - मेरे बच्चे, वह तुम हो।
अब तुम धागे के गोले से
गोली फिर तुम बनो मगर,
बनो हथौड़ा ऐसा भारी जो
तोड़े पर्वत, पत्थर।
तीर बनोगे ऐसे जो तो
बैठे ठीक निशाने पर,
नर्तक तुम तो सुघड़ बनोगे
गायक जिसका मधुमय स्वर।
गली-मुहल्ले के लड़कों में
तेज सभी से दौड़ोगे,
घुड़दौड़ों में सब युवकों को
तुम तो पीछे छोड़ोगे।
घाटी में से तेज तुम्हारा
घोड़ा उड़ता जाएगा,
बादल बन नभ में जा पहुँचे
वह जो धूल उड़ाएगा।
मेरे पिता जी कहा करते थे कि जिसने माँ की लोरी नहीं, सुनी वह बालक तो मानो अनाथ के रूप में ही बड़ा हुआ है। लेकिन जिसके पालने के ऊपर हमारे दागिस्तानी गाने गाए गए हैं, वह तो माँ-बाप के बिना बड़ा होने पर भी अनाथ नहीं है। किंतु यदि उसकी न तो माँ है और न बाप तो किसने ये गान गाए? खुद दागिस्तान, ऊँचे-ऊँचे पर्वतों ने ये गाने गाए, ऊँचे पर्वतों से बहनेवाले नद-नालों ने गाए, पहाड़ों में रहनेवाले लोगों ने गाए -
स्वर्ण-सुनहरे धागों के गोले जैसी - बिटिया है मेरी।
रजत-रुपहले चमचम करते फीते-सी - बिटिया है मेरी।
ऊँचे पर्वत पर जो चमके चंदा-सी - बिटिया है मेरी।
पर्वत पर जो कूदे नन्ही बकरी-सी - बिटिया है मेरी।
कायर, बुजदिल दूर हटो तुम
नहीं मिलेगी कायर को - बिटिया मेरी
झेंपू फाटक पर मत घूमो
नहीं मिलेगी झेंपू को - बिटिया मेरी।
वासंती, चटकीले सुंदर फूलों-सी - बिटिया है मेरी।
वासंती, सुंदर फूलों की माला-सी - बिटिया है मेरी।
हरित तृणों के कोमल कालीनों जैसी - बिटिया है मेरी।
रेवड़ तीन अगर भेजोगे भेड़ों के
नहीं भौंह तक बेटी की तुमको दूँगी,
तीन थैलियाँ सोने की यदि भेजोगे
नहीं गाल तक बेटी का तुमको दूँगी,
तीन थैलियों के बदले में मैं तुमको
नहीं गाल का गुल तक बेटी का दूँगी,
काले कौवे को मैं उसे नहीं दूँगी
और दयालु मोर, न उसको मैं दूँगी
अरी, तीतरी तुम मेरी
नन्ही-सी सारस मेरी।
दूसरी माँ दूसरे ढंग से गाती है -
मार गिराए डंडे से जो चीते को
बेटी उसको दे दूँगी,
घूँसे से चट्टान तोड़ दे जो पत्थर
बेटी उसको दे दूँगी,
कोड़े से जो दुर्ग जीत ले, साहस से
बेटी उसको दे दूँगी,
जो पनीर की तरह काट दे चंदा को
बेटी उसको दे दूँगी,
जो रोके नदिया की बहती धारा को
बेटी उसको दे दूँगी,
किसी फूल की तरह सितारा जो तोड़े
बेटी उसको दे दूँगी,
पंख पवन के आसानी से जो बाँधे
बेटी उसको दे दूँगी,
सेब सरीखे लाल-लाल गालोंवाली
प्यारी बिटिया तू मेरी।
या फिर इच्छा को व्यक्त करनेवाला यह गीत -
जब तक फूल कहीं पर कोई खिल पाए
मेरी बिटिया उससे पहले खिल जाए।
जब तक नदियाँ उमड़ें पानी से भरकर
घनी वेणियाँ बिटिया की गूँथूँ सुंदर।
नहीं गिरा है हिम तो अब तक धरती पर
आए लोग सगाई-संदेसा लेकर।
लोग सगाई करने को ही यदि आ जाएँ
शहद भरा पीपा वह अपने संग लाएँ।
भेड़-बकरियाँ और मेमने वे लाएँ
है दुलहन का बाप, उन्हें हम बतलाएँ।
पास पिता के चुस्त, तेज, घोड़े भेजें
और पिता का वे ऐसे सम्मान करें।
पालने के ऊपर गाया जानेवाला यह कामना-गीत -
इससे पूर्व कि गीत भोर का पहला पक्षी गाए
गेहूँ के खेतों में कोई बिटिया को बहलाए।
इससे पहले, दूर कहीं पर कोयल कूके वन में
मेरी बिटिया खेले-कूदे चरागाह-आँगन में।
सुंदरियाँ सिंगार करें औ' निकलें जब तक सजकर
मेरी बिटिया ले आएगी चश्मे से जल भरकर।
अगर लोरियाँ न होतीं तो दुनिया में शायद दूसरे गीत भी न होते। लोगों की जिंदगी में रंगीनी न होती, वीर-कृत्य कम होते, जीवन में कविता कम होती।
माताएँ - वही पहली कवयित्रियाँ होती हैं। वही अपने बेटों-बेटियों की आत्मा में कविता के बीज रोपती हैं जो बाद में अंकुर बनकर फूटते हैं, फूलों के रूप में खिलते हैं। पुरुष अपने जीवन के सबसे कठिन, बोझल और भयानक दिनों में इन लोरियों को याद करते हैं।
एक डरपोक सैनिक से हाजी-मुरात ने कहा था - 'शायद तुम्हारे पालने के ऊपर तुम्हारी माँ ने लोरी नहीं गाई थी।'
किंतु जब खुद हाजी-मुरात शामिल के साथ गद्दारी करके उसके दुश्मनों से जा मिला तो शामिल ने तिरस्कारपूर्वक कहा था - 'वह माँ की लोरी भूल गया है।'
और हाजी-मुरात की माँ की लोरी यह थी -
मुख पर ला मुस्कान सुनो तुम
मैं जो गीत सुनाती हूँ,
एक वीर का किस्सा तुमको
बेटे वीर, बताती हूँ।
खड्ग बगल में बड़े गर्व से
वह अपनी लटकाता था,
सरपट घोड़े पर वह उछले
वश में उसको लाता था
तेज पहाड़ी नदियों सम वह
लाँघा करता सीमाएँ
तेज खड्ग से काटे वह तो
ऊँची पर्वत-मालाएँ।
सदी पुराने शाह बलूत को
एक हाथ से वह मोड़े,
तू भी वीर बने वैसा ही
वीरों से नाता जोड़े।
माँ बेटे के मुस्कराते हुए प्यारे-से चेहरे को देखती थी और अपनी लोरी के शब्दों पर विश्वास करती थी। वह नहीं जानती थी कि उसके बेटे, हाजी-मुरात को कैसी-कैसी कठिन परीक्षाओं का सामना करना होगा।
यह मालूम होने पर कि हाजी-मुरात अपने अगुआ शामिल को छोड़कर उसके दुश्मनों के साथ जा मिला है, माँ ने दूसरा गाना गाया -
तुम चट्टानों से भी खड्डों में कूदे
नहीं किसी ऊँचाई से तुम घबराए,
किंतु गिरा है अब जितने गहरे तल में
उससे निकल न तू वापस घर को आए।
हमले जब-जब हुए पर्वतों पर तेरे
घने अँधेरे कभी न आड़े आ पाए,
तू शिकार खुद बना, किंतु अब दुश्मन का
नहीं लौटकर अब तो तू घर को आए।
मेरे, माँ के दिन भी अब तो काले हैं
उनमें कटुता, सूनेपन के हैं साए,
उन फंदों से, उन फौलादी पंजों से
निकल न सकता कभी न वापस घर आए।
तिरस्कार यदि करे जार का, शामिल का
बात समझ में सबकी यह तो आ जाए,
किया निरादर अरे, पर्वतों का तूने
कभी न वापस अब तो तू घर को आए।
जैसा कि सर्वविदित है, बाद में हाजी-मुरात ने रूसियों का साथ छोड़कर फिर से अपने लोगों के पास आना चाहा था। लेकिन भागने के वक्त ही वह मारा गया था और मृत हाजी-मुरात का सिर काट दिया गया था। तब पहाड़ों में माँ के एक अन्य गाने का जन्म हुआ -
चले हाथ भरपूर खड्ग के, कंधों पर सिर नहीं रहा,
यह तो झूठी बात है,
बहुत जरूरत युद्ध-परिषदों और भिड़ंतों में उसकी
यह हम सबको ज्ञात है।
सड़क-किनारे दफन कहीं पर, सिर के बिना धड़ उसका है
ये बातें निस्सार हैं,
घिरे किलों, युद्धों में उसके, हाथ और कंधे अब तक
हम सबके आधार हैं।
तुम यह तलवारों से पूछो, तेज खंजरों से पूछो
क्या अब हाजी नहीं यहाँ?
चट्टानों से क्या बारूदी, गंध नहीं अब आती है?
और न उड़ता वहाँ धुआँ?
उसका नाम गरुड़-सा उड़कर, पहुँचा ऊँचे श्रृंगों पर
किंतु अंत में धुँधलाया,
तलवारें सीधी कर देंगी, सब बल साथ मिटाएँगी
धब्बा जो उस पर आया।
माँ का गाना - वह मानव के सभी गीतों का आरंभ-बिंदु, उनका स्रोत है। प्रथम मुस्कान और अंतिम आँसू - ऐसा है माँ का गीत।
गीतों का जन्म दिल में होता है, फिर दिल उन्हें जबान तक पहुँचाता है, इसके बाद जबान उनको सभी लोगों के दिलों तक पहुँचाती है और सभी लोगों के दिल गीत को आनेवाली सदियों को सौंप देते हैं।
ऐसे गीतों की चर्चा करना भी यहाँ उचित ही होगा।
शामिल की माँ का गीत : मेरा दाग़िस्तान
'गीत-गानों में दो में से कोई एक चीज हो सकती है - या तो हँसी या आँसू। इस वक्त हम पहाड़ी लोगों को इन दोनों में से एक भी जरूरत नहीं। हम युद्धरत हैं। साहस कोचाहे कैसी भी कठिन परीक्षाओं का सामना क्यों न करना पड़े, उसे न तो शिकवा-शिकायत करना चाहिए और न ही रोना-धोना चाहिए। दूसरी ओर, हमारे लिए खुश होने की भी कोईबात नहीं। हमारे दिल गम और दुख-दर्द से भरे हुए हैं। कल मैंने उन जवान लोगों को सजा दी जो मसजिद के करीब नाच और गा रहे थे। वे मूर्ख हैं। फिर कभी ऐसा देखूँगा तोफिर सजा दूँगा। अगर आप लोगों को कविता चाहिए तो कुरान पढ़िए। पैगंबर द्वारा रची गई कविताओं को रटिए। उनकी कविताएँ तो काअबा के फाटकों पर भी खुदी हुई हैं।'
तो इमाम शामिल ने इस तरह दागिस्तान में गाने की मनाही कर दी। गानेवाली औरत को झाड़ू से पीटा जाता और मर्द को कोड़े से। हुक्म तो हुक्म ठहरा। उन सालों मेंबहुत-से गायकों को कोड़े लगाए गए।
लेकिन क्या गीत-गाने को खामोश होने के लिए मजबूर किया जा सकता है? गायक को चुप रहने को विवश किया जा सकता है, किंतु गाने को कभी नहीं। हम कब्रों पर बहुत-सेपत्थर लगे देखते हैं, वहाँ लोग दफन हैं। लेकिन गीत-गानों की कब्रें किसने देखी हैं?
एक कब्र के पत्थर पर मैंने यह पढ़ा - 'मर गया, मरते हैं, मरेंगे।' गीत के बारे में कहा जा सकता है - 'नहीं मरा, नहीं मरता है, नहीं मरेगा।' इस्लामी जिहाद केउस जमाने में गीतों-गानों के साथ चाहे कैसा भी बुरा बर्ताव क्यों नहीं किया गया, फिर भी वे न केवल जिंदा रहे और हमारे वक्तों तक पहुँच गए, बल्कि भाग्य कीविडंबना देखिए कि उन्हें 'शामिल के गाने' कहा जाता है।
हाँ तो शामिल की माँ के गाने के बारे में... उन दिनों में दुश्मन की फौजों ने अखूल्गो गाँव पर कब्जा कर लिया। इस लड़ाई ने अनेक वीरों को जन्म दिया, किंतु वेसभी वहाँ युद्ध-क्षेत्र में ही खेत रहे। उन घायलों ने; जो शत्रु के अधीन नहीं होना चाहते थे, अवार क्षेत्र की कोइसू नदी में कूदकर जान दे दी। दुश्मन के घेरेमें आनेवालों में बच्चों सहित शामिल की बहन भी थी।
इस बहुत ही कठिन समय में थका-हारा और घायल इमाम शामिल अपने जन्म-गाँव गीमरी में आया। उसने अपने मुरीदों को घोड़े की लगामें पकड़ाई ही थीं कि उसे एक गाना सुनाईदिया। अधिक सही तौर पर कहा जाए तो विलाप सुनाई दिया -
शोक मनाओ, अश्रु बहाओ, गाँव-गाँव में तुम लोगो
तुम यश गाओ, उन वीरों का, रहे नहीं जो धरती पर,
अब अखूल्गो पर दुश्मन ने, कर अपना अधिकार लिया
रहा न कोई जीवित, सबने प्राण किए हैं न्योछावर।
इस गाने में आगे उन सभी वीरों के नाम गिनाए गए थे जिन्होंने वीरगति पाई थी। गीत के रचयिता ने सभी से यह अनुरोध किया था कि वे मातमी पोशाक पहन लें। यह भी कहागया था कि ऐसे शोक-दुख के बारे में सुनकर सभी पहाड़ी चश्मे सूख गए थे। इस गाने में अल्लाह से यह प्रार्थना की गई थी कि वह पहाड़ी लोगों की रक्षा करे, इमामशामिल को शक्ति दे और शामिल के आठ वर्षीय बेटे जमालुद्दीन की जान बचाए जो पीटर्सबर्ग में गोरे जार के बंधकों में से एक था।
शामिल एक पत्थर पर बैठ गया, उसने मेहँदी से रँगी हुई अपनी घनी दाढ़ी में उँगलियाँ खोंस लीं, अपने इर्द-गिर्द खड़े लोगों को पैनी नजर से देखा और फिर एक से पूछा-
'यूनुस, इस गाने में कितनी पंक्तियाँ हैं?'
'एक सौ दो पंक्तियाँ हैं, इमाम।'
'इस गाने के रचयिता को ढूँढ़ो और उसे एक सौ कोड़े लगाओ। दो कोड़े मेरे लिए छोड़ देना।'
मुरीद ने फौरन कोड़ा निकाल लिया।
'किसने यह गीत रचा है?'
सब खामोश रहे।
'मैं पूछता हूँ, किसने यह गीत रचा है?'
इसी वक्त शामिल की झुकी कमरवाली और दुख में डूबी माँ उसके सामने आकर खड़ी हो गई। उसके हाथ में झाड़ू थी।
'मेरे बेटे, यह गीत मैंने रचा है। हमारे घर में आज मातम है। तुम यह झाड़ू ले लो और अपना हुक्म पूरा करो।'
इमाम सोच में डूब गया। इसके बाद उसने माँ के हाथ से झाड़ू ले ली और दीवार का सहारा ले लिया।
'माँ, तुम घर चली जाओ।'
मुड़कर बेटे की ओर देखते हुए माँ घर की ओर चल दी। जैसे ही वह कूचे में गायब हुई, वैसे ही शामिल ने तलवार और कमरबंद तथा अपना चेर्केस्का उतार फेंका।
'माँ का पीटा नहीं जा सकता। उसके कुसूर की मुझे, उसके बेटे शामिल को सजा भुगतनी होगी।'
कमर तक नंगा होकर वह जमीन पर लेट गया और उसने अपने मुरीद से कहा -
'तुमने कोड़ा छिपा क्यों लिया? उसे निकालो और जो मैं कहता हूँ, वह करो।'
मुरीद दुविधा में पड़ गया। इमाम की त्योरी चढ़ गई और मुरीद तो दूसरों से यह ज्यादा अच्छी तरह जानता था कि इसका क्या नतीजा हो सकता है।
मुरीद अपने इमाम को कोड़े मारने लगा, लेकिन बहुत हल्के-हल्के हाथ से मानो सजा न देकर पुचकार रहा हो। शामिल अचानक उठकर खड़ा हुआ और चिल्लाया -
'मेरी जगह पर लेटो!'
मुरीद बेंच पर लेट गया। शामिल ने उसका कोड़ा लेकर तीन बार खूब जोर से उस पर बरसाया। मुरीद की पीठ पर लाल लकीरें उभर आईं।
'ऐसे मारने चाहिए कोड़े। समझ गए? अब शुरू करो और फिर से चालाकी करने की बात नहीं सोचना।'
मुरीद जोर-जोर से कोड़े मारने और गिनने लगा।
'अट्ठाईस, उनतीस...'
'नहीं, अभी तो सत्ताईस हुए हैं। बीच में से छोड़ो नहीं, छलाँगें नहीं लगाओ।'
मुरीद पसीने से तर हो रहा था और वह बाएँ हाथ से उसे पोंछता जाता था। इमाम शामिल की पीठ ऐसी पहाड़ी चोटी के समान लग रही थी जिस पर एक-दूसरे को काटते हुए अनेकरास्ते और पगडंडियाँ बनी हों अथवा टीले की उस ढाल जैसी जिसे घोड़ों के अनेक झुंडों ने रौंद डाला हो।
आखिर यह यातना समाप्त हुई। मुरीद हाँफता हुआ एक तरफ को हट गया। शामिल ने कपड़े पहने, हथियार बाँध लिए। लोगों को संबोधित करते हुए उसने कहा -
'पहाड़ी लोगो, हमें लड़ना है। हमारे पास गीत रचने और उन्हें गाने तथा किस्से-कहानियाँ सुनाने का वक्त नहीं है। यही ज्यादा अच्छा होगा कि दुश्मन हमारे बारेमें गीत गाएँ। हमारी तलवारें उन्हें यह सिखा देंगी। आँसू पोंछ लो और तलवारों की धारें तेज करो। हमने अखूल्गो खो दिया, लेकिन दागिस्तान तो अभी कायम है, लड़ाईतो खत्म नहीं हुई।'
इस दिन के पच्चीस साल बाद तक दागिस्तान दुश्मन से लोहा लेता रहा, उस वक्त तक जबकि आखिरी लड़ाई खत्म नहीं हो गई और गुनीब दुश्मन के हाथों में नहीं चला गया।
गुनीब की लड़ाई, जो कई दिनों तक जारी रही, जब अपने पूरे जोर पर थी, तो एक दिन इमाम मसजिद में इबादत कर रहा था।
'ऐसी मुसीबत तो दागिस्तान ने पहले कभी नहीं जानी थी।' शामिल की पहली, बड़ी बीवी ने कहा।
'तुम गलती कर रही हो, पातीमात, दागिस्तान इससे पहले भी एक मुसीबत जान चुका है।'
'वह कौन-सी?'
'जब मैंने तुम्हारे जैसी बीवी के होते हुए भी एक और बीवी बना ली थी यानी शुआइनात से शादी कर ली थी।'
शामिल हँस पड़ा। इसी मसजिद में लेटे हुए उसके घायल मुरीद भी हँस पड़े। ऐसे लगा मानो इमाम को पहली बार हँसते सुनकर सारा दागिस्तान हँस पड़ा हो।
वह दागिस्तान की सबसे मुश्किल घड़ी में हँसा था, जब वह सब कुछ नष्ट हो रहा था जिसका उसने निर्माण किया था और जिस पर उसे गर्व था। वह अपने कैदी बनाए जाने केकुछ घंटे पहले हँसा था।
शामिल अचानक खामोश और संजीदा हो गया। अपनी तीनों बीवियों को उसने गुरीब के पत्थरों पर अपने करीब बिठा लिया और उनसे अनुरोध किया -
'मुझे वह गाना सुनाओ जो अल्लाह को प्यारी हो गई मेरी माँ ने रचा था।'
पातीमात, नापीसात और शुआइनात ने गाना शुरू किया -
शोक मनाओ, अश्रु बहाओ
गाँव-गाँव में तुम लोगो...
गाने की अंतिम ध्वनियाँ शांत हो रही थीं। आसमान में चाँद चमक रहा था। इमाम उदास हो गया...
'इसे फिर से गाओ।'
पातीमात, नापीसात और शुआइनात इसी गाने को फिर से गाने लगीं। इस बार यह गाना दूर तक पहुँच गया। इसे चाँदनी में चमकती और दुख में डूबी चट्टानों, बेदमजनूं और गुनीबके चिनारों ने सुना।
'इसे तीसरी बार गाओ!' शामिल ने ऊँची आवाज में कहा।
गाने की ध्वनियाँ और आगे पहुँच गईं। इसे अब गुनीब के करीब जलते गाँवों और दूर के पहाड़ों में खामोश सभी गाँवों तथा दिवंगत मुरीदों ने अपनी कब्रों में सुना।किंतु इसी समय पौ फट गई, फिर से घमासान लड़ाई होने लगी, आखिरी लड़ाई। जब हथियारों का शोर और गूँज खत्म हुई तो गाने की ध्वनियाँ नहीं रही थीं।
इमाम शामिल सम्मानित बंदी बन चुका था। उसके शस्त्रास्त्र और घोड़े लौटा दिए गए थे, उसकी बीवियाँ भी उसके पास ही छोड़ दी गई थीं, लेकिन उसका दागिस्तान उसकेपास नहीं छोड़ा गया था, वे उसे कहीं दूर उत्तर में ले गए थे। दागिस्तान का तो एक गीत ही बाकी रह गया था जिसे उसकी बूढ़ी माँ ने कभी रचा था। शुरू में सम्मानितबंदी को उसकी तीन बीवियाँ यह गाना सुनाती रहीं। बाद में नापीसात और शुआइनात रह गईं। कुछ और अरसे बाद, दूरस्थ अरब रेगिस्तान में आखिरी साँस लेते हुए शामिल कोउसकी दोनों बड़ी बीवियों के बाद जिंदा रह जानेवाली उसकी अंतिम बीवी शुआइनात यह अंतिम गाना सुनाती रही।
जब शुआइनात की चर्चा चलती तो मेरे पिता जी कहते -
'शामिल के घर में वह सबसे ज्यादा खूबसूरत औरत थी। वह इमाम की आखिरी बीवी और उसका पहला प्यार थी। सभी पहाड़ी लोगों की तरह इमाम भी हमारे रस्म-रिवाजों केमुताबिक शादियाँ करता था। लेकिन यह बीवी तो संयोग से मिलनेवाला पुरस्कार थी। जब शामिल के एक बहुत ही बहादुर नायब अखबेर्दिल मुहम्मद ने मोज्दोक पर धावा बोलातो वह आर्मीनी सौदागर की बेटी, बहुत ही खूबसूरत आन्ना को वहाँ से उड़ा लाया। आन्ना की शादी होने के कुछ दिन पहले ही ऐसा हुआ था। मुरीद अपने इस शिकार को लबादेमें लपेटे हुए इमाम के महल में ले गया। जब लबादा उतारा गया तो इमाम को दो बड़ी-बड़ी, नीली आँखों के सिवा, जो मानो दागिस्तान के नीले आकाश से बनाई गई हों, औरकुछ भी नजर नहीं आ रहा था। ये आँखें किसी भी तरह के डर-भय के बिना इमाम को एकटक देख रही थीं। वे पतले, नर्म चमड़े के बूट, इमाम के हथियार, उसकी दाढ़ी और आँखोंको देख रही थीं। आर्मीनी युवती ने अपने सामने ऐसा आदमी देखा जिसे किसी तरह भी जवान या सुंदर नहीं कहा जा सकता था। लेकिन उसकी शक्ल-सूरत में कुछ तो ऐसा था जोअपनी तरफ खींचता था, आकर्षित करता था। उसके व्यक्तित्व में रोब-दाब और शक्ति के साथ-साथ कोमलता तथा उदारता की भी अनुभूति होती थी। इन दोनों की आँखें मिलीं।कठोर सैनिक ने अपने दिल में कुछ कमजोरी महसूस की। वह ऐसी कमजोरी का आदी नहीं था और इसलिए डर गया। इसी वक्त उसकी रोबीली आवाज गूँज उठी -
'इस लड़की को फौरन वहीं छोड़ आओ, जहाँ से लाए हो।'
'किसलिए इमाम? इतनी हसीन लड़की है। इसमें तो कहीं कोई कमी ही नहीं है।'
'मैं जानता हूँ कि किसलिए ऐसा करना चाहिए और तुम्हारा काम तो घोड़े पर जीन कसना है।'
'इसे वापस लौटाने के बदले में क्या लिया जाए?'
'बदले में कुछ भी लिए बिना ही लौटा देना।'
अखबेर्दिल मुहम्मद को बड़ी हैरानी हुई। शामिल ने बदले में कुछ लिए बिना कभी कोई कैदी रिहा नहीं किया था। लेकिन वह इमाम के सामने एतराज करने की हिम्मत नहीं करसकता था।
अपनी इस कैदी से उसने कहा -
'मैं अभी तुम्हें तुम्हारे माँ-बाप के पास वापस छोड़ आता हूँ। उन्हें बहुत खुशी होगी। तुम उनसे कह देना कि शामिल डाकू-लुटेरा नहीं है।'
जब मुरीद के उक्त शब्दों का अनुवाद किया गया तो आन्ना ने हैरानी से शामिल की तरफ देखा। सभी ने यह समझा कि उसे अपनी इस खुशकिस्मती पर यकीन नहीं हो रहा है।
उससे दूसरी बार यह कहा गया -
'इमाम को उसका बहुत अफसोस है, जो हुआ है। वह बदले में कुछ भी लिए बिना तुम्हें मुक्त कर रहा है।'
तब खूबसूरत आन्ना ने शामिल को संबोधित करते हुए कहा -
'ओ, दागिस्तान के रहनुमा। मुझे तो कोई भी भगाकर नहीं लाया है। मैं तो तुम्हारी बंदी बनने के लिए खुद ही यहाँ चली आई हूँ।'
'यह कैसे, किसलिए?'
'ताकि उस सूरमा को अपनी आँखों से देख सकूँ जिसकी सारा काकेशिया, सारी दुनिया चर्चा करती है। तुम्हारे मन में जो भी आए, तुम वह कर सकते हो, लेकिन अपनी मर्जी सेचुनी हुई इस कैद को मैं किसी भी हालत में नहीं बदलूँगी। मैं यहाँ से कहीं भी नहीं जाऊँगी।'
'नहीं, तुम्हारा यहाँ से आना ही ज्यादा अच्छा होगा।'
'यह तुम कह रहे हो, यह शामिल कह रहा है जिसे सभी बहादुर मर्द मानते हैं।'
'ऐसा अल्लाह कह रहा है।'
'खुदा ऐसा नहीं कह सकता।'
'मेरा अल्लाह और तुम्हारा खुदा अलग-अलग जबान बोलते हैं।'
'दागिस्तान के रहनुमा, आज से मैं तुम्हारी बंदी, तुम्हारी दासी हूँ। आज से तुम्हारा अल्लाह ही मेरा खुदा होगा। बचपन में ही मैंने तुम्हारे बारे में गानेसुने थे। उनमें से एक मुझे याद रह गया है। उसने मेरे दिल में घर कर लिया है।'
आर्मीनी युवती अचानक किसी की भी समझ में न आनेवाली भाषा में एक प्यारा गाना गाने लगी। ऊँचे पर्वतों के पीछे से आसमान में चाँद निकल आया। और आर्मीनिया की बेटीअभी भी शामिल के बारे में गाना गाती जा रही थी।
मुरीद अंदर आया।
'इमाम, घोड़े पर जीन कसा जा चुका है। मैं इस लड़की को ले जा सकता हूँ?'
'इसे यहीं रहने दो। इसे यह गाना अंत तक गाना होगा, बेशक इसके लिए उसे पूरी जिंदगी ही दरकार हो।'
कुछ दिनों बाद दागिस्तान में दबी-दबी कानाफूसी होने लगी। सड़क पर एक आदमी दूसरे के कान में, एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के लोगों के कानों में फुसफुसाते -
'सुना तुमने? शामिल ने एक और बीवी बना ली है।'
'धर्म-ईमान को माननेवाले इमाम ने एक आर्मीनी लड़की से शादी कर ली है।'
'एक काफिर लड़की अब इमाम की पगड़ी धोती है। प्रार्थना की जगह वह उसे गाने सुनाती है।'
सारे दागिस्तान में यह कानाफूसी होने लगी। लेकिन ये अफवाहें सच्ची थीं। इमाम ने तीसरी बीवी से शादी कर ली। आन्ना ने इस्लाम कबूल कर लिया, पहाड़ी ढंग सेदुपट्टा ओढ़ लिया और अवार जाति का नाम ग्रहण करके आन्ना से शुआइनात बन गई। इमाम को वही खाना सबसे ज्यादा लजीज लगता था जो शुआइनात पकाती थी, वही बिस्तर सबसेज्यादा नर्म लगता था जो वह बिछाती थी। उसी का कमरा सबसे ज्यादा रोशन और सुखद लगता था, उसी की बोली सबसे अधिक प्यारी लगती थी। इमाम का कठोर चेहरा नर्म,स्नेहपूर्ण और दयालु हो गया। मोज्दोक से अनेक बार शुआइनात के माता-पिता द्वारा भेजे गए संदेशवाहक यह अनुरोध लेकर शामिल के पास आए कि वह बदले में कोई भी कीमतलेकर, जो खुद ही तय करे, उसे वापस घर भेज दे। शामिल यह सब शुआइनात को बताता, लेकिन उसका एक ही जवाब होता -
'इमाम, तुम मेरे पति हो। बेशक मेरी गर्दन काट डालो, लेकिन मैं घर नहीं जाऊँगी।'
इमाम मोज्दोक से आनेवाले संदेशवाहकों को बीवी का यही जवाब सुना देता। एक बार शुआइनात का सगा भाई इमाम के पास आया। इमाम ने उसका प्रेमपूर्वक आदर-सत्कार किया,उसे शुआइनात से मिलने और उससे बातचीत करने की इजाजत दे दी। बहन-भाई दो घंटे तक एकांत में रहे। भाई ने बहन से पिता के दुख और माँ के आँसुओं की चर्चा की, यह कहाकि घर पर उसकी जिंदगी कितनी खुशी भरी होगी, उस बदकिस्मत, जवान वर का जिक्र किया जो अभी तक उससे मुहब्बत करता था।
सब बेसूद रहा। शुआइनात ने इनकार कर दिया और भाई अपना-सा मुँह लेकर वापस चला गया।
इमाम की पहली बीवी पातीमात ने अच्छा-सा मौका पाकर शामिल से कहा -
'इमाम, चारों तरफ खून बह रहा है, लोग मर रहे हैं। तुम प्रार्थना की तरह शुआइनात के गाने कैसे सुन सकते हो? तुमने तो दागिस्तान में गाने की मनाही कर दी है।तुमने तो अपनी माँ के गाने से भी इनकार कर दिया था।'
'पातीमात,' इमाम ने जवाब दिया, 'शुआइनात वे गाने गाती है जो हमारे दुश्मन हमारे बारे में गाते हैं। अगर मैं आँसुओं से भरे गानों के प्रचार की इजाजत दे देता तोवे दुश्मन तक पहुँच जाते और दुश्मन हमारे बारे में दूसरे ही ढंग से सोचने लगता। तब मुझे उन माताओं से आँखें मिलाते हुए शर्म आती जिनके बेटे मेरे साथ जंग केमैदानों में जाकर खेत रहे हैं। लेकिन दुश्मन हमारे बारे में बेशक गाने गाते रहें। मैं खुशी से उन्हें सुनूँगा और उन्हें सुनने के लिए दूसरों को भी अपने पासबुला लूँगा।'
पातीमात के दुख का कारण यह नहीं था कि इमाम जवान बीवी के गाने सुनता था, बल्कि यह कि अपनी पहली दोनों बीवियों को वह पहले की तरह अपने दुख-सुख का भागी नहीं बनाताथा। जल्द ही निम्न घटना घट गई।
एक बार इमाम को यह सूचना दी गई कि रूस का गोरा जार उसके बेटे जमालुद्दीन को, जो उस वक्त पीटर्सबर्ग के सैनिक विद्यालय में शिक्षा पा रहा था, शुआइनात के बदलेमें लौटाने को तैयार है। ऐसा करना तो बड़ा मुश्किल था। इमाम ने इनकार कर दिया। इस तरह की संभावना के बारे में शामिल ने किसी को नहीं बताया, लेकिन यह खबर किसीतरह पातीमात तक पहुँच ही गई।
एक दिन वह अपनी जवान प्रतिद्वंद्विनी के पास गई।
'शुआइनात, मुझे यह वचन देती हो कि अल्लाह के सिवा हमारी बातचीत और कोई नहीं जान पाएगा?'
'वचन देती हूँ।'
'तुम तो मुझसे कहीं बेहतर यह जानती हो कि पिछले कुछ अरसे से शामिल को नींद नहीं आती है, वह बहुत परेशान और व्यथित रहता है।'
'हाँ, मैं यह देख रही हूँ, पातीमात, देख रही हूँ।'
'तुम्हें मालूम है कि ऐसा क्यों है?'
'मुझे मालूम नहीं।'
'मुझे मालूम है। अगर तुम चाहो तो उसका इलाज कर सकती हो।'
'तो वह इलाज मुझे बताओ, मुझे बताओ, मेरी प्यारी।'
'तुमने मेरे और शामिल के बेटे जमालुद्दीन के बारे में तो जरूर सुना होगा?'
'हाँ, सुना है।'
'उसका यहाँ लौट आना तुम पर निर्भर करता है। तुम अपनी माँ को याद करती रहती हो। मैं भी माँ हूँ। मैंने दस साल से अपने बेटे को नहीं देखा है। मदद करो! मेरी खातिरनहीं, शामिल की खातिर ही ऐसा करो।'
'शामिल की खातिर मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ लेकिन कैसे मदद करूँ?'
'अगर तुम अपने माँ-बाप के यहाँ वापस चली जाओ तो जार हमें हमारा बेटा जमालुद्दीन लौटा देगा। मुझे मेरा बेटा लौटा दो। इसके लिए अल्लाह तुम्हें जन्नत में जगहदेगा। मैं तुम्हारी मिन्नत करती हूँ।'
शुआइनात की आँखों में आँसू चमक उठे।
'सब कुछ करूँगी, पातीमात, सब कुछ करूँगी,' उसने कहा और चली गई।
अपने कमरे में जाकर वह कालीन पर गिर गई। शुरू में देर तक रोती रही, फिर दर्द भरा गीत गाने लगी। शामिल घर आया।
'क्या माजरा है, शुआइनात?'
'इमाम, मुझे मेरे माता-पिता के यहाँ जाने की इजाजत दे दो।'
'यह तुम क्या कह रही हो?'
'मुझे उनके पास लौटना ही चाहिए।'
'किसलिए? कैसी बात कह रही हो? तुमने तो खुद ही इनकार किया था और अब मैं तुम्हें इसकी इजाजत नहीं दे सकता।'
'शामिल, मुझे मेरे घर भेज दो। दूसरा कोई चारा नहीं है।'
'लगता है कि तुम बीमार हो।'
'मैं चाहती हूँ कि तुम जमालुद्दीन से मिल सको।'
'ओह, तो यह मामला है! तुम कहीं नहीं जाओगी, शुआइनात। अगर मैं उसे तुम्हारे बदले में ही हासिल कर सकता हूँ तो मैं हमेशा के लिए उसके बिना रहना बेहतर समझूँगा।अगर वह मेरा बेटा है तो खुद ही अपनी माँ, अपने वतन तक पहुँचने की राह खोज लेगा। मैं तुम्हारे बनाए रास्ते पर अपने बेटे के पास नहीं जाऊँगा। मैं उसके पासपहुँचने का ऐसा रास्ता खोजूँगा जो मेरी और उसकी शान के लायक होगा। यही ज्यादा अच्छा कि तुम मेरा घोड़ा ले आओ।'
शुआइनात फाटक से इमाम का घोड़ा ले आई। उसने खूँटी से चाबुक उतारकर उसे दे दिया।
शामिल के सभी अभियानों, उसकी सभी यात्राओं में - वे चाहे दागिस्तान, पीटर्सबर्ग, कालूगा या अरब धरती से संबंधित थीं - उसकी बीवी शुआइनात इमाम की जिंदगी कीआखिरी घड़ी तक हमेशा उसके साथ रही। आज भी, हमारे जमाने में भी इस अद्भुत औरत के बारे में किस्से-कहानियाँ सुनाए जाते हैं। आखिर तो उसने इस चीज में भी मदद की किइमाम का बेटा जमालुद्दीन उसके पास लौट आया। लेकिन यह एक अलग कहानी है।
जमालुद्दीन का गाना : मेरा दाग़िस्तान
आठ वर्ष की उम्र में बंधक बनाया गया जमालुद्दीन चौबीस वर्षीय जवान के रूप में दागिस्तान लौटा। बेटे को वापस लाने के लिए इमाम शामिल को बहुत-सी शक्ति लगानी पड़ी, बहुत सब्र और चालाकी से काम लेना पड़ा। शामिल ने जार के सामने बंदी बनाए गए अनेक रूसी सैनिकों को बेटे के बदले में देने के प्रस्ताव पेश किए, लेकिन जार राजी नहीं हुआ। जार को दागिस्तान के किशोर की पीटर्सबर्ग में जरूरत थी। उसे मौत के घाट उतार देने की धमकी देकर जार शामिल को व्यर्थ की लड़ाई खत्म करने को मजबूर करना चाहता था। इमाम ने इन धमकियों की कोई परवाह नहीं की। बेटे की तरफ से (शायद खुद बेटे ने) इमाम को यह लिखा कि जार बहुत शक्तिशाली है और उस पर जीत हासिल करने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। दागिस्तान में खून बह रहा है और जार के विरुद्ध जूझते रहने से हानि तथा दुख-दर्द के सिवा कुछ भी नहीं मिलेगा।
हठी इमाम ने किसी भी बात पर कान नहीं दिया।
ऐसा हुआ कि कुछ मुरीदों के साथ हाजी-मुरात रूसियों से जा मिला। किंतु अपने परिवार-माँ, बीवी, बहन और बेटे को उसने पहाड़ों में ही छोड़ दिया। जाहिर है कि वे सब शामिल के हाथों में आ गए। 'अगर तुम वापस नहीं आओगे,' शामिल ने हाजी-मुरात को लिखा, 'तो तुम्हारे बेटे बूलिच का सिर काट डालूँगा और तुम्हारी माँ, बहन तथा बीवी को उनकी मिट्टी पलीद करने के लिए फौजियों के हवाले कर दूँगा।'
उधर हाजी-मुरात भी अपने परिवार को बचाने के रास्ते ढूँढ़ रहा था और इस तरह जिद्दी इमाम के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए अपने को आजाद कर लेना चाहता था। उन दिनों में उसने यह कहा था - 'मैं रस्सी से बँधा हुआ हूँ और रस्सी का सिरा शामिल के हाथ में है।' बदले में धन-दौलत देकर परिवार छुड़ाने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। शामिल को जब यह मालूम हुआ कि उसका भूतपूर्व मुरीद धन-दौलत देकर अपना परिवार छुड़ा लेना चाहता है तो उसने कहा - 'लगता है कि और सब चीजों के अलावा, हाजी-मुरात का दिमाग भी चल निकला है।'
लेकिन अगर शामिल के हाथों में हाजी-मुरात को बाँधनेवाली रस्सी का सिरा था तो हाजी-मुरात के हाथों में वह धागा था जो सीधा शामिल के दिल तक पहुँचता था। यह धागा जमालुद्दीन था। हाजी-मुरात ने वोरोंत्सोव से अनुरोध किया - 'जार से कहिए कि वह जमालुद्दीन को उसके पिता को लौटा दें। तब यह मुमकिन है कि शामिल मेरे परिवार के लोगों को आजाद कर दे। जब तक मेरा परिवार शामिल के हाथों में है, मेरे लिए उसके विरुद्ध लड़ने का मतलब है - अपने ही हाथों से अपनी माँ, बेटे और बीवी यानी पूरे कुनबे को कत्ल कर डालना।'
वोरोंत्सोव ने जार को यह सब कुछ बताया और जार इसके लिए राजी हो गया। शामिल को यह लिखा गया - 'अगर तुम हाजी-मुरात के परिवार को छोड़ दोगे तुम्हें तुम्हारा बेटा मिल जाएगा।'
शामिल के सामने अब यह यातनापूर्ण चुनाव था। तीन रातों तक न तो वह खुद और न उसका परिवार ही सोया। चौथे दिन इमाम ने हाजी-मुरात के बेटे बुलिच को अपने पास बुलवाया।
'तुम हाजी-मुरात के बेटे हो?'
'हाँ, मैं हाजी-मुरात का बेटा हूँ, इमाम।'
'तुम जानते हो कि उसने क्या किया है?'
'जानता हूँ, इमाम।'
'इसके बारे में तुम क्या कहोगे?'
'इसके बारे में क्या कहा जा सकता है?'
'उससे मिलना चाहते हो?'
'बेहद चाहता हूँ।'
'मैं तुम्हें तुम्हारी माँ, दारी, पूरे परिवार के साथ उसके पास जाने को आजाद करता हूँ।'
'नहीं, मैं पिता के पास नहीं जा सकता। मेरा स्थान दागिस्तान में है। लेकिन वहाँ तो दागिस्तान नहीं है।'
'तुम्हें जाना चाहिए, बूलिच। यह मेरा हुक्म है।'
'मैं नहीं जाऊँगा, इमाम! यही बेहतर होगा कि आप यहीं और इसी वक्त मेरी जान ले लें।'
'मैं देख रहा हूँ कि अपने बाप की तरह तुम भी हुक्म मानना नहीं जानते।'
'हम सब आपका हुक्म मानने को तैयार हैं, इमाम। लेकिन मुझसे यह नहीं कहिए कि में वहाँ जाऊँ। यही ज्यादा अच्छा होगा कि आप मुझे जंग में भेज दें। मैं अपनी जान की परवाह नहीं करूँगा।'
'पिता के खिलाफ लड़ने को?'
'दुश्मनों के खिलाफ।'
उस दिन शामिल ने अपना एक सबसे अच्छा खंजर बूलिच को भेंट किया।
'अपने पिता की तरह ही इसके इस्तेमाल में कमाल हासिल करो। लेकिन हमेशा यह ध्यान रखना कि इससे कि पर वार करना है।'
हाजी-मुरात की सौदेबाजी कामयाब नहीं हुई। उसका बेटा उसके पास नहीं गया। जमालुद्दीन भी इमाम के पास वापस नहीं आया।
लेकिन इसी बीच शामिल ने अपने दूसरे उपाय किए। उसने अपने दूसरे बेटे, काजी-मुहम्मद को जार्जियाई रियासत त्सिनानदाली पर धावा बोलने को भेज दिया। इसके फलस्वरूप प्रिंसेस चावचावाद्जे, प्रिंसेस ओर्बेलियानी और इनके साथ उनकी फ्रांसीसी शिक्षिका भी बंदी बना ली गईं। नीना ग्रिबोयेदोवा की बहन येकातेरीना चावचावाद्जे को मुरीदों ने पेड़ के कोटर में छिपा पाया और उन्होंने उसे वहाँ से निकालकर कैदी बना लिया।
अब तो शामिल जार को अपनी शर्तें मानने के लिए मजबूर कर सकता था।
कारण कि जार हर हालत में जार्जियाई प्रिंसेसों को बचाना चाहेगा।
'अपने बेटे के बदले में ही प्रिंसेसों को लौटाऊँगा,' शामिल ने अपना आखिरी फैसला सुना दिया।
तो वह दिन आया। चौड़ी नदी बह रही थी। उसके तट पर बंदी बनाकर लाई गई प्रिंसेसें अपने आजाद होने की राह देख रही थीं। दूसरे तट पर रूसी फौजियों के साथ इमाम का बेटा सामने आया। शामिल भी अपने घोड़े पर सवार होकर नदी-तट पर आ गया। वह दूसरे तट पर अन्य लोगों के बीच अपने बेटे को देखने-पहचानने की कोशिश कर रहा था। उन्होंने इतने बरसों तक एक-दूसरे को देखा जो नहीं था। क्या बाप और बेटा अब एक-दूसरे को पहचान सकेंगे?
इमाम को सुनहरी फीतियोंवाला फौजी ओवरकोट पहने हुए एक सुघड़-सुडौल रूसी फौजी अफसर दिखाया गया। यह अफसर दूसरे रूसी अफसरों से बातचीत कर रहा था, उसने उनसे विदा ली और उन्हें गले लगाया। इसके बाद वह एक ओर को अलग खड़ी हुई एक युवती के पास गया और उसने उसका हाथ चूमा। जब-तब वह सफेद घोड़े पर सवार अपने पिता की तरफ भी देख लेता था।
'क्या यही है मेरा बेटा?' इमाम ने इस अफसर को टकटकी बाँधकर देखते और उसकी किसी भी गतिविधि को नजर से न चूकने देने की कोशिश करते हुए पूछा।
'हाँ, यही है जमालुद्दीन।'
'चेर्केस्का और हमारे हथियार उस तट पर ले जाकर उसे दे दो। इस क्षण से वह जार की फौज का अफसर नहीं, बल्कि दागिस्तान का सैनिक है। जो कपड़े वह इस वक्त पहने है उन्हें नदी में फेंक दो। वरना मैं बेटे को अपने करीब नहीं आने दूँगा।'
जमालुद्दीन ने पिता की इच्छानुसार अपने कपड़े बदल लिए। पहाड़ी चेर्केस्का के ऊपर उसने पहाड़ी लोगों के हथियार बाँध लिए। लेकिन चेर्केस्का और समूर की बड़ी टोपी के नीचे जमालुद्दीन का दिल तथा सिर तो जहाँ के तहाँ रह गए थे और उन्हें तो किसी तरह भी बदलना मुमकिन नहीं था।
आखिर वह नदी पार करके अपने पिता के पास आया।
'मेरा प्यारा बेटा!'
'मेरे अब्बा!'
जमालुद्दीन को घोड़ा दे दिया गया। वेदेनो तक के पूरे रास्ते में बाप और बेटा साथ-साथ सवारी करते रहे। इमाम शामिल कभी-कभी पूछता -
'जमालुद्दीन यह बताओ, तुम्हें यह जगहें याद हैं? तुम इन चट्टानों को भूल तो नहीं गए? तुम्हें हमारे गीमरी गाँव की याद है? अखूल्गो याद है?'
'अब्बा, तब तो मैं बहुत छोटा था।'
'यह बताओ कि तुमने दागिस्तान के लिए कभी एक बार भी अल्लाह के दरबार में इबादत की? तुम हमारी इबादत तो नहीं भूल गए, कुरान की नज्में तो नहीं भूल गए?'
'वहाँ, जहाँ मैं रहता था, कुरान नहीं था, जमालुद्दीन ने मन मारकर जवाब दिया।
'क्या तुमने एक बार भी सर्वशक्तिमान अल्लाह के सामने सिर नहीं झुकाया? उसकी इबादत नहीं की? रोजे नहीं रखे? नमाज अदा नहीं की?'
'अब्बा, हमें कुछ बातें करनी चाहिए।'
लेकिन शामिल ने कोई बात न करके घोड़े को एड़ लगा दी।
अगले दिन इमाम ने बेटे को अपने पास बुलवा भेजा।
'देखो, जमालुद्दीन पहाड़ों के पीछे से सूरज ऊपर उठ रहा है। बहुत खूबसूरत नजारा है न?'
'हाँ खूबसूरत है, अब्बा।'
'तुम इन पहाड़ों, इस सूरज के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने को तैयार हो?'
'अब्बा, हमें कुछ बातें करनी चाहिए।'
'तो कर लो।'
'अब्बा, जार महान है, बहुत अमीर है, बड़ा ताकतवार है। हमें इन पहाड़ों की गरीबी, खस्ताहाली और जहालत की रक्षा करने की क्या जरूरत है? रूस में महान साहित्य, महान संगीत और महान भाषा है। ये सब हमारे हो जाएँगे। रूस के साथ मिल जाने पर दागिस्तान का भला ही होगा। आँखें खोलकर सचाई को देखने, हथियार फेंकने और घावों को भरने का वक्त आ गया है। यकीन मानिए कि मैं दागिस्तान को आपसे कुछ कम प्यार नहीं करता हूँ...'
'जमालुद्दीन...!'
'अब्बा जान, दागिस्तान में एक भी तो ऐसा गाँव नहीं है जो कम से कम एक बार न जला हो। एक भी तो ऐसी चट्टान नहीं है जो घायल न हुई हो। एक भी तो ऐसा पत्थर नहीं है जो खून से न रंगा गया हो।'
'मैं देख रहा हूँ कि तुम न तो इन घायल चट्टानों की हिफाजत करने को तैयार हो और न ऐसा करने के लायक ही हो।'
'अब्बा जान!'
'मैं तुम्हारा अब्बा नहीं हूँ। और तुम मेरे बेटे साबित नहीं हुए। तुम्हारे लफ्ज सुनकर तो मुर्दों को कब्रों से निकल आना चाहिए। लेकिन जब मैं तुम्हारे मुँह से यह सब कुछ सुनता हूँ तो मैं जिंदा आदमी क्या करूँ? देखते हो, चट्टानें कैसे काली हो गई हैं?'
शामिल ने अपने सबसे वफादार लोगों और घरवालों को बुलवा भेजा।
'लोगो, मैं आपको वह बताना चाहता हूँ जो मेरा बेटा कहता है। वह कहता है कि गोरा जार महान है, कि दुश्मन बहुत ताकतवर है, कि जार का राज्य बहुत बड़ा है और हम बेकार ही उसके खिलाफ लड़ रहे हैं। उसका कहना है कि हमें अपने हथियार फेंककर बड़ी नम्रता से जार के सामने अपना सिर झुका देना चाहिए। मैं यह मानता था कि जो आदमी न केवल ऐसा कहने, बल्कि ऐसा सोचने की भी हिम्मत करेगा, मैं उसे एक घंटे तक भी दागिस्तान में नहीं रहने दूँगा। आज ये शब्द सुनाई दे रहे हैं और वह भी कहाँ? हमारे घर में। कौन कह रहा है ये शब्द? मेरा बेटा! इसके साथ, ऐसे आदमी के साथ क्या किया जाए जिसे जार ने दागिस्तान और मुझे बेइज्जत करने के लिए यहाँ भेजा है? आप लोग बहुत अच्छी तरह से यह जानते हैं कि दुश्मन की संगीनों ने कितनी बार दागिस्तान और खुद मेरी छाती को भी जख्मी किया है। लेकिन जो संगीन मैंने खुद बनाई थी, जार ने उसे तेज करके उससे मेरे ही दिल को निशाना बनाया है। बताइए, अब क्या किया जाए?'
इमाम के नजदीकी लोगों ने बड़े दुखी मन से उसके ये शब्द सुने। सिर्फ माँ ही इस सब पर यकीन करने को तैयार नहीं थी।
शामिल ने जमालुद्दीन को संबोधित करते हुए कहा -
'ओ, पहाड़ों के दुश्मन! तुम वहाँ रहोगे, जहाँ से मुझे तुम्हारी आवाज सुनाई न दे। न तो अब तुम्हारा कोई बाप है, न दागिस्तान है। मैंने जार्जियाई प्रिंसेसों से तुम्हें बदल लिया, लेकिन तुम्हें किससे बदलूँ? मैं तुम्हारा क्या करूँ?'
'अपने बेटे के साथ आप जो भी चाहें, वही कर सकते हैं। बेशक जान ले लीजिए, लेकिन पहले मेरी बात सुन लीजिए।'
'रहने दो अपनी बात। मैं हमेशा अल्लाह की बात सुनता रहा हूँ, लेकिन आज उसे भी नहीं सुन रहा हूँ। अल्लाह कह रहा है - 'इस दुश्मन को कत्ल कर डालो!' मगर मैं उसे जवाब देता हूँ कि यह दुश्मन नहीं, गुमराह हो जानेवाला बेटा है। मैं उससे कहता हूँ कि मुझमें अपने हाथ की उँगली काटने की हिम्मत नहीं है। इसलिए तुम जिंदा रहो, लेकिन खंजर उतार दो। हथियार की उसे जरूरत होती है जो दुश्मन से लोहा लेने को तैयार हो।'
शामिल ने अपने बेटे को दूर के एक गाँव में भेज दिया। जमालुद्दीन वहाँ पेड़ से अलग हुए पत्ते की तरह रहता था। अवसादपूर्ण विचारों से क्षीण होने, बुरी खुराक और ऐसे जलवायु के कारण, जिसका वह आदी नहीं था, जमालुद्दीन को तपेदिक हो गया। इमाम दुश्मन से मोरचा ले रहा था और उधर बेटे के लिए साँस लेना अधिकाधिक कठिन होता जा रहा था। उसे उसके भाग्य पर छोड़ दिया गया था। इसी वक्त इमाम से चोरी-छिपे जमालुद्दीन की माँ, पातीमात, उसके पास गई। वह रोटी से बनाए गए खिलौने अपने साथ ले गई थी। ऐसे एक खिलौने की शक्ल खंजर जैसी थी, दूसरे की उकाब और तीसरे की तलवार जैसी। इसके बाद उसने अहाते से उपले लाकर आग जलाई। पातीमात ने रोटी के खिलौने गर्म किए, अपने घुटनों पर रगड़कर उनकी राख साफ की और उनमें से एक खिलौने को तोड़कर जमालुद्दीन को ऐसे दिया मानो वह बच्चा हो।
'जब माँ का अपना दूध नहीं उतरता तो वह बच्चे को पहाड़ी बकरी के दूध का आदी बनाने की कोशिश करती है,' पातीमात ने कहा।
जमालुद्दीन हैरत से माँ को देख रहा था। उसे लगा मानो वह उसे पहली बार देख रहा हो। अचानक वह जवान और सुंदर नारी के रूप में उसे याद हो आई। बचपन में वह उसे ऐसी ही रोटियाँ खिलाया करती थी। घोड़े की शक्लवाले पालने के करीब बैठकर वह उसे शेरनी का दूध पिलाकर पाले-पोसे गए तरुण के बारे में गाना सुनाया करती थी। उसके सिरहाने, छोटे-से तकिये के नीचे लकड़ी का छोटा-सा खंजर रखा रहता था।
'अम्माँ!' जमालुद्दीन बचपन के वक्त की तरह ही चिल्ला उठा।
'जमाल, मेरे बेटे, तुम फिर से मेरा बेटा बन जाओ!' पातीमात ने कहा।
जमालुद्दीन ने अपनी माँ को पहचान लिया। चूल्हे की बुझती आग के करीब बैठकर और बीमार बेटे के ऊपर झुककर माँ उसे उसी तरह से लोरियाँ सुना रही थी, जिस तरह उसके जीवन की उषा बेला में।
बेटा अपने जिस बाप को समझ नहीं पाया था, वह मुरीदों के साथ कहीं दूर मोरचे पर जूझ रहा था। और उसकी बीवी पातीमात आखिरी साँसें गिनते हुए अपने पहलौठे के लिए चिर विदा-गान गा रही थी।
जमालुद्दीन को लगा कि कहीं नजदीक ही चट्टानों के बीच कोई दरिया कराह रहा है। उसे ऐसा आभास हुआ कि दरवाजे के पास कटी और सूखी घास पर बछड़ा लेटा हुआ है।
उसे गीमरी में अपने घर, अपने पिता, अपने पहले घोड़े की याद आ गई। माँ खुशमिजाज डिंगीर-डंगारचू के बारे में गाना गा रही थी जो बारिश की धार के सहारे आकाश में चढ़ गया था।
- 'कहाँ गए थे यह बतलाओ, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'वन में जरा गया था मैं, तो, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम क्या करने वहाँ गए थे, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'लकड़ी लाने वहाँ गया था डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम्हें जरूरत क्या लकड़ी की, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'ताकि बनाऊँ मैं घर अपना, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम्हें जरूरत है क्या घर की, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'शादी करना चाह रहा मैं, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'चाह रहा क्यों शादी करना, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'ताकि जन्म दूँ मैं वीरों की, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम्हें जरूरत क्या वीरों की, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'ताकि गर्व हो जग को उन पर, डिंगीर-डंगारचू?'
जमालुद्दीन की नजरों के सामने उसके अपने, प्यारे पर्वत उभर आए। हिम पिघल रहा है, जल-धाराओं में कंकड़-पत्थर शोर मचा रहे हैं। पर्वतमाला पर बादल रेंग रहे हैं। पराये क्षेत्र में रहते हुए वह जिस दागिस्तान को भूल गया था, उसने उसे सभी ओर से घेर लिया। और माँ गाती जा रही थी, गाती जा रही थी। उनमें वे गीत भी थे जो शिशु के जन्म पर गाए जाते हैं और वे भी जो बेटों के मरने पर गाए जाते हैं। उनमें यह भी कहा गया था कि बेटों के मर जाने पर उनके बारे में गीत बने रहते हैं। माँ गा रही थी शामिल के संबंध में, हाजी-मुरात, काजी-मुहम्मद, हमजात-बेक, बहादुर खोचबार, पार्तू-पातीमात, नादिरशाह के छक्के छुड़ाए जाने और उन बहादुरों के बारे में जो युद्ध के अभियानों से वापस नहीं आए।
चूल्हे में आग बुझती जा रही थी। दागिस्तान युद्ध की ज्वालाओं में जल रहा था। जमालुद्दीन की आँखों में अब ये दोनों लपटें प्रतिबिंबित हो रही थीं। माँ के गीत ने उसे उद्वेलित कर दिया। बेटे के दिल में दागिस्तान के प्रति प्रेम ने पलक खोल ली, वह भड़क उठा। वह उसे पिता की बगल में खड़ा होने के लिए पुकारने लगा।
'माँ, मैं तो अभी दागिस्तान में लौटा हूँ। अपने अब्बा से अभी मिला हूँ। मुझे हथियार ला दो। मैं - शामिल का बेटा हूँ। मुझे घर के चूल्हे के पास दम नहीं तोड़ना चाहिए। मुझे वहाँ जाने दो, जहाँ गोलियाँ चलती है।'
तो इस तरह माँ के गीत ने वह कर दिखाया जो कुरान और पिता के हुक्म नहीं कर पाए थे।
लेकिन यह तो शोले के भड़क उठने के समान था। माँ की लोरियाँ और गाने जमालुद्दीन के दिल में बसे हुए दूसरे गानों को मूक नहीं बना सकते थे। वह पीटर्सबर्ग को नहीं भूल सकता था, जहाँ बड़ा हुआ था। वह दागिस्तान के पहाड़ी लोगों की समझ में न आनेवाली भाषा और उनकी समझ में न आनेवाली पंक्तियाँ सुनाता था -
प्यार तुम्हें बेहद करता हूँ, ओ, तुम पीटर की रचना
प्यारा मुझको रूप तुम्हारा, सुघड़, धीर-गंभीर बना,
नेवा की संयत धारा भी
प्यारी पत्थर तट-कारा भी,
प्यारे लोहे के जंगले भी, जिन पर नक्काशी सुंदर,
चिंतन में डूबी रातें भी
पारदर्श झुटपुटे शाम के
तम-प्रकाश की घातें भी,
और चाँद के बिना चमक जो
छाई रहती है नभ पर,
अपने कमरे में मैं इससे बिना दीप के भी पढ़ता
ऊँचे-ऊँचे भवन ऊँघते, सड़कें निर्जन, नीरवता,
मुझे स्पष्ट सब कुछ दिखता
और 'एडमिरल्टी' के ऊपर इस्पाती छड़-डंड चमकता।
धुएँ से भरे हुए पहाड़ी घर में इन शब्दों की गूँज अजीब-सी लगती। जमालुद्दीन को रातों को सपने आते मानो वह फिर से जार के सैनिक-विद्यालय में शिक्षा पा रहा है, मानो ग्रीष्मकालीन उद्यान के जंगले के करीब वह जार्जियाई सुंदरी नीना से मिल रहा है...
जमालुद्दीन के दिल में दो उकाब साथ-साथ जी रहे थे और दोनों उसे अपनी-अपनी तरफ खींचते थे। उसकी आत्मा में दो गीत गूँजते रहते थे। उसकी प्यारी नीना बहुत दूर थी। उनके बीच प्रबल नदी की धारा थी। इस नदी के पार डाक भी नहीं जाती थी। रूसी अफसर, दागिस्तान के इमाम का बेटा मानो इस नदी में डूब गया। यह नदी उसके सारे सपनों को बहा ले गई और उन सपनों में उसका एक सबसे बड़ा सपना भी था।
जमालुद्दीन का एक सबसे प्यारा सपना इस प्रबल नदी के ऊपर एक पुल बनाना था, दोनों तटों को जोड़ना था, युद्ध की क्रूरता, अर्थहीन मार-काट की जगह दोस्ती, प्यार और जिंदगी के सुखद सूत्र स्थापित करना था। वह पहाड़ों में गाए जानेवाले गीतों, माँ के गीतों को समझता था, लेकिन साथ ही पुश्किन के गीतों को भी। उसके दिल में दो गीत एक-दूसरे के साथ घुल-मिल गए थे। काश, उसके पिता यह समझ पाते! काश, सभी यह समझ पाते! काश, गीत एक-दूसरे को समझ लेते और प्यार करते!
किंतु गीत तो तलवारों के समान थे। वे हवा में टकराते थे, उनसे चिनगारियाँ निकलती थीं। खून से लथपथ होता हुआ दागिस्तान खून, बहादुरों, कौवों द्वारा नोची जानेवाली आँखों, घोड़ों की हिनहिनाहट, खंजरों की खनक और उस घोड़े के बारे में ही गीत गाता था जो अपने सवार को युद्ध-क्षेत्र में खोकर घर वापस आ जाता था।
और जब गीत एक-दूसरे को समझ पाते थे, जब एक तट के लोग दूसरे तट के लोगों को समझ जाते थे तो गोलियाँ चलनी बंद हो जाती थीं, खंजरों की खनक शांत हो जाती थी, खून बहना बंद हो जाता था, हाथ बदला लेने को नहीं उठता था और हृदय में क्रोध के बजाय प्यार हिलोरें लेने लगता था।
वालेरिक नदी के तट पर हुई लड़ाई में शामिल का जख्मी हो जानेवाला मुरीद मोल्ला-मुहम्मद रूसियों के हाथों में पड़ गया। गाँव के लोगों ने यह मानते हुए कि वह लड़ाई में मारा गया, उसका मातम भी मना लिया। लेकिन एक महीने बाद वह जीता-जागता और बिल्कुल स्वस्थ व्यक्ति के रूप में घर वापस आ गया। आश्चर्यचकित लोग उससे पूछने लगे कि उसे आजाद होने में कैसे कामयाबी मिल गई। मुरीद को यह बात बुरी लगी और उसने कहा -
'यह मत सोचिए कि मोल्ला-मुहम्मद झूठ या खुशामद की बदौलत आजाद होकर आ गया है। मैं बुजदिल नहीं हूँ।'
'हम जानते हैं कि तुम बहादुर मुरीद हो। शायद तुमने तलवार की मदद से आजादी हासिल की है।'
'मेरे पास तलवार नहीं थी। और अगर होती भी तो वह मेरी मदद न कर पाती।'
'तो तुम कैसे बचकर निकल आए?'
'मुझे तहखाने में बंद कर दिया गया। दरवाजे पर ताला लगा दिया गया।'
'तो वहाँ तुमने अपने को कैसे महसूस किया?'
'फंदे में फँस गए पहाड़ी बकरे की तरह। लेकिन इस तहखाने में मुझे अचानक अली के बारे में, जिसे उसके मक्कार भाइयों ने ऊँची चट्टान पर अकेला छोड़ दिया था, गाना याद आ गया। मैंने यह गाना गाया। इसके बाद मैं दूसरे गीत गाने लगा। मैंने वसंत में लौटनेवाले मौसमी परिंदों, पतझर में उड़ जानेवाले सारसों के बारे में गाने गाए, उस हिरन के संबंध में भी गाना गाया, जिसे अकुशल शिकारी ने नौ बार घायल किया था, पतझर और जाड़े के बारे में भी गाने गाए। में ऐसे गाने गाता रहा जिन्हें अभी तक किसी ने नहीं गाया था। तीन दिन तक मैंने गीत गाने के सिवा और कुछ भी नहीं किया। पहरेदारों ने कोई बाधा नहीं डाली। अगर गाने के शब्द सभी की समझ में न आएँ तो भी गाना तो गाना ही होता है। गाने को सभी सुनते हैं। एक दिन एक जवान अफसर पहरेदारों के पास आया। मैंने सोचा कि अब मेरा काम तमाम हुआ। इस अफसर के साथ एक और आदमी भी था जो हमारी भाषा जानता था। उस आदमी ने मुझसे कहा - 'अफसर जानना चाहता है कि तुम किस बारे में गाना गा रहे हो। तुम्हारे गीत का क्या विषय है? तुम हमारे लिए इसे एक बार फिर गाओ।' मैं आग की लपटों में जलते दागिस्तान के बारे में गाने लगा। मुझसे और गाने का अनुरोध किया गया। मैंने बेचारी माँ और प्यारी पत्नी के बारे में गाया। अफसर सुनता और पहाड़ों की तरफ देखता जाता था। पहाड़ बादलों से ढके हुए थे। उसने पहरेदारों से कहा कि मुझे छोड़ दिया जाए। हमारी भाषा जाननेवाले आदमी ने मुझे बताया - 'यह अफसर तुम्हें रिहा करते हैं। इन्हें तुम्हारे गीत बहुत अच्छे लगे हैं और इसलिए वह तुम्हें तुम्हारी मातृभूमि जाने की इजाजत देते हैं।' इसके बाद मैं कभी-कभी यह सोचता हूँ कि शायद खून बहाने के बजाय दागिस्तान को हमेशा अपने गाने ही गाने चाहिए।'
लेकिन शामिल ने दुश्मन की कैद से रिहा होकर आनेवाले मुरीद से पूछा -
'मैंने तो गाने की मनाही कर दी है, फिर तुम किसलिए गाते रहे?'
'इमाम, तुमने दागिस्तान में गाने की मनाही की है, लेकिन वहाँ गाने की तो नहीं।'
'तुम्हारा जवाब मुझे पसंद आया है,' शामिल ने कहा। और कुछ देर सोचने के बाद इतना और जोड़ दिया - 'तुम्हें गाने की आजादी देता हूँ, मोल्ला-मुहम्मद।'
इस वक्त से लोग मोल्ला-मुहम्मद को ऐसा मुहम्मद कहने लगे जिसे गाने ने बचा लिया।
दागिस्तान को बचाने के लिए भी गाने की जरूरत थी। लेकिन क्या सभी ने उसे उसी तरह से समझ लिया होता जैसे उस अफसर ने समझा? और कौन था वह फौजी अफसर? क्या लेफ्टिनेंट लेर्मोंतोव नहीं? उसने भी तोवालेरिक की लड़ाई में हिस्सा लिया था।
एक अन्य घटना प्रस्तुत है। तेमीरखान-शूरा पर कामयाबी से धावा बोलने के बाद हाजी-मुरात अपने फौज के साथ वापस लौट रहा था। सड़क से कुछ दूर एक जंगल में उसे दो रूसी सैनिक दिखाई दिए। वे अलाव के करीब चैन से बैठे हुए गाने गा रहे थे। हाजी-मुरात ने थोड़ी-बहुत रूसी समझनेवाले अपने एक सैनिक से पूछा -
'ये किस बारे में गा रहे हैं?'
'अपनी माँ, अपनी प्रेमिका और दूरस्थ मातृभूमि के बारे में।'
हाजी-मुरात देर तक रूसी गाना सुनता रहा। इसके बाद धीरे से बोला -
'ये लोग दुश्मन नहीं हैं। इन्हें परेशान नहीं करना चाहिए। गाते रहें माँ के बारे में अपना गाना।'
इस तरह गाने ने लोगों को गोलियों का निशाना बनने से बचा लिया। अगर लोग एक-दूसरे को समझ सकते तो कितनी ही ऐसी गोलियाँ चलने से रुक जातीं, लोगों की जानें बच जातीं!
तीसरी घटना। दागिस्तान की क्रांतिकारी समिति के अध्यक्ष मखाच ने मशहूर शायर महमूद को एक बहुत महत्वपूर्ण रुक्का देकर खूँजह के छापेमारों के पास भेजा और उससे कहा -
'खंजर से नहीं, बल्कि पंदूरे से अपने लिए रास्ता बनाना।'
त्सादा गाँव में महमूद को गिरफ्तार करके काल-कोठरी में बंद कर दिया गया। महमूद के पास से उन्हें मखाच का रुक्का भी मिल गया और जाहिर है, कि उसे गोली मार दी गई होती। काल-कोठरी में बैठा हुआ शायर महमूद अपने प्यार के बारे में गाने लगा। सारा गाँव उसका गाना सुनने को जमा हो गया, दूसरे गाँवों तक के लोग भी आ गए। तब नज्मुद्दीन गोत्सीन्स्की यह समझ गया - 'अगर मैं आज इस गायक की जान ले लेता हूँ तो कल सभी पहाड़ी लोग मुझसे मुँह मोड़ लेंगे। शायर महमूद को रिहा कर दिया गया।
इरची कजाक कहा करता था कि साइबेरिया के निर्वासन काल में अगर गाने उसका साथ न देते तो गम से उसकी जान चली गई होती।
ऐसे अनेक किस्से-कहानियाँ हैं। उन पर विश्वास करना चाहिए। गीतों-गानों ने अनेक लोगों की जानें बचाईं, अनेक प्यादों को घुड़सवार बना दिया। बहादुरों के बारे में गाना सुनकर अनेक डरपोक लोगों ने डरना छोड़ दिया।
यह किस्सा मैंने अबूतालिब से सुना।
जब मैं भारत से लौटा तो अबूतालिब ने इस देश के बारे में मुझसे बहुत कुछ पूछा। मैंने उसे बताया कि किसी तरह से भारत में फकीर, साँपों को वश में करनेवाले सपेरे एक खास तरह की बीन बजाते हुए कोबरा नाग को बैले-नर्तकी की तरह नचाते हैं।
'यह तो कोई खास हैरानी की बात नहीं है,' अबूतालिब ने कहा, 'हमारे चरवाहे भी तो ऊँचे पहाड़ों में मुरली बजाकर पहाड़ी बकरों को नाचने के लिए विवश किया करते थे। मैंने अपनी आँखों से यह देखा कि हमारे सबसे डरपोक हिरन भी संगीत की धुन पर कितनी खुशी से उसकी तरफ खिंचे चले आते थे। मैंने जुरने की स्वर-लहरियों पर रज्जु-नर्तकों की तरह भालुओं को रस्से पर नाचते देखा है।' अबूतालिब कुछ क्षण तक चुप रहा और इसके बाद बोला - 'संगीत ने मेरे जीवन में भी मदद की है। तुम तो शायद यह जानते ही हो कि जुरने को ही मैं सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ। उसकी आवाज दूर तक गूँजती है। वह तो बेटे के जन्मदिन, दोस्त के आगमन और शादी-ब्याह की घोषणा करता है। कोई कुश्ती में जीतता है या घुड़दौड़ में - दागिस्तान में जुरना ही सभी खुशियों की सूचना देता है। सभी संगीत-वाद्यों या साजों के बीच उसकी हैसियत दावत के टोस्ट-मास्टर जैसी है। मैं इस कारण भी जुरने को प्यार करता हूँ कि जवानी के दिनों में इसने मेरा पेट भरा, मुझे रोटी दी। एक बार मेरे साथ जो घटना घटी, मैं तुम्हें वह सुनाना चाहता हूँ।
'यह मेरे जवानी के दिनों की बात है। एक बार मुझे एक दूर के पहाड़ी गाँव में शादी में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया। सर्दियों के दिन थे। खूब जोर से बर्फ गिर रही थी। रास्ता साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा और बल खाता हुआ था। मैं थककर एक पत्थर पर आराम करने के लिए बैठ गया। गाँव अभी इतना दूर था कि सिगरेट पीते-पीते तंबाकू की पूरी थैली खत्म हो जाती। अचानक मोड़ के पीछे से घंटियों की आवाज सुनाई दी और एक फिटन सामने आई। फिटन में खूब पेट भरकर खाने और शराब पीने के बाद शोर-गुल मचानेवाले तीन आदमी बैठे थे। ये अमीर लोग थे। फिटन में जुते दो घोड़ों में से एक चीनी की तरह सफेद और दूसरा काला था जिसके माथे पर सफेद पद्म था। 'अससलामालेकुम'- 'वाससलामालेकुम' सलाम-दुआ हुई। यह मालूम होने पर कि फिटन में सवार ये लोग भी उसी शादी में जा रहे हैं जिसमें मुझे जाना था, मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मुझे अपने साथ बिठा लें। लेकिन उन्होंने उसी तरह, जिस तरह आजकल कारवाले बुरे लोग या टैक्सी-ड्राइवर करते हैं, इनकार कर दिया और इसके अलावा मेरा मजाक भी उड़ाया - 'कोई बात नहीं, तुम अगली शादी तक गाँव पहुँच जाओगे। लगता है कि इसमें तो तुम्हारे बिना ही काम चल जाएगा।'
'मैंने, थके-हारे और उनके उपहास के कारण जले-भुने व्यक्ति ने अपना जुरना निकाला और उसे बजाने लगा। ऐसा बढ़िया जुरना मैंने पहले कभी नहीं बजाया था। बस, कमाल ही हो गया। जुरना सुनकर घोड़े ऐसे रुक गए मानो उनके पैरों में कील ठोंक दी गई हो। फिटन में बैठे लोग आपे से बाहर हो रहे थे, घोड़ों पर चाबुक बरसा रहे थे, लेकिन बेसूद। घोड़े टस से मस नहीं हो रहे थे। शायद उन्हें मेरी धुन अच्छी लगी थी। संभवतः घोड़ों में उनके मालिकों की तुलना में ज्यादा मानवीयता थी। देर तक यह खींचातानी चलती रही। घोड़ों ने मेरा साथ दिया और मालिकों को मजबूर होकर मुझे अपनी फिटन में बैठाना पड़ा। तो मेरे जुरने ने इस तरह मेरी मदद की। गीत ही तो मुझे तहखाने से बाहर निकालकर आदर और सम्मान के बड़े मार्ग पर ले गए।'
'मैंने अबूतालिब से पूछा -
'तुम तो मुरली, जुरना और सभी तरह की बाँसुरियाँ भी बजाते हो। तुम न केवल उन्हें बजाना जानते हो, बल्कि अपने हाथों से उन्हें बनाते भी हो। लेकिन तुम वायलिन क्यों नहीं बजाते? तुम तो जानते हो कि पहाड़ी लोगों को वायलिन बेहद पसंद है।'
'तुम्हें बताऊँ कि मैं वायलिन क्यों नहीं बजाता? तो सुनो। जब मैं जवान था तो वायलिन बजाता था। एक बार हमारे लाक गाँव में एक बदकिस्मत और थका-हारा अवार आया। उसने अपने एक गाँववासी की हत्या कर दी थी और इसके लिए उसे गाँव से निकाल दिया गया था। इस तरह के निर्वासित व्यक्ति को हमेशा गाँव के छोरवाला पहाड़ी घर रहने को दिया जाता है। लोग उसके यहाँ नहीं आते-जाते हैं। वह भी किसी के यहाँ नहीं आता-जाता है। चूँकि मैं थोड़ी-सी अवार भाषा जानता था तो कभी-कभी उसके यहाँ आने-जाने लगा। एक शाम को मैं अपनी वायलिन लेकर उसके यहाँ गया। वह चूल्हे के करीब बैठा हुआ पतीले के नीचे फूस के अंगारों को हिला-डुला रहा था। पतीले में भी फूस उबल रहा था। मैं वायलिन बजाने लगा और किस्मत का मारा अवार आग को देखता तथा चुपचाप उसे सुनता रहा। इसके बाद उसने अचानक मेरी वायलिन अपने हाथ में ले ली, उसे गौर से देखा, उसे इधर-उधर घुमाया, उसके कुछ तार कसे और बजाने लगा।
'वाह, वाह, कितनी बढ़िया वायलिन बजाता था वह, रसूल! जिंदगी भर उसका वायलिन बजाना नहीं भूल सकूँगा। चूल्हे में फूस जलता जा रहा था। कभी-कभी वह जोर से भड़क उठता और तब उसकी लपट की रोशनी में हमारी आँखें चमक उठतीं। हमारी आँखों से कभी-कभी आँसू बहते होते। मैं अपनी वायलिन इस अवार के यहाँ ही छोड़कर घर चला गया। अगले दिन मैं पहाड़ों में गया, मैंने उसका गाँव खोजा और फिर उसके रक्त-प्रतिशोधियों को ढूँढ़ा। मैं उन्हें उसके गाँव से निर्वासित किए गए अवार के घर लाया। दिन को वे मेरे घर में बैठे रहते और रातों को मेरे साथ यह सुनने जाते कि उनका खूनी दुश्मन कितनी बढ़िया वायलिन बजाता है। लगातार तीन रातों तक यह सिलसिला चलता रहा। चौथे दिन खून का बदला खून से लेने के इच्छुकों ने अपनी इस इच्छा से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने गाँववासी से कहा - 'तुम घर लौट आओ, हमने तुम्हें माफ कर दिया।' मुझसे विदा लेते समय उस अवार ने मेरी वायलिन मुझे लौटानी चाही, लेकिन मैंने उसे नहीं लिया। मैंने उससे कहा - 'तुम्हारी तरह वायलिन बजाना मुझे कभी नहीं आ सकेगा और उससे बुरे ढंग से मैं अब इसे बजा नहीं सकता। इसलिए इस वायलिन की अब मुझे जरूरत नहीं।' तब से मैंने कभी वायलिन हाथ में नहीं ली। लेकिन जिस संगीत ने खूनी दुश्मनों के बीच सुलह करवा दी, उसे भी मैं कभी नहीं भूलूँगा। मैं अक्सर यह सोचता हूँ कि अगर सभी लोग वायलिन पर ऐसा संगीत सुन सकते तो बुराई करनेवाला एक भी आदमी दुनिया में न मिलता और कहीं भी वैर-भाव न होता।'
अब मैं अपने पिता जी से संबंधित दो घटनाओं का उल्लेख करता हूँ।
गोत्सात्ल गाँव के निवासी हाजी नाम के एक व्यक्ति ने खूँजह में एक रेस्तराँ खोला। उसने मेरे पिता जी को बुलाकर उनसे कहा -
'आप पहाड़ी इलाकों में बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। आप मेरे रेस्तराँ के बारे में एक गीत रच दें, उसमें उसकी कुछ प्रशंसा कर दें, ताकि सभी लोग उसके बारे में जान जाएँ। इसके लिए परिश्रमिक देने के मामले में जरा भी देर नहीं होगी।'
पिता जी ने सचमुच ही एक गीत रच दिया और गोत्सात्ल गाँव के निवासी के इस रेस्तराँ को मशहूर भी कर दिया, लेकिन गंदे और बेहूदा रेस्तराँ के रूप में। इसके बाद सभी लोग इस रेस्तराँ और इसके मालिक की तरफ इशारा करते हुए कहते - 'यह है वह आदमी जिसे हमारे हमजात ने धूल में मिला दिया।'
रेस्तराँ के मालिक को जब यह पता चला कि उसके रेस्तराँ के बारे में एक ऐसा गीत है तो वह परेशान हो उठा।
उसने पिता जी से कहा कि अगर वह अपने इस गीत का आम लोगों में प्रचार नहीं करेंगे तो इसके बदले में वह उन्हें जीन समेत घोड़ा देने को तैयार है। किंतु यदि कोई शब्द एक दर्रे को लाँघ जाता है तो वह सारे पहाड़ों में पहुँच जाता है और कोई भी उसे नहीं रोक पाता। किस्मत के मारे इस हाजी के बारे में रचा गया यह गीत जल्द ही सभी गाँवों में पहुँच गया। लोग उसे अभी तक गाते हैं। और हाजी को अपना रेस्तराँ बंद करना पड़ा।
एक बार हमारे घर से भेड़ की बगलों का धूप में सुखाया गया मांस गायब हो गया। उसके वापस आने की कोई उम्मीद नहीं हो सकती थी। लेकिन अचानक गाँव में यह अफवाह फैल गई कि हमजात ने चोर के बारे में एक गीत रचा है। नतीजा यह निकला कि सुखाया हुआ यह मांस उसी दिन हमारे छज्जे में फेंक दिया गया, यद्यपि मेरे पिता जी का ऐसा गीत रचने का जरा भी इरादा नहीं था।
नवदंपतियों में कभी-कभी झगड़ा हो जाता है। ऐसे मौकों पर नवदंपतियों के मित्र, अक्सर तो जवान पति के मित्र घर की खिड़की के नीचे खड़े होकर चोंगूर बाजा बजाने लगते हैं। चोंगूर की ध्वनियाँ नवदंपति को अपने छोटे-से झगड़े के बारे में भूलने को मजबूर कर देती हैं।
मेरा भी अमीन चुतूयेव नाम का एक बहुत अच्छा दोस्त था, फोटोग्राफर और संगीतज्ञ। मेरी शादी के पहले साल में उसे मेरी खिड़कियों के नीचे अक्सर चोंगूर बजाना पड़ा।
अमीन चुतूयेव, तुम अपनी वायलिन लेकर दुनिया की खिड़कियों के नीचे उसे क्यों नहीं बजाते, ताकि हमारे युग के झगड़े सुलझ जाएँ, शांत हो जाएँ?
शिकागो की एक भेंट में एक अमरीकी सहयोगी के साथ मेरी बहुत ही गर्मागर्म बहस हो गई। बहस ने बड़ा ही उग्र रूप ले लिया और ऐसे लगता था कि यह कभी खत्म नहीं हो सकेगी। किंतु बाद में अमरीकी ने अचानक अपने भाई की, जो पहले युद्ध के समय खेत रहा था, कविता सुना दी। मैंने भी उसी समय मौत के मुँह में चले जानेवाले अपने भाई की कविता वहाँ सुनाई। हमारा वाद-विवाद शांत हो गया। केवल कविताएँ ही बाकी रह गईं। काश हम अक्सर ही वीरगति को प्राप्त होनेवालों को याद करते, काश कि हम अक्सर ही कविताओं और गीतों की ओर ध्यान देते!
मेरे पूर्वज पड़ोस के जार्जिया पर अक्सर हमले करते थे। ऐसे ही एक हमले के वक्त वे जवान दविद गुरामिश्वीली को, जो बाद में जार्जिया का क्लासिक कवि बना, वहाँ से भगाकर अवार पर्वतों में ले आए।
ऊँचे पहाड़ी उंत्सूकूल के एक गहरे तहखाने में बंद यह बदकिस्मत बंदी जार्जियाई गाने गाता रहता। वहीं वह कविता रचने लगा। उसे उंत्सूकूल से रूस भागने में सफलता मिल गई और वहाँ से वह उक्रइना चला गया।
इस अनूठे कवि की जयंती के समय मैं त्बिलीसी गया। मुझसे वहाँ बोलने को कहा गया। मैंने मजाक करते हुए कहा कि दविद मुरामिश्वीली जैसे बड़े कवि, के लिए जार्जिया हमारा, हम दागिस्तानियों का आभारी है। अगर हम उसे न भगा ले जाते, गहरे तहखाने में न बंद कर देते तो शायद वह कविता न रचने लगता, रूस और उक्रइना न पहुँच सकता। उसकी जीवनी ने दूसरा ही रूप ले लिया होता। लेकिन इसके बाद मैंने यह भी कहा - 'मेरे पूर्वज जब जवान प्रिंस को भगाकर लाए थे तो यह नहीं जानते थे कि एक कवि को भगाकर ले जा रहे हैं। अगर उन्हें यह मालूम होता तो वे कभी ऐसा न करते। खैर, जो हुआ सो हुआ, लेकिन इतना जरूर है कि अगर पहले दागिस्तान ने दविद गुरामिश्वीली को अपना बंदी बनाया था तो अब दागिस्तान उसके काव्य के जादू में बँधा हुआ है। कितना उलट-फेर हुआ है जमाने में!'
अब नए गीत गाए जाते हैं। लेकिन हम पुराने गीतों को भी नहीं भूले। अब दागिस्तान की जनता अपनी इन बहुमूल्य निधियों को सारी दुनिया को भेंट करती है।
पर्वतों में प्रकृति अपना कठोर रूप दिखाती है। पुराने वक्तों में यहाँ बड़ी संख्या में बच्चे मरते थे। लेकिन जो जिंदा रह जाते थे, वे बहुत लंबी उम्र तक, सौ साल से अधिक समय तक जीते रहते थे।
गाए गए सभी गीत जिंदा नहीं रहे, मगर जो जिंदा रह गए हैं, वे सदियों तक जीवित रहेंगे।
बचपन में अधिकतर लड़के ही मरते थे। लड़कियाँ अधिक शक्तिशाली, अधिक जानदार सिद्ध होती थीं।
गीतों के बारे में भी यही ठीक है। मर्दाना, जवान सूरमाओं के गीत, युद्ध के गीत, हमलों और मार-काट के गीत, कब्रों, प्रतिशोध, खून, साहस तथा वीरता के गीत प्यार के गीतों की तुलना में कहीं कम जीवित रहे हैं।
किंतु सभी पुराने गीत मानो दागिस्तान के नए संगीत की भूमिका हैं। पुराने पंदूरे पर नए तार लगाए जा रहे हैं और जब पहाड़ी औरतों की फुरतीली उँगलियाँ पियानो के सफेद और काले परदों पर भी भागती हैं।
गीतोंवाले घर में मेरा जन्म हुआ और वहीं मैं बड़ा हुआ। मैंने बहुत झिझकते-झिझकते पेंसिल हाथ में ली। मैं कविता से नाता जोड़ते हुए घबराता था, मगर ऐसा किए बिना रह नहीं सकता था। मेरी स्थिति बड़ी विकट थी। हमजात त्सादासा के बाद रसूल त्सादासा (यानी त्सादा गाँव के वासी) की किसे जरूरत हो सकती थी! उसी गाँव, उसी घर और उसी दागिस्तान के रसूल की!
मैं कहीं भी क्यों न गया, किसी भी जगह मुझे लोगों से मिलने और बात करने का मौका क्यों न मिला, अभी भी, जब मेरे अपने बाल पक गए हैं, हर जगह और हमेशा यही कहा जाता है - 'अब हमारे हमजात के बेटे रसूल से अपने विचार प्रकट करने का अनुरोध किया जाता है।' बेशक यह सही है कि हमजात का बेटा होना कुछ कम सम्मान की बात नहीं है, लेकिन मन चाहता है कि मेरी अपनी अलग पहचान हो।
एक बार मैं एक पहाड़ी क्षेत्र में गया। कई गाँवों में जाने के बाद मेरे रास्ते में त्सुमादा नाम का एक ही गाँव बाकी रह गया था। मैंने दूर से देखा कि गाँव के छोर पर बहुत-से लोग जमा हैं। जुरना-वादन और गानों की ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं। किसी का स्वागत होनेवाला है। लेकिन मेरे सिवा तो वहाँ कोई आनवाला नहीं था। मुझे यह अच्छा भी लगा और कुछ शर्म भी महसूस हुई, क्योंकि मैं तो मानो अभी ऐसे बढ़िया स्वागत-सत्कार के लायक नहीं हुआ था। हमारी मोटर लोगों के नजदीक पहुँची। हम मोटर से बाहर निकले। लोगों ने पूछा -
'बुजुर्ग हमजात कहाँ हैं?'
'हमजात तो मखाचकला में हैं। उनका तो यहाँ आने का कोई प्रोग्राम नहीं था। मैं हमजात का बेटा रसूल आपके पास आया हूँ।'
'लेकिन हमें तो यह बताया गया था कि हमजात आएँगे।'
लोग अपने घरों को जाने लगे। कुछ जवान लोग ही मेरे साथ रह गए। हम गीत गाने लगे। हमने बहुत गाने गाए। वे गाने, जिन्हें जनता ने रचा, जिन्हें मेरे पिता जी ने रचा और यहाँ तक कि मेरे द्वारा रचा गया एक गीत भी।
मेरा यह गीत उस लड़के के समान था जो हाथ में छोटा-सा चाबुक लिए जीन ले जानेवाले पिता के पीछे-पीछे जीने पर चढ़ता जाता है।
हमारे पहाड़ी पंदूरे! ज्यों-ज्यों मेरी आयु बढ़ती जाती है, ज्यों-ज्यों मुझे जीवन, लोगों और दुनिया का अधिकाधिक ज्ञान होता जाता है, त्यों-त्यों मुझे हाथ में लेते हुए अधिकाधिक घबराता हूँ। हजारों सालों से तुम्हारे तारों को कसा और सुर में किया गया है। हजारों गायकों ने तुझमें से अद्भुत ध्वनियाँ निकाली हैं। जब मैं तेरे तार कसने लगता हूँ तो मेरे दिल की धड़कन बंद हो जाती है। अगर इस क्षण तार टूट जाएगा तो, मुझे लगता है, कि मेरे दिल के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। तार तो बहुत आसानी से टूट सकता है। इसका मतलब है कि गीत की हत्या हो जाएगी।
लेकिन चाहे कुछ भी क्यों न हो, मुझे तुझे हाथ में लेना ही होगा, सुर में करना और अपना गीत गाना होगा। बेशक वह दागिस्तान के अन्य गीतों में खो जाए, क्योंकि मेरी आवाज तो पुराने गायकों की आवाज की बराबरी नहीं कर सकती। फिर हमारे गाने भी तो भिन्न हैं।
'क्या महमूद के बाद कभी किसी ने मुहब्बत नहीं की? लेकिन अब प्रेम-गीत सुनाई नहीं देते।'
'मुहब्बत तो की गई है। लेकिन गीतों की क्या जरूरत है? आज की मूई जैसी प्रेमिका को प्रेम-गीत सुनाने और भगाकर ले जाने की जरूरत नहीं रही। वह तो खुद ही चली आती है।'
'क्या शामिल के बाद बहादुरों का नाम-निशान मिट गया? अब तो वीरों के वीर-कृत्यों और शानदार लड़ाइयों के गीत सुनाई नहीं देते।'
'बहादुर तो शायद अभी भी हैं। लेकिन अब लड़ाइयों के गीतों की क्या जरूरत है, जबकि खुद तलवार भी चैन चाहती है।'
इससे भला क्या फर्क पड़ता है कि मेरी आवाज दागिस्तान की दूसरी आवाजों में खो जाएगी। दूसरे गायक आएँगे जो वह गा देंगे जिसे मैं नहीं गा पाया।
बुढ़ापा आदमी को जिंदगी की बहुत-सी खुशियों से वंचित कर देता है। वह इनसान की ताकत, आँखों की तेज रोशनी, अच्छी तरह सुनने की क्षमता छीन लेता है, उसके सामने झुटपुटे का परदा गिराकर उसे दुनिया से अलग कर देता है। कभी-कभी तो उसका हाथ शराब का जाम तक नहीं सँभाल पाता।
लेकिन मैं बुढ़ापे से नहीं डरता हूँ, क्योंकि वह मुझसे सब कुछ छीनकर भी मेरा गीत नहीं छीन पाएगा। वह मुझसे मेरा महमूद, बातीराय, पुश्किन, हाइने, ब्लोक, सभी महान गायकों को, जिनमें दागिस्तान जैसा गायक भी शामिल है, कभी नहीं छीन सकेगा। जब तक दागिस्तान है, हमारे लिए चिंता करने की कोई बात नहीं। वह बना रहेगा तो हमारा बाल भी बाँका नहीं होगा, हम भी बने रहेंगे।
एक पहाड़ी गाँव में बच्चों का एक खेल है जिसे कुछ ऐसा नाम दिया जा सकता है - 'जो खोजता है, उसे मिलता है, जिसे मिलता है, वह उसी का हो जाता है।' एक बार मैंने इस खेल में हिस्सा लिया।
एक लड़के को दूसरे कमरे में भेज दिया जाता है, ताकि वह यह न देख सके कि लड़कियों में से कोई एक कहाँ छिपी है। इतना ही नहीं, लड़के की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती है। कुछ देर बाद यह लड़का उस कमरे में जाकर, जहाँ लड़की छिपी हुई है, उसे ढूँढ़ने लगता है। सभी लड़के-लड़कियाँ मिलकर, 'आई, दाई, दालालाई' गाते हैं। लड़का जब गलत जगह पर ढूँढ़ता है तो गानेवाले धीमी और करुण आवाज में गाते हैं। जब वह ठीक दिशा में बढ़ता है तो वे बड़े उत्साह और खुशी भरी आवाज में गाने लगते हैं। जब वह लड़की को ढूँढ़ लेता है तो सभी तालियाँ बजाते हैं और उन दोनों को नाचने के लिए मजबूर करते हैं। इस तरह से गाना उस लड़के को, जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी होती है, सही रास्ता दिखाता है और उसे मनवांछित लक्ष्य पर पहुँचाता है।
गीतोंवाले घर, गीतोंवाले दागिस्तान, गीतोंवाले रूस और गीतोंवाली दुनिया में मेरा जन्म हुआ है। मैं गीत की शक्ति, गीत का महत्व जानता हूँ। अगर दागिस्तान के पास गीत न होते तो कोई भी उसे ऐसे न जानता, जैसे सब लोग आज जानते हैं। तब दागिस्तान भटके हुए पहाड़ी बकरे जैसा होता। किंतु हमारा गीत हमें खड़ी पहाड़ी पगडंडियों से विराट संसार में ले गया, उसने हमें दोस्त दिए।
'तुम गाना गा दो और मैं तुम्हें बता दूँगा कि तुम कैसे आदमी हो,' अबूतालिब कहा करता था। दागिस्तान ने अपना गाना गाया और दुनिया उसे समझ गई।
पुस्तक : मेरा दाग़िस्तान
अवार भाषा में त्येह शब्द के दो अर्थ हैं - भेड़ की खाल और पुस्तक।
कहा जाता है कि 'हर किसी को अपना सिर और सिर पर समूरी टोपी को सुरक्षित रखना चाहिए।' जैसा कि सभी जानते हैं, हमारे यहाँ समूरी टोपी भेड़ की खाल से बनाई जाती है। लेकिन पहाड़ी आदमी का सिर सैकड़ों सालों तक वह एकमात्र अलिखित पुस्तक था जिसमें हमारी भाषा, हमारा इतिहास, हमारी दास्तानें, हमारे किस्से-कहानियाँ, आख्यान, रीति-रिवाज और वह सभी कुछ सुरक्षित रहा जिसकी जनता ने कल्पना की। भेड़ की खाल ने सदियों तक दागिस्तान की इस अलिखित पुस्तक - पहाड़ी आदमी के सिर - की रक्षा की, उसे गर्माया, उसे सहेजा। बहुत कुछ तो सुरक्षित रह गया और हम तक पहुँच गया, लेकिन बहुत कुछ खो भी गया, रास्ते में भटक गया और हमेशा के लिए तबाह हो गया।
इस पुस्तक के कई पृष्ठ वैसे ही नष्ट हो गए, जैसे युद्ध की आग में वीर नष्ट हो जाते हैं (समूरी टोपी गोली और तलवार से तो नहीं बचा सकती), लेकिन कुछ उन बदकिस्मत राहगीरों की तरह नष्ट हो गए जो रास्ते से भटक जाते हैं, बर्फीले तूफान में घिर जाते हैं, जिनकी ताकत जवाब दे जाती है, जो खाईं-खड्ड में गिर जाते हैं, हिमानी की लपेट में आ जाते हैं, किसी डाकू-लुटेरे के खंजर के शिकार हो जाते हैं।
कहा जाता है कि भूला और खोया हुआ ही सबसे अच्छा और महान होता है।
क्योंकि जब हम कविता सुनाते हैं और कोई एक पंक्ति भूल जाते हैं तो हमें उसी की सबसे अधिक जरूरत महसूस होती है।
क्योंकि जब मर जानेवाली गाय की याद आती है तो लगता है कि वही दूसरी गउओं से ज्यादा दूध देती थी और उसी का दूध सबसे अधिक गाढ़ा होता था।
महमूद के पिता ने अपने शायर बेटे की पांडुलिपियों से भरा हुआ संदूक जला डाला था। पिता को ऐसे लगा था कि कविताएँ उनके निकम्मे बेटे का सत्यानाश करती हैं। अब सभी यह कहते हैं कि उस संदूक में महमूद की सबसे अच्छी कविताएँ थीं।
बातीराय अपने एक गीत को कभी दो बार नहीं गाता था। वह अक्सर शादी के वक्त नशे में धुत्त लोगों के सामने गाया करता था। ये गीत वहीं रह गए। किसी ने भी उन्हें नहीं सहेजा। अब सभी लोग यह कहते हैं कि वही उसके सबसे अच्छे गीत थे।
इरची कजाक ने शामहाल के दरबार में बहुत-से गीत गाए। लेकिन उसके बहुत कम गीत ही दरबार की सीमा से बाहर आम लोगों तक पहुँचे। इरची कजाक खुद यह कहा करता था - चाहे कितना ही क्यों न गाओ, न तो शामहाल और न गधा ही गीतों को समझता है।
कहा जाता है कि इरची कजाक की दरबार में खो जानेवाली कविताएँ ही सबसे अच्छी थीं।
आग में जला दिए गए पंदूरों की आवाज हम तक नहीं पहुँची। नदी में फेंक दिए गए चोंगूरों की मधुर धुनें हम तक नहीं पहुँच सकीं। मौत के घाट उतार दिए गए और हताहत लोगों के लिए आज मेरा दिल उदास होता है।
किंतु जो कुछ बाकी बच गया है, जब मैं उसे सुनता और पढ़ता हूँ तो मेरा दिल खिल उठता है। मैं सच्चे दिल से गरीब पहाड़ी लोगों को धन्यवाद देता हूँ जो हमारी अलिखित पुस्तकों को अपनी हृदयों में सहेजे रहे और उन्हें हमारे समय तक लाए।
ये दास्तानें, ये किस्से-कहानियाँ, ये गीत-गाने मानो अब कलम से कागज पर लिखे और किताबों के रूप में छपे हुए से कहते हैं - 'हम, जो अलिखित हैं, सैकड़ों सालों तक सभी तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए जिंदा रहे और तुम तक पहुँच गए। लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि तुम जो इतने सुंदर ढंग से छपे हुए हो, अगली पीढ़ी तक भी पहुँच पाओगे या नहीं? हम देखेंगे,' वे कहते हैं, 'पुस्तकालय, पुस्तक संग्रहालय या मानवीय हृदय अधिक भरोसे लायक पुस्तक-भंडार हैं।'
बहुत कुछ विस्मृत हो जाता है। सैकड़ों पंक्तियों में से केवल एक पंक्ति बची रह जाती है और अगर वह बची रह जाती है तो हमेशा के लिए।
कहा जा चुका है कि पहले अनेक बच्चे बहुत ही छोटी उम्र में मर जाते थे।
इमाम शामिल घायलों को नदी में कूदने के लिए मजबूर करता था। लुंज-पुंज सैनिकों की उसे जरूरत नहीं होती थी, क्योंकि वे दुश्मन से लोहा लेने में असमर्थ होते थे, मगर उन्हें खिलाना-पिलाना तो जरूरी होता था।
अब दूसरा जमाना है। बच्चों की बहुत अच्छी देख-भाल की जाती है, डाक्टर उनकी चिंता करते हैं। घायलों की मरहम-पट्टी की जाती है। लँगड़े-लूलों को नकली टाँगें और पाँव दिए जाते हैं। लोगों के मामले में तो इन परिवर्तनों को बहुत ही सराहनीय और मानवीय माना जा सकता है।
किंतु लुंज-पुंज विचारों, कमजोर कविताओं, अधमरी भावनाओं और मुर्दा ही पैदा होनेवाले गीतों के मामले में तो ऐसा नहीं होता? सब कुछ पुस्तक में ही रह जाता है। सब कुछ कागज पर ही रह जाता है।
पहले यह कहा जाता था - 'जबानी कही बात खो जाती है, लिखी हुई बाकी रह जाती है।' कहीं अब इसके उलट ही न हो जाए।
मगर आप यह नहीं समझ लीजिएगा कि मैं पुस्तक और लिखित भाषा की निंदा कर रहा हूँ। वे तो उस सूर्य की भाँति है जिसने पर्वतों के पीछे से ऊपर उठकर घाटी को रोशन कर दिया, अँधेरे और जहालत को छिन्न-भिन्न कर डाला। मेरी माँ ने मुझे एक लोमड़ी और एक पक्षी का किस्सा सुनाया था। वह इस प्रकार था।
किसी पेड़ पर एक विहगी रहती थी। उसका मजबूत और खासा गर्म घोंसला था जिसमें वह अपने बच्चे पालती थी। सब कुछ अच्छे ढंग से चल रहा था। लेकिन एक दिन लोमड़ी आई, पेड़ के नीचे बैठकर गाने लगी -
से सारी चट्टानें मेरी,
यह सारा मैदान भी,
सभी खेत-खलिहान भी।
अपनी इस धरती पर मैंने
अपना पेड़ उगाया है,
इसी पेड़ पर लेकिन तूने
अपना नीड़ बनाया है।
इसीलिए तू दे दे मुझको
सिर्फ एक अपना बच्चा
वरना काटूँ पेड़ मरें सब
हाल न कुछ होगा अच्छा।
अपने प्यारे पेड़, प्यारे घोंसले और बाकी बच्चों को बचाने के लिए विहगी ने अपना सबसे छोटा बच्चा लोमड़ी को दे दिया।
अगले दिन लोमड़ी फिर से आ गई, उसने फिर से अपना वही गाना गाया। विहगी को अपना दूसरा बच्चा कुर्बान करना पड़ा। इसके बाद तो विहगी अपने बच्चों का शोक भी नहीं मना पाती थी - हर दिन ही एक बच्चा लोमड़ी के मुँह में चला जाता था।
दूसरे पक्षियों को इस विहगी के दुर्भाग्य के बारे में पता चला। वे सभी उड़कर उसके पास आए, पूछने लगे कि क्या मामला है। बुद्धू विहगी ने अपनी दर्द-कहानी सुनाई। समझदार पक्षियों ने गाते हुए उससे कहा -
तुम तो खुद ही दोषी चिड़िया
तुम भोली हो, बुद्धू हो
धूर्त लोमड़ी ने तो उल्लू
खूब बनाया है तुमको।
पेड़ भला कैसे काटेगी
हमें बताओ, क्या दुम से?
तेरे बच्चों तक पहुँचेगी
हमें बताओ, क्या दुम से?
कहाँ कुल्हाड़ी उसकी, बोलो?
और कहाँ पर आरी है?
रहने लगी चैन से अब तो
चिड़िया वहाँ हमारी है।
लेकिन लोमड़ी तो यह कुछ भी नहीं जानती थी और फिर से डराने-धमकाने और बच्चा माँगने के लिए आई। वह फिर से यह गाने लगी कि पेड़ काट डालेगी, विहगी के सारे बच्चों को मार डालेगी। किंतु वही शब्द, जिनसे विहगी बुरी तरह भयभीत हो उठती थी, अब उसे हास्यास्पद, अपनी डींग हाँकनेवाले और व्यर्थ प्रतीत हुए। विहगी ने लोमड़ी को जवाब दिया -
जड़ें बहुत गहरी इस तरु की,
हो कुदाल, तब ही काटो।
तना बड़ा मजबूत पेड़ का
कहाँ कुल्हाड़ा, जो काटो।
मेरा नीड़ बड़ा ऊँचा है,
सीढ़ी लाओ तो पहुँचो।
लोमड़ी अपना-सा मुँह लेकर चली गई और उसने वहाँ आना बंद कर दिया। विहगी तो अब भी वहाँ रहती है, बच्चे पैदा करती है, बच्चे बड़े होते हैं और तराने गाते हैं।
दागिस्तान ने अपनी जहालत, पिछड़ेपन और अज्ञान के कारण अपने कितने बच्चों को नष्ट कर डाला है! खुद को जानने के लिए किताब की जरूरत है। दूसरों को जानने के लिए भी किताब की जरूरत है। पुस्तक के बिना कोई भी जाति उस आदमी के समान है जिसकी आँख पर पट्टी बँधी हो, जो इधर-उधर भटकता रहता है और दुनिया को नहीं देख सकता। पुस्तक के बिना कोई भी जाति उस व्यक्ति के समान है जिसके पास दर्पण न हो, वह अपना चेहरा नहीं देख सकती।
'पिछड़े हुए और जहालत के मारे लोग,' दागिस्तान की यात्रा करनेवालों ने हमारे बारे में ऐसा लिखा और कहा। इन शब्दों में श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति या दुर्भावना की तुलना में सचाई ज्यादा है। 'ये - वयस्क बालक हैं,' हमारे संबंध में एक विदेशी ने लिखा।
'इनके पास ज्ञान नहीं है इसका लाभ उठाना चाहिए,' हमारे शत्रुओं का कहना था।
'अगर यहाँ के जनगण युद्धशास्त्र में प्रवीण हो जाएँ तो कोई भी इन पर हाथ उठाने की जुर्रत न करे,' एक सेनापति ने कहा था।
'काश हम हाजी-मुरात की दिलेरी और महमूद की प्रतिभा में अपना आज का ज्ञान जोड़ सकते!' पहाड़ी लोग कहते हैं।
'इमाम, हम रुक क्यों गए?' एक बार हाजी-मुरात ने शामिल से पूछा। 'हमारी छाती में दिल धधक रहा है और हाथ में तेज खंजर है। इंतजार किस बात का है? हम आगे बढ़कर अपने लिए रास्ता बनाएँगे।'
'जरा सब्र से काम लो, जल्दी नहीं करो, हाजी-मुरात, तेजी से दौड़नेवाली नदियाँ कभी सागर तक नहीं पहुँचतीं। मैं किताब से सलाह लूँगा - वह क्या सलाह देगी। किताब-बड़ी समझदारी की चीज है।'
'इमाम, शायद तुम्हारी किताब समझदारी की चीज हो, लेकिन हमें तो बहादुरी की जरूरत है। और बहादुरी है तेज तलवार तथा घोड़े की सवारी में।'
'किताबें भी बहादुर होती हैं।'
किताब... अक्षर, पंक्तियाँ, पृष्ठ। हाँ, पृष्ठ एक मामूली-सा कागज लग सकता है। लेकिन वह शब्दों का संगीत है, भाषा के सुरीलेपन और विचारों का भंडार है। यह तो मैं हूँ जिसने उसे लिखा, वे दूसरे लोग हैं जिनके बारे में मैंने लिखा, जिन्होंने अपने बारे में लिखा। यह कागज तो तेज गर्मी है, जाड़े का बर्फीला तूफान है, कल की घटनाएँ, आज के सपने, भविष्य का कार्य है।
विश्व-इतिहास और हर आदमी के भाग्य को दो भागों में बाँटना चाहिए - पुस्तक के प्रकट होने के पहले और उसके बाद का भाग। पहला भाग - काली रात है, दूसरा भाग - उजला दिन। पहला भाग - तंग, अँधेरा दर्रा है और दूसरा भाग खुला मैदान या पर्वत-शिखर है।
'शायद जहालत ही वह गुनाह है जिसके लिए इतिहास ने हमें इतनी देर तक और इतनी सख्त सजा दी है,' पिता जी कहा करते थे।
दो कालावधियाँ - पुस्तकवाली और पुस्तक के बिना। इनसान के पास अब बहुत जल्द ही, उसी वक्त जब वह पहला डग भरने लगता है, ककहरे के रूप में किताब आ जाती है। लेकिन दागिस्तान के पास हजारों साल बीतने पर ही पुस्तक आई। दागिस्तान ने बहुत देर से, बहुत ही देर से पढ़ना-लिखना सीखा।
इसके पहले पहाड़ी लोगों के लिए अनेक सदियों तक आकाश पृष्ठ था और तारे वर्णमाला। नीलगूँ बादल दवात थे, बारिश स्याही, पृथ्वी कागज, घास और फूल - अक्षर थे और खुद ऊँचाई ऐसे पृष्ठ पर पढ़ने के लिए झुक जाती थी।
सूरज की लाल किरणें पेंसिलें थीं। उन्होंने चट्टानों पर हमारा भूलों से भरा हुआ इतिहास लिखा।
मर्द का बदन-दवात था, खून-स्याही और खंजर-पेंसिल। तब मौत की किताब लिखी गई, उसकी भाषा हर किसी की समझ में आ जाती थी, उसके अनुवाद की जरूरत नहीं होती थी।
औरत का दुर्भाग्य-दवात था, आँसू-स्याही, तकिया-कागज। तब दुख-दर्दों की किताब लिखी गई, लेकिन बहुत कम ही किसी ने उसे पढ़ा, पहाड़ी औरतें दूसरों को अपने आँसू नहीं दिखातीं।
पुस्तक, लिखित भाषा... ये हैं वे दो निधियाँ जो भाषाएँ बाँटनेवाला हमें देना भूल गया।
पुस्तकें - वे घर की खुली खिड़कियाँ हैं, लेकिन हम बंद दीवारों के भीतर बैठे रहे... खिड़कियों में से पृथ्वी और सागर का विस्तार तथा लहरों पर तैरनेवाले अद्भुत जहाजों को देखा जा सकता था। हम उन पक्षियों के समान थे, जो, न जाने क्यों, जाड़े में गर्म प्रदेश में न जाकर ठंड में ही रह जाते हैं और ठिठुरने पर खिड़कियों पर अपनी चोंचें मारते हैं, ताकि उन्हें घर के भीतर, गर्माहट में आ जाने दिया जाए।
पहाड़ी लोगों के होंठ सूखे और प्यास के कारण मुरझाए हुए हैं... हमारी आँखें भूखी और जलती हुई हैं।
अगर हम कागज और पेंसिल का इस्तेमाल करना जानते होते तो खंजर से इतना अक्सर काम न लेते।
हम तलवार बाँधने, घोड़े पर जीन कसने, उछलकर घोड़े पर सवार होने तथा युद्ध-क्षेत्र में पहुँचने में कभी देर नहीं करते थे। इस मामले में हमारे यहाँ न तो लँगड़े-लूले, न बहरे और न अंधे होते थे। लेकिन हमने बहुत छोटे-छोटे, मानो नगण्य अक्षरों को जानने में बहुत देर कर दी। यह तो सर्वाविदित है कि जिसके भाव, जिसके विचार लुंज-पुंज हैं, उसकी तो सहारा देनेवाली लाठी भी कोई सहायता नहीं कर सकती।
डेढ़ हजार साल पहले आर्मीनिया के विख्यात योद्धा मेसरोप माशतोत्स के दिमाग में यह ख्याल आया कि लिखित भाषा शस्त्रास्त्र से अधिक शक्तिशाली है और उसने आर्मीनी वर्णमाला की रचना की।
मैं मातेनादारान जा चुका हूँ, जहाँ प्राचीनतम पांडुलिपियाँ सुरक्षित रखी जा रही हैं।
वहाँ बहुत ही दुखी मन से मैं दागिस्तान के बारे में सोचता रहा जिसने किताबों और लिखित भाषा के बिना हजारों साल बिता दिए। समय की छलनी में से इतिहास छनता रहा और उसके जरा भी निशान बाकी नहीं रहे। केवल धुँधले और ऐसे आख्यान और गीत ही, जो हमेशा प्रामाणिक नहीं होते थे, एक व्यक्ति के मुँह से दूसरे व्यक्ति के मुँह तक, एक हृदय से दूसरे हृदय तक जाते हुए हमारे पास पहुँचते रहे।
है आसान कथा-किस्सों में
विस्मृत को स्मृत रख पाना,
माँ से सुना कभी जो किस्सा
यहाँ चाहता दुहराना।
किसी गाँव में किसी किसी वीर ने
ऊँचा नाम कमाया जब,
बडे खान ने, शक्तिमान ने
पास उसे बुलवाया तब।
नाम सलीम, हमारा हीरो
बडे़ महल में जब आया,
एक-एक कर सब दरवाजों
को उसने खुलते पाया।
थे कालीन, झाड़ जगमग थे
और रुपहले फव्वारे,
धनी खान ने माल-खजाने
खोल दिए अपने सारे।
जो कुछ देखा यहाँ वीर ने
मुश्किल वह सब बतलाना,
जो कुछ भी है इस दुनिया में
संभव यहाँ देख पाना।
कहा खान ने - 'सुनो सूरमा,
जो भी चाहो, तुम ले लो,
दिल-दिमाग को जो रुच जाए
दे दूँगा मैं वह तुमको।
'यहाँ सभी चीजें बढ़िया हैं
किंतु याद इतना रखना,
हो अफसोस न तुम्हें बाद में
मत उतावली तुम करना।'
उत्तर दिया वीर ने उसको -
'दो तलवार, मुझे खंजर,
घोड़ा तेज मुझे तुम दे दो
करूँ सवारी मैं जिस पर।
'हीरे-मोती, माल-खजाने
किंतु न मैं ये सब चाहूँ
है तलवार, अगर घोड़ा भी
यह सब तो मैं खुद पाऊँ।'
अरे, पूर्वज मेरे तुमने
कैसी कर डाली गलती,
ली तलवार, लिया घोड़ा भी
किंतु भुला क्यों पुस्तक दी?
क्यों न कहो, थैले में अपने
कागज, पेंसिल भी रक्खी?
भूल गए किसलिए लेखनी?
भूल बड़ी यह तुमने की।
बेशक मन था निर्मल तेरा
किंतु अक्ल की रही कमी,
पुस्तक खंजर से बढ़कर है
बात न दिल में यही जमी।
भाग्य सौंप लोहे को अपना
जान नहीं हम यह पाए,
खंजर, घोड़ों से वह बढ़कर
पुस्तक जो कुछ सिखलाए।
सूझ-बूझ के राज छिपे हैं
सुंदरता के भी उसमें,
हम सदियों तक पिछड़ गए हैं
होकर खंजर के वश में।
यह परिणाम भूल का तेरी
छात्र देर से ज्यों आए,
पाठ कभी का शुरू हुआ यदि
वह तो पीछे रह जाए।
पर्वतमाला के पीछे, हमारे बिल्कुल निकट ही जार्जिया है। अनेक शताब्दियाँ पहले शोता रूस्तावेली ने अपना अमर महाकाव्य 'बाघ की खाल में सूरमा।' रचकर जार्जियाई लोगों को भेंट कर दिया। जार्जियाई लोग बहुत अरसे तक महाकवि की कब्र की खोज करते रहे, उन्होंने पूरब के सभी देश छान मारे। 'महाकवि की कब्र तो कहीं नहीं है, लेकिन उनके जीवित हृदय की धड़कन हर जगह सुनी जा सकती है,' एक औरत ने कहा।
मानव जाति काकेशिया की चट्टान से बँधे हुए प्रोमेथ्यू की दास्तान पढ़ती है।
अरब लोग हजारों सालों से कविताएँ पढ़-पढ़कर सिर धुनते हैं।
हजारों साल पहले हिंदुओं ने ताड़ के पत्तों पर अपने सत्यों और भ्रांतियों को लिखा। मैंने काँपते हाथों से इन पत्तों को छुआ और अपनी आँखों से लगाया।
तीन पंक्तियोंवाली जापानी कविता वास्तव में ही बड़ी लालित्यपूर्ण है! कितनी प्राचीन है चीन की भाषा जिसमें हर अक्षर, अधिक सही तौर पर हर चिह्न के पीछे एक पूरी धारणा छिपी हुई है!
अगर ईरान के शाह आग और तलवार के बजाय फिरदोसी की बुद्धिमत्ता, हफीज की मुहब्बत, शेख सादी का साहस और अबीसिन के विचार लेकर दागिस्तान आते तो उन्हें यहाँ से सिर पर पाँव रखकर न भागना पड़ता।
नीशापुर में मैं उमर खय्याम की कब्र पर गया। वहाँ मैंने सोचा - 'मेरे दोस्त ख्य्याम! ईरान के शाह की जगह अगर तुम हमारे यहाँ आए होते तो पहाड़ी जनगण ने कितनी खुशी से तुम्हारा स्वागत किया होता!'
बीजगणित का जन्म हो चुका था और हम गिनती करना भी नहीं जानते थे। भव्य महाकाव्य गूँजते थे और हम 'माँ' शब्द भी नहीं लिख सकते थे।
रूसी सैनिकों से ही हमारा पहले वास्ता पड़ा और रूसी कवियों से हमारा बाद में परिचय हुआ।
अगर पहाड़ी लोगों ने पुश्किन और लेर्मोंतेव को पढ़ा होता तो शायद हमारा इतिहास दूसरा ही मार्ग अपना लेता।
जब किसी पहाड़ी आदमी को लेव तोलस्तोय की 'हाजी-मुरात' पुस्तक पढ़कर सुनाई गई तो उसने कहा - 'ऐसी बुद्धिमत्तापूर्ण पुस्तक तो मानव नहीं, भगवान ही लिख सकता था।'
पुस्तक के लिए जो कुछ चाहिए, हमारे यहाँ वह सब कुछ था। दहकता हुआ प्यार, वीर-नायक, दुखद घटनाएँ, कठोर प्रकृति, केवल स्वयं पुस्तक ही नहीं थी।
रहा वास्ता कितने ही दुख-दर्दों से इस धरती का
और ईर्ष्या से जलते मर्दों ने ले अपने खंजर,
कई पहाड़ी देज्देमोना को हाथों से कत्ल किया
निर्दयता से चला दिए थे खंजर उनकी छाती पर।
सदियों के लंबे अरसे में, क्या-क्या यहाँ नहीं बीता
उच्च पर्वतों की इस धरती, मानो दुनिया की छत पर,
यहाँ जूलियट औ, ओफलियाँ, हुए अनेकों ही हेमलेट
हुआ सभी कुछ किंतु यहाँ पर, पैदा हुआ न शेक्सपियर।
यहाँ मधुर संगीत गूँजता, करती हैं नदियाँ कलकल,
यहाँ तराने पक्षी गाएँ, निर्झर झरते हैं झरझर,
किंतु बाख तो फिर भी कोई, इस धरती पर नहीं हुआ
और न गूँजा यहाँ बिथोवन की रचनाओं का ही स्वर।
किसी जूलियट के जीवन का दुखद अंत जब होता था
कौन यहाँ करते थे चर्चा, उसका हाल बताते थे?
वही लोग जो उसे मारकर, बदला अपना लेते थे
और न कवि तो उसके दुख की, गौरव-गाथा पाते थे।
कुमुख गाँव के करीब तैमूर के गिरोहों के साथ भयानक लड़ाई के बाद पहाड़ी लोग जब जीत का माल लूट रहे थे तो एक मुर्दा सैनिक की जेब से उन्हें पुस्तक मिल गई। हमारे सैनिकों ने उसके पृष्ठ उलटे-पलटे, अक्षरों पर झुककर उन्हें बहुत गौर से देखा। लेकिन उनमें एक भी ऐसा नहीं था जो उन्हें पढ़ सकता हो। तब पहाड़ियों ने उसे जला देना चाहा, उसे फाड़कर उसके पृष्ठों को हवा में उड़ा देना चाहा। लेकिन समझदार और बहादुर पार्तू-पातीमात ने आगे बढ़कर कहा -
'दुश्मन से मिले हथियारों के साथ इसे भी सँभालकर रखिए।'
'हमें इसकी क्या जरूरत है? हममें से तो कोई भी इसे पढ़ नहीं सकता।'
'अगर हम नहीं पढ़ सकते तो हमारे बेटे-पोते इसे पढ़ेंगे। आखिर हम तो यह नहीं जानते कि इसमें क्या लिखा हुआ है। हो सकता है कि इसी में हमारा भाग्य छिपा हो।'
अरबों के साथ सुराकात तानुसीन्स्की की लड़ाई के वक्त एक अरब कैदी ने पहाड़ी लोगों को अपना घोड़ा, हथियार और ढाल भी दे दी, लेकिन किताब को छाती के साथ चिपकाकर छिपा लिया, उसे नहीं देना चाहा। सुराकात ने घोड़ा और हथियार कैदी को लौटा दिए, मगर किताब छीन लेने का हुक्म दिया। उसने कहा -
'घोड़ों और तलवारों की तो खुद हमारे पास भी कुछ कमी नहीं है, मगर किताब एक भी नहीं है। तुम अरबों के पास तो अनेक किताबें हैं। तुम्हें इस एक को देते हुए क्यों अफसोस हो रहा है?'
सैनिकों ने हैरान होकर अपने सेनापति से पूछा -
'हमें इस किताब का क्या करना है? हम तो न केवल इसे पढ़ना ही नहीं जानते, बल्कि हमें तो इसे ढंग से हाथ में लेना भी नहीं आता। घोड़े और हथियारों के बजाय इसे लेना क्या समझदारी की बात है?'
'वह वक्त आएगा, जब इसे पढ़ा जाएगा। वह वक्त आएगा, जब यह पहाड़ी लोगों के लिए चेर्केस्का, समूरी टोपी, घोड़े और खंजर की जगह ले लेगी।'
दागिस्तान पर हमला करनेवाले ईरान के शाह की जब खासी पतली हालत हो गई तो उसने अपना सोना-चाँदी और हीरे-मोती, जिन्हें हमेशा अपने साथ रखता था, जमीन में गाड़ दिए। इस गड्ढे के ऊपर शिला-खंड रखकर उस पर सूचना के अक्षर खोद दिए गए। साक्षियों को शाह ने मरवा डाला। लेकिन मुरताज-अली खान ने फिर भी इस गड्ढे को ढूँढ़ लिया और सोने-चाँदी और हीरे-मोतियों से भरे संदूक - वह सभी कुछ जो ईरान के शाह ने अब तक लूटा था - निकाल लिए। बीस खच्चरों पर शाह की यह सारी दौलत लादकर लाई गई। बाकी कीमती चीजों के अलावा फारसी की कुछ किताबें भी थीं। मुरताज-अली खान के पिता सुरहात ने, जिसके दोनों हाथ कटे हुए थे, यह सारा खजाना देखकर कहा -
'मेरे बेटे, बहुत बड़ा खजाना ढूँढ़ा है तुमने। इसे सैनिकों में बाँट दो, अगर चाहो तो बेच दो। यह तो हर हालत में खत्म हो जाएगा। लेकिन सौ साल बाद भी पहाड़ी लोगों को इन किताबों में छिपे हुए मोती मिल जाएँगे। तुम इन्हें नहीं दो। ये सभी कीमती चीजों से ज्यादा मूल्यवान हैं।'
इमाम शामिल का मुहम्मद ताहिर अल-कारखी नाम का सेक्रेटरी था। शामिल उसे कभी भी खतरनाक जगह पर नहीं जाने देता था। मुहम्मद ताहिर को इस कारण बहुत बुरा लगता था। एक दिन उसने कहा -
'इमाम, शायद तुम मुझपर भरोसा नहीं करते हो? मुझे जंग के मैदान में जाने दो।'
'अगर सब मर जाएँ तुम्हें तो तब भी जिंदा रहना चाहिए। तलवार हाथ में लेकर लड़ तो कोई भी सकता है, मगर इतिहास लिखने का काम हर कोई नहीं कर सकता। तुम हमारे संघर्ष की किताब लिखते रहो।'
मुहम्मद ताहिर अपनी किताब पूरी किए बिना ही इस दुनिया से कूच कर गया। लेकिन उसके बेटे ने पिता के अधूरे छोड़े गए काम को पूरा किया। इस पुस्तक का नाम है - 'कुछ लड़ाइयों में इमाम की तलवार की चमक।'
इमाम शामिल का बहुत बड़ा निजी पुस्तकालय था। पच्चीस सालों तक वह दसियों खच्चरों पर उसे जहाँ-तहाँ ले जाता रहा। उसके बिना तो उसे चैन ही नहीं मिलता था। बाद में, गुनीब पर्वत पर कैदी बनने के वक्त उसने अनुरोध किया कि उसकी तलवार और किताबें उसके पास ही रहने दी जाएँ। कालूगा में रहते हुए वह किताबें पाने के लिए लगातार मिन्नत करता रहा। वह कहा करता था - 'तलवार के कारण तो बहुत लड़ाइयाँ हारी गईं, लेकिन किताब के कारण एक भी नहीं।'
इमाम का बेटा जमालुद्दीन जब रूस से लौटा तो इमाम ने उसे पहाड़ी पोशाक पहनने को मजबूर किया, लेकिन उसकी किताबों को छुआ तक नहीं। जिन लोगों ने इमाम से यह कहा कि 'काफिरों की किताबें' नदी में फेंक दी जाएँ, उसने उन्हें यह जवाब दिया - 'इन किताबों ने हमारी धरती पर, हम पर गोलियाँ नहीं चलाईं। इन्होंने हमारे गाँव नहीं जलाए, लोगों को मौत के घाट नहीं उतारा। जो कोई किताब की बेइज्जती करेगा, वह उसकी बेइज्जती कर देगी।'
काश, अब हम यह जान सकते कि जमालुद्दीन पीटर्सबर्ग से कौन-सी किताबें अपने साथ लाया था?
अपनी लिखित भाषा न होने के कारण दागिस्तान के लोग परायी भाषाओं में कभी-कभार एकाध शब्द लिखते थे। ये पालनों, खंजरों, छत के तख्तों और कब्रों के पत्थरों पर लिखे जानेवाले आलेख होते थे जो अरबी, तुर्की, जार्जियाई और फारसी में लिखे जाते थे। इस तरह के आलेखों, बेल-बूटों की संख्या बहुत बड़ी है, इन सभी को जमा करना संभव नहीं। लेकिन अपनी भाषा में पढ़ने के लिए कुछ भी नहीं। अपना नाम तक न लिखना जाननेवाले पहाड़ी लोग तलवारों, घोड़ों और पर्वतों के रूप में इसे अभिव्यक्त करते थे।
कब्रों पर लिखे गए कुछ आलेखों का अनुवाद किया जा सकता है -
'यहाँ बुग्ब-बाई नाम की औरत दफन है जो अपनी मनपसंद उम्र तक जिंदा रही और दो सौ साल की होने पर मरी', 'यहाँ कूबा-अली दफन है जो अदजारखान के साथ हुई लड़ाई में तीन सौ साल की उम्र में मारा गया।'
बहुखंडीय इतिहास की जगह कुछ दयनीय अंश, बिखरे-बिखराए शब्द और वाक्य।
जब मैं साहित्य-संस्थान का विद्यार्थी था तो पके बालोंवाले दयालु सेर्गेई इवानोविच रादत्सिग हमें प्राचीन यूनानी साहित्य पढ़ाते थे। उन्हें प्राचीन साहित्य मुँहजबानी याद था, वह प्राचीन यूनानी भाषा में बड़े-बड़े खंड सुनाते थे, प्राचीन यूनानियों के दीवाने थे और उन्हें अपने मन पर पड़नेवाली उनकी छापों की चर्चा करना बहुत अच्छा लगता था। प्राचीन कवियों की कविताओं का वह ऐसे पाठ करते थे मानो स्वयं रचयिता कवि उनका पाठ सुन रहे हों, मानो पक्के मुसलमान की तरह डरते हों कि कहीं अचानक कुरान पढ़ते हुए कोई गलती न हो जाए। उनका ख्याल था कि वह हमें जो कुछ बताते हैं, हम बहुत पहले से और बड़ी अच्छी तरह जानते हैं। वह तो इस बात की कल्पना तक नहीं कर सकते थे कि कोई 'ओदिसी' या 'इलियाड' से अनजान हो सकता है। वह यही समझते थे कि जंग के मोरचे से अभी-अभी लौटनेवाले ये नौजवान चार साल पहले यानी जब लड़ाई में नहीं गए थे तो बस होमर, एसखील और एवरीपीड को ही पढ़ते रहते थे।
एक बार यह देखकर कि यूनानी साहित्य की हमारी जानकारी कितनी कम है, वह लगभग रो पड़े।
मैंने तो उन्हें खास तौर पर बहुत हैरान किया। दूसरे तो थोड़ा-बहुत जानते ही थे। जब उन्होंने मुझसे होमर के बारे में पूछा तो मैं मक्सिम गोर्की के ये शब्द याद करके कि उन्होंने सुलेमान स्ताल्स्की को बीसवीं सदी का होमर कहा था, उनके बारे में बताना शुरू कर दिया। बड़े दुख के साथ मेरी ओर देखकर प्रोफेसर ने मुझसे पूछा -
'तुम किस जगह बड़े हुए हो कि तुमने 'ओडिसी' भी नहीं पढ़ी?'
मैंने जवाब दिया कि मैं दागिस्तान में बड़ा हुआ हूँ, जहाँ किताब कुछ ही वक्त पहले प्रकट हुई है। अपने अपराध की थोड़ी सफाई देने के लिए मैंने अपने को असभ्य पहाड़िया बताया। तब प्रोफेसर ने वे शब्द कहे जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकूँगा -
'नौजवान, अगर तुमने 'ओडिसी' नहीं पढ़ी तो तुम असभ्य पहाड़ियों से भी गए-बीते हो। तुम तो निरे जंगली और बर्बर हो।'
अब मैं जब कभी यूनान और इटली जाता हूँ तो अपने प्रोफेसर, उनके शब्दों और प्राचीन साहित्य के प्रति उनके रवैये की मुझे अक्सर याद आती रहती है।
लेकिन अगर मैं रूसी भाषा भी बड़ी मुश्किल से बोल और लिख सकता था तो होमर, सोफोकल, अरस्तू और हेसिओड को कैसे जान सकता था? दुनिया में बहुत कुछ ऐसा था जो दागिस्तान की पहुँच के बाहर था, बहुत-से खजाने उसके लिए नहीं थे।
मैं इस बात का उल्लेख कर चुका हूँ कि हमारे गायक तातम मुरादोव का गाना सुनते हुए माक्साकोवा कैसे रोई थी। मुरादोव ने किसी भी तरह की तालीम हासिल नहीं की थी और उस वक्त उसकी उम्र साठ के करीब थी। सभी ने यह सोचा था कि गायक की आवाज ने माक्साकोवा के दिल को छू लिया है, लेकिन उसने कहा था -
'में तो अफसोस के कारण रो रही हूँ। कैसी गजब की आवाज है! अगर ठीक वक्त पर इस गायक को शिक्षक मिल जाते तो इसने अपने गाने से दुनिया को हैरत में डाल दिया होता। लेकिन अब कुछ भी नहीं हो सकता।'
दागिस्तान के भाग्य के बारे में सोचते हुए मुझे उक्त शब्द बहुत बार याद आते हैं। वे केवल तातम के बारे में ही नहीं कहे गए हैं। क्या हमारे अनेक गायक, योद्धा, चित्रकार, पहलवान अपने गुणों, अपनी प्रतिभा का परिचय दिए बिना ही कब्रों में नही चले गए हैं? उनके नाम अज्ञात ही रए गए। शायद हमारे भी अपने शाल्यपिन, अपने पोद्दूब्नी थे। अगर ओसमान अब्दुर्रहमानोव को, हमारे हरकुलीस को ताकत के साथ उस कुश्ती की कला की शिक्षा और परंपरागता भी मिल जाती तो शायद कोई भी उससे जीत न सकता। लेकिन उसे शिक्षा देनेवाला कोई नहीं था। हमारे यहाँ संगीत-महाविद्यालय, थियेटर, इन्स्टीट्यूट, अकादमियाँ, यहाँ तक कि स्कूल भी नहीं थे।
शिला-लेख बीती सदियों की नहीं बताएँ गाथाएँ
उनसे वंचित, किंतु हमारी राह नहीं रुक जाएगी,
तलवारों से अरे, बुजुर्गों ने जो किस्से लिखे कभी
उसे लेखनी ही अब मेरी, आगे और बढ़ाएगी।
पहाड़ी लोग पेंसिल हाथ में लेने, उससे अक्षर लिखने का ढंग नहीं जानते थे। उन शत्रुओं को, जो उनसे घुटने टेकने को कहते थे, वे उन्हें ठेंगा ही दिखाते थे। या फिर कुछ और साफ ढंग से इसे चित्रित करके दुश्मन के पास भेज देते थे।
दागिस्तान के बारे में कहा जाता था - 'यह देश पत्थर के संदूक में एक ऐसे गीत की तरह पड़ा हुआ है जिसको न लिखित रूप दिया गया है और न गाया गया है। कौन इसे निकालेगा, कौन इसके बारे में गाएगा और लिखेगा?'
अक्षर, शब्द, पुस्तकें - यही उस ताले की चाबी हैं जो उस संदूक पर लगा हुआ है। दागिस्तान के भारी और सदियों पुराने तालों की चाबियाँ किनके हाथों में हैं?
विभिन्न लोग इन तालों के पास आए और कभी-कभी तो उन्होंने संदूक के भीतर झाँकने के लिए उसका ढक्कन भी ऊपर उठाया। दागिस्तान के लोग जब खुद तो कलम हाथ में लेना भी नहीं जानते थे, उस वक्त भी अनेक मेहमानों, यात्रियों और विद्वानों-अनुसंधानकों ने दूसरी भाषाओं - अरबी, फारसी, तुर्की, यूनानी, जार्जियाई, आर्मीनी, फ्रांसीसी और रूसी में दागिस्तान के बारे में लिखा था...
दागिस्तान, मैं पुराने पुस्तकालयों में तुम्हारा नाम खोजता हूँ और उसे विभिन्न भाषाओं में लिखा पाता हूँ। देर्बेंत, कुबाची, चिरके और खूँजह का उल्लेख मिलता है। यात्रियों को धन्यवाद। वे तुम्हारी पूरी गहराई और जटिलता की तह तक नहीं जा सके, फिर भी उन्हीं ने सबसे पहले तुम्हारे नाम को हमारे पर्वतों की सीमाओं से बाहर पहुँचाया।
इसके बाद पुश्किन और लेर्मोंतोव ने अपने शब्द कहे -
तब जलती दोपहरी में मैं दागिस्तानी घाटी में
पड़ा हुआ था निश्चल, सीने में अपने गोली लेकर...
अद्भुत पंक्तियाँ हैं ये! और बेस्तूजेव-मारलीन्स्की ने अपनी 'अम्मालात-बेक' रचना लिखी। देर्बेंत... कब्रिस्तान में अभी तक मारलीन्स्की द्वारा उसकी मंगेतर की कब्र पर लगाया गया पत्थर कायम है।
अलेक्सांद्र द्यूमा दागिस्तान में आए थे। पोलेजायेव ने अपनी लंबी कविताएँ 'एरपेली' और 'चीर-यूर्त' रचीं। हर किसी ने तुम्हारे बारे में भिन्न-भिन्न ढंग से लिखा है, लेकिन किसी ने भी तुम्हें इतनी गहराई में जाकर और इतनी अच्छी तरह से नहीं समझा जितनी अच्छी तरह से जवान लेर्मोंतोव और बुजुर्ग तोलस्तोय ने। तुम्हारे इन गायकों के सामने मैं अपना पके बालोंवाला सिर झुकाता हूँ, ये किताबें मैं वैसे ही पढ़ता हूँ जैसे मुसलमान कुरान को।
बेटे के नामकरण-संस्कार का दिन-बड़ी खुशी का दिन होता है। ऐसा दिन तो वही दिन होना चाहिए, जब दागिस्तान के बेटों ने पहली बार अपनी मातृभाषाओं में उसके बारे में लिखा। मुझे याद है कि जब मेरी पहली अध्यापिका वेरा वसील्येव्ना ने मुझे ब्लैक बोर्ड के पास बुलाकर तुम्हारा नाम लिखने को कहा था तो मैंने कौन-सी गलती की थी। मैंने 'द' को बड़े अक्षर के रूप में लिखे बिना दागिस्तान लिख दिया था। वेरा वसील्येव्ना ने मुझे समझाया कि दागिस्तान एक व्यक्तिवाचक नाम है और इसलिए इसका पहला अक्षर बड़ा होना चाहिए। तब मैंने बड़ा 'द' लिखकर उसके आगे दागिस्तान यानी 'ददागिस्तान' लिख दिया। मुझे लगा कि बड़ा और छोटा, दोनों 'द' लिखने चाहिए। ऐसा करना भी गलत था। इसके बाद तीसरी बार मैंने सही लिखा।
क्या तुम्हें भी इसी तरह से तुम्हारा नाम लिखना नहीं सिखाया गया, दागिस्तान? क्या तुम्हें भी इसी तरह से अपने बारे में बताना नहीं सिखाया गया है? वर्णमाला चुनी। तुमने अरबी, लातीनी, रूसी अक्षरों में लिखा। बहुत-सी गलतियाँ हुईं। क्योंकि जो कुछ बड़े अक्षर से लिखा जाना चाहिए था, उसे छोटे अक्षर से लिखा गया। क्योंकि जो कुछ छोटे अक्षर से लिखा जाना चाहिए था, वह बड़े अक्षर से लिखा गया। केवल तीसरी बार ही तुम सही ढंग से लिखना सीख पाए, मेरे दागिस्तान। दागिस्तान की कुछ पहली पुस्तकों, पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के नाम प्रस्तुत हैं - 'भोर का तारा', 'नई किरण', 'लाल पहाड़िया', 'पहाड़ी हिरन', 'पहाड़ी कहावतें', 'कुमिक लोक-कथाएँ', 'लाक-जाति की धुनें', 'दारगीन दास्तानें', 'लेज्गीन कविताएँ', सोवियत दागिस्तान'। ये सभी दागिस्तान की मातृभाषाओं में हैं और केवल नाम ही नहीं, बल्कि पंख हैं।
1921 में दागिस्तान के प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत करने के बाद लेनिन ने हमारे पहाड़ी प्रदेश को तीन सर्वाधिक अनिवार्य वस्तुएँ भेजीं - अनाज, कपड़ा और छापेखाने के टाइप। घोड़ा और खंजर दागिस्तान के पास थे। लेनिन ने अनाज के साथ उसे पुस्तक दी। अक्तूबर क्रांति ने दागिस्तानी शिशु के पालने की चिंता की। दागिस्तान ने सागर, खुद अपने को देखा, अपने अतीत और भविष्य को देखा और उसने अपने बारे में खुद लिखना शुरू किया।
सुलेमान स्ताल्स्की ने मक्सिम गोर्की से कहा - 'हम दोनों बूढ़े हो चुके हैं। अपनी जिंदगी जी चुके हैं, दुनिया देख चुके हैं। हम दोनों की किताबें हैं। लेकिन तुम कागज पर लिखते हो, तुम पढ़े-लिखे हो। मैं गाता हूँ। कारण कि मुझे लिखना नहीं आता। हम रूस और दागिस्तान के साकार रूप हैं। रूस पढ़ा-लिखा है। दागिस्तान में अधिकांश लोग अभी तक अपना नाम तक लिखना नहीं जानते। वे हस्ताक्षर करने के बजाय अँगूठा लगाते हैं। क्या तुम ऐसे पढ़े-लिखे लेखकों का दल यहाँ नहीं भेज सकते ताकि वे सारे सोवियत देश, सारी दुनिया को हम दागिस्तानियों के बारे में बता सकें?'
सुलेमान स्ताल्स्की और गोर्की की बातचीत का एफ्फंदी कापीयेव अनुवाद कर रहा था। गोर्की ने सुलेमान का अनुरोध पूरा करने का वचन दिया, किंतु कापीयेव की ओर इशारा करते हुए यह भी कहा कि अब दागिस्तान में पढ़े-लिखे और प्रतिभाशाली युवजन की पीढ़ी तैयार हो गई है। और यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि इस जनतंत्र की सभी भाषाओं में अपनी धरती के बारे में खुद दागिस्तानी ही लिखें। कारण कि, जैसा कि आपके यहाँ कहा जाता हे, 'घर की हालत के के बारे में उसकी दीवारें ही सबसे ज्यादा अच्छी तरह जानती हैं।'
गोर्की ने जिन युवजन का उल्लेख किया था, वे अब बड़े और बूढ़े भी हो चुके हैं। वे दागिस्तान के बारे में पुस्तकें लिख चुके हैं, और भी लिखेंगे। पहले वक्तों में पिता अपने बेटों के लिए विरासत में तलवार और पंदूरा छोड़ते थे। अब-लेखनी और पुस्तक। दागिस्तान में ऐसा दिन नहीं होता, जब किसी के यहाँ बेटे का जन्म न होता हो। यहाँ ऐसा दिन भी नहीं होता जब कोई नई पुस्तक प्रकाशित न हो। हर कोई अपने ही दागिस्तान के बारे में लिखता है। पचास से अधिक सालों तक मेरे पिता जी लिखते रहे। पूरी जिंदगी ही काफी नहीं रही। अब मैं लिखता हूँ। लेकिन मैं भी वह सब नहीं लिख पाऊँगा जो लिखना चाहता हूँ। इसलिए मैं बच्चों के सिरहाने खंजर के बजाय लेखनी और कोरी कापी रखता हूँ। मेरे पिता जी का और मेरा एक ही दागिस्तान है। लेकिन हमारी लेखनियों की भाषाओं में वह कितना भिन्न है। हमारी अपनी-अपनी लिखावट, अपने-अपने अक्षर, अपना-अपना ढंग और अपना तराना है। अपने लंबे रास्ते पर बोझ ढोनेवालों को बदलते हुए यह बैलगाड़ी इसी तरह से चलती जा रही है।
पिता जी कहा करते थे - 'वही लिखो जो जानते हो और लिख सकते हो। और जो नहीं जानते, उसे दूसरों की किताबों में पढ़ो।'
किताब
प्यार करो तुम तो पुस्तक को जिसके पृष्ठ उदार बड़े
इंतजार है उसको तेरा, कभी न जो धोखा देती,
चाहे तुम हो धनी खान या चाहे हो निर्धन, कंगले
हर हालत में वफादार वह, नजर न कभी फेर लेती।
बड़े जतन से, बड़ी लगन से, पुस्तक के पन्ने पलटो
उसकी तो प्रत्येक पंक्ति में सूझ-बूझ का शब्द भरा,
ज्ञान-पिपासा तीव्र रहे चिर, बेटे, तुम इतना जानो
पाओगे संतोष उसी से, ज्ञान उसी में जो बिखरा।
यह तो है वह अस्त्र, हाथ से नहीं गँवाना तुम जिसको
वार न बेशक करो, रहेगा, साथी यह फिर भी सच्चा,
बुरा न मानेगा यदि फेंको, इससे यदि तुम मुँह मोड़ो
इतना बढ़िया मीत चही है, दोस्त यही इतना अच्छा।
करो दोस्ती सदा ज्ञान से, उसके घर में सब कुछ है
उसके फल हैं मीठे-मीठे, हरे-भरे उसके उपवन,
स्वागत वहाँ सदा ही होगा, तुम वांछित मेहमान वहाँ
जाओ, वहाँ बटोरो तुम फल, जितने चहो, आजीवन।
तुम जीवन, अपने सपनों का, पुस्तक से नाता जोड़ो
और समझ लो, अनजाने ही, कवि अंतर में छाएगा,
जो मन में, कह दो कविता से, उसकी ही मुस्कान मधुर
देगी सब प्रश्नों के उत्तर, हृदय सांत्वना पाएगा।
जब जवान कवि अपनी कविताएँ, लेकर पिता जी के पास आते तो सबसे पहले तो वह उनकी लिखावट की तरफ ध्यान देते। क्योंकि 'जैसी हलरेखा, वैसा
ही खेत का मालिक।' इसके बाद वह गलतियाँ ठीक करते, विरामचिह्न लगाते। अफसोस से अपना सिर हिलाते हुए वह मानो कहते - सही ढंग से लिखना सीखो। कुछ जवान लोग दबी जबान से यह ख्याल जाहिर करते - '20 वीं शताब्दी के होमर' अनपढ़ थे। 'मुझे तो यह मालूम नहीं था!' पिता जी जवान 'होमर' को जवाब देते। दागिस्तान में अभी भी ऐसे अनेक 'होमर' हैं। कविता में व्याकरण की गलती से भी पिता जी को बड़ी झुँझलाहट होती थी। जब पिता जी की एक कविता छापे की अनेक भूलों के साथ समाचारपत्र में छपी थी तो उन्होंने यह कविता लिखी थी -
अचानक गीत पर मेरे
मुसीबत आज आई है,
उसे अखबार में भेजा
छपाने को, दुहाई है!
बिगाड़ा इस तरह उसको
बुरा यों हाल कर डाला,
कि जैसे बेंत, लाठी से
कहीं उसका पड़ा पाला।
नशे में धुत लोगों ने
दबोचा हो उसे जैसे,
पिटाई खूब कसकर की
नजर आता है कुछ ऐसे।
कि शायद राह में उस पर
पड़े मुक्के, पड़े घूँसे,
न जाने किस तरह निकला
बचाकर जान दुश्मन से?
चौपाई को पकड़कर
इस तरह गर्दन मरोड़ी हे,
हुआ है अर्थ ही गायब
कि ऐसे टाँग तोड़ी है।
कि दोहों पर पड़े कोड़े
नजर कुछ इस तरह आता,
भरे आहें, कराहें वे
न उनको चैन मिल पाता।
बिचारी खोपड़ी घायल
न गिनना घाव संभव है,
अजब यह बात है सचमुच
भयानक खेल यह सब है।
न अँतड़ियाँ दिखाई दें
नजर है गीत की धुँधली,
पियक्कड़ की सिपाही ने
कि जैसे हो पिटाई की।
अगर हर अंक में हों
गलतियाँ इस ढंग की दसियों,
तुम्हारी ख्याति फैलेगी
अरे हीरो, दूर कोसों।
करें आलोचना अपनी
सुधरती भूल है तब ही,
कि यह आलोचना छापो
यही अनुरोध है अब भी।
मेरे पिता जी... उन्हें जाननेवाला हर व्यक्ति शायद अपने ढंग से उनकी कल्पना करता था।
जाहिर है कि वह जमीन जोतते थे, घास काटते थे, बैल-गाड़ी पर घास लादते थे, घोड़े को घास खिलाते थे और ऊस पर सवारी करते थे। लेकिन मैं उन्हें हाथ में किताब लिए हुए ही देखता हूँ। वह किताब को हमेशा इस तरह से हाथ में लिए रहते थे मानो वह हाथों से निकलकर किसी भी क्षण उड़ सकती हो। मेहमानों को बहुत चाहते हुए भी वह उवस वक्त बेचैनी और घबराहट अनुभव करते थे, जब कोई अचानक आकर उनके अध्ययन में बाधा डाल देता था, मानो कोई उनकी महत्वपूर्ण प्रार्थना को भंग कर देता हो। पिता जी जब कुछ पढ़ते होते तो माँ दबे पाँव चलतीं, होंठों पर लगातार उँगली रखे हुए सबको चुप रहने का संकेत करतीं और हमें फुसफुसाकर बात करने को विवश करतीं -
'शोर नहीं करो, तुम्हारे पिता जी काम कर रहे हैं।'
वह ठीक ही समझती थीं कि लेखक के लिए किताबें पढ़ना - यह उसका काम ही है।
खुद वह कभी-कभी हिम्मत बटोरकर यह जानने के लिए उनके कमरे में चली जाती थीं कि उन्हें किसी चीज की जरूरत तो नहीं, उनकी दवात में स्याही तो खत्म नहीं हो रही। पिता जी की दवात पर माँ कड़ी नजर रखती थीं और उसमें कभी भी स्याही नहीं सूखने देती थीं।
पिता जी के जीवन में अगर खुशी के दो दिन भी आए तो उन्हें ये किताबों की बदौलत ही नसीब हुए थे।
पिता जी के जीवन में अगर गम के दो दिन भी आए थे तो ये भी उन्हें किताबों ने ही दिए।
उन किताबों ने, जिन्हें वह पढ़ते थे और जिन्हें वह लिखते थे।
लोग उनसे जो कुछ भी माँगते, वह उन्हें उसे देने से कभी इनकार नहीं कर सकते थे। किसी चीज के अपने पास होते हुए उससे इनकार करने को पिता जी सबसे बड़ा झूठ और सबसे बड़ा पाप मानते थे। जब कोई उनसे उनकी कोई प्यारी पुस्तक माँगता था, तब तो उनकी हालत सचमुच दयनीय हो जाती थी। पुस्तक दे दी गई थी, वह पराये हाथों में थी, लेकिन पिता जी के हाथ अभी भी उसकी तरफ फैले हुए थे।
जब पुस्तक माँगकर ले जानेवाला व्यक्ति बहुत देर तक उसे नहीं लौटाता था तो पिता जी उसे लिखते थे - 'मैं अपने उस दोस्त के लिए बहुत उदास हो रहा हूँ जिसे तुम पिछली बार अपने साथ ले गए थे। क्या तुम उसे लौटाने की नहीं सोच रहे हो?'
मेरे पिता जी सात बहनों के एकमात्र भाई थे (परिवार में एकमात्र पुरुष) और ये सभी छोटी उम्र में ही यतीम हो गए थे। पिता जी ने अपना जन्म-गाँव भी जल्द ही छोड़ दिया था। यतीमों की सरपरस्ती करनेवाले चाचा ने यह कहकर उन्हें दूसरे गाँव के मदरसे में पढ़ने भेज दिया कि बड़े गाँव में अक्ल भी बड़ी होती है। तब से पिता जी कंधे पर खु़रजी रखे या झोला लटकाए एक गाँव से दूसरी गाँव में जाते रहे - उनके एक थैले में किताबें होती थीं और दूसरे में भुना हुआ आटा। कहना चाहिए कि वह धनी होकर वहाँ से लौटे। गाँव-गाँव भटकने के सालों में उनका ज्ञान बहुत समृद्ध हो गया। गाँव-पंचायत में उस वक्त उनसे कहा गया कि अगर तुम अपने ज्ञान और प्रतिभा को एक बैलगाड़ी में जोत दोगे तो बहुत लंबी यात्रा करोगे।
पंचायत की भविष्यवाणी ठीक निकली। पिता जी का नाम प्रसिद्ध हो गया। उनकी बहुत-सी कविताएँ तो लोकोक्तियाँ बन गईं।
पिता जी ने बड़ों और बच्चों की लिए, जो इस दुनिया में आते और इस दुनिया से जाते है, उन सभी के लिए बहुत कुछ लिखा। उन्होंने कविताएँ, खंड-काव्य, नाटक, गल्पें और कथाएँ लिखीं। उनकी लिखावट सीधी और अच्छी थी। उनकी भाषा भी ऐसी ही थी। हमजात की अच्छी लिखावट के कारण ही उनकी जवानी के दिनों में उनसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों - निर्णयों और जनता के नाम अपीलों - की नकल करने का अनुरोध किया जाता था। वह विभिन्न लिपियों - अरबी, लातीनी और रूसी - का उपयोग करते थे। वह दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ लिखते थे।
उनसे यह पूछा जाता -
'बाएँ से दाएँ क्यों लिखते हो?'
'क्योंकि बाईं ओर दिल है, प्रेरणा है। हम जिस चीज को भी बहुत ज्यादा प्यार करते हैं, उसे अपनी छाती के बाईं ओर चिपका लेते हैं।'
'दाएँ से बाएँ क्यों लिखते हो?'
'क्योंकि आदमी में दाईं ओर ताकत होती है, दायाँ हाथ है। हम दाईं आँख से ही निशाना साधते हैं।
जाहिर है कि ये शब्द मजाक से कहे गए थे, किंतु विभिन्न लिपियाँ सीखना कुछ मजाक नहीं था। हाँ, यह सही है कि कविताएँ तो वह लगभग सदा ही अपनी मातृभाषा यानी अवार भाषा में लिखते थे।
पिता जी ने कुछ कविताएँ अरबी में भी रचीं। मुख्यतः अंतरंग कविताएँ। परिवार का कोई भी सदस्य उन्हें नहीं पढ़ सकता था। किंतु ऐसी कविताएँ बहुत कम हैं। हमजात तो सिद्धांत के रूप में ही ऐसी कविताओं के विरोधी थे। वह कहा करते थे -
'कविताएँ ऐसी नहीं होनी चाहिए कि माँ, बेटी या बहन उसे न पढ़ सके। मुझे वे फिल्में बिलकुल पसंद नहीं हैं जिन्हें सोलह साल तक के बच्चों को देखने की इजाजत न हो।'
पिता जी अक्सर अरबी लिपि का उपयोग करते थे। उन्हें उसके अक्षर, उनकी बनावट बहुत पसंद थी, उन्हें उनमें सुंदरता दिखाई देती थी। घसीटवाली और भद्दी लिखावट तो उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाती थी। एक बार उन्हें अपने एक पुराने साथी का अरबी में लापरवाही से लिखा हुआ खत मिला और उन्होंने एक कविता में उसका इस प्रकार मजाक उड़ाया -
एक तुम्हारा अक्षर ऐसे, जैसे फटी हुई खंजड़ी
बिंदु बनाया ऐसे, जैसे भारी, गोल-गोल पत्थर
छत गिर जाए ज्यों छप्पर की, लगे दूसरा यों अक्षर,
नजर आ रहे केवल खंभे, हैं अवशेष टिके जिन पर।
इस बदकिस्मत अक्षर पर तो, शिला-खंड मानो रक्खा
कैसे इसे दबाया तुमने, कैसे ऐसा गजब किया?
चौथे अक्षर की भौंहों तक, टोपी की नीचे खींचा
पूरा-पूरा पृष्ठ पंक्ति में, तुमने ही मानो भींचा।
शायद नहीं कलम से, बिल्ली के पंजे से लिखते हो?
हर अक्षर है पेड़ की झाड़ी, बिखरी जिसकी शाखाएँ
जंगल-सा हर पृष्ठ कि जिसमें प्रबल बवंडर आ जाएँ
जिसमें चारों ओर कुल्हाड़े, जोर-जोर से चल जाएँ,
सीखा कहाँ इस तरह लिखना, समझ न हम तो यह पाएँ?
इस कविता ने अपने वक्त में बहुत-से लोगों को नाराज किया। कुछ इसलिए नाराज हो गए कि उन्होंने इस कविता को ठीक ढंग से नहीं समझा था और दूसरे इस कारण कि इसे बहुत ही अच्छी तरह समझ गए थे। कुछ लोगों ने ऐसा माना कि हमजात भद्दे ढंग से लिखे गए अरबी के अक्षरों का नहीं, बल्कि अरबी लिपि का मजाक उड़ाते हैं।
लेकिन पिता जी के दिमाग में पूरी लिपि की आलोचना करने का तो ख्याल तक नहीं आया था। उन्होंने तो उन पर चोट की थी जो अपनी लापरवाही के कारण इस लिपि को बिगाड़ते थे, इसका इस्तेमाल करना नहीं जानते थे। पिता जी ने कभी किसी लिपि की बुराई नहीं की थी। जो लोग किसी भी लिपि को बिगाड़ते थे, वह उनको तिरस्कार की नजर से देखते थे।
'यह सही है कि अरबों ने दागिस्तान पर हमला किया था,' पिता जी कहा करते थे, 'लेकिन इसके लिए अरबी लिपि और अरबी भाषा की किताबों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।'
दोपहर के भोजन के बाद गाँव के लोग हमारे घर की छत पर जमा हो जाते थे। पिता जी उन्हें अद्भुत उपन्यासिकाएँ, कहानियाँ और कविताएँ पढ़कर सुनाते थे। अरबी की कविताओं के अनेक छंदों का लयबद्ध संगीत गूँजता रहता था।
पिता जी रूसी भाषा नहीं जानते थे। उन्हें अरबी भाषा में ही चेखोव, तोलस्तोय और रोमेन रोलां को पढ़ना पड़ा। उस समय इनमें से किसी के बारे में भी पहाड़ी लोग कुछ नहीं जानते थे। दूसरे लेखकों की तुलना में पिता जी को चेखोव ज्यादा पसंद थे, चेखोव की 'गिरगिट' कहानी तो उन्हें खास तौर पर बहुत अच्छी लगती थी और उन्होंने उसे कई बार पढ़ा था।
कुल मिलाकर अरबी भाषा का काफी चलन था। कुछ लेखक तो इसलिए अरबी में लिखते थे कि दागिस्तान की कोई अपनी लिपि नहीं थी, कुछ इसलिए कि उन्हें दागिस्तानी भाषाओं की तुलना में अरबी अधिक समृद्ध और सुंदर प्रतीत होती थी। सभी सरकारी कागजात और दस्तावेज अरबी में ही लिखे जाते थे। सब मकबरों पर अरबी में ही सारे आलेख अंकित किए जाते थे। पिताजी इन आलेखों को बहुत अच्छी तरह पढ़ और समझ सकते थे।
बाद में ऐसे साल आए, जब अरबी भाषा को बुर्जुआ अवशेष घोषित कर दिया गया। अरबी में लिखने और पढ़नेवाले लोगों को बहुत हानि पहुँची, पुस्तकों को भी बहुत हानि पहुँची। दागिस्तान के प्रबोधकों, ज्ञान-प्रचारकों अली बेक ताखो-गोदी और जलाल कोर्कमासोव द्वारा बड़ी मेहनत से जमा किए गए पूरे के पूरे पुस्तकालयों को नष्ट कर दिया गया। जलाल ने सोर्बोना में शिक्षा प्राप्त की थी, वह बारह भाषाएँ जानते थे और अनातोल फ्रांस से उनकी मित्रता थी। पहाड़ी गाँवों में वह पुरानी किताबें जमा करते थे, उनके बदले में हथियार, घोड़ा और गाय तथा बाद में मुट्ठी भर आटा और कपड़े का टुकड़ा देते थे। बहुत-सी पांडुलिपियाँ भी गुम हो गईं। यह ऐसी अक्षम्य हानि थी जिसकी कभी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती।
बहुत दुख-दर्दों से भरी हुई हो तुम, दागिस्तान की कि़ताब, तुम्हें विभिन्न लिखावटों, विभिन्न लिपियों में लिखा गया है। इसलिए लिखा गया है कि लेखक ऐसा किए बिना रह नहीं सकते थें, उन्होंने इसे निःस्वार्थ भावना से लिखा है, बदले में किसी प्रकार के पारिश्रमिक की माँग नहीं की। क्रांति ने इस पुस्तक का प्रकाशन किया है।
'लाल पर्वत' समाचार पत्र निकलने लगा जिसे बाद में 'पहाड़िया' और फिर 'बोल्शेविक पहाड़िया' नाम दिया गया। इसी अखबार में सबसे पहले मेरे पिता जी की कविताएँ छपी थीं। उन्होंने इस समाचार पत्र के साथ अनेक वर्षों तक न केवल सहयोग ही किया, बल्कि वह इसके सेक्रेटरी के रूप में भी काम करते रहे। तब मुझे इस बात से हैरानी हुआ करती थी कि अखबार इतनी जल्दी कविताएँ छाप देता था। सचमुच मैं हैरान हुए बिना रह भी नहीं सकता था। कारण कि पिता जी ने एक दिन पहले जो कविता मेरे सामने लिखी होती थी, अगले दिन उसे अखबार में पढ़ा जा सकता था। बाद में ये कविताएँ पुस्तक का रूप ले लेती थीं। मोटे-मोटे चार खंडों में पिता जी का सारा जीवन, उनका पूरा सृजन संगृहीत है।
पिता जी का उनके अध्ययन-कक्ष में, उनकी पुस्तकों, कलमों, पेंसिलों, लिखे हुए और बिना लिखे कागजों के करीब ही, जिन्हें वह लिख नहीं पाए, देहांत हुआ। खैर, कोई बात नहीं, कुछ दूसरे लोग उन कागजों को लिख देंगे। दागिस्तान अब शिक्षा प्राप्त कर रहा है, दागिस्तान पढ़ता है, दागिस्तान लिखता है।
अब मैं आपको यह बताता हूँ कि खुद मैंने कैसे पढ़ना-लिखना सीखा। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कैसे मुझे पढ़ना-लिखना सीखने के लिए मजबूर किया गया।
मैं तब पाँच साल का था। सारा दागिस्तान ही पढ़ने-लिखने लगा था। एक के बाद एक स्कूल, कालेज और तकनीकी कालेज खुलते जा रहे थे। बच्चे और बूढे़, औरतें और मर्द - सभी पढ़ने थे। निरक्षरता-उन्मूलन-केंद्र और शिक्षा-अभियान आयोजित किए जाते थे। मुझे पहला ककहरा, पहली कापी भी याद है जो पिता जी ने मुझे खरीद कर दी थी। वह खुद गाँव-गाँव जाकर लोगों से पढ़ने की अपील करते थे।
नई लिपि सामने आई। पिता जी ने बड़े उत्साह से उसका स्वागत किया। उन्हें हमेशा इस बात का अफसोस होता रहता था कि लिपि के अभाव के कारण दागिस्तान महान रूसी संस्कृति से कटा हुआ है। वह कहा करते थे - 'दागिस्तान हमारे महान देश का अंग है। उसके लिए उसे जानना, पूरी मानवजाति को जानना, उसके जीवन की पुस्तक पढ़ना उसकी लिखावट को समझना-पहचानना जरूरी है।'
'नया पथ', 'नूतन प्रकाश', 'नए लोग' - ये थे उन दिनों के नारे। वक्त की इस पुकार पर पिता जी ने अपने बच्चों को भी आगे भेजा। नए जीवन के लिए अपना मार्ग प्रशस्त करना आसान नहीं था। नए जीवन के मार्ग पर पत्थर फेंकने वालों की संख्या बहुत थी। पहले स्कूलों की बहूत-सी खिड़कियाँ तोड़ी गईं। शिक्षा और ज्ञान-प्रचार के शत्रु कहते थे - 'यह भला कैसी दुनिया है जिसमें चरवाहा किताब पढ़ता है और आटे की चक्की का मालिक पाठ तैयार करता है? उन्हें तो भेड़ें चराना आटा पीसना चाहिए।' यों तो और भी ज्यादा बुरी बातें होती थीं। मुझे याद है कि कैसे अध्यापक को मारने के लिए चलाई गई गोली स्कूल की दीवार पर लटकनेवाले नक्शे पर जा लगी और कैसे इस संबंध में पिता जी ने ये शब्द कहे थे - 'इस बदमाश ने एक ही गोली से लगभग सारी दुनिया को ही छलनी नहीं कर दिया।'
उन प्रारंभिक वर्षों में अनेक गाँव में नई शिक्षा का पुरानी, धार्मिक शिक्षा के साथ ताल-मेल बैठाने की कोशिश की गई थी। ऐसा भी हुआ कि ये दोनों आपस में घुल-मिल गईं। यह जान पाना मुश्किल था कि कहाँ दुकान है और कहाँ बाजार, कहाँ अली है और कहाँ ओमार। मेरे बडे़ भाई युवजन के स्कूल में पढ़ने जाते थे। मुझे उनसे बड़ी ईर्ष्या होती थी, लेकिन कुछ भी नहीं कर सकता था और हर दिन बड़ी बेचैनी से उनका इंतजार करता था।, मैं पढ़ने को बहुत उत्सुक था। मगर तब मैं सात साल का नहीं हुआ था।
इसी वक्त हमारे गाँव में उनके लिए स्कूल खुल गया जो अपने बच्चों को खूँजह के दुर्ग में पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहते थे। यह अर्ध-धार्मिक स्कूल था। इसे 'हसन का स्कूल' कहा जाता था।
1. हसन और कैदी
छापेमारों ने एक प्रतिक्रांतिकारी सैनिक बंदी बना लिया। उसे रक्षक की निगरानी में मुसलिम अतायेव के मुख्य सैनिक कार्यालय में पहुँचाना था। यह काम हसन को सौंपा गया। शुरू में तो सब कुछ ठीक रहा। लेकिन आखिर नमाज अदा करने का वक्त आ गया। हसन एक छोटी-सी नदी के पास रुककर नमाज पढ़ने लगा और कै़दी को उसने अपने नजदीक पत्थर पर बिठा दिया। कैदी ने उससे विनती की कि वह उसके हाथ खोल दे, ताकि वह भी नमाज अदा कर ले। हसन ने आश्चर्य से पूछा -
'तुम किसलिए इबादत करना चाहते हो? तुम तो सफेद गार्डों का साथ दे रहे हो। तुम तो बेशक कितनी ही इबादत क्यों न करो, हर हालत में जहन्नुम में जाओगे।'
'फिर भी मैं हूँ तो मुसलमान। मुसलिम अतायेव तो मुझ पर रहम नहीं करेगा, फौरन दूसरी दुनिया को रवाना कर देगा। इसलिए मुझे आख़िरी बार अल्लाह की इबादत कर लेनी चाहिए।'
हसन ने यह कहते हुए उसके हाथ खोल दिए -
'तुम तो सोवियत सत्ता को कोसते थे, यह कहते थे कि वह मुसलमानों को अल्लाह पर यकीन करने से मना करती है। अब तुम जितनी भी चाहो, जी भरकर इबादत कर सकते हो।'
इसके बाद हसन इबादत में इतना खो गया कि जब उसने मुड़कर देखा तो कैदी गायब था, वह भाग गया था। तब गुस्से से लाल-पीला होता हुआ हसन चिल्लाया -
'अल्लाह और इन्कलाब की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं तुम्हें जरूर ही ढूँढ़कर पकड़ लूँगा !'
और उसने सचमुच ही उसे एक गाँव में जा पकड़ा तथा वहाँ पहुँचा दिया, जहाँ पहुँचाना था।
2. इबादत और गाना
सोवियत सत्ता के शुरू के सालों में हसन ग्राम-सोवियत का सेक्रेटरी था। इन सालों के दौरान ग्राम-सोवियत की मुहर पूरी तरह से घिस गई और एकदम सपाट हो गई, क्योंकि हसन उस पर जरा भी रहम नहीं करता था और हर तरह के कागज या दस्तावेज पर मुहर लगा देता था।
अगर कोई कठिन और महत्वपूर्ण सवाल सामने आ जाता तो वह कहता -
'सलाह-मशविरा करना होगा।'
प्रसंगवश यह भी बता दूँ कि उसने इतवार की जगह शुक्रवार को यानी रमजान के दिन को छुट्टी का दिन बनाने की भी कोशिश की थी। वह सोवियत सत्ता की हिदायतों और निर्णयों का अथक रूप से लोगों में प्रचार करता, उन्हें समझाता और अमली शक्ल देता। इसके साथ ही उसने उस मसजिद की मरम्मत भी करवाई जो गृह-युद्ध के दिनों में टूट-फूट गई थी।
मसजिद की मरम्मत हो जाने पर उसके समारोही उद्घाटन का दिन नियत किया गया। इसी वक्त इस क्षेत्र में संस्कृति-कर्मियों - लेखकों, चित्रकारों, कलाकारों, गायकों, और स्वरकारों-संगीतज्ञों का एक बड़ा दल आ गया। क्षेत्रीय केंद्र से इस पूरे दल को उस गाँव में भेज दिया गया, जहाँ हसन ने मसजिद के समारोही उद्घाटन की तैयारी की थी।
गाँव में मेहमानों का जोरदार स्वागत किया गया। उन्हें घुड़दौड़ें, कुश्तियाँ और मुर्गों की लड़ाई दिखाई गई। मेहमान भी पीछे नहीं रहे - उनमें से किसी ने भाषण दिया, निकट भविष्य के आर्थिक कार्यभारों की चर्चा की और फिर उन्होंने कन्सर्ट पेश किया।
कन्सर्ट जब अपने पूरे रंग पर था तो मुअज्जिन ने मसजिद की मीनार पर चढ़कर बाँग दी और इस तरह सच्चे मुसलमानों को शाम की नमाज के लिए बुलाया। तब हसन उठकर खड़ा हुआ और उसने अतिथियों को संबोधित करते हुए कहा -
'बहुत शुक्रिया कि आपने हमें यह इज्जत बख्शी और ऐसे महत्वपूर्ण दिन पर, हमारी मसजिद के उद्घाटन के दिन यहाँ तशरीफ लाए। कन्सर्ट के लिए भी शुक्रिया। अब हम नमाज पढ़ने जाते हैं। आप चाहें तो कन्सर्ट जारी रख सकते हैं, चाहें तो हमारे लौटने तक इंतजार कर सकते हैं, चाहें तो हमारे साथ चल सकते हैं।'
गाँव के कुछ लोग मसजिद में चले गए, कुछ मेहमानों के गाने सुनने को रुके रहे, कुछ दुविधा में पड़कर खड़े रह गए, उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। मेहमान भी उलझन में पड़ गए। लेकिन बाद में छत पर, जो एक तरह से रंगमंच का काम दे रही थी, प्रसिद्ध गायक अराशील, ओमार, गाजी-मुहम्मद और केगेर की गायिका पातीमात सामने आए। दो मर्दाना समूरी टोपियाँ, एक दुपट्टा, दो पंदूरे और एक खंजड़ी। और पर्वतों के ऊपर एक नया गाना गूँज उठा। यह लेनिन, लाल सितारे और दागिस्तान के बारे में गाना था। वे कभी तो पंदूरों और खंजड़ी को सिर के ऊपर ऊँचा उठाकर तथा कभी उनको छाती से लगाकर गाते थे।
इस गाने को सुनकर नमाज पढ़नेवाले कुछ लोग मसजिद से बाहर आ गए और कुछ, इसके विपरीत, मसजिद में चले गए।
यह दिलचस्प घटना हसन के गाँव में आज तक सुनाई जाती है।
संस्कृति-कर्मियों के दल में मेरे पिता हमजात त्सादासा भी थे और उनके आगे घोड़े पर मैं बैठा हुआ था। जो उस वक्त कुछ भी नहीं समझता था।
गाँव से विदा लेने के समय मेहमानों ने ग्रामोफोन और लाउडस्पीकर भेंट किया।
3. लाउडस्पीकर और हसन
मुझे यह मालूम नहीं कि किसने ऐसा करने का आदेश दिया, शायद खुद हसन ने ही, लेकिन मेहमानों द्वारा भेंट किए गए लाउडस्पीकर को मसजिद के करीब टेलीफोन के खंभे दिया गया। गाँव में अब सुबह से शाम तक रेडियो का प्रोग्राम चलता रहता। यह आस-पास के पहाड़ों पर कभी तो पायोनियरों के बिगुलों की आवाज, कभी कोई गाना, कभी संगीत गुँजाता रहता, कभी कोई वार्ता सुनाता रहता और कभी सिर्फ खड़-खड़, गड़-गड़ करता रहता।
कभी-कभी मसजिद की मीनार से मुअज्जिन की बाँग और रेडियो की आवाज आपस में घुल-मिल जातीं और उस वक्त कुछ भी समझ पाना असंभव होता।
एक दिन क्या हुआ कि मुअज्जिन के बाँग देने के लिए मीनार पर जाने के कुछ ही पहले लाउडस्पीकर खामोश हो गया। किसी ने चालाकी से खंभे पर तार काट दिया। धर्म-ईमान को माननेवाले मुसलमानों के नमाज अदा कर लेने के फौरन बाद हसन ने खंभे पर चढ़कर तार जोड़ दिया और लाउडस्पीकर फिर से काम करने लगा।
अगले दिन भी नमाज के पहले लाउडस्पीकर फिर से चुप हो गया। नमाज खत्म हो जाने के बाद हसन को फिर से खंभे पर चढ़ना पड़ा।
यह किस्सा कई दिनों तक चलता रहा। सभी हैरान होते थे कि हसन इस मामले की तरफ क्यों ध्यान नहीं देता और 'तोड़-फोड़' की ऐसी हरकत करनेवाले का पता क्यों नहीं लगाता।
जब यह मालूम हुआ कि खुद हसन ही रेडियो को हर दिन खराब कर देता था तो गाँव के सभी लोगों की हैरानी का कोई ठिकाना न रहा।
हसन के मन में दो शक्तियों - इबादत और गाने-के बीच संघर्ष होता रहता था। वह इन दोनों में समझौता करवाने की कोशिश करता था। वह नवदंपति का मसजिद में विवाह करवाता और इसके बाद उन्हें ग्राम-सोवियत में रजिस्ट्री कराने ले जाता।
प्रकृति के अध्ययन का भी उसका अपना ही तरीका था। वह खड़ा होकर किसी तारे या चट्टान को ताकता रहता। घंटे बीत जाते और हसन वहीं खड़ा रहता। अगर उसे किसी काम-काज से कहीं जाना होता तो वह अपनी बीवी या कभी-कभी हम छोकरों से वहाँ खड़े अनुरोध करता।
स्कूल में वह हमें नक्षत्रों की गति के नियम समझाता। वह हमें भूकंपों, चाँद और सूर्यग्रहण, ज्वार और भाटों के बारे में बहुत कुछ बताता। यह सब कुछ वह मानो दिलचस्प, मगर कुछ ऐसे अजीब ढंग से बताता कि अब उसकी बातों में से मेरे दिमाग में कुछ भी बाकी नहीं रहा।
उसके शिक्षाक्रम में सभी कुछ - अरबी, रूसी और लातीनी-गड्डमड्ड हो गया था।
वह प्लाईवुड के बहुत बड़े टुकड़े पर अरबी में अक्षर लिखता और कहता -
'इन अक्षरों को लिखना सीखो। तुम्हारे पिता जिंदगी भर इन्हीं अक्षरों को लिखते और पढ़ते रहे।'
इसके बाद वह रूसी भाषा के इतने ही बड़े-बड़े अक्षर लिखता और कहता -
'इन्हें सीखो। तुम्हारे पिता ने उस उम्र में, जब चश्मा लगाया जाता है, इन अक्षरों को सीख लिया था। ये तुम्हारे काम आएँगे।'
कभी-कभी वह हमें कुछ याद करने का काम देकर खुद मसजिद में नमाज पढ़ने चला जाता।
जब वह हमें अरबी लिपि सिखाता तो उसके हाथ में डंडा होता और गलतियों या लापरवाही के लिए उसी से हमारी पिटाई करता।
जब रूसी वर्णमाला सिखाने का वक्त आता तो वह अपने हाथ में लकीरें खींचने का रूल ले लेता। इस तरह कभी तो डंडे और कभी रूल से हमारी पिटाई होती।
मेरी पिटाई का कारण यह था। हमारा घर मसजिद के बिल्कुल करीब था। इन दोनों के बीच एक कदम से ज्यादा का फासला नहीं था। मुझे एक छत से दूसरी छत पर कूदने की आदत पड़ गई थी। इसके लिए हसन ने मेरी कसकर पिटाई की। इसके बाद मसजिद बंद करके वहाँ एक तरह का ग्राम-क्लब बना दिया गया। मैंने पहले की तरह ही अपनी छलाँगें लगाना जारी रखा। हसन ने इसके लिए फिर से मुझे सजा दी।
पिता जी ने हसन का पक्ष लिया और मुझसे कहा -
'तुम टिड्डे तो नहीं हो कि कूदते-फाँदते रहो। धरती पर चलना सीखो।'
कुछ समय बाद मेरी उम्र सात साल की हो गई और मेरी उछल-कूद, मेरी छलाँगें अपने आप ही खत्म हो गईं। मैं खूँजह दुर्ग के स्कूल में पढ़ने लगा।
हसन के स्कूल की पढ़ाई कोई भी खत्म नहीं कर सका, उसे बंद कर दिया गया। हसन सामूहिक फार्म में काम करने लगा, उसे अखिल संघीय कृषि प्रदर्शनी में भेजा गया और वहाँ से वह तमगा लेकर लौटा। दो अन्य पदक उसे मोरचे पर मिले। युद्ध के बाद वह कहता रहता था -
'मैं बेशक किसी भी जगह पर क्यों न रहा, हर हालत में, यहाँ तक कि पूरे युद्ध के दौरान नियमित रूप से नमाज पढ़ता रहा। अगर मैं ऐसा न करता तो क्या जिंदा और पूरी तरह से सही-सलामत घर लौट सकता था?'
थोड़े में यह कि हसन जैसा था, अब भी वैसा ही है। अब वह अवार खान सुराकात के बारे में सामग्री जमा कर रहा है। वह पहले की तरह ही खुशमिजाज, बेहद ईमानदार, बेशक कुछ सनकी आदमी है।
जब कभी मैं अपने गाँव जाता हूँ तो उससे जरूर मिलता हूँ, क्योंकि उसे अपना पहला अध्यापक मानता हूँ।
मुझे सामान्य स्कूल में अपना दूसरा अध्यापक भी याद है। वह हमें हर दिन अपने बारे में ही किस्से-कहानियाँ सुनाता रहता था। अब तो मैं इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ कि वह असली अवार म्यूनखगाउजन था। वह अपना हर पाठ इन सामान्य शब्दों से ही शुरू करता -
'तो बच्चो, तुम्हें अपने जीवन की एक घटना सुनाऊँ?'
'सुनाइए!' हम सब मिलकर चिल्लाते।
'एक बार मैं अवार कोइसू के ऊपर रज्जु-मार्ग से जा रहा था। सामने से एक विशालकाय भालू आ रहा था। हमारे लिए अलग-अलग दिशाओं में जाना किसी तरह भी संभव नहीं था। भालू भी पीछे नहीं हटना चाहता था और मैं भी। रज्जु-मार्ग के मध्य में हम गुत्थमगुत्था हो गए। यह भालू उन सभी भालुओं से कहीं ज्यादा ताकतवर था जिनसे मेरा पहले वास्ता पड़ा था। फिर भी मैंने बड़ी फुरती दिखाई, उसे अयाल से पकड़कर नदी में फेंक दिया।'
हम मुँह बाए हुए अपने अध्यापक की गप्पें सुना करते थे।
'पिछले सप्ताह मैं अपने खेत में जाकर बड़े इतमीनान से वहाँ हल चलाने लगा। मेरे बैल बहुत अच्छे हैं, तगड़े हैं। लेकिन वे अचानक रुक गए और उन्होंने हल आगे बढ़ाना बंद कर दिया। क्या बात हो गई? मैंने गीर से देखा तो यह पाया कि बाँह जितने मोटे-मोटे नौ साँप मेरे हल के साथ लिपटे हुए हैं। उनमें से दो मेरे हाथों की तरफ रेंग रहे थे। अपने होश-हवास ठिकाने रखते हुए मैंने पिस्तौल निकाली और सारे के सारे साँपों को गोलियों से उड़ा दिया। इतना अधिक खून बहा कि पूरे खेत की सिंचाई हो गई। मैं चैन से हल चलाकर घर चला गया। कभी-कभी यह चिंता जरूर होती है कि खेत में अनाज की जगह साँप ही न पैदा हो जाएँ?
'तुम्हें यह बताऊँ कि कैसे मैं अपने लिए बीवी भगाकर लाया था? उन दिनों मैं त्सूनती के जंगलों में डाकुओं को पकड़ा करता था। एक दिन मैं सबसे ज्यादा खतरनाक एक डाकू के घर पहुँचा। वह खुद तो भागने में कामयाब हो गया, लेकिन उसकी चाँद जैसी बेटी पीछे घर में ही रह गई थी। हम दोनों की आँखें चार हुईं और हमें फौरन ही एक-दूसरे से मुहब्बत हो गई। मैंने उसे गोद में उठाकर घोड़े के जीन पर बिठाया और सरपट घोड़ा दौड़ा ले चला। अचानक मैंने क्या देखा कि बहुत ही खतरनाक चालीस डाकू मेरा पीछा कर रहे हैं। उनमें से प्रत्येक दाँतों तले खंजर दबाए था, प्रत्येक के एक हाथ में तलवार और दूसरे में पिस्तौल थी। मैंने मुड़कर देखा और बड़े सधे हुए निशानों से गोलियाँ चलाकर सभी को दूसरी दुनिया में पहुँचा दिया। यह किस्सा तो दागिस्तान में हर कोई जानता है।'
एक दिन पाठ के वक्त में डेस्क पर अपने साथ बैठनेवाले बसीर से बातें कर रहा था। अध्यापक ने मुझे अपने पास बुलाकर बड़ी कड़ाई से पूछा -
'तुम पढ़ाई के वक्त बातें क्यों कर रहे हो? बसीर के साथ तुम घंटे भर से क्या बक-बक कर रहे हो?'
'हमारे बीच बहस हो रही थी। बसीर कह रहा था कि उस दिन खेत में हल चलाते वक्त आपने आठ साँप मारे थे, लेकिन मैं कह रहा था कि अठारह।'
'तुम बसीर से कह दो कि उसकी नहीं, तुम्हारी बात सही है।'
उस दिन के बाद से मेरे माता-पिता हमेशा ही इस बात से हैरान होते रहते थे कि मैं कुछ भी पढ़े-लिखे बिना स्कूल में अच्छे अंक कैसे पा लेता हूँ।
बड़ा दयालु व्यक्ति था वह, किंतु एक ही जगह पर देर तक टिककर नहीं रहता था। उसे बहुत दूर-दूर के सुनसान गाँवों में भेजा जाता था - कभी सीलूख तो कभी अरादेरीख में, लेकिन वहाँ भी वह कुछ अधिक समय तक नहीं रुकता था।
कुछ ही समय पहले वह लेखक-संघ के कार्यालय में मेरे पास आया और बोला कि मैं उसे कोई काम दे दूँ।
'तुम क्या काम करना चाहोगे?'
'मैं युद्ध के बारे में संस्मरण लिख सकता हूँ। बात यह है कि सभी मार्शल मेरे दोस्त थे। उनमें से कुछ को तो मैंने मौत के मुँह से भी बचाया।'
मेरे कई अध्यापक रहे, पहला, दूसरा, तीसरा। लेकिन अपना असली पहला अध्यापक मैं दयालु रूसी अध्यापिका वेरा वसील्येव्ना को ही मानता हूँ। उन्होंने मुझे रूसी भाषा के सौंदर्य और रूसी साहित्य की महानता से अवगत किया।
अवार अध्यापक - प्रशिक्षण कालेज के प्राध्यापक और मास्को के साहित्य-संस्थान के प्रोफेसरगण!
मनसूर हैदरबेकोव और पोस्पेलोव, मुहम्मद हैदारोव और गालीत्स्की, शांबीनागो, रादत्सीग, असमूस, फोख्त, बोंदी, रेफोरमात्स्की, वसीली सेम्योनोविच सिदोरीन... बेशक यह सही है कि परीक्षाओं के समय मैंने आपके प्रश्नों के अच्छी तरह से उत्तर नहीं दिए, क्योंकि तब रूसी भाषा भी अच्छा तरह से नहीं जानता था। किंतु मुझे ऐसा लगता है कि मेरी परीक्षाएँ अभी तक समाप्त नहीं हुईं। कभी-कभी मुझे लगता है कि मानो मैं अपने लिए अभी भी कठिन परीक्षाएँ दे रहा हूँ, उनमें असफल हो रहा हूँ और फिर से पहले वर्ष का ही विद्यार्थी बना हुआ हूँ।
वास्तव में तो जब कभी मेरी कोई नई पुस्तक निकलती है तो मैं कामना करता रहता हूँ कि शायद वह मेरे अध्यापकों के हाथों में पहुँच जाए और वे उसे पढ़ें। उस समय मैं भाषाशास्त्र या प्राचीन यूनानी साहित्य की परीक्षाओं की तुलना में भी अपने दिल में कहीं ज्यादा घबराहट महसूस करता हूँ। हो सकता है कि मेरे किन्हीं अध्यापकों को मेरी वह पुस्तक पसंद न आए, उसे अंत तक पढ़े बिना ही वे उसे एक तरफ रख दें और यह कहें - 'रसूल ने अच्छी किताब नहीं लिखी, लगता है कि जल्दबाजी की है।' यही तो मेरी सबसे कठिन परीक्षा है।
दागिस्तान! तुम्हारे भी भिन्न-भिन्न अध्यापक थे। तुम्हारे भी हसन और म्यूनखगाउजन थे। उनमें से कुछ तो उसमें विश्वास नहीं रखते थे जिसकी शिक्षा देते थे, कुछ धोखा देते थे, कुछ मार्ग से भटक जाते थे। लेकिन बाद में एक महान और न्यायप्रिय, साहसी और दयालु अध्यापक आया। यह अध्यापक था - रूस, सोवियत संघ, अक्तूबर समाजवादी क्रांति। नई जिंदगी, नया स्कूल, नई किताब।
पहले तो पूरे गाँव में केवल एक मुल्ला ही खत या किताब पढ़ सकता था। अब मुल्ला को छोड़कर बाकी सभी किताबें पढ़ते हैं।
छोटी जाति का बड़ा भाग्य निकला। दागिस्तान के बारे में अभी भी किताब लिखी जा रही है। उसका न तो अंत हुआ है और न कभी होगा ही। अगर इस स्वर्णिम और शाश्वत पुस्तक में मेरे द्वारा लिखा हुआ एक पृष्ठ भी होगा तो मैं अपने को सौभाग्यशाली मानूँगा। मैं अपना गीत गा रहा हूँ, तुम इसे स्वीकार करो, दागिस्तान!
मिला मुझे जो कुछ लोगों से, दागिस्तान!
है समान अधिकार तुम्हारा भी उस पर,
अपने सारे पदक, सभी तमगे अपने
मीत, सजाऊँ तुम पर, चमकें श्रृंग-शिखर।
स्तुति-गान मैं तुमको, अपने भेंट करूँ
मैं अपने शब्दों से कविताएँ बुनकर,
मुझे वनों का सिर्फ लबादा अपना दो
हिम से ढकी चोटियों की टोपी सुंदर।
तो बस, अब लेखनी रखता हूँ। हमारी जुदाई का समय आ गया। अगर अल्लाह ने चाहा तो फिर मिलेंगे।