मेरा दाग़िस्तान : खंड-एक (रूसी उपन्यास) : रसूल हमज़ातोव - अनुवाद : डॉ. मदनलाल मधु

Mera Daghistan : Khand-1 (Russian Novel in Hindi): Rasul Gamzatov

‘मेरा दागिस्तान’ और उसके लेखक : मेरा दाग़िस्तान

दागिस्‍तानी पहाड़ों की गहराई में, विस्‍तृत वन-प्रांगन के छोर पर त्‍सादा नामक एक अवार पहाड़ी गाँव है। इस गाँव में एक घर है, जो अपने दाएँ-बाएँ के पड़ोसी घरों से किसी प्रकार भिन्‍न नहीं है। उसकी वैसी ही समतल छत है, छत पर वैसा ही छत को समतल करने के लिए पत्‍थर का रोलर है, वैसा ही फाटक है और वैसा ही छोटा-सा आँगन है। मगर इसी छोटे-से पहाड़ी घर, इसी कठोर, यानी पाषाणी नीड़ से दो कवियों के नाम उड़कर संसार में बहुत दूर-दूर तक जा पहुँचे। पहला नाम है दागिस्‍तान के जन-कवि हमजात त्‍सादासा का और दूसरा दागिस्‍तान के जन-कवि रसूल हमजातोव का।

इसमें आश्‍चर्य की तो कोई बात नहीं कि बुजुर्ग पहाड़ी कवि के परिवार में पनपते हुए लड़के को कविता से प्‍यार हो गया और वह खुद भी कविता रचने लगा। मगर कवि बन जानेवाले कवि के बेटे ने अपनी ख्‍याति की सीमा बहुत दूर-दूर तक फैला दी। बुजुर्ग हमजात ने अपने जीवन में जो सबसे लंबी यात्रा की, वह थी दागिस्‍तान से मास्‍को तक। मगर रसूल हमजातोव, जो बहुजातीय सोवियत संस्‍कृति के प्रमुख प्रतिनिधि हैं, दुनिया के लगभग सभी देशों में हो आए हैं।

यों तो रसूल हमजातोव की जीवनी में कोई खास बात नहीं है। दागिस्‍तानी स्‍वायत्‍त सोवियत समाजवादी जनतंत्र के त्‍सादा गाँव में 1923 में रसूल हमजातोव का जन्‍म हुआ। आरानी के हाई स्‍कूल और बूयनाक्स्क के अवार अध्‍यापक प्रशिक्षण विद्यालय में शिक्षा पाई। वे अध्‍यापक रहे, अवार थियेटर और जनतंत्रीय समाचार-पत्र के संपादक मंडल में उन्‍होंने काम किया। रसूल हमजातोव की पहली कविता 1937 में प्रकाशित हुई।

मास्‍को के साहित्‍य-संस्‍थान में रसूल हमजातोव के प्रवेश को उनके सृजनात्‍मक जीवन का नव युगारंभ मानना चाहिए। वहाँ उन्‍हें न केवल मास्‍को के प्रमुखतम कवि अध्‍यापकों के रूप में मिले, बल्कि मित्र, कला-पथ के संगी-साथी भी प्राप्‍त हुए। इसी संस्‍थान में उन्‍होंने अपने पहले अनुवादक पाए या शायद यह कहना अधिक सही होगा कि अनुवादकों ने उन्‍हें पा लिया। यहीं उनकी अवार कविताएँ रूसी काव्‍य में भी एक तथ्‍य बनीं।

तब से अब तक मखचकला में मातृभाषा में और मास्‍को में रूसी में उनके लगभग चालीस कविता-संग्रह निकल चुके हैं। अब बहुत दूर-दूर तक उनका नाम रोशन हो चुका है, वे लेलिन पुरस्‍कार और दागिस्‍तान के जन-कवि की उपाधि से सम्‍मानित हो चुके हैं और दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी कविताएँ अनूदित हो चुकी हैं।

हाँ, अब रसूल हमजातोव ने पहली गद्य-पुस्‍तक लिखी है। पहले से यह माना जा सकता था कि इस क्षेत्र में भी रसूल की प्रतिभा अपनी मौलिकता लिए हुए ही सामने आएगी और उनका गद्य सामान्‍य उपन्‍यास या लघु-उपन्‍यास जैसा नहीं होगा। वास्‍तव में ऐसा ही हुआ। फिर भी इस गद्य की विशिष्‍टताओं का कुछ स्‍पष्‍टीकरण जरूरी है।

रसूल हमजातोव तो मानो अपनी भावी पुस्‍तक की प्रस्‍तावना लिखते हैं। वे बताते हैं कि यह पुस्‍तक कैसी होनी चाहिए, किस विधा में लिखी जाए, इसका क्‍या शीर्षक होगा, इसकी भाषा-शैली, रूपक-प्रणाली और विषय-वस्‍तु क्‍या हो। रसूल हमजातोव की यह पुस्‍तक पढ़कर कोई भी पाठक निश्‍चय ही यह पूछ सकता है - 'यह तो प्रस्‍तावना हुई और स्‍वयं पुस्‍तक कहाँ है?' मगर पाठक का ऐसा पूछना ठीक नहीं होगा। बहुत आसानी से ही यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि भावी पुस्‍तक के बारे में चिंतन वास्‍तव में लिखने का एक ढंग ही है। धीरे-धीरे और अनजाने ही पुस्‍तक की 'प्रस्‍तावना' मातृभूमि, उसे प्‍यार करनेवाले बेटे के रवैये, कवि के दिलचस्‍प और कठिन कर्तव्‍य, उससे कुछ कम कठिन और कम दिलचस्‍प न होनेवाले नागरिक के कर्तव्‍य से संबंधित अपने में संपूर्ण और सार-गर्भित पुस्‍तक का रूप ले लेती है।

पुस्‍तक आत्‍म-कथात्‍मक है। कहीं-कहीं तो वह आत्‍म-स्‍वीकृति का रूप ले लेती है। उसमें निश्‍छलता है, काव्‍यात्‍मक सरसता है। इसमें जहाँ-तहाँ लेखक का प्‍यारा-प्‍यारा मजाक, मैं तो कहूँगा, शरारतीपन बिखरा हुआ है। संक्षेप में, वह बिल्‍कुल वैसी ही है, जैसा उसका लेखक। इस पुस्‍तक के बारे में केंद्रीय समाचार-पत्र में प्रकाशित एक लेख को बहुत उचित ही 'जीवन की प्रस्‍तावना' शीर्षक दिया गया था।

'मेरा दागिस्‍तान' पुस्‍तक में पाठक को अनेक अवार कहावतें और मुहावरे मिलेंगे, खुशी से उमगते या गम में डूबे हुए बहुत-से ऐसे किस्‍से मिलेंगे, जिनका लेखक को या तो स्‍वयं अनुभव हुआ, या जो जन-स्‍मृति के भंडार में सुरक्षित हैं, और इसी भाँति जीवन और कला के बारे में वे परिपक्‍व चिंतन भी पा सकेंगे। इस किताब में भलाई की बहुत-सी बातें हैं, जनसाधारण और मातृभूमि के प्रति प्रेम से ओत-प्रोत है यह।

पाठकों को संबोधित करते हुए रसूल हमजातोव ने अपने कृतित्‍व के बारे में यह लिखा है, 'ऐसे भी लोग हैं, जिनकी अतीत-संबंधी स्‍मृतियाँ बड़ी दुखद और कटु हैं। ऐसे लोग वर्तमान और भविष्‍य की भी इसी रूप में कल्‍पना करते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जिनकी अतीत-संबंधी स्‍मृतियाँ बड़ी मधुर और सुखद हैं। उनकी कल्‍पना में वर्तमान और भविष्‍य भी मधुर होते हैं। तीसरी किस्‍म के लोगों की स्‍मृतियाँ सुखद और दु:खद, मधुर और कटु भी होती हैं। वर्तमान और भविष्‍य-संबंधी उनके विचारों में विभिन्‍न भावनाएँ, स्‍वर-लहरियाँ और रंग घुले-मिले रहते हैं। मैं ऐसे ही लोगों में से हूँ।

'मेरी राहें हमेशा ही सीधी-सादी नहीं रहीं, हमेशा ही मेरे वर्ष चिंतामुक्‍त नहीं रहे। मेरे समकालीन, तुम्‍हारी ही तरह मैं भी अपने युग की हलचल, दुनिया की उथल-पुथल और बड़ी महत्‍वपूर्ण घटनाओं के भँवर में रहा हूँ। हर ऐसी घटना लेखक के दिल को मानो झकझोर डालती है। लेखक किसी घटना की खुशी और गम के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। वे बर्फ पर उभरनेवाले पद-चिह्न नहीं, बल्कि पत्‍थर पर की गई नक्‍काशी होते हैं। अब मैं अतीत के बारे में अपनी सारी जानकारी और भविष्‍य के बारे में अपने सभी ख्‍यालों को एक तार में पिरोकर तुम्‍हारे पास आ रहा हूँ, तुम्‍हारे दरवाजे पर दस्‍तक देता हूँ और कहता हूँ - मेरे अच्‍छे दोस्‍त, यह मैं हूँ। मुझे अंदर आने दो।'

- ब्‍लादीमिर सोलोऊखिन

भूमिका के स्‍थान पर और भूमिकाओं के बारे में : मेरा दाग़िस्तान

मेरे घर की अगर उपेक्षा, कर तू जाए राही,

तुझ पर बादल-बिजली टूटें, तुझ पर बादल-बिजली!

मेरे घर से अगर दुखी मन, हो तू जाए राही,

मुझ पर बादल-बिजली टूटें, मुझ पर बादल-बिजली!

द्वार पर आलेख

अगर तुम अतीत पर पिस्‍तौल से गोली चलाओगे,

तो भविष्‍य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा।

अबूतालिब

जब आँख खुलती है,

तो बिस्‍तर से ऐसे लपककर मत उठो

मानो तुम्‍हें किसी ने डंक मार दिया हो।

तुमने जो कुछ सपने में देखा है,

पहले उस पर विचार कर लो।


मेरे ख्‍याल में तो यार-दोस्‍तों को कोई दिलचस्‍प किस्‍सा सुनाने या नया उपदेश देने के पहले खुद अल्‍लाह भी सिगरेट जलाता होगा, लंबे-लंबे कश खींचता और कुछ सोचता-विचारता होगा।

हवाई जहाज उड़ने से पहले देर तक शोर मचाता है, फिर सारा हवाई अड्डा लाँघकर उसे उड़ान भरने के मार्ग पर लाया जाता है, इसके बाद वह और भी जोर से शोर मचाता है, फिर खूब तेजी से दौड़ता है और यह सब करने के बाद ही उड़ता है।

हेलीकाप्‍टर दौड़ तो नहीं लगाता, मगर जमीन से ऊपर उठने के पहले वह भी देर तक शोर मचाता है, गड़गड़ाता है और तनावपूर्ण कँपकँपाहट के साथ देर तक खूब काँपता है।

केवल पहाड़ी उकाब ही चट्टान से एकबारगी आसमान में उड़ जाता है और आसानी से अधिकाधिक ऊपर चढ़ता हुआ छोटे-से बिंदु में बदल जाता है।

हर अच्‍छी किताब का ऐसा ही आरंभ होना चाहिए, लंबी-लंबी और ऊबभरी भूमिका के बिना। जाहिर है कि पास से भागे जाते साँड़ को अगर सींगों से पकड़कर हम काबू नहीं कर पाते, तो पूँछ से तो वह काबू में आने से रहा।

लीजिए, गायक ने पंदूर (तीन तारा) हाथ में लिया। मुझे मालूम है कि उसकी आवाज सुरीली है। मगर किसलिए वह गीत शुरू करने के पहले इतनी देर तक यों ही तारों को झनझनाता रहता है? कंसर्ट से पहले वक्‍तव्‍य, नाटक के पहले भाषण और उन ऊबभरी नसीहतों के बारे में भी मैं ऐसा ही कहूँगा, जो ससुर अपने दामाद को मेज पर बुलाकर फौरन जाम भरने के बजाय देता रहता है।

एक बार मुरीद अपनी-अपनी तलवारों की डींग हाँकने लगे। उन्‍होंने यह कहा कि कैसे बढ़िया इस्‍पात की की बनी हुई हैं उनकी तलवारें और कुरान की कैसी बढ़िया-बढ़िया कविताएँ उन पर खुदी हुई हैं। महान शामिल का नायब हाजी-मुराद भी मुरीदों के बीच उपस्थित था। वह बोला -

'चिनारों की ठंडी छाया में तुम किसलिए यह बहस कर रहे हो? कल पौ फटते ही लड़ाई होगी और तब तुम्‍हारी तलवारें खुद ही यह फैसला कर देंगी कि उनमें से कौन-सी बेहतर है।'

फिर भी मेरा यह ख्‍याल है कि अपनी कहानी शुरू करने से पहले अल्‍लाह मजे से सिगरेट के कश लगाता है।

फिर भी हमारे पहाड़ों में यह प्रथा है कि घुड़सवार पहाड़ी घर की दहलीज के पास ही घोड़े पर सवार नहीं होता। उसे घोड़े को गाँव से बाहर ले जाना होता है। शायद इसलिए ऐसा करना जरूरी होता है कि वह एक बार फिर इस बात पर गौर कर ले कि वह यहाँ क्‍या छोड़े जा रहा है औरे रास्‍ते में उसके साथ क्‍या बीतनेवाली है। काम-काज चाहे उसे कितनी ही जल्‍दी करने को मजबूर क्‍यों न करे, वह इतमीनान से सोचते हुए अपने घोड़े को सारे गाँव के छोर तक ले जाता है और तभी रकाबों को छुए बिना ही उछलकर जीन पर जा बैठता है, आगे को झुकता है और धूल के बादल में खो जाता है।

तो इसी तरह अपनी किताब के जीन पर सवार होने के पहले मैं सोचता हुआ धीरे-धीरे चल रहा हूँ। मैं घोड़े की लगाम थामे हुए उसके साथ-साथ जा रहा हूँ। मैं सोच रहा हूँ, मुँह से शब्‍द निकालने में देर कर रहा हूँ।

हकलानेवाले की जबान से ही नहीं, बल्कि ऐसे व्‍यक्ति की जबान से भी शब्‍द रुक-रुककर निकल सकते हैं, जो अधिक उचित, अधिक आवश्‍यक और बुद्धिमत्‍तापूर्ण शब्‍दों की खोज करता है। अपनी बुद्धिमत्‍ता से आश्‍चर्यचकित करने की तो मैं आशा नहीं करता, मगर हकला भी नहीं हूँ। मैं शब्‍द खोज रहा हूँ।

अबूतालिब ने कहा है कि पुस्‍तक की भूमिका तो वही तिनका है, जो अंधविश्‍वासी पहाड़िन पति का भेड़ का खाल का कोट ठीक करते हुए दाँतों तले दबाए रहती है। अगर वह तिनका दाँतों तले न दबाए रखे, तो जैसा कि माना जाता है, भेड़ की खाल का कोट कफन में बदल सकता है।

अबूतालिब ने यह भी कहा है कि मैं उस आदमी के समान हूँ, जो अँधेरे में ऐसे दरवाजे को खोज रहा है, जिसमें दाखिल हुआ जा सके, या उस आदमी के समान हूँ, जिसे दरवाजा तो मिल गया है, मगर जिसे यह विश्‍वास नहीं कि वह उसमें दाखिल हो सकता है या उसे उसमें दाखिल होना भी चाहिए या नहीं। वह दरवाजे पर दस्‍तक देता है - ठक, ठक।

'ए घरवालो, अगर तुम मांस उबालना चाहते हो, तो तुम्‍हारे उठने का वक्‍त हो गया!'

'ए घरवालो, अगर तुम्‍हें जई पीसनी है, तो मजे से सोए रहो, जल्‍दी करने की जरूरत नहीं है।'

'ऐ घरवालो, अगर तुम बूजा (एक तरह की बियर) पीने का इरादा रखते हो, तो पड़ोसी को बुलाना मत भूल जाना!'

ठक-ठक, ठक-ठक!

'तो क्‍या मैं अंदर आ जाऊँ, या मेरे बिना ही तुम्‍हारा काम चल जाएगा?'

बोलना सीखने के लिए आदमी को दो साल की जरूरत होती है, मगर यह सीखने के लिए कि जबान को बस में कैसे रखा जाए, साठ सालों की आवश्‍यकता होती है।

मैं न तो दो साल का हूँ और न साठ साल का। मैं दोनों के बीच में हूँ। फिर भी मैं शायद दूसरे बिंदु के निकट हूँ, क्‍योंकि मुझे अनकहे शब्‍द कहे जा चुके सभी शब्‍दों से अधिक प्‍यारे हैं।

वह पुस्‍तक जो मैंने अभी तक नहीं लिखी, लिखी जा जुकी सभी पुस्‍तकों से अधिक प्रिय है। वह सबसे ज्‍यादा प्‍यारी, वांछित और कठिन है।

नई किताब - यह तो वह दर्रा है, जिसमें मैं कभी नहीं गया, मगर जो मेरे सामने खुल चुका है, मुझे अपनी धुँधली दूरी की तरफ खींचता है। नई पुस्‍तक - यह तो वह घोड़ा है, जिस पर मैंने अब तक कभी सवारी नहीं की, वह खंजर है, जिसे मैंने मन से नहीं निकाला।

पहाड़ी लोगों में कहा जाता है, 'जरूरत के बिना खंजर को बाहर नहीं निकालो। अगर निकाल लिया है, तो मारो! ऐसे मारो कि घुड़सवार और घोड़ा, दोनों ही फौरन दूसरी दुनिया में पहुँच जाएँ।'

तुम्‍हारा कहना ठीक है, पहाड़ी लोगो!

फिर भी खंजर निकालने से पहले आपको इस बात का यकीन होना चाहिए कि उसकी धार खूब तेज है।

मेरी पुस्‍तक, बहुत सालों तक तुम मेरी आत्‍मा में जीती रही हो! तुम उस औरत, दिल की उस रानी के समान हो, जिसे उसका प्रेमी दूर से देखा करता है, जिसके सपने देखता है, मगर जिसे छूने का उसे सौभाग्‍य नहीं प्राप्‍त हुआ। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि वह बिल्‍कुल नजदीक ही खड़ी रही है - बस, हाथ बढ़ाने की ही जरूरत थी, मगर मेरी हिम्‍मत न हुई, मैं झेंप गया, मेरे मुँह पर लाली दौड़ गई और मैं दूर हट गया।

पर अब यह सब खत्‍म हो चुका है। मैंने साहसपूर्वक उसके पास जाने और उसका हाथ अपने हाथ में लेने का निर्णय कर लिया है। झेंपू प्रेमी की जगह मैं साहसी और अनुभवी मर्द बनना चाहता हूँ। मैं घोड़े पर सवार होता हूँ, तीन बार चाबुक सटकारता हूँ - जो भी होना हो, सो हो!

फिर भी मैं अपने कड़वे देसी तंबाकू को कागज पर डालता हूँ, इतमीनान से सिगरेट लपेटता हूँ। अगर सिगरेट लपेटने में ही इतना मजा है, तो कश लगाने में कितना मजा होगा!

मेरी पुस्‍तक, तुम्‍हें शुरू करने से पहले मैं यह बताना चाहता हूँ कि कैसे तुमने मेरी आत्‍मा में रूप धारण किया। कैसे मैंने तुम्‍हारा नाम चुना। किसलिए मैं तुम्‍हें लिखना चाहता हूँ। जीवन में मेरे क्‍या उद्देश्‍य-लक्ष्‍य हैं।

मेहमान को मैं रसोईघर में जाने देता हूँ, जहाँ अभी भेड़ का धड़ साफ किया जा रहा है और अभी सीख-कबाब की नहीं, लहू और गर्म मांस की गंध आ रही है।

दोस्‍तों को मैं अपने पावन कार्य-कक्ष में ले जाता हूँ, जहाँ मेरी पांडुलिपियाँ रखी हैं, और मैं उन्‍हें उनको पढ़ने की इजाजत देता हूँ।

मेरे पिता जी चाहे यह कहा करते थे कि जो कोई पराई पांडुलिपियाँ पढ़ता है, वह दूसरों की जेब में हाथ डालनेवाले के समान है।

पिता जी यह भी कहा करते थे कि भूमिका थियेटर में तुम्‍हारे सामने बैठे चौड़े-चकले कंधों और साथ ही बड़ी टोपीवाले आदमी की याद दिलाती है। अगर वह टिककर बैठा रहे, दाएँ-बाएँ न हिले, तो भी गनीमत समझिए। दर्शक के नाते ऐसे आदमी से मुझे बड़ी असुविधा और आखिर झल्‍लाहट होने लगती है।

नोटबुक से। मुझ मास्‍को या रूस के दूसरे शहरों में अक्‍सर कवि सम्‍मेलनों में हिस्‍सा लेना पड़ता है। हॉल में बैठे लोग अवार भाषा नहीं जानते होते। शुरू में अशुद्ध उच्‍चारण के साथ में जैसे-तैसे रूसी भाषा में अपने बार में कुछ बताता हूँ। इसके बाद मेरे दोस्‍त, रूसी कवि, मेरी कविताओं का अनुवाद सुनाते हैं। मगर उनके शुरू करने के पहले आमतौर पर मुझसे मेरी मातृभाषा में एक कविता सुनाने का अनुरोध किया जाता है, 'हम अवार भाषा और कविता के संगीत का रस लेना चाहते हैं।' मैं सुनाता हूँ, मगर मेरा कविता-पाठ गाना शुरू होने के पहले पंदूर की झनझनाहट के सिवा और कुछ नहीं होता।

तो क्‍या मेरी किताब की भूमिका भी ऐसी ही नहीं है ?

नोटबुक से । मैं जब विद्यार्थी था, तो जाड़े का ओवरकोट खरीदने के लिए पिता जी ने मुझे पैसे भेजे। पैसे तो मैंने खर्च कर डाले और ओवरकोट नहीं खरीदा। जाड़े की छुट्टियों में वही हल्‍का-सा ओवरकोट पहने हुए, जिसे गर्मियों में पहनकर मैं मास्‍को पढ़ने आया था, दागिस्‍तान जाना पड़ा।

घर पर पिता जी के सामने मैं अपनी सफाई पेश करने लगा, तुरत-फुरत एक से एक बेतुका और बेसिर-पैर का क्रिस्‍सा गढ़कर सुनाने लगा। जब मैं अपने ही ताने-बाने में पूरी तरह उलझ गया, तो पिता जी ने मुझे टोकते हुए कहा -

'रुको, रसूल। मैं तुमसे दो सवाल पूछना चाहता हूँ।'

'पूछिए।'

'ओवरकोट खरीदा?'

'नहीं।'

'पैसे खर्च कर दिए!'

'हाँ।'

'बस, अब सारी बात साफ हो गई। अगर दो लफ्जों में ही मामले का निचोड़ निकल सकता है, तो किसलिए तुमने इतने बेकार शब्‍द कहे, इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका बाँधी?'

मेरे पिता जी ने मुझे ऐसी शिक्षा दी थी।

फिर भी बच्‍चा पैदा होते ही नहीं बोलने लगता। शब्‍द कहने से पहले वह अपनी तुतली भाषा में कुछ ऐसा बोलता है, जो किसी के पल्‍ले नहीं पड़ता। ऐसा भी होता है कि जब वह दर्द से रोता-चिल्‍लाता है, तो माँ के लिए भी यह जानना मुश्किल हो जाता है कि उसे किस जगह पर दर्द हो रहा है।

क्‍या कवि की आत्‍मा बच्‍चे की आत्‍मा जैसी नहीं होती ?

पिता जी कहा करते थे कि लोग जब पहाड़ों से भेड़ों के रेवड़ के आने का इंतजार करते हैं, तो सबसे पहले उन्‍हें हमेशा आगे-आगे आनेवाले बकरे के सींग दिखाई देते हैं, फिर पूरा बकरा नजर आता है और इसके बाद ही वे रेवड़ को देख पाते हैं।

लोग जब शादी के या मातमी जुलूस की राह देखते हैं, तो पहले तो उन्‍हें हरकारा दिखाई देता है।

गाँव के लोग जब हरकारे के इंतजार में होते हैं, तो पहले तो उन्‍हें धूल का बादल, फिर घोड़ा और उसके बाद ही घुड़सवार नजर आता है।

लोग जब शिकारी के लौटने की प्रतीक्षा में होते हैं, तो पहले तो उन्‍हें उसका कुत्‍ता ही दिखाई देता है।

इस पुस्तक का कैसे जन्म हुआ और यह कहाँ लिखी गई : मेरा दाग़िस्तान

छोटे बच्‍चे भी बड़े सपने देखते हैं।

(पालने पर आलेख)

अस्‍त्र, जिसकी केवल एक बार ही आवश्‍यकता पड़े, जीवन भर अपने साथ रखना पड़ता है। कविताएँ, जिन्‍हें जीवन भर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं।


वसंत के दिनों में वसंत का एक पक्षी किसी गाँव में उड़ता हुआ आया। लगा सोचने कि बैठकर आराम करे। एक पहाड़ी घर की चौड़ी, समतल और साफ छत पर नजर पड़ी। छत पर उसे समतल करने के लिए पत्‍थर का रोलर है। पक्षी आसमान से नीचे उतरा और रोलर पर आराम करने बैठ गया। चुस्‍त पहाड़िन पक्षी को पकड़कर घर में ले गई। पक्षी ने देखा कि घर के सभी लोग उसके साथ अच्‍छे ढंग से पेश आते हैं और इसलिए वहीं रहने लगा। उसने धुएँ से काले हुए पुराने शहतीर पर ठोंके गए नाल में अपना घोंसला बना लिया।

क्‍या मेरी किताब के बारे में भी यही बात नहीं है?

कितनी ही बार मैंने अपने काव्‍य-गगन से नीचे, गद्य के समतल मैदान पर यह ढूँढ़ते हुए नजर डाली कि कहाँ बैठकर आराम करूँ...

नहीं, इस सिलसिले में उस हवाई जहाज से तुलना करना ज्‍यादा ठीक होगा, जिसे हवाई अड्डे पर उतरना है। लीजिए, मैं चक्‍कर काटता हूँ ताकि नीचे उतरने लगूँ। मगर बुरे मौसम के कारण हवाई अड्डेवाले मुझे ऐसा करने की इजाजत नहीं देते। बहुत बड़ा चक्‍कर काटने के बजाय मैं फिर से सीधी उड़ान भरता हुआ आगे उड़ने लगता हूँ और वांछित पृथ्‍वी फिर नीचे ही रह जाती है... अनेक बार ऐसा ही हो चुका है।

तो मैंने सोचा, इसका तो यही मतलब निकलता है कि कंकरीट का मजबूत आधार मेरी किस्‍मत में नहीं लिखा है। इसका तो यही अर्थ है कि मेरे पैरों को धरती पर अविराम चलते ही जाना होगा, मेरी आँखों को निरंतर पृथ्‍वी की नई जगहों को खोजते रहना होगा, मेरे हृदय को लगातार नए गीत रचने होंगे।

जिस तरह कोई हलवाहा आसमान में तैरते दूधिया बादल या तिकोन बनाकर उड़े जाते सारसों को देखते हुए अपनी सुध-बुध भूल जाता है, मगर कुछ ही क्षण बाद इस जादू से मुक्‍त हो अधिक उत्‍साह के साथ हल चलाने लगता है, उसी तरह मैं अधूरी छोड़ी गई अपनी लंबी कविता की ओर लौटा हूँ।

हाँ, मेरी कविता, मैं अंतरिक्ष से उसकी चाहे कितनी भी तुलना क्‍यों न करूँ, मेरे लिए वह मेरी ठोस जमीन थी, मेरा खेत थी, मेरा गाढ़ा पसीना थी। अब तक गद्य को मैंने बिल्‍कुल ही नहीं लिखा था।

तो एक दिन मुझे एक पैकेट मिला। पैकेट में उस पत्रिका के संपादक का पत्र था, जिसका मैं बहुत आदर करता हूँ। वैसे, आदर तो मैं संपादक का भी बहुत करता हूँ। हाँ, संपादक ने भी अपना पत्र 'आदरणीय रसूल' शब्‍दों के साथ शुरू किया था। कुल मिलाकर, गहरी पारस्‍परिक आदर भावना सामने आई।

पत्र को जब मैंने खोला, तो वह मुझे भैंस की उस खाल का-सा प्रतीत हुआ, जिसे पहाड़ी लोग अच्‍छी तरह सुखाने के लिए अपने घर की सपाट छत पर फैला देते हैं। अच्‍छी तरह सूख चुकी भैंस की खाल को घर में ले जाने के लिए जब तह लगाई जाती है, तो वह जितनी आवाज करती है, इसी तरह उस पत्र को पढ़ते समय उसके कागजों ने भी कुछ कम सरसराहट नहीं की। सिर्फ खाल की तेज नाक में खुजली-सी पैदा करनेवाली गंध नहीं थी। पत्र से किसी भी तरह की गंध नहीं आ रही थी।

खैर, तो संपादक ने यह लिखा था, 'हमारे संपादकमंडल ने अपनी पत्रिका के अगले कुछ अंकों में दागिस्‍तान की उपलब्धियों, शुभ कार्यों और सामान्‍य श्रम दिवसों के बारे में सामग्री छापने का निर्णय किया है। यह आम मेहनतकशों, उनके साहसपूर्ण कार्यों, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं की कहानी होनी चाहिए। यह कहानी होनी चाहिए तुम्‍हारे पहाड़ी प्रदेश के उज्‍ज्‍वल 'भविष्‍य' उसकी सदियों पुरानी परंपराओं की, मगर मुख्‍यतः यह कहानी होनी चाहिए उसके भव्‍य 'वर्तमान' की। हमने तय किया है कि ऐसी कहानी तुम ही सबसे बेहतर लिख सकते हो। इसके लिए विधा तुम अपनी पसंद के अनुसार चुन सकते हो - कहानी, लेख, रेखाचित्र, कुछ लघु शब्‍द चित्र - किसी भी रूप में लिख सकते हो। सामग्री 9-10 टाइप पृष्‍ठों की ही और 20-25 दिनों में पहुँच जाए। हमें तुम्‍हारे सहयोग की पूरी आशा है और तुम्‍हें पहले से ही धन्‍यवाद देते हैं...'

कभी वह जमाना था कि लड़की की शादी करते हुए उसकी सहमति नहीं ली जाती थी। बस, शादी कर दी जाती थी। या जैसे कि आजकल कहा जाता है, शादी का तथ्‍य उसके सामने रख दिया जाता था। मगर उन वक्‍तों में भी हमारे पहाड़ों में बेटे की रजामंदी के बिना कोई उसकी शादी करने की हिम्‍मत नहीं कर सकता था। सुनने में आया है कि किसी हीदातलीवासी ने एक बार ऐसा किया था। मगर मेरा सम्‍मानित संपादक क्‍या हीदातली गाँव का रहनेवाला है? मेरे लिए उसने ही सब कुछ तय कर लिया... मगर क्‍या मैंने नौ पृष्‍ठों और बाईस दिन की अवधि में अपने दागिस्‍तान के बारे में बताने का निर्णय किया है?

अपने लिए अपमानजनक इस पत्र को मैंने झल्‍लाहट में कहीं दूर फेंक दिया। मगर कुछ दिन बाद मेरे टेलीफोन की घंटी ऐसे लगातार बजने लगी, मानो वह टेलीफोन की घंटी न होकर अंडा देनेवाली मुर्गी हो। जाहिर है कि पत्रिका के संपादकीय कार्यालय का ही यह टेलीफोन था।

'सलाम, रसूल! हमारा खत मिला?'

'हाँ।'

'सामग्री का क्‍या हुआ?'

'सामग्री... मैं काम-काज में उलझा रहा... फुरसत नहीं मिली।'

'यह तुम क्‍या कह रहे हो, रसूल! भला ऐसा कैसे हो सकता है! हमारी पत्रिका की तो लगभग दस लाख प्रतियाँ छपती हैं। विदेशों में भी उसके पाठक हैं। पर यदि तुम सचमुच ही बहुत व्‍यस्‍त हो, तो हम कोई आदमी तुम्‍हारे पास भेज देते हैं। तुम अपने कुछ विचार और तफसीलें उसे बता देना, बाकी वह सब कुछ खुद ही कर लेगा। तुम उसे पढ़कर, ठीक-ठाक करके उस पर अपने हस्‍ताक्षर कर देना। हमारे लिए तो मुख्‍य चीज तुम्‍हारा नाम है।'

'मेहमान को देखकर जो नाखुश हो, उसकी सारी हड्डियाँ टूट जाएँ। अगर कोई मेहमान के आने पर रोनी सूरत बनाए या नाक-भौंह चढ़ाए, तो उसके घर में न तो बड़े ही रहें, जो अक्‍लमंद नसीहत दे सकें और न छोटे ही रहें, जो उन नसीहतों को सुन सकें! ऐसा है मेहमानों के बारे में हम पहाड़ी लोगों का दृष्टिकोण। मगर खुदा के लिए कोई मददगार नहीं भेजिएगा। अपना साज मैं उसके बिना ही सुर में कर लूँगा। अपनी गागर का हत्‍था भी मैं खुद ही तैयार कर लूँगा। अगर पीठ पर खुजली होगी तो खुद मुझसे बेहतर तो कोई उसे नहीं खुजा सकेगा।'

बस, यहाँ हमारी बातचीत का अंत हो गया। वा सलाम, वा कलाम! मैंने एक महीने की छुट्टी ली और अपने जन्‍म-गाँव त्‍सादा चला गया।

त्‍सादा... सत्‍तर गर्म चूल्‍हे। निर्मल और ऊँचे आकाश में सत्‍तर चिमनियों से नीला धुआँ उठा करता है। काली धरती पर सफेद पहाड़ी घर हैं। गाँव, सफेद घरों के सामने हरे, समतल मैदान हैं। गाँव के पीछे चट्टानें ऊपर को उठती चली गई हैं। हमारे गाँव के ऊपर भूरी चट्टानों का ऐसा जमघट है मानो बालक नीचे, शादीवाले अहाते में झाँकने के लिए समतल छत पर इकट्ठे हुए हों।

त्‍सादा गाँव में आने पर मुझे पिता जी का वह खत याद हो आया, जो पहली बार मास्‍को देखने पर उन्‍होंने हमें लिखा था। यह समझ पाना मुश्किल था कि पिता जी ने अपने खत में किस जगह पर मजाक किया है और कहाँ संजीदगी से बात लिखी है। मास्‍को देखकर उन्‍हें बड़ी हैरानी हुई थी -

'ऐसा लगता है कि यहाँ मास्‍को में खाना पकाने के लिए आग नहीं जलाई जाती, क्‍योंकि मुझे यहाँ अपने घरों की दीवारों पर उपले पाथनेवाली औरतें नजर नहीं आतीं, घरों की छतों के ऊपर अबूतालिब की बड़ी टोपी जैसा धुआँ नहीं दिखाई देता। छत को समतल करने के लिए रोलर भी नजर नहीं आते। मास्‍कोवासी अपनी छतों पर घास सुखाते हों, ऐसा भी नहीं लगता। पर यदि घास नहीं सुखाते, तो अपनी गायों को क्‍या खिलाते हैं? सूखी टहनियों या घास का गट्ठा उठाए एक भी औरत कहीं नजर नहीं आई। न तो कभी जुरने की झनक और न खंजड़ी की ढमक ही सुनाई दी है। ऐसा लग सकता है मानो जवान लोग यहाँ शादियाँ ही नहीं करते और ब्‍याह का धूम-धड़ाका ही नहीं होता। इस अजीब शहर की गलियों-सड़कों पर मैंने कितने भी चक्‍कर क्‍यों न लगाए, कभी एक बार भी कोई भेड़ नजर नहीं आई। तो सवाल पैदा होता है कि जब कोई मेहमान आता है, तो मास्‍कोवाले क्‍या जिबह करते हैं! अगर भेड़ को जिबह करके नहीं, तो यार-दोस्‍त के आने पर वे कैसे उसकी खातिरदारी करते हैं! नहीं, ऐसी जिंदगी मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने त्‍सादा गाँव में ही रहना चाहता हूँ, जहाँ बीवी से यह कहकर कि वह कुछ ज्‍यादा लहसुन डालकर खीनकाल बनाए, उन्‍हें जी भरकर खाया जा सकता है...'

मेरे पिता जी ने अपने जन्‍म-गाँव के मुकाबले में मास्‍को में और भी बहुत-सी खामियाँ खोज निकालीं। जाहिर है कि जब उन्‍होंने इस बात की हैरानी जाहिर की थी कि मास्‍को के घरों पर उपले नहीं पाथे हुए थे, तो मजाक किया था, मगर जब बड़े शहर के मुकाबले में अपने जन्‍म गाँव को तरजीह दी थी, तो उसमें मजाक नहीं था। वे अपने त्‍सादा को प्‍यार करते थे और उसके मुकाबले में दुनिया की सभी राजधानियों को ठुकरा देते।

प्‍यारे त्‍सादा! तो लो उस बहुत बड़ी दुनिया से मैं तुम्‍हारे पास आ गया हूँ, जिसमें मेरे पिता जी को ही इतनी ज्‍यादा खामियाँ नजर आई थीं। मैं घूम आया हूँ इस दुनिया में और बहुत-से अजूबे देखे हैं मैंने। इतनी ज्‍यादा खूबसूरती देखने को मिली कि आँखें यही तय न कर पाईं कि वे कहाँ टिकें। एक सुंदर मंदिर-मसजिद से मेरी नजर दूसरे मंदिर-मसजिद की तरफ भागती रही, एक खूबसूरत चेहरे से दूसरे खूबसूरत चेहरे की तरफ खिंचती रही। मगर मैं जानता था कि जो कुछ इस वक्‍त देख रहा हूँ, वह चाहे कितना ही खूबसूरत क्‍यों न हो, कल मुझे उससे भी ज्‍यादा खूबसूरती देखने को मिलेगी... दुनिया का तो कोई ओर-छोर ही न ठहरा।

भारत के पगोडा, मिस्र के पिरामिड, इटली के बाजीलिक मुझे माफ करें, अमरीका के राजमार्ग, पेरिस के बुलवार, इंग्‍लैंड के पार्क और स्विटजरलैंड के पहाड़ मुझे क्षमा करें, पोलैंड, जापान और रोम की औरतों से मैं माफी चाहता हूँ - मैं तुम सब पर मुग्‍ध हुआ, मगर मेरा दिल चैन से धड़कता रहा। अगर उसकी धड़कन बढ़ी भी, तो इतनी नहीं कि गला सूख जाता और सिर चकराने लगता।

पर अब जब मैंने चट्टान के दामन में बसे हुए इन सत्‍तर घरों को फिर से देखा है, तो मेरा दिल ऐसे क्‍यों उछल रहा है कि पसलियों में दर्द होने लगा है, आँखों के सामने अँधेरा छा गया है और सिर ऐसे चकराने लगा है मानो मैं बीमार या नशे में धुत्‍त होऊँ!

क्‍या दागिस्‍तान का छोटा-सा गाँव वेनिस, काहिरा या कलकत्‍ते से बढ़कर है? क्‍या लकड़ियों का गट्ठा उठाए पगडंडी पर जानेवाली अवार औरत स्‍केंडिनोविया की ऊँचे कद और सुनहरे बालोंवाली सुंदरी से बढ़कर है?

त्‍यादा! मैं तुम्‍हारे खेतों में घूम रहा हूँ और सुबह की ठंडी शबनम मेरे थके हुए पैरों को धो रही है। पहाड़ी नदियों से भी नहीं चश्‍मों के पानी से मैं अपना मुँह धोता हूँ। कहा जाता है कि अगर पीना ही है, तो चश्‍मे से पियो। यह भी कहा जाता है - मेरे पिता जी ऐसा कहा करते थे - कि मर्द केवल दो ही हालतों में घुटनों के बल खड़ा हो सकता है - चश्‍मे से पानी पीने और फूल तोड़ने के लिए। त्‍सादा, तुम मेरे लिए चश्‍मे के समान हो। मैं घुटनों के बल होकर तुमसे अपनी प्‍यास बुझाता हूँ।

मैं एक पत्‍थर देखता हूँ और उस पर मुझे मानो पारदर्शी-सी एक छाया नजर आती है। यह मैं खुद ही हूँ, जैसा कि तीस साल पहले था। पत्‍थर पर बैठा हूँ और भेड़ें चरा रहा हूँ। मेरे सिर पर झबरीली टोपी है, हाथ में लंबा डंडा और पैरों पर धूल है।

पगडंडी देखता हूँ और उस पर भी मानो पारदर्शी छाया नजर आती है। यह भी मैं ही हूँ, जैसा कि तीस साल पहले था। किसी कारण पड़ोस के गाँव में गया था। शायद पिता जी ने मुझे भेजा था।

हर कदम पर खुद अपने से ही, अपने बचपन, अपने वसंतों, अपनी बरसातों, फूलों, पतझर में झड़े हुए पत्‍तों से मेरी मुलाकात होती है।

मैं कपड़े उतारकर चमकते हुए जल-प्रपात के नीचे खड़ा हो जाता हूँ। चट्टान के आठ उभरे भागों पर से उछलता हुआ वह टूट जाता है, फिर से अपने जलकणों को एकत्रित करता है और आखिर मेरे कंधों, हाथों, और सिर से टकराकर बिखर जाता है। पेरिस के 'शाही महल' होटल का नहाने का फव्‍वारा मेरे ठंडे जल-प्रपात की तुलना में प्‍लास्टिक का तुच्‍छ खिलौना-सा लगता है।

पहाड़ी नदी की बगलवाली धारा से बहकर आनेवाला पानी गर्म पत्‍थरों के बीच दिन भर में गर्म हो जाता है। लंदन के 'मेट्रोपोल' होटल का नीला-सा गुसलखाना मेरे पहाड़ी गुसलखाने के मुकाबले में मामूली तश्‍तरी-सी प्रतीत होता है।

हाँ, मुझे बड़े शहरों में पैदल घूमना पसंद है। मगर पाँच-छह लंबी सैरों के बाद शहर जाना-पहचाना-सा महसूस होने लगता है और वहाँ लगातार घूमते रहने की इच्‍छा जाती रहती है।

मगर अपने गाँव की छोटी-सी सड़क पर मैं हजारवीं बार जा रहा हूँ, लेकिन मन नहीं भरा, उस पर जाने की इच्‍छा का अंत नहीं हुआ।

इस बार यहाँ आने पर मैं हर घर में गया। हर चूल्‍हे के पास, जहाँ आग जलती है, जहाँ अंगारे दहक रहे हैं या जहाँ कभी की राख ठंडी हो चुकी है, मैंने वक्‍त की ठंडी, सफेद राख से ढका हुआ अपना सिर झुकाया।

मैं उन पालनों के पास खड़ा रहा, जहाँ भावी पहाड़ी-पहाड़िनें हाथ-पाँव पटकते थे या जो खाली थे, मगर उनमें अभी गर्मी बाकी थी या जिनके कंबल और तकिये कभी के ठंडे हो चुके थे।

हर पालने के पास मुझे ऐसा लगा मानो मैं खुद ही उसमें लेटा हुआ हूँ और पहाड़ी पगडंडियाँ, रूस के चौड़े रास्‍ते और दूर-दराज के देशों के राजमार्ग और हवाई अड्डे, ये सब अभी आगे चलकर मेरे सामने आनेवाले हैं।

मैंने बच्‍चों के लिए लोरियाँ गाईं और वे मेरे सीधे-सरल गीत सुनकर मीठी नींद सो भी गए।

त्‍सादा के कब्रिस्‍तान में भी मैं घूमता रहा, जहाँ पुरानी कब्रों के करीब ही, जिन पर ऊँची-ऊँची घास उगी हुई थी, ऐसी नई कब्रें भी थी, जिनसे ताजा मिट्टी की गंध आ रही थी।

मातमपुरसी के लिए मैं घरों में जाकर चुपचाप बैठा रहा, शादियों में खूब खुशी से नाचा। बहुत-से ऐसे शब्‍द और किस्‍से सुने, जो अब तक नहीं सुन पाया था। बहुत कुछ ऐसा, जो मैं कभी जानता था और भूल गया था, अब मुझे फिर से याद हो आया, स्‍मृति की अतल और अँधेरी गहराइयों में से उभरकर ऊपर आ गया।

नया मैंने अपनी आँखों से देखा और पुराने की चर्चा सुनकर उसे याद किया और मेरे विचारों ने बड़े तकले के गिर्द लिपटे हुए रंग-बिरंगे धागों का-सा रूप लिया। मैंने मन-ही-मन उस बहुरंगे कालीन की कल्‍पना की, जो इन धागों से बुना जा सकता है।

कल तक लड़का था, नीड़ों से, पक्षी पकड़ा करता था यारों को मैं संग लेकर, नीली-नीली आँखोंवाला, प्‍यार उमड़कर जब आया क्षण में बालिग हुआ मगर। कल तक मान रहा था खुद को, वयस्‍क, बहुत समझा, सुलझा मैं तो मानो आजीवन, आया प्‍यार, और जब आकर, वह धीरे-से मुस्‍काया पुनः हुआ लड़के-सा मन।

हाँ, मेरी लंबी प्रणय-कविता अधूरी ही है। प्रेमी और प्र‍ेमिका। प्रेमी-यह तो मैं हूँ। मगर मेरी मुख्‍य नायिका है - मेरा प्‍यार। इस कविता को पूरा करना चाहिए। मगर मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे नाम अभी-अभी एक चिंताजनक तार आ गया है और इसलिए मुझे फौरन हवाई अड्डे की तरफ भागना चाहिए।

या ऐसा भी होता है कि पहाड़िन जब तड़के ही चूल्‍हे में आग जलाती है, तो पिछले दिन का बचा हुआ खाना गर्म करना चाहती है, जो परिवार के सभी लोगों के लिए भरपेट खाने को काफी होगा। मगर अचानक ही दहलीज पर मेहमान आ खड़ा होता है। अब पिछले दिन के खाने का पतीला आग पर से उतारना और ताजा खाना तैयार करना जरूरी हो जाता है।

या ऐसा भी होता है कि शादी के वक्‍त युवाजन अपने साथी और हमउम्र दूल्‍हे के करीब बैठ जाते हैं, मगर अचानक उन्‍हें उठना और स्‍थान खाली करना पड़ता है, क्‍योंकि कमरे में उनसे बड़ी उम्र के लोग आ जाते हैं।

या ऐसा भी होता है कि बैठक में बुजुर्ग जमा होते हैं और नजदीक ही बच्‍चे भी खेलते होते हैं। अचानक बच्‍चों को बैठक से बाहर भेज दिया जाता है, क्‍योंकि बुजुर्गों को आपस में कोई जरूरी सलाह-मशविरा करना होता है।

कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मैं शिकारी हूँ, मछुआ हूँ, घुड़सवार हूँ : मैं ख्‍यालों का शिकार करता हूँ, उन्‍हें फाँसता हूँ, उन पर जीन कसता हूँ और उन्‍हें एड़ लगाता हूँ। मगर कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं हिरन हूँ, सामन मछली हूँ, घोड़ा हूँ और विचार, चिंतन, भावनाएँ मुझे खोजती हैं, मुझे फाँसती है, मुझ पर जीन कसती हैं और मेरा संचालन करती हैं।

हाँ, भावनाएँ और विचार ऐसे ही आते हैं जैसे पहाड़ों में बिन बुलाए और सूचना दिए बिना मेहमान आता है। मेहमान की तरह न तो उनसे छिपा जा सकता है, न बचकर कहीं भागना ही मुमकिन है।

हमारे यहाँ पहाड़ों में छोटे या बड़े, अधिक या कम महत्‍व रखनेवाले मेहमान नहीं होते। सबसे छोटा मेहमान हमारे लिए महत्‍व रखता है, क्‍योंकि वह मेहमान है। सबसे छोटा मेहमान सबसे बुजुर्ग गृह-स्‍वामी से भी अधिक सम्‍मानित हो जाता है, यह पूछे बिना ही कि वह किस इलाके का रहनेवाला है, हम दहलीज पर ही मेहमान का स्‍वागत करते हैं, उसे आग के करीब आगेवाली जगह पर ले जाते हैं और गद्दी पर बैठाते हैं।

पहाड़ों में मेहमान हमेशा अप्रत्‍याशित ही आता है। मगर वह कभी भी अप्रत्‍याशित नहीं होता, उसके आने से हमें कभी हैरानी नहीं होती, क्‍योंकि हमें हमेशा, हर दिन और हर घड़ी उसका इंतजार रहता है।

इस किताब का ख्‍याल भी पहाड़ों के मेहमान की तरह ही मेरे दिमाग में आया।

या ऐसा भी होता है कि काहिली, करने-धरने को कुछ न होने के कारण कोई आदमी यह जाँचने के लिए कि पंदूर सुर में है या नहीं, उसे दीवार से उतारकर झनझनाने लगता है। मगर अचानक, बिल्‍कुल अप्रत्‍याशित ही कोई गीत दिमाग में आने लगता है, झंकार धुन का रूप लेने लगती है, सुर में बँधी ध्‍वनियाँ फैलने लगती हैं और वह आदमी गाने में ऐसे डूब जाता है कि उसे पता भी नहीं चलता कि कब रात बीत गई और कब भोर हो गया।

या ऐसा भी होता है कि नौजवान किसी छोटे-मोटे काम से पड़ोस के गाँव में जाता है और लौटता है काठी पर पीछे बैठी हुई बीवी के साथ।

प्‍यारे संपादक! आपने अपने पत्र में जो अनुरोध किया था, मैं उसे पूरा कर रहा हूँ। जल्‍द ही मैं दागिस्‍तान के बारे में किताब लिखना शुरू कर दूँगा। मगर सिर्फ इस बात की माफी चाहता हूँ कि आपने इसके लिए जितना वक्‍त दिया है, शायद उतने में इसे पूरा नहीं कर पाऊँगा। बहुत ही ज्‍यादा पगडंडियाँ मुझे लाँघनी होंगी और हमारे पहाड़ों में वे बहुत ही सँकरी और ढालू हैं।

मेरे पहाड़ बिना पालिश किए हीरों की तरह रहस्‍यपूर्ण ढंग से दूरी पर चमकते हैं। मेरे तेज घोड़े के सामने बहुत विस्‍तार है। वह आपके बताए हुए तंग दर्रे में नहीं दौड़ना चाहता।

अपने दागिस्‍तान को मैं आपके नौ-दस पृष्‍ठों में नहीं समेट सकता। हाँ, 'उपलब्धियों, शुभ कार्यों, सामान्‍य श्रम दिवसों', 'आम मेहनतकशों, उनके साहसपूर्ण कार्यों, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं', 'पहाड़ी प्रदेश के उज्‍ज्‍वल 'भविष्‍य' और उसकी सदियों पुरानी परंपराओं, मगर मुख्‍यतः उसके भव्‍य 'वर्तमान' के बारे में' भी मैं सामग्री नहीं लिख पाऊँगा।

मेरी छोटी-सी लेखनी इतना बोझ उठाने में असमर्थ है। उसकी नोक पर लगी स्‍याही की बूँद मस्‍ती में बहती बड़ी नदियों, गरजते पहाड़ी जल-प्रपातों, दुनिया की किस्‍मत और किसी एक व्‍यक्ति के भाग्‍य को अपने में नहीं समेट सकती।

बड़ा परिंदा - ज्‍यादा खून, छोटा परिंदा - थोड़ा खून। जितना बड़ा परिंदा, उतना ही खून।

कहते हैं कि संयाग से ही किसी ने गुठली फेंक दी, संयाग से ही वह हिरन के सिर पर जा गिरी और लीजिए, हिरन के शानदार सींग उग आए।

कहते हैं कि अगर दुनिया में अली न होता, तो उम्र भी न होती। अगर दुनिया में रात न होती, तो सुबह कहाँ से आती!

कहते हैं -'उकाब, कहाँ जन्‍म हुआ तुम्‍हारा?'

'तंग दर्रे में।'

'कहाँ उड़े जा रहे हो उकाब?'

'ओर-छोरहीन आकाश में।'

इस पुस्‍तक के भाव और नाम के बारे में : मेरा दाग़िस्तान

जशन और खुशियों का ही तो

इस से भास सदा होता है,

कभी-कभी पर इस में कोई

गम भी, खतरा भी सोता है।

घंटे पर आलेख

पिता वीर थे और अंत तक

थामे रहे सत्‍य का दामन,

पुत्र यहाँ पर जो सोता है

चमकेगा ऐसा ही वह बन।

सिर के ऊपर लटक रहा है

इसके वीर पिता का खंजर,

कृत्‍य सुनाए जाते उनके

इसे लोरियों में गा-गाकर।

पालने पर आलेख


पहाड़ी आदमी को दो चीजों की रक्षा करनी चाहिए - अपनी टोपी और अपने नाम की। टोपी की रक्षा वही कर सकेगा, जिसके पास टोपी के नीचे सिर है। नाम की रक्षा वह कर सकेगा, जिसके दिल में आग है।

हमारे तंग-से पहाड़ी घर की छत में गोलियों के बहुत-से निशान हैं। मेरे पिता जी के दोस्‍तों ने पिस्‍तौलों से ये गोलियाँ चलाई थीं - आसपास के पहाड़ों में रहनेवाले उकाबों को यह पता लग जाना चाहिए कि उनके एक भाई ने जन्‍म लिया है, कि दागिस्‍तान में एक उकाब और बढ़ गया है।

जाहिर है कि पिस्‍तौल चलाने, गोली छोड़ने से बेटा पैदा नहीं हो सकता। मगर बेटे के जन्‍म की घोषणा करने के लिए तो हमेशा गोली पास में होनी ही चाहिए।

जब मैं पैदा हुआ और जब मेरा नाम रखा गया, तो मेरे पिता जी के दोस्‍त ने दो गोलियाँ चलाई - एक छत में दूसरी फर्श पर।

अम्‍माँ ने मुझे बताया कि मेरा नाम कैसे रखा गया। अपने घर में मैं तीसरा बेटा था। एक लड़की यानी मेरी बहन भी थी, मगर हम तो मर्दों का, बेटों का जिक्र कर रहे हैं।

जेठे बेटे का नाम तो उसके पैदा होने के बहुत पहले ही सारा गाँव जानता था। वह इसलिए‍ कि उसे तो उसके स्‍वर्गवासी दादा का नाम दिया जाना चाहिए। गाँव के हर आदमी को यह याद था और इसलिए सभी यह कहते थे कि जल्‍दी ही हमजातोवों के घर में मुहम्‍मद पैदा होगा।

मेरे दादा के अहाते में कुत्‍ते-बिल्‍ली को छोड़कर कभी एक भी चौपाया नहीं आया था। शायद ही वे कभी कंबल ओढ़कर सोए हों, शायद ही उन्‍होंने कभी अंडरवीयर को जाना हो। दुनिया का कोई भी डॉक्‍टर इस बात की डींग नहीं मार सकता था कि उसने मेरे दादा मुहम्‍मद की डॉक्‍टरी जाँच की थी, उनके मुँह का मुआयना किया था, नब्‍ज देखी थी, कभी उन्‍हें लंबी-लंबी और कभी रुक-रुककर साँस लेने को मजबूर किया था या यह कि उनका जिस्‍म ही देखा था। इसी तरह हमारे गाँव में उनके जन्‍म और मृत्‍यु की सही तिथि भी किसी को मालूम नहीं थी। अगर एक अर्जी पर एतबार किया जाए, जो इसलिए लिखित थी कि मेरे पिता जी पर कुछ काली छाया पड़ सके, मेरे दादा मुहम्‍मद थोड़ी-सी अरबी भी जानते थे। मेरे पिता जी ने उन्‍हीं का नाम अपने जेठे बेटे, मेरे सबसे बड़े भाई को दिया।

मेरे पिता जी के एक चाचा भी थे, जिनका दूसरे लड़के के जन्‍म से कुछ ही पहले देहांत हुआ था। चाचा का नाम अखीलची था।

'लो, अखीलची ने नया जन्‍म ले लिया!' हमारे घर में जब दूसरे लड़के ने जन्‍म लिया, तो गाँववालों ने खुश होकर कहा। 'हमारे अखीलची का पुनर्जन्‍म हो गया। अगर उसके गरीब घर पर कौवा बैठे, तो मुसीबत नहीं, कोई खुशी ही लेकर आए। हमारी यह तमन्‍ना है कि लड़का वैसा ही नेक आदमी बने, जैसा वह था, जिसका नाम उसे नसीब हुआ है।'

जब मुझे जन्‍म लेना था, तो पिताजी का न तो कोई ऐसा रिश्‍तेदार था और न ही दोस्‍त, जिसकी कुछ समय पहले मृत्‍यु हुई हो या जो पराये इलाके में कहीं गुम हो गया हो और जिसका नाम मुझे दिया जा सकता हो ताकि मैं दुनिया में उसकी वैसी ही इज्‍जत बनाए रख सकूँ।

जब मेरा जन्‍म हुआ, तो पिता जी ने मेरा नाम रखने की रसम अदा करने के लिए गाँव के सबसे बाइज्‍जत लोगों को अपने घर बुलाया। वे घर में आकर बड़े इतमीनान और शान से ऐसे बैठ गए मानो सारे मुल्‍क की किस्‍मत का ही फैसला करनेवाले हों। उनके हाथों में बालखारी के कुम्‍हारों की बनाई हुई बड़ी-बड़ी तोंदवाली सुराहियाँ थीं। जाहिर है कि इन सुराहियों में फेनिल बूजा था। सिर्फ सबसे बूढे, बर्फ की तरह सफेद सिर के बालों और दाढ़ीवाले बुजुर्ग, जो पैगंबर जैसे लगते थे, के हाथ ही खाली थे।

दूसरे कमरे से बाहर आकर मेरी अम्‍माँ ने मुझे इस बुजुर्ग के हाथों में सौंप दिया। मैं बुजुर्ग के हाथों में मचलता रहा और इस बीच अम्‍माँ ने कहा -

'तुमने कभी पंदूर तो कभी खंजड़ी हाथों में लेकर मेरी शादी में गाया था। बहुत ही अच्‍छे थे तुम्‍हारे गीत। मेरे बच्‍चे को हाथों में लिए हुए इस वक्‍त तुम कौन-सा गीत गाओगे!'

'ऐ देवी! पालना झुलाते हुए उसके लिए गीत तो गाओगी तुम, तुम उसकी माँ। इसके बाद उसके लिए गाएँ परिंदे और नदियाँ। तलवारें और पिस्‍तौलें भी उसे गाने सुनाएँ। सबसे अच्‍छा गीत उसे सुनाए उसकी दुल्‍हन।'

'तो इसका नाम रख दो। तुम इस वक्‍त इसे जो नाम दो, वह मैं, इसकी माँ, सारा गाँव और सारा दागिस्‍तान सुने।'

बुजुर्ग ने मुझे छत तक ऊँचा उठाया और कहा -

'लड़की का नाम सितारे की चमक या फूल की कोमलता जैसा होना चाहिए। मर्द के नाम में तलवार की टनकार और किताबों की अक्‍लमंदी को अमली शक्‍ल मिलनी चाहिए। किताबें पढ़ते हुए बहुत नाम जाने मैंने, तलवारों की टनकार में भी बहुत नाम सुने मैंने। मेरी किताब और मेरी तलवारें मेरे कान में अब 'रसूल' नाम फुसफुसाती हैं।'

पैगंबर जैसे लगनेवाले बुजुर्ग मेरे एक कान पर झुककर 'रसूल' फुसफुसाए। फिर उनहोंने मेरे दूसरे कान पर झुककर जोर से कहा, 'रसूल!' इसके बाद उन्‍होंने मुझे रोते हुए को मेरी माँ के हाथों में सौंप दिया और उसे तथा घर में बैठे सभी लोगों को संबोधित करते हुए कहा -

'तो यह है रसूल!'

घर में बैठै लोगों ने मूक सहमति से मेरे नाम की पुष्टि की। बड़े-बूढ़ों ने बूजा पीना शुरू किया और हर कोई हाथ से मूँछों को साफ करते हुए काँखा।

हर पहाड़ी को दो चीजों की रक्षा करनी चाहिए - टोपी और नाम की। टोपी बहुत भारी हो सकती है। नाम भी। ऐसा लगता है कि दुनिया को देखे-जाने और बहुत-सी किताबें पढ़े-गुढ़े पके बालोंवाले बुजुर्ग ने मेरे नाम में कोई अर्थ और उद्देश्‍य भर दिया था।

अरबी भाषा में रसूल का मतलब है - 'दूत' या अगर इससे भी अधिक सही तौर पर कहा जाए, तो 'प्रतिनिधि'। हाँ, तो किसका दूत या प्रतिनिधि हूँ मैं?

नोटबुक से । बेल्जियम। मैं संसार के कवि-समागम में भाग ले रहा हूँ। विभिन्‍न जातियों और देशों के प्रतिनिधि यहाँ जमा हैं। हर किसी ने मंच पर आकर अपनी जनता, जनता की संस्‍कृति, कविता, और भाग्‍य की चर्चा की। कुछ ऐसे प्रतिनिधि भी थे - लंदन से आनेवाला हंगेरियाई, पेरिस से आनेवाला एस्‍तोनियाई, सान-फ्रांसिस्‍को से आनेवाला पोलैंडी... इसमें कोई कर ही क्‍या सकता है - किस्‍मत ने उन्‍हें अलग-अलग देशों, सागरों और पर्वतों, उनकी मातृभूमियों से दूर ले जाकर फेंक दिया है।

सबसे ज्‍यादा तो मुझे उस कवि ने हैरान किया, जिसने यह कहा -

'महानुभावो, आप अलग-अलग देशों से आकर यहाँ जमा हुए हैं। आप विभिन्‍न जातियों के प्रतिनिधि हैं। केवल मैं ही न तो किसी जाति और और न किसी देश का प्रतिनिधि हूँ। मैं सभी जातियों, सभी देशों का प्रतिनिधि हूँ, मैं कविता का प्रतिनिधि हूँ। हाँ, मैं कविता हूँ। मैं वह सूरज हूँ, जो सारी दुनिया को रोशनी देता है, मैं वह बारिश हूँ जो अपनी जाति का ध्‍यान किए बिना सारी पृथ्‍वी पर पानी बरसाती है, मैं वह पेड़ हूँ, जो पृथ्‍वी के हर हिस्‍से में समान रूप से फूलता-फलता है।'

वह ऐसा कहकर मंच से नीचे उतर गया। बहुतों ने तालियाँ बजाईं। मैंने सोचा, उसकी बात सही है, निश्‍चय ही हम कवि सारी दुनिया के लिए उत्‍तरदायी हैं, मगर जिसे अपने पर्वतों से प्‍यार नहीं, वह सारी पृथ्‍वी का प्रतिनिधित्‍व नहीं कर सकता। मुझे तो वह उस आदमी जैसा लगता है, जो अपना घर-घाट छोड़कर किसी दूसरी जगह चला जाए, वहाँ शादी कर ले और सास को माँ कहने लगे। मैं सासों के खिलाफ नहीं हूँ, मगर अपनी माँ को छोड़कर कोई दूसरी माँ नहीं हो सकती।

हर व्‍यक्ति को अपनी किशोरावस्‍था से ही यह समझना चाहिए कि वह अपनी जनता का प्रतिनिधि बनने के लिए इस दुनिया में आया है और उसे यह भूमिका निभाने की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर लेने को तैयार रहना चाहिए।

इनसान को नाम, टोपी और अस्‍त्र दिए जाते हैं, पालने के समय से ही उसे अपने प्‍यारे गीत सिखाए जाते हैं।

भाग्‍य मुझे कहीं भी क्‍यों न ले जा फेंके, हर जगह ही मैं अपने को उस धरती, उन पहाड़ों, उस गाँव का प्रतिनिधि अनुभव करता हूँ, जहाँ मैंने घोड़े पर जीन कसना सीखा। मैं हर जगह खुद को अपने दागिस्‍तान का विशेष संवाददाता मानता हूँ।

मगर अपने दागिस्‍तान में मैं समूची मानवजाति का विशेष संवाददाता, अपने सारे देश, यहाँ तक कि सारी दुनिया का प्रतिनिधि बनकर लौटता हूँ।

अपनी धरती के बारे में

कहना चाहा बहुत, नहीं कुछ भी कह पाया,

भरी खुरजियाँ संग लिए हूँ

हाय मुसीबत, मैं तो उनको खोल न पाया !

अपनी भाषा में दुनिया का

गाना चाहा गीत, मगर मैं गा न पाया,

लादे हूँ, सन्दूक पीठ पर

हाय मुसीबत, ताला पर न खुला-खुलाया !

पहाड़ी घर की समतल छत पर हम बैठ जाते हैं और मेरे गाँववाले मुझसे पूछने लगते हैं -

'दूर-दराज के मुल्‍कों में कही कोई हमारा हमवतन नहीं मिला?'

'दुनिया में हमारे पहाड़ों जैसे पहाड़ भी कहीं हैं?'

'अजनबी जगहों पर क्‍या तुम्‍हारा मन उदास हुआ, तुम्‍हें हमारे गाँव की याद आई?'

'दूसरे देशों में लोग हमारे बारे में जानते हैा या नहीं? उन्‍हें मालूम है कि इस दुनिया में हम भी रहते हैं?'

मैं उन्‍हें जवाब देता हूँ -

'अगर हम खुद ही ढंग से अपने को नहीं जानते, तो वे हमें कहाँ से जानेंगे। हम कुल दस लाख हैं। हम दागिस्‍तानी पहाड़ों की पथरीली मुट्ठी में मानो बंद हैं। दस लाख लोग हैं और चालीस जबानें बोलते हैं...'

'तो तुम ही हमारे बारे में बताओ - खुद हमें भी और सारी दुनिया में रहनेवाले दूसरे लोगों को भी। सदियों के दौरान खंजरों और तलवारों ने हमारी दास्‍तान लिखी है। इसे लोगों की भाषा में बदलकर लिख डालो। अगर तुम, जिसने त्‍सादा गाँव में जन्‍म लिया है, ऐसा नहीं करोगे, तो कोई दूसरा तो यह करने से रहा।

'अपने विचारों को चुने हुए घोड़ों के झुंड में एकत्रित कर लो। ऐसे झुंड में, जिसमें एक से एक तेज घोड़ा हो, घटिया घोड़ों का नाम-निशान भी न हो। तुम्‍हारे विचार डरे हुए घोड़ों या पहाड़ी बकरों के झुंड की तरह पृष्‍ठों पर सरपट दौड़ते हुए आएँ।

'अपने भावों को छिपाओ नहीं। छिपाओगे, तो बाद में भूल जाओगे कि उन्‍हें कहाँ रख दिया। कोई कंजूस भी कभी-कभी इसी तरह अपने गुप्‍त खजाने को भूल जाता और कंजूसी के कारण अपनी दौलत खो बैठता है।

'मगर अपने विचार दूसरों को भी नहीं दो। खिलौने की जगह बच्‍चे को कीमती साज तो नहीं देना चाहिए। बच्‍चा साज को या तो तोड़ देगा या खो देगा या फिर उससे अपने को जख्‍मी कर लेगा।

'अपने घोड़े की आदतों को खुद तुमसे ज्‍यादा अच्‍छी तरह और कोई नहीं जानता।'

मेरे पिता जी की पगडण्डी का क़िस्‍सा । हमारे छोटे-से त्‍सादा और बड़े खूंजह गाँव के बीच मोटर सड़क है। खूंजह हलका केंद्र है। मेरे पिता जी आम रास्‍ते से नहीं, बल्कि अपनी बनाई पगडंडी से ही हमेशा खूंजह जाते थे। उन्‍होंने ही उस पगडंडी के निशान बनाए, उसे अपने पैरों से रौंदा और हर सुबह और हर शाम वे उस पर आते-जाते थे।

अपनी पगडंडी पर वे अद्भुत फूल ढूँढ़ लेते थे। वे उनका गुलदस्‍ता तो और भी अद्भुत बनाते थे।

जाड़े में वे पगडंडी के दोनों ओर ताजा गिरी बर्फ से लोगों, घोड़ों और घुड़सवारों की मूतियाँ बनाते। त्‍सादा और खूंजह के लोग बाद में इन आकृतियों को देखने आते।

वे गुलदस्‍ते कभी के मुरझा और सूख चुके, बर्फ से बनाई गई आकृतियाँ भी कभी की पिघल चुकीं। मगर दागिस्‍तान के फूल, मगर पहाड़ी लोगों का स्‍वरूप मेरे पिता जी की कविताओं में जिंदा है।

जब मैं किशोर था और मेरे पिता जी अभी जिंदा थे, तो एक बार मुझे खूंजह जाना पड़ा। मैं बड़े रास्‍ते से हट गया और मैंने उस पगडंडी पर जाना चाहा, जो मेरे अब्‍बा ने बनाई थी। एक बुजुर्ग पहाड़ी ने मुझे देखकर रोका और बोले -

'पिता की पगडंडी पिता के लिए ही रहने दो। अपने लिए दूसरी, अपनी पगडंडी ढूँढ़ लो।'

बुजुर्ग पहाड़ी की बात मानते हुए मैं नए मार्ग की खोज में चल दिया। मेरे गीतों की पगडंडी लंबी और टेढ़ी-मेढ़ी रही, मगर अपने गुलदस्‍ते के लिए अपने फूल चुनता हुआ मैं उस पर चल रहा हूँ।

इसी पगडंडी पर चलते हुए ही पहले पहल इस किताब का ख्‍याल मेरे दिमाग में आया।

इरादा बन गया - इसका मतलब है कि बिसमिल्‍ला हो जाए। बच्‍चा तो जरूर पैदा होगा, जरूरत तो है उसे सहेजने की, ठीक वैसे ही जैसे नारी अपने गर्भ को सहेजती है और फिर प्रसव-पीड़ा सहकर, पसीने से तर-बतर होकर बच्‍चे को जन्‍म देती है। किताब भी ऐसे ही लिखी जाती है।

मगर बच्‍चे का नाम तो उसके जन्‍म से पहले ही चुना जा सकता है। अपनी किताब को मैं क्‍या नाम दूँ? फूलों से मैं उसका नाम लूँ? या सितारों से? या दूसरी बुद्धिमत्‍तापूर्ण किताबों से चुनूँ?

नहीं, अपने घोड़े पर मैं पराया जीन नहीं कसूँगा। किसी दूसरी जगह से लिया गया नाम तो केवल उपनाम या लकब ही हो सकता है, नाम नहीं।

यह तो ऐसा ही है। पर यदि हम शीर्षक की खोज में होते हैं, तो पुस्‍तक की विषय-वस्‍तु, अपने सामने रखे गए लक्ष्‍य को ही उसका आधार बनाना चाहिए। टोपी सिर के मुताबिक न कि इसके उलट, चुनी जाती है। पंदूर की लंबाई से ही उसके तारों की लंबाई तय होती है।

मेरा गाँव, मेरे पहाड़, मेरा दागिस्‍तान। बस, यही घोंसला है मेरे चिंतन, भावनाओं और कार्य-कलापों का। पंख निकलने पर इसी घोंसले से मैं उड़ा था। इसी घोंसले में मेरे सभी गीत जन्‍म लेते हैं। दागिस्‍तान - मेरा चूल्‍हा है, मेरा पालना है।

तो फिर देर तक सोचने की क्‍या जरूरत है? पहाड़ों में बेटे को अक्‍सर दादा का नाम दिया जाता है। मेरी किताब मेरा बच्‍चा होगी और मैं दागिस्‍तान का बेटा हूँ। इसका मतलब है कि उसका नाम हुआ ’’’दागिस्‍तान’’’। भला इससे अधिक उचित, अधिक सुंदर और सही कोई दूसरा नाम भी हो सकता है?

कोई राजदूत किस देश का प्रतिनिधित्‍व करता है, उसकी मोटर पर लगी झण्डी से इसका पता चलता है। मेरी किताब - मेरा देश है। उसका नाम - झण्डी है।

लेखक के विचार हर पृष्‍ठ पर, हर पंक्ति में, हर शब्‍द के लिए आपस में उलझते हैं। तो मेरे विचार भी किसी अंतरराष्ट्रीय गोष्‍ठी में कार्य-सूची से आरंभ करके लगातार शब्‍दों की हाथापाई में उलझनेवाले मंत्रियों की तरह पुस्‍तक के नाम के बारे में बहस शुरू कर रहे हैं

तो एक मंत्री ने भावी पुस्‍तक को एक शब्‍द 'दागिस्‍तान' नाम देने का सुझाव पेश किया। दूसरे मंत्री को यह नहीं रुचा। अपने सामने कागज खोलते हुए उसने एतराज किया -

'यह नाम नहीं चलेगा। ठीक नहीं रहेगा। छोटी-सी किताब को भला सारे देश का नाम कैसे दिया जा सकता है? बाप की टोपी तो बच्‍चे के सिर पर नहीं रखी जा सकती, बच्‍चे का सिर ही उसमें गायब हो जाएगा।'

'क्‍यों ठीक नहीं रहेगा?' सुझाव देनेवाले मंत्री ने उसकी बात काटी। 'चाँद जब आसमान में तैरता है और सागर या नदी की चिकनी सतह पर प्रतिबिंबित होता है, तो उसके प्रतिबिंब को भी चाँद ही कहते हैं, न कि कुछ और। इस प्रतिबिंब के लिए क्‍या कोई दूसरा नाम गढ़ने की जरूरत है? हाँ, यह सही है कि एक किस्‍से में लोमड़ी भेड़िये को चाँद का प्रतिबिंब दिखाकर उसे यह विश्‍वास दिला देती है कि वह चर्बी का टुकड़ा है और भेड़िया बेवकूफ बनकर नदी में कूद पड़ता है। मगर लोमड़ी तो जानी-मानी धोखेबाज और मक्‍कार है।'

'नहीं चलेगा। ठीक नहीं रहेगा,' दूसरा मंत्री अपनी बात पर अड़ा रहा। 'दागिस्‍तान तो सबसे पहले भौगोलिक अर्थ का सूचक है। पर्वत, नदियाँ, दर्रे, सोते, यहाँ तक कि सागर भी। मुझसे तो जब कोई 'दागिस्‍तान' कहता है, तो सबसे पहले भौगोलिक मानचित्र ही मेरे सामने उभरता है।'

'जी नहीं!' मैंने दखल देते हुए कहा। 'मेरा दिल दागिस्‍तान से लबालब भरा हुआ है, मगर वह भौगोलिक मानचित्र नहीं है। मेरे दागिस्‍तान की भौगोलिक या दूसरी भी कोई सीमाएँ नहीं हैं। न ही मेरा दागिस्‍तान सुंदर, क्रम‍बद्ध रूप से एक सदी से दूसरी सदी की धारा में बहता है। मेरी किताब, अगर मैंने उसे कभी लिख लिया, तो वह दागिस्‍तान के बारे में पाठयपुस्‍तक जैसी नहीं होगी। मैं सदियों को घुला-मिला दूँगा, फिर ऐतिहासिक घटनाओं का सार, जनता और 'दागिस्‍तान' शब्‍द का निचोड़ निकाल लूँगा।'

ऐसा लग सकता है कि दागिस्‍तान सभी दागिस्‍तानियों के लिए एक जैसा है, समान है। फिर भी हर दागिस्‍तानी का अपना दागिस्‍तान है।

मेरा भी अपना दागिस्‍तान है। इस रूप में केवल मैं ही इसे देखता हूँ, केवल मैं ही जानता हूँ। दागिस्‍तान में मैंने जो कुछ देखा, जो कुछ अनुभव किया, मुझसे पहले के और मेरे साथ जीनेवाले सभी दागिस्‍तानियों ने जो कुछ अनुभव किया, गीतों और नदियों, कहावतों और चट्टानों, उकाबों और नालों, पहाड़ी पगडंडियों और यहाँ तक कि पहाड़ों की प्रतिध्‍वनि से भी मेरे अपने दागिस्‍तान का रूप बना है।

नोटबुक से । किस्‍लावोद्स्‍क। कमरे में हम दो जने रहते हैं। एक मैं हूँ और दूसरा उज्‍बेक है। सूर्योदय और सूर्यास्‍त के समय हमें खिड़की में से एल्‍बुज की दोनों चोटियाँ नजर आती हैं।

मैं सोचता हूँ कि ये शामिल के दो मुरीदों, दो दोस्‍तों के घुटे हुए और जख्‍मों से भरे सिर जैसी हैं।

इसी वक्‍त मेरा उज्‍बेक साथी कहता है -

'दो सिरोंवाला यह पहाड़ मुझे बुखारा के सफेद बालोंवाले उस बुजुर्ग की याद दिलाता है, जो पुलाव की दो प्‍लेटें लिए जा रहा था और सुबह के वक्‍त घाटी के नजारे से मुग्‍ध होकर अचानक रुका और जहाँ-का-तहाँ बुत बना खड़ा रह गया।'

नोटबुक से। कलकत्‍ते में महान रवींद्रनाथ टैगोर के घर में मैंने एक पक्षी का चित्र देखा। ऐसा पक्षी पृथ्‍वी पर कहीं नहीं है और न कभी था ही। टैगोर की आत्‍मा में उसका जन्‍म हुआ और वहीं वह रहा। वह उनकी कल्‍पना का परिणाम था। मगर, जाहिर है कि अगर टैगोर ने हमारी दुनिया के असली पर्रिदे न देखे होते, तो वे अपने इस अद्भुत पक्षी की भी कल्‍पना न कर पाते।

मेरा भी ऐसा ही अनूठा परिंदा है - मेरा दागिस्‍तान। तो इसलिए कि पुस्‍तक का नाम बिल्‍कुल सही हो, उसे 'मेरा दागिस्‍तान' कहना चाहिए। ऐसा इसलिए नहीं कि वह संपत्ति के रूप में मेरा है, बल्कि इसलिए कि उसके बारे में मेरी कल्‍पना दूसरे लोगों की कल्‍पना से भिन्‍न है।

सो तय हो गया। मुखावरण पर लिखा जाएगा मेरा दागिस्‍तान

मंत्रियों की सभा में कुछ देर तक खामोशी रही, किसी ने कोई आपत्ति नहीं की। मगर अचानक तीसरा मंत्री, जो अभी तक चुपचाप बैठा रहा था, अपनी जगह से उठकर मंच की तरफ चल दिया।

'मेरा दागिस्‍तान। मेरे पर्वत। मेरी नदियाँ। कुछ बुरा नहीं है इसमें। केवल युवावस्‍था, विद्यार्थी जीवन के दिनों में ही होस्‍टल में रहना अच्‍छा होता है। बाद में आदमी का अपना कमरा या अपना फ्लैट होना चाहिए। 'मेरा चूल्‍हा' - इतना कहना ही काफी नहीं है, चूल्‍हे में आग भी होनी चाहिए। 'मेरा पालना'- इतना कहने से ही काम नहीं चलता, पालने में बच्‍चा भी होना चाहिए। 'मेरा दागिस्‍तान'- इतना कहना ही काफी नहीं, इन शब्‍दों की तह में कोई विचार - दागिस्‍तान का भाग्‍य, उसका आज का दिन भी होना चाहिए। दागिस्‍तान के कवि सुलेमान स्‍ताल्‍स्‍की अपनी सूझबूझ के लिए विख्‍यात हैं। वे उस बात को समझते थे, जो मैं अब कहना चाहता हूँ। उन्‍होंने कहा है, 'मैं न तो लेजगीन, न दागिस्‍तानी और न काकेशियाई कवि हूँ। मैं सोवियत कवि हूँ। मैं इस समूचे विराट देश का स्‍वामी हूँ।' तो ऐसा कहा है पके बालोंवाले अक्‍लमंद सुलेमान ने। मगर तुम एक ही रट लगाए जा रहे हो - मेरा गाँव, मेरे पर्वत, मेरा दागिस्‍तान। ऐसा सोचा जा सकता है कि तुम्‍हारे लिए दागिस्‍तान से ही सारी दुनिया का आरंभ और अंत होता है। मगर क्‍या क्रेम्लिन से ही दुनिया की शुरुआत नहीं हुई? यही है, जो मुझे किताब के तुम्‍हारे नाम में महसूस नहीं होता। तुमने सीना तो बना दिया, मगर उसमें धड़कता हुआ दिल रखना भूल गए। तुमने आँखें तो बना दीं, मगर उसमें धड़कता हुआ दिल रखना भूल गए। तुमने आँखें तो बना दीं, मगर उनमें भावों की चमक पैदा करना भूल गए। ऐसी निर्जीव आँखे अंगूरों के समान होती हैं।'

मंच से ऐसी बढ़िया उपमा देकर यह तीसरा मंत्री मोटी-मोटी और बड़ी गंभीर पुस्‍तकों के उद्धरणोंवाला कागजों का पुलिंदा बगल में दबाकर बड़ी शान से अपनी सीट की तरफ चल दिया। साथ ही उसने दूसरों की तरफ ऐसे देखा मानो उसके शब्‍दों के बाद वे उसी तरह कुछ न कह सकते हों, जैसा कि जज के फैसले के बाद होता है।

मगर इसी वक्‍त सभा में भाग लेनेवाला एक अन्‍य मंत्री भागकर मंच पर आ खड़ा हुआ। वह जिंदादिल, खुशमिजाज और दूसरों के मुकाबले में कुछ कम उम्र भी था। उसने अपना भाषण दूसरों की तरह नहीं, बल्कि कविता से आरंभ किया-

जब तक कोई बैठा है, हम जान न पाएँ

लंगड़ा है वह, या कि नहीं है वह लंगड़ा,

जब तक कोई सोता है, हम जान न पाएँ

अंधा है वह, या कि नहीं है वह अंधा,

जब तक कोई खाता है, हम जान न पाएँ

बुजदिल है वह, या कि वीर है बहुत बड़ा,

जब तक कोई चुप रहता, हम जान न पाएँ

सच्‍चा है वह या कि झूठ उसका धंधा।

'तो मैं यह कहना चाहता हूँ,' उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, 'निश्‍चय ही जब कोई विचार हो, तो अच्‍छा रहता है, विशेषकर ऐसा विचार, जिसका मुझे पहलेवाले वक्‍ता ने उल्‍लेख किया है। मगर कुछ ज्‍यादा विचारोंवाले साथी भी तो होते हैं। ऐसे लोगों से तो केवल विचार को ही हानि पहुँचती है। मैं इत्‍तला गाँव के एक ऐसे ही मिखाईल की याद दिलाना चाहता हूँ...'

सभा में चूँकि हर वक्‍ता के लिए समय निर्धारित नहीं किया गया था, इसलिए भाषणकर्ता ने प्रसंगवश हमें अपने मिखाईल का किस्‍सा भी सुना दिया।

खूंजह हलका पार्टी कमिटी में मिखाईल ग्रिगोरियेविच हुसैनोव साईस का काम करता था। दरअसल, वह मिखाईल नहीं, मुहम्‍मद था। गृह-युद्ध के दिनों में किसी दूसरी जगह रहा और अपने जन्‍म-स्‍थान पर मुहम्‍मद नहीं, बल्कि मीशा बनकर लौटा। मतलब यह कि उसने अपना दागिस्‍तानी नाम बदल लिया। उसके बूढ़े बाप ने तब इस नवजात मीशा से कहा -

'तुम्‍हारी माँ तुम्‍हारा मातम मनाए! बेशक मैंने तुम्‍हें मुहम्‍मद नाम दिया था, फिर भी यह तुम्‍हारा नाम है और तुम उसके साथ जैसा भी चाहो, बर्ताव करने का हक रखते हो। मगर मेरे साथ ऐसा बर्ताव करने की इजाजत तुम्‍हें किसने दी? हसन को ग्रिगोरी में बदलने का हक तुम्‍हें किसने दिया? मैं तुम्‍हारा बाप हूँ, अभी जिंदा हूँ! और हसन ही रहना चाहता हूँ!'

गृह-युद्ध में भाग लेनेवाला अटल रहा। वह मिखाईल ग्रिगोरियेविच ही बना रहा और इसी उपाधि के साथ खूंजह हलका पार्टी कमिटी में साईसी करता रहा।

उसकी समझ-बूझ के घोड़े बहुत कम और कमजोर थे, मगर वह अपने को अत्‍यधिक विचारवान व्‍यक्ति मानता था और सभी जगह इसकी चर्चा करता था। बहुत से लोग उसे विचारों का सबसे उत्‍साहशील संघर्षकर्ता भी मानने लगे।

एक बार हमारे उस्‍ताद हाजी की इसलिए मलामत की गई कि उसके दूर के रिश्‍ते का एक भाई शायद कोई शाहजादा था। उस्‍ताद हाजी ने अपने पार्टी-फार्म में यह नहीं लिखा था।

पार्टी की इस मलामत की वजह से भारी मन लिए हाजी धीरे-धीरे अपने बातलाहीच गाँव जा रहा था। रास्‍ते में हलका पार्टी कमिटी का साईस मिखाईल ग्रिगोरियेविच उससे आ मिला। हाजी ने उससे अपनी मुसीबत का जिक्र किया।

'मलामत तो बहुत कम है तुम्‍हारे लिए! पार्टी से निकाल दिया जाना चाहिए था। तुम कैसे पार्टीवाले हो, कैसे कम्‍युनिस्‍ट हो? असली कम्‍युनिस्‍ट को तो जहाँ जरूरी था, खुद ही सब कुछ लिख देना चाहिए था... बेशक वह दूर के रिश्‍ते का ही नही, सगा भाई, सगी बहन या सगा बाप ही क्‍यों न होता...'

उस्‍ताद ने नजर ऊपर उठाई, मिखाईल ग्रिगोरियेविच की तरफ देखा और कहा -

'सही तौर पर ही तुम्‍हें अत्‍यधिक विचारवान माना जाता है। हैरानी होती है कि कैसे तुमने दागिस्‍तान के सभी पर्वतों को अब तक समतल नहीं कर दिया। सीधे खड़े पर्वतों की तुलना में समतल स्‍थान अधिक 'विचारपूर्ण' और सुगम-सरल होते हैं। पर खैर तुम जैसों से बात करना बेकार है।'

यद्यपि दोनों को एक ही गाँव जाना था, तथापि हाजी सड़क छोड़कर पासवाली पगडंडी पर हो लिया।

'कहाँ चल दिए तुम?' मिखाईल ग्रिगोरियेविच को आश्‍चर्य हुआ।

'तुम्‍हें इससे क्‍या मतलब है - हमारा रास्‍ता एक नहीं है।'

'मगर मैं तो कम्‍युनिज्‍म की तरफ जा रहा हूँ। अगर तुम इसकी उल्‍टी दिशा में जाना चाहते हो, तो...'

'कम्‍युनिज्‍म की तरफ भी मैं तुम्‍हारे साथ नहीं जाना चाहता। देखेंगे कि हममें से कौन वहाँ जल्‍दी पहुँचता है।'

यह किस्‍सा खत्‍म करके वक्‍ता ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा -

एक कवि ने चरवाहे के बारे में ऐसी कविता लिखी है -

लो, पहाड़ों में कुहासा छँट गया है

रास्‍ता है साफ, अब उज्‍ज्‍वल,

कम्‍युनिज्‍म में, रे गड़रिये

तू सभी भेड़ें, लिए चल।

या फिर विचारों के ऐसे ही एक दूसरे दीवाने ने हलका पार्टी कमिटी को यह अर्जी लिख भेजी - 'मेरे सारे प्रयासों, यहाँ तक कि शारीरिक जोर-जबर्दस्‍ती के बावजूद मेरी पत्‍नी पर्याप्‍त लगन के साथ 'कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (बोल्‍शेविक) का संक्षिप्‍त इतिहास' नहीं पढ़ती। वैचारिक शिक्षा में सहायता देने के उद्देश्‍य से मैं हलका कमिटी से अपनी पत्‍नी पर प्रभाव डालने का अनुरोध करता हूँ।'

या फिर दागिस्‍तान के लेखक संघ के दरवाजे पर एक बार यह भयानक घोषणा दिखाई दी - 'गहरी सैद्धांतिक तैयारी के बिना तुम्‍हें इस दरवाजे को लाँघने का अधिकार नहीं है।'

मशहूर बुजुर्ग शायर अबूतालिब गफूरोव किसी काम से लेखक-संघ जा रहे थे, मगर यह चेतावनी पढ़कर लौट गए।

या फिर बहुजातीय नगर, मखचकला में ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों के अलग-अलग कब्रिस्‍तान हैं। जनतंत्र से सक्रिय कार्यकर्ताओं की बैठक में एक अत्‍यधिक विचारवान साथी ने अपने भाषण में यह कहा -

'हम जातियों के बीच मैत्री सुदृढ़ करने के लिए हर दिन अथक संघर्ष कर रहे हैं। मगर फिर भी हमारे यहाँ कितने ही अलग-अलग कब्रिस्‍तान हैं। अब एक साझा कब्रिस्‍तान बनाने का वक्‍त आ गया है। उसके नाम के बारे में भी सोचा जा सकता है। मिसाल के तौर पर 'एक ही परिवार के बच्‍चे' यानी कुछ ऐसा ही... उदाहरण के लिए, मेरे माँ-बाप भगवान को मानते थे, उसकी पूजा करते थे। भला मैं, जो 1937 से पार्टी का सदस्‍य हूँ, एक ही कब्रिस्‍तान में उनके साथ कैसे लेट सकता हूँ। नहीं, बहुत पहले से ही हमारे शहर में अधिक ऊँचे वैचारिक स्‍तर पर कब्रिस्‍तान बनाया जाना चाहिए था।'

कहते हैं कि कुछ ही समय पहले वह बेचारा चल बसा और नया काब्रिस्‍तान नहीं देख पाया।

'इसलिए मैं यह कहता हूँ' आवाज ऊँची करते हुए मंत्री ने अपनी बात जारी रखी, 'मेरा दागिस्‍तान - यह तो जैसे टोपी है। अधिक महत्‍वपूर्ण क्‍या है, टोपी या सिर! मैं आपको यह किस्‍सा सुनाता हूँ कि तीन शिकारियों ने कैसे एक भेड़िये का शिकार करना चाहा।

शिकारी का सिर था या नहीं! तीन शिकारियों को यह पता चला कि गाँव से थोड़ी ही दूर दर्रे में एक भेड़िया छिपा हुआ है। उन्‍होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया। कैसे उन्‍होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात सुनाते हैं। मुझे तो बचपन से यह किस्‍सा इस तरह याद है।

शिकारियों से बचने के लिए भेड़िया गुफा में जा छिपा। उसमें जाने का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्‍ता था- सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं। शिकारी पत्‍थरों के पीछे छिप गए, अपनी बंदूकें उन्‍होंने गुफा के मुँह की तरफ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इंतजार करने लगे। मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था। वह आराम से वहाँ रहा। मतलब यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इंतजार करते-करते पहले ऊब जाएगा।

एक शिकारी ऊब गया। उसने किसी-न-किसी तरह गुफा में घुसने और वहाँ से भेड़िये को निकालने का फैसला किया। गुफा के मुँह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया। बाकी दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्‍यों नहीं करता। आखिर वे भी इंतजार करते-करते तंग आ गए। उन्‍होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्‍हें इस बात का यकीन हो गया कि उसका सिर नहीं है।

अब वे यह सोचने लगे - गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं था।

सिर के बिना धड़ को वे गाँव में लाए, लोगों को घटना सुनाई। एक बुजुर्ग ने कहा, इस बात को ध्‍यान में रखते हुए कि शिकारी भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहाँ तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था। बात को साफ करने के लिए वे उसकी विधवा हो गई बीवी के पास गए।

'मैं क्‍या जानूँ कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिए नई टोपी का आर्डर देता था।'

विचार तो शब्‍दों में नही, काम में होना चाहिए। वह स्‍वयं पुस्‍तक में होना चाहिए, न कि मुखावरण से चिल्‍लाए। वह शब्‍द, जो भाषण के अंत में कहा जा सकता है, उसे शुरू में ही कहने की जरूरत नहीं होती।

नवजात शिशु की छाती पर अक्‍सर गंडा-ताबीज लटका दिया जाता है ताकि उसकी जिंदगी आराम-चैन से कटे, वह बीमार न हो, उसे दुख-मुसीबतों का सामना न करना पड़े। हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे कि गंडे-तावीज से कोई फायदा होता है या नहीं, मगर इतना सभी जानते हैं कि उसे कमीज के नीचे पहना जाता है, उसकी बाहर नुमाइश नहीं की जाती।

हर किताब में ऐसा ही गंडा-तावीज होना चाहिए, जिसका लेखक को पता हो, जिसके बारे में पाठक अनुमान लगाए, मगर जो कमीज के नीचे छिपा हो।

या फिर जब उर्बेच बनाया जाता है, तो उसमें थोड़ा-सा शहद मिला दिया जाता। शहद मीठा और सुगंधित पेय में बदल जाता है, मगर उसे न तो देखा और न छुआ जा सकता है।

या फिर बंबई में एक ऐसा बाग है, जो हमेशा हरा-भरा रहता है। इर्द-गिर्द खुश्‍की और बेहद गर्मी के बावजूद वह न तो कभी मुरझाता है और न सूखता है। मामला यह है कि बाग के नीचे किसी को भी नजर न आनेवाली झील है, जो वृक्षों को ठंडी, प्राणदायी नमी प्रदान करती है।

विचार वह पानी नहीं है, जो शोर मचाता हुआ पत्‍थरों पर दौड़ लगाता है, छींटे उड़ाता है, बल्कि वह पानी है, जो अदृश्‍य रूप से मिट्टी को नम करता है और पेड़-पौधों की जड़ों को सींचता है।

'इसका क्‍या मतलब निकला है!' उछलकर खड़े होते और मेज पीटते हुए उस मंत्री ने चिल्‍लाकर कहा, जो किताबों और उद्धरणों से घिरा हुआ था। 'इसका मतलब यह निकलता है कि टोपी को सफेद पगड़ी, लाल फीते या पाँच नोकोंवाले सितारे-किस चीज से सजाया जाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? इसका तो यह मतलब निकलता है कि आदमी छाती पर लाल तमगा लगाता है या काली सलीब, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? आपके मुताबिक तो सिर्फ नेक दिल का होना ही काफी है। तानूस्‍सी गाँव के हसन की तरह एक आदमी को एक साथ गोनोह में अध्‍यापक, गीनवचूतल में युवा कम्‍युनिस्‍ट संघ का सेक्रेटरी और खूंजह में मुल्‍ला नहीं होना चाहिए। किताब पर भी यही बात लागू होती है। नहीं, नहीं, हरगिज नहीं! विचार - यह तो झंडा है और उसे नजर से नहीं छिपाना चाहिए। उसे ऊँचा उठाकर ऐसे ले जाना चाहिए कि सभी लोग देखें और उसके पीछे चलें।'

'अहा! जो तुम्‍हारे शब्‍दों का विरोध करे, उसकी बीवी उसे दगा दे,' अपेक्षाकृत युवा मंत्री ने फिर से कहना शुरू किया, 'मगर तुम ऐसे करना चाहते हो कि झंडा अलग हो और उसे देखनेवाले लोग अलग हों। मतलब यह कि विचार लोगों की आत्‍माओं और हृदयों से अलग जिएँ। तुम उन्‍हें दो अलग-अलग घोड़ा-गाड़ियों अगर अचानक अलग-अलग दिशा में चल दीं, तो? तुम कहते हो कि आदमी को न तो अवार, न दागिस्‍तानी, बल्कि सिर्फ सोवियत होना चाहिए। मगर मिसाल के लिए, मैं अपने को अवार, दागिस्‍तान का बेटा, और साथ ही सोवियत संघ का नागरिक अनुभव करता हूँ। क्‍या ये भावनाएँ एक दूसरी का विरोध करती हैं?'

जैसा कि सभी जानते हैं, क्रेम्लिन से दुनिया शुरू होती है। मैं भी इससे सहमत हूँ। मगर मेरे लिए इसके अलावा दुनिया का आरंभ मेरे चूल्‍हे, मेरे पहाड़ी घर की दहलीज, मेरे गाँव से भी होता है। क्रेम्लिन और गाँव, कम्‍युनिज्‍म के विचार और मातृभूमि की भावना-पक्षी के दो पंख हैं, मेरे पंदूर के दो तार हैं।

'तो फिर एक टाँग पर भचककर चलने की क्‍या जरूरत है? तब किताब का दूसरा नाम भी सोचना चाहिए ताकि वह उसका आंतरिक सार अभिव्‍यक्‍त करे।'

मैंने उसे हर जगह तलाश किया। भारत की यात्रा करते हुए मैं दागिस्‍तान के बारे में सोचता रहा। उस देश की पुरातन संस्‍कृति, उसके दर्शन में मुझे किसी रहस्‍यपूर्ण कंठ की ध्‍वनियाँ सुनाई दीं। मगर मेरे लिए मेरे दागिस्‍तान की ध्‍वनि सर्वथा वास्‍तविक है और वह तो पृथ्‍वी पर बहुत दूर तक भी सुनाई देती है। कभी वह वक्‍त भी था, जब वीरान दर्रे और नंगी चट्टानें ही 'दागिस्‍तान' शब्‍द को प्रतिध्‍वनित करती थीं। अब वह सारे देश, सारी दुनिया में गूँजता है और करोड़ों दिलों में उसकी प्रतिध्‍वनि होती है।

नेपाल के बौद्धमठों में, जहाँ बाईस स्‍वास्‍थ्‍यप्रद धाराएँ बहती हैं, मैंने दागिस्‍तान के बारे में सोचा। मगर नेपाल अभी तराशा हुआ हीरा नहीं है और मैं अपने दागिस्‍तान से उसकी तुलना नहीं कर सकता था, क्‍योंकि दागिस्‍तान का हीरा तो कई शीशे काट चुका है।

अफ्रीका में भी मैंने दागिस्‍तान के बारे में सोचा। तब मुझे ऐसे खंजर की याद आई, जो म्‍यान से केवल एक-चौथाई बाहर निकाला गया हो। दूसरे देशों - कनाडा, इंग्‍लैंड, स्‍पेन, मिस्र, जापान में भी मैं दागिस्‍तान के बारे में सोचता रहा - उनके साथ दागिस्‍तान की समानता या भिन्‍नता खोजता रहा।

युगोस्‍लाविया की यात्रा करते हुए एक बार मैं एड्रियाटिक सागर के तटवर्ती, अद्भुत दुब्रोव्निक नगर में जा पहुँचा। इस नगर में घर और सड़कें दर्रों और चट्टानों, अनेक उभारों और समतल स्‍थानों से मिलती-जुलती हैं। घर के दरवाजे कभी-कभी तो चट्टान को तोड़कर बनाए गए गुफाद्वार जैसे लगते हैं। मगर मध्‍ययुगीन और उनसे भी अधिक प्राचीन घरों की बगल में ही आधुनिक मकान भी बन रहे हैं।

हमारे दरबंद शहर की भाँति सारे नगर के गिर्द एक दीवार है। इसी दीवार पर मैं तंग, खड़े रास्‍तों और पथरीली सीढ़ियों से चढ़ा। सारी दीवार के साथ-साथ समान फासले पर पथरीली मीनारें खड़ी हैं। हर मीनार में दो कठोर आँखों की तरह दो सूराख हैं। ये मीनारें बड़ी लगन और वफादारी से खिदमत करनेवाले किसी इमाम के मुरीदों के समान लगती हैं।

दीवार पर रेंगते हुए मैं मीनारों के भीतर बने सूराखों में से झाँकना चाहता था। मैंने फौरन ऐसा किया होता, मगर वहाँ यात्रियों की भीड़ लगी थी और मैं सूराखों के करीब न जा सका। दूर से सूराखों के बीच से मुझे आसमानी रंग के छोटे-छोटे टुकड़ों की ही झलक मिली। ये टुकड़े सूराखों जितने और सूराख हथेली के बराबर थे।

आखिर जब मैंने नजदीक जाकर सूराख के साथ अपना चेहरा सटाया, तो जनवरी महीने की धूप में हहराता हुआ विराट सागर देखकर दंग रह गया। वह बड़ा प्‍यारा-सा था, क्‍योंकि एड्रियाटिक सागर फिर भी दक्षिणी सागर है, और साथ ही वह बड़ा बेचैन था, क्‍योंकि आखिर तो जनवरी का महीना था। सागर आसमानी नहीं, रंग-बिरंग था। वह अपनी लहरों को तटवर्ती चट्टानों पर फेंकता था, वे तोप का सा धमाका करती हुई चट्टानों से टकरातीं और वापिस लौट जातीं। सागर में जहाज तैर रहे थे और उनमें से प्रत्‍येक हमारे गाँव के बराबर था।

मैं अभी भी यात्रियों के पीछे खड़ा था और विराट संसार पर नजर डाल लेने के लिए पंजों पर उचका हुआ था। आखिर खिड़की के पास जाकर उसे अच्‍छी तरह देख लेने के बाद मुझे फिर से दागिस्‍तान का ध्‍यान हो आया।

दागिस्‍तान भी तो अपनी बारी के इंतजार में पीछे ही खड़ा रहा था, वह भी तो अपने पंजों पर उचका रहा था और आगे खड़े खुशकिस्‍मतों की चौड़ी पीठें उसके लिए भी तो बाधा बनी रही थीं। अब उसने किले की दीवार की छोटी-सी खिड़की में से मानो सारी दुनिया को देख लिया है। विराट संसार में वह खुद घुल-मिल गया है, अपने रस्‍म-रिवाजों, तौर-तरीकों, गीतों और अपनी गरिमा को उसने उसका अंग बना दिया है।

दागिस्‍तान के बारे में अपनी भावना को व्‍यक्‍त करने के लिए विभिन्‍न कवियों ने विभिन्‍न समयों में विभिन्‍न उपमाएँ ढूँढ़ीं। दर्द भरे गायक महमद ने दागिस्‍तान की जातियों के बारे में यह कहा था कि वे पहाड़ी नदियों के समान हैं, जो लगातार घुल-मिलकर एक धारा बन जाना चाहती हैं, मगर ऐसा नहीं कर पातीं और हरेक अलग-अलग ही बहती जा रही है। उन्‍होंने यह भी कहा है कि दागिस्‍तान की जातियाँ उन्‍हें तंक दर्रे के फूलों की याद दिलाती हैं, जो एक-दूसरे की तरफ झुकते हैं, मगर गले नहीं लग पाते। मगर क्‍या दागिस्‍तान की जातियाँ अब एक पहाड़ी धारा नहीं बन गई, उन्‍होंने एक गुलदस्‍ते का रूप नहीं ले लिया?

बातीराई ने कहा है कि जिस तरह गरीब आदमी भेड़ की खाल का अपना फटा-पुराना कोट किसी कोने में फेंक देता है, उसी तरह टुकड़े-टुकड़े हुआ दागिस्‍तान पहाड़ी दर्रों में फेंक दिया गया है।

दागिस्‍तान का इतिहास पढ़ने के बाद मेरे पिता जी ने दागिस्‍तान की तुलना सींग के उस जाम से की थी, जिसे पीने के वक्‍त शराबी एक-दूसरे की तरफ बढ़ाते जाते हैं।

मैं किससे तुम्‍हारी तुलना करूँ, मेरे दागिस्‍तान? तुम्‍हारे भाग्‍य, तुम्‍हारे इतिहास के बारे में अपने विचार व्‍यक्‍त करने के लिए कौन-सी उपमा ढूँढ़ूँ? शायद बाद में मुझे बेहतर और अधिक जँचते हुए शब्‍द मिल जाएँ, मगर आज तो मैं यही कहता हूँ - 'संसार के महान महासागर की ओर छोटी खिड़की।' या अधिक संक्षिप्‍त रूप से - 'महान महासागर में खुलनेवाली छोटी खिड़की।'

तो साथी मंत्रियो, यह है दूसरा नाम उस किताब का, जो मैं लिखने जा रहा हूँ। मैं यह समझता हूँ कि दूसरे देश मेरे दागिस्‍तान के पड़ोसी भी अपने बारे में ऐसा ही कह सकते हैं। इसमें क्‍या बुरी बात है, बेशक उसके हमनाम भी हों।

तो लीजिए मेरा दागिस्‍तान है मेरी टोपी और 'महान महासागर में खुलनेवाली छोटी खिड़की' है उस पर लगा हुआ सितारा।

मैंने अपना दो तारोंवाला पंदूर सुर कर लिया है और मैं उसे बजाने को तैयार हूँ। सिलाई करने के लिए तैयार व्‍यक्ति की भाँति मैंने सूई में धागा डाल दिया है।

मेरे मंत्रियों ने किताब का नाम स्‍वीकार कर लिया, उसी तरह जैसे अंतरराष्ट्रीय सभा में मंत्रीगण आखिर तो कार्य-सूची को स्‍वीकार कर लेते हैं।

ऐसा भी होता है कि दो भाई बड़े प्‍यार से एक ही घोड़े पर सवार होकर जाते हैं। ऐसा भी होता है कि एक नौजवान दो घोड़ों को एक ही लगाम से पानी पिलाने ले जाता है।

अबूतालिब ने कहा है कि टोपी तो उसने लेव तोलस्‍तोय जैसी खरीद ली, मगर वैसा सिर कहाँ खरीदेगा?

कहते हैं कि नाम तो उसका अच्‍छा है, मगर वह बड़ा होकर खुद कैसा आदमी बनेगा?

इस पुस्‍तक का रूप और इसे कैसे लिखा जाए : मेरा दाग़िस्तान

पड़ा रहेगा सदा म्‍यान में जो खंजर

जंग उसे लग जाएगा,

पड़ा रहेगा वीर अगर सोता घर में

वह तो तोंद फुलाएगा।

खंजर पर आलेख

डाल दिया है धागा मैंने सूई में

पर मैं जाने कैसा कोट बनाऊँगा?

तार कसे, कर लिया उन्‍हें सुर में मैंने

पर मैं जाने कैसा गाना गाऊँगा?


मेरे बेचैन, मेरे वफादार घोड़े के नाल अच्‍छी तरह लगे हुए हैं। मैंने खुद उसकी हर टाँग उठाकर नालों की मजबूती जाँच ली है। मैंने अपने हाथों से उस पर जीन रखा है, उसकी पेटी कसी है। उँगलियाँ भी मुश्किल से पेटी के नीचे जाती हैं। घोड़े पर अच्‍छी तरह और बढ़िया ढंग से जीन कसा गया है।

मेरे पिता जी से कुछ-कुछ मिलते-जुलते बुजुर्ग ने मुझे लगामें पकड़ाईं। चंचल आँखोंवाली छोटी-सी लड़की ने मेरी तरफ चाबुक बढ़ा दिया। पड़ोस की पहाड़िन पानी से भरी हुई गागर लिए जान-बूझकर सामने की ओर मेरे नजदीक से गुजरी। इस तरह उसने मेरी शुभ यात्रा की कामना की।

गाँव में जिस किसी के पास से भी मेरा घोड़ा गुजरा, उसी ने मुझे यह कहा, 'तुम्‍हारा सफर कामयाब रहे!'

गाँव के छोर पर युवा पहाड़िन ने खिड़की में जलता हुआ लैंप रख दिया। इस तरह उसने मुझसे यह कहा -

'इस खिड़की, इस रोशनी को नहीं भूलना। जब तक तुम लौटोगे नहीं, यह लैंप जलता रहेगा। दूर के रास्‍ते में, कठिन और बुरे मौसम में रातों और सालों के दौरान यह तुम्‍हें रोशनी देगा। लंबे सफर से थक-हारकर जब तुम अपने गाँव के करीब पहुँचोगे, तो यही सबसे पहले तुम्‍हें अपनी चमक दिखाएगा। इस खिड़की और इस रोशनी को याद रखना।

अपने प्‍यारे गाँव को एक बार फिर से देखने के लिए मैं मुड़ता हूँ। घर की छत पर मुझे माँ दिखाई देती है। वह सीधी और एकाकी खड़ी है। वह अधिकाधिक छोटी होती जाती है - चपटी छत की आड़ी रेखाओं में सीधा बिंदु-सा लग रही है। आखिर, अगले मोड़ के बाद पहाड़ मेरे गाँव के सामने आ जाता है और मुड़कर देखने पर पहाड़ के सिवा मुझे और कुछ भी दिखाई नहीं देता है।

सामने भी मुझे पहाड़ ही दिखाई दे रहा है। मगर मुझे मालूम है कि उसके पीछे बहुत बड़ी दुनिया है। दूसरे गाँव हैं, बड़े नगर हैं, महासागर हैं, रेलवे स्‍टेशन, हवाई अड्डे हैं और किताबें हैं।

दागिस्‍तान की प्‍यारी धरती के रास्‍ते पर घोड़े के नाल बज रहे हैं। सिर के ऊपर पहाड़ों की चोटियों से पथराया हुआ-सा आकाश है। कभी वह धूप से चमक उठता है, कभी उस पर सितारे जगमगा उठते हैं, कभी वह बादलों से ढक जाता है और कभी पृथ्‍वी को बारिश से धो देता है।

रुक जाओ, ऐ घोड़े मेरे, रुक जाओ

नहीं अभी मैंने मुड़कर, पीछे देखा,

प्‍यारा-प्‍यारा गाँव हमारा रहा वहाँ

धुँधली पड़ती जाती अब जिसकी रेखा।

सरपट उड़ते जाओ तुम घोड़े मेरे

क्‍यों हम देखें मुड़-मड़कर?

भाई, दोस्‍त मिलेंगे हमको वहीं सभी

हम जा निकलें, जहाँ, जिधर।

किधर जा रहा हूँ मैं? कैसे मैं अपना सही रास्‍ता चुनूँ? कैसे कई किताब लिखूँ?

नोटबुक से । अब दागिस्‍तान में युवाजन हमारी राष्‍ट्रीय पोशाकें नहीं पहनते। वे मास्‍को, त्बिलिसी, ताशकंद, दुशंबे और मिन्‍स्‍कवासियों की तरह पतलून, कोट, बुशर्ट और कमीज के साथ टाई पहनते हैं।

गानों-नाचों की कलाकार मंडलियाँ ही अब राष्‍ट्रीय पोशाकें पहनती हैं। हाँ, शादी के मौके पर किसी को पुरानी पोशाक पहने देखा जा सकता है। अगर कभी कोई दागिस्‍तानी ढंग के कपड़े पहनना चाहता है, तो दोस्‍तो, जान-पहचान के लोगों से या किराये पर कपड़े लेता है। अपनी दागिस्‍तानी पोशाक तो उसके पास होती नहीं। थोड़े में, अगर यह न कहा जाए कि राष्‍ट्रीय पोशाक गायब हो गई है, तो यह कहा जा सकता है कि गायब हो रही है।

मगर बात यह है कि कुछ कवियों की कविताओं का राष्‍ट्रीय रूप भी गायब होता जा रहा है और वे उस पर गर्व भी करते हैं।

मैं भी यूरोपीय सूट पहनता हूँ, मैं भी पिता जी का चेर्केसी कोट नहीं पहनता। मगर अपनी कविताओं को आकृतिहीन सूट नहीं पहनाना चाहता। मैं चाहता हूँ कि मेरी कविताओं का हमारा, दागिस्‍तानी रूप ही हो।

मैं भला क्‍या हूँ! कुछ ही दशाब्दियों का जीवन मिला है मुझे। ये दशाब्दियाँ ऐसे वक्‍त में आ गई, जब सभी लोग पतलून, बूट और कोट पहने घूमते हैं। कविताओं का अपना जीवन होता है। उनकी जन्‍म-मरण की अपनी अवधियाँ होती हैं। अपनी कविताओं के बारे में मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। मुमकिन है कि वे मेरे बाद जिंदा न रहें।

मास्‍को में मैंने बलूत का एक पुराना पेड़ देखा। कहते हैं कि रौद्र इवान ने उसे रोपा था। इसका मतलब यह है कि जब तक वह बड़ा होता रहा, शुरू में लोग बोयारों की पोशाकों, इसके बाद वास्‍कटें और पाउडर लगे विग, फिर ऊँचे टोप और काले फ्राककोट, इसके पश्‍चात बुद्योन्‍नी टोपियाँ तथा चमड़े की जाकटें, फिर साधारण कोट और चौड़ी मोहरीवाले पतलून और इसके बाद तंग पतलून पहनते रहे... और बलूत मानो लोगों से यह कहता रहा कि अगर आपके करने को और कुछ नहीं, तो वहाँ नीचे भागकर जाइए, अपने कपड़े बदल आइए। मेरे जिम्‍मे तो अपना काम है - सूरज की किरणों को लोकना और उन्‍हें मजबूत बजती हुई लकड़ी और उन बीजों में बदलना, जिनसे ऐसे ही जानदार वृक्ष जन्‍म लेते हैं।

पहाड़ों में कहा जाता है कि पोशाक से आदमी का पता चलता है और घोड़े से सूरमा का। यह कहावत सुनने में तो बढ़िया लगती है, मगर मुझे अनुचित-सी प्रतीत होती है। चीते की खाल पहने हुए आदमी का बहादुर होना लाजिमी नहीं। कभी-कभी इस्‍पाती कवच के नीचे भी बुजदिल का दिल हो सकता है।

कारण कि अनेक बार सुंदरता की वजह से मरे द्वारा चुने हुए तरबूज के सफेद और फीका निकल आने पर मुझे गुद्दी खुजलानी पड़ी है।

कारण कि एक बार कोई ऊनसूकूलवासी अपनी प्रेमिका को नमदे के लबादे में लपेटकर उड़ा ले गया, मगर जब लबादा उतारा, तो प्रेमिका की जगह पोपले मुँहवाली उसकी नानी सामने दिखाई दी।

कारण कि अबूतालिब ने मुझे सुनाया कि कैसे एक बार उन्‍हें दूर के गाँव में शादी पर बुलाया गया और वहाँ वे जुरना बजाते रहे। शादी धूम-धड़ाके से होती रही। गाँव के सामनेवाले मैदान में तीन दिन तक जुरना झनझनाता रहा, ढोल ढमकता रहा, वायलिन दर्दीली तानें सुनाती रही, हार्मोनियम बजता रहा और गीत गूँजते रहे। जैसा कि दागिस्‍तान में कहा जाता है, 'ढम-ढम भी थी और छम-छम भी', यानी सुनने को भी कुछ था और खाने-पीने को भी। सारा गाँव शादी में आया और बच्‍चे से बूढ़े तक हर कोई थोड़ा-बहुत नाचा भी।

शादी के तीसरे दिन चौधरी के कहने पर ऐलान करनेवाले ने ऊँची आवाज में यह घोषणा की कि अब दूल्‍हा और दुलहन नाचने के लिए मैदान में निकलेंगे। तीन दिनों के दौरान दूल्‍हे को तो सभी ने देखा था, मगर दुलहन सारा वक्‍त दुपट्टा ओढ़े बैठी रही थी। तीन दिन अबूतालिब उसकी बढ़िया पोशाकों को देखता रहा था। उसकी भड़कीली पोशाकें शायद काकेशियाई कविता-संग्रह के रंग-बिरंगे मुखावरण की याद दिलाती रही थीं।

दुलहन जब उठी और नाच के घेरे में आई, तो उसके शरीर की काठी से अबूतालिब कुछ चौंके। मोटापे की दृष्टि से तो राजकीय साहित्‍य प्रकाशन-गृह द्वारा प्रकाशित किर्गीज महाकाव्‍य 'मानास' भी उसका क्‍या मुकाबला कर सकता था। दुलहन चेहरे से पर्दा हटाने को तैयार हुई; सभी बुत-से बन गए और अबूतालिब ने भी अपनी साँस रोक ली। लीजिए, दुलहन ने दुपट्टा हटाया यानी वह क्षण आया, जिसका तीन दिन से इंतजार हो रहा था...

दुलहन की एक आँख खूंजह को देख रही थी, तो दूसरी बोतलीख को। गुस्‍से से एक-दूसरी से रूठी हुई आँखों के बीच बहुत लंबी और भद्दी-सी नाक टिकी हुई थी।

अबूतालिब का दिल उदास हो गया। इसके बाद वे न तो जुरना बजा पाए और न ही उनका कुछ खाने को मन हुआ। उन्‍हें शादी के जशन से जाना पड़ा।

मेरे ख्‍याल में अबूतालिब ने कुछ बढ़ा-चढ़ाकर यह किस्‍सा सुनाया था।

फिर भी अच्‍छी सज्‍जा बुरी किताब को नहीं बचा सकती। उसका सही मूल्‍यांकन करने के लिए उस पर से पर्दा हटाना जरूरी है।

कारण कि एक ऐसा भी साल था, जब पहाड़ी नारियों की स्थिति और उनके साथ पुरुषों के व्‍यवहार का सवाल उचित ऊँचे स्‍तर पर और 'उग्रतम रूप' में उठाया गया था।

उस साल पति अपनी पत्‍नी को एक भी भला-बुरा शब्‍द कहने की जुर्रत नहीं कर सकता था। मामूली घरेलू झगड़े पर भी पति को पार्टी हलका कमिटी में बुलाकर डाँट पिलाई जाती थी। इसलिए कि किसी तरह का शिकवा-शिकायत न हो, सबसे पहले तो हलका पार्टी कमिटी के सभी कर्मचारियों की एक-एक करके मलामत की गई। उसी साल पहाड़ी औरतों की अक्‍सर कांग्रेसें हुईं, जिनमें मनमाने ढंग से इतने शब्‍द कहे गए, जितने बाद की सारी कांग्रेसों में नहीं कहे गए होंगे।

उसी साल इतवारों को एक लंबी-चौड़ी औरत बाजारों में गैर-कानूनी माल बेचने के लिए आने लगीं। मिलीशियामैन उसे टोकते हुए डरता था कि कहीं स्‍वतंत्र और समानाधिकारी पहाड़ी औरत के साथ कोई ज्‍यादती न हो जाए। मगर फिर भी तीसरे इतवार को उसने सहमते-सहमते इस पहाड़ी औरत को चेतावनी दे दी और पाँचवें इतवार को - जो भी होना हो, सो हो! - उसे हिरासत में लेकर थाने ले जाने का फैसला किया।

मिलीशियामैन जब तक उसे सड़क पर से अपने साथ ले जाता रहा, सभी तरफ से उस पर उँगलियाँ उठती रहीं और हैरान होते रहे कि स्‍वतंत्र और दासता मुक्‍त हुई पहाड़ी नारी को हिरासत में लेने की उसे हिम्‍मत ही कैसे हुई।

वहाँ, बाजार के भीड़-भड़क्‍के में इस माल बेचनेवाली औरत को अच्‍छी तरह देख पाना मुश्किल था, मगर अब कई चीजें, जैसे कि स्‍कर्ट के नीचे से झाँकते हुए बहुत ही बड़े-बड़े जूते मिलीशियामैन का ध्‍यान आकर्षित करने लगे।

'हाँ, यहाँ जरूर दाल में कुछ काला है!' मिलीशियामैन ने सोचा और औरत के मुँह पर से दुपट्टा हटा दिया। हैरानी से उभरी-उभरी आँखों और चट्टान पर उगी कँटीली झाड़ी जैसी मूँछोंवाले जवान मर्द का चेहरा मिलीशियामैन के सामने था।

कुछ कलाकार भी, जिनमें प्रतिभा, सब्र और आत्‍म-सम्‍मान की कमी होती है, अपना माल बेचने के लिए पराये कपड़े पहन लेते हैं, बाहरी रूप की चमक-दमक से विचारों की दुर्बलता को छिपाते हैं। मगर यदि पेट में चूहे कूद रहे हों, तो बाँकपन से फर की टोपी ओढ़ने में क्‍या तुक है?

ऐसे ही लकड़ी का बना हुआ खंजर चाहे कितना ही सुंदर क्‍यों न हो, उससे तो चूजे को भी नहीं काटा जा सकता। वह तो सिर्फ इसी लायक है कि बारिश की धार को काट ले।

ऐसे ही गुड़ियों की शादी करने से बच्‍चे पैदा नहीं होते। ऐसे ही जब लड़के की सुन्‍नत करनी होती है, तो उसे हंस का पंख दिखाया जाता है। मगर ऐसा तो सिर्फ धोखा देने के लिए किया जाता है। हंस के पंख से सुन्‍नत नहीं हो सकती, इसके लिए तेज चाकू की जरूरत होती है।

मगर पाठक बच्‍चे नहीं है कि उनकी आँखों में धूल झोंकी जाए और मैं अभिनेता नहीं हूँ कि म्‍यान में, चाहे वह असली और सोने का मुलम्‍मा चढ़ी हो, दफ्ती का खंजर डाले फिरूँ।

बेशक यह सही है कि म्‍यानों की भी जरूरत होती है - उनके बिना खंजरों को जंग लग जाता है। म्‍यान अगर सुंदर हों, तो अच्‍छा ही है;

बेशक यह सही है कि जब कोई सूरमा धावे में कोई कीमती चीज लेकर लौटता है, तो बीवी घोड़े की गर्दन पर रेशमी रूमाल बाँधती है;

बेशक यह सही है कि बहुत ही बढ़िया विचार के लिए बहुत ही प्राणहीन भाषा तो ऐसे ही है, जैसे मेमने के लिए भेड़िया;

बेशक यह सही है कि मजबूत-से-मजबूत छकड़ा ऊबड़-खाबड़ रास्‍ते में धचके खा सकता है और खड्ड में भी गिर सकता है;

बेशक यह सही है कि गधे का साज घोड़े की पीठ की शोभा नहीं बढ़ा सकता और बढ़िया घोड़े का जीन गधे की पीठ पर शोभा नहीं देगा।

यहाँ मैं आपको एक बालखारीवासी और उसकी बूढ़ी घोड़ी का किस्‍सा सुनाता हूँ।

एक बालखारीवासी और उसकी बूढ़ी घोड़ी का किस्‍सा

एक बार बालखारीवासी ने अपनी बेचारी बूढ़ी घोड़ी पर गमले, गागरें, सुराहियाँ और रकाबियाँ लादीं और चल दिया उन्‍हें गाँवों में बेचने।

एक अवार गाँव में उस दिन घुड़दौड़ों का जशन था। जोशीले जवान अपने और भी ज्‍यादा जोशीले घोड़ों पर इस गाँव की तरफ जा रहे थे। जवान भी बढ़िया थे और घोड़े भी। जवान भी सुडौल और सुंदर थे और उनके घोड़े और भी ज्‍यादा सुडौल और सुंदर थे। जवानों की आँखों में दिलेरी और शोखी की चमक थी और घोड़ों की आँखों में बेचैनी की।

घुड़सवार एक कतार में खड़े होने शुरू हो गए थे कि अचानक शांत बालखारीवासी अपनी बूढ़ी घोड़ी पर उसी मैदान में सामने आ गया। बालखारीवासी ऊँघता-सा लगता था और उसकी घोड़ी तो जैसे चलते-चलते ही सोती जाती थी। जवान लोगों ने बालखारीवासी से मजाक करना शुरू किया।

'आओ, तुम भी हमारे साथ घुड़दौड़ में शामिल हो जाओ!'

'लाओ, तुम्‍हारी बूढ़ी घोड़ी को भी तेज घोड़ों में शामिल कर लें।'

'भला यह तुम्‍हारी बूढ़ी घोड़ी क्‍यों न हमारे तेज घोड़ों से हाड़ करें?'

'हमारे साथ दौड़ाओ इसे, वरना हमारे घोड़ों के नाल कौन समेटेगा।'

इन सभी मजाकों के जवाब में बालखारीवासी ने अपनी घोड़ी से चुपचाप मिट्टी के बर्तन, गागरें-सुराहियाँ और रकाबियाँ उतारनी शुरू कीं। बड़े इतमीनान से उसने अपनी चीजों का ढेर लगाया, इतमीनान से घोड़ी पर सवार हुआ और जवानों के करीब अपनी घोड़ी ले जाकर खड़ी कर दी।

जवानों के घोड़े अपने सुमों से जमीन खोद रहे थे, अपनी टाँगों को ऊपर उठाकर पिछली टाँगों पर खड़े हो रहे थे, जब कि बालखारीवासी की घोड़ी सिर झुकाए ऊँघ रही थी।

तो घुड़दौड़ शुरू हुई, जोशीले घोड़े बवंडर की तरह भाग चले। धूल का बादल उड़ा और इसी बादल में, उसके सिर पर बालखारीवासी की घोड़ी भी भाग चली। घुड़दौड़ का एक चक्‍कर, दूसरा और फिर तीसरा चक्‍कर खत्‍म हुआ। सभी घोड़ों को थकते हुए देख रहे थे, पहले तो वे पसीने से तर-ब-तर हुए, फिर उन पर झाग उभरा और वह गोलों के रूप में गर्म धूल में गिरने लगे। तेज घोड़ों की टाँगें मानो अधिकाधिक बेजान होती जाती थीं, उनकी रफ्तार धीमी पड़ती जाती थी। जवान अपने घोड़ों पर चाहे कितने ही चाबुक बरसाते, चाहे जूतों की कितनी ही एड़ियाँ मारते, पर किसी भी तरह तो घोड़े अधिक तेज नहीं दौड़ते थे। सिर्फ बालखारीवासी की बूढ़ी घोड़ी ही पहले की तरह दौड़ती जाती थी - न तेज, न धीमे, पहले तो वह सबसे पीछेवाले घोड़ों से आगे निकली, फिर आगेवाले घोड़ों के बराबर हुई और बाद में, आखिरी दसवें चक्‍कर में, उनसे भी आगे निकल गई।

इनाम का शानदार रूमाल बालखारीवासी की बूढ़ी घोड़ी की झुकी हुई गर्दन पर बाँधना पड़ा। बालखारीवासी बड़े इतमीनान से अपनी घोड़ी को मिट्टी के बर्तनों के ढेर के पास ले गया, उन्‍हें लादा और आगे चल दिया।

घुड़दौड़ों के मुकाबले में ऐसी घटनाएँ साहित्‍य में कहीं अक्‍सर होती हैं।

नोटबुक से। जो कविताएँ आसानी से लिखी गई थीं, उन्‍हें पढ़ना कठिन होता है। जो कविताएँ मुश्किल से लिखी गई थीं, उन्‍हें पढ़ना आसान होता है। कविता का रूप और भाव - ये तो मानो पोशाक और व्‍यक्ति होते हैं। अगर आदमी भला, समझदार और नेक हो, तो वह अपने अनुरूप ही कपड़े भी क्‍यों न पहने। अगर आदमी का चेहरा सुंदर हो, तो उसके भाव भी क्‍यों न सुंदर हों।

अक्‍सर ऐसा होता है कि सुंदर नारियाँ समझदार नहीं होतीं और अगर वे बहुत समझदार होती हैं, तो सुंदर नहीं होतीं। कला-कृतियों के साथ भी ऐसा ही होता है।

मगर सुंदर और समझदार नारियाँ भी होती हैं। वास्‍तव में प्रतिभाशाली कवियों की किताबों के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है।

एक मआलीवासी ने कहा था - 'हमारे गाँव की तरफ आनेवाला व्‍यक्ति जैसे ही दर्रे में दिखाई देता है, वैसे ही मैं यह जान जाता हूँ कि वह अच्‍छा या बुरा आदमी है।'

एक कूबाचीवासी ने कहा था - 'सोना या चाँदी खुद अपने में कोई महत्‍व नहीं रखते। जरूरत तो इस बात की है कि कारीगर के हाथ सोने के हों।'

साधारण मिट्टी से ही तो

बनें गागरें, अद्भुत, सुंदर,

जैसे साधारण शब्‍दों में

कविता चमके निखर, सँवर कर।


गागर पर आलेख

पंद्रह हजार से अधिक दिन मैं इस दुनिया में जी चुका हूँ। बहुत-से रास्‍तों पर मैं आ-जा चुका हूँ। हजारों लोगों से मेरी मुलाकात हो चुकी है। जैसे बरसात या बर्फ पिघलने के वक्‍त बहुत-सी पहाड़ी धाराएँ बह चलती हैं, वैसे ही मेरी अनुभूतियाँ असंख्‍य हैं। मगर उन्‍हें कैसे सूत्रबद्ध करूँ ताकि वे किताब का रूप ले सकें? उसे लिखना तो वैसी ही बात है जैसे कि घाटी में चौड़ी और गहरी धारा बनाना। मगर यह तो आधा ही काम होगा। जरूरत तो इस बात की है कि सभी पहाड़ी धाराएँ मिलकर इस बड़ी धारा में बहें। कैसे मैं यह करूँ? जीवन की जानकारी के अलावा और क्‍या जानना जरूरी है? साहित्‍य की सैद्धांतिक जानकारी? कविता लिखने के बजाय इस बारे में ज्‍यादा सोचना ठीक नहीं कि कविता लिखी कैसे जाए।

मैं यह कहना चाहता हूँ कि ऐसी साहित्यिक शैलियाँ और धाराएँ नहीं हैं, जिनसे मुझे प्‍यार हो। मेरे प्‍यारे लेखक, चित्रकार और कलाकार हैं।

नोटबुक से। साहित्‍य-संस्‍थान में एक अवार से परीक्षा के समय यह पूछा गया कि यथार्थवाद और रोमानवाद में क्‍या अंतर है? अवार ने इस विषय की किताब तो शायद पढ़ी नहीं थी, मगर जवाब देना जरूरी था। उसने सोचा और प्रोफेसर को यह जवाब दिया -

'जब हम उकाब को उकाब कहते हैं, तो वह यथार्थवाद होता है, और जब मुर्गे को उकाब कहते हैं तो रोमानवाद।'

प्रोफेसर हँस पड़े और मेरे अवार बंधु को पास कर दिया।

जहाँ तक मेरा संबंध है, तो मैं तो शुरू से ही घोड़े को घोड़ा, गधे को गधा, मुर्गे को मुर्गा और मर्द को मर्द कहने की कोशिश करता हूँ।

नोटबुक से। सुविख्‍यात रवींद्रनाथ टैगोर के एक भाई थे, वे भी लेखक थे। वे भारतीय साहित्‍य में बंगाली शैली के अनुगामी थे। रवींद्रनाथ तो खुद एक शैली, पूरी एक साहित्यिक धारा थे और दोनों भाइयों के बीच यही अंतर था।

रवींद्रनाथ की आत्‍मा में अपना एक पक्षी था, जो दूसरे पक्षियों से बिल्‍कुल भिन्‍न था और उनके पहले जिसका कभी अस्तित्‍व नहीं रहा था। उन्‍होंने कला-क्षेत्र में उसे स्‍वतंत्रता से उड़ान भरने दी और सभी ने देखा कि यह रवींद्रनाथ टैगोर का पक्षी है।

यदि चित्रकार अपने पक्षी को मुक्‍त उड़ान भरने के लिए छोड़ देता है और वह दूसरे, अपने जैसे पक्षियों के झुंड में घुल-मिल जाता है, तो इसका यह मतलब होता है कि वह चित्रकार नहीं है। इसका यह अर्थ निकलता है कि वह अपना, असाधारण और अद्भुत पक्षी नहीं, बल्कि मामूली गौरेया उड़ाता है और अब कोई भी उसकी गौरैया को दूसरों की, बेशक सुंदर हों, फिर भी गौरैया ठहरीं, अलग से नहीं पहचान पाता।

खुद आग जलाने के लिए आदमी का अपना चूल्‍हा होना चाहिए। किसी दूसरे के घोड़े पर सवार होनेवाले को देर-सबेर उससे उतरना और उसे उसके मालि‍क को सौंप देना होगा। पराये विचारों पर जीन नहीं कसिए, अपने लिए अपने विचार खोजिए।

मैं साहित्‍य की पंदूर और लेखक की उसके तारों से तुलना करने का साहस करता हूँ। हर तार की अपनी आवाज, अपनी गूँज होती है, मगर मिलकर वे मधुर संगीत पैदा करते हैं।

अवार जाति के पंदूर के सिर्फ दो तार होते हैं। मेरे पिता जी के बारे में कहा जाता था कि अवार साहित्‍य के पंदूर पर उन्‍होंने एक तार और जोड़ दिया है।

मैं अपना भी एक तार जोड़ना चाहता हूँ, जिसकी झंकार दूसरों से अलग हो। प्राचीन अवार साज का मैं एक और तार बनना चाहता हूँ।

मैं उन शिकारियों जैसा नहीं होना चाहता, जो बाजार से हिरन खरीद लेते हैं और घर आकर यह कहते हैं कि खुद मारकर लाए हैं।

या ऐसा भी होता है कि यह अफवाह फैल जाती है कि मानो किसी दर्रे में एक शिकारी ने बहुत बड़े पहाड़ी बकरे को गोली का निशाना बनाया है। सभी शिकारी जल्‍दी से इसी खुशकिस्‍मत दर्रे की तरफ भाग खड़े होते हैं। इसी बीच पहला शिकारी किसी दूसरी जगह पर एक बहुत बड़े भालू को मार गिराता है। शिकारियों का दल उधर भागता है, जबकि बढ़िया शिकारी किसी तीसरी जगह पर बड़ा-सा चीता मार डालता है... तो सवाल पैदा होता है कि असली शिकारी कौन है? वह जो खुद शिकार करता है या वे जो उसके पीछे-पीछे भागते हैं? ऐसों को तो दूसरे के फंदे से शिकार निकालते हुए भी शर्म नहीं आती।

वे मुझे कुछ दूसरे लेखकों की याद दिलाते हैं। ऐसा करना तो उचित नहीं, जैसा कि मेरे एक परिचित ने किया। कोर्नेई इवानोविच चुकोव्‍स्‍की से जान-पहचान होने के बाद वह ऐसे जाहिर करता था मानो अबूतालिब को जानता ही न हो।

सागर तक पहुँच जानेवाली, अपने सामने असीम नीला विस्‍तार देखने और उस महान नीलिमा में घुल-मिल जानेवाली नदिया को ऊँचे पहाड़ों में उस चश्‍मे को नहीं भूल जाना चाहिए, जिससे धरती पर उसका पथ आरंभ हुआ। उस पथरीले, सँकरे, ऊबड़-खाबड़ और टेढ़े-मेढ़े रास्‍ते को भी नहीं भूल जाना चाहिए, जो उसे तय करना पड़ा।

हाँ, मैं पहाड़ी नदिया हूँ। मैं अपने स्‍त्रोत, अपने चश्‍मे, अपने पथरीले पेटे को प्‍यार करता हूँ। मैं प्‍यार करता हूँ उन धुँधले दर्रों को, जिनमें से मेरा पानी बहता है, उन चट्टानों को, जिन पर से वह रुपहले जल-प्रपातों में गिरता है, उन शांत समतल स्‍थानों को, जहाँ वह इर्द-गिर्द के पहाड़ों, आकाश और आकाश के सितारों को प्रतिबिंबित करता हुआ गहराई में जमा होता है और फिर से पहले धीरे-धीरे बहने लगता है और बाद में अपनी गति तेज कर देता है।

मगर मैं यह नहीं कहता हूँ कि मेरे लिए सिर्फ दर्रे की काफी होंगे। मैं बहता जा रहा हूँ - इसका मतलब है कि मेरे सामने लक्ष्‍य है। मुझे केवल पूर्वानुभूति ही नहीं होती - मैं सागर के असीम विस्‍तार को देख रहा हूँ, उसे जानता हूँ।

मैं अकेला ही तो ऐसा नहीं हूँ। यह कहना ज्‍यादा सही होगा कि चूँकि सारे दागिस्‍तान का दृष्टि-क्षेत्र विस्‍तृत हो गया है, इसीलिए मेरा भी। इन सालों और दशाब्दियों के दौरान हमारे कब्रिस्‍तानों की ही नही, जीवन और दुनिया के बारे में हमारे दृष्टिकोणों की सीमाएँ भी विस्‍तृत हुई हैं।

मैं अवार कवि हूँ। मगर अपने दिल में मैं केवल अवारिस्‍तान, केवल दागिस्‍तान, केवल सारे देश के लिए ही नहीं, बल्कि सारी पृथ्‍वी के लिए नागरिक के उत्‍तरदायित्‍व को अनुभव करता हूँ। यह बीसवीं सदी है। इसमें सिर्फ ऐसे ही जिया जा सकता है।

मुझे बताया गया। मेरे जन्‍म के फौरन बाद मेरे पिता जी को नौकरी के सिलसिले में अस्‍थायी रूप से हारादारीह गाँव में जाना पड़ा। पिता जी के घोड़े के साथ दो सफरी थैले, दो खुरजियाँ लटकी हुई थीं। एक में तो हमारा घरेलू सामान था - कपड़े-लत्‍ते, बचा-खुचा आटा, दलिया, चर्बी और किताबें, दूसरे थैले में से मेरा सिर बाहर झाँक रहा था।

इस सफर के बाद मेरी माँ सख्‍त बीमार हो गई। हम जिस गाँव में पहुँचे, वहाँ एक ऐसी गरीब और एकाकी औरत मिल गई, जिसका बच्‍चा उन्‍ही दिनों चल बसा था। वही मुझे अपना दूध पिलाने लगी। वह मेरी धाय, मेरी दूसरी माँ बन गई।

तो इस तरह दुनिया में दो नारियाँ हैं, जिनका मैं ऋणी हूँ। मेरी उम्र चाहे कितनी ही लंबी क्‍यों न हो और इन नारियों के लिए चाहे मैं कुछ भी क्‍यों न करूँ, उनके नाम पर कोई भी कारनामा न कर दिखाऊँ, उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो पाऊँगा। बेटा अपना ऋण कभी नहीं चुका पाता।

इन दो नारियों में से एक तो मेरी माँ है, जिसने मुझे जन्‍म दिया, सबसे पहले मुझे पालने में झुलाया, पहली लोरी गाई और दूसरी... वह भी मेरी माँ है, जिसने मुझे अपनी छाती का दूध पिलाकर मौत के मुँह से बचाया, जिसकी बदौलत मुझमें जिंदगी की गर्मी आई और मैं मौत की तंग पगडंडी से जिंदगी के बड़े रास्‍ते पर आ गया।

मेरी जनता, मेरे छोटे-से देश, मेरी हर किताब की भी दो माताएँ हैं।

मेरी पहली माँ है - मेरी मातृभूमि दागिस्‍तान। मेरा यहाँ जन्‍म हुआ, यहाँ मैंने पहले पहल अपनी मातृभाषा सुनी, उसे सीखा और वह मेरे जीवन का अभिन्‍न अंग बन गई। यहीं मैंने पहले पहल अपनी जनता के गीत सुने और खुद पहला गीत गाया। यहीं मैंने पहले पहल पानी और रोटी को चखा। नुकीली-तीखी चट्टानों पर चढ़ते हुए बचपन में कितनी ही बार मुझे चोटें लगीं, मगर मेरी मातृभूमि के पानी और जड़ी-बूटियों ने मेरे सभी घावों को अच्‍छा कर दिया। पहाड़ी लोगों का कहना है कि ऐसी कोई भी तो बीमारी नहीं है, जिसके इलाज के लिए हमारे यहाँ पहाड़ी जड़ी-बूटियाँ न हों।

मेरी दूसरी माँ है - महान रूस, मास्‍को। उसने मुझे शिक्षा-दीक्षा दी, मुझे पंख दिए, मुझे बड़े रास्‍ते पर पहुँचाया, असीम क्षितिज दिखाए, सारी दुनिया को मेरे सामने उभारा।

बेटे के रूप में मैं दोनों माताओं का ऋणी हूँ। मेरे पहाड़ी घर की दीवार पर दो कालीन-चित्र लटके हुए हैं। एक चित्र है महमूद का और दूसरा - पुश्किन का। ब्‍लोक के रचना-खंडों में, जिनसे पीटर्सबर्ग की दूधिया रातों की ठंडी साँसों की अनुभूति होती है, ऊँची अवार चरागाहों के अंगारों से दहकते हुए अनेक रंगों के फूल रखे हैं।

दो माताएँ - ये तो जैसे दो पंख हैं, दो हाथ, दो आँखें, दो गीत हैं। दो माताओं के हाथों ने मेरा सिर सहलाया है और जरूरत होने पर मेरे कान भी खींचे हैं। दोनों माताओं ने मेरे पंदूर पर एक-एक तार लगाया है। उन्‍होंने मुझे जमीन से, मेरे गाँव से ऊपर उठाया और उनके कंधों पर से मैंने दुनिया में बहुत कुछ देखा, जिसे अगर वे मुझे ऊपर न उठातीं, तो मैं कभी न देख पाता। जिस तरह उड़ता हुआ उकाब यह नहीं जानता कि कौन-सा पंख उसके लिए अधिक जरूरी और मूल्‍यवान है, उसी तरह मुझे भी यह मालूम नहीं है कि कौन-सी माँ मेरे लिए अधिक मूल्‍यवान है।

पहले पहाड़ी लोग जड़ी-बूटियों और पानी से अपनी सभी बीमारियों का इलाज करते थे। नीम हकीमों पर भी विश्‍वास था उन्‍हें। हाँ, ऐसे नीम हकीम भी थे, जिनकी लोग-बाग अभी तक चर्चा करते हैं। ये नीम हकीम सिर दर्द का इलाज करने के लिए काली भेड़ काटने को मजबूर करते थे।

हर अवार यह जानता है कि भूरी या सफेद भेड़ की तुलना में काली भेड़ का मांस अधिक रसीला और जायकेदार होता है। नीम हकीम उसी वक्‍त उतारी गई भेड़ की खाल को बीमार के सिर के गिर्द लपेट देता और उसे ऐसे ही बैठने को मजबूर करता। मांस वह अपने साथ ले जाता।

ऐसे नीम हकीमों का तो हम अब जिक्र नहीं करेंगे। मगर अच्‍छे लोक-वैद्य और अच्‍छी देसी दवाइयाँ भी थीं।

एक बार मेरे पिता जी मास्‍को के क्रेमलिन अस्‍पताल में थे। वहाँ उन्‍हें दागिस्‍तान की जड़ी-बूटियों और पानी का ध्‍यान हो आया और उन्‍होंने अपने बेटों से बूत्‍सरा पर्वत के छोटे-से सोते का पानी लाने का अनुरोध किया।

बेटों के लिए पिता के शब्‍द कानून होते हैं। वे दागिस्‍तान पहुँचे, बूत्‍सरा पर्वत पर चढ़े, वहाँ सोता ढूँढ़ा और क्रेम्लिन अस्‍पताल में बीमार पड़े हुए अवार कवि के लिए वहाँ से पानी लाए।

पिता जी ने पानी पिया और मानो उन्‍हें कुछ चैन मिला। वे तो स्‍वस्‍थ भी हो गए। मगर उन्‍हें यह मालूम नहीं था कि उसी दिन उन्‍हें विदेश से लाई गई किसी दवाई की सुइयाँ भी लगाई जाने लगी थीं।

संभव है कि वे केवल विश्‍व चिकित्‍सा विज्ञान द्वारा तैयार की गई दवाइयों से ही स्‍वस्‍थ न होते। संभव है कि केवल अवार जल, हमारी जातीय लोक-औषधि से ही उन्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य-लाभ न होता। किंतु दोनों दवाइयों से वे सेहतमंद हो गए।

साहित्‍य में भी ऐसा ही होना चाहिए। उसके स्रोत हैं - मातृभूमि, अपनी जनता, मातृ-भाषा। मगर हर सच्‍चे लेखक की चेतना अपनी जाति की सीमाओं से कहीं अधिक विस्‍तृत होती है। सारी मानव-जाति, समूची दुनिया की समस्‍याएँ उसे बेचैन करती हैं, उसके दिल-दिमाग में जगह पाती हैं।

चलता राही जब मंजिल को

संग भला वह लेता क्‍या?

रोटी लेता, मदिरा लेता...

इनकी मगर जरूरत क्‍या?

हम आदर-सत्‍कार करेंगे

सिर आँखों पर, आनेवाले!

रोटी तुम्‍हें पहाड़िन देगी

और पहाड़ी मदिरा ढाले।

चलता राही जब मंजिल को

संग भला वह लेता क्‍या?

खंजर तेज साथ में लेता...

उसकी मगर जरूरत क्‍या?

यहाँ पहाड़ों में स्‍वागत है

किंतु अगर कोई दुश्‍मन,

कहीं घात में होगा, उसका

हम छलनी कर देंगे, तन।

चलता राही जब मंजिल को

संग भला वह लेता क्‍या?

गीत साथ में अपने लेता...

उसकी मगर जरूरत क्‍या?

गीत यहाँ अद्भुत से अद्भुत

उनका कोई नहीं शुमार,

फिर भी चाहो तो संग ले लो

उसमें नहीं जरा भी भार।

यदि डाक्‍टर से लेखक की तुलना की जाए, तो उसे सदियों की जानी-परखी लोक-औषधियों और विश्‍व विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों का उपयोग करने में समर्थ होना चाहिए।

यदि पद-यात्री से लेखक की तुलना की जाए, तो किसी दूसरी जाति का मेहमान बनते हुए उसे अपनी धरती के गीतों को हृदय में सहेजकर ले जाना चाहिए, किंतु उन गीतों के लिए भी अपने हृदय में स्‍थान निकाल लेना चाहिए, जो उसे वहाँ सुनाए जाएँगे।

उसके अपने लोग उसे विदा करते हैं, दूसरे उसका स्‍वागत करते हैं और गीत सभी जातियों के पास होते हैं।

हमारे गाँवों में जब पहले व्‍याख्‍यानदाता और भाषणकर्ता आने लगे, तो केलेब गाँव की नारियाँ व्‍याख्‍यानदाता की ओर पीठ करके बैठती थीं ताकि वह उनके चेहरे न देख सके। मगर व्‍याख्‍यान के बाद जब गायक सामने आता और गाने लगता, तो नारियाँ गाने का आदर करते हुए पूर्वाग्रहों को ताक पर रखकर गायक की तरफ मुँह कर लेतीं। इतना ही नहीं, वे तो मुँह से पर्दा भी हटा लेतीं।

कोई ऐसा दिन, कोई ऐसा मिनट भी नहीं होता, जब मेरी आत्‍मा में उस गीत का स्‍पंदन न हो, उस गीत की गूँज सुनाई न दे, जो मेरी माँ ने मेरे पालने पर झुककर गाया था। यही गीत, मेरे सभी गीतों का पालना है। यह वह तकिया है, जिस पर मैं अपना थका हुआ सिर टिकाता हूँ। वह घोड़ा है, जो मुझे सभी जगह लिए घूमता है। यह वह चश्‍मा है, जो मेरी प्‍यास बुझाता है, वह चूल्‍हा है, जो मुझे गर्माता है और इसी की गर्मी मैं जीवन में अपने साथ लिए घूमता हूँ।

पर साथ ही मैं शूकूम जैसा नहीं बनना चाहता, जो बड़ा और तगड़ा बालक हो जाने पर भी माँ का दूध पिए बिना नहीं रह सकता था और इसलिए उसकी छाती की ओर लपकता था। ऐसों के बारे में कहा जाता है - 'जिस्‍म साँड का, दिमाग बछड़े का।'

आजकल हम तरह-तरह की प्रश्‍नावलियों के उत्‍तर लिखने के आदी हो चुके हैं। अपने जीवन में न जाने कितने ऐसे प्रश्‍न-पत्र भर चुका हूँ मैं! एक भी प्रश्‍न-पत्र में मैंने मातृभूमि के प्रति प्‍यार का प्रश्‍न नहीं देखा। मगर इसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि ऐसा प्‍यार दुनिया के लोगों में है ही नहीं।

दूसरी तरफ, प्रश्‍न-पत्र में केवल 'सोवियत संघ का नागरिक' लिख देना ही काफी नहीं है, व्‍यक्ति को वास्‍तव में वैसा होना भी चाहिए। 'सोवियत संघ की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का सदस्‍य' लिख देना ही पर्याप्‍त नहीं है, अर्थ में वैसा बनना भी चाहिए। 'मातृभाषा-अवार' लिख देना ही काफी नहीं, वास्‍तव में ही यह मातृभाषा होनी चाहिए, इसके प्रति वफादार रहने का साहस होना चाहिए।

जगह-जगह के मेहमानो, मेरे यहाँ आइए, मेरे पास तरह-तरह के गीत लाइए! भाइयों-बहनों की तरह आइए, मैं सभी का स्‍वागत करूँगा, सभी को अपने दिल में जगह दे सकूँगा!

अगर कोई पहाड़ी आदमी किसी दूसरी जाति की नारी को जीन पर अपने पीछे बैठाए हुए खूंजह में लौटता था, तो ऐसे आदमी को तिरस्‍कार की नजर से देखा जाता था, गाँव के बड़े-बूढ़े उसकी इस हरकत की लानत-मलामत करते थे। मगर अब तो बूढ़े-जवान, सभी इस चीज के आदी हो चुके हैं। किसी भी दूसरी जाति की नारी से किसी अवार की शादी को कलंक नहीं माना जाता। अब केवल एक ही विवाह की भर्त्‍सना की जा‍ती है - प्रेमहीन विवाह की।

क्‍या यह सच नहीं है कि फूल जितने भी विविधतापूर्ण होंगे, उनका उतना ही ज्‍यादा खूबसूरत गुलदस्‍ता बनेगा। आकाश में जितने ज्‍यादा तारे होंगे, वह उतना ही ज्‍यादा जगमगाएगा। इंद्रधुनष इसीलिए तो सुंदर लगता है कि पृथ्‍वी के सभी रंगों को अपने में समेट लेता है।

अफ्रीका में मैंने एक अद्भुत, एक असाधारण फूल देखा। इस फूल की हर पंखुड़ी का अपना अलग रंग होता है। हर पंखुड़ी की अपनी सुगंध, अपना नाम है। संक्षेप में, डंडी पर एक बढ़िया, तैयार गुलदस्‍ता पनपता है, मगर फिर भी वह एक ही फूल होता है।

मैं यह चाहता हूँ कि मेरी अवार पुस्‍तक उस अद्भुत अफ्रीकी फूल जैसी हो, ताकि हर कोई उसमें अपना कुछ प्रिय, कुछ निकटवर्ती देख पा सके।

लीजिए, मैं वे सभी चीजें जिनसे ऐसी पुस्‍तक बननी चाहिए, अपने सामने रख लेता हूँ। कूबाची के अच्‍छे कारीगर की तरह हर चीज मेरे नजदीक रखी है। उसके पास होते हैं - चाँदी, सोना, काटनेवाले औजार, हथौड़ियाँ, छेनियाँ, ठप्‍पे और खाके। मेरे पास हैं - मातृभाषा, जीवन का अनुभव, लोगों के चित्र और चरित्र, गीतों की धुनें, इतिहास की समझ, न्‍याय भावना, प्‍यार, मातृभूमि का प्राकृतिक सौंदर्य, अपने पिता की स्‍मृति, अपनी जनता का अतीत और भविष्‍य... मेरे हाथों में स्‍वर्ण-पिंड हैं। मगर मेरे हाथ भी सोने के हैं या नहीं? मुझमें काफी प्रतिभा, काफी कारीगरी भी होगी।

मैं क्‍या करूँ कि मेरा गीत जीते-जागते, पंख फड़फड़ाते पक्षी की तरह आपकी हथेली में रखा जा सके, कि वह प्‍यार की भाँति ही आमंत्रण और पूर्वसूचना के बिना आपके दिलों में उतर जाए?

मेरी मेज पर जो कुछ मेरे सामने रखा है, मैं फिर से उस पर नजर डालता हूँ...

कहते हैं कि उस जवान की बीवी उसे छोड़ जाए, जिसके पास घोड़ा नहीं।

ऐसा भी कहते हैं कि उस जवान की बीवी भी उसे छोड़ जाए, जिसके पास घोड़े का जीन या चाबुक नहीं है।

कहते हैं कि उकाब को घास और गधे को मांस नहीं खिलाइए।

कहते हैं कि अगर दीवारें मजबूत नहीं हैं, तो सुंदर मकान भी गिर सकता है।

कहते हैं कि मुर्गी को मादा उकाब होने का सपना आया, चट्टान से उड़ी और पंख तोड़ लिए।

छोटे-से सोते ने यह सपना देखा कि वह बड़ा दरिया है, बालू में वह चला और वहीं सूख गया।

भाषा : मेरा दाग़िस्तान

बच्‍चा यहाँ अरे, रोता है, हँसता है

मुँह से लेकिन शब्‍द नहीं कह सकता है

आएगा, वह दिन भी आखिर आएगा

कौन, किसलिए जग में आया, सबको यह बतलाएगा।

पालने पर आलेख

दुनिया में अगर शब्‍द न होता,

तो वह वैसी न होती, जैसी अब है।

संसार की सृष्टि के एक सौ बरस पहले कवि का जन्‍म हुआ।

भाषा-ज्ञान के बिना कविता रचने का

निर्णय करनेवाला व्‍यक्ति उस पागल के समान है,

जो तैरना न जानते हुए

तूफानी नदी में कूद पड़ता है।


कुछ लोग इसलिए नहीं बोलते हैं कि उनके दिमाग में महत्‍वपूर्ण विचारों का जमघट होता है, बल्कि इसलिए कि उनकी जबान खुजलाती है। कुछ लोग इसलिए काव्‍य-रचना नहीं करते हैं कि उनके हृदयों में प्रबल भावनाएँ उमड़ती-घुमड़ती होती हैं, बल्कि इसलिए कि... वास्‍तव में यह कहना भी मुश्किल है कि क्‍यों वे अचानक कविता रचने लगते हैं। उनकी कविताओं की गूँज भेड़ की कच्‍ची खाल की थैली में डाले गए अखरोटों की नीरस सरसराहट के समान होती है।

ये लोग अपने इर्द-गिर्द देखना और पहले इस चीज पर नजर नहीं डालना चाहते कि दुनिया में क्‍या हो रहा है। वे उन समस्‍वरों, गीतों और धुनों को सुनना और जानना नहीं चाहते, जिनसे यह दुनिया भरपूर है।

यह पूछा जाता है कि आदमी को आँखें, कान और जबान किसलिए दिए गए है? किसलिए आ‍दमी की दो आँखें और दो कान हैं, मगर जबान एक है? इसका कारण यह है कि जबान से एक भी शब्‍द दुनिया के सामने निकालने के पहले दो आँखों को देखना और दो कानों को सुनना चाहिए।

जबान से निकला हुआ शब्‍द तो तंग और खड़ी पहाड़ी पगडंडी से खुले मैदान में उतर आनेवाले घोड़े के समान ही है। पूछा जा सकता है कि क्‍या उस शब्‍द को दुनिया में भेजना ठीक होगा, जो दिल में से होकर नहीं आया?

महज शब्‍द नाम की कोई चीज नहीं है। वह या तो शाप है या बधाई, सुंदरता है या पीड़ा, गंदगी है या फूल, झूठ है या सच, प्रकाश है या अंधकार।

अपने बीहड़, विकट क्षेत्र में सुना कभी यह

हम पापी जन के हित केवल शब्‍द रचा संसार,

कैसी है बस, गूँज शब्‍द की?

पूजा जैसी? या कि कसम-सी? या आदेश, पुकार?

इस दुनिया की रक्षा को हम डटते हैं

घायल दुनिया, सभी बुराइयों से जर्जर,

हमें शब्‍द दो-पूजा का हो, या उसमें संकल्‍प छिपा हो

बेशक हो अभिशाप, मगर वह दुनिया की दे रक्षा कर!

मेरे एक दोस्‍त ने एक बार कहा था, अपने शब्‍द का मैं खुद मालिक हूँ, चाहूँ तो उसे पूरा करूँ, चाहूँ तो न पूरा करूँ। मेरे दोस्‍त के लिए तो शायद ऐसा ही ठीक रहे, मगर लेखक को तो अपने शब्‍दों, अपने वचनों-शापों का स्‍वामी होना चाहिए। एक ही चीज के लिए वह दो बार तो कसमें नहीं खा सकता। वैसे, जो अक्‍सर कसमें खाता है, मेरे ख्‍याल में वह महज झूठा होता है।

अगर इस किताब की तुलना कालीन से की जाए, तो मैं अवार भाषा के रंग-बिरंगे धागों से उसे बुन रहा हूँ। अगर इसे भेड़ की खाल का कोट मान लिया जाए, तो अवार भाषा के मजबूत धागों से मैं इस खाल की सिलाई कर रहा हूँ।

सुनने में आता है कि बहुत-बहुत पहले अवार भाषा में बहुत ही थोड़े शब्‍द थे। 'स्‍वतंत्रता', 'जीवन', 'साहस', 'मैत्री', 'नेकी' जैसी अवधारणाओं को एक ही शब्‍द या अर्थ की दृष्टि से एक-दूसरे से अत्‍यधिक मिलते-जुलते शब्‍दों द्वारा व्‍यक्‍त किया जाता है। दूसरे लोग बेशक यह कहते रहें कि हमारी छोटी-सी जाति की भाषा समृद्ध नहीं। मगर मैं तो अपनी भाषा में जो चाहूँ, वही कह सकता हूँ और अपने विचारों तथा भावनाओं को व्‍यक्‍त करने के लिए मुझे किसी दूसरी भाषा की जरूरत नहीं।

दागिस्‍तान में लाक नाम की एक बहुत छोटी जाति है। लगभग पचास हजार लोग लाक भाषा बोलते हैं। इससे अधिक सही गिनती करना कठिन होगा, क्‍योंकि वहाँ बच्‍चे भी हैं, जो अभी बोलना नहीं सीखे और ऐसे लोग भी हैं, जो अपनी पिताओं की जबान भूल चुके हैं।

लाकों की संख्‍या तो थोड़ी है, फिर भी दुनिया के बहुत-से हिस्‍सों में उनसे मुलाकात हो सकती है। पथरीली जमीन पर गरीबी की जिंदगी ने उन्‍हें दुनिया भर में भटकने के लिए मजबूर किया। वे सभी बहुत अच्‍छे कारीगर, बढ़िया मोची, सुनार और कलईसाज हैं। कुछ गीत गाते हुए जहाँ-तहाँ भटकते फिरा करते थे। दागिस्‍तान में ऐसा कहा जाता है - 'तरबूज को सावधानी से काटना, कहीं उसमें से लाक उछलकर न बाहर आ जाए।'

किसी लाक बेटे को परदेस भेजते हुए उसकी माँ यह हिदायत करती थी - 'शहरी तश्‍तरी में दलिया खाते समय यह देख लेना कि दलिए के नीचे हमारा कोई लाक तो नहीं है।'

यह किस्‍सा सुनाया जाता है। किसी बड़े शहर, मास्‍को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दागिस्‍तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस, भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेजगीन भाषा में बात करने की कोशिश की... लाक ने चाहे किसी भी जबान में बात करने की कोशिश क्‍यों न की, दागिस्‍तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका! चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाकात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जानेवाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा -

'तुम भी कैसे दागिस्‍तानी हो, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते! तुम दागिस्‍तानी नहीं मूर्ख ऊँट हो।'

इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूँ। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती। महत्‍वपूर्ण बात तो यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएँ भी जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएँ नहीं आती थीं।

अबूतालिब एक बार मास्‍को में थे। सड़क पर उन्‍हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्‍यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहाँ है। संयोग से कोई अंग्रेज ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कुछ बात नहीं, मास्‍को की सड़कों पर तो विदेशियों की कुछ कमी नहीं है।

अंग्रेज अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेजी, फिर फ्रांसीसी, स्‍पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा।

अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेजगीन, दार्गिन और कुमीक भाषाओं में अंग्रेज को अपनी बात समझाने की कोशिश की।

आखिर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्‍कृत दागिस्‍तानी ने जो अंग्रेजी भाषा के ढाई शब्‍द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा -

'देखा, संस्‍कृति का क्‍या महत्‍व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्‍कृत होते, तो अंग्रेज से बात कर पाते। समझे न?'

'समझ रहा हूँ,' अबूतालिब ने जवाब दिया। 'मगर अंग्रेज को मुझसे अधिक सुसंस्‍कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी जबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?'

मेरे लिए विभिन्‍न जातियों की भाषाएँ आकाश के सितारों के समान हैं। मैं यह नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेनेवाले अतिकाय सितारे में मिल जाएँ। इसके लिए सूरज है। मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्‍यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए।

मैं अपने सितारे - अपनी अवार मातृभाषा को प्‍यार करता हूँ। मैं उन भूतत्‍ववेत्ताओं पर विश्‍वास करता हूँ, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।

'अल्‍लाह, तुम्‍हारे बच्‍चों को उनकी माँ की भाषा से वंचित कर दे,' एक नारी ने दूसरी को कोसा।

कोसनों के बारे में। जब मैंने अपनी लंबी कविता 'पहाड़िन' लिखी, तो उसकी एक गुस्‍सैल पात्र के मुँह से कहलवाने के लिए कोसनों की जरूरत महसूस हुई। मुझे बताया गया कि एक गाँव में एक बुजुर्ग पहाड़िन रहती है, जिसे उसकी पड़ोसिनों में से कोई भी कोसनों के मामले में मात नहीं दे सकती। मैं फौरन इसी अद्भुत औरत की तरफ चल दिया।

वसंत की एक प्‍यारी सुबह को, जब भला-बुरा कहने और गालियाँ बकने के बजाय खुश होने और गाने को मन होता है, मैं उस बुजुर्ग औरत के घर पहुँचा। मैंने निष्‍कपट भाव से अपने आने का उद्देश्‍य कह दिया। मैं तो आपसे कुछ जोरदार गालियाँ सुनना चाहता हूँ। मैं उन्‍हें लिख लूँगा और अपनी लंबी कविता में उनका उपयोग करूँगा।

'अल्‍लाह करे कि तुम्‍हारी जबान सूख जाए, कि तुम अपनी प्रेमिका का नाम भूल जाओ, कि जिस आदमी के पास तुम्‍हें काम से भेजा जाए, वह तुम्‍हारी बात को सही ढंग से न समझे। कि जब तुम दूर-दराज का सफर कर लौटो, तो अपने गाँव को अभिनंदन के शब्‍द कहने भूल जाओ, कि जब तुम्‍हारे मुँह में दाँत न रहें, तो उसमें हवा सीटियाँ बजाए... गीदड़ के बेटे, अगर मेरा मन खुश नहीं, तो क्‍या मैं हँस सकती हूँ (अल्‍लाह तुम्‍हें इस खुशी से महरूम रखे!)? जिस घर में कोई मरा नहीं, वहाँ रोने-धोने में क्‍या तुक है? अगर किसी ने मेरा दिल नहीं दुखाया, मुझे ठेस नहीं लगाई, तो क्‍या मैं अपने मन से गालियाँ गढ़ूँ? जाओ, अपना रास्‍ता नापो, फिर कभी ऐसे अनुरोध लेकर मेरे पास नहीं आना।'

'शुक्रिया मेहरबान दादी,' मैंने कहा और उसके घर से बाहर आ गया।

रास्‍ते में मैं यह सोचने लगा, 'अगर किसी तरह के गुस्‍से-गिले के बिना, यों ही, अचानक ही उसने मुझ पर ऐसी बढ़िया गालियों की बारिश कर दी, तो इसे सचमुच ही नाराज कर देनेवाले का क्‍या हाल होता होगा?'

मैं सोचता हूँ कि कभी-न-कभी कोई लोक-साहित्‍य संग्राहक पहाड़ी कोसनों-शापों का संग्रह करेगा और तब लोगों को इस बात का पता चलेगा कि पहाड़ी कितनी दूर-दूर की कौड़ी लाते हैं, जबान का कैसा कमाल दिखाते हैं, कल्‍पना की कितनी ऊँची-ऊँची उड़ानें भरते हैं और यह भी कि हमारी भाषा कितनी अभिव्‍यक्तिपूर्ण है।

हर गाँव के अपने कोसने - शाप हैं। एक में अदृश्‍य सूत्रों से आपके हाथ-पाँव जकड़े जाते हैं, दूसरे में आप ताबूत में जा पहुँचते हैं और तीसरे में आपकी आँखें निकलकर उसी तश्‍तरी में जा गिरती हैं, जिसमें से आप खा रहे होते हैं और चौथे गाँव में आपकी आँखें नुकीले पत्‍थरों पर से लुढ़कती हुई खड्ड में जा गिरती हैं। आँखों के शाप सबसे भयानक शापों में माने जाते हैं। मगर उनसे ज्‍यादा बुरे शाप भी हैं। एक गाँव मैंने दो नारियों को ऐसे कोसते सुना :

'अल्‍लाह तुम्‍हारे बच्‍चों को उससे महरूम करे, जो उन्‍हें उनकी जबान सिखा सकता हो।'

'नहीं, अल्‍लाह तुम्‍हारे बच्‍चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी जबान सिखा सकते हों!'

तो ऐसे भयानक होते हैं शाप। मगर पहाड़ों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्‍जत नहीं रहती, जो अपनी जबान की इज्‍जत नहीं करता। पहाड़ी माँ विकृत भाषा में लिखी हुई अपने बेटे की कविताएँ नहीं पढ़ेगी।

नोटबुक से। एक बार पेरिस में एक दागिस्‍तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतालवी लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्‍यस्‍त इस दागिस्‍तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज के अजनबी मुल्‍कों की राजधानियाँ देखीं, मगर जहाँ भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्‍यक्‍त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया।

एक चित्र नाम ही था - 'मातृभूमि की याद'। चित्र में इतालवी औरत (उसकी पत्‍नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्‍सातल के मशहूर कारीगरों की नक्‍काशीवाली चाँदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्‍मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्‍थरों के घरोंवाला उदास-सा अवार गाँव दिखाया गया था और गाँव के ऊपर पहाड़ तो और भी ज्‍यादा उदास-से लग रहे थे। पहाड़ी चोटियाँ कुहासे में लिपटी हुई थीं।

'पहाड़ों के आँसू ही कुहासा है,' चित्रकार ने कहा, 'वह जब ढालों को ढक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूँदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूँ।'

दूसरे चित्र में मैंने कँटीली जंगली झाड़ी मैं बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्‍थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षी गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाड़िन उसकी तरफ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्‍पी देखकर चित्रकार ने स्‍पष्‍ट किया -

'यह चित्र पुरानी अवार किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।'

'किस किंवदंती के आधार पर?'

'एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था - मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि, मातृभूमि, मातृभूमि... बिल्‍कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमास सालों के दौरान मैं भी यही रटता रहा हूँ... पक्षी के मालिक ने सोचा, 'जाने कैसी है उसकी मातृभूमि कहाँ है, अवश्‍य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुंदर देश होगा, जिसमें स्‍वर्गिक वृक्ष और स्‍वर्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिंदे को आजाद कर देता हूँ और फिर यह देखूँगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्‍ता दिखा देगा।' उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दसेक कदम की दूरी तक उड़कर वह नंगे पत्‍थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाखाओं पर उसका घोंसला था... अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूँ' चित्रकार ने अपनी बात खत्‍म की।

'तो आप लौटना क्‍यों नहीं चाहते?'

'देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ बूढ़ी हड्डियाँ कैसे लौटा सकता हूँ?'

पेरिस से घर लौटकर मैंने चित्रकार के सगे-संबंधियों को खोज निकाला। मुझे इस बात की बड़ी हैरानी हुई कि उसकी माँ अभी तक जिंदा थी। अपनी मातृभूमि को छोड़ देने और विदेश में जा बसनेवाले बेटे के बारे में उसके सगे-संबंधियों ने उदास होते हुए मेरी बातें सुनीं। ऐसा लगता था कि उन्‍होंने मानो उसे माफ कर दिया था और इस बात से खुश थे कि वह जिंदा तो है। पर तभी उसकी माँ अचानक पूछ बैठी -

'तुम दोनों ने अवार भाषा में बातचीत की?'

नहीं। हमारी बातचीत दुभाषिये के जरिए हुई। मैं रूसी बोलता था और तुम्‍हारा बेटा फ्रांसीसी।'

माँ ने काले दुपट्टे से मुँह ढक लिया, जैसा कि बेटे की मौत की खबर मिलने पर किया जाता है। पहाड़ी घर की छत पर बारिश पटापट ताल दे रही थी। हम अवारिस्‍तान में बैठे थे। अपनी मातृभूमि को त्‍याग देनेवाला दागिस्‍तान का बेटा भी शायद पृथ्‍वी के दूसरे छोर पर, पेरिस में बारिश का राग सुन रहा था : बहुत देर तक चुप रहने के बाद चित्रकार की माँ ने कहा -

'तुम्‍हें गलतफहमी हुई है, रसूल, मेरा बेटा तो कभी का मर चुका। वह मेरा बेटा नहीं था। मेरा बेटा वह जबान नहीं भूल सकता था, जो उसे मैंने, अवार माँ ने सिखाई थी।'

संस्‍मरण। कभी मैं एक अवार थियेटर में काम करता था। मंच-सज्‍जा की चीजों, पोशाकों और दूसरी चीजों के साथ (जिन्‍हें गधों पर लादा जाता था, मगर फिर भी उनमें से कुछ कलाकारों के उठाने के लिए भी बच जाती थीं) हम गाँव-गाँव घूमकर पहाड़ी लोगों को नाटक कला से परिचित कराया करते थे। थियेटर में इस तरह बिताए गए एक साल की मुझे अक्‍सर याद आती है।

कुछ नाटकों में मुझे छोटी-मोटी भूमिकाएँ दे दी जाती थीं, मगर ज्‍यादातर तो मैं प्रोंपटर बाँक्‍स में बैठा रहता था। मुझे, युवा कवि को, बाकी सभी भूमिकाओं के मुकाबले में प्रोंपटर का काम ज्‍यादा पसंद था। कलाकारों को मैं बहुत महत्‍वपूर्ण नहीं मानता था, गौण स्‍थान देता था। पोशाकें, मेक-अप और मंच-सज्‍जा भी कम महत्‍व रखते थे। शब्‍दों को ही मैं सबसे ऊँचा स्‍थान देता था और मंच-सज्‍जा भी कम महत्‍व रखते थे। शब्‍दों को ही मैं सबसे ऊँचा स्‍थान देता था और इस बात की बेहद चिंता करता था कि अभिनेता शब्‍दों को न गड़बड़ाएँ, उनका सही-सही उच्‍चारण करें। अगर कोई अभिनेता शब्‍दों को छोड़ जाता या उन्‍हें गलत ढंग से कहता, तो मैं बॉक्‍स में से आगे की ओर झुककर इतने जोर से और सही तौर पर इन शब्‍दों को कहता कि वे सारे हॉल में गूँज जाते।

हाँ, मूल पाठ और शब्‍द को ही मैं सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण मानता था, क्‍योंकि शब्‍द पोशाक और मेक-अप के बिना भी जिंदा रह सकता है - उसका भाव दर्शकों की समझ में आ जाएगा।

मुझे एक घटना याद आ रही है। उन दिनों हम 'पहाड़ी लोग' नाटक दिखा रहे थे, जिसका अवार जाति के अतीत से संबंध था। जैसे कि आमतौर पर होता था, मैं प्रोंपटर था। नाटक में एक ऐसा स्‍थल आता था, जब नायक आईगाजी, जो खून के प्‍यासे दुश्‍मनों से बचने के लिए पहाड़ों में छिपा रहता था, रात के वक्‍त अपनी प्रेयसी से मिलने के लिए गाँव में आया। प्रेयसी ने उसकी मिन्‍नत की कि वह जल्‍दी से पहाड़ों में वापस चला जाए, वरना दुश्‍मन उसे मार डालेंगे। मगर आईगाजी (अभिनेता मागायेव यह भूमिका निभा रहे थे) अपनी प्रेमिका को बारिश से बचाने के लिए उसे नमदे के लबादे से ढक देता है और उससे अपने प्‍यार, अपनी विरह-वेदना की चर्चा करने लगता है।

इसी वक्‍त एक अनहोनी-सी बात हो गई। अभिनेता मागायेव की पत्‍नी अचानक रंगमंच पर आ पहुँची। गुस्‍से में वह अपने पति पर इसलिए झपटी कि वह किसी दूसरी नारी के सामने प्रणय-निवेदन कर रहा था। मागायेव अपनी पत्‍नी का हाथ पकड़कर उसे नेपथ्‍य में खींच ले गए ताकि उसे बात समझा सकें। उन्‍हें आशा थी कि वे उसी क्षण रंगमंच पर लौट आएँगे और नाटक चलता रहेगा। किंतु पत्‍नी तो पति से लिपट गई और उसे रंगमंच पर नहीं लौटने दिया। नाटक की प्रेयसी रंगमंच के बीच अकेली खड़ी रह गई। सो नाटक रुक गया।

मैं अपने प्रोंपटर के बॉक्‍स में थियेटरी पोशाक और मेक-अप के बिना मामूली पतलून और खुले कालर की सफेद कमीज पहने बैठा था। लगता है कि पैरों में स्‍लीपर थे। बेशक मागायेव का पार्ट मुझे जबानी याद था, मगर जिस हाल में मैं बैठा था, उसमें मागायेव की जगह लेना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। पर चूँकि मेरे लिए पोशाक नहीं, शब्‍द ही सबसे अधिक महत्‍व रखते थे, मैं अपने बॉक्‍स से निकलकर रंगमंच पर आ गया और उस बेचारी प्रेमिका से वे शब्‍द कहे, जो आईगाजी यानी अभिनेता मागायेव को कहने चाहिए थे।

मुझे मालूम नहीं कि दर्शकों को संतोष हुआ या नहीं, या नाटक उनके लिए खासा मजाक ही बनकर रह गया, मगर मुझे तो खुशी हुई। दर्शक नाटक का सार समझ गए थे, एक भी शब्‍द से वंचित नहीं हुए थे और मैं इसी को सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण बात मानता था।

मुझे याद है कि इसी थियेटर के साथ मैं पहली बार विख्‍यात, ऊँचे पहाड़ी गाँव गूनीब में गया था। यह तो सभी जानते हैं कि बेशक कवि एक-दूसरे से अपरिचित भी हों, फिर भी एक-दूसरे के यार होते हैं। गूनीब में एक ऐसा ही शायर रहता था, जिसके बारे में मैंने सुना तो था, मगर मिलने का मौका नहीं हुआ था। मैं इस कवि से मिलने गया और जब तक हमारा थियेटर वहाँ रहा, मैं उसी के घर में रहा।

मेहरबान मेजबानों ने मेरी इतनी ज्‍यादा खातिरदारी की कि मुझे परेशानी-सी होने लगी, मेरी समझ में यही नहीं आता था कि कैसे अपनी झेंप छिपाऊँ। कवि की माँ के स्‍नेह की तो मेरे मन पर विशेषतः बहुत गहरी छाप थी।

वहाँ से रवाना होने के समय मुझे अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए शब्‍द नहीं मिल रहे थे। कुछ ऐसा हुआ कि जब मैंने कवि की माँ से विदा ली, तो कमरे में कोई नहीं था। मैं जानता था कि अगर उसके बेटे के बारे में कुछ अच्‍छे शब्‍द कहूँ, तो माँ के लिए इससे ज्‍यादा खुशी की बात और कुछ नहीं हो सकती। बेशक मैं यह अच्‍छी तरह समझता था कि गूनीब का वह कवि साधारण है, फिर भी मैं उसकी प्रशंसा करने लगा। मैंने उसकी माँ से यह कहना शुरू किया कि उसका बेटा बहुत अग्रगामी कवि है, सदा ज्‍वलंत विषयों पर कविताएँ रचता है।

'संभव है कि अग्रगामी ही हो,' माँ ने उदासी से मुझे टोकते हुए कहा, 'मगर प्रतिभा उसमें नहीं है। बेशक उसकी कविताएँ ज्‍वलंत समस्‍याओं से संबंधित हों, मगर जब मैं उन्‍हें पढ़ती हूँ, तो मुझे ऊब महसूस होने लगती है। रसूल, तुम ही जरा गौर करो कि जब मेरा बेटा पहले शब्‍द बोलना सीख रहा था, जिन्‍हें तो समझना भी मुश्किल था, तो मुझे इतनी खुशी हुई थी कि बयान से बाहर। मगर अब, जब वह बोलना ही नहीं, कविता रचना भी सीख गया है, तो मुझे ऊब महसूस होती है। कहते हैं कि औरत की अक्‍ल उसके फ्राक के पल्‍ले पर होती है। जब वह बैठी होती है, तो उसकी अक्‍ल लुढ़ककर फर्श पर जा गिरती है। मेरे बेटे का भी यही हाल है। जब तक वह खाने की मेज पर बैठा रहता है, खाते हुए साधारण ढंग से बातचीत करता है, मैं खुशी से उसकी बातें सुनती हूँ। मगर खाने की मेज से लिखने-पढ़ने की मेज तक जाते-जाते वह सीधे-सादे और अच्‍छे-अच्‍छे सभी शब्‍द खो बैठता है। बस, दुर्बोध, नीरस और ऊबभरे शब्‍द ही उसके पास रह जाते हैं।'

इस घटना को याद करके मैं अल्‍लाह से यही दुआ करता हूँ कि वह मेरी जबान मेरे पास बनी रहने दे। मैं ऐसे लिखना चाहता हूँ कि मेरी कविताओं, मेरी इस किताब को तथा इनके अलावा मैं और भी जो कुछ लिखूँ, उसे भी माँ, बहन, हर पर्वतवासी और हर वह व्‍यक्ति, जिसके हाथ में मेरी किताब जाए, समझे, प्‍यार करे। मैं ऊब पैदा करना नहीं चाहता, लोगों को खुशी देना चाहता हूँ। अगर मेरी भाषा बिगड़ जाती है, प्राणहीन, दुर्बोध और ऊबभरी हो जाती है - थोड़े में यह कि अगर मैं अपनी मातृभाषा को बिगाड़ता हूँ, तो मेरे लिए जीवन में इससे अधिक भयानक बात और कुछ नहीं हो सकती।

बहुत पहले की बात है, तब मैं छोकरा ही था। हमारे गाँव के लोग मसजिद के करीब जमा होकर अपने साझे मसलों पर सोच-विचार किया करते थे। तब मैं वहाँ अपने पिता की कविताएँ पढ़कर सुनाया करता था। छोकरा होते हुए भी मैं बड़े जोश से (जरूरत से ज्‍यादा जोश के साथ) खूब ऊँचे और उन शब्‍दों तथा आवाजों पर खास जोर देकर कविताएँ पढ़ता था, जो मुझे पसंद आती थीं। उदाहरण के लिए, पिता जी की नई कविता 'त्‍सादा में भेड़िये का शिकार' का पाठ करते हुए मैं सभी शब्‍दों में 'त्‍स' ध्‍वनि का दाँत भींचकर ऐसे उच्‍चारण करता कि वे थर्राते, आपस में टकराते और झनझनाते। मुझे लगता कि इन ध्‍वनियों के ऐसे तीव्र और जोरदार उच्‍चारण से अधिक प्रभाव पैदा होता है।

पिता जी हर बार यह कहते हुए मुझे समझाने की कोशिश करते -

'शब्‍द क्‍या कोई अखरोट या बादाम है, जिसे दाँतों तले दबाकर तोड़ा जाए? फिर शब्‍द क्‍या कोई लहसुन है कि उसे बट्टे से सिल पर पीसा जाए? या शब्‍द कोई सूखी पथरीली जमीन है कि एड़ी-चोटी का जोर लगाकर उस पर हल चलाया जाए? शब्‍दों को चबाए बिना ऐसे सहज ढंग से उनका उच्‍चारण करो कि तुम्‍हारे दाँत बजें नहीं, उनमें से झनझनाहट न पैदा हो।'

मैं फिर से कविता पढ़ता, मगर फिर से वही नतीजा निकलता। एक बार मेरी माँ इस वक्‍त घर की छत के सिरे पर खड़ी थीं। पिता जी ने पुकारकर माँ से कहा -

'तुम ही इसे किसी तरह यह सिखा दो!'

माँ ने मेरे लिए कठिन शब्‍दों का वैसे उच्‍चारण किया, जैसे पिता जी चाहते थे।

'सुना? अब तुम इन्‍हें ऐसे ही दोहराओ।'

मुझे फिर भी कामयाबी नहीं मिली

'छिः,' पिता जी झल्‍ला उठे। 'शब्‍दों को बिगाड़नेवाले एक जालातूरीवासी की मैंने झाड़ू से पिटाई की थी। अपने बेटे का मैं क्‍या करूँ?'

वे दुखी होकर सभा से चले गए।

पिता जी ने जालातूरीवासी की कैसे पिटाई की

वसंत के मौसम में पैंठ लगने का दिन था। जैसा कि सभी जानते हैं, वसंत में पिछली फसल की बची-बचाई सभी चीजें खत्‍म हो जाती हैं और नई फसल अभी आई नहीं होती। वसंत में पतझर की तुलना में सभी चीजें बाजार में महँगी होती हैं, यहाँ तक कि हाँडियाँ भी, यद्यपि वे खेत में पैदा नहीं होतीं।

मेरे पिता जी ने, जो उस वक्‍त जवान आदमी थे, बाजार जाने का इरादा बनाया। पड़ोसी ने उनसे झाड़ू खरीदने को कहा और इसके लिए बीस कोपेक दिए।

'अगर झाड़ू सस्‍ती मिल जाए, तो बाकी पैसे अपने पास रख लेना,' पड़ोसी ने जवान हमजात से कहा। खैर वे बाजार पहुँचे।

झाड़ू बेचनेवाले को उन्‍होंने जल्‍दी ढूँढ़ लिया और लगे उससे मोल-तोल करने।

यह तो शायद सभी जानते हैं कि पूर्वी बाजार में किसी भी चीज के लिए माँगे जानेवाले पहले मूल्‍य का कोई महत्‍व नहीं होता। पाँच कोपेक की चीज के लिए सौ रूबल भी बताए जा सकते हैं।

पिता जी ने अच्‍छी और मजबूत-सी झाड़ू चुनकर पूछा -

'बेचते हो?'

'तो और किसलिए यहाँ खड़ा हूँ?'

'क्‍या कीमत है?'

'चालीस कोपेक।'

'झाड़ू तो घोड़ा नहीं है कि ऊँची कीमत से सौदाबाजी शुरू की जाए। एक बार ही असली दाम कह दो और मामला तय करो।'

'चालीस कोपेक।'

'मजाक छोड़ो।'

'चालीस कोपेक।'

'बीस में दे दो।'

'चालीस कोपेक।'

'मगर मेरे पास तो सिर्फ बीस कोपेक हैं।'

'चालीस कोपेक।'

'मगर मेरे पास तो सचमुच ही और पैसे नहीं हैं।'

'जब हों, तो तब आना।'

यह समझ में आ जाने पर कि झाड़ू नहीं खरीदी जा सकेगी, मेरे पिता जी बाजार में घूमने लगे और जल्‍दी ही दुकानों के करीब एक ऊँची जगह पर उन्‍हें लोगों की भीड़ दिखाई दी। वे नजदीक गए, धकियाकर आगे बढ़े और समझ गए कि लोग गायक महमूद का गाना सुन रहे हैं।

महमूद पंदूर हाथों में लिए भीड़ के बीच बैठा था। वह कभी पंदूर बजाता और कभी तारों पर हाथ रखकर गाने लगता। सभी दम साधे सुन रहे थे। अपने हर दिन के धंधे के सिलसिले में बाजार के ऊपर उड़नेवाली मधुमक्‍खी की भिनभिनाहट भी सुनाई दे रही थी। गाने के दौरान एक तरुण खाँसने लगा, तो पके बालोंवाले एक पहाड़ी ने, जो शायद तरुण का बाप था, उसे फौरन दूर भगा दिया।

ऐसी गहरी खामोशी में ही, जब महमूद के गाने के सिवा और कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था, कोई जालातूरीवासी अपने पास खड़े आदमी से बातें करने लगा। वैसे तो वह जालातूरीवासी नेक इरादे से ही ऐसा कर रहा था। उसके पास खड़ा हुआ आदमी अवार भाषा का एक भी शब्‍द नहीं समझता था और महमूद जो कुछ गाता था, यह जालातूरीवासी उसे साथ-साथ वह सब कुछ समझाता जाता था। मगर मुसीबत तो यह थी कि उसके लगातार बोलते जाने से गाने का रंग-भंग होता था और बाकी लोग उसका पूरी तरह मजा नहीं ले पाते थे।

मेरे भावी पिता, जवान हमजात को जालातूरीवासी की यह हरकत बहुत बुरी लगी। उन्‍होंने उसे चुप कराने के लिए उसकी आस्‍तीन खींची, मगर बेकार, उसके कान में यह कहा कि वह चुप रहे। मगर उसने इस पर भी कोई ध्‍यान नहीं दिया। हमजात की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे चुप कराए। इसी परेशानी में उन्‍होंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, तो देखा कि झाड़ू बेचनेवाला भी गाना सुनने के लिए करीब ही आ खड़ा हुआ है। पिता जी भागकर उसके पास गए, सबसे बड़ी झाड़ू उसके हाथ से झपट ली और उससे लोगों के रंग में भंग डालनेवाले इस जालातूरीवासी की पिटाई करने लगे।

जालातूरीवासी धमकियाँ देता हुआ पीछे हटने लगा, मगर पिता जी ऐसे आग-बबूला हो उठे थे कि उन्‍होंने उसकी धमकियों की जरा भी परवाह न करते हुए गाने में खलल डालनेवाले उस आदमी को वहाँ से खदेड़ दिया। इसके बाद पिता जी झाड़ू बेचनेवाले के पास झाड़ू लौटाने गए।

'अपने पास ही रख लो।'

'मगर मेरे पास तो सिर्फ बीस कोपेक हैं और तुम चालीस माँगते हो।'

'मुफ्त ही ले जाओ। तुमने जो काम किया है, वह तो मेरे सारे माल से ज्‍यादा कीमत रखता है।'

गीत का मजा किरकिरा करनेवाले जालातूरीवासी तो अब इस दुनिया में बहुत हैं। अफसोस तो इस बात का है कि उनके लिए झाड़ू और ऐसा

आदमी नहीं है, जो उस झाड़ू का इस्‍तेमाल करता।

पहाड़ों में बढ़िया, तीर की तरह निशाने पर बैठनेवाले और पैने शब्‍द की तारीफ में यह कहा जाता है -

'जीन कसे घोड़े के बराबर कीमत है इसकी।'

नोटबुक से। मखचकला में मेरा पड़ोसी अली अलीयेव बहुत ही शानदार पहलवान है, चार बार विश्‍व-चैंपियन रह चुका है। एक बार इस्‍तांबूल में उसे तुर्की के सबसे तगड़े पहलवान से कुश्‍ती करनी पड़ी। तुर्क पहलवान सचमुच ही बहुत ताकतवर और फुर्तीला था। किंतु शांतचित्‍त और साहसी अली अलीयेव ने तुर्क को डोरी के गोले की तरह कालीन पर चित फेंक दिया। तुर्क ने उठते हुए अवार भाषा में धीरे-से कुछ भला-बुरा कहा। अपनी भाषा सुनकर अली अलीयेव को बड़ी हैरानी हुई। मगर जब विजेता ने भी अवार भाषा में यह कहा, 'हमवतन, कोसते क्‍यों हो, खेल तो खेल ठहरा,' तो तुर्क को और भी ज्‍यादा हैरानी हुई।

फिर जब एक जमाने से बिछुड़े हुए दो भाइयों की तरह दोनों पहलवानों ने अचानक एक-दूसरे को बाँहों में भर लिया, तो उन दोनों से भी ज्‍यादा हैरानी हुई रेफरी और दर्शकों को।

मालूम यह हुआ कि तुर्क उस अवार परिवार से संबंध रखता था, जो शामिल की गिरफ्तारी के बाद तुर्की चला गया था। अब भी जब कभी इन दोनों पहलवानों की मुलाकात होती है, तो वे दोस्‍तों की तरह मिलते हैं।

पिता जी का संस्‍मरण। 1939 में मेरे पिता जी एक पदक पाने के लिए मास्‍को गए। उस वक्‍त तो यह एक बहुत बड़ी घटना थी। जब वे छाती पर पदक लगाए हुए लौटे, तो गाँव की मजलिस हुई और लोगों ने उनसे मास्‍को, क्रेम्लिन और मिखाईल इवानोविच कालीनिन के बारे में, जो उस वक्‍त पदक भेंट किया करते थे, तथा यह भी बताने को कहा कि किस चीज ने उनके दिल पर सबसे गहरी छाप छोड़ी।

जो कुछ हुआ था, पिता जी ने वह सभी सिलसिलेवार सुनाया और फिर यह भी कहा -

'सबसे बड़ी बात तो यह है कि मिखाईल इवानोविच कालीनिन ने रूसी में नहीं, अवार भाषा में मेरे नाम का उच्‍चारण किया। उन्‍होंने मुझे हमजात त्‍सादासा नहीं, त्‍स' अदासा हमजात कहा।'

गाँव के बड़े-बूढ़े हैरान हुए और उन्‍होंने सिर हिलाकर अपनी खुशी जाहिर की।

'देखा न,' पिता जी ने कहा, 'मेरी जबान से यह सुनकर ही तुम्‍हें कितनी खुशी हो रही है। क्रेम्लिन में खुद कालीनिन के मुँह से यह सुनकर मुझ कितना अच्‍छा लगा होगा। आप लोगों से ईमान की बात कहता हूँ कि इतनी ज्‍यादा खुशी हुई थी इससे कि पदक के बारे में खुश होने की सुध ही नहीं रही।'

पिता जी की भावनाओं को मैं बहुत ही अच्‍छी तरह समझता हूँ।

कुछ साल पहले मैं सोवियत लेखकों के एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्‍य के नाते पौलेंड गया। एक दिन क्रेको में किसी ने होटल में मेरे कमरे के दरवाजे पर दस्‍तक दी। मैंने दरवाजा खोला। किसी अपरिचित ने शुद्ध अवार भाषा में पूछा -

'हमजातील रसूल यहीं रहते हैं?'

मैं चकराया और साथ ही बेहद खुश हुआ -

'अल्‍लाह करे कि तुम्‍हारे अब्‍बा के घर को कभी आग न लगे, वह कभी तबाह न हो! यह बताओ कि तुम अवार यहाँ क्रैको में कैसे आ बसे?'

मैंने लपककर अपने मेहमान को लगभग गले लगा लिया, कमरे में खींच ले गया और सारा दिन तथा सारी शाम हम बातें करते रहे।

मगर मेरे मेहमान अवार नहीं थे। वे दागिस्‍तान की भाषा और साहित्‍य का अध्‍ययन करनेवाले पोलिश विद्वान थे। अवार भाषा उन्‍होंने नजरबंद कैंप के दो अवार कैदियों से ही पहले पहल सुनी थी। भाषा उन्‍हें अच्‍छी लगी और खुद अवार तो और भी ज्‍यादा पसंद आए। वे अवार भाषा सीखने लगे। बाद में एक अवार तो चल बसा, दूसरा कैदी रहा, सोवियत सेना ने उसे मुक्ति दिलाई और वह अभी तक जिंदा है।

पोलिश विद्वान के साथ हमने केवल अवार भाषा में ही बातचीत की। मेरे लिए यह अनूठी और असाधारण-सी बात थी। मैंने उन्‍हें दागिस्‍तान आने की दावत दी।

हाँ, तो उस दिन हम दोनों ने अवार भाषा में बातचीत की। मगर मेरी और उनकी भाषा में बहुत बड़ा अंतर था। वे विद्वानों की, शुद्ध, बहुत सही, बहुत ही ज्‍यादा सही, यहाँ तक कि बेजान भाषा बोलते थे। वे भाषा की रंगीनी और हर शब्‍द की धड़कन की तुलना में व्‍याकरण, शब्‍द-क्रम और वाक्‍य-रचना की तरफ ज्‍यादा ध्‍यान देते थे।

मैं ऐसी पुस्‍तक लिखना चाहता हूँ, जिसमें भाषा व्‍याकरण के अधीन न होकर व्‍याकरण भाषा के अधीन हो।

अन्‍यथा मैं व्‍याकरण को सड़क पर पैदल जानेवाले और साहित्‍य को खच्‍चर पर सवार मुसाफिर की उपमा दूँगा। पैदल चलनेवाले ने खच्‍चर पर सवार मुसाफिर से अनुरोध किया कि वह उसे खच्‍चर पर बैठा ले। उसने उसे अपने पीछे जीन पर बैठा लिया। पैदल मुसाफिर की धीरे-धीरे हिम्‍मत बढ़ी, उसने खच्‍चर सवार को जीन से नीचे धकेल दिया और फिर यह चिल्‍लाते हुए उसे दुतकारने लगा -

'यह खच्‍चर और जीन के साथ बँधा हुआ सारा माल-मता भी मेरा है!'

मेरी प्‍यारी अवार भाषा! तुम मेरी दौलत हो, बुरे दिनों के लिए सँजोकर रखा गया खजाना हो, सभी रोगों के लिए रामबाण हो। अगर आदमी गायक की आत्‍मा लेकर गूँगा पैदा हुआ है, तो उसका न जन्‍म लेना ही बेहतर होता। मेरी आत्‍मा में ढेरों गीत हैं और मुझे आवाज भी मिली है। यह आवाज तुम हो, मेरी प्‍यारी अवार भाषा। एक लड़के की तरह मेरा हाथ थामकर तुम मुझे मेरे गाँव से बड़ी दुनिया में, लोगों के पास ले गई हो और मैं उन्‍हें अपनी मातृभूमि के बारे में बताता हूँ। तुम ही मुझे उस देव के पास ले गईं, जिसका नाम महान रूसी भाषा है। वह भी मेरे लिए मातृभाषा बन गई। उसने मेरा दूसरा हाथ पकड़ा और मुझे दुनिया के सभी देशों में ले गई। मैं उसका उसी तरह आभारी हूँ, जैसे हारादारीह गाँव की उस नारी का, जो मेरी धाय थी। मगर फिर भी मैं यह अच्‍छी तरह जानता हूँ कि मेरी सगी माँ भी है।

कारण कि अपने चूल्‍हे में आग जलाने के लिए हम पड़ोसी से दियासलाई ला सकते हैं। मगर हम ऐसी दियासलाई माँगने के लिए दोस्‍तों के पास नहीं जा सकते, जिससे दिल में आग जलाई जा सके।

लोगों की भाषाएँ बेशक अलग-अलग हों, मगर दिल एक होने चाहिए। मैं ऐसे कई दोस्‍तों को जानता हूँ, जो अपना गाँव छोड़कर बड़े शहरों में जा बसे हैं। इसमें कोई खास बुरी बात नहीं है। पक्षियों के बच्‍चे भी पंख निकलने तक ही घोंसलों में रहते हैं। मगर इस बात का क्‍या किया जाए कि बड़े शहरों में रहनेवाले मेरे दोस्‍तों में से कुछेक अब दूसरी भाषा में लिखते हैं! जाहिर है कि यह उनका अपना मामला है और मैं उन्‍हें कोई सीख नहीं देना चाहता। मगर फिर भी वे एक हाथ में तरबूज सँभालने की कोशिश करनेवाले लोगों के समान हैं।

मैंने इन बेचारों से बात की और इस नतीजे पर पहुँचा कि जिस भाषा में वे अब लिखते हैं, वह अवार तो है ही नहीं, मगर रूसी भी नहीं। वे मुझे ऐसे वन की याद दिलाते हैं, जहाँ लकड़हारों ने बड़े अटपटे ढंग से काम किया है।

हाँ, मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जिनके लिए अपनी मातृभाषा अशक्‍त और अपर्याप्‍त थी और वे सशक्‍त तथा समृद्ध भाषा की खोज में निकल पड़े। मगर नतीजा निकला उस अवार लोक-कथा जैसा, जिसमें एक बकरी भेड़िये जैसी दुम बढ़ाने के लिए जंगल में गई। मगर लौटी सींगों से भी हाथ धोकर।

या फिर वे पालतू हंसों जैसे हैं, जो तैर और डुबकी भी लगा सकते हैं, मगर मछली की तरह तो नहीं, कुछ उड़ भी सकते हैं, मगर उन्‍मुक्‍त पक्षियों की तरह तो नहीं, कुछ गा भी सकते हैं, मगर फिर भी बुलबुल तो नहीं हैं। वे कुछ भी तो ढंग से नहीं कर सकते।

'कैसा हाल-चाल है?' एक बार मैंने अबूतालिब ने पूछा।

'बस, ऐसा ही। न तो भेड़िये जैसा, न खरगोश जैसा। दोनों के बीच का सा।' अबूतालिब कुछ देर चुप रहकर बोले, 'लेखक के लिए यह बीच की स्थिति ही सबसे बुरी होती है। उसे या तो खरगोश को हड़प जानेवाले भेड़िये या भेड़िये से बच निकलनेवाले खरगोश की तरह अपने को महसूस करना चाहिए।'

नोटबुक से। एक बार पड़ोस के गाँव के कुछ किशोर मेरे पिता जी के पास आए और उन्‍हें बताया कि उन्‍होंने एक गायक की पिटाई कर डाली है।

'किसलिए पीटा है तुमने उसे?' पिता जी ने पूछा।

'वह गाते हुए मुँह बनाता था, जान-बूझकर खाँसता था, शब्‍दों को तोड़ता-मरोड़ता था, कभी चीखने, तो कभी कुत्‍ते की तरह भौंकने लगता था। उसने गाने का सत्‍यानाश कर दिया था, इसीलिए हमने उसकी मरम्‍मत की।'

'किस चीज से मरम्‍मत की तुमने उसकी?'

'किसी ने पेटी से, किसी ने घूँसों से।'

'कोड़े से भी पिटाई करनी चाहिए थी। मगर मैं यह जानना चाहता हूँ कि किन जगहों पर तुमने उसकी ठुकाई की?'

'ज्‍यादा तो धड़ के नीचेवाले हिस्‍सों पर। मगर जाहिर है कि गर्दन भी बची नहीं रही।'

'मगर सबसे ज्‍यादा कुसूर तो सिर का था।'

संस्‍मरण। एक और घटना अगर याद आ ही गई है, तो यहाँ उसका भी उल्‍लेख क्‍यों न कर दिया जाए? मखचकला में एक अवार गायक रहते हैं... मैं उनका नाम नहीं बताना चाहता। वे तो खैर जान ही जाएँगे कि यहाँ उन्‍हीं का जिक्र किया गया है और आपको नाम जानने या न जानने से फर्क ही क्‍या पड़ता है? ये गायक अक्‍सर मेरे पिता जी के पास आते और उनसे अपनी धुनों पर गीत रचने का अनुरोध करते। पिता जी राजी हो जाते और इस तरह गानों का जन्‍म होता।

एक दिन हम चाय पी रहे थे, जब रेडियो पर यह घोषणा हुई कि विख्‍यात गायक हमजात त्‍सादासा का लिखा गीत गाएँगे। ह‍म सभी और पिता जी भी ध्‍यान से सुनने लगे। मगर गाना ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ता था, हमारी हैरानी भी उतनी ही ज्‍यादा बढ़ती जाती थी। गायक ऐसे गा रहे थे कि एक भी शब्‍द पल्‍ले नहीं पड़ता था। बस, कुछ चीजें ही सुनाई देतीं और गायक शब्‍दों को ऐसे निगल जाते, जैसे कोई मुर्गा अपने सारे चुग्‍गे को पहले तो इधर-उधर बिखरा दे और फिर दाना-दाना करके उन्‍हें चुगने लगे।

गायक से मुलाकात होने पर पिता जी ने उनसे पूछा कि उनके गीत के साथ उन्‍होंने ऐसी ज्‍यादती क्‍यों की।

'मैं इसलिए ऐसा करता हूँ' गायक ने जवाब दिया, 'कि दूसरे न तो कुछ समझ सकें और न ही याद रख पाएँ। अगर दूसरे गायकों को गीत याद हो गया, तो वे भी गाने लगेंगे, मगर मैं चाहता हूँ कि सिर्फ मैं ही उसे गाऊँ।'

कुछ समय बाद पिता जी ने अपने दोस्‍तों की दावत की। गायक भी आए थे। दावत जब खत्‍म होने की थी, तो पिता जी ने दीवार पर से टूटे तारोंवाला कुमज उतारा और वह गीत गाने लगे, जिसकी धुन गायक ने रची थी। पिता जी शब्‍दों का तो बहुत स्‍पष्‍ट उच्‍चारण करते, मगर बेसुरे साज पर बजाई जानेवाली धुन का पूरी तरह हुलिया बिगड़ गया। गायक को बहुत बुरा लगा, कहने लगे कि टूटे तारोंवाले, बेसुरे कुमुज पर उनकी रची हुई धुन नहीं बजाई जानी चाहिए, कि ऐसा कुमुज उनके गाने का माधुर्य प्रस्‍तुत करने में असमर्थ है। पिता जी ने बड़े इतमीनान से जवाब दिया -

'यह तो मैं जान-बूझकर ऐसे गाता और साज बजाता हूँ। ताकि दूसरे तुम्‍हारी धुन को समझकर याद न कर लें। अगर ऐसा गाना चल सकता है, जिसमें शब्‍द पल्‍ले न पड़ें, तो भला ऐसा गाना क्‍यों नहीं चलेगा, जिसमें धुन का सिर-पैर मालूम न हो सके।'

दागिस्‍तानी लेखक दस भाषाओं में लिखते हैं और नौ में अपनी रचनाएँ छापते हैं। मगर ऐसी स्थिति में वे क्‍या करते हैं, जो दसवीं भाषा में लिखते हैं? और यह भाषा क्या है?'

दसवीं भाषा में वे लिखते हैं, जो अपनी मातृभाषा - वह चाहे अवार, लाक या तात कोई भी क्‍यों न हो - भूल चुके हैं, मगर पराई भाषा सीख नहीं पाए हैं। वे न घर के हैं, न घाट के।

अगर आप पराई भाषा को अपनी मातृभाषा से ज्‍यादा अच्‍छी तरह जानते हैं, तो उसमें लिखें। या फिर अगर कोई दूसरी भाषा ढंग से नहीं जानते, तो मातृभाषा में लिखिए। मगर दसवीं भाषा में नहीं लिखिए।

हाँ, मैं दसवीं भाषा का दुश्‍मन हूँ। भाषा पुरानी, एक हजार साल की होनी चाहिए। तभी वह काम आ सकती है।

निश्‍चय ही भाषा बदलती रहती है और इसके खिलाफ मैं किसी तरह की बहस नहीं करूँगा। वृक्ष के पत्‍ते भी तो हर साल बदलते हैं, कुछ गिरते हैं और दूसरे उनकी जगह आते हैं। मगर वृक्ष तो ज्‍यों-का-त्‍यों बना रहता है। वह साल-दर-साल अधिकाधिक ऊँचा होता जाता है, उसकी शाखाएँ बढ़ती जाती हैं। आखिर उस पर फल आ जाते हैं।

मैं आपको अपने गीत, अपनी किताबें देता हूँ, अवार भाषा के छोटे, मगर प्राचीन वृक्ष पर उगाए हुए फल आपकी भेंट करता हूँ।


मातृभाषा

सपनों में तो सदा अनोखी और अटपटी बातें होतीं

आज अचानक मैंने अपने को सपने में मरते देखा

दागिस्‍तानी घाटी थी, मैं था, औ' धूप झुलसती थी

सीना गोली से छलनी था, मिटती थी जीवन की रेखा।

कलछल कलछल नदिया बहती, वह अबाध ही दौड़ी जाती

नहीं जरूरत जिसकी जग को, और सभी ने जिसे भुलाया,

मेरे नीचे थी मेरी ही, अपनी मिट्टी, अपनी धरती

उसका हिस्‍सा बनने की थी, कुछ क्षण में मेरी भी काया।

गिनता हूँ मैं अपनी साँसें, मगर न कोई इतना जाने

पास न कोई मेरे आए, सहलाए न प्‍यारी बाँहें,

सिर्फ उकाब कहीं दूरी पर, ऊँची-ऊँची भरे उड़ानें

और कहीं पर एक तरफ को, हिरन भर रहे ठंडी आहें।

अपनी भरी जवानी में मैं छोड़ रहा हूँ इस दुनिया को

फिर भी मेरी इस मिट्टी पर, मेरे शव पर और कब्र पर,

माँ भी नहीं, नहीं प्‍यारी भी, नहीं दोस्‍त कोई रोने को

अरे, न क्‍यों वे भी आती हैं, जो रोती हैं पैसे लेकर।

बेबस पड़ा-पड़ा ऐसे ही, तोड़ रहा था मैं दम अपना

तभी अचानक, कहीं निकट ही कुछ आवाजें पड़ीं सुनाई,

चले जा रहे थे दो साथी, वे कुछ कहते, कुछ बतियाते

भाषा उनकी भी अवार थी, मेरे कानों को सुखदाई

आग उगलती दोपहर में उस दागिस्‍तानी घाटी में

मैं मरता था, मगर लोग तो, हँसते, बतियाते जाते थे,

किसी हसन की मक्‍कारी की, किसी अली की सूझ-बूझ की

मजे-मजे चर्चा करते वे किस्‍से कह मन बहलाते थे।

अपनी ही भाषा में सुनकर कुछ धीमी-धीमी आवाजें

मुझे लगा कुछ ऐसे, जैसे जान जिस्‍म में फिर से आए,

समझ गया मैं वैद्य, डॉक्‍टर, मुझे न कोई बचा सकेगा

केवल मेरी अपनी भाषा, मुझे प्राण दे सके, बचाए।

शायद और किसी को दे दे, सेहत कहीं अजनबी भाषा

पर मेरे सम्‍मुख वह दुर्बल, नहीं मुझे तो उसमें गाना,

और अगर मेरी भाषा के, बदा भाग्‍य में कल मिट जाना

तो मैं केवल यह चाहूँगा, आज, इसी क्षण ही मर जाना।

मैंने तो अपनी भाषा को, सदा हृदय से प्‍यार किया है

बेशक लोग कहें, कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है,

बड़े समारोहों में इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं

मगर मुझे तो मिली दूध में, माँ के, वह तो बड़ी सबल है।

आनेवाली नई पीढ़ियाँ, क्‍या अनुवादों के जरिए ही

समझेंगी महमूद और उसकी कविता का रंग निराला?

क्‍या मैं ही वह अंतिम कवि हूँ, जो अपनी प्‍यारी भाषा में

जो अवार भाषा में लिखता, उसमें छंद बनानेवाला।

प्‍यार मुझे बेहद जीवन से, प्‍यार मुझे सारी पृथ्‍वी से

उसका कोना-कोना प्‍यारा, प्‍यारा उसका साया, छाया,

फिर भी सोवियत देश अनूठा मुझको सबसे ज्‍यादा प्‍यारा

अपनी भाषा में उसका ही, मैंने जी भर गौरव गाया।

बाल्टिक से ले, सखालीन तक, इस स्‍वतंत्र, खिलती धरती का

हर कोना मुझको प्‍यारा है, हर कोना ही मन भरमाए,

इसके हित हँसते-हँसते ही, दे दूँगा मैं प्राण कहीं भी

पर मेरे ही जन्‍म-गाँव में, बस मुझको दफनाया जाए।

ताकि गाँव के लोग कभी आ, करें कब्र पर चर्चा मेरी

कहें हमारी भाषा में यह, यहाँ रसूल अपना सोता है,

अपनी भाषा में ही जिसने, अपने मन-भावों को गाया

त्‍सादा के हमजात सुकवि का, अरे वही बेटा होता है।

नोटबुक से। एक पहाड़ी नौजवान के माँ-बाप इस बात के खिलाफ थे कि वह रूसी लड़की से शादी करे। मगर वह लड़की शायद अपने अवार प्रेमी को बहुत प्‍यार करती थी। एक दिन उस नौजवान को अपनी प्रेमिका से अवार भाषा में लिखा हुआ एक खत मिला। नौजवान ने माँ-बाप को वह खत दिखाया। उन्‍होंने उसे पढ़ा और बहुत हैरान हुए। इस खत ने उनके दिल पर इतना असर किया कि उन्‍होंने उस असाधारण पत्र को हाथ में लिए हुए उसी समय उस लड़की को अपने घर लाने की इजाजत दे दी।

नोटबुक से। लेखक के लिए भाषा वैसे ही है, जैसे किसान के लिए खेत में फसल। हर बाली में बहुत-से दाने होते हैं और इतनी अधिक बालियाँ होती हैं कि गिनना नामुमकिन। पर किसान अगर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठा हुआ अपनी फसल को देखता रहे, तो एक भी दाना उसे नहीं मिलेगा। रई की फसल को काटना और फिर माँड़ना चाहिए। मगर इतने पर ही तो काम समाप्‍त नहीं हो जाता। माँड़े अनाज को ओसाना और दानों को भूसे, घास-फूस से अलग करना जरूरी होता है। इसके बाद आटा पीसने, गूँधने और रोटी पकाने की जरूरत होती है। पर शायद सबसे ज्‍यादा जरूरी तो यह याद रखना होता है कि रोटी की चाहे कितनी भी अधिक जरूरत क्‍यों न हो, सारा अनाज इस्‍तेमाल नहीं करना चाहिए। किसान सबसे अच्‍छे दानों को बीजों के रूप में इस्‍तेमाल करने के लिए रख लेता है।

भाषा पर काम करनेवाला लेखक सबसे अधिक तो किसान जैसा ही होता है।

कहते हैं कि बालकों ने उस वृक्ष को काट डाला, जिस पर एक पक्षी रहता था और उसका घोंसला तबाह कर डाला।

'वृक्ष, तुम्‍हें क्‍यों काट डाला गया?'

'क्‍योंकि मैं बेजबान हूँ।'

'पक्षी, तुम्‍हारा घोंसला क्‍यों बरबाद कर दिया गया?'

'क्‍योंकि मैं बहुत बकबक करता था।'

कहते हैं कि शब्‍द तो बारिश के समान होते हैं : एक बार - महान वरदान है, दूसरी बार - अच्‍छी रहती है, तीसरी बार - सहन हो सकती है, चौथी बार - दुख और मुसीबत बन जाती है।

विषय : मेरा दाग़िस्तान

दरवाजे को तोड़ो नहीं - वह किसी कठिनाई के बिना चाभी से खुल जाता है।

द्वार पर आलेख

यह मत कहो - 'मुझे विषय दो'। यह कहो - 'मुझे आँखें दो'।

युवा लेखक को सीख


'प्‍यारे साथियो, मेरी कलम लिखने को बेकरार है। मगर यह समझ में नहीं आता कि किस विषय पर लिखूँ। मुझे सामयिक महत्‍व का कोई विषय बताइए और मैं उस पर एक बहुत बढ़िया किताब लिख दूँगा।'

लेखक संघ, पत्रिकाओं या समचार-पत्रों के संपादक-मंडलों या लेखकों के नाम अपने पत्रों में युवाजन इस तरह का अनुरोध करते हैं। मेरे पास भी ऐसे खत आते हैं। मेरे पिता जी के पास भी ऐसे पत्र आया करते थे। कभी-कभी वे सिर हिलाते हुए कहते -

'जवान आदमी शादी करना चाहता है, मगर मुसीबत यह है कि किससे शादी करे, उसे यह मालूम नहीं। उसकी नजर में एक भी लड़की नहीं है, इसलिए कोई भी नहीं जानता कि सगाई करनेवालों को कहाँ भेजा जाए।'

संस्‍मरण। एक बार दागिस्‍तान के लेखक-संघ में अबूतालिब का खत आया। कवि ने लिखा था कि उन्‍हें एक महीने के लिए दूरस्‍थ पहाड़ी गाँवों में सामग्री जुटाने के लिए भेज दिया जाए। प्रबंध समिति की बैठक में अबूतालिब से पूछा गया कि वे किस बारे में, किस विषय पर लिखना चाहते हैं। बुजुर्ग शायद झल्‍ला उठे -

'क्‍या शिकारी पहले से ही यह जान सकता है कि कौन-सा शिकार उसके सामने आ जाएगा - खरगोश, हंस, भेड़िया या लाल लोमड़ी? क्‍या कोई योद्धा पहले से ही यह जान सकता है कि लड़ाई के मैदान में वह बहादुरी का कौन-सा कारनामा कर दिखाएगा?'

मैं भी उस बैठक में उपस्थित था। अबूतालिब के शब्‍दों ने मेरे दिल में घर कर लिया।

मुझे ऐसे लोगों की वजह से हमेशा हैरानी होती है, जो लेखक से कुरेद-कुरेदकर यह पूछते हैं कि अगले कुछ सालों में वह क्‍या लिखने का इरादा रखता है। यह सही है कि किस तरह की चीज वह लिखना चाहता है, उसकी कुछ मोटी-सी रूप-रेखा लेखक के दिमाग में होती है। शायद वह यह योजना बना सकता है कि उपन्‍यास लिखेगा या तीन खंडोंवाला बड़ा उपन्‍यास लिखेगा, मगर कविता कविता तो अप्रत्‍याशित ही आती है, उपहार की तरह। कवि का धंधा योजनाओं के कठोर बंधनों को नहीं मानता। कोई अपने लिए इस तरह की योजना तो नहीं बना सकता - आज सुबह के दस बजे मैं सड़क पर मिल जानेवाली लड़की से प्रेम करने लगूँगा। या यह कि कल शाम के पाँच बजे किसी नीच आदमी से नफरत करने लगूँगा।

कविता गुलाबों के बगीचे या व्‍यारियों में खिलनेवाले फूलों के समान नहीं है। वहाँ वे हमेशा हमारे सामने होते हैं - हमें उन्‍हें खोजना नहीं पड़ता। कविता तो मैदानों, ऊँची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों की तरह होती है। वहाँ हर कदम पर नया, अधिक सुंदर फूल पाने की आशा बनी रहती है।

भावनाओं से संगीत का जन्‍म होता है, संगीत से भावनाओं का। किसे पहला स्‍थान दिया जाए? आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिल सका कि मुर्गी पहले पैदा हुई या अंडा? ठीक ऐसा ही यह सवाल है - लेखक विषय को जन्‍म देता है या विषय लेखक को? विषय - यह तो लेखक का संपूर्ण संसार है, संपूर्ण लेखक है। विषय के बिना उसका अस्तित्‍व ही नहीं होता। हर लेखक का अपना ही विषय होता है।

विचार और भावनाएँ पक्षी हैं, विषय आकाश हे; विचार और भावनाएँ हिरन हैं, विषय जंगल है; विचार और भावनाएँ बारहसिंगे हैं, विषय पर्वत है; विचार और भावनाएँ रास्‍ते हैं, विषय वह नगर है, जिधर से रास्‍ते ले जाते हैं और आपस में जा मिलते हैं।

मेरा विषय है - मातृभूमि। मुझे उसे खोजने और चुनने की जरूरत नहीं। हम तो अपने लिए मातृभूमि नहीं चुनते, मगर मातृभूमि ने हमें शुरू से ही चुन लिया है। आकाश के बिना उकाब, चट्टानों के बिना पहाड़ी बकरा, तेज और निर्मल जलवाली नदी के बिना ट्राउट और हवाई अड्डे के बिना हवाई जहाज नहीं हो सकता। ऐसे ही मातृभूमि के बिना लेखक नहीं हो सकता।

मुर्गे-मुर्गियों के बीच अहाते में धीरे-धीरे चलनेवाला उकाब-उकाब नहीं रहा। सामूहिक फार्म की भेड़-बकरियों के बीच चरनेवाला पहाड़ी बकरा-पहाड़ी बकरा नहीं रहा। मछलीघर में तैरनेवाली ट्राउट-ट्राउट नहीं रही। अजायबधर में रखा हुआ हवाई जहाज-हवाई जहाज नहीं रहा।

ठीक ऐसे ही बुलबुल के तराने के बिना बुलबुल नहीं हो सकती।

विषय के बारे में कुछ और। बचपन से ही एक दृश्‍य मुझे बहुत प्रिय है। ऐसा होता कि जब कभी मैं अपने पिता जी के पहाड़ी घर की छोटी-सी खिड़की खोलता, मुझे गाँव के दामन में मेजपोश की तरह बिछा हुआ एक हरा-भरा, चौड़ा पठार दिखाई देता। सभी ओर से चट्टानें उसके ऊपर झुकी होती थीं। चट्टानों के बीच टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ थीं, जो बचपन में मुझे साँपों की याद दिलाती थीं और गुफाओं के मुँह मेरे लिए हमेशा ही दरिंदों के जबड़ों जैसे होते थे। पहाड़ों की पहली कतार के बाद दूसरी कतार नजर आती थी। पहाड़ गोल-गोल, काले-काले और ऊँट की पीठ की तरह झबरीले-से लगते।

अब मैं यह समझता हूँ कि स्विटजरलैंड या नेपुल्‍स में अधिक सुंदर जगहें भी हैं, मगर मैं जहाँ कहीं भी गया, मेरी आँखों ने इस धरती के कैसे भी सौंदर्य को क्‍यों नहीं देखा, मैं अपने उस सुदूर बचपन के चित्र से, पहाड़ी घर की छोटी-सी खिड़की के चौखटे में जड़े चित्र से उसकी तुलना करता हूँ और दुनिया के सभी सौंदर्य उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। यदि किसी कारणवश मेरा अपना गाँव और उसके इर्द-गिर्द की जगहें न होतीं, यदि वे सब मेरी स्‍मृति में सजीव न रहतें, तो मेरे लिए सारी दुनिया छाती होती, मगर दिल के बिना, मुँह होती, मगर जबान के बिना, आँखें होती, मगर पुतलियों के बिना घोंसला होती, मगर पक्षियों के बिना। इसका हरगिज यह मतलब नहीं है कि अपने विषय को मैं अपने गाँव और अपने घर की सीमाओं में बंद कर रहा हूँ, कि अपने मनपसंद विषय के गिर्द किले की ऊँची दीवारें खड़ी कर रहा हूँ।

ऐसी जमीन भी होती है, जहाँ हल से गहरी जोताई की जाती है, मगर जोती हुई मोटी तह के नीचे जमीन की नई नर्म तह नजर आती है। ऐसी जमीन भी होती है कि जिस पर हल्‍की-सी जोताई करते ही नीचे कठोर पत्‍थर नजर आने लगते हैं। ऐसी जमीन भी होती है, जिसकी हल्‍की-सी तह उठाने के पहले ही पत्‍थर नजर आते हैं। मैं ऐसी जमीन पर हल चलाने और मेहनत करने का इरादा नहीं रखता, क्‍योंकि जानता हूँ कि वहाँ अच्‍छी फसल नहीं होगी।

मातृभूमि के प्रति अपने प्‍यार को मैं उस घोड़े की तरह, जिसने अच्‍छी तरह काम किया है और जिसे अब मैदान में घास चरनी चाहिए, पगहा बाँधकर या पिछाड़ी डालकर नहीं रखना चाहता। मैं तो घोड़े की लगाम उतारकर उसकी पसीने से तर गर्म गर्दन थपथपाता और यह कहता हूँ - जाओ, जाकर मौज से चरो, शक्ति बटोरो। मातृभूमि के प्रति मेरी भावना में आजादी से चरनेवाले घोड़े की तरह कुछ चैन और मस्‍ती है।

दुनिया के कार्य-कलापों को मैं अपने पहाड़ी घर, अपने गाँव, अपने दागिस्‍तान, मातृभूमि के प्रति अपनी भावना के अंतर्गत नहीं खोजना चाहता। इसके उलट, दुनिया के सभी कार्य-कलापों, इसके सभी कोनों में मैं मातृभूमि की भावना अनुभव करता हूँ। इस अर्थ में सारी दुनिया मेरा विषय है।

मुझे याद है कि दूर-दराज के और खूबसूरत सांतियागो में मुर्गों ने मुझे जगा दिया था। जागने पर कुछ मिनट तक मुझे ऐसा लगा मानो मैं छोटे-से पहाड़ी गाँव में हूँ। इस तरह सांतियागो के मुर्गे मेरी रचना का विषय बने।

जापान में, और भी अधिक सुंदर कामाकूर शहर में मुझे सौंदर्य प्रतियोगिता देखने का अवसर मिला। वहाँ 'रूप की महारानी' चुनी जानेवाली थी। जापानी सुंदररियाँ बाँधे हमारे सामने आई। मैंने बरबस ही उनके साथ अवार पहाड़ों में रह जानेवाली अपनी उस 'एकमात्र' से तुलना की और उनमें मुझे वह नहीं मिला, जो मेरी महारानी में है। इस तरह जापानी सुंदरियाँ और जापानी रूप की महारानी मेरा विषय बनीं।

नेपाल में बौद्ध-मंदिरों, शाही महलों और बाईस चश्‍मों को, जो सभी बीमारियाँ दूर करते हैं, सभी जादू-टोनों, सभी बुराइयों को दूर भगाते हैं, जी भरकर देखने के बाद आखिर में काठमांडू पहाड़ों की खड़ी चढ़ाइयों पर चढ़ा। इन पहाड़ों ने मुझे अपने दागिस्‍तान की याद दिला दी और शानदार तथा आलीशान महलों और मंदिरों की तुलना में उन्‍हें देखकर दिल को कहीं ज्‍यादा खुशी हुई। वास्‍तुशिल्‍प की विचित्र कृतियों के मुकाबले में मुझे मामूली पहाड़ कहीं ज्‍यादा कीमती लगे। मेरे दिमाग में यह ख्‍याल आया कि चमत्‍कारी चश्‍मे नहीं, बल्कि ये पहाड़ सभी बीमारियों, सभी बुराइयों को दूर भगा सकते हैं। इस तरह नेपाल के बौद्ध-मंदिर और पर्वत मेरी रचना का विषय बन गए।

बड़े-बड़े और कोलाहलपूर्ण भारतीय नगरों के बाद मुझे कलकत्‍ता के नजदीक एक छोटे-से गाँव में ले जाया गया। बड़े-से खलिहान में अनाज माँड़ा जा रहा था, बैल गेहूँ के सुनहरे पूलों पर चक्‍कर काट रहे थे। दुनिया के एक भी संग्रहालय, एक भी थियेटर से मुझे इतनी खुशी नहीं मिली, जितनी अपने खुरों से गेहूँ के सुनहरे पूलों को धीमी चाल से माँड़नेवाले इन बैलों को देखकर। मुझे लगा मानो मैं अपने बचपन और प्‍यारे गाँव मैं लौट गया हूँ। इस तरह कलकत्‍ते का निकटवर्ती गाँव मेरा विषय बना।

मैं देख चुका हूँ - हिंदेशिया के पहाड़ों में हमारे पहाड़ों की तरह ढोल बजते, न्‍यूयार्क की सड़कों पर चेर्केसी जातीय पोशाक पहने किसी काकेशियाई को घूमते; इस्‍तांबूल और पेरिस में वे दुखी पहाड़ी लोग, जिन्‍होंने खुद अपने को देश-निकाला दे रखा है और जो दुनिया के सबसे बदकिस्‍मत लोग है; लंदन की प्रदर्शनी में बालखारी के मशहूर कुम्‍हारों के मिट्टी के बर्तनों की प्रदर्शनी; वेनिस में लाकों के त्‍सोकरा गाँव के रज्‍जु-नर्तकों के करतबों से आश्‍चर्यचकित होनेवाले दर्शक; पीटसबर्ग की पुरानी किताबों की एक दुकान में शामिल के बारे में एक पुस्‍तक।

सभी जगहों पर, जहाँ कहीं भी मैं गया, दागिस्‍तान के साथ मेरा एक तार-सा जुड़ा रहा है।

अगर किसी योद्धा पर कई आदमी तलवारें लेकर एकसाथ टूट पड़ते हैं, तो समझ लो कि उसकी शामत आ गई। वह एकसाथ सामने और पीछे से अपना बचाव नहीं कर सकता। पर यदि उसे कोई चट्टान मिल जाए जिसके साथ वह अपनी पीठ टिका सके, तो स्थिति इतनी बिगड़ नहीं पाती। पीठ को चट्टान के साथ टिकाकर चुस्‍त और ताकतवर योद्धा एक साथ दो या तीन दुश्‍मनों से भी लड़ सकता है।

दागिस्‍तान मेरे लिए ऐसी ही चट्टान है। वह मुझे कठिन-से-कठिन परीक्षाओं में उत्‍तीर्ण होने में मदद देता है।

यात्री जिन देशों की यात्रा करते हैं, उनके गीत स्‍वदेश लेकर आते हैं। मगर मेरी मुसीबत तो यह है कि कहीं भी क्‍यों न जाऊँ, हर जगह से दागिस्‍तान के बारे में ही गीत लेकर लौटता हूँ। हर कविता के साथ मेरी उससे मानो नई जान-पहचान होती है, उसे नए ही सिरे से समझता और प्‍यार करता हूँ। मेरे लिए मेरी मातृभूमि दागिस्‍तान अक्षय और असीम भंडार है।

नोटबुक से

'उकाब, तुम्‍हारा सबसे प्‍यारा गीत किसके बारे में है?'

'खड़े पहाड़ों के बारे में।'

'सागर-पक्षी, तुम्‍हारा मनपसंद गीत किसके संबंध में है?'

'नीले सागर के संबंध में।'

'कौवे, तुम्‍हारा सबसे प्‍यारा गीत किसके बारे में है?'

'लड़ाई के मैदान में पड़ी मजेदार लाशों के बारे में।'

साहित्‍य के भी अपने पक्षी हैं - उकाब और सागर-पक्षी। एक पहाड़ों का कीर्ति-गान करता है, दूसरा - सागर का। हरेक की अपनी मातृभूमि है, अपना विषय है। मगर कौवे भी हैं। वे तो अपने ही को सबसे अधिक प्‍यार करते हैं। कौवा जब युद्ध-क्षेत्र में पड़ी लाश की आँख निकालता है, तो यह नहीं सोचता कि वह आँख वीर की है या कायर की। मैं ऐसे साहित्‍यकारों को भी जानता हूँ, जो आज वह करते हैं, जिससे आज लाभ है और कल वह करेंगे, जिससे कल लाभ होगा।

विषय के बारे में कुछ और। विषय - यह तो माल-मते से भरा संदूक है। शब्‍द - वह इस संदूक की चाबी है। मगर संदूक में अपनी दौलत होनी चाहिए, पराई नहीं।

कुछ लेखक एक विषय से दूसरे विषय पर छलाँग लगाते रहते हैं, एक की गहराई में भी नहीं उतर पाते। वे जरा संदूक का ढक्‍कन उठाते हैं, ऊपर पड़े कपड़ों को ही हिलाते-डुलाते हैं और झटपट आगे बढ़ जाते हैं। संदूक का असली मालिक तो यह जानता है कि अगर सावधानी से एक के बाद एक चीज बाहर निकाली जाए, तो सबसे नीचे हीरे-मोतियों से भरी मंजूषा हाथ लगेगी।

एक विषय से दूसरे विषय पर छलाँग लगानेवाले लेखक अनेक शादियाँ करने के लिए पहाड़ों में विख्‍यात दालागालोव के समान हैं। उनसे जैसे-तैसे अट्ठाईस बार शादी की, मगर आखिर में बिल्‍कुल अकेला ही टापता रह गया।

फिर भी अकेली कानूनी बीवी से विषय की तुलना करना ठीक नहीं होगा। एक माँ या एक बच्‍चे से भी उसकी तुलना नहीं की जा सकती। कारण कि हम ऐसा नहीं कह सकते - यह मेरा विषय है, खबरदार, जो किसी ने इसे छुआ।

विषय तो मेरा है, मगर सभी इस विषय को ले सकते हैं। मैंने एक लेखक को किसी दूसरे लेखक को इसलिए भला-बुरा कहते सुना था कि उसने उसका विषय 'चुरा' लिया था। वह कह रहा था, 'इरचे गाजाख' (पिछली शताब्दी का कुमीक कवि और कुमीक साहित्य का जन्मदाता) के बारे में लिखने का हक तुम्‍हें किसने दिया? तुम तो जानते ही हो कि यह मेरा विषय है, कि इरचे गाजाख के बारे में मैं लिखता हूँ। यह तो दिन दहाड़े चोरी है!' यह लेखक ऐसे आपे से बाहर हुआ जा रहा था मानो उसी वक्‍त कोई उसकी प्रेमिका ले उड़ा हो।

उसे जवाब भी ऐसा करारा मिला, जो कोई पहाड़ी ही दे सकता था -

'इमाम वही बन सकता है, जिसकी तलवार में दम हो, जिसकी धार तेज हो। दुलहन उसकी नहीं होती, जिसने सगाई करने के लिए बिचौलियों को उसके घर भेजा हो, बल्कि उसकी होती है, जो उसे अपनी बीवी बना लेता है। सभी अन्‍य विषयों की भाँति इरचे का विषय भी उसी का होगा, जो उसके बारे में बेहतर लिखेगा।'

हाँ, विभिन्‍न लेखक स्‍वतंत्र रूप से एक ही विषय पर काम कर सकते हैं। साहित्‍य में सामूहिक फार्म नहीं हो सकता। हर लेखक का अपना खेत, जमीन का अपना टुकड़ा होता है, जो चाहे कितना भी छोटा क्‍यों न हो। मगर मैं किसी को इस आधार पर अपने खेत के पास आने से नहीं रोकता कि खुद अपने खंडों के पास नहीं जाता। मेरी सीमा-रेखा पर आपको न तो कुत्‍ते नजर आएँगे और न बंदूक लिए पहरेदार। मगर न सीमा-रेखा है कहाँ, उसे कैसे निश्चित किया जाए, किस चीज के उसके गिर्द बाड़ बनाई जाए? मेरा विषय न तो निषिद्ध चरागाह है और न मसजिद की ऐसी जगह ही, जहाँ किसी पराये आदमी का पाँव नहीं पड़ना चाहिए।

दागिस्‍तान के लेखकों का सम्‍मेलन हो रहा था। उसमें बहस चल रही थी। एक वक्‍ता ने कहा -

'दागिस्‍तानियों को दूसरे देशों और दूसरे लोगों के बारे में लिखने की क्‍या पड़ी है? स्‍पेन के बारे में स्‍पेनी, जापान के बारे में जापानी और उराल के उद्योगों की बारे में उराली लिखें। अगर किसी पक्षी का घोंसला एक बाग में है, तो क्‍या वह अपना तराना गाने के लिए किसी दूसरे बाग में उड़कर जाएगा? क्‍या पहाड़ों से कंकड़ोंवाली मिट्टी घाटी में लानी चाहिए, जहाँ उसके बिना ही अत्‍यधिक उपजाऊ मिट्टी है? दुंबे की चर्बीदार दुम को भूनने से पहले क्‍या उस पर और घी चुपड़ने की भी जरूरत होती है?'

सम्‍मेलन में एक अन्‍य जनतंत्र से आया हुआ मेहमान भी उपस्थित था। उसने वक्‍ता को यह जवाब दिया -

'जैसे पक्षियों का घोंसला होता है, वैसे ही दरिदों की माँद होती है। मगर सूरज सभी जानवरों को रोशनी देता है और बारिश सभी वृक्षों को सींचती है। इंद्रधनुष सभी को अपनी एक जैसी छटा दिखाता है। बिजली ऊँचे पहाड़ों में भी चमकती है और गहरे दर्रों में भी। बादल भी ऐसे ही सभी जगह गरजता है। विदेश से लाए गए चावल से भी बढ़िया पुलाव तैयार किया जा सकता है। मैं आपके सम्‍मेलन में बहुत दूर से आया हूँ। सो भी बधाई देने के लिए। मगर अब मुझे यह लगता है कि आपके पहाड़ों, आपके सागर, आपके नेक पुरुषों और गरिमा-संपन्‍न सुंदर नारियों से मुझे प्‍यार हो गया है। अगर मैं आपके बारे में लिखूँगा, तो मेरे लोग इसके लिए मेरा आभार मानेंगे। अगर आप मेरी जन्‍मभूमि के बारे में लिखेंगे, तो इसमें भी कुछ बुराई नहीं होगी। प्‍यार की तरह लेखक भी अपने विषय के चुनाव में स्‍वतंत्र होता है। क्‍या प्‍यार कभी अनुमति लेकर किसी दिल में अपनी जगह बनाता है?'

सम्‍मेलन में उपस्थित सभी लोगों ने खूब तालियाँ बजाई, मेहमान के शब्‍द तीर की तरह पैने थे और ठीक निशाने पर बैठे थे। मगर तालियाँ बजाते और मेहमान से लगभग पूरी तरह सहमत होते हुए भी कुछ विचार मेरे दिमाग में आते रहे।

दूसरे देशों और दूसरे लोगों के बारे में लिखना तो अच्‍छी बात है, मगर अपने विषय में पूरी तरह पारंगत होने के बाद ही ऐसा करना चाहिए।

मेरा छोटा-सा दागिस्‍तान और मेरी बहुत बड़ी दुनिया। ये दो नदियाँ हैं, जो घाटी में पहुँचकर एक हो जाती हैं। आँसू की दो बूँदें हैं, जो दो आँखों से छलककर, दो गालों पर बहती हैं, मगर एक ही गम या एक ही खुशी से पैदा होती हैं।

दो बूँदें कवि के गालों पर, गिरीं नमी की

एक बूँद दाएँ पर आई, एक बूँद बाएँ पर छलकी,

एक खुशी की एक गमी की,

एक हृदय का क्रोध बन गई, एक प्‍यार बन मन का ढलकी।

नन्‍ही-नन्‍ही ये दो बूँदें, शांत बड़ी

शक्तिहीन हैं अलग-अलग पर, यदि दोनों मिल जाएँ,

वे कविता का रूप ग्रहण कर तब अनुपम

बिजली-सी कड़कें, फिर बादल बनकर जल बरसाएँ।

मेरा छोटा-सा दागिस्‍तान और मेरी बहुत बड़ी दुनिया। बस, यही है मेरी जिंदगी, मेरा गीत, मेरी किताब, मेरा विषय।

जो उकाब ऊँची चट्टानों से घाटी के विस्‍तारों में उड़ान नहीं भरता - बुरा उकाब है।

जो उकाब घाटी के विस्‍तारों से ऊँची चट्टानों की ओर नहीं लौटता - बुरा उकाब है।

मगर उकाब के लिए ऐसा करना आसान है। वह पैदा ही उकाब हुआ है और चाहने पर भी सागर-पक्षी या कौवा नहीं बन सकता। अगर लेखक इस श्रेष्‍ठ और साहसी पक्षी के गुण लेकर पैदा नहीं हुआ, तो उसके लिए उकाब बनना कठिन है।

हमारे यहाँ जो आदमी कुमुज बजाना नहीं जानता, उसके बारे में तसल्‍ली देते हुए कहा जाता है - कोई बात नहीं, दूसरी दुनिया में सीख जाएगा।

कितने अधिक हैं ऐसे लोग, जो प्‍यार या घृणा की भावनाओं से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि केवल गंध से प्रेरित होकर लेखनी उठाते हैं!

बात यह है कि गाँव में आनेवाला मेहमान यह सोचते हुए कि कौन-सा घर अपने लिए चुने, आखिर चिमनी से निकलनेवाले धुएँ की गंध के आधार पर ही ऐसा करता है। एक घर के धुएँ में मकई की रोटियों की गंध होती है और दूसरे के धुएँ में भुने मांस की।

दूल्‍हा भी तो दो लड़कियों में से, जिनमें से एक बुद्धू और दूसरी समझदार है, बुद्धू को केवल इसलिए चुन लेता है कि उसके पास दौलत ज्‍यादा है।

ऐसे भी तो लेखक हैं, जिन्‍हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस विषय पर या किस देश के बारे में लिखते हैं। वे तो उन मुनाफाखोरों जैसे हैं, जो यह सोचते हैं कि वे जितनी अधिक दूर जाएँगे, अपना माल उतना ही ज्‍यादा महँगा बेच पाएँगे।

वे मुझे फारखालशा नाम की उस लड़की की याद दिलाते हैं, जो यह मानती थी कि अपने गाँव में उसके लायक कोई लड़का नहीं है, इसलिए दूसरे गाँव के नौजवानों पर आस लगाए बैठी रही और जैसा कि आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है, आखिर चिर-कुमारी ही रह गई।

जंगल में जानेवाले दो पहाड़ियों का किस्‍सा। किसी गाँव के दो पहाड़ी आदमी जुए के लिए लकड़ी काटने को जंगल में गए। जाहिर है कि उनके पुराने जुए काम के नहीं रहे होंगे।

एक को तो फौरन ढंग का वृक्ष मिल गया और उसने दो बढ़िया सूखे तने काट लिए। मगर उसके साथी को ऐसा ही लगता गया कि अगला वृक्ष बेहतर होगा, अगला वृक्ष और भी ज्‍यादा अच्‍छा होगा। वह दिन भर ऐसे ही जंगल में भटकता रहा और जो कुछ उसे चाहिए था, उसे चुनने के बारे में अपना इरादा न बना सका। आखिर उसने वे दो तने काट लिए, जो शुरू में मिलनेवालों की तुलना में कहीं बुरे थे। वह शाम होने पर तब घर लौटा, जब पहला पहाड़ी नए जुए का उपयोग कर खेत जोतने के बाद घर लौट रहा था।

अबूतालिब ने यह किस्‍सा मुझे इस सिलसिले में सुनाया था कि एक दागिस्‍तानी कवि बहुत लंबी यात्रा के बाद दो घटिया-सी कविताएँ रचकर घर लौटा था।

'जो गीत अपने घर में नहीं सीखा गया, वह घर से दूर नहीं सीखा जा सकता,' बुजुर्ग ने यह नतीजा निकाला और फिर इतना और जोड़ दिया- 'कवि कभी-कभी उस पहाड़ी आदमी जैसे होते हैं, जो दिन भर अपनी फर की टोपी खोजता रहा, जबकि वह उसके मूर्खतापूर्ण सिर पर मौज मना रही थी।'

विषय के बारे में कुछ और। एक ऐसा भी दिन था, जब मैं पहली बार अपना घर छोड़कर सफर को निकला था। माँ ने जलता हुआ लैंप खिड़की में रख दिया था। मैं थोड़ा चलता, मुड़कर देखता, फिर चलता, मगर मेरे घर का लैंप कुहासे और अँधेरे को चीरकर मुझे अपनी झलक दिखाता रहा।

छोटी-सी खिड़की में रखा हुआ लैंप अनेक वर्षों के दौरान, जब मैं दुनिया में घूमता रहा, मेरी आँखों के सामने टिमटिमाता रहा। अब अपने घर लौटकर मैंने इस खिड़की में से झाँका, तो मुझे वह सारी बड़ी दुनिया, जो मैं अब तक घूम चुका था, दिखाई दी।

लेखक को विषय भला कौन दे सकता है? उसे सिर, आँखें, कान और दिल देना कहीं अधिक आसान है। जो लेखक प्‍यार या घृणा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि गंध या अधिक सही तौर पर, अपनी सूँघने की शक्ति के आधार पर विषय खोजते हैं, वे युग-पुत्र नहीं बन सकते। वे अपने समय के नहीं, एक दिन के बेटे होते हैं। इसके अलावा बहरी दुलहन से भी उनकी तुलना की जा सकती है।

बहरी दुल्‍हन का किस्‍सा। कभी किसी गाँव में एक बहरी लड़की रहती थी। दूसरे गाँव के एक नौजवान ने, जिसे उसके बहरेपन के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, उसके घर सगाई करनेवाले भेज दिए। ढंग से सारा प्रबंध हो गया और शादी शुरू हुई। बेशुमार मेहमान जमा हो गए। दुलहन यह नहीं चाहती थी कि शादी में शामिल होनेवाले सभी लोगों को उसके बहरेपन के बारे में मालूम हो। उसने अपनी सहेली से कहा कि वह सारा वक्‍त उसके करीब बैठी रहे। अगर लोग कोई खुशी भरी बात सुनाएँ यानी ऐसी कि जिस पर हँसना चाहिए, तो सहेली उसके बाएँ कंधे पर चुटकी काटे। अगर दुख और उदासी भरी कोई बात सुनाई जाए, तो सहेली दाएँ कंधे पर चुटकी काटे।

शादी के वक्‍त दुलहन का खुद बोलना-बतियाना जरूरी नहीं होता, उसका चुप रहना ज्‍यादा अच्‍छा होता है। इसलिए कुछ वक्‍त तो सारा मामला ढंग से चलता रहा। जब हँसना जरूरी होता, तो दुलहन हँसती और इर्द-गिर्द जमा लोग जब दुखी होते, तो वह भी दुखी हो जाती।

मगर बाद में उसकी सहेली वह भूल गई, जो तय किया गया था, और जब बाएँ कंधे पर चुटकी काटनी होती, तो वह दाएँ पर काटती यानी सब कुछ उलट करने लगी। दुल्‍हन दुख और गहरी सोच के क्षणों में ठहाके लगाती और, जब सब हँसते, तो वह आहें भरती, दुखी होती।

दूल्‍हा दुलहन को गौर से देखने लगा, देखता रहा और इस नतीजे पर पहुँचा कि वह बिल्‍कुल मूर्ख है। उसने उसी क्षण उस रास्‍ते से उसे वापस भेज दिया, जिससे वह आई थी।

तो असली लेखक को बहरी दुलहन की तरह दाईं और बाईं ओर से चुटकियों की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उसके अपने ही दिल की पीड़ा, सिर्फ अपनी ही खुशी को उसे कलम उठाने के लिए मजबूर करना चाहिए, वह इसलिए नहीं हँसता है कि दूसरे हँसते हैं और इस कारण उसे भी ऐसा ही करना चाहिए। वह इसलिए दुखी नहीं होता कि दूसरे दुखी हैं और इस कारण उसे भी उनका साथ देना चाहिए। नहीं, शादी को तो उसे अपना ही रंग देना चाहिए। कवि जब हँसे, तो इर्द-गिर्द सभी खुश हो उठें। कवि जब अपने दिल का दर्द उनके सामने रखे, तो उन सब के दिल दर्द से टीस उठें।

अगर कोई अभी भी मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं और यह मानता है कि दूसरों के बताये हुए विषय पर लिखना ज्‍यादा आसान है, तो वे मेरे साथ घटी हुई निम्‍न घटना से सबक लें।

संस्‍मरण। तब मैं खूंजह की गढ़ीवाले प्रारंभिक स्‍कूल की दूसरी कक्षा में पढ़ता था। नीली आँखोंवाली नीना नाम की एक लड़की, जो रूसी अध्‍यापिका की बेटी थी, मेरे साथ एक ही डेस्‍क पर बैठती थी। मुझे वह बहुत अच्‍छी लगती थी, मगर उससे यह कहने की मुझे हिम्‍मत नहीं होती थी। आखिर मैंने एक पुर्जे पर यह लिखकर उसे देने का फैसला किया। मगर यह भी कुछ आसान काम नहीं था, क्‍योंकि उस वक्‍त तक मुझे रूसी में एक शब्‍द भी नहीं लिखना आता था। चुनांचे मैंने अपने एक दोस्‍त से मदद करने की प्रार्थना की। वह समझ में न आनेवाले कुछ रूसी शब्‍द बोलता गया और मैं रूसी अक्षरों में उन्‍हें लिखता गया। मैं सोच रहा था कि प्‍यार के बहुत बढ़िया शब्‍द, जैसे कि मैं नीना को लिखना चाहता था, लिख रहा हूँ। काँपते हाथों से वह पुर्जा मैंने नीना को दिया, काँपते हाथों से उसने उसे लिया और पढ़ने लगी। अचानक उसका मुँह लाल हो गया, वह क्‍लास से बाहर भाग गई और फिर डेस्‍क पर उसने मेरे साथ नहीं बैठना चाहा। बाद में पता चला कि मेरे सारे प्रेम-पत्र में बहुत ही अश्‍लील और गंदे-गंदे शब्‍द भरे हुए थे।

एक और घटना याद आ रही है। मैं साहित्‍य-संस्‍थान का विद्यार्थी था और नीना लेनिन नामक अध्‍यापक प्रशिक्षण संस्‍थान की। दिसंबर के महीने में एक दिन उसने मुझे अपने यहाँ आने की दावत दी। मुझे मालूम था कि उसने मुझे अपने जन्‍म-दिन पर बुलाया है। जाहिर है कि मुझे तोहफों की फिक्र हुई, मगर मुझे लगा कि अगर मैं नीना के बारे में कविता लिखूँ, उसे सबके सामने पढ़कर सुनाऊँ और फिर उसे भेंट करूँ, तो यह सबसे अच्‍छा तोहफा रहेगा।

तो इस तरह मैंने बधाई की कविता लिखी, अपने एक सहपाठी को, जो मेरी ही तरह जवान कवि था, रूसी भाषा में उसका उल्‍था करने के लिए राजी किया। मेरा साथी रात भर उस कविता का अनुवाद करता रहा। जब उसने मुझे वह पढ़कर सुनाई, तो मैं अपनी कविता को पहचान ही नहीं पाया। उसमें अत्‍यधिक भावुकतापूर्ण भावनाएँ थीं, प्‍यार की तड़प और वेदना की बातें थीं। मगर मैं नीना को जो कुछ कहना चाहता था, उसमें से कुछ भी बाकी नहीं रह गया था।

मगर अब मुझे धोखा देना मुश्किल था। मैं एक बार ऐसे जाल में फँस चुका था। इसलिए मैंने अपने साथी से कहा -

'खैर, यह कविता तुम अपनी प्रेयसी को उसके जन्‍म-दिन पर पढ़कर सुनाना, क्‍योंकि यह मेरी नहीं, तुम्‍हारी कविता है।'

विषय के बारे में कुछ और। विषय सोई हुई मछली की भाँति पेट ऊपर को किए हुए सतह पर नहीं तैरा करता। वह तो गहराई में, तेज और निर्मल पानी में होता है। उसे वहाँ खोजिए, भँवर में से, जल-प्रपात के नीचे से निकालने की सामर्थ्‍य पैदा कीजिए। लंबे और कठोर श्रम से कमाए गए तथा पटरी पर संयोग से मिल जानेवाले धन का क्‍या एक जैसा ही मूल्‍य हो सकता है?

पहाड़ी लोगों में कहा जाता है कि हम-बहुत से जानवर पकड़ सकते हैं, मगर वे सभी गीदड़ और खरगोश ही होंगे। एक जानवर पकड़ना ही बेहतर है, बशर्ते कि वह लोमड़ी हो। मगर कोई भी यह नहीं कह सकता कि वह कहाँ मिलेगी। यह जरूरी बात नहीं है कि सबसे अच्‍छा जानवर सबसे दूरवाले दर्रे में ही रहता हो।

एक शिकारी जिंदगी भर कोई रुपहली लोमड़ी पकड़ने का सपना देखता रहा। उम्र भर उसकी खोज में उसने सारे पहाड़ छान मारे। बुढ़ापे में उसके लिए दूर-दूर जाना मुश्किल हो गया और वह पासवाले दर्रे में घर के बिल्‍कुल करीब ही शिकार करने लगा। अचानक वहीं एक दिन उसे रुपहली लोमड़ी मिल गई। शिकारी ने लोमड़ी से पूछा -

'तू अब तक कहाँ छिपी रही थी? मैं तो जिंदगी भर तेरी तलाश करता रहा।'

'मैं तो सारी उम्र इसी दर्रे में रही हूँ,' लोमड़ी ने जवाब दिया। 'क्‍या तुम यह नहीं जानते कि खोज में तो बेशक सारी जिंदगी बिताई जा सकती है, तो भी पाने के लिए एक दिन या एक घड़ी की जरूरत होती है?'

हाँ, हर लेखक के जीवन में एक दिन आता है, जब वह खुद अपने को पहचान पाता है, जब उसे अपना मुख्‍य विषय मिल जाता है। इस विषय के साथ उसे बाद में गद्दारी नहीं करनी चाहिए। अगर वह ऐसा करेगा, तो उसके साथ भी वैसी ही बीत सकती है, जैसी कि मेरे एक परिचित के साथ बीती।

मेरे एक परिचित के नाटक का किस्‍सा। एक दागिस्‍तानी लेखक ने सामूहिक फार्म के जीवन के बारे में एक नाटक लिखा। विषय चाहे बहुत ही महत्‍वपूर्ण था, थियेटर ने नाटक स्‍वीकार नहीं किया और 'नाटक पसंद नहीं आया' इस बहुत ही घटिया कारण के आधार पर उसे लौटा दिया।

शायद किसी अन्‍य व्‍यक्ति के लिए तो यही कारण काफी होता, मगर नाटककार को इससे संतोष नहीं हुआ। वह नाराज हो गया और उसने ठीक जगह पर शिकायती चिट्टी लिख भेजी। उसी वक्‍त इस मामले पर गौर करने और जरूरी कदम उठाने के लिए एक आयोग नियुक्‍त कर दिया गया। नाटक का अध्‍ययन करने पर उसका यह सार सामने आया - गेहूँ की बहुत ही बढ़िया फसल की कटाई के लिए खुशी भरे गीत गाते हुए दो टोलियाँ आपस में समाजवादी प्रतियोगिता करती हैं।

इस तरह के कथानकवाला नाटक आयोग को अवश्‍य पसंद आता और नाटक के रास्‍ते में कोई बाधा नहीं आ सकती थी, मगर तभी कुछ दूसरे हालात ने खलल डाल दिया। इसी वक्‍त यह तय किया गया कि कुमीक स्‍तेपियों में, जहाँ हँसती-गाती टोलियाँ आपस में मुकाबला करती हुई फसल बटोर रही थीं, गेहूँ की जगह कपास बोई जाए। अब 'कपास' की परिस्थितियों में गेहूँ के बारे में नाटक पेश नहीं किया जा सकता था। नाटककार ने सोच-विचार में ज्यादा वक्त बरबाद नहीं किया और अपने नाटक में जरूरी तब्‍दीलियाँ करने लगा। नई बोई गई कपास में अभी फूल भी नहीं आए थे कि नाटक को नई, बढ़िया शक्‍ल दे दी गई। नाटक को फिर से थियेटर में पढ़ा जाने लगा। अभी उस पर विचार-विनिमय चल ही रहा था कि एक नया फैसला सामने आ गया। उसमें कहा गया था कि कुमीक स्‍तेपियों में कपास उगाना तो गेहूँ से भी कम फायदेमंद है और इसलिए वहाँ मकई उगाई जानी चाहिए।

मेहनती नाटककार अपने नाटक को फिर से नया रूप देने लगा। मालूम नहीं कि यह मामला आगे क्‍या करवट लेता, मगर इसी वक्‍त थियेटर जल गया। मेरे परिचित को बड़ी मायूसी हुई, वह नदी के खड़े तट पर गया और हताशा में अपने नाटक को नदी की तेज धारा में बहा दिया। अब उसे नाटक के बारे में कोई अफसोस नहीं होता।

शायद एक अन्‍य नाटक का किस्‍सा सुना देना भी ठीक रहेगा। उसे एक रूसी लेखक ने लिखा और उसका नाम था - 'जोशीले लोग'। यह गेहूँ कपास का नहीं, 'माहीगीरी' का नाटक था। वास्‍तव में यह नाटक 'माहीगीरी' के बारे में भी नहीं, बल्कि निम्‍न विषय से संबंध रखता था।

एक ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है कि पहाड़ी लोगों को उनके सदियों पुराने देहातों से निकालकर मैदानों में सागर के किनारे बसाया जाए। इसे 'मैदानों में बसाना' कहा जाता है। हम यहाँ इस मसले की तफसील में नहीं जाएँगे। सिर्फ इतना ही कहेंगे कि सदियों से भेड़ें पालनेवाले पहाड़ी लोग मैदानों में कभी-कभी मछुए बन जाते हैं। बुरा मछुआ बढ़िया चरवाहे से कैसे बेहतर है, यह भी आसानी से समझना मुश्किल है। मगर 'जोशीले लोग' नाटक में यही बताया गया था कि दूर-दराज के एक गाँव के पहाड़ी लोग कैसे कास्पियन सागर के मछुए बन गए।

नाटक के सभी पात्र अवार थे और इसलिए नाटककार ने अवार थियेटर को अपना नाटक भेजा। मगर अवार थियेटर ने नाटक अस्‍वीकार करके लौटा दिया।

नाटककार अब क्‍या करे? उसकी जगह कोई दूसरा होता, तो शायद परेशान हो उठता और हिम्‍मत हार बैठता। मगर हम जानते हैं कि शतरंज में काले मोहरे कभी-कभी ऐसी कठिन परिस्थिति में पड़ जाते हैं, ऐसी जगह धकेल दिए जाते हैं कि उन्‍हें जीने-मरने का कोई रास्‍ता नजर नहीं आता। अचानक इसी वक्‍त वे अपना घोड़ा आगे बढ़ा देते हैं। यह बहुत अप्रत्‍याशित और बहुत सीधी-सी चाल होती है। बस, सारा पासा ही पलट जाता है। अब सफेद मोहरों को अपनी रक्षा करनी होती है, वक्‍त रहते अपनी जान बचाकर भागना होता है।

'जोशीले लोग' नाटक के रचयिता ने भी ऐसी सीधी-सी चाल चली। अचानक उसने सभी अवार नामों को कुमीक नामों में बदल दिया और नाटक कुमीक थियेटर को भेज दिया। मगर शतरंजी घोड़ा चलने पर भी बात बनी नहीं। कुमीक थियेटर ने भी मछुए बन जानेवाले चरवाहों के बारे में नाटक प्रस्‍तुत करने से इनकार कर दिया।

हमारे दागिस्‍तान में अनेक जातियाँ हैं। नाटक के पात्र दार्गिन भी बने और लेजगीन भी, मगर अच्‍छे मछुए तो फिर भी नहीं बन पाए। भूखे कुत्‍ते की तरह, जिसे घर में खिलाने को कुछ नहीं था, नाटककार ने अपने नाटक को बाहर सड़क पर छोड़ दिया। कुत्‍ते ने बहुत-से दरवाजों के चक्‍कर लगाए, मगर उसे कहीं एक भी हड्डी नहीं मिली।

कुछ साल बाद नाटककार उच्‍च साहित्यिक पाठ्यक्रमों में शिक्षा पाने के लिए मास्‍को चला गया। तब मखचकला में यह खबर पहुँची कि उसके मछुए जिप्‍सी बन गए हैं। जिप्सियों के 'रोमन' थिेयटर ने नाटक में दिलचस्‍पी जाहिर की। आखिर लंगड़ी दुलहन को दूल्‍हा मिल गया। खैर, यह शादी बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी...

तो लीजिए, मैंने अपने परिचित लेखकों के दो नाटकों की एक साथ आलोचना कर डाली। अगर इस वक्‍त मैं लेखकों की सभा में मंच पर खड़ा होता, तो कभी की मुझे ये आवाजें सुनाई दी होतीं - 'अपनी चर्चा करो! अपनी आलोचना करो!'

अपने बारे में क्‍या कहूँ? मैं तो शायद बहुत खुशकिस्‍मत होता, अगर लेखकों के ऐसे ही गुनाहों के लिए, जिनकी मैंने अभी चर्चा की है, मुझ पर आरोप लगाए जाते। मगर मैं तो अपने ऊपर ऐसे गुनाह का बोझ लादे हुए हूँ, जिनके सामने 'कपास' और 'मछुओं' संबंधी सारे गुनाह मजाक से लगते हैं, हेच और बेमानी हैं। जवानी के दिनों में मैंने एक ऐसी हरकत की, जिसे याद करके दिल को बहुत तकलीफ होती है।

बाद को मेरे दोस्‍तों ने बहुत अर्से तक और जी भरकर मुझे भला-बुरा कहा। मेरे लिए यह सजा थी। मगर सबसे बड़ी सजा तो मैं खुद अपने भीतर महसूस करता हूँ और कोई भी मुझे इससे अधिक दंड नहीं दे सकता था।

पिता जी कहा करते थे कि अगर कोई नीचतापूर्ण और लज्‍जाजनक हरकत करोगे, तो बाद में चाहे कितनी भी नाक क्‍यों न रगड़ो, वह हरकत तो वापस नहीं लौटा सकोगे।

पिता जी कहा करते थे कि लज्‍जाजनक हरकत करने और कुछ साल बाद उसके लिए पछतानेवाला आदमी उस ऋणी के समान होता है, जो पुराने और गैर-कानूनी घोषित किए जानेवाले रुपयों से अपना कर्ज चुकाना चाहता है।

पिता जी यह भी कहा करते थे कि अगर तुम बुराई को मानमानी करने दोगे और उसे घर से बाहर आजाद छोड़ दोगे, तो उस जगह को पीटने से क्‍या लाभ होगा, जहाँ वह बैठी थी?

बैलों के चुराए जाने के बाद दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लगाने में क्‍या तुक है?

यह सब कुछ सही है। मैं यह भी जानता हूँ कि मार-पीट के बाद घूँसे चलाना बेकार है। मगर मेरे पाठक कभी-कभी मुझे फिर से खत लिख देते हैं, बीती बात याद दिला देते हैं, मेरे घाव को हरा कर डालते हैं। वे मानो मेरी खिड़की पर पत्‍थर फेंकते हैं, मानो पुकारकर कहते हैं -

'रसूल हमजातोव, खिड़की में से झाँको, अपनी सूरत दिखाओ। हमें, अपने पाठकों को यह बताओ कि यह सब कैसे हुआ?'

'क्‍या और किस बारे में बताऊँ?'

इस बारे में कि उन्‍नीस सौ इकावन में तुमने शामिल को कलंकित करनेवाली कविता लिखी थी और उन्‍नीस सौ इकसठ में लिखी गई कविता में उसका गुणगान किया। दोनों कविताओं पर रसूल हमजातोव का नाम है। अब हम यह जानना चाहते हैं कि यह एक ही रसूल है या भिन्‍न रसूल हैं और किस रसूल पर हम विश्‍वास करें।

बहुत ही टेढ़ा सवाल है यह। शरीर में लगनेवाला तीर तो निकाला जा सकता है, मगर क्‍या दिल में लगनेवाला तीर निकालना मुमकिन है?

मेरे प्‍यारे पाठक, मुझे मालूम नहीं कि तुम्‍हारी उम्र कितनी है। मुमकिन है कि तुम अभी बिल्‍कुल जवान हो। तुम्‍हारे जीवन में क्‍या ऐसी सीमा-रेखाएँ, ऐसी हदें आई हैं, जो तुम्‍हें लाँघनी पड़ी हों? मुझे एक ऐसी सीमा लाँघनी पड़ी है - अपनी भावनाओं को गंभीरतापूर्वक समझे बिना मैंने प्‍यार किया है। बाद में मुझे इसके लिए पछताना पड़ा।

ऐसा भी होता है कि पड़ोसियों के घरों की खिड़कियों के बीच बहुत ही तंग-सी गली होती है। हर खिड़की में पड़ोसी एक-दूसरे के सामने खड़े हैं। वे एक-दूसरे को भला-बुरा कहते हैं, बड़ा छोटे पर और छोटा बड़े पर बुरी हरकतों के आरोप लगाता है। मैं एक-दूसरे को कोसनेवाले इन पड़ोसियों के समान हूँ, मगर दोनों खिड़कियों में मैं ही खड़ा हूँ। सिर्फ इतना ही फर्क है कि एक खिड़की में मैं जवान हूँ और दूसरी में, जैसा इस वक्‍त हूँ।

जैसे कोई बहुत ही सुंदर लड़की बुद्धू नौजवान को चकाचौंध कर देती है, उसी तरह समय की चमक ने मुझे चौंधिया दिया था। मैं हर चीज को वैसे ही दोषहीन देखता था, जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी को।

अगर संजीदगी से बात की जाए, तो यही कहना होगा कि मैं समय की छाया था। यह तो सभी जानते हैं कि डंडा, वैसी ही उसकी छाया। अधिकृत रूप से यह निर्णय किया गया था कि शामिल अंग्रेजों और तुर्कों का भाड़े का टट्टू था और उसका मुख्‍य उद्देश्‍य भिन्‍न जातियों में फूट डालना था। जहाँ यह निर्णय किया गया था, मैंने उस घर, उस घर के मालिक पर एतबार किया। तभी मैंने हम लोगों के शामिल का भंडाफोड़ करनेवाली कविता लिखी थी।

अब कभी-कभी तसल्‍ली देने के लिए मुझसे यह कहा जाता है-

'हमने सुना है कि तुमने वह कविता खास फरमाइश पर लिखी थी, तुम्‍हें उसे लिखने के लिए मजबूर किया गया था।'

यह झूठ है! किसी ने भी मेरे साथ जोर-जरर्दस्‍ती नहीं की, मुझे मजबूर नहीं किया। मैंने खुद अपनी इच्‍छा से शामिल के बारे में कविता लिखी थी और खुद ही उसे संपादक के पास लेकर गया था। बात सिर्फ इतनी है कि उस वक्‍त मैं उन पहाड़ी लोगों जैसा था, जो अरबी का एक अक्षर भी न जानते हुए कुरान के पन्‍ने उलटते-पलटते हैं यानी कुछ भी नहीं समझ पाते, फिर भी एक खास प्‍यारी-सी खुशी महसूस करते हैं।

मैं समय की छाया था। तब मैं यह नहीं जानता था कि कवि कभी छाया नहीं हो सकता, कि वह हमेशा आग, प्रकाश-स्रोत होता है और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह हल्‍की-सी रोशनी है या बड़ा सूरज। रोशनी की कभी छाया नहीं होती, रोशनी से तो सिर्फ रोशनी ही होती है।

शायद मैं यह बात कुछ देर से समझा हूँ पर क्‍या हुआ, सेब भी भिन्‍न-भिन्‍न किस्‍मों के होते हैं। कुछ जल्‍दी पक जाते हैं और दूसरे सिर्फ पतझर में जाकर ही रसीले होते हैं। लगता है कि मैं पतझरवाली ही किस्‍म हूँ।

तो ऐसे हुआ था यह सब किस्‍सा। जहाँ तक मेरे घाव का संबंध है, तो वह मेरे साथ है।

कभी न भरनेवाला मेरा, घाव हरा हो आया फिर से

फिर से दिल को चीर रहा वह, अंगारे-सा दहकाता,

दादा मुझे सुनाते रहते थे बचपन में जिसके किस्‍से

लोगों की बातों में उसका जिक्र बहुत अक्‍सर आता।

वह किस्‍से-सा लोक-कथा-सा, लेकिन फिर भी ठोस हकीकत

बड़े शौक से सुनता था मैं, बचपन में उसकी बातें,

और हमारे घर के ऊपर, संध्‍या के अरुणिम अंबर में

उसके वीर सैनिकों जैसी, तिरतीं बादल की पाँतें।

गीत पहाड़ों का था वह तो, उसी गीत को मेरी अम्‍माँ

कभी-कभी गाया करती थीं, मैं तो नहीं, भुला पाता,

कैसे उनकी निर्मल आँखों में, आँसू का कण उजला

साँझ समय की चरागाह में, शबनम कण-सा बन जाता।

वह बुजुर्ग सेनानी पहने, चोगा हम पर्वतवालों का

निकट खड़ा खिड़की के मानो, झाँका करता था घर में,

उसके सब हथियार बँधे रहते थे दाएँ पहलू में

और खूब लड़ता था वह तो, खड़ग लिए बाएँ कर में।

मुझे याद है, उस बुजुर्ग ने, जिसका है छविचित्र सामने

बड़े भाइयों को मेरे दो, युद्ध-क्षेत्र में विदा किया,

ऐसा टैंक बना देने को, उसका नाम लिखा हो जिस पर

माला भी दी, और बहन ने, कंगन-जोड़ा भेंट दिया।

और पिता ने मेरे अपने स्‍वर्गवास से कुछ ही पहले

उसी वीर पर कविता रच दी, लेकिन यह क्‍या गजब हुआ!

वह था ऐसा वक्‍त कि जब शामिल को समझ न पाए थे हम

लांछन उस पर तब लगते थे, कहते थे सब भला-बुरा।

अगर पिता के दिल को ऐसा, धक्‍का नहीं अचानक लगता

शायद जीते और बहुत दिन... तभी भूल मैंने भी की

कर बैठा विश्‍वास सहज ही, लोगों की झूठी बातों पर

उसी लहर में बहकर मैंने, झटपट कविता भी लिख दी।

उस बुजुर्ग का खड़ग कि जिसने, बरसों तक साहस, हिम्‍मत से

खूब दुश्‍मनों से टक्‍कर ली, उनका खून बहाया था,

हो गुमराह, भटक चक्‍कर में, अपनी कच्‍ची-सी कविता में

एक देश-द्रोही का तेगा, मैंने उसे बताया था।

उसके भारी कदमों की अब, रातों को आहट मिलती है

जैसे ही बुझती है बत्‍ती, वह खिड़की में आ जाता,

कभी आहूलगो गाँव बचाता रण-आँगन में लड़ता-भिड़ता

या गूनीब के उस बुजुर्ग-सा वह मेरे सम्‍मुख आता।

कहता है - मैंने युद्धों में, अंगारों, ज्‍वालाओं में भी

अपना कितना खून बहाया, और बहुत पीड़ी जानी,

उन्‍नीस घाव सहे थे तन पर, बहुत कसकते, बहुत टीसते

और बीसवाँ घाव तुम्‍हारा, तुझ लड़के की नादानी।

घाव खंजरों के थे तन पर, घाव गोलियों के भी थे

तुमने घाव किया जो लेकिन, उसका दर्द कहीं बढ़कर,

क्‍योंकि किसी पर्वतवासी का, मुझ पर वार हुआ यह पहला

मेरे दिल, सीने में सीधे, उतर गया तेरा खंजर।

यह मुमकिन है अब जिहाद भी, नहीं वक्‍त की माँग रहा है

लेकिन कभी इसी ने तेरे, घर, पर्वत की रक्षा की,

लगता है, मेरा तेगा भी, आज समय से पिछड़ गया है

आजादी हित कभी शत्रु की, इसने कड़ी परीक्षा ली।

भूल सभी आराम-चैन को, एक पहाड़ी की दृढ़ता से

लड़ता रहा, न सुध थी मुझ को, गीतों, मौज-बहारों की,

कभी-कभी कोड़ों से मैंने, करवाई थी कड़ी मरम्‍मत

कथाकार, गायक, कवियों की, सुंदर रचनाकारों की।

यह संभव है भूल बड़ी की, मैंने उनको व्‍यर्थ सताकर

यह संभव है मुझे चाहिए, था गुस्‍से पर काबू पाना,

देख तुम्‍हारे जैसे थोथे तुकबंदों को, पर, यह लगता

भूल न की थी तब भी मैंने, तब भी सच को पहचाना।

इसी तरह सूरज चढ़ने तक, मुझे कोसता, पास, खड़ा वह

मैं पहचान उसे लेता हूँ, चाहे हो तम की चादर,

रंगी हिना से फूली-फूली, लहराती उसकी वह दाढ़ी

नजर मुझे आ जाती टोपी, कसी हुई पगड़ी उस पर।

क्‍या जवाब दे सकता हूँ मैं? उसके सम्‍मुख, तेरे सम्‍मुख

ओ मेरी जनता मैं सचमुच, अपराधी हूँ बहुत बड़ा,

था इमाम, उसका था नायब, छोड़ गया था साथ मगर जो

वह योद्धा हाजी-मुराद था, वह सेनानी बड़ा कड़ा।

पश्‍चाताप हुआ तब उसको, निर्णय किया लौट चलने का

मगर राह में दलदल आया, वह ही उसको निगल गया,

क्‍या इमाम के पास चलूँ मैं? कैसा है बेतुका खयाल यह

नहीं रास्‍ता वह मेरा है, और जमाना आज नया।

वे सोचे-समझे ही मैंने, तब जो कविता लिख डाली थी

शर्म, उनींदे से भी उसका मुश्किल मोल चुका पाना,

अपनी गलती की इमाम से, माफी पाने को इच्‍छुक हूँ

पर दलदल में उसी तरह से, नहीं चाहता धँस जाना।

और मुझे लगता है ऐसा, मैंने जिसको ठेस लगाई

किया बड़ा अपमान, न उससे क्षमा-दान मिल सकता है,

उसे कलंकित करनेवाली, रची छिछोरी जो कविता थी

तलवारों से लिखनेवाला, उसे माफ कब करता है!

बेशक ऐसा ही होने दो... पर तू मेरी प्‍यारी जनता

मेरा यह अपराध भुला दे, तू तो मुझे क्षमा दे कर,

मेरी प्‍यारी धरती तू तो, देख न अपने कवि को ऐसे

जैसे कोई माँ, बेटे को, देखे गुस्‍से से भर-भर।


मुझे मालूम नहीं कि दागिस्‍तानियों ने मुझे मेरी पुरानी कविता के लिए माफ किया या नहीं, नहीं मालूम कि शामिल की छाया ने उसके लिए मुझे माफ किया या नहीं, मगर खुद मैं अपने को कभी भी माफ नहीं करूँगा।

मेरे पिता जी ने मुझसे कहा था -

'शामिल को नहीं छेड़ना। अगर ऐसा करोगे, तो जिंदगी भर चैन नहीं पाओगे।'

पिता जी की बात सच निकली।


मैं बेटा पर्वतवासी का, बचपन से ही सही कड़ाई,

डाँट-डपट से मैं परिचित हूँ, हुई कभी तो खूब पिटाई।

मेरी भूलों, अपराधों पर, पिता न तरस कभी खाते थे,

खूब जोर से कान ऐंठ कर, अक्‍ल ठिकाने पर लाते थे।

अब मैं वयस्‍क, समय अब मुझ पर,

हर दिन अपनी चोटें करता,

खूब जोर से कान खींचकर लाल-लाल वह उनको करता

वैसे ही जैसे हो जाता, जब कोई बेसुर दोतारा,

वादक उसका तार खींचकर, उसे नया सुर देता प्‍यारा।


समय! दिनों से साल और सालों से सदियाँ बनती हैं। मगर युग क्‍या है? वह सदियों से बनता है या सालों से? या फिर एक दिन भी युग बन सकता है? वृक्ष पाँच महीने तक हरा रहता है, मगर उसके सभी पत्‍तों को पीला करने के लिए एक दिन या एक रात ही काफी होती है। इसके उलट भी होता है। पाँच महीनों तक वृक्ष निपत्‍ता और कोयले की तरह काला रहता है। उसे हरा-भरा करने के लिए एक उजली, सुहावनी सुबह ही काफी होती है। खुशी भरी एक सुबह ही उस पर फूल लाने के लिए काफी रहती है।

ऐसे वृक्ष भी हैं, जो हर महीने बाद अपना रंग बदलते है, और ऐसे भी हैं जो कभी रंग नहीं बदलते।

मौसमी पक्षी भी हैं, जो मौसम के मुताबिक सारी दुनिया में जहाँ-तहाँ उड़ते रहते हैं, और उकाब भी हैं, जो कभी अपने पहाड़ छोड़कर नहीं जाते।

पक्षी हवा के रुख के खिलाफ उड़ना पसंद करते हैं। अच्‍छी मछली हमेशा धारा के विरुद्ध तैरती है। सच्‍चा कवि अपने हृदय का आदेश मानते हुए 'विश्‍व मत' का विरोध करने से कभी नहीं झिझकता।

नोटबुक से। मेरा एक दोस्‍त है, एक अवार कवि। पिछले साल उसकी कविताओं का नया संग्रह निकला है। पुस्‍तक की सारी कविताओं को उसने ऐसे हिस्‍सों में बाँट दिया है, जैसे कि शहरी फ्लैट के कमरों को अलग-अलग उद्देश्‍य के लिए बाँटा जाता है। राजनीतिक या सामाजिक कविताओंवाला भाग तो जैसे अध्‍ययन-कक्ष है, आंतरिक भावनाओं या प्रणय की कविताओं का हिस्‍सा मानो शयन-कक्ष है और सामान्‍य ढंग की कविताएँ मानो दीवानखाने के अंतर्गत आती हैं। मगर समझ में नहीं आता कि कृषि, अनाज और चरवाहों संबंधी कविताओं को कहाँ जगह दी जाए - क्‍या रसोई-घर में?

क्‍या दागिस्‍तानी गायकों की प्रतियोगिता में हिस्‍सा लेने के लिए पहाड़ों से आनेवाले गायक ने ठीक ही नहीं किया था? अपनी कविताओं को अलग-अलग हिस्‍सों में बाँटनेवाले हमारे इस कवि ने गायक से अनुरोध किया कि वह हर हिस्‍से से एक कविता गाये। गायक ने अपने कुमुज को सुर किया, कुछ मिनट तक चुप रहा मानो अपने विचारों को एकत्रित करता रहा और फिर गाने लगा। बहुत देर तक गाता रहा वह। सभी श्रोता घबरा उठे : अगर एक भाग से कविता गाते हुए ही उसने इतना वक्‍त लगा दिया, तो चारों भागों से कविताएँ गाते हुए कितना वक्‍त लेगा, कब गाना खत्‍म होना? मगर गायक तभी चुप हुआ और तारों पर हथेली रखकर उसने उनकी झंकार को शांत किया। इसके बाद उसने और नहीं गाया। हुआ यह कि उसने कवि के मुख्‍य विचारों और भावनाओं को एक ही गाने में समेट दिया। कवि ने गायक से पूछा कि उसने ऐसा क्‍यों किया।

'दोस्‍त,' गायक ने जवाब दिया, 'यह मेरा कुमुज है और इसमें तीन तार हैं। मैं पहले एक, फिर दूसरा और फिर तीसरा तार तो नहीं बजा सकता।'

विषय के बारे में कुछ और। शायद सभी को यह किस्‍सा मालूम नहीं है कि एक पहाड़ी आदमी नए, ऊँचे बूट पहनता था और उसे इस बात की बड़ी फिक्र रहती थी कि वे कहीं गंदे न हो जाएँ। इसलिए वह पंजों के बल चलता। एक दिन वह ऐसी जगह जा फँसा, जहाँ घुटनों तक कीचड़ था। चुनांचे बेचारे को सिर के बल खड़ा होना पड़ा।

ऐसा होता है कि कवि कभी-कभी सृजन नहीं करते, बल्कि अपने को मानो रविवारीय घुड़दौड़ों में हिस्‍सा लेते हुए महसूस करते हैं। इसलिए कि इनाम का रूमाल पाँच मिनट के लिए घोड़े की गर्दन की शोभा बढ़ा सके, वे उसकी पीठ को चाबुक मार-मारकर लहूलुहान करने को भी तैयार रहते हैं। रूमाल तो उसी दिन उतारना होगा, मगर घाव बहुत अर्से तक नहीं भर पाएँगे। ऐसे कवि तालातल के अलीबुलात की तरह हमेशा इस बात के लिए तैयार-बर-तैयार रहते हैं कि... मगर आप तो नहीं जानते कि अलीबुलात का किस्‍सा क्‍या है?

एक बार खूंजह के नायब ने नुकेर (अंग-रक्षक) अलीबुलात से कहा -

'तैयार हो जाओ, कल सुबह तुम्‍हें तालातल गाँव जाना होगा।'

'मैं तैयार हूँ' हुक्‍म बजानेवाले नुकेर ने जवाब दिया।

पहाड़ों की चोटियाँ अभी अच्‍छी तरह रोशन भी नहीं हुई थीं कि अलीबुलात ने अपने घोड़े पर जीन कसा और रवाना हो गया। दोपहर के खाने के वक्‍त तक वह खूंजह लौट आया। जब वह खूंजह के करीब पहुँच रहा था, तो कुछ परिचित पहाड़ी लोग उससे मिले। उन्‍होंने पूछा -

'अल्‍लाह तुम्‍हारी हिफाजत करे, बहुत दूर से लौट रहे हो क्‍या, अलीबुलात?'

'हाँ, तालातल से वापस आ रहा हूँ।'

'किस काम से गए थे तालातल?'

'यह मुझे मालूम नहीं। काम के बारे में नायब ही जानते हैं। उन्‍होंने कल मुझसे कहा था कि जाना होगा और बस, मैं चला गया।'

हमारे साहित्‍य-जगत में ऐसे अलीबुलात भी विद्यमान हैं।

विषय के बारे में कविता

जब किशोर था, उन्‍हीं दिनों जब किसी ब्‍याह-शादी में जाता,

धूमधाम में, मौज-मजे में, मैं भी बड़े रंग में आता।

जाम खनकते, जाम छलकते, और छड़ी वे मुझे थमाते,

चुनो नाच की साथी कोई, वे तब मुझको यह बतलाते।

लोगों की उस भीड़, शोर में, मैं घबराता, मैं शर्माता,

किसे चुनूँ नाच की साथी, इतना पर मैं समझ न पाता।

'इसको चुन लो, उसको चुन लो,' बड़े मुझे तब यह बतलाते,

अपनी समझ-बूझ दिखलाते, मुझे इशारों से समझाते।

अब मैं वयस्‍क हुआ हूँ मुझको, साज दे दिया, लो तुम गाओ,

अपनी इस सुंदर धरती का, गीत सकल जग में पहुँचाओ।

पर फिर से सब शिक्षा देते, फिर से मुझको राह दिखाते,

तुम यह गाओ, यह मत गाओ, बच्‍चा समझ मुझे सिखलाते।

विषय के बारे में कुछ और। मैंने बहुत-से ऐसे युवाजन देखे हैं, जो शादी करने से पहले अपने दिल से नहीं, बल्कि रिश्‍तेदारों, चाचा-चाचियों से सलाह-मशविरा करते हैं। अपने सृजन-कार्य में लेखक की तो प्‍यार के बिना शादी हो ही नहीं सकती। चाची या मौसी की सलाह से हुई शादी के फलस्‍वरूप कम-से-कम जिंदा बच्‍चे तो होते ही हैं। बेशक ऐसा सुनने में आया है कि पति-पत्‍नी में जितना ज्‍यादा प्‍यार होता है, बच्‍चे उतने ही ज्‍यादा सुंदर होते हैं मगर लेखक की प्रेमहीन शादी से तो मृत पुस्‍तकों का ही जन्‍म होता है। लेखक को अपने विषय से नाता जोड़ने के पहले यह सुन लेना चाहिए कि उसका दिल क्‍या कहता है।

चाचा-चाचियों की सलाह पर लिखी जानेवाली कविताओं का वैसा ही हाल होगा, जैसा कि मेरे एक दोस्‍त की किताब का हुआ था।

मेरे दोस्‍त की किताब के बारे में। साल तो मुझे अच्‍छी तरह याद नहीं, मगर तब अचानक यह कहा जाने लगा कि हमारे देश को गोगोलों और श्‍चेद्रीनों की जरूरत है। सोवियत व्‍यंग्‍य-साहित्‍य की अचानक जरूरत महसूस हुई।

मेरा दोस्‍त थोड़ा कवि, थोड़ा गद्यकार और थोड़ा संपादक है। मतलब यह कि साहित्‍यकार है। उसने उपर्युक्‍त आह्वान पर फौरन कान दिया और व्‍यंग्‍यात्‍मक कविताओं की एक किताब लिख डाली। उसने चुगलखोरों, चापलूसों, कामचोरों और अनेक पत्नियोंवालों और ऐसे ही अन्‍य बुरे तत्‍वों को अपने व्‍यंग्‍य-बाणों का निशाना बनाया, जो कुल मिलाकर अच्‍छे सोवियत जीवन पर काली छाया डालते हैं।

किताब दुकानों पर आई ही थी कि एक आलोचक ने अपने लेख में कसकर लेखक की खबर ली। उसने लिखा - 'हमें गोगोलों और षेद्रीनों की जरूरत है, लेखक ने इस नारे को शाब्दिक और बहुत ही सीधे-सरल ढंग से समझा है। अब हमें पता चला है कि कैसा घटिया और दुष्‍ट आदमी हमारे नजदीक रहता रहा है। अब हमें पता चला है कि उसका कितना छोटा और काला दिल है। जिन लोगों का उसने अपनी किताब में जिक्र किया है, वे उसे मिले कहाँ? हमारे सोवियत देश में क्‍या सचमुच ऐसे लोग हैं, नहीं, सोवियत देश में ऐसे लोग नहीं हो सकते। वे काली आत्‍मावाले इस व्‍यक्ति की काली कल्‍पना की उपज हैं और उसकी कीचड़ उछालनेवाली किताब से हमारे दुश्‍मनों को ही लाभ होगा।'

बड़ा अधिकारी मुखतारबेगोव मेज पर मुकका मारते हुए चिल्‍ला उठा -

'कहाँ देखा तुमने ऐसा काहिल, ऐसा निकम्‍मा और इसके अलावा पियक्‍कड़ टोली-मुखिया?'

'अपने गाँव में,' लेखक ने नम्रता से जवाब दिया।

'यह तो झूठा आरोप है। मुझे मालूम है कि तुम्‍हारे गाँव का सामूहिक फार्म अग्रणी है। अग्रणी सामूहिक फार्म में ऐसा टोली-मुखिया नहीं हो सकता।'

थोड़े में यह कि व्‍यंग्‍यकार खुद ही अपने व्‍यंग्‍य का शिकार बन गया। एक पोलिश पत्रिका में छपे कार्टूनवाली ही बात हुई। कार्टून में दो छज्‍जे दिखाए गए थे, एक पहली और दूसरा चौथी मंजिल पर। दोनों छज्‍जों में एक-एक आदमी खड़ा था। नीचेवाला आदमी ऊपरवाले पर ईंटें फेंकता, मगर वे चौथीं मंजिल तक न पहुँचतीं और फेंकनेवाले के सिर पर ही वापस आ लगतीं। ऊपरवाला आदमी इतमीनान से नीचे ईंटे फेंकता जाता था और वे भी निचले छज्‍जे पर खड़े आदमी के सिर पर लगती थीं। कार्टून के नीचे यह शीर्षक लिखा था - 'नीचे और ऊपर से आलोचना।'

किस्‍मत के मारे इस व्‍यंग्‍यकार को किसी ने यह सलाह दी कि अपने को अपराधी मान लेना ही उसके लिए सबसे अच्‍छा रहेगा। सो भी एक बार ही नहीं, कई बार तथा जहाँ भी मुमकिन हो सके - अखबार में, पत्रिका और हर बैठक में। बदकिस्‍मत किताब के लेखक ने पछताना, रोना-पीटना शुरू किया। मगर यह काफी नहीं माना गया। बड़े अधिकारी मुखतारबेगोव ने कहा -

'कीचड़ उछालनेवाली तुम्‍हारी कविताओं के बाद हमें तुम पर एतबार नहीं रहा। तुम्‍हें अमली तौर अपनी कलम से यह साबित करना होगा कि तुमने अपने को सुधार लिया है।'

मेरे दोस्‍त के लिए सब समान था - आलोचना करने को कहो, तो भी तैयार, अपनी भूल सूधारने को कहो, तो भी तैयार। वह काम में जुट गया और उसने 'मेहनती मरजानत' नाम की एक लंबी कविता रच डाली। कविता की नायिका अग्रणी और जोशीली लड़की, आन की आन में सारे सामूहिक फार्म को अग्रणी बना देती है, सभी योजनाओं की अतिपूर्ति करती है और यहाँ तक कि शौ‍किया कला-कार्यक्रम में खुद रचा हुआ गाना गाकर पहला स्‍थान भी प्राप्‍त कर लेती है। इस कविता को फौरन पत्रिका में छापा गया और पुस्‍तक के रूप में भी प्रकाशित किया गया। मगर वक्‍त ने कुछ करवट ली। उन्‍हीं अखबारों ने, जिन्‍होंने उसे झूठी बदनामी करने और कीचड़ उछालनेवाला कहा था, अचानक यह फतवा दे दिया कि वह अव्‍वल दर्जे का चापलूस है। बड़े अधिकारी मुखतारबेबोव ने फिर मेज पीटते हुए कहा -

'यह तुमने कहाँ देखा है कि सामूहिक फार्म में कोई भी कमी-त्रुटि न हो? ऐसा आदर्श सामूहिक फार्म तुम्‍हें कहाँ मिल गया?'

अपराधी ने इस बार मौन साधे रखा। कुछ ऐसी मजबूत गाँठें भी होती हैं, जो हाथों से नहीं खुलतीं, मगर उन्‍हें दाँतों से भी नहीं खोला जा सकता, क्योंकि वे गंदगी से लथ-पथ होती हैं। मेरा दोस्‍त समझ गया था कि उसके सामने ऐसी ही गाँठ है और इसलिए वह सिर्फ सिर झुकाए बैठा रहा।

दस साल तक उसकी यह खामोशी बनी रही। इन सालों के दौरान वह लेखक-संघ में भी कभी नहीं आया। सिर्फ एक बार ही, जब उसे फ्लैट दिया गया, वह वहाँ आया। आप सहमत होंगे कि उस वक्‍त तो आए बिना काम नहीं चल सकता था।

बड़े अधिकारी मुखतारबेगोव को कुछ ही समय बाद धोखाधड़ी के लिए ऊँचे पद से हटा दिया गया। किसी को भी उसके लिए अफसोस नहीं हुआ।

प्रसंगवश यह भी बता दूँ कि उसे सागर-स्‍नान बहुत पसंद था। सुबह और शाम को वह बड़ी काली 'जीम' कार में खास तट पर जाता और वहाँ अकेला ही कैस्पियन सागर के ठंडे और नमकीन पानी में डुबकियाँ लगाता। घर उसका सागर-तट पर ही था। मगर अब किसी ने भी मुखतारबेगोव को नहाते नहीं देखा। आम तट पर, जहाँ सभी लोग नहाते थे, उसने नहाना पसंद नहीं किया। शायद वह अपने को बदल नहीं सका, अपनी अकड़ नहीं छोड़ सका।

विषय के बारे में कुछ और। जब हम सड़क पर आते हैं, तो हमें अपने सभी ओर-जमीन पर, झाड़ियों में, वृक्षों पर बहुत-से पक्षी उड़ते दिखाई देते हैं। वे आकाश में भी उड़ते हैं, कुछ ऊँचे, कुछ नीचे। इनमें अबाबीलें होती हैं, डोमकौवे, कौवे, गौरेयाँ और ऐसे ही दूसरे पक्षी होते हैं। ऐसे पक्षियों के बीच आकाश में सिर्फ एक ही उकाब होता है। वह सबसे ऊँचा, नजर से बहुत दूर होता है, मगर फिर भी अगर वह आकाश में है, तो घर से बाहर आनेवाले आदमी को उकाब ही सबसे पहले दिखाई देगा। वह दूसरे पक्षियों से इसीलिए अलग और सबसे पहले नजर आता है कि सबसे दूर और सबसे ऊँचा होता है। इसके बाद ही घर के दरवाजे से पाँच कदम दूर बैठी गौरैया की तरफ ध्‍यान जाता है।

मगर उकाब को देख लेने से कोई उकाब नहीं बन जाता। किसी वीर के बारे में लिखनेवाला लेखक खुद वीर नहीं हो जाता। वीरतापूर्ण कविताओं के लिए विख्‍यात बहुत-से कायरों को मैं जानता हूँ। अगर पहाड़ी सूरमा मखच दाखादायेव अपनी कब्र से बाहर आ सकता, तो अपने बारे में शोध-प्रबंध लिखनेवाले 'विद्वान' से वह क्‍या कहता?

'तुम मेरे वीरतापूर्ण जीवन के बारे में बता ही क्‍या सकते हो, जब अपने लिखे हुए एक भी वाक्‍य को संपादक से नहीं बचा सकते? मेरे बारे में तुम्‍हारे विचारों को हर संपादक जैसे चाहता है, बदल देता है और तुम जरा भी आपत्ति करने का साहस नहीं कर पाते। नहीं, तुम मखच दाखादायेव जैसे आदमी के बारे में शोध-प्रबंध लिखने के लायक नहीं हो,' पहाड़ी सूरमा ने, अगर वे कब्र से बाहर आ सकते, तो यही कहा होता।

कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि कोई महान विषय चुन लेने से वे खुद भी महान बन जाएँगे। मगर सबसे साधारण ही सबसे महान होता है। बारिश की बूँद में ही जल-प्रलय छिपा रहता है। महान और तुच्‍छ व्‍यक्ति में यह अंतर होता है कि तुच्‍छ व्‍यक्ति केवल बड़ी चीजों और घटनाओं को ही देख सकता है और अपने आसपास की चीजों पर उसकी नजर नहीं जाती। किंतु महान व्‍यक्ति छोटी-बड़ी सभी चीजों पर उसकी नजर नहीं जाती। किंतु महान व्‍यक्ति छोटी-बड़ी सभी चीजों को देखता है और तुच्‍छता में भव्‍यता खोज निकालता है औद दूसरों को दिखा सकता है।

संस्‍मरण। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्रतिभाशाली लेखक मुँह लटकाए दिखाई देते हैं और प्रतिभाहीन सीना ताने घूमते हैं। ऐसा तब होता है, जब लेखक के नेक इरादों को ही महत्‍व दिया जाता है, मगर उसकी किताब कैसी बन पड़ी है, उसके लेखक में कितनी प्रतिभा है, लेखनकला में वह कितना पारंगत है, इसका गंभीरता से मूल्‍यांकन नहीं किया जाता। ऐसी स्थितियों में गुरू ज्‍यादा और चेले कम, माल से ज्‍यादा गाहक, लेखकों से ज्‍यादा बक्‍कू हो जाते हैं।

ऐसे ही वक्‍त में मेरे पिता जी ने शामिल के बारे में एक बड़ी कविता लिखने की तीव्र इच्‍छा अनुभव की। कविता छपने ही वाली थी कि शामिल को इस वक्‍त से और हमेशा के लिए अंग्रेजों-तुर्कों का भाड़े का टट्टू मानने का हुक्‍मनामा आ गया। यह पता चला कि शामिल दागिस्‍तान के लोगों की आजादी के लिए नहीं, बल्कि उन्‍हें धोखा देने के लिए पचीस साल तक लड़ता रहा था।

अपनी वीरतापूर्ण कविता का मेरे पिता जी क्‍या करते! उन्‍हें संकेत किया गया कि हमारे अच्‍छे जमाने में प्राचीन इतिहास के पृष्‍ठ उलटने में क्‍या रखा है और अगर वे अधिक सामयिक और पाठकों के अधिक निकट किसी विषय पर नई कविता लिखें, तो ज्‍यादा अच्‍छा रहेगा।

उन दिनों हमारे परिवार के मित्र, खुशमिजाज अबूतालिब अक्‍सर पिता जी के पास आते थे। जुरना या बाँसुरी हमेशा उनके साथ होती थी।

'हमजात,' अबूतालिब आराम से बैठकर जुरने को सुर में करते हुए बोले, 'बहुत दुखी नहीं होओ। जब मैं लड़का था और कविता नहीं रचता था, तो हमेशा जुरना बजाता था। कई सालों तक इसने मुझे और मेरे परिवार को रोटी दी। इस पर हर धुन बजती थी। आओ, उन जवानी के दिनों की याद ताजा करें, कुछ समय के लिए कविताओं को भूल जाएँ और संगीत का मजा लें। मैं जुरना बजाऊँगा और हमजात तुम ढोल बजाओ, ऐसे हमें राहत मिलेगी।'

'यह तुम क्‍या कह रहे हो, अबूतालिब! अगर हम ढोल और जुरना बजानेवाले हो जाते, तो भी इतना बुरा न होता। जुरना-वादक तो अपना जुरना बजाता है और उसकी धुन पर नर्तक नाचता है या नट रज्‍जु पर चलता है। जुरना-वादक नीचे खड़ा होता है और नट रज्‍जु पर नाचता है। बताओ अबूतालिब, उन दोनों में से किसकी अधिक बुरी हालत होती है? हम दोनों रज्‍जु पर चलनेवालों के समान हैं। वे हमें रज्‍जु पर करतब करनेवाले और नर्तक बनाना चाहते हैं।'

खुशमिजाज अबूतालिब उदास हो गए और उनके साथ ही उनका जुरना भी उदास हो गया। देर तक वे चुपचाप अपना बाजा बजाते रहे, फिर उन्‍होंने सिर ऊपर उठाया और बोले -

'बड़ा मुश्किल धंधा है कविता रचने का।'

दामन से हम नजर डालते

जब-जब ऊँची चोटी पर

ऐसे लगता छू लेंगे हम

हाथ बढ़ा, आगे बढ़ कर,

मगर घनी, गहरी बर्फों में

पाषाणी पगडंडी पर,

हम बढ़ते, चलते जाते हैं

अंत न आता कहीं नजर।

इसी तरह से काम हमारा

सीधा-सीधा-सा लगता,

पर शब्‍दों के हेर-फेर में

बहुत बड़ा झंझट पड़ता।

कभी-कभी तो पंक्ति न बनती

शब्‍द अकड़ जाते तन कर,

तब लगता कविता रचने से

सुगम पहुँचना चोटी पर।

उकाब की बराबरी करने के इच्‍छुक पक्षी का किस्‍सा। भेड़ों का रेवड़ पहाड़ों से घाटी में उतर रहा था। अचानक उकाब ने आसमान से नीचे झपट्टा मारा, एक मेमने को पंजों में दबाया और उठा ले गया। एक छोटे-से परिंदे ने यह सब देखा। उसने सोचा, 'भला मैं भी ऐसे ही क्‍यों न करूँ, जैसे उकाब ने किया? मेमने की क्‍या बात है, मैं तो पूरी भेड़ ही उठा ले जाऊँगा।' पक्षी बहुत ऊँचा उड़ा, उसने पंख समेटे और नीचे की तरफ झपटा। मगर यह किस्‍सा ऐसे खत्‍म हुआ कि वह भेड़ के सींग से टकराया और अपनी जान से हाथ धो बैठा।

'एक बार मक्‍खी ने भी पत्‍थर फेंकना चाहा था,' मरे हुए परिंदे को हथेली पर रखे हुए चरवाहे ने कहा।

इस तरह उकाब की बराबरी करने के इच्‍छुक पक्षी की मक्‍खी से ही तुलना की गई।

विषय के बारे में कुछ और। विषय प्‍यार भी है, कसम भी है, याचना भी है, प्रार्थना भी है। पूरब में कहा जाता है कि दोहराने से प्रार्थना बिगड़ती नहीं, बेहतर ही हो जाती है।

विषय के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अगर एक ही विषय को लगातार दोहराया जाए, तो वह घिसा-पिटा हो जाएगा, उसका कोई मूल्‍य नहीं रहेगा। हीरा जितना अधिक बड़ा होगा, उतनी ही ज्‍यादा उसकी कीमत होगी। हीरे की धूल की किसे जरूरत है?

एक बार मैंने रूसी अध्‍यापिका वेरा वसील्‍येव्‍ना के बारे में एक कविता रची। मैंने देखा कि पाठकों, यहाँ तक कि आलोचकों को भी वह कविता पसंद आई। मुझे खुशी हुई और लगा उसी विषय को रगड़ने।

मेरी कविताएँ उस शराब जैसी नहीं रहीं, जो शुरू में पीपे में थी, बल्कि उस शराब जैसी हो गई जो पीपे को धो देने के बाद हासिल होती है।

पुरानी शराब का लेबल लगाकर कच्‍ची शराब भी बेची जा सकती है। अब मैं आपको यह सुनाता हूँ कि मास्‍कोवासियों को अपनी घर की बनी शराब पिलाते हुए हम क्‍या करते थे।

मैं और काकेशिया के मेरे दूसरे दोस्‍त अपने घरों से मास्‍को लौटते हुए हमेशा अपने साथ शराब लाते थे। दोस्‍त इकट्ठे होते, हम पीपा खोलते और जाम उड़ाए जाने लगते। पीपे में पुरानी, खूब अच्‍छी तरह से तैयार और बढ़िया शराब होती। हमारे दोस्‍त शराब पीकर उसकी तारीफ करते और अपने दूसरे दोस्‍तों से उसकी चर्चा चलाते। बढ़िया शराब चाहनेवाले बहुत ज्‍यादा होते। जाहिर है कि पीपा तो आखिर खाली हो ही जाता। कभी-कभी हम यह गुनाह करते कि आम बाजारी शराब खरीदकर उसे अपने पीपे में डाल देते और यह कहते कि असली, घर की बनी हुई, बढ़िया शराब है। ऐसे पारखियों से जो हमारा भंडाफोड़ कर देते, कभी वास्‍ता नहीं पड़ा था। सिर्फ एक मेहमान ने ही शराब चखने के बाद मेरी तरफ देखा और मानो भर्त्‍सना करते हुए सिर हिलाया। बाकी तो जितनी ज्‍यादा पीते, उन्‍हें उतना ही ज्‍यादा नशा होता और वे उतने ही ज्‍यादा तारीफों के पुल बाँधते।

मेरी उन कविताओं के बारे में भी, जिन्‍हें मैं अक्‍सर दोहराने लगा था, यही कहा जा सकता है। सिर्फ कुछ बहुत ही समझदार और कठोर पाठक सिर हिलाकर कहते थे -

'अरे भाई, दालागालोव भी इसी काम से आया था।'

या फिर वे यह कहते, 'एक गाँव के लिए एक ही मूर्ख काफी है।'

तब यह बात मेरी समझ में आई कि मैं भी वही कुछ कर रहा हूँ, जो बढ़िया कारीगरों ने अपनी छड़ियों के साथ किया था।

अब मैं आपको ढंग से यह सारा किस्‍सा सुनाता हूँ।

जब मैं लड़का ही था तो कुरबान अली नाम का एक डाकिया ढेर सारे खत और अखबार लेकर हर दिन हमारे गाँव में आता। वह आबूता गाँव का रहनेवाला बड़ा ही हँसोड़ और मस्‍त-मौला था। डाक बाँटते वक्‍त कुरबान अली गप-शप करने और पाइप के कश लगाने के लिए जरूर ही मेरे पिता जी के पास आता। कह नहीं सकता कि ऐसी बातचीत के लिए उसने मेरे पिता जी ही को क्‍यों चुना था। बात यह है कि उसकी बातचीत का विषय हमेशा एक ही होता था - शादी के बारे में। शायद यह कहना ज्‍यादा सही होगा कि नई शादी के बारे में। कारण कि वह उन लोगों में से था, जो एक हफ्ते बाद शादी करते हैं और एक महीने बाद तलाक दे देते हैं।

यह उस वक्‍त की बात है, जब उसने तलाक दिया ही था और अपने लिए जवान विधवा की तलाश कर रहा था। उसने तो जैसे उसे खोज भी लिया था, क्‍योंकि हर दिन वह इसी बात की चर्चा करता था कि वह कितनी सुंदर है, जवान और मिलनसार है।

मगर अचानक जवान विधवा के बारे में बातचीत बंद हो गई। कुरबान अली पहले की तरह ही हर दिन आता, किंतु बातचीत मौसम या सामूहिक फार्म के काम-काजों और ऐसे ही सभी तरह के विषयों के बारे में करता, कुछ ही समय बाद होनेवाली अपनी शादी के बारे में नहीं।

'तुम किसी के साथ शादी करने की सोच रहे थे, क्‍या कर ली?' पिता जी ने एक दिन पूछा।

'अरे नहीं हमजात, यह तो मैं सोच रहा था, मगर लगता है कि उसका तो बिल्‍कुल ऐसा ख्‍याल नहीं था। अब जवान विधवा ढूँढ़ने के लिए मुझे सारे दागिस्‍तान का चक्‍कर लगाना पड़ेगा।'

कुरबान अली ने बहुत अर्से तक सूरत नहीं दिखाई। इसका मतलब तो यही था कि सचमुच गाँवों के चक्‍कर लगाता हुआ अपने लिए बीवी खोज रहा था। इस दौरान उसका बेटा डाक बाँटने आता रहा। बदकिस्‍मत डाकिया जब फिर से हमारे घर आया, तो हमने बड़ी बेसब्री से उससे पूछा -

'कहो क्‍या हालचाल है? तुम्‍हारा रास्‍ता तो सीधा और छोटा ही रहा न?'

'शायद सीधा ही रहता, मगर दालागालोव ने उसे टेढ़ा कर दिया।'

'वह कैसे?'

'बहुत सीधे-सादे ढंग से। अपने उद्देश्‍य से मैं जहाँ कहीं भी गया, मुझे यही बताया गया, देर से आए हो। दालागालोव भी इसी काम से आया था।'

दरबीश दालागालोव औरतों के मैदान का मशहूर सूरमा था। 1938 में उसने अठारह बार शादी की थी।

डाकिये कुरबान अली की बदौलत सारे दागिस्‍तान में आसानी से यह कहावत फैल गई - 'दालागालोव भी इसी काम से आया था।'

दूसरा किस्‍सा है एक मूर्ख के बारे में। यह तो सभी जानते हैं कि हर गाँव में सिर्फ एक ही अहमक रहता है। यही अच्‍छी बात है। जब बहुत-से अहमक या मूर्ख होते हैं - तो बुरा होता है। जब एक भी नहीं होता, तो भी जैसे कुछ कमी-सी महसूस होती है। अहमकों की एक-दूसरे से अच्‍छी तरह जान-पहचान होती है और वे तो एक-दूसरे के यहाँ मेहमान भी आते-जाते हैं। इसी रिवाज के मुताबिक एक बार गूरताकुली गाँव का अहमक खूंजह गाँव के अहमक के यहाँ मेहमान आया।

'सलाम अलैकुम, अहमक!'

आगे सब कुछ वैसे ही हुआ, जैसे कि दो दोस्‍तों के बीच होता है। वे चूल्‍हे के पास बैठ गए, खूब खाया-पिया। तीसरे दिन गूरताकुली का अहमक अपने घर जाने को तैयार हुआ। मेजबान अहमक ने जैसे होना चाहिए, वैसे ही बड़ी इज्‍जत से मेहमान को विदा किया, तोहफे दिए और गाँव के छोर तक छोड़ने गया। दोनों अहमकों ने एक-दूसरे से विदा ली।

मेहमाननवाजी की सभी रस्‍में पूरी हो चुकी थीं। कुछ ही देर पहले का मेहमान जैसे ही गाँव की हद से बाहर जाता है, उसके साथ मनमाना बर्ताव किया जा सकता है, क्‍योंकि अब वह मेहमान नहीं रहा। उसी वक्‍त खूंजह का अहमक भागकर गूरताकुलीवाले अहमक के पास पहुँचा और अचानक उस पर पिल पड़ा।

'किसलिए तुम मुझे पीट रहे हो?'

'मेरे यहाँ फिर कभी मेहमान नहीं आना। क्‍या तुम इतना भी नहीं जानते कि एक गाँव के लिए सिर्फ एक ही अहमक काफी है?'

कभी-कभी मैं इस किस्‍से पर गौर करता हूँ और मेरे दिमाग में यह ख्‍याल आता है कि एक गाँव के लिए एक ही अक्‍लमंद भी काफी है।

नोटबुक से। किसी अमीर खान ने किसी गरीब से पूछा -

'बत्‍तख का कौन-सा हिस्‍सा सबसे ज्‍यादा मजेदार होता है? अगर ठीक जवाब दोगे, तो इनाम मिलेगा।'

'पिछला,' गरीब ने फौरन जवाब दिया।

जब बत्‍तख बनकर तैयार हो गई, तो खान ने इसी हिस्‍से को चखा और उसे बेहद पसंद आया। उसने दूसरे गरीब से पूछा -

'भैंस का कौन-सा हिस्‍सा सबसे ज्‍यादा मजेदार होता है?'

दूसरा गरीब आदमी भी इनाम पाना चाहता था, इसलिए उसने पहले की तरह ही जवाब दिया -

'पिछला।'

खान ने उसे चखा और इस दूसरे गरीब को कोड़े लगवाए।

बड़े अफसोस की बात है कि उन लेखकों के लिए कोड़े नहीं हैं, जो सोचे-समझे बिना अलग-अलग मौकों पर एक ही बात दोहराते रहते हैं।

अब ऊनसूकूल की छड़ी के आलेख की कहानी सुनिए। मास्‍को के साहित्‍यकार ब्‍लादलेन बाखनोव लंगड़ाते हैं और छड़ी के सहारे चलते हैं। छुट्टियों में दागिस्‍तान जाते हुए मैंने उनसे वादा किया कि ऊनसूकूल के प्रसिद्ध कारीगरों की नक्‍काशीवाली सुंदर छड़ी उन्‍हें लाकर दूँगा। घर पहुँचते ही मैंने अपने एक परिचित नक्‍काश को इस अनुरोध का पत्र लिख भेजा। नक्‍काश बुजुर्ग कारीगर और मेरे पिता के दोस्‍त थे और इसलिए यह आशा की जा सकती थी कि छड़ी जैसी बढ़िया होनी चाहिए, वैसी ही होगी। सिर्फ एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि इस छड़ी पर लिखवाया क्‍या जाए।

इसी समय एक केंद्रीय समाचार-पत्र में साहित्यिक विषय पर एक बड़ा लेख निकला। उसका शीर्षक था - 'आलोचना की जगह डंडा।'

'बहुत खूब', मैंने सोचा, 'ऐसा आलेख मास्‍को के साहित्यिक को भेंट की जानेवाली छड़ी के लिए बिल्‍कुल ठीक रहेगा।'

दो हफ्ते बाद छड़ी तैयार हो गई। ऊनसूकूल की छड़ियों में यह सबसे बढ़-चढ़कर थी। उचित स्‍थान पर ये शब्‍द शोभा दे रहे थे - 'ब्‍ला बाखनोव को। आलोचना की जगह डंडा। रसूल हमजातोव की ओर से।'

वैसे तो मखचकला, किस्‍लावोद्स्‍क, पितिगोर्स्‍क की स्‍मरण-चिह्नों की दुकानों तथा पहाड़ी गाँवों की मंडियों में ऊनसूकूल की छड़ियाँ बिकती हैं।

कुछ अर्से बाद इन सभी जगहों पर 'ब्‍ला बाखनोव को। आलोचना की जगह डंडा। रसूल हमजातोव की ओर से' आलेखवाली छड़ियाँ बिकने लगीं। इन स्‍वास्‍थ्‍यप्रद स्‍थानों पर आनेवाले लोग संभवतः ऐसा आलेखवाला उपहार खरीदते समय हैरान हुए होंगे। मगर सबसे अधिक हैरानी तो मुझे हुई।

हुआ यह कि बुजुर्ग कारीगर, जिन्‍होंने पहली छड़ी बनाई, रूसी भाषा का एक शब्‍द भी नहीं जानते थे। मैंने कागज पर जो कुछ लिख भेजा था, उन्‍होंने उसे ज्‍यों-का-त्‍यों छड़ी पर उतार दिया। उन्‍होंने सोचा कि अगर कवि ने छड़ी पर ये शब्‍द लिखवाने चाहे हैं, तो इनमें जरूर कोई बड़ी समझदारी की बात छिपी होगी। तो भला यही शब्‍द दूसरी छड़ियों की शोभा क्‍यों न बढ़ाएँ?

बुजुर्ग कारीगर को दोष नहीं दिया जा सकता। उन्‍होंने भोलेपन से कवि पर विश्‍वास कर लिया और अपने सहज विश्‍वास में उदारता और निश्‍छलता का परिचय दिया। मगर हम अनुभवी साहित्‍यकार भी तो क्‍या कभी-कभी इस बुजुर्ग के समान ही नहीं होते?

विषय के बारे में अंतिम शब्‍द। एक विषय है, जो प्रार्थना के समान है। उसे जितना अधिक दोहराया जाता है, वह उतना ही अधिक मूल्‍यवान, उच्‍च और श्रेष्‍ठ हो जाता है। यह विषय और प्रार्थना है मेरी मातृभूमि।

बच्‍चे को जब किसी शरारत के लिए सजा दी जाती है, तो पहाड़ी इलाकों के रिवाज के अनुसार चेहरे के सिवा उसे इसकी किसी भी जगह पर मारा-पीटा जा सकता है। इनसान के चेहरे को नहीं छुआ जा सकता और यह चीज हर पहाड़ी आदमी के लिए कानून है।

दागिस्‍तान तुम मेरा चेहरा हो। मैं तुम्‍हें छूने की मनाही करता हूँ। लड़ाई-झगड़े में पहाड़ी लोग बड़े सब्र से काम लेते हैं। वे एक-दूसरे को बहुत-से बुरे-बुरे शब्‍द कहते हैं और हर कोई उन्‍हें बर्दाश्‍त करता है तथा उनके जवाब में अपने गंदे शब्‍द कहता है। मगर ऐसा तभी तक होता है, जब त‍क कि इन गंदे शब्‍दों का सिर्फ आपस में झगड़नेवालों तक ही संबंध रहता है। पर यदि संयोग या असावधानी से कोई माँ या बहन को कुछ भला-बुरा कह बैठता है, तो समझो कि मुसीबत आ गई - तब खंजर चल जाएँगे।

दागिस्‍तान - तुम मेरे लिए माँ हो। वे सभी, जिन्‍हें मुझसे उलझना पड़ेगा, इस बात की गाँठ बाँध लें। मुझे तो बेशक कैसे ही भले-बुरे शब्‍द कह लो - मैं सब बर्दाश्‍त कर लूँगा। मगर मेरे दागिस्‍तान को नहीं छूना।

दागिस्‍तान - वह मेरा प्‍यार है, मेरी प्रतिज्ञा, मेरी याचना, मेरी प्रार्थना है। तुम ही मेरी सारी किताबों, मेरे सारे जीवन का मुख्‍य विषय हो।

कभी-कभी मुझसे यह कहा जाता है कि मैं केवल तुम्‍हारे अतीत की चर्चा करूँ, पुराने रस्‍म-रिवाजों, दंत-कथाओं और गीतों, शादियों और तलवारों, लड़ाइयों और दोस्तियों, मुरीदों के इस्‍पाती कलेजों और वफादार कुमारियों, गरिमा और साहस, नौजवानों के खून और माताओं के आँसुओं का ही वर्णन करूँ।

कभी-कभी मुझसे सिर्फ तुम्‍हारे वर्तमान का ही बखान करने को कहा जाता है। मुझसे अनुरोध किया जाता है कि मैं राजकीय फार्मों और सामूहिक फार्मों, टोली और उपटोली मुखियाओं, पुस्‍तकालयों और थियेटरों, तुम्‍हारी श्रम-संबंधी उपलब्धियों का उल्‍लेख करूँ।

मैं अपने को इस या उस अतीत या वर्तमान तक ही सीमित नहीं कर सकता। मेरे लिए तो एक दागिस्‍तान है, जो एक हजार साल की जिंदगी देख चुका है। मेरे लिए उसका अतीत, वर्तमान और भविष्‍य घुल-मिलकर एक हो गए हैं। मैं उसे अलग-अलग कालों में विभाजित नहीं कर सकता।

दूसरे राज्‍यों और देशों का इतिहास तो सिर्फ खून से ही नहीं, कलम और स्‍याही से कागज पर भी कभी का लिखा जा चुका है। उसे तो सैनिक और सेनापति ही नहीं, लेखक और इतिहासकार भी लिख चुके हैं। दागिस्‍तान का इतिहास तो तलवारों ने लिखा है। सिर्फ बीसवीं सदी ने ही दागिस्‍तान को कलम दी है।

दागिस्‍तान, मैं तुम्‍हारी प्राचीन लड़ाइयों के चिह्नों को देख आया हूँ, उन अनेक रण-क्षेत्रों में हो आया हूँ, जिनमें तुम्‍हारे सपूतों की हड्डियाँ बोई गई हैं। सामूहिक फार्मों के गेहूँ या मक्‍का के खेत इस बात के लिए मुझसे नाराज न हों कारण कि जब मैं अपनी कविताओं में आधुनिक दागिस्‍तान की चर्चा करता हूँ, तो अतीत इसके लिए मेरी भर्त्‍सना नहीं करता।

दूर-दराज के देशों की यात्राओं के बाद जब मैं अपने घर लौटता हूँ, तो पहाड़ी लोग मुझे घेर लेते हैं और जो कुछ मैंने देखा होता है, उसे बयान करने को कहते हैं। वे मेरे गिर्द घेरा डालकर बैठ जाते हैं और सुनते हैं। अधिक-से-अधिक मैं तीन घंटे ही बोल पाता हूँ और मैं उन्‍हें फ्रांस, भारत, जापान या तुर्की के बारे में बताता रहता हूँ। मगर तीन घंटों के बाद अपने आप और अनजाने ही दागिस्‍तान के बारे में बातचीत शुरू हो जाती है। मैं अपने पहाड़ी लोगों से दागिस्‍तान की चर्चा करने लगता हूँ और वे मुझे ऐसे सुनते रहते हैं मानो पहली बार सुन रहे हों, यद्यपि वे खुद ही तो दागिस्‍तान हैं।

महमूद बड़े कवि थे। उनका मुख्‍य विषय था - मरियम के प्रति उनका प्‍यार। उनके एक घनिष्‍ठतम मित्र ने महमूद से लोरी रचने को कहा, क्‍योंकि उसके यहाँ बेटा हुआ था। महमूद ने अपनी कलम आजमाई, मगर उन्‍हें कामयाबी नहीं मिली। महमूद की लिखी लोरी सुनकर बच्‍चा पालने में रोता रहता, जबकि उससे उसे नींद आनी चाहिए थी। दूसरे मित्र ने महमूद से अनुरोध किया कि वह उसकी पत्‍नी के बारे में, जिसका देहांत हो गया था। शोक-गीत रच दे। महमूद ने ऐसा किया, मगर उन्‍हें सफलता नहीं मिली। महमूद का शोक-गीत सुनकर किसी की भी आँखों में आँसू नहीं आए। इसके उलट, कुछ तो मुस्‍करा भी दिए।

किंतु मरियम के प्रति महमूद के असफल प्‍यार से संबंधित उनके गीत सुनकर लोग अब तक रोते हैं।

महमूद की काव्‍य-साधना का मुख्‍य विषय था - मरियम। मेरा मुख्‍य विषय है - दागिस्‍तान। मेरा प्‍यार महान हो या तुच्‍छ, मेरी सच्‍चाई छिछली हो या गहरी, मेरी भावनाएँ पुरातन हों या नूतन, मगर मैं तुम्‍हारे बारे में ही लिखता हूँ, दागिस्‍तान। जब मैं कलम उठाता हूँ, तो वह बरबस मेरे हाथ में काँपने लगती है।

पिता जी कहा करते थे कि अगर तरबूजों का खेत बिल्‍कुल सड़क किनारे है, तो पास से गुजरनेवाला हर राहगीर कच्‍चा तरबूज तोड़ लेगा।

कहते हैं कि जिस पत्‍थर को उठा नहीं सकते, उसे हाथ नहीं लगाओ। इतनी दूर तक नहीं तैरो, जहाँ से लौट नहीं सकते।

कहते हैं कि अगर नाले में टखनों तक पानी है, तो पतलून को घुटनों से ऊपर नही उठाओ।

विधा : मेरा दाग़िस्तान

मूर्ख चीख से हैरान करता है,
बुद्धिमान जँचती हुई कहावत से।

वसंत आया - गीत गाओ।
जाड़ा आया - किस्सा सुनाओ।


लीजिए, मैं उस पहाड़ के सामने खड़ा हूँ, जिसे लाँघना है। बढ़िया घोड़ा मुझे हर दर्रे के पार ले जाएगा। पहाड़ - मेरा विषय है, घोड़ा - मेरी भाषा है। मगर अब मुझे वह पगडंडी चुननी है, जो मुझे खड़े पहाड़ के पार ले जाएगी।

मेरे सभी पहाड़ी पूर्वजों को सीधी पगडंडी पसंद आती रही है। उस पर चढ़ना कठिन और खतरनाक होता है, मगर वह छोटी होती है... वह जान भी ले सकती है, जल्दी से मंजिल पर भी पहुँचा सकती है।

या फिर मैं उस किले के सामने खड़ा हूँ, जिस पर कब्जा करना है। मेरे पास बहुत ही बढ़िया हथियार है, जो लड़ाई में मुझे कभी धोखा नहीं देगा। किला है मेरा विषय और भाषा है मेरा हथियार। मगर मुझे ऐसा तरीका चुनना है, जिससे इस अभेद्य दुर्ग पर आसानी से अधिकार किया जा सके। इस पर अचानक धावा बोला जाए या धीरे-धीरे घेरा डालना बेहतर होगा?

एक खेत में बाजरा बोया हुआ है और नजदीक ही पहाड़ी नदी में पानी है। मगर इस पानी को खेत तक कैसे लाया जाए?

चूल्हे में लकड़ी है, पतीला और कुछ वह भी है, जो पतीले में डाला जाना है। मगर फिर भी यह सवाल तो है ही कि दोपहर के खाने के लिए क्या पकाया जाए?

संपादक महोदय ने अपने पत्र में मुझे इस बात की छूट दी थी कि मैं अपने लिए कोई भी साहित्यिक विधा चुन सकता हूँ - कहानी या उपन्यास, कविता या लेख। जितनी अधिक संभावनाएँ होती हैं, चुनाव उतना ही ज्यादा कठिन होता है।

नोटबुक से। हमारे साहित्य-संस्थान में ऐसे हुआ था। पहले वर्ष की पढ़ाई के समय बीस कवि थे, चार गद्यकार और एक नाटककार। दूसरे वर्ष में - पंद्रह कवि, आठ गद्यकार, एक नाटककार और एक आलोचक। तीसरे वर्ष में - आठ कवि, दस गद्यकार, एक नाटककार और छह आलोचक। पाँचवें वर्ष के अंत में - एक कवि, एक गद्यकार, एक नाटककार और शेष सभी - आलोचक।

खैर, यह तो अतिशयोक्ति है, चुटकुला है। मगर यह तो सच है कि बहुत-से कविता से अपना साहित्यिक जीवन आरंभ करते हैं, उसके बाद कहानी-उपन्यास, फिर नाटक और उसके बाद लेख लिखने लगते हैं। हाँ, आजकल तो फिल्म सिनेरियो लिखने का ज्यादा फैशन है।

कुछ बादशाहों और शाहों ने अपनी मलिकाओं और बेगमों को इसलिए छोड़ दिया था कि उनके संतान नहीं हुई थी। मगर कुछ बीवियाँ बदलने के बाद उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि इसके लिए वे बिल्कुल दोषी नहीं थी; दूसरी तरफ कोई भी किसान जिंदगी भर एक ही बीवी के साथ रहता है और उसी से एक दर्जन बच्चे पैदा कर लेता है।

मैं तो यह मानता हूँ कि शराब पियो, मगर रोटी से मुँह न मोड़ो। गीत गाओ, मगर किस्से भी सुनो। कविताएँ रचो, मगर सीधी-सादी कहानी को दूर न भगाओ।

गद्य। एक वह भी जमाना था, जब मैं पालने में लेटा रहता था और मेरी माँ लोरी गाया करती थी; उन्हें सिर्फ एक ही लोरी आती थी। हमारे पिता जी बेशक जाने-माने कवि थे, अपने बेटों के लिए उन्होंने एक भी गीत नहीं रचा। वे हमें बड़े शौक से तरह-तरह के किस्से-कहानियाँ और घटनाएँ सुनाते थे। यह उनका गद्य था।

पिता जी को अपनी कविताओं की चर्चा करना पसंद नहीं था। मेरे ख्याल में वे काव्य-रचना को गंभीर काम नहीं मानते थे। उनके संजीदा काम थे - जमीन जोतना, खलिहान को ठीक-ठाक करना, गाय और घोड़े की देखभाल करना, छत पर से बर्फ साफ करना और बाद को गाँव, यहाँ तक कि हलके के मामलों में सरगर्म हिस्सा लेना।

कविता रचने के बाद मेरे पिता इस बात की खास चिंता नहीं करते थे कि वह कहाँ छपती है। केंद्रीय समाचार-पत्र हो या गाँव के पायनियरों का दीवारी समाचार-पत्र इस बात की तरफ मेरा ध्यान गया था कि दीवारी समाचार-पत्र में स्थान दिए जाने पर उन्हें ज्यादा खुशी होती थी।

वे अक्सर उन शब्दों को याद किया करते थे, जो प्यार के विख्यात गायक, कवि महमूद को उनके पिता अनासील मुहम्मद ने कहे थे। प्यार और प्यार के गीतों से बेहाल, भूखे और जर्द चेहरेवाले निखट्टू बेटे जैसे कवि महमूद ने जब घर आकर रोटी माँगी, तो उनके पिता ने बड़े इतमीनान से यह जवाब दिया -

'कविता खाओ और प्यार पियो। मैं तुम्हारे लिए हल जोतता-जोतता थक गया हूँ!'

इसमें कोई शक नहीं कि गीत के बिना तो पक्षी भी नहीं रह सकता। मगर पक्षी का मुख्य काम तो है - घोंसला बनाना, चुग्गा हासिल करना, अपने बच्चों का पेट भरना।

पिता जी के लिए उनकी कविताएँ पक्षी के तराने के समान ही थीं - सुंदर, सुखद, किंतु अनिवार्य नहीं। वे उन्हें सुबह के वक्त कहे जानेवाले 'शुभ प्रभात' और रात को बिस्तर पर जाते वक्त कहे जानेवाले 'शुभ रात्रि' शब्दों, पर्व की बधाई या दुख के शोक-संदेश की तरह ही मानते थे।

ऐसी धारणा है कि कवि इस दुनिया से कुछ निराले होते हैं - हर कोई अपने ही ढंग से। मगर पिता जी अपने स्वभाव और मानसिक संरचना की दृष्टि से साधारण पहाड़ी आदमी थे। सबसे अधिक तो उन्हें मंडली में बैठकर, जब लोग एक-दूसरे को टोकते नहीं, मजे से बातचीत करना, तरह-तरह के किस्से-कहानियाँ और घटनाएँ सुनाना यानी गद्य ही अधिक पसंद था।

पिता जी ने विख्यात कवि महमूद को अपनी कविताएँ दिखाई। कवि को पिता जी की कविताएँ देखकर हैरानी हुई और बोले कि वे उनकी समझ में नहीं आतीं और कुल मिलाकर वे यह समझ ही नहीं पाते कि गऊ, ट्रैक्टर, कुत्तों और खूंजह गाँव की पगडंडी के बारे में कैसे कविताएँ रची जा सकती हैं।

'तो किस बारे में कविताएँ रची जाएँ?' पिता जी ने नम्रता से पूछा।

'प्यार, केवल प्यार के बारे में! प्यार का महल बनाना चाहिए।'

महमूद की कविता

महल बनाए इस धरती पर, मैंने प्यार अनूठे के
मगर बाड़ के नीचे मैं खुद, मौसम भी बिगड़ा, बिगड़ा,

मधुर भावनाओं का मैंने, एक बनाया शाही पुल
टूट गया, मैं उसे देखता अब पत्थर पर पड़ा-पड़ा।

पिता जी ने प्यार का महल नहीं बनाया। उन्हें उसके निर्माण की चिंता भी नहीं थी। उनकी चिंता, उनका महल, उनकी कविता जिनसे ओत-प्रोत थी, वे थे - उनका पहाड़ी घर, परिवार, बच्चे, उनका गाँव, घोड़ा, देश, शांति और धरती, आकाश, बारिश, सूरज और घास।

हाँ, एक बार उन्होंने प्यार की कविता, उस नारी के बारे में कविता भी लिखी थी, जिसे वे प्यार करते थे। मगर इसलिए कि कोई उस कविता को पढ़ न सके, उन्होंने उसे अरबी में रचा था। यह कविता केवल उनके और उनकी प्रेयसी के लिए थी।

हाँ, पिता जी को धीरे-धीरे आगे बढ़नेवाला बुद्धिमत्तापूर्ण किस्सा बहुत अच्छा लगता था। शाम के झुटपुटे में वे मुझे अपनी गोद में बैठा लेते, भेड़ की खाल के सुगंधित कोट के पल्ले से ढक देते और किस्से सुनाते जाते, सुनाते जाते। वे उनकी चर्चा करते जो विदेशों में चले गए थे और जो अपनी मातृभूमि में रह गए थे। वे रास्तों और नदियों का जिक्र करते, यह बताते कि फूल कैसे खिलते हैं और क्यों उन पर मधुमक्खियाँ बैठती हैं। वे यह वर्णन करते कि कैसे सूर्योदय और सूर्यास्त होता है।

वे मुझे यह बताते कि रई की एक बाल में कितने दाने होते हैं और सुंदर इंद्रधनुष का कैसे जन्म होता है।

अगर किसी दूसरे गाँव से हमारे गाँव की तरफ आता हुआ कोई राहगीर दूरी पर दिखाई देता, तो पिता जी सविस्तार यह बता सकते थे कि वह कौन है, किस मतलब से आ रहा है, किसके यहाँ ठहरेगा...

ओह, पिता जी यह सब कुछ मुझे क्यों बताते थे? कहीं ज्यादा अच्छा होता, अगर वे इन सब चीजों को लिख डालते। तो यह उनका गद्य होता, कवि हमजात त्सादासा का गद्य।

उनके लिए कहानी और जीवन एक ही चीज थे। विचार को वे कहानी और कहानी को विचार मानते थे। कविता की तुलना वे मन की तरंग से करते थे।

पिता जी अगर अपनी सभी कहानियाँ लिख डालते, तो बहुत अच्छा होता। कारण कि जब मैं बड़ा हुआ, तो मेरे व्यक्तित्व में मेरे हृदय ने ही प्रधानता प्राप्त की। जब कोई पक्षी करीब से उड़ता हुआ गुजरता, तो मैं यह सोचे बिना ही कि वह किधर और क्यों उड़ा जा रहा है, उसे उड़ते हुए ही पकड़ना चाहता। पिता जी ने चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न की, फिर भी अपने बचपन में माँ की एकमात्र लोरी मेरे लिए उनके सभी किस्से-कहानियों से ज्यादा प्यारी बनी रही।

गीत के साथ मेरा बचपन बीता, तरुणावस्था में भी गीत ही मेरे साथ रहा, उसी के साथ मैं पूरी तरह वयस्क हुआ और मेरे बाल पके।

मगर अब मैं यह समझता हूँ कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न भटकता रहा, मैंने कैसे भी गीत क्यों न गाए, हर समय एक चट्टान हमेशा यह इंतजार करती रही कि कब उकाब आकर उस पर बैठेगा, एक वृक्ष था, जो लगातार यह राह देखता रहा कि कब पक्षी उस पर घोंसला बनाएगा, एक घर लगातार इस प्रतीक्षा में रहा कि कब उसके दरवाजे पर दस्तक होगी, गद्य लगातार यह इंतजार करता रहा कि कब कवि उसके पास आएगा।

तो मैं अब उस चट्टान पर उतरता हूँ, जो मेरी राह देखती है, दरवाजे पर दस्तक देता हूँ कि उसे खोल दिया जाए, मुझे अंदर जाने दिया जाए। मैं समझ गया हूँ कि पृथ्वी पर मैंने जो कुछ देखा है, मैं जो कुछ सोचता और अनुभव करता हूँ, उस सब को कविता में बयान नहीं कर सकता।

मैं यह बात समझता हूँ कि गद्य कविता नहीं है, जिसे खड़े-खड़े गाया जा सकता है। इसके लिए मेज के करीब बैठना होगा, आस्तीनें चढ़ानी होंगी, बड़े सवेरे जागने के लिए अलार्म घड़ी को चाबी देनी होगी, तेज चाय तैयार करनी होगी ताकि रात को नींद न आ जाए।

हाँ, अगर बुनियाद सही ढंग से रखी गई है और मचान ढंग से बनाई गई है, तो मकान की तामीर भी आगे बढ़ेगी। मगर यह कहानी होगी, लघु-उपन्यास, कथा या किस्सा, दंत-कथा या विचार-संग्रह अथवा केवल लेख - यह मुझे मालूम नहीं।

कुछ संपादक और आलोचक मुझसे यह कहेंगे कि मैंने न तो उपन्यास न किस्सा और न लघु-उपन्यास ही लिखा है, कुल मिलाकर यह कि न जाने क्या लिख डाला है। कुछ दूसरे संपादक और आलोचक कहेंगे कि यह पहली, दूसरी और तीसरी चीज भी है, यह भी है, वह भी है।

मैं कोई आपत्ति नहीं करूँगा। मेरी लेखनी से जो कुछ भी निकलेगा, उसे बाद में आप चाहे जो भी नाम दे दें। मैं किताबी कानूनों के मुताबिक नहीं, बल्कि अपने दिल की इच्छानुसार लिखता हूँ। दिल के लिए तो किसी तरह के कानून नहीं हैं। शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि उसके अपने कानून हैं, जो सभी पर समान रूप से लागू नहीं होते।

मैं मन-ही-मन सोचता हूँ कि अगर एक ही पतीले में मांस, चावल, फल, मिर्च और एक साथ नमक तथा शहद डाल दूँगा, तो कहीं खाने का मजा तो किरकिरा नहीं कर डालूँगा। या इसके विपरीत यह बहुत ही मजेदार, अद्भुत भोजन बनेगा। अच्छा है कि वही इसके बारे में राय दें, जो इसे खाएँगे।

मेरी कहानी, मेरे विचार, मेरी कथा! बचपन में कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जाड़े की रात में मैं सो नहीं पाता था। क्योंकि या तो भाइयों या पिता जी के लौटने का बड़ी बेसब्री से इंतजार करता था। मैं दरवाजे के पास होनेवाली चर्रमर्र या दूर की आहट पर कान लगाए रहता और तब मिनट घंटों में बदल जाते।

ऐसी रातों में दादा मेरे पास बैठकर धीरे-धीरे कुछ सुनाने लगते। कभी कोई लोक-कथा, कभी गीत, कभी कोई अक्लमंदी की बात, कोई कहावत जो कभी तो हास्यपूर्ण होती, तो कभी भयानक। मेरे लिए मिनट और घंटे गायब हो जाते और रह जाती केवल दादा जी की आवाज और कल्पना की उड़ान से बननेवाले चित्र। भाई या पिता जी आते, दादा की बातों में खलल डालते और तब मुझे इस बात का अफसोस होता कि वे अपने आगमन से दिलचस्प किस्से का रंग-भंग कर देते हैं।

फिर जब मैं खुद बड़ा हो गया, दुनिया भर में घूमने और उसी तरह अपने घर लौटने की जल्दी करने लगा जैसे कभी मेरे भाई या पिता जी करते थे, तो जितना घर के पास पहुँचता, मेरा दिल उतना ही ज्यादा और बेचैनी से धड़कने लगता। मैं रास्ते में बाकी रह गए दर्रे गिनता। उसी वक्त कोई हमराही दिलचस्प किस्सा, अपने जीवन की कोई घटना या कथा सुनाने लगता, मैं ध्यान से सुनता रहता, मगर तभी रास्ता खत्म हो जाता और दिल को इस बात का कुछ अफसोस होता कि किस्सा सुनानेवाला अपना किस्सा खत्म नहीं कर पाया।

पिता जी पूछते -

'कहो, कैसे तुम लोगों ने पहाड़ को लाँघा, दर्रे में कैसा हाल रहा, वह बर्फ से ढका हुआ तो नहीं था?'

मगर मुझे तो न पहाड़ याद होता था, न दर्रा और न बर्फ। मेरा हमराही जो कुछ सुनाता रहा था, मुझे तो सिर्फ वही याद होता था। उसके किस्सों ने खड़े पहाड़ों को सपाट घाटी और ठंडी बर्फ को गर्म रुई में बदल दिया था।

मेरी कहानियो, मेरे विचारो! क्या तुम सगे-संबंधियों का इंतजार करनेवालों की जाड़े की लंबी रात या प्यारे चूल्हे तक पहुँचने के इच्छुक का जाड़े का लंबा रास्ता छोटा कर सकते हो?

शोरबे को मजेदार बनाने के लिए जिस तरह उसमें तरह-तरह के सुगंधित पत्ते या मसाले डाले जाते हैं, उसी तरह अपनी नीरस-फीकी कहानियों में मैं कहीं-कहीं एकाध कहावत या मुहावरा डाल देता हूँ।

ताईलूख गाँव की लड़कियाँ होंठों के कोनों के पास ठोड़ी पर दो चमकते हुए बिंदु लगाती हैं। मेरे गद्य में कहावतें भी वैसे ही हों, जैसे लड़कियों के चेहरों पर ये बिंदु।

अपनी कहानियों के ताने-बाने में मैं अपने संस्मरणों और स्मृतियों को उसी तरह टिका रहा हूँ जैसे सीधी दीवार में तराशे हुए पत्थर चुने जाते हैं। हर पत्थर दीवार में ठीक से नहीं जँचता। उनमें से कुछ पत्थरों की चुनाई करने के बाद जब मैं अपनी कहानी को आगे बढ़ा ले गया, तो मुझे कुछ ऐसी ही अनुभूति हुई, जिससे संभवत: धार्मिक प्रवृत्तिवाले लोग परिचित हैं। ऐसी अनुभूति तब होती है, जब उपासना का मूड खत्म होने पर भी उपासना जारी रहती है। फिट न बैठनेवाले पत्थरों को दीवार में से निकालना पड़ा।

तो इस तरह भावनाओं की ज्वारवाली कविताओं और गीतों से मैं शांत कहानी की ओर, गद्य की ओर बढ़ता हूँ। मगर यदि मैंने कुछ समय के लिए कविता से जुदा होने का फैसला किया है, तो वह मुझसे अलग नहीं होना चाहती। जब मैं सोता हूँ, तो प्यार करनेवाले बिल्ली के बच्चे की तरह वह मेरे कंबल में आ दुबकती है। पहाड़ों के पीछे से सामने आनेवाले सुबह के सूरज की किरण की भाँति वह मेरे खिड़की खोलते ही अंदर घुस आती है। वह शराब की अंतिम और सबसे मीठी बूँदों के साथ गिलास के तल में मेरा इंतजार करती है। वह उस औरत की भाँति हर जगह मेरा पीछा करती है, जिसे अचानक त्याग दिया गया है और जो अपने भूतपूर्व प्रेमी को रास्ते में मिलने पर यह कहती है -

'क्या तुमने सचमुच मुझसे नाता तोड़ने का निर्णय कर लिया है? मगर जरा सोच लो, मेरे बिना रह लोगे? तुम पहाड़ी बकरे हो और ठंडे जंगलों में चरने के आदी हो। तुम साल्मन हो और तेज ठंडी धारा के अभ्यस्त हो। क्या तुम यह सोचते हो कि शांत, गर्म झील में रहना तुम्हें अच्छा लगेगा? पर खैर, अगर तुमने मुझसे अलग होने का ही फैसला कर लिया है, तो आओ आखिरी को कुछ देर साथ बैठ लें।'

कविता, क्या तुम नहीं जानतीं कि मैं कभी तुमसे अलग नहीं हो सकता? क्या मैं अपने अंतर में जन्म लेनेवाली सभी खुशियों, सभी आँसुओं से अलग हो सकता हूँ।

तुम उस लड़की जैसी हो, जिसका तब जन्म हुआ, जब सभी लड़के की राह देख रहे थे। तुम उस लड़की के समान हो, जो पैदा होकर खुद ही अपने बारे में यह कहे - 'मैं जानती हूँ कि आप लोग मेरा इंतजार नहीं कर रहे थे और फिलहाल आप में से कोई भी मुझे प्यार नहीं करता। पर कोई बात नहीं, मुझे जरा बड़ी होने और खिलने दो, चोटियाँ गूँथने और गीत गाने दो। तब देखेंगे कि क्या इस दुनिया में कोई ऐसा आदमी है, जो मुझे प्यार न करने की हिम्मत करेगा।'

कविता

काम खत्म हो जाने पर, हम करते हैं मन-रंजन,
चलते-चलते थकते हैं, तो दम लेते हैं कुछ क्षण।
मेरे लिए कठिन तुम मंजिल, तुम ही मधुर पड़ाव,
तुम ही हो श्रम-साध्य काम, तो तुम ही मन बहलाव।
लोरी बनकर तुमने मेरा, बचपन सरस बनाया,
तुम्हें वीरता या वसंत के, सपनों में फिर पाया।
खिला प्यार का कुसुम हृदय में, तुम ही उसमें बोलीं
पर मेरे ही साथ प्यार ने, मन में पलकें खोलीं।
लड़का था तो तुम में जैसे, माँ की छाया झलकी,
फिर तू बनी प्रेमिका मेरी, मदिरा बनकर छलकी।
मेरे विवश बुढ़ापे में, सुध लेगी बेटी बनकर,
तू स्मृति बन रह जाएगी, जब हो जाऊँगा खंडहर।
कभी-कभी लगता है मुझको, तुम पर्वत, दुर्गम, दुष्कर
कभी-कभी लगता है जैसे, तुम हो सधी हुई नभचर।
तुम उड़ान में, पंख समान,
युद्ध भूमि में, शस्त्र महान।
मेरे लिए सभी कुछ कविता, केवल चैन नहीं पाता
अच्छा है या बुरा, न जानूँ, बस, सेवा करता जाता।
श्रम का अंत कहाँ पर होता, शुरू कहाँ पर मन बहलाव?
कूच कहाँ तक जारी रहता, कहाँ राह का मधुर पड़ाव?
तू ही मेरा कठिन सफर है, तू ही है पथ का विश्राम,
तू ही मन बहलाव राह का, तू ही मेरा मुश्किल काम।

पिता जी कहा करते थे कि सिरखाऊ बक्की को चुप कराने के लिए किसी सम्मानित बुजुर्ग या मेहमान को बोलना शुरू कर देना चाहिए। अगर बक्की इसके बाद भी अपनी बेतुकी बकवास बंद न करे, तो गीत गाना शुरू कर दो। अगर गीत का भी उस पर कोई असर न हो, तो बेझिझक उसे कालर से पकड़कर घर से बाहर निकाल दो। अपनी बकबक से गीत में बाधा डालनेवाले हर आदमी की भी इसी तरह अच्छी मरम्मत की जा सकती है।

कविता, तुम तो खुद ही दूसरों से कहीं ज्यादा अचछी तरह यह जानती हो कि तुम्हारी चर्चा करने से तुम न तो बेहतर और न ही ऊँची हो जाओगी। क्या बातों से गीत की महत्ता बढ़ाई जा सकती है? क्या केतली के पानी से पहाड़ी धारा का प्रवाह तेज किया जा सकता है? क्या फूँकों से तेज हवा को और तेज किया जा सकता है? क्या मुट्ठी भर बर्फ से गगनचुंबी पहाड़ी चोटियों की भव्यता बढ़ाई जा सकती है? क्या पोशाक की काट या मूँछों के फैशन से बेटे के प्रति माँ का प्यार बढ़ाया जा सकता है?

कविता, तुम्हारे बिना मैं यतीम हो जाता।

कविता

तेरे बिना हमारी दुनिया, होती जैसे गुफा अँधेरी
सूरज क्या होता है वह तो बिल्कुल इतना समझ न पाती,
या वह ऐसा अंबर होती, जिसमें तारा एक न चमके
या फिर ऐसा प्यार कि जिसमें आलिंगन का स्नेह, न बाती।
दुनिया होती सागर जैसी, मगर नीलिमा से अनजानी
हिम आच्छादित, धवल छटा से, मनमोहक, चिर, सुंदर,
या फिर ऐसा उपवन होती, जिनमें कलियाँ, सुमन न खिलते
जहाँ न गातीं मधुर बुलबुलें, जहाँ न टिड्डों का मृदु स्वर।
पातहीन सब तरुवर होते, भद्दे, भोंड़े, काले, काले
गर्मी नहीं, न जाड़ा होता, न वसंत, केवल पतझर,
लोग असभ्य सभी हो जाते, दीन-हीन-से, भाव-शून्य से
रहा गीत... तो गीत न लेता जन्म कभी इस धरती पर।

अवार लोगों में यह कहा जाता है कि 'संसार की रचना के एक सौ बरस पहले ही कवि का जन्म हुआ था।' इस तरह वे शायद यह कहना चाहते हैं कि यदि कवि संसार की रचना में हिस्सा न लेता, तो दुनिया इतनी सुंदर न बनती।

हम तीन भाई थे और हमारी एक बहन थी। बहन सबसे बड़ी थी। सभी पहाड़ी औरतों की तरह उसके भाग्य में भी बहुत काम लिखा था, दुख-दर्द और आँसू लिखे थे। पिता जी बार-बार हमसे यह कहा करते थे -

यह सच है, मुझे बहन सबसे ज्यादा प्यारी है। मगर मेरी एक अन्य बहन भी है और मैं नहीं जानता कि उन दोनों में से कौन-सी मुझे अधिक प्रिय है। मेरी दूसरी बहन है - कविता। उसके बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता।

कभी-कभी मैं अपने से यह प्रश्न करता हूँ कि क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि कविता के अलावा पहाड़ हैं, बर्फ और नद-नाले हैं, बारिश और सितारे हैं, सूरज और अनाज के खेत हैं... मगर क्या पहाड़, बारिश, फूल और सूरज का कविता के बिना और कविता का इनके बिना काम चल सकता है? कविता के बिना पहाड़ विराट पत्थर बन जाएँगे, बारिश परेशान करनेवाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देनेवाला अंतरिक्षीय पिंड बनकर रह जाएगा।

फिर से मैं यह सवाल करता हूँ - क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है? हाँ, दूर-दराज के देश हैं, पक्षियों के तराने हैं, आकाश है और दिल की धड़कन है। मगर कविता के बिना कुछ भी तो ऐसा नहीं रह जाता। दूर-दराज के लुभावने देशों की जगह केवल भौगोलिक अर्थ ही रह जाएगा, महासागर की जगह पानी का अटपटा अपार भंडार ही रह जाएगा, पक्षियों के तराने नर-मादा की जरूरी पुकार ही बन जाएँगे, नीले आकाश की जगह कई गैसों का मिश्रण और दिल की धड़कन की जगह सिर्फ खून का दौरा ही बनकर रह जाएगा।

निश्चय ही कोमलता, नेकी, दया, प्यार, सुंदरता, साहस, घृणा और गर्व भी हैं... मगर ये सभी भावनाएँ कविता से ही जन्मी हैं, उसी तरह जैसे कविता ने इनसे जन्म पाया है। वे कविता के बिना जीवित नहीं रह सकतीं और कविता उनके बिना!

मेरी कविता मेरा सृजन करती है और मैं अपनी कविता का। एक-दूसरे के बिना हम निर्जीव हैं - इतना ही नहीं, हमारा अस्तित्व ही नहीं रहता। मेरे जिस्म में हड्डियाँ हैं। कोई अजनबी आँख यह नहीं बता सकती कि मेरी कौन-सी हड्डियाँ मजबूत और सही-सलामत हैं तथा कौन-सी टूटी थीं और बाद को जुड़ गई। मगर एक्स-रे से सब कुछ नजर आ जाएगा और मेरे अंदर जो कुछ गुप्त तथा रहस्यपूर्ण है, उसे सभी देख सकेंगे।

मेरी पसलियों, रीढ़ की हड्डी और फेफड़ों की तुलना में मेरी आत्मा कहीं गहरी और अधिक विश्वसनीय ढंग से छिपी हुई है। किंतु कविता की किरणें मुझे रोशन कर देती हैं और मेरी आत्मा की हर गतिविधि लोगों के सामने आ जाती है। कविता की जादुई किरणों से प्रकाशित मेरी आत्मा बिल्कुल निरावरण और पारदर्शी होकर मानो हथेली पर रख दी जाती है और लोग मुझे आर-पार देख सकते हैं।

आधुनिक गणन-यंत्रों में हजारों तार और चक्र लगे होते हैं। बड़ी-बड़ी संख्या के जटिल प्रश्न उन्हें हल करने को दिए जाते हैं। बिजली की तरंग असंख्य चक्रों और तारों के बीच से दौड़ती है। इस जटिल यंत्र में जो प्रक्रियाएँ होती हैं, कोई आँख या कोई मस्तिष्क उन्हें नहीं जान सकता। मगर बाद में आखिरी जवाब, परिणाम के रूप में कोई एक संख्या हमारे सामने आ जाती है।

मेरे शरीर के असंख्य तारों के बीच से कैसे प्रभावों, प्यार और घृणा की कैसी तरंगें दौड़ती हैं, यह कोई नहीं जान सकता। मेरे रोम-रोम पर अपनी छाप छोड़नेवाली अनुभूतियों से बाद में कविता जन्म लेती है। मेरी आत्मा अंतिम और उच्चतम रूप में इसी का सृजन कर सकती है, इसे ही जन्म दे सकती है।

बहुत घूमा-फिरा हूँ मैं इस दुनिया में। कभी पैदल तो, कभी घोड़े पर, कभी हवाई जहाज में कुर्सी पर ऐसे टेक लगाकर मानो ऊँघ रहा हूँ, कभी रेलगाड़ी की ऊपरवाली बर्थ पर लेटकर और कभी तेज कार में।

पगडंडी या घोड़े पर मुझे देखकर लोग यह कह सकते थे कि वह रसूल हमजातोव है। वह अकेला ही जा रहा है और शायद उसे अकेलेपन के कारण ऊब महसूस हो रही होगी। मगर मैं कभी भी एकाकी नहीं होता। मेरी बहन - कविता हमेशा मेरे साथ रहती है। एक मिनट को भी हम दोनों जुदा नहीं होते। कभी-कभी तो नींद में भी मैं काव्य-रचना करता हूँ, या पहले की लिखी हुई अपनी कविताएँ याद करता हूँ, या दूसरे कवियों की कविताएँ पढ़ता हूँ।

पहले मैं यह सोचता था कि धरती पर बहुत कम कवि हैं। शायद कवियों को दूसरे लोगों के बीच बहुत ऊब अनुभव होती होगी। जीवन में हर किसी की अपनी दिलचस्पी होती है यानी जिसके बारे में साथियों या पड़ोसियों से बातचीत की जा सकती है - काम के बारे में, बीवी, वेतन, छुट्टी के दिन, घर-गिरस्ती, माहीगीरी, सिनेमा या बीमारी के बारे में... मैं सोचता था कि इन सभी बातों के संबंध में कवि भी लोगों से बातचीत कर सकता है, मगर जिस काव्यमय रूप में वह दुनिया को ग्रहण करता है, उसके बारे में वह किससे चर्चा करेगा?

मगर बाद में यह बात मेरी समझ में आई कि अकवि इस दुनिया में कोई नहीं है। हर व्यक्ति की आत्मा में कुछ कवि बसा हुआ है। कम-से-कम कविता हरि किसी के यहाँ उसी तरह मेहमान बनकर आती है, जैसे दोस्त अपने दोस्त के पास आता है।

हमारे लोगों में गीत के प्रति प्यार उतना ही स्वाभाविक और समझ में आनेवाला है, जितना बच्चों के प्रति प्यार। हाँ, हम सभी कवि हैं। हमारे बीच केवल इतना ही अंतर है कि कुछ इसलिए कविता रचते हैं कि ऐसा कर सकते हैं। दूसरे इसलिए काव्य-रचना करते हैं, कि उन्हें ऐसा लगता है कि वे ऐसा करने में समर्थ हैं। मगर तीसरे बिल्कुल कविता नहीं रचते। शायद ये, तीसरे ही असली कवि हैं?

वह जमाना भी था, जब मैं कविता नहीं रचना था। तो क्या मैं तब कवि नहीं था? क्या तब मेरा हृदय कम धड़कता था और खून में कम गर्मी होती थी? क्या दुख-दर्द से मेरा हृदय कम टीसता था और खुशी से कम नाचता था? क्या तब सभी कुछ जानने की पिपासा मुझमें कम थी? क्या तब मेरी आँखों को यह दुनिया इतनी ही सुंदर नहीं लगती थी जितनी अब? क्या काली घटाओं के बीच बड़ा-सा नीला सितारा देखकर मैं इसी तरह भाव-विभोर नहीं हो उठता था? क्या निर्झर की झर-झर में मुझे मधुर संगीत की अनुभूति नहीं होती थी? क्या सारसों की आवाजें और घोड़ों की हिनहिनाहट सुनकर मैं विह्वल नहीं हो उठता था? क्या कोई पुराना गीत या बुजुर्गों के बढ़िया कारनामे सुनकर मेरी आँखें डबडबा नहीं आती थीं?

मुझे याद आता है कि जब मैं छोटा था, तो एक पड़ोसी के घोड़े चराने का काम करने लगा था। तीन दिन के काम के बदले में पड़ोसी को मुझे एक किस्सा सुनाना पड़ता था।

मुझे याद आता है कि तभी मैं चरवाहों के पास पहाड़ों में जाया करता था। आधा दिन उधर जाने और आधा दिन लौटने में लगता। और मैं वहाँ जाता था एक कविता सुनने।

ऊनसूकूल की नाशपातियाँ, गिमरा के अंगूर, बूत्सरा का शहद, अवार गीत।

मुझे याद आता है कि जब मैं दूसरे दर्जे में पढ़ता था, तो एक दिन मैं अपने त्सादा गाँव से खड़ी पहाड़ी पगडंडियों पर चढ़ता हुआ बूत्सरा गाँव गया, जो बीस किलोमीटर दूर है। वहाँ मेरे पिता जी के एक बुजुर्ग दोस्त रहते थे, जिन्हें बहुत-से पुराने गीत, कविताएँ और दंत-कथाएँ याद थीं। बुजुर्ग चार दिन तक सुबह से शाम तक मुझे यह सब कुछ सुनाते रहे और मुझसे जैसे बन पड़ा, मैं उनके गीत लिखता रहा। मैं कविताओं और गीतों से भरा हुआ थैला लिए खुश-खुश लौट रहा था।

बूत्सरा गाँव के ऊपर एक पहाड़ सिर उठाए खड़ा है। जब मैं इस पहाड़ पर चढ़ गया, तो न जाने कहाँ से बड़े-बड़े और भयानक एलसेशन कुत्ते मेरी तरफ लपके। वे कम-से-कम एक दर्जन रहे होंगे। हरी घास पर वे ऐसे ही तेजी से झपटते आ रहे थे, जैसे टारपीडो किसी जहाज के काले पहलू की ओर निशाना साधे हुए झपटती चली आती हैं। उनके बड़े-बड़े पीले और गीले दाँतोंवाले जबड़े मुझे दिखाई दे रहे थे। बस एक मिनट और बीत जाता, तो वे मुझे चीर डालते। मगर इसी वक्त मुझे चरवाहे की आवाज सुनाई दी -

'लेट जाओ! हिलो-डुलो नहीं।'

मैं लेट गया, धरती से चिपक गया और निर्जीव-सा हो गया। हिलते-डुलते हुए मुझे डर लगता था और शायद मैंने तो साँस भी रोक ली थी। सिर्फ मेरा दिल ही ऐसे जोर से धक्-धक् कर रहा था कि मुझे यों लगा मानो उसकी धड़कन दूर तक सुनाई दे रही है। कुत्ते कुछ भी न समझ पाते हुए मेरे पास रुक गए, मुझे और कविताओं से भरे मेरे थैले को सूँघते रहे। कुत्ते यह सोचकर कि उनसे कोई भूल हो गई है, उलझन में एक-दूसरे की तरफ देखते और अपनी कल्पना के मुझ शिकार को पकड़ने के लिए आगे भाग गए। जल्दी ही वे मोड़ के पीछे गायब हो गए।

चरवाहे के आने तक मैं लेटा रहा।

'किसके बेटे हो?'

'मैं रसूल हूँ, त्सादा के हमजात का बेटा।' मैंने इस आशा से जान-बूझकर पिता जी का नाम लिया था कि उसे सुनकर चरवाहा मेरी ज्यादा चिंता करेगा और मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं होने देगा।

'यहाँ पहाड़ पर क्या कर रहे हो?'

'मैं कविताओं के लिए बूत्सरा गया था। यह रहीं थैले में।'

चरवाहे ने कविताएँ निकालकर उन्हें गौर से देखा।

'तो तुम भी कवि बनना चाहते हो? तो फिर तुम कुत्तों से क्यों डर गए? तुम्हारे पथ पर क्या इसी तरह के कुत्ते तुम पर झपटेंगे? मेरे एलसेशन कुत्तों की तरह वे कविताएँ सूँघकर आगे नहीं भाग जाएँगे। तुम्हें डरना नही चाहिए, किसी भी चीज से डरना नहीं चाहिए। जानते हो यह कौन-सा पहाड़ है? इसी पहाड़ से हाजी-मुराद संतरियों की आँखों में धूल-झोंककर नीचे कूद गया था। संतरी मुँह बाए देखते रह गए थे और हाजी-मुराद बच निकला था। अपने वतन में तो पहाड़ भी मदद करते हैं।'

पहले मैं ऐसा समझता था कि काव्यमयी हलचल, जो मुझ पर हावी हो गई है, वह बेचैनी, जो निरंतर मेरी आत्मा में बसी रहती है, प्यार, जो मेरे हृदय में जमकर बैठ गया है, यह सब और खून का उबाल तक भी वक्ती चीज है और जल्दी ही यह खत्म हो जाएगा। मगर मेरा सिर सफेद हो चला है, बच्चे बड़े-बड़े हो गए हैं और मेरी किताबें पुरानी होती जा रही हैं, मगर एक भी भावना ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है। मेरी कविता मेरी बहुत ही वफादार संगिनी रही है।

अब मैं उसे संबोधित करता हूँ।

कविता, दुनिया और जिंदगी के लंबे सफर पर तुमने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा और अब, जबकि मैं गद्य के बड़े समतल विस्तारों में बढ़ने जा रहा हूँ, तुम अब भी मेरा साथ नहीं छोड़ोगी। मैं जानता हूँ कि कहानी को छंदों में बाँधना बेमानी है। इस तरह बहुत ही अच्छी कहानी को बहुत ही बुरी कविता बनाया जा सकता है। मगर कहानी में कविता तो खाने में नमक का काम दे सकती है। मेरे तो समूचे जीवन के लिए ही कविता नमक के समान रही है। उसके बिना मेरा जीवन फीका और बेजायका होता। हम पहाड़ी लोग मेज पर खाना लगाते समय नमकदानी रखना कभी नहीं भूलते।

गद्य दूर तक उड़ सकता है, मगर कविता की उड़ान ऊँची होती है। गद्य उस बड़े हवाई जहाज के समान है, जो बड़े इत्मीनान से सारी दुनिया के गिर्द चक्कर लगा सकता है। कविता लड़ाकू हवाई जहाज है, जो बिजली की तरह अपनी जगह से लपकता है, आन-की-आन में आसमान की गहराइयों में जा पहुँचता है और गद्य के बड़े हवाई जहाज को वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न उड़ रहा हो, जा पकड़ता है।

अपनी पुस्तक में मैं विभिन्न विधाओं को मिलाना और उसे अवारिस्तान की सीमाओं से दूर भेजना चाहता हूँ। भला क्यों न करूँ ऐसा? हमारी कविताएँ तो एक अर्से से दागिस्तान की हदों से बहुत दूर पाठकों के दिलों पर अपनी राहें पगडंडियाँ बना रही हैं। कुछ कहानियों को भी विदेश जाने के अनुमति-पत्र मिल गए हैं। हाँ, हमारे नाटक अभी घर में ही बैठे हैं। शायद उनके कागजात की जाँच हो रही है या उन्हें अभी अच्छा व्यवहार और तौर-तरीके सिखाने की जरूरत है।

अगर मेरे दिमाग में नाटक लिखने का विचार आ जाता, तो सारा दागिस्तान, गाँव, शहर, सभी देश और सारी दुनिया उसके घटना-स्थल होते। पहाड़, आकाश तेज नदियाँ, सागर और धरती मंच-सज्जा होते। बीती सदियाँ, वर्तमान और पूरा भविष्य उसका घटना-काल होता। सहस्राब्दी को मैं क्षणों में व्यक्त करता। उसके पात्र होते - मैं खुद, मेरे पिता जी, मेरे बच्चे, मेरे दोस्त और कभी के मर-खप गए तथा ऐसे लोग भी, जिनका अभी जन्म ही नहीं हुआ।

यह नाटक मेरी मुख्य रचना, मेरा 'युद्ध और शांति', मेरा 'दोन क्विक्सॉत', मेरा 'दैविक कामेडी' होता। मगर मैं न केवल नाटक लिखने, बल्कि अपनी भावी पुस्तक की दीवार में एक 'नाटकीय' पत्थर रखने का भी जोखिम मोल नहीं लूँगा। नाटक को मैं किसी दूसरे वक्त, बल्कि दूसरे लेखकों के लिए रहने देता हूँ। बारी-बारी से गद्य और पद्य ही लिखूँगा। कविता - तेज घुड़सवारी है और गद्य पैदल यात्रा। पैदल ज्यादा दूर तक जाया जा सकता है। घोड़े पर जल्दी से जाना संभव है। कभी मैं पैदल चलूँगा, तो कभी घुड़सवारी करूँगा। जो कुछ कहानी के रूप में सुना सकता हूँ, सुनाऊँगा, जो कुछ गद्य के रूप में सुना नहीं सकूँगा, उसे गाऊँगा। मुझमें जवानी की चंचलता है और बुढ़ापे की समझ-बूझ। जवानी गाए और बुद्धिमत्ता गद्य में अपनी बात सुनाए।

मेरे भीतर भिन्न लोग रहते हैं - कभी तो मैं कलफ लगे नेप्किन का उपयोग करते हुए और बाएँ हाथ में काँटा लेकर शिष्टाचारपूर्वक खाना खाता हूँ और कभी भेड़ के मांस का बड़ा-सा टुकड़ा दोनों हाथों में लेकर अपने गाँववालों के साथ घास पर बैठकर खाता हूँ तथा बूजा पीता हूँ।

शहर से जब मैं पहाड़ों को जाता हूँ, तो शहरी ढंग से बढ़िया शराबें और फल अपने साथ लेता हूँ। भोले-भाले और मेहमाननवाज चरवाहों के यहाँ से जब शहर लौटता हूँ, तो काठी के आर-पार लटकता हुआ भेड़ का धड़ साथ लाता हूँ।

सागर भी तो कभी सहलाता है, तो कभी झुँझलाता है, कभी सनकी होता है और कभी गुस्से से फुंकारता है। ठीक इसी तरह बहुत से चरित्र मेरे अदर साँस लेते हैं।

खड्ड के सिरे पर मैंने एक तरुण और तरुणी को आलिंगन में बँधे बैठे देखा। उन्होंने एक-दूसरे को ऐसे बाँहों में कस रखा था, इस तरह वे एक-दूसरे में मिलकर एक हो गए थे कि उन्हें अलग से देख पाना संभव नहीं था।

ठीक इसी तरह मेरे अंदर सुख-दुख, आँसू और खुशी, सबलता और दुर्बलता अभिन्न रूप से एक साथ रहती हैं।

नहीं खड़ा था घोड़ा पिछली टाँगों पर
और दहाना बेचैनी से वह तो नहीं चबाता था,
भारी बोझिल मन से अपना शीश झुका
उजले-उजले दाँत दिखाकर, हँसता था, मुस्काता था।
लगभग छूते थे अयाल उसके धरती
वह कुम्मैती घोड़ा मानो ज्वाला-सा जलता लगता
पहले तो यह मैंने सोचा, गजब अरे!
मानव की ही भाँति न जाने कैसे यह घोड़ा हँसता!
हैरत किसे न होगी ऐसी झाँकी से
किया फैसला, देखूँगा मैं उसे, पास उसके जाकर,
क्या देखा? वह नहीं हँस रहा, रोता है
मानव की ही भाँति दुखी मन, शीश झुका, सिर लटकाकर
लंबे-लंबे पत्तों-सी लंबी आँखें
धुँधली-धुँधली उनमें आँसू की दो बूँदें चमक रहीं,
जब हँसता हूँ, मुझे ध्यान से तब देखो
छिपी न हों मेरी पलकों में आँसू की दो बूँद कहीं।

नोटबुक से। सिवुख गाँव के एक पहाड़ी ने पहाड़ के दामन में सफेद बादल देखे तो यह समझा कि फूले-फूले सफेद ऊन का ढेर है और उसने नीचे छलाँग लगा दी। फूले-फूले बादल ऊन या रुई के ढेर से चाहे कितने ही मिलते-जुलते क्यों न हों, फिर भी वे रुई कभी नहीं बन सकेंगे।

केवल रूप को ध्यान में रखकर लिखी गई पुस्तक रूप की दृष्टि से चाहे कितनी भी सुंदर क्यों न हो, फिर भी वह मानवीय आत्मा को कभी नहीं छू पाएगी।

केवल रूप की तरफ ध्यान देना उचित नहीं। सागर तट पर सारा जीवन बिता देनेवाले एक मछुए ने जंगल में चींटियों का ढेर देखा, तो उसे केवियर का ढेर समझ लिया। सागर पर कभी न जानेवाले एक पहाड़ी ने जब केवियर का ढेर देखा, तो उसे चींटियों की बांबी मान बैठा।

नोटबुक से कुछ और

वक्ष एक ही, शोभा देता जिस पर तमगा, गोली का भी पड़े निशान,
चेहरा एक, कि आँसू जिस पर झर आते हैं, खिल उठती है मृदु मुस्कान।
होंठ वही हैं, कभी जहर को वे छूते हैं, कभी शहद का करते पान,
गगन एक है, उसमें ही तो उड़ें कबूतर औ' उकाब भी भरें उड़ान।
बादल काला, पर उसमें जल ज्वाला दोनों, संग-संग रहते गतिमान,
कील एक ही, साथ-साथ ही उस पर लटकें, साज और खंजर भी म्यान।

नोटबुक से कुछ और। पहली बार प्यार करनेवाली जवान पहाड़ी लड़की ने सुबह खिड़की में से बाहर झाँका, तो खुशी से चिल्ला उठी -

'इन वृक्षों पर कितने सुंदर फूल आ गए हैं!'

'वृक्षों पर तुम्हें फूल कहाँ नजर आ रहे हैं?' उसकी बूढ़ी माँ ने आपत्ति की। 'यह तो बर्फ है, पतझर का अंत और जाड़े का आरंभ हो रहा है।'

सुबह एक ही थी, मगर एक नारी के लिए वसंत की और दूसरी के लिए जाड़े की। मेरे भीतर दो भिन्न व्यक्ति रहते हैं जिनका मैं एक रूप हूँ। उनमें से एक जवान है और दूसरा बूढ़ा; एक वसंत है और दूसरा जाड़ा। अगर मेरी किताब में आपको गद्य और पद्य दोनों मिलें, तो हैरान न होइएगा।

'तो क्या तुम एक हाथ में दो तरबूज उठाने की कोशिश नहीं कर रहे हो?' मुझसे पूछा जा सकता है।

'नहीं, मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ,' यही मेरा जवाब है।

जब मैं विभिन्न विधाओं को एक साथ मिलाता हूँ, तो इसका यह मतलब नहीं है कि मैं तरह-तरह के फलों को काटकर, एक साथ मिलाकर उनका सलाद बनाना चाहता हूँ। मगर मैं तो उन्हें एक समझदार माली की तरह मिलाकर, उनका संकरण करके एक नई किस्म तैयार करना चाहता हूँ।

मालूम नहीं कि इसका कैसा फल सामने आएगा। मगर हर काम में ऐसा ही होता है। आग जलाते वक्त हम उसके सारे परिणामों की कल्पना नहीं कर सकते। मगर इसका यह मतलब नहीं है कि हर बार आग जलाते वक्त डरा जाए। तो लीजिए, मैं दियासलाई जलाता हूँ, उसे सूखी टहनी के पास ले जाता हूँ और हाथ की ओट करके उसे हवा से बचाता हूँ। आग जलने लगती है। मुझे इस बात का डर नहीं है कि फिलहाल जो आग इतनी दुर्बल और सहमी-सहमी सी है, वह अचानक काबू में न आनेवाले दरिंदे का रूप ले लेगी। मैं इसके बारे में नहीं सोचता हूँ बस, आग जला रहा हूँ।

शामिल ने अपनी तलवार पर एक अपनी ही कहावत खुदवा रखी थी - 'युद्ध-क्षेत्र की ओर अपना घोड़ा बढ़ाते हुए जो आदमी परिणामों की चिंता करता है, वह वीर नहीं।'

कहते हैं कि चतुर हाथों में साँप का जहर भी फायदेमंद हो सकता है और मूर्ख के हाथों में शहद भी नुकसान पहुँचा सकता है।

कहते हैं कि अगर तुम कहानी सुना नहीं सकते, तो गाओ; अगर गा नहीं सकते, तो कुछ सुनाओ।

शैली : मेरा दाग़िस्तान

कैसा है गायक, उसकी आवाज बताए
कैसा है सुनार, उसका हुनर जताए
कूबाची की कला-वस्तु पर आलेख

'तुम मुझ पर चिल्ला क्यों रहे हो?'
'मैं चिल्ला नहीं रहा हूँ, मेरा बातचीत करने का ढंग ही ऐसा है।'
पति-पत्नी की बातचीत से

'तुम्हारी कविताएँ कविताओं जैसी नहीं लगतीं।'
'मेरा लिखने का ढंग ही ऐसा है।'

कवि और उसके पाठक की बातचीत से


हम लड़कों को चौपाल में, जहाँ गाँव के वयस्कों की मजलिस जमती थी, जाने की इजाजत नहीं होती थी। बड़े-से पत्थर पर बैठकर हम कभी-कभी उन्हें दूर से ही देखा करते थे।

एक दिन हमने आनदी गाँव से आए एक मेहमान को लगातार एक घंटे तक बोलते और सभी लोगों को उसे चुपचाप सुनते देखा। हमने आपस में यह तय किया कि आनदी का रहनेवाला जरूर कोई बहुत महत्वपूर्ण समाचार लाया है। इसीलिए तो सभी इतनी देर तक और इतने ध्यान से उसकी बातें सुन रहे हैं।

घर पर मैंने पिता जी से पूछा, 'आनदी के मेहमान ने आज क्या कुछ बताया आप लोगों को?'

'अरे, जो कुछ उसने आज बताया, हम त्सादावासी बीस बार वह सभी कुछ पहले भी सुन चुके हैं। मगर वह सुनाता ऐसे ढंग से है कि न चाहते हुए भी उसे सुनना ही पड़ता है। शाबाश है इस आनदीवासी को, अल्लाह उसकी उम्र दराज करे।'

ढंग के बारे में कुछ और। हर दरिंदा अपने ढंग से चालाक होता है, शिकारी से बच निकलने का उसका अपना ढंग होता है। हर शिकारी का दरिंदे को फाँसने, उसका शिकार करने का अपना ढंग होता है। ठीक इसी तरह हर लेखक का अपना ढंग, लिखने का अपना तरीका, अपना मिजाज और अपनी शैली होती है।

युवा कवि के रूप में जब मैं मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ने गया, तो मैंने अपने को नए और अपरिचित वातावरण में पाया। सभी कुछ मुझे शिक्षा देता था - खुद मास्को, सेमिनार, सेमिनारों में आनेवाले प्रमुख कवि, प्रोफेसरगण, मेरे सहपाठी और होस्टल के साथी। सभी ओर से मुझ पर शिक्षा की बौछार होती थी और इसलिए कुछ समय को मैं जैसे कि भूल-भुलैया में फँस गया, भटक गया और एक नए, एक अजीब ढंग से, जिसका अवार साहित्य में अभी तक अस्तित्व नहीं था, लिखने लगा।

मैं यह नहीं छिपाऊँगा कि उन दिनों मैं अपनी कविताओं को रूसी में अनूदित देखने को बहुत लालायित था। मैं रूसी पाठक की ओर लपक रहा था और मुझे लगा कि मेरा नया ढंग रूसी पाठक के अधिक निकट होगा, वह आसानी से उसकी समझ में आ जाएगा। मैंने अपनी अवार मातृभाषा के संगीत, कविता की लय-ताल की ओर बिल्कुल ध्यान देना छोड़ दिया। कविता के रूप, अलंकारहीन भाव ने प्रमुख स्थान ले लिया। मैं यह सोचता था कि उचित ढंग का विकास कर रहा हूँ, मगर वास्तव में - अब यह बात समझता हूँ - चालाक बन रहा था।

खुशकिस्मती से मैं जल्दी ही यह समझ गया कि कविता और चालाकी ऐसी दो तलवारें हैं, जो एक म्यान में नहीं समा सकतीं। मगर मेरे बुद्धिमान पिता मुझे और भी पहले समझ गए थे। मेरी नई कविताएँ पढ़कर उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि भेड़ की मोटी दुम के लिए मैं खुद भेड़ को गँवाना चाहता हूँ, कि मैं उस बंजर पथरीली जमीन को जोतना और बोना चाहता हूँ, जिसे लाख सींचने पर भी उसमें कुछ पैदा नहीं होगा, कि मैं आकाश के बिना बारिश चाहता हूँ।

पिता जी फौरन यह सब कुछ समझ गए, मगर वे बहुत ही सावधान और नीतिकुशल व्यक्ति थे। एक दिन बातचीत के दौरान बोले -

'रसूल, मुझे इस बात से चिंता हो रही है कि तुम्हारा लिखने का ढंग बदलने लगा है।'

'पिता जी, मैं अब बालिग हूँ और लिखने के ढंग की तरफ सिर्फ स्कूल में ही ध्यान दिया जाता है। बालिग से सिर्फ यही नहीं पूछा जाता कि उसने कैसे लिखा है, बल्कि यह कि क्या लिखा है।'

'मिलीशियामैन या ग्राम-सोवियत के प्रमाण-पत्र देनेवाले सेक्रेटरी के बारे में तो शायद ऐसा ही सही है। मगर कवि के लिए उसका ढंग, उसकी शैली - लगभग आधा काम है। कविता में चाहे कितना भी मौलिक विचार क्यों न व्यक्त किया जाए, उसे सुंदर अवश्य होना चाहिए। सुंदर ही नहीं, अपने ढंग से सुंदर होना चाहिए। कवि के लिए अपनी शैली खोज पाना, अपने को खोज लेना ही कवि बनना है।

'तुम बहुत जल्दी कर रहे हो, मगर तेज और उछल-कूद करनेवाला सोता कभी सागर तक नहीं पहुँच पाता। अधिक शांत और इतमीनान से बहनेवाली दूसरी धारा उसे निगल जाती है।

'अधिक घोंसले बदलने और यह न जाननेवाला परिंदा कि कौन-सा घोंसला चुने, आखिर घोंसले के बिना ही रह जाता है। क्या अपना घोंसला बना लेना अधिक आसान नहीं, तब चुनने का सवाल ही नहीं रहेगा।'

अब, जबकि मैं चालीस के पार पहुँच चुका हूँ, अपनी चालीस किताबों के पृष्ठ उलटता हूँ, तो यह पाता हूँ कि मेरे खेत में, जहाँ मैंने गेहूँ बोया था, पराये खेतों के ऐसे पौधे भी उग आए हैं, जिन्हें मैंने नहीं बोया था, बेशक ये झाड़-झंखाड़ नहीं, बल्कि अच्छे-जौ, जई और रई-के पौधे हैं, मगर फिर भी मेरे गेहूँ के खेत में ये पराये हैं।

अपने रेवड़ में मुझे दूसरों की भेड़ें नजर आ रही हैं। वे कभी भी ऊँचाई और पहाड़ी हवा की आदी नहीं हो पाएँगी।

खुद अपने में मैं कभी-कभी दूसरे लोगों को अनुभव करता हूँ। मगर इस किताब में मैं अपना रूप ही रहना चाहता हूँ। अच्छा हूँ या बुरा - जैसा हूँ, उसी रूप में मुझे ग्रहण कीजिए।

पहाड़ों में जब कोई पहाड़ी आदमी शादी में शामिल होने आता है, तो अपने से पहले वहाँ जमा हुए लोगों से वह यह पूछता है -

'तुम खुद ही यहाँ काफी हो या मैं भी आ जाऊँ?'

शादी में शामिल पहाड़ी यह जवाब देते हैं -

'अगर तुम वास्तव में ही तुम हो, तो अंदर आ जाओ।'

तो यह है वह मेरी किताब, जिससे मुझे यह साबित करना है कि मैं-मैं हूँ। मैं लेखक होना चाहता हूँ - लेखक की भूमिका नहीं निभाना चाहता। देखिए तो, अभिनेता रंगमंच पर कैसे ब्रांडी पीता है। लीजिए, वह नशे में धुत्त हो गया, जबान से ठीक-ठीक शब्द नहीं निकलते, सिर छाती पर झुक गया। मगर जिस बोतल से वह पी रहा है, उसमें ब्रांडी नहीं, चाय है। चाय से नशा नहीं होता। मेरे ख्याल में मेरी इस बात से वे तो सहमत होंगे, जिन्होंने कभी ब्रांडी नहीं पी।

ऐसा प्रतीत होता है कि अगर किसी नाटक में कवि की भूमिका होती है, तो नाटककार के लिए इस कवि की कविताएँ रचना ही सबसे ज्यादा मुश्किल काम होता है। इसलिए नाटक में यदि कोई कवि होता है, तो वह अपनी कविताएँ नहीं सुनाता। मगर कविता के बिना भला कवि क्या होगा? दुकान की शो विंडो की रौनक बढ़ानेवाले गत्ते के मॉडल से वह कैसे भिन्न है? मुझे किसी के जैसा - उमर खयाम, पुश्किन या बायरन के जैसा भी नहीं होना चाहिए।

कुछ भैंसचोर किसी की भैंस चुराने पर उसके सींग उखाड़ देते हैं या दुम काट डालते हैं। कार चुरानेवाले चोर उस पर दूसरा रंग कर देते हैं। मगर सारी चालाकी के बावजूद चोरी तो चोरी रहती है।

पाठकों की बातचीत में मुझे यह सुनकर सबसे ज्यादा खुशी होती कि रसूल ने रसूल के ही ढंग में किताब लिखी है।

चहकनेवाले परिंदों के मुकाबले में मुझे गानेवाले परिंदे ज्यादा पसंद हैं। कूड़े-करकट में से कुछ चुगनेवाले पक्षी की तुलना में उड़ता हुआ पक्षी मुझे अधिक अच्छा लगता है। तंग बंदरगाह में खड़े जहाज के मुकाबले में नीले सागर की लहरों पर तैरता हुआ जहाज मुझे कहीं अधिक अच्छा लगता है।

हल्की-फुल्की नावों को देखिए। वे सभी तरह की लहरों पर कैसे उछलती हैं। बड़े और भारी जहाजों को देखिए! वे तो तूफान के वक्त भी हिचकोले नहीं खाते।

शराब की एक बूँद पिए बिना ही मूर्ख शोर मचाते और लड़ाई-झगड़ा करते हैं। बुद्धिमान बड़ा जाम पीने के बाद भी धीरे-धीरे, शांतिपूर्वक और संजीदगी से बात करते हैं।

रसूल की किताब, तुम लोगों के सामने अपने को ऐसे पेश करो, जैसे कि रसूल की किताब को शोभा देता है।

किसी पहाड़ी के घर में अगर कोई अपरिचित मेहमान आ जाता है, तो तीन दिन से पहले उससे उसका नाम और यह नहीं पूछा जाता कि वह कहाँ से आया है।

मेरी पुस्तक को भी आप इसी तरह स्वीकारें। यह नहीं पूछें कि वह कौन है, कहाँ से आई है, किसने लिखी है। उसे खुद ही अपना परिचय देने दें।

मैं जैसा हूँ, उससे अच्छा या बुरा नहीं होना चाहता। बीस साल की उम्र में अगर ताकत नहीं है - तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगी। तीस साल की उम्र में अगर अक्ल नहीं है - तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगी। चालीस साल की उम्र में अगर धन नहीं - तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगा। ऐसी है एक रूसी कहावत। हमारे पहाड़ों में कहा जाता है - अगर चालीस साल में आदमी उकाब नहीं बना - तो वह कभी नहीं उड़ पाएगा। मेरी घोड़ागाड़ी को मेरे ही रास्ते पर चलने दो।

जब बारिश होती है, तो हमारे गाँव के ऊपर खड़े पहाड़ से बहुत-सी छोटी-छोटी धाराएँ नीचे बहकर आती हैं। नीचे वे सभी घुल-मिलकर वक्ती बरसाती झील बन जाती हैं। फिर इस झील से सिर्फ एक ही बड़ी नदी बहती है।

हमारे इर्द-गिर्द के पहाड़ों से बहुत-सी तंग पगडंडियाँ हमारे गाँव की ओर आती हैं। धाराओं की तरह वे सभी हमारे गाँव में आकर मिल जाती हैं। लेकिन अगर गाँव से हलका, नगर या बड़ी दुनिया में जाना हो, तो उसके लिए केवल एक ही चौड़ी सड़क है।

मैं नहीं जानता कि सड़क या नदी-किससे अपनी तुलना करूँ। मगर मैं इतना जानता हूँ कि मेरे बहुत-से हमवतनों के विचार, मेरे बहुत-से हमवतनों के शब्द और भावनाएँ पहाड़ी धाराओं या टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों की तरह मुझमें आकर घुल-मिल गई हैं। मेरी अपनी पगडंडी, मेरी राह मुझे गाँव से कविता-क्षेत्र में ले गई है।

मैं दुनिया के बहुत-से हिस्सों में हो आया हूँ। बहुत-से देशों की यात्रा कर चुका हूँ और तरह-तरह के लोगों से मिला हूँ बड़ी-बड़ी शानदार दावतों और स्वागत-समारोहों में जाने का मुझे मौका मिला है। ये स्वागत-समारोह राष्ट्रपतियों और बादशाहों के भी थे, प्रधानमंत्रियों और साधारण मंत्रियों तथा राजदूतों के भी। इन समारोहों में जूते और चाँदें कैसे चमकती हैं, कैसे बढ़िया ढंग से टाइयाँ बँधी होती हैं, कैसे बर्फ से सफेद कफ होते हैं, कैसे शिष्टतापूर्वक सिर झुकाए जाते हैं और मुस्कानें बिखराई जाती हैं, हर शब्द और हाव-भाव कितना सधा-बधा होता है! ऐसे समारोहों में कलाकार प्रधानमंत्रियों जैसे लगते हैं और प्रधानमंत्री कलाकारों जैसे।

ऐसे समारोहों में मैं कभी भी खुद को अपने रूप में अनुभव नहीं करता। मैं ऐसे हाव-भाव प्रकट करता हूँ, जो करना नहीं चाहता, ऐसे शब्द कहता हूँ, जिन्हें कहने को मन नहीं होता। इन समारोहों की चमक-दमक में से अचानक मुझे त्सादा के अपने चूल्हे और उसके गिर्द बैठे हुए अपने परिजनों की या किसी होटल के कमरे में जमा खुशमिजाज दोस्तों की झलक मिलती है। उस वक्त उन बहुत-से पकवानों की जगह लहसुनवाले खीनकाल खाने की तीव्र इच्छा होती है! अहा, आस्तीनें चढ़ाकर अपने घर के चूल्हे के गिर्द दोस्तों के बीच बैठकर लहसुनवाले खीनकाल इस तरह हड़पने में कितना मजा है कि बाँहें घी से तर हो जाएँ!

कुछ किताबें पढ़ते हुए मुझे ऐसे लगता है, मानो वे कूटनीतिक समारोह में उपस्थित हों। उनमें हाव-भाव, गतिविधि और भाषण की स्वतंत्रता नहीं होती।

मेरी किताब, तुम कूटनीतिक समारोह में मेहमान नहीं बनना। तुम केवल वही शब्द कहना, जो तुम्हारे वास्तविक चरित्र के अनुरूप हैं, ऐसे शब्द नहीं, जो केवल शिष्टतावश कहने होते हैं।

मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जो जब तक अपने घर, अपने परिवार, अपने बीवी-बच्चों और दोस्तों में होते हैं, लोग रहते हैं। मगर जैसे ही अपने दफ्तर की कुर्सी पर जा बैठते हैं, रूखे, भावनाहीन और क्रूर हो जाते हैं। उनका तो जैसे कायापलट हो जाता है। हर नए पद, हर नई कुर्सी के साथ उनका चरित्र, व्यवहार और चेहरा बदलता जाता है।

मेरी पुस्तक, तुम स्थिर रहना, अपना चरित्र नहीं बदलना, वैसे ही जैसे मैं अपना चरित्र नहीं बदलता हूँ। स्वागत-समारोहों को नहीं, दोस्तों और अपने चूल्हे के धुएँ को प्यार करना, कंसर्टों को नहीं खेतों को प्यार करना, धरती की आवाज सुनना, सभाओं का शोर नहीं। ऐसा भी तो होता है कि सभाओं में एक बात कही जाती है और सभाओं के बाद बिल्कुल दूसरी ही।

नोटबुक से। कौन ऐसा दागिस्तानी होगा, जो सुलेमान स्ताल्स्की की बड़ी फर की टोपी, भेड़ की सुगंधित खाल के भारी कोट और कॉफ चमड़े के हल्के-फुल्के जूतों से परिचित न रहा हो! मेरे ख्याल में तो केवल दागिस्तानी ही नहीं, दूसरे लोग भी ऐसी टोपी और ऐसे जूतों के बिना सुलेमान की कल्पना नहीं कर सकते थे।

तो सुलेमान स्ताल्स्की को पुरस्कृत किया गया और मक्सिम गोर्की ने उन्हें 20वीं शताब्दी का होमर कहा। सुलेमान को मास्को आमंत्रित किया गया। मास्को में एक दागिस्तानी मंत्री उनसे मिले।

'अरे, प्यारे सुलेमान,' मंत्री ने कवि से कहा, 'मास्को में तो गाँव का-सा रंग-ढंग अच्छा नहीं लगता। आपको अपना यह भेस बदलना होगा।'

दागिस्तानी सरकार के आदेशानुसार सुलेमान के लिए ऊनी सूट सिलवाया गया, उनके लिए नए जूते, कनटोपा और कराकूल की फर के कालरवाला ओवरकोट भी खरीदा गया। सुलेमान ने हर चीज को बहुत ध्यान से देखा। ओवरकोट को हाथ पर लटकाकर आँका, जूतों के तले आपस में बजाए और बाद में सभी चीजों को जैसे-तैसे लपेटकर सूटकेस में रख दिया।

'शुक्रिया। अच्छी, नई चीजें हैं। मेरे बेटे मुसलिम के लिए बिल्कुल ठीक रहेंगी। मैं तो सुलेमान ही रहना चाहता हूँ। न तो सूट और न बूट के लिए अपना नाम बदलना चाहता हूँ। मेरे अपने जूते मुझसे नाराज हो जाएँगे।'

अपने बाहरी रूप की इस मौलिकता के प्रति भी सुलेमान का यह लगाव मेरे पिता जी को बहुत पसंद आया।

नोटबुक से। सुलेमान के बेटों ने उन्हें कई बार लिखना-पढ़ना सिखाने की कोशिश की। सुलेमान ने हर बार बड़ी लगन से यह काम शुरू किया, मगर बाद में कागज रखकर यह कहा -

'नहीं, बच्चो। जैसे ही मैं पेंसिल हाथ में लेता हूँ, कविता फौरन मुझसे दूर भाग जाती है। कारण कि मैं कविता के बारे में नहीं, बल्कि यह सोचने लगता हूँ कि इस कंबख्त पेंसिल को कैसे हाथ में थामना चाहिए।'

नोटबुक से। आफंदी कापीयेव सुलेमान के दोस्त थे। उन्होंने रूसी भाषा में सुलेमान की कविताओं का अनुवाद किया। तुच्छ और घटिया लोगों को इस दोस्ती से ईर्ष्या होती थी। उन्होंने कापीयेव को विख्यात कवि की नजरों में गिराना चाहा और बदनाम भी किया। उन्होंने सुलेमान से कहा -

'तुम तो रूसी पढ़ नहीं सकते, मगर हम जानते हैं कि आफंदी कापीयेव अनुवाद करते हुए तुम्हारी कविताओं को बिगाड़ देता है। जहाँ चाहता है, उन्हें बढ़ा देता है, जहाँ चाहता है, घटा देता है और बहुत-सी पंक्तियों को अपने ही ढंग से बदल डालता है।'

एक दिन साधारण बातचीत के दौरान सुलेमान ने यह चर्चा चलाई -

'दोस्त,' वे बोले, 'मैंने सुना है कि तुम मेरे बच्चों को पीटते हो?'

आफंदी फौरन समझ गए कि किस बात की तरफ इशारा किया जा रहा है।

'तुम्हारी कविताएँ तुम्हारे बच्चे नहीं हैं, सुलेमान। वे तो तुम खुद सुलेमान स्ताल्स्की हो।'

'तब मैं बूढ़ा तो बच्चों से भी ज्यादा इज्जत का हकदार हूँ।'

'मगर सुलेमान, तुम्हारे लिए क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है कविता की पंक्तियाँ या उनकी शैली और आत्मा? तुम्हारे सामने शराब की बोतल रखी है। अगर यह शराब खराब हो जाए, तो इसकी मात्रा तो कम नहीं हो जाएगी, मगर यह वह शराब नहीं रहेगी, जिसे हम पीते हैं और मजा लेते हैं। सवाल शराब की मात्रा का नहीं, उसकी खुशबू, जायके और नशा देने की शक्ति का है।'

'तुम ठीक कहते हो, यही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।'

वास्तव में ऐसा ही हुआ कि आफंदी कापीयेव ने ही सुलेमान को रूसी पाठकों तक पहुँचाया।

नोटबुक से।

'तुम्हारे पिता की कविताओं की मुझे किसी तरह भी चाबी नहीं मिलती,' आफंदी ने मुझसे शिकायत की। हमजात त्सादासा की कविताओं का भी उन्होंने रूसी में अनुवाद किया था। 'तुम्हारे पिता का अपना ही ताला है। ऐसा लगता है कि वे हँस रहे हैं, मगर वास्तव में उदास होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्रशंसा कर रहे हैं, मगर वास्तव में व्यंग्य, यहाँ तक कि मजाक करते होते हैं। ऐसा लगता है कि कोस रहे हैं, मगर वास्तव में प्रशंसा करते होते हैं। यह सब कुछ मैं समझता हूँ, मगर रूसी भाषा में व्यक्त नहीं कर पाता। मैं उनकी कविता की शैली, उनका भाव तो व्यक्त कर सकता हूँ, मगर मुझे तो खुद हमजात चाहिए, वैसे ही जीते-जागते जैसा कि हम उन्हें जानते हैं। रूसी भाषा के पाठकों को उन्हें इसी रूप में जानना चाहिए। वे मानो सभी लोगों जैसे हैं, फिर भी बाकी सब से अलग हैं।'

कवि की कविताएँ भी ऐसी ही होनी चाहिए।

संस्मरण से। अब मेरे गाँववाले मुझे कवि रसूल हमजातोव के रूप में जानते हैं। मगर कभी ऐसा भी वक्त था, जब सभी मुझे भुलक्कड़ और गड़बड-झाला व्यक्ति मानते थे। मैं किसी काम में उलझा होता और उसी वक्त किसी दूसरी चीज के बारे में भी सोचता रहता। नतीजा यह होता कि कमीज उल्टी पहन लेता, ओवरकोट के बटन गलत ढंग से लगा लेता और ऐसे ही बाहर चला जाता। बूटों के फीते न बाँधता और अगर बाँधता, तो ऐसे कि वे फौरन खुल जाते। उस वक्त मेरे बारे में कहा जाता था -

'यह कैसे हुआ कि ऐसे सलीकेदार, ऐसे ढंगवाले और शांत पिता के घर में ऐसे ऊधमी और बेढंगे बेटे ने जन्म लिया है? इन दोनों में से कौन बूढ़ा और कौन जवान है - वह जो फीते बाँधना भूल जाता है या वह जो कभी कुछ नहीं भूलता?'

'हाँ,' मैं ऐसी फुजूल बात के जवाब में कहता, 'मैंने पिता जी का बुढ़ापा ले लिया है और उन्हें अपनी जवानी दे दी है।'

हाँ, मेरे पिता जी आखिरी दम तक जवान आदमी की तरह सलीकेदार और चुस्त बने रहे। बाहरी और भीतरी तौर पर वे सदा सधे-बधे, अनुशासित और नपे-तुले रहे। गाँव के सभी लोग यह जानते थे कि मेरे पिता भेड़ का कोट पहनकर किस वक्त अपने घर की छत पर आते हैं। पिता जी के छत पर आने के समय के अनुसार वे अपनी घड़ियाँ ठीक कर सकते थे। हमारे गाँव के एक नौजवान ने सेना से अपने माँ-बाप के नाम खत में यह लिखा - 'हम तड़के ही उठते हैं। हमें ठीक उसी वक्त जगाया जाता है, जब हमजात अपनी छत पर आते हैं।'

अगर कोई सुबह के वक्त हमजात से मिलना चाहता, तो उसे यह मालूम होता था कि कितने बजकर कितने मिनट पर खूंजह की ओर जानेवाले रास्ते पर पहुँचना चाहिए। हमजात हमेशा एक ही वक्त पर घर से काम के लिए रवाना होते थे।

लोग उनके बारे में सभी कुछ जानते थे। उन्हें मालूम था कि किस जगह तक वे घोड़े की लगाम थामकर चलते हैं और कहाँ घोड़े पर सवार होते हैं। उनकी मामूली काली कमीज, बिरजिस और घुटनों तक के उनके उन जूतों से भी वे परिचित थे, जिन्हें उन्होंने खुद बनाया था और हर सुबह अपने हाथ से साफ करते थे। उनकी पेटी; एक बार भी उस्तरे से न साफ किए गए और ढंग से हजामत बने सिर, उनकी फर टोपी से भी वाकिफ थे, जिसे वे सही अंदाज से सिर पर रखते थे। टोपी की कराकुल फर न तो बहुत घुँघराली थी और न ही बहुत झबरीली।

पिताजी का अपना एक स्वरूप था और जो कुछ वे पहनते तथा करते, इस स्वरूप के बहुत अनुरूप था। हमजात की पोशाक और गतिविधि में किसी दूसरी चीज की कल्पना करना ही असंभव था।

खुद उन्हें भी किसी तरह के परिवर्तन पसंद नहीं थे। जब उनका कोई कपड़ा फट जाता और नया खरीदना होता, तो वे बिल्कुल वैसा ही खोजते। नई पोशाक बेशक बिल्कुल उसी माप और उसी डिजाइन की होती, फिर भी पिता जी पहले कुछ दिनों में अपने को अजीब-अजीब और अटपटा-सा महसूस करते रहते।

एक बार उनकी पेटी घिसकर टूट गई। नई पेटी खरीद लेना मामूली बात थी। मगर हमजात ने उसी पेटी को, जिसके वे अभ्यस्त थे, बड़े यत्न से सी लिया और कुछ समय तक उसे ही इस्तेमाल करते रहे। वे कंजूस नहीं थे, पैसों की भी उन्हें कुछ कमी नहीं थी, मगर जिस चीज के वे आदी हो गए थे, उससे अलग होते हुए उन्हें दुख होता था। आखिर वह पेटी फिर से टूट गई और पिता जी को नई पेटी खरीदनी ही पड़ी। तब भी उन्होंने नई पेटी के साथ पुराना बकलस सी लिया।

अपनी फर टोपी को वे जिंदा मेमने की तरह सहलाते। अगर उन्हें अपनी वह पेटी ही, जिसके वे अभ्यस्त थे, इतनी प्यारी थी, तो सोचिए कि फर टोपी कितनी प्यारी होगी।

1941 की गर्मी में जब देशभक्तिपूर्ण युद्ध शुरू हुआ, तो दागिस्तान की सरकार ने पिता जी से यह अनुरोध किया कि वे पहाड़ों के बजाय मखचकला में आ बसें। ऊँचे, ठंडे पहाड़ों के बाद शहर में उन्हें घुटन और गर्मी महसूस हुई। ऊँचे, पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त पोशाक उन्हें गर्म शहरी हवा में भारी महसूस होने लगी। फर की टोपी तो खास तौर पर जलवायु के अनुकूल न प्रतीत हुई। पिता जी ने कई टोप और हल्की टोपियाँ पहनकर देखीं, मगर वे हमजात के व्यक्तित्व को एकदम इतना बदल देती थीं कि हम बच्चों के बहुत मनाने के बावजूद वे उन्हें उतारकर एक तरफ फेंक देते थे।

तो हमजात उस फर की टोपी को हाथ में लिए हुए ही मखचकला में घूमते रहते। कभी वे उसे उतार लेते, कभी पहन लेते, मगर एक मिनट को भी उसे अपने से अलग न करते।

लोग जंग जैसी मुसीबत के भी आदी हो जाते हैं और जिंदगी अपनी, बेशक एक नई, युद्धकालीन लय की अभ्यस्त हो जाती है। पिता जी फिर से जब-तब पहाड़ों पर जाने लगे। कैसे चैन की साँस लेते थे वे वहाँ, कितनी खुशी से वे अपनी फर की टोपी पहनते थे, जिसे उन्होंने कभी अपने से अलग नहीं किया था। उन दिनों वे उस आदमी की तरह होते, जिसके पास या तो बहुत समय तक पीने को सिगरेट न रही हो या जिसे इसकी कड़ी मनाही कर दी गई हो और फिर अचानक उसे इतमीनान से तेज देसी तंबाकू की सिगरेट लपेटने, चैन और बड़े मजे से सिगरेट पीने और लंबे कश खींचने की संभावना मिल गई हो।

मेरे पिता जी ने कभी तंबाकूनोशी नहीं की थी, मगर वे दूसरी छोटी-मोटी चीजों से, सृजन और अपनी धरती के प्रति प्यार का तो खैर जिक्र ही क्या किया जाए, और भी अधिक खुशी हासिल करते थे।

पिता जी की नोटबुक से। 'रजब बेशक मेरा दोस्त है, मगर उसने मेरे साथ दुश्मन से भी बुरा बर्ताव किया। उसने मेरे खिलाफ उस्तरे को अपना सहयोगी बनाया,' मेरे पिता जी ने अपनी नोटबुक में एक बार यह लिखा था। किस्सा यों हुआ था। 1934 में पिता जी प्रथम लेखक-सम्मेलन में भाग लेने के लिए मास्को गए। अवार लेखक रजब दीनमागामायेव तब जिंदा थे। वे मेरे पिता जी को नाई की दुकान पर खींच ले गए ताकि उनके सिर और दाढ़ी के बाल कुछ छँटवा दिए जाएँ। रजब ने जान-बूझकर ऐसा करवाया या नाई यह नहीं समझा कि उससे क्या करने को कहा गया है, मगर उसने पिता जी की एक बार भी साफ न की गई दाढ़ी को बिल्कुल मूँड़ डाला। पिता जी का बाद में ही इसकी तरफ ध्यान गया। दर्पण में एकदम पराया, अजनबी चेहरा देखकर वे चिल्ला उठे, उन्होंने हाथों से मुँह ढाँप लिया और नाई की दुकान से बाहर भाग गए। इसके बाद वे सम्मेलन की बैठकों में नहीं गए, लोगों को अपनी सूरत दिखाने की उन्हें हिम्मत नहीं हुई।

'मैं तो जीवन में अपना चेहरा नहीं बदल पाया,' पिता जी ने बाद में कहा, 'कविता में अपना चेहरा कैसे बदल सकता हूँ?'

पिता जी को जीवन में और उसी तरह कविता में भी बनावट पसंद नहीं थी। हाँ, एक बार वे पराई और बनावटी मुद्रा के लगभग आदी हो गए थे।

संस्मरण से। एक बार कुछ गाँववासी मखचकला में पिता जी के पास मेहमान आए। उन्होंने देखा कि उनसे बातचीत करते हुए पिता जी किसी अस्वाभाविक, अनभ्यस्त मुद्रा में बैठते हैं यानी अपनी ठोड़ी को तीन उँगलियों पर टिकाए रहते हैं। एक पहाड़ी ने कहा -

'पहले तो हमने कभी तुम्हें तीन उँगलियों पर ठोड़ी टिकाकर बैठे नहीं देखा था। कब से तुम ऐसा करने लगे हो? और किसलिए? ऐसा करना तुम्हें जरा भी नहीं जँचता। यह तुम्हारी आदत नहीं है, हमजात।'

'हाँ, मुझे इसे छोड़ना ही चाहिए,' हमजात ने जवाब दिया। 'यह चित्रकार मुहिद्दीन जमाल का कुसूर है। उसने तीन महीने तक मेरा चित्र बनाने के लिए मुझे अपने सामने बैठाए रखा। तीन महीने तक मैं तीन उँगलियों पर ठोड़ी टिकाए उसके सामने बुत बना बैठा रहा। चित्रकार ने ऐसा ही चाहा और मुझे उसका हुक्म मानना पड़ा।'

'बहुत परेशानी हुई होगी तुम्हें?'

'बैठने से तो नहीं, मगर यह मुद्रा बनाए रखने से। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता था कि ठोड़ी को सहारा देनेवाली तीन उँगलियाँ मेरी अपनी नहीं हैं। फिर कभी मुझे ऐसा महसूस होता कि मेरी तीन उँगलियाँ किसी दूसरे की ठोड़ी को सहारा दे रही हैं। तीन महीनों तक मैं लगातार हर दिन ऐसे ही बैठा रहा और आखिर इसका आदी हो गया। चित्रकार के सामने बैठने का सिलसिला खत्म हो चुका, तस्वीर बन चुकी और दीवार पर लटकी हुई है, मगर मैं, जैसा कि तुम देख रहे हो, अभी तक अपनी ठोड़ी को तीन उँगलियों पर टिकाए रहता हूँ। जानते हो न कि दिल का रोगी दिल में दर्द न होने पर भी छाती के बाईं ओर अपना हाथ रखे रहता है। खैर, कोई बात नहीं, मैं इस आदत से छुटकारा पा लूँगा।'

पिता जी की नोटबुक में इस बात का भी जिक्र मिलता है कि कैसे उन्होंने नए दाँत लगवाए।

दाँतों के डाक्टर ने उनसे पूछा कि वे कौन-से-सोने, चाँदी या इस्पात के दाँत लगवाना पसंद करेंगे। हमजात को कोई जवाब नहीं सूझा और उन्होंने वहाँ उपस्थित दोस्तों की तरफ सलाह और मदद के लिए देखा।

'सोने के लगवा लो,' एक दोस्त ने कहा, 'सोना बहुत अच्छी धातु है।'

'इस्पात के लगाव लो,' दूसरे दोस्त ने सलाह दी, 'इस्पात ज्यादा मजबूत होता है और ऐसे दाँत कभी नहीं टूटेंगे।'

'मगर इसका नतीजा क्या होगा,' हमजात ने आपत्ति की, 'अगर मैं सोने या इस्पात के दाँत लगवाकर गाँव लौटूँगा, तो लोग मुझे ऐसे देखेंगे मानो मेरे मुँह में बत्तियाँ जल रही हों। लोग मुझे नहीं, मेरे दाँतों पर ही नजर टिकाए रहेंगे। दाँत मेरे चेहरे पर हावी हो जाएँगे। क्या हड्डी के, ऐसे ही दाँत लगाना संभव नहीं ताकि किसी को यह पता न चले कि मैंने नए दाँत लगवाए हैं। मैं ऐसे दाँत लगवाने को तैयार हूँ, जिनसे यह न पता चले कि वे नए हैं।'

दाँतों के डाक्टर ने ऐसा ही किया और दाँत लगा दिए, जो उनके पहले, कुदरती दाँतों जैसे थे।

इसके बाद जब कभी उन्हें किसी कवि की कविता में पराई या कहीं से ली गई पंक्तियों की झलक मिलती, तो वे कहते -

'इसकी कविता में मुझे नकली दाँत चमकते दिखाई दे रहे हैं।'

सोने के दाँतों से भी सेब खाया जा सकता है, मगर मेरा ख्याल है कि वह इतना रसीला और जायकेदार नहीं लगेगा जितना अपने दाँतों से खाने पर।

संस्मरण। 1947 में मखचकला के थिएटर में एक बड़ा समारोह हुआ : कवि हमजात त्सादासा की सत्तरवीं जयंती मनाई जा रही थी। बहुत-से भाषण हुए, बहुत-सी बधाइयाँ दी गई, बहुत-सी कविताएँ पढ़ी गई और ढेरों उपहार भेंट किए गए। जिसकी जयंती मनाई जा रही थी, आखिर उसे यानी मेरे पिता जी से कुछ बोलने को कहा गया। हमजात मंच पर आए, इतमीनान से उन्होंने अपनी एक जेब से इस दिन के लिए विशेष रूप से लिखी गई कविताएँ निकालीं और ऐनक निकालने के लिए वैसे ही इतमीनान से दूसरी जेब में हाथ डाला... मगर इसी वक्त पिता जी बेचैन हो उठे। उन्होंने एक जेब टटोली, फिर दूसरी। सभी समझ गए कि जयंती के नायक हमजात अपना चश्मा साथ लाना भूल गए हैं।

उसी वक्त किसी को चश्मा लाने के लिए भेज दिया गया। मगर हमजात मंच पर खड़े थे और कुछ भी तो नहीं कर सकते थे। तब हमजात के दोस्त अबूतालिब ने उन्हें अपना चश्मा दिया, जो मानो फिट बैठ गया। पिता जी उसे चढ़ाकर कविता पढ़ने लगे। वे अपनी कविता पढ़ रहे थे, मगर उनकी आवाज, उनकी पूरी मुद्रा में कुछ अविश्वास, कुछ घबराहट थी, और सभी को ऐसा प्रतीत होता था मानो वे अपनी नहीं, किसी दूसरे व्यक्ति की, ऐसे संयोगवश हाथ में आ जानेवाली वह कविता पढ़ रहे थे, जिन्हें वे खुद भी पहली बार देख रहे हों।

पिता जी जब दूसरी कविता पढ़ने लगे, तो जिस नौजवान को चश्मा लाने के लिए भेजा गया था, वह भागता हुआ हॉल में आ पहुँचा। हमजात ने अबूतालिब का चश्मा उतारकर अपना चश्मा चढ़ाया, तो फौरन उनकी आकृति बदल गई, उसी वक्त उनकी आवाज में जोर आ गया। हॉल में बैठे लोगों ने खूब जोर से तालियाँ बजाई मानो अभी असली हमजात त्सादासा मंच पर आए हों और इसके पहले उन्हीं की शक्ल-सूरतवाला कोई दूसरा आदमी उनके सामने खड़ा रहा हो।

'चश्मे ने तो मेरी जयंती का मजा ही किरकिरा कर दिया होता,' हमजात ने मुस्कराते हुए कहा।

'क्या मेरा चश्मा कुछ बुरा है?' अबूतालिब ने ऊँची आवाज में पूछा।

'बहुत ही अच्छा है, मगर फिर भी वह तुम्हारा चश्मा है। हर आदमी की अपनी आँखें हैं और चश्मा भी अपना ही होना चाहिए।'

पिता जी को न तो बहुत तेज रोशनी पसंद थी और न ही घना अँधेरा। उन्हें बहुत गाढ़ा और बहुत ही पतला, बहुत ही ठंडा और बहुत ही गर्म, बहुत ही महँगा और बहुत ही सस्ता, बहुत ही पिछड़ा हुआ और बहुत ही अग्रणी, ऐसा कुछ भी पसंद नहीं था।

उन्हें भेड़िए की क्रूरता और खरगोश की दुर्बलता अच्छी नहीं लगती थी। सत्ता की निरंकुशता और अधीनों की दासता पसंद नहीं थी। वे कहा करते थे -

'ऐसे सूखो नहीं कि अकड़कर टूट जाओ, मगर इतने गीले भी नहीं होवो कि चीथड़े की तरह तुम्हें निचोड़ लिया जाए।'

मगर पिता जी उन लोगों में से नहीं थे, जो बारिश की एक बूँद से भीग जाते हैं और हवा का हल्का-सा झोंका लगने पर सूख पाते हैं। वे साधारण व्यक्ति थे और उनमें हमारे लोगों की सभी आदतें और सभी गुण विद्यमान थे और वे बड़े सुंदर ढंग से उनमें साथ-साथ बने रहे।

संस्मरण। एक बार पिता जी के साथ हमें एक बीमार रिश्तेदार की तीमारदारी के लिए मखचकला से गाँव जाना था। उस समय अब्दुर्रहमान दानीयालेव दागिस्तानी सरकार के प्रधान थे। यह मालूम होने पर कि हम पहाड़ जा रहे हैं, उन्होंने हमारे लिए काली सरकारी कार भेज दी। शायद वह 'जीम' थी।

जब तक हमारी कार शहरी सड़कों को मापती रही, पिता जी बड़े रंग में रहे। मगर जैसे ही शहर के बाहर की सड़क पर हमारी कार गधों, टट्टुओं और घोड़ों पर सवार या पैदल पहाड़ी लोगों को पीछे छोड़ने लगी, पिता जी नर्म और आरामदेह सीट पर बेचैनी से इधर-उधर हिलने-डुलने लगे। उस वक्त अपनी जवानी के रंग में मैं तो जहाँ खिड़की से अपना सिर बाहर निकालने की कोशिश करता था ताकि सभी यह देख सकें कि हम कार में जा रहे हैं, वहाँ पिता जी अधिक से अधिक पीछे हटते गए, छिप-से गए।

बारिश हो रही थी। होत्सातल गाँव की नदी के करीब पहुँचने पर हमने देखा कि एक बैलगाड़ी नदी के ऐन बीच में फँए गई है और उस पर एक बूढ़ा सवार है। पिता जी ने फौरन कार रुकवाई, नदी में घुस गए और बूढ़े की मदद करने लगे। बूढ़े के साथ मिलकर उन्होंने बैलों को हाँका और पहियों को आगे धकेला। बैलगाड़ी जल्दी ही समतल रास्ते आ गई। हमारी कार आगे बढ़ी। कुछ किलोमीटरों के फासले पर एक और नदिया रास्ते में आई। पिता जी ने फिर से कार रोकने को कहा और बैलगाड़ीवाले बूढ़े का इंतजार करने लगे।

'बूढ़े की गाड़ी जरूर यहाँ अटक जाएगी। मुझे मालूम है कि बैलों को कैसे इस नदी के पार ले जाया जा सकता है। मैं बूढ़े का इंतजार और उसकी मदद करूँगा।'

वास्तव में ऐसा ही हुआ। हमने इंतजार किया और चूँ-चर्र करती हुई बैलगाड़ी जब दूसरी नदी के पास पहुँची, तो पिता जी बड़ी होशियारी से बैलों को नदी के पार ले गए।

'बूयनाक्स्क से जब मैं तरह-तरह का सामान लेकर पहाड़ों को जाता था, तो कई बार इसी तरह की मुसीबत में फँस जाया करता था,' कार के पास आकर और अपने कपड़ों के छोर से हाथ पोंछते हुए पिताजी ने हमसे कहा। दूर जाती हुई बैलगाड़ी को देखकर वे ऐसे दुखी मन से मुस्करा दिए मानो उसके साथ ही उनका सारा अतीत, उनका सारा जीवन जा रहा हो।

खूंजह के पठार पर चढ़ते हुए एक ट्रक हमारी कार से जरा छू गई। एक पहिया टूट गया। पिता जी को तो जैसे इस बात से खुशी हुई और वे पैदल ही गाँव की तरफ चल दिए। हमने उन्हें बहुत मनाया कि दूसरा पहिया लग जाने तक रुक जाएँ, मगर वे राजी न हुए।

'मुझे तो शादी में शामिल होने के लिए भी ऐसी कार में जाते हुए शर्म आती और बीमार दोस्त की तीमारदारी के लिए तो ऐसे ठाठ से जाने की कोई जरूरत ही नहीं। मैं बहुत खुश हूँ कि कार खराब हो गई, मैं पैदल ही जाता हूँ।'

पिताजी बचपन से ही अपनी जानी-पहचानी उस पगडंडी पर चल दिए, जिस पर हमारे गाँव में जाने के लिए पहाड़ी लोगों की कई पीढ़ियाँ चल चुकी थीं। कार ठीक हुई तो हम बड़े रास्ते से गाँव की ओर चल दिए और पिता जी के साथ-साथ ही गाँव पहुँचे।

बाद में अब्दुर्रहमान दानीयालोव ने चिंता प्रकट करते हुए रास्ते की दुर्घटना के बारे में पूछा।

पिता जी ने मजाक में जवाब दिया -

'कार जरूरत से ज्यादा ही बढ़िया है। अगर जरा घटिया होती, तो शायद उसका कुछ भी न बिगड़ता।'

संस्मरण। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में मेरे पिता जी बहुत बीमार रहे। पहाड़ों की यात्रा के समय, जहाँ वे निर्वाचकों से भेंट करने गए थे, बीमारी ने उन्हें अचानक धर दबाया था। सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव नजदीक आ रहे थे और हमजात त्सादासा का नाम उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया था।

हलके के केंद्र तक वे कार में गए, मगर उन दिनों पहाड़ी गाँवों में केवल घोड़ों पर ही जाना संभव था। आम तौर पर वे घोड़े को धीरे-धीरे ले जाते थे और अक्सर तो उसकी लगाम थामकर चलते रहते थे। हमजात को पैदल चलना सबसे ज्यादा पसंद था।

स्थानीय अधिकारियों ने हमजात की तरफ बहुत ध्यान दिया। सर्वोच्च सोवियत के भावी सदस्य के लिए वे जवान और बहुत तेज घोड़ा लाए। अधिकारियों को दोष देना अनुचित होगा, उन्होंने तो अपनी तरफ से वही करने की कोशिश की, जो उन्हें बहुत अच्छा प्रतीत हुआ। उन्होंने तो यही समझा कि ऐसे प्यारे मेहमान को अपने हलके का सबसे अच्छा घोड़ा सवारी के लिए देना चाहिए।

बहत्तर साल के बुजुर्ग अपने मेजबानों को नाराज नहीं करना चाहते थे और अपने बीते दिनों को याद कर जवान की तरह कूदकर घोड़े पर सवार हो गए। घोड़ों पर सवार जवानों से घिरे हुए बुजुर्ग शायद नायबों के बीच इमाम जैसे लग रहे थे।

जवानों ने अपने घोड़ों पर चाबुक सटकारे और विभिन्न दिशाओं के विभिन्न गाँवों में यह सूचना देने चले गए कि हमजात जल्दी ही वहाँ पहुँचेंगे। दूसरे घोड़ों की देखा-देखी हमजात का घोड़ा भी जोश में आकर हवा से बातें करने लगा। बुजुर्ग उसे काबू में न ला सके और तेज घुड़दौड़ शुरू हो गई। हमजात को जोर के झटके लगे, वे जीन पर अत्यधिक उछलते रहे, उनकी हालत अधिकाधिक बुरी होती गई और आखिर काठी से नीचे जा गिरे। वे बीमार होकर मखचकला लौटे और यह बीमारी उनकी जान लेकर ही रही।

'कविताओं के साथ भी ऐसा ही होता है,' पिता जी खाँसते हुए कहते। 'कवि को अपने अभ्यस्त घोड़े पर ही सवारी करनी चाहिए, पराये, अनजाने घोड़े पर नहीं बैठना चाहिए। पराया घोड़ा तो जीन से नीचे फेंक सकता है।'

अपने पिता जी के बारे में मैं बहुत देर तक बहुत कुछ बता सकता हूँ। मगर अब मैं उनके दोस्त अबूतालिब के बारे में कुछ बताना चाहता हूँ। कल का सारा दिन मैंने उन्हीं के साथ बिताया था।

अबूतालिब के साथ बिताया गया दिन। किसी कारणवश अधूरी रह जानेवाली, ठीक वक्त पर खत्म न की जानेवाली कविता को फिर से बैठकर लिखना और पूरी करना मेरे लिए सबसे ज्यादा मुश्किल काम होता है। पहाड़ी लोगों में ऐसा कहा जाता है कि मेढकी इसीलिए अब तक दुम के बिना है कि उसने दुम चिपकाने का काम अगले दिन पर छोड़ दिया था।

दो हफ्ते पहले शुरू की गई एक लंबी कविता को खत्म करने का मैंने सुबह से ही इरादा बना लिया था। काम मुश्किल था और मैंने अपनी आया फ्रोस्या से कहा -

'अगर कोई मेरे बारे में पूछे, तो कह देना कि मैं घर पर नहीं हूँ। जिसे मेरी जरूरत हो, वह दोपहर के खाने के बाद आ जाए।'

ऐसी हिदायत देकर मैं ऊपरवाले कमरे में चला गया और इतमीनान से काम में जुट गया। मगर सड़क की आवाजें तो मेरे कानों तक पहुँच रही थीं और मुझे बाहरी फाटक की चीं-चर्र सुनाई दी। कुछ क्षण बाद घर के दरवाजे की घंटी बज उठी। फ्रोस्या की आवाज तो मुझे सुनाई नहीं दी, मगर अबूतालिब का स्वर मुझ तक पहुँच गया। मुझे अपनी कुर्सी दहकते तवे या कँटीली झाड़ी जैसी महसूस होने लगी। कभी ऐसा नहीं हुआ था कि हमजात त्सादासा के घर पर, जो अब रसूल हमजातोव का घर था, अबूतालिब का स्वागत न हुआ हो, कि उन्हें घर की दहलीज से वापस लौटना पड़ा हो। ऐसा कभी नहीं हुआ था और हो भी नहीं सकता था। मगर मैं बड़ी अटपटी स्थिति में था - एक तरफ तो अबूतालिब को लौटने नहीं दिया जा सकता था और दूसरी तरफ फ्रोस्या को झूठा साबित करना उचित नहीं था, जिसने ईमानदारी से मेरा अनुरोध पूरा करते हुए अबूतालिब से यह कह भी दिया था कि मैं दोपहर के खाने के बाद ही घर पर लौटूँगा।

मैंने अपने दिमाग की नहीं, दिल की बात मानी। मैंने खिड़की में से सिर बाहर निकालकर अपने पिता जी के दोस्त को आवाज दी -

'अंदर आ जाइए, अबूतालिब, मैं यहाँ हूँ।'

'आह, अल्लाह तुम्हारा भला करे। क्या त्सादा के हमजात का बेटा लेनदारों से छिपता है?' अबूतालिब ने झटपट अपनी फर की टोपी उतारी और फ्रोस्या के करीब से गुजरते हुए उसकी तरफ आँख से इशारा करके कहा - 'रसूल, इस औरत से कह दो कि जब अबूतालिब इस घर में आता है, तो दरवाजे अपने आप ही खुल जाते हैं और यह कि उस वक्त तुम, रसूल, हमेशा घर पर होते हो। अगर तुम घर पर नहीं भी हो, तो भी अबूतालिब इस घर में खा-पी सकता है और जरूरत होने पर सो भी सकता है।'

'फ्रोस्या का कोई कुसूर नहीं है। मेरी बीवी फातिमात काम पर जाते हुए उसे सब से यह कहने की हिदायत कर गई थी कि मैं घर पर नहीं हूँ। बीवी मेरी बड़ी फिक्र करती है।'

'खुशकिस्मत हैं वे जिनकी बीवियाँ हैं और जिनके सिर वे अपने सभी गुनाह मढ़ सकते हैं। पर फातिमात क्या यह भूल गईं कि आज बृहस्पतिवार है?' अपनी गीली, झबरीली फर की टोपी झाड़ते हुए अबूतालिब ने कहा।

'बृहस्पति को क्या खास बात होती है?'

'इस दिन मैं गुसल करता हूँ। क्या तुमने इस बात की तरफ ध्यान नहीं दिया कि मैं हर बृहस्पति को हमामघर जाता हूँ और चूँकि हमामघर तुम्हारे घर के पास है, इसलिए हमेशा यह उम्मीद की जा सकती है कि मैं कुछ देर बैठने, गपशप करने और सिगरेट के कश लगाने के लिए तुम्हारे यहाँ भी आ सकता हूँ।'

'आपको हमामघर जाने की क्या जरूरत पड़ी है, अबूतालिब? आपके तो फ्लैट में ही गुसलखाना और गर्म पानी भी है।'

'गुसलखाना और फव्वारा - ये तो रई की रोटी के टुकड़े जैसे हैं, मगर हमामघर है शादी की दावत के समान। मेरा एक बाग है और हजारों सालों से पहाड़ों से बहकर आनेवाला एक सोता भी है। मैं इस सोते के पानी से अपने पेड़ों की सिंचाई करता हूँ। मगर क्या मैं जलपात्र से भी पेड़ों को सींच सकता था? हमामघर को मैं जोरदार पहाड़ी सोता मानता हूँ और तुम्हारे शावर और गुसलखाने को जलपात्र। नहीं रसूल, इन खिलौनों को तुम बच्चों के कवि नूरूद्दीन यूसुफोव के लिए ही रहने दो। सुना है कि अब वह कठपुतलियों के लिए सिनेरियो लिखता है। उसकी कठपुतलियों के लिए वे बढ़िया रहेंगे।'

'हमामघर के बाद चाय पीना बढ़िया रहेगा,' जब हम बरामदे से कमरे में आए, तो मैंने अबूतालिब को यह सुझाव दिया।

'वल्लाह-चाय भी चलेगी, बिल्लाह-शोरबा भी कुछ बुरा नहीं रहेगा, तल्लाह-शराब से भी काम चल जाएगा। मगर गुसल के बाद वोद्का ही सबसे अच्छी रहेगी।'

'शोरबा तो हमारे यहाँ है, मगर कल का। इस वक्त सुबह है, अभी ताजा शोरबा नहीं पका।'

'हम कल के शोरबे से शुरू करेंगे और तब तक ताजा भी तैयार हो जाएगा।'

फ्रोस्या ने जब तक मेज लगाई, मैंने विदेशी शराबों के अपने संग्रह का प्रदर्शन शुरू किया।

सागर पार के विभिन्न देशों से रंग-बिरंगी सुंदर बोतलों में मैं रम, ब्रांडी, जिन, ह्विस्की, काल्वादोस, अबसेंट, वेर्मूत, स्लिवोवित्सा और हंगेरियाई ऊनीकूम आदि लाया था... ब्रांडियाँ भी तरह-तरह की थीं - मार्टीनी, काम्यू और प्लीस्का।

'जो भी पीना चाहते हैं, वही अपने लिए चुन लें, अबूतालिब।'

'रसूल, यह सब बकवास तुम मेरे सामने से उठा लो। अगर पिलाना ही चाहते हो, तो सफेद निशानवाली साधारण वोद्का पिलाओ। सफेद निशानवाली वोद्का सिर्फ इसीलिए अच्छी नहीं है कि हम उसे जानते हैं, बल्कि इसलिए भी कि वह हमें जानती है। जो कुछ तुम मुझे दिखा रहे हो, मुमकिन है कि वे बहुत जायकेदार हों, मगर ये सभी बोतलें बहुत दूर से आई हैं, वे पराई, मेरे लिए अनजानी भाषाओं में बोलती हैं और मैं जिस भाषा में बोलता हूँ, वह उनकी समझ में नहीं आएगी। इसके अलावा आदत और मिजाज का भी सवाल है। नहीं, हम एक-दूसरे को बिल्कुल नहीं जानते। ये बोतलें अपरिचित मेहमानों जैसी हैं, जिनके साथ पहले बातचीत और जान-पहचान करना, अच्छी तरह घुलना-मिलना जरूरी है। मुझे अंदेशा है कि हम एक-दूसरे को समझ नहीं पाएँगे। इन्हें अपने दोस्तों-मास्को के लेखकों के लिए रहने दो। इन्हें उनके लिए भी रख छोड़ो, जो सगी माँ द्वारा अपने घर में पकाए गए खाने का स्वाद भूल चुके हैं।'

मेरे संग्रह में वोद्का की एक भी बोतल नहीं थी। मैंने ऐसे जाहिर किया कि अभी दुकान से बोतल ले आता हूँ। मुझे आशा थी कि अबूतालिब ऐसा करने से मना करेंगे, क्योंकि बाहर बारिश थी, ठंडी हवा चल रही थी और इसके अलावा घर में पीने को बहुत कुछ था। वैसे तो यह सनक ही थी कि मेज पर बेहतरीन फ्रांसीसी ब्रांडियों की बोतलें होते हुए भी वोद्का की माँग की जाए।

अबूतालिब सचमुच ही मुझे जाने से रोकने लगे -

'रसूल, बेशक तुम्हारे बाल पक गए हैं, फिर भी फौरन यह पता चलता है कि तुम अभी बच्चे ही हो। क्या वोद्का लाने को तुम्हें खुद जाना चाहिए, क्या तुमसे कम उम्र के लोग नहीं हैं? बाहर अहाते में जाओ, पड़ोस में रहनेवाले किसी छोकरे से कहो, वही जाकर ले आएगा। मुझ कहीं जाने की जल्दी नहीं है, मैं खुशी से उसके लौटने का इंतजार करूँगा।'

अबूतालिब ने जैसा कहा, मुझे वैसा ही करना पड़ा। मैंने पड़ोस में रहनेवाले एक छोकरे को पैसे दिए और वही वोद्का लेने भाग गया। अबूतालिब ने इसी बीच इधर-उधर नजर दौड़ाई।

'तुम्हारे घर में पहाड़ से आया हुआ कोई मेहमान दिखाई नहीं दे रहा। क्या सचमुच एक भी मेहमान नहीं है?'

'आज तो कोई नहीं है।'

'जब मेरे दोस्त और तुम्हारे पिता हमजात जिंदा थे, तो इस घर में हमेशा मेहमान होते थे। मेहमानों का होना इसलिए अच्छा रहता है कि उनके पास हमेशा तंबाकू होता है।'

'तंबाकूनोशी को तो मेरे यहाँ भी कुछ मिल जाएगा।' मैंने तरह-तरह की बढ़िया सिगरेटों का डिब्बा निकालकर सामने रख दिया।

'ये चिकनी सफेद नलियाँ मेरे लिए नहीं हैं। ये तो तुम मास्कोवालों के लिए ही ठीक हैं। मुझे तो सिर्फ अपना तेज पहाड़ी तंबाकू ही पसंद है। अपनी तंबाकू की थैली निकालनी होगी।'

अबूतालिब ने कुरते के नीचे से बड़ी सारी थैली निकाली और उसे उलटकर उसके तल की सीवन को खुरचा और एक सिगरेट बनाने के लिए तंबाकू निकाला। बड़ी निपुणता से उन्होंने सिगरेट लपेटी और जबान से थूक लगाकर चिपकाया।

'खुद बनाई गई इस सिगरेट से भला तुम्हारी इन सीधी डंडियों की तुलना हो सकती है? मेरी इस सिगरेट का अपना रूप है, वह किसी और से मिलती-जुलती नहीं। मगर तुम्हारी सभी सिगरेटें एक जैसी हैं। अब तुम्हीं बताओ मुझे कि डिब्बे में से बनी-बनाई सिगरेट निकालने में या अपने हाथ से ऐसी सिगरेट बनाने में ज्यादा मजा है? बात यह है कि मैं तो जब इसे बनाता हूँ, तो उस वक्त भी खुशी हासिल करता हूँ। मैं भला यह खुशी क्यों गँवाऊँ?'

मैंने स्विस या बेल्जियम का लाइटर जलाया, मगर अबूतालिब ने जलते हुए लाइटरवाला मेरा हाथ परे हटा दिया। उन्होंने जेब से इस्पात का एक टुकड़ा, छोटा-सा चकमक और बटे हुए सूत का टुकड़ा निकाला। सूत उन्होंने चकमक पर रखा और इस्पात का टुकड़ा मारकर चिनगारी पैदा की। इसके बाद उन्होंने सूत को हिला-डुलाकर उसे जोर से जलने को विवश किया और उससे सिगरेट जलाई। जलते हुए सूत को मेरी नाक के पास ले जाकर बोले -

'सूँघो तो, कैसी गंध है इसकी? बढ़िया है न? और तुम्हारे लाइटर से कैसी गंध आती है?'

कुछ देर को अबूतालिब धुएँ के बादल में खो गए। धुआँ कुछ गायब हो जाने पर अबूतालिब ने पूछा -

'यह बताओ रसूल, कि तुम्हारा सिर अभी से क्यों सफेद हो गया?'

'मालूम नहीं, अबूतालिब।'

'मगर मुझे मालूम है कि मेरा सिर क्यों सफेद है।'

'भला क्यों?'

'मेरा सिर इसलिए सफेद हो गया है कि मुझे वोद्का लाने के लिए दुकान पर जानेवाले इन छोकरों का हमेशा बहुत इंतजार करना करना पड़ता है। हाँ, रसूल, बच्चे तब तक माँ-बाप की परेशानियों को नहीं समझ पाते, जब तक उनके अपने बच्चे नहीं हो जाते। ठीक इसी तरह वे, जो पीते नहीं, हमें नहीं समझ पाते। वोद्का लाने के लिए उसे भेजना चाहिए, जो खुद उसे प्यार करता हो, तब देर नहीं होगी।'

इसी बीच फ्रोस्या ने मेज लगा दी। कुछ देर बाद मेज के बीचोंबीच वोद्का की बोतल भी आ गई।

'ओह,' अबूतालिब ने कहा, 'साधारण सामूहिक किसानों के बीच मानो सिवुख का अध्यक्ष आ गया हो।' उन्होंने वोद्का की बोतल लेकर उसे बच्चे की तरह झुलाया - 'अरे, रे, कितनी बढ़िया बोतल है। शायद इसे लानेवाला लड़का बहुत ही भला आदमी बनेगा।'

इसी वक्त मेज पर रखे छोटे-छोटे जामों की तरफ अबूतालिब का ध्यान गया। उनके माथे पर ऐसे बल पड़ गए मानो मुँह में कोई बहुत कड़वी चीज आ गई हो या दाँत में दर्द हो। उन्होंने जाम को इधर-उधर घुमाकर देखा, उसमें झाँका - शायद वह उसमें अपनी सिगरेट का टोटा डालना और इस तरह उस चीज के प्रति अपनी तिरस्कार भावना व्यक्त करना चाहते थे, जो इसी की अधिकारिणी थी।

मैंने जार्जियनों द्वारा भेंट किया गया बड़ा-सा सींग-जाम अबूतालिब की तरफ बढ़ा दिया।

बुजुर्ग कवि ने भिन्न दिशाओं से देर तक उसे गौर से देखा और फिर अपनी राय जाहिर की -

'अच्छा सींग है, मगर यदि इस पर चाँदी न मढ़ी होती, तो और भी ज्यादा सुंदर लगता। सींग पर यह नक्काशीवाली चाँदी दूल्हे की पेटी जैसी लगती है। क्या जरूरत है इसकी? क्या चाँदी से वोद्का अधिक नशेवाली या ज्यादा मजेदार हो जाएगी? नहीं, रसूल, तुम मुझे मामूली गिलास दो, जो जिंदगी भर मेरे हाथ में रहा है। मुझे मालूम है कि गिलास में कितने घूँट होते हैं, कब मुझे रुकना और कब पीना जारी रखना चाहिए।'

मैंने अबूतालिब की यह इच्छा भी पूरी कर दी। उन्होंने वोद्का गिलास में ढाली, उसमें डबल रोटी का छोटा-सा टुकड़ा डाला और दार्गिन भाषा में कहा -

'देरखाब।' इसके बाद एक ही बार में गिलास खाली कर दिया, साँस ली और कहा - 'पीने से पहले हमेशा 'देरखाब' कहना चाहिए। यह सही है कि उसका अर्थ स्पष्ट करना मुश्किल है, यह भी मुमकिन है कि उसका कोई विशेष अर्थ हो भी ही नहीं, पर क्या 'देरखाब' शब्द ऐसे ही समझ में नहीं आ जाता।'

वोद्का पीने के बाद अबूतालिब ने शोरबे की तश्तरी अपने करीब खींच ली, एक अलग प्लेट में मांस निकाल लिया और शोरबे में डबल रोटी के टुकड़े डाले। वे धीरे-धीरे, गर्म और जायकेदार शोरबे के हर चमचे का मजा ले लेकर उसे खाने लगे। जब-तब वे इतमीनान से मांस का छोटा-सा टुकड़ा काटकर भी मुँह में डाल लेते। मेरे ख्याल में अगर वे उसे किसी दूसरी तरह खाते या अपने जेबी चाकू के बजाय किसी और चीज से काटते, तो शायद मांस उन्हें इतना मजेदार न लगता।

शोरबा और मांस खाने के बाद अबूतालिब ने मेज पर से डबल रोटी के सभी कण इकट्ठे किए और उन्हें मुँह में डाल लिया। इसके बाद उन्होंने थोड़ी-सी वोद्का और पी तथा मूँछों पर हाथ फेरा।

'शायद अब चाय पीना पसंद करेंगे?'

'अब फिर से तंबाकू मेरी चाय होगा। रसूल, मुझे यह बताओ कि सिगरेट दूसरी सभी चीजों से किस बात में भिन्न है?'

'मालूम नहीं।'

'बाकी सभी चीजों को जब खींचा जाता है, तो वे लंबी हो जाती हैं और यह उलटे छोटी रह जाती है,' अपनी इस भोली-भाली पहेली से खुश होते हुए वे हँस दिए।

'आप बहुत ज्यादा सिगरेटें पीते हैं, अबूतालिब, आपकी सेहत के लिए क्या ये बुरी नहीं हैं?'

'कहते हैं कि बढ़िया खाने के बाद तो खुद अल्लाह भी तंबाकूनोशी करता है।'

सिगरेट पीने के बाद अबूतालिब ने अचानक यह पूछा।

'लेखक-संघ की प्रबंध-समिति की बैठक कब होगी?'

'कल।'

'लेखक सहायता कोष में इस बार जैनुद्दीन की अर्जी पर गौर किया जाएगा या नहीं?'

'मालूम नहीं, मगर आपको इससे क्या लेना-देना है?'

'तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ। जब मैं किशोर था, तो बछड़े चराता था। मेरे बछड़े बड़े ही भले थे। मैं मजे से धूप में हरी घास पर लेटा रहता और वे मेरे आस-पास चरते रहते। सभी बहुत खुश थे - मैं भी, बछड़े भी और बछड़ों की मालकिन भी। मगर बाद में मुसीबत आ गई - एक दबंग बछड़े ने जई के खेत का रास्ता मालूम कर लिया। उसके पीछे-पीछे बाकी बछड़े भी उधर ही जाने लगे। बस, मेरी चैन की जिंदगी खत्म हो गई। बछड़ों को जई के खेत की ओर जाने से मैं न रोक सका और इसलिए हर वक्त उनके करीब ही बने रहना पड़ता था। हमारे कवियों के लिए लेखक सहायता कोष भी ऐसा ही बन गया है। जब तक उन्हें इस कोष की गंध नहीं आई थी, वे चैन से रहते थे, किताबें लिखते थे। मालूम नहीं कि पहल किसने की, मगर अब तो जई चरनेवाले मेरे बछड़ों की तरह सभी साहित्यकार सहायता कोष के सपने देखते हैं। सुबह उठते ही वे कविताएँ नहीं, आर्थिक सहायता पाने के लिए तरह-तरह की अर्जियाँ लिखने बैठ जाते हैं। सो मैं भी एक अर्जी लिखना चाहता हूँ और तुम लोग प्रबंध-समिति में उस पर विचार करना।'

'किस बारे में, अबूतालिब? किस चीज की जरूरत है आपको?'

'यह तो तुम्हें मालूम ही है कि अब तक एक भी डाक्टर मेरा बदन नहीं देख पाया है। फिर भी मैंने सेनेटोरियम का पास लेने का निर्णय किया है।'

'यही समझिए कि पास आपकी जेब में है। मगर लेखक संघ के बजाय दागिस्तान की सर्वोच्च सोवियत से इसके लिए अनुरोध करना क्या आपके लिए ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा? आप तो सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष मंडल के सदस्य हैं। लेखकों के सेनेटोरियम के मुकाबले में सरकारी सेनेटोरियम बेहतर है।'

अबूतालिब सिर हिलाने और जबान चटकारने लगे। उसकी यह चटकारी बहुत ही भिन्न भावनाओं - हर्ष, निराशा, आश्चर्य और जैसा कि इस समय था - असहमति को व्यक्त कर सकती थी।

'नहीं, रसूल, पहली बात तो यह है कि सर्वोच्च सोवियत के लिए मुझे अस्थायी रूप से, सिर्फ चार साल के लिए चुना गया है और लेखक मैं जिंदगी भर के लिए हूँ। दूसरे, दोनों सेनेटोरियमों में कुछ न कुछ त्रुटियाँ तो होंगी ही। तो बताओ कि तुम्हारी और खापालायेव की आलोचना करना ज्यादा आसान होगा या सर्वोच्च सोवियत की?'

'तो अर्जी लिख दीजिए, कल उस पर गौर कर लेंगे।'

'अर्जी तो मिर्जा लिख देगा, मैंने तो कभी नहीं लिखी, मगर तुम लोग पास तैयार कर लो,' इतना कहकर अबूतालिब खड़े हो गए, बाहर जाने को तैयार हो गए।

'अबूतालिब, अब आप कहाँ जाएँगे?'

'प्रकाशन गृह जाना चाहता हूँ। सुना है कि मेरी नई किताब छप गई है। देखना चाहिए कि बेटा है या बेटी।'

'शाम को अध्यापिका प्रशिक्षण संस्थान में आइएगा, लेखकों की विद्यार्थियों से भेंट होगी।'

'अच्छी बात है। जुरना साथ लेता आऊँ?'

'आह, अबूतालिब, आप जुरना-वादक नहीं, कवि हैं। कविता-संग्रह साथ लेते आइए, यही ज्यादा अच्छा रहेगा।'

'तो मुलाकात होगी,' अबूतालिब यह कहकर चले गए।

अध्यापिका प्रशिक्षण संस्थान में कवि-सम्मेलन शाम के सात बजे शुरू होनेवाला था। बहुजातीय दागिस्तान के कवि जमा हो रहे थे। सात बजे। मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई। अबूतालिब कहीं नजर नहीं आए। उनके बिना ही कवि-सम्मेलन आरंभ करना पड़ा। मंच पर एक के बाद एक कवि आता रहा। हर किसी ने अपनी भाषा में कविता सुनाई। किसी ने लाक, किसी ने कुमीक, किसी ने लेजगीन और किसी ने अवार भाषा में। एक युवा कवि जब अपनी लंबी कविता सुना रहा था, तो हाल में बैठे लोगों ने जोर से तालियाँ बजानी शुरू की। यह अबूतालिब गफूरोव मंच पर आए थे। लड़कियों ने तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किया था।

अन्य दो कवियों की कविताएँ सुनने के बाद मैंने अबूतालिब को इशारा किया कि वे कविता-पाठ करने को तैयार हो जाएँ। अबूतालिब ने फौरन गंभीर मुद्रा बना ली, ऐसे बैठ गए मानो फोटो खिंचवाने जा रहे हों और मूँछों पर ताव देने लगे। 'देख रहे हो न, तैयार हो रहा हूँ,' बुजुर्ग शायर मानो इस तरह मुझसे यह कहना चाहते थे।

मंच पर आकर अबूतालिब ने लड़कियों से कभी रूसी, कभी अवार, और कभी लाक भाषा में कुछ बातचीत की। वे दागिस्तान की हर भाषा कुछ-कुछ जानते हैं। लाक भाषा में उन्होंने दो कविताएँ सुनाई।

अबूतालिब ने अपना यह साहित्यिक कार्यक्रम ऐसे जल्दी-जल्दी समाप्त किया मानो यह प्रस्तावना या भूमिका हो और वे मुख्य चीज के लिए समय बचा रहे हों। हाथ से इशारा करके उन्होंने तालियाँ बंद करवाई और लड़कियों से पूछा -

'चाहती हैं कि मैं आपको जुरना सुनाऊँ?'

'चाहती हैं, चाहती हैं, सुनाइए।' लड़कियाँ चिल्लाई।

अबूतालिब मंच के पीछे से जुरना और मुरली ले आए और धीरे-धीरे कभी एक, तो कभी दूसरा साज बजाने लगे। मगर सभी समझ रहे थे कि यह तो सिर्फ तैयारी हो रही है, साजों को सुर में किया जा रहा है मानो आवाज को आजमाकर देखा जा रहा है। यह यकीन हो जाने पर कि साज सुर में हो गए हैं, अबूतालिब ने अचानक मेज से पानी का भरा गिलास उठाया और पानी जुरने में उँड़ेल दिया।

'खुद पीने से पहले घोड़े को पिलाओ,' पहाड़ी लोग ऐसा कहते हैं। 'खुद पीने से पहले जुरने को पिलाओ,' पहाड़ों में जुरना-वादक कहते हैं।

अबूतालिब जुरना बजाने और उसके साथ-साथ खुद भी कभी एक तो कभी दूसरी दिशा में हिलने-डुलने लगे। जवान लड़कियों से भरा हॉल देखकर अबूतालिब रंग में आ गए थे। शायद उस रात अबूतालिब का जुरना सारे मखचकला में सुनाई दिया होगा।

अध्यक्ष मंडल में अपनी जगह पर बैठते हुए अबूतालिब ने सरलता से पूछा -

'क्यों कैसा बजाया मैंने जुरना? बढ़िया न?'

'हाँ, बढ़िया।'

'तो तुमने ऐसे धीरे-धीरे तालियाँ क्यो बजाई? अभी और तालियाँ बजाओ।'

अबूतालिब के ये शब्द का सुनकर श्रोता खुशमिजाजी से हँस दिए।

कवि-सम्मेलन का मैं ही संचालन कर रहा था और मुझे सचमुच ही यह अच्छा नहीं लगा था कि अबूतालिब जैसे बढ़िया कवि जुरना-वादक के रूप में सामने आए थे। यह तो बिल्कुल वैसी ही बात थी मानो रूसी कवि येसेनिन कविताएँ सुनाने के बजाय मंच पर नाचने लगें। येसेनिन नाच तो शायद सकते ही थे। मगर हर चीज का अपना वक्त होता है। शायद अध्यक्षमंडल में बैठा हुआ मैं नाक-भौंह सिकोड़ता रहा था और मैंने तालियाँ भी कम बजाई थीं और इसीलिए अबूतालिब के शब्द सुनकर लोग हँस दिए थे।

लड़कियों के एक दल के साथ चौड़ी सीढ़ी उतरकर हम वहाँ गए, जहाँ हमने ओवरकोट उतारे थे। ओवरकोट पहनकर मैंने दर्पण में अपने को देखा। उन दिनों ऊँचे, चौड़े और पैडवाले ओवरकोटों का फैशन था। मैं ऐसा ही ओवरकोट पहने था। अबूतालिब ने यह देखकर सिर हिलाया -

'पहले तो दुंबे यानी चर्बीवाली बढ़िया खुराक खाकर कंधे चौड़े होते थे और अब रुई से। पहले तो कुमुज के साथ गीत गाए जाते थे और अब कागज सामने रखकर पढ़े जाते हैं। बड़ी तब्दीलियाँ हो गई हैं दुनिया में मुझे वे पसंद नहीं हैं।'

'कवि-सम्मेलन में देर से क्यों आए थे, अबूतालिब?'

'मैं तो बिल्कुल तैयार होकर घर से निकलने ही वाला था कि अचानक अवार थिएटर का एक कलाकार मेरे पास भागा आया...'

'अवार थिएटर को आपकी क्या जरूरत पड़ गई?'

'बात यह है कि उनके खेल में शादी का दृश्य आता है। अब तो शादी के बिना एक भी खेल नहीं होता। मगर जुरना-वादक बीमार हो गया। जुरने के बिना भला क्या शादी हो सकती है? इसलिए उन्होंने मुझे सिर्फ दस मिनट तक जुरना बजाने के लिए बुलवा भेजा। मगर जब तक हम थिएटर पहुँचे, जब तक शादी शुरू हुई, वक्त तो बीतता गया। मैंने ऐसे दो गीत बजाए कि दर्शक खेल को भूल-भालकर सिर्फ मुझे ही सुनते रहे। अगर मैं देर गए रात तक जुरना बजाता रहता, तो भी वे बैठे सुनते रहते।'

'प्रसिद्ध कवि अबूतालिब गफूरोव और जनतंत्र की सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष मंडल के सदस्य की जगह अगर मैं होता, तो जुरना-वादक के रूप में कभी वहाँ न जाता।'

'अबूतालिब तुमसे यह बेहतर जानता है कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए।'

'आप प्रकाशन गृह तो हो आए न? आपकी किताब का क्या हाल है?'

'अल्लाह का शुक्र है कि किताब छप गई। अल्लाह का शुक्र है कि कुछ पैसे मिल गए। अल्लाह का शुक्र है कि कर्ज अदा कर दिया। अल्लाह का शुक्र है कि बत्तख खरीद ली।'

'तो 'मागारीच' (दावत) होगी?'

'किसकी?'

'संपादक, चित्रकार और लेखपाल की। उन सभी की, जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशन में भाग लिया है।'

'संपादक की 'मागारीच'?' अबूतालिब तो गुस्से से चलते-चलते रुक भी गए। 'उसकी 'मागारीच' नहीं, 'मागोरोच' होनी चाहिए।' अवार भाषा में 'मागोरोच' का अर्थ है मरम्मत या पिटाई करना। अपने बढ़िया शब्द-खिलवाड़ से खुश होकर अबूतालिब देर तक हँसते रहे। इसके बाद अपनी बात जारी रखते हुए बोले -

'सुनो रसूल, लोग कहते हैं कि अगर कोई दागिस्तानी अपने बेटों की सुन्नत कराएगा, तो उसे नौकरी, यहाँ तक कि पार्टी से भी बर्खास्त किया जा सकता है। उन संपादकों का पत्ता क्यों नहीं काटा जाता, जो मेरी कविताओं को लुंज-पुंज बनाते हैं, उनके टुकड़े-टुकड़े करते हैं? संपादित कविता देखते ही मैं तुम्हें यह बता सकता हूँ कि संपादक किस गाँव की बोली में ढालने की कोशिश करता है।' अबूतालिब अचानक खामोश हो गए और फिर मुस्कराकर बोले - 'हाँ, वह औरत जो करारनामे पर दस्तखत कराती है, वह बढ़िया है। अहा, क्या बढ़िया औरत है वह। इस औरत का मैंने बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया।'

'और क्या कहा आपने उसे? शायद कोई तोहफा दिया?'

'मैंने उससे कहा कि अगर उसके यहाँ कोई खराब, बदरंग या टूटा-फूटा बर्तन हो, तो वह उसे मेरे पास ले आए। मैं उसकी मरम्मत कर दूँगा, टाँका लगा दूँगा और वह नए जैसा हो जाएगा।'

अबूतालिब की यह शरारत मुझे अवार थिएटर में उनके जुरना-वादन से भी ज्यादा खली। बाड़ के पास ताँबे के टुकड़ों का ढेर देखकर मैंने बुजुर्ग शायर को जान-बूझकर चिढ़ाते हुए कहा -

'पहले जब आप टीनगर थे, तो शायद उन दिनों पुराने बर्तन यहाँ इस तरह न पड़े रहते। आप इन्हें इकट्ठा करके घर ले जाते?'

'नहीं, मुझे इन्हें ले जाने का मौका न मिलता, रसूल,' अबूतालिब ने खुशमिजाजी से जवाब दिया। 'इन्हें तो मुझसे पहले ही दूसरे उठा ले गए होते।'

रास्ते में हमें देर से जानेवाला एक राहगीर मिल गया। अबूतालिब ने किसी तरह की हिचक-झिझक के बिना उसे रोका, उससे तंबाकू और दियासलाई माँगी और सिगरेट पीने लगे।

साफ बात यह है कि अबूतालिब की ऐसी हरकतें मुझे अच्छी नहीं लगीं। दागिस्तान के जन-कवि, अपने सारे जनतंत्र के विख्यात व्यक्ति और सरकार के सदस्य, वे कभी तो रंगमंच पर जुरना बजाते थे, कभी प्रकाशनगृह की सेक्रेटरी के बर्तनों की मरम्मत करने को तैयार थे, कभी देर से रात को मखचकला की सड़क पर मिल जानेवाले राहगीर से तंबाकू माँगते थे। मगर मैंने बुजुर्ग की लानत-मलामत नहीं की। मुझे डर था कि वे नाराज हो जाएँगे। चुनांचे मैंने उनसे यह कहा -

'आप काफी बड़ी उम्र के हो चुके हैं, अबूतालिब। अगर आप सिगरेट पीना छोड़ दें, तो क्या यह आपकी सेहत के लिए ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा?'

'मतलब यह कि आज सिगरेट पीना छोड़ दो, कल बर्तनों की मरम्मत करना छोड़ दो और परसों जुरना बजाना छोड़ दो। ऐसा करने पर तो मैं अपने आप ही कविता-रचना बंद कर दूँगा, वे खुद-ब-खुद ही मुझसे दूर भाग जाएँगी। वे उसी अबूतालिब से परिचित हैं और प्यार करती हैं, जो बर्तनों की मरम्मत करता है, सिगरेटें पीता है और जुरना बजाता है। अगर मैं अबूतालिब ही नहीं रहूँगा, तो मेरी कविताओं को मेरी क्या जरूरत रहेगी? मैं अबूतालिब गफूरोव हूँ, रसूल हमजातोव नहीं, जो सिगरेट पीना चाहता और बर्तनों की मरम्मत नहीं कर सकता, मगर लेखक-संघ का संचालन करने में समर्थ है। इसी तरह मैं न तो यूसुफ खापालायेव हूँ, न नूरूद्दीन यूसुफोव, न मक्सिम गोर्की और न ही जोश्चेंको...'

(उन दिनों जोश्चेंको की कड़ी आलोचना हो रही थी और इसलिए अबूतालिब का उसका नाम भी याद आ गया।)

'पहाड़ी बकरा पहाड़ों के सिवा कहाँ छिप सकता है? नाला दर्रे के सिवा कहाँ बह सकता है? तुम मेरे सिर पर पराई फर की टोपी नहीं रखो। तुम हाथ धोकर मेरे अतीत के पीछे क्यों पड़े हो? हाँ, मैं कभी जुरनावादक, चरवाहा और टीनगर था। मगर क्या मुझे अपने अतीत पर शर्म आती है? वह अतीत भी तो मेरा ही था, मुझ अबूतालिब का। रसूल, मैं इस वक्त तुमसे जो कह रहा हूँ, मेरे इन शब्दों को याद कर लो। अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे, तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा। मैंने बीवियों को छोड़ा और बीवियों ने मुझे। मगर मैं जो काम करना जानता हूँ, वह मुझे छोड़कर नहीं जा सकता और न ही मैं उसे छोड़ सकता हूँ।'

हाँ, यही थे बुजुर्ग शायर अबूतालिब, मेरे पिता के दोस्त। वे ऐसे ही थे और इसी रूप में उन्हें ग्रहण करना चाहिए। अगर वे बदल जाते, तो अबूतालिब और कवि भी न रहते।

एक और किस्सा सुनाता हूँ, जिसका शीर्षक हो सकता है - अबूतालिब का नया फ्लैट। यह तब की बात है, जब मुझे दागिस्तान के लेखक-संघ का अध्यक्ष चुना ही गया था। यह ऐसा पद है, जिसमें कर्तव्यों की तुलना में अधिकार ज्यादा हैं। अगर कोई खुद ही अपने लिए काम न खोजे, तो मजे से अपना मूलभूत कार्य यानी कविताएँ रचना जारी रख सकता है। मगर मैं उस वक्त जोशीला नौजवान था। मैंने सरगर्मी दिखानी शुरू की। मैं अपने पद से संबंधित सभी तरह के काम ढूँढ़ने लगा -

मेरे ख्याल में अगर कोई आदमी अपने घर की मजबूती और दृढ़ता जाँचना चाहता है, तो वह शहतीरों, कोने के आधार-स्तंभों यानी सभी तरह के स्तंभों को ही जाँचना शुरू करता है। मैंने ध्यान से देखा और इस नतीजे पर पहुँचा कि चार जन-कवि - लेजगीन ताहिर खूरियूक्स्की, कुमीक अली गाजीयेव, अवार जाहिद हाजीयेव और लाक अबूतालिब गफूरोव दागिस्तान के लेखक-संघ के आधार-स्तंभ हैं। यह समझने के बाद मैंने अपनी कार्रवाई की योजना बनाई। मैंने यह तय किया कि अगर दागिस्तान के सरकारी प्रतिनिधि से इन चार महारथियों की भेंट कराई जाए, तो अच्छा रहे, कवि उसे अपनी जरूरतें बताएँगे और सरकारी प्रतिनिधि कवियों के सामने अपनी इच्छाएँ व्यक्त कर सकेगा।

तो प्रादेशिक पार्टी समिति के सेक्रेटरी अब्दुर्रहमान दानीयालोव से हमारी बातें हो रही थीं। चाय की चुसकियाँ लेते हुए अनौपचारिक ढंग से खुलकर बातें की जा रही थीं। मेरे कवियों की खुशी का तो पारावार नहीं था और चारों एक ही आवाज में यह कह रहे थे कि हमारे लेखक-संघ का नया प्रधान रसूल हमजातोव कितना अच्छा आदमी है। साथी दानीयालोव को जन-कवियों से बातचीत करते हुए खुशी हो रही थी और वे भी मन ही मन रसूल की तारीफ कर रहे थे। मगर मैं ऐसे जाहिर कर रहा था मानो मेरा इस मामले से कोई सरोकार ही न हो।

हम लोगों ने दागिस्तान, जीवन और कविताओं की चर्चा की। आखिर प्रादेशिक समिति के सेक्रेटरी ने कहा कि हर कवि अपनी कोई न कोई इच्छा व्यक्त करे। ताहिर खूरियूक्स्की ने सबसे पहले अपनी बात कही -

'साथी, दानीयालोव, मुझे इस चीज से बहुत दुख होता है कि ठंड पड़ने पर बहुत-सी भेड़ें चरागाहों में मर जाती हैं। क्या गर्मियों में बहुत ज्यादा आदमियों को वहाँ भेजना मुमकिन नहीं, ताकि वे जाड़े भर के लिए चारा तैयार कर लिया करें?'

साथी दानीयालोव ने कवि के शब्द नोट कर लिए और पूछा -

'कुछ और भी कहना है आपको?'

'हमारे खूरियूक गाँव के सामूहिक फार्म के लिए क्या एक मोटर देना संभव नहीं?'

अब गाजीयेव अली की बारी आई। उन्होंने अपना मुँह खोला और सेक्रेटरी समेत, हम सभी को अपने पुराने और सड़े हुए दाँत दिखाए।

'क्या मेरे मुँह में अच्छे, नए दाँत नहीं लगवाए जा सकते? इनसे खाने में तकलीफ होती है। दाँतों के बिना गाने में भी तो मजा नहीं आता। जब कविता-पाठ करता हूँ, तो सिसकारी-सी निकलती है।'

गाजीयेव ने उसी वक्त इस चीज का अमली तौर पर प्रदर्शन भी किया कि दाँतों के बिना कविता-पाठ में कितनी असुविधा होती है। उन्होंने खासाफयूर्त नगर कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष को कविता के रूप में भेजी गई अर्जी सुनाई। कविता में बुजुर्ग कवि को घर गर्माने के लिए कोयला देने की मार्मिक प्रार्थना की गई थी।

'तो मिला कोयला?' दानीयालोव ने पूछा।

'पिछले साल से मामला लटकता चला आ रहा है।'

सेक्रेटरी ने फिर से कागज पर कुछ लिखा और हम जाहिद हाजीयेव की बात सुनने के लिए तैयार हुए।

'जवान लोग कन्सर्टो में गाने के बजाय चिल्लाते हैं। अपनी चीख-चिल्लाहट से वे अच्छे लोक-गीतों का सत्यानाश करते हैं। नए गीत ऐसे हैं कि गायकों को चाहे-अनचाहे चीखने के लिए मजबूर करते हैं। यह सब बंद होना चाहिए। रेडियो पर प्रेम के बारे में बहुत ही ज्यादा गाया जाता है। कुछ गायक तो प्राचीन दंत-कथाओं की हूरों का स्तुति-गान भी करते हैं। साथी दानीयालोव, उनसे कहिए कि वे हूरों का नहीं, बल्कि हमारे कृषि के अग्रणी कर्मियों का गौरव-गान करें।'

अपनी बात कहने के बाद हाजीयेव मेरी ओर मुड़े और कान में फुसफुसाए -

'इसके अलावा, यह भी पता चला है कि कल शाहतामानोव और सुलेमानोव ने रेस्तराँ में शराब पी। लेखकों के लिए शराब पीने की मनाही करनी चाहिए। इस सिलसिले में मैं तुमसे अकेले में बात करने आऊँगा।'

इसके बाद अबूतालिब की बारी आई।

'प्यारे अब्दुर्रहमान,' अबूतालिब ने प्रथम सेक्रेटरी को संबोधित करते हुए कहा, 'मेरी नवीनतम पत्नी ने मेरे लिए बेटा जना है।'

'नवीनतम' पत्नी से आपका क्या मतलब है?'

'मेरी बहुत-सी बीवियाँ हो चुकी हैं। मैं कर ही क्या सकता हूँ - अखबारों में मेरे फोटो छपते हैं, रेडियो पर मेरी चर्चा की जाती है, खूब चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को बताया जाता है कि मैं दागिस्तान का जन-कवि हूँ, संसद-सदस्य हूँ, राजकीय पुरस्कारों से सम्मानित हो चुका हूँ। भोली-भाली नारियाँ इन बातों के फेर में पड़ जाती हैं, धोखा खा जाती हैं। वे सोचती हैं कि अगर मैं इतना नामी-गरामी आदमी हूँ, तो महल में रहता हूँगा, मेरे यहाँ माल-मते से संदूक और दौलत से थैलियाँ भरी होंगी। बस, वे मुझसे शादी कर लेती हैं। मगर बाद में वे गरीब अबूतालिब को तलघर में बैठा पाती हैं। यह उन्हें अच्छा नहीं लगता और वे मुझे छोड़कर भाग जाती हैं। इसीलिए मेरी बहुत बार शादी हुई है। हाँ, प्यारे अब्दुर्रहमान, मेरे गीत तो बुलबुलों की तरह आकाश में उड़ानें भरते हैं मगर मैं खुद तलघर में ही जिंदगी काटता जा रहा हूँ। दयनीय तलघर से मैं अपने स्वर्णिम गीत आकाश में उड़ाता हूँ। अब मेरी नई बीवी, जिसने मुझे बेटा दिया है, इस बात की धमकी दे रही है कि अगर मैं अच्छा और नया फ्लैट हासिल नहीं करूँगा, तो वह मुझे छोड़कर चली जाएगी। वह बच्चे को छाती से चिपकाए हुए चल देगी... सुनो अब्दुर्रहमान, वह अभी गई नहीं, मगर मुझे उसके लिए अफसोस होने लगा है, तुम मेरा परिवार नहीं तोड़ो, मुझे ऐसा चूल्हा दे दो, जहाँ मैं अपना पतीला टिका सकूँ। मैं सत्तर को पार कर चुका हूँ और मेरी गाड़ी ऊपर की तरफ नहीं, नीचे को जा रही है। इसके अलावा यह भी सुन लो कि अगर तुम मुझे फ्लैट दे दोगे, तो मैं तुम्हें भी अपने यहाँ आने की दावत दूँगा।'

एक हफ्ता भी नहीं बीता कि अबूतालिब को नए फ्लैट की चाबी मिल गई। अलविदा प्यारे तलघर। हमारे अबूतालिब पुश्किन सड़क के एक नए मकान की तीसरी मंजिल के तीन कमरोंवाले फ्लैट में चले गए थे।

एक दिन सड़क पर अबूतालिब से मेरी मुलाकता हो गई। देखकर उन्होंने ऐसा जाहिर किया मानो लोहे के टुकड़ों के अंबार में, जिसके पास से वे गुजर थे, कुछ ढूँढ रहे हों।

'सलाम अबूतालिब, कैसी जिंदगी चल रही है नई जगह पर? फ्लैट तो पसंद है न?'

'कई दिनों से घंटी ढूँढ़ रहा हूँ ताकि उसे घर के पास लटकाकर बजाऊँ और तुम्हें, त्सादा गाँव के हमजात के बेटे को, अपने यहाँ मेहमान बुलाऊँ। तीन बार मैंने सागर की तरफ खिड़की खोली और इस उम्मीद से जुरना बजाया कि तुम उसे सुनोगे और उसकी पुकार पर कान देकर चले आओगे। मगर ऐसा लगता है कि बहुत बड़ी घंटी के बिना काम नहीं चलेगा। चलकर ढूँढ़ता हूँ।'

हम इसी वक्त अबूतालिब का नया घर देखने चल दिए। वहाँ तो सिर्फ दीवारें ही दीवारें थीं। फर्श पर जहाँ-तहाँ वे ऊल-जलूल चीजें पड़ी थीं, जिन्हें अबूतालिब तलघर से अपने साथ ले आए थे। पुराना जुरना, कुमुज, लुहार की पुरानी धौंकनियाँ (खुदा ही जाने कि नए फ्लैट में उन्हें उनकी क्या जरूरत थी), मिट्टी के तेल के पुराने स्टोव, चिलमचियाँ, बालटियाँ, गागरें, घुटनों तक के बूट, भेड़ की खाल का कोट। पहाड़ों पर से बूढ़े लोग अबूतालिब के यहाँ मेहमान आते और सो भी अपने किसी काम-धंधे के सिलसिले में दौड़-धूप करने। उनकी खुरजियाँ भी पुरानी होतीं। किसी ऐसे ही मेहमान की खाली खुरजी हाथ में उठाए हुए अबूतालिब ने कहा -

'किस्मत की मारी खुरजी, तू खाली क्यों है? अगर तू भेड़ के मांस जैसी किसी भारी चीज से भरी होती, तो मेरे मेहमान को इंतजार न करना पड़ता। इसीलिए कि तू खाली है, लोगों को कितनी बार बेकार ही चाग पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है।'

तो अबूतालिब ने नजरों से ऐसी जगह ढूँढ़ते हुए, जहाँ मुझे बैठा सकते, खाली खुरजी को बुरी तरह कोसा। आखिर जब उन्हें ऐसी कोई जगह न मिली, तो उन्होंने बड़ा-सा छुरा मेरे हाथ में थमाया और मुझे खिड़की के पास ले जाकर अहाते में एक छानी की तरफ इशारा करते हुए बोले -

'वहाँ एक बत्तख बैठी है। जाओ, जाकर उसे हलाल कर डालो। बस, वही हमारा खाना हो जाएगा।'

मैंने छानी का दरवाजा खोला, किसी तरह बत्तख को पकड़ा। जब मैंने उसे हलाल करना शुरू किया, तो वह बुरी तरह छटपटाने लगी। ऊपर से अबूतालिब की आवाज सुनाई दी -

'कौन ऐसे हलाल करता है? बत्तख का सिर दूसरी ओर कर दो। क्या तुम यह भी नहीं जानते कि मक्का किधर है?'

कुल मिलाकर, मैंने अपना काम अच्छी तरह से पूरा कर दिया और यहाँ तक कि अबूतालिब भी तारीफ किए बिना न रह सके।

जैसा कि हमारे यहाँ कहते हैं, अबूतालिब ने चूल्हे पर पतीले का जीन चढ़ाया और देर तक खाना पकाने के काम में उलझे रहे। इसी बीच मैंने फ्लैट का अच्छी तरह से जायजा ले लिया। बुजुर्ग शायर बेशक तलघर से निकलकर नए फ्लैट में आ बसे थे, मगर पुराने पतीले से लेकर पुरानी आदतों तक तलघर की अपनी सारी जिंदगी यहाँ अपने साथ ले आए थे। फ्लैट में एक भी कुर्सी, मेज, अलमारी, पलंग यानी किसी भी तरह का कोई फर्नीचर नहीं था।

'कविताएँ कहाँ बैठकर लिखते हैं, अबूतालिब?'

'इन कमरों में तो अब तक मैंने काम की एक भी कविता नहीं लिखी। शुरू में तो मैं पुराने तलघर में कविता लिखने जाता था। मगर अब वहाँ किसी चित्रकार का स्टूडियो बना दिया गया है। अल्लाह गवाह है, उस तलघर के मुकाबले में मुझे यहाँ नींद भी बुरी आती है। वहाँ मेरा खर्च भी कम होता था और मेरे पास वक्त भी ज्यादा रहता था। लोग भी इस बुरी तरह से परेशान नहीं करते थे। कभी कोई भूले-बिसरे ही उस तलघर में आता था। हाँ, यह सच है कि वहाँ से समुद्र की झलक नहीं मिलती थी। मगर अब वह हर वक्त बूढ़े अबूतालिब की आँखों के सामने रहता है।'

अबूतालिब देर तक कास्पियन सागर को गौर से देखते रहे, जो इस वक्त तूफान के जोरदार थपेड़ों के कारण नीला-सफेद हो रहा था। मैंने उन्हें सागर को देखने दिया, किसी तरह का खलल नहीं डाला। हम खामोश रहे। कुछ देर बाद अबूतालिब ने कहा - 'रसूल, मैं तुम्हें अपनी जिंदगी के दो दिनों, एक सबसे ज्यादा खुशी और एक सबसे ज्यादा गम के दिन के बारे में बताता हूँ।'

'बताइए।'

'बात यह है रसूल, कि यों तो मेरी जिंदगी में खुशी के बहुत दिन आए हैं। राजकीय पदक मिला - मुझे खुशी हुई; फ्लैट की चाबी मिली - मुझे खुशी हुई; तीसरे दशक में जब लाल सेना ने फौजी घोड़ा दिया - मुझे खुशी हुई। उन दिनों घोड़े पर सवार हो मैं लाल सेना के साथ जाता था, दस्ते का जुरना-वादक था। लड़ाई के रास्तों पर मेरा घोड़ा कमांडर के घोड़े के बिल्कुल पीछे रहता था। इससे भी मुझे खुशी होती थी। मगर फिर भी मेरी सबसे पहली और सबसे बड़ी खुशी वह नहीं थी।

'मेरी जिंदगी में सबसे ज्यादा खुशी का दिन तब आया था, जब मैं ग्यारह साल का था और बछड़े चराता था। मेरे पिता ने जिंदगी में पहली बार मुझे जूते भेंट किए। वे नए जूते पाकर मेरी आत्मा में गर्व की जो भावना पैदा हुई, उसे बयान करने के लिए शब्द नहीं मिल सकते। मैं अब बेधड़क उन खड्डों में और उन पगडंडियों पर जाता, जहाँ एक ही दिन पहले तक नुकीले, ठंडे पत्थरों से मेरे पाँव जख्मी हो जाते थे। अब मैं दृढ़ता से इन पत्थरों पर पैर रखता, न दर्द और न ठंड महसूस करता।

'मेरी खुशी तीन दिन तक बनी रही और उनके बाद मेरी जिंदगी के सबसे कड़वे मिनट आए। चौथे दिन पिता जी बोले -

'सुनो अबूतालिब, तुम्हारे पास अब नए, मजबूत जूते हैं, तुम्हारे पास लाठी है और ग्यारह साल तक तुम इस धरती पर जी भी चुके हो। वक्त आ गया है कि अपनी रोजी-रोटी की फिक्र में अब तुम अपनी राह पकड़ो।'

'पिता जी ने कहा कि मैं गाँव-गाँव घूमकर भीख माँगा करूँ। उस वक्त मेरे दिल पर जैसी गुजरी, वैसी तो बाकी सारी जिंदगी में भी नहीं गुजरी। मेरी आँखों से आँसू तो बाद में भी बहे, मगर वैसे कड़वे आँसू वे नहीं थे।

'एक लेखक ने मेरे बारे में कहा है कि 'अबूतालिब को नया फ्लैट मिल गया है। देखेंगे कि उसमें वह कैसी कविताएँ लिखता है।' जैसे कि मुझे यह मालूम न हो कि कविताएँ फ्लैट पर निर्भर नहीं करतीं। अपनी कविताओं के लिए कवि खुद फ्लैट है। कवि का हृदय ही उसकी कविता का घर है। मेरे जीवन के सुख-दुख के सभी क्षण मेरी आत्मा में साँस लेते हैं। मैं खुद कहाँ रहता हूँ, इसका कोई महत्व नहीं है।'

अबूतालिब के फ्लैट ने मुझे परेशान कर दिया। मैंने दागिस्तान जनतंत्र के कर्ता-धर्ताओं से उसकी चर्चा की। यह तय पाया गया कि अबूतालिब की किताब 'अबाबीलें दक्षिण को उड़ती हैं' की रायल्टी का एक हिस्सा कवि के नए फ्लैट के लिए नया और अच्छा फर्नीचर खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसके लिए 'कारगुजारी की तिकड़ी' बनाई गई : दागिस्तान के पुस्तक-प्रकाशन गृह के डायरेक्टर, व्यापार-मंत्री और मुझे यह काम सौंपा गया। हमें जरूरी फर्नीचर ढूँढ़ना, खरीदना और अबूतालिब के घर पहुँचाना था। इस काम के सिलसिले में पैदा होनेवाले सभी मामलों के बारे में सारी बातचीत करने का भार मुझे सौंपा गया।

हम तीनों ने मखचकला के सभी फर्नीचर-गोदामों के चक्कर लगाए और जरूरी फर्नीचर चुन लिया। सोने के कमरे के लिए, ताकि हमारे जन-कवि मजे से आराम करें, लिखने-पढ़ने के कमरे के लिए ताकि वे अपनी बढ़िया कविताएँ रचें, खाने-पीने के कमरे के लिए, ताकि वे लजीज पकवान खाएँ और मीठे पेय पिएँ।

हमारा ख्याल था कि यह सारा फर्नीचर पाकर और उसे करीने से सजाकर अबूतालिब हम लोगों के प्रति आभार प्रकट करने भागे आएँगे। मगर उनसे तो हमें सहज शुक्रिया या यह भी सुनने को नहीं मिला कि फर्नीचर पहुँच गया है। तब हमने खुद ही अबूतालिब के यहाँ जाकर यह देखने का फैसला किया कि हमारे खरीदे हुए फर्नीचर का उन्होंने क्या किया है।

हमें दरवाजे पर दस्तक देने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि फ्लैट का दरवाजा खुला था। हम कमरे में दाखिल हुए। खाने की मेज के करीब अबूतालिब अपने परिवार के साथ कालीन पर बैठे थे। घर के सभी लोग घेरा बनाए हुए उकड़ूँ बैठे थे और उनके सामने अखबार पर खाना रखा हुआ था। अबूतालिब प्लेट में से दही खा रहे थे। खाने की चमकती हुई मेज की तरफ अबूतालिब ऐसे देख रहे थे मानो वह आलिंगन में बँधने को आतुर कोई लड़की हो, मगर जिसे बाँहों में कसने की अबूतालिब की कोई इच्छा न हो।

दूसरे कमरे में हमें लिखने की बहुत ही बढ़िया मेज दिखाई दी। उस पर कागज रखे थे। जिन्हें छुआ तक नहीं गया था, पेन और स्याही की दवात रखी थी। ये सभी चीजें और खुद मेज भी इस्तेमाल की चीजों के बजाय संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं जैसी अधिक लगती थीं। कमरे के एक कोने में फर्श पर अरबी लिपि में लिखे हुए कुछ कागज पड़े थे।

'अबूतालिब, क्या आप आधुनिक लिपि नहीं जानते?'

'जानता हूँ, मगर पुराने ढंग से लिखने की आदत पड़ी हुई है। पहले अरबी लिपि में लिख लेता हूँ और फिर संपादक के लिए आजकल की लिपि में नकल करता हूँ यानी खुद अपनी रचनाओं का रूपांतर करता हूँ।'

'पलंग पर एक बार भी नहीं सोए,' अबूतालिब की बीवी ने हमें बताया। 'बेकार ही आपने इतनी महँगी चीजें खरीदीं।'

'पलंग की भी खूब कही! शुरू में शहर में अपनी जिंदगी के पहले साल में मैं तकिए की जगह पत्थर रख लेता था और तकिए के मुकाबले में ज्यादा गहरी नींद सोता था। जब बछड़े चराया करता था, उन्हीं दिनों मुझे पत्थर पर सिर रखकर सोने की आदत पड़ गई थी।'

'तो मतलब यह है कि हमने आपके लिए जो चीजें खरीदी हैं, आप उनसे खुश नहीं हैं? पढ़़ने-लिखने के कमरे के फर्नीचर से, इन कुर्सियों, इस मेज और अलमारी से?'

'फर्नीचर बहुत अच्छा है। मगर वह मेरे पड़ोसी गोडफ्रीड हसनोव के लिए ज्यादा अच्छा रहता।'

'गोडफ्रीड हसनोव अच्छा पड़ोसी है?'

'मुमकिन है कि वह अच्छा आदमी हो, मगर हमारे बीच तो खट-पट ही रहती है।'

'वह क्यों?'

'वह कुछ अधिक ही सुसंस्कृत है। इसके अलावा मैं कुछ ज्यादा ही देहाती हूँ और वह ज्यादा ही शहरी है। मैं कुछ ज्यादा ही पहाड़ी हूँ और वह ज्यादा ही मैदानी है। हमारी फर की टोपियाँ भी अलग-अलग हैं। शायद सिर भी एक जैसे नहीं हैं। मैं अपनी धरती का बेटा हूँ और वह अपने धंधे का। वह मेरे जुरने और उसकी धुन को बर्दाश्त नहीं कर सकता और मैं उसके पियानो और सिंफोनी को। उसके संगीत का मजा लेने की कोशिश करता हूँ, मगर नहीं ले पाता। यही हाल उसका है - मैं जुरना हाथ में लेता ही हूँ कि वह दरवाजा खटखटाने लगता है - 'अबूतालिब तुम मुझे काम नहीं करने देते!' मैं उससे झूठ-मूठ कहता हूँ कि यह तो रेडियो से आवाज आ रही है। वास्तव में कई बार ऐसा हुआ भी है कि उसने उस वक्त मेरा दरवाजा खटखआया, जब रेडियो पर जुरना-वादन हो रहा था। तो यह समझना चाहिए कि वह न सिर्फ मुझे जुरना-वादन हो रहा था। तो यह समझना चाहिए कि वह न सिर्फ मुझे जुरना-वादन से, बल्कि रेडियो पर उसे सुनने से भी मना करता है। थोड़े में यह कि हम एक-दूसरे से बिल्कुल अलग आदमी हैं। मेरे यहाँ पहाड़ों और देहातों से खुरजियोंवाले, उसके यहाँ मास्को से थैलेवाले मेहमान आते हैं। मैं बूजा और लहसुनवाले खीनकालों से अपने मेहमानों की खातिर करता हूँ और वह अपने मेहमानों के सामने ब्रांडी और कॉफी पेश करता है। मैं मंडी में जाता हूँ, वह दुकानों पर। जब मैं सोता हूँ, तो वह अपना संगीत रचता है, और जब वह सोता है, तो मैं अपनी कविताएँ लिखता हूँ। उसे शहरी क्यारियों में खिलनेवाले फूल पसंद हैं और मुझे ऊँची पहाड़ी चरागाहों में महकती हुई घासें। सुन रहे हैं न, वह इस वक्त भी अपनी कोई सिंफोनी बजा रहा है।'

अबूतालिब के पड़ोसी को हम अच्छी तरह जानते थे। वह दागिस्तान और रूसी संघ का प्रतिष्ठित कला कार्यकर्ता गोडफ्रीड अलीयेविच हसनोव था। उन दिनों वह पियानो के लिए अपना कंसर्ट रच रहा था। मैंने बहुत खुशी से उसका सूक्ष्म और प्रेरणापूर्ण संगीत सुना। मेरे दिमाग में यह ख्याल आया - 'इन दो बड़ी और जोरदार प्रतिभाओं - अबूतालिब की साधारण जन-प्रतिभा और हसनोव की व्यावसायिक तथा सुशिक्षित प्रतिभा - को यदि मिलाकर एक कर दिया जाए, तो वास्तव में ही कैसी अद्भुत सिंफोनी बन सकती है!'

मेरे दिमाग में यह बात भी आई कि अगर अपनी कविताओं, अपनी किताबों में मैं इन दो धाराओं - अपनी जनता का सरल चरित्र, उसकी निश्छल खुली आत्मा तथा सधी हुई व्यावसायिक दक्षता - को मिला सकूँ, तो यह बहुत बड़ी सफलता होगी। मैं चाहता हूँ कि अबूतालिब और गोडफ्रीड मेरी कविताओं में घुल-मिल जाएँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे कृतित्व में वे वास्तविक जीवन जैसे नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण पड़ोसी हों।

हाँ, मैं इन दो सिद्धांतों के शांतिपूर्ण हेल-मेल की आशा करता हूँ किंतु यदि ऐसा संभव नहीं हो सकता और मुझे चुनने के लिए मजबूर ही होना पड़े... तो मैं आजकल के बढ़िया-से-बढ़िया पेय की तुलना में पहाड़ी चश्मे की ठंडी, निर्मल धारा को ही तरजीह दूँगा। मेरा अभिप्राय यह है कि संस्कृति, सभ्यता और पेशे की सूक्ष्मता - अगर इनका अभाव है - तो इन्हें प्राप्त किया जा सकता है। मगर जातीयता की भावना और लोक-भावना व्यक्ति को जन्म से ही मिलती है। जन-कवि और जुरना-वादक अबूतालिब अन्य परिस्थितियों में पेशेवर संगीतज्ञ और स्वरकार भी बन सकते थे, मगर मेरे ख्याल में पेशेवर स्वरकार और संगीतज्ञ गोडफ्रीड के लिए कभी भी साधारण जन-गायक बनना संभव नहीं था।

जब हम अबूतालिब से विदा लेकर चलने को हुए, तो अचानक उन्होंने पूछा -

'रसूल, मेरे यहाँ क्या टेलीफोन नहीं लग सकता?'

'आप तो लिखने की मेज और पलंग का भी इस्तेमाल नहीं करते, तो टेलीफोन का क्या करेंगे?'

'टेलीफोन पर मैं अपना जुरना बजाया करूँगा। कभी मास्को में निकोलाई तीखोनोव को तो कभी अपने सामूहिक फार्म के अध्यक्ष को जुरना सुनाया करूँगा। मेरे अध्यक्ष को यह तो मालूम होना ही चाहिए कि मेरा जुरना पहले जैसे वही गीत गाता है। टेलीफोन पर मेरा जुरना सुनकर अध्यक्ष यह समझ जाएगा कि मेरे शहरी फ्लैट में हमारे पहाड़ों की ध्वनियाँ और गंधें साँस लेती हैं।'

'हटाइए अबूतालिब, पहाड़ों की गंध से महकी हुई आपकी धुनें टेलीफोन के बिना ही मास्को तक, आपके जन्म-गाँव तक और दागिस्तान के सभी गाँवों तक पहुँच जाएँगी। वे पहाड़ों से भी ऊँची उड़ानें भरती हुई धरती के ओर-छोर तक जा पहुँचेंगी।'

अब मैं अबूतालिब से विदा लेता हूँ और वह घटना सुनाता हूँ, जो मेरे साथ और मेरे पिता जी के साथ घटी।

संस्मरण। न जाने क्यों, मगर हम दोनों एक-दूसरे को अपनी कविताएँ नहीं सुनाते थे, यहाँ तक कि उनकी चर्चा भी नहीं करते थे। पिता जी की नई कविताओं का मुझे तभी पता चलता था, जब वे छप जाती थीं या जब उन्हें रेडियो से प्रसारित किया जाता था। या फिर जब यार-दोस्त उन कविताओं को सुनकर उनकी चर्चा करते थे। इसी तरह पिता जी को भी मेरी नई कविताओं के छप जाने तक उनके बारे में कुछ भी मालूम नहीं होता था।

1949 में अवार समाचार-पत्र में मेरी लंबी कविता 'मेरा जन्म-वर्ष' छपी। जाहिर है कि वह पत्र पिता जी के हाथों में भी पहुँचा और अचानक पेंसिल के निशानोंवाली एक प्रति मेरे हाथ लग गई। मैंने क्या पाया कि पिता जी ने बहुत ध्यान से मेरी कविता पढ़ी थी और बहुत-सी पंक्तियों को अपने ढंग से बदल दिया था। यह देखना कुछ मुश्किल नहीं था कि पिता जी ने मेरी अधिक अलंकृत पंक्तियों को ही बदला था, उन्हें मेरी अधिक जटिल लक्षणाएँ, अधिक चटकीली उपमाएँ पसंद नहीं आई थीं। मेरी पंक्तियों के ऊपर लिखी पंक्तियों में पिता जी ने अधिक सीधे-सादे, स्पष्ट और समझ में आनेवाले ढंग से विचारों को व्यक्त करने का प्रयास किया था।

मुझे अब तक इस बात का बहुत अफसोस है कि हमजात द्वारा सुधारी गई पंक्तियोंवाला यह पत्र सुरक्षित नहीं रहा। मेरी यह आदत है कि जैसे ही कविताएँ छप जाती हैं, मैं उनके प्रारंभिक रूपों और पांडुलिपियों के विभिन्न रूपों की प्रतियाँ जला डालता हूँ।

पिता जी के अधिकांश सुधारों से मुझे खुशी हुई। मैंने देखा कि कविता बेहतर हो गई है, मगर बहुत-से सुधारों से मैं सहमत नहीं था। मैंने पिता जी से कहा -

'यह सही है कि आप मुझसे अधिक बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और अधिक बड़े कवि हैं। मगर मैं दूसरे युग का कवि हूँ। मैं दूसरी साहित्यिक प्रवृत्ति से संबंध रखता हूँ, मेरी साहित्यिक रुचियाँ दूसरी हैं, शैली दूसरी है - सभी कुछ दूसरा है। इन सुधारों में हमजात त्सादासा की छाप बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती है। मगर मैं तो हमजात नहीं हूँ, सिर्फ रसूल हमजातोव हूँ। मुझे अपनी शैली, अपने ढंग का अनुकरण करने दीजिए।'

'तुम्हारी बात सही नहीं है। तुम्हारी कविताओं में तुम्हारी शैली, तुम्हारे ढंग यानी तुम्हारी पसंद और प्रकृति का गौण स्थान होना चाहिए। अपनी जनता की पसंद और प्रकृति को प्रथम स्थान देना चाहिए। सबसे पहले तो तुम पहाड़ी हो, अवार हो और उसके बाद ही रसूल हमजातोव हो। अपनी कविताओं में तुम अपनी भावनाओं को ऐसे अभिव्यक्ति देते हो, जैसे किसी एक पहाड़ी लोगों की भावनाओं और उनके मिजाज के लिए बिल्कुल अजनबी होंगी, तो तुम्हारा ढंग केवल ढंग ही बनकर रह जाएगा और तुम्हारी कविताएँ सुंदर और शायद दिलचस्प खिलौने ही बनकर रह जाएँगी। अगर बादल ही नहीं होंगे, तो बारिश कहाँ से होगी? आकाश ही नहीं होगा, तो बर्फ कहाँ से गिरेगी? अगर अवारिस्तान, अवार जाति ही नहीं होगी, तो रसूल हमजातोव कहाँ से आएगा? अगर सदियों के दौरान तुम्हारी जनता के लिए बनाए गए नियम ही नहीं होंगे, तो तुम्हारे अपने नियम कहाँ से बन जाएँगे?'

तो एक बार ऐसी बातचीत हुई थी मेरी अपने पिता जी से। मेरे जीवन के बाकी सभी वर्षों, मेरी बाकी सभी राहों ने बाद में इसी बात की पुष्टि की कि पिता जी ने उस वक्त जो कुछ कहा था, वह सही था।

तीसरी बीवी का किस्सा। एक नौजवान दागिस्तानी कवि मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ने गया। एक साल बीता, तो अचानक उसने यह ऐलान कर दिया कि अपनी बीवी, दूरस्थ पहाड़ी औरत को तलाक दे रहा है।

'किसलिए तलाक दे रहे हो?' हमने उससे पूछा, 'बहुत अर्सा नहीं हुआ तुम्हें शादी किए और जहाँ तक हमें मालूम है तुमने उससे इसीलिए शादी की थी कि उसे प्रेम करते थे। तो अब क्या हो गया?'

'हमारे बीच अब कुछ भी तो सामान्य नहीं है। वह शेक्सपीयर से अपरिचित है, उसने 'येव्गेनी ओनेगिन' नहीं पढ़ा, उसे यह मालूम नहीं कि 'लेक स्कूल' किसे कहते हैं और उसने मेरिमे के बारे में भी कभी नहीं सुना।'

कुछ ही समय बाद नौजवान कवि मास्कोवासिनी पत्नी के साथ, जिसने संभवतः मेरिमे और शेक्सपीयर के बारे में सुना था, मखचकला आया। हमारे शहर में वह सिर्फ एक साल रही और फिर उसे मास्को लौटना पड़ा, क्योंकि पति ने उसे तलाक दे दिया था।

'तुमने उसे तलाक क्यों दे दिया?' हमने उससे पूछा। 'तुमने हाल ही में शादी की थी और वह भी इसलिए कि उसे प्यार करते थे। तो अब क्या हो गया?'

'इसलिए कि हमारे बीच कुछ भी तो सामान्य नहीं था। वह अवार भाषा का एक भी शब्द नहीं जानती, अवार रीति-रिवाजों से अपरिचित है, पहाड़ी लोगों, मेरे हमवतनों का मिजाज नहीं समझती, उसे उनका अपने घर में आना अच्छा नहीं लगता। वह एक भी अवार कहावत, अवार पहेली या गीत नहीं जानती।'

'तो अब तुम क्या करोगे।'

'शायद तीसरी बार शादी करनी पड़ेगी।'

मुझे लगता है कि तीसरी बीवी खोजने के पहले इस नौजवान कवि को खुद अपने को समझना चाहिए।

मैं चाहता हूँ कि मेरी किताब में अवार पर्वत भी हों और शेक्सपीयर के सॉनेट भी। यही कामना है कि मेरी किताब वह तीसरी बीवी हो, जिसे नौजवान दागिस्तानी कवि अभी तक खोज रहा है।

नोटबुक से। मखचकला में चालीस फ्लैटोंवाला लेखक-भवन बनाया गया। फ्लैटों का बँटवारा शुरू हुआ। कुछ लेखकों ने कहा कि प्रतिभा के अनुसार फ्लैट बाँटे जाएँ, दूसरे बोले कि बच्चों की संख्या को ध्यान में रखा जाए।

यह तो कहना ही पड़ेगा कि लेखकों में फ्लैटों का बँटवारा मुश्किल काम है। मगर जैसे-तैसे यह काम सिरे चढ़ गया। चालीस लेखकों के परिवार इन फ्लैटों में आ बसे, उन्होंने गृह-प्रवेश की दावतें उड़ा लीं। अगले दिन बीस लेखकों की बीवियाँ एक साथ मास्को रवाना हो गई। वे कुछ दिन बाद ऐसी थकी-हारी और दुबली-पतली होकर लौटीं मानो जंग के मोर्चे से आई हों। कुछ दिन बीतने पर मालगाड़ी से मास्को का नया फर्नीचर हमारे शहर पहुँचने लगा।

हुआ यह कि शुरू में वे बहुत देर तक फर्नीचर खोजती और चुनती रहीं। बाद में एक ने हिम्मत करके फर्नीचर खरीद लिया। दूसरी बीवियाँ यह नहीं चाहती थीं कि उनका फर्नीचर घटिया हो। बदकिस्मती से पहली बीवी ने सबसे महँगा फर्नीचर खरीदा था और उससे ज्यादा महँगा फर्नीचर खरीदकर बाजी मार लेना मुमकिन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि बीस के बीस फ्लैट कंधे के दाँतों की तरह बिल्कुल एक जैसे लगते हैं। ऐसे फ्लैट में आने पर यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें अवार लोग रहते हैं।

रहे दूसरे बीस फ्लैट, तो उनकी दहलीज पर कदम रखते ही सुखाए हुए मांस और घर की बनी सासेजों, बूजा, भेड़ की खाल और भेड़ की भुनी हुई चर्बी की तेज गंध नाक में घुस जाएगी। हाँ, यहाँ इस बात का तो पता चलता है कि अवार लोग रहते हैं, मगर यह अनुभव नहीं होता कि वक्त की नब्ज को समझने और महसूस करनेवाले लेखक रहते हैं।

मैं चाहता हूँ कि मेरी किताब का हर पाठक फौरन यह समझ जाए कि यहाँ अवार रहते हैं, मगर साथ ही वह यह भी समझ जाए कि यहाँ उसका समकालीन, 20वीं शताब्दी का आदमी रहता है।

मैं न तो सिर्फ धूप और न सिर्फ छाया ही चाहता हूँ। मेरे फ्लैट में ऐसी बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ हों, जिनमें से धूप छने, मगर उसमें छायादार एकांत-शांत कोने भी हों। मेरी चाह है कि मेरे फ्लैट में हर मेहमान आराम, सुविधा और बेतकल्लुफी महसूस करे, कि वह वहाँ से जाना न चाहे, या शायद (मेहमानों के बारे में) यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे अफसोस के साथ वहाँ से जाएँ और खुशी से फिर लौटना चाहें।

एक बार जापान में विभिन्न देशों के हम प्रतिनिधि अपने दिलों पर पड़ी उस देश की छाप के संबंध में पारस्परिक चर्चा करने लगे। हम उस फव्वारे के करीब खड़े थे, जो उन्हीं दागिस्तानी पत्थरों से बना प्रतीत होता था, जो हमारे गाँव में उस जगह लगे हुए हैं, जहाँ लोगों की मजलिस जमती है।

'अद्भुत देश है,' सबसे पहले अमरीकी स्वरकार बोला, 'मुझे तो जापान में जैसे औद्योगिक उन्नतिवाले अमरीका का रूप दिखाई दे रहा है।'

'अजी नहीं,' हैटी के पत्रकार ने आपत्ति की। 'मैं अभी-अभी एक जापानी गाँव से लौटा हूँ, जापान तो हमारे छोटे-से द्वीप से ही अत्यधिक मिलता-जुलता है।'

'जनाब, आप लोगों की बहस बेकार है, पेरिस के सभी सुख-दुख यहाँ एक साथ इकट्ठे हो गए हैं,' फ्रांसीसी वास्तुशिल्पी ने उन दोनों से अलग अपना मत प्रकट किया।

मगर मैं जापानी फव्वारे के उन पत्थरों को देख रहा था, जो अवार गाँव से लाए गए प्रतीत होते थे, और सोच रहा था, 'अद्भुत देश है जापान। उसमें वह सभी कुछ है, जो दुनिया के दूसरे सभी देशों में है, मगर फिर भी वह अन्य किसी देश के समान नहीं है। वह जापान है।'

मेरी किताब, तुम में भी हर कोई अपने को देख सके, फिर भी तुम मेरी किताब रहना, अपना अलग रूप बनाए रखना, अन्य सभी किताबों से भिन्न रहना। तुम मेरा अवार, मेरा दागिस्तानी घर हो। इस घर में उस सब के करीब ही, जो सदियों से रहा है, वह भी दिखाई दे, जो यहाँ कभी नहीं रहा।

पिता जी कहा करते थे कि जिस साहित्यिक रचना में लेखक स्पष्ट दिखाई नहीं देता, वह सवार के बिना भागे जाते घोड़े के समान है।

कहते हैं कि एक पहाड़ी के घर में लगातार बेटियाँ ही जन्म लेती थीं, मगर वह बेटा चाहता था। हर आदमी उस बदकिस्मत बाप को कोई-न-कोई सलाह देना अपना कर्तव्य समझता था। इतनी सलाहें मिलीं उसे कि आखिर वह झल्ला उठा और बोला -

'बस, रहने दीजिए अपनी सलाहों को। उन्हें सुनते-सुनते मैं जो कुछ करना जानता था, वह सब भी भूल गया।'

इस पुस्तक की इमारत, विषय-वस्तु : मेरा दाग़िस्तान

हम पत्थर हैं, चुने जाएँगे जल्दी किसी दीवार में
किसी महल, छानी, कारा या मसजिद, किसी मजार में।
एक पत्थर पर आलेख

हीरे की शोभा देखी जाती है उसके सेट में,
इनसान की घर में।

शादी हो गई - अब घर बनाना चाहिए।


मेरे भावों के प्रासाद बहुत बड़े-बड़े हैं, मेरे चिंतन की मीनारें, मेरी कहानियों के भवन बहुत बड़े आकार के हैं, मेरी कविताओं के नुकीले सिरे बहुत ऊँचे-ऊँचे हैं... लीजिए, मैं पत्थरों को ढो लाया, मैंने कुंदे तैयार कर लिए और नई इमारत बनाने का स्थान चुन लिया। अब मुझे कुछ हद तक सभी कुछ बनना होगा - वास्तुशिल्पी, इंजीनियर, गणितज्ञ, संग-तराश, योजनाकार।

कैसी इमारत खड़ी करूँ मैं? कैसा रूप प्रदान करूँ उसे कि आँखें देखकर खुश हों? कि वह सुघड़ और सुंदर हो, कि अब तक उसे किसी ने न देखा हो और फिर भी जानी-पहचानी लगे। ऐसी न हो कि छत से सिर टिकराए, जैसा कि आजकल के छोटे-छोटे फ्लैटों में होता है, मगर ऐसी भी न हो कि छत को देखने के लिए सिर पीछे की ओर करना पड़े। ऐसी भी नहीं कि दरवाजे में से साधारण मेज न गुजर सके, मगर ऐसी भी नहीं कि ऊँट पर चढ़े-चढ़े ही भीतर जाया जा सके। ऐसी भी नहीं कि वह गुजरगाह या क्लब हो, जहाँ लोग कंसर्ट सुनें और चल दें, मगर ऐसी भी नहीं कि वह मसजिद हो, जहाँ लोग सिर्फ नमाज अदा करने के लिए ही आएँ। वह प्रमाण-पत्रों और आवेदन-पत्रों से ठसाठस भरे दफ्तर जैसी भी न हो और न ही लगातार घूमनेवाली अली की पवन-चक्की जैसी ही लगे।

एक नौजवान पहाड़ी की लंबी कविता पढ़कर पिता जी बोले -

'इस कविता की दीवारें कुछ अधिक ही सुंदर हैं। वह अलीकबद द्वारा बनवाए गए मुर्गीखाने जैसी लगती हैं। मुर्गीखाने को देखकर महल की याद नहीं आनी चाहिए और महल का मुर्गीखाने के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।'

इसी तरह पिता जी ने जब एक दूसरे लेखक की बहुत ही लंबी कहानी पढ़ी, जिसे वह किसी तरह भी समाप्त नहीं कर पा रहा था, तो उन्होंने उससे कहा -

'तुमने वह दरवाजा खोल दिया है, जिसे बंद नहीं कर सकते। तुमने नल खोल डाला है, जिसे बंद करना तुम्हारे बस में नहीं है। गाँठ लगाते वक्त तुमने रस्सी को बहुत ज्यादा भिगो दिया।'

मुझे याद है कि मेरे बचपन के दिनों में हमारे गाँव में गायक आया करते थे। मैं छत के सिरे पर लेटा हुआ नीचे देखता और इन गायकों को सुनता। उनमें से कोई अपने गाने के साथ खंजड़ी बजाता, कोई वायलिन, कोई चंग और अधिकतर तो कुमुज बजाते। वे अलग-अलग मौसमों में अलग-अलग जगहों से आते। वे तरह-तरह के गाने गाते और एक ही गाने को कभी न दोहराते। जब दो-तीन गायक आपस में होड़ करने लगते, तब तो मुझे खास तौर पर बहुत मजा आता।

वे गाने लंबे-लंबे थे और मैं उन सबको भूल चुका हूँ मगर फिर भी लगभग हर गाने में से किसी की चार, किसी की आठ और किसी की दो पंक्तियाँ याद रह गई हैं। शायद ये याद रह जानेवाली पंक्तियाँ ही सबसे अधिक काव्यमयी, या सबसे ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण, या सबसे ज्यादा फड़कती हुई या सबसे ज्यादा खुशी-भरी, या सबसे अधिक कारुणिक थीं।

मालूम नहीं क्यों, मुझे दूसरी नहीं, यही पंक्तियाँ याद रह गई, मगर अभी तक वे मेरी आत्मा में बसी हुई हैं और मैं अपनी प्रियतमा के नाम की तरह उन्हें कभी-कभी दोहराया करता हूँ।

संयोगवश यह भी बात दूँ कि शुरू से आखिर तक जबानी याद अन्य अवार गानों में भी ऐसी पंक्तियाँ हैं, जो मुझे बाकी पूरे गाने के मुकाबले में ज्यादा पसंद हैं।

फिर गानों की ही क्या बात है? अपनी कविताओं में भी मैं कुछ पंक्तियों के बीच अंतर करता हूँ और वे मुझे अधिक प्यारी लगती हैं - वे मुझे दूसरी पंक्तियों की तुलना में ज्यादा श्रेष्ठ, जानदार और काव्यमयी प्रतीत होती हैं। आपसे अपने राज की एक बात कहता हूँ - मेरी लंबी कविताएँ भी हैं, जिन्हें मैंने केवल अपनी कुछ प्रिय पंक्तियों के लिए लिखा है।

कविता अगर पेटी है, तो ये पंक्तियाँ उसमें लटकता हुआ खंजर हैं; कविता अगर खेत है, तो ये पंक्तियाँ उसमें अनाज से भरी बालें हैं, कविता अगर पक्षी है, तो ये पंक्तियाँ उसके पंख हैं; कविता अगर चट्टान के सिरे पर खड़ा हिरन है, तो ये पंक्तियाँ दूर तक देखनेवाली उसकी आँखें हैं।

एक बार मेरे दिमाग में यह खयाल आया कि मिसाल के तौर पर अगर किसी कविता में मुझे आठ पंक्तियाँ पसंद हैं, तो मैं उसमें अस्सी पंक्तियाँ और क्यों जोड़ता हूँ? क्या ये सबसे अच्छी आठ पंक्तियाँ लिख देना ही ठीक न होगा? इसीलिए मैंने अष्टपदियों की एक पूरी किताब लिख डाली।

मेहमान की आमद से खुश होकर पहाड़ी आदमी छुरा लेता है और साँड़ को काट डालता है। मगर मेहमान को तो मांस का छोटा-सा टुकड़ा ही चाहिए। कोई भी मेहमान पूरा साँड़ नहीं खा सकता।

'अगर मेरे लिए मुर्गी ही काफी है, तो भला मुझे भी बड़ा साँड़ काटने की क्या पड़ी है?' मैंने सोचा।

इसीलिए उस किताब से, जो मैं कभी लिखूँगा, मैं सभी फालतू स्थलों को निकाल डालूँगा और सिर्फ उन्हें ही रहने दूँगा, जो मुझे प्रिय होंगे, चाहे पुस्तक दस या बीस गुना ही लंबी क्यों न हो।

एक बार मेरी उपस्थिति में एक जवान लाक कवि ने अबूतालिब को अपनी कविताएँ सुनाई। दस कविताएँ सुनाकर वह चला गया। तब अबूतालिब ने मुझसे कहा -

'शाबास है इसे, यह जरूर कुछ बन जाएगा।'

'तुम्हें अच्छी लगीं उसकी कविताएँ?'

'उसकी सभी कविताएँ कमजोर थीं। मगर आठ पंक्तियाँ ऐसी थीं, जिनके लिए लड़ाई में अभी-अभी जीता गया किला उसे दिया जा सकता है। लाक भाषा में ऐसी अष्टपदी किसी ने नहीं लिखी।'

हाँ तो अगर कविताओं और गानों में ऐसी पंक्तियाँ - चतुष्पदियाँ और अष्टपदियाँ - होती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता, तो ऐसी ही अविस्मरणीय भेंटें और दिन तथा किसी देश के मामले में ऐसी घटनाएँ और उपलब्धियाँ भी होती हैं, जो स्मृति-पटल पर अमिट छाप छोड़ देती हैं। मैं उन्हें भी शामिल कर लेना चाहता हूँ, अपनी नई इमारत, अपनी नई किताब की दीवारों में चुनना और सीमेंट से पक्का कर देना चाहता हूँ। मैं स्पष्टीकरण के सुंदर शब्दों को उनका स्थान नहीं देना चाहता। अच्छा होगा कि वे खुद ही अपनी बात कहें।

सागर-तट पर मार्च हमेशा तूफानों का महीना होता है। उन्ही दिनों मखचकला में एक बार तूफान आया। दो तेज हवाएँ - एक कास्पियन सागर से और दूसरी पहाड़ों से आनेवाली - आपस में टकराई। एक हवा सागर के खुले विस्तार पर फुंकारती हुई नगर में घुसी और दूसरी बहुत ऊँचाई से जैसे नीचे आ गिरी। दोनों हवाएँ आपस में बुरी तरह उलझ गई, गुत्थस-गुल्था हो गई और उनमें द्वंद्व होने लगा। जब दो देव आपस में भिड़ रहे हों, तो उनके बीच आना खतरनाक होता है। मगर इस बार मखचकला उनके बीच आ गया था।

जमीन पर जो कुछ भी ढीला-ढाला पड़ा था, मजबूती से उसके साथ जुड़ा-बँधा हुआ नहीं था, फौरन हवा में उड़ गया। छोटे-पतले पेड़-पौधों, खाली डिब्बे-पेटियों, झोंपड़ियों के छप्परों, प्लाइवुड के स्टॉलों और सभी तरह के कूड़े-करकट का यही हाल हुआ।

मगर जमीन में अच्छी तरह से अपनी जड़ जमाए हुए पुराने पेड़ और बड़े-बड़े मकान बड़ी मजबूती और शान से खड़े रहे। जो कुछ भी हल्का-फुल्का और अस्थिर था, हवा में उड़ गया और मजबूत तथा दृढ़ जहाँ का तहाँ बना रहा।

इसी तरह ऐसी घटनाएँ, ऐसी मानवीय भावनाएँ और विचार भी होते हैं, जो वक्त की हल्की-सी हवा में भी उड़ जाते हैं। मगर कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें जिंदगी के तेज-से-तेज तूफान भी न तो इधर-उधर बिखरा सकते हैं और न उड़ा सकते हैं।

ऐसी जानदार घटनाओं, विचारों और भावनाओं से ही मुझे अपनी पुस्तक की इमारत खड़ी करनी है। परंपरागत अवार शैली में उसका निर्माण होना चाहिए, साथ ही यह भी जरूरी है कि वह आधुनिक हो। घर ऐसा होना चाहिए कि परिवार भी उसमें खुश रहे और मेहमान को भी सुख मिले। घर ऐसा होना चाहिए कि उसमें बच्चों के लिए खुशी का समान हो, जवानों के लिए प्यार की सुविधा और बुजुर्गो के लिए चैन का आधार हो।

मेरी किताब है - मेरा दागिस्तान। कैसी रूप-रेखाएँ हैं मेरे सामने उसकी? किससे तुलना करता हूँ मैं उसकी? पंख फैलाकर उड़ते हुए उकाब से? मगर उकाब को तो इनसानी हाथों ने नहीं बनाया और हमारे विचारों का उसमें कुछ भी भाग नहीं है। तो शायद हवाई जहाज से उसकी तुलना की जाए? मगर हवाई जहाज तो जमीन से बहुत ही अधिक ऊँचाई पर उड़ता है और जब जमीन पर होता है, तो हवाई अड्डे के दृश्य के सिवा उसके इर्द-गिर्द और कुछ भी नजर नहीं आता। धरती को जब ऊँचाई से देखा जाता है और ऊँचाई से ही उसकी चर्चा की जाती है, तो मुझे अच्छा नहीं लगता। नहीं, मैं ऐसे यंत्र की रूप-रेखा देख रहा हूँ, जो हवाई जहाज की तरह उड़ता है, रेलगाड़ी की तरह दौड़ता है और जहाज की तरह तैरता है। मैं ही उसका हवाबाज, ड्राइवर और खेवनहार हूँ। हमारा प्रस्थान-स्थान हमारा हवाई अड्डा, हमारा घाट, हमारा स्टेशन है हजारों सालों की उम्रवाला अमर दागिस्तान। यहाँ से हम हवाई जहाज, रेलगाड़ी और जहाज द्वारा दुनिया के किसी भी छोर पर जा सकते हैं। वहाँ, जहाँ मैं हो आया हूँ या वहाँ जहाँ कम-से-कम मेरी कल्पना हो आई है। हम रेलगाड़ी में जाते हैं, हवाई जहाज में उड़ते हैं, जहाज में तैरते हैं। हमें खिड़कियों से नजर आते हैं बर्फ ढके सफेद पहाड़, रसीली, हरी चरागाहें, चौड़ी नदियाँ और तटहीन महासागर। हमारी खिड़कियों के सामने से गुजरते हैं उमंग-भरा वसंत, विनम्र पतझर, कड़ाके का जाड़ा और झुलसती गर्मी। और मुसाफिर तो कितने अधिक हैं मेरे इर्द-गिर्द! यहीं हैं शामिल के पट्टियाँ बँधे मुरीद, जिनकी पट्टियों में से खून रिस रहा है, यहीं हैं पहाड़ी छापामार और विभिन्न पेशों के मेरे समकालीन। मेरे इर्द-गिर्द वे सभी हैं, जिन्हें मैंने कभी देखा है, जिनसे मेरी मुलाकात हुई है, जिनसे मैंने कभी बातचीत की और जो मुझे याद रह गए हैं।

हाँ मेरी रेलगाड़ी-पुस्तक, वायुयान-पुस्तक, जलयान-पुस्तक के लिए बस एक ही टिकट या अनुमति-पत्र की जरूरत है कि उनकी मेरे स्मृति-पटल पर छाप रह गई हो। लोग और घटनाएँ उन अष्टपदियों और पंक्तियों के समान होनी चाहिए, जो मुझे गली में घूमते हुए गायकों के लंबे गानों में से याद रह गई हैं। वे उन आठ पंक्तियों जैसी होनी चाहिए, जिनकी अबूतालिब ने जवान कवि की दस लंबी कविताएँ सुनकर तारीफ की थी। वे उन वृक्षों और मकानों जैसे होने चाहिए, जो तूफान में जहाँ के तहाँ बने रहे, जबकि जो कुछ हल्का-फुल्का और अस्थिर था, वह पतझर के पत्तों की भाँति उड़ गया था।

यहीं तो गाजनिची गाँव के एक मुसलिम के साथ मेरी तुलना हो जाएगी। अब मैं आपको यह बताता हूँ कि उसके साथ क्या हुआ था।

मई के महीने में भेड़ों को धूल और उमस भरी स्तेपी से हरे-भरे, ठंडे पहाड़ों में ले जाया जाता है। उस वक्त गाजानिची गाँव के मुस्लिम नामक एक लेखक ने लेखक-संघ से यह अनुरोध किया कि उसे भेड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के बारे में शब्द-चित्र लिखने के लिए दौरे पर भेज दिया जाए। वैसे मुमकिन है कि यह सितंबर महीने की बात हो, जब भेड़ों को पहाड़ों से, जहाँ इस वक्त ठंड हो जाती है, जाड़े के लिए गर्म स्तेपियों में भेजा जाता है। हमने मुसलिम को दौरे पर भेज दिया। मुसलिम रवाना हो गया और उसने चरवाहों और रेवड़ों के साथ ईमानदारी से सारा रास्ता तय किया। जब वह लौटा, तो उसके द्वारा लिखी गई नोटबुकें एक अलग घोड़े पर लादकर लाई गई। हुआ यह कि उसने जो कुछ भी देखा, वह सभी कुछ हर दिन लिखता गया। कोई भी चीज, कोई छोटी-मोटी बात भी उसने नहीं छोड़ी। किसी घोड़े को देखा, तो उसके बारे में, चरवाहे को देखा, तो उसके बारे में और भेड़ को देखा, तो उसके संबंध में लिख डाला। जरा खयाल कीजिए कि कितनी भेड़ें और कितने चरवाहे थे वहाँ! उसने जो कुछ देखा, वह भी लिखा, और जो कुछ सुना, वह भी। और वह भी सभी कुछ। उसने उनके बारे में लिखा, जो ज्यादा तेजी दिखा रहे थे और जिन्हें थोड़ा रोकना जरूरी था और उनके संबंध में भी जो पिछड़ गए थे और जिन्हें आगे खदेड़ना जरूरी था चुनांचे रास्ते के बारे में रास्ते से ज्यादा लंबी किताब बन गई। ऐसी किताब बन गई, जिसे पढ़ने के लिए उतना ही वक्त लगाना जरूरी था, जितना मुसलिम ने अपने सफर में लगाया था। चरवाहों ने बाद में हमें बताया कि जब वे गिमरा पर्वतमाला पर चढ़ रहे थे, तो एक खच्चर दिखाई दिया। इतना ही नहीं कि खच्चर को देखते ही मुसलिम ने उस बेचारे के बारे में कलम चला डाली, उसे उसके चारों सुम भी देखने की इच्छा हुई। मुसलिम उसकी तरफ लपका, उसकी एक पिछली टाँग पकड़ ली और उसने उसे ऊपर उठाना चाहा। मगर खच्चर ने लेखक के नेक इरादे और इस घटना के महत्व को न समझते हुए बदकिस्मत मुसलिम पर बदतमीजी से लात चला दी और वह उसकी नाक पर जा लगी।

इर्द-गिर्द जमा चरवाहे हँस पड़े -

'मुसलिम को यह भी लिखना होगा!'

बेशक यह सही है कि खच्चर सनकी और बदतमीज जानवर है, मगर मुसलिम के मामले में उसने शायद ठीक ही किया था। जरूरत से ज्यादा तंग करनेवाले आदमी को सजा मिलनी ही चाहिए।

बाद में हमने लेखक संघ में मुसलिम की इस रचना पर विचार किया। मजाक करते हुए हमने उससे यह पूछा -

'मुसलिम, तुम्हारी इस किताब में हारीकुली गाँव के गधे के बच्चे से लेकर खच्चर के सुम तक सभी कुछ लिखा हुआ है। मगर यह बताओ कि बिना सींगोंवाले बकरे को तुम कैसे भूल गए?'

'अजी, आप यह क्या कह रहे हैं? कैसे भूल सकता था मैं उसे! बिना सींगोंवाला बकरा भी है मेरी किताब में। मगर मैंने स्थानीय बोली में उसका जिक्र किया है। मैंने 'खान्क्वा' के नाम से उसके बारे में लिखा है।'

हम सब खूब हँसे। मगर फिर भी बाद में हमने उसे यह समझाने की कोशिश की कि लेखक जो कुछ देखता है, उसे उस सभी के बारे में नहीं लिखना चाहिए, उसे तो अपनी जरूरत की सामग्री चुननी चाहिए। एक वाक्य बहुत बड़े विचार को, एक शब्द बहुत बड़े भाव और एक अंश पूरी घटना को व्यक्त कर सकता है।

कुछ ही समय पहले हमारे यहाँ सभी तरह का पुनर्गठन किया गया। अभी भी हम किसी-न-किसी चीज का अचानक पुनर्गठन करने लगते हैं। मुझे भी यह छूत लग गई है। मैं अपनी विधा का पुनर्गठन करता हूँ। मैं सभी विधाओं को एक किताब में इकट्ठा कर रहा हूँ, उन पर अपना संचालन स्थापित कर रहा हूँ। कहीं मैं कर्मचारियों की संख्या घटा रहा हूँ, तो कहीं बढ़ा रहा हूँ। कहीं-कहीं विधाओं को बदल रहा हूँ, दो को एक में मिला रहा हूँ और एक को दो में बाँट रहा हूँ। यदि बहुत अधिक पुनर्गठन किए जाएँ, तो चाहे संयोगवश ही, कोई-न-कोई तो बढ़िया हो ही जाएगा।

मखचकला में आनेवाले पहाड़ी का किस्सा। एक पहाड़ी सरकारी दौरे पर मखचकला आया। उसके पास बहुत पैसे थे और सो भी अपने नहीं, सरकारी। वह दोनों वक्त रेस्तराँ में खाना खाता। अपनी आमद के पहले दिन उसने सारे हॉल को सुनाते हुए चिल्लाकर कहा -

'बैरा, और ब्रांडी लाओ!'

सभी ने यह सुना, उसकी तरफ मुड़े और हैरान हुए कि यह कौन है, जो इतनी अधिक पीता है और जिसे महँगी ब्रांडी पर पैसे खर्च करते हुए तकलीफ नहीं होती।

अपने दौरे के आखिरी दिन हमारे इसी पहाड़ी ने उसी बैरे से फुसफुसाकर पूछा -

'आपके रेस्तराँ में सेंवइयों के शोरबे का क्या दाम है?'

तो बैल का जुताई के शुरू में नहीं, अंत में पता चलता है। इस बात से नहीं कि वह चरागाह में कैसे कुलाँचें भरता है, बल्कि इससे कि वह जुए में कैसे चलता है। घोड़े पर सवारी करने के समय नहीं, बल्कि उससे उतरते वक्त उसकी चर्चा की जाती है।

क्या मैं अनसालतीवासियों के बिगुल की तरह अपनी किताब का भोंपू तो नहीं बजा रहा हूँ? क्या मैं सिवुखवासियों की तरह लकड़ी का चूल्हा तो नहीं बना रहा हूँ? क्या मैं भेड़िये की जगह किसी कुत्ते को तो नहीं मार रहा हूँ, जैसा कि एक बार मेरे त्सादा गाँववालों ने किया था।

मंजिल के शुरू में मंजिल दूर लगती है। उस तक पहुँचने के लिए मुझमें पर्याप्त साहस, प्यार और सब्र तो बना रहेगा? या फिर अंत तक पहुँचने पर गुद्दी खुजाते हुए यह सोचना होगा कि सेंवइयों का क्या दाम है?

संस्मरण। एक बार दागिस्तान में बहुत कड़ाके का जाड़ा पड़ा। अचानक ही बर्फ गिरी और जमीन पर उसकी कोई एक मीटर ऊँची तह जम गई।

भेड़े-मेमने चरें तो क्या? वे मरने लगीं। मुझे प्रादेशिक पार्टी समिति में बुलाकर कहा गया -

'रसूल, चरागाहों में जाओ, भेड़ों को बचाना जरूरी है।'

'मैं उन्हें क्या मदद दे सकता हूँ?'

'वहाँ जाकर जैसा जरूरी समझो, कुछ सोच लेना। उन्हें बचाने की तरकीब ढूँढ़नी ही होगी।'

चरागाहों का रास्ता तो मैं अच्छे मौसम में भी ढंग से नहीं जानता था और बर्फीले तूफान में उसे ढूँढ़ना मेरे लिए कैसा रहा होगा, यह तो आप सोच ही सकते हैं। मगर पार्टी का अनुशासन तो सबसे ऊपर ठहरा, और इसलिए मैं बर्फ और तेज हवा में अपना रास्ता बनाता हुआ चल दिया। आखिर एक रेवड़ तक जा पहुँचा। चरवाहों के चेहरों पर मातम छाया था। उनके गालों और मूँछों पर आँसुओं की जमी हुई बूँदों की धुँधली-सी मालाएँ बनी हुई थीं। लहू-लुहान थूथनियोंवाली भेड़ें जमी हुई बर्फ की तहों के नीचे से घास पाने की कोशिश करती थीं। मगर इसमें उन्हें कामयाबी न मिलती थी और वे मर जाती थीं। भेड़ियों और चोरों की फिक्र न करते हुए कुत्ते हवा से बचने के लिए इधर-उधर जा छिपे थे। मतलब यह कि मेरे सामने मुसीबत और लाचारी का नजारा था। मुझे देखकर चरवाहे कटुतापूर्वक हँस पड़े -

बस, कविताओं और गीतों की ही कसर रह गई थी। त्सादा गाँव के हमजात के बेटे, तुम तो हमें कविता या गीत गाकर सुनाने ही आए हो न? यह ज्यादा अच्छा होगा कि तुम कोई मरसिया पढ़ो और हम फूट-फूटकर रोएँगे।

तीन दिनों तक मैं चरवाहों के झोपड़े मैं बैठा रहा और फिर यह देखकर कि मेरे वहाँ बैठे रहने से कोई फायदा नहीं और न ही हो सकता है, पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। मैं मखचकला वापस आ गया।

'कहो, क्या बचा ली भेड़ें?' मुझसे प्रादेशिक पार्टी-समिति में पूछा गया।

'हाँ, तीन भेड़ें बचा लीं।'

'वह कैसे, बताओ तो!'

'बड़े सीधे-सादे ढंग से। चरवाहों ने तीन भेड़ें काट डालीं और हमने उन्हें खा लिया। मेरे खयाल में तो मैंने ये तीनों भेड़ें बचा लीं।'

'इसमें क्या शक है,' प्रादेशिक समिति में मुझे यह क्रोधपूर्ण जवाब मिला, 'जाओ, अपनी कविताएँ रचो और जहाँ तक भेड़ों का सवाल है, उन्हें तो हमें ही तुम्हारे बिना बचाना होगा। इसलिए कि अच्छी कविता रचो, हम तुम्हारी लानत-मलामत करते हैं।'

मेरी किताब के साथ भी कहीं ऐसा न हो। रेवड़ों को बचाने जाऊँ, पर जाने कौन-सा मुँह लेकर लोटूँ? सुबह-सवेरे शुरू होनेवाला दिन हमेशा ही तो वैसा साबित नहीं होता, जैसा कि हम चाहते हैं।

संस्मरण। मास्को के साहित्य-संस्थान में मुझे अपना पहला दिन याद आ रहा है। हमने पढ़ाई शुरू की ही थी कि मेरा जन्म-दिन आ गया। जाहिर है कि किसी ने भी मुझे बधाई नहीं दी, क्योंकि कोई जानता ही नही था कि मैंने इस दिन जन्म लिया था। मैंने ओवरकोट खरीदने के लिए कुछ रकम अलग रखी हुई थी, जो मुझे पिता जी ने दी थी।

'हाँ, तो बेचारे रसूल,' मैंने अपने आप से कहा, 'चलो, अपने जन्म-दिन पर खुद ही अपने लिए तोहफा खरीद लो।' मैं वह रकम लेकर तीशीन्स्की मंडी की तरफ चल दिया।

दूसरे विश्व-युद्ध के बादवाले पहले सालों में मास्को की मंडियाँ भी क्या कमाल की थीं! उनके अपने कानून-कायदे थे, अपने चोर बाजारी करनेवाले और अपने ही मिलीशिया वाले। शायद वहाँ गधे और गधी को छोड़कर बाकी सभी कुछ खरीदा जा सकता था।

तीशीन्स्की मंडी बहुत कुछ तो चींटियों की उस बांबी जैसी लगती थी, जिसे किसी ने छेड़ दिया हो। एक घंटा भर मैं लोगों की भीड़ के बीच धकियाया जाता रहा, तो सभी तरह की रद्दी चीजें-सूट, घुटनों तक के जूते, ट्यूनिकें, फौजी ओवरकोट, टोपियाँ, फ्राक, स्वेटर, सेंडल और बैसाखियाँ मेरी तरफ बढ़ा-बढ़ाकर दिखाते थे...

उन दिनों मैं किसी राज्य-मंत्री जैसा दिखना चाहता था। भीड़-भड़क्के में ऐसा ओवरकोट ढूँढ़ रहा था, जिसे पहनते ही मंत्री जैसा दिखने लगूँ। आखिर मुझे चोर बाजारी करनेवाले एक आदमी के कंधे पर कुछ इसी ढंग का ओवरकोट नजर आया। उसके साथ ओवरकोट के रंग और उसी कपड़े की टोपी भी थी।

जाहिर है कि मैंने टोपी से ही शुरू किया। उसे पहनकर आईने में अपनी सूरत देखी - बिल्कुल मंत्री लग रहा था। सौदेबाजी शुरू की। जब तक मैं ऊँची और साफ आवाज में थोड़ी कीमत कहता रहा, उसे जैसे वह सुनाई ही नहीं दी। मगर जब मैंने धीरे-से, फुसफुसाकर असली कीमत कही, तो उसे फौरन सुनाई दे गया। हमने हाथ मिलाए कि सौदा तय हो गया। अपने तीन और पाँच रूबलों के नोटों को अधिक सुविधा से गिनने के लिए मैंने ओवरकोट चोर बाजारी करनेवाले को पकड़ा दिया। दो हजार दो सौ पचास रूबल गिनकर मैंने उसे सौंप दिए। बड़ी शान से मंत्री की तरह अकड़ता हुआ होस्टल में पहुँचा। तभी यह याद आया कि ओवरकोट तो चोर बाजारी करनेवाले के हाथ में ही रह गया। दो हजार दो सौ पचास रूबल देकर मैंने सिर्फ एक टोपी ही खरीदी।

तो इस तरह मंत्री बनने का सपना देखते हुए मैं ओवरकोट और पैसों से भी हाथ धो बैठा। कहीं मेरी किताब के साथ भी ऐसा ही न हो जाए।

सभी को यह मालूम होता है कि उन्हें क्या चाहिए, मगर सभी उसे हासिल नहीं कर पाते। सभी अपनी मंजिल जानते हैं, पर वहाँ तक सभी नहीं पहुँचते। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें यह मालूम है कि किताब कैसे लिखनी चाहिए, मगर वे उसे लिख नहीं पाते।

कहते हैं कि एक ही सूई शादी का फ्राक और मुर्दे का कफन सीती है।

कहते हैं कि वह दरवाजा नहीं खोलो, जिसे बाद में बंद न कर सको।

प्रतिभा : मेरा दाग़िस्तान

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कवि और सुनहरी मछली का किस्सा। कहते हैं कि किसी अभागे कवि ने कास्पियन सागर में एक सुनहरी मछली पकड़ ली।

'कवि, कवि, मुझे सागर में छोड़ दो,' सुनहरी मछली ने मिन्नत की।

'तो इसके बदले में तुम मुझे क्या दोगी?'

'तुम्हारे दिल की सभी मुरादें पूरी हो जाएँगी।'

कवि ने खुश होकर सुनहरी मछली को छोड़ दिया। अब कवि की किस्मत का सितारा बुलंद होने लगा। एक के बाद एक उसके कविता-संग्रह निकलने लगे। शहर में उसका घर बन गया और शहर के बाहर बढ़िया बँगला भी। पदक और 'श्रम-वीरता के लिए' तमगा भी उसकी छाती पर चमकने लगे। कवि ने ख्याति प्राप्त कर ली और सभी की जबान पर उसका नाम सुनाई देने लगा। ऊँचे से ऊँचे ओहदे उसे मिले और सारी दुनिया उसके सामने भुने हुए, प्याज और नीबू से मजेदार बने हुए सीख कवाब के समान थी। हाथ बढ़ाओ, लो और मजे से खाओ।

जब वह अकादमीशियन तथा संसद-सदस्य बन गया था और पुरस्कृत हो चुका था, तो एक दिन उसकी पत्नी ने ऐसे ही कहा -

'आह, इन सब चीजों के साथ-साथ तुमने सुनहरी मछली से कुछ प्रतिभा भी क्यों नहीं माँग ली?'

कवि मानो चौंका, मानो वह समझ गया कि इन सालों के दौरान किस चीज की उसके पास कमी रही थी। वह सागर-तट पर भागा गया और मछली से बोला -

'मछली, मछली, मुझे थोड़ी सी प्रतिभा भी दे दो।'

सुनहरी मछली ने जवाब दिया -

'तुमने जो भी चाहा, मैंने वह सभी कुछ तुम्हें दिया। भविष्य में भी तुम जो कुछ चाहोगे, मैं तुम्हें दूँगी। मगर प्रतिभा नहीं दे सकती। वह, कवि-प्रतिभा तो खुद मेरे पास भी नहीं है।'

तो प्रतिभा या तो है, या नहीं, उसे न तो कोई दे सकता है, न ले सकता है। प्रतिभाशाली तो पैदा ही होना चाहिए।

हमारे कवि ने, जिसे सुनहरी मछली ने सभी तरह से खुशहाल कर दिया था, जल्दी ही अपने को हंसों के पंख लगा लेनेवाले कौवे की तरह महसूस करना शुरू किया। पराये पंखों का सौंदर्य शीघ्र ही खत्म हो गया और उसके अपने पंख भी बहुत कम रह गए थे। इस तरह कवि पहले की तुलना में भद्दा दिखने लगा।

दोहराने से प्रार्थना कुछ खराब नहीं हो जाती। इसलिए मैं भी दोहराता हूँ। लिखने के लिए प्रतिभा का होना जरूरी है और अगर वह सुनहरी मछली के भी पास नहीं, तो उसे कहाँ से हासिल किया जाए?

पिता जी ने यह बात सुनाई। दूर के किसी गाँव से एक पहाड़ी आदमी पिता जी के पास आया और अपनी कविताएँ सुनाने लगा। पिता जी ने इस नए कवि की रचनाएँ बहुत ध्यान से सुनीं और फिर अपेक्षाकृत अधिक कमजोर और बेजान स्थानों की ओर संकेत किया। इसके बाद उन्होंने पहाड़ी को यह बताया कि वह खुद, त्सादा का हमजात इन्हीं कविताओं को कैसे लिखता।

'प्यारे हमजात,' पहाड़ी आदमी कह उठा, 'ऐसी कविताएँ लिखने के लिए तो प्रतिभा चाहिए।'

'शायद तुम ठीक ही कहते हो, थोड़ी-सी प्रतिभा से तुम्हें कोई हानि नहीं होगी।'

'तो यह बताइए कि वह कहाँ मिल सकती है,' हमजात के जवाब में निहित व्यंग्य को न समझते हुए पहाड़ी ने खुश होकर पूछा।

'दुकानों पर तो मैं आज गया था, वहाँ वह नहीं थी, शायद मंडी में हो।'

कोई भी यह नहीं जानता कि आदमी में प्रतिभा कहाँ से आती है। यह भी किसी को मालूम नहीं कि इसे धरती देती है या आकाश। या शायद वह धरती और आकाश दोनों की संतान है? इसी तरह यह भी कोई नहीं जानता कि इनसान में किस जगह पर वह रहती है - दिल में, खून में या दिमाग में? जन्म के साथ ही वह छोटे-से इनसानी दिल में अपना घर बना लेती है या धरती पर अपना कठिन मार्ग तय करते हुए आदमी बाद में उसे हासिल करता है? किस चीज से उसे अधिक बल मिलता है - प्यार से या घृणा से, खुशी से या गम से, हँसी से या आँसुओं से? या प्रतिभा के लिए इन सभी की जरूरत होती हे? वह विरासत में मिलती है या मानव जो कुछ देखता, सुनता, पढ़ता, अनुभव करता और जानता है, उस सभी के परिणामस्वरूप वह उसमें संचित होती है?

प्रतिभा श्रम का फल है या प्रकृति की देन। यह आँखों के उस रंग के समान है, जो आदमी को जन्म के साथ ही मिलता है, या उन मांस-पेशियों के समान है, जिनका दैनिक व्यायाम के फलस्वरूप वह विकास करता है? यह माली द्वारा बड़ी मेहनत से उगाए गए सेब के पेड़ के समान है या उस सेब के समान, जो पेड़ से सीधा लड़के की हथेली पर आ गिरता है?

प्रतिभा - यह तो इतनी रहस्यमयी है कि जब पृथ्वी, उसके अतीत और भविष्य, सूर्य और सितारों, आग और फूलों, यहाँ तक कि इनसान के बारे में भी सब कुछ मालूम कर लिया जाएगा, तभी, सबसे बाद में ही यह पता चल सकेगा कि प्रतिभा क्या चीज है, वह कहाँ से आती है, कहाँ उसका वास होता है और क्यों वह एक आदमी को मिलती है और दूसरे को नहीं मिलती।

दो प्रतिभावान व्यक्तियों की प्रतिभा एक जैसी नहीं होती, क्योंकि समान प्रतिभाएँ तो प्रतिभाएँ ही नहीं होतीं। शक्ल-सूरत की समानता पर तो प्रतिभा बिल्कुल ही निर्भर नहीं करती। मैंने अपने पिताजी के चेहरे से मिलते-जुलते चेहरोंवाले बहुत-से लोग देखे हैं, मगर पिता जी के समान प्रतिभा मुझे किसी में भी दिखाई नहीं दी।

प्रतिभा विरासत में भी नहीं मिलती, वरना कला-क्षेत्र में वंशों का बोलबाला होता। बुद्धिमान के यहाँ अक्सर मूर्ख बैटा पैदा होता है और मूर्ख का बेटा बुद्धिमान हो सकता है।

किसी व्यक्ति में अपना स्थान बनाते समय प्रतिभा कभी इस बात की परवाह नहीं करती कि जिस राज्य में वह रहता है, वह कितना बड़ा है, उसकी जाति के लोगों की संख्या कितनी है। प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्याशित ही आती है और इसीलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान में अचानक आनेवाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है।

कैसे मैंने एक दोस्त खो दिया। एक दिन मैं अपनी मेज पर बैठा काम कर रहा था कि एक जवान घुड़सवार मेरे घर आया।

'सलाम अलैकम।'

'वालैकम सलाम।'

'रसूल, मैं तुम्हारे पास एक छोटी-सी प्रार्थना लेकर आया हूँ।'

'भीतर आकर अपनी प्रार्थना मेज पर रख दो।'

नौजवान ने जेब में हाथ डाला और सचमुच ही कुछ कागज निकालकर मेज पर रख दिए। पहला कागज मेरे पिता जी के परम मित्र और मेरे यहाँ भी अक्सर आनेवाले व्यक्ति का पत्र था। हमारे घर और परिवार के मित्र ने लिखा था -

'प्यारे रसूल, यह नौजवान हमारा नजदीकी रिश्तेदार और बहुत भला आदमी है। इसे अपने जैसा विख्यात कवि बनने में मदद दो।'

बाकी कागज थे - ग्राम-सोवियत का प्रमाण-पत्र, सामूहिक फार्म का प्रमाण-पत्र, पार्टी-संगठन का प्रमाण-पत्र और योग्यता-पत्र।

ग्राम-सोवियत के प्रमाण-पत्र में लिखा था कि फलाँ-फलाँ वास्तव में ही काहाब-रोस्सो के मशहूर शायर महमूद का भतीजा है और ग्राम-सोवियत के मतानुसार प्रसिद्ध दागिस्तानी कवियों की पंक्ति में स्थान पाने का बहुत ही योग्य उम्मीदवार है।

दूसरे प्रमाण-पत्रों में यह बताया गया था कि महमूद का भतीजा पचीस साल का है, कि वह नवीं कक्षा तक पढ़ा है और बिल्कुल स्वस्थ है।

'बहुत खूब,' मैंने कहा, 'लाओ, दिखाओ अपनी रचनाएँ। मुमकिन है कि तुम सचमुच प्रतिभाशाली हो और वक्त आने पर प्रसिद्ध कवि बन सकोगे। मुझसे जो कुछ भी हो सकेगा, हर तरह से तुम्हारी मदद करूँगा और इस तरह हमारे साझे मित्र की प्रार्थना भी पूरी हो जाएगी।'

पर यह तुम क्या कह रहे हो? मुझे तो तुम्हारे पास भेजा ही इसीलिए गया है कि तुम मुझे कविता लिखनी सिखाओ। मैंने तो अब तक कभी कविता नहीं रची।'

'तो तुम करते क्या हो?'

'सामूहिक फार्म में काम करता हूँ। मगर इस काम से कुछ भी बनता-बनाता नहीं। श्रम-दिवस लिख लेते हैं, पर बाद में कुछ देते-दिलाते नहीं। कुनबा हमारा बड़ा है। इसीलिए मुझे कवि बनाने की बात सोची गई है। मुझे मालूम है कि मेरे चाचा महमूद काफी कमाते थे, जितना मैं सामूहिक फार्म में कमाता हूँ, उससे कहीं ज्यादा। कहते हैं कि रसूल, तुम भी खासे पैसे पाते हो।'

'मुझे लगता है कि बहुत चाहने पर भी मैं तुम्हें कवि नहीं बना सकूँगा।'

'यह तुम क्या कहते हो? मैं तो महमूद का भतीजा हूँ। प्रमाण-पत्र में सब कुछ लिखा हुआ है? ग्राम-सोवियत भी मेरा समर्थन करती है और पार्टी-संगठन भी।'

'अगर तुम महमूद के बेटे भी होते, तब भी मैं कुछ न कर पाता। जैसा कि सभी जानते हैं, महमूद का बाप लकड़ी का कोयला बनाता था, कवि नहीं था।'

'तो बताओ, यह भी कोई इंसाफ है? तुम कवि और लेखक यहाँ मखचकला में साहित्य का चर्बीवाला धड़ आपस में बाँट लेते हो। क्या मुझे कुछ अंतड़ियाँ भी नहीं मिल सकतीं? मैं अंतड़ियों के लिए भी राजी हूँ। तो मैं अब क्या करूँ? मुझे कहीं अच्छी नौकरी पाने में मदद करो। मेरे प्रमाण-पत्र बिल्कुल ठीक-ठाक हैं।'

महमूद का भतीजा होने के नाते हमने साहित्यिक-कोश से उसकी कुछ माली मदद कर दी और फिर मेरी प्रार्थना पर दागिस्तान बिजली मशीन कारखाने के डायरेक्टर ने उसे अपने यहाँ नौकरी दे दी।

मगर लोकप्रिय कवियों की पंक्ति में जगह पाने के इस उम्मीदवार को अपने भाग्य से संतोष नहीं हुआ। कुछ ही समय बाद उसके पिता ने, जो हमारे मित्र थे, नाराजगी का यह पत्र भेजा -

'तुम्हारे पिता हमजात मेरी सभी प्रार्थनाएँ हमेशा पूरी करते थे। उन्होंने मुझे कभी किसी चीज के लिए इनकार नहीं किया था। मगर तुमने, हमजात के बेटे ने मेरा ऐसा छोटा-सा अनुरोध कि मेरे बेटे को कवि बना दो, पूरा करने से भी इनकार कर दिया। लगता है कि रसूल, तुम्हें घमंड हो गया है। तुम अपने बाप जैसे नहीं हो। मैंने कभी भी अपने दोस्तों से नाता नहीं तोड़ा, मगर अब ऐसा करना पड़ रहा है। बस, खत्म।'

तो इस तरह प्रतिभा के कारण या यह कहना अधिक सही होगा कि प्रतिभा के अभाव के कारण मैं एक अच्छा मित्र गँवा बैठा। मेरा मित्र सचमुच ही अच्छा आदमी था, पर सिर्फ इतना ही नहीं समझता था कि कोई भी, चाहे वह लेखक-संघ का अध्यक्ष, चाहे पार्टी-संगठन का सेक्रेटरी, चाहे सरकार का अध्यक्ष ही क्यों न हो, वैसे ही प्रतिभा नहीं बाँट सकता है, जैसे मेज पर रखी, भुनी हुई गर्मा-गर्म भेड़ के मांस के टुकड़े मेज के चारों और बैठे पहाड़ी लोगों में बाँटे जाते हैं।

या फिर दागिस्तान के रास्तों पर जाते हुए हम माल से लदी बैलगाड़ी को ऊपर चढ़ते देखते हैं। एक आदमी उसे ऊपर की ओर खींचने में मदद देता है और दूसरा पीछे से धकेलता है।

या फिर हम भारी ट्रक द्वारा बर्फ के ढेर में फँसी छोटी-सी 'मोस्कवीच' कार को रस्से से अपने पीछे बाँधकर खींचते हुए देखते हैं।

या फिर हमें यह नजर आता है कि तंग पहाड़ी रास्ते पर धीरे-धीरे चलनेवाली भारी ट्रक तेज कार को किसी भी तरह आगे नहीं निकलने देती।

प्रतिभा बैलगाड़ी नहीं है, जिसे दो आदमी मिलकर धकेल सकते हैं या आगे खींच सकते हैं; प्रतिभा 'मोस्कवीच' कार भी नहीं है, जिसे रस्सा बाँधकर खींचा जाए; प्रतिभा वह कार भी नहीं है, जो अपने लिए रास्ता बनाकर आगे न निकल सके।

प्रतिभा को पीछे से धकेलने की जरूरत नहीं होती और हाथ पकड़कर उसे आगे बढ़ाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। वह खुद अपना रास्ता बना लेती है और खुद ही सबसे आगे पहुँच जाती है।

मगर बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो यह उम्मीद लगाए रहते हैं कि उन्हें या तो पीछे से धकेला जाए या आगे की ओर खींचा जाए। लीजिए, यह रहा छोटा-सा एक और किस्सा, जिसे निम्न शीर्षक दिया जा सकता है -

बेशक बूढ़ी, मगर प्रतिभाशाली हो। जब मैं मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ता था, तो अनेक रूसी कवियों से, जो उसी संस्थान के विद्यार्थी थे, मेरी दोस्ती हो गई। वे मेरी कविताओं का अनुवाद करने लगे। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ये अनुवाद छपने लगे। रूसी अनुवादों की बदौलत दागिस्तान की अन्य जातियों के लोगों ने भी मेरी कविताएँ पढ़ीं।

उन सालों में कुछ ऐसे लोग थे, जो बेकार यह बक-बक किया करते थे कि रसूल हमजातोव तो अवार भाषा में कविता रच ही नहीं सकता, कि प्रतिभाशाली रूसी अनुवादक उसका नाम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और यह कि वह रूसी पाठकों की रुचि के अनुसार ही कविता रचता है।

इसी सिलसिले में मुझे अक्सर एक दागिस्तानी कवि की याद आ जाती है। दागिस्तान में तात नाम की एक छोटी-सी जाति है। इस जाति के लोगों की कुल संख्या पंद्रह हजार से अधिक नहीं होगी। फिर भी पाँच-छह ऐसे तात लेखक हैं, जो सारे दागिस्तान में प्रसिद्ध हैं। उनकी किताबें मखचकला में मातृभाषा में भी छपती हैं और उनके रूसी अनुवाद भी प्रकाशित होते हैं। मैं एक तात कवि की ही चर्चा करना चाहता हूँ। उसका नाम बताना जरूरी नहीं है।

मास्को के साहित्य-संस्थान की पढ़ाई समाप्त कर मैं अपने मखचकला में वापस आ गया था। मेरे लौटने के कुछ ही दिन बाद उक्त तात कवि ने मुझे आमंत्रित किया। उसने जनावृत स्थान पर मेरी दावत की। हमारे सामने था दूर-दूर तक फैला हुआ कास्पियन सागर और फिर एक-एक शब्द का रूसी में अनुवाद करता ताकि उसकी कविता के भाव मेरी समझ में आ जाएँ।

यह ध्यान में रखते हुए कि मैं मेहमान हूँ और वह मेजबान; यह ध्यान में रखते हुए कि कहीं वह यह न समझे कि मैं मास्को में प्राप्त अपने ज्ञान की डींग मारना चाहता हूँ; यह भी ध्यान में रखते हुए कि सभी कवि आलोचना की तुलना में प्रशंसा अधिक पसंद करते हैं; यह भी दृष्टि में रखते हुए कि किसी तरह की आलोचना से भी उसे कोई लाभ नहीं होगा; और अंत में इस बात को भी ध्यान में रखते हुए कि उसने मेरी हर कविता और हर पंक्ति की तारीफों के पुल बाँधे हैं। मैं बड़ी बेहयाई से उसकी सभी कविताओं की प्रशंसा करता रहा।

यह सच है कि उसकी कुछ कविताएँ मुझे पसंद भी आई और मैंने दिल से उनकी तारीफ की। मगर कुछ कविताएँ मुझे अचछी नहीं लगीं और उनके मामले में मैंने बेईमानी से काम किया। हाँ, उसी वक्त मैंने मन ही मन कास्पियन सागर की लहरों की तरफ अपनी भुजाएँ फैला दीं, उनके सामने घुटने भी टेके और कहा - 'मेरा यह झूठ क्षमा करना।' इसके बाद मैं मन ही मन पहाड़ों की तरफ मुड़ा, उनकी सफेद हिम-मढ़ित चोटियों की ओर बाँहें फैलाई, उनके सामने घुटने टेके और कहा - 'मेरा यह झूठ क्षमा करना।'

एक-दूसरे को अपनी कविताएँ सुनाने और एक-दूसरे की तारीफ करने के बाद हम कुछ देर तक चुप रहे। मैं सागर का संगीत सुनता रहा और मेरा दोस्त, जैसा कि बाद में सिद्ध हुआ, अपने ख्यालों में खोया हुआ था। आखिर उसने यह बातचीत शुरू की -

'रसूल, मैं एक बहुत ही जरूरी मामले में तुम्हारी राय लेना चाहता हूँ। मगर वादा करो कि किसी से इसका जिक्र नहीं करोगे।'

मैंने वादा किया।

'यह तो तुम जानते ही हो कि तात जाति के हम लोगों की संख्या बहुत कम है। इसलिए मुझे और मेरी कविताओं को घुटन-सी महसूस होती है। तुम ठीक करते हो कि मास्को में अपने पाठक खोजते हो। मैं तुम्हारा ही अनुकरण करना चाहता हूँ, जाकर मास्को रहना चाहता हूँ। मगर मेरे तो वहाँ न रिश्तेदार हैं, न दोस्त और न जान पहचानवाले ही। सिर छिपाने की जगह भी नहीं है। तुम्हारा क्या खयाल है, अगर मैं अपनी किताब के लिए मिलनेवाले पैसे लेकर मास्को चला जाऊँ, तो क्या वहाँ रहने को कोई ढंग की जगह मिल जाएगी?'

'क्यों नहीं मिल जाएगी? जेब में पैसे हों, तो कमरा किराए पर लिया जा सकता है।'

'मेरा यह मतलब नहीं था। वहाँ मुझे बीवी मिल जाएगी या नहीं? बेशक वह बूढ़ी हो, बदसूरत हो, कैसे भी क्यों न हो, मगर प्रतिभाशाली हो, रूसी भाषा में मेरी कविताओं का अनुवाद कर सके, मेरी रचनाओं को लोगों तक पहुँचा सके। बाद में, अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद तो मैं अपना रास्ता ढूँढ़ लूँगा। इसके बिना तो मैं जातीय कूपमंडूक ही बनकर रह जाऊँगा।'

मैंने एक बार फिर से उसे बहुत गौर से देखा। जिंदगी की आग से दहकता हुआ पचीस साल का तगड़ा काकेशियाई जवान था वह। बड़े-बड़े हाथ और उँगलियाँ बालों से ढकी हुईं, छाती के बाल दीवार में ठुकी हुई कीलों की तरह कड़े, साँवले, लगभग गेहुँआ चेहरे पर मोटे-मोटे होंठ और झील की तरह नीली आँखें। सिर साही जैसा लगता था, दाँत बड़े-बड़े और सफेद थे और टाँगे लट्ठों जैसी थीं। सारे शरीर पर मांसपेशियाँ उभरी हुई थी। आदिम मानव का अच्छा नमूना-सा था वह। कई लाख की आबादीवाले शहर में, सो भी युद्ध के बाद के तीसरे साल में, इसे क्या कठिनाई हो सकती थी बीवी हासिल करने में। मैंने उसे जवाब दिया -

'तुम तो बस, सड़क के बीच खड़े होकर सीटी बजा देना और तब देखना कि बीवियाँ, जैसी भी तुम चाहो, कैसे भागी आती हैं।'

मेरा दोस्त एक बच्चे की तरह खिल उठा। वह हाथों के बल खड़ा हो गया और इसी तरह हाथों पर चलता हुआ पानी में, सागर में चला गया। तैरने से पहले उसने इतना और पूछा -

'तुम क्या सलाह देते हो - हवाई जहाज से मुझे मास्को जाना चाहिए या गाड़ी से?'

छह महीने बीत गए। टोपी पर से नम बर्फ झाड़ते हुए मैं 'मोलोदाया ग्वार्दिया' (तरुण गार्ड) प्रकाशन गृह की चौथी मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था कि सामने से मुझे बड़ा-सा थैला बगल में दबाए वही तात कवि नीचे उतरता दिखाई दिया, जिसने कास्पियन सागर के तट पर मेरी दावत की थी। सबसे पहले तो इस बात की तरफ मेरा ध्यान गया कि वह बाकी लेखकों की तरह थैला हाथ में नहीं उठाए था, बल्कि लेखपालों और खजांचियों की तरह बगल में दबाए था। मैंने यह भी नोट किया कि आध साल में वह बहुत बदल गया है। साही जैसे बाल लंबे हो गए थे और उनमें ढंग से चीर निकला हुआ था। गालों पर दिसंबरवादियों जैसी कलमें थीं। कनिष्ठा उँगली का नाखून नुकीला था और संगीन जैसा लगता था। दूसरी उँगली में नगवाली अँगूठी थी। टाई की जगह गुबरैले के पंखों जैसा कुछ लगा था। लक-दक, बना-ठना। सलाम-दुआ के बाद उसने मेरी टाई ठीक की, जो शायद एक तरफ को खिसक गई थी। जाहिर है कि इसके लिए मैंने उसका शुक्रिया अदा किया।

अहमद ने अपनी बीवी से मेरा परिचय कराया।

'बड़ी खुशी हुई,' उसने कहा और अपनी तीन उँगलियाँ मेरी तरफ बढ़ाईं।

हमारे दागिस्तान में नारियों का हाथ चूमने की प्रथा नहीं है, इसलिए मैंने धीरे-से हाथ मिलाया। मगर वह दर्द से ऐसे चिल्ला उठी मानो मैंने उसकी उँगलियों की सारी हड्डियाँ ही कुचल डाली हों।

'मुझ मूढ़ पहाड़ी को क्षमा कीजिए... मैंने तो ऐसा नहीं चाहा था...'

'अब तक कुछ तो तौर-तरीके सीख लेने चाहिए थे,' उसने बिगड़कर कहा और दर्पण के सामने जाकर ऐसे मुँह बनाने लगी, मानो वह उसकी शक्ल-सूरत को बेहतर बना सकता हो।

हाँ, वह बूढ़ी भी थी और बदसूरत भी और इतना पाउडर थोपे थी कि उससे दरमियाने आकार के कमरे में सफेदी हो सकती थी। सबसे ज्यादा अफसोस तो मुझे इस बात का हुआ कि इस वक्त अबूतालिब यहाँ नहीं था, वरना वह तो जरूर ही इसके बारे में निशाने पर ठीक बैठनेवाले कुछ बढ़िया शब्द कहता।

कहते हैं कि लोमड़ी और उसकी दुम से ज्यादा मक्कार और कुछ भी नहीं है। मगर वह रुपहली लोमड़ी भी कैसी उल्लू रही होगी, जो इस बूढ़ी खूसट के कालर के काम आई। मेरे दोस्त की बीवी पत्र-पत्रिकाओं के स्टॉल पर चली गई और कुछ देर को हम दोनों ही रह गए।

'क्या हालचाल है, कैसी जिंदगी चल रही है, दोस्त अहमद?'

'ओ, मैं अपने को उस बैल जैसा महसूस करता हूँ, जिसे मसूर दलने के लिए जोत दिया गया है। मेरी बीवी के हाथ में ही मेरी और मेरे काम की नकेल है। काश कि तुम्हें मालूम होता कि वह कितनी पढ़ी-लिखी है। बड़ी ही रोशन दिमाग है। ब्लोक और मायकोव्स्की को व्यक्तिगत रूप से जानती थी। सेर्गेई येसिनिन की दोस्त रही है। पेरिस हो आई है। खूब बढ़िया अंग्रेजी बोलती है। हमारे पास चार कमरों का फ्लैट है और उसमें हम दोनों ही रहते हैं। हमारे बच्चे नहीं हैं। हाँ, तोशिक नाम का जापानी कुत्ता है, बिल्ली से भी छोटा।'

'लगता है कि तुम्हारी किस्मत ने खूब साथ दिया है। इस वक्त कहाँ जा रहे हो?'

'बाल पत्रिका 'मुर्जील्का' के लिए कुछ कविताएँ लाया था, मगर ये लोग कहते हैं कि बच्चों की दृष्टि से कुछ ज्यादा ही गहरी हैं। सोचता हूँ कि किशोर सामूहिक किसानों की पत्रिका में इन्हें छपने दूँगा। उन्हें ये कविताएँ पसंद आई हैं, सिर्फ इनमें 'सामूहिक फार्म' शब्द जोड़ना होगा। आज शाम को ऐसा करके कल फिर वहाँ ले जाऊँगा... हाँ, रसूल, ऐसे ही काम करना और जीना चाहिए... मेरी बीवी मुझसे कहा करती है कि चलना सीखने से पहले बच्चे भी घुटनियाँ चलते हैं। बाद में मैं भी कोई बढ़िया चीज लिख डालूँगा।'

'अल्योशा,' उसकी बीवी ने लौटते हुए प्यार और कड़ाई से कहा। 'चलो, घर चलकर तोशिक को खिला-पिला दें और उसके बाद हम 'क्रोकोडील' (मच्छ) और 'राबोत्निसा' (कामगारिन) का भी चक्कर लगा आएँगे।'

इस मुलाकात के बाद बहुत अर्से तक अहमद से फिर मिलना नहीं हुआ। एक बार मुझे उसका एक खत मिला। उसमें उसने अनुरोध किया था कि बालखारी के कुम्हारों को एक घड़ा बनाने का आर्डर दे दूँ, जिस पर यह लिखा हो - 'मेरी प्यारी बीवी को।' मैंने घड़े का ऑर्डर दे दिया और सोचा -

'शायद वह सचमुच ही उसके लिए बहुत कुछ करती है।' बीवी द्वारा अनूदित उसकी कविताओं की कभी 'मुर्जील्का', कभी 'पायनियर' और कभी 'क्रोकोडील' में झलक मिल जाती। मगर हमारे मखचकला में उसकी तात मातृभाषा में कभी कोई कविता दिखाई नहीं दी। कई बार हमने उससे कुछ भेजने का अनुरोध किया, पर उसका कभी कोई जवाब नहीं आया।

इस पहली मुलाकात के पंद्रह साल बाद हम फिर मिले। मास्को में दागिस्तानी कला का दस दिनी समारोह हो रहा था। दागिस्तान से चालीस कवि मास्को आए थे। दागिस्तान की विभिन्न भाषाओं में हमने ट्रेड-यूनियनों के स्तंभ-भवन, क्रेम्लिन थियेटर, मोटर कारखाने और कांतेमीरोव्स्काया गार्ड डिविजन में अपनी कविताएँ पढ़ीं।

समारोह की अंतिम शाम को हमारा सुंदर-सुघड़ अहमद पीछे की ओर से हमारे पास मंच पर आया।

'रसूल,' उसने मेरी मिन्नत करते हुए कहा, 'मुझे मास्को से दागिस्तान ले चलो। मैं दुंबा बनना चाहता था, मगर अपनी छोटी-सी दुम भी खो बैठा।'

तो इस तरह अहमद दागिस्तान लौट आया। मगर किसी तरह भी उसके पंदूर के तार कसे नहीं जाते, किसी तरह भी वह सुर में नहीं आ पाता। वह मिट्ठी के उस बर्तन जैसा है, जो तिड़क गया है और उसमें से सारी शराब बह गई है। उस घड़े को बाद में चाहे कैसे भी क्यों न जोड़ो, शराब उसमें से फिर भी रिसती रहेगी, निकलती रहेगी।

तो इस तरह नतीजा यह निकलता है कि अनुवादक उस व्यक्ति की प्रतिभा नहीं बढ़ा सकता, जिसमें वह है ही नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि आफंदी कापीयेव ने सुलेमान स्ताल्स्की का निर्माण किया। दूसरों का कहना है कि सुलेमान ने आफंदी कापीयेव को बनाया। मगर हकीकत यह है कि वे दोनों ही प्रतिभाशाली थे। आफंदी की प्रतिभा ने आफंदी और सुलेमान की प्रतिभा ने सुलेमान को बनाया।

मैं ईज्या से कह दूँगी। मुझे जो अगला किस्सा याद आ रहा है, उसका उक्त शीर्षक हो सकता है।

इस समय दागिस्तान का विख्यात लेखक मुहम्मद सुलेमानोव अवार अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान में मेरे साथ पढ़ता था। वह बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा का धनी था - अच्छी चित्रकारी करता था, लोक-नृत्य नाचता था, कविताएँ रचता था। 'येव्गेनी ओनेगिन' से बहुत ही प्यार था उसे। यह किताब तो हमेशा उसके पास रहती थी और लगभग पूरी की पूरी उसे जबानी याद थी। उन दिनों ही वह अवार भाषा में उसका अनुवाद करने का सपना देखा करता था। युद्ध के मोर्चे पर भी वह उसे अपने साथ ले गया।

युद्ध के अंत में गोलियों और गोलों के टुकड़ों से छलनी होने पर उसे मास्को के एक अस्पताल में भेज दिया गया। वहीं मरीया नाम की एक मास्कोवासिनी युवती से उसकी जान-पहचान हो गई। घाव भर जाने पर उसने मरीया से शादी कर ली और मास्को में ही रह गया।

मैं जब पढ़ने के लिए मास्को पहुँचा, तो पूछ-ताछ ब्यूरो से मैंने अपने दोस्त का पता लगा लिया। मैं उससे मिलने को बहुत उत्सुक था और वह मुझसे। मरीया ने हमारी दिली और जोशीली बातचीत में किसी तरह का खलल नहीं डाला। अच्छी-सी शराब पीते हुए हम तीनों देर तक बैठे रहे। मुहम्मद युद्ध की चर्चा करता रहा और मैं दागिस्तान, अपने प्यारे पहाड़ों और अपने जन्म-गाँव की। मैं उन्हें अपनी और अन्य जवान अवार कवियों की कविताएँ सुनाता रहा। बाद में मैंने मुहम्मद से पूछा कि वह किस काम में अपना जीवन लगाना चाहता है।

'मैंने इस सवाल पर बहुत सिर खपाया कि मैं क्या करूँ। मगर मरीया की एक मौसी है और मौसी का ईज्या है, जो मास्को में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति है। मौसी ने देखा कि मैं किसी सोच में डूबा हुआ घुलता रहता हूँ। वह बोली - 'तुम इस तरह परेशान क्यों रहते हो, मुहम्मद। मैं ईज्या से कह दूँगी और वह सब कुछ ठीक-ठाक कर देगा।' और सचमुच ऐसा ही हुआ। ईज्या ने विज्ञान अकादमी में मेरे लिए अच्छी-सी नौकरी ढूँढ़ दी। अब मैं वहीं काम करता हूँ।'

'तुम्हारी चित्रकारी का क्या हुआ?'

'गोलियों ने मेरे बदन पर जो चित्रकारी कर दी है, वही काफी है।'

'और कविता?'

'वह बचपन था, रसूल। अब मैं खासी उम्र का संजीदा आदमी हूँ और मुझे कोई संजीदा काम ही करना चाहिए।'

'और 'येव्गेनी ओनेगिन'?'

मेरा दोस्त सोच में डूब गया। हाँ, मैंने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था।

'तुम दागिस्तान क्यों नहीं लौटना चाहते?'

'तब मरीया का क्या होगा?'

'उसे अपने साथ ले चलो?'

'मेरी पास तो गाँव के सिवा और कहीं कोई घर नहीं है। मरीया को लेकर तो मैं गाँव में नहीं जा सकता। वह तो मेरी माँ से भी बातचीत नहीं कर सकेगी। इसलिए कि मरीया मेरी माँ की बात समझ सके और माँ मरीया की, मैं दुभाषिया तो साथ लेकर जाने से रहा।'

मुहम्मद के लिए इस कष्टप्रद बातचीत को यहीं बंद करने के लिए मैंने मुहम्मद, मरीया और 'येव्गेनी ओनेगिन' के नाम पर जाम उठाया।

अगली बार जब मैं अपने दोस्त के यहाँ गया, तो मरीया ने मुझसे कहा कि मुहम्मद तो मानो बिल्कुल बदल गया है। दिनों और रातों को तथा फुरसत के हर मिनट में वह भूख-प्यास, आराम और नींद की परवाह किए बिना कुछ लिखता रहता है, लिखकर कागज फाड़ डालता है, फिर से लिखता है और फिर से कागज के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है।

मरीया की मौसी कुछ समय तक मुहम्मद को ऐसा करते देखती रही और आखिर उसने यह जानना चाहा कि वह क्या लिखता है और क्यों लिखे हुए कागजों को फाड़ डालता है।

'मैं कवि बनना चाहता हूँ,' मुहम्मद ने जवाब दिया। 'येव्गेनी ओनेगिन' का अनुवाद करना चाहता हूँ।'

'तो फिर इसमें क्या मुसीबत है और क्यों तुम इस तरह परेशान होते रहते हो? मैं ईज्या से कह दूँगी और वह सब कुछ ठीक-ठाक कर देगा।'

'नहीं मेरी प्यारी मौसी, न तो ईज्या, न उसका अफसर, यहाँ तक कि ईज्या की बीवी भी कवि बनने में मेरी मदद नहीं कर सकती। वह तो सिर्फ मैं खुद ही बन सकता हूँ।'

कुछ ही समय बाद मुहम्मद ने मुझे 'येव्गेनी ओनेगिन' के पहले अध्याय का अवार भाषा में अपना अनुवाद सुनाया। तीन साल बाद सभी अवार इस महान प्रणय-काव्य को अपनी मातृभाषा में पढ़ सके।

किसका फोटो छापा जाए? कहते हैं कि हिम्मती बीवी अपने पति की कामयाबी में बहुत हाथ बँटा सकती है। हाँ, ऐसी उत्साही बीवियों से हमारा भी पाला पड़ा है। एक नामी दागिस्तानी कवि की ऐसी ही बीवी थी। उसका नाम सुनते ही लेखक-संघ, सभी प्रकाशनगृहों और समाचारपत्रों के संपादकीय कार्यालयों में लोगों को जूड़ी चढ़ जाती थी। मैं भी उससे थोड़ा डरता था और उसे फुसलाने के लिए ही मैंने अपने कमरे में उसके पति की फोटो भी लगा लिया। मैंने सोचा कि वह खुश होगी और मेरे साथ नर्मी से पेश आएगी। मगर इसका उस पर बहुत कम असर हुआ। बात यह थी कि उसके पति का फोटो मेरे कमरे में लटकने से उसे तो एक कोपेक भी नहीं मिला था।

एक बार उसने प्रकाशन गृह से यह माँग की कि फौरन ही उसके पति की कविताओं का संकलन छापा जाए। डायरेक्टर ने डरते-डरते कहा कि इस साल की योजनाओं की पुष्टि हो चुकी है, कागज की कमी है और इसलिए वह संकलन अगले साल निकालना मुमकिन होगा...

'बिल्कुल बेहया आदमी हो तुम।' वह औरत आग-बबूला होकर बोली। 'तुम्हें डर है कि लोग यह देख सकेंगे कि मेरे पति की कविताएँ तुम्हारी कविताओं से कहीं अधिक अच्छी हैं। इसीलिए तुम कागज की कमी और योजनाओं का राग अलाप रहे हो। मैं तुम्हारी रग-रग पहचानती हूँ। तुम मेरी आँखों में धूल नहीं झोंक सकते। देखूँगी। कैसे तुम मेरे पति का कविता-संकलन नहीं निकालते।'

इतना कहकर उस औरत ने फटाक से दरवाजा बंद किया और चली गई।

दो घंटे बाद डायरेक्टर के टेलीफोन की घंटी बजी। प्रादेशिक समिति के सेक्रेटरी की आवाज सुनाई दी।

'खुदा के लिए कुछ ऐसा करो कि यह औरत फिर कभी मेरे दफ्तर में न आए,' सेक्रेटरी ने मिन्नत करते हुए कहा। 'आए दिन तो मैं अपनी मेज का शीशा नहीं बदलवा सकता। वह हर बार मेज पर मुक्का मारकर उसे तोड़ डालती है।'

इस सारे किस्से का नतीजा क्या हुआ? लेव तोलस्तोय का लघु-उपन्यास 'हाजी-मुराद' और हमजात त्सादासा की बच्चों की एक किताब भी योजना से निकालनी पड़ी। इन दो किताबों की बलि उेकर उस लड़ाकी औरत के पति का कविता-संकलन योजना में शामिल किया गया।

हमें लगा कि अब शांति रहेगी। मगर नहीं, जल्दी ही नया बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। उसका कारण यह था कि संकलन में कवि का फोटो नहीं छापा गया था।

'कैसे बेहया लोग हैं।' गुस्से से पागल होती हुई वह औरत चिल्लाई। 'तुम्हें इसी बात का डर है न कि लोग यह देख सकेंगे कि तेरा पति तुम सभी से कितना ज्यादा खूबसूरत है। इसीलिए तुमने उसका फोटो नहीं छापा।'

'नहीं, ऐसी बात नहीं है,' प्रकाशन गृह के डायरेक्टर ने जवाब दिया। 'हम यह नहीं जानते थे कि इस किताब में किसका फोटो छापा जाए - तुम्हारा या तुम्हारे मियाँ का?'

'हाँ, यह भी एक सवाल है,' इस औरत ने दाँत निपोरे। 'कौन जाने, मेरे बिना वह कवि भी बन पाता या नहीं।'

अबूतालिब ने उस कवि से भेंट होने पर कहा -

'कूसा, मेरी एक बात मान लो। एक हफ्ते के लिए मुझे अपनी बीवी दे दो। मुझे फौरन स्तालिन पुरस्कार मिल जाएगा।'

'हटाओ भी इस बात को अबूतालिब। मैं दस साल से उसके साथ रह रहा हूँ और मुझे हाजी क्रासिम का इनाम भी नहीं मिला।'

'तो उससे कुछ प्रतिभा माँग लो।'

अबूतालिब और खातिमत का किस्सा। अबूतालिब शुरू में भेड़ें चराते रहे। इसके बाद वे टीनगर बन गए। मगर चरवाहे की अपनी मुरली वे तब भी अपने साथ ही रखते और फुरसत के वक्त उसे बजाते। अपने धंधे के सिलसिले में वे गाँव-गाँव जाते। कुछ लोगों का कहना है कि कूली गाँव में, और दूसरों के मुताबिक गूमूक में खातिमत नाम की एक लड़की गागर की मरम्मत कराने के लिए अबूतालिब के पास आई।

बहुत देर तक अबूतालिब उस गागर की मरम्मत करते रहे। कभी वे उसे एक तरफ रखकर इतमीनान से सिगरेट पीने लगते, तो कभी मुरली बजाना शुरू करते और कभी खातिमत को झूठे-सच्चे किस्से-कहानियाँ सुनाने लगते।

खातिमत उससे जल्दी करने को कहती हुई चिल्लाई -

'तुम अपनी सिगरेट ही कुछ कम लंबी लपेटो।'

'अरे, यह तुम क्या कह रही हो, मेरी प्यारी खातिमत। अब मैं गज भर लंबी सिगरेट बनाऊँगा ताकि वह और ज्यादा देर तक जलती रहे।'

आखिर लड़की बिल्कुल ही आप से बाहर हो गई और अबूतालिब को मजबूर होकर गागर उसे लौटानी पड़ी। गागर ऐसे चमचम करती थी मानो नई हो। इतनी अधिक कोशिश से अबूतालिब ने उसकी मरम्मत की थी। मगर लड़की ने जैसे ही उसमें पानी भरा कि वह चूने लगी। गुस्से से भुनभुनाती, बड़ी मुश्किल से अपने दुख के आँसुओं को रोकती हुई वह फिर से अबूतालिब के पास आई।

'इतनी देर तक तुमने गागर की मरम्मत की और वह पहले से भी ज्यादा चूती है।'

'अल्लाह करे कि दिलेर और खूबसूरत लड़के हर दिन तुम्हारी गागर पर कंकड़ फेंकें। तुम नाराज क्यों हो रही हो, खातिमत, मैंने तो जान-बूझकर उसमें सूराख छोड़ दिया था ताकि तुम फिर से मेरे पास आओ और मैं तुम्हें देख सकूँ।'

'अच्छा हो कि लड़के मेरी गागर पर नहीं, तुम्हारे सिर पर कंकड़ फेंकें।' खातिमत चिल्लाई और फिर कभी अबूतालिब के पास नहीं आई।

अबूतालिब को उसकी बड़ी याद आती। खातिमत के प्रति उनका प्यार बढ़ता ही चला गया। प्यार जितना बढ़ा, याद उतनी ही ज्यादा सताने लगी। इस तरह उस लड़की की याद में घुलते हुए अबूतालिब ने एक गीत रचा, जिसमें उसने खातिमत और उसके प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्ति दी। इसके बाद उन्होंने दूसरा, फिर दसवाँ, फिर बीसवाँ गीत रचा और इस तरह वे टीनगर की जगह जाने-माने कवि बन गए।

इसी बीच खातिमत ने हाजी नाम के एक आदमी से शादी कर ली। कुछ अर्से बाद उसे तलाक देकर किसी मूसा की बीवी बन गई।

एक दिन ख्यातिलब्ध कवि अबूतालिब बाजार में से जा रहे थे, तो किसी ने उन्हें आवाज दी -

'ऐ अबूतालिब, गागर की मरम्मत नहीं कर दोगे?'

कवि ने मुड़कर देखा तो बूढ़ी, झुकी हुई और बीमार खातिमत को अपने सामने पाया।

'शायद अब तुम्हारा दिमाग आसमान पर जा चढ़ा है, अबूतालिब। ऐसा तो होना ही था। अब तुम सर्वोच्च सोवियत के सदस्य हो, तमगा लगाए हो। लगता है कि अपना टीनगरी का धंधा भूल गए हो। पर अगर मामले की गहराई में जाया जाए, तो मैंने ही तुम्हें कवि बनाया है, अबूतालिब। उस वक्त अगर मैं मरम्मत के लिए गागर तुम्हारे पास न लाती, तो तुम अभी तक उसी तरह बाजार में बैठे हुए टीनगरी करते होते।'

'ओ खातिमत, अगर तुममें सचमुच ऐसी ताकत है, अगर तुम सचमुच ही लोगों को कवि बना सकती हो, तो तुमने अपने पहले पति मिलीशियामैन हाजी को क्यों नहीं कवि बना दिया? और हाँ, तुम्हारे दूसरे पति मूसा के गीत भी अब तक सुनने को नहीं मिले...'

अबूतालिब तो चले भी गए, मगर खातिमत यह न समझ पाते हुए कि क्या जवाब दे, जहाँ की तहाँ मुँह बाए खड़ी थी। बारिश की बूँदों से ही वह सँभली।

तो इस तरह अगर कोई खुद ही शायर नहीं बनता, तो किसी भी दूसरे आदमी में उसे शायर बनाने की ताकत नहीं है।

पिता जी ने यह बात सुनाई कि जब मैं अपनी पहली कुछ कविताएँ, रच चुका था, तो पिता जी के एक पुराने मित्र दागिस्तान के एक प्रसिद्ध और सम्मानित व्यकित ने उनसे कहा -

'बहुत अच्छा रहे कि रसूल अब किसी को जी-जान से प्यार करने लगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अपने प्यार से उसे खुशी मिलेगी या गम, उसमें उसे कामयाबी होगी या नाकामयाबी। शायद यह तो ज्यादा अच्छा ही होगा कि दूसरी तरफ से उसे प्यार न मिले, कि प्यार उसके लिए पीड़ा और वेदना ही लेकर आए। तब वह एकदम बड़ा कवि बन जाएगा।'

मेरे पिता जी के दोस्ते ने तो ऐसी सुंदर किशोरी भी खोज ली, जिसे मुझे बदकिस्मत आदमी, मगर बड़ा कवि बनाना था।

मेरे पिता जी ने अपने दोस्त को यह जवाब दिया -

'देखो तो दुनिया में कितनी ही लोग हैं प्यार करनेवाले, पर क्या उनमें से हर कोई कवि है? दिल से प्यार करने के लिए भी प्रतिभा की जरूरत होती है। प्रतिभा को प्यार की जितनी जरूरत है, शायद प्यार को प्रतिभा की उससे कहीं अधिक आवश्यकता है। इसमें शक नहीं कि प्यार से प्रतिभा पनपती है, मगर वह उसकी जगह नहीं ले सकता। प्रेम के प्रतिकूल भावना यानी घृणा के बारे में भी में यही कह सकता हूँ।'

'मगर मिसाल के लिए प्यार के गायक कवि महमूद को लिया जा सकता है...'

'तुम सही कहते हो। कवि के रूप में हम जैसे महमूद को जानते हैं, वह अपनी प्रेयसी की बदौलत ही बहुत हद तक वैसा बना। मगर मेरा खयाल है कि उसकी प्रेयसी का अगर इस दुनिया में अस्तित्व भी न होता, तो भी महमूद बड़ा कवि बनता। उसकी बेचैन और अलंकारी भावनाएँ उसी तरह अपना मार्ग खोज लेतीं जैसे घास की कोमल-सी पत्ती नम, बोझिल और अँधेरी मिट्टी में से सूरज की ओर अपना रास्ता बना लेती है। अरे, कभी-कभी तो वह पत्थर के नीचे से भी बाहर निकल आती है।'

हाँ, यह आसानी से माना जा सकता है कि जिस तरह आग सूखी लकड़ियों से भड़कती है, उसी तरह प्रतिभा के पनपने के लिए प्रबल मानवीय भावनाएँ - प्यार और घृणा - आवश्यक होती हैं, कि खिली मुस्कान या सलोने आँसुओं से ही कविता जन्म लेती है। मगर मैं आपके सामने दो उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

उस माँ के दुख, उस माँ की व्यथा से अधिक तीव्र व्यथा किसकी हो सकती है, जिसके बेटे की मृत्यु हो जाती है? बेटे को दफनाने की तैयारी होने लगती है, लोग जमा हो जाते हैं। मगर माँ चुपचाप बस रोती ही जाती है, वह शब्दों में, ऐसे शब्दों में अपना दुख-शोक व्यक्त नहीं कर पाती कि सभी उसकी तरह रोने लगें जैसे वह स्वयं रो रही है।

इसी समय विलाप करने की कला में दक्ष नारियाँ आती हैं। उनकी आँखों में आँसू नहीं होते, क्योंकि उनका अपना नहीं, पराया दुख होता है। मगर जैसे ही वे अपनी भयानक कला का प्रदर्शन करने लगती हैं, वैसे ही आस-पास सभी सिसकने लगते हैं।

मैंने इस कला को भयानक कला कहा है। वह वास्तव में ही बड़ी निर्मम और भयानक है। इसलाम में इसीलिए तो यह कहा गया है कि दूसरी दुनिया में विलाप करनेवालियों को ढोंगियों, पाखंडियों और चुगलखोरों की तरह ही लगातार कष्ट दिए जाते हैं। मगर वह तो कला ही ऐसी है, जिसका काम लोगों को रुलाना ही है।

अब इसके उलट उदाहरण लीजिए। ऐसे माँ-बाप से ज्यादा सुखी कौन हो सकता है, जिनका बेटा हृष्ट-पुष्ट और जवान मर्द हो गया है तथा अब शादी करना चाहता है। शादी तो हँसी-खुशी का जशन होती है। शादी के मौकों पर लोग नाचते और गाते हैं। जाहिर है कि दूल्हे के माता-पिता ही सबसे ज्यादा खुश होते हैं। मगर क्या सभी माता-पिता शब्दों में, गीत में, ऐसे गीत में अपनी खुशी जाहिर कर सकते हैं कि वहाँ उपस्थित सभी लोग चहक उठें और उनके लिए शादी की यह पराई खुशी अपनी खुशी बन जाए?

नहीं, वे ऐसा नहीं कर पाते। इसीलिए वे पहले से ही गाँवों में जाकर अच्छे गायकों को आमंत्रित कर आते हैं। गायक आ जाते हैं। एक दिन पहले वे किसी दूसरे की शादी में गाते रहे थे और अगले दिन किसी अन्य की शादी में गाएँगे। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। किंतु उनकी प्रतिभा से लोग रंग में आ जाते हैं और उन्हें सच्ची खुशी मिलती है।

तो शायद प्रतिभा जीवन के लंबे अनुभव से पनपती है? और कला में प्रतिभा का व्यक्त होना विस्तृत ज्ञान, कठिन भाग्यों तथा महान कार्यों का परिणाम है?

पर यदि ऐसा होता, तो क्या चौदह वर्षीय और सो भी अंधा अवार लड़का अपने पंदूर-वादन से अवार गाँवों के लोगों को आश्चर्यचकित और मंत्र-मुग्ध कर सकता था?

मुहम्मद रजबोव नाम के एक अन्य किशोर ने, जो बचपन से ही चारपाई थामे हुए है, माँ के बारे में एक ऐसा गीत रचा है, जिसे शायद ही कोई अवार न जानता और न गाता हो। इस गीत को स्वरबद्ध किया अहमद त्सूरमीलोव ने, जिनकी दोनों टाँगों को लकवा मार गया है। उन्हीं के बारे में मैंने ये पंक्तियाँ लिखी थीं -

तेरी मेंडोलिन में केवल आठ तार
किंतु धुनें हैं आठ हजार...

प्रतिभाशाली अंधा आँखोंवाले प्रतिभाहीन व्यक्ति से कहीं ज्यादा देखता है। किसी ने यह भी कहा है कि बुद्धिमान अपने कमरे में बैठा हुआ ही सारी दुनिया का चक्कर लगानेवाले मूर्ख की तुलना में कहीं कुछ ज्यादा देख सकता है।

इतना ही नहीं, अंधा मुहम्मद बाजार में माँगे हुए भीख के पैसों की गिनती करते समय भी कभी गलती नहीं करता था।

नोटबुक से। अगर सिर्फ नजर में ही प्रतिभा का रहस्य छिपा है, तो लेजगीन कवि कोचखियूरस्की कैसे उसके बाद भी काव्य-रचना करता रहा, जब खान ने उसकी दोनों आँखें निकलवा दी थीं? अगर धन में ही प्रतिभाशक्ति निहित है, तो गरीब और यतीम लेजगीन कवि यतीम आमीन कैसे विख्यात हो गया? अगर शिक्षा ही में प्रतिभा-शक्ति छिपी है, तो सुलेमान स्वाल्स्की, जो अपना नाम तक नहीं लिख सकता था और हस्ताक्षर की जगह स्याही में अँगूठा भिगोकर लगाता था, 'बीसवीं शताब्दी का होमर' कैसे बन गया? अगर बहुत पढ़ने-लिखने और पांडित्य में ही प्रतिभा-शक्ति है, तो क्यों इतने पढ़े-लिखे और विद्वान लोगों से मेरा वास्ता पड़ा है, जो ढंग की एक पंक्ति भी नहीं लिख सकते थे?

पहले पहाड़ों में बहुत ही दिलचस्प प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं। एक तरफ होते थे शिक्षित, अवार भाषा में लिख-पढ़ सकनेवाले मुतअल्लिम (विद्वान) और दूसरी तरफ अनपढ़, अपने धंधे के सिवा और कुछ भी न जाननेवाले चरवाहे। इन दोनों पक्षों के बीच शेरो-शायरी का मुकाबला होता था। इस मुकाबले में अक्सर चरवाहे ही जीतते थे। हरी-भरी ढालों पर हवा की भाँति स्वच्छंद-स्वतंत्र रूप से उड़नेवाले गीत सुशिक्षित लोगों की नपी-तुली आवाज पर हावी हो जाते थे, उनपर अपनी जीत का झंडा गाड़ देते थे।

मगर इन दोनों को ही वे कवि जीत जाते थे, जो एक साथ मुतअल्लिम और चरवाहे होते थे। ऐसी प्रतियोगिता में अगर महमूद या मेरे पिता हमजात हिस्सा लेते, तो वे दूसरे कवियों का साथ नहीं, बल्कि आपस में मुकाबला करते। दूसरे कवि बहुत पीछे रह जाते।

शायद अक्ल ही प्रतिभा की शक्ति का आधार है? मगर मास्को और दुनिया के अनेक देशों में बहुत ही बुद्धिमान लोगों से मेरी भेंट हो चुकी है। अगर उनकी अक्ल अचानक कविताओं या कहानियों या उपन्यासों का रूप ले लेती, तो कला की अमूल्य रचनाएँ हमारे सामने आ जातीं। मगर न जाने क्यों, उनके बुद्धिमत्तापूर्ण विचार कागज पर नहीं उतर पाते, हवा में बिखरकर रह जाते हैं या उनके साथ ही कब्रों में चले जाते हैं।

तो शायद प्रतिभा की शक्ति अत्यधिक श्रम में, एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देने में निहित है? बहुत बार मुझे यह सुनने को मिला है कि प्रतिभा नाम की तो कोई चीज है ही नहीं, कि वह तो केवल कठोर श्रम से ही सामने आ सकती है। मगर जहाँ तक मेरा संबंध है, शाखा पर मजे से बैठी बुलबुल का तराना मुझे भारी बोझ ले जानेवाले गधे के रेंकने से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है।

छकड़े को खींचनेवाला नहीं, बल्कि उस पर सवारी करनेवाला ही गाने गाता है।

ऐ मेरे अल्लाह, कितनी बेमेल बातें हैं इस दुनिया में! अगर गीत छकड़े पर बैठे इनसान की काहिली का नतीजा हैं, तो शायद सारी कला ही काहिली और फुरसत, माली बेफिक्री और सभी तरह की निश्चिंतता का परिणाम है?

मगर क्या गरीबों के झोंपड़ों में जन्म लेनेवाले गीत अमीरों के महलों में नहीं गाए जाते? खानों और अमीरों के बारे में गरीबों ने ही तो सारे किस्से गढ़े हैं। शामखाल ने इरचे गाजाख को साइबेरिया निर्वासित कर दिया। इरचे गाजाख वहाँ जाकर भी कविताएँ रचता रहा। इरचे गाजाख की कविताओं से ही लोग अब कुमीक शामखाल के बारे में जानते हैं।

जार्जिया के जवान राजकुमार दावीद गुरमिश्वीली को पहाड़ी लोग उड़ा ले गए। उन्होंने ऊनसूकूल में एक गढ़े में ले जाकर उसे डाल दिया। नम गढ़े में बैठा, अपने नीलाकाशवाले सुंदर जार्जिया के लिए तड़पता हुआ राजकुमार कविता रचने लगा। इस सिलसिले में कुछ हद तक यह कहा जा सकता है कि पहाड़ी लोगों ने राजकुमार गुरमिश्वीली को कवि बना दिया।

खूंजह के खान की बेटी ऐशात को एक जवान और सुंदर चरवाहे से प्यार हो गया था। पिता को जब यह मालूम हुआ, तो उसने बेटी को घर से निकाल दिया। जाड़े की ठंडी रात थी। भयानक ठंड, घुटनों तक बर्फ और तन चीरती हवा में हल्का-सा फ्राक पहने ऐशात ने अपना पहला गीत रचा था।

पर यदि ऐसा है, तो शायद इनसानी कमजोरी और गरीबी में ही प्रतिभा की सारी शक्ति छिपी है? शायद दुर्भाग्य और दुख-मुसीबत से ही सर्वश्रेष्ठ गीतों का जन्म होता है? कविता, तुम कौन हो और तुम्हें क्या चाहिए? बातीराई के पास तुम तब आई, जब वह बीमार और बूढ़ा था और भूखे पेट ठंडे और बुझे हुए चूल्हे के पास बैठा था। महमूद के पास तुम तब आई, जब वह कारपेथियंस की खंदकों में ठिठुर रहा था और उसकी वह प्रेयसी, जो उसे सूरज, पृथ्वी और जीवन से भी ज्यादा प्यारी थी, किसी दूसरे की बीवी बन गई थी। तुम अबूतालिब के पास तब आई, जब वह खुरजी और लाठी लिए गाँव-गाँव फिरा करता था और जब उसके दिल की रानी खातिमत ने उसे ठुकराकर एक मिलीशियामैन से शादी कर ली थी। तुम अलदारिलाव के पास तब आई, जब उसने अपने हत्यारों के हाथ से जहर का प्याला लिया। संगदिल जंदिनायब ने धागों से आँखील-मारीन का मुँह सी दिया था और तभी मारीन ने अपना सबसे अच्छा गीत रचा था। इस गीत ने बाकी सारे जीवन के लिए नायब का चैन और उसकी नींद हर ली थी।

प्रतिभा, कहो तो किस चीज में तुम्हारी शक्ति निहित है? कौन हो तुम-आत्मा की आवाज, प्रतिष्ठा, साहस या शायद डर? कायर भी तो रात के वक्त अपनी मंजिल तय करता हुआ गाता है और इस तरह साहस बटोरता है।

तुम सौभाग्य हो या दुर्भाग्य, पुरस्कार हो या दंड? क्या तुम वह सुंदरता हो जिसके कारण लोग व्यथित होते हैं या वह वेदना हो, जिससे सुंदरता जन्म लेती है? या तुम समय और घटनाचक्र की संतान हो? पत्थरों के आपस में टकराने से चिनगारियाँ पैदा होती हैं। युद्ध से पृथ्वी पर लोग नहीं बढ़ते, मगर उससे वीरों की संख्या बढ़ जाती है।

मुझे मालूम नहीं कि प्रतिभा किसे कहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे मैं यह नहीं बता सकता कि कविता क्या होती है। मगर कभी-कभी य तो घर जाते समय, या किसी पराई जगह पर, या फिर सोते वक्त (मानो मेरे नमदे के लाबदे का पल्ला उठाते हुए) या फिर जब मैं हरी-हरी घास पर कदम रखता हूँ (मानो सजीव हरियाली में से मेरे भीतर घुसकर घुसकर मेरे रक्त में घुल-मिल जाती है), या फिर खाने के समय, या फिर संगीत सुनते वक्त, तो परिवार के लोगों के बीच बैठे हुए या फिर हो-हल्ला मचानेवाले दोस्तों के साथ गप-शप के समय, या फिर उस वक्त जब मैं किसी बच्चे को गोद में उठाकर मानो उसे उसके लंबे जीवन-पथ के लिए आशीर्वाद देता हूँ, या फिर उस समय जब मैं अपने किसी दोस्त को उसकी आखिरी मंजिल पर पहुँचाने के लिए उसके जनाजे को कंधा देता हूँ, या फिर जिस वक्त मैं अपनी प्रियतमा को ध्यान से देखता हूँ - तो उस समय मुझे किसी दुर्लभ, अद्भुत, रहस्यपूर्ण और शक्तिशाली चीज की अनुभूति होती है। वह कभी तो खुशी से छलकती होती है, तो कभी दुख में डूबी हुई, मगर हमेशा ही वह मुझे कुछ करने को प्रेरित करती है, हमेशा ही बोलने को विवश करती है। वह बिन बुलाए और अनुमति के बिना ही आती है।

वह आती है और उसके पीछे ही मुझे लंबा चेर्केसी कोट पहने तथा हाथ में पंदूर लिए प्रेम-दीवाना महमूद, जो अपने गीतों में पूरी तरह अपना दुख-दर्द नहीं उँड़ेल पाया, उदासी भरी नाजुक मुस्कानवाले मेरे पिता जी, हाथों में जहर का प्याला लिए अलदरिलाव, संगदिल नायब द्वारा सिए गए रक्त-रंजित होंठोंवाली मारीन आदि आते जान पड़ते हैं और उनके पीछे, कहीं बहुत दूरी पर साहित्यिक महारथियों - दांते, तोलस्तोय, शिलर, ब्लोक, गेटे, बल्जाक, दोस्तोयेव्स्की की झलक-सी मिलती है। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि किरण से छिन्न-भिन्न हुए कुहासे में से स्वयं भगवान का रूप झिलमिलाता है।

'क्या हो तुम?' मैं इस चीज से पूछता हूँ।

'मैं तुम्हारी प्रतिभा हूँ, तुम्हारी कविता हूँ।'

'कहाँ से आई हो तुम?'

'मैं तो हर जगह पर हूँ।'

'क्या तुम्हारी मेरी ही जितनी उम्र है?'

'ओह नहीं, मेरी उम्र एक क्षण भी है और हजारों शताब्दियाँ भी। मुझमें बच्चे का भोलापन है, सिरफिरे नौजवान का जुनून है और बुजुर्ग की समझ-बूझ है। मेरी कोई उम्र नहीं। मैं वह अलाव हूँ, जो कभी नहीं बुझ सकता। मैं वह गीत हूँ, जिसे कभी कोई पूरी तरह से नहीं गा सकता। मैं ऐसी उड़ान हूँ, जो किसी के बस की बात नहीं। मैं तुमसे बहुत दूर हूँ और खुद तुममें हूँ। मुझे अपने भीतर सहेजना प्रसन्नता है, परमानंद है और साथ ही भारी व्यथा और पीड़ा है। मुझसे अधिक सुखद और अधिक दुखद कुछ भी नहीं।

'अगर मैं हूँ, तो वायलिन के तारों के कंपन से ठंडी चट्टानें टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगी। अगर मैं हूँ, तो जुरना-वादन से खड्डों में पहाड़ी बकरे नाचने लगेंगे। अगर में हूँ, तो हत्यारे के हाथ से खंजर गिर जाएगा और प्रेमी चुंबनों में खो जाएँगे।

'आनदी गाँव की पाती का जब बुरका उतारा गया, तो मैं वहाँ थी। मरियम को जब घोड़े पर डालकर भगा ले जाया गया था, तो मैं वहाँ थी। जॉन ऑफ आर्क ने जब म्यान से तलवार निकालकर अपने द्वारा प्रेरित सेनाओं को आगे बढ़ने के लिए ललकारा था, तो मैं वहीं थी। जब आदमी ने पंख बनाकर छज्जे से छलाँग लगा दी थी, तो मैं वहाँ थी। जब मेगेलन या कोलंबस ने अपने जहाजों के पाल ऊपर उठाए थे, तो मैं वहाँ थी। जब 'सिसतीन मादोना' का चित्र बनाया जा रहा था, तो मैं वहाँ थी।

'सभी युग और सारी पृथ्वी मेरा कर्म-क्षेत्र हैं। विभिन्न महाद्वीप और राज्य हैं, पाटियाँ और सरकारें हैं, वर्ग और जातियाँ हैं। मगर इनसान भी हैं। इनसानों के पास मस्तिष्क और आत्माएँ हैं। वे किसी भी महाद्वीप में क्यों न हों, प्यार और घृणा करते हैं, उनमें साहस और भय है, सज्जनता और दुष्टता है, आत्मत्याग और झूठ है, वे महात्मा हैं और चुगलखोर भी। लोगों का मस्तिष्क और आत्मा - ये हैं मेरी रंग-भूमि, मेरी विजय-पराजय के क्षेत्र, मेरी सिद्धि और उपलब्धि।'

'तो मुझसे सच-सच कह दो कि मैं किस लायक हूँ? क्या मैं उस बर्फ जैसा तो नहीं हूँ, जो अगले दिन पिघल जाएगी, उस गागर में तो पानी डालने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, जिसके तल में सूराख है? तुम्हारी कभी न बुझनेवाली आग की एक चिनगारी तो मेरी आत्मा में आ गिरी है या नहीं, तुम्हारी उत्तेजित और मस्त कर देनेवाली सुरा की एक बूँद तो मेरे होंठों पर आ गिरी है या नहीं?'

मेरी आँखों से हर्ष-विषाद के आँसू बह रहे हैं। मगर कुछ दूसरे आँसू भी हैं, जो मेरी आँखों की गहराई में छिपे हुए हैं, ठीक उसी तरह जैसे शिकारी की पद-चाप सुनकर डरपोक पक्षी छिप जाता है। मगर इन छिपे हुए आँसुओं में भी एक प्यार का है, दूसरा दुख का, एक दुर्भाग्य का है, दूसरा सौभाग्य का। मेरे सिर पर बाल भी दो रंग के हैं - काले और सफेद। मेरी एक टाँग जवानी में है और दूसरी बुढ़ापे में। बुढ़ापा और जवानी हमेशा आपस में जूझते रहते हैं और उनकी रंग-भूमि है मेरी आत्मा।

प्यारा मुझे चिनार, तने दो बड़े-बड़े
एक सूखता, मगर दूसरा, पत्तों पर इतराता
प्यारा मुझे उकाब, पंख दो बड़े-बड़े
गिरता जाए एक, दूसरा, नभ में शान दिखाता।
टीस रहे हो घाव वक्ष में भी मेरे
रिसे एक तो, मगर दूसरा प्रतिदिन भरता जाता
ऐसे ही होता है, आती खुशी कभी
उसे हटाकर एक तरफ, दुख फिर से वापस आता।

जीवन की सीमाएँ हैं, वह छोटा है और कल्पनाएँ है असीम। खुद मैं अभी सड़क पर चला जा रहा हूँ, मगर कल्पना घर पर पहुँच चुकी है। खुद मैं प्रेमिका के घर जा रहा हूँ, मगर कल्पना उसकी बाँहों में भी पहुँच चुकी है। खुद मैं इस वक्त साँस ले रहा हूँ, मगर कल्पना कई साल आगे पहुँच जाती है। वह उन सीमाओं से भी दूर पहुँच जाती है, जहाँ जीवन अँधेरे में जाकर खत्म हो जाता है। कल्पना अगली सदियों की उड़ान भरती है।

अपनी कल्पनाओं में मैं जिन खेतों को जोतता हूँ, वे उनकी तुलना में कहीं अधिक विस्तृत हैं, जिन्हें मैं वास्तव में जोतता हूँ। प्रतिभा, तुम किसकी सेवा करोगी, मेरी या मुझसे बहुत दूर उड़ जानेवाली मेरी कल्पनाओं की?

हाँ, तुम कभी न बुझनेवाली आग हो। तुम वह गीत हो, जिसे कोई भी अंत तक नहीं गा सकता। तुम वह उड़ान हो, जो किसी के बस की बात नहीं। मगर तुम्हारे चिरंतन गीत में क्या मैं अपनी एक धुन, अवार धुन जोड़ सकता हूँ? संभव है कि तब सारा गीत ही अधिक सुंदर हो जाए?

क्या मैं तुम्हारी अमर ज्वाला से ली गई एक चिनगारी से दागिस्तान के शिखरों पर छोटी-सी आग जला सकता हूँ? क्या मैं तुम्हारी अनंत और अंतहीन उड़ान को थोड़ा-सा, बेशक एक चट्टान से दूसरी तक ही, बढ़ा सकता हूँ?

मेरा गाँव है - त्सादा। इसका अर्थ है - आग। एक बार किसी दूसरे गाँव के एक आदमी ने मुझसे पूछा -

'कहाँ के रहनेवाले हो तुम, नौजवान?'

'त्सादा का।'

वह बोला -

'पहले अपनी कुछ कविताएँ सुनाओ और तब मैं तुम्हें यह बताऊँगा कि उनमें आग है या ठंडी राख।'

संदेह मुझ पर हावी हो जाते हैं। क्या मैं उस वक्त तो अपना नमदे का लबादा नहीं पहन रहा हूँ, जब ठंडे-बुरे मौसम का अंत हो चुका है और छिन्न-भिन्न होते बादलों के पीछे से सूरज फिर झाँकने लगा है? क्या मैं उस वक्त तो बाड़े के दरवाजे को ताला नहीं लगा रहा हूँ, जब चोर बैल को भगा भी ले जा चुके हैं? क्या वही कुछ नहीं सुना रहा हूँ, जिसे सभी अनेक बार सुन चुके हैं? क्या उन लोगों को मैं दावत पर नहीं बुला रहा हूँ, जो अभी-अभी किसी अच्छे मेजबान के यहाँ से खूब खा-पीकर निकले हैं? मुझे अपनी किताब लिखनी भी चाहिए या नहीं?

'अगर लिखे बिना रह सकते हो, तो न लिखो।'

'क्या मैं लिखे बिना रह सकता हूँ? रोगी को जब बहुत पीड़ा होती है, तो क्या वह कराहे बिना रह सकता है, क्या कोई सुखी आदमी मुस्कराए बिना रह सकता है? क्या बुलबुल चाँदनी रात की निस्तब्धता में गाए बिना रह सकती है? जब नम और गर्म मिट्टी में बीज फूट चुका है, तो घास बढ़े बिना कैसे रह सकती है? वसंत का सूरज जब कलियों को गर्माता है, तो फूल कैसे खिले बिना रह सकते हैं? जब बर्फ पिघल जाती है और पत्थरों से टकराता तथा शोर मचाता हुआ पानी नीचे बहने लगता है, तो पहाड़ी नदियाँ सागर की ओर बहे बिना कैसे रह सकती हैं? टहनियाँ अगर सूख चुकी हों और उनमें शोला भड़क चुका हो, तो अलाव कैसे जले बिना रह सकता है?'

बचपन में ही मुझे अलावों से प्यार हो गया था। मैं रातों को चरवाहों के यहाँ, नदी-तट पर, चट्टान के दामन में, इर्द-गिर्द के पहाड़ों की चोटियों या घरेलू चूल्हों में आग जलते देखा करता था। मैं जानता हूँ कि आग जलाना तो आधा काम है और बुरे मौसमवाली लंबी रात में उस आग को जलाए रखना कहीं अधिक कठिन होता है।

मैं अनुभव करता हूँ कि मेरे दिल में आग है। लेकिन मैं क्या करूँ, किस तरह का व्यवहार करूँ कि यह आग ठंडी न हो जाए, किसी को गर्माए बिना, अँधेरे में किसी का पथ रोशन किए बिना बुझ न जाए? अपनी प्रतिभा को सुरक्षित रखने और सुदृढ़ बनाने के लिए मैं क्या करूँ?

पिता जी के संस्मरण से। एक पहाड़ी आदमी ने पिता जी के पास आकर कहा -

'मैं कोशिश करके देख चुका हूँ और मुझे इस बात का विश्वास हो गया है कि मैं तुक मिला सकता हूँ। मगर मुझे यह मालूम नहीं कि वास्तविक कविता रचने के लिए क्या करना चाहिए।'

पिता जी ने जवाब दिया -

'वायलिन के तारों को सुर में करना ही काफी नहीं, उसे बजाना आना चाहिए। जमीन का होना ही काफी नहीं, उसे जोतना-बोना आना चाहिए।'

'कविता रचने के लिए मैं क्या करूँ?'

'क्या करूँ? काम में जुटा जाओ

काम : मेरा दाग़िस्तान

अगर किसी को काम हमारा लगे शहद जैसा
वह कूबाची में आ देखे सचमुच वह कैसा।
कूबाची की कला-वस्तु पर आलेख

मैं गुलाम हूँ अपनी इन कविताओं का श्रम करता रहता डटकर
हाड़ तोड़ता, कमर झुकाता रात-दिवस, बहे पसीना माथे पर
फिर भी मेरी मालिक, मेरी कविताएँ, मुझ से तुष्ट न हो पातीं,
बहुत रात को, बहुत देर से वे मुझको जब मन आता, दौड़ातीं।
मैं रिक्शा हूँ, मेरी दोनों बगलों से, बम भिड़ते हैं, टकराते,
जहाँ-तहाँ से मेरी त्वचा उधड़ जाती, वे धचके दे, धकियाते।
पहिए, जिनसे जुता हुआ चिर तन मेरा भारी ही होते जाते।


यह घटना बहुत पहले घटी थी, मगर मुझे आज भी वह इतनी अच्छी तरह और इतनी साफ तौर पर याद है मानो कल ही घटी हो। मैं तो इस पर एक कविता भी रच चुका हूँ, मगर यहाँ दोहराए बिना नहीं रह सकता।

दागिस्तान के कवि हमजात का मैं बेटा, जिसे उस वक्त कोई नहीं जानता था, अपना गाँव छोड़कर पहले मखचकला और फिर मास्को चला गया। साल बीते। मैंने साहित्य-संस्थान की पढ़ाई समाप्त की, दस कविता-संग्रह निकाल दिए। एक संकलन के लिए मुझे स्तालिन पुरस्कार भी मिल गया। मैंने शादी की। थोड़े में यह कि कवि रसूल हमजातोव बन गया। तभी मेरे दिल में फिर से अपने गाँव जाने का ख्याल आया।

सारा-सारा दिन मैं उन जगहों पर घूमता रहता, जहाँ कभी बचपन और किशोरावस्था में भागा फिरता रहा था। मैं चट्टानों और गुफाओं को देखता, लोगों से बातें करता, निर्झरों के गीत सुनता, कब्रिस्तान में चुपचाप बैठा रहता और फिर से खेतों में घूमने लगता।

सं.रा. अमरीका में मैंने फोर्ड के कारखाने में वह जगह देखी, जहाँ नई कारों की आजमाइश की जाती है। लेखक के लिए ऐसा परीक्षण-स्थल वह होना चाहिए, जहाँ उसका जन्म हुआ है।

औरतें गेहूँ के खेतों में निराई करके घर लौट रही थीं। वे थकी-हारी और धूल से लथ-पथ थीं, पैनी घास से उनके हाथों पर खरोंचें आ गई थीं, उनमें चीर पड़ गए थे। औरतें आराम करने के लिए सड़क किनारे बैठ गई। मैं उनके पास गया।

मालूम नहीं कि या तो मुझे देखकर वे मेरी चर्चा करने लगी थीं या पहले से ही मेरा जिक्र छिड़ा हुआ था, मगर अचानक मैंने मुट्ठी भर घास से माथे का पसीना पोंछनेवाली नारी को यह कहते सुना -

'अगर मुझसे कोई यह पूछे कि मैं सबसे अधिक क्या चाहती हूँ, तो मेरा जवाब होगा - रसूल हमजातोव का बेफिक्र दिल और उसके जैसी मजे की जिंदगी।'

'तुम क्या समझती हो कि रसूल के सीने में दिल की जगह पनीर का टुकड़ा है और वह कभी नहीं कसकता?' मेरी एक रिश्तेदार ने मेरा पक्ष लिया।

'पनीर का टुकड़ा तो चाहे न हो, मगर फिर भी उसे गेहूँ के खेत की निराई नहीं करनी पड़ती। सामूहिक फार्म की घंटी उसे काम पर नहीं बुलाती और दोपहर का खाना खाने की अनुमति नहीं देती। उसे यह मालूम नहीं कि श्रम-दिवस किसे कहते हैं, कैसे उसके लिए काम किया जाता है और क्या मुआवजा मिलता है। मजे से अंट-शंट, अल्लम-गल्लम लिखता रहता है... उसे किस बात की चिंता हो सकती है? किसलिए उसका दिल टीस सकता है? इससे ज्यादा क्या मौज हो सकती है?'

ओ भली मानस! कैसे मैं तुम्हें अपने काम, अपने अविराम और कठिन श्रम के बारे में बताऊँ?

उदास-उदास-सा मैं खेत से गाँव की ओर चला गया। गाँव के चौपाल में पके बालोंवाले बुजुर्ग ठंडे पत्थरों को गर्मा रहे थे। बड़े इतमीनान से वे आपस में जमीन, भावी फसल, पहाड़ों, चरागाहों, बीमारियों और जड़ी-बूटियों तथा हमारे गाँव के बीते दिनों की चर्चा कर रहे थे। मैं उनके पास गया, सलाम-दुआ की और ठंडे पत्थर पर बैठ गया।

एक बुजुर्ग के पास ताजा अखबार था, जिसमें मेरी कविताएँ छपी हुई थीं। उन्हीं के बारे में बातचीत होने लगी। घुड़सवार को अपने घोड़े की तारीफ से खुशी होती है। मुझे भी उम्मीद थी कि मेरे गाँववासी अभी मेरी कविता की प्रशंसा करेंगे। बात यह है कि मास्को और मखचकला में मैं तारीफ सुनने का आदी-सा हो चला था। उस बुजुर्ग ने, जिसके हाथ में अखबार था, कहा -

'तुम्हारे पिता हमजात कविता रचते थे। तुम, हमजात के बेटे भी कविता लिखते हो। तुम काम कब करोगे? या तुम रोटी के टुकड़े से कुछ अधिक भारी चीज उठाए बिना ही अपनी सारी जिंदगी बिता देने का इरादा रखते हो?'

'कविता ही तो मेरा काम है,' मैंने यशाशक्ति धीरज से जवाब दिया। बातचीत के ऐसा रुख ले लेने पर मैं सकते में आ गया था।

'अगर कविता लिखना ही काम है, तो निठल्लापन किसे कहते हैं? अगर गीत ही श्रम है, तो मौज और मनोरंजन क्या है?'

'गीत गानेवालों के लिए वह सचमुच मनोरंजन हैं, मगर जो उन्हें रचते हैं, उनके लिए वही काम है। नींद और आराम, साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टियों के बिना काम। मेरे लिए कागज वही मानी रखता है, जो खेत तुम्हारे लिए। मेरे शब्द - मेरे दाने हैं। मेरी कविताएँ - मेरे अनाज की बालें हैं।'

'हाँ, ये सब तो बहुत सुंदर शब्द हैं। खेत मेरे घर की छत पर नहीं आ जाता। मुझे खेत में काम करने जाना पड़ता है। मगर तुम तो कहीं भी क्यों न हो, चाहे बिस्तर में ही, गीत अपने आप ही तुम्हारे पास आ जाता है। तुम्हारा हर गीत तो जैसे तुम्हारा मेहमान होता है, जो तुम्हारे घर पर दस्तक देता है। इसका मतलब यह है कि हर गीत एक पर्व है। मगर हमारा खेत तो रोजमर्रा की आम जिंदगी है।'

हमारे गाँव के बुजुर्गों ने इस तरह या लगभग इस तरह अपने विचार प्रकट किए।

'मगर गीत ही तो मेरी जिंदगी है।'

'इसका यह मतलब है कि तुम्हारी जिंदगी तो स्थायी पर्व है। बात यह है कि गीत तो प्रतिभा का मामला है। जिसके पास प्रतिभा है, उसके लिए अच्छा गीत रचना बहुत आसान काम है। मगर जिसके पास उसकी कमी है, उसे श्रम करना पड़ता है। हाँ, इस संबंध में श्रम से बहुत लाभ नहीं होता।'

'नहीं, आपकी बात सही नहीं है। जिसके पास कम प्रतिभा होती है, वह कला को बच्चों का खेल समझता है। वही एक गीत से दूसरे गीत पर उड़ता फिरता है। जैसा कि कहा जाता है, घास काटता है। बड़ी प्रतिभा के साथ-साथ उसके प्रति जिम्मेदारी भी आती है और वास्तविक प्रतिभावाला व्यक्ति अपनी कविताओं को बहुत कठिन और महत्वपूर्ण काम मानता है। गाई जानेवाली हर चीज गीत नहीं होती, सुनाई जानेवाली हर चीज कहानी नहीं होती।'

'तो बताओ कि तुम कैसे काम करते हो और तुम्हारे धंधे में क्या कठिनाइयाँ होती हैं?'

मेरे इर्द-गिर्द बुजुर्ग हलवाहे बैठे थे। मैं उन्हें अपने काम के बारे में बताने लगा, मगर जल्दी ही यह समझ गया कि मेरे लिए बहुत ही साधारण बातों को, जिन्हें मैं बहुत ही अच्छी तरह समझता हूँ, दूसरों को समझाना मुश्किल है। मैं अटकने और बेचैनी महसूस करने लगा और खामोश हो गया। बाजी बुजुर्गों के हाथ रही थी। मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि कविता रचना क्यों मुश्किल है और कुल मिलाकर कविता रचना काम ही क्या है।

तब से अब तक बहुत साल बीत चुके हैं। मगर आज भी अगर कोई मुझसे यह पूछता कि मेरा काम क्या है, कि वह क्यों मुश्किल और दूसरे कामों से कैसे भिन्न है, तो शायद मैं साफ तौर पर यह न समझा पाता।

मेरे काम की जगह कहाँ है? मेज पर, हाँ, काम की मेज पर। मगर सैर के वक्त वह पहाड़ी पर भी होती है, जब मैं अपनी कविता की कल्पना करता हूँ और शब्द तथा ध्वनियाँ मेरे पास आती हैं, मगर मैं उन्हें ठुकराकर एक तरफ को फेंक देता हूँ। मेरे काम की जगह रेलगाड़ी भी है, जिसमें बैठकर मैं किसी दूसरे देश को जाता हूँ। कारण कि इस वक्त भी मेरे दिमाग में नई कविता के विचार आ सकते हैं। हवाई जहाज, ट्राम, लाल चोक, नदी-तट, जंगल और किसी मंत्री का स्वागत-कक्ष भी मेरे काम की जगह हो सकती है। पृथ्वी पर हर जगह ही मेरा कार्य-स्थल, मेरा खेत है, जहाँ मैं रहता और हल चलाता हूँ।

किस वक्त मैं काम करता हूँ? सुबह को या शाम को? कितना बड़ा है मेरा कार्य-दिवस? आठ घंटे का या छह घंटे का, बारह घंटे का, बारह घंटे का या इससे अधिक लंबा है वह? पर यदि इससे बड़ा है, तो मैं क्यों हड़ताल नहीं करता, आठ घंटे के कार्य-दिवस के लिए संघर्ष क्यों नहीं करता?

बात यह है कि जब से मुझे होश है, मैं हमेशा ही काम करता रहा हूँ। खाने के वक्त और थिएटर में, बैठक में और शिकार के समय, चाय पीते और मातम मनाते हुए भी, मोटर में और शादी के मौके पर भी। यहाँ तक कि नींद में भी कविता की पंक्तियाँ, उपमाएँ और विचार तथा कभी-कभी तो पूरी की पूरी तैयार कविताएँ दिखाई देती हैं। इसका मतलब यह है कि नींद में भी मेरा कार्य-दिवस जारी रहता है। बहुत पहले ही हड़ताल कर देनी चाहिए थी मुझे।

मैं कैसे काम करता हूँ? इस सवाल का जवाब देना सबसे ज्यादा मुश्किल है। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरा काम दूसरे सभी लोगों के काम के समान है। कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह बिल्कुल अनूठा है और दुनिया के लोग जितने भी काम कर रहे हैं, उनमें से किसी के साथ भी इसकी तुलना नहीं की जा सकती।

कभी-कभी मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि इर्द-गिर्द सभी लोग काम करते हैं और मैं अकेला ही कुछ नहीं करता। कभी-कभी मुझे ऐसी अनुभूति होती है कि सिर्फ मैं ही काम करता हूँ और मेरी तुलना में बाकी सभी निठल्ले हैं।

पक्षियों के बड़े मजे हैं। वे जिंदगी भर वही गीत गाते रहते हैं, जो उनके माँ-बाप उन्हें सिखा देते हैं। नदी भी मौज करती है। हजारों सालों से वह एक ही धुन गाती चली जा रही है। मगर मुझे तो अपनी छोटी-सी जिंदगी में इतने गीत रचने हैं, जो बहुत-बहुत सालों तक काफी हों।

जमीन का छोटा-सा टुकड़ा जोतनेवाले पहले आदमी का काम शायद काफी मुश्किल रहा होगा। पहला गीत रचनेवाले का काम भी आसान नहीं रहा होगा।

यदि एक हजार आदमी जमीन जोत चुके हों, एक हजार एकवें के लिए यह काम अपेक्षाकृत आसान होगा। पर यदि एक हजार आदमी कविताएँ लिख चुके हैं, तो एक हजार एकवें के लिए यह और भी ज्यादा मुश्किल काम होगा।

हाँ, खेतिहर, कुछ हद तक तो मेरा काम तुम्हारे काम जैसा ही है। इसलिए कृपया, मुझे ऐसा निठल्ला नहीं समझो, जिसका जीवन स्थायी रूप से मनोरंजन और मौज-बहार ही है। लंबी और उनींदी रातों में मैं तुम्हारी ही तरह अपने खेत के बारे में सोचता रहता हूँ। तुम अपने खेत के लिए बढ़िया बीज चुनते हो और मैं कुल शब्दों में से सबसे अच्छे शब्द चुनता हूँ। हजारों में से मुझे केवल एक ही चुनना होता है। मेरी भी अपनी जोत है, उसमें भी बीज फूटते हैं, जिनसे मुझे खुशी होती है, मुझे भी अपने श्रम के फल मिलते हैं। मैं भी अपने ढंग की बोवाई-निराई करता हूँ, क्योंकि मेरे खेत में भी काँटे और घास-पात हैं। मशीन की मदद से भी अच्छे-बुरे बीजों को अलग करना मुश्किल होता है। उपयोगी, हितकर और अच्छे शब्दों को गंदे-गंदे शब्दों से अलग करना और भी ज्यादा मुश्किल होता है।

किसान, तुम ओलों, पाले और सूखे से अपने खेत की रक्षा करते हो। मेरे लिए ऐसे गीत रचना जरूरी है, जो अपने सबसे भयानक शत्रु यानी समय के भय से मुक्त हों, क्योंकि मैं ऐसे गीत रचना चाहता हूँ, जो सदियों तक जिंदा रहें।

मुझे भी अपने ढंग के हानिकारक जीव-जंतुओं, कीड़ों-मकोड़ों, टिड्डियों और चूहों-से निपटना पड़ता है। वे मेरी फसल को कम कर सकते हैं या बिल्कुल ही नष्ट कर सकते हैं अथवा ऐसी बदमजा कर सकते हैं कि लोग मेरे श्रम के फलों से मुँह मोड़ लेंगे।

इतना ही नहीं, तुम्हारे चूहों और धानीमूषों के मुकाबले में मेरे खेत के फसल-नाशक चूहे कहीं बड़े और भयानक हैं, उनके विरुद्ध संघर्ष करना कहीं अधिक कठिन और कभी-कभी तो बिल्कुल व्यर्थ होता है।

चूल्हा जलता, छत के ऊपर टेढ़ा-मेढ़ा धुआँ दिखे
फिर भी है यदि सेंध कहीं पर, छोटी-सी भी उस घर में,
तब तो हवा किसी भैंसे-सा, अपना भारी सिर लेकर
घुस आएगी भीतर झटपट, बर्फ जमेगी घर भर में।
मेरी कविता के संग भी तो, ऐसा ही कुछ होता है
उसकी सेंधों का मैं भी तो, मूल्य चुकाता हूँ भारी,
ढीले-ढाले शब्दों में तो हवा तुरत घुस आती है
और बर्फ-सी जम जाती है, कविता तब मेरी सारी।

बाद में मुझे अपने फल लोगों में बाँट देने होते हैं। दागिस्तान और दूसरे देशों के लोगों को उन्हें चखना होता है, उनकी मिठास या कड़वाहट, उनके विशेष स्वाद को जानना होता है। मेरे फल का स्वाद अन्य सभी फलों के स्वाद से भिन्न होना चाहिए।

मुझे याद है कि कैसे मेरे बचपन के दिनों में पिता जी मुझे पूले बाँधना सिखाते थे। जब मैं घुटना टेककर पूरे जोर से पूले को कसता था, तो पिता जी कहते थे -

'रसूल, ध्यान से। पूले का गला नहीं घोटों।'

अब, जब कभी कोई कविता नहीं बनती, मेरे बहुत धकेलने पर भी कोई पंक्ति बाहर निकल आती है और मैं कविता को जैसे-तैसे खत्म कर डालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता हूँ, तो ऐसे क्षणों में मुझे अक्सर पिता जी की यह सीख याद आ जाती है - 'रसूल, ध्यान से। पूले का गला नहीं घोंटो।'

खेतों में हर साल एक जैसी फसलें नहीं होतीं। एक साल तो इतना अनाज हो जाता है कि बखार और एलीवेटर भी काफी नहीं होते और फिर ऐसा भी होता है कि तीन साल तक कुछ भी पैदा नहीं होता। मेरा भी ऐसा ही हाल है। हमेशा एक ही तरह से काम नहीं कर पाता। वैसे खाद और बीज तो मैं बढ़िया डालता हूँ, जुताई भी ढंग से करता हूँ, मगर अनाज पैदा नहीं होता। ऐसे वक्तों में अनुवाद करना और अनाज कहीं आस्ट्रेलिया या कनाडा से खरीदना पड़ता है। जब मेरी काव्य-दीप्ति मंद पड़ जाती है और कविताएँ मेरी आत्मा से निकलकर कागज पर नहीं आना चाहतीं, तब किसी भी तरह के रासायनिक पदार्थ मेरी मदद नहीं कर पाते।

मगर क्या किया जाए? अगर हर अभियान और शुरू किया गया हर काम सिरे ही चढ़ जाता, तो सभी संतुष्ट और खुश रहते। अगर जमीन हर साल भरपूर फसल देती, तो दुनिया में कोई भी भूखा न रहता। अगर कागज पर लिखी हर चीज गीत होती, तो लोग कभी के साधारण भाषा में बातचीत करने के बजाय गाते ही रहते। मगर गीत रचना बहुत टेढ़ी खीर है।

मुझे दागिस्तान, जार्जिया, आर्मीनिया और बल्गारिया के शराब के कारखानों तथा पील्जेन की बीयर-फैक्टरियों में भी जाने का मौका मिला है। मुझे लगता है कि कवियों और शराब बनानेवालों में बहुत कुछ साझा है। दोनों की अपनी बारीकियाँ और रहस्य हैं। शराब की तरह कविता भी आत्मा में उठनी चाहिए, उसे वहाँ ही पकना चाहिए। शराब की तरह अच्छी कविता में भी आत्मा को खुश करनेवाला कोई रहस्यपूर्ण खुमार छिपा रहता है। इस दृष्टि से कविता और शराब एक-दूसरी के बहुत निकट हैं।

कभी-कभी किसी पहाड़ी गाँव में, जहाँ दुकान है, शराब के पीपे लादे हुए ट्रक आती है। एक पीपा इस गाँव में, दूसरा उस गाँव में - बूयनाक्स्क से लाई गई शराब को ड्राइवर इस तरह पहाड़ी गाँवों में पहुँचाते हैं।

ऐसी ट्रक को देखते ही नीजवान लोग ऐसा जाहिर करते हुए कि न तो उन्हें कोई उतावली है और न जल्दी, मगर वास्तव में बेहद बेसब्र होते हुए, गाँव के सभी कोनों से उस दुकान की ओर चल पड़ते हैं। वे पीपे को ऐसे घेर लेते हैं जैसे चरवाहे द्वारा रखे हुए नमक के डले को भेड़ें।

शराब को घड़ों में डाला जाता है, सभी चखने लगते हैं और तब सभी को भारी निराशा होती है। ऐसी आवाजें सुनने को मिलती हैं -

'यह भी कोई शराब है। यह तो पानी है।'

'नाले का मामूली पानी।'

'बेचनेवाले खुद ही पी लें ऐसी शराब।'

'मुझ पर क्यों बिगड़ रहे हैं?' विक्रेता विरोध करता है। 'आप लोगों ने तो देखा है कि पीपा ट्रक में लाया गया है। आपके सामने ही नीचे उतारा गया है। आप लोगों ने उसे उतरवाने में भी मदद की है। तो फिर मेरा क्या दोष है? जैसी शराब आई है, वैसी ही बेच रहा हूँ। नहीं चाहते, तो नहीं खरीदिए।'

असल बात यह है कि शहर के गोदाम में ऐसे लोग हैं, जो हल्के में शराब भेजने के पहले पीपे में से जितनी भी चाहते हैं, शराब निकाल लेते हैं और उसकी जगह शुद्ध जल डाल देते हैं। 'हलकों में तो ऐसी शराब पाकर भी बहुत खुश होंगे।' हलके के गोदाम से गाँवों को शराब रवाना करने के पहले वहाँ के कर्मचारी भी यह किस्सा इसी तरह दोहराते हैं। 'गाँवों के लिए तो ऐसी शराब भी चलेगी।' वे कहते हैं। रास्ते में ड्राइवर और कुली तन गर्माने तथा लंबे सफर की ऊब मिटाने के लिए कई लीटर शराब निकाल लेते हैं और किसी निर्झर या नदी से निर्मल जल डाल लेते हैं। तो इस तरह या तो पानी से खराब हुई शराब या शराब से खराब हुआ पानी बन जाता है।

कुछ कविताओं को पढ़ते हुए भी यह समझ में नहीं आता कि उनमें कवित्व अधिक है या कोरी शब्द-भरमार। काहिल कवि ही, जो मेहनत करने से घबराते हैं, ऐसी कविताएँ रचते हैं। मगर उछल-कूद करनेवाली नदी शायद ही कभी सागर तक पहुँच पाती है। आलसी यात्री शायद ही कभी मक्का तक पहुँच पाता है। जब दो सवारों को एक ही घोड़े पर जाना होता है, तो वे एक-दूसरे को सहारा देते हैं। प्रतिभा और श्रम भी एक ही घोड़े पर सवारी करते हैं।

अबूतालिब कहा करते थे कि प्रतिभा और श्रम को कविता में ऐसे घुल-मिल जाना चाहिए जैसे खंजर और म्यान मिलकर एक हो जाते हैं।

नोटबुक से। उन दिनों मैं घर के बजाय बाहर सड़क पर ज्यादा वक्त बिताता था। मैं स्कूल में पढ़ता था, और कविता रचने लगा था। मगर मुझमें कविता रचने, पढ़ने और घर पर तैयार करने के लिए दिए गए स्कूली पाठों को पूरा करने का धीरज नहीं होता था। मेज के पास टिककर बैठना तो मैं जानता ही नहीं था। बहुत जल्दी ही मैं बेचैनी महसूस करने लगता, मेज पर से उठता और मौका मिलते ही बाहर सड़क पर भाग जाता। अभी भी मैं न तो बहुत टिककर बैठ सकता हूँ और न मुझमें बहुत धीरज ही है।

एक दिन पाठ तैयार करने या कविता रचने के लिए मुझे बैठाकर पिता जी थोड़ी देर को बाहर गए। दरवाजा बंद हुआ ही था कि मैं झटपट मेज पर से उठा और अपने घर की छत पर जा पहुँचा। मुझे वहाँ देखकर पिता जी ने माँ को पुकारा और कहा -

'जरा मुझे वह रस्सा ला दो जो कील पर लटका हुआ है।'

'क्या जरूरत है तुम्हें उसकी?'

'मैं रसूल को कुर्सी के साथ बाँधना चाहता हूँ, वरना वह कभी काम का आदमी नहीं बनेगा।' पिता जी ने बड़े इतमीनान से और कसकर मुझे कुर्सी के साथ बाँध दिया, धीरे-से मेरे माथे पर चपत लगाई और कागज की तरफ इशारा करके बोले -

'भेजे में जो कुछ है, यहाँ लिखो।'

काश कि हम लेखकों को अब भी कोई जब-तब कुर्सी पर बाँध देता।

मुमकिन है कि दिमाग तो काम करता हो, मगर यदि दिमाग काम करता है और हाथ कुछ नहीं करते, तो यह तो वैसी ही बात होगी कि चक्की आटा पीसने के बजाय खाली ही घूमती जाए।

शानगिराई, उसके बेटे और पाँच रूबलों का किस्सा। कुछ अर्से पहले की बात है कि खूंजह में शानगिराई नाम का एक धनी और सर्वसम्मानित व्यक्ति रहता था। उसका इकलौता और इसलिए बिगड़ा हुआ तथा सनकी बेटा था। पिता ने चाहा कि उसका बेटा गाँव के अन्य लोगों की तरह काम करे और इस तरह सही अर्थ में इनसान बने। मगर बेटा काम करना नहीं चाहता था। पिता के दोस्त और रिश्तेदार उसे बिगाड़ते थे। कोई उसे घोड़ा भेंट कर देता, कोई चेर्केसी कोट, कोई पैसे और कोई खंजर।

एक बार शानगिराई बहुत सख्त बीमार हो गया। दवाइयों से उसे कोई फायदा न हुआ। सभी रिश्तेदार, दोस्त-मित्र बीमार के पास जमा हुए।

'तुम अच्छे हो जाओ, इसके लिए हम क्या करें?'

'मैं तो जानता हूँ कि कैसे मैं भला-चंगा हो सकता हूँ मगर तुम लोग मेरी इच्छा पूरी करने में असमर्थ हो।'

'तुम अपनी इच्छा तो प्रकट करो। हम उसे पूरा करने के लिए कोई कसर न उठा रखेंगे।'

'अगर मेरा बेटा खुद कमाकर पाँच रूबल लाए और मुझसे कहे : 'पिता जी, इन्हें ले लो, ये आपके हैं,' तो मैं ठीक हो जाऊँगा।'

दो दिन बाद बेटा अपने बाप के पास आया और पाँच रूबल का नोट बढ़ाते हुए बोला -

'पिता जी, ये रूबल ले लीजिए। गोईसुव खड्ड में से तने बहाकर मैंने कमाए हैं।'

पिता ने नोट की तरफ, फिर बेटे की तरफ देखा और नोट को आग में फेंक दिया। बेटा बुत बना खड़ा रह गया। उसके चेहरे का ऐसे रंग उड़ गया मानो किसी ने तमाचा रसीद कर दिया हो।

वास्तव में बीमार शानगिराई की इच्छा जानकर लड़के की मदद करने के लिए वे पाँच रूबल उसके चाचा ने दिए थे।

कुछ दिन बाद बेटा फिर से बाप के पास आया और पाँच रूबल का नोट बढ़ाते हुए बोला -

'मैंने गूनीब में बन रही नई सड़क की तामीर में हिस्सा लेकर इन्हें खुद कमाया है।'

पिता ने बेटे की तरफ, फिर नोट की तरफ देखा और उसे मोड़कर खिड़की से बाहर फेंक दिया।

बेटा बुत बना खड़ा रहा। उसे ये रूबल होत्सातल में रहनेवाले पिता के एक दोस्त ने दिए थे।

बेटा तीसरी बार पिता के पास आया और तीसरी बार उसने पाँच रूबल का नोट पिता की तरफ बढ़ाया। पिता ने बेटे की तरफ देखे बिना ही नोट लिया और उसके दो टुकड़े कर डाले। बेटा बाज की तरह नोट के उन दो टुकड़ों पर झपटा और उन्हें उठाकर जोड़ने लगा। उसने चिल्लाकर पिता से कहा -

'मैंने इसलिए पेत्रोव्स्क में घुड़सालों की सफाई करके ये रूबल नहीं कमाए थे कि आप इन्हें मामूली कागज की तरह फाड़कर फेंक दें। मेरे हाथों पर गट्टे पड़ गए हैं।'

'हाँ, अब यह बात बिल्कुल साफ है कि तुमने खुद ही ये रूबल कमाए हैं।'

शानगिराई खुश हो उठा, उसकी तबीयत सँभलने लगी और जल्दी ही वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया।

अपनी मेहनत से कमाई गई दौलत का ही वास्तविक मूल्य होता है।

शायद कविता के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। अगर कविता रचने के लिए कवि को खुद कष्ट उठाना पड़ा है, तो हर शब्द और हर कॉमा भी उसे प्यारा होगा। अगर उसने राह चलते पराये विचार इकट्ठे कर लिए हैं, तो उनसे बढ़िया कविता नहीं बनेगी।

मेरे घर के पास सुनार कई रहते
देख चुका हूँ कभी-कभी जा उनके घर,
घिसकर ताँबा, सोना तनिक कसौटी पर
आसानी से बतलाते उनका अंतर।
मेरे पाठक - मेरी तुम्हीं कसौटी हो
तुम ही मुझको मेरा सत्य दिखा पाते,
चालाकी से बुनी पंक्तियों में मेरी
सोने-ताँबे का तुम अंतर दिखलाते।

अगर तुम यह चाहते हो कि मछली मजेदार हो, तो झील पर जाकर उसे खुद पकड़ो। उकाब हवा के रुख के विपरीत उड़ता है। मछली बहाव के प्रतिकूल तैरती है। कवि भी प्रबल भावनाओं की और बढ़ता हुआ ही, वे चाहे सुखद होने के बजाय दुखद हों, काव्य-रचना करता है। एक बार अबूतालिब ने मुझे कुछ ऐसा ही किस्सा सुनाया था।

बालखारी के कुम्हारों, उनके मिट्टी के बर्तनों और शैतान गाहकों का किस्सा। बालखारी के कुम्हारों ने मिट्टी से बनाई हुई अपनी चीजों को बड़ी-बड़ी टोकरियों में रखा, उन्हें गधों और खच्चरों पर लादा और बेचने शहर चल दिए। रास्ते में उन्हें अपने निकटवर्ती गाँव के शरारती लड़के मिले।

'कुम्हारो, बहुत दूर जा रहे हो क्या?'

'बर्तन बेचने।'

'क्या कीमत है इनकी?'

'छोटों की बीस कोपेक और बड़ों की पाँच।'

'ऐसा क्यों?'

'इसलिए कि बड़े बर्तनों की तुलना में छोटे बर्तन बनाना ज्यादा मुश्किल होता है।'

शरारती लड़कों ने बालखारीवासियों से उनके सारे बर्तन खरीद लिए।

'हमारे माल से बहुत खुशी होगी तुम्हें,' कुम्हारों ने लड़कों से विदा लेते और अपने गधों-खच्चरों को गाँव की ओर मोड़ते हुए कहा। 'बहुत मन लगाकर हमने अपना माल तैयार किया है। तुम्हारे पोते-पोतियों तक हमारे बनाए हुए ये बर्तन काम देते रहेंगे।'

पहाड़ पर चढ़कर कुम्हार आराम करने के लिए बैठ गए। उन्होंने दूर से पहाड़ी सड़क पर नजर डाली और अचानक उन्हें यह जानने की कुरेद हुई कि लड़के उनके बनाए हुए टनकते और सुंदर बर्तनों का क्या कर रहे हैं। लड़कों ने उन बर्तनों को खड्ड के सिरे पर रख दिया था और खुद उनसे बीस कदम हटकर उनपर कंकड़ फेंक रहे थे। शायद उनमें होड़ हो रही थी कि कौन ज्यादा बर्तन तोड़ता है। बर्तन टनकती आवाज करते हुए टूटते और उनके टुकड़े खड्ड में बिखर जाते। लड़कों को इससे बहुत खुशी हो रही थी।

कुम्हार एक साथ ऐसे उछलकर खड़े हुए मानो उन्हें फौजी हुक्म मिला हो और म्यानों से खंजर निकालकर वे उन बदमाश लड़कों की ओर भागे।

'अरे दुष्ट लड़को, यह तुम क्या कर रहे हो।' वे चिल्लाए। 'हमने तो अपने बहुत ही अच्छे बर्तन बेचे हैं और तुम... कोई शर्म-हया है तुममें?'

'किसलिए बिगड़ रहे हैं आप?' कुछ न समझते हुए लड़कों ने पूछा। 'आपने अपना माल हमें बेच दिया, हमने आपको उसके अच्छे पैसे दे दिए, अब ये बर्तन हमारे हैं। हम इनका क्या करते हैं, आपको इससे मतलब? जी में आएगा, तो फोड़ेंगे, जी में आएगा, तो घर ले जाएँगे और जी में आएगा, तो यहीं सड़क पर छोड़ देंगे।'

मगर इन बर्तनों के साथ हमारा भी तो नाता है। बर्तन बनने के पहले हमने इनके लिए मिट्टी तैयार करने में बहुत मेहनत की। हमने बड़े मन से उसे गूँधा ताकि उसके सुंदर बर्तन बनें, ताकि लोग उन बर्तनों को देखकर मुग्ध हों। हमने तो यह सोचा था कि हमारी बनाई चीजों से लोगों को खुशी मिलेगी, कि वे किसी के जीवन में रंगीनी लाएँगे। तुम्हें इन बर्तनों को बेचते हुए हमने यह आशा की थी कि एक गागर से तो तुम अपने मेहमानों को बूजा पिलाओगे, दूसरी में चश्मे का ठंडा पानी रखोगे और कुछ गमलों में सुंदर फूल उगाओगे। मगर तुम तो बड़े ही बेहया हो, इन सभी बर्तनों के टुकड़े कर डाले। हमारी सारी मेहनत, हमारी सारी कोशिश, हमारे सारे सपनों को तुमने खड्ड के सिरे पर चूर-चूर कर डाला। तुमने हमारी बनाई हुई चीजों पर वैसे ही कंकड़ फेंके है, जैसे कि नासमझ बालक गानेवाले सुंदर पक्षियों पर कंकड़ फेंकते हैं।'

कुम्हारों ने लड़कों से वे सभी बर्तन, जो वे तोड़ नहीं पाए थे, दृढ़तापूर्वक छीन लिए और अपने घर लौट गए।

कुम्हारों के दिल को लगी ठेस को हर वह आदमी समझ जाएगा, जो खुद कड़ी मेहनत करता है, अपने काम में पूरी तरह से अपना मन लगा देता है और अपने श्रम के फल पर मुग्ध होता है। इस तरह अबूतालिब ने अपना यह किस्सा खत्म किया।

अबूतालिब का सुनाया हुआ यह किस्सा मुझे न जाने क्यों, तब याद हो आया, जब दूरस्थ जापान में मैंने मोती खोजनेवाली लड़कियों को देखा। जवान और हष्ट-पुष्ट सुंदरियाँ सागर-तल में गहरे गोते लगातीं और वहाँ बड़ी मुश्किल से साँस लेती हुई अपनी जाँघ के साथ लटकते थैले में कुछ सीपियाँ डाल पातीं। ऐसी ही किसी एक सीपी में शायद कोई मोती हो सकता है। मगर मोतीवाली ऐसी एक खुशकिस्मत सीपी पाने के लिए हजारों सीपियाँ निकालनी पड़ती हैं। अब कल्पना कीजिए कि असली मोतियों की माला बनाने के लिए कितनी बार गोते लगाना और कितनी हजार सीपियाँ निकालना जरूरी होगा?

तो क्या उन्हीं शब्दों से, जिनका लोग हर दिन की बातचीत में इस्तेमाल करते हैं, गीतों की माला तैयार करना आसान है? सभी साधारण शब्द, सभी घटनाएँ, सभी भावनाएँ, जीवन के सभी अनुभव - यह है वह महासागर, जिसमें ढेरों सीपियाँ बिखरी पड़ी हैं। मगर मोती की तालश करनेवाले को अत्यधिक कठिन श्रम करना पड़ता है, लगातार महासागर की गहराइयों में गोते लगाने पड़ते हैं। इसके लिए अत्यधिक दक्षता, धीरज, स्वास्थ्य और सहनशीलता तथा प्रयास आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि किस्मत साथ दे। मोती खोजनेवाले का धीरज, चाँदी पर काली नक्काशी करनेवाले कूबाची कारीगर का धीरज - इस सब का प्रतिभा से संबंध है, यह सब एक साथ प्रतिभा और श्रम है।

अधिक समय तक जी पाए कविता मेरी
सीख रहा हूँ मैं तो सुखी, दुखी होकर
उस कूबाची के कारीगर-सा कैसे
धीरज, दृढ़ता पा जाऊँ मैं भी आखिर।

नियम, जिन्हें हर पहाड़ी जानता है।

बालिग होने से पहले बेटी की शादी नहीं करो।

पानी तक पहुँचने से पहले जूते नहीं उतारो।

जब तक जानवर जंगल में है और तुमने उसका शिकार नहीं कर लिया, उसे पकाने के लिए पतीला आग पर नहीं चढ़ाओ।

रुपहली लोमड़ी उसकी नहीं है, जिसने उसे देखा, बल्कि उसकी है, जिसने उसे पकड़ा।

संस्मरण। मैं एक घटना लोगों को बताना तो नहीं चाहता, क्योंकि उसमें मेरी तारीफ की कोई बात नहीं है। पर जब सिलसिलेवार सब कुछ बताना शुरू ही कर दिया, तो अब इसे ही क्या छिपाना? पहाड़ों में ठीक ही कहा जाता है - 'अगर पेट तक पानी में चले गए, तो पूरी तरह ही घुस जाओ,' 'अगर बोरी का मुँह खोल ही दिया, तो उसमें जो कुछ भी है, झटककर बाहर निकाल दो।'

यह किताब, जो मैं इस वक्त लिख रहा हूँ, कभी की पूरी हो गई होती, अगर यह मूर्खतापूर्ण घटना न घट जाती, जिसकी मैं अब चर्चा करने जा रहा हूँ।

आम तौर पर ऐसा होता है कि अगर मैं कोई किताब लिखना शुरू कर चुका हूँ और तभी मुझे कहीं जाना पड़ जाए, तो उसकी पांडुलिपि मैं अपने साथ ले जाता हूँ। इस तरह मेरी पांडुलिपियाँ विभिन्न देशों की लंबी यात्राएँ कर चुकी हैं। जाहिर है कि मैं उन्हें यों ही अपने साथ नहीं ले लेता - होटल में हमेशा ही कोई न कोई ऐसी सुबह मिल जाती है, जब पांडुलिपि लेकर बैठा जा सकता है, उस पर विचार करना और एकाध पृष्ठ लिखना संभव होता है। तो इस तरह यह किताब भी मेरे साथ समुद्रों, महासागरों और महाद्वीपों की सैर कर आई है।

एक बार ब्रसेल्स से लौटते हुए मैं मास्को के 'मोस्क्वा' होटल में आठवीं मंजिल पर ठहरा। अब जब इस होटल का जिक्र आ ही गया है, तो यह भी बता दूँ कि यह मेरे लिए महज होटल नहीं है। यह एक तरह से मेरा दूसरा घर है। अगर उन सालों को ध्यान में रखा जाए, जब से मैं लेखक बना हूँ और तरह-तरह के कामों के सिलसिले में राजधानी आता-जाता रहा हूँ, तो लगभग मेरी आधी जिंदगी इसी होटल में गुजरी है।

सभी प्रबंधक, सभी मंजिलों पर ड्यूटी देनेवाली और सफाई करनेवाली नारियाँ मुझे अच्छी तरह जानती हैं और मैं भी उन्हें जानता हूँ। मास्को के मेरे दोस्तों को भी यह मालूम है कि मैं हमेशा 'मोस्क्वा' होटल में ही ठहरता हूँ। इन दोस्तों में सचमुच कुछ तो ऐसे भी हैं, जिनके लिए 'रसूल मास्को में' शब्दों का यही अर्थ होता है कि फुरसत का वक्त काटने का एक अच्छा संयोग बना है।

मैं हाथ-मुँह भी नहीं धोने पाता हूँ कि रह-रहकर टेलीफोन की घंटी बजने लगती है, दरवाजे पर बार-बार दस्तक होने लगती है और कुछ ही देर बाद कमरे में कहीं बैठने या हिलने-डुलने तक की जगह नहीं रहती। होटल का कमरा बेशक पहाड़ी घर नहीं होता, फिर भी पुरानी परंपरा के अनुसार हम पहाड़ी लोग तीसरे दिन ही मेहमान का नाम पूछते हैं। पर चूँकि तीन दिनों तक कोई मेहमान भी होटल के कमरे में बैठा नहीं रहता, इसलिए अपने पास आनेवाले बहुत-से लोगों के नाम मुझे कभी मालूम ही नहीं हो पाते।

तो खैर, ब्रसेल्स से लौटने पर एक बार मैं 'मोस्क्वा' होटल में ठहरा। हमेशा की तरह मेरे कमरे में लोगों की भीड़ थी। कुछ मेरे विदेश से लौटने की बधाई और कुछ दागिस्तान की मेरी यात्रा के लिए शुभकामनाएँ देने आए थे और कुछ ऐसे ही, किसी भी काम के बिना आ गए थे। कुछ को मैंने खुद बुलाया था और कुछ बिन बुलाए मेहमान थे।

हो-हल्ला करते हुए हमने कुछ की तारीफ की और इसलिए जाम चढ़ाए; शोर मचाते हुए दूसरों की आलोचना की और इसलिए पी। हम बातें करते थे और पीते थे। खिलखिलाकर हँसते थे और पीते थे। गाने गाते थे और पीते थे। इसके अलावा कमरे में इतना धुआँ फैला हुआ था मानो मेज या पलंग के नीचे गीली लकड़ियों का अलाव जल रहा हो।

अबूतालिब कहा करते थे कि तीन कारणों से वे बुढ़ा गए हैं।

सबसे पहले तो इस कारण से कि जब सभी आमंत्रित मेहमान आ जाते हैं और एक उस मेहमान का इंतजार करना पड़ता है, जो वक्त पर नहीं पहुँचता।

दूसरा कारण यह है कि बीवी ने तो मेज पर खाना लगा दिया है, मगर वोद्का की बोतल के लिए भेजा हुआ बेटा आने का नाम नहीं लेता।

तीसरा कारण यह है कि जब सारे मेहमान चले जाते हैं और सिर्फ वही एक जो सारी शाम गुम-सुम बैठा रहा है, दहलीज के पास रुककर बोलना शुरू कर देता है और अपनी खामोशी के घंटों की कमी पूरी करने लगता है तथा ऐसा अनुभव होता है कि उसकी बातों का कभी अंत नहीं होगा।

हम चाहे कितने भी थके हुए क्यों न हों, हमारी आँखें चाहे नींद से घुटी क्यों न जा रही हों, मगर हमें उसकी सारी बकवास सुननी पड़ती है। हम उसकी हर बात से सहमत होने की कोशिश करते हैं ताकि वह जल्दी से चलता बने। मगर हमारे इस तरह सहमत होने से उसे और प्रेरणा मिलती है और वह नई से नई बकवास जारी रखता है।

ऐसा ही एक मेहमान उस शाम को, जिसका इतना भयानक अंत हुआ और जिसकी अब मैं चर्चा करना चाहता हूँ, होटल के मेरे कमरे में आ गया। सभी मेहमानों के चले जाने के बाद यह नशे में धुत्त मेहमान मेरी खोपड़ी पर सवार रहा, कमरे की हर मुमकिन जगह पर उसने सिगरेट के टोटे बुझाए। ऐसा करते हुए उसने न तो पर्दों का छोड़ा, न कुर्सी की टेक को, न मेरे सूटकेस और न ही मेज पर रखे मेरे कागजों को ही।

शुरू में उसने मेरी तारीफ की और मैंने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। फिर उसने अपनी तारीफ की, मैंने सहमति प्रकट की। उसके बाद उसने अपनी बीवी की तारीफ की, मैं इससे भी सहमत रहा। आखिर वह मुझे भला-बुरा कहने और मुझ पर सभी तरह का कीचड़ उछालने लगा, मैंने इसके साथ भी सहमति प्रकट की। 'अब यह अपने को और फिर अपनी बीवी को भला-बुरा कहना शुरू करेगा,' मैंने घबराकर मन ही मन सोचा। मगर उस स्थल तक पहुँचते न पहुँचते, जहाँ तर्कसंगत ढंग से उसे अपने को कोसना चाहिए था, मेरे मेहमान ने अचानक जल्दबाजी दिखानी शुरू की और अपने कमरे मैं सोने चला गया। हाँ, इस ख्याल से कि उसके जाने से मुझे बहुत दुख न हो, वह अगले रोज आने का वादा कर गया।

कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि मेहमान हर पहलू से सुंदर होता है, पर फिर भी उसकी पीठ सबसे अधिक सुंदर होती है। इस दिन मैं इस कहावत का सही अर्थ समझा। अपने इस जाते हुए मेहमान की पीठ मुझे बहुत ही खूबसूरत लगी। 'तो आज की शाम की सारी मुसीबतों से पिंड छूटा,' मैंने राहत की साँस लेते हुए मन ही मन सोचा, 'अब चैन से सोया जा सकता है।' मैंने झटपट दरवाजा बंद किया, दबे पाँव कंबल के नीचे जा दुबका और फौरन ही मेरी आँख लग गई। मुझे ऐसी मजे की नींद आई जैसी उस समय लंबे गर्म लबादे के नीचे आती है, जब बाहर बारिश पटापट का अपना राग अलापती होती है। सपने में मुझे दिखाई दिया कि मैं सचमुच ही अलाव के पास लंबा गर्म लबादा ओढ़े पड़ा हूँ और मेरे इर्द-गिर्द चरवाहे बैठे हैं। वे अलाव में चैलियाँ डाल रहे हैं। अलाव से धुआँ निकल रहा था, जिससे मेरी आँखों में जलन और नाक में खुजली हो रही थी। इसके बाद मैंने अपने को मानो बेकरी में पाया, जहाँ न जाने किस कारण जली हुई रोटी की गंध आ रही थी। इसके बाद मैंने यह देखा कि इतवार के दिन मैं दोस्तों के साथ शहर के बाहर गया हूँ और वहाँ हम जायकेदार सीख-कबाब भून रहे हैं।

आँखों में असह्य जलन अनुभव होने पर मेरी आँख खुली। मैं झटपट उठा, मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। कमरा धुएँ से भरा हुआ था और दरवाजे के करीब भी मानो आग जल रही थी। मैं आग की तरफ लपका, तो देखा कि मेरा सूटकेस जल रहा है।

मेरे सूटकेस पर दुनिया के बेहतरीन होटलों के निशान लगे हुए थे। कितने देशों की मैंने इसके साथ यात्रा की थी। कितने चुंगीघरों से हम किसी परेशानी के बिना निकले थे। यह सही है कि उसमें कभी कोई आपत्तिजनक चीज नहीं होती थी, मगर फिर भी वोद्का की बोतल, जो दोस्तों को भेंट करने के लिए होती है, या सिगरेटों का फालतू पैकेट या बीवी के लिए सुंदर ब्लाउज देखकर भी चुंगीवाले कभी-कभी चमक उठते हैं।

तो मेरा यह सूटकेस जो इतने चुंगीघरों से सही-सलामत निकल आया था, मास्को होटल के शांत कमरे में आकर जल गया।

मैंने जलते हुए सूटकेस के बचे-बचास हिस्सों को जल्दी से उठाया, नहाने के टब में डाला और नल चला दिया। धुएँ के नए बादल उठे। मेरे हाथ और शायद चेहरा भी कुछ जल गया था। मगर जिस कुर्सी पर पहले सूटकेस रखा था, अब उसकी तथा कालीन और पर्दों की आग बुझाना जरूरी था। मैंने लपककर अपनी मंजिल पर ड्यूटी देनेवाली औरत को टेलीफोन किया।

'मैं जला जा रहा हूँ' मैंने चिल्लाकर कहा, 'मेरी मदद को आइए।'

मगर ड्यूटीवाली ने शायद यही सोचा कि रसूल तो सिर्फ प्यार की आग में ही जल सकता है और इस वक्त उसी की मुहब्बत की आग में जल रहा है। इसलिए उसने बड़े इतमीनान से, माँ के से अंदाज में जवाब दिया -

'रसूल, बस, यह सब रहने दो, अब सो जाओ। सुबह तक बिल्कुल ठीक-ठाक हो जाओगे।'

ओ नारियो। कितनी बार मैंने उनसे मजाक में यह कहा था कि मैं जला जा रहा हूँ और मुझ पर विश्वास करके वे मरी मदद को आई थीं। मगर जब जिंदगी में सिर्फ एक बार ही असली आग ने मुझे आ घेरा था, तो किसी ने मुझ पर एतबार नहीं किया।

आग बुझानेवाले एक बहादुर आदमी की तरह मैंने आग के विरुद्ध मोर्चा लिया। आखिर मुझे कालीन, कुर्सी और पर्दों की आग और लकड़ी के फर्श की सुलगती तख्तिओं को बुझाने में भी कामयाबी मिल गई। हाँ, मैंने आग पर विजय तो प्राप्त कर ली थी, मगर ऐसा कर पाने के पहले उसने मेरा काफी नुकसान कर दिया था।

शायद नशे में धुत्त मेहमान ने मेरे सूटकेस में सिगरेट का टोटा घुसेड़ दिया था और वहीं से यह सारी मुसीबत शुरू हुई थी। मेरी कमीजें, सूट और ब्रसेल्स से लाए गए सारे तोहफे जल गए। होटल के प्रबंधकों ने कालीन, कुर्सी और पर्दों का हिसाब जोड़कर खासी बड़ी रकम का बिल मेरे सामने पेश कर दिया। खुद मुझे अस्पताल जाना पड़ा। घर पर बीवी को टेलीफोन किया कि जरूरी काम से रुक रहा हूँ। पर चूँकि अभी यह नहीं सोचा था कि किस जरूरी काम से रुक रहा हूँ इसलिए फिर टेलीफोन करने का वादा किया। तो कंबख्त एक टोटे ने क्या गजब कर डाला था।

मगर सच तो यह है कि मेरे सबसे बड़े नुकसान के मुकाबले में यह सब हानि तो बड़ी तुच्छ-सी प्रतीत हुई। सूटकेस के तल में वह पांडुलिपि पड़ी थी, जिस पर मैं पिछले दो साल से काम कर रहा था...

कहते हैं कि सबसे बड़ी मछली वह होती है, जो काँटे से निकल जाए, सबसे मोटा पहाड़ी बकरा वह होता है, जिस पर साधा हुआ निशाना चूक जाए, सबसे ज्यादा खूबसूरत औरत वह होती है, जो तुम्हें छोड़ जाए।

मेरी पांडुलिपि के बहुत-से पृष्ठ जल गए। अब मुझे लगता है कि वे ही मेरे सबसे अच्छे पृष्ठ थे।

इसके अलावा, काँटे से निकल जानेवाली मछली तो मेरी थी ही नहीं, जिस पहाड़ी बकरे पर साधा गया निशाना चूका, वह भी मेरा नहीं था। छोड़कर जानेवाली नारी भी मेरी नहीं थी। मगर जल जानेवाले पृष्ठ मेरे थे। उनकी मैंने खुद कल्पना की थी, मैंने उन्हें जिया था और व्यथित होकर रचा था। बड़े धैर्य से अनेक उनींदी रातों और दिनों में मैंने उन पर श्रम किया था। इसीलिए अपनी पांडुलिपि के नष्ट होने से मुझे इतना दुख हुआ था। इसीलिए मैं यह सोचता हूँ कि वह मेरी सबसे अच्छी पुस्तक थी।

मैं आन की आन में उस खेत की तरह वीरान-सा हो गया, जिस पर से पूले उठा लिए जाते हैं या उस आखिरी पूले जैसा हो गया, जिसे लोग ले जाना भूल गए थे।

जले हुए पृष्ठों का हर शब्द मुझे मोती-सा प्रतीत होने लगा। पंक्तियाँ मेरी कल्पना में कीमती हार बन गईं।

मुझे ऐसा धक्का लगा था कि दो साल तक मैं नष्ट हुई पांडुलिपि को बहाल करने नहीं बैठ सका। आखिर जब शांत हो गया, तो यह बात मेरी समझ में आई कि बेशक मैं लगभग उन्हीं चीजों के बारे में फिर से लिख सकता हूँ, मगर पहलेवाले पृष्ठों को लौटाना संभव नहीं।

यह बिल्कुल वैसी ही बात थी कि जैसे किसी माँ-बाप का बहुत प्यारा बच्चा मर जाता है, तो कुछ वक्त गुजरने पर उनका दूसरा बच्चा हो सकता है और उसे भी वे उतना ही प्यार करेंगे, मगर फिर भी वह वही नहीं, जिसे वे खो चुके हैं, बल्कि दूसरा व्यक्ति होगा।

कहते हैं कि कविता पानी से घबराती है। कविता तो आग है और कवि का सृजन उस आग में उसका दहन। हाँ, कविताओं में पानी नहीं होना चाहिए। मगर अल्लाह उन्हें ऐसी आग से भी बचाए, जिससे होटल के कमरे में मेरी कविताओं का वास्ता पड़ा।

अबूतालिब के फ्लैट में कैसे चोरी हुई। मैं नहीं जानता कि यह कैसे हुआ, किसने यह चाल चली और क्यों ऐसे हुआ कि अबूतालिब के घर पर कोई नहीं था और उसके फ्लैट में चोरी हो गई। जब जाँच की गई, तो बेटी की सोने की घड़ी, सोने की अँगूठी, काँटे और ऐसे ही कुछ दूसरे गहने गायब मिले। फर-कोट, फ्राक, सैंडल, जूते और रुपए भी नहीं थे... अबूतालिब की बीवी तो गश खाते-खाते बची, बेटी तख्ते पर गिरकर रोने लगी। मगर अबूतालिब दूसरे कमरे में जाकर फर्श पर बैठ गए और जुरना बजाने लगे।

अबूतालिब की बीवी झटपट वहाँ आकर बिगड़ी -

'कोई शर्म-हया है तुम्हें। इतनी बड़ी मुसीबत और तुम क्या कर रहे हो। जल्दी से मिलीशियामैन या प्रोसीक्यूटर को बुलाना चाहिए...'

'ऐसी भी क्या मुसीबत है। मेरी कविताएँ सही-सलामत हैं। देखो तो, मेरे सभी कागज पहले की तरह ही पड़े हुए हैं। चोरों ने उन्हें छुआ तक नहीं। मुझे तो दुखी होने की कोई वजह नजर नहीं आती।'

'किसे जरूरत है तुम्हारी कविताओं की, सो भी लाक भाषा में?'

'अरी, मेरी भोली बीवी, तुम कुछ भी तो नहीं जानतीं। ऐसे भी लोग हैं, जो कवि भी कहलाते हैं और वैसे, पराई कविताएँ ही चुराया करते हैं। शुक्र है अल्लाह का कि मेरी कविताएँ नहीं चुराई गईं। साल भर मैंने इन पर मेहनत की है और अगर इनमें से एक भी खो जाती, तो मेरे लिए बड़े दुख की बात होती। इसके अलावा मेरा जुरना भी कायम है। तो फिर मैं खुश होकर इसे क्यों न बजाऊँ?'

और अबूतालिब अपनी बीवी-बेटी की चीख-पुकार पर और ध्यान न देकर मजे से जुरना बजाते रहे।

आफंदी कापीयेव ने मुझे यह बात सुनाई। गर्मी के एक सुहाने दिन सुलेमान स्ताल्स्की अपने पहाड़ी घर की छत पर लेटा हुआ आसमान को ताक रहा था। आस-पास पक्षी चहचहा रहे थे, झरने झर-झर कर रहे थे। हर कोई यही सोचता था कि सुलेमान आराम कर रहा है। उसकी बीवी ने भी ऐसा ही सोचा। छत पर चढ़कर उसने पति को आवाज दी -

'खीनकाल तैयार हो गए। मैंने मेज पर भी लगा दिए हैं। खाने का वक्त हो गया।'

सुलेमान ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर तक नहीं घुमाया।

कुछ देर बाद ऐना ने दूसरी बार पति को पुकारा -

'खीनकाल ठंडे हुए जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद खाने लायक नहीं रहेंगे।'

सुलेमान हिला-डुला तक नहीं।

तब उसकी बीवी यह सोचकर कि पति नीचे नहीं आना चाहता, छत पर ही खाना ले आई। उसने यह कहते हुए उसकी तरफ तश्तरी बढ़ाई -

'तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया। देखो तो, मैंने तुम्हारे लिए कैसे मजेदार खीनकाल तैयार किए हैं।'

सुलेमान आपे से बाहर हो गया। वह अपनी जगह से उठा और चिंताशील पत्नी पर बरस पड़ा -

'तुम तो हमेशा मेरे काम में खलल डालती रहती हो।'

'मगर तुम तो योंही बेकार लेटे हुए थे। मैंने सोचा...'

'नहीं, मैं काम कर रहा हूँ। फिर कभी मेरे काम में खलल नहीं डालना।'

हाँ, इसी दिन सुलेमान ने अपनी नई कविता रची थी।

तो कवि जब लेटा हुआ आकाश को ताकता है, तब भी काम करता होता है।

पत्नी के प्रति कवि ने ऐसे भाव जताए -

'तुम प्रकाश मेरे जीवन का, तुम प्रभात, तुम तारा
जब तुम निकट, पास में मेरे, सुखद, मधुरतम जीवन
जब तुम दूर, तभी बनता वह, कटुमय, सागर खारा।'
पर प्रकाश वह, तारा जिस क्षण, कवि के सम्मुख आया,
उसे देख वह चौंका, चमका, घबराकर चिल्लाया।
'फिर से तुम आ गई यहाँ पर, हाय राम जी
मुझे काम करने दो कुछ तो, मैं तुमसे भर पाया।'

पिता जी ने यह बात सुनाई। प्रेम का महान गायक महमूद किसी सम्मानित व्यक्ति के यहाँ आमंत्रित था। दूसरे कई मेहमान भी थे। आधी रात तक कवि ने एकत्रित लोगों को अपनी कविताओं का रस-पान कराया। इसके बाद सभी सोने चले गए। महमूद को सबसे अच्छा कमरा सोने के लिए दिया गया। गृह-स्वामी ने वहाँ हाथ-मुँह धोने के लिए चिलमची और गागर रख दी, शुभरात्रि की कामना की और चला गया।

सुबह को इस डर से कि महमूद सुबह की नमाज के वक्त कहीं सोया ही न रह जाए, गृह-स्वामी ने दबे पाँव महमूद के कमरे में झाँका। उसने देखा कि कवि ने तो सोने की बात ही नहीं सोची। कालीन पर उकड़ूँ बैठा हुआ वह तो बोल-बोलकर यह कविता लिख रहा था -

नहीं चाहिए जन्नत का वह चमन मुझे
सच कहता हूँ, उससे मुझे बचाओ,
बड़ी खुशी से ले लो तुम जन्नत सारी
मेरे दिल का प्यार मगर देते जाओ।

'महमूद, सुबह की नमाज का वक्त हो गया, कविता छोड़कर अल्लाह की बंदगी करो।'

'मेरी तो यही बंदगी है,' महमूद ने जवाब दिया। तो इस तरह कवि पूजा-पाठ के समय भी काम करता रहता है।

नोटबुक से। अब मैं खुद एक अवार कवि का किस्सा सुनाता हूँ। मैं उसका नाम नहीं बताऊँगा। मैं नहीं चाहता कि बाद में आप उस पर उँगलियाँ उठाएँ और उसका मजाक उडाएँ। कारण कि मजाक उड़ाने की बात भी है।

इस कवि ने शादी की, खूब धूम-धाम रही। आखिर मेहमान नवदंपति को उनके लिए विशेष रूप से तैयार किए गए कमरे में छोड़कर चले गए। दुलहन सुहाग-रात के अरमान लिए पलंग पर जा लेटी और दूल्हे का इंतजार करने लगी। मगर दूल्हा अपनी दुलहन के पास जाने के बजाय मेज पर बैठकर कविता लिखने लगा। रात भर वह कविता लिखता रहा और सुबह होने पर ही उसने प्यार, दुलहन और सुहाग-रात के बारे में अपनी कविता खत्म की।

तो क्या हम यह नतीजा निकालें कि कवि प्यार की रात में भी काम करता रहता है? अगर मैं भी इस अवार कवि की तरह काम करता, तो जितनी अब मेरी किताबें हैं, उससे पचास गुना ज्यादा होतीं। मगर मेरे ख्याल से उनमें बनावट ही बनावट होती।

दुलहन जब अपने दूल्हे को बाँहों में भरने को बेकरार हो, तो उस वक्त जो मेज पर लिखने बैठ जाता है, रूप-रानी की उपस्थिति में जो कागज और लेखनी को उठाकर एक तरफ नहीं रख देता, वह सिर्फ ढोंगी है। बेशक वह दस या बीस गुना ज्यादा लिख ले, मगर उसके शब्दों में ईमानदारी नहीं होगी।

हाँ, मेहनत करना जरूरी है। कहते हैं कि कोई अक्लमंद आदमी इस उम्मीद में पेड़ के नीचे जाकर लेट रहा कि कब सेब उसके मुँह में आकर गिरता है। सेब नहीं गिरा।

पर काम और शायद प्रतिभा से भी ज्यादा कवि के लिए दूसरों के और खुद अपने सामने भी ईमानदार होना जरूरी है।

कहते हैं कि बहादुर या तो जीन पर होता है या जमीन में।

कहते हैं - 'दुनिया में सबसे बुरा और घृणित क्या है?'

'डर से काँपनेवाला मर्द।'

'इससे भी बढ़कर बुरा और घृणित क्या है?'

'डर से काँपनेवाला मर्द'।

सचाई, साहस : मेरा दाग़िस्तान

मजलिस में यह कहा एक नायब ने उठकर
'वह ही बने इमाम कि जो हो सबसे चतुर सुजान'
मगर दूसरे नायब ने कुछ कहा और ही -
'वह ही बने इमाम कि जो सबसे ज्यादा बलवान'
कविता पर अधिकार कि जिसका उस गायक, कवि की तुलना में
शायद है आसान कि सारी दुनिया पर करना शासन,
उक्त गुणों के साथ-साथ ही उसे चाहिए
कितना कुछ ही और जानना, और समझ पाना जीवन।


अवार सुनाते हैं। युग-युगों से सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ चल रहे हैं। युग-युगों से उनके बीच यह बहस चल रही है कि उनमें से किसकी अधिक जरूरत है, कौन अधिक उपयोगी और शक्तिशाली है। झूठ कहता है कि मैं और सच कहता है कि मैं। इस बहस का कभी अंत नहीं होता।

एक दिन उन्होंने दुनिया में जाकर लोगों से पूछने का फैसला किया। झूठ तंग और टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर आगे-आगे भाग चला, वह हर सेंध में झाँकता, हर सूराख में सूँघा-साँघी करता और हर गली में मुड़ता। मगर सच गर्व से गर्दन ऊँची उठाए सिर्फ सीधे, चौड़े रास्तों पर ही जाता। झूठ लगातार हँसता था, पर सच सोच में डूबा हुआ और उदास-उदास था।

उन दोनों ने बहुत-से रास्ते, नगर और गाँव तय किए, वे बादशाहों, कवियों, खानों, न्यायाधीशों, व्यापारियों, ज्योतिषियों और साधारण लोगों के पास भी गए। जहाँ झूठ पहुँचता, वहाँ लोग इतमीनान और आजादी महसूस करते। वे हँसते हुए एक-दूसरे की आँखों में देखते, यद्यपि इसी वक्त एक-दूसरे को धोखा देते होते और उन्हें यह भी मालूम होता कि वे ऐसा कर रहे हैं। मगर फिर भी वे बेफिक्र और मस्त थे तथा उन्हें एक-दूसरे को धोखा देते और झूठ बोलते हुए जरा भी शर्म नहीं आती थी।

जब सच सामने आया, तो लोग उदास हो गए, उन्हें एक-दूसरे से नजरें मिलाते हुए झेंप होने लगी, उनकी नजरें झुक गईं। लोगों ने (सच के नाम पर) खंजर निकाल लिए, पीड़ित पीड़कों के विरुद्ध उठ खड़े हुए, गाहक व्यापारियों पर, साधारण लोग खानों पर और शाहों पर झपटे, पति ने पत्नी और उसके प्रेमी की हत्या कर डाली। खून बहने लगा। इसलिए अधिकतर लोगों ने झूठ से कहा -

'तुम हमें छोड़कर न जाओ। तुम हमारे सबसे अच्छे दोस्त हो। तुम्हारे साथ जीना बड़ा सीधा-सादा और आसान मामला है। और सच, तुम तो हमारे लिए सिर्फ परेशानी ही लाते हो। तुम्हारे आने पर हमें सोचना पड़ता है, हर चीज को दिल से महसूस करना, घुलना और संघर्ष करना होता है। तुम्हारी वजह से क्या कम जवान योद्धा, कवि और सूरमा मर चुके हैं?'

'अब बोलो,' झूठ ने सच से कहा, 'देख लिया न कि मेरी अधिक आवश्यकता है और मैं ही अधिक उपयोगी हूँ। कितने घरों का हमने चक्कर लगाया है और सभी जगह तुम्हारा नहीं, मेरा स्वागत हुआ है।'

'हाँ, हम बहुत-सी आबाद जगहों पर तो हो आए। आओ, अब चोटियों पर चलें। चलकर निर्मल जल के ठंडे चश्मों, ऊँची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों, सदा चमकनेवाली बेदाग सफेद बर्फों से पूछें।

'शिखरों पर हजारों बरसों का जीवन है। वहाँ नायकों, वीरों, कवियों, बुद्धिमानों और संत-साधुओं के अमर और न्यायपूर्ण कृत्य, उनके विचार, गीत और अनुदेश जीवित रहते हैं। चोटियों पर वह रहता है, जो अमर है और पृथ्वी की तुच्छ चिंताओं से मुक्त है।'

'नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊँगा,' झूठ ने जवाब दिया।

'तो तुम क्या ऊँचाई से डरते हो। सिर्फ कौवे ही निचाई पर घोंसले बनाते हैं और उकाब तो सबसे ऊँचे पहाड़ों के ऊपर उड़ान भरते हैं। क्या तुम उकाब के बजाय कौवा होना ज्यादा बेहतर समझते हो? हाँ, मुझे मालूम है कि तुम डरते हो। तुम तो हो ही बुजदिल। तुम तो शादी की मेज पर, जहाँ शराब की नदी बहती होती है, बहसना पसंद करते हो, मगर बाहर अहाते में जाते हुए डरते हो, जहाँ जामों की नहीं, खंजरों की खनक होती है।'

'नहीं, मैं तुम्हारी ऊँचाइयों से नहीं डरता। मगर मैं वहाँ करूँगा ही क्या, क्योंकि वहाँ लोग नहीं हैं। मेरा तो वहीं बोल-बाला है, जहाँ लोग रहते हैं। मैं तो उन्हीं पर राज करता हूँ। वे सब मेरी प्रजा हैं। केवल कुछ साहसी ही मेरा विरोध करने की हिम्मत करते हैं और तुम्हारे पथ पर, सचाई के पथ पर चलते हैं, मगर ऐसे लोग तो इने-गिने हैं।'

'हाँ, इने-गिने हैं। मगर इसीलिए इन लोगों को युग-नायक माना जाता है और कवि अपने सर्वश्रेष्ठ गीतों में उनका स्तुति-गान करते हैं।'

अकेले कवि का किस्सा। यह किस्सा मुझे अबूतालिब ने सुनाया। किसी खान की रियासत में बहुत-से कवि रहते थे। वे गाँव घूमते और अपने गीत गाते। उनमें से कोई वायलिन बजाता, कोई खंजड़ी, कोई चोंगूर और कोई जुरना। खान को जब अपने काम-काजों और बीवियों से फुरसत मिलती, तो वह शौक से उनके गीत सुनता।

एक दिन उसने एक ऐसा गीत सुना, जिसमें खान की क्रूरता, अन्याय और लालच का बखान किया गया था। खान आग-बबूला हो उठा। उसने हुक्म दिया कि ऐसा विद्रोह भरा गीत रचनेवाले कवि को पकड़कर उसके महल में लाया जाए।

गीतकार का पता नहीं लग सका। तब वजीरों और नौकरों-चाकरों को सभी कवि पकड़ लाने का आदेश दिया गया। खान के टुकड़खोर शिकारी कुत्तों की तरह सभी गाँवों, रास्तों, पहाड़ी, पगडंडियों और सुनसान दर्रों में जा पहुँचे। उन्होंने सभी गीत रचने और गानेवालों को पकड़ लिया और महल की काल-कोठरियों में लाकर बंद कर दिया। सुबह को खान सभी बंदी कवियों के पास जाकर बोला -

'अब तुममें से हरेक मुझे एक गीत गाकर सुनाए।'

सभी कवि बारी-बारी से खान की समझदारी, उसके उदार दिल, उसकी सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, उसकी बड़ाई और ख्याति के गीत गाने लगे। उन्होंने यह गाया कि पृथ्वी पर ऐसा महान और न्यायपूर्ण खान कभी पैदा ही नहीं हुआ था।

खान एक के बाद एक कवि को छोड़ने का आदेश देता गया। आखिर तीन कवि रह गए, जिन्होंने कुछ भी नहीं गाया। उन तीनों को फिर से कोठरियों में बंद कर दिया गया और सभी ने यह सोचा कि खान उनके बारे में भूल गया है।

मगर तीन महीने बाद खान फिर से इन बंदी कवियों के पास आया।

'तो अब तुममें से हरेक मुझे कोई गीत सुनाए।'

उन तीनों कवियों में से एक फौरन खान, उसकी समझदारी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी बड़ाई और ख्याति के बारे में गाने लगा। उसने यह भी गाया कि पृथ्वी पर कभी कोई ऐसा महान खान नहीं हुआ।

इस कवि को भी छोड़ दिया गया। उन दो को जो कुछ भी गाने को तैयार नहीं हुए, मैदान में पहले से तैयार किए गए अलाव के पास ले जाया गया।

'अभी तुम्हें आग की नजर कर दिया जाएगा,' खान ने कहा। 'आखिरी बार तुमसे यह कहता हूँ कि अपना कोई गीत सुनाओ।'

उन दो में से एक की हिम्मत टूट गई और उसने खान, उसकी अक्लमंदी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, बड़ाई और ख्याति के बारे में गीत गाना शुरू कर दिया। उसने गाया कि दुनिया में ऐसा महान और न्यायपूर्ण खान कभी नहीं हुआ।

इस कवि को भी छोड़ दिया गया। बस, एक वही जिद्दी बाकी रह गया, जो कुछ भी गाना नहीं चाहता था।

'उसे खंभे के साथ बाँधकर आग जला दो।' खान ने हुक्म दिया।

खंभे के साथ बँधा हुआ कवि अचानक खान की क्रूरता, अन्याय और लालच के बारे में वही गीत गाने लगा, जिससे यह सारा मामला शुरू हुआ था।

'जल्दी से इसे खोलकर आग से नीचे उतारो।' खान चिल्ला उठा। 'मैं अपने मुल्क के अकेले असली शायर से हाथ नहीं धोना चाहता।'

'ऐसे समझदार और नेकदिल खान तो शायद ही कहीं होंगे,' अबूतालिब ने यह किस्सा खत्म करते हुए कहा, 'मगर ऐसे कवि भी बहुत नहीं होंगे।'

पिता जी ने यह बात सुनाई। एक बार महान शामिल से घनिष्ठता रखनेवालों ने पूछा -

'इमाम, यह बताइए कि आपने कविताएँ रचने और उन्हें गाने की क्यों मनाही कर दी?'

इमाम ने जवाब दिया -

'मैं चाहता हूँ कि केवल असली कवि ही कवि रह जाएँ। असली शायर तो फिर भी शायरी करेंगे ही। मगर ढोंगी, पाखंडी, तुकबंद और झूठमूठ अपने को कवि कहनेवाले मेरे हुक्म से डर जाएँगे, उनकी हिम्मत टूट जाएगी और वे खामोश हो जाएँगे। इस तरह वे लोगों को और खुद अपने को धोखा नहीं दे सकेंगे।'

कहते हैं कि जब महान कवि महमूद की मृत्यु हो गई, तो दुख-सागर में बुरी तरह डूबे हुए उनके पिता ने महमूद की पांडुलिपियों से भरा सूटकेस उठाकर आग में डाल दिया।

'लानत के मारे कागजो, जल जाओ। तुम्हारे कारण ही मेरे बेटे की वक्त से पहले मौत हो गई।'

सभी कागज जल गए, मगर महमूद की कविताएँ फिर भी जिंदा रह गईं। उनके रचे हुए गीतों की एक भी पंक्ति नहीं भुलाई गई। वे गीत लोगों के दिलों में जी रहे हैं। उन्हें न तो आग जला सकती है, न पानी गला सकता है, क्योंकि उनमें कवि की आत्मा की आवाज है।

मेरे पिता जी उन लोगों पर हँसा करते थे, जो इस डर से कि उन्हें किसी की बुरी नजर न लग जाए, रात को चोरी-छिपे सफर पर निकलते थे;

उन पर भी, जो खुरजी में इसलिए पत्थर भर लिया करते थे कि दूसरे यह समझें कि उसमें रोटी भरी है;

उन शिकारियों पर भी, जो तीतर की जगह कौवा लेकर घर लौटते थे।

अबूतालिब ने यह बात सुनाई। कहीं कोई गरीब आदमी रहता था, जिसे अपने को अमीर दिखाने का चाव चढ़ा। हर दिन वह बहुत खुश-खुश और मुस्कराता हुआ चौपाल में आता और उसकी मूँछें चिकनाई से चमकती होतीं मानो वह अभी-अभी जवान और बढ़िया भेंड़ खाकर आया हो। गरीब आदमी सबको सुनाकर डींग मारता -

'अहा, कैसा मोटा मेमना मैंने आज खाने के लिए काटा। कितना नर्म और मजेदार था उसका मांस।'

'हर दिन उसके पास मेमना कहाँ से आ जाता है?' गाँव के लोग हैरान होते। 'मामले की जाँच करनी चाहिए।'

'हर दिन उसके पास मेमना कहाँ से आ जाता है?' गाँव के लोग हैरान होते। 'मामले की जाँच करनी चाहिए।'

चुस्त नौजवान उसके घर की छत पर चढ़ गए और चौड़े धुआँदान में से उन्होंने नीचे नजर दौड़ाई। उन्होंने गरीब आदमी को पुरानी, फेंकी हुई हड्डी उबालते देखा। उसने ऊपर आ जानेवाली थोड़ी-सी चर्बी इकट्ठी की और उससे मूँछें चिकनी कर लीं। इसके बाद उसने थोड़ा-सा सफेद जीरा खा लिया। उसके घर में खाने के लिए बस यही था।

नौजवान झटपट छत पर से नीचे उतरे और गरीब आदमी के घर में गए।

'सलाम अलैकुम। हम लोग इधर से गुजर रहे थे। सोचा कि अमीर आदमी के यहाँ चलें।'

'जरा देर से आए, मैंने अभी-अभी मोटी भेंड़ खत्म की है। अब घर से बाहर जाने ही वाला था।'

'तो तुम यही बताओ कि ऐसा खुशबूदार और मजेदार जीरा कहाँ से लाते हो?'

गरीब समझ गया कि नौजवानों को सब कुछ मालूम है और उसका सिर झुक गया। इसके बाद उसकी मूँछों पर कभी चिकनाई नजर नहीं आई।

संस्मरण। बचपन में पिता जी ने एक बार मुझे बहुत ही कड़ी सजा दी थी। पिटाई तो मैं भूल गया, मगर पिटाई का कारण मुझे अभी तक बहुत अच्छी तरह याद है।

एक दिन सुबह को मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकला, मगर स्कूल गया नहीं। एक गली से दूसरी गली में मुड़ गया और शाम तक आवारा लड़कों के साथ जुआ खेलता रहा। पिता जी ने किताबें खरीदने के लिए मुझे कुछ पैसे दिए थे और उन्हीं के साथ मैं दुनिया की सुध-बुध भूलकर दाँव लगाता रहा। पैसे जल्द ही खत्म हो गए। अब मुझे यह फिक्र हुई कि और पैसे कहाँ से हासिल किए जाएँ। हम जब जुआ खेलते हैं और आखिरी कौड़ी तक हार जाते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि अगर कहीं से पाँच कोपेक का एक सिक्का और हाथ लग जाए, तो न सिर्फ हारे हुए पैसे ही वापस आ जाएँगे, बल्कि कुछ और भी जीत लेंगे। मुझे भी ऐसा ही लगा कि अगर कहीं से कुछ पैसे और मिल जाएँ, तो हारे हुए पैसे वापस आ जाएँगे।

मैं जिन लड़कों के साथ खेल रहा था, उनसे उधार माँगने लगा। मगर कोई भी ऐसा करने को राजी नहीं हुआ। बात यह है कि जुआरियों में ऐसा माना जाता है कि जो कोई हारनेवाले को उधार देता है, वह खुद हार जाता है।

तब मैंने एक तरकीब निकाली। मैं गाँव में घर-घर जाने और यह कहने लगा कि कल यहाँ पहलवान आएँगे और मुझे उनके लिए पैसे जमा करने का काम सौंपा गया है।

दर-दर जानेवाले भूखे कुत्ते को क्या मिलता है? या तो हड्डी या डंडे की मार। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ - कुछ ने इनकार कर दिया, कुछ ने कुछ दे दिया। हाँ, जिन्होंने कुछ दिया, वह भी शायद मेरे पिता के नाम की इज्जत करते हुए।

गाँव का चक्कर लगाने के बाद मैंने पैसे गिने, तो इस नतीजे पर पहुँचा कि जुआ जारी रखा जा सकता है। मगर किस्मत के मारे ये पैसे भी जल्दी ही खत्म हो गए। यह खेल जमीन पर घुटनों के बल रेंगकर खेला जाता था। दिन भर में मेरा पतलून बिल्कुल फट गया और घुटनों पर खरोंचें आ गईं।

इसी बीच घर पर मेरी फिक्र हुई। बड़े भाई मुझे सारे गाँव में ढूँढ़ने लगे।

गाँववाले, जिन्हें मैंने पहलवानों के आने की मनगढ़ंत बात कही थी, उनके आगमन के बारे में विस्तारपूर्वक जानने के लिए हमारे घर पहुँचने लगे। मतलब यह कि जब कान से पकड़कर मुझे घर लाया गया, तो मेरी करतूतों का पूरा पता चल चुका था।

तो मैं पिता जी की अदालत में खड़ा था। उनकी इस अदालत से ही मैं दुनिया में सबसे ज्यादा डरता था। पिता जी ने सिर से पाँव तक मुझे बहुत गौर से देखा। मेरे नंगे, सूजे हुए लाल घुटने सूराखों में से ऐसे झाँक रहे थे जैसे पंखों से भरे हुए तकिए, जिन्हें पहाड़ी घरों की खिड़कियों में खोंस दिया जाता है, झाँकते दिखाई देते हैं।

'यह क्या है?' पिता जी ने मानो शांति से पूछा।

'घुटने हैं,' फटे पतलून के सूराखों को हाथों से छिपाने की कोशिश करते हुए मैंने जवाब दिया।

'घुटने हैं, यह मैं भी जानता हूँ, मगर वे उघाड़े क्यों हैं? यह बताओ कि पतलून कहाँ फाड़ा?'

मैं अपने पतलून को ऐसे देखने लगा मानो अभी मैंने उनमें सूराख देखे हों। अजीब मनोदशा होती है झूठे और कायर की। वह समझता है कि बड़ों को सब कुछ मालूम है और हकीकत से इनकार करना महज अपना मजाक उड़वाना है और इससे कोई फायदा नहीं होगा, मगर फिर भी वह साफ-साफ और सच्चे जवाब देने से कतराता है और अपने मन से तरह-तरह की बातें बनाता है।

पिता जी की आवाज में गुस्सा झलकने लगा। परिवार के लोग घर के मुखिया का मिजाज समझते थे और इसलिए मेरी रक्षा को मेरे आस-पास आ गए। मगर पिता जी ने उन सब को दूर हटने के लिए हाथ का इशारा किया और फिर मुझसे पूछा -

'तो तुमने पतलून कैसे फाड़ा?'

'स्कूल में फट गया... कील में उलझकर...'

'कैसे, कैसे, जरा दोहराओ तो...'

'कील में उलझकर।'

'किस जगह?'

'स्कूल में।'

'कब?'

'आज।'

पिताजी का तमाचा जोर से मेरे गाल पर पड़ा।

'अब बताओ कि पतलून कैसे फटा?'

मैं चुप रहा। पिता जी ने दूसरे गाल पर एक और तमाचा मारा।

'अब बताओ।'

मैं रो पड़ा।

'रोना बंद करो।' पिता जी ने आदेश दिया और कोड़ा उठा लिया।

मैंने रोना बंद कर दिया। पिता जी ने कोड़ा सटकारा।

'अगर अभी सब कुछ सच-सच नहीं बता दोगे, तो कोड़े से पिटाई करूँगा।'

मैं जाता था कि सिरे पर सख्त गाँठवाला यह कोड़ा क्या मुसीबत है। कोड़े के डर ने सच के डर पर बाजी मार ली और मैंने अपनी दिन भर की सारी हरकतें सिलसिलेवार कह सुनाईं।

मुकदमे की कार्रवाई खत्म हो गई। तीन दिन तक मैं बहुत परेशान रहा। घर और स्कूल का जीवन तो जैसे अपने आम ढंग से ही चलता रहा, मगर मेरे मन को चैन नहीं था। मैं जानता था कि अभी पिता जी से एक बार फिर बातचीत होगी। इतना ही नहीं, अब मैं खुद इस बातचीत के लिए बड़ा उत्सुक था, इसकी प्रतीक्षा में था। इन दिनों में मेरे लिए सबसे अधिक यातना की बात तो यह थी कि पिता जी मेरे साथ बातचीत नहीं करना चाहते।

तीसरे दिन मुझसे कहा गया कि पिता जी ने बुलाया है। उन्होंने मुझे अपने पास बैठाया, सिर पर हाथ फेरा, यह पूछा कि स्कूल में हम आजकल क्या पढ़ रहे हैं, मुझे कैसे अंक मिल रहे हैं। इसके बाद अचानक यह सवाल किया -

'जानते हो कि मैंने किसलिए तुम्हारी पिटाई की थी?'

'हाँ, जानता हूँ।'

'जरा सुनूँ तो कि तुम क्या समझते हो?'

'इसलिए कि मैंने जुआ खेला था।'

'नहीं, इसके लिए नहीं। बचपन में कौन जुआ नहीं खेलता? मैंने भी खेला और तुम्हारे बड़े भाइयों ने भी।'

इसलिए कि पतलून फाड़ डाला।'

'नहीं, इसके लिए भी नहीं, बचपन में हममें से किसने पतलून या कमीजें नहीं फाड़ी? इतनी ही गनीमत है कि सिर सलामत हैं। तुम कोई लड़की तो हो नहीं कि नाक की सीध में आओ-जाओ।'

'इसलिए कि स्कूल नहीं गया।'

'हाँ, यह तुम्हारी बहुत बड़ी गलती थी। इसी से उस दिन तुम्हारी सारी मुसीबतें शुरू हुईं। इसके लिए और इसी तरह पतलून फाड़ने तथा जुआ खेलने के लिए तुम्हारी डाँट-डपट होनी चाहिए थी। ज्यादा से ज्यादा मैंने तुम्हारे कान ऐंठे होते। मेरे बेटे, मैंने तुम्हारे झूठ के लिए ही तुम्हारी पिटाई की। झूठ - यह भूल नहीं, संयोग से होनेवाली बात नहीं, यह हमारे चरित्र का एक लक्षण है, जो जड़ जमा सकता है। यह तुम्हारी आत्मा के खेत में भयानक जंगली घास है। अगर उसे वक्त पर न उखाड़ फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्छे बीज के फूट निकलने की कहीं भी जगह नहीं बचेगी। झूठ से ज्यादा खतरनाक और कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। इससे पिंड छुड़ाना मुमकिन नहीं होता। अगर तुम एक बार फिर मुझसे झूठ बोलोगे, तो मैं तुम्हें मार डालूँगा। इस घड़ी से तुम हमेशा सिर्फ सच ही बोलोगे। टेढ़े नाल को तुम टेढ़ा नाल, घड़े के टेढ़े हत्थे को टेढ़ा हत्था और टेढ़े वृक्ष को टेढ़ा वृक्ष ही कहोगे। समझ गए?'

'समझ गया।'

'तो जाओ।'

मैं वहाँ से चल दिया और मैंने मन ही मन कभी भी झूठ न बोलने की कसम खाई। इसके अलावा मैं यह भी तो जानता था कि अगर मैंने फिर से झूठ बोला, तो पिता जी अपने कहे हुए शब्दों को सच कर दिखाएँगे और चाहे मुझे कितना ही अधिक प्यार क्यों न करते हों, वे मुझे मार डालेंगे।

बहुत सालों बाद मैंने अपने एक दोस्त को यह घटना सुनाई।

'अरे?' मेरे दोस्त ने हैरान होकर कहा, 'तुम अभी तक अपने उस छोटे-से, उस तुच्छ झूठ को नहीं भूले?'

मैंने जवाब दिया -

'झूठ, झूठ है और सच, सच। वे छोटे-बड़े नहीं हो सकते। जीवन, जीवन है, मौत, मौत। जब मौत आती है, तो जिंदगी खत्म हो जाती है। इसके उलट, जब तक जिंदगी की गर्मी बनी रहती है, तब तक मौत नहीं आती। वे साथ-साथ नहीं रह सकतीं। एक दूसरी का अंत कर देती है। सच और झूठ के बारे में भी ऐसा ही है।'

झूठ - यह है शर्म की बात, यह है गंदगी और कूड़ा-करकट। सच - यह है सुंदरता, स्वच्छता और निर्मल आकश। झूठ-कायरता है, सच - साहस है। या तो सच है या झूठ और इन दोनों के बीच की कोई चीज नहीं हो सकती।

अब जिस वक्त मुझे झूठे लेखकों की झूठी रचनाएँ पढ़नी पड़ती हैं, तो मुझे पिता जी के कोड़े की बहुत याद आती है। कितनी सख्त जरूरत है उसकी। कितनी सख्त जरूरत है कठोर और न्यायपूर्ण पिता की, जो सही वक्त पर यह धमकी दे सके - 'अगर झूठ बोलेागे, तो मार डालूँगा।' मगर हे अल्लाह, कितना झूठ बोला जाता है आजकल और उसकी सजा भी कोई नहीं।

काश झूठ ही सजा पाए बिना रहता। क्या सच के लिए लोगों को दंड नहीं मिलता? क्या इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी है, जब लोगों को सच के लिए सजा दी गई, जब सच के लिए उन पर कोड़े बरसाए गए?

बचपन में मुझे सच से इनकार करने के लिए बहुत साहस की जरूरत महसूस होती थी। कारण कि उससे इनकार करने पर राहत मिलने के बजाय सबसे भयानक यातना यानी आत्मा की भर्त्सना का सामना करना पड़ता है।

साहसी लोग अपनी आस्थाओं को कभी नहीं बदलते। उन्हें मालूम है कि पृथ्वी घूमती है। उन्हें मालूम है कि सूरज पृथ्वी के गिर्द नहीं, बल्कि पृथ्वी सूर्य के गिर्द घूमती है। उन्हें मालूम है कि रात के बाद जरूर सुबह होती है, फिर दिन निकलता है और दिन के बाद रात आती है... जाड़े के बाद वसंत आता है और वसंत के बाद प्यारी गर्मी...

और कुछ ऐसा ही होता है कि आखिर आत्मा का कोड़ा, प्रतिष्ठा का कोड़ा, सच का कोड़ा झूठों और ढोंगियों को चित कर देता है और झूठ कभी भी सच पर विजयी नहीं हो पाता।

गाँव के चौपाल में हुई बातचीत से।

'सच और झूठ के बीच कितना फासला है?'

'दो इंच का।'

'वह क्यों?'

'क्योंकि कान से आँख तक भी दो इंच का ही फासला है। जो कुछ अपनी आँखों से देखा गया है, वह सच है, और जो कुछ कानों से सुना गया है, झूठ है।'

खैर, ऐसा ही सही। इसमें कोई संदेह नहीं कि सौ बार सुनने के बजाय एक बार देख लेना ज्यादा अच्छा होता है। मगर लेखक को तो हर चीज से सचाई ग्रहण करनी चाहिए - उससे भी जो देखे, उससे भी जो सुने, जो पढ़े और जो स्वयं जिये।

क्या लेखक के लिए सिर्फ आँखों पर भरोसा करना ही काफी होगा? जिंदगी को देखता है वह अपनी आँखों से, मगर संगीत सुनता है कानों से और अपने देश के इतिहास को पढ़ता है। कुछ लेखक तो न आँखों और न कानों को, बल्कि अपनी सूँघने की शक्ति को ही प्रथम स्थान प्रदान करते हैं।

लेखक को सभी तरह के काम करने लायक मजबूत हाथों, मजबूत टाँगों और मजबूत दाँतों की जरूरत होती है। इसलिए कि वह जो कुछ देखता है, सुनता और पढ़ता है, उस सब में हमेशा झूठ-सच, सोने और दूसरी चमकीली सस्ती धातुओं, अनाज और भूसे का अंतर कर सके, उसे अक्ल और ज्ञान की भी जरूरत होती है। अक्ल और ज्ञान के बिना आदमी अपनी आँखों पर भी भरोसा नहीं कर सकता।

किसी पहाड़ी गाँव के अबोध लोगों को, जिन्होंने सोने को कभी देखा नहीं था, मगर उसके बारे में सुना बहुत था, एक भारी संदूक कहीं पड़ा मिल गया। उन्होंने सोचा - 'चूँकि भारी है, इसलिए जरूर सोने का है।' हाथ आये इस माल के लिए वे आपस में भिड़ गए और उन्होंने एक-दूसरे की जान ले ली। मगर संदूक तो ताँबे का था।

प्रतिभा - आग है। मगर किसी मूर्ख के हाथ में आग सब कुछ जलाकर राख कर सकती है। अक्ल ही उसे रास्ता दिखाती है। अक्ल तो खूबसूरती को भी उसी तरह काबू में करती है जैसे अनुभवी घुड़सवार तेज घोड़े को।

दो पहाड़ी आदमियों से पूछा गया : तुम क्या चाहते हो - जवान आदमी का खूबसूरत चेहरा या बूढ़े की समझदारी?

बुद्धू ने खूबसूरत चेहरा चुना, मगर बेवकूफ ही बना रहा। खूबसूरत बेवकूफ को उसकी बीवी छोड़कर चली गई। अक्लमंद ने समझ चुनी और समझदारी की बदौलत उसकी बीवी उसके पास ही बनी रही। एक लोक-कथा में भी यही बताया गया है कि समुद्री घोड़े के जीन पर सुंदरी को वही सवार कर पाया था, जिसने अपने लिए अक्ल को चुना था। एक अन्य लोक-कथा में तीन भाइयों, तीन राहों और तीन बुद्धिमत्तापूर्ण नसीहतों का जिक्र आता है। जिसने इन नसीहतों पर कान दिया, वह तो अपनी घर लौट आया और जिसने इनकी परवाह नहीं की, वह पराई धरती पर ही ढेर होकर रह गया। ओ मेरी वरदायिनी सुनहरी मछली, मुझे प्रतिभा दो, लगन दो, जवान का सच्चा और उत्साही दिल दो और बुजुर्ग की सुलझी हुई अक्ल दो। सही रास्ता चुनने में मेरी मदद करो।

यह रास्ता बेशक कंकड़ों-पत्थरोंवाला हो, मुश्किल और खतरनाक हो। मगर मैं उस पर साँप की भाँति दाएँ-बाएँ बल नहीं खाना चाहता। 'साँप टेढ़े-मेढ़े क्यों होते हैं?' पहाड़ी लोग यह सवाल करते हैं और खुद ही जवाब देते हैं - 'क्योंकि वे सूराख और खड्ड टेढ़े-मेढ़े होते हैं, जिनमें से उन्हें रेंगना पड़ता है।' मगर मैं तो साँप नहीं, आदमी हूँ। मुझे ऊँचाई, स्वच्छ हवा और सीधे रास्ते पसंद हैं।

मुझे बीमारी और भय, बोझिल ख्याति और हल्के-सतही विचारों से बचाओ।

मुझे नशे से बचाओ, क्योंकि नशे में आदमी को हर अच्छी चीज सौ गुना बुरी लगती है।

मुझे सूफी होने से भी बचाओ, क्योंकि सूफी को हर बुरी चीज सौ गुना ज्यादा बुरी लगती है।

सचाई के लिए मुझमें ऐसी भावना पैदा करो कि मैं टेढ़े को टेढ़ा और सीधे को सीधा कह सकूँ।

'बड़ी बुरी है, बड़ी बेतुकी है यह दुनिया,'
इतना कहकर ऊबे कवि ने, छोड़ा जग, संसार,
'बड़ी सुहानी, बेहद सुंदर है यह दुनिया,'
कहा दूसरे कवि ने इतना, जग से गया सिधार।
मगर तीसरे कवि ने दुनिया ऐसे छोड़ी
मौत न जिस पर विजयी होती, समय न करता वार,
बुरा बुरे को, सुंदर को सुंदर कहता था
इसीलिए तो सदा अमर वह, यही अमरता-सार।

किसी पहाड़ी आदमी ने अपनी गाय के कानों में झुमके डाल दिए ताकि पराई गउओं से उसका भेद हो सके। किसी पहाड़ी आदमी ने अपने घोड़े की गर्दन में घंटियाँ डाल दीं ताकि पड़ोसी के घोड़ों के साथ अपने घोड़े को न गड़बड़ाए। मगर वह जीगित तो किसी भी काम का नहीं, जो रात के वक्त भी अपने प्यारे घोड़े को दूर से ही न पहचान ले।

मेरी किताब आपके सामने है। मैं इसे न तो झुमके पहनाना चाहता हूँ, न घंटियाँ और न कोई दूसरे गहने ही। अपनी या पराई अन्य किताबों के साथ मैं इसे नहीं गड़बड़ाऊँगा। ऐसे ही लोग भी न गड़बड़ाएँ। चाहे इस किताब का मुखावरण फटा हुआ हो, फिर भी जो कोई इसे पढ़े, फौरन यह कह दे कि इसे त्सादा गाँव के हमजात के बेटे रसूल ने लिखा है।

कहते हैं कि साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊँची है।

संशय : मेरा दाग़िस्तान

मेरी सभी किताबें मेरी राहें हैं
जिन पर कभी बढ़ा सहमा-सा, कभी निडर,
कभी गिरा जाकर खड्डों में, गड्ढों में
कभी चढ़ा ऊँचे-ऊँचे, छू लिया शिखर।
मेरी सभी किताबें खूनी जीतों-सी
क्या हमको मालूम कि जब चढ़ते ऊपर,
नाम हमारा चमकेगा इस दुनिया में
या कि व्यर्थ ही रक्त बहेगा धरती पर।


दागिस्तान में बहुत-सी भाषाएँ हैं, बहुत-से स्थानीय रंग-ढंग हैं! वहाँ के लोग बहुत-से विभिन्न रस्म-रिवाजों को सुरक्षित रखे हुए हैं। तात लेखक हिजगील अवशालूमोव ने ऐसे ही एक रिवाज की मुझसे चर्चा की।

किसी पहाड़ी के यहाँ अगर बच्चे नहीं होते थे, तो पति ऊन की पेटी बाँध लेता था ताकि अल्लाह दूसरे पहाड़ी लोगों में उसे अलग से पहचान ले। साथ ही वह अल्लाह से यह दुआ भी करता था -

'ओ अल्लाह, अपने इस बेचारे गुलाम पर रहम करो। उसे बेटा दे दो।'

ऐसी ही पेटियाँ वे भी बाँधते थे, जिनके सिर्फ बेटियाँ ही पैदा होती थीं और वे भी, जिनके बच्चे दुबले-पतले, अंधे-बहरे, लंगड़े-लूले, टेढ़े-मेढ़े अंगोंवाले, गूँगे, कुबड़े या कुछ-कुछ पागल होते थे। ऐसी पेटी पहननेवाला पहाड़ी यह यकीन करता था कि अगली बार अल्लाह उसे स्वस्थ और तगड़ा बेटा देगा, जो सचमुच ही असली बहादुर जीगित बनेगा।

मेरे मन में भी ऐसे ही संशय होते हैं : क्या मैं भी वैसी ही पेटी न बाँधना शुरू कर दूँ जैसी कि यह संशय करनेवाले तात लोग पहनते हैं कि उनका भावी बच्चा स्वस्थ होगा या नहीं स्वस्थ होगा? मेरी नई किताब बेटा और जीगित होगी या वह विकलांग, कुबड़े और गूँगे-बहरे बच्चे का रूप लेगी?

हाँ, हर माँ को अपना बच्चा बहुत प्यारा लगता है। माताएँ अपने बच्चों की त्रुटियों को देखती भी हैं और फिर भी अनदेखा कर देती हैं। मेरी किताब के सिलसिले में भी कहीं ऐसा ही न हो जाए।

मेरा दिल डरता है। मेरी लेखनी काँपती है। संदेह मुझ पर हावी होते हैं। मैं बिल्ली को उकाब समझकर तो कहीं, निशाना नहीं साध रहा हूँ? गधे को घोड़ा समझकर कहीं मैं उसी पर तो सवारी नहीं कर रहा हूँ? क्या मैं उस आखालचीवासियों की भाँति शहतीर को लंबाई के रुख रखने की बेकार कोशिश तो नहीं कर रहा हूँ, जबकि उसे चौड़ाई के रुख रखना चाहिए था और इसीलिए वह छोटा पड़ रहा था? क्या मैं हारीकुलीवासी की तरह अपने चूल्हे के पास बैठा-बैठा ही आनदी के किले पर तो धावा नहीं बोल रहा हूँ?

पुस्तक की समाप्ति के पहले मैं अपने को उस कसाई की तरह महसूस कर रहा हूँ, जो भेड़ का कूल्हा काटते-काटते दुम तक जा पहुँचे और तभी उसका छुरा टूट जाए। मैं अलम तक पहुँच सकूँगा? क्या फल सामने आएगा? सागर की गहराई से मैं खाली सीपी लेकर आ रहा हूँ या उसमें से बढ़िया मोती निकलेगा?

तेज आँधी वृक्ष की टहनी या उसका तना भी तोड़ सकती है। मगर वसंत में जड़ों से पुनः नई शाखाएँ निकल आएँगी और नया वृक्ष बढ़ने लगेगा। पर यदि वृक्ष को फफूँद लग जाए, वह उसे भीतर से खा जाए, अगर वह वृक्ष की जड़ों को ही खोखला कर डाले, तब कुछ भी नहीं हो सकेगा। इनसान के बारे में भी ऐसी ही बात है। अगर उसे कोई बाहरी चोट आ जाए, घाव हो जाए, यहाँ तक कि अगर उसकी हड्डी भी टूट जाए, तो वह भी जल्दी से ठीक हो सकती है। पर शरीर के अंदर, कहीं गहराई में पैदा हो जानेवाली बीमारी तो जरूर ही जान लेकर जाती है। मेरी किताब स्वस्थ है या नहीं, उसकी जड़ें काफी मजबूत और भरोसे के लायक हैं या नहीं?

मेरी किताब जवान हो गए बेटे के समान है; पहाड़ी घर उसे तंग महसूस होता है; अब उसे लोगों में भेजने, अपनी राह पकड़ने, बड़ी दुनिया में रवाना करने का वक्त आ गया है। कैसा बर्ताव होगा उसके साथ वहाँ - उसे प्यार मिलेगा या डाँट-फटकार? खिला-पिलाकर सुलाया जाएगा या दहलीज से दुतकार दिया जाएगा? अब मेरे बस में कुछ नहीं है।

कविता हुई समाप्त, तुम्हारा बुना गया कालीन
किंतु रुको कुछ देर, अभी मत इतराओ,
कोने साधो, इधर-उधर धागे काटो
नजर नमूनों पर तुम फिर से दौड़ाओ।
कविता हुई समाप्त, कि पूरा खेत जुता
पर यह कल का श्रम है, थोड़ा रुक जाओ,
फिर से जाकर देखो हल-रेखाओं को
संभव है तुम दोष, कहीं, कोई पाओ।

मेरी किताब तो समाप्त हो चुके ऐसे कालीन के समान है, जिसे बिछा दिया गया है ताकि पहली बार उसे पूरी तरह एकबारगी देखा जा सके। मुझे उसमें अनेक गलत रेखाएँ, दोषपूर्ण नमूने और अस्पष्ट बेल-बूटे दिखाई दे रहे हैं, सजावट कहीं-कहीं कच्ची और टेढ़ी-मेढ़ी है। मगर इन गलतियों को अब ठीक करना मुमकिन नहीं, क्योंकि कालीन बुना जा चुका है। उसका छोटे से छोटा दोष दूर करने के लिए भी सारे कालीन को उधेड़ना होगा।

मेरी किताब तो बहुत लंबे और कठिन रास्ते के बाद घर लौटने के समान है; दो साल तक मैं घर पर नहीं रहा; गाँववाले, पड़ोसी, यार-दोस्त और बूढ़े-जवान दो साल तक मेरे बारे में कुछ नहीं सुन पाए। तो मैं गाँव के छोरवाले घर के पास ही घोड़े से नीचे उतर जाता हूँ और लगाम थामकर धीरे-धीरे घोड़े के साथ चल पड़ता हूँ। पहाड़ी औरत ने अपनी खिड़की में जो दीपक जलाकर रख दिया था, ताकि मेरा रास्ता रोशन रहे, उसे अब बुझाया जा सकता है। मैं घर लौट रहा हूँ। सलाम, मेरे गाँववालो! मैं दो साल की यात्रा के बाद घर लौट रहा हूँ। इन दो सालों के दौरान मेरा घोड़ा बूढ़ा गया है। मेरे बाल भी कुछ और ज्यादा पक गए हैं। घोड़े की लगाम थामे हुए मैं धीरे-धीरे गाँव का सड़क पर जा रहा हूँ और हर मिलनेवाले से कहता हूँ -

'असलामालैकुम!'

'वालैकुम सलाम, हमजात के बेटे रसूल! तुम्हारा सफर कैसा रहा? थक तो नहीं गए? क्या लेकर आए हो? तुम्हारी खुरजियों में क्या भरा हुआ है?'

मैं लोगों से कहना चाहता हूँ कि उनके लिए एक नई किताब लाया हूँ। मगर किताब तो ऐसी चीज है, जो न तो गाँववालों और न ही किसी अन्य व्यक्ति के हाथों में दी जा सकती है। सबसे पहले तो उसे प्रकाशक के हाथ में जाना होगा और वही उसकी किस्मत का फैसला करेगा।

प्रकाशक ने मुझसे पांडुलिपि लेकर उसे हाथों में तौला, इधर-उधर घुमाया, उसके पृष्ठ उलटे-पलटे - सबसे पहला, फिर एक बार ही सत्तरवाँ और फिर आखिरी पृष्ठ और पांडुलिपि को सुरक्षित जगह पर एक तरफ को रख दिया।

'मुमकिन है कि तुम्हारी किताब अच्छी ही हो, मगर हमारी तो इस साल और अगले साल की प्रकाशन योजनाएँ बन चुकी हैं, उनकी पुष्टि भी हो चुकी है। तुम्हारी किताब तो हमारी योजनाओं में नहीं है।'

'वह तो मेरी अपनी योजना में भी नहीं थी। बिल्कुल अचानक ही आ गई है। अब क्या किया जाए इसका?'

'अपनी तरफ से अर्जी लिख दो। इसे देख लेंगे, सोच-विचार कर लेंगे, किसी नतीजे पर पहुँच जाएँगे। संपादक मंडल की विशेष योजना में स्थान दे देंगे। एक साल बाद इसी वक्त या तो आ जाना या टेलीफोन कर लेना।'

प्रकाशनगृह के नाम अबूतालिब का पत्र। 'दागिस्तान के आदरणीय प्रकाशनगृह! मैं आपका जन-कवि हूँ, दागिस्तान की सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष मंडल का सदस्य हूँ, विशेष पेंशन पाता हूँ। इस साल मैं पचासी बरस का हो जाऊँगा। मैं जानता हूँ कि अगर किस्मत की मुझ पर टेढ़ी नजर हो जाए और मैं इस दुनिया के कूच कर जाऊँ, तो आप मेरी कविताओं के दो बड़े ग्रंथ निकालने का निर्णय करेंगे। मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि उन दो ग्रंथों के बजाय, जो आप मेरी मौत के बाद छापने का इरादा रखते हैं, अभी, जबकि मैं जिंदा हूँ, मेरी एक किताब छाप दें। सादर, आपका अबूतालिब।'

ऐसी अर्जी लिखते हैं शांत और भले लोग। मगर ऐसी भी अर्जियाँ होती हैं, जिनमें शिकायतें भरी रहती हैं, खूब कोसा जाता है। ऐसी भी अर्जियाँ होती हैं, जिनमें अपनी तारीफों के पुल बाँधे जाते हैं। चापलूसी से भरी अर्जियाँ भी होती हैं। खीझ-गुस्से और चीख-चिल्लाहटवाली अर्जियाँ भी लिखी जाती हैं।

प्रकाशनगृहों को लिखी जानेवाली नहीं, बल्कि उनके विरुद्ध लिखी जानेवाली अर्जियाँ ही सबसे ज्यादा खतरनाक होती हैं। प्रकाशकों की कठिनाइयों को भी समझना चाहिए। अगर कुर्सी पर एक ही आदमी के बैठने की जगह है, तो उस पर तीन या चार आदमी तो नहीं बैठ सकते। अगर दो भी देर तक बैठे रहें, तो उन्हें भी तकलीफ होगी। कोई कहता है - 'आप अहमद की किताब क्यों छाप रहे हैं और मेरी किताब क्यों नहीं छापना चाहते? क्या मैं उससे बुरा हूँ?' दूसरा चिल्लाता है - 'मेरी किताब उन सभी किताबों से अच्छी है, जो तुमने पिछले सालों में छापी हैं? इस बार भी मुझे योजना में क्यों नहीं रखा गया?'

नहीं, मैं प्रकाशक से झगड़ा नहीं करना चाहता। मैं इंतजार करने को तैयार हूँ। मुझे मालूम है कि प्रकाशकों के पास हमेशा कागज की कमी रहती है। कागज चला कहाँ गया? उसे लेखक, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, खराब करते हैं। इसलिए मैं क्यों उन्हें भला-बुरा कहूँगा! हाँ, कभी-कभी कागज खराब होने के बजाय उस पर कुछ ऐसा रचा जाता है कि वह लेखक और प्रकाशक के इस दुनिया से चले जाने पर भी जिंदा रहता है। ओह, मेरी यह बहुत ही बड़ी अभिलाषा है कि कागज के किसी टुकड़े पर ऐसे शब्द लिखे जाएँ, जो अमृत की भाँति उसका उस हरे-भरे और सजीव वृक्ष में कायाकल्प कर दें, जिससे कभी वह कागज बनाया गया था।

नहीं, मैं प्रकाशक से झगड़ा नहीं करना चाहता। मैं तो शांतिपूर्वक उससे यह कहता हूँ -

'आप मेरे और मेरे गाँववालों के बीच, मास्को और अन्य नगरों के मेरे पाठकों और मेरे बीच खड़े हैं। आप तो हमारी बीच की, हमें जोड़नेवाली कड़ी हैं। कृपया, मेरा अनुरोध मानते हुए कुछ ऐसा कीजिए कि हमारे हाथ दोस्ताना ढंग से मिल जाएँ। मैं आपकी मिन्नत करता हूँ...'

प्रकाशक मेरे इस शांतिपूर्ण अनुरोध के सामने झुक जाता है और मेरी पांडुलिपि फौरन संपादक के हाथ में पहुँच जाती है।

संपादक

'संक्षिप्त करो!' उसके दरवाजे पर यह लिखा है।

प्रकाशक ने कहा था - 'एक साल बाद आना। संपादक ने तीन हफ्ते बाद आने को कहा। इस अवधि से तो मुझे खुशी भी हुई, क्योंकि इसी बीच आपको छोटे-छोटे तीन किस्से भी सुना लूँगा।

एक संपादक को कैसे खिड़की से बाहर फेंक दिया गया। एक अवार कवि नववर्ष के अंक में प्रकाशित कराने के लिए अपनी कविताएँ लेकर एक अखबार के दफ्तर में पहुँचा। कविताएँ पसंद आईं और छाप दी गईं।

कवि बहुत खुश हुआ और उसी दिन उसके घर पर यार-दोस्तों की महफिल जमी। कवि ने बड़ी शान से अखबार खोला और ऊँचे-ऊँचे अपनी कविताएँ सुनाने लगा। अचानक उसके चेहरे का रंग उड़ गया, उसने बाएँ हाथ से ऐसे दिल थाम लिया मानो उसमें तीर जा लगा हो। अखबार उसके हाथ से नीचे गिर गया। दोस्त लपककर उसके पास आए, उन्होंने उसे सँभाला, पानी पिलाया : कवि के होश ठिकाने होने पर उसकी ऐसी हालत हो जाने का कारण पता चला। हुआ यह था कि उसकी कविताओं में से चार पंक्तियाँ गायब थीं। कवि अखबार के दफ्तर में भागा गया।

'आपकी अखबार रूपी चरागाह में मैंने जो अपनी भेंड़ें चरने के लिए छोड़ी थीं, उनमें से चार सबसे अच्छी भेड़ों को किसने जिबह किया है?'

समाचार पत्र के संपादक ने बड़ी शांति से जवाब दिया -

'मैंने... क्या बात है?'

'तुमने ऐसा क्यों किया?'

'इसलिए कि कुछ बहुत जरूरी सामग्री आ गई थी, जगह की कमी थी।'

'पर यदि तुम कवि की अनुमति के बिना उसकी कविता की पंक्तियाँ निकाल फेंक सकते हो, तो मैं खुद तुम्हें ही अभी खिड़की से बाहर फेंक देता हूँ।'

कवि की रगों में गर्म अवार खून था। उसने संपादक को गर्दन और टाँगों से पकड़कर सचमुच ही खिड़की से बाहर फेंक दिया। इतनी ही खैरियत कहिए कि यह घटना दूसरी मंजिल पर घटी और खिड़की के नीचे नर्म क्यारी थी। अदालत में कवि ने कहा - 'खून का बदला खून! दाँत के बदले दाँत! उसने मेरा संपादन किया और मैंने उसका संपादन कर डाला।'

कहते हैं कि यह 'संपादित' संपादक अभी भी कविताओं की काँट-छाँट करता रहता है (इसके बिना तो वह शायद संपादक ही नहीं हो सकता), मगर अब वह कवियों की पहले से अनुमति ले लेता है।

नोटबुक से। मेरे पिता जी ने 'मोची' और 'कोदोलाव की शादी' नामक दो नाटक लिखे। शुरू में वे थियेटर में गए, फिर संस्कृति-विभाग में और उसके बाद दागिस्तान के कला-संचालन-कार्यालय में जा पहुँचे। पिता जी को पक्की तरह यह मालूम था कि वे वहाँ गए हैं और वहाँ से किसी दूसरी जगह नहीं गए हैं। मगर वहाँ भी उनका कोई अता-पता नहीं था।

बुरे मौसम के बावजूद जिस तरह चरवाहा चरागाह में रह गई भेड़ों की खोज में निकल पड़ता है, वैसे ही पिता जी भी अपने नाटकों की तलाश में निकल पड़े।

संचालन-कार्यालय में केवल नाटकों से संबंध रखनेवाला एक आदमी बैठा था। उसे भी संपादक ही कहा जाता था। पिता जी कोई एक घंटे से ज्यादा वक्त उससे बातचीत करते रहे और अचानक उन्हें यह महसूस हुआ कि जब तक मौसम, चरागाहों, भेड़ों और गउओं तथा घोड़ों का जिक्र होता रहता है, तो बातचीत में रंगीनी रहती है, मगर जैसे ही साहित्य और नाटक-कला की चर्चा होने लगती थी, वैसे ही उनके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता था। इस पर तुर्रा यह कि संपादक लगातार नाटक-कला की ही चर्चा करने की कोशिश करता था, पिता जी को अच्छे नाटक लिखने के बारे में उपदेश और नसीहतें देता था। आखिर पिता जी को अच्छे नाटक लिखने के बारे में उपदेश और नसीहतें देता था। आखिर पिता जी से बर्दाश्त न हुआ और उन्होंने साफ-साफ ही पूछ लिया कि वह आदमी है कौन, उसने क्या शिक्षा पाई है और कला-संचालन-कार्यालय में आने से पहले कहाँ काम कर चुका है।

'मैं उच्च शिक्षा प्राप्त हूँ,' संपादक ने शान से जवाब दिया। 'पेशे से पशु-चिकित्सक हूँ। अब इस काम पर लगा दिया गया हूँ।'

'तो क्या मेरे नाटक गउएँ हैं कि तुम उनका इलाज करने की कोशिश कर रहे हो! कवि भला पशु-चिकित्सकों को कभी सलाह क्यों नहीं देते? मगर कवियों को जिसका भी जी चाहता है, सीख देने लगता है।'

कहीं मेरी किताब भी तो किसी ऐसे ही संपादक के हाथों में नहीं पड़ रही है, जो पहले पशु-चिकित्सक था?

अबूतालिब और संपादक। अबूतालिब की पांडुलिपि को संपादक ने वैसे ही नोच-खसोट डाला जैसे रण-क्षेत्र में खेत रहे सैनिक की लाश को कौवा नोच डालता है। इसी नुची हालत में उसके प्रूफ अबूतालिब के पास आए। अबूतालिब ने उन्हें पढ़ा और हैरान होकर कहा -

'मेरे हरे-भरे मैदान को घोड़ों ने रौंद डाला है। जहाँ पहले फूल थे, वहाँ अब दलदल है। अगर कोई छात्र इमले में कुछ गलतियाँ करता है, तो अध्यापक उन्हें सुधारता है। मगर यह कौन-सा अध्यापक है, जो यह जानता है कि मेरे जीवन में क्या सही और क्या गलत था?'

अबूतालिब ने बहुत ध्यान से प्रूफ पढ़े और अचानक कह उठे -

'मैं जानता हूँ कि मेरा संपादक किस गाँव का रहनेवाला है। वह मेरी किताब को अपने गाँव की बोली के मुताबिक सुधारना चाहता है। बेशक बोलियाँ अनेक हैं,पर भाषा एक, जनता एक है! अगर हर संपादक अपने गाँव की बोली की तरफ ही खींचने की कोशिश करेगा, तो हम अपनी कविता का गाँव कभी नहीं बसा पाएँगे।'

मेरे संपादक, यह याद रखना कि तुम्हारे गाँव के अलावा दुनिया में और स्थान भी हैं, तुम्हारे अलावा और लोग भी हैं। वैसे तो हमारे बीच मतभेद नहीं हो सकता। तुम्हारी टिप्पणियों से अगर कोई लाभ हो सकेगा, तो मैं जरूर उनका उपयोग करूँगा। मगर तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि अपने गीत के प्रति मैं कुल बैर की-सी गहरी भावना रखता हूँ। ऐसी भावना मुझमें अभी नहीं आई है। जवानी के दिनों में लिखी गई मेरी एक कविता ऐसे ही शुरू हुई थी -

अपने दिल में रहा सहेजे, मैं वांछित प्रतिशोध-सा
अपनी कविताओं का स्पंदन, औ, सिहरन,
गुप्त प्यार-सा रहा बचाता, अपने प्यारे गीतों को
जग की बुरी-बुरी नजरों से, मैं हर क्षण।
बड़े प्यार से पाला-पोसा उन्हें कि जब वे थे नन्हें
उनकी हर आवाज सुनी, कातर रोदन,
ऐसे बाँधा मैंने उनको, छंदों-बंदों में, तुक में
घड़ीसाज जड़ता है जैसे पुर्जे चुन।
मिलते-जुलते एक तरह के, ढेरों शब्दों में से मैं
चुन लेता था कुछ को ऐसे, कोशिश कर,
जैसे बढ़िया से भी बढ़िया, हम चुन लेते हैं मदिरा
प्यारे किसी अतिथि के घर आ जाने पर।
अपनी कविता की यात्रा पर, रात हुए चल देता था
और सुबह तक चुनता रहता, छवि माला,
जैसे सुंदर, मनमोहक-सा, प्रिय कालीन बनाने को
रंग सुहाने चुनती है, पर्वतबाला।
औरों ने तो गाया बढ़-चढ़, गाया है मुझसे बेहतर
दुख है, किंतु नहीं मैंने ऐसा गाया,
सफल ढंग से व्यक्त किया है या कि नहीं मनभावों को?
शब्दों का सुंदर-सा चोला, पहनाया!
बेशक ये कविताएँ मेरी इतनी अच्छी नहीं बनीं।
पर शब्दों में मेरा कुल जीवन उभरा,
मुझे बताओ, मेरे प्यारे, समझदार संपादकगण
क्यों तुम करते हो उनको कुछ और बुरा?
मैं हूँ इनका बाप, कि इनको मैं ही सिर्फ समझ सकता
किसी और के लिए काम है यह मुश्किल,
मुझे बताओ तुमको इनमें क्या-क्या दोष अखरता है
कान ऐंठ मैं खुद कर दूँगा ठीक अकल।

उन दिनों मैंने 'पहाड़िन' नाम का एक नाटक लिखा था। वह दागिस्तान के कई थियेटरों में खेला गया और उसका जो हाल हुआ, वह यह था।

नाटक के अंत में घटनाचक्र ऐसा रूप लेता है कि नायक नायिका की हत्या कर डालता है। अपनी पहाड़िन के लिए मुझे बहुत अफसोस था और जब मैंने हत्या का दृश्य लिखा, तो मेरा हाथ काँप रहा था और दिल खून के आँसू रो रहा था। मगर मैं कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता था। घटनाचक्र ही पहाड़िन की मौत की माँग करता था। अवार थियेटर ने उसे इसी रूप में प्रस्तुत किया। दर्शकों को नायिका के लिए चाहे दुख और मुझसे भी ज्यादा अफसोस हुआ, मगर वे समझ गए कि इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता था।

दार्गिन थियेटर में नाटक का संपादन कर दिया गया। लड़की की हत्या के बजाय उन्होंने उसकी चोटी कटवा दी। बेशक यह सही है कि किसी पहाड़िन की चोटी काट देना उसके लिए बहुत ही शर्म की बात होती है। शायद ऐसा करना मौत से भी बुरा होता है, फिर भी यह मौत तो नहीं होती।

कुमीक थियेटरवालों ने न तो उसकी हत्या कराई और न ही चोटी काटी, बल्कि उसे अंधा कर दिया। यह तो बहुत भयानक बात है। शायद यह हत्या करने या चोटी काटने से ज्यादा भयानक बात है। मगर फिर भी पहाड़ी लड़की चोटी सहित जिंदा रह गई, क्योंकि कुमीक थियेटरवालों ने ऐसा चाहा।

चेचेनों ने अपने थियेटर में सबसे ज्यादा आसान रास्ता अपनाया। 'किसलिए हत्या कराई जाए,' उन्होंने तय किया, 'चोटी काटने या अंधा करने की भी क्या जरूरत है? पहाड़िन को जीने और मौज करने दो।'

तो इस तरह हर निर्देशक ने अपनी इच्छा और विचार के अनुसार नाटक को बदल दिया। मगर किसी ने भी उन्हें यह नहीं समझाया कि मेरी नायिका पर तरस खाते और उसकी जान बचाते हुए वे नाटक की हत्या कर रहे हैं और नाटककार की बात तो एक तरफ रही, दर्शकों के साथ भी अन्याय कर रहे हैं।

पिता जी ने एक बार वह अखबार मिलने पर जिसमें उनकी कविता छपी थी, हमसे कहा -

'लगता है कि मेरी कविता किन्हीं कसाइयों के हाथों में हो आई है। उसका कोई हिस्सा भी तो सही-सलामत नहीं बचा।'

महमूद... महमूद ने कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि उसके जीवनकाल में उसकी एक भी किताब नहीं छपी थी। पर यदि वह यह देख पाता कि इसी तरह के किसी संपादक ने उसकी कविताओं को कैसे बदल डाला है, तो वह दूसरी बार मर जाता।

आधुनिक कार में पहाड़ी पगडंडी पर जाना मुमकिन नहीं। अगर संपादकगण परलोक सिधार गए लेखकों को भी नहीं छोड़ते, तो भला मैं उनसे यह कैसे कह सकता हूँ कि वे मेरी रचना को न छुएँ?

मगर, मेरे संपादक , मैंने जो कुछ कहा है, उस सबको अपने ऊपर ही लागू नहीं कर लेना। मैं ऐसे संपादकों को भी जानता हूँ, जो बड़े समझदार और सुलझे हुए सलाहकारों के रूप में लेखक के पास आते हैं। मैं जानता हूँ कि तुम भी ऐसे ही हो। लगता है कि तुम्हारे साथ काम करने में बड़ा सुख और चैन मिलता है। तुम निश्चिंत रह सकते हो कि मैं अपनी पांडुलिपि के हाशिये में तुम्हारी खुशी व्यक्त करनेवाले विस्मयचिह्नों, तुम्हारी परेशानी जाहिर करनेवाले प्रश्न-चिह्नों और उन 'तीरों' की तरफ पूरा ध्यान दूँगा, जो यह जाहिर करेंगे कि पुस्तक को बेहतर बनाने के लिए तुम इंगित पंक्तियों को बदल देना चाहते हो।

मेरी किताब में संभवतः ऐसी पंक्तियाँ है, जो ढंग से कसी हुई नहीं हैं और पुराने सड़े हुए दाँत की तरह हिलती-डुलती हैं। संभवतः मैंने अपने को दोहराया भी है। तुमसे अनुरोध करता हूँ कि ऐसे स्थल खोज निकालो, उनके नीचे निशान लगा दो, उन्हें मुझे दिखाओ। एक सिर अच्छा होता है और डेढ़ बेहतर! मुझे आशा है कि हमारे तो एक जैसे अच्छे दो सिर और चार हाथ होंगे और हमारा काम खूब बढ़िया ढंग से चलेगा! कल झगड़ा करने के बजाय आज झड़प हो जाए तो ज्यादा अच्छा है। उम्र भर झगड़ते रहने के बजाय एक बार लड़ लेना बेहतर है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मेरी बहुत ज्यादा तारीफ नहीं करना।

किसी शिकारी ने इसलिए एक खरगोश की तारीफ की कि वह डरा नहीं और उछलकर खुले टीले पर सामने आ गया। शिकारी ने तो उस पर गोली भी नहीं चलाई। खरगोश को घमंड हो गया और वह किसी दूसरे शिकारी के सामने भी उसी तरह कूदकर टीले पर आ गया। मगर यह शिकारी दूसरे ढंग का था। आप आसानी से ही यह समझ सकते हैं कि इसका क्या नतीजा निकला होगा।

मैं जानता हूँ कि कुल मिलाकर तो तुम्हारा काम ऐसा है, जिसके लिए कोई भी तुम्हें धन्यवाद नहीं देता। पाठक जब किताब हाथ में लेता है, तो यह देखता है कि किसने उसे लिखा है, किसने उसके चित्र बनाए हैं, मगर वह यह कभी नहीं देखता कि उसका संपादक कौन है। बस, कुछ ऐसा ही ढंग है लोगों का!

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि कवि जनता का प्रवक्ता होता है। मगर पता चलता है कि कभी-कभी संपादक भी जनता की ओर से बोलता है। एक बार मैं संपादक के पास अपने दिल की रानी के बारे में एक प्रेम-गीत लेकर गया। संपादक ने उसे एक तरफ को रखते हुए कहा कि वह उसे नहीं छाप सकता।

'क्यों?'

'जनता इसे नहीं पढ़ेगी। जनता को तुम्हारी पत्नी से संबंधित कविता से क्या लेना-देना है!'

उसी वक्त मैंने यह चतुष्पदी लिखी -

तुझे समर्पित थी जो कविता, संपादक ने फिर ठुकराई,
कहा, तुम्हारी इस कविता को, जनता नहीं पढ़ेगी भाई
लेकिन हाँ, मेरी यह कविता, नहीं मुझे उसने लौटाई,
कहा, सुनाऊँगा पत्नी को, इतनी उसके मन पर छाई।

पिता जी कहा करते थे कि लेखक और कवि मोटर ड्राइवरों के समान होते हैं, जो कुल मिलाकर ढंग से मोटर चलाते रहते हैं, मगर कभी-कभी उनसे गलती भी हो जाती है और ये यातायात के नियमों का उल्लंघन कर जाते हैं। इस सिलसिले में संपादक मिलीशियामैनों के समान होते हैं। पिता जी ने कुछ देर सोचकर एक बार यह पूछा -

'तुम्हारा क्या ख्याल है, एक ड्राइवर के लिए तीन मिलीशियामैन कुछ ज्यादा नहीं हैं?'

मगर मिलीशियामैनों के बिना भी काम नहीं चल सकता। एक दावत में उपस्थित हर व्यक्ति के लिए बारी-बारी से जाम उठाया जाता था। वहाँ एक मिलीशियामैन भी था। दावत के तामादा (चौधरी) ने मिलीशियामैन के नाम का जाम उठाया। मगर तभी उपभोक्ता सहकारी समिति के अध्यक्ष ने, जो वहाँ हाजिर था, अपना जाम नीचे रखकर कहा -

'कम्युनिज्म में मिलीशियामैन नहीं होंगे। उनका कोई भविष्य नहीं है। किसलिए उसका जाम पिया जाए!'

मिलीशियामैन ने इसका यह जवाब दिया -

'कम्युनिज्म में मिलीशियामैन होंगे या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ उपभोक्ता सहकारी समिति होगी या नहीं।'

खैर, मजाक तो मजाक रहे, मेरे संपादक, आओ मैं तुम्हें यह बताऊँ कि कौन-से क्षण मुझे सबसे ज्यादा अच्छे लगते हैं? वे जब हम-तुम कागजों के ढेर के बीच काम की मेज पर नहीं, बल्कि ढंग से सजी हुई खाने की मेज पर बैठे होते हैं। हाँ, और वे सुखद क्षण भी बीत चुके हैं, जब तुम मेरी पांडुलिपि पर 'कंपोजिंग के लिए!' इसके बाद 'प्रेस के लिए!' और बाद में 'प्रकाशन के लिए!' लिखते हो। तुम्हारे इशारे के मुताबिक ही किताब की कंपोजिंग होती है, वह छपती है और पाठकों के हाथ में पहुँचती है। जरा ख्याल तो करो कि तुम कैसे शब्द लिखते हो - 'प्रकाशन के लिए!' केवल इसी के लिए तुम्हारे सारे गुनाह माफ किए जा सकते है। सिर्फ इसी के लिए जाम उठाया जा सकता है। जल्दी से ये शब्द लिख दो और मैं तुम्हें अपने हस्ताक्षर सहित पहली प्रति भेंट कर दूँगा।

निश्चय ही मैं यह चाहता हूँ कि वह वक्त जल्दी-से आ जाए, जब दुनिया में कोई भी रहस्य न रहे। मगर क्या हम उसे कवि कह सकते हैं, जो दुनिया के सामने किसी भी रहस्य का उदघाटन नहीं करता यानी वह नहीं बताता, जो उसे उसके पहले मालूम नहीं होता? मैं कवि हूँ और दुनिया में आकर दिक् और काल पर से ठीक वैसे ही पर्दा हटाता हूँ, जैसे दूल्हा दुलहन के मुँह पर से घूँघट हटाता है। शादी के वक्त केवल दूल्हे को ही ऐसा करने का अधिकार होता है और इसके बाद दुलहन का चेहरा सभी देख पाते हैं। केवल कवि ही जीवन में ऐसा करने में समर्थ है और लोगों का वास्तविकता से साक्षात्कार होता है, वे उसे देखकर आश्चर्यचकित होते हैं, उन्हें उन चीजों के बारे में हैरानी होती है, जिन्हें वे पहले नहीं देख पाए थे - संसार का सौंदर्य या मानवीय आत्मा का सौंदर्य, जो बुराई की शक्तियों का विरोध करते हैं।

संपादक, मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि बातूनियों को वह सब नहीं कहने दो, जो अनकहा ही रहना चाहिए, मगर उसे भी नहीं छिपाओ, जो मैं कवि के रूप में सामने ला रहा हूँ। मेरे बेल-बूटों, मेरी सजावट और मेरे नमूनों को संदेह की दृष्टि से नहीं देखो। अगर मेरे कालीन के बेल-बूटों में कहीं कोई गलती भी रह गई है, तो ऐसा न करना कि उस जगह पर स्याही फेर दो या उसे काट डालो। ऐसा करने से या तो वहाँ धब्बा पड़ जाएगा या सूराख हो जाएगा।

इसके अलावा, किसी विचार को इसलिए गलत नहीं कहना, कि वह तुम्हारे विचार जैसा नहीं है!

इसके अलावा, रोटी, चीनी, मक्खन और कीलों को तुला पर तोला जाता है, मगर प्यार को नहीं!

इसके अलावा, छींट, कमरे की ऊँचाई, कब की बाड़ को मीटरों में मापा जाता है, मगर सौंदर्य को नहीं!

इसके अलावा, जो सबसे ज्यादा समझदार बनने की कोशिश करता है, वह वास्तव में जितना मूर्ख होता है, उससे भी ज्यादा मूर्ख सिद्ध होता है!

इसके अलावा, मैं भी वयस्क हूँ और मुझ पर किसी बात के लिए थोड़ा-सा विश्वास तो करो!

मैं यह समझता हूँ कि एक आदमी के पास अधिक और दूसरे के पास कम रहस्य होते हैं, क्योंकि अबूतालिब ने कहा है कि अगर पानी सड़ जाए, तो चाहे वह घुटनों तक ही ऊँचा हो, तल दिखाई नहीं देगा।

नोटबुक से। जब मैं छोटा था, तो मुझे घर में सबसे ज्यादा बातूनी माना जाता था। बाहर गली में जो कुछ सुनता, वह जरूर ही घर पर कह सुनाता और जो कुछ घर पर सुनता, जरूर ही गली में जा सुनाता।

जब-तब एक बुजुर्ग मेरे पिता जी के पास आते। वे इधर-उधर नजर दौड़ाते और बड़े महत्वपूर्ण ढंग से फुसफुसाकर कहते -

'हमजात, तुमसे दूसरे कमरे में दो-चार बातें कर सकता हूँ?'

वे दूसरे कमरे में चले जाते और वहाँ कुछ खुसुर-फुसुर करते। कई बार ऐसा ही हुआ। बुजुर्ग एक बार फिर आए।

'हमजात, दूसरे कमरे में तुम से दो-चार बातें कर लूँ!'

'बस काफी हो चुका यह खेल!' पिता जी ने जवाब दिया। 'तुम छिपा-छिपाकर जो कुछ फुसफुसाते हो, उसे तो हमारे रसूल के सामने भी कहा जा सकता है। इसलिए जो कहना है, कहो और बिल्कुल नहीं डरो।'

हाँ, मुझे तो बचपन से ही रहस्य पसंद नहीं थे।

गीतों को खुलकर, ऊँची आवाज में और ऊँची जगह पर चढ़कर गाया जाता है ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग उन्हें सुन सकें।

इसके अलावा, अपने हर शब्द के लिए मैं ही जिम्मेदार नहीं हूँ। मेरा अनुवादक भी तो है।

अनुवादक

मैं अवार हूँ, अवार ही पैदा हुआ था और दूसरा कुछ नहीं बन सकता। आँख खोलते ही जिन लोगों को मैंने सबसे पहले देखा, वे भी अवार थे। पहले शब्द भी मैंने अवार भाषा ही के सुने। मेरे पालने पर झुककर मेरी माँ ने जो पहली लोरी गाई, वह भी अवार भाषा में ही थी। अवार भाषा मेरी मातृभाषा बन गई। मेरी ही क्यों, सभी अवार लोगों की यही सबसे मूल्यवान चीज है।

अवार लोगों की संख्या कुछ ज्यादा नहीं है, वे सिर्फ तीन लाख हैं। मगर यह संख्या कुछ कम भी नहीं है। दागिस्तान में उस भाषा के कवि भी हैं, जो सिर्फ दो हजार लोगों की भाषा है।

राज्य-सीमा लोगों को अलग करती है, मगर उनकी भाषाएँ उन्हें और भी अधिक अलग करती हैं। सीमाएँ तो बदल जाती हैं और कभी-कभी तो बिल्कुल खत्म हो जाती हैं या केवल औपचारिकता ही बनकर रह जाती हैं। मगर भाषा तो किसी जाति के लोगों को सदा-सदा के लिए मिलती है और उसे बदलना या मिटा देना मुमकिन नहीं।

उस जमाने की कल्पना करना भी मुश्किल है, जब अवार लोग पुश्किन से अनभिज्ञ थे, लेर्मोंतोव को नहीं पढ़ते थे, तोलस्तोय को नहीं जानते थे और चेखोव की रचनाओं का रस-पान नहीं करते थे।

पिता जी कहा करते थे कि यह हमारा बड़ा सौभाग्य है कि पहाड़ों में भी पुश्किन का पेड़ लग गया है। इस पेड़ को चाहे कितना ही क्यों न झाड़ो, उसके मीठे और रसीले फलों का कभी अंत ही नहीं होता।

अबूतालिब कहा करते थे कि उन्हें धन्यवाद देता हूँ, जिनकी बदौलत मेरे अँधेरे तलघर में प्यारे चेखोव पहुँचे! उनका भी शुक्रिया अदा करता हूँ, जो तलघर से मेरे गीतों को मास्को के क्रेम्लिन की दीवारों तक ले गए!

और मैं कहता हूँ कि काकेशिया ने जनरल के सामने नहीं, जवान लेफ्टीनेंट की कविताओं के सामने सिर झुकाया।

मेरे साथ एक बार एक अनोखी घटना घटी। दागिस्तान में मेरी कविताओं और खंड-काव्यों के रूसी अनुवाद का संकलन निकलनेवाला था। संपादक ने पांडुलिपि के पृष्ठ उलटे-पलटे और बोला -

'तुमने इसमें 'पोल्तावा' खंड-काव्य क्यों नहीं शामिल किया!'

'मगर वह तो मेरी रचना नहीं, पुश्किन की रचना है। मैंने तो अवार भाषा में उसका केवल अनुवाद किया है। पुश्किन के खंड-काव्य को रूसी भाषा के अपने संकलन में कैसे शामिल कर सकता हूँ!'

पर खैर, हम संपादक के प्रति कठोरता से काम नहीं लेंगे। वास्तव में दूसरी भाषाओं से अवार भाषा में अनूदित अच्छी रचनाओं के अवार लोग अपनी अवार रचनाओं की तरह ही अभ्यस्त हो गए हैं और उनके बिना हम अपने अवार साहित्य की कल्पना ही नहीं कर सकते।

मुझे मालूम है कि कभी-कभी मेरी पीठ-पीछे ऐसा कहा जाता है - 'अरे हाँ, रसूल है तो लायक आदमी, मगर बहुत नहीं। मास्कोवासी अनुवादकों ने उसके लिए बहुत कुछ किया है।'

मैं इससे इनकार नहीं करूँगा। सच तो यह है कि अगर अनुवादक न होते, तो मैं भी न होता।

पहली बात तो यह है कि उन्होंने मुझे हाइने, बर्न्स, शेक्सपीयर, शेख सादी, सेर्वांतेस, गेटे, डिकंस, लांगफेलो, हिटमैन और उन सभी से परिचित होने की संभावना दी, जिन्हें मैंने अपने जीवन में पढ़ा और जिनके बिना मैं लेखक ही न बन सकता।

दूसरे, इन अनुवादकों ने ही मेरी कविताओं के लिए मार्ग प्रशस्त किए। वे उन्हें तूफानी नदियों, ऊँचे पर्वतों, मोटी दीवारों, सीमा-चौकियों और सबसे मजबूत हदों - दूसरी भाषा की हदों, बहरेपन, अंधेपन और गूँगेपन की हदों के पार ले गए।

कभी-कभी मैं अपने से यह सवाल करता हूँ कि क्या चीज अधिक महत्वपूर्ण है - अनुवादक का मेरी भाषा जानना (चाहे मेरी कविता उसके लिए पराई हो) या यह कि वह मेरे काव्य को अपनी आत्मा, अपने हृदय से जाने-समझे और उसे अपना ही माने?

1937 में मखचकला में पुश्किन की कविता 'गाँव' के सर्वश्रेष्ठ अनुवाद की प्रतियोगिता आयोजित की गई। चालीस कवियों ने अवार भाषा में उसका अनुवाद किया। उनमें से अधिकांश रूसी भाषा जानते थे। फिर भी प्रथम पुरस्कार हमजात त्सादासा को मिला, जो उस समय तक रूसी भाषा बिल्कुल नहीं जानते थे।

यह जरूरी है कि अनुवादक भी कवि, लेखक, कलाकार हो। यह भी जरूरी है कि वह वह अपने को उसी तरह अपनी जनता का बेटा अनुभव करे, जैसे मैं अपने को अनुभव करता हूँ।

ऐसे रूसी हैं, जो अवार भाषा पढ़ सकते हैं, मगर हाय, वे कवि नहीं हैं। रूसी कवि तो हैं, मगर हाय, वे अवार भाषा नहीं जानते। तो क्या किया जाए? शब्दशः पंक्ति-अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है।

रूसी गाँवों में लट्ठों के घर को एक गाँव से दूसरे गाँव में कैसे ले जाया जाता है। मैंने यह देखा है। पूरे का पूरा झोंपड़ा ले जाना तो मुमकिन नहीं। उसके लट्ठे-कुंदे और तख्ते अलग करके दूसरी जगह ले जाए जाते हैं और फिर उन्हें वहाँ जोड़ा जाता है।

शब्दशः पंक्ति-अनुवाद भी झोंपड़ा ही है, जिसे दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए खंड-खंड किया जाता है। यह लट्ठों, तख्तों, छत की लोहे की चादरों और ईंटों का ढेर है। अनुवादक इस आकृतिहीन ढेर से नया झोंपड़ा बनाता है। अगर कोई लट्ठा गल-सड़ गया है, तो वह उसे बदल डालता है, अगर कोई तख्ता रास्ते में खो गया है, तो वह नया तख्ता लगा देता है। अगर खिड़की की नक्काशीवाली तख्ती का कोई बेल-बूटा खराब हो गया है, तो वह उसे ठीक-ठाक कर देता है।

खिड़कियों के शीशे साफ कर दिए जाते हैं, चूल्हे में आग जला दी जाती है ताकि चिमनियों में से धुआँ निकलने लगे, दरवाजे के पास बच्चे खेलने-कूदने लगते हैं और छत के नीचे अबाबीलें घोंसले बना लेती हैं।

शब्दशः पंक्ति-अनुवाद क्या है? वह व्यक्ति जिसकी आँखों की ज्योति जाती रही है और जिसके हृदय की धड़कन बंद हो गई है। मगर डॉक्टर आता है, सूई लगाता है, खून देता है, हृदय की मांसपेशियों की मालिश करता है और मानवीय शरीर में फिर से जीवन आ जाता है।

शब्दशः पंक्ति-अनुवाद क्या है? एक नाई ने मेरे बाल काटे, दाढ़ी बनाई, बालों को सँवारा और यह कहकर विदा किया -

'शब्दशः पंक्ति-अनुवाद के रूप में मेरे पास आए थे और अनुवाद बनकर जा रहे हो।'

चूँकि नाई का जिक्र आ ही गया है, तो लगे हाथों आपको एक घटना भी सुना देता हूँ।

यह घटना क्यूबा के सांतियागो शहर में घटी। मैं वहाँ पहुँचा ही था कि मैंने बाल कटवाने तथा दाढ़ी बनवाने का फैसला किया। मैं नाई के पास गया और संकेतों से उसे अपनी बात समझाई।

क्यूबा में दाढ़ी बनाते समय आरामकुर्सी में वैसे ही लिटा दिया जाता है जैसे कि पलंग पर। मुझे भी लिटा दिया गया। साबुन लगाया जाने लगा। जब तक क्यूबाई नाई के उस्तरे ने मेरे गालों को नहीं छुआ, सब कुछ ठीक-ठाक रहा। या तो उस्तरा बिल्कुल कुंद था या नाई निकम्मा था, कारण कुछ भी हो, मगर मैं तो दर्द के मारे बड़ी मुश्किल से ही अपनी चीख को रोक पा रहा था। कुछ देर तक तो मैंने दर्द बर्दाश्त किया और आखिर यह समझ गया कि पूरी दाढ़ी बनने तक मैं यह सहन नहीं कर सकूँगा। रूसी और अवार भाषा बोलते हुए मैं अपने गालों की ओर संकेत करने लगा। नाई घबरा गया, भागकर बाहर गया और थोड़ी देर बाद सफेद लबादा पहने एक व्यक्ति को साथ लिए हुए लौटा। इस व्यक्ति ने अपना बक्स खोला और दाँत निकालनेवाले औजार निकाल-निकालकर बाहर रखने लगा। दाढ़ी बनाने की आरामकुर्सी से मैं अचानक दाँतों के डॉक्टर की कुर्सी में बैठा नजर आया। तो यह नतीजा निकला मेरे और नाई के एक-दूसरे को न समझ पाने का। बस, अगर जरा-सी देर और हो जाती, तो मैं अपने अच्छे-भले दाँतों से हाथ धो बैठता।

अनुवादक अक्सर कविताओं के सारे दाँत निकाल डालते हैं और उन्हें सिसकारते-फुसकारते हुए पोपले मुँह के साथ दुनिया में घूमने के लिए भेज देते हैं।

नोटबुक से। जब हम विदेश जाते हैं, तो जातीय कारीगरी की कुछ चीजें भी इसलिए अपने साथ ले जाते हैं कि आतिथ्य-सत्कार के लिए किसी को उन्हें उपहारस्वरूप दे सकें। चुनांचे जब मैं जापान गया, तो बालखारी के कारीगरों के कलापूर्ण हाथों की बनी हुई कुछ सुरहियाँ अपने साथ ले गया। हिरोशिमा में एक चित्रकार-दंपति मेरे यहाँ मेहमान आए। हम बहुत देर तक बातें करते रहे और मानो दोस्त-से बन गए। 'अगर चित्रकारों को नहीं, तो और किसे मैं बालखारी की कलात्मक वस्तुएँ भेंट करूँगा,' मैंने मन-ही-मन सोचा। बड़े उत्साह से मैंने अपना सूटकेस खोला और तभी मेरा कलेजा धक से रह गया - मेरी सुराहियों के तो बस टुकड़े ही बाकी रह गए थे। ऐसा लगता था मानो उन पर हथौड़ा चलाया गया हो - ऐसे चकनाचूर हो गई थीं वे। बहुत मुमकिन है कि मास्को, भारत या टोकियो के हवाई अड्डे पर कुलियों ने मेरे सूटकेस को बहुत लापरवाही से फेंका हो। मुझे यह मालूम नहीं। मगर उस वक्त तो मैं यह चाहता था कि जमीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। कारण कि मैं उपहार देने की बात कह चुका था और जापानी चित्रकार-दंपति मेज के गिर्द उसकी प्रतीक्षा की मु्द्रा में बैठे थे। वे भी परेशानी से मेरी ओर देखने लगे, क्योंकि मैं तो सूटकेस के ऊपर बुत बना खड़ा रह गया था। न हिला-डुला और न मेरे मुँह से कोई शब्द ही फूटा।

आखिर मेरे जापानी मेहमान भी समझ गए कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। वे मेरे करीब आए और उन्होंने सुराहियों के टुकड़े देखे। उन्होंने दुखी होकर सिर हिलाया और कंधा थपथपाते हुए मुझे तसल्ली देने लगे। किसी दूसरे वक्त वे कभी कंधा न थपथपाते, क्योंकि वे बहुत ही सलीकेदार लोग हैं और घनिष्ठता जताना पसंद नहीं करते। इसका मतलब तो यही है कि मैं बहुत ही दुखी, बहुत ही परेशान हो उठा था।

मैंने अखबार में टुकड़े समेटे और उन्हें कूड़ेदान में डाल देना चाहा। मगर चित्रकारों ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया। उन्होंने बड़ी सावधानी से एक-एक टुकड़ा लपेटा और अपने घर ले गए।

कुछ दिनों बाद इन्हीं चित्रकार-दंपति ने मुझे अपने घर आमंत्रित किया। अपनी उन सुराहियों को मैंने जब सही-सलामत और ऐसी अच्छी हालत में पाया मानो वे अभी-अभी कुम्हार के चक्के से उतरी हों, तो मेरी हैरानी का कोई ठिकाना न रहा। मैं अब तक यह नहीं समझ पाता कि ऐसे चूरे को इतनी होशियारी से जोड़ना कैसे संभव था।

कहते हैं कि तड़क जानेवाली सुराही कभी साबुत नहीं हो पाती, हर हालत में उससे पानी रिसेगा। जापानी चित्रकारों द्वारा जोड़ी गई सुराहियों में हमने दागिस्तानी ब्रांडी भी डाली और जापानी साके भी डाली, मगर एक बूँद भी नहीं रिसी।

जापानी चित्रकारों को देखते हुए मुझे अपने श्रेष्ठ अनुवादकों का ध्यान हो आया। मेरी कविताओं के शब्दशः पंक्ति-अनुवाद टूटी सुराही के टुकड़ों जैसे लगते थे। बाद में उन्हें जोड़ा गया और वे नई-सी हो गई और उनके अवार बेल-बूटे भी ज्यों-की-त्यों उनकी शोभा बढ़ाते रहे।

जाहिर है कि अगर सुराही का हत्था नहीं है, तो अनुवादक को उसे लगाना नहीं चाहिए या एक की जगह दो तल नहीं बनाने चाहिए।

कुछ ही समय पहले दागिस्तान के प्रकाशनगृह ने 'हाजी मुराद' का अवार भाषा में नया अनुवाद प्रकाशित किया। मैं उसे पढ़ने लगा तो क्या देखा कि 'हाजी मुराद' के दो परिच्छेद बढ़ गए हैं। मैंने अनुवादक से पूछा -

'ये दो परिच्छेद कहाँ से आ गए?'

'बात यह है कि तोलस्तोय ने तो यह लघु-उपन्यास अक्तूबर क्रांति से पहले लिखा था। इसलिए उसमें कुछ गलत दृष्टिकोण हैं। इसके अलावा, पाठकों को हाजी-मुराद के सिर और वंशजों के भविष्य के बारे में बताना भी जरूरी था।'

नोटबुक से। पिता जी की एक कविता का रूसी में अनुवाद किया गया। अनुवादक संभवतः कच्चा था। पिता जी ने रूसी और अवार भाषा जाननेवाले एक आदमी से अनुवाद का फिर से अनुवाद करके उसका सार बताने को कहा। जब ऐसा किया गया, तो पिता जी ने हैरानी से कहा -

'मेरा बेटा लंबे सफर से लौटा है और मैं उसे पहचान नहीं पाया। नहीं, ऐसे कायाकल्प से तो यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि मेरे बच्चे यहीं पहाड़ों में बैठे रहें।'

हाँ, कविताओं के अनुवाद उन बेटों के समान होते हैं, जिन्हें माँ-बाप पढ़ने या काम करने के लिए गाँव से भेजते हैं। बेशक हर हालत में ही बेटे उसी रूप में गाँव नहीं लौटते, जिस रूप में वे घर छोड़कर जाते हैं।

बेटा कुछ पाकर या गँवाकर, डिप्लोमा लेकर या अदालत में पेशी भुगतकर, तगड़ा या कमजोर और बीमार होकर, विद्वान या औरतबाज का नाम पैदा करके, सभी रिश्तेदारों के लिए कीमती तोहफे लेकर या अपने कपड़े तक खोकर घर लौट सकता है।

मैं भी अपनी किताब को बड़े शहरों और लोगों में भेज रहा हूँ। अजनबी जगहों पर उसका कैसा रंग-ढंग रहेगा? क्या वह अपनी जनता, अपने तौर-तरीकों को भूल जाएगी?

मैं यह अच्छी तरह समझता हूँ कि पहाड़ पर बैठा बुरा आदमी (यामान) केवल इसलिए अच्छा आदमी (याक्शी) नहीं बन जाएगा कि वह घाटी में उतर आया है। इसलिए मैं अपनी पुस्तक के अनुवादक से अनुरोध करता हूँ कि अगर वह 'यामान' है, तो उसे वैसा ही रहने दीजिए। अगर मैं लंगड़ा और अंधा हूँ, तो मेरी बाँह पकड़कर मुझे मेरे घर से बाहर नहीं ले जाइए, मुझे अपने चूल्हे के पास, अपनी दहलीज पर ही बैठा रहनी दीजिए। मेरे ताँबे के बर्तनों पर कलई नहीं कीजिए, मेरी चाँदी पर सोने का मुलम्मा नहीं चढ़ाइए।

अबूतालिब ने यह बात सुनाई।

'मेरा एक बेटा और एक बेटी है। बेटी बहुत अच्छी है, बड़ी अनुशासित है और दूसरों के लिए मिसाल मानी जाती है। मगर बेटा शरारती और नटखट है। बेटी की रेडियो पर चर्चा होती है, अखबारों में उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है, क्योंकि वह अग्रणी कामगारिन है। बेटे के बारे में कभी स्कूल से तो कभी मिलीशिया के दफ्तर से शिकायतें आती हैं। बेटी के संबंध में यह कहा जाता है कि स्कूल, पायनियर संगठन, युवा कम्युनिस्ट संघ और देश ने उसका शिक्षण किया, उसे इतना अच्छा बनाया। मगर बेटे के बारे में यह कहा जाता है कि जन-कवि अबूतालिब ने उसे बड़े बुरे ढंग से पाला-पोसा है।'

यह किस्सा सुनकर मैंने सोचा कि कविताओं के अनुवाद के संबंध में भी ऐसी ही बात होती है। अनुवाद अच्छे होने पर मूल रचयिता की प्रशंसा की जाती है और यह भुला दिया जाता है कि अनुवादक कौन है। अगर अनुवाद बुरे होते हैं, तो अनुवादक को कोसा जाता है और मूल रचयिता का नाम बचा जाने की कोशिश की जाती है।

नहीं, मेरे अनुवादक-मित्र, भले-बुरे की जिम्मेदारी हम दोनों एक साथ अपने ऊपर लेंगे। हम दोनों का एक ही छकड़ा है। आओ, मिल-जुलकर उसे पहाड़ पर चढ़ाएँ और अपनी-अपनी दिशा में न खींचें। नहीं तो छकड़ा और उसके साथ-साथ हम दोनों भी जहाँ-के-तहाँ ही बने रहेंगे।

हमारे इलाके में एक अद्भुत घटना घटी। एक बड़ा पहाड़ अचानक अपनी जगह से हिला और नीचे की तरफ खिसक चला। वह मोचोख गाँव से थोड़ी दूर इधर की पहाड़ी नदी को रोककर रुक गया। भेड़ों के रेवड़ चरवाहे, चरवाहों के अलाव और उनके झोंपड़े किसी भी तरह की हानि के बिना बड़े शांत ढंग से पहाड़ के साथ-साथ नीचे आ गए। अब वह ज्यों-का-त्यों खड़ा है, मगर उसके दामन में झील बन गई है। और झील में ट्राउट मछलियाँ पाली जाती हैं। जब तक यह पहाड़ अपनी पुरानी जगह पर खड़ा था, कोई उस पर नहीं चढ़ता था। पर अब उसके इर्द-गिर्द हमेशा यात्रियों, अभियान-दलों, मछुओं और सैर-सपाटे के लिए आए स्कूली बालकों को देखा जा सकता है।

मैं चाहता हूँ कि मेरी किताब भी किसी तरह की हानि के बिना नई भाषा में पहुँच जाए। वह भी बाद में उसी तरह लोगों को अपनी तरफ खींचे जैसे मोचोख गाँव के पासवाला पहाड़। मुसलमानों में यह कहा जाता है कि जन्म के वक्त जैसी लकीरें पड़ जाती हैं, वैसा ही होकर रहता है। यह संभवतः इस रूसी कहावत - मेरे मन कुछ और है, साईं के मन कुछ और - के अनुरूप ही है। या और भी अधिक संक्षिप्त रूप से यों कहा जा सकता है - किस्मत का लिखा होकर रहेगा।

आलोचक

उसके बारे में लिखना सबसे ज्यादा मुश्किल काम है। अगर उसे भला-बुरा कहा जाए, तो यह समझा जाएगा कि हजरत उसकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से तिलमिला उठे हैं और बदला ले रहे हैं। अगर तारीफ करें, तो यह सोचा जाएगा कि भविष्य को ध्यान में रखते हुए चापलूसी हो रही है।

पिता जी कहा करते थे कि वे और आलोचक दोनों ही कवि हैं। मैं कविताएँ लिखता हूँ और वह मेरी कविताओं के बारे में लिखता है।

अबूतालिब ने कहा है एक दागिस्तानी आलोचक से -

'मैं अंगूरों की शराब बनाता हूँ और तुम उसका जायका चखते हो।'

आलोचक के बारे में अपने विचार प्रकट नहीं करूँगा, मगर उसे कुछ सलाहें देना चाहता हूँ।

1. बुरे को हमेशा बुरा और अच्छे को अच्छा कहो।

2. जिस चीज की तारीफ करते हो, बाद में उसी को बुरा नहीं कहो। अगर बुरा कहते हो, तो बाद में तारीफ नहीं करो।

3. राई को पहाड़ नहीं बनाओ और पहाड़ को राई बनाने की तो और भी कम कोशिश करो।

4. किताब में जो कुछ है, उसकी चर्चा करो, न कि उसकी, जो नहीं है।

5. अपने विचारों की पुष्टि के लिए बेलीन्स्की से शुरू करके सभी विद्वानों को उद्धृत नहीं करो। अगर ये विचार वास्तव में तुम्हारे ही हैं, तो अपनी ही अक्ल से उन्हें पुष्ट करने की कोशिश करो।

6. स्पष्ट विचारों को स्पष्ट और समझ में आनेवाली भाषा में व्यक्त करो। अस्पष्ट विचारों को व्यक्त ही नहीं करो।

7. हवा के रुख के साथ बदलनेवाले बादनुमा नहीं बनो।

8. जो कुछ अभी खुद नहीं समझते, उसके बारे में दूसरों को उपदेश देने की कोशिश नहीं करो।

9. अगर तुम्हारी जेब में सौ रूबल नहीं हैं, तो ऐसा ढोंग नहीं करो कि मानो वे तुम्हारे पास हैं।

10. अगर तुम बहुत अर्से से अपने गाँव नहीं गए और तुम्हें यह मालूम नहीं कि वहाँ क्या हाल-चाल है, तो यह दावा नहीं करो कि तुम अभी-अभी अपने गाँव से लौटे हो।

मेरी इन अभिलाषाओं में कुछ नई बात नहीं है। वे गुना की तालिका की पहली पंक्ति के समान हैं। फिर भी अगर हमारा हर आलोचक इन पर ईमानदारी से अमल करे, तो हमारी आलोचना कहीं अधिक अच्छी हो सकती है।

पाठक

मैंने संपादक, प्रकाशक, अनुवादक और आलोचक से तो बातचीत कर ली। अब सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति, जिसके लिए सभी किताबें लिखी जाती हैं, उस पाठक से कुछ शब्द कहना चाहता हूँ।

पाठक, मेरे मित्र! निश्चय ही तुम्हारी अपनी मनपसंद किताबें हैं। हम लेखकों की भी ऐसी किताबें हैं। कहा जाता है कि लेखक की प्रमुखतम पुस्तक वह है, जो वह अभी लिख नहीं पाया, मगर लिखेगा जरूर। मालूम नहीं कि बाकी लेखकों के बारे में यह कहाँ तक ठीक है, मगर मेरे संबंध में तो सोलह आने सही है।

हाँ, मैं एक जमाने से अपनी मातृभूमि के बारे में एक किताब लिखने का सपना देख रहा हूँ। बहुत अर्से से यह विचार मेरे दिमाग में घूम रहा है, मगर उसे किसी तरह भी अमली शक्ल नहीं दे पाया। संभव है कि प्रतिभा की कमी है, मुमकिन है कि हर दिन की दौड़-धूप इसमें रूकावट डालती है, या सब्र की कमी है या फिर हिम्मत साथ नहीं देती।

जैसे-जैसे वक्त गुजरता है, वैसे-वैसे खुद अपने और पाठक के सामने जिम्मेदारी का एहसास बढ़ता जाता है। हर विचार को लिख डालने के लिए हाथ लेखनी की तरफ बेधड़क नहीं बढ़ पाता। मातृभूमि के बारे में किताब, सभी किताबों से ज्यादा जिम्मेदारी का काम है।

यह किताब मैंने अभी तक लिखी तो नहीं, मगर मैंने उसके बारे में सोचा बहुत है और अब मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि यह कैसी होनी चाहिए। इस किताब - अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण किताब - के बारे में अपने विचारों को ही लिख डालने का आखिर मैंने निर्णय किया।

यह कोट नहीं, कोट का कपड़ा है। यह कालीन नहीं, कालीन के लिए धागे ही हैं। यह गीत नहीं, केवल हृदय की धड़कन है, जिससे गीत का जन्म होगा।

कहते हैं कि अगर तुमने प्रार्थना नहीं की, पर इतना सोच ही लिया कि प्रार्थना करना बुरा नहीं, तो इसी की बदौलत नरक में जाने से बच जाओगे।

कहते हैं कि दोस्त के पास जो कुछ है, दोस्त को उसी से खुशी होती है। अगर दोस्त के घर में सिर्फ बूजा ही है, तो क्या मेहमान दोस्त इसलिए नाराज हो जाएगा कि विदेशी शराबों से, जो न तो घर में और न आसपास ही कहीं पर हैं, उसकी खतिरदारी नहीं की गई?

कहते हैं कि अगर तुमने कोई नेकी नहीं की, तो इसके लिए भी शुक्रिया कि ऐसा करने का इरादा रखते थे।

पाठक, मेरे मित्र, हर पुस्तक तुम्हारे लिए ही लिखी जाती है। मैं प्रकाशक को अपनी बात का यकीन दिला सकता हूँ, संपादकों और आलोचकों से बहस कर सकता हूँ। मगर तुम्हारा फैसला ही असली और आखिरी होता है। जजों की भाषा में, उसके खिलाफ अपील नहीं हो सकती।

लेखक तो तुमसे भेंट करने के लिए ही जीता है। मेरे समूचे जीवन में तीन तरह की परेशानियाँ लगातार बनी रही हैं। तुमसे भेंट होने के पहले मैं प्रतीक्षा में और यह अनुमान लगाते हुए परेशान होता रहता हूँ कि हमारी यह भेंट कैसी रहेगी। फिर भेंट के समय मुझे परेशानी होती रहती है, जो कि स्वाभाविक है और समझ में आ सकती है। अंत में मैं भेंट की हर तफसील को याद करते और यह अंदाज लगाते हुए परेशान होता रहता हूँ कि मैंने कैसा प्रभाव छोड़ा।

अपने पाठकों के तरह-तरह के चेहरे मुझे दिखाई देते हैं। कुछ के माथों पर बल पड़ गए हैं। भला मैं ऐसे शब्द कहाँ से लाऊँ कि उनके ये बल दूर हो जाएँ? दूसरों ने ऐसा मुँह बना लिया है मानों कोई बदजायका और अटपटी चीज उसके मुँह में चली गई हो। तीसरों के चेहरे पर ऊब का भाव है, जो सबसे अधिक भयानक और निराशाजनक चीज है।

पहाड़ी लोगों से पूछा गया - किसलिए आप इतनी दूर और दुर्गम पहाड़ों में अपने गाँव बसाते हैं? आप तक पहुँचना लगभग असंभव और साथ ही खतरनाक भी है - पगडंडियाँ खड्डों के सिरों पर हैं, ऊपर से पत्थ्ार और चट्टानें टूटकर गिर सकती हैं। पहाड़ी लोगों ने जवाब दिया, 'अच्छे दोस्त तो सभी तरह के खतरों का सामना करते हुए मुश्किल रास्तों से भी हम तक पहुँच जाएँगे और बुरे दोस्तों की हमें जरूरत नहीं।'

पाठक, मेरे मित्र, मेरी उम्र चवालीस साल है। इस उम्र में आदमी को हर तरह की जिम्मेदारी के काम सौंपे जा सकते हैं। इस उम्र में लेखक को अपने हर शब्द के लिए जवाबदेह होना चाहिए।

अगर मेरी किताब में तुम्हें कोई ऐसा विचार मिले, जो किसी दूसरी किताब में रैन-बसेरा कर चुका है, तो उसे अपने दिमाग से ऐसे ही निकाल फेंकना, जेसे कभी पहाड़ों में सुहागरात के बाद उस दुलहन को निकाल दिया जाता था, जिसने उस रात तक अपनी इज्जत को बचाकर नहीं रखा होता था।

अगर मेरी पुस्तक में तुम्हें कोई सही विचार मिले, तो उसके नीचे रेखा खींच देना। अगर कोई गलत विचार मिले, तो दो रेखाएँ खींच देना।

अगर तुम्हें इसमें रत्ती भर भी झूठ मिले, तो किताब को ही फौरन दूर फेंक देना - यह कौड़ी काम की नहीं।

विदा लेने से पहले एक किस्सा और सुनाए देता हूँ।

अमीर खान, उसके बेटे और भेड़ की मोटी दुम के लहसुनवाले खीनकालों का किस्सा। कहते हैं कि अवारिस्तान में कभी एक बहुत ही अमीर रहता था। बेटे की तमन्ना में उसने तीन बार शादी की, मगर एक भी बीवी ने न सिर्फ वारिस ही पैदा किया, बल्कि खान को बेटी तक का मुँह देखना न नसीब हुआ। चुनांचे उसे चौथी शादी करनी पड़ी।

आखिर खान के यहाँ बेटा हुआ। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। ढोल-नगाड़े और तुरहियाँ-नफीरियाँ बजाई गईं, खूब नाच-गाना हुआ। तीन दिन और तीन रातों तक दावतें उड़ती रहीं।

मगर खान के आलीशान महल में बहुत अर्से तक यह खुशी न बनी रह सकी। बेटा बीमार हो गया और उसकी बीमारी किसी की भी समझ में न आई। कैसी भी लोरियाँ क्यों न गाई जातीं, मगर उसकी आँख न लगती। कितनी भी बढ़िया खुराक उसे क्यों न गाई जातीं, मगर उसकी आँख न लगती। कितनी भी बढ़िया खुराक उसे क्यों न दी जाती, वह कुछ भी न खाता-पीता। सब समझने लगे कि अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। न तो विदेशों से बुलाए गए हकीम-वैद्य, न हिंदुस्तानी गंडे-तावीज और न तिब्बती जड़ी-बूटियाँ ही खान के इकलौते बेटे को तंदुरुस्त कर सकीं। बेटे की मौत शायद खान की मौत भी होती।

पड़ोस के गाँव से एक मामूली गरीब आदमी खान के पास आया। उसे तो कोई आदमी भी मानने को तैयार न था। उसने कहा कि वह वारिस को बचा सकता है। खान के अमीर-उमरा ने उसे भगा देना चाहा, मगर खान ने उन्हें ऐसा करने से रोका। 'बेटा तो यों भी मर ही जाएगा,' उसने मन में सोचा, 'इसका इलाज भी आजमाकर देख लेने में क्या हर्ज है?'

'मेरे बेटे की जान बचाने के लिए तुम्हें किस चीज की जरूरत है?'

'मुझे तुम्हारी बीवी से एकांत में कुछ बात करनी होगी।'

'क्या कहा? मेरी बीवी के साथ एकांत में? तुम्हारा दिमाग चल निकला है! दफा हो जाओ मेरी आँखों के सामने से!'

गरीब आदमी मुड़ा और चल दिया। खान ने सोचा, 'बेटा तो यों भी मर ही जाएगा। अगर वह मेरी बीवी से एकांत में बात कर लेगा, तो मेरा इससे क्या बिगड़ जाएगा?'

'ए गरीब आदमी, लौट आओ, हमने अपना ख्याल बदल लिया है। हम तुम्हें अपनी बीवी से बात करने की इजाजत देते हैं।'

गरीब आदमी और खान की बीवी जब अकेले रह गए, तो गरीब आदमी ने पूछा - 'तुम यह चाहती हो कि तुम्हारा बेटा जिंदा और तंदुरुस्त रहे?'

खान की बीवी ने कोई जवाब देने के बजाय उसके सामने घुटने टेक दिए और मिन्नत-समाजत करने लगी।

'तो मुझे यह बता दो कि इसका असली बाप कौन है?'

खान की बीवी ने घबराकर इधर-उधर नजर दौड़ाई।

'डरो नहीं। हमारी बातचीत हमारे साथ ही कब्र में जाएगी। नहीं तो तुम्हारा बेटा जिंदा नहीं रहेगा।'

'खान को बेटे की बड़ी चाह थी। मैं जानती थी कि अगर बेटा पैदा नहीं करूँगी तो मुझे भी उसकी पहली बीवियों की तरह निकाल दिया जाएगा। इसलिए मैं पहाड़ पर गई और वहाँ एक मामूली नौजवान चरवाहे के साथ मैंने रात बिताई। उसके बाद ही खान के वारिस का जन्म हुआ...'

'ओ ऊँचे नामवाले खान,' इस बातचीत के बाद तथाकथित हकीम ने कहा, 'मैं जानता हूँ कि तुम्हारा बेटा कैसे बच सकता है। इसी घड़ी से उसका पालना ऐसे अलाव के पास रखवा देना चाहिए जैसे कि चरवाहे पहाड़ों में जलाते हैं। उसके पालने में भेड़ की खाल बिछाई जाए और उसे ऐसी खुराक दी जाए जैसी कि तुम्हारे चरवाहे खाते हैं।'

'मगर... मगर वे तो भेड़ की मोटी दुम के लहसुनवाले खीनकाल खाते हैं। मेरा यह नन्हा-सा वारिस भला उन्हें कैसे खाएगा...'

गरीब आदमी मुड़ा और चल दिया। 'बेटा तो यों भी मर जाएगा,' खान ने सोचा और तश्तरी में खीनकाल लाने का हुक्म दिया।

खान की बीवी अपने हाथों से उन्हें तैयार करने लगी। उसने उसी तरह खीनकाल तैयार किए जैसे पहाड़ों में बिताई गई रात के पहले, जो उसके जीवन की सबसे प्यारी रात थी, नौजवान चरवाहे के लिए तैयार किए थे। उसने बेटे के सामने वैसे ही लकड़ी की तश्तरी रखी जैसे तब नौजवान चरवाहे के सामने रखी थी।

खीनकाल बड़े-बड़े पत्थरों जैसे बड़े और गोल-गोल थे। भेड़ों की उबली हुई मोटी दुमों से चर्बी चू रही थी। नजदीक ही गागर में पहाड़ी चश्मे का पानी रख दिया गया।

जैसे ही लहसुन और उबली चर्बी की गंध वारिस की नाक में पहुँची, उसने आँखें खोल दीं, उठकर बैठ गया और अचानक दोनों हाथों से सबसे बड़ा खीनकाल उठा लिया। इसी क्षण से पिता की ताकत बेटे की रगों में दौड़ने लगी। वह भूखे बबर की तरह खीनकालों को हड़पने लगा। वह दिनों के बजाय घंटों में बढ़ने लगा और जल्द ही गठा हुआ खूबसूरत जवान बन गया। उसकी बीमारी का तो नाम-निशान ही बाकी न रहा।

शायद ऐसी घटना कभी न घटी हो, मगर मैं एक बात जानता हूँ कि साहित्य जब अपने बाप-दादों की खुराक छोड़कर पराये, बढ़िया विदेशी भोजनों के फेर में पड़ जाता है, जब वह अपनी जनता की परंपराओं और रीति-रिवाजों, भाषा और मिजाज से नाता तोड़ लेता है, उसके साथ विश्वासघात करता है, तो वह बीमार हो जाता है, उसका दम निकलने लगता है और कोई भी दवाई उसे बचा नहीं पाती।

मेरे ख्याल में बस, इन शब्दों के साथ ही मैं अपनी इस किताब को खत्म करूँगा। गर्मी के एक गर्म दिन मैंने इसे शुरू किया था और अब ठिठुरी हुई पतझर है। इसे शुरू किया था एक पहाड़ी गाँव में और खत्म कर रहा हूँ एक बड़े, भीड़-भड़क्केवाले नगर में। पहली पंक्ति तड़के ही लिखी थी, मगर अब आधी रात होनेवाली है और शहर में भी सब बत्तियाँ बुझती जा रही हैं।

मैं लंबे सफर से लौटा हूँ। गाँव के छोर पर मैं घोड़े से नीचे उतर गया हूँ। उसकी लगाम थामकर मैं उसे लंबी और टेढ़ी-मेढ़ी गली में से ले गया हूँ। अब तो यही ठीक होगा कि घोड़े का जीन उतारा जाए, उसकी गर्दन थपथपाई जाए और उसे चरने के लिए खुले मैदान में छोड़ दिया जाए।

मेरे ख्याल में मैं खुद तो आग के पास बैठकर सिगरेट जलाऊँगा और उसके कश लगाऊँगा। कहते हैं कि खुद अल्लाह भी अपनी कोई नसीहत भरी कहानी सुनाने के बाद तंबाकूनोशी करता है। वह सिगरेट जलाता है, कश खींचता है और सोच में डूब जाता है।

आइए हम भी सोंचे। हर मंजिल खुशी बनकर नहीं आती। हर किताब कामयाब नहीं रहती। नई सुबह होने पर नई किताब शुरू करूँगा, नए सफर पर निकलूँगा।

फिलहाल तो मैं सफर करता-करता थक गया हूँ। अपना बड़ा नमदे का लबादा ओढ़कर मैं सोने जा रहा हूँ। शुभरात्रि, भले लोगो! सलाम-दुआ से ही मैंने इसे शुरू किया था और सलाम-दुआ के साथ ही खत्म करता हूँ। वासलाम, वाकलाम, अमीन!

  • मेरा दाग़िस्तान : खंड-दो (रूसी उपन्यास) : रसूल हमज़ातोव
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