माघ अमावस्या पर ढेले का टोटका (कहानी) : गोनू झा

Magh Amavasya Par Dhele Ka Totaka (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

गोनू झा के गाँव में एक बार चोरों का एक गिरोह सक्रिय हो गया । गोनू झा के घर से भी कुछ सामानों की चोरी हो गई । गोनू झा ने उस दिन ही संकल्प ले लिया कि जब तक वे चोरों को सबक न सिखा दें तब तक चैन की साँस नहीं लेंगे।

माघ का महीना ! कड़ाके की ठंड ! शाम होते- होते गाँव में धुंध सा छा जाता और सुबह सूर्योदय के घंटों बाद भी घना कोहरा पूरे गाँव पर छाया रहता। लोग शाम होते ही या तो घूरे को घेरकर आग तापने के लिए बैठ जाते या फिर अपनी रजाइयों में दुबक जाते । गाँव की सड़कें प्रायः शाम ढलने के बाद निर्जन सी हो जातीं । चोरों को माघ का महीना अपने लिए करिश्माई महीना लगने लगा था । रोज गाँव के किसी न किसी घर में चोरी होती । रोज चोरों की कारिस्तानी का शिकार हुए घर में कोहराम मचता और जब आवाज गोनू झा तक पहुँचती तो उनका संकल्प और – दृढ़ होता जाता और वे विचार -मंथन करने बैठ जाते कि क्या करें कि चोरों को काबू में लिया जा सके ।

गोनू झा ने गाँव में हुई चोरियों के बारे में जानकारियाँ जुटाईं तो इस तथ्य का उद्घाटन हुआ कि अधिकांश चोरियाँ रात नौ बजे से ग्यारह बजे के बीच या सुबह ढाई बजे से चार बजे के बीच हुई हैं । गोनू झा ने इसका अर्थ निकाला कि जाड़े की रात में आम तौर पर गाँव के घरों में लोग दरवाजे पर अलाव जलाकर सपरिवार आग तापने के लिए बैठते हैं या फिर घर के किसी कमरे में बोरसी में आग रखकर सपरिवार हाथ सेंकने बैठते हैं । चोर या तो इस समय अपने हाथ की सफाई दिखाते हैं या फिर सुबह में जब बिस्तर गर्म हो जाता है तब रजाइयों में लिपटे लोगों को गहरी नींद आ चुकी होती है, चोर उस समय उनकी नींद का लाभ उठाकर अपने काम को अंजाम देते हैं ।

अब, जब यह रहस्य गोनू झा ने खोज लिया तब प्रायः वे शाम को दरबार से लौटते समय गाँव के किसी स्थान पर लगे अलाव के पास हाथ सेंकने के लिए बैठ जाते । धीरे- धीरे चोरों को पता चल गया कि गोनू झा शाम में घर नहीं लौटते । कई बार तो रात के दस -ग्यारह, यहाँ तक कि बारह बजे तक उनका पता नहीं रहता । फिर क्या था ! चोरों ने फिर से गोनू झा के घर को निशाना बना लिया और वहाँ से बड़ा हाथ मारने की तैयारी में जुट गए ।

अमावस की रात थी । गोनू झा गाँव के मुखिया के दरवाजे से आग तापकर अलमस्ती में गुनगुनाते हुए अपने घर आए । दरवाजे पर उन्होंने कुछ अटपटी आवाज सुनी तो उन्होंने आवाज की दिशा में देखना शुरू किया । उनके घर के पिछवाड़े बगीचा था जिसमें आम, लीची, कटहल, अमरूद आदि अनेक फलदार वृक्ष लगे हुए थे। और सफाई नहीं कराए जाने के कारण घनी झाडियाँ फैली थीं । आहट उन्हीं घनी झाड़ियों की ओर से आ रही थी ।

गोनू झा ने एक बड़ा सा रोड़ा उठाकर आवाज की दिशा में निशाना साधकर फेंका तो झाडियों में सरसराहट हुई । गोनू झा को समझते देर न लगी कि झाडियों में कोई छुपा हुआ है । फिर क्या था ! उन्होंने ऊँची आवाज में अपनी पत्नी को आवाज दी । जब पंडिताइन घर से बाहर निकली तब गोनू झा ने कहा “पंडिताइन ! देख, इधर-उधर बहुत ढेला होगा। एक सौ आठ ढेला चुन के लाओ। आज माघ अमावस्या की रात है । आज की मध्य रात्रि तक घर के दक्षिण दिशा में एक सौ आठ ढेले फेंके जाएँ तो घर के लोगों पर यदि किसी ग्रह का दुष्प्रभाव पड़ने वाला हो तो स्वतः दूर हो जाता है। जाओ, देर न करो। थोड़ी ही देर में रात का दूसरा पहर गुजर जानेवाला है।"

पंडिताइन वहाँ से बुदबुदाती हुई गई । कच्ची नींद से जगी थी सो खीज गई थी । पंडिताइन जब एक ढेला लेकर आई तो गोनू झा ने ढेला अपने हाथ में लेते हुए कहा “अरे भाग्यवान ! कुढ़ना बाद में । तुम्हें इस काम का महत्त्व नहीं मालूम इसलिए गुस्सा कर रही हो । जाओ, जितनी जल्दी हो, अँचरा में ढेला भर-भर के यहाँ रखती जाओ, मैं खुद गिन -गिनकर ढेला फेकूँगा। ढेला फेंकने के समय मंत्र भी पढ़ना होता है । कुछ भी ऐसा मत करना जिससे मुझे गुस्सा आए।"

पंडिताइन झुंझलाती हुई गई और अपने आँचल में कुछ रोड़े लेकर आई । गोनू झा के सामने उन रोड़ों को पटकते हुए बोली-“लोगों का उम्र बढ़ता है तो दिमाग समझदार होता है और एक ई हैं कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ बेदिमाग होते जा रहे हैं सारा ज्ञान खूटा में टाँग के जोग -टोंग और टोना -टोटका करने में लगे हैं । आधी रात होने को आई और ये हैं कि खाना- पीना त्याग के ग्रह- दशा सुधारने के काम में लगे हुए हैं ।"

गोनू झा ने पत्नी की झुंझलाहट पर ध्यान नहीं दिया और अंधेरे में निशाना साध -साधकर ढेला फेंकते रहे ।

पत्नी दो -तीन चक्कर ढेला ढोने के बाद हाँफने लगी और बोली-“अब मैं नहीं जाती ढेला चुनने । क्या बेकार के काम में लगे हुए हो ! जाओ, हाथ-मुँह धो लो और चल के खाना खा लो । भला ढेला फेंकने से कहीं किसी की ग्रह-दशा सुधरी है !"

गोनू झा ने डपटते हुए कहा, " शुभ-शुभ बोलो भाग्यवान! तुम तो केवल ढेला ढोने में थक रही हो । आखिर मैं जो कर रहा हूँ वह पूरे घर की भलाई के लिए ही तो कर रहा हूँ।"

पंडिताइन का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। वह लगभग फुँकारते हुए बोली-“मैं अब ढेला-रोड़ा नहीं चुनूँगी। तुम्हें ग्रह-दशा सुधारनी है तो खुद जाओ और चुनकर लाओ ढेला-रोड़ा और फेंकते रहो रात भर घर के दक्खिन में ।"

गोनू झा भी तेवर में आ गए । एक ढेला हाथ में लेकर निशाना साधते हुए उन्होंने बगीचे में फेंका। ढेला इधर किसी को छप्प से लगा। झाड़ी थोड़ी हिली और शान्त हो गई । गोनू झा की आँखें अब तक अँधेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं और अपने लक्ष्य पर टिकी थीं । दूसरा ढेला हाथ में तोलते हुए उन्होंने कहा -"जाओ, ढेला लेकर आओ। अब मन्त्र सधने लगा है । कोई विघ्न मत डालो।"

पंडिताइन अड़ी हुई थी कि वह ढेला चुनने के लिए कतई नहीं जाएगी। नौबत यह आई कि गोनू झा निशाना साधकर एक ढेला फेंकते और पत्नी को कोसने लगते – “हे भगवान ! यह कैसा कलयुग आ गया कि पत्नी अपने पति की बात नहीं मानती । पति तो मिथिलांचल की महिलाओं के लिए परमेश्वर होता था ...”

पंडिताइन गोनू झा के गुस्से से बेपरवाह अड़ी थी कि वह अब ढेला नहीं चुनेगी । गोनू झा के स्यापा से वह और भड़की और मुँह लगा जवाब देने लगी । दोनों का तू- तू, मैं -मैं धीरे-धीरे चीख-चिल्लाहट में बदलने लगा। गोनू झा चीख रहे थे -" जा-जा ।"

पंडिताइन चीखती-“नहीं जाती । नहीं लाती ।"

गोनू झा चीखते-“दे।”

पंडिताइन चीखती-“नहीं देती ।"

दोनों की चीख-चिल्लाहट से पड़ोसियों की नींद खुली । वे यह देखने के लिए कि गोनू झा और उसकी पत्नी क्यों चीख रहे हैं-हाथ में लाठी और मशाल लिए अपने घरों से निकल आए। गोनू झा ने देखा कि पास-पड़ोस के लोग उनके घर पहुँच गए हैं तब उन्होंने कहा -” आइए भाइयो । देखिए कलयुग का नजारा । ये मेरी धर्मपत्नी हैं पतिव्रता नारी । इनको मैंने इधर -उधर से एक सौ आठ ढेला चुनकर लाने को कहा तो चालीस- पचास ढेला लाने के बाद अपना पतिव्रत धर्म त्यागकर पति से मुँह लगाने लगीं और उधर देखिए..." उन्होंने बगीचे की ओर इशारा करते हुए कहा -" वहाँ वह भाई साहब हैं जो चालीस -पचास ढेला खाने के बाद भी एक शब्द नहीं बोले ।"

बगीचे में छुपा चोर अब समझ गया था कि गोनू झा ढेला उसी को निशाना साधकर मार रहे थे। वह वहाँ से भागने की कोशिश करने के लिए उठा लेकिन मशाल और लाठी से लैस गोनू के पड़ोसियों के आगे उसकी एक न चली । अन्ततः लोगों ने उसे दबोच लिया । गोनू झा उसके पास आए और उसका चेहरा देखते हुए कहने लगे, अरे ! भाई। ढेलों से चोट जरूर लगी होगी । अब जाओ हवालात में । ये लोग तुम्हारी मरहम पट्टी का इन्तजाम कर देंगे।" चोर को हवालात भेजने के बाद गोनू झा ने अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और बोले, “ढेला ढोने से हाथ दुख रहा होगा चल दबा दूं।"

पंडिताइन जो कि इस तरह घटनाक्रमों में आए नाटकीय परिवर्तन से घबरा गई थी, बोली -" न पंडित जी । हाथ नहीं दुख रहा। मैं असल में समझी नहीं थी कि तुम क्या कर रहे हो इसलिए गुस्सा आ गया ।"

गोनू झा हँसते हुए पंडिताइन का कंधा थपथपाते हुए घर की ओर चले गए।

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